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dil-ne-vafaa-ke-naam-par-kaar-e-vafaa-nahiin-kiyaa-jaun-eliya-ghazals
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं किया ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया जो भी हो तुम पे मो'तरिज़ उस को यही जवाब दो आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया निस्बत इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़त को अज़ीज़ उस ने तो कार-ए-जहल भी बे-उलमा नहीं किया जिस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार हम ने नहीं क्या वो काम हाँ ब-ख़ुदा नहीं किया
apne-sab-yaar-kaam-kar-rahe-hain-jaun-eliya-ghazals
अपने सब यार काम कर रहे हैं और हम हैं कि नाम कर रहे हैं तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं है वो बेचारगी का हाल कि हम हर किसी को सलाम कर रहे हैं एक क़त्ताला चाहिए हम को हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं क्या भला साग़र-ए-सिफ़ाल कि हम नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को और वो एहतिराम कर रहे हैं न उठे आह का धुआँ भी कि वो कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं उस के होंटों पे रख के होंट अपने बात ही हम तमाम कर रहे हैं हम अजब हैं कि उस के कूचे में बे-सबब धूम-धाम कर रहे हैं
aap-apnaa-gubaar-the-ham-to-jaun-eliya-ghazals
आप अपना ग़ुबार थे हम तो याद थे यादगार थे हम तो पर्दगी हम से क्यूँ रखा पर्दा तेरे ही पर्दा-दार थे हम तो वक़्त की धूप में तुम्हारे लिए शजर-ए-साया-दार थे हम तो उड़े जाते हैं धूल के मानिंद आँधियों पर सवार थे हम तो हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया सख़्त बे-ए'तिबार थे हम तो शर्म है अपनी बार बारी की बे-सबब बार बार थे हम तो क्यूँ हमें कर दिया गया मजबूर ख़ुद ही बे-इख़्तियार थे हम तो तुम ने कैसे भुला दिया हम को तुम से ही मुस्तआ'र थे हम तो ख़ुश न आया हमें जिए जाना लम्हे लम्हे पे बार थे हम तो सह भी लेते हमारे ता'नों को जान-ए-मन जाँ-निसार थे हम तो ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने बे-तरह नागवार थे हम तो तुम ने हम को भी कर दिया बरबाद नादिर-ए-रोज़गार थे हम तो हम को यारों ने याद भी न रखा 'जौन' यारों के यार थे हम तो
saare-rishte-tabaah-kar-aayaa-jaun-eliya-ghazals
सारे रिश्ते तबाह कर आया दिल-ए-बर्बाद अपने घर आया आख़िरश ख़ून थूकने से मियाँ बात में तेरी क्या असर आया था ख़बर में ज़ियाँ दिल ओ जाँ का हर तरफ़ से मैं बे-ख़बर आया अब यहाँ होश में कभी अपने नहीं आऊँगा मैं अगर आया मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया वो जो दिल नाम का था एक नफ़र आज मैं इस से भी मुकर आया मुद्दतों बा'द घर गया था मैं जाते ही मैं वहाँ से डर आया
be-qaraarii-sii-be-qaraarii-hai-jaun-eliya-ghazals
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है वस्ल है और फ़िराक़ तारी है जो गुज़ारी न जा सकी हम से हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है निघरे क्या हुए कि लोगों पर अपना साया भी अब तो भारी है बिन तुम्हारे कभी नहीं आई क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन साँस जो चल रही है आरी है उस से कहियो कि दिल की गलियों में रात दिन तेरी इंतिज़ारी है हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो हम हैं और उस की यादगारी है इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी मैं ये समझा तिरी सवारी है हादसों का हिसाब है अपना वर्ना हर आन सब की बारी है ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी उम्र भर की उमीद-वारी है
ham-jii-rahe-hain-koii-bahaana-kiye-bagair-jaun-eliya-ghazals
हम जी रहे हैं कोई बहाना किए बग़ैर उस के बग़ैर उस की तमन्ना किए बग़ैर अम्बार उस का पर्दा-ए-हुरमत बना मियाँ दीवार तक नहीं गिरी पर्दा किए बग़ैर याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर उस का है जो भी कुछ है मिरा और मैं मगर वो मुझ को चाहिए कोई सौदा किए बग़ैर ये ज़िंदगी जो है उसे मअना भी चाहिए वा'दा हमें क़ुबूल है ईफ़ा किए बग़ैर ऐ क़ातिलों के शहर बस इतनी ही अर्ज़ है मैं हूँ न क़त्ल कोई तमाशा किए बग़ैर मुर्शिद के झूट की तो सज़ा बे-हिसाब है तुम छोड़ियो न शहर को सहरा किए बग़ैर उन आँगनों में कितना सुकून ओ सुरूर था आराइश-ए-नज़र तिरी पर्वा किए बग़ैर याराँ ख़ुशा ये रोज़ ओ शब-ए-दिल कि अब हमें सब कुछ है ख़ुश-गवार गवारा किए बग़ैर गिर्या-कुनाँ की फ़र्द में अपना नहीं है नाम हम गिर्या-कुन अज़ल के हैं गिर्या किए बग़ैर आख़िर हैं कौन लोग जो बख़्शे ही जाएँगे तारीख़ के हराम से तौबा किए बग़ैर वो सुन्नी बच्चा कौन था जिस की जफ़ा ने 'जौन' शीआ' बना दिया हमें शीआ' किए बग़ैर अब तुम कभी न आओगे या'नी कभी कभी रुख़्सत करो मुझे कोई वा'दा किए बग़ैर
kis-se-izhaar-e-muddaaa-kiije-jaun-eliya-ghazals
किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे आप मिलते नहीं हैं क्या कीजे हो न पाया ये फ़ैसला अब तक आप कीजे तो क्या किया कीजे आप थे जिस के चारा-गर वो जवाँ सख़्त बीमार है दुआ कीजे एक ही फ़न तो हम ने सीखा है जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजे है तक़ाज़ा मिरी तबीअ'त का हर किसी को चराग़-पा कीजे है तो बारे ये आलम-ए-असबाब बे-सबब चीख़ने लगा कीजे आज हम क्या गिला करें उस से गिला-ए-तंगी-ए-क़बा कीजे नुत्क़ हैवान पर गराँ है अभी गुफ़्तुगू कम से कम किया कीजे हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-अफ़्शाँ नाम अपना सबा सबा कीजे ज़िंदगी का अजब मोआ'मला है एक लम्हे में फ़ैसला कीजे मुझ को आदत है रूठ जाने की आप मुझ को मना लिया कीजे मिलते रहिए इसी तपाक के साथ बेवफ़ाई की इंतिहा कीजे कोहकन को है ख़ुद-कुशी ख़्वाहिश शाह-बानो से इल्तिजा कीजे मुझ से कहती थीं वो शराब आँखें आप वो ज़हर मत पिया कीजे रंग हर रंग में है दाद-तलब ख़ून थूकूँ तो वाह-वा कीजे
aish-e-ummiid-hii-se-khatra-hai-jaun-eliya-ghazals
ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है दिल को अब दिल-दही से ख़तरा है है कुछ ऐसा कि उस की जल्वत में हमें अपनी कमी से ख़तरा है जिस के आग़ोश का हूँ दीवाना उस के आग़ोश ही से ख़तरा है याद की धूप तो है रोज़ की बात हाँ मुझे चाँदनी से ख़तरा है है अजब कुछ मोआ'मला दरपेश अक़्ल को आगही से ख़तरा है शहर-ए-ग़द्दार जान ले कि तुझे एक अमरोहवी से ख़तरा है है अजब तौर हालत-ए-गिर्या कि मिज़ा को नमी से ख़तरा है हाल ख़ुश लखनऊ का दिल्ली का बस उन्हें 'मुसहफ़ी' से ख़तरा है आसमानों में है ख़ुदा तन्हा और हर आदमी से ख़तरा है मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है आज भी ऐ कनार-ए-बान मुझे तेरी इक साँवली से ख़तरा है उन लबों का लहू न पी जाऊँ अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है 'जौन' ही तो है 'जौन' के दरपय 'मीर' को 'मीर' ही से ख़तरा है अब नहीं कोई बात ख़तरे की अब सभी को सभी से ख़तरा है
sar-hii-ab-phodiye-nadaamat-men-jaun-eliya-ghazals
सर ही अब फोड़िए नदामत में नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर सोचता हूँ तिरी हिमायत में रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया जिस्म को जिस्म की अदावत में अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है रूह शामिल नहीं शिकायत में इश्क़ को दरमियाँ न लाओ कि मैं चीख़ता हूँ बदन की उसरत में ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम रूठते अब भी हैं मुरव्वत में वो जो ता'मीर होने वाली थी लग गई आग उस इमारत में ज़िंदगी किस तरह बसर होगी दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब यही मुमकिन था इतनी उजलत में फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में और फिर आदमी ने ग़ौर किया छिपकिली की लतीफ़ सनअ'त में ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में
dil-kii-takliif-kam-nahiin-karte-jaun-eliya-ghazals
दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते अब कोई शिकवा हम नहीं करते जान-ए-जाँ तुझ को अब तिरी ख़ातिर याद हम कोई दम नहीं करते दूसरी हार की हवस है सो हम सर-ए-तस्लीम ख़म नहीं करते वो भी पढ़ता नहीं है अब दिल से हम भी नाले को नम नहीं करते जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
ab-kisii-se-miraa-hisaab-nahiin-jaun-eliya-ghazals
अब किसी से मिरा हिसाब नहीं मेरी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं ख़ून के घूँट पी रहा हूँ मैं ये मिरा ख़ून है शराब नहीं मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन तू मिरी आस है सराब नहीं नोच फेंके लबों से मैं ने सवाल ताक़त-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब और ख़ुद जैसा अब दो-आब नहीं ग़म अबद का नहीं है आन का है और इस का कोई हिसाब नहीं बूदश इक रू है एक रू या'नी इस की फ़ितरत में इंक़लाब नहीं
aaj-lab-e-guhar-fishaan-aap-ne-vaa-nahiin-kiyaa-jaun-eliya-ghazals
आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया तज़्किरा-ए-ख़जिस्ता-ए-आब-ओ-हवा नहीं किया कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया जाने तिरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे मैं ने तिरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है या'नी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया हाँ वो निगाह-ए-नाज़ भी अब नहीं माजरा-तलब हम ने भी अब की फ़स्ल में शोर बपा नहीं किया
kitne-aish-se-rahte-honge-kitne-itraate-honge-jaun-eliya-ghazals
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे
jii-hii-jii-men-vo-jal-rahii-hogii-jaun-eliya-ghazals
जी ही जी में वो जल रही होगी चाँदनी में टहल रही होगी चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र अब वो कपड़े बदल रही होगी सो गई होगी वो शफ़क़-अंदाम सब्ज़ क़िंदील जल रही होगी सुर्ख़ और सब्ज़ वादियों की तरफ़ वो मिरे साथ चल रही होगी चढ़ते चढ़ते किसी पहाड़ी पर अब वो करवट बदल रही होगी पेड़ की छाल से रगड़ खा कर वो तने से फिसल रही होगी नील-गूँ झील नाफ़ तक पहने संदलीं जिस्म मल रही होगी हो के वो ख़्वाब-ए-ऐश से बेदार कितनी ही देर शल रही होगी
ab-vo-ghar-ik-viiraana-thaa-bas-viiraana-zinda-thaa-jaun-eliya-ghazals
अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था थीं वो घर रातें भी कहानी वा'दे और फिर दिन गिनना आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था दस्तक देने वाले भी थे दस्तक सुनने वाले भी था आबाद मोहल्ला सारा हर दरवाज़ा ज़िंदा था पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था
khuub-hai-shauq-kaa-ye-pahluu-bhii-jaun-eliya-ghazals
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी मैं भी बरबाद हो गया तू भी हुस्न-ए-मग़मूम तमकनत में तिरी फ़र्क़ आया न यक-सर-ए-मू भी ये न सोचा था ज़ेर-ए-साया-ए-ज़ुल्फ़ कि बिछड़ जाएगी ये ख़ुश-बू भी हुस्न कहता था छेड़ने वाले छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी याद आते हैं मो'जिज़े अपने और उस के बदन का जादू भी यासमीं उस की ख़ास महरम-ए-राज़ याद आया करेगी अब तू भी याद से उस की है मिरा परहेज़ ऐ सबा अब न आइयो तू भी हैं यही 'जौन-एलिया' जो कभी सख़्त मग़रूर भी थे बद-ख़ू भी
siina-dahak-rahaa-ho-to-kyaa-chup-rahe-koii-jaun-eliya-ghazals
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी अब मुझ को ए'तिमाद की दावत न दे कोई मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
haalat-e-haal-ke-sabab-haalat-e-haal-hii-gaii-jaun-eliya-ghazals
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई तेरा फ़िराक़ जान-ए-जाँ ऐश था क्या मिरे लिए या'नी तिरे फ़िराक़ में ख़ूब शराब पी गई तेरे विसाल के लिए अपने कमाल के लिए हालत-ए-दिल कि थी ख़राब और ख़राब की गई उस की उमीद-ए-नाज़ का हम से ये मान था कि आप उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई बा'द भी तेरे जान-ए-जाँ दिल में रहा अजब समाँ याद रही तिरी यहाँ फिर तिरी याद भी गई उस के बदन को दी नुमूद हम ने सुख़न में और फिर उस के बदन के वास्ते एक क़बा भी सी गई मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम जम-ब-जम नाफ़-पियाले की तिरे याद अजब सही गई कहनी है मुझ को एक बात आप से या'नी आप से आप के शहर-ए-वस्ल में लज़्ज़त-ए-हिज्र भी गई सेहन-ए-ख़याल-ए-यार में की न बसर शब-ए-फ़िराक़ जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गई
zindagii-kyaa-hai-ik-kahaanii-hai-jaun-eliya-ghazals
ज़िंदगी क्या है इक कहानी है ये कहानी नहीं सुनानी है है ख़ुदा भी अजीब या'नी जो न ज़मीनी न आसमानी है है मिरे शौक़-ए-वस्ल को ये गिला उस का पहलू सरा-ए-फ़ानी है अपनी तामीर-ए-जान-ओ-दिल के लिए अपनी बुनियाद हम को ढानी है ये है लम्हों का एक शहर-ए-अज़ल याँ की हर बात ना-गहानी है चलिए ऐ जान-ए-शाम आज तुम्हें शम्अ इक क़ब्र पर जलानी है रंग की अपनी बात है वर्ना आख़िरश ख़ून भी तो पानी है इक अबस का वजूद है जिस से ज़िंदगी को मुराद पानी है शाम है और सहन में दिल के इक अजब हुज़न-ए-आसमानी है
be-dilii-kyaa-yuunhii-din-guzar-jaaenge-jaun-eliya-ghazals
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं सब बिछड़ जाएँगे सब बिखर जाएँगे ये ख़राबातियान-ए-ख़िरद-बाख़्ता सुब्ह होते ही सब काम पर जाएँगे कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे है ग़नीमत कि असरार-ए-हस्ती से हम बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएँगे
chalo-baad-e-bahaarii-jaa-rahii-hai-jaun-eliya-ghazals
चलो बाद-ए-बहारी जा रही है पिया-जी की सवारी जा रही है शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से तमन्ना की अमारी जा रही है फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-दिल-ओ-जाँ मिरी हालत सुधारी जा रही है है पहलू में टके की इक हसीना तिरी फ़ुर्क़त गुज़ारी जा रही है जो इन रोज़ों मिरा ग़म है वो ये है कि ग़म से बुर्दबारी जा रही है है सीने में अजब इक हश्र बरपा कि दिल से बे-क़रारी जा रही है मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ वो क्या शय है जो हारी जा रही है दिल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ मियाँ इज़्ज़त हमारी जा रही है है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा मिरी फ़रियाद मारी जा रही है वो याद अब हो रही है दिल से रुख़्सत मियाँ प्यारों की प्यारी जा रही है दरेग़ा तेरी नज़दीकी मियाँ-जान तिरी दूरी पे वारी जा रही है बहुत बद-हाल हैं बस्ती तिरे लोग तो फिर तू क्यूँ सँवारी जा रही है तिरी मरहम-निगाही ऐ मसीहा ख़राश-ए-दिल पे वारी जा रही है ख़राबे में अजब था शोर बरपा दिलों से इंतिज़ारी जा रही है
sharmindagii-hai-ham-ko-bahut-ham-mile-tumhen-jaun-eliya-ghazals
शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं ग़म तो ये है कि तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें है जो हमारा एक हिसाब उस हिसाब से आती है हम को शर्म कि पैहम मिले तुम्हें तुम को जहान-ए-शौक़-ओ-तमन्ना में क्या मिला हम भी मिले तो दरहम ओ बरहम मिले तुम्हें अब अपने तौर ही में नहीं तुम सो काश कि ख़ुद में ख़ुद अपना तौर कोई दम मिले तुम्हें इस शहर-ए-हीला-जू में जो महरम मिले मुझे फ़रियाद जान-ए-जाँ वही महरम मिले तुम्हें देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़्गाँ की मैं दुआ मतलब ये है कि दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें मैं उन में आज तक कभी पाया नहीं गया जानाँ जो मेरे शौक़ के आलम मिले तुम्हें तुम ने हमारे दिल में बहुत दिन सफ़र किया शर्मिंदा हैं कि उस में बहुत ख़म मिले तुम्हें यूँ हो कि और ही कोई हव्वा मिले मुझे हो यूँ कि और ही कोई आदम मिले तुम्हें
aakhirii-baar-aah-kar-lii-hai-jaun-eliya-ghazals
आख़िरी बार आह कर ली है मैं ने ख़ुद से निबाह कर ली है अपने सर इक बला तो लेनी थी मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है दिन भला किस तरह गुज़ारोगे वस्ल की शब भी अब गुज़र ली है जाँ-निसारों पे वार क्या करना मैं ने बस हाथ में सिपर ली है जो भी माँगो उधार दूँगा मैं उस गली में दुकान कर ली है मेरा कश्कोल कब से ख़ाली था मैं ने इस में शराब भर ली है और तो कुछ नहीं किया मैं ने अपनी हालत तबाह कर ली है शैख़ आया था मोहतसिब को लिए मैं ने भी उन की वो ख़बर ली है
umr-guzregii-imtihaan-men-kyaa-jaun-eliya-ghazals
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या मेरी हर बात बे-असर ही रही नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं यही होता है ख़ानदान में क्या अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं हम ग़रीबों की आन-बान में क्या ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से आ गया था मिरे गुमान में क्या शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़ तू नहाती है अब भी बान में क्या बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में आबले पड़ गए ज़बान में क्या ख़ामुशी कह रही है कान में क्या आ रहा है मिरे गुमान में क्या दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या वो मिले तो ये पूछना है मुझे अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या यूँ जो तकता है आसमान को तू कोई रहता है आसमान में क्या है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता एक ही शख़्स था जहान में क्या
tuu-bhii-chup-hai-main-bhii-chup-huun-ye-kaisii-tanhaaii-hai-jaun-eliya-ghazals
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है हम ने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे पागल कुछ तो सोच ये तू ने कैसी शक्ल बनाई है इशक़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम इश्क़ का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है आज बहुत दिन बा'द मैं अपने कमरे तक आ निकला था जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
ham-to-jaise-vahaan-ke-the-hii-nahiin-jaun-eliya-ghazals
हम तो जैसे वहाँ के थे ही नहीं बे-अमाँ थे अमाँ के थे ही नहीं हम कि हैं तेरी दास्ताँ यकसर हम तिरी दास्ताँ के थे ही नहीं उन को आँधी में ही बिखरना था बाल ओ पर आशियाँ के थे ही नहीं अब हमारा मकान किस का है हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं हो तिरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम हम तिरे आस्ताँ के थे ही नहीं हम ने रंजिश में ये नहीं सोचा कुछ सुख़न तो ज़बाँ के थे ही नहीं दिल ने डाला था दरमियाँ जिन को लोग वो दरमियाँ के थे ही नहीं उस गली ने ये सुन के सब्र किया जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं
apnaa-khaaka-lagtaa-huun-jaun-eliya-ghazals
अपना ख़ाका लगता हूँ एक तमाशा लगता हूँ आईनों को ज़ंग लगा अब मैं कैसा लगता हूँ अब मैं कोई शख़्स नहीं उस का साया लगता हूँ सारे रिश्ते तिश्ना हैं क्या मैं दरिया लगता हूँ उस से गले मिल कर ख़ुद को तन्हा तन्हा लगता हूँ ख़ुद को मैं सब आँखों में धुँदला धुँदला लगता हूँ मैं हर लम्हा इस घर से जाने वाला लगता हूँ क्या हुए वो सब लोग कि मैं सूना सूना लगता हूँ मस्लहत इस में क्या है मेरी टूटा फूटा लगता हूँ क्या तुम को इस हाल में भी मैं दुनिया का लगता हूँ कब का रोगी हूँ वैसे शहर-ए-मसीहा लगता हूँ मेरा तालू तर कर दो सच-मुच प्यासा लगता हूँ मुझ से कमा लो कुछ पैसे ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ मैं ने सहे हैं मक्र अपने अब बेचारा लगता हूँ
ek-hii-muzhda-subh-laatii-hai-jaun-eliya-ghazals
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है धूप आँगन में फैल जाती है रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं मेज़ पर गर्द जमती जाती है सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर अब किसे रात भर जगाती है मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ बे-दिली भी तो लब हिलाती है सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है आप अपने से हम-सुख़न रहना हम-नशीं साँस फूल जाती है क्या सितम है कि अब तिरी सूरत ग़ौर करने पे याद आती है कौन इस घर की देख-भाल करे रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
aadmii-vaqt-par-gayaa-hogaa-jaun-eliya-ghazals
आदमी वक़्त पर गया होगा वक़्त पहले गुज़र गया होगा वो हमारी तरफ़ न देख के भी कोई एहसान धर गया होगा ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ आज हर शख़्स मर गया होगा शाम तेरे दयार में आख़िर कोई तो अपने घर गया होगा मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा
ghar-se-ham-ghar-talak-gae-honge-jaun-eliya-ghazals
घर से हम घर तलक गए होंगे अपने ही आप तक गए होंगे हम जो अब आदमी हैं पहले कभी जाम होंगे छलक गए होंगे वो भी अब हम से थक गया होगा हम भी अब उस से थक गए होंगे शब जो हम से हुआ मुआ'फ़ करो नहीं पी थी बहक गए होंगे कितने ही लोग हिर्स-ए-शोहरत में दार पर ख़ुद लटक गए होंगे शुक्र है इस निगाह-ए-कम का मियाँ पहले ही हम खटक गए होंगे हम तो अपनी तलाश में अक्सर अज़ समा-ता-समक गए होंगे उस का लश्कर जहाँ-तहाँ या'नी हम भी बस बे-कुमक गए होंगे 'जौन' अल्लाह और ये आलम बीच में हम अटक गए होंगे
gaahe-gaahe-bas-ab-yahii-ho-kyaa-jaun-eliya-ghazals
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या तुम से मिल कर बहुत ख़ुशी हो क्या मिल रही हो बड़े तपाक के साथ मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या याद हैं अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें मुझ से मिल कर उदास भी हो क्या बस मुझे यूँही इक ख़याल आया सोचती हो तो सोचती हो क्या अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या क्या कहा इश्क़ जावेदानी है! आख़िरी बार मिल रही हो क्या हाँ फ़ज़ा याँ की सोई सोई सी है तो बहुत तेज़ रौशनी हो क्या मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या दिल में अब सोज़-ए-इंतिज़ार नहीं शम-ए-उम्मीद बुझ गई हो क्या इस समुंदर पे तिश्ना-काम हूँ मैं बान तुम अब भी बह रही हो क्या
khud-apne-dil-men-kharaashen-utaarnaa-hongii-mohsin-naqvi-ghazals
ख़ुद अपने दिल में ख़राशें उतारना होंगी अभी तो जाग के रातें गुज़ारना होंगी तिरे लिए मुझे हँस हँस के बोलना होगा मिरे लिए तुझे ज़ुल्फ़ें सँवारना होंगी तिरी सदा से तुझी को तराशना होगा हवा की चाप से शक्लें उभारना होंगी अभी तो तेरी तबीअ'त को जीतने के लिए दिल ओ निगाह की शर्तें भी हारना होंगी तिरे विसाल की ख़्वाहिश के तेज़ रंगों से तिरे फ़िराक़ की सुब्हें निखारना होंगी ये शाइ'री ये किताबें ये आयतें दिल की निशानियाँ ये सभी तुझ पे वारना होंगी
jab-se-us-ne-shahr-ko-chhodaa-har-rasta-sunsaan-huaa-mohsin-naqvi-ghazals
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ अपना क्या है सारे शहर का इक जैसा नुक़सान हुआ ये दिल ये आसेब की नगरी मस्कन सोचूँ वहमों का सोच रहा हूँ इस नगरी में तू कब से मेहमान हुआ सहरा की मुँह-ज़ोर हवाएँ औरों से मंसूब हुईं मुफ़्त में हम आवारा ठहरे मुफ़्त में घर वीरान हुआ मेरे हाल पे हैरत कैसी दर्द के तन्हा मौसम में पत्थर भी रो पड़ते हैं इंसान तो फिर इंसान हुआ इतनी देर में उजड़े दिल पर कितने महशर बीत गए जितनी देर में तुझ को पा कर खोने का इम्कान हुआ कल तक जिस के गिर्द था रक़्साँ इक अम्बोह सितारों का आज उसी को तन्हा पा कर मैं तो बहुत हैरान हुआ उस के ज़ख़्म छुपा कर रखिए ख़ुद उस शख़्स की नज़रों से उस से कैसा शिकवा कीजे वो तो अभी नादान हुआ जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बे-कार समझते थे उन अश्कों से कितना रौशन इक तारीक मकान हुआ यूँ भी कम-आमेज़ था 'मोहसिन' वो इस शहर के लोगों में लेकिन मेरे सामने आ कर और भी कुछ अंजान हुआ
ham-jo-pahunche-sar-e-maqtal-to-ye-manzar-dekhaa-mohsin-naqvi-ghazals
हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा सब से ऊँचा था जो सर नोक-ए-सिनाँ पर देखा हम से मत पूछ कि कब चाँद उभरता है यहाँ हम ने सूरज भी तिरे शहर में आ कर देखा ऐसे लिपटे हैं दर-ओ-बाम से अब के जैसे हादसों ने बड़ी मुद्दत में मिरा घर देखा अब ये सोचा है कि औरों का कहा मानेंगे अपनी आँखों पे भरोसा तो बहुत कर देखा एक इक पल में उतरता रहा सदियों का अज़ाब हिज्र की रात गुज़ारी है कि महशर देखा मुझ से मत पूछ मिरी तिश्ना-लबी के तेवर रेत चमकी तो ये समझो कि समुंदर देखा दुख ही ऐसा था कि 'मोहसिन' हुआ गुम-सुम वर्ना ग़म छुपा कर उसे हँसते हुए अक्सर देखा
azaab-e-diid-men-aankhen-lahuu-lahuu-kar-ke-mohsin-naqvi-ghazals
अज़ाब-ए-दीद में आँखें लहू लहू कर के मैं शर्मसार हुआ तेरी जुस्तुजू कर के खंडर की तह से बुरीदा-बदन सरों के सिवा मिला न कुछ भी ख़ज़ानों की आरज़ू कर के सुना है शहर में ज़ख़्मी दिलों का मेला है चलेंगे हम भी मगर पैरहन रफ़ू कर के मसाफ़त-ए-शब-ए-हिज्राँ के बा'द भेद खुला हवा दुखी है चराग़ों की आबरू कर के ज़मीं की प्यास उसी के लहू को चाट गई वो ख़ुश हुआ था समुंदर को आबजू कर के ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा अभी तो सोए थे मक़्तल को सुर्ख़-रू कर के जुलूस-ए-अहल-ए-वफ़ा किस के दर पे पहुँचा है निशान-ए-तौक़-ए-वफ़ा ज़ीनत-ए-गुलू कर के उजाड़ रुत को गुलाबी बनाए रखती है हमारी आँख तिरी दीद से वुज़ू कर के कोई तो हब्स-ए-हवा से ये पूछता 'मोहसिन' मिला है क्या उसे कलियों को बे-नुमू कर के
zakhm-ke-phuul-se-taskiin-talab-kartii-hai-mohsin-naqvi-ghazals
ज़ख़्म के फूल से तस्कीन तलब करती है बाज़ औक़ात मिरी रूह ग़ज़ब करती है जो तिरी ज़ुल्फ़ से उतरे हों मिरे आँगन में चाँदनी ऐसे अँधेरों का अदब करती है अपने इंसाफ़ की ज़ंजीर न देखो कि यहाँ मुफ़्लिसी ज़ेहन की फ़रियाद भी कब करती है सेहन-ए-गुलशन में हवाओं की सदा ग़ौर से सुन हर कली मातम-ए-सद-जश्न-ए-तरब करती है सिर्फ़ दिन ढलने पे मौक़ूफ़ नहीं है 'मोहसिन' ज़िंदगी ज़ुल्फ़ के साए में भी शब करती है
khumaar-e-mausam-e-khushbuu-had-e-chaman-men-khulaa-mohsin-naqvi-ghazals
ख़ुमार-ए-मौसम-ए-ख़ुश्बू हद-ए-चमन में खुला मिरी ग़ज़ल का ख़ज़ाना तिरे बदन में खुला तुम उस का हुस्न कभी उस की बज़्म में देखो कि माहताब सदा शब के पैरहन में खुला अजब नशा था मगर उस की बख़्शिश-ए-लब में कि यूँ तो हम से भी क्या क्या न वो सुख़न में खुला न पूछ पहली मुलाक़ात में मिज़ाज उस का वो रंग रंग में सिमटा किरन किरन में खुला बदन की चाप निगह की ज़बाँ भी होती है ये भेद हम पे मगर उस की अंजुमन में खुला कि जैसे अब्र हवा की गिरह से खुल जाए सफ़र की शाम मिरा मेहरबाँ थकन में खुला कहूँ मैं किस से निशानी थी किस मसीहा की वो एक ज़ख़्म कि 'मोहसिन' मिरे कफ़न में खुला
ashk-apnaa-ki-tumhaaraa-nahiin-dekhaa-jaataa-mohsin-naqvi-ghazals
अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता अब्र की ज़द में सितारा नहीं देखा जाता अपनी शह-ए-रग का लहू तन में रवाँ है जब तक ज़ेर-ए-ख़ंजर कोई प्यारा नहीं देखा जाता मौज-दर-मौज उलझने की हवस बे-मा'नी डूबता हो तो सहारा नहीं देखा जाता तेरे चेहरे की कशिश थी कि पलट कर देखा वर्ना सूरज तो दोबारा नहीं देखा जाता आग की ज़िद पे न जा फिर से भड़क सकती है राख की तह में शरारा नहीं देखा जाता ज़ख़्म आँखों के भी सहते थे कभी दिल वाले अब तो अबरू का इशारा नहीं देखा जाता क्या क़यामत है कि दिल जिस का नगर है 'मोहसिन' दिल पे उस का भी इजारा नहीं देखा जाता
har-ek-shab-yuunhii-dekhengii-suu-e-dar-aankhen-mohsin-naqvi-ghazals
हर एक शब यूँही देखेंगी सू-ए-दर आँखें तुझे गँवा के न सोएँगी उम्र-भर आँखें तुलू-ए-सुब्ह से पहले ही बुझ न जाएँ कहीं ये दश्त-ए-शब में सितारों की हम-सफ़र आँखें सितम ये कम तो नहीं दिल गिरफ़्तगी के लिए मैं शहर भर में अकेला इधर-उधर आँखें शुमार उस की सख़ावत का क्या करें कि वो शख़्स चराग़ बाँटता फिरता है छीन कर आँखें मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हुआ जब तो मुझ पे भेद खुला कि पत्थरों को समझती रहीं गुहर आँखें मैं अपने अश्क सँभालूँगा कब तलक 'मोहसिन' ज़माना संग-ब-कफ़ है तो शीशागर आँखें
ye-kah-gae-hain-musaafir-lute-gharon-vaale-mohsin-naqvi-ghazals
ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले डरें हवा से परिंदे खुले परों वाले ये मेरे दिल की हवस दश्त-ए-बे-कराँ जैसी वो तेरी आँख के तेवर समुंदरों वाले हवा के हाथ में कासे हैं ज़र्द पत्तों के कहाँ गए वो सख़ी सब्ज़ चादरों वाले कहाँ मिलेंगे वो अगले दिनों के शहज़ादे पहन के तन पे लिबादे गदागरों वाले पहाड़ियों में घिरे ये बुझे बुझे रस्ते कभी इधर से गुज़रते थे लश्करों वाले उन्ही पे हो कभी नाज़िल अज़ाब आग अजल वही नगर कभी ठहरें पयम्बरों वाले तिरे सुपुर्द करूँ आईने मुक़द्दर के इधर तो आ मिरे ख़ुश-रंग पत्थरों वाले किसी को देख के चुप चुप से क्यूँ हुए 'मोहसिन' कहाँ गए वो इरादे सुख़न-वरों वाले
jab-hijr-ke-shahr-men-dhuup-utrii-main-jaag-padaa-to-khvaab-huaa-mohsin-naqvi-ghazals
जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ मिरी सोच ख़िज़ाँ की शाख़ बनी तिरा चेहरा और गुलाब हुआ बर्फ़ीली रुत की तेज़ हवा क्यूँ झील में कंकर फेंक गई इक आँख की नींद हराम हुई इक चाँद का अक्स ख़राब हुआ तिरे हिज्र में ज़ेहन पिघलता था तिरे क़ुर्ब में आँखें जलती हैं तुझे खोना एक क़यामत था तिरा मिलना और अज़ाब हुआ भरे शहर में एक ही चेहरा था जिसे आज भी गलियाँ ढूँडती हैं किसी सुब्ह उसी की धूप खिली किसी रात वही महताब हुआ बड़ी उम्र के बा'द इन आँखों में कोई अब्र उतरा तिरी यादों का मिरे दिल की ज़मीं आबाद हुई मिरे ग़म का नगर शादाब हुआ कभी वस्ल में 'मोहसिन' दिल टूटा कभी हिज्र की रुत ने लाज रखी किसी जिस्म में आँखें खो बैठे कोई चेहरा खुली किताब हुआ
kis-ne-sang-e-khaamoshii-phenkaa-bhare-baazaar-par-mohsin-naqvi-ghazals
किस ने संग-ए-ख़ामुशी फेंका भरे-बाज़ार पर इक सुकूत-ए-मर्ग तारी है दर-ओ-दीवार पर तू ने अपनी ज़ुल्फ़ के साए में अफ़्साने कहे मुझ को ज़ंजीरें मिली हैं जुरअत-ए-इज़हार पर शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से जिस तरह ताज़ा लहू चमके नई तलवार पर संग-दिल अहबाब के दामन में रुस्वाई के फूल मैं ने देखा है नया मंज़र फ़राज़-ए-दार पर अब कोई तोहमत भी वज्ह-ए-कर्ब-ए-रुसवाई नहीं ज़िंदगी इक उम्र से चुप है तिरे इसरार पर मैं सर-ए-मक़्तल हदीस-ए-ज़िंदगी कहता रहा उँगलियाँ उठती रहीं 'मोहसिन' मिरे किरदार पर
ye-dil-ye-paagal-dil-miraa-kyuun-bujh-gayaa-aavaargii-mohsin-naqvi-ghazals
ये दिल ये पागल दिल मिरा क्यूँ बुझ गया आवारगी इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी कल शब मुझे बे-शक्ल की आवाज़ ने चौंका दिया मैं ने कहा तू कौन है उस ने कहा आवारगी लोगो भला इस शहर में कैसे जिएँगे हम जहाँ हो जुर्म तन्हा सोचना लेकिन सज़ा आवारगी ये दर्द की तन्हाइयाँ ये दश्त का वीराँ सफ़र हम लोग तो उक्ता गए अपनी सुना आवारगी इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मिरे ग़म का सबब सहरा की भीगी रेत पर मैं ने लिखा आवारगी उस सम्त वहशी ख़्वाहिशों की ज़द में पैमान-ए-वफ़ा उस सम्त लहरों की धमक कच्चा घड़ा आवारगी कल रात तन्हा चाँद को देखा था मैं ने ख़्वाब में 'मोहसिन' मुझे रास आएगी शायद सदा आवारगी
itnii-muddat-baad-mile-ho-mohsin-naqvi-ghazals
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो किन सोचों में गुम फिरते हो इतने ख़ाइफ़ क्यूँ रहते हो हर आहट से डर जाते हो तेज़ हवा ने मुझ से पूछा रेत पे क्या लिखते रहते हो काश कोई हम से भी पूछे रात गए तक क्यूँ जागे हो में दरिया से भी डरता हूँ तुम दरिया से भी गहरे हो कौन सी बात है तुम में ऐसी इतने अच्छे क्यूँ लगते हो पीछे मुड़ कर क्यूँ देखा था पत्थर बन कर क्या तकते हो जाओ जीत का जश्न मनाओ में झूटा हूँ तुम सच्चे हो अपने शहर के सब लोगों से मेरी ख़ातिर क्यूँ उलझे हो कहने को रहते हो दिल में फिर भी कितने दूर खड़े हो रात हमें कुछ याद नहीं था रात बहुत ही याद आए हो हम से न पूछो हिज्र के क़िस्से अपनी कहो अब तुम कैसे हो 'मोहसिन' तुम बदनाम बहुत हो जैसे हो फिर भी अच्छे हो
ab-ke-baarish-men-to-ye-kaar-e-ziyaan-honaa-hii-thaa-mohsin-naqvi-ghazals
अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था अपनी कच्ची बस्तियों को बे-निशाँ होना ही था किस के बस में था हवा की वहशतों को रोकना बर्ग-ए-गुल को ख़ाक शोले को धुआँ होना ही था जब कोई सम्त-ए-सफ़र तय थी न हद्द-ए-रहगुज़र ऐ मिरे रह-रौ सफ़र तो राएगाँ होना ही था मुझ को रुकना था उसे जाना था अगले मोड़ तक फ़ैसला ये उस के मेरे दरमियाँ होना ही था चाँद को चलना था बहती सीपियों के साथ साथ मो'जिज़ा ये भी तह-ए-आब-ए-रवाँ होना ही था मैं नए चेहरों पे कहता था नई ग़ज़लें सदा मेरी इस आदत से उस को बद-गुमाँ होना ही था शहर से बाहर की वीरानी बसाना थी मुझे अपनी तन्हाई पे कुछ तो मेहरबाँ होना ही था अपनी आँखें दफ़्न करना थीं ग़ुबार-ए-ख़ाक में ये सितम भी हम पे ज़ेर-ए-आसमाँ होना ही था बे-सदा बस्ती की रस्में थीं यही 'मोहसिन' मिरे मैं ज़बाँ रखता था मुझ को बे-ज़बाँ होना ही था
saanson-ke-is-hunar-ko-na-aasaan-khayaal-kar-mohsin-naqvi-ghazals
साँसों के इस हुनर को न आसाँ ख़याल कर ज़िंदा हूँ साअ'तों को मैं सदियों में ढाल कर माली ने आज कितनी दुआएँ वसूल कीं कुछ फूल इक फ़क़ीर की झोली में डाल कर कुल यौम-ए-हिज्र ज़र्द ज़मानों का यौम है शब भर न जाग मुफ़्त में आँखें न लाल कर ऐ गर्द-बाद लौट के आना है फिर मुझे रखना मिरे सफ़र की अज़िय्यत सँभाल कर मेहराब में दिए की तरह ज़िंदगी गुज़ार मुँह-ज़ोर आँधियों में न ख़ुद को निढाल कर शायद किसी ने बुख़्ल-ए-ज़मीं पर किया है तंज़ गहरे समुंदरों से जज़ीरे निकाल कर ये नक़्द-ए-जाँ कि इस का लुटाना तो सहल है गर बन पड़े तो इस से भी मुश्किल सवाल कर 'मोहसिन' बरहना-सर चली आई है शाम-ए-ग़म ग़ुर्बत न देख इस पे सितारों की शाल कर
ek-pal-men-zindagii-bhar-kii-udaasii-de-gayaa-mohsin-naqvi-ghazals
एक पल में ज़िंदगी भर की उदासी दे गया वो जुदा होते हुए कुछ फूल बासी दे गया नोच कर शाख़ों के तन से ख़ुश्क पत्तों का लिबास ज़र्द मौसम बाँझ-रुत को बे-लिबासी दे गया सुब्ह के तारे मिरी पहली दुआ तेरे लिए तू दिल-ए-बे-सब्र को तस्कीं ज़रा सी दे गया लोग मलबों में दबे साए भी दफ़नाने लगे ज़लज़ला अहल-ए-ज़मीं को बद-हवासी दे गया तुंद झोंके की रगों में घोल कर अपना धुआँ इक दिया अंधी हवा को ख़ुद-शनासी दे गया ले गया 'मोहसिन' वो मुझ से अब्र बनता आसमाँ उस के बदले में ज़मीं सदियों की प्यासी दे गया
ab-vo-tuufaan-hai-na-vo-shor-havaaon-jaisaa-mohsin-naqvi-ghazals
अब वो तूफ़ाँ है न वो शोर हवाओं जैसा दिल का आलम है तिरे बा'द ख़लाओं जैसा काश दुनिया मिरे एहसास को वापस कर दे ख़ामुशी का वही अंदाज़ सदाओं जैसा पास रह कर भी हमेशा वो बहुत दूर मिला उस का अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल था ख़ुदाओं जैसा कितनी शिद्दत से बहारों को था एहसास-ए-मआ'ल फूल खिल कर भी रहा ज़र्द ख़िज़ाओं जैसा क्या क़यामत है कि दुनिया उसे सरदार कहे जिस का अंदाज़-ए-सुख़न भी हो गदाओं जैसा फिर तिरी याद के मौसम ने जगाए महशर फिर मिरे दिल में उठा शोर हवाओं जैसा बारहा ख़्वाब में पा कर मुझे प्यासा 'मोहसिन' उस की ज़ुल्फ़ों ने किया रक़्स घटाओं जैसा
bhadkaaen-mirii-pyaas-ko-aksar-tirii-aankhen-mohsin-naqvi-ghazals
भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें सहरा मिरा चेहरा है समुंदर तिरी आँखें फिर कौन भला दाद-ए-तबस्सुम उन्हें देगा रोएँगी बहुत मुझ से बिछड़ कर तिरी आँखें ख़ाली जो हुई शाम-ए-ग़रीबाँ की हथेली क्या क्या न लुटाती रहीं गौहर तेरी आँखें बोझल नज़र आती हैं ब-ज़ाहिर मुझे लेकिन खुलती हैं बहुत दिल में उतर कर तिरी आँखें अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता भीगी हुई इक शाम का मंज़र तिरी आँखें मुमकिन हो तो इक ताज़ा ग़ज़ल और भी कह लूँ फिर ओढ़ न लें ख़्वाब की चादर तिरी आँखें मैं संग-सिफ़त एक ही रस्ते में खड़ा हूँ शायद मुझे देखेंगी पलट कर तिरी आँखें यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन' वो काँच का पैकर है तो पत्थर तिरी आँखें
saare-lahje-tire-be-zamaan-ek-main-mohsin-naqvi-ghazals
सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं इस भरे शहर में राएगाँ एक मैं वस्ल के शहर की रौशनी एक तू हिज्र के दश्त में कारवाँ एक मैं बिजलियों से भरी बारिशें ज़ोर पर अपनी बस्ती में कच्चा मकाँ एक मैं हसरतों से अटे आसमाँ के तले जलती-बुझती हुई कहकशाँ एक मैं मुझ को फ़ारिग़ दिनों की अमानत समझ भूली-बिसरी हुई दास्ताँ एक मैं रौनक़ें शोर मेले झमेले तिरे अपनी तन्हाई का राज़-दाँ एक मैं एक मैं अपनी ही ज़िंदगी का भरम अपनी ही मौत पर नौहा-ख़्वाँ एक मैं उस तरफ़ संग-बारी हर इक बाम से इस तरफ़ आइनों की दुकाँ एक मैं वो नहीं है तो 'मोहसिन' ये मत सोचना अब भटकता फिरूंगा कहाँ एक मैं
vo-dilaavar-jo-siyah-shab-ke-shikaarii-nikle-mohsin-naqvi-ghazals
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले वो भी चढ़ते हुए सूरज के पुजारी निकले सब के होंटों पे मिरे बा'द हैं बातें मेरी मेरे दुश्मन मिरे लफ़्ज़ों के भिकारी निकले इक जनाज़ा उठा मक़्तल में अजब शान के साथ जैसे सज कर किसी फ़ातेह की सवारी निकले हम को हर दौर की गर्दिश ने सलामी दी है हम वो पत्थर हैं जो हर दौर में भारी निकले अक्स कोई हो ख़द-ओ-ख़ाल तुम्हारे देखूँ बज़्म कोई हो मगर बात तुम्हारी निकले अपने दुश्मन से मैं बे-वज्ह ख़फ़ा था 'मोहसिन' मेरे क़ातिल तो मिरे अपने हवारी निकले
main-dil-pe-jabr-karuungaa-tujhe-bhulaa-duungaa-mohsin-naqvi-ghazals
मैं दिल पे जब्र करूँगा तुझे भुला दूँगा मरूँगा ख़ुद भी तुझे भी कड़ी सज़ा दूँगा ये तीरगी मिरे घर का ही क्यूँ मुक़द्दर हो मैं तेरे शहर के सारे दिए बुझा दूँगा हवा का हाथ बटाऊँगा हर तबाही में हरे शजर से परिंदे मैं ख़ुद उड़ा दूँगा वफ़ा करूँगा किसी सोगवार चेहरे से पुरानी क़ब्र पे कतबा नया सजा दूँगा इसी ख़याल में गुज़री है शाम-ए-दर्द अक्सर कि दर्द हद से बढ़ेगा तो मुस्कुरा दूँगा तू आसमान की सूरत है गर पड़ेगा कभी ज़मीं हूँ मैं भी मगर तुझ को आसरा दूँगा बढ़ा रही हैं मिरे दुख निशानियाँ तेरी मैं तेरे ख़त तिरी तस्वीर तक जला दूँगा बहुत दिनों से मिरा दिल उदास है 'मोहसिन' इस आइने को कोई अक्स अब नया दूँगा
ba-naam-e-taaqat-koii-ishaara-nahiin-chalegaa-mohsin-naqvi-ghazals
ब-नाम-ए-ताक़त कोई इशारा नहीं चलेगा उदास नस्लों पे अब इजारा नहीं चलेगा हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें हमारी ख़ातिर कोई सितारा नहीं चलेगा हयात अब शाम-ए-ग़म की तश्बीह ख़ुद बनेगी तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का इस्तिआ'रा नहीं चलेगा चलो सरों का ख़िराज नोक-ए-सिनाँ को बख़्शें कि जाँ बचाने का इस्तिख़ारा नहीं चलेगा हमारे जज़्बे बग़ावतों को तराशते हैं हमारे जज़्बों पे बस तुम्हारा नहीं चलेगा अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन' चलेगा पानी मगर किनारा नहीं चलेगा
zabaan-rakhtaa-huun-lekin-chup-khadaa-huun-mohsin-naqvi-ghazals
ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ मैं आवाज़ों के बन में घिर गया हूँ मिरे घर का दरीचा पूछता है मैं सारा दिन कहाँ फिरता रहा हूँ मुझे मेरे सिवा सब लोग समझें मैं अपने आप से कम बोलता हूँ सितारों से हसद की इंतिहा है मैं क़ब्रों पर चराग़ाँ कर रहा हूँ सँभल कर अब हवाओं से उलझना मैं तुझ से पेश-तर बुझने लगा हूँ मिरी क़ुर्बत से क्यूँ ख़ाइफ़ है दुनिया समुंदर हूँ मैं ख़ुद में गूँजता हूँ मुझे कब तक समेटेगा वो 'मोहसिन' मैं अंदर से बहुत टूटा हुआ हूँ
agarche-main-ik-chataan-saa-aadmii-rahaa-huun-mohsin-naqvi-ghazals
अगरचे मैं इक चटान सा आदमी रहा हूँ मगर तिरे बा'द हौसला है कि जी रहा हूँ वो रेज़ा रेज़ा मिरे बदन में उतर रहा है मैं क़तरा क़तरा उसी की आँखों को पी रहा हूँ तिरी हथेली पे किस ने लिक्खा है क़त्ल मेरा मुझे तो लगता है मैं तिरा दोस्त भी रहा हूँ खुली हैं आँखें मगर बदन है तमाम पत्थर कोई बताए मैं मर चुका हूँ कि जी रहा हूँ कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितमगरी की कि मैं गुलाबों के ज़ख़्म काँटों से सी रहा हूँ न पूछ मुझ से कि शहर वालों का हाल क्या था कि मैं तो ख़ुद अपने घर में भी दो घड़ी रहा हूँ मिला तो बीते दिनों का सच उस की आँख में था वो आश्ना जिस से मुद्दतों अजनबी रहा हूँ भुला दे मुझ को कि बेवफ़ाई बजा है लेकिन गँवा न मुझ को कि मैं तिरी ज़िंदगी रहा हूँ वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है 'मोहसिन' ये नाज़ कम है कि मैं भी उस का कभी रहा हूँ
aap-kii-aankh-se-gahraa-hai-mirii-ruuh-kaa-zakhm-mohsin-naqvi-ghazals
आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म आप क्या सोच सकेंगे मिरी तन्हाई को मैं तो दम तोड़ रहा था मगर अफ़्सुर्दा हयात ख़ुद चली आई मिरी हौसला-अफ़ज़ाई को लज़्ज़त-ए-ग़म के सिवा तेरी निगाहों के बग़ैर कौन समझा है मिरे ज़ख़्म की गहराई को मैं बढ़ाऊँगा तिरी शोहरत-ए-ख़ुश्बू का निखार तू दुआ दे मिरे अफ़्साना-ए-रुसवाई को वो तो यूँ कहिए कि इक क़ौस-ए-क़ुज़ह फैल गई वर्ना मैं भूल गया था तिरी अंगड़ाई को
ajiib-khauf-musallat-thaa-kal-havelii-par-mohsin-naqvi-ghazals
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर लहु चराग़ जलाती रही हथेली पर सुनेगा कौन मगर एहतिजाज ख़ुश्बू का कि साँप ज़हर छिड़कता रहा चमेली पर शब-ए-फ़िराक़ मिरी आँख को थकन से बचा कि नींद वार न कर दे तिरी सहेली पर वो बेवफ़ा था तो फिर इतना मेहरबाँ क्यूँ था बिछड़ के उस से मैं सोचूँ उसी पहेली पर जला न घर का अँधेरा चराग़ से 'मोहसिन' सितम न कर मिरी जाँ अपने यार बेली पर
main-chup-rahaa-ki-zahr-yahii-mujh-ko-raas-thaa-mohsin-naqvi-ghazals
मैं चुप रहा कि ज़हर यही मुझ को रास था वो संग-ए-लफ़्ज़ फेंक के कितना उदास था अक्सर मिरी क़बा पे हँसी आ गई जिसे कल मिल गया तो वो भी दरीदा-लिबास था मैं ढूँढता था दूर ख़लाओं में एक जिस्म चेहरों का इक हुजूम मिरे आस-पास था तुम ख़ुश थे पत्थरों को ख़ुदा जान के मगर मुझ को यक़ीन है वो तुम्हारा क़यास था बख़्शा है जिस ने रूह को ज़ख़्मों का पैरहन 'मोहसिन' वो शख़्स कितना तबीअत-शनास था
gazlon-kii-dhanak-odh-mire-shola-badan-tuu-mohsin-naqvi-ghazals
ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शो'ला-बदन तू है मेरा सुख़न तू मिरा मौज़ू-ए-सुख़न तू कलियों की तरह फूट सर-ए-शाख़-ए-तमन्ना ख़ुशबू की तरह फैल चमन-ता-ब-चमन तू नाज़िल हो कभी ज़ेहन पे आयात की सूरत आयात में ढल जा कभी जिबरील दहन तू अब क्यूँ न सजाऊँ मैं तुझे दीदा ओ दिल में लगता है अँधेरे में सवेरे की किरन तू पहले न कोई रम्ज़-ए-सुख़न थी न किनाया अब नुक़्ता-ए-तकमील-ए-हुनर मेहवर-ए-फ़न तू ये कम तो नहीं तू मिरा मेयार-ए-नज़र है ऐ दोस्त मिरे वास्ते कुछ और न बन तू मुमकिन हो तो रहने दे मुझे ज़ुल्मत-ए-जाँ में ढूँडेगा कहाँ चाँदनी रातों का कफ़न तू
fazaa-kaa-habs-shaguufon-ko-baas-kyaa-degaa-mohsin-naqvi-ghazals
फ़ज़ा का हब्स शगूफ़ों को बास क्या देगा बदन-दरीदा किसी को लिबास क्या देगा ये दिल कि क़हत-ए-अना से ग़रीब ठहरा है मिरी ज़बाँ को ज़र-ए-इल्तिमास क्या देगा जो दे सका न पहाड़ों को बर्फ़ की चादर वो मेरी बाँझ ज़मीं को कपास क्या देगा ये शहर यूँ भी तो दहशत भरा नगर है यहाँ दिलों का शोर हवा को हिरास क्या देगा वो ज़ख़्म दे के मुझे हौसला भी देता है अब इस से बढ़ के तबीअत-शनास क्या देगा जो अपनी ज़ात से बाहर न आ सका अब तक वो पत्थरों को मता-ए-हवास क्या देगा वो मेरे अश्क बुझाएगा किस तरह 'मोहसिन' समुंदरों को वो सहरा की प्यास क्या देगा
havaa-e-hijr-men-jo-kuchh-thaa-ab-ke-khaak-huaa-mohsin-naqvi-ghazals
हवा-ए-हिज्र में जो कुछ था अब के ख़ाक हुआ कि पैरहन तो गया था बदन भी चाक हुआ अब उस से तर्क-ए-तअल्लुक़ करूँ तो मर जाऊँ बदन से रूह का इस दर्जा इश्तिराक हुआ यही कि सब की कमानें हमीं पे टूटी हैं चलो हिसाब-ए-सफ़-ए-दोस्ताँ तो पाक हुआ वो बे-सबब यूँही रूठा है लम्हा-भर के लिए ये सानेहा न सही फिर भी कर्ब-नाक हुआ उसी के क़ुर्ब ने तक़्सीम कर दिया आख़िर वो जिस का हिज्र मुझे वज्ह-ए-इंहिमाक हुआ शदीद वार न दुश्मन दिलेर था 'मोहसिन' मैं अपनी बे-ख़बरी से मगर हलाक हुआ
kathin-tanhaaiyon-se-kaun-khelaa-main-akelaa-mohsin-naqvi-ghazals
कठिन तन्हाइयों से कौन खेला मैं अकेला भरा अब भी मिरे गाँव का मेला मैं अकेला बिछड़ कर तुझ से मैं शब भर न सोया कौन रोया ब-जुज़ मेरे ये दुख भी किस ने झेला मैं अकेला ये बे-आवाज़ बंजर बन के बासी ये उदासी ये दहशत का सफ़र जंगल ये बेला मैं अकेला मैं देखूँ कब तलक मंज़र सुहाने सब पुराने वही दुनिया वही दिल का झमेला मैं अकेला वो जिस के ख़ौफ़ से सहरा सिधारे लोग सारे गुज़रने को है तूफ़ाँ का वो रेला मैं अकेला
ab-ye-sochuun-to-bhanvar-zehn-men-pad-jaate-hain-mohsin-naqvi-ghazals
अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं कैसे चेहरे हैं जो मिलते ही बिछड़ जाते हैं क्यूँ तिरे दर्द को दें तोहमत-ए-वीरानी-ए-दिल ज़लज़लों में तो भरे शहर उजड़ जाते हैं मौसम-ए-ज़र्द में इक दिल को बचाऊँ कैसे ऐसी रुत में तो घने पेड़ भी झड़ जाते हैं अब कोई क्या मिरे क़दमों के निशाँ ढूँडेगा तेज़ आँधी में तो ख़ेमे भी उखड़ जाते हैं शग़्ल-ए-अर्बाब-ए-हुनर पूछते क्या हो कि ये लोग पत्थरों में भी कभी आइने जड़ जाती हैं सोच का आइना धुँदला हो तो फिर वक़्त के साथ चाँद चेहरों के ख़द-ओ-ख़ाल बिगड़ जाते हैं शिद्दत-ए-ग़म में भी ज़िंदा हूँ तो हैरत कैसी कुछ दिए तुंद हवाओं से भी लड़ जाते हैं वो भी क्या लोग हैं 'मोहसिन' जो वफ़ा की ख़ातिर ख़ुद-तराशीदा उसूलों पे भी अड़ जाते हैं
ujde-hue-logon-se-gurezaan-na-huaa-kar-mohsin-naqvi-ghazals
उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर हालात की क़ब्रों के ये कतबे भी पढ़ा कर क्या जानिए क्यूँ तेज़ हवा सोच में गुम है ख़्वाबीदा परिंदों को दरख़्तों से उड़ा कर उस शख़्स के तुम से भी मरासिम हैं तो होंगे वो झूट न बोलेगा मिरे सामने आ कर हर वक़्त का हँसना तुझे बर्बाद न कर दे तन्हाई के लम्हों में कभी रो भी लिया कर वो आज भी सदियों की मसाफ़त पे खड़ा है ढूँडा था जिसे वक़्त की दीवार गिरा कर ऐ दिल तुझे दुश्मन की भी पहचान कहाँ है तू हल्क़ा-ए-याराँ में भी मोहतात रहा कर इस शब के मुक़द्दर में सहर ही नहीं 'मोहसिन' देखा है कई बार चराग़ों को बुझा कर
qatl-chhupte-the-kabhii-sang-kii-diivaar-ke-beach-mohsin-naqvi-ghazals
क़त्ल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच अब तो खुलने लगे मक़्तल भरे बाज़ार के बीच अपनी पोशाक के छिन जाने पे अफ़सोस न कर सर सलामत नहीं रहते यहाँ दस्तार के बीच सुर्ख़ियाँ अम्न की तल्क़ीन में मसरूफ़ रहीं हर्फ़ बारूद उगलते रहे अख़बार के बीच काश इस ख़्वाब की ता'बीर की मोहलत न मिले शो'ले उगते नज़र आए मुझे गुलज़ार के बीच ढलते सूरज की तमाज़त ने बिखर कर देखा सर-कशीदा मिरा साया सफ़-ए-अशजार के बीच रिज़्क़ मल्बूस मकाँ साँस मरज़ क़र्ज़ दवा मुनक़सिम हो गया इंसाँ इन्ही अफ़्कार के बीच देखे जाते न थे आँसू मिरे जिस से 'मोहसिन' आज हँसते हुए देखा उसे अग़्यार के बीच
main-kal-tanhaa-thaa-khilqat-so-rahii-thii-mohsin-naqvi-ghazals
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी मुझे ख़ुद से भी वहशत हो रही थी उसे जकड़ा हुआ था ज़िंदगी ने सिरहाने मौत बैठी रो रही थी खुला मुझ पर कि मेरी ख़ुश-नसीबी मिरे रस्ते में काँटे बो रही थी मुझे भी ना-रसाई का समर दे मुझे तेरी तमन्ना जो रही थी मिरा क़ातिल मिरे अंदर छुपा था मगर बद-नाम ख़िल्क़त हो रही थी बग़ावत कर के ख़ुद अपने लहू से ग़ुलामी दाग़ अपने धो रही थी लबों पर था सुकूत-ए-मर्ग लेकिन मिरे दिल में क़यामत सो रही थी ब-जुज़ मौज-ए-फ़ना दुनिया में 'मोहसिन' हमारी जुस्तुजू किस को रही थी
maarka-ab-ke-huaa-bhii-to-phir-aisaa-hogaa-mohsin-naqvi-ghazals
मा'रका अब के हुआ भी तो फिर ऐसा होगा तेरे दरिया पे मिरी प्यास का पहरा होगा उस की आँखें तिरे चेहरे पे बहुत बोलती हैं उस ने पलकों से तिरा जिस्म तराशा होगा कितने जुगनू इसी ख़्वाहिश में मिरे साथ चले कोई रस्ता तिरे घर को भी तो जाता होगा मैं भी अपने को भुलाए हुए फिरता हूँ बहुत आइना उस ने भी कुछ रोज़ न देखा होगा रात जल-थल मिरी आँखों में उतर आया था सूरत-ए-अब्र कोई टूट के बरसा होगा ये मसीहाई उसे भूल गई है 'मोहसिन' या फिर ऐसा है मिरा ज़ख़्म ही गहरा होगा
nayaa-hai-shahr-nae-aasre-talaash-karuun-mohsin-naqvi-ghazals
नया है शहर नए आसरे तलाश करूँ तू खो गया है कहाँ अब तुझे तलाश करूँ जो दश्त में भी जलाते थे फ़स्ल-ए-गुल के चराग़ मैं शहर में भी वही आबले तलाश करूँ तू अक्स है तो कभी मेरी चश्म-ए-तर में उतर तिरे लिए मैं कहाँ आइने तलाश करूँ तुझे हवास की आवारगी का इल्म कहाँ कभी मैं तुझ को तिरे सामने तलाश करूँ ग़ज़ल कहूँ कभी सादा से ख़त लिखूँ उस को उदास दिल के लिए मश्ग़ले तलाश करूँ मिरे वजूद से शायद मिले सुराग़ तिरा कभी मैं ख़ुद को तिरे वास्ते तलाश करूँ मैं चुप रहूँ कभी बे-वज्ह हँस पड़ूँ 'मोहसिन' उसे गँवा के अजब हौसले तलाश करूँ
phir-vahii-main-huun-vahii-shahr-badar-sannaataa-mohsin-naqvi-ghazals
फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा मुझ को डस ले न कहीं ख़ाक-बसर सन्नाटा दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को हिज्र वालों ने लिया रख़्त-ए-सफ़र सन्नाटा किस से पूछूँ कि कहाँ है मिरा रोने वाला इस तरफ़ मैं हूँ मिरे घर से उधर सन्नाटा तू सदाओं के भँवर में मुझे आवाज़ तो दे तुझ को देगा मिरे होने की ख़बर सन्नाटा उस को हंगामा-ए-मंज़िल की ख़बर क्या दोगे जिस ने पाया हो सर-ए-राहगुज़र सन्नाटा हासिल-ए-कुंज-ए-क़फ़स वहम-ब-कफ़ तन्हाई रौनक़-ए-शाम-ए-सफ़र ता-ब-सहर सन्नाटा क़िस्मत-ए-शाइर-ए-सीमाब-सिफ़त दश्त की मौत क़ीमत-ए-रेज़ा-ए-अल्मास-ए-हुनर सन्नाटा जान-ए-'मोहसिन' मिरी तक़दीर में कब लिक्खा है डूबता चाँद तिरा क़ुर्ब-ए-गज़र सन्नाटा
jugnuu-guhar-charaag-ujaale-to-de-gayaa-mohsin-naqvi-ghazals
जुगनू गुहर चराग़ उजाले तो दे गया वो ख़ुद को ढूँडने के हवाले तो दे गया अब इस से बढ़ के क्या हो विरासत फ़क़ीर की बच्चों को अपनी भीक के प्याले तो दे गया अब मेरी सोच साए की सूरत है उस के गिर्द मैं बुझ के अपने चाँद को हाले तो दे गया शायद कि फ़स्ल-ए-संग-ज़नी कुछ क़रीब है वो खेलने को बर्फ़ के गाले तो दे गया अहल-ए-तलब पे उस के लिए फ़र्ज़ है दुआ ख़ैरात में वो चंद निवाले तो दे गया 'मोहसिन' उसे क़बा की ज़रूरत न थी मगर दुनिया को रोज़-ओ-शब के दोशाले तो दे गया
zikr-e-shab-e-firaaq-se-vahshat-use-bhii-thii-mohsin-naqvi-ghazals
ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी मुझ को भी शौक़ था नए चेहरों की दीद का रस्ता बदल के चलने की आदत उसे भी थी इस रात देर तक वो रहा महव-ए-गुफ़्तुगू मसरूफ़ मैं भी कम था फ़राग़त उसे भी थी मुझ से बिछड़ के शहर में घुल-मिल गया वो शख़्स हालाँकि शहर-भर से अदावत उसे भी थी वो मुझ से बढ़ के ज़ब्त का आदी था जी गया वर्ना हर एक साँस क़यामत उसे भी थी सुनता था वो भी सब से पुरानी कहानियाँ शायद रफ़ाक़तों की ज़रूरत उसे भी थी तन्हा हुआ सफ़र में तो मुझ पे खुला ये भेद साए से प्यार धूप से नफ़रत उसे भी थी 'मोहसिन' मैं उस से कह न सका यूँ भी हाल दिल दरपेश एक ताज़ा मुसीबत उसे भी थी
tire-badan-se-jo-chhuu-kar-idhar-bhii-aataa-hai-mohsin-naqvi-ghazals
तिरे बदन से जो छू कर इधर भी आता है मिसाल-ए-रंग वो झोंका नज़र भी आता है तमाम शब जहाँ जलता है इक उदास दिया हवा की राह में इक ऐसा घर भी आता है वो मुझ को टूट के चाहेगा छोड़ जाएगा मुझे ख़बर थी उसे ये हुनर भी आता है उजाड़ बन में उतरता है एक जुगनू भी हवा के साथ कोई हम-सफ़र भी आता है वफ़ा की कौन सी मंज़िल पे उस ने छोड़ा था कि वो तो याद हमें भूल कर भी आता है जहाँ लहू के समुंदर की हद ठहरती है वहीं जज़ीरा-ए-लाल-ओ-गुहर भी आता है चले जो ज़िक्र फ़रिश्तों की पारसाई का तो ज़ेर-ए-बहस मक़ाम-ए-बशर भी आता है अभी सिनाँ को सँभाले रहें अदू मेरे कि उन सफ़ों में कहीं मेरा सर भी आता है कभी कभी मुझे मिलने बुलंदियों से कोई शुआ-ए-सुब्ह की सूरत उतर भी आता है इसी लिए मैं किसी शब न सो सका 'मोहसिन' वो माहताब कभी बाम पर भी आता है
bichhad-ke-mujh-se-ye-mashgala-ikhtiyaar-karnaa-mohsin-naqvi-ghazals
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना हवा से डरना बुझे चराग़ों से प्यार करना खुली ज़मीनों में जब भी सरसों के फूल महकें तुम ऐसी रुत में सदा मिरा इंतिज़ार करना जो लोग चाहें तो फिर तुम्हें याद भी न आएँ कभी कभी तुम मुझे भी उन में शुमार करना किसी को इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई कभी न देना मिरी तरह अपने आप को सोगवार करना तमाम वा'दे कहाँ तलक याद रख सकोगे जो भूल जाएँ वो अहद भी उस्तुवार करना ये किस की आँखों ने बादलों को सिखा दिया है कि सीना-ए-संग से रवाँ आबशार करना मैं ज़िंदगी से न खुल सका इस लिए भी 'मोहसिन' कि बहते पानी पे कब तलक ए'तिबार करना
labon-pe-harf-e-rajaz-hai-zirah-utaar-ke-bhii-mohsin-naqvi-ghazals
लबों पे हर्फ़-ए-रजज़ है ज़िरह उतार के भी मैं जश्न-ए-फ़तह मनाता हूँ जंग हार के भी उसे लुभा न सका मेरे बा'द का मौसम बहुत उदास लगा ख़ाल-ओ-ख़द सँवार के भी अब एक पल का तग़ाफ़ुल भी सह नहीं सकते हम अहल-ए-दिल कभी आदी थे इंतिज़ार के भी वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही अभी तो ख़ुद से तक़ाज़े थे इख़्तिसार के भी ज़मीन ओढ़ ली हम ने पहुँच के मंज़िल पर कि हम पे क़र्ज़ थे कुछ गर्द-ए-रहगुज़ार के भी मुझे न सुन मिरे बे-शक्ल अब दिखाई तो दे मैं थक गया हूँ फ़ज़ा में तुझे पुकार के भी मिरी दुआ को पलटना था फिर उधर 'मोहसिन' बहुत उजाड़ थे मंज़र उफ़ुक़ से पार के भी
ujad-ujad-ke-sanvartii-hai-tere-hijr-kii-shaam-mohsin-naqvi-ghazals
उजड़ उजड़ के सँवरती है तेरे हिज्र की शाम न पूछ कैसे गुज़रती है तेरे हिज्र की शाम ये बर्ग बर्ग उदासी बिखर रही है मिरी कि शाख़ शाख़ उतरती है तेरे हिज्र की शाम उजाड़ घर में कोई चाँद कब उतरता है सवाल मुझ से ये करती है तेरे हिज्र की शाम मिरे सफ़र में इक ऐसा भी मोड़ आता है जब अपने आप से डरती है तेरे हिज्र की शाम बहुत अज़ीज़ हैं दिल को ये ज़ख़्म ज़ख़्म रुतें इन्ही रुतों में निखरती है तेरे हिज्र की शाम ये मेरा दिल ये सरासर निगार-खाना-ए-ग़म सदा इसी में उतरती है तेरे हिज्र की शाम जहाँ जहाँ भी मिलें तेरी क़ुर्बतों के निशाँ वहाँ वहाँ से उभरती है तेरे हिज्र की शाम ये हादिसा तुझे शायद उदास कर देगा कि मेरे साथ ही मरती है तेरे हिज्र की शाम
ufuq-agarche-pighaltaa-dikhaaii-padtaa-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं कभी कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ हर एक प्यार का भूका दिखाई पड़ता है जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए वो शख़्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है लचक रही हैं शुआओं की सीढ़ियाँ पैहम फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है चमकती रेत पे ये ग़ुस्ल-ए-आफ़्ताब तिरा बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है
mauj-e-gul-mauj-e-sabaa-mauj-e-sahar-lagtii-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है हम ने हर गाम पे सज्दों के जलाए हैं चराग़ अब हमें तेरी गली राहगुज़र लगती है लम्हे लम्हे में बसी है तिरी यादों की महक आज की रात तो ख़ुशबू का सफ़र लगती है जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं देखना ये है कि अब आग किधर लगती है सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है हर ज़मीं मुझ को मिरे ख़ून से तर लगती है कोई आसूदा नहीं अहल-ए-सियासत के सिवा ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है वाक़िआ शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ ये तो अख़बार के दफ़्तर की ख़बर लगती है लखनऊ क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है
mai-kashii-ab-mirii-aadat-ke-sivaa-kuchh-bhii-nahiin-jaan-nisar-akhtar-ghazals
मय-कशी अब मिरी आदत के सिवा कुछ भी नहीं ये भी इक तल्ख़ हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं फ़ित्ना-ए-अक़्ल के जूया मिरी दुनिया से गुज़र मेरी दुनिया में मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं दिल में वो शोरिश-ए-जज़्बात कहाँ तेरे बग़ैर एक ख़ामोश क़यामत के सिवा कुछ भी नहीं मुझ को ख़ुद अपनी जवानी की क़सम है कि ये इश्क़ इक जवानी की शरारत के सिवा कुछ भी नहीं
tamaam-umr-azaabon-kaa-silsila-to-rahaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals
तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा गुज़र ही आए किसी तरह तेरे दीवाने क़दम क़दम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा ये और बात कि हर छेड़ ला-उबाली थी तिरी नज़र का दिलों से मोआमला तो रहा
ashaar-mire-yuun-to-zamaane-ke-liye-hain-jaan-nisar-akhtar-ghazals
अशआ'र मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं कुछ शेर फ़क़त उन को सुनाने के लिए हैं अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की वर्ना ये फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
laakh-aavaara-sahii-shahron-ke-futpaathon-pe-ham-jaan-nisar-akhtar-ghazals
लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम लाश ये किस की लिए फिरते हैं इन हाथों पे हम अब उन्हीं बातों को सुनते हैं तो आती है हँसी बे-तरह ईमान ले आए थे जिन बातों पे हम कोई भी मौसम हो दिल की आग कम होती नहीं मुफ़्त का इल्ज़ाम रख देते बरसातों पे हम ज़ुल्फ़ से छनती हुई उस के बदन की ताबिशें हँस दिया करते थे अक्सर चाँदनी रातों पे हम अब उन्हें पहचानते भी शर्म आती है हमें फ़ख़्र करते थे कभी जिन की मुलाक़ातों पे हम
sau-chaand-bhii-chamkenge-to-kyaa-baat-banegii-jaan-nisar-akhtar-ghazals
सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी उन से यही कह आएँ कि अब हम न मिलेंगे आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी ऐ नावक-ए-ग़म दिल में है इक बूँद लहू की कुछ और तो क्या हम से मुदारात बनेगी ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें ऐ इश्क़ हमारी न तिरे सात बनेगी ये क्या है कि बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी
aahat-sii-koii-aae-to-lagtaa-hai-ki-tum-ho-jaan-nisar-akhtar-ghazals
आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर नद्दी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो
diida-o-dil-men-koii-husn-bikhartaa-hii-rahaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals
दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा लाख पर्दों में छुपा कोई सँवरता ही रहा रौशनी कम न हुई वक़्त के तूफ़ानों में दिल के दरिया में कोई चाँद उतरता ही रहा रास्ते भर कोई आहट थी कि आती ही रही कोई साया मिरे बाज़ू से गुज़रता ही रहा मिट गया पर तिरी बाँहों ने समेटा न मुझे शहर दर शहर मैं गलियों में बिखरता ही रहा लम्हा लम्हा रहे आँखों में अंधेरे लेकिन कोई सूरज मिरे सीने में उभरता ही रहा
mujhe-maaluum-hai-main-saarii-duniyaa-kii-amaanat-huun-jaan-nisar-akhtar-ghazals
मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ मगर वो लम्हा जब मैं सिर्फ़ अपना हो सा जाता हूँ मैं तुम से दूर रहता हूँ तो मेरे साथ रहती हो तुम्हारे पास आता हूँ तो तन्हा हो सा जाता हूँ मैं चाहे सच ही बोलूँ हर तरह से अपने बारे में मगर तुम मुस्कुराती हो तो झूटा हो सा जाता हूँ तिरे गुल-रंग होंटों से दहकती ज़िंदगी पी कर मैं प्यासा और प्यासा और प्यासा हो सा जाता हूँ तुझे बाँहों में भर लेने की ख़्वाहिश यूँ उभरती है कि मैं अपनी नज़र में आप रुस्वा हो सा जाता हूँ
hausla-kho-na-diyaa-terii-nahiin-se-ham-ne-jaan-nisar-akhtar-ghazals
हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने कितनी शिकनों को चुना तेरी जबीं से हम ने वो भी क्या दिन थे कि दीवाना बने फिरते थे सुन लिया था तिरे बारे में कहीं से हम ने जिस जगह पहले-पहल नाम तिरा आता है दास्ताँ अपनी सुनाई है वहीं से हम ने यूँ तो एहसान हसीनों के उठाए हैं बहुत प्यार लेकिन जो किया है तो तुम्हीं से हम ने कुछ समझ कर ही ख़ुदा तुझ को कहा है वर्ना कौन सी बात कही इतने यक़ीं से हम ने
maanaa-ki-rang-rang-tiraa-pairahan-bhii-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है पर इस में कुछ करिश्मा-ए-अक्स-ए-बदन भी है अक़्ल-ए-मआश ओ हिकमत-ए-दुनिया के बावजूद हम को अज़ीज़ इश्क़ का दीवाना-पन भी है मुतरिब भी तू नदीम भी तू साक़िया भी तू तू जान-ए-अंजुमन ही नहीं अंजुमन भी है बाज़ू छुआ जो तू ने तो उस दिन खुला ये राज़ तू सिर्फ़ रंग-ओ-बू ही नहीं है बदन भी है ये दौर किस तरह से कटेगा पहाड़ सा यारो बताओ हम में कोई कोहकन भी है
zamiin-hogii-kisii-qaatil-kaa-daamaan-ham-na-kahte-the-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे अकारत जाएगा ख़ून-ए-शहीदाँ हम न कहते थे इलाज-ए-चाक-ए-पैराहन हुआ तो इस तरह होगा सिया जाएगा काँटों से गरेबाँ हम न कहते थे तराने कुछ दिए लफ़्ज़ों में ख़ुद को क़ैद कर लेंगे अजब अंदाज़ से फैलेगा ज़िंदाँ हम न कहते थे कोई इतना न होगा लाश भी ले जा के दफ़ना दे इन्हीं सड़कों पे मर जाएगा इंसाँ हम न कहते थे नज़र लिपटी है शोलों में लहू तपता है आँखों में उठा ही चाहता है कोई तूफ़ाँ हम न कहते थे छलकते जाम में भीगी हुई आँखें उतर आईं सताएगी किसी दिन याद-ए-याराँ हम न कहते थे नई तहज़ीब कैसे लखनऊ को रास आएगी उजड़ जाएगा ये शहर-ए-ग़ज़ालाँ हम न कहते थे
ai-dard-e-ishq-tujh-se-mukarne-lagaa-huun-main-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझ से मुकरने लगा हूँ मैं मुझ को संभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था और अब एक आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं ऐ चश्म-ए-यार मेरा सुधरना मुहाल था तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं ये मेहर-ओ-माह अर्ज़-ओ-समा मुझ में खो गए इक काएनात बन के उभरने लगा हूँ मैं इतनों का प्यार मुझ से सँभाला न जाएगा लोगो तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं दिल्ली कहाँ गईं तिरे कूचों की रौनक़ें गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं
chaunk-chaunk-uthtii-hai-mahlon-kii-fazaa-raat-gae-jaan-nisar-akhtar-ghazals
चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए कौन देता है ये गलियों में सदा रात गए ये हक़ाएक़ की चटानों से तराशी दुनिया ओढ़ लेती है तिलिस्मों की रिदा रात गए चुभ के रह जाती है सीने में बदन की ख़ुश्बू खोल देता है कोई बंद-ए-क़बा रात गए आओ हम जिस्म की शम्ओं से उजाला कर लें चाँद निकला भी तो निकलेगा ज़रा रात गए तू न अब आए तो क्या आज तलक आती है सीढ़ियों से तिरे क़दमों की सदा रात गए
vo-log-hii-har-daur-men-mahbuub-rahe-hain-jaan-nisar-akhtar-ghazals
वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं तूफ़ान की आवाज़ तो आती नहीं लेकिन लगता है सफ़ीने से कहीं डूब रहे हैं उन को न पुकारो ग़म-ए-दौराँ के लक़ब से जो दर्द किसी नाम से मंसूब रहे हैं हम भी तिरी सूरत के परस्तार हैं लेकिन कुछ और भी चेहरे हमें मर्ग़ूब रहे हैं अल्फ़ाज़ में इज़हार-ए-मोहब्बत के तरीक़े ख़ुद इश्क़ की नज़रों में भी मायूब रहे हैं इस अहद-ए-बसीरत में भी नक़्क़ाद हमारे हर एक बड़े नाम से मरऊब रहे हैं इतना भी न घबराओ नई तर्ज़-ए-अदा से हर दौर में बदले हुए उस्लूब रहे हैं
zulfen-siina-naaf-kamar-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर एक नदी में कितने भँवर सदियों सदियों मेरा सफ़र मंज़िल मंज़िल राहगुज़र कितना मुश्किल कितना कठिन जीने से जीने का हुनर गाँव में आ कर शहर बसे गाँव बिचारे जाएँ किधर फूँकने वाले सोचा भी फैलेगी ये आग किधर लाख तरह से नाम तिरा बैठा लिक्खूँ काग़ज़ पर छोटे छोटे ज़ेहन के लोग हम से उन की बात न कर पेट पे पत्थर बाँध न ले हाथ में सजते हैं पत्थर रात के पीछे रात चले ख़्वाब हुआ हर ख़्वाब-ए-सहर शब भर तो आवारा फिरे लौट चलें अब अपने घर
aae-kyaa-kyaa-yaad-nazar-jab-padtii-in-daalaanon-par-jaan-nisar-akhtar-ghazals
आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो चलते चलते रुक जाता हूँ सारी की दूकानों पर बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुर्वाई भी जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर उस का क्या मन-भेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएँ इन रूमानों पर
aankhen-churaa-ke-ham-se-bahaar-aae-ye-nahiin-jaan-nisar-akhtar-ghazals
आँखें चुरा के हम से बहार आए ये नहीं हिस्से में अपने सिर्फ़ ग़ुबार आए ये नहीं कू-ए-ग़म-ए-हयात में सब उम्र काट दी थोड़ा सा वक़्त वाँ भी गुज़ार आए ये नहीं ख़ुद इश्क़ क़ुर्ब-ए-जिस्म भी है क़ुर्ब-ए-जाँ के साथ हम दूर ही से उन को पुकार आए ये नहीं आँखों में दिल खुले हों तो मौसम की क़ैद क्या फ़स्ल-ए-बहार ही में बहार आए ये नहीं अब क्या करें कि हुस्न जहाँ है अज़ीज़ है तेरे सिवा किसी पे न प्यार आए ये नहीं वा'दों को ख़ून-ए-दिल से लिखो तब तो बात है काग़ज़ पे क़िस्मतों को सँवार आए ये नहीं कुछ रोज़ और कल की मुरव्वत में काट लें दिल को यक़ीन-ए-वादा-ए-यार आए ये नहीं
ranj-o-gam-maange-hai-andoh-o-balaa-maange-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है दिल वो मुजरिम है कि ख़ुद अपनी सज़ा माँगे है चुप है हर ज़ख़्म-ए-गुलू चुप है शहीदों का लहू दस्त-ए-क़ातिल है जो मेहनत का सिला माँगे है तू भी इक दौलत-ए-नायाब है पर क्या कहिए ज़िंदगी और भी कुछ तेरे सिवा माँगे है खोई खोई ये निगाहें ये ख़मीदा पलकें हाथ उठाए कोई जिस तरह दुआ माँगे है रास अब आएगी अश्कों की न आहों की फ़ज़ा आज का प्यार नई आब-ओ-हवा माँगे है बाँसुरी का कोई नग़्मा न सही चीख़ सही हर सुकूत-ए-शब-ए-ग़म कोई सदा माँगे है लाख मुनकिर सही पर ज़ौक़-ए-परस्तिश मेरा आज भी कोई सनम कोई ख़ुदा माँगे है साँस वैसे ही ज़माने की रुकी जाती है वो बदन और भी कुछ तंग क़बा माँगे है दिल हर इक हाल से बेगाना हुआ जाता है अब तवज्जोह न तग़ाफ़ुल न अदा माँगे है
tuluu-e-subh-hai-nazren-uthaa-ke-dekh-zaraa-jaan-nisar-akhtar-ghazals
तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा शिकस्त-ए-ज़ुल्मत-ए-शब मुस्कुरा के देख ज़रा ग़म-ए-बहार ओ ग़म-ए-यार ही नहीं सब कुछ ग़म-ए-जहाँ से भी दिल को लगा के देख ज़रा बहार कौन सी सौग़ात ले के आई है हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना तू आ के देख ज़रा हर एक सम्त से इक आफ़्ताब उभरेगा चराग़-ए-दैर-ओ-हरम तो बुझा के देख ज़रा वजूद-ए-इश्क़ की तारीख़ का पता तो चले वरक़ उलट के तू अर्ज़ ओ समा के देख ज़रा मिले तो तू ही मिले और कुछ क़ुबूल नहीं जहाँ में हौसले अहल-ए-वफ़ा के देख ज़रा तिरी नज़र से है रिश्ता मिरे गिरेबाँ का किधर है मेरी तरफ़ मुस्कुरा के देख ज़रा
ham-ne-kaatii-hain-tirii-yaad-men-raaten-aksar-jaan-nisar-akhtar-ghazals
हम ने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर और तो कौन है जो मुझ को तसल्ली देता हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद ग़म-ज़दा लगती हैं क्यूँ चाँदनी रातें अक्सर हाल कहना है किसी से तो मुख़ातब है कोई कितनी दिलचस्प हुआ करती हैं बातें अक्सर इश्क़ रहज़न न सही इश्क़ के हाथों फिर भी हम ने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर उन से पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुम ने जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर हम ने उन तुंद-हवाओं में जलाए हैं चराग़ जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर
log-kahte-hain-ki-tuu-ab-bhii-khafaa-hai-mujh-se-jaan-nisar-akhtar-ghazals
लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से
achchhaa-hai-un-se-koii-taqaazaa-kiyaa-na-jaae-jaan-nisar-akhtar-ghazals
अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए अपनी नज़र में आप को रुस्वा किया न जाए हम हैं तिरा ख़याल है तेरा जमाल है इक पल भी अपने आप को तन्हा किया न जाए उठने को उठ तो जाएँ तिरी अंजुमन से हम पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए उन की रविश जुदा है हमारी रविश जुदा हम से तो बात बात पे झगड़ा किया न जाए हर-चंद ए'तिबार में धोके भी हैं मगर ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए लहजा बना के बात करें उन के सामने हम से तो इस तरह का तमाशा किया न जाए इनआ'म हो ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ जब तक सिफ़ारिशों को इकट्ठा किया न जाए इस वक़्त हम से पूछ न ग़म रोज़गार के हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए
dil-ko-har-lamha-bachaate-rahe-jazbaat-se-ham-jaan-nisar-akhtar-ghazals
दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम इतने मजबूर रहे हैं कभी हालात से हम नश्शा-ए-मय से कहीं प्यास बुझी है दिल की तिश्नगी और बढ़ा लाए ख़राजात से हम आज तो मिल के भी जैसे न मिले हों तुझ से चौंक उठते थे कभी तेरी मुलाक़ात से हम इश्क़ में आज भी है नीम-निगाही का चलन प्यार करते हैं उसी हुस्न-ए-रिवायात से हम मर्कज़-ए-दीदा-ए-ख़ुबान-ए-जहाँ हैं भी तो क्या एक निस्बत भी तो रखते हैं तिरी ज़ात से हम