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havas-nasiib-nazar-ko-kahiin-qaraar-nahiin-sahir-ludhianvi-ghazals
हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं मैं मुंतज़िर हूँ मगर तेरा इंतिज़ार नहीं हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए'तिबार नहीं न जाने कितने गिले इस में मुज़्तरिब हैं नदीम वो एक दिल जो किसी का गिला-गुज़ार नहीं गुरेज़ का नहीं क़ाइल हयात से लेकिन जो सच कहूँ कि मुझे मौत नागवार नहीं ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया ज़माने ने कि अब हयात पे तेरा भी इख़्तियार नहीं
mohabbat-tark-kii-main-ne-garebaan-sii-liyaa-main-ne-sahir-ludhianvi-ghazals
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने उन्हें अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है कि कुछ मुद्दत हसीं ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैं ने बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने
lab-pe-paabandii-to-hai-ehsaas-par-pahraa-to-hai-sahir-ludhianvi-ghazals
लब पे पाबंदी तो है एहसास पर पहरा तो है फिर भी अहल-ए-दिल को अहवाल-ए-बशर कहना तो है ख़ून-ए-आ'दा से न हो ख़ून-ए-शहीदाँ ही से हो कुछ न कुछ इस दौर में रंग-ए-चमन निखरा तो है अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मस्लक छोड़ दें रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का ये मंशा तो है है जिन्हें सब से ज़ियादा दा'वा-ए-हुब्बुल-वतन आज उन की वज्ह से हुब्ब-ए-वतन रुस्वा तो है बुझ रहे हैं एक इक कर के अक़ीदों के दिए इस अँधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है झूट क्यूँ बोलें फ़रोग़-ए-मस्लहत के नाम पर ज़िंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है
sharmaa-ke-yuun-na-dekh-adaa-ke-maqaam-se-sahir-ludhianvi-ghazals
शर्मा के यूँ न देख अदा के मक़ाम से अब बात बढ़ चुकी है हया के मक़ाम से तस्वीर खींच ली है तिरे शोख़ हुस्न की मेरी नज़र ने आज ख़ता के मक़ाम से दुनिया को भूल कर मिरी बाँहों में झूल जा आवाज़ दे रहा हूँ वफ़ा के मक़ाम से दिल के मुआ'मले में नतीजे की फ़िक्र क्या आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से
bujhaa-diye-hain-khud-apne-haathon-mohabbaton-ke-diye-jalaa-ke-sahir-ludhianvi-ghazals
बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के मिरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं उमीद की बस्तियाँ बसा के तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के न सोचने पर भी सोचती हूँ कि ज़िंदगानी में क्या रहेगा तिरी तमन्ना को दफ़्न कर के तिरे ख़यालों से दूर जा के
ponchh-kar-ashk-apnii-aankhon-se-muskuraao-to-koii-baat-bane-sahir-ludhianvi-ghazals
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने ज़िंदगी भीक में नहीं मिलती ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है अपना हक़ संग-दिल ज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बने रंग और नस्ल ज़ात और मज़हब जो भी है आदमी से कमतर है इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह मान जाओ तो कोई बात बने नफ़रतों के जहान में हम को प्यार की बस्तियाँ बसानी हैं दूर रहना कोई कमाल नहीं पास आओ तो कोई बात बने
bahut-ghutan-hai-koii-suurat-e-bayaan-nikle-sahir-ludhianvi-ghazals
बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे मलाल क्यूँ हो कि कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले उधर भी ख़ाक उड़ी है इधर भी ख़ाक उड़ी जहाँ जहाँ से बहारों के कारवाँ निकले सितम के दौर में हम अहल-ए-दिल ही काम आए ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे-ज़बाँ निकले
sadiyon-se-insaan-ye-suntaa-aayaa-hai-sahir-ludhianvi-ghazals
सदियों से इंसान ये सुनता आया है दुख की धूप के आगे सुख का साया है हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है झूट तो क़ातिल ठहरा इस का क्या रोना सच ने भी इंसाँ का ख़ूँ बहाया है पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं इस मक़्तल में कौन हमें ले आया है अव्वल अव्वल जिस दिल ने बर्बाद किया आख़िर आख़िर वो दिल ही काम आया है इतने दिन एहसान किया दीवानों पर जितने दिन लोगों ने साथ निभाया है
sang-e-jafaa-kaa-gam-nahiin-dast-e-talab-kaa-dar-nahiin-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
संग-ए-जफ़ा का ग़म नहीं दस्त-ए-तलब का डर नहीं अपना है उस पर आशियाँ नख़्ल जो बारवर नहीं सुनते हो अहल-ए-क़ाफ़िला मैं कोई राहबर नहीं देख रहा हूँ तुम में से एक भी राह पर नहीं मौत का घर है आसमाँ इस से कहीं मफ़र नहीं निकलें तो कोई दर नहीं भागें तो रहगुज़र नहीं पहले जिगर पर आह का नाम न था निशाँ न था आख़िर-ए-कार ये हुआ आह तो है जिगर नहीं सुब्ह-ए-अज़ल से ता-अबद क़िस्सा न होगा ये तमाम जौर-ए-फ़लक की दास्ताँ ऐसी भी मुख़्तसर नहीं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा हूँ छेड़ न मुझ को ऐ नसीम ज़ौक़ फ़ुग़ाँ का है मुझे शिक्वा-ए-अब्र-ए-तर नहीं मुंकिर-ए-हश्र है किधर देखे तू आँख खोल कर हश्र की जो ख़बर न दे ऐसी कोई सहर नहीं शबनम ओ गुल को देख कर वज्द न आए किस तरह ख़ंदा बे-सबब नहीं गिर्या बे-असर नहीं तेरे फ़क़ीर का ग़ुरूर ताजवरों से है सिवा तर्फ़-ए-कुलह में दे शिकन उस को ये दर्द-ए-सर नहीं कोशक ओ क़स्र ओ बाम-ओ-दर तू ने बिना किए तो क्या हैफ़ है ख़ानुमाँ-ख़राब दिल में किसी के घेर नहीं नाला-कशी रक़ीब से मेरी तरह मुहाल है दिल नहीं हौसला नहीं ज़ोहरा नहीं जिगर नहीं शातिर-ए-पीर-ए-आसमाँ वाह-री तेरी दस्तबुर्द ख़ुसरव ओ कैक़िबाद की तेग़ नहीं कमर नहीं शान करीम की ये है हाँ से हो पेशतर अता लुत्फ़ अता का क्या हो जब हाँ से हो पेशतर नहीं लाख वो बे-रुख़ी करे लाख वो कज-रवी करे कुछ तो मलाल इस का हो दिल को मिरे मगर नहीं सुन के बुरा न मानिए सच को न झूट जानिए ज़िक्र है कुछ गिला नहीं बात है नेश्तर नहीं
kis-liye-phirte-hain-ye-shams-o-qamar-donon-saath-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
किस लिए फिरते हैं ये शम्स ओ क़मर दोनों साथ किस को ये ढूँडते हैं बरहना-सर दोनों साथ कैसी या-रब ये हवा सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल चली बुझ गया दिल मिरा और शम-ए-सहर दोनों साथ ब'अद मेरे न रहा इश्क़ की मंज़िल का निशाँ मिट गए राह-रौ ओ राहगुज़र दोनों साथ ऐ जुनूँ देख इसी सहरा में अकेला हूँ मैं रहते जिस दश्त में हैं ख़ौफ़-ओ-ख़तर दोनों साथ मुझ को हैरत है शब-ए-ऐश की कोताही पर या ख़ुदा आए थे क्या शाम-ओ-सहर दोनों साथ उस ने फेरी निगह-ए-नाज़ ये मालूम हुआ खिंच गया सीने से तीर और जिगर दोनों साथ ग़म को दी दिल ने जगह दिल को जगह पहलू ने एक गोशे में करेंगे ये बसर दोनों साथ इस को रोकूँ मैं इलाही कि सँभालूँ उस को कि तड़पने लगे दिल और जिगर दोनों साथ नाज़ बढ़ता गया बढ़ते गए जूँ जूँ गेसू बल्कि लेने लगे अब ज़ुल्फ़ ओ कमर दोनों साथ तुझ से मतलब है नहीं दुनिया ओ उक़्बा से ग़रज़ तू नहीं जब तो उजड़ जाएँ ये घर दोनों साथ बात सुनना न किसी चाहने वाले की कभी कान में फूँक रहे हैं ये गुहर दोनों साथ आँधियाँ आह की भी अश्क का सैलाब भी है देते हैं दिल की ख़राबी की ख़बर दोनों साथ क्या कहूँ ज़ोहरा ओ ख़ुर्शीद का आलम ऐ 'नज़्म' निकले ख़ल्वत से जूँही वक़्त-ए-सहर दोनों साथ
hansii-men-vo-baat-main-ne-kah-dii-ki-rah-gae-aap-dang-ho-kar-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
हँसी में वो बात मैं ने कह दी कि रह गए आप दंग हो कर छुपा हुआ था जो राज़ दिल में खुला वो चेहरे का रंग हो कर हमेशा कूच ओ मक़ाम अपना रहा है ख़िज़्र-ए-रह-ए-तरीक़त रुका तो मैं संग-ए-मील बन कर चला तो आवाज़-ए-चंग हो कर न तोड़ते आरसी अगर तुम तो इतने यूसुफ़ नज़र न आते ये क़ाफ़िला खींच लाई सारा शिकस्त-ए-आईना ज़ंग हो कर शबाब ओ पीरी का आना जाना ग़ज़ब का पुर-दर्द है फ़साना ये रह गई बन के गर्द-ए-हसरत वो उड़ गया रुख़ से रंग हो कर जो राज़ दिल से ज़बाँ तक आया तो उस को क़ाबू में फिर न पाया ज़बाँ से निकला कलाम बन कर कमाँ से छूटा ख़दंग हो कर ग़ज़ब है बहर-ए-फ़ना का धारा कि मुझ को उलझा के मारा मारा नफ़स ने मौजों का जाल बुन कर लहद ने काम-ए-नहंग हो कर मिला दिल-ए-ना-हिफ़ाज़ मुझ को तो क्या किसी का लिहाज़ मुझ को कहीं गरेबाँ न फाड़ डालें जनाब-ए-नासेह भी तंग हो कर जो अब की मीना-ए-मय को तोड़ा चलेगी तलवार मोहतसिब से लहू भी रिंदों का देख लेना बहा मय-ए-लाला-रंग हो कर न ज़ब्त से शिकवा लब तक आया न सब्र ने आह खींचने दी रहा दहन में वो क़ुफ़्ल बन कर गिराया छाती पे संग हो कर समझ ले सूफ़ी अगर ये नुक्ता है एक बज़्म-ए-समा-ए-हस्ती तो नौ-पियाले ये आसमाँ के बजें अभी जल-तरंग हो कर भला हो अफ़्सुर्दा-ख़ातिरी का कि हसरतों को दबा के रक्खा बचा लिया हरज़गी से उस ने लिहाज़-ए-नामूस-ओ-नंग हो कर जिगर-ख़राशी से पाई फ़ुर्सत न सीना-कावी से नाख़ुनों ने गला गरेबाँ ने घूँट डाला जुनूँ की शोरिश से तंग हो कर बदल के दुनिया ने भेस सदहा इसे डराया उसे लुभाया कभी ज़न-ए-पीर-ज़ाल बन कर कभी बुत-ए-शोख़-ओ-शंग हो कर उठे थे तलवार खींच कर तुम तो फिर तअम्मुल न चाहिए था कि रह गई मेरे दिल की हसरत शहीद-ए-तेग़-ए-दरंग हो कर जो वलवले थे वो दब गए सब हुजूम-ए-लैत-ओ-लअल में 'हैदर' जो हौसले थे वो दिल ही दिल में रहे दरेग़-ओ-दरंग हो कर
bidat-masnuun-ho-gaii-hai-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
बिदअ'त मस्नून हो गई है उम्मत मतऊन हो गई है क्या कहना तिरी दुआ का ज़ाहिद गर्दूं का सुतून हो गई है रहने दो अजल जो घात में है मुझ पर मफ़्तून हो गई है हसरत को ग़ुबार-ए-दिल में ढूँडो ज़िंदा मदफ़ून हो गई है वहशत का था नाम अव्वल अव्वल अब तो वो जुनून हो गई है वाइज़ ने बुरी नज़र से देखा मय शीशे में ख़ून हो गई है आरिज़ के क़रीन गुलाब का फूल हम-रंग की दून हो गई है बंदा हूँ तिरा ज़बान-ए-शीरीं दुनिया मम्नून हो गई है 'हैदर' शब-ए-ग़म में मर्ग-ए-नागाह शादी का शुगून हो गई है
mujh-ko-samjho-yaadgaar-e-raftagaan-e-lucknow-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ हूँ क़द-ए-आदम ग़ुबार-ए-कारवान-ए-लखनऊ ख़ून-ए-हसरत कह रहा है दास्तान-ए-लखनऊ रह गया है अब यही रंगीं-बयान-ए-लखनऊ गोश-ए-इबरत से सुने कोई मिरी फ़रियाद है बुलबुल-ए-ख़ूनीं नवा-ए-बोस्तान-ए-लखनऊ मेरे हर आँसू में इक आईना-ए-तस्वीर है मेरे हर नाले में है तर्ज़-ए-फ़ुग़ान-ए-लखनऊ ढूँढता है अब किसे ले कर चराग़-ए-आफ़्ताब क्यूँ मिटाया ऐ फ़लक तू ने निशान-ए-लखनऊ लखनऊ जिन से इबारत थी हुए वो नापदीद है निशान-ए-लखनऊ बाक़ी न शान-ए-लखनऊ अब नज़र आता नहीं वो मजमा-ए-अहल-ए-कमाल खा गए उन को ज़मीन-ओ-आसमान-ए-लखनऊ पहले था अहल-ए-ज़बाँ का दौर अब गर्दिश में हैं चाहिए थी तेग़-ए-उर्दू को फ़सान-ए-लखनऊ मर्सिया-गो कितने यकता-ए-ज़माना थे यहाँ कोई तो इतनों में होता नौहा-ख़्वान-ए-लखनऊ ये ग़ुबार-ए-ना-तावाँ ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है ख़ानदान अपना था शम्-ए-दूदमान-ए-लखनऊ चलता था जब घुटनियों अपने यहाँ तिफ़्ल-ए-रज़ीअ' सज्दा करते थे उसे गर्दन-कुशान-ए-लखनऊ अहद-ए-पीराना-सरी में क्यूँ न शीरीं हो सुख़न बचपने में मैं ने चूसी है ज़बान-ए-लखनऊ गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वाँ तुझे पूछ उस के दिल से जो है रुत्बा-दान-ए-लखनऊ बू-ए-उन्स आती है 'हैदर' ख़ाक-ए-मटिया-बुर्ज से जम्अ' हैं इक जा वतन-आवारगान-ए-लखनऊ
udaa-kar-kaag-shiishe-se-mai-e-gul-guun-nikaltii-hai-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
उड़ा कर काग शीशे से मय-ए-गुल-गूँ निकलती है शराबी जम्अ हैं मय-ख़ाना में टोपी उछलती है बहार-ए-मय-कशी आई चमन की रुत बदलती है घटा मस्ताना उठती है हवा मस्ताना चलती है ज़-ख़ुद-रफ़्ता तबीअत कब सँभाले से सँभलती है न बन आती है नासेह से न कुछ वाइज़ की चलती है ये किस की है तमन्ना चुटकियाँ लेती है जो दिल में ये किस की आरज़ू है जो कलेजे को मसलती है वो दीवाना है जो इस फ़स्ल में फ़स्दें न खुलवाए रग-ए-हर-शाख़-ए-गुल से ख़ून की नद्दी उबलती है सहर होते ही दम निकला ग़श आते ही अजल आई कहाँ हूँ मैं नसीम-ए-सुब्ह पंखा किस को झलती है तमत्तो एक का है एक के नुक़साँ से आलम में कि साया फैलता जाता है जूँ जूँ धूप ढलती है बिना रक्खी है ग़म पर ज़ीस्त की ये हो गया साबित न लपका आह का छूटेगा जब तक साँस चलती है क़रार इक दम नहीं आता है ख़ून-ए-बे-गुनह पी कर कि अब तो ख़ुद ब-ख़ुद तलवार रह रह कर उगलती है जहन्नम की न आँच आएगी मय-ख़्वारों पे ओ वाइज़ शराब आलूदा हो जो शय वो कब आतिश में जलती है न दिखलाना इलाही एक आफ़त है शब-ए-फ़ुर्क़त न जो काटे से कटती है न जो टाले से टलती है ये अच्छा शुग़्ल वहशत में निकाला तू ने ऐ 'हैदर' गरेबाँ में उलझने से तबीअत तो बहलती है
is-vaaste-adam-kii-manzil-ko-dhuundte-hain-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
इस वास्ते अदम की मंज़िल को ढूँडते हैं मुद्दत से दोस्तों की महफ़िल को ढूँडते हैं ये दिल के पार हो कर फिर दिल को ढूँडते हैं तीर-ए-निगाह उस के बिस्मिल को ढूँडते हैं इक लहर में न थे हम क्यूँ ऐ हबाब देखा यूँ आँख बंद कर के साहिल को ढूँडते हैं तर्ज़-ए-करम की शाहिद हैं मेवा-दार शाख़ें इस तरह सर झुका कर साइल को ढूँडते हैं है वस्ल ओ हिज्र अपना ऐ क़ैस तुर्फ़ा-मज़मूँ महमिल में बैठे हैं और महमिल को ढूँडते हैं तूल-ए-अमल का रस्ता मुमकिन नहीं कि तय हो मंज़िल पे भी पहुँच कर मंज़िल को ढूँडते हैं हसरत शबाब की है अय्याम-ए-शेब में भी मादूम की हवस है ज़ाइल को ढूँडते हैं उठते हैं वलवले कुछ हर बार दर्द बन कर क्या जानिए जिगर को या दिल को ढूँडते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर का मेरे है रश्क दोस्तों को मरता हूँ मैं कि ये क्यूँ क़ातिल को ढूँडते हैं अहल-ए-हवस की कश्ती यक बाम ओ दो हवा है दरिया-ए-इश्क़ में भी साहिल को ढूँडते हैं आया जो रहम मुझ पर इस में भी चाल है कुछ सीने पे हाथ रख कर अब दिल को ढूँडते हैं करते हैं कार-ए-फ़रहाद आसाँ ज़मीन में भी मुश्किल-पसंद हैं हम मुश्किल को ढूँडते हैं ऐ ख़िज़्र पय-ए-ख़जिस्ता बहर-ए-ख़ुदा करम कर भटके हुए मुसाफ़िर मंज़िल को ढूँडते हैं दिल-ख़्वाह तेरे इश्वे दिल-जू तिरे इशारे वो दिल टटोलते हैं ये दिल को ढूँडते हैं ऐ 'नज़्म' क्या बताएँ हज्ज-ओ-तवाफ़ अपना काबे में भी किसी की महमिल को ढूँडते हैं
subha-hai-zunnaar-kyuun-kaisii-kahii-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
सुब्हा है ज़ुन्नार क्यूँ कैसी कही ज़ाहिद-ए-अय्यार क्यूँ कैसी कही कट गए अग़्यार क्यूँ कैसी कही छा गई हर बार क्यूँ कैसी कही हैं ये सब इक़रार झूटे या नहीं कीजिए इक़रार क्यूँ कैसी कही रूठने से आप का मतलब ये है इस को आए प्यार क्यूँ कैसी कही कह दिया मैं ने सहर है झूट-मूट हो गए बेदार क्यूँ कैसी कही एक तो कहते हैं सदहा भपतियाँ और फिर इसरार क्यूँ कैसी कही नासेहा ये बहस दीवानों के साथ अक़्ल की है मार क्यूँ कैसी कही या ख़फ़ा थे या ज़रा सी बात पर हो गई बौछार क्यूँ कैसी कही मुझ से बैअत कर ले तू भी वाइज़ा हाथ लाना यार क्यूँ कैसी कही सुर्मा दे कर दिल के लेने का है क़स्द आँख तो कर चार क्यूँ कैसी कही जान दे दे चल के दर पर यार के ओ दिल-ए-बीमार क्यूँ कैसी कही क्या ही बिगड़े हो पत्ते की बात पर हो गए बेज़ार क्यूँ कैसी कही अब तो 'हैदर' और ही कुछ रंग हैं मानता हूँ यार क्यूँ कैसी कही
ehsaan-le-na-himmat-e-mardaana-chhod-kar-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
एहसान ले न हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर रस्ता भी चल तू सब्ज़ा-ए-बेगाना छोड़ कर मरने के बा'द फिर नहीं कोई शरीक-ए-हाल जाता है शम-ए-कुश्ता को परवाना छोड़ कर होंटों पे आज तक हैं शब-ए-ऐश के मज़े साक़ी का लब लिया लब-ए-पैमाना छोड़ कर अफ़ई नहीं खुली हुई ज़ुल्फ़ों का अक्स है जाते कहाँ हो आईना ओ शाना छोड़ कर तूल-ए-अमल पे दिल न लगाना कि अहल-ए-बज़्म जाएँगे ना-तमाम ये अफ़्साना छोड़ कर लबरेज़ जाम-ए-उम्र हुआ आ गई अजल लो उठ गए भरा हुआ पैमाना छोड़ कर उस पीर-ज़ाल-ए-दहर की हम ठोकरों में हैं जब से गई है हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर पहरों हमारा आप में आना मुहाल है कोसों निकल गया दिल-ए-दीवाना छोड़ कर उतरा जो शीशा ताक़ से ज़ाहिद का है ये हाल करता है रक़्स सज्दा-ए-शुकराना छोड़ कर ये सुमअ'-ओ-रिया तो निशानी है कुफ़्र की ज़ुन्नार बाँध सुब्हा-ए-सद-दाना छोड़ कर रिंदान-ए-मय-कदा भी हैं ऐ ख़िज़्र मुंतज़िर बस्ती में आइए कभी वीराना छोड़ कर एहसान सर पे लग़्ज़िश-ए-मस्ताना का हुआ हम दो क़दम न जा सके मय-ख़ाना छोड़ कर वादी बहुत मुहीब है बीम-ओ-उमीद का देखेंगे शेर पर दिल-ए-दीवाना छोड़ कर रो रो के कर रही है सुराही विदाअ' उसे जाता है दूर दूर जो पैमाना छोड़ कर तौबा तो की है 'नज़्म' बिना होगी किस तरह क्यूँ-कर जिओगे मशरब-ए-रिंदाना छोड़ कर
abas-hai-naaz-e-istignaa-pe-kal-kii-kyaa-khabar-kyaa-ho-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
अबस है नाज़-ए-इस्तिग़्ना पे कल की क्या ख़बर क्या हो ख़ुदा मालूम ये सामान क्या हो जाए सर क्या हो ये आह-ए-बे-असर क्या हो ये नख़्ल-ए-बे-समर क्या हो न हो जब दर्द ही या-रब तो दिल क्या हो जिगर क्या हो जहाँ इंसान खो जाता हो ख़ुद फिर उस की महफ़िल में रसाई किस तरह हो दख़्ल क्यूँकर हो गुज़र क्या हो न पूछूँगा मैं ये भी जाम में है ज़हर या अमृत तुम्हारे हाथ से अंदेशा-ए-नफ़-ओ-ज़रर क्या हो मुरव्वत से हो बेगाना वफ़ा से दूर हो कोसों ये सच है नाज़नीं हो ख़ूबसूरत हो मगर क्या हो शगूफ़े देख कर मुट्ठी में ज़र को मुस्कुराते हैं कि जब उम्र इस क़दर कोताह रखते हैं तो ज़र क्या हो रहा करती है ये हैरत मुझे ज़ुहद-ए-रियाई पर ख़ुदा से जो नहीं डरता उसे बंदे का डर क्या हो कहा मैं ने कि 'नज़्म'-ए-मुब्तला मरता है हसरत में कहा उस ने अगर मर जाए तो मेरा ज़रर क्या हो कहा मैं ने कि है सोज़-ए-जिगर और उफ़ नहीं करता कहा इस की इजाज़त ही नहीं फिर नौहागर क्या हो कहा मैं ने कि दे उस को इजाज़त आह करने की कहा उस ने भड़क उठ्ठे अगर सोज़-ए-जिगर क्या हो कहा मैं ने कि आँसू आँख का लेकिन नहीं थमता कहा आँखें कोई तलवों से मल डाले अगर क्या हो कहा मैं ने क़दम भर पर है वो सूरत दिखा आओ कहा मुँह फेर कर इतना किसी को दर्द-ए-सर क्या हो कहा मैं ने असर मुतलक़ नहीं क्या संग-दिल है तू कहा जब दिल हो पत्थर का तो पत्थर पर असर क्या हो कहा मैं ने जो मर जाए तो क्या हो सोच तू दिल में कहा ना-आक़िबत-अँदेश ने कुछ सोच कर क्या हो कहा मैं ने ख़बर भी है कि दी जाँ उस ने घुट घट कर कहा मर जाए चुपके से तो फिर मुझ को ख़बर क्या हो
koii-mai-de-yaa-na-de-ham-rind-e-be-parvaa-hain-aap-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
कोई मय दे या न दे हम रिंद-ए-बे-पर्वा हैं आप साक़िया अपनी बग़ल में शीशा-ए-सहबा हैं आप ग़ाफ़िल ओ होश्यार वो तिमसाल-ए-यक-आईना हैं वर्ता-ए-हैरत में नादाँ आप हैं दाना हैं आप क्यूँ रहे मेरी दुआ मिन्नत-कश-ए-बाल-ए-मलक नाला-ए-मस्ताना मेरे आसमाँ-पैमा हैं आप है तअ'ज्जुब ख़िज़्र को और आब-ए-हैवाँ की तलब और फिर उज़्लत-गुज़ीन-ए-दामन-ए-सहरा हैं आप मंज़िल-ए-तूल-ए-अमल दरपेश और मोहलत है कम राह किस से पूछिए हैरत में नक़्श-ए-पा हैं आप हक़ से तालिब दीद के हों हम बसीर ऐसे नहीं हम को जो कोतह-नज़र समझें वो ना-बीना हैं आप गुल हमा-तन-ज़ख़्म हैं फिर भी हमा-तन-गोश हैं बे-असर कुछ नाला-हा-ए-बुलबुल-ए-शैदा हैं आप हिर्स से शिकवा करूँ क्या हाथ फैलाने का मैं कहती है वो अपने हाथों ख़ल्क़ में रुस्वा हैं आप हम से ऐ अहल-ए-तन'अउम मुँह छुपाना चाहिए दम भरा करते हैं हम और आइना-सीमा हैं आप
pursish-jo-hogii-tujh-se-jallaad-kyaa-karegaa-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
पुर्सिश जो होगी तुझ से जल्लाद क्या करेगा ले ख़ून मैं ने बख़्शा तू याद क्या करेगा हूँ दाम में पुर-अफ़्शाँ और सादगी से हैराँ क्यूँ तेज़ की हैं छुरियाँ सय्याद क्या करेगा ज़ालिम ये सोच कर अब देता है बोसा-ए-लब जब होंट सी दिए फिर फ़रियाद क्या करेगा ज़ंजीर तार-ए-दामाँ है तौक़ इक गरेबाँ ज़ोर-ए-जुनूँ न कम हो हद्दाद क्या करेगा हम डूब कर मरेंगे हसरत रहेगी तुझ को जब ख़ाक ही न होगी बर्बाद क्या करेगा याक़ूब क़त्अ कर दें उम्मीद-ए-वस्ल दिल से यूसुफ़ सा बंदा कोई आज़ाद क्या करेगा दिल ले के पूछता है तू किस का शेफ़्ता है भूला अभी से ज़ालिम फिर याद क्या करेगा ऐ ख़त्त-ए-ब्याज़ आरिज़ दरकार है जो तुझ को तहरीर हुस्न की कुछ रूदाद क्या करेगा कुंज-ए-क़फ़स से इक दिन होगी रिहाई अपनी मर जाएँगे तो आख़िर सय्याद किया करेगा मिस्ल-ए-सिपंद दिल है बेताब सोज़-ए-ग़म में रह जाएगा तड़प कर फ़रियाद क्या करेगा ऐ शैख़ भर गया है क्यूँ वाज़ की हवा में रीश-ए-सफ़ेद अपनी बर्बाद क्या करेगा ज़ुल्म-ओ-सितम से भी अब ज़ालिम ने हाथ खींचा इस से सितम वो बढ़ कर ईजाद क्या करेगा अज़-बस-कि बे-हुनर हूँ मैं नंग-ए-मो'तरिज़ हूँ मज़मूँ पे मेरे कोई ईराद क्या करेगा ऐ ''नज़्म'' जिस को चाहे वो दे बहिश्त दोज़ख़ नमरूद क्या करेगा शद्दाद क्या करेगा
kyaa-kaarvaan-e-hastii-guzraa-ravaa-ravii-men-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
क्या कारवान-ए-हस्ती गुज़रा रवा-रवी में फ़र्दा को मैं ने देखा गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-दी में थे महव लाला-ओ-गुल किस कैफ़-ए-बे-ख़ुदी में ज़ख़्म-ए-जिगर के टाँके टूटे हँसी हँसी में यारान-ए-बज़्म-ए-इशरत ढूँडूँ कहाँ मैं तुम को तारों की छाँव में या पिछले की चाँदनी में हर उक़्दा में जहाँ के पोशीदा है कशाकश है मौज-ए-ख़ंदा-ए-गुल पिन्हाँ कली कली में ज़ख़्मों में ख़ुद चमक है और उस पे ये सितम है रंग-ए-परीदा से मैं रहता हूँ चाँदनी में हम किस शुमार में थे पुर्सिश जो हम से होती ये इम्तियाज़ पाया आशोब-ए-आगही में हुक्म-ए-क़ज़ा हो जैसा सरज़द हो फ़ेअ'ल वैसा बंदा का दख़्ल भी है फिर इस कही बदी में रफ़्तार-ए-साया को है पस्त-ओ-बुलंद यकसाँ ठोकर कभी न खाए राह-ए-फ़रोतनी में वज्द आ गया फ़लक को ग़श आ गया ज़मीं को दो तरह के असर थे इक सौत-ए-सरमदी में ताबीर उस की शायद एक वापसीं नफ़स हो जो ख़्वाब देखते थे हम सारी ज़िंदगी में लाई हुबाब तक को सैल-ए-फ़ना बहा कर इक आह खींचने को इक दम की ज़िंदगी में महशर की आफ़तों का धड़का नहीं रहा अब सौ हश्र मैं ने देखे दो दिन की ज़िंदगी में पहलू में तू हो ऐ दिल फिर हसरतें हज़ारों किस बात की कमी है तेरी सलामती में पुर्सान-ए-हाल वो हो और सामने बुला कर क्या जानिए ज़बाँ से क्या निकले बे-ख़ुदी में तू एक ज़िल्ल-ए-हस्ती फिर कैसी ख़ुद-परस्ती साया की परवरिश है दामान-ए-बे-ख़ुदी में हाएल बस इक नफ़स है महशर में और हम में पर्दा हबाब का है फ़र्दा में और दी में आँखें दिखा रही है दिन से मुझे शब-ए-ग़म आसार तीरगी के हैं दिन की रौशनी में तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है परछाईं फिर रही है मेरी उसी गली में सज्दा का हुक्म मुझ को तू ने तो अब दिया है पहले ही लिख चुका हूँ मैं ख़त्त-ए-बंदगी में ऐ 'नज़्म' छेड़ कर हम तुझ को हुए पशेमाँ क्या जानते थे ज़ालिम रो देगा दिल-लगी में
ye-aah-e-be-asar-kyaa-ho-ye-nakhl-e-be-samar-kyaa-ho-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
ये आह-ए-बे-असर क्या हो ये नख़्ल-ए-बे-समर क्या हो न हो जब दर्द ही यारब तो दिल क्या हो जिगर क्या हो बग़ल-गीर आरज़ू से हैं मुरादें आरज़ू मुझ से यहाँ इस वक़्त तो इक ईद है तुम जल्वा-गर क्या हो मुक़द्दर में ये लिक्खा है कटेगी उम्र मर-मर कर अभी से मर गए हम देखिए अब उम्र भर क्या हो मुरव्वत से हो बेगाना वफ़ा से दूर हो कोसों ये सच है नाज़नीं हो ख़ूबसूरत हो मगर क्या हो लगा कर ज़ख़्म में टाँके क़ज़ा तेरी न आ जाए जो वो सफ़्फ़ाक सुन पाए बता ऐ चारा-गर क्या हो क़यामत के बखेड़े पड़ गए आते ही दुनिया में ये माना हम ने मर जाना तो मुमकिन है मगर क्या हो कहा मैं ने कि 'नज़्म'-ए-मुब्तला मरता है हसरत में कहा उस ने अगर मर जाए तो मेरा ज़रर क्या हो
ye-huaa-maaal-hubaab-kaa-jo-havaa-men-bhar-ke-ubhar-gayaa-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
ये हुआ मआल हुबाब का जो हवा में भर के उभर गया कि सदा है लुतमा-ए-मौज की सर-ए-पुर-ग़ुरूर किधर गया मुझे जज़्ब-ए-दिल ने ऐ जुज़ बहक के रखा क़दम कोई मुझे पर लगाए शौक़ ने कहीं थक के मैं जो ठहर गया मुझे पीरी और शबाब में जो है इम्तियाज़ तो इस क़दर कोई झोंका बाद-ए-सहर का था मिरे पास से जो गुज़र गया असर उस के इश्वा-ए-नाज़ का जो हुआ वो किस से बयाँ करूँ मुझे तो अजल की है आरज़ू उसे वहम है कि ये मर गया तुझे ऐ ख़तीब-ए-चमन नहीं ख़बर अपने ख़ुत्बा-ए-शौक़ में कि किताब-ए-गुल का वरक़ वरक़ तिरी बे-ख़ुदी से बिखर गया किसे तू सुनाता है हम-नशीं कि है इश्वा-ए-दुश्मन-ए-अक़्ल-ओ-दीं तिरे कहने का है मुझे यक़ीं मैं तिरे डराने से डर गया करूँ ज़िक्र क्या मैं शबाब का सुने कौन क़िस्सा ये ख़्वाब का ये वो रात थी कि गुज़र गई ये वो नश्शा था कि उतर गया दिल-ए-ना-तवाँ को तकान हो मुझे उस की ताब न थी ज़रा ग़म-ए-इंतिज़ार से बच गया था नवेद-ए-वस्ल से मर गया मिरे सब्र-ओ-ताब के सामने न हुजूम-ए-ख़ौफ़-ओ-रजा रहा वो चमक के बर्क़ रह गई वो गरज के अब्र गुज़र गया मुझे बहर-ए-ग़म से उबूर की नहीं फ़िक्र ऐ मिरे चारा-गर नहीं कोई चारा-कार अब मिरे सर से आब गुज़र गया मुझे राज़-ए-इश्क़ के ज़ब्त में जो मज़ा मिला है न पूछिए मय-ए-अँगबीं का ये घूँट था कि गले से मेरे उतर गया नहीं अब जहान में दोस्ती कभी रास्ते में जो मिल गए नहीं मतलब एक को एक से ये इधर चला वो उधर गया अगर आ के ग़ुस्सा नहीं रहा तो लगी थी आग कि बुझ गई जो हसद का जोश फ़रो हुआ तो ये ज़हर चढ़ के उतर गया तुझे 'नज़्म' वादी-ए-शौक़ में अबस एहतियात है इस क़दर कहीं गिरते गिरते सँभल गया कहीं चलते चलते ठहर गया
phirii-huii-mirii-aankhen-hain-teg-zan-kii-taraf-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
फिरी हुई मिरी आँखें हैं तेग़-ज़न की तरफ़ चला है छोड़ के बिस्मिल मुझे हिरन की तरफ़ बनाया तोड़ के आईना आईना-ख़ाना न देखी राह जो ख़ल्वत से अंजुमन की तरफ़ रह-ए-वफ़ा को न छोड़ा वो अंदलीब हूँ मैं छुटा क़फ़स से तो पर्वाज़ की चमन की तरफ़ गुरेज़ चाहिए तूल-ए-अमल से सालिक को सुना है राह ये जाती है राहज़न की तरफ़ सरा-ए-दहर में सोओगे ग़ाफ़िलो कब तक उठो तो क्या तुम्हें जाना नहीं वतन की तरफ़ जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से न मैं हूँ शैख़ की जानिब न बरहमन की तरफ़ जहान-ए-हादसा-आगीन में बशर का वरूद गुज़र हबाब का दरिया-ए-मौजज़न की तरफ़ इसी उमीद पे हम दिन ख़िज़ाँ के काटते हैं कभी तो बाद-ए-बहार आएगी चमन की तरफ़ बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की सुना है रूह को आना है फिर बदन की तरफ़ गवाह कौन मिरे क़त्ल का हो महशर में अभी से सारा ज़माना है तेग़-ज़न की तरफ़ ख़बर दी उठ के क़यामत ने उस के आने की ख़ुदा ही ख़ैर करे रुख़ है अंजुमन की तरफ़ वो अपने रुख़ की सबाहत को आप देखते हैं झुके हुए गुल-ए-नर्गिस हैं यासमन की तरफ़ तमाम बज़्म है क्या महव उस की बातों में नज़र दहन की तरफ़ कान है सुख़न की तरफ़ असीर हो गया दिल गेसुओं में ख़ूब हुआ चला था डूब के मरने चह-ए-ज़क़न की तरफ़ ये मय-कशों की अदा अब्र-ए-तर भी सीख गए किनार-ए-जू से जो उठ्ठे चले चमन की तरफ़ ज़हे-नसीब जो हो कर्बला की मौत ऐ 'नज़्म' कि उड़ के ख़ाक-ए-शिफ़ा आए ख़ुद कफ़न की तरफ़
tanhaa-nahiin-huun-gar-dil-e-diivaana-saath-hai-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
तन्हा नहीं हूँ गर दिल-ए-दीवाना साथ है वो हर्ज़ा-गर्द हूँ कि परी-ख़ाना साथ है हंगामा इक परी की सवारी का देखना क्या धूम है कि सैकड़ों दीवाना साथ है दिल में हैं लाख तरह के हीले भरे हुए फिर मशवरा को आईना ओ शाना साथ है रोज़-ए-सियह में साथ कोई दे तो जानिए जब तक फ़रोग़-ए-शम्अ है परवाना साथ है देता नहीं है साथ तही-दस्त का कोई जब तक कि मय है शीशे में पैमाना साथ है सीखा हूँ मै-कदे में तरीक़-ए-फ़रोतनी जब तक कि सर है सज्दा-ए-शुकराना साथ है जो बे-बसर हैं ढूँडते फिरते हैं दूर दूर और हर क़दम पे जल्वा-ए-जानाना साथ है क्या ख़ौफ़ हो हमें ज़न-ए-दुनिया के मक्र का अपनी मदद को हिम्मत-ए-मर्दाना साथ है ग़म की किताब से दिल-ए-सद-पारा कम नहीं जिस बज़्म में गए यही अफ़्साना साथ है मानिंद-ए-गर्द-बाद हूँ ख़ाना-ब-दोश मैं सहरा में हूँ मगर मिरा काशाना साथ है
aa-ke-mujh-tak-kashtii-e-mai-saaqiyaa-ultii-phirii-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
आ के मुझ तक कश्ती-ए-मय साक़िया उल्टी फिरी आज क्या नद्दी बही उल्टी हवा उल्टी फिरी आते आते लब पर आह-ए-ना-रसा उल्टी फिरी वो भी मेरा ही दबाने को गला उल्टी फिरी मुड़ के देखा उस ने और वार अबरुओं का चल गया इक छुरी सीधी फिरी और इक ज़रा उल्टी फिरी ला सका नज़्ज़ारा-ए-रुख़्सार-ए-रौशन की न ताब जा के आईने पे चेहरे की ज़िया उल्टी फिरी रास्त-बाज़ों ही को पीसा आसमाँ ने रात दिन वा-ए-क़िस्मत जब फिरी ये आसिया उल्टी फिरी जो बड़ा बोल एक दिन बोले थे पेश आया वही गुम्बद-ए-गर्दूं से टकरा कर सदा उल्टी फिरी रिज़्क़ खा कर ग़ैर की क़िस्मत का ज़ंबूर-ए-असल तू ने देखा हल्क़ तक जा कर ग़िज़ा उल्टी फिरी तू सताइश-गर है उस का जो है तेरा मद्ह-ख़्वाँ ये तो ऐ मुशफ़िक़ ज़मीर-ए-मर्हबा उल्टी फिरी जिस पर आई थी तबीअत की उसी ने कुछ न क़द्र जिंस-ए-दिल मानिंद-ए-जिंस-ए-नारवा उल्टी फिरी या तो कुशी डूबती थी या चली साहिल से दूर वाए नाकामी फिरी भी तो हवा उल्टी फिरी गिरने वाला है किसी दुश्मन पे क्या तीर-ए-शहाब आसमाँ तक जा के क्यूँ आह-ए-रसा उल्टी फिरी जी गया मैं उस के आ जाने से दुश्मन मर गया देख कर ईसा को बालीं पर क़ज़ा उल्टी फिरी मर गया बे-मौत मैं आख़िर अजल भी दूर है कूचा-ए-क़ातिल का बतला कर पता उल्टी फिरी हिज्र की शब मुझ को उल्टी साँस लेते देख कर एक ही दम में वहाँ जा कर सबा उल्टी फिरी है मिरा वीराना-ए-ग़म 'नज़्म' ऐसा हौल-नाक मौज-ए-सैल आई तो ले कर बोरिया उल्टी फिरी
junuun-ke-valvale-jab-ghut-gae-dil-men-nihaan-ho-kar-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
जुनूँ के वलवले जब घुट गए दिल में निहाँ हो कर तो उट्ठे हैं धुआँ हो कर गिरे हैं बिजलियाँ हो कर कुछ आगे बढ़ चले सामान-ए-राहत ला-मकाँ हो कर फ़लक पीछे रहा जाता है गर्द-ए-कारवाँ हो कर किसी दिन तो चले ऐ आसमाँ बाद-ए-मुराद ऐसी कि उतरें कश्ती-ए-मय पर घटाएँ बादबाँ हो कर न जाने किस बयाबाँ मर्ग ने मिट्टी नहीं पाई बगूले जा रहे हैं कारवाँ-दर-कारवाँ हो कर वफ़ूर-ए-ज़ब्त से बेताबी-ए-दिल बढ़ नहीं सकती गले तक आ के रह जाते हैं नाले हिचकियाँ हो कर गुलू-गीर अब तो ऐसा इंक़लाब-ए-रंग-ए-आलम है कि नग़्मे निकले मिन्क़ार-ए-अनादिल से फ़ुग़ाँ हो कर जो हो कर अब्र से मायूस ख़ुद सींचे कभी दहक़ाँ जला दें खेत को पानी की लहरें बिजलियाँ हो कर जहाँ में वाशुद-ए-ख़ातिर के सामाँ हो गए लाशे जगह राहत की ना-मुम्किन हुई है ला-मकाँ हो कर हँसे कोई न बिजली के सिवा इस दार-ए-मातम में अगर रह जाए सारा खेत किश्त-ए-ज़ाफ़राँ हो कर अलम में आशियाँ के इस क़दर तिनके चुने मैं ने कि आख़िर बाइस-ए-तस्कीं हुए हैं आशियाँ हो कर घटाएँ घिर के क्या क्या हसरत-ए-फ़रहाद पर रोईं चमन तक आ गईं नहरें पहाड़ों से रवाँ हो कर दिल-ए-शैदा ने पाया इश्क़ में मेराज का रुत्बा यहाँ अक्सर बुतों के ज़ुल्म टूटे आसमाँ हो कर जो डरते डरते दिल से एक हर्फ़-ए-शौक़ निकला था वो उस के सामने आया ज़बाँ पर दास्ताँ हो कर निकल आए हैं हर इक़रार में इंकार के पहलू बना देती हैं हैराँ तेरी बातें मक्र याँ हो कर नज़ाकत का ये आलम फूल भी तोड़े तो बल खा कर न जाने दिल मिरा किस तरह तोड़ा पहलवाँ हो कर तदर्रौ-ओ-कबक पर हँस कर उठ्ठे ख़ुद लड़खड़ाते हैं सुबुक करते हैं उन को पाएँचे बार-ए-गिराँ हो कर गला घोंटा है ज़ब्त-ए-ग़म ने कुछ ऐसा कि मुश्किल है कि निकले मुँह से आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल फ़ुग़ाँ हो कर पता अंदेशा-ए-सालिक ने पाया मंज़िल-ए-दिल का तू पल्टा ला-मकाँ से आसमाँ-दर-आसमाँ हो कर हुई फिर देखिए आ बुस्तन-ए-शादी-ओ-ग़म दुनिया अभी पैदा हुए थे रंज-ओ-राहत तो अमाँ हो कर जो निकली होगी कोई आरज़ू तो ये भी निकलेगा तुम्हारा तीर-ए-हसरत बन गया दिल में निहाँ हो कर उतर जाएगा तू ओ आफ़्ताब-ए-हुस्न कोठे से गिरेगा साया-ए-दीवार हम पर आसमाँ हो कर
yuun-main-siidhaa-gayaa-vahshat-men-bayaabaan-kii-taraf-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़ हाथ जिस तरह से आता है गरेबाँ की तरफ़ बैठे बैठे दिल-ए-ग़म-गीं को ये क्या लहर आई उठ के तूफ़ान चला दीदा-ए-गिर्यां की तरफ़ देखना लाला-ए-ख़ुद-रौ का लहकना साक़ी कोह से दौड़ गई आग बयाबाँ की तरफ़ रो दिया देख के अक्सर मैं बहार-ए-शबनम हँस दिया देख के अक्सर गुल-ए-ख़ंदाँ की तरफ़ बात छुपती नहीं पड़ती हैं निगाहें सब की उस के दामन की तरफ़ मेरे गरेबाँ की तरफ़ सैकड़ों दाग़-ए-गुनह धो गए रहमत से तिरी क्या घटा झूम के आई थी गुलिस्ताँ की तरफ़ चश्म-ए-आईना परेशाँ-नज़री सीख गई देखता था ये बहुत ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की तरफ़ सर झुकाए हुए है 'नज़्म' बसान-ए-ख़ामा सम्त सज्दे की है तेरी ख़त-ए-फ़रमाँ की तरफ़
yuun-to-na-tere-jism-men-hain-ziinhaar-haath-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ देने के ऐ करीम मगर हैं हज़ार हाथ अंगड़ाइयों में फैलते हैं बार बार हाथ शीशा की सम्त बढ़ते हैं बे-इख़्तियार हाथ डूबे हैं तर्क-ए-सइ से अफ़सोस तो ये है साहिल था हाथ भर पे लगाते जो चार हाथ आती है जब नसीम तो कहती है मौज-ए-बहर यूँ आबरू समेट अगर हों हज़ार हाथ दरपय हैं मेरे क़त्ल के अहबाब और मैं ख़ुश हूँ कि मेरे ख़ून में रंगते हैं यार हाथ दामन-कशाँ चली है बदन से निकल के रूह खिंचते हैं फैलते हैं जो यूँ बार बार हाथ मिटता नहीं नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी तरह पत्थर से सर को फोड़ कि ज़ानू पे मार हाथ साक़ी सँभालना कि है लबरेज़ जाम-ए-मय लग़्ज़िश है मेरे पाँव में और राशा-दार हाथ मुतरिब से पूछ मसअला-ए-जब्र-ओ-इख़्तियार क्या ताल सम पे उठते हैं बे-इख़्तियार हाथ मैं और हूँ अलाएक-ए-दुनिया के दाम में मेरा न एक हाथ न उस के हज़ार हाथ ऐ 'नज़्म' वस्ल में भी रहा तू न चैन से दिल को हुआ क़रार तो है बे-क़रार हाथ
is-mahiina-bhar-kahaan-thaa-saaqiyaa-achchhii-tarah-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
इस महीना भर कहाँ था साक़िया अच्छी तरह आ इधर आ ईद तो मिल लें ज़रा अच्छी तरह उँगलियाँ कानों में रख कर ऐ मुसाफ़िर सुन ज़रा आ रही है साफ़ आवाज़-ए-दरा अच्छी तरह चश्म-ए-मूसा ला सकी इक उस के जल्वे की न ताब चश्म-ए-दिल से जिस को देखा बार-हा अच्छी तरह फ़ासला ऐसा नहीं कुछ अर्श की ज़ंजीर से क्या कहूँ बढ़ता नहीं दस्त-ए-दुआ अच्छी तरह अहल-ए-सूरत को नहीं है अच्छी सीरत से ग़रज़ अच्छी सूरत चाहिए अच्छी अदा अच्छी तरह शाहिदान-ए-लाला-ओ-गुल की ख़बर लाई है कुछ साल भर के ब'अद आई ऐ सबा अच्छी तरह सीख लेगी बल की लेना ता-कमर आने तो दो बल अभी करती नहीं ज़ुल्फ़-ए-दोता अच्छी तरह शीशा-ओ-जाम-ओ-सुबू भर ले मय-ए-गुल-रंग से आज साक़ी घिर के आई है घटा अच्छी तरह लेते हैं अहल-ए-जुनूँ क्या क्या तसव्वुर के मज़े आँख से परियों को देखा बार-हा अच्छी तरह दे रही है उस की ख़ामोशी सदा-ए-दूर-बाश ये नहीं कहता कि 'नज़्म'-ए-मुब्तला अच्छी तरह
aa-gayaa-phir-ramazaan-kyaa-hogaa-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा हाए ऐ पीर-ए-मुग़ाँ क्या होगा बाग़-ए-जन्नत में समाँ क्या होगा तू नहीं जब तो वहाँ क्या होगा ख़ुश वो होता है मिरे नालों से और अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या होगा दूर की राह है सामाँ हैं बड़े इतनी मोहलत है कहाँ क्या होगा देख लो रंग-ए-परीदा को मिरे दिल जलेगा तो धुआँ क्या होगा होगा बस एक निगह में जो तमाम वो ब-हसरत निगराँ क्या होगा हम ने माना कि मिला मुल्क-ए-जहाँ न रहे हम तो जहाँ क्या होगा मर के जब ख़ाक में मिलना ठहरा फिर ये तुर्बत का निशाँ क्या होगा जिस तरह दिल हुआ टुकड़े अज़-ख़ुद चाक इस तरह कताँ क्या होगा या तिरा ज़िक्र है या नाम तिरा और फिर विर्द-ए-ज़बाँ क्या होगा इश्क़ से बाज़ न आना 'हैदर' राज़ होने दे अयाँ क्या होगा
kyaa-kahen-kis-se-pyaar-kar-baithe-syed-ali-haider-taba-tabai-ghazals
क्या कहें किस से प्यार कर बैठे अपने दिल को फ़िगार कर बैठे सब्र की इक क़बा जो बाक़ी थी उस को भी तार तार कर बैठे आज फिर उन की आमद आमद है हम ख़िज़ाँ को बहार कर बैठे वाए उस बुत का वा'दा-ए-फ़र्दा उम्र भर इंतिज़ार कर बैठे ख़ुद जो ग़म हैं तो आइना हैराँ किस ग़ज़ब का सिंघार कर बैठे हम तही-दस्त तुझ को क्या देते जान तुझ पर निसार कर बैठे
nadaamat-hai-banaa-kar-is-chaman-men-aashiyaan-mujh-ko-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
नदामत है बना कर इस चमन में आशियाँ मुझ को मिला हमदम यहाँ कोई न कोई हम-ज़बाँ मुझ को दिखाए जा रवानी तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ मुझ को हिलाल-ए-बर्क़ से रख हम-रिकाब-ओ-हम-इनाँ मुझ को बनाया ना-तवानी ने सुलैमान-ए-ज़माँ मुझ को उड़ा कर ले चले मौज-ए-नसीम-ए-बोस्ताँ मुझ को दम-ए-सुब्ह-ए-अज़ल से मैं नवा-संजों में हूँ तेरे बताया बुलबुल-ए-सिदरा ने अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ मुझ को मिरी बातों में क्या मालूम कब सोए वो कब जागे सिरे से इस लिए कहनी पड़ी फिर दास्ताँ मुझ को बहा कर क़ाफ़िला से दूर जिस्म-ए-ज़ार को फेंका कि मौज-ए-सैल थी बाँग-ए-दरा-ए-कारवाँ मुझ को ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी न जाएगी सुनाती है लब-ए-साहिल से ये रेग-ए-रवाँ मुझ को उड़ाई ख़ाक जिस सहरा में तेरे वास्ते मैं ने थका-माँदा मिला इन मंज़िलों में आसमाँ मुझ को तसव्वुर शम्अ का जिस को जिला दे हूँ वो परवाना लग उट्ठी आग दिल में जब नज़र आया धुआँ मुझ को वो जिस आलम में जा पहुँचा वहाँ मैं किस तरह जाऊँ हुआ दिल आप से बाहर पिन्हा कर बेड़ियाँ मुझ को ग़ुबार-ए-राह से ऐ 'नज़्म' ये आवाज़ आती है गई ऐ उम्र-ए-रफ़्ता तू किधर फेंका कहाँ मुझ को
kisii-se-bas-ki-umiid-e-kushuud-e-kaar-nahiin-nazm-tabaa-tabaaii-ghazals
किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं मुझे अजल के भी आने का ए'तिबार नहीं जवाब नामे का क़ासिद मज़ार पर लाया कि जानता था उसे ताब-ए-इंतिज़ार नहीं ये कह के उठ गई बालीं से मेरी शम-ए-सहर तमाम हो गई शब और तुझे क़रार नहीं जो तू हो पास तो हूर-ओ-क़ुसूर सब कुछ हो जो तू नहीं तो नहीं बल्कि ज़ीनहार नहीं ख़िज़ाँ के आने से पहले ही था मुझे मा'लूम कि रंग-ओ-बू-ए-चमन का कुछ ए'तिबार नहीं ग़ज़ल कही है कि मोती पिरोए हैं ऐ 'नज़्म' वो कौन शे'र है जो दुर्र-ए-शाहवार नहीं
gavaahii-kaise-tuuttii-muaamla-khudaa-kaa-thaa-parveen-shakir-ghazals
गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था गुलाब क़ीमत-ए-शगुफ़्त शाम तक चुका सके अदा वो धूप को हुआ जो क़र्ज़ भी सबा का था बिखर गया है फूल तो हमीं से पूछ-गछ हुई हिसाब बाग़बाँ से है किया-धरा हवा का था लहू-चशीदा हाथ उस ने चूम कर दिखा दिया जज़ा वहाँ मिली जहाँ कि मरहला सज़ा का था जो बारिशों से क़ब्ल अपना रिज़्क़ घर में भर चुका वो शहर-ए-मोर से न था प दूरबीं बला का था
vo-ham-nahiin-jinhen-sahnaa-ye-jabr-aa-jaataa-parveen-shakir-ghazals
वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता तिरी जुदाई में किस तरह सब्र आ जाता फ़सीलें तोड़ न देते जो अब के अहल-ए-क़फ़स तू और तरह का एलान-ए-जब्र आ जाता वो फ़ासला था दुआ और मुस्तजाबी में कि धूप माँगने जाते तो अब्र आ जाता वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता वज़ीर ओ शाह भी ख़स-ख़ानों से निकल आते अगर गुमान में अँगार-ए-क़ब्र आ जाता
apnii-tanhaaii-mire-naam-pe-aabaad-kare-parveen-shakir-ghazals
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे कौन होगा जो मुझे उस की तरह याद करे दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर इस का वो मुसाफ़िर इसे हर सम्त से बरबाद करे अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे इतना हैराँ हो मिरी बे-तलबी के आगे वा क़फ़स में कोई दर ख़ुद मिरा सय्याद करे सल्ब-ए-बीनाई के अहकाम मिले हैं जो कभी रौशनी छूने की ख़्वाहिश कोई शब-ज़ाद करे सोच रखना भी जराएम में है शामिल अब तो वही मासूम है हर बात पे जो साद करे जब लहू बोल पड़े उस के गवाहों के ख़िलाफ़ क़ाज़ी-ए-शहर कुछ इस बाब में इरशाद करे उस की मुट्ठी में बहुत रोज़ रहा मेरा वजूद मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे
vo-to-khush-buu-hai-havaaon-men-bikhar-jaaegaa-parveen-shakir-ghazals
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए मौसम-ए-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जाएगा मुझ को तहज़ीब के बर्ज़ख़ का बनाया वारिस जुर्म ये भी मिरे अज्दाद के सर जाएगा
ik-hunar-thaa-kamaal-thaa-kyaa-thaa-parveen-shakir-ghazals
इक हुनर था कमाल था क्या था मुझ में तेरा जमाल था क्या था तेरे जाने पे अब के कुछ न कहा दिल में डर था मलाल था क्या था बर्क़ ने मुझ को कर दिया रौशन तेरा अक्स-ए-जलाल था क्या था हम तक आया तू बहर-ए-लुत्फ़-ओ-करम तेरा वक़्त-ए-ज़वाल था क्या था जिस ने तह से मुझे उछाल दिया डूबने का ख़याल था क्या था जिस पे दिल सारे अहद भूल गया भूलने का सवाल था क्या था तितलियाँ थे हम और क़ज़ा के पास सुर्ख़ फूलों का जाल था क्या था
vaqt-e-rukhsat-aa-gayaa-dil-phir-bhii-ghabraayaa-nahiin-parveen-shakir-ghazals
वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं उस को हम क्या खोएँगे जिस को कभी पाया नहीं ज़िंदगी जितनी भी है अब मुस्तक़िल सहरा में है और इस सहरा में तेरा दूर तक साया नहीं मेरी क़िस्मत में फ़क़त दुर्द-ए-तह-ए-साग़र ही है अव्वल-ए-शब जाम मेरी सम्त वो लाया नहीं तेरी आँखों का भी कुछ हल्का गुलाबी रंग था ज़ेहन ने मेरे भी अब के दिल को समझाया नहीं कान भी ख़ाली हैं मेरे और दोनों हाथ भी अब के फ़स्ल-ए-गुल ने मुझ को फूल पहनाया नहीं
chalne-kaa-hausla-nahiin-ruknaa-muhaal-kar-diyaa-parveen-shakir-ghazals
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की अहल-ए-किताब ने मगर क्या तिरा हाल कर दिया मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया अब के हवा के साथ है दामन-ए-यार मुंतज़िर बानू-ए-शब के हाथ में रखना सँभाल कर दिया मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाब ओ ख़याल कर दिया मुद्दतों बा'द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया
agarche-tujh-se-bahut-ikhtilaaf-bhii-na-huaa-parveen-shakir-ghazals
अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ मगर ये दिल तिरी जानिब से साफ़ भी न हुआ तअ'ल्लुक़ात के बर्ज़ख़ में ही रखा मुझ को वो मेरे हक़ में न था और ख़िलाफ़ भी न हुआ अजब था जुर्म-ए-मोहब्बत कि जिस पे दिल ने मिरे सज़ा भी पाई नहीं और मुआ'फ़ भी न हुआ मलामतों में कहाँ साँस ले सकेंगे वो लोग कि जिन से कू-ए-जफ़ा का तवाफ़ भी न हुआ अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ हवा-ए-दहर हमें किस लिए बुझाती है हमें तो तुझ से कभी इख़्तिलाफ़ भी न हुआ
taraash-kar-mire-baazuu-udaan-chhod-gayaa-parveen-shakir-ghazals
तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया अजीब शख़्स था बारिश का रंग देख के भी खुले दरीचे पे इक फूल-दान छोड़ गया जो बादलों से भी मुझ को छुपाए रखता था बढ़ी है धूप तो बे-साएबान छोड़ गया निकल गया कहीं अन-देखे पानियों की तरफ़ ज़मीं के नाम खुला बादबान छोड़ गया उक़ाब को थी ग़रज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से जो गिर गई तो यूँही नीम-जान छोड़ गया न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया अक़ब में गहरा समुंदर है सामने जंगल किस इंतिहा पे मिरा मेहरबान छोड़ गया
kyaa-kare-merii-masiihaaii-bhii-karne-vaalaa-parveen-shakir-ghazals-3
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला ज़ख़्म ही ये मुझे लगता नहीं भरने वाला ज़िंदगी से किसी समझौते के बा-वस्फ़ अब तक याद आता है कोई मारने मरने वाला उस को भी हम तिरे कूचे में गुज़ार आए हैं ज़िंदगी में वो जो लम्हा था सँवरने वाला उस का अंदाज़-ए-सुख़न सब से जुदा था शायद बात लगती हुई लहजा वो मुकरने वाला शाम होने को है और आँख में इक ख़्वाब नहीं कोई इस घर में नहीं रौशनी करने वाला दस्तरस में हैं अनासिर के इरादे किस के सो बिखर के ही रहा कोई बिखरने वाला इसी उम्मीद पे हर शाम बुझाए हैं चराग़ एक तारा है सर-ए-बाम उभरने वाला
kuu-ba-kuu-phail-gaii-baat-shanaasaaii-kii-parveen-shakir-ghazals
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की उस ने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की तेरा पहलू तिरे दिल की तरह आबाद रहे तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की
harf-e-taaza-naii-khushbuu-men-likhaa-chaahtaa-hai-parveen-shakir-ghazals
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है बाब इक और मोहब्बत का खुला चाहता है एक लम्हे की तवज्जोह नहीं हासिल उस की और ये दिल कि उसे हद से सिवा चाहता है इक हिजाब-ए-तह-ए-इक़रार है माने वर्ना गुल को मालूम है क्या दस्त-ए-सबा चाहता है रेत ही रेत है इस दिल में मुसाफ़िर मेरे और ये सहरा तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चाहता है यही ख़ामोशी कई रंग में ज़ाहिर होगी और कुछ रोज़ कि वो शोख़ खुला चाहता है रात को मान लिया दिल ने मुक़द्दर लेकिन रात के हाथ पे अब कोई दिया चाहता है तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है
baarish-huii-to-phuulon-ke-tan-chaak-ho-gae-parveen-shakir-ghazals
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गए बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में कैसे बुलंद-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए बस्ती में जितने आब-गज़ीदा थे सब के सब दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गए सूरज-दिमाग़ लोग भी अबलाग़-ए-फ़िक्र में ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गए जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तुगू हुई लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए
bahut-royaa-vo-ham-ko-yaad-kar-ke-parveen-shakir-ghazals
बहुत रोया वो हम को याद कर के हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम वो देखे तो हमें आज़ाद कर के रिहाई की कोई सूरत नहीं है मगर हाँ मिन्नत-ए-सय्याद कर के बदन मेरा छुआ था उस ने लेकिन गया है रूह को आबाद कर के हर आमिर तूल देना चाहता है मुक़र्रर ज़ुल्म की मीआ'द कर के
gulaab-haath-men-ho-aankh-men-sitaara-ho-parveen-shakir-ghazals
गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो कोई वजूद मोहब्बत का इस्तिआ'रा हो मैं गहरे पानी की इस रौ के साथ बहती रहूँ जज़ीरा हो कि मुक़ाबिल कोई किनारा हो कभी-कभार उसे देख लें कहीं मिल लें ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो क़ुसूर हो तो हमारे हिसाब में लिख जाए मोहब्बतों में जो एहसान हो तुम्हारा हो ये इतनी रात गए कौन दस्तकें देगा कहीं हवा का ही उस ने न रूप धारा हो उफ़ुक़ तो क्या है दर-ए-कहकशाँ भी छू आएँ मुसाफ़िरों को अगर चाँद का इशारा हो मैं अपने हिस्से के सुख जिस के नाम कर डालूँ कोई तो हो जो मुझे इस तरह का प्यारा हो अगर वजूद में आहंग है तो वस्ल भी है वो चाहे नज़्म का टुकड़ा कि नस्र-पारा हो
chaarasaazon-kii-aziyyat-nahiin-dekhii-jaatii-parveen-shakir-ghazals
चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती तेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़ माँगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती दिन बहल जाता है लेकिन तिरे दीवानों की शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती तमकनत से तुझे रुख़्सत तो किया है लेकिन हम से इन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती कौन उतरा है ये आफ़ाक़ की पहनाई में आइना-ख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती
kuchh-to-havaa-bhii-sard-thii-kuchh-thaa-tiraa-khayaal-bhii-parveen-shakir-ghazals
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें शीशा-गिरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था अब जो पलट के देखिए बात थी कुछ मुहाल भी मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी
paa-ba-gil-sab-hain-rihaaii-kii-kare-tadbiir-kaun-parveen-shakir-ghazals
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन दस्त-बस्ता शहर में खोले मिरी ज़ंजीर कौन मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी पहचानी सी है आज मेरे नाम लाता है मिरी ताज़ीर कौन कोई मक़्तल को गया था मुद्दतों पहले मगर है दर-ए-ख़ेमा पे अब तक सूरत-ए-तस्वीर कौन मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तश्हीर कौन सच जहाँ पा-बस्ता मुल्ज़िम के कटहरे में मिले उस अदालत में सुनेगा अद्ल की तफ़्सीर कौन नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अहद में ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ता'बीर कौन रेत अभी पिछले मकानों की न वापस आई थी फिर लब-ए-साहिल घरौंदा कर गया ता'मीर कौन सारे रिश्ते हिजरतों में साथ देते हैं तो फिर शहर से जाते हुए होता है दामन-गीर कौन दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन
shab-vahii-lekin-sitaara-aur-hai-parveen-shakir-ghazals
शब वही लेकिन सितारा और है अब सफ़र का इस्तिआ'रा और है एक मुट्ठी रेत में कैसे रहे इस समुंदर का किनारा और है मौज के मुड़ने में कितनी देर है नाव डाली और धारा और है जंग का हथियार तय कुछ और था तीर सीने में उतारा और है मत्न में तो जुर्म साबित है मगर हाशिया सारे का सारा और है साथ तो मेरा ज़मीं देती मगर आसमाँ का ही इशारा और है धूप में दीवार ही काम आएगी तेज़ बारिश का सहारा और है हारने में इक अना की बात थी जीत जाने में ख़सारा और है सुख के मौसम उँगलियों पर गिन लिए फ़स्ल-ए-ग़म का गोश्वारा और है देर से पलकें नहीं झपकीं मिरी पेश-ए-जाँ अब के नज़ारा और है और कुछ पल उस का रस्ता देख लूँ आसमाँ पर एक तारा और है हद चराग़ों की यहाँ से ख़त्म है आज से रस्ता हमारा और है
charaag-e-raah-bujhaa-kyaa-ki-rahnumaa-bhii-gayaa-parveen-shakir-ghazals
चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया हवा के साथ मुसाफ़िर का नक़्श-ए-पा भी गया मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर न हुई वो शख़्स आ के मिरे शहर से चला भी गया बहुत अज़ीज़ सही उस को मेरी दिलदारी मगर ये है कि कभी दिल मिरा दुखा भी गया अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं वो ताँक-झाँक का मा'सूम सिलसिला भी गया सब आए मेरी अयादत को वो भी आया था जो सब गए तो मिरा दर्द-आश्ना भी गया ये ग़ुर्बतें मिरी आँखों में कैसी उतरी हैं कि ख़्वाब भी मिरे रुख़्सत हैं रतजगा भी गया
bakht-se-koii-shikaayat-hai-na-aflaak-se-hai-parveen-shakir-ghazals
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है यही क्या कम है कि निस्बत मुझे इस ख़ाक से है ख़्वाब में भी तुझे भूलूँ तो रवा रख मुझ से वो रवय्या जो हवा का ख़स-ओ-ख़ाशाक से है बज़्म-ए-अंजुम में क़बा ख़ाक की पहनी मैं ने और मिरी सारी फ़ज़ीलत इसी पोशाक से है इतनी रौशन है तिरी सुब्ह कि होता है गुमाँ ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाक से है हाथ तो काट दिए कूज़ा-गरों के हम ने मो'जिज़े की वही उम्मीद मगर चाक से है
rasta-bhii-kathin-dhuup-men-shiddat-bhii-bahut-thii-parveen-shakir-ghazals
रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी साए से मगर उस को मोहब्बत भी बहुत थी खे़मे न कोई मेरे मुसाफ़िर के जलाए ज़ख़्मी था बहुत पाँव मसाफ़त भी बहुत थी सब दोस्त मिरे मुंतज़िर-ए-पर्दा-ए-शब थे दिन में तो सफ़र करने में दिक़्क़त भी बहुत थी बारिश की दुआओं में नमी आँख की मिल जाए जज़्बे की कभी इतनी रिफ़ाक़त भी बहुत थी कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी फूलों का बिखरना तो मुक़द्दर ही था लेकिन कुछ इस में हवाओं की सियासत भी बहुत थी वो भी सर-ए-मक़्तल है कि सच जिस का था शाहिद और वाक़िफ़-ए-अहवाल-ए-अदालत भी बहुत थी इस तर्क-ए-रिफ़ाक़त पे परेशाँ तो हूँ लेकिन अब तक के तिरे साथ पे हैरत भी बहुत थी ख़ुश आए तुझे शहर-ए-मुनाफ़िक़ की अमीरी हम लोगों को सच कहने की आदत भी बहुत थी
bajaa-ki-aankh-men-niindon-ke-silsile-bhii-nahiin-parveen-shakir-ghazals
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं शिकस्त-ए-ख़्वाब के अब मुझ में हौसले भी नहीं नहीं नहीं ये ख़बर दुश्मनों ने दी होगी वो आए आ के चले भी गए मिले भी नहीं ये कौन लोग अँधेरों की बात करते हैं अभी तो चाँद तिरी याद के ढले भी नहीं अभी से मेरे रफ़ूगर के हाथ थकने लगे अभी तो चाक मिरे ज़ख़्म के सिले भी नहीं ख़फ़ा अगरचे हमेशा हुए मगर अब के वो बरहमी है कि हम से उन्हें गिले भी नहीं
dhanak-dhanak-mirii-poron-ke-khvaab-kar-degaa-parveen-shakir-ghazals
धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगा वो लम्स मेरे बदन को गुलाब कर देगा क़बा-ए-जिस्म के हर तार से गुज़रता हुआ किरन का प्यार मुझे आफ़्ताब कर देगा जुनूँ-पसंद है दिल और तुझ तक आने में बदन को नाव लहू को चनाब कर देगा मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा अना-परस्त है इतना कि बात से पहले वो उठ के बंद मिरी हर किताब कर देगा सुकूत-ए-शहर-ए-सुख़न में वो फूल सा लहजा समाअ'तों की फ़ज़ा ख़्वाब ख़्वाब कर देगा इसी तरह से अगर चाहता रहा पैहम सुख़न-वरी में मुझे इंतिख़ाब कर देगा मिरी तरह से कोई है जो ज़िंदगी अपनी तुम्हारी याद के नाम इंतिसाब कर देगा
ab-itnii-saadgii-laaen-kahaan-se-parveen-shakir-ghazals
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से ज़मीं की ख़ैर माँगें आसमाँ से अगर चाहें तो वो दीवार कर दें हमें अब कुछ नहीं कहना ज़बाँ से सितारा ही नहीं जब साथ देता तो कश्ती काम ले क्या बादबाँ से भटकने से मिले फ़ुर्सत तो पूछें पता मंज़िल का मीर-ए-कारवाँ से तवज्जोह बर्क़ की हासिल रही है सो है आज़ाद फ़िक्र-ए-आशियाँ से हवा को राज़-दाँ हम ने बनाया और अब नाराज़ ख़ुशबू के बयाँ से ज़रूरी हो गई है दिल की ज़ीनत मकीं पहचाने जाते हैं मकाँ से फ़ना-फ़िल-इश्क़ होना चाहते थे मगर फ़ुर्सत न थी कार-ए-जहाँ से वगर्ना फ़स्ल-ए-गुल की क़द्र क्या थी बड़ी हिकमत है वाबस्ता ख़िज़ाँ से किसी ने बात की थी हँस के शायद ज़माने भर से हैं हम ख़ुद गुमाँ से मैं इक इक तीर पे ख़ुद ढाल बनती अगर होता वो दुश्मन की कमाँ से जो सब्ज़ा देख कर ख़ेमे लगाएँ उन्हें तकलीफ़ क्यूँ पहुँचे ख़िज़ाँ से जो अपने पेड़ जलते छोड़ जाएँ उन्हें क्या हक़ कि रूठें बाग़बाँ से
aks-e-khushbuu-huun-bikharne-se-na-roke-koii-parveen-shakir-ghazals
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई
dasne-lage-hain-khvaab-magar-kis-se-boliye-parveen-shakir-ghazals
डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए मैं जानती थी पाल रही हूँ संपोलिए बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए पलकों पे कच्ची नींदों का रस फैलता हो जब ऐसे में आँख धूप के रुख़ कैसे खोलिए तेरी बरहना-पाई के दुख बाँटते हुए हम ने ख़ुद अपने पाँव में काँटे चुभो लिए मैं तेरा नाम ले के तज़ब्ज़ुब में पड़ गई सब लोग अपने अपने अज़ीज़ों को रो लिए ख़ुश-बू कहीं न जाए प इसरार है बहुत और ये भी आरज़ू कि ज़रा ज़ुल्फ़ खोलिए तस्वीर जब नई है नया कैनवस भी है फिर तश्तरी में रंग पुराने न घोलिए
ek-suuraj-thaa-ki-taaron-ke-gharaane-se-uthaa-parveen-shakir-ghazals
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा किस से पूछूँ तिरे आक़ा का पता ऐ रहवार ये अलम वो है न अब तक किसी शाने से उठा हल्क़ा-ए-ख़्वाब को ही गिर्द-ए-गुलू कस डाला दस्त-ए-क़ातिल का भी एहसाँ न दिवाने से उठा फिर कोई अक्स शुआ'ओं से न बनने पाया कैसा महताब मिरे आइना-ख़ाने से उठा क्या लिखा था सर-ए-महज़र जिसे पहचानते ही पास बैठा हुआ हर दोस्त बहाने से उठा
kamaal-e-zabt-ko-khud-bhii-to-aazmaauungii-parveen-shakir-ghazals
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में मैं अपने घर के अँधेरों को लौट आऊँगी बदन के कर्ब को वो भी समझ न पाएगा मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी वो क्या गया कि रिफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गए मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी अब उस का फ़न तो किसी और से हुआ मंसूब मैं किस की नज़्म अकेले में गुनगुनाऊँगी वो एक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद वो सो के उट्ठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी समाअ'तों में घने जंगलों की साँसें हैं मैं अब कभी तिरी आवाज़ सुन न पाऊँगी जवाज़ ढूँड रहा था नई मोहब्बत का वो कह रहा था कि मैं उस को भूल जाऊँगी
qadmon-men-bhii-takaan-thii-ghar-bhii-qariib-thaa-parveen-shakir-ghazals
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था निकले अगर तो चाँद दरीचे में रुक भी जाए इस शहर-ए-बे-चराग़ में किस का नसीब था आँधी ने उन रुतों को भी बे-कार कर दिया जिन का कभी हुमा सा परिंदा नसीब था कुछ अपने-आप से ही उसे कश्मकश न थी मुझ में भी कोई शख़्स उसी का रक़ीब था पूछा किसी ने मोल तो हैरान रह गया अपनी निगाह में कोई कितना ग़रीब था मक़्तल से आने वाली हवा को भी कब मिला ऐसा कोई दरीचा कि जो बे-सलीब था
kuchh-faisla-to-ho-ki-kidhar-jaanaa-chaahiye-parveen-shakir-ghazals
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिए नश्तर-ब-दस्त शहर से चारागरी की लौ ऐ ज़ख़्म-ए-बे-कसी तुझे भर जाना चाहिए हर बार एड़ियों पे गिरा है मिरा लहू मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिए क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसअला ये है जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिए सारा ज्वार-भाटा मिरे दिल में है मगर इल्ज़ाम ये भी चाँद के सर जाना चाहिए जब भी गए अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिए तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले ऐसे सुख़न-फ़रोश को मर जाना चाहिए
khulii-aankhon-men-sapnaa-jhaanktaa-hai-parveen-shakir-ghazals
खुली आँखों में सपना झाँकता है वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है तिरी चाहत के भीगे जंगलों में मिरा तन मोर बन कर नाचता है मुझे हर कैफ़ियत में क्यूँ न समझे वो मेरे सब हवाले जानता है मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो मुझे मेरी रज़ा से माँगता है किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल बहाने से मुझे भी टालता है सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है
justujuu-khoe-huon-kii-umr-bhar-karte-rahe-parveen-shakir-ghazals
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे रास्तों का इल्म था हम को न सम्तों की ख़बर शहर-ए-ना-मालूम की चाहत मगर करते रहे हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर को तेरे जाने की ख़बर दीवार-ओ-दर करते रहे वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल जिन को तेरे ज़ो'म में बे-बाल-ओ-पर करते रहे
gae-mausam-men-jo-khilte-the-gulaabon-kii-tarah-parveen-shakir-ghazals
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह राख के ढेर पे अब रात बसर करनी है जल चुके हैं मिरे ख़ेमे मिरे ख़्वाबों की तरह साअत-ए-दीद कि आरिज़ हैं गुलाबी अब तक अव्वलीं लम्हों के गुलनार हिजाबों की तरह वो समुंदर है तो फिर रूह को शादाब करे तिश्नगी क्यूँ मुझे देता है सराबों की तरह ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह याद तो होंगी वो बातें तुझे अब भी लेकिन शेल्फ़ में रक्खी हुई बंद किताबों की तरह कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े तेरा मेआ'र बदलता है निसाबों की तरह शोख़ हो जाती है अब भी तिरी आँखों की चमक गाहे गाहे तिरे दिलचस्प जवाबों की तरह हिज्र की शब मिरी तन्हाई पे दस्तक देगी तेरी ख़ुश-बू मिरे खोए हुए ख़्वाबों की तरह
ab-bhalaa-chhod-ke-ghar-kyaa-karte-parveen-shakir-ghazals
अब भला छोड़ के घर क्या करते शाम के वक़्त सफ़र क्या करते तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं अपने आने की ख़बर क्या करते जब सितारे ही नहीं मिल पाए ले के हम शम्स-ओ-क़मर क्या करते वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था साए फैला के शजर क्या करते ख़ाक ही अव्वल ओ आख़िर ठहरी कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते राय पहले से बना ली तू ने दिल में अब हम तिरे घर क्या करते इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे हुस्न से कस्ब-ए-हुनर क्या करते
tuutii-hai-merii-niind-magar-tum-ko-is-se-kyaa-parveen-shakir-ghazals
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या तुम मौज मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो कट जाएँ मेरी सोच के पर तुम को इस से क्या औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुम को इस से क्या अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़ सीपी में बन न पाए गुहर तुम को इस से क्या ले जाएँ मुझ को माल-ए-ग़नीमत के साथ अदू तुम ने तो डाल दी है सिपर तुम को इस से क्या तुम ने तो थक के दश्त में खे़मे लगा लिए तन्हा कटे किसी का सफ़र तुम को इस से क्या
terii-khushbuu-kaa-pataa-kartii-hai-parveen-shakir-ghazals
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है मुझ पे एहसान हवा करती है चूम कर फूल को आहिस्ता से मोजज़ा बाद-ए-सबा करती है खोल कर बंद-ए-क़बा गुल के हवा आज ख़ुश्बू को रिहा करती है अब्र बरसते तो इनायत उस की शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है ज़िंदगी फिर से फ़ज़ा में रौशन मिशअल-ए-बर्ग-ए-हिना करती है हम ने देखी है वो उजली साअत रात जब शेर कहा करती है शब की तन्हाई में अब तो अक्सर गुफ़्तुगू तुझ से रहा करती है दिल को उस राह पे चलना ही नहीं जो मुझे तुझ से जुदा करती है ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो तेरे कहने में रहा करती है उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख दिल का अहवाल कहा करती है मुसहफ़-ए-दिल पे अजब रंगों में एक तस्वीर बना करती है बे-नियाज़-ए-कफ़-ए-दरिया अंगुश्त रेत पर नाम लिखा करती है देख तू आन के चेहरा मेरा इक नज़र भी तिरी क्या करती है ज़िंदगी भर की ये ताख़ीर अपनी रंज मिलने का सिवा करती है शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद कूचा-ए-जाँ में सदा करती है मसअला जब भी चराग़ों का उठा फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक हाल जो तेरा अना करती है दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ बात कुछ और हुआ करती है
duaa-kaa-tuutaa-huaa-harf-sard-aah-men-hai-parveen-shakir-ghazals
दुआ का टूटा हुआ हर्फ़ सर्द आह में है तिरी जुदाई का मंज़र अभी निगाह में है तिरे बदलने के बा-वस्फ़ तुझ को चाहा है ये ए'तिराफ़ भी शामिल मिरे गुनाह में है अज़ाब देगा तो फिर मुझ को ख़्वाब भी देगा मैं मुतमइन हूँ मिरा दिल तिरी पनाह में है बिखर चुका है मगर मुस्कुरा के मिलता है वो रख रखाव अभी मेरे कज-कुलाह में है जिसे बहार के मेहमान ख़ाली छोड़ गए वो इक मकान अभी तक मकीं की चाह में है यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था हमारी साल-गिरह ठीक अब के माह में है मैं बच भी जाऊँ तो तन्हाई मार डालेगी मिरे क़बीले का हर फ़र्द क़त्ल-गाह में है
teraa-ghar-aur-meraa-jangal-bhiigtaa-hai-saath-saath-parveen-shakir-ghazals
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ साथ बचपने का साथ है फिर एक से दोनों के दुख रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ साथ वो अजब दुनिया कि सब ख़ंजर-ब-कफ़ फिरते हैं और काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ साथ बारिश-ए-संग-ए-मलामत में भी वो हमराह है मैं भी भीगूँ ख़ुद भी पागल भीगता है साथ साथ लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान जिस्म और इकलौता कम्बल भीगता है साथ साथ
shauq-e-raqs-se-jab-tak-ungliyaan-nahiin-khultiin-parveen-shakir-ghazals
शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं पाँव से हवाओं के बेड़ियाँ नहीं खुलतीं पेड़ को दुआ दे कर कट गई बहारों से फूल इतने बढ़ आए खिड़कियाँ नहीं खुलतीं फूल बन के सैरों में और कौन शामिल था शोख़ी-ए-सबा से तो बालियाँ नहीं खुलतीं हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं कोई मौजा-ए-शीरीं चूम कर जगाएगी सूरजों के नेज़ों से सीपियाँ नहीं खुलतीं माँ से क्या कहेंगी दुख हिज्र का कि ख़ुद पर भी इतनी छोटी उम्रों की बच्चियाँ नहीं खुलतीं शाख़ शाख़ सरगर्दां किस की जुस्तुजू में हैं कौन से सफ़र में हैं तितलियाँ नहीं खुलतीं आधी रात की चुप में किस की चाप उभरती है छत पे कौन आता है सीढ़ियाँ नहीं खुलतीं पानियों के चढ़ने तक हाल कह सकें और फिर क्या क़यामतें गुज़रीं बस्तियाँ नहीं खुलतीं
ham-ne-hii-lautne-kaa-iraada-nahiin-kiyaa-parveen-shakir-ghazals
हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया उस ने भी भूल जाने का वा'दा नहीं किया दुख ओढ़ते नहीं कभी जश्न-ए-तरब में हम मल्बूस-ए-दिल को तन का लबादा नहीं किया जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उस का ख़ुद सर ज़ेर-ए-बार-ए-साग़र-ओ-बादा नहीं किया कार-ए-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम उस ने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया
ashk-aankh-men-phir-atak-rahaa-hai-parveen-shakir-ghazals
अश्क आँख में फिर अटक रहा है कंकर सा कोई खटक रहा है मैं उस के ख़याल से गुरेज़ाँ वो मेरी सदा झटक रहा है तहरीर उसी की है मगर दिल ख़त पढ़ते हुए अटक रहा है हैं फ़ोन पे किस के साथ बातें और ज़ेहन कहाँ भटक रहा है सदियों से सफ़र में है समुंदर साहिल पे थकन टपक रहा है इक चाँद सलीब-ए-शाख़-ए-गुल पर बाली की तरह लटक रहा है
qaid-men-guzregii-jo-umr-bade-kaam-kii-thii-parveen-shakir-ghazals
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी जिस के माथे पे मिरे बख़्त का तारा चमका चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी मैं ने हाथों को ही पतवार बनाया वर्ना एक टूटी हुई कश्ती मिरे किस काम की थी वो कहानी कि अभी सूइयाँ निकलीं भी न थीं फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा यूँ सताने की तो आदत मिरे घनश्याम की थी बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक ऐ ज़मीं-माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
apnii-rusvaaii-tire-naam-kaa-charchaa-dekhuun-parveen-shakir-ghazals
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ नींद आ जाए तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ आँख खुल जाए तो तन्हाई का सहरा देखूँ शाम भी हो गई धुँदला गईं आँखें भी मिरी भूलने वाले मैं कब तक तिरा रस्ता देखूँ एक इक कर के मुझे छोड़ गईं सब सखियाँ आज मैं ख़ुद को तिरी याद में तन्हा देखूँ काश संदल से मिरी माँग उजाले आ कर इतने ग़ैरों में वही हाथ जो अपना देखूँ तू मिरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात जाने क्यूँ तेरे लिए दिल को धड़कना देखूँ बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे बूझे जाने का मैं हर रोज़ तमाशा देखूँ सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ मुझ पे छा जाए वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह अंग अंग अपना इसी रुत में महकता देखूँ फूल की तरह मिरे जिस्म का हर लब खुल जाए पंखुड़ी पंखुड़ी उन होंटों का साया देखूँ मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस इक बार ख़्वाब बन कर तिरी आँखों में उतरता देखूँ तू मिरी तरह से यकता है मगर मेरे हबीब जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ टूट जाएँ कि पिघल जाएँ मिरे कच्चे घड़े तुझ को मैं देखूँ कि ये आग का दरिया देखूँ
apnii-hii-sadaa-sunuun-kahaan-tak-parveen-shakir-ghazals
अपनी ही सदा सुनूँ कहाँ तक जंगल की हवा रहूँ कहाँ तक हर बार हवा न होगी दर पर हर बार मगर उठूँ कहाँ तक दम घटता है घर में हब्स वो है ख़ुश्बू के लिए रुकूँ कहाँ तक फिर आ के हवाएँ खोल देंगी ज़ख़्म अपने रफ़ू करूँ कहाँ तक साहिल पे समुंदरों से बच कर मैं नाम तिरा लिखूँ कहाँ तक तन्हाई का एक एक लम्हा हंगामों से क़र्ज़ लूँ कहाँ तक गर लम्स नहीं तो लफ़्ज़ ही भेज मैं तुझ से जुदा रहूँ कहाँ तक सुख से भी तो दोस्ती कभी हो दुख से ही गले मिलूँ कहाँ तक मंसूब हो हर किरन किसी से अपने ही लिए जलूँ कहाँ तक आँचल मिरे भर के फट रहे हैं फूल उस के लिए चुनूँ कहाँ तक
mushkil-hai-ki-ab-shahr-men-nikle-koii-ghar-se-parveen-shakir-ghazals
मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से दस्तार पे बात आ गई होती हुई सर से बरसा भी तो किस दश्त के बे-फ़ैज़ बदन पर इक उम्र मिरे खेत थे जिस अब्र को तरसे कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शजर से मेहनत मिरी आँधी से तो मंसूब नहीं थी रहना था कोई रब्त शजर का भी समर से ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से बे-नाम मसाफ़त ही मुक़द्दर है तो क्या ग़म मंज़िल का तअ'य्युन कभी होता है सफ़र से पथराया है दिल यूँ कि कोई इस्म पढ़ा जाए ये शहर निकलता नहीं जादू के असर से निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी सूरज भी मगर आएगा इस रहगुज़र से
baadbaan-khulne-se-pahle-kaa-ishaara-dekhnaa-parveen-shakir-ghazals
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना मैं समुंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना क्या क़यामत है कि जिन के नाम पर पसपा हुए उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़-आरा देखना जब बनाम-ए-दिल गवाही सर की माँगी जाएगी ख़ून में डूबा हुआ परचम हमारा देखना जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना आइने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिए जाने अब क्या क्या दिखाएगा तुम्हारा देखना एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआ'रा देखना
puuraa-dukh-aur-aadhaa-chaand-parveen-shakir-ghazals
पूरा दुख और आधा चाँद हिज्र की शब और ऐसा चाँद दिन में वहशत बहल गई रात हुई और निकला चाँद किस मक़्तल से गुज़रा होगा इतना सहमा सहमा चाँद यादों की आबाद गली में घूम रहा है तन्हा चाँद मेरी करवट पर जाग उठ्ठे नींद का कितना कच्चा चाँद मेरे मुँह को किस हैरत से देख रहा है भोला चाँद इतने घने बादल के पीछे कितना तन्हा होगा चाँद आँसू रोके नूर नहाए दिल दरिया तन सहरा चाँद इतने रौशन चेहरे पर भी सूरज का है साया चाँद जब पानी में चेहरा देखा तू ने किस को सोचा चाँद बरगद की इक शाख़ हटा कर जाने किस को झाँका चाँद बादल के रेशम झूले में भोर समय तक सोया चाँद रात के शाने पर सर रक्खे देख रहा है सपना चाँद सूखे पत्तों के झुरमुट पर शबनम थी या नन्हा चाँद हाथ हिला कर रुख़्सत होगा उस की सूरत हिज्र का चाँद सहरा सहरा भटक रहा है अपने इश्क़ में सच्चा चाँद रात के शायद एक बजे हैं सोता होगा मेरा चाँद
dil-kaa-kyaa-hai-vo-to-chaahegaa-musalsal-milnaa-parveen-shakir-ghazals
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना वो सितमगर भी मगर सोचे किसी पल मिलना वाँ नहीं वक़्त तो हम भी हैं अदीम-उल-फ़ुर्सत उस से क्या मिलिए जो हर रोज़ कहे कल मिलना इश्क़ की रह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम शहर की सोच में हो और उसे जंगल मिलना उस का मिलना है अजब तरह का मिलना जैसे दश्त-ए-उम्मीद में अंदेशे का बादल मिलना दामन-ए-शब को अगर चाक भी कर लीं तो कहाँ नूर में डूबा हुआ सुब्ह का आँचल मिलना
bichhdaa-hai-jo-ik-baar-to-milte-nahiin-dekhaa-parveen-shakir-ghazals
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
dil-kaa-khoj-na-paayaa-hargiz-dekhaa-khol-jo-qabron-ko-naji-shakir-ghazals
दिल का खोज न पाया हरगिज़ देखा खोल जो क़ब्रों को जीते जी ढूँडे सो पावे ख़बर करो बे-ख़बरों को तोशक बाला पोश रज़ाई है भूले मजनूँ बरसों तक जब दिखलावे ज़ुल्फ़ सजन की बन में आवते अब्रों को काफ़िर नफ़स हर एक का तरसा ज़र कूँ पाया बख़्तों सीं आतिश की पूजा में गुज़री उम्र तमाम उन गब्रों को मर्द जो आजिज़ हो तन मन सीं कहे ख़ुश-आमद बावर कर मोहताजी का ख़ासा है रूबाह करे है बबरों को वादा चूक फिर आया 'नाजी' दर्स की ख़ातिर फड़के मत छूट गले तेरे ऐ ज़ालिम सब्र कहाँ बे-सब्रों को
zikr-har-subh-o-shaam-hai-teraa-naji-shakir-ghazals
ज़िक्र हर सुब्ह ओ शाम है तेरा विर्द-ए-आशिक़ कूँ नाम है तेरा मत कर आज़ाद दाम-ए-ज़ुल्फ़ सीं दिल बाल-बाँधा ग़ुलाम है तेरा लश्कर-ए-ग़म ने दिल सीं कूच किया जब से इस में मक़ाम है तेरा जाम-ए-मय का पिलाना है बे-रंग शौक़ जिन कूँ मुदाम है तेरा आज 'नाजी' से रम न कर ऐ शोख़ देख मुद्दत सीं राम है तेरा
ye-daur-guzraa-kabhii-na-dekhiin-piyaa-kii-ankhiyaan-khumaar-matiyaan-naji-shakir-ghazals
ये दौर गुज़रा कभी न देखीं पिया की अँखियाँ ख़ुमार-मतियाँ कहे थे मरदुम शराबी उन कूँ निकल गईं अपनी दे ग़लतियाँ सिवाए गुल के वो शोख़ अँखियाँ किसी तरफ़ को नहीं हैं राग़िब तो बर्ग-ए-नर्गिस उपर बजा है लिखूँ जो अपने सजन कूँ पतियाँ सनम की ज़ुल्फ़ाँ को हिज्र में अब गए हैं मुझ नैन हैं ख़्वाब राहत लगे है काँटा नज़र में सोना कटेंगी कैसे ये काली रतियाँ जो शम्अ-रू के दो लब हैं शीरीं तो सब्ज़ा-ए-ख़त बजा है उस पर ज़मीन पकड़ी है तूतियों ने सुनीं जो मीठी पिया की बतियाँ ख़याल कर कर भटक रहा हूँ नज़र जो आए तेवर हैं बाँके बनाओ बनता नहीं है 'नाजी' जो उस सजन को लगाऊँ छतियाँ
lab-e-shiiriin-hai-misrii-yuusuf-e-saanii-hai-ye-ladkaa-naji-shakir-ghazals
लब-ए-शीरीं है मिस्री यूसुफ़-ए-सानी है ये लड़का न छोड़ेगा मेरा दिल चाह-ए-कनआनी है ये लड़का लिया बोसा किसी ने और गरेबाँ-गीर है मेरा डुबाया चाहता है सब को तूफ़ानी है ये लड़का सर ऊपर लाल चीरा और दहन जूँ ग़ुंचा-ए-रंगीं बहार-ए-मुद्दआ लाल-ए-बदख़शानी है ये लड़का क़यामत है झमक बाज़ू के तावीज़-ए-तलाई की हिसार-ए-हुस्न कूँ क़ाइम किया बानी है ये लड़का हुए रू-पोश उस का हुस्न देख अंजुम के जूँ ख़ूबाँ चमकता है ब-रंग-ए-मेहर नूरानी है ये लड़का क़यामत क़ामत उस का जिन ने देखा सो हुआ बिस्मिल मगर सर ता क़दम तेग़-ए-सुलेमानी है ये लड़का मैं अपना जान ओ दिल क़ुर्बां करूँ ऊस पर सेती 'नाजी' जिसे देखें सीं हुए ईद रमज़ानी है ये लड़का
ai-sabaa-kah-bahaar-kii-baaten-naji-shakir-ghazals
ऐ सबा कह बहार की बातें इस बुत-ए-गुल-एज़ार की बातें किस पे छोड़े निगाह का शहबाज़ क्या करे है शिकार की बातें मेहरबानी सीं या हों ग़ुस्से सीं प्यारी लगती हैं यार की बातें छोड़ते कब हैं नक़्द-ए-दिल कूँ सनम जब ये करते हैं प्यार की बातें पूछिए कुछ कहें हैं कुछ 'नाजी' आ पड़ीं रोज़गार की बातें
kamar-kii-baat-sunte-hain-ye-kuchh-paaii-nahiin-jaatii-naji-shakir-ghazals
कमर की बात सुनते हैं ये कुछ पाई नहीं जाती कहे हैं बात ऐसी ख़याल में मेरे नहीं आती जो चाहो सैर-ए-दरिया वक़्फ़ है मुझ चश्म की कश्ती हर एक मू-ए-पलक मेरा है गोया घाट ख़ैराती ब-रंग उस के नहीं महबूब दिल रोने को आशिक़ के सआदत ख़ाँ है लड़का वज़्अ कर लेता है बरसाती जो कोई असली है ठंडा गर्म याक़ूती में क्यूँकर हो न लावे ताब तेरे लब की जो नामर्द है ज़ाती न देखा बाग़ में नर्गिस नीं तुझ कूँ शर्म जाने सीं इसी ग़म में हुई है सर-निगूँ वो वक़्त नहीं पाती कहाँ मुमकिन है 'नाजी' सा कि तक़्वा और सलाह आवे निगाह-ए-मस्त-ए-ख़ूबाँ वो नहीं लेता ख़राबाती
tere-bhaaii-ko-chaahaa-ab-terii-kartaa-huun-paa-bosii-naji-shakir-ghazals
तेरे भाई को चाहा अब तेरी करता हूँ पा-बोसी मुझे सरताज कर रख जान में आशिक़ हूँ मौरूसी रफ़ू कर दे हैं ऐसा प्यार जो आशिक़ हैं यकसू सीं फड़ा कर और सीं शाल अपनी कहता है मुझे तू सी हुआ मख़्फ़ी मज़ा अब शाहिदी सीं शहद की ज़ाहिर मगर ज़ंबूर ने शीरीनी उन होंटों की जा चूसी किसे ये ताब जो उस की तजल्ली में रहे ठहरा रुमूज़-ए-तौर लाती है सजन तेरी कमर मू सी समाता नईं इज़ार अपने में अबतर देख रंग उस का करे किम-ख़्वाब सो जाने की यूँ पाते हैं जासूसी ब-रंग-ए-शम्अ क्यूँ याक़ूब की आँखें नहीं रौशन ज़माने में सुना यूसुफ़ का पैराहन था फ़ानूसी न छोड़ूँ उस लब-ए-इरफ़ाँ को 'नाजी' और लुटा दूँ सब मिले गर मुझ को मुल्क-ए-ख़ुसरवी और ताज-ए-काऊसी
dekh-mohan-tirii-kamar-kii-taraf-naji-shakir-ghazals
देख मोहन तिरी कमर की तरफ़ फिर गया मानी अपने घर की तरफ़ जिन ने देखे तिरे लब-ए-शीरीं नज़र उस की नहीं शकर की तरफ़ है मुहाल उन का दाम में आना दिल है माइल बुताँ का ज़र की तरफ़ तेरे रुख़्सार की सफ़ाई देख चश्म दाना की नईं गुहर की तरफ़ हैं ख़ुशामद-तलब सब अहल-ए-दुवल ग़ौर करते नईं हुनर की तरफ़ माह-रू ने सफ़र किया है जिधर दिल मिरा है उसी नगर की तरफ़ हश्र में पाक-बाज़ है 'नाजी' बद-अमल जाएँगे सक़र की तरफ़
dekhii-bahaar-ham-ne-kal-zor-mai-kade-men-naji-shakir-ghazals
देखी बहार हम ने कल ज़ोर मय-कदे में हँसने सीं उस सजन के था शोर मय-कदे में थे जोश-ए-मुल सीं ऐसी शोरिश में दाग़ दिल के गोया कि कूदते हैं ये मोर मय-कदे में फंदा रखा था मैं ने शायद कि वो परी-रू देखे तो पास मेरे हो दौर मय-कदे में है आरज़ू कि हमदम वो माह-रू हो मेरा दे शाम सीं जो प्याला हो भोर मय-कदे में साक़ी वही है मेरा 'नाजी' कि गर मरूँ मैं मुझ वास्ते बना दे जा गोर मय-कदे में
mah-rukhaan-kii-jo-mehrbaanii-hai-naji-shakir-ghazals
मह-रुख़ाँ की जो मेहरबानी है ये मदद मुझ पे आसमानी है रश्क सीं उस के साफ़ चेहरे के चश्म पर आइने की पानी है दाम में बुल-हवस के आया नईं क्यूँ कि ये बाज़ आश्यानी है चर्ब है शम्अ पर जमाल उस का शम्अ की रौशनी ज़बानी है उस के रुख़्सार देख जीता हूँ आरज़ी मेरी ज़िंदगानी है सिर्फ़ सूरत का बंद नईं 'नाजी' आशिक़-ए-साहब-ए-मआनी है
ishq-to-mushkil-hai-ai-dil-kaun-kahtaa-sahl-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals
इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है लेक नादानी से अपनी तू ने समझा सहल है गर खुले दिल की गिरह तुझ से तो हम जानें तुझे ऐ सबा ग़ुंचे का उक़्दा खोल देना सहल है हमदमो दिल के लगाने में कहो लगता है क्या पर छुड़ाना इस का मुश्किल है लगाना सहल है गरचे मुश्किल है बहुत मेरा इलाज-ए-दर्द-ए-दिल पर जो तू चाहे तो ऐ रश्क-ए-मसीहा सहल है है बहुत दुश्वार मरना ये सुना करते थे हम पर जुदाई में तिरी हम ने जो देखा सहल है शम्अ ने जल कर जलाया बज़्म में परवाने को बिन जले अपने जलाना क्या किसी का सहल है इश्क़ का रस्ता सरासर है दम-ए-शमशीर पर बुल-हवस इस राह में रखना क़दम क्या सहल है ऐ 'ज़फ़र' कुछ हो सके तो फ़िक्र कर उक़्बा का तू कर न दुनिया का तरद्दुद कार-ए-दुनिया सहल है
kaafir-tujhe-allaah-ne-suurat-to-parii-dii-bahadur-shah-zafar-ghazals
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी पर हैफ़ तिरे दिल में मोहब्बत न ज़री दी दी तू ने मुझे सल्तनत-ए-बहर-ओ-बर ऐ इश्क़ होंटों को जो ख़ुश्की मिरी आँखों को तरी दी ख़ाल-ए-लब-ए-शीरीं का दिया बोसा कब उस ने इक चाट लगाने को मिरे नीशकरी दी काफ़िर तिरे सौदा-ए-सर-ए-ज़ुल्फ़ ने मुझ को क्या क्या न परेशानी ओ आशुफ़्ता-सरी दी मेहनत से है अज़्मत कि ज़माने में नगीं को बे-काविश-ए-सीना न कभी नामवरी दी सय्याद ने दी रुख़्सत-ए-परवाज़ पर अफ़्सोस तू ने न इजाज़त मुझे बे-बाल-ओ-परी दी कहता तिरा कुछ सोख़्ता-जाँ लेक अजल ने फ़ुर्सत न उसे मिस्ल-ए-चराग़-ए-सहरी दी क़स्साम-ए-अज़ल ने न रखा हम को भी महरूम गरचे न दिया कोई हुनर बे-हुनरी दी उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब क्यूँ हाथ में बदमस्त के बंदूक़ भरी दी दिल दे के किया हम ने तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा इक आप बला अपने लिए मोल ख़रीदी साक़ी ने दिया क्या मुझे इक साग़र-ए-सरशार गोया कि दो आलम से 'ज़फ़र' बे-ख़बरी दी
hai-dil-ko-jo-yaad-aaii-falak-e-piir-kisii-kii-bahadur-shah-zafar-ghazals
है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की आँखों के तले फिरती है तस्वीर किसी की गिर्या भी है नाला भी है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी पर दिल में हुई उस के न तासीर किसी की हाथ आए है क्या ख़ाक तिरे ख़ाक-ए-कफ़-ए-पा जब तक कि न क़िस्मत में हो इक्सीर किसी की यारो वो है बिगड़ा हुआ बातें न बनाओ कुछ पेश नहीं जाने की तक़रीर किसी की नाज़ाँ न हो मुनइ'म कि जहाँ तेरा महल है होवेगी यहाँ पहले भी ता'मीर किसी की मेरी गिरह-ए-दिल न खुली है न खुलेगी जब तक न खुले ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर किसी की आता भी अगर है तो वो फिर जाए है उल्टा जिस वक़्त उलट जाए है तक़दीर किसी की इस अबरू ओ मिज़्गाँ से 'ज़फ़र' तेज़ ज़ियादा ख़ंजर न किसी का है न शमशीर किसी की जो दिल से उधर जाए नज़र दिल हो गिरफ़्तार मुजरिम हो कोई और हो तक़्सीर किसी की
khvaah-kar-insaaf-zaalim-khvaah-kar-bedaad-tuu-bahadur-shah-zafar-ghazals
ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू पर जो फ़रियादी हैं उन की सुन तो ले फ़रियाद तू दम-ब-दम भरते हैं हम तेरी हवा-ख़्वाही का दम कर न बद-ख़ुओं के कहने से हमें बर्बाद तू क्या गुनह क्या जुर्म क्या तक़्सीर मेरी क्या ख़ता बन गया जो इस तरह हक़ में मिरे जल्लाद तू क़ैद से तेरी कहाँ जाएँगे हम बे-बाल-ओ-पर क्यूँ क़फ़स में तंग करता है हमें सय्याद तू दिल को दिल से राह है तो जिस तरह से हम तुझे याद करते हैं करे यूँ ही हमें भी याद तू दिल तिरा फ़ौलाद हो तो आप हो आईना-वार साफ़ यक-बारी सुने मेरी अगर रूदाद तू शाद ओ ख़ुर्रम एक आलम को किया उस ने 'ज़फ़र' पर सबब क्या है कि है रंजीदा ओ नाशाद तू
kyuunki-ham-duniyaa-men-aae-kuchh-sabab-khultaa-nahiin-bahadur-shah-zafar-ghazals
क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं इक सबब क्या भेद वाँ का सब का सब खुलता नहीं पूछता है हाल भी गर वो तो मारे शर्म के ग़ुंचा-ए-तस्वीर के मानिंद लब खुलता नहीं शाहिद-ए-मक़्सूद तक पहुँचेंगे क्यूँकर देखिए बंद है बाब-ए-तमन्ना है ग़ज़ब खुलता नहीं बंद है जिस ख़ाना-ए-ज़िंदाँ में दीवाना तेरा उस का दरवाज़ा परी-रू रोज़ ओ शब खुलता नहीं दिल है ये ग़ुंचा नहीं है इस का उक़्दा ऐ सबा खोलने का जब तलक आवे न ढब खुलता नहीं इश्क़ ने जिन को किया ख़ातिर-गिरफ़्ता उन का दिल लाख होवे गरचे सामान-ए-तरब खुलता नहीं किस तरह मालूम होवे उस के दिल का मुद्दआ मुझ से बातों में 'ज़फ़र' वो ग़ुंचा-लब खुलता नहीं
vaan-iraada-aaj-us-qaatil-ke-dil-men-aur-hai-bahadur-shah-zafar-ghazals
वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है और यहाँ कुछ आरज़ू बिस्मिल के दिल में और है वस्ल की ठहरावे ज़ालिम तो किसी सूरत से आज वर्ना ठहरी कुछ तिरे माइल के दिल में और है है हिलाल ओ बद्र में इक नूर पर जो रौशनी दिल में नाक़िस के है वो कामिल के दिल में और है पहले तो मिलता है दिलदारी से क्या क्या दिलरुबा बाँधता मंसूबे फिर वो मिल के दिल में और है है मुझे बाद-अज़-सवाल-ए-बोसा ख़्वाहिश वस्ल की ये तमन्ना एक इस साइल के दिल में और है गो वो महफ़िल में न बोला पा गए चितवन से हम आज कुछ उस रौनक़-ए-महफ़िल के दिल में और है यूँ तो है वो ही दिल-ए-आलम के दिल में ऐ 'ज़फ़र' उस का आलम मर्द-ए-साहब दिल के दिल में और है