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⌀ |
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sitaaron-se-aage-jahaan-aur-bhii-hain-allama-iqbal-ghazals-1 |
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं
क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर
चमन और भी आशियाँ और भी हैं
अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं
तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं
इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा
कि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं
गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मिरे राज़-दाँ और भी हैं |
tujhe-yaad-kyaa-nahiin-hai-mire-dil-kaa-vo-zamaana-allama-iqbal-ghazals |
तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना
ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में
न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना
रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की
कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना
मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे
उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना
मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना
तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं
न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना |
tire-ishq-kii-intihaa-chaahtaa-huun-allama-iqbal-ghazals |
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ
ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ
ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना
वही लन-तरानी सुना चाहता हूँ
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ |
naala-hai-bulbul-e-shoriida-tiraa-khaam-abhii-allama-iqbal-ghazals |
नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी
अपने सीने में इसे और ज़रा थाम अभी
पुख़्ता होती है अगर मस्लहत-अंदेश हो अक़्ल
इश्क़ हो मस्लहत-अंदेश तो है ख़ाम अभी
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
अक़्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम अभी
इश्क़ फ़र्मूदा-ए-क़ासिद से सुबुक-गाम-ए-अमल
अक़्ल समझी ही नहीं म'अनी-ए-पैग़ाम अभी
शेवा-ए-इश्क़ है आज़ादी ओ दहर-आशेबी
तू है ज़ुन्नारी-ए-बुत-ख़ाना-ए-अय्याम अभी
उज़्र-ए-परहेज़ पे कहता है बिगड़ कर साक़ी
है तिरे दिल में वही काविश-ए-अंजाम अभी
सई-ए-पैहम है तराज़ू-कम-ओ-कैफ़-ए-हयात
तेरी मीज़ाँ है शुमार-ए-सहर-ओ-शाम अभी
अब्र-ए-नैसाँ ये तुनुक-बख़्शी-ए-शबनम कब तक
मेरे कोहसार के लाले हैं तही-जाम अभी
बादा-गर्दान-ए-अजम वो अरबी मेरी शराब
मिरे साग़र से झिजकते हैं मय-आशाम अभी
ख़बर 'इक़बाल' की लाई है गुलिस्ताँ से नसीम
नौ-गिरफ़्तार फड़कता है तह-ए-दाम अभी |
phir-charaag-e-laala-se-raushan-hue-koh-o-daman-allama-iqbal-ghazals-3 |
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन
फूल हैं सहरा में या परियाँ क़तार अंदर क़तार
ऊदे ऊदे नीले नीले पीले पीले पैरहन
बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
हुस्न-ए-बे-परवा को अपनी बे-नक़ाबी के लिए
हों अगर शहरों से बन प्यारे तो शहर अच्छे कि बन
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन
मन की दुनिया मन की दुनिया सोज़ ओ मस्ती जज़्ब ओ शौक़
तन की दुनिया तन की दुनिया सूद ओ सौदा मक्र ओ फ़न
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन
मन की दुनिया में न पाया मैं ने अफ़रंगी का राज
मन की दुनिया में न देखे मैं ने शैख़ ओ बरहमन
पानी पानी कर गई मुजको क़लंदर की ये बात
तू झुका जब ग़ैर के आगे न मन तेरा न तन |
gesuu-e-taabdaar-ko-aur-bhii-taabdaar-kar-allama-iqbal-ghazals |
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
होश ओ ख़िरद शिकार कर क़ल्ब ओ नज़र शिकार कर
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर
तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू
या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर
मैं हूँ सदफ़ तो तेरे हाथ मेरे गुहर की आबरू
मैं हूँ ख़ज़फ़ तो तू मुझे गौहर-ए-शाहवार कर
नग़्मा-ए-नौ-बहार अगर मेरे नसीब में न हो
उस दम-ए-नीम-सोज़ को ताइरक-ए-बहार कर
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर
रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर |
khudii-vo-bahr-hai-jis-kaa-koii-kinaara-nahiin-allama-iqbal-ghazals |
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं
तिलिस्म-ए-गुंबद-ए-गर्दूं को तोड़ सकते हैं
ज़ुजाज की ये इमारत है संग-ए-ख़ारा नहीं
ख़ुदी में डूबते हैं फिर उभर भी आते हैं
मगर ये हौसला-ए-मर्द-ए-हेच-कारा नहीं
तिरे मक़ाम को अंजुम-शनास क्या जाने
कि ख़ाक-ए-ज़ि़ंदा है तू ताबा-ए-सितारा नहीं
यहीं बहिश्त भी है हूर ओ जिबरईल भी है
तिरी निगह में अभी शोख़ी-ए-नज़ारा नहीं
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना
वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
ग़ज़ब है ऐन-ए-करम में बख़ील है फ़ितरत
कि लाल-ए-नाब में आतिश तो है शरारा नहीं |
nigaah-e-faqr-men-shaan-e-sikandarii-kyaa-hai-allama-iqbal-ghazals |
निगाह-ए-फ़क़्र में शान-ए-सिकंदरी क्या है
ख़िराज की जो गदा हो वो क़ैसरी क्या है
बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी
मुझे बता तो सही और काफ़िरी क्या है
फ़लक ने उन को अता की है ख़्वाजगी कि जिन्हें
ख़बर नहीं रविश-ए-बंदा-परवरी क्या है
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है
इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर
कि जानता हूँ मआल-ए-सिकंदरी क्या है
किसे नहीं है तमन्ना-ए-सरवरी लेकिन
ख़ुदी की मौत हो जिस में वो सरवरी क्या है
ख़ुश आ गई है जहाँ को क़लंदरी मेरी
वगर्ना शे'र मिरा क्या है शाइ'री क्या है |
be-takalluf-bosa-e-zulf-e-chaliipaa-liijiye-akbar-allahabadi-ghazals |
बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए
नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए
दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप
इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए
पाँव पकड़ कर कहती है ज़ंजीर-ए-ज़िंदाँ में रहो
वहशत-ए-दिल का है ईमा राह-ए-सहरा लीजिए
ग़ैर को तो कर के ज़िद करते हैं खाने में शरीक
मुझ से कहते हैं अगर कुछ भूक हो खा लीजिए
ख़ुश-नुमा चीज़ें हैं बाज़ार-ए-जहाँ में बे-शुमार
एक नक़द-ए-दिल से या-रब मोल क्या क्या लीजिए
कुश्ता आख़िर आतिश-ए-फ़ुर्क़त से होना है मुझे
और चंदे सूरत-ए-सीमाब तड़पा लीजिए
फ़स्ल-ए-गुल के आते ही 'अकबर' हुए बेहोश आप
खोलिए आँखों को साहब जाम-ए-सहबा लीजिए |
dil-ho-kharaab-diin-pe-jo-kuchh-asar-pade-akbar-allahabadi-ghazals |
दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
अब कार-ए-आशिक़ी तो बहर-कैफ़ कर पड़े
इश्क़-ए-बुताँ का दीन पे जो कुछ असर पड़े
अब तो निबाहना है जब इक काम कर पड़े
मज़हब छुड़ाया इश्वा-ए-दुनिया ने शैख़ से
देखी जो रेल ऊँट से आख़िर उतर पड़े
बेताबियाँ नसीब न थीं वर्ना हम-नशीं
ये क्या ज़रूर था कि उन्हीं पर नज़र पड़े
बेहतर यही है क़स्द उधर का करें न वो
ऐसा न हो कि राह में दुश्मन का घर पड़े
हम चाहते हैं मेल वजूद-ओ-अदम में हो
मुमकिन तो है जो बीच में उन की कमर पड़े
दाना वही है दिल जो करे आप का ख़याल
बीना वही नज़र है कि जो आप पर पड़े
होनी न चाहिए थी मोहब्बत मगर हुई
पड़ना न चाहिए था ग़ज़ब में मगर पड़े
शैतान की न मान जो राहत-नसीब हो
अल्लाह को पुकार मुसीबत अगर पड़े
ऐ शैख़ उन बुतों की ये चालाकियाँ तो देख
निकले अगर हरम से तो 'अकबर' के घर पड़े |
gamza-nahiin-hotaa-ki-ishaaraa-nahiin-hotaa-akbar-allahabadi-ghazals |
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
जल्वा न हो मा'नी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को
सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
मैं नज़्अ' में हूँ आएँ तो एहसान है उन का
लेकिन ये समझ लें कि तमाशा नहीं होता
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता |
shekh-ne-naaquus-ke-sur-men-jo-khud-hii-taan-lii-akbar-allahabadi-ghazals |
शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
फिर तो यारों ने भजन गाने की खुल कर ठान ली
मुद्दतों क़ाइम रहेंगी अब दिलों में गर्मियाँ
मैं ने फोटो ले लिया उस ने नज़र पहचान ली
रो रहे हैं दोस्त मेरी लाश पर बे-इख़्तियार
ये नहीं दरयाफ़्त करते किस ने इस की जान ली
मैं तो इंजन की गले-बाज़ी का क़ाइल हो गया
रह गए नग़्मे हुदी-ख़्वानों के ऐसी तान ली
हज़रत-ए-'अकबर' के इस्तिक़्लाल का हूँ मो'तरिफ़
ता-ब-मर्ग उस पर रहे क़ाइम जो दिल में ठान ली |
na-haasil-huaa-sabr-o-aaraam-dil-kaa-akbar-allahabadi-ghazals |
न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का
न निकला कभी तुम से कुछ काम दिल का
मोहब्बत का नश्शा रहे क्यूँ न हर-दम
भरा है मय-ए-इश्क़ से जाम दिल का
फँसाया तो आँखों ने दाम-ए-बला में
मगर इश्क़ में हो गया नाम दिल का
हुआ ख़्वाब रुस्वा ये इश्क़-ए-बुताँ में
ख़ुदा ही है अब मेरे बदनाम दिल का
ये बाँकी अदाएँ ये तिरछी निगाहें
यही ले गईं सब्र-ओ-आराम दिल का
धुआँ पहले उठता था आग़ाज़ था वो
हुआ ख़ाक अब ये है अंजाम दिल का
जब आग़ाज़-ए-उल्फ़त ही में जल रहा है
तो क्या ख़ाक बतलाऊँ अंजाम दिल का
ख़ुदा के लिए फेर दो मुझ को साहब
जो सरकार में कुछ न हो काम दिल का
पस-ए-मर्ग उन पर खुला हाल-ए-उल्फ़त
गई ले के रूह अपनी पैग़ाम दिल का
तड़पता हुआ यूँ न पाया हमेशा
कहूँ क्या मैं आग़ाज़-ओ-अंजाम दिल का
दिल उस बे-वफ़ा को जो देते हो 'अकबर'
तो कुछ सोच लो पहले अंजाम दिल का |
tariiq-e-ishq-men-mujh-ko-koii-kaamil-nahiin-miltaa-akbar-allahabadi-ghazals |
तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता
गए फ़रहाद ओ मजनूँ अब किसी से दिल नहीं मिलता
भरी है अंजुमन लेकिन किसी से दिल नहीं मिलता
हमीं में आ गया कुछ नक़्स या कामिल नहीं मिलता
पुरानी रौशनी में और नई में फ़र्क़ इतना है
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता
पहुँचना दाद को मज़लूम का मुश्किल ही होता है
कभी क़ाज़ी नहीं मिलते कभी क़ातिल नहीं मिलता
हरीफ़ों पर ख़ज़ाने हैं खुले याँ हिज्र-ए-गेसू है
वहाँ पे बिल है और याँ साँप का भी बिल नहीं मिलता
ये हुस्न ओ इश्क़ ही का काम है शुबह करें किस पर
मिज़ाज उन का नहीं मिलता हमारा दिल नहीं मिलता
छुपा है सीना ओ रुख़ दिल-सिताँ हाथों से करवट में
मुझे सोते में भी वो हुस्न से ग़ाफ़िल नहीं मिलता
हवास-ओ-होश गुम हैं बहर-ए-इरफ़ान-ए-इलाही में
यही दरिया है जिस में मौज को साहिल नहीं मिलता
किताब-ए-दिल मुझे काफ़ी है 'अकबर' दर्स-ए-हिकमत को
मैं स्पेन्सर से मुस्तग़नी हूँ मुझ से मिल नहीं मिलता |
zid-hai-unhen-puuraa-miraa-armaan-na-karenge-akbar-allahabadi-ghazals |
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
मुँह से जो नहीं निकली है अब हाँ न करेंगे
क्यूँ ज़ुल्फ़ का बोसा मुझे लेने नहीं देते
कहते हैं कि वल्लाह परेशाँ न करेंगे
है ज़ेहन में इक बात तुम्हारे मुतअल्लिक़
ख़ल्वत में जो पूछोगे तो पिन्हाँ न करेंगे
वाइज़ तो बनाते हैं मुसलमान को काफ़िर
अफ़्सोस ये काफ़िर को मुसलमाँ न करेंगे
क्यूँ शुक्र-गुज़ारी का मुझे शौक़ है इतना
सुनता हूँ वो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे
दीवाना न समझे हमें वो समझे शराबी
अब चाक कभी जेब ओ गरेबाँ न करेंगे
वो जानते हैं ग़ैर मिरे घर में है मेहमाँ
आएँगे तो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे |
dil-miraa-jis-se-bahaltaa-koii-aisaa-na-milaa-akbar-allahabadi-ghazals |
दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला
गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला
रंग चेहरे का तो कॉलेज ने भी रक्खा क़ाइम
रंग-ए-बातिन में मगर बाप से बेटा न मिला
सय्यद उट्ठे जो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शैख़ क़ुरआन दिखाते फिरे पैसा न मिला
होशयारों में तो इक इक से सिवा हैं 'अकबर'
मुझ को दीवानों में लेकिन कोई तुझ सा न मिला |
aankhen-mujhe-talvon-se-vo-malne-nahiin-dete-akbar-allahabadi-ghazals |
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मिरे दिल के निकलने नहीं देते
ख़ातिर से तिरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को सँभलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यूँ हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गर्मी-ए-मोहब्बत में वो हैं आह से माने'
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते |
huun-main-parvaana-magar-shama-to-ho-raat-to-ho-akbar-allahabadi-ghazals |
हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो
जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो
दिल भी हाज़िर सर-ए-तस्लीम भी ख़म को मौजूद
कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो
दिल तो बेचैन है इज़हार-ए-इरादत के लिए
किसी जानिब से कुछ इज़हार-ए-करामात तो हो
दिल-कुशा बादा-ए-साफ़ी का किसे ज़ौक़ नहीं
बातिन-अफ़रोज़ कोई पीर-ए-ख़राबात तो हो
गुफ़्तनी है दिल-ए-पुर-दर्द का क़िस्सा लेकिन
किस से कहिए कोई मुस्तफ़्सिर-ए-हालात तो हो
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कौन कहे कौन सुने
बज़्म में मौक़ा-ए-इज़हार-ए-ख़यालात तो हो
वादे भी याद दिलाते हैं गिले भी हैं बहुत
वो दिखाई भी तो दें उन से मुलाक़ात तो हो
कोई वाइ'ज़ नहीं फ़ितरत से बलाग़त में सिवा
मगर इंसान में कुछ फ़हम-ए-इशारात तो हो |
dard-to-maujuud-hai-dil-men-davaa-ho-yaa-na-ho-akbar-allahabadi-ghazals |
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो
झूमती है शाख़-ए-गुल खिलते हैं ग़ुंचे दम-ब-दम
बा-असर गुलशन में तहरीक-ए-सबा हो या न हो
वज्द में लाते हैं मुझ को बुलबुलों के ज़मज़मे
आप के नज़दीक बा-मअ'नी सदा हो या न हो
कर दिया है ज़िंदगी ने बज़्म-ए-हस्ती में शरीक
उस का कुछ मक़्सूद कोई मुद्दआ हो या न हो
क्यूँ सिवल-सर्जन का आना रोकता है हम-नशीं
इस में है इक बात ऑनर की शिफ़ा हो या न हो
मौलवी साहिब न छोड़ेंगे ख़ुदा गो बख़्श दे
घेर ही लेंगे पुलिस वाले सज़ा हो या न हो
मिमबरी से आप पर तो वार्निश हो जाएगी
क़ौम की हालत में कुछ इस से जिला हो या न हो
मो'तरिज़ क्यूँ हो अगर समझे तुम्हें सय्याद दिल
ऐसे गेसू हूँ तो शुबह दाम का हो या न हो |
har-qadam-kahtaa-hai-tuu-aayaa-hai-jaane-ke-liye-akbar-allahabadi-ghazals-3 |
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए
क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात
होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए
दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को
क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए
ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब
बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए
साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए
जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा
याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए
दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद
जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए
मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शैख़ जी को फ़रबही
मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए
अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए
सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन
जोश-ए-दिल काफ़ी है 'अकबर' तान उड़ाने के लिए |
aaj-aaraaish-e-gesuu-e-dotaa-hotii-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
आज आराइश-ए-गेसू-ए-दोता होती है
फिर मिरी जान गिरफ़्तार-ए-बला होती है
शौक़-ए-पा-बोसी-ए-जानाँ मुझे बाक़ी है हनूज़
घास जो उगती है तुर्बत पे हिना होती है
फिर किसी काम का बाक़ी नहीं रहता इंसाँ
सच तो ये है कि मोहब्बत भी बला होती है
जो ज़मीं कूचा-ए-क़ातिल में निकलती है नई
वक़्फ़ वो बहर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है
जिस ने देखी हो वो चितवन कोई उस से पूछे
जान क्यूँ-कर हदफ़-ए-तीर-ए-क़ज़ा होती है
नज़्अ' का वक़्त बुरा वक़्त है ख़ालिक़ की पनाह
है वो साअ'त कि क़यामत से सिवा होती है
रूह तो एक तरफ़ होती है रुख़्सत तन से
आरज़ू एक तरफ़ दिल से जुदा होती है
ख़ुद समझता हूँ कि रोने से भला क्या हासिल
पर करूँ क्या यूँही तस्कीन ज़रा होती है
रौंदते फिरते हैं वो मजमा-ए-अग़्यार के साथ
ख़ूब तौक़ीर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है
मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह लोट गया दिल मेरा
निगह-ए-नाज़ की तासीर भी क्या होती है
नाला कर लेने दें लिल्लाह न छेड़ें अहबाब
ज़ब्त करता हूँ तो तकलीफ़ सिवा होती है
जिस्म तो ख़ाक में मिल जाते हुए देखते हैं
रूह क्या जाने किधर जाती है क्या होती है
हूँ फ़रेब-ए-सितम-ए-यार का क़ाइल 'अकबर'
मरते मरते न खुला ये कि जफ़ा होती है |
phir-gaii-aap-kii-do-din-men-tabiiat-kaisii-akbar-allahabadi-ghazals |
फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ये मुरव्वत कैसी
दोस्त अहबाब से हँस बोल के कट जाएगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं हम को शब-ए-फ़ुर्क़त कैसी
जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं तबीअ'त कैसी
है जो क़िस्मत में वही होगा न कुछ कम न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को हसरत कैसी
हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीअ'त कैसी
कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में ये वहशत कैसी |
halqe-nahiin-hain-zulf-ke-halqe-hain-jaal-ke-akbar-allahabadi-ghazals |
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
हाँ ऐ निगाह-ए-शौक़ ज़रा देख-भाल के
पहुँचे हैं ता-कमर जो तिरे गेसू-ए-रसा
मा'नी ये हैं कमर भी बराबर है बाल के
बोस-ओ-कनार-ओ-वस्ल-ए-हसीनाँ है ख़ूब शग़्ल
कमतर बुज़ुर्ग होंगे ख़िलाफ़ इस ख़याल के
क़ामत से तेरे साने-ए-क़ुदरत ने ऐ हसीं
दिखला दिया है हश्र को साँचे में ढाल के
शान-ए-दिमाग़ इश्क़ के जल्वे से ये बढ़ी
रखता है होश भी क़दम अपने सँभाल के
ज़ीनत मुक़द्दमा है मुसीबत का दहर में
सब शम्अ' को जलाते हैं साँचे में ढाल के
हस्ती के हक़ के सामने क्या अस्ल-ए-ईन-ओ-आँ
पुतले ये सब हैं आप के वहम-ओ-ख़याल के
तलवार ले के उठता है हर तालिब-ए-फ़रोग़
दौर-ए-फ़लक में हैं ये इशारे हिलाल के
पेचीदा ज़िंदगी के करो तुम मुक़द्दमे
दिखला ही देगी मौत नतीजा निकाल के |
charkh-se-kuchh-umiid-thii-hii-nahiin-akbar-allahabadi-ghazals |
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़्सोस अब वो जी ही नहीं
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं
इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं
आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं
शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं
पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं |
bahut-rahaa-hai-kabhii-lutf-e-yaar-ham-par-bhii-akbar-allahabadi-ghazals |
बहुत रहा है कभी लुत्फ़-ए-यार हम पर भी
गुज़र चुकी है ये फ़स्ल-ए-बहार हम पर भी
उरूस-ए-दहर को आया था प्यार हम पर भी
ये बेसवा थी किसी शब निसार हम पर भी
बिठा चुका है ज़माना हमें भी मसनद पर
हुआ किए हैं जवाहिर निसार हम पर भी
अदू को भी जो बनाया है तुम ने महरम-ए-राज़
तो फ़ख़्र क्या जो हुआ ए'तिबार हम पर भी
ख़ता किसी की हो लेकिन खुली जो उन की ज़बाँ
तो हो ही जाते हैं दो एक वार हम पर भी
हम ऐसे रिंद मगर ये ज़माना है वो ग़ज़ब
कि डाल ही दिया दुनिया का बार हम पर भी
हमें भी आतिश-ए-उल्फ़त जला चुकी 'अकबर'
हराम हो गई दोज़ख़ की नार हम पर भी |
ummiid-tuutii-huii-hai-merii-jo-dil-miraa-thaa-vo-mar-chukaa-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
जो ज़िंदगानी को तल्ख़ कर दे वो वक़्त मुझ पर गुज़र चुका है
अगरचे सीने में साँस भी है नहीं तबीअत में जान बाक़ी
अजल को है देर इक नज़र की फ़लक तो काम अपना कर चुका है
ग़रीब-ख़ाने की ये उदासी ये ना-दुरुस्ती नहीं क़दीमी
चहल पहल भी कभी यहाँ थी कभी ये घर भी सँवर चुका है
ये सीना जिस में ये दाग़ में अब मसर्रतों का कभी था मख़्ज़न
वो दिल जो अरमान से भरा था ख़ुशी से उस में ठहर चुका है
ग़रीब अकबर के गर्द क्यूँ में ख़याल वाइ'ज़ से कोई कह दे
उसे डराते हो मौत से क्या वो ज़िंदगी ही से डर चुका है |
ishq-e-but-men-kufr-kaa-mujh-ko-adab-karnaa-padaa-akbar-allahabadi-ghazals |
इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा
जो बरहमन ने कहा आख़िर वो सब करना पड़ा
सब्र करना फ़ुर्क़त-ए-महबूब में समझे थे सहल
खुल गया अपनी समझ का हाल जब करना पड़ा
तजरबे ने हुब्ब-ए-दुनिया से सिखाया एहतिराज़
पहले कहते थे फ़क़त मुँह से और अब करना पड़ा
शैख़ की मज्लिस में भी मुफ़्लिस की कुछ पुर्सिश नहीं
दीन की ख़ातिर से दुनिया को तलब करना पड़ा
क्या कहूँ बे-ख़ुद हुआ मैं किस निगाह-ए-मस्त से
अक़्ल को भी मेरी हस्ती का अदब करना पड़ा
इक़तिज़ा फ़ितरत का रुकता है कहीं ऐ हम-नशीं
शैख़-साहिब को भी आख़िर कार-ए-शब करना पड़ा
आलम-ए-हस्ती को था मद्द-ए-नज़र कत्मान-ए-राज़
एक शय को दूसरी शय का सबब करना पड़ा
शेर ग़ैरों के उसे मुतलक़ नहीं आए पसंद
हज़रत-ए-'अकबर' को बिल-आख़िर तलब करना पड़ा |
dil-e-maayuus-men-vo-shorishen-barpaa-nahiin-hotiin-akbar-allahabadi-ghazals |
दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं
उमीदें इस क़दर टूटीं कि अब पैदा नहीं होतीं
मिरी बेताबियाँ भी जुज़्व हैं इक मेरी हस्ती की
ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज अज़ दरिया नहीं होतीं
वही परियाँ हैं अब भी राजा इन्दर के अखाड़े में
मगर शहज़ादा-ए-गुलफ़ाम पर शैदा नहीं होतीं
यहाँ की औरतों को इल्म की पर्वा नहीं बे-शक
मगर ये शौहरों से अपने बे-परवा नहीं होतीं
तअ'ल्लुक़ दिल का क्या बाक़ी मैं रक्खूँ बज़्म-ए-दुनिया से
वो दिलकश सूरतें अब अंजुमन-आरा नहीं होतीं
हुआ हूँ इस क़दर अफ़्सुर्दा रंग-ए-बाग़-ए-हस्ती से
हवाएँ फ़स्ल-ए-गुल की भी नशात-अफ़्ज़ा नहीं होतीं
क़ज़ा के सामने बे-कार होते हैं हवास 'अकबर'
खुली होती हैं गो आँखें मगर बीना नहीं होतीं |
hayaa-se-sar-jhukaa-lenaa-adaa-se-muskuraa-denaa-akbar-allahabadi-ghazals |
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना
ये तर्ज़ एहसान करने का तुम्हीं को ज़ेब देता है
मरज़ में मुब्तला कर के मरीज़ों को दवा देना
बलाएँ लेते हैं उन की हम उन पर जान देते हैं
ये सौदा दीद के क़ाबिल है क्या लेना है क्या देना
ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है
मगर आसाँ नहीं है सारी दुनिया को भुला देना |
apnii-girah-se-kuchh-na-mujhe-aap-diijiye-akbar-allahabadi-ghazals |
अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
अख़बार में तो नाम मिरा छाप दीजिए
देखो जिसे वो पाइनियर ऑफ़िस में है डटा
बहर-ए-ख़ुदा मुझे भी कहीं छाप दीजिए
चश्म-ए-जहाँ से हालत-ए-असली छुपी नहीं
अख़बार में जो चाहिए वो छाप दीजिए
दा'वा बहुत बड़ा है रियाज़ी में आप को
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ को तो नाप दीजिए
सुनते नहीं हैं शैख़ नई रौशनी की बात
इंजन की उन के कान में अब भाप दीजिए
इस बुत के दर पे ग़ैर से 'अकबर' ने कह दिया
ज़र ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए |
duniyaa-men-huun-duniyaa-kaa-talabgaar-nahiin-huun-akbar-allahabadi-ghazals |
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ
ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ
इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बे-लौस
साया हूँ फ़क़त नक़्श-ब-दीवार नहीं हूँ
अफ़्सुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत
ग़म का मुझे ये ज़ोफ़ है बीमार नहीं हूँ
वो गुल हूँ ख़िज़ाँ ने जिसे बर्बाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ
या रब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ |
khushii-hai-sab-ko-ki-operation-men-khuub-nishtar-ye-chal-rahaa-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है
किसी को इस की ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है
फ़ना इसी रंग पर है क़ाइम फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता ओ मुंतशिर है वो कल जो आज साँचे में ढल रहा है
ये देखते हो जो कासा-ए-सर ग़ुरूर-ए-ग़फ़लत से कल था ममलू
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है
समझ हो जिस की बलीग़ समझे नज़र हो जिस की वसीअ' देखे
अभी यहाँ ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ ये क़ुल्ज़ुम उबल रहा है
कहाँ का शर्क़ी कहाँ का ग़र्बी तमाम दुख सुख है ये मसावी
यहाँ भी इक बा-मुराद ख़ुश है वहाँ भी इक ग़म से जल रहा है
उरूज-ए-क़ौमी ज़वाल-ए-क़ौमी ख़ुदा की क़ुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अंदर ये अम्र पोलिटिकल रहा है
मज़ा है स्पीच का डिनर में ख़बर ये छपती है पाइनियर में
फ़लक की गर्दिश के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है |
vo-havaa-na-rahii-vo-chaman-na-rahaa-vo-galii-na-rahii-vo-hasiin-na-rahe-akbar-allahabadi-ghazals |
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे
वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही
वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे
न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोहद की जंग रही
सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे
न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे
वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे
हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या
ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा के लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे
तिरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मिरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला
ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे
ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब
कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे
जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर
सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे
वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर
मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे
ग़म ओ रंज में 'अकबर' अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना
किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़ियादा मलूल ओ हज़ीं न रहे |
khudaa-alii-gadh-ke-madrase-ko-tamaam-amraaz-se-shifaa-de-akbar-allahabadi-ghazals |
ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे
लतीफ़ ओ ख़ुश-वज़्अ चुस्त-ओ-चालाक ओ साफ़-ओ-पाकीज़ा शाद-ओ-ख़ुर्रम
तबीअतों में है उन की जौदत दिलों में उन के हैं नेक इरादे
कमाल मेहनत से पढ़ रहे हैं कमाल ग़ैरत से बढ़ रहे हैं
सवार मशरिक़ की राह में हैं तो मग़रिबी राह में पियादे
हर इक है उन में का बे-शक ऐसा कि आप उसे जानते हैं जैसा
दिखाए महफ़िल में क़द्द-ए-रअना जो आप आएँ तो सर झुका दे
फ़क़ीर माँगें तो साफ़ कह दें कि तू है मज़बूत जा कमा खा
क़ुबूल फ़रमाएँ आप दावत तो अपना सरमाया कुल खिला दे
बुतों से उन को नहीं लगावट मिसों की लेते नहीं वो आहट
तमाम क़ुव्वत है सर्फ़-ए-ख़्वाँदन नज़र के भोले हैं दिल की सादे
नज़र भी आए जो ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ तो समझें ये कोई पालिसी है
इलेक्ट्रिक लाईट उस को समझें जो बर्क़-वश कोई कोई दे
निकलते हैं कर के ग़ोल-बंदी ब-नाम-ए-तहज़ीब ओ दर्द-मंदी
ये कह के लेते हैं सब से चंदे हमें जो तुम दो तुम्हें ख़ुदा दे
उन्हें इसी बात पर यक़ीन है कि बस यही असल कार-ए-दीं है
इसी सी होगा फ़रोग़-ए-क़ौमी इसी से चमकेंगे बाप दादे
मकान-ए-कॉलेज के सब मकीं हैं अभी उन्हें तजरबे नहीं हैं
ख़बर नहीं है कि आगे चल कर है कैसी मंज़िल हैं कैसी जादे
दिलों में उन के है नूर-ए-ईमाँ क़वी नहीं है मगर निगहबाँ
हवा-ए-मंतिक़ अदा-ए-तिफ़ली ये शम्अ ऐसा न हो बुझा दे
फ़रेब दे कर निकाले मतलब सिखाए तहक़ीर-ए-दीन-ओ-मज़हब
मिटा दे आख़िर को वज़-ए-मिल्लत नुमूद-ए-ज़ाती को गर बढ़ा दे
यही बस 'अकबर' की इल्तिजा है जनाब-ए-बारी में ये दुआ है
उलूम-ओ-हिकमत का दर्स उन को प्रोफ़ेसर दें समझ ख़ुदा दे |
ik-bosa-diijiye-miraa-iimaan-liijiye-akbar-allahabadi-ghazals |
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
गो बुत हैं आप बहर-ए-ख़ुदा मान लीजिए
दिल ले के कहते हैं तिरी ख़ातिर से ले लिया
उल्टा मुझी पे रखते हैं एहसान लीजिए
ग़ैरों को अपने हाथ से हँस कर खिला दिया
मुझ से कबीदा हो के कहा पान लीजिए
मरना क़ुबूल है मगर उल्फ़त नहीं क़ुबूल
दिल तो न दूँगा आप को मैं जान लीजिए
हाज़िर हुआ करूँगा मैं अक्सर हुज़ूर में
आज अच्छी तरह से मुझे पहचान लीजिए |
hangaama-hai-kyuun-barpaa-thodii-sii-jo-pii-lii-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
ना-तजरबा-कारी से वाइ'ज़ की ये हैं बातें
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है
उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है
ऐ शौक़ वही मय पी ऐ होश ज़रा सो जा
मेहमान-ए-नज़र इस दम एक बर्क़-ए-तजल्ली है
वाँ दिल में कि सदमे दो याँ जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है
सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है
तालीम का शोर ऐसा तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती निय्यत की ख़राबी है
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है |
jo-tumhaare-lab-e-jaan-bakhsh-kaa-shaidaa-hogaa-akbar-allahabadi-ghazals |
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा
वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ
फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा
क़ैस का ज़िक्र मिरे शान-ए-जुनूँ के आगे
अगले वक़्तों का कोई बादिया-पैमा होगा
आरज़ू है मुझे इक शख़्स से मिलने की बहुत
नाम क्या लूँ कोई अल्लाह का बंदा होगा
लाल-ए-लब का तिरे बोसा तो मैं लेता हूँ मगर
डर ये है ख़ून-ए-जिगर बाद में पीना होगा |
jazba-e-dil-ne-mire-taasiir-dikhlaaii-to-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
जज़्बा-ए-दिल ने मिरे तासीर दिखलाई तो है
घुंघरूओं की जानिब-ए-दर कुछ सदा आई तो है
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है
आप के सर की क़सम मेरे सिवा कोई नहीं
बे-तकल्लुफ़ आइए कमरे में तन्हाई तो है
जब कहा मैं ने तड़पता है बहुत अब दिल मिरा
हंस के फ़रमाया तड़पता होगा सौदाई तो है
देखिए होती है कब राही सू-ए-मुल्क-ए-अदम
ख़ाना-ए-तन से हमारी रूह घबराई तो है
दिल धड़कता है मिरा लूँ बोसा-ए-रुख़ या न लूँ
नींद में उस ने दुलाई मुँह से सरकाई तो है
देखिए लब तक नहीं आती गुल-ए-आरिज़ की याद
सैर-ए-गुलशन से तबीअ'त हम ने बहलाई तो है
मैं बला में क्यूँ फँसूँ दीवाना बन कर उस के साथ
दिल को वहशत हो तो हो कम्बख़्त सौदाई तो है
ख़ाक में दिल को मिलाया जल्वा-ए-रफ़्तार से
क्यूँ न हो ऐ नौजवाँ इक शान-ए-रानाई तो है
यूँ मुरव्वत से तुम्हारे सामने चुप हो रहें
कल के जलसों की मगर हम ने ख़बर पाई तो है
बादा-ए-गुल-रंग का साग़र इनायत कर मुझे
साक़िया ताख़ीर क्या है अब घटा छाई तो है
जिस की उल्फ़त पर बड़ा दावा था कल 'अकबर' तुम्हें
आज हम जा कर उसे देख आए हरजाई तो है |
jahaan-men-haal-miraa-is-qadar-zabuun-huaa-akbar-allahabadi-ghazals |
जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ
ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ
वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ
उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रीया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ
निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ |
tirii-zulfon-men-dil-uljhaa-huaa-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
बला के पेच में आया हुआ है
न क्यूँकर बू-ए-ख़ूँ नामे से आए
उसी जल्लाद का लिक्खा हुआ है
चले दुनिया से जिस की याद में हम
ग़ज़ब है वो हमें भूला हुआ है
कहूँ क्या हाल अगली इशरतों का
वो था इक ख़्वाब जो भूला हुआ है
जफ़ा हो या वफ़ा हम सब में ख़ुश हैं
करें क्या अब तो दिल अटका हुआ है
हुई है इश्क़ ही से हुस्न की क़द्र
हमीं से आप का शोहरा हुआ है
बुतों पर रहती है माइल हमेशा
तबीअत को ख़ुदाया क्या हुआ है
परेशाँ रहते हो दिन रात 'अकबर'
ये किस की ज़ुल्फ़ का सौदा हुआ है |
na-bahte-ashk-to-taasiir-men-sivaa-hote-akbar-allahabadi-ghazals |
न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते
मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त
जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते
गुनाहगारों ने देखा जमाल-ए-रहमत को
कहाँ नसीब ये होता जो बे-ख़ता होते
जनाब-ए-हज़रत-ए-नासेह का वाह क्या कहना
जो एक बात न होती तो औलिया होते
मज़ाक़-ए-इश्क़ नहीं शेख़ में ये है अफ़्सोस
ये चाशनी भी जो होती तो क्या से क्या होते
महल्ल-ए-शुक्र हैं 'अकबर' ये दरफ़शाँ नज़्में
हर इक ज़बाँ को ये मोती नहीं अता होते |
khatm-kiyaa-sabaa-ne-raqs-gul-pe-nisaar-ho-chukii-akbar-allahabadi-ghazals |
ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी
जोश-ए-नशात हो चुका सौत-ए-हज़ार हो चुकी
रंग-ए-बनफ़शा मिट गया सुंबुल-ए-तर नहीं रहा
सेहन-ए-चमन में ज़ीनत-ए-नक़्श-ओ-निगार हो चुकी
मस्ती-ए-लाला अब कहाँ उस का प्याला अब कहाँ
दौर-ए-तरब गुज़र गया आमद-ए-यार हो चुकी
रुत वो जो थी बदल गई आई बस और निकल गई
थी जो हवा में निकहत-ए-मुश्क-ए-ततार हो चुकी
अब तक उसी रविश पे है 'अकबर'-ए-मस्त-ओ-बे-ख़बर
कह दे कोई अज़ीज़-ए-मन फ़स्ल-ए-बहार हो चुकी |
saans-lete-hue-bhii-dartaa-huun-akbar-allahabadi-ghazals |
साँस लेते हुए भी डरता हूँ
ये न समझें कि आह करता हूँ
बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हबाब
मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ
इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ
शैख़ साहब ख़ुदा से डरते हों
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ
आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ
ये बड़ा ऐब मुझ में है 'अकबर'
दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ |
aah-jo-dil-se-nikaalii-jaaegii-akbar-allahabadi-ghazals |
आह जो दिल से निकाली जाएगी
क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी
इस नज़ाकत पर ये शमशीर-ए-जफ़ा
आप से क्यूँकर सँभाली जाएगी
क्या ग़म-ए-दुनिया का डर मुझ रिंद को
और इक बोतल चढ़ा ली जाएगी
शैख़ की दावत में मय का काम क्या
एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी
याद-ए-अबरू में है 'अकबर' महव यूँ
कब तिरी ये कज-ख़याली जाएगी |
na-ruuh-e-mazhab-na-qalb-e-aarif-na-shaairaana-zabaan-baaqii-akbar-allahabadi-ghazals |
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइ'राना ज़बान बाक़ी
ज़मीं हमारी बदल गई है अगरचे है आसमान बाक़ी
शब-ए-गुज़िश्ता के साज़ ओ सामाँ के अब कहाँ हैं निशान बाक़ी
ज़बान-ए-शमा-ए-सहर पे हसरत की रह गई दास्तान बाक़ी
जो ज़िक्र आता है आख़िरत का तो आप होते हैं साफ़ मुनकिर
ख़ुदा की निस्बत भी देखता हूँ यक़ीन रुख़्सत गुमान बाक़ी
फ़ुज़ूल है उन की बद-दिमाग़ी कहाँ है फ़रियाद अब लबों पर
ये वार पर वार अब अबस हैं कहाँ बदन में है जान बाक़ी
मैं अपने मिटने के ग़म में नालाँ उधर ज़माना है शाद ओ ख़ंदाँ
इशारा करती है चश्म-ए-दौराँ जो आन बाक़ी जहान बाक़ी
इसी लिए रह गई हैं आँखें कि मेरे मिटने का रंग देखें
सुनूँ वो बातें जो होश उड़ाएँ इसी लिए हैं ये कान बाक़ी
तअ'ज्जुब आता है तिफ़्ल-ए-दिल पर कि हो गया मस्त-ए-नज़्म-ए-'अकबर'
अभी मिडिल पास तक नहीं है बहुत से हैं इम्तिहान बाक़ी |
unhen-nigaah-hai-apne-jamaal-hii-kii-taraf-akbar-allahabadi-ghazals |
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
नज़र उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़
तवज्जोह अपनी हो क्या फ़न्न-ए-शाइरी की तरफ़
नज़र हर एक की जाती है ऐब ही की तरफ़
लिखा हुआ है जो रोना मिरे मुक़द्दर में
ख़याल तक नहीं जाता कभी हँसी की तरफ़
तुम्हारा साया भी जो लोग देख लेते हैं
वो आँख उठा के नहीं देखते परी की तरफ़
बला में फँसता है दिल मुफ़्त जान जाती है
ख़ुदा किसी को न ले जाए उस गली की तरफ़
कभी जो होती है तकरार ग़ैर से हम से
तो दिल से होते हो दर-पर्दा तुम उसी की तरफ़
निगाह पड़ती है उन पर तमाम महफ़िल की
वो आँख उठा के नहीं देखते किसी की तरफ़
निगाह उस बुत-ए-ख़ुद-बीं की है मिरे दिल पर
न आइने की तरफ़ है न आरसी की तरफ़
क़ुबूल कीजिए लिल्लाह तोहफ़ा-ए-दिल को
नज़र न कीजिए इस की शिकस्तगी की तरफ़
यही नज़र है जो अब क़ातिल-ए-ज़माना हुई
यही नज़र है कि उठती न थी किसी की तरफ़
ग़रीब-ख़ाना में लिल्लाह दो-घड़ी बैठो
बहुत दिनों में तुम आए हो इस गली की तरफ़
ज़रा सी देर ही हो जाएगी तो क्या होगा
घड़ी घड़ी न उठाओ नज़र घड़ी की तरफ़
जो घर में पूछे कोई ख़ौफ़ क्या है कह देना
चले गए थे टहलते हुए किसी की तरफ़
हज़ार जल्वा-ए-हुस्न-ए-बुताँ हो ऐ 'अकबर'
तुम अपना ध्यान लगाए रहो उसी की तरफ़ |
jab-yaas-huii-to-aahon-ne-siine-se-nikalnaa-chhod-diyaa-akbar-allahabadi-ghazals |
जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया
अब ख़ुश्क-मिज़ाज आँखें भी हुईं दिल ने भी मचलना छोड़ दिया
नावक-फ़गनी से ज़ालिम की जंगल में है इक सन्नाटा सा
मुर्ग़ान-ए-ख़ुश-अलहाँ हो गए चुप आहू ने उछलना छोड़ दिया
क्यूँ किब्र-ओ-ग़ुरूर इस दौर पे है क्यूँ दोस्त फ़लक को समझा है
गर्दिश से ये अपनी बाज़ आया या रंग बदलना छोड़ दिया
बदली वो हवा गुज़रा वो समाँ वो राह नहीं वो लोग नहीं
तफ़रीह कहाँ और सैर कुजा घर से भी निकलना छोड़ दिया
वो सोज़-ओ-गुदाज़ उस महफ़िल में बाक़ी न रहा अंधेर हुआ
परवानों ने जलना छोड़ दिया शम्ओं ने पिघलना छोड़ दिया
हर गाम पे चंद आँखें निगराँ हर मोड़ पे इक लेसंस-तलब
उस पार्क में आख़िर ऐ 'अकबर' मैं ने तो टहलना छोड़ दिया
क्या दीन को क़ुव्वत दें ये जवाँ जब हौसला-अफ़्ज़ा कोई नहीं
क्या होश सँभालें ये लड़के ख़ुद उस ने सँभलना छोड़ दिया
इक़बाल मुसाइद जब न रहा रक्खे ये क़दम जिस मंज़िल में
अश्जार से साया दूर हुआ चश्मों ने उबलना छोड़ दिया
अल्लाह की राह अब तक है खुली आसार-ओ-निशाँ सब क़ाएम हैं
अल्लाह के बंदों ने लेकिन उस राह में चलना छोड़ दिया
जब सर में हवा-ए-ताअत थी सरसब्ज़ शजर उम्मीद का था
जब सर-सर-ए-इस्याँ चलने लगी इस पेड़ ने फलना छोड़ दिया
उस हूर-लक़ा को घर लाए हो तुम को मुबारक ऐ 'अकबर'
लेकिन ये क़यामत की तुम ने घर से जो निकलना छोड़ दिया |
gale-lagaaen-karen-pyaar-tum-ko-eid-ke-din-akbar-allahabadi-ghazals |
गले लगाएँ करें प्यार तुम को ईद के दिन
इधर तो आओ मिरे गुल-एज़ार ईद के दिन
ग़ज़ब का हुस्न है आराइशें क़यामत की
अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार ईद के दिन
सँभल सकी न तबीअ'त किसी तरह मेरी
रहा न दिल पे मुझे इख़्तियार ईद के दिन
वो साल भर से कुदूरत भरी जो थी दिल में
वो दूर हो गई बस एक बार ईद के दिन
लगा लिया उन्हें सीने से जोश-ए-उल्फ़त में
ग़रज़ कि आ ही गया मुझ को प्यार ईद के दिन
कहीं है नग़्मा-ए-बुलबुल कहीं है ख़ंदा-ए-गुल
अयाँ है जोश-ए-शबाब-ए-बहार ईद के दिन
सिवय्याँ दूध शकर मेवा सब मुहय्या है
मगर ये सब है मुझे नागवार ईद के दिन
मिले अगर लब-ए-शीरीं का तेरे इक बोसा
तो लुत्फ़ हो मुझे अलबत्ता यार ईद के दिन |
haal-e-dil-main-sunaa-nahiin-saktaa-akbar-allahabadi-ghazals |
हाल-ए-दिल मैं सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मा'ना को पा नहीं सकता
इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
होश आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता
पोंछ सकता है हम-नशीं आँसू
दाग़-ए-दिल को मिटा नहीं सकता
मुझ को हैरत है उस की क़ुदरत पर
अलम उस को घटा नहीं सकता |
apne-pahluu-se-vo-gairon-ko-uthaa-hii-na-sake-akbar-allahabadi-ghazals |
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके
उन को हम क़िस्सा-ए-ग़म अपना सुना ही न सके
ज़ेहन मेरा वो क़यामत कि दो-आलम पे मुहीत
आप ऐसे कि मिरे ज़ेहन में आ ही न सके
देख लेते जो उन्हें तो मुझे रखते म'अज़ूर
शैख़-साहिब मगर उस बज़्म में जा ही न सके
अक़्ल महँगी है बहुत इश्क़ ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब
दिल को इस अहद में हम काम में ला ही न सके
हम तो ख़ुद चाहते थे चैन से बैठें कोई दम
आप की याद मगर दिल से भुला ही न सके
इश्क़ कामिल है उसी का कि पतंगों की तरह
ताब नज़्ज़ारा-ए-माशूक़ की ला ही न सके
दाम-ए-हस्ती की भी तरकीब अजब रक्खी है
जो फँसे उस में वो फिर जान बचा ही न सके
मज़हर-ए-जल्वा-ए-जानाँ है हर इक शय 'अकबर'
बे-अदब आँख किसी सम्त उठा ही न सके
ऐसी मंतिक़ से तो दीवानगी बेहतर 'अकबर'
कि जो ख़ालिक़ की तरफ़ दिल को झुका ही न सके |
falsafii-ko-bahs-ke-andar-khudaa-miltaa-nahiin-akbar-allahabadi-ghazals |
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
मा'रिफ़त ख़ालिक़ की आलम में बहुत दुश्वार है
शहर-ए-तन में जब कि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं
ग़ाफ़िलों के लुत्फ़ को काफ़ी है दुनियावी ख़ुशी
आक़िलों को बे-ग़म-ए-उक़्बा मज़ा मिलता नहीं
कश्ती-ए-दिल की इलाही बहर-ए-हस्ती में हो ख़ैर
नाख़ुदा मिलते हैं लेकिन बा-ख़ुदा मिलता नहीं
ग़ाफ़िलों को क्या सुनाऊँ दास्तान-ए-इश्क़-ए-यार
सुनने वाले मिलते हैं दर्द-आश्ना मिलता नहीं
ज़िंदगानी का मज़ा मिलता था जिन की बज़्म में
उन की क़ब्रों का भी अब मुझ को पता मिलता नहीं
सिर्फ़ ज़ाहिर हो गया सरमाया-ए-ज़ेब-ओ-सफ़ा
क्या तअ'ज्जुब है जो बातिन बा-सफ़ा मिलता नहीं
पुख़्ता तबओं पर हवादिस का नहीं होता असर
कोहसारों में निशान-ए-नक़्श-ए-पा मिलता नहीं
शैख़-साहिब बरहमन से लाख बरतें दोस्ती
बे-भजन गाए तो मंदिर से टिका मिलता नहीं
जिस पे दिल आया है वो शीरीं-अदा मिलता नहीं
ज़िंदगी है तल्ख़ जीने का मज़ा मिलता नहीं
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
कह दो बे उस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं
अहल-ए-ज़ाहिर जिस क़दर चाहें करें बहस-ओ-जिदाल
मैं ये समझा हूँ ख़ुदी में तो ख़ुदा मिलता नहीं
चल बसे वो दिन कि यारों से भरी थी अंजुमन
हाए अफ़्सोस आज सूरत-आश्ना मिलता नहीं
मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है
शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं
बार तकलीफों का मुझ पर बार-ए-एहसाँ से है सहल
शुक्र की जा है अगर हाजत-रवा मिलता नहीं
चाँदनी रातें बहार अपनी दिखाती हैं तो क्या
बे तिरे मुझ को तो लुत्फ़ ऐ मह-लक़ा मिलता नहीं
मा'नी-ए-दिल का करे इज़हार 'अकबर' किस तरह
लफ़्ज़ मौज़ूँ बहर-ए-कश्फ़-ए-मुद्दआ मिलता नहीं |
maanii-ko-bhulaa-detii-hai-suurat-hai-to-ye-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
मा'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है
नेचर भी सबक़ सीख ले ज़ीनत है तो ये है
कमरे में जो हँसती हुई आई मिस-ए-राना
टीचर ने कहा इल्म की आफ़त है तो ये है
ये बात तो अच्छी है कि उल्फ़त हो मिसों से
हूर उन को समझते हैं क़यामत है तो ये है
पेचीदा मसाइल के लिए जाते हैं इंग्लैण्ड
ज़ुल्फ़ों में उलझ आते हैं शामत है तो ये है
पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है |
bithaaii-jaaengii-parde-men-biibayaan-kab-tak-akbar-allahabadi-ghazals |
बिठाई जाएँगी पर्दे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक
हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक
मियाँ से बीबी हैं पर्दा है उन को फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक
तबीअतों का नुमू है हवा-ए-मग़रिब में
ये ग़ैरतें ये हरारत ये गर्मियाँ कब तक
अवाम बाँध लें दोहर तो थर्ड वानटर में
सेकंड-फ़र्स्ट की हों बंद खिड़कियाँ कब तक
जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इबलीस
छुपेंगी हज़रत-ए-हवा की बेटियाँ कब तक
जनाब हज़रत-ए-'अकबर' हैं हामी-ए-पर्दा
मगर वो कब तक और उन की रुबाइयाँ कब तक |
havaa-e-shab-bhii-hai-ambar-afshaan-uruuj-bhii-hai-mah-e-mubiin-kaa-akbar-allahabadi-ghazals |
हवा-ए-शब भी है अम्बर-अफ़्शाँ उरूज भी है मह-ए-मुबीं का
निसार होने की दो इजाज़त महल नहीं है नहीं नहीं का
अगर हो ज़ौक़-ए-सुजूद पैदा सितारा हो औज पर जबीं का
निशान-ए-सज्दा ज़मीन पर हो तो फ़ख़्र है वो रुख़-ए-ज़मीं का
सबा भी उस गुल के पास आई तो मेरे दिल को हुआ ये खटका
कोई शगूफ़ा न ये खिलाए पयाम लाई न हो कहीं का
न मेहर ओ मह पर मिरी नज़र है न लाला-ओ-गुल की कुछ ख़बर है
फ़रोग़-ए-दिल के लिए है काफ़ी तसव्वुर उस रू-ए-आतिशीं का
न इल्म-ए-फ़ितरत में तुम हो माहिर न ज़ौक़-ए-ताअत है तुम से ज़ाहिर
ये बे-उसूली बहुत बुरी है तुम्हें न रक्खेगी ये कहीं का |
rang-e-sharaab-se-mirii-niyyat-badal-gaii-akbar-allahabadi-ghazals |
रंग-ए-शराब से मिरी निय्यत बदल गई
वाइज़ की बात रह गई साक़ी की चल गई
तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
जल्वा बुतों का देख के निय्यत बदल गई
मछली ने ढील पाई है लुक़्मे पे शाद है
सय्याद मुतमइन है कि काँटा निगल गई
चमका तिरा जमाल जो महफ़िल में वक़्त-ए-शाम
परवाना बे-क़रार हुआ शम्अ' जल गई
उक़्बा की बाज़-पुर्स का जाता रहा ख़याल
दुनिया की लज़्ज़तों में तबीअ'त बहल गई
हसरत बहुत तरक़्क़ी-ए-दुख़्तर की थी उन्हें
पर्दा जो उठ गया तो वो आख़िर निकल गई |
agar-dil-vaaqif-e-nairangii-e-tab-e-sanam-hotaa-akbar-allahabadi-ghazals |
अगर दिल वाक़िफ़-ए-नैरंगी-ए-तब-ए-सनम होता
ज़माने की दो-रंगी का उसे हरगिज़ न ग़म होता
ये पाबंद-ए-मुसीबत दिल के हाथों हम तो रहते हैं
नहीं तो चैन से कटती न दिल होता न ग़म होता
उन्हीं की बे-वफ़ाई का ये है आठों-पहर सदमा
वही होते जो क़ाबू में तो फिर काहे को ग़म होता
लब-ओ-चश्म-ए-सनम गर देखने पाते कहीं शाइ'र
कोई शीरीं-सुख़न होता कोई जादू-रक़म होता
बहुत अच्छा हुआ आए न वो मेरी अयादत को
जो वो आते तो ग़ैर आते जो ग़ैर आते तो ग़म होता
अगर क़ब्रें नज़र आतीं न दारा-ओ-सिकन्दर की
मुझे भी इश्तियाक़-ए-दौलत-ओ-जाह-ओ-हशम होता
लिए जाता है जोश-ए-शौक़ हम को राह-ए-उल्फ़त में
नहीं तो ज़ोफ़ से दुश्वार चलना दो-क़दम होता
न रहने पाए दीवारों में रौज़न शुक्र है वर्ना
तुम्हें तो दिल-लगी होती ग़रीबों पर सितम होता |
kahaan-vo-ab-lutf-e-baahamii-hai-mohabbaton-men-bahut-kamii-hai-akbar-allahabadi-ghazals |
कहाँ वो अब लुत्फ़-ए-बाहमी है मोहब्बतों में बहुत कमी है
चली है कैसी हवा इलाही कि हर तबीअत में बरहमी है
मिरी वफ़ा में है क्या तज़लज़ुल मिरी इताअ'त में क्या कमी है
ये क्यूँ निगाहें फिरी हैं मुझ से मिज़ाज में क्यूँ ये बरहमी है
वही है फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से अब तक तरक़्की-ए-कार-ए-हुस्न ओ उल्फ़त
न वो हैं मश्क़-ए-सितम में क़ासिर न ख़ून-ए-दिल की यहाँ कमी है
अजीब जल्वे हैं होश दुश्मन कि वहम के भी क़दम रुके हैं
अजीब मंज़र हैं हैरत-अफ़्ज़ा नज़र जहाँ थी वहीं थमी है
न कोई तकरीम-ए-बाहमी है न प्यार बाक़ी है अब दिलों में
ये सिर्फ़ तहरीर में डियर सर है या जनाब-ए-मुकर्रमी है
कहाँ के मुस्लिम कहाँ के हिन्दू भुलाई हैं सब ने अगली रस्में
अक़ीदे सब के हैं तीन-तेरह न ग्यारहवीं है न अष्टमी है
नज़र मिरी और ही तरफ़ है हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले
हज़ार बातें बनाए नासेह जमी है दिल में जो कुछ जमी है
अगरचे मैं रिंद-ए-मोहतरम हूँ मगर इसे शैख़ से न पूछो
कि उन के आगे तो इस ज़माने में सारी दुनिया जहन्नमी है |
kyaa-jaaniye-sayyad-the-haq-aagaah-kahaan-tak-akbar-allahabadi-ghazals |
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
समझे न कि सीधी है मिरी राह कहाँ तक
मंतिक़ भी तो इक चीज़ है ऐ क़िबला ओ काबा
दे सकती है काम आप की वल्लाह कहाँ तक
अफ़्लाक तो इस अहद में साबित हुए मादूम
अब क्या कहूँ जाती है मिरी आह कहाँ तक
कुछ सनअत ओ हिरफ़त पे भी लाज़िम है तवज्जोह
आख़िर ये गवर्नमेंट से तनख़्वाह कहाँ तक
मरना भी ज़रूरी है ख़ुदा भी है कोई चीज़
ऐ हिर्स के बंदो हवस-ए-जाह कहाँ तक
तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर'
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक |
jurm-e-ulfat-pe-hamen-log-sazaa-dete-hain-sahir-ludhianvi-ghazals |
जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं
कैसे नादान हैं शो'लों को हवा देते हैं
हम से दीवाने कहीं तर्क-ए-वफ़ा करते हैं
जान जाए कि रहे बात निभा देते हैं
आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं
तख़्त क्या चीज़ है और लाल-ओ-जवाहर क्या हैं
इश्क़ वाले तो ख़ुदाई भी लुटा देते हैं
हम ने दिल दे भी दिया अहद-ए-वफ़ा ले भी लिया
आप अब शौक़ से दे लें जो सज़ा देते हैं |
is-taraf-se-guzre-the-qaafile-bahaaron-ke-sahir-ludhianvi-ghazals-3 |
इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के
ख़ल्वतों के शैदाई ख़ल्वतों में खुलते हैं
हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दा-दारों के
गेसुओं की छाँव में दिल-नवाज़ चेहरे हैं
या हसीं धुँदलकों में फूल हैं बहारों के
पहले हँस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं
आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दयारों के
तुम ने सिर्फ़ चाहा है हम ने छू के देखे हैं
पैरहन घटाओं के जिस्म बर्क़-पारों के
शुग़्ल-ए-मय-परस्ती गो जश्न-ए-ना-मुरादी था
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के |
ye-vaadiyaan-ye-fazaaen-bulaa-rahii-hain-tumhen-sahir-ludhianvi-ghazals |
ये वादियाँ ये फ़ज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें
ख़मोशियों की सदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
तरस रहे हैं जवाँ फूल होंट छूने को
मचल मचल के हवाएँ बुला रही हैं तुम्हें
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से ख़ुशबू की भीक लेने को
झुकी झुकी सी घटाएँ बुला रही हैं तुम्हें
हसीन चम्पई पैरों को जब से देखा है
नदी की मस्त अदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
मिरा कहा न सुनो उन की बात तो सुन लो
हर एक दिल की दुआएँ बुला रही हैं तुम्हें |
gulshan-gulshan-phuul-sahir-ludhianvi-ghazals |
गुलशन गुलशन फूल
दामन दामन धूल
मरने पर ताज़ीर
जीने पर महसूल
हर जज़्बा मस्लूब
हर ख़्वाहिश मक़्तूल
इश्क़ परेशाँ-हाल
नाज़-ए-हुस्न मलूल
ना'रा-ए-हक़ मा'तूब
मक्र-ओ-रिया मक़्बूल
संवरा नहीं जहाँ
आए कई रसूल |
chehre-pe-khushii-chhaa-jaatii-hai-aankhon-men-suruur-aa-jaataa-hai-sahir-ludhianvi-ghazals |
चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है आँखों में सुरूर आ जाता है
जब तुम मुझे अपना कहते हो अपने पे ग़ुरूर आ जाता है
तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है
हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो
बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊ'र आ जाता है |
tirii-duniyaa-men-jiine-se-to-behtar-hai-ki-mar-jaaen-sahir-ludhianvi-ghazals |
तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ
वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ
कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता
वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ
अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है
ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ |
barbaad-e-mohabbat-kii-duaa-saath-liye-jaa-sahir-ludhianvi-ghazals |
बरबाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा
टूटा हुआ इक़रार-ए-वफ़ा साथ लिए जा
इक दिल था जो पहले ही तुझे सौंप दिया था
ये जान भी ऐ जान-ए-अदा साथ लिए जा
तपती हुई राहों से तुझे आँच न पहुँचे
दीवानों के अश्कों की घटा साथ लिए जा
शामिल है मिरा ख़ून-ए-जिगर तेरी हिना में
ये कम हो तो अब ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा |
sazaa-kaa-haal-sunaaen-jazaa-kii-baat-karen-sahir-ludhianvi-ghazals |
सज़ा का हाल सुनाएँ जज़ा की बात करें
ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें
उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी न हों
इस एहतियात से क्या मुद्दआ की बात करें
हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं
अगर क़बा हो तो बंद-ए-क़बा की बात करें
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें
वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें |
tarab-zaaron-pe-kyaa-biitii-sanam-khaanon-pe-kyaa-guzrii-sahir-ludhianvi-ghazals |
तरब-ज़ारों पे क्या बीती सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
दिल-ए-ज़िंदा तिरे मरहूम अरमानों पे क्या गुज़री
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री
हमें ये फ़िक्र उन की अंजुमन किस हाल में होगी
उन्हें ये ग़म कि उन से छुट के दीवानों पे क्या गुज़री
मिरा इल्हाद तो ख़ैर एक ला'नत था सो है अब तक
मगर इस आलम-ए-वहशत में ईमानों पे क्या गुज़री
ये मंज़र कौन सा मंज़र है पहचाना नहीं जाता
सियह-ख़ानों से कुछ पूछो शबिस्तानों पे क्या गुज़री
चलो वो कुफ़्र के घर से सलामत आ गए लेकिन
ख़ुदा की मुम्लिकत में सोख़्ता-जानों पे क्या गुज़री |
aqaaed-vahm-hain-mazhab-khayaal-e-khaam-hai-saaqii-sahir-ludhianvi-ghazals |
अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी
हक़ीक़त-आश्नाई अस्ल में गुम-कर्दा राही है
उरूस-ए-आगही परवुर्दा-ए-इब्हाम है साक़ी
मुबारक हो ज़ईफ़ी को ख़िरद की फ़लसफ़ा-रानी
जवानी बे-नियाज़-ए-इबरत-ए-अंजाम है साक़ी
हवस होगी असीर-ए-हल्क़ा-ए-नेक-ओ-बद-ए-आलम
मोहब्बत मावरा-ए-फ़िक्र-ए-नंग-ओ-नाम है साक़ी
अभी तक रास्ते के पेच-ओ-ख़म से दिल धड़कता है
मिरा ज़ौक़-ए-तलब शायद अभी तक ख़ाम है साक़ी
वहाँ भेजा गया हूँ चाक करने पर्दा-ए-शब को
जहाँ हर सुब्ह के दामन पे अक्स-ए-शाम है साक़ी
मिरे साग़र में मय है और तिरे हाथों में बरबत है
वतन की सर-ज़मीं में भूक से कोहराम है साक़ी
ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शो'लों से
तिरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी |
sansaar-kii-har-shai-kaa-itnaa-hii-fasaana-hai-sahir-ludhianvi-ghazals |
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है
ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है
इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है
क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते
इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है
हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है |
main-zinda-huun-ye-mushtahar-kiijiye-sahir-ludhianvi-ghazals-3 |
मैं ज़िंदा हूँ ये मुश्तहर कीजिए
मिरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए
ज़मीं सख़्त है आसमाँ दूर है
बसर हो सके तो बसर कीजिए
सितम के बहुत से हैं रद्द-ए-अमल
ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए
वही ज़ुल्म बार-ए-दिगर है तो फिर
वही जुर्म बार-ए-दिगर कीजिए
क़फ़स तोड़ना बाद की बात है
अभी ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर कीजिए |
miltii-hai-zindagii-men-mohabbat-kabhii-kabhii-sahir-ludhianvi-ghazals |
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी
शर्मा के मुँह न फेर नज़र के सवाल पर
लाती है ऐसे मोड़ पे क़िस्मत कभी कभी
खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के
आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी
तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते
पेश आएगी किसी की ज़रूरत कभी कभी
फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी |
khuddaariyon-ke-khuun-ko-arzaan-na-kar-sake-sahir-ludhianvi-ghazals-3 |
ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां न कर सके
हम अपने जौहरों को नुमायाँ न कर सके
हो कर ख़राब-ए-मय तिरे ग़म तो भुला दिए
लेकिन ग़म-ए-हयात का दरमाँ न कर सके
टूटा तिलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह
फिर आरज़ू की शम्अ फ़िरोज़ाँ न कर सके
हर शय क़रीब आ के कशिश अपनी खो गई
वो भी इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ाँ न कर सके
किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके
मायूसियों ने छीन लिए दिल के वलवले
वो भी नशात-ए-रूह का सामाँ न कर सके |
ab-aaen-yaa-na-aaen-idhar-puuchhte-chalo-sahir-ludhianvi-ghazals |
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो
हम से अगर है तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ तो क्या हुआ
यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो
जो ख़ुद को कह रहे हैं कि मंज़िल-शनास हैं
उन को भी क्या ख़बर है मगर पूछते चलो
किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम
ऐ रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो |
ye-zulf-agar-khul-ke-bikhar-jaae-to-achchhaa-sahir-ludhianvi-ghazals |
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा
जिस तरह से थोड़ी सी तिरे साथ कटी है
बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा
दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या
ये बोझ अगर दिल से उतर जाए तो अच्छा
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया है
इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा |
ye-zamiin-kis-qadar-sajaaii-gaii-sahir-ludhianvi-ghazals |
ये ज़मीं किस क़दर सजाई गई
ज़िंदगी की तड़प बढ़ाई गई
आईने से बिगड़ के बैठ गए
जिन की सूरत जिन्हें दिखाई गई
दुश्मनों ही से भी तो निभ जाए
दोस्तों से तो आश्नाई गई
नस्ल-दर-नस्ल इंतिज़ार रहा
क़स्र टूटे न बे-नवाई गई
ज़िंदगी का नसीब क्या कहिए
एक सीता थी जो सताई गई
हम न अवतार थे न पैग़म्बर
क्यूँ ये अज़्मत हमें दिलाई गई
मौत पाई सलीब पर हम ने
उम्र बन-बास में बिताई गई |
har-qadam-marhala-e-daar-o-saliib-aaj-bhii-hai-sahir-ludhianvi-ghazals |
हर क़दम मरहला-दार-ओ-सलीब आज भी है
जो कभी था वही इंसाँ का नसीब आज भी है
जगमगाते हैं उफ़ुक़ पर ये सितारे लेकिन
रास्ता मंज़िल-ए-हस्ती का मुहीब आज भी है
सर-ए-मक़्तल जिन्हें जाना था वो जा भी पहुँचे
सर-ए-मिंबर कोई मोहतात ख़तीब आज भी है
अहल-ए-दानिश ने जिसे अम्र-ए-मुसल्लम माना
अहल-ए-दिल के लिए वो बात अजीब आज भी है
ये तिरी याद है या मेरी अज़ियत-कोशी
एक नश्तर सा रग-ए-जाँ के क़रीब आज भी है
कौन जाने ये तिरा शायर-ए-आशुफ़्ता-मिज़ाज
कितने मग़रूर ख़ुदाओं का रक़ीब आज भी है |
parbaton-ke-pedon-par-shaam-kaa-baseraa-hai-sahir-ludhianvi-ghazals |
पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
सुरमई उजाला है चम्पई अंधेरा है
दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से
आसमाँ ने ख़ुश हो कर रंग सा बिखेरा है
ठहरे ठहरे पानी में गीत सरसराते हैं
भीगे भीगे झोंकों में ख़ुशबुओं का डेरा है
क्यूँ न जज़्ब हो जाएँ इस हसीं नज़ारे में
रौशनी का झुरमुट है मस्तियों का घेरा है |
jab-kabhii-un-kii-tavajjoh-men-kamii-paaii-gaii-sahir-ludhianvi-ghazals |
जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई
अज़-सर-ए-नौ दास्तान-ए-शौक़ दोहराई गई
बिक गए जब तेरे लब फिर तुझ को क्या शिकवा अगर
ज़िंदगानी बादा ओ साग़र से बहलाई गई
ऐ ग़म-ए-दुनिया तुझे क्या इल्म तेरे वास्ते
किन बहानों से तबीअ'त राह पर लाई गई
हम करें तर्क-ए-वफ़ा अच्छा चलो यूँ ही सही
और अगर तर्क-ए-वफ़ा से भी न रुस्वाई गई
कैसे कैसे चश्म ओ आरिज़ गर्द-ए-ग़म से बुझ गए
कैसे कैसे पैकरों की शान-ए-ज़ेबाई गई
दिल की धड़कन में तवाज़ुन आ चला है ख़ैर हो
मेरी नज़रें बुझ गईं या तेरी रानाई गई
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई
जुरअत-ए-इंसाँ पे गो तादीब के पहरे रहे
फ़ितरत-ए-इंसाँ को कब ज़ंजीर पहनाई गई
अरसा-ए-हस्ती में अब तेशा-ज़नों का दौर है
रस्म-ए-चंगेज़ी उठी तौक़ीर-ए-दाराई गई |
har-tarah-ke-jazbaat-kaa-elaan-hain-aankhen-sahir-ludhianvi-ghazals |
हर तरह के जज़्बात का एलान हैं आँखें
शबनम कभी शो'ला कभी तूफ़ान हैं आँखें
आँखों से बड़ी कोई तराज़ू नहीं होती
तुलता है बशर जिस में वो मीज़ान हैं आँखें
आँखें ही मिलाती हैं ज़माने में दिलों को
अंजान हैं हम तुम अगर अंजान हैं आँखें
लब कुछ भी कहें इस से हक़ीक़त नहीं खुलती
इंसान के सच झूट की पहचान हैं आँखें
आँखें न झुकीं तेरी किसी ग़ैर के आगे
दुनिया में बड़ी चीज़ मिरी जान! हैं आँखें |
main-zindagii-kaa-saath-nibhaataa-chalaa-gayaa-sahir-ludhianvi-ghazals |
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया |
na-to-zamiin-ke-liye-hai-na-aasmaan-ke-liye-sahir-ludhianvi-ghazals |
न तो ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
तिरा वजूद है अब सिर्फ़ दास्ताँ के लिए
पलट के सू-ए-चमन देखने से क्या होगा
वो शाख़ ही न रही जो थी आशियाँ के लिए
ग़रज़-परस्त जहाँ में वफ़ा तलाश न कर
ये शय बनी थी किसी दूसरे जहाँ के लिए |
tum-apnaa-ranj-o-gam-apnii-pareshaanii-mujhe-de-do-sahir-ludhianvi-ghazals |
तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो
ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूँ इन निगाहों में
बुरा क्या है अगर ये दुख ये हैरानी मुझे दे दो
मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो
वो दिल जो मैं ने माँगा था मगर ग़ैरों ने पाया है
बड़ी शय है अगर उस की पशेमानी मुझे दे दो |
ahl-e-dil-aur-bhii-hain-ahl-e-vafaa-aur-bhii-hain-sahir-ludhianvi-ghazals |
अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरी
चाक-ए-दिल और भी हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं
क्या हुआ गर मिरे यारों की ज़बानें चुप हैं
मेरे शाहिद मिरे यारों के सिवा और भी हैं
सर सलामत है तो क्या संग-ए-मलामत की कमी
जान बाक़ी है तो पैकान-ए-क़ज़ा और भी हैं
मुंसिफ़-ए-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए
लोग कहते हैं कि अर्बाब-ए-जफ़ा और भी हैं |
dekhaa-to-thaa-yuunhii-kisii-gaflat-shiaar-ne-sahir-ludhianvi-ghazals |
देखा तो था यूँही किसी ग़फ़लत-शिआर ने
दीवाना कर दिया दिल-ए-बे-इख़्तियार ने
ऐ आरज़ू के धुँदले ख़राबो जवाब दो
फिर किस की याद आई थी मुझ को पुकारने
तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को
बरबाद कर दिया तिरे दो दिन के प्यार ने
मैं और तुम से तर्क-ए-मोहब्बत की आरज़ू
दीवाना कर दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने
अब ऐ दिल-ए-तबाह तिरा क्या ख़याल है
हम तो चले थे काकुल-ए-गीती सँवारने |
bhadkaa-rahe-hain-aag-lab-e-nagmagar-se-ham-sahir-ludhianvi-ghazals |
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम
कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ
मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम |
duur-rah-kar-na-karo-baat-qariib-aa-jaao-sahir-ludhianvi-ghazals |
दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ
एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की
आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ
सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो'ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ
इस क़दर हम से झिजकने की ज़रूरत क्या है
ज़िंदगी भर का है अब साथ क़रीब आ जाओ |
bhuule-se-mohabbat-kar-baithaa-naadaan-thaa-bechaaraa-dil-hii-to-hai-sahir-ludhianvi-ghazals |
भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है
हर दिल से ख़ता हो जाती है, बिगड़ो न ख़ुदारा, दिल ही तो है
इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा न हो धड़कन रुक जाए
सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा, दिल ही तो है
बेदाद-गरों की ठोकर से सब ख़्वाब सुहाने चूर हुए
अब दिल का सहारा ग़म ही तो है अब ग़म का सहारा दिल ही तो है |
har-chand-mirii-quvvat-e-guftaar-hai-mahbuus-sahir-ludhianvi-ghazals |
हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
ख़ामोश मगर तब-ए-ख़ुद-आरा नहीं होती
मामूरा-ए-एहसास में है हश्र सा बरपा
इंसान की तज़लील गवारा नहीं होती
नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों
दुनिया मिरे अफ़्कार की दुनिया नहीं होती
बेगाना-सिफ़त जादा-ए-मंज़िल से गुज़र जा
हर चीज़ सज़ा-वार-ए-नज़ारा नहीं होती
फ़ितरत की मशिय्यत भी बड़ी चीज़ है लेकिन
फ़ितरत कभी बे-बस का सहारा नहीं होती |
tang-aa-chuke-hain-kashmakash-e-zindagii-se-ham-sahir-ludhianvi-ghazals |
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम
लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले
गो दब गए हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी से हम
गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से
पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम
अल्लाह-रे फ़रेब-ए-मशिय्यत कि आज तक
दुनिया के ज़ुल्म सहते रहे ख़ामुशी से हम |
kyaa-jaanen-tirii-ummat-kis-haal-ko-pahunchegii-sahir-ludhianvi-ghazals |
क्या जानें तिरी उम्मत किस हाल को पहुँचेगी
बढ़ती चली जाती है तादाद इमामों की
हर गोशा-ए-मग़रिब में हर ख़ित्ता-ए-मशरिक़ में
तशरीह दिगर-गूँ है अब तेरे पयामों की
वो लोग जिन्हें कल तक दावा था रिफ़ाक़त का
तज़लील पे उतरे हैं अपनों ही के नामों की
बिगड़े हुए तेवर हैं नौ-उम्र सियासत के
बिफरी हुई साँसें हैं नौ-मश्क़ निज़ामों की
तबक़ों से निकल कर हम फ़िर्क़ों में न बट जाएँ
बन कर न बिगड़ जाए तक़दीर ग़ुलामों की |
apnaa-dil-pesh-karuun-apnii-vafaa-pesh-karuun-sahir-ludhianvi-ghazals |
अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ
कुछ समझ में नहीं आता तुझे क्या पेश करूँ
तेरे मिलने की ख़ुशी में कोई नग़्मा छेड़ूँ
या तिरे दर्द-ए-जुदाई का गिला पेश करूँ
मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू
कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ
जो तिरे दिल को लुभाए वो अदा मुझ में नहीं
क्यूँ न तुझ को कोई तेरी ही अदा पेश करूँ |
dekhaa-hai-zindagii-ko-kuchh-itne-qariib-se-sahir-ludhianvi-ghazals-1 |
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
ऐ रूह-ए-अस्र जाग कहाँ सो रही है तू
आवाज़ दे रहे हैं पयम्बर सलीब से
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से
हर गाम पर है मजमा-ए-उश्शाक़ मुंतज़िर
मक़्तल की राह मिलती है कू-ए-हबीब से
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से |
dekhaa-hai-zindagii-ko-kuchh-itnaa-qariib-se-sahir-ludhianvi-ghazals |
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
कहने को दिल की बात जिन्हें ढूँडते थे हम
महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से
नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार
क़ीमत नहीं चुकाई गई इक ग़रीब से
तेरी वफ़ा की लाश पे ला मैं ही डाल दूँ
रेशम का ये कफ़न जो मिला है रक़ीब से |
merii-taqdiir-men-jalnaa-hai-to-jal-jaauungaa-sahir-ludhianvi-ghazals |
मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊँगा
तेरा वा'दा तो नहीं हूँ जो बदल जाऊँगा
सोज़ भर दो मिरे सपने में ग़म-ए-उल्फ़त का
मैं कोई मोम नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा
दर्द कहता है ये घबरा के शब-ए-फ़ुर्क़त में
आह बन कर तिरे पहलू से निकल जाऊँगा
मुझ को समझाओ न 'साहिर' मैं इक दिन ख़ुद ही
ठोकरें खा के मोहब्बत में सँभल जाऊँगा |
kabhii-khud-pe-kabhii-haalaat-pe-ronaa-aayaa-sahir-ludhianvi-ghazals |
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
किस लिए जीते हैं हम किस के लिए जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया |
ab-koii-gulshan-na-ujde-ab-vatan-aazaad-hai-sahir-ludhianvi-ghazals |
अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन आज़ाद है
रूह गंगा की हिमाला का बदन आज़ाद है
खेतियाँ सोना उगाएँ वादियाँ मोती लुटाएँ
आज गौतम की ज़मीं तुलसी का बन आज़ाद है
मंदिरों में संख बाजे मस्जिदों में हो अज़ाँ
शैख़ का धर्म और दीन-ए-बरहमन आज़ाद है
लूट कैसी भी हो अब इस देश में रहने न पाए
आज सब के वास्ते धरती का धन आज़ाद है |
itnii-hasiin-itnii-javaan-raat-kyaa-karen-sahir-ludhianvi-ghazals |
इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात क्या करें
पेड़ों के बाज़ुओं में महकती है चाँदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़यालात क्या करें
साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक
दामन को छू रहा है कोई हात क्या करें
शायद तुम्हारे आने से ये भेद खुल सके
हैरान हैं कि आज नई बात क्या करें |
fan-jo-naadaar-tak-nahiin-pahunchaa-sahir-ludhianvi-ghazals |
फ़न जो नादार तक नहीं पहुँचा
अभी मेयार तक नहीं पहुँचा
उस ने बर-वक़्त बे-रुख़ी बरती
शौक़ आज़ार तक नहीं पहुँचा
अक्स-ए-मय हो कि जल्वा-ए-गुल हो
रंग-ए-रुख़्सार तक नहीं पहुँचा
हर्फ़-ए-इंकार सर बुलंद रहा
ज़ोफ़-ए-इक़रार तक नहीं पहुँचा
हुक्म-ए-सरकार की पहुँच मत पूछ
अहल-ए-सरकार तक नहीं पहुँचा
अद्ल-गाहें तो दूर की शय हैं
क़त्ल अख़बार तक नहीं पहुँचा
इन्क़िलाबात-ए-दहर की बुनियाद
हक़ जो हक़दार तक नहीं पहुँचा
वो मसीहा-नफ़स नहीं जिस का
सिलसिला-दार तक नहीं पहुँचा |
tod-lenge-har-ik-shai-se-rishta-tod-dene-kii-naubat-to-aae-sahir-ludhianvi-ghazals |
तोड़ लेंगे हर इक शय से रिश्ता तोड़ देने की नौबत तो आए
हम क़यामत के ख़ुद मुंतज़िर हैं पर किसी दिन क़यामत तो आए
हम भी सुक़रात हैं अहद-ए-नौ के तिश्ना-लब ही न मर जाएँ यारो
ज़हर हो या मय-ए-आतिशीं हो कोई जाम-ए-शहादत तो आए
एक तहज़ीब है दोस्ती की एक मेयार है दुश्मनी का
दोस्तों ने मुरव्वत न सीखी दुश्मनों को अदावत तो आए
रिंद रस्ते में आँखें बिछाएँ जो कहे बिन सुने मान जाएँ
नासेह-ए-नेक-तीनत किसी शब सू-ए-कू-ए-मलामत तो आए
इल्म ओ तहज़ीब तारीख़ ओ मंतिक़ लोग सोचेंगे इन मसअलों पर
ज़िंदगी के मशक़्क़त-कदे में कोई अहद-ए-फ़राग़त तो आए
काँप उट्ठें क़स्र-ए-शाही के गुम्बद थरथराए ज़मीं माबदों की
कूचा-गर्दों की वहशत तो जागे ग़म-ज़दों को बग़ावत तो आए |
sansaar-se-bhaage-phirte-ho-bhagvaan-ko-tum-kyaa-paaoge-sahir-ludhianvi-ghazals |
संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे
ये पाप है क्या ये पुन है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे
ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचियता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे
हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूटा सपना है
हम जन्म बिता कर जाएँगे तुम जन्म गँवा कर जाओगे |
Subsets and Splits