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hamaare-dil-men-ab-talkhii-nahiin-hai-javed-akhtar-ghazals |
हमारे दिल में अब तल्ख़ी नहीं है
मगर वो बात पहले सी नहीं है
मुझे मायूस भी करती नहीं है
यही आदत तिरी अच्छी नहीं है
बहुत से फ़ाएदे हैं मस्लहत में
मगर दिल की तो ये मर्ज़ी नहीं है
हर इक की दास्ताँ सुनते हैं जैसे
कभी हम ने मोहब्बत की नहीं है
है इक दरवाज़े बिन दीवार-ए-दुनिया
मफ़र ग़म से यहाँ कोई नहीं है |
saarii-hairat-hai-mirii-saarii-adaa-us-kii-hai-javed-akhtar-ghazals |
सारी हैरत है मिरी सारी अदा उस की है
बे-गुनाही है मिरी और सज़ा उस की है
मेरे अल्फ़ाज़ में जो रंग है वो उस का है
मेरे एहसास में जो है वो फ़ज़ा उस की है
शेर मेरे हैं मगर इन में मोहब्बत उस की
फूल मेरे हैं मगर बाद-ए-सबा उस की है
इक मोहब्बत की ये तस्वीर है दो रंगों में
शौक़ सब मेरा है और सारी हया उस की है
हम ने क्या उस से मोहब्बत की इजाज़त ली थी
दिल-शिकन ही सही पर बात बजा उस की है
एक मेरे ही सिवा सब को पुकारे है कोई
मैं ने पहले ही कहा था ये सदा उस की है
ख़ून से सींची है मैं ने जो ज़मीं मर मर के
वो ज़मीं एक सितम-गर ने कहा उस की है
उस ने ही इस को उजाड़ा है इसे लूटा है
ये ज़मीं उस की अगर है भी तो क्या उस की है |
jab-aaiina-koii-dekho-ik-ajnabii-dekho-javed-akhtar-ghazals |
जब आईना कोई देखो इक अजनबी देखो
कहाँ पे लाई है तुम को ये ज़िंदगी देखो
मोहब्बतों में कहाँ अपने वास्ते फ़ुर्सत
जिसे भी चाहे वो चाहे मिरी ख़ुशी देखो
जो हो सके तो ज़ियादा ही चाहना मुझ को
कभी जो मेरी मोहब्बत में कुछ कमी देखो
जो दूर जाए तो ग़म है जो पास आए तो दर्द
न जाने क्या है वो कम्बख़्त आदमी देखो
उजाला तो नहीं कह सकते इस को हम लेकिन
ज़रा सी कम तो हुई है ये तीरगी देखो |
vo-zamaana-guzar-gayaa-kab-kaa-javed-akhtar-ghazals |
वो ज़माना गुज़र गया कब का
था जो दीवाना मर गया कब का
ढूँढता था जो इक नई दुनिया
लूट के अपने घर गया कब का
वो जो लाया था हम को दरिया तक
पार अकेले उतर गया कब का
उस का जो हाल है वही जाने
अपना तो ज़ख़्म भर गया कब का
ख़्वाब-दर-ख़्वाब था जो शीराज़ा
अब कहाँ है बिखर गया कब का |
ham-to-bachpan-men-bhii-akele-the-javed-akhtar-ghazals |
हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे
इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे
थीं सजी हसरतें दुकानों पर
ज़िंदगी के अजीब मेले थे
ख़ुद-कुशी क्या दुखों का हल बनती
मौत के अपने सौ झमेले थे
ज़ेहन ओ दिल आज भूके मरते हैं
उन दिनों हम ने फ़ाक़े झेले थे |
misaal-is-kii-kahaan-hai-koii-zamaane-men-javed-akhtar-ghazals |
मिसाल इस की कहाँ है कोई ज़माने में
कि सारे खोने के ग़म पाए हम ने पाने में
वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा
कि हम ने देर लगा दी पलट के आने में
लतीफ़ था वो तख़य्युल से ख़्वाब से नाज़ुक
गँवा दिया उसे हम ने ही आज़माने में
समझ लिया था कभी इक सराब को दरिया
पर इक सुकून था हम को फ़रेब खाने में
झुका दरख़्त हवा से तो आँधियों ने कहा
ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुकने टूट जाने में |
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