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2.4k
⌀ |
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khushbuu-jaise-log-mile-afsaane-men-gulzar-ghazals |
ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में
एक पुराना ख़त खोला अनजाने में
शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में
रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में
जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में
दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में
दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में
हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले
उन को शायद उम्र लगेगी आने में |
kahiin-to-gard-ude-yaa-kahiin-gubaar-dikhe-gulzar-ghazals |
कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे
कहीं से आता हुआ कोई शहसवार दिखे
ख़फ़ा थी शाख़ से शायद कि जब हवा गुज़री
ज़मीं पे गिरते हुए फूल बे-शुमार दिखे
रवाँ हैं फिर भी रुके हैं वहीं पे सदियों से
बड़े उदास लगे जब भी आबशार दिखे
कभी तो चौंक के देखे कोई हमारी तरफ़
किसी की आँख में हम को भी इंतिज़ार दिखे
कोई तिलिस्मी सिफ़त थी जो इस हुजूम में वो
हुए जो आँख से ओझल तो बार बार दिखे |
jab-bhii-ye-dil-udaas-hotaa-hai-gulzar-ghazals |
जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
आँखें पहचानती हैं आँखों को
दर्द चेहरा-शनास होता है
गो बरसती नहीं सदा आँखें
अब्र तो बारह-मास होता है
छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन
नीचे नाख़ुन के मास होता है
ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है
डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी
साँप मौक़ा-शनास होता है
सिर्फ़ इतना करम किया कीजे
आप को जितना रास होता है |
kaanch-ke-piichhe-chaand-bhii-thaa-aur-kaanch-ke-uupar-kaaii-bhii-gulzar-ghazals |
काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी
यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
सोंधी सोंधी लगती है तब माज़ी की रुस्वाई भी
दो दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी
कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें रोज़ फ़लक
सुब्ह ही रात उतारी थी और शाम को शब पहनाई भी
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी
कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं
आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी |
mujhe-andhere-men-be-shak-bithaa-diyaa-hotaa-gulzar-ghazals-1 |
मुझे अँधेरे में बे-शक बिठा दिया होता
मगर चराग़ की सूरत जला दिया होता
न रौशनी कोई आती मिरे तआ'क़ुब में
जो अपने-आप को मैं ने बुझा दिया होता
ये दर्द जिस्म के या-रब बहुत शदीद लगे
मुझे सलीब पे दो पल सुला दिया होता
ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी ने तो रुला दिया होता |
kabhii-dhanak-sii-utartii-thii-un-nigaahon-men-fahmida-riaz-ghazals |
कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में
वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में
मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में
वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है
न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में
सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़
कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में
मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी
तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में
नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त
मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में |
ye-kis-ke-aansuon-ne-us-naqsh-ko-mitaayaa-fahmida-riaz-ghazals |
ये किस के आँसुओं ने उस नक़्श को मिटाया
जो मेरे लौह-ए-दिल पर तू ने कभी बनाया
था दिल जब उस पे माइल था शौक़ सख़्त मुश्किल
तर्ग़ीब ने उसे भी आसान कर दिखाया
इक गर्द-बाद में तू ओझल हुआ नज़र से
इस दश्त-ए-बे-समर से जुज़ ख़ाक कुछ न पाया
ऐ चोब-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा वो बाद-ए-शौक़ क्या थी
मेरी तरह बरहना जिस ने तुझे बनाया
फिर हम हैं नीम-शब है अंदेशा-ए-अबस है
वो वाहिमा कि जिस से तेरा यक़ीन आया |
ye-pairahan-jo-mirii-ruuh-kaa-utar-na-sakaa-fahmida-riaz-ghazals |
ये पैरहन जो मिरी रूह का उतर न सका
तो नख़-ब-नख़ कहीं पैवस्त रेशा-ए-दिल था
मुझे मआल-ए-सफ़र का मलाल क्यूँ-कर हो
कि जब सफ़र ही मिरा फ़ासलों का धोका था
मैं जब फ़िराक़ की रातों में उस के साथ रही
वो फिर विसाल के लम्हों में क्यूँ अकेला था
वो वास्ते की तिरा दरमियाँ भी क्यूँ आए
ख़ुदा के साथ मिरा जिस्म क्यूँ न हो तन्हा
सराब हूँ मैं तिरी प्यास क्या बुझाऊँगी
इस इश्तियाक़ से तिश्ना ज़बाँ क़रीब न ला
सराब हूँ कि बदन की यही शहादत है
हर एक उज़्व में बहता है रेत का दरिया
जो मेरे लब पे है शायद वही सदाक़त है
जो मेरे दिल में है उस हर्फ़-ए-राएगाँ पे न जा
जिसे मैं तोड़ चुकी हूँ वो रौशनी का तिलिस्म
शुआ-ए-नूर-ए-अज़ल के सिवा कुछ और न था |
patthar-se-visaal-maangtii-huun-fahmida-riaz-ghazals |
पत्थर से विसाल माँगती हूँ
मैं आदमियों से कट गई हूँ
शायद पाऊँ सुराग़-ए-उल्फ़त
मुट्ठी में ख़ाक-भर रही हूँ
हर लम्स है जब तपिश से आरी
किस आँच से यूँ पिघल रही हूँ
वो ख़्वाहिश-ए-बोसा भी नहीं अब
हैरत से होंट काटती हूँ
इक तिफ़्लक-ए-जुस्तुजू हूँ शायद
मैं अपने बदन से खेलती हूँ
अब तब्अ' किसी पे क्यूँ हो राग़िब
इंसानों को बरत चुकी हूँ |
jo-mujh-men-chhupaa-meraa-galaa-ghont-rahaa-hai-fahmida-riaz-ghazals |
जो मुझ में छुपा मेरा गला घोंट रहा है
या वो कोई इबलीस है या मेरा ख़ुदा है
जब सर में नहीं इश्क़ तो चेहरे पे चमक है
ये नख़्ल ख़िज़ाँ आई तो शादाब हुआ है
क्या मेरा ज़ियाँ है जो मुक़ाबिल तिरे आ जाऊँ
ये अम्र तो मा'लूम कि तू मुझ से बड़ा है
मैं बंदा-ओ-नाचार कि सैराब न हो पाऊँ
ऐ ज़ाहिर-ओ-मौजूद मिरा जिस्म दुआ है
हाँ उस के तआ'क़ुब से मिरे दिल में है इंकार
वो शख़्स किसी को न मिलेगा न मिला है
क्यूँ नूर-ए-अबद दिल में गुज़र कर नहीं पाता
सीने की सियाही से नया हर्फ़ लिखा है |
chaar-suu-hai-badii-vahshat-kaa-samaan-fahmida-riaz-ghazals |
चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ
किसी आसेब का साया है यहाँ
कोई आवाज़ सी है मर्सियाँ-ख़्वाँ
शहर का शहर बना गोरिस्ताँ
एक मख़्लूक़ जो बस्ती है यहाँ
जिस पे इंसाँ का गुज़रता है गुमाँ
ख़ुद तो साकित है मिसाल-ए-तस्वीर
जुम्बिश-ए-ग़ैर से है रक़्स-कुनाँ
कोई चेहरा नहीं जुज़ ज़ेर-ए-नक़ाब
न कोई जिस्म है जुज़ बे-दिल-ओ-जाँ
उलमा हैं दुश्मन-ए-फ़हम-ओ-तहक़ीक़
कोदनी शेवा-ए-दानिश-मंदाँ
शाइ'र-ए-क़ौम पे बन आई है
किज़्ब कैसे हो तसव्वुफ़ में निहाँ
लब हैं मसरूफ़-ए-क़सीदा-गोई
और आँखों में है ज़िल्लत उर्यां
सब्ज़ ख़त आक़िबत-ओ-दीं के असीर
पारसा ख़ुश-तन-ओ-नौ-ख़ेज़ जवाँ
ये ज़न-ए-नग़्मा-गर-ओ-इश्क़-शिआ'र
यास-ओ-हसरत से हुई है हैराँ
किस से अब आरज़ू-ए-वस्ल करें
इस ख़राबे में कोई मर्द कहाँ |
zakhm-jhele-daag-bhii-khaae-bahut-meer-taqi-meer-ghazals |
ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत
जब न तब जागह से तुम जाया किए
हम तो अपनी ओर से आए बहुत
दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
हम मिज़ाज अपना इधर लाए बहुत
फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे
पर हमें इन में तुम्हीं भाए बहुत
गर बुका इस शोर से शब को है तो
रोवेंगे सोने को हम-साए बहुत
वो जो निकला सुब्ह जैसे आफ़्ताब
रश्क से गुल फूल मुरझाए बहुत
'मीर' से पूछा जो मैं आशिक़ हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाए बहुत |
kyaa-kahuun-tum-se-main-ki-kyaa-hai-ishq-meer-taqi-meer-ghazals |
क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़
इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़
इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़
इश्क़ मा'शूक़ इश्क़ आशिक़ है
या'नी अपना ही मुब्तला है इश्क़
गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की
किसू सूरत में हो भला है इश्क़
दिलकश ऐसा कहाँ है दुश्मन-ए-जाँ
मुद्दई है प मुद्दआ है इश्क़
है हमारे भी तौर का आशिक़
जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़
कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
तू कहे जिंस-ए-ना-रवा है इश्क़
'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़ |
mir-taqi-mir-ghazals-5 |
आगे जमाल-ए-यार के मा'ज़ूर हो गया
गुल इक चमन में दीदा-ए-बेनूर हो गया
इक चश्म-ए-मुंतज़र है कि देखे है कब से राह
जों ज़ख़्म तेरी दूरी में नासूर हो गया
क़िस्मत तो देख शैख़ को जब लहर आई तब
दरवाज़ा शीरा ख़ाने का मा'मूर हो गया
पहुँचा क़रीब मर्ग के वो सैद-ए-ना-क़ुबूल
जो तेरी सैद-ए-गाह से टक दूर हो गया
देखा ये नाव-नोश कि नीश-ए-फ़िराक़ से
सीना तमाम ख़ाना-ए-ज़ंबूर हो गया
इस माह-ए-चारदह का छपे इश्क़ क्यूँके आह
अब तो तमाम शहर में मशहूर हो गया
शायद कसो के दिल को लगी उस गली में चोट
मेरी बग़ल में शीशा-ए-दिल चूर हो गया
लाशा मिरा तसल्ली न ज़ेर-ए-ज़मीं हुआ
जब तक न आन कर वो सर-ए-गोर हो गया
देखा जो मैं ने यार तो वो 'मीर' ही नहीं
तेरे ग़म-ए-फ़िराक़ में रंजूर हो गया |
hamaare-aage-tiraa-jab-kisuu-ne-naam-liyaa-meer-taqi-meer-ghazals |
हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया
क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की
अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया
ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया
वो कज-रविश न मिला रास्ते में मुझ से कभी
न सीधी तरह से उन ने मिरा सलाम लिया
मज़ा दिखावेंगे बे-रहमी का तिरी सय्याद
गर इज़्तिराब-ए-असीरी ने ज़ेर-ए-दाम लिया
मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
प मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम लिया |
jab-naam-tiraa-liijiye-tab-chashm-bhar-aave-mir-taqi-mir-ghazals |
जब नाम तिरा लीजिए तब चश्म भर आवे
इस ज़िंदगी करने को कहाँ से जिगर आवे
तलवार का भी मारा ख़ुदा रक्खे है ज़ालिम
ये तो हो कोई गोर-ए-ग़रीबाँ में दर आवे
मय-ख़ाना वो मंज़र है कि हर सुब्ह जहाँ शैख़
दीवार पे ख़ुर्शीद का मस्ती से सर आवे
क्या जानें वे मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार-ए-चमन को
जिन तक कि ब-सद-नाज़ नसीम-ए-सहर आवे
तू सुब्ह क़दम-रंजा करे टुक तो है वर्ना
किस वास्ते आशिक़ की शब-ए-ग़म बसर आवे
हर सू सर-ए-तस्लीम रखे सैद-ए-हरम हैं
वो सैद-फ़गन तेग़-ब-कफ़ ता किधर आवे
दीवारों से सर मारते फिरने का गया वक़्त
अब तू ही मगर आप कभू दर से दर आवे
वाइ'ज़ नहीं कैफ़िय्यत-ए-मय-ख़ाना से आगाह
यक जुरआ बदल वर्ना ये मिंदील धर आवे
सन्नाअ हैं सब ख़्वार अज़ाँ जुमला हूँ मैं भी
है ऐब बड़ा उस में जिसे कुछ हुनर आवे
ऐ वो कि तू बैठा है सर-ए-राह पे ज़िन्हार
कहियो जो कभू 'मीर' बला-कश इधर आवे
मत दश्त-ए-मोहब्बत में क़दम रख कि ख़िज़र को
हर गाम पे इस रह में सफ़र से हज़र आवे |
banii-thii-kuchh-ik-us-se-muddat-ke-baad-mir-taqi-mir-ghazals |
बनी थी कुछ इक उस से मुद्दत के बाद
सो फिर बिगड़ी पहली ही सोहबत के बाद
जुदाई के हालात मैं क्या कहूँ
क़यामत थी एक एक साअत के बाद
मुआ कोहकन बे-सुतूँ खोद कर
ये राहत हुई ऐसी मेहनत के बाद
लगा आग पानी को दौड़े है तू
ये गर्मी तिरी इस शरारत के बाद
कहे को हमारे कब उन ने सुना
कोई बात मानी सो मिन्नत के बाद
सुख़न की न तकलीफ़ हम से करो
लहू टपके है अब शिकायत के बाद
नज़र 'मीर' ने कैसी हसरत से की
बहुत रोए हम उस की रुख़्सत के बाद |
jiite-jii-kuucha-e-dildaar-se-jaayaa-na-gayaa-mir-taqi-mir-ghazals |
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
उस की दीवार का सर से मिरे साया न गया
काव-कावे मिज़ा-ए-यार ओ दिल-ए-ज़ार-ओ-नज़ार
गुथ गए ऐसे शिताबी कि छुड़ाया न गया
वो तो कल देर तलक देखता ईधर को रहा
हम से ही हाल-ए-तबाह अपना दिखाया न गया
गर्म-रौ राह-ए-फ़ना का नहीं हो सकता पतंग
उस से तो शम्अ-नमत सर भी कटाया न गया
पास-ए-नामूस-ए-मोहब्बत था कि फ़रहाद के पास
बे-सुतूँ सामने से अपने उठाया न गया
ख़ाक तक कूचा-ए-दिलदार की छानी हम ने
जुस्तुजू की पे दिल-ए-गुम-शुदा पाया न गया
आतिश-ए-तेज़ जुदाई में यकायक उस बिन
दिल जला यूँ कि तनिक जी भी जलाया न गया
मह ने आ सामने शब याद दिलाया था उसे
फिर वो ता सुब्ह मिरे जी से भुलाया न गया
ज़ेर-ए-शमशीर-ए-सितम 'मीर' तड़पना कैसा
सर भी तस्लीम-ए-मोहब्बत में हिलाया न गया
जी में आता है कि कुछ और भी मौज़ूँ कीजे
दर्द-ए-दिल एक ग़ज़ल में तो सुनाया न गया |
aarzuuen-hazaar-rakhte-hain-mir-taqi-mir-ghazals |
आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं
तो भी हम दिल को मार रखते हैं
बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो
दिल को बे-क़रार रखते हैं
ग़ैर ही मूरिद-ए-इनायत है
हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं
न निगह ने पयाम ने वादा
नाम को हम भी यार रखते हैं
हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो
लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं
चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ए'तिबार रखते हैं
फिर भी करते हैं 'मीर' साहब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं |
ishq-hamaare-khayaal-padaa-hai-khvaab-gaii-aaraam-gayaa-mir-taqi-mir-ghazals |
इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया
इश्क़ किया सो दीन गया ईमान गया इस्लाम गया
दिल ने ऐसा काम किया कुछ जिस से मैं नाकाम गया
किस किस अपनी कल को रोवे हिज्राँ में बेकल उस का
ख़्वाब गई है ताब गई है चैन गया आराम गया
आया याँ से जाना ही तो जी का छुपाना क्या हासिल
आज गया या कल जावेगा सुब्ह गया या शाम गया
हाए जवानी क्या क्या कहिए शोर सरों में रखते थे
अब क्या है वो अहद गया वो मौसम वो हंगाम गया
गाली झिड़की ख़श्म-ओ-ख़ुशूनत ये तो सर-ए-दस्त अक्सर हैं
लुत्फ़ गया एहसान गया इनआ'म गया इकराम गया
लिखना कहना तर्क हुआ था आपस में तो मुद्दत से
अब जो क़रार किया है दिल से ख़त भी गया पैग़ाम गया
नाला-ए-मीर सवाद में हम तक दोशीं शब से नहीं आया
शायद शहर से उस ज़ालिम के आशिक़ वो बदनाम गया |
thaa-mustaaar-husn-se-us-ke-jo-nuur-thaa-meer-taqi-meer-ghazals |
था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था
हंगामा गर्म-कुन जो दिल-ए-ना-सुबूर था
पैदा हर एक नाले से शोर-ए-नुशूर था
पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा ख़ुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहुत मैं भी दूर था
आतिश बुलंद दिल की न थी वर्ना ऐ कलीम
यक शो'ला बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-सद-कोह-ए-तूर था
मज्लिस में रात एक तिरे परतवे बग़ैर
क्या शम्अ क्या पतंग हर इक बे-हुज़ूर था
उस फ़स्ल में कि गुल का गरेबाँ भी है हवा
दीवाना हो गया सो बहुत ज़ी-शुऊर था
मुनइ'म के पास क़ाक़ुम ओ संजाब था तो क्या
उस रिंद की भी रात गुज़र गई जो ऊर था
हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था
कल पाँव एक कासा-ए-सर पर जो आ गया
यकसर वो उस्तुख़्वान शिकस्तों से चूर था
कहने लगा कि देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभू किसू का सर-ए-पुर-ग़ुरूर था
था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़ुसूर था |
ashk-aankhon-men-kab-nahiin-aataa-mir-taqi-mir-ghazals |
अश्क आँखों में कब नहीं आता
लोहू आता है जब नहीं आता
होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता
सब्र था एक मोनिस-ए-हिज्राँ
सो वो मुद्दत से अब नहीं आता
दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता
इश्क़ को हौसला है शर्त अर्ना
बात का किस को ढब नहीं आता
जी में क्या क्या है अपने ऐ हमदम
पर सुख़न ता-ब-लब नहीं आता
दूर बैठा ग़ुबार-ए-'मीर' उस से
इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता |
us-kaa-khayaal-chashm-se-shab-khvaab-le-gayaa-mir-taqi-mir-ghazals |
उस का ख़याल चश्म से शब ख़्वाब ले गया
क़स्मे कि इश्क़ जी से मिरे ताब ले गया
किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक
मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया
आवे जो मस्तबा में तो सुन लो कि राह से
वाइज़ को एक जाम-ए-मय-ए-नाब ले गया
ने दिल रहा बजा है न सब्र ओ हवास ओ होश
आया जो सैल-ए-इश्क़ सब अस्बाब ले गया
मेरे हुज़ूर शम्अ ने गिर्या जो सर किया
रोया मैं इस क़दर कि मुझे आब ले गया
अहवाल उस शिकार ज़ुबूँ का है जाए रहम
जिस ना-तवाँ को मुफ़्त न क़स्साब ले गया
मुँह की झलक से यार के बेहोश हो गए
शब हम को 'मीर' परतव-ए-महताब ले गया |
kuchh-mauj-e-havaa-pechaan-ai-miir-nazar-aaii-mir-taqi-mir-ghazals |
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई
शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई
दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई
मग़रूर बहुत थे हम आँसू की सरायत पर
सो सुब्ह के होने को तासीर नज़र आई
गुल-बार करे हैगा असबाब-ए-सफ़र शायद
ग़ुंचे की तरह बुलबुल दिल-गीर नज़र आई
उस की तो दिल-आज़ारी बे-हेच ही थी यारो
कुछ तुम को हमारी भी तक़्सीर नज़र आई |
hastii-apnii-habaab-kii-sii-hai-meer-taqi-meer-ghazals |
हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर
याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है
बार बार उस के दर पे जाता हूँ
हालत अब इज़्तिराब की सी है
नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू
बैत इक इंतिख़ाब की सी है
मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है
आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद
देर से बू कबाब की सी है
देखिए अब्र की तरह अब के
मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है
'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है |
aah-jis-vaqt-sar-uthaatii-hai-mir-taqi-mir-ghazals |
आह जिस वक़्त सर उठाती है
अर्श पर बर्छियाँ चलाती है
नाज़-बरदार-ए-लब है जाँ जब से
तेरे ख़त की ख़बर को पाती है
ऐ शब-ए-हिज्र रास्त कह तुझ को
बात कुछ सुब्ह की भी आती है
चश्म-ए-बद्दूर-चश्म-ए-तर ऐ 'मीर'
आँखें तूफ़ान को दिखाती है |
umr-bhar-ham-rahe-sharaabii-se-mir-taqi-mir-ghazals |
उम्र भर हम रहे शराबी से
दिल-ए-पुर-ख़ूँ की इक गुलाबी से
जी ढहा जाए है सहर से आह
रात गुज़रेगी किस ख़राबी से
खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से
बुर्क़ा उठते ही चाँद सा निकला
दाग़ हूँ उस की बे-हिजाबी से
काम थे इश्क़ में बहुत पर 'मीर'
हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से |
chalte-ho-to-chaman-ko-chaliye-kahte-hain-ki-bahaaraan-hai-meer-taqi-meer-ghazals |
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है
रंग हवा से यूँ टपके है जैसे शराब चुवाते हैं
आगे हो मय-ख़ाने के निकलो अहद-ए-बादा-गुसाराँ है
इश्क़ के मैदाँ-दारों में भी मरने का है वस्फ़ बहुत
या'नी मुसीबत ऐसी उठाना कार-ए-कार-गुज़ाराँ है
दिल है दाग़ जिगर है टुकड़े आँसू सारे ख़ून हुए
लोहू पानी एक करे ये इश्क़-ए-लाला-अज़ाराँ है
कोहकन ओ मजनूँ की ख़ातिर दश्त-ओ-कोह में हम न गए
इश्क़ में हम को 'मीर' निहायत पास-ए-इज़्ज़त-दाराँ है |
mir-taqi-mir-ghazals-76 |
आह-ए-सहर ने सोज़िश-ए-दिल को मिटा दिया
उस बाव ने हमें तो दिया सा बुझा दिया
समझी न बाद सुब्ह कि आ कर उठा दिया
इस फ़ित्ना-ए-ज़माना को नाहक़ जगा दिया
पोशीदा राज़-ए-इश्क़ चला जाए था सौ आज
बे-ताक़ती ने दिल की वो पर्दा उठा दिया
उस मौज-ख़ेज़ दहर में हम को क़ज़ा ने आह
पानी के बुलबुले की तरह से मिटा दिया
थी लाग उस की तेग़ को हम से सौ इश्क़ ने
दोनों को मा'रके में गले से मिला दिया
सब शोर-ए-मा-ओ-मन को लिए सर में मर गए
यारों को इस फ़साने ने आख़िर सुला दिया
आवारगान-ए-इश्क़ का पूछा जो मैं निशाँ
मुश्त-ए-ग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया
अज्ज़ा बदन के जितने थे पानी हो बह गए
आख़िर गुदाज़ इश्क़ ने हम को बहा दिया
क्या कुछ न था अज़ल में न ताला जो थे दुरुस्त
हम को दिल-शिकस्ता क़ज़ा ने दिला दिया
गोया मुहासबा मुझे देना था इश्क़ का
उस तौर दिल सी चीज़ को मैं ने लगा दिया
मुद्दत रहेगी याद तिरे चेहरे की झलक
जल्वे को जिस ने माह के जी से भुला दिया
हम ने तो सादगी से क्या जी का भी ज़ियाँ
दिल जो दिया था सो तो दिया सर जुदा दिया
बोई कबाब सोख़्ता आई दिमाग़ में
शायद जिगर भी आतिश-ए-ग़म ने जिला दिया
तकलीफ़ दर्द-ए-दिल की अबस हम-नशीं ने की
दर्द-ए-सुख़न ने मेरे सभों को रुला दिया
उन ने तो तेग़ खींची थी पर जी चला के 'मीर'
हम ने भी एक दम में तमाशा दिखा दिया |
ultii-ho-gaiin-sab-tadbiiren-kuchh-na-davaa-ne-kaam-kiyaa-meer-taqi-meer-ghazals |
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया
सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया
सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया
किस का काबा कैसा क़िबला कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उस के बाशिंदों ने सब को यहीं से सलाम किया
शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में
जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया
काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है
आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया
याँ के सपीद ओ सियह में हम को दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो रो सुब्ह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया
सुब्ह चमन में उस को कहीं तकलीफ़-ए-हवा ले आई थी
रुख़ से गुल को मोल लिया क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया
साअद-ए-सीमीं दोनों उस के हाथ में ला कर छोड़ दिए
भूले उस के क़ौल-ओ-क़सम पर हाए ख़याल-ए-ख़ाम किया
काम हुए हैं सारे ज़ाएअ' हर साअ'त की समाजत से
इस्तिग़्ना की चौगुनी उन ने जूँ जूँ मैं इबराम किया
ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया |
ham-aap-hii-ko-apnaa-maqsuud-jaante-hain-mir-taqi-mir-ghazals |
हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं
इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मस्जूद जानते हैं
सूरत-पज़ीर हम बिन हरगिज़ नहीं वे माने
अहल-ए-नज़र हमीं को मा'बूद जानते हैं
इश्क़ उन की अक़्ल को है जो मा-सिवा हमारे
नाचीज़ जानते हैं ना-बूद जानते हैं
अपनी ही सैर करने हम जल्वा-गर हुए थे
इस रम्ज़ को व-लेकिन मादूद जानते हैं
यारब कसे है नाक़ा हर ग़ुंचा इस चमन का
राह-ए-वफ़ा को हम तो मसदूद जानते हैं
ये ज़ुल्म-ए-बे-निहायत दुश्वार-तर कि ख़ूबाँ
बद-वज़इयों को अपनी महमूद जानते हैं
क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का
मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं
मर कर भी हाथ आवे तो 'मीर' मुफ़्त है वो
जी के ज़ियान को भी हम सूद जानते हैं |
lazzat-se-nahiin-khaalii-jaanon-kaa-khapaa-jaanaa-mir-taqi-mir-ghazals |
लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना
कब ख़िज़्र ओ मसीहा ने मरने का मज़ा जाना
हम जाह-ओ-हशम याँ का क्या कहिए कि क्या जाना
ख़ातिम को सुलैमाँ की अंगुश्तर-ए-पा जाना
ये भी है अदा कोई ख़ुर्शीद नमत प्यारे
मुँह सुब्ह दिखा जाना फिर शाम छुपा जाना
कब बंदगी मेरी सी बंदा करेगा कोई
जाने है ख़ुदा उस को मैं तुझ को ख़ुदा जाना
था नाज़ बहुत हम को दानिस्त पर अपनी भी
आख़िर वो बुरा निकला हम जिस को भला जाना
गर्दन-कशी क्या हासिल मानिंद बगूले की
इस दश्त में सर गाड़े जूँ सैल चला जाना
इस गिर्या-ए-ख़ूनीं का हो ज़ब्त तो बेहतर है
अच्छा नहीं चेहरे पर लोहू का बहा जाना
ये नक़्श दिलों पर से जाने का नहीं उस को
आशिक़ के हुक़ूक़ आ कर नाहक़ भी मिटा जाना
ढब देखने का ईधर ऐसा ही तुम्हारा था
जाते तो हो पर हम से टुक आँख मिला जाना
उस शम्अ की मज्लिस में जाना हमें फिर वाँ से
इक ज़ख़्म-ए-ज़बाँ ताज़ा हर रोज़ उठा जाना
ऐ शोर-ए-क़यामत हम सोते ही न रह जावें
इस राह से निकले तो हम को भी जगा जाना
क्या पानी के मोल आ कर मालिक ने गुहर बेचा
है सख़्त गिराँ सस्ता यूसुफ़ का बिका जाना
है मेरी तिरी निस्बत रूह और जसद की सी
कब आप से मैं तुझ को ऐ जान जुदा जाना
जाती है गुज़र जी पर उस वक़्त क़यामत सी
याद आवे है जब तेरा यक-बारगी आ जाना
बरसों से मिरे उस की रहती है यही सोहबत
तेग़ उस को उठाना तो सर मुझ को झुका जाना
कब 'मीर' बसर आए तुम वैसे फ़रेबी से
दिल को तो लगा बैठे लेकिन न लगा जाना |
baaten-hamaarii-yaad-rahen-phir-baaten-aisii-na-suniyegaa-meer-taqi-meer-ghazals |
बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा
सई ओ तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की
सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनयेगा
दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा
गर्म अशआर 'मीर' दरूना दाग़ों से ये भर देंगे
ज़र्द-रू शहर में फिरिएगा गलियों में ने गुल चुनिएगा |
yaaro-mujhe-muaaf-rakho-main-nashe-men-huun-mir-taqi-mir-ghazals |
यारो मुझे मुआ'फ़ रखो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम ख़ाली ही दो मैं नशे में हूँ
एक एक क़ुर्त दौर में यूँ ही मुझे भी दो
जाम-ए-शराब पुर न करो मैं नशे में हूँ
मस्ती से दरहमी है मिरी गुफ़्तुगू के बीच
जो चाहो तुम भी मुझ को कहो मैं नशे में हूँ
या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ
मा'ज़ूर हूँ जो पाँव मिरा बे-तरह पड़े
तुम सरगिराँ तो मुझ से न हो मैं नशे में हूँ
भागी नमाज़-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछ
चलता हूँ मैं भी टुक तो रहो मैं नशे में हूँ
नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं 'मीर' जी
जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ |
aae-hain-miir-kaafir-ho-kar-khudaa-ke-ghar-men-mir-taqi-mir-ghazals |
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में
नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर
जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में
सीने में तीर उस के टूटे हैं बे-निहायत
सुराख़ पड़ गए हैं सारे मिरे जिगर में
आइंदा शाम को हम रोया कुढ़ा करेंगे
मुतलक़ असर न देखा नालीदन-ए-सहर में
बे-सुध पड़ा रहूँ हूँ उस मस्त-ए-नाज़ बिन मैं
आता है होश मुझ को अब तो पहर पहर में
सीरत से गुफ़्तुगू है क्या मो'तबर है सूरत
है एक सूखी लकड़ी जो बू न हो अगर में
हम-साया-ए-मुग़ाँ में मुद्दत से हूँ चुनाँचे
इक शीरा-ख़ाने की है दीवार मेरे घर में
अब सुब्ह ओ शाम शायद गिर्ये पे रंग आवे
रहता है कुछ झमकता ख़ूनाब चश्म-ए-तर में
आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा
अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में |
sher-ke-parde-men-main-ne-gam-sunaayaa-hai-bahut-mir-taqi-mir-ghazals |
शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत
मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत
बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श
दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत
वादी ओ कोहसार में रोता हूँ ड़ाढें मार मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत
वा नहीं होता किसू से दिल गिरफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरन ग़मगीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत
'मीर' गुम-गश्ता का मिलना इत्तिफ़ाक़ी अम्र है
जब कभू पाया है ख़्वाहिश-मंद पाया है बहुत |
faqiiraana-aae-sadaa-kar-chale-meer-taqi-meer-ghazals |
फ़क़ीराना आए सदा कर चले
कि म्याँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
शिफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी
कि मक़्दूर तक तो दवा कर चले
पड़े ऐसे अस्बाब पायान-ए-कार
कि नाचार यूँ जी जला कर चले
वो क्या चीज़ है आह जिस के लिए
हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले
कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले
बहुत आरज़ू थी गली की तिरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सज्दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
झड़े फूल जिस रंग गुलबुन से यूँ
चमन में जहाँ के हम आ कर चले
न देखा ग़म-ए-दोस्ताँ शुक्र है
हमीं दाग़ अपना दिखा कर चले
गई उम्र दर-बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर'
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले |
chaman-men-gul-ne-jo-kal-daava-e-jamaal-kiyaa-meer-taqi-meer-ghazals |
चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया
जमाल-ए-यार ने मुँह उस का ख़ूब लाल किया
फ़लक ने आह तिरी रह में हम को पैदा कर
ब-रंग-ए-सब्ज़-ए-नूरस्ता पाएमाल किया
रही थी दम की कशाकश गले में कुछ बाक़ी
सो उस की तेग़ ने झगड़ा ही इंफ़िसाल किया
मिरी अब आँखें नहीं खुलतीं ज़ोफ़ से हमदम
न कह कि नींद में है तू ये क्या ख़याल किया
बहार-ए-रफ़्ता फिर आई तिरे तमाशे को
चमन को युम्न-ए-क़दम ने तिरे निहाल किया
जवाब-नामा सियाही का अपनी है वो ज़ुल्फ़
किसू ने हश्र को हम से अगर सवाल किया
लगा न दिल को कहीं क्या सुना नहीं तू ने
जो कुछ कि 'मीर' का इस आशिक़ी ने हाल किया |
mir-taqi-mir-ghazals-80 |
आए हैं 'मीर' मुँह को बनाए ख़फ़ा से आज
शायद बिगड़ गई है कुछ उस बेवफ़ा से आज
वाशुद हुई न दिल को फ़क़ीरों के भी मिले
खुलती नहीं गिरह ये कसू की दुआ से आज
जीने में इख़्तियार नहीं वर्ना हम-नशीं
हम चाहते हैं मौत तो अपनी ख़ुदा से आज
साक़ी टुक एक मौसम-ए-गुल की तरफ़ भी देख
टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज
था जी में उस से मिलिए तो क्या क्या न कहिए 'मीर'
पर कुछ कहा गया न ग़म-ए-दिल हया से आज |
jis-sar-ko-guruur-aaj-hai-yaan-taaj-varii-kaa-meer-taqi-meer-ghazals |
जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का
कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का
शर्मिंदा तिरे रुख़ से है रुख़्सार परी का
चलता नहीं कुछ आगे तिरे कब्क-ए-दरी का
आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामत
अस्बाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का
ज़िंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की
अब संग मुदावा है इस आशुफ़्ता-सरी का
हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा
इंसाफ़-तलब है तिरी बेदाद-गरी का
अपनी तो जहाँ आँख लड़ी फिर वहीं देखो
आईने को लपका है परेशाँ-नज़री का
सद मौसम-ए-गुल हम को तह-ए-बाल ही गुज़रे
मक़्दूर न देखा कभू बे-बाल-ओ-परी का
इस रंग से झमके है पलक पर कि कहे तू
टुकड़ा है मिरा अश्क अक़ीक़-ए-जिगरी का
कल सैर किया हम ने समुंदर को भी जा कर
था दस्त-ए-निगर पंजा-ए-मिज़्गाँ की तरी का
ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का
टुक 'मीर'-ए-जिगर-सोख़्ता की जल्द ख़बर ले
क्या यार भरोसा है चराग़-ए-सहरी का |
kyaa-haqiiqat-kahuun-ki-kyaa-hai-ishq-meer-taqi-meer-ghazals |
क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़
हक़-शनासों के हाँ ख़ुदा है इश्क़
दिल लगा हो तो जी जहाँ से उठा
मौत का नाम प्यार का है इश्क़
और तदबीर को नहीं कुछ दख़्ल
इश्क़ के दर्द की दवा है इश्क़
क्या डुबाया मुहीत में ग़म के
हम ने जाना था आश्ना है इश्क़
इश्क़ से जा नहीं कोई ख़ाली
दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क़
कोहकन क्या पहाड़ काटेगा
पर्दे में ज़ोर-आज़मा है इश्क़
इश्क़ है इश्क़ करने वालों को
कैसा कैसा बहम किया है इश्क़
कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
आरज़ू इश्क़ मुद्दआ है इश्क़
'मीर' मरना पड़े है ख़ूबाँ पर
इश्क़ मत कर कि बद बला है इश्क़ |
ishq-men-zillat-huii-khiffat-huii-tohmat-huii-mir-taqi-mir-ghazals |
इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई
अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह
दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई
लौह-ए-सीना पर मिरी सौ नेज़ा-ए-ख़त्ती लगे
ख़स्तगी इस दिल-शिकस्ता की इसी बाबत हुई
खोलते ही आँखें फिर याँ मूँदनी हम को पड़ीं
दीद क्या कोई करे वो किस क़दर मोहलत हुई
पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई
मर गया आवारा हो कर मैं तो जैसे गर्द-बाद
पर जिसे ये वाक़िआ पहुँचा उसे वहशत हुई
शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर
मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई
दिल का जाना आज कल ताज़ा हुआ हो तो कहूँ
गुज़रे उस भी सानेहे को हम-नशीं मुद्दत हुई
शौक़-ए-दिल हम ना-तवानों का लिखा जाता है कब
अब तलक आप ही पहुँचने की अगर ताक़त हुई
क्या कफ़-ए-दस्त एक मैदाँ था बयाबाँ इश्क़ का
जान से जब उस में गुज़रे तब हमें राहत हुई
यूँ तो हम आजिज़-तरीन-ए-ख़ल्क़-ए-आलम हैं वले
देखियो क़ुदरत ख़ुदा की गर हमें क़ुदरत हुई
गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ
किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई
बे-ज़बाँ जो कहते हैं मुझ को सो चुप रह जाएँगे
मारके में हश्र के गर बात की रुख़्सत हुई
हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई
इस ग़ज़ल पर शाम से तो सूफ़ियों को वज्द था
फिर नहीं मालूम कुछ मज्लिस की क्या हालत हुई
कम किसू को 'मीर' की मय्यत की हाथ आई नमाज़
ना'श पर उस बे-सर-ओ-पा की बला कसरत हुई |
ba-rang-e-buu-e-gul-us-baag-ke-ham-aashnaa-hote-mir-taqi-mir-ghazals |
ब-रंग-ए-बू-ए-गुल उस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हमराह-ए-सबा टुक सैर करते फिर हवा होते
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को
वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते
फ़लक ऐ काश हम को ख़ाक ही रखता कि इस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या कसू की ख़ाक-ए-पा होते
इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गीर होती है ख़ुदा होते
तू है किस नाहिए से ऐ दयार-ए-इश्क़ क्या जानूँ
तिरे बाशिंदगाँ हम काश सारे बेवफ़ा होते
अब ऐसे हैं कि साने' के मिज़ाज ऊपर बहम पहुँचे
जो ख़ातिर-ख़्वाह अपने हम हुए होते तो क्या होते
कहीं जो कुछ मलामत गर बजा है 'मीर' क्या जानें
उन्हें मा'लूम तब होता कि वैसे से जुदा होते |
mir-taqi-mir-ghazals-82 |
आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा'द
उभरेंगे इश्क़-ए-दिल से तिरे राज़ मेरे बा'द
जीना मिरा तो तुझ को ग़नीमत है ना-समझ
खींचेगा कौन फिर ये तिरे नाज़ मेरे बा'द
शम-ए-मज़ार और ये सोज़-ए-जिगर मिरा
हर शब करेंगे ज़िंदगी ना-साज़ मेरे बा'द
हसरत है इस के देखने की दिल में बे-क़यास
अग़्लब कि मेरी आँखें रहें बाज़ मेरे बा'द
करता हूँ मैं जो नाले सर-अंजाम बाग़ में
मुँह देखो फिर करेंगे हम आवाज़ मेरे बा'द
बिन गुल मुआ ही मैं तो प तू जा के लौटियो
सेहन-ए-चमन में ऐ पर-ए-पर्वाज़ मेरे बा'द
बैठा हूँ 'मीर' मरने को अपने में मुस्तइद
पैदा न होंगे मुझ से भी जाँबाज़ मेरे बा'द |
jab-rone-baithtaa-huun-tab-kyaa-kasar-rahe-hai-mir-taqi-mir-ghazals |
जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे है
रूमाल दो दो दिन तक जूँ अब्र तर रहे है
आह-ए-सहर की मेरी बर्छी के वसवसे से
ख़ुर्शीद के मुँह ऊपर अक्सर सिपर रहे है
आगह तो रहिए उस की तर्ज़-ए-रह-ओ-रविश से
आने में उस के लेकिन किस को ख़बर रहे है
उन रोज़ों इतनी ग़फ़लत अच्छी नहीं इधर से
अब इज़्तिराब हम को दो दो पहर रहे है
आब-ए-हयात की सी सारी रविश है उस की
पर जब वो उठ चले है एक आध मर रहे है
तलवार अब लगा है बे-डोल पास रखने
ख़ून आज कल किसू का वो शोख़ कर रहे है
दर से कभू जो आते देखा है मैं ने उस को
तब से उधर ही अक्सर मेरी नज़र रहे है
आख़िर कहाँ तलक हम इक रोज़ हो चुकेंगे
बरसों से वादा-ए-शब हर सुब्ह पर रहे है
'मीर' अब बहार आई सहरा में चल जुनूँ कर
कोई भी फ़स्ल-ए-गुल में नादान घर रहे है |
aa-jaaen-ham-nazar-jo-koii-dam-bahut-hai-yaan-mir-taqi-mir-ghazals |
आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ
मोहलत हमें बिसान-ए-शरर कम बहुत है याँ
यक लहज़ा सीना-कोबी से फ़ुर्सत हमें नहीं
यानी कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ
हासिल है क्या सिवाए तराई के दहर में
उठ आसमाँ तले से कि शबनम बहुत है याँ
माइल-ब-ग़ैर होना तुझ अबरू का ऐब है
थी ज़ोर ये कमाँ वले ख़म-चम बहुत है याँ
हम रह-रवान-ए-राह-ए-फ़ना देर रह चुके
वक़्फ़ा बिसान-ए-सुब्ह कोई दम बहुत है याँ
इस बुत-कदे में मअ'नी का किस से करें सवाल
आदम नहीं है सूरत-ए-आदम बहुत है याँ
आलम में लोग मिलने की गों अब नहीं रहे
हर-चंद ऐसा वैसा तो आलम बहुत है याँ
वैसा चमन से सादा निकलता नहीं कोई
रंगीनी एक और ख़म-ओ-चम बहुत है याँ
एजाज़-ए-ईसवी से नहीं बहस इश्क़ में
तेरी ही बात जान मुजस्सम बहुत है याँ
मेरे हलाक करने का ग़म है अबस तुम्हें
तुम शाद ज़िंदगानी करो ग़म बहुत है याँ
दिल मत लगा रुख़-ए-अरक़-आलूद यार से
आईने को उठा कि ज़मीं नम बहुत है याँ
शायद कि काम सुब्ह तक अपना खिंचे न 'मीर'
अहवाल आज शाम से दरहम बहुत है याँ |
aao-kabhuu-to-paas-hamaare-bhii-naaz-se-mir-taqi-mir-ghazals |
आओ कभू तो पास हमारे भी नाज़ से
करना सुलूक ख़ूब है अहल-ए-नियाज़ से
फिरते हो क्या दरख़्तों के साए में दूर दूर
कर लो मुवाफ़क़त किसू बेबर्ग-ओ-साज़ से
हिज्राँ में उस के ज़िंदगी करना भला न था
कोताही जो न होवे ये उम्र-ए-दराज़ से
मानिंद-ए-सुब्हा उक़दे न दिल के कभू खुले
जी अपना क्यूँ कि उचटे न रोज़े नमाज़ से
करता है छेद छेद हमारा जिगर तमाम
वो देखना तिरा मिज़ा-ए-नीम-बाज़ से
दिल पर हो इख़्तियार तो हरगिज़ न करिए इश्क़
परहेज़ करिए इस मरज़-ए-जाँ-गुदाज़ से
आगे बिछा के नता को लाते थे तेग़ ओ तश्त
करते थे यानी ख़ून तो इक इम्तियाज़ से
माने हों क्यूँ कि गिर्या-ए-ख़ूनीं के इश्क़ में
है रब्त-ए-ख़ास चश्म को इफ़शा-ए-राज़ से
शायद शराब-ख़ाने में शब को रहे थे 'मीर'
खेले था एक मुग़बचा मोहर-ए-नमाज़ से |
jo-is-shor-se-miir-rotaa-rahegaa-mir-taqi-mir-ghazals |
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हम-साया काहे को सोता रहेगा
मैं वो रोने वाला जहाँ से चला हूँ
जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा
मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह
तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा
बस ऐ गिर्या आँखें तिरी क्या नहीं हैं
कहाँ तक जहाँ को डुबोता रहेगा
मिरे दिल ने वो नाला पैदा किया है
जरस के भी जो होश खोता रहेगा
तू यूँ गालियाँ ग़ैर को शौक़ से दे
हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा
बस ऐ 'मीर' मिज़्गाँ से पोंछ आँसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा |
jin-ke-liye-apne-to-yuun-jaan-nikalte-hain-mir-taqi-mir-ghazals |
जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं
क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे
जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं
गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से
या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं
करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं
जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर
वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं
सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है
बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं
उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं
जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं |
dekh-to-dil-ki-jaan-se-uthtaa-hai-mir-taqi-mir-ghazals |
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इक सुब्ह याँ से उठता है
ख़ाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा
कोई ऐसे मकाँ से उठता है
नाला सर खींचता है जब मेरा
शोर इक आसमाँ से उठता है
लड़ती है उस की चश्म-ए-शोख़ जहाँ
एक आशोब वाँ से उठता है
सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है
बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तिरे आस्ताँ से उठता है
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है |
pattaa-pattaa-buutaa-buutaa-haal-hamaaraa-jaane-hai-meer-taqi-meer-ghazals |
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक
उस को फ़लक चश्म-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है
आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्याद बचा
ताइर उड़ते हवा में सारे अपने असारा जाने है
मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है
क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना
जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा यानी
इन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश
दुम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है |
is-ahd-men-ilaahii-mohabbat-ko-kyaa-huaa-mir-taqi-mir-ghazals |
इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ
छोड़ा वफ़ा को उन ने मुरव्वत को क्या हुआ
उम्मीद-वार-ए-वादा-ए-दीदार मर चले
आते ही आते यारो क़यामत को क्या हुआ
कब तक तज़ल्लुम आह भला मर्ग के तईं
कुछ पेश आया वाक़िआ रहमत को क्या हुआ
उस के गए पर ऐसे गए दिल से हम-नशीं
मालूम भी हुआ न कि ताक़त को क्या हुआ
बख़्शिश ने मुझ को अब्र-ए-करम की किया ख़जिल
ऐ चश्म जोश-ए-अश्क-ए-नदामत को क्या हुआ
जाता है यार तेग़-ब-कफ़ ग़ैर की तरफ़
ऐ कुश्ता-ए-सितम तिरी ग़ैरत को क्या हुआ
थी साब-ए-आशिक़ी की बदायत ही 'मीर' पर
क्या जानिए कि हाल-ए-निहायत को क्या हुआ |
ab-jo-ik-hasrat-e-javaanii-hai-mir-taqi-mir-ghazals |
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है
रश्क-ए-यूसुफ़ है आह वक़्त-ए-अज़ीज़
उम्र इक बार-ए-कारवानी है
गिर्या हर वक़्त का नहीं बे-हेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है
हम क़फ़स-ज़ाद क़ैदी हैं वर्ना
ता चमन एक पर-फ़िशानी है
उस की शमशीर तेज़ है हमदम
मर रहेंगे जो ज़िंदगानी है
ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम निको याँ से
सब तुम्हारी ही मेहरबानी है
ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में और
हम को धोका ये था कि पानी है
याँ हुए 'मीर' तुम बराबर ख़ाक
वाँ वही नाज़ ओ सरगिरानी है |
jin-jin-ko-thaa-ye-ishq-kaa-aazaar-mar-gae-mir-taqi-mir-ghazals |
जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए
होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़
ईसा ओ ख़िज़्र क्या सभी यक-बार मर गए
यूँ कानों-कान गुल ने न जाना चमन में आह
सर को पटक के हम पस-ए-दीवार मर गए
सद कारवाँ वफ़ा है कोई पूछता नहीं
गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए
मजनूँ न दश्त में है न फ़रहाद कोह में
था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िंदगी वे यार मर गए
गर ज़िंदगी यही है जो करते हैं हम असीर
तो वे ही जी गए जो गिरफ़्तार मर गए
अफ़्सोस वे शहीद कि जो क़त्ल-गाह में
लगते ही उस के हाथ की तलवार मर गए
तुझ से दो-चार होने की हसरत के मुब्तिला
जब जी हुए वबाल तो नाचार मर गए
घबरा न 'मीर' इश्क़ में उस सहल-ए-ज़ीस्त पर
जब बस चला न कुछ तो मिरे यार मर गए |
mir-taqi-mir-ghazals-36 |
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है
या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या |
gam-rahaa-jab-tak-ki-dam-men-dam-rahaa-mir-taqi-mir-ghazals |
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा
हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब
ख़त के आने पर भी इक आलम रहा
दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामाँ तलक
क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़ा पर जम रहा
सुनते हैं लैला के ख़ेमे को सियाह
उस में मजनूँ का मगर मातम रहा
जामा-ए-एहराम-ए-ज़ाहिद पर न जा
था हरम में लेक ना-महरम रहा
ज़ुल्फ़ें खोलीं तो तू टुक आया नज़र
उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा
उस के लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा
मेरे रोने की हक़ीक़त जिस में थी
एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा
सुब्ह-ए-पीरी शाम होने आई 'मीर'
तू न चेता याँ बहुत दिन कम रहा |
baare-duniyaa-men-raho-gam-zada-yaa-shaad-raho-mir-taqi-mir-ghazals |
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
इश्क़-पेचे की तरह हुस्न-ए-गिरफ़्तारी है
लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो
हम को दीवानगी शहरों ही में ख़ुश आती है
दश्त में क़ैस रहो कोह में फ़रहाद रहो
वो गराँ ख़्वाब जो है नाज़ का अपने सो है
दाद बे-दाद रहो शब को कि फ़रियाद रहो
'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो |
munh-takaa-hii-kare-hai-jis-tis-kaa-mir-taqi-mir-ghazals |
मुँह तका ही करे है जिस तिस का
हैरती है ये आईना किस का
शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का
थे बुरे मुग़्बचों के तेवर लेक
शैख़ मय-ख़ाने से भला खिसका
दाग़ आँखों से खिल रहे हैं सब
हाथ दस्ता हुआ है नर्गिस का
बहर कम-ज़र्फ़ है बसान-ए-हबाब
कासा-लैस अब हुआ है तू जिस का
फ़ैज़ ऐ अब्र चश्म-ए-तर से उठा
आज दामन वसीअ है इस का
ताब किस को जो हाल-ए-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मज्लिस का |
aam-hukm-e-sharaab-kartaa-huun-mir-taqi-mir-ghazals |
आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ
मोहतसिब को कबाब करता हूँ
टुक तो रह ऐ बिना-ए-हस्ती तू
तुझ को कैसा ख़राब करता हूँ
बहस करता हूँ हो के अबजद-ख़्वाँ
किस क़दर बे-हिसाब करता हूँ
कोई बुझती है ये भड़क में अबस
तिश्नगी पर इ'ताब करता हूँ
सर तलक आब-ए-तेग़ में हूँ ग़र्क़
अब तईं आब आब करता हूँ
जी में फिरता है 'मीर' वो मेरे
जागता हूँ कि ख़्वाब करता हूँ |
mir-taqi-mir-ghazals-190 |
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
जिन की ख़ातिर की उस्तुख़्वाँ-शिकनी
सो हम उन के निशान-ए-तीर हुए
नहीं आते कसो की आँखों में
हो के आशिक़ बहुत हक़ीर हुए
आगे ये बे-अदाइयाँ कब थीं
इन दिनों तुम बहुत शरीर हुए
अपने रोते ही रोते सहरा के
गोशे गोशे में आब-गीर हुए
ऐसी हस्ती अदम में दाख़िल है
नय जवाँ हम न तिफ़्ल-ए-शीर हुए
एक दम थी नुमूद बूद अपनी
या सफ़ेदी की या अख़ीर हुए
या'नी मानिंद-ए-सुब्ह दुनिया में
हम जो पैदा हुए सौ पीर हुए
मत मिल अहल-ए-दुवल के लड़कों से
'मीर'-जी उन से मिल फ़क़ीर हुए |
baar-haa-gor-e-dil-jhankaa-laayaa-mir-taqi-mir-ghazals |
बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया
अब के शर्त-ए-वफ़ा बजा लाया
क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
सारे आलम में मैं दिखा लाया
दिल कि यक क़तरा ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया
सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये ना-तवाँ उठा लाया
दिल मुझे उस गली में ले जा कर
और भी ख़ाक में मिला लाया
इब्तिदा ही में मर गए सब यार
इश्क़ की कौन इंतिहा लाया
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया |
tuu-aashnaa-e-jazba-e-ulfat-nahiin-rahaa-noon-meem-rashid-ghazals |
तू आश्ना-ए-जज़्बा-ए-उल्फ़त नहीं रहा
दिल में तिरे वो ज़ौक़-ए-मोहब्बत नहीं रहा
फिर नग़्मा-हा-ए-क़ुम तो फ़ज़ा में हैं गूँजते
तू ही हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-समाअत नहीं रहा
आईं कहाँ से आँख में आतिश-चिकानियाँ
दिल आश्ना-ए-सोज़-ए-मोहब्बत नहीं रहा
गुल-हा-ए-हुस्न-ए-यार में दामन-कश-ए-नज़र
मैं अब हरीस-ए-गुलशन-ए-जन्नत नहीं रहा
शायद जुनूँ है माइल-ए-फ़र्ज़ानगी मिरा
मैं वो नहीं वो आलम-ए-वहशत नहीं रहा
मम्नून हूँ मैं तेरा बहुत मर्ग-ए-ना-गहाँ
मैं अब असीर-ए-गर्दिश-ए-क़िस्मत नहीं रहा
जल्वागह-ए-ख़याल में वो आ गए हैं आज
लो मैं रहीन-ए-ज़हमत-ए-ख़ल्वत नहीं रहा
क्या फ़ाएदा है दावा-ए-इश्क़-ए-हुसैन से
सर में अगर वो शौक़-ए-शहादत नहीं रहा |
jo-be-sabaat-ho-us-sarkhushii-ko-kyaa-kiije-noon-meem-rashid-ghazals |
जो बे-सबात हो उस सरख़ुशी को क्या कीजे
ये ज़िंदगी है तो फिर ज़िंदगी को क्या कीजे
रुका जो काम तो दीवानगी ही काम आई
न काम आए तो फ़र्ज़ानगी को क्या कीजे
ये क्यूँ कहें कि हमें कोई रहनुमा न मिला
मगर सरिश्त की आवारगी को क्या कीजे
किसी को देख के इक मौज लब पे आ तो गई
उठे न दिल से तो ऐसी हँसी को क्या कीजे
हमें तो आप ने सोज़-ए-अलम ही बख़्शा था
जो नूर बन गई उस तीरगी को क्या कीजे
हमारे हिस्से का इक जुरआ भी नहीं बाक़ी
निगाह-ए-दोस्त की मय-ख़ानगी को क्या कीजे
जहाँ ग़रीब को नान-ए-जवीं नहीं मिलती
वहाँ हकीम के दर्स-ए-ख़ुदी को क्या कीजे
विसाल-ए-दोस्त से भी कम न हो सकी 'राशिद'
अज़ल से पाई हुई तिश्नगी को क्या कीजे |
tire-karam-se-khudaaii-men-yuun-to-kyaa-na-milaa-noon-meem-rashid-ghazals |
तिरे करम से ख़ुदाई में यूँ तो क्या न मिला
मगर जो तू न मिला ज़ीस्त का मज़ा न मिला
हयात-ए-शौक़ की ये गर्मियाँ कहाँ होतीं
ख़ुदा का शुक्र हमें नाला-ए-रसा न मिला
अज़ल से फ़ितरत-ए-आज़ाद ही थी आवारा
ये क्यूँ कहें कि हमें कोई रहनुमा न मिला
ये काएनात किसी का ग़ुबार-ए-राह सही
दलील-ए-राह जो बनता वो नक़्श-ए-पा न मिला
ये दिल शहीद-ए-फ़रेब-निगाह हो न सका
वो लाख हम से ब-अंदाज़-ए-महरमाना मिला
कनार-ए-मौज में मरना तो हम को आता है
निशान-ए-साहिल-ए-उल्फ़त मिला मिला न मिला
तिरी तलाश ही थी माया-ए-बक़ा-ए-वजूद
बला से हम को सर-ए-मंज़िल-ए-बक़ा न मिला |
hasrat-e-intizaar-e-yaar-na-puuchh-noon-meem-rashid-ghazals |
हसरत-ए-इंतिज़ार-ए-यार न पूछ
हाए वो शिद्दत-ए-इंतिज़ार न पूछ
रंग-ए-गुलशन दम-ए-बहार न पूछ
वहशत-ए-क़ल्ब-ए-बे-क़रार न पूछ
सदमा-ए-अंदलीब-ए-ज़ार न पूछ
तल्ख़ अंजामी-ए-बहार न पूछ
ग़ैर पर लुत्फ़ मैं रहीन-ए-सितम
मुझ से आईना-ए-बज़्म-ए-यार न पूछ
दे दिया दर्द मुझ को दिल के एवज़
हाए लुत्फ़-ए-सितम-शिआर न पूछ
फिर हुई याद-ए-मय-कशी ताज़ा
मस्ती-ए-अब्र-ए-नौ-बहार न पूछ
मुझ को धोका है तार-ए-बिस्तर का
ना-तवानी-ए-जिस्म-ए-यार न पूछ
मैं हूँ ना-आश्ना-ए-वस्ल हुनूज़
मुझ से कैफ़-ए-विसाल-ए-यार न पूछ |
ze-haal-e-miskiin-makun-tagaaful-duraae-nainaan-banaae-batiyaan-ameer-khusrau-ghazals |
ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
यकायक अज़ दिल दो चश्म जादू ब-सद-फ़रेबम ब-बुर्द तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ
चूँ शम-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़ मेहर-ए-आँ-मह बगश्तम आख़िर
न नींद नैनाँ न अंग चैनाँ न आप आवे न भेजे पतियाँ
ब-हक़्क़-ए-आँ मह कि रोज़-ए-महशर ब-दाद मारा फ़रेब 'ख़ुसरव'
सपीत मन के दुराय राखूँ जो जाए पाऊँ पिया की खतियाँ |
vo-sanam-jab-suun-basaa-diida-e-hairaan-men-aa-wali-mohammad-wali-ghazals |
वो सनम जब सूँ बसा दीदा-ए-हैरान में आ
आतिश-ए-इश्क़ पड़ी अक़्ल के सामान में आ
नाज़ देता नहीं गर रुख़्सत-ए-गुल-गश्त-ए-चमन
ऐ चमन-ज़ार-ए-हया दिल के गुलिस्तान में आ
ऐश है ऐश कि उस मह का ख़याल-ए-रौशन
शम्अ' रौशन किया मुझ दिल के शबिस्ताँ में आ
याद आता है मुझे वो दो गुल-ए-बाग़-ए-वफ़ा
अश्क करते हैं मकाँ गोशा-ए-दामान में आ
मौज-ए-बे-ताबी-ए-दिल अश्क में हुई जल्वा-नुमा
जब बसी ज़ुल्फ़-ए-सनम तब-ए-परेशान में आ
नाला-ओ-आह की तफ़्सील न पूछो मुझ सूँ
दफ़्तर-ए-दर्द बसा इश्क़ के दीवान में आ
पंजा-ए-इश्क़ ने बेताब किया जब सूँ मुझे
चाक-ए-दिल तब सूँ बसा चाक-ए-गरेबान में आ
देख ऐ अहल-ए-नज़र सब्ज़ा-ए-ख़त में लब-ए-लाल
रंग-ए-याक़ूत छुपा है ख़त-ए-रैहान में आ
हुस्न था पर्दा-ए-तजरीद में सब सूँ आज़ाद
तालिब-ए-इश्क़ हुआ सूरत-ए-इंसान में आ
शैख़ यहाँ बात तिरी पेश न जावे हरगिज़
अक़्ल कूँ छोड़ के मत मज्लिस-ए-रिंदान में आ
दर्द-मंदाँ को ब-जुज़ दर्द नहीं सैद मुराद
ऐ शह-ए-मुल्क-ए-जुनूँ ग़म के बयाबान में आ
हाकिम-ए-वक़्त है तुझ घर में रक़ीब-ए-बद-ख़ू
देव मुख़्तार हुआ मुल्क-ए-सुलैमान में आ
चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा जग में किया है हासिल
यूसुफ़-ए-हुस्न तिरे चाह-ए-ज़नख़दान में आ
जग के ख़ूबाँ का नमक हो के नमक-पर्वर्दा
छुप रहा आ के तिरे लब के नमक-दान में आ
बस कि मुझ हाल सूँ हम-सर है परेशानी में
दर्द कहती है मिरा ज़ुल्फ़ तिरे कान में आ
ग़म सूँ तेरे है तरह्हुम का महल हाल-ए-'वली'
ज़ुल्म को छोड़ सजन शेवा-ए-एहसान में आ |
huaa-zaahir-khat-e-ruu-e-nigaar-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals |
हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता
कि ज्यूँ गुलशन में आती है बहार आहिस्ता-आहिस्ता
किया हूँ रफ़्ता रफ़्ता राम उस की चश्म-ए-वहशी कूँ
कि ज्यूँ आहू कूँ करते हैं शिकार आहिस्ता-आहिस्ता
जो अपने तन कूँ मिस्ल-ए-जूएबार अव्वल किया पानी
हुआ उस सर्व-क़द सूँ हम-कनार आहिस्ता-आहिस्ता
बरंग-ए-क़तरा-ए-सीमाब मेरे दिल की जुम्बिश सूँ
हुआ है दिल सनम का बे-क़रार आहिस्ता-आहिस्ता
उसे कहना बजा है इश्क़ के गुलज़ार का बुलबुल
जो गुल-रूयाँ में पाया ए'तिबार आहिस्ता-आहिस्ता
मिरा दिल अश्क हो पहुँचा है कूचे में सिरीजन के
गया काबे में ये कश्ती-सवार आहिस्ता-आहिस्ता
'वली' मत हासिदाँ की बात सूँ दिल कूँ मुकद्दर कर
कि आख़िर दिल सूँ जावेगा ग़ुबार आहिस्ता-आहिस्ता |
sohbat-e-gair-muun-jaayaa-na-karo-wali-mohammad-wali-ghazals |
सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो
दर्द-मंदाँ कूँ कुढ़ाया न करो
हक़-परस्ती का अगर दावा है
बे-गुनाहाँ कूँ सताया न करो
अपनी ख़ूबी के अगर तालिब हो
अपने तालिब कूँ जलाया न करो
है अगर ख़ातिर-ए-उश्शाक़ अज़ीज़
ग़ैर कूँ दर्स दिखाया न करो
मुझ को तुरशी का है परहेज़ सनम
चीन-ए-अबरू कूँ दिखाया न करो
दिल कूँ होती है सजन बेताबी
ज़ुल्फ़ कूँ हाथ लगाया न करो
निगह-ए-तल्ख़ सूँ अपनी ज़ालिम
ज़हर का जाम पिलाया न करो
हम कूँ बर्दाश्त नहीं ग़ुस्से की
बे-सबब ग़ुस्से में आया न करो
पाक-बाज़ाँ में है मशहूर 'वली'
उस सूँ चेहरे कूँ छुपाया न करो |
dekhnaa-har-subh-tujh-rukhsaar-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
है मुताला मतला-ए-अनवार का
बुलबुल ओ परवाना करना दिल के तईं
काम है तुझ चेहरा-ए-गुल-नार का
सुब्ह तेरा दर्स पाया था सनम
शौक़-ए-दिल मोहताज है तकरार का
माह के सीने उपर ऐ शम्अ-रू
दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का
दिल कूँ देता है हमारे पेच-ओ-ताब
पेच तेरे तुर्रा-ए-तर्रार का
जो सुन्या तेरे दहन सूँ यक बचन
भेद पाया नुस्ख़ा-ए-असरार का
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का
आरसी के हाथ सूँ डरता है ख़त
चोर कूँ है ख़ौफ़ चौकीदार का
सर-कशी आतिश-मिज़ाजी है सबब
नासेहों को गर्मी-ए-बाज़ार का
ऐ 'वली' क्यूँ सुन सके नासेह की बात
जो दिवाना है परी-रुख़्सार का |
ishq-men-sabr-o-razaa-darkaar-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है
फ़िक्र-ए-असबाब-ए-वफ़ा दरकार है
चाक करने जामा-ए-सब्र-ओ-क़रार
दिलबर-ए-रंगीं क़बा दरकार है
हर सनम तस्ख़ीर-ए-दिल क्यूँकर सके
दिलरुबाई कूँ अदा दरकार है
ज़ुल्फ़ कूँ वा कर कि शाह-ए-इश्क़ कूँ
साया-ए-बाल-ए-हुमा दरकार है
रख क़दम मुझ दीदा-ए-ख़ूँ-बार पर
गर तुझे रंग-ए-हिना दरकार है
देख उस की चश्म-ए-शहला कूँ अगर
नर्गिस-ए-बाग़-ए-हया दरकार है
अज़्म उस के वस्ल का है ऐ 'वली'
लेकिन इमदाद-ए-ख़ुदा दरकार है |
ruuh-bakhshii-hai-kaam-tujh-lab-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
रूह बख़्शी है काम तुझ लब का
दम-ए-ईसा है नाम तुझ लब का
हुस्न के ख़िज़्र ने किया लबरेज़
आब-ए-हैवाँ सूँ जाम तुझ लब का
मंतिक़-ओ-हिक्मत-ओ-मआ'नी पर
मुश्तमिल है कलाम तुझ लब का
जन्नत-ए-हुस्न में किया हक़ ने
हौज़-ए-कौसर मक़ाम तुझ लब का
रग-ए-याक़ूत के क़लम सूँ लिखें
ख़त परिस्ताँ पयाम तुझ लब का
सब्ज़ा-ओ-बर्ग-ओ-लाला रखते हैं
शौक़ दिल में दवाम तुझ लब का
ग़र्क़-ए-शक्कर हुए हैं काम-ओ-ज़बाँ
जब लिया हूँ मैं नाम तुझ लब का
मिस्ल-ए-याक़ूत ख़त में है शागिर्द
साग़र-ए-मय मुदाम तुझ लब का
है 'वली' की ज़बाँ को लज़्ज़त-बख़्श
ज़िक्र हर सुब्ह-ओ-शाम तुझ लब का |
kuucha-e-yaar-ain-kaasii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
कूचा-ए-यार ऐन कासी है
जोगी-ए-दिल वहाँ का बासी है
पी के बैराग की उदासी सूँ
दिल पे मेरे सदा उदासी है
ऐ सनम तुझ जबीं उपर ये ख़ाल
हिंदवी हर-द्वार बासी है
ज़ुल्फ़ तेरी है मौज जमुना की
तिल नज़िक उस के जियूँ सनासी है
घर तिरा है ये रश्क-ए-देवल-ए-चीं
उस में मुद्दत सूँ दिल उपासी है
ये सियह-ज़ुल्फ़ तुझ ज़नख़दाँ पर
नागनी ज्यूँ कुँवे पे प्यासी है
तास-ए-ख़ुर्शीद ग़र्क़ है जब सूँ
बर में तेरे लिबास-ए-तासी है
जिस की गुफ़्तार में नहीं है मज़ा
सुख़न उस का तआ'म बासी है
ऐ 'वली' जो लिबास तन पे रखा
आशिक़ाँ के नज़िक लिबासी है |
mat-gusse-ke-shoale-suun-jalte-kuun-jalaatii-jaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
मत ग़ुस्से के शो'ले सूँ जलते कूँ जलाती जा
टुक मेहर के पानी सूँ तू आग बुझाती जा
तुझ चाल की क़ीमत सूँ दिल नीं है मिरा वाक़िफ़
ऐ मान भरी चंचल टुक भाव बताती जा
इस रात अँधारी में मत भूल पड़ूँ तुझ सूँ
टुक पाँव के झाँझर की झंकार सुनाती जा
मुझ दिल के कबूतर कूँ बाँधा है तिरी लट ने
ये काम धरम का है टुक उस को छुड़ाती जा
तुझ मुख की परस्तिश में गई उम्र मिरी सारी
ऐ बुत की पुजनहारी टुक उस को पुजाती जा
तुझ इश्क़ में जल जल कर सब तन कूँ किया काजल
ये रौशनी अफ़ज़ा है अँखिया को लगाती जा
तुझ नेह में दिल जल जल जोगी की लिया सूरत
यक बार उसे मोहन छाती सूँ लगाती जा
तुझ घर की तरफ़ सुंदर आता है 'वली' दाएम
मुश्ताक़ दरस का है टुक दर्स दिखाती जा |
aashiq-ke-mukh-pe-nain-ke-paanii-ko-dekh-tuun-wali-mohammad-wali-ghazals |
आशिक़ के मुख पे नैन के पानी को देख तूँ
इस आरसी में राज़-ए-निहानी कूँ देख तूँ
सुन बे-क़रार दिल की अवल आह-ए-शोला-ख़ेज़
तब इस हरफ़ में दिल के मआनी कूँ देख तूँ
ख़ूबी सूँ तुझ हुज़ूर ओ शमा दम-ज़नी में है
उस बे-हया की चर्ब-ज़बानी कूँ देख तूँ
दरिया पे जा के मौज-ए-रवाँ पर नज़र न कर
अंझुवाँ की मेरे आ के रवानी कूँ देख तूँ
तुझ शौक़ का जो दाग़ 'वली' के जिगर में है
बे-ताक़ती में उस की निशानी कूँ देख तूँ |
bhadke-hai-dil-kii-aatish-tujh-neh-kii-havaa-suun-wali-mohammad-wali-ghazals |
भड़के है दिल की आतिश तुझ नेह की हवा सूँ
शोला नमत जला दिल तुझ हुस्न-ए-शोला-ज़ा सूँ
गुल के चराग़ गुल हो यक बार झड़ पड़ें सब
मुझ आह की हिकायत बोलें अगर सबा सूँ
निकली है जस्त कर कर हर संग-दिल सूँ आतिश
चक़माक़ जब पलक की झाड़ा है तूँ अदा सूँ
सज्दा बदल रखे सर सर-ता-क़दम अरक़ हो
तुझ बा-हया के पग पर आ कर हिना हया सूँ
याँ दर्द है परम का बेहूदा सर कहे मत
ये बात सुन 'वली' की जा कर कहो दवा सूँ |
yaad-karnaa-har-ghadii-us-yaar-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
याद करना हर घड़ी उस यार का
है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का
आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नईं
तिश्ना-लब हूँ शर्बत-ए-दीदार का
आक़िबत क्या होवेगा मालूम नईं
दिल हुआ है मुब्तिला दिलदार का
क्या कहे तारीफ़ दिल है बे-नज़ीर
हर्फ़ हर्फ़ उस मख़्ज़न-ए-असरार का
गर हुआ है तालिब-ए-आज़ादगी
बंद मत हो सुब्हा ओ ज़ुन्नार का
मसनद-ए-गुल मंज़िल-ए-शबनम हुई
देख रुत्बा दीदा-ए-बेदार का
ऐ 'वली' होना सिरीजन पर निसार
मुद्दआ है चश्म-ए-गौहर-बार का |
main-tujhe-aayaa-huun-iimaan-buujh-kar-wali-mohammad-wali-ghazals |
मैं तुझे आया हूँ ईमाँ बूझ कर
बाइ'स-ए-जमइय्यत-ए-जाँ बूझ कर
बुलबुल-ए-शीराज़ कूँ करता हूँ याद
हुस्न कूँ तेरे गुलिस्ताँ बूझ कर
दिल चला है इश्क़ का हो जौहरी
लब तिरे ला'ल-ए-बदख़्शाँ बूझ कर
हर न करती है नज़ारे की मशक़
ख़त कूँ तेरे ख़त्त-ए-रैहाँ बूझ कर
ऐ सजन आया हूँ हो बे-इख़्तियार
तुझ कूँ अपना राहत-ए-जाँ बूझ कर
ज़ुल्फ़ तेरी क्यूँ न खाए पेच-ओ-ताब
हाल मुझ दिल का परेशाँ बूझ कर
रहम कर उस पर कि आया है 'वली'
दर्द-ए-दिल का तुझ कूँ दरमाँ बूझ कर |
jab-tujh-araq-ke-vasf-men-jaarii-qalam-huaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
आलम में उस का नाँव जवाहर-रक़म हुआ
नुक़्ते पे तेरे ख़ाल के बाँधा है जिन ने दिल
वो दाएरे में इश्क़ के साबित-क़दम हुआ
तुझ फ़ितरत-ए-बुलंद की ख़ूबी कूँ लिख क़लम
मशहूर जग के बीच अतारद-रक़म हुआ
ताक़त नहीं कि हश्र में होवे वो दाद-ख़्वाह
जिस बे-गुनह पे तेरी निगह सूँ सितम हुआ
बे-मिन्नत-ए-शराब हूँ सरशार-ए-इम्बिसात
तुझ नैन का ख़याल मुझे जाम-ए-जम हुआ
जिन ने बयाँ लिखा है मिरे रंग-ए-ज़र्द का
उस कूँ ख़िताब ग़ैब सूँ ज़र्रीं-रक़म हुआ
शोहरत हुई है जब से तिरे शेर की 'वली'
मुश्ताक़ तुझ सुख़न का अरब ता अजम हुआ |
jab-sanam-kuun-khayaal-e-baag-huaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
जब सनम कूँ ख़याल-ए-बाग़ हुआ
तालिब-ए-नश्शा-ए-फ़राग़ हुआ
फ़ौज-ए-उश्शाक़ देख हर जानिब
नाज़नीं साहिब-ए-दिमाग़ हुआ
रश्क सूँ तुझ लबाँ की सुर्ख़ी पर
जिगर-ए-लाला दाग़-दाग़ हुआ
दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन
जब ख़याल-ए-सनम चराग़ हुआ
ऐ 'वली' गुल-बदन कूँ बाग़ में देख
दिल-ए-सद-चाक बाग़-बाग़ हुआ |
aaj-distaa-hai-haal-kuchh-kaa-kuchh-wali-mohammad-wali-ghazals |
आज दिस्ता है हाल कुछ का कुछ
क्यूँ न गुज़रे ख़याल कुछ का कुछ
दिल-ए-बे-दिल कूँ आज करती है
शोख़ चंचल की चाल कुछ का कुछ
मुजको लगता है ऐ परी-पैकर
आज तेरा जमाल कुछ का कुछ
असर-ए-बादा-ए-जवानी है
कर गया हूँ सवाल कुछ का कुछ
ऐ 'वली' दिल कूँ आज करती है
बू-ए-बाग़-ए-विसाल कुछ का कुछ |
mushtaaq-hain-ushshaaq-tirii-baankii-adaa-ke-wali-mohammad-wali-ghazals |
मुश्ताक़ हैं उश्शाक़ तिरी बाँकी अदा के
ज़ख़्मी हैं मोहिब्बाँ तिरी शमशीर-ए-जफ़ा के
हर पेच में चीरे के तिरे लिपटे हैं आशिक़
आलम के दिलाँ बंद हैं तुझ बंद-ए-क़बा के
लर्ज़ां है तिरे दस्त अगे पंजा-ए-ख़ुर्शीद
तुझ हुस्न अगे मात मलाएक हैं समा के
तुझ ज़ुल्फ़ के हल्क़े में है दिल बे-सर ओ बे-पा
टुक मेहर करो हाल उपर बे-सर-ओ-पा के
तन्हा न 'वली' जग मुनीं लिखता है तिरे वस्फ़
दफ़्तर लिखे आलम ने तिरी मद्ह-ओ-सना के |
agar-gulshan-taraf-vo-nau-khat-e-rangiin-adaa-nikle-wali-mohammad-wali-ghazals |
अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले
गुल ओ रैहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले
खिले हर ग़ुंचा-ए-दिल ज्यूँ गुल-ए-शादाब शादी सूँ
अगर टुक घर सूँ बाहर वो बहार-दिल-कुशा निकले
ग़नीम-ए-ग़म किया है फ़ौज-बंदी इश्क़-बाज़ां पर
बजा है आज वो राजा अगर नौबत बजा निकले
निसार उस के क़दम ऊपर करूँ अंझुवाँ के गौहर सब
अगर करने कूँ दिल-जूई वो सर्व-ए-ख़ुश-अदा निकले
सनम आए करूँगा नाला-ए-जाँ-सोज़ कूँ ज़ाहिर
मगर उस संग-दिल सूँ मेहरबानी की सदा निकले
रहे मानिंद-ए-लाल-ए-बे-बहा शाहाँ के ताज ऊपर
मोहब्बत में जो कुइ अस्बाब ज़ाहिर कूँ बहा निकले
बख़ीली दर्स की हरगिज़ न कीजो ऐ परी-पैकर
'वली' तेरी गली में जब कि मानिंद-ए-गदा निकले |
fidaa-e-dilbar-e-rangiin-adaa-huun-wali-mohammad-wali-ghazals |
फ़िदा-ए-दिलबर-ए-रंगीं-अदा हूँ
शहीद-ए-शाहिद-ए-गुल-गूँ-क़बा हूँ
हर इक मह-रू के मिलने का नहीं ज़ौक़
सुख़न के आश्ना का आश्ना हूँ
किया हूँ तर्क नर्गिस का तमाशा
तलबगार-ए-निगाह-ए-बा-हया हूँ
न कर शमशाद की तारीफ़ मुझ पास
कि मैं उस सर्व-क़द का मुब्तला हूँ
किया मैं अर्ज़ उस ख़ुर्शीद-रू सूँ
तू शाह-ए-हुस्न मैं तेरा गदा हूँ
सदा रखता हूँ शौक़ उस के सुख़न का
हमेशा तिश्ना-ए-आब-ए-बक़ा हूँ
क़दम पर उस के रखता हूँ सदा सर
'वली' हम-मशरब-ए-रंग-ए-हिना हूँ |
tiraa-majnuun-huun-sahraa-kii-qasam-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है
तलब में हूँ तमन्ना की क़सम है
सरापा नाज़ है तू ऐ परी-रू
मुझे तेरे सरापा की क़सम है
दिया हक़ हुस्न-ए-बाला-दस्त तुजकूं
मुझे तुझ सर्व-ए-बाला की क़सम है
किया तुझ ज़ुल्फ़ ने जग कूँ दिवाना
तिरी ज़ुल्फ़ाँ के सौदा की क़सम है
दो-रंगी तर्क कर हर इक से मत मिल
तुझे तुझ क़द्द-ए-राना की क़सम है
किया तुझ इश्क़ ने आलम कूँ मजनूँ
मुझे तुझ रश्क-ए-लैला की क़सम है
'वली' मुश्ताक़ है तेरी निगह का
मुझे तुझ चश्म-ए-शहला की क़सम है |
dil-talabgaar-e-naaz-e-mah-vash-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है
लुत्फ़ उस का अगरचे दिलकश है
मुझ सूँ क्यूँ कर मिलेगा हैराँ हूँ
शोख़ है बेवफ़ा है सरकश है
क्या तिरी ज़ुल्फ़ क्या तिरे अबरू
हर तरफ़ सूँ मुझे कशाकश है
तुझ बिन ऐ दाग़-बख़्श-ए-सीना ओ दिल
चमन-ए-लाला दश्त-ए-आतश है
ऐ 'वली' तजरबे सूँ पाया हूँ
शोला-ए-आह-ए-शौक़ बे-ग़श है |
sajan-tuk-naaz-suun-mujh-paas-aa-aahista-aahista-wali-mohammad-wali-ghazals |
सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता
छुपी बातें अपस दिल की सुना आहिस्ता आहिस्ता
ग़रज़ गोयाँ की बाताँ कूँ न ला ख़ातिर मनीं हरगिज़
सजन इस बात कूँ ख़ातिर में ला आहिस्ता आहिस्ता
हर इक की बात सुनने पर तवज्जोह मत कर ऐ ज़ालिम
रक़ीबाँ उस सीं होवेंगे जुदा आहिस्ता आहिस्ता
मबादा मोहतसिब बदमस्त सुन कर तान में आवे
तम्बूरा आह का ऐ दिल बजा आहिस्ता आहिस्ता
'वली' हरगिज़ अपस के दिल कूँ सीने में न रख ग़म-गीं
कि बर लावेगा मतलब कूँ ख़ुदा आहिस्ता आहिस्ता |
jis-dilrubaa-suun-dil-kuun-mire-ittihaad-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
जिस दिलरुबा सूँ दिल कूँ मिरे इत्तिहाद है
दीदार उस का मेरी अँखाँ की मुराद है
रखता है बर में दिलबर-ए-रंगीं ख़याल कूँ
मानिंद आरसी के जो साफ़ ए'तिक़ाद है
शायद कि दाम-ए-इश्क़ में ताज़ा हुआ है बंद
वादे पे गुल-रुख़ाँ के जिसे ए'तिमाद है
बाक़ी रहेगा जौर-ओ-सितम रोज़-ए-हश्र लग
तुझ ज़ुल्फ़ की जफ़ा में निपट इम्तिदाद है
मक़्सूद-ए-दिल है उस का ख़याल ऐ 'वली' मुझे
ज्यूँ मुझ ज़बाँ पे नाम-ए-मोहम्मद मुराद है |
khuub-ruu-khuub-kaam-karte-hain-wali-mohammad-wali-ghazals |
ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
यक निगह में ग़ुलाम करते हैं
देख ख़ूबाँ कूँ वक़्त मिलने के
किस अदा सूँ सलाम करते हैं
क्या वफ़ादार हैं कि मिलने में
दिल सूँ सब राम-राम करते हैं
कम-निगाही सों देखते हैं वले
काम अपना तमाम करते हैं
खोलते हैं जब अपनी ज़ुल्फ़ाँ कूँ
सुब्ह-ए-आशिक़ कूँ शाम करते हैं
साहिब-ए-लफ़्ज़ उस कूँ कह सकिए
जिस सूँ ख़ूबाँ कलाम करते हैं
दिल लजाते हैं ऐ 'वली' मेरा
सर्व-क़द जब ख़िराम करते हैं |
jise-ishq-kaa-tiir-kaarii-lage-wali-mohammad-wali-ghazals |
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे
न छोड़े मोहब्बत दम-ए-मर्ग तक
जिसे यार-ए-जानी सूँ यारी लगे
न होवे उसे जग में हरगिज़ क़रार
जिसे इश्क़ की बे-क़रारी लगे
हर इक वक़्त मुझ आशिक़-ए-पाक कूँ
प्यारे तिरी बात प्यारी लगे
'वली' कूँ कहे तू अगर यक बचन
रक़ीबाँ के दिल में कटारी लगे |
muflisii-sab-bahaar-khotii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
मर्द का ए'तिबार खोती है
क्यूँके हासिल हो मुज को जमइय्यत
ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है
हर सहर शोख़ की निगह की शराब
मुझ अँखाँ का ख़ुमार खोती है
क्यूँके मिलना सनम का तर्क करूँ
दिलबरी इख़्तियार खोती है
ऐ 'वली' आब उस परी-रू की
मुझ सिने का ग़ुबार खोती है |
dil-kuun-tujh-baaj-be-qaraarii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है
चश्म का काम अश्क-बारी है
शब-ए-फ़ुर्क़त में मोनिस ओ हमदम
बे-क़रारों कूँ आह-ओ-ज़ारी है
ऐ अज़ीज़ाँ मुझे नहीं बर्दाश्त
संग-दिल का फ़िराक़ भारी है
फ़ैज़ सूँ तुझ फ़िराक़ के साजन
चश्म-ए-गिर्यां का काम जारी है
फ़ौक़ियत ले गया हूँ बुलबुल सूँ
गरचे मंसब में दो-हज़ारी है
इश्क़-बाज़ों के हक़ में क़ातिल की
हर निगह ख़ंजर ओ कटारी है
आतिश-ए-हिज्र-ए-लाला-रू सूँ 'वली'
दाग़ सीने में यादगारी है |
tujh-lab-kii-sifat-laal-e-badakhshaan-suun-kahuungaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
जादू हैं तिरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा
दी बादशही हक़ ने तुझे हुस्न-नगर की
यू किश्वर-ए-ईराँ में सुलैमाँ सूँ कहूँगा
तारीफ़ तिरे क़द की अलिफ़-वार सिरीजन
जा सर्व-ए-गुलिस्ताँ कूँ ख़ुश-अल्हाँ सूँ कहूँगा
मुझ पर न करो ज़ुल्म तुम ऐ लैली-ए-ख़ूबाँ
मजनूँ हूँ तिरे ग़म कूँ बयाबाँ सूँ कहूँगा
देखा हूँ तुझे ख़्वाब में ऐ माया-ए-ख़ूबी
इस ख़्वाब को जा यूसुफ़-ए-कनआँ सूँ कहूँगा
जलता हूँ शब-ओ-रोज़ तिरे ग़म में ऐ साजन
ये सोज़ तिरा मशअल-ए-सोज़ाँ सूँ कहूँगा
यक नुक़्ता तिरे सफ़्हा-ए-रुख़ पर नईं बेजा
इस मुख को तिरे सफ़्हा-ए-क़ुरआँ सूँ कहूँगा
क़ुर्बान परी मुख पे हुई चोब सी जल कर
ये बात अजाइब मह-ए-ताबाँ सूँ कहूँगा
बे-सब्र न हो ऐ 'वली' इस दर्द सूँ हरगिज़
जलता हूँ तिरे दर्द में दरमाँ सूँ कहूँगा |
shagl-behtar-hai-ishq-baazii-kaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
शग़्ल बेहतर है इश्क़-बाज़ी का
क्या हक़ीक़ी ओ क्या मजाज़ी का
हर ज़बाँ पर है मिस्ल-ए-शाना मुदाम
ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी का
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
होश खोया है हर नमाज़ी का
गर नईं राज़-ए-इश्क़ सूँ आगाह
फ़ख़्र बेजा है फ़ख़्र-ए-राज़ी का
ऐ 'वली' सर्व-क़द को देखूँगा
वक़्त आया है सरफ़राज़ी का |
main-aashiqii-men-tab-suun-afsaana-ho-rahaa-huun-wali-mohammad-wali-ghazals |
मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ
तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ
ऐ आश्ना करम सूँ यक बार आ दरस दे
तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ
बाताँ लगन की मत पूछ ऐ शम-ए-बज़्म-ए-ख़ूबी
मुद्दत से तुझ झलक का परवाना हो रहा हूँ
शायद वो गंज-ए-ख़ूबी आवे किसी तरफ़ सूँ
इस वास्ते सरापा वीराना हो रहा हूँ
सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ रखता हूँ दिल में दाइम
ज़ंजीर-ए-आशिक़ी का दीवाना हो रहा हूँ
बरजा है गर सुनूँ नईं नासेह तिरी नसीहत
मैं जाम-ए-इश्क़ पी कर मस्ताना हो रहा हूँ
किस सूँ 'वली' अपस का अहवाल जा कहूँ मैं
सर-ता-क़दम मैं ग़म सूँ ग़म-ख़ाना हो रहा हूँ |
aaj-sarsabz-koh-o-sahraa-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
आज सरसब्ज़ कोह ओ सहरा है
हर तरफ़ सैर है तमाशा है
चेहरा-ए-यार ओ क़ामत-ए-ज़ेबा
गुल-ए-रंगीन ओ सर्व-ए-रअना है
मअ'नी-ए-हुस्न ओ मअ'नी-ए-ख़ूबी
सूरत-ए-यार सूँ हुवैदा है
दम-ए-जाँ-बख़्श नौ-ख़ताँ मुज कूँ
चश्मा-ए-ख़िज़्र है मसीहा है
कमर-ए-नाज़ुक ओ दहान-ए-सनम
फ़िक्र बारीक है मुअम्मा है
मू-ब-मू उस कूँ है परेशानी
ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं का जिस कूँ सौदा है
क्या हक़ीक़त है तुझ तवाज़ो की
यू तलत्तुफ़ है या मुदावा है
सबब-ए-दिलरुबाई-ए-आशिक़
मेहर है लुत्फ़ है दिलासा है
जूँ 'वली' रात दिन है मह्व-ए-ख़याल
जिस कूँ तुझ वस्ल की तमन्ना है |
takht-jis-be-khaanamaan-kaa-dast-e-viiraanii-huaa-wali-mohammad-wali-ghazals |
तख़्त जिस बे-ख़ानमाँ का दस्त-ए-वीरानी हुआ
सर उपर उस के बगूला ताज-ए-सुल्तानी हुआ
क्यूँ न साफ़ी उस कूँ हासिल हो जो मिस्ल-ए-आरसी
अपने जौहर की हया सूँ सर-ब-सर पानी हुआ
ज़िंदगी है जिस कूँ दाइम आलम-ए-बाक़ी मुनीं
जल्वा-गर कब उस अंगे यू आलम-ए-फ़ानी हुआ
बेकसी के हाल में यक आन मैं तन्हा नहीं
ग़म तिरा सीने में मेरे हमदम-ए-जानी हुआ
ऐ 'वली' ग़ैरत सूँ सूरज क्यूँ जले नईं रात-दिन
जग मुनीं वो माह रश्क-ए-माह-ए-कनआनी हुआ |
chhupaa-huun-main-sadaa-e-baansulii-men-wali-mohammad-wali-ghazals |
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
कि ता जाऊँ परी-रू की गली में
न थी ताक़त मुझे आने की लेकिन
ब-ज़ोर-ए-आह पहुँचा तुझ गली में
अयाँ है रंग की शोख़ी सूँ ऐ शोख़
बदन तेरा क़बा-ए-संदली में
जो है तेरे दहन में रंग ओ ख़ूबी
कहाँ ये रंग ये ख़ूबी कली में
किया जियूँ लफ़्ज़ में मअ'नी सिरीजन
मक़ाम अपना दिल-ओ-जान-ए-'वली' में |
kamar-us-dilrubaa-kii-dilrubaa-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है
सजन के हुस्न कूँ टुक फ़िक्र सूँ देख
कि ये आईना-ए-मअ'नी-नुमा है
ये ख़त है जौहर-ए-आईना-राज़
इसे मुश्क-ए-ख़ुतन कहना बजा है
हुआ मालूम तुझ ज़ुल्फ़ाँ सूँ ऐ शोख़
कि शाह-ए-हुस्न पर ज़िल्ल-ए-हुमा है
न होवे कोहकन क्यूँ आ के आशिक़
जो वो शीरीं-अदा गुलगूँ-क़बा है
न पूछो आह-ओ-ज़ारी की हक़ीक़त
अज़ीज़ाँ आशिक़ी का मुक़तज़ा है
'वली' कूँ मत मलामत कर ऐ वाइज़
मलामत आशिक़ों पर कब रवा है |
ishq-betaab-e-jaan-gudaazii-hai-wali-mohammad-wali-ghazals |
इश्क़ बेताब-ए-जाँ-गुदाज़ी है
हुस्न मुश्ताक़-ए-दिल-नवाज़ी है
अश्क ख़ूनीं सूँ जो किया है वज़ू
मज़हब-ए-इश्क़ में नमाज़ी है
जो हुआ राज़-ए-इश्क़ सूँ आगाह
वो ज़माने का फ़ख़्र-ए-राज़ी है
पाक-बाज़ाँ सूँ यूँ हुआ मफ़्हूम
इश्क़ मज़मून-ए-पाक-बाज़ी है
जा के पहुँची है हद्द-ए-ज़ुल्मत कूँ
बस-कि तुझ ज़ुल्फ़ में दराज़ी है
तजरबे सूँ हुआ मुझे ज़ाहिर
नाज़ मफ़्हूम बे-नियाज़ी है
ऐ 'वली' ऐश-ए-ज़ाहिरी का सबब
जल्वा-ए-शाहिद-ए-मजाज़ी है |
Subsets and Splits