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tuu-is-qadar-mujhe-apne-qariib-lagtaa-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है जिसे न हुस्न से मतलब न इश्क़ से सरोकार वो शख़्स मुझ को बहुत बद-नसीब लगता है हुदूद-ए-ज़ात से बाहर निकल के देख ज़रा न कोई ग़ैर न कोई रक़ीब लगता है ये दोस्ती ये मरासिम ये चाहतें ये ख़ुलूस कभी कभी मुझे सब कुछ अजीब लगता है उफ़ुक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा मुझे चराग़-ए-दयार-ए-हबीब लगता है
ham-se-bhaagaa-na-karo-duur-gazaalon-kii-tarah-jaan-nisar-akhtar-ghazals
हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह हम ने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह ख़ुद-ब-ख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह तेरे बिन रात के हाथों पे ये तारों के अयाग़ ख़ूब-सूरत हैं मगर ज़हर के प्यालों की तरह और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह गुनगुनाते हुए और आ कभी उन सीनों में तेरी ख़ातिर जो महकते हैं शिवालों की तरह तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह हम से मायूस न हो ऐ शब-ए-दौराँ कि अभी दिल में कुछ दर्द चमकते हैं उजालों की तरह मुझ से नज़रें तो मिलाओ कि हज़ारों चेहरे मेरी आँखों में सुलगते हैं सवालों की तरह और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह जुस्तुजू ने किसी मंज़िल पे ठहरने न दिया हम भटकते रहे आवारा ख़यालों की तरह ज़िंदगी जिस को तिरा प्यार मिला वो जाने हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह
khud-ba-khud-mai-hai-ki-shiishe-men-bharii-aave-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है किस बला की तुम्हें जादू-नज़री आवे है दिल में दर आवे है हर सुब्ह कोई याद ऐसे जूँ दबे-पाँव नसीम-ए-सहरी आवे है और भी ज़ख़्म हुए जाते हैं गहरे दिल के हम तो समझे थे तुम्हें चारागरी आवे है एक क़तरा भी लहू जब न रहे सीने में तब कहीं इश्क़ में कुछ बे-जिगरी आवे है चाक-ए-दामाँ-ओ-गिरेबाँ के भी आदाब हैं कुछ हर दिवाने को कहाँ जामा-दरी आवे है शजर-ए-इश्क़ तो माँगे है लहू के आँसू तब कहीं जा के कोई शाख़ हरी आवे है तू कभी राग कभी रंग कभी ख़ुश्बू है कैसी कैसी न तुझे इश्वा-गरी आवे है आप-अपने को भुलाना कोई आसान नहीं बड़ी मुश्किल से मियाँ बे-ख़बरी आवे है ऐ मिरे शहर-ए-निगाराँ तिरा क्या हाल हुआ चप्पे चप्पे पे मिरे आँख भरी आवे है साहिबो हुस्न की पहचान कोई खेल नहीं दिल लहू हो तो कहीं दीदा-वरी आवे है
zindagii-tujh-ko-bhulaayaa-hai-bahut-din-ham-ne-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने वक़्त ख़्वाबों में गँवाया है बहुत दिन हम ने अब ये नेकी भी हमें जुर्म नज़र आती है सब के ऐबों को छुपाया है बहुत दिन हम ने तुम भी इस दिल को दुखा लो तो कोई बात नहीं अपना दिल आप दुखाया है बहुत दिन हम ने मुद्दतों तर्क-ए-तमन्ना पे लहू रोया है इश्क़ का क़र्ज़ चुकाया है बहुत दिन हम ने क्या पता हो भी सके इस की तलाफ़ी कि नहीं शायरी तुझ को गँवाया है बहुत दिन हम ने
tumhaare-jashn-ko-jashn-e-farozaan-ham-nahiin-kahte-jaan-nisar-akhtar-ghazals
तुम्हारे जश्न को जश्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते लहू की गर्म बूँदों को चराग़ाँ हम नहीं कहते अगर हद से गुज़र जाए दवा तो बन नहीं जाता किसी भी दर्द को दुनिया का दरमाँ हम नहीं कहते नज़र की इंतिहा कोई न दिल की इंतिहा कोई किसी भी हुस्न को हुस्न-ए-फ़रावाँ हम नहीं कहते किसी आशिक़ के शाने पर बिखर जाए तो क्या कहना मगर इस ज़ुल्फ़ को ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ हम नहीं कहते न बू-ए-गुल महकती है न शाख़-ए-गुल लचकती है अभी अपने गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ हम नहीं कहते बहारों से जुनूँ को हर तरह निस्बत सही लेकिन शगुफ़्त-ए-गुल को आशिक़ का गरेबाँ हम नहीं कहते हज़ारों साल बीते हैं हज़ारों साल बीतेंगे बदल जाएगी कल तक़दीर-ए-इंसाँ हम नहीं कहते
vo-ham-se-aaj-bhii-daaman-kashaan-chale-hai-miyaan-jaan-nisar-akhtar-ghazals
वो हम से आज भी दामन-कशाँ चले है मियाँ किसी पे ज़ोर हमारा कहाँ चले है मियाँ जहाँ भी थक के कोई कारवाँ ठहरता है वहीं से एक नया कारवाँ चले है मियाँ जो एक सम्त गुमाँ है तो एक सम्त यक़ीं ये ज़िंदगी तो यूँही दरमियाँ चले है मियाँ बदलते रहते हैं बस नाम और तो क्या है हज़ारों साल से इक दास्ताँ चले है मियाँ हर इक क़दम है नई आज़माइशों का हुजूम तमाम उम्र कोई इम्तिहाँ चले है मियाँ वहीं पे घूमते रहना तो कोई बात नहीं ज़मीं चले है तो आगे कहाँ चले है मियाँ वो एक लम्हा-ए-हैरत कि लफ़्ज़ साथ न दें नहीं चले है न ऐसे में हाँ चले है मियाँ
subh-ke-dard-ko-raaton-kii-jalan-ko-bhuulen-jaan-nisar-akhtar-ghazals
सुब्ह के दर्द को रातों की जलन को भूलें किस के घर जाएँ कि इस वादा-शिकन को भूलें आज तक चोट दबाए नहीं दबती दिल की किस तरह उस सनम-ए-संग-बदन को भूलें अब सिवा इस के मुदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है इतनी पी जाएँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें और तहज़ीब-ए-ग़म-ए-इश्क़ निभा दें कुछ दिन आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें
jism-kii-har-baat-hai-aavaargii-ye-mat-kaho-jaan-nisar-akhtar-ghazals
जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो हम भी कर सकते हैं ऐसी शायरी ये मत कहो उस नज़र की उस बदन की गुनगुनाहट तो सुनो एक सी होती है हर इक रागनी ये मत कहो हम से दीवानों के बिन दुनिया सँवरती किस तरह अक़्ल के आगे है क्या दीवानगी ये मत कहो कट सकी हैं आज तक सोने की ज़ंजीरें कहाँ हम भी अब आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो पाँव इतने तेज़ हैं उठते नज़र आते नहीं आज थक कर रह गया है आदमी ये मत कहो जितने वादे कल थे उतने आज भी मौजूद हैं उन के वादों में हुई है कुछ कमी ये मत कहो दिल में अपने दर्द की छिटकी हुई है चाँदनी हर तरफ़ फैली हुई है तीरगी ये मत कहो
bahut-dil-kar-ke-honton-kii-shagufta-taazgii-dii-hai-jaan-nisar-akhtar-ghazals
बहुत दिल कर के होंटों की शगुफ़्ता ताज़गी दी है चमन माँगा था पर उस ने ब-मुश्किल इक कली दी है मिरे ख़ल्वत-कदे के रात दिन यूँही नहीं सँवरे किसी ने धूप बख़्शी है किसी ने चाँदनी दी है नज़र को सब्ज़ मैदानों ने क्या क्या वुसअतें बख़्शीं पिघलते आबशारों ने हमें दरिया-दिली दी है मोहब्बत ना-रवा तक़्सीम की क़ाएल नहीं फिर भी मिरी आँखों को आँसू तेरे होंटों को हँसी दी है मिरी आवारगी भी इक करिश्मा है ज़माने में हर इक दरवेश ने मुझ को दुआ-ए-ख़ैर ही दी है कहाँ मुमकिन था कोई काम हम जैसे दिवानों से तुम्हीं ने गीत लिखवाए तुम्हीं ने शाइरी दी है
har-ek-ruuh-men-ik-gam-chhupaa-lage-hai-mujhe-jaan-nisar-akhtar-ghazals
हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे ये ज़िंदगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे पसंद-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-वफ़ा है मुद्दत से ये दिल का दाग़ जो ख़ुद भी भला लगे है मुझे जो आँसुओं में कभी रात भीग जाती है बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे मैं सो भी जाऊँ तो क्या मेरी बंद आँखों में तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह ये मेरा गाँव तो पहचानता लगे है मुझे न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है कभी कभी तो बड़ा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे अब एक आध क़दम का हिसाब क्या रखिए अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझे हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल कुछ कशिश तो रखती है ज़माना ग़ौर से सुनता हुआ लगे है मुझे
jab-lagen-zakhm-to-qaatil-ko-duaa-dii-jaae-jaan-nisar-akhtar-ghazals
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए दिल का वो हाल हुआ है ग़म-ए-दौराँ के तले जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए इन्हीं गुल-रंग दरीचों से सहर झाँकेगी क्यूँ न खिलते हुए ज़ख़्मों को दुआ दी जाए कम नहीं नश्शे में जाड़े की गुलाबी रातें और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
har-ek-shakhs-pareshaan-o-darba-dar-saa-lage-jaan-nisar-akhtar-ghazals
हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे ये शहर मुझ को तो यारो कोई भँवर सा लगे अब उस के तर्ज़-ए-तजाहुल को क्या कहे कोई वो बे-ख़बर तो नहीं फिर भी बे-ख़बर सा लगे हर एक ग़म को ख़ुशी की तरह बरतना है ये दौर वो है कि जीना भी इक हुनर सा लगे नशात-ए-सोहबत-ए-रिंदाँ बहुत ग़नीमत है कि लम्हा लम्हा पुर-आशोब-ओ-पुर-ख़तर सा लगे किसे ख़बर है कि दुनिया का हश्र क्या होगा कभी कभी तो मुझे आदमी से डर सा लगे वो तुंद वक़्त की रौ है कि पाँव टिक न सकें हर आदमी कोई उखड़ा हुआ शजर सा लगे जहान-ए-नौ के मुकम्मल सिंगार की ख़ातिर सदी सदी का ज़माना भी मुख़्तसर सा लगे
tum-pe-kyaa-biit-gaii-kuchh-to-bataao-yaaro-jaan-nisar-akhtar-ghazals
तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो मैं कोई ग़ैर नहीं हूँ कि छुपाओ यारो इन अंधेरों से निकलने की कोई राह करो ख़ून-ए-दिल से कोई मिशअल ही जलाओ यारो एक भी ख़्वाब न हो जिन में वो आँखें क्या हैं इक न इक ख़्वाब तो आँखों में बसाओ यारो बोझ दुनिया का उठाऊँगा अकेला कब तक हो सके तुम से तो कुछ हाथ बटाओ यारो ज़िंदगी यूँ तो न बाँहों में चली आएगी ग़म-ए-दौराँ के ज़रा नाज़ उठाओ यारो उम्र-भर क़त्ल हुआ हूँ मैं तुम्हारी ख़ातिर आख़िरी वक़्त तो सूली न चढ़ाओ यारो और कुछ देर तुम्हें देख के जी लूँ ठहरो मेरी बालीं से अभी उठ के न जाओ यारो
aaj-muddat-men-vo-yaad-aae-hain-jaan-nisar-akhtar-ghazals
आज मुद्दत में वो याद आए हैं दर ओ दीवार पे कुछ साए हैं आबगीनों से न टकरा पाए कोहसारों से तो टकराए हैं ज़िंदगी तेरे हवादिस हम को कुछ न कुछ राह पे ले आए हैं संग-रेज़ों से ख़ज़फ़-पारों से कितने हीरे कभी चुन लाए हैं इतने मायूस तो हालात नहीं लोग किस वास्ते घबराए हैं उन की जानिब न किसी ने देखा जो हमें देख के शरमाए हैं
muddat-huii-us-jaan-e-hayaa-ne-ham-se-ye-iqraar-kiyaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals
मुद्दत हुई उस जान-ए-हया ने हम से ये इक़रार किया जितने भी बदनाम हुए हम उतना उस ने प्यार किया पहले भी ख़ुश-चश्मों में हम चौकन्ना से रहते थे तेरी सोई आँखों ने तो और हमें होशियार किया जाते जाते कोई हम से अच्छे रहना कह तो गया पूछे लेकिन पूछने वाले किस ने ये बीमार किया क़तरा क़तरा सिर्फ़ हुआ है इश्क़ में अपने दिल का लहू शक्ल दिखाई तब उस ने जब आँखों को ख़ूँ-बार किया हम पर कितनी बार पड़े ये दौरे भी तन्हाई के जो भी हम से मिलने आया मिलने से इंकार किया इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़ा है हम को क्या समझाते हो हम ने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया महफ़िल पर जब नींद सी छाई सब के सब ख़ामोश हुए हम ने तब कुछ शेर सुनाया लोगों को बेदार किया अब तुम सोचो अब तुम जानो जो चाहो अब रंग भरो हम ने तो इक नक़्शा खींचा इक ख़ाका तय्यार किया देश से जब प्रदेश सिधारे हम पर ये भी वक़्त पड़ा नज़्में छोड़ी ग़ज़लें छोड़ी गीतों का बेवपार किया
zindagii-ye-to-nahiin-tujh-ko-sanvaaraa-hii-na-ho-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो कुछ न कुछ हम ने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी चौंक उठता हूँ कहीं तू ने पुकारा ही न हो कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो ज़िंदगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझ को दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो
zaraa-sii-baat-pe-har-rasm-tod-aayaa-thaa-jaan-nisar-akhtar-ghazals
ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िंदगी मुझ को वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे कुछ इस कमाल से तू ने बदन चुराया था पता नहीं कि मिरे बाद उन पे क्या गुज़री मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था
aise-chup-hain-ki-ye-manzil-bhii-kadii-ho-jaise-ahmad-faraz-ghazals
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर ये गिरह अब के मिरे दिल में पड़ी हो जैसे मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं अपने ही पाँव में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे आज दिल खोल के रोए हैं तो यूँ ख़ुश हैं 'फ़राज़' चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे
qurbaton-men-bhii-judaaii-ke-zamaane-maange-ahmad-faraz-ghazals
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे दिल वो बे-मेहर कि रोने के बहाने माँगे हम न होते तो किसी और के चर्चे होते ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए अब यही तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहाने माँगे अपना ये हाल कि जी हार चुके लुट भी चुके और मोहब्बत वही अंदाज़ पुराने माँगे ज़िंदगी हम तिरे दाग़ों से रहे शर्मिंदा और तू है कि सदा आईना-ख़ाने माँगे दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-'फ़राज़' मिल गए तुम भी तो क्या और न जाने माँगे
saaqiyaa-ek-nazar-jaam-se-pahle-pahle-ahmad-faraz-ghazals
साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले हम को जाना है कहीं शाम से पहले पहले नौ-गिरफ़्तार-ए-वफ़ा सई-ए-रिहाई है अबस हम भी उलझे थे बहुत दाम से पहले पहले ख़ुश हो ऐ दिल कि मोहब्बत तो निभा दी तू ने लोग उजड़ जाते हैं अंजाम से पहले पहले अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं कितनी रग़बत थी तिरे नाम से पहले पहले सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले कितना अच्छा था कि हम भी जिया करते थे 'फ़राज़' ग़ैर-मारूफ़ से गुमनाम से पहले पहले
ajab-junuun-e-masaafat-men-ghar-se-niklaa-thaa-ahmad-faraz-ghazals
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है यही धुआँ मिरे दीवार-ओ-दर से निकला था मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था ये अब जो सर हैं ख़मीदा कुलाह की ख़ातिर ये ऐब भी तो हम अहल-ए-हुनर से निकला था वो क़ैस अब जिसे मजनूँ पुकारते हैं 'फ़राज़' तिरी तरह कोई दीवाना घर से निकला था
havaa-ke-zor-se-pindaar-e-baam-o-dar-bhii-gayaa-ahmad-faraz-ghazals
हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दर भी गया चराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया पुकारते रहे महफ़ूज़ कश्तियों वाले मैं डूबता हुआ दरिया के पार उतर भी गया अब एहतियात की दीवार क्या उठाते हो जो चोर दिल में छुपा था वो काम कर भी गया मैं चुप रहा कि इसी में थी आफ़ियत जाँ की कोई तो मेरी तरह था जो दार पर भी गया सुलगते सोचते वीरान मौसमों की तरह कड़ा था अहद-ए-जवानी मगर गुज़र भी गया जिसे भुला न सका उस को याद क्या रखता जो नाम लब पे रहा ज़ेहन से उतर भी गया फटी फटी हुई आँखों से यूँ न देख मुझे तुझे तलाश है जिस शख़्स की वो मर भी गया मगर फ़लक को अदावत उसी के घर से थी जहाँ 'फ़राज़' न था सैल-ए-ग़म उधर भी गया
dukh-fasaana-nahiin-ki-tujh-se-kahen-ahmad-faraz-ghazals
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें दिल भी माना नहीं कि तुझ से कहें आज तक अपनी बेकली का सबब ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझ से कहें बे-तरह हाल-ए-दिल है और तुझ से दोस्ताना नहीं कि तुझ से कहें एक तू हर्फ़-ए-आश्ना था मगर अब ज़माना नहीं कि तुझ से कहें क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का इक ठिकाना नहीं कि तुझ से कहें ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त आब-ओ-दाना नहीं कि तुझ से कहें अब तो अपना भी उस गली में 'फ़राज़' आना जाना नहीं कि तुझ से कहें
huii-hai-shaam-to-aankhon-men-bas-gayaa-phir-tuu-ahmad-faraz-ghazals
हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू कहाँ गया है मिरे शहर के मुसाफ़िर तू मिरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ तिरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू मैं जानता हूँ कि दुनिया तुझे बदल देगी मैं मानता हूँ कि ऐसा नहीं ब-ज़ाहिर तू हँसी-ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू फ़ज़ा उदास है रुत मुज़्महिल है मैं चुप हूँ जो हो सके तो चला आ किसी की ख़ातिर तू 'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया ज़माना साहब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाएर तू
ab-aur-kyaa-kisii-se-maraasim-badhaaen-ham-ahmad-faraz-ghazals
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़ आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम वो लोग अब कहाँ हैं जो कहते थे कल 'फ़राज़' हे हे ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएँ हम
rog-aise-bhii-gam-e-yaar-se-lag-jaate-hain-ahmad-faraz-ghazals
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है बाद में सैकड़ों आज़ार से लग जाते हैं पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं बेबसी भी कभी क़ुर्बत का सबब बनती है रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं कतरनें ग़म की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं दाग़ दामन के हों दिल के हों कि चेहरे के 'फ़राज़' कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं
us-ne-sukuut-e-shab-men-bhii-apnaa-payaam-rakh-diyaa-ahmad-faraz-ghazals
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया आमद-ए-दोस्त की नवेद कू-ए-वफ़ा में आम थी मैं ने भी इक चराग़ सा दिल सर-ए-शाम रख दिया शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मय-कशी रही उस ने जो फेर ली नज़र मैं ने भी जाम रख दिया उस ने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुख़न कहे मैं ने तो उस के पाँव में सारा कलाम रख दिया देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया अब के बहार ने भी कीं ऐसी शरारतें कि बस कब्क-ए-दरी की चाल में तेरा ख़िराम रख दिया जो भी मिला उसी का दिल हल्क़ा-ब-गोश-ए-यार था उस ने तो सारे शहर को कर के ग़ुलाम रख दिया और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया
kathin-hai-raahguzar-thodii-duur-saath-chalo-ahmad-faraz-ghazals-1
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो तवाफ़-ए-मंज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है 'फ़राज़' तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो
juz-tire-koii-bhii-din-raat-na-jaane-mere-ahmad-faraz-ghazals
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे तू भी ख़ुशबू है मगर मेरा तजस्सुस बेकार बर्ग-ए-आवारा की मानिंद ठिकाने मेरे शम्अ की लौ थी कि वो तू था मगर हिज्र की रात देर तक रोता रहा कोई सिरहाने मेरे ख़ल्क़ की बे-ख़बरी है कि मिरी रुस्वाई लोग मुझ को ही सुनाते हैं फ़साने मेरे लुट के भी ख़ुश हूँ कि अश्कों से भरा है दामन देख ग़ारत-गर-ए-दिल ये भी ख़ज़ाने मेरे आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे काश तू भी मेरी आवाज़ कहीं सुनता हो फिर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे काश तू भी कभी आ जाए मसीहाई को लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे काश औरों की तरह मैं भी कभी कह सकता बात सुन ली है मिरी आज ख़ुदा ने मेरे तू है किस हाल में ऐ ज़ूद-फ़रामोश मिरे मुझ को तो छीन लिया अहद-ए-वफ़ा ने मेरे चारागर यूँ तो बहुत हैं मगर ऐ जान-ए-'फ़राज़' जुज़ तिरे और कोई ज़ख़्म न जाने मेरे
ab-ke-tajdiid-e-vafaa-kaa-nahiin-imkaan-jaanaan-ahmad-faraz-ghazals
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ याद क्या तुझ को दिलाएँ तिरा पैमाँ जानाँ यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसाँ जानाँ ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है हम ने जैसे भी बसर की तिरा एहसाँ जानाँ दिल ये कहता है कि शायद है फ़सुर्दा तू भी दिल की क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानाँ अव्वल अव्वल की मोहब्बत के नशे याद तो कर बे-पिए भी तिरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानाँ आख़िर आख़िर तो ये आलम है कि अब होश नहीं रग-ए-मीना सुलग उट्ठी कि रग-ए-जाँ जानाँ मुद्दतों से यही आलम न तवक़्क़ो न उमीद दिल पुकारे ही चला जाता है जानाँ जानाँ हम भी क्या सादा थे हम ने भी समझ रक्खा था ग़म-ए-दौराँ से जुदा है ग़म-ए-जानाँ जानाँ अब के कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ए-याराँ जानाँ सर-ब-ज़ानू है कोई सर-ब-गरेबाँ जानाँ हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है हर कोई अपने ही साए से हिरासाँ जानाँ जिस को देखो वही ज़ंजीर-ब-पा लगता है शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िंदाँ जानाँ अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए और से और हुए दर्द के उनवाँ जानाँ हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जानाँ होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा रेज़ा जैसे उड़ते हुए औराक़-ए-परेशाँ जानाँ
agarche-zor-havaaon-ne-daal-rakkhaa-hai-ahmad-faraz-ghazals
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है मगर चराग़ ने लौ को सँभाल रक्खा है मोहब्बतों में तो मिलना है या उजड़ जाना मिज़ाज-ए-इश्क़ में कब ए'तिदाल रक्खा है हवा में नश्शा ही नश्शा फ़ज़ा में रंग ही रंग ये किस ने पैरहन अपना उछाल रक्खा है भले दिनों का भरोसा ही क्या रहें न रहें सो मैं ने रिश्ता-ए-ग़म को बहाल रक्खा है हम ऐसे सादा-दिलों को वो दोस्त हो कि ख़ुदा सभी ने वादा-ए-फ़र्दा पे टाल रक्खा है हिसाब-ए-लुत्फ़-ए-हरीफ़ाँ किया है जब तो खुला कि दोस्तों ने ज़ियादा ख़याल रक्खा है भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है 'फ़राज़' इश्क़ की दुनिया तो ख़ूब-सूरत थी ये किस ने फ़ित्ना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रक्खा है
karuun-na-yaad-magar-kis-tarah-bhulaauun-use-ahmad-faraz-ghazals
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़' अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे
jab-bhii-dil-khol-ke-roe-honge-ahmad-faraz-ghazals
जब भी दिल खोल के रोए होंगे लोग आराम से सोए होंगे बाज़ औक़ात ब-मजबूरी-ए-दिल हम तो क्या आप भी रोए होंगे सुब्ह तक दस्त-ए-सबा ने क्या क्या फूल काँटों में पिरोए होंगे वो सफ़ीने जिन्हें तूफ़ाँ न मिले ना-ख़ुदाओं ने डुबोए होंगे रात भर हँसते हुए तारों ने उन के आरिज़ भी भिगोए होंगे क्या अजब है वो मिले भी हों 'फ़राज़' हम किसी ध्यान में खोए होंगे
is-qadar-musalsal-thiin-shiddaten-judaaii-kii-ahmad-faraz-ghazals
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की तज दिया था कल जिन को हम ने तेरी चाहत में आज उन से मजबूरन ताज़ा आश्नाई की हो चला था जब मुझ को इख़्तिलाफ़ अपने से तू ने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हम-नवाई की तर्क कर चुके क़ासिद कू-ए-ना-मुरादाँ को कौन अब ख़बर लावे शहर-ए-आश्नाई की तंज़ ओ ता'ना ओ तोहमत सब हुनर हैं नासेह के आप से कोई पूछे हम ने क्या बुराई की फिर क़फ़स में शोर उट्ठा क़ैदियों का और सय्याद देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की दुख हुआ जब उस दर पर कल 'फ़राज़' को देखा लाख ऐब थे उस में ख़ू न थी गदाई की
ab-kyaa-sochen-kyaa-haalaat-the-kis-kaaran-ye-zahr-piyaa-hai-ahmad-faraz-ghazals
अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है हम ने उस के शहर को छोड़ा और आँखों को मूँद लिया है अपना ये शेवा तो नहीं था अपने ग़म औरों को सौंपें ख़ुद तो जागते या सोते हैं उस को क्यूँ बे-ख़्वाब किया है ख़िल्क़त के आवाज़े भी थे बंद उस के दरवाज़े भी थे फिर भी उस कूचे से गुज़रे फिर भी उस का नाम लिया है हिज्र की रुत जाँ-लेवा थी पर ग़लत सभी अंदाज़े निकले ताज़ा रिफ़ाक़त के मौसम तक मैं भी जिया हूँ वो भी जिया है एक 'फ़राज़' तुम्हीं तन्हा हो जो अब तक दुख के रसिया हो वर्ना अक्सर दिल वालों ने दर्द का रस्ता छोड़ दिया है
yuunhii-mar-mar-ke-jien-vaqt-guzaare-jaaen-ahmad-faraz-ghazals
यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ ज़िंदगी हम तिरे हाथों से न मारे जाएँ अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ वो जो मौजूद नहीं उस की मदद चाहते हैं वो जो सुनता ही नहीं उस को पुकारे जाएँ बाप लर्ज़ां है कि पहुँची नहीं बारात अब तक और हम-जोलियाँ दुल्हन को सँवारे जाएँ हम कि नादान जुआरी हैं सभी जानते हैं दिल की बाज़ी हो तो जी जान से हारे जाएँ तज दिया तुम ने दर-ए-यार भी उकता के 'फ़राज़' अब कहाँ ढूँढने ग़म-ख़्वार तुम्हारे जाएँ
saamne-us-ke-kabhii-us-kii-sataaish-nahiin-kii-ahmad-faraz-ghazals
सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की दिल ने चाहा भी अगर होंटों ने जुम्बिश नहीं की अहल-ए-महफ़िल पे कब अहवाल खुला है अपना मैं भी ख़ामोश रहा उस ने भी पुर्सिश नहीं की जिस क़दर उस से तअल्लुक़ था चला जाता है उस का क्या रंज हो जिस की कभी ख़्वाहिश नहीं की ये भी क्या कम है कि दोनों का भरम क़ाएम है उस ने बख़्शिश नहीं की हम ने गुज़ारिश नहीं की इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा उस पे महफ़िल में सुराही ने भी गर्दिश नहीं की हम कि दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की ऐ मिरे अब्र-ए-करम देख ये वीराना-ए-जाँ क्या किसी दश्त पे तू ने कभी बारिश नहीं की कट मरे अपने क़बीले की हिफ़ाज़त के लिए मक़्तल-ए-शहर में ठहरे रहे जुम्बिश नहीं की वो हमें भूल गया हो तो अजब क्या है 'फ़राज़' हम ने भी मेल-मुलाक़ात की कोशिश नहीं की
avval-avval-kii-dostii-hai-abhii-ahmad-faraz-ghazals
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी मैं भी शहर-ए-वफ़ा में नौ-वारिद वो भी रुक रुक के चल रही है अभी मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद-शनास वो भी लगता है सोचती है अभी दिल की वारफ़्तगी है अपनी जगह फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता बूँदा-बाँदी भी धूप भी है अभी ख़ुद-कलामी में कब ये नश्शा था जिस तरह रू-ब-रू कोई है अभी क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों दूरियों में भी दिलकशी है अभी फ़स्ल-ए-गुल में बहार पहला गुलाब किस की ज़ुल्फ़ों में टाँकती है अभी मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर वो जो दीवानगी कि थी है अभी
tere-qariib-aa-ke-badii-uljhanon-men-huun-ahmad-faraz-ghazals
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ मैं दुश्मनों में हूँ कि तिरे दोस्तों में हूँ मुझ से गुरेज़-पा है तो हर रास्ता बदल मैं संग-ए-राह हूँ तो सभी रास्तों में हूँ तू आ चुका है सत्ह पे कब से ख़बर नहीं बेदर्द मैं अभी उन्हीं गहराइयों में हूँ ऐ यार-ए-ख़ुश-दयार तुझे क्या ख़बर कि मैं कब से उदासियों के घने जंगलों में हूँ तू लूट कर भी अहल-ए-तमन्ना को ख़ुश नहीं याँ लुट के भी वफ़ा के इन्ही क़ाफ़िलों में हूँ बदला न मेरे बाद भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू मैं जा चुका हूँ फिर भी तिरी महफ़िलों में हूँ मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूँ तू हँस रहा है मुझ पे मिरा हाल देख कर और फिर भी मैं शरीक तिरे क़हक़हों में हूँ ख़ुद ही मिसाल-ए-लाला-ए-सेहरा लहू लहू और ख़ुद 'फ़राज़' अपने तमाशाइयों में हूँ
jis-samt-bhii-dekhuun-nazar-aataa-hai-ki-tum-ho-ahmad-faraz-ghazals
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है कि तुम हो ये ख़्वाब है ख़ुशबू है कि झोंका है कि पल है ये धुँद है बादल है कि साया है कि तुम हो इस दीद की साअत में कई रंग हैं लर्ज़ां मैं हूँ कि कोई और है दुनिया है कि तुम हो देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी देखूँ ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ कहीं ठहरे तो ये जानूँ हर साँस में मुझ को यही लगता है कि तुम हो हर बज़्म में मौज़ू-ए-सुख़न दिल-ज़दगाँ का अब कौन है शीरीं है कि लैला है कि तुम हो इक दर्द का फैला हुआ सहरा है कि मैं हूँ इक मौज में आया हुआ दरिया है कि तुम हो वो वक़्त न आए कि दिल-ए-ज़ार भी सोचे इस शहर में तन्हा कोई हम सा है कि तुम हो आबाद हम आशुफ़्ता-सरों से नहीं मक़्तल ये रस्म अभी शहर में ज़िंदा है कि तुम हो ऐ जान-ए-'फ़राज़' इतनी भी तौफ़ीक़ किसे थी हम को ग़म-ए-हस्ती भी गवारा है कि तुम हो
tujh-se-mil-kar-to-ye-lagtaa-hai-ki-ai-ajnabii-dost-ahmad-faraz-ghazals
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त लोग हर बात का अफ़्साना बना देते हैं ये तो दुनिया है मिरी जाँ कई दुश्मन कई दोस्त तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई मेरी चाहत को भी दुनिया की नज़र खा गई दोस्त याद आई है तो फिर टूट के याद आई है कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त अब भी आए हो तो एहसान तुम्हारा लेकिन वो क़यामत जो गुज़रनी थी गुज़र भी गई दोस्त तेरे लहजे की थकन में तिरा दिल शामिल है ऐसा लगता है जुदाई की घड़ी आ गई दोस्त बारिश-ए-संग का मौसम है मिरे शहर में तो तू ये शीशे सा बदन ले के कहाँ आ गई दोस्त मैं उसे अहद-शिकन कैसे समझ लूँ जिस ने आख़िरी ख़त में ये लिक्खा था फ़क़त आप की दोस्त
silsile-tod-gayaa-vo-sabhii-jaate-jaate-ahmad-faraz-ghazals
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था अपने हिस्से की कोई शम्अ' जलाते जाते कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी पा-ब-जौलाँ ही सही नाचते गाते जाते इस की वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
sunaa-hai-log-use-aankh-bhar-ke-dekhte-hain-ahmad-faraz-ghazals
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़ सो हम भी मो'जिज़े अपने हुनर के देखते हैं सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ 'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
ab-ke-ham-bichhde-to-shaayad-kabhii-khvaabon-men-milen-ahmad-faraz-ghazals
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़' जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
qurbat-bhii-nahiin-dil-se-utar-bhii-nahiin-jaataa-ahmad-faraz-ghazals
क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता वो शख़्स कोई फ़ैसला कर भी नहीं जाता आँखें हैं कि ख़ाली नहीं रहती हैं लहू से और ज़ख़्म-ए-जुदाई है कि भर भी नहीं जाता वो राहत-ए-जाँ है मगर इस दर-बदरी में ऐसा है कि अब ध्यान उधर भी नहीं जाता हम दोहरी अज़िय्यत के गिरफ़्तार मुसाफ़िर पाँव भी हैं शल शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता पागल हुए जाते हो 'फ़राज़' उस से मिले क्या इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता
khaamosh-ho-kyuun-daad-e-jafaa-kyuun-nahiin-dete-ahmad-faraz-ghazals
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते वहशत का सबब रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो नहीं है मेहर ओ मह ओ अंजुम को बुझा क्यूँ नहीं देते इक ये भी तो अंदाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इंसाफ़ करोगे मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते रहज़न हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ भी रहबर हो तो मंज़िल का पता क्यूँ नहीं देते क्या बीत गई अब के 'फ़राज़' अहल-ए-चमन पर यारान-ए-क़फ़स मुझ को सदा क्यूँ नहीं देते
jo-gair-the-vo-isii-baat-par-hamaare-hue-ahmad-faraz-ghazals
जो ग़ैर थे वो इसी बात पर हमारे हुए कि हम से दोस्त बहुत बे-ख़बर हमारे हुए किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए अब इक हुजूम-ए-शिकस्ता-दिलाँ है साथ अपने जिन्हें कोई न मिला हम-सफ़र हमारे हुए किसी ने ग़म तो किसी ने मिज़ाज-ए-ग़म बख़्शा सब अपनी अपनी जगह चारागर हमारे हुए बुझा के ताक़ की शमएँ न देख तारों को इसी जुनूँ में तो बर्बाद घर हमारे हुए वो ए'तिमाद कहाँ से 'फ़राज़' लाएँगे किसी को छोड़ के वो अब अगर हमारे हुए
is-se-pahle-ki-be-vafaa-ho-jaaen-ahmad-faraz-ghazals
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ तू भी हीरे से बन गया पत्थर हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ तू कि यकता था बे-शुमार हुआ हम भी टूटें तो जा-ब-जा हो जाएँ हम भी मजबूरियों का उज़्र करें फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ हम अगर मंज़िलें न बन पाए मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ देर से सोच में हैं परवाने राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ इश्क़ भी खेल है नसीबों का ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ अब के गर तू मिले तो हम तुझ से ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़' क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ
vahshaten-badhtii-gaiin-hijr-ke-aazaar-ke-saath-ahmad-faraz-ghazals
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ अब तो हम बात भी करते नहीं ग़म-ख़्वार के साथ हम ने इक उम्र बसर की है ग़म-ए-यार के साथ 'मीर' दो दिन न जिए हिज्र के आज़ार के साथ अब तो हम घर से निकलते हैं तो रख देते हैं ताक़ पर इज़्ज़त-ए-सादात भी दस्तार के साथ इस क़दर ख़ौफ़ है अब शहर की गलियों में कि लोग चाप सुनते हैं तो लग जाते हैं दीवार के साथ एक तो ख़्वाब लिए फिरते हो गलियों गलियों उस पे तकरार भी करते हो ख़रीदार के साथ शहर का शहर ही नासेह हो तो क्या कीजिएगा वर्ना हम रिंद तो भिड़ जाते हैं दो-चार के साथ हम को उस शहर में ता'मीर का सौदा है जहाँ लोग मे'मार को चुन देते हैं दीवार के साथ जो शरफ़ हम को मिला कूचा-ए-जानाँ से 'फ़राज़' सू-ए-मक़्तल भी गए हैं उसी पिंदार के साथ
shoala-thaa-jal-bujhaa-huun-havaaen-mujhe-na-do-ahmad-faraz-ghazals
शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदाएँ मुझे न दो जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो ये भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी ऐ ख़ुसरवान-ए-शहर क़बाएँ मुझे न दो ऐसा न हो कभी कि पलट कर न आ सकूँ हर बार दूर जा के सदाएँ मुझे न दो कब मुझ को ए'तिराफ़-ए-मोहब्बत न था 'फ़राज़' कब मैं ने ये कहा है सज़ाएँ मुझे न दो
zindagii-se-yahii-gila-hai-mujhe-ahmad-faraz-ghazals
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे दिल धड़कता नहीं टपकता है कल जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे कोहकन हो कि क़ैस हो कि 'फ़राज़' सब में इक शख़्स ही मिला है मुझे
ab-shauq-se-ki-jaan-se-guzar-jaanaa-chaahiye-ahmad-faraz-ghazals
अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए बोल ऐ हवा-ए-शहर किधर जाना चाहिए कब तक इसी को आख़िरी मंज़िल कहेंगे हम कू-ए-मुराद से भी उधर जाना चाहिए वो वक़्त आ गया है कि साहिल को छोड़ कर गहरे समुंदरों में उतर जाना चाहिए अब रफ़्तगाँ की बात नहीं कारवाँ की है जिस सम्त भी हो गर्द-ए-सफ़र जाना चाहिए कुछ तो सुबूत-ए-ख़ून-ए-तमन्ना कहीं मिले है दिल तही तो आँख को भर जाना चाहिए या अपनी ख़्वाहिशों को मुक़द्दस न जानते या ख़्वाहिशों के साथ ही मर जाना चाहिए
abhii-kuchh-aur-karishme-gazal-ke-dekhte-hain-ahmad-faraz-ghazals
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं 'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-ख़िराम कोई तो हो सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफ़िल में जो लालचों से तुझे मुझ को जल के देखते हैं ये क़ुर्ब क्या है कि यक-जाँ हुए न दूर रहे हज़ार एक ही क़ालिब में ढल के देखते हैं न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं ये कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले समुंदरों की तहों से उछल के देखते हैं अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर चलो 'फ़राज़' को ऐ यार चल के देखते हैं
kyaa-aise-kam-sukhan-se-koii-guftuguu-kare-ahmad-faraz-ghazals
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं पर दिल ये चाहता है कि आग़ाज़ तू करे तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र अब कोई हादसा ही तिरे रू-ब-रू करे चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़' दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे
aankh-se-duur-na-ho-dil-se-utar-jaaegaa-ahmad-faraz-ghazals
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा इतना मानूस न हो ख़ल्वत-ए-ग़म से अपनी तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला तेरी बख़्शिश तिरी दहलीज़ पे धर जाएगा ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का 'फ़राज़' ज़ालिम अब के भी न रोएगा तो मर जाएगा
main-to-maqtal-men-bhii-qismat-kaa-sikandar-niklaa-ahmad-faraz-ghazals
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम का अक्सर निकला था जिन्हें ज़ो'म वो दरिया भी मुझी में डूबे मैं कि सहरा नज़र आता था समुंदर निकला मैं ने उस जान-ए-बहाराँ को बहुत याद किया जब कोई फूल मिरी शाख़-ए-हुनर पर निकला शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला तू यहीं हार गया है मिरे बुज़दिल दुश्मन मुझ से तन्हा के मुक़ाबिल तिरा लश्कर निकला मैं कि सहरा-ए-मोहब्बत का मुसाफ़िर था 'फ़राज़' एक झोंका था कि ख़ुश्बू के सफ़र पर निकला
har-koii-dil-kii-hathelii-pe-hai-sahraa-rakkhe-ahmad-faraz-ghazals
हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे कम नहीं तम-ए-इबादत भी तो हिर्स-ए-ज़र से फ़क़्र तो वो है कि जो दीन न दुनिया रक्खे हँस न इतना भी फ़क़ीरों के अकेले-पन पर जा ख़ुदा मेरी तरह तुझ को भी तन्हा रक्खे ये क़नाअ'त है इताअत है कि चाहत है 'फ़राज़' हम तो राज़ी हैं वो जिस हाल में जैसा रक्खे
ye-kyaa-ki-sab-se-bayaan-dil-kii-haalaten-karnii-ahmad-faraz-ghazals
ये क्या कि सब से बयाँ दिल की हालतें करनी 'फ़राज़' तुझ को न आईं मोहब्बतें करनी ये क़ुर्ब क्या है कि तू सामने है और हमें शुमार अभी से जुदाई की साअ'तें करनी कोई ख़ुदा हो कि पत्थर जिसे भी हम चाहें तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी सब अपने अपने क़रीने से मुंतज़िर उस के किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी हम अपने दिल से ही मजबूर और लोगों को ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी मिलें जब उन से तो मुबहम सी गुफ़्तुगू करना फिर अपने आप से सौ सौ वज़ाहतें करनी ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निबाहते हैं हमें तो रास न आईं मोहब्बतें करनी कभी 'फ़राज़' नए मौसमों में रो देना कभी तलाश पुरानी रिफाक़तें करनी
aashiqii-men-miir-jaise-khvaab-mat-dekhaa-karo-ahmad-faraz-ghazals
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो जस्ता जस्ता पढ़ लिया करना मज़ामीन-ए-वफ़ा पर किताब-ए-इश्क़ का हर बाब मत देखा करो इस तमाशे में उलट जाती हैं अक्सर कश्तियाँ डूबने वालों को ज़ेर-ए-आब मत देखा करो मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो हम से दरवेशों के घर आओ तो यारों की तरह हर जगह ख़स-ख़ाना ओ बर्फ़ाब मत देखा करो माँगे-ताँगे की क़बाएँ देर तक रहती नहीं यार लोगों के लक़ब-अलक़ाब मत देखा करो तिश्नगी में लब भिगो लेना भी काफ़ी है 'फ़राज़' जाम में सहबा है या ज़हराब मत देखा करो
us-ko-judaa-hue-bhii-zamaana-bahut-huaa-ahmad-faraz-ghazals
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़ ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तिरा आना बहुत हुआ हम ख़ुल्द से निकल तो गए हैं पर ऐ ख़ुदा इतने से वाक़िए का फ़साना बहुत हुआ अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी उस से ज़रा सा रब्त बढ़ाना बहुत हुआ अब क्यूँ न ज़िंदगी पे मोहब्बत को वार दें इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ अब तक तो दिल का दिल से तआ'रुफ़ न हो सका माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ क्या क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ कहता था नासेहों से मिरे मुँह न आइयो फिर क्या था एक हू का बहाना बहुत हुआ लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र अहमद-'फ़राज़' तुझ से कहा न बहुत हुआ
terii-baaten-hii-sunaane-aae-ahmad-faraz-ghazals-3
तेरी बातें ही सुनाने आए दोस्त भी दिल ही दुखाने आए फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं तेरे आने के ज़माने आए ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे हम तुझे हाल सुनाने आए इश्क़ तन्हा है सर-ए-मंज़िल-ए-ग़म कौन ये बोझ उठाने आए अजनबी दोस्त हमें देख कि हम कुछ तुझे याद दिलाने आए दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम काश फिर कोई बुलाने आए अब तो रोने से भी दिल दुखता है शायद अब होश ठिकाने आए क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी लोग क्यूँ जश्न मनाने आए सो रहो मौत के पहलू में 'फ़राज़' नींद किस वक़्त न जाने आए
guftuguu-achchhii-lagii-zauq-e-nazar-achchhaa-lagaa-ahmad-faraz-ghazals
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा बाग़बाँ गुलचीं को चाहे जो कहे हम को तो फूल शाख़ से बढ़ कर कफ़-ए-दिलदार पर अच्छा लगा कोई मक़्तल में न पहुँचा कौन ज़ालिम था जिसे तेग़-ए-क़ातिल से ज़ियादा अपना सर अच्छा लगा हम भी क़ाएल हैं वफ़ा में उस्तुवारी के मगर कोई पूछे कौन किस को उम्र भर अच्छा लगा अपनी अपनी चाहतें हैं लोग अब जो भी कहें इक परी-पैकर को इक आशुफ़्ता-सर अच्छा लगा 'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़' था तो वो दीवाना सा शाइर मगर अच्छा लगा
aisaa-hai-ki-sab-khvaab-musalsal-nahiin-hote-ahmad-faraz-ghazals
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते शाइस्तगी-ए-ग़म के सबब आँखों के सहरा नमनाक तो हो जाते हैं जल-थल नहीं होते कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में कुछ याद-जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते उश्शाक़ के मानिंद कई अहल-ए-हवस भी पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते सब ख़्वाहिशें पूरी हों 'फ़राज़' ऐसा नहीं है जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते
phir-usii-rahguzaar-par-shaayad-ahmad-faraz-ghazals
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद हम कभी मिल सकें मगर शायद जिन के हम मुंतज़िर रहे उन को मिल गए और हम-सफ़र शायद जान-पहचान से भी क्या होगा फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद अज्नबिय्यत की धुँद छट जाए चमक उठ्ठे तिरी नज़र शायद ज़िंदगी भर लहू रुलाएगी याद-ए-यारान-ए-बे-ख़बर शायद जो भी बिछड़े वो कब मिले हैं 'फ़राज़' फिर भी तू इंतिज़ार कर शायद
tujhe-hai-mashq-e-sitam-kaa-malaal-vaise-hii-ahmad-faraz-ghazals
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही हमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का सो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही हम आ गए हैं तह-ए-दाम तो नसीब अपना वगरना उस ने तो फेंका था जाल वैसे ही मैं रोकना ही नहीं चाहता था वार उस का गिरी नहीं मिरे हाथों से ढाल वैसे ही ज़माना हम से भला दुश्मनी तो क्या रखता सो कर गया है हमें पाएमाल वैसे ही मुझे भी शौक़ न था दास्ताँ सुनाने का 'फ़राज़' उस ने भी पूछा था हाल वैसे ही
ranjish-hii-sahii-dil-hii-dukhaane-ke-liye-aa-ahmad-faraz-ghazals
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ
dost-ban-kar-bhii-nahiin-saath-nibhaane-vaalaa-ahmad-faraz-ghazals
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा सख़्त नादिम है मुझे दाम में लाने वाला सुब्ह-दम छोड़ गया निकहत-ए-गुल की सूरत रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आने वाला मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं कौन आएगा यहाँ कौन है आने वाला क्या ख़बर थी जो मिरी जाँ में घुला है इतना है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़' दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला
zikr-aae-to-mire-lab-se-duaaen-niklen-gulzar-ghazals
ज़िक्र आए तो मिरे लब से दुआएँ निकलें शम्अ' जलती है तो लाज़िम है शुआएँ निकलें वक़्त की ज़र्ब से कट जाते हैं सब के सीने चाँद का छलका उतर जाए तो क़ाशें निकलें दफ़्न हो जाएँ कि ज़रख़ेज़ ज़मीं लगती है कल इसी मिट्टी से शायद मिरी शाख़ें निकलें चंद उम्मीदें निचोड़ी थीं तो आहें टपकीं दिल को पिघलाएँ तो हो सकता है साँसें निकलें ग़ार के मुँह पे रखा रहने दो संग-ए-ख़ुर्शीद ग़ार में हाथ न डालो कहीं रातें निकलें
garm-laashen-giriin-fasiilon-se-gulzar-ghazals
गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से आसमाँ भर गया है चीलों से सूली चढ़ने लगी है ख़ामोशी लोग आए हैं सुन के मीलों से कान में ऐसे उतरी सरगोशी बर्फ़ फिसली हो जैसे टीलों से गूँज कर ऐसे लौटती है सदा कोई पूछे हज़ारों मीलों से प्यास भरती रही मिरे अंदर आँख हटती नहीं थी झीलों से लोग कंधे बदल बदल के चले घाट पहुँचे बड़े वसीलों से
aisaa-khaamosh-to-manzar-na-fanaa-kaa-hotaa-gulzar-ghazals
ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता कोई एहसास तो दरिया की अना का होता साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता काँच के पार तिरे हाथ नज़र आते हैं काश ख़ुशबू की तरह रंग हिना का होता क्यूँ मिरी शक्ल पहन लेता है छुपने के लिए एक चेहरा कोई अपना भी ख़ुदा का होता
sabr-har-baar-ikhtiyaar-kiyaa-gulzar-ghazals
सब्र हर बार इख़्तियार किया हम से होता नहीं हज़ार किया आदतन तुम ने कर दिए वा'दे आदतन हम ने ए'तिबार किया हम ने अक्सर तुम्हारी राहों में रुक कर अपना ही इंतिज़ार किया फिर न माँगेंगे ज़िंदगी या-रब ये गुनह हम ने एक बार किया
vo-khat-ke-purze-udaa-rahaa-thaa-gulzar-ghazals
वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था हवाओं का रुख़ दिखा रहा था बताऊँ कैसे वो बहता दरिया जब आ रहा था तो जा रहा था कुछ और भी हो गया नुमायाँ मैं अपना लिक्खा मिटा रहा था धुआँ धुआँ हो गई थीं आँखें चराग़ को जब बुझा रहा था मुंडेर से झुक के चाँद कल भी पड़ोसियों को जगा रहा था उसी का ईमाँ बदल गया है कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था वो एक दिन एक अजनबी को मिरी कहानी सुना रहा था वो उम्र कम कर रहा था मेरी मैं साल अपने बढ़ा रहा था ख़ुदा की शायद रज़ा हो इस में तुम्हारा जो फ़ैसला रहा था
ek-parvaaz-dikhaaii-dii-hai-gulzar-ghazals
एक पर्वाज़ दिखाई दी है तेरी आवाज़ सुनाई दी है सिर्फ़ इक सफ़्हा पलट कर उस ने सारी बातों की सफ़ाई दी है फिर वहीं लौट के जाना होगा यार ने कैसी रिहाई दी है जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ उस ने सदियों की जुदाई दी है ज़िंदगी पर भी कोई ज़ोर नहीं दिल ने हर चीज़ पराई दी है आग में क्या क्या जला है शब भर कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है
aankhon-men-jal-rahaa-hai-pa-bujhtaa-nahiin-dhuaan-gulzar-ghazals
आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ पलकों के ढाँपने से भी रुकता नहीं धुआँ कितनी उँडेलीं आँखें प बुझता नहीं धुआँ आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ काली लकीरें खींच रहा है फ़ज़ाओं में बौरा गया है मुँह से क्यूँ खुलता नहीं धुआँ आँखों के पोछने से लगा आग का पता यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ चिंगारी इक अटक सी गई मेरे सीने में थोड़ा सा आ के फूँक दो उड़ता नहीं धुआँ
sahmaa-sahmaa-daraa-saa-rahtaa-hai-gulzar-ghazals
सहमा सहमा डरा सा रहता है जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है काई सी जम गई है आँखों पर सारा मंज़र हरा सा रहता है एक पल देख लूँ तो उठता हूँ जल गया घर ज़रा सा रहता है सर में जुम्बिश ख़याल की भी नहीं ज़ानुओं पर धरा सा रहता है
din-kuchh-aise-guzaartaa-hai-koii-gulzar-ghazals
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई जैसे एहसाँ उतारता है कोई दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई आइना देख कर तसल्ली हुई हम को इस घर में जानता है कोई पेड़ पर पक गया है फल शायद फिर से पत्थर उछालता है कोई देर से गूँजते हैं सन्नाटे जैसे हम को पुकारता है कोई
os-padii-thii-raat-bahut-aur-kohra-thaa-garmaaish-par-gulzar-ghazals
ओस पड़ी थी रात बहुत और कोहरा था गर्माइश पर सैली सी ख़ामोशी में आवाज़ सुनी फ़रमाइश पर फ़ासले हैं भी और नहीं भी नापा तौला कुछ भी नहीं लोग ब-ज़िद रहते हैं फिर भी रिश्तों की पैमाइश पर मुँह मोड़ा और देखा कितनी दूर खड़े थे हम दोनों आप लड़े थे हम से बस इक करवट की गुंजाइश पर काग़ज़ का इक चाँद लगा कर रात अँधेरी खिड़की पर दिल में कितने ख़ुश थे अपनी फ़ुर्क़त की आराइश पर दिल का हुज्रा कितनी बार उजड़ा भी और बसाया भी सारी उम्र कहाँ ठहरा है कोई एक रिहाइश पर धूप और छाँव बाँट के तुम ने आँगन में दीवार चुनी क्या इतना आसान है ज़िंदा रहना इस आसाइश पर शायद तीन नुजूमी मेरी मौत पे आ कर पहुँचेंगे ऐसा ही इक बार हुआ था ईसा की पैदाइश पर
gulon-ko-sunnaa-zaraa-tum-sadaaen-bhejii-hain-gulzar-ghazals
गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं गुलों के हाथ बहुत सी दुआएँ भेजी हैं जो आफ़्ताब कभी भी ग़ुरूब होता नहीं हमारा दिल है उसी की शुआएँ भेजी हैं अगर जलाए तुम्हें भी शिफ़ा मिले शायद इक ऐसे दर्द की तुम को शुआएँ भेजी हैं तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगतीं वो सारी चीज़ें जो तुम को रुलाएँ, भेजी हैं सियाह रंग चमकती हुई कनारी है पहन लो अच्छी लगेंगी घटाएँ भेजी हैं तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं सज़ाएँ भेज दो हम ने ख़ताएँ भेजी हैं अकेला पत्ता हवा में बहुत बुलंद उड़ा ज़मीं से पाँव उठाओ हवाएँ भेजी हैं
phuul-ne-tahnii-se-udne-kii-koshish-kii-gulzar-ghazals
फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की इक ताइर का दिल रखने की कोशिश की कल फिर चाँद का ख़ंजर घोंप के सीने में रात ने मेरी जाँ लेने की कोशिश की कोई न कोई रहबर रस्ता काट गया जब भी अपनी रह चलने की कोशिश की कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़रा हूँ उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की एक ही ख़्वाब ने सारी रात जगाया है मैं ने हर करवट सोने की कोशिश की एक सितारा जल्दी जल्दी डूब गया मैं ने जब तारे गिनने की कोशिश की नाम मिरा था और पता अपने घर का उस ने मुझ को ख़त लिखने की कोशिश की एक धुएँ का मर्ग़ोला सा निकला है मिट्टी में जब दिल बोने की कोशिश की
phuulon-kii-tarah-lab-khol-kabhii-gulzar-ghazals
फूलों की तरह लब खोल कभी ख़ुशबू की ज़बाँ में बोल कभी अल्फ़ाज़ परखता रहता है आवाज़ हमारी तोल कभी अनमोल नहीं लेकिन फिर भी पूछ तो मुफ़्त का मोल कभी खिड़की में कटी हैं सब रातें कुछ चौरस थीं कुछ गोल कभी ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह हो जाता है डाँवा-डोल कभी
havaa-ke-siing-na-pakdo-khaded-detii-hai-gulzar-ghazals
हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है ज़मीं से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती है मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है ज़मीं सा दूसरा कोई सख़ी कहाँ होगा ज़रा सा बीज उठा ले तो पेड़ देती है रुँधे गले की दुआओं से भी नहीं खुलता दर-ए-हयात जिसे मौत भेड़ देती है
tujh-ko-dekhaa-hai-jo-dariyaa-ne-idhar-aate-hue-gulzar-ghazals
तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए कुछ भँवर डूब गए पानी में चकराते हुए हम ने तो रात को दाँतों से पकड़ कर रक्खा छीना-झपटी में उफ़ुक़ खुलता गया जाते हुए मैं न हूँगा तो ख़िज़ाँ कैसे कटेगी तेरी शोख़ पत्ते ने कहा शाख़ से मुरझाते हुए हसरतें अपनी बिलक्तीं न यतीमों की तरह हम को आवाज़ ही दे लेते ज़रा जाते हुए सी लिए होंट वो पाकीज़ा निगाहें सुन कर मैली हो जाती है आवाज़ भी दोहराते हुए
haath-chhuuten-bhii-to-rishte-nahiin-chhodaa-karte-gulzar-ghazals
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते जागने पर भी नहीं आँख से गिरतीं किर्चें इस तरह ख़्वाबों से आँखें नहीं फोड़ा करते शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते जा के कोहसार से सर मारो कि आवाज़ तो हो ख़स्ता दीवारों से माथा नहीं फोड़ा करते
dikhaaii-dete-hain-dhund-men-jaise-saae-koii-gulzar-ghazals
दिखाई देते हैं धुँद में जैसे साए कोई मगर बुलाने से वक़्त लौटे न आए कोई मिरे मोहल्ले का आसमाँ सूना हो गया है बुलंदियों पे अब आ के पेचे लड़ाए कोई वो ज़र्द पत्ते जो पेड़ से टूट कर गिरे थे कहाँ गए बहते पानियों में बुलाए कोई ज़ईफ़ बरगद के हाथ में रा'शा आ गया है जटाएँ आँखों पे गिर रही हैं उठाए कोई मज़ार पे खोल कर गरेबाँ दुआएँ माँगें जो आए अब के तो लौट कर फिर न जाए कोई
zindagii-yuun-huii-basar-tanhaa-gulzar-ghazals
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा अपने साए से चौंक जाते हैं उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा रात भर बातें करते हैं तारे रात काटे कोई किधर तन्हा डूबने वाले पार जा उतरे नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा दिन गुज़रता नहीं है लोगों में रात होती नहीं बसर तन्हा हम ने दरवाज़े तक तो देखा था फिर न जाने गए किधर तन्हा
ped-ke-patton-men-halchal-hai-khabar-daar-se-hain-gulzar-ghazals
पेड़ के पत्तों में हलचल है ख़बर-दार से हैं शाम से तेज़ हवा चलने के आसार से हैं नाख़ुदा देख रहा है कि मैं गिर्दाब में हूँ और जो पुल पे खड़े लोग हैं अख़बार से हैं चढ़ते सैलाब में साहिल ने तो मुँह ढाँप लिया लोग पानी का कफ़न लेने को तय्यार से हैं कल तवारीख़ में दफ़नाए गए थे जो लोग उन के साए अभी दरवाज़ों पे बेदार से हैं वक़्त के तीर तो सीने पे सँभाले हम ने और जो नील पड़े हैं तिरी गुफ़्तार से हैं रूह से छीले हुए जिस्म जहाँ बिकते हैं हम को भी बेच दे हम भी उसी बाज़ार से हैं जब से वो अहल-ए-सियासत में हुए हैं शामिल कुछ अदू के हैं तो कुछ मेरे तरफ़-दार से हैं
koii-khaamosh-zakhm-lagtii-hai-gulzar-ghazals
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है ज़िंदगी एक नज़्म लगती है बज़्म-ए-याराँ में रहता हूँ तन्हा और तंहाई बज़्म लगती है अपने साए पे पाँव रखता हूँ छाँव छालों को नर्म लगती है चाँद की नब्ज़ देखना उठ कर रात की साँस गर्म लगती है ये रिवायत कि दर्द महके रहें दिल की देरीना रस्म लगती है
khulii-kitaab-ke-safhe-ulatte-rahte-hain-gulzar-ghazals
खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं बस एक वहशत-ए-मंज़िल है और कुछ भी नहीं कि चंद सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते रहते हैं मुझे तो रोज़ कसौटी पे दर्द कसता है कि जाँ से जिस्म के बख़िये उधड़ते रहते हैं कभी रुका नहीं कोई मक़ाम-ए-सहरा में कि टीले पाँव-तले से सरकते रहते हैं ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में उजाला हो तो हम आँखें झपकते रहते हैं
zikr-hotaa-hai-jahaan-bhii-mire-afsaane-kaa-gulzar-ghazals
ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का एक दरवाज़ा सा खुलता है कुतुब-ख़ाने का एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे दिल से इक ख़ौफ़ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का बुलबुला फिर से चला पानी में ग़ोते खाने न समझने का उसे वक़्त न समझाने का मैं ने अल्फ़ाज़ तो बीजों की तरह छाँट दिए ऐसा मीठा तिरा अंदाज़ था फ़रमाने का किस को रोके कोई रस्ते में कहाँ बात करे न तो आने की ख़बर है न पता जाने का
ham-to-kitnon-ko-mah-jabiin-kahte-gulzar-ghazals
हम तो कितनों को मह-जबीं कहते आप हैं इस लिए नहीं कहते चाँद होता न आसमाँ पे अगर हम किसे आप सा हसीं कहते आप के पाँव फिर कहाँ पड़ते हम ज़मीं को अगर ज़मीं कहते आप ने औरों से कहा सब कुछ हम से भी कुछ कभी कहीं कहते आप के बा'द आप ही कहिए वक़्त को कैसे हम-नशीं कहते वो भी वाहिद है मैं भी वाहिद हूँ किस सबब से हम आफ़रीं कहते
dard-halkaa-hai-saans-bhaarii-hai-gulzar-ghazals
दर्द हल्का है साँस भारी है जिए जाने की रस्म जारी है आप के ब'अद हर घड़ी हम ने आप के साथ ही गुज़ारी है रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो दिन की चादर अभी उतारी है शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले कैसी चुप सी चमन पे तारी है कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था आज की दास्ताँ हमारी है
ruke-ruke-se-qadam-ruk-ke-baar-baar-chale-gulzar-ghazals
रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी नज़र में धूल जिगर में लिए ग़ुबार चले सहर न आई कई बार नींद से जागे थी रात रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले मिली है शम्अ' से ये रस्म-ए-आशिक़ी हम को गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले
be-sabab-muskuraa-rahaa-hai-chaand-gulzar-ghazals
बे-सबब मुस्कुरा रहा है चाँद कोई साज़िश छुपा रहा है चाँद जाने किस की गली से निकला है झेंपा झेंपा सा आ रहा है चाँद कितना ग़ाज़ा लगाया है मुँह पर धूल ही धूल उड़ा रहा है चाँद कैसा बैठा है छुप के पत्तों में बाग़बाँ को सता रहा है चाँद सीधा-सादा उफ़ुक़ से निकला था सर पे अब चढ़ता जा रहा है चाँद छू के देखा तो गर्म था माथा धूप में खेलता रहा है चाँद
biite-rishte-talaash-kartii-hai-gulzar-ghazals
बीते रिश्ते तलाश करती है ख़ुशबू ग़ुंचे तलाश करती है जब गुज़रती है उस गली से सबा ख़त के पुर्ज़े तलाश करती है अपने माज़ी की जुस्तुजू में बहार पीले पत्ते तलाश करती है एक उम्मीद बार बार आ कर अपने टुकड़े तलाश करती है बूढ़ी पगडंडी शहर तक आ कर अपने बेटे तलाश करती है
koii-atkaa-huaa-hai-pal-shaayad-gulzar-ghazals
कोई अटका हुआ है पल शायद वक़्त में पड़ गया है बल शायद लब पे आई मिरी ग़ज़ल शायद वो अकेले हैं आज-कल शायद दिल अगर है तो दर्द भी होगा इस का कोई नहीं है हल शायद जानते हैं सवाब-ए-रहम-ओ-करम उन से होता नहीं अमल शायद आ रही है जो चाप क़दमों की खिल रहे हैं कहीं कँवल शायद राख को भी कुरेद कर देखो अभी जलता हो कोई पल शायद चाँद डूबे तो चाँद ही निकले आप के पास होगा हल शायद
tinkaa-tinkaa-kaante-tode-saarii-raat-kataaii-kii-gulzar-ghazals
तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की क्यूँ इतनी लम्बी होती है चाँदनी रात जुदाई की नींद में कोई अपने-आप से बातें करता रहता है काल-कुएँ में गूँजती है आवाज़ किसी सौदाई की सीने में दिल की आहट जैसे कोई जासूस चले हर साए का पीछा करना आदत है हरजाई की आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं क्या तुम ने उड़ती देखी है रेत कभी तन्हाई की तारों की रौशन फ़सलें और चाँद की एक दरांती थी साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
har-ek-gam-nichod-ke-har-ik-baras-jiye-gulzar-ghazals
हर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिए दो दिन की ज़िंदगी में हज़ारों बरस जिए सदियों पे इख़्तियार नहीं था हमारा दोस्त दो चार लम्हे बस में थे दो चार बस जिए सहरा के उस तरफ़ से गए सारे कारवाँ सुन सुन के हम तो सिर्फ़ सदा-ए-जरस जिए होंटों में ले के रात के आँचल का इक सिरा आँखों पे रख के चाँद के होंटों का मस जिए महदूद हैं दुआएँ मिरे इख़्तियार में हर साँस पुर-सुकून हो तू सौ बरस जिए
shaam-se-aankh-men-namii-sii-hai-gulzar-ghazals
शाम से आँख में नमी सी है आज फिर आप की कमी सी है दफ़्न कर दो हमें कि साँस आए नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है कौन पथरा गया है आँखों में बर्फ़ पलकों पे क्यूँ जमी सी है वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर आदत इस की भी आदमी सी है आइए रास्ते अलग कर लें ये ज़रूरत भी बाहमी सी है
jab-bhii-aankhon-men-ashk-bhar-aae-gulzar-ghazals
जब भी आँखों में अश्क भर आए लोग कुछ डूबते नज़र आए अपना मेहवर बदल चुकी थी ज़मीं हम ख़ला से जो लौट कर आए चाँद जितने भी गुम हुए शब के सब के इल्ज़ाम मेरे सर आए चंद लम्हे जो लौट कर आए रात के आख़िरी पहर आए एक गोली गई थी सू-ए-फ़लक इक परिंदे के बाल-ओ-पर आए कुछ चराग़ों की साँस टूट गई कुछ ब-मुश्किल दम-ए-सहर आए मुझ को अपना पता-ठिकाना मिले वो भी इक बार मेरे घर आए
shaam-se-aaj-saans-bhaarii-hai-gulzar-ghazals
शाम से आज साँस भारी है बे-क़रारी सी बे-क़रारी है आप के बा'द हर घड़ी हम ने आप के साथ ही गुज़ारी है रात को दे दो चाँदनी की रिदा दिन की चादर अभी उतारी है शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले कैसी चुप सी चमन में तारी है कल का हर वाक़िआ' तुम्हारा था आज की दास्ताँ हमारी है