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qarz-e-nigaah-e-yaar-adaa-kar-chuke-hain-ham-faiz-ahmad-faiz-ghazals
क़र्ज़-ए-निगाह-ए-यार अदा कर चुके हैं हम सब कुछ निसार-ए-राह-ए-वफ़ा कर चुके हैं हम कुछ इम्तिहान-ए-दस्त-ए-जफ़ा कर चुके हैं हम कुछ उन की दस्तरस का पता कर चुके हैं हम अब एहतियात की कोई सूरत नहीं रही क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम देखें है कौन कौन ज़रूरत नहीं रही कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम उन की नज़र में क्या करें फीका है अब भी रंग जितना लहू था सर्फ़-ए-क़बा कर चुके हैं हम कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए सौ बार उन की ख़ू का गिला कर चुके हैं हम
ab-ke-baras-dastuur-e-sitam-men-kyaa-kyaa-baab-iizaad-hue-faiz-ahmad-faiz-ghazals
अब के बरस दस्तूर-ए-सितम में क्या क्या बाब ईज़ाद हुए जो क़ातिल थे मक़्तूल हुए जो सैद थे अब सय्याद हुए पहले भी ख़िज़ाँ में बाग़ उजड़े पर यूँ नहीं जैसे अब के बरस सारे बूटे पत्ता पत्ता रविश रविश बर्बाद हुए पहले भी तवाफ़-ए-शम्-ए-वफ़ा थी रस्म मोहब्बत वालों की हम तुम से पहले भी यहाँ 'मंसूर' हुए 'फ़रहाद' हुए इक गुल के मुरझाने पर क्या गुलशन में कोहराम मचा इक चेहरा कुम्हला जाने से कितने दिल नाशाद हुए 'फ़ैज़' न हम 'यूसुफ़' न कोई 'याक़ूब' जो हम को याद करे अपनी क्या कनआँ में रहे या मिस्र में जा आबाद हुए
tum-aae-ho-na-shab-e-intizaar-guzrii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals
तुम आए हो न शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है तलाश में है सहर बार बार गुज़री है जुनूँ में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है हुई है हज़रत-ए-नासेह से गुफ़्तुगू जिस शब वो शब ज़रूर सर-ए-कू-ए-यार गुज़री है वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है चमन पे ग़ारत-ए-गुल-चीं से जाने क्या गुज़री क़फ़स से आज सबा बे-क़रार गुज़री है
kab-yaad-men-teraa-saath-nahiin-kab-haat-men-teraa-haat-nahiin-faiz-ahmad-faiz-ghazals
कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं सद-शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आएँ जाँ दे आएँ दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
kab-tak-dil-kii-khair-manaaen-kab-tak-rah-dikhlaaoge-faiz-ahmad-faiz-ghazals
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे बीता दीद उम्मीद का मौसम ख़ाक उड़ती है आँखों में कब भेजोगे दर्द का बादल कब बरखा बरसाओगे अहद-ए-वफ़ा या तर्क-ए-मोहब्बत जो चाहो सो आप करो अपने बस की बात ही क्या है हम से क्या मनवाओगे किस ने वस्ल का सूरज देखा किस पर हिज्र की रात ढली गेसुओं वाले कौन थे क्या थे उन को क्या जतलाओगे 'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर भरना भी लुट जाना थी तुम इस हुस्न के लुत्फ़-ओ-करम पर कितने दिन इतराओगे
tire-gam-ko-jaan-kii-talaash-thii-tire-jaan-nisaar-chale-gae-faiz-ahmad-faiz-ghazals
तिरे ग़म को जाँ की तलाश थी तिरे जाँ-निसार चले गए तिरी रह में करते थे सर तलब सर-ए-रहगुज़ार चले गए तिरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतिज़ार चली गई मिरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मिरे ग़म-गुसार चले गए न सवाल-ए-वस्ल न अर्ज़-ए-ग़म न हिकायतें न शिकायतें तिरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए ये हमीं थे जिन के लिबास पर सर-ए-रह सियाही लिखी गई यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गए न रहा जुनून-ए-रुख़-ए-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए
chashm-e-maiguun-zaraa-idhar-kar-de-faiz-ahmad-faiz-ghazals
चश्म-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे दस्त-ए-क़ुदरत को बे-असर कर दे तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे जोश-ए-वहशत है तिश्ना-काम अभी चाक-ए-दामन को ता जिगर कर दे मेरी क़िस्मत से खेलने वाले मुझ को क़िस्मत से बे-ख़बर कर दे लुट रही है मिरी मता-ए-नियाज़ काश वो इस तरफ़ नज़र कर दे 'फ़ैज़' तकमील-ए-आरज़ू मालूम हो सके तो यूँही बसर कर दे
tumhaarii-yaad-ke-jab-zakhm-bharne-lagte-hain-faiz-ahmad-faiz-ghazals
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन तो चश्म-ए-सुब्ह में आँसू उभरने लगते हैं वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मोहर लगती है तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं
kuchh-mohtasibon-kii-khalvat-men-kuchh-vaaiz-ke-ghar-jaatii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals
कुछ मोहतसिबों की ख़ल्वत में कुछ वाइ'ज़ के घर जाती है हम बादा-कशों के हिस्से की अब जाम में कम-तर जाती है यूँ अर्ज़-ओ-तलब से कम ऐ दिल पत्थर दिल पानी होते हैं तुम लाख रज़ा की ख़ू डालो कब ख़ू-ए-सितमगर जाती है बेदाद-गरों की बस्ती है याँ दाद कहाँ ख़ैरात कहाँ सर फोड़ती फिरती है नादाँ फ़रियाद जो दर दर जाती है हाँ जाँ के ज़ियाँ की हम को भी तशवीश है लेकिन क्या कीजे हर रह जो उधर को जाती है मक़्तल से गुज़र कर जाती है अब कूचा-ए-दिल-बर का रह-रौ रहज़न भी बने तो बात बने पहरे से अदू टलते ही नहीं और रात बराबर जाती है हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है
shaikh-saahab-se-rasm-o-raah-na-kii-faiz-ahmad-faiz-ghazals
शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की शुक्र है ज़िंदगी तबाह न की तुझ को देखा तो सेर-चश्म हुए तुझ को चाहा तो और चाह न की तेरे दस्त-ए-सितम का इज्ज़ नहीं दिल ही काफ़िर था जिस ने आह न की थे शब-ए-हिज्र काम और बहुत हम ने फ़िक्र-ए-दिल-ए-तबाह न की कौन क़ातिल बचा है शहर में 'फ़ैज़' जिस से यारों ने रस्म-ओ-राह न की
ye-kis-khalish-ne-phir-is-dil-men-aashiyaana-kiyaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals
ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ाएबाना किया ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया थे ख़ाक-ए-राह भी हम लोग क़हर-ए-तूफ़ाँ भी सहा तो क्या न सहा और किया तो क्या न किया ख़ुशा कि आज हर इक मुद्दई के लब पर है वो राज़ जिस ने हमें राँदा-ए-ज़माना किया वो हीला-गर जो वफ़ा-जू भी है जफ़ा-ख़ू भी किया भी 'फ़ैज़' तो किस बुत से दोस्ताना किया
ham-musaafir-yuunhii-masruuf-e-safar-jaaenge-faiz-ahmad-faiz-ghazals
हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे बे-निशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे किस क़दर होगा यहाँ मेहर-ओ-वफ़ा का मातम हम तिरी याद से जिस रोज़ उतर जाएँगे जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ार-ए-सुख़न हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएँगे नेमत-ए-ज़ीस्त का ये क़र्ज़ चुकेगा कैसे लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएँगे शायद अपना भी कोई बैत हुदी-ख़्वाँ बन कर साथ जाएगा मिरे यार जिधर जाएँगे 'फ़ैज़' आते हैं रह-ए-इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएँगे
raaz-e-ulfat-chhupaa-ke-dekh-liyaa-faiz-ahmad-faiz-ghazals
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया दिल बहुत कुछ जला के देख लिया और क्या देखने को बाक़ी है आप से दिल लगा के देख लिया वो मिरे हो के भी मिरे न हुए उन को अपना बना के देख लिया आज उन की नज़र में कुछ हम ने सब की नज़रें बचा के देख लिया 'फ़ैज़' तकमील-ए-ग़म भी हो न सकी इश्क़ को आज़मा के देख लिया
ab-vahii-harf-e-junuun-sab-kii-zabaan-thahrii-hai-faiz-ahmad-faiz-ghazals
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सब की ज़बाँ ठहरी है जो भी चल निकली है वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शय थी हराम अब वही दुश्मन-ए-दीं राहत-ए-जाँ ठहरी है है ख़बर गर्म कि फिरता है गुरेज़ाँ नासेह गुफ़्तुगू आज सर-ए-कू-ए-बुताँ ठहरी है है वही आरिज़-ए-लैला वही शीरीं का दहन निगह-ए-शौक़ घड़ी भर को जहाँ ठहरी है वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुज़री थी हिज्र की शब है तो क्या सख़्त गिराँ ठहरी है बिखरी इक बार तो हाथ आई है कब मौज-ए-शमीम दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है दस्त-ए-सय्याद भी आजिज़ है कफ़-ए-गुल-चीं भी बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बाँ ठहरी है आते आते यूँही दम भर को रुकी होगी बहार जाते जाते यूँही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है हम ने जो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ की है क़फ़स में ईजाद 'फ़ैज़' गुलशन में वही तर्ज़-ए-बयाँ ठहरी है
aap-kii-yaad-aatii-rahii-raat-bhar-faiz-ahmad-faiz-ghazals
''आप की याद आती रही रात भर'' चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर गाह जलती हुई गाह बुझती हुई शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन कोई तस्वीर गाती रही रात भर फिर सबा साया-ए-शाख़-ए-गुल के तले कोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर जो न आया उसे कोई ज़ंजीर-ए-दर हर सदा पर बुलाती रही रात भर एक उम्मीद से दिल बहलता रहा इक तमन्ना सताती रही रात भर
donon-jahaan-terii-mohabbat-men-haar-ke-faiz-ahmad-faiz-ghazals
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज 'फ़ैज़' मत पूछ वलवले दिल-ए-ना-कर्दा-कार के
ab-vo-ye-kah-rahe-hain-mirii-maan-jaaiye-dagh-dehlvi-ghazals
अब वो ये कह रहे हैं मिरी मान जाइए अल्लाह तेरी शान के क़ुर्बान जाइए बिगड़े हुए मिज़ाज को पहचान जाइए सीधी तरह न मानिएगा मान जाइए किस का है ख़ौफ़ रोकने वाला ही कौन है हर रोज़ क्यूँ न जाइए मेहमान जाइए महफ़िल में किस ने आप को दिल में छुपा लिया इतनों में कौन चोर है पहचान जाइए हैं तेवरी में बल तो निगाहें फिरी हुई जाते हैं ऐसे आने से औसान जाइए दो मुश्किलें हैं एक जताने में शौक़ के पहले तो जान जाइए फिर मान जाइए इंसान को है ख़ाना-ए-हस्ती में लुत्फ़ क्या मेहमान आइए तो पशेमान जाइए गो वादा-ए-विसाल हो झूटा मज़ा तो है क्यूँ कर न ऐसे झूट के क़ुर्बान जाइए रह जाए बा'द-ए-वस्ल भी चेटक लगी हुई कुछ रखिए कुछ निकाल के अरमान जाइए अच्छी कही कि ग़ैर के घर तक ज़रा चलो मैं आप का नहीं हूँ निगहबान जाइए आए हैं आप ग़ैर के घर से खड़े खड़े ये और को जताइए एहसान, जाइए दोनों से इम्तिहान-ए-वफ़ा पर ये कह दिया मनवाइए रक़ीब को या मान जाइए क्या बद-गुमानियाँ हैं उन्हें मुझ को हुक्म है घर में ख़ुदा के भी तो न मेहमान जाइए क्या फ़र्ज़ है कि सब मिरी बातें क़ुबूल हैं सुन सुन के कुछ न मानिए कुछ मान जाइए सौदाइयान-ए-ज़ुल्फ़ में कुछ तो लटक भी हो जन्नत में जाइए तो परेशान जाइए दिल को जो देख लो तो यही प्यार से कहो क़ुर्बान जाइए तिरे क़ुर्बान जाइए दिल को जो देख लो तो यही प्यार से कहो क़ुर्बान जाइए तिरे क़ुर्बान जाइए जाने न दूँगा आप को बे-फ़ैसला हुए दिल के मुक़द्दमे को अभी छान जाइए ये तो बजा कि आप को दुनिया से क्या ग़रज़ जाती है जिस की जान उसे जान जाइए ग़ुस्से में हाथ से ये निशानी न गिर पड़े दामन में ले के मेरा गरेबान जाइए ये मुख़्तसर जवाब मिला अर्ज़-ए-वस्ल पर दिल मानता नहीं कि तिरी मान जाइए वो आज़मूदा-कार तो है गर वली नहीं जो कुछ बताए 'दाग़' उसे मान जाइए
milaate-ho-usii-ko-khaak-men-jo-dil-se-miltaa-hai-dagh-dehlvi-ghazals
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है पस-ए-पर्दा भी लैला हाथ रख लेती है आँखों पर ग़ुबार-ए-ना-तवान-ए-क़ैस जब महमिल से मिलता है भरे हैं तुझ में वो लाखों हुनर ऐ मजमा-ए-ख़ूबी मुलाक़ाती तिरा गोया भरी महफ़िल से मिलता है मुझे आता है क्या क्या रश्क वक़्त-ए-ज़ब्ह उस से भी गला जिस दम लिपट कर ख़ंजर-ए-क़ातिल से मिलता है ब-ज़ाहिर बा-अदब यूँ हज़रत-ए-नासेह से मिलता हूँ मुरीद-ए-ख़ास जैसे मुर्शिद-ए-कामिल से मिलता है मिसाल-ए-गंज-ए-क़ारूँ अहल-ए-हाजत से नहीं छुपता जो होता है सख़ी ख़ुद ढूँड कर साइल से मिलता है जवाब इस बात का उस शोख़ को क्या दे सके कोई जो दिल ले कर कहे कम-बख़्त तू किस दिल से मिलता है छुपाए से कोई छुपती है अपने दिल की बेताबी कि हर तार-ए-नफ़स अपना रग-ए-बिस्मिल से मिलता है अदम की जो हक़ीक़त है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से मुसाफ़िर को तो मंज़िल का पता मंज़िल से मिलता है ग़ज़ब है 'दाग़' के दिल से तुम्हारा दिल नहीं मिलता तुम्हारा चाँद सा चेहरा मह-ए-कामिल से मिलता है
saaf-kab-imtihaan-lete-hain-dagh-dehlvi-ghazals
साफ़ कब इम्तिहान लेते हैं वो तो दम दे के जान लेते हैं यूँ है मंज़ूर ख़ाना-वीरानी मोल मेरा मकान लेते हैं तुम तग़ाफ़ुल करो रक़ीबों से जानने वाले जान लेते हैं फिर न आना अगर कोई भेजे नामा-बर से ज़बान लेते हैं अब भी गिर पड़ के ज़ोफ़ से नाले सातवाँ आसमान लेते हैं तेरे ख़ंजर से भी तो ऐ क़ातिल नोक की नौ-जवान लेते हैं अपने बिस्मिल का सर है ज़ानू पर किस मोहब्बत से जान लेते हैं ये सुना है मिरे लिए तलवार इक मिरे मेहरबान लेते हैं ये न कह हम से तेरे मुँह में ख़ाक इस में तेरी ज़बान लेते हैं कौन जाता है उस गली में जिसे दूर से पासबान लेते हैं मंज़िल-ए-शौक़ तय नहीं होती ठेकियाँ ना-तवान लेते हैं कर गुज़रते हैं हो बुरी कि भली दिल में जो कुछ वो ठान लेते हैं वो झगड़ते हैं जब रक़ीबों से बीच में मुझ को सान लेते हैं ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी दोस्त की दोस्त मान लेते हैं मुस्तइद हो के ये कहो तो सही आइए इम्तिहान लेते हैं 'दाग़' भी है अजीब सेहर-बयाँ बात जिस की वो मान लेते हैं
aarzuu-hai-vafaa-kare-koii-dagh-dehlvi-ghazals
आरज़ू है वफ़ा करे कोई जी न चाहे तो क्या करे कोई गर मरज़ हो दवा करे कोई मरने वाले का क्या करे कोई कोसते हैं जले हुए क्या क्या अपने हक़ में दुआ करे कोई उन से सब अपनी अपनी कहते हैं मेरा मतलब अदा करे कोई चाह से आप को तो नफ़रत है मुझ को चाहे ख़ुदा करे कोई उस गिले को गिला नहीं कहते गर मज़े का गिला करे कोई ये मिली दाद रंज-ए-फ़ुर्क़त की और दिल का कहा करे कोई तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर तुम से फिर बात क्या करे कोई कहते हैं हम नहीं ख़ुदा-ए-करीम क्यूँ हमारी ख़ता करे कोई जिस में लाखों बरस की हूरें हों ऐसी जन्नत को क्या करे कोई इस जफ़ा पर तुम्हें तमन्ना है कि मिरी इल्तिजा करे कोई मुँह लगाते ही 'दाग़' इतराया लुत्फ़ है फिर जफ़ा करे कोई
tamaashaa-e-dair-o-haram-dekhte-hain-dagh-dehlvi-ghazals
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं तुझे हर बहाने से हम देखते हैं हमारी तरफ़ अब वो कम देखते हैं वो नज़रें नहीं जिन को हम देखते हैं ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं फिरे बुत-कदे से तो ऐ अहल-ए-काबा फिर आ कर तुम्हारे क़दम देखते हैं हमें चश्म-ए-बीना दिखाती है सब कुछ वो अंधे हैं जो जाम-ए-जम देखते हैं न ईमा-ए-ख़्वाहिश न इज़हार-ए-मतलब मिरे मुँह को अहल-ए-करम देखते हैं कभी तोड़ते हैं वो ख़ंजर को अपने कभी नब्ज़-ए-बिस्मिल में दम देखते हैं ग़नीमत है चश्म-ए-तग़ाफ़ुल भी उन की बहुत देखते हैं जो कम देखते हैं ग़रज़ क्या कि समझें मिरे ख़त का मज़मूँ वो उनवान ओ तर्ज़-ए-रक़म देखते हैं सलामत रहे दिल बुरा है कि अच्छा हज़ारों में ये एक दम देखते हैं रहा कौन महफ़िल में अब आने वाला वो चारों तरफ़ दम-ब-दम देखते हैं उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने न वो देखते हैं न हम देखते हैं उन्हें क्यूँ न हो दिलरुबाई से नफ़रत कि हर दिल में वो ग़म अलम देखते हैं निगहबाँ से भी क्या हुई बद-गुमानी अब उस को तिरे साथ कम देखते हैं हमें 'दाग़' क्या कम है ये सरफ़राज़ी कि शाह-ए-दकन के क़दम देखते हैं
khaatir-se-yaa-lihaaz-se-main-maan-to-gayaa-dagh-dehlvi-ghazals
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया क्या आए राहत आई जो कुंज-ए-मज़ार में वो वलवला वो शौक़ वो अरमान तो गया देखा है बुत-कदे में जो ऐ शैख़ कुछ न पूछ ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया गो नामा-बर से ख़ुश न हुआ पर हज़ार शुक्र मुझ को वो मेरे नाम से पहचान तो गया बज़्म-ए-अदू में सूरत-ए-परवाना दिल मिरा गो रश्क से जला तिरे क़ुर्बान तो गया होश ओ हवास ओ ताब ओ तवाँ 'दाग़' जा चुके अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया
abhii-hamaarii-mohabbat-kisii-ko-kyaa-maaluum-dagh-dehlvi-ghazals
अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम किसी के दिल की हक़ीक़त किसी को क्या मालूम यक़ीं तो ये है वो ख़त का जवाब लिक्खेंगे मगर नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी को क्या मालूम ब-ज़ाहिर उन को हया-दार लोग समझे हैं हया में जो है शरारत किसी को क्या मालूम क़दम क़दम पे तुम्हारे हमारे दिल की तरह बसी हुई है क़यामत किसी को क्या मालूम ये रंज ओ ऐश हुए हिज्र ओ वस्ल में हम को कहाँ है दोज़ख़ ओ जन्नत किसी को क्या मालूम जो सख़्त बात सुने दिल तो टूट जाता है इस आईने की नज़ाकत किसी को क्या मालूम किया करें वो सुनाने को प्यार की बातें उन्हें है मुझ से अदावत किसी को क्या मालूम ख़ुदा करे न फँसे दाम-ए-इश्क़ में कोई उठाई है जो मुसीबत किसी को क्या मालूम अभी तो फ़ित्ने ही बरपा किए हैं आलम में उठाएँगे वो क़यामत किसी को क्या मालूम जनाब-ए-'दाग़' के मशरब को हम से तो पूछो छुपे हुए हैं ये हज़रत किसी को क्या मालूम
uzr-aane-men-bhii-hai-aur-bulaate-bhii-nahiin-dagh-dehlvi-ghazals-3
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़्सत कि ये मर जाए तो जाएँ फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं सर उठाओ तो सही आँख मिलाओ तो सही नश्शा-ए-मय भी नहीं नींद के माते भी नहीं क्या कहा फिर तो कहो हम नहीं सुनते तेरी नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं मुझ से लाग़र तिरी आँखों में खटकते तो रहे तुझ से नाज़ुक मिरी नज़रों में समाते भी नहीं देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ कौन बैठा है उसे लोग उठाते भी नहीं हो चुका क़त्अ तअ'ल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों जिन को मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं
gam-se-kahiin-najaat-mile-chain-paaen-ham-dagh-dehlvi-ghazals
ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम दिल ख़ून में नहाए तो गंगा नहाएँ हम जन्नत में जाएँ हम कि जहन्नम में जाएँ हम मिल जाए तो कहीं न कहीं तुझ को पाएँ हम जौफ़-ए-फ़लक में ख़ाक भी लज़्ज़त नहीं रही जी चाहता है तेरी जफ़ाएँ उठाएँ हम डर है न भूल जाए वो सफ़्फ़ाक रोज़-ए-हश्र दुनिया में लिखते जाते हैं अपनी ख़ताएँ हम मुमकिन है ये कि वादे पर अपने वो आ भी जाए मुश्किल ये है कि आप में उस वक़्त आएँ हम नाराज़ हो ख़ुदा तो करें बंदगी से ख़ुश माशूक़ रूठ जाए तो क्यूँकर मनाएँ हम सर दोस्तों का काट के रखते हैं सामने ग़ैरों से पूछते हैं क़सम किस की खाएँ हम कितना तिरा मिज़ाज ख़ुशामद-पसंद है कब तक करें ख़ुदा के लिए इल्तिजाएँ हम लालच अबस है दिल का तुम्हें वक़्त-ए-वापसीं ये माल वो नहीं कि जिसे छोड़ जाएँ हम सौंपा तुम्हें ख़ुदा को चले हम तो ना-मुराद कुछ पढ़ के बख़्शना जो कभी याद आएँ हम सोज़-ए-दरूँ से अपने शरर बन गए हैं अश्क क्यूँ आह-ए-सर्द को न पतिंगे लगाएँ हम ये जान तुम न लोगे अगर आप जाएगी उस बेवफ़ा की ख़ैर कहाँ तक मनाएँ हम हम-साए जागते रहे नालों से रात भर सोए हुए नसीब को क्यूँकर जगाएँ हम जल्वा दिखा रहा है वो आईना-ए-जमाल आती है हम को शर्म कि क्या मुँह दिखाएँ हम मानो कहा जफ़ा न करो तुम वफ़ा के बा'द ऐसा न हो कि फेर लें उल्टी दुआएँ हम दुश्मन से मिलते जुलते हैं ख़ातिर से दोस्ती क्या फ़ाएदा जो दोस्त को दुश्मन बनाएँ हम तू भूलने की चीज़ नहीं ख़ूब याद रख ऐ 'दाग़' किस तरह तुझे दिल से भुलाएँ हम
jalve-mirii-nigaah-men-kaun-o-makaan-ke-hain-dagh-dehlvi-ghazals
जल्वे मिरी निगाह में कौन-ओ-मकाँ के हैं मुझ से कहाँ छुपेंगे वो ऐसे कहाँ के हैं खुलते नहीं हैं राज़ जो सोज़-ए-निहाँ के हैं क्या फूटने के वास्ते छाले ज़बाँ के हैं करते हैं क़त्ल वो तलब-ए-मग़फ़िरत के बाद जो थे दुआ के हाथ वही इम्तिहाँ के हैं जिस रोज़ कुछ शरीक हुई मेरी मुश्त-ए-ख़ाक उस रोज़ से ज़मीं पे सितम आसमाँ के हैं बाज़ू दिखाए तुम ने लगा कर हज़ार हाथ पूरे पड़े तो वो भी बहुत इम्तिहाँ के हैं नासेह के सामने कभी सच बोलता नहीं मेरी ज़बाँ में रंग तुम्हारी ज़बाँ के हैं कैसा जवाब हज़रत-ए-दिल देखिए ज़रा पैग़ाम-बर के हाथ में टुकड़े ज़बाँ के हैं क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं आशिक़ तिरे अदम को गए किस क़दर तबाह पूछा हर एक ने ये मुसाफ़िर कहाँ के हैं हर-चंद 'दाग़' एक ही अय्यार है मगर दुश्मन भी तो छटे हुए सारे जहाँ के हैं
dil-e-naakaam-ke-hain-kaam-kharaab-dagh-dehlvi-ghazals
दिल-ए-नाकाम के हैं काम ख़राब कर लिया आशिक़ी में नाम ख़राब इस ख़राबात का यही है मज़ा कि रहे आदमी मुदाम ख़राब देख कर जिंस-ए-दिल वो कहते हैं क्यूँ करे कोई अपने दाम ख़राब अब्र-ए-तर से सबा ही अच्छी थी मेरी मिट्टी हुई तमाम ख़राब वो भी साक़ी मुझे नहीं देता वो जो टूटा पड़ा है जाम ख़राब क्या मिला हम को ज़िंदगी के सिवा वो भी दुश्वार ना-तमाम ख़राब वाह क्या मुँह से फूल झड़ते हैं ख़ूब-रू हो के ये कलाम ख़राब चाल की रहनुमा-ए-इश्क़ ने भी वो दिखाया जो था मक़ाम ख़राब 'दाग़' है बद-चलन तो होने दो सौ में होता है इक ग़ुलाम ख़राब
terii-suurat-ko-dekhtaa-huun-main-dagh-dehlvi-ghazals
तेरी सूरत को देखता हूँ मैं उस की क़ुदरत को देखता हूँ मैं जब हुई सुब्ह आ गए नासेह उन्हीं हज़रत को देखता हूँ मैं वो मुसीबत सुनी नहीं जाती जिस मुसीबत को देखता हूँ मैं देखने आए हैं जो मेरी नब्ज़ उन की सूरत को देखता हूँ मैं मौत मुझ को दिखाई देती है जब तबीअत को देखता हूँ मैं शब-ए-फ़ुर्क़त उठा उठा कर सर सुब्ह-ए-इशरत को देखता हूँ मैं दूर बैठा हुआ सर-ए-महफ़िल रंग-ए-सोहबत को देखता हूँ मैं हर मुसीबत है बे-मज़ा शब-ए-ग़म आफ़त आफ़त को देखता हूँ मैं न मोहब्बत को जानते हो तुम न मुरव्वत को देखता हूँ मैं कोई दुश्मन को यूँ न देखेगा जैसे क़िस्मत को देखता हूँ मैं हश्र में 'दाग़' कोई दोस्त नहीं सारी ख़िल्क़त को देखता हूँ मैं
idhar-dekh-lenaa-udhar-dekh-lenaa-dagh-dehlvi-ghazals-2
इधर देख लेना उधर देख लेना कन-अँखियों से उस को मगर देख लेना फ़क़त नब्ज़ से हाल ज़ाहिर न होगा मिरा दिल भी ऐ चारागर देख लेना कभी ज़िक्र-ए-दीदार आया तो बोले क़यामत से भी पेश-तर देख लेना न देना ख़त-ए-शौक़ घबरा के पहले महल मौक़ा ऐ नामा-बर देख लेना कहीं ऐसे बिगड़े सँवरते भी देखे न आएँगे वो राह पर देख लेना तग़ाफ़ुल में शोख़ी निराली अदा थी ग़ज़ब था वो मुँह फेर कर देख लेना शब-ए-वा'दा अपना यही मश्ग़ला था उठा कर नज़र सू-ए-दर देख लेना बुलाया जो ग़ैरों को दावत में तुम ने मुझे पेश-तर अपने घर देख लेना मोहब्बत के बाज़ार में और क्या है कोई दिल दिखाए अगर देख लेना मिरे सामने ग़ैर से भी इशारे इधर भी उधर देख कर देख लेना न हो नाज़ुक इतना भी मश्शाता कोई दहन देख लेना कमर देख लेना नहीं रखने देते जहाँ पाँव हम को उसी आस्ताने पे सर देख लेना तमाशा-ए-आलम की फ़ुर्सत है किस को ग़नीमत है बस इक नज़र देख लेना दिए जाते हैं आज कुछ लिख के तुम को उसे वक़्त-ए-फ़ुर्सत मगर देख लेना हमीं जान देंगे हमीं मर मिटेंगे हमें तुम किसी वक़्त पर देख लेना जलाया तो है 'दाग़' के दिल को तुम ने मगर इस का होगा असर देख लेना
maze-ishq-ke-kuchh-vahii-jaante-hain-dagh-dehlvi-ghazals
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं कि जो मौत को ज़िंदगी जानते हैं शब-ए-वस्ल लीं उन की इतनी बलाएँ कि हमदम मिरे हाथ ही जानते हैं न हो दिल तो क्या लुत्फ़-ए-आज़ार-ओ-राहत बराबर ख़ुशी ना-ख़ुशी जानते हैं जो है मेरे दिल में उन्हीं को ख़बर है जो मैं जानता हूँ वही जानते हैं पड़ा हूँ सर-ए-बज़्म मैं दम चुराए मगर वो इसे बे-ख़ुदी जानते हैं कहाँ क़द्र-ए-हम-जिंस हम-जिंस को है फ़रिश्तों को भी आदमी जानते हैं कहूँ हाल-ए-दिल तो कहें उस से हासिल सभी को ख़बर है सभी जानते हैं वो नादान अंजान भोले हैं ऐसे कि सब शेवा-ए-दुश्मनी जानते हैं नहीं जानते इस का अंजाम क्या है वो मरना मेरा दिल-लगी जानते हैं समझता है तू 'दाग़' को रिंद ज़ाहिद मगर रिंद उस को वली जानते हैं
aap-kaa-e-tibaar-kaun-kare-dagh-dehlvi-ghazals
आप का ए'तिबार कौन करे रोज़ का इंतिज़ार कौन करे ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते पर तुम्हें शर्मसार कौन करे हो जो उस चश्म-ए-मस्त से बे-ख़ुद फिर उसे होशियार कौन करे तुम तो हो जान इक ज़माने की जान तुम पर निसार कौन करे आफ़त-ए-रोज़गार जब तुम हो शिकवा-ए-रोज़गार कौन करे अपनी तस्बीह रहने दे ज़ाहिद दाना दाना शुमार कौन करे हिज्र में ज़हर खा के मर जाऊँ मौत का इंतिज़ार कौन करे आँख है तर्क-ए-ज़ुल्फ़ है सय्याद देखें दिल का शिकार कौन करे वा'दा करते नहीं ये कहते हैं तुझ को उम्मीद-वार कौन करे 'दाग़' की शक्ल देख कर बोले ऐसी सूरत को प्यार कौन करे
tum-aaiina-hii-na-har-baar-dekhte-jaao-dagh-dehlvi-ghazals
तुम आईना ही न हर बार देखते जाओ मिरी तरफ़ भी तो सरकार देखते जाओ न जाओ हाल-ए-दिल-ए-ज़ार देखते जाओ कि जी न चाहे तो नाचार देखते जाओ बहार-ए-उम्र में बाग़-ए-जहाँ की सैर करो खिला हुआ है ये गुलज़ार देखते जाओ यही तो चश्म-ए-हक़ीक़त निगर का सुर्मा है निज़ा-ए-काफ़िर-ओ-दीं-दार देखते जाओ उठाओ आँख न शरमाओ ये तो महफ़िल है ग़ज़ब से जानिब-ए-अग़्यार देखते जाओ नहीं है जिंस-ए-वफ़ा की तुम्हें जो क़द्र न हो बनेंगे कितने ख़रीदार देखते जाओ तुम्हें ग़रज़ जो करो रहम पाएमालों पर तुम अपनी शोख़ी-ए-रफ़्तार देखते जाओ क़सम भी खाई थी क़ुरआन भी उठाया था फिर आज है वही इंकार देखते जाओ ये शामत आई कि उस की गली में दिल ने कहा खुला है रौज़न-ए-दीवार देखते जाओ हुआ है क्या अभी हंगामा और कुछ होगा फ़ुग़ाँ में हश्र के आसार देखते जाओ शब-ए-विसाल अदू की यही निशानी है निशाँ-ए-बोसा-ए-रुख़्सार देखते जाओ तुम्हारी आँख मिरे दिल से ले सबब बे-वज्ह हुई है लड़ने को तय्यार देखते जाओ इधर को आ ही गए अब तो हज़रत-ए-ज़ाहिद यहीं है ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार देखते जाओ रक़ीब बरसर-ए-परख़ाश हम से होता है बढ़ेगी मुफ़्त में तकरार देखते जाओ नहीं हैं जुर्म-ए-मोहब्बत में सब के सब मुल्ज़िम ख़ता मुआ'फ़ ख़ता-वार देखते जाओ दिखा रही है तमाशा फ़लक की नैरंगी नया है शो'बदा हर बार देखते जाओ बना दिया मिरी चाहत ने ग़ैरत-ए-यूसुफ़ तुम अपनी गर्मी-ए-बाज़ार देखते जाओ न जाओ बंद किए आँख रह-रवान-ए-अदम इधर उधर भी ख़बर-दार देखते जाओ सुनी-सुनाई पे हरगिज़ कभी अमल न करो हमारे हाल के अख़बार देखते जाओ कोई न कोई हर इक शेर में है बात ज़रूर जनाब-ए-'दाग़' के अशआ'र देखते जाओ
phire-raah-se-vo-yahaan-aate-aate-dagh-dehlvi-ghazals
फिरे राह से वो यहाँ आते आते अजल मर रही तू कहाँ आते आते न जाना कि दुनिया से जाता है कोई बहुत देर की मेहरबाँ आते आते सुना है कि आता है सर नामा-बर का कहाँ रह गया अरमुग़ाँ आते आते यक़ीं है कि हो जाए आख़िर को सच्ची मिरे मुँह में तेरी ज़बाँ आते आते सुनाने के क़ाबिल जो थी बात उन को वही रह गई दरमियाँ आते आते मुझे याद करने से ये मुद्दआ था निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते अभी सिन ही क्या है जो बेबाकियाँ हों उन्हें आएँगी शोख़ियाँ आते आते कलेजा मिरे मुँह को आएगा इक दिन यूँही लब पर आह-ओ-फ़ुग़ाँ आते आते चले आते हैं दिल में अरमान लाखों मकाँ भर गया मेहमाँ आते आते नतीजा न निकला थके सब पयामी वहाँ जाते जाते यहाँ आते आते तुम्हारा ही मुश्ताक़-ए-दीदार होगा गया जान से इक जवाँ आते आते तिरी आँख फिरते ही कैसा फिरा है मिरी राह पर आसमाँ आते आते पड़ा है बड़ा पेच फिर दिल-लगी में तबीअत रुकी है जहाँ आते आते मिरे आशियाँ के तो थे चार तिनके चमन उड़ गया आँधियाँ आते आते किसी ने कुछ उन को उभारा तो होता न आते न आते यहाँ आते आते क़यामत भी आती थी हमराह उस के मगर रह गई हम-इनाँ आते आते बना है हमेशा ये दिल बाग़ ओ सहरा बहार आते आते ख़िज़ाँ आते आते नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
baaqii-jahaan-men-qais-na-farhaad-rah-gayaa-dagh-dehlvi-ghazals
बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया अफ़्साना आशिक़ों का फ़क़त याद रह गया ये सख़्त-जाँ तो क़त्ल से नाशाद रह गया ख़ंजर चला तो बाज़ू-ए-जल्लाद रह गया पाबंदियों ने इश्क़ की बेकस रखा मुझे मैं सौ असीरियों में भी आज़ाद रह गया चश्म-ए-सनम ने यूँ तो बिगाड़े हज़ार घर इक काबा चंद रोज़ को आबाद रह गया महशर में जा-ए-शिकवा किया शुक्र यार का जो भूलना था मुझ को वही याद रह गया उन की तो बन पड़ी कि लगी जान मुफ़्त हाथ तेरी गिरह में क्या दिल-ए-नाशाद रह गया पुर-नूर हो रहेगा ये ज़ुल्मत-कदा अगर दिल में बुतों का शौक़-ए-ख़ुदा-दाद रह गया यूँ आँख उन की कर के इशारा पलट गई गोया कि लब से हो के कुछ इरशाद रह गया नासेह का जी चला था हमारी तरह मगर उल्फ़त की देख देख के उफ़्ताद रह गया हैं तेरे दिल में सब के ठिकाने बुरे भले मैं ख़ानुमाँ-ख़राब ही बर्बाद रह गया वो दिन गए कि थी मिरे सीने में कुछ ख़राश अब दिल कहाँ है दिल का निशाँ याद रह गया सूरत को तेरी देख के खिंचती है जान-ए-ख़ल्क़ दिल अपना थाम थाम के बहज़ाद रह गया ऐ 'दाग़' दिल ही दिल में घुले ज़ब्त-ए-इश्क़ से अफ़्सोस शौक़-ए-नाला-ओ-फ़रियाद रह गया
baat-merii-kabhii-sunii-hii-nahiin-dagh-dehlvi-ghazals
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं जानते वो बुरी भली ही नहीं दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से कभी गोया किसी में थी ही नहीं जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं 'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता वो शिकायत का आदमी ही नहीं
kaabe-kii-hai-havas-kabhii-kuu-e-butaan-kii-hai-dagh-dehlvi-ghazals
काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है मुझ को ख़बर नहीं मिरी मिट्टी कहाँ की है सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है पैग़ाम-बर की बात पर आपस में रंज क्या मेरी ज़बान की है न तुम्हारी ज़बाँ की है कुछ ताज़गी हो लज़्ज़त-ए-आज़ार के लिए हर दम मुझे तलाश नए आसमाँ की है जाँ-बर भी हो गए हैं बहुत मुझ से नीम-जाँ क्या ग़म है ऐ तबीब जो पूरी वहाँ की है हसरत बरस रही है हमारे मज़ार पर कहते हैं सब ये क़ब्र किसी नौजवाँ की है वक़्त-ए-ख़िराम-ए-नाज़ दिखा दो जुदा जुदा ये चाल हश्र की ये रविश आसमाँ की है फ़ुर्सत कहाँ कि हम से किसी वक़्त तू मिले दिन ग़ैर का है रात तिरे पासबाँ की है क़ासिद की गुफ़्तुगू से तसल्ली हो किस तरह छुपती नहीं वो बात जो तेरी ज़बाँ की है जौर-ए-रक़ीब ओ ज़ुल्म-ए-फ़लक का नहीं ख़याल तशवीश एक ख़ातिर-ए-ना-मेहरबाँ की है सुन कर मिरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा हो जाए झूट सच यही ख़ूबी बयाँ की है दामन संभाल बाँध कमर आस्तीं चढ़ा ख़ंजर निकाल दिल में अगर इम्तिहाँ की है हर हर नफ़स में दिल से निकलने लगा ग़ुबार क्या जाने गर्द-ए-राह ये किस कारवाँ की है क्यूँकि न आते ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर मौज़ूँ वहीं वो ख़ूब है जो सुनते जहाँ की है तक़दीर से ये पूछ रहा हूँ कि इश्क़ में तदबीर कोई भी सितम-ए-ना-गहाँ की है उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़' हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
dekh-kar-jauban-tiraa-kis-kis-ko-hairaanii-huii-dagh-dehlvi-ghazals
देख कर जोबन तिरा किस किस को हैरानी हुई इस जवानी पर जवानी आप दीवानी हुई पर्दे पर्दे में मोहब्बत दुश्मन-ए-जानी हुई ये ख़ुदा की मार क्या ऐ शौक़-ए-पिन्हानी हुई दिल का सौदा कर के उन से क्या पशेमानी हुई क़द्र उस की फिर कहाँ जिस शय की अर्ज़ानी हुई मेरे घर उस शोख़ की दो दिन से मेहमानी हुई बेकसी की आज कल क्या ख़ाना-वीरानी हुई तर्क-ए-रस्म-ओ-राह पर अफ़्सोस है दोनों तरफ़ हम से नादानी हुई या तुम से नादानी हुई इब्तिदा से इंतिहा तक हाल उन से कह तो दूँ फ़िक्र ये है और जो कह कर पशेमानी हुई ग़म क़यामत का नहीं वाइ'ज़ मुझे ये फ़िक्र है दीन कब बाक़ी रहा दुनिया अगर फ़ानी हुई तुम न शब को आओगे ये है यक़ीं आया हुआ तुम न मानोगे मिरी ये बात है मानी हुई मुझ में दम जब तक रहा मुश्किल में थे तीमारदार मेरी आसानी से सब यारों की आसानी हुई इस को क्या कहते हैं उतना ही बढ़ा शौक़-ए-विसाल जिस क़दर मशहूर उन की पाक-दामानी हुई बज़्म से उठने की ग़ैरत बैठने से दिल को रश्क देख कर ग़ैरों का मजमा क्या परेशानी हुई दावा-ए-तस्ख़ीर पर ये उस परी-वश ने कहा आप का दिल क्या हुआ मोहर-ए-सुलेमानी हुई खुल गईं ज़ुल्फ़ें मगर उस शोख़ मस्त-ए-नाज़ की झूमती बाद-ए-सबा फिरती है मस्तानी हुई मैं सरापा सज्दे करता उस के दर पर शौक़ से सर से पा तक क्यूँ न पेशानी ही पेशानी हुई दिल की क़ल्ब-ए-माहियत का हो उसे क्यूँकर यक़ीं कब हवा मिट्टी हुई है आग कब पानी हुई आते ही कहते हो अब घर जाएँगे अच्छी कही ये मसल पूरी यहाँ मन-मानी घर जानी हुई अरसा-ए-महशर में तुझ को ढूँड लाऊँ तो सही कोई छुप सकती है जो सूरत हो पहचानी हुई देख कर क़ातिल का ख़ाली हाथ भी जी डर गया उस की चीन-ए-आस्तीं भी चीन-ए-पेशानी हुई खा के धोका उस बुत-ए-कमसिन ने दामन में लिए अश्क-अफ़्शानी भी मेरी गौहर-अफ़्शानी हुई बेकसी पर मेरी अपनी तेग़ की हसरत तो देख चश्म-ए-जौहर भी ब-शक्ल-ए-चश्म-ए-हैरानी हुई बेकसी पर 'दाग़' की अफ़्सोस आता है हमें किस जगह किस वक़्त उस की ख़ाना-वीरानी हुई
le-chalaa-jaan-mirii-ruuth-ke-jaanaa-teraa-dagh-dehlvi-ghazals
ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा आरज़ू ही न रही सुब्ह-ए-वतन की मुझ को शाम-ए-ग़ुर्बत है अजब वक़्त सुहाना तेरा ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा ऐ दिल-ए-शेफ़्ता में आग लगाने वाले रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासेह-ए-नादाँ मेरा क्या ख़ता की जो कहा मैं ने न माना तेरा रंज क्या वस्ल-ए-अदू का जो तअ'ल्लुक़ ही नहीं मुझ को वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा काबा ओ दैर में या चश्म-ओ-दिल-ए-आशिक़ में इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा तर्क-ए-आदत से मुझे नींद नहीं आने की कहीं नीचा न हो ऐ गोर सिरहाना तेरा मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंज-ए-फ़िराक़ वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा बज़्म-ए-दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा अपनी आँखों में अभी कौंद गई बिजली सी हम न समझे कि ये आना है कि जाना तेरा यूँ तो क्या आएगा तू फ़र्त-ए-नज़ाकत से यहाँ सख़्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा 'दाग़' को यूँ वो मिटाते हैं ये फ़रमाते हैं तू बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा
tumhaare-khat-men-nayaa-ik-salaam-kis-kaa-thaa-dagh-dehlvi-ghazals
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं ये काम किस ने किया है ये काम किस का था वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था न पूछ-गछ थी किसी की वहाँ न आव-भगत तुम्हारी बज़्म में कल एहतिमाम किस का था तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़ कहो वो तज़्किरा-ए-ना-तमाम किस का था हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किए पढ़ा भी नहीं सुना जो तू ने ब-दिल वो पयाम किस का था उठाई क्यूँ न क़यामत अदू के कूचे में लिहाज़ आप को वक़्त-ए-ख़िराम किस का था गुज़र गया वो ज़माना कहूँ तो किस से कहूँ ख़याल दिल को मिरे सुब्ह ओ शाम किस का था हमें तो हज़रत-ए-वाइज़ की ज़िद ने पिलवाई यहाँ इरादा-ए-शर्ब-ए-मुदाम किस का था अगरचे देखने वाले तिरे हज़ारों थे तबाह-हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किस का था वो कौन था कि तुम्हें जिस ने बेवफ़ा जाना ख़याल-ए-ख़ाम ये सौदा-ए-ख़ाम किस का था इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर जो लुत्फ़ आम वो करते ये नाम किस का था हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला ये पूछे उन से कोई वो ग़ुलाम किस का था
achchhii-suurat-pe-gazab-tuut-ke-aanaa-dil-kaa-dagh-dehlvi-ghazals
अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का याद आता है हमें हाए ज़माना दिल का तुम भी मुँह चूम लो बे-साख़्ता प्यार आ जाए मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का निगह-ए-यार ने की ख़ाना-ख़राबी ऐसी न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का पूरी मेहंदी भी लगानी नहीं आती अब तक क्यूँकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का ग़ुंचा-ए-गुल को वो मुट्ठी में लिए आते थे मैं ने पूछा तो किया मुझ से बहाना दिल का इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह होश आता है तो आता है सताना दिल का दे ख़ुदा और जगह सीना ओ पहलू के सिवा कि बुरे वक़्त में हो जाए ठिकाना दिल का मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले उन का जाना था इलाही कि ये जाना दिल का निगह-ए-शर्म को बे-ताब किया काम किया रंग लाया तिरी आँखों में समाना दिल का उँगलियाँ तार-ए-गरेबाँ में उलझ जाती हैं सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का हूर की शक्ल हो तुम नूर के पुतले हो तुम और इस पर तुम्हें आता है जलाना दिल का छोड़ कर उस को तिरी बज़्म से क्यूँकर जाऊँ इक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का बे-दिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं कर लिया तू ने कहीं और ठिकाना दिल का बा'द मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का
is-nahiin-kaa-koii-ilaaj-nahiin-dagh-dehlvi-ghazals
इस नहीं का कोई इलाज नहीं रोज़ कहते हैं आप आज नहीं कल जो था आज वो मिज़ाज नहीं इस तलव्वुन का कुछ इलाज नहीं आइना देखते ही इतराए फिर ये क्या है अगर मिज़ाज नहीं ले के दिल रख लो काम आएगा गो अभी तुम को एहतियाज नहीं हो सकें हम मिज़ाज-दाँ क्यूँकर हम को मिलता तिरा मिज़ाज नहीं चुप लगी लाल-ए-जाँ-फ़ज़ा को तिरे इस मसीहा का कुछ इलाज नहीं दिल-ए-बे-मुद्दआ ख़ुदा ने दिया अब किसी शय की एहतियाज नहीं खोटे दामों में ये भी क्या ठहरा दिरहम-ए-'दाग़' का रिवाज नहीं बे-नियाज़ी की शान कहती है बंदगी की कुछ एहतियाज नहीं दिल-लगी कीजिए रक़ीबों से इस तरह का मिरा मिज़ाज नहीं इश्क़ है पादशाह-ए-आलम-गीर गरचे ज़ाहिर में तख़्त-ओ-ताज नहीं दर्द-ए-फ़ुर्क़त की गो दवा है विसाल इस के क़ाबिल भी हर मिज़ाज नहीं यास ने क्या बुझा दिया दिल को कि तड़प कैसी इख़्तिलाज नहीं हम तो सीरत-पसंद आशिक़ हैं ख़ूब-रू क्या जो ख़ुश-मिज़ाज नहीं हूर से पूछता हूँ जन्नत में इस जगह क्या बुतों का राज नहीं सब्र भी दिल को 'दाग़' दे लेंगे अभी कुछ इस की एहतियाज नहीं
ranj-kii-jab-guftuguu-hone-lagii-dagh-dehlvi-ghazals
रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी आप से तुम तुम से तू होने लगी चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़ लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई उन की शोहरत कू-ब-कू होने लगी है तिरी तस्वीर कितनी बे-हिजाब हर किसी के रू-ब-रू होने लगी ग़ैर के होते भला ऐ शाम-ए-वस्ल क्यूँ हमारे रू-ब-रू होने लगी ना-उम्मीदी बढ़ गई है इस क़दर आरज़ू की आरज़ू होने लगी अब के मिल कर देखिए क्या रंग हो फिर हमारी जुस्तुजू होने लगी 'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आज शायद उन की आबरू होने लगी
dil-pareshaan-huaa-jaataa-hai-dagh-dehlvi-ghazals
दिल परेशान हुआ जाता है और सामान हुआ जाता है ख़िदमत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ कर ज़ाहिद तू अब इंसान हुआ जाता है मौत से पहले मुझे क़त्ल करो उस का एहसान हुआ जाता है लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए दर्द अरमान हुआ जाता है दम ज़रा लो कि मिरा दम तुम पर अभी क़ुर्बान हुआ जाता है गिर्या क्या ज़ब्त करूँ ऐ नासेह अश्क पैमान हुआ जाता है बेवफ़ाई से भी रफ़्ता रफ़्ता वो मिरी जान हुआ जाता है अर्सा-ए-हश्र में वो आ पहुँचे साफ़ मैदान हुआ जाता है मदद ऐ हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद काम आसान हुआ जाता है छाई जाती है ये वहशत कैसी घर बयाबान हुआ जाता है शिकवा सुन आँख मिला कर ज़ालिम क्यूँ पशेमान हुआ जाता है आतिश-ए-शौक़ बुझी जाती है ख़ाक अरमान हुआ जाता है उज़्र जाने में न कर ऐ क़ासिद तू भी नादान हुआ जाता है मुज़्तरिब क्यूँ न हों अरमाँ दिल में क़ैद मेहमान हुआ जाता है 'दाग़' ख़ामोश न लग जाए नज़र शे'र दीवान हुआ जाता है
kaun-saa-taair-e-gum-gashta-use-yaad-aayaa-dagh-dehlvi-ghazals
कौन सा ताइर-ए-गुम-गश्ता उसे याद आया देखता भालता हर शाख़ को सय्याद आया मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया वो मिरा भूलने वाला जो मुझे याद आया कोई भूला हुआ अंदाज़-ए-सितम याद आया कि तबस्सुम तुझे ज़ालिम दम-ए-बेदाद आया लाए हैं लोग जनाज़े की तरह महशर में किस मुसीबत से तिरा कुश्ता-ए-बेदाद आया जज़्ब-ए-वहशत तिरे क़ुर्बान तिरा क्या कहना खिंच के रग रग में मिरे नश्तर-ए-फ़स्साद आया उस के जल्वे को ग़रज़ कौन-ओ-मकाँ से क्या था दाद लेने के लिए हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद आया बस्तियों से यही आवाज़ चली आती है जो किया तू ने वो आगे तिरे फ़रहाद आया दिल-ए-वीराँ से रक़ीबों ने मुरादें पाईं काम किस किस के मिरा ख़िर्मन-ए-बर्बाद आया इश्क़ के आते ही मुँह पर मिरे फूली है बसंत हो गया ज़र्द ये शागिर्द जब उस्ताद आया हो गया फ़र्ज़ मुझे शौक़ का दफ़्तर लिखना जब मिरे हाथ कोई ख़ामा-ए-फ़ौलाद आया ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए सब गले मिलने लगे जब कि वो जल्लाद आया चैन करते हैं वहाँ रंज उठाने वाले काम उक़्बा में हमारा दिल-ए-नाशाद आया दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात हाए कम-बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया मेरे नाले ने सुनाई है खरी किस किस को मुँह फ़रिश्तों पे ये गुस्ताख़ ये आज़ाद आया ग़म-ए-जावेद ने दी मुझ को मुबारकबादी जब सुना ये कि उन्हें शेवा-ए-बेदाद आया मैं तमन्ना-ए-शहादत का मज़ा भूल गया आज इस शौक़ से अरमान से जल्लाद आया शादियाना जो दिया नाला ओ शेवन ने दिया जब मुलाक़ात को नाशाद की नाशाद आया लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया आप की बज़्म में सब कुछ है मगर 'दाग़' नहीं हम को वो ख़ाना-ख़राब आज बहुत याद आया
dil-gayaa-tum-ne-liyaa-ham-kyaa-karen-dagh-dehlvi-ghazals
दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें हम ने मर कर हिज्र में पाई शिफ़ा ऐसे अच्छों का वो मातम क्या करें अपने ही ग़म से नहीं मिलती नजात इस बिना पर फ़िक्र-ए-आलम क्या करें एक साग़र पर है अपनी ज़िंदगी रफ़्ता रफ़्ता इस से भी कम क्या करें कर चुके सब अपनी अपनी हिकमतें दम निकलता हो तो हमदम क्या करें दिल ने सीखा शेवा-ए-बेगानगी ऐसे ना-महरम को महरम क्या करें मा'रका है आज हुस्न ओ इश्क़ का देखिए वो क्या करें हम क्या करें आईना है और वो हैं देखिए फ़ैसला दोनों ये बाहम क्या करें आदमी होना बहुत दुश्वार है फिर फ़रिश्ते हिर्स-ए-आदम क्या करें तुंद-ख़ू है कब सुने वो दिल की बात और भी बरहम को बरहम क्या करें हैदराबाद और लंगर याद है अब के दिल्ली में मोहर्रम क्या करें कहते हैं अहल-ए-सिफ़ारिश मुझ से 'दाग़' तेरी क़िस्मत है बुरी हम क्या करें
in-aankhon-ne-kyaa-kyaa-tamaashaa-na-dekhaa-dagh-dehlvi-ghazals
इन आँखों ने क्या क्या तमाशा न देखा हक़ीक़त में जो देखना था न देखा तुझे देख कर वो दुई उठ गई है कि अपना भी सानी न देखा न देखा उन आँखों के क़ुर्बान जाऊँ जिन्हों ने हज़ारों हिजाबों में परवाना देखा न हिम्मत न क़िस्मत न दिल है न आँखें न ढूँडा न पाया न समझा न देखा मरीज़ान-ए-उल्फ़त की क्या बे-कसी है मसीहा को भी चारा-फ़रमा न देखा बहुत दर्द-मंदों को देखा है तू ने ये सीना ये दिल ये कलेजा न देखा वो कब देख सकता है उस की तजल्ली जिस इंसान ने अपना ही जल्वा न देखा बहुत शोर सुनते थे इस अंजुमन का यहाँ आ के जो कुछ सुना था न देखा सफ़ाई है बाग़-ए-मोहब्बत में ऐसी कि बाद-ए-सबा ने भी तिनका न देखा उसे देख कर और को फिर जो देखे कोई देखने वाला ऐसा न देखा वो था जल्वा-आरा मगर तू ने मूसा न देखा न देखा न देखा न देखा गया कारवाँ छोड़ कर मुझ को तन्हा ज़रा मेरे आने का रस्ता न देखा कहाँ नक़्श-ए-अव्वल कहाँ नक़्श-ए-सानी ख़ुदा की ख़ुदाई में तुझ सा न देखा तिरी याद है या है तेरा तसव्वुर कभी 'दाग़' को हम ने तन्हा न देखा
dil-ko-kyaa-ho-gayaa-khudaa-jaane-dagh-dehlvi-ghazals
दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने अपने ग़म में भी उस को सरफ़ा है न खिला जाने वो न खा जाने इस तजाहुल का क्या ठिकाना है जान कर जो न मुद्दआ' जाने कह दिया मैं ने राज़-ए-दिल अपना उस को तुम जानो या ख़ुदा जाने क्या ग़रज़ क्यूँ इधर तवज्जोह हो हाल-ए-दिल आप की बला जाने जानते जानते ही जानेगा मुझ में क्या है अभी वो क्या जाने क्या हम उस बद-गुमाँ से बात करें जो सताइश को भी गिला जाने तुम न पाओगे सादा-दिल मुझ सा जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने है अबस जुर्म-ए-इश्क़ पर इल्ज़ाम जब ख़ता-वार भी ख़ता जाने नहीं कोताह दामन-ए-उम्मीद आगे अब दस्त-ए-ना-रसा जाने जो हो अच्छा हज़ार अच्छों का वाइ'ज़ उस बुत को तू बुरा जाने की मिरी क़द्र मिस्ल-ए-शाह-ए-दकन किसी नव्वाब ने न राजा ने उस से उट्ठेगी क्या मुसीबत-ए-इश्क़ इब्तिदा को जो इंतिहा जाने 'दाग़' से कह दो अब न घबराओ काम अपना बता हुआ जाने
gair-ko-munh-lagaa-ke-dekh-liyaa-dagh-dehlvi-ghazals
ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया झूट सच आज़मा के देख लिया उन के घर 'दाग़' जा के देख लिया दिल के कहने में आ के देख लिया कितनी फ़रहत-फ़ज़ा थी बू-ए-वफ़ा उस ने दिल को जला के देख लिया कभी ग़श में रहा शब-ए-वा'दा कभी गर्दन उठा के देख लिया जिंस-ए-दिल है ये वो नहीं सौदा हर जगह से मँगा के देख लिया लोग कहते हैं चुप लगी है तुझे हाल-ए-दिल भी सुना के देख लिया जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा बार-हा आज़मा के देख लिया ज़ख़्म-ए-दिल में नहीं है क़तरा-ए-ख़ूँ ख़ूब हम ने दिखा के देख लिया इधर आईना है उधर दिल है जिस को चाहा उठा के देख लिया उन को ख़ल्वत-सरा में बे-पर्दा साफ़ मैदान पा के देख लिया उस ने सुब्ह-ए-शब-ए-विसाल मुझे जाते जाते भी आ के देख लिया तुम को है वस्ल-ए-ग़ैर से इंकार और जो हम ने आ के देख लिया 'दाग़' ने ख़ूब आशिक़ी का मज़ा जल के देखा जला के देख लिया
dil-churaa-kar-nazar-churaaii-hai-dagh-dehlvi-ghazals
दिल चुरा कर नज़र चुराई है लुट गए लुट गए दुहाई है एक दिन मिल के फिर नहीं मिलते किस क़यामत की ये जुदाई है ऐ असर कर न इंतिज़ार-ए-दुआ माँगना सख़्त बे-हयाई है मैं यहाँ हूँ वहाँ है दिल मेरा ना-रसाई अजब रसाई है इस तरह अहल-ए-नाज़ नाज़ करें बंदगी है कि ये ख़ुदाई है पानी पी पी के तौबा करता हूँ पारसाई सी पारसाई है वा'दा करने का इख़्तियार रहा बात करने में क्या बुराई है कब निकलता है अब जिगर से तीर ये भी क्या तेरी आश्नाई है 'दाग़' उन से दिमाग़ करते हैं नहीं मालूम क्या समाई है
ajab-apnaa-haal-hotaa-jo-visaal-e-yaar-hotaa-dagh-dehlvi-ghazals
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता कोई फ़ित्ना ता-क़यामत न फिर आश्कार होता तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें ए'तिबार होता ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुश-गवार होता ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता तिरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ए'तिबार होता ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी मुझे क्या उलट न देते जो न बादा-ख़्वार होता मुझे मानते सब ऐसा कि अदू भी सज्दे करते दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता तुम्हें नाज़ हो न क्यूँकर कि लिया है 'दाग़' का दिल ये रक़म न हाथ लगती न ये इफ़्तिख़ार होता
is-adaa-se-vo-jafaa-karte-hain-dagh-dehlvi-ghazals
इस अदा से वो जफ़ा करते हैं कोई जाने कि वफ़ा करते हैं यूँ वफ़ा अहद-ए-वफ़ा करते हैं आप क्या कहते हैं क्या करते हैं हम को छेड़ोगे तो पछताओगे हँसने वालों से हँसा करते हैं नामा-बर तुझ को सलीक़ा ही नहीं काम बातों में बना करते हैं चलिए आशिक़ का जनाज़ा उट्ठा आप बैठे हुए क्या करते हैं ये बताता नहीं कोई मुझ को दिल जो आता है तो क्या करते हैं हुस्न का हक़ नहीं रहता बाक़ी हर अदा में वो अदा करते हैं तीर आख़िर बदल-ए-काफ़िर है हम अख़ीर आज दुआ करते हैं रोते हैं ग़ैर का रोना पहरों ये हँसी मुझ से हँसा करते हैं इस लिए दिल को लगा रक्खा है इस में महबूब रहा करते हैं तुम मिलोगे न वहाँ भी हम से हश्र से पहले गिला करते हैं झाँक कर रौज़न-ए-दर से मुझ को क्या वो शोख़ी से हया करते हैं उस ने एहसान जता कर ये कहा आप किस मुँह से गिला करते हैं रोज़ लेते हैं नया दिल दिलबर नहीं मालूम ये क्या करते हैं 'दाग़' तू देख तो क्या होता है जब्र पर सब्र किया करते हैं
lutf-vo-ishq-men-paae-hain-ki-jii-jaantaa-hai-dagh-dehlvi-ghazals
लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है रंज भी ऐसे उठाए हैं कि जी जानता है जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने तू ने दिल इतने सताए हैं कि जी जानता है तुम नहीं जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़ वो मिरे दिल में समाए हैं कि जी जानता है इन्हीं क़दमों ने तुम्हारे इन्हीं क़दमों की क़सम ख़ाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है दोस्ती में तिरी दर-पर्दा हमारे दुश्मन इस क़दर अपने पराए हैं कि जी जानता है
uzr-un-kii-zabaan-se-niklaa-dagh-dehlvi-ghazals
उज़्र उन की ज़बान से निकला तीर गोया कमान से निकला वो छलावा इस आन से निकला अल-अमाँ हर ज़बान से निकला ख़ार-ए-हसरत बयान से निकला दिल का काँटा ज़बान से निकला फ़ित्ना-गर क्या मकान से निकला आसमाँ आसमान से निकला आ गया ग़श निगाह देखते ही मुद्दआ कब ज़बान से निकला खा गए थे वफ़ा का धोका हम झूट सच इम्तिहान से निकला दिल में रहने न दूँ तिरा शिकवा दिल में आया ज़बान से निकला वहम आते हैं देखिए क्या हो वो अकेला मकान से निकला तुम बरसते रहे सर-ए-महफ़िल कुछ भी मेरी ज़बान से निकला सच तो ये है मोआमला दिल का बाहर अपने गुमान से निकला उस को आयत हदीस क्या समझें जो तुम्हारी ज़बान से निकला पड़ गया जो ज़बाँ से तेरी हर्फ़ फिर न अपने मकान से निकला देख कर रू-ए-यार सल्ले-अला बे-तहाशा ज़बान से निकला लो क़यामत अब आई वो काफ़िर बन-बना कर मकान से निकला मर गए हम मगर तिरा अरमान दिल से निकला न जान से निकला रहरव-ए-राह-ए-इश्क़ थे लाखों आगे मैं कारवान से निकला समझो पत्थर की तुम लकीर उसे जो हमारी ज़बान से निकला बज़्म से तुम को ले के जाएँगे काम कब फूल-पान से निकला क्या मुरव्वत है नावक-ए-दिल-दोज़ पहले हरगिज़ न जान से निकला तेरे दीवानों का भी लश्कर आज किस तजम्मुल से शान से निकला मुड़ के देखा तो मैं ने कब देखा दूर जब पासबान से निकला वो हिले लब तुम्हारे वादे पर वो तुम्हारी ज़बान से निकला उस की बाँकी अदा ने जब मारा दम मिरा आन तान से निकला मेरे आँसू की उस ने की तारीफ़ ख़ूब मोती ये कान से निकला हम खड़े तुम से बातें करते थे ग़ैर क्यूँ दरमियान से निकला ज़िक्र अहल-ए-वफ़ा का जब आया 'दाग़' उन की ज़बान से निकला
sabaq-aisaa-padhaa-diyaa-tuu-ne-dagh-dehlvi-ghazals
सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने दिल से सब कुछ भला दिया तू ने हम निकम्मे हुए ज़माने के काम ऐसा सिखा दिया तू ने कुछ तअ'ल्लुक़ रहा न दुनिया से शग़्ल ऐसा बता दिया तू ने किस ख़ुशी की ख़बर सुना के मुझे ग़म का पुतला बना दिया तू ने क्या बताऊँ कि क्या लिया मैं ने क्या कहूँ मैं की क्या दिया तू ने बे-तलब जो मिला मिला मुझ को बे-ग़रज़ जो दिया दिया तू ने उम्र-ए-जावेद ख़िज़्र को बख़्शी आब-ए-हैवाँ पिला दिया तू ने नार-ए-नमरूद को किया गुलज़ार दोस्त को यूँ बचा दिया तू ने दस्त-ए-मूसा में फ़ैज़ बख़्शिश है नूर-ओ-लौह-ओ-असा दिया तू ने सुब्ह मौज नसीम गुलशन को नफ़स-ए-जाँ-फ़ज़ा दिया तू ने शब-ए-तीरा में शम्अ' रौशन को नूर ख़ुर्शीद का दिया तू ने नग़्मा बुलबुल को रंग-ओ-बू गुल को दिल-कश-ओ-ख़ुशनुमा दिया तू ने कहीं मुश्ताक़ से हिजाब हुआ कहीं पर्दा उठा दिया तू ने था मिरा मुँह न क़ाबिल-ए-लब्बैक का'बा मुझ को दिखा दिया तू ने जिस क़दर मैं ने तुझ से ख़्वाहिश की इस से मुझ को सिवा दिया तू ने रहबर-ए-ख़िज़्र-ओ-हादी-ए-इल्यास मुझ को वो रहनुमा दिया तू ने मिट गए दिल से नक़्श-ए-बातिल सब नक़्शा अपना जमा दिया तू ने है यही राह मंज़िल-ए-मक़्सूद ख़ूब रस्ते लगा दिया तू ने मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया तो जहन्नुम को क्या दिया तू ने 'दाग़' को कौन देने वाला था जो दिया ऐ ख़ुदा दिया तू ने
naa-ravaa-kahiye-naa-sazaa-kahiye-dagh-dehlvi-ghazals
ना-रवा कहिए ना-सज़ा कहिए कहिए कहिए मुझे बुरा कहिए तुझ को बद-अहद ओ बेवफ़ा कहिए ऐसे झूटे को और क्या कहिए दर्द दिल का न कहिए या कहिए जब वो पूछे मिज़ाज क्या कहिए फिर न रुकिए जो मुद्दआ कहिए एक के बा'द दूसरा कहिए आप अब मेरा मुँह न खुलवाएँ ये न कहिए कि मुद्दआ कहिए वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिए दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हरगिज़ न बरमला कहिए तुझ को अच्छा कहा है किस किस ने कहने वालों को और क्या कहिए वो भी सुन लेंगे ये कभी न कभी हाल-ए-दिल सब से जा-ब-जा कहिए मुझ को कहिए बुरा न ग़ैर के साथ जो हो कहना जुदा जुदा कहिए इंतिहा इश्क़ की ख़ुदा जाने दम-ए-आख़िर को इब्तिदा कहिए मेरे मतलब से क्या ग़रज़ मतलब आप अपना तो मुद्दआ कहिए ऐसी कश्ती का डूबना अच्छा कि जो दुश्मन को नाख़ुदा कहिए सब्र फ़ुर्क़त में आ ही जाता है पर उसे देर-आश्ना कहिए आ गई आप को मसीहाई मरने वालों को मर्हबा कहिए आप का ख़ैर-ख़्वाह मेरे सिवा है कोई और दूसरा कहिए हाथ रख कर वो अपने कानों पर मुझ से कहते हैं माजरा कहिए होश जाते रहे रक़ीबों के 'दाग़' को और बा-वफ़ा कहिए
sab-log-jidhar-vo-hain-udhar-dekh-rahe-hain-dagh-dehlvi-ghazals
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं तेवर तिरे ऐ रश्क-ए-क़मर देख रहे हैं हम शाम से आसार-ए-सहर देख रहे हैं मेरा दिल-ए-गुम-गश्ता जो ढूँडा नहीं मिलता वो अपना दहन अपनी कमर देख रहे हैं कोई तो निकल आएगा सरबाज़-ए-मोहब्बत दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं है मजमा-ए-अग़्यार कि हंगामा-ए-महशर क्या सैर मिरे दीदा-ए-तर देख रहे हैं अब ऐ निगह-ए-शौक़ न रह जाए तमन्ना इस वक़्त उधर से वो इधर देख रहे हैं हर-चंद कि हर रोज़ की रंजिश है क़यामत हम कोई दिन उस को भी मगर देख रहे हैं आमद है किसी की कि गया कोई इधर से क्यूँ सब तरफ़-ए-राहगुज़र देख रहे हैं तकरार तजल्ली ने तिरे जल्वे में क्यूँ की हैरत-ज़दा सब अहल-ए-नज़र देख रहे हैं नैरंग है एक एक तिरा दीद के क़ाबिल हम ऐ फ़लक-ए-शोबदा-गर देख रहे हैं कब तक है तुम्हारा सुख़न-ए-तल्ख़ गवारा इस ज़हर में कितना है असर देख रहे हैं कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना कुछ ग़ौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं अब तक तो जो क़िस्मत ने दिखाया वही देखा आइंदा हो क्या नफ़ा ओ ज़रर देख रहे हैं पहले तो सुना करते थे आशिक़ की मुसीबत अब आँख से वो आठ पहर देख रहे हैं क्यूँ कुफ़्र है दीदार-ए-सनम हज़रत-ए-वाइज़ अल्लाह दिखाता है बशर देख रहे हैं ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले अख़बार का परचा है ख़बर देख रहे हैं पढ़ पढ़ के वो दम करते हैं कुछ हाथ पर अपने हँस हँस के मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर देख रहे हैं मैं 'दाग़' हूँ मरता हूँ इधर देखिए मुझ को मुँह फेर के ये आप किधर देख रहे हैं
ye-baat-baat-men-kyaa-naazukii-nikaltii-hai-dagh-dehlvi-ghazals
ये बात बात में क्या नाज़ुकी निकलती है दबी दबी तिरे लब से हँसी निकलती है ठहर ठहर के जला दिल को एक बार न फूँक कि इस में बू-ए-मोहब्बत अभी निकलती है बजाए शिकवा भी देता हूँ मैं दुआ उस को मिरी ज़बाँ से करूँ क्या यही निकलती है ख़ुशी में हम ने ये शोख़ी कभी नहीं देखी दम-ए-इताब जो रंगत तिरी निकलती है हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है अदा से तेरी मगर खिंच रहीं हैं तलवारें निगह निगह से छुरी पर छुरी निकलती है मुहीत-ए-इश्क़ में है क्या उमीद ओ बीम मुझे कि डूब डूब के कश्ती मिरी निकलती है झलक रही है सर-ए-शाख़-ए-मिज़ा ख़ून की बूँद शजर में पहले समर से कली निकलती है शब-ए-फ़िराक़ जो खोले हैं हम ने ज़ख़्म-ए-जिगर ये इंतिज़ार है कब चाँदनी निकलती है समझ तो लीजिए कहने तो दीजिए मतलब बयाँ से पहले ही मुझ पर छुरी निकलती है ये दिल की आग है या दिल के नूर का है ज़ुहूर नफ़स नफ़स में मिरे रौशनी निकलती है कहा जो मैं ने कि मर जाऊँगा तो कहते हैं हमारे ज़ाइचे में ज़िंदगी निकलती है समझने वाले समझते हैं पेच की तक़रीर कि कुछ न कुछ तिरी बातों में फ़ी निकलती है दम-ए-अख़ीर तसव्वुर है किस परी-वश का कि मेरी रूह भी बन कर परी निकलती है सनम-कदे में भी है हुस्न इक ख़ुदाई का कि जो निकलती है सूरत परी निकलती है मिरे निकाले न निकलेगी आरज़ू मेरी जो तुम निकालना चाहो अभी निकलती है ग़म-ए-फ़िराक़ में हो 'दाग़' इस क़दर बेताब ज़रा से रंज में जाँ आप की निकलती है
kahte-hain-jis-ko-huur-vo-insaan-tumhiin-to-ho-dagh-dehlvi-ghazals
कहते हैं जिस को हूर वो इंसाँ तुम्हीं तो हो जाती है जिस पे जान मिरी जाँ तुम्हीं तो हो मतलब की कह रहे हैं वो दाना हमीं तो हैं मतलब की पूछते हो वो नादाँ तुम्हीं तो हो आता है बाद-ए-ज़ुल्म तुम्हीं को तो रहम भी अपने किए से दिल में पशेमाँ तुम्हीं तो हो पछताओगे बहुत मिरे दिल को उजाड़ कर इस घर में और कौन है मेहमाँ तुम्हीं तो हो इक रोज़ रंग लाएँगी ये मेहरबानियाँ हम जानते थे जान के ख़्वाहाँ तुम्हीं तो हो दिलदार ओ दिल-फ़रेब दिल-आज़ार ओ दिल-सिताँ लाखों में हम कहेंगे कि हाँ हाँ तुम्हीं तो हो करते हो 'दाग़' दूर से बुत-ख़ाने को सलाम अपनी तरह के एक मुसलमाँ तुम्हीं तो हो
un-ke-ik-jaan-nisaar-ham-bhii-hain-dagh-dehlvi-ghazals
उन के इक जाँ-निसार हम भी हैं हैं जहाँ सौ हज़ार हम भी हैं तुम भी बेचैन हम भी हैं बेचैन तुम भी हो बे-क़रार हम भी हैं ऐ फ़लक कह तो क्या इरादा है ऐश के ख़्वास्त-गार हम भी हैं खींच लाएगा जज़्ब-ए-दिल उन को हमा तन इंतिज़ार हम भी हैं बज़्म-ए-दुश्मन में ले चला है दिल कैसे बे-इख़्तियार हम भी हैं शहर ख़ाली किए दुकाँ कैसी एक ही बादा-ख़्वार हम भी हैं शर्म समझे तिरे तग़ाफ़ुल को वाह क्या होशियार हम भी हैं हाथ हम से मिलाओ ऐ मूसा आशिक़-ए-रू-ए-यार हम भी हैं ख़्वाहिश-ए-बादा-ए-तुहूर नहीं कैसे परहेज़-गार हम भी हैं तुम अगर अपनी गूँ के हो मा'शूक़ अपने मतलब के यार हम भी हैं जिस ने चाहा फँसा लिया हम को दिलबरों के शिकार हम भी हैं आई मय-ख़ाने से ये किस की सदा लाओ यारों के यार हम भी हैं ले ही तो लेगी दिल निगाह तिरी हर तरह होशियार हम भी हैं इधर आ कर भी फ़ातिहा पढ़ लो आज ज़ेर-ए-मज़ार हम भी हैं ग़ैर का हाल पूछिए हम से उस के जलसे के यार हम भी हैं कौन सा दिल है जिस में 'दाग़' नहीं इश्क़ में यादगार हम भी हैं
falak-detaa-hai-jin-ko-aish-un-ko-gam-bhii-hote-hain-dagh-dehlvi-ghazals
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं गिले शिकवे कहाँ तक होंगे आधी रात तो गुज़री परेशाँ तुम भी होते हो परेशाँ हम भी होते हैं जो रक्खे चारागर काफ़ूर दूनी आग लग जाए कहीं ये ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम भी होते हैं वो आँखें सामरी-फ़न हैं वो लब ईसा-नफ़स देखो मुझी पर सेहर होते हैं मुझी पर दम भी होते हैं ज़माना दोस्ती पर इन हसीनों की न इतराए ये आलम-दोस्त अक्सर दुश्मन-ए-आलम भी होते हैं ब-ज़ाहिर रहनुमा हैं और दिल में बद-गुमानी है तिरे कूचे में जो जाता है आगे हम भी होते हैं हमारे आँसुओं की आबदारी और ही कुछ है कि यूँ होने को रौशन गौहर-ए-शबनम भी होते हैं ख़ुदा के घर में क्या है काम ज़ाहिद बादा-ख़्वारों का जिन्हें मिलती नहीं वो तिश्ना-ए-ज़मज़म भी होते हैं हमारे साथ ही पैदा हुआ है इश्क़ ऐ नासेह जुदाई किस तरह से हो जुदा तवाम भी होते हैं नहीं घटती शब-ए-फ़ुर्क़त भी अक्सर हम ने देखा है जो बढ़ जाते हैं हद से वो ही घट कर कम भी होते हैं बचाऊँ पैरहन क्या चारागर मैं दस्त-ए-वहशत से कहीं ऐसे गरेबाँ दामन-ए-मरयम भी होते हैं तबीअत की कजी हरगिज़ मिटाए से नहीं मिटती कभी सीधे तुम्हारे गेसू-ए-पुर-ख़म भी होते हैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं मर जाओ जो ग़श आता है तो मुझ पर हज़ारों दम भी होते हैं किसी का वादा-ए-दीदार तो ऐ 'दाग़' बर-हक़ है मगर ये देखिए दिल-शाद उस दिन हम भी होते हैं
saaz-ye-kiina-saaz-kyaa-jaanen-dagh-dehlvi-ghazals
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें नाज़ वाले नियाज़ क्या जानें शम्अ'-रू आप गो हुए लेकिन लुत्फ़-ए-सोज़-ओ-गुदाज़ क्या जानें कब किसी दर की जब्हा-साई की शैख़ साहब नमाज़ क्या जानें जो रह-ए-इश्क़ में क़दम रक्खें वो नशेब-ओ-फ़राज़ क्या जानें पूछिए मय-कशों से लुत्फ़-ए-शराब ये मज़ा पाक-बाज़ क्या जानें बले चितवन तिरी ग़ज़ब री निगाह क्या करेंगे ये नाज़ क्या जानें जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक वो मिरे दिल का राज़ क्या जानें हज़रत-ए-ख़िज़्र जब शहीद न हों लुत्फ़-ए-उम्र-ए-दराज़ क्या जानें जो गुज़रते हैं 'दाग़' पर सदमे आप बंदा-नवाज़ क्या जानें
zaahid-na-kah-burii-ki-ye-mastaane-aadmii-hain-dagh-dehlvi-ghazals
ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं तुझ को लिपट पड़ेंगे दीवाने आदमी हैं ग़ैरों की दोस्ती पर क्यूँ ए'तिबार कीजे ये दुश्मनी करेंगे बेगाने आदमी हैं जो आदमी पे गुज़री वो इक सिवा तुम्हारे क्या जी लगा के सुनते अफ़्साने आदमी हैं क्या जुरअतें जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं मय बूँद भर पिला कर क्या हँस रहा है साक़ी भर भर के पीते आख़िर पैमाने आदमी हैं तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है आबाद करते आख़िर वीराने आदमी हैं नासेह से कोई कह दे कीजे कलाम ऐसा हज़रत को ता कि कोई ये जाने आदमी हैं जब दावर-ए-क़यामत पूछेगा तुम पे रख कर कह देंगे साफ़ हम तो बेगाने आदमी हैं मैं वो बशर कि मुझ से हर आदमी को नफ़रत तुम शम्अ वो कि तुम पर परवाने आदमी हैं महफ़िल भरी हुई है सौदाइयों से उस की उस ग़ैरत-ए-परी पर दीवाने आदमी हैं शाबाश 'दाग़' तुझ को क्या तेग़-ए-इश्क़ खाई जी करते हैं वही जो मर्दाने आदमी हैं
jo-ho-saktaa-hai-us-se-vo-kisii-se-ho-nahiin-saktaa-dagh-dehlvi-ghazals
जो हो सकता है उस से वो किसी से हो नहीं सकता मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता मोहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकता मिरा मरना भी तो मेरी ख़ुशी से हो नहीं सकता अलग करना रक़ीबों का इलाही तुझ को आसाँ है मुझे मुश्किल कि मेरी बेकसी से हो नहीं सकता किया है वादा-ए-फ़र्दा उन्हों ने देखिए क्या हो यहाँ सब्र ओ तहम्मुल आज ही से हो नहीं सकता ये मुश्ताक़-ए-शहादत किस जगह जाएँ किसे ढूँडें कि तेरा काम क़ातिल जब तुझी से हो नहीं सकता लगा कर तेग़ क़िस्सा पाक कीजिए दाद-ख़्वाहों का किसी का फ़ैसला कर मुंसिफ़ी से हो नहीं सकता मिरा दुश्मन ब-ज़ाहिर चार दिन को दोस्त है तेरा किसी का हो रहे ये हर किसी से हो नहीं सकता पुर्सिश कहोगे क्या वहाँ जब याँ ये सूरत है अदा इक हर्फ़-ए-वादा नाज़ुकी से हो नहीं सकता न कहिए गो कि हाल-ए-दिल मगर रंग-आश्ना हैं हम ये ज़ाहिर आप की क्या ख़ामुशी से हो नहीं सकता किया जो हम ने ज़ालिम क्या करेगा ग़ैर मुँह क्या है करे तो सब्र ऐसा आदमी से हो नहीं सकता चमन में नाज़ बुलबुल ने किया जो अपनी नाले पर चटक कर ग़ुंचा बोला क्या किसी से हो नहीं सकता नहीं गर तुझ पे क़ाबू दिल है पर कुछ ज़ोर हो अपना करूँ क्या ये भी तो ना-ताक़ती से हो नहीं सकता न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता हुआ हूँ इस क़दर महजूब अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के कि अब तो उज़्र भी शर्मिंदगी से हो नहीं सकता ग़ज़ब में जान है क्या कीजे बदला रंज-ए-फ़ुर्क़त का बदी से कर नहीं सकते ख़ुशी से हो नहीं सकता मज़ा जो इज़्तिराब-ए-शौक़ से आशिक़ को है हासिल वो तस्लीम ओ रज़ा ओ बंदगी से हो नहीं सकता ख़ुदा जब दोस्त है ऐ 'दाग़' क्या दुश्मन से अंदेशा हमारा कुछ किसी की दुश्मनी से हो नहीं सकता
vo-zamaana-nazar-nahiin-aataa-dagh-dehlvi-ghazals
वो ज़माना नज़र नहीं आता कुछ ठिकाना नज़र नहीं आता जान जाती दिखाई देती है उन का आना नज़र नहीं आता इश्क़ दर-पर्दा फूँकता है आग ये जलाना नज़र नहीं आता इक ज़माना मिरी नज़र में रहा इक ज़माना नज़र नहीं आता दिल ने इस बज़्म में बिठा तो दिया उठ के जाना नज़र नहीं आता रहिए मुश्ताक़-ए-जल्वा-ए-दीदार हम ने माना नज़र नहीं आता ले चलो मुझ को राह-रवान-ए-अदम याँ ठिकाना नज़र नहीं आता दिल पे बैठा कहाँ से तीर-ए-निगाह ये निशाना नज़र नहीं आता तुम मिलाओगे ख़ाक में हम को दिल मिलाना नज़र नहीं आता आप ही देखते हैं हम को तो दिल का आना नज़र नहीं आता दिल-ए-पुर-आरज़ू लुटा ऐ 'दाग़' वो ख़ज़ाना नज़र नहीं आता
bhaven-tantii-hain-khanjar-haath-men-hai-tan-ke-baithe-hain-dagh-dehlvi-ghazals
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं किसी से आज बिगड़ी है कि वो यूँ बन के बैठे हैं दिलों पर सैकड़ों सिक्के तिरे जोबन के बैठे हैं कलेजों पर हज़ारों तीर इस चितवन के बैठे हैं इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं ये गुस्ताख़ी ये छेड़ अच्छी नहीं है ऐ दिल-ए-नादाँ अभी फिर रूठ जाएँगे अभी तो मन के बैठे हैं असर है जज़्ब-ए-उल्फ़त में तो खिंच कर आ ही जाएँगे हमें पर्वा नहीं हम से अगर वो तन के बैठे हैं सुबुक हो जाएँगे गर जाएँगे वो बज़्म-ए-दुश्मन में कि जब तक घर में बैठे हैं वो लाखों मन के बैठे हैं फ़ुसूँ है या दुआ है या मुअ'म्मा खुल नहीं सकता वो कुछ पढ़ते हुए आगे मिरे मदफ़न के बैठे हैं बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैं ने ख़्वाब देखा है कि आप आँसू बहाते सामने दुश्मन के बैठे हैं खड़े हों ज़ेर-ए-तूबा वो न दम लेने को दम भर भी जो हसरत-मंद तेरे साया-ए-दामन के बैठे हैं तलाश-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद की गर्दिश उठ नहीं सकती कमर खोले हुए रस्ते में हम रहज़न के बैठे हैं ये जोश-ए-गिर्या तो देखो कि जब फ़ुर्क़त में रोया हूँ दर ओ दीवार इक पल में मिरे मदफ़न के बैठे हैं निगाह-ए-शोख़ ओ चश्म-ए-शौक़ में दर-पर्दा छनती है कि वो चिलमन में हैं नज़दीक हम चिलमन के बैठे हैं ये उठना बैठना महफ़िल में उन का रंग लाएगा क़यामत बन के उट्ठेंगे भबूका बन के बैठे हैं किसी की शामत आएगी किसी की जान जाएगी किसी की ताक में वो बाम पर बन-ठन के बैठे हैं क़सम दे कर उन्हें ये पूछ लो तुम रंग-ढंग उस के तुम्हारी बज़्म में कुछ दोस्त भी दुश्मन के बैठे हैं कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं
gazab-kiyaa-tire-vaade-pe-e-tibaar-kiyaa-dagh-dehlvi-ghazals
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया किसी तरह जो न उस बुत ने ए'तिबार किया मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया हँसा हँसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया तसल्लियाँ मुझे दे दे के बे-क़रार किया ये किस ने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया कि दिल से शोर उठा हाए बे-क़रार किया सुना है तेग़ को क़ातिल ने आब-दार किया अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया न आए राह पे वो इज्ज़ बे-शुमार किया शब-ए-विसाल भी मैं ने तो इंतिज़ार किया तुझे तो वादा-ए-दीदार हम से करना था ये क्या किया कि जहाँ को उमीद-वार किया ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआल-अंदेश उन्हों ने वअ'दा किया इस ने ए'तिबार किया कहाँ का सब्र कि दम पर है बन गई ज़ालिम ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आश्कार किया तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादाँ कि ग़ैर कहते हैं अख़ीर कुछ न बनी सब्र इख़्तियार किया मिले जो यार की शोख़ी से उस की बेचैनी तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया भुला भुला के जताया है उन को राज़-ए-निहाँ छुपा छुपा के मोहब्बत को आश्कार किया न उस के दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता सबा ने ख़ाक परेशाँ मिरा ग़ुबार किया हम ऐसे महव-ए-नज़ारा न थे जो होश आता मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होश्यार किया हमारे सीने में जो रह गई थी आतिश-ए-हिज्र शब-ए-विसाल भी उस को न हम-कनार किया रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है वो और इश्क़ भला तुम ने ए'तिबार किया ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया तिरी निगह के तसव्वुर में हम ने ऐ क़ातिल लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया ग़ज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैं ने धोके में हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया हुआ है कोई मगर उस का चाहने वाला कि आसमाँ ने तिरा शेवा इख़्तियार किया न पूछ दिल की हक़ीक़त मगर ये कहते हैं वो बे-क़रार रहे जिस ने बे-क़रार किया जब उन को तर्ज़-ए-सितम आ गए तो होश आया बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होश्यार किया फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को इक कहानी थी कुछ ए'तिबार किया कुछ न ए'तिबार किया असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे कुछ आप ने मिरे कहने का ए'तिबार किया किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बद-गुमानी थी कि डरते डरते ख़ुदा पर भी आश्कार किया फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे अख़ीर अब तुझे आशोब-ए-रोज़गार किया वो बात कर जो कभी आसमाँ से हो न सके सितम किया तो बड़ा तू ने इफ़्तिख़ार किया बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी एक ख़ाल-ए-सियाह जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आश्कार किया
majnuun-ne-shahr-chhodaa-to-sahraa-bhii-chhod-de-allama-iqbal-ghazals
मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे नज़्ज़ारे की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे वाइ'ज़ कमाल-ए-तर्क से मिलती है याँ मुराद दुनिया जो छोड़ दी है तो उक़्बा भी छोड़ दे तक़लीद की रविश से तो बेहतर है ख़ुद-कुशी रस्ता भी ढूँड ख़िज़्र का सौदा भी छोड़ दे मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे लुत्फ़-ए-कलाम क्या जो न हो दिल में दर्द-ए-इश्क़ बिस्मिल नहीं है तू तो तड़पना भी छोड़ दे शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल इस बाग़ में क़याम का सौदा भी छोड़ दे है आशिक़ी में रस्म अलग सब से बैठना बुत-ख़ाना भी हरम भी कलीसा भी छोड़ दे सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है ऐ बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे जीना वो क्या जो हो नफ़स-ए-ग़ैर पर मदार शोहरत की ज़िंदगी का भरोसा भी छोड़ दे शोख़ी सी है सवाल-ए-मुकर्रर में ऐ कलीम शर्त-ए-रज़ा ये है कि तक़ाज़ा भी छोड़ दे वाइ'ज़ सुबूत लाए जो मय के जवाज़ में 'इक़बाल' को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे
hazaar-khauf-ho-lekin-zabaan-ho-dil-kii-rafiiq-allama-iqbal-ghazals
हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़ यही रहा है अज़ल से क़लंदरों का तरीक़ हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़ इलाज-ए-ज़ोफ़-ए-यक़ीं इन से हो नहीं सकता ग़रीब अगरचे हैं 'राज़ी' के नुक्ता-हाए-दक़ीक़ मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़ उसी तिलिस्म-ए-कुहन में असीर है आदम बग़ल में उस की हैं अब तक बुतान-ए-अहद-ए-अतीक़ मिरे लिए तो है इक़रार-ए-बिल-लिसाँ भी बहुत हज़ार शुक्र कि मुल्ला हैं साहिब-ए-तसदीक़ अगर हो इश्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर ओ ज़िंदीक़
har-shai-musaafir-har-chiiz-raahii-allama-iqbal-ghazals
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी ये बे-सवादी ये कम-निगाही दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी या राहेबी कर या पादशाही पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही
khird-mandon-se-kyaa-puuchhuun-ki-merii-ibtidaa-kyaa-hai-allama-iqbal-ghazals
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है मक़ाम-ए-गुफ़्तुगू क्या है अगर मैं कीमिया-गर हूँ यही सोज़-ए-नफ़स है और मेरी कीमिया क्या है नज़र आईं मुझे तक़दीर की गहराइयाँ इस में न पूछ ऐ हम-नशीं मुझ से वो चश्म-ए-सुर्मा-सा क्या है अगर होता वो 'मजज़ूब'-ए-फ़रंगी इस ज़माने में तो 'इक़बाल' उस को समझाता मक़ाम-ए-किबरिया क्या है नवा-ए-सुब्ह-गाही ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा ख़ुदाया जिस ख़ता की ये सज़ा है वो ख़ता क्या है
digar-guun-hai-jahaan-taaron-kii-gardish-tez-hai-saaqii-allama-iqbal-ghazals
दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी दिल-ए-हर-ज़र्रा में ग़ोग़ा-ए-रुस्ता-ख़े़ज़ है साक़ी मता-ए-दीन-ओ-दानिश लुट गई अल्लाह-वालों की ये किस काफ़िर-अदा का ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ है साक़ी वही देरीना बीमारी वही ना-मोहकमी दिल की इलाज इस का वही आब-ए-नशात-अंगेज़ है साक़ी हरम के दिल में सोज़-ए-आरज़ू पैदा नहीं होता कि पैदाई तिरी अब तक हिजाब-आमेज़ है साक़ी न उट्ठा फिर कोई 'रूमी' अजम के लाला-ज़ारों से वही आब-ओ-गिल-ए-ईराँ वही तबरेज़ है साक़ी नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी फ़क़ीर-ए-राह को बख़्शे गए असरार-ए-सुल्तानी बहा मेरी नवा की दौलत-ए-परवेज़ है साक़ी
jab-ishq-sikhaataa-hai-aadaab-e-khud-aagaahii-allama-iqbal-ghazals
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही 'अत्तार' हो 'रूमी' हो 'राज़ी' हो 'ग़ज़ाली' हो कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही नौमीद न हो इन से ऐ रहबर-ए-फ़रज़ाना कम-कोश तो हैं लेकिन बे-ज़ौक़ नहीं राही ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी जिस रिज़्क़ से आती हो पर्वाज़ में कोताही दारा ओ सिकंदर से वो मर्द-ए-फ़क़ीर औला हो जिस की फ़क़ीरी में बू-ए-असदूल-लाही आईन-ए-जवाँ-मर्दां हक़-गोई ओ बे-बाकी अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही
vahii-merii-kam-nasiibii-vahii-terii-be-niyaazii-allama-iqbal-ghazals
वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी' वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं कि पला हो करगसों में उसे क्या ख़बर कि क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से कि अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी
na-tuu-zamiin-ke-liye-hai-na-aasmaan-ke-liye-allama-iqbal-ghazals
न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए जहाँ है तेरे लिए तू नहीं जहाँ के लिए ये अक़्ल ओ दिल हैं शरर शोला-ए-मोहब्बत के वो ख़ार-ओ-ख़स के लिए है ये नीस्ताँ के लिए मक़ाम-ए-परवरिश-ए-आह-ओ-लाला है ये चमन न सैर-ए-गुल के लिए है न आशियाँ के लिए रहेगा रावी ओ नील ओ फ़ुरात में कब तक तिरा सफ़ीना कि है बहर-ए-बे-कराँ के लिए निशान-ए-राह दिखाते थे जो सितारों को तरस गए हैं किसी मर्द-ए-राह-दाँ के लिए निगह बुलंद सुख़न दिल-नवाज़ जाँ पुर-सोज़ यही है रख़्त-ए-सफ़र मीर-ए-कारवाँ के लिए ज़रा सी बात थी अंदेशा-ए-अजम ने उसे बढ़ा दिया है फ़क़त ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए मिरे गुलू में है इक नग़्मा जिब्राईल-आशोब संभाल कर जिसे रक्खा है ला-मकाँ के लिए
agar-kaj-rau-hain-anjum-aasmaan-teraa-hai-yaa-meraa-allama-iqbal-ghazals
अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहाँ तेरा है या मेरा अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा मोहम्मद भी तिरा जिबरील भी क़ुरआन भी तेरा मगर ये हर्फ़-ए-शीरीं तर्जुमाँ तेरा है या मेरा इसी कौकब की ताबानी से है तेरा जहाँ रौशन ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़ियाँ तेरा है या मेरा
zamaana-aayaa-hai-be-hijaabii-kaa-aam-diidaar-e-yaar-hogaa-allama-iqbal-ghazals
ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा गुज़र गया अब वो दौर साक़ी कि छुप के पीते थे पीने वाले बनेगा सारा जहान मय-ख़ाना हर कोई बादा-ख़्वार होगा कभी जो आवारा-ए-जुनूँ थे वो बस्तियों में आ बसेंगे बरहना-पाई वही रहेगी मगर नया ख़ार-ज़ार होगा सुना दिया गोश मुंतज़िर को हिजाज़ की ख़ामुशी ने आख़िर जो अहद सहराइयों से बाँधा गया था पर उस्तुवार होगा निकल के सहरा से जिस ने रूमा की सल्तनत को उलट दिया था सुना है ये क़ुदसियों से मैं ने वो शेर फिर होशियार होगा किया मिरा तज़्किरा जो साक़ी ने बादा-ख़्वारों की अंजुमन में तो पीर मय-ख़ाना सुन के कहने लगा कि मुँह फट है ख़ार होगा दयार मग़रिब के रहने वालो ख़ुदा की बस्ती दुकाँ नहीं है खरा है जिसे तुम समझ रहे हो वो अब ज़र कम-अयार होगा तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा सफ़ीना-ए-बर्ग-ए-गुल बना लेगा क़ाफ़िला मोर-ए-ना-तावाँ का हज़ार मौजों की हो कशाकश मगर ये दरिया से पार होगा चमन में लाला दिखाता फिरता है दाग़ अपना कली कली को ये जानता है कि इस दिखावे से दिल जलों में शुमार होगा जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए'तिबार होगा कहा जो क़मरी से मैं ने इक दिन यहाँ के आज़ाद पागल हैं तो ग़ुंचे कहने लगे हमारे चमन का ये राज़दार होगा ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा ये रस्म बरहम फ़ना है ऐ दिल गुनाह है जुम्बिश नज़र भी रहेगी क्या आबरू हमारी जो तू यहाँ बे-क़रार होगा मैं ज़ुल्मत-ए-शब में ले के निकलूँगा अपने दरमाँदा कारवाँ को शह निशाँ होगी आह मेरी नफ़स मिरा शो'ला बार होगा नहीं है ग़ैर अज़ नुमूद कुछ भी जो मुद्दआ तेरी ज़िंदगी का तू इक नफ़स में जहाँ से मिटना तुझे मिसाल शरार होगा न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश इंतिज़ार होगा
ye-payaam-de-gaii-hai-mujhe-baad-e-subh-gaahii-allama-iqbal-ghazals
ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही तिरी ज़िंदगी इसी से तिरी आबरू इसी से जो रही ख़ुदी तो शाही न रही तो रू-सियाही न दिया निशान-ए-मंज़िल मुझे ऐ हकीम तू ने मुझे क्या गिला हो तुझ से तू न रह-नशीं न राही मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही ये मुआमले हैं नाज़ुक जो तिरी रज़ा हो तू कर कि मुझे तो ख़ुश न आया ये तरिक़-ए-ख़ानक़ाही तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही तू अरब हो या अजम हो तिरा ला इलाह इल्ला लुग़त-ए-ग़रीब जब तक तिरा दिल न दे गवाही
kushaada-dast-e-karam-jab-vo-be-niyaaz-kare-allama-iqbal-ghazals
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे बिठा के अर्श पे रक्खा है तू ने ऐ वाइ'ज़ ख़ुदा वो क्या है जो बंदों से एहतिराज़ करे मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे मुदाम गोश-ब-दिल रह ये साज़ है ऐसा जो हो शिकस्ता तो पैदा नवा-ए-राज़ करे कोई ये पूछे कि वाइ'ज़ का क्या बिगड़ता है जो बे-अमल पे भी रहमत वो बे-नियाज़ करे सुख़न में सोज़ इलाही कहाँ से आता है ये चीज़ वो है कि पत्थर को भी गुदाज़ करे तमीज़-ए-लाला-ओ-गुल से है नाला-ए-बुलबुल जहाँ में वा न कोई चश्म-ए-इम्तियाज़ करे ग़ुरूर-ए-ज़ोहद ने सिखला दिया है वाइ'ज़ को कि बंदगान-ए-ख़ुदा पर ज़बाँ दराज़ करे हवा हो ऐसी कि हिन्दोस्ताँ से ऐ 'इक़बाल' उड़ा के मुझ को ग़ुबार-ए-रह-ए-हिजाज़ करे
vo-harf-e-raaz-ki-mujh-ko-sikhaa-gayaa-hai-junuun-allama-iqbal-ghazals
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ ख़ुदा मुझे नफ़स-ए-जिबरईल दे तो कहूँ सितारा क्या मिरी तक़दीर की ख़बर देगा वो ख़ुद फ़राख़ी-ए-अफ़्लाक में है ख़्वार ओ ज़ुबूँ हयात क्या है ख़याल ओ नज़र की मजज़ूबी ख़ुदी की मौत है अँदेशा-हा-ए-गूना-गूँ अजब मज़ा है मुझे लज़्ज़त-ए-ख़ुदी दे कर वो चाहते हैं कि मैं अपने आप में न रहूँ ज़मीर-ए-पाक ओ निगाह-ए-बुलंद ओ मस्ती-ए-शौक़ न माल-ओ-दौलत-ए-क़ारूँ न फ़िक्र-ए-अफ़लातूँ सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद कि आ रही है दमादम सदा-ए-कुन-फ़यकूँ इलाज आतिश-ए-'रूमी' के सोज़ में है तिरा तिरी ख़िरद पे है ग़ालिब फ़िरंगियों का फ़ुसूँ उसी के फ़ैज़ से मेरी निगाह है रौशन उसी के फ़ैज़ से मेरे सुबू में है जेहूँ
dil-soz-se-khaalii-hai-nigah-paak-nahiin-hai-allama-iqbal-ghazals
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है फिर इस में अजब क्या कि तू बेबाक नहीं है है ज़ौक़-ए-तजल्ली भी इसी ख़ाक में पिन्हाँ ग़ाफ़िल तू निरा साहिब-ए-इदराक नहीं है वो आँख कि है सुर्मा-ए-अफ़रंग से रौशन पुरकार ओ सुख़न-साज़ है नमनाक नहीं है क्या सूफ़ी ओ मुल्ला को ख़बर मेरे जुनूँ की उन का सर-ए-दामन भी अभी चाक नहीं है कब तक रहे महकूमी-ए-अंजुम में मिरी ख़ाक या मैं नहीं या गर्दिश-ए-अफ़्लाक नहीं है बिजली हूँ नज़र कोह ओ बयाबाँ पे है मेरी मेरे लिए शायाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक नहीं है आलम है फ़क़त मोमिन-ए-जाँबाज़ की मीरास मोमिन नहीं जो साहिब-ए-लौलाक नहीं है
gulzaar-e-hast-e-buud-na-begaana-vaar-dekh-allama-iqbal-ghazals
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख है देखने की चीज़ इसे बार बार देख आया है तू जहाँ में मिसाल-ए-शरार देख दम दे न जाए हस्ती-ना-पाएदार देख माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख खोली हैं ज़ौक़-ए-दीद ने आँखें तिरी अगर हर रहगुज़र में नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-यार देख
khudii-ho-ilm-se-mohkam-to-gairat-e-jibriil-allama-iqbal-ghazals
ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील अगर हो इश्क़ से मोहकम तो सूर-ए-इस्राफ़ील अज़ाब-ए-दानिश-ए-हाज़िर से बा-ख़बर हूँ मैं कि मैं इस आग में डाला गया हूँ मिस्ल-ए-ख़लील फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल है कारवाँ वर्ना ज़ियादा राहत-ए-मंज़िल से है नशात-ए-रहील नज़र नहीं तो मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में न बैठ कि नुक्ता-हा-ए-ख़ुदी हैं मिसाल-ए-तेग़-ए-असील मुझे वो दर्स-ए-फ़रंग आज याद आते हैं कहाँ हुज़ूर की लज़्ज़त कहाँ हिजाब-ए-दलील अँधेरी शब है जुदा अपने क़ाफ़िले से है तू तिरे लिए है मिरा शोला-ए-नवा क़िंदील ग़रीब ओ सादा ओ रंगीं है दस्तान-ए-हरम निहायत इस की हुसैन इब्तिदा है इस्माईल
aalam-e-aab-o-khaak-o-baad-sirr-e-ayaan-hai-tuu-ki-main-allama-iqbal-ghazals
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं वो जो नज़र से है निहाँ उस का जहाँ है तू कि मैं वो शब-ए-दर्द-ओ-सोज़-ओ-ग़म कहते हैं ज़िंदगी जिसे उस की सहर है तू कि मैं उस की अज़ाँ है तू कि मैं किस की नुमूद के लिए शाम ओ सहर हैं गर्म-ए-सैर शाना-ए-रोज़गार पर बार-ए-गिराँ है तू कि मैं तू कफ़-ए-ख़ाक ओ बे-बसर मैं कफ़-ए-ख़ाक ओ ख़ुद-निगर किश्त-ए-वजूद के लिए आब-ए-रवाँ है तू कि मैं
apnii-jaulaan-gaah-zer-e-aasmaan-samjhaa-thaa-main-allama-iqbal-ghazals
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं आब ओ गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं बे-हिजाबी से तिरी टूटा निगाहों का तिलिस्म इक रिदा-ए-नील-गूँ को आसमाँ समझा था मैं कारवाँ थक कर फ़ज़ा के पेच-ओ-ख़म में रह गया मेहर ओ माह ओ मुश्तरी को हम-इनाँ समझा था मैं इश्क़ की इक जस्त ने तय कर दिया क़िस्सा तमाम इस ज़मीन ओ आसमाँ को बे-कराँ समझा था मैं कह गईं राज़-ए-मोहब्बत पर्दा-दारी-हा-ए-शौक़ थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं थी किसी दरमाँदा रह-रौ की सदा-ए-दर्दनाक जिस को आवाज़-ए-रहील-ए-कारवाँ समझा था मैं
asar-kare-na-kare-sun-to-le-mirii-fariyaad-allama-iqbal-ghazals
असर करे न करे सुन तो ले मिरी फ़रियाद नहीं है दाद का तालिब ये बंदा-ए-आज़ाद ये मुश्त-ए-ख़ाक ये सरसर ये वुसअ'त-ए-अफ़्लाक करम है या कि सितम तेरी लज़्ज़त-ए-ईजाद ठहर सका न हवा-ए-चमन में ख़ेमा-ए-गुल यही है फ़स्ल-ए-बहारी यही है बाद-ए-मुराद क़ुसूर-वार ग़रीब-उद-दयार हूँ लेकिन तिरा ख़राबा फ़रिश्ते न कर सके आबाद मिरी जफ़ा-तलबी को दुआएँ देता है वो दश्त-ए-सादा वो तेरा जहान-ए-बे-बुनियाद ख़तर-पसंद तबीअत को साज़गार नहीं वो गुल्सिताँ कि जहाँ घात में न हो सय्याद मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं उन्हीं का काम है ये जिन के हौसले हैं ज़ियाद
fitrat-ko-khirad-ke-ruu-ba-ruu-kar-allama-iqbal-ghazals
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर तस्ख़ीर-ए-मक़ाम-ए-रंग-ओ-बू कर तू अपनी ख़ुदी को खो चुका है खोई हुई शय की जुस्तुजू कर तारों की फ़ज़ा है बे-कराना तू भी ये मक़ाम-ए-आरज़ू कर उर्यां हैं तिरे चमन की हूरें चाक-ए-गुल-ओ-लाला को रफ़ू कर बे-ज़ौक़ नहीं अगरचे फ़ितरत जो उस से न हो सका वो तू कर
aql-go-aastaan-se-duur-nahiin-allama-iqbal-ghazals
अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं उस की तक़दीर में हुज़ूर नहीं दिल-ए-बीना भी कर ख़ुदा से तलब आँख का नूर दिल का नूर नहीं इल्म में भी सुरूर है लेकिन ये वो जन्नत है जिस में हूर नहीं क्या ग़ज़ब है कि इस ज़माने में एक भी साहब-ए-सुरूर नहीं इक जुनूँ है कि बा-शुऊर भी है इक जुनूँ है कि बा-शुऊर नहीं ना-सुबूरी है ज़िंदगी दिल की आह वो दिल कि ना-सुबूर नहीं बे-हुज़ूरी है तेरी मौत का राज़ ज़िंदा हो तू तो बे-हुज़ूर नहीं हर गुहर ने सदफ़ को तोड़ दिया तू ही आमादा-ए-ज़ुहूर नहीं अरिनी मैं भी कह रहा हूँ मगर ये हदीस-ए-कलीम-ओ-तूर नहीं
ik-daanish-e-nuuraanii-ik-daanish-e-burhaanii-allama-iqbal-ghazals
इक दानिश-ए-नूरानी इक दानिश-ए-बुरहानी है दानिश-ए-बुरहानी हैरत की फ़रावानी इस पैकर-ए-ख़ाकी में इक शय है सो वो तेरी मेरे लिए मुश्किल है इस शय की निगहबानी अब क्या जो फ़ुग़ाँ मेरी पहुँची है सितारों तक तू ने ही सिखाई थी मुझ को ये ग़ज़ल-ख़्वानी हो नक़्श अगर बातिल तकरार से क्या हासिल क्या तुझ को ख़ुश आती है आदम की ये अर्ज़ानी मुझ को तो सिखा दी है अफ़रंग ने ज़िंदीक़ी इस दौर के मुल्ला हैं क्यूँ नंग-ए-मुसलमानी तक़दीर शिकन क़ुव्वत बाक़ी है अभी इस में नादाँ जिसे कहते हैं तक़दीर का ज़िंदानी तेरे भी सनम-ख़ाने मेरे भी सनम-ख़ाने दोनों के सनम ख़ाकी दोनों के सनम फ़ानी
kabhii-ai-haqiiqat-e-muntazar-nazar-aa-libaas-e-majaaz-men-allama-iqbal-ghazals
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में तू बचा बचा के न रख इसे तिरा आइना है वो आइना कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन न तिरी हिकायत-ए-सोज़ में न मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में न कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
tuu-abhii-rahguzar-men-hai-qaid-e-maqaam-se-guzar-allama-iqbal-ghazals
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र मिस्र ओ हिजाज़ से गुज़र पारस ओ शाम से गुज़र जिस का अमल है बे-ग़रज़ उस की जज़ा कुछ और है हूर ओ ख़ियाम से गुज़र बादा-ओ-जाम से गुज़र गरचे है दिल-कुशा बहुत हुस्न-ए-फ़रंग की बहार ताएरक-ए-बुलंद-बाम दाना-ओ-दाम से गुज़र कोह-शिगाफ़ तेरी ज़र्ब तुझ से कुशाद-ए-शर्क़-ओ-ग़र्ब तेग़-ए-हिलाल की तरह ऐश-ए-नियाम से गुज़र तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर ऐसी नमाज़ से गुज़र ऐसे इमाम से गुज़र
laa-phir-ik-baar-vahii-baada-o-jaam-ai-saaqii-allama-iqbal-ghazals
ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी हाथ आ जाए मुझे मेरा मक़ाम ऐ साक़ी तीन सौ साल से हैं हिन्द के मय-ख़ाने बंद अब मुनासिब है तिरा फ़ैज़ हो आम ऐ साक़ी मेरी मीना-ए-ग़ज़ल में थी ज़रा सी बाक़ी शेख़ कहता है कि है ये भी हराम ऐ साक़ी शेर मर्दों से हुआ बेश-ए-तहक़ीक़ तही रह गए सूफ़ी ओ मुल्ला के ग़ुलाम ऐ साक़ी इश्क़ की तेग़-ए-जिगर-दार उड़ा ली किस ने इल्म के हाथ में ख़ाली है नियाम ऐ साक़ी सीना रौशन हो तो है सोज़-ए-सुख़न ऐन-ए-हयात हो न रौशन तो सुख़न मर्ग-ए-दवाम ऐ साक़ी तू मिरी रात को महताब से महरूम न रख तिरे पैमाने में है माह-ए-तमाम ऐ साक़ी
anokhii-vaza-hai-saare-zamaane-se-niraale-hain-allama-iqbal-ghazals
अनोखी वज़्अ है सारे ज़माने से निराले हैं ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं इलाज-ए-दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूँ जो थे छालों में काँटे नोक-ए-सोज़न से निकाले हैं फला-फूला रहे या-रब चमन मेरी उमीदों का जिगर का ख़ून दे दे कर ये बूटे मैं ने पाले हैं रुलाती है मुझे रातों को ख़ामोशी सितारों की निराला इश्क़ है मेरा निराले मेरे नाले हैं न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं नहीं बेगानगी अच्छी रफ़ीक़-ए-राह-ए-मंज़िल से ठहर जा ऐ शरर हम भी तो आख़िर मिटने वाले हैं उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइ'ज़ को ये हज़रत देखने में सीधे-साधे भोले भाले हैं मिरे अशआ'र ऐ 'इक़बाल' क्यूँ प्यारे न हों मुझ को मिरे टूटे हुए दिल के ये दर्द-अंगेज़ नाले हैं
aflaak-se-aataa-hai-naalon-kaa-javaab-aakhir-allama-iqbal-ghazals
अफ़्लाक से आता है नालों का जवाब आख़िर करते हैं ख़िताब आख़िर उठते हैं हिजाब आख़िर अहवाल-ए-मोहब्बत में कुछ फ़र्क़ नहीं ऐसा सोज़ ओ तब-ओ-ताब अव्वल सोज़ ओ तब-ओ-ताब आख़िर मैं तुझ को बताता हूँ तक़दीर-ए-उमम क्या है शमशीर-ओ-सिनाँ अव्वल ताऊस-ओ-रुबाब आख़िर मय-ख़ाना-ए-यूरोप के दस्तूर निराले हैं लाते हैं सुरूर अव्वल देते हैं शराब आख़िर क्या दबदबा-ए-नादिर क्या शौकत-ए-तैमूरी हो जाते हैं सब दफ़्तर ग़र्क़-ए-मय-ए-नाब आख़िर ख़ल्वत की घड़ी गुज़री जल्वत की घड़ी आई छुटने को है बिजली से आग़ोश-ए-सहाब आख़िर था ज़ब्त बहुत मुश्किल इस सैल-ए-मआ'नी का कह डाले क़लंदर ने असरार-ए-किताब आख़िर
pareshaan-ho-ke-merii-khaak-aakhir-dil-na-ban-jaae-allama-iqbal-ghazals
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए जो मुश्किल अब है या रब फिर वही मुश्किल न बन जाए न कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िरदौस में हूरें मिरा सोज़-ए-दरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैदा-कराँ मुझ को ये मेरी ख़ुद-निगह-दारी मिरा साहिल न बन जाए कहीं इस आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू में भी तलब मेरी वही अफ़्साना-ए-दुंबाला-ए-महमिल न बन जाए उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
musalmaan-ke-lahuu-men-hai-saliiqa-dil-navaazii-kaa-allama-iqbal-ghazals
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का बहुत मुद्दत के नख़चीरों का अंदाज़-ए-निगह बदला कि मैं ने फ़ाश कर डाला तरीक़ा शाहबाज़ी का क़लंदर जुज़ दो हर्फ़-ए-ला-इलाह कुछ भी नहीं रखता फ़क़ीह-ए-शहर क़ारूँ है लुग़त-हा-ए-हिजाज़ी का हदीस-ए-बादा-ओ-मीना-ओ-जाम आती नहीं मुझ को न कर ख़ारा-शग़ाफ़ों से तक़ाज़ा शीशा-साज़ी का कहाँ से तू ने ऐ 'इक़बाल' सीखी है ये दरवेशी कि चर्चा पादशाहों में है तेरी बे-नियाज़ी का
khirad-ke-paas-khabar-ke-sivaa-kuchh-aur-nahiin-allama-iqbal-ghazals
ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं तिरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं हर इक मक़ाम से आगे मक़ाम है तेरा हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं गिराँ-बहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वर्ना गुहर में आब-ए-गुहर के सिवा कुछ और नहीं रगों में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझ से हिजाब कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं जिसे कसाद समझते हैं ताजिरान-ए-फ़रंग वो शय मता-ए-हुनर के सिवा कुछ और नहीं बड़ा करीम है 'इक़बाल'-ए-बे-नवा लेकिन अता-ए-शोला शरर के सिवा कुछ और नहीं
zaahir-ki-aankh-se-na-tamaashaa-kare-koii-allama-iqbal-ghazals-29
null
sakhtiyaan-kartaa-huun-dil-par-gair-se-gaafil-huun-main-allama-iqbal-ghazals
सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं हाए क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं मैं जभी तक था कि तेरी जल्वा-पैराई न थी जो नुमूद-ए-हक़ से मिट जाता है वो बातिल हूँ मैं इल्म के दरिया से निकले ग़ोता-ज़न गौहर-ब-दस्त वाए महरूमी ख़ज़फ़ चैन लब साहिल हूँ मैं है मिरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं बज़्म-ए-हस्ती अपनी आराइश पे तू नाज़ाँ न हो तू तो इक तस्वीर है महफ़िल की और महफ़िल हूँ मैं ढूँढता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने-आप को आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं
na-aate-hamen-is-men-takraar-kyaa-thii-allama-iqbal-ghazals
न आते हमें इस में तकरार क्या थी मगर वा'दा करते हुए आर क्या थी तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा तिरी आँख मस्ती में हुश्यार क्या थी तअम्मुल तो था उन को आने में क़ासिद मगर ये बता तर्ज़-ए-इंकार क्या थी खिंचे ख़ुद-बख़ुद जानिब-ए-तूर मूसा कशिश तेरी ऐ शौक़-ए-दीदार क्या थी कहीं ज़िक्र रहता है 'इक़बाल' तेरा फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी
yaa-rab-ye-jahaan-e-guzraan-khuub-hai-lekin-allama-iqbal-ghazals
या रब ये जहान-ए-गुज़राँ ख़ूब है लेकिन क्यूँ ख़्वार हैं मर्दान-ए-सफ़ा-केश ओ हुनर-मंद गो इस की ख़ुदाई में महाजन का भी है हाथ दुनिया तो समझती है फ़रंगी को ख़ुदावंद तू बर्ग-ए-गया है न वही अहल-ए-ख़िरद रा ओ किश्त-ए-गुल-ओ-लाला ब-बख़शद ब-ख़रे चंद हाज़िर हैं कलीसा में कबाब ओ मय-ए-गुलगूँ मस्जिद में धरा क्या है ब-जुज़ मौइज़ा ओ पंद अहकाम तिरे हक़ हैं मगर अपने मुफ़स्सिर तावील से क़ुरआँ को बना सकते हैं पाज़ंद फ़िरदौस जो तेरा है किसी ने नहीं देखा अफ़रंग का हर क़र्या है फ़िरदौस की मानिंद मुद्दत से है आवारा-ए-अफ़्लाक मिरा फ़िक्र कर दे इसे अब चाँद के ग़ारों में नज़र-बंद फ़ितरत ने मुझे बख़्शे हैं जौहर मलाकूती ख़ाकी हूँ मगर ख़ाक से रखता नहीं पैवंद दरवेश-ए-ख़ुदा-मस्त न शर्क़ी है न ग़र्बी घर मेरा न दिल्ली न सफ़ाहाँ न समरक़ंद कहता हूँ वही बात समझता हूँ जिसे हक़ ने आबला-ए-मस्जिद हूँ न तहज़ीब का फ़रज़ंद अपने भी ख़फ़ा मुझ से हैं बेगाने भी ना-ख़ुश मैं ज़हर-ए-हलाहल को कभी कह न सका क़ंद मुश्किल है इक बंदा-ए-हक़-बीन-ओ-हक़-अंदेश ख़ाशाक के तोदे को कहे कोह-ए-दमावंद हूँ आतिश-ए-नमरूद के शो'लों में भी ख़ामोश मैं बंदा-ए-मोमिन हूँ नहीं दाना-ए-असपंद पुर-सोज़ नज़र-बाज़ ओ निको-बीन ओ कम आरज़ू आज़ाद ओ गिरफ़्तार ओ तही कीसा ओ ख़ुरसंद हर हाल में मेरा दिल-ए-बे-क़ैद है ख़ुर्रम क्या छीनेगा ग़ुंचे से कोई ज़ौक़-ए-शकर-ख़ंद चुप रह न सका हज़रत-ए-यज़्दाँ में भी 'इक़बाल' करता कोई इस बंदा-ए-गुस्ताख़ का मुँह बंद