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आपस में सम्बंधित भाषाओं को भाषा-परिवार कहते हैं। कौन भाषाएँ किस परिवार में आती हैं, इनके लिये वैज्ञानिक आधार हैं। इस समय संसार की भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है, पहली अवस्था में है। इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिलालेखो, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है। मेसोपोटेमिया की पुरानी भाषा सुमेरीय तथा इटली की प्राचीन भाषा एत्रस्कन इसी तरह की भाषाएँ हैं। दूसरी अवस्था में ऐसी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है। बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं। तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। ग्रीक, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। वर्गीकरण के आधार भाषा के वर्गीकरण के मुखयतः दो आधार हैंआकृतिमूलक और अर्थतत्त्व सम्बन्धी। प्रथम के अन्तर्गत शब्दों की आकृति अर्थात् शब्दों और वाक्यों की रचनाशैली की समानता देखी जाती है। दूसरे में अर्थतत्त्व की समानता रहती है। इनके अनुसार भाषाओं के वर्गीकरण की दो पद्धतियाँ होती हैंआकृतिमूलक और पारिवारिक या ऐतिहासिक। ऐतिहासिक वर्गीकरण के आधारों में आकृतिमूलक समानता के अतिरिक्त निम्निलिखित समानताएँ भी होनी चाहिए। १ भौगोलिक समीपता - भौगोलिक दृष्टि से प्रायः समीपस्थ भाषाओं में समानता और दूरस्थ भाषाओं में असमानता पायी जाती है। इस आधार पर संसार की भाषाएँ अफ्रीका, यूरेशिया, प्रशांतमहासागर और अमरीका के खंड़ों में विभाजित की गयी हैं। किन्तु यह आधार बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि दो समीपस्थ भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं और दो दूरस्थ भाषाएँ परस्पर समान। भारत की हिन्दी और मलयालम दो भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं किन्तु भारत और इंग्लैंड जैसे दूरस्थ देशों की संस्कृत और अंग्रेजी एक ही परिवार की भाषाएँ हैं। २ शब्दानुरूपता- समान शब्दों का प्रचलन जिन भाषाओं में रहता है उन्हें एक कुल के अन्तर्गत रखा जाता है। यह समानता भाषा-भाषियों की समीपता पर आधारित है और दो तरह से सम्भव होती है। एक ही समाज, जाति अथवा परिवार के व्यक्तियों द्वारा शब्दों के समान रूप से व्यवहृत होते रहने से समानता आ जाती है। इसके अतिरिक्त जब भिन्न देश अथवा जाति के लोग सभ्यता और साधनों के विकसित हो जाने पर राजनीतिक अथवा व्यावसायिक हेतु से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो शब्दों के आदान-प्रदान द्वारा उनमें समानता आ जाती है। पारिवारिक वर्गीकरण के लिए प्रथम प्रकार की अनुरूपता ही काम की होती है। क्योंकि ऐसे शब्द भाषा के मूल शब्द होते हैं। इनमें भी नित्यप्रति के कौटुम्बिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्द ही अधिक उपयोगी होते हैं। इस आधार में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि अन्य भाषाओं से आये हुए शब्द भाषा के विकसित होते रहने से मूल शब्दों में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनको पहचान कर अलग करना कठिन हो जाता है। इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है। ३ ध्वनिसाम्य- प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती है और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की क, ख, फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है। अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक कर देती हैं। आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं। ४ व्याकरणगत समानता- भाषा के वर्गीकरण का व्याकरणिक आधार सबसे अधिक प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण, शब्दों से पदों की रचना प्रक्रिया तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है। यह साम्य-वैषम्य भी सापेक्षिक होता है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं। वर्गीकरण की प्रक्रिया वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं। फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं। अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक आदि की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और रचना-पद्धति में काफी समानता है। अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है। परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है। भारोपीय परिवार में शतम् और केन्टुम ऐसे ही वर्ग हैं। वर्गों का विभाजन शाखाओं में हुआ है। शतम् वर्ग की ईरानी और भारतीय आर्य प्रमुख शाखाएँ हैं। शाखाओं को उपशाखा में बाँटा गया है। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को भीतरी और बाहरी उपशाखा में विभक्त किया है। अंत में उपशाखाएँ भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं। इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है। इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता। उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की ओर आकृष्ट हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है। इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर फेडरिख मूलर इन परिवारों की संख्या १०० तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर राइस विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं। दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का ज़िक्र नीचे है : भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार (भारोपीय भाषा परिवार) मुख्य लेख हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार यह समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि अंग्रेज़ी,रूसी, प्राचीन फारसी, हिन्दी, पंजाबी, जर्मन, नेपाली - ये तमाम भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। इसे 'भारोपीय भाषा-परिवार' भी कहते हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (४५%) भारोपीय भाषा बोलते हैं। संस्कृत, ग्रीक और लातीनी जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है। लेकिन अरबी एक बिल्कुल विभिन्न परिवार से संबंध रखती है। इस परिवार की प्राचीन भाषाएँ बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक (एण्ड-इन्फ्लेक्टिंग) थीं। इसी समूह को पहले आर्य-परिवार भी कहा जाता था। विश्व में जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी भाषा मन्दारिन (उत्तरी चीनी भाषा) इसी परिवार से संबंध रखती है। चीन और तिब्बत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अलावा बर्मी भाषा भी इसी परिवार की है। इनकी स्वरलहरी एक ही है। एक ही शब्द अगर ऊँचे या नीचे स्वर में बोला जाय तो शब्द का अर्थ बदल जाता है। इस भाषा परिवार को 'नाग भाषा परिवार' नाम दिया गया है। इसे 'एकाक्षर परिवार' भी कहते हैं। कारण कि इसके मूल शब्द प्राय: एकाक्षर होते हैं। ये भाषाएँ कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, नेपाल, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, भूटान, अरूणाचल प्रदेश, आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और मिजोरम में बोली जाती हैं। सामी-हामी भाषा-परिवार या अफ़्रीकी-एशियाई भाषा-परिवार इसकी प्रमुख भाषाओं में आरामी, असेरी, सुमेरी, अक्कादी और कनानी वग़ैरह शामिल थीं लेकिन आजकल इस समूह की प्रसिद्धतम भाषाएँ अरबी और इब्रानी हैं। इन भाषाओं में मुख्यतः तीन धातु-अक्षर होते हैं और बीच में स्वर घुसाकर इनसे क्रिया और संज्ञाएँ बनायी जाती हैं (अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ)। भाषाओं का द्रविड़ी परिवार इस लिहाज़ से बड़ा दिलचस्प है कि हालाँकि ये भाषाएँ भारत के दक्षिणी प्रदेशों में बोली जाती हैं लेकिन उनका उत्तरी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं से कोई संबंध नहीं है (संस्कृत से ऋणशब्द लेने के अलावा)। इसलिए उर्दू या हिंदी का अंग्रेज़ी या जर्मन भाषा से तो कोई रिश्ता निकल सकता है लेकिन मलयालम भाषा से नहीं। दक्षिणी भारत और श्रीलंका में द्रविड़ी समूह की कोई २६ भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन उनमें ज़्यादा मशहूर तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ हैं। ये अन्त-अश्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ हैं। प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम तूरानी, सीदियन, फोनी-तातारिक और तुर्क-मंगोल-मंचू कुल भी हैं। इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है, किन्तु मुख्यतः साइबेरिया, मंचूरिया और मंगोलिया में हैं। प्रमुख भाषाएँतुर्की या तातारी, किरगिज, मंगोली और मंचू है, जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानली है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है। ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं। प्रत्ययों के योग से शब्दनिर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताएँ हैं। स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि मक प्रत्यय यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। (लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा। भारत के भाषा-परिवार भारत में मुख्यतः चार भाषा परिवार है:- भारत में सबसे अधिक भारोपीय भाषा परिवार (लगभग ७३%) की भाषा बोली जाती है। भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राम विलास शर्मा) भारत के भाषा परिवार (गूगल पुस्तक)
उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (, नाटो ; नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन, नाटो ) एक सैन्य गठबंधन है, जिसकी स्थापना ४ अप्रैल १९४९ को हुई। इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में है। संगठन ने सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाई है, जिसके अन्तर्गत सदस्य राज्य बाहरी आक्रमण की स्थिति में सहयोग करने के लिए सहमत होंगे। गठन के प्रारम्भ के कुछ वर्षों में यह संगठन एक राजनीतिक संगठन से अधिक नहीं था। किन्तु कोरियाई युद्ध ने सदस्य देशों को प्रेरक का काम किया और दो अमरीकी सर्वोच्च कमाण्डरों के दिशानिर्देशन में एक एकीकृत सैन्य संरचना निर्मित की गई। लॉर्ड इश्मे पहले नाटो महासचिव बने, जिनकी संगठन के उद्देश्य पर की गई टिप्पणी, "रूसियों को बाहर रखने, अमेरीकियों को अन्दर और जर्मनों को नीचे रखने" (के लिए गई है।) खासी चर्चित रही। यूरोपीय और अमरीका के बीच सम्बन्ध की भाँति ही संगठन की ताकत घटती-बढ़ती रही। इन्हीं परिस्थितियों में फ्रांस स्वतन्त्र परमाणु निवारक बनाते हुए नाटो की सैनिक संरचना से १९६६ से अलग हो गया। मैसिडोनिया ६ फरवरी २०१९ को नाटो का ३०वाँ सदस्य देश बना। १९८९ में बर्लिन की दीवार के गिरने के पश्चात संगठन का पूर्व की तरफ बाल्कन हिस्सों में हुआ और वारसा संधि से जुड़े हुए अनेक देश १९९९ और २००४ में इस गठबन्धन में शामिल हुए। १ अप्रैल २००९ को अल्बानिया और क्रोएशिया के प्रवेश के साथ गठबन्धन की सदस्य संख्या बढ़कर २८ हो गई। संयुक्त राज्य अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ के आतंकवादी आक्रमण के पश्चात नाटो नई चुनौतियों का सामना करने के लिए नए सिरे से तैयारी कर रहा है, जिसके तहत अफ़गानिस्तान में सैनिकों की और इराक में प्रशिक्षकों की नियुक्ति की गई है। बर्लिन प्लस समझौता नाटो और यूरोपीय संघ के बीच १६ दिसम्बर २००२ को बनाया का एक व्यापक पैकेज है, जिसमें यूरोपीय संघ को किसी अन्तरराष्ट्रीय विवाद की स्थिति में कार्यवाही के लिए नाटो परिसम्पत्तियों का उपयोग करने की छूट दी गई है, बशर्ते नाटो इस दिशा में कोई कार्यवाही नहीं करना चाहता हो। नाटो के सभी सदस्यों की संयुक्त सैन्य खर्च दुनिया के रक्षा व्यय का ७०% से अधिक है, जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका अकेले दुनिया का कुल सैन्य खर्च का आधा हिस्सा खर्च करता है और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली १५% खर्च करते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व रंगमंच पर अवतरित हुई दो महाशक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध का प्रखर विकास हुआ। फुल्टन भाषण व ट्रूमैन सिद्धान्त के तहत जब साम्यवादी प्रसार को रोकने बात कही गई तो प्रत्युत्तर में सोवियत संघ ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन कर १९४८ में बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी। इसी क्रम में यह विचार किया जाने लगा कि एक ऐसा संगठन बनाया जाए जिसकी संयुक्त सेनाएँ अपने सदस्य देशों की रक्षा कर सके। मार्च १९४८ में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैण्ड तथा लक्सेमबर्ग ने बूसेल्स की सन्धि पर हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य सामूहिक सैनिक सहायता व सामाजिक-आर्थिक सहयोग था। साथ ही सन्धिकर्ताओं ने यह वचन दिया कि यूरोप में उनमें से किसी पर आक्रमण हुआ तो शेष सभी चारों देश हर सम्भव सहायता देगे। इसी पृष्ठभूमि में बर्लिन की घेराबन्दी और बढ़ते सोवियत प्रभाव को ध्यान में रखकर अमेरिका ने स्थिति को स्वयं अपने हाथों में लिया और सैनिक गुटबन्दी दिशा में पहला अति शक्तिशाली कदम उठाते हुए उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन अर्थात् नाटो की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद १५ में क्षेत्रीय संगठनों के प्रावधानों के अधीन उत्तर अटलांटिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए। उसकी स्थापना ४ अप्रैल, १९४९ को वांशिगटन में हुई थी जिस पर १२ देशों ने हस्ताक्षर किए थे। ये देश थे- फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमर्ग, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, नार्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका। शीत युद्ध की समाप्ति से पूर्व यूनान, टर्की, पश्चिम जर्मनी, स्पेन भी सदस्य बने और शीत युद्ध के बाद भी नाटों की सदस्य संख्या का विस्तार होता रहा। १९९९ में मिसौरी सम्मेलन में पोलैण्ड, हंगरी, और चेक गणराज्य के शामिल होने से सदस्य संख्या १९ हो गई। मार्च २००४ में ७ नए राष्ट्रों को इसका सदस्य बनाया गया फलस्वरूप सदस्य संख्या बढ़कर २६ हो गई। इस संगठन का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में हैं। स्थापना के कारण (१) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाएँ हटाने से मना कर दिया और वहाँ साम्यवादी शासन की स्थापना का प्रयास किया। अमेरिका ने इसका लाभ उठाकर साम्यवाद विरोधी नारा दिया। और यूरोपीय देशों को साम्यवादी खतरे से सावधान किया। फलतः यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु तैयार हो गए जो उनकी सुरक्षा करे। व नाटो सगठन बनाया गया (२) द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिम यूरोपीय देशों ने अत्यधिक नुकसान उठाया था। अतः उनके आर्थिक पुननिर्माण के लिए अमेरिका एक बहुत बड़ी आशा थी ऐसे में अमेरिका द्वारा नाटो की स्थापना का उन्होंने समर्थन किया। १. यूरोप पर आक्रमण के समय अवरोधक की भूमिका निभाना। २. सोवियत संघ के पश्चिम यूरोप में तथाकथित विस्तार को रोकना तथा युद्ध की स्थिति में लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना। ३. सैन्य तथा आर्थिक विकास के लिए अपने कार्यक्रमों द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों के लिए सुरक्षा छत्र प्रदान करना। ४. पश्चिम यूरोप के देशों को एक सूत्र में संगठित करना। ५. इस प्रकार नाटों का उद्देश्य "स्वतंत्र विश्व" की रक्षा के लिए साम्यवाद के लिए और यदि संभव हो तो साम्यवाद को पराजित करने के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता माना गया। ६ नाटो के ६ सदस्य देश एक दूसरे देशों के मध्य सुरक्षा प्रधान करता हैं । ७ प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका चाहता है कि पूरी दुनिया पर उसका शासन बने" (डॉ अनिल बाबरे) नाटों का मुख्यालय ब्रसेल्स में हैं। इसकी संरचना ४ अंगों से मिलकर बनी है- १. परिषद : यह नाटों का सर्वोच्च अंग है। इसका निर्माण राज्य के मंत्रियों से होता है। इसकी मंत्रिस्तरीय बैठक वर्ष में एक बार होती है। परिषद् का मुख्य उत्तरायित्व समझौते की धाराओं को लागू करना है। २. उप परिषद् : यह परिषद् नाटों के सदस्य देशों द्वारा नियुक्त कूटनीतिक प्रतिनिधियों की परिषद् है। ये नाटो के संगठन से सम्बद्ध सामान्य हितों वाले विषयों पर विचार करते हैं। ३. प्रतिरक्षा समिति : इसमें नाटों के सदस्य देशों के प्रतिरक्षा मंत्री शामिल होते हैं। इसका मुख्य कार्य प्रतिरक्षा, रणनीति तथा नाटों और गैर नाटों देशों में सैन्य संबंधी विषयों पर विचार विमर्श करना है। ४. सैनिक समिति : इसका मुख्य कार्य नाटों परिषद् एवं उसकी प्रतिरक्षा समिति को सलाह देना है। इसमें सदस्य देशों के सेनाध्यक्ष शामिल होते हैं। नाटो की भूमिका एवं स्वरूप १. नाटों के स्वरूप व उसकी भूमिका को उसके संधि प्रावधानों के आलोक में समझा जा सकता है। संधि के आरंभ में ही कहा गया हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र के सदस्य देशों की स्वतंत्रता, ऐतिहासिक विरासत, वहाँ के लोगों की सभ्यता, लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून के शासन की रक्षा की जिम्मेदारी लेगे। एक दूसरे के साथ सहयोग करना इन राष्ट्रों का कर्तव्य होगा इस तरीके से यह संधि एक सहयोगात्मक संधि का स्वरूप लिए हुए थी। २. संधि प्रावधानों के अनुच्छेद ५ में कहा गया कि संधि के किसी एक देश या एक से अधिक देशों पर आक्रमण की स्थिति में इसे सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों पर आक्रमण माना जाएगा और संधिकर्ता सभी राष्ट्र एकजुट होकर सैनिक कार्यवाही के माध्यम से एकजुट होकर इस स्थिति का मुकाबला करेंगे। इस दृष्टि से उस संधि का स्वरूप सदस्य देशों को सुरक्षा छतरी प्रदान करने वाला है। ३. सोवियत संघ ने नाटो को साम्राज्यवादी और आक्रामक देशों के सैनिक संगठन की संज्ञा दी और उसे साम्यवाद विरोधी स्वरूप वाला घोषित किया। १. पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा के तहत बनाए गए नाटो संगठन ने पश्चिमी यूरोप के एकीकरण को बल प्रदान किया। इसने अपने सदस्यों के मध्य अत्यधिक सहयोग की स्थापना की। २. इतिहास में पहली बार पश्चिमी यूरोप की शक्तियों ने अपनी कुछ सेनाओं को स्थायी रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय सैन्य संगठन की अधीनता में रखना स्वीकार किया। ३. द्वितीय महायुद्ध से जीर्ण-शीर्ण यूरोपीय देशों को सैन्य सुरक्षा का आश्वासन देकर अमेरिका ने इसे दोनों देशों को ऐसा सुरक्षा क्षेत्र प्रदान किया जिसके नीचे वे निर्भय होकर अपने आर्थिक व सैन्य विकास कार्यक्रम पूरा कर सके। ४. नाटो के गठन से अमेरिकी पृथकक्करण की नीति की समाप्ति हुई और अब वह यूरोपीय मुद्दों से तटस्थ नहीं रह सकता था। ५. नाटो के गठन ने शीतयुद्ध को बढ़ावा दिया। सोवियत संघ ने इसे साम्यवाद के विरोध में देखा और प्रत्युत्तर में वारसा पैक्ट नामक सैन्य संगठन कर पूर्वी यूरोपीय देशों में अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की। ६. नाटो ने अमेरिकी विदेश नीति को भी प्रभावित किया। उसकी वैदशिक नीति के खिलाफ किसी भी तरह के वाद-प्रतिवाद को सुनने के लिए तैयार नहीं रही और नाटो के माध्यम से अमेरिका का यूरोप में अत्यधिक हस्तक्षेप बढ़ा। ७. यूरोप में अमेरिका के अत्यधिक हस्तक्षेप ने यूरोपीय देशों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि यूरोप की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान यूरोपीय दृष्टिकोण से हल किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण ने यूरोपीय समुदाय के गठन का मार्ग प्रशस्त किया। =विस्तार : शीतयुद्ध के बाद नेटो नेटो की स्थापना के बाद विश्व में और विशेषकर यूरोप में अमेरिका तथा तत्कालीन सोवियत संघ इन दो महाशक्तियों के बीच युद्ध खतरनाक मोड़ लेने लगा और नेटो का प्रतिकर करने के लिए पोलैण्ड की राजधानी वारस में पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के साथ मिलकर सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट की स्थापना की। १९९०९१ में सोवियत संघ के विखंडन के साथ ही शीतयुद्ध की भी समाप्ति हुई। वारसा पैक्ट भी समाप्त हो गया। किंतु अमेरिका ने नेटों को भंग नहीं किया बल्कि अमेरिकी नेतृत्व में नेटों का और विस्तार हुआ। इसी बिन्दु पर यह सवाल उठता है कि शीतयुद्ध कालीन दौर में निर्मित इस संगठन का शीत युद्ध के अंत के बाद मौजूद रहने का क्या औचित्य है। शीत युद्धोत्तर काल में अमेरिका द्वारा नेटों की भूमिका पुनर्परिभाषित की गई। इसके तहत कहा गया कि सम्पूर्ण यूरोप के क्षेत्रों में यह पारस्परिक सहयोग और संबंधों के विकास का माध्यम है। इतना ही नहीं प्रजातांत्रिक मूल्यों व आदर्शों के विकास एवं प्रसार में भी नाटों की भूमिका को वैध बनाने का प्रयास किया। अमेरिका ने नाटो की भूमिका को शीत युद्ध कालीन गुटीय राजनीति से बाहर निकालकर वैश्विक स्वरूप प्रदान किया। नाटो को अब शांति स्थापना के अंतर्गत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के उन्मूलन में भी इसकी भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है। निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत शीतयुद्धोत्तर कालीन नाटों की भूमिका एवं विस्तार को देखा जा सकता है- (क) १९९१ में खाड़ी युद्ध के दौरान अल्बानिया को नोटो द्वारा नागरिक एवं सैन्य सहायता प्रदान की गई। (ख) सामूहिक सुरक्षा के सन्दर्भ में भी नाटो की भूमिका महत्वपूर्ण रही। इसमें अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद से निपटने तथा मानवता के लिए खतरा बने दुष्ट राज्यों से सुरक्षा की बात की गई। २००२ के प्राग शिखर सम्मेलन में नाटों के अंतर्गत त्वरित कार्यवाही बल (रेपिड रेसपोनसे फ़ोर्स) के गठन का प्रस्ताव लाया गया ताकि आतंकवादी हमले और दुष्ट राज्यों की प्रतिक्रियाओं को प्रतिसंतुलित किया जा सके। (ग) नाटो की सदस्यता में वैचारिक और पूर्व के प्रतिपक्षी गुटों में शामिल देशों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया गया। १९९१ के मिसौरी सम्मेलन में तीन नए राष्ट्रों पोलैण्ड, हंगरी और चेक गण्राज्य को सदस्यता प्रदान की गई। फलतः सदस्य संख्या १९ हो गई और ये तीनों ही शीतयुद्ध काल के एस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, स्लोवेनिया, और सदस्यों और सदस्यों की कुल संख्या बढ़कर २६ हो गई। इस तरह अब पूर्वी यूरोप के देश भी नाटोमें सम्मिलित हो गए और यूरोप के एकीकरण को बल मिला। (घ) यद्यपि आरंभ में रूस ने नाटों के विस्तार पर चिंता जताई थी लेकिन बदलती अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार नाटों सदस्य देशों के साथ पारस्परिक सहयोग हेतु रूस को भी इसके अंतर्गत लाने की बात की जा रही है। नाटो के महासचिव और संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने नाटों के विस्तार के सकारात्मक पक्षों पर बल दिया उनके अनुसार यह राजनीतिक-आर्थिक संबंधों को बल प्रदान कर पास्परिक सहयोग को बढ़ावा देगा। नाटो का विस्तार रूस के लिए खतरा नहीं है। नाटो को रूस की आवश्यकता एवं रूस को नाटों की आवश्यकता है। नाटो अपने इस विस्तार से में यूरोप में एक प्रमुख प्रतिनिधि के रूप में उभरा। शीत युद्ध के काल में जो पश्चिम यूरोप के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता था वही नाटो शीतयुद्धोत्तर काल में सम्पूर्ण यूरोप के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता है। नाटो के विस्तार के पक्ष में जो सकरात्मक बाते कही गई इसके बावजूद उसकी आलोचना भी की जाती है। वस्तुतः नाटो की भूमिका शांति स्थापना, आपसी सहयोग आदि के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका का हनन करती है। समझने की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के रूप में की गई, जिसका उद्देश्य विश्व शांति है जबकि नाटो की स्थापना एक क्षेत्रीय संगठन के रूप में की गई। किंतु इसके बावजूद अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में शांति स्थापना हेतु नाटो की भूमिका यूएनओ के समानांतर दिखती है। ओर अब अमेरिकी सीनेेेट ने भारत देेश को नाटो सहयोगी देश का दर्जा देेने के लियेे विधयेक को पारित किया है। रूस और यूक्रेन के युद्ध अब अंतिम दौर में है।इससे पहले यूक्रेन ने नेटो देशों को सहायता करने के लिए भी कहा था। अभी के मौजूदा हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि नेटो में शामिल जितने भी देश हैं, वो यूक्रेन की कोई भी मदद नहीं करे
फ्रांस के विदेशमंत्री रॉबर्ट शूमाँ ने कोयला और स्टीम उत्पादन में सहयोग के लिए जर्मनी और फ्रांस के लिए एक योजना घोषित की। कुछ अन्य देशों को भी इसमें शामिल होने का न्यौता दिया गया। शूमाँ योजना इस विचार पर आधारित थी कि शांति के लिए यूरोपीय एकता बहुत ज़रूरी है। रॉबर्ट शूमाँ ने कहा कि उत्पादन में सहयोग से फ्रांस और जर्मनी के बीच सहयोग और दोस्ती की नई शुरूआत होगी और दोनों युद्ध से परे हटकर शांति के बारे में सोचना शुरू करेंगे। यूरोप का इतिहास
२८ फ़रवरी १९५१ पेरिस संधि ने यूरोपीय कोयला और स्टील संगठन (ईसीएससी) का गठन हुआ। इस पर छह देशों-फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैंड, लक्ज़मबर्ग और इटली ने हस्ताक्षर किए। कोयला और स्टील उद्योगों की देखभाल के लिए एक उच्च दर्जे का प्राधिकरण बनाया गया। इस प्राधिकरण के अधिकारों को संतुलित करने के लिए जर्मनी के समर्थन से नीदरलैंड ने एक मंत्रि परिषद के गठन पर भी ज़ोर दिया जिसमें सदस्य देशों से मंत्री शामिल किए जाएं.
२९ फ़रवरी १९५२को यूरोपीय कोयला और स्टील संगठन (ईसीएससी) ने ज्याँ मोनेट की अध्यक्षता में काम शुरू कर दिया। दरअसल ज्याँ मोनेट की शूमाँ घोषणा-पत्र के पीछे मुख्य प्रेरणा थे। इस संगठन ने फ्रांस के स्टील उद्योग को जर्मनी से कोयला देने की गारंटी सुनिश्चित की। इसने ब्लेजियम और इटली की कोयला खानों में सुधार के लिए धन भी मुहैया कराने का प्रावधान किया। जर्मनी इस पर सहमत हो गया और उसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सम्मान हासिल करने के लिए स्टील उत्पादकों के संगठनों को भी भंग कर यूरोप का इतिहास
कोरिया युद्ध के बाद अमरीका ने दबाव डाला कि यूरोप को अपनी सुरक्षा के लिए ज़्यादा धन अदा करना चाहिए और जर्मनी का फिर शस्त्रीकरण होना चाहिए। १९५२ में ईसीएससी के छह सदस्य देश ३१ जनवरी १९५४ को यूरोपीय रक्षा समुदाय बनाने पर सहमत हुए जिनमें जर्मनी के सैनिक भी यूरोपीय सेना में शामिल होने थे। लेकिन फ्रांस की संसद ने इस संधि को मंज़ूरी देने में देरी की और आख़िरकार १९५४ में उसने इस विचार को ही ख़ारिज कर दिया।
२८ फ़रवरी १९५७ को यूरोपीय संघ का एक यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) बनाने की दिशा में रोम संधि के रूप में एक क़दम बढ़ाया गया। ईसीएससी के छह देशों ने रोम संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद यूरोपीय साझा बाज़ार (ईईसी) वजूद में आया और साथ ही यूरोपीय परमाणु ऊर्जा संगठन (यूरोटॉम) भी बना। यूरोपीय आर्थिक समुदाय की ख़ासियत यह थी कि संघ के देशों में सामान लाने-ले जाने पर कोई शुल्क नहीं लगेगा और लोग कहीं भी काम कर सकेंगे। फ्रांस को ख़ुश करने के लिए रोम संधि में किसानों को भी सब्सिडी देने का व्यवस्था की गई। यूरोटॉम का मक़सद था यूरोपीय संघ की एक मिली जुली परमाणु ऊर्जा नीति का विकास करना
२८ फ़रवरी १९५८ को रोम संधि के बाद यूरोपीय आर्थिक समुदाय ने काम करना शुरू किया और बहुत जल्दी ही इसने ख़ुद को यूरोपीय संघ के एक ताक़तवर संगठन के रूप में स्थापित कर लिया। इसका एक आयोग है, एक मंत्रिपरिषद है और एक यूरोपीय संसद की एक सलाहकार एसेंबली है जिसके सदस्य देशों की संसदों से चुनकर आते हैं। इसी समय यूरोपीय न्यायिक आयोग वजूद में आया जिसने आर्थिक समुदाय के फ़ैसलों पर किसी तरह का मतभेद होने पर रोम संधि को परिभाषित करने की ज़िम्मेदारी संभाली.
यूरोपीय मुक्त व्यापार संगठन (यूरोपियन फ़्री ट्रेड एसोसिएशन / ईएफ़टीए) यूरोप के चार देशों का एक क्षेत्रीय व्यापार संगठन एवं मुक्त व्यापार क्षेत्र है। आइसलैण्ड, लाइक्टेन्स्टीन (लीकटेंस्टीन), नार्वे और स्विट्जरलैण्ड इसके सदस्य हैं। यह २९ फरवरी १९६० को यूरोपीय आर्थिक समुदाय के विकल्प के रूप में अस्तित्व में आया था। ईईसी की तरह से ही ईएफ़टीए का उद्देश्य भी यूरोपीय संघ के देशों में मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना था लेकिन इसने सभी देशों में एक जैसे शुल्क लगाने का विरोध किया और देशों से अधिक मज़बूत संगठनों के गठन को भी अनावश्यक बताया।
माश्ट्रिश्ट संधि (आम तौर पर इसे यूरोपीय संघ की संधि भी कहा जाता है।) ७ फ़रवरी १९९२ को यूरोपीय समुदाय के मध्य हुये समझौते को कहा जाता है। यह समझौता मास्त्रिक्ट (माश्ट्रिश्ट), हॉलैण्ड में हुआ। ९-१० दिसम्बर १९९१ इसी नगर में यूरोपीय परिषद् की मेजबानी में बैठक हुई थी जिसमें समझौते का मसौदा तैयार हुआ था। इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय संघ अस्तित्व में आया। इस समझौते के तहत सभी यूरोपीय नागरिकों को एक-देश से दूसरे (यूरोपीय संघ के देश) में जाने पर समान अधिकार प्राप्त होते हैं। यह समझौता १ नवम्बर १९९३ से लागू हुआ।
फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, स्पेन, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्ज़मबर्ग ने अपनी सीमाएं ढीली करने की पहल की, इसी को शेंगेन समझौता कहा जाता है। इस पहल में ऑस्ट्रिया, इटली, डेनमार्क, फ़िनलैंड, स्वीडन और ग्रीस भी जल्दी ही शामिल हो गए लेकिन ब्रिटेन और आयरलैंड नहीं शामिल हुए. ऑस्ट्रिया, फ़िनलैंड और स्वीडन १९९५ के शुरू में ही यूरोपीय संघ में शामिल हो गए थे जिसके बाद संघ की कुल सदस्य संख्या १५ हो गई। नॉर्वे को यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए अपने यहाँ दो जनमतसंग्रह कराने पड़े लेकिन लोगों ने दोनों में नामंज़ूर कर दिया।
एम्सटर्डम संधि के ज़रिए यूरोपीय संघ का विस्तार पूर्वी क्षेत्र की तरफ़ करने की शुरूआत की गई। कुछ और देशों के वीटो अधिकार ख़त्म किए गए। रोज़गार और भेदभाव पर क़ानून और सख़्त किए गए माश्ट्रिश्ट संधि का सामाजिक नीति का अध्याय अब यूरोपीय संघ के क़ानून का हिस्सा बना दिया गया। शेंगेन समझौता ने भी क़ानूनी रूप ले लिया हालाँकि ब्रिटेन और आयरलैंड इससे अब भी बाहर रहे। इससे आव्रजन और शरण लेने के मुद्दों पर यूरोपीय संघ को और ज़्यादा कहने का अधिकार मिल गया।
यूरो (मुद्रा चिह्न ; बैंक कोड: यूर) यूरोपीय संघ के २७ में से २० सदस्य की आधिकारिक मुद्रा है, जिन्हें सामूहिक रूप से यूरोजोन कहा जाता है। इसमें ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, साइप्रस, फिनलैंड, फ़्रान्स, जर्मनी, यूनान, आयरलैंड, इटली, लक्ज़मबर्ग, माल्टा, नीदरलैंड, पुर्तगाल, स्लोवेनिया, स्लोवाकिया और स्पेन (२०१४) शामिल हैं। इसके अलावा पाँच अन्य यूरोपीय देशों में आधिकारिक सहमति के कारण युरोपीय मुद्रा प्रचलन में है। अमेरिकी डॉलर के बाद यूरो दुनिया में दूसरी सबसे सुरक्षित रखने वाली और प्रचलन में रहने वाली मुद्रा है। यूरो नाम आधिकारिक रूप से १६ दिसम्बर १९९५ को अपनाया गया। वैश्विक बाजार में इसे परिचययूरोपियन करेंसी यूनिट के स्थान पर सम मूल्य पर १ जनवरी १999 को जारी किया गया। १० दिसम्बर को मास्त्रिछट संधि हुई थी जिसमें यूरोपीय संघ देशों के नेता नीदरलैंड के मास्त्रिछट शहर मे इकट्ठा हुए और एकल यूरोपीय करेंसी स्थापित करने हेतु सहमत हुए जिसे यूरो कहा गया। यूरो १९९२ मास्ट्रिच संधि के प्रावधानों द्वारा स्थापित किया गया था। मुद्रा में भाग लेने के लिए, सदस्य राज्य सख्त मानदंडों को पूरा करने के लिए हैं, जैसे कि सकल घरेलू उत्पाद का ३% से कम का बजट घाटा, सकल घरेलू उत्पाद का ६०% से कम का ऋण अनुपात (जिनमें से दोनों अंततः परिचय के बाद व्यापक रूप से फंसे हुए थे) , कम मुद्रास्फीति, और ईयू औसत के करीब ब्याज दरें। मास्ट्रिच संधि में, यूनाइटेड किंगडम और डेनमार्क को उनके अनुरोध के मुताबिक मौद्रिक संघ के चरण में जाने से छूट दी गई जिसके परिणामस्वरूप यूरो की शुरूआत हुई। १६ दिसंबर १९९५ को मैड्रिड में "यूरो" नाम आधिकारिक तौर पर अपनाया गया था। फ्रांसीसी और इतिहास के पूर्व शिक्षक बेल्जियम एस्पेरेंटिस्ट जर्मिन पर्लोट को यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष जैक्स सेंटर को एक पत्र भेजकर नई मुद्रा का नामकरण करने का श्रेय दिया जाता है, जो ४ अगस्त १९९५ को "यूरो" नाम का सुझाव देते थे। गोल करने और महत्वपूर्ण अंकों के लिए राष्ट्रीय सम्मेलनों में मतभेदों के कारण, राष्ट्रीय मुद्राओं के बीच सभी रूपांतरण यूरो के माध्यम से त्रिकोण की प्रक्रिया का उपयोग करके किया जाना था। एक्सचेंज दरों के मामले में यूरो के निश्चित मूल्य, जिस पर यूरो में प्रवेश किया गया है, दाईं ओर दिखाया गया है। यूरोपीय संघ की परिषद द्वारा दरों को निर्धारित किया गया था, ३१ दिसंबर १९९८ को बाजार दरों के आधार पर यूरोपीय आयोग की सिफारिश के आधार पर। वे सेट किए गए थे ताकि एक यूरोपीय मुद्रा इकाई (ईसीयू) एक यूरो के बराबर होगी । यूरोपीय मुद्रा इकाई सदस्य देशों की मुद्राओं के आधार पर यूरोपीय संघ द्वारा उपयोग की जाने वाली एक लेखा इकाई थी; यह अपने ही अधिकार में एक मुद्रा नहीं था। उन्हें पहले सेट नहीं किया जा सका, क्योंकि ईसीयू उस दिन गैर-यूरो मुद्राओं (मुख्य रूप से पाउंड स्टर्लिंग) की समापन विनिमय दर पर निर्भर था ईग्रीक ड्रैक्मा और यूरो के बीच रूपांतरण दर को ठीक करने के लिए उपयोग की जाने वाली प्रक्रिया अलग थी, क्योंकि तब तक यूरो पहले से ही दो साल का था। हालांकि प्रारंभिक ग्यारह मुद्राओं के लिए रूपांतरण दर यूरो शुरू होने से कुछ घंटे पहले निर्धारित की गई थी, ग्रीक ड्रैक्मा के लिए रूपांतरण दर कई महीने पहले तय की गई थी। १ जनवरी १९९९ को मध्यरात्रि में मुद्रा गैर-भौतिक रूप (यात्री की जांच, इलेक्ट्रॉनिक स्थानान्तरण, बैंकिंग इत्यादि) में पेश की गई थी, जब भाग लेने वाले देशों (यूरोज़ोन) की राष्ट्रीय मुद्राएं स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में थीं। उनकी विनिमय दर एक दूसरे के खिलाफ निश्चित दरों पर बंद कर दी गई थीं। इस प्रकार यूरो यूरोपीय मुद्रा इकाई (ईसीयू) के उत्तराधिकारी बन गया। पुरानी मुद्राओं के लिए नोट्स और सिक्के, हालांकि, १ जनवरी २००२ को नए यूरो नोट्स और सिक्के पेश किए जाने तक कानूनी निविदा के रूप में उपयोग जारी रहे। बदलाव की अवधि जिसके दौरान यूरो के उन लोगों के लिए पूर्व मुद्राओं के नोट्स और सिक्कों का आदान-प्रदान किया गया था, जो २८ फरवरी २००२ तक लगभग दो महीने तक चले गए थे। आधिकारिक तारीख जिस पर राष्ट्रीय मुद्राएं कानूनी निविदाएं थीं, सदस्य राज्य से सदस्य राज्य में भिन्न थीं। सबसे पुरानी तारीख जर्मनी में थी, जहां ३१ दिसंबर २००१ को आधिकारिक तौर पर कानूनी निविदा वैध रही, हालांकि विनिमय अवधि दो महीने तक चली गई। पुरानी मुद्राओं के कानूनी निविदा होने के बाद भी, वे कई वर्षों से लेकर अनिश्चित काल तक (ऑस्ट्रिया, जर्मनी, आयरलैंड, एस्टोनिया और लातविया के लिए बैंकनोट्स और सिक्कों में, और बेल्जियम के लिए, राष्ट्रीय केंद्रीय बैंकों द्वारा अनिश्चित काल तक स्वीकार किए जाते रहे, लक्समबर्ग, स्लोवेनिया और स्लोवाकिया केवल बैंकनोट्स में)। गैर-परिवर्तनीय बनने वाले सबसे शुरुआती सिक्के पुर्तगाली एस्कुडो थे, जो ३१ दिसंबर २००२ के बाद मौद्रिक मूल्य के लिए बंद हो गए थे, हालांकि २०२२ तक बैंकनोट्स विनिमय योग्य रहे। फ्रैंकफर्ट (जर्मनी) में यूरोपीय सेंट्रल बैंक की सीट है और यह यूरोज़ोन की मौद्रिक नीति का प्रभारी है।मुख्य लेख: यूरोपीय सेंट्रल बैंक, मास्ट्रिच संधि, और यूरोग्रुप यूरो फ्रैंकफर्ट स्थित यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ईसीबी) और यूरोसिस्टम (यूरोजोन देशों के केंद्रीय बैंकों से बना) द्वारा प्रबंधित और प्रशासित है। एक स्वतंत्र केंद्रीय बैंक के रूप में, ईसीबी के पास मौद्रिक नीति निर्धारित करने का एकमात्र अधिकार है। यूरोसिस्टम सभी सदस्य देशों में नोट्स और सिक्कों के मुद्रण, खनन और वितरण, और यूरोज़ोन भुगतान प्रणाली के संचालन में भाग लेता है। १९९२ मास्ट्रिच संधि कुछ यूरोपीय संघ के सदस्य देशों को कुछ मौद्रिक और बजटीय अभिसरण मानदंडों को पूरा करने के लिए यूरो को अपनाने के लिए बाध्य करती है, हालांकि सभी राज्यों ने ऐसा नहीं किया है। यूनाइटेड किंगडम और डेनमार्क ने छूट की बातचीत की, जबकि स्वीडन (जो मास्ट्रिच संधि पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद १९९५ में यूरोपीय संघ में शामिल हो गया) ने २००३ के जनमत संग्रह में यूरो को गिरा दिया, और यूरो को अपनाने के लिए यूरो को अपनाने के दायित्व को रोक दिया मौद्रिक और बजटीय आवश्यकताओं। १९९३ से यूरोपीय संघ में शामिल होने वाले सभी राष्ट्रों ने निश्चित रूप से यूरो को अपनाने का वचन दिया है। बैंकनोट्स के लिए मॉडलिंग जारी करना १ जनवरी २००२ से, राष्ट्रीय केंद्रीय बैंक (एनसीबी) और ईसीबी ने संयुक्त आधार पर यूरो बैंकनोट जारी किए हैं। यूरो बैंकनोट्स यह नहीं दिखाते कि किस केंद्रीय बैंक ने उन्हें जारी किया है। [संदिग्ध - चर्चा] यूरोसिस्टम एनसीबी को अन्य यूरोसिस्टम सदस्यों द्वारा परिसंचरण में डाल दिए गए यूरो बैंकनोट्स को स्वीकार करने की आवश्यकता है और इन बैंकनोट्स को वापस नहीं भेजा जाता है। ईसीबी यूरोसिस्टम द्वारा जारी बैंकनोट्स के कुल मूल्य का ८% जारी करता है। व्यावहारिक रूप से, ईसीबी के बैंकनोट्स एनसीबी द्वारा परिसंचरण में डाल दिए जाते हैं, जिससे ईसीबी के साथ मिलकर देनदारियां होती हैं। ये देनदारियां ईसीबी की मुख्य पुनर्वित्त दर पर ब्याज लेती हैं। अन्य ९२% यूरो बैंकनोट्स ईसीबी द्वारा ईसीबी पूंजी कुंजी के अपने संबंधित शेयरों के अनुपात में जारी किए जाते हैं, यूरोपीय संघ (ईयू) आबादी के राष्ट्रीय हिस्से और यूरोपीय संघ जीडीपी के राष्ट्रीय हिस्से का उपयोग करके गणना की जाती है।
फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति वेलरी गिशार्ड डेस्टिंग की अध्यक्षता वाले एक विशेषज्ञ दल ने २००२ और २००३ में अच्छा ख़ासा समय यूरोपीय संघ का एक संविधान का मसौदा तैयार करने पर लगाया। इस संविधान का मक़सद यूरोपीय संधियों को आसान भाषा में उपलब्ध कराना है ताकि यूरोपीय संघ के मिज़ाज़ को ज़्यादा आसान तरीक़े से समझा जा सके और विस्तार होने पर इसे सुचारू रूप से चलाया जा सके। लेकिन यूरोपीय संविधान के किसी मसौदे पर अभी कोई सहमति नहीं बन पाई है।
महाशिवरात्रि भारतीयों का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। माघ फागुन फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि का प्रारम्भ इसी दिन से हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग (जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है) के उदय से हुआ। इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था। महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव व पत्नी पार्वती की पूजा होती हैं। यह पूजा व्रत रखने के दौरान की जाती है। साल में होने वाली १२ शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है|भारत सहित पूरी दुनिया में महाशिवरात्रि का पावन पर्व बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है| कश्मीर शैव मत में इस त्यौहार को हर-रात्रि और बोलचाल में 'हेराथ' या 'हेरथ' भी कहा जाता हैं। महाशिवरात्रि से सम्बन्धित कई पौराणिक कथाएँ है: [[समुद्र मन्थन|समुद्र मंथन]अमृत का उत्पादन करने के लिए निश्चित था, लेकिन इसके साथ ही हलाहल नामक विष भी पैदा हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्माण्ड को नष्ट करने की क्षमता थी और इसलिए केवल भगवान शिव इसे नष्ट कर सकते थे। भगवान शिव ने हलाहल नामक विष को अपने कण्ठ में रख लिया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव अत्यधिक दर्द से पीड़ित हो उठे थे और उनका गला नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव 'नीलकण्ठ' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जगाये रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान शिव के चिन्तन में एक सतर्कता रखी। शिव को आनंदित करने और जागाये रखने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाये। जैसे सुबहहुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने दुनिया को बचाया। तब से इस दिन, भक्त उपवास करते है। एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक बारचित्रभानु नामक एक शिकारी था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।' शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिन्ता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरन्त लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ। मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलम्ब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊँगा। मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा। थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किन्तु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवम् सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवम् दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए। इस अवसर पर भगवान शिव का अभिषेक अनेकों प्रकार से किया जाता है। जलाभिषेक : जल से और दुग्धाभिषेक : दूध से। बहुत जल्दी सुबह-सुबह भगवान शिव के मन्दिरों पर भक्तों, जवान और बूढ़ों का ताँता लग जाता है वे सभी पारम्परिक शिवलिंग पूजा करने के लिए जाते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं। भक्त सूर्योदय के समय पवित्र स्थानों पर स्नान करते हैं जैसे गंगा, या (खजुराहो के शिव सागर में) या किसी अन्य पवित्र जल स्रोत में। यह शुद्धि के अनुष्ठान हैं, जो सभी हिन्दू त्योहारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पवित्र स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहने जाते हैं, भक्त शिवलिंग स्नान करने के लिए मन्दिर में पानी का बर्तन ले जाते हैं महिलाओं और पुरुषों दोनों सूर्य, विष्णु और शिव की प्रार्थना करते हैं मन्दिरों में घण्टी और "शंकर जी की जय" ध्वनि गूँजती है। भक्त शिवलिंग की तीन या सात बार परिक्रमा करते हैं और फिर शिवलिंग पर पानी या दूध भी डालते हैं। हलाकि इन सभी अनुष्ठान का वर्णन हमारे पवित्र शास्त्रों में कहीं पर भी नही है, जिससे यह शास्त्रानुकूल साधना नही है। शिव पुराण के अनुसार, महाशिवरात्रि पूजा में छह वस्तुओं को अवश्य शामिल करना चाहिए: शिव लिंग का पानी, दूध और शहद के साथ अभिषेक। बेर या बेल के पत्ते जो आत्मा की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं; सिंदूर का पेस्ट स्नान के बाद शिव लिंग को लगाया जाता है। यह पुण्य का प्रतिनिधित्व करता है; फल, जो दीर्घायु और इच्छाओं की सन्तुष्टि को दर्शाते हैं; जलती धूप, धन, उपज (अनाज); दीपक जो ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुकूल है; और पान के पत्ते जो सांसारिक सुखों के साथ सन्तोष अंकन करते हैं। अभिषेक में निम्न वस्तुओं का प्रयोग नहीं किया जाता है: तुलसी के पत्ते चंपा और केतकी के फूल भगवान शिव की अन्य पारम्परिक पूजा बारह ज्योतिर्लिंग (प्रकाश के लिंग) जो पूजा के लिए भगवान शिव के पवित्र धार्मिक स्थल और केन्द्र हैं। वे स्वयम्भू के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है "स्वयं उत्पन्न"। बारह स्थानों पर बारह ज्योर्तिलिंग स्थापित हैं। १. सोमनाथ यह शिवलिंग गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित है। २. श्री शैल मल्लिकार्जुन मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग। ३. महाकाल उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहाँ शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था। ४. ॐकारेश्वर मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया। ५. नागेश्वर गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग। ६. बैजनाथ झारखंड के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग। ७. भीमाशंकर महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग। ८. त्र्यंम्बकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) से २५ किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग। ९. घृष्णेश्वर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गाँव में स्थापित घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग। १०. केदारनाथ हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से १५० पर मिल दूरी पर स्थित है। ११. काशी विश्वनाथ बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग। १२. रामेश्वरम् त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग। भारत में शिवरात्रि मध्य भारत में शिव अनुयायियों की एक बड़ी संख्या है। महाकालेश्वर मंदिर, (उज्जैन) सबसे सम्माननीय भगवान शिव का मंदिर है जहाँ हर वर्ष शिव भक्तों की एक बड़ी मण्डली महा शिवरात्रि के दिन पूजा-अर्चना के लिए आती है। जेओनरा, सिवनी के मठ मंदिर में व जबलपुर के तिलवाड़ा घाट नामक दो अन्य स्थानों पर यह त्योहार बहुत धार्मिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। दमोह जिले के बांदकपुर धाम में भी इस दिन लाखों लोगों का जमावड़ा रहता है। कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह शिव और पार्वती के विवाह के रूप में हर घर में मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के उत्सव के ३-४ दिन पहले यह शुरू हो जाता है और उसके दो दिन बाद तक जारी रहता है। महाशिवरात्रि आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के सभी मंदिरों में व्यापक रूप से मनाई जाती है। बांग्लादेश में शिवरात्रि बांग्लादेश में हिंदू महाशिवरात्रि मनाते हैं। वे भगवान शिव के दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने की उम्मीद में व्रत रखते हैं। कई बांग्लादेशी हिंदू इस खास दिन चंद्रनाथ धाम (चिटगांव) जाते हैं। बांग्लादेशी हिंदुओं की मान्यता है कि इस दिन व्रत व पूजा करने वाले स्त्री/पुरुष को अच्छा पति या पत्नी मिलती है। इस वजह से ये पर्व यहाँ खासा प्रसिद्ध है। नेपाल में शिवरात्रि नेपाल पशुपति नाथ में महाशिवरात्रि महाशिवरात्रि को नेपाल में व विशेष रूप से पशुपति नाथ मंदिर में व्यापक रूप से मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के अवसर पर काठमांडू के पशुपतिनाथ मन्दिर पर भक्तजनों की भीड़ लगती है। इस अवसर पर भारत समेत विश्व के विभिन्न स्थानों से जोगी, एवम् भक्तजन इस मन्दिर में आते हैं। शिव जिनसे योग परंपरा की शुरुआत मानी जाती है को आदि (प्रथम) गुरु माना जाता है। परंपरा के अनुसार, इस रात को ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है जिससे मानव प्रणाली में ऊर्जा की एक शक्तिशाली प्राकृतिक लहर बहती है। इसे भौतिक और आध्यात्मिक रूप से लाभकारी माना जाता है इसलिए इस रात जागरण की सलाह भी दी गयी है जिसमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य के विभिन्न रूप में प्रशिक्षित विभिन्न क्षेत्रों से कलाकारों पूरी रात प्रदर्शन करते हैं। शिवरात्रि को महिलाओं के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है। विवाहित महिलाएँ अपने पति के सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं व अविवाहित महिलाएं भगवान शिव, जिन्हें आदर्श पति के रूप में माना जाता है जैसे पति के लिए प्रार्थना करती हैं।
हृषीकेश (तद्भव: ऋषिकेश) भारतीय राज्य उत्तरखण्ड के देह्रदून ज़िले में देह्रदून के निकट एक नगर है। यह गंगा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है और हिन्दुओं हेतु एक तीर्थस्थल है, जहाँ प्राचीन सन्त उच्च ज्ञानान्वेषण में यहाँ ध्यान करते थे। नदी के किनारे कई मन्दिर और आश्रम बने हुए हैं। इसे "गढ़वाल हिमालय का प्रवेश द्वार" और "विश्व की योगनगरी" के रूप में जाना जाता है। नगर ने १९९९ से मार्च के पहले सप्ताह में वार्षिक "अन्तर्राष्ट्रीय योग महोत्सव" की आतिथ्य की है। हृषीकेश एक शाकाहारी और मद्यमुक्त नगर है। टिहरी बाँध केवल ८६ किमी दूर है और उत्तरकाशी, एक लोकप्रिय योग स्थल है, जो गंगोत्री के मार्ग में १७० किमी की पर्वतोर्ध्व पर स्थित है। हृषीकेश छोटा चार धाम तीर्थ स्थानों जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री और हरसिल, चोपता, औली जैसे हिमालयी पर्यटन स्थलों की यात्रा हेतु प्रारम्भिक बिन्दु है और शिविरवास और भव्य हिमालय के मनोरम दृश्यों हेतु डोडीताल, दयारा बुग्याल, केदारकण्ठ, हर की दून घाटी जैसे प्रसिद्ध ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन पदयात्रा गन्तव्य हैं। सितम्बर २०१५ में, भारतीय पर्यटन मन्त्री महेश शर्मा ने घोषणा की कि हृषीकेश और हरिद्वार पहले "जुड़वाँ राष्ट्रीय विरासत नगर" होंगे। २०२१ तक, हृषीकेश की कुल जनसंख्या ३२२,८२५ है, जिसमें नगर और इसके निकट के ९३ ग्राम अन्तर्गत हैं। हृषीकेश नगर का नाम भगवान विष्णु के नाम से लिया गया है, जो हृषीक अर्थात् 'इन्द्रियों' और ईश अर्थात् 'ईश्वर' की समास से बना है, और 'इन्द्रियों के ईश्वर' का संयुक्तार्थ देता है। यह नाम रैभ्य ऋषि को, उनके तपस्या के फलस्वरूप, भगवान विष्णु की एक साक्षात दर्शन का स्मरण कराता है। ऋषि रैभ्य ने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इन्द्रियों के विजेता भगवान विष्णु को प्राप्त किया। स्कन्द पुराण में, इस क्षेत्र को कुब्जाम्रक के रूप में जाना जाता है, क्योंकि भगवान विष्णु एक आम्र वृक्ष के नीचे प्रकट हुए थे। गंगा नदी के एक किनार को दूसर किनार से जोड़ता यह झूला नगर की विशिष्ट की पहचान है। इसे विकतमसंवत १९९६ में बनवाया गया था। कहा जाता है कि गंगा नदी को पार करने के लिए लक्ष्मण ने इस स्थान पर जूट का झूला बनवाया था। झूले के बीच में पहुँचने पर वह हिलता हुआ प्रतीत होता है। ४५० फीट लम्बे इस झूले के समीप ही लक्ष्मण और रघुनाथ मन्दिर हैं। झूले पर खड़े होकर आसपास के खूबसूरत नजारों का आनन्द लिया जा सकता है। लक्ष्मण झूला के समान राम झूला भी नजदीक ही स्थित है। यह झूला शिवानन्द और स्वर्ग आश्रम के बीच बना है। इसलिए इसे शिवानन्द झूला के नाम से भी जाना जाता है। ऋषिकेश मैं गंगाजी के किनारे की रेेत बड़ी ही नर्म और मुलायम है, इस पर बैठने से यह माँ की गोद जैसी स्नेहमयी और ममतापूर्ण लगती है, यहाँ बैठकर दर्शन करने मात्र से हृदय मैं असीम शान्ति और रामत्व का उदय होने लगता है।.. ऋषिकेश में स्नान करने का यह प्रमुख घाट है जहाँ प्रात: काल में अनेक श्रद्धालु पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर हिन्दू धर्म की तीन प्रमुख नदियों गंगा यमुना और सरस्वती का संगम होता है। इसी स्थान से गंगा नदी दायीं ओर मुड़ जाती है। गोधूलि वेला में यहाँ की नियमित पवित्र आरती का दृश्य अत्यन्त आकर्षक होता है। शाम को त्रिवेणी घाट पर आरती का दृश्य एक अलग आकर्षक एवं असीम शांति दायक होता है । स्वामी विशुद्धानन्द द्वारा स्थापित यह आश्रम ऋषिकेश का सबसे प्राचीन आश्रम है। स्वामी जी को 'काली कमली वाले' नाम से भी जाना जाता था। इस स्थान पर बहुत से सुन्दर मन्दिर बने हुए हैं। यहाँ खाने पीने के अनेक रस्तरां हैं जहाँ केवल शाकाहारी भोजन ही परोसा जाता है। आश्रम की आसपास हस्तशिल्प के सामान की बहुत सी दुकानें हैं। नीलकण्ठ महादेव मन्दिर लगभग ५,५00 फीट की ऊँचाई पर स्वर्ग आश्रम की पहाड़ी की चोटी पर नीलकण्ठ महादेव मन्दिर स्थित है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने इसी स्थान पर समुद्र मन्थन से निकला विष ग्रहण किया गया था। विषपान के बाद विष के प्रभाव के से उनका गला नीला पड़ गया था और उन्हें नीलकण्ठ नाम से जाना गया था। मन्दिर परिसर में पानी का एक झरना है जहाँ भक्तगण मन्दिर के दर्शन करने से पहले स्नान करते हैं। यह ऋषिकेश का सबसे प्राचीन मन्दिर है जिसे १२ शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य ने बनवाया था। भगवान राम के छोटे भाई भरत को समर्पित यह मन्दिर त्रिवेणी घाट के निकट ओल्ड टाउन में स्थित है। मन्दिर का मूल रूप १३९८ में तैमूर आक्रमण के दौरान क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। हालाँकि मन्दिर की बहुत सी महत्वपूर्ण चीजों को उस हमले के बाद आज तक संरक्षित रखा गया है। मन्दिर के अन्दरूनी गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिमा एकल शालीग्राम पत्थर पर उकेरी गई है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रखा गया श्रीयन्त्र भी यहाँ देखा जा सकता है। कैलाश निकेतन मन्दिर लक्ष्मण झूले को पार करते ही कैलाश निकेतन मन्दिर है। १२ खण्डों में बना यह विशाल मंदिर ऋषिकेश के अन्य मन्दिरों से भिन्न है। इस मंदिर में सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। ऋषिकेश से २२ किलोमीटर की दूरी पर ३,००० साल पुरानी वशिष्ठ गुफा बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर स्थित है। इस स्थान पर बहुत से साधुओं विश्राम और ध्यान लगाए देखे जा सकते हैं। कहा जाता है यह स्थान भगवान राम और बहुत से राजाओं के पुरोहित वशिष्ठ का निवास स्थल था। वशिष्ठ गुफा में साधुओं को ध्यानमग्न मुद्रा में देखा जा सकता है। गुफा के भीतर एक शिवलिंग भी स्थापित है। यह जगह पर्यटन के लिये बहुत मशहूर है। राम झूला पार करते ही गीता भवन है जिसे विकतमसंवत २००७ में श्री जयदयाल गोयन्दकाजी के द्वारा बनवाया गया था। यह अपनी दर्शनीय दीवारों के लिए प्रसिद्ध है। यहां रामायण और महाभारत के चित्रों से सजी दीवारें इस स्थान को आकर्षण बनाती हैं। यहां एक आयुर्वेदिक डिस्पेन्सरी और गीताप्रेस गोरखपुर की एक शाखा भी है। प्रवचन और कीर्तन मन्दिर की नियमित क्रियाएँ हैं। शाम को यहां भक्ति संगीत की आनन्द लिया जा सकता है। तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए यहाँ सैकड़ों कमरे हैं। ऋषिकेश से नीलकण्ठ मार्ग के बीच यह स्थान आता है जिसका नाम है फूलचट्टी , मोहनचट्टी , यह स्थान बहुत ही शान्त वातावरण का है यहाँ चारों और सुन्दर वादियाँ है , नीलकण्ठ मार्ग पर मोहनचट्टी आकर्षण का केंद्र बनता है | यह हिन्दी- अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान अंग्रेजी- एल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस का संक्षिप्त नाम है, भारत का दिल्ली के बाद यह देश का सबसे बड़ा चिकित्सालय है,अस्पताल परिसर ४०० मीटर के दायरे में फैला है देखने योग्य भव्य इमारत है,इसके कई भाग हैं-ट्रॉमा सेण्टर, एमरजेन्सी आदि ऋषिकेश से १८ किलोमीटर की दूरी पर देहरादून के निकट जौली ग्रान्ट एयरपोर्ट नजदीकी एयरपोर्ट है। एयर इण्डिया, जेट एवं स्पाइसजेट की फ्लाइटें इस एयरपोर्ट को दिल्ली से जोड़ती है। ऋषिकेश का नजदीकी रलवे स्टेशन ऋषिकेश है जो शहर से ५ किलोमीटर दूर है। ऋषिकेश देश के प्रमुख रेलवे स्टेशनों से जुड़ा हुआ है। और ऋषिकेश का आखरी स्टेशन है। इसके बाद आगे रेलवे लाइन नहीं जाती। दिल्ली के कश्मीरी गेट से ऋषिकेश के लिए डीलक्स और निजी बसों की व्यवस्था है। राज्य परिवहन निगम की बसें नियमित रूप से दिल्ली और उत्तराखण्ड के अनेक शहरों से ऋषिकेश के लिए चलती हैं। ऋषिकेश में हस्तशिल्प का सामान अनेक छोटी दुकानों से खरीदा जा सकता है। यहाँ अनेक दुकानें हैं जहाँ से साड़ियों, बेड कवर, हैन्डलूम फेबरिक, कॉटन फेबरिक आदि की खरीददारी की जा सकती है। ऋषिकेश में सरकारी मान्यता प्राप्त हैण्डलूम शॉप, खादी भण्डार, गढ़वाल वूल और क्राफ्ट की बहुत सी दुकानें हैं जहाँ से उच्चकोटि का सामान खरीदा जा सकता है। इन दुकानों से कम कीमत पर समान खरीदे जा सकते हैं । भारत के तीर्थ उत्तराखण्ड के नगर निगम देहरादून ज़िले के नगर
लक्ष्मण झूला ऋषिकेश में गंगा नदी पर बना एक पुल है।यह झूला ब्रिटिश साम्राज्य के समय बना। इसको बने हुए १४४ वर्ष हुुए हैं। लक्ष्मण झूला ऋषिकेश का सबसेे प्रसिद्ध झूला है। लेकिन यात्रियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते २०२० से पूर्णतः बन्द कर दिया गया। पुरातन कथनानुसार भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण ने इसी स्थान पर जूट की रस्सियों के सहारे नदी को पार किया था। स्वामी विशुदानंद की प्रेरणा से कलकत्ता के सेठ सूरजमल झुहानूबला ने यह पुल सन् १८८९ में लोहे के मजबूत तारों से बनवाया, इससे पूर्व जूट की रस्सियों का ही पुल था एवं रस्सों के इस पुल पर लोगों को छींके में बिठाकर खींचा जाता था। लेकिन लोहे के तारों से बना यह पुल भी १९२४ की बाढ़ में बह गया। इसके बाद मजबूत एवं आकर्षक पुल बनाया गया। इस पुल के पश्चिमी किनारे पर भगवान लक्ष्मण का मंदिर है जबकि इसके दूसरी ओर श्रीराम का मंदिर है। कहा जाता है कि श्रीराम स्वयं इस सुंदर स्थल पर पधारे थे। पुल को पार कर बाईं ओर पैदल रास्ता बदरीनाथ को तथा दायीं ओर स्वर्गाश्रम को जाता है। केदारखंड में इस पुल के नीचे इंद्रकुंड का विवरण है, जो अब प्रत्यक्ष नहीं है।
किसी भी रोमांचक यात्रा में कैंपिंग एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। कैंपिंग का अर्थ है घर से बाहर कहीं पर कैंप या तंबू लगाकर रहना। किसी भी रोमांचक (जैसे कि ट्रेकिंग) यात्रा पर जाते हुए वहाँ पर कुछ समय कैंप लगाकर रहना भी एक अलग तरह का रोमांच है। पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों के बीच मनुष्य अपनें भीड़-भाड़ एवं शोरगुल वाले जीवन को कुछ समय के लिए भूल सा जाता है। जंगल की शांति एवं सुन्दरता मनुष्य की सारी थकान समाप्त कर उसे फिर से तरोताजा कर देती हैं
दुर्गम ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी तथा घाटी मार्गों से पैदल यात्रा करने को ट्रेकिंग कहते हैं। ट्रैकिंग के दौरान मनुष्य जुझारु एवं निडर बनता है। मिल कर काम करने से उसमें सहयोग की भावना भी विकसित होती हैं। ट्रैकिंग रास्ते के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु एवं नयनाभिराम दृश्य व्यक्ति की सारी थकान हर लेते हैं। व्यक्ति सब कुछ भूलकर अपने आप को प्रकृति की गोंद में विजय पाने के बाद व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ जाता है तथा उसे आत्मसंतोष की अनुभूति होती है।
कैंपिंग एवं ट्रेकिंग की तरह राफ्टिंग भी एक रोमांचकारी गतिविधि है। ऊँची-नीची लहरो से एक छोटी सी नाव में जूझना भी एक अलग तरह का अनुभव है। मनोरंजन के साथ-साथ यह हमें साहसी, एवं जूझारु भी बनाती है। इसके अलावा एक साथ काम करने के कारण आपस में सहयोग की भावना भी बढ़ती है। बड़ी-ड़ी लहरे जब वेग के साथ व्यक्ति की ओर आती हैं, तो कुछ क्षणों के लिए सब कुछ भूल जाता है। उसे केवल परस्पर सहयोग से इन लहरों को जीतनें की इच्छा होती है। यात्रा पूरी करने पर उस जीत की जो खुशी होती है, उसका वर्णन शब्दों में करना असम्भव ही है। राफ्टिंग और व्हाइटवाटर राफ्टिंग एक आउटडोर मनोरंजक गतिविधि हैं जिसमे एक हवा वाली बेड़े का उपयोग कर नदी या पानी के अन्य प्रकारों पर नेविगेट करते हैं। यह अक्सर किसी न किसी तरह साफ़ पानी की या फिर उथले पानी के विभिन्न डिग्री पर किया जाता है और आम तौर पर भाग लेने वालों के लिए एक नया और चुनौतीपूर्ण वातावरण का प्रतिनिधित्व करता है। जोखिम से निपटने और टीम वर्क की जरूरत इस अनुभव (राफ्टिंग) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक अवकाश खेल के रूप में इस गतिविधि का विकास के १९७० के मध्य लोकप्रिय हो गया है। यह एक जोखिम भरा खेल के रूप में जाना जाता है एवं यह काफी खतरनाक भी हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय राफ्टिंग संघ, जो आईआरएफ के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है एवं जो खेल के सभी पहलुओं की देखरेख करता है। वाइट वाटर के प्रकार निमंलिखित ६ स्तर के बाधाओं का सामना वाइट वाटर राफ्टिंग में करना पड़ता है इसके अन्य नामों में इंटरनेशनल स्केल ऑफ़ रिवर दिफ्फिकल्टी भी है ये बहुत खतरनाक से मौत के मुह या फिर गंभीर चोट के बीच में आते है। क्लास १ : बहुत छोटे खुरदुरे क्षेत्र, इनमे कुशलता की जरुरत हो सकती हैं। (कौशल का स्तर: बहुत ही बुनियादी) क्लास २:थोडा उथला पानी, इनमे कुशलता की जरुरत हो सकती हैं। क्लास३: व्हाइटवॉटर, छोटी तरंगे। क्लास४:व्हाइटवॉटर, मध्यम तरंगे, कुछ चट्टानें, तीक्ष्ण कुशलता की जरुरत।. क्लास ५:व्हाइटवॉटर, बड़ी तरंगे, बड़ा क्षेत्र, सटीक कुशलता की जरुरत। क्लास ६:काफी खतरनाक एवं इसमें राफ्टर को पर्याप्त व्हाइटवॉटर, बड़ी तरंगे, बड़ी चट्टानों का सामना करना पड़ता है। व्हाइट वाटर राफ्टिंग डोंगियों या कायाक से काफी अलग है इसमें बहुत ही कुशलता एवं विशेषता की जरुरत होती है ताकि पानी में आनेवाली कठिनाइयों को दूर किया जा सके। इनमे कुछ विशिष्ट तकनीक इस्तेमाल किये जाते हैं, इन तकनीकों के उदाहरण में शामिल हैं। लेफ्ट ओवर राईट एंड ओवर एंड व्हाइटवॉटर राफ्टिंग क खतरनाक खेल हो सकता है यदि इसमें मुलभुत सुरक्षा तकनीको की अनदेखी की गई हो। हालांकि पेशेवर एवं निजी राफ्टिंग में दुर्घटना काफी कम देखी गई हैं इसकी एक वजह बहुत सारी घटनाओं का रिपोर्टिंग नहीं होना है। इसलिए दुर्घटनाओं की दर काफी कम समजी जाती हैं। अत: यह जरुरी हैं कि राफ्टिंग करने के पहले आप अपने संचालक के साथ सुरक्षा व्यवस्था का जायजा ले ले। हालाकि इस खेल में विशेशागता बड़ी हैं एवं विशिस्ट उपकारों के प्रयोग के चलते दुर्घटना की सम्भावना घटी हैं। पर्यावरण के मुद्दे प्रत्येक बाहरी गतिविधियों की तरह राफ्टिंग को भी नदियों के साथ संतुलन बनाये रखना काफी जरुरी हैं ताकि नदिया पर्यावरण का स्रोत बनी रहे। इन्ही मुद्दों के चलते अब कुछ नदियों में राफ्टिंग के लिए अब कड़े नियम बनाये गए हैं जो इनके दैनिक एवं वार्षिक संचालन समय एवं रफ्टरों की संख्या से सम्बंधित है। यद्यपि कई देशों के अर्थव्यवस्था में राफ्टिंग काफी योगदान देता हैं फिर भी पर्यावरण के मुद्दों को अनदेखी नहीं की जा सकती. इन्हें भी देखें
कुम्भ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में एकत्र होते हैं और नदी में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति १२वें वर्ष तथा प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हुआ था। फिर २०१९ में प्रयाग में अर्धकुम्भ मेले का आयोजन हुआ था। खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है। इसका हिन्दू धर्म मे बहुत अधिक महत्व है। 'कुम्भ' का शाब्दिक अर्थ घड़ा, सुराही, बर्तन है। यह वैदिक ग्रन्थों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता (अमृत) के बारे में बताया जाता है। मेला शब्द का अर्थ है, किसी एक स्थान पर मिलना, एक साथ चलना, सभा में या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना। यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुम्भ मेले का अर्थ है अमरत्व का मेला है। पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो, ज्योतिषियों के अनुसार कुम्भ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है कि अपनी अन्तरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुम्भ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। हालाँकि सभी हिन्दू त्योहार समान श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाए जाते है, पर यहाँ अर्ध कुम्भ तथा कुम्भ मेले के लिए आने वाले पर्यटकों की संख्या सबसे अधिक होती है। कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है। १०,००० ईसापूर्व (ईपू) - इतिहासकार एस बी राय ने अनुष्ठानिक नदी स्नान को स्वसिद्ध किया। ६०० ईपू - बौद्ध लेखों में नदी मेलों की उपस्थिति। ४०० ईपू - सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया। ईपू ३०० ईस्वी - रॉय मानते हैं कि मेले के वर्तमान स्वरूप ने इसी काल में स्वरूप लिया था। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है। सर्व प्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई कालान्तर मे विखण्डन होकर अन्य अखाड़े बने ५४७ - अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन इसी समय का है। ६०० - चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान प्रयागराज) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया। ९०४ - निरंजनी अखाड़े का गठन। ११४६ - जूना अखाड़े का गठन। १३०० - कानफटा योगी चरमपन्थी साधु राजस्थान सेना में कार्यरत। १३९८ - तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। विस्तार से - १३९८ हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार १५६५ - मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन। १६७८ -प्रणामी सम्प्रदायके प्रवर्तक, महामति श्री प्राणनाथजीको विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित । १६८४ - फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में १२ लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया। १६९० - नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; ६०,००० मरे। १७६० - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; १,८०० मरे। १७८० - ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना। १८२० -हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से ४३० लोग मारे गए। १९०६- ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया। १९५४ - चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की १% जनसंख्या ने प्रयागराज में आयोजित कुम्भ में भागीदारी की; भगदड़ में कई सौ लोग मरे। १९८९ - गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने ६ फरवरी के प्रयाग मेले में १.५ करोड़ लोगों की उपस्थिति प्रमाणित की, जोकी उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। १९९५ - प्रयागराज के अर्धकुम्भ के दौरान ३० जनवरी के स्नान दिवस को २ करोड़ लोगों की उपस्थिति। १९९८ - हरिद्वार महाकुम्भ में ५ करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे; १४ अप्रैल के एक दिन में १ करोड़ लोग उपस्थित। २००१ - प्रयागराज के मेले में छः सप्ताहों के दौरान ७ करोड़ श्रद्धालु, २४ जनवरी के अकेले दिन ३ करोड़ लोग उपस्थित। २००३ - नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर ६० लाख लोग उपस्थित। २००४ - उज्जैन मेला; मुख्य दिवस ५ अप्रैल, १९ अप्रैल, २२ अप्रैल, २४ अप्रैल और ४ मई। २००७ - प्रयागराज में अर्धकुम्भ। पवित्र नगरी प्रयागराज में अर्धकुम्भ का आयोजन ३ जनवरी २००७ से २६ फरवरी २००७ तक हुआ। २०१० - हरिद्वार में महाकुम्भ प्रारम्भ। १४ जनवरी २०१० से २८ अप्रैल २०१० तक आयोजित किया जाएगा। विस्तार से - २०१० हरिद्वार महाकुम्भ २०१३ - प्रयागराज का कुम्भ १४ जनवरी से १० मार्च २०१३ के बीच आयोजित किया गया। यह कुल ५५ दिनों के लिए था, इस दौरान इलाहाबाद (प्रयागराज) सर्वाधिक लोकसंख्या वाला शहर बन जाता है। ५ वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में ८ करोड़ लोगों का उपस्थित होना विश्व की सबसे अद्भुत घटना है। २०१४ इस वर्ष सुप्रसिद्ध साहित्य पुस्तक "कुम्भ मेला: एक डॉक्टर की यात्रा" (आईएसबीएन ९७८ - ९३ - 82९३7 - ११ - १) प्रकाशित हुई। यह पुस्तक प्रयागराज में आयोजित कुम्भ मेला 20१3 का यात्रा वृत्तान्त है। इसके लेखक डॉ वरुण चौधरी अन्तरिक्ष हैं। प्रथम संस्करण (२०१४) निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा द्वारा प्रकाशित किया गया था। २०१५ - नाशिक और त्रम्बकेश्वर में एक साथ जुलाई १४ ,२०१५ को प्रातः ६:1६ पर वर्ष २०१५ का कुम्भ मेला प्रारम्भ हुआ और सितम्बर २५,२०१५ को कुम्भ मेला समाप्त हो जायेगा। २०१६ - उज्जैन में २२ अप्रैल से आरम्भ २०१९ - प्रयागराज में अर्धकुम्भ २०२१ - हरिद्वार में कुम्भ लगा। "२०२५ - प्रयागराज में कुम्भ लगा। इन्हें भी देखें हरिद्वार महाकुम्भ २०१० सिंहस्थ कुम्भ मेला नासिक - अधिकृत संकेतस्थल
उज्जैन भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी या शिप्रा नदी के किनारे पर बसा है। यह एक अत्यन्त प्राचीन शहर है। यह महान सम्राट विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी । उज्जैन को कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर १२ वर्ष पर सिंहस्थ महाकुंभ मेला लगता है। भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है। उज्जैन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर से ४५ कि॰मी॰ पर है। उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयिनी, कनकश्रन्गा आदि है। उज्जैन मंदिरों की नगरी है। यहाँ कई तीर्थ स्थल है। इसकी जनसंख्या ५१५२१५ लाख सन ,२०११ की जनगणना के हिसाब से है। यह मध्य प्रदेश का पाँचवा सबसे बड़ा शहर है। नगर निगम सीमा का क्षेत्रफल १५२ वर्ग किलोमीटर है। छत्रेश्वरी चामुण्डा माताजी गुमानदेव हनुमान मन्दिर राजनैतिक इतिहास उज्जैन का काफी लम्बा रहा है। उज्जैन के गढ़ क्षेत्र से हुयी खुदाई में आद्यैतिहासिक (प्रोतोहिस्टोरिक) एवं प्रारंभिक लोहयुगीन सामग्री प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई है। पुराणों व महाभारत में उल्लेख आता है कि वृष्णि-वीर कृष्ण व बलराम यहाँ गुरु सांदीपनी के आश्रम में विद्याप्राप्त करने हेतु आये थे। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की ही राजकुमारी थी। उसके दो भाई विन्द एवं अनुविन्द महाभारत युद्ध में कौरवों की और से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। ईसा की छठी सदी में उज्जैन में एक अत्यंत प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंड प्रद्योत था। भारत के अन्य शासक उससे भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्सनरेश उदयन की प्रणय गाथा इतिहास प्रसिद्ध है प्रद्योत वंश के उपरांत उज्जैन मगध साम्राज्य का अंग बन गया। राजा खदिरसार भील जैन ग्रंथों के अनुसार राजा खादिरसार का शासन मगध में था , उनकी राजधानी उज्जैन थी , उनके शासन का समय ३८६ ईसा पूर्व था , राजा खादीरसार के पिता का नाम कुणिका था , जो कि ४१४ ईसा पूर्व के दौरान मगध के राजा थे , राजा खादिरसार की पत्नी का नाम चेलमा था , प्रारंभ में राजा खादिरसार बौद्घ धर्म के अनुयाई थे , परन्तु रानी चेलामा के उपदेश से प्रभावित होकर उन्होंने जैन धर्म अपना लिया और महावीर स्वामी जी के प्रथम भक्त बन गए । राजा गंधर्वसेन(गर्द भिल्ल) उज्जैन में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के आरंभ में राजा गन्धर्वसेन का शासन था , वे एक वीर राजा थे , जिनके पराक्रम से शक शासक भी डरते थे । सम्राट विक्रमादित्य(विक्रम सेन) सम्राट विक्रमादित्य उज्जैन के शासक थे , उनके पिता राजा गंधर्वसेन थे , भारत में शकों को बुलाने का श्रेय कलकाचार्य को है , शकों ने उज्जैन के शासक गंधर्वसेन को युद्ध में हराकर उज्जैन पर अधिकार जमा लिया , तब राजा गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों के खिलाफ युद्ध किया , विक्रमादित्य ने शकों को परास्त कर उज्जैन में पुनः अपने पूर्वजो का साम्राज्य स्थापित किया और वे इस देश के महान सम्राट कहलाए । महान कवि कालिदास महाकवि कालिदास उज्जयिनी के इतिहास प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। इनको उज्जयिनी अत्यंत प्रिय थी। इसीलिये कालिदास ने उज्जयिनी का अत्यंत ही सुंदर वर्णन किया है। सम्राट विक्रमादित्य ही महाकवि कालिदास के वास्तविक आश्रयदाता के रूप में प्रख्यात है। महाकवि कालिदास की मालवा के प्रति गहरी आस्था थी। उज्जयिनी में ही उन्होंने अत्यधिक प्रवास-काल व्यतीत किया और यहीं पर कालिदास ने उज्जयिनी के प्राचीन एवं गौरवशाली वैभव को देखा। वैभवशाली अट्टालिकाओं, उदयन, वासवदत्ता की प्रणय गाथा, भगवान महाकाल संध्याकालीन आरती तथा नृत्य करती गौरांगनाओं के साथ ही क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्त्व आदि से भली भांति परिचित होने का अवसर भी प्राप्त किया हुआ जान पड़ता है। 'मेघदूत' में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्य क्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकड़ा) भी ले चले। वही स्वर्गखंड उज्जयिनी है। आगे महाकवि ने लिखा है कि उज्जयिनी भारत का वह प्रदेश है जहां के वृद्धजन इतिहास प्रसिद्ध आधिपति राजा उदयन की प्रणय गाथा कहने में पूर्ण दक्ष है। कालिदास के 'मेघदूत' में उज्जयिनी का वैभव आज भले ही विलुप्त हो गया हो परंतु आज भी विश्व में उज्जयिनी का धार्मिक-पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व के साथ ही ज्योतिष क्षेत्र का महत्त्व भी प्रसिद्ध है। उज्जयिनी भारत की सात पुराण प्रसिद्ध नगरियों में प्रमुख स्थान रखती है। उज्जयिनी में प्रति बारह वर्षों में सिंहस्थ महापर्व का आयोजन होता है। इस अवसर पर देश-विदेश से करोड़ों श्रद्धालु भक्तजन, साधु-संत, महात्मा महामंडलेश्वर एवं आखाड़ा प्रमुख उज्जयिनी में कल्पवास कर मोक्ष प्राप्ति की मंगल कामना करते हैं। उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण ६०० वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट सिंहासनारूढ थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य यहाँ आए थे। उनके पोते अशोक यहाँ के राज्यपाल रहे थे। उनकी एक भार्या वेदिसा देवी से उन्हें महेंद्र और संघमित्रा जैसी संतान प्राप्त हुई जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। मौर्य साम्राज्य के अभुदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार के पुत्र अशोक उज्जयिनी के समय नियुक्त हुए। बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक ने उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली और उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास कियां सम्राट अशोकके पश्चात उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढ़ाव देखा। मौर्य साम्राज्य का पतन मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उज्जैन शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन गया। शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर सम्राट विक्रमादित्य के नेतृत्व में यहाँ की जनता ने प्रथम सदी पूर्व विफल कर दिया था। कालांतर में विदेशी पश्चिमी शकों ने उज्जैन हस्त गत कर लिया। चस्टान व रुद्रदमन इस वंश के प्रतापी व लोक प्रिय महाक्षत्रप सिद्ध हुए। चौथी शताब्दी में गुप्तों और औलिकरों ने मालवा से इन शकों की सत्ता समाप्त कर दी। शकों और गुप्तों के काल में इस क्षेत्र का अद्वितीय आर्थिक एवं औद्योगिक विकास हुआ। छठी से दसवीं सदी तक उज्जैन गुर्जर प्रतिहारों की राजनैतिक व सैनिक स्पर्धा का दृश्य देखता रहा। सातवीं शताब्दी में उज्जैन कन्नौज के हर्षवर्धन साम्राज्य में विलीन हो गया। उस काल में उज्जैन का सर्वांगीण विकास भी होता रहा। वर्ष ६४८ में हर्ष वर्धन की मृत्यु के पश्चात गुर्जर काल में नवी शताब्दी तक उज्जैन परमार राजवंश के आधिपत्य में आया जो ग्यारहवीं शताब्दी तक कायम रहा इस काल में उज्जैन की उन्नति होती रही। इसके पश्चात उज्जैन चौहान राजवंश और तोमर राजवंश के अधिकारों में आ गया। वर्ष १००० से १३०० तक मालवा परमार-शक्ति द्वारा शासित रहा। काफी समय तक उनकी राजधानी उज्जैन रही। इस काल में सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन जैसे महान शासकों ने साहित्य, कला एवं संस्कृति की अभूतपूर्व सेवा की। दिल्ली के दास एवं खिलजी सुल्तानों के आक्रमण के कारण परमार वंश का पतन हो गया। वर्ष १२३५ में दिल्ली का शमशुद्दीन इल्तमिश विदिशा विजय करके उज्जैन की और आया यहां उस क्रूर शासक ने उज्जैन को न केवल बुरी तरह लूटा अपितु उनके प्राचीन मंदिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों का वैभव भी नष्ट किया। वर्ष १४०६ में मालवा दिल्ली सल्तनत से मुक्त हो गया और उसकी राजधानी मांडू से धोरी, खिलजी व अफगान सुलतान स्वतंत्र राज्य करते रहे। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब मालवा पर किया तो उज्जैन को प्रांतीय मुख्यालय बनाया गया। मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगज़ेब यहाँ आये थे। मराठों का अधिकार सन् १७३७ ई. में उज्जैन सिंधिया वंश के अधिकार में आया उनका वर्ष १८८० तक एक छत्र राज्य रहा जिसमें उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। सिंधिया वंश की राजधानी उज्जैन बनी। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इस वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने वर्तमान महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया। वर्ष १८१० में सिंधिया राजधानी ग्वालियर ले जाई गयी किन्तु उज्जैन का सांस्कृतिक विकास जारी रहा। १९४८ में ग्वालियर राज्य का नवीन मध्य भारत में विलय हो गया। उज्जयिनी में आज भी अनेक धार्मिक पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थान हैं जिनमें भगवान महाकालेश्वर मंदिर, गोपाल मंदिर, चौबीस खंभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिध्दि मां, गढ़कालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिध्दवट, मजार-ए-नज़मी, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, भर्तृहरि गुफा, पीरमछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह महल, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर , चिंतामन गणेश आदि प्रमुख हैं। आज का उज्जैन वर्तमान उज्जैन नगर विंध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से १६७८ फीट की ऊंचाई पर २३डिग्री.५०' उत्तर देशांश और ७५डिग्री .५०' पूर्वी अक्षांश पर स्थित है। नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है। यहां की भूमि उपजाऊ है। कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है। कालिदास ने लिखा है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन में हैं और समुद्रों के पास सिर्फ उनका जल बचा है। उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मीठी मालवी बोली है। हिंदी भी प्रयोग में है। उज्जैन इतिहास के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है। क्षिप्रा के अंतर में इस पारम्परिक नगर के उत्थान-पतन की निराली और सुस्पष्ट अनुभूतियां अंकित है। क्षिप्रा के घाटों पर जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा बिखरी पड़ी है, असंख्य लोग आए और गए। रंगों भरा कार्तिक मेला हो या जन-संकुल सिंहस्थ या दिन के नहान, सब कुछ नगर को तीन और से घेरे क्षिप्रा का आकर्षण है। उज्जैन के दक्षिण-पूर्वी सिरे से नगर में प्रवेश कर क्षिप्रा ने यहां के हर स्थान से अपना अंतरंग संबंध स्थापित किया है। यहां त्रिवेणी पर नवगृह मंदिर है और कुछ ही गणना में व्यस्त है। पास की सड़क आपको चिन्तामणि गणेश पहुंचा देगी। धारा मुत्रड गई तो क्या हुआ? ये जाने पहचाने क्षिप्रा के घाट है, जो सुबह-सुबह महाकाल और हरसिध्दि मंदिरों की छाया का स्वागत करते हैं। क्षिप्रा जब पूर आती है तो गोपाल मंदिर की देहली छू लेती है। दुर्गादास की छत्री के थोड़े ही आगे नदी की धारा नगर के प्राचीन परिसर के आस-पास घूम जाती है। भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका का क्षेत्र पार कर नदी मंगलनाथ पहुंचती है। मंगलनाथ का यह मंदिर सान्दीपनि आश्रम और निकट ही राम-जनार्दन मंदिर के सुंदर दृश्यों को निहारता रहता है। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुत्रडकर क्षिप्रा कालियादेह महल को घेरते हुई चुपचाप उज्जैन से आगे अपनी यात्रा पर बढ़ जाती है। कवि हों या संत, भक्त हों या साधु, पर्यटक हों या कलाकार, पग-पग पर मंदिरों से भरपूर क्षिप्रा के मनोरम तट सभी के लिए समान भाव से प्रेरणाम के आधार है। आज जो नगर उज्जैन नाम से जाना जाता है वह अतीत में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती आदि अनेक नामों से अभिहित रहा। मानव सभ्यता के प्रारंभ से यह भारत के एक महान तीर्थ-स्थल के रूप में विकसित हुआ। पुण्य सलिला क्षिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है। अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरी द्वारावतीश्चैव सप्तैतामोक्षदायिका।। उज्जैन के महाकालेश्वर महादेव की मान्यता भारत के प्रमुख बारह ज्योतिर्लिंगों में है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है। महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिध्द कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। लोक मानस में महाकाल की परम्परा अनादि है। उज्जैन भारत की कालगणना का केंद्र बिन्दु था और महाकाल उज्जैन के अधिपति आदि देव माने जाते हैं। इतिहास के प्रत्येक युग में-शुंग, कुषाण, सात वाहन, गुप्त, परिहार तथा अपेक्षाकृत आधुनिक मराठा काल में इस मंदिर का निरंतर जीर्णोध्दार होता रहा है। वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के काल में मालवा के सूबेदार रामचंद्र बाबा शेणवी द्वारा कराया गया था। वर्तमान में भी जीर्णोध्दार एवं सुविधा विस्तार का कार्य होता रहा है। महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक परम्परा में प्रसिध्द दक्षिण मुखी पूजा का महत्त्व बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकालेश्वर को ही प्राप्त है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति की तरह इस तरह मंदिर में भी ओंकारेश्वर शिव की प्रतिष्ठा है। तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी को होते हैं। विक्रमादित्य और भोज की महाकाल पूजा के लिए शासकीय सनदें महाकाल मंदिर को प्राप्त होती रही है। वर्तमान में यह मंदिर महाकाल मंदिर समिति के तत्वावधान में संरक्षित है। श्री बड़े गणेश मंदिर श्री महाकालेश्वर मंदिर के निकट हरिसिद्धि मार्ग पर बड़े गणेश की भव्य और कलापूर्ण मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति का निर्माण पद्मविभूषण पं॰ सूर्यनारायण व्यास के पिता विख्यात विद्वान स्व. पं॰ नारायण जी व्यास ने किया था। मंदिर परिसर में सप्तधातु की पंचमुखी हनुमान प्रतिमा के साथ-साथ नवग्रह मंदिर तथा कृष्ण यशोदा आदि की प्रतिमाएं भी विराजित हैं। यहाँ गणपति की प्रतिमा बहुत विशाल होने के कारण ही इसे बड़ा गणेश के नाम से जानते हैं। गणेश जी की मूर्ति संरचना में पवित्र सात नदियों के जल एवं सप्त पूरियों के मिट्टी को प्रयोग में लाया गया था। यहाँ गणेश जी को महिलायें अपने भाई के रूप में मानती हैं,एवं रक्षा बंधन के पावन पर्व पर राखी पहनाती हैं। पुराणों के अनुसार उज्जैन नगरी को मंगल की जननी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है, वे अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए यहाँ पूजा-पाठ करवाने आते हैं। यूँ तो देश में मंगल भगवान के कई मंदिर हैं, लेकिन उज्जैन इनका जन्मस्थान होने के कारण यहाँ की पूजा को खास महत्त्व दिया जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिर सदियों पुराना है। सिंधिया राजघराने में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया था। उज्जैन शहर को भगवान महाकाल की नगरी कहा जाता है, इसलिए यहाँ मंगलनाथ भगवान की शिवरूपी प्रतिमा का पूजन किया जाता है। हर मंगलवार के दिन इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है। उज्जैन नगर के प्राचीन और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में हरसिद्धि देवी का मंदिर प्रमुख है। चिन्तामण गणेश मंदिर से थोड़ी दूर और रूद्रसागर तालाब के किनारे स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य द्वारा हरिसिद्धि देवी की पूजा की जाती थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य रही। शिवपुराण के अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहां गिरी थी। उज्जैन नगर के धार्मिक स्वरूप में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दाहिने किनारे, जहाँ नगर स्थित है, पर बने ये घाट स्थानार्थियों के लिये सीढ़ीबध्द हैं। घाटों पर विभिन्न देवी-देवताओं के नये-पुराने मंदिर भी है। क्षिप्रा के इन घाटों का गौरव सिंहस्थ के दौरान देखते ही बनता है, जब लाखों-करोड़ों श्रद्धालु यहां स्नान करते हैं। गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। यह मंदिर नगर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित है। मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने वर्ष १८३३ के आसपास कराया था। मंदिर में कृष्ण (गोपाल) प्रतिमा है। मंदिर के चांदी के द्वार यहां का एक अन्य आकर्षण हैं। गढकालिका देवी का यह मंदिर आज के उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी क्षेत्र में है। कालयजी कवि कालिदास गढकालिका देवी के उपासक थे। इस प्राचीन मंदिर का गुर्जर सम्राट नागभट्ट द्वारा जीर्णोध्दार कराने का उल्लैख मिलता है। गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट नागभट्ट द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया। भर्तृहरि की गुफा ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसका उत्तरवर्ती दोर में जीर्णोध्दार होता रहा। काल भैरव - काल भैरव मंदिर आज के उज्जैन नगर में स्थित प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। यह स्थल शिव के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से संबंधित है। मंदिर के अंदर काल भैरव की विशाल प्रतिमा है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में वर्णित अष्ट भैरव में काल भैरव का स्थल है। महाकाल लोक - भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा ११-१०-२०२२ को महाकालेश्वर मंदिर के समीप श्री महाकाल महालोक का लोकार्पण किया गया। इस कॉरिडोर में भगवान शिव से संबंधित मुर्तियों,चित्रभितियों एवं प्रतिमाओं का निर्माण किया गया है। इस महालोक में सप्तऋषियों की प्रतिमाएँ ,कमल कुण्ड तथा १०8 स्तम्भ वाला षेड मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं। देश भर में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयाग, नासिक, हरिद्धार और उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों के उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु के आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। सिंहस्थ आयोजन की एक प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित है। अमृत बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग के अवसर रहते हैं, वहां कुंभ पर्व का इन राशियों में ग्रहों के संयोग पर आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं ग्रहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है। स्वादिष्ट भोज पेय बाबा महाकाल का प्रिय पेय भांग यहां का स्वादिष्ट पेय है। मालवा के प्रसिद्ध दाल बाटी व दाल बाफले यहाँ के स्वादिष्ट भोज है। महाकाल व देवासगट बस स्टेंड पर अनेक भोजनालय है ,मंगलनाथ स्थित साँई पैलेस पर स्वादिष्ट दाल बाफले विश्व प्रसिद्ध हैं। महाकाल से कालभैरव मार्ग में दानीगेट चौराहे पर गाँधी जी के पोहे समोसे स्वादिष्ट स्वल्पाहार है। महाकाल से काल भैरव मंदिर जाते समय जूना सोमवारिया पीपली नाका मार्ग पर जीजी की रसोई नामक रेस्टोरेंट बहुत ही फेमस हैं। इन्हें भी देखें उज्जैन का इतिहास मध्य प्रदेश के शहर
कालिदास ( ) पहली शताब्दी ई.पू. के संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएँ की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्त्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। कालिदास किस काल में हुए और वे मूलतः किस स्थान के थे इसमें काफ़ी विवाद है। चूँकि, कालिदास ने द्वितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक बनाकर मालविकाग्निमित्रम् नाटक लिखा और अग्निमित्र ने १७० ईसापू्र्व में शासन किया था, अतः कालिदास के समय की एक सीमा निर्धारित हो जाती है कि वे इससे पहले नहीं हुए हो सकते। छठीं सदी ईसवी में बाणभट्ट ने अपनी रचना हर्षचरितम् में कालिदास का उल्लेख किया है तथा इसी काल के पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख में कालिदास का जिक्र है अतः वे इनके बाद के नहीं हो सकते। इस प्रकार कालिदास के प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी के मध्य होना तय है। दुर्भाग्यवश इस समय सीमा के अन्दर वे कब हुए इस पर काफ़ी मतभेद हैं। विद्वानों में (ई) द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व का मत (ई) प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत (ई) तृतीय शताब्दी ईसवी का मत (इव) चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत (व) पाँचवी शताब्दी ईसवी का मत, तथा (वि) छठीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का मत; प्रचलित थे। इनमें ज्यादातर खण्डित हो चुके हैं या उन्हें मानने वाले इक्के दुक्के लोग हैं किन्तु मुख्य संघर्ष 'प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत और 'चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत' में है। प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत - परम्परा के अनुसार कालिदास उज्जयिनी के उन राजा विक्रमादित्य के समकालीन हैं जिन्होंने ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् चलाया। विक्रमोर्वशीय के नायक पुरुरवा के नाम का विक्रम में परिवर्तन से इस तर्क को बल मिलता है कि कालिदास उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के राजदरबारी कवि थे। इन्हें विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माना जाता है। चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत - प्रो॰ कीथ और अन्य इतिहासकार कालिदास को गुप्त शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और उनके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त से जोड़ते हैं, जिनका शासनकाल चौथी शताब्दी में था। ऐसा माना जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि ली और उनके शासनकाल को स्वर्णयुग माना जाता है। विवाद और पक्ष-प्रतिपक्ष - कालिदास ने शुंग राजाओं के छोड़कर अपनी रचनाओं में अपने आश्रयदाता या किसी साम्राज्य का उल्लेख नहीं किया। सच्चाई तो यह है कि उन्होंने पुरुरवा और उर्वशी पर आधारित अपने नाटक का नाम विक्रमोर्वशीयम् रखा। कालिदास ने किसी गुप्त शासक का उल्लेख नहीं किया। विक्रमादित्य नाम के कई शासक हुए, संभव है कि कालिदास इनमें से किसी एक के दरबार में कवि रहे हों। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास शुंग वंश के शासनकाल में थे, जिनका शासनकाल १०० सदी ईसापू्र्व था। अग्निमित्र, जो मालविकाग्निमित्र नाटक का नायक है, कोई सुविख्यता राजा नहीं था, इसीलिए कालिदास ने उसे विशिष्टता प्रदान नहीं की। उनका काल ईसा से दो शताब्दी पूर्व का है और विदिशा उसकी राजधानी थी। कालिदास के द्वारा इस कथा के चुनाव और मेघदूत में एक प्रसिद्ध राजा की राजधानी के रूप में उसके उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि कालिदास अग्निमित्र के समकालीन थे। यह स्पष्ट है कि कालिदास का उत्कर्ष अग्निमित्र के बाद (१५० ई॰ पू॰) और ६३४ ई॰ पूर्व तक रहा है, जो कि प्रसिद्ध ऐहोल के शिलालेख की तिथि है, जिसमें कालिदास का महान कवि के रूप में उल्लेख है। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाए कि माण्डा की कविताओं या ४७३ ई॰ के शिलालेख में कालिदास के लेखन की जानकारी का उल्लेख है, तो उनका काल चौथी शताब्दी के अन्त के बाद का नहीं हो सकता। अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास की कृतियों में समानताएं हैं। यदि अश्वघोष कालिदास के ऋणी हैं तो कालिदास का काल प्रथम शताब्दी ई॰ से पूर्व का है और यदि कालिदास अश्वघोष के ऋणी हैं तो कालिदास का काल ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद ठहरेगा। हम कोई भी तिथि स्वीकार करें, वह हमारा उचित अनुमान भर है और इससे अधिक कुछ नहीं। कालिदास के जन्मस्थान के बारे में भी विवाद है। मेघदूतम् में उज्जैन के प्रति उनकी विशेष प्रेम को देखते हुए कुछ लोग उन्हें उज्जैन का निवासी मानते हैं। साहित्यकारों ने ये भी सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कालिदास का जन्म उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा गांव में हुआ था। कालिदास ने यहीं अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की थी औऱ यहीं पर उन्होंने मेघदूत, कुमारसंभव औऱ रघुवंश जैसे महाकाव्यों की रचना की थी। कविल्ठा चारधाम यात्रा मार्ग में गुप्तकाशी में स्थित है। गुप्तकाशी से कालीमठ सिद्धपीठ वाले रास्ते में कालीमठ मंदिर से चार किलोमीटर आगे कविल्ठा गांव स्थित है। कविल्ठा में सरकार ने कालिदास की प्रतिमा स्थापित कर एक सभागार का भी निर्माण करवाया है जहां पर हर साल जून माह में तीन दिनों तक गोष्ठी का आयोजन होता है, जिसमें देशभर के विद्वान भाग लेते हैं। कालिदास के प्रवास के कुछ साक्ष्य बिहार के मधुबनी जिला के उच्चैठ में भी मिलते हैं। कहा जाता है विद्योतमा (कालिदास की पत्नी) से शास्त्रार्थ में पराजय के बाद कालिदास यहीं गुरुकुल में रुके। कालिदास को यहीं उच्चैठ भगवती से ज्ञान का वरदान मिला और वह महाज्ञानी बनें, कुछ विद्वान यह कहते हैं की महाकवि कालिदास का जन्म उच्चैठ में हुआ था और तब उसके बाद में वह उज्जैन गए थे । यहां आज भी कालिदास का डीह है। यहाँ की मिट्टी से बच्चों के प्रथम अक्षर लिखने की परंपरा आज भी यहाँ प्रचलित है। कुछ विद्वानों ने तो उन्हें बंगाल और उड़ीसा का भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। कहते हैं कि कालिदास की श्रीलंका में हत्या कर दी गई थी लेकिन विद्वान इसे भी कपोल-कल्पित मानते हैं। कथाओं और किंवदंतियों के अनुसार कालिदास शारीरिक रूप से बहुत सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे। कालिदास का विवाह विद्योत्तमा नाम की राजकुमारी से हुआ। ऐसा कहा जाता है कि विद्योत्तमा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा, वह उसी के साथ विवाह करेगी। जब विद्योत्तमा ने शास्त्रार्थ में सभी विद्वानों को हरा दिया तो हार को अपमान समझकर कुछ विद्वानों ने बदला लेने के लिए विद्योत्तमा का विवाह महामूर्ख व्यक्ति के साथ कराने का निश्चय किया। चलते चलते उन्हें एक वृक्ष दिखाई दिया जहां पर एक व्यक्ति जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। उन्होंने सोचा कि इससे बड़ा मूर्ख तो कोई मिलेगा ही नहीं। उन्होंने उसे राजकुमारी से विवाह का प्रलोभन देकर नीचे उतारा और कहा- "मौन धारण कर लो और जो हम कहेंगे बस वही करना"। उन लोगों ने स्वांग भेष बना कर विद्योत्तमा के सामने प्रस्तुत किया कि हमारे गुरु आप से शास्त्रार्थ करने के लिए आए है, परंतु अभी मौनव्रती हैं, इसलिए ये हाथों के संकेत से उत्तर देंगे। इनके संकेतों को समझ कर हम वाणी में आपको उसका उत्तर देंगे। शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। विद्योत्तमा मौन शब्दावली में गूढ़ प्रश्न पूछती थी, जिसे कालिदास अपनी बुद्धि से मौन संकेतों से ही जवाब दे देते थे। प्रथम प्रश्न के रूप में विद्योत्तमा ने संकेत से एक उंगली दिखाई कि ब्रह्म एक है। परन्तु कालिदास ने समझा कि ये राजकुमारी मेरी एक आंख फोड़ना चाहती है। क्रोध में उन्होंने दो अंगुलियों का संकेत इस भाव से किया कि तू मेरी एक आंख फोड़ेगी तो मैं तेरी दोनों आंखें फोड़ दूंगा। लेकिन कपटियों ने उनके संकेत को कुछ इस तरह समझाया कि आप कह रही हैं कि ब्रह्म एक है लेकिन हमारे गुरु कहना चाह रहे हैं कि उस एक ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए दूसरे (जगत्) की सहायता लेनी होती है। अकेला ब्रह्म स्वयं को सिद्ध नहीं कर सकता। राज कुमारी ने दूसरे प्रश्न के रूप में खुला हाथ दिखाया कि तत्व पांच है। तो कालिदास को लगा कि यह थप्पड़ मारने की धमकी दे रही है। उसके जवाब में कालिदास ने घूंसा दिखाया कि तू यदि मुझे गाल पर थप्पड़ मारेगी, मैं घूंसा मार कर तेरा चेहरा बिगाड़ दूंगा। कपटियों ने समझाया कि गुरु कहना चाह रहे हैं कि भले ही आप कह रही हो कि पांच तत्व अलग-अलग हैं पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि। परंतु यह तत्व प्रथक्-प्रथक् रूप में कोई विशिष्ट कार्य संपन्न नहीं कर सकते अपितु आपस में मिलकर एक होकर उत्तम मनुष्य शरीर का रूप ले लेते है जो कि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। इस प्रकार प्रश्नोत्तर से अंत में विद्योत्तमा अपनी हार स्वीकार कर लेती है। फिर शर्त के अनुसार कालिदास और विद्योत्तमा का विवाह होता है। विवाह के पश्चात कालिदास विद्योत्तमा को लेकर अपनी कुटिया में आ जाते हैं और प्रथम रात्रि को ही जब दोनों एक साथ होते हैं तो उसी समय ऊंट का स्वर सुनाई देता है। विद्योत्तमा संस्कृत में पूछती है "किमेतत्" परंतु कालिदास संस्कृत जानते नहीं थे, इसीलिए उनके मुंह से निकल गया "ऊट्र"। उस समय विद्योत्तमा को पता चल जाता है कि कालिदास अनपढ़ हैं। उसने कालिदास को धिक्कारा और यह कह कर घर से निकाल दिया कि सच्चे विद्वान् बने बिना घर वापिस नहीं आना। कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से वे ज्ञानी और धनवान बन गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद जब वे घर लौटे तो उन्होंने दरवाजा खटखटा कर कहा - कपाटम् उद्घाट्य सुन्दरि! (दरवाजा खोलो, सुन्दरी)। विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा -- अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः (कोई विद्वान लगता है)। इस प्रकार, इस किम्वदन्ती के अनुसार, कालिदास ने विद्योत्तमा को अपना पथप्रदर्शक गुरु माना और उसके इस वाक्य को उन्होंने अपने काव्यों में भी जगह दी। कुमारसंभवम् का प्रारंभ होता है- अस्त्युत्तरस्याम् दिशि से, मेघदूतम् का पहला शब्द है- कश्चित्कांता और रघुवंशम् की शुरुआत होती है- वागार्थविव से। छोटी-बड़ी कुल लगभग चालीस रचनाएँ हैं जिन्हें अलग-अलग विद्वानों ने कालिदास द्वारा रचित सिद्ध करने का प्रयास किया है। इनमें से मात्र सात ही ऐसी हैं जो निर्विवाद रूप से कालिदासकृत मानि जाती हैं: तीन नाटक(रूपक): अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; दो महाकाव्य: रघुवंशम् और कुमारसंभवम्; और दो खण्डकाव्य: मेघदूतम् और ऋतुसंहार। इनमें भी ऋतुसंहार को प्रो॰ कीथ संदेह के साथ कालिदास की रचना स्वीकार करते हैं। मालविकाग्निमित्रम् कालिदास की पहली रचना है, जिसमें राजा अग्निमित्र की कहानी है। अग्निमित्र एक निर्वासित नौकर की बेटी मालविका के चित्र से प्रेम करने लगता है। जब अग्निमित्र की पत्नी को इस बात का पता चलता है तो वह मालविका को जेल में डलवा देती है। मगर संयोग से मालविका राजकुमारी साबित होती है और उसके प्रेम-संबंध को स्वीकार कर लिया जाता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की दूसरी रचना है जो उनकी जगतप्रसिद्धि का कारण बना। इस नाटक का अनुवाद अंग्रेजी और जर्मन के अलावा दुनिया के अनेक भाषाओं में हुआ है। इसमें राजा दुष्यंत की कहानी है जो वन में एक परित्यक्त ऋषि पुत्री शकुन्तला (विश्वामित्र और मेनका की बेटी) से प्रेम करने लगता है। दोनों जंगल में गंधर्व विवाह कर लेते हैं। राजा दुष्यंत अपनी राजधानी लौट आते हैं। इसी बीच ऋषि दुर्वासा शकुंतला को शाप दे देते हैं कि जिसके वियोग में उसने ऋषि का अपमान किया वही उसे भूल जाएगा। काफी क्षमाप्रार्थना के बाद ऋषि ने शाप को थोड़ा नरम करते हुए कहा कि राजा की अंगूठी उन्हें दिखाते ही सब कुछ याद आ जाएगा। लेकिन राजधानी जाते हुए रास्ते में वह अंगूठी खो जाती है। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब शकुंतला को पता चला कि वह गर्भवती है। शकुंतला लाख गिड़गिड़ाई लेकिन राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। जब एक मछुआरे ने वह अंगूठी दिखायी तो राजा को सब कुछ याद आया और राजा ने शकुंतला को अपना लिया। शकुंतला शृंगार रस से भरे सुंदर काव्यों का एक अनुपम नाटक है। कहा जाता है काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला (कविता के अनेक रूपों में अगर सबसे सुन्दर नाटक है तो नाटकों में सबसे अनुपम शकुन्तला है।) विक्रमोर्वशीयम् एक रहस्यों भरा नाटक है। इसमें पुरूरवा इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगते हैं। पुरूरवा के प्रेम को देखकर उर्वशी भी उनसे प्रेम करने लगती है। इंद्र की सभा में जब उर्वशी नृत्य करने जाती है तो पुरूरवा से प्रेम के कारण वह वहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है। इससे इंद्र गुस्से में उसे शापित कर धरती पर भेज देते हैं। हालांकि, उसका प्रेमी अगर उससे होने वाले पुत्र को देख ले तो वह फिर स्वर्ग लौट सकेगी। विक्रमोर्वशीयम् काव्यगत सौंदर्य और शिल्प से भरपूर है। कुमारसंभवम् उनके महाकाव्यों के नाम है। रघुवंशम् में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएँ हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय के जन्म की कहानी है। रघुवंशम् में कालिदास ने रघुकुल के राजाओं का वर्णन किया है। मेघदूतम् एक गीतिकाव्य है जिसमें यक्ष द्वारा मेघ से सन्देश ले जाने की प्रार्थना और उसे दूत बना कर अपनी प्रिय के पास भेजने का वर्णन है। मेघदूत के दो भाग हैं - ऋतुसंहारम् में सभी ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके अलावा कई छिटपुट रचनाओं का श्रेय कालिदास को दिया जाता है, लेकिन विद्वानों का मत है कि ये रचनाएं अन्य कवियों ने कालिदास के नाम से की। नाटककार और कवि के अलावा कालिदास ज्योतिष के भी विशेषज्ञ माने जाते हैं। उत्तर कालामृतम् नामक ज्योतिष पुस्तिका की रचना का श्रेय कालिदास को दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि काली देवी की पूजा से उन्हें ज्योतिष का ज्ञान मिला। इस पुस्तिका में की गई भविष्यवाणी सत्य साबित हुईं। कालिदास को कविकुलगुरु, कनिष्ठिकाधिष्ठित और कविताकामिनीविलास जैसी प्रशंसात्मक उपाधियाँ प्रदान की गयी हैं जो उनके काव्यगत विशिष्टताओं से अभिभूत होकर ही दी गयी हैं। कालिदास के काव्य की विशिष्टताओं का वर्णन निम्नवत किया जा सकता है: कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और उन्होंने प्रसाद गुण से पूर्ण ललित शब्दयोजना का प्रयोग किया है। प्रसाद गुण का लक्षण है - "जो गुण मन में वैसे ही व्याप्त हो जाय जैसे सूखी ईंधन की लकड़ी में अग्नि सहसा प्रज्वलित हो उठती है" और कालिदास की भाषा की यही विशेषता है। कालिदास की भाषा मधुर नाद सुन्दरी से युक्त है और समासों का अल्पप्रयोग, पदों का समुचित स्थान पर निवेश, शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग इत्यादि गुणों के कारण उसमें प्रवाह और प्रांजलता विद्यमान है। कालिदास ने शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है और उन्हें उपमा अलंकार के प्रयोग में सिद्धहस्त और उनकी उपमाओं को श्रेष्ठ माना जाता है। उदहारण के लिये: संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा। नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।। अर्थात् स्वयंवर में बारी-बारी से प्रत्येक राजा के सामने गमन करती हुई इन्दुमती राजाओं के सामने से चलती हुई दीपशिखा की तरह लग रही थी जिसके आगे बढ़ जाने पर राजाओं का मुख विवर्ण (अस्वीकृत कर दिए जाने से अंधकारमय, मलिन) हो जाता था। कालिदास की कविता की प्रमुख विशेषता है कि वह चित्रों के निर्माण में सबकुछ न कहकर भी अभिव्यंजना द्वारा पूरा चित्र खींच देते हैं। जैसे: एवं वादिनि देवर्शौ पार्श्वे पितुरधोमुखी। लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।। अर्थात् देवर्षि के द्वारा ऐसी (पार्वती के विवाह प्रस्ताव की) बात करने पर, पिता के समीप बैठी पार्वती ने सिर झुका कर हाथ में लिये कमल की पंखुड़ियों को गिनना शुरू कर दिया। कालिदास जी की रचनाओं की खास बातें कालिदास जी अपनी रचनाओं में अलंकार युक्त, सरल और मधुर भाषा का इस्तेमाल करते थे। अपनी रचनाओं में श्रंगार रस का भी बखूबी वर्णन किया है। कालिदास जी ने अपनी रचनाओं में ऋतुओं की भी व्याख्या की है जो कि सराहनीय है। कालिदास जी के साहित्य में संगीत प्रमुख अंग रहा। संगीत के माध्यम से कवि कालिदास ने अपनी रचनाओं में प्रकाश डाला। कालिदास जी अपनी रचनाओं में आदर्शवादी परंपरा औऱ नैतिक मूल्यों का भी ध्यान रखते थे। आधुनिककाल में कालिदास कूडियट्टम् में संस्कृत आधारित नाटकों का एक रंगमंच है, जहां भास के नाटक खेले जाते हैं। महान कूडियट्टम कलाकार और नाट्य शास्त्र के विद्वान स्वर्गीय नाट्याचार्य विदुषकरत्तनम पद्मश्री गुरू मणि माधव चक्यार ने कालिदास के नाटकों के मंचन की शुरूआत की। कालिदास को लोकप्रिय बनाने में दक्षिण भारतीय भाषाओं के फिल्मों का भी काफी योगदान है। कन्नड़ भाषा की फिल्मों कविरत्न कालिदास और महाकवि कालिदास ने कालिदास के जीवन को काफी लोकप्रिय बनाया। इन फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट और संगीत का बखूबी उपयोग किया गया था। वी शांताराम ने शकुंतला पर आधारित फिल्म बनायी थी। ये फिल्म इतनी प्रभावशाली थी कि इसपर आधारित अनेक भाषाओं में कई फिल्में बनाई गई। हिन्दी लेखक मोहन राकेश ने कालिदास के जीवन पर एक नाटक आषाढ़ का एक दिन की रचना की, जो कालिदास के संघर्षशील जीवन के विभिन्न पहलुओं को दिखाता है। १९७६ में सुरेंद्र वर्मा ने एक नाटक लिखा, जिसमें इस बात का जिक्र किया गया है कि पार्वती के शाप के कारण कालिदास कुमारसंभव को पूरा नहीं कर पाए थे। शिव और पार्वती के गार्हस्थ जीवन का अश्लीलतापूर्वक वर्णन करने के लिए पार्वती ने उन्हें यह शाप दिया था। इस नाटक में कालिदास को चंद्रगुप्त की अदालत का सामना करना पड़ा, जहां पंडितों और नैतिकतावादियों ने उनपर अनेक आरोप लगाए। इस नाटक में न सिर्फ एक लेखक के संघर्षशील जीवन को दिखाया गया है, बल्कि लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को भी रेखांकित किया गया है। अस्ति कश्चित वागर्थीयम् नाम से डॉ कृष्ण कुमार ने १९८४ में एक नाटक लिखा, यह नाटक कालिदास के विवाह की लोकप्रिय कथा पर आधारित है। इस कथा के अनुसार, कालिदास पेड़ की उसी टहनी को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे थे। विद्योत्तम से अपमानित दो विद्वानों ने उसकी शादी इसी कालिदास के करा दी। जब उसे ठगे जाने का अहसास होता है, तो वो कालिदास को ठुकरा देती है। साथ ही, विद्योत्तमा ने ये भी कहा कि अगर वे विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटते हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर लेगी। जब कालिदास विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटे तो सही रास्ता दिखाने के लिए कालिदास ने उन्हें पत्नी न मानकर गुरू मान लिया। कालिदास और दंडी में कौन श्रेष्ठ कवि थे, इस सवाल को दोनों ने माता सरस्वती के सामने रखा। सरस्वती ने जवाब दिया, दंडी। दुखी कालिदास ने पूछा, "तो माँ मैं कुछ भी नहीं"? माता ने जवाब दिया, त्वमेवाहं, यानी तुम और मैं दोनों एक जैसे हैं। के डी सेठना, प्रॉबलम्स ऑफ एन्शिएंट इंडिया (अध्याय-द टाइम्स ऑफ कालिदास), २००० नई दिल्ली, आदित्य प्रकाशन कालिदास वस्तुतः भारतीय साहित्य के नक्षत्र। इन्हें भी देखें कालिदास: ट्रांसलेशन ऑफ शकुंतला एंड अदर वर्क्स, लेखक-आर्थर डब्ल्यू रायडर कालिदास की रचनाएं गुटेनबर्ग परियोजना पर कालिदास जी की रचनाओं की खास बातें
कनखल, हरिद्वार शहर से बिलकुल सटा हुआ है। कनखल के विशेष आकर्षण प्रजापति मंदिर, सती कुंड एवं दक्ष महादेव मंदिर हैं। कनखल आश्रमों तथा विश्व प्रसिद्ध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के लिए भी जाना जाता है। कनखल गंगा के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। नगर के दक्षिण में दक्ष प्रजापति का भव्य मंदिर है जिसके निकट सतीघाट के नाम से वह भूमि है जहाँ पुराणों (कूर्म २.३८ अ., लिंगपुराण १००.८) के अनुसार शिव ने सती के प्राणोत्सर्ग के पश्चात् दक्षयज्ञ का ध्वंस किया था। यह हिंदुओं का एक पुण्य तीर्थस्थल है जहाँ प्रति वर्ष लाखों तीर्थयात्री दर्शनार्थ आते हैं। कनखल में अनेक उद्यान हैं जिनमें केला, आलूबुखारा, लीची, आडू, चकई, लुकाट आदि फल भारी मात्रा में उत्पन्न होते हैं। यहाँ के अधिकांश निवासी ब्राह्मण हैं जिनका पेशा प्राय: हरिद्वार अथवा कनखल में पौरोहित्य या पंडगिरी है। कनखल का पौराणिक महत्त्व महाराजा दक्ष की राजधानी कनखल (हरिद्वार) में थी। एक बार दक्ष ने यज्ञ किया था जिसमें शिव को छोड़कर सभी राजाओं को बुलाया था। दक्ष की पुत्री और शिव की पत्नी सती बिना बुलाये ही वहां यज्ञ में पहुंची। वहां पर शिव का अपमान किया गया। यह अपमान सती सहन नहीं हुआ और वह हवनकुंड में कूद कर सती हो गई। शिव को जब पता लगा तो बहुत क्रोधित हुए। शिव ने वीरभद्र को बुलाया और कहा कि मेरी गण सेना का नेतृत्व करो और दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो. वीरभद्र शिव के गणों के साथ गए और यज्ञ को नष्ट कर दक्ष का सर काट डाला। भारत के तीर्थ
वीर्य एक जैविक तरल पदार्थ है, जिसे औरत कि योनि मे छौड़ा जाता हैबीजीय या वीर्य तरल भी कहते हैं, जिसमे सामान्यतः शुक्राणु (स्पर्म) होते हैं। यह जननग्रन्थि (यौन ग्रंथियाँ) तथा नर या उभयलिंगी प्राणियों के अन्य अंगों द्वारा स्रावित होता है और मादा अंडाणु को निषेचित कर सकता है। इंसानों में, शुक्राणुओं के अलावा बीजीय तरल में अनेक घटक होते हैं: बीजीय तरल के प्रोटियोलिटिक और अन्य एंजाइमों के साथ-साथ फलशर्करा तत्व शुक्राणुओं के अस्तित्व की रक्षा करते हैं और उन्हें एक ऐसा माध्यम प्रदान करते हैं जहाँ वे चल-फिर सकें या "तैर" सकें. वो प्रक्रिया जिसके परिणामस्वरूप वीर्य का प्रवाह होता है उसे स्खलन कहा जाता है। डॉ. कोवन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'दि सायन्स ऑफ़ ए न्यू लाइफ़ के १०६ पृष्ठ पर लिखा है : शरीर के किसी भाग में से यदि ४० औंस रुधिर निकाल लिया जाय तो वह एक औंस वीर्य के बराबर होता है- अर्थात् ४० औंस रुधिर से एक औंस वीर्य है ।" आयुर्वेद अष्टांगहृदय , शारीर स्थान , अध्याय ३ , श्लोक ६ में लिखा है : रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसात्मेदस्ततोऽस्विच अनो मज्जा ततः शुक्रं ...." अर्थात् भोजन किये हुए पदार्थ से पहले रस बनता है । रस से रक्त , रक्त से माँस , माँस से मेढ़ , मेढ़ से हड्डी , हड्डी से मज्जा , मज्जा से वीर्य ; वीर्य अन्तिम धातु है । मैशीन में वनने का दर्जा सातवाँ है । इस के बनाने में , शरीर को , जीवन के लिये आवश्यक अन्य पदार्थों की अपेक्षा अधिक मेहनत करनी पड़ती है । रस की अपेक्षा रक्त में तत्व - भाग अधिक है । उत्तरोत्तर सार - भाग बढ़ता ही जाता है । शरीर की भौतिक शक्तियों का अन्तिम सार वीर्य है । थोड़े - से वीर्य को बनाने के लिये रक्त की पर्याप्त मात्रा की आवश्यकता पड़ती है । किंचिन्मात्र वीर्य का नष्ट हो जाना अत्यधिक रुधिर के नष्ट हो जाने के बराबर है । आयुर्वेद के इस सिद्धान्त को अनेक पाश्चात्य पण्डितों ने भी मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है । अमेरिका के प्रसिद्ध शरीर - वृद्धि - शास्त्रज्ञ , मैकफेडन महोदय ने अपनी पुस्तक 'मैनहुड एण्ड मैरेज' में इसी विचार को प्रकट किया है । 'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिज़िकल कल्चर''' के २७७२ पृष्ठ पर वे लिखते हैं : "कई विद्वानों के कथनानुसार ४० औंस रुधिर से १ औंस वीर्य बनता है परन्तु कुछ - एक विद्वानों का कथन है कि १ औंस वीर्य की शक्ति ६० औंस रुधिर के बराबर है ।" डॉ. एन्ड्रू जैक्सन डेविअपनी पुस्तक 'ऐन्सर्स टु एवर रिकरिंग क्वेश्चन्स फ्रॉम दि पीपल के २६३ पृष्ठ पर लिखते हैं : कई शारीर - शास्त्रियों ने यह भ्रम मूलक विचार फैला दिया है कि वीर्य की उत्पत्ति रुधिर से होती है, वास्तव में सच्चाई यह है कि 'उत्पादक-वीर्य ' , 'वीर्य कीटाणु' अथवा 'स्पर्मेटोज़ोआ' की उत्पत्ति मस्तिष्क से होती है और अन्य द्रवों के साथ मिल कर वह अण्ड-कोशों में बहिःस्राव के रूप में प्रकट होता है ।मस्तिष्क से उत्पन्न हुआ प्रत्येक 'शुक्र-कीटाणु' यदि बाहर निकलता है तो मस्तिष्क के उतने अंश का पूरा नाश समझना चाहिये ।" आंतरिक और बाह्य निषेचन प्रजातियों के आधार पर, शुक्राणु आंतरिक या बाह्य रूप से अंडाणु को निषेचित कर सकता है। बाह्य निषेचन में, शुक्राणु सीधे-सीधे अंडाणु को निषेचित करता है, मादा के यौनांगों के बाहर से. मादा मछली, उदाहरण के लिए, अपने जलीय वातावरण में अंडाणु जन्म देती हैं, जहाँ वे नर मछली के वीर्य से निषेचित हो जाया करते हैं। आंतरिक निषेचन के दौरान, मादा या महिला के यौनांगों के अंदर निषेचन होता है। संभोग के जरिये पुरुष द्वारा महिला में वीर्यारोपण के बाद आंतरिक निषेचन होता है। निचली रीढ़ वाले प्राणियों में (जल-स्थलचर, सरीसृप, पक्षी और मोनोट्रीम (मोनोत्रीमे) स्तनधारी (प्राचीनकालीन अंडे देनेवाला स्तनधारी), सम्भोग या मैथुन नर व मादा के क्लोएक (आंत के अंत में एक यौन, मल-मूत्र संबंधी छिद्र या नली) के शारीरिक संगमन के ज़रिए होता है। धानी प्राणी (मारसुपियल) और अपरा (प्लेसेंटल) स्तनधारियों में योनि के जरिये सम्भोग होता है। मानव वीर्य की संरचना वीर्य स्खलन की प्रक्रिया के दौरान, शुक्राणु शुक्रसेचक वाहिनी के माध्यम से गुजरते हैं और प्रोस्टेट ग्रंथि नामक शुक्राणु पुटिकाओं और बल्बोयूरेथ्रल ग्रंथियों से निकले तरल के साथ मिलकर वीर्य का रूप लेते हैं। शुक्राणु पुटिकाएं (सेमिनाल वेसिकल्स) एक फलशर्करा से भरपूर पीला-सा गाढा-चिपचिपा तरल और अन्य सार पैदा करती हैं, जो मानव वीर्य का लगभग ७०% होते हैं। डिहाइड्रोटेस्टोस्टेरोन द्वारा प्रभावित होकर प्रोस्टेटिक स्राव एक सफ़ेद-सा (कभी-कभी पानी जैसा साफ़) पतला तरल होता है, जिसमें प्रोटियोलिटिक एंजाइम, साइट्रिक एसिड, एसिड फॉस्फेटेज और लिपिड होते हैं। इसे चिकना बनाने के लिए मूत्रमार्ग के लुमेन में बल्बोयूरेथ्रल ग्रंथियां एक पानी-सा साफ़ स्राव स्रावित करती हैं। सरटोली कोशिकाएँ, जो स्पर्माटोसाइट के विकास में पालन-पोषण और सहायता करती हैं, वीर्योत्पादक वृक्क नलिकाओं में एक तरल का स्राव करती हैं, जिससे जननांग नलिकाओं में शुक्राणुओं के जाने में मदद मिलती है। डक्टली एफ्रेंटस (नलिका अपवाही) माइक्रोविली के साथ क्यूबोआइडल (क्यूब जैसे आकार का) कोशिकाओं और लाइसोसोमल दानों से युक्त होता है, जो कुछ तरल से पुनः अवशोषण करवाकर वीर्य को संशोधित करता है। एक बार जब वीर्य प्रमुख कोशिका वाहिनी अधिवृषण में प्रवेश कर जाता है, जहाँ पिनोसायटोटिक नस अंतर्विष्ट होती हैं जो तरल के पुनःअवशोषण का संकेत देती हैं, जो ग्लिस्रोफोस्फोकोलाइन स्रावित करती हैं जिससे बहुत संभव समय से पहले कैपेसिटेशन का अवरोध होता है। सहयोगी जननांग नलिकाएँ, शुक्राणु पुटिका, प्रोस्टेट ग्रंथियाँ और बल्बोयूरेथ्रल ग्रंथियाँ अधिकांश शुक्राणु तरल उत्पादित करती हैं। मनुष्य के वीर्य प्लाज्मा जैविक व अजैविक घटकों की एक जटिल क्रमबद्धता से युक्त होते हैं। वीर्य प्लाज्मा शुक्राणुओं को महिला के प्रजनन पथ की यात्रा के दौरान एक पोषक वसुरक्षात्मक माध्यम प्रदान करता है। योनि का सामान्य माहौल शुक्राणु कोशिकाओं के लिए प्रतिकूल होता है, क्योंकि यह बहुत ही अम्लीय (वहाँ के मूल निवासी माइक्रोफ्लोरा द्वारा लैक्टिक एसिड के उत्पादन से) और चिपचिपा होता है और इम्यून कोशिकाएँ गश्त में होती हैं। वीर्य प्लाज्मा के घटक इस शत्रुतापूर्ण वातावरण की क्षतिपूर्ति करने के प्रयास करते हैं। प्यूटर्साइन, स्पर्माइन, स्पर्माईडाइन और कैडवराइन जैसे बुनियादी एमाइंस वीर्य की गंध और स्वाद के लिए जिम्मेवार हैं। ये एल्कालाइन बेस योनि नलिका के अम्लीय माहौल का सामना करते हैं और अम्लीय विकृतिकरण से शुक्राणु के अंदर स्थित एना की रक्षा करते हैं। वीर्य के घटक और योगदान इस प्रकार हैं: १९९२ के विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में सामान्य मानव वीर्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्खलन के ६० मिनट के अंदर सामान्य मानव वीर्य २ मिलीलीटर या इससे अधिक मात्रा में, ७.२ से ८.० पीएच, हुआ करता है; शुक्राणु सांद्रता २०1०6 स्पर्माटोजोआ/मि.ली. या अधिक होती है; प्रति स्खलन में शुक्राणु संख्या 4०1०6 स्पर्माटोजोआ या अधिक; आगे बढ़ते समय (ए और बी श्रेणी) 5०% या उससे अधि की मृत्यु दर और तेज अग्रगति (श्रेणी ए) के समय २5% या अधिक मृत्यु दर हुआ करती है। रूप-रंग और मानव वीर्य की अनुकूलता अधिकांश वीर्य सफेद होते हैं, लेकिन धूसर या यहां तक कि पीला-सा वीर्य भी सामान्य हो सकते हैं। वीर्य में रक्त से इसका रंग गुलाबी या लाल हो सकता है, जो हेमाटोस्पर्मिया कहलाता है और चिकित्सकीय समस्या पैदा कर सकता है, अगर यह तत्काल समाप्त नहीं होता है तो डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए। स्खलन के बाद, वीर्य पहले एक थक्के (क्लाटिंग) की प्रक्रिया के माध्यम से गुजरता है और फिर अधिक तरल हो जाता है। यह निर्विवाद है कि प्रारंभिक थक्कापन वीर्य को योनि में रखे रहने में सहायता करता है, लेकिन द्रवीकरण से शुक्राणु मुक्त हो जाते हैं और अंडाणु या स्त्रीबीज की अपनी लंबी यात्रा पर चल पड़ते हैं। स्खलन के तुरंत बाद वीर्य आम तौर पर एक चिपचिपा, जेली की तरह का तरल होता है जो अक्सर ग्लोब्युल्स बनाता है। अंततः सूख जाने से पहले ५ से ४० मिनट के अंदर यह अधिक जलीय और तरल हो जाता है। निषेचन पूरा कर पाने की वीर्य की क्षमता का माप है वीर्य गुणवत्ता. इस प्रकार, यह किसी पुरुष में प्रजननशक्ति का एक माप है। शुक्राणु ही वीर्य का प्रजनन घटक है, और इसीलिए वीर्य गुणवत्ता में शुक्राणु की गुणवत्ता तथा शुक्राणु की संख्या दोनों शामिल हैं। सेहत पर प्रभाव प्रजनन में इसकी केंद्रीय भूमिका के अलावा, विभिन्न वैज्ञानिक निष्कर्षों से पता चलता है कि मानव स्वास्थ्य पर वीर्य के कुछ लाभकारी प्रभाव होते हैं, प्रमाणित लाभ और संभावित लाभ दोनों ही: अवसादरोधी: एक अध्ययन का कहना है कि वीर्य के योनि अवशोषण से महिलाओं में अवसादरोधी के रूप में काम कर सकता है; अध्ययन ने महिलाओं के दो समूहों की तुलना की, एक वे जो कंडोम का उपयोग करतीं थीं और दूसरा जो नहीं करतीं थीं। कैंसर की रोकथाम: अध्ययनों का मानना है कि वीर्य प्लाज्मा कैंसर, खासकर स्तन कैंसर को रोकता है और उससे संघर्ष करता है, इस जोखिम को कम करता है "५० फीसदी से कम नहीं". टीजीएफ-बेटा (टफ-बेटा) द्वारा एपोपटोसिस के प्रेरित होने के साथ, ग्लायकोप्रोटीन और सेलेनियम तत्व के कारण यह प्रभाव पड़ता है। एक संबंधित शहरी कहावत इन निष्कर्षों की पैरोडी करते हुए दावा करता है कि सप्ताह में कम से कम तीन बार शिश्न चूषण (फेलेटियो) से स्तन कैंसर का ख़तरा कम हो जाता है। गर्भाक्षेप निवारण: यह धारणा है कि वीर्य के सार तत्व मां की इम्यून प्रणाली को शुक्राणु में पाए जाने वाले "बाहरी" प्रोटीन को स्वीकार करने के अनुकूल बनाते हैं साथ ही भ्रूण और गर्भनाल भी तैयार होते हैं, इससे रक्त चाप कम रहता है और इसलिए गर्भाक्षेप का खतरा कम हो जाता है। एक अध्ययन से पता चलता है कि मुख मैथुन और वीर्य निगलने से महिला के गर्भ को सुरक्षित रखने में मदद मिल सकती है, क्योंकि वह अपने साथी के प्रतिजन (एंटीजन) को अवशोषित करती है। वीर्य और रोग का संचरण वीर्य एड्स के वायरस एचआईवी सहित अनेक यौन संचारित रोगों का वाहक हो सकता है। इसके अलावा, माथुर और गौस्ट जैसे शोध में पाया गया कि शुक्राणु की अनुक्रिया में गैर-पूर्वअस्तित्ववान या पहले गैर-मौजूद रोग-प्रतिकारक पैदा होते हैं। ये प्रतिरक्षी या रोग-प्रतिकारक भूलवश स्थानीय टी लिम्फोसाइट्स (त लिम्फोसाइटेस) को बाहरी प्रतिजन (एंटीजन) मां लेते हैं और फलस्वरूप टी लिम्फोसाइट्स पर बी लिम्फोसाइट्स (ब लिम्फोसाइटेस) का हमला होने लगता है। वीर्य में शक्तिशाली जीवाणुनाशक गतिविधि के साथ प्रोटीन हुआ करता है, लेकिन ये प्रोटीन नेइसेरिया गनोरिया जैसे एक आम यौन संचारित रोग के विरुद्ध सक्रिय नहीं होते हैं। वीर्य में रक्त (हेमाटोस्पर्मिया) वीर्य में खून की मौजूदगी या हेमाटोस्पर्मिया पता लगाने योग्य नहीं हो सकता (इसे सिर्फ माइक्रोस्कोप से ही देखा जा सकता है) या यह तरल में दिखता भी नहीं। इसकी वजह पुरुष प्रजनन क्षेत्र में सूजन, संक्रमण, अवरोध, या चोट हो सकती है या मूत्रमार्ग, अंडकोष, अधिवृषण या प्रोस्टेट के अंदर कोई समस्या हो सकती है। यह आमतौर पर इलाज के बिना ही ठीक हो जाया करता है, या एंटीबायोटिक दवाओं से ठीक हो जाता है, लेकिन इसके जारी रहने पर इसकी वजह जानने के लिए वीर्य विश्लेषण या अन्य मूत्र-जननांग प्रणाली परीक्षण जरुरी हो सकते हैं। बहुत ही कम मामलों में, लोगों को मानव वीर्य संबंधी प्लाज्मा अतिसंवेदनशीलता (हमन सेमिनाल प्लाज्मा हाइपर्सन्सिटीविटी) के नाम से ज्ञात वीर्य तरल की एलर्जिक प्रतिक्रिया का अनुभव करते पाया गया है। लक्षण या तो स्थानीय या सर्वांगी हो सकता है और योनि में खुजली, सूजन, लालिमा, या संपर्क के ३० मिनट के भीतर छाले भी हो सकते हैं। इनमे सामान्य खुजली, खराश और यहां तक कि सांस लेने में कठिनाई भी शामिल हो सकती है। संभोग के समय कंडोम लगाकर मानव वीर्य संबंधी प्लाज्मा संवेदनशीलता की जांच की जा सकती है। अगर कंडोम के उपयोग से लक्षण दूर होते हैं तो यह संभव है कि वीर्य की संवेदनशीलता मौजूद है। वीर्य तरल के बार-बार निष्कासन से वीर्य एलर्जी के हल्के मामले अक्सर ठीक हो जा सकते हैं। अधिक गंभीर मामलों में, चिकित्सक की सलाह लेना महत्वपूर्ण है, खासकर तब जब कोई जोड़ा गर्भ धारण का प्रयास कर रहा हो, ऐसे मामले में, कृत्रिम वीर्यारोपण की सलाह दी जा सकती है। एक ताजा अध्ययन का कहना है कि वीर्य महिलाओं में अवसादरोधी के रूप में काम करता है, सो जो महिलाएं वीर्य के साथ शारीरिक संपर्क में आती हैं उनमें अवसाद आने की संभावना कम होती है। यह सोचा जाता है कि मनोदशा में विभिन्न बदलाव लाने वाले हारमोंस (टेस्टोस्टेरोन, ओएस्टरोजेन, फोलिकल-उत्तेजन हारमोन, ल्युटीनाइजिंग हारमोन, प्रोलैक्टिन और अनेक अलग प्रोस्टाग्लैंडिन्स) सहित वीर्य के जटिल रासायनिक संघटन के परिणामस्वरुप इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा करते हैं। २९३ कॉलेज महिलाओं के एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि जो महिलाएं कंडोम का इस्तेमाल नहीं करती रहीं, ज्यादातर यौन संबंध की पहल करती रहीं और एक रिश्ता समाप्त हो जाने पर नए साथी की तलाश में करने लगीं, बताया गया कि वीर्य पर रासायनिक निर्भरता "रिबाउंड इफेक्ट्स" पैदा करती है। किसी पुरुष यौन साथी (वीर्य प्राप्तकर्ता) पर वीर्य का प्रभाव ज्ञात नहीं है। हप://वॉ.न्यूसाइंटिस्ट.कॉम/आर्टियल/दन२४५७ किगोंग और चीनी दवामें कहे जाने वाले ऊर्जा के एक रूप को विशेष महत्व दिया जाता है (पिनयिन: जिंग, एक रूपिम द्योतक "सार" या "आत्मा" भी) - जो विकसित और संचित होने का प्रयास करता है। "जिंग" यौन ऊर्जा है और माना जाता है कि जो स्खलन से नष्ट हो जाती है, इसीलिए इस कला के अभ्यास में लगे लोगों का मानना है कि हस्तमैथुन "ऊर्जा की आत्महत्या" है। किगोंग सिद्धांत के अनुसार, यौन उत्तेजना के दौरान अनेक मार्गों/बिंदुओं से हटकर ऊर्जा खुद को यौनांगों में स्थानांतरित कर लेती है। परिणामी चरम-आनंद और स्खलन से अंततः ऊर्जा शरीर से पूरी तरह निष्कासित हो जाती है। चीनी कहावत - (पिनयिन: यी डी जिंग, शि डी क्सुए, शाब्दिक: वीर्य की एक बूंद खून की दस बूंदों के बराबर होती है) से इसकी व्याख्या हो जाती है। चीनी में वीर्य के लिए वैज्ञानिक शब्दावली है (पिनयिन: जिंग ये, शाब्दिक: सार का तरल/जिंग) और शुक्राणु की शब्दावली है (पिनयिन: जिंग जी, शाब्दिक: सार का बुनियादी तत्व/जिंग), शास्त्रीय संदर्भ के साथ दो आधुनिक शब्दावलियां. प्राचीन ग्रीक में, अरस्तू ने वीर्य के महत्व के बारे में टिप्पणी की है: "अरस्तू के लिए, वीर्य पोषक पदार्थ, जो कि रक्त है, से निकला हुआ अवशेष होता है, जो अनुकूलतम तापमान में बहुत ही गाढ़ा हो जाता है। यह केवल पुरुष द्वारा ही उत्सर्जित किया जा सकता है, क्योंकि प्रकृति ने उन्हें ऐसा ही बनाया है, इसीलिए केवल पुरुष में अपेक्षित गर्मी होती है जो रक्त को गाढ़ा कर वीर्य बना देती है।" अरस्तू के अनुसार, भोजन और वीर्य के बीच सीधा संबंध होता है: "शुक्राणु आहार का उत्सर्जन है, या और भी खुल कर कहा जाए तो यह हमारे आहार का सर्वोत्कृष्ट घटक है।" एक ओर भोजन और शारीरिक विकास के बीच संबंध और दूसरी ओर वीर्य, अरस्तू को बहुत कम उम्र में यौन गतिविधियों में लिप्त होने के खिलाफ चेतावनी देने के लिए बाध्य कर देता है।.. [क्योंकि] इसका प्रभाव उनके शारीरिक विकास पर पड़ता है। अन्यथा आहार शारीरिक विकास करने के बजाए वीर्य उत्पादन के काम में लग जाएगा .... अरस्तू कहते है कि इस उम्र में शरीर का विकास जारी रहता है; यौन गतिविधियां शुरू करने के लिए सर्वोत्तम समय वह होता है जब शरीर का विकास बहुत बड़े पैमाने पर होना नहीं होता है, शरीर की उच्चता कमोवेश पूरी हो जाती है, तब पोषण का रूपांतरण वीर्य में हो जाने पर शरीर के आवश्यक तत्व बर्बाद नहीं होते हैं।" इसके अतिरिक्त, "अरस्तू हमें बताते हैं कि आंखों के आसपास का क्षेत्र सिर का क्षेत्र बीज ("सबसे अधिक बीज वाला" ) के लिए सबसे उपजाऊ होता है, यौन लिप्तता और व्यवहार का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव आमतौर पर आंखों में होता है जिसका तात्पर्य यह होता है कि बीज आंखों के तरल क्षेत्र से होकर आता है।" पैथागोरियन मान्यता द्वारा इसकी व्याख्या इस तरह की जा सकती है कि वीर्य मस्तिष्क का एक कतरा है [ ]." ग्रीक स्टोइक दर्शन ने लोगोस स्पर्मैटिकोज को ("वीर्य संबंधी शब्द") जो कि निष्क्रिय उत्पादित द्रव्य है, सक्रिय कारण के सिद्धांत के रूप में देखा है। यहूदी दार्शनिक फिलो ने इसी तरह कारण के मर्दाना सिद्धांत के रूप में पतीकों (लोगोस) की यौन शब्दावली में स्त्रैण आत्मा में पुण्य के बीज बोने की बात कही. क्रिश्चन प्लेटोवादी क्लीमेंट ऑफ़ एलेक्जेंड्रा ने लोगोस की उपमा शारीरिक रक्त से की, "आत्मा के सार तत्व" के रूप में, और कहा कि "प्राणी वीर्य मूलतः इसके रक्त का झाग है". क्लीमेंट प्रारंभिक ईसाई विचार को प्रतिबिंबित करते हैं कि "बीज को व्यर्थ नहीं करना चाहिए, न ही बिना सोचे-समझे बिखेरना चाहिए, न ही इसे इस तरह रोपना चाहिए कि यह पनप ही न सके". पूर्व-औद्योगिक कुछ समाज में, वीर्य और शरीर के अन्य तरल पदार्थों का बड़ा मान हुआ करता था, क्योंकि वे इसे जादुई समझा करते थे। रक्त ऐसे ही एक द्रव की मिसाल है, लेकिन व्यापक रूप से वीर्य का उदगम और प्रभाव अलौकिक माना जाता था और इसी कारण इसे पावन तथा पवित्र माना गया। वर्तमान समय में और पुराने समय से बौद्धों और दाओवादी परंपराओं में वीर्य को बहुत मान दिया जाता रहा है, क्योंकि यह मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण घटक है। एक समय में ओस को एक तरह की बारिश समझा जाता था, जिससे पृथ्वी निषेचित होती है और बाद के समय में यह वीर्य के लिए उपमा बन गयी। बाइबल के कुछ पद्यों में जैसे सॉन्ग ऑफ सोलोमन ५:२ और स्तुति ११०:३ में अर्थ में "ओस" शब्द का उपयोग हुआ है, परवर्ती पद्य में, उदाहरण के लिए, घोषणा की गयी है कि लोगों को केवल राजा का अनुसरण करना चाहिए, जो युवा "ओस" से भरपूर वीर्यवान है। प्राचीन काल में व्यापक रूप से यही माना गया कि रत्न दैवीय वीर्य की बूंदें हैं जो पृथ्वी के निषेचित होने के बाद जम जाती हैं। विशेष रूप से, एक प्राचीन चीनी मान्यता है कि जेड (जड़े) आकाशीय ड्रेगन का सूखा हुआ वीर्य था। सिंहपर्णी रस से मानव वीर्य की समानता के आधार पर ऐतिहासिक रूप से यह माना जाता था कि इसके फूल जादुई रूप से शुक्राणु के प्रवाह में वृद्धि करते हैं। (यह धारणा संभवत: हस्ताक्षर के सिद्धांत से उत्पन्न हुआ है।) आर्किड के जुड़वां गट्टे अंडकोष के सदृश समझे जाते थे और प्राचीन रोमन मान्यता है कि ज़िनाकार के मैथुन से वीर्य के छलक जाने से फूल खिलते हैं। बारबरा जी. वाकर ने पवित्र वीर्य के इन मिसालों को शोधपत्र द वुमेन डिक्शनरी ऑफ सिंबल्स एण्ड सेक्रेट ऑब्जेक्ट में लिखा है कि ये मिथक और लोकोक्तियां यह दिखाती हैं कि पूर्व पितृसत्तात्मक समाज में शासन महिलाओं द्वारा होता था, जो बाद में मर्दाना संस्कृति का पूरक बन गया। दुनिया भर के प्राचीन पौराणिक कथाओं में ज्यादातर वीर्य को किसी न किसी तरह से स्तन दुग्ध का पर्याय माना गया है। बाली की परंपराओं में, मां के दूध के वापस होने या जमा होने को पोषक उपमा से जोड़ कर देखा गया है। पत्नी पति को पिलाती है, जो उसे उसके वीर्य, जो मानवीय दयालुता का दूध, की तरह माना जाता था, के रूप में वापस देता है। चिकित्सा दर्शन की कुछ प्रणालियों में, जैसे कि पारंपारिक रूसी चिकत्सा और हरवर्ट नोवेल के वाइटल फोर्स थ्योरी में वीर्य को (पुरुष प्रजनन प्रणाली के एक उत्पाद के बजाए) महिला और पुरुष के बीच जटिल दैहिक पारस्परिक क्रिया का उत्पाद माना गया है। चारवृत्ति में वीर्य जब ब्रिटिश सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस (एसएसबी) को पता चला कि वीर्य एक अच्छा अदृश्य स्याही है, सर जार्ज मैन्सफिल्ड स्मिथ कुमिंग ने अपने एजेंट को लिखा कि "हर आदमी का अपना स्टाइलो होता (है)." कामोद्दीपक संतुष्टि तथा शारीरिक और आध्यात्मिक लाभ, मनुष् चरमसुख के दौरान शिश्न चूषण या लिंग चूषण के समय वीर्य निगल लेना सबसे आम तरीका है। वीर्य मुख्यतः पानी है, लेकिन मानव शरीर द्वारा उपयोग किए जानेवाले लगभग सभी प्रकार के पोषक तत्व की मात्रा पायी जाती है। इसमें आमतौर पर न्यून मात्रा में पाये जानेवाले खनिज जैसे मैग्नीशियम, पोटाशियम और सेलेनियम कुछ हद तक उच्च मात्रा में पाये जाते हैं। एक आम स्खलन में १५० मिलीग्राम प्रोटीन, ११ मिलीग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, ६ मिलीग्राम वसा, ३ मिलीग्राम कोलेस्ट्रोल, ७% उस रदा पोटेशियम और ३% उस रदा तांबा और जस्ता होता है। जब चयापचय होता है तब प्रोटीन ४ किलो कैलोरी/ग्रा., कार्बोहाइड्रेट भी ४ किलो कैलोरी/ग्रा. और वसा ९ किलो कैलोरी/ग्रा. प्राप्त होता है। इसलिए एक आम वीर्य स्खलन में खाद्य ऊर्जा ०.७ किलो कैलोरी (२.९ क्ज) है। सेहत के खतरे एक सेहतमंद व्यक्ति के वीर्य अंतर्ग्रहण में कोई खतरा नहीं है। शिश्न चूषण में अतार्निहित के अलावा वीर्य निगलने में कोई अतिरिक्त खतरा नहीं है। शिश्न चूषण से एचआईवी या दाद, जैसे यौन संक्रमित रोग हो सकते हैं, खासकर उन्हें जिनके मसूड़ों से खून आता है, मसूड़ों में सूजन हो या खुले घाव हों. किसी व्यक्ति के अंतर्ग्रहण से पहले भले ही वीर्य ठंडा हो, लेकिन एक बार शरीर से बाहर निकल आया तो वायरस लंबे समय तक सक्रिय रह सकते हैं। शोध में कहा गया हैं कि ह्यूमन पेपिलोमावायरस (एचपीवी) से संक्रमित व्यक्ति से असुरक्षित मुख मैथुन करने पर मुंह या गले के कैंसर का खतरा हो सकता है। अध्ययन में पाया गया कि ३६ प्रतिशत कैंसर के मरीज की तुलना में केवल १ प्रतिशत स्वस्थ नियंत्रण समूह को एचपीवी था। माना जाता है कि ऐसा होने के पीछे कारण एचपीवी के संक्रमण है क्योंकि यह वायरस ज्यादातर गले के कैंसर के मामले में पाया गया है। स्वाद और मात्रा एक स्रोत ने उल्लेख किया है कि वीर्य के स्वाद की "कुछ महिलाओं ने प्रशंसा की है।" हालांकि आमतौर पर ऐसा कहा जाता है वीर्य का स्वाद आहार से उल्लेखनीय रूप से प्रभावित होता है, ऐसा कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है जिसमें किसी खाद्य पदार्थ की बात कही गयी हो। वीर्य स्खलन की मात्रा पृथक होती है। ३० अध्ययन की समीक्षा का निष्कर्ष निकला कि औसत मात्रा ३.४ मिलीलीटर (एमएल) के आसपास थी, कुछ अध्ययन में उच्चतम ४.९९ मिलीलीटर या न्यूनतम २.३ मिलीलीटर पायी गयी। स्वीडेन और डेनमार्क के पुरुषों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि वीर्य स्खलनों में लंबे अंतराल के कारण वीर्य में शुक्राणु की गिनती में वृद्धि हुई लेकिन इसकी मात्रा में बढ़ोत्तरी नहीं हुई। युवा पुरुषों में बड़ी मात्रा में इसका निर्माण होता है। कुछ संस्कृतियों में, मर्दानगी के गुणों का श्रेय वीर्य को दिया गया है। सैबिया और इटोरो समेत पापुआ न्यू गिनी की कई जनजातियों का विश्वास है कि उनकी जनजाति के युवा पुरुषों में वीर्य उनमें यौन परिपक्वता प्रदान करते है। आदिवासी वयस्कों में शुक्राणु मर्दाना स्वभाव का द्योतक है और अगली पीढ़ी के युवा पुरुषों को अपनी सत्ता और हकूमत सौंपे जाने के क्रम में उनके लिए अपने बड़ों का शिश्न चूस कर उनका वीर्य ग्रहण करना जरूरी है। यह रिवाज जवान होते पुरुषों और बुजुर्गों के बीच शुरू हो जाती है। इनके और अन्य आदिवासियों के बीच यह काम सांस्कृतिक रूप से सक्रिय समलैंगिकता का द्योतक है। चर्च फादर इपिफैनियस कहते है कि बोरबोराइट्स और अन्य व्याभिचारी रहस्यवादी संप्रदाय ईसा के शरीर के रूप में वीर्य का पान करते हैं। पिस्टिस सोफिया और टेस्टामॉनी ऑफ ट्रूथ कठोरतापूर्वक ऐसे रिवाजों की निंदा की। आधुनिक सेंट प्रियापस चर्च में, दूसरों की उपस्थिति में वीर्य पान पूजा का एक रूप है। चूंकि इसमें जीवन देने की दैवीय क्षमता है, इसीलिए इसे पवित्र माना गया है। कुछ अध्यायों में एसस्लेसिया ग्नॉस्टिका कैथोलिका प्रथा में, ग्नॉस्टिक धार्मिक सभा के दौरान वीर्य पान एलेइस्टर क्रोवले के द्वारा प्रकृतिस्थ है। वीर्य के अंतरर्ग्रहण से संबंधित बहुत सारे यौन चलन हैं। एक या एक से अधिक साथी के साथ, स्नोबोलिंग की तरह, फ्लेचिंग और क्रीमपाई ईटिंग (योनि या गुदा से वीर्य चूसने और चाटने का कृत्य) किया जा सकता है, या अनेक हिस्सेदारों के साथ, जापान में आरंभ हुए, बुक्काके और गोक्कुन की तरह भी इस कृत्य को किया जा सकता है। वीर्य की मात्रा में वृद्धि बहुत सारे पुरुषों जिन्हें उत्थानशीलता में गड़बड़ी या नपुंसकता है, वे प्राकृतिक वीर्य की मात्रा के लिए गोलियों का उपयोग शुरू कर देते हैं। ये हर्बल गोलियां खाद्य व औषधि प्रशासन द्वारा अनुमोदित नहीं है और पौरुष संवर्धन की श्रेणी में आते हैं। वीर्य की मात्रा से संबंधित गोलियों की संरचना यौन संबंध बनाने के दौरान स्खलन या सीमेन की मात्रा में वृद्धि के लिए की जाती है। इन हर्बल गोलियों को पहली बार वयस्कों के लिए मौज-मस्ती उद्योग में लाया गया और व्यस्क पोर्न स्टार रोन जेरेमी द्वारा प्रवक्ता के रूप इसका प्रचार किया गया। इनमें से किसी के दावों को सत्यापित नहीं किया गया है और एफडीए ने न तो इसे अनुमोदित किया है और न ही स्खलन की मात्रा में वृद्धि के उद्देश्य के लिए किसी हार्बल की सिफारिश की है। वीर्य को लेकर विभिन्न तरह की व्यंजनाओं और उपमाओं का आविष्कार किया गया है। इन शब्दों की पूरी सूची के लिए, देखें यौन अपभाषा लोकप्रिय संस्कृति में बहुत पुराने समय से वीर्य का चित्रण कला और लोकप्रिय संस्कृति में एक वर्जित विषय माना गया है। जापानी कलाकार ताकेशी मुरकामी मंगा शैली के माई लोंसम काउब्वॉय शीर्षक की पेंटिग्स के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें सुपरहीरो एक नग्न चरवाहे को अपने वीर्य का उपयोग फंदा के रूप में करते हुए दिखाया है। एंड्रेस सेर्रानो, जिसकी तस्वीर (सीमेन वाई सैंग्रे ई) (१९९०) में शरीर के तरल पदार्थों जैसे रक्त और वीर्य ई दिखाया गया था, अपने कृत्य में वीर्य दिखाए जाने से विवादास्पद व्यक्ति बन गए। अपत्तिजनक कला के प्रदर्शन के लिए कुछ लोगों ने उनकी बहुत आलोचना की, वहीं अन्य लोगों ने कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर उनका बचाव किया। उनकी तस्वीरें को दो मेटालिका एलबम लोड और रिलोड के आवरण कला में दिखाया गया, इस तस्वीर को चमकदार रोशनी द्वारा एक साफ प्लास्टिक के टुकड़े में सीमेन, रक्त और मूत्र को छींटे और भंवर की तरह दिखाया गया था। १९९० से द साइलेंस ऑफ द लैंब्स (१९९१), किका (१९९३), देयर'ज समथिंग अवाउट मेरी (१९९८) (हॉलीवुड की मुख्यधारा की हार्ड-कोर कॉमेडी की पहली फिल्म), हैपीनेस (१९९८), अमेरिकन पाई (१९९९), स्केरी मुवी (२०००), वाई टू मामा टैमबीन (२००१), स्केरी मुवी २ (२००१) प्रेडी गॉट फिंगर्ड (२००१), नेशनल लैंपून'ज वैन वाइल्डर (२00२), क्लेर्क्स ई (२006), जैकास नंबर टू (२006) और एनीमी मुवी एण्ड ऑफ इवैनजेलीऑन'' में सीमेन का वर्णन किया गया है। इन्हें भी देखें सनी पॉडकास्ट - वीर्य अध्ययन के परिणाम श्रेष्ठ लेख योग्य लेख
अधिकांश ब्लॉगवेयर यानि ब्लॉग प्रकाशन तंत्र प्रकाशित लेखों पर पाठक को अपनी प्रतिक्रिया या टिप्पणी करने की सुविधा प्रदान करते हैं। यह एक साधारण फॉर्म होता है जिसमें पाठक को अपना नाम, ईमेल पता, वेबसाईट आदि की जानकारी भी देनी होती है। टिप्पणी की सुविधा देना ब्लॉग लेखक का हक होता है। कई ब्लॉग पंजीकृत पाठकों से ही टिप्पणी स्वीकार करते हैं तो कई अनाम पाठकों को भी टिप्पणी करने देते हैं। कुछ ब्लॉग स्वचालित बॉट द्वारा किये जाने वाली स्पैम टिप्पणयों को रोकने के लिये कैप्चा या वर्ड वेरिफिकेशन का भी प्रयोग करते हैं जहाँ पाठक को दिखाये चित्र से शब्द या अक्षर टाईप करने होते हैं ताकि मानवीय और यांत्रिक प्रविष्टि में अंतर किया जा सके। सहायक एवं संदर्भ श्रोत
ब्लॉगरोल चिट्ठों पर पाया जाना वाला अन्य चिट्ठों का संकलन है। अलग अलग चिट्ठाकार अपने ब्लॉगरोल पर दूसरों के चिट्ठे शामिल करने के अलाहदा पैमाने बना कर रखते हैं। यह मानदंड समान रूचि, देश से लेकर चिट्ठे अपडेट होने की बारंबारता, पसंद या फिर सीधा सादा "तुम-मुझे-लिंक-करो-मैं-तुम्हें-लिंक-करता-हूँ" के सिद्धांत पर भी आधारित हो सकता है। जब से सिडिंकेशन का चलन प्रारंभ हुआ है, ब्लॉगरोल के भी पाठक बनने लगे हैं। हालाँकि ब्लॉगरोल की क्षमल का प्रारूप अलाहदा होता है जिनमें ओ.पी.एम.एल तथा ओ.सी.एस काफी प्रचलित है। ब्लॉगलाईन्स जैसे न्यूज़रीडर आप के द्वारा पढ़े जाने वाले चिट्ठों की सूची को ओ.पी.एम.एल प्रारूप में निर्यात व आयात करने कि सुविधा देता है जिसे आप दूसरों के साथ बाँट सकते हैं। हिन्दी चिट्ठों का ब्लॉगरोल अपने ब्लॉग पर कैसे डालें
एक्स एम एल फीड एक तरह का संचिका प्रारूप है जिसके द्वारा जालपृष्ठ का लेखक अपने लेख को पाठकों के कम्प्यूटर तक पहुँचा सकता है। लगभग हर ब्लॉग की अपनी एक्स एम एल (:एन:क्स्म्ल) फीड होती है जो आपके चिट्ठे की हर नई प्रविष्टि या बदलाव के उपरांत बदलती रहती है। यह कई प्रारूपों में उपलब्ध है जैसे आर एस एस, एटम, रफ आदि। फीड क्या है हर वेबसाइट पर हमेशा कुछ न कुछ नयी सूचना आती रहती है और इसे देखने के लिये निम्न तरीके हैं, वेबसाइट पर जाकर नयी सूचना देखना। वेबसाइट से नयी सूचना के बारे में ई-मेल प्राप्त करना। र्स अथवा एटम फीड के द्वारा जानकारी प्राप्त करना। वेबसाइट पर जाकर सूचना प्राप्त करना सबसे पुराना तरीका है। उसके बाद जैसे, जैसे तकनीक में सुधार होता गया, सूचना प्राप्त करने के तरीके भी सुलभ होते गये। पहले ई-मेल से सूचना प्राप्त करने की सुविधा आयी फिर र्स/एटम फीड की तकनीक आयी। यदि कोई वेबसाइट उस पर आने वाली नयी सूचना के बारे में ई-मेल नहीं भेजती है या फिर र्स/एटम फीड नहीं देती है तो आप इन दोनों के द्वारा इस वेबसाइट से इस तरह से सूचना नहीं प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी सूरत में आपको इस वेबसाइट पर जाकर ही सूचना पता करनी होगी। र्स/एटम फीड यह नयी तकनीक है। इन दोनों में प्रारूप का अन्तर है लेकिन व्यवहार में कोई अन्तर नहीं है। वे एक तरह से प्राप्त की जा सकती हैं। र्स पुरानी तकनीक है, ज्यादा आसान है और ज्यादा लोकप्रिय है। आर.एस.एस कि पृष्ठभूमि में प्रयुक्त हो रही मूल तकनीक पुश तकनलाजी है। थे इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फ़ोर्स (इत्फ), इन्टरनेट के मानकीकरण व उन्नतिकरण में कार्यरत है। एटम इसी के द्वारा दिया गया एक मानक प्रारूप है। यह लिखने और पड़ने दोनो प्रारूप एक प्रारूप में लाने का प्रयत्न है। र्स/ एटम फीड उस नयी सूचना हेडलाइन के रूप में आप तक पहुंचाती है और यदि आप उनकी हेडलाइन, जो दरअसल लेख की स्थाई कड़ी यानी पर्मालिंक होती है, को क्लिक करें तो वह आपको पूरे लेख तक पहुंचा देती है। नयी सूचना जानने के लिये यह सबसे अच्छी सुविधा है। जिस वेबसाईट में निम्न तरह का कोई भी चिन्ह हो तो आप समझ लीजिये कि वह अपना र्स/एटम फीड देती है। फीड कैसे प्राप्त करें र्स के फुलफार्म के बारे में कुछ विवाद है पर अधिकतर लोग यह मानते हैं कि इसका फुल फार्म रेली सिंपल सिंडीकेशन है। एटम अपने आप में पूरा शब्द है। र्स/एटम फीड पढ़ने के लिये एग्रीगेटर (अग्ग्रेगेटर) या न्यूज़ रीडर (न्यूज रीडर) या फीड रीडर (फीद रीडर) प्रोग्राम का प्रयोग करना पड़ता है जो कि मुफ्त में इन्टरनेट में उपलब्ध हैं यह निम्न प्रकार से फीड पढ़ते हैं, इन्टरनेट पर जा कर: इस तरह के प्रोग्रामों में ब्लॉगलाईंस, गूगल रीडर, न्यूज़गेटर और यदि आपके पास याहू अथवा गूगल की ई मेल ईद है तो आप मी याहू अथवा पर्सनालिस्ड़ गूगल में भी फीड जोड़ सकते हैं। कई वेब ब्राउसर जैसे कि फायरफॉक्स या ओपेरा वगैरह में न्यूस़ रीडर प्रोग्राम रहता है और इनमें भी फीड डाउनलोड की जा सकती है। अपने कंप्यूटर पर न्यूस़ रीडर प्रोग्राम को इन्सटॉल (इंस्टाल) करके: इस तरह के प्रोग्रामों में न्यूसगेटर, (केवल विंडोस़ में) अकरेगेटर(केवल लिनेक्स में) प्रमुख हैं। ई-मेल भेजने एवं प्राप्त करने के सॉफ्टवेयर के साथ: थन्डर-बर्ड ई-मेल भेजने एवं प्राप्त करने का बहुत अच्छा सॉफ्टवेयर है यह ओपेन सोर्स है और मुफ्त है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह सब प्रकार के ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलता है। इसमें भी नव & ब्लॉग में जाकर आप किसी भी वेबसाइट की फीड डाउनलोड कर सकते हैं। यह उसी प्रकार से किया जाता है जैसे ई-मेल सेटअप की जाती हैं। उन्मुक्त - आर.एस.एस. फीड (र्स फीद) क्या बला है आप कौन सा आरएसएस रीडर इस्तेमाल करते हैं?: क्षमल फीड वाचन के लिये उपलब्ध विभिन्न विकल्पों पर आलेख। असाधारण है रियली सिंपल सिंडिकेशन: क्षमल फीड के भूत और भविष्य की चर्चा करता लेख। ये फ़ीड क्या है? और, आपके चिट्ठे की पूरी फ़ीड क्यों जरूरी है?
चार्ल्स डार्विन (१२ फरवरी, १८०९ १९ अप्रैल १८८२) ने क्रमविकास (इवॉल्यूशन) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उनका शोध आंशिक रूप से १८३१ से १८३६ में एचएमएस बीगल पर उनकी समुद्र यात्रा के संग्रहों पर आधारित था। इनमें से कई संग्रह इस संग्रहालय में अभी भी उपस्थित हैं। अल्फ्रेड रसेल वॉलेस के साथ एक संयुक्त प्रकाशन में, उन्होंने अपने वैज्ञानिक सिद्धांत का परिचय दिया कि विकास का यह शाखा पैटर्न एक ऐसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ, जिसे उन्होंने प्राकृतिक वरण या नेचुरल सेलेक्शन कहा। डार्विन महान वैज्ञानिक थे - आज जो हम सजीव चीजें देखते हैं, उनकी उत्पत्ति तथा विविधता को समझने के लिए उनका विकास का सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन चुका है। संचार डार्विन के शोध का केंद्र-बिंदु था। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक जीवजाति का उद्भव (ओरिजीन ऑफ स्पेश (हिंदी में - ' प्रजाति की उत्पत्ति ')) प्रजातियों की उत्पत्ति सामान्य पाठकों पर केंद्रित थी। डार्विन चाहते थे कि उनका सिद्धांत यथासंभव व्यापक रूप से प्रसारित हो। डार्विन के विकास के सिद्धांत से हमें यह समझने में सहायता मिलती है कि किस प्रकार विभिन्न प्रजातियाँ एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं। उदाहरणतः वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि रूस की बैकाल झील में प्रजातियों की विविधता कैसे विकसित हुई। कई वर्षों के दौरान, जिसमें उन्होंने अपने सिद्धान्त को परिष्कृत किया, डार्विन ने अपने अधिकांश साक्ष्य विशेषज्ञों के लम्बे पत्राचार से प्राप्त किया। डार्विन का मानना था कि वे प्रायः किसी से चीजों को सीख सकते हैं और वे विभिन्न विशेषज्ञों, जैसे, कैम्ब्रिज के प्रोफेसर से लेकर सुअर-पालकों तक से अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे। डार्विन का व्यवसाय बीगल पर विश्व भ्रमण हेतु अपनी समुद्री-यात्रा को वे अपने जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना मानते थे जिसने उनके व्यवसाय को सुनिश्चित किया। समुद्री-यात्रा के बारे में उनके प्रकाशनों तथा उनके नमूने इस्तेमाल करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के कारण, उन्हें लंदन की वैज्ञानिक सोसाइटी में प्रवेश पाने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने कैरियर के प्रारंभ में, डार्विन ने प्रजातियों के जीवाश्म सहित बर्नाकल (विशेष हंस) के अध्ययन में आठ वर्ष व्यतीत किए। उन्होंने १८५१ तथा १८५४ में दो खंडों के जोड़ों में बर्नाकल के बारे में पहला सुनिश्चित वर्गीकरण विज्ञान का अध्ययन प्रस्तुत किया। इसका अभी भी उपयोग किया जाता है। इन्हें भी देखें मानव का विकास वाई गुण सूत्र डार्विन का मेहराब जीवविज्ञान के आदिपुरुष चार्ल्स डार्विन डार्विन भी हुए थे धर्मगुरुओं के कोप के शिकार प्रारंभ और अंत के बीच चार्ल्स डार्विन के क्रम विकास सिद्धांत ने बताया बंदर से कैसे बने इंसान
किसी समुदाय द्वारा आपस में परस्पर जिस भाषा के सहारे जीवन-व्यापार का संचालन किया जाता है। उसे साधारणतः लोकभाषा कहा जाता है।
सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिन्दी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। महाकवि श्री सूरदास का जन्म १४७८ ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ था| यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते हैं। वे मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता, रामदास सारस्वत प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में अनेक भ्रान्तिया है, प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८३ ईस्वी में हुई। सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में मतभेद सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है - मुनि पुनि के रस लेख। दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख॥ इसका अर्थ संवत् १६०७ ईस्वी में माना गया है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे। सूरदास का जन्म सं० १५४० ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि वल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० ईस्वी के आसपास माना जाता है। श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो। सूरदास की आयु "सूरसारावली' के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। "भावप्रकाश' में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। "आइने अकबरी' में (संवत् १६५३ ईस्वी) तथा "मुतखबुत-तवारीख" के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है। अष्टछाप के कवि का नाम है सूरदास श्रीनाथ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला", श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता" आदि ग्रंथों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते। श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - "सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।" डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - "सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।" सूरदास द्वारा रचित हिंदी ग्रंथ सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं: (१) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं। (३) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रंथों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसरावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं। साहित्य लहरी, सूरसागर, सूर की सारावली।श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।। सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है। सूरसारावली में कवि ने जिन कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पदों का गान किया उन्ही के सार रूप में उन्होंने सारावली की रचना की है। सहित्यलहरी में सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं। सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ १. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है। २. सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़- मैया कबहिं बढैगी चौटी? किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी। सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है। ३. जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है। ४. सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। ५. सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से आगे बढ़ जाती है- हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ। समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ। ६. सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं। ७. प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है ८. सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है। ९. सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं। १०. सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है। ११. सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है। १२. सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है। १३. सूर का काव्य भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है, कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है- सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया। इन्हें भी देखें भक्त कवियों की सूची सूरदास (विकिस्रोत पर) सूर के पद (४० पदों का मूल पाठ) (विकिस्रोत पर) सूर के पद-१ (४० और पदों का मूल पाठ) (विकिस्रोत पर) सूर के पद-२ (और पदों मूल पाठ) (विकिस्रोत पर) सूरदास की रचनाएँ अनुभूति में सूरदास की रचनाएँ कविताकोश में सूर-काव्य में भ्रमर गीत सूरदास (दिल्ली विश्वविद्यालय) भक्तिकाल के कवि कृष्णाश्रयी शाखा के कवि १४७८ में जन्मे लोग
दण्डपाणि जयकान्तन (जन्म: २४ अप्रैल १९३४, कड्डलूर, तमिलनाडु) एक बहुमुखी तमिल लेखक हैं -- केवल लघु-कथाकार और उपन्यासकार ही नहीं (जिनके कारण उन्हें आज के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में माना जाता है) परन्तु निबन्धकार, पत्रकार, निर्देशक और आलोचक भी हैं। विचित्र बात यह है कि उनकी स्कूल की पढ़ाई कुछ पाँच साल ही रही! घर से भाग कर १२ साल के जयकान्तन अपने चाचा के यहाँ पहुँचे जिनसे उन्होंने कम्युनिज़्म (मार्कसीय समाजवाद) के बारे में सीखा। बाद में चेन्नई (जिसका नाम उस समय मद्रास था) आकर जयकान्तन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (क्पी) की पत्रिका जनशक्ति में काम करने लगे। दिन में प्रेस में काम करते और शाम को सड़कों पर पत्रिका बेचते। १९५० के दशक की शुरुआत से ही वह लिखते आ रहे हैं और जल्दी ही तमिल के जाने-माने लेखकों में गिने जाने लगे। हालाँकि उनका नज़रिया वाम पक्षीय ही रहा। वह खुद पार्टी के सदस्य न रहे और काँग्रेस पार्टी में भर्ती हो गए। ४० उपन्यासों के अलावा उन्होंने कई-कई लघुकथाएँ, आत्मकथा (दो खंडों में) और रोमेन रोलांड द्वारा फ़्रेन्च में रची गयी गांधी जी की जीवनी का तमिल अनुवाद भी किया है। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास शिल नेरंगळिल शिल मणितर्कळ के लिये उन्हें सन् १९७२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (तमिल) से सम्मानित किया गया। जटिल मानव स्वभाव के गहरे और संवेदनशील समझ के हेतु, उनकी कृतियों को तमिल साहित्य की उच्च परम्पराओं की अभिवृद्दि के लिए २००२ में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें वर्ष २००९ में भारत सरकार द्वारा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये तमिलनाडु राज्य से हैं। १९३४ में जन्मे लोग २००९ पद्म भूषण २०१५ में निधन साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत तमिल भाषा के साहित्यकार साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (१९१२) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है। घासीराम व्यास जी उनके मित्र थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त १८८६ में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। रामस्वरूप शास्त्री, दुर्गादत्त पंत, आदि ने उन्हें विद्यालय में पढ़ाया। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई। प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग" तथा बाद में "जयद्रथ वध" प्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् १९१२ - १९१३ ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ "स्वप्नवासवदत्ता" का अनुवाद प्रकाशित कराया। सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य 'साकेत' की रचना आरम्भ की। उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव इस ग्रन्थ में दूर किये। स्वतः प्रेस की स्थापना कर अपनी पुस्तकें छापना शुरु किया। साकेत तथा पंचवटी आदि अन्य ग्रन्थ सन् १९३१ में पूर्ण किये। इसी समय वे राष्ट्रपिता गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये। 'यशोधरा' सन् १९३२ ई. में लिखी। गांधी जी ने उन्हें "राष्टकवि" की संज्ञा प्रदान की। १६ अप्रैल १९४१ को वे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए। पहले उन्हें झाँसी और फिर आगरा जेल ले जाया गया। आरोप सिद्ध न होने के कारण उन्हें सात महीने बाद छोड़ दिया गया। सन् १९४८ में आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. की उपाधि से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन् १९६२ ई. में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। वे वहाँ मानद प्रोफेसर के रूप में नियुक्त भी हुए। १९५४ में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। चिरगाँव में उन्होंने १९११ में साहित्य सदन नाम से स्वयं की प्रैस शुरू की और झांसी में १९५४-५५ में मानस-मुद्रण की स्थापना की। इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया। १२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। 'भारत भारती' के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। हिन्दी में लेखन आरम्भ करने से पूर्व उन्होंने रसिकेन्द्र नाम से ब्रजभाषा में कविताएँ, दोहा, चौपाई, छप्पय आदि छंद लिखे। ये रचनाएँ १९०४-०५ के बीच वैश्योपकारक (कलकत्ता), वेंकटेश्वर (बम्बई) और मोहिनी (कन्नौज) जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनकी हिन्दी में लिखी कृतियाँ इंदु, प्रताप, प्रभा जैसी पत्रिकाओं में छपती रहीं। प्रताप में विदग्ध हृदय नाम से उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं। मध्य प्रदेश के संस्कृति राज्य मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा है कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती प्रदेश में प्रतिवर्ष तीन अगस्त को 'कवि दिवस' के रूप में व्यापक रूप से मनायी जायेगी। यह निर्णय राज्य शासन ने लिया है। युवा पीढ़ी भारतीय साहित्य के स्वर्णिम इतिहास से भली-भांति वाकिफ हो सके इस उद्देश्य से संस्कृति विभाग द्वारा प्रदेश में भारतीय कवियों पर केन्द्रित करते हुए अनेक आयोजन करेगा। महाकाव्य- साकेत १९३१, यशोधरा १९३२ खण्डकाव्य- जयद्रथ वध १९१०, भारत-भारती १९१२, पंचवटी १९२५, द्वापर १९३६, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान १९१७, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल १९२९, जय भारत १९५२, युद्ध, झंकार १९२९ , पृथ्वीपुत्र, वक संहार , शकुंतला, विश्व वेदना, राजा प्रजा, विष्णुप्रिया, उर्मिला, लीला, प्रदक्षिणा, दिवोदास , भूमि-भाग नाटक - रंग में भंग १९०९, राजा-प्रजा, वन वैभव , विकट भट , विरहिणी , वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री , स्वदेश संगीत, हिड़िम्बा , हिन्दू, चंद्रहास मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली (मौलिक तथा अनूदित समग्र कृतियों का संकलन १२ खण्डों में, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित, लेखक-संपादक : डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल, पृष्ठ- ४६०, मूल्य- ९०००, प्रथम संस्करण-२००८) () फुटकर रचनाएँ- केशों की कथा, स्वर्गसहोदर, ये दोनों मंगल घट (मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखी पुस्तक) में संग्रहीत हैं। अनूदित (मधुप के नाम से)- संस्कृत- स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिमा, अभिषेक, अविमारक (भास) (गुप्त जी के नाटक देखें), रत्नावली (हर्षवर्धन) बंगाली- मेघनाथ वध, विहरिणी वज्रांगना (माइकल मधुसूदन दत्त), पलासी का युद्ध (नवीन चंद्र सेन) फारसी- रुबाइयात उमर खय्याम (उमर खय्याम) काविताओं का संग्रह - उच्छवास पत्रों का संग्रह - पत्रावली गुप्त जी के नाटक उपरोक्त नाटकों के अतिरिक्त गुप्त जी ने चार नाटक और लिखे जो भास के नाटकों पर आधारित थे। निम्न तालिका में भास के अनूदित नाटक और उन पर आधारित गुप्त जी के मौलिक नाटक दिए हुए हैं:- गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त जी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ-वध और भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आन्दोलनों के समर्थक बने। गुप्त जी के काव्य की विशेषताएँ इस प्रकार उल्लेखित की जा सकती हैं - (१) राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता (२) गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता (३) पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता (४) नारी मात्र को विशेष महत्व (५) प्रबन्ध और मुक्तक दोनों में लेखन (६) शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग (७) पतिवियुक्ता नारी का वर्णन राष्ट्रीयता तथा गांधीवाद मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु अन्धविश्वासों और थोथे आदर्शों में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे। गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। गुप्त जी ने प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य दोनों की रचना की। शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है। भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया। भारत श्रेष्ठ था, है और सदैव रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान है- भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ? फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ? संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है? उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है। गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता एक समुन्नत, सुगठित और सशक्त राष्ट्रीय नैतिकता से युक्त आदर्श समाज, मर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र वाले नर-नारी के निर्माण की दिशा में उन्होंने प्राचीन आख्यानों को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाकर उनके सभी पात्रों को एक नया अभिप्राय दिया है। जयद्रथवध, साकेत, पंचवटी, सैरन्ध्री, बक संहार, यशोधरा, द्वापर, नहुष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं इसके उदाहरण हैं। दर्शन की जिज्ञासा आध्यात्मिक चिन्तन से अभिन्न होकर भी भिन्न है । मननशील आर्यसुधियों की यह एक विशिष्ट चिन्तन प्रक्रिया है और उनके तर्कपूर्ण सिद्धान्त ही दर्शन है। इस प्रकार आध्यात्मिकता यदि सामान्य चिन्तन है तो षडदर्शन ब्रह्म जीव, जगत आदि का विशिष्ट चिन्तन । अतः दार्शनिक चिन्तन भी तीन मुख्य दिशाएँ हैं - ब्रह्म - जीव - जगत। गुप्त जी का दर्शन उनके कलाकार के व्यक्तित्व पक्ष का परिणाम न होकर सामाजिक पक्ष का अभिव्यक्तिकरण है। वे बहिर्जीवन के दृष्टा और व्याख्याता कलाकार हैं, अन्तर्मुखी कलाकार नहीं। कर्मशीलता उनके दर्शन की केन्द्रस्थ भावना है। साकेत में भी वे राम के द्वारा कहलाते हैं- सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया इस भुतल को ही स्वर्ग बनाने आया ।२२। राम अपने कर्म के द्वारा इस पृथ्वी को ही स्वर्ग जैसी सुन्दर बनाना चाहते हैं। राम के वनगमन के प्रसंग पर सबके व्याकुल होने पर भी राम शान्त रहते हैं, इससे यह ज्ञान होता है कि मनुष्य जीवन में अनन्त उपेक्षित प्रसंग निर्माण होते हैं अतः उसके लिए खेद करना मूर्खता है। राम के जीवन में आनेवाली सम तथा विषम परिस्थितियों के अनुकूल राम की मनःस्थिति का सहज स्वाभाविक दिग्दर्शन करते हुए भी एक धीरोदात्त एवं आदर्श पुरुष के रूप में राम का चरित्रांकन गुप्त जी ने किया है। लक्ष्मण भी जीवन की प्रत्येक प्रतिक्रिया में लोकोपकार पर बल देते हैं। उनकी साधना 'शिवम्' की साधना है। अतः वे अत्यन्त उदारता से कहते हैं- मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ किन्तु पतित को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ ।२३। रहस्यात्मकता एवं आध्यात्मिकता गुप्त जी के परिवार में वैष्णव भक्ति भाव प्रबल था। प्रतिदिन पूजा-पाठ, भजन, गीता पढ़ना आदि सब होता था। यही कारण है कि गुप्त जी के जीवन में भी यह आध्यात्मिक संस्कार बीज के रूप में पड़े हुए थे जो धीरे-धीरे अंकुरित होकर रामभक्ति के रूप में वटवृक्ष हो गया। 'साकेत' की भूमिका में निर्गुण परब्रह्म सगुण साकार के रूप में अवतरित होता है । आत्मश्रय प्राप्त कवि के लिए जीवन में ही मुक्ति मिल जाने से मृत्यु न तो विभीषिका रह जाती है और न उसे भय या शोक ही दे सकती है। गुप्त जी ने साकेत' में राम के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट की है। साकेत' में मुख्य रूप से उनका प्रयोजन उर्मिला की व्यथा को चित्रित करना था। पर साथ में ही राम की भक्ति भावना के गुण गाने में पीछे नहीं हटे। साकेत में हम जिस रामचरित के दर्शन करते हैं उसमें आधुनिकता की छाप अवश्य है, किन्तु उसकी आत्मा में राम के आधि दैविक रूप की ही झाँकी है और साकेत' की मूल प्रेरणा है। जिस युग में राम के व्यक्तित्व को ऐतिहासिक महापुरुष या मर्यादा पुरुषोत्तम तक सीमित मानने का आग्रह चल रहा था गुप्त जी की वैष्णव भक्ति ने आकुल होकर पुकार की थी। राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या? विश्व में रमे हुए नहीं सभी कही हो क्या? तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे, तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे । 'साकेत' पूजा का एक फूल है, जो आस्तिक कवि ने अपने इष्टदेव के चरणों पर चढ़ाया है। राम के चित्रांकन में गुप्त जी ने जीवन के रहस्य को उद्घाटित किया है। राम के जन्म हेतु उन्होंने कहा है- किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया । मनुज बनकर मानवी का पय पिया ॥ भक्त वत्सलता इसी का नाम है। और वह लोकेश लीला धाम है ।१६। नारी मात्र की महत्ता का प्रतिपादन नारियों की दुरवस्था तथा दुःखियों दीनों और असहायों की पीड़ा ने उसके हृदय में करुणा के भाव भर दिये थे। यही कारण है कि उनके अनेक काव्य ग्रंथों में नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति झलकती है। नारियों की दशा को व्यक्त करती उनकी ये पंक्तियां पाठकों के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥ पतिवियुक्ता नारी का वर्णन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता के विमर्श ने गुप्त जी को साकेत महाकाव्य लिखने के लिए प्रेरित किया। भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती की प्रार्थना करने वाले कवि कालान्तर में, विरहिणी नारियों के दुःख से द्रवित हो जाते हैं। परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को जिस शिद्दत के साथ गुप्तजी अनुभव करते हैं और उसे जो बानगी देते हैं, वह आधुनिक साहित्य में दुर्लभ है। उनकी वियोगिनी नारी पात्रों में उर्मिला (साकेत महाकाव्य), यशोधरा (काव्य) और विष्णुप्रिया खण्डकाव्य प्रमुख है। उनका करूण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। उनके जीवन संघर्ष, उदात्त विचार और आचरण की पवित्रता आदि मानवीय जिजीविषा और सोदेश्यता को प्रमाणित करते हैं। गुप्तजी की तीनों विरहिणी नायिकाएं विरह ताप में तपती हुई भी अपने तन-मन को भस्म नहीं होने देती वरण कुन्दन की तरह उज्ज्वल वर्णी हो जाती हैं। साकेत की उर्मिला रामायण और रामचरितमानस की सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है। इस विरहिणी नारी के जीवन वृत्त और पीड़ा की अनुभूतियों का विशद वर्णन आख्यानकारों ने नहीं किया है। उर्मिला लक्ष्मण की पत्नी है और अपनी चारों बहनों में वही एक मात्र ऐसी नारी है, जिसके हिस्से में चौदह वर्षों के लिए पतिवियुक्ता होनेे का दु:ख मिला है। उनकी अन्य तीनों बहनों में सीता, राम के साथ, मांडवी भरत के सान्निध्य में तथा श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न के संग जीवन यापन करती हैं। उर्मिला का जीवन वृत्त और उसकी विरह-वेदना सर्वप्रथम मैथिलीशरण गुप्त जी की लेखनी से साकार हुई हैं। गुप्तजी ने अपने काव्य का प्रधान पात्र राम और सीता को न बनाकर लक्ष्मण, उर्मिला और भरत को बनाया है। गुप्तजी ने साकेत में उर्मिला के चरित्र को जो विस्तार दिया है, वह अप्रतिम है। कवि ने उसे 'मूर्तिमति उषा', 'सुवर्ण की सजीव प्रतिमा', 'कनक लतिका', 'कल्पशिल्पी की कला' आदि कहकर उसके शारीरिक सौन्दर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। उर्मिला प्रेम एवं विनोद से परिपूर्ण हास-परिहासमयी रमणी है। मैथिलीशरण गुप्त को आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का मार्गदर्शन प्राप्त था । आचार्य द्विवेदी उन्हें कविता लिखने के लिए प्रेरित करते थे, उनकी रचनाओं में संशोधन करके अपनी पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशित करते थे। मैथिलीशरण गुप्त की पहली खड़ी बोली की कविता 'हेमन्त' शीर्षक से सरस्वती (१९०७ ई०) में छपी थी। गुप्त जी द्वारा रचित खण्डकाव्य पंचवटी में सहज वन्यजीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र हैं। उनकी निम्न पंक्तियाँ आज भी कविताप्रेमियों के मानस पटल पर सजीव हैं- चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में, स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में। पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से, मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥ पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना, जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना, जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है? भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥ किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये, राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये। बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है, जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है! मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है, तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है। वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी, विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥ कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता; आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता। बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी, मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा; है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा? बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप, पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप! है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर, रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर। और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है, शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है। सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है, अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है! अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है, पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात, वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात। अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की। किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की! और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे, व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे। कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक; पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक! मैथिलीशरण गुप्त की काव्य भाषा खड़ी बोली है। इस पर उनका पूर्ण अधिकार है। भावों को अभिव्यक्त करने के लिए गुप्त जी के पास अत्यन्त व्यापक शब्दावली है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं की भाषा तत्सम है। इसमें साहित्यिक सौन्दर्य कला नहीं है। 'भारत-भरती' की भाषा में खड़ी बोली की खड़खड़ाहट है, किन्तु गुप्त जी की भाषा क्रमशः विकास करती हुई सरस होती गयी। संस्कृत के शब्दभण्डार से ही उन्होंने अपनी भाषा का भण्डार भरा है, लेकिन 'प्रियप्रवास' की भाषा में संस्कृत बहुला नहीं होने पायी। इसमें प्राकृत रूप सर्वथा उभरा हुआ है। भाव व्यञ्जना को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए संस्कृत का सहारा लिया गया है। संस्कृत के साथ गुप्त जी की भाषा पर प्रांतीयता का भी प्रभाव है। उनका काव्य भाव तथा कला पक्ष दोनों की दृष्टि से सफल है। शैलियों के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किन्तु प्रधानता प्रबन्धात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। उनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं- 'रंग में भंग', 'जयद्रथ वध', 'नहुष', 'सिद्धराज', 'त्रिपथक', 'साकेत' आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है- 'खंड काव्यात्मक' तथा 'महाकाव्यात्मक'। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं। गुप्त जी की एक शैली विवरण शैली भी है। 'भारत-भारती' और 'हिन्दू' इस शैली में आते हैं। तीसरी शैली 'गीत शैली' है। इसमें गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है। 'अनघ' इसका उदाहरण है। आत्मोद्गार प्रणाली गुप्त जी की एक और शैली है, जिसमें 'द्वापर' की रचना हुई है। नाटक, गीत, प्रबन्ध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक 'मिश्रित शैली' है, जिसमें 'यशोधरा' की रचना हुई है। इन सभी शैलियों में गुप्त जी को समान रूप से सफलता नहीं मिली। उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें इनका व्यक्तित्व झलकता है। पूर्ण प्रवाह है। भावों की अभिव्यक्ति में सहायक होकर उपस्थित हुई हैं। क. महाभारत कथानक के आधार पर लिखे तीन खंडकाव्य वन-वैभव, वकसंहार और सैरन्ध्री त्रिपथगा नामक ग्रन्थ में संग्रहीत हैं। <दीव शैली=फॉण्ट-साइज:१००%;> ग. साकेत महाकाव्य रामायण की कथानक की पूर्ति हेतु लीला की रचना हुई। <दीव शैली=फॉण्ट-साइज:१००%;> घ. मैथिलीशरण गुप्त ने एडवर्ड फिट्जगेराल्ड द्वारा किए गए रुबाइयात उमर खय्याम के आंग्लिक अनुवाद का हिन्दी पद्यानुवाद किया था। इन्हें भी देखें मैथिलीशरण गुप्त सम्मान राष्ट्रीयता के सचेत प्रहरी - मैथिलीशरण गुप्त (प्रेसनोट) मैथिलीशरण गुप्त (कविताकोश में) होगी दीप्त फिर प्राची दिशा (हिन्दी समय) १८८६ में जन्मे लोग मंगला प्रसाद पुरस्कार भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के कवि १९५४ पद्म भूषण उत्तर प्रदेश के कवि १९६४ में निधन
कयामत से कयामत तक सन् १९८८ की हिन्दी भाषा की प्रेमकहानी फ़िल्म है। इसका निर्देशन मंसूर खान ने किया है और निर्माण उनके चाचा नासिर हुसैन ने किया है। इसमें नासिर के भतीजे और मंसूर के चचेरे भाई आमिर खान और जूही चावला मुख्य भूमिकाओं में हैं। फिल्म आलोचनात्मक प्रशंसा के साथ जारी हुई थी और यह एक बड़ी व्यावसायिक सफलता भी थी। इसने आमिर और जूही को बेहद लोकप्रिय सितारों में बदल दिया था। इसकी कहानी आधुनिक रूप में रची गई दुखद रूमानी कहानियों लैला और मजनू, हीर राँझा और रोमियो और जूलियट पर आधारित है। क़यामत से क़यामत तक हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर थी। १९९० के दशक में हिंदी सिनेमा को परिभाषित करने वाली संगीतमय रोमांस फिल्मों की रूपरेखा इसी को माना जाता है। आनंद-मिलिंद द्वारा रचित, फिल्म का साउंडट्रैक समान रूप से सफल और लोकप्रिय था। इसने सर्वश्रेष्ठ मनोरंजन प्रदान करने वाली सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निदेशक सहित ग्यारह नामांकनों से आठ फिल्मफेयर पुरस्कार जीते। धनकपुर गांव के किसान ठाकुर जसवंत और धनराज सिंह भाई हैं. उनकी बहन मधुमती को एक अमीर राजपूत परिवार के ठाकुर रघुवीर सिंह के बेटे रतन ने फेंक दिया और गर्भवती कर दिया। परिवार ने रतन से मधु की शादी से इंकार कर दिया। जसवंत गांव छोड़ देता है। मधु ने आत्महत्या कर ली। निराश धनराज ने रतन को मार डाला और जेल में डाल दिया गया। दोनों परिवार अब दुश्मन हैं। जसवंत दिल्ली चला जाता है, अपना व्यवसाय चलाता है, और अच्छा पहुँचता है; वह धनराज के बेटे राज को भी पालता है। २० साल बाद जमानत पर धनराज को अपने बेटे राज से एक पत्र मिलता है, जो एक उत्साही संगीत प्रेमी है, जो राजपूत कॉलेज में अपनी शिक्षा पूरी करता है। वह राज की कॉलेज की विदाई पार्टी में जाता है और उसे अपने सपनों को पूरा करते हुए देखकर खुश होता है। भाग्य के एक मोड़ में, राज धनकपुर चला जाता है। घर लौटते समय वह रघुवीर की खूबसूरत भतीजी रश्मि की ओर आकर्षित होता है। वे फिर से एक छुट्टी स्थान पर मिलते हैं और प्यार में पड़ जाते हैं। राज को उसके परिवार के बारे में पता चलता है लेकिन वह उसे सच नहीं बता पाता। रश्मि के पिता रणधीर को उनके बारे में पता चल जाता है और वह उसकी शादी दूसरे आदमी से तय कर देता है। राज और रश्मि अपने परिवारों का सामना करते हैं और एक साथ एक सुखद जीवन का सपना देखते हुए भाग जाते हैं। गुस्से में, रणधीर, राज को निशाना बनाने के लिए एक कॉन्ट्रैक्ट किलर को काम पर रखता है, जो और रश्मि अपने ही स्वर्ग में खुश होकर एक सुनसान किले में रहते हैं। जब रणधीर को उनके ठिकाने का पता चलता है, तो वह रश्मि को घर लाने और राज की हत्या सुनिश्चित करने के लिए पहुंचता है। रणधीर की मां उसे राज और रश्मि को बचाने के लिए कहती है। राज उनके घर के लिए जलाऊ लकड़ी लाने के लिए निकलता है। जबकि राज दूर है, रणधीर, रश्मि से मिलता है, उसे आश्वासन देता है कि उसने "उनके प्यार को स्वीकार कर लिया है"। सच्चाई से अनजान, रणधीर की बातों पर रश्मि बहुत खुश होती है। राज का पीछा गुर्गे करते हैं। धनराज किले में पहुंचता है और राज के ठिकाने के बारे में पूछता है। राज ठीक है यह सुनिश्चित करने के लिए रश्मि चली जाती है। उसे गोली लगने वाली है लेकिन गुर्गा उसकी जगह रश्मि को दो बार गोली मार देता है। वह राज की बाहों में मर जाती है, जिससे वह तबाह और दुखी हो जाता है। राज ने खुद को चाकू मारकर आत्महत्या कर ली और रश्मि के पास मर गया। अंतिम दृश्य दोनों परिवार उनकी ओर दौड़ रहे हैं; प्रेमी एक साथ हैं, कभी अलग नहीं होने के लिए, और सूरज उनके पीछे ढल जाता है। आमिर खान - राज जूही चावला - रशमी दलीप ताहिल - धनराज सिंह आलोक नाथ - जसवंत सिंह राजेन्द्रनाथ ज़ुत्शी - श्याम रीमा लागू - कमला सिंह इमरान ख़ान - छोटा राज संगीत आनंद-मिलिंद द्वारा दिया गया है और बोल मजरुह सुल्तानपुरी के हैं। सारे गीत उदित नारायण और अल्का यागनिक द्वारा गाये गए हैं। गीत "ऐ मेरे हमसफ़र" का पुन:निर्माण मिथून ने २०१५ की फिल्म ऑल इज़ वेल के लिए किया था जिसको मिथुन और तुलसी कुमार द्वारा गाया गया था। इस फ़िल्म का १९९६ में एक तेलुगू रीमेक भी बना था जो कि पवन कल्याण की पहली फ़िल्म थी। क़यामत से क़यामत तक टिकट खिड़की पर सफल रही थी और १९८८ में तेज़ाब और शहँशाह के बाद सबसे बड़ी हिट फ़िल्म थी। नामांकन और पुरस्कार ३४वें फिल्मफेयर पुरस्कार में क़यामत से क़यामत तक ने कई पुरस्कार जीते थे। तक, कयामत से कयामत फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार विजेता आनंदमिलिंद द्वारा संगीतबद्ध फिल्में
बंदरगाह (हरबोर, हार्बर) किसी बड़े जल निकाय से जुड़ा हुआ ऐसा छोटा जलसमूह होता है जहाँ जलयानों और नावों को बड़े जलनिकाय के खुले पानी से आश्रय मिलता है। यहाँ से लोग व समान इन जल वाहनों से भूमि पर आ-जा सकते हैं। कई बंदरगाहों में जहाज़ों के स्वयं भूमि तक आकर उसके साथ खड़े होने के प्रबन्ध होते हैं, लेकिन अन्य में कम गहराई के कारण जलयान भूमि से कुछ दूरी पर खड़े होते हैं और उनसे सामान व लोग छोटी नावों द्वारा भूमि तक आए-जाए सकते हैं। बंदरगाहें प्राकृतिक या कृत्रिम हो सकती हैं। भारत के कच्छ ज़िले में स्थित कंडला एक प्राकृतिक बंदरगाह है, जबकि अमेरिका के कैलीफ़ोर्निया राज्य का लॉग आईलैण्ड बंदरगाह कृत्रिम रूप से निचली दलदली भूमि और उस से सटे कम गहाराई वाले वाले सागरीय क्षेत्र को खोदकर बनायाई गई थी। इन्हें भी देखें
वनस्पति विज्ञान या पादप विज्ञान, पौधों के जीवन का विज्ञान और जीव विज्ञान की एक शाखा है। एक वनस्पति वैज्ञानिक या पादप वैज्ञानिक एक वैज्ञानिक है जो इस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखता है। पादप एवं प्राणी सामान्य अर्थ में जीवधारियों को दो प्रमुख वर्गों - प्राणियों और पादपों - में विभक्त किया गया है। दोनों में अनेक समानताएँ हैं। दोनों की शरीर रचनाएँ कोशिकाओं और ऊतकों से बनी हैं। दोनों के जीवनकार्य में बड़ी समानता है। उनका जनन भी सादृश्य है। उनकी श्वसनक्रिया भी लगभग एक सी है। पादप प्राणियों से कुछ मामलों में भिन्न भी होते हैं। जैसे पादपों में पर्णहरित (क्लोरोफिल) नामक हरा पदार्थ रहता है, जो प्राणियों में नहीं पाया जाता। पादपों की कोशिका भित्तियाँ मुख्यतः सेलुलोज (सेल्युलोस) नामक कार्बोहाइड्रेट की बनी होती हैं, जबकि प्राणियों में कोशिका भित्तियाँ सामान्यतः पायी ही नहीं जातीं। अधिकांश पादपों में गमनशीलता नहीं होती, जबकि प्राणी चलने में सक्षम होते हैं। वनस्पति विज्ञान की उपयोगिता वनस्पतियाँ धरती पर जीवन के मूलभूत अंश हैं। वनस्पतियाँ आक्सीजन छोड़ती हैं। मानव एवं अन्य जन्तुओं का भोजन उनसे ही मिलता है। वनस्पतियों से रेशे (फाइबर), ईंधन, औषधियाँ प्राप्त होतीं है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा पौधे कार्बन डाई आक्साइड सोखते हैं। पेड़ों से ही इमारती लकड़ियाँ एवं अन्य संरचनाओं के निर्माण के लिए लकड़ी मिलती है। अतः वनस्पतियों के बारे में अच्छी तरह जानकारी होना बहुत जरूरी है क्योंकि- तभी संसार को भोजन मिल पाएगा, जीवन की मूलभूत समझ विकसित करने के लिए भी वनस्पतियों का अध्ययन आवश्यक है, पर्यावरण के परिवर्तन को समझने में भी वनस्पतिशास्त्र उपयोगी है। भारत का मुख्य अन्न है। पादप विज्ञान की शाखाएँ (विस्तृत जानकारी के लिये पादप विज्ञान की शाखाएँ देखें।पादपविज्ञान के समुचित अध्ययन के लिये इसे अनेक शाखाओं में विभक्त किया गया है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं : १. पादप आकारिकी (प्लांट मॉर्फोलॉजी) - इसके अंतर्गत पादप में आकार, बनावट इत्यादि का अध्ययन होता है। आकारिकी अंतर हो सकती है या बाह्य। २. कोशिकानुवंशिकी (साइटोजेनेटिक) - इसके अंतर्गत कोशिका के अंदर की सभी चीजों का, कोशिका तथा केंद्रक (नूक्ल्यूस) के विभाजन की विधियों का तथा पौधे किस प्रकार अपने जैसे गुणोंवाली नई पीढ़ियों को जन्म देते हैं इत्यादि का, अध्ययन होता है। ३. पादप परिस्थितिकी (प्लांट इकोलॉजी) - इसके अंतर्गत पादपों और उनके वातावरण के आपसी संबंध का अध्ययन होता है। इसमें पौधों के सामाजिक जीवन, भौगोलिक विस्तार तथा अन्य मिलती जुलती चीजों का भी अध्ययन किया जाता है। ४. पादप शरीर-क्रिया-विज्ञान (प्लांट फिजियोलॉजी) - इसके अंतर्गत जीवनक्रियाओं (लाइफ प्रोसेस) का बृहत् रूप से अध्ययन होता है। ५. भ्रूणविज्ञान (एम्ब्र्योलॉजी) - इसके अंतर्गत लैंगिक जनन की विधि में जब से युग्मक बनते हैं और गर्भाधान के पश्चात् भ्रूण का पूरा विस्तार होता है तब तक की दशाओं का अध्ययन किया जाता है। ६. विकास (इवॉल्यूशन) - इसके अंतर्गत पृथ्वी पर नाना प्रकार के प्राणी या पादप किस तरह और कब पहले पहल पैदा हुए होंगे और किन अन्य जीवों से उनकी उत्पत्ति का संबंध है, इसका अध्ययन होता है। ७. आर्थिक पादपविज्ञान - इसके अंतर्गत पौधों की उपयोगिता के संबंध में अध्ययन होता है। ८. पादपाश्मविज्ञान (पलाओबोटनी) - इसके अंतर्गत हम उन पौधों का अध्ययन करते हैं जो इस पृथ्वी पर हजारों, लाखों या करोड़ों वर्ष पूर्व उगते थे पर अब नहीं उगते। उनके अवशेष ही अब चट्टानों या पृथ्वी स्तरों में दबे यत्र तत्र पाए जाते हैं। ९. वर्गीकरण या वर्गीकरण पादपविज्ञान (टक्सोनोमी और सिस्टमटिक बोतनी) - इसके अंतर्गत पौधों के वर्गीकरण का अध्ययन करते हैं। पादप संघ, वर्ग, गण, कुल इत्यादि में विभाजित किए जाते हैं। १८वीं या १९वीं शताब्दी से ही अंग्रेज या अन्य यूरोपियन वनस्पतिज्ञ भारत में आने लगे और यहाँ के पौधों का वर्णन किया और उनके नमूने अपने देश ले गए। डाक्टर जे. डी. हूकर ने लगभग १८60 ई. में भारत के बहुत से पौधों का वर्णन अपने आठ भागों में लिखी "फ्लोरा ऑव ब्रिटिश इंडिया" नामक पुस्तक में किया है। (विस्तृत विवरण के लिये पादप वर्गीकरण देखें।) डार्विन (डार्विन) के विचारों के प्रकाश में आने के पश्चात् यह वर्गीकरण पौधों की उत्पत्ति तथा आपसी संबंधों पर आधारित होने लगा। ऐसे वर्गीकरण को 'प्राकृतिक पद्धति' (नेचुरल सिस्टम) कहते हैं और जो वर्गीकरण इस दृष्टिकोण को नहीं ध्यान में रखते उसे 'कृत्रिम पद्धति' (आर्टिफिशियल सिस्टम) कहते हैं। कवक या फंजाइ (फंगी) और पुष्पोद्भिद या फेनेरोगैम (फानेरोगम) में दो बड़े वर्ग हैं : अनावृतबीजी या जिम्नोस्पर्म (जिमनोस्पर्म) और इन्हें भी देखें वृक्षायुर्वेद - वनस्पतिविज्ञान से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थ। बेदी वनस्पति कोश ; भाग - १ (गूगल पुस्तक ; लेखक - रामेश बेदी) वनस्पति जगत की आश्चर्यजनक बातें (गूगल पुस्तक; लेखक - ललित नारायन उपाध्याय) पादप और पादपविज्ञान (इण्डिया वाटर पोर्टल) वनस्पति विज्ञान मूलभूत शब्दावली (अंग्रेजी-हिंदी) वनस्पति विज्ञान के वस्तुनिष्ट प्रश्न
राजनीति दो शब्दों का एक समूह है राज+नीति (राज मतलब शासन और नीति मतलब उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला) अर्थात् नीति विशेष के द्वारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना राजनीति कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जनता के सामाजिक और आर्थिक स्तर (सार्वजनिक जीवन स्तर)को ऊँचा करना राजनीति है । नागरिक स्तर पर या व्यक्तिगत स्तर पर कोई विशेष प्रकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार राजनीति (पॉलिटिक्स) कहलाती है। अधिक संकीर्ण रूप से कहें तो शासन में पद प्राप्त करना तथा सरकारी पद का उपयोग करना राजनीति है। राजनीति में बहुत से रास्ते अपनाये जाते हैं जैसे- राजनीतिक विचारों को आगे बढ़ाना,विधि बनाना, विरोधियों के विरुद्ध युद्ध आदि शक्तियों का प्रयोग करना। राजनीति बहुत से स्तरों पर हो सकती है- गाँव की परम्परागत राजनीति से लेकर, स्थानीय सरकार, सम्प्रभुत्वपूर्ण राज्य या अन्तराष्ट्रीय स्तर पर। राजनीति का इतिहास अति प्राचीन है जिसका विवरण विश्व के सबसे प्राचीन सनातन धर्म ग्रन्थों में देखनें को मिलता है । राजनीति कि शुरुआत रामायण काल से भी अति प्राचीन है। महाभारत महाकाव्य में इसका सर्वाधिक विवरण देखने को मिलता है । चाहे वह चक्रव्यूह रचना हो या चौसर खेल में पाण्डवों को हराने कि राजनीति । अरस्तु को राजनीति का जनक कहा जाता है। आम तौर पर देखा गया है कि लोग राजनीति के विषय में नकारात्मक विचार रखते हैं , यह दुर्भाग्यपूर्ण है ,हमें समझने की आवश्यकता है कि राजनीति किसी भी समाज का अविभाज्य अंग है ।महात्मा गांधी ने एक बार टिप्पणी की थी कि राजनीति ने हमें सांप की कुंडली की तरह जकड़ रखा है और इससे जूझने के सिवाय कोई अन्य रास्ता नहीं है ।राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढांचे के बिना कोई भी समाज जीवित नहीं रह सकता । थे क्विक ब्राउन फॉक्स जम्प्स ओवर थे लैज़ी डॉग राजनेता (अंग्रेजी: स्टेट्समन) उस व्यक्ति को कहते हैं जो मूलत: राजनीतिक दर्शन के आधार पर राजनीति के क्षेत्र में कभी भी नीतिगत सिद्धान्तों से समझौता नहीं करता। उदाहरण के लिए लाल बहादुर शास्त्री। राजनीतिशास्त्र की परम्परा भारतीय साहित्य में राजनीति-विषयक ग्रन्थों के निर्माण की परम्परा बहुत प्राचीन है। कल्पसूत्र उसके आदि स्रोत हैं, जिनका निर्माण लगभग ७०० ई० पूर्व में हो चुका था। धर्म और अर्थ के साथ राजनीति की विस्तृत चर्चाएँ धर्मसूत्रों, विशेषरूप से बौधायन धर्मसूत्र में देखने को मिलती हैं। इस दृष्टि से बौद्ध जातकों के सन्दर्भ भी महत्त्वपूर्ण हैं, जिनकी रचना तथागत से पहले लगभग ६००ई० पूर्व में मानी जाती है। जातकों में अर्थ के अन्तर्गत ही राजनीति का समन्वय किया गया है और उसे प्रमुख विज्ञान के रूप में माना गया है। राजनीति-विषयक बातों की विस्तृत चर्चा 'महाभारत' ( ५०० ई० पूर्व) में देखने को मिलती है । 'महाभारत' के शान्तिपर्व ( अध्याय ५८, ५९ ) में इस परम्परा के प्राचीन आचार्यों का उल्लेख हुआ है। उनमें प्रजापति के 'राजशास्त्र' का भी उल्लेख हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि राजनीति को एक प्रमुख विषय के रूप में माना जाने लगा था। कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' ( ३०० ई० पूर्व) इस विषय का प्रौढ़ ग्रन्थ है। उसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजनीति को एक स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई थी। राजनीति पर लिखा गया आचार्य उशनस् का 'दण्डनीतिशास्त्र' सम्भवतः इस परम्परा का ग्रन्थ था, जिसका उल्लेख विशाखदत्त के 'मुद्राराक्षस' (१७ ) में देखने को मिलता है। उसके बाद लगभग चौथी शती ई० तक धर्म और अर्थ विषय पर लिखे गये ग्रन्थों में राजनीति की विस्तृत चर्चाएं देखने को मिलती हैं। धर्म और अर्थ का प्रमुख अङ्ग होने के कारण राजनीति का महत्त्व सभी धर्मवक्ताओं एवं अर्थशास्त्रियों ने स्वीकार किया। राजनीति पर एक सर्वाङ्गीण बृहद् ग्रन्थ की रचना आचार्य शुक्र ने की थी, जिसको कि 'शुक्रनीतिसार' के नाम से कहा जाता है। इस ग्रन्थ का उल्लेख मध्ययुगीन स्मृतिकारों ने किया है। अनेक ग्रन्थों में उसके उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। 'राजनीति-रत्नाकर' में भी उसके अंश उद्धृत हैं। आचार्य शुक्र के राजनीति-विषयक ग्रन्थ के आधार पर ४०० ई० के लगभग आचार्य कामन्दक ने 'नीतिसार' के नाम से एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की। विद्वानों का अभिमत है कि कामन्दकीय 'नीतिसार' भी अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। सम्प्रति उसका जो रूप उपलब्ध है, वह १७ वीं श० ई० का पुनः संस्करण है। राजनीति-विषयक चर्चाओं की दृष्टि से पुराणों का विशेष महत्त्व है। 'अग्निपुराण' और 'मत्स्यपुराण' इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों पुराणों के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि वे अपने पूर्ववर्ती राजनीति-विषयक ग्रन्थों की प्रौढ़ परम्परा के सूचक हैं। इन पुराणों की रचना ५वीं से ७वीं श० ई. के बीच मानी जाती है। इस परम्परा में आचार्य बृहस्पति के 'अर्थशास्त्र' और सोमदेव के 'नीतिवाक्यामृत' का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। बृहस्पति का 'अर्थशास्त्र' अपने मूल रूप में बहुत प्राचीन है, किन्तु जिस रूप में आज वह उपलब्ध है उसे ९वीं-१०वीं श० ई० का पुनः संस्करण बताया जाता है। 'नीतिवाक्यामृत' को भी इसी समय की रचना माना जाता है। उसके रचनाकार सोमदेव 'कथासरित्सागर' के रचयिता से भिन्न थे। ऐसा प्रतीत होता है कि १०वीं श० ई. के बाद विद्वानों का ध्यान राजनीति विषय की ओर विशेष रूप से केन्द्रित हुआ। इस सन्दर्भ में जैनाचार्य हेमचन्द्र ( १२ वीं श०) का 'लघ्वर्हनीति' और धारानरेश भोज (१२ वीं श०) का 'युक्तिकल्पतरु' का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। १४वीं से १८वीं श० ई० के बीच इस विषय पर जिन महत्त्वपूर्ण कृतियों का निर्माण हुआ उनमें 'राजनीति रत्नाकर', 'राजनीति कल्पतरु', 'राजनीति कामधेनु', 'वीरमित्रोदय' और 'राजनीति मयूख' का नाम उल्लेखनीय है। प्रथम तीन ग्रन्थों के निर्माता चण्डेश्वर या चन्द्रशेखर और अन्त के दोनों ग्रन्थों के निर्माता क्रमशः मित्रमिश्र और नीलकण्ठ हैं। इन्हें भी देखें
वर्धा (वर्धा) भारत के महाराष्ट्र राज्य के वर्धा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और इसका नाम वर्धा नदी पर पड़ा है। वर्धा इन्द्र देवता की नगरी के रूप में विख्यात है और इसे इन्द्रपुरी भी कहते हैं। हिंगणघाट तथा पुलगाँव में सूती वस्त्र की मिलें हैं। यह मराठी भाषाभाषी जिला है। वर्धा नगर नागपुर से ५० मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित यह नगर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आश्रम के कारण प्रसिद्ध है। यह नगर वर्धा जिले का मुख्यालय है। वर्धा नदी मध्य प्रदेश राज्य के मध्य सतपुड़ा पर्वतश्रेणी से नागपुर नगर से ७० मील उत्तर-पश्चिम से निकलती है। मुख्यत: दक्षिण-पूर्व दिशा में यह महाराष्ट्र राज्य से होकर महाराष्ट्र-आंध्र प्रदेश सीमा पर, चाँदा जिले (महाराष्ट्र राज्य) के सिवनी स्थान पर, वेनगंगा नदी से मिलती है। इन दोनों के संगम के बाद नदी का नाम प्राणहिता हो जाता है, जो गोदावरी नदी की सहायक नदी है। वर्धा नदी की मुख्य सहायक नदी पेनगंगा है। यह नदी एक कपास उत्पादक क्षेत्र के मध्य से बहती है। वर्धा नदी की कुल लंबाई २९० मील है। वर्धा नगर स्थित प्रमुख संस्थाएँ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय कस्तूरबा स्वास्थ्य समिति इन्हें भी देखें वर्धा : महात्मा गांधी और विनोबा भावे की कर्मभूमि] (यात्रा सलाह) वर्धा मे लभबग ७ किलोमिटर दुरी पर सेवाग्राम है वह गांधी जी के कुछ याद गार बाते जुडी हुई है! महाराष्ट्र के शहर वर्धा ज़िले के नगर
तृणमूल कांग्रेस (बंगाली: ) मुख्यतः पश्चिम बंगाल में सक्रिय एक भारतीय राजनैतिक दल है। इस दल का जन्म भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से विघटन होकर हुआ। इस दल की नेता ममता बनर्जी है। सर्वभारतीय तृणमूल कांग्रेस (संक्षेप में एआईटीसी, टीएमसी या तृणमूल कांग्रेस) पश्चिम बंगाल में स्थित एक भारतीय राजनैतिक दल है। १ जनवरी १998 को स्थापित, पार्टी का नेतृत्व इसके संस्थापक और पश्चिम बंगाल के मौजूदा मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने किया। २००९ के आम चुनाव से पहले यह १9 सीटों के साथ लोकसभा में छठी सबसे बड़ी पार्टी थी; 20१9 के आम चुनाव के बाद, वर्तमान में यह लोकसभा में चौथी सबसे बड़ी पार्टी है जिसमें २२ सीटें हैं। यह दल तृणमूल का प्रकाशन करता है। इस दल का युवा संगठन तृणमूल यूथ कांग्रेस है। २६ वर्षों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य होने के बाद, ममता बनर्जी ने बंगाल की अपनी पार्टी बनाई, तृणमूल कांग्रेस, जो दिसम्बर १९९९ के मध्य के दौरान भारत के निर्वाचन आयोग के साथ पंजीकृत थी। चुनाव आयोग को आवण्टित किया गया पार्टी जोरा घास फुल का एक विशेष प्रतीक है। २ सितम्बर २016 को चुनाव आयोग ने एआईटीसी को राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता दी। दिसम्बर २००६ में, नन्दीग्राम के लोगों को हल्दिया विकास प्राधिकरण ने नोटिस दिया था कि नन्दीग्राम का बड़ा हिस्सा जब्त कर लिया जाएगा और ७०,००० लोगों को उनके घरों से निकाल दिया जाएगा। लोगों ने इस भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया और तृणमूल कांग्रेस ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। भूमि उछाल और बेदखल के खिलाफ भूमि उचचेड प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) का गठन किया गया था। १४ मार्च २००७ को पुलिस ने फायरिंग खोला और १४ ग्रामीणों की हत्या कर दी। बहुत से गायब हो गए। कई सूत्रों ने दावा किया कि सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में समर्थन दिया था, जिसमें सशस्त्र सीपीएम कार्यकर्ताओं ने पुलिस के साथ नन्दीग्राम में प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की थी। सड़कों पर बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों ने विरोध किया और इस घटना ने एक नए आन्दोलन को जन्म दिया। एसयूसीआई (सी) नेता नन्दा पत्र (तमलुक के एक स्कूल शिक्षक) ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। २००९ के लोकसभा चुनाव में, तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में १९ सीटें जीतीं। २०१० कोलकाता नगरपालिका चुनाव में, पार्टी ने १४१ सीटों में से ९७ सीटें जीतीं। यह अन्य नगर पालिकाओं के बहुमत भी जीता। त्रिपुरा में तृणमूल विपक्ष के पूर्व नेता और फिर त्रिपुरा के विधायक सुदीप रॉय बरमान के नेतृत्व में, कई पूर्व मन्त्रियों, विधायी विधानसभा के पूर्व सदस्यों, वरिष्ठ राज्य और जिला नेताओं के साथ-साथ हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों के साथ मिलकर ६ विधायकों को शामिल किया गया। त्रिपुरा में कम्युनिस्टों से लड़ने के लिए एआईटीसी त्रिपुरा प्रदेश त्रिपुरा कांग्रेस त्रिपुरा में मा मती मनुश सरकार की स्थापना के लिए त्रिपुरा में काम कर रही है। लेकिन हाल ही में, वरिष्ठ राज्य के नेताओं और पार्टी के केंद्रीय नेताओं दोनों के नेतृत्व में अक्षमता और लापरवाही के कारण, त्रिनुम त्रिपुरा में राजनीतिक अपरिहार्यता की ओर तेजी से आ रहा है। हर रोज सैकड़ों और हजारों पार्टी कार्यकर्ता और नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, अधिकतर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं जो राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभरा है। राज्य के तृणमूल के वरिष्ठ नेताओं में से ५ बार विधान सभा के पूर्व सदस्य, पूर्व मंत्री और पूर्व राष्ट्रपति तृणमूल कांग्रेस सूरजित दत्ता, विधान सभा के ३ गुना पूर्व सदस्य, पूर्व मन्त्री और उपराष्ट्रपति तृणमूल कांग्रेस प्रकाश चन्द्र दास , विधान सभा के पूर्व सदस्य, पूर्व मन्त्री और पूर्व अध्यक्ष तृणमूल कांग्रेस रतन चक्रवर्ती, विधानसभा के पूर्व सदस्य, उप सभापति, उपराष्ट्रपति और राज्य इकाई के एसटी चेहरे गौरी शंकर रेंग और कई अन्य वरिष्ठ राज्य स्तर के नेताओं जिला और ब्लॉक स्तर के नेताओं और हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं ने पार्टी छोड़ दी है और पिछले कुछ महीनों में भारतीय जनता पार्टी में केन्द्रीय नेतृत्व से समर्थन की कमी से निराश होने के बाद शामिल हो गए हैं। मणिपुर में तृणमूल मणिपुर के २०१२ के विधानसभा चुनावों में, टीएमसी ने ८ सीटें जीतीं, कुल मतों में से १०% और मणिपुर विधानसभा में एकमात्र विपक्षी पार्टी बन गई। २०१७ के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने बिष्णुपुर से केवल एक सीट जीती और चुनाव में कुल मतों में से ५.४% मतदान किया। यह विधान सभा के अकेले सदस्य हैं। रॉबिन्द्र सिंह ने मणिपुर में सरकार बनाने में भारतीय जनता पार्टी का समर्थन किया। केरल और मध्यप्रदेश मे तृणमूल २०१२ से केरल में राज्य इकाई है। पार्टी २०१४ लोकसभा चुनाव और २०१६ विधानसभा चुनाव में लड़ी। विधानसभा चुनाव में तकनीकी मुद्दों के कारण उम्मीदवारों को पार्टी के प्रतीक के बिना चुनाव लड़ना पड़ गया था। २०१६ से श्री सुरेश वेलयुद्धन (पलक्कड़) केरल में पार्टी के महासचिव के रूप में अग्रणी हैं। एड जोस कुट्टीयानी पूर्व एमएमए को राज्य अध्यक्ष और श्री शमशु पेनिंगल को राज्य कोषाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया है। श्री डेरेक ओ'ब्रायन एमपी (राज्यसभा) राज्य के पर्यवेक्षक हैं। २०११ के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में, तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबन्धन जिसमें आईएनसी और एसयूसीआई (सी) शामिल थे, ने २९४ सीट विधायिका में २२७ सीटें जीतीं। अकेले तृणमूल कांग्रेस ने १८४ सीटें जीतीं, जिससे गठबन्धन के बिना इसे नियन्त्रित किया जा सके। इसके बाद, उन्होंने बशीरघाट में उप-चुनाव जीता और दो कांग्रेस विधायकों ने टीएमसी को बदल दिया, जिससे कुल १८७ सीटों पर पहुँचा दिया। अब दल को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिला है, त्रिपुरा, असम, मणिपुर, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, सिक्किम, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश में इसका आधार बढ़ा रहा है। केरल में, २०१४ के आम चुनावों में पार्टी ने पाँच सीटों पर चुनाव लड़ा था। १८ सितम्बर २०१२ को, टीएमसी मुख्य, ममता बनर्जी ने खुदरा क्षेत्र में एफ़डीआई समेत सरकार द्वारा स्थापित परिवर्तनों को पूर्ववत करने, डीजल की कीमत में वृद्धि और सब्सिडी वाले खाना पकाने गैस सिलेण्डरों की संख्या सीमित करने की माँग की। १९९८ के लोकसभा चुनावों में, टीएमसी ने ८ सीटें जीतीं। १९९९ में हुए अगले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने बीजेपी के साथ ८ सीटें जीतीं, इस प्रकार एक-एक करके अपने तालमेल में वृद्धि हुई। २००० में, टीएमसी ने कोलकाता नगर निगम चुनाव जीता। २००१ के विधानसभा चुनावों में, टीएमसी ने कांग्रेस (आई) के साथ ६० सीटें जीतीं। २००४ के लोकसभा चुनावों में, टीएमसी ने बीजेपी के साथ १ सीट जीती। २००६ के विधानसभा चुनावों में, टीएमसी ने बीजेपी के साथ ३० सीटें जीतीं। २०११ के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में, टीएमसी ने १८४ सीटों में से अधिकांश (२९४ में से) जीते। ममता बनर्जी मुख्यमन्त्री बने। निम्नलिखित २०१६ में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में, टीएमसी ने अपना बहुमत बरकरार रखा और २११ सीटों (२९४ में से) जीती। मा मती मनुष (बंगाली: मत्स्यती) मुख्य रूप से एक नारा था, जिसे अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और वर्तमान मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने बनाया था। शब्द का शाब्दिक रूप से "माँ, मातृभूमि और लोग" के रूप में अनुवाद किया जाता है। २०११ के विधानसभा चुनाव के समय पश्चिम बंगाल में नारा बहुत लोकप्रिय हो गया। बाद में, ममता बनर्जी ने एक ही शीर्षक के साथ एक बंगाली पुस्तक लिखी। [१६] थीम को महिमा देने के लिए एक ही शीर्षक के साथ एक गीत भी दर्ज किया गया था। जून २०११ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वह उस समय भारत में छः सबसे लोकप्रिय राजनीतिक नारे में से एक था। [१७] चुनाव आयोग द्वारा पार्टी की स्थिति संपादित करें भारतीय आम चुनावों के बाद, २०१४, एआईटीसी की राष्ट्रीय पार्टी की स्थिति है, क्योंकि एआईटीसी को पाँच अलग-अलग राज्यों से ६% वोट मिला है। (पश्चिम बंगाल, मणिपुर, त्रिपुरा, झारखण्ड, असम)। पार्टी का उच्चतम निर्णय लेने वाला निकाय इसकी कोर कमेटी है। ममता बनर्जी - संस्थापक [१९], राष्ट्रीय राष्ट्रपति और अध्यक्ष, पश्चिम बंगाल विधान सभा में पार्टी के नेता सुब्रत बक्षी - महासचिव डेरेक ओ'ब्रायन - राज्यसभा में पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और नेता पार्थ चटर्जी - महासचिव सुदीप बांंडोपाध्याय - लोकसभा में पार्टी के नेता सौगाता राय - लोकसभा में पार्टी के उप नेता कल्याण बनर्जी - संसद में पार्टी की मुख्य चाबुक भारत के राजनीतिक दल
साबूदाना एक खाद्य पदार्थ है। यह छोटे-छोटे मोती की तरह सफ़ेद और गोल होते हैं।भारत मे यह कसावा/टेपियोका की जडों से व अन्य अफ्रीकी देशों मे सैगो पाम नामक पेड़ के तने के गूदे से बनता है। सागो, ताड़ की तरह का एक पौधा होता है। ये मूलरूप से पूर्वी अफ़्रीका का पौधा है। पकने के बाद यह अपादर्शी से हल्का पारदर्शी, नर्म और स्पंजी हो जाता है। भारत में साबूदाना केवल टेपियोका की जड से बनाया जाता है, जिसे "कसावा" व मलयालम मे "कप्पा" कहते हैं। भारत में साबूदाने का उपयोग अधिकतर पापड़, खीर और खिचड़ी बनाने में होता है। सूप और अन्य चीज़ों को गाढ़ा करने के लिये भी इसका उपयोग होता है। महाराष्ट्र में जब लोग उपवास करते हैं, तब उपवास के दौरान साबूदाने को बनाकर खाते हैं| भारत में साबूदाने का उत्पादन सबसे पहले तमिलनाडु के सेलम में हुआ था। लगभग १९४३-४४ में भारत में इसका उत्पादन एक कुटीर उद्योग के रूप में हुआ था। इसमें पहले टैपियाका की जड़ों को कूट कर उसके दूध को छानकर उसे जमने देते थे। फिर उसकी छोटी छोटी गोलियां बनाकर सेंक लेते थे। टैपियाका के उत्पादन में भारत अग्रिम देशों में है। लगभग ७०० इकाइयाँ सेलम में स्थित हैं। साबूदाना में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है और इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है। साबूदाना की कई किस्में बाजार में उपलब्ध हैं उनके बनाने की गुणवत्ता अलग होने पर उनके नाम बदल और गुण बदल जाते हैं अन्यथा ये एक ही प्रकार का होता है, आरारोट भी इसी का एक उत्पाद है। साबुदाना टेपिओका-सागो एक संसाधित, पकाने के लिये तैयार, खाद्य उत्पाद है। साबुदाना के निर्माण के लिए एक ही कच्चा माल है "टैपिओका रूट" जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर "कसावा" के रूप में जाना जाता है। शिशुओं और बीमार व्यक्तियों के लिए या उपवास (व्रता-उपावस) के दौरान, साबुदाना पोषण का एक स्वीकार्य रूप माना जाता है। यह कइ तरह से (मीठे दूध के साथ उबाली हुइ "खीर") या खिचडी, वड़ा, बोंडा (आलू, सींगदाना, सेंधा-नमक, काली मिर्च या हरी मिर्च के साथ मिश्रित) आदि या डेसर्ट के रूप में व्यंजनों की एक किस्म में प्रयोग किया जाता है। साबुदाना, टैपिओका-रूट (कसावा) से तैयार किया गया एक उत्पादन है, जिसका वानस्पतिक नाम "मनिहोत एस्कुलेंटा क्रेंज पर्याय यूटिलिसीमा " है। यह साबुदाना] से अत्यधिक मिलता-जुलता है। दोनों आम तौर पर छोटे (लगभग २ मिमी व्यास) सूखे, अपारदर्शी दाने के रूप में होते हैं। दोनों (बहुत शुद्ध हो तो) सफेद रंग में होते हैं। जब भिगोया और पकाया जाता है, तब दोनों नरम और स्पंजी, बहुत बड़े पारदर्शी दाने बन जाते हैं। दोनों का व्यापक रूप से दुनिया भर में आम तौर पर पुडिंग बनाने में उपयोग किया जाता है। तकरीबन आम तौर पर भारत में हिंदी में साबुदाना; , बंगाली में 'टेपिओका ग्लोब्यूले' या 'सागु' या ; गुजराती में 'सबुदाना' ; और मराठी में साबुदाना;', तमिल में 'जाव्वरिसी' ; , मलयालम में 'कप्पा सागु' ; कन्नड़ में 'सब्बक्की' ; तेलुगु में 'सग्गुबियम' ; ऊर्दु में 'सगुदान-' ; कहा जाता है। कइ जगह इसे 'टैपिओका साबुदाना' या 'टैपिओका ग्लोबुल्स' के नाम से भी जाना जाता है। टैपिओका] और 'टैपिओका-रूट (कास्सवा कसावा )] ' के अलग अलग अर्थ हैं। "टैपिओका" कसावा (मनिहोत एस्कुलेंटा) से निकाला जाने वाला एक उत्पाद है। कसावा स्टार्च को टैपिओका कहा जाता है। यह "टूपी" शब्द जिसे पुर्तगाली शब्द टिपी'का से लिया गया, से निकला है॥ जिसका अर्थ कसावा स्टार्च से बनाये गये खाद्य की प्रक्रिया को दर्शाता है। भारत में, शब्द "टैपिओका-रूट" कसावा कंद के लिये ही उपयोग किया जाता है और शब्द 'टैपिओका' कसावा से निकाली गई एक विशेष आकार में भुनी हुइ या सेंकी हुइ स्टार्च के लिए प्रतिनिधित्व करता है। कसावा या मानियक पौधे का मूल आरम्भ दक्षिण अमेरिका में हूआ। अमेजन निवासियों ने चावल / आलू / मक्का के साथ या इसके अलावा भी कसावा का इस्तेमाल किया। पुर्तगाली खोजकर्ताओं ने अफ्रीकी तटों और आसपास के द्वीपों के साथ अपने व्यापार के माध्यम से अफ्रीका में कसावा की शुरुआत की। टैपिओका-रूट साबुदाना और स्टार्च के लिए बुनियादी कच्चा माल है। टैपिओका १९ वीं सदी के बाद के हिस्से के दौरान भारत में आया था। १९40 के दशक में मुख्य रूप से केरल , आंध्रप्रदेश, और तमिलनाडु राज्यों में इसकी वृद्धि हुई, जब टैपिओका से उत्पादित स्टार्च और साबूदाने के तरीके भारत में आरम्भ हुए। सबसे पहले हाथ से मैन्युअल रूप से और बाद में स्वदेशी उत्पादन के तरीकों से इसका डिकास हुआ। यह कार्बोहाइड्रेट और कैल्शियम और विटामिन-सी की पर्याप्त राशि वाला एक बहुत ही पौष्टिक उत्पाद है। भारत में १९43-४४ में सबसे पहले साबुदाना उत्पादन, अत्यन्त छोटे पैमाने पर, टैपिओका की जड़ों से दूध निकाल कर, छान कर और, दाने बना कर एक कुटीर-उद्योग के रूप में शुरू हुआ। भारत में, साबुदाना पहली बार तमिलनाडु राज्य के सेलम में तैयार किया गया ॥ भारतीय टैपिओका-रूट में आम तौर ३०% से ३५% स्टार्च सामग्री है। वर्तमान में भारत टैपिओका-रुट की पैदावार में अग्रणी देशों में से एक है। करीब ६५०-७०० इकाइयाँ तमिलनाडु राज्य के सेलम जिले में टैपिओका प्रसंस्करण में लगी हुई है। तमिलनाडु के टैपिओका साबुदाना और टैपिओका स्टार्च उद्योग, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सिंगापुर, मलेशिया, हॉलैंड, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका से विदेशी साबुदाना और स्टार्च के आयात की निषेधआज्ञा से उपजी कमी का परिणाम है। सेलम के मछली व्यापारी श्री मनिक्क्कम चेट्टियार अपने व्यापार के सिलसिले में बहुत बार सेलम से केरल जाते रहते थे। उनकी मुलाकात पेनांग (मलेशिया) से आकर केरल में बसे श्री पोपटलाल जी शाह से हुइ, जिन्हे टैपिओका स्टार्च निर्माण का ज्ञान था। वर्ष १९४३ में, सेलम से इन दोनों ने बहुत छोटे कुटीर उद्योग रूप में टैपिओका स्टार्च और साबुदाना आदिम तरीकों से निर्माण प्रारम्भ किया। साबुदाना और स्टार्च के लिए दैनिक बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए, एक प्रतिभाशाली मैकेनिक श्री एम वेंकटचलम गौंदर की मदद से उत्पादन की मशीनरी और तरीकों में सुधार हुआ। परिणामस्वरूप उद्योग की उत्पादन क्षमता प्रति दिन १०० किलो के २ थैलों से बढ कर २5 थैले हो गई। १९४४ में पूरे देश में एक गंभीर अकाल पडा। चूँकि साबुदाना एक खाद्य-पदार्थ माना गया, अत: सेलम कलेक्टर ने सेलम से बाहर बेचने पर रोक लगा दी। सेलम साबुदाना और स्टार्च निर्माताओं ने एक संघ का गठन कर नागरिक आपूर्ति आयुक्त के समक्ष इस मामले का प्रतिनिधित्व किया और जिला कलेक्टर के निषेधात्मक आदेश को रद्द करवाया। १९४५ से साबुदाना और टैपिओका स्टार्च के उत्पादन में प्रशंसनीय वृद्धि हुई। साबूदाने की खिचड़ी साबूदाने का खीर उपवास के पकवान फलाहार नवरात्रि में साबूदाने की खिचड़ी खाने से पहले सोचें.. निशामधुलिका पर साबूदाना की पाकविधियां 'साबुदाना "से जुड़े अन्य पोस्ट:
सु डोकु (सुडोकु या सू डोकु) एक खेल है जो वर्ग पहेली या शतरंज की पहेलियों की तरह अखबार में छपता है। एक शाब्दिक वर्ग पहेली की तरह इस में एक वर्ग के अन्दर ९क्स९ के (या ६क्स६) खाने बने होते हैं। इस खेल का उद्देश्य होता है एक पंक्ति या स्तंभ (आड़ी या खड़ी लाइन) में १ से ९ तक के अंकों को इस तरह भरना कि कोई अंक एक पंक्ति में दुबारा ना आये और ना ही ३क्स३ के वर्ग में ही। जापानी में सु डोकु का अर्थ होता है "अकेला अंक"। इस खेल का आकर्षण यह है कि इस खेल के नियम बहुत आसान होने पर भी इसे पूरा करना मुश्किल होता है। आमतौर पर ९क्स९ के खानों में कुछ अंक पहले से ही दिये होते हैं। खेलने वाले का काम है बाकी खाली खानों को भरना, इस तरह से कि कोई अंक एक पंक्ति या ३क्स३ के खानों में दुबारा ना आये। सबसे पहले सु डोकु १९७० में न्यु यार्क में प्रकशित हुआ था। यह पहेली १९८४ में जापान में निकोली अखबार में शुरू हुई। २००५ में यह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो गयी। भारत में भी कई अखबारों में इसका प्रकाशन शुरू हो गया है।
कन्नड () भारत के कर्नाटक राज्य में बोली जानेवाली भाषा तथा कर्नाटक की राजभाषा है। यह भारत की उन २२ भाषाओं में से एक है जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में साम्मिलित हैं। यह भारत की सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में से एक है। ४.५० करोड़ लोग कन्नड भाषा प्रयोग करते हैं। एन्कार्टा के अनुसार, विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली ३० भाषाओं की सूची में कन्नड २७वें स्थान पर आती है। यह द्रविड़ भाषा-परिवार में आती है पर इसमें संस्कृत के भी बहुत से शब्द हैं। कन्नड़ भाषी लोग इसको 'सिरिगन्नड' कहते हैं। कन्नड़ भाषा का अस्तित्व कोई २५०० वर्ष पूर्व से है तथा कन्नड़ लिपि का प्रयोग कोई १९०० वर्ष से हो रहा है। कन्नड अन्य द्रविड़ भाषाओं की तरह है और तेलुगु, तमिल और मलयालम इस भाषा से मिलली-जुलती हैं। कन्नड़ संस्कृत भाषा से बहुत प्रभावित है और संस्कृत के बहुत सारे शब्द कन्नड में भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। भारत सरकार ने कन्नड को भी भारत की एक शास्त्रीय भाषा (क्लासीकल लैंगवेज) घोषित किया है। 'कन्नड' तथा 'कर्नाटक' शब्दों की व्युत्पत्ति कन्नड तथा कर्नाटक शब्दों की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं। यदि किसी विद्वान का यह मत है कि "कंरिदुअनाडु" अर्थात् "काली मिट्टी का देश" से कन्नड शब्द बना है तो दूसरे विद्वान के अनुसार "कपितु नाडु" अर्थात् "सुगन्धित देश" से "कन्नाडु" और "कन्नाडु" से "कन्नड" की व्युत्पत्ति हुई है। कन्नड़ साहित्य के इतिहासकार आर॰ नरसिंहाचार ने इस मत को स्वीकार किया है। कुछ वैयाकरणों का कथन है कि कन्नड़ संस्कृत शब्द "कर्नाट" का तद्भव रूप है। यह भी कहा जाता है कि "कर्णयो अटति इति कर्नाटका" अर्थात जो कानों में गूँजता है वह कर्नाटक है। प्राचीन ग्रन्थों में कन्नड़, कर्नाट, कर्नाटक शब्द समानार्थ में प्रयुक्त हुए हैं। महाभारत में कर्नाट शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है (कर्नाटकाश्च कुटाश्च पद्मजाला: सतीनरा:, सभापर्व, ७८, ९४; कर्नाटका महिषिका विकल्पा मूषकास्तथा, भीष्मपर्व ५८-५९)। दूसरी शताब्दी में लिखे हुए तमिल "शिलप्पदिकारम्" नामक काव्य में कन्नड़ भाषा बोलनेवालों का नाम "करुनाडर" बताया गया है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता, सोमदेव के कथासरित्सागर, गुणाढ्य की पैशाची "बृहत्कथा" आदि ग्रंथों में भी कर्नाट शब्द का बराबर उल्लेख मिलता है। 'कर्नाटक' शब्द अंग्रेजी में विकृत होकर कर्नाटिक (कर्नेटिक) अथवा केनरा (कनारा), फिर केनरा से केनारीज़ (कनार) बन गया है। उत्तरी भारत की हिंदी तथा अन्य भाषाओं में कन्नड़ शब्द के लिए कनाडी, कन्नड़ी, केनारा, कनारी का प्रयोग मिलता है। आजकल कर्नाटक तथा कन्नड़ शब्दों का निश्चित अर्थ में प्रयोग होता है कर्नाटक प्रदेश का नाम है और "कन्नड" भाषा का। कन्नड भाषा तथा लिपि द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाएँ पंचद्राविड़ भाषाएँ कहलाती हैं। किसी समय इन पंचद्राविड भाषाओं में कन्नड, तमिल, तेलुगु, गुजराती तथा मराठी भाषाएँ सम्मिलित थीं। किन्तु आजकल पंचद्राविड़ भाषाओं के अन्तर्गत कन्नड, तमिल, तेलुगु, मलयालम तथा तुलु मानी जाती हैं। वस्तुत: तुलु कन्नड की ही एक पुष्ट बोली है जो दक्षिण कन्नड जिले में बोली जाती है। तुलु के अतिरिक्त कन्नड की अन्य बोलियाँ हैंकोडगु, तोड, कोट तथा बडग। कोडगु कुर्ग में बोली जाती है और बाकी तीनों का नीलगिरि जिले में प्रचलन है। नीलगिरि जिला तमिलनाडु राज्य के अन्तर्गत है। रामायण-महाभारत-काल में भी कन्नड बोली जाती थी, तो भी ईसा के पूर्व कन्नड का कोई लिखित रूप नहीं मिलता। प्रारम्भिक कन्नड का लिखित रूप शिलालेखों में मिलता है। इन शिलालेखों में हल्मिडि नामक स्थान से प्राप्त शिलालेख सबसे प्राचीन है, जिसका रचनाकाल ४५० ई. है। सातवीं शताब्दी में लिखे गये शिलालेखों में बादामि और श्रवण बेलगोल के शिलालेख महत्वपूर्ण हैं। प्राय: आठवीं शताब्दी के पूर्व के शिलालेखों में गद्य का ही प्रयोग हुआ है और उसके बाद के शिलालेखों में काव्यलक्षणों से युक्त पद्य के उत्तम नमूने प्राप्त होते हैं। इन शिलालेखों की भाषा जहाँ सुगठित तथा प्रौढ़ है वहाँ उसपर संस्कृत का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। इस प्रकार यद्यपि आठवी शताब्दी तक के शिलालेखों के आधार पर कन्नड में गद्य-पद्य-रचना का प्रमाण मिलता है तो भी कन्नड के उपलब्ध सर्वप्रथम ग्रन्थ का नाम "कविराजमार्ग" के उपरान्त कन्नड में ग्रन्थनिर्माण का कार्य उत्तरोत्तर बढ़ा और भाषा निरन्तर विकसित होती गई। कन्नड़ भाषा के विकासक्रम की चार अवस्थाएँ मानी गयी हैं। जो इस प्रकार है : अतिप्राचीन कन्नड (आठवीं शताब्दी के अन्त तक की अवस्था), हळ कन्नड (प्राचीन कन्नड) (९वीं शताब्दी के आरम्भ से १२वीं शताब्दी के मध्य-काल तक की अवस्था), नडु गन्नड (मध्ययुगीन कन्नड़) (१२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक की अवस्था) और होस गन्नड (आधुनिक कन्नड़) (१९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अब तक की अवस्था)। चारों द्राविड भाषाओं की अपनी पृथक-पृथक लिपियाँ हैं। डॉ॰ एम॰एच॰ कृष्ण के अनुसार इन चारों लिपियों का विकास प्राचीन अंशकालीन ब्राह्मी लिपि की दक्षिणी शाखा से हुआ है। बनावट की दृष्टि से कन्नड और तेलुगु में तथा तमिल और मलयालम में साम्य है। १३वीं शताब्दी के पूर्व लिखे गये तेलुगु शिलालेखों के आधार पर यह बताया जाता है कि प्राचीन काल में तेलुगु और कन्नड की लिपियाँ एक ही थी। वर्तमान कन्नड की लिपि बनावट की दृष्टि से देवनागरी लिपि से भिन्न दिखायी देती हैं, किन्तु दोनों के ध्वनिसमूह में अधिक अन्तर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि कन्नड में स्वरों के अन्तर्गत "ए" और "ओ" के ह्रस्व रूप तथा व्यंजनों के अन्तर्गत वत्स्य "ल" के साथ-साथ मूर्धन्य "ल" वर्ण भी पाये जाते हैं। प्राचीन कन्नड में "र" और "ळ" प्रत्येक के एक-एक मूर्धन्य रूप का प्रचलन था, किन्तु आधुनिक कन्नड में इन दोनों वर्णो का प्रयोग लुप्त हो गया है। बाकी ध्वनिसमूह संस्कृत के समान है। कन्नड की वर्णमाला में कुल ४७ वर्ण हैं। आजकल इनकी संख्या बावन तक बढ़ा दी गयी है। इन्हें भी देखें कन्नड़-हिन्दी शब्दकोश (हिन्दी विक्षनरी) हिन्दी-कन्नड-अंग्रेजी शब्दकोश (हिन्दी विक्षनरी) हिन्दी बुकएट२०२२.पफ कन्नड-हिन्दी वार्तालाप पुस्तिका (रेल पहिया कारखाना)
भारतीय संगीत प्राचीन काल से भारत मे सुना और विकसित होता संगीत है। इस संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से भी पूर्व का है। इस संगीत का मूल स्रोत वेदों को माना जाता है। हिंदु परंपरा मे ऐसा मानना है कि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। पंडित शारंगदेव कृत "संगीत रत्नाकर" ग्रंथ मे भारतीय संगीत की परिभाषा "गीतम, वादयम् तथा नृत्यं त्रयम संगीतमुच्यते" कहा गया है। गायन, वाद्य वादन एवम् नृत्य; तीनों कलाओं का समावेश संगीत शब्द में माना गया है। तीनो स्वतंत्र कला होते हुए भी एक दूसरे की पूरक है। भारतीय संगीत की दो प्रकार प्रचलित है; प्रथम कर्नाटक संगीत, जो दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित है और हिन्दुस्तानी संगीत शेष भारत में लोकप्रिय है। भारतवर्ष की सारी सभ्यताओं में संगीत का बड़ा महत्व रहा है। धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं में संगीत का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है। इस रूप में, संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा मानी जाती है। वैदिक काल में अध्यात्मिक संगीत को मार्गी तथा लोक संगीत को 'देशी' कहा जाता था। कालांतर में यही शास्त्रीय और लोक संगीत के रूप में दिखता है। वैदिक काल में सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या सामगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरू-शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। भारतीय संगीत के सात स्वर भारतीय संगीत में सात शुद्ध स्वर है। शुद्ध स्वर से उपर या नीचे विकृत स्वर आते है। सा और प के कोई विकृत स्वर नही होते। रे, ग, ध और नी के विकृत स्वर नीचे होते है और उन्हे कोमल' कहा जाता है। म का विकृत स्वर उपर होता है और उसे तीव्र कहा जाता है। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत में ज्यादातर यह बारह स्वर इस्तमाल किये जाते है। पुरातन काल से ही भारतीय स्वर सप्तक संवाद-सिद्ध है। महर्षि भरत ने इसी के आधार पर २२ श्रुतियों का प्रतिपादन किया था जो केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही विशेषतशुद्ध स्वर से उपर या नीचे विकृत स्वर आते है। सा और प के कोई विकृत स्वर नही होते। रे, ग, ध और नी के विकृत स्वर नीचे होते है और उन्हे कोमल' कहा जाता है। म का विकृत स्वर उपर होता है और उसे तीव्र कहा जाता है। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत में ज्यादातर यह बारह स्वर इस्तमाल किये जाते है। पुरातन काल से ही भारतीय स्वर सप्तक संवाद-सिद्ध है। महर्षि भरत ने इसी के आधार पर २२ श्रुतियों का प्रतिपादन किया था जो केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही विशेषतशुद्ध स्वर से उपर या नीचे विकृत स्वर आते है। सा और प के कोई विकृत स्वर नही होते। रे, ग, ध और नी के विकृत स्वर नीचे होते है और उन्हे कोमल' कहा जाता है। म का विकृत स्वर उपर होता है और उसे तीव्र कहा जाता है। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत में ज्यादातर यह बारह स्वर इस्तमाल किये जाते है। पुरातन काल से ही भारतीय स्वर सप्तक संवाद-सिद्ध है। महर्षि भरत ने इसी के आधार पर २२ श्रुतियों का प्रतिपादन किया था जो केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही विशेषतशुद्ध स्वर से उपर या नीचे विकृत स्वर आते है। सा और प के कोई विकृत स्वर नही होते। रे, ग, ध और नी के विकृत स्वर नीचे होते है और उन्हे कोमल' कहा जाता है। म का विकृत स्वर उपर होता है और उसे तीव्र कहा जाता है। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत में ज्यादातर यह बारह स्वर इस्तमाल किये जाते है। पुरातन काल से ही भारतीय स्वर सप्तक संवाद-सिद्ध है। महर्षि भरत ने इसी के आधार पर २२ श्रुतियों का प्रतिपादन किया था जो केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही विशेषता है। भारतीय संगीत के प्रकार भारतीय संगीत को सामान्यत: ३ भागों में बाँटा जा सकता है: शास्त्रीय संगीत - इसको 'मार्गी' भी कहते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख पद्धतियां हैं - हिन्दुस्तानी संगीत - जो उत्तर भारत में प्रचलित हुआ। कर्नाटक संगीत - जो दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ। हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मन्दिरों में। इसी कारण दक्षिण भारतीय कृतियों में भक्ति रस अधिक मिलता है और हिन्दुस्तानी संगीत में श्रृंगार रस। उपशास्त्रीय संगीत में ठुमरी, टप्पा, होरी,दादरा, कजरी, चैती आदि आते हैं। सुगम संगीत जनसाधारण में प्रचलित है जैसे - भारतीय फ़िल्म संगीत भारतीय पॉप (पॉप) संगीत इन्हें भी देखें भारतीय संगीत का इतिहस संगीत नाटक अकादमी संगीत सम्बन्धी विविध लेख (संगीत गैलेक्सी) भरत का नाट्यशास्त्र और अन्य संगीत ग्रंथ संगीत शास्त्र का परिचय (तनरंग) भारतीय संगीत की जानकारी भारतीय संगीत में स्त्रियों का योगदान असीमित हिन्दी संगीत ओमनाद पर संगीत चर्चा भारतीय संगीत वाद्य: सितार संस्कृति और परम्परा का वैभव है भारतीय संगीत (महामेडिया)
अंगिका एक भाषा है जो बिहार और झारखण्ड के कुछ भागों में बोली जाती है। यह नेपाल के तराई भाग में भी बोली जाती है। अंगिका भारतीय आर्य भाषा है। अंगिका हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार परिवार के अन्दर आती है। ये हिन्द आर्य उपशाखा के अन्तर्गत वर्गीकृत है। हिन्द-आर्य भाषाएँ वो भाषाएँ हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। उर्दू, कश्मीरी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, रोमानी, मराठी, मैथिली, नेपाली जैसी भाषाएँ भी हिन्द-आर्य भाषाएँ हैं। 'अंगिका' शब्द की व्युत्पत्ति अंगिका शब्द अंग से बना है। अंगप्रदेश (वर्तमान में भागलपुर के आस पास का क्षेत्र) में बोली जाने वाली भाषा को अंगिका नाम दिया गया। अंगिका को लोग छैछू के नाम से भी जानते हैं। इन्हें भी देखें अंगिका कविता कोश अंगिका के फेकड़े (लोकोक्तियाँ) पूर्वी हिन्द-आर्य भाषाएँ बिहार की भाषाएँ झारखंड की भाषाएँ पश्चिम बंगाल की भाषाएँ
कड़ाही चिकन एक उत्तर भारतीय मांसाहारी व्यंजन हैं। यह आमतौर पर चिकन से बनाया जाता है। केवल एक ही बर्तन इस पकवान पकाने के लिए पर्याप्त है और यह एक कड़ाही है।
फरीदाबाद (फरीदाबाद) भारत के हरियाणा राज्य के फरीदाबाद ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय है, भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का भाग है, और दिल्ली महानगर का एक महत्वपूर्ण उपनगर है। फरीदाबाद शहर की स्थापना १६०७ शेख फरीद ने की थी, जिसे बाबा फरीद के नाम से भी जाना जाता है। बाबा फरीद एक प्रसिद्ध सूफी संत थे और मुगल बादशाह जहाँगीर के कोषाध्यक्ष भी थे। शहर की स्थापना ग्रान्ड ट्रंक रोड (सडक ए आज़म) की सुरक्षा के लिए की गई थी। बाद में इसे फरीदाबाद परगना के मुख्यालय के रूप में घोषित किया गया, जो बल्लभगढ़ के शासन के अधीन था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद तेवतिया जाट सरदार गोपाल सिंह ने शहर पर हमला किया। उन्होंने फरीदाबाद के मुगल अधिकारी मुर्तिजा खान के साथ एक संधि की और परगना के चौधरी बन गए। मुगलों के शासन के बाद, इसे अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया था। १९५० में, भारत के विभाजन के बाद, पाकिस्तान से आए शरणार्थियों का एक बड़ा समूह यहाँ आ कर बस गया। उनके पुनर्वास के लिए उद्योग स्थापित किए गए थे। बाद में, विभिन्न समुदायों, क्षेत्रों और धर्मों के लोग भी फरीदाबाद में आकर बस गए। प्रारंभ में, यह गुड़गांव जिले का एक हिस्सा था। १५ अगस्त १९७९ को, फरीदाबाद को एक अलग जिले के रूप में स्थापित किया गया था। फरीदाबाद की बड़खल झील बहुत ही खूबसूरत है। यह मानव निर्मित झील है। इसके पास अरावली पर्वत श्रृंखला है। झील में पर्यटक वाटर स्पोर्टस का आनंद ले सकते हैं। यहां से थोड़ी दूरी पर बड़खल गांव है। इस गांव का नाम पर्शियन भाषा से लिया गया है। बड़खल का हिन्दी में अर्थ होता है बिना किसी रूकावट। झील में पानी की आपूर्ति बारिश के पानी और एक छोटी-सी जलधारा से होती है। पर्यटकों के ठहरने के लिए झील के पास रेस्ट हाऊस भी बने हुए हैं। इन रेस्ट हाऊसों में बिना किसी परेशानी के आराम से ठहरा जा सकता है। और यहाँ पर पाराशर ऋषि की तपो भूमि जहाँ पर उन्होंने ने तपस्या की का परशोन मंदिर है जो ठीक अरावली की वादियों मे सिथत है (सूचना शेयर्ड बाई स्वर्गीय श्री हरभजन एवं माँ विमल ब्राह्मण परमात्मा है, क्योंकि ईस्वर हर इंसान के अंदर रहते है) बाबा फरीद गुम्बद स्थानीय लोगों के अनुसार बाबा फरीद के नाम पर ही फरीदाबाद का नाम रखा गया है। यहां पर बाबा फरीद की मजार भी बनी हुई है। इसके प्रति स्थानीय लोगों में बड़ी श्रद्धा है। मजार में पूजा करने के लिए प्रतिदिन अनेक श्रद्धालु आते हैं। सूरज कुण्ड़ पर्यटक परिसर और हस्तशिल्प मेला दक्षिणी दिल्ली से ८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह परिसर बहुत ही खूबसूरत है। स्थानीय निवासियों और दिल्ली वालों के लिए यह जगह बेहतरीन पर्यटन स्थल है। फरवरी में यहां पर एक मेले का आयोजन भी किया जाता है। मेले में पर्यटक भारतीय शिल्प कला की शानदार कलाकृतियां देख और खरीद सकते हैं। इसके पास बड़खल झील और मोर झील है। मेला घूमने के बाद पर्यटक इन झीलों के शानदार दृश्य भी देख सकते हैं। बल्लबगढ़ फरीदाबाद का सबसे बड़ा शहर है। यंहा १८५७ के शहीद राजा नाहर सिंह का महल है। बल्लबगढ़ की प्रमुख कालोनिया इस प्रकार हैं - विजय नगर, आदर्श नगर, चावला कालोनी, भुदत कालोनी, भीकम कालोनी, सुभाष कालोनी। बल्लबगढ़ के प्रमुख स्थान इस प्रकार हैं - आंबेडकर चौक, गुप्ता होटल चौक, पंजाबी धर्मशाला, पंचायत भवन आदि। बल्लबगढ़ से विधानसभा सदस्य मूलचंद शर्मा हैं। मूलचन्द शर्मा हरियाणा सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर है।बल्लबगढ़ दिल्ली मेट्रो से जुड़ा हुआ है। वायु मार्ग - फरीदाबाद / बल्लबगढ़ में कोई नहीं है। निकटतम हवाई अड्डा नयी दिल्ली इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। फरीदाबाद सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा है। रेल मार्ग - रेल से फरीदाबाद आने की लिए आप नयी दिल्ली, पुरानी दिल्ली, हजरत निजामुद्दीन से लोकल एमू सटल पकड़ सकते हैं। फरीदाबाद के प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं - पुराना फरीदाबाद, नया फरीदाबाद, बल्लभगढ़। यहाँ बहुत से प्रमुख सुपर फास्ट और शताब्दी ट्रेन बे रूकती हैं। यहां का प्रमुख नजदीकी रेलवे स्टेशन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन है। इसके अलावा फरीदाबाद में भी रेलवे स्टेशन है। सड़क मार्ग - दिल्ली से फरीदाबाद / बल्लबगढ़ आने की लिए २४ घंटे बस सेवा उपलब्ध हैं। दिल्ली के सराय काले खान इसप्ट बस अड्डे से किसी भी वक़्त बस पकड़ सकते हैं। इसके अलावा आश्रम चौक से भी बस ले सकते हैं। यह देश के अनेक शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। इन्हें भी देखें बदरपुर-फरीदाबाद ऊपरीगामी सेतु फ़रीदाबाद जिला आधिकारिक जालस्थल फरीदाबाद पर्यटक कॉम्प्लेक्स सूरजकुंड पर्यटक कॉम्प्लेक्स हरियाणा आधिकारिक जालस्थल पहचान फ़रीदाबाद का आधिकारिक जालस्थल हरियाणा के शहर फरीदाबाद ज़िले के नगर
श्री कुन्दन अमिताभ हिन्दी एवं अंगिका भाषा के जाने-माने साहित्यकार हैं। वे अंगिका भाषा के विकास और वेब पर उसकी उपस्थिति बनाने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने २००३ में अंगिका भाषा का एक वेब साइट तैयार किया गया था। २००४ में उनके सहयोग से अंगिका भाषा का अपना एक सर्च इंजन भी तैयार किया गया है।
जगजीत सिंह (८ फ़रवरी १९४१ - १० अक्टूबर २०११) का नाम बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों में शुमार हैं। उनका संगीत अंत्यंत मधुर है और उनकी आवाज़ संगीत के साथ खूबसूरती से घुल-मिल जाती है। खालिस उर्दू जानने वालों की मिल्कियत समझी जाने वाली, नवाबों-रक्कासाओं की दुनिया में झनकती और शायरों की महफ़िलों में वाह-वाह की दाद पर इतराती ग़ज़लों को आम आदमी तक पहुंचाने का श्रेय अगर किसी को पहले पहल दिया जाना हो तो जगजीत सिंह का ही नाम ज़ुबां पर आता है। उनकी ग़ज़लों ने न सिर्फ़ उर्दू के कम जानकारों के बीच शेरो-शायरी की समझ में इज़ाफ़ा किया बल्कि ग़ालिब, मीर, मजाज़, जोश और फ़िराक़ जैसे शायरों से भी उनका परिचय कराया। जगजीत सिंह को सन २००३ में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। फरवरी २०१४ में आपके सम्मान व स्मृति में दो डाक टिकट भी जारी किए गए। जगजीत जी का जन्म ८ फरवरी १९४१ को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी भारत सरकार के कर्मचारी थे। जगजीत जी का परिवार मूलतः पंजाब (भारत) के रोपड़ ज़िले के दल्ला गांव का रहने वाला है। मां बच्चन कौर पंजाब के ही समरल्ला के उट्टालन गांव की रहने वाली थीं। जगजीत का बचपन का नाम जीत था। करोड़ों सुनने वालों के चलते सिंह साहब कुछ ही दशकों में जग को जीतने वाले जगजीत बन गए। शुरूआती शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में पढ़ने के लिए जालंधर आ गए। डीएवी कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया। बहुतों की तरह जगजीत जी का पहला प्यार भी परवान नहीं चढ़ सका। अपने उन दिनों की याद करते हुए वे कहते हैं, एक लड़की को चाहा था। जालंधर में पढ़ाई के दौरान साइकिल पर ही आना-जाना होता था। लड़की के घर के सामने साइकिल की चैन टूटने या हवा निकालने का बहाना कर बैठ जाते और उसे देखा करते थे। बाद मे यही सिलसिला बाइक के साथ जारी रहा। पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी। कुछ क्लास मे तो दो-दो साल गुज़ारे. जालंधर में ही डीएवी कॉलेज के दिनों गर्ल्स कॉलेज के आसपास बहुत भटकते थे। एक बार अपनी चचेरी बहन की शादी में जमी महिला मंडली की बैठक में जाकर गीत गाने लगे थे। पूछे जाने पर कहते हैं कि सिंगर नहीं होते तो धोबी होते। पिता के इजाज़त के बग़ैर फ़िल्में देखना और टाकीज में गेट कीपर को घूंस देकर हॉल में घुसना आदत थी। संगीत का सफ़र बचपन में अपने पिता से संगीत विरासत में मिली। गंगानगर में ही पंडित छगन लाल शर्मा के सानिध्य में दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखने की शुरूआत की। आगे जाकर सैनिया घराने के उस्ताद जमाल ख़ान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की बारीकियां सीखीं। पिता की ख़्वाहिश थी कि उनका बेटा भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में जाए लेकिन जगजीत पर गायक बनने की धुन सवार थी। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान संगीत में उनकी दिलचस्पी देखकर कुलपति प्रोफ़ेसर सूरजभान ने जगजीत सिंह जी को काफ़ी उत्साहित किया। उनके ही कहने पर वे १९६५ में मुंबई आ गए। यहां से उनके संघर्ष का दौर शुरू हुआ। वे पेइंग गेस्ट के तौर पर रहा करते थे और विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर या शादी-समारोह वगैरह में गाकर रोज़ी रोटी का जुगाड़ करते रहे। १९६७ में जगजीत जी की मुलाक़ात चित्रा जी से हुई। दो साल बाद दोनों १९६९ में परिणय सूत्र में बंध गए। जगजीत सिंह फ़िल्मी दुनिया में पार्श्वगायन का सपना लेकर आए थे। तब पेट पालने के लिए कॉलेज और ऊंचे लोगों की पार्टियों में अपनी पेशकश दिया करते थे। उन दिनों तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी साहब जैसों के गीत लोगों की पसंद हुआ करते थे। रफ़ी-किशोर-मन्नाडे जैसे महारथियों के दौर में पार्श्व गायन का मौक़ा मिलना बहुत दूर था। जगजीत जी याद करते हैं, संघर्ष के दिनों में कॉलेज के लड़कों को ख़ुश करने के लिए मुझे तरह-तरह के गाने गाने पड़ते थे क्योंकि शास्त्रीय गानों पर लड़के हूट कर देते थे। तब की मशहूर म्यूज़िक कंपनी एच एम वी (हिज़ मास्टर्स वॉयस) को लाइट क्लासिकल ट्रेंड पर टिके संगीत की दरकार थी। जगजीत जी ने वही किया और पहला एलबम द अनफ़ॉरगेटेबल्स (१९७६) हिट रहा। जगजीत जी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, उन दिनों किसी सिंगर को एल पी (लॉग प्ले डिस्क) मिलना बहुत फ़ख्र की बात हुआ करती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि सरदार जगजीत सिंह धीमान इसी एलबम के रिलीज़ के पहले जगजीत सिंह बन चुके थे। बाल कटाकर असरदार जगजीत सिंह बनने की राह पकड़ चुके थे। जगजीत ने इस एलबम की कामयाबी के बाद मुंबई में पहला फ़्लैट ख़रीदा था। आम आदमी की ग़ज़ल जगजीत सिंह ने ग़ज़लों को जब फ़िल्मी गानों की तरह गाना शुरू किया तो आम आदमी ने ग़ज़ल में दिलचस्पी दिखानी शुरू की लेकिन ग़ज़ल के जानकारों की भौहें टेढ़ी हो गई। ख़ासकर ग़ज़ल की दुनिया में जो मयार बेग़म अख़्तर, कुन्दनलाल सहगल, तलत महमूद, मेहदी हसन जैसों का था।। उससे हटकर जगजीत सिंह की शैली शुद्धतावादियों को रास नहीं आई। दरअसल यह वह दौर था जब आम आदमी ने जगजीत सिंह, पंकज उधास सरीखे गायकों को सुनकर ही ग़ज़ल में दिल लगाना शुरू किया था। दूसरी तरफ़ परंपरागत गायकी के शौकीनों को शास्त्रीयता से हटकर नए गायकों के ये प्रयोग चुभ रहे थे। आरोप लगाया गया कि जगजीत सिंह ने ग़ज़ल की प्योरटी और मूड के साथ छेड़खानी की। लेकिन जगजीत सिंह अपनी सफ़ाई में हमेशा कहते रहे हैं कि उन्होंने प्रस्तुति में थोड़े बदलाव ज़रूर किए हैं लेकिन लफ़्ज़ों से छेड़छाड़ बहुत कम किया है। बेशतर मौक़ों पर ग़ज़ल के कुछ भारी-भरकम शेरों को हटाकर इसे छह से सात मिनट तक समेट लिया और संगीत में डबल बास, गिटार, पिआनो का चलन शुरू किया।.यह भी ध्यान देना चाहिए कि आधुनिक और पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में सारंगी, तबला जैसे परंपरागत साज पीछे नहीं छूटे। प्रयोगों का सिलसिला यहीं नहीं रुका बल्कि तबले के साथ ऑक्टोपेड, सारंगी की जगह वायलिन और हारमोनियम की जगह कीबोर्ड ने भी ली। कहकशां और फ़ेस टू फ़ेस संग्रहों में जगजीत जी ने अनोखा प्रयोग किया। दोनों एलबम की कुछ ग़ज़लों में कोरस का इस्तेमाल हुआ। विनोद खन्ना, डिंपल कपाड़िया अभिनीत फिल्म 'लीला' के गीत 'जाग के काटी सारी रैना' में गिटार का अद्भुत प्रयोग किया। जलाल आग़ा निर्देशित टीवी सीरियल कहकशां के इस एलबम में मजाज़ लखनवी की आवारा नज़्म ऐ ग़मे दिल क्या करूं ऐ वहशते दिल क्या करूं और फ़ेस टू फ़ेस में दैरो-हरम में रहने वालों मयख़ारों में फूट न डालो बेहतरीन प्रस्तुति थीं। जगजीत ही पहले ग़ज़ल गुलुकार थे जिन्होंने चित्रा जी के साथ लंदन में पहली बार डिजीटल रिकॉर्डिंग करते हुए बियॉन्ड टाइम' अलबम जारी किया। इतना ही नहीं, जगजीत जी ने क्लासिकी शायरी के अलावा साधारण शब्दों में ढली आम-आदमी की जिंदगी को भी सुर दिए। "अब मैं राशन के कतारों में नज़र आता हूँ , अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ", "मैं रोया परदेस में", मां सुनाओ मुझे वो कहानी जैसी रचनाओं ने ग़ज़ल न सुनने वालों को भी अपनी ओर खींचा। शायर निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र, गुलज़ार, जावेद अख़्तर जगजीत सिंह जी के पसंदीदा शायरों में हैं। निदा फ़ाज़ली के दोहों का एलबम इनसाइट कर चुके हैं। जावेद अख़्तर के साथ सिलसिले ज़बर्दस्त कामयाब रहा। लता मंगेशकर जी के साथ सजदा, गुलज़ार के साथ मरासिम और कोई बात चले, कहकशां, साउंड अफ़ेयर, डिफ़रेंट स्ट्रोक्स और मिर्ज़ा ग़ालिब अहम हैं। करोड़ों लोगों को दीवाना बनाने वाले जगजीत सिंह ने मीरो-ग़ालिब से लेकर फ़ैज-फ़िराक़ तक और गुलज़ार-निदा फ़ाजली से लेकर राजेश रेड्डी और आलोक श्रीवास्तव तक हर दौर के शायर की ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी। १९८१ में रमन कुमार निर्देशित प्रेमगीत और १९८२ में महेश भट्ट निर्देशित अर्थ को भला कौन भूल सकता है। अर्थ में जगजीत जी ने ही संगीत दिया था। फ़िल्म का हर गाना लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया था। इसके बाद फ़िल्मों में हिट संगीत देने कि सारी कोशिशें बुरी तरह नाकामयाब रही। कुछ साल पहले डिंपल कापड़िया और विनोद खन्ना अभिनीत फ़िल्म लीला का संगीत औसत दर्ज़े का रहा। १९९४ में ख़ुदाई, १९८९ में बिल्लू बादशाह, १९८९ में क़ानून की आवाज़, १९८७ में राही, १९८६ में ज्वाला, १९८६ में लौंग दा लश्कारा, १९८४ में रावण और १९८२ में सितम के गीत चले और न ही फ़िल्में। ये सारी फ़िल्में उन दिनों औसत से कम दर्ज़े की फ़िल्में मानी गईं। ज़ाहिर है कि जगजीत सिंह ने बतौर कम्पोज़र बहुत पापड़ बेले लेकिन वे अच्छे फ़िल्मी गाने रचने में असफल ही रहे। इसके उलट पार्श्वगायक जगजीत जी सुनने वालों को सदा जमते रहे हैं। उनकी सहराना आवाज़ दिल की गहराइयों में ऐसे उतरती रही मानो गाने और सुनने वाले दोनों के दिल एक हो गए हों। कुछ हिट फ़िल्मी गीत ये रहे- प्रेमगीत का होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो खलनायक का ओ मां तुझे सलाम दुश्मन का चिट्ठी ना कोई संदेश जॉगर्स पार्क का बड़ी नाज़ुक है ये मंज़िल साथ-साथ का ये तेरा घर, ये मेरा घर और प्यार मुझसे जो किया तुमने सरफ़रोश का होशवालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है ट्रैफ़िक सिगनल का हाथ छुटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते (फ़िल्मी वर्ज़न) तुम बिन का कोई फ़रयाद तेरे दिल में दबी हो जैसे वीर ज़ारा का तुम पास आ रहे हो (लता जी के साथ) तरक़ीब का मेरी आंखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर (अलका याज्ञनिक के साथ) विवादों में रहे जगजीत बहुत कम लोगों को पता होगा कि अपने संघर्ष के दिनों में जगजीत सिंह इस कदर टूट चुके थे कि उन्होंने स्थापित प्लेबैक सिंगरों पर तीखी टिप्पणी तक कर दी थी। हालांकि आज वे इसे अपनी भूल स्वीकारते हैं। स्टेट्टमैन लिखता है कि, किशोर दा ने जगजीत सिंह के उस बयान पर कमेंट किया था हॉ डरे थीसे सो-कैल्ड ग़ज़ल सिंगर्स क्रिटिशिज़ अन इकन तत मन्ना दे, मुकेश एंड ई डरे नोट क्रिटिशिज़. रफ़ी वास यूनिक. ज़ाहिर है जगजीत जी ने महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी साहब पर जो कहा वो उचित नहीं होगा। ये भी देखने वाली बात है कि जगजीत जी ने अपनी पसंद के जिन फ़िल्मी गानों का कवर वर्सन एलबम क्लोज़ टू माइ हार्ट में किया था।। उसमें रफ़ी साहब का कोई गाना नहीं था। ख़ैर, इसके बाद उनकी दिलचस्पी राजनीति में भी बढ़ी और भारत-पाक करगिल लड़ाई के दौरान उन्होंने पाकिस्तान से आ रही गायकों की भीड़ पर एतराज किया। तब जगजीत सिंह जी का कहना था कि उनके आने पर बैन लगा देना चाहिए। दरअसल, जगजीत जी को पाकिस्तान ने वीज़ा देने से इंकार कर दिया था।। लेकिन जब पाकिस्तान से बुलावा आया तब जगजीत सिंह जी की नाराज़गी दूर हो गई। ये इस शख़्स की भलमनसाहत थी कि जगजीत ने ग़ज़लों के शहंशाह मेहदी हसन के इलाज के लिए तीन लाख रुपए की मदद की।। उन दिनों मेहदी हसन साहब को पाकिस्तान की सरकार तक ने नज़रअंदाज़ कर रखा था। घुड़दौड़ का शौक- ग़ज़ल गायकी जैसे सौम्य शिष्ट पेशे में मशहूर जगजीत जी का दूसरा शगल रेसकोर्स में घुड़दौड़ है। कन्सर्ट के बाद कहीं सुकून मिलता है तो वो है मुंबई महालक्ष्मी इलाक़े का रेसकोर्स। १९६५ में मुंबई में जहां डेरा डाला था उस शेर ए पंजाब हॉटल में कुछ ऐसे लोग थे जिन्हें घोड़ा दौड़ाने का शौक था। संगत ने असर दिखाया और इन्हें ऐसा चस्का लगा कि आज तक नहीं छूटा है। (स्रोत-आउटलुक) इसी तरह लॉस वेगास के केसिनो भी उन्हें ख़ूब भाते हैं। गजल के बादशाह कहे जानेवाले जगजीत सिंह का १० अक्टूबर २०११ की सुबह ८ बजे मुंबई में देहांत हो गया। उन्हें ब्रेन हैमरेज होने के कारण २३ सितम्बर को मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। ब्रेन हैमरेज होने के बाद जगजीत सिंह की सर्जरी की गई, जिसके बाद से ही उनकी हालत गंभीर बनी हुई थी। वे तबसे आईसीयू वॉर्ड में ही भर्ती थे। जिस दिन उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ, उस दिन वे सुप्रसिद्ध गजल गायक गुलाम अली के साथ एक शो की तैयारी कर रहे थे। सम्मान और पुरस्कार जगजीत सिंह को सन २००३ में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। कोई बात चले (२००६) तुम तो नहीं हो (२००३) जाम उठा (१९९६) मिर्जा गालिब (१९८८) पैशन - "ब्लैक मैजिक" के रूप में भी जाना जाता है (१९८७) लाइव इन कॉन्सर्ट (१९८७) मैं और मेरी तंहाई (१९८१) बिरहा दा सुलतान - शिव कुमार बटालवीकी गज़लें (१९९५) इश्क दी माला (आशा भोसले के साथ) जगजीत सिंह - पंजाबी हिट्स (१९९१) मन जीते जग जीत (गुरबाणी) सतनाम वाहेगुरु एही नाम है अधारा द ग्रेटेस्ट पंजाबी हिट्स ऑफ जगजीत एंड चित्रा सिंह हे राम... हे राम .. राम धुन जगजीत सिंह : तेरी आवाज नजर आती है जगजीत सिंह गजल सम्राट जगजीत सिंह नहीं रहे! जगजीत सिंह का निधन 'जग जीत' ने वाले यूं नहीं हारते जगजीत सिंह की गज़ले जगजीत सिंह की गाई ग़ज़लों का सफ़र कुछ पल जगजीत सिहँ के नाम ६६वें जन्मदिवस पर प्रकाशित विशेष सामग्री (कीबोर्ड के सिपाही का चिट्ठा जगजीत की गजलें हिन्दी में २००३ पद्म भूषण जालंधर के लोग
लगभग २५०० बर्ष पूर्व लिखे गये प्रसिद्ध प्राचीन बौद्ध ग्रंथ "ललित विस्तर" में वर्णित६४ लिपियों में "अंग लिपि" का स्थान चौथा है।
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ; उत्तर प्रदेश में स्थित एक सार्वजनिक राज्य विश्वविद्यालय है। १८६७ में स्थापित, लखनऊ विश्वविद्यालय भारत में उच्च शिक्षा के सबसे पुराने सरकारी स्वामित्व वाले संस्थानों में से एक है। विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर बादशाहबाग, और दूसरा परिसर जानकीपुरम में स्थित है । यह एक शिक्षण, आवासीय और संबद्ध विश्वविद्यालय है, जो पूरे शहर और आसपास के क्षेत्रों में स्थित १६० से अधिक कॉलेजों और संस्थानों में आयोजित किया जाता है। इस विश्वविद्यालय का समबन्ध अनुदान आयोग; राष्ट्रमंडल विश्वविद्यालयों का संगठन (एक्यू); भारतीय विश्वविद्यालयों का संगठन (ऐऊ); दूरस्थ शिक्षा परिषद (डेक) से है । अन्य मान्यता में राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (नाक); राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (नाते); बार काउंसिल ऑफ इंडिया (ब्क्सी ) शामिल हैं । इसकी मान्यता १९२१ तक यूजीसी से थी । लखनऊ में एक विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार राजा सर मोहम्मद अली मोहम्मद खान, खान बहादुर, के.सी.आई.ई. महमूदाबाद द्वारा दिया गया था । उन्होंने तत्कालीन लोकप्रिय अखबार द पायनियर में लखनऊ में एक विश्वविद्यालय की नींव रखने का आग्रह करते हुए एक लेख में योगदान दिया था । सर हरकोर्ट बटलर , संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट-गवर्नर, को विशेष रूप से सभी मामलों में मोहम्मद खान का निजी सलाहकार नियुक्त किया गया । विश्वविद्यालय को अस्तित्व में लाने के लिए पहला कदम तब उठाया गया, जब शिक्षाविदों की एक सामान्य समिति ने १० नवंबर १९१९ को गवर्नमेंट हाउस, लखनऊ में एक सम्मेलन में मुलाकात की और जो व्यक्ति रूचि रखते थे उनकी नियुक्ति की । इस बैठक में सर हरकोर्ट बटलर, समिति के अध्यक्ष, ने नए विश्वविद्यालय के लिए प्रस्तावित योजना की रूपरेखा तैयार की। विस्तृत चर्चा के बाद, यह निर्णय लिया गया कि लखनऊ विश्वविद्यालय एकात्मक, शिक्षण और आवासीय विश्वविद्यालय होना चाहिए, जैसा कि कलकत्ता विश्वविद्यालय मिशन, १९१९ द्वारा अनुशंसित किया गया है, और इसमें ओरिएंटल स्टडीज, विज्ञान, चिकित्सा, विधि , कला, इत्यादि के संकाय शामिल हो । छह उप समितियों का गठन किया गया था, जिनमें से पांच विश्वविद्यालय से जुड़े सवालों पर विचार करने के लिए और एक इंटरमीडिएट शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था पर विचार करने के लिए थीं। ये उप-समितियां नवंबर और दिसंबर, १९१९, और जनवरी, १९२० के महीनों के दौरान मिलीं; और २६ जनवरी १९२० को लखनऊ में जनरल कमेटी के दूसरे सम्मेलन से पहले उनकी बैठकों की रिपोर्ट रखी गई; उनकी कार्यवाही पर विचार किया गया और चर्चा की गई, और कुछ उप संशोधनों के बाद पांच उप-समितियों की रिपोर्ट की पुष्टि की गई। विश्वविद्यालय में मेडिकल कॉलेज को शामिल करने का प्रश्न, हालांकि, आगे की चर्चा के लिए खुला छोड़ दिया गया था। सम्मेलन के अंत में, महमूदाबाद और जहांगीराबाद के राजा, प्रत्येक द्वारा रु.१ लाख की धनराशि, पूँजी के रूप में घोषित की गई थी। १२ मार्च १९२० को इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक बैठक से पहले दूसरे सम्मेलन में पुष्टि की गई उप-समितियों की सिफ़ारिशें के साथ पहले सम्मेलन के संकल्पों को एक साथ रखा गया था, और उन पर विचार करने के लिए एक उप-समिति को नियुक्त करने का निर्णय लिया गया और सीनेट को रिपोर्ट करने का निश्चय किया गया । ७ अगस्त १९२० को सीनेट की एक बैठक में उप-समिति की रिपोर्ट पर विचार कर, जिस पर चांसलर की अध्यक्षता की गई थी, उसे अनुमोदित किया गया । इस बीच, विश्वविद्यालय में मेडिकल कॉलेज को शामिल करने की कठिनाई को हटा दिया गया था। अप्रैल १९२० के दौरान, श्री सी.एफ.डी ला फॉसे, संयुक्त प्रांत के सार्वजनिक निर्देश के तत्कालीन निदेशक, ने लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए एक मसौदा विधेयक पेश किया, जिसे १२ अगस्त १९२० को विधान परिषद में पेश किया गया था। इसके बाद इसे प्रवर समिति को भेजा गया जिसने कई सुझाव दिए थे, जिसमे सबसे महत्वपूर्ण विभिन्न विश्वविद्यालय निकायों के संविधान का उदारीकरण और वाणिज्य संकाय शामिल करना है। यह विधेयक, संशोधित रूप में, ८ अक्टूबर १९२० को परिषद द्वारा पारित किया गया था। लखनऊ विश्वविद्यालय अधिनियम, १९२० को, १ नवंबर को उपराज्यपाल की सहमति प्राप्त हुई, और २५ नवंबर १९२० को गवर्नर-जनरल की । विश्वविद्यालय की अदालत का गठन मार्च १९२१ में किया गया था, जिसकी पहली बैठक २१ मार्च १९२१ को हुई थी, जिसकी अध्यक्षता चांसलर द्वारा की गयी थी। अन्य विश्वविद्यालय के अधिकारियों जैसे कार्यकारी परिषद, शैक्षिक परिषद, और अन्य संकाय अगस्त और सितंबर, १९२१ में अस्तित्व में आए। अन्य समितियां और बोर्ड, दोनों वैधानिक और अन्यथा, समय के साथ गठित किए गए थे। १७ जुलाई १९२१ को, विश्वविद्यालय ने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह से शिक्षण का कार्य किया। कला, विज्ञान, वाणिज्य, और कानून के संकायों में शिक्षण कैनिंग कॉलेज में किया जा रहा था और किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में चिकित्सा संकाय में अध्यापन किया जा रहा था। कैनिंग कॉलेज को १ जुलाई १९२२ विश्वविद्यालय को सौंप दिया गया, हालांकि इस तिथि से पहले, कैनिंग कॉलेज से संबंधित भवन, उपकरण, कर्मचारी आदि को शिक्षण के उद्देश्यों के लिए विश्वविद्यालय के निपटान में अनुचित रूप से रखा गया था और रहने का स्थान १ मार्च १९२१ को किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज और किंग जॉर्ज अस्पताल को सरकार द्वारा विश्वविद्यालय में स्थानांतरित कर दिया गया था। समय के साथ द किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज (आज का किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी), द कैनिंग कॉलेज, इसाबेला थोबर्न कॉलेज ने संरचनात्मक और साथ ही विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए शैक्षिक और प्रशासनिक मदद प्रदान की है । विभाग और पुस्तकालय लखनऊ विश्वविद्यालय में कला, विज्ञान, वाणिज्य, शिक्षा, ललित कला, विधि और आयुर्वेद सात संकायों से सम्बद्ध,५९ विभाग हैं। इन संकायों में लगभग १९६ पाठ्यक्रम संचालित है, जिसमें ७० से अधिक व्यावसायिक पाठ्यक्रम स्ववित्तपोषित योजना में संचालित हैं। वर्तमान में यहाँ ३८,००० के लगभग छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। सम्प्रति ७२ महाविद्यालय, विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं। जहाँ स्नातक स्तर पर शिक्षा प्रदान की जाती है। कुछ महाविद्यालयों को परास्नातक कक्षायें चलाने की भी अनुमति प्राप्त है। यहाँ शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या लगभग ८०,००० है। लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर में शोध की उच्चस्तरीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। शिक्षकों, शोधार्थियों एवं सामान्य छात्रों के लिए विभिन्न विभागीय पुस्तकालयों के अतिरिक्त दो केन्द्रीय पुस्तकालय हैं- कोऑपरेटिव लैण्डिंग लाइब्रेरी और टैगोर पुस्तकालय। टैगोर पुस्तकालय भारत के प्रतिष्ठित पुस्तकालयों में से एक माना जाता है। यहाँ लगभग ५.२५ लाख पुस्तकें तथा १०,००० शोध ग्रन्थ उपलब्ध हैं। पुस्तकालय में लगभग ५०,००० शोध पत्रिकाएँ और पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं। यह पुस्तकालय लखनऊ विश्वविद्यालय की वेबसाईट के द्वारा भली-भाँति जुड़कर कम्प्यूटररीकृत हो रहा है। विश्वविद्यालय में शिक्षकों, कर्मचारियों के लिए आवास के साथ-साथ छात्रों के लिए १४ छात्रावास हैं। ९ छात्रों के लिए तथा ५ छात्राओं के लिए हैं। १ अन्तर्राष्ट्रीय छात्रावास पुराने परिसर में आचार्य नरेन्द्रदेव की स्मृति में है तथा १ अन्तर्राट्रीय छात्रावास विदेशी छात्रों के लिए नए परिसर में भी हैं। इसके अतिरिक्त नगर में इससे संबद्ध १५ महाविद्यालय भी हैं। खिलाड़ियों को खेलकूद की सुविधा प्रदान करने के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय एथेलेटिक एशोसिएशन का गठन किया गया है। इसके अन्तर्गत एथलेटिक, हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, बास्केटबॉल, बालीबॉल, तैराकी एवं नौकायन, जिमनास्टिक, कबड्डी आदि क्लब हैं, जो छात्रों की खेल प्रतिभा को बढाऩे का कार्य करते हैं। खेलकूद में भी विश्वविद्यालय के छात्रों का राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व रहा है। महान हॉकी खिलाड़ी बाबू के० डी० सिंह हेलसिंकी ओलम्पिक से लेकर वर्तमान क्रिकेटर खिलाड़ी - श्री सुरेश रैना और श्री आर० पी० सिंह यहाँ के विद्यार्थी रहे हैं। छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिए नेशनल कैडेड कोर (न च च) की थल, जल, वायु कमान तथा राष्ट्रीय सेवा योजना की शाखायें भी विश्वविद्यालय में हैं। इसके अतिरिक्त लखनऊ विश्वविद्यालय सांस्कृतिक समिति द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर किया जाता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा शिक्षकों को प्रशिक्षित करने एवं नवीनतम जानकारी उपलब्ध कराने के लिए १९८८ में अकादमिक स्टॉफ कॉलेज की परिसर में स्थापना की गई। लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों ने अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है। भारत के उत्कृष्ट पुरस्कारों में से २ पद्म विभूषण, ४ पद्मभूषण, एवं १८ पद्मश्री पुरुस्कारों के साथ-साथ बी० सी० राय और शान्तिस्वरूप भट्नागर पुरुस्कार भी यहाँ के छात्रों ने प्राप्त किये हैं। लोकप्रिय चलचित्र ओंकारा, राजपाल यादव और रितुपर्णा सेनगुप्ता अभिनीत मैं, मेरी पत्नी और वो एवं पंकज कपूर की फिल्म कहाँ कहाँ से गुजर गया की शूटिंग के लिए इस विश्वविद्यालय के परिसर का उपयोग किया गया है। शंकर दयाल शर्मा, भूतपूर्व राष्ट्रपति भारत विजयाराजे सिंधिया, स्वर्गीय राजमाता ग्वालियर आरिफ मोहम्मद खान, राजनीतिज्ञ, साम्यवादी, पूर्व केंद्रीय मंत्री ज़फर अली नकवी, राजनीतिज्ञ, सांसद, भारत सरकार सय्यद सज्जाद ज़हीर, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक के. सी. पन्त, भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री एवं उपाध्यक्ष योजना विभाग सुरजीत सिंह बरनाला, राजपाल तमिलनाडु सय्यद सिब्ते राज़ी, राजपाल झारखण्ड प्रो॰ टी. एन. मजूमदार, प्रो॰ डी. पी. मुखर्जी, प्रो॰ कैमरॉन, प्रो॰ बीरबल साहनी, प्रो॰ राधाकमल मुखर्जी, प्रो॰ राधाकुमुद मुखजी, प्रो॰ सिद्धान्त, आचार्य नरेन्द्र देव, प्रो॰ काली प्रसाद, डॉ॰ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, प्रो॰ सूर्यप्रसाद दीक्षित, रमेश कुन्तल मेघ, प्रो॰ शंकरलाल यादव, प्रो० ओम् प्रकाश पाण्डेय आदि विद्वानों ने अपने ज्ञान के आलोक से लखनऊ विश्वविद्यालय को प्रकाशित किया है। विश्वविद्यालय में समय-समय पर अनेक अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय संगोष्ठियॉ आयोजित की जाती हैं। सन् २००२ में राष्ट्रीय विज्ञान काँग्रेस का आयोजन भी एक विशेष उपलब्धि है जिसमें भारत रत्न से विभूषित, भारत के राष्ट्रपति महामहिम श्री ए०पी०जे० अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेई, राज्यपाल - श्री विष्णुकान्त शास्त्री के साथ अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध वैज्ञानिको ने सहभागिता की थी। सम्प्रति, लखनऊ विश्वविद्यालय को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की कमेटी ने सर्वांगीण क्षेत्रों में गुणवत्ता के लिए 'फोर स्टार' प्रदान किये हैं। आजकल प्रो॰आलोक राय लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय का आधिकारिक जालस्थल उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालय और कॉलेज
|इडेओलॉजी = भारतीय राष्ट्रवाद, लोकलुभावनवाद, गांधीवादी समाजवाद, सामाजिक न्याय जनता पार्टी (संक्षिप्त रूप में जेपी, लिट. पीपुल्स पार्टी) एक राजनीतिक पार्टी है, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा १९७५ और १९७७ के बीच लगाए गए आपातकाल के विरोध में भारतीय राजनीतिक दलों के एक समूह के रूप में स्थापित किया गया था। १९७७ के आम चुनाव में, पार्टी ने कांग्रेस को हराया और जनता नेता मोरारजी देसाई स्वतंत्र आधुनिक भारत के इतिहास में पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। समाजवादी नेता, राज नारायण ने १९७१ में इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनावी कदाचार का आरोप लगाते हुए एक कानूनी रिट दायर की थी। १२ जून १९७५ को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन्हें रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र में नारायण पर अपनी १९७१ की चुनावी जीत में भ्रष्ट चुनावी प्रथाओं का उपयोग करने का दोषी पाया। उन्हें अगले छह वर्षों के लिए कोई भी चुनाव लड़ने से रोक दिया गया था। आर्थिक समस्याओं, भ्रष्टाचार और गांधी की दृढ़ विश्वास ने कांग्रेस (आर) सरकार के खिलाफ व्यापक विरोध का नेतृत्व किया, जिसने आपातकाल की स्थिति लागू करके जवाब दिया। तर्क राष्ट्रीय सुरक्षा को बनाए रखने का था। हालाँकि, सरकार ने प्रेस सेंसरशिप की शुरुआत की, चुनाव स्थगित कर दिए और हड़तालों और रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया। २०१३ में जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया था और मौखिक रूप से पार्टी का विलय कर दिया था। पार्टी को २०२० में पुनर्गठित किया गया और २०२० बिहार विधान सभा चुनाव दरभंगा विधानसभा क्षेत्र से लड़ा गया। जनता पार्टी का जालघर (अंग्रेजी में) जनता पार्टी के उदय और अस्त की यादें भारत के राजनीतिक दल
हिंदुत्व (शाब्दिक अर्थ: हिंदूपन) एक राजनीतिक विचारधारा है जिसमें हिंदू राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक औचित्य को शामिल किया गया है ई हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल पहली बार १८९२ में चंद्रनाथ बसु ने किया था और बाद में इस शब्द को १९२३ में विनायक दामोदर सावरकर ने लोकप्रिय बनाया। यह हिंदू राष्ट्रवादी स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (रा॰स्व॰सं), विश्व हिंदू परिषद (वि॰हिं॰प), भारतीय जनता पार्टी (भा॰ज॰पा) और अन्य संगठनों द्वारा संयुक्त रूप से संघ परिवार कहा जाता है। हिंदुत्व आंदोलन को दक्षिणपन्थी राजनीति के रूप में और "शास्त्रीय अर्थों में लगभग फासीवादी" के रूप में वर्णित किया गया है, जो समरूप बहुसंख्यक और सांस्कृतिक आधिपत्य की एक विवादित अवधारणा का पालन करता है। कुछ लोग फासीवादी लेबल पर विवाद करते हैं, और सुझाव देते हैं कि हिंदुत्व "रूढ़िवाद" या "नैतिक निरपेक्षता" का एक चरम रूप है। २०१४ में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के चुनाव के साथ हिंदुत्व को भारतीय राजनीति में मुख्य धारा में लाया गया। "हिंदुत्व" शब्द पहली बार १८७० के मध्य में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ में आया था। बंगाल में चंद्रनाथ बसु द्वारा १८९० के दशक के उत्तरार्ध में हिंदुत्व शब्द का उपयोग पहले से ही किया जा रहा था [२] और राष्ट्रीय व्यक्ति बाल गंगाधर तिलक। [३५] इस शब्द को 19२3 में दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यकर्ता विनायक दामोदर सावरकर ने अपनाया था, जबकि उन्हें ब्रिटिश राज के अधीन करने और इसके खिलाफ युद्ध के लिए उकसाने के लिए कैद किया गया था। [३६] उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल अपनी विचारधारा और "एक सार्वभौमिक और आवश्यक हिंदू पहचान के विचार" को करने के लिए किया, जहां "हिंदू पहचान" वाक्यांश को व्यापक रूप से "दूसरों के जीवन और मूल्यों के तरीकों" से व्याख्यायित और प्रतिष्ठित किया गया है, एक धार्मिक अध्ययन डब्ल्यूजे जॉनसन कहते हैं। हिंदू धर्म पर ध्यान देने वाला विद्वान। सावरकर की हिंदुत्व विचारधारा १९२५ में नागपुर (महाराष्ट्र) में केशव बलिराम हेडगेवार के पास पहुंची और उन्होंने सावरकर के हिंदुत्व को प्रेरणादायक पाया। [५७] [५८] उन्होंने कुछ ही समय बाद रत्नागिरी के सावरकर का दौरा किया और उनके साथ 'हिंदू राष्ट्र' के आयोजन के तरीकों पर चर्चा की। [५९] [६०] सावरकर और हेडगेवार ने उस मिशन के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस, "राष्ट्रीय स्वयंसेवक समाज") की शुरुआत करते हुए हेडगेवार को उस साल सितंबर में नेतृत्व किया। यह संगठन तेजी से विकसित होकर सबसे बड़ा हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन बन गया। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट ने हिंदुत्व विचारधारा आधारित आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया और आरएसएस के पूर्व स्वयंसेवक नाथूराम गोडसे के बाद, महात्मा गांधी को स्वीकार करते हुए, २००,००० से अधिक आरएसएस स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया। नेहरू ने हत्या और संबंधित परिस्थितियों की जांच के लिए सरकारी आयोग भी नियुक्त किए। इन सरकारी आयोगों द्वारा जांच की श्रृंखला, राजनीति विज्ञान की विद्वान नंदिनी देव कहती है, बाद में आरएसएस नेतृत्व और "हत्या में आरएसएस की भूमिका निर्दोष" पाया गया। [६८] गिरफ्तार किए गए बड़े पैमाने पर आरएसएस के स्वयंसेवकों को भारतीय अदालतों द्वारा रिहा कर दिया गया था, और आरएसएस ने तब से इसका इस्तेमाल "झूठे आरोप और निंदा" के सबूत के रूप में किया है। उच्चतम न्यायालय की दृष्टि में हिन्दु, हिन्दुत्व और हिन्दुइज्म क्या हिन्दुत्व को सच्चे अर्थों में धर्म कहना सही है? इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने शास्त्री यज्ञपुरष दास जी और अन्य विरुद्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य (१९६६(३) एस.सी.आर. २४२) के प्रकरण का विचार किया। इस प्रकरण में प्रश्न उठा था कि स्वामी नारायण सम्प्रदाय हिन्दुत्व का भाग है अथवा नहीं ?इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर ने अपने निर्णय में लिखा जब हम हिन्दू धर्म के संबंध में सोचते हैं तो हमें हिन्दू धर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है। विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिन्दू धर्म किसी एक दूत को नहीं मानता, किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं है, वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, यह किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति नीति को नहीं मानता, वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की संतुष्टि नहीं करता है। बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।रमेश यशवंत प्रभु विरुद्ध प्रभाकर कुन्टे (ए.आई.आर. १९९६ एस.सी. १११३) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय को विचार करना था कि विधानसभा के चुनावों के दौरान मतदाताओं से हिन्दुत्व के नाम पर वोट माँगना क्या मजहबी भ्रष्ट आचरण है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए अपने निर्णय में कहा- हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दुइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मजहबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता। यह दर्शाता है कि हिन्दुत्व शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्धति से संबंधित है। इसे कट्टरपंथी मजहबी संकीर्णता के समान नहीं कहा जा सकता। साधारणतया हिन्दुत्व को एक जीवन पद्धति और मानव मन की दशा से ही समझा जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय शब्दकोष और केरीब्राउन के अनुसार हिंदुत्व वेबस्टर के अँग्रेजी भाषा के तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोष के विस्तृत संकलन में हिन्दुत्व का अर्थ इस प्रकार दिया गया है :-यह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास और दृष्टिकोण का जटिल मिश्रण है। यह भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुआ। यह जातीयता पर आधारित, मानवता पर विश्वास करता है। यह एक विचार है जो कि हर प्रकार के विश्वासों पर विश्वास करता है तथा धर्म, कर्म, अहिंसा, संस्कार व मोक्ष को मानता है और उनका पालन करता है । यह ज्ञान का रास्ता है स्नेह का रास्ता है । जो पुनर्जन्म पर विश्वास करता है । यह एक जीवन पद्धति है जो हिन्दू की विचारधारा है।अँग्रेजी लेखक केरीब्राउन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द इसेन्शियल टीचिंग्स ऑफ हिन्दुइज्म' में अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये हैं आज हम जिस संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्धान्त है जिस मजहब को पश्चिम के लोग समझते हैं। कोई किसी भगवान में विश्वास करे या किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करे फिर भी वह हिन्दू है। यह एक जीवन पद्धति, है यह मस्तिष्क की एक दशा है।धर्म पर उच्चतम न्यायालय का कथन 'धर्म जिसे ऐतिहासिक कारणों से 'हिन्दू धर्म' कहा जाता है वह जीवन के सभी नियमों को शामिल करता है । जो जीवन के सुख के लिए आवश्यक है। भारत के उच्चतम न्यायालय की ओर से विचार व्यक्त करते हुये न्यायमूर्ति जे. रामास्वामी ने उक्त बात कही । (ए.आई.आर. १९९६ एल.सी. १७६५) धर्म या हिन्दू धर्म' सामाजिक सुरक्षा और मानवता के उत्थान के लिए किए गए कार्यों का समन्वय करता है। उन सभी प्रयासों का इसमें समावेश है जो कि उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति में तथा मानव मात्र की प्रगति में सहायक होते हैं। यही धर्म है, यही हिन्दू धर्म है और अन्तत: यही सर्वधर्म समभाव है। (पैरा ८१) इसके विपरीत भारत के एकीकरण हेतु धर्म वह है जो कि स्वयं ही अच्छी चेतना या किसी की प्रसन्नता के वांछित प्रयासों से प्रस्फुटित एवं सभी के कल्याण हेतु, भय, इच्छा, रोग से मुक्त, अच्छी भावनाओं एवं बंधुत्व भाव, एकता एवं मित्रता को स्वीकृति प्रदान करता है। यही वह मूल रिलीजन' है जिसे संविधान सुरक्षा प्रदान करता है।' (पैरा ८२) हिंदुत्व हिंदू राष्ट्रवादी स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके संगठनों, संघ परिवार के संबद्ध परिवार की मार्गदर्शक विचारधारा है। [१११] सामान्य तौर पर, हिंदुत्ववादियों (हिंदुत्व के अनुयायियों) का मानना है कि वे भारत में हिंदू धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म, अयावाज़ी, जैन धर्म और अन्य सभी धर्मों की भलाई का प्रतिनिधित्व करते हैं। अधिकांश राष्ट्रवादी राजनीतिक उपकरण के रूप में हिंदुत्व की अवधारणा का उपयोग करके राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संगठनों में संगठित होते हैं। १९२५ में स्थापित आरएसएस का पहला हिंदुत्व संगठन था। एक प्रमुख भारतीय राजनीतिक दल, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), हिंदुत्व की वकालत करने वाले संगठनों के एक समूह के साथ निकटता से जुड़ी हुई है। वे सामूहिक रूप से खुद को "संघ परिवार" या संघों के परिवार के रूप में संदर्भित करते हैं, और आरएसएस, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद को शामिल करते हैं। अन्य संगठनों में शामिल हैं: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विदेशी शाखा हिंदू स्वयंसेवक संघ भारतीय मजदूर संघ, एक श्रमिक संघ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, एक छात्र संघ भारतीय किसान संघ, एक किसान संगठन राजनीतिक दल जो संघ परिवार के प्रभाव से स्वतंत्र हैं, लेकिन यह भी कि हिंदुत्व की विचारधारा के लिए हिंदू महासभा, प्रफुल्ल गोराडिया के अखिल भारतीय जनसंघ, [११२] सुब्रमण्यम स्वामी की जनता पार्टी [११३] और मराठी राष्ट्रवादी शिवसेना शामिल हैं। [११४] और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना। शिरोमणि अकाली दल एक सिख धार्मिक पार्टी है जो हिंदुत्व संगठनों और राजनीतिक दलों के साथ संबंध बनाए रखती है, क्योंकि वे भी सिख धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। फासीवादी और नाजी उपक्रम आरएसएस जैसे संगठनों की हिंदुत्व विचारधारा की तुलना "फासीवाद" या "नाजीवाद" से की गई है। उदाहरण के लिए, ४ फरवरी 19४8 को प्रकाशित एक संपादकीय, नेशनल हेराल्ड में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से जुड़ा एक भारतीय समाचार पत्र, ने कहा कि "यह आरएसएस हिंदू धर्म को नाज़ी रूप में मूर्त रूप देता है" इस सिफारिश के साथ कि यह होना चाहिए समाप्त हो गया। [११६] इसी तरह, १९५६ में, एक अन्य कांग्रेस पार्टी के नेता ने हिंदुत्व-विचारधारा पर आधारित जनसंघ की तुलना जर्मनी में नाजियों से की। मारज़िया कासोलारी ने हिंदुत्व विचारधारा के शुरुआती नेताओं द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध द्वितीय यूरोपीय राष्ट्रवादी विचारों के संघ और उधार को जोड़ा है। छद्म विज्ञान में विश्वास हिंदुत्व संगठनों की बयानों या प्रथाओं में उनके विश्वास के लिए आलोचना की गई है कि वे वैज्ञानिक और तथ्यात्मक दोनों होने का दावा करते हैं लेकिन वैज्ञानिक विधि के साथ असंगत हैं, और इसलिए उन्हें छद्म विज्ञान के रूप में वर्गीकृत किया गया है। गोमूत्र और गोबर से रोगों और कैंसर के इलाज के बारे में में उनके दावों का कोई वैज्ञानिक समर्थन नहीं है। वास्तव में, पंचगव्य के व्यक्तिगत घटकों, जैसे कि गोमूत्र के अंतर्ग्रहण से संबंधित अध्ययनों का कोई सकारात्मक लाभ नहीं हुआ है, और ऐंठन, उदास श्वसन और मृत्यु सहित महत्वपूर्ण दुष्प्रभाव हैं। अन्य धार्मिक समूहों की तरह, हिंदू संगठनों का दावा है कि प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों में कई सच्चे वैज्ञानिक तथ्य हैं और इसलिए उन्हें वैज्ञानिक ग्रंथों के रूप में माना जा सकता है। उनमें से कई हिंदू पौराणिक कथाओं को इतिहास के रूप में मानते हैं। भाजपा शासित गुजरात राज्य का स्कूल पाठ्य पुस्तकों में उल्लेख किया है, कि हिंदू भगवान राम ने पहला हवाई जहाज उड़ाया था और यह स्टेम सेल तकनीक प्राचीन भारत में जानी जाती थी। २०१४ में, मुंबई में रिलायंस अस्पताल के खुलने पर बोलते हुए, नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि हिंदू भगवान गणेश का सिर कुछ प्लास्टिक सर्जन द्वारा तय किया गया होगा और कर्ण एक परखनली (टेस्ट ट्यूब) शिशु था। २०१७ में, भारत के कनिष्ठ शिक्षा मंत्री, सत्यपाल सिंह ने कहा कि केवी छात्रों को प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए, जिसमें इस तथ्य का भी उल्लेख है कि विमान का उल्लेख सबसे पहले प्राचीन हिंदू महाकाव्य रामायण में किया गया था। १ ९ जनवरी २०१८ को, सत्यपाल सिंह ने सार्वजनिक रूप से चार्ल्स डार्विन की क्रम-विकास (थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन) को ललकारा और उन्होंने दावा किया कि "डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है। ... हमारे उदाहरणों में किसी ने भी लिखा है या। मौखिक रूप से नहीं कहा गया है कि उन्होंने एक आदमी को एक आदमी में बदल दिया है। "। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि डार्विन विकास के बारे में गलत थे और विकास के विचार को स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम से हटा दिया जाना चाहिए। कई वैज्ञानिकों ने बाद में सत्य पाल सिंह की उनके अवैज्ञानिक बयान के लिए आलोचना की। २०१८ में, केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दर्शकों और आयोजकों को झटका दिया जब उन्होंने कहा कि स्टीफन हॉकिंग ने भी कहा था कि "वेदों में आइंस्टीन की तुलना में बेहतर सिद्धांत हैं"। २०१४ में, रमेश पोखरियाल ने विवाद का कारण बना जब उन्होंने संसद में एक बयान दिया कि यह दावा किया जाता है कि ज्योतिष को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा "ज्योतिष सबसे बड़ा विज्ञान है। यह वास्तव में विज्ञान से ऊपर है। हमें इसे बढ़ावा देना चाहिए"। भगवान गणेश के बारे में बात करते हुए, उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीयों को एक गंभीर सिर को प्रत्यारोपण करने का ज्ञान था। उन्होंने यह भी दावा किया है कि ऋषि कणाद ने लाखों साल पहले परमाणु परीक्षण किया था (भले ही ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, ऋषि के लगभग दो हजार साल पहले ही जीवित होने की संभावना है)। आईआईटी बॉम्बे के ५७ वें दीक्षांत समारोह में अगस्त २०१९ में, पोखरियाल ने दावा किया कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने स्वीकार किया था कि केवल कम्प्यूटर पर काम करने से ही कंप्यूटर पर बात की जा सकती है, जिसे उन्होंने "दुनिया की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा" बताया। उन्होंने यह भी गलत बताया कि उसी समारोह में, चरक, जिसे आयुर्वेद के प्रमुख योगदानकर्ताओं में से एक के रूप में माना जाता है, पहले व्यक्ति थे जिन्होंने परमाणुओं और अणुओं की खोज की और खोज की, जब वास्तविकता में, यह ६ वीं शताब्दी ईसा पूर्व दार्शनिक कणाद थे जिन्होंने नींव की नींव विकसित की थी संस्कृत के पुस्तक वैशेषिक दर्शन सूत्र में भौतिकी और दर्शन के लिए एक परमाणु दृष्टिकोण। मार्च २०२० में, अखिल भारतीय हिंदू महासभा के प्रमुख स्वामी चक्रपाणि महाराज ने "गौमूत्र पार्टी" आयोजित की और दावा किया कि गोमूत्र २०१९ नोवेल कोरोनावायरस के लिए "एकमात्र इलाज" है। २०१९ में, भाजपा नेता प्रज्ञा सिंह ठाकुर की यह कहने के लिए आलोचना की गई थी कि गोमूत्र और पंचगव्य का उपयोग करने के कारण उनका स्तन कैंसर ठीक हो गया था। हिंदुत्व के समर्थकों का दावा है कि देसी गाय के दूध में सोने के निशान हैं, गोहत्या के कारण भूकंप आते हैं और गोबर विकिरण को कम करता है। वैज्ञानिकों ने कहा कि ये सभी दावे बिना किसी वैज्ञानिक समर्थन के हैं। गाय विज्ञान (कामधेनु गौ-विज्ञान प्रसार-प्रसार) पर राष्ट्रीय स्तर की स्वैच्छिक ऑनलाइन परीक्षा २५ फरवरी, २०२१ को राष्ट्रीय कामधेनु आयोग (रका) द्वारा आयोजित की जाएगी, जो पशुपालन और डेयरी विभाग, भारत सरकार के तहत स्थापित है। २०२० में, भाजपा सरकार के तहत आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) ने दावा किया कि २०१९ नोवेल कोरोनावायरस को ठीक करने के लिए आयुर्वेदिक उपचार का उपयोग किया जाना चाहिए। २०१६ में ऐसे ही एक उदाहरण में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी विवादास्पद टिप्पणी की थी कि गाय का गोबर कोहिनूर हीरा की तुलना में अधिक मूल्यवान है। इतिहास के रूप में पौराणिक कथा जेफरलॉट के अनुसार, हिंदुत्व विचारधारा की जड़ें एक ऐसे युग में हैं जहां प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाओं और वैदिक पुरातनता में कथा को मान्य माना जाता था। इस कथा का उपयोग "हिंदू जातीय चेतना को निर्वाह करने के लिए" किया गया था। [१२३] इसकी रणनीति ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद खिलाफत आंदोलन की मुस्लिम पहचान की राजनीति को बढ़ावा दिया, और पश्चिम से राजनीतिक अवधारणाओं को उधार लिया - मुख्य रूप से जर्मन। इन्हें भी देखे
मिशिगन () विशाल झीलें के इलाके पर संयुक्त राज्य के मध्य पश्चिम क्षेत्र में स्थित राज्य है। इसकी राजधानी लांसिंग है, और इसका सबसे बड़ा शहर डेट्रोइट है। मिशिगन एकमात्र राज्य है जिसमें दो प्रायद्वीप शामिल हैं। मिशिगन में दुनिया के किसी भी राजनीतिक उपखंड के मुकाबले सबसे बड़ा मीठे पानी का किनारा है। १७वीं शताब्दी में फ्रांसीसी खोजकर्ताओं द्वारा उपनिवेशित होने से पहले मिशिगन में कई मूल अमेरिकी जनजातियाँ निवास करती थी। १७62 में सप्तवर्षीय युद्ध में फ्रांस की हार के बाद यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन आया। जिसने अमेरिकी क्रन्तिकारी युद्ध में हार के बाद यह क्षेत्र नए स्वतंत्र हुए संयुक्त राज्य को सौंप दिया गया। इसे २६वें राज्य के रूप में २६ जनवरी १८३७ को संघ में भर्ती किया गया। हालांकि मिशिगन एक विविध अर्थव्यवस्था विकसित किये हुए हैं, लेकिन इसे व्यापक रूप से अमेरिकी मोटर वाहन उद्योग के केंद्र के रूप में जाना जाता है। यह देश की तीन प्रमुख ऑटोमोबाइल कंपनियों का घर है (जिन सबका मुख्यालय डेट्रोइट महानगरीय क्षेत्र के भीतर है)। २०१६ के अनुमान के मुताबिक राज्य की जनसंख्या ९९,२८,३०० है। जिससे इसका राज्यों में १०वां स्थान हुआ। ९१% जनता अंग्रेज़ी बोलती हैं जो कानूनी तौर पर सरकारी भाषा नहीं है (वास्तव वो है)। मिशिगन के महत्वपूर्ण नगर एवं उपनगर २००५ की जनगणना के अनुसार मिशिगन के बड़े शहरों में निम्नाकिंग प्रमुख शहर हैं: इन्हें भी देखें संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य
ऋग्वेद-संहिता ऋग्वैदिक वाङ्मय का मन्त्र-भाग है। इसमें १०२८ सूक्त हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद ६००० इशापूर्व वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। चारों वेदों में सर्वोच्च स्थान ऋग्वेद को ही प्राप्त है। ऋग्वेद को विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक वाङ्मय में ऋग्वेद को परम पूजनीय माना जाता है और वसन्त पूजा आदि के अवसर पर सर्वप्रथम वेदपाठ ऋग्वेद से ही प्रारम्भ किया जाता है। पुरुषसूक्त में आदि पुरुष से उत्पन्न वेदमन्त्रों में सर्वप्रथम 'ऋक' को गिनाया गया है। ऋग्वेद की संहिता को 'ऋकसंहिता' कहते हैं। वस्तुत: 'ऋक' का अर्थ है- 'स्तुतिपरक मन्त्र और 'संहिता' का अभिप्राय संकलन से है। अत: ऋचाओं के संकलन का नाम 'ऋकसंहिता' है। ऋक की परिभाषा दी जाती है- ऋच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति ऋक ; अर्थात् जिससे देवताओं की स्तुति हो उसे 'ऋक' कहते हैें। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार छन्दों में बंधी रचना को 'ऋक' नाम दिया जाता है। ब्राह्रण ग्रन्थों में ऋक को ब्रह्म, वाक, प्राण, अमृत आदि कहा गया है जिसका तात्पर्य यही है कि ऋग्वेद के मन्त्र ब्रह्म की प्रापित कराने वाले, वाक की प्रापित कराने वाले, प्राण या तेज की प्रापित कराने वाले और अमरत्व के साधन हैं। सामान्य रूप से इससे ऋग्वेद के मन्त्रों की महिमा का ग्रहण किया जाना चाहिए। पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की कदाचित २१ शाखाएं थीं। इनमें से 'चरणव्यूह' नामक ग्रन्थ में उल्लखित ये पांच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं- शाकल, वाष्कल, आश्वलायनी, शांखायनी और माण्डूकायनी। सम्प्रति ऋग्वेद की शाकल शाखा तथा आश्वलायनी शाखा की संहिता ही प्राप्त होती है। यह संहिताएं कई दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ऋग्वेद की संहिता का महत्त्व सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का प्राचीनतम ग्रन्थ होने के कारण इस (शाकल) संहिता को विश्वसाहित्य का प्रथम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। चारों वेदों की संहिताओं की तुलना में यह सबसे बड़ी संहिता है। एक विशालकाय वैदिक ग्रन्थ के रूप में यह अद्भुत और विविध अनंत ज्ञान का स्रोत है। भाव, भाषा और छन्द की दृषिट से भी यह अत्यन्त प्राचीन है। इसमें अधिकांश देव इन्द्र, विष्णु, मरुत आदि प्राकृतिक तत्त्वों के प्रतिनिधि हैं। ये पंचतत्त्वों- अगिन, वायु, आदि तथा मेघ, विद्युत, सूर्य आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी वेदों और ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋग्वेद या इसकी संहिता का ही नाम सर्वप्रथम गिनाया जाता है। फिर अनेक विषयों की व्यापक चर्चा करने के कारण इस संहिता का वर्ण्यविषयपरक महत्त्व भी स्वीकार किया जाता है। ऋग्वेद संहिता का विभाजन ऋग्वेद की संहिता ऋचाओं का संग्रह है। ऋकसंहिता का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है- (१) अष्टक-क्रम और (२) मण्डल-क्रम। अष्टक क्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण संहिता आठ अष्टकों में विभाजित है और प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं। अध्याय वर्गों में विभाजित हैं और वर्ग के अन्तर्गत ऋचाएं हैं। कुल अध्यायों की संख्या ६४ और वर्गों की संख्या २००६ है। मण्डल-क्रम में सम्पूर्ण संहिता में दस मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डल में कई अनुवाक, प्रत्येक अनुवाक में कई सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कई मन्त्र हैं। तदनुसार ऋग्वेद-संहिता में १० मण्डल, ८५ अनुवाक, १०28 सूक्त और १०552 मन्त्र हैं। इस प्रकार ऋग्वेद की मन्त्र-संहिता के विभाजन की एक सुन्दर और निश्चित व्यवस्था प्राप्त होती है। ऋग्वेद-संहिता के ऋषि एवं ऋषिका ऋग्वेद-संहिता के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों पर यदि ध्यान दिया जाए, तो हम पाते हैं कि दूसरे से सातवें मण्डल के अन्तर्गत समाविष्ट मन्त्र किसी एक ऋषि के द्वारा ही साक्षात्कार किये गये हैं। इसीलिए ये मण्डल वंशमंडल कहलाते हैं। इन मण्डलों को दूसरे मण्डलों की तुलना में प्राचीन माना जाता है। यद्यपि कई विद्वान इस मत से असहमत भी हैं। आठवें मण्डल में कण्व, भृगु आदि कुछ परिवारों के मन्त्र संकलित हैं। पहले और दसवें मण्डल में सूक्त-संख्या समान हैं। दोनों में १९१ सूक्त ही हैं। इन दोनों मण्डलों की उल्लेखयोग्य विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किये गये मन्त्रों का संकलन किया गया है। पहले और दसवें मण्डल में विभिन्न विषयों के सूक्त हैं। प्राय: विद्वान इन दोनों मण्डलों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन मानते हैं। नवां मण्डल भी कुछ विशेष महत्त्व लिये हुए है। इसमें सोम देवता के समस्त मन्त्रों को संकलित किया गया है। इसीलिए इसका दूसरा प्रचलित नाम है- पवमान मण्डल। सुविधा के लिए ऋग्वेद की संहिता के मण्डल, सूक्तसंख्या और ऋषिनामों का विवरण निम्नलिखित तालिका में दिया जा रहा है- इन मन्त्रों के द्रष्टा-ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, भृगु और अंगिरा प्रमुख हैं। कर्इ वैदिक नारियां भी मन्त्रों की द्रष्टा रही हैें। प्रमुख ऋषिकाओं के रूप में वाक आम्भृणी, सूर्या, सावित्री, सार्पराज्ञी, यमी, वैवस्वती, उर्वशी, लोपामुद्रा, घोषा आदि के नाम उल्लेखनीय हैें। ऋग्वेद संहिता के छन्द ऋग्वेद संहिता में कुल २० छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें भी प्रमुख छन्द सात हैं। ये हैं- १. गायत्री - २४ अक्षर २. उषिणक - २8 अक्षर ३. अनुष्टुप - ३2 अक्षर ४. बृहती - ३६ अक्षर ५. पंकित - ४० अक्षर ६. त्रिष्टुप - ४४ अक्षर ७. जगती - ४८ अक्षर इनमें भी इन चार छन्दों के मन्त्रों की संख्या इस संहिता में सबसे अधिक पार्इ जाती है- त्रिष्टुप, गायत्री, जगती और अनुष्टुप। ऋग्वेद संहिता का वर्ण्य-विषय ऋग्वेद में तत्कालीन समाज की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था तथा संस्थाओं का विवरण है। इसमें उनके दार्शनिक, आध्यात्मिक कलात्मक तथा वैज्ञानिक विचारों का समावेश भी है। वेदकालीन ऋषियों के जीवन में देवताओं और देव-आराधना को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी देवता से सम्बद्ध है। यथार्थ में देवता से तात्पर्य वर्ण्य विषय का है। तभी छुरा और ऊखल जैसी वस्तुएं भी देवता है। अक्ष और कृषि भी देवता हैं। ऋग्वेद की संहिता में देवस्तुति की प्रधानता है। अगिन, इन्द्र, मरुत, उषा, सोम, अशिवनौ आदि नाना देवताओं की कर्इ-कर्इ सूक्तों में स्तुतियां की गर्इ हैं। सबसे अधिक सूक्त इन्द्र देवता की स्तुति में कहे गये हैं और उसके बाद संख्या की दृष्टि से अग्नि के सूक्तों का स्थान है। अत: इन्द्र और अगिन वैदिक आर्यों के प्रधान देवता प्रतीत होते हैं। कुछ सूक्तों में मित्रवरुणा, इन्द्रवायू, धावापृथिवी जैसे युगल देवताओं की स्तुतियां हैं। अनेक देवगण जैसे आदित्य, मरुत, रुद्र, विश्वेदेवा आदि भी मन्त्रों में स्तवनीय हैं। देवियों में उषा और अदिति का स्थान अग्रगण्य है। ऋकसंहिता में देवस्तुतियों के अतिरिक्त कुछ दूसरे विषयों पर भी सूक्त हैं, जैसे जुआरी की दुर्दशा का चित्रण करने वाला 'अक्षसूक्त', वाणी और ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला 'ज्ञानसूक्त', यम और यमी के संवाद को प्रस्तुत करने वाला 'यमयमी-संवादसूक्त', पुरूरवा और उर्वशी की बातचीत पर प्रकाश डालने वाला 'पुरूरवाउर्वशी-संवादसूक्त' आदि। विषय की गम्भीरता को दर्शाने वाले सूक्तों में दार्शनिक सूक्तों को गिना जा सकता है, जैसे पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, नासदीयसूक्त आदि। इनमें सृष्टि-उत्पत्ति और उसके मूलकारण को लेकर गूढ़ दार्शनिक विवेचन किया गया है। औषधिसूक्त में नाना प्रकार की औषधियों के रूप, रंग और प्रभाव का विवरण है। ऋग्वेद संहिता के कुछ प्रमुख सूक्त ऋग्वेद-संहिता के सूक्तों को वर्ण्य-विषय और शैली के आधार पर प्राय: इस प्रकार विभाजित किया जाता है- (१) पुरुष सूक्त (३) दार्शनिक सूक्त (४) लौकिक सूक्त (५) संवाद सूक्त (६) आख्यान सूक्त (७) श्री सूक्त आदि। कुछ प्रमुख सूक्त, जो अत्यधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस संहिता के व्यापक विषय पर प्रकाश डालता है। (१) पुरुष सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल का ९० संख्यक सूक्त 'पुरुषसूक्त कहलाता है क्योंकि इसका देवता पुरुष है। इसमें पुरुष के विराट रूप का वर्णन है और उससे होने वाली सृषिट की विस्तार से चर्चा की गयी है। इस पुरुष को हजारों सिर, हजारों पैरों आदि से युक्त बताया गया है। इसी से विश्व के विविध अंग और चारों वेदों की उत्पत्ति कही गयी है। सर्वप्रथम चार वर्णों के नामों का उल्लेख ऋग्वेद के इसी सूक्त में मिलता है। यह सूक्त उदात्तभावना, दार्शनिक विचार और रूपकात्मक शैली के लिए अति प्रसिद्ध है। (२) नासदीय सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के १२९वें सूक्त को 'नासदीय सूक्त या 'भाववृत्तम सूक्त' कहते हैं। इसमें सृषिट की उत्पत्ति की पूर्व अवस्था का चित्रण है और यह खोजने का यत्न किया गया है कि जब कुछ नहीं था तब क्या था। तब न सत था, न असत, न रात्रि थी, न दिन था; बस तमस से घिरा हुआ तमस था। फिर सर्वप्रथम उस एक तत्त्व में 'काम उत्पन्न हुआ और उसका यही संकल्प सृषिट के नाना रूपों में अभिव्यक्त हो गया। पर अन्त में सन्देह किया गया है कि वह परम व्योम में बैठने वाला एक अध्यक्ष भी इस सबको जानता है या नहीं। अथवा यदि जानता है तो वही जानता है और दूसरा कौन जानेगा? (३) हिरण्यगर्भ सूक्त - इस संहिता के दशम मण्डल के १२१वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त' कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है। नौ मन्त्रों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्र में 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' कहकर यह बात दोहराई गयी है कि ऐसे महनीय हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराधना करेंं? हमारे लिए तो यह 'क' संज्ञक प्रजापति ही सर्वाधिक पूजनीय है। इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का नियामक और धर्ता है। (४) संज्ञान सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के १९१वें संख्यक सूक्त को संज्ञान सूक्त कहते हैं। इसमें कुल ८ मन्त्र हैं, पर ऋग्वेद का यह अनितम मन्त्र अपने उदात्त विचारों और सांमनस्य के सन्देश के कारण मानवीय समानता का आदर्श माना जाता है। हम मिलकर चले, मिलकर बोलें, हमारे हृदयों में समानता और एकता हो-यह कामना किसी भी समाज या संगठन के लिए एकता का सूत्र है। (५) अक्ष सूक्त - ऋग्वेद के दशम मण्डल के ३४वें सूक्त को 'अक्ष सूक्त' कहते हैं। यह एक लौकिक सूक्त है। इसमें कुल १४ मन्त्र हैं। अक्ष क्रीड़ा की निन्दा करना और परिश्रम का उपदेश देना- इस सूक्त का सार है। एक निराश जुआरी की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण इसमें दिया गया है जो घर और पत्नी की दुर्दशा को समझकर भी जुए के वशीभूत होकर अपने को उसके आकर्षण से रोक नहीं पाता है और फिर सबका अपमान सहता है और अपना सर्वनाश कर लेता है। अन्त में, सविता देवता से उसे नित्य परिश्रम करने और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। (६) विवाह सूक्त - ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के ८५वें सूक्त को विवाहसूक्त नाम से जाना जाता है। अथर्ववेद में भी विवाह के दो सूक्त हैं। इस सूक्त में सूर्य की पुत्री 'सूर्या तथा सोम के विवाह का वर्णन है। अशिवनी कुमार इस विवाह में सहयोगी का कार्य करते हैं। यहां स्त्री के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है। उसे सास-ससुर की सेवा करने का उपदेश दिया गया है। परिवार का हित करना उसका कर्तव्य है। साथ ही स्त्री को गृहस्वामिनी, गृहपत्नी और 'साम्राज्ञी' कहा गया है। अतः स्त्री को परिवार में आदरणीय बताया गया है। (७) कुछ मुख्य आख्यानसूक्त - ऋग्वेदसंहिता में कैई सूक्तों में कथा जैसी शैली मिलती है और उपदेश या रोचकता उसका उद्देश्य प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख सूक्त जिनमें आख्यान की प्रतीति होती है इस प्रकार हैं- श्वावाश्र सूक्त (५-६१), मण्डूक सूक्त (७-१०३), इन्द्रवृत्र सूक्त (१-८०, २-१२), विष्णु का त्रिविक्रम (१-१५4); सोम सूर्या विवाह (१0-8५)। वैदिक आख्यानों के गूढ़ार्थ की व्याख्या विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से की जाती है। (८) कुछ मुख्य संवादसूक्त - वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अधिक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मध्य वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है, प्राय: संवादसूक्त कहलाते हैं। कुछ प्रमुख संवाद सूक्त इस प्रकार हैं- पुरूरवा-उर्वशी-संवाद ऋ. १०/९५ यम-यमी-संवाद ऋ. १०/१० सरमा-पणि-संवाद ऋ. १०/१०8 विश्वामित्र-नदी-संवाद ऋ. ३/३३ वशिष्ठ-सुदास-संवाद ऋ. ७/८३ अगस्त्य-लोपामुद्रा-संवाद ऋ. १/१79 इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि-संवाद कं. १०/८६ संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्र व्यक्ति मानना सम्भव नहीं है। इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विधाओं की उत्पत्ति हुई है। इसके अतिरिक्त, आप्रीसूक्त, दानस्तुतिसूक्त, आदि कुछ दूसरे सूक्त भी अपनी शैली और विषय के कारण पृथक रूप से उलिलखित किये जाते हैं। इस प्रकार ऋग्वेद की संहिता वैदिक देवताओं की स्तुतियों के अतिरिक्त दर्शन, लौकिक ज्ञान, पर्यावरण, विज्ञान, कथनोपकथन आदि अवान्तर विषयों पर भी प्रकाश डालने वाला प्राचीनतम आर्ष ग्रन्थ है। धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और दार्शनिक दृष्टि से अत्यन्त सारगर्भित सामग्री को प्रस्तुत करने के साथ-साथ यह साहितियक और काव्य-शास्त्रीय दृषिट से भी विशिष्ट तथ्यों को उपस्थापित करने वाला महनीय ग्रन्थरत्न है। ऋग्वेद संहिता (संस्कृत विकिस्रोत)
सामवेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों मे से ९९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौथुमीय, (२) राणायनीय और (३) जैमिनीय। इसका अध्य्यन करने बाले पंडित पंचविश या उद्गाता कहलाते है। सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि। । महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेेेद की महत्ता को दर्शाया गया है- सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। ।अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं। सामवेद को ऋग्वेद का उत्तारधिकारी माना जाता है, यानी इसकी सृजन रिग्वेद के आधार पर हुई है। सामवेद के मुख्यतः तीन भाग होते हैं: प्रथम भाग में ऋग्वेद के गानों के उत्तरार्ध, द्वितीय भाग में स्वयं सामवेद के गान, और तृतीय भाग में यजुर्वेद के मंत्रों के संगीतों का संग्रह होता है। सामवेद को उदगीथों का रस कहा गया है, छान्दोग्य उपनिषद में। अथर्ववेद के चौदहवें कांड, ऐतरेय ब्राह्मण (८-२७) और बृहदारण्यक उपनिषद (जो शुक्ल यजुर्वेद का उपनिषद् है, ६.४.२७), में सामवेद और ऋग्वेद को पति-पत्नी के जोड़े के रूप में दिखाया गया है - अमो अहम अस्मि सात्वम् सामहमस्मि ऋक त्वम् , द्यौरहंपृथ्वीत्वं, ताविह संभवाह प्रजयामावहै। अर्थात (अमो अहम अस्मि सात्वम् ) मैं -पति - अम हूं, सा तुम हो, (द्यौरहंपृथ्वीत्वं) मैं द्यौ (द्युलोक) हूं तुम पृथ्वी हो। (ताविह संभवाह प्रजयामावहै) हम साथ बढ़े और प्रजावाले हों। । जिस प्रकार से ऋग्वेद के मंत्रों को ऋचा कहते हैं और यजुर्वेद के मंत्रों को यजूँषि कहते हैं उसी प्रकार सामवेद के मंत्रों को सामानि कहते हैं। ऋगवेद में साम या सामानि का वर्णन २१ स्थलों पर आता है (जैसे ५.४४.१४, १.६२.२, २.२३.१७, ९.९७.२२)। सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि । चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं।। साम मन्त्र क्रमांक २७ का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है। सामवेद के विषय में कुछ प्रमुख तथ्य निम्नलिखित है- सामवेद से तात्पर्य है कि वह ग्रन्थ जिसके मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतमय हों। यज्ञ, अनुष्ठान और हवन के समय ये मन्त्र गाये जाते हैं। इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है कि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं। इसके अधिकांश मन्त्र ॠग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। सामवेद में मूल रूप से ९९ मन्त्र हैं और शेष ॠग्वेद से लिये गये हैं। वेद के उद्गाता, गायन करने वाले जो कि सामग (साम गान करने वाले) कहलाते थे। उन्होंने वेदगान में केवल तीन स्वरों के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित कहलाते हैं। सामगान व्यावहारिक संगीत था। उसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं हैं। वैदिक काल में बहुविध वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें से तंतु वाद्यों में कन्नड़ वीणा, कर्करी और वीणा, घन वाद्य यंत्र के अंतर्गत दुंदुभि, आडंबर, वनस्पति तथा सुषिर यंत्र के अंतर्गतः तुरभ, नादी तथा बंकुरा आदि यंत्र विशेष उल्लेखनीय हैं। नारदीय शिक्षा ग्रंथ में सामवेद की गायन पद्धति का वर्णन मिलता है, जिसको आधुनिक हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में स्वरों के क्रम में सा-रे-गा-मा-पा-धा-नि-सा के नाम से जाना जाता है। षडज् - सा ऋषभ - रे गांधार - गा मध्यम - म पंचम - प धैवत - ध निषाद - नि शाखा - वेदों में सामवेद की सबसे अधिक शाखाएँ मिलती हैं - १००१ शाखाएँ। शाखाओं में मंत्रों के अलग व्याखान, गाने के तरीके और मंत्रों के क्रम हैं। जहाँ भारतीय विद्वान इसे एक ही वेदराशि का अंश मानते हैं, कई पश्चिमी वेद-अनुसंधानी इसे बाद में लिखा गया ग्रंथ समझते हैं। लेकिन सामवेद या सामगान का विवरण ऋग्वेद में भी मिलता है - जिसे हिन्दू परंपरा में प्रथमवेद और पश्चिमी जगत प्राचीनतम वेद मानता है। ऋग्वेद में कोई ३१ जगहों पर सामगान या साम की चर्चा हुई है - वैरूपं, बृहतं, गौरवीति, रेवतं, अर्के इत्यादि नामों से। यजुर्वेद में सामगान को रथंतरं, बृहतं आदि नामों से जाना गया है। इसके अतिरिक्त ऐतरेय ब्राह्मण में भी बृहत्, रथंतरं, वैरूपं, वैराजं आदि की चर्चा है। जैसा कि इसकी १००१ शाखाएँ थी इतने ही ब्राह्मण ग्रंथ भी होने चाहिएँ, पर लगभग १० ही उपलब्ध हैं - तांड्य. षटविँश इत्यादि। छान्दोग्य उपनिषद इसी वेद का उपनिषद है - जो सबसे बड़ा उपनिषत् भी कहाता है। इन्हें भी देखें सामवेद-हिन्दी में पढिए - चारों वेद एवं सभी पुराण हिन्दी में पढ सकते हो। हर पेज की पीडीएफ फाइल भी उपलब्ध है। वेद-पुराण - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है। महर्षि प्रबंधन विश्वविद्यालय-यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है। ज्ञानामृतम् - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक जानकारी वेद एवं वेदांग - आर्य समाज, जामनगर के जालघर पर सभी वेद एवं उनके भाष्य दिये हुए हैं। जिनका उदेश्य है - वेद प्रचार
जम्मू और कश्मीर (जम्मू एंड कश्मीर,ज&क) ५ अगस्त २०१९ तक भारत का एक राज्य था जिसे अगस्त २०१९ में द्विभाजित कर जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख नामक दो केंद्र शासित प्रदेश के रूप में स्थापित कर दिया गया। यह राज्य पूर्वतः ब्रिटिश भारत में जम्मू और कश्मीर रियासत नामक शाही रियासत हुआ करता था। इस राज्य का क्षेत्र भारत के विभाजन के बाद से ही भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच विवादित रहा है, जिनमे से तीनों ही पूर्व रियासत के विभिन्न हिस्सों पर आज भी नियंत्रण रखते हैं। जम्मू और कश्मीर हिमालय पर्वत शृंखला के सबसे ऊँचे हिस्सों में स्थित है, और इसे अपनी प्राकृतिक सौंदर्य एवं संसाधनों के लिए जाना जाता है। साथ ही जम्मू , कश्मीर और लद्दाख का इलाका अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहाँ स्थित वैष्णो देवी तथा अमरनाथ की गुफाएँ हिंदुओं के अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ का केंद्र रहा है। पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत के विभिन्न इलाकों पर अधिकार होने का दावा भारत, पाकिस्तान तथा चीन, तीनो देश करते हैं, जिसमें भारतीय नियंत्रण वाले क्षेत्र को ही जम्मू और कश्मीर कहा जाता है, जिसपर वैध रूप से जम्मू कश्मीर की राजा द्वारा भारतीय संघ के अंतर्गत हस्तांतरित किया गया था। पूर्व रियासत का उत्तरी और पश्चिमी पट्टी पर पाकिस्तान का क़ाबिज़ है एवं रियासत के उत्तरपूर्वी क्षत्र पर चीन का नियंत्रण है, जिसे उसने भारत से १९६२ के युद्ध के बाद कब्ज़ा कर लिया था, इस इलाके को अक्साई चिन कहा जाता है। भारत इन कब्ज़ों को अवैध मानता है। जम्मू नगर जम्मू प्रांत का सबसे बड़ा नगर तथा राज्य की शीतकालीन राजधानी थी, वहीं कश्मीर में स्थित श्रीनगर गर्मी के मौसम में राज्य की राजधानी रहती थी (जो अब केंद्रशासित प्रदेश जम्मू- कश्मीर की है) जम्मू और कश्मीर में जम्मू (पूंछ सहित), कश्मीर, बल्तिस्तान एवं गिलगित के क्षेत्र सम्मिलित थे। इस राज्य का पाकिस्तान अधिकृत भाग को लेकर क्षेत्रफल २,२२,२36 वर्ग कि॰मी॰ एवं जो भारत में है उसका क्षेत्रफल १,३८,१२4 वर्ग कि॰मी॰ था। यहां अधिकांश मुसलमान हैं। जम्मू - कश्मीर के सीमांत क्षेत्र पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सिंक्यांग तथा तिब्बत से मिले हुए थे। भारतीय संसद ने ५ अगस्त २०१९ को इस राज्य की राजनीतिक स्थिति में भारी बदलाव करते हुए विधानसभा सहित केंद्रशासित प्रदेश बना दिया तथा लद्दाख को भी जम्मू कश्मीर से अलग करके उसे भी अलग केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में १६ किलोमीटर (९.९ मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने ३००० ईसा पूर्व और १००० ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि ई और ई नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि इव प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर (महर्षि कश्यप के नाम पर) हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये। कुछ मुसलमान शाह और राज्यपाल हिन्दुओं से अच्छा व्यवहार करते थे १९४७ ई. में कश्मीर का विलयन भारत में हुआ। पाकिस्तान अथवा तथाकथित 'आजाद कश्मीर सरकार', जो पाकिस्तान की प्रत्यक्ष सहायता तथा अपेक्षा से स्थापित हुई, आक्रामक के रूप में पश्चिमी तथा उत्तरपश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में अधिकृत हुए किए हैं। भारत ने यह मामला १ जनवरी १948 को ही राष्ट्रसंघ में पेश किया था किंतु अभी तक निर्णय खटाई में पड़ा है। उधर लद्दाख में चीन ने भी लगभग १2,००० वर्ग मील क्षेत्र अधिकार जमा लिया है। आज़ादी के समय कश्मीर में पाकिस्तान ने घुसपैठ करके कश्मीर के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया। बचा हिस्सा भारतीय राज्य जम्मू-कश्मीर का अंग बना। मुस्लिम संगठनों ने साम्प्रदायिक गठबंधन बनाने शुरु किये। साम्प्रदायिक दंगे १९३१ (और उससे पहले से) से होते आ रहे थे। नेशनल कांफ़्रेस जैसी पार्टियों ने राज्य में मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर ज़ोर दिया और उन्होंने जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों की अनदेखी की। स्वतंत्रता के पाँच साल बाद जनसंघ से जुड़े संगठन प्रजा परिषद ने उस समय के नेता शेख अब्दुल्ला की आलोचना की। शेख अब्दुल्ला ने अपने एक भाषण में कहा कि "प्रजा परिषद भारत में एक धार्मिक शासन लाना चाहता है जहाँ मुस्लमानों के धार्मिक हित कुचल दिये जाएंगे।" उन्होने अपने भाषण में यह भी कहा कि यदि जम्मू के लोग एक अलग डोगरा राज्य चाहते हैं तो वे कश्मीरियों की तरफ़ से यह कह सकते हैं कि उन्हें इसपर कोई ऐतराज नहीं। जमात-ए-इस्लामी के राजनैतिक टक्कर लेने के लिए शेख अब्दुल्ला ने खुद को मुस्लिमों के हितैषी के रूप में अपनी छवि बनाई। उन्होंने जमात-ए-इस्लामी पर यह आरोप लगाया कि उसने जनता पार्टी के साथ गठबंधन बनाया है जिसके हाथ अभी भी मुस्लिमों के खून से रंगे हैं। १९७७ से कश्मीर और जम्मू के बीच दूरी बढ़ती गई। १९८४ के चुनावों से लोगों - खासकर राजनेताओं - को ये सीख मिली कि मुस्लिम वोट एक बड़ी कुंजी है। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के जम्मू दौरों के बाद फ़ारुख़ अब्दुल्ला तथा उनके नए साथी मौलवी मोहम्मद फ़ारुख़ (मीरवाइज़ उमर फ़ारुख़ के पिता) ने कश्मीर में खुद को मुस्लिम नेता बताने की छवि बनाई। मार्च १९८७ में स्थिति यहाँ तक आ गई कि श्रीनगर में हुई एक रैली में मुस्लिम युनाईटेड फ़्रंट ने ये घोषणा की कि कश्मीर की मुस्लिम पहचान एक धर्मनिरपेक्ष देश में बची नहीं रह सकती। इधर जम्मू के लोगों ने भी एक क्षेत्रवाद को धार्मिक रूप देने का काम आरंभ किया। इसके बाद से राज्य में इस्लामिक जिहाद तथा साम्प्रदायिक हिंसा में कई लोग मारे जा चुके हैं। १९८९ मे स्थानीय लोगों के सहयोग के कारण कश्मीर के मूलनिवासी हिंदूओं के ऊपर इस्लामिक आतंकवाद ने हमला शुरू कर दिया जिसके कारण हजारो हिंदूओ की हत्या की गई और ३००००० से ज्यादा कश्मीरी पंडितो को पलायन करना पड़ा । भारत की स्वतन्त्रता के समय महाराज हरि सिंह यहाँ के शासक थे, जो अपनी रियासत को स्वतन्त्र राज्य रखना चाहते थे। शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस (बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस) कश्मीर की मुख्य राजनैतिक पार्टी थी। कश्मीरी पंडित, शेख़ अब्दुल्ला और राज्य के ज़्यादातर मुसल्मान कश्मीर का भारत में ही विलय चाहते थे (क्योंकि भारत धर्मनिर्पेक्ष है)। पर पाकिस्तान को ये बर्दाश्त ही नहीं था कि कोई मुस्लिम-बहुमत प्रान्त भारत में रहे (इससे उसके दो-राष्ट्र सिद्धान्त को ठेस लगती थी)। इस लिये १९४७-४८ में पाकिस्तान ने कबाइली और अपनी छद्म सेना से कश्मीर में आक्रमण करवाया और क़ाफ़ी हिस्सा हथिया लिया। उस समय प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने मोहम्मद अली जिन्नाह से विवाद जनमत-संग्रह से सुलझाने की पेशक़श की, जिसे जिन्ना ने उस समय ठुकरा दिया क्योंकि उनको अपनी सैनिक कार्रवाई पर पूरा भरोसा था। महाराजा हरि सिंह ने शेख़ अब्दुल्ला की सहमति से भारत में कुछ शर्तों के तहत विलय कर दिया। भारतीय सेना ने जब राज्य का काफ़ी हिस्सा बचा लिया था, तब इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया। संयुक्तराष्ट्र महासभा ने उभय पक्ष के लिए दो करार (संकल्प) पारित किये :- पाकिस्तान तुरन्त अपनी सेना क़ाबिज़ हिस्से से खाली करे। शान्ति होने के बाद दोनों देश कश्मीर के भविष्य का निर्धारण वहाँ की जनता की चाहत के हिसाब से करें। कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद संकल्प ४७, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्याय वि के तहत यूएनएससी द्वारा पारित किया गया था, जो बाध्यकारी नहीं हैं और उनके पास कोई अनिवार्य प्रवर्तन योग्यता नहीं है। मार्च २००१ में, संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव, कोफ़ी अन्नान ने भारत और पाकिस्तान की यात्रा के दौरान टिप्पणी की थी कि कश्मीर के प्रस्ताव केवल सलाहकार सिफारिशें हैं और पूर्वी तिमोर और इराक की तुलना में उनसे तुलना करना सेब और संतरे की तुलना करना था, क्योंकि संकल्प वी के तहत पारित किए गए थे, जो इसे यूएनएससी द्वारा लागू करने योग्य बनाते हैं। २००३ में, पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने घोषणा की कि पाकिस्तान कश्मीर के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की मांग से पीछे हटना चाहता है। इसके अलावा, भारत ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान १३ अगस्त १९४८ के संयुक्त राष्ट्र संकल्प के तहत आवश्यक कश्मीर क्षेत्र से अपनी सेना वापस ले कर पूर्व-परिस्थितियों को पूरा करने में असफल रहा, जिसने जनमत पर चर्चा की। पाकिस्तान ने अपना अधिकृत कश्मीरी भूभाग खाली नहीं किया है, बल्कि कुटिलतापूर्वक वहाँ कबाइलियों को बसा दिया है। भारत ने लगातार कहा है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव अब पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं और कश्मीर विवाद एक द्विपक्षीय मुद्दा है और इसे १९७२ के शिमला समझौता और १९९९ लाहौर घोषणा के तहत हल किया जाना है। १९४८-४९ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को अब लागू नहीं किया जा सकता है, भारत के अनुसार, मूल क्षेत्र में बदलावों के कारण, कुछ हिस्सों के साथ "पाकिस्तान द्वारा चीन को सौंप दिया गया है और आजाद कश्मीर और उत्तरी क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुए हैं। " जम्मू और कश्मीर की लोकतान्त्रिक और निर्वाचित संविधान-सभा ने १९५७ में एकमत से 'महाराजा द्वारा कश्मीर के भारत में विलय के निर्णय' को स्वीकृति दे दी और राज्य का ऐसा संविधान स्वीकार किया जिसमें कश्मीर के भारत में स्थायी विलय को मान्यता दी गयी थी। (पाकिस्तान में लोकतंत्र का कितना सम्मान है, यह पूरा विश्व जानता है) भारतीय संविधान के अन्तर्गत आज तक जम्मू कश्मीर में सम्पन्न अनेक चुनावों में कश्मीरी जनता ने वोट डालकर एक प्रकार से भारत में अपने स्थायी विलय को ही मान्यता दी है। कश्मीर का भारत में विलय ब्रिटिश "भारतीय स्वातन्त्र्य अधिनियम" के तहत क़ानूनी तौर पर सही था। पाकिस्तान अपनी भूमि पर आतंकवादी शिविर चला रहा है (ख़ास तौर पर १९८९ से) और कश्मीरी युवकों को भारत के ख़िलाफ़ भड़का रहा है। ज़्यादातर आतंकवादी स्वयं पाकिस्तानी नागरिक या तालिबानी अफ़ग़ान ही हैं। ये और कुछ दिग्भ्रमित कश्मीरी युवक मिलकर इस्लाम के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ छेड़े हुए हैं। राज्य को संविधान के अनुच्छेद ३७० के तहत स्वायत्तता प्राप्त है। अनुच्छेद ३७० को अगस्त २०१९ में भंग कर दिया गया है भारतीय संविधान में जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति भारत के संवैधानिक प्रावधान स्वतः जम्मू तथा कश्मीर पर लागू नहीं होते। केवल वही प्रावधान जिनमें स्पष्ट रूप से कहा जाए कि वे जम्मू कश्मीर पर लागू होंगे, उस पर लागू होते हैं। जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति का ज्ञान इन तथ्यों से होता है- १. जम्मू कश्मीर संविधान सभा द्वारा निर्मित राज्य संविधान से वहाँ का कार्य चलता है। यह संविधान जम्मू कश्मीर के लोगों को राज्य की नागरिकता भी देता है। केवल इस राज्य के नागरिक ही संपत्ति खरीद सकते हैं या चुनाव लड़ सकते हैं या सरकारी सेवा ले सकते हैं। अब केवल एकहरी नागरिकता का नियम है। राज्य का संविधान समाप्त हो गया है। २. भारतीय संसद जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाला ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती है जो इसकी राज्य सूची का विषय हो। यह नियम अब रद्द कर दिया गया है। ३. अवशेष शक्ति जम्मू कश्मीर विधान सभा के पास होती है। ४. इस राज्य पर सशस्त्र विद्रोह की दशा में या वित्तीय संकट की दशा में आपात काल लागू नहीं होता है।अब सब कुछ हो सकता है। ५. भारतीय संसद राज्य का नाम क्षेत्र सीमा बिना राज्य विधायिका की स्वीकृति के नहीं बदलेगी।यह नियम निरश्त क़र दिया गया है। ६. अब जम्मू-कश्मीर को केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया है। ७. संसद द्वारा पारित निवारक निरोध नियम राज्य पर अपने आप लागू नहीं होता था। ८. राज्य की पृथक दंड संहिता तथा दंड प्रक्रिया संहिता थी। कश्मीर के अधिकांश क्षेत्र पर्वतीय हैं। केवल दक्षिण-पश्चिम में पंजाब के मैदानों का क्रम चला आया है। कश्मीर क्षेत्र की प्रधानतया दो विशाल पर्वतश्रेणियाँ हैं। सुदूर उत्तर में काराकोरम तथा दक्षिण में हिमालय जास्कर श्रेणियाँ हैं जिनके मध्य सिंधु नदी की सँकरी घाटी समाविष्ट है। हिमालय की प्रमुख श्रेणी की दक्षिणी ढाल की ओर संसारप्रसिद्ध कश्मीर की घाटी है जो दूसरी ओर पीर पंजाल की पर्वतश्रेणी से घिरी हुई है। पीर पंजाल पर्वत का क्रम दक्षिण में पंजाब की सीमावर्ती नीची तथा अत्यधिक विदीर्ण तृतीय युगीन पहाड़ियों तक चला गया है। प्राकृतिक दृष्टि से कश्मीर को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है : जम्मू क्षेत्र की बाह्य पहाड़ियाँ तथा मध्यवर्ती पर्वतश्रेणियाँ, सुदूर बृहत् मध्य पर्वतश्रेणियाँ जिनमें लद्दाख, बल्तिस्तान एवं गिलगित के क्षेत्र सम्मिलित हैं। कश्मीर का अधिकांश भाग चिनाव, झेलम तथा सिंधु नदी की घाटियों में स्थित है। केवल मुज़ताघ तथा कराकोरम पर्वतों के उत्तर तथा उत्तर-पूर्व के निर्जन तथा अधिकांश अज्ञात क्षेत्रों का जल मध्य एशिया की ओर प्रवाहित होता है। लगभग तीन चौथाई क्षेत्र केवल सिंधु नदी की घाटी में स्थित है। जम्मू के पश्चिम का कुछ भाग रावी नदी की घाटी में पड़ता है। पंजाब के समतल मैदान का थोड़ा सा उत्तरी भाग जम्मू प्रांत में चला आया है। चिनाव घाटी में किश्तवाड़ तथा भद्रवाह के ऊँचे पठार एवं नीची पहाडियाँ (कंडी) और मैदानी भाग पड़ते हैं। झेलम की घाटी में कश्मीर घाटी, निकटवर्ती पहाड़ियाँ एवं उनके मध्य स्थित सँकरी घाटियाँ तथा बारामूला-किशनगंगा की संकुचित घाटी का निकटवर्ती भाग सम्मिलित है। सिंधु नदी की घाटी में ज़ास्कर तथा रुपशू सहित लद्दाख क्षेत्र, बल्तिस्तान, अस्तोद एवं गिलगित क्षेत्र पड़ते हैं। उत्तर के अर्धवृत्ताकार पहाड़ी क्षेत्र में बहुत से ऊँचे दर्रे हैं। उसके निकट ही नंगा पर्वत (२६,१८२ फुट) है। पंजाल पर्वत का उच्चतम शिखर १५,५२३ फुट ऊँचा है। झेलम या बिहत, वैदिक काल में 'वितस्ता' तथा यूनानी इतिहासकारों एवं भूगोलवेत्ताओं के ग्रंथों में 'हाईडसपीस' के नाम से प्रसिद्ध है। यह नदी वेरिनाग से निकलकर कश्मीरघाटी से होती हुई बारामूला तक का ७५ मील का प्रवाहमार्ग पूरा करती है। इसके तट पर अनंतनाग, श्रीनगर तथा बारामूला जैसे प्रसिद्ध नगर स्थित हैं। राजतरंगिणी के वर्णन से पता चलता है कि प्राचीन काल में कश्मीर एक बृहत् झील था जिसे ब्रह्मासुत मारीचि के पुत्र कश्यप ऋषि ने बारामूला की निकटवर्ती पहाड़ियों को काटकर प्रवाहित कर दिया। इस क्षेत्र के निवासी नागा, गांधारी, खासा तथा द्रादी कहलाते थे। खासा जाति के नाम पर ही कश्मीर (खसमीर) का नामकरण हुआ है, परीपंजाल तथा हिमालय की प्रमुख पर्वतश्रेणियों के मध्य स्थित क्षेत्र को कश्मीर घाटी कहते हैं। यह लगभग ८५ मील लंबा तथा २५ मील चौड़ा बृहत् क्षेत्र है। इस घाटी में चबूतरे के समान कुछ ऊँचे समतल क्षेत्र मिलते हैं जिन्हें करेवा कहते हैं। धरातलीय दृष्टि से ये क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। कश्मीर घाटी में जल की बहुलता है। अनेक नदी नालों और सरोवरों के अतिरिक्त कई झीलें हैं। वुलर मीठे पानी की भारतवर्ष में विशालतम झील है। कश्मीर में सर्वाधिक मछलियाँ इसी झील से प्राप्त होती हैं। स्वच्छ जल से परिपूर्ण डल झील तैराकी तथा नौकाविहार के लिए अत्यंत रमणीक है। तैरते हुए छोटे-छोटे खत सब्जियाँ उगाने के व्यवसाय में बड़ा महत्व रखते हैं। कश्मीर अपनी अनुपम सुषमा के कारण नंदनवन कहलाता है। भारतीय कवियों ने सदा इसकी सुंदरता का बखान किया है। पीरपंजाल की श्रेणियाँ दक्षिण-पश्चिमी मानसून को बहुत कुछ रोक लेती हैं, किंतु कभी-कभी मानसूनी हवाएँ घाटी में पहुँचकर घनघोर वर्षा करती हैं। अधिकांश वर्षा वसंत ऋतु में होती है। वर्षा ऋतु में लगभग ९.७फ़फ़ तथा जनवरी-मार्च में ८.१फ़फ़ वर्षा होती है। भूमध्यसागरी चक्रवातों के कारण हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में, विशेषतया पश्चिमी भाग में, खूब हिमपात होता है। हिमपात अक्टूबर से मार्च तक होता रहता है। भारत तथा समीपवर्ती देशों में कश्मीर तुल्य स्वास्थ्यकर क्षेत्र कहीं नहीं है। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यहाँ की जलवायु तथा वनस्पतियाँ भी पर्वतीय हैं। कश्मीर घाटी की प्रसिद्ध फसल चावल है जो यहाँ के निवासियों का मुख्य भोजन है। मक्का, गेहूँ, जौ और जई भी क्रमानुसार मुख्य फसलें हैं। इनके अतिरिक्त विभिन्न फल एवं सब्जियाँ यहाँ उगाई जाती हैं। अखरोट, बादाम, नाशपाती, सेब, केसर, तथा मधु आदि का प्रचुर मात्रा में निर्यात होता है। कश्मीर केसर की कृषि के लिए प्रसिद्ध है। शिवालिक तथा मरी क्षेत्र में कृषि कम होती है। दून क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर अच्छी कृषि होती है। जनवरी और फरवरी में कोई कृषि कार्य नहीं होता। यहाँ की झीलों का बड़ा महत्व है। उनसे मछली, हरी खाद, सिंघाड़े, कमल एवं मृणाल तथा तैरते हुए बगीचों से सब्जियाँ उपलब्ध होती हैं। कश्मीर की मदिरा मुगल बादशाह बाबर तथा जहाँगीर की बड़ी प्रिय थी किंतु अब उसकी इतनी प्रसिद्धि नहीं रही। कृषि के अतिरिक्त, रेशम के कीड़े तथा भेड़ बकरी पालने का कार्य भी यहाँ पर होता है। इस राज्य में प्रचुर खनिज साधन हैं किंतु अधिकांश अविकसित हैं। कोयला, जस्ता, ताँबा, सीसा, बाक्साइट, सज्जी, चूना पत्थर, खड़िया मिट्टी, स्लेट, चीनी मिट्टी, अदह (ऐसबेस्टस) आदि तथा बहुमूल्य पदार्थों में सोना, नीलम आदि यहाँ के प्रमुख खनिज हैं। श्रीनगर का प्रमुख उद्योग कश्मीरी शाल की बुनाई है जो बाबर के समय से ही चली आ रही है। कश्मीरी कालीन भी प्रसिद्ध औद्योगिक उत्पादन है। किंतु आजकल रेशम उद्योग सर्वप्रमुख प्रगतिशील धंधा हो गया है। चाँदी का काम, लकड़ी की नक्काशी तथा पाप्ये-माशे यहाँ के प्रमुख उद्योग हैं। पर्यटन उद्योग कश्मीर का प्रमुख धंधा है जिससे राज्य को बड़ी आय होती है। लगभग एक दर्जन औद्योगिक संस्थान स्थापित हुए हैं परंतु प्रचुर औद्योगिक क्षमता के होते हुए भी बड़े उद्योगों का विकास अभी तक नहीं हो पाया है। पर्वतीय धरातल होने के कारण यातायात के साधन अविकसित हैं। पहले बनिहाल दर्रे (९,2९0 फुट) से होकर जाड़े में मोटरें नहीं चलती थीं किंतु दिसंबर, 1९56 ई. में बनिहाल सुरंग के पूर्ण हो जाने के बाद वर्ष भर निरंतर यातायात संभव हो गया है। पठानकोट द्वारा श्रीनगर का नई दिल्ली से नियमित हवाई संबंध है। अब पठानकोट से जम्मू तक रेल की भी सुविधा हो गई है। लेह तक भी जीप के चलने योग्य सड़क निर्मित हो गई है। वहाँ भी एक हवाई अड्डा है। समुद्रतल से ५,२०० फुट की ऊँचाई पर स्थित श्रीनगर जम्मू-कश्मीर की राजधानी तथा राज्य का सबसे बड़ा नगर है। इस नगर की स्थापना सम्राट् अशोकवर्धन ने की थी। यह झेलम नदी के दोनों तट पर बसा हुआ है। डल झील तथा शालीमार, निशात आदि रमणीक बागों के कारण इस नगर की शोभा द्विगुणित हो गई है। अत: इसकी गणना एशिया के सर्वाधिक सुंदर नगरों में होती है। अग्निकांड, बाढ़ तथा भूकंप आदि से इस नगर को अपार क्षति उठानी पड़ती है। यहाँ के उद्योग धंधे राजकीय हैं। कश्मीर घाटी तथा श्रीनगर का महत्व इसलिए भी अधिक है कि हिमालय के पार जानेवाले रास्तों के लिए ये प्रमुख पड़ाव हैं। सिंधु-कोहिस्तान क्षेत्र में नंगा पर्वत संसार के सर्वाधिक प्रभावशाली पर्वतों में से एक है। सिंधु के उस पार गिललित का क्षेत्र पड़ता है। रूसी प्रभावक्षेत्र से भारत को दूर रखने के हेतु अंग्रेजी सरकार ने कश्मीर के उत्तर में एक सँकरा क्षेत्र अफगानिस्तान के अधिकार में छोड़ दिया था। गिलगित तथा सीमावर्ती क्षेत्रों में जनसंख्या बहुत कम है। गिलगित से चारों ओर पर्वतीय मार्ग जाते हैं। यहाँ पर्वतक्षेत्रीय फसलें तथा सब्जियाँ उत्पन्न की जाती हैं। बृहत् हिमालय तथा ज़ास्कर पर्वत-श्रेणियों के क्षेत्र में जनसंख्या कम तथा घुमक्कड़ी है। १५,००० फुट ऊँचाई पर स्थित कोर्जोक नामक स्थान संसार का उच्चतम कृषकग्राम माना जाता है। लद्दाख एवं बल्तिस्तान क्षेत्र में लकड़ी तथा ईधंन की सर्वाधिक आवश्यकता रहती है। बल्तिस्तान में अधिकांशत: मुसलमानों तथा लद्दाख में बौद्धों का निवास है। अधिकांश लोग घुमक्कड़ों का जीवन यापन करते हैं। इन क्षेत्रों का जीवन बड़ा कठोर है। कराकोरम क्षेत्र में श्योक से हुंजा तक के छोटे से भाग में २४,००० फुट से ऊँचे ३३ पर्वतशिखर वर्तमान हैं। अत: उक्त क्षेत्र को ही, न कि पामीर को, 'संसार की छत' मानना चाहिए। अनेक कठिनाइयों से भरे इन क्षेत्रों से किसी समय तीर्थयात्रा के प्रमुख मार्ग गुजरते थे। भूभाग का वर्गीकरण भारतीय जम्मू और कश्मीर राज्य के तीन मुख्य अंचल हैं : जम्मू (हिन्दू बहुल), कश्मीर (मुस्लिम बहुल) और लद्दाख़ (बौद्ध बहुल)। प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर है और शीतकालीन राजधानी जम्मू-तवी। कश्मीर को 'दुनिया का स्वर्ग' माना गया है। अधिकांश जिले हिमालय पर्वत से ढके हुए हैं। मुख्य नदियाँ हैं सिन्धु, झेलम और चेनाब। यहाँ कई ख़ूबसूरत झीलें हैं जैसे: डल, वुलर और नगीन। संभाग और ज़िले राज्य तीन संभागो में बटा हुआ है; जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख। राज्य में जिलों की संख्या २० है। कश्मीर घाटी संभाग जम्मू और कश्मीर की कुल जनसंख्या में से, २७.३८% लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। शहरी क्षेत्रों में आबादी का कुल आंकड़ा ३,4३३,२४२ है, जिसमें से १,८६६,१८5 पुरुष हैं जबकि शेष १,५६७,०५७ महिलाएं हैं। पिछले १० वर्षों में शहरी आबादी में २७.३८ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जम्मू और कश्मीर के शहरी क्षेत्रों में लिंग अनुपात ८४० महिलाओं की प्रति १००० पुरुषों की थी। बच्चे के लिए (०-६) लिंग अनुपात शहरी क्षेत्र के लिए आंकड़ा प्रति १००० लड़कों में ८5० लड़कियां थीं। जम्मू और कश्मीर के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले कुल बच्चे (०-६ आयु) ४२५,८ ९ ७ थे। शहरी क्षेत्र की कुल आबादी में, १2.4१% बच्चे (०-६) थे शहरी क्षेत्रों के लिए जम्मू और कश्मीर में औसत साक्षरता दर ७७.१२ प्रतिशत थी, जिसमें पुरुष ८३.९ २% साक्षर थे जबकि महिला साक्षरता ५६.६५% थी। जम्मू और कश्मीर के शहरी क्षेत्र में कुल साक्षर २,३१ ९, २८३ थे। जम्मू और कश्मीर राज्य की कुल आबादी में से, लगभग ७२.६२ प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के गांवों में रहते हैं। वास्तविक संख्या में, पुरुषों और महिलाओं क्रमशः ४,77४,४77 और ४,३३३,५८३ थे। जम्मू और कश्मीर राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की कुल आबादी ९,१०८,०६० थी। इस दशक (२००१-२०११) के लिए दर्ज जनसंख्या वृद्धि दर ७२.६२% थी जम्मू और कश्मीर राज्य के ग्रामीण इलाकों में, प्रति १००० पुरुषों में महिला लिंग अनुपात ९०8 था, जबकि बच्चे (०-६ आयु) के लिए प्रति १००० लड़कों में 8६5 लड़कियां थीं। जम्मू और कश्मीर में, १,5९3,००8 बच्चे (०-६) ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। बाल जनसंख्या कुल ग्रामीण आबादी का १7.४ ९ प्रतिशत है। जम्मू और कश्मीर के ग्रामीण इलाकों में, पुरुषों और महिलाओं की साक्षरता दर ७३.7६% और ४६.००% थी। ग्रामीण क्षेत्रों में जम्मू और कश्मीर में औसत साक्षरता दर ६3.१8 प्रतिशत थी। ग्रामीण क्षेत्रों में कुल साक्षरता ४,7४7, ९ 5० थी जम्मू जनगणना २०११ आंकड़े जम्मू शहर नगर निगम द्वारा शासित है जो जम्मू महानगरीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है। जम्मू शहर जम्मू और कश्मीर राज्य में स्थित है। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार जम्मू की जनसंख्या ५०२,१९७ है; इनमें से पुरुष और महिला क्रमशः २६३,१४१ और २३ ९, ५६६ हैं। हालांकि जम्मू शहर की जनसंख्या ५०२,१९७ है; इसकी शहरी / महानगर जनसंख्या ६५७,३१४ है जिसमें से ३५२,०३८ पुरुष और ३०५,२७६ महिलाएं हैं. जम्मू महानगरीय क्षेत्र- बारि ब्रह्मा, बार्नेय, भोर, चक गुलममी, चक जालु, चक कालू, चानोर, छड़ी बेजा, छिनी कमला, छैनी रामन, छ्ता, चावाड़ी, देली, धर्मपाल, गडी गिर, गंगाई, गुजराई, हज़री बाग, जम्मू, जम्मू, कामिनी , केरन, खानपुर, मुथी, नागराटा, नरवाल बाला, रायपुर, रक्षा दल, रक्षा गडी गिर, राखी रायपुर, सतवारी, सैटानी और सुजवान। जम्मू शहर में ८१.१ ९% अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म बहुसंख्यक धर्म है। जम्मू शहर में सिख धर्म का दूसरा सबसे लोकप्रिय धर्म ८.८3% है। जम्मू शहर में, इस्लाम के बाद ७.९5%, जैन धर्म ०.३३%, क्रिरिअति ८.८3% और बौद्ध धर्म ८.८3% है। लगभग ०.०2% ने 'अन्य धर्म' कहा, लगभग ०.2८% ने 'कोई विशेष धर्म' कहा। पर्यटन जम्मू और कश्मीर की अर्थव्यवस्था का आधार रहा है। गत वर्षों से जारी आतंकवाद ने यहां की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। अब हालात में कुछ सुधार हुआ है। बागवानी और कृषि के साथ, पर्यटन जम्मू और कश्मीर के लिए एक महत्वपूर्ण उद्योग है, जो इसकी अर्थव्यवस्था का लगभग ७% हिस्सा है। दस्तकारी की चीजें, कालीन, गर्म कपड़े तथा केसर आदि मूल्यवान मसालों का भी यहां की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। इन्हें भी देखें जम्मू और कश्मीर (रियासत) जम्मू और कश्मीर में उग्रवाद कश्मीर में आतंकवाद जम्मू और कश्मीर के जिले जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, २०१९ जम्मू और कश्मीर (केंद्र शासित प्रदेश) कश्मीर हेराल्ड का जालस्थल राज्य का आधिकारिक जालस्थल कश्मीर के कुछ नक्शे जम्मू और कश्मीर भारत के राज्य
मंगल पांडे - भारतीय स्वाधीनता संग्राम के पहले क्रांतिकारी जन्म स्थान - दुगवा रहीमपुर फैजाबाद मंगल पांडे: द राइज़िंग - मंगल पांडे की जीवनी पर आधारित हिन्दी फिल्म
ईसाई वो व्यक्ति है जो ईसाई पंथ को मानता है। ईसाइयों कई साम्प्रदायों में बटे हैं, जैसे रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्स। देखिये : ईसाई पंथ । ईसाई जिस ईसा मसीह को परमात्मा का पुत्र मानते है और ये मानते है कि ईसा मसीह को फांसी दी गई , लेकिन ईसा अलैहिस्सलाम को जमीन से फरिश्ते उन्हे जिंदा ले गए और वो करीब कयामत के दुनिया पर तशरीफ लायेंगे और मुस्लिम उनकी बेत करेंगे, वहीं मुस्लिम ईसा अलैहिस्सलाम को अपना नबी मानते है ईसाई समुदाय ईश्वर मानते है
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर भारत सरकार द्बारा १९५१ में स्थापित अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) और प्रौद्योगिकी -उन्मुख एक स्वायत्त उच्च शिक्षा संस्थान है। सात आईआईटी में यह सबसे पुरानी है। भारत सरकार ने इसे आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान माना है और इसकी गणना भारत के सर्वोत्तम इंजीनियरिंग संस्थानों में होती है। आई आई टी खड़गपुर को विभिन्न इंजीनियरिंग शिक्षा सर्वेक्षणों जैसे कि इंडिया टुडे और आउटलुक में सर्वोच्च इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक का स्थान दिया गया है। १९४७ में भारत की स्वाधीनता के बाद आई आई टी खड़गपुर की स्थापना उच्च कोटि के वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को प्रसिक्षित करने के लिए हुई थी। इसका संस्थागत ढांचा दूसरी ईतओं की ही तरह है और इसकी प्रवेश की विधि भी बाकी ईतओं के साथ ही होती है। आई आई टी खड़गपुर के छात्रों को अनौपचारिक तौर पर केजीपिअन् (क्ग्पियन्स) कहा जाता है। सभी ईतओं में इसका कैम्पस क्षेत्रफल सबसे ज्यादा (२१०० एकड़) है और साथ ही विभाग और छात्रों की संख्या भी सर्वाधिक है। आई आई टी खड़गपुर, इल्लुमिनेशन, रंगोली, क्षितिज और स्प्रिन्ग्फेस्ट जैसे अपने वार्षिक उत्सवों के कारण जाना जाता है। भारत में युद्धोपरांत औद्योगिक विकास हेतु उच्चतर तकनीकी संस्थानों कि स्थापना के लिए दो भारतीय शिक्षाविदों हुमायूँ कबीर और जोगेंद्र सिंह ने १९४६ में तत्कालीन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चन्द्र रॉय की मदद से एक कमिटी का गठन किया। इसके बाद नलिनी रंजन सरकार कि अगुवाई में २२-सदस्यीय एक कमिटी का गठन हुआ। अपने अंतरिम रिपोर्ट में कमिटी में देश के विभिन्न भागों में मैसाचुसेट्स प्रौद्योगिकी संस्थान (मिट) की तर्ज़ पर सम्बद्ध दूसरे दर्जे के संस्थानों के साथ उच्चतर तकनीकी संस्थानों कि स्थापना का प्रस्ताव रखा। रिपोर्ट में देश के चार भागों में प्रमुख संस्थानों कि जल्द स्थापना के लिए कार्य आरंभ करने पर जोर दिया गया, साथ ही यह भी कहा गया कि पूर्व और पश्चिम में संस्थानों की स्थापना अतिशीघ्र होनी चाहिए। उस वक़्त पश्चिम बंगाल में उद्योगों के सर्वाधिक केन्द्रीकरण की दलील देते हुए बिधान चन्द्र रॉय ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि पहले संस्थान की स्थापना पश्चिम बंगाल में ही हो। इस प्रकार पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कि स्थापना मई १९५० में "ईस्टर्न हायएर टेक्निकल इंस्टीट्यूट" के नाम से हुई। . आरम्भ में संस्थान कोलकाता के पूर्वी एस्प्लेनेड में स्थित था और सितमबर १९५० में अपने स्थायी कैम्पस कोलकाता से १२० किमी दक्षिण पूर्व में हिजली, खड़गपुर में विस्थापित किया गया। जब अगस्त १९५१ में पहला सत्र आरम्भ हुआ, तब संस्थान में २२४ छात्र और १० विभागों में ४२ शिक्षक थे। सारी कक्षाएं, प्रयोगशालाएं और प्रशासनिक कार्यालय ऐतिहासिक हिजली कारावास शिविर (अभी शहीद भवन के नाम से जाना जाने वाला) में स्थित थे जहाँ कि अंग्रेजी शासन काल में राजनितिक क्रांतिकारिओं को बंदी बना कर रखा जाता था और प्राण दंड दिया जाता था। इस कार्यालय के भवन में ही द्वितीय विश्व युद्ध के वक़्त उ.स. २०त एयर फ़ोर्स का मुख्यालय भी था। १८ अगस्त १९५१ को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के द्वारा औपचारिक उद्घाटन से पूर्व "भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान" का नाम ग्रहण किया गया था। १५ सितम्बर १९५६ को भारतीय संसद ने "भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (खड़गपुर) अधिनियम" पारित कर दिया जिसके तहत संस्थान को "राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान" का दर्जा मिला। १९५६ में प्रधानमंत्री नेहरु ने संस्थान के पहले दीक्षांत अभिभाषण में कहा: शहीद भवन को १९९० में एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। श्रीनिवास रामानुजन् परिसर को एक नए शैक्षणिक परिसर के तौर पर शामिल किया गया जहाँ तक्षशिला ने २००२ और विक्रमशिला ने २००३ में काम करना प्रारंभ किया। दुव्वुरी सुब्बाराव भारतीय रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर| भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान
ईसा मसीह सत्य गिरजाघर एक स्वतंत्र गिरिजाघर है जो कि १९१७ में बीजींग, चीन में स्थापित किया गया था। प्रचारक युंग-जी लिन सत्य ईसा मसीह गिरजाघर के वर्तमान अध्यक्ष हैं। ये गिरिजाघर ईसाई समाज के रोमीय मत विरोधी (प्रोटेस्टेन्ट) शाखा से संबंधित है। भारत में इसकी स्थापना १९३२ में हुई। इस गिरिजाघर में बड़ा दिन और शुभ शुक्रवार नहीं मनाए जाते। पांच मुख्य सिद्धांत १. पवित्र आत्मा "अपने जीभ से बोलती हुई पवित्र आत्माओं का स्वागत करना स्वर्गलोक में उत्तराधिकार प्राप्त करने की प्रतिभूति है।" "जल से शुद्धिकरण अपराधों से क्षमा तथा पुनर्जीवन के लिए है। शुद्धिकरण प्राकृतिक जल में ही होना चाहिए, जैसे कि नदी, सागर या झरने में। जिसका शुद्धिकरण जल तथा पवित्र आत्मा के साथ हो चुका है, यह संस्कार भगवान यीशु के नाम से करेगा। जिसका शुद्धिकरण हो रहा हो उसे जल में पूर्णतया समाना होगा तथा वह सामने की ओर नतमस्तक होगा।" ३. चरण धुलाई "चरण धोने का संस्कार प्रभु ईशु से सम्बंधित होने की योग्यता प्रदान करती है। यह इस बात का स्मरण कराने का कार्य भी करती है कि हर किसी के पास प्रेम, पवित्रता, नम्रता, क्षमाशीलता तथा सेवाभाव के गुण होने चाहिये। उस प्रत्येक व्यक्ति को जिसे कि बपतिस्मा जल की प्राप्ति हुई हो प्रभु ईशु के नाम पर चरण अवश्य धोने चाहिये। दृढ़ संकल्प के साथ परस्पर चरण धोने का अभ्यास किया जा सकता है।" ४. ईश्वर से पवित्र संबंध "पवित्र समागम भगवान यीशु की मृत्यु की याद में मनाया जाता है। यह हमें अपने ईश्वर के अंग बनने की क्षमता प्रदान करता है, ताकि हमारा जीवन अनन्तकाल तक बना रहे और क़यामत के दिन हमारी आत्मा परलौकिक हो जाय। यह संस्कार जितनी अधिक आवृति के साथ संभव हो, होना चाहिए तथा केवल खमीररहित रोटी तथा अंगूर का रस ही प्रयुक्त होना चाहिए।" ५. विश्राम दिवस "विश्राम दिवस, सप्ताह का सातवाँ दिन (शनिवार), पवित्र दिन होता है जिसे कि ईश्वर की पवित्रता तथा आशीर्वाद प्राप्त है। इस दिन को ईश्वर कृति (संसार) से मुक्ति पाने के लिये प्रभु के आशीर्वाद एवं जीवन में शाश्वत विश्राम प्राप्त करने की आशा के रूप में देखना चाहिये।" १. ईसा मसीह "ईसा मसीह, ईश्वरीय वचन, जो देह में प्रकट हुआ, पापियों के उद्धार के लिये क्रूस पर अपने प्राण दिये और उसका तीसरे दिन पुनरुत्थान हुआ जिसके बाद वो स्वर्ग चला गया। वही मनव-मात्र का एकमात्र उद्धारकर्ता है, स्वर्ग और पृथिवी का सृष्टा है और एकमात्र सच्चा परमेश्वर है।" २. बाईबल (धर्मग्रंथ) "पवित्र बाइबिल, जो पुरातन टेस्टामेंट और नवीन टेस्टामेंट से बनी है, ईश्वर द्वारा प्रोत्साहित है, एकमात्र सत्य धर्मग्रन्थ है और ईसाई जीवन का मानक है।" "मोक्ष ईश्वर की कृपा द्वारा विश्वास करने से मिलता है। मानने वालों को पवित्र आत्मा पर भरोसा करना चाहिये जिससे कि वो पवित्रता, ईश्वर का आदर और मनवता से प्रेम की ओर अग्रसर रहें।" "सत्य ईसा मसीह गिरिजाघर (धर्मसंघ), "लैटर रेन" के समय पवित्र आत्मा की मदद से प्रभु ईसा मसीह द्वारा स्थापित, ही पुनर्स्थापित सच्चा प्रेरित गिरिजाघर है।" ५. ईसा मसीह का पुनरागमन "प्रभु का पुनरागमन क़यामत के दिन होगा जब वो स्वर्ग से उतर कर यहाँ आयेंगे दुनिया पर फ़ैसला सुनाने : पुण्यात्माओं को अमर स्वर्गिक जीवन मिलेगा और पापी सदा के लिये अभिशप्त होंगे।"
नेपोलियन बोनापार्ट (१५ अगस्त १७६९ - ५ मई १८२१) (जन्म नाम नेपोलियोनि दि बोनापार्टे) फ्रान्स की क्रान्ति में सेनापति, ११ नवम्बर १७९९ से १८ मई १८04 तक प्रथम कांसल के रूप में शासक और १८ मई १८04 से ६ अप्रैल १८14 तक नेपोलियन के नाम से सम्राट रहा। वह पुनः २० मार्च से २२ जून १८१५ में सम्राट बना। वह यूरोप के अन्य कई क्षेत्रों का भी शासक था। इतिहास में नेपोलियन विश्व के सबसे महान सेनापतियों में गिना जाता है। उसने फ्रांस में एक नयी विधि संहिता लागू की जिसे नेपोलियन की संहिता कहा जाता है। वह इतिहास के सबसे महान विजेताओं में से एक था। उसके सामने कोई रुक नहीं पा रहा था। जब तक कि उसने १८१२ में रूस पर आक्रमण नहीं किया, जहां सर्दी और वातावरण से उसकी सेना को बहुत क्षति पहुँची। १८ जून १८15 वॉटरलू के युद्ध में पराजय के पश्चात अंग्रज़ों ने उसे अन्ध महासागर के दूर द्वीप सेंट हेलेना में बन्दी बना दिया। छः वर्षों के अन्त में वहाँ उसकी मृत्यु हो गई। इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज़ों ने उसे संखिया (आर्सीनिक) का विष देकर मार डाला। मूल और शिक्षा नैपोलियन कार्सिका और फ्रांस के एकीकरण के अगले वर्ष ही १५ अगस्त १७६९ ई॰ को अजैसियों में पैदा हुआ था। उसके पिता चार्ल्स बोनापार्ट एक चिरकालीन कुलीन परिवार के थे। उनका वंश कार्सिका के समीपस्थ इटली के टस्कनी प्रदेश से संभूत बताया जाता है। चार्ल्स बोनापार्ट फ्रेंच दरबार में कार्सिका का प्रतिनिधित्व करते थे। उन्होंने लीतिशिया रेमॉलिनो (लेटीशिया रामोलिनो) नाम की एक उग्र स्वभाव की सुंदरी से विवाह किया था जिससे नैपोलियन पैदा हुआ। चार्ल्स ने फ्रेंच शासन के विरुद्ध कार्सिकन विद्रोह में भाग भी लिया था, किंतु अंतत: फ्रेंच शक्ति से साम्य स्थापित करना ही श्रेयस्कर समझा। फ्रेंच गवर्नर मारबिफ (मारब्यूफ) की कृपा से उन्हें वर्साय की एक मंत्रणा में सम्मिलित होने का अवसर भी मिला। चार्ल्स के साथ उसकी द्वितीय पुत्र नैपोलियन भी था। उसके व्यक्तित्व से जिस उज्वल भविष्य का संकेत मिलता था उससे प्रेरित होकर फ्रेंच अधिकारियों ने ब्रीन (ब्रेनए) की सैनिक अकैडैमी में अध्ययन करने के लिए उसे एक छात्रवृत्ति प्रदान की और वहाँ उसने १७७९ से १७८४ तक शिक्षा पाई। तदुपरांत पैरिस के सैनिक स्कूल में उसे अपना तोपखाने संबंधी ज्ञान पुष्ट करने का अवसर लगभग एक वर्ष तक मिला। इस प्रकार नैपोलियन का बाल्यकाल फ्रेंच वातावरण में व्यतीत हुआ। बाल्यवस्था में ही सारे परिवार के भरण पोषण का उत्तरदायित्व कोमल कंधों पर पड़ जाने के कारण उसे वातावरण की जटिलता एवं उसके अनुसार व्यवहार करने की कुशलता मिल गई थी। अतएव फ्रेंच क्रांति में उसका प्रवेश युगांतरकारी घटनाओं का संकेत दे रहा था। फ्रांस के विभिन्न वर्गों से संपर्क स्थापित करने में उसे कोई संकोच या हिचकिचाहट नहीं थी। उसने जैकोबिन दल में भी प्रवेश किया था और २० जून के तुइलरिए (तुइलरीज) के अधिकार के अवसर पर उसे घटनाओं से प्रत्यक्ष परिचय हुआ था। फ्रांस के राजतंत्र की दुर्दशा का भी उसे पूर्ण ज्ञान हो गया था। यहीं से नैपोलियन के विशाल व्यक्तित्व का आविर्भाव होता है। नैपोलियन के उदय तक फ्रेंच क्रांति पूर्ण अराजकता में परिवर्तित हो चुकी थी। जैकोबिन और गिरंडिस्ट दलों की प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य के परिणाम स्वरूप ही उस 'आतंक का शासन' संचालित किया गया था, जिसमें एक एक करके सभी क्रांतिकारी यहाँ तक कि स्वयं राब्सपियर भी मार डाला गया था। १७९३ ई॰ में टूलान (टूलन) के घेरे में नैपोलियन को प्रथम बार अपना शौर्य एवं कलाप्रदर्शन का अवसर मिला था। डाइरेक्टरी का एक प्रमुख शासक बैरास उसकी प्रतिभा से आकर्षित हो उठा। फिर १७९५ में जब भीड़ कंर्वेशन को हुई थी, तो डाइरेक्टरी द्वारा विशेष रूप से आयुक्त होने पर नैपोलियन ने कुशलतापूर्वक कंवेंशन की रक्षा की और संविधान को होने दिया। इन सफलताओं ने सारे फ्रांस का ध्यान नैपोलियन की ओर आकृष्ट किया और डाइरेक्टरी ने उसे इटली के अभियान का नेतृत्व दिया (२ मार्च १७९६)। एक सप्ताह पश्चात् उसने जोज़ेफीन (जोसफिन) से विवाह किया और तदुपरांत अपनी सेना सहित इटली में प्रवेश किया। इतालवी अभियान तथा अन्य सैनिक अभियान इटली का अभियान नैपोलियन की सैनिक तथा प्रशासकीय क्षमता का ज्वलंत उदाहरण था। इस बात की घोषणा पूर्व ही कर दी गई थी कि फ्रेंच सेना इटली को ऑस्ट्रिया की दासता से मुक्त कराने आ गयी है। उसने पहले तीन स्थानों पर शत्रु को परास्त कर ऑस्ट्रिया का (पीडमॉन्ट) से संबंध तोड़ दिया। तब सारडीनिया को युद्धविराम करने के लिए विवश कर दिया। फिर लोडी के स्थान में उसे मीलान प्राप्त हुआ। रिवोली के युद्ध में मैंटुआ को समर्पण करना पड़ा। आर्कड्यूक चार्ल्स को भी संधिपत्र प्रस्तुत करना पड़ा और ल्यूबन (लियोबेन) का समझौता हुआ। इन सारे युद्धों और वार्ताओं में नैपोलियन ने पेरिस से किसी प्रकार का आदेश नहीं लिया। पोप को भी संधि करनी पड़ी। लोंबार्डी को सिसालपाइन तथा जिनोआ को लाइग्यूरियन गणतंत्र में परिवर्तित कर फ्रेंच नमूने पर एक विधान दिया। इन सफलताओं से ऑस्ट्रिया के पैर उखड़ गए और उसे कैंपो फौर्मियों (कैम्पो फोर्मियो) की संधि के लिए नैपोलियन के संमुख नत होना पड़ा तथा इस जटिल परिस्थिति में ऑस्ट्रिया को अपने बेललियम प्रदेशों से और राइन के सीमांत क्षेत्रों तथा लोंबार्डी से अपना हाथ खींच लेना पड़ा। नैपोलियन के इन युद्धों से तथा छोटे राज्यों को समाप्त कर वृहत् इकाई में परिवर्तित करने के कार्यों से, इटली में एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा हुआ जो इतिहास में रीसॉर्जीमेंटो (रिसशर्जिमेंटो) के नाम से प्रसिद्ध है। इटालियन अभियान से लौटने पर नैपोलियन का भव्य स्वागत हुआ। डाइरेक्टरी भी भयभीत हो गई तथा नैपोलियन को फ्रांस से दूर रखने का उपाय सोचने लगी। इस समय फ्रांस का प्रतिद्वंद्वी केवल ब्रिटेन रह गया था। नैपोलियन ने ब्रिटेन को हराने के लिए उसके साम्राज्य पर कुठाराघात न करना उचित समझा तथा अपनी मिस्र-अभियान-योजना रखी। डाइरेक्टरी ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया। १७९८ ई॰ में बोनापार्ट ने मिस्र के लिए प्रस्थान किया। ब्रिटेन पर प्रत्यक्ष आक्रमण करने के स्थान पर ब्रिटेन के पूर्वी साम्राज्य को मिस्त्र के माध्यम से समाप्त करने की योजना फ्रेंच शासकों को संगत प्रतीत हुई। मैमलुक तुर्की से इसका सामना पैरामिड के तथाकथित युद्ध में हुआ। किंतु ब्रिटिश नौसेना का भूमध्यसागरीय अध्यक्ष कमांडर नेल्सन नैपोलियन का पीछा कुशलतापूर्वक कर रहा था। उसने आगे बढ़कर फ्रांसीसियों को नील नदी के युद्ध में तितर-बितर कर दिया तथा टर्की को भी इंगलैड की ओर से युद्ध में प्रवेश करने के लिए विवश कर दिया। नेल्सन की इस सफलता ने ब्रिटेन को एक द्वितीय गुट बनाने का अवसर दिया और यूरोप के वे राष्ट्र, जिन्हें नैपोलियन दबा चुका था, फ्रांस के विरुद्ध अभियान की तैयारी करने लगे। तुर्की के युद्ध में प्रविष्ट हो जाने पर नैपोलियन ने सीरिया का अभियान छेड़ा। केवल तेरह हजार की एक सीमित टुकड़ी के साथ एकर (एकर) की ओर बढ़ा किंतु सिडनी स्मिथ जैसे कुशल सेनानी द्वारा रोक दिया गया। यह नैपोलियन के लिए वरदान सिद्ध हुआ। अब नैपोलियन सीरिया में एक दूसरे फ्रेंच साम्राज्य की रचना में लग गया। किंतु फ्रांस इस समय एक नाजुक स्थिति से गुजर रहा था। अत: नैपोलियन ने मिस्र में अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलीभूत होते हुए भी फ्रांस में प्रकट हो जाना वांछनीय समझा। नैपोलियन के फ्रांस में प्रवेश करते ही हलचल पैदा हो गई। अनुकूल वातावरण पाकर नवंबर, १७९९ में नैपोलियन ने सत्ता हथिया कर डायरेक्टरी का विघटन किया और नया विधान बनाया। इस विधान के अनुसार तीन कौंसल (कन्सूल) नियुक्त हुए। कुछ समय पश्चात् सारी शक्तियाँ प्रथम कौंसल नैपोलियन में केद्रित हो गई। फ्रांस एक दीर्घ अशांति से थक चुका था तथा क्रांति को स्थापित्व की ओर ले जाने के लिए अन्तरकालीन शांति परम आवश्यक थी। किंतु शांति स्थापना के पूर्व ऑस्ट्रिया को नतमस्तक कर देने के लिए एक इटालियन अभियान आवश्यक था। नैपोलियन ने १८०० ई॰ में इटली का दूसरा अभियान बसंत ऋतु में प्रारंभ किया तथा मेरेंगो (मरेंगो) की विजय प्राप्त कर आस्ट्रिया को ल्यूनविल (ल्यूनेविले) की संधि के लिए विवश कर दिया, जिसमें पहले की कैम्पोफोर्मियों की सारी शर्तें दोहराई गई। अब द्वितीय गुट टूट गया और नेपोलियन ने इंगलैंड से आमिऐं (अमींस) की संधि १८०१ ई॰ में की, जिसके अंतर्गत दोनों राष्ट्रों ने एक दूसरे के विजित प्रदेश वापस किए। अब नेपोलियन ने एक सुधार योजना कार्यान्वित कर फ्रांस को शासन और व्यवस्था दी। फ्रांस की आर्थिक स्थिति में अनुशासन दिया। शिक्षा पद्धति में अभूतपूर्व परिवर्तन किए। भूमिकर व्यवस्था सुदृढ़ की। पेरिस का सौंदर्यीकरण किया। सेना में यथेष्ट परिवर्तन किए तथा फ्रांस की व्यवस्था को एक वैज्ञानिक आधार दिया, जो अब भी नेपोलियन कोड के नाम से विख्यात है। पोप से एक कॉन कौरडेट (कनकोर्डत) कर कैथलिक जगत् का समर्थन प्राप्त कर लिया। फ्रांस का सम्राट इन सुधारों से नैपोलियन को यथेष्ट सफलता प्राप्त हुई और मार्च १८०४ ई॰ में वह फ्रांस का सम्राट् बन गया। इस घटना से सारे यूरोप में एक हलचल पैदा हुई। फ्रांस और ब्रिटेन के बीच फिर युद्ध के बादल मंडराने लगे। नैपोलियन ने इंगलैंड पर आक्रमण करने के लिए उत्तरी समुद्री तट पर बोलोन (बॉउलोगने) में अपनी सेना भेजी। इंगलैंड ने इसके उत्तर में अपने इंग्लिश चैनल स्थित नौसेना की टुकड़ी को जागरुक किया और फिर हर भिड़ंत में नैपोलियन को चकित करता गया। आमिऐं की संधि के समाप्त होते ही विलियम पिट शासन में आया और उसने इंगलैंड, ऑस्ट्रिया, यस आदि राष्ट्रों को मिलाकर एक तृतीय गुट (१८०५) बनाया। नैपोलियन ने फिर ऑस्ट्रिया के विरुद्ध मोर्चाबंदी की और सिसआलपाइन गणतंत्र को समाप्त कर स्वयं इटली के राजा का पद ग्रहण किया। ऑस्ट्रिया को उल्म (उल्म) के युद्ध में हराया। ऑस्ट्रिया का शासक फ्रांसिस भाग गया और जार की शरण ली। इधर ट्राफलगर के युद्ध में नेलसन ने नैपोलियन की जलसेना को हरा दिया था, जिससे ऑस्ट्रिया को फिर से नैपोलियन को चुनौती देने का मौका मिल गया था। लेकिन आस्टरलिट्ज के युद्ध में हार जाने पर आस्ट्रिया को प्रेसवर्ग की लज्जापूर्ण संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस सफलता से नैपोलियन का उल्लास बढ़ गया और अब उसने जर्मनी को रौंदना प्रारंभ किया। जेना (जेना) और आरसटेड (और्स्टेड) के युद्धों में १४ अक्टूबर १८०६ ई॰ में हराकर राइन संधि की रचना कर अपने भाई जोसेफ बोनापर्ट के शासन को मजबूत किया। अब केवल रूस रह गया जिसे नैपोलियन ने जून १८०७ ई॰ में फ्रीडलैंड (फ्रेडलैंड) के युद्ध में हराकर जुलाई १८०७ की टिलसिट (तिल्सिट) की संधि के लिए विवश किया। सारे यूरोप का स्वामी हो जाने पर अब नेपोलियन ने इंगलैंड को हराने के लिए एक आर्थिक युद्ध छेड़ा (महाद्वीपीय व्यवस्था, देखें)। सारे यूरोप के राष्ट्रों का व्यापार इंगलैंड से बंद कर दिया तथा यूरोप की सारी सीमा पर एक कठोर नियंत्रण लागू किया। ब्रिटेन ने इसके उत्तर में यूरोप के राष्ट्रों का फ्रांस के व्यापार रोक देने की एक निषेधात्मक आज्ञा प्रचारित की। ब्रिटेन ने अपनी क्षतिपूर्ति उपनेवेशों से व्यापार बढ़ा कर कर ली, किंतु यूरोपीय राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी और वे फ्रांस की इस यातना से पीड़ित हो उठे। सबसे पहले स्पेन ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया। परिणामस्वरूप नैपोलियन ने स्पेन पर चढ़ाई की और वहाँ की सत्ता छीन ली। इस पर स्पेन में एक राष्ट्रीय विद्रोह छिड़ गया। नेपोलियन इसको दबा भी नहीं पाया था कि उसे ऑस्ट्रिया के विद्रोह को दबाना पड़ा और फिर क्रम से प्रशा और रूस ने भी इस व्यवस्था की अवज्ञा की। रूस का विद्रोह नेपोलियन के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। उसके मॉस्को अभियान की बर्बादी इतिहास में प्रसिद्ध हो गयी है। पेरिस लौटकर नेपोलियन ने पुन: एक सेना एकत्र की किंतु लाइपत्सिग (लीप्ज़िग) में उसे फिर प्रशा, रूस और आस्ट्रिया की संमिलित सेनाओं ने हराया। चारों ओर राष्ट्रीय संग्राम छिड़ जाने से वह सक्रिय रूप से किसी एक राष्ट्र को न दबा सका तथा १८१४ ई॰ में एल्बा द्वीप (एल्बा आयलैंड) भेज दिया गया। मित्र राष्ट्रों की सेनाएं वापस भी नहीं हो पायीं थीं कि सूचना मिली कि नेपोलियन का शतदिवसीय शासन शुरू हुआ। अत: मित्र राष्ट्रों ने उसे १८१५ में वाटरलू के युद्ध में हराकर सेंट हेलेना (स्त. हेलेना) का कारावास दिया। वहाँ १८२१ ई॰ में पाँच मई को उसकी मृत्यु हुई। नेपालियों के बदलाव नेपोलियन बोनापार्ट ने १७९९ में सत्ता को हाथों में लेकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करने तथा फ्रांस को प्रशासनिक स्थायित्व प्रदान करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में सुधार किए। वस्तुतः डायरेक्टरी के शासन को समाप्त कर नेपालियन ने सत्ता की थी और फ्रांस की जनता ने उस परिवर्तन को स्वीकार किया था तो इसका कारण था वह अराजकता और अव्यवस्था से उब चुकी थी। अतः नेपोलियन के लिए यह जरूरी था कि वह आंतरिक क्षेत्र में एक सुव्यवस्थित शासन और कानून व्यवस्था की स्थापना करे। प्रथम काउंसल बनने के बाद नेपोलियन ने फ्रांस के लिए एक नवीन संविधाान का निर्माण किया जो क्रांति युग का चौथा संविधान था। इसके द्वारा कार्यपालिका शक्ति तीन कांउसलरों में निहित कर दी गई। प्रधान काउंसल को अन्य काउंसलरों से अधिक शक्ति प्राप्त थी। वास्तव में संविधान में गणतंत्र का दिखावा तो जरूर था लेकिन राज्य की सम्पूर्ण सत्ता नेपालियन के हाथों में चला गया नेपोलियन ने शासन व्यवस्था का केंन्द्रीकरण किया और डिपार्टमेण्त्स तथा डिस्ट्रिक्ट की स्थानीय सरकारों को समाप्त कर प्रीफेक्ट (पर्फेक्ट) एवं सब-प्रीफेक्ट्स की नियुक्ति की। इनकी नियुक्ति तथा गांव और शहरों के सभी मेयरों की नियुक्ति सीधे केंन्द्रीय सरकार द्वारा की जाने लगी। इस प्रकार प्रशासन के क्षेत्र नेपोलियन ने इन अधिकारियों पर पर्याप्त नियंत्रण रख प्रशासन को चुस्त-दुरूस्त बनाए रखा साथ ही योग्यता के आधार पर इनकी नियुक्ति की। प्रशासनिक क्षेत्रों में नेपोलियन के सुधार एक प्रकार से क्रांति के विरोधी के रूप में थे क्योंकि नेशनल एसेम्बली ने क्रांति के दौरान प्रशासनिक ढांचे का पूर्ण विकेन्द्रीकरण कर दिया था तथा देश का शासन चलाने का दायित्व निर्वाचित प्रतिनिधियों को दिया गया था लेकिन नेपालियन ने इस व्यवस्था को उलट दिया और क्रांतिपूर्व व्यवस्था को फिर से स्थापित किया। उस दृष्टि से वह क्रांति का हंता था। नेपोलियन ने फ्रांस की जर्जर आर्थिक स्थिति से उसे उबारने का प्रयत्न किया। इस क्रम में उसने सर्वप्रथम कर प्रणाली को सुचारू बनाया। कर वसूलने का कार्य केन्द्रीय कर्मचारियों के जिम्मे किया तथा उसकी वसूली सख्ती से की जाने लगी। उसने घूसखोरी, सट्टेबाजी, ठेकेदारी में अनुचित मुनाफे पर रोक लगा दी। उसने मितव्ययिता पर बल दिया और फ्रांस की जनता पर अनेक अप्रत्यक्ष कर लगाए। नेपोलियन ने फ्रांस में वित्तीय गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने के लिए बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना की जो आज भी कायम है। राष्ट्रीय ऋण को चुकाने के लिए उसने एक पृथक कोष की भी स्थापना की। नेपोलियन ने जहां तक संभव हुआ सेना के खर्च का बोझ विजित प्रदेशों पर डाला और फ्रांस की जनता को इस बोझ से मुक्त रखने की कोशिश की। नेपोलियन ने कृषि के सुधार पर भी बल दिया और बंजर और रेतीले इलाके को उपजाऊ बनाने की योजना बनाई। व्यापार के विकास के लिए नेपोलियन ने आवागमन के साधनों की तरफ पर्याप्त ध्यान दिया। सड़कें, नहरें बनवाई गई विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की प्रगति के लिए यांत्रिक शिक्षा की व्यवस्था की। फ्रांसीसी औद्योगिक वस्तुओं को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रदर्शनी के आयोजन को बढ़ावा दिया और स्वदेशी वस्तुओं एवं उद्योगों को प्रोत्साहन दिया। बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए निर्माण कार्य को प्रोत्साहन दिया। इस तरह नेपोलियन ने फ्रांस को जर्जर और दिवालियेपन की स्थित से उबारा। किन्तु आर्थिक सुधारों की दृष्टि से भी नेपोलियन के कार्य क्रांति विरोधी दिखाई देते हैं। क्रांतिकाल में प्रत्यक्ष करो पर बल दिया गया था जबकि नेपोलियन ने अप्रत्यक्ष करों पर बल देकर पुरातन व्यवस्था को स्थापित करने की कोशिश की। इसी प्रकार नेपोलियन ने वाणिज्यिवादी दर्शन को प्राथमिकता देकर क्रांतिविरोधी मानसिकता का प्रदर्शन किया। उसका मानना था कि राज्य को कोष की सुरक्षा एवं व्यापार में संतुलन लाने के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करना होगा जबकि क्रांति का बल तो मुक्त व्यापार पर था। शिक्षा संबंधी सुधार नेपालियन ऐसे नागरिकों को चाहता था जो उसके एवं उसके तंत्र के प्रति विश्वास रखे। इसके लिए उसने शिक्षा के राष्ट्रीय एवं धर्मनिरपेक्ष स्वरूप अपनाते हुए सुधार किए। शिक्षा को प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तरों पर संगठित किया। सरकार के द्वारा नियुक्त शिक्षकों की सहायता से चलने वाले इन स्कूलों में एक ही पाठ्यक्रम, एक ही पाठ्यपुस्तकें एक ही वर्दी रखी जाती थी। नेपोलियन ने पेरिस में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसमें लैटिन, फ्रेंच, विज्ञान, गणित इत्यादि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यह यूनिवर्सिटी विश्वविद्यालय के सामान्य अर्थ में कोई यूनिवर्सिटी नहीं थी वरन् प्राथमिक से उच्चतर शिक्षा तक की सभी संस्थाओं को एकसूत्र में बांधने वाली एक व्यवस्था की। शिक्षा पर अधिकाधिक सरकारी नियंत्रण रखना तथा विद्यार्थियों को शासन के प्रति निष्ठावान बनाना इसका उद्देश्य था। नेपोलियन ने शोध कार्यों के लिए इंस्टीच्यूट ऑफ फ्रांस की स्थापना की। नेपोलियन की नारी शिक्षा में कोई रूचि नहीं दिखाई। उनकी शिक्षा का भार धार्मिक संस्थाओं पर छोड़ दिया गया। फ्रांस की बहुसंख्यक जनता कैथोलिक चर्च के प्रभाव में थी। क्रांति के दौरान चर्च की शक्ति को कमजोर कर उसे राज्य के अधीन ले आया गया। चर्च की सम्पति का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और पादरियों को राज्य की वफादारी की शपथ लेने को कहा गया। इससे पोप नाराज हुआ और आम जनता को विरोध करने के लिए उकसाया। फलतः सरकार और आमजनता के बीच तनाव पैदा हो गया। नेपोलियन ने इसे दूर करने के लिए १८०१ से पोप के साथ समझौता किया जिसे कॉनकारडेट (कनकोर्डते) कहा जाता है। उसके निम्नलिखित प्रावधान थे। कैथलिक धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार किया गया। विशपों की नियुक्ति प्रथम काउंसलर के द्वारा होगी पर वे अपने पद में पोप द्वारा दीक्षित होंगे। शासन की स्वीकृति पर ही छोटे पादरियों की नियुक्ति विशप करेगा। सभी चर्च के अधिकारियों को राज्य के प्रति भक्ति लेना आवश्यक था। इस तरह चर्च राज्य का अंग बन गया और उसके अधिकारी राज्य से वेतन पाने लगे। गिरफ्तार पादरी छोड़ दिए गए और देश से भागे पादरियों को वापस आने की इजाजत दे दी गई। चर्च की जब्ज संपत्ति एवं भूमि से पोप ने अपना अधिकार त्याग दिया। क्रांति काल के कैलेण्डर को स्थगित कर दिया गया तथा प्राचीन कैलेण्डर एवं अवकाश दिवसों को पुनः लागू कर दिया गया। इस प्रकार नेपोलियन ने राजनीतिक उद्देश्यों से परिचालित होकर पोप से संधि की और क्रांतिकालीन अव्यवस्था को समाप्त कर चर्च को राज्य का सहभागी बनाया। प्रकारांतर से नेपोलियन ने चर्च के क्रांतिकालीन घावों पर मरहम लगाने की कोशिश की। किन्तु इस समझौते के द्वारा नेपोलियन ने कैथोलिक धर्म को राज्य धर्म बनाकर राज्य के धर्मनिरपेक्ष भावना को ठेस पहुंचाई। धर्म को राज्य का अंग मानने वाले नेपोलियन का पोप के साथ यह समझौता अस्थायी रहा क्योंकि १८०७ ई. में पोप के साथ उसे संघर्ष करना पड़ा तथा पोप के राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया। कानून संहिता (नेपोलियन कोड) का निर्माण नेपोलियन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और स्थायी कार्य था- विधि संहिता का निर्माण। वस्तुतः क्रांति के पहले फ्रांस की कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न थी और इतने प्रकार के कानून थे कि कानून का पालन कराने वालों को भी उनका ज्ञान नहीं था और क्रांति के दौरान भी यह अराजकता बढ़ गई थी। नेपोलियन ने इस अव्यवस्था को दूर किया। स्वयं नेपोलियन अपनी विधि संहिता को अपने ४० युद्धों से अधिक शक्तिशाली मानता था। इस कोड के द्वारा नेपोलियन ने फ्रांस में सार्वलौकिक कानून पद्धति की स्थापना की। नागरिक संहिता के तहत उसने परिवार के मुखिया का अधिकार सुदृढ़ किया। स्त्रियाँ पुरूषों के अधीन रखी गई और पति का कार्य पत्नी की रक्षा करना है। तलाक की पद्धति को कठिन बनाया गया। सिविल विवाह की व्यवस्था भी इस संहिता में की गई। इस प्रकार सिविल विवाह और तलाक की प्रथा को मान्यता देकर नेपोलियन ने यूरोप में इस बात का प्रचलन किया कि बिना पादरियों के सहयोग के भी समाज का काम चल सकता है। इस प्रकार अन्य संहिताएँ जैसे व्यापार संबंधी कानून संहिता, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोक. आदि बनाए गए। उसके व्यापारिक कोड में श्रमजीवियों के हितों की उपेक्षा की गई थी और उनके संघों पर प्रतिबन्ध को जारी रखा गया था। इस दृष्टि से नेपोलियन ने क्रांति के आदर्शों के विरूद्ध कार्य किया। इसके बावजूद इस विधि संहिता की महत्ता समूचे देश में कानून की एकरूपता प्रदान करने तथा व्यावहारिक रूप से न्याय व्यवस्था को आसान बनाने में थी। जहाँ-जहाँ नेपोलियन की सेनाएँ गई यह संहिता लागू की गई और नेपोलियन के पराजय के बाद भी बरकरार रही। यह नेपोलियन की एक स्थायी कीर्ति है। नेपोलियन के विधि संहिता में बुर्जुआ वर्ग के हितों पर ज्यादा जोर दिया गया है। भूमि संबंधी अधिकारी को और मजबूत बनाया गया और व्यक्ति संपति की रक्षा को और मजबूत बनाया गया और व्यक्तिगत संपति की रक्षा के लिए कई कानून बनाए। टे्रड यूनियन बनाना अपराध घोषित किया गया। मुकदमें की स्थिति में मजदूरों की दलीलों के बदले मालिकों की बातों को न्यायालयों को मानने को कहा गया। सामाजिक क्षेत्र में सुधार नागरिक संहिता का आधार सामाजिक समता भी है। विशेषाधिकार और सामंती नियम का संहिता में कोई स्थान नहीं था। बड़े पुत्र को संपत्ति का उत्तराधिकारी मानने का कानून भी नहीं था संपत्ति पर सभी पुत्रों को बराबरी का अधिकार दिया गया। नेपोलियन ने समाज में एक नवीन कुलीन वर्ग की स्थापना की। उसने आय के हिसाब से उपाधियों का क्रम निर्धारित किया। नेपोलियन का यह कार्य क्रांति के आदर्शों के विपरीत था। नेपोलियन के पतन के कारण युरोप राजनीतिक क्षितिज पर नेपोलियन का प्रादुर्भाव एक घूमकेतु की तरह हुआ और अपनी प्रक्रिया तथा परिश्रम के बल पर वह शीघ्र ही यूरोप का भाग्यविधाता बन बैठा। उसमें अद्भुत सैनिक तथा प्रशासनिक क्षमता से सभी को चकित कर दिया। परंतु उसकी शक्ति का स्तंभ जैसे बालु की दीबार पर खड़ा था। जो कुछ ही वर्षों में ध्वस्त हो गया वस्तुत: नेपोलियन का उत्थान और पतन चकाचौंध करने वाली उल्का के समान हुआ। वह युरोप के आकाश में सैनिक सफलता के बल पर चमकता रहा परन्तु पराजय के साथ ही उसके भाग्य का सितारा डूब गया। जिस साम्राज्य को कठिन परिश्रम के पश्चात कायम किया गया था, वह देखते ही देखते समाप्त हो गया उसके पतन के अनेक कारण थे जो निम्न प्रकार है। नेपोलियन असीम महात्वकांक्षी था। असीम महात्वकांक्षी किसी व्यक्ति के पतन का मुख्य कारण साबित होती है। नेपोलियन के साथ भी यही बात थी। युद्ध में जैसे-जैसे उसकी विजय होती गई वैसे-वैसे उसकी महात्वकांक्षा बढ़ाती गया और वह विश्व राज्य की स्थापना का स्वप्न देखने लगा। यदि थोड़े से ही वह संतुष्ट हो जाता और जीते हुए सम्राज्य की देखभाल करता और अपना समय उसमें लगाता तो उसे पतन की दुर्दशा नहीं देखनी पड़ती। नेपोलियन में साहस संयम और धैर्य कुट- कुट कर भरा था परन्तु उसकी दृष्टि में घृणा उसका प्रतिशोध उसका कर्तव्य तथा क्षमादान कलंक था। उसके चरित्र की बड़ी दुर्बलता यह थी कि वह संधि को सम्मानित समझौता नहीं मानता था। किसी भी देश की मैत्री उसके लिए राजनीतिक आवश्यकता से अधिक नहीं थी। धीरे- धीरे वह जिद्दी बनता गया उसे यह विश्वास था कि उसका प्रत्येक कदम ठीक है। वह कभी भूल नहीं कर सकता ल वह दूसरों की सलाह की उपेक्षा करने लगा। फलत: उसके सच्चे मित्र भी उससे दूर होते चले गए। नेपोलियन की व्यवस्था का सैन्यवाद पर आधारित होना- उसकी राजनीतिक प्रणाली सैन्यवाद पर आधारित थी जो इसके पतन का प्रधान कारण साबित हुआ। वह सभी मामलों में सेना पर निर्भर रहता था फलत: वह हमेशा युद्ध में ही उलझा रहा। वह यह भूल गया कि सैनिकवाद सिर्फ संकट के समय ही लाभकारी हो सकता है। जब तक फ्रांस विपत्तियों के बादल छाए रहे वहाँ की जनता ने उसका साथ दिया विपत्तियों के हटते ही जनता ने उसका साथ देना छोड़ दिया। फ्रांसीसी जनता की सहानुभुति और प्रेम का खोना उसके लिए घातक सिद्ध हुआ। उसके अतिरिक्त पराजित राष्ट्र उसके शत्रु बनते गए जो अवसर मिलते ही उसके खिलाफ उठ खड़े हुए। इतिहासकार काब्बन ने ठीक ही लिखा है। नेपोलियन का साम्राज्य युद्ध में पनपा था युद्ध ही उसके अस्तित्व का आधार था और युद्ध में ही उसका अंत हुआ। दोषपुर्ण सैनिक व्यवस्था- प्रारंभ में फ्रांस की सेना देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत थी। उसके समक्ष एक आदर्श का और वह एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए युद्ध करता था। परन्तु ज्यों- ज्यों उसके साम्राज्य का विस्तार हुआ सेना का राष्ट्रीय रूप विधितत होता गया। पहले उसकी सेना में फ्रांसीसी सैनिक ते परन्तु बाद में उसमें जर्मन इटालियन पुर्तेगाली और डच सैनिक शामिल कर लिया गया। फलत: उसकी सेना अनेक राज्यों की सेना बन गई। उनके सामने कोई आदर्श और उद्देश्य नहीं था। अत: उसकी सैनिक शक्ति कमजोर पड़ती गई और यह उसके पतन का महत्वपूर्ण कारण साबित हुआ। नौसेना की दुर्बलता- नेपोलियन ने स्थल सेना का संगठन ठीक से किया था किन्तु उसके पास शक्तिशालि नौसेना का अभाव था, जिसके कारण उसे इंगलैंड से पराजित होना पड़ा। अगर उसके पास शक्तिशाली नौसेना होती तो उसे इंगलैंड से पराजित नहीं होना पड़ता। विजित प्रदेशों में देशभक्ति का अभाव- उसने जिन प्रदेशों पर विजय प्राप्त की वहीँ की जनता के ह्रदय में उसके प्रति सदभावना और प्रेम नहीं था। वे नेपोलियन की शासन से घृणा करते थे। जब उसकी शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो उसके अधीनस्थ राज्य अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करने लगे। यूरोपीय राष्ट्र ने उसके खिलाफ संघ के लिए चतुर्थ गुट का निर्माण किया और इसी के चलते वाटरलु के युद्ध में उसे पराजित होना पड़ा। पोप से शत्रुता- महाद्वीपीय व्यवस्था के कारण उसने पोप को अपना शत्रु बना लिया। जब पोप ने उसी महाद्वीपीय व्यवस्था को मानने से इंकार कर दिया तो उसने अप्रैल १८०८ में रोम पर अधिकार कर लिया। और १८०९ ई. में पोप को बंदी बना लिया फलत: कैथोलिकों को यह विश्वास हो गया कि नेपोलियन ने केवल राज्यों की स्वतंत्रता नष्ट करने वाला दानव है। वरना उनका धर्म नष्ट करने वाला भी है। कहा जाता है कि उसकी पराज वाटरलु के मैदान में न होकर मैनचेस्टर के कारखानों और बरकिंगधन के लोहे के भदियाँ में हुई। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरुप इंगलैंड में बड़े -२ कारखाने खोले गए और देखते ही देखते इंगलैंड समृद्ध बन गया। फलत: वह अपनी सेना की आधुनिक हत्यार से सम्पन्न कर सका जो नेपोलियन के लिए घातक सिद्ध हुआ। महाद्वीपीय व्यवस्था उसकी जबर्दस्त भुल थी। वह इंगलैंड को सबसे बड़ा शत्रु मानता था। इंगलैंड की शक्ति का मुख्य आधार नौसेना और विश्वव्यापी व्यापार था ल उसकी नौशक्ति को नेपोलियन समाप्त नहीं कर सका इसलिए उसके व्यापार पर आघात करने की चेष्टा की गई। इसी उद्देश्य से उसने महाद्वीपीय व्यवस्था को जन्म दिया उसने आदेश जारी किया कि कोई देश इंगलैंड के साथ व्यापार नहीं कर सकता है। और न तो इंगलैंड की बनी हुई वस्तु का इस्तेमाल कर सकता है। यह नेपोलियन की भयंकर भूल थी। इस व्यवस्था ने उसे एक ऐसे जाल में फसा दिया जिससे निकलना मुश्किल हो गया। इसलिए महाद्वीपीय व्यवस्था इसके पतन का मुख्य कारण माना जाता है। पुर्तेगाल के साथ युद्ध पुर्तेगाल का इंगलैंड के साथ व्यापारिक संबंध था किन्तु नेपोलियन के दवाब के कारण उसे इंगलैंड से संबंध तोड़ना पड़ा। इससे पुर्तेगाल को काफी नुकसान हुआ। इसलिए उसने फिर से इंगलैंड के साथ व्यापारिक संबंध कायम किया। इसपर नेपोलियन ने क्रोधित होकर पुर्तेगाल पर आक्रमण कर दिया। यह भी नेपोलियन के लिए घातक सिद्ध हुआ। स्पेन के साथ संघर्ष- नेपोलियन की तीसरी भुल स्पेन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप था। इसके लाखों सैनिक मारे गए। फलत: इस युद्ध में उसकी स्थिति बिल्कुल कमजोर हो गई। जिससे उसके विरोधियों को प्रोत्साहन मिला जब नेपोलियन ने अपने भाई को स्पेन का राजा बनाया तो वहाँ के निवासी उस विदेशी को राजा मानने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने नेपोलियन की सेना को स्पेन से भगा दिया। उस विद्रोह से अन्य देशों को भी प्रोत्साहन मिला और वे भी विद्रोह करने लगे जिससे उसका पतन अवश्यम्भावी हो गया। रुस का अभियान- नेपोलियन ने रुस पर आक्रमण कर भारी भुल की रुस ने इसकी महाद्वीपीय व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। इसपर नेपोलियन ने रुस पर आक्रमण कर दिया। इसमें यद्धपि मास्को पर इसका आधिकार हो गया लेकिन उसे महान क्षति उठानी पड़ी। उसके विरोधियों ने आक्रमण करने की योजना बनाई। इसे आक्रमण में उसे पराजित होना पड़ा। अनेक युद्ध में लगातार व्यस्त रहने के कारण वह थक चुका था ५० सैलानियों ने लिखा है नेपोलियन के पतन का समस्त कारण एक ही शब्द थकान में निहित है। ज्यों- ज्यों वह युदध में उलझता गया त्यों- २ उसकी शक्ति कमजोर पड़ती गई वह थक गया और उसके चलते भी उसका पतन जरुरी हो गया। उसके पतन के लिए उसके सगे संबधी भी कम उत्तरदायी नहीं थे। हलांकि वह अपने संबंधियों के प्रति उदारता का बर्ताव करता था। लेकिन जब भी वह संकट में पड़ता था तो उसके संबंधी उसकी मदद नहीं करते थे। चतुर्थगुट के संगठन- नेपोलियन की कमजोरी से लाभ उठाकर उसके शत्रुओं ने चतुर्थ गुट का निर्माण किया और मित्र राष्ट्रों ने उसे पराजित किया। उसे पकड़ कर सलबाई भेजा गया और उसे वहाँ का स्वतंत्र शासक बनाया गया लेकिन नेपोलियन वहाँ बहुत दिनों तक नहीं रह सका वह शीघ्र ही फ्रांस लौट गया और वहाँ का शासक बन बैठा। लेकिन इसबार वह सिर्फ सौ दिनों तक के लिए सम्राट रहे। मित्र राष्ट्रों ने १८ जुन १८15 ई. को वाटरलु के युद्ध में अंतिम रूप से पराजित कर दिया। वह पकड़ लिया गया मित्र राष्ट्रों ने उसे कैदी के रूप में सेंट हैलेना नामक टापू पर भेज दिया जहाँ ५२ वर्षों की आयु में १८21 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार उपर्युक्त सभी कारण प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से उसके पतन के लिए उत्तरदायी थे उसने युद्ध के द्वारा ही अपने साम्राज्य का निर्माण किया था और युद्धों के चलते ही उसका पतन भी हुआ। अर्थात जिन तत्वों ने नेपोलियन के साम्राज्य का निर्माण किया था उन्हीं तत्वों ने उसका विनाश भी कर दिया। (१) युद्ध दर्शन : वस्तुतः नेपोलियन का उद्भव एक सेनापति के रूप में हुआ और युद्धों ने ही उसे फ्रांस की गद्दी दिलवाई थी। इस तरीकें से युद्ध उसके अस्तित्व के लिए अनिवार्य पहलू हो गया था। उसने कहा भी "जब यह युद्ध मेरा साथ न देगा तब मैं कुछ भी नहीं रह जाऊंगा तब कोई दूसरा मेरी जगह ले लेगा।" अतः निरंतर युद्धरत रहना और उसमें विजय प्राप्त करना उसके अस्तित्व के लिए जरूरी था। किन्तु युद्ध के संदर्भ में एक सार्वभौमिक सत्य यह है कि युद्ध समस्याओं का हल नहीं हो सकता है और न अस्तित्व का आधार। इस तरह नेपोलियन परस्पर विरोधी तत्वों को साथ लेकर चल रहा था। अतः जब मित्रराष्ट्रों ने उसे युद्ध में पराजित कर निर्वासित कर दिया तब इस पराजित नायक को फ्रांस की जनता ने भी भूला दिया। इस संदर्भ में ठीक ही कहा गया- "नेपोलियन का साम्राज्य युद्ध में पनपा, युद्ध ही उसके अस्तित्व का आधार बना रहा और युद्ध में ही उसका अंत होना था।" दूसरे शब्दों में नेपोलियन के उत्थान में ही उसके विनशा के बीच निहित थे। (२) राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार : नेपोलियन ने साम्राज्यवादी विस्तार कर दूसरे देशों में अपना आधिपत्य जमाया और हॉलैंड, स्पेन, इटली आदि के अपने संबंधियों को शासक बनाया। इस तरह दूसरे देशों में नेपोलियन का शासन विदेशी था। राष्ट्रवाद की भावना से प्रभावित होकर यूरोपीय देशों के लिए विदेशी शासन का विरोध करना उचित ही था। राष्ट्रपति विरोध के आगे नेपोलियन की शक्ति टूटने लगी और उसे जनता के राष्ट्रवाद का शिकार होना पड़ा। (३) महाद्वीपीय व्यवस्था : महाद्वीपीय नीति नेपोलियन के लिए आत्मघाती सिद्ध हुई। इस व्यवस्था ने नेपोलियन को अनिवार्य रूप से आक्रामक युद्ध नीति में उलझा दिया जिसके परिणाम विनाशकारी हुए उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसी संदर्भ में उसे स्पेन और रूस के साथ संघर्ष करना पड़ा। (४) नेपोलियन की व्यक्तिगत भूलें : स्पेन की शक्ति को कम समझना, मास्को अभियान में अत्यधिक समय लगाना, वाटरलू की लड़ाई के समय आक्रमण में ढील देना आदि उसकी भंयकर भूलें थीं। इसी संदर्भ में नेपोलियन ने कहा कि "मैने समय नष्ट किया और समय ने मुझे नष्ट किया।" इतना ही नहीं नेपोलियन ने इतिहास की धारा को उलटने की कोशिश की। वस्तुतः फ्रांसीसी क्रांति ने जिस सामंती व्यवस्था का अंत कर कुलीन तंत्र पर चोट कर राजतंत्र को हटा गणतंत्र की स्थापना की थी नेपोलियन ने पुनः उसी व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया और कई जगह अपने ही बंधु बांधवों को सत्ता सौंप वंशानुगत राजतंत्र की स्थापना की। क्रांति ने जिस राष्ट्रवाद को हवा दिया, नेपोलियन ने दूसरे देशों में उसी राष्ट्रवाद को कुचलने का प्रयास किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिन तत्वों से उसका साम्राज्य निर्मित था उन्हीं तत्वों ने उसका विनाश भी कर दिया। (५) स्पेन का नासूर (६) फ्रांस की नौसैनिक दुर्बलता इन्हें भी देखें नेपोलियन के युद्ध नेपोलियन की संहिता वाटरलू का युद्ध १७६९ में जन्मे लोग १८२१ में निधन फ़्रांस के लोग फ़्रांस का इतिहास
ऍन आर्बर् संयुक्त राज्य अमेरिका की मिशिगन राज्य का शहर है। एन आर्बर अमरीका के मिशिगन प्रांत का एक शहर है जो डेट्राइट से लगभग ३० मील दक्षिण पश्चिम में स्थित है। यह शहर मुख्य रूप से मिशिगन विश्वविद्यालय की वजह से जाना जाता है।
पर्यटन एक ऐसी यात्रा (ट्रेवल) है जो मनोरंजन (रिक्रिएइय्नल) या फुरसत के क्षणों का आनंद (लेज़र) उठाने के उद्देश्यों से की जाती है। विश्व पर्यटन संगठन (वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गनिज़शन) के अनुसार पर्यटक वे लोग हैं जो "यात्रा करके अपने सामान्य वातावरण से बाहर के स्थानों में रहने जाते हैं, यह दौरा ज्यादा से ज्यादा एक साल के लिए मनोरंजन, व्यापार, अन्य उद्देश्यों से किया जाता है, यह उस स्थान पर किसी ख़ास क्रिया से सम्बंधित नहीं होता है।" पर्यटन दुनिया भर में एक आरामपूर्ण गतिविधि के रूप में लोकप्रिय हो गया है। २००७ में, ९०३ मिलियन से अधिक अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के आगमन के साथ, २००६ की तुलना में ६.६ % की वृद्धि दर्ज की गई। २००७ में अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक प्राप्तियां उसड ८५६ अरब थी। विश्व अर्थव्यवस्था में अनिश्चितताओं के बावजूद, २००८ के पहले चार महीनों में आगमन में ५ % की वृद्धि हुई, यह २००७ में समान अवधि में हुई वृद्धि के लगभग समान थी। कई देशों जैसे इजिप्ट, थाईलैंड और कई द्वीप राष्ट्रों जैसे फिजी के लिए पर्यटन बहुत महत्वपूर्ण है, क्यों कि अपने माल और सेवाओं के व्यापार से ये देश बहुत अधिक मात्रा में धन प्राप्त करते हैं और सेवा उद्योग (सर्विस इंडस्ट्रीज) में रोजगार के अवसर पर्यटन से जुड़े हैं। इन सेवा उद्योगों में परिवहन (ट्रांसपोर्ट) सेवाएँ जैसे क्रूज पोत और टैक्सियाँ, निवास स्थान जैसे होटल और मनोरंजन स्थल और अन्य आतिथ्य उद्योग (हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री) सेवाएँ जैसे रिज़ोर्ट शामिल हैं। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से मानव के विकास, सुख और शांति की संतुष्टि व ज्ञान के लिए पर्यटन को अति आवश्यक माना गया है। हमारे देश के ऋषि मुनियों ने भी पर्यटन को प्रथम महत्व दिया है। प्राचीन गुरुओं (ब्राह्मणों, ऋषि - तपस्वियों) ने भी यह कह कर कि "बिना पर्यटन मानव अन्धकार प्रेमी होकर रह जायेगा।" पाश्चात्य विद्वान् संत आगस्टिन ने तो यहाँ तक कह दिया कि "बिना विश्व दर्शन ज्ञान ही अधुरा है।" पंचतंत्र नामक भारतीय साहित्य दर्शन में कहा गया है "विधाक्तिम शिल्पं तावन्नाप्यनोती मानवः सम्यक यावद ब्रजति न भुमो देशा - देशांतर:।" हुनज़िकर और क्रैफ ने, सन् १९४१ में पर्यटन को इस प्रकार से परिभाषित किया "पर्यटन गैर निवासियों की यात्रा और उनके ठहरने से उत्पन्न सम्बन्ध और प्रक्रियाओं का योग है, ये लोग यहाँ स्थायी रूप से निवास नहीं करते हैं और यहाँ पर कमाई की किसी गतिविधि से नहीं जुड़े हैं" १९७६ में, इंग्लैंड की पर्यटन सोसायटी ने इसे निम्नानुसार परिभाषित किया" पर्यटन लोगों का किसी बाहरी स्थान पर अस्थायी और, अल्पकालिक गमन है, पत्येक गंतव्य स्थान में ठहरने के दोरान पर्यटक सामान्यतया यहाँ रहते हैं और काम करते हैं। इसमें सभी उद्देश्यों के लिए गमन शामिल है।"इन १९८१, इंटरनेशनल असोसिएशन ऑफ़ साईंटिफिक एक्सपर्ट्स इन टूरिज्म ने पर्यटन को घर के वातावरण के बाहर चयनित विशिष्ट गतिविधि के रूप में परिभाषित किया। संयुक्त राष्ट्र ने १९९४ में पर्यटन आंकडों के अनुसार इसे तीन रूपों में वर्गीकृत किया: घरेलू पर्यटन, जिसमें किसी देश के निवासियों की केवल उनके देश के अन्दर यात्रा शामिल है, इनबाउंड पर्यटन जिसमें गैर निवासियों की किसी देश में यात्रा शामिल है; और आउटबाउंड पर्यटन, जिसमें निवासियों की दूसरे देश में यात्रा शामिल है। संयुक्त राष्ट्र ने पर्यटन के तीन बुनियादी रूपों को मिलाकर इसकी तीन विभिन्न श्रेणियां व्युत्पन्न की, ये हैं; घरेलू पर्यटन, इनबाउंड पर्यटन और राष्ट्रीय पर्यटन. जिसमें घरेलू पर्यटन, आउटबाउंड पर्यटन; और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन शामिल है, जो इनबाउंड पर्यटन और आउटबाउंड पर्यटन से बना है।इंट्राबाउंड पर्यटन कोरिया पर्यटन संगठन (कोरिया टूरिज्म ऑर्गनिज़शन) के द्वारा दिया गया एक शब्द है और इसे कोरिया में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता हैं। इंट्राबाउंड पर्यटन, घरेलू पर्यटन से नीतिनिर्माण प्रक्रिया तथा राष्ट्रीय पर्यटन नीतियों के कार्यान्वयन में भिन्न है। हाल ही में, पर्यटन उद्योग इन बाउंड पर्यटन से इंट्राबाउंड पर्यटन की और स्थानांतरित हो गया है क्योंकि कई देश इनबाउंड पर्यटन के लिए कठिन प्रतियोगिता का अनुभव कर रहे हैं। कुछ राष्ट्रीय नीति निर्माताओं ने स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान करने के लिए इंट्रा बाउंड पर्यटन को बढ़ावा देने को प्राथमिकता दी है। ऐसे कुछ उदहारण हैं; संयुक्त राज्य में "सी अमेरिका", मलेसिया में "मलेशिया ट्रूली एशिया", कनाडा में "गेट गोयंग कनाडा" फिलीपींस में "वॉ फिलीपींस", सिंगापुर में "यूनीक्व्ली सिंगापुर", न्यूजीलैण्ड में "१००% पूरे नव ज़ीलैंड" और भारत में "इंक्रेडिबल इंडिया" . विश्व पर्यटन के आँकड़े और रैंकिंग ऐसे देश जहाँ लोग सबसे ज्यादा घूमने जाते हैं। विश्व पर्यटन संगठन (वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गनिज़शन) निम्न १० देशों को अंतरराष्ट्रीय यात्रियों की संख्या के आधार पर सबसे अधिक दौरा किए जाने वाले देश बताती है। २००६ की तुलना में, यूक्रेन और तुर्की रूस, आस्ट्रिया और मेक्सिको को पीछे छोड़ते हुवे शीर्ष दस की सूची में प्रवेश कर गए हैं। सबसे अधिक दौरा किए जाने वाले देश यूरोपीय महाद्वीप में ही बने हुए हैं . अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन प्राप्ति विश्व पर्यटन संगठन (वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गनिज़शन) ने अपनी रिपोर्ट में निम्न १० देशों को २००७ के लिए शीर्ष के १० पर्यटन अर्जकों में शामिल किया है। यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनमें से अधिकांश यूरोपीय महाद्वीपमें हैं लेकिन अभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका शीर्ष का अर्जक है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के शीर्ष स्पेंडरस विश्व पर्यटन संगठन (वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गनिज़शन) के अनुसार निम्न १० देशों ने २००७ के लिए अंतरराष्ट्रीय पर्यटन पर सबसे अधिक खर्च किया है। एक पंक्ति में पांचवें साल के लिए, जर्मन पर्यटक सबसे ज्यादा खर्च करते हैंड्रेजनर बैंक (ड्रेजनर बैंक) अध्ययन का पूर्वानुमान है कि २००८ के लिए जर्मनी और यूरोप के लोग सबसे ज्यादा खर्च करने वाले रहेंगे क्योंकि अन्य गंतव्यों के पक्ष में यु एस के लिए अधिक मांग के साथ अमेरिकी डॉलर के विपरीत यूरो अधिक शक्तिशाली है। सबसे ज्यादा आकर्षक स्थान फोर्ब्स ट्रैवलर ने २००७ में पर्यटन की दृष्टि से दुनिया के ५० सबसे अधिक आकर्षक देशों की सूची जारी की, जिसमें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही प्रकार के पर्यटक शामिल हैं। इस ५० की सूची में निम्न १० शीर्ष के आकर्षण हैं, उसके बाद कुछ अन्य प्रसिद्ध साईट्स हैं; यह ध्यान देने योग्य बात है की शीर्ष ५ में से ४ और शीर्ष में से ६ उत्तर अमेरिका महाद्वीप में हैं . धनी लोगों ने हमेशा दुनिया की बड़ी इमारतों और कलाकृतियों को देखने के लिए दुनिया के दूर दूर के क्षेत्रों तक यात्रा की है, ऐसा वे नई भाषाएँ जानने (ल्र्न नव लैंग्वेएज), संस्कृतियों का अनुभव करने के लिए, और नए और अलग स्वाद के व्यंजनों (कुजीन) को चखने के लिए करते आए हैं। बहुत पहले रोमन गणराज्य (रोमन रिपब्लिक) के समय में कुछ स्थान जैसे बैए (बैए) अमीर लोगों के लिए लोकप्रिय तटीय रिसोर्ट थे। शब्द पर्यटन का प्रयोग १८११ में किया गया और पर्यटक का १८४० में. १९३६ में लीग ऑफ नेशंस (लीग ऑफ नेशन्स) ने विदेशी पर्यटकों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया जो कम से कम चौबीस घंटे के लिए विदेश यात्रा करते हैं। उत्तराधिकारी, संयुक्त राष्ट्र ने इस परिभाषा में १९४५ में संशोधन किया और इसमें अधिकतम ६ माह का प्रवास शामिल कर दिया. पूर्व बीसवीं शताब्दी ऐसा कहा जा सकता है कि यूरोपीय पर्यटन ने मध्ययुगीन तीर्थयात्रा को आरम्भ किया है। यद्यपि कैंटरबरी कहानियों (केंटरबूरी टेल्स) में बताया गया है कि तीर्थयात्री प्रारंभिक रूप से धार्मिक कारणों से यात्रा पर जाते थे, फ़िर भी इसे अवकाश (होलिडे) माना गया है (शब्द होलिडे ख़ुद 'होली डे' अर्थात पवित्र दिन से व्युत्पन्न हुआ है जो फुर्सत के क्षणों से सम्बंधित है।) तीर्थ स्थान भी पर्यटन के पहलू से कई सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं जिसमें शामिल है- ब्रिंगिंग बऐक सोवेनिर्स, विदेशी बैंकों से ऋण की प्राप्ति, (मध्य काल में यहूदियों और लोंबर्ड्स (लोंबर्ड्स) ने अन्तर राष्ट्रीय नेटवर्क का उपयोग शुरू किया) और परिवहन के उपस्थित रूपों के आधार पर उपलब्ध स्थान का उपयोग शुरू किया गया (जैसे विगो (विगो) के लिए शेंटिएगो दे कम्पोस्टेला (शेंटिएगो दे कम्पोस्टेला) के तीर्थयात्रियों के द्वारा मध्यकालीन इंग्लिश वैन शिप्स बाउंड का उपयोग). १७ वीं सदी के दौरान, इंग्लैंड में एक बड़ी यात्रा (ग्रैंड टूर) पर जाना फैशन बन गया।कुलीन (नोबिलिटी) और भद्र (जेंट्री) लोगों के पुत्र शैक्षणिक अनुभव के लिए यूरोप के दौरे पर पर भेजे जाते थे। १८ वीं शताब्दी बड़ी यात्रा के लिए स्वर्ण युग था और कई पॉम्पियो बातोनी (पॉम्पियो बातोनी) के द्वारा रोम में बहुत से फैशनेबल आगंतुकों को चित्रित किया गया है।बैकपेकर (बऐकप्कर) की आधुनिक यात्रा बड़ी यात्रा के समान ही है, हालांकि सांस्कृतिक अवकाश भी महत्वपूर्ण है जैसे स्वान हैलेनिक (स्वान हेलेनिक) की पेशकश. स्वास्थ्य पर्यटन लंबे समय तक मौजूद रहा, लेकिन ऐसा अठारहवीं शताब्दी तक नहीं था कि यह महत्वपूर्ण बन गया। इंग्लैंड में यह स्पा (स्पा) से संबद्ध था, ऐसे स्थान जहाँ स्वास्थ्य कारी मिनरल जल (मिनरल वाटर) दिया जाता था, गठिया (गौत) से लेकर यकृत विकार और ब्रोन्काइटिस (ब्रोंकाइटिस) जैसी बिमारियों का ईलाज किया जाता था। सबसे लोकप्रिय रिसॉर्ट् थे स्नान (बाथ), चेल्टनहाम (चेल्टेनहम), बऊटन (बऊटन), हैरोगेट (हरोगट) और टुनब्रिज वेल्स (टुनब्रिज वेल्स).'ऐसे जल स्थानों ' पर जाने वाले लोगों को गेंदों (बॉल्स) और अन्य मनोरंजक चीजों का उपयोग करने कि अनुमति दी जाती थी।कॉनटिनेंटल स्पा जैसे कार्लसबाद (कार्लोव्य वेरी (कार्लोव्य वेरी)) ने उन्नीसवीं सदी के कई फैशनेबल यात्रियों को आकर्षित किया। स्वयं पर्यटन की प्रारंभिक शुरुआत से लेकर निर्माणात्मक पर्यटन ने अपना अस्तित्व सांस्कृतिक पर्यटन (कल्चरल टूरिज्म) के रूप में बनाये रखा है। यूरोप में लोगों को अपने पिछले समय की बड़ी यात्राओं (ग्रैंड टूर) की याद आई, जब कुलीन परिवार के पुत्रों को (ज्यादातर इंटरैक्टिव) शैक्षिक अनुभव के उद्देश्य से यात्रा पर भेजा जाता था। अभी हाल ही में, क्रिस्पिन रेमंड और ग्रेग रिचर्ड्स, के द्वारा निर्माणात्मक पर्यटन को अपना नाम दिया गया है, जो एसोसिएशन फॉर टूरिज़्म एंड लीज़र एजुकेशन के सदस्य हैं, इन्होने यूरोपीय आयोग (यूरोपियन कमिश्न) के लिए कई परियोजनाओं को निर्देशित किया है, जिसमें सांस्कृतिक पर्यटन, या शिल्प पर्यटन स्थायी पर्यटन शामिल है (सुस्तैनेबल टूरिज्म).इन्होने "निर्माणात्मक पर्यटन" को मेजबान समुदाय की संस्कृति में यात्रियों की सक्रिय भागीदारी से सम्बंधित पर्यटन के रूप में परिभाषित किया है, जो अनौपचारिक शिक्षा और आपस में बैठकर की गई कार्य शालाओं के माध्यम से कार्यान्वित होती हैं। साथ ही, "निर्माणात्मक पर्यटन" की अवधारणा को उच्च स्तरीय संगठनों जैसे उनेस्को (यूनेस्को) के द्वारा अपनाया गया है, जो क्रिएटिव शहर नेटवर्क (क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क) के माध्यम से निर्माणात्मक पर्यटन को एक प्रामाणिक (ऑथेंटिक) अनुभव मानते हैं, यह एक स्थान (प्लेस) के विशेष सांस्कृतिक लक्षणों को सक्रीय रूप से समझने में मदद करता है। मनोरंजन यात्रा यूनाइटेड किंगडम के उद्योगीकरण से सम्बंधित थी;--यह पहला यूरोपीय देश था जिसने बढती हुई औद्योगिक जनसंख्या के मनोरंजन को बढावा दिया.प्रारम्भ में, यह मशीनरी के मालिकों के उत्पादन, कुलीन तंत्र की आर्थिक अवस्था, फैक्टरी के मालिक और व्यापारियों पर लागू हुआ .इसमें नया मध्यम वर्ग (मिडिल क्लास) शामिल है।कॉक्स एंड किंग्स (कॉक्स & किंग्स) १७५८ में गठित हुई पहली आधिकारिक यात्रा कंपनी थी। बाद में, श्रमिक वर्ग (वर्किंग क्लास) फुरसत के समय का लाभ उठाने लगा. ब्रिटिश मूल का यह नया उद्योग कई जगहों के नामों से परिलक्षित होता है। निस, फ्रांस में फ्रेंच रिविएरा (फ्रेंच रिविएरा) पर समुद्र के सामने सबसे पहले स्थापित होली डे रिसोर्ट प्रोमिनाड देस आंग्लाइस के नाम से जाना जाता है; यूरोप महाद्वीप (कॉनटिनेंटल यूरोप) में कई अन्य ऐतिहासिक रिसोर्ट जो बहुत पुराने होटल हैं उनके नाम हैं होटल ब्रिस्टल, होटल कार्लटन या होटल मजेस्टिक जो अंग्रेजी ग्राहकों की प्रभाविता को प्रर्दशित करते हैं . कई पर्यटक फुरसत में गर्मी और सर्दियों दोनों में कटिबंधों में जाते हैं। यह प्रायः क्यूबा, इस डोमिनिक गणराज्य, थाईलैंड, उत्तर क्वींसलैंड (नॉर्थ क्वीन्सलैंड) ऑस्ट्रेलिया और फ्लोरिडा (फ्लोरिडा) में संयुक्त राज्य अमेरिका में किया जाता है।. शीतकालीन खेलों (विंटर स्पोर्ट्स) की खोज बड़े पैमाने पर ब्रिटिश स्वछंद वर्गों, के द्वारा की गई, प्रारम्भ में १८६४ में स्विस गांव जरमेट (जर्मत) (वलायस (वलायस)) और सेंट मोरित्ज़ (स्त मोरिट्ज़) में इन्हे खोजा गया। पहले पेकेज्ड शीतकालीन अवकाश खेल (पऐकेज विंटर स्पोर्ट्स होलिडेस)१९०२ में एडलबोडन (एडेलबोडन), स्विट्जरलैंड में हुए.शीतकालीन खेल इन स्वछंद लोगों के लिए एक प्राकृतिक जवाब था जो ठंडे मौसम के दौरान मनोरंजन की तलाशकर रहे थे। मेजर स्की रिसॉर्ट् विभिन्न यूरोपीय देशों, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, कोरिया, चिली और अर्जेंटीना के मुख्य भागों में स्थित हैं। जनसंचार यात्रा तकनीक में सुधार के साथ ही विकसित हो सकती थी जिसने बड़ी संख्या में लोगों को कम समय में घूमने के स्थानों पर परिवहन (ट्रांसपोर्ट) में मदद की, अब ज्यादा संख्या में लोग खाली समय का आनंद उठाने लगे. संयुक्त राज्य अमेरिका में यूरोपीय शैली में, प्रथम महान समुद्र तटीय सैरगाह बनाया गया, यह अटलांटिक सिटी, न्यू जर्सी (अटलांटिक सिटी, नव जर्सी) और लंबे द्वीप में था। हाल ही में हुए विकास पिछले कुछ दशकों से पर्यटन में रूझान एक फेशन बन गया है, विशेष रूप से यूरोप में जहाँ छोटी अवधि के लिए अंतरराष्ट्रीय यात्रा पर जाना आम हो गया है।पर्यटकों के पास उच्च स्तर की आय, बहुत अधिक समय है और वे अधिक पढ़े-लिखे हैं, उनके पास परिष्कृत स्वाद है। अब बेहतर गुणवत्ता उत्पादों की मांग बढ़ गई है, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र किनारे पर छुट्टियाँ बिताने का बाजार विभाजित हो गया है; लोग अधिक विशेष सुविधाएँ चाहते हैं जैसे क्लब १८-३० (क्लब १८-३०), क्वीटर रेसोर्ट्स, परिवार उन्मुख छुट्टियों, या नीचे मार्केट-टारगेटेड गंतव्य होटल (डेस्टिनशन होटल). तकनीक और परिवहन ढांचे में विकास, जैसे जंबो जेट (जुम्बो जेट) और कम लागत वाली एयरलाइनों (लो-कोस्ट एयरलाइंस) और अधिक सुलभ हवाई अड्डों (एयरपोर्ट्स) ने कई प्रकार के पर्यटन को और अधिक किफायती बना दिया है। जीवन शैली में भी परिवर्तन आया है, जैसे सेवा निवृत लोग पर्यटन में समय बिताना पसंद करते हैं। पर्यटन उत्पादों की इंटरनेट बिक्री (इंटरनेट सल्स) ने इसे और अधिक सुलभ बना दिया है। कुछ साइटों ने अब गतिशील पैकेजिंग (डाइनामिक पकेजिंग), की शुरुआत की है जिसमें ग्राहक के अनुरोध पर टेलर-मेड पऐकेज के लिए एक समावेशी कीमत का उद्धरण किया जाता है। पर्यटन में कुछ नुकसान भी रहे हैं, जैसे ११ सितंबर २००१ के हमलों (सिप्तंबर ११, २००१ आताक्स) और आतंकवाद ने बाली और यूरोपीय शहरों में पर्यटकों पर हमला बोल दिया.कनन (कनन) के समुद्र तटीय रिसोर्ट सहित कुछ पर्यटन स्थल पसंद बदलने के कारण अपनी लोकप्रियता खो चुके हैं।इस संदर्भ में, अत्यधिक निर्माण और पर्यावरणी विनाश पारंपरिक " सूर्य और समुद्र तट " पर्यटन से सम्बंधित हैं जो एक गंतव्य में धीमी गिरावट का कारण हो सकते हैं।स्पेन का कोस्टा ब्रवा (कोस्टा ब्रवा), जो १९६० और १९७० के बीच एक लोकप्रिय समुद्र तटीय स्थान रहा है अब अपने पर्यटन उद्योग में संकट का सामना कर रहा है। २६ दिसम्बर २००४ को २००४ हिंद महासागर में आए भूकंप के कारण एक सुनामी ने हिंद महासागर की सीमा से लगे हुए एशियाई देशों और मालदीव पर हमला कर दिया. दसियों हजारों लोगों ने जीवन खो दिया, और कई पर्यटकों की मृत्यु हो गई . इस स्थान पर विशाल सफाई अभियान के साथ पर्यटन को रोक दिया गया है, यह इस उद्योग पर संकट है। कई बार पर्यटन और यात्रा करना इन शब्दों का उपयोग एक दूसरे से बदल कर किया जाता है। इस संदर्भ में यात्रा की परिभाषा पर्यटन के समान है, लेकिन इसका तात्पर्य एक अधिक उद्देश्यपूर्ण यात्रा से है।पर्यटन और पर्यटक शब्दों का उपयोग कभी कभी पेजोरतिवेली किया जाता है, यह पर्यटन स्थल और उसकी संस्कृति में पर्यटकों की कम रुचि को दर्शाता है। जब किसी चिकित्सा की कीमत में विभिन्न देशों के बीच बहुत अधिक फर्क होता है तो लोग कम कीमत या बेहतर चिकित्सा के लिए यात्रा करते हैं इसे "चिकित्सा पर्यटन " कहते हैं। जैसे दक्षिण पूर्व एशिया, भारत और पूर्वी यूरोप (ईस्टर्न यूरोप) या विशेष चिकित्सा प्रक्रिया के सम्बन्ध में विभिन्न देशों की नियमन प्रणाली में अन्तर है उदहारण दंत चिकित्सा (डेंटिस्ट्री). शैक्षिक पर्यटन का विकास अध्यापन की बढती लोकप्रियता, ज्ञान के विकास और कक्षा के बाहर के वातावरण में तकनीकी प्रतिस्पर्धा के बढ़ने के कारण हुआ है। शैक्षिक पर्यटन में यात्रा का मुख्य उद्देश्य होता है, दूसरे देश की संस्कृति के बारे में जानना और सीखना (छात्र विनिमय कार्यक्रम और अध्ययन यात्रा) या भिन्न वातावरण में कक्षा के अन्दर अपनी सीखी हुई चीजो पर काम करना और उन्हें लागू करना.((अंतर्राष्ट्रीय व्यावहारिक प्रशिक्षण कार्यक्रम) अभी हाल ही में निर्माणात्मक पर्यटन को सांस्कृतिक पर्यटन के रूप में लोकप्रियता मिल गई है, इससे पर्यटकों ने गंतव्य देश की संस्कृति में सक्रिय रूप से भाग लिया है। कई देश इस प्रकार के पर्यटन विकास का उदहारण प्रस्तुत करते हैं, इसमें यू के, ब्रिटेन, स्पेन, इटली और न्यूजीलैंड शामिल हैं। पर्यटन के दोरान पर्यटक किसी साहसिक यात्रा की आशा रखते हैं, एक स्थानीय व्यक्ति से अलग, पर्यटक का नज़रिया गंतव्य को लेकर भिन्न होता है।[ निजी टूर मार्गदर्शक] किसी देश के बारे में तेजी से जानने का सबसे अच्छा तरीका है और स्थानीय लोगों की आय बढ़ने में मदद करता है। हाल के वर्षों में, दूसरी छुट्टियाँ मनाने का प्रचलन बढ़ गया है क्यों कि लोगों की विवेकाधीन आय में वृद्धि हुई है। एक पर्यटक रिजोर्ट के लिए प्रारूपिक संयोजन एक पैकेज है, जैसे सर्दियों में स्कींग होलीडे या एक शहर में सप्ताह के अंत में छुट्टियाँ मनाना या राष्ट्रीय उद्यान . पर्यटन रुचि का एक उभरता हुआ क्षेत्र काले " पर्यटन के रूप में लेनॉन एंड फोले (२०००) के द्वारा पहचाना गया है। इस प्रकार के पर्यटन में "काले" साइटों जैसे युद्ध भूमि, भयानक दृश्य या अपराधों के कृत्यों नरसंहार (जेनोसाइड) की क्रियाओं वाले स्थानों की यात्रा शामिल है, उदाहरण के लिए, एकाग्रता शिविर (कन्सेंट्रेशन कैंप्स). काला पर्यटन नैतिकता के लिए गंभीर ख़तरा है: क्या ऐसी साईटें देखने के लिए उपलब्ध होनी चाहियें, यदि ऐसा है तो प्रचार के तरीके की प्रवृति कैसी होनी चाहिए.काला पर्यटन विभिन्न उद्देश्यों के द्वारा संचालित एक छोटा सा आला बाजार है, जैसे शोक, स्मरण, दैत्य या जिज्ञासा और यहाँ तक कि मनोरंजन इसकी शुरुआती जड़ें मध्ययुगीन मेलों से आई हैं। विश्व पर्यटन संगठन (वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गनिज़शन) (उँव्टो) का पूर्वानुमान है कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन ४ % की औसत वार्षिक दर के साथ बढ़ता रहेगा. २०२० तक यूरोप सर्वाधिक लोकप्रिय गंतव्य रहेगा, लेकिन इसका हिस्सा जो १९९५ में ४६%था, ६०% गिर जाएगा.एकीकृत यात्रा की तुलना में लॉन्ग-हॉल की वृद्धि थोडी तेजी से होगी और २०२० तक इसका हिस्सा १९९५ में २४% से १८% तक बढ़ जाएगा. ई -वाणिज्य (ए-कमर्स) के आगमन के साथ पर्यटन उत्पाद इंटरनेट पर सबसे अधिक कारोबार वाले उत्पादों में से एक बन गए हैं।पर्यटन उत्पाद और सेवाएँ मध्यस्थों के माध्यम से उपलब्ध हो गई हैं, हालांकि पर्यटन प्रदाता (होटल, विमान सेवाओं, आदि) अपनी सेवाओं से सीधे बेच सकते हैं .इसने ऑन-लाइन और पारंपरिक दुकानों दोनों ही प्रकार के मध्यस्थों पर दबाव बनाया है। यह सुझाव दिया गया है कि, प्रति व्यक्ति पर्यटन व्यय और जिस अंश तक देश दुनिया के सन्दर्भ में भूमिका निभाते हैं, इन दोनों के बीच में गहरा सम्बन्ध है। न केवल पर्यटन उद्योग के महत्वपूर्ण आर्थिक योगदान, से स्थानीय अर्थ व्यवस्था को लाभ मिलता है, बल्कि यह उस विश्वास का भी संकेत है जिसके साथ दुनिया भर के नागरिक संसाधनों का लाभ उठाते हैं। यही कारण है कि पर्यटन में विकास का कोई भी अनुमान उस सापेक्ष प्रभाव का सूचक है जिसे प्रत्येक देश भविष्य में अनुभव करेगा. अंतरिक्ष पर्यटन कि उम्मीद २१ वीं सदी पहले चौथाई भाग में की जाती है, हालांकि पारंपरिक स्थलों की तुलना में पर्यटकों की संख्या कक्ष में कम रहेगी, फ़िर भी अंतरिक्ष एलेवेटर (स्पेस एलेवटर) अंतरिक्ष यात्रा को सस्ता बनाएगा. तकनीकी सुधार के कारण सौर शक्ति (सोलर-पॉवरड) या बड़े चलाये जाने योग्य (दिरिजिबल) हवाई जहाजों पर आधारित हवाई जहाज होटल बन्ने की सम्भावना है। पानी के नीचे होटल, जैसे हाइड्रोपॉलिस (हाइड्रोपॉलिस), के २००९ में दुबई में खुलने की संभावना है, इसका निर्माण किया जाएगा.समुद्र पर पर्यटकों का बहुत बड़े क्रूज जहाजों या शायद तैरते हुए शहरों (फ्लोटिंग सिटीज) के द्वारा स्वागत किया जाएगा. एक उच्च मात्रा के पर्यटकों को आकर्षित करना नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है जैसे न्यू यार्क शहर पर एक वर्ष में ३ लाख पर्यटकों का प्रभाव. या वातावरण को कमजोर बनाने की क्षमता. या २६ दिसम्बर २००४ की सुनामी का पर्यटकों पर प्रभाव पड़ा है। यह भी देखिए भारत पर्यटन भारत पर्यटन के बारे में जानकारी पर्यटन कोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - हरिदत्त शर्मा) अपनी यात्रा (हिन्दी में पर्यटक सूचना) भारत दर्शन (पर्यटन पर हिन्दी चिट्ठा) ३३५५, एन_२६४९_३४३८९_१_१_१_१_१, पर्यटन ००.हत्मल : उद्यमिता के लिए ओईसीडी केंद्र, लघु और स्थानीय उद्योग विकास पर्यटन और पर्यटन नीतियों में अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्तियों के बारे में जानकारी और आंकडों के लिए एक मूल्यवान संसाधन . ग्रामीण पर्यटन संसाधन उसदा, राष्ट्रीय कृषि पुस्तकालय, ग्रामीण सूचना केन्द्र . ग्रामीण अमेरिका में पर्यटन को बढ़ावा देना.उसदा, राष्ट्रीय कृषि पुस्तकालय, ग्रामीण सूचना केन्द्र .२००४ . ग्रामीण पर्यटन.उसदा, राज्य सहकारी अनुसंधान, शिक्षा और सेवा विस्तार आर्थिक अनुसंधान : यात्रा और पर्यटनका आर्थिक प्रभाव.यात्रा उद्योग एसोसिएशन ऑफ अमेरिका .२००४ . भारत में पर्यटन: एक सिंहावलोकन
राहुल शरद द्रविड़ (कन्नड़: , ) (जन्म - ११ जनवरी १९७३) भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे अनुभवी खिलाड़ियों में से एक हैं, १९९६ से वे इसके नियमित सदस्य रहें हैं। अक्टूबर २००५ में वे भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान के रूप में नियुक्त किये गए और सितम्बर २००७ में उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया। १६ साल तक भारत का प्रतिनिधित्व करते रहने के बाद उन्होंने वर्ष २०१२ के मार्च में अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय क्रिकेट के सभी फॉर्मैट से सन्यास ले लिया। वर्तमान में ये भारतीय क्रिकेट टीम के मुख्य कोच के पद पर कार्यरत हैं। द्रविड़ को वर्ष २००० में पांच विसडेन क्रिकेटरों में से एक के रूप में सम्मानित किया गया। द्रविड़ को २००४ के उद्घाटन पुरस्कार समारोह में आईसीसी प्लेयर ऑफ़ द ईयर और वर्ष के टेस्ट प्लेयर के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लम्बे समय तक बल्लेबाजी करने की उनकी क्षमता के कारण उन्हें दीवार के रूप में जाना जाता है, द्रविड़ ने क्रिकेट की दुनिया में बहुत से रिकॉर्ड बनाये हैं। द्रविड़ बहुत शांत व्यक्ति है। "दीवार" के रूप में लोकप्रिय द्रविड़ पिच पर लम्बे समय तक टिके रहने के लिए जाने जाते हैं। सुनील गावस्कर और सचिन तेंदुलकर के बाद वे तीसरे ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने टेस्ट क्रिकेट में दस हज़ार से अधिक रन बनाये हैं। १४ फ़रवरी २००७ को, वे दुनिया के क्रिकेट इतिहास में छठे और भारत में सचिन तेंडुलकर और सौरव गांगुली के बाद तीसरे खिलाड़ी बन गए जब उन्होंने एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में दस हज़ार रन का स्कोर बनाया। वे पहले और एकमात्र बल्लेबाज हैं जिन्होंने सभी १० टेस्ट खेलने वाले राष्ट्र के विरुद्ध शतक बनाया है। १८२ से अधिक कैच के साथ वर्तमान में टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा कैच का रिकॉर्ड द्रविड़ के नाम है। द्रविड़ ने १८ अलग-अलग भागीदारों के साथ ७५ बार शतकीय साझेदारी की है, यह एक विश्व रिकॉर्ड है। द्रविड़ का जन्म इंदौर, मध्य प्रदेश[६] में, कर्नाटक में रहने वाले एक मराठा परिवार[७] में हुआ। उनके पैतृक पूर्वज थंजावुर, थंजावुर के [[तमिल नाडू]] के अय्यर थे। वे बेंगलोर कर्नाटक में बड़े हुए.[९] वे मराठी और कन्नड़ बोलते है। विजय उनके छोटे भाई हैं। दोनों भाई एक साधारण मध्यम वर्ग के माहौल में बड़े हुए| द्रविड़ के पिता गे इलेक्ट्रिक के लिए काम करते थे, यह एक कम्पनी है जो जेम और अन्य संरक्षित खाद्य बनाने के लिए जानी जाती है, इसीलिए सेंट जोसेफ हाई स्कूल बेंगलोर में उनकी टीम के सदस्यों ने उन्हें उपनाम दे दिया जेमी. उनकी माँ पुष्पा, बंगलौर विश्वविद्यालय में वास्तुकला की प्रोफेसर थीं। राहुल द्रविड़ ने ४ मई २००३ को कर्नाटक के सेंट जोसेफ कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स बेंगलोर से डिग्री प्राप्त की। राहुल ने नागपुर की एक सर्जन डॉक्टर विजेता पेंधारकर से शादी की और ११ अक्टूबर २००५ को उनके बेटे समित, का जन्म हुआ। २७ अप्रैल २००९ को विजेता ने उनके दूसरे बेटे को जन्म दिया। [१२] द्रविड़ ने ११ वर्ष की उम्र में क्रिकेट खेलना शुरू किया और अंडर-१५, अंडर-१७ और अंडर-१९ के स्तर पर उन्होंने राज्य का प्रतिनिधित्व किया। राहुल की प्रतिभा को एक पूर्व क्रिकेटर केकी तारापोरे ने देखा जो चिन्ना स्वामी स्टेडियम में ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण शिविर में कोचिंग कर रहे थे। उन्होंने अपनी स्कूल टीम के लिए शतक बनाया। बल्लेबाजी के साथ साथ, वह विकेट कीपिंग भी कर रहे थे। हालांकि, बाद में उन्होंने पूर्व टेस्ट खिलाड़ियों गुंडप्पा विश्वनाथ, रोजर बिन्नी, बृजेश पटेल और तारापोर की सलाह पर विकेट कीपिंग बंद कर दी। फरवरी १९९१ में उन्हें पुणे में महाराष्ट्र के खिलाफ रणजी ट्रॉफी की शुरुआत करने के लिए चुना गया (अभी भी साथ साथ बेंगलोर में सेंट जोसेफ कोलेज ऑफ़ कामर्स में पढ़ रहे थे) साथ ही भावी भारतीय टीम के साथी अनिल कुंबले और जवागल श्रीनाथ ने ७ वीं स्थिति में खेलते हुए बल्लेबाजी के बाद एक ड्रा मेच में ८२ का स्कोर बनाया। उनका पहला पूर्ण सत्र १९९१-९२ में था, जब उन्होंने ६३.३ के औसत पर ३80 रन बना कर २ शतक बनाये। और दुलीप ट्रोफी में उन्हें दक्षिणी जोन के लिए चयनित किया गया। द्रविड़ के कैरियर की शुरुआत एक निराशाजनक तरीके से हुई जब मार्च १९९६ में विश्व कप के ठीक बाद सिंगापुर में सिंगर कप के लिए श्री लंका की क्रिकेट टीम के खिलाफ एक दिवसीय मेच खेलने के लिए उन्हें विनोद काम्बली की जगह लिया गया। इसके बाद उन्हें टीम से हटा दिया गया और फिर से इंग्लैंड के दौरे के लिए चुना गया उसके बाद उन्होंने सौरव गांगुली के साथ इंग्लैंड के खिलाफ दूसरे टेस्ट मैच में शुरुआत की, जब इसी दौरे में पहले टेस्ट मैच के बाद संजय मांजरेकर घायल हो गए। राहुल ने के दौरान ९५ का स्कोर बनाया। और मांजरेकर की वापसी पर ८४ का स्कोर बनाते हुए तीसरे टेस्ट के लिए अपनी इस स्थिति को बनाये रखा। ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अच्छे प्रदर्शन के बाद द्रविड़ ने १९९६-९७ में दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर भी इस स्थिति को बनाये रखा। उन्होंने जोहान्सबर्ग में तीसरे टेस्ट में तीसरे नंबर पर खेलते हुए १४८ और ८१ के साथ अपना मेडन शतक बनाया। प्रत्येक पारी में उनका स्कोर अधिकतम था जिसने उन्हें मेन ऑफ़ दी मेच का अवार्ड दिलाया, उन्होंने १९९६ में सहारा कप में पाकिस्तान के खिलाफ पहला अर्द्ध शतक बनाया, इस मेच में उन्होंने अपने दसवें मेच में, ९० का स्कोर बनाया। १९९८ के मध्य में इन १८ महीनों की समाप्ति तक उन्होंने एक श्रृंखला वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेली, एक श्रृंखला श्री लंका के खिलाफ खेली और एक घरेलू श्रृंखला ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेली, उन्होंने लगातार ५६.७ के औसत पर ९६४ रन बनाये। उन्होंने ११ अर्द्ध शतक लगाये लेकिन इसे ट्रिपल आंकडों में बदलने में समर्थ नहीं बन पाए. [१८] १९९८ के अंत में उन्होंने जिम्बाब्वे के खिलाफ एक टेस्ट मेच में अपना दूसरा शतक बनाया, दोनों परियों में १४८ और ४४ रन का अधिकतम स्कोर बना कर भी, वे भारत को हारने से नहीं रोक पाए [१९]. १९९९ में न्यूजीलैण्ड के खिलाफ नव वर्ष के टेस्ट मेच में दोनों परियों में शतक बनाने वाले तीसरे व्यक्ति बन गए, इससे पहले ये रिकॉर्ड विजय हजारे और सुनील गावस्कर ने बनाया था, उन्होंने १९० और १०३ * रन बनाये, : न्यूजीलैंड बनाम भारत हैमिल्टन, २-६ जनवरी १९९९. १९९९ की शुरुआत में उपमहाद्वीप में उनका दौरा मध्यम रहा, उन्होंने ३८.४२ के औसत के साथ २६९ रन बनाये, इसके बाद १९९९ के अंत में न्यूजीलेंड के खिलाफ एक शतक सहित ३९.८ के औसत पर 2३९ रन बनाये। [२०] इसके बाद ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ श्रृंखला में उनका प्रदर्शन खराब रहा। एक और घरेलू श्रृंखला में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ उनका प्रदर्शन खराब रहा जिसमें उन्होंने केवल १८.७ के औसत पर १८७ रन बनाये। उसके बाद उन्होंने २००* का स्कोर बनाया। यह दिल्ली में जिम्बाब्वे के खिलाफ उनका पहला दोहरा शतक था और साथ ही दूसरी पारी में भी ७०* रन बनाते हुए उन्होंने भारत को विजय प्राप्त करने में मदद की। १२ महीनों में पहली बार उन्होंने ५० को पार किया और इसके अगले टेस्ट में १६२ रन बनाये, उन्होंने ४३ के औसत पर दो मेच श्रृंखलाओं में ४३2 रन बनाए [२१]. २००१ में कोलकाता में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ तीन टेस्ट मैच की श्रृंखला के दूसरे टेस्ट में द्रविड़ ने वीवीएस लक्ष्मण के साथ मिलकर खेल के इतिहास में सबसे बड़ी जीत की वापसी की। इसे जारी रखते हुए, इस जोड़े ने मेच की दूसरी पारी में पांचवें विकेट के लिए ३७६ रन बनाए। द्रविड़ ने १८० का स्कोर बनाया जबकि लक्ष्मण ने २८१ रन बनाये। हालाँकि द्रविड़ ने दूसरा सबसे अच्छा प्रदर्शन किया, यह उस दिन तक उनके सबसे अच्छे प्रदर्शनों में से एक रहा। बाद में इसी वर्ष में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ पोर्ट एलिजाबेथ में उन्होंने दूसरी पारी में ८७ रन बनाते हुए, दक्षिण अफ्रीका की जीत को हार में बदल दिया। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण मेच रहा। २००२ वह वर्ष था जब द्रविड़ ने तेंडुलकर की छाया से उभरना शुरू किया और अपने आप को भारत के प्रमुख टेस्ट बल्लेबाज के रूप में स्थापित कर लिया। अप्रेल के महीने में, जॉर्ज टाउन, वेस्ट इंडीज में श्रृंखला के पहले टेस्ट मेच में, उन्होंने नाबाद १४४ रन बनाए इसकी पहली पारी में मर्विन डिल्लन की डिलीवरी पर आउट हो गए थे। बाद में उसी वर्ष में उन्होंने इंग्लैंड (३) और वेस्ट इंडीज (१) के खिलाफ लगातार चार शतक लगाये. अगस्त २००२, में, इंग्लैंड के खिलाफ हेडिंग्ले स्टेडियम, लीड्स में श्रृंखला के तीसरे मैच में पहली पारी में १४८ का स्कोर बना कर उन्होंने भारत को प्रसिद्द जीत दिलायी. उन्हें इस प्रदर्शन के लिए मेन ऑफ़ दी मैच का पुरस्कार मिला। इंग्लैंड के खिलाफ चार टेस्ट मैच की श्रृंखला में कुल ६०२ रन बना कर उन्होंने मेन ऑफ़ दी सीरीज का पुरस्कार भी जीता। २००३- २००४ के दौरे में, द्रविड़ ने तीन दोहरे शतक लगाये, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान प्रत्येक के खिलाफ एक एक. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एडिलेड में चार मैच की श्रृंखला के दूसरे मैच में, द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण की बल्लेबाजी जोड़ी ऑस्ट्रेलिया पर भारी पड़ी, ऑस्ट्रेलिया के विशाल ५५६ के स्कोर के जवाब में भारत ने ४ विकेट पर केवल ८५ रन बनाए थे जब इस जोड़ी ने हाथ मिलाया। जब उनकी साझेदारी को तोड़ा गया तब तक वे ३०३ रन बना चुके थे। लक्ष्मण 1४8 पर आउट हो गया लेकिन द्रविड़ ने अपनी पारी को जारी रखते हुए २३३ रन बनाए। उस समय, यह विदेश में किसी भारतीय के द्वारा बनाया गया अधिकतम व्यक्तिगत स्कोर था। जिस समय द्रविड़ वापस लौटा तब भारत को ऑस्ट्रेलिया की पहली परी के स्कोर तक पहुँचने के लिए ३३ रन और चाहिए थे। इसके बाद द्रविड़ ने दूसरी पारी में बहुत ज्यादा दबाव के चलते नाबाद ७२ रन बना कर एक प्रसिद्द विजय दिलाई. द्रविड़ ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चार मैच की श्रृंखला में, १०३.१६ के औसत पर ६१९ रन का स्कोर बनाया और मेन ऑफ़ दी सीरीज का पुरस्कार जीता। इस दौरे के बाद के भाग में, द्रविड़ ने गांगुली की अनुपस्थिति में, मुल्तान में पहले टेस्ट मैच में भारत को पकिस्तान पर विजय दिलायी. रावलपिंडी में इस श्रृंखला के तीसरे और फाइनल मैच में, द्रविड़ ने अद्वितीय २७० का स्कोर बना कर भारत को पकिस्तान पर एक ऐतिहासिक जीत दिलायी. द्रविड़ विश्व कप में ७ वें विश्व कप (१९९९) में द्रविड़ ने ४६१ रन बनाते हुए अधिकतम रन बनाये थे. वे एकमात्र भारतीय हैं जिन्होंने विश्व कप में दो बेक टू बेक शतक बनाये। उन्होंने केन्या के खिलाफ ११० रन बनाये और इसके बाद टाउनटन में एक मेच में १४५ रन बनाये। जहाँ बाद में उन्होंने विकेट कीपिंग की। २००३ के विश्व कप के दौरान वे उपकप्तान रहे जिसमें भारत फाइनल तक पहुँचा, उन्होंने अपनी टीम के लिए दोहरी भूमिका निभाई एक बल्लेबाज की और एक विकेट कीपर की, एक अतिरिक्त बल्लेबाज का कम भी किया, भारत के लिए यह बहुत फायदे की बात थी। द्रविड़ वेस्ट इंडीज में २००७ के विश्व कप में कप्तान रहे जहाँ भारतीय क्रिकेट टीम का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। द्रविड़ ने बांग्लादेश मैच में १४, बरमूडा मैच में ७* और श्री लंका मैच में ६० का स्कोर बनाया। एक मजबूत तकनीक के साथ, वह भारतीय क्रिकेट टीम के लिए रीढ़ की हड्डी साबित हुए. उनकी प्रारम्भिक छवि एक रक्षात्मक बल्लेबाज की बन गई थी जिसे केवल टेस्ट क्रिकेट तक ही सीमित होना चाहिए, उन्हें एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों से हटा दिया गया क्योंकि उनकी रन बनाने की गति बहुत धीमी थी। हालांकि, अपने कैरियर में वे लगातार एकदिवसीय मैचों में रन बनाने लगे, उन्हें वर्ष के आईसीसी खिलाड़ी का पुरस्कार भी मिला। उनका उपनाम 'द वॉल' रिबॉक विज्ञापनों में अब उनकी स्थिरता को ही बताता है। द्रविड़ ने ५५.११ के औसत के साथ टेस्ट क्रिकेट में २६ शतक बनाये हैं, जिनमें ५ दोहरे शतक शामिल हैं। एक दिवसीय मैचों में हालांकि उनका औसत ३९.४९ का रहा है और रन रेट ७१.२२ की रही है। वे ऐसे कुछ ही भारतीयों में से एक हैं जो घर के बजाय बाहर अधिक औसत बनाते हैं, भारतीय पिच के मुकाबले में विदेशी पिच पर उनका औसत १० रन अधिक का रहता है। ९ अगस्त २००६ को विदेशी टेस्ट में द्रविड़ का औसत ६५.२८ रहा जबके उनका कुल औसत ५५.४ था। और उनका एकदिवसीय के अलावा औसत ४2.०३ है जबकि एकदिवसीय का औसत 3९.४९ है। जिन मैचों में भारत ने जीत हासिल की उनमें द्रविड़ का औसत टेस्ट में ७८.७२ और एकदिवसीय में ५३.४० रहा है। द्रविड़ का एकमात्र टेस्ट विकेट था रिडले जेकब, यह २००१-२००२ की श्रृंखला में वेस्ट इंडीज के खिलाफ चौथे टेस्ट के दौरान रहा। द्रविड़ ने कभी गेंदबाजी नहीं की है, पर भारत के लिए एकदिवसीय मैचों में अक्सर विकेट कीपिंग की है। उन्होंने अपने विकेट कीपिंग के दस्तानों को पहले पार्थिव पटेल को सौंपा और हाल ही में महेंद्र सिंह धोनी ने विकेट कीपिंग करना शुरू कर दिया है। द्रविड़ अब पूरी तरह एक बल्लेबाज है, जिन्होंने १ जनवरी २००० के बाद से खेले गए मैचों में ६३.5१ का औसत बनाया है। द्रविड़ एकदिवसीय मैचों में सबसे ज्यादा भागीदारी के दो मैचों में शामिल थे: सौरव गांगुली के साथ ३१८ रन का साझा, यह पहला जोड़ा था जिसने ३०० रन की साझेदारी की और उसके बाद सचिन तेंदुलकर के साथ ३३१ रन की साझेदारी जो वर्तमान विश्व रिकॉर्ड है। शुरू से लेकर एक डक के लिए आउट होने तक, परियों की सबसे ज्यादा संख्या का रिकॉर्ड भी उनके नाम पर दर्ज है, एकदिवसीय मैचों और टेस्ट मैचों में क्रमशः उनका अधिकतम स्कोर १५३ और २७० हैं। अद्वितीय रूप से, टेस्टों में उनका प्रत्येक दोहरा शतक उनके पिछले दोहरे शतकों से अधिक स्कोर रहा। (२००*, २१७, २२२, २३३, २७०). साथ ही, एक ही कप्तान की कप्तानी के तहत मैचों में रनों के स्कोर के उच्चतम प्रतिशत योगदान का रिकॉर्ड भी द्रविड़ के नाम पर दर्ज है, जिनमें कप्तान ने २० से अधिक टेस्ट जीते। २१ वें टेस्ट मैच में भारत ने सौरव गांगुली के नेतृत्व में जीत हासिल की। द्रविड़ ने इन जीटोंमें अपनी भूमिका निभाई, उन्होंने १०२,८४ का रिकॉर्ड औसत बनाया और २५७१ रन पूरे किये जिनमें ३२ परियों में ९ शतक, तीन दोहरे शतक और १० अर्द्ध शतक रहे। उन्होंने उन २१ मैचों में भारत के द्वारा बनाये गए कुल रनों में लगभग २३ प्रतिशत का योगदान दिया, जो टीम के द्वारा बनाये गए रनों में से प्रत्येक ४ में से १ रन है। उन्हें वर्ष २००० के विसडेन क्रिकेटरों में से एक की उपाधि दी गई। हालाँकि मुख्य रूप से एक रक्षात्मक बल्लेबाज द्रविड़ ने १५ नवम्बर २००३ को हैदराबाद में न्यूजीलैण्ड के खिलाफ २२ गेंदों पर नाबाद ५० रन (स्ट्राइक दर-२२7.२७) बनाये, यह भारतीयों में दूसरा सबसे तेज अर्द्ध शतक है। केवल अजित आगरकर इस दृष्टि से द्रविड़ से आगे हैं। उन्होंने केवल २१ गेंदों पर ६७ रन बनाये हैं। २००४ में, द्रविड़ को भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया। ७ सितम्बर २००४ को, उन्हें अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद, आईसीसी द्वारा वर्ष के इनाग्रल खिलाडी और वर्ष के टेस्ट खिलाडी का पुरस्कार दिया गया, (इससे सम्बंधित चित्र नीचे दिया गया है।) पिछले वर्ष में द्रविड़ के ९५.४६ के औसत ने उन्हें एकमात्र भारतीय बना दिया जो वर्ष की टेस्ट टीममें बने रहे। १८ मार्च २००६ को, द्रविड़ ने मुंबई में इंग्लैंड के खिलाफ अपना सौवां टेस्ट खेला। २००५ में,देवेन्द्र प्रभुदेसाई के द्वारा लिखी गई राहुल द्रविड़ की एक जीवनी प्रकाशित हुई, 'दी नाईस गाय हू फिनिश्ड फस्ट' २००५ आईसीसी पुरस्कारों में वे एकमात्र भारतीय थे जिनका नाम वर्ल्ड वन डे इलेवन के लिए दिया गया। २००६ में, यह घोषित किया गया कि वे वेस्ट इंडीज में २००७ के विश्व कप तक भारतीय टीम के कप्तान रहेंगे. हालांकि इंग्लैंड सीरीज के बाद, व्यक्तिगत कारणों की वजह से उन्होंने भारतकी कप्तानी को छोड़ दिया। महेंद्र सिंह धोनी ने वनडे कप्तान के रूप में कमान संभाली. और अनिल कुंबले ने उन्हें टेस्ट मैचों में प्रतिस्थापित किया। २००७ में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ श्रृंखला में खराब प्रदर्शन के कारण उन्हें एकदिवसीय दस्ते से हटा दिया गया। द्रविड़ रणजी ट्रॉफी में कर्नाटक के लिए खेलने के लिए गए और उन्होंने मुंबई के खिलाफ २१८ का स्कोर बनाया। २००८ में उन्होंने पर्थ टेस्ट की पहली पारी में, ९३ रन बनाये, यह मैच का अधिकतम स्कोर था, इसने भारत को जीतने में और श्रृंखला को १-२ बनाने में मदद की। हालांकि, उन्हें इसके बाद की एक दिवसीय ट्रिक श्रृंखला के लिए चयनकर्ताओं द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया था। २००८ में टेस्ट मैच में एक बेरन रन के बाद द्रविड़ के ऊपर मिडिया का दबाव बहुत अधिक बढ़ गया कि वे या तो रिटायर हो जाएँ या उन्हें हटा दिया जाए. मोहाली में इंग्लैंड के खिलाफ दूसरे टेस्ट में उन्होंने १३६ का स्कोर बनाया और गौतम गंभीरके साथ एक तिहरा शतक लगाया. टेस्ट मैचों में १०००० रन पूरे कर लेने के बाद, उन्होंने कहा कि "यह सुनिश्चितता के लिए गर्व का क्षण है। मेरे लिए, आगे बढ़ते हुए, मैंने भारत के लिए खेलने का सपना देखा.जब मैं पीछे देखता हूँ, संभवतया मैंने अपनी उम्मीदों से ज्यादा कर दिखाया है, जैसा कि मैंने पिछले १०-१२ सालों के दौरान प्रदर्शन किया है। मैंने ऐसा करने की महत्वाकांक्षा कभी नहीं रखी क्योंकि-यह खेल में मेरी दीर्घायु का केवल एक प्रतिबिम्ब है। ट्वेंटी २० कैरियर राहुल द्रविड़ ने आईपीएल २००८, २००९ और २०१० में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के लिए खेले। बाद में उन्होंने राजस्थान रॉयल्स के लिए खेलते हुए २०१३ में चैंपियंस लीग ट्वेंटी२० के फाइनल में और २०१३ में इंडियन प्रीमियर लीग के प्ले ऑफ को अंजाम दिया। द्रविड़ ने ट्वेंटी २० के बाद से सेवानिवृत्ति की घोषणा की सितंबर २०१३ में अक्टूबर २०१३ में चैंपियंस लीग ट्वेंटी२० खेल रहा था। द्रविड़ तीसरे भारतीय (दुनिया में छठे) हैं जिन्होंने १०,००० से अधिक टेस्ट रन बनाये हैं। वे टेस्ट इतिहास में अधिकतम शतकों की साझेदारी में शामिल रहें हैं- ७६ (५ अप्रैल २००९). उन्होंने गांगुली की कप्तानी में जीते गए २१ टेस्ट मैचों में भारत के द्वारा बनाये गए कुल रनों का २३ प्रतिशत स्कोर किया है (१०२.८४ के बल्लेबाजी औसत के साथ) यह एक ही कप्तान की कप्तानी में जीते गए मैचों में टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में किसी भी बल्लेबाज के योगदान का उच्चतम प्रतिशत है, जहाँ कप्तान ने २० से अधिक टेस्ट जीते हैं। शुरुआत से लेकर क्रमागत टेस्टों में दूसरी सबसे लम्बी लकीर जिसमें उन्होंने एडम गिलक्रिस्ट(९६) के पीछे बुखार के कारण अहमदाबाद में ९५ वां टेस्ट छोड़ दिया। वे एकमात्र खिलाडी हैं जिसने देश से बाहर टेस्ट खेलने वाले प्रत्येक राष्ट्र के खिलाफ शतक बनाया है। वे देश से बाहर भारत के लिए किसी भी विकेट के लिए सर्वोच्च साझेदारी में शामिल रहे हैं, ये साझेदारी २००६ में लाहौर में पकिस्तान के खिलाफ वीरेंद्र सहवाग के साथ बनाये गए, इस साझेदारी में ४१० रन बनाये गए। (साथ ही, यह एक कप्तान और एक उप कप्तान के बीच उच्चतम साझेदारी रही। केवल पंकज रॉय और वीनू मांकड़ ने भारत के लिए साझेदारी में अधिक रन बनाये हैं, उन्होंने चेन्नई में न्यूजीलैंड के खिलाफ ४१३ रन बनाये (६-११ जनवरी 195६) द्रविड़ उन तीन बल्लेबाजों में से एक हैं जिन्होंने चार लगातार परियों में टेस्ट शतक लगाये. अन्य दो हें जैक फिन्ग्लटन और एलन मेलविल्ले. द्रविड़ ने तीन मैचों में इंग्लेंड के खिलाफ और एक मैच में वेस्ट इंडीज के खिलाफ क्रमशः ११५, १४८, २१७ और १००* का स्कोर बना कर यह उपलब्धि हासिल की। केवल एवर्टन वीक्स ने लगातार पांच पारियों में शतक लगा कर शतकों का अधिक लम्बा क्रम बनाया है। लगातार ७ टेस्ट मैचों में द्रविड़ ने ५० या अधिक रन बनाये, इस दृष्टि से भारतीय बल्लेबाजों में वे केवल तेंडुलकर (८) से पीछे हैं। आईवीऐ रिचर्ड्स ११ के साथ अधिकतम का रिकॉर्ड रखते हैं। वह वर्तमान में उन बल्लेबाजों में दूसरे स्थान पर हैं, जिन्होंने टेस्ट में अधिकतम रन बनाये हैं (अप्रेल २००९ तक ६४३०) केवल सचिन तेंडुलकर (७१६५) ने अधिक टेस्ट रन बनाए है। उन्होंने ९४ टेस्टों की १५० परियाँ ३ नंबर पर खेली हैं। उन्होंने इस स्थिति में ८००० से अधिक रन बनाए हैं। ये दोनों तथ्य विश्व रिकॉर्ड के रूप में दर्ज हैं। वे सुनील गावस्कर के बाद दूसरे भारतीय बल्लेबाज हैं जिन्होंने एक टेस्ट में दो बार जुड़वां शतक बनाया है। गावस्कर और पोंटिंग मात्र बल्लेबाज हैं जिन्होंने एक टेस्ट में तीन बार जुड़वां शतक बनाये हैं। मात्र दो भारतीयों में से एक हैं जिन्होंने ५ डबल शतक बनाये। (प्रत्येक पिछले से अधिक है २००* जिम्बाब्वे के खिलाफ, २१७ इंग्लेंड के खिलाफ, २२२ न्यूजीलैंड के खिलाफ, २३३ ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ, २७० पकिस्तान के खिलाफ). विश्व में एक गैर विकेटकीपर (१८४) के द्वारा कैचों की अधिकतम संख्या का रिकॉर्ड द्रविड़ के नाम पर है। शुरूआती जोड़े के आलावा, तेंडुलकर के साथ साझेदारी करते हुए, उन्होंने किसी भी अन्य जोड़े से अधिक रन बनाये हैं। वे टेस्ट क्रिकेट में किसी जोड़े के द्वारा साझेदारी में के शब्दों में तीसर सर्वश्रेष्ठ स्थान पर हैं। द्रविड़ तीसरे भारतीय हैं (दुनिया में छठे) जिन्होंने एक दिवसीय मैचों में १०,००० से अधिक रन बनाये हैं। द्रविड़ के नाम एकदिवसीय क्रिकेट में ८३ अर्धशतक हैं। इस मामले में सचिन तेंदुलकर, जैक्स कैलिस, व कुमार संगकारा के बाद वह चौथे स्थान पर हैं। एकमात्र बल्लेबाज जो ३०० से अधिक रन बनाते हुए, दो वनडे मैचों की साझेदारी में शामिल रहा है। पहले बल्लेबाज जो सौरव गांगुली के साथ टाउनटन में श्रीलंका के खिलाफ १९९९ के विश्व कप के मैच में एक क्रिकेट विश्व कप में ३०० रनों की साझेदारी में शामिल रहे। वे दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ सभी तीन उच्चतम चौथे विकेट की साझेदारी में शामिल रहें हैं, जिनमें से दो युवराज सिंह के साथ हैं। एकदिवसीय क्रिकेट के इतिहास में सबसे ज्यादा साझेदारी में शामिल रहें हैं, उन्होंने १९९९-२००० में हैदराबाद में सचिन तेंदुलकर के साथ न्यूज़ीलैंड के खिलाफ ३३१ रनों की साझेदारी की। विश्व कप के रिकार्ड १९९९ के विश्व कप में वे ४६१ रनों के स्कोर के साथ रन बनाने में अग्रणी रहे हैं। एसी गिलक्रिस्ट (१४९) के बाद एक विश्व कप में एक विकेटकीपर द्वारा बनाया गया दूसरा सर्वोच्च स्कोर (१४५) द्रविड़ ने ही बनाया है। जिम्बाब्वे डेव होज्तोन के बाद वह एकमात्र दूसरे विकेटकीपर बल्लेबाज हैं जिन्होंने विश्व कप में एक एकदिवसीय सौ बनाये। मार्क वॉ के बाद वे दूसरे बल्लेबाज हैं जिन्होंने विश्व कप में बैक टू बैक सौ बनाये। वे सचिन तेंडुलकर के साथ चौथे स्थान पर हैं, जिनकी कप्तानी में भारत ने अधिकतम मैच जीते। १२० लगातार वनडे में उन्हें डक पर आउट नहीं किया गया है। सचिन तेंडुलकर (९३) और इंजमाम उल हक (८३) के बाद अर्द्ध शतकों की उच्चतम संख्या. राहुल द्रविड़ मात्र दूसरे भारतीय हैं जिन्होंने एक विश्व कप में उच्चतम रन बनाये हैं। (पहले सचिन तेंडुलकर हैं - दो बार - १९९६, २००३) उन्होंने अपने पहले विश्व कप, १९९९ के विश्व कप में ४६१ रन बनाये। राहुल द्रविड़ ने २००६ में वेस्ट इंडीज में उन्हीं के खिलाफ टेस्ट श्रृंखला में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। १९७१ के बाद से, भारत ने वेस्ट इंडीज में कभी भी कोई टेस्ट श्रृंखला नहीं जीती। १९८६ के बाद से यह उनकी पहली प्रमुख श्रृंखला रही, (२००५ में जिम्बाब्वे के खिलाफ जीत) जो भारतीय उप महाद्वीप के बाहर विजयी हुई। द्रविड़ की कप्तानी में भारतीय टीम ने सर्वोच्च एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रमागत जीतों के पिछले रिकॉर्ड को बनाये रखा, जिसमें भारतीय टीम ने २००३ में सौरव गांगुली की कप्तानी में लगातार (८) विजयें हासिल की थीं। बाद में महेंद्र सिंह धोनी के नेतृत्व में भारतीय टीम ने 200८-२००९ में लगातार ९ बार जीत हासिल करके इस रिकॉर्ड को बेहतर बनाया। उनकी कप्तानी के दौरान भारतीय टीम ने वेस्ट इंडीज के लगातार १४ एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों में जीत के रिकॉर्ड को तोडॉ॰ इन १७ मैचों की जीत में द्रविड़ १५ के कप्तान रहे जबकि शेष २ की कप्तानी सौरव गांगुली ने संभाली. इस लकीर को २0 मई २006 को तोड़ दिया गया जब भारत सबीना पार्क, जमाइका में १ रन से वेस्ट इंडीज से हार गया। राहुल द्रविड़ पहले कप्तान हैं जिनके नेतृत्व में भारत ने दक्षिण अफ्रीका को दक्षिण अफ्रीका की धरती पर टेस्ट मैच में हरा दिया। वे भारत से तीसरे कप्तान थे जिन्होंने इंग्लेंड में टेस्ट श्रृंखला जीती। यह उपलब्धि २१ साल के बाद हासिल हुई। दो अन्य कप्तान कपिल देव(१९८६) और अजीत वाडेकर (१९७१) है। उन्होंने टेस्ट और एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय दोनों में १०,००० रन बनाये हैं, तेंडुलकर और लारा के बाद वे इस उपलब्धि को हासिल करने वाले तीसरे बल्लेबाज हैं। पोंटिंग एकमात्र अन्य व्यक्ति हैं जिन्होंने यह कर दिखाया है। वे एक गैर विकेट कीपर के द्वारा टेस्ट क्रिकेट में अधिकतम कैच का रिकॉर्ड भी रखते हैं। उन्होंने मार्च २००४ में जो फैसला लिया, उस पर सबसे ज्यादा बहस हुई, जब वे घायल कप्तान सौरव गांगुली की भूमिका निभा रहे थे। भारत की पहली पारी को एक बिंदु पर घोषित कर दिया गया जब सचिन तेंडुलकर दूसरे दिन १६ ओवर पर १९४ पर थे। राहुल द्रविड़ ने टेस्टों में भारत का नेतृत्व करते हुए एक मिश्रित रिकॉर्ड बनाया। भारत २००६ में कराची टेस्ट हार गया, पाकिस्तान इस श्रृंखला को १-० से जीता। मार्च २००६ में, भारत मुंबई टेस्ट हार गया, १985 के बाद से पहली बार इंग्लैंड भारत में टेस्ट जीता। फ्लिन्तोफ़ की क्षमता ने इस श्रृंखला में १-१ से जीत दर्ज करायी. हालांकि कराची में हार का कारण यह माना गया की कई भारतीय बल्लेबाजों ने बुरा प्रदर्शन किया, लेकिन मुंबई की हार को द्रविड़ के इस गलत फैसले का नतीजा माना गया कि एक फ्लैट सूखी पिच पर पहले गेंदबाजी की जाए. जिससे बाद में स्थिति बिगड़ गई और भारतीयों को रन लेने में बहुत परेशानी हुई। इंडियन प्रीमियर लीग में २००८ के खेल के बाद जब बंगलौर रॉयल चेलेंजर्स ८ में से सातवें स्थान पर आई तो विजय माल्या ने उनकी आलोचना की कि उन्होंने टीम में सही संतुलन नहीं बनाया है। जब भारत डीएलएफ कप के फाइनल में नहीं पहुँच पाया, तो पूर्व आल-राउंडर रवि शास्त्री ने भारतीय स्कीपर राहुल द्रविड़ की आलोचना की, कि यह पर्याप्त धनात्मक नहीं है और ग्रेग चैपल को बहुत से फैसले लेने होंगे। जब उनसे प्रतिक्रिया की उम्मीद की गई तो द्रविड़ ने कहा कि शास्त्री, एक 'निष्पक्ष आलोचक'हैं लेकिन टीम की आंतरिक निर्णय प्रक्रिया को 'लागू नहीं' कर सकते एसीसी एशियाई क्सी आईसीसी दुनिया क्सी भारतीय प्रीमियर लीग १९७३-११ जनवरी १९७३ को इंदौर में जन्मे. १९८४-के एस सी ऐ के चिन्नास्वामी स्टेडियम, बेंगलौर में उन्होंने एक ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण शिविर, में भाग लिया। जहाँ पूर्व क्रिकेटर केकी तारापोरे जो कोच में बदल गए थे, ने उनकी प्रतिभा को देखा (एक और केकी तारापोरे था [मुंबई, मृतक] जिससे लोग नाम को लेकर भ्रमित होते थे। उन्होंने एक अनौपचारिक मैच में अपने स्कूल सेंट जोसेफ की टीम के लिए सेंट एंथोनी के खिलाफ अपना पहला शतक लगाया. केरला के खिलाफ कर्नाटक की स्कूल टीम के लिए दोहरा शतक लगाया. अंडर १५ कर्नाटक टीम के लिए चुने गए। गुंडप्पा विश्वनाथ, रोजर बिन्नी, बृजेश पटेल और कोच केकी तारापोर की सलाह पर उन्होंने विकेट कीपिंग बंद कर दी। १९८५- लड़कों के बाल्डविन हाई स्कूल के खिलाफ सेंट जोसेफ हाई स्कूल के लिए कोतोनियन शील्ड अंतर स्कूल प्रतियोगिता (जूनियर) में एक शतक लगा कर एक अद्भुत कौशल के रूप में बेंगलौर में अपनी पहचान बनायीं. १९९१- महाराष्ट्र के खिलाफ रणजी शुरुआत. १९९६ -रणजी फाइनल में दोहरा शतक, तमिल नाडू के खिलाफ १९९६-लॉर्ड्स, इंग्लेंड में टेस्ट की शुरुआत, जब संजय मांजरेकर घायल हो कर घर वापिस लौट गए और नवजोत सिंह सिद्धू का कप्तान अजहरुद्दीन के द्वारा ९५ रन बना लेने के बाद उनसे झगडा हो गया। १९९७-मदन टेस्ट सौ (१४८) तीसरा टेस्ट, जोहानसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ. १९९७- पहला एक दिवसीय का शतक (१०७), पकिस्तान के खिलाफ, इंडीपेनडेंस कप, चेन्नई. १९९८- बंगलादेश में एकदिवसीय टूर्नामेंट से हटा दिया गया। १९९९- हैमिल्टन में न्यूजीलैंड के खिलाफ दोनों परियों में शतक (१९०, १०३) १९९९-विश्व कप में २ शतकों और तीन अर्द्ध शतकों सहित ४६१ रन. १९९९- २००० इंग्लिश काउंटी दौरे के लिए केंट के साथ सहमति. २००१-पाँचवे विकेट के लिए १८० का स्कोर बनाया जबकि वीवीएस लक्ष्मण ने २८१ रन बनाये,३७६ रन बना कर भारत ने ईडन गार्डन में ऑस्ट्रेलिया को हरा दिया और ऑस्ट्रलिया की १६ टेस्टों में लगातार जीत की लकीर को तोड़ डाला। २००४- कैरियर के सर्वोत्तम २७० रन, रावलपिंडी में पकिस्तान के खिलाफ. २००५-सौरव गांगुली को टेस्ट में सफलता दिलाई और एकदिवसीय कप्तान बने। २००५- देवेन्द्र प्रभुदेसाई के द्वारा "द नाईस गाय हू फिनिश्ड फर्स्ट " कोच ग्रेग चैपल द्वारा जारी २००६- लाहौर में पकिस्तान के खिलाफ कप्तान के रूप में अपना पहला शतक लगाया. २००६-मुल्तान में सहवाग के साथ एक उल्लेखनीय ४१० रन की भागीदारी में योगदान दिया। २००६- भारत का नेत्रित्व करते हुए दक्षिण अफ्रीकी धरती पर पहली बार टेस्ट में सफलता हासिल की। २००७-वेस्ट इंडीज में आयोजित २००७ क्रिकेट विश्व कप में भारत का नेतृत्व किया। २००७-इंग्लैंड के भारत के दौरे के बाद, भारतीय कप्तानी से इस्तीफा. २००७- ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खराब श्रृंखला के बाद एक दिवसीय टीम से हटा दिया जाना. २००८-२९ मार्च को चेन्नई में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ श्रृंखला के पहले टेस्ट मैच में टेस्ट में १०००० के ऐतिहासिक स्कोर तक पहुँचना, २००९-६ अप्रैल को वेलिंगटन में न्यूजीलैंड के खिलाफ तीसरे टेस्ट में, १८२ केच पूरे करके टेस्ट क्रिकेट में केच का रिकॉर्ड बनाया। कैरियर के मुख्य बिंदु टेस्ट की शुरुआत: इंग्लैंड के खिलाफ, लॉर्ड्स, १९९६. द्रविड़ का टेस्ट बल्लेबाजी का क्रिकेट का बेहतरीन स्कोर २७० जो पकिस्तान के खिलाफ रावलपिंडी में बनाया गया। २००३-२००४. उनका सर्वश्रेष्ठ टेस्ट गेंदबाजी का आंकडा १८ के लिए १ वेस्ट इंडीज, सेंट जॉन के खिलाफ सामने आया। २००१-२००२. वे सुनील गावस्कर और सचिन तेंडुलकर के बाद तीसरे भारतीय हैं जिन्होंने १०,००० से अधिक टेस्ट रनों का स्कोर बनाया। वह टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में ९००० रन बनाने वाले सबसे तेज बल्लेबाज है। पूर्व भारतीय कप्तान ने २००६ में वेस्ट इंडीज के खिलाफ १७६ वीं पारी खेलते हुए ब्रायन लारा के पहले के रिकार्ड को तोड़ दिया उन्होंने एक क्षेत्ररक्षक के रूप में अधिकतम १८४ केच लिए हैं, उन्होंने मार्क वॉघ के पुराने १८१ रनों के रिकॉर्ड को तोडा जब वेलिंग्टन के बेसिन रिजर्व में तीसरे टेस्ट की दूसरी पारी में न्यूजीलेंड के खिलाफ खेलते हुए उन्होंने शुरूआती बल्लेबाज टिम मेकलनतोष का केच लिया। एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय एकदिवसीय शुरुआत: श्रीलंका, सिंगापुर, १९९५ -१९९६ द्रविड़ का सर्वोत्तम १५३ का एकदिवसीय बल्लेबाजी स्कोर १९९९-२००० में हैदराबाद में न्यूजीलेंड के खिलाफ बनाया गया। ४३ के लिए २ का उनका सर्वश्रेष्ठ एकदिवसीय गेंदबाजी का आंकडा १९९९-२000 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ कोची में बनाया गया। १०००० रन बनाने वाले छठे खिलाडी और तीसरे भारतीय. उन्होंने श्री लंका के खिलाफ ६६ रन बनाते हुए श्रृंखला १-१ पर बराबर करके बेरियर को तोड़ डाला। १९९९:१९९९ विश्व कप के सीएट क्रिकेटर २०००: वर्ष २०००[२२]के विसडेन क्रिकेटर २००४: सर गारफील्ड सोबर्स ट्राफी विजेता (वर्ष के आईसीसी प्लेयर के लिए सम्मानित किये गए।) पुरस्कृत[२३] २००६: आईसीसी की टेस्ट टीम के कप्तान[२५] टेस्ट क्रिकेट पुरस्कार टेस्ट मैच- मेन ऑफ़ दी सीरीज अवार्ड: टेस्ट मैच - मेन ऑफ़ दी मैच अवार्ड: वनडे मैच - मैच पुरस्कार के मैन: जनवरी २००४ में द्रविड़ जिम्बाब्वे में एक वन दे मैच के दौरान गेंद के साथ छेड़छाड़ करने के दोषी पाए गए। मैच रेफरी क्लाइव लॉयड कहा कि गेंद में किसी उर्जाकारी का प्रयोग किया गया है जो एक अपराध है, हालाँकि द्रविड़ खुद्र इस बात से इनकार रहे थे कि उन्होंने ऐसा इरादतन किया है। लॉयड सत्र इस बात जोर दिया कि इस बात को टेलीविजन फुटेज पर दिखाया जाए कि भारत का एक स्टार बल्लेबाज मंगलवार की रात गब्बा में न्यूजीलेंड पारी के दौरान गेंद पर जानबूझ कर कुछ चिपका देता है, जो आईसीसी की आचार संहिता की धारा २.१० का उल्लंघन है। भारतीय टीम के कोच जॉन राइट द्रविड़ के बचाव में कहते हैं कि "यह गलती जानबूझ कर नहीं की गई।" द्रविड़ आईसीसी के नियमों के कारण घटना पर किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं की, लेकिन पूर्व भारतीय कप्तान सौरव गांगुली ने कहा कि द्रविड़ का कार्य "सिर्फ एक दुर्घटना" है। राहुल द्रविड़ के कैरियर पर २ आत्मकथाएँ लिखी गई हैं: राहुल द्रविड़ - एक जीवनी वेदाम जयशंकर द्वारा लिखित (आई एस बी एन ८१७४७६४८१ क्स). प्रकाशक: उब्सद प्रकाशन. तिथि: जनवरी २००४[२६] ए नाईस गाय हू फिनिश्ड फर्स्ट देवेन्द्र प्रभुदेसाई के द्वारा लिखित.प्रकाशक: रूपा प्रकाशन. दिनांक: नवम्बर २००५[२७] रिबॉक: १९९६ - वर्तमान[२८] पेप्सी: १९९७ वर्तमान[२९] किस्सान : अज्ञात[३०] कैस्ट्रॉल: २००१- वर्तमान[३१] कर्नाटक पर्यटन: २००४[३२] मैक्स लाइफ: २००५ - वर्तमान[३३] बैंक ऑफ बड़ौदा : २००५ - वर्तमान[३४] सिटिजन: २००६ - वर्तमान[३५] स्काईलाइन कंस्ट्रक्शन: २००६ - वर्तमान[३६] सनसुई: २००७ - वर्तमान[३७] जिलेट: २००७- अब सामाजिक प्रतिबद्धताएं : नागरिक जागरूकता के लिए बच्चों के आंदोलन (कम्का)[३८] यूनिसेफ समर्थक और एड्स जागरूकता अभियान[३९] राहुल द्रविड़ के अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट शतकों की सूची क्रिकइन्फो प्लेयर प्रोफाइल: राहुल द्रविड़ क्रिकेट फंडाज साक्षात्कार राहुल द्रविड़ के साथ हॉस्तट! राहुल द्रविड़ पर सांख्यिकीय प्रोफ़ाइल पैक बल्लेबाज रैंकिंग १९७३ में जन्मे लोग दाहिने हाथ के बल्लेबाज़ भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट कप्तान भारतीय टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी भारतीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
बेलारूस (इसो: बल्रसा ) (, लेटिन , , ; ), आधिकारिक रिपब्लिक ऑफ़ बेलारूस (; ), पूर्व ज्ञात रूसी नाम ब्येलोरसिया (; हालाँकि यह नाम अब बेलारूस में, रूसी भाषा में भी काम में नहीं लिया जाता), पूर्वी यूरोप का स्थल-रुद्ध देश है। बेलारूस की सीमा उत्तर-पूर्व में रूस से, दक्षिण में यूक्रेन से, पश्चिम में पोलैण्ड और उत्तर-पश्चिम में लिथुआनिया एवं लातविया से लगती है। इसकी राजधानी और सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर मिन्स्क है। इसके का ४०% से अधिक भाग वन है। इसका सबसे प्रबल आर्थिक क्षेत्र सेवा उद्योग और विनिर्माण है। बीसवीं सदी तक, वर्तमान बेलारूस की भूमि को विभिन्न देशों ने अधिगृहित किया जिसमें प्रिन्सिपलिटी ऑफ़ पोलोतस्क (११-१४वीं सदी), ग्रैंड डची ऑफ़ लिथुआनिया, पोलिश लिथुआनियाई राष्ट्रमण्डल और रूसी साम्राज्य शामिल हैं। ईसा पूर्व ५,००० से २,००० के बीच इस इलाके में रैखिक मृद्भाण्ड संस्कृति (लाइन्रबंदकिरमिक) के चिह्न मिलते हैं और युक्रेन और बेलारूस के हिस्सों में नीपर-डोनेट्स संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। सिमेरियन और अन्य पशुचारक जातियाँ इस क्षेत्र में 1००० ईसा पूर्व से ५00 ईसवी के मध्य भ्रमण करती थीं, स्लाव लोगों ने यहाँ अपने स्थाई निवास बना लिए थे और सीमान्त क्षेत्रों में सीथियन लोग भ्रमण करते थे। एशियाई आक्रान्ता, जिनमें हूण और आवार शामिल थे, लगभग ४०० से ६०० ईसवी के मध्य इस इलाके पर आक्रमण किये किन्तु स्लाव लोगों को विस्थापित नहीं कर पाए। वर्तमान में जो क्षेत्र बेलारूस के नाम से जाना जाता है, तीसरी सदी में बाल्टिक जनजातियों द्वारा बसा हुआ था और पाँचवीं सदी के आसपास यह इलाका स्लाव लोगों द्वारा हस्तगत कर लिया गया। यह हस्तान्तरण कुछ हद तक बाल्ट लोगों में सैन्य समन्वय के अभाव के कारण हुआ लेकिन बाल्ट और स्लाविक संस्कृतियों के घुलमिल जाने की प्रक्रिया शान्तिपूर्ण रही। मध्य युग में आधुनिक समय के बेलारूस के नाम से जाना जाने वाला इलाका, नवीं सदी ईसवी में कीवयाई रूस का हिस्सा बना जो एक बड़े आकार का पूर्वी स्लाव राज्य था। प्रथम यारस्लाव के निधन के बाद यह साम्राज्य कई हिस्सों में टूट गया। कई सारे रूसी राज (प्रिंसिपैलेटीज़) तेरहवीं सदी के मंगोल आक्रमणों के आघातों से बुरी तरह प्रभावित हुईं, लेकिन बेलारूस का यह क्षेत्र इनके समाघात से बचा रहा और अन्त में लिथुआनियाई ड्यूकसत्ता का राज्यक्षेत्र बना। लिथुआनियाई ड्यूकसत्ता ने बेलारूसी क्षेत्र को १२५० में अपने राज्यक्षेत्र का हिस्सा बना लिया। इसके परिणामस्वरूप बेलारूसी भूभागों का आर्थिक, राजनीतिक और जातीय-सांस्कृतिक एकीकरण हुआ। ड्यूकसत्ता की छत्रछाया में मौजूद राजों में से नौ राज ऐसे थे जहाँ के निवासियों की बाद में बेलारूसी जाति के रूप में पहचान निर्मित हुई। इस दौरान ड्यूक ने कई लड़ाईयाँ लड़ीं जिनमें पोलैण्ड की ओर के इलाकों में त्यूतन योद्धाओं के साथ हुई लड़ाई महत्वपूर्ण है। पोलैण्ड राज्य और लिथुआनियाई ड्यूकसत्ता ने साथ मिलकर १४१० के ग्रन्वाल्ड के युद्ध में त्यूतन लोगों पर एक निर्णायक विजय हासिल की और इस प्रकार लिथुआनियाई ड्यूकसत्ता को पूर्वी यूरोप के उत्तरी पूर्वी सीमान्त पर नियन्त्रण स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई। १३८६ में दोनों राजसत्ताओं के बीच विवाह संबंध स्थापित हुए और इसके द्वारा स्थापित एकीकरण बाद में, १४६९ के पॉलिश-लिथुआनियाई कॉमनवेल्थ के रूप में परिणत हुआ। १६९६ में पोलिश भाषा ने आधिकारिक भाषा के रूप में बेलारूसी को विस्थापित कर दिया। तृतीय इवान के नेतृत्व में मस्कवा की ड्यूकसत्ता ने कीवयाई रूस पर आधिपत्य स्थापित करने के प्रयासों में १४८६ में आक्रमण शुरू किये, विशेष तौर पर इनका उद्देश्य बेलारूस, रूस और युक्रेन के इन हिस्सों पर विजय प्राप्त करना था। रूसी साम्राज्य के अधीन पोलैण्ड और लिथुआनिया के बीच की एकता १७९५ में भंग हो गयी और इसका विभाजन तीन हिस्सों में हो गया जिन्हें रूसी साम्राज्य, प्रशा और हैप्सबर्ग ऑस्ट्रिया ने अपने कब्जे में कर लिया। इस दौर में वह क्षेत्र जहाँ आज बेलारूस है, द्वितीय कैथरीन के शासन वाले रूसी साम्राज्य का हिस्सा बना और प्रथम विश्व युद्ध तक इसी का भाग रहा। प्रथम निकोलस के शासन काल में यहाँ रूसीकरण के भरपूर प्रयास हुए और बेलारूसी भाषा का प्रयोग पब्लिक स्कूलों में प्रतिबंधित कर दिया गया, बेलारूसी भाषा के प्रकाशनों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाये गए। १८६३ में आर्थिक और सांस्कृतिक दबावों ने एक विद्रोह को जन्म दिया। इसके बाद रूसी सरकार ने बेलारूसी भाषा के लिए सिरिलिक का प्रयोग निर्धारित किया और रूसी सरकार के कामकाज में बेलारूसी भाषा में लिखित चीजों पर १९०५ तक प्रतिबन्ध जारी रहा। जर्मन साम्राज्य के आधिपत्य में, ब्रेस्त-लितोव्स्क की सन्धि के निर्धारण के दौरान, २५ मार्च १९१८ को बेलारूसी पीपल्स रिपब्लिक के रूप में बेलारूस ने अपनी पहली स्वतन्त्रता की घोषणा की। इसके तुरंत बाद ही पोलैण्ड-सोवियत युद्ध शुरू हो गया और बेलारूस पोलैण्ड और सोवियत रूस के बीच बँट गया। बेलारूसी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक बेलारूस का एक हिस्सा जो रूसी शासन के अधीन था, बेलारूसी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (बेलारूसी ऍसऍसआर) के रूप में १९१९ में अस्तित्व में आया। कुछ समय बाद इसका लिथुआनियाई-बेलारूसी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के साथ विलय हो गया। १९२१ में युद्ध की समाप्ति पर विवादित भूमि का बँटवारा पोलैंड और सोवियत संघ के बीच हो गया और १९२२ में बेलारूसी एसएसआर, सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिकों के संघ का संस्थापक सदस्य बना। आधुनिक बेलारूस का पश्चिमी भूभाग पोलैंड का हिस्सा बना रहा। १९३९ में नाज़ी जर्मनी और सोवियत रूस ने पोलैंड पर आक्रमण किया और द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत हुई। रीगा की सन्धि के बाद से दो दशकों तक जो भूभाग उत्तरी पूर्वी पोलैण्ड के रूप में था, बेलारूसी एसएसआर द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया और पश्चिमी बेलारूस बना। नाजी जर्मनी ने जब १९४१ में सोवियत रूस पर आक्रमण किया, बेलारूसी ऍसऍसआर इससे सर्वाधिक बुरी तरह प्रभावित हुआ। यह हिस्सा १९४४ तक नाज़ी जर्मनी के कब्जे में रहा और इस दौरान जर्मनी में २९० में से २०९ शहरों को तबाह किया, इसके ८५% उद्योगों को नष्ट किया और लगभग दस लाख भवन ध्वस्त किये। इस समयावधि में कुल मौतों की संख्या बीस से तीस लाख के बीच रही (जो कुल जनसंख्या के एक चौथाई के आसपास थी) और बेलारूसी एसएसआर की यहूदी जनसंख्या इस धक्के से कभी नहीं उबर पायी। युद्ध के बाद बेलारूस उन ५१ सदस्यों में से था जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर दस्तख़त किये। युद्धोपरान्त पुनर्निर्माण में काफी तेजी से काम हुआ और बेलारूसी एसएसआर और पोलैण्ड के बीच सीमा रेखा पुनः निर्धारित हुई जिसे कर्जन रेखा के नाम से जाना जाता है। स्टालिन ने बेलारूसी एस॰एस॰आर॰ को पश्चिमी प्रभावों से मुक्त कराने के लिए सोवियतीकरण की शुरूआत की जिसमें सोवियत रूस के विविध हिस्सों से लोगों को इस इलाके में उच्च और महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया और बेलारूसी भाषा के इस्तेमाल को सीमित करने का प्रयास किया गया। परवर्ती, निकिता ख्रुश्चेव ने यह नीति ज़ारी रखी। चर्नोबिल पावर प्लाण्ट के परमाणु रिसाव से बेलारूसी ऍसऍसआर भी प्रभावित हुआ। मार्च १९९० में, सोवियत संघ की सभी इकाइयों के सर्वोच्च विधायी निकाय, सुप्रीम सोवियत, के चुनाव संपन्न हुए। हालाँकि इन चुनावों में बेलारूसी ऍसऍसआर की स्वतन्त्रता का समर्थक दल, बेलारूसी पॉपुलर फ़्रण्ट मात्र १०% सीटें ही जीत पाया, जनता अपने प्रतिनिधियों के चयन से सन्तुष्ट थी। बेलारूस ने २२ जुलाई १९९० को अपनी आज़ादी की घोषणा एक घोषणापत्र द्वारा बेलारूसी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक के रूप में की। कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग से, २५ अगस्त १९९१ को, देश का नाम बदल कर बेलारूस गणतन्त्र किया गया। स्तानिस्लाव शुश्केविच, बेलारूसी सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष, ने रूस के बोरिस येल्तसिन और युक्रेन के लियोनिड क्रॉवचुक से ८ दिसम्बर १९९१ को मुलाक़ात की और औपचारिक रूप से सोवियत संघ के विघटन और स्वतन्त्र राज्यों के कॉमनवेल्थ के निर्माण की घोषणा हुई। मार्च १९९४ में, बेलारूसी संविधान अंगीकृत किया गया और इसके तहत प्रधानमन्त्री के कार्य बेलारूस के राष्ट्रपति को हस्तान्तरित कर दिए गए। स्वतन्त्रता के बाद आजादी के बाद दो राउण्ड में हुये चुनावों (२४ जून १९९४ एवं १० जुलाई १९९४) में एक कम प्रसिद्ध व्यक्ति अलेक्जेंडर लुकाशेन्कोव राष्ट्रीय स्तर पर उभरे। उन्होंने पहले राउण्ड में ४५% और दूसरे राउंड में ८०% मत हासिल किये और व्याचेस्लाव केबिच को पराजित किया जिन्हें १४% मत हासिल हुए थे। लुकाशेन्कोव बाद में २००१, २००६, 20१० और २०१५ में इस पद के लिए चुने गए और वर्तमान राष्ट्रपति हैं। पश्चिमी सरकारों, एमनेस्टी इण्टरनेशनल, और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाओं ने इनके अधिकारवादी शासन की शैली की समय-समय पर आलोचनाएँ की हैं। भूगोल और जलवायु बेलारूस की अवस्थिति ५१ और ५७ उत्तर अक्षांशों एवं २३ तथा ३३ पूर्वी देशान्तरों के मध्य है। उत्तर दक्षिण विस्तार और पूर्व-पश्चिम विस्तार है। यह एक स्थलरुद्ध देश है और इसके समतल भूभाग पर विशाल आकार के दलदली क्षेत्र पाए जाते हैं। देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग ४०% हिस्सा वनों से आच्छादित है। बेलारूस में कई नदियाँ और लगभग ११,००० झीलें मौजूद हैं। तीन प्रमुख नदियाँ, नेमन, प्रिप्यात और नीपर, इस देश से होकर बहती हैं। नेमन नदी पश्चिम की ओर बहती है और बाल्टिक सागर के भाग क्यूरोनियन लैगून में गिरती है, जबकि प्रिप्यात नदी पूर्व दिशा में बहती है और नीपर में मिल जाती है। नीपर नदी दक्षिण की ओर बहते हुए काला सागर में गिरती है। बेलारूस में सर्वोच्च बिन्दु (३४५ मीटर) ज़रज़िन्सकी हारा नामक पहाड़ी का शिखर है जो राजधानी मिन्स्क के पश्चिम में है। सबसे निम्नतम ऊँचाई का बिन्दु (९० मीटर) नेमन नदी तट है, जहाँ यह बेलारूस से लिथुआनिया में प्रवेश करती है। बेलारूस की औसत ऊँचाई समुद्र तल से १६० मीटर है। बेलारूस की जलवायु की विशेषता गर्मियों में हलकी ठण्ड और सर्द जाड़े की ऋतु है। जनवरी का न्यूनतम तापमान दक्षिणी-पश्चिमी हिस्सों में (ब्रेस्त) और उत्तरी-पूर्वी भागों में (वितेब्स्क) तक गिर जाता है जबकि गर्मियों में के औसत तापमान के साथ हलकी ठण्ड वाला सुहाना मौसम रहता है। यहाँ की औसत वार्षिक वर्षा है। बेलारूस की जलवायु, महाद्वीपीय और महासागरीय जलवायु के बीच संक्रमण क्षेत्र की जलवायु है। यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों में पीट के जमाव, कुछ मात्रा में प्राकृतिक गैस एवं पेट्रोलियम, ग्रेनाइट, डोलोमाइट (चूना पत्थर), मार्ल, खड़िया मिट्टी, बालू, बजरी और चिकनी मिट्टी हैं। चर्नोबिल दुर्घटना के समय पड़ोसी युक्रेन से ७०% परमाणवीय विकिरण बेलारूस के क्षेत्र को प्रभावित किया और बेलारूस के कुल क्षेत्र का लगभग पाँचवा हिस्सा (मुख्यतः कृषि भूमि और वन) इस हादसे में विकिरण के प्रभाव के दायरे में आये। संयुक्त राष्ट्र और अन्य अभिकरणों ने सीजियम बंधनकारकों और रेपसीड की खेती का प्रयोग विकिरण के प्रभाव कम करने हेतु किया; विशेष रूप से सीजियम -१३७ की मात्र मृदा से घटाने हेतु। बेलारूस की सीमा पाँच देशों से लगती है: उत्तर में लातविया, उत्तर-पूर्व में लिथुआनिया, पश्चिम में पोलैंड, और उत्तर और पूर्व में रूस तथा दक्षिण में युक्रेन। सन्धियों द्वारा लातविया और लिथुआनिया के साथ सीमायें १९९५ और १९९६ में निर्धारित की गयीं, लेकिन १९९६ में युक्रेन के साथ सीमा निर्धारण का प्रयास विफल रहा। बेलारूस और लिथुआनिया के मध्य अन्तिम सीमांकन सम्बन्धी कागजातों पर फरवरी २००७ में दस्तख़त हुए। १९९१ में सोवियत संघ के विघटन के समय तक, औद्योगिक रूप से दुनिया के सर्वाधिक विकसित राज्यों में से एक था, सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के स्तर पर भी और सीआईएस सदस्यों में सबसे धनी राज्य भी था। वर्ष २०१५ में, ३९.३% बेलारूसी लोग राज्य-स्वामित्व वाली कम्पनियों में सेवारत थे, ५७.२% लोग निजी कम्पनियों में (जिनमें २१.१% साझेदारी सरकार की थी) और ३.५% लोग विदेशी कम्पनियों में सेवारत थे। यह देश विविध प्रकार के आयातों के लिए रूस पर निर्भर है, जिनमें पेट्रोलियम भी शामिल है। महत्वपूर्ण कृषि उत्पादों में आलू और पशुपालन के उप-उत्पाद मुख्य हैं जिनमें माँस भी शामिल है। १९९४ में, बेलारूस के मुख्य निर्यातों में भारी मशीनरी (विशेष रूप से ट्रैक्टर), कृषि उत्पाद, और ऊर्जा उत्पाद शामिल थे। आर्थिक रूप से, बेलारूस ने अपने को सीआईएस, यूरेशियन आर्थिक समुदाय और रूस के साथ भागीदारी रखता है। राष्ट्रीय सांख्यिकी समिति के अनुसार जनवरी २०१६ तक देश की कुल जनसंख्या ९४.९ लाख है। बेलारूस की कुल जनसंख्या में ८३.७% हिस्सा बेलारूसी जातीयता वाले लोगों का है। इसके अतिरिक्त बड़े जातीय समूह निम्नलिखित हैं: रूसी (८.३%), पोल्स (३.१%) और यूक्रेनी (१.७%)। बेलारूस का जनसंख्या घनत्व ५० लोग प्रति वर्ग किलोमीटर (१२७ लोग प्रति वर्ग मील) है; यहाँ की ७0% जनसंख्या नगरों में निवास करती है। देश की राजधानी और सबसे बड़े नगर मिन्स्क में वर्ष २0१5 के आँकड़ों के अनुसार १९ हजार ३७ लाख ९ सौ लोग निवास करते हैं। ४ लाख ८१ हज़ार की जनसंख्या के साथ गोमेल दूसरा सबसे बड़ा नगर है जो होमाइल वोब्लास्ट की राजधानी के रूप में प्रचलित है। अन्य बड़े नगर मोगिलेव (३ लाख ६५ हजार १00), विटेब्स्क (३ लाख ४२ हज़ार ४00), ह्रोडना (३ लाख १४ हजार ८००) और ब्रेस्ट (२ लाख ९5 हजार ३00) हैं। अन्य यूरोपीय देशों की तरह, बेलारूस की जनसंख्या वृद्धि दर ऋणात्मक है और प्राकृतिक विकास दर भी ऋणात्मक है। वर्ष २००७ में, बेलारूस की जनसंख्या में कमी की दर ०.४१% थी और यहाँ की प्रजनन दर १.२२ थी जो उप-प्रतिस्थापन दर से कम है। यहाँ की कुल अप्रवासन दर +०.३८ प्रति १,००० है जो यह प्रदर्शित करता है कि यहाँ की आव्रजन से उत्प्रवास थोड़ा अधिक है। वर्ष 2००६ के अनुसार बेलारूस की कुल जनसंख्या में ६९.७% लोग १4 वर्ष से ६४ वर्ष आयुवर्ग के; १६% लोग १4 वर्ष के कम आयु के और १4.६% लोग ६5 वर्ष अथवा इससे अधिक आयु के थे। यहाँ की माध्य आयु 3७ से बढ़कर 2०5० तक ५५ से ६5 वर्ष होने की सम्भावना है। बेलारूस में प्रति महिला ०.8७ पुरुष हैं। यहाँ की औसत आयु दर ६८.७वर्ष (पुरुषों के लिए ६३.०वर्ष और महिलाओं के लिए ७४.९वर्ष) है। १5 वर्ष से अधिक आयु वाले ९९% से अधिक बेलारूसी लोग साक्षर हैं। बेलारूस की रूसी और बेलारूसी दो आधिकारिक भाषायें हैं रूसी यहाँ की मुख्य भाषा है और यहाँ की लगभग ७२% जनसंख्या ये ही भाषा बोलती है। आधिकारिक रूप से बेलारूसी यहाँ की प्रथम भाषा है जो ११.९% लोगों द्वारा बोली जाती है। अल्पसंख्यक लोग भी पोलिश, यूक्रेनी और पूर्वी यद्दिश बोलते हैं। कला और साहित्य बेलारूसी सरकार विविध प्रकार के वार्षिक सांस्कृतिक उत्सवों को प्रायोजित (स्पौंसर) करती है जैसे कि वितेब्स्क का बाज़ार, जिसमें बेलारूसी कलाकारों, प्रदर्शन कलाकारों, लेखकों संगीतकारों और अभिनेताओं द्वारा विविध कार्यक्रम किये जाते हैं। कुछ अन्य अवकाश दिवसों, यथा स्वतंत्रता दिवस और विजय दिवस पर बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं और आतिशबाजी, सेना की परेड इत्यादि का आयोजन होता है। बेलारूसी सरकार का संस्कृति मंत्रालय यहाँ की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए देश के अंदर और विदेशों में भी, विभिन्न आयोजनों को धनराशि मुहैय्या कराता है। बेलारूसी साहित्य ११वीं से १३वीं सदी के मध्य धार्मिक ग्रन्थों के रूप मे शुरू हुआ, जिसमें बारहवीं सदी की कृति तुराव की सिरिल प्रसिद्ध है। सोलहवीं सदी में, १५१५ से १५२५ के बीच प्राग शहर में छपी बाइबिल, जिसका बेलारूसी अनुवाद किया गया था, बेलारूस (और पूर्वी यूरोप में भी) छपने वाली पहली पुस्तक थी। रूसी साम्राज्य के अधीन रहते हुए और नाजी जर्मनी के कब्जे में यहाँ की भाषा में साहित्य कम रचा गया। कई लेखकों और कवियों को निर्वासन झेलना पड़ा। स्टालिनवादी शुद्धीकरण में यहाँ के काफ़ी सारे बुद्धिजीवियों को या तो मार दिया गया अथवा निर्वासित किया गया। पोलैण्ड के कब्जे वाले पच्श्चिमी बेलारूस में इस दौर में कुछ साहित्यिक रचनाएँ बेलारूसी भाषा में हुईं। १९६० के बाद से यहाँ साहित्य में व्यापक पुनर्जागरण हुआ। कई लेखकों ने उपन्यास लेखन के क्षेत्र में काफी कार्य किया। स्वेत्लाना अलेक्सिएविच को वर्ष २०१५ के लिए साहित्य का नोबल पुरस्कार भी मिल चुका है। देश के अन्दर ५,५12 किलो मीटर लम्बा रेलमार्ग है। ब्रेस्ट से ब्रेस्ट मिन्स्क से होकर बेलारूस पार किया जा सकता हैं , मास्को , बर्लिन और वारसा देश की एक अन्तरराष्ट्रीय रेल लाइन हैं। अन्य महत्वपूर्ण लाइनों में मिन्स्क गोमेल , ब्रेस्ट-मिन्स्क मिन्स्क विनियस हैं। बेलारूस की सेवा कुछ अन्तरराष्ट्रीय गाड़ियों जैसे पृबलटिक रीगा-ओडेसा, मिन्स्क इरकुत्स्क और सिबीर्जक बर्लिन नोवोसिबिर्स्क हैं बेलारूस एक अपेक्षाकृत छोटा सा देश है, इसलिए कोई नियमित रूप से घरेलू हवाई उड़ानें नही हैं। राष्ट्रीय हवाई अड्डा ब्रेस्ट में अन्तरराष्ट्रीय उड़ानों है कि दुनिया भर के कई देशों के साथ बेलारूस की राजधानी को जोड़ता स्वागत करता है। बेलारूस में १० नदी बन्दरगाह, जलमार्ग नदी द्नेपर, बेरेज़िन, सूजन, प्रिप्याट, द्विना , कैलिनिनग्राद, मुखवेट्स और द्नेपर-बग नहर पर खुले हैं। यहाँ पर बस सुविधा भी अच्छी हैं बेलारूस में वर्ष २००८ में लगभग ८६ लाख मोबाइल में से लगभग ३७ लाख मोबाइल का उपयोग किया गया था। इसमें सबसे अधिक फोन सेवा प्रदाता बेलटेलीकॉम है। यह राज्य द्वारा संचालित कंपनी है। लगभग तीन में से दो फोन सेवा डिजिटल सिस्टम का उपयोग करते हैं और हर सौ में से नब्बे लोग मोबाइल फोन का उपयोग करते हैं। वर्ष २००९ में यहाँ लगभग १,१3,००० इंटरनेट होस्ट थे, जो लगभग 3१ लाख इंटरनेट उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। सबसे अधिक मीडिया जैसे समाचार चैनल और रेडियो चैनल का संचालन राज्य द्वारा संचालित राष्ट्रीय राज्य टेलीरेडियोकंपनी करती है। यह कई सारे टीवी और रेडियो चैनल को संचालित करती है। जिसे बेलारूस के अलावा दुसरे देशों में भी दिखाया जाता है। टेलीविज़न ब्रोडकास्टिंग नेटवर्क बेलारूस का सबसे बड़ा निजी टेलीविज़न चैनल है, जो सामान्यतः क्षेत्रीय कार्यक्रम दिखाता है। बहुत से समाचार पत्र या तो बेलारूसी में छपते हैं या रूसी भाषा में, जिसमें रुचि अनुसार व्यापार, राजनीति या खेल से जुड़ी जानकारी होती है। वर्ष १९९८ में बेलारूस में रेडियो चैनलों की संख्या सौ से कम थी। सभी मीडिया प्रदाता कंपनी मीडिया के कानून के दायरे में रह कर कार्य करती है, जिसे १३ जनवरी १९९५ को लागू किया गया था। इस नियम के लागू होने से मीडिया को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, हालांकि, अनुच्छेद ५ में लिखा गया है कि बेलारूस या संविधान में उल्लेखित किसी सरकारी अधिकारी या राष्ट्रपति की बदनामी कोई मीडिया नहीं कर सकता। इस तरह की बदनामी करने वाले मीडिया चैनलों को सरकार द्वारा बंद कराने के कारण इसकी काफी आलोचना हुई। यूरोप के देश
सीऐटल (अंग्रेजी: सीटल) अमेरिका के वाशिंगटन राज्य का एक प्रमुख शहर है। यह वाशिंगटन राज्य का सबसे बड़ा शहर होने के साथ-साथ वहाँ का प्रमुख बन्दरगाह भी है। यह प्रशान्त महासागर तथा लेक वौशिन्ग्टन के बीच स्थित है। कनाडा की सीमा यहाँ से केवल १६० किलोमीटर दूर है। अप्रैल २००९ में यहाँ की आबादी लगभग ६१७०० थी। पाइक प्लेस मार्केट यहाँ की बड़ी मशहूर सब्जी मंडी है। पर्य्टक एवं निवासी रोज फल, सब्जियाँ, फूल, मछली आदी ख्ररीदनें यहाँ हजारों की तादाद् में आते हैं। मानव यहाँ कम-से-कम ४००० र्वषों से बसा हुआ है। गोरों का आगमन सन १८५१ में शुरु हुआ। आर्थ्रर डेन्नी तथा उनके साथियों ने सबसे पह्ली बस्ती बसायी जिसका नाम न्यू यॉर्क-ऍल्काइ रखा गया। सन १८५३ में दुवामिश तथा सुवामिश कबीलों के सरदार सिआलह को सम्मानित करने के लिये बस्ती का नाम सिऐटल रखा गया। यह हवाई जहाज निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। अमेरिका के शहर
भूकम्प या भूचाल पृथ्वी की सतह के हिलने को कहते हैं। यह पृथ्वी के स्थलमण्डल (लिथोस्फ़ीयर) में ऊर्जा के अचानक मुक्त हो जाने के कारण उत्पन्न होने वाली भूकम्पीय तरंगों की वजह से होता है। भूकम्प बहुत हिंसात्मक हो सकते हैं और कुछ ही क्षणों में लोगों को गिराकर चोट पहुँचाने से लेकर पूरे नगर को ध्वस्त कर सकने की इसमें क्षमता होती है। भूकम्प का मापन भूकम्पमापी यन्त्र से किया जाता है, जिसे सीस्मोग्राफ कहा जाता है। एक भूकम्प का आघूर्ण परिमाण मापक्रम पारम्परिक रूप से नापा जाता है, या सम्बन्धित और अप्रचलित रिक्टर परिमाण लिया जाता है। ३ या उस से कम रिक्टर परिमाण की तीव्रता का भूकम्प अक्सर अगोचर होता है, जबकि ७ रिक्टर की तीव्रता का भूकम्प बड़े क्षेत्रों में गम्भीर क्षति का कारण होता है। झटकों की तीव्रता का मापन विकसित मरकैली पैमाने पर किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर, भूकम्प अपने आप को, भूमि को हिलाकर या विस्थापित कर के प्रकट करता है। जब एक बड़ा भूकम्प उपरिकेन्द्र अपतटीय स्थिति में होता है, यह समुद्र के किनारे पर पर्याप्त मात्रा में विस्थापन का कारण बनता है, जो सूनामी का कारण है। भूकम्प के झटके कभी-कभी भूस्खलन और ज्वालामुखी गतिविधियों को भी पैदा कर सकते हैं। सर्वाधिक सामान्य अर्थ में, किसी भी सीस्मिक घटना का वर्णन करने के लिए भूकम्प शब्द का प्रयोग किया जाता है, एक प्राकृतिक घटना]) या मनुष्यों के कारण हुई कोई घटना -जो सीस्मिक तरंगों ) को उत्पन्न करती है। अक्सर भूकम्प भूगर्भीय दोषों के कारण आते हैं, भारी मात्रा में गैस प्रवास, पृथ्वी के भीतर मुख्यतः गहरी मीथेन, ज्वालामुखी, भूस्खलन और नाभिकीय परिक्षण ऐसे मुख्य दोष हैं। भूकम्प के उत्पन्न होने का प्रारम्भिक बिन्दु केन्द्र या हाईपो सेंटर कहलाता है। शब्द उपरिकेन्द्र का अर्थ है, भूमि के स्तर पर ठीक इसके ऊपर का बिन्दु। के मामले में, बहुत से भूकम्प प्लेट सीमा से दूर उत्पन्न होते हैं और विरूपण के व्यापक क्षेत्र में विकसित तनाव से सम्बन्धित होते हैं, यह विरूपण दोष क्षेत्र (उदा. बिग बन्द क्षेत्र) में प्रमुख अनियमितताओं के कारण होते हैं। नार्थरिज भूकम्प ऐसे ही एक क्षेत्र में अन्ध दबाव गति से सम्बन्धित था। एक अन्य उदाहरण है अरब और यूरेशियन प्लेट के बीच तिर्यक अभिकेंद्रित प्लेट सीमा जहाँ यह ज़ाग्रोस पहाड़ों के पश्चिमोत्तर हिस्से से होकर जाती है। इस प्लेट सीमा से सम्बन्धित विरूपण, एक बड़े पश्चिम-दक्षिण सीमा के लम्बवत लगभग शुद्ध दबाव गति तथा वास्तविक प्लेट सीमा के नजदीक हाल ही में हुए मुख्य दोष के किनारे हुए लगभग शुद्ध स्ट्रीक-स्लिप गति में विभाजित है। इसका प्रदर्शन भूकम्प की केन्द्रीय क्रियाविधि के द्वारा किया जाता है। सभी टेक्टोनिक प्लेट्स में आन्तरिक दबाव क्षेत्र होते हैं जो अपनी पड़ोसी प्लेटों के साथ अन्तर्क्रिया के कारण या तलछटी लदान या उतराई के कारण उत्पन्न होते हैं। (जैसे देग्लेशिएशन). ये तनाव उपस्थित दोष सतहों के किनारे विफलता का पर्याप्त कारण हो सकते हैं, अतः यह प्लेट भूकम्प को जन्म देते हैं। उथला - और गहरे केन्द्र का भूकम्प अधिकांश टेक्टोनिक भूकम्प १० किलोमीटर से अधिक की गहराई से उत्पन्न नहीं होते हैं। ७० किलोमीटर से कम की गहराई पर उत्पन्न होने वाले भूकम्प 'छिछले-केन्द्र' के भूकम्प कहलाते हैं, जबकि ७०-३०० किलोमीटर के बीच की गहराई से उत्पन्न होने वाले भूकम्प 'मध्य -केन्द्रीय' या 'अन्तर मध्य-केन्द्रीय' भूकम्प कहलाते हैं। निम्नस्खलन क्षेत्र (सब्डक्शन) में जहाँ पुरानी और ठण्डी समुद्री परत अन्य टेक्टोनिक प्लेट के नीचे खिसक जाती है, गहरे केंद्रित भूकम्प अधिक गहराई पर (३०० से लेकर ७०० किलोमीटर तक) आ सकते हैं। सीस्मिक रूप से सुब्दुक्शन के ये सक्रीय क्षेत्र वादाती - बेनिऑफ क्षेत्र स कहलाते हैं। गहरे केन्द्र के भूकम्प उस गहराई पर उत्पन्न होते हैं जहाँ उच्च तापमान और दबाव के कारण सुब्दुक्टेड स्थलमण्डल भंगुर नहीं होना चाहिए। गहरे केन्द्र के भूकम्प के उत्पन्न होने के लिए एक सम्भावित क्रियाविधि है ओलीवाइन के कारण उत्पन्न दोष जो स्पाइनल संरचना में एक अवस्था संक्रमण के दोरान होता है। भूकम्प और ज्वालामुखी गतिविधि भूकम्प अक्सर ज्वालामुखी क्षेत्रों में भी उत्पन्न होते हैं, यहाँ इनके दो कारण होते हैं टेक्टोनिक दोष तथा ज्वालामुखी में लावा की गतियां. ऐसे भूकम्प ज्वालामुखी विस्फोट की पूर्व चेतावनी होती है। एक क्रम में होने वाले अधिकांश भूकम्प, स्थान और समय के सन्दर्भ में एक दूसरे से सम्बन्धित हो सकते हैं। यदि ऐसा कोई झटका न आए जिसे स्पष्ट रूप से मुख्य झटका कहा जा सके, तो इन झटकों के क्रम को भूकम्प झुण्ड कहा जाता है। कई बार भूकम्पों की एक श्रृंख्ला भूकम्प तूफ़ान के रूप में उत्पन्न होती है, जहाँ भूकम्प समूह में दोष उत्पन्न करता है, प्रत्येक झटके में पूर्व झटके के तनाव का पुनर्वितरण होता है। ये बाद के झटके के समान है लेकिन दोष का अनुगामी भाग है, ये तूफ़ान कई वर्षों की अवधि में उत्पन्न होते हैं और कई दिनों बाद में आने वाले भूकम्प उतने ही क्षतिकारक होते है। भूकम्प के प्रभाव भूकम्प के प्रभावों में निम्न लिखित शामिल हैं, लेकिन ये प्रभाव यहाँ तक ही सीमित नहीं हैं। झटके और भूमि का फटना झटके और भूमि का फटना भूकम्प के मुख्य प्रभाव हैं, जो मुख्य रूप से इमारतों व अन्य कठोर संरचनाओं कम या अधिक गम्भीर नुक्सान पहुचती है। स्थानीय प्रभाव कि गम्भीरता भूकम्प के परिमाण के जटिल संयोजन पर, एपिसेंटर से दूरी पर और स्थानीय भू वैज्ञानिक व् भू आकरिकीय स्थितियों पर निर्भर करती है, जो तरंग के प्रसार कम या अधिक कर सकती है। भूमि के झटकों को भूमि त्वरण से नापा जाता है। विशिष्ट भूवैज्ञानिक, भू आकरिकीय और भू संरचनात्मक लक्षण भू सतह पर उच्च स्तरीय झटके पैदा कर सकते हैं, यहाँ तक कि कम तीव्रता के भूकम्प भी ऐसा करने में सक्षम हैं। यह प्रभाव स्थानीय प्रवर्धन कहलाता है। यह मुख्यतः कठोर गहरी मृदा से सतही कोमल मृदा तक भूकम्पीय गति के स्थानान्तरण के कारण है और भूकम्पीय उर्जा के केन्द्रीकरण का प्रभाव जमावों कि प्रारूपिक ज्यामितीय सेटिंग करता है। दोष सतह के किनारे पर भूमि कि सतह का विस्थापन व भूमि का फटना दृश्य है, ये मुख्य भूकम्पों के मामलों में कुछ मीटर तक हो सकता है। भूमि का फटना प्रमुख अभियांत्रिकी संरचनाओं जैसे बान्धों , पुल (ब्रिजज) और परमाणु शक्ति स्टेशनों के लिए बहुत बड़ा जोखिम है, सावधानीपूर्वक इनमें आए दोषों या संभावित भू स्फतन को पहचानना बहुत जरुरी है। भूस्खलन और हिम स्खलन भूकम्प, भूस्खलन और हिम स्खलन पैदा कर सकता है, जो पहाड़ी और पर्वतीय इलाकों में क्षति का कारण हो सकता है। एक भूकम्प के बाद, किसी लाइन या विद्युत शक्ति के टूट जाने से आग लग सकती है। यदि जल का मुख्य स्रोत फट जाए या दबाव कम हो जाए, तो एक बार आग शुरू हो जाने के बाद इसे फैलने से रोकना कठिन हो जाता है। मिट्टी द्रवीकरण तब होता है जब भूूूकम्प के झटकों के कारण जल सन्तृप्त दानेदार पदार्थ अस्थायी रूप से अपनी क्षमता को खो देता है और एक ठोस से तरल में रूपान्तरित हो जाता है। मिट्टी द्रवीकरण कठोर संरचनाओं जैसे इमारतों और पुलों को द्रवीभूत में झुका सकता है या डूबा सकता है। समुद्र के भीतर भूकम्प से या भूकम्प के कारण हुए भू स्खलन के समुद्र में टकराने से सुनामी आ सकते है। उदाहरण के लिए, २००४ हिन्द महासागर में आए भूकम्प. यदि बाँध क्षतिग्रस्त हो जाएँ तो बाढ़ भूकम्प का द्वितीयक प्रभाव हो सकता है। भूकम्प के कारण भूमि फिसल कर बान्ध की नदी में टकरा सकती है, जिसके कारण बान्ध टूट सकता है और बाढ़ आ सकती है। भूकम्प रोग, मूलभूत आवश्यकताओं की कमी, जीवन की हानि, उच्च बीमा प्रीमियम, सामान्य सम्पत्ति की क्षति, सड़क और पुल का नुकसान और इमारतों को ध्वस्त होना, या इमारतों के आधार का कमजोर हो जाना, इन सब का कारण हो सकता है, जो भविष्य में फ़िर से भूकम्प का कारण बनता है। धर्म और पौराणिक कथाओं में भूकम्प पौराणिक कथाओं में, भूकम्प को देवता लोकी के हिंसक संघर्ष के रूप में बताया गया है। जब शरारत और संघर्ष के देवता लोकी ने, सौंदर्य और प्रकाश के देवता बालद्र की हत्या कर दी, उसे दण्डित करने के लिए एक गुफा में बन्द कर दिया गया, उस पर एक जहरीला साँप रख दिया गया, जिससे उसके सिर पर जहर टपक रहा था। लोकी की पत्नी सिग्यन उसके पास एक कटोरा लेकर खड़ी हो गई जिसमें वह जहर इकठ्ठा कर रही थी, लेकिन जब भी वह कटोरे को खाली करती, जहर लोकी के चेहरे पर गिर जाता, तब वह उसे बचाने के लिए उसके सिर को दूसरी ओर धक्का देती, जिससे धरती काँपने लगती. ग्रीक पौराणिक कथाओं में नेप्चून भूकम्प के देवता थे। यह भी देखिए विनाशकारी भूकम्पों आने का मुख्य कारण "भूकंप " क्या जानते है आप इसके बारेमे ? -- डॉ॰ किशोर जयस्वाल के द्वारा भूकंप के बारेमे शिक्षा सम्बन्धी जानकारी. भूकंप में कैसे रहा जाए -- बच्चों और युवाओं के लिए गाइड भूकंप और प्लेट टेकतोनिक्स के लिए मार्गदर्शन "भूकंप कए एम् के द्वारा एक शिक्षा सम्बन्धी पुस्तक. शेद्लोक्क और लुई सी.पकिसेर एक भूकंप की गंभीरता उसग्स भूकंप पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न आईआरआईएस भूकंपी मॉनिटरपिछले ५ साल में सभी भूकम्पों के नक्शे बनता है। विश्व में नवीनतम भूकंप पिछले सप्ताह में सभी भूकम्पों के नक्शे बनाता है। भू .म्तु .एडूएक भूकंप के अधिकेन्द्र को कैसे पता लगाया जाए . ऐतिहासिक भूकम्पों की तस्वीरें और छवियाँ. अर्थएककंट्री.इंफ़ो भूकंपों और भूकंप की तैयारियों के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देता है। ५८६०, ११२१६१०, ०० . हत्मल इंटरएक्टिव मार्गदर्शिका : भूकंप --गार्जियन असीमित (गार्दियन उनलिमिटेड) के द्वारा एक शिक्षा सम्बन्धी प्रदर्शन. आभासी भूकंप - शिक्षा से सम्बंधित साईट स्पष्ट करती हैं कि अधिकेंद्रों की स्थिति क्या है और परिमाण कैसे नापा जाता है। सीबीसी डिजिटल अभिलेखागार -- कनाडा के भूकंप और सुनामिस भूकंप शैक्षिक संसाधन -- डीमॉज़ भूकंपीय आंकडों के केन्द्र भूकम्प आने के कारण, प्रभाव, वितरण क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय सीस्मोलोजिकल केन्द्र (इस्क) यूरोपीय - भूमध्य सीस्मोलोजिकल केन्द्र (एम्स्क) गज़ पॉट्सडैम पर ग्लोबल भूकंपी मॉनिटर ग्लोबल भूकंप रिपोर्ट -- चार्ट पिछले ४८ घंटे के दौरान आइसलैंड में भूकंप पुर्तगाली मौसम विज्ञान संस्थान (पिछले महीने के दौरान भूकंपी गतिविधि) जापान की भूकंप सूचना, जापान मौसम एजेंसी इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सीस्मोलोजी एंड अर्थ क्वेक इंजीनियरिंग (ईसी) निर्माण अनुसंधान संस्थान दुनिया में आए भूकंप से हुई क्षति का डाटा बेस, प्राचीन काल (३००० ई.पू.) से वर्ष २००६ निर्माण अनुसंधान संस्थान (जापान) () जापानी में वेदर न्यूज़ इंक (पिछले ७ दिनों के दौरान भूकंपी गतिविधि), जापानी भाषा में . संयुक्त राज्य अमेरिका अमेरिका का राष्ट्रीय भूकंप सूचना केंद्र दक्षिणी कैलिफोर्निया भूकंप डाटा केंद्र दक्षिणी कैलिफोर्निया भूकंप केंद्र (सेक) भूकंपीय देशों में जड़ें डालना एस सी ई सी द्वारा भूकंप विज्ञान और तैयारी पर बनाई गई पुस्तिका कैलिफोर्निया और नेवादा में हाल ही में आए भूकंप रेव के द्वारा हाल ही में आए भूकंप के सिस्मोग्राम, तीव्र भूकंप के विएवर इन्कोर्पोरेटेड रिसर्च इंस्टीटूशन फॉर सिस्मोलोजी (आइरिस), आईआरआईएस भूकंपी मॉनिटरहाल ही में दुनिया में आए भूकंप के नक्शे सिस्मोर्चीव्दुनिया के महत्वपूर्ण भूकंपों के सीस्मोग्राम संग्रहित करता है। चीन सिचुआन में आए भूकंप पर रिपोर्ट १२ /०५ /२००८ कश्मीर में राहत और विकास फाउंडेशन (क्रफ) उसग्स -- १९०० के बाद से दुनिया में आए सबसे बड़े भूकंप एम्स्क ऍउरोपेअन ंएदितेर्रनेअन शेइस्मोलोगिचल क्केन्त्रे भूकंप से तबाही दुनिया के सबसे भीषण भूकम्पों की एक सूची का रिकॉर्ड लॉस एंजिल्स भूकंप एक गूगल मानचित्र पर बनाया गया थे एम-दत इंटर नेशनल डिसास्टर डाटा बेस अखबारों के भूकंप आलेखों का संग्रह पेटक्वाके.ऑर्ग-सरकारी पेत्साफ प्रणाली जो भूकंप के पूर्वानुमान पर जानवरों के अजीब और अप्ररुपिक व्यवहार को बताती है। लिंक टूटी ०३ :३३, २ जून २००८ (उत्क)) दक्षिणी इटली में भूकम्पों की एक श्रृंखला -- २३ नवम्बर १९८०, गेस्वाल्डो हाल ही में दुनिया भर में आए भूकंप गूगल मानचित्र पर ऑस्ट्रेलिया और शेष विश्व में रियल टाइम भूकंप भूकंप सूचनाविस्तृत आँकड़े और गूगल नक्शे और गूगल पृथ्वी के साथ एकीकृत खरीता - इंगव पोर्टल फॉर डिजीटल कार्तो ग्राफी -आई एन जी वि इटली नेटवर्क के द्वारा दर्ज आखिरी भूकंप (गूगल मैप्स के साथ) खरीता - इंगव पोर्टल फॉर डिजीटल कार्तो ग्राफी -क्षेत्र के द्वारा इटेलियन सीस्मिसिति १९८१ -२००६ (गूगल मैप्स के साथ) भूपटल में होने वाली आकस्मिक कंपन या गति जिसकी उत्पत्ति प्राकृतिक रूप से भूतल के नीचे (भूगर्भ में) होती है। भूगर्भिक हलचलों के कारण भूपटल तथा उसकी शैलों में संपीडन एवं तनाव होने से शैलों में उथल-पुथल होती है जिससे भूकंप उत्पन्न होते हैं। विवर्तनिक क्रिया, ज्वालामुखी क्रिया, समस्थितिक समायोजन तथा वितलीय कारणों से भूकंप की उत्पत्ति होती है। ज्वालामुखी क्रिया द्वारा भूगर्भ से तप्त मैग्मा, जल गैसें आदि ऊपर निकलने के लिए शैलों पर तेजी से धक्के लगाते हैं तथा दबाव डालते हैं जिसके कारण भूकंप उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार भू-आकृतिक प्रक्रमों द्वारा भूपटल की ऊपरी शैल परतों में समस्थितिक संतुलन बिगड़ जाने पर क्षणिक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है जिसे दूर करने के लिए समस्थितिक समायोजन होता है जिससे शैल परतों में आकस्मिक हलचल तथा भूकंप उत्पन्न होते हैं। कुछ सीमित भूकंप पृथ्वी के अधिक गहराई (३०० से ७२० किलोमीटर) में वितलीय कारणों से भी उत्पन्न होते हैं। भूकंप, भूचाल या भूंडोल भूपर्पटी के वे कंपन हैं जो धरातल को कंपा देते हैं और इसे आगे पीछे हिलाते हैं। भूपर्पटी में शैलों की (या शैलों के अंदर) एक तीव्र अभिज्ञेय कंपन-गति एवं समायोजन, जिस परिणामस्वरूप प्रत्यास्थ (इलास्टिक) घात तरंगें (शॉक वेव) उत्पन्न होती हैं और चारों ओर सभी दिशाओं में फैलती हैं। पृथ्वी में होनेवाले इन कंपनों का स्वरूप तालाब में फेंके गए एक कंकड़ से उत्पन्न होने वाली लहरों की भाँति होता है। भूकंप बहुधा आते रहते हैं। वैज्ञानिकों का मत है विश्व में प्रति तीन मिनट में एक भूकंप होता है। साधारणतया भूकंप के होने के पूर्व कोई सूचना नहीं प्राप्त होती है। यह अकस्मात् हो जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से भूकंप पृथ्वी स्तर के स्थानांतरण से होता है। इन स्थानांतरण से पृथ्वीतल पर ऊपर और नीचे, दाहिनी तथा बाई ओर गति उत्पन्न होती है और इसके साथ साथ पृथ्वी में मरोड़ भी होते हैं। भूकंप गति से पृथ्वी के पृष्ठ पर की तरंगो भाग पर पानी के तल के सदृश तरंगें उत्पन्न होती हैं। १८९० ई. में असम में जो भयंकर भूकंप हुआ था उसकी लहरें धान के खेतों में स्पष्टतया देखी गई थीं। पृथ्वी की लचीली चट्टानों पर किसी प्रहार की प्रतिक्रिया रबर की प्रतिक्रिया की भाँति होती हैं। ऐसी तरंगों के चढ़ाव उतार प्राय: एक फुट तक होते हैं। तीव्र कंपन से धरती फट जाती है और दरारों से बालू, मिट्टी, जल और गंधकवाली गैसें कभी कभी बड़े तीव्र वेग से निकल आती हैं। इन पदार्थों का निकलना उस स्थान की भूमिगत अवस्था या अध:स्तल अवस्था पर निर्भर करता है। जिस स्थान पर ऐसा विक्षोभ होता है वहाँ पृथ्वी तल पर वलन, या विरूपण, अधिक तीक्ष्ण होता है। ऐसा देखा गया है कि भूकंप के कारण पृथ्वी में अनेक तोड़ मोड़ उत्पन्न हो जाते हैं। बड़े बड़े भूकंपों के कुछ पहले, या साथ साथ, भूगर्भ से ध्वनि उत्पन्न होती है। यह ध्वनि भीषण गड़गड़ाहट के सदृश होती है। भूकंप की यह विकट गड़गडाहट मटीली जगहों की अपेक्षा पथरीली जगहों में अधिक शीघ्रता से सुनी जाती है। भूकंप से आभ्यंतर भाग की अपेक्षा पृथ्वी के तल पर कंपन अधिक तीव्र होता है। असम के सन् १८९७ वाले भूकंप की ध्वनि रानीगंज की कोयले खानों में सुनी गई थी, पर उस भूकंप का अनुभव वहाँ नहीं हुआ था। भूकंप का वितरण - अब तक जितने भूकंप इस भूमंडल पर हुए हैं, यदि उन सबका अभिलेख हमारे पास होता तो उससे स्पष्ट हो जाता कि पृथ्वी तल पर कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ कभी न कभी भूकंप न आया हो। जो क्षेत्र आज भूकंप शून्य समझे जाते हैं, वे कभी भूकंप क्षेत्र रह चुके हैं। इधर भूकंप के संबंध में जो वैज्ञानिक खोज बीन हुई है,उससे ज्ञात हुआ है कि भूकंप क्षेत्र दो वृत्ताकार कटिबंध में वितरित है। इनमें से एक भूकंप प्रदेश न्यूजीलैंड के निकट दक्षिणी प्रशांत महासागर से आरंभ होकर, उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ चीन के पूर्व भाग में आता है। यहाँ से यह उत्तर पूर्व की ओर मुड़कर जापान होता हुआ, बेरिंग मुहाने को पार करता है और फिर दक्षिणी अमरीका के दक्षिण-पश्चिम की ओर होता हुआ अमरीका की पश्चिमी पर्वत श्रेणी तक पहुंचता है। दूसरा भूकंप प्रदेश जो वस्तुत: पहले की शाखा ही है, ईस्ट इंडीज द्वीप समूह से प्रारंभ होकर बंगाल की खाड़ी पर बर्मा, हिमालय, तिब्बत, तथा ऐल्प्स से होता हुआ दक्षिण पश्चिम घूमकर ऐटलैंटिक महासागर पार करता हुआ, पश्चिमी द्वीपसमूह (वेस्ट इंडीज) होकर मेक्सिको में पहलेवाले भूकंप प्रदेश से मिल जाता है। पहले भूकंप क्षेत्र को प्रशांत परिधि पेटी (सर्कम पेसिफिक बेल्ट) कहते हैं। इसमें ६८ प्रतिशत भूकंप आते हैं और दूसरे को रूपसागरीय पेटी (मेडिटेरेनियन बेल्ट) कहते हैं इसके अंतर्गत समस्त विश्व के २१ प्रतिशत भूकंप आते हैं। इन दोनों प्रदेशों के अलावा चीन, मंचूरिया और मध्य अफ्रका में भी भूकंप के प्रमुख केंद्र हैं। समुद्रों में भी हिंद, ऐटलैंटिक और आर्कटिक महासागरों में भूकंप के केंद्र हैं। भूकंप के कारणअत्यंत प्राचीन काल से भूकंप मानव के सम्मुख एक समस्या बनकर उपस्थित होता रहा है। प्राचीन काल में इसे दैवी प्रकोप समझा जाता रहा है। प्राचीन ग्रंथों में, भिन्न भिन्न सभ्यता के देशों में भूकंप के भिन्न भिन्न कारण दिये गए हैं। कोई जाति इस पृथ्वी को सर्प पर, कोई बिल्ली पर, कोई सुअर पर, कोई कछुवे पर और कोई एक बृहत्काय राक्षस पर स्थित समझती है। उन लोगों का विश्वास है कि इन जंतुओं के हिलने डुलने से भूकंप होता है। अरस्तू (३८४ ई. पू.) का विचार था कि अध:स्तल की वायु जब बाहर निकलने का प्रयास करती है, तब भूकंप आता है। १६वीं और १७वीं शताब्दी में लोगों का अनुमान था कि पृथ्वी के अंदर रासायनिक कारणों से तथा गैसों के विस्फोटन से भूकंप होता है। १८वीं शती में यह विचार पनप रहा था किश् पृथ्वी के अंदरवाली गुफाओं केश् अचानक गिर पड़ने से भूकंप आता है। १८74 ई में वैज्ञानिक एडवर्ड जुस (एडवर्ड श्रेस) ने अपनी खोजों के आधार पर कहा था कि 'भूकंप भ्रंश की सीध में भूपर्पटी के खंडन या फिसलने से होता है'। ऐसे भूकंपों को विवर्तनिक भूकंप (टेक्टॉनिक अर्थआके) कहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं। (१) सामान्य (नॉर्मल), जबकि उद्गम केंद्र की गहराई ४८ किलोमीटर तक हो, (२) मध्यम (इंटरमेडियाते), जबकि उद्गम केंद्र की गहराईश् ४८ से २40 किलोमीटर हो तथा (३) गहरा उद्गम (दीप फोकस), जबकि उद्गम केंद्र की गहराई २40 से १,२00 किलोमीटर तक हो। इनके अलावा दो प्रकार के भूकंप और होते हैं : ज्वालामुखीय (वोल्केनिक) और निपात (कोल्पसे)। १८वीं शती में भूकंपों का कारण ज्वालामुखी समझा जाने लगा था, परंतु शीघ्र ही यह मालूम हो गया कि अनेक प्रलयंकारी भूकंपों का ज्वालामुखी से कोई संबंध नहीं है। हिमालय पर्वत में कोई ज्वालामुखी नहीं है, परंतु हिमालय क्षेत्र में गत सौ वर्षो में अनेक भूकंप हुए हैं। अति सूक्ष्मता से अध्यन करने पर पता चला है कि ज्वालामुखी का भूकंप पर परिणाम अल्प क्षेत्र में ही सीमित रहता है। इसी प्रकार निपात भूकंप का, जो चूने की चट्टान में बनी कंदरा, या खाली की हुई खानों की, छत के निपात से उत्पन्न होते हैं, भी परिणाम अल्प क्षेत्र तक ही सीमित रहता है। कभी कभी तो केवल हल्के कंप मात्र ही होते हैं। भूविज्ञानियों की दृष्टि भूकंप के कारणों को खोज निकालने के लिये पृथ्वी के आभ्यांतरिक स्तरों की ओर गई। भूवैज्ञानिकों के अनुसार भूकंप वर्तमान युग में उन्हीं पर्वतप्रदेशों में होते हैं जो पर्वत भौमिकी की दृष्टि से नवनिर्मित हैं। जहाँ ये पर्वत स्थित हैं वहाँ भूमि की सतह कुछ ढलवाँ है, जिससे पृथ्वी के स्तर कभी कभी अकस्मात् बैठ जाते हैं। स्तरों से, अधिक दबाव के कारण ठोस स्तरों के फटने या एक चट्टान के दूसरी चट्टान पर फिसलने से होता है। जैसा ऊपर भी कहा जा चुका है, पृथ्वी स्तर की इस अस्थिरता से जो भूकंप होते हैं उन्हें विवर्तनिक भूकंप कहते हैं। भारत के सब भूकंपों का कारण विवर्तनिक भूकंप हैं। भूकंप के कारणों पर निम्नलिखित विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है : (१) प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप सिद्धांत (इलास्टिक रेबाउंड थ्योरी) - सन् १906 में हैरी फील्डिंग रीड ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। यह सिद्धांत सैन फ्रैंसिस्को के भूकंप के पूर्ण अध्ययन तथा सर्वेक्षण के पश्चात् प्रकाश में आया था। इस सिद्धांत के अनुसार भूपर्पटी पर नीचे से कोई बल लंबी अवधि तक कार्य करे, तो वह एक निश्चत समय तथा बिंदु तक (अपनी क्षमता तक) उस बल को सहेगी और उसके पश्चात् चट्टानों में विकृति उत्पन्न हो जाएगी। विकृति उत्पन्न होने के बाद भी यदि बल कार्य करता रहेगा तो चट्टानें टूट जाएँगी। इस प्रकार भूकंप के पहले भूकंप गति (अर्थआके मोशन) बनानेवालीश् ऊर्जा चट्टानों में प्रत्यास्थ विकृति ऊर्जा (इलास्टिक स्ट्रेन एनर्जी) के रूप में संचित होती रहती है। टूटने के समय चट्टानें भ्रंश के दोनों ओर अविकृति की अवस्था के प्रतिक्षिप्त (रेबाउंड) होती है। प्रत्यास्थ ऊर्जा भूकंपतरंगों के रूप में मुक्त होती है। प्रत्यास्थ प्रतिक्षेप सिद्धांत केवल भूकंप के उपर्युक्त कारण को, जो भौमिकी की दृष्टि से भी समर्थित होता है ही बतलाता है। (२) पृथ्वी के शीतल होने का सिद्धांत - भूकंप के कारणों में एक अत्यंत प्राचीन विचार पृथ्वी का ठंढा होना भी है। पृथ्वी के अंदर (करीब ७०० किलोमीटर या उससे अधिक गहराई में) के ताप में भूपपर्टी के ठोस होने के बाद भी कोई अंतर नहीं आया है। पृथ्वी अंदर से गरम तथा प्लास्टिक अवस्था में है और बाहरी सतह ठंडी तथा ठोस है। यह बाहरी सतह भीतरी सतहों के साथ ठीक ठीकश् अनुरूप नहीं बैठती तथा निपतित होती है और इस तरह से भूकंप होते हैं। (३) समस्थिति (आइसोस्तेसी) सिद्धांत -इसके अनुसार भूतल के पर्वत एवं सागर धरातल एक दूसरे को तुला की भाँति संतुलन में रखे हुए हैं। जब क्षरण आदि द्वारा ऊँचे स्थान की मिट्टी नीचे स्थान पर जमा हो जाती है, तब संतुलन बिगड़ जाता है तथा पुन: संतुलन रखने के लिये जमाववाला भाग नीचे धँसता है और यह भूकंप का कारण बनता है (४) महाद्वीपीय विस्थापन प्रवाह सिद्धांत --(कॉनटिनेंटल ड्रिफ्ट) -अभी तक अनेकों भूविज्ञानियों ने महाद्वीपीय विस्थापन पर अपने अपने मत प्रतिपादित किए हैं। इनके अनुसार सभी महाद्वीप पहले एक पिंड (मास) थे, जो पीछे टूट गए और धीरे धीरे विस्थापन से अलग अलग होकर आज की स्थिति में आ गए। (देंखें महाद्वीप)। इस परिकल्पना में जहाँ कुछ समस्याओं पर प्रकाश पड़ता है वहीं विस्थापन के लिये पर्याप्त मात्रा में आवश्यक बल के अभाव में यह परिकल्पना महत्वहीन भी हो जाती है। इसके अनुसार जब महाद्वीपों का विस्थापन होता है तब पहाड़ ऊपर उठते हैं और उसके साथ ही भ्रंश तथा भूकंप होते हैं। रेडियोऐक्टिवता (रेडीओएक्टिविटी) सिद्धांत -- सन् १९२५ में जॉली ने रेडियोऐक्टिव ऊष्मा के, जो महाद्वीपों के आवरण के अंदर एकत्रित होती है, चक्रीय प्रभाव के कारण भूकंप होने के संबंध में एक सिद्धांत का विकास किया। इसके अनुसार रेडियोऐक्टिव ऊष्मा जब मुक्त होती है तब महाद्वीपों के अंदर की चीजों को पिघला देती है और यह द्रव छोटे से बल के कार्य करने पर भी स्थानांतरित किया जा सकता है, यद्यपि इस सिद्धांत की कार्यविधि कुछ विचित्र सी लगती है। संवहन धारा (कॉन्वेक्शन करेंट) सिद्धांत -अनेक सिद्धांतों में यह प्रतिपादित किया गया है कि पृथ्वी पर संवहन धाराएँ चलती हैं। इन धाराओं के परिणामस्वरूप सतही चट्टानों पर कर्षण (ड्राग) होता है। ये धाराएँ रेडियोऐक्टिव ऊष्मा द्वारा संचालित होती हैं। इस कार्यविधि के परिणामस्वरूप विकृति धीरे धीरे बढ़ती जाती है। कुछ समय में यह विकृति इतनी अधिक हो जाती है कि इसका परिणाम भूकंप होता है। उद्गम केंद्र और अधिकेंद्र (फोकस एंड एपिसेंटर) सिद्धांत - भूकंप का उद्गम केंद्र पृथ्वी के अंदर वह विंदु है जहाँ से विक्षेप शुरू हाता है। अधिकेंद्र (एपिसेन्टरी) पृथ्वी की सतह पर उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर का बिंदु है। भूकंपों की भविष्यवाणी के संबंध में रूस के ताजिक विज्ञान अकादमी के भूकंप विज्ञान तथा भूकंप प्रतिरोधी निर्माण संस्थान के प्रयोगों के परिणामस्वरूप हाल में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि भूकंपों के दुबारा होने का समय अभिलेखित कर लिया जाय और विशेष क्षेत्र में पिछले इसी प्रकार के भूकंपों का काल विदित रहे, तो आगामी अधिक शक्तिशाली भूकंप का वर्ष निश्चित किया जा सकता है। भूकंप विज्ञानियों में एक संकेत प्रचलित है भूकंपों की आवृति की कालनीति का कोण और शक्तिशाली भूकंप की दशा का इस कलनीति में परिवर्तन आता है। इसकी जानकारी के पश्चात् भूकंपीय स्थल पर यदि तेज विद्युतीय संगणक उपलब्ध हो सके, तो दो तीन दिन के समय में ही शक्तिशाली भूकंप के संबंध में तथा संबद्ध स्थान के विषय में भविष्यवाणी की जा सकती है और भावी अधिकेंद्र तक का अनुमान लगाया जा सकता है भूकंप का प्रभाव - भूकंप का प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों पर अलग अलग ढंग से पड़ता है। पेड़ गिर जाते हैं तथा बड़े बड़े शिलाखंड सरक जाते हैं। अल्पकाल के लिये बहुधा छोटी अथवा विशाल झीलें बन जाती हैं। विशाल क्षेत्र धँस जाते हैं और कुछ भूखंड सदैव के लिये उठ जाते हैं। कई दरारें खुलती एवं बंद होती है। सोते बंद हो जाते हैं तथा सरिताओं के मार्ग बदल जाते हैं। भूकंप तंरगों का सबसे विध्वंसक प्रभाव मानव निर्मित आकारों, जैसे रेलमार्गो, सड़कों, पुलों, विद्युत एवं टेलीग्राफ के तारों आदि पर पड़ता है। सहस्त्रों वर्षो से स्थापित सभ्यता एवं आवास को ये भूकंप क्षण भर में नष्ट कर देते हैं। इनके कारण भ्रंशों का, विशेषकर अननुस्तरी (डिस्कॉर्डंत) भ्रंशों का होना बताया जाता है। भूकंप के कारण बहुधा मिट्टी इस तरह से फेंकी जाती है कि नदीतल के समांतर में दरारें पड़ जाती है। यहाँ पर जड़त्व गुरुत्व से अधिक महत्वपूर्ण कारण है। भूकंप से भूकंपी फव्वारे इत्यादि भी बन जाते हैं तथा पहाड़ों की ढलानों पर पड़ी हुई चट्टानें तथा अन्य चीजें वहाँ से लुढ़क कर नीचे आ जाती हैं। समुद्र में भूकंप से शुनामिस (सुनामिस) नामक तरंगें पैदा होती है। ये समुद्र में छोटे छोटे ज्वालामुखी के फूटने से, तूफान से, या दाब में एकाएक परिवर्तन होने से उत्पन्न होती है। ये जापान और हवाई द्वीपसमूह के निकट अधिक संख्या में अभिलिखित की गई हैं तथा इनसे समुद्रतटों पर बहुत क्षति होती है। भूकंपलेखी (सिस्मोग्राफ) - भूकंप का पता लगाने के लिये जो यंत्र बने है उन्हें भूकंपलेखी कहते हैं। भूकंप के कारण, प्रभाव तथा अन्य प्रकार के संबंधित विषयों का अध्ययन भूकंपविज्ञान (सिस्मोलॉजी) के अंतर्गत होता है। भूकंपलेखी से अब पृथ्वी के अंदर तेल रहने का भी पता लगाया जाता है। (देखें भूकंपमापी)। भूकंप पृथ्वी की परत (क्रस्ट) से ऊर्जा के अचानक उत्पादन के परिणामस्वरूप आता है जो भूकंपी तरंगें (सैस्मिक वेव) उत्पन्न करता है। भूकंप का रिकार्ड एक सीस्मोमीटर (सिस्मोमिटर) के साथ रखा जाता है, जो सीस्मोग्राफ भी कहलाता है। एक भूकंप का क्षण परिमाण (मोमेंट मेग्नीट्यूड) पारंपरिक रूप से मापा जाता है, या सम्बंधित और अप्रचलित रिक्टर (रिक्टर) परिमाण लिया जाता है, ३ या कम परिमाण की रिक्टर तीव्रता का भूकंप अक्सर इम्परसेप्टीबल होता है और ७ रिक्टर की तीव्रता का भूकंप बड़े क्षेत्रों में गंभीर क्षति का कारण होता है। झटकों की तीव्रता का मापन विकसित मरकैली पैमाने पर (मर्केली स्केल) किया जाता है। पृथ्वी की सतह पर, भूकंप अपने आप को, भूमि को हिलाकर या विस्थापित कर के प्रकट करता है। जब एक बड़ा भूकंप अधिकेन्द्र (एपिसेंटर) अपतटीय स्थति में होता है, यह समुद्र के किनारे पर पर्याप्त मात्रा में विस्थापन का कारण बनता है, जो सूनामी का कारण है। भूकंप के झटके कभी-कभी भूस्खलन और ज्वालामुखी गतिविधियों को भी पैदा कर सकते हैं।
रजरप्पा (अंग्रेजी:रजरप्पा) भारत के झारखण्ड राज्य के रामगढ़ ज़िले के चितरपुर सामुदायिक विकास खंड में स्थित एक जलप्रपात और हिन्दू तीर्थस्थल है। यह दामोदर नदी में भेड़ा नदी (भैरवी नदी) का संगमस्थल है। यहाँ पर स्थित माँ छिन्नमस्तिका मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है। रजरप्पा झारखंड की राजधानी रांची से करीब ८० किलोमीटर दूर स्थित है। यह जलप्रपात "दामोदर एवं भैरवी नदी" के संगम पर स्थित है। रामगढ़ से रजरप्पा की दूरी २८ किमी की है। यहाँ का झरना एवं माँ छिन्नमास्तिका का मंदिर प्रसिद्ध है। रजरप्पा प्रांत के दो भाग हैं- रजरप्पा परियोजना और रजरप्पा मंदिर। रजरप्पा परियोजना जिसे रजरप्पा प्रोजेक्ट के नाम से जाना जाता है, वहाँ कोल इंडिया लिमिटेट की अनुषांगिक इकाइयों में से एक सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की परियोजना है। यहाँ कोयले की खानें हैं, जहाँ विवृत खनन होता है। रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर मां छिन्नमस्तिका का मंदिर स्थित है।इस मंदिर को 'प्रचंडचंडिके' के रूप से भी जाना जाता है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर रुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है।पुराणों में रजरप्पा मंदिर का उल्लेख शक्तिपीठ के रूप में मिलता है। मंदिर के निर्माण काल के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। कई विशेषज्ञ का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण ६००० साल पहले हुआ था और कई इसे महाभारतकालीन का मंदिर बताते हैं। यहाँ कई मंदिर हैं जिनमें 'अष्टामंत्रिका' और 'दक्षिण काली' प्रमुख हैं। यहां आने से तंत्र साधना का अहसास होता है। यही कारण है कि असम का कामाख्या मंदिर और रजरप्पा के छिन्नमस्तिका मंदिर में समानता दिखाई देती है।मंगलवार और शनिवार को रजरप्पा मंदिर में विशेष पूजा होती है। इन्हें भी देखें माँ छिन्नमस्तिका मन्दिर सर्दी में पिकनिक स्पॉट बन जाता है रजरप्पा (प्रभासाक्षी) झारखण्ड के जलप्रपात झारखण्ड में हिन्दू मन्दिर
ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)। ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है। ब्रह्मगुप्त आबू पर्वत तथा लुणी नदी के बीच स्थित, भीनमाल नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम जिष्णु था। इनका जन्म शक संवत् ५२० में हुआ था। इन्होंने प्राचीन ब्रह्मपितामहसिद्धांत के आधार पर ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त तथा खण्डखाद्यक नामक करण ग्रंथ लिखे, जिनका अनुवाद अरबी भाषा में, अनुमानत: खलीफा मंसूर के समय, अलफजारी ने अल-हिंद वल-हिंद और याकूब इब्न तारिक ने अल अरकंद के नाम से हुआ। इनका एक अन्य ग्रंथ 'ध्यानग्रहोपदेश/ध्यान गर्भ' नाम का भी है। इन ग्रंथों के कुछ परिणामों का विश्वगणित में अपूर्व स्थान है। आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के भीनमाल शहर मे ईस्वी सन् ५९०/५९८ मे हुआ था। इसी कारण उन्हें ' भिल्लमालाआचार्य ' के नाम से भी कई जगह उल्लेखित किया गया है। यह शहर तत्कालीन गुजरात प्रदेश की राजधानी तथा हर्षवर्धन साम्राज्य के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन माना जाता है। 'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक (नेगेटिव) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ये नियम आज की समझ के बहुत करीब हैं। हाँ, एक अन्तर अवश्य है कि ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: ०/० = ०. "ब्रह्मस्फुटसिद्धांत" के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। १२वां अध्याय, गणित, अंकगणितीय शृंखलाओं तथा ज्यामिति के बारे में है। १८वें अध्याय, कुट्टक (बीजगणित) में आर्यभट्ट के रैखिक अनिर्धार्य समीकरण (लाइन्यर इंडेटर्मिनते इक्वेशन, इक्वेशन्स ऑफ थे फॉर्म एक्स बाय = च) के हल की विधि की चर्चा है। (बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम कुट्टक है। ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् ६२८ ई. में कुट्टक गणित रखा।) ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों (न्क्स२ + १ = य२) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाला वह प्रथम व्यक्ति था। उनके ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद ख़लीफ़ा अल-मंसूर (७१२-७७५ ईस्वी) ने बग़दाद की स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फ़ज़री ने इसका अरबी भाषा में अनुवाद किया। ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया। ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है। ब्रह्मगुप्त पाई () (३.१४१५९२६५) का मान १० के वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना। ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, क य२ + १ = क्स२, को भी हल करने का प्रयत्न किया। ब्रह्मगुप्त का सूत्र ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (अप्प्रोक्सिमते फार्मुला) तथा यथातथ सूत्र (एक्सैक्ट फार्मुला) भी दिया है। चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र: चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र: जहाँ त = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा प, क, र, स उसकी भुजाओं की नाप है। हेरोन का सूत्र, जो एक त्रिभुज के क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है, इसका एक विशिष्ट रूप है। पृथूदक स्वामी ने ब्रह्मगुप्त के दोनों ग्रन्थों प्र भाष्य लिखा और कठिन श्लोकों को सरल भाषा में उदाहरण सहित प्रस्तुत किया। लल्ल और भट्टोत्पल ने ८वीं और ९वीं शताब्दी में खण्डखाद्यक पर टीका लिखी। १२वीं शताब्दी में भी इन पर भाष्य लिखे जाते रहे। इन्हें भी देखें भारतीय गणितज्ञ सूची ब्रह्मगुप्त का सूत्र ब्रह्मगुप्त अन्तर्वेशन सूत्र ब्रह्मगुप्त (अंग्रेजी में) ब्रह्मगुप्त का ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (संस्कृत पाठ, संस्कृत एवं हिन्दी में टीका) बीजगणितज्ञ के रूप में ब्रह्मगुप्त (अंग्रेजी में) हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
मनोभ्रंश (डिमेंशिया) से ग्रस्त व्यक्ति की याददाशत भी कमज़ोर हो जाती है। वे अपने दैनिक कार्य ठीक से नहीं कर पाते। कभी-कभी वे यह भी भूल जाते हैं कि वे किस शहर में हैं, या कौनसा साल या महीना चल रहा है। बोलते हुए उन्हें सही शब्द नहीं सूझता। उनका व्यवहार बदला बदला सा लगता है और व्यक्तित्व में भी फ़र्क आ सकता है। मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) दिमाग की क्षमता का निरंतर कम होना है। यह दिमाग की बनावट में शारीरिक बदलावों के परिणामस्वरूप होता है। ये बदलाव स्मृति, सोच, आचरण तथा मनोभाव को प्रभावित करते हैं। एलसायमर रोग मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) की सबसे सामान्य किस्म है। मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) की अन्य किस्में हैं- नाड़ी संबंधी डिमेंशिया, लुई बाड़िस वाला डिमेंशिया तथा फ्रंटोटेम्पोरल डिमेंशिया शामिल हैं। वास्त्व में मनोभ्रंश किसी विशेष बीमारी का नाम नहीं, बल्कि के लक्षणों के समूह का नाम है, जो मस्तिष्क की हानि से सम्बंधित हैं। डिमेन्शिया शब्द दे (विदऔत) और मेंशिया (माइंड) को जोड़ कर बनाया गया है। ये सब मनोभ्रंश नहीं हैं यह समझना बहुत ज़रूरी है कि मनोभ्रंश मंदबुद्धि (मेंटल रेतरडेशन) नहीं है। यह सन्निपात, उन्माद या संकल्प प्रलाप (डेलिरियम) नहीं है। यह पागलपन (इंसानिटी) नहीं है। यह अम्नीसिया (स्मृतिलोप, स्मृतिभ्रंश, अम्नेशिया) नहीं है। मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) उम्रवृद्धि प्रक्रिया का साधारण भाग नहीं है। हमें अब तक यथार्थत: यह पता नहीं है कि मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) किस कारण होता है। किसी एक अकेले कारण को एलसायमर रोग के लिए कारण के रूप में बतलाया नहीं गया है। यह संभव है कि आयु, आनुवांशिक विरासत और परिस्थितियों को शामिल कर संसर्ग कारक इसके लिए जिम्मेवार हैं। नाड़ी संबंधी डिमेंशिया दिमाग के लिए आपूर्ति करने वाली रक्त नसों को क्षति पहुंचने से होता है। धूम्रपान करने या उच्च रक्तचाप वाले लोगों में, रक्त में चर्बी की बहुत मात्रा होने वाले लोगों में या मधुमेह रोग से ग्रस्त लोगों में नाड़ी संबंधी डिमेंशिया विकसित होने का खतरा होता है। लुई बाड़िस वाले डिमेंशिया और फ्रंटोटेम्पोरल डिमेंशिया के कारण वर्तमान में अविदित हैं। मनोभ्रंश रोग किसे होता है? सभी जातीय वर्गों के लोगों तथा ह र प्रकार की बौद्धि क्षमता वाले लोगों को मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) हो सकता है। हालांकि यह ६५ की आयु से अधिक वाले लोगों में ज्यादा सामान्य है, यह ४५ वर्ष या उससे अधिक आयु वाले लोगों को भी प्रभावित कर सकता है। मनोभ्रंश के लक्षण कई रोगों के कारण पैदा हो सकते है क्योंकि ये सभी रोग मस्तिष्क की हानि करते हैं और क्योंकि हम अपने सब कामों के लिए अपने मस्तिष्क पर निर्भर हैं। साल दर साल मनोभ्रंश से ग्रस्त व्यक्ति की स्थिति अधिक खराब होती जाती है और बाद की अवस्था में उन्हें साधारण से साधारण काम में भी दिक्कत होने लगती है, जैसे कि चल पाना, बात करना, या खाना ठीक से चबाना और निगलना और वे छोटी से छोटी चीज़ के लिए भी निर्भर हो जाते हैं। वे बिस्तर पर पड़ जाते है और उनका अंतिम समय आ जाता है। जब व्यक्ति में लक्षण नज़र आने शुरू होते हैं तो आस-पास के लोगपरिवार-वाले, दोस्त और प्रियजन, सहकर्मी, पडोसीयह समझ नहीं पाते कि व्यक्ति इस अजीब तरह से क्यों पेश आ रहा है। कभी व्यक्ति परेशान या भुलक्कड लगता है, तो कभी सहमा हुआ, तो कभी झुन्झुलाया हुआ या बेकार गुस्सा करता हुआ। परिवार वाले इन लक्षणों को सामान्य बुढ़ापा समझ कर नज़र-अंदाज़ करने की कोशिश करते हैं, पर मनोभ्रंश का होना उम्र बढ़ने का सामान्य अंग नहीं है। मनोभ्रंश के लक्षण बीमारी के कारण उत्पन्न होते है। नीचे दी हुई सूची एक संकेतक सूची है। मनोभ्रंश से प्रभावित व्यक्ति में, रोग के बढते साथ ज्यादा और अधिक गंभीर लक्षण नज़र आते हैं। (याद रखें कि हर व्यक्ति में अलग अलग लक्षण नज़र आते हैं। एक व्यक्ति में यह सब लक्षण हों, यह ज़रूरी नहीं और यह भी ज़रूरी नहीं कि यदि कोई ये लक्षण दिख रहे है तो उस व्यक्ति को मनोभ्रंश हैयह जांच तो डॉक्टर ही कर सकते हैं) मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) प्रगतिशील है, जिसका अर्थ है कि लक्षण धीरे-धीरे और बुरे होते जायेंगे, परंतु यह अलग-अलग व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसमें लक्षण कितनी जल्दी तथा कौन सी किस्मों में और बुरे होते जायेंगे। मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) से ग्रस्त हर व्यक्ति भिन्न है। सामान्य लक्षणों में निम्नलिखित लक्षण शामिल हैं: धीरे-धीरे स्मरण शक्ति का कम होना कथनों या प्रश्नों को दुहराना परिचित कार्यों को करने में कठिनाई पैसों का प्रबन्धन करने में कठिनाई पहल-शक्ति का कम होना निर्णय लेने की क्षमता में बिगाड़ समय और स्थान का संभ्रम व्यक्तित्व में बदलाव स्वभाव या आचरण में बदलाव भाषा के साथ मुश्किलें गाड़ी चलाने की योग्यताओं में बिगाड़ वस्तुओं को गलत जगह पर रखना धीरे-धीरे, दिमाग के अधिकांश प्रकार्य प्रभावित होते हैं। अंत में, मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) से ग्रस्त लोगों को वस्त्र बदलने, शौचालय जाने, नहाने तथा खाने जैसी दैनिक गतिविधियों में सहायता की जरूरत पड़ सकती है। ज़रूरी चीज़ें भूल जाना, खासकर हाल में हुई घटनाएँ (जैसे, नाश्ता करा था या नहीं) पार्टी का आयोजन न कर पाना, छोटी छोटी समस्याओं को भी न सुलझा पाना साधारण, रोज-मर्रे के काम करने में दिक्कत महसूस करना गलत किस्म के कपडे पहनना, कपडे उलटे पहनना, साफ़-सुथरा न रह पाना यह भूल जाना कि तारीख क्या है, कौनसा महीना है, साल कौनसा है, व्यक्ति किस घर में हैं, किस शहर में हैं, किस देश में किसी वस्तु का चित्र देखकर यह न समझ पाना कि यह क्या है नंबर जोड़ने और घटाने में दिक्कत, गिनती करने में दिक्कत बोलते या लिखते हुए गलत शब्द का प्रयोग करना चीज़ों को गलत, अनुचित जगह पर रख छोडना (जैसे कि घडी को, या ऑफिस फाइल को फ्रिज में रख देना) कुछ काम शुरू करना, फिर भूल जाना कि क्या करना चाहते थे और बहुत कोशिश के बाद भी याद न कर पाना बड़ी रकम को फालतू की स्कीम में डाल देना, पैसे से सम्बंधित अजीब निर्णय लेना, लापरवाही या गैरजिम्मेदारी दिखाना अपने आप में गुमसुम रहना, मेल-झोल बंद कर देना, चुप्पी साधना छोटी-छोटी बात पर, या बिना कारण ही बौखला जाना, चिल्लाना, रोना, इत्यादि किसी बात को या प्रश्न को दोहराना, जिद्द करना, तर्क न समझ पाना बात बेबात लोगों पर शक करना यदि आप अपने बारे में या अपने किसी जानने वाले के बारे में चिंतित हैं, तो आपको क्या करना चाहिए? यह आवश्यक है कि सीधे कोई निष्कर्ष ना निकालें। संभ्रम या बार-बार भूलते रहने का यह अर्थ नहीं है कि आपको या आपके किसी प्रिय को मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) है। कई अन्य उपचारयोग हालात जैसे कि संदूषण, दवाईयों के बुरे प्रभाव और विषाद ऐसी समस्याओं को उत्पन्न कर सकते हैं। अपने पारिवारिक चिकित्सक (जी पी) से संपर्क करें और अपनी चिंताओं पर विचार-विमर्श करें। सम्पूर्ण शारीरिक, तंत्रिका-विज्ञान संबंधी और सामाजिक जांच के लिए अनुरोध करें। अपनी निरीक्षण मुलाकात से पहले समस्याओं की सूची को लिखें और निरीक्षण मुलाकात के लिए अपने साथ किसी को ले जायें। आपका जी पी रोगनिदान को प्रमाणित करने में सहायता के लिए किसी विशेषज्ञ के लिए अनुरोध कर सकता/सकती है। ऐसा कोई भी एकमात्र निश्चित परीक्षण नहीं है जो यह दर्शाये कि कोई मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) से ग्रस्त है। मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) का निदान केवल लक्ष्णों के अन्य संभव कारणों को अस्वीकार करने के द्वारा ही किया जा सकता है। इसलिए एक सम्पूर्ण चिकित्सा जांच आवश्यक है। समर्थन, सूचना एवं शिक्षा प्राप्त करने के लिए अपनी स्थानीय एलजायर्स संस्था से संपर्क करें। हालांकि, मनोभ्रंश रोग (डिमेंशिया) के अधिकांश कारणों का कोई इलाज नहीं है, परंतु बहुत सी मदद उपलब्ध है। कुछ लोगों के लिए थोड़ी अवधि के लिए कुछ लक्ष्णों को कम करने हेतु दवाई उपलब्ध है। यह आवश्यक है कि आप आरम्भ में ही सहायता की तलाश करें। मनोभ्रंश और स्मृतिलोप में अन्तर मनोभ्रंश एवं स्मृतिलोप दो अलग-अलग रोग हैं। इनके सामान्य लक्षण मिलते-जुलते हैं। स्मृतिलोप होने पर तथ्यों, सूचनाओं एवं व्यक्तिगत अनुभव से सम्बन्धित स्मृति (मेमोरी) बहुत कमजोर हो जाती है। 'स्ट्रोक', इन्सेफ्लाइटिस, ट्यूमर आदि के द्वारा मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने से स्मृतिलोप का रोग होता है। इसे 'जैविक स्मृतिलोप' कहते हैं। अत्यन्त अधिक तनाव (स्ट्रेस) या मनोवैज्ञानिक टौमा के कारण जो स्मृतिलोप होता है उसे 'डिसोसिएटिव अम्नेसिया' कहते हैं। इसमें संज्ञानात्मक समस्याएँ नहीं होतीं जो मनोभ्रंश की दशा में होती हैं। किन्तु मनोभ्रंश कोई रोग नहीं है बल्कि मस्तिष्क के कार्य का ह्रास है, जैसे- संज्ञान (कोग्नीशन), स्मृति, भाषा-क्षमता आदि। अलजाइमर रोग (अल्जायमर'स डिसीज), लेवी बॉडी डिमेंशिया (लेवी बॉडी डिमेन्शिया), वस्क्युलर डिमेंशिया (वैस्कुलर डिमेन्शिया) तथा फ्रॉन्टोटेम्पोरल डिमेंशिया (फ्रंटोटेम्पोरल डिमेन्शिया) आदि इसके कुछ प्रकार हैं। ६० से भी अधिक तरह के मनोभ्रंश होते हैं। यद्यपि मनोभ्रंश ही दशा में स्मृतिक्षीणता (मेमोरी लॉस) होना आम बात है, किन्तु यह जरूरी नहीं है कि मनोभ्रंश की सभी दशाओं में स्मृतिक्षीणता हो ही। संज्ञानात्मक विकार हैं - भाषाई क्षमता में ह्रास, पढ़ने-लिखने की क्षमता का ह्रास, गणितीय क्षमता का ह्रास, चित्र बनाने की क्षमता का ह्रास, परिचित चीजों का उपयोग न कर पाना, खो जाना (रास्ता भूल जाना), परिचित चेहरों या चीजों को भी न पहचान पाना। डिमेन्शिया यानी मतिभ्रम मस्तिष्क संबंधी बिमारी है। इसमें मस्तिष्क कोशिकाओं की मृत्यु होने लगती है। कोशिकाओं के इस तरह - नष्ट होने के कारणों की जानकारी अभी तक नहीं हो पाई है। इसलिए इस बिमारी का पूर्ण निदान भी अभी संभव नहीं हो सका है। हाँ कुछ उपायों और औषधियों द्वारा कोशिकाओं के नष्ट होने की प्रक्रिया को धीमा करने में अवश्य सफलता मिली है। सामान्यतः वृद्धावस्था के साथ संबद्ध यह बिमारी व्यक्ति को दिमाग़ी रूप से तबाह कर देती है। इस बीमारी से प्रभावित व्यक्ति बातें भूलने लगता है, उसका अपने शरीर पर से नियंत्रण कम हो जाता है और वो आम लोगों की तरह व्यवहार नहीं कर पाता. विस्तार और तीव्रता भारत में अल्ज़ाइमर्स एंड रिलेटेड डिसऑर्डर्स सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के नेशनल चेयरमैन डॉक्टर के जैकब रॉय का कहना है कि अभी भारत में ३० लाख से ज़्यादा लोग डिमेन्शिया और अल्ज़ाइमर्स से प्रभावित है। वर्ष २०२५ तक ये संख्या बढ़कर ६० लाख तक पहुँच जाएगी। फोन नम्बर\, लोगों के नाम भूलना अपाॅइंटमेंट\, दवाई लेने के समय को भूलना अभी हुई घटनाओं को भूल जाना \(बीती हुई बातें याद रह सकती हैं \) बार बार वही प्रश्न करना या उसी बात को दोहराना - वाक शक्ति खोना सही शब्द या सही कहावत या मुहावरे के उपयोग में कठिनाई पढ़ाई लिखाई नही कर पाना समय और दिशा ज्ञान खोना कन्फ्यूज़ हो जाना कि आज क्या तारीख है या हफ्ते का कौन सा दिन है भूल जाना कि वे कहाँ हैं और वह जगह किस लिये है गुम हो जाना और इधर उधर भटकना -गणना शक्ति खोना चीज़ें खरीदते समय जोड़\, बाकी न कर पाना पैसा सँभालने में मुश्किल होना - व्यक्तित्व और मूड में बदलाव मतिक्षय और भुलक्कड़पन में अंतर भुलक्कड़पन ः जब कोई आपको उस चीज़ की याद दिलाता है जो आप भूल गये हैं तो आपको आसानी से याद आ जाती है। यह सभी को होता है। स्मरणशक्ति की परेशानियाँ ः अगर कोई याद भी दिलाता है तो भी आपको याद नहीं आता . डिमेन्शिया ः इस में स्मरणशक्ति की परेशानियाँ शामिल हैं\, लेकिन आपको अन्य लक्षण भी हो सकते हैं जैसे कि दिशा भूलना\, निर्णय शक्ति\ और सोचने की योग्यता को खोना डिमेन्शिया उन लोगों को ज़्यादा प्रभावित करती है, जिनकी उम्र ६५ वर्ष से ज़्यादा होती है। मोटापा, कोलेस्टेरॉल और डायबिटीज़ और उम्र के कारण डिमेन्शिया का ख़तरा बढ़ जाता है। एक शोध के अनुसार इसके लिए निम्न अनुमानित कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं। अल्ज़ाइमर रोग \(३९ प्रतिशत\) खून की नाड़ी या दिल का रोग \(१४ प्रतिशत\) पार्किंसनस रोग \(८ प्रतिशत\) एक से अधिक कारण \(११ प्रतिशत\) दवाई\, विशेषतः यदि व्यक्ति कई तरह की ले रहा हो स्लीप एप्निया \(सोने में परेशानी\) मस्तिष्क में ट्यूमर रोग बढ़ाने वाले कारक हाइ ब्लड प्रेशर इसका उपचार बहुत कुछ इसके कारणों पर निर्भर है। प्रायः इसे पूर्णतः ठीक नहीं किया जा सकता है किंतु इसकी वृद्धि को दवाइयों के सहारे रोका जा सकता है। बचाव के उपाय इस रोग के सही कारण की जानकारी न हो के कारण इससे बचाव के उपाय भी संभावित ही हैं। हाइ ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, हाइ कोलेस्ट्रोल, दिल सम्बन्धी रोग, डिप्रेशन और थायरोइड डिसओर्डर के लिये दवाई खाइये और इसे नियंत्रण में रखिये सिगरेट मत पीजिये\, संतुलित भोजन करिये\ और नियमित व्यायाम कीजिये। अपने मस्तिष्क का प्रयोग कीजिये। दृष्टिकोण सकारात्मक रखिये === बचाव में कुछ सहायक वस्तुए === सफ़ेद या लाल वाइन कच्ची मछली \(सूशी\) बीच की उंगली को मालिश करना डिमेंशिया के मरीज के आसपास के व्यक्तियों को कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। रोगी के साथ सामान्य वर्ताव ऐसा प्रश्न न पूछिये जिसका उत्तर उन्हें देना पड़े। अगर वे एक ही बात बार बार पूछें तो बेसब्र नहीं हो। उनका आदर करें, ध्यान रखें और उनके साथ प्रेम का बर्ताव करें। मुस्कुराएँ और बहस न करें। रोगी को घर से अकेले निकलने न दें। घर का दरवाज़ा बन्द (ताला लगा) कर रखें। दरवाज़े पर घंटी लगायें ताकि उसके खुलने की आपको जानकारी रहे। रोगी के पास नाम और पते वाला आइडेन्टिफिकेशन रहना सुनिश्चित करें। जैसे कि सेफ रिटर्न प्रोग्राम का ब्रेसलेट या माला। शौचालय सम्बन्धी सुझाव अगर व्यक्ति को शौचालय जाने में मुश्किल हो रही हो तो- शौचालय के दरवाज़े पर बड़ा चिन्ह या फोटो लगायें जिससे वे उसे पहचान सकें। उन्हें हर दो घंटे पर शौचालय जाने के लिये प्रोत्साहित करें। उन्हें आरामदायक वस्त्र पहनायें। कैफीन एवं ऐसे अन्य पदार्थों को कम करें जिनके कारण शौच अधिक जाना पड़ता है। खाने के बारे में सुझाव अगर खाना खिलाने में मुश्किल हो रही हो तो- खाना शान्त स्थान पर खायें, टी वी बंद कर दें। एक समय एक तरह का खाना ही दें। ऐसा खाना दें जो उँगलियों से खाया जा सकता हो। रोगी को गुस्सा आ जाए या वह खाना नहीं चाहता तो उसे मेज़ से ले जायें और कुछ देर बाद फिर खिलाने की कोशिश करें। समय बताने और चीज़ें खोजने संबंधि सुझाव स्मरणशक्ति खोने की प्रारम्भिक अवस्था के लोगों के लिये- ऐसी घड़ी का प्रयोग करें जिसके नम्बर बड़े और पढ़ने में आसान हों। ड्राअर\, अलमारी\, कोठरी आदि पर चिन्ह या चित्र लगायें। चश्मे, चाभी आदि नित्य व्यवहार में आने वाली चीज़ें हमेशा एक ही स्थान पर रखें। सोने के बारे में सुझाव जब व्यक्ति को सोने में परेशानी हो तो- व्यक्ति को दिन के समय व्ययाम करने के लिए प्रेरित करें। डॉक्टर से बात करें। रात के समय की मुश्किलों के बारे में सुझाव अगर व्यक्ति रात को नहीं सो पाता है तो- गिरने और चोट से बचाने के लिये बत्ती जलाये रखें व्यक्ति को दिन के समय व्यस्त रखें जिससे वे रात के समय थके हों। शांत वातावरण रखें बातचीत संबंधी सुझाव अगर व्यक्ति को बोलने सुनने में मुश्किल हो रहि है त- छोटे और सरल वाक्यों का प्रयोग करें। जो कहा हो ठीक उसी को दोहरायें। व्यक्ति को जवाब देने के लिये एक मिनट इन्तेज़ार करें। ज़ोर से नहीं बोलें। जब उनसे बात करें तो उन्हें छुयें। उन्हें आपसे बात करने के लिये प्रोत्साहित करें। व्यक्ति के काम को देखें। गुस्से को सँभालने संबंधी सुझाव अगर व्यक्ति गुस्सा हो जाये तो- शान्त और कोमल आवाज़ में बोलें। व्यक्ति को दूसरे कमरे में कुछ और करने के लिये ले जायें। ऐसी अन्य स्थिति से दूर रहें जो व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न करती है। याद रखें कि कुछ समय बीतने पर क्रोध स्वतः ही शान्त हो जायेगा। मरीज की बेचैनी शांत करने संबंधी सुझाव जब व्यक्ति बेचैन या उत्तेजित हो- उनसे शान्ति का बर्ताव करें उनकी पसंद का संगीत बजायेँ या जानी पहचानी फोटो देखें। यह मालूम करने की कोशिश करें कि वे क्यों उत्तेजित हैं। व्यक्ति को सैर के लिये ले जायें या उन्हें कोई काम दे दें। डॉक्टर से दवाई के बारे में बात करें। सुझाव अगर व्यक्ति आप पर आरोप लगाये मरीज का किसी पर चोरी या चोट लगाने का आरोप लगाना एक आम लक्षण है। ऐसे में- बहस नहीं करें। उन्हें खोयी वस्तु ढ़ूढ़ने में मदद करें। उनको अपने प्रेम का और साथ होने का भरोसा दें।=== परिवार को मदद === सीखें कि स्मरणशक्ति की परेशानियाँ क्या हैं और उनके बारे में क्या किया जा सकता है परिवार के सदस्यों को मौका दें कि वे अपनी भावनाओं जैसे कि क्रोध\, दुःख\, निराशा\, गिल्ट को प्रकट कर सकें। ऐसे अन्य व्यक्तियों से बात करें जो ऐसे मरीजों की देखभाल कर रहे हैं। परिवार के रूप में उन चीज़ों को करें जो आपको आनद देती थीं। मरीज की देखभाल में परिवार के अन्य सदस्यों की मदद लें। अडल्ट डे सर्विसेज़ या होम केयर सर्विसेज़ का प्रयोग करें। किसी को दोष नहीं दे - ये किसी की गलती नहीं है। जब घर में व्यक्ति की देखभाल करना सम्भव नहीं है तो नर्सिंग होम के बारे में सोचें। स्मरणशक्ति की परेशानियों वाले व्यक्ति की देखभाल करना आसान नहीं है। इसके लिये तपस्या और समर्पण चाहिये। यह परिवार के छुपे हुए गुणों और निपुणताओं को खोजने और बढ़ाने का मौका देता है। इन्हें भी देखें मनोभ्रंश केयर नोट्स - मनोभ्रंश और देखभाल संबंधी जानकारी, सुझाव, संसाधन और परिवारों के इंटरव्यू पढ़ने-पढ़ाने से दूर होता है स्मृतिलोप भूलने की आदत है मनोभ्रंश की निशानी (वेबदुनिया) बिना औषधि से भी ठीक हो सकता है मनोभ्रंश (जोश) वृद्धावस्था के रोग
पद्यानुवाद अनुवाद का एक प्रकार है जिसमें पद्य (कविता) में अनुवाद किया जाता है। इसमें समतुल्य अभिव्यक्ति के साथ ही मूल लेखक की शैली का भी ध्यान रखना होता है। इसलिए इसे पुनर्सर्जन भी कहा जाता है। यह माध्यम की भाषा आधारित रूपसापेक्ष अनुवाद है। यह गद्य से हो सकता है अथवा अन्य भाषाओं के पद्य से हो सकता है जैसे कि श्रीमद्भगवद्गीता के।श्लोकों का हरिवंश राय बच्चन द्वारा किया गया हिन्दी में श्रीहरिगीता नामक अनुवाद। इन्हें भी देखें अनुवाद के प्रकार
ओंगोल (उंगोले) भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य के प्रकासम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। इन्हें भी देखें आन्ध्र प्रदेश के नगर प्रकासम ज़िले के नगर
ब्रजभाषा एक क्षेत्रीय ग्रामीण भाषा है जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में बोली जाती है। इसके अलावा यह भाषा हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ जनपदों में भी बोली जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह ये भी संस्कृत से जन्मी है। इस भाषा में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है। भारतीय भक्ति काल में यह भाषा प्रमुख रही। विक्रम की १३वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक ब्रजभाषा भारत के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा थी। विभिन्न स्थानीय भाषाई समन्वय के साथ समस्त भारत में विस्तृत रूप से प्रयुक्त होने वाली हिन्दी का पूर्व रूप यह ब्रजभाषा अपने विशुद्ध रूप में आज धौलपुर, हाथरस , मथुरा ,आगरा, अलीगढ़,और भरतपुर में बोली जाती है जिसे हम 'केन्द्रीय ब्रजभाषा' भी कह सकते हैं। १९वीं शताब्दी में हिन्दी/हिन्दुस्तानी के आने के पहले ब्रजभाषा और अवधी ही उत्तर-मध्य भारत की दो प्रमुख साहित्यिक भाषाएँ थीं। ब्रजभाषा में ही अनेक भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं की हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी भरतपुर,आगरा, धौलपुर, हिण्डौन सिटी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, मैनपुरी, एटा, और मुरैना जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर जिले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इसपर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा, "कन्नौजी" को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँव तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है। ब्रज भाषा आज के समय में प्राथमिक तौर पर एक ग्रामीण भाषा है, जो कि मथुरा-भरतपुर केन्द्रित ब्रज क्षेत्र में बोली जाती है। यह मध्य दोआब के इन जिलों की प्रधान भाषा है: गौतम बुद्ध नगर गंगा के पार इसका प्रचार बदायूँ, बरेली होते हुए नैनीताल की तराई, उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले तक चला गया है। उत्तर प्रदेश के अलावा इस भाषा का प्रचार राजस्थान के इन जिलों में भी है: हरियाणा में यह दिल्ली के दक्षिणी इलाकों में बोली जाती है- फ़रीदाबाद जिला और गुड़गाँव और मेवात जिलों के पूर्वी भाग। ब्रज और ब्रजभाषा कुछ लेखकों ने ब्रजभाषा नाम से उसके क्षेत्र-विस्तार का कथन किया है। 'वंश भास्कर' के रचयिता सूरजमल ने ब्रजभाषा प्रदेश दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। 'तुहफतुल हिंद' के रचयिता मिर्जा खाँ ने ब्रजभाषा के क्षेत्र का उल्लेख इस प्रकार किया है "भाषा' ब्रज तथा उसके पास-पड़ोस में बोली जाती है। ग्वालियर तथा चंदवार भी उसमें सम्मिलित हैं। गंगा-यमुना का दोआब भी ब्रजभाषा का क्षेत्र है। लल्लूजीलाल के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र "ब्रजभाषा वह भाषा है, जो ब्रज, जिला ग्वालियर, भरतपुर, बटेश्वर, भदावर, अंतर्वेद तथा बुंदेलखंड में बोली जाती है। इसमें (ब्रज) शब्द मथुरा क्षेत्र का वाचक है।' लल्लूजीलाल ने यह भी लिखा है कि ब्रज और ग्वालियर की ब्रजभाषा शुद्ध एवं परिनिष्ठित है। ग्रियर्सन ने ब्रजभाषा-सीमाएँ इस प्रकार लिखी हैं मथुरा केंद्र है। दक्षिण में आगरे तक, भरतपुर, धौलपुर और करौली तक ब्रजभाषा बोली जाती है। ग्वालियर के पश्चिमी भागों तथा जयपुर के पूर्वी भाग तक भी यही प्रचलित है। उत्तर में इसकी सीमा गुड़गाँव के पूर्वी भाग तक पहुँचती है। उत्तर-पूर्व में इसकी सीमाएँ दोआब तक हैं। बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा तथा गंगापार के बदाँयू, बरेली तथा नैनीताल के तराई परगने भी इसी क्षेत्र में हैं। मध्यवर्ती दोआब की भाषा को अंतर्वेदी नाम दिया गया है। अंतर्वेदी क्षेत्र में आगरा, एटा, मैनपुरी, फर्रूखाबाद तथा इटावा जिले आते हैं, किंतु इटावा और फर्रूखाबाद की भाषा इनके अनुसार कन्नौजी हैं, शेष समस्त भाग ब्रजभाषी है। केलाग ने लिखा है कि राजस्थान राजस्थानकी बोलियों के उत्तर-पूर्व, पूरे अपर दोआब तथा गंगा-यमुना की घाटियों में ब्रजभाषा बोली जाती है। डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा ने ग्रियर्सन द्वारा निर्दिष्ट कन्नौजी क्षेत्र को ब्रजी के क्षेत्र से अलग नहीं माना है। अपने सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने कानपुर तक, ब्रजभाषी क्षेत्र ही कहा है। उनके अनुसार उत्तर प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं तथा बरेली के जिले -- पंजाब और गुड़गाँव जिले का पूर्वी भाग -- राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर का पूर्वी भाग -- मध्यभारत में ग्वालियर का पश्चिमी भाग ब्रजी के क्षेत्र में आते हैं। चूँकि ग्रियर्सन साहब का यह मत लेखक को मान्य नहीं कि कन्नौजी स्वतंत्र बोली है, इसलिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा और कानपुर के जिले भी ब्रजभाषा क्षेत्र में सम्मिलित कर लिए हैं। इस प्रकार बोली जाने वाली ब्रजभाषा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत ठहरता है। एक प्रकार से प्राचीन मध्यदेश का अधिकांश भाग इसमें सम्मिलित हो जाता है। इसका विकास मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उससे लगते राजस्थान ,मध्य प्रदेश व हरियाणा में हुआ। मथुरा, अलीगढ़, हाथरस,आगरा, मैनपुरी, एटा, भरतपुर,करौली, धौलपुर, ग्वालियर, मुरैना, पलवल आदि इलाकों में आज भी यह मुख्य संवाद की भाषा है। इस एक पूरे इलाके में बृजभाषा या तो मूल रूप में या हल्के से परिवर्तन के साथ विद्यमान है। इसीलिये इस इलाके के एक बड़े भाग को बृजाञ्चल या बृजभूमि भी कहा जाता है। भारतीय आर्यभाषाओं की परम्परा में विकसित होनेवाली "ब्रजभाषा" शौरसेनी अपभ्रंश की कोख से जन्मी है। जब से गोकुल वल्लभ संप्रदाय का केंद्र बना, ब्रजभाषा में कृष्ण विषयक साहित्य लिखा जाने लगा। इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि महात्मा सूरदास से लेकर आधुनिक काल के विख्यात कवि श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य तथा मुक्तक काव्य समय समय पर रचे जाते रहे। ब्रज-क्षेत्र एवं ब्रजभाषा-शैली क्षेत्र ब्रजभाषा के क्षेत्र विस्तार की दो स्थितियाँ रहीं। प्रथम स्थिति भाषा-वैज्ञानिक इतिहास के क्रम से उत्पन्न हुई। जब पश्चिमी या मध्यदेशीय भाषा अनेक कारणों से सामान्य ब्रज-क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करने लगी, तब स्थानीय रुपों से समन्वित होकर, वह एक विशिष्ठ भाषा शैली का रूप ग्रहण करने लगी और ब्रजभाषा-शैली का एक वृहत्तर क्षेत्र बना। जिन क्षेत्रों में यह कथ्य भाषा न होकर केवल साहित्य में प्रयुक्त कृत्रिम, मिश्रित और विशिष्ट रूप में ढल गई और विशिष्ट अवसरों, संदर्भों या काव्य रुपों में रुढ़ हो गई, उन क्षेत्रों को 'शैली क्षेत्र' माना जाएगा। शैली-क्षेत्र पूर्वयुगीन भाषा-विस्तार या शैली-विस्तार के सहारे बढ़ता है। पश्चिमी या मध्यदेशी अपभ्रंश के उत्तरकालीन रुपों की विस्तृति इसी प्रकार हुई। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त-कवियों की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है- ब्रज की वंशी- ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेन्दु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। ...बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी। पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा। और भी पश्चिम में गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था। इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई। ब्रजभाषा की बोलियाँ ब्रजभाषा एक साहित्यिक एवं स्वतंत्र भाषा है और इसकी अपनी कई बोलियाँ हैं। ब्रजभाषा क्षेत्र की भाषागत विभिन्नता को दृष्टि में रखते हुए हम उसका विभाजन निम्नांकित रूप में कर सकते हैं : (१) केंद्रीय ब्रज अर्थात् आदर्श ब्रजभाषा - अलीगढ़, मथुरा तथा पश्चिमी आगरे की ब्रजभाषा को "आदर्श ब्रजभाषा" नाम दिया जा सकता है। (२) बुन्देली प्रभावित ब्रजभाषा - ग्वालियर के उत्तर पश्चिम में बोली जानेवाली भाषा को यह नाम प्रदान किया जा सकता है। (३) राजस्थान की जयपुरी से प्रभावित ब्रजभाषा - यह भरतपुर तथा उसके दक्षिणी भाग में बोली जाती है। (४) सिकरवाड़ी ब्रजभाषा - ब्रजभाषा का यह रूप ग्वालियर के उत्तर पूर्व के अंचल में प्रचलित है जहाँ सिकरवाड़ राजपूतों की बस्तियाँ पाई जाती हैं। (५) जादोबाटी ब्रजभाषा - करौली के क्षेत्र तथा चंबल नदी के मैदान में बोली जानेवाली ब्रजभाषा को "जादौबारी" नाम से पुकारा गया है। यहाँ जादौ (यादव) राजपूतों की बस्तियाँ हैं। (६) कन्नौजी से प्रभावित ब्रजभाषा - जिला एटा तथा तहसील अनूपशहर एवं अतरौली की भाषा कन्नौजी से प्रभावित है। ब्रजभाषी क्षेत्र की जनपदीय ब्रजभाषा का रूप पश्चिम से पूर्व की ओर कैसा होता चला गया है, इसके लिए निम्नांकित उदाहरण द्रष्टव्य हैं : जिला गुडगाँव में - ""तमासो देख्ने कू गए। आपस् मैं झग्रो हो रह्यौ हो। तब गानो बंद हो गयो।"" जिला बुलंदशहर में -""लौंडा गॉम् कू आयौ और बहू सू बोल्यौ कै मैं नौक्री कू जांगौ।"" जिला अलीगढ़ में - ""छोरा गाँम् कूँ आयौ औरु बऊ ते बोलौ (बोल्यौ) कै मैं नौक्री कूँ जांगो।"" जिला एटा में - ""छोरा गॉम् कूँ आओ और बऊ ते बोलो कै मैं नौक्री कूँ जाउँगो।"" इसी प्रकार उत्तर से दक्षिण की ओर का परिवर्तन द्रष्टव्य है- जिला अलीगढ़ में -""गु छोरा मेरे घर् ते चलौ गयौ।"" जिला मथुरा में -""बु छोरा मेरे घर् तैं चल्यौ गयौ।"" जिला भरतपुर में -""ओ छोरा तू कहा कररौय।"" जिला आगरा में -""मुक्तौ रुपइया अप्नी बइयरि कूँ भेजि दयौ।"" ग्वालियर (पश्चिमी भाग) में - "बानैं एक् बोकरा पाल लओ। तब बौ आनंद सै रैबे लगो।"" जनपदीय जीवन के प्रभाव से ब्रजभाषा के कई रूप हमें दृष्टिगोचर होते हैं। किंतु थोड़े से अंतर के साथ उनमें एकरूपता की स्पष्ट झलक हमें देखने को मिलती है। ब्रजभाषा की अपनी रूपगत प्रकृति औकारान्त है अर्थात् इसकी एकवचनीय पुंलिंग संज्ञाएँ तथा विशेषण प्राय: औकारान्त होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकालिक एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुखरूपेण औकारान्त ही रहता है। यह बात अलग है कि उसके कुछ क्षेत्रों में "य्" श्रुति का आगम भी पाया जाता है। जिला अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप "य्" श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन जिला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में "य्" श्रुति अवश्य पाई जाती है। जैसे : """कारौ छोरा बोलौ"" - (कोल, जिला अलीगढ़) ""कारौ छोरा बोल्यौ"" - (माट जिला मथुरा) ""कारौ छोरा बोल्यौ"" - (डीग जिला भरतपुर) ""कारौ लौंडा बोल्यौ"" - (बरन, जिला बुलंदशहर)। कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारान्त है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारान्तता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांतता का अनुसरण करती है। जिला अलीगढ़ की जलपदीय ब्रजभाषा में यदि हम कहें कि- ""कारौ छोरा बोलौ"" (= काला लड़का बोला) तो इसे ही कन्नौजी में कहेंगे कि-""कारो लरिका बोलो। भविष्यत्कालीन क्रिया कन्नौजी में तिङंतरूपिणी होती है, लेकिन ब्रजभाषा में वह कृदंतरूपिणी पाई जाती है। यदि हम "लड़का जाएगा" और "लड़की जाएगी" वाक्यों को कन्नौजी तथा ब्रजभाषा में रूपांतरित करके बोलें तो निम्नांकित रूप प्रदान करेंगे : कन्नौजी में - (१) लरिका जइहै। (२) बिटिया जइहै। ब्रजभाषा में - (१) छोरा जाइगौ। (२) छोरी जाइगी। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रजभाषा के सामान्य भविष्यत् काल रूप में क्रिया कर्ता के लिंग के अनुसार परिवर्तित होती है, जब कि कन्नौजी में एक रूप रहती है। इसके अतिरिक्त कन्नौजी में अवधी की भाँति विवृति (हिएटस) की प्रवृत्ति भी पाई जाती है जिसका ब्रजभाषा में अभाव है। कन्नौजी के संज्ञा, सर्वनाम आदि वाक्यपदों में संधिराहित्य प्राय: मिलता है, किंतु ब्रजभाषा में वे पद संधिगत अवस्था में मिलते हैं। उदाहरण : (१) कन्नौजी -""बउ गओ"" (= वह गया)। (२) ब्रजभाषा -""बो गयौ"" (= वह गया)। उपर्युक्त वाक्यों के सर्वनाम पद "बउ" तथा "बो" में संधिराहित्य तथा संधि की अवस्थाएँ दोनों भाषाओं की प्रकृतियों को स्पष्ट करती हैं। ब्रजभाषा का अन्य भाषाओं से सह अस्तित्व पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा ,गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था। संत कवियों के सगुण भक्ति के पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्यभाषा है, पर निर्गुनबानी की भाषा नाथपंथियों द्वारा गृहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा है। प्राचीन रचनाओं में ब्रजी और खड़ी बोली के रुपों का सह-अस्तित्व मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पद-काव्यरुप के लिए ब्रजी का प्रयोग रुढ़ होता जा रहा था। नाथ और संत भी गीतों में इसी शैली का प्रयोग करते थे। सैद्धांतिक चर्चा या निर्गुन वाणी सधुक्कड़ी में होती थी। गुजरात और ब्रजभाषा गुजरात की आरंभिक रचनाओं में शौरसेनी अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में काव्य रचना भी की है। हेमचंद्र के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा ब्रजभाषा की पूर्वपीठिका है। गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की। भालण, केशवदास तथा अरवा आदि कवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। अष्टछापी कवि कृष्णदास भी गुजरात के ही थे। गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परम्परा है जो बीसवीं सदी तक चली आती है। इस प्रकार ब्रजभाषा, गुजराती कवियों के लिए 'निज-शैली' ही थी। मालवा और गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परम्परा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलती है। ब्रजभाषा के लिए 'ग्वालियरी' का प्रयोग भी हुआ है। ब्रजभाषा शैली की सीमाएँ इतनी विस्तृत थीं कि ब्रजी और बुन्देली की संरचना प्रायः समान है। साहित्यिक शैली तो दोनों क्षेत्रों की बिल्कुल समान रही। ब्रज और बुन्देलखंड का सांस्कृतिक सम्बंध भी सदा रहा है। सिन्ध और पंजाब सिन्ध और पंजाब में गोस्वामी लालजी का नाम आता है। इन्होंने १६२६ वि. में गोस्वामी विट्ठलनाथ का शिष्यत्व स्वीकार किया। सिंध में वैष्णव धर्म का प्रचार ब्रजभाषा में आरम्भ हुआ। लालजी ब्रजभाषा के मर्मज्ञ थे। इस प्रकार सिंध में ब्रजभाषा साहित्य की पर्याप्त उन्नति की। पंजाब में गुरु नानक ने भी ब्रजभाषा में कविता की। आगे भी कई गुरुओं ने ब्रजभाषा में कविता रची। गुरुगोविन्द सिंह का ब्रजभाषा-कृतित्व महत्त्वपूर्ण है ही। गुरु दरबारों में व राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि रहते थे। इन कवियों में सिक्खों का विशेष स्थान है। सिख संतों ने धार्मिक प्रचार के लिए ब्रजभाषा को भी चुना । सार्वदेशिक शौरसेनी के प्रभाव क्षेत्र में बंगाल भी था । बल्कि यों कहना चाहिए कि पूर्वी अपभ्रंश, पश्चिम भारत से ही पूर्व में आई। अवह का प्रयोग मैथिल कोकिल विद्यापति ने कीर्तिलता में किया। इसमें मिथिला और ब्रज के रुपों का मिश्रण है। बंगाल के सहजिया-साहित्य की रचना भी मुख्यतः इसी में हुई है। वैष्णव साधु समाज की जो भाषा बनी उसका नाम ब्रजबुलि है। इसके विकास में मुख्य रुप से ब्रजी और मैथिली का योगदान था। बंगाल के कविवृंद मैथिली, बंगाली और ब्रजभाषा के मेल से घटित ब्रजबुली शैली को अपनाने लगे। इसी भाषा में गोविन्ददास, ज्ञानदास आदि कवियों का साहित्य मिलता है। मैथिली मिश्रित ब्रजी असम के शंकरदेव के कंठ से भी फूट पड़ी। बंगाल और उत्कल के संकीर्तनों की भी यही भाषा बनी। ब्रजभाषा शैली का प्रसार महाराष्ट्र तक दिखलाई पड़ता है। सबसे प्राचीन रुप नामदेव की रचनाओं में मिलते हैं। ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास प्रभृति भक्त-संतों की हिंदी रचनाओं की भाषा, ब्रज और दक्खिनी हिंदी है। मुस्लिम काल में भी शाहजी एवं शिवाजी के दरबार में रहने वाले ब्रजभाषा के कवियों का स्थान बना रहा। कवि भूषण तो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे ही। दक्षिण में खड़ीबोली शैली का ही 'दखनी' नाम से प्रसार हुआ। इन मुस्लिम राज्यों के आश्रित साहित्यकारों ने ग्वालेरी कविता का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। तुलसीदास के समकालीन मुल्ला वजही ने सबरस में ग्वालेरी के तीन दोहे उद्धृत किए हैं। ब्रज-शैली के या ब्रज के प्रचलित दोहों का प्रयोग वजही ने बीच-बीच में किया है। दक्खिन क्षेत्र खड़ी बोली शैली के विकास का क्षेत्र था। प्रायः गद्य रचनाओं में हरियाणवी बोली का प्रयोग मिलता है, पद्य रचना में ब्रजभाषा शैली का मिश्रण है। गद्य में लिखित प्रेमगाथाओं के बीच में ब्रजभाषा शैली के दोहे प्रयुक्त मिलते हैं। ब्रजभाषा शैली का संगीत समस्त भारत में प्रसिद्ध था। केरल के महाराजा राम वर्मा, 'स्वाति-तिरुनाल' के नाम से ब्रजभाषा में कविता करते थे। पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ। पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है। रासो की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल माना है। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी, यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है। ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( १२वीं- १३वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग चारण बहुत पीछे के समय तक करते रहे। पीछे पिंगल शैली भक्ति-साहित्य में संक्रमित हो गई। अतः स्पष्ट हो जाता है कि ब्रजभाषा भाषा व ब्रज शैली के खंड-उपखंड समस्त भारत में बिखरे हुए थे। कहीं इनकी स्थिति सघन थी और कहीं विरल। आधुनिक युग में भारतेन्दु व उनके पिता गिरधरदास ब्रजभाषा में रचना करते थे। यहाँ से खड़ीबोली व ब्रजभाषा का मिश्र रूप प्रारम्भ हुआ जो आधुनिक हिन्दी खड़ीबोली की पूर्व भूमिका बना। १८७५ में हरिश्चंद्र चन्द्रिका में अमृतसर के कवि संतोष सिंह का कवित्त ब्रज मिश्रित हिन्दी का उदाहरण है : हों द्विज विलासी वासी अमृत सरोवर कौ काशी के निकट तट गंग जन्म पाया है । शास्त्र ही पढ़ाया कर प्रीति पिता पंडित ने पाया कवि पंथ राम कीन्हीं बड़ी दाया है ॥ प्रेम को बढाया अब सीस को नबाया देखो, मेरे मन भाया कृष्ण पांय पे चढ़ाया है ॥ ब्रजभाषा का व्याकरण आधुनिक युग में ब्रजभाषा के व्याकरण पर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, ग्राउज, किशोरी दास वाजपेयी आदि ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है, पर ब्रजभाषा व्याकरण पर सबसे पुराना काम फारसी में लिखा मिरजा खाँ का तुहफत-उल-हिंद (अर्थ : भारत का उपहार) नामक ग्रंथ है। आजमशाह ने ब्रजभाषा सीखने के लिए इस ग्रंथ का प्रणयन मिरजा खाँ से कराया। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसका रचनाकाल सन् १६७५ ई. माना है। इस व्याकरण का प्रथम उल्लेख सन् १७४४ ई. में सर विलियम जोंस ने अपने लेख ऑन दि म्यूजिकल मोड्स ऑव हिन्दूज में किया है। ब्रजभाषा के कुछ सरल वाक्य ब्रज शैलीगत क्षेत्र विस्तार की प्रथम स्थिति ब्रज शैलीगत क्षेत्र विस्तार की द्वितीय स्थिति
तिरुवनन्तपुरम (तिरु-अनन्तपुरम) या त्रिवेंद्रम भारत के केरल राज्य का सबसे बड़ा नगर और राजधानी है। यह तिरुवनन्तपुरम ज़िले का मुख्यालय भी है। केरल की राजनीति के अलावा शैक्षणिक व्यवस्था का केन्द्र भी यही है। कई शैक्षणिक संस्थानों में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, राजीव गांधी जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र कुछ प्रसिद्ध नामों में से हैं। भारत की मुख्य भूमि के सुदूर दक्षिणी पश्चिमी तट पर बसे इस नगर को महात्मा गांधी ने "भारत का नित हरा नगर" की संज्ञा दी थी। तिरुवनन्तपुरम का सन्धि विच्छेद है: तिरु +अनन्त +पुरम् "तिरु" एक दक्षिण भारतीय आदरसूचक आद्याक्षर और संस्कृत के "श्री" का रूप है, जैसे कि तिरुचिरापल्ली, तिरुपति, तिरुवल्लुवर। इसका संस्कृत समानान्तर "श्री" है, जैसे कि श्रीमान, श्रीकाकुलम्, श्रीनगर, श्रीविष्णु इत्यादि। "अनन्त" भगवान अनन्त के लिए हैं तथा संस्कृत शब्द "पुरम" का अर्थ है घर, वासस्थान। तिरुवनन्तपुरम का शाब्दिक अर्थ होता है "भगवान अनन्त का वासस्थान"। भगवान अनन्त, हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, शेषनाग हैं जिनपर भगवान विष्णु विराजते हैं। यहां का श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर, जहां भगवान विष्णु शेषनाग जी पर आराम की मुद्रा में बैठे हैं, नगर की पहचान बन गया है। ब्रिटिश शासन के पर्यन्त इसे ट्रिवानड्रम के नाम से भी जाना जाता था। १९९१ में राज्य सरकार ने इसका नाम बदलकर तिरुवनन्तपुरम कर दिया। यद्यपि अब भी ट्रिवानड्रम नाम बहुत प्रयुक्त होता है। हिन्दी में इसे इन वर्तनियों में भी लिखा जाता है - तिरुवनन्तपुरम या ट्रिवानड्रम। हिन्दी (तथा अन्य भारतीय भाषाओं) में सन्धि के अनुसार तिरु+अनन्त = तिरुवनन्त। इसलिए इसे तिरुवनन्तपुरम लिखते हैं। हलन्त (्) लगाने का कारण उच्चारण है। हिन्दी (तथा उत्तर भारतीय भाषाओं) में, अन्तिम अक्षर में, बिना लिखे हलन्त होने का प्रचलन है। हमें शब्द के अन्त में हलन्त लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि ये माना हुआ होता है कि शब्द के अन्त में एक हलन्त लगा होता है। परन्तु दक्षिण भारतीय भाषाओं में हलन्त लगाना पड़ता है। अतः तिरुवनन्तपुरम के नाम का यदि मलयालम से लिप्यन्तरित किया जाए तो यह तिरुवनन्तपुरम होता है। हिन्दी में हलन्त लगाने की आवश्यक्ता तो नहीं है पर चुंकि ये नाम दक्षिण भारतीय है इसलिए इसमें हलन्त लगा लिया जाता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में त के ध्वनि को अंग्रेज़ी में त से लिखा जाता है, क्योंकि इसे त लिखने से (जो उत्तर भारत में किया जाता है), ट की ध्वनि के साथ विभेद नहीं हो पाता है। पर कई लोग इस अंग्रेज़ी के शब्द का हिन्दी में लिप्यन्तरित करते समय इसे "थिर्वनन्तपुरम" लिखते है परन्तु यह अनुचित है। केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम को त्रिवेंद्रम के नाम से भी पुकारा जाता है। देवताओं की नगरी के नाम से मशहूर इस शहर को महात्मा गांधी ने नित हरा नगर की संज्ञा दी थी। इस नगर का नाम शेषनाग अनंत के नाम पर पड़ा जिनके ऊपर पद्मनाभस्वामी (भगवान विष्णु) विश्राम करते हैं। तिरुवनंतपुरम, एक प्राचीन नगर है जिसका इतिहास १००० ईसा पूर्व से शुरू होता है। त्रावणकोर के संस्थापक मार्त्ताण्डवर्म्म ने तिरुवनंतपुरम को अपनी राजधानी बनाया जो उनकी मृत्यु के बाद भी बनी रही। स्वतन्त्रता के बाद यह त्रावणकोर- कोचीन की राजधानी बनी। १९५६ में केरल राज्य के बनने के बाद से यह केरल की राजधानी है। पश्चिमी घाट पर स्थित यह नगर प्राचीन काल से ही एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र रहा है। तिरुवनंतपुरम की सबसे बड़ी पहचान श्री पद्मनाभस्वामी का मंदिर है जो लगभग २००० साल पुराना है। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनने के बाद से यह नगर एक प्रमुख पर्यटक और व्यवसायिक केंद्र के रूप में स्थापित हुआ है। इसकी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और शोभायमान तटों से आकर्षित होकर प्रतिवर्ष हजारों पर्यटक यहां खीचें चले आते हैं। तिरुवनंतपुरम भारत के केरल राज्य के दक्षिण-पश्चिमी तट पर पर स्थित है। इसकी ऊँचाई समुद्र तल से १६ फीट है, एवं इसका क्षेत्रफल अरब सागर एवं पश्चिमी घाट के बीच २५० वर्ग कि॰मी॰ है नगर का जलवायु उष्णकटिबंधीय सवाना जलवायु और उष्णकटिबंधीय मानसून जलवायु के बीच है। नतीजतन, यह विभिन्न ऋतुओं का अनुभव नहीं करता है। माध्य अधिकतम तापमान ३४ च (९३ फ) और न्यूनतम तापमान २१ च (७० फ) है। वर्षाऋतु में आर्द्रता अधिक होती है और लगभग ९०% तक बढ़ जाती है। श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर यह मंदिर भारत के सबसे प्रमुख वैष्णव मंदिरों में से एक है तथा तिरुवनंतपुरम का ऐतिहासिक स्थल है। पूर्वी दुर्ग के अंदर स्थित इस मंदिर का परिसर बहुत विशाल है जिसकी अनुभूति इसका सात मंजिला गोपुरम देखकर हो जाता है। केरल और द्रविड़ियन वास्तुशिल्प में निर्मित यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। पद्मा तीर्थम, पवित्र कुंड, कुलशेखर मंडप और नवरात्रि मंडप इस मंदिर को और भी आकर्षक बनाते हैं। २६० वर्ष पुराने इस मंदिर में केवल हिंदु ही प्रवेश कर सकते हैं। पुरुष केवल श्वेत धोती पहन कर यहां आ सकते हैं। इस मंदिर का नियंत्रण त्रावणकोर राजसी परिवार द्वारा किया जाता है। इस मंदिर में दो वार्षिकोत्सव मनाए जाते हैं- एक पंकुनी के महीने (१५ मार्च - १४ अप्रैल) में और दूसरा ऐप्पसी के महीने (अक्टूबर-नवंबर) में। इन समारोहों में हजारों की संख्या में श्रद्धालु भाग लेते हैं। यह वेधशाला तिरुवनंतपुरम के संग्रहालय परिसर में स्थित है। महाराजा स्वाति तिरुनाल ने १८३७ में इसका निर्माण करवाया था। यह भारत की सबसे पुरानी वेधशालाओं में से एक है। यहां आप अंतरिक्ष से सम्बन्धित सारी जानकारी प्राप्त कर सकते है। पहाड़ी के सामने एक अतिसुन्दर उद्यान है जहां गुलाब के फूलों का अत्योत्तम संग्रह है। वर्तमान में इसकी पर्यवेक्षण भौतिकी विभाग, केरल विश्वविद्यालय द्वारा की जाती है। पी.एम.जी. संगम के पास स्थित यह चिड़ियाघर भारत का दूसरा सबसे पुराना चिड़ियाघर है। ५५ एकड़ में फैला यह जैविक उद्यान वनस्पति उद्यान का भाग है। इसका निर्माण १८५७ ई. में त्रावणकोर के महाराजा द्वारा बनाए गए संग्रहालय के एक भाग के रूप में हुआ था। यहां देशी-विदेशी वनस्पति और जंतुओं का संग्रह है। यहां आने पर ऐसा लगता है जैसे कि नगर के बीचों बीच एक वन बसा हो। रैप्टाइल हाउस में सांपों की अनेक प्रजातियां रखी गई हैं। इस चिड़ियाघर में नीलगिरी लंगूर, भारतीय गैंडा, एशियाई सिम्ह और राजसी बंगाल व्याघ्र भी आपको दिख जाएगें। समय: सुबह १० से शाम ५ बजे तक, सोमवार को बंद तिरुवनंतपुरम से१७ किलोमीटर दूर वाइजिनजाम मछुआरों का गांव है जो आयुर्वेदिक चिकित्सा और बीच रिजॉर्ट के लिए प्रसिद्ध है। वाइजिनजाम का एक अन्य आकर्षण चट्टान को काट कर बनाई गई गुफा है जहां विनंधरा दक्षिणमूर्ति का एक मंदिर है। इस मंदिर में १८वीं शताब्दी में चट्टानों को काटकर बनाई गई प्रतिमाएं रखी गई हैं। मंदिर के बाहर भगवान शिव और देवी पार्वती की अर्धनिर्मित प्रतिमा स्थापित है। वाइजिनजाम में मैरीन एक्वैरियम भी है जहां रंगबिरंगी और आकर्षक मछलियां जैसे क्लाउन फिश, स्क्विरिल फिश, लायन फिश, बटरफ्लाइ फिश, ट्रिगर फिश रखी गई हैं। इसके अलावा आप यहां सर्जिअन फिश और शार्क जैसी शिकारी मछलियां भी देख सकते हैं। नेपिअर संग्रहालय से ८०० मी. उत्तर पूर्व में स्थित यह महल केरल सरकार से संबंद्ध है। एक छोटी-सी पहाड़ी पर बने इस महल का निर्माण श्री मूलम तिरुनल राजा के शासन काल में हुआ था। इस महल की आंतरिक सजावट के लिए खूबसूरत दीपदानों और शाही फर्नीचर का प्रयोग किया गया है। यहां स्थित निशागंधी ओपन एयर ओडिटोरिअम और सूर्यकांति ओडिटोरिअम में अनेक सांस्कृतिक सम्मेलनों और कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पर्यटन विभाग निशागंधी ओपन एयर ओडिटोरिअम में प्रतिवर्ष अखिल भारतीय नृत्योत्सव का आयोजन करता है। इस दौरान जानेमाने कलाकार भारतीय शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। लकड़ी से बनी यह आकर्षक इमारत शहर के उत्तर में म्यूजियम रोड पर स्थित है। यह भारत के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक है। इसका निर्माण १८५५ में हुआ था। मद्रास के गवर्नर लॉर्ड चाल्र्स नेपियर के नाम पर इस संग्रहालय का नाम रखा गया है। यहां शिल्प शास्त्र के अनुसार ८वीं-1८वीं शताब्दी के दौरान कांसे से बनाई गई शिव, विष्णु, पार्वती और लक्ष्मी की प्रतिमाएं भी प्रदर्शित की गई हैं। चाचा नेहरु बाल संग्रहालय यह बच्चों के आकर्षण का केंद्र है। इसकी स्थापना १९८० में की गई थी। यह सिटी सेंट्रल बस स्टेशन से १ किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस संग्रहालय में विभिन्न परिधानों में सजी २००० आकृतियां रखी गई हैं। यहां हेल्थ एजुकेशन डिस्प्ले, एक छोटा एक्वेरिअम और मलयालम में प्रकाशित पहली बाल साहित्य की प्रति भी प्रदर्शित की गई है। यह बीच शहर से लगभग ८ किलोमीटर दूर है। इसके पास ही तिरुवनंतपुरम हवाई अड्डा है। इंडोर मनोरंजन क्लब, चाचा नेहरु ट्रैफिक ट्रैनिंग पार्क, मत्सय कन्यक और स्टार फिश के आकार का रेस्टोरेंट यहां के मुख्य आकर्षण हैं। नाव चलाते सैकड़ों मछुवारे और सूर्यास्त का नजारा यहां बहुत ही सुंदर दिखाई देता है। मंदिरों में होने वाले उत्सवों के समय इस बीच पर भगवान की प्रतिमाओं को पवित्र स्नान कराया जाता है। तिरुवनंतपुरम से १६ किलोमीटर दूर स्थित कोवलम बीच केरल का एक प्रमुख पर्यटक केंद्र है। रेतीले तटों पर नारियल के पेड़ों और खूबसूरत लैगून से सजे ये बीच पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। कोवलम बीच के पास तीन और तट भी हैं जिनमें से दक्षिणतम छोर पर स्थित लाइट हाउस बीच सबसे अधिक प्रसिद्ध है। यह विश्व के सबसे अच्छे तटों में से एक है। कोवलम के तटों पर अनेक रेस्टोरेंट हैं जिनमें आपको सी फूड मिल जाएगें। आट्टुकाल देवी का मंदिर अट्टुकल पोंगल महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला एक प्रसिद्ध उत्सव है। यह उत्सव तिरुवनंतपुरम से २ किलोमीटर दूर देवी के प्राचीन मंदिर में मनाया जाता है। १० दिनों तक चलने वाले पोंगल उत्सव की शुरुआत मलयालम माह मकरम-कुंभम (फरवरी-मार्च) के भरानी दिवस (कार्तिक चंद्र) को होती है। पोंगल एक प्रकार का व्यंजन है जिसे गुड़, नारियल और केले के निश्चित मात्रा को मिलाकर बनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह देवी का पसंदीदा पकवान है। धार्मिक कार्य प्रात:काल ही शुरू हो जाते हैं और दोपहर तक चढ़ावा तैयार कर दिया जाता है। पोंगल के दौरान पुरुषों का मंदिर में प्रवेश वर्जित होता है। मुख्य पुजारी देवी की तलवार हाथों में लेकर मंदिर प्रांगण में घूमता है और भक्तों पर पवित्र जल और पुष्प वर्षा करता है। निकटवर्ती दर्शनीय स्थल ऐसा माना जाता है कि यह त्रृषि अगस्त्य का निवास स्थान था। समुद्रतल से १८९० मी. ऊपर स्थित यह जगह केरल का दूसरा सबसे ऊंचा स्थान है। सहाद्री पर्वत शृंखला का हिस्सा अगस्त्यकूडम के जंगल अपने यहां मिलने वाली जड़ी बूटियों और वनस्पति के लिए जाना जाता हैं। यहां मिलने वाली चिकित्सीय औषधियों की संख्या २००० से भी ज्यादा है। वनस्पतियों के अलावा इस जंगल में हाथी, शेर, तेंदुआ, जंगली सूअर, जंगली बिल्ली और धब्बेदार हिरन जैसे जानवर भी मिलते हैं। १९९२ में २३ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को अगस्त्य वन को बायोलॉजिकल पार्क बना दिया गया था। ऐसा करने के पीछे मुख्य उद्देश्य इस स्थान का शैक्षणिक प्रयोग करना था। ट्रैकिंग के शौकीनों के लिए यह स्थान उपयुक्त है। इसके लिए दिसंबर से अप्रैल के बीच यहां आ सकते हैं। नेय्यर वन्यजीव अभयारण्य और नेय्यर बांध तिरुवनंतपुरम से ३० किलोमीटर दूर स्थित यह जगह पश्चिमी घाट पर स्थित है। यहां की झील और बांध पर्यटकों को बहुत लुभाते हैं। अभयारण्य की स्थापना १९५८ में की गई थी। इसका क्षेत्रफल १२३ वर्ग किलोमीटर में फैला है। यह अभयारण्य नेन्नयर, मुल्लयर और कल्लर नदियों के प्रवाह क्षेत्र में आता है। वॉच टावर, क्रोकोडाइल फार्म, लायन सफारी पार्क और डियर पार्क यहां के मुख्य आकर्षण हैं। यहां से पहाड़ों का बहुत ही सुंदर नजारा दिखाई देता है। वन्य जीवों की बात करें तो गौर, भालू, जंगली बिल्ली और नीलगिरी लंगूर यहां पाए जाते हैं। यहां ट्रैकिंग और बोटिंग की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। तिरुवनंतपुरम अंतर्राष्ट्रीय विमानपत्तन के लिए चैन्नई, दिल्ली, गोवा, मुंबई से उड़ाने जाती हैं। मैंगलोर, अर्नाकुलम, बैंगलोर, चैन्नई, दिल्ली, गोवा, मुंबई, कन्याकुमारी और अन्य नगरों से यहां के लिए रेलगाड़ियां चलती हैं। त्रिशूर के प्रतिदिन लगभग सात रेलगाड़ियां यहां आती हैं। कोल्लम और कोच्चि से भी प्रतिदिन यहां रेलगाडी आती है। कोच्चि, चैन्नई, मदुरै, बैंगलोर और कन्याकुमारी से तिरुवनंतपुरम के लिए बसें चलती हैं। लंबी दूरी की बसें केन्द्र बस थाना (केएसआरटीसी, तिरुवनंतपुरम बस अड्डा) से जाती हैं। खरीदारी उत्साहकों के लिए तिरुवनंतपुरम उत्तम जगह है। यहां ऐसी अनेक सामान मिलती हैं जो कोई भी व्यक्ति अपने साथ ले जाना चाहेगा। केरल का हस्तशिल्प पूरी दुनिया में मशहूर है। यहां से पारंपरिक हस्तशिल्प जैसे तांबे का सामान, बांस का उपस्कर लिया जा सकता हैं। कथककली के मुखौटे और पारंपरिक परिधान अनेक दुकानों पर मिलते हैं। सरकारी दुकानों के अलावा चलाई बाजार, कोन्नेमारा मार्केट, पावन हाउस रोड के पास की दुकानें और एम.जी.रोड, अट्टुकल शॉपिंग कॉम्प्लेक्स (पूर्वी किला), नर्मदा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स (कोडियार) से भी खरीदारी की जा सकती है। अधिकतर दुकानें सवेरा ९ बजे-रात ८ बजे तक तथा सोमवार से शनिवार तक खुली रहती हैं। ट्रिवानड्रम के हर प्रमुख मार्ग के कोने पर चाय और पान की दुकानें मिल जाएंगी। केले के चिप्स यहां की विशेषता है। स्वादिष्ट केले के चिप्स के लिए कैथामुक्कु या वाईडब्ल्यूसीए रोड, ब्रिटिश पुस्तकालय के पास जा सकते हैं। यहां ताजे और अच्छे चिप्स मिलते हैं। ट्रिवानड्रम में ऐसे कई जलपान गृह भी हैं जो उत्तर भारतीय भोजन परोसते है। यहां नारियल के तेल का प्रयोग प्राय: हर व्यंजन में होता है। प्रमुख शिक्षण संस्थान भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान इन्हें भी देखें आट्टुकाल देवी मंदिर आधिकारिक जिला वेबसाइट ट्रिवानड्रम पर पब्लिक रिलेशंस का पृष्ठ ट्रिवानड्रम जिले पर केरल सरकार की वेबसाइट केरल के शहर तिरुवनन्तपुरम ज़िले के नगर केरल में पर्यटन भारत के महानगर भारत के तटीय वासस्थान भारत में बंदरगाह नगर भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की राजधानियाँ
जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे। जो सीता माता के पिता थे। यह शहर भगवान राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। जनकपुर संप्रति नेपाल के जनकपुर अंचल और धनुषा जिला में स्थित है। यहाँ की प्रमुख भाषा मैथिली, हिन्दी और नेपाली है। प्राचीन काल में यह विदेह राज्य की राजधानी थी। विदेह राज्य के संस्थापक निमि के वंश में महाराज सीरध्वज जनक २२ वें जनक थे, और अयोध्यापति राजा दशरथ के समकालीन थे। दाशरथि राम की अर्द्धांगिनी सीता मिथिलेश जनक सीरध्वज की पुत्री थी। महाकवि विद्यापति के ग्रंथ "भू-परिक्रमा" में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जनकपुर से सात कोस दक्षिण महाराज जनक का राजमहल था : जनकपुरदक्षिणांशे सप्तक्रोश-व्यतिक्रमे। डिजगलमहाग्रामे गेहास्तु जनकस्य च।। जनकपुर की ख्याति कैसे बढ़ी और उसे राजा जनक की राजधानी लोग कैसे समझने लगे, इसके सम्बन्ध में एक अनुश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि पवित्र जनक वंश का कराल जनक के समय में नैतिक अधःपतन हो गया। कौटिल्य ने प्रसंगवश अपनेअर्थशास्त्र में लिखा है कि कराल जनक ने कामान्ध होकर ब्राह्मण कन्या का अभिगमन किया। इसी कारण वह बन्धु-बान्धवों के साथ मारा गया। अश्वघोष ने भी अपने ग्रंथ बुद्ध चरित्र में इसकी पुष्टि की है। कराल जनक के वध के पश्चात् जनक वंश में जो लोग बच गये, वे निकटवर्ती तराई के जंगलों में जा छुपे। जहाँ वे लोग छिपे थे, वह स्थान जनक के वंशजों के रहने के कारण जनकपुर कहलाने लगा। सीता स्वयंबर कथा रामायण कथा के अनुसार जनक राजाओं में सबसे प्रसिद्ध सीरध्वज जनक हुए। यह बहुत ही विद्वान एवं धार्मिक विचारों वाले थे। शिव के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने इन्हें अपना धनुष प्रदान किया था। यह धनुष अत्यंत भारी था। जनक की पुत्री सीता धर्मपरायण थी वह नियमित रूप से पूजा स्थल की साफ-सफाई स्वयं करती थी। एक दिन की बात है जनक जी जब पूजा करने आए तो उन्होंने देखा कि शिव का धनुष एक हाथ में लिये हुए सीता पूजा स्थल की सफाई कर रही हैं। इस दृश्य को देखकर जनक जी आश्चर्य चकित रह गये कि इस अत्यंत भारी धनुष को एक सुकुमारी ने कैसे उठा लिया। इसी समय जनक जी ने तय कर लिया कि सीता का पति वही होगा जो शिव के द्वारा दिये गये इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल होगा। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा जनक ने धनुष-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ से संपूर्ण संसार के राजा, महाराजा, राजकुमार तथा वीर पुरुषों को आमंत्रित किया गया। समारोह में अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचंद्र और लक्ष्मण अपने गुरु विश्वामित्र के साथ उपस्थित थे। जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बारी आई तो वहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति से प्रत्यंचा तो दूर धनुष हिला तक नहीं। इस स्थिति को देख राजा जनक को अपने-आप पर बड़ा क्षोभ हुआ। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है- "अब अनि कोउ माखै भट मानी, वीर विहीन मही मैं जानी तजहु आस निज-निज गृह जाहू, लिखा न विधि वैदेही बिबाहू सुकृतु जाई जौ पुन पहिहरऊँ, कुउँरि कुआरी रहउ का करऊँ जो तनतेऊँ बिनु भट भुविभाई, तौ पनु करि होतेऊँ न हँसाई" राजा जनक के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण के आग्रह और गुरु की आज्ञा पर रामचंद्र ने ज्यों ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई त्यों ही धनुष तीन टुकड़ों में विभक्त हो गया। बाद में अयोध्या से बारात आकर रामचंद्र और जनक नंदिनी जानकी का विवाह माघ शीर्ष शुक्ल पंचमी को जनकपुरी में संपन्न हुआ। कहते हैं कि कालांतर में त्रेता युगकालीन जनकपुर का लोप हो गया। करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व महात्मा सूरकिशोर दास ने जानकी के जन्मस्थल का पता लगाया और मूर्ति स्थापना कर पूजा प्रारंभ की। तत्पश्चात आधुनिक जनकपुर विकसित हुआ। प्रमुख पर्यटन स्थल जनकपुर में राम-जानकी के कई मंदिर हैं। इनमें सबसे भव्य मंदिर का निर्माण भारत के टीकमगढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी बुंदेला ने करवाया। पुत्र प्राप्ति की कामना से महारानी वृषभानु कुमारी बुंदेला ने अयोध्या में 'कनक भवन मंदिर' का निर्माण करवाया परंतु पुत्र प्राप्त न होने पर गुरु की आज्ञा से पुत्र प्राप्ति के लिए जनकपुरी में १८९६ ई. में जानकी मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर निर्माण प्रारंभ के १ वर्ष के अंदर ही वृषभानु कुमारी को पुत्र प्राप्त हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण हेतु नौ लाख रुपए का संकल्प किया गया था। फलस्वरूप उसे 'नौलखा मंदिर' भी कहते हैं। परंतु इसके निर्माण में १८ लाख रुपया खर्च हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण काल में ही वृषभानु कुमारी के निधनोपरांत उनकी बहन नरेंद्र कुमारी ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया। बाद में वृषभानुकुमारी के पति ने नरेंद्र कुमारी से विवाह कर लिया। जानकी मंदिर का निर्माण १२ वर्षों में हुआ लेकिन इसमें मूर्ति स्थापना १८१४ में ही कर दी गई और पूजा प्रारंभ हो गई। जानकी मंदिर को दान में बहुत-सी भूमि दी गई है जो इसकी आमदनी का प्रमुख स्रोत है। जानकी मंदिर परिसर के भीतर प्रमुख मंदिर के पीछे जानकी मंदिर उत्तर की ओर 'अखंड कीर्तन भवन' है जिसमें १९६१ ई. से लगातार सीताराम नाम का कीर्तन हो रहा है। जानकी मंदिर के बाहरी परिसर में लक्ष्णण मंदिर है जिसका निर्माण जानकी मंदिर के निर्माण से पहले बताया जाता है। परिसर के भीतर ही राम जानकी विवाह मंडप है। मंडप के खंभों और दूसरी जगहों को मिलाकर कुल १०८ प्रतिमाएँ हैं। विवाह मंडप (धनुषा) : इस मंडप में विवाह पंचमी के दिन पूरी रीति-रिवाज से राम-जानकी का विवाह किया जाता है। जनकपुरी से १४ किलोमीटर 'उत्तर धनुषा' नामक स्थान है। बताया जाता है कि रामचंद्र जी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। पत्थर के टुकड़े को अवशेष कहा जाता है। पूरे वर्षभर ख़ासकर 'विवाह पंचमी' के अवसर पर तीर्थयात्रियों का तांता लगा रहता है। नेपाल के मूल निवासियों के साथ ही अपने देश के बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान तथा महाराष्ट्र राज्य के अनगिनत श्रद्धालु नज़र आते हैं। जनकपुर में कई अन्य मंदिर और तालाब हैं। प्रत्येक तालाब के साथ अलग-अलग कहानियाँ हैं। 'विहार कुंड' नाम के तालाब के पास ३०-४० मंदिर हैं। यहाँ एक संस्कृत विद्यालय तथा विश्वविद्यालय भी है। विद्यालय में छात्रों को रहने तथा भोजन की निःशुल्क व्यवस्था है। यह विद्यालय 'ज्ञानकूप' के नाम से जाना जाता है। मंडप के चारों ओर चार छोटे-छोटे कोहबर हैं जिनमें सीता-राम, माण्डवी-भरत, उर्मिला-लक्ष्मण एवं श्रुतिकीर्ति-शत्रुघ्र की मूर्तियां हैं। राम-मंदिर के विषय में जनश्रुति है कि अनेक दिनों तक सुरकिशोरदासजी ने जब एक गाय को वहां दूध बहाते देखा तो खुदाई करायी जिसमें श्रीराम की मूर्ति मिली। वहां एक कुटिया बनाकर उसका प्रभार एक संन्यासी को सौंपा, इसलिए अद्यपर्यन्त उनके राम मंदिर के महन्त संन्यासी ही होते हैं जबकि वहां के अन्य मंदिरों के वैरागी हैं। इसके अतिरिक्त जनकपुर में अनेक कुंड हैं यथा- रत्ना सागर, अनुराग सरोवर, सीताकुंड इत्यादि। उनमें सर्वप्रमुख है प्रथम अर्थात् रत्नासागर जो जानकी मंदिर से करीब ९ किलोमीटर दूर धनुखा में स्थित है। वहीं श्रीराम ने धनुष-भंग किया था। कहा जाता है कि वहां प्रत्येक पच्चीस-तीस वर्षों पर धनुष की एक विशाल आकृति बनती है जो आठ-दस दिनों तक दिखाई देती है। मंदिर से कुछ दूर दूधमती नदी के बारे में कहा जाता है कि जुती हुई भूमि के कुंड से उत्पन्न शिशु सीता को दूध पिलाने के उद्देश्य से कामधेनु ने जो धारा बहायी, उसने उक्त नदी का रूप धारण कर लिया। यातायात और संचार सुविधाएं नेपाल की राजधानी काठमांडू से ४०० किलोमीटर दक्षिण पूरब में बसा है। जनकपुर से करीब १४ किलोमीटर उत्तर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। नेपाल की रेल सेवा का एकमात्र केंद्र जनकपुर है। यहाँ नेपाल का राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है। जनकपुर जाने के लिए बिहार राज्य से तीन रास्ते हैं। पहला रेल मार्ग जयनगर से है, दूसरा सीतामढ़ी जिले के भिट्ठामोड़ से बस द्वारा है, तीसरा मार्ग मधुबनी जिले के उमगाँउ से बस द्वारा है। बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं सीतामढ़ी जिला से इस स्थान पर सड़क मार्ग से पहुंचना आसान है। बिहार की राजधानी पटना से इसका सीतामढ़ी के भिट्ठामोड़ होते हुये सीधा सड़क संपर्क है। पटना से इसकी दूरी १४० की मी है। यहाँ से काठमांडू जाने के लिए हवाई जहाज़ भी उपलब्ध हैं। यात्रियों के ठहरने हेतु यहाँ होटल एवं धर्मशालाओं का उचित प्रबंध है। यहाँ के रीति-रिवाज बिहार राज्य के मिथलांचल जैसे ही हैं। वैसे प्राचीन मिथिला की राजधानी माना जाता है यह शहर। भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देश के पर्यटक भी काफी संख्या में यहाँ आते हैं। इन्हें भी देखें भारत कोश में जनकपुर नेपाल के शहर
शंकर या महादेव अरण्य संस्कृति जो आगे चल कर सनातन शिव धर्म नाम से जाने जाते है में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव महादेव भी कहते हैं। इन्हें भोलेनाथ, शंकर, महेश, भिलपती, भिलेश्वर,रुद्र, नीलकंठ, गंगाधार आदि नामों से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू शिव घर्म शिव-धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय , अय्यपा और गणेश हैं, तथा पुत्रियां अशोक सुंदरी , ज्योति और मनसा देवी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है। इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है। शंकर जी को संहार का देवता कहा जाता है। शंंकर जी सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। इन्हें अन्य देवों से बढ़कर माना जाने के कारण महादेव कहा जाता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदि स्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। रावण, शनि, कश्यप ऋषि आदि इनके भक्त हुए है। शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है इसलिये उन्हें महादेव कहा जाता है। शिव के कुछ प्रचलित नाम, महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय [मृत्यु पर विजयी], त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर, नीलकण्ठ, महाशिव, उमापति [पार्वती के पति], काल भैरव, भूतनाथ, त्रिलोचन [तीन नयन वाले], शशिभूषण आदि। भगवान शिव को रूद्र नाम से जाना जाता है रुद्र का अर्थ है रुत् दूर करने वाला अर्थात दुखों को हरने वाला अतः भगवान शिव का स्वरूप कल्याण कारक है। रुद्राष्टाध्यायी के पांचवे अध्याय में भगवान शिव के अनेक रूप वर्णित हैं रूद्र देवता को स्थावर जंगम सर्व पदार्थ रूप, सर्व जाति मनुष्य देव पशु वनस्पति रूप मानकर के सर्व अंतर्यामी भाव एवं सर्वोत्तम भाव सिद्ध किया गया है इस भाव का ज्ञाता होकर साधक अद्वैतनिष्ठ बनता है। संदर्भ रुद्राष्टाध्यायी पृष्ठ संख्या १० गीता प्रेस गोरखपुर। रामायण में भगवान राम के कथन अनुसार शिव और राम में अंतर जानने वाला कभी भी भगवान शिव का या भगवान राम का प्रिय नहीं हो सकता। शुक्ल यजुर्वेद संहिता के अंतर्गत रुद्र अष्टाध्यायी के अनुसार सूर्य, इंद्र, विराट पुरुष, हरे वृक्ष, अन्न, जल, वायु एवं मनुष्य के कल्याण के सभी हेतु भगवान शिव के ही स्वरूप हैं। भगवान सूर्य के रूप में वे शिव भगवान मनुष्य के कर्मों को भली-भांति निरीक्षण कर उन्हें वैसा ही फल देते हैं। आशय यह है कि संपूर्ण सृष्टि शिवमय है। मनुष्य अपने-अपने कर्मानुसार फल पाते हैं अर्थात स्वस्थ बुद्धि वालों को वृष्टि रूपी जल, अन्न, धन, आरोग्य, सुख आदि भगवान शिव प्रदान करते हैं और दुर्बुद्धि वालों के लिए व्याधि, दुख एवं मृत्यु आदि का विधान भी शिवजी करते हैं। शिव स्वरूप सूर्य जिस प्रकार इस ब्रह्माण्ड का ना कोई अंत है, न कोई छोर और न ही कोई शूरुआत, उसी प्रकार शिव अनादि है सम्पूर्ण ब्रह्मांड शिव के अंदर समाया हुआ है जब कुछ नहीं था तब भी शिव थे जब कुछ न होगा तब भी शिव ही होंगे। शिव को महाकाल कहा जाता है, अर्थात समय। शिव अपने इस स्वरूप द्वारा पूर्ण सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। इसी स्वरूप द्वारा परमात्मा ने अपने ओज व उष्णता की शक्ति से सभी ग्रहों को एकत्रित कर रखा है। परमात्मा का यह स्वरूप अत्यंत ही कल्याणकारी माना जाता है क्योंकि पूर्ण सृष्टि का आधार इसी स्वरूप पर टिका हुआ है।पवित्र श्री देवी भागवत महापुराण में भगवान शंकर को तमोगुण बताया गया है इसका प्रमाण श्री देवी भागवत महापुराण अध्याय ५, स्कंद ३, पृष्ठ १२१ में दिया गया है। पवित्र शिव पुराण एक लेख के अनुसार, कैलाशपति शिव जी ने देवी आदिशक्ति और सदाशिव से कहे है कि हे मात! ब्रह्मा तुम्हारी सन्तान है तथा विष्णु की उत्पति भी आप से हुई है तो उनके बाद उत्पन्न होने वाला में भी आपकी सन्तान हुआ। ब्रह्मा और विष्णु सदाशिव के आधे अवतार है, परंतु कैलाशपति शिव "सदाशिव" के पूर्ण अवतार है। जैसे कृष्ण विष्णु के पूर्ण अवतार है उसी प्रकार कैलाशपति शिव "ओमकार सदाशिव" के पूर्ण अवतार है। सदाशिव और शिव दिखने में, वेषभूषा और गुण में बिल्कुल समान है। इसी प्रकार देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती (दुर्गा) आदिशक्ति की अवतार है। शिव पुराण के लेख के अनुसार सदाशिव जी कहे है कि जो मुझमे और कैलाशपति शिव में भेद करेगा या हम दोनों को अलग मानेगा वो नर्क में गिरेगा । या फिर शिव और विष्णु में जो भेद करेगा वो नर्क में गिरेगा। वास्तव में मुझमे, ब्रह्मा, विष्णु और कैलाशपति शिव कोई भेद नहीं हम एक ही है। परंतु सृष्टि के कार्य के लिए हम अलग अलग रूप लेते है । शिव स्वरूप शंकर जी पृथ्वी पर बीते हुए इतिहास में सतयुग से कलयुग तक, एक ही मानव शरीर एैसा है जिसके ललाट पर ज्योति है। इसी स्वरूप द्वारा जीवन व्यतीत कर परमात्मा ने मानव को वेदों का ज्ञान प्रदान किया है जो मानव के लिए अत्यंत ही कल्याणकारी साबित हुआ है। वेदो शिवम शिवो वेदम।। परमात्मा शिव के इसी स्वरूप द्वारा मानव शरीर को रुद्र से शिव बनने का ज्ञान प्राप्त होता है। शिव के नंदी गण शिव की अष्टमूर्ति १. पृथ्वीमूर्ति - शर्व २. जलमूर्ति - भव ३. तेजमूर्ति - रूद्र ४. वायुमूर्ति - उग्र ५. आकाशमूर्ति - भीम ६. अग्निमूर्ति - पशुपति ७. सूर्यमूर्ति - ईशान ८. चन्द्रमूर्ति - महादेव शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि। शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, पुष्प, चन्दन का स्नान प्रिय हैं। इनकी पूजा के लिये दूध, दही, घी, चीनी, शहद इन पांच अमृत जिसे पञ्चामृत कहा जाता है, से की जाती है। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबंधित हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है। सावन सोमवार व्रत को काफी फलदायी बताया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से भक्तों की सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है। महाशिवरात्रि का व्रत अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए करते हैं। हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है रूद्र - रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है। पशुपतिनाथ - भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं अर्धनारीश्वर - शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ। महादेव - महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति। भोलेनाथ - भोलेनाथ का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वालों में अग्रणी। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं। लिंगम - पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है। नटराज - नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी है। "शिव" शब्द का अर्थ "शुभ, स्वाभिमानिक, अनुग्रहशील, सौम्य, दयालु, उदार, मैत्रीपूर्ण" होता है। लोक व्युत्पत्ति में "शिव" की जड़ "शि" है जिसका अर्थ है जिन में सभी चीजें व्यापक है और "वा" इसका अर्थ है "अनुग्रह के अवतार"। ऋग वेद में शिव शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है, रुद्रा सहित कई ऋग्वेदिक देवताओं के लिए एक विशेषण के रूप में। शिव शब्द ने "मुक्ति, अंतिम मुक्ति" और "शुभ व्यक्ति" का भी अर्थ दिया है। इस विशेषण का प्रयोग विशेष रूप से साहित्य के वैदिक परतों में कई देवताओं को संबोधित करने हेतु किया गया है। यह शब्द वैदिक रुद्रा-शिव से महाकाव्यों और पुराणों में नाम शिव के रूप में विकसित हुआ, एक शुभ देवता के रूप में, जो "निर्माता, प्रजनक और संहारक" होता है। महाकाल अर्थात समय के देवता, यह भगवान शिव का एक रूप है जो ब्राह्मण के समय आयामो को नियंत्रित करते है। प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन ब्रह्मा विष्णु ने शिवलिंग की पूजा सृष्टि में पहली बार की थी और महाशिवरात्रि के ही दिन भगवान शिव और माता पार्वती की शादि हुई थी। इसलिए भगवान शिव ने इस दिन को वरदान दिया था और यह दिन भगवान शिव का बहुत ही प्रिय दिन है। महाशिवरात्रि का। माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ॥ भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है। ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है। यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है। महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भगवान शिव का यह प्रमुख पर्व फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माता पार्वती की पति रूप के महादेव शिव को पाने के लिये की गई तपस्या का फल महाशिवरात्रि है। यह शिव और शक्ति की मिलन की रात है। आध्यात्मिक रूप से इसे प्रकृति और पुरुष के मिलन की रात के रूप में बताया जाता है। इसी दिन माता पार्वती और शिव विवाह के पवित्र सूत्र में बंधे। शादी में जिन ७ वचनों का वादा वर-वधु आपस में करते है उसका कारण शिव पार्वती विवाह है। महादेव शिव का जन्म उलेखन कुछ ही ग्रंथों में मिलता है। परंतु शिव अजन्मा है उनका जन्म या अवतार नहीं हुआ। महाशिवरात्रि पर्व भारत वर्ष में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है। शिव महापुराण में देवो के देव महादेव अर्थात् महाकाल के बारे में विस्तार से बताया गया है शिव पुराण में शिव लीलाओ और उनके जीवन की सभी घटनाओ के बारे में उल्लेख किया गया है।शिव पुराण में प्रमुख रूप से १२सहिंताये है। महादेव को एक बार इस दुनिया को बचाने के लिए विष का पान करना पड़ा था, और उस महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण करना पड़ा था। इसी वजह से उन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। कुछ कथाओं के अनुसार कैलाश सरोवर को शिव का निवास स्थान माना जाता है। भगवान शिव के अनेक अवतार है प्रलयकाल के समय इनका अवतार निराकार ब्रह्मम जिसे किउत्तराखण्ड में निरंकार देवता के नाम से भी पूजा जाता है एक ऐसा हि अन्य अवतार है भैरवनाथ अवतार जिसे भैरव या कालभैरव के नाम से पूजा जाता है। इन्हें भी देखें श्री शिव पंचाक्षर स्तोत्र आदियोगी शिव प्रतिमा शिव के रूप हिन्दू धर्म में भगवान के नाम हिन्दू तान्त्रिक देवता
|नामी= स्वामी विवेकानन्द विवेक ने अंग्रेजी भाषा में लिखा !: "एक असीमित, पवित्र, शुद्ध सोच एवं गुणों से परिपूर्ण उस परमात्मा को मैं नतमस्तक हूँ।" स्वामी विवेकानंद एक नास्तिक व्य्क्ति थे. इसी चित्र में दूसरी ओर विवेकानन्द के हस्ताक्षर हैं।</स्मॉल> | डेथ_प्लेस = बेलूर मठ, बंगाल रियासत, ब्रिटिश राज (अब बेलूर, पश्चिम बंगाल में) | गुरू = रामकृष्ण परमहंस | लिटरेरी वर्क्स = राज योग (पुस्तक)|राज योग, कर्म योग (पुस्तक)|कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग (पुस्तक)|ज्ञान योग, माई मास्टर (पुस्तक)| माई मास्टर |कोटे ="उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए" स्वामी विवेकानन्द (, ) (जन्म: १२ जनवरी १८६३ - मृत्यु: ४ जुलाई १९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें २ मिनट का समय दिया गया था किन्तु उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण का आरम्भ "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे विवेकानन्द आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं; इसलिए मानव जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दो की मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश भारत में तत्कालीन स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। बाद में विश्व धर्म संसद १८९३ में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना एक बार स्वामी विवेकानन्द अपने आश्रम में सो रहे थे। कि तभी एक व्यक्ति उनके पास आया जो कि बहुत दुखी था और आते ही स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज मैं अपने जीवन में खूब मेहनत करता हूँ हर काम खूब मन लगाकर भी करता हूँ फिर भी आज तक मैं कभी सफल व्यक्ति नहीं बन पाया। उस व्यक्ति कि बाते सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा ठीक है। आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ी देर तक घुमाकर लाये तब तक आपके समस्या का समाधान ढूँढ़ता हूँ। इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कुत्ते को घुमाने के लिए चला गया। और फिर कुछ समय बीतने के बाद वह व्यक्ति वापस आया। तो स्वामी विवेकानन्द ने उस व्यक्ति से पूछा की यह कुत्ता इतना हाँफ क्यों रहा है। जबकि तुम थोड़े से भी थके हुए नहीं लग रहे हो आखिर ऐसा क्या हुआ ? इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कुत्ता इधर उधर रास्ते भर भागता रहा और कुछ भी देखता तो उधर ही दौड़ जाता था. जिसके कारण यह इतना थक गया है । इसपर स्वामी विवेकानन्द ने मुस्कुराते हुए कहा बस यही तुम्हारे प्रश्नों का जवाब है. तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारे सामने ही होती है. लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नही हो पाए. यह बात सुनकर उस व्यक्ति को समझ में आ गया था। की यदि सफल होना है तो हमे अपने मंजिल पर ध्यान देना चाहिए। कहानी से शिक्षास्वामी विवेकानन्द के इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है की हमें जो करना है। जो कुछ भी बनना है। हम उस पर ध्यान नहीं देते है, और दूसरों को देखकर वैसा ही हम करने लगते है। जिसके कारण हम अपने सफलता के लक्ष्य के पास होते हुए दूर भटक जाते है। इसीलिए यदि जीवन में सफल होना है! तो सदा हमें अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए !। नारी का सम्मान स्वामी विवेकानन्द की ख्याति देश विदेश में फैली हुई थी। एक बार कि बात है। विवेकानन्द समारोह के लिए विदेश गए थे। और उनके समारोह में बहुत से विदेशी लोग आये हुए थे ! उनके द्वारा दिए गए स्पीच से एक विदेशी महिला बहुत ही प्रभावित हुईं। और वह विवेकानन्द के पास आयी और स्वामी विवेकानन्द से बोली कि मैं आपसे विवाह करना चाहती हूँ ताकि आपके जैसा ही मुझे गौरवशाली पुत्र की प्राप्ति हो। इसपर स्वामी विवेकानन्द बोले कि क्या आप जानती है। कि मै एक सन्यासी हूँ भला मै कैसे विवाह कर सकता हूँ यदि आप चाहो तो मुझे आप अपना पुत्र बना लो। इससे मेरा सन्यास भी नही टूटेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा। यह बात सुनते ही वह विदेशी महिला स्वामी विवेकानन्द के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि आप धन्य है। आप ईश्वर के समान है ! जो किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते है। कहानी से शिक्षास्वामी विवेकानन्द के इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि सच्चा पुरुष वही होता है जो हर परिस्थिति में नारी का सम्मान करे प्रारम्भिक जीवन (१८६३-८८) जन्म एवं बचपन स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन् १८६३ (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् १९२०) को कलकत्ता में एक कुलीन कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर रखा गया, किन्तु उनका औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। दुर्गाचरण दत्ता, (नरेंद्र के दादा) संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान थे उन्होंने अपने परिवार को २५ वर्ष की आयु में छोड़ दिया और एक साधु बन गए। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं।उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में सहायता की। बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डित तक चक्कर में पड़ जाते थे। सन् १८७१ में, आठ साल की उम्र में, नरेन्द्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल गए। १८७७ में उनका परिवार रायपुर चला गया। १८७९ में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये। वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही पाठक थे। इनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र को भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था,और ये नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टिटूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया। १८८१ में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और १८८४ में कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली। नरेन्द्र ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर स्कूपइन्हार , ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन के कामों का अध्ययन किया। उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन (१८६०) का बंगाली में अनुवाद किया। ये हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी मोहित थे। पश्चिम दार्शनिकों के अध्यन के साथ ही इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा। विलियम हेस्टी (महासभा संस्था के प्रिंसिपल) ने लिखा, "नरेन्द्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।" अनेक बार इन्हें श्रुतिधर( विलक्षण स्मृति वाला एक व्यक्ति) भी कहा गया है। आध्यात्मिक शिक्षुता - ब्रह्म समाज का प्रभाव १८८० में नरेन्द्र, ईसाई से हिन्दू धर्म में रामकृष्ण के प्रभाव से परिवर्तित केशव चंद्र सेन की नव विधान में शामिल हुए, नरेन्द्र १८८४ से पहले कुछ बिन्दु पर, एक फ्री मसोनरी लॉज और साधारण ब्रह्म समाज जो ब्रह्म समाज का ही एक अलग गुट था और जो केशव चन्द्र सेन और देवेंद्रनाथ टैगोर के नेतृत्व में था। १८८१-१८८४ के दौरान ये सेन्स बैंड ऑफ़ होप में भी सक्रीय रहे जो धूम्रपान और शराब पीने से युवाओं को हतोत्साहित करता था। यह नरेन्द्र के परिवेश के कारण पश्चिमी आध्यात्मिकता के साथ परिचित हो गया था। उनके प्रारम्भिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति पूजा का प्रतिवाद करता था, ने प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्यन पर प्रोत्साहित किया। एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे। विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उनसे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्वी संन्यासी का जीवन एक आदर्श है। उनके नाना का नाम श्री नंदलाल बसु था। मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों! आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं: रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है: ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं। साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो। २५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। विवेकानंद ने ३१ मई १८९३ को अपनी यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों (नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो समेत) का दौरा किया,चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुँचे सन् १८९३ में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमरीका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। परंतु (परन्तु) एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। "अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को 'गरीबों का सेवक' कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों (देश-देशान्तर) में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय बताता है कि उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।" रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-शिव! यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।" वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। महात्मा गान्धी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा के स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।" उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षोँ में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक क्रान्ति के जरिये भी देश को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन इरादों के लिये अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके बाद ही विवेकानन्द ने एकला चलो की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत और दुनिया को खंगाल डाला। उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये। उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है। उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है। यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के इतिहास ने बाद में उसी पर मुहर लगायी। विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझाने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। इनका एक प्रसिद्ध कथन था उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ? अतः स्वामी सैद्धान्तिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है, इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।स्वामी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं। लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि 'हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।' पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।' स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं १. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके। २. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने। ३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए। ४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए। ५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए। ६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है। ७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए। ८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये। ९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय। १०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए। ११. शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ती दे। १२. स्वामी विवेकानंद के अनुसार व्यक्ति को अपनी रूचि को महत्व देना चाहिए| स्वामी विवेकानंद के शिक्षा पर विचार मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया पर केन्द्रित हैं, न कि महज़ किताबी ज्ञान पर। एक पत्र में वे लिखते हैं"शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक-विद्या है? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।" शिक्षा का उपयोग किस प्रकार चरित्र-गठन के लिए किया जाना चाहिए, इस विषय में विवेकानंद कहते हैं, "शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग़ में ऐसी बहुत-सी बातें इस तरह ठूँस दी जायँ, जो आपस में, लड़ने लगें और तुम्हारा दिमाग़ उन्हें जीवन भर में हज़म न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हज़म कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।" देश की उन्नतिफिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिकमें स्वामी शिक्षा की भूमिका केन्द्रिय मानते थे। भारत तथा पश्चिम के बीच के अन्तर को वे इसी दृष्टि से वर्णित करते हुए कहते हैं, "केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और वहाँ के ग़रीबों के भी अमन-चैन और विद्या को देखकर हमारे ग़रीबों की बात याद आती थी और मैं आँसू बहाता था। यह अन्तर क्यों हुआ? उत्तर पाया शिक्षा!" स्वामी विवेकानंद का विचार था कि उपयुक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व विकसित होना चाहिए और चरित्र की उन्नति होनी चाहिए। सन् १९०० में लॉस एंजिल्स, कैलिफ़ोर्निया में दिए गए एक व्याख्यान में स्वामी यही बात सामने रखते हैं, "हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य के इसी व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत हम केवल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कुछ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या लाभ? शिक्षा का लक्ष्य अथवा उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है।" स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं , किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है। एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं। एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ। पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है। एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है। खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है। सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा। बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है। विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं। शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है। जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते। जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो। विवेकानंद ने कहा था - चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो। हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं। उनके जीवनकाल में प्रकाशित कर्म योग (१८९६) वर्तमान भारत (बांग्ला में ; मार्च १८९९), उद्बोधन ज्ञान योग (१८९९) १२ जनवरी १८६३ -- कलकत्ता में जन्म १८७९ -- प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में प्रवेश १८८० -- जनरल असेम्बली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश नवम्बर १८८१ -- रामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट १८८२-८६ -- रामकृष्ण परमहंस से सम्बद्ध १८८४ -- स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास १८८५ -- रामकृष्ण परमहंस की अन्तिम बीमारी १६ अगस्त १८८६ -- रामकृष्ण परमहंस का निधन १८८६ -- वराहनगर मठ की स्थापना जनवरी १८८७ -- वड़ानगर मठ में औपचारिक सन्यास १८९०-९३ -- परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण २५ दिसम्बर १८९२ -- कन्याकुमारी में १३ फ़रवरी १८९३ -- प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकन्दराबाद में ३१ मई १८९३ -- मुम्बई से अमरीका रवाना २५ जुलाई १८९३ -- वैंकूवर, कनाडा पहुँचे ३० जुलाई १८९३ -- शिकागो आगमन अगस्त १८९३ -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो॰ जॉन राइट से भेंट ११ सितम्बर १८९३ -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान २७ सितम्बर १८९३ -- विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अन्तिम व्याख्यान १६ मई १८९४ -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण नवंबर १८९४ -- न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना जनवरी १८९५ -- न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरम्भ अगस्त १८९५ -- पेरिस में अक्टूबर १८९५ -- लन्दन में व्याख्यान ६ दिसम्बर १८९५ -- वापस न्यूयॉर्क २२-२५ मार्च १८९६ -- फिर लन्दन मई-जुलाई १८९६ -- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान १५ अप्रैल १८९६ -- वापस लन्दन मई-जुलाई १८९६ -- लंदन में धार्मिक कक्षाएँ २८ मई १८९६ -- ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट ३० दिसम्बर १८९६ -- नेपाल से भारत की ओर रवाना १५ जनवरी १८९७ -- कोलम्बो, श्रीलंका आगमन जनवरी, १८९७ -- रामनाथपुरम् (रामेश्वरम) में जोरदार स्वागत एवं भाषण ६-१५ फ़रवरी १८९७ -- मद्रास में १९ फ़रवरी १८९७ -- कलकत्ता आगमन १ मई १897 -- रामकृष्ण मिशन की स्थापना मई-दिसम्बर १८९७ -- उत्तर भारत की यात्रा जनवरी १८९८ -- कलकत्ता वापसी १९ मार्च १८९९ -- मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना २० जून १८९९ -- पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा ३१ जुलाई १८९९ -- न्यूयॉर्क आगमन २२ फ़रवरी १९०० -- सैन फ्रांसिस्को में वेदान्त समिति की स्थापना जून १९०० -- न्यूयॉर्क में अन्तिम कक्षा २६ जुलाई १९०० -- योरोप रवाना २४ अक्टूबर १९०० -- विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा २६ नवम्बर १९०० -- भारत रवाना ९ दिसम्बर 1९00 -- बेलूर मठ आगमन १० जनवरी १९०१ -- मायावती की यात्रा मार्च-मई १९०१ -- पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा जनवरी-फरवरी १९०२ -- बोध गया और वाराणसी की यात्रा मार्च १९०२ -- बेलूर मठ में वापसी ४ जुलाई १९०२ -- महासमाधि इन्हें भी देखें भगवान महावीर का साधना काल राष्ट्रीय युवा दिवस विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी विवेकानन्द नीडम्, ग्वालियर विश्व धर्म महासभा राष्ट्रीय युवा दिवस भारत का इतिहास हिन्दू आध्यात्मिक नेता १८६३ में जन्मे लोग १९०२ में निधन
यह विश्वविद्यालय बोधगया मे है जो गया ज़िला मुख्यालय से लगभग १२ कीलोमीटर फल्गु नदी के किनारे-२ रास्ते से है ज़बकी गाया डोभी रोड के रास्ते १९ कि.मी.है स्थीत है। मगध विश्वविद्यालय की स्थापना १९6२ मे शिक्षाविद्व व पूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने की थी।।अपने स्थापना के शुरुआती दिनों में ही यह विश्वविद्यालय अपनी शैक्षणिक व्यवस्था को लेकर पूरे देश में चर्चित हो गया था| यहॉ उच्च कोटी की शिक्षा प्रदान की ज़ाती है। पटना तथा गया के लगभग २50 महाविद्यालय सम्बंधित है | इन्हें भी देखें
एल साल्वाडोर (स्पैनिश:रेपब्लिका दे एल सल्वाडोर) मध्य अमेरिका में स्थित सबसे छोटा और सबसे सघन आबादी वाला देश है। यह उत्तर-पश्चिम में ग्वाटेमाला, उत्तर-पूर्व में हॉण्डुरास और दक्षिण में प्रशांत महासागर से घिरा है। यह फोंसेका खाड़ी पर स्थित है, जिस तरह निकारागुआ दक्षिण की ओर मिलती है। २१,००० वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इस देश की आबादी लगभग ६८ लाख (20२१ में होने का अनुमान है) है। राजधानी सान साल्वाडोर देश का सबसे महत्वपूर्ण महानगर है। एल साल्वाडोर ने अपनी मुद्रा कोलोन को खत्म कर वर्ष २००१ में अमेरिकी डॉलर को अपना लिया है। देश की एक चौथाई आबादी १६३.७७($२) एक दिन से भी कम पर गुजर-बसर करती है। एल साल्वाडोर के प्रदेश
सान-साल्वाडोर प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सान-साल्वाडोर है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
मालवा, ज्वालामुखी के उद्गार से बना पश्चिमी भारत का एक अंचल है। मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग तथा राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी भाग से गठित यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई रहा है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा संचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा संचित है। यद्यपि इसकी राजनीतिक सीमाएँ समय-समय पर थोड़ी परिवर्तित होती रही तथापि इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट सभ्यता, संस्कृति एवं भाषा का विकास हुआ है। मालवा के अधिकांश भाग का गठन जिस पठार द्वारा हुआ है उसका नाम भी इसी अंचल के नाम से मालवा का पठार है। इसे प्राचीनकाल में 'मालवा' या 'मालव' के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में मध्यप्रदेश प्रांत के पश्चिमी भाग में स्थित है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई ४९६ मी॰ है। मालवा का नामकरण मालवा का उक्त नाम 'मालव' नामक जनजाति के आधार पर पड़ा। मालव जनजाति का उल्लेख सर्वप्रथम ई. पू. चौथी सदी में मिलता है, जब यह जाति सिकंदर से युद्ध में पराजित हुई थी। ये मालव प्रारंभ में पंजाब तथा राजपूताना क्षेत्रों के निवासी थी, लेकिन सिकंदर से पराजित होकर वे अवन्ति (वर्तमान उज्जैन) व उसके आस-पास के क्षेत्रों में बस गये । उन्होंने आकर (दशार्ण) तथा अवन्ति को अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। दशार्ण की राजधानी विदिशा थी तथा अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी थी। कालांतर में यही दोनों प्रदेश मिलकर मालवा कहलाये। इस प्रकार एक भौगोलिक घटक के रूप में 'मालवा' का नाम लगभग प्रथम ईस्वी सदी में मिलता है। मालवा पर करिब ५४७ वर्षो तक भील राजाओ का शासन रहा,जिनमें राजा धन्ना भील प्रमुख रहे ।। राजा धन्ना भील के ही एक उत्तराधिकारी ने ७३० ईसा पूर्व में दिल्ली के सम्राट को चुनौती दी थी , इस प्रकार मालवा उस समय एक शक्तिशाली साम्राज्य था । मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य के समय के शासक राजा गरिमध्वज भील थे , वे अपनी बहादुरी और शौर्य के लिए जाने जाते थे , चन्द्रगुप्त मौर्य के मालवा आक्रमण के दौरान उनका सामना भील राजा से हुआ , लेकिन चाणक्य की नीति के फलस्वरूप दोनों राजाओं में मित्रता हो गई और दोनों ने मिलकर मगध साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध किया । मालवा का विस्तार भारत के अन्य राज्यों की भाँति मालवा की भी राजनीतिक सीमाएं राजनीतिक गतिविधियों व प्रशासनिक कारणों से परिवर्तित होती रही है। अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं भौगोलिक स्थिति के आधार पर प्राचीन मालवा के भौगोलिक विस्तार के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। व्यापक अर्थ में यह उत्तर में ग्वालियर की दक्षिणी सीमा से लेकर दक्षिण में नर्मदा घाटी के उत्तरी तट से संलग्न महान विंध्य क्षेत्रों तक तथा पूर्व में विदिशा से लेकर राजपूताना की सीमा के मध्य फैले हुए भू-भाग का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार स्थूल रूप से यह पश्चिम में मेही नदी से लेकर पूर्व में धसान नदी तक तथा दक्षिण में निर्माड़ तथा सतपुड़ा तक फैली हुई है। दिनेश चंद्र सरकार के अनुसार 'मालवा', जो आकर-दशार्ण तथा अवन्ति प्रदेश का द्योतक है -- पश्चिम में अरावली पर्वतमाला, दक्षिण में विंध्य श्रेणी, पूर्व में बुंदेलखण्ड और उत्तर- पूर्व में गंगा- घाट से घिरा हुआ प्रदेश था, जिसमें मध्य भारत के आधुनिक इंदौर, धार, ग्वालियर, भोपाल, रतलाम, गुना तथा सागर जिले के कुछ भाग सम्मिलित थे। डी. सी. गांगुली का मत है कि मालवा प्रदेश पूर्व में भिलसा (विदिशा) से लेकर पश्चिम में माही नदी तक तथा उत्तर में कोटा राज्य से लेकर दक्षिण में ताप्ती नदी तक फैला हुआ था। बी. पी. सिन्हा के अनुसार मालवा प्रदेश पश्चिम में चंबल नदी से लेकर पूर्व में एरण तक, दक्षिण में विंध्य श्रेणी से लेकर उत्तर में चंबल के उत्तरी मोड़ तक विस्तृत था। मैलकम द्वारा मालवा की सीमा उत्तर दक्षिण में विंध्याचल से मुकुन्दरा तक तथा पूर्व से पश्चिम में नर्मदा से निमाड़ तक बतलाई गयी है। ओ. एच. के स्पेट के अनुसार मालवा प्रदेश त्रिभुजाकार में विंध्य श्रेणी पर आधारित है, जो उत्तर-पश्चिम में अरावली पर्वत से तथा पूर्व में बुंदेलखण्ड से घिरा हुआ है। कैलाश चंद्र जैन का मत है कि मालवा प्रदेश के अंतर्गत संपूर्ण पश्चिमी मध्य प्रदेश का विस्तृत भू-भाग आता है, जो दक्षिण में विंध्य श्रेणी, पूर्व में सागर-दमाई पठार और बुंदेलखण्ड, उत्तर में गुना-शिवपुरी क्षेत्र और राजस्थान तथा पश्चिम में गुजरात और अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। वर्त्तमान में यह लगभग ४७,७६० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है तथा इसके अंतर्गत धार, झाबुआ, रतलाम, देवास, इंदौर, उज्जैन, मंदसौर, सीहोर, शाजापुर, रायसेन, राजगढ़ तथा विदिशा जिले आते हैं। प्राकृतिक रूप से मालवा क्षेत्र उच्चभूमि माना जा सकता है, जिसकी समतल भूमि थोड़ा झुकाव लिये हुए हैं। अंदर का अधिकांश भाग खुला है। काली मिट्टी की परत होने के कारण भूमि उपजाऊ है। छोटे पठार, जंगल व जल के प्राकृतिक स्रोत मिल जाते हैं। मालवा के चार भाग प्राकृतिक बनावट के आधार पर संपूर्ण मालवा क्षेत्र को चार भागों में बाँटा जा सकता है -- उत्तर- पूर्वी पठार क्षेत्र (दशार्ण क्षेत्र) केंद्रीय पठार क्षेत्र उत्तर- पश्चिमी पठार क्षेत्र तथा नर्मदा की घाटी (निमाड़ की समतल भूमि) उत्तर-पूर्वी पठार क्षेत्र (दशार्ण क्षेत्र) इस क्षेत्र के अंतर्गत विदिशा तथा उसके आस- पास का क्षेत्र आता है, जिसका प्राचीन नाम आकर व दशार्ण था। मध्य मालवा पठार का संकीर्ण विस्तार यह क्षेत्र पूरब, उत्तर तथा दक्षिण की ओर से विंध्याचल की पर्वतश्रेणियों से घिरा हुआ है। पूरब की तरफ स्थित गंगा के उपजाऊ समतल मैदान को छूता हुआ, यह क्षेत्र एक समय समृद्धशाली व संपन्न था। केन्द्रीय पठार क्षेत्र यह क्षेत्र दक्षिण में विंध्य श्रेणी, पूर्व में भोपाल से चंदेरी तक विस्तृत विंध्य श्रेणी की एक शाखा से, पश्चिम में अमक्षेरा से चित्तौड़ तक विस्तृत उसी पर्वत की शाखा से तथा उत्तर में चित्तौड़ से चंदेरी तक विस्तृत मुकुंदवाड़ा श्रेणी से घिरा हुआ है। इसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के राजगढ़, सीहोर, शाजापुर, देवास, इंदौर, रतलाम और धार जिले सम्मलित थे। उत्तर-पश्चिमी पठार क्षेत्र मेवाड़ को छूता हुआ यह क्षेत्र के अंतर्गत वर्तमान का संपूर्ण मंदसौर व रतलाम जिला का कुछ हिस्सा आता है। इस क्षेत्र के पहाड़ी व उबर - खाबर होने के कारण सैन्य- जीवन से जुड़े गतिविधियों का अत्यधिक विकास हुआ। मालव व औलिकर राजाओं ने, जिन्होंने इस क्षेत्र पर शासन किया, अपने वीरतापूर्ण कृत्यों के लिए जाने जाते हैं। पत्थरों की प्रचुर उपलब्धि के कारण यहाँ के ज्यादातर भवन पत्थरों के ही बने। दशपुर (मंदसौर) इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण नगर था। नर्मदा की घाटी (निमाड़ की समतल भूमि) प्राचीन काल में यह क्षेत्र "अनुप' क्षेत्र के रूप से प्रसिद्ध यह क्षेत्र उत्तर में विंध्य व दक्षिण में सतपुरा से घिरी नर्मदा की निम्न संकीर्ण घाटी है। विंध्य की तरह यह चौड़ी होती गई है। पूरा क्षेत्र समतल व उपजाऊ है। नर्मदा के निकट होने के कारण संपूर्ण भाग में दूर तक सिंचाई की सुविधा है। लकड़ियों में सागौन बहुतायक में मिलता है। लेकिन यहाँ की जलवायु उत्तर के पठारी भागों की तरह सहज नहीं है। नर्मदा के किनारे स्थित नगर महिष्मती (महेश्वर) मध्यभारत का सबसे प्राचीन नगर माना जाता है। प्रमुख स्थान एवं नगर उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले मुख्य नगरों अन्य स्थानों का विवरण इस प्रकार है -- उत्तर-पूर्वी मालवा पठारी क्षेत्र (दशार्ण क्षेत्र) ; १. विदिशा (भिलसा) मध्य पठारी क्षेत्र उत्तर- पश्चिमी मालवा पठारी क्षेत्र (मंदसौर जिला) १. मंदसौर (दशपुर) नर्मदा की घाटी (निमाड़ की समतल भूमि) इन्हें भी देखें मालवा का पठार मालवा भील कॉर्प इंदौर (मध्यप्रदेश) की यादें!! भारत के क्षेत्र
अहुअछापान प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी अहुअछापान है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
कभान्यास अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सेन्सुंतेपेक़े है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
छालातेनानगो प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी छालातेनानगो है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
कूसकातलान प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी कोजुतेपेक़े है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
ला-लीभेरता प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सान्ता तेकला है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
ला-पास प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी साकातेकोलुका है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
ला-उनिओन प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी ला-उनिओन है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
मोरसान प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सैन फ्रांसिस्को गोतेरा है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
सान-मीगोल प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सान-मीगोल है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
सानता-आना प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सानता-आना है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
सान-विसेनते प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सान-विसेनते है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
सोनसोनाते अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी सोनसोनाते है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
उसुलुतान प्रदेश अल साल्वाडोर का एक प्रदेश है जिसकी राजधानी उसुलुतान है। अल साल्वाडोर के प्रदेश
युनाइटेड कालेज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड रिसर्च गंगा और यमुना के तट पर इलाहाबाद के निकट नैनी नामक स्थान पर स्थित है। युनाइटेड कालेज का वेब जाल क्षेत्र
सरदार पटेल विद्यालय दिल्ली का एक सुविख्यात विद्यलय है। यहां नर्सरी से लेकर १२वीं तक पढ़ाया जाता है। स्थानः लोधी एस्टेट, नई दिल्ली - ११०००३, भारत पहली से पांचवीः हिन्दी माध्यम डॉ॰ रघु नायक डॉ॰ विभा पार्थसारथी श्री मुकेश शैलठ श्री मागो (अस्थायी) श्रीमती कुसुम वारिकू श्रीमती अनुराधा जोशी दीप दास गुप्ता, भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य अजय जड़ेजा, भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य राहुल सिंघ्वी, भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य गगन खोड़ा, भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य नंदिता दास, अभिनेत्री केतन मेहता, पापा के मित्र वत्सला कौल, सम्पादक सूरज शर्मा, अभिनेता दिल्ली के शिक्षण संस्थान
अन्तर्जाल एक वैश्विक कम्प्यूटर संजाल है जो विभिन्न प्रकार की सूचना और संचार सुविधाएँ प्रदान करता है, जिसमें मानकीकृत संचार प्रोटोकॉलों का उपयोग करके परस्पर जुड़े जाल-तन्त्र शामिल हैं। यह संजालों का एक संजाल है जिसमें स्थानीय से वैश्विक स्तर के निजी, सार्वजनिक, शैक्षणिक, व्यवसाय और सरकारी संजाल शामिल हैं, जो वैद्युतिक, तार-रहित और प्रकाशीय संजालीकरण तकनीकों की एक विस्तृत शृंखला से जुड़े हैं। अन्तर्जाल में सूचना संसाधनों और सेवाओं की एक विशाल शृंखला होती है, जैसे कि संयोजित अतिपाठ दस्तावेज़ और विश्वव्यापी जाल के अनुप्रयोगों, वैद्युतिक पत्र, दूरभाषी और फ़ाइल साझाकरण। १९६० के दशक में इंटरनेट नेटवर्क की उत्पत्ति संयुक्त राज्य संघीय सरकार द्वारा कंप्यूटर नेटवर्क के माध्यम से मज़बूत, गलती-सहिष्णु संचार के निर्माण के लिए शुरू की गई थी। ९०८५ के शुरुआती दिनों में वाणिज्यिक नेटवर्क और उद्यमों को जोड़ने से आधुनिक इंटरनेट पर संक्रमण की शुरुआत हुई, और तेजी से वृद्धि के कारण संस्थागत, व्यक्तिगत और मोबाइल कंप्यूटर नेटवर्क से जुड़े थे। २००० के दशक के अंत तक, इसकी सेवाओं और प्रौद्योगिकियों को रोजमर्रा की जिंदगी के लगभग हर पहलू में शामिल किया गया था। टेलीफ़ोनी, रेडियो, टेलीविज़न, पेपर मेल और अखबारों सहित अधिकांश पारंपरिक संचार मीडिया, ईमेल द्वारा पुनर्निर्मित, पुनर्निर्धारित, या इंटरनेट से दूर किए जाने वाले ईमेल सेवाओं, इंटरनेट टेलीफ़ोनी, इंटरनेट टेलीविजन, ऑनलाइन संगीत, डिजिटल समाचार पत्र, और वीडियो स्ट्रीमिंग वेबसाइटें अखबार, पुस्तक, और अन्य प्रिंट प्रकाशन वेबसाइट प्रौद्योगिकी के अनुकूल हैं, या ब्लॉगिंग, वेब फ़ीड्स और ऑनलाइन समाचार एग्रीगेटर्स में पुन: स्थापित किए जा रहे हैं। इंटरनेट ने त्वरित मैसेजिंग, इंटरनेट फ़ौरम और सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से व्यक्तिगत इंटरैक्शन के नए रूपों को सक्षम और त्वरित किया है। ऑनलाइन खुदरा विक्रेताओं और छोटे व्यवसायों और उद्यमियों के लिए ऑनलाइन खरीदारी तेजी से बढ़ी है, क्योंकि यह कंपनियों को एक बड़े बाजार की सेवा या पूरी तरह से ऑनलाइन वस्तुओं और सेवाओं को बेचने के लिए अपनी "ईंट और मोर्टार" उपस्थिति बढ़ाने में सक्षम बनाता है। इंटरनेट पर व्यापार से व्यापार और वित्तीय सेवाओं को पूरे उद्योगों में आपूर्ति शृंखला पर असर पड़ता है। इंटरनेट का उपयोग या उपयोग के लिए तकनीकी कार्यान्वयन या नीतियों में कोई केंद्रीकृत शासन नहीं है; प्रत्येक घटक नेटवर्क अपनी नीतियाँ निर्धारित करता है। इंटरनेट, इंटरनेट प्रोटोकॉल एड्रेस (आए पी एड्रेस), स्पेस और डोमेन नेम सिस्टम (डी एन एस) में दो प्रमुख नाम रिक्त स्थान की केवल अति परिभाषा परिभाषाएँ एक रखरखाव संगठन, इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइन्ड नाम और नंबर (आए सी ए एन एन)। मुख्य प्रोटोकॉल के तकनीकी आधारभूत और मानकीकरण, इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फ़ोर्स (आए ई टी एफ़) की एक गतिविधि है, जो कि किसी भी गैर-लाभप्रद संगठन के साथ संबद्ध अंतरराष्ट्रीय सहभागी हैं, जो किसी को भी तकनीकी विशेषज्ञता में योगदान दे सकते हैं। पॉल बैरन और डोनल्ड डेविस द्वारा पैकेट स्विचिंग में संशोधन १९६० के दशक के मध्य में शुरू हुआ, और पैकेट ने एन पी एलनेटवर्क, ए आर पी ए एन ए टी, टायनेट, मेरिट नेटवर्क, टेलनेट, और साइक्लेड्स जैसे नेटवर्क स्विच किए , १९६० के दशक और १९७० के दशक में विभिन्न प्रोटोकॉल का उपयोग करके विकसित किया गया था। ए आर पी ए एन ई टी परियोजना ने इंटरनेटवर्किंग के लिए प्रोटोकॉल के विकास के लिए नेतृत्व किया, जिससे कई अलग-अलग नेटवर्क नेटवर्क के एक नेटवर्क में शामिल हो सकें। ए आर पी एन ई टी विकास दो नेटवर्क नोडों से शुरू हुआ, जो कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिल्स (यू सी एल ए) हेनरी सैमुएरी स्कूल ऑफ़ इंजीनियरिंग और लियोनार्ड क्लेनरॉक द्वारा निर्देशित एप्लाइड साइंस और एस आर आए अंतरराष्ट्रीय (एस आर आए) में एन एल एस सिस्टम में नेटवर्क मापन केंद्र के बीच जुड़े थे। २९ अक्टूबर १९६९ को मेनलो पार्क, कैलिफ़ोर्निया में डगलस एंजेलबार्ट। तीसरी साइट यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, सांता बारबरा में कल्लेर फ्राइड इंटरएक्टिव मैथमेटिक्स सेंटर थी, इसके बाद यूटा विश्वविद्यालय यूटा ग्राफिक्स डिपार्टमेंट के पास था। भविष्य के विकास के शुरुआती संकेत में, १९७१ के अंत तक पंद्रह स्थल युवा ए आर पी ए एन ए टी से जुड़े हुए थे। ये प्रारंभिक वर्ष १९७२ की फ़िल्म कंप्यूटर नेटवर्क: द हेरल्ड्स ऑफ़ रिसोर्स शेयरिंग में प्रलेखित किए गए थे। ए आर पी ए एन ई टी पर प्रारंभिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग दुर्लभ थे। यूरोपीय डेवलपर्स एक्स २५ नेटवर्क विकसित करने के लिए चिंतित थे। उल्लेखनीय अपवाद १)१९७३ में नॉर्वेजियन सिज़्मिक अर्रे (नोर्स) थे, इसके बाद १९७३ में स्वीडन ने तनुम पृथ्वी स्टेशन से उपग्रह लिंक और ब्रिटेन में पीटर टी। क्रिस्टीन के अनुसंधान समूह के साथ, शुरू में लंदन विश्वविद्यालय, कंप्यूटर विज्ञान संस्थान और बाद में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में। दिसंबर १९७४ में, विनटन सर्फ़, योजोन दलाल और कार्ल सनशाइन द्वारा आर एफ़ सी 6२५ (इंटरनेट ट्रांसमिशन नियंत्रण कार्यक्रम की विशिष्टता) ने इंटरनेट को इस्तेमाल करने के लिए लघुकथ के रूप में इंटरनेट का इस्तेमाल किया और बाद में आरएफसी ने इस प्रयोग को दोहराया। १९८१ में राष्ट्रीय विज्ञान फ़ाउंडेशन (एन एस एफ़) ने कम्प्यूटर साइंस नेटवर्क (सी एस एन ई टी) को वित्त पोषित करने के लिए ए आर पी ए एन ए टी तक पहुँच का विस्तार किया था। १९८२ में, इंटरनेट प्रोटोकॉल सूट (टी सी पी / आए पी) को मानकीकृत किया गया था, जिससे दुनिया भर में इंटरकनेक्टेड नेटवर्क्स की अनुमति थी। १९८३ में टी सी पी / आए पी नेटवर्क का विस्तार फिर से विस्तार हुआ, जब राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन नेटवर्क (एन एस एफ़ नेट) ने शोधकर्ताओं के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में सुपरकंप्यूटर साइटों तक पहुंच प्रदान की, पहले ५६ केबीटी / एस की रफ्तार और बाद में २.५ एमबीटी / एस और 4५ एमबीटी / एस। वाणिज्यिक इंटरनेट सेवा प्रदाता (आए एस पी) १९९० के दशक के उत्तरार्ध में और १९९० के दशक के आरंभ में उभरा। १९९० में एआरपीएनेट को निष्क्रिय कर दिया गया था। 199५ तक, संयुक्त राज्य में इंटरनेट का पूरी तरह से व्यावसायीकरण किया गया था जब एन एस एफ़ एन टी को डिकमीशन किया गया था, जिससे वाणिज्यिक ट्रैफ़िक लेने के लिए इंटरनेट के इस्तेमाल पर अंतिम प्रतिबंध हटा दिया गया था। १९८० के दशक के उत्तरार्ध में और १९८० के दशक के उत्तरार्ध में और १९९० की शुरुआत में यूरोप में इंटरनेट का तेजी से विस्तार हुआ। दिसंबर १९९८ में एन एस एफ़ एन ई टी और यूरोप में नेटवर्क के बीच समर्पित ट्रान्साटलांटिक संचार की शुरुआत प्रिंसटन विश्वविद्यालय और स्टॉकहोम, स्वीडन के बीच एक कम गति वाले उपग्रह रिले के साथ की गई थी। यद्यपि अन्य नेटवर्क प्रोटोकॉल जैसे कि यू यू पी पी इस समय से पहले अच्छी तरह से वैश्विक पहुँच थे, इसने इंटरकाँटिनेंटल नेटवर्क के रूप में इंटरनेट की शुरुआत की। १९८९ के मध्य में इंटरनेट का सार्वजनिक वाणिज्यिक उपयोग इंटरनेट के ५००,००० उपयोगकर्ताओं को एम सी आए मेल और कंपोसर्व की ईमेल क्षमताओं के साथ हुआ। बस महीने बाद १ जनवरी १९९० को, पी एस आई नेट ने वाणिज्यिक उपयोग के लिए वैकल्पिक इंटरनेट रीढ़ की शुरुआत की; एक ऐसा नेटवर्क जो वाणिज्यिक इंटरनेट में बढ़ेगा जिसे आज हम जानते हैं मार्च १९९० में, एन एस एफ़ एन ई टी और यूरोप के बीच पहली उच्च गति वाली टी १ (१.५ एमबीटी / एस) लिंक, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी और सर्न के बीच स्थापित किया गया था, उपग्रहों में सक्षम होने की तुलना में बहुत अधिक मजबूत संचार की अनुमति थी। छः महीने बाद टिम बर्नर्स-ली, वर्डवेब, सीईआरएन प्रबंधन के दो साल के लॉबिंग के बाद पहला वेब ब्राउज़र लिखना शुरू कर देंगे। १९९० के दशक तक, बर्नर्स-ली ने काम कर रहे वेब: हाइपरटेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल (एचटीटीपी ०.९), हाइपरटेक्स्ट मार्कअप लैंग्वेज (एच टी एम एल), पहला वेब ब्राउज़र (जो कि एक एच टी एम एल एडिटर भी था, के लिए आवश्यक सभी उपकरण तैयार किए थे यूज़नेट समाचारसमूहों और एफ़टीपी फाइलों तक पहुंच सकता है), पहले एच टी टी पी सर्वर सॉफ़्टवेयर (बाद में सर्न एच टी टी पी डी के रूप में जाना जाता है), पहला वेब सर्वर, और पहला वेब पेज जो परियोजना को खुद ही वर्णित करता है १९९१ में वाणिज्यिक इंटरनेट एक्सचेंज की स्थापना की गई थी, जो पी एस आए नेट को अन्य वाणिज्यिक नेटवर्क सीईआरएफनेट और अल्टरनेट के साथ संवाद करने की अनुमति दे रहा था। १९९५ से इंटरनेट ने संस्कृति और वाणिज्य पर काफी प्रभाव डाला है, जिसमें ईमेल, त्वरित संदेश, टेलीफोनी (वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल या वी ओ आए पी), दो-तरफा इंटरैक्टिव वीडियो कॉल, और वर्ल्ड वाइड वेब के पास त्वरित संचार की वृद्धि शामिल है इसकी चर्चा मंच, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग, और ऑनलाइन शॉपिंग साइटें डेटा की बढ़ती मात्रा १-जी बी आए टी / स, १०-जी बी आए टी, या अधिक पर काम कर फ़ाइबर ऑप्टिक नेटवर्क पर उच्च और उच्च गति पर प्रेषित होती है। इंटरनेट ऑनलाइन बढ़ने और ज्ञान, वाणिज्य, मनोरंजन और सोशल नेटवर्किंग से कहीं अधिक बढ़ती जा रही है। १९९० के अंत के दौरान, अनुमान लगाया गया कि सार्वजनिक इंटरनेट पर यातायात में प्रति वर्ष १०० प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की औसत वार्षिक वृद्धि २०% और ५०% के बीच थी। यह विकास अक्सर केंद्रीय प्रशासन की कमी के कारण होता है, जो नेटवर्क के जैविक विकास की अनुमति देता है, साथ ही साथ इंटरनेट प्रोटोकॉल की गैर-स्वामित्व वाली प्रकृति, जो विक्रेता अंतर को प्रोत्साहित करती है और किसी एक कंपनी को नेटवर्क पर बहुत अधिक नियंत्रण करने से रोकती है। ३१ मार्च २०११ तक, इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की अनुमानित कुल संख्या २.०९५ अरब (विश्व जनसंख्या का ३०.२%) थी। यह अनुमान लगाया गया है कि १९९३ में इंटरनेट ने २-रास्ता दूरसंचार के माध्यम से बहने वाली जानकारी का केवल १% ही किया, २००० तक यह आँकड़ा ५१% हो गया, और २००७ तक इंटरनेट पर सभी दूरसंचार सूचनाओं में ९७% से अधिक डेटा लिया गया। १९६९ टिम बर्नर्स ली ने इंटरनेट बनाया था। इंटरनेट अमेरिकी रक्षा विभाग के द्वारा यू सी एल ए के तथा स्टैनफोर्ड अनुसंधान संस्थान कंप्यूटर्स का नेटवर्किंग करके इंटरनेट की संरचना की गई। १९७९ ब्रिटिश डाकघर पहला अंतरराष्ट्रीय कंप्यूटर नेटवर्क बना कर नये प्रौद्योगिकी का उपयोग करना आरम्भ किया। १९८० बिल गेट्स का आए बी एम के कंप्यूटर्स पर एक माइक्रोसॉफ़्ट ऑपरेटिंग सिस्टम लगाने के लिए सौदा हुआ। १९८४ ऐप्पल ने पहली बार फ़ाइलों और फ़ोल्डरों, ड्रॉप डाउन मेन्यू, माउस, ग्राफ़िक्स का प्रयोग आदि से युक्त "आधुनिक सफल कम्प्यूटर" लांच किया। १९८९ टिम बेर्नर ली ने इंटरनेट पर संचार को सरल बनाने के लिए ब्राउज़रों, पन्नों और लिंक का उपयोग कर के वर्ल्ड वाइड वेब बनाया। १९९६ गूगल ने स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में एक अनुसंधान परियोजना शुरू किया जो कि दो साल बाद औपचारिक रूप से काम करने लगा। २००९ डॉ स्टीफ़न वोल्फ़रैम ने "वॉलफ्रेम अल्फा" लाँच किया। जबकि इंटरनेट इंफ्ऱास्ट्रक्चर में हार्डवेयर घटकों का उपयोग अक्सर अन्य सॉफ्टवेयर सिस्टमों का समर्थन करने के लिए किया जा सकता है, यह सॉफ्टवेयर का मानदंड और डिजाइन है जो इंटरनेट की विशेषता देता है और इसकी स्केलेबिलिटी और सफलता के लिए नींव प्रदान करता है। इंटरनेट सॉफ़्टवेयर सिस्टम के वास्तुशिल्प डिज़ाइन के लिए जिम्मेदारी इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फ़ोर्स (आए ई टी एफ़) द्वारा धारित की गई है। आए ई टी एफ़ इंटरनेट वास्तुकला के विभिन्न पहलुओं के बारे में, किसी भी व्यक्ति के लिए मानक-सेटिंग वाले काम समूहों का आयोजन करता है। परिणामस्वरूप योगदान और मानक आए ई टी एफ़ वेब साइट पर टिप्पणियों के लिए अनुरोध (आर एफ़ सी) दस्तावेजों के रूप में प्रकाशित किए गए हैं। नेटवर्किंग के मुख्य तरीकों जो इंटरनेट को सक्षम करते हैं विशेष रूप से नामित आर एफ़ सी में निहित हैं जो कि इंटरनेट मानकों का गठन करते हैं। अन्य कम कठोर दस्तावेज केवल सूचनात्मक, प्रयोगात्मक या ऐतिहासिक हैं, या इंटरनेट तकनीकों को कार्यान्वित करते समय सर्वोत्तम वर्तमान प्रथाओं (बी सी पी) को दस्तावेज देते हैं। इंटरनेट मानक इंटरनेट प्रोटोकॉल सूट के रूप में जाना जाता है एक रूपरेखा का वर्णन करता है। यह एक मॉडल वास्तुकला है जो तरीकों को एक प्रोटोकॉल के स्तरित सिस्टम में विभाजित करता है, मूल रूप से आरएफसी ११२२ और आर एफ़ सी ११२३ में प्रलेखित किया गया है। परतें पर्यावरण या क्षेत्र के अनुरूप होती हैं जिसमें उनकी सेवाएँ संचालित होती हैं। शीर्ष पर एक आवेदन परत है, सॉफ्टवेयर अनुप्रयोगों में उपयोग किए गए एप्लिकेशन-विशिष्ट नेटवर्किंग विधियों के लिए स्थान। उदाहरण के लिए, एक वेब ब्राउज़र प्रोग्राम क्लाइंट-सर्वर एप्लिकेशन मॉडल और सर्वर और क्लाइंट के बीच इंटरैक्शन के एक विशिष्ट प्रोटोकॉल का उपयोग करता है, जबकि कई फ़ाइल साझाकरण सिस्टम एक पीयर-टू-पीयर प्रतिमान का उपयोग करता है इस शीर्ष परत के नीचे, ट्रांसपोर्ट लेयर विभिन्न होस्ट्स पर अनुप्रयोगों को उचित डेटा विनिमय पद्धतियों के साथ नेटवर्क के माध्यम से तार्किक चैनल के साथ जोड़ता है। इन परतों को समझना नेटवर्किंग प्रौद्योगिकियां हैं जो नेटवर्क को अपनी सीमाओं पर एक दूसरे से जुड़ते हैं और उनके बीच यातायात का आदान-प्रदान करते हैं। इंटरनेट स्तर इंटरनेट प्रोटोकॉल (आए पी) पते के माध्यम से एक दूसरे को पहचानने और खोजने के लिए कंप्यूटरों को सक्षम बनाता है, और मध्यवर्ती (ट्रांज़िट) नेटवर्क के माध्यम से अपने ट्रैफिक को रूट करता है। अंतिम, आर्किटेक्चर के निचले भाग में लिंक परत है, जो समान नेटवर्क लिंक पर मेजबानों के बीच लॉजिकल कनेक्टिविटी प्रदान करता है, जैसे स्थानीय क्षेत्र नेटवर्क (एल ए एन) या डायल-अप कनेक्शन। मॉडल, जिसे टी सी पी / आए पी के रूप में भी जाना जाता है, को शारीरिक कनेक्शन के लिए उपयोग किए जाने वाले अंतर्निहित हार्डवेयर से अलग होने के लिए डिज़ाइन किया गया है, जो कि मॉडल किसी भी विस्तार से संबंधित नहीं है। अन्य मॉडलों को विकसित किया गया है, जैसे कि ओ एस आए मॉडल, जो संचार के हर पहलू में व्यापक होने का प्रयास करता है। हालांकि कई समानताएँ मॉडल के बीच मौजूद हैं, वे विवरण या कार्यान्वयन के विवरण में संगत नहीं हैं। फिर भी, टीसीपी / आए पी प्रोटोकॉल आमतौर पर ओ एस आए नेटवर्किंग की चर्चा में शामिल हैं। इंटरनेट मॉडल का सबसे प्रमुख घटक इंटरनेट प्रोटोकॉल (आए पी) है, जो नेटवर्क पर कंप्यूटरों के लिए एड्रेसिंग सिस्टम, आए पी पते सहित, प्रदान करता है। आए पी इंटरनेटवर्किंग को सक्षम करता है और संक्षेप में, इंटरनेट खुद को स्थापित करता है। इंटरनेट प्रोटोकॉल संस्करण ४ (आए पी वी ४) इंटरनेट की पहली पीढ़ी पर प्रयुक्त प्रारंभिक संस्करण है और अभी भी प्रमुख उपयोग में है। यह ४.३ अरब (१०९) मेजबानों को संबोधित करने के लिए डिजाइन किया गया था हालांकि, इंटरनेट के विस्फोटक वृद्धि ने आए पी वी ४ पते के थकावट को जन्म दिया है, जो २०११ में अपने अंतिम चरण में प्रवेश किया था, जब वैश्विक पता आवंटन पूल समाप्त हो गया था। एक नया प्रोटोकॉल संस्करण, आए पी वी ६, १९९० के दशक के मध्य में विकसित किया गया था, जो काफी बड़े पते क्षमताओं को प्रदान करता है और इंटरनेट यातायात के अधिक कुशल मार्ग प्रदान करता है। वर्तमान में आए पी वी ६ दुनिया भर में बढ़ते तैनाती में है, क्योंकि इंटरनेट ऐड्रेस रजिस्ट्री (आर आए आर) ने सभी संसाधन प्रबंधकों को त्वरित अपनाने और रूपांतरण की योजना बनाने के लिए आग्रह किया। आए पी वी ७ आए पी वी ४ के साथ डिज़ाइन से सीधे इंटरऑपरेट नहीं है। संक्षेप में, यह इंटरनेट के एक समानांतर संस्करण को स्थापित करता है जो सीधे आए पी वी ४ सॉफ्टवेयर से सुलभ नहीं होता है। इस प्रकार, इंटरनेटवर्किंग या नोड्स के लिए अनुवाद सुविधा मौजूद होने चाहिए, दोनों नेटवर्क के लिए डुप्लिकेट नेटवर्किंग सॉफ़्टवेयर होना चाहिए। मूल रूप से सभी आधुनिक कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम इंटरनेट प्रोटोकॉल के दोनों संस्करणों का समर्थन करते हैं। हालांकि, नेटवर्क इंफ्रास्ट्रक्चर इस विकास में कम हो गया है। इसके बुनियादी ढाँचे को बनाने वाले भौतिक कनेक्शन के जटिल सरणी के अलावा, इंटरनेट को द्वि- या बहु-पार्श्व व्यावसायिक अनुबंधों द्वारा सहायता प्रदान की जाती है, उदाहरण के लिए, पीयरिंग समझौतों, और तकनीकी विनिर्देशों या प्रोटोकॉल द्वारा जो नेटवर्क पर डेटा के आदान-प्रदान का वर्णन करते हैं। दरअसल, इंटरनेट को इसके इंटरकनेक्शन और रूटिंग नीतियों द्वारा परिभाषित किया गया है। इंटरनेट एक वैश्विक नेटवर्क है जिसमें कई स्वेच्छा से जुड़े हुए स्वायत्त नेटवर्क हैं। यह केंद्रीय शासी निकाय के बिना संचालित होता है कोर प्रोटोकॉल (आईपीवी ४ और आईपीवी ६) की तकनीकी आधारभूत और मानकीकरण, इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स (आईईटीएफ) की एक गतिविधि है, जो कि ढीला जुड़े अंतरराष्ट्रीय सहभागियों का एक गैर-लाभकारी संगठन है जो किसी को भी तकनीकी विशेषज्ञता का योगदान दे सकती है। इंटरऑपरेबिलिटी बनाए रखने के लिए, इंटरनेट का प्रमुख नाम रिक्त स्थान असाइन किया गया नाम और नंबर (आईसीएएनएन) के लिए इंटरनेट कॉरपोरेशन द्वारा प्रशासित किया जाता है। आईसीएएनएनएन एक अंतर्राष्ट्रीय बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा संचालित है जो इंटरनेट तकनीकी, व्यापार, अकादमिक और अन्य गैर-वाणिज्यिक समुदायों से प्राप्त है। आईसीएएनएन इंटरनेट प्रोटोकॉल में डोमेन नाम, इंटरनेट प्रोटोकॉल (आईपी) पते, अनुप्रयोग पोर्ट नंबरों और अन्य कई मापदंडों सहित, इंटरनेट पर उपयोग के लिए अद्वितीय पहचानकर्ता के असाइनमेंट का समन्वयन करता है। इंटरनेट की वैश्विक पहुँच को बनाए रखने के लिए विश्व स्तर पर एकीकृत नाम रिक्त स्थान आवश्यक हैं। आईसीएएनएन की यह भूमिका वैश्विक इंटरनेट के लिए शायद केवल एक केंद्रीय समन्वयकारी संस्था है। क्षेत्रीय इंटरनेट रजिस्ट्री (आरआईआर) आईपी पते: अफ्रीका के लिए अफ्रीकी नेटवर्क सूचना केंद्र (ऐफ़्री एनआएसी) उत्तरी अमेरिका के लिए इंटरनेट नंबर (एआरआईएन) के लिए अमेरिकी रजिस्ट्री एशिया और प्रशांत क्षेत्र के लिए एशिया-प्रशांत नेटवर्क सूचना केंद्र (एपीएनआईसी) लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र के लिए लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई इंटरनेट पते रजिस्ट्री (एलएसीएनआईसी) रीसेओ आईपी यूरोफेन्स - यूरोप, मध्य पूर्व और मध्य एशिया के लिए नेटवर्क कोऑर्डिनेशन सेंटर (आरआईपीई एनसीसी) संयुक्त राज्य के वाणिज्य विभाग की एक एजेंसी, राष्ट्रीय दूरसंचार और सूचना प्रशासन को १ अक्टूबर २०१६ को आएएएनए के नेतृत्व में संक्रमण तक डीएनएस रूट ज़ोन में परिवर्तन के लिए अंतिम स्वीकृति मिली थी। इंटरनेट सोसाइटी (आएएसओसी) की स्थापना १९९२ में "पूरे विश्व के सभी लोगों के लाभ के लिए इंटरनेट के खुले विकास, विकास और उपयोग को आश्वस्त करने" के लिए किया गया था। इसके सदस्यों में व्यक्तियों (किसी में शामिल हो सकते हैं) के साथ-साथ निगमों, संगठनों, सरकारें, और विश्वविद्यालय शामिल हैं अन्य गतिविधियों में अएएसओसी एक कम औपचारिक रूप से संगठित समूहों के लिए एक प्रशासनिक घर प्रदान करता है जो इंटरनेट के विकास और प्रबंधन में शामिल हैं, जिनमें शामिल हैं: इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स (आएईटीएफ), इंटरनेट आर्किटेक्चर बोर्ड (आएएबी), इंटरनेट इंजीनियरिंग स्टीयरिंग ग्रुप (आएईएसजी) ), इंटरनेट रिसर्च टास्क फोर्स (आईआरटीएफ), और इंटरनेट रिसर्च स्टीयरिंग ग्रुप (आएआरएसजी)। १६ नवंबर २००५ को, तुनिस में संयुक्त राष्ट्र-प्रायोजित विश्व सम्मेलन ने इंटरनेट से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए इंटरनेट गवर्नेंस फोरम (आएजीएफ) की स्थापना की। देवसंस्कृती संस्कृति विश्वविद्यालय की शोध के अनुसार सोशल मिडिया के व्यसन का शिकार होने वाले विद्यार्थियों के निद्रा चक्र , भावनात्मक परिपक्वता और शैक्षणिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । जो युवा प्रतिदिन सोशल मीडिया पर ज्यादा समय व्यतीत करते हैं , उनमें अनिद्रा की समस्या उत्पन्न हो जाती है । अच्छी नींद का सामान्य स्वास्थ्य से गहरा संबंध होता है । अतः नींद की अवधि में कमी अथवा व्यवधान आने से संपूर्ण स्वास्थ्य असंतुलित हो जाता है और धीरे - धीरे अनेक समस्याएँ प्रकट होने लगती हैं । अध्ययन के परिणामों में यह भी पाया गया है कि सोशल मीडिया की आदत में महिला वर्ग की अपेक्षा पुरुष वर्ग में नींद की गुणवत्ता ज्यादा प्रभावित होती है । शोध के द्वितीय मापदंड में भावनात्मक परिपक्वता के स्तर का सर्वेक्षण किया है । इस संदर्भ में यह देखा गया कि सोशल मीडिया का एडिक्शन युवाओं की भावनात्मक योग्यता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है । क्रोध , चिड़चिड़ापन , आवेश , आलस्य , निराशा , आत्महीनता , आत्मविश्वास में कमी जैसी अनेक मनोव्याधियों के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण भावनात्मक परिपक्वता के स्तर में कमी ही है । अकेलापन महसूस करना , अवसाद , तनाव जैसी गंभीर समस्याएँ सोशल मीडिया के व्यसनी लोगों में सामान्य बात है । महिला वर्ग की भावनात्मक योग्यता पुरुष वर्ग की तुलना में ज्यादा प्रभावित होती है । विद्यार्थियों की शैक्षणिक उपलब्धियों पर भी सोशल मीडिया की आदत का अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । शैक्षणिक गतिविधियों में लगने वाला कीमती समय जब सोशल साइट्स पर व्यतीत होने लगता है तो निश्चित रूप से विद्यार्थी के परीक्षा परिणाम पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । इसमें भी महिला वर्ग की तुलना में पुरुष वर्ग की शैक्षणिक योग्यता ज्यादा प्रभावित होती है । विद्यार्थियों में यह देखा गया है कि पढ़ाई की आवश्यक गतिविधियों ; जैसे- कक्षाओं में पढ़ाई जाने वाली पाठ्य सामग्री , अध्यापकों से संवाद , पढ़ाई को लेकर सहपाठियों से पारस्परिक चर्चा जैसी अनेक महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक उपलब्धियों को बढ़ाने वाली गतिविधियों में न्यूनता आ जाती है । फलस्वरूप इसका सीधा दुष्परिणाम विद्यार्थी की शैक्षणिक उपलब्धि पर दिखाई देता है । विद्यार्थियों की शैक्षणिक उपलब्धियों पर भी सोशल मीडिया की आदत का अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । शैक्षणिक गतिविधियों में लगने वाला कीमती समय जब सोशल साइट्स पर व्यतीत होने लगता है तो निश्चित रूप से विद्यार्थी के परीक्षा परिणाम पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । इसमें भी महिला वर्ग की तुलना में पुरुष वर्ग की शैक्षणिक योग्यता ज्यादा प्रभावित होती है । इंटरनेट के संचार बुनियादी ढाँचे में अपने हार्डवेयर घटकों और सॉफ्टवेयर परतों की एक प्रणाली होती है जो आर्किटेक्चर के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करती हैं। रूटिंग और सेवा स्तर इंटरनेट सेवा प्रदाताओं के दायरे के विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग नेटवर्क के बीच विश्वव्यापी कनेक्टिविटी की स्थापना अंतिम उपयोगकर्ता जो फ़ंक्शन करने या जानकारी प्राप्त करने के लिए केवल इंटरनेट तक पहुँचते हैं, रूटिंग पदानुक्रम के निचले भाग को दर्शाते हैं। रूटिंग पदानुक्रम के शीर्ष पर स्तरीय १ नेटवर्क हैं, बड़े दूरसंचार कंपनियाँ जो पीयरिंग समझौतों के माध्यम से सीधे एक-दूसरे के साथ यातायात का आदान-प्रदान करते हैं। टीयर २ और निचले स्तर के नेटवर्क्स अन्य प्रदाताओं के इंटरनेट ट्रांज़िट को वैश्विक इंटरनेट पर कम से कम कुछ पार्ट्स तक पहुंचाने के लिए खरीदते हैं, हालांकि वे पीयरिंग में भी व्यस्त हो सकते हैं। एक आईएसपी कनेक्टिविटी के लिए एक एकल अपस्ट्रीम प्रदाता का उपयोग कर सकता है, या अतिरेक और लोड संतुलन प्राप्त करने के लिए मल्टीहोमिंग को लागू कर सकता है इंटरनेट एक्सचेंज अंक भौतिक कनेक्शन के साथ कई आईएसपी के लिए प्रमुख यातायात एक्सचेंज हैं। शैक्षणिक संस्थानों, बड़े उद्यमों और सरकारों जैसे बड़े संगठन, आईएसपी के रूप में समान कार्य कर सकते हैं, अपने आंतरिक नेटवर्क की ओर से पीयरिंग और क्रय ट्रांज़िट में शामिल हो सकते हैं। अनुसंधान नेटवर्क बड़े उप-नेटवर्क जैसे कि जीईएन्ट, ग्लोरियाड, इंटरनेट २ और यूके के राष्ट्रीय अनुसंधान और शिक्षा नेटवर्क, जेनेट के साथ आपस में जुड़े होते हैं। वर्ल्ड वाईड वेब के इंटरनेट आईपी रूटिंग संरचना और हाइपरटेक्स्ट लिंक दोनों पैमाने पर मुक्त नेटवर्क के उदाहरण हैं। कंप्यूटर और रूटर अपने ऑपरेटिंग सिस्टम में रूटिंग टेबल का उपयोग आईपी पैकेट को अगली-हॉप राउटर या गंतव्य के लिए डायल करने के लिए करते हैं। रूटिंग टेबल मैनुअल कॉन्फ़िगरेशन द्वारा या स्वचालित रूप से प्रोटोकॉल रूटिंग द्वारा बनाए जाते हैं। अंत-नोड्स आम तौर पर एक डिफ़ॉल्ट मार्ग का उपयोग करते हैं जो आईएसपी की तरफ पारगमन प्रदान करता है, जबकि आईएसपी रूटर्स ने बॉर्डर गेटवे प्रोटोकॉल का उपयोग करने के लिए वैश्विक इंटरनेट के जटिल कनेक्शन भर में सबसे कुशल मार्ग स्थापित करने के लिए उपयोग किया है। उपयोगकर्ताओं द्वारा इंटरनेट एक्सेस के सामान्य तरीके में टेलीफोन सर्किट, समाक्षीय केबल, फाइबर ऑप्टिक या तांबे के तार, वाई-फाई, सैटेलाइट और सेलुलर टेलिफोन टेक्नोलॉजी (३ जी, ४ जी) के माध्यम से कंप्यूटर मॉडेम के साथ डायल-अप शामिल हैं। अक्सर पुस्तकालयों और इंटरनेट कैफे में कंप्यूटर से इंटरनेट को एक्सेस किया जा सकता है। इंटरनेट का उपयोग अंक कई सार्वजनिक स्थानों जैसे कि हवाई अड्डे के हॉल और कॉफी की दुकानों में मौजूद हैं। विभिन्न शब्दों का उपयोग किया जाता है, जैसे कि सार्वजनिक इंटरनेट कियोस्क, सार्वजनिक एक्सेस टर्मिनल, और वेबपॉफोन। कई होटल में सार्वजनिक टर्मिनल भी हैं, हालांकि ये आमतौर पर शुल्क आधारित हैं। इन टर्मिनलों को विभिन्न उपयोगों, जैसे टिकट बुकिंग, बैंक जमा, या ऑनलाइन भुगतान के लिए व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। वाई-फाई स्थानीय कंप्यूटर नेटवर्क के माध्यम से इंटरनेट के लिए वायरलेस एक्सेस प्रदान करता है। ऐसे पहुंच प्रदान करने वाले हॉटस्पॉट्स में वाई-फाई कैफे शामिल हैं, जहाँ उपयोगकर्ताओं को अपने वायरलेस उपकरणों जैसे लैपटॉप या पीडीए लाने की जरूरत है ये सेवाएँ सभी के लिए निःशुल्क, केवल ग्राहकों के लिए निःशुल्क या शुल्क-आधारित हो सकती हैं। बड़े पैमाने पर प्रयासों ने वायरलेस कम्युनिटी नेटवर्क के लिए नेतृत्व किया है न्यूयॉर्क, लंदन, विएना, टोरंटो, सैन फ्रांसिस्को, फिलाडेल्फिया, शिकागो और पिट्सबर्ग में बड़े शहर क्षेत्रों को कवर करने वाले वाणिज्यिक वाई-फाई सेवाओं को जगह दी गई है। तब पार्क को पार्क बेंच के रूप में इंटरनेट से एक्सेस किया जा सकता है। वाई-फाई के अलावा, मालिकाना मोबाइल वायरलेस नेटवर्क जैसे रिकोशेट, सेलुलर फोन नेटवर्क पर विभिन्न उच्च गति वाली डेटा सेवाओं और निश्चित वायरलेस सेवाओं के साथ प्रयोग हुए हैं। उच्च अंत वाले मोबाइल फोन जैसे सामान्य रूप से स्मार्टफोन फ़ोन नेटवर्क के माध्यम से इंटरनेट एक्सेस के साथ आते हैं। ओपेरा जैसे वेब ब्राउज़र इन उन्नत हैंडसेट पर उपलब्ध हैं, जो कि कई अन्य इंटरनेट सॉफ़्टवेयर चला सकते हैं। अधिक मोबाइल फोन के पास पीसी की तुलना में इंटरनेट का उपयोग होता है, हालांकि यह व्यापक रूप से प्रयोग नहीं किया जाता है। एक इंटरनेट एक्सेस प्रदाता और प्रोटोकॉल मैट्रिक्स ऑनलाइन प्राप्त करने के लिए उपयोग किए जाने वाले तरीकों को अलग करता है। उपयोग के मुख्य क्षेत्रों ऑनलाइन व्यापार या ई-व्यवसाय एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग किसी भी प्रकार के व्यवसाय या व्यावसायिक लेनदेन के लिए किया जा सकता है जिसमें इंटरनेट पर सूचना साझा करना शामिल है वाणिज्य व्यवसायों, समूहों और व्यक्तियों के बीच उत्पादों और सेवाओं के आदान-प्रदान का गठन करता है और किसी भी व्यवसाय की आवश्यक गतिविधियों में से एक के रूप में देखा जा सकता है। इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स आईसीटी के इस्तेमाल के लिए व्यक्तियों, समूहों और अन्य व्यवसायों के साथ बाहरी गतिविधियों और व्यापार के संबंधों को सक्षम करने के लिए केंद्रित करता है। इंटरनेट नेटवर्क की मदद से व्यवसाय करना। "ई-बिज़नेस" शब्द को १९९६ में आईबीएम के मार्केटिंग और इंटरनेट टीम ने बनाया था। इंटरनेट प्रकाशन की शैली ऑफ़लाइन प्रकाशनों से अलग नहीं होती हैं - समाचार साइटें, साहित्यिक, गैर-कल्पना, बच्चों, महिलाओं, आदि हैं। हालांकि, अगर ऑफ़लाइन प्रकाशनों को समय-समय पर जारी किया जाता है (एक दिन, सप्ताह, महीने में), तो ऑनलाइन प्रकाशन अपडेट हो जाते हैं नई सामग्री के रूप में यहाँ इंटरनेट रेडियो और इंटरनेट टीवी भी है। इंटरनेट मीडिया के विकास के लिए धन्यवाद, पेपर प्रेस को पढ़ना पसंद करते लोगों की संख्या साल दर साल घट रही है। इसलिए, २००९ के सर्वेक्षणों ने दिखाया था कि १८ से ३५ वर्ष के अमेरिकी निवासियों के केवल १९% पेपर प्रेस के माध्यम से देखते हैं अमेरिका में कागज समाचार पत्रों के पाठकों की औसत आयु ५५ साल है। १९९८ से २००९ तक अमेरिका में अखबारों का कुल परिचालन ६२ लाख से घटकर ४९ मिलियन प्रतियाँ हो गया है। साहित्य, संगीत, सिनेमा इंटरनेट के माध्यम से पहुँचने वाले इलेक्ट्रॉनिक पुस्तकालयों में बड़ी संख्या में काम करता है उसी समय, वेब पर उपलब्ध कई किताबें लंबे समय तक ग्रैबिलोग्राफ़िक दुर्लभता बन गई हैं, और कुछ भी प्रकाशित नहीं हुई हैं। नौसिखिए लेखकों और कवियों के रूप में, और कुछ प्रसिद्ध लेखक इंटरनेट पर अपनी रचनाएँ डालते हैं। इंटरनेट पर संगीत का प्रसार एमपी ३ प्रारूप के रूप में शुरू हुआ, फिर एमपी ४ आया। रिकॉर्डिंग की गुणवत्ता को संरक्षित करते हुए इंटरनेट पर संचरण के लिए उपयुक्त आकारों में ऑडियो फाइलों को संकुचित करना। कलाकार की नई डिस्क से अलग-अलग गाने के इंटरनेट पर दिखने पर उसे एक अच्छा विज्ञापन माना जाता है और रिकॉर्डों की बिक्री के स्तर में काफी बढ़ोतरी होती है। इंटरनेट पर कई फिल्में भी पोस्ट की गई हैं, ज्यादातर अवैध रूप से व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले फ़ाइल-साझाकरण नेटवर्क तक पहुँचने के लिए (विशेष रूप से, प्रौद्योगिकी बिटटॉरेंट के उपयोग के साथ) प्रतिलिपि बनाने और इंटरनेट साहित्य, संगीत और फिल्में पोस्ट करने में आसानी के साथ, कॉपीराइट सुरक्षा की समस्या ने विशेष प्रासंगिकता हासिल कर ली है। ई-मेल वर्तमान में संचार के सर्वाधिक इस्तेमाल किए जाने वाले साधनों में से एक है इसके अलावा लोकप्रिय आईपी टेलीफोनी और इस तरह स्काइप (बंद स्रोत के साथ मुक्त मालिकाना सॉफ्टवेयर के रूप में कार्यक्रमों के उपयोग, एन्क्रिप्टेड ध्वनि और वीडियो संचार कंप्यूटर (वीओआईपी) के बीच इंटरनेट पर मोबाइल और लैंडलाइन पर कॉल के लिए, भुगतान सेवाओं को उपलब्ध कराने प्रौद्योगिकी सहकर्मी का उपयोग कर, और साथ ही फोन के लिए। हाल के वर्षों में, त्वरित संदेशवाहक, इंटरनेट के जरिए संदेश प्रेषित करते हुए, लोकप्रियता हासिल हुई है, वे रोजमर्रा की जिंदगी से सेल्युलर संचार को विस्थापित करना शुरू कर देते हैं, जो उनकी तुलना में अक्सर कार्यशीलता, गति और लागत में निम्नतर है। इंटरनेट का विकास, संचार के साधन के रूप में उपयोग किया जाता है, एक दूरस्थ नौकरी के रूप में रोजगार के इस फ़ॉर्म का एक बढ़ती प्रसार की ओर जाता है। इंटरनेट लोगों के बड़े पैमाने पर संचार का एक तरीका है, विभिन्न हितों से एकजुट है इसके लिए, इंटरनेट फ़ोरम, ब्लॉग और सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाता है। सोशल नेटवर्क एक प्रकार का इंटरनेट हेवन बन गया है, जहाँ हर कोई अपने आभासी बनाने के लिए तकनीकी और सामाजिक आधार ढूँढ सकता है। इसी समय, प्रत्येक उपयोगकर्ता के पास न केवल संचार और बनाने का अवसर होता है, बल्कि एक विशेष सोशल नेटवर्क के बहुसंख्यक दर्शकों के साथ उनकी रचनात्मकता के फल भी साझा करता है। इंटरनेट कई स्वयंसेवकों की शक्तियों द्वारा सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण कार्यों को हल करने के लिए एक अच्छा उपकरण साबित हुआ, जो अपनी गतिविधियों का समन्वय करते हैं। विकिपीडिया, स्वयंसेवक बलों द्वारा बनाई गई एक ऑनलाइन विश्वकोश, अपनी तरह की सबसे बड़ी परियोजनाओं में से एक है। तथाकथित सिविल साइंस कार्यक्रमों के उदाहरण, विश्व जल शोध दिवस, स्टारडस्ट @ होम और क्लिकवर्कर्स, नासा के तत्वावधान में हैं, आकाशगंगा ज़ू, आकाशगंगाओं के वर्गीकरण के लिए एक परियोजना। वितरित कंप्यूटिंग परियोजनाओं जैसे फ़ोल्डिंग @ होम, वर्ल्ड कम्युनिटी ग्रिड, आइंस्टीन @ होम और अन्य लोगों को एक नागरिक विज्ञान के रूप में भी माना जा सकता है, हालांकि कंप्यूटिंग का मुख्य कार्य स्वयंसेवा कंप्यूटर्स की मदद से किया जाता है। इंटरनेट में कई नेटवर्क सेवाएँ होती हैं, सबसे प्रमुख रूप से मोबाइल ऐप जैसे सोशल मीडिया एप्लिकेशन, वर्ल्ड वाइड वेब, इलेक्ट्रॉनिक मेल, मल्टीप्लेयर ऑनलाइन गेम्स, इंटरनेट टेलीफोनी, और फ़ाइल साझाकरण सेवाएँ। वर्ल्ड वाइड वेब बहुत से लोग शब्द इंटरनेट और वर्ल्ड वाइड वेब, या सिर्फ वेब का उपयोग करते हैं, परन्तु दो शब्दों का पर्याय नहीं है।वर्ल्ड वाइड वेब प्राथमिक अनुप्रयोग प्रोग्राम है, जो अरबों लोग इंटरनेट पर उपयोग करते हैं, और यह उनके जीवन को अतीत में बदल चुका है। हालांकि, इंटरनेट कई अन्य सेवाएँ प्रदान करता है।वेब दस्तावेजों, छवियों और अन्य संसाधनों का एक वैश्विक समूह है, जो तार्किक रूप से हाइपरलिंक से जुड़े हुए हैं और वर्दी संसाधन पहचानकर्ता (यूआरआई) के साथ संदर्भित हैं।यूआरआई ने सांकेतिक रूप से सेवाएँ, सर्वर, और अन्य डेटाबेस, और दस्तावेजों और संसाधनों की पहचान की है जो वे प्रदान कर सकते हैं।हायपरटेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल (एचटीटीपी) वर्ल्ड वाइड वेब का मुख्य एक्सेस प्रोटोकॉल हैवेब सेवा भी सॉफ्टवेयर सिस्टम को व्यापारिक तर्क और सामाग्री साझा करने और विनिमय करने के लिए संवाद करने के लिए एचटीटीपी का उपयोग करती है। माइक्रोसॉफ्ट के इंटरनेट एक्सप्लोरर / एज, मोज़िला फ़ायरफ़ॉक्स, ओपेरा, ऐप्पल सफारी और गूगल क्रोम जैसे वर्ल्ड वाइड वेब ब्राउज़र सॉफ्टवेयर, दस्तावेजों में एम्बेडेड हाइपरलिंक के जरिए उपयोगकर्ताओं को एक वेब पेज से दूसरे पर नेविगेट करने देता है। इन दस्तावेजों में कंप्यूटर सामाग्री का कोई भी संयोजन हो सकता है, जिसमें ग्राफिक्स, आवाज, पाठ, वीडियो, मल्टीमीडिया और इंटरैक्टिव सामग्री शामिल होती है, जबकि उपयोगकर्ता पृष्ठ के साथ इंटरैक्ट कर रहा है। क्लाइंट साइड सॉफ़्टवेयर में एनिमेशन, गेम, ऑफिस एप्लिकेशन और वैज्ञानिक प्रदर्शन शामिल हो सकते हैं। खोजशब्द-संचालित इंटरनेट अनुसंधान के जरिए खोज इंजन जैसे याहू !, बिंग और गूगल के उपयोग से, दुनियाभर में उपयोगकर्ताओं को एक विशाल और विविध मात्रा में ऑनलाइन जानकारी के लिए आसान, त्वरित पहुँच है मुद्रित मीडिया, किताबें, विश्वकोश और पारंपरिक पुस्तकालयों की तुलना में, वर्ल्ड वाइड वेब ने बड़े पैमाने पर जानकारी के विकेंद्रीकरण को सक्षम किया है। वेब ने व्यक्तियों और संगठनों को बहुत कम व्यय और समय के देरी पर संभावित बड़े दर्शकों के लिए विचारों और जानकारी को प्रकाशित करने के लिए भी सक्षम किया है। एक वेब पेज प्रकाशित करने, एक ब्लॉग, या एक वेबसाइट बनाने में थोड़ा प्रारंभिक लागत शामिल है और कई लागत-मुक्त सेवाएँ उपलब्ध हैं हालांकि, आकर्षक, विविध और अप-टू-डेट सूचनाओं के साथ बड़े, पेशेवर वेब साइट्स को प्रकाशित करना और बनाए रखना अभी भी कठिन और महंगी प्रस्ताव है। कई व्यक्तियों और कुछ कंपनियाँ और समूह वेब लॉग्स या ब्लॉग का उपयोग करते हैं, जो कि आसानी से आसानी से अपडेट करने योग्य ऑनलाइन डायरी के रूप में उपयोग किया जाता है। कुछ वाणिज्यिक संगठन कर्मचारियों को उम्मीद करते हैं कि विशेषज्ञ ज्ञान और निःशुल्क जानकारी से प्रभावित होंगे और नतीजे के रूप में निगम को आकर्षित करेंगे। लोकप्रिय वेब पेजों पर विज्ञापन आकर्षक हो सकता है, और ई-कॉमर्स, जो सीधे वेब के माध्यम से उत्पादों और सेवाओं की बिक्री होती है, बढ़ती रहती है। ऑनलाइन विज्ञापन विपणन और विज्ञापन का एक रूप है जो उपभोक्ताओं को प्रचार विपणन संदेश देने के लिए इंटरनेट का उपयोग करता है। इसमें ईमेल विपणन, खोज इंजन विपणन (एसईएम), सोशल मीडिया मार्केटिंग, कई प्रकार के प्रदर्शन विज्ञापन (वेब बैनर विज्ञापन सहित), और मोबाइल विज्ञापन शामिल हैं। २०११ में, संयुक्त राज्य में इंटरनेट विज्ञापन राजस्व ने केबल टीवी के उन लोगों को पीछे छोड़ दिया और लगभग सभी प्रसारण टेलीविजन से अधिक थे। १९ कई आम ऑनलाइन विज्ञापन प्रथा विवादास्पद हैं और नियमित रूप से कानून के अधीन हैं। जब वेब १९९० के दशक में विकसित हुआ, तो एक विशिष्ट वेब पेज को वेब सर्वर पर पूरा फ़ॉर्म में संग्रहित किया गया था, जो एचटीएमएल में प्रारूपित है, एक अनुरोध के जवाब में एक वेब ब्राउज़र के संचरण के लिए पूरा किया गया था। समय के साथ, वेब पेज बनाने और पेश करने की प्रक्रिया गतिशील हो गई है, एक लचीली डिजाइन, लेआउट, और सामग्री बना रही है। वेबसाइटों को अक्सर सामग्री प्रबंधन सॉफ्टवेयर का उपयोग करके, शुरू में, बहुत कम सामग्री के साथ बनाया जाता है। इन सिस्टमों के योगदानकर्ता, जो भुगतान किया जा सकता कर्मचारी, किसी संगठन या जनता के सदस्य, उस प्रयोजन के लिए डिज़ाइन किए गए संपादन पृष्ठों का उपयोग करके अंतर्निहित डाटाबेस को भरें, जबकि कैज़ुअल विज़िटर्स एचटीएमएल प्रपत्र में इस सामग्री को देखने और पढ़ें। नये प्रविष्टि सामग्री को लेने की प्रक्रिया में निर्मित संपादकीय, अनुमोदन और सुरक्षा व्यवस्था हो सकती है या नहीं हो सकती है और इसे लक्ष्य के लिए उपलब्ध कर सकती है। ईमेल एक महत्वपूर्ण संचार सेवा है जो इंटरनेट पर उपलब्ध है। मेलिंग पत्र या मेमो के समान एक तरह से पार्टियों के बीच इलेक्ट्रॉनिक पाठ संदेश भेजने की अवधारणा इंटरनेट के निर्माण की भविष्यवाणी करती है। चित्र, दस्तावेज, और अन्य फ़ाइलें ईमेल संलग्नक के रूप में भेजी जाती हैं। इंटरनेट टेलीफोनी इंटरनेट के निर्माण के द्वारा एक और आम संचार सेवा संभव है। वीओआईपी वॉयस-ओवर-इंटरनेट प्रोटोकॉल का अर्थ वह प्रोटोकॉल है जो कि सभी इंटरनेट संचार के अंतर्गत आता है। यह विचार १९९० की शुरुआत में निजी कंप्यूटरों के लिए वॉकी-टॉकी जैसी आवाज अनुप्रयोगों के साथ शुरू हुआ हाल के वर्षों में कई वीओआईपी सिस्टम सामान्य टेलीफोन के रूप में उपयोग करने में आसान और सुविधाजनक हो गए हैं लाभ यह है कि, इंटरनेट आवाज यातायात के रूप में है, वीओआईपी एक पारंपरिक टेलीफोन कॉल की तुलना में बहुत कम या मुफ्त हो सकती है, खासकर लंबी दूरी पर और खासकर उन इंटरनेट कनेक्शन जैसे केबल या एडीएसएल के लिए। वीओआईपी परंपरागत टेलीफोन सेवा के लिए एक प्रतिस्पर्धी विकल्प में परिपक्व हो रहा है। विभिन्न प्रदाताओं के बीच इंटरऑपरेबिलिटी में सुधार हुआ है और पारंपरिक टेलीफोन से कॉल करने या प्राप्त करने की क्षमता उपलब्ध है। सरल, सस्ती वीओआईपी नेटवर्क एडाप्टर उपलब्ध हैं जो एक निजी कंप्यूटर की आवश्यकता को समाप्त करते हैं। कॉल करने के लिए वॉयस गुणवत्ता अभी भी भिन्न हो सकती है, लेकिन अक्सर पारंपरिक कॉल्स के बराबर होती है और इससे भी अधिक हो सकती है। वीओआईपी के लिए शेष समस्याओं में आपातकालीन टेलीफोन नंबर डायलिंग और विश्वसनीयता शामिल है। वर्तमान में, कुछ वीओआईपी प्रदाता एक आपातकालीन सेवा प्रदान करते हैं, लेकिन यह सार्वभौमिक रूप से उपलब्ध नहीं है। "अतिरिक्त सुविधाओं" वाले पुराने पारंपरिक फोन केवल पावर विफल होने के दौरान ही संचालित होते हैं और संचालित होते हैं; वीओआईपी फोन उपकरण और इंटरनेट एक्सेस डिवाइसेज़ के लिए बैकअप पावर स्रोत के बिना ऐसा कभी नहीं कर सकता है खिलाड़ियों के बीच संचार के एक रूप के रूप में, वीओआईपी गेमिंग अनुप्रयोगों के लिए तेजी से लोकप्रिय हो गया है। गेमिंग के लिए लोकप्रिय वीओआईपी ग्राहकों में वेंत्रिलो और टीमेंपीक शामिल हैं आधुनिक वीडियो गेम कंसोल भी वीओआईपी चैट सुविधाओं की पेशकश करते हैं। फ़ाइल साझा करना इंटरनेट पर बड़ी मात्रा में डेटा स्थानांतरित करने का एक उदाहरण है एक कंप्यूटर फाइल ग्राहकों, सहयोगियों और मित्रों को एक अनुलग्नक के रूप में ईमेल कर सकती है। यह एक वेबसाइट या फाइल ट्रांसफर प्रोटोकॉल (एफ़टीपी) सर्वर पर अन्य लोगों द्वारा आसानी से डाउनलोड करने के लिए अपलोड किया जा सकता है। सहकर्मियों द्वारा तत्काल उपयोग के लिए इसे "साझा स्थान" या फ़ाइल सर्वर पर रखा जा सकता है कई उपयोगकर्ताओं के लिए थोक डाउनलोड का लोड "मिरर" सर्वर या पीयर-टू-पीयर नेटवर्क के उपयोग से आसान हो सकता है। इनमें से किसी एक मामले में, फ़ाइल तक पहुँच को उपयोगकर्ता प्रमाणीकरण के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है, इंटरनेट पर फ़ाइल का पारगमन एन्क्रिप्शन द्वारा छिपा हुआ हो सकता है, और पैसे फ़ाइल को एक्सेस करने के लिए हाथ बदल सकते हैं। कीमत से धन के रिमोट चार्जिंग द्वारा भुगतान किया जा सकता है, उदाहरण के लिए, एक क्रेडिट कार्ड जिसका विवरण भी पारित किया जाता है - आमतौर पर पूरी तरह से एन्क्रिप्ट किया गया - इंटरनेट पर प्राप्त फाइल की उत्पत्ति और प्रामाणिकता डिजिटल हस्ताक्षर द्वारा या एमडी ५ या अन्य संदेश डाईजेस्ट्स द्वारा जाँच की जा सकती है। इंटरनेट की ये सरल विशेषताओं, दुनिया भर के आधार पर, संचरण के लिए कंप्यूटर फ़ाइल में कम की जा सकने वाली किसी भी वस्तु का उत्पादन, बिक्री और वितरण बदल रहे हैं। इसमें सभी तरह के प्रिंट प्रकाशन, सॉफ्टवेयर उत्पाद, समाचार, संगीत, फिल्म, वीडियो, फोटोग्राफी, ग्राफिक्स और अन्य कला शामिल हैं। इसके बदले में उन मौजूदा उद्योगों में भूकंपीय बदलाव हुए हैं जो पहले इन उत्पादों के उत्पादन और वितरण को नियंत्रित करते थे। स्ट्रीमिंग मीडिया अंत उपयोगकर्ताओं द्वारा तत्काल खपत या आनंद के लिए डिजिटल मीडिया का वास्तविक समय वितरण है कई रेडियो और टेलीविज़न ब्रॉडकास्टर्स अपने लाइव ऑडियो और वीडियो प्रस्तुतियों के इंटरनेट फ़ीड प्रदान करते हैं। वे टाइम-शिफ्ट देखने या सुनने जैसे कि पूर्वावलोकन, क्लासिक क्लिप्स और सुनो फिर की सुविधा भी दे सकते हैं। इन प्रदाताओं को एक शुद्ध इंटरनेट "ब्रॉडकास्टर्स" की श्रेणी में शामिल किया गया है, जिनके पास ऑन-एयर लाइसेंस नहीं था। इसका मतलब यह है कि एक इंटरनेट से जुड़े डिवाइस, जैसे कंप्यूटर या अधिक विशिष्ट, का प्रयोग उसी तरह उसी तरह से ऑन-लाइन मीडिया तक पहुँचने के लिए किया जा सकता है जितना पहले संभवतः केवल टेलीविज़न या रेडियो रिसीवर के साथ था उपलब्ध प्रकार की सामग्रियों की श्रेणी, विशेष तकनीकी वेबकास्ट से मांग-लोकप्रिय मल्टीमीडिया सेवाओं के लिए बहुत व्यापक है। ब्रॉडकास्टिंग इस विषय पर एक भिन्नता है, जहाँ आम तौर पर ऑडियो-सामग्री डाउनलोड की जाती है और कंप्यूटर पर वापस खेला जाता है या स्थानांतरित करने के लिए सुने जाने वाले पोर्टेबल मीडिया प्लेयर में स्थानांतरित हो जाता है। साधारण उपकरण का इस्तेमाल करते हुए ये तकनीक दुनिया भर में ऑडियो-विज़ुअल सामग्री को प्रसारित करने के लिए, छोटे सेंसरशिप या लाइसेंस नियंत्रण के साथ किसी को भी अनुमति देती हैं। डिजिटल मीडिया स्ट्रीमिंग नेटवर्क बैंडविड्थ की मांग को बढ़ाती है उदाहरण के लिए, मानक छवि गुणवत्ता के लिए एसडी ४८० पी के लिए १ एमबीटी / एस लिंक गति की आवश्यकता होती है, एचडी ७२० पी की गुणवत्ता में २.५ एमबीटी / एस की आवश्यकता होती है, और उच्चतम-एचडीएक्स गुणवत्ता को १०८० पी के लिए ४.५ एमबीटी / एस की आवश्यकता होती है। वेबकैम इस घटना का एक कम लागत वाला विस्तार है। जबकि कुछ वेबकैम पूरा-फ़्रेम-दर वीडियो दे सकता है, तो चित्र आमतौर पर छोटा होता है या धीरे-धीरे अपडेट होता है इंटरनेट उपयोगकर्ता एक अफ्रीकी वॉटरहो के आसपास पशुओं को देख सकते हैं, पनामा नहर में जहाजों, स्थानीय राउंडअबाउट पर ट्रैफ़िक या अपने स्वयँ के परिसर की निगरानी, लाइव और वास्तविक समय में देख सकते हैं। वीडियो चैट रूम और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग भी लोकप्रिय हैं, कई व्यक्तिगत वेबकैम के लिए उपयोग किए जा रहे उपयोग के साथ, बिना और बिना दो-तरफ़ा ध्वनि यूट्यूब १५ फ़रवरी २००५ को स्थापित किया गया था और अब एक विशाल संख्या में उपयोगकर्ताओं के साथ मुफ्त स्ट्रीमिंग वीडियो की अग्रणी वेबसाइट है। यह एक फ्लैश आधारित वेब प्लेयर का उपयोग करता है जो वीडियो फ़ाइलों को स्ट्रीम और दिखाती है। पंजीकृत उपयोगकर्ता असीमित मात्रा में वीडियो अपलोड कर सकते हैं और अपनी व्यक्तिगत प्रोफ़ाइल बना सकते हैं। यूट्यूब का दावा है कि इसके उपयोगकर्ता सैकड़ों मिलियन देखते हैं, और हर दिन लाखों वीडियो अपलोड करते हैं। वर्तमान में, यूट्यूब एक एचटीएमएल ५ प्लेयर का उपयोग भी करता है। आधुनिक इंटरनेट में बहुत से सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। यह एक सार्वभौमिक वैश्विक सूचना पर्यावरण है। इंटरनेट संचार के लिए सबसे व्यापक तकनीकी अवसर प्रदान करता है। इसके अलावा, अंतरजाल पर समान रुची तथा समान दुनिया के विचार रखने वालों को ढूंढना , या पिछले परिचितों को ढूंढना, जो जीवन परिस्थितियों के कारण पृथ्वी पर अलग - अलग जगह बिखरे हुए थे, आसान है। इसके अलावा, वेब पर संवाद शुरू करना, व्यक्तिगत बैठक में बैठकर शुरू करने से मनोवैज्ञानिक रूप से आसान है। ये कारण वेब समुदायों के निर्माण और सक्रिय विकास को निर्धारित करते हैं। अंतरजाल समुदाएँ उन लोगों का समुदाय है जो आम शौक को साझा करते हैं, और मुख्य रूप से अंतरजाल के माध्यम से संवाद करते हैं। ऐसे अंतरजाल समुदाय धीरे-धीरे पूरे समाज के जीवन में एक मूर्त भूमिका निभाने लगे हैं। अंतरजाल का लत अंतरजाल का लत अंतरजाल का उपयोग करने और नेटवर्क पर बहुत समय व्यतीत करने की एक जुनूनी इच्छा है। अंतरजाल का लत, चिकित्सा मानदंडों के अनुसार मानसिक रोग नहीं है। विश्व के देशों में अंतरजाल भारत में इंटरनेट भारत में अंतरजाल ८० के दशक में आया, जब एर्नेट (शैक्षिक और अनुसंधान नेटवर्क) को सरकार, इलेक्ट्रौनिक्स विभाग और संयुक्त राष्ट्र उन्नति कार्यक्रम (यू एन डी पी) की ओर से प्रोत्साहन मिला। सामान्य उपयोग के लिये जाल १५ अगस्त १९९५ से उपलब्ध हुआ, जब भारत संचार निगम लिमिटेड (वी एस एन एल) ने गेटवे सर्विस शुरू की। भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या में तेज़ी से इजाफा हुआ है। यहाँ १.३२ बिलियनलोगों तक इंटरनेट की पहुँच हो चुकी है, जो कि कुल जनसंख्य का करीब ३४.८ % फीसदी है। पूरी दुनिया के सभी इंटरनेट इस्तेमाल करतों में भारत का योगदान १३.५ % फीसदी है। साथ ही इंटरनेट का इस्तेमाल व्यक्तिगत जरूरतों जैसे बैंकिंग, ट्रेन इंफॉर्मेशन-रिज़र्वेशन और अन्य सेवाओं के लिए भी होता है। आज इंटरनेट की पहुँच लगभग सभी गाँव एवं कस्बो और दूर दराज के इलाको तक फ़ैल चुकी है ल आज लगभग सभी जगहों पर इसका उपयोग हो रहा है ल और वो दिन दूर नहीं जब भारत दुनिया में इंटरनेट के उपयोग के मामले में सबसे आगे हो ल और २०१५ से सरकार भी पूरी तरह से ऑनलाइन होने के तैयारी में लग गई है ल अब भारत के करीब लोग पूरे देश से अपने पैसे को लेंन-देंन कर सकते हैं। और घर बैठे खरीदारी कर रहे हैं। भारत पूरी तरह से इंटरनेट से जुड़ने की तैयारी में है। २०१५ से २०१८ तक भारत के इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की करीब १०% बढ़ोत्तरी हुई है। २०१६ में टेलिकॉम कंपनी जियो ने करीब १ साल तक इन्टरनेट मुफ्त कर दिया था। जियो आने के बाद इंटरनेट को इस्तेमाल करने वालों की लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। भारत में अभी भी कई जगह मोबाइल नेटवर्क न होने के कारण लोग परेशान हैं। वर्तमान में भारत में एक नई इंटरनेट तकनीक का भी विकास हो रहा है जिसका नाम सैटेलाइट इंटरनेट है, जो पश्चिमी देशों में पहले से एक विकसित तकनीक है लेकिन अब भारत में भी इसके परीक्षण शुरू हो चुका है। यह इंटरनेट की इस तकनीक को विकसित करने के लिए रिलायंस जियो और वनवेब कंपनी अग्रणी है, जिन्हे दूरसंचार विभाग से परीक्षण डेको की भी अनुमति मिल चुकी है। अमेरिका में सैटेलाइट इंटरनेट पर काम करने वाली कंपनी स्टारलिंक भी अपनी सेवाएं देने के लिए भारत में आने की कोशिश कर रही है, जिसे जल्द ही स्वीकृति भी मिल सकती है. इस्टोनिया में इंटरनेट यहाँ पूरे देश में वायरलेस इंटरनेट (वाई फ़ाई) की पहुँच है। चाहे आप हवाई अड्डा में हो या समुद्रतट या जंगल में, हर जगह इंटरनेट की पहुँच है। यहाँ पहुँच भी मुफ्त है। इस्टोनिया में २५ फीसदी वोटिंग ऑनलाइन होती है। यहाँ माता-पिता अपने बच्चों की स्कूल की दैनिक गतिविधि, परीक्षा के अंक और कक्षेतर कार्य को ऑनलाइन देख सकते हैं। यहाँ एक व्यापार ऑनलाइन सेटप तैयार करने में महज १८ मिनट का समय लगता है। इस्टोनिया में ९९३,७८५ इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, जो कि इस देश की पूरी आबादी का लगभग ७८ फीसदी है। यहाँ की जनसंख्या १, २७४,७०९ है। इस्टोनिया में इंटरनेट पर सबसे अधिक स्वतंत्रता है। उपयोग: अधिकतर उपयोग ई कॉमर्स और ई-सरकार सेवाओं के लिए होता है। यहाँ प्रेस और ब्लॉगर ऑनलाइन कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं। इस्टोनिया ने अमेरिका को पीछे कर दूसरे स्थान पर छोड़ा है। यह छोटा सा देश तकनीकी तौर पर बिजली घर बन गया है। यहाँ ऑन लाइन वोटिंग, इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड इंटरनेट के माध्यम से दूसरों के पास पहुँचते हैं। ब्रॉडबैंड से अधिकतर सुसज्जित यह देश डिजिटल दुनिया का एक मिथक बन कर उभरा है। संयुक्त राज्य में इंटरनेट संयुक्त राज्य की जनसंख्या ३१३ मिलियन, यानी ३१३० लाख हैं, जहां २४५ मिलियन, यानी २४५० लाख लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। यहाँ पर इंटरनेट की पहुँच ७८ फीसदी है और इस देश के लोग विश्व की ११ फीसदी आबादी इंटरनेट के उपयगकर्ता के तौर पर शामिल हैं। इस्टोनिया के बाद इंटरनेट पर सबसे अधिक स्वतंत्रता अमेरिका, जर्मन, ऑस्ट्रेलिया, हंगरी, इटली और फ़िलीपींस को है। यह देश दुनिया के अन्य देशों की तुलना में इंटरनेट पर अधिक स्वतंत्रता देते हैं। यहाँ पर काॅन्ग्रेसनल बिल का विरोध हो रहा है, जिसका इरादा प्राइवेसी और नॉन अमेरिकी वेबसाइट होस्टिंग को लेकर है। आधे से अधिक अमेरिकी इंटरनेट पर टीवी देखते हैं। यहाँ पर मोबाइल पर इंटरनेट का उपयोग स्वास्थ, ऑन लाइन बैंकिंग, बिलों का पेमेंट और सेवाओं के लिए करते हैं। जर्मनी में इंटरनेट जर्मनी में इंटरनेट का उपयोग सबसे अधिक सोशल मीडिया के लिए किया जा रहा है। वहाँ अब अपनी अन्य जरूरतों, बैंकिग, निजी कार्य आदि के लिए भी किया जा रहा है। पिछले पांच वर्षो में जर्मनी में ब्राॅडबैंड सेवाएँ काफी सस्ती उपलब्ध हो रही हैं। इसके रेट इसकी गति आदि पर निर्भर करती है। यहाँ पर इंटरनेट से टीवी और टेलीफ़ोन सेवाएँ भी एक साथ मिलती हैं। यहाँ की ७३ फीसदी आबादी के घरों तक इंटनेट की पहुंच उपलब्ध है। जर्मनी के पाठशालों में छात्रों को मुफ्त में कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध कराई जाती हैं। जर्मनी में ९३ फीसदी इस्तेमाल करतों के पास डीएलएस कनेक्शन है। जर्मनी की आबादी ८१ मिलियन है और ६७ मिलियन इंटनेट इस्तेमाल करते हैं। यहाँ ८३ फीसदी इंटरनेट की एक्सेस है और विश्व के इंटरनेट उपयोगकर्ता की संख्या में यहाँ के लोगों की तीन फीसदी हिस्सेदारी है। इटली में इंटरनेट इटली में इंटरनेट तक ५८.७ फीसदी लोगों की पहुँच है। यहाँ ३५,८००,००० लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। यहाँ ७८ फीसदी लोग ईमेल भेजने और पाने के लिए इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। इसके दूसरे नंबर पर ६७.७ फीसदी उपयोगकर्ता ने ज्ञान के लिए और ६२ फीसदी उपयोगकर्ता ने वस्तुओं एवं सेवाँओं के लिए किया है। एक सर्वे के अनुसार ३४.१ मिलियन मोबाइल उपयोगी ने इंटरनेट तक अपनी पहुँच बनाई। इटली में इंटरनेट (६ एमबीपीज, असीमित डेटा केबिल्स/ एडीएसएल) २५ यूरो डॉलर में प्रतिमाह के रेट से उपलब्ध है। फ़िलीपींस में इंटरनेट फ़िलीपींस में १० लोगों में से केवल तीन लोगों तक ही इंटरनेट की पहुँच है। हालाकि इस देश का दावा है कि यह सोशल मीडिया के लिए विश्व का एक बड़ा केंद्र है। फ़िलीपींस में उपयोगकर्तों को इंटरनेट पर सबसे अधिक स्वतंत्रता मिली हुई है। यहाँ के लोग बिना किसी बाधा के इंटरनेट का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। फंलीपींस की कुल जनसंख्या (२०११ के अनुसार) १,६६०,९९२ है। इसमें में ३२.४ फीसदी लोगों तक इंटरनेट की पहुंच है। फिलीपींस के इंटरनेट इस्तमाल करने वालों की संख्या ३३,६००,००० हैं। यहाँ पर लोग सबसे अधिक इंटरनेट का उपयोग सोशल मीडिया के लिए करते हैं। ब्रिटेन में इंटरनेट ब्रिटेन की आबादी लगभग ६३ मिलियन है और यहाँ पर लगभग ५३ मिलियन इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। इंटरनेट की पहुँच ८४ फीसदी लोगों तक है, जो विश्व के कुल उपयोगी की संख्या का दो फीसदी हैं। यहाँ पर उच्च स्तर पर इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वातंत्रता मिली हुई है। लेकिन हाल के वर्षो में सोशल मीडिया ट्विटर और फेसबुक पर लगाए आंशिक प्रतिबंध ने इंटरनेट पर पूर्ण स्वतंत्रता वाले देश की श्रेणी से बाहर कर दिया है। यहाँ पर इन सोशल मीडिया के सेवाओं पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। यूके में ८६ फीसदी इंटरनेट उपयोगकर्ता वीडियो साइट्स पर आते हैं। यहाँ २४० मियिलयन घंटे उपयोगकर्ता ऑन लाइन वीडियो सामग्री देखते हैं। गूगल के बाद यहाँ यूट्यूब और फ़ेसबुक को सबसे ज़्यादा देखा जाता है। हंगरी में इंटरनेट हंगरी में ५९ फीसदी लोग इंटरनेट के उपयोगकर्ता हैं। पिछले १९९० से डायल अप कनेक्शनों की संख्या बढ़ी है। यहाँ वर्ष २००० से ब्राॅडबैंड कनेक्शनों की संख्या में काफी तेजी आई। यहां ६,५१६,६२७ इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। यहाँ के उपयोगकर्ता अधिकतर व्यावसायिक और विपणन मैसेज के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। ऑस्ट्रेलिया में इंटरनेट ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या : २२,०१५, ५७६ है, जिसमें से १९, ५५४,८३२ इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। ऑस्ट्रेलिया में इंटरनेट पर ऑनलाइन सामाग्री में उपयोगकर्ता को काफी हद तक स्वतंत्रता मिली हुई है। वह सभी राजनीतिक, सामाजिक प्रवचन, मनुष्य राइट के उल्लंघर आदि की जानकारी हासिल कर लेता है। ऑस्ट्रेलिया में इंटरनेट की उपलब्धता दर ७९ फीसदी है। ऑस्ट्रेलिया के लोग अपने घरों से कई काम अपने मोबाइल पर कर लेते हैं। अर्जेंटीना में इंटरनेट अर्जेंटीना में पहली बार १९९० में इंटरनेट का उपयोग वाणिज्यक उपयोग के लिए शुरू किया गया था, हालाकि पहले इस पर शैक्षिक दृष्टिकोण से फोकस किया जा रहा था। दक्षिणी अमेरिका का यह अब सबसे बड़ा इंटरनेट का उपयोग करने वाला देश है। यहाँ की अनुमानित जनसंख्या ४२,१९२,४९२ है, जिसमें २८,०००, ००० लोग इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। यह कुल संख्या के लगभग ६६.४ फीसदी है। यहाँ २०,०४८,१०० लोग फ़ेसबुक पर हैं। दक्षिण-अफ़ीका में इंटरनेट दक्षिण-अफ़्रीका में पहला इंटरनेट कनेक्शन १९९८ में शुरू किया गया था। इसके बाद इंटरनेट का व्यावसायिक उपयोग १९९३ से शुरू हुआ। अफ़्रीका महाद्वीप में विकास की तुलना में दक्षिण अफ्रीका तेरवाँ सबसे अधिक इंटरनेट की पहुँच वाला देश है। इंटरनेट के उपयोग के मामले में यह देश अफ़्रीका के अन्य देशों से कहीं आगे है। एक अनुमान के अनुसार यहाँ की जनसंख्या ४८,८१०,४२७ है, जिनमें से ८,५००,००० इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। जापान में इंटरनेट जापान में इंटरनेट का उपयोग अधिकतर ब्लाॅगिंग के लिए करते हैं। जापान के संस्कृति में ब्लॉग बड़ा भूमिका अदा करते हैं। औसतन जापना का एक उपयोगी ६२.६ मिनट अपने समय का उपयोग ब्लॉग पर करता है। इसके बाद दक्षिण कोरिया के उपयोगी हैं, जो ४९.६ मिनट और तीसरे स्थान पर पोलैंड के उपयोगी हैं, जो ४७.७ मिनट अपना वक्त ब्लाॅग पर देते हैं। यहाँ ४२ फीसदी लोग हर दिन सोशल मीडिया के लिए इंटरनेट का उपयोग रकते हैं। १८ से २४ साल आयुवर्ग के युवा सबसे अधिक इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं। मैट्रोपोलिटन शहरों में इंटरनेट का उपयोग टीवी देखने के लिए बहुत अधिक हो रहा है। तुर्केमेनिस्तान में इंटरनेट विष्व में इंटरनेट की सेवा सबसे अधिक महंगी तुर्केमेनिस्तान में है। यहाँ असीमित इंटरनेट पहुँच के लिए डॉलर की दर से २०४८ है, जो एक माह में ६,८२१.०१ डॉलर तक पहुँच जाती है। यहाँ सबसे सस्ती इंटरनेट सेवा ४३.१२ डॉलर प्रति माह में उपयोगकर्ता को २ जीबी ६४ केबीपीएस सीमित है। जबकि रूस में तेज गती असीमित इंटरनेट लगभग २० डॉलर प्रति माह है। सबसे तेज इंटरनेट गती दक्षिण कोरिया में एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंटरनेट की गति तेज होने पर एक परिवार साल भर में इंटरनेट पर होने वाले खर्च में से करीब ५ लाख रुपये बचा सकता है। इसमें सबसे ज्यादा पैसा मनोरंजन , ऑन लाइन सौदा, सौदा खोज और यात्रा में इस्तेमाल होने वाले इंटरनेट के रूप में बचा सकता है। औसत वर्ल्ड वाइड डाउनलोड स्पीड ५८ किलोबाइट प्रति सेकेंड है। दक्षिण कोरिया में सबसे अधिक इंटरनेट की औसत गति सबसे तेज है। यहाँ की गति २२०२ केबीपीएस है। पूर्वी यूरोपीय देश रोमानिया दूसरे स्थान पर १९०९ और बुल्गारिया तीसरे स्थान पर १६११ केबीपीएस के साथ है। गति के मामले में हाॅन्गकाॅन्ग में इंटरनेट की औसत पीक गति ४९ एमबीपीएस है। जबकि अमेरिका में २८ एमबीपीएस है। हालाकि अमेरिका विश्व का सबसे अधिक इंटरनेट से जुड़ा हुआ देश है। जब इंटरनेट का उपयोग इंटरनेट पर आधारित इंटरनेट प्रोटोकॉल (आए पी) नेटवर्क की विशिष्ट वैश्विक प्रणाली को करने के लिए किया जाता है, तो शब्द एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है जिसे प्रारंभिक कैपिटल कैरेक्टर के साथ लिखा जाना चाहिए। सामान्य उपयोग और मीडिया में, यह अक्सर गलत रूप से नहीं किया जाता है, अर्थात् इंटरनेट। कुछ मार्गदर्शिकाएं यह निर्दिष्ट करती हैं कि शब्द को जब संज्ञा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन एक विशेषण के रूप में उपयोग किए जाने पर उस शब्द को पूंजीकृत नहीं किया जाना चाहिए। इंटरनेट को भी नेटवर्क के एक छोटे रूप के रूप में, नेट के रूप में भी जाना जाता है। ऐतिहासिक रूप से, १८९४ के रूप में, इंटरनेट पर इस्तेमाल किए गए शब्द को एक विशेषण के रूप में बिना किसी रूप में इस्तेमाल किया गया था, जिसका अर्थ है एक दूसरे से जुड़े या इंटरव्यू। शुरुआती कंप्यूटर नेटवर्क के डिजाइनरों ने इंटरनेट और इंटरनेटवर्किंग के लघुकथ रूप में एक संज्ञा के रूप में और एक क्रिया के रूप में इंटरनेट का उपयोग किया, जिसका मतलब है कि कंप्यूटर नेटवर्क परस्पर जुड़े हुए हैं।इंटरनेट और वर्ल्ड वाइड वेब शब्द को अक्सर हर रोज़ भाषण में एक दूसरे शब्दों में उपयोग किया जाता है; वेब पेज देखने के लिए वेब ब्राउजर का उपयोग करते समय "इंटरनेट पर जा रहे हैं" की बात करना आम बात है हालांकि, वर्ल्ड वाइड वेब या वेब केवल बड़ी संख्या में इंटरनेट सेवाओं में से एक है वेब इंटरकनेक्टेड दस्तावेज़ (वेब पेज) और अन्य वेब संसाधनों का संग्रह है, जो हाइपरलिंक्स और यूआरएल द्वारा जुड़ा हुआ है। तुलना की दूसरी बात, हाइपरटेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल, या एच टी टी पी, सूचना हस्तांतरण के लिए वेब पर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा है, फिर भी यह सिर्फ कई भाषाओं या प्रोटोकॉल में से एक है, जिसका उपयोग इंटरनेट पर संचार के लिए किया जा सकता है। शब्द इंटरवेब इंटरनेट का एक पोर्टेमैन है और वर्ल्ड वाइड वेब आमतौर पर एक तकनीकी रूप से असामान्य उपयोगकर्ता भड़ौआ करने के लिए व्यंग्यात्मक रूप से उपयोग किया जाता है। अटैचमेन्ट या अनुलग्नक: यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी भी प्रकार की फ़ाइल मेल संदेश के साथ जोडकर इंटरनेट के माध्यम से किसी को भी भेजी या प्राप्त की जा सकती है। आस्की (अस्सी): इसका अर्थ "अमेरिकन स्टैण्डर्ड कोड फ़ोर इंफ़र्मेशन इंटरचेंज"है। यह नोटपेड में सुरक्षित किए जाने वाले परीक्षा का बायडिफ़ॉल्ट फ़ॉर्मैट है यदि आप नोटपैड में किसी टेक्स्ट को प्राप्त कर रहे हैं तो वह फ़ॉर्मैट अस्सी है। ऑटो कम्प्लीट: यह सुविधा ब्राउज़र के ऐड्रेस बार में होती है। इसके शुरू में कुछ डेटा टाइप करते ही यूआरएल पूर्ण हो जाता है। इसके लिये जरूरी है कि वह यूआरएल पहले प्रयोग किया गया हो। एंटी वाइरस प्रोग्रैम: इस प्रोग्रैम में कम्प्यूटर की संगणक संचिका में छुपे हुए वाइरस को ढूंढ निकालने या सम्भव हो तो, नष्ट करने की क्षमता होती है। बैंडविड्थ: इसके द्वारा इंटरनेट की गति नापी जाती है। बैंडविड्थ जितनी अधिक होगी, इंटरनेट की गति उतनी ही ज्यादा होगी। ब्राउसर: वर्ल्ड वाइड वेब पर सूचना प्राप्त करने में मददगार सॉफ्टवेयर को ब्राउसर कहते हैं। नेटस्केप नैवीगेटर और इंटरनेट एक्सप्लोरर सर्वाधिक प्रचलित ब्राउसर है।यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर होता है जो एचटीएमएल और उससे संबंधित प्रोग्राम को पढ़ सकता है। बुकमार्क: ब्राउसर में स्थित विशेष लिंक, जो किसी विशेष सेक्शन में लिंक बनाने में मदद करता है। इंटरनेट एक्सप्लोरर में यह फ़ेवरेट कहलाता है। कैशे या टेम्परेरी इंटरनेट एक्सप्लोरर: सर्फ़िंग के दौरान वेब पेज और उससे संबंधिंत चित्र एक अस्थायी भन्डार में बदल जाते हैं। यह तब तक नहीं हटते है, जब तक इन्हे हटाया न जाये या ये बदला न जाए | एक ही वेबसाइट पर जाना उतना ही आसान होता है, क्योंकि सामग्री डाउनलोड की आवश्यकता नहीं होती | यदि आप अलग - अलग साइट्स पर जा रहे हो तो ये फ़ाइल आपका गति कम कर देता है। कुकी: यह वेब सर्वर द्वारा भेजा गया सामग्री होता है, जिसे ब्राउसर द्वारा सर्फर के कम्प्यूटर में एक संचिका में रखा जाता है। डीमोड्यूलेशन: मोडेम से प्राप्त ऐनालॉग सामग्री को डिजिटल सामग्री में बदलने की प्रक्रिया डीमोड्यूलेशन कहलाती है। डाउनलोड: किसी संचिका को वर्ल्ड वाइड वेब से कॉपी करने की प्रक्रिया डॉउनलोड कहलाती है। क्षेत्रीय नाम पंजीकरण: किसी भी कम्पनी को अपनी विशिष्ट पहचान कायम रखने के लिये अपनी कम्पनी का नाम पंजीकरण करवाना होता है। यह प्रक्रिया इंटरनेट सर्विस प्रोवाडर की देख-रेख में चलती है। ई-कॉमर्स: इंटरनेट पर व्यापारिक लेखा-जोखा रखने की प्रक्रिया और नेट पर ही खरीदने -बिक्री की प्रक्रिया ई-कॉमर्स कहलाती है। होम-पेज: वेब ब्राउसर से किसी साइट को खोलते ही जो पृष्ठ सामने खुलता है वह उसका होम पेज कहलाता है। एफ़एक्यू (फ्रीक्वेंट्ली अस्केड क्वेस्शन): वेबसाइट पर सबसे ज़्यादा पूछे जाने वाले या बार - बार पूछे जाने वाले प्रश्न को एफ़एक्यू कहते हैं। वेब साइट पर एफ़एक्यू के माध्यम से प्रश्न भी भेजे जा सकते हैं। डायल - अप कनेक्शन: एक कम्प्यूटर से मोडेम द्वारा इंटरनेट से जुडे़ किसी अन्य कम्प्यूटर से मानक फोन लाइन पर कनेक्शन को डायल अप कनेक्शन कहते हैं। डायल - अप नेटवर्किंग: किसी पर्सनल कम्प्यूटर को किसी अन्य पर्सनल कम्प्यूटर पर, लैन और इंटरनेट से जोड़ने वाले प्रोग्रैम को डायल अप नेटवर्किंग कहते हैं। डायरेक्ट कनेक्शन: किसी कम्प्यूटर या लैन और इंटरनेट के बीच स्थायी सम्पर्क को डायरेक्ट कनेक्शन कहा जाता है। यदि फ़ोन कनेक्शन कम्पनी से टेलीफोन कनेक्शन लीज पर लिया जाता है, तो उसे लीज्ड लाइन कनेक्शन कहते हैं। संचिका: एचटीएमऐल (हाइपर टेक्स्ट मार्कअप लेंग्वेज) वर्ल्ड वाइड वेब पर डॉक्यूमेंट के लिये प्रयोग होने वाली मानक मार्कअप भाषा है। एचटीएमएल भाषा टैग का उपयोग करता है। एचटीटीपी (हाइपर टेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकाल): वर्ल्ड वाइड वेब पर सर्वर से किसी उपयोगकर्ता तक दस्तावेजो को स्थानांतरण वाला कम्यूनिकेशन प्रोटोकाल एचटीटीपी'' कहलाता है। शिक्षा के क्षेत्र मेंअंतरजाल कंप्यूटरइअंतरजालंटरनेट का प्रयोग। इंटरनेट के फायदे
कृष्ण बलदेव वैद (२७ जुलाई 19२७ - ६ फ़रवरी २०२०) हिन्दी के आधुनिक गद्य-साहित्यकार हैं। उन्होंने डायरी लेखन, कहानी और उपन्यास विधाओं के अलावा नाटक और अनुवाद के क्षेत्र में भी अप्रतिम योगदान दिया है। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदा नए से नए और मौलिक-भाषाई प्रयोग किये जो पाठक को 'चमत्कृत' करने के अलावा हिन्दी के आधुनिक-लेखन में एक खास शैली के मौलिक-आविष्कार की दृष्टि से विशेष अर्थपूर्ण हैं। जन्म, शिक्षा तथा प्राध्यापन इनका जन्म डिंगा, (पंजाब (पाकिस्तान)) में २७ जुलाई १९२७ को हुआ। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की। यह १९५० से १९६६ के बीच हंसराज कॉलेज, दिल्ली और पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में अंग्रेज़ी साहित्य के अध्यापक रहे। इन्होंने १९६६ से १९८५ के मध्य न्यूयॉर्क स्टेट युनिवर्सिटी, अमरीका और १९६८-'६९ में ब्रेंडाइज यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी और अमरीकी-साहित्य का अध्यापन किया। १९८५ से १९८८ के मध्य यह भारत भवन, भोपाल में 'निराला सृजनपीठ' के अध्यक्ष रहे। दक्षिण दिल्ली के 'वसंत कुंज' के निवासी वैद लम्बे अरसे से अमरीका में दो विवाहित बेटियों के साथ रह रहे थे । उनकी लेखिका पत्नी चंपा वैद का कुछ बरस पहले ही निधन हुआ था। कृष्ण बलदेव वैद अपने दो कालजयी उपन्यासों- उसका बचपन और विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ के लिए सर्वाधिक चर्चित हुए हैं। एक मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "साहित्य में डलनेस को बहुत महत्त्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्त्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं ८२ का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।" वैदजी का रचना-संसार बहुत बड़ा है- विपुल और विविध अनुभवों से भरा। इसमें हिन्दी के लिए भाषा और शैली के अनेकानेक नए, अनूठे, निहायत मौलिक और बिलकुल ताज़ा प्रयोग हैं। हमारे समय के एक ज़रूरी और बड़े लेखकों में से एक वैद जी नैतिकता, शील अश्लील और भाषा जैसे प्रश्नों को ले कर केवल अपने चिंतन ही नहीं बल्कि अपने समूचे लेखन में एक ऐसे मूर्तिभंजक रचनाशिल्पी हैं, जो विधाओं की सरहदों को बेहद यत्नपूर्वक तोड़ता है। हिन्दी के हित में यह अराजक तोड़फोड़ नहीं, एक सुव्यवस्थित सोची-समझी पहल है- रचनात्मक आत्म-विश्वास से भरी। अस्वीकृतियों का खतरा उठा कर भी जिन थोड़े से लेखकों ने अपने शिल्प, कथ्य और कहने के अंदाज़ को हर कृति में प्रायः नयेपन से संवारा है वैसों में वैदजी बहुधा अप्रत्याशित ढब-ढंग से अपनी रचनाओं में एक अलग विवादी-स्वर सा नज़र आते हैं। विनोद और विट, उर्दूदां लयात्मकता, अनुप्रासी छटा, तुक, निरर्थकता के भीतर संगति, आधुनिकता- ये सब वैद जी की भाषा में मिलते हैं। निर्भीक प्रयोग-पर्युत्सुकता वैद जी को मनुष्य के भीतर के अंधेरों-उजालों, जीवन-मृत्यु, सुखों-दुखों, आशंकाओं, डर, संशय, अनास्था, ऊब, उकताहट, वासनाओं, सपनों, आशंकाओं; सब के भीतर अंतरंगता झाँकने का अवकाश देती है। मनुष्य की आत्मा के अन्धकार में किसी अनदेखे उजाले की खोज करते वह अपनी राह के अकेले हमसफ़र हैं- अनूठे और मूल्यवान। भाषा का घर हेमंत शेष ने उनकी कथा-यात्रा पर जो सम्पादकीय-टिप्पणी लिखी थी, उसे यहाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- "कृष्ण बलदेव वैद हिन्दी के ऐसे आधुनिक रचनाकार हैं, विदेश में प्रवास के लम्बे दौर के बावजूद जिनमें भाषा और लेखकीय-संस्कार के बतौर एक हिन्दुस्तानी का ही मन बचा-बसा रहा है। अपनी हर औपन्यासिक-कृति में वह अगर हर बार मूल्य-दृष्टि की अखंडित भारतीय एकात्मकता के उपरांत भी पहले से भिन्न नज़र आते हैं, तो यह उनके अनुभव और रचनात्मक-सम्पन्नता का ही पुनर्साक्ष्य है जो हमें हर बार नए ढंग से यह बतलाता है कि उसमें अपने समाज और अपने समय- दोनों को हर बार नए ढंग से देखे-पहचाने गए भाषायी रिश्तों में सामने लाने की अटूट प्रतिज्ञा है। आश्चर्य की बात नहीं कि उनकी अधिकाँश रचनाएं पश्चिम के परिवेश लोकेल और मानसिकता को अपनी सर्जनात्मक-प्रेरणा नहीं मानती, जैसा कुछ सुपरिचित हिन्दी कथाकारों ने लगातार किया है। इसके ठीक उलटे, कृष्ण बलदेव वैद, हमारे अपने देश के ठेठ मध्यमवर्गीय-मन को, प्रवास के तथाकथित प्रभावों से जैसे जान बूझ कर बचाते हुए, अपनी उन स्मृतियों, सरोकारों और विडंबनात्मक स्थितियों को ही बारम्बार खंगालते हैं, जो एक बदलते हुए समाज और आधुनिक मनुष्य के भीतर घुमड़ रही हैं। ये स्मृतियाँ हो सकती हैं- उचाट अकेलेपन के अवसाद की, असुरक्षा की भावना से उपजी स्वाभाविक हताशा की, संबंधों की जटिलताओं और उनके खोखलेपन की, विडंबनात्मक स्थितियों जूझते स्त्री-पुरुषों की, उकताहट के बौद्धिक-विश्लेषण की. संक्षेप में कहें तो समूचे मानवीय अस्तित्व का मायना खोजती उसी उतप्त और उग्र प्रश्नाकुलता भाषायी वैयक्तिकता की, जिसकी धधक एक लेखक को भाषा में रचनाशील, जाग्रत और प्रयोग-पर्युत्सुक बनाये रखती है। लेखक, जिसके साहित्यिक-अन्वेषणों और पर्यवेक्षणों के उजास में हम स्वयं को ऐसे अपूर्वमेय कोणों से देख सकते हैं, जो सिर्फ एक रचना के ज़रिये ही संभव हो सकते हैं। उनका लेखन एक चिर-विस्थापित लेखक की तर्कप्रियता का भाष्य है, अन्यों के लिए असुविधाजनक और रहस्यमय, पर स्वयं लेखक के लिए आत्मीय, जाना-पहचाना, अन्तरंग भाषा का घर. यह कहना पर्याप्त और सच नहीं है कि वैद अपनी कृतियों में महज़ एक हिन्दुस्तानी लेखक हैं, बल्कि उससे ज्यादा वह एक ऐसे विवेकशील आधुनिक लेखक हैं, जो अपनी बौद्धिक-प्रखरता, दृढ़ता और अविचलित मान्यताओं के बल पर हिन्दी साहित्य के परिचित कथा-ढंग को तोड़ते, मरोड़ते और बदलते हैं। उनकी प्रयोगकामिता अजस्र है और प्रचलित के प्रति अरुचि असंदिग्ध. वह अपनी शर्तों पर अभिव्यक्ति के लिए सन्नद्ध एक ऐसे लेखक हैं, जिनके लिए अगर महत्वपूर्ण है तो सिर्फ उस लेखकीय-अस्मिता, सोच और भाषायी वैयक्तिकता की रक्षा, जो उन्हें अपने ढंग के 'फॉर्म' का ऐसा कथाशिल्पी बनाती है-जो आलोचना के किसी सुविधाजनक-खांचे में नहीं अंटता. उनका सारा लेखन सरलीकृत व्याख्याओं लोकप्रिय-समीक्षा ढंग के लिए जैसे एक चुनौती है। उनके जैसे अपने समय के लेखन की पहचान और पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है। केवल इसलिए नहीं कि ऐसे रचनाकारों पर अपेक्षाकृत कम लिखा गया है और अपेक्षाकृत कम सारगर्भित भी, पर इसलिए भी कि एक गहरी नैतिक ज़िम्मेदारी उस संस्कृति-समाज की भी है ही जिसके बीच रह कर कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखक चुपचाप ढंग से उसे लगातार संपन्न और समृद्ध बनाते आ रहे हैं। इनके कथा-संग्रह 'बदचल बीवियों का द्वीप' पर हेमंत शेष की भूमिका के लिए देखें- कवि और एक ई-पत्रिका जानकी पुल के संपादक प्रभात रंजन ने वैद पर जो टिप्पणी लिखी थी, वह कुछ यों थी-" कृष्ण बलदेव वैद का कथा आलोक लगभग ८५ साल की उम्र में हिंदी के प्रख्यात कथाकार-उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद की कहानियों की दो सुन्दर किताबों का एक साथ आना सुखद कहा जा सकता है। सुखद इसलिए भी क्योंकि इनमें से एक खाली किताब का जादू उनकी नई कहानियों का संकलन है। दूसरा संकलन है प्रवास गंगा, जिसे उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संचयन भी कहा जा सकता है, वैसे पूरी तरह से नहीं. पेंगुइन-यात्रा प्रकाशन से प्रकाशित इन किताबों ने एक बार फिर कृष्ण बलदेव वैद के लेखन की ओर ध्यान खींचा है। कृष्ण बलदेव वैद की हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अलग लीक रही है, इसिलिए अपना अलग मकाम भी रहा है। जिन दिनों हिंदी साहित्य में बाह्य-यथार्थ के अंकन को कथा-उपन्यास में हिट होने का सबसे बड़ा फॉर्मूला माना जाता रहा उन्हीं दिनों उन्होंने उसका बचपन जैसा उपन्यास लिखा, जिसने निस्संदेह उनके लेखन को एक अलग ही पहचान दी. अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने एक तरह से हिंदी कहानी की मुख्यधारा कही जानेवाली यथार्थवादी कहानियों का प्रतिपक्ष तैयार किया जिसमें स्थूलता नहीं सूक्ष्मता पर बल है। कहानियां उनके लिए मन की दुनिया में गहरे उतरने का माध्यम है, अस्तित्व से जुड़े सवालों से जूझने का, उनको समझने का. नितांत सार्वजनिक होते कथाजगत में उनकी कहानियों ने निजता के उस स्पेस का निर्माण किया, जो हिंदी में एक अलग प्रवृत्ति की तरह से पहचानी गई। आज भी पहचानी जाती हैं। उनकी नई कहानियों के संग्रह खाली किताब का जादू की बात करें तो उसमें भी उनकी वही लीक पहचानी जा सकती है, जिसमें चेतन के नहीं अवचेतन के वर्णन हैं, उनकी कहानियों में कोई सुनियोजित कथात्मकता नहीं दिखाई देती, बल्कि जहाँ कथात्मकता आती है तो वह पैरोडी का शक्ल ले लेती है। प्रवास गंगा में संकलित उनकी कहानी कलिंगसेना और सोमप्रभा की विचित्र मित्रता का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है, जो अपने आप में कथासरित्सागर की एक कथा का पुनर्लेखन है। पुनर्लेखन के क्रम में उसमें जो कॉमिक का पुट आता है, वह उसमें समकालीनता का बोध पैदा करता है। इसमें लेखन ने एक ओर उस कथा-परंपरा की पैरोडी बनाई है जिसका एक तरह से उन्होंने अपने लेखन में निषेध किया और दूसरी ओर पुनर्लेखन होने से मौलिक होने का आधुनिकतावादी अहम भी टूट जाता है। कुछ भी मौलिक नहीं होता. बोर्खेज़ ने लिखा है कि दुनिया बनाने वाले ने जिस दिन दुनिया बनाई थी उसी दिन एक कहानी लिख दी थी, हर दौर के लेखक उसी कहानी को दुहराता रहता है। कोई भी कहानी मौलिक नहीं होती, जो भी है वह मूल की प्रतिलिपि है। खाली किताब का जादू में कुल नौ कहानियां है और उनमें कथानक को लेकर, कथा-शिल्प को लेकर उनकी वही प्रयोगशीलता मुखर दिखाई देती है जिसे उनके लेखन की पहचान के तौर पर देखा जाता है। वे कथा के नहीं कथाविहीनता के लेखक हैं, घटनाओं के नहीं घटनाविहीनता के लेखक हैं। जिसे हिंदी कहानी की मुख्यधारा कहा जाता है उसका स्पष्ट निषेध उनकी कहानियों में दिखाई देता है, उस सामजिक यथार्थवाद का उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से लगातार निषेध किया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके लेखन में सामाजिकता नहीं है। बस उनके बने-बनाये सांचे नहीं हैं, जीवन की विशिष्टता है। वे सामान्य के लेखक नहीं हैं, जीवन की अद्वितीयता के लेखक हैं। उनमें विचारधारा के उजाले नहीं, जीवन के गहरे अँधेरे हैं। संग्रह में एक कहानी है अँधेरे में (अ) दृश्य, जो एकालाप की शैली में है। प्रसंगवश, एकालाप की यह नाटकीयता उनके लेखन की विशेषता है। कहानी भी वास्तव में जीवन-जगत पर गहरे चिंतन से ही उपजता है, लेखक इसलिए कहानी नहीं लिखता कि उसे किसी के बारे में लिखना होता है, वह इसलिए लिखता है क्योंकि उसे कुछ लिखना होता है, कहानी अपने आपमें एक स्टेटमेंट की तरह होती है। वैद साहब बहुत सजग लेखक हैं। वे अपनी लीक पर टिके रहने वाले लेखक हैं, चाहे अकेले पड़ जाने का खतरा क्यों न हो. इसीलिए ज़ल्दी उनका कोई सानी नहीं दिखाई देता है। लेखक कहानी के माध्यम से अपने समय-अपने समाज के मसलों पर राय भी प्रकट करता दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, खाली किताब का जादू संग्रह में एक कहानी है हिंदी-उर्दू संवाद, जिसमें हिंदी-उर्दू को दो ऐसे हमजाद के रूप में दिखाया गया है जिनके मकां हरचंद पास-पास रहे लेकिन जिनको हमेशा प्रतिद्वंद्वियों की तरह से देखा-समझा गया है। जिनको हमेशा दो अलग-अलग समाजों, अलग-अलग मजहबों की भाषा के बतौर देखा गया है। लेकिन लेखक ऐसा नहीं मानता है। कहानी में सार रूप में पंक्ति आती है, अगर ये दोनों ज़ुबानें खुले दिल और दिमाग से आपस में मिलना-जुलना और रसना-बसना शुरू कर दें तो बहुत कुछ मुमकिन है। यह कहानी विधा का एक तरह से विस्तार है, उसको विमर्श के करीब देखने की एक कोशिश है। लेखक को इससे मतलब नहीं है कि वह विफल रहा या सफल. बल्कि वह तो विफलता को भी एक मूल्य की तरह से देखने का आग्रह करता है। संग्रह में एक कहानी विफलदास का लकवा है, जिसे इस सन्दर्भ में देखा-समझा जा सकता है। कुल मिलाकर, कृष्ण बलदेव वैद के इस नए कहानी-संग्रह की कहानियों से गुजरना अपने आप में हिंदी कहानी की दूसरी परम्परा से गुजरना है जिसमें हिंदी कहानियों का एक ऐसा परिदृश्य दिखाई देता है जो हमें हमें पठनीयता, किस्सागोई आदि के बरक्स एक ऐसे लेखन से रूबरू करवाता है जिसे प्रचलित मुहावरे में कहानी नहीं कहा जा सकता, लेकिन शायद यही लेखक का उद्देश्य भी लगता है कि प्रचलित के बरक्स एक ऐसे कथा-मुहावरे को प्रस्तुत किया जा सके जिसमें गहरी बौद्धिकता भी हो और लोकप्रियता का निषेध भी. कृष्ण बलदेव वैद की इन कहानियों को पढते हुए इस बात को नहीं भूला जा सकता है कि हिंदी कहानियों में विविधता है, उसकी शैली को किसी एक रूप में रुढ नहीं किया जा सकता, कम से कम जब तक कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखक परिदृश्य पर हैं। प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ दूसरा न कोई दर्द ला दवा गुज़रा हुआ ज़माना एक नौकरानी की डायरी बीच का दरवाज़ा दूसरे किनारे से वह और मैं चर्चित कहानियाँ परछाइयाँ पिता की परछाइयाँ बदचलन बीवियों का द्वीप #त्रिकोण खाली किताब का जादू रात की सैर (दो खण्डों में) बोधित्सव की बीवी मेरी प्रिय कहानियां दस प्रतिनिधि कहानियां शाम हर रंग में अंत का उजाला भूख आग है सवाल और स्वप्न कहते हैं जिसको प्यार मोनालिज़ा की मुस्कान शिकस्त की आवाज़ संशय के साए गॉडो के इन्तज़ार में (बेकिट) आखिरी खेल (बेकिट) एलिस: अजूबों की दुनिया में (लुई कैरल) टेक्नीक इन दी टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स स्टैप्स इन डार्कनेस विमल इन बौग दी ब्रोकन मिरर साइलेंस इन दी डार्क द स्कल्प्टर इन एग्ज़ाइल ख्याब है दीवाने का जब आँख खुल गयी डुबाया मुझ को होने ने भारतीय ज्ञानपीठ इनकी अनेक कृतियों के अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं- पंजाबी, उर्दू, तमिल, मलयाली, गुजराती, मराठी, तेलुगू, बंगला और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त कुछ विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनके विशिष्ट कृतित्व के सम्बन्ध में पूर्वग्रह, कला-प्रयोजन जैसी कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने समालोचनात्मक-मूल्यांकन को ले कर विशेषांक भी केन्द्रित किये हैं| शमाँ हर रंग में [शम अ हर रंग में] पुरस्कार और सम्मान छत्तीसगढ़ राज्य का पंडित सुंदरलाल शर्मा सम्मान २००२ हिंदी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान (विवादग्रस्त) वैद साहब की कुछ छोटी कहानियां : २०२० में निधन हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना १९२७ में जन्मे लोग
अमेरिका के संयुक्त राज्य (), जिसे सामान्यतः संयुक्त राज्य (सं॰रा॰; या ) या अमेरिका कहा जाता हैं, उत्तरी अमेरिका में स्थित एक देश हैं, यह राज्य, एक फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट, पाँच प्रमुख स्व-शासनीय क्षेत्र, और विभिन्न अधिनस्थ क्षेत्र से मिलकर बना हैं। बिना स्थायी जनसंख्या के ग्यारह छोटे द्वीपसमूह क्षेत्र निम्न हैं - बेकर द्वीप, हॉउलैंड द्वीप, जार्विस द्वीप, जॉनस्टन एटोल, किंगमैन रीफ़, मिडवे एटोल, और पाल्मीरा एटोल। बाखो न्युएवो तट, नावासा द्वीप, सेरानिला तट, और वेक द्वीप पर संयुक्त राज्य की सम्प्रभुता विवादित हैं। ४८ संस्पर्शी राज्य और फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट, कनाडा और मेक्सिको के मध्य, केन्द्रीय उत्तर अमेरिका में हैं। अलास्का राज्य, उत्तर अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है, जिसके पूर्व में कनाडा की सीमा एवं पश्चिम मे बेरिंग जलसन्धि रूस से घिरा हुआ है। वहीं हवाई राज्य, मध्य-प्रशान्त में स्थित हैं। अमेरिकी स्व-शासित क्षेत्र प्रशान्त महासागर और कॅरीबियाई सागर में बिखरें हुएँ हैं। ९८ लाखक्म२ और 3२.४ करोड़ से अधिक जनसंख्या के साथ, संयुक्त राज्य कुल क्षेत्रफल के अनुसार विश्व का तीसरा सबसे बड़ा (और भूमि क्षेत्रफल के अनुसार, चौथा सबसे बड़ा) देश हैं। ३०.५ करोड़ की जनसंख्या के साथ यह चीन और भारत के बाद जनसंख्या के अनुसार तीसरा सबसे बड़ा देश हैं। यह विश्व के सबसे संजातीय आधार पर विविध और बहुसांस्कृतिक राष्ट्रों में से एक हैं, जिसका मुख्य कारण अन्य कई देशों से बड़े पैमाने पर आप्रवासन रहा हैं। इस देश की राजधानी वॉशिंगटन, डी॰ सी॰ हैं, और सबसे बड़ा शहर न्यूयॉर्क हैं। अन्य प्रमुख महानगरीय क्षेत्रों में लॉस एंजेलिस, शिकागो, डैलस, सैन फ़्रांसिस्को, बोस्टन, फिलाडेल्फिया, ह्युस्टन, अटलांटा, और मियामी शामिल हैं। इस देश का भूगोल, जलवायु और वन्यजीवन बेहद विविध हैं। अमेरिका के संयुक्त राज्य एक अत्यधिक विकसित देश है, नाममात्र, सकल घरेलू उत्पाद के माध्यम से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और क्रय-शक्ति समता के अनुसार दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। हालांकि इसकी आबादी दुनिया के कुल का केवल ४.३% है, अमेरिका में दुनिया में कुल संपत्ति का लगभग ४0% हिस्सा है। औसत मजदूरी, मानव विकास, प्रति व्यक्ति जीडीपी, और प्रति व्यक्ति उत्पादकता सहित कई सामाजिक आर्थिक प्रदर्शन के मामलें में अमेरिका के संयुक्त राज्य सबसे ऊपर है। हालांकि सं॰रा॰ को औद्योगिक अर्थव्यवस्था के लिये जाना जाता है, आज उसका सेवाओं और ज्ञान अर्थव्यवस्था में प्रभुत्व हासिल है, वहीं विनिर्माण के क्षेत्र मे यह दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा स्थान है। वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक चौथाई और वैश्विक सैन्य खर्च के एक तिहाई के साथ, अमेरिका के संयुक्त राज्य दुनिया की अग्रणी आर्थिक और सैन्य शक्ति है। अमेरिका के संयुक्त राज्य, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक प्रमुख राजनीतिक और आर्थिक शक्ति है, और वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी नवाचारों में अग्रणी है। अमेरिका के संयुक्त राज्य, यह नाम थॉमस पेन द्वारा सुझाया गया था और ४ जुलाई, १७७६ के स्वतंत्रता के घोषणापत्र में आधिकारिक रूप से प्रयुक्त किया गया। लघु रूप से इसके लिए बहुधा संयुक्त राज्य का भी उपयोग किया जाता है। हिन्दी भाषा में 'संयुक्त राज्य' या 'अमेरिका के संयुक्त राज्य' के स्थान पर केवल 'अमेरिका' या 'अमरीका' (अब प्राय: अप्रचलित) कहने का ही प्रचलन है, जो इस देश के लघु नाम के रूप मे उपयोग में लाया जाता है। स्वतन्त्रता और विस्तार अमेरिका के संयुक्त राज्य की स्थापना की आधिकारिक तिथि ४ जुलाई, १७७६ है, जब द्वितीय महाद्विपीय कांग्रेस ने १३ अलगाववादी उपनिवेशिक राज्यों के प्रतिनिधि स्वरूप स्वतन्त्रता के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। पर सरकार के मूलभूत ढाँचे में सन् १७८८ में बहुत परिवर्तन किए गए जब लेख संघ (आर्टिकल्स ऑफ कॉन्फेडरेशन) के स्थान पर अमेरिकी संविधान को लाया गया। सरकारी राजधानी के फिलाडेल्फिया स्थानांतरित होने से पूर्व, न्यूयॉर्क नगर एक वर्ष तक संघिइय राजधानी था। १७९१ में, राज्यों ने अधिकार विधेयक को पारित किया, संविधान में वे दस संशोधन करने के लिए जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानूनी सुरक्षा की सीमा के संघीय प्रतिबंधों को निषिद्ध कर दे। उत्तरी राज्यों ने १७८० से १८०४ के बीच दास प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन दक्षिणी राज्यों में यह प्रथा जारी रही। सन् १८०० में नया बसा वॉशिंगटन डी॰ सी॰ संघीय सरकार और राष्ट्र की नई राजधानी बना। नए नवेले देश ने अपनी सीमाओं का पश्विम की ओर विस्तार करने के लिए स्थानीय भारतीय लोगों पर युद्धचक्र आरंभ किया जो उन्नीसवीं सदी के अंत तक चला और स्थानीय अमेरिकीयों को अपनी भूमियों से हाथ धोना पड़ा। १८१२ में ब्रिटेन के साथ हुए युद्ध के कारण, जो बराबरी का रहा, अमेरिकी राष्ट्रवाद को प्रबलता मिली। १८४६ में ब्रिटेन के साथ हुई [[ओरेगॉन संधि]] के कारण अमेरिका को वर्तमान अमेरिकी उत्तरपश्चिम पर नियंत्रण मिला। १८४८ में मेक्सिको में अमेरिकी हस्तक्षेप के कारण कैलिफोर्निया और वर्तमान अमेरिकी दक्षिणपश्चिम का अमेरिका में विलय हो गया। १८४८-१८४९ के कैलिफोर्निया स्वर्ण दौड़ (कैलिफोर्निया गोल्ड रश) के कारण यह विस्तार पश्चिम की ओर जारी रहा। लगभग आधी सदी के दौरान ही ४ करोड़ भैंसो को उनकी चमड़ी और माँस और रेलमार्ग के विस्तार के लिए मार डाला गया। ये पशु, जो स्थानीय भारतीय लोगों के लिए आर्थिक संसाधन और संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग थे, इनका मारा जाना भारतीय लोगों के लिए बहुत आघातकारी सिद्ध हुआ। वॉशिंगटन डी॰ सी॰ (डिस्ट्रिक्ट अव कोलंबिया) अमेरिका के संयुक्त राज्य में पूंजीवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था है, जोकि प्रचुर मात्रा में उपस्थित प्राकृतिक संसाधनों और उच्च उत्पादकता से प्रेरित है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, १६.८ ट्रिलियन डॉलर की अमेरिकी जीडीपी, बाजार विनिमय दर पर सकल विश्व उत्पाद का २४ फीसदी और क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) पर सकल विश्व उत्पाद का १९ फीसदी से अधिक का प्रतिनिधित्व करती है। २०१४ में सं॰रा॰ की जीडीपी (नाममात्र) का आकलन लगभग १७.५२८ ट्रिलियन डॉलर का किया गया था। १९८३ से २००८ तक, अमेरिकी की वास्तविक चक्रवृद्धि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर, शेष जी७ देशो की औसत २.३% की तुलना में ३.३% रही थी। संयुक्त राष्ट्र (पहली बार अमेरिका में) के अनुसार देश प्रति व्यक्ति नाममात्र जीडीपी में दुनिया में नौवां स्थान और पीपीपी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में छठे स्थान पर है। अमेरिकी डॉलर दुनिया की प्राथमिक आरक्षित मुद्रा है। संयुक्त राज्य वस्तुओं का सबसे बड़ा आयातक और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है, हालांकि प्रति व्यक्ति निर्यात अपेक्षाकृत कम है। २०१० में, कुल अमेरिकी व्यापार घाटा ६३५ अरब डॉलर का था। कनाडा, चीन, मेक्सिको, जापान और जर्मनी इसके शीर्ष व्यापारिक भागीदार हैं। २०१० में, तेल सबसे बड़ी आयात वस्तु थी, जबकि परिवहन उपकरण देश का सबसे अधिक निर्यात वस्तु था। जापान, सं॰रा॰ सार्वजनिक ऋण का सबसे बड़ा विदेशी धारक है। अमेरिकी ऋण का सबसे बड़ा धारक अमेरिकी संस्थाएं हैं, जिनमें संघीय सरकारी खाते और फेडरल रिजर्व शामिल हैं, जो कर्ज का बहुमत रखते हैं। २००९ में, निजी क्षेत्र अर्थव्यवस्था का ८६.४% हिस्सा का गठन करते थे, जबकि संघीय सरकार और राज्य और स्थानीय सरकारी गतिविधि (संघीय हस्तांतरण सहित) क्रमश: ४.३% और ९.३% हिस्सा लिये हुए थी। विनिर्माण से जुडे लोगों की संख्या, सरकार के सभी स्तर के कर्मचारियों की संख्या की तुलना में १.७:१ के अनुपात में थी। हालांकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था विकसित स्तर पर पहुंच गई है और इसका सेवा क्षेत्र, सकल घरेलू उत्पाद का 6७.८% है, अमेरिका के संयुक्त राज्य अभी भी एक औद्योगिक शक्ति बनी हुई है। विनिर्माण कम्पनियाँ, सकल व्यापार रसीदों के थोक और खुदरा व्यापार की अग्रणी बनी हुई है। फ़्रेंचाइज़िंग व्यवसाय मॉडल में, मैकडॉनल्ड्स और सबवे दुनिया के दो सबसे जानी-मानी ब्रांड हैं। कोका-कोला दुनिया की सबसे मान्यता प्राप्त शीतल पेय कंपनी है। रासायनिक उत्पाद अग्रणी विनिर्माण क्षेत्र हैं। संयुक्त राज्य दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है, साथ ही इसका दूसरा सबसे बड़ा आयातक भी है। यह दुनिया में विद्युत और परमाणु ऊर्जा के निर्माण के साथ ही तरल प्राकृतिक गैस, सल्फर, फॉस्फेट, और नमक निर्माण में भी अग्रणी है। नेशनल माइनिंग एसोसिएशन कोयले और अन्य खनिजों, जिसमें बेरेलियम, तांबा, सीसा, मैग्नीशियम, जिंक, टाइटेनियम और अन्य शामिल हैं, से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराता है। कृषि, सकल घरेलू उत्पाद का १% से भी कम हिस्सा है, फिर भी संयुक्त राज्य मक्का और सोयाबीन का दुनिया का शीर्ष उत्पादक है। राष्ट्रीय कृषि सांख्यिकी सेवा, कृषि उत्पादों संबन्धित आंकड़े उपलब्ध कराती है जिसमें मूंगफली, जई, राई, गेहूं, चावल, कपास, मकई, जौ, सूखी घास, सूरजमुखी, और तिलहन आदि शामिल हैं। इसके अलावा, अमेरिका के संयुक्त राज्य कृषि विभाग(यू॰एस॰डी॰ए॰) गोमांस, कुक्कुट, सूअर का मांस, और डेयरी उत्पादों संबन्धित पशुधन आंकड़े प्रदान करती है। देश आनुवांशिक संशोधित फसल का प्राथमिक विकासक और उत्पादक है, वर्तमान में दुनिया भर के बायोटेक फसलों का आधा हिस्सा इसके पास है। यह भी देखिए अमेरिका के राष्ट्रपतियों की सूची अमेरिका के संयुक्त राज्य स्पान - भारत में अमेरिकी दूतावास की पत्रिका संयुक्त राज्य अमेरिका उत्तर अमेरिका के देश
अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो (१२५३-१३२५) चौदहवीं सदी के लगभग दिल्ली के निकट रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे। उनका परिवार कई पीढ़ियों से राजदरबार से सम्बंधित था ई स्वयं अमीर खुसरो ने ८ सुल्तानों का शासन देखा था ई अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है ई वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा ई उन्हे खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है ई वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए हिन्दवी का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में महत्त्व है। अमीर खुसरो को तोता-ए-हिंद कहा जाता है मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् १२५३ईस्वी (६५२ हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (१२६६(१२६६)-१२८६(१२८६) ई०) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की माँ बलबनके युद्धमंत्री इमादुतुल मुल्क की पुत्री तथा एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और २० वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। खुसरो में व्यावहारिक बुद्धि की कोई कमी नहीं थी। सामाजिक जीवन की खुसरो ने कभी अवहेलना नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया। राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे। साहित्य के अतिरिक्त संगीत के क्षेत्र में भी खुसरो का महत्वपूर्ण योगदान है ई उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों का सुन्दर मिश्रण किया और एक नवीन राग शैली इमान, जिल्फ़, साजगरी आदि को जन्म दिया ई भारतीय गायन में क़व्वालीऔर सितार को इन्हीं की देन माना जाता है। इन्होंने गीत के तर्ज पर फ़ारसी में और अरबी ग़जल के शब्दों को मिलाकर कई पहेलियाँ और दोहे भी लिखे हैं। इनके तीन पुत्रों में अबुलहसन (अमीर खुसरो) सबसे बड़े थे - ४ बरस की उम्र में वे दिल्ली लाए गए। ८ बरस की उम्र में वे प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बने। १६-१७ साल की उम्र में वे अमीरों के घर शायरी पढ़ने लगे थे। एक बार दिल्ली के एक मुशायरे में बलबन के भतीजे सुल्तान मुहम्मद को ख़ुसरो की शायरी बहुत पसंद आई और वो इन्हें अपने साथ मुल्तान (आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब) ले गया। सुल्तान मुहम्मद ख़ुद भी एक अच्छा शायर था - उसने खुसरो को एक अच्छा ओहदा दिया। मसनवी लिखवाई जिसमें २० हज़ार शेर थे - ध्यान रहे कि इसी समय मध्यतुर्की में शायद दुनिया के आजतक के सबसे श्रेष्ठ शायर मौलाना रूमी भी एक मसनवी लिख रहे थे या लिख चुके थे। ५ साल तक मुल्तान में उनका जिंदगी बहुत ऐशो आराम से गुज़री। इसी समय मंगोलों का एक ख़ेमा पंजाब पर आक्रमण कर रहा था। इनको क़ैद कर हेरात ले जाया गया - मंगोलों ने सुल्तान मुहम्मद का सर कलम कर दिया था। दो साल के बाद इनकी सैनिक आकांक्षा की कमी को देखकर और शायरी का अंदाज़ देखकर छोड़ दिया गया। फिर यो पटियाली पहुँचे और फिर दिल्ली आए। बलबन को सारा क़िस्सा सुनाया - बलबन भी बीमार पड़ गया और फिर मर गया। फिर कैकुबाद के दरबार में भी ये रहे - वो भी इनकी शायरी से बहुत प्रसन्न रहा और इन्हे मुलुकशुअरा (राष्ट्रकवि) घोषित किया। जलालुद्दीन खिलजी इसी वक़्त दिल्ली पर आक्रमण कर सत्ता पर काबिज़ हुआ। उसने भी इनको स्थाई स्थान दिया। जब खिलजी के भतीजे और दामाद अलाउद्दीन ने ७० वर्षीय जलालुद्दीन का क़त्ल कर सत्ता हथियाई तो भी वो अमीर खुसरो को दरबार में रखा। चित्तौड़ पर चढ़ाई के समय भी अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी को मना किया लेकिन वो नहीं माना। इसके बाद मलिक काफ़ूर ने अलाउद्दीन खिलजी से सत्ता हथियाई और मुबारक शाह ने मलिक काफ़ूर से। २.हालात -ए- कन्हैया(भक्ति परक रचना) गोरी सोये सेज पर, मुख पर डाले केश चल खुसरू घर अपने, रैन भई चहूँ देश खुसरो दरिया प्रेम का,सो उलटी वा की धार जो उबरो सो डूब गया जो डूबा हुवा पार सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन, पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन। रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ, जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग। खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग, जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग। चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय, ये मारे करतार के रैन बिछोया होय। खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय, पूत पराए कारने जल जल कोयला होय। खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश, कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा। उज्ज्वल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान, देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान। श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत, एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत। पंखा होकर मैं डुली साती तेरा चाव, मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव। नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय, पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय। साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन, दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन। रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन, तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन। अंगना तो परबत भयो देहरी भई विदेस, जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस। आ साजन मोरे नयनन में सो पलक ढाप तोहे दूँ, न मैं देखूँ और न को न तोहे देखन दूँ। अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई, जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई। खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय, वेद, क़ुरान, पोथी पढ़े प्रेम बिना का होय। संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत, वे नर ऐसे जाऐंगे जैसे रणरेही का खेत। खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन, कूच नगारा सांस का बाजत है दिन रैन| ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,दुराये नैना बनाये बतियां | कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,न लेहो काहे लगाये छतियां|| शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह, सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां|| यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं, किसे पडी है जो जा सुनावे, पियारे पी को हमारी बतियां|| चो शम्मा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह| न नींद नैना, ना अंग चैना, ना आप आवें, न भेजें पतियां|| बहक्क-ए-रोज़े, विशाल ए-दिलबर कि दाद मारा, गरीब खुसरौ| सपेट मन के, वराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां || ख़बरम रसीदा इमशब, के निगार ख़ाही आमद सर-ए-मन फ़िदा-ए-राही के सवार ख़ाही आमद। हमा आहवान-ए-सेहरा, र-ए-ख़ुद निहादा बर कफ़ बा उम्मीद आं के रोज़ी, बा शिकार ख़ाही आमद। कशिशी के इश्क़ दारद, नागुज़ारदात बादीनशां बा जनाज़ा गर न आई, बमज़ार ख़ाही आमद। मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा - अमीर ख़ुसरो टटटी तोड़ के घर में आया। अरतन बरतन सब सरकाया। खा गया पी गया, दे गया बुत्ता ए सखी साजन?, न सखी कुत्ता। अमीर ख़ुसरो की रचनाएँ कविताकोश में आदिकाल के कवि