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सिलीगुड़ी (सिलीगुड़ी) भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के जलपाईगुड़ी ज़िले और दार्जीलिंग ज़िले (दोनों) में स्थित एक शहर है। इस से ३५ किमी पूर्व में जलपाईगुड़ी बसा हुआ है, और दोनों शहरों में विस्तार के कारण इनका एक बृहत-नगरीय क्षेत्र में विलय होता जा रहा है।
रेल और राजपथ का अंतस्थ होने के कारण, सिलीगुड़ी नगर दार्जिलिंग एवं सिक्किम के व्यापार का केंद्र है। जूट व्यवसाय नगर का प्रमुख व्यवसाय है। यह महानन्दा नदी के किनारे हिमालय के चरणों में स्थित है और जलपाईगुड़ी से ४२ किमी दूरी पर स्थित है। यह उत्तरी बंगाल का प्रमुख वाणिज्यिक, पर्यटक, आवागमन, तथा शैक्षिक केन्द्र है।२०११ में इसकी जनसंख्या ७ लाख थी। गुवाहाटी के बाद यह पूर्वोत्तर भारत का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। यह पश्चिम बंगाल का महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बन चुका है। इस नगर में लगभग २० हजार देसी और १५ हजार विदेशी पर्यटक प्रतिवर्ष आते हैं। नेपाल, भूटान तथा बांग्लादेश आदि पड़ोसी देशों और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के लिये भी यह वायु, सड़क तथा रेल यात्रा का पड़ाव बिन्दु है। यह चाय, आवागमन, पर्यटन तथा इमारती लकड़ी के लिये प्रसिद्ध है।
इन्हें भी देखें
पश्चिम बंगाल के शहर
जलपाईगुड़ी ज़िले के नगर
दार्जीलिंग ज़िले के नगर |
केपटाउन दक्षिण अफ्रीका की राजधानी है। केप टाउन दक्षिण अफ्रीका का दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला शहर है। यह वेस्टर्न केप की राजधानी है। यह दक्षिण अफ्रीका का संसद भवन भी है। यह जगह बंदरगाह, पर्वत और बाग आदि के लिए प्रसिद्ध है। टेबल मांउटेन, टेबल माउंटेन नेशनल पार्क, टेबल माउंटेन रोपवे, केप ऑफ गुड होप, चैपमैनस पीक, सिग्नल हिल, विक्टोरिया एंड अल्फ्रेड वाटरफ्रंट आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।
हजारों साल पहले केप टाउन आदिम जनजाति खोई का निवास स्थान हुआ करता था। १६५२ ई. में यहां पहली बार यूरोपियनों ने प्रवेश किया था। सर्वप्रथम यहां डच लोग आए। इस जगह पर १६५२ ई. में जान वान रिविक ने एक व्यापार केंद्र की स्थापना की। डचों के पीछे-पीछे जर्मन तथा फ्रेंच आए। यूरापियनों के आने के बाद केप टाउन धीरे-धीरे बसना शुरु हो गया। फिर स्टेल्लनबोसच, पर्ल तथा केप वाइनलैंड जैसे उपशहरों की स्थापना हुई। केप टाउन में ही देश का संसद भवन भी है। अब यह एक विश्वस्तरीय शहर है जो अपने मे प्राचीन सभ्यता-संस्कृति को संजोए हुए है।
टेबल माउंटेन समतल सतह की कम ऊंचाई वाला एक पहाड़ है। यह पहाड़ १०८६ मीटर ऊंचा है। यह केप टाउन के पश्िचमी भाग में स्थित है। इस पहाड़ पर से केप टाउन शहर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। इस पहाड़ की चोटी पर जाने के लिए रोपवे लगा हुआ है। यह पहाड़ मुख्य रूप से टेबल माउंटेन नेशनल पार्क का एक हिस्सा है।
टेबल माउंटेन नेशनल पार्क
इस पार्क को पहले केप पेन्नीसुला नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता था। इस पार्क की स्थापना २९ मई १९९८ ई. को की गई थी। इस पार्क की स्थापना का मुख्य उद्देश्य टेबल माउंटेन के पास के पर्यावरण को सुरक्षित रखना था। विशेषकर टेबल माउंटेन के जंगलों में पाए जाने वाले फेन्वॉस नामक जन्तु को सुरक्षित रखना। इस पार्क की देखभाल दक्षिण अफ्रीका नेशनल पार्क द्वारा की जाती है। इस पार्क के पास पर्यटन की दृष्िट से दो अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान टेबल माउंटेन और केप ऑफ गुड होप है।
टेबल माउंटेन रोपवे
यह रोपवे टेबल माउंटेन पर जाने के लिए बनाया गया है। यह केप टाउन के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में एक है। इस रोपवे का निचला स्टेशन ट्रेफलगर रोड से ३०२ मीटर की ऊंचाई पर है। जबकि इस रोपवे का ऊपरी स्टेशन १०६७ मीटर की ऊंचाई पर है। ऊपरी स्टेशन से केप टाउन शहर का अदभूत नजारा दिखता है।
केप ऑफ गुड होप
किसी भी देश में बहुत कम ऐसे स्थान होते हैं, जिन्होंने इतिहास को बदल कर रख दिया हो। केप टाउन में स्थित केप ऑफ गुड होप एक ऐसा ही स्थान है। १४८८ ई. में पुर्तगालियों ने इसी स्थान से अफ्रीका महादेश में कदम रखा था। इसके बाद से ही अफ्रीका का इतिहास बदल गया। यह अटलांटिक महासागर के पास स्थित है। केप टाउन आने वाले पर्यटक इस स्थान पर घूमने जरुर आते हैं।
यह एक पहाड़ी है जो केप टाउन के दक्षिण में १५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस पहाड़ी तक एक सड़क जाती है, जिसे चैपमैनस पीक ड्राइव के नाम से जाना जाता है। 19१५ से १९२२ ई. के बीच बना यह सड़क अपने समय में इंजीनियरिंग का अदभूत नमूना है। यह एक खड़ी सड़क है। यह मार्ग कठिन होने के कारण यहां सावधानी पूर्वक गाड़ी चलाए।
यह एक सपाट सतह वाली पहाड़ी है, जो टेबल माउंटेन के नजदीक स्थित है। इस पहाड़ी को '''द लायंस फ्लैंक' के नाम से भी जाना जाता है। पर अब यह नाम अप्रचलित हो गया है। यह नून गन के लिए प्रसिद्ध है।
समुद्र तट पर स्थित होने के कारण केप टाउन में बहुत सारे बीच हैं। ग्लेन बीच, कैंपस बे, क्लिफटन, सी प्वाइंट, सैंड वे, ब्लूबर्गस्ट्रैंड आदि यहां स्थित महत्वपूर्ण बीच हैं। इन बीचों पर हमेशा पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। यहां पर तैराकी का आनंद भी उठाया जा सकता है।
विक्टोरिया एंड अल्फ्रेड वाटरफ्रंट
केप टाउन स्थित विक्टोरिया एंड अल्फ्रेड वाटरफ्रंड पर्यटकों के सबसे पसंदीदा स्थलों में से है। यह एक ऐतिहासिक बंदरगाह है, जो अभी भी काम कर रहा है। यह बंदगाह रोबेन आइसलैंड और टेबल माउंटेन के बीच स्थित है। इस बंदगाह के आस-पास पर्यटकों के मनोरंजन का भी प्रबंध किया गया है। इस बंदरगाह का निर्माण १८६० ई. में रानी विक्टोरिया के पुत्र प्रिंस अल्फ्रेड ने करवाया था।
टू ओसेन एक्वीरियम
यह एक्वीरियम विक्टोरिया एंड अल्फ्रेड वाटर पार्क में स्थित है। इस एक्वीरियम में सात गैलरियां हैं। इसे १३ नवम्बर १९९५ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया था।
यह केप टाउन का मुख्य बाजार है, जो केप टाउन के सिटी बॉउल क्षेत्र में है। यहां थियेटर, बुकस्टोर, होटल, रेस्टोरेंट आदि काफी संख्या में है।
यह एक मिनिस्ट्रेल त्योहार है जो केप टाउन में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस त्योहार में १३,००० से ऊपर मिनिस्ट्रेल अपने चेहरे को सफेद रंग से रंगे हुए भाग लेते हैं। वे विभिन्न रंग के छाते और वाद्ययंत्र लिए होते हैं। इस त्योहार को केप टाउन मिनिस्ट्रेल कार्निवल के नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहार हर वर्ष २ जनवरी को मनाया जाता है।
क्रिस्टनबोच बोटेनिकल गार्डन
यह गार्डेन न्यूलैंड में स्थित है। इस गार्डेन में विभिन्न प्रकार के पौधों का सुंदर संग्रह है।
घूमने का समय: सुबह ८ बजे से शाम ६ बजे तक।
यह आइसलैंड केप टाउन से कुछ दूरी पर स्थित है। इसी स्थान पर नेल्सन मंडेला को यहीं पर नजरबंद रखा गया था।
केप टाउन में ही दक्षिण अफ्रीका का संसद है। केप टाउन आने वाले पर्यटक इस भवन को देखने जरुर आते हैं। इस भवन में प्रवेश नि: शुल्क है।
इसके अलावा बो-कैप म्यूजियम, डिस्ट्रिक सिक्स म्यूजियम आदि भी यहां देखने योग्य है।
केप टाउन में केप टाउन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। यह दक्षिण अफ्रीका का दूसरा सबसे बड़ा हवाई अड्डा है। यहां दूसरे देशों से नियमित रूप से हवाई जहाज आते रहते हैं।
अफ्रीका में राजधानियां
दक्षिण अफ्रीका के तटीय शहर
दक्षिण अफ्रीका की प्रांतीय राजधानियां
पश्चिमी केप प्रान्त
दक्षिण अफ़्रीका के नगर
दक्षिण अफ़्रीका में बंदरगाह नगर
अटलांटिक महासागर के बंदरगाह नगर |
प्राग (चेक: प्राहा; जर्मन: प्राग; ) चेक गणराज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह यूरोपीय संघ का १४वां सबसे बड़ा शहर है। प्राग कभी बोहेमिया की ऐतिहासिक राजधानी हुआ करती थी। वल्टावा नदी के उत्तर-पश्चिम में स्थित यह शहर १.३ मिलियन लोगों का घर है, जबकि इसके महानगरीय क्षेत्र की २.६ लाख की आबादी होने का अनुमान है। शहर में समशीतोष्ण जलवायु है, अर्थात: गर्म गर्मियाँ और बेहद ठंड सर्दियाँ।
प्राग एक समृद्ध इतिहास के साथ मध्य यूरोप का एक राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र रहा है। रोमनकाल के दौरान स्थापित और गॉथिक, पुनर्जागरण और बारोक युग में समृद्ध प्राग, बोहेमिया साम्राज्य की राजधानी थी और कई पवित्र रोमन सम्राटों का मुख्य निवास स्थल थी, जिसमें मुख्यत: चार्ल्स चतुर्थ (शा.१३४६-१३७८) शामिल थे। यह हाब्सबर्ग राजशाही और उसके ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण शहर था। शहर ने दोनों विश्व युद्धों और युद्ध के बाद के कम्युनिस्ट युग के दौरान बोहेमियन और यूरोपीय धर्मसुधार, तीस साल का युद्ध और २०वीं शताब्दी के इतिहास में चेकोस्लोवाकिया की राजधानी के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई है।.
अपने अस्तित्व के हजारों वर्षों के दौरान, यह शहर उत्तर में स्थित प्राग के किले से दक्षिण में व्यास्राद के किले तक फैलते हुए, एक आधुनिक यूरोपीय देश, और यूरोपीय संघ के एक सदस्य देश, चेक गणराज्य की राजधानी बन गया।
प्राग वल्टावा नदी के किनारे पर स्थित है। प्राग बोहेमियन बेसिन के केंद्र में ५००५"एन और १४२७"ई अक्षांश पर स्थित है, इस प्रकार यह लगभग फ्रैंकफर्ट (जर्मनी); पेरिस (फ्रांस); और वैंकूवर (कनाडा) के समान अक्षांश में स्थित है।
प्राग में आर्द्र महाद्वीपीय जलवायु (कोपेन डीएफबी) है। सर्दियों में बहुत कम धूप के साथ औसत तापमान जमने के बिन्दु के पास तक पहुच जाता हैं। नवंबर के मध्य से मार्च के मध्य तक हिमपात आम बात है, और २० सेमी (८ इंच) तक बर्फ जमा हो जाना सामान्य हैं। ग्रीष्मकाल के दौरान आमतौर पर अधिक धूप होती है और अधिकतम तापमान २४ डिग्री सेल्सियस (७५ डिग्री फारेनहाइट) तक पहुंच जाता हैं। यद्यपि गर्मियों में रात में भी काफी ठंड हो जाती हैं। प्राग (और बोहेमिया के अधिकांश निचले क्षेत्र में) में वर्षा कम होती है (मात्र ५०० मिमी[२० इंच] प्रति वर्ष) क्योंकि यह सूडेट्स और अन्य पर्वत श्रृंखलाओं की बारिश की छाया में स्थित है।
२०११ की जनगणना के अनुसार, शहर के लगभग १४% निवासियों विदेशी है, जोकि देश के उच्चतम अनुपात है।
१३७८ के बाद से प्राग की जनसंख्या वृद्धि;
शहर पारंपरिक रूप से यूरोप के सांस्कृतिक केंद्रों में से एक है, जहाँ कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्थानों में नेशनल थिएटर (नॉरदनी डिवाडलो) और एस्टेट्स थियेटर (स्टोवोवस्के या टिलोवो या नोस्टीकोवो डिवाडलो) शामिल हैं, जहां मोजार्ट डॉन गियोवानी और ला क्लेमेन्ज़ा डि टिटो के कार्यक्रम हुए थे। अन्य प्रमुख सांस्कृतिक संस्थान में रूडोल्फिनम हैं जोकि चेक फिलहारमोनिक ऑर्केस्ट्रा और म्यूनिसिपल हाउस का घर है जोकि प्राग सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा के लिये प्रसिद्ध है।
यूरोप में कम लागत वाली हवाईयात्रों की वृद्धि के साथ, प्राग एक लोकप्रिय सप्ताहांत शहर गंतव्य बन गया है। जिससे पर्यटक अपने कई संग्रहालयों और सांस्कृतिक स्थलों के साथ-साथ अपने प्रसिद्ध चेक बियर और भोजन का लुफ़्त उठाते है। शहर में एडॉल्फ लॉस (विला म्युलर), फ्रैंक ओ. गेहरी (डांस हाउस) और जीन नोवेल (गोल्डन एंजल) सहित कई प्रसिद्ध आर्किटेक्ट्स द्वारा बनाये गये भवन हैं।
प्राग की अर्थव्यवस्था का चेक जीडीपी का २५% है, जिससे यह देश की सबसे ज्यादा क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था है। यूरोस्टैट के मुताबिक, २००७ तक, इसकी सकल घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति क्रय-शक्ति समता ४२,८०० थी। २०१६ में प्राग युरो की जीडीपी के अनुसार शहर की सूची में ६वें स्थान पर था।
यूरोप में राजधानियाँ |
पेशावर पाकिस्तान का एक शहर है। यह ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रान्त की राजधानी है। पेशावर उल्लेख पुराने पुस्तकों में "पुरुषपुर" के नाम से मिलता है। इस उपमहाद्वीप के प्राचीन शहरों में से एक है। पेशावर पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत और कबायली इलाकों के वाणिज्यिक केंद्र है। पेशावर में पश्तो भाषा बोली जाती है लेकिन जब उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है इसलिए उर्दू भी माना जाता है।
पेशावर का पोरटल वेबसायट
पाकिस्तान के शहर
पाकिस्तान की राजधानियां
पाकिस्तान के महानगर |
राबड़ी देवी (जन्म: १९५६ गोपालगंज) स्वतन्त्र भारत में बिहार प्रान्त की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी २५ जुलाई १९९७ को बिहार की मुख्यमन्त्री उस समय बनीं जब बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में उनके पति को जेल जाना पड़ा था।
राबड़ी देवी ने तीन कार्यकाल में मुख्यमन्त्री पद सम्भाला| मुख्यमन्त्री के रूप में उनका पहला कार्यकाल सिर्फ़ २ साल का रहा जो २5-०७-१९९७ - ११-0२-१९९९ तक चल सका। दूसरे और तीसरे कार्यकाल में उन्होंने मुख्यमन्त्री के तौर पर अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया। उनके दूसरे और तीसरे कार्यकाल की अवधि क्रमशः सन् ०९-०३-१९९९ - 0२-०३-२000 और ११-०३-२000 - ०६-०३-२005 रहा। सन् २005 में हुए विधानसभा चुनाव में राबड़ी देवी वैशाली के राघोपुर क्षेत्र से निर्वाचित हुईं।
राबड़ी का जन्म शिवप्रसाद चौधरी के घर बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ था। १७ साल की उम्र में उनका विवाह सन् १९७३ में लालू प्रसाद यादव के साथ हुआ। राबड़ी के सात बेटियाँ और दो बेटे (तेज प्रताप यादव तथा तेजस्वी यादव) हैं। बिहार की मुख्यमंत्री रहते हुए उन पर दफ्तर न जाने और विधानसभा में सवालों का जवाब न देने का आरोप लगता रहा है।
पन्द्रहवीं लोकसभा के लिये हो रहे चुनाव प्रचार के दौरान एक आम सभा में राबड़ी देवी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल यूनाइटेड(जदयू)के प्रदेश अध्यक्ष लल्लन सिंह के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी की। मीडिया में इसको लेकर उनकी खूब किरकिरी हुई। और जनता दल यूनाइटेड(जदयू) के प्रदेश अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ लल्लन सिंह ने पटना के सीजेएम कोर्ट में राबड़ी देवी के खिलाफ १३ अप्रैल २००९ को मानहानि का मुकदमा दायर किया। राबड़ी के खिलाफ आदर्श चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप भी लगा। बिहार विधानसभा चुनाव, २०१० में, राबड़ी देवी ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा: राघोपुर और सोनपुर विधानसभा सीटें, लेकिन दोनों को हार गई, जबकि राष्ट्रीय जनता दल को भारी हार का सामना करना पड़ा, केवल २२ सीटों पर जीत दर्ज की गई। २०१४ के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सारण निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा लेकिन हार गए।
इन्हें भी देखें
१९५९ में जन्मे लोग
बिहार के मुख्यमंत्री |
इस्लामाबाद पाकिस्तान की राजधानी है। भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान को एक राजधानी नगर की आवश्यकता थी। ना तो लाहौर और न ही कराची जैसे नगर इस हेतु सही पाए गए अंतः एक नए नगर की स्थापना का निर्णय लिया गया जो पूरी तरह से नियोजित हो। इस कार्य हेतु फ़्रांसीसी नगर नियोजक तथा वास्तुकार ली कार्बूजियर की सेवा ली गई। इन्हीं महोदय ने भारत में चंडीगढ़ की स्थापना की योजना बनाई थी। इस कारण ये दोनों नगर देखने में एक जैसे लगते हैं।
२००९ के अनुमान अनुसार इस नगर की जनसंख्या ६,७३,७६६ है।
१९५८ तक कराची पाकिस्तान की राजधानी रहा। कराची की बहुत तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या और अर्थशास्त्र के कारण राजधानी को किसी दूसरे नगर में स्थानांतरित करने कि सोची गई। १९५८ में तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब ख़ान ने रावलपिंडी के पास इस स्थान का चयन किया और यहां इस नगर के निर्माण करने का आदेश दिया। अस्थाई तौर पर राजधानी को रावलपिंडी स्थानांतरित किया गया और १९६० में इस्लामाबाद में विकास कार्य आरम्भ हुआ। १९६८ में राजधानी को इस्लामाबाद स्थानांतरित कर दिया गया।
इस्लामाबाद में इस्लामाबाद राजधानी क्षेत्र में मार्गलह हिल्स के पैर में पोठवार पठार के किनारे पर स्थित है। इसकी ऊंचाई ५०७ मीटर (१६६३ फीट) है। यह बहुत रावलपिंडी के करीब है।
इस्लामाबाद की ७०% जनसंख्या पंजाबी बोलती है। उर्दू, पश्तो, सिन्धी और अंग्रेजी इत्यादि भी यहाँ बोली जाती है।
इसलामाबाद पार्कों का नगर है। कुछ मुख्य पार्क हैं: शकरपड़ीआं, दामन कोह, फ़ातमा जिनाह पार्क, जाने पशाने पार्क है।
एशिया में राजधानियाँ |
नागासाकी () जापान का एक शहर है। यह वही शहर है जो बम गिरने से तबाह हुआ था।
नागासाकी का मतलब "लम्बा प्रायद्वीप" है। वह दक्षिण पश्चिम क्यूशू द्वीप में समुद्र के किनारे पर है। वह दूसरा शहर है जिसपर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान १९४५ में अमरीका ने परमाणु बम गिराया था।
नागासाकी की आबादी (२००४) ४,४७,४१९ है और उसका क्षेत्रफल ४०६.३५क्म है।
जापान के नगर
कॉमन्स पर निर्वाचित चित्र युक्त लेख |
डेनमार्क या डेनमार्क राजशाही (डैनिश: डेनमार्क या कॉन्गेरिगेट डेनमार्क) स्कैंडिनेविया, उत्तरी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी भूसीमा केवल जर्मनी से मिलती है, जबकी उत्तरी सागर और बाल्टिक सागर इसे स्वीडन से अलग करते हैं। यह देश जूटलैंड प्रायद्वीप पर हज़ारों द्वीपों में फैला हुआ है। डेनमार्क ने लंबे समय तक बाल्टिक सागर को जाने वाले मार्गों को नियंत्रित किया है और इस जलराशी को डैनिश खाड़ी के नाम से जाना जाता है। इसके छोटे आकार के विपरीत इसकी समुद्री सीमा बहुत लम्बी है लगभग ७,३१४ किमी। डेनमार्क अधिकांशतः एक समतल देश है और समुद्र तल से अधिकतम ऊँचाई वाला स्थान केवल १७० मीटर ऊँचा है। फ़रो द्वीप समूह और ग्रीनलैंड डेनमार्क के अधीनस्थ है।
२००८ के वैश्विक शांति सूचकांक के अनुसार डेनमार्क, आइसलैंड के बाद विश्व का सबसे शांत देश है। २००८ के ही भ्रष्टाचार दृष्टिकोण सूचकांक के अनुसार यह विश्व के सबसे कम भ्रष्ट देशों में से है और न्यूज़ीलैंड और स्वीडन के साथ पहले स्थान पर है। मोनोक्ल पत्रिका के २००८ के एक सर्वेक्षण के अनुसार इसकी राजधानी कॉपनहेगन रहने योग्य सर्वाधिक उपयुक्त नगर है। वर्ष २००९ में देश की अनुमानित जनसंख्या ५५,१९,२५९ है।
पुरातात्विक खोजों के प्राचीनतम चिह्न १,३०,०००-१,१०,००० ईपू के हैं। मानव उपस्थिति के चिह्न १२,५०० ईपू के हैं और ३९०० ईपू के बाद से कृषि गतिविधियों के साक्ष्य मिले हैं।
डेनमार्क के लोग उसी नस्ल के हैं जिसके स्कैन्डिनेविया वाइकिंग्स थे। स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में डेनमार्क ८वीं सदी में अस्तित्व में आया। डेनिश समुद्री-खोजियों ने वाइकिंग्स के साथ उत्तरी यूरोप, मुख्यतः इंग्लैंड पर चढ़ाई की थी। १०वीं सदी में डेनमार्क के राजा हैराल्ड ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और पूरे डेनमार्क का ईसाईकरण कर दिया गया। १०१३ में, राजा स्वीन, जो हैराल्ड का पुत्र था, ने इंग्लैंड पर विजय पाई। स्वीन के पुत्र, कानौटोस महान ने १८२१ में वर्तमान ब्रिटेन, डेनमार्क और पूरे स्कैंडिनेविया को एकीकृत कर उत्तरी यूरोप में एक विशाल राज्य का निर्माण किया।
१८५० में कानौटोस द्वितीय के प्राधिकरण में, डेनमार्क ने नार्वे और आइसलैंड और फ़रो द्वीप समूह के ऊपर चढ़ाई की और सफलता पाई । १९१६ में महारानी मार्गरेट प्रथम, जो ओलाफ़ की माता थीं, ने स्वीडन को जीत लिया। और तब तीनों साम्राज्यों (डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन नार्वे और आइसलैंड और फ़रो द्वीप समूह) को एकीकृत करने का प्रयास किया गया जिससे अंततः १३९७ में काल्मर संघ परिणित हुआ। संघ में डेनमार्क के पास अधिक सत्ता शक्ति थी।
१९३४ में डेनमार्क ने ग्रीनलैंड का औपनिवेशीकरण आरंभ किया, जिसपर १९३७ तक अधिकार कर लिया गया। १९४० के आरंभ में स्वीडन ने स्वायत्ता प्राप्त की और १५२३ में प्रथम राजा, गुस्ताव ए के द्वारा स्वतंत्रता प्रप्त की।
नेपोलियाई युद्धों में, डेनमार्क नपोलियन की ओर था और १८१३ की कील संधि में नार्वे को स्वीडन से हार बैठा। १८६४ में जर्मन बिस्मार्क ने अपनी जर्मनी के एकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने के लिए, आस्ट्रिया और प्रुसिया से गठबंधन कर डेनमार्क के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।
प्रथम विश्व युद्ध (१९१४-१९१९) के दौरान डेनमार्क तटस्थ देश था। १९३९ में डेनमार्क ने हिटलर के साथ एक १०-वर्षीय संधि की, लेकिन वह कुछ महीनों बाद हुए जर्मन आक्रमण से बच गया। नाज़ी अधिकरण के दौरान आइसलैंड स्वतंत्र हो गया, जिसपर १३८० से डेनमार्क का अधिकार था। १९४५ में डेनमार्क को ब्रिटिश सैनिको द्वारा स्वतंत्र करवाया गया। उसी वर्ष डेनमार्क ने सयुंक्त राष्ट्र और १९४९ में नाटो की सदस्यता ग्रहण की।
१९५३ में संविधान में संशोधन किया गया जिसमें महिलाओं को संसद में भागीदारी करने का अधिकार दिया गया। १९७२ में आयरलैंड और ब्रिटेन के साथ डेनमार्क ईईसी का सदस्य बना और १९७३ में पूर्ण और समान सदस्य बना। ग्रीनलैंद को १९७९ में स्वायत्ता दी गई। १९९२ में डेनमार्कवासियों ने मास्टिक्ट संधि को खारिज कर दिया लेकिन अगले ही वर्ष कुछ बदलावों के बाद उस संधि को स्वीकार कर लिया। २८ सितंबर, २००० के एक जनमत संग्रह में अधिसंख्य लोगों ने यूरो क्षेत्र से जुड़ने के विरोध में मतदान किया जिसके परिणामस्वरूप यहाँ की मुद्रा अभी भी डैनिश क्राउन है।
१९ मार्च, २००९ को, यहाँ की संसद ने ६२-५३ के बहुमत से समलैंगिकों जोड़ो को डेनमार्क और बाहर से बच्चे गोद लेने का अधिकार दिया।
जूटलैंड प्रायद्वीप, डेनमार्क की मुख्य भूमि है जिसकी लंबाई ३०० किमी है। मुख्यभूमि डेनमार्क का पश्चिमी तट निम्न है, लेकिन बंदरगाह रेत के टीलों से ढके हुए है जो लगभग ३० मीटर तक ऊँचे हैं। वे सर्दियों के तूफ़ानों और बहुत तेज हवाओं के संपर्क में रहते हैं। इसके विपरीत, बाल्टिक से लगता पूर्वी तट अपेक्षाकृत ऊँचा है जहाँ पर बहुत से कोल्पोसीस (कोलपोसीस) हैं। कुल मिलाकर, डेनमार्क बड़े-छोटे ४०५ द्वीपों को मिलाकर बना है जिनमें से ७५ अबसासित हैं।
यहाँ बहुत-सी लेकिन छोटी-२ नदियाँ हैं। पूरे डेनमार्क में बहुत सी छोटी-२ झीलें भी हैं। डैनिश रिलीफ़ हिम युग के दौरान बना था, इसलिए यह देश अधिकांशतः चपटा है। देश का सबसे ऊँचा पहाड़ केवल १७० मीटर ऊँचा है।
मेक्सिको की खाड़ी से आने वाली धाराओं के कारण यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण है। पूरे वर्षभर तेज़ हवाएँ बहती हैं, मुख्यतः सर्दियों में और इसलिए डेनमार्क विश्व के उन कुछ देशों में है जो पवन ऊर्जा का उपयोग करते हैं। वर्षा पूरे वर्षभर और समान रूप से होती है। औसत वर्षाकाल १२१ दिनों का है।
डेनमार्क का सबसे बड़ा नगर है कोपनहेगन जहाँ की जनसंख्या ११,००,००० है। दूसरा सबसे बड़ा नगर है आर्हस (२,८५,०००) और फिर है ओडेन्सी (१,४५,०००)।
डेनमार्क एक कृषि उपयुक्त देश है क्योंकि यहाँ की भू-रचना इस प्रकार की है जो कृषि कार्यो के लिए उपयुक्त है। डेनमार्कवासियों का जीवन स्तर बहुत ऊँचा है। देश की निम्नभूमि, ग्रामीण परंपराएं, भागीदारी की शक्ति और कृषि के आधुनिक ढंग और औज़ार यहाँ खेती और पशुपालन की ऊँची दर के प्रमुख कारण हैं। यहाँ मुख्यतः अनाज (जैसे जौ, जई, गेहूँ) उगाया जाता है और सुअरों, बकरियों और घोड़ों का पालन किया जाता है। यहाँ की फ़सल पैदावार यूरोप में सर्वाधिक है जबकि कृषि शिक्षा का स्तर भी बहुत ऊँचा है। मछलीपालन का भी यहाँ की अर्थव्यस्था में बहुत योगदान है। विश्व सूचना प्रौद्योगिकी प्रतिवेदन २००८-२००९ के अनुसार तकनीकी रूप से उन्न्त देशों की सूची में डेनमार्क, स्वीडन के साथ आठ वर्षो से निरंतर शीर्ष पर है।
यह एक पूँजीवादी मुक्त बाज़ार वाली अर्थव्यस्था है और एक कल्याणकारी राज्य भी है।
उद्योग एवं व्यापार
कृषि और पशुपालन के अतिरिक्त यहाँ आधुनिक, विकसित उद्योग-धंधे भी हैं जैसे खाद्य उद्योग, रसायन उद्योग, वस्त्र उद्योग, वैद्युतीय उद्योग, धातुकर्म और जहाज़रानी। मुख्य उत्पाद हैं बीयर, कागज़ और काठ उत्पाद। यहाँ खनिज पदार्थ बहुत कम पाए जाते हैं। उत्तरी सागर में थोड़ी मात्रा में कच्चा तेल निकाला जाता है, लेकिन वह देश की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है। व्यापार संतुलन आमतौर पर देनदारियों और जहाज़रानी विनिमय द्वारा अंतर्लम्ब है। डेनमार्क मुख्यतः कृषि और पशुधन उत्पाद, जहाजः निर्माण और पवन चक्कियों संबंधी मशीनरी का निर्यात करता है। अपनी सामरिक स्थिति के कारण पूर्वी और पश्चिमी यूरोप का बहुत सा समुद्री यातायात यहाँ से होकर गुजरता है। वाणिज्यिक लेनदेन मुख्यतः स्वीडन, जर्मनी और ब्रिटेन करते हैं। बाकी के यूरोप की तुलना में बेरोजगारी दर (४.८%) अपेक्षाकृत रूप से कम है।
हाल के वर्षों में पर्यटन उद्योग का डेनमार्क की अर्थव्यवस्था में महत्व बढ़ा है। वर्ष १९९९ में ३० लाख विदेशी पर्यटक डेनमार्क आए थे, जिनमें से एक तिहाई यानी १० लाख जर्मन थे। वस्तुत पर्यटन उद्योग से प्राप्त होने वाला राज्स्व ३ अरब अमेरिकी डॉलर है।
वर्ष २००९ के अनुमानानुआर डेनमार्क की जनसंख्या ५५,००,५१० है। यहाँ के निवासी नस्लीय रूप से जर्मन हैं। केवल ४% लोग अप्रवासी हैं।
२००९ के अनुमानानुसार यहाँ जीवन प्रत्याशा ७८.३ वर्ष है (पुरुष ७५.९६ और महिला ८०.७८)
यहाँ की ९८% जनसंख्या प्रोटेस्टेन्ट है और रोमन कैथोलिक ईसाई केवल १% हैं।
डेनमार्क की आधिकारिक भाषा है डैनिश। यह हिन्द यूरोपीय और जर्मनेक भाषा परिवार की भाषा है। यह स्वीडिश, जर्मन, नार्वेजियाई और आइस्लैंडिक भाषाओं से मिलती-जुलती है।
डेनमार्क मे साहित्यिक उत्पादन मध्य काल में आरंभ हुआ और यह फ़्रांसीसी, जर्मन और अंग्रेज़ी से प्रभावित है। डेनिश मध्य काल का सबसे प्रमुख साहित्य है जेस्टा डानोरम जो आरंभिक १३वीं सदी से है।
डेनमार्क पाँच भागों में विभक्त है। यह क्षेत्र १ जनवरी, २००७ को १३ पुरानी काउंटियों, दो नगरों और एक क्षेत्रीय नगर निगम को बदलकर स्थपित किए गए थे। पिछला प्रशासकीय विभाग ३१ दिसंबर, २००६ तक प्रभावी था। प्रत्येक क्षेत्र राष्ट्रपति द्वारा शासित होता है। ये पाँच क्षेत्र हैं:
डेनमार्क राजशाही एक संवैधानिक राजशाही है। जैसा की डेनमार्क के संविधान में निर्धारित है, यहाँ का शासक अपने कार्यकलापों के लिए उत्तरदाई नहीं है और उसके द्वारा निर्धारित व्यक्ति पुनीत होता है। औपचारिक रूप से शासक प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति और अनियुक्ति करता/ती है। प्रधानमंत्री का चुनाव प्रथानुसार संसदीय दलों के नेताओं के बीच बातचीत के द्वारा किया जाता है। वर्तमान में यहाँ की शासक कै महारानी मार्गरेट द्वितीय और प्रधानमंत्री है लार्स रास्मुसेन लोके (लार रस्मसेन लोके)
डेनमार्क में १८ वर्ष से ऊपर के सभी डैनिश नागरिक मतदान कर सकते हैं।
अंतिम संसदीय चुनावों में, जो १३ नवंबर, २००७ को हुए थे, सत्तारूढ़ गठबंधन को लगातार तीसरी बार जीत मिली थी।
उत्तराधिकार पर जनमत संग्रह अधिनियम २००९
७ जून, २००९ को डैनिश मतदाताओं ने राजा के उत्तराधिकारी चुने जानें के ढंग पर इस पक्ष में मतदान किया की इसमें केवल पुरुषों के अतिरिक्त महिलाओं और बच्चों को भी सम्मिलित किया जाए। कुल ५९.३७% लोगों मे मतदान किया और ८५.३५% ने पक्ष और १४.६५% ने विपक्ष में मतदान किया।
कुल २३,९९,९१३ मत पड़े जिसमें से १८,५८,१८० पक्ष में और ३,१८,९२९ विपक्ष में थे और २,२२,८०४ बेकार मत थे।
डेनमार्क में गाड़ियाँ बायी ओर चलती हैं।
नोट्स और संदर्भ
डेनमार्क पर्यटन (बहुभाषीय)
डेनमार्क संबंधी आँकड़े
डेनमार्क के बारे में जानकारियाँ
यूरोप के देश |
|नेटिव_नामी = इंडोनेशिया गणराज्य का एकात्मक राज्य
|डेमोनीम = इंडोनेशियाई (इण्डोनेशियाई)
इंडोनेशिया गणराज्य (दीपांतर (दीपान्तर) गणराज्य) दक्षिण पूर्व एशिया और ओशिनिया में स्थित एक विशाल देश है। जिसकी राजधानी जकर्ता से (कालिमन्तन ) नूसन्तारा हो गयी है एवं यह १७,५०८ द्वीपों वाले इस देश की जनसंख्या लगभग २७ करोड़ है, यह दुनिया का चौथा सबसे अधिक आबादी और दुनिया में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। देश की राजधानी जकार्ता है। देश की जमीनी सीमा पापुआ न्यू गिनी, पूर्वी तिमोर और मलेशिया के साथ मिलती है, जबकि अन्य पड़ोसी देशों सिंगापुर, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया और भारत का अंडमान और निकोबार द्वीप समूह क्षेत्र शामिल है।
ईसा पूर्व ४थी शताब्दी से ही इंडोनेशिया द्वीपसमूह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक क्षेत्र रहा है। बुनी अथवा मुनि सभ्यता इंडोनेशिया की सबसे पुरानी सभ्यता है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक ये सभ्यता काफी उन्नति कर चुकी थी। ये हिंदू एवं बौद्ध धर्म मानते थे और ऋषि परंपरा का अनुकरण करते थे। अगले दो हजार साल तक इंडोनेशिया एक हिंदू और बौद्ध देशों का समूह रहा। यहाँ हिंदू राजाओं का राज था। किर्तानेगारा और त्रिभुवना जैसे राजा यहाँ सदियों पहले राज करते थे। श्रीविजय के दौरान चीन और भारत के साथ व्यापारिक सम्बंध थे। स्थानीय शासकों ने धीरे-धीरे भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रारुप को अपनाया और कालांतर में हिंदू और बौद्ध राज्यों का उत्कर्ष हुआ। इंडोनेशिया का इतिहास विदेशियों से प्रभावित रहा है, जो क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों की वजह से खिंचे चले आए। मुस्लिम व्यापारी अपने साथ इस्लाम लाए। विदेशी व्यापारी मुस्लिम यहाँ आकर व्यापार के साथ अपना धर्म भी फैला रहे थे जिसके कारण यहाँ की पारंपरिक हिंदू और बौद्ध संस्कृति को पुर्णत: समाप्त हो गई, परंतु इंडोनेशिया के लोग भले ही आज इस्लाम को मानते हों किंतु यहाँ आज भी हिंदू धर्म समाप्त नहीं हुआ है यहाँ के इस्लामी संस्कृति पर हिंदु धर्म का प्रभाव दिखता है। लोगों और स्थानों के नाम आज भी अरबी एवं संस्कृत में रखे जाते हैं यहाँ आज भी पवित्र कुरान को संस्कृत भाषा में पढ़ी व पढ़ाई जाती है। यूरोपिय शक्तियाँ यहाँ के मसाला व्यापार में एकाधिकार को लेकर एक-दूसरे से लड़ीं। तीन साल के इटालियन उपनिवेशवाद के बाद (द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद) इंडोनेशिया को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
इसका और साथ के अन्य द्वीप देशों का नाम भारत के पुराणों में दीपांतर (दीपान्तर) भारत (अर्थात सागर पार भारत) है। यूरोप के लेखकों ने १५० वर्ष पूर्व इसे इंडोनेशिया (इण्डोनेशिया) (इंद= भारत + नेसोस = द्वीप के लिये) दिया और यह धीरे धीरे लोकप्रिय हो गया। की हजर देवान्तर (देवांतर) पहला देशी था जिसने अपने राष्ट्र के लिये इंडोनेशिया (इण्डोनेशिया) नाम का प्रयोग किया। कावी भाषा में लिखा भिन्नेक तुंग्गल इक (भिन्नता में एकत्व) देश का आदर्श वाक्य है। दीपांतर (दीपान्तर)'' नाम अभी भी प्रचलित है इंडोनेशिया अथवा जावा भाषा के शब्द नुसान्तर में। इस शब्द से लोग बृहद इंदोनेशिया समझते हैं।
इंडोनेशिया एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है, जिसमें निजी क्षेत्र एवं सरकारी क्षेत्र दोनों की भूमिका है। इंडोनेशिया दक्षिण-पूर्वी एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और जी-२० अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। सन २०१० में, इंडोनेशिया का अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (नाममात्र) लगभग ९१० अरब डॉलर था। सकल घरेलू उत्पाद में सबसे अधिक ४४.४% योगदान कृषि क्षेत्र का है, इसके बाद सेवा क्षेत्र ३७.१% एवं उद्योग १9.५% योगदान करती है। २०१० से, सेवा क्षेत्र ने अन्य क्षेत्रों से अधिक रोजगार दिए। हालाँकि, कृषि क्षेत्र सदियों तक प्रमुख नियोक्ता था। इंडोनेशिया विश्व की ८वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और 20५0 तक सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और महाशक्ति बन सकता है।
विश्व व्यापार संगठन ने ये अनुमान लगाया था कि २०२० में चीन को पीछे छोड़ कर इंडोनेशिया विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक बन जाएगा लेकिन फिलहाल चीन ही विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश है ।
तेल और गैस, इलेक्ट्रिकल उपकरण, प्लाय-वुड, रबड़ एवं वस्त्र मुख्य निर्यात रहेंगे। रसायन, ईंधन एवं खाद्य पदार्थ भी मुख्य निर्यात रहेंगे विश्व व्यापार संगठन के अनुसार इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था ४ खरब डॉलर की है।
यहाँ की मुख्य भाषा है इंडोनेशियाई भाषा। अन्य भाषाओं में जावा, बाली, भाषा सुंडा, भाषा मदुरा आदि भी हैं। प्राचीन भाषा का नाम कावी था जिसमें देश के प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ हैं।
अंग्रेजी एवं अरबी भाषा का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है।
लेकिन इसके बाद से इंडोनेशिया का इतिहास उथलपुथल भरा रहा है, चाहे वह प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हो, भ्रष्टाचार की वजह से, अलगाववाद या फिर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न चुनौतियाँ हों। २६ दिसंबर (दिसम्बर) २००४ में आयी सुनामी लहरों की विनाशलीला से यह देश सबसे अधिक प्रभावित हुआ था। यहाँ के आचे प्रांत में लगभग डेढ़ लाख लोग मारे गये थे और हजारों करोड़ की संपत्ति (सम्पत्ति) का नुकसान हुआ था।
यह भी देखिए
हिन्द महासागर के द्वीपसमूह
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश
दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र |
मेदिनीपुर (मेदिनीपुर) या मिदनापुर (मिडनापुर) भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में स्थित एक शहर है। यह कंगसाबती नदी के किनारे बसा हुआ है।
इन्हें भी देखें
पश्चिम मेदिनीपुर ज़िला
पश्चिम मेदिनीपुर ज़िला
पश्चिम बंगाल के शहर
पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले के नगर |
नायरोबी पूर्व अफ़्रीका के कीनिया देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह कीनिया के दक्षिणी भाग में अथी नदी के किनारे १,७९५ मीटर (५,८८९ फ़ुट) की ऊँचाई पर स्थित है। सन् 20११ में इसकी आबादी ३३.६ लाख थी, जिसके आधार पर यह महान अफ़्रीकी झील क्षेत्र का (तंज़ानिया की राजधानी दार अस सलाम के बाद) दूसरा सबसे बड़ा नगर है।
इन्हें भी देखें
अफ़्रीका में राजधानियाँ
कीनिया के आबाद स्थान |
नालंदा भारत के बिहार प्रान्त का एक जिला है नालंदा जिला मगध का क्षेत्र हैं इस क्षेत्र के लोग मगही बोलते हैं जिसका मुख्यालय बिहार शरीफ है। नालंदा अपने प्राचीन् इतिहास के लिये विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ विश्व कि सबसे प्राचीन् नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष आज भी मौज़ूद है, जहाँ सुदूर देशों से छात्र अध्ययन के लिये भारत आते थे।
बुद्ध और महावीर कई बार नालन्दा में ठहरे थे। माना जाता है कि महावीर ने मोक्ष की प्राप्ति पावापुरी में की थी, जो नालन्दा जिला में स्थित है। बुद्ध के प्रमुख छात्रों में से एक, शारिपुत्र, का जन्म नालन्दा में हुआ था।
नालंदा पूर्व में अस्थामा तक पश्चिम में तेल्हारा तक दक्षिण में गिरियक तक उत्तर में हरनौत तक फैला हुआ है।
विश्व के प्राचीनतम् विश्वविद्यालय के अवशेषों को अपने आंँचल में समेटे नालन्दा बिहार का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है। यहाँ पर्यटक विश्वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव नालंदा महाविहार तथा ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल देखने आते हैं। इसके अलावा इसके आस-पास में भी भ्रमण (घूमने) के लिए बहुत से पर्यटक स्थल है। राजगीर, पावापुरी, गया तथा बोध-गया यहां के नजदीकी पर्यटन स्थल हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था।
भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक को यहाँ उपदेश दिया था। भगवान महावीर भी यहीं रहे थे। प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था।
नालंदा में राजगीर में कई गर्म पानी के झरने है, इसका निर्माण् बिम्बिसार ने अपने शासन काल में करवाया था, राजगीर नालंदा का मुख सहारे है, ब्रह्मकुण्ड, सरस्वती कुण्ड और लंगटे कुण्ड यहाँ पर है, कई विदेशी मन्दिर भी है यहाँ चीन का मन्दिर, जापान का मन्दिर आदि। नालंदा जिले में जामा मस्जिद भी है जॊ कि बिहार शरीफ में पुल पर स्थित है। यह बहुत ही पुराना और विशाल मस्जिद है।
नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेषों की खोज अलेक्जेंडर कनिंघम ने की थी। माना जाता है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना ४५० ई॰ में गुप्त शासक कुमारगुप्त ने की थी। इस विश्वविद्यालय को इसके बाद आने वाले सभी शासक वंशों का सर्मथन मिला। महान शासक हर्षवर्द्धन ने भी इस विश्वविद्यालय को दान दिया था। हर्षवर्द्धन के बाद पाल शासकों का भी इसे संरक्षण मिला। केवल यहाँ के स्थानीय शासक वंशों ने ही नहीं वरण् विदेशी शासकों से भी इसे दान मिला। इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व १२वीं शताब्दी तक बना रहा। १२वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को जला डाला। जो कुत्तुबुद्ददीन का सिपह-सलाहकार
नालंदा प्राचीन् काल का सबसे बड़ा अध्ययन केंद्र था तथा इसकी स्थापना पांँचवी शताब्दी ई० में हुई थी। दुनिया के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष बोधगया से ६२ किलोमीटर दूर एवं पटना से ९० किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं। माना जाता है कि बुद्ध कई बार यहां आए थे। यही वजह है कि पांचवी से बारहवीं शताब्दी में इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी जाना जाता था। सातवी शताब्दी ई० में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन के लिए आया था तथा उसने यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। उसने प्राचीनकाल के इस विश्वविद्यालय के अनूठेपन का वर्णन किया था। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए १०,००० छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा २,००० शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यात्रियों की संख्या ज्यादा थी। गुप्त राजवंश ने प्राचीन कुषाण वास्तुशैली से निर्मित इन मठों का संरक्षण किया। यह किसी आंँगन के चारों ओर लगे कक्षों की पंक्तियों के समान दिखाई देते हैं। सम्राठ अशोक तथा हर्षवर्धन ने यहां सबसे ज्यादा मठों, विहार तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था। हाल ही में विस्तृत खुदाई यहां संरचनाओं का पता लगाया गया है। यहां पर सन् १९५१ में एक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केंद्र की स्थापना की गई थी। इसके नजदीक बिहारशरीफ है, जहां मलिक इब्राहिम बाया की दरगाह पर हर वर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है। छठ पूजा के लिए प्रसिद्ध सूर्य मंदिर भी यहां से दो किलोमीटर दूर बडागांव में स्थित है। यहां आने वाले नालंदा के महान खंडहरों के अलावा 'नव नालंदा महाविहार संग्रहालय भी देख सकते हैं।
प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेषों का परिसर
१४ हेक्टेयर क्षेत्र में इस विश्वविद्यालय के अवशेष मिले हैं। खुदाई में मिले सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में स्थित थे। जबकि मंदिर या चैत्य पश्िचम दिशा में। इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-१ थी। वर्तमान समय में भी यहां दो मंजिला इमारत मौजूद है। यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बना हुई है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा भग्न अवस्था में है।
यहां स्थित मंदिर नं ३ इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्तूपो में भगवान बुद्ध की मूर्त्तियाँ बनी हुई है। ये मूर्त्तियाँ विभिन्न मुद्राओं में बनी हुई है।
नालन्दा पुरातत्वीय संग्रहालय
विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातत्वीय संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियांँ और प्रथम शताब्दी का दो जार भी इसी संग्रहालय में रखा हुआ है। इसके अलावा इस संग्रहालय में तांँबे की प्लेट, पत्थर पर टंकन (खुदा) अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा १२वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं।
खुलने का समय: सुबह १० बजे से शाम ७ बजे तक। शुक्रवार को बंद।
नव नालन्दा महाविहार
यह एक शिक्षा संस्थान है। इसमें पाली साहित्य तथा बौद्ध धर्म की पढ़ाई तथा अनुसंधान होता है। यह एक नया संस्थान है। इसमें दूसरे देशों के छात्र भी पढ़ाई के लिए यहां आते हैं।
ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल
यह एक नवर्निर्मित भवन है। यह भवन चीन के महान तीर्थयात्री ह्वेनसांग की याद में बनाया गया है। इसमें ह्वेनसांग से संबंधित वस्तुओं तथा उनकी मूर्ति देखा जा सकता है।
यह गांँव नालन्दा और राजगीर के मध्य स्थित है। यहां बनने वाली प्रसिद्ध मिठाई खाजा का स्वाद लिया जा सकता है।
यहां भगवान सूर्य का प्रसिद्ध मंदिर तथा एक झील है। यहां वर्ष में दो बार मेले का आयोजन होता है। एक चैत (मार्च-अप्रैल) तथा दूसरा कार्तिक (अक्टूबर- नवंबर) महीने में। इन दोनों महीनों में यहां प्रसिद्ध छठ त्योहार मनाया जाता है। दूर-दूर से लोग छठ उत्सव मनाने यहांँ आते हैं।
यहांँ से निकट हवाई अड्डा जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा (पटना) मेें है।जो ८९ किलोमीटर दूर है। कलकत्ता, रांँची,मुंबई, दिल्ली तथा लखनऊ से पटना के लिए सीधी हवाई सेवा है।
नालन्दा में रेलवे स्टेशन है। लेकिन यहां का प्रमुख रेलवे स्टेश्ान राजगीर है। राजगीर जाने वाली सभी ट्रेने नालंदा होकर जाती है।
नालंदा सड़क मार्ग द्वारा राजगीर (१२ किमी), बोध-गया (११० किमी), गया (९५ किमी), पटना (९० किमी), पावापुरी (२६ किमी) तथा बिहार शरीफ (१३ किमी) से अच्छी तरह जुड़ा है । यहाँ विश्व की प्राचीन अभिलेख (पुस्तकें) का संग्रह स्थित था जो कि आक्रमण में नष्ट हो गया !
इन्हें भी देखें
नालन्दा महाविहार (प्राचीन विश्वविद्यालय)
भारत के प्राचीन विश्वविद्यालय
एक प्राचीन आभा
नालंदा की मूल मनुस्मृतियां
नव नालंदा महाविहार, बिहार राज्य, भारत
नी टाइम्स नालंदा के पुनरुद्धार की योजना
नालंदा से जुड़े ग्राम ढूंढे गए
नालंदा जिले की आधिकारिक जालस्थल
नालंदा विश्वविद्यालय, जहाँ ज्ञान प्राप्त किए बिना शिक्षा अधूरी मानी जाती थी (ई-विश्वा)
नालंदा विश्वविद्यालय की वेबसाइट
प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय (अंग्रेजी में)
पांचवी शताब्दी की स्थापनाएं
पूर्व बौद्ध मंदिर
भारत में अवशेष
बिहार में शिक्षा
बिहार का इतिहास
जैन धर्म से जुड़े स्थान
भारत के विश्वविद्यालय
बौद्ध तीर्थ स्थल
इस्लाम द्वारा नष्ट किए गए शहर
भारत में धार्मिक हिंसा
पूजा स्थल पर मैसेकर
भारत के प्राचीन शहर
बिहार के पुरातात्विक स्थल
बिहार के जिले |
नर्मदा नदी (नर्मदा रिवर), जिसे स्थानीय रूप से कही-कही रेवा नदी (रेवा रिवर) भी कहा जाता है, भारत के ५वीं सबसे लम्बी नदी और पश्चिम-दिशा में बहने वाली सबसे लम्बी नदी है। यह मध्य प्रदेश राज्य की भी सबसे बड़ी नदी है। नर्मदा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बहती है। इसे अपने जीवनदायी महत्व के लिए "मध्य प्रदेश और गुजरात की जीवनरेखा" भी कहा जाता है। नर्मदा नदी मध्य प्रदेश के अनूपपुर ज़िले के अमरकंटक पठार में उत्पन्न होती है। फिर १,3१२किमी (8१५.२मील) पश्चिम की ओर बहकर यह भरूच से ३०किमी (१8.६मील) पश्चिम में खम्भात की खाड़ी में बह जाती है, जो अरब सागर की एक खाड़ी है। कुछ स्रोतों में इसे उत्तर भारत और दक्षिण भारत की प्रारम्परिक विभाजक माना जाता है।
प्रायद्वीप भारत में केवल नर्मदा और ताप्ती नदी ही दो मुख्य नदियाँ हैं जो पूर्व से पश्चिम बहती हैं। नर्मदा विंध्य पर्वतमाला और सतपुड़ा पर्वतमाला द्वारा सीमित एक रिफ़्ट घाटी में बहती है और अन्य ऐसी नदियों की भांति ही एक ज्वारनदीमुख में सागर में बह जाती है। ताप्ती नदी, मही नदी और छोटा नागपुर पठार में बहने वाली दामोदर नदी भी रिफ़्ट घाटियों में बहती है, लेकिन वे अन्य पर्वतीय श्रेणियों के बीच मार्ग बनाती हैं। नर्मदी नदी के कुल मार्ग का १,०७७किमी (६६९.२मील) भाग मध्य प्रदेश में, ७४किमी (४६.०मील) महाराष्ट्र में, ३९किमी (२4.२मील) महाराष्ट्र-गुजरात की राज्य सीमा पर, और १6१किमी (१००.०मील) गुजरात में है।
उद्गम एवं मार्ग
नर्मदा नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर स्थित अमरकंटक में नर्मदा कुंड से हुआ है।
नदी पश्चिम की ओर सोनमुद से बहती हुई, एक चट्टान से नीचे गिरती हुई कपिलधारा नाम की एक जलप्रपात बनाती है। घुमावदार मार्ग और प्रबल वेग के साथ घने जंगलो और चट्टानों को पार करते हुए रामनगर के जर्जर महल तक पहुँचती हैं। आगे दक्षिण-पूर्व की ओर, रामनगर और मंडला (२५ किमी (१५.५ मील)) के बीच, यहाँ जलमार्ग अपेक्षाकृत चट्टानी बाधाओं से रहित सीधे एवं गहरे पानी के साथ है। बंजर नदी बाईं ओर से जुड़ जाता है। नदी आगे एक संकीर्ण लूप में उत्तर-पश्चिम में जबलपुर पहुँचती है। शहर के करीब, नदी भेड़ाघाट के पास करीब ९ मीटर का जल-प्रपात बनाती हैं जो की धुआँधार के नाम से प्रसिद्ध हैं, आगे यह लगभग ३ किमी तक एक गहरी संकीर्ण चैनल में मैग्नीशियम चूनापत्थर और बेसाल्ट चट्टानों जिसे संगमरमर चट्टान भी कहते हैं के माध्यम से बहती है, यहाँ पर नदी ८० मीटर के अपने पाट से संकुचित होकर मात्र १८ मीटर की चौड़ाई के साथ बहती हैं। आगे इस क्षेत्र से अरब सागर में अपनी मिलान तक, नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। घाटी का दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है।
संगमरमर चट्टानों से निकलते हुए नदी अपनी पहली जलोढ़ मिट्टी के उपजाऊ मैदान में प्रवेश करती है, जिसे "नर्मदाघाटी" कहते हैं। जो लगभग ३२० किमी (१९८.८ मील) तक फैली हुई है, यहाँ दक्षिण में नदी की औसत चौड़ाई ३५ किमी (२१.७ मील) हो जाती है। वही उत्तर में, बर्ना-बरेली घाटी पर सीमित होती जाती है जो की नर्मदापुरम के बरखरा पहाड़ियों के बाद समाप्त होती है। हालांकि, कन्नोद मैदानों से यह फिर पहाड़ियों में आ जाती हैं। यह नर्मदा की पहली घाटी में है, जहां दक्षिण की ओर से कई महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ आकर इसमें शामिल होती हैं और सतपुड़ा पहाड़ियों के उत्तरी ढलानों से पानी लाती हैं। जिनमे: शेर, शक्कर, दुधी, तवा (सबसे बड़ी सहायक नदी) और गंजल साहिल हैं। हिरन, बारना, चोरल , करम और लोहर, जैसी महत्वपूर्ण सहायक नदियां उत्तर से आकर जुड़ती हैं।
हंडिया और नेमावर से नीचे हिरन जल-प्रपात तक, नदी दोनों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस भाग पर नदी का चरित्र भिन्न दिखाई देता है। ओंकारेश्वर द्वीप, जोकि भगवान शिव को समर्पित हैं, मध्य प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण नदी द्वीप है। सिकता और कावेरी, खण्डवा मैदान के नीचे आकर नदी से मिलते हैं। दो स्थानों पर, नेमावर से करीब ४० किमी पर मंधार पर और पंसासा के करीब ४० किमी पर ददराई में, नदी लगभग १२ मीटर (३९.४ फीट) की ऊंचाई से गिरती है।
बड़वाह मे आगरा-मुंबई रोड घाट, राष्ट्रीय राजमार्ग ३, से नीचे नर्मदा बड़वाह मैदान में प्रवेश करती है, जो कि १८० किमी (१११.८ मील) लंबा है। बेसिन की उत्तरी पट्टी केवल २५ किमी (१५.५ मील) है। यह घाटी साहेश्वर धारा जल-प्रपात पर जा कर ख़त्म होती है।
मकरई के नीचे, नदी बड़ोदरा जिले और नर्मदा जिला के बीच बहती है और फिर गुजरात राज्य के भरूच जिला के समृद्ध मैदान के माध्यम से बहती है। यहाँ नदी के किनारे, सालो से बाह कर आये जलोढ़ मिट्टी, गांठदार चूना पत्थर और रेत की बजरी से पटे हुए हैं। नदी की चौड़ाई मकराई पर लगभग १.५ किमी (०.९ मील), भरूच के पास और ३ किमी तथा कैम्बे की खाड़ी के मुहाने में 2१ किमी (१३.० मील) तक फैली हुई बेसीन बनाती हुई अरब सागर में विलिन हो जाती है।
हिन्दू धर्म में महत्व
नर्मदा, समूचे विश्व में दिव्य व रहस्यमयी नदी है,इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है। इस नदी का प्राकट्य ही, विष्णु द्वारा अवतारों में किए राक्षस-वध के प्रायश्चित के लिए ही प्रभु शिव द्वारा अमरकण्टक (जिला शहडोल, मध्यप्रदेश जबलपुर-विलासपुर रेल लाईन-उडिसा मध्यप्रदेश ककी सीमा पर) के मैकल पर्वत पर कृपा सागर भगवान शंकर द्वारा १२ वर्ष की दिव्य कन्या के रूप में किया गया। महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में १०,००० दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किये जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है :'
प्रलय में भी मेरा नाश न हो। मैं विश्व में एकमात्र पाप-नाशिनी प्रसिद्ध होऊँ, यह अवधि अब समाप्त हो चुकी है। मेरा हर पाषाण (नर्मदेश्वर) शिवलिंग के रूप में बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजित हो। विश्व में हर शिव-मंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान है। कई लोग जो इस रहस्य को नहीं जानते वे दूसरे पाषाण से निर्मित शिवलिंग स्थापित करते हैं ऐसे शिवलिंग भी स्थापित किये जा सकते हैं परन्तु उनकी प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। जबकि श्री नर्मदेश्वर शिवलिंग बिना प्राण के पूजित है। मेरे (नर्मदा) के तट पर शिव-पार्वती सहित सभी देवता निवास करें।
सभी देवता, ऋषि मुनि, गणेश, कार्तिकेय, राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि ने नर्मदा तट पर ही तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त की। दिव्य नदी नर्मदा के दक्षिण तट पर सूर्य द्वारा तपस्या करके आदित्येश्वर तीर्थ स्थापित है। इस तीर्थ पर (अकाल पड़ने पर) ऋषियों द्वारा तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिव्य नदी नर्मदा १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हो गई तब ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की। तब नर्मदा ऋषियों से बोली कि मेरे (नर्मदा के) तट पर देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर तपस्या करने पर ही प्रभु शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। इस आदित्येश्वर तीर्थ पर हमारा आश्रम अपने भक्तों के अनुष्ठान करता है।
किंवदंती (लोक कथायें)
नर्मदा नदी को लेकर कई लोक कथायें प्रचलित हैं एक कहानी के अनुसार नर्मदा जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है और राजा मैखल की पुत्री है। उन्होंने नर्मदा से शादी के लिए घोषणा की कि जो राजकुमार गुलबकावली के फूल उनकी बेटी के लिए लाएगा, उसके साथ नर्मदा का विवाह होगा। सोनभद्र यह फूल ले आए और उनका विवाह तय हो गया। दोनों की शादी में कुछ दिनों का समय था। नर्मदा सोनभद्र से कभी मिली नहीं थीं। उन्होंने अपनी दासी जुहिला के हाथों सोनभद्र के लिए एक संदेश भेजा। जुहिला ने नर्मदा से राजकुमारी के वस्त्र और आभूषण मांगे और उसे पहनकर वह सोनभद्र से मिलने चली गईं। सोनभद्र ने जुहिला को ही राजकुमारी समझ लिया। जुहिला की नियत भी डगमगा गई और वह सोनभद्र का प्रणय निवेदन ठुकरा नहीं पाई। काफी समय बीता, जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा का सब्र का बांध टूट गया। वह खुद सोनभद्र से मिलने चल पड़ीं। वहां जाकर देखा तो जुहिला और सोनभद्र को एक साथ पाया। इससे नाराज होकर वह उल्टी दिशा में चल पड़ीं। उसके बाद से नर्मदा बंगाल सागर की बजाय अरब सागर में जाकर मिल गईं।
एक अन्य कहानी के अनुसार सोनभद्र नदी को नद (नदी का पुरुष रूप) कहा जाता है। दोनों के घर पास थे। अमरकंटक की पहाडिय़ों में दोनों का बचपन बीता। दोनों किशोर हुए तो लगाव और बढ़ा। दोनों ने साथ जीने की कसमें खाई, लेकिन अचानक दोनों के जीवन में जुहिला आ गई। जुहिला नर्मदा की सखी थी। सोनभद्र जुहिला के प्रेम में पड़ गया। नर्मदा को यह पता चला तो उन्होंने सोनभद्र को समझाने की कोशिश की, लेकिन सोनभद्र नहीं माना। इससे नाराज होकर नर्मदा दूसरी दिशा में चल पड़ी और हमेशा कुंवारी रहने की कसम खाई। कहा जाता है कि इसीलिए सभी प्रमुख नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं,लेकिन नर्मदा अरब सागर में मिलती है।
ग्रंथों में उल्लेख
रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था। गुप्तकालीन अमरकोशमें भी नर्मदा को 'सोमोद्भवा' कहा है। कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है। रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है। मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है। विश्व में नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है और पुराणों के अनुसार जहाँ गंगा में स्नान से जो फल मिलता है नर्मदा के दर्शन मात्र से ही उस फल की प्राप्ति होती है। नर्मदा नदी पुरे भारत की प्रमुख नदियों में से एक ही है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।
इन्हें भी देखें
खम्भात की खाड़ी
मध्य प्रदेश की नदियाँ
महाराष्ट्र की नदियाँ
गुजरात की नदियाँ
भारत की नदियाँ
खंभात की खाड़ी |
हवाना (स्पेनिश: ला हबाना [ला आना]) क्यूबा की राजधानी, सबसे बड़ा शहर, प्रांत, प्रमुख बंदरगाह, और प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र है। शहर की आबादी लगभग २.१ मिलियन है, और यह कुल 7२8.२6 किमी२ (२8१.१8 वर्ग मील) में फैले क्षेत्र के साथ यह कैरीबियाई क्षेत्र का सबसे अधिक आबादी वाला शहर और चौथा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है। शहर ज्यादातर पश्चिम और दक्षिण खाड़ी की ओर फैला हुआ है, शहर से लगे तीन मुख्य बंदरगाहों है: मारिमेलेना, गुआनाबाकोआ और एटारस। मंदगति के साथ अलमेन्डर्स नदी शहर में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है, खाड़ी के पश्चिम में कुछ मील की दूरी पर फ्लोरिडा के दहाने में प्रवेश करती है।
१६वीं शताब्दी में स्पेनिश द्वारा हवाना शहर की स्थापना की गई थी और इसकी रणनीतिक स्थिती होने के कारण यह अमेरिका की स्पेनिश विजय के लिए एक फ़ौजों की चौकी के रूप में कार्य करता था, जो खजाने को स्पेन भेजने वाले स्पेनिश जहानों के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु बन गया। स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय ने १५९२ में हवाना को शहर का खिताब दिया। पुराने शहर की रक्षा के लिए दीवारों और किलों का निर्माण किया गया था। १८९८ में हवाना के बंदरगाह में अमेरिकी युद्धपोत मेन का डूबना स्पेनिश-अमेरिकी युद्ध का तत्कालिन कारण बना था।
समकालीन हवाना को एक ही में स्थित तीन शहरों के रूप में वर्णित किया जा सकता है: ओल्ड हवाना, वेदडो और नए उपनगरीय जिलें। यह शहर क्यूबा सरकार का केंद्र है, और विभिन्न मंत्रालयों, व्यवसायों के मुख्यालय और ९० से अधिक राजनयिक कार्यालयों का घर है। वर्तमान महापौर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ क्यूबा (पीसीसी) के मार्टा हर्नैन्डेज़ हैं। २००९ में, शहर/प्रांत की देश में तीसरी सबसे ज्यादा आय थी।
शहर सालाना दस लाख से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है; हवाना के लिए आधिकारिक जनगणना रिपोर्ट के अनुसार २०१० में शहर में १,१76,६२७ अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आए थे, जोकि २००५ से २०% में वृद्धि हुई थी। १982 में, ओल्ड हवाना को यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया था। शहर अपने इतिहास, संस्कृति, वास्तुकला और स्मारकों के लिए भी जाना जाता है। क्यूबा के विशिष्ट होने के नाते, हवाना एक उष्णकटिबंधीय जलवायु का अनुभव करते हैं।
मई २०१५ में, हवाना को बेरूत, दोहा, डरबन, कुआलालंपुर, ला पास और विगान के साथ तथाकथित न्यू ७ वंडर्स शहरों में से एक के रूप में चुना गया था।
हवाना फ्लोरिडा कुंजी के दक्षिण में क्यूबा के उत्तरी तट पर स्थित है, जहां मेक्सिको की खाड़ी अटलांटिक महासागर में शामिल हो जाती है। शहर ज्यादातर खाड़ी से पश्चिम और दक्षिण की ओर फैला हुआ है, जो एक संकीर्ण इनलेट के माध्यम से प्रवेश करते हुए तीन मुख्य बंदरगाहों मारिमेलेना, गुआनाबाकोआ, और एटारस में विभाजित हो जाता है। मंदगति के साथ अलमेन्डर्स नदी शहर में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है, खाड़ी के पश्चिम में कुछ मील की दूरी पर फ्लोरिडा के दहाने में प्रवेश करती है।
छोटे पहाड़ियों जिस पर शहर बसा हुआ है, गहरे नीले पानी से धीरे-धीरे ऊपर कि ओर बढ़ता जाता है। २०० फुट ऊंची (६० मीटर) एक चूना पत्थर का टीला है जो पूर्व से ढलान लेता हुआ ला कैबाना और एल मोरो की ऊंचाई में जाकर समाप्त होता है जहाँ पर औपनिवेशिक किलेबंदी स्थल मौजुद है। एक अन्य उल्लेखनीय टीला, पश्चिम की पहाड़ी है जहाँ हवाना विश्वविद्यालय और प्रिंस कैसल स्थित है।
क्यूबा की तरह हवाना, एक उष्णकटिबंधीय जलवायु है जो व्यापार हवाओं के बेल्ट में और गर्म अपतटीय धाराओं से द्वीप की स्थिति से घिरा हुआ है। कोपेन जलवायु वर्गीकरण के तहत, हवाना में एक उष्णकटिबंधीय सवाना जलवायु है, जो एक उष्णकटिबंधीय मानसून जलवायु की सीमा से लगा हुआ होता है। औसत तापमान जनवरी और फरवरी में २२ डिग्री सेल्सियस (७२ डिग्री फारेनहाइट) से अगस्त में २८ डिग्री सेल्सियस (८२ डिग्री फारेनहाइट) तक होता है। सालाना १,२०० मिमी (४७ इंच) औसत बारिश के साथ यहाँ जून और अक्टूबर में बारिश सबसे अधिक होती है वही दिसंबर से अप्रैल तक हल्की बूंदाबांदी होती है। तूफान कभी-कभी द्वीप पर आते रहते हैं, लेकिन आम तौर पर यह दक्षिण तट पर ज्यादा प्रभावशील रहते हैं।
हवाना में विविधतापूर्ण अर्थव्यवस्था है, जिसमें पारंपरिक क्षेत्र जैसे विनिर्माण, निर्माण, परिवहन और संचार और नए या पुनरुद्धार किए गए जैसे जैव प्रौद्योगिकी और पर्यटन उद्योग शामिल हैं। पारंपरिक चीनी उद्योग, जिस पर द्वीप की अर्थव्यवस्था तीन शताब्दियों तक आधारित रही है, द्वीप पर आज भी केंद्रित है और निर्यात अर्थव्यवस्था के कुछ तीन-चौथाई हिस्से को नियंत्रित करती है। इसके अलावा कुछ विनिर्माण सुविधाएं, मांस पैकिंग संयंत्र, और रासायनिक और दवा संचालन भी हवाना में केंद्रित हैं। जहाज निर्माण, वाहन निर्माण, मादक पेय पदार्थ (विशेष रूप से रम), कपड़ा, और तम्बाकू उत्पादों, विशेष रूप से विश्व प्रसिद्ध हबानोस सिगार के उत्पादन के साथ-साथ अन्य खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से, सिनफ्युगोस और मटांजास के बंदरगाहों को क्रांतिकारी सरकार के तहत विकसित किया गया था। हवाना बंदरगाह, आज भी क्यूबा का प्रमुख बंदरगाह बना हुआ है; ५०% क्यूबा का आयात और निर्यात हवाना के माध्यम से ही होता हैं। बंदरगाह से, मछली पकड़ने के उद्योग का भी संचालन होता है।
हवाना में, देश के अग्रणी सांस्कृतिक केंद्र से लेकर विभिन्न प्रकार की विशेषताओं से भरा हुआ है जिनमें संग्रहालय, महल, सार्वजनिक स्थल, रास्ते, चर्च, किलें (१६वीं से १८वीं शताब्दी में अमेरिका के सबसे बड़े किले परिसर सहित), बैले और कला और संगीत त्योहारों से प्रौद्योगिकी की प्रदर्शनी आदि शामिल हैं। ओल्ड हवाना के मरम्मत के बाद से यह क्यूबा क्रांति से जुड़े अवशेषों के संग्रहालय समेत कई नए आकर्षण के लिये प्रसिद्ध है। सरकार ने सांस्कृतिक गतिविधियों पर विशेष जोर दिया, जिनमें से कई नि:शुल्क हैं या केवल न्यूनतम शुल्क लिया जाता हैं।
शहर सालाना दस लाख से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है; हवाना के लिए आधिकारिक जनगणना रिपोर्ट के अनुसार २०१० में शहर में १,१76,६२७ अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आए थे, जोकि २००५ से २०% में वृद्धि हुई थी।
क्यूबा के शहर
दक्षिण अमेरिकी देशों की राजधानियाँ
दक्षिण अमेरिका के आबाद स्थान |
गोदावरी नदी (गोदावरी रिवर) भारत के प्रायद्वीपीय भाग की एक प्रमुख नदी है। यह नदी दूसरी प्रायद्वीपीय नदियों में से सबसे बड़ी नदी है। इसे दक्षिण गंगा भी कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति पश्चिमी घाट में त्रयंबक पहाड़ी से हुई है। यह महाराष्ट्र में नाशिक ज़िले से निकलती है। इसकी लम्बाई प्रायः १४६५ किलोमीटर है। इस नदी का पाट बहुत बड़ा है। गोदावरी की उपनदियों में प्रमुख हैं प्राणहिता, इन्द्रावती, मंजिरा। यह महाराष्ट, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से बहते हुए राजमंड्री नगर के समीप बंगाल की खाड़ी मे जाकर मिलती है।
नदी की गहराई
इस गोदावरी नदी के एक काफी गहरी, एक सबसे बड़ी गहराई है, इसकी औसत गहराई १७ फीट (५ मीटर) और अधिकतम गहराई ६२ फीट (८९मीटर) है। यह केवल की गहराई २८ फीट (८.४) और मतलब गहराई ४५ फीट (1४ मीटर) है। १२३ फीट (३६ मीटर) से दूर बढ़ती है।
गोदावरी की सात शाखाएँ मानी गई हैं-
कुछ विद्वानों के अनुसार, इसका नामकरण तेलुगु भाषा के शब्द 'गोद' से हुआ है, जिसका अर्थ मर्यादा होता है। एक बार महर्षि गौतम ने घोर तपस्या किया। इससे रुद्र प्रसन्न हो गए और उन्होंने एक बाल के प्रभाव से गंगा को प्रवाहित किया। गंगाजल के स्पर्श से एक मृत गाय पुनर्जीवित हो उठी। इसी कारण इसका नाम गोदावरी पड़ा। गौतम से संबंध जुड जाने के कारण इसे गौतमी भी कहा जाने लगा। इसमें नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं। गोदावरी की सात धारा वसिष्ठा, कौशिकी, वृद्ध गौतमी, भारद्वाजी, आत्रेयी और तुल्या अतीव प्रसिद्ध है। पुराणों में इनका वर्णन मिलता है। इन्हें महापुण्यप्राप्ति कारक बताया गया है-
सप्तगोदावरी स्नात्वा नियतो नियताशन:।
महापुण्यमप्राप्नोति देवलोके च गच्छति ॥
वनस्पति और जीव
गोदावरी भी लुप्तप्राय फ्रिंज-लिप हुए कार्प का एक घर है (लाबेयो फ़िम्ब्रिटस)। गोदावरी डेल्टा में स्थित कोरिंगा मैन्ग्रोव वन देश में दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है। यहाँ विभिन्न प्रकार की मछली और क्रस्टेशियंस के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं। नदी की द्रोणी में स्थित कुछ अन्य वन्यजीव अभ्यारण्य निम्न हैं।
कोरिंगा वन्य अभयारण्य
पापीकोंडा राष्ट्रीय उद्यान
इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान
इटारनगरम वन्य अभयारण्य
कावल वन्य अभयारण्य
किन्नरसानी वन्य अभयारण्य
मंजीरा वन्य अभयारण्य
पोचाराम वन और वन्य अभयारण्य
प्राणहिता वन्य अभयारण्य
ताडोबा अंधारी बाघ परियोजना
पेंच राष्ट्रीय उद्यान
बोर वन्य अभयारण्य
नवेगाव राष्ट्रीय उद्यान
नागजीरा वन्य अभयारण्य
गौतला वन्य अभयारण्य
टिपेश्वर वन्य अभयारण्य
पैंगांग वन्य अभयारण्य
इन्हें भी देखें
भारत की नदियाँ
कर्नाटक की नदियाँ
महाराष्ट्र की नदियाँ
आन्ध्र प्रदेश की नदियाँ
छत्तीसगढ़ की नदियाँ
तेलंगाना की नदियाँ
महाराष्ट्र का पर्यावरण |
सौराष्ट्र भारत के गुजरात प्रान्त का एक उपक्षेत्र है जो ज्यादातर अर्धमरुस्थलीय है। सौराष्ट्र, वर्तमान काठियावाड़-प्रदेश, जो प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। महाभारत के समय द्वारिकापुरी इसी क्षेत्र में स्थित थी। सुराष्ट्र या सौराष्ट्र को सहदेव ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में विजित किया था। विष्णुपुराण में अपरान्त के साथ सौराष्ट्र का उल्लेख है। भागवत पुराण में उल्लेख किया गया है कि प्राचीन आभीर सौराष्ट्र साम्राज्य और अवंती साम्राज्य के शासक थे और वे वेदों के अनुयायी थे, जो अपने सर्वोच्च देवता के रूप में विष्णु की पूजा करते थे।
इतिहास प्रसिद्ध सोमनाथ का मन्दिर सौराष्ट्र ही की विभूति था। रैवतकपर्वत गिरनार पर्वतमाला का ही एक भाग था। अशोक, रुद्रदामन तथा गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के समय के महत्त्वपूर्ण अभिलेख जूनागढ़ के निकट एक चट्टान पर अंकित हैं, जिससे प्राचीन काल में इस प्रदेश के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है। रुद्रदामन के अभिलेख में सुराष्ट्र पर शक क्षत्रपों का प्रभुत्व बताया गया है। जान पड़ता है कि अलक्षेन्द्र के पंजाब पर आक्रमण के समय वहाँ निवास करने वाली जाति 'कठ' जिसने यवन सम्राट के दाँत खट्टे कर दिए थे, कालान्तर में पंजाब छोड़कर दक्षिण की ओर आ गई और सौराष्ट्र में बस गई, जिससे इस देश का नाम काठियावाड़ भी हो गया। इतिहास के अधिकांश काल में सौराष्ट्र पर गुजरात नरेशों का अधिकार रहा और गुजरात के इतिहास के साथ ही इसका भाग्य बंधा रहा।
गिर का जंगल और सिंहदर्शन
पोरबंदर (सुदामा मन्दिर और महात्मा गांधी जी का जन्मस्थान)
प्रभास (भगवान श्रीकृष्ण का देहत्याग स्थल)
गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में भादर नदी के समीप स्थित रंगपुर की खुदाई १९५३-१९५४ ई. में ए. रंगनाथ राव द्वारा की गई। यहाँ पर पूर्व हड़प्पा कालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। यहाँ मिले कच्ची ईंटों के दुर्ग, नालियां, मृदभांड, बांट, पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ धान की भूसी के ढेर मिले हैं। यहाँ उत्तरवर्ती हड़प्पा संस्कृति के भी साक्ष्य पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
सौराष्ट्र के नाम
सौराष्ट्र के कई भागों के नाम हमें इतिहास में मिलते हैं।
हालार (उत्तर-पश्चिमी भाग),
सोरठ-काठियावाड़ (पश्चिमी भाग),
गोहिलवाड़ (दक्षिण-पूर्वी भाग) आदि।
सौराष्ट्र के उपक्षेत्र
हालार, गोहिलवाड, घेड, बरडा, गिर, प्रभास, सोरठ, झालावाड इत्यादि उपक्षेत्र सौराष्ट्र में कुछ खास विस्तार के स्थानीय नाम है।
इसी क्षेत्र में बब्बर शेर या सिंह पाया जाता है। सौराष्ट्र के बारे में एक प्राचीन कहावत प्रसिद्ध है'सौराष्ट्र पंचरत्नानि नदीनारीतुरंगमाः चतुर्थः सोमनाथश्च पंचमम् हरिदर्शनम्'; इस श्लोक में सौराष्ट्र की मनोहर नदियोंजैसे चन्द्रभागा, भद्रावती, प्राची-सरस्वती, शशिमती, वेत्रवती, पलाशिनी और सुवर्णसिकता; घोघा आदि प्रदेशों की लोक-कथाओं में वर्णित सुन्दर नारियों, सुन्दर अरबी जाति के तेज़ घोड़ों और सोमनाथ और कृष्ण की पुण्यनगरी द्वारिका के मन्दिरों को सौराष्ट्र के रत्न बताया गया है।
भारत के पारंपरिक क्षेत्र
गुजरात के क्षेत्र |
चंबा भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का एक नगर है। हिमाचल प्रदेश का चंबा अपने रमणीय मंदिरों और हैंडीक्राफ्ट के लिए सर्वविख्यात है। रवि नदी के किनारे ९९६ मीटर की ऊँचाई पर स्थित चंबा पहाड़ी राजाओं की प्राचीन राजधानी थी। चंबा को राजा साहिल वर्मन ने ९२० ई. में स्थापित किया था। इस नगर का नाम उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री चंपावती के नाम पर रखा। चारों ओर से ऊंची पहाड़ियों से घिरे चंबा ने प्राचीन संस्कृति और विरासत को संजो कर रखा है। प्राचीन काल की अनेक निशानियां चंबा में देखी जा सकती हैं।
'जाब', चंबा का अरबी नाम है। इसके जाफ, हाब, आब और गाँव नाम भी हैं। इसकी प्राचीन राजधानी ब्रह्मपुर (वयराटपट्टन) थी। हुएनत्सांग ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह अलखनंदा और करनाली नदियों के बीच बसा है। कुछ काल बाद इस प्रदेश की राजधानी चंबा हो गई। १५ अप्रैल १९४८ में इसका विलयन भारत सरकार द्वारा शासित हिमाचल प्रदेश में हो गया।
अरब लेखकों ने सामान्यत: चंबा के सूर्यवंशी राजपूत शासकों को 'जाब' की उपाधि के साथ लिखा है। हब्न रुस्ता का मत है कि यह शासन सालुकि वंश के थे परंतु राजवंश की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। ८४६ ई. में सर्वप्रथम हब्न खुर्रदद्बी ने 'जाब' का प्रयोग किया, पर ऐसा लगता है कि इस शब्द की उत्पत्ति अरब साहित्य में इससे पूर्व हो चुकी थी। इस प्रकार यह प्रामाणिक माना जाता है कि चंबा नगर ९ वीं शताब्दी के प्रथम दशक में विद्यमान था। इब्न रुस्ता ने लिखा है कि चंबा के शासक प्राय: गुर्जरों और प्रतिहारों से शत्रुता रखते थे।
यह मंदिर राजा साहिल वर्मन की पुत्री को समर्पित है। यह मंदिर शहर की पुलिस चौकी और कोषागार भवन के पीछे स्थित है। कहा जाता है कि चंपावती ने अपने पिता को चंबा नगर स्थापित करने के लिए प्रेरित किया था। मंदिर को शिखर शैली में बनाया गया है। मंदिर में पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है और छत को पहिएनुमा बनाया गया है।
यह मंदिर पांरपरिक वास्तुकारी और मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। चंबा के ९ प्रमुख मंदिरों में यह मंदिर सबसे विशाल और प्राचीन है। कहा जाता है कि सवसे पहले यह मन्दिर चम्बा के चौगान में स्थित था परन्तु बाद में इस मन्दिर को राजमहल (जो वर्तमान में चम्बा जिले का राजकीय महाविद्यालय है) के साथ स्थापित कर दिया गया। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर राजा साहिल वर्मन ने १० वीं शताब्दी में बनवाया था। यह मंदिर शिखर शैली में निर्मित है। मंदिर में एक विमान और गर्भगृह है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। मंदिर की छतरियां और पत्थर की छत इसे बर्फबारी से बचाती है।
भूरी सिंह संग्रहालय
यह संग्रहालय १४ सितंबर १९०८ ई. को खुला था। १९०४-१९१९ तक यहां शासन करने वाले राजा भूरी सिंह के नाम पर इस संग्रहालय का नाम पड़ा। भूरी सिंह ने अपनी परिवार की पेंटिग्स का संग्रह संग्रहालय को दान कर दिया था। चंबा की सांस्कृतिक विरासत को संजोए इस संग्रहालय में बसहोली और कांगड़ा आर्ट स्कूल की लघु पेंटिग भी रखी गई हैं।
यह घाटी वन्य जीव प्रेमियों को काफी लुभाती है। यह खूबसूरत घाटी ६००६ फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह घाटी चंबा से ५३ किमी .दूर सलूणी से जुड़ी हुई है। यहां से ट्रैकिंग करते हुए जम्मू-कश्मीर पहुंचा जा सकता है। रास्ते में आपको प्रकृति का मनमोहक नजारा देखने को मिलेगा। जम्मू कश्मीर के रास्ते में आपको पधरी जोत नामक पर्यटक स्थल भी देखने को मिलेगा जन्हा आप प्रकृति की सुंदरता महसूस कर सकते हैं।
चंबा की इस प्राचीन राजधानी को पहले ब्रह्मपुरा नाम से जाना जाता था। २१९५ मीटर की ऊँचाई पर स्थित भरमौर घने जंगलों से घिरा है। किवदंतियों के अनुसार १० वीं शताब्दी में यहां ८४ संत आए थे। उन्होंने यहां के राजा को १० पुत्र और एक पुत्री चंपावती का आशीर्वाद दिया था। यहां बने मंदिर को चौरासी नाम से जाना जाता है। लक्ष्मी देवी, गणेश और नरसिंह मंदिर चौरासी मंदिर के अन्तर्गत ही आतें हैं। भरमौर से कुगती पास और कलीचो पास की ओर जाने के लिए उत्तम ट्रैकिंग रूट है। तथा विश्व में केवल भरमौर में धर्मराज जी का मंदिर मौजूद है जिन्हे हम यमराज के नाम से भी जानते।
किवदंतियों के अनुसार माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म,समुदाय,देश से सम्बन्ध रखता हो मृत्यु के बाद उसे इस मन्दिर में आना ही होगा इसी मंदिर में हर आत्मा के कर्मों का हिसाब होगा और उसके कर्मानुसार उसे स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होगी
यह खुला घास का मैदान है। लगभग १ किलोमीटर लंबा और ७५ मीटर चौड़ा यह मैदान चंबा के बीचों बीच स्थित है। चौगान में प्रतिवर्ष मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस मेले में स्थानीय निवासी रंग बिरंगी वेशभूषा में आते हैं। इस अवसर पर यहां बड़ी संख्या में सांस्कृतिक और खेलकूद की गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। लेकिन अब चौगान तीन चार हिसों में बंट चूका है
यह प्राचीन मंदिर एक हजार साल पुराना माना जाता है। प्रकाश की देवी वजरेश्वरी को समर्पित यह मंदिर नगर के उत्तरी हिस्से में स्थित जनसाली बाजार के अंत में स्थित है। शिखर शैली में निर्मित इस मंदिर का छत लकड़ी से बना है और एक चबूतरे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है।
सूई माता मंदिर
चंबा के निवासियों के लिए अपना जीवन त्यागने वाली यहां की राजकुमारी सूई को यह मंदिर समर्पित है। यह मंदिर शाह मदार हिल की चोटी पर स्थित है। यहाँ सूई माता नें कुछ समय के लिए विश्राम किया था। यहाँ सूई माता की याद में यहां हर साल सूई माता का मेला चैत महीने से शुरू होकर बैसाख महीने तक चलता है। यह मेला महिलाओं और बच्चों द्वारा मनाया जाता है। मेले में रानी के गीत गाए जाते हैं और रानी के बलिदान को श्रद्धांजलि देने के लिए लोग सूई मन्दिर से रानी के वलिदान स्थल मलूना तक जाते हैं।
चामुन्डा देवी मंदिर
यह मंदिर पहाड़ की चोटी पर स्थित है जहां से चंबा की स्लेट निर्मित छतों और रावी नदी व उसके आसपास का सुन्दर नजारा देखा जा सकता है। मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है और देवी दुर्गा को समर्पित है। मंदिर के दरवाजों के ऊपर, स्तम्भों और छत पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। मंदिर के पीछे शिव का एक छोटा मंदिर है। मंदिर चंबा से तीन किलोमीटर दूर चंबा-जम्मुहार रोड़ के दायीं ओर है। भारतीय पुरातत्व विभाग मंदिर की देखभाल करता है।
भगवान विष्णु का यह मंदिर ११ शताब्दी में बना था। कहा जाता है कि यह मंदिर सालबाहन ने बनवाया था। मंदिर चौगान के उत्तर पश्चिम किनारे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है।
हरीराय मंदिर में चतुमूर्ति आकार में भगवान विष्णु की कांसे की बनी अदभुत मूर्ति स्थापित है। केसरिया रंग का यह मंदिर चंबा के प्राचीनतम मंदिरों में एक है।
लखन मंदिर भरमौर...
यह हिमाचल प्रदेश का शिखर शैली में बना बहुत पुराना मंदिर है। देवी लक्ष्मी को यहां महिसासुरमर्दिनी रूप में दिखाया गया है। मंदिर में स्थापित देवी की पीतल की प्रतिमा राजा मेरू वर्मन के उस्ताद कारीगर मुग्गा ने बनाई थी। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश का प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थल है। यहां हर साल मणिमहेश यात्रा का आयोजन होता है।
यह प्राचीन और विशाल महल सुराड़ा मोहल्ले में स्थित है। महल में अब हिमाचल एम्पोरियम बना दिया गया है। इस महल की नींव राजा उमेद सिंह ने (१७४८-१७६८) डाली थी। महल का दक्षिणी हिस्सा राज श्री सिंह ने १८६० में बनवाया था। यह महल मुगल और ब्रिटिश शैली का मिश्रित उदाहरण है। यह महल यहां के शासकों का निवास स्थल था।
अखंड चंडी महल
चंबा के शाही परिवारों का यह निवास स्थल राजा उमेद सिंह ने १७४८ से १७६४ के बीच बनवाया था। महल का पुनरोद्धार राजा शाम सिंह के कार्यकाल में ब्रिटिश इंजीनियरों की मदद से किया गया। १८७९ में कैप्टन मार्शल ने महल में दरबार हॉल बनवाया। बाद में राजा भूरी सिंह के कार्यकाल में इसमें जनाना महल जोड़ा गया। महल की बनावट में ब्रिटिश और मुगलों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। १९५८ में शाही परिवारों के उत्तराधिकारियों ने हिमाचल सरकार को यह महल बेच दिया। बाद में यह महल सरकारी कॉलेज और जिला पुस्तकालय के लिए शिक्षा विभाग को सौंप दिया गया।
खजियार चम्बा की सबसे खूबसूरत जगह है।यह चम्बा से २२ कि. मी की दूरी पर है। लाखो की तादाद में हर वर्ष लोग यहाँ घूमने के लिए आते है। यहाँ एक झील है जो की काफी पुरानी है। और जिसका दृश्य लोगों के मन को भाता है। इस झील पर लगी हुए घास इतनी उपजाओ है। की लोग इस घास को उखाड़ के अपने घर के अगन में उगते है। मशहूर चौगान चम्बा की घास भी यही से लायी गयी है और हर साल खजियार की इस घास को चम्बा के चौगान में उगाया जाता है।
ज़िला मुख्यालय से ५३ किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है। उक्त गाँव में भी गद्दी समुदाय के लोग रहते हैं। बताया जाता है कि महभारत काल के दौरान जब कौरवों ने पांडवों की वनवास दिया था तो इस दौरान पांडवों ने माता कुन्ती के साथ दोपहर का भोजन किया था, जिनके नाम पर ही उक्त गाँव का नाम पहले कुन्तापुरी पड़ा था जिसको लोगों ने धीरे धीरे अपनी सहजता के हिसाब के बोलने के लिए कूंरा का नाम दे दिया। कूंरा पंचायत की करीब १४०० जनसँख्या है। यहां पांडवों का बनाया हुआ एक शिव मंदिर है। इसके साथ है पांडवों द्वारा बनाई गई पत्थरों की कई मूर्तियां मौजूद हैं।
सड़क के माध्यम से चंबा से ४५ किलोमीटर दूर छतराड़ी के इस प्रसिद्ध गांव है। गांव के ज्यादातर गद्दी लोगों का निवास है। भेड़ और बकरियों के पालन में लगे हुए बहुत हैं। इस गांव में ६००० फीट (१,८०० मीटर) की ऊँचाई पर स्थित है, यह शक्ति देवी की अपनी उल्लेखनीय पहाड़ी शैली के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
चंबा जाने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट पंजाब के अमृतसर में है जो चंबा से २४० किलोमीटर दूर है। अमृतसर से चंबा जाने के लिए बस या टैक्सी की सेवाएं ली जा सकती हैं।
दिल्ली से गगल एयरपोर्ट पहुंचा जा सकता है जहां से नूरपुर या सिहुंता से होकर लाहड़ू नामक स्थान पर पहुंचते हैं। यहां से हम वाया बनीखेत या फिर वाया जोत सड़क से होते हुए चम्बा आसानी से पहुंच सकते हैं। यहां से मात्र हमें १८० किलोमीटर वाया रोड़ जाना है।
चंबा से १४० किलोमीटर दूर पठानकोट नजदीकी रेलवे स्टेशन है। पठानकोट दिल्ली और मुम्बई से नियमित ट्रैनों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। यहां से बस या टैक्सी के द्वारा चंबा पहुंचा जा सकता है।
चंबा सड़क मार्ग से हिमाचल के प्रमुख शहरों व दिल्ली, धर्मशाला और चंडीगढ़ से जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें चंबा के लिए नियमित रूप से चलती हैं।
हिमाचल प्रदेश के शहर
भारत के नगर साँचे
चंबा ज़िले के नगर |
असफस्डनटवरलाल की गिनती भारत के प्रमुख ठगों और धोखेबाजों में होती है। बिहार के [[सीवान] जिले के जीरादेई गाँव में जन्में नटवरलाल ने बहुत से ठगी की घटनाओं से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को वर्षों परेशान रखा।
भारत के मशहूर ठग नटवरलाल का असली नाम मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव था । इसका जन्म १९१२ में बिहार राज्य के सीवान नाम के जिले के बंगरा गाँव में हुआ था। नटवरलाल एक प्रसिद्ध भारतीय शख्स था जिसने ठगी करते हुए ताजमहल, लाल किला, राष्ट्रपति भवन और संसद भवन तक को कई बार सरकारी कर्मचारी बनकर बेच दिया था।
नटवरलाल का जन्म सिवान के बांगरा गाँव में एक रईस जमींदार रघुनाथ श्रीवास्तव के घर पर हुआ था ।
मिथिलेश कुमार से नटवर लाल बनने की दो अलग कहानियां हैं। पहल कहानी के मुताबिक बिहार के सीवान जिले के बंगरा गांव का रहनेवाला मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव, धनी जमींदार रघुनाथ प्रसाद का बड़ा बेटा था। मिथिलेश पढ़ने में एक औसत छात्र था। पढ़ाई के बजाय फुटबॉल और शतरंज में उसकी रूचि ज्यादा थी। कहते हैं कि मैट्रिक के परीक्षा में फेल होने पर मिथिलेश को उसके पिता ने बहुता मारा. जिसके बाद वह कलकत्ता भाग गया। उस समय उसकी जेब में सिर्फ पांच रुपए थे। कलकत्ता में मिथिलेश ने बिजली के खंभे के नीचे पढ़ाई की, बाद में सेठ श्री केशवराम जी नाम के एक व्यक्ति ने मिथिलेश को अपने बेटे को पढ़ाने के लिए रख लिया। मिथिलेश ने सेठजी से अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए पैसे उधार मांगे, जिसे सेठजी ने देने से मना कर दिया। सेठजी के मना करने से मिथिलेश इतना चिढ़ गया कि उसने रुई की गांठ खरीदने के नाम पर सेठजी से ४.५ लाख ठग लिए।
दूसरी कहानी ये कहती है कि एक बार मिथिलेश को उसके पड़ोसी सहाय ने बैंक ड्राफ्ट जमा करने के लिए भेजा। वहां जाकर मिथिलेश ने सहाय के हस्ताक्षर को हूबहू कॉपी किया। उस समय मिथिलेश को पहली बार लगा कि वो जालसाजी का काम कर सकता है। उस दिन के बाद से मिथिलेश कुछ दिनों तक अपने पड़ोसी के खाते से पैसे निकालता रहा। जब मिथिलेश के पड़ोसी को इस बात की भनक लगी, तब तक मिथिलेश खाते से १००० रुपए निकाल चुका था। पता चलने के बाद मिथिलेश कलकत्ता चला गया और वहां जाकर वाणिज्य (कॉमर्स) में स्नातक (ग्रेजुएशन) किया। साथ ही शेयर बाजार में दलाली का काम करने लगा।
जालसाजी के किस्से
उसने सैकड़ों लोगों को धोखा दिया और ५० से अधिक छद्म नामों का इस्तेमाल किया। वह हमेशा ठगी के लिए शहर बदलता रहता था। लोगों को धोखा देने के लिए उपन्यासों से पढ़कर आइडिया इस्तेमाल करता था। ठगी में नटवर लाल इतना शातिर था कि उसने ३ बार ताजमहल, दो बार लाल किला, एक बार राष्ट्रपति भवन और एक बार संसद भवन तक को बेच दिया था। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के फर्जी हस्ताक्षर करके नटवर लाल ने संसद को बेच दिया था। जिसे समय संसद को बेचा था, उस समय सारे सांसद वहीं मौजूद थे। कहते हैं कि नटवर लाल के ५२ नाम थे, उन्ही में से एक नाम नटवर लाल था। सरकारी कर्मचारी का भेष धरकर नटवर लाल ने विदेशियों को ये सारे स्मारक बेचे थे। इसकी ठगी पर मिस्टर नटवर लाल फिल्म भी बन चुकी है। जिसमें अमिताभ बच्चन ने इसका रोल निभाया है। वह प्रसिद्ध हस्तियों के हस्ताक्षर बनाने में भी माहिर था। यह भी कहा जाता है कि उसने कई बड़े उद्योगपतियों को भी धोखा दिया था, वह एक बड़ी रकम नकद उनसे यह कहकर लेता था कि वह एक सामाजिक कार्यकर्ता है। उसने कई दुकानदारों को लाखों रुपयों का चूना लगाया । दुकानदारों से बड़ी संख्या में सामान लेकर उन्हें नकली चेक और डिमांड ड्राफ्ट द्वारा भुगतान करता था।
दिल्ली का कनॉट प्लेस. सुरेंद्र शर्मा की घड़ी की दुकान थी। एक दिन सफेद कमीज और पैंट पहने एक बूढ़ा आदमी घड़ी की दुकान में जाता है और खुद का परिचय तत्कालीन वित्तमंत्री नारायण दत्त तिवारी का पर्सनल स्टाफ डी.एन. तिवारी रूप में देता है और दुकानदार से कहता है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं, इसलिए उन्होंने पार्टी के सभी वरिष्ठ लोगों को समर्थन के लिए दिल्ली बुलाया है और इस बैठक में शामिल होने वाले सभी लोगों को वो घड़ी भेंट करना चाहते हैं तो मुझे आपकी दुकान से ९३ घड़ी चाहिए। दुकानदार को पहले तो इस आदमी की बातों पर शक हुआ लेकिन एक साथ इतनी घड़ियों को बेचने के लालच से खुद को रोक नहीं पाया।
अगले दिन वो बूढ़ा आदमी घड़ी लेने दुकान पहुंचा। दुकानदार को घड़ी पैक करने की बात कह एक स्टाफ को अपने साथ नॉर्थ ब्लॉक (नॉर्थ ब्लॉक वो जगह है, जहां प्रधानमंत्री से लेकर बड़े-बड़े अफसरों का ऑफिस होता है) ले गया. वहां उसने स्टाफ को भुगतान के तौर पर ३२,८२९ रुपए का बैंक ड्राफ्ट दे दिया. दो दिन बाद जब दुाकनदार ने ड्राफ्ट जमा किया तो बैंक वालों ने बताया कि वो ड्राफ्ट फर्जी है। फिर दुकानदार को समझ आया कि वो बूढ़ा आदमी नटवर लाल था और इसके बाद वित्तमंंत्री वीपी सिंह तो कभी वाराणसी के जिला जज का नाम तो कभी यूपी के सीएम के नाम पर नटवर लाल अलग-अलग शहर में दुकानदारों का चूना लगाता रहा।
नटवरलाल को नौ बार गिरफ्तार किया गया था लेकिन हर बार वह जेल से भागने में सफल रहा। उसे जालसाजी के १४ मामलों के लिए दोषी ठहराया गया था और ११३ साल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन उसने मुश्किल से २० साल जेल में बिताए। आखिरी बार जब उसे १९९६ में गिरफ्तार किया गया था तो उस समय उसकी उम्र ८४ साल थी। लेकिन वह पुलिस को चकमा देने में फिर से कामयाब रहा।उस समय वह व्हीलचेयर का उपयोग करता था और उसे कानपुर जेल से दिल्ली इलाज के लिए अस्पताल ले जाया जा रहा था।नई दिल्ली रेलवे स्टेशन मौका पाकर वह गायब हो गया। इसके बाद उसे २४ जून १९९६ को पुलिस द्वारा अंतिम बार देखा गया था। उस तारीख के बाद उसे फिर कभी नहीं देखा गया।नटवर लाल को अपने किए पर कोई शर्म नहीं थी। वह अपने आपको रॉबिन हुड मानता था, कहता था कि मैं अमीरों से लूट कर गरीबों को देता हूं। उसका कहना था कि मैंने कभी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया। लोगों से बहाने बनाकर पैसे मांगे और लोग पैसे दे गए। इसमें मेरा क्या कसूर है? आखिरी बार नटवर लाल बिहार के दरभंगा रेलवे स्टेशन पर देखा गया था। पुलिस में पुराने थानेदार ने जो सिपाही के जमाने से नटवर लाल को जानता था, उसे पहचान लिया। नटवर लाल ने भी देख लिया कि उसे पहचान लिया गया है। सिपाही अपने साथियों को लेने थाने के भीतर गया और नटवर लाल गायब था। यह बात अलग है कि पास खड़ी मालगाड़ी के डिब्बे से नटवर लाल के उतारे हुए कपड़े मिले और गार्ड की यूनीफॉर्म गायब थी।
नटवरलाल पत्रकारों के भी बहुत प्रिय थे...एक बार पत्रकारों ने उनसे जीवन की किसी अविस्मरणीय घटना के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि जब मैं पटना जेल में था तो मुझे जेल में इप्स अधिकारियों के कई क्लास लेने पड़े ठगी के विषय के ऊपर!!
नटवरलाल के वकील द्वारा २००९ में अदालत में यह कहते हुए अर्जी डाली गई कि नटवरलाल की मृत्यु २५ जुलाई २००९ को चुकी है इसलिए उसके खिलाफ लम्बित केस खारिज़ कर दिए जाए । नटवार लाल के छोटे भाई गंगाप्रसाद जोकि गोपालगंज में रहता है का भी कहना था कि नटवारलाल का अन्तिम संस्कार रांची में कर दिया गया है ।परन्तु आज तक इसके कोई पुख्ता सबूत या सरकारी दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं ।
नटवारलाल के जीवन में दो पत्नियां एवं एक बेटी थी । |
जीरादेई भारत के बिहार प्रान्त में सीवान जिले में स्थित एक छोटा गाँव है जो भारत के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की जन्मस्थली होने के कारण जाना जाता है।
जीरादेइ एक विधान सभा भी है। इसके बगल मैं यूपी बॉर्डर पार्ता हैं |
अबुजा अफ्रीकी देश नाईजीरिया की राजधानी है।
नाइजीरिया के शहर
संघीय राजधानी क्षेत्र (नाइजीरिया) |
मिर्ज़ापुर (मिर्जापुर) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मिर्ज़ापुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
पर्यटन की दृष्टि से मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश का काफी महत्वपूर्ण जिला माना जाता है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक वातावरण बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। मिर्ज़ापुर में स्थित विंध्याचल धाम भारत के प्रमुख हिन्दू धार्मिक स्थलों में से एक है। इसके अतिरिक्त सीताकुण्ड, लाल भैरव मंदिर, मोती तालाब, टांडा जलप्रपात, विल्डमफ़ाल झरना, तारकेश्वर महादेव, महा त्रिकोण, शिवपुर, चुनार किला, गुरूद्वारा गुरू दा बाघ और रामेश्वर, देवरहा बाबा आश्रम, अड़गड़ानंद आश्रम व अन्य छोटे बड़े जल प्रपातों आदि के लिए प्रसिद्ध है। मिर्ज़ापुर भदोही, वाराणसी, सोनभद्र, इलाहाबाद से घिरा हुआ है। भारत का अंतराष्ट्रीय मानक समय मिर्ज़ापुर जिले के अमरावती चौराहा स्थान से लिया गया है। मिर्ज़ापुर ग़ुलाबी पत्थरों (पिंकस्टोन) के लिये बहुत विख्यात है, प्राचीन समय में इस पत्थर का प्रयोग मौर्य वंश के राजा सम्राट् अशोक के द्वारा बौद्ध स्तुप एवं अशोक स्तम्भ (वर्तमान में भारत का राष्ट्रीय चिन्ह) को बनाने में किया गया था। मिर्ज़ापुर के लोगों की मूल भाषा मिर्ज़ापुरी है तथा हिन्दी एवं भोजपुरी भी चलन में है। मिर्ज़ापुर में एक मेडिकल कॉलेज संचालन में है तथा एक इंजीनियरिंग कॉलेज निर्माणाधीन है। यहां पर दो इंजीनियरिंग कॉलेज भी है|यहा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का दक्षिणी परिसर भी स्थित, जो बरकछा मे पहाडी के ऊपर हैं, जिसमे प्रमुख वेटनरी विद्यालय स्थित हैं, ज्याहा पशू की बहोत बडी हॉस्पिटल हैं, ओर ऐसी बहोत सी फॅकल्टीस हैं, जिसमे १००० से ज्यादा विद्यार्थी अध्यापन करते हैं।
जनपद के नाम को लेकर कई भ्रांतियां व्याप्त हैं। कुछ प्राचीन लोककथाओं के अनुसार विंध्याचल, अरावली एवं नीलगिरी से घिरे हुए क्षेत्र को विंध्यक्षेत्र के नाम से जाना जाता है। समयांतराल विंध्यक्षेत्र में विभिन्न क्षेत्रों का अलग अलग नामकरण हुआ। जैसे की मांडा के समीप के क्षेत्र पम्पापुर के नाम से, वर्तमान का अमरावती क्षेत्र गिरिजापुर के नाम से तथा आसपास का क्षेत्र सप्त सागर के नाम से विख्यात हुआ।
१७वीं शताब्दी में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में तेज़ी से अपने पाँव पसार रही थी, कलकत्ता से लेकर दिल्ली तक कंपनी का कारोबार फैलता ही जा रहा था तब कंपनी के अफसरों को मध्य भारत में भी अपना व्यापार फ़ैलाने की आवश्यकता महसूस हुयी इसी सन्दर्भ अफसरों ने गंगा के रास्ते में पड़ने वाले लगभग सभी नगरीय क्षेत्रों का गहन अध्ययन किया। तमाम क्षेत्रों में विंध्याचल एवं गंगा की बाँहों में फैला विंध्यक्षेत्र अंग्रेजी अफसरों को भा गया। १७35 ईसवी में लार्ड मर्क्यूरियस वेलेस्ले नाम के एक अँगरेज़ अफसर ने इस क्षेत्र की स्थापना मिर्ज़ापुर नाम से की।
मिर्ज़ा शब्द अंग्रेजी शब्दकोश में १५९५ ईसवी से जुड़ा जिसका शाब्दिक अर्थ है "राजाओ का क्षेत्र"। इस शब्द की व्युत्पत्ति अमीर (इंग्लिश: एमीर) एवं ज़ाद (फार्शियन) को मिलाकर बनाए शब्द अमीरजादा से हुयी। पर्शिया में अमीरजादा के लिए एक शब्द मोरजा भी है। अतः अंग्रेज़ों ने अपने क्षेत्र विस्तार के समय मिर्ज़ा शब्द को उपाधि की तरह उपयोग किया तथा क्षेत्र का नाम "मिर्ज़ापुर" रख जिसका अर्थ हुआ राजाओं का क्षेत्र। कुछ स्थानों पर अपभ्रंश के रूप में "मीरजापुर" नाम भी चलन में है।
मिर्जापुर की स्थिति पर है। यहां की औसत ऊंचाई ८० मीटर (२६५ फीट) है।
उत्तर प्रदेश के एक जिले मिर्जापुर का एक आधिकारिक जनगणना २०११ विवरण, उत्तर प्रदेश में जनगणना संचालन निदेशालय द्वारा जारी किया गया है। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के जनगणना अधिकारियों ने भी महत्वपूर्ण व्यक्तियों की गणना की। २०११ में, मिर्जापुर की जनसंख्या २,४९६, ९ ७० थी जिसमें से पुरुष और महिला क्रमशः १,3१२,30२ और १,१84,६६८ थी। २००१ की जनगणना में, मिर्जापुर की २,११6,04२ आबादी थी, जिसमें पुरुष १,११5,२4 ९ और शेष १,०००,7९3 महिलाएं थीं। मिर्जापुर जिला आबादी कुल उत्तर प्रदेश की जनसंख्या का १.२5 प्रतिशत है। २००१ की जनगणना में, मिर्जापुर जिले के लिए यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश का १.२7 प्रतिशत था। २००१ के अनुसार आबादी की तुलना में आबादी की तुलना में जनसंख्या में १8.०० प्रतिशत का परिवर्तन हुआ था। भारत की पिछली जनगणना में, मिर्जापुर जिला ने १९९१ की तुलना में इसकी आबादी में २7.४४ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की।
सबसे निकटतम हवाई अड्डा बाबतपुर (वाराणसी विमानक्षेत्र) है। मिर्जापुर से वाराणसी ६० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दिल्ली, आगरा, मुम्बई, चेन्नई, बंगलौर, लखनऊ और काठमांडू आदि से वायुमार्ग द्वारा मिर्जापुर पहुंचा जा सकता है।
मिर्जापुर रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। कुछ महत्वपूर्ण ट्रेनें जैसे कालका मेल, पुरूषोतम एक्सप्रेस, मगध एक्सप्रेस, गंगा ताप्ती, त्रिवेणी, महानगरी एक्सप्रेस, हावड़-मुम्बई, संघमित्रा एक्सप्रेस आदि द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।
मिर्जापुर सड़कमार्ग द्वारा सम्पूर्ण भारत से जुड़ा हुआ है। लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, दिल्ली और कलकत्ता आदि जगह से सड़कमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता हैं। (जौनपुर से भदोही वाया मीरजापुर) ग्रांड ट्रंक रोड (शेरशाह सूरी रोड) जो वाराणसी से लेकर कन्याकुमारी तक जाती है जिसे मिर्ज़ापुर के बाद रीवां रोड के नाम से भी जानते हैं। मिर्ज़ापुर का दक्षिणी छोर मध्यप्रदेश को भी जोड़ता है।
विन्ध्याचल के पूर्व में स्थित तारकेश्वर महादेव का जिक्र पुराण में भी किया गया है। मंदिर के समीप एक कुण्ड स्थित है। माना जाता है कि तराक नामक असुर ने मंदिर के समीप एक कुण्ड खोदा था। भगवान शिव ने ही तारक का वध किया था। इसलिए उन्हें तारकेश्वर महादेव भी कहा जाता है। कुण्ड के समीप काफी सारे शिवलिंग स्थित है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तारकेश्वर के पश्चिम दिशा की ओर एक कुण्ड और भगवान शिव के मंदिर का निर्माण किया था। इसके अतिरिक्त, ऐसा भी कहा जाता है कि तारकेश्वर में देवी लक्ष्मी निवास करती हैं। देवी लक्ष्मी यहां अन्य रूप में देवी सरस्वती के साथ वैष्णवी रूप में रहती है।
कहा जाता है कि महा त्रिकोण की परिक्रमा करने से भक्तों की इच्छा पूरी होती है। मंदिर स्थित विन्ध्यावशनी देवी के दर्शन करने के पश्चात् भक्त संकट मोचन मंदिर जाते हैं। इस मंदिर को कालीखोह के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर विन्ध्याचल रेलवे स्टेशन के दक्षिण दिशा की ओर स्थित है। देवी काली और संकट मोचन के दर्शन करने के बाद भक्त अपनी परिक्रमा संत करनागिरी बावली के दर्शन करके पूरी करते हैं। कालीखोह के आस-पास अन्य कई मंदिर जैसे आनन्द भैरव, सिद्धनाथ भैरव, कपाल भैरव और भैरव आदि स्थित है। विन्ध्याचल मंदिर और परिक्रमा पूरी करने के पश्चात् मन को बेहद सुकून प्राप्त होता है। यह पूरी यात्रा महा त्रिकोण के नाम से प्रसिद्ध है।
विन्ध्याचल में त्रिकोण यात्रा का काफी महत्त्व है। त्रिकोण का सही क्र्म है- सर्वप्रथम गंगास्नान के पश्चात् तट पर स्थित विन्ध्यवासिनी देवी का दर्शन। तत्पश्चात् कालीगोह स्थित मां काली का दर्शन। वहां से अष्टभुजी की यात्रा, और फिर लौट कर विन्ध्यवासिनी आकर पुनः दर्शन। इस प्रकार लगभग चौहद किलोमीटर की यह यात्रा होती है। ये तीनों स्थल स्पष्ट रूप से त्रिभुज के तीनों कोणों पर अवस्थित हैं। इस यात्रा का अतिशय महत्त्व है। तन्त्र शास्त्रों में इसे बाह्यत्रिकोण की यात्रा के रूप में मान्यता है। इसी पर आधारित अन्तः त्रिकोण की यात्रा भी होती है।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री राम चन्द्र ने अपने पिता राजा दशरथ का श्राद्ध विन्ध्याचल क्षेत्र में ही किया था। माना जाता है कि भगवान श्री राम भगवान शिव के उपासक थे। इस जगह पर भगवान राम ने पश्चिम दिशा की ओर भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित की थी। इसी कारण यह जगह रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुई और इस जगह को शिवपुर के नाम से जाना जाता है।
अष्टभुजा मंदिर के पश्चिम दिशा की ओर सीता जी ने एक कुंड खुदवाया था। उस समय से इस जगह को सीता कुंड के नाम से जाना जाता है। कुंड के समीप ही सीता जी ने भगवान शिव की स्थापना की थी। जिस कारण यह स्थान सीतेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। सीता कुंड के पश्चिम दिशा की तरफ भगवान श्री राम चंद्र ने एक कुंड खोदा था। जिसे राम कुण्ड के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त शिवपुर स्थित लक्ष्मण जी ने रामेश्वर लिंग के समीप शिवलिंग की स्थापना की थी, जो कि लक्ष्मणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है।
चुनार स्थित चुनार किला कैमूर पर्वत की उत्तरी दिशा में स्थित है। इस प्रसिद्ध किले का निर्माण शेरशाह द्वारा करवाया गया था। इस किले के चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें मौजूद है। यहां से सूर्यास्त का नजारा देखना बहुत मनोहारी प्रतीत होता है। कहा जाता है कि एक बार इस किले पर अकबर ने कब्जा कर लिया था। उस समय यह किला अवध के नवाबों के अधीन था। किले में सोनवा मण्डप, सूर्य धूपघड़ी और विशाल कुंआ मौजूद है।
श्री गुरू तेग बहादुर जी का यह गुरूद्वारा मिर्जापुर जिले स्थित वाराणसी के दक्षिण से ४० किलोमीटर की दूरी पर अहरौड़ गांव में स्थित है। यह गुरूद्वारा नौवें सिख गुरू, तेग बहादुर को समर्पित है। यह गुरूद्वारा, गुरूद्वारा बाग साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि १६६६ में वाराणसी की यात्रा के दौरान गुरू जी इस जगह पर आए थे। इस गुरूद्वारे में एक वर्गाकार हॉल और कई छोटे-छोटे कमरें हैं। गुरूद्वारे की इमारत बेहद खूबसूरत है। गुरूद्वारे के ठीक पीछे एक छोटा सा बगीचा स्थित है। १७४२ में प्रकाशित पवित्र गुरू ग्रंथ साहिब की हस्तलिपि आज भी यहां संरक्षित है। इसके अतिरिक्त, गुरूद्वारा बाग साहिब में हाथ से लिखी हुई पोथी, जिसपर गुरू गोविन्द सिंह के हस्ताक्षर हुए हैं, मौजूद है। यह पोथी लोगों के सामने केवल गुरू तेग बहादुर और गुरू गोविन्द सिंह की जयन्ती पर ही प्रदर्शित की जाती है।
मिर्जापुर और विन्ध्याचल के मध्य बहने वाली इस नदी को पुण्यजल अथवा ओझल के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जिस प्रकार सभी यज्ञों में अश्वमेघ यज्ञ और सभी पर्वतों में हिमालय पर्वत प्रसिद्ध है उसी प्रकार सभी तीर्थो में ओझल सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस नदी का जल गंगा नदी के जल के समान ही पवित्र माना जाता है। यह जगह देवी काली का मंदिर, महालक्ष्मी, महासरस्वती और तराकेश्वर महादेव के मंदिर से घिरी हुई है।
टंडा जलप्रपाल शहर से लगभग सात मील की दूरी पर स्थित है। टंडा जलप्रपात से कुछ दूरी पर खजूरी बांध और विन्ध्याम झरना भी स्थित है। विन्ध्याम झरना वन विभाग के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं। झरने के पास ही पार्क और वन विहार का निर्माण भी किया गया है। प्राकृतिक सुंदरता का अनुभव करने के लिए काफी संख्या में पर्यटक इस जगह पर आते हैं।
ख्वाजा इस्माइल चिस्ती का मकबरा, कांतित शरीफ में स्थित है। प्रत्येक वर्ष हिन्दू व मुस्लिम दोनों मिलकर उर्स का पर्व मनाते हैं। मकबरे के समीप ही मुगल काल की एक मस्जिद स्थित है। यह मस्जिद काफी लंबी है। जिस कारण इसे लॉगी पहलवान मस्जिद के नाम से जाना जाता है।
गुरूद्वारा गुरू दा बाघ
मिर्जापुर स्थित गुरूद्वारा गुरू दा बाघ काफी प्रमुख गुरूद्वारों में से है। इस गुरूद्वारे का निर्माण दसवें सिख गुरू, गुरू गोविन्द सिंह की याद में करवाया गया था। गुरूद्वारा गुरू दा बाघ शहर से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रामेश्वर महादेव मंदिर
रामेश्वर मंदिर मिर्जापुर जिले के विन्ध्याचल में स्थित है। यह जगह राम गया घाट पर, मिर्जापुर से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान राम ने इस जगह पर शिवलिंग की स्थापना की थी।
कुशियारा, सिरसी बांध, विंढम फाल, सिद्धनाथ की दरी, खड़ंजा फाल जैसे प्रमुख जलप्रपात है, जहां पूरे वर्ष सैलानी आते है।
बापू उपरौध इंटरमीडिएट कालेज लालगंज,मिर्जापुर*
अंबिका देवी सीनियर सेकेंडरी स्कूल, पंवारी कलां, मीरजापुर
वनस्थली स्नातकोत्तर महाविद्यालय अहरौरा ,मिर्ज़ापुर
श्री शंकराश्रम महा विद्यापीठ इंटर मीडिएट कॉलेज सीखड़ मिर्ज़ापुर
आदर्श इण्टर कालेज अदलहाट, मिर्ज़ापुर
नव ज्योति इंटर कॉलेज गरौड़ी अदलहाट, मिर्जापुर
सरदार पटेल इंटर कॉलेज कोलना, चुनार, मिर्ज़ापुर
नगर पालिका इंटर कालेज अहरौरा, मिर्ज़ापुर
श्री गांधी विद्यालय इंटर कालेज कछवा,मिर्ज़ापुर
बाबु हिन्छ्लाल यादव इंटर कालेज गोड़सर छानबे ,मिर्ज़ापुर
बाबूलाल जायसवाल इन्टर कॉलेज, मुकेरी बाजार, मिर्जापुर
गवर्मेंट इन्टर कॉलेज, महुवरिया मिर्जापुर
गवर्मेंट गर्ल्स इन्टर कॉलेज, महुवरिया मिर्जापुर
आर्यकन्या इन्टर कॉलेज, मिर्जापुर
राजस्थान इन्टर कॉलेज, मिर्जापुर
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मिर्ज़ापुर ज़िला के गोलेन्द्र पटेल, हिन्दी साहित्य की नई पीढ़ी के प्रमुख स्तम्भों में से एक एवं कवि हैं।
मिर्ज़ापुर तथा विन्ध्य क्षेत्र की विरासत को संजोने के लिए निजी परियोजना
मिर्ज़ापुर का डच जालस्थल
मिर्ज़ापुर शहर का जालस्थल
विन्ध्यक्षेत्र संरक्षण संस्थान
उत्तर प्रदेश के नगर
मिर्ज़ापुर ज़िले के नगर |
लालकृष्ण आडवाणी, (जन्म: ८ नवम्बर १९२७) भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। भारतीय जनता पार्टी को भारतीय राजनीति में एक प्रमुख पार्टी बनाने में उनका योगदान सर्वोपरि कहा जा सकता है। वे कई बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। जनवरी 200८ में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ने लोकसभा चुनावों को आडवाणी के नेतृत्व में लड़ने तथा जीत होने पर उन्हें प्रधानमन्त्री बनाने की घोषणा की थी।
भारतीय जनता पार्टी के जिन नामों को पूरी पार्टी को खड़ा करने और उसे राष्ट्रीय स्तर तक लाने का श्रेय जाता है उसमें सबसे आगे की पंक्ति का नाम है लालकृष्ण आडवाणी। लालकृष्ण आडवाणी कभी पार्टी के कर्णधार कहे गए, कभी लौह पुरुष और कभी पार्टी का असली चेहरा। कुल मिलाकर पार्टी के आजतक के इतिहास का अहम अध्याय हैं लालकृष्ण आडवाणी।
आठ नवंबर, १९२७ को वर्तमान पाकिस्तान के कराची में लालकृष्ण आडवाणी का जन्म हुआ था। उनके पिता श्री के डी आडवाणी और माँ ज्ञानी आडवाणी थीं। विभाजन के बाद भारत आ गए आडवाणी ने २५ फ़रवरी १९६५ को 'कमला आडवाणी' को अपनी अर्धांगिनी बनाया। आडवाणी के दो बच्चे हैं।
लालकृष्ण आडवाणी की शुरुआती शिक्षा लाहौर में ही हुई पर बाद में भारत आकर उन्होंने मुम्बई के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज से लॉ में स्नातक किया। आज वे भारतीय राजनीति में एक बड़ा नाम हैं। गांधी के बाद वो दूसरे जननायक हैं जिन्होंने हिन्दू आन्दोलन का नेतृत्व किया और पहली बार बीजेपी की सरकार बनावाई। लेकिन पिछले कुछ समय से अपनी मौलिकता खोते हुए नज़र आ रहे हैं। जिस आक्रामकता के लिए वो जाने जाते थे, उस छवि के ठीक विपरीत आज वो समझौतावादी नज़र आते हैं। हिन्दुओं में नई चेतना का सूत्रपात करने वाले आडवाणी में लोग नब्बे के दशक का आडवाणी ढूंढ रहे हैं। अपनी बयानबाज़ी की वजह से उनकी काफी फज़ीहत हुई। अपनी किताब और ब्लॉग से भी वो चर्चा में आए। आलोचना भी हुई।
वर्ष १९५१ में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की। तब से लेकर सन १९५७ तक आडवाणी पार्टी के सचिव रहे। वर्ष १९७३ से १९७७ तक आडवाणी ने भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष का दायित्व सम्भाला। वर्ष १९८० में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद से १९८६ तक लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के महासचिव रहे। इसके बाद १९८६ से १९९१ तक पार्टी के अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व भी उन्होंने सम्भाला।
१९९० राम रथ यात्रा
इसी दौरान वर्ष १९९० में राम मन्दिर आन्दोलन के दौरान उन्होंने सोमनाथ से अयोध्या के लिए राम रथ यात्रा निकाली। हालांकि आडवाणी को बीच में ही गिरफ़्तार कर लिया गया पर इस यात्रा के बाद आडवाणी का राजनीतिक कद और बड़ा हो गया। १९९० की रथयात्रा ने लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता को चरम पर पहुँचा दिया था। वर्ष १९९२ में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाया गया है उनमें आडवाणी का नाम भी शामिल है।
लालकृष्ण आडवाणी तीन बार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रह चुके हैं। आडवाणी चार बार राज्यसभा के और पांच बार लोकसभा के सदस्य रहे। वर्ष १९७७ से १९७९ तक पहली बार केन्द्रीय सरकार में कैबिनेट मन्त्री की हैसियत से लालकृष्ण आडवाणी ने दायित्व सम्भाला। आडवाणी इस दौरान सूचना प्रसारण मन्त्री रहे।
आडवाणी ने अभी तक के राजनीतिक जीवन में सत्ता का जो सर्वोच्च पद सम्भाला है वह है एनडीए शासनकाल के दौरान उपप्रधानमन्त्री का। लालकृष्ण आडवाणी वर्ष १९९९ में एनडीए की सरकार बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्रीय गृहमन्त्री बने और फिर इसी सरकार में उन्हें २९ जून २००२ को उपप्रधानमन्त्री पद का दायित्व भी सौंपा गया।
भारतीय संसद में एक अच्छे सांसद के रूप में आडवाणी अपनी भूमिका के लिए कभी सराहे गए तो कभी पुरस्कृत भी किए गए।
आडवाणी पुस्तकें, संगीत और सिनेमा में विशेष रुचि रखते हैं।
लालकृष्ण आडवाणी का जालघर
लालकृष्ण आडवाणी का सफरनामा (वेबदुनिया)
रथ यात्रा निकालकर भारत में की थी हिन्दुत्व की राजनीति की शुरुआत, ९२ के हुए आडवाणी
भारत के विभाजन में विस्थापित लोग
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष
भारत के उप प्रधानमंत्री
पद्म विभूषण धारक
१९२७ में जन्मे लोग |
डॉ अनुराधा पौडवाल (जन्म २७ अक्टूबर १९५४) हिन्दी सिनेमा की एक प्रमुख पार्श्वगायिका हैं। वे १९९० के दशक में अत्यन्त लोकप्रिय रहीं।
इन्होंने फिल्म कैरियर की शुरुआत की फ़िल्म अभिमान से, जिसमें इन्होंने जया भादुड़ी के लिए एक श्लोक गाया। यह श्लोक उन्होंने संगीतकार सचिन देव वर्मन के निर्देशन में गाया था। उसके बाद उन्होंने १९७४ में अपने पति संगीतकार अरुण पौडवाल के संगीत निर्देशन में 'भगवान समाये संसार में' फ़िल्म में मुकेश ओर महेंद्र कपूर के साथ गाया।
अनुराधा पौडवाल का जन्म २७ अक्टूबर १९५४ को कर्नाटक के उत्तर कन्नड जिले के करवार में एक कोंकणी परिवार में हुआ था। किन्तु उनका पालन-पोषण मुंबई में हुआ था। उनका विवाह अरुण पौडवाल से हुई थी जो प्रसिद्ध संगीतकार एसडी बर्मन के सहायक थे। अरुण स्वयं एक संगीतकार थे। नब्बे के दशक में अनुराधा पौडवाल अपने करियर के शिखर पर थीं, उसी समय उनके पति अरुण की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उनके एक बेटा आदित्य पौडवाल और बेटी कविता पौडवाल है।
अनुराधा ने १९७३ में आई अमिताभ और जया की फिल्म 'अभिमान' से अपना करियर शुरू किया था जिसमें उन्होंने एक श्लोक गीत गया था। एक समय लगभग हर फिल्म में अनुराधा का गाना होता था। लेकिन अब लंबे समय से गायन से दूर हैं। आखिरी बार उन्होंने २००६ में आई फिल्म 'जाने होगा क्या' में गाने गाए थे। अनुराधा ने कभी शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण नहीं लिया, ये कहते हुए कि उन्होंने कई बार कोशिश की पर बात नहीं बनी। उन्होंने लताजी को सुनते सुनते और खुद घंटो अभ्यास करते करते ही अपने सुर बनाए।
लता मंगेशकर अनुराधा पौडवाल के लिए भगवान से कम नहीं है, क्योंकि वह अपनी सभी सफलताओं का श्रेय लता जी को ही देती हैं। उनका कहना है कि मैंने कई गुरुओं के सानिध्य में संगीत सीखा। लेकिन, लता जी की आवाज़ मेरे लिए एक प्रेरणा स्रोत थी जिसने एक संस्थान के रूप में मेरा मार्गदर्शन किया। उन्होंने अन्य संगीतकारों (राजेश रोशन, जे देव, कल्याणजी आनन्दजी) के साथ भी अच्छी जोड़ी बनाई।
अनुराधा को फिल्म 'हीरो' के गानो की सफलता के बाद लोकप्रियता मिली और उनकी गिनती शीर्ष गायिकाओं में की जाने लगी| इस फिल्म में उन्होंने लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ जोड़ी बनाई। हीरो की सफलता के बाद इस जोड़ी ने कई और फिल्मों में सफल गाने दिए जैसे, 'मेरी जंग', 'बटवारा', 'राम लखन' और आखरी में 'तेज़ाब'। इसके बाद उन्होंने टी-सीरीज़ के गुलशन कुमार के साथ हाथ मिलाया और कई नये चेहरों को बॉलीवुड में दाखिला दिलाया। इनमे से कुछ हैं उदित नारायण, सोनू निगम, कुमार सानू, अभिजीत, अनु मलिक और नदीम श्रवण।
अपनी सफलता के चरम पर उन्होंने केवल टी-सीरीज़ के साथ काम करने की घोषणा कर दी, जिसका लाभ अल्का याग्निक को मिला। अनुराधा पौडवाल ने फिल्मों से हटकर भक्ति गीतों पर ध्यान देना शुरू किया और इस क्षेत्र में बहुत से सफल भजन गाए। कुछ समय तक काम करने के बाद उन्होंने एक विश्राम ले लिया और ५ साल बाद फिर पार्श्व गायन में आ गयीं हालाँकि उनका लौटना उनके लिए बहुत सफल साबित नहीं रहा।
दि. १२ सितम्बर २०२० को उन पर दुःखों का पहाड़ तब टूटा, जब उनका पुत्र आदित्य पौडवाल किडनी की बामारी के चलते मात्र ३५ वर्ष की उम्र में चल बसा।
अनुराधा पौडवाल को संगीत के क्षेत्र में किये उनके श्रेष्ठ योगदान के लिये कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें भारत सरकार की तरफ से साल २०१७ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। इसके अलावा उन्हें ४ बार फिल्म फेयर पुरस्कार से और एक बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
२०१० : मध्य प्रदेश सरकार द्वारा लता मंगेशकर पुरस्कार
२०११ : मदर टेरेसा अवॉर्ड
२०१३ : महाराष्ट्र सरकार द्वारा मोहम्मद रफी पुरस्कार
२०१७ : भारत सरकार द्वारा पद्मश्री
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार
१९५२ में जन्मे लोग
भारतीय फिल्म पार्श्वगायक
राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार विजेता |
दक्षिण कोरिया के श्री ली जोंग वुक विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशक थे, २००३ से २००६ तक। |
| कैप्शन = भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद
| ऑफिस = प्रथम भारत के राष्ट्रपति
| प्रिडिसेसर = स्थिति की स्थापना चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के गवर्नर जनरल के रूप में
| पार्टी = भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
| स्पाउश = राजवंशी देवी (मृत्यु १९६१)
डॉ राजेन्द्र प्रसाद (३ दिसम्बर १८८४ २८ फरवरी 196३) भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने भारत के पहले मंत्रिमंडल में १९४६ एवं १९४७ मेें कृषि और खाद्यमंत्री का दायित्व भी निभाया था। सम्मान से उन्हें प्रायः 'राजेन्द्र बाबू' कहकर पुकारा जाता है।
राजेन्द्र बाबू का जन्म ३ दिसम्बर १८८४ को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं।
राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारण (अब सीवान) के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादीऔर माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्यकाल में ही, लगभग १३ वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से १८ वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था।. सन् १९०२ में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। १९१५ में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।]]
हिन्दी एवं भारतीय भाषा-प्रेम
यद्यपि राजेन्द्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरू हुई थी तथापि बी० ए० में उन्होंने हिंदी ही ली। वे अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य से पूरी तरह परिचित थे तथा इन भाषाओं में सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम० एल० परीक्षा के लिए हिन्दू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिन्दी के प्रति उनका अगाध प्रेम था। हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबन्ध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। १९१२ ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मन्त्री थे। १९२० ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का १०वाँ अधिवेशन पटना में हुआ तब भी वे प्रधान मन्त्री थे। १९२३ ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन काकीनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे परन्तु रुग्णता (इल्नेस) के कारण वे उसमें उपस्थित न हो सके अतः उनका भाषण जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। १९२६ ई० में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और १९२७ ई० में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिन्दी में उनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखीं। उन्होंने हिन्दी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गान्धीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयं सेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और १९२८ में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने 'सर्चलाईट' और 'देश' जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। १९१४ में बिहार और बंगाल मे आई बाढ़ में उन्होंने काफी बढ़चढ़ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के १९३४ के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
१९३४ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: १९३९ में सँभाला था।
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांतग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए उदाहरण बन गए।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले २५ जनवरी १९५० को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। १२ वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने १९६२ में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था - "बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।"
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था - "उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।"
सितम्बर १९६२ में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को सम्बोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था - "मुझे लगता है मेरा अन्त निकट है, कुछ करने की शक्ति का अन्त, सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त।" राम! राम!! शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अन्त २८ फरवरी १९६३ को पटना के सदाक़त आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके प्रपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने बाई-पोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। अशोक जी प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट ऐण्ड साइंस के सदस्य भी हैं।
राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में बाबू (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र'' इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
सन १९६२ में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें भारत रत्न की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस भूमिपुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर २८ फ़रवरी १९६३ में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हम सभी को इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति: राजेन्द्र प्रसाद
राजेंद्र प्रसाद का जीवन परिचय
राजेन्द्र प्रसाद का जीवन-चरित
कांग्रेस पार्टी: राजेन्द्र प्रसाद
भारत के राष्ट्रपति
१८८४ में जन्मे लोग
१९६३ में निधन
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष |
कोरापुट (कोरापुत) भारत के ओड़िशा राज्य के कोरापुट ज़िले में स्थित एक शहर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
कोरापुट दक्षिणी उड़ीसा में पूर्वी घाट की पहाड़ियों में बसा हुआ है। यहाँ के हरे-भरे घास के मैदान, जंगल, झरने, तंग घाटियां आदि सैलानियों को खूब आकर्षित करती हैं। ८५३४ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला यह जिला बंगाल की खाड़ी से काफी निकट है। देवमाली जिले की सबसे ऊंची चोटी है जिसकी ऊंचाई ५४८४ फीट है। दुगुमा, बागरा और खांडाहाटी झरनों से यह जिला और जीवंत हो उठता है। कोरापुट में बने मंदिर, मठ, मध्य काल के स्मारक, आदि अतीत की कहानी कहते प्रतीत होते हैं। इन्हें देखने के लिए पर्यटकों का यहां नियमित आना-जाना लगा रहता है।
भगवान जगन्नाथ का यह आधुनिक मंदिर समुद्र तल से २९०० फीट की ऊंचाई पर एक पहाड़ी के शिखर पर बना हुआ है। मंदिर के पास ही एक जनजाति संग्रहालय है, जहां पर्यटकों को आदिवासी संस्कृति और विरासत के विषय में जानकारी दी जाती है।
मत्स्य तीर्थ के नाम से विख्यात यह खूबसूरत झरना १७५ मीटर की ऊंचाई से गिरता है। यहां के हरे-भरे और शांत क्षेत्र में एक हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट विकसित किया गया है। यहां पिकनिक मनाने वालों का सदैव जमावडा लगा रहता है। दुदुमा झरने से ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा-सा गांव गुरूवार को लगने वाले बाजार के लिए प्रसिद्ध है।
भगवान शिव का यह प्रसिद्ध गुफा मंदिर चूना पत्थर की एक पहाड़ी पर स्थित है। कोलाब नदी के किनारे यह पहाड़ी प्राकृतिक दृश्यावली से भरपूर है। मंदिर के पवित्र लिंगम को गुप्तेश्वर कहा जाता है जिसका अर्थ छिपे हुए भगवान होता है। छत्तीसगढ़ में इसे गुप्त केदार के नाम से जाना जाता है। शिवरात्रि के मौके पर यहां बड़ी संख्या में शिवभक्तों का आगमन होता है।
यह गांव कोरापुट और सुनादेब के मध्य राष्ट्रीय राजमार्ग ४३ के निकट स्थित है। यहां का श्रीराम मंदिर भगवान हनुमान की विशाल मूर्ति के लिए चर्चित है। यह मूर्ति उड़ीसा की सबसे विशाल हनुमान की मूर्ति मानी जाती है। राम नवमी पर्व के मौके पर यहां बड़ी संख्या में राम और हनुमान भक्तों का आगमन होता है।
जेपोर की यह प्राचीन राजधानी बतरीसा सिंहासन के लिए प्रसिद्ध है। १.८ मीटर ऊंची गणपति की प्रतिमा इस स्थान का प्राचीन वैभव दर्शाती प्रतीत होती है। सरबेश्वर मंदिर और उनमें खुदे अभिलेख भी इस स्थान की अद्वितीयता को बयां करते हैं।
कोलाब नदी पर बना यह बांध समुद्र तल से ३००० फीट की ऊंचाई पर है। इस बांध के जल से हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर उत्पन्न की जाती है। प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण इस स्थान में नौकायन और पिकनिक का आनंद भी लिया जा सकता है।
जेपोर नगर में यहां के प्रारंभिक शासकों द्वारा बनवाया गया किला देखा जा सकता है। यह किला चारों तरफ से ऊंची दीवारों से घिरा है। इसका प्रवेशद्वार काफी ऊंचा है। यहां के डेढ मील चौड़े जलकुंड को जगन्नाथ सागर के नाम से जाना जाता है। यह जलकुंड जलक्रीड़ाओं में रूचि रखने वालों के लिए उचित जगह है। जेपोर कोरापुट जिले के व्यापार केन्द्र के रूप में विकसित हुआ है और यहां का पेपर मास्क क्राफ्ट काफी लोकप्रिय है।
विशाखापट्टनम विमानक्षेत्र कोरापुट का नजदीकी एयरपोर्ट है। यह एयरपोर्ट देश के अनेक बड़े शहरों से वायुमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। यह एयरपोर्ट कोरापुट से करीब २०२ किलोमीटर की दूरी पर है।
कोरापुट रेलमार्ग द्वारा विशाखापट्टनम, भुवनेश्वर, दिल्ली, चेन्नई और कोलकता आदि शहरों से जुड़ा है।
राष्ट्रीय राजमार्ग २६ और राष्ट्रीय राजमार्ग 3२६ कोरापुट से होकर जाते हैं जो इसे अनेक शहरों से जोड़ते हैं। राज्य परिवहन निगम की नियमित बसें कोरापुट के लिए चलती रहती हैं।
इन्हें भी देखें
ओड़िशा के शहर
कोरापुट ज़िले के नगर
नक्सल प्रभावित जिले |
ढेंकानाल ज़िला भारत के ओड़िशा राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय ढेंकानाल है। यह भारत के अत्यंत पिछड़े जिलों में से एक है। यहाँ भारतीय जनसंचार संस्थान की एक शाखा है जिसकी वज़ह से इसे देश के अन्य स्थानों पर जाना जाता है।
इन्हें भी देखें
ओड़िशा के जिले
ओड़िशा के जिले |
कटक () भारत के ओड़िशा राज्य के कटक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। कटक महानदी के किनारे बसा हुआ है। यह १९७२ तक लगभग सहस्र वर्षों तक उत्कल/ओडिशा की राजधानी थी।
कटक ओड़िशा का एक प्राचीन नगर है, जो रौप्य नगर (सिल्वर सिटी) के नाम से भी जाना जाता है। इसका इतिहास एक हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है। करीब नौ शताब्दियों तक कटक ओड़िशा की राजधानी रहा और आज यहां की व्यावयायिक राजधानी के रूप में जाना जाता है। केशरी वंश के समय यहां बने सैनिक शिविर कटक के नाम पर इस शहर का नाम रखा गया था। यहां के किले, मंदिर और संग्रहालय पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। कटक वर्तमान ओड़िशा की मध्ययुगीन राजधानी था, जिसे पद्मावती भी कहते थे। यह नगर महानदी और उसकी सहायक नदी काठजोड़ी के मिलन स्थल पर बना है।
कटक शहर की स्थापना केशरी राजवंश के सम्राट नृप केशरी ने सन ९८९ ई. में की थी। सन १००२ ई. में सम्राट मर्कट केशरी ने शहर को बाढ़ से रक्षा करने के लिए पत्थर की दीवार बनाई थी। करीब १००० वर्षों तक कटक औड़िशा की राजधानी रही। गंग वंशी तथा सूर्य वंशी साम्राज्य की राजधानी भी कटक रहा है। ओड़िशा के आखिरी हिन्दु राजा मुकुंददेव के उपरांत कटक शहर पहले इस्लामी और बाद में शाहजहां के शासन काल में मुगल सल्तनत के अधीन रहा, जहाँ इसे एक उच्च स्तरीय प्रांत की मान्यता मिली थी। १७५० तक ओड़िशा मराठाओं के अधीन आने के साथ साथ कटक भी उनके अधीन आ गया। इसके उपरांत सन १८०३ ई. में कटक अंग्रेजों के अधीन आया। १८२६ में यह ओड़िशा प्रांत की राजधानी बनी। देश के स्वाधीन होने के उपरांत सन १९७२ में ओड़िशा की राजधानी कटक से भुवनेश्वर में स्थानांतरित कर दिया गया।
मुख्य पर्यटन स्थल
यह कटक का सबसे प्रमुख पर्यटक स्थल है। महानदी के किनारे बना यह किला खूबसूरती से तराशे गए दरवाजों और नौ मंजिला महल के लिए प्रसिद्ध है। इसका निर्माण गंग वंश ने १४वीं शताब्दी में करवाया था। युद्ध के समय नदी के दोनों किनारों पर बने किले इस किले की रक्षा करते थे। वर्तमान में इस किले के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम है। पांच एकड़ में फैले इस स्टेडियम में ३०००० से भी ज्यादा लोग बैठ सकते हैं। यहां खेल प्रतियोगिताओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अयोजन होता रहता है।
भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर कटक के बाहरी हिस्स्से में स्थित है। यहां एक बहुत बड़ा छिद्र है जहां से स्वयं पानी निकलता है। यह विशाल छिद्र इस मंदिर की मुख्य विशेषता है। इसे अनंत गर्व कहा जाता है।
महानदी के एक टापू में स्थित धवलेश्वर मंदिर भगवान शिव की आराधना के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर एक पर्यटक आकर्षण है।
महानदी के किनारे ओड़िशा की प्राचीन नौवाणिज्य विरासत को दिखाता नौवाणिज्य संग्रहालय कटक का एक प्रमुख पर्यटन केन्द्र है। बालियात्रा मैदान के निकट बने इस संग्रहालय को देखने लोगों की काफी भीड़ जमा होती है। यहाँ श्रीलंका, इंड़ोनेसिया आदि देशों के साथ ओड़िशा (कलिंग) की प्राचीन सामुद्रिक संबंधों का सुन्दर व्यौरा देखने को मिलता है।
नेताजी के जन्मस्थान संग्रहालय
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मस्थान में उनके इतिहास और उनकी विरासत को दिखाता हुआ एक सुन्दर संग्रहालय बना है, जो सुभाष के नेताजी बनने तक के सफर को दर्शाता है।
आनन्द भवन संग्रहालय
ओड़िशा के वीरपुत्र बीजू पट्टनायक के जन्मस्थान आनन्द भवन अब एक संग्रहालय में बदल दिया गया है। बारबाटी दूर्ग के किनारे में स्थित यह संग्रहालय बीजू पट्टनायक के गौरवमय व्यक्तित्व की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
यहां भारत की सबसे अलग मस्जिद है। मुसलमानों की धार्मिक आस्था को ध्यान में रखकर करवाया था। हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही इस स्थान का आदर करते हैं। मुख्य परिसर के अंदर तीन खूबसूरत मस्जिदें हैं। इनके गुंबद और कमरे बहुत ही आकर्षक हैं। यहां नवाबत खाना नाम का एक कमरा भी है जिसका निर्माण १८वीं शताब्दी में किया गया था। एक गुबद के पर पैगंबर मोहम्मद के पद चिह्न एक गोल पत्थर पर अंकित किए गए हैं।
नदी किनारे दीवार
११वीं शताब्दी में राजा मराकत केशरी ने नदी पर पत्थर की दीवार बनवाई थी। इस दीवार के कारण यह शहर बाढ़ों के कहर से बचा रह सका। इसी वजह से इस शहर को राजधानी बनाया गया था। यह तत्कालीन इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना है। यह दिखाती है कि उस समय तकनीक कितनी उन्नत थी।
काठजोड़ी के किनारे बना यह महल कटक के गौरवमय इतिहास का साक्षी रहा है। बारबाटी दुर्ग के बाद यह शासन का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। १७वीं सदी में बना यह महल कई प्रमुख राजाओं का निवासस्थान रहा है। १९४२ से १९६० तक यह ओड़िशा के राज्यपाल का निवास भी रहा है।
सलीपुर ब्रांच संग्रहालय
ब्रांच संग्रहालय की स्थापना १९७९ में की गई थी। इस संग्रहालय में मूर्तियों, शस्त्रों, टैराकोटा का प्रदर्शन किया गया है। इनके अलावा यहां वाद्य यंत्र और कागज तथा ताड़ पत्र पर लिखी पांडुलिपियां भी देखी जा सकती हैं।
समय: सुबह १० बजे से शाम ५ बजे तक, सोमवार और सार्वजनिक अवकाश के दिन बंद रहता है।
रेवेंशा विश्वविद्यालय ओड़िशा का सबसे पुराना शिक्षानुष्ठान है। सन १८६८ में बनाए गये इस कालेज को सन २००६ ई. में विश्वविद्यालय की मान्यता मिली।
इन सबके अलावा चुडंगगड़ दूर्ग, मधुसूदन संग्रहालय, स्वराज आश्रम, कनिका राजवाटी आदि इसके महत्वपूर्ण पर्यटन स्थान हैं।
बालियात्रा कटक का प्रसिद्ध महोत्सव है। प्राचीन नौवाणिज्य परंपरा को दर्शाता यह समारोह ८ दिनों तक चलता है, जिसमें रोज लाखों की भीड़ जमा रहती है। यह कटक का सबसे परिचित उत्सव है। इसके अलावा दूर्गापूजा, दीपावली, होली, रमजान, ईद आदि विविध उत्सव मनाया जाता है। कटक के त्योहारों एक खुबी इसकी सांस्कृतिक एकता है। धर्म के बंधन से दूर सभी एक साथ त्योहार में रम जाते हैं।
वायु मार्ग - यहां का नजदीकी हवाई अड्डा भुवनेश्वर का बीजू पटनायक हवाई अड्डा (३० किलोमीटर) है।
रेल मार्ग - कटक दिल्ली, कोलकता, मुंबई समेत सभी प्रमुख शहर से जुड़ा है। देश के विभिन्न भागों से यहां के लिए नियमित ट्रेनें चलती हैं।
सड़क मार्ग - कटक भुवनेश्वर, कोणार्क, पुरी, कोलकता और देश के बाकी हिस्सों से सड़कों के जरिए जुड़ा है। राष्ट्रीय राजमार्ग १६ यहाँ से गुज़रता है।
यहाँ पर भारतीय चावल अनुसंधान केन्द़ है।
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ओड़िशा के शहर
कटक ज़िले के नगर |
गंजाम (गंजम) भारत के ओड़िशा राज्य के गंजाम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय नहीं है और ज़िला मुख्यालय छत्रपुर में है। गंजाम से राष्ट्रीय राजमार्ग १६ गुज़रता है। शहर से कुछ दूर पूर्व में बंगाल की खाड़ी का तट है।
भारत की जनगणना २०११ के अनुसार पालिका क्षेत्र की जनसंख्या ११,७४७ है जिसमे ६,०७१ पुरुष व ५,६७६ महिलाएँ हैं। ०-६ आयुवर्ग की जनसंख्या १,२७७ है जो कुल जनसंख्या का १०.८७% है। यहाँ की लिंगानुपात दर ९३५ महिलाएँ प्रति १००० पुरुष हैं जो कि राज्य की औसत से ९७९ से कम है। साक्षरता दर ८५.३०% है जो कि राज्य की दर ७२.८७% से अधिक है।
यहाँ की कुल जनसंख्या में ९९.१९% हिन्दू, ०.७२% ईसाई, ०.०६% मुस्लिम, ०.०२% सिक्ख तथा ०.०१% जैन धर्म के अनुयायी हैं। ०.०१% लोगों ने अपने धर्म का उल्लेख नहीं किया है।
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ओड़िशा के शहर
गंजाम ज़िले के नगर |
जगतसिंहपुर (जगतसिंहपुर) भारत के ओड़िशा राज्य के जगतसिंहपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।
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ओड़िशा के शहर
जगतसिंहपुर ज़िले के नगर |
भद्रक (भद्रक) भारत के ओड़िशा राज्य के भद्रक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।
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ओड़िशा के शहर
भद्रक ज़िले के नगर |
सम्बलपुर (संबलपुर) भारत के ओड़िशा राज्य का पाँचवा सबसे बड़ा नगर है। यह महानदी के किनारे बसा हुआ है और सम्बलपुर ज़िले का मुख्यालय है।
सम्बलपुर का नाम 'समलेश्वरी देवी' के नाम पर पड़ा है जो शक्तिरूपा हैं और इस क्षेत्र में पूज्य देवी हैं। संबलपुर, भुवनेश्वर से ३२१ किमी की दूरी पर है। इतिहास में इसे 'संबलक', 'हीराखण्ड', 'ओडियान' (उड्डियान), 'ओद्र देश', 'दक्षिण कोशल' और 'कोशल' आदि नामों से संबोधित किया गया है। महानदी इस जिले को विभक्त करती है। यह जिला तरंगित समतल है, जिसमें कई पहाड़ियाँ हैं। इनमें से सबसे बड़ी पहाड़ी ३०० वर्ग मील में फैली हुई है। जिले में महानदी के पश्चिमी भाग में सघन खेती होती है और पूर्वी भाग के अधिकांश में जंगल हैं। जिले में हीराकुद पर बाँध बनाकर सिंचाई के लिए जल एवं उद्योगों के लिए विद्युत् प्राप्त की जा रही है। महानदी और इब नदी के संगमस्थल के समीप हीराकुड में स्वर्णबालू एवं हीरा पाया गया है।
संबलपुर, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्यों के बीच स्थित है और दोनों प्रान्तों को जोड़ता है। महानदी के बायें किनारे पर स्थित यह नगर कभी हीरों के व्यवसाय का केन्द्र था। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त सूती और रेशमी बुनावट (टशर रेशम) की वस्त्र-कारीगरी (इकत), आदिवासी समृद्ध विरासत और प्रचुर जंगल भूमि के लिए प्रसिद्ध है। नगर की पृष्ठभूमि में वनाच्छादित पहाड़ियाँ स्थित हैं, जिनके कारण नगर सुंदर लगता है। संबलपुर ओड़िशा के जादूई पश्चिमी भाग का प्रवेश द्वार के रूप में सेवारत है। यह राज्य के उत्तरी प्रशासकीय मंडल का मंडल मुख्यालय है - जो एक महत्वपूर्ण और व्यावसायिक और शिक्षा केन्द्र हैं।
प्रागैतिहासिक युग में दर्ज बस्तियों के साथ संबलपुर भारत के प्राचीन स्थानों में से एक है। वहाँ प्रागैतिहासिक कलाकृतियों की खोज की है जो इस ओर इशारा करते हैं। कुछ इतिहासकार इसे टॉलेमी द्वारा दूसरी शताब्दी के रोमन पाठ "जियोग्राफिया, एक प्राचीन एटलस और एक ग्रंथ कार्टोग्राफी" में वर्णित "संबालाका" शहर की पहचान करते हैं। यह उल्लेख किया गया है कि शहर हीरे का उत्पादन करता है। ४ वीं शताब्दी सीई में, गुप्त सम्राट ने "दक्षिण कोशल" के क्षेत्र पर विजय प्राप्त की, जिसमें वर्तमान समय में संबलपुर, विलासपुर और रायपुर शामिल थे। बाद में ६ वीं शताब्दी की शुरुआत में, चालुक्य राजा पुलकेशिन ई ने कहा कि तत्कालीन पांडुवामसी राजा बलार्जुन शिवगुप्त को हराकर दक्षिण कोसल पर विजय प्राप्त की थी। दक्षिण कोसल पर शासन करने वाला अगला राजवंश सोमबम्सी वंश था। सोमवंशी राजा जनमेजय- ई महाभागगुप्त (लगभग ८८२९२२ ई।) ने कोसाला के पूर्वी भाग को समेकित किया जिसमें आधुनिक अविभाजित संबलपुर और बोलनगीर जिले शामिल थे और तटीय आधुनिक ओडिशा पर भूमा-कार राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उदयोतकेसरी (सी। १०४०-१०६५ ई.पू.) के बाद, सोमवंशी साम्राज्य में धीरे-धीरे गिरावट आई। राजवंश ने उत्तर-पश्चिम में नागाओं और दक्षिण में गंगा से अपने प्रदेश खो दिए। सोमवंशी के पतन के बाद यह क्षेत्र थोड़े समय के लिए तेलुगु चोदास के अधीन आ गया। दक्षिण कोसल के अंतिम तेलुगु चोदा राजा सोमेश्वर तृतीय थे, जिन्हें कलचुरी राजा जजलदेव-प्रथम ने लगभग १११९ ईस्वी में हराया था। कलचुरी का उत्कल (वर्तमान में तटीय ओडिशा) के गंगा राजवंश के साथ एक आंतरायिक संघर्ष था। अंतत: कलचुरियों ने अनंगभूमि देव- ई (१२१११२३८ च.ए.) के शासनकाल के दौरान संबलपुर सोनपुर क्षेत्र को गंगा में खो दिया। गंगा साम्राज्य ने संबलपुर क्षेत्र पर २ और सदियों तक शासन किया। हालाँकि उन्हें उत्तर से बंगाल की सल्तनत और दक्षिण के विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। इस लगातार संघर्ष ने संबलपुर पर गंगा की पकड़ को कमजोर कर दिया। अंतत: उत्तर भारत के एक चौहान राजपूत रमई देव ने पश्चिमी उड़ीसा में चौहान शासन की स्थापना की।
संबलपुर नागपुर के भोंसले के अंतर्गत आया जब मराठा ने १८०० में संबलपुर को जीत लिया। १८१७ में तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद, ब्रिटिश सरकार ने संबलपुर को चौहान राजा जयंत सिंह को लौटा दिया, लेकिन अन्य रियासतों पर उनका अधिकार हटा लिया गया। जनवरी १८९६ में, ओडिया भाषा को समाप्त करके, हिंदी को संबलपुर की आधिकारिक भाषा बना दिया गया था, जिसके बाद लोगों द्वारा हिंसक विरोध प्रदर्शन को फिर से बहाल कर दिया गया था। १९०५ में बंगाल के विभाजन के दौरान संबलपुर और आस-पास के ओडिया भाषी इलाकों को बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत ओडिशा डिवीजन के साथ समामेलित किया गया था। बंगाल का ओडिशा विभाजन १९१२ में बिहार और ओडिशा के नए प्रांत का हिस्सा बन गया और अप्रैल १९३६ में मद्रास प्रेसीडेंसी से अविभाजित गंजाम और कोरापुट जिलों को मिलाकर ओडिशा का अलग प्रांत बन गया। १५ अगस्त १९४७ को भारतीय स्वतंत्रता के बाद, ओडिशा एक भारतीय राज्य बन गया। पश्चिमी ओडिशा की रियासतों के शासकों ने जनवरी १९४८ में भारत सरकार को मान्यता दी और ओडिशा राज्य का हिस्सा बन गए।
१८२५ से १८२७ तक, लेफ्टिनेंट कर्नल गिल्बर्ट (१७८५-१८५३), बाद में लेफ्टिनेंट जनरल सर वाल्टर गिल्बर्ट, फर्स्ट बैरोनेट, जीसीबी, संबलपुर मुख्यालय में दक्षिण पश्चिम फ्रंटियर के लिए राजनीतिक एजेंट थे। उन्होंने संबलपुर में एक अज्ञात कलाकार द्वारा अपने प्रवास के दौरान कुछ चित्र बनाए जो वर्तमान में ब्रिटिश लाइब्रेरी और विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय के साथ हैं।
वज्रयान बौद्ध धर्म
यद्यपि यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म पहली बार राजा इन्द्रभूति के अधीन उडिय़ाना या ओड्रा देश में विकसित हुआ था, वहाँ एक पुराना और प्रसिद्ध विद्वानों का विवाद है कि क्या उडिय़ाना या ओड्रा स्वात घाटी, ओडिशा या किसी अन्य स्थान पर था। संबलपुर के सबसे पुराने राजा इंद्रभूति ने वज्रयान की स्थापना की, जबकि उनकी बहन, जिनका विवाह लंकापुरी (सुवर्णपुर) के युवराज जलेंद्र से हुआ था, ने सहजयाना की स्थापना की। बौद्ध धर्म के इन नए तांत्रिक पंथों में छह तांत्रिक अभिचार (प्रथाओं) जैसे कि मारना, स्तम्भन, सम्मोहन, विदवेशन, उचेतन और वाजीकरण के साथ मंत्र, मुद्रा और मंडल का परिचय दिया गया। तांत्रिक बौद्ध संप्रदायों ने समाज के सबसे निचले पायदान की गरिमा को ऊंचे तल तक ले जाने के प्रयास किए। इसने आदिम मान्यताओं को पुनर्जीवित किया और व्यक्तिगत भगवान के लिए एक सरल और कम औपचारिक दृष्टिकोण, महिलाओं के प्रति एक उदार और सम्मानजनक रवैया और जाति व्यवस्था को नकारने का अभ्यास किया।
सातवीं शताब्दी के ए डी के बाद से, विषम प्रकृति के कई लोकप्रिय धार्मिक तत्वों को महायान बौद्ध धर्म में शामिल किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अंततः वज्रायण, कालचक्रयान और सहजयाना तांत्रिक बौद्ध धर्म की उत्पत्ति हुई। तांत्रिक बौद्ध धर्म पहली बार उदियाने में विकसित हुआ, एक देश जो दो राज्यों, सम्भला और लंकापुरी में विभाजित था। सम्भल की पहचान संबलपुर और लंकापुरी के साथ सुबरनपुरा (सोनेपुर) से की गई है।
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ओड़िशा के शहर
सम्बलपुर ज़िले के नगर |
जाजपुर (जाजपूर) भारत के ओड़िशा राज्य के जाजपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।
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ओड़िशा के शहर
जाजपुर ज़िले के नगर |
खोर्धा या खोर्द्धा भारत के ओड़िशा प्रान्त का एक जिला है। इसका मुख्यालय खुर्दा शहर है। प्रारम्भ में खुरदा के नाम से मशहूर उड़ीसा का खोरधा जिला २८८९ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। दया और कूआंखाइ ईहां से बहने वाली प्रमुख नदियां हैं। इस जिले का निर्माण १ अप्रैल १993 को पुरी और नयागढ़ जिले को काटकर किया गया था। उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर इस जिले के अन्तर्गत ही आती है। खोरधा आरम्भ में उड़ीसा शासकों की राजधानी थी। यह जिला कुटीर उद्योगों, चरखा मिल, केबल फैक्ट्री, रेलवे कोच रिपेयरिंग फैक्ट्री और तेल उद्योग के लिए लोकप्रिय है। अत्री, बानपुर, बरूनई हिल, चिलिका, हीरापुर और नंदनकानन अभयारण्य जिले के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।
यह भी खुर्दा जिले का जिला मुख्यालय है। दया और कुआखाई नदियों खुर्दा के माध्यम से प्रवाह होती है। वन क्षेत्र : ६१८.६७ वर्ग किमी की है।
तापमान: ४१.४ (अधिकतम ), ९.५ (न्यूनतम) [२]
वर्षा: १४४३ मिमी (औसत)
यह अपने पीतल के बर्तन कुटीर उद्योगों , केबल फैक्टरी , कताई मिलों , घड़ी की मरम्मत कारखाना , रेलवे कोच मरम्मत कारखाना , ऑयल इंडस्ट्रीज , कोका कोला बॉटलिंग संयंत्र और छोटे धातु उद्योगों के लिए प्रसिद्ध है।
संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों : २
विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों : ६
उप प्रभागों : २
गांव : १५६१
ब्लाक : १०
ग्राम पंचायत : १६८
तहसील : ८
नगर पालिका : २
नगर निगम : १
पर्यटक आकर्षण और निकटवर्ती स्थान
आरीकमा : बोलगड ब्लॉक के तहत गांव आरीकमा जंगल में मां कोशालशूणी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
अट्रि: यह अपने सल्फर - पानी के झरने और प्रभु हटकेश्वर (भगवान शिव) को समर्पित एक मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
बाणपुर : मां भागबती के लिए (हिंदू देवी मां दुर्गा के अवतार में से एक) मंदिर प्रसिद्ध है।
बरूणेइ : यह मंदिर प्रसिद्ध बरूणेइ पहाड़ियों पर स्थित है। यह भुवनेश्वर से २८ किलोमीटर की दूरी पर है।
खंडगिरि और उदयगिरी : ये जुड़वां पहाड़ियो भुवनेश्वर में स्थित हैं। इन जुड़वां पहाड़ियों में ११७ गुफा रहे हैं।
लिंगराज मंदिर: लिंगराज मंदिर ओडिशा में सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध शिव मंदिर है।
शिखर चंडी : यह नंदनकानन की ओर भुवनेश्वर से १५ किमी की दूरी पर स्थित है। पहाड़ी के ऊपर देवी चंडी को समर्पित एक मंदिर है, जो इस जगह का मुख्य आकर्षण है।
मां उगरा तारा
नंदनकानन चिड़ियाघर : यह भुवनेश्वर से २० किमी की दूरी पर स्थित ओडिशा के एक प्रसिद्ध चिड़ियाघर है।
डेरास और झुमका : ये भुवनेश्वर से १५ किमी की दूरी पर स्थित दो सुंदर पिकनिक स्पॉट हैं। वे एक घने जंगल से घिरा दो बांध हैं।
विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र
खोर्धा जिला निम्नलिखित ८ विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजीत है।
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ओड़िशा के जिले
ओड़िशा के जिले |
नबरंगपुर (नबरंगपुर) भारत के ओड़िशा राज्य के नबरंगपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
समुद्र तल से २००० फीट की ऊंचाई पर स्थित नवरंगपुर पूर्व में कालाहांडी, दक्षिण में कोरापुट और पश्चिम व उत्तर दिशा में छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। ५१३५ वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला १९९२ में गठित हुआ था। यहां से बहने वाली इन्द्रवती नदी नवरंगपुर और कोरापुट जिले को अलग करती है। यह जिला भरपूर खनिजों के साथ-साथ वन्यजीवों के लिए भी प्रसिद्ध है। पेंथर, तेंदुए, टाईगर, हेना, भैंस, काला भालू, बिसन, सांभर और बार्किंग डीयर जैसे पशुओं को यहां देखा जा सकता है। यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में मां पेन्द्रानी मंदिर, शहिद मीनार, खटिगुडा बांध, मां भंडाराघरानी मंदिर और भगवान जगन्नाथ मंदिर शामिल हैं। साथ ही यहां का रथयात्रा पर्व सैलानियों को खूब लुभाता है।
इस ऐतिहासिक स्थल की खुदाई से पत्थरों पर खुदे अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों में नल साम्राज्य की राजधानी पुष्करी के अभिलेख भी शामिल हैं। केलिया, पापडाहांडी और उमरकोट पोडागढ़ के निकटवर्ती दर्शनीय स्थल हैं।
इन्द्रवती नदी पर बना यह बांध नवरंगपुर के खटिगुडा में स्थित है। इन्द्रवती नदी की उत्पत्ति थुआमल रामपुर के निकट से होती है। पहाड़ियों से घिरा दूर-दूर फैला बांध का नीला जल एक अनोखा दृश्य उपस्थित करता है। यह बांध नबरंगपुर से २० किलोमीटर दूर है।
यह मीनार नवरंगपुर के पपडाहांडी ब्लॉक में स्थित है। यह मीनार उन देशभक्तों को समर्पित है, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। २४ अगस्त के दिन बड़ी संख्या में लोग यहां उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित होते हैं।
केलिया महादेव मंदिर
यह मंदिर केलिया में एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। देबगांव ताल्लुक में बना यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर को उड़ीसा के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में शामिल किया जाता है।
मां पेन्द्रानी मंदिर
मां पेन्द्रानी को समर्पित यह मंदिर राजा चैतन्य देव द्वारा बनवाया गया था। उमरकोट में स्थित यह लोकप्रिय मंदिर बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित करता है। मां पेन्द्रानी कोरापुट, कालाहांडी और बालंगीर में सर्वाधिक पूजी जाती हैं।
श्री नीलकंठेश्वर मंदिर
चंपक के पेड़ों से घिरा यह लोकप्रिय मंदिर पपडाहांडी में स्थित है। मंदिर अत्यंत कलात्मक शैली में बना है और इसकी तुलना भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर से की जाती है। बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक चिन्हों को भी यहां देखा जा सकता है।
विशाखापट्टनम विमानक्षेत्र यहां का नजदीकी एयरपोर्ट है जो देश के अनेक बड़े शहरों से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा है। यह एयरपोर्ट नवरंगपुर से करीब ३०० किलोमीटर की दूरी पर है।
कोरापुट रेलवे स्टेशन यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों से जुड़ा हुआ है। कोरापुट यहां से ६६ किलोमीटर दूर है।
राष्ट्रीय राजमार्ग २६ नबरंगपुर को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता है। उड़ीसा और पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों से यहां के लिए नियमित बसें चलती रहती हैं।
इन्हें भी देखें
ओड़िशा के शहर
नबरंगपुर ज़िले के नगर |
नयागढ़ (नयागढ़) भारत के ओड़िशा राज्य के नयागढ़ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
पूर्वी उड़ीसा में ३९५४ वर्ग किलोमीटर में फैले नयागढ़ जिले का ४० प्रतिशत हिस्सा जंगलों से घिरा है। बुधबुधियानी का सिंचाई पावर प्रोजेक्ट और गर्म पानी का झरना यहां का मुख्य आकर्षण है। इसके साथ ही यह स्थान चमड़े की कारीगरी, पीतल आदि धातुओं के उपकरणों और चीनी मिल के लिए प्रसिद्ध है। बरतुंगा नदी यहां बहने वाली प्रमुख नदी हे। बारामुल, कंतिलो, ओदागांव, जामुपटना, सारनकुल, रानापुर और कुअनरिया आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। यहां से गुजरने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग ५ इसे देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता है।
नयागढ़ की स्थिति पर है। यहाँ की औसत ऊंचाई १७८ मीटर (५८३ फीट) है।
यह स्थान नयागढ़ से २० किलोमीटर दूर नयागढ़- ओडगांव रोड पर स्थित है। भगवान लाडुकेश्वर मंदिर यहां का मुख्य आकर्षण है, जिन्हें लाडुबाबा नाम से जाना जाता है। शरणकुल शैव भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय है। शिवरात्रि पर्व मनाने के लिए उड़ीसा के अनेक हिस्सों से लोगों का यहां आगमन होता है। अन्य धार्मिक स्थल ओडगांव यहां से ५ किलोमीटर दूर है।
ओडगांव भगवान रघुनाथ जी के मंदिर के लिए काफी प्रसिद्ध है। भगवान राम को समर्पित इस मंदिर में रामनवमी पर्व काफी धूमधाम से मनाई जाती है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण १९०३ के आसपास हुआ था। मान्यता है कि उड़ीसा के लोकप्रिय कवि उपेन्द्र भांजा ने यहां ध्यान लगाया था और राम तरक मंत्र में निपुणता हासिल की थी। यहां होने वाली रामलीला बहुत लोकप्रिय है। सारनकुल से यह स्थान मात्र ५ किलोमीटर दूर है।
महानदी के किनारे स्थित कण्टिलो नीलमाधब मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर दो पहाड़ियों के शिखर पर बना है और इसके चारों तरफ की हरियाली पर्यटकों पर्यटकों को बहुत भाती है। भगवान नारायणी का मंदिर भी यहां देखा जा सकता है। कण्टिलो नयागढ़ से ३३ किलोमीटर की दूर है। अनेक धातुओं से बने यहां के बर्तन भी बड़े प्रसिद्ध हैं।
यह बांध नयागढ़ के दसपल्ला के निकट स्थित है। महानदी की सहायक कुआंरिया नदी पर बने इस बांध को बनवाने का मुख्य उद्देश्य इस पिछडे क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था करना था। बांध के आसपास की प्राकृतिक सुंदरता के कारण यह पिकनिक स्थल बन गया है। बांध के निकट कुआंरिया हिरण उद्यान भी देखा जा सकता है।
श्री गोपाल जी मठ
यह मठ निम्बार्क समुदाय के लिए एक पवित्र स्थल माना जाता है। कांतिलो के निकट स्थित यह मठ नयागढ़ से २५ किलोमीटर की दूरी पर है। मठ में श्रीगोपाल की प्रतिमा भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, राधा-कृष्ण और हनुमान के साथ देखी जा सकती है। यह प्रतिमाएं अष्ठ धातुओं से बनी हैं। यहां का मुख्य प्रवेश नक्कासियों से सुसज्जित है और लोगों के आकर्षण का केन्द्र है।
भुवनेश्वर से ७५ किलोमीटर दूर नयागढ़ जिले में स्थित ताराबालो गर्म पानी के झरनों का समूह है। ८ एकड़ में फैले इन झरनों के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। प्रकृति के शांत वातावरण में सुकून से समय बिताने के लिए यह एक आदर्श जगह है।
महानदी के किनारे स्थित बारमुल एक शांत गांव है। महानदी की एक खूबसूरत तंगघाटी गांव की प्रमुख विशेषता है। यहां से सूर्यास्त और सूर्योदय के मनोरम नजारे देखना पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। बंगाल टाईगर, तेंदुए, भालू, हाथी, सांभर, हिरन आदि जानवरों को यहां के प्राकृतिक वातावरण में विचरण करते देखा जा सकता है। अनेक दुर्लभ और लुप्तप्राय पक्षियों की प्रजातियों भी यहां दिखाई देती हैं। नवंबर से अप्रैल का यहां आने के लिए उत्तम माना जाता है।
भुवनेश्वर का बीजू पटनायक एयरपोर्ट यहां का निकटतम एयरपोर्ट। यह एयरपोर्ट देश के अनेक बड़े शहरों से जुड़ा है।
खुरदा रोड जंक्शन यहां का करीबी रेलवे स्टेशन है, जो इसे देश के अनेक हिस्सों से जोड़ता है।
राष्ट्रीय राजमार्ग ५७ नयागढ़ को उड़ीसा और अन्य पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों को सड़क मार्ग से जोड़ता है। यहां के लिए अनेक शहरों से राज्य परिवहन निगम की बसें चलती रहती हैं।
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नयागढ़ ज़िले के नगर |
नुआपड़ा भारत के ओड़ीसा प्रान्त का एक शहर है। यह नुआपड़ा जिला मुख्यालय है।
पश्चिमी ओड़ीशा का नुआपड़ा जिला मध्य प्रदेश के रायपुर और ओड़ीशा के बरगढ़, बलांगिर व कालाहांडी जिलों से घिरा हुआ है। ३४०७.०५ वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला १९९३ तक कालाहांडी का हिस्सा था, लेकिन प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से इसे कालाहांडी से अलग एक नए जिले के रूप में गठित कर दिया गया। पतोरा जोगेश्वर मंदिर, राजीव उद्यान, पातालगंगा, योगीमठ, बूढ़ीकोमना, खरीयार, गौधस जलप्रताप आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं।
पतोरा जोगेश्वर मंदिर
यह पश्चिमी ओड़ीसा और छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय शिव पीठों में एक है। मारागुडा घाटी के मारागुडा गांव में स्थित इस मंदिर में ६ फीट ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। इसके निकट ही राम मंदिर भी बना हुआ है। ४० फीट ऊंची हनुमान की मूर्ति यहां का मुख्य आकर्षण है।
हिन्दुओं का यह पवित्र तीर्थस्थान खरियार से ४१ किलोमीटर और बोडेन से ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि जो व्यक्ति इसके गर्म जल में स्नान करता है, उसे मुक्ति मिलती है। पातालगंगा में स्नान करने को पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के बराबर माना जाता है। कहा जाता है कि जब भगवान राम अपने वनवास के दौरान इस क्षेत्र से गुजर रहे तो सीता को प्यास लगी है। सीता की प्यास बुझाने के लिए राम ने धरती पर बाण चलाया और पातालगंगा की उत्पत्ति हुई।
योगीमठ लोकप्रिय प्रागैतिहासिक कालीन गुफा है। इस गुफा में पुरापाषाण काल के अनेक चित्र पत्थरों पर बने हुए हैं। यहां बनी सांड की आकृति काफी आकर्षक है। कृषि और पशुओं के चित्र आज भी उस काल के जीवन आंखों के सामने उपस्थित कर देते हैं।
बूढ़ीकोमना खरियार से ७३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान की लोकप्रियता यहां बने भगवान पातालेश्वर शिव के मंदिर के कारण है। त्रिरथ शैली में बने इस मंदिर के निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया गया है। वर्तमान में यह मंदिर क्षतिग्रस्त अवस्था में है।
खरियार नगर के बीचों बीच बना प्राचीन दधीबामन मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर को स्थानीय लोग बडागुडी नाम से भी पुकारते हैं। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ मंदिर, हनुमान मंदिर, देवी लक्ष्मी मंदिर और रक्तांबरी मंदिर यहां के अन्य लोकप्रिय आकर्षण हैं। खरियार में अमेरिकन इवेन्जलिकल मिशन की गतिविधियों होती रहती हैं।
नुआपड़ा से ३० किलोमीटर दूर स्थित इस जलप्रपात की कुल ऊंचाई ३० मीटर है। यह झरना गर्मियों के दिनों में सूख जाता है। इसके निकट ही भगवान शिव का मंदिर देखा जा सकता है। बैसाखी पर्व के मौके पर यहां दूर-दूर से भक्तों का आगमन होता है।
सुनादेब वन्यजीव अभयारण्य
६०० वर्ग किलोमीटर में फैला यह अभयारण्य नुआपड़ा जिले में छत्तीसगढ़ की सीमा के निकट स्थित है। इसे बारहसिंहा का आदर्श स्थान माना जाता है। साथ ही टाईगर, तेंदुए, हेना, बार्किंग डीयर, चीतल, गौर, स्लोथ बीयर और पक्षियों की विविध प्रजातियां देखी जा सकती हैं।
नूआपाडा का नजदीकी एयरपोर्ट रायपुर विमानक्षेत्र में है। यह एयरपोर्ट १२० किलोमीटर की दूरी पर है और देश के अनेक बड़े शहरों से वायुमार्ग द्वारा जुड़ा है।
नुआपड़ा रोड रेलवे स्टेशन यहां का करीबी रेलवे स्टेशन है, जो नुआपड़ा नगर से ३ किलोमीटर दूर है। यह रेलवे स्टेशन दक्षिण पूर्व रेलवे के विसाखा पटनम-रायपुर रेल लाइन पर स्थित है।
राष्ट्रीय राजमार्ग ३५३ और राज्य राजमार्ग ३ नुआपड़ा को अन्य शहरों से जोड़ता है। राज्य परिवहन की अनेक बसें नुआपड़ा के लिए चलती रहती हैं।
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ओड़िशा के शहर
नुआपड़ा ज़िले के नगर |
देवगढ़ (देवगढ़) भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द ज़िले में स्थित एक शहर है।
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राजसमन्द ज़िले के नगर |
सुल्तानगंज (अंग्रेजी: सुल्तानगंज) भारत के बिहार राज्य के भागलपुर जिला में स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है। यह गंगानदी के तट पर बसा हुआ है। यहाँ बाबा अजगबीनाथ का विश्वप्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर है। उत्तरवाहिनी गंगा होने के कारण सावन के महीने में लाखों काँवरिये देश के विभिन्न भागों से गंगाजल लेने के लिए यहाँ आते हैं। यह गंगाजल झारखंड राज्य के देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ को चढाते हैं। बाबा बैद्यनाथ धाम भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में एक माना जाता है।
सुल्तानगन्ज हिन्दू तीर्थ के अलावा बौद्ध पुरावशेषों के लिये भी विख्यात है। सन १८५३ ई० में रेलवे स्टेशन के अतिथि कक्ष के निर्माण के दौरान यहाँ से मिली बुद्ध की लगभग ३ टन वजनी ताम्र प्रतिमा आज बर्मिन्घम म्यूजियम में रखी है।
सुल्तानगंज एक प्राचीन बौद्ध धर्म का केन्द्र है जहाँ कई बौद्ध विहारों के अलावा एक स्तूप के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। सुल्तानगंज में बाबा अजगबीनाथ का विश्वप्रसिद्ध और प्राचीन मन्दिर है। सुल्तानगंज से एक विशाल गुप्तकालीन कला की बौद्ध प्रतिमा मिली है, जो वर्तमान में बर्मिघम (इंग्लैण्ड) के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह बुद्ध प्रतिमा दो टन से भी अधिक भारी तथा दो मीटर ऊँची है। इस प्रतिमा में महात्मा बुद्ध के शीश पर कुंचित केश तो हैं परन्तु उसके चारों ओर प्रभामण्डल नहीं है।
यह ताम्र प्रतिमा नालंदा शैली की प्रतीत होती है जबकि सुप्रसिद्ध इतिहासकार राखाल दास बनर्जी ने इसे पाटलिपुत्र शैली में निर्मित्त माना है।
२००१ की जनगणना के अनुसार सुल्तानगंज की कुल जनसंख्या ४१,८१२ थी। इसमें ५४% पुरुष तथा ४६% स्त्रियाँ थीं। यहाँ की औसत सक्षरता दर ५२% थी जो कि राष्ट्रीय औसत (५९.५%) से कम थी। उस समय पुरुषों का साक्षरता अनुपात ६०% तथा महिलाओं का ४३% आँका गया था। कुल जनसंख्या में १७% बच्चे ६ वर्ष से कम आयु के थे।.
प्रमुख दर्शनीय स्थल
सुल्तानगंज में उत्तर वाहिनी गंगा (उत्तर दिशा में बहने वाली गंगा) के साथ एक बहुश्रुत किंवदन्ती भी प्रसिद्ध है। कहते हैं जब भगीरथ के प्रयास से गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ तो उनके वेग को रोकने के लिये साक्षात भगवान शिव अपनी जटायें खोलकर उनके प्रवाह-मार्ग में आकर उपस्थित हो गये। शिवजी के इस चमत्कार से गंगा गायब हो गयीं। बाद में देवताओं की प्रार्थना पर शिव ने उन्हें अपनी जाँघ के नीचे बहने का मार्ग दे दिया। इस कारण से पूरे भारत में केवल यहाँ ही गंगा उत्तर दिशा में बहती है। कहीं और ऐसा नहीं है। चूंकि शिव स्वयं आपरूप से यहाँ पर प्रकट हुए थे अत: श्रद्धालु लोगों ने यहाँ पर स्वायम्भुव शिव का मन्दिर स्थापित किया और उसे नाम दिया अजगवीनाथ मन्दिर। अर्थात एक ऐसे देवता का मन्दिर जिसने साक्षात उपस्थित होकर यहाँ वह चमत्कार कर दिखाया जो किसी सामान्य व्यक्ति से सम्भव न था। जो भी लोग यहाँ सावन के महीने में काँवर के लिये गंगाजल लेने आते हैं वे इस मन्दिर में आकर भगवान शिव की पूजा अर्चना और जलाभिषेक करना कदापि नहीं भूलते। इस दृष्टि से यह मन्दिर यहाँ का अति महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है।
यातायात के साधन
सुल्तानगंज पूरे वर्ष भर भागलपुर, पटना और मुँगेर जिले से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा रहता है। पूर्व रेलवे की लूप लाइन से होकर यात्री किओल और कोलकाता भी सुगमता पूर्वक आ-जा सकते हैं। अब तो एक नई रेलवे लाइन देवघर के लिये भी प्रारम्भ हो गयी है।
भारतीय हिन्दू मन्दिर अजगबीनाथ सुल्तानगंज
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सुल्तानग की बुद्ध प्रतिमा
वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर |
पेरू दक्षिणी अमरीका महाद्वीप में स्थित एक देश है। इसकी राजधानी लीमा है।
प्रमुख नदी अमेज़ॉन और मुद्रा न्यूवो सोल है। यहाँ तीन तरह की जलवायु पाई जाती है- एँडीज़ में सर्द, तटवर्ती मैदानों में खुश्क-सुहानी और वर्षा वाले जंगलों में गर्म और उमस वाली। यह देश इंका नाम की प्राचीन सभ्यता के लिए भी जाना जाता है। पेरू की भाषा स्पेनिश और क्वेशुका हैं तथा ९० प्रतिशत लोग ईसाई धर्म का पालन करते हैं। प्रमुख उद्योग मछली और खनन हैं। यहाँ सभी प्रकार की धातुओं का प्रचुर खनिज भंडार है तथा अनाज, फल और कोको की खेती होती है। पर्यटन उद्योग भी यहाँ की आय का एक प्रमुख साधन है।
कोलंबियन पूर्व पेरू
पेरू में मानव उपस्थिति के साक्ष्य ९,००० ईसा पूर्व तक के देखे गये है। लौरिकोचा, पचैकैम, जुइनिन और तेलमाचाय की गुफाओं में शिकार उपकरण खोजे गए हैं। ये पैराकास और चिल्का के तटीय क्षेत्रों और कैलेज़ोन डी हुयलास के पहाड़ी क्षेत्र में भी स्थित थे। बाद के वर्षों में, बसने वालों ने कपास और मकई जैसे पौधों की खेती की शुरुआत कर अपनी जीवन शैली को बदल दिया और उन्होंने अल्पाका, गिनी पिग और लामा जैसे घरेलू जानवरों को भी पालना शुरू कर किया। उन्होंने बर्तन, टोकरी, बुनाई और ऊन और सूती कताई में भी महारत हासिल कर ली। इन अभ्यासों ने उन्हें एंडियन पहाड़ों और तट के किनारे घरों और नए समुदायों का निर्माण करने में मदद की। इस प्रकार, लीमा से २०० किमी उत्तर में कैरल के नाम का पहला अमेरिकी शहर का निर्माण हुआ। इस अवधि को उत्तरी चिको सभ्यता के रूप में जाना जाता था। और इस अवधी के लगभग ३० पिरामिड संरचनाएं आज भी उपस्थित है।
इन घटनाओं के बाद पुरातत्व सभ्यताओं ने इनका अनुशरण करते हुए पूरे पेरू में एंडियन और तटीय इलाकों में विकसित हुए। इन संस्कृतियों में से एक क्युप्स्निक संस्कृति थी, जो लगभग १००० से २०० ईसा पूर्व तक रही। यह संस्कृति वर्तमान में पेरू के प्रशांत तट पर समृद्ध थी और प्रारंभिक पूर्व-इंका सभ्यता के लिये एक आदर्श थी।
क्युप्स्निक संस्कृति के बाद चाविन सभ्यता का जन्म हुआ जो १५०० से ३०० ईसा पूर्व तक रहा। यह एक राजनीतिक व्यक्ति की बजाय कम या ज्यादा धार्मिक विचारधारा थी। उनका आध्यात्मिक केंद्र चाविन दे हुंतार में था। यह सभ्यता ईसाई सहस्राब्दी की शुरुआत में खत्म हो गई। हजारों सालों तक पहाड़ी क्षेत्रों और तट दोनों में अन्य कई संस्कृतियां बनती और नष्ट होती रही। इनमें से कुछ संस्कृतियों में वारी, पराकास, नाज़का और प्रसिद्ध मोच और चिमु शामिल थे। मोचे अपने चतुर धातुकर्म, सुंदर इमारतों, शुष्क क्षेत्र को उर्वरक बनाने के लिए सिंचाई प्रणाली का प्रयोग और बर्तनों की कलाकृति के लिए जाने जाते थे। दूसरी तरफ चिमू, इंका सभ्यता से पहले सबसे अच्छे शहर के निर्माणकर्ता थे और वे ११५० से १४५० तक समृद्ध थे। उनकी राजधानी चान चान में वर्तमान के त्रुहियो के बाहर थी। पहाड़ी क्षेत्रों में, तियाआआआनाको समाज, बोलिविया और पेरू दोनों में टिटिकाका झील के नजदीक, और वर्तमान दिन अयाकुचो शहर के पास वारी संस्कृति ने ५०० से १००० ईस्वी के बीच विशाल शहरी गांवों और व्यापक राष्ट्र स्थापित किया।
उस समय तक, इंका धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। अधिकांश संस्कृतियां इंक के प्रति अपने निष्ठा जताने को तैयार नहीं थीं, लेकिन अंत में उनको साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
इंका साम्राज्य (१४३८-१५३२)
इंका १५वीं शताब्दी में एक शक्तिशाली राष्ट्र बन कर उभरा और उसने पूर्व-कोलंबियाई अमेरिका में सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित किया और उसकी राजधानी कुज़्को में थी। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार और एकीकृत करते हुए अपने पड़ोसी राज्यों को अपने में सम्मलित कर लिया। १५वीं शताब्दी के मध्य में महान सम्राट पाचकुति के शासन में साम्राज्य विस्तार की गति में वृद्धि हुई। अपने और उसके बेटे टोपा इंका युपान्की के शासन काल में इंका ने एंडियन क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। पाचकुति ने अपने दूरदराज के साम्राज्य को नियंत्रित करने के लिए कानूनों का एक व्यापक संहिता भी प्रस्तुत किया, जबकि सूर्य के देवता के रूप में अपने पूर्ण अस्थायी और आध्यात्मिक अधिकार को मजबूत करते हुए, जिन्होंने एक शानदार पुनर्निर्मित कुस्को से शासन किया। इस युग के दौरान, इंका द्वारा पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के पूर्व में अमेज़ॅन वर्षावन से लेकर पश्चिम में प्रशांत महासागर और दक्षिण कोलंबिया से लेकर चिली तक जैसे बड़े हिस्से को एकीकृत करने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग किया गया। इन प्रयोगो में शांतिपूर्ण समझौतों से लेकर उनपर सशस्त्र विजय शामिल थे। क्वेशुआ, साम्राज्य की औपचारिक भाषा थी और साम्राज्य को तवांतिनुयू के रूप में जाना जाता था, जिसका अर्थ "चार एकीकृत प्रांत" या "चार क्षेत्र" होता है। हारे हुए समुदायों को भव्य राजधानी में श्रमदान और सम्मान प्रदान करना होता था। १६वीं शताब्दि में उत्तराधिकार को लेकर दो भाइयों अताहुल्पा और हूस्कर के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया और उसी समय १५30 के दशक में पेरू के तट पर स्पेनिश विजयविदो को आगमन हुआ।
स्पेनिश विजय और औपनिवेशिक शासन (१५३२-१८२४)
१५३२ में, स्पेनिश विजयविद फ्रांसिस्को पिज़्ज़ारो के नेतृत्व में पेरू के चांदी और सोने में समृद्ध साम्राज्य को जीतने के उद्देश्य से पहुंचे। उस समय अताहुल्पा ने अपने भाई को हराकर सत्ता हासिल कर चुका था। पिज्जारो ने कजामार्का में इंका राजा, अताहुल्प को हरा दिया उसे पकड़ कर मौत की सजा दे दी गई। आखिरकार स्पेनिश सैनिकों ने नवंबर १५३३ में कुज़्को पर भी कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने ह्यूना कैपेक के बेटे मैनको इंका युपांक्की को नए कठपुतली राजा के रूप में नियुक्त कर दिया।
पिज्जारो ने वर्ष १५३५ में अपने नए अधिग्रहीत क्षेत्रों की राजधानी के रूप में लीमा शहर को विकसित किया। मैनको इंका कुज़्को से भाग निकला और उसकी घेराबंदी की योजना बनाई जो कुछ महीनों तक चली, लेकिन सफल नहीं हुई। मैनको ने १५३७ में ओलंटैटाम्बो में एक महत्वपूर्ण रक्षात्मक युद्ध जीता, लेकिन उसे पीछे हटना पड़ा। उसने जंगलो में विल्काबम्बा नाम की बस्ती से नव-इंका राष्ट्र की स्थापन की जोकि १५७२ तक चला। १५४१ में लीमा में डिएगो अल्माग्रो द्वारा पिज़्ज़ारो की हत्या कर दी गई, जोकि उसका पूर्व सहयोगी था। स्पेन ने १५४२ में पेरू की गवर्नरशाही का गठन किया। इसमें ब्राजील अलावा दक्षिण अमेरिका के अधिकांश क्षेत्रों शामिल थे।
इस अवधि के दौरान, पेरू की स्थानीय आबादी यूरोपीय बीमारियों की वजह से बहुत तेजी से कम होने लगी। स्थानीय लोगों को ईसाई धर्म में धर्मान्तरित कराया गया और यूरोप के जंमीदार वर्ग के जमीनों में जबरन श्रम कराया जाता था।
गवर्नर फ्रांसिस्को टोलेडो १५६९ में जीते हुए क्षेत्रों को नियंत्रित करने के लिए पेरू आए। उन्होंने वहां व्यापक सुधार किया, जिससे स्थानीय लोगों जिनके पास जमीन नहीं थी के शोषण को सुव्यवस्थित किया। यह दो सौ साल तक चला।
१७०० के दशक की शुरुआत में, स्पैनिश साम्राज्य को और मजबूती प्रदान करने के लिए कुछ और सुधार लागु किए गए। यह सब स्थानीय अभिजात वर्ग के क्रेओल के खर्च से किया गये थे। हालांकि, इसका अनुमानित प्रभाव नहीं हुआ, क्योंकि उस समय तक सभी स्पेनिश उपनिवेशों में आजादी के लिए क्रांति पनपने लगी थी।
स्वतंत्रता और आधुनिक पेरू
पेरू की आजादी की क्रांति स्पेनिश-अमेरिकी भूमि मालिकों और उनकी सेना, वेनेजुएला के सिमोन बोलिवार और अर्जेंटीना के जोसे डी सैन मार्टिन के नेतृत्व से शुरू हुआ। सैन मार्टिन ने लगभग ४,२०० सैनिकों की एक सेना का नेतृत्व किया। इस अभियान में युद्धपोतों भी शामिल थे जिसके लिये चिली द्वारा वित्त दिया गया था और अगस्त १८२० में वालपाराइसो से इसकी शुरुआत की गई। २८ जुलाई, १८२१ को सैन मार्टिन ने निम्नलिखित शब्दों के साथ पेरू की आजादी की घोषणा की थी,
२०वीं शताब्दी की शुरुआत में, पेरू के राजधानी शहर लीमा ने समृद्धि का एक युग का आनंद लिया है। इस युग के दौरान लीमा में सबसे प्रतिष्ठित इमारतें बनाई गई, अधिकांशतः भव्य नवनिर्मित डिजाइन में जिसमें प्रारंभिक औपनिवेशिक युग की प्रतिलिपि थी। बैरनको और मिराफ्लोरेस जैसे तटीय आवासों को जोड़ने के लिए बड़े बुल्ववर्ड भी बनाए गए।
२०वीं शताब्दी के मध्य तक, पेरू लोकतांत्रिक प्रशासन और सैन्य अत्याचारों के अंतःस्थापित कड़ी के साथ आर्थिक और राजनीतिक अशांति में उलझा रहा। जनरल जुआन वेलास्को ने सैन्य शासन लागू किया था, जिन्होंने मीडिया और तेल का राष्ट्रीयकृत किया और कृषि में कई सुधार किए। १९८० के दशक में गणतंत्र शासन वापस आ गया। हालांकि, देश मुद्रास्फीति के बहुत उच्च स्तर के साथ एक गंभीर आर्थिक आपदा में डूब चुका था। साथ ही, दो आतंकवादी समूह पनप चुके थे जिससे पेरू में काफी हिंसा फैल गई।
१९९० के दशक में, तत्कालीन राष्ट्रपति अल्बर्टो फुजीमोरी ने कई कानूनों लागू किये जिससे वहां की आतंकवादी गतिविधियां समाप्त होने लगी। उन्होंने पेरू को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संरचना में फिर से एकीकृत किया।
इसी दौर में ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों, खासकर लीमा में प्रवासन का दौर चालू हो गया था। इसके परिणामस्वरूप राजधानी में एक जनसांख्यिकीय विस्फोट हुआ। इस अवधि के दौरान कुज़्को और अरेक्विपा जैसे अन्य बड़े शहर भी तेजी से बढ़ने लगे।
पेरू, पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के १,२८५,२१6 किमी२ (४९६,२२5 वर्ग मील) क्षेत्र में फैला हुआ है। यह उत्तर में इक्वाडोर और कोलंबिया, पूर्व में ब्राजील, दक्षिण-पूर्व में बोलीविया, दक्षिण में चिली, और पश्चिम में प्रशांत महासागर से घिरा हुआ है। एंडीज़ पर्वत प्रशांत महासागर के समानांतर स्थित हैं; ये भौगोलिक दृष्टि से देश का वर्णन करने के लिए परंपरागत रूप से उपयोग किए जाने वाले तीन क्षेत्रों को परिभाषित करते हैं।
पश्चिम में कोस्टा (तट), एक संकीर्ण मैदान है, जो मौसमी नदियों द्वारा बनाए गए घाटियों को छोड़कर काफी हद तक शुष्क है। सिएरा (पहाड़ी क्षेत्र) एंडीज का क्षेत्र है; इसमें अल्टीप्लानो पठार के साथ-साथ देश की सबसे ऊंची चोटी, हुआस्करन ६,7६8 मीटर (२२,२०५ फीट) शामिल है। तीसरा क्षेत्र सेल्वा (जंगल) है, जो अमेज़न वर्षावन द्वारा कवर सपाट इलाके का एक विस्तृत विस्तार है जो पूर्व में फैला हुआ है। देश का लगभग ६0 प्रतिशत क्षेत्र, इस क्षेत्र के भीतर स्थित है।
अधिकांश पेरूवियन नदियाँ एंडीज़ के शिखर में निकलती हैं और तीन में से एक बेसिन में समाती हैं। प्रशांत महासागर की तरफ जाने वाली नदी तीव्र ढलानवाली और छोटी होती हैं, जो केवल अंतःस्थापित होती हैं। अमेज़न नदी की सहायक नदियों में बहुत अधिक प्रवाह होता है, और सिएरा से बाहर निकलने के बाद लंबे और कम ढलानवाली होती हैं। टिटिकाका झील में समाने वाली नदियां आम तौर पर छोटी होती हैं और इनका बड़ा प्रवाह होता है। पेरू की सबसे लंबी नदियों में उकायाली, मारनॉन, पुतुमायो, यवारि, हुलागा, उरुबांबा, मंतरो और अमेज़न आदि हैं।
टिटिकाका झील, पेरू की सबसे बड़ी झील है, यह एंडीज़ में पेरू और बोलीविया के बीच स्थित है, और दक्षिण अमेरिका की भी सबसे बड़ी झील है। पेरू के तटीय क्षेत्र में सबसे बड़े जलाशयों में पोचोस, टिनजोन, सैन लोरेन्ज़ो और एल फ्रैइल जलाशय आदि हैं।
प्रशासन और राजनीति
१९३३ के संविधान के आधार पर पेरू, राष्ट्रपति द्वारा शासित किया जाता है। देश ३ मुख्य शाखाओं द्वारा प्रशासित किया जाता है: कार्यकारी, विधान, और न्यायिक। १८ से ७० वर्ष के बीच नागरिक मत देने के पात्र होते हैं। राष्ट्रपति राज्य और सरकार का मुखिया है और आधिकारिक वैश्विक मामलों में देश का प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रपति ५ साल की अवधि के लिए चुने जाते हैं और पुन: चयन के लिए अयोग्य होते हैं। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और बाकी मंत्रिपरिषद को गठन करते हैं। सदनीय कांग्रेस पांच साल के लिये, चुने गए १२० प्रतिनिधियों से बना होता है। न्यायिक शाखा को गणराज्य के सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रशासनित किया जाता है। दूसरे स्तर पर सुपीरियर कोर्ट आते है, इनके नीचे प्रथम दृष्टांत और शांति के न्यायालय आते हैं। न्यायपालिका तकनीकी रूप से स्वतंत्र है, हालांकि राजनीतिक हस्तक्षेप अभी भी आम बात हैं। समग्र २८ न्यायिक जिलें हैं। पेरूवियन सेना में थलसेना, नौसेना और वायु सेना शामिल है।
पेरू के अधिकांश वैदेशिक संबंध, पड़ोसी देशों के साथ हुए क्षेत्रीय संघर्षों के कारण प्रभावित है। २०वीं शताब्दी के दौरान, इसके कई सीमा मुद्दों का समाधान हो चुका है। पेरू संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी राज्य संगठन, और राष्ट्रों के एंडियन समुदाय जैसे कई मान्यता प्राप्त संगठनों का एक सक्रिय सदस्य है।
प्रशासनिक विभाग (प्रांत)
पेरू २५ क्षेत्रों (प्रांत) और लीमा प्रांत (राजधानी क्षेत्र) में बांटा गया है। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक निर्वाचित सरकार होती है जो राष्ट्रपति और परिषद से बना होता है और चार साल की अवधी का होता है। ये सरकारें क्षेत्रीय विकास की योजना बनाती हैं, सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं को कार्यान्वित करती हैं, आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं और सार्वजनिक संपत्ति का प्रबंधन करती हैं। लीमा प्रांत को नगर परिषद द्वारा प्रशासित किया जाता है। लोकप्रिय भागीदारी में सुधार के लिए क्षेत्रीय और नगर पालिकाओं को सत्ता में लाने का कारण था। एनजीओ ने विकेंद्रीकरण प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अभी भी स्थानीय राजनीति को प्रभावित करती है।
माद्रे डी डियोस
पेरू दक्षिण अमेरिकी क्षेत्र में सबसे व्यवसायिक अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। २००७ में इसका जीडीपी $१९८ बिलियन थी जोकी इसे अनुमानित क्रय शक्ति (पीपीपी) के आधार पर दुनिया की ४९वां सबसे बड़ा देश बनाती है। उस वर्ष के दौरान, यहां लगभग ९% की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर दर्ज की गई थी। वर्तमान में पेरू की अर्थव्यवस्था दुनिया में ४८वी सबसे बड़ी है। प्रमुख उद्योगों में खनन और परिष्करण खनिजों, इस्पात और धातु निर्माण, मछली पकड़ने और मछली प्रसंस्करण, कपड़ा, और खाद्य प्रसंस्करण शामिल हैं। सेवा क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद का ६५% हिस्सा का प्रतिनिधित्व करता है; इसके बाद विनिर्माण २६.४% और ८.५% के साथ कृषि आते है।
१९९० के दशक के मध्य में पेरूवियन अर्थव्यवस्था ने एक मजबूत विकास का अनुभव किया। जिसमें से विभिन्न निजीकरण क्षेत्रों में ४६% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अर्थव्यवस्था में गत १९९० के दशक से २००० के उत्तरार्ध के बीच स्थिरता देखी गई, जिसके लिये ज्यादातर एल निनो घटना, वैश्विक वित्तीय संकट और बढ़ती व्यापार स्थितियों को जिम्मेदार ठहराया गया। २००२ के मध्य तक, लगभग सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार किये गये। मत्स्य पालन-निर्यात उद्योग में काफी सुधार हुआ और एंटामिना तांबा-जिंक खदान में एक पंजीकृत विस्तार किया गया जिसके बाद खनिजों और धातुओं के निर्यात क्षेत्र के व्यापार में सुधार किया गया। २००६ के अंत में नेट अंतरराष्ट्रीय रिजर्व $१७ बिलियन और २००७ में $२० बिलियन से अधिक पहुंच गया, जोकि २०01 से करीब ११ बिलियन डॉलर अधिक था।
१२ अप्रैल २००६ में, पेरू ने संयुक्त राज्य के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जो संयुक्त राज्य अमेरिका-पेरू व्यापार संवर्धन के रूप में जाना जाता है। नवंबर २००८ में, यह चीन-पेरू मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया गया। पेरूवियन सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए हैं जिसमें अगले ५ वर्षों में बहुत ही उत्कृष्ट आर्थिक विकास दृष्टिकोण शामिल हैं।
पेरू की संस्कृति, अमेरिकी आदिवासी और हिस्पैनिक संस्कृतियों के बीच के संबंधों से प्रभावित रही है। पेरू की सांस्कृतिक विविधता ने विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों को अस्तित्व में रखने की अनुमति दी है। आजादी के बाद पेरू संस्कृति कई बौद्धिक स्तरों के माध्यम से औपनिवेशिक हिस्पैनिक से यूरोपीय स्वछंदतावाद की ओर गई हैं।
आम तौर पर, पेरू तीन सामाजिक वर्गों में बना है। ऊपरी वर्ग अल्पसंख्यक है और आमतौर पर लीमा में स्थित है। वे पूरी आबादी का लगभग ३% बनाते हैं। पेशेवर और कर्मचारी मध्यम वर्ग के हैं। वे आबादी का लगभग ६०% हिस्सा हैं। निचला वर्ग देश के किसानों/ग्रामीण लोगों (कैंपेसिनो) का बना हुआ है।
पेरूवियन का वास्तुकला स्वदेशी कल्पना से प्रभावित यूरोपीय शैलियों के लिए संयोजक है। शुरुआती औपनिवेशिक काल के दौरान कुज़्को के सांता क्लारा और कैथेड्रल इसके दो परिचित उदाहरण हैं। औपनिवेशिक के बाद सफल अवधि बारोक है। बारोक अवधि का उदाहरण कुज्को विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिस्को डी लीमा का कॉन्वेंट, और अरेक्विपा, कॉम्पेनिया और सैन अगुस्टिन के सांता रोजा के चर्चों का केंद्र है।
पेरूवियन संगीत में लोक संगीत पूरी तरह से लिप्त है। ऐसे नृत्य हैं जो शिकार (एलली-पुली, चोक'एलास और गुडी-दादा), कृषि कार्य और युद्ध (जैसे चिरिगुआनो, छत्रिपुली और केनेकेनास) के समय किये जाते थे। पेरू में सबसे अधिक किये जाने वाला नृत्य मारिनरा नॉर्टिना है। ऐसे कई नृत्यरूप भी हैं जो ईसाई प्रभाव को व्यक्त करते हैं। पेरू में एंडियन नृत्य के दो लोकप्रिय उदाहरण वेननो या हुयनो और कशुआ हैं। हुयनो बंद जगहों में जोड़ों द्वारा किया जाता है। कशुआ आमतौर पर खुली जगहों में समूहों में किया जाता है।
पेरू में मिला ममी का ख़ज़ाना
गुजरात और पेरू का संबंध?
दक्षिण अमेरिका के देश
स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र |
थिम्फू या थिम्पू (ज़ोंगखा भाषा:), पर्वतीय राष्ट्र भूटान की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह भूटान के पश्चिमी मध्य भाग में स्थित है, और आसपास की घाटी भूटान के ज़ोंगखाओं मे से एक थिम्फू जिला है। १९५५ में थिम्पू को भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा के स्थान पर राजधानी बनाया गया था, और १९६१ में भूटान के तीसरे ड्रुक ग्याल्पो जिग्मे दोरजी वांगचुक ने थिम्पू को भूटान साम्राज्य की राजधानी घोषित किया था।
शहर रैडक नदी द्वारा बनाई गई घाटी के पश्चिमी तट पर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैला हुआ है, जिसे भूटान में वांग चू या थिम्फू चू के नाम से जाना जाता है। थिम्फू दुनिया की पाँचवीं सबसे ऊँची राजधानी है और जिसकी ऊँचाई २,२4८ मीटर (७,3७5 फुट) से लेकर २,६४८ मीटर (८,6८८ फुट) तक है। थिम्फू का अपना कोई हवाई अड्डा नहीं है और निकततम और भूटान का एकमात्र हवाई अड्डा यहाँ से लगभग ५४ किलोमीटर (३४ मील) की दूरी पर पारो में स्थित है।
भूटान के राजनीतिक और आर्थिक केंद्र के रूप में थिम्फू, एक प्रमुख कृषि और पशुधन आधार है, जिसका देश के जीएनपी में ४५% योगदान है। पर्यटन हालाँकि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक है, लेकिन उसे कड़ाई से विनियमित किया जाता है ताकि परंपरा, विकास और आधुनिकीकरण के बीच संतुलन बना रहे। थिम्फू में भूटान के अधिकांश महत्वपूर्ण राजनीतिक भवन स्थित हैं, जिसमें राष्ट्रीय सभा जो कि भूटान के नवगठित लोकतन्त्र प्रणाली का सदन है, और शहर के उत्तर में स्थित भूटान नरेश का आधिकारिक निवास डेचनचोलिंग महल शामिल है। थिम्पू "थिम्पू संरचना योजना", एक शहरी विकास योजना द्वारा समन्वित है जो १९९८ में घाटी के नाजुक पारिस्थितिकी की रक्षा के उद्देश्य से विकसित हुई थी। यह विकास विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक से वित्तीय सहायता के साथ चल रहा है।
भूटान की संस्कृति पूरी तरह से इसके साहित्य, धर्म, रीति-रिवाजों, राष्ट्रीय परिधान संहिता, मठों, संगीत, और नृत्य, और मीडिया में परिलक्षित होती है। षेचू एक महत्वपूर्ण त्योहार है जब मुखौटा नृत्य, जिसे लोकप्रिय रूप से चाम नृत्य के नाम से जाना जाता है, थिम्फू में ताशिचो ज़ोंग के आंगन में किया जाता है। यह हर साल सितंबर या अक्टूबर में आयोजित होने वाला एक चार दिवसीय त्योहार है, जो भूटानी कैलेंडर के अनुसार चलता है।
१९६० से पहले, थिम्फू छोटे छोटे पुरवाओं में बंटा हुआ था जिनमें मोतिथांग, चांगान्ग्खा, चांग्लीमिथांग, लांगछुपाखा, और तबा शामिल हैं और आधुनिक थिम्फू के जिलों की रचना करते हैं। आज जहाँ चांग्लीमिथांग खेल का मैदान स्थित है वहाँ पर १८८५ में एक लड़ाई लड़ी गई थी जिसमें उगयेन वांगचुक की निर्णायक जीत ने उन्हें भूटान के पहले राजा के रूप में स्थापित कर दिया। उस समय के बाद से शहर में इस खेल के मैदान का बड़ा महत्व है; यहाँ फुटबॉल, क्रिकेट और तीरंदाजी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। आधुनिक चांग्लीमिथांग स्टेडियम का निर्माण १९७४ में किया गया था। वांगचू राजवंश के सुधारवादी राजाओं के शासनकाल में, देश ने लगातार शांति बनी रही और देश प्रगति को ओर अग्रसर रहा। तीसरे भूटान नरेश जिग्मे दोरजी वांगचुक ने पुरानी छद्म सामंती व्यवस्थाओं में सुधार करते हुए कृषिदासता को समाप्त कर भूमि का किसानों में पुनर्वितरण किया और कराधान में सुधार किया। उन्होंने कई कार्यकारी, विधायी और न्यायपालिका सुधारों की शुरुआत की। सुधार जारी रहे और १९५२ में राजधानी को पुनाखा से थिम्पू में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया गया। चौथे नरेश, जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने देश को विकास के लिए खोला और भारत ने इस प्रक्रिया में भूटान को वित्तीय और अन्य प्रकार की सहायता प्रदान करने के साथ आवश्यक प्रोत्साहन भी दिया । १९६१ में, थिम्पू आधिकारिक रूप से भूटान की राजधानी बन गई।
भूटान १९६२ में कोलम्बो योजना, १९६९ में सार्वभौम डाक संघ में शामिल हो गया और १९७१ में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया। थिम्पू में राजनयिक मिशनों और अंतरराष्ट्रीय फंडिंग संगठनों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप महानगर के रूप में थिम्पू का तेजी से विस्तार हुआ।
चौथे राजा, जिन्होंने १९५३ में राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) का गठन किया, ने १९९८ में जनता द्वारा चुने गए मंत्रियों की एक परिषद को सभी कार्यकारी शक्तियों को सौंप दिया। उन्होंने राजा पर अविश्वास मत देने की एक प्रणाली शुरू की, जिसने संसद को सम्राट को हटाने का अधिकार दिया। थिम्पू में राष्ट्रीय संविधान समिति ने २००१ में भूटान साम्राज्य के संविधान का मसौदा तैयार करना शुरू किया। २००५ में, भूटान के चौथे राजा ने अपने राज्य की बागडोर अपने बेटे युवराज जिग्मे खेसर भाग्यल वांगचुक को सौंपने के अपने फैसले की घोषणा की। राजा का राज्याभिषेक नवीकृत चांग्लीमिथांग स्टेडियम थिम्पू में हुआ और वांगचुक राजवंश की स्थापना के शताब्दी वर्ष के साथ हुआ। २००८ में, इसने पूर्ण सकल राजतंत्र से संसदीय लोकतांत्रिक संवैधानिक राजतंत्र में परिवर्तन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, और थिम्फू नई सरकार का मुख्यालय बन गया। "सकल राष्ट्रीय खुशी" (गँह) के राष्ट्रीय परिभाषित उद्देश्य के साथ सकल राष्ट्रीय उत्पाद (ग्zप) में वृद्धि प्राप्त करने का संकल्प लिया गया।
सरकार एवं लोक प्रशासन
थिम्फू (; ), पहले थिम्बु के नाम से जाना जाता था। यह भूटान का सबसे बड़ा शहर तथा भूटान देश की राजधानी भी है।। थिम्फू भूटान के पश्चिमी केन्द्रीय भाग में स्थित हैं।
थिम्पू, भूटान के पश्चिमी मध्य भाग में स्थित है। भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा थी जिसे १९६१ में बदलकर थिंपू को राजधानी बनाया गया। यह नगर, रैडक नदी द्वारा बनाई गई घाटी के पश्चिमी तट पर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैला हुआ है जिसे भूटान में 'वांग चू' या 'थिम्पू चू' के रूप में जाना जाता है। थिम्फु दुनिया में चौथी सबसे ऊँची राजधानी है (२,२48 मीटर से २,६४८ मीटर तक)। थिम्पू का अपना हवाई अड्डा नहीं है, लेकिन लगभग ५४ किलोमीटर दूर पारो हवाई अड्डा है जो थिम्पू से सड़क से जुड़ा है। थिम्फू वास्तव में एक कस्बे के रूप में तब तक मौजूद नहीं था जब तक कि यह १९६१ में भूटान की राजधानी नहीं बन गया। थिम्पू में 196२ में पहला वाहन दिखाई दिया और शहर १९७० के दशक के अन्त तक बहुत कुछ गाँव जैसा था। १९९० के बाद से जनसंख्या नाटकीय रूप से बढ़ी है, और अब अनुमानतः ९०,००० होने का अनुमान है। यहाँ का ताशी छो डोज़ोंग (पहाड़ी दुर्ग) पारम्परिक दुर्ग और मठ है जिसे जिसे शाही सरकार के कार्यालयों के रूप में उपयोग किया जा रहा है। यह पारम्परिक भूटानी वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूना है। शाही महल के आस-पास के खेत कृषि को दी जाने वाली उच्च प्राथमिकता को दर्शाते हैं। क्षेत्र में प्रमुख फसलें चावल, मक्का और गेहूं हैं। १९६६ में एक जलविद्युत संयंत्र का संचालन शुरू हुआ। शहर में हवाई जहाज उतारने की एक पट्टी है। भारत-भूटान राष्ट्रीय राजमार्ग (१९६८ को खोला गया) थिम्फू को भारत के भूटान के मुख्य प्रवेश द्वार, फंटशोलिंग से जोड़ता है।
एशिया में राजधानियाँ |
चंदन दास मशहूर गज़ल गायक हैं।ुन्के प्रमुख गाने इस प्रकार है--आ भी जाओ के जिन्दगी कम है, कल खाब मे देखा सखी मैने पिया का गाओ रे, जब मेरी हकीकत जा जा कर, जब कोइ फैसला कीजिये, साथ छूटेगा कैसे मेरा आपका। |
केदारनाथ (केदारनाथ) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल मण्डल के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले के मुख्यालय, रुद्रप्रयाग से ८६ किमी दूर है। यह केदारनाथ धाम के कारण प्रसिद्ध है, जो हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए पवित्र स्थान है। यहाँ स्थित केदारनाथ मंदिर का शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है, और हिन्दू धर्म के चारधाम और पंच केदार में गिना जाता है।।
श्रीकेदारनाथ का मंदिर ३,५९३ मीटर की ऊँचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊँचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इस बारे में आज भी पूर्ण सत्य ज्ञात नहीं हैं। सतयुग में शासन करने वाले राजा केदार के नाम पर इस स्थान का नाम केदार पड़ा। राजा केदार ने सात महाद्वीपों पर शासन और वे एक बहुत पुण्यात्मा राजा थे। उनकी एक पुत्री दो पुत्र थे । पुत्रका नाम कार्तिकेय (मोहन्याल) व गणेश था । गणेश बुद्दि व कार्तिकेय (मोहन्याल) शक्ति के राजा देवता के रुपमे संसार प्रसिद्द है ।उनकी एक पुत्री थी वृंदा जो देवी लक्ष्मी की एक आंशिक अवतार थी। वृंदा ने ६०,००० वर्षों तक तपस्या की थी। वृंदा के नाम पर ही इस स्थान को वृंदावन भी कहा जाता है।
यहाँ तक पहुँचने के दो मार्ग हैं। पहला १४ किमी लंबा पक्का पैदल मार्ग है जो गौरीकुण्ड से आरंभ होता है। गौरीकुण्ड उत्तराखंड के प्रमुख स्थानों जैसे ऋषिकेश, हरिद्वार, देहरादून इत्यादि से जुड़ा हुआ है। दूसरा मार्ग है हवाई मार्ग। अभी हाल ही में राज्य सरकार द्वारा अगस्त्यमुनि और फ़ाटा से केदारनाथ के लिये पवन हंस नाम से हेलीकाप्टर सेवा आरंभ की है और इनका किराया उचित है। सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण मंदिर बंद कर दिया जाता है और केदारनाथ में कोई नहीं रुकता। नवंबर से अप्रैल तक के छह महीनों के दौरान भगवान केदारनाथ की पालकी गुप्तकाशी के निकट उखिमठ नामक स्थान पर स्थानांतरित कर दी जाती है। यहाँ के लोग भी केदारनाथ से आस-पास के ग्रामों में रहने के लिये चले जाते हैं। वर्ष २००१ की भारत की जनगणना के अनुसार केदारनाथ की जनसंख्या ४७९ है, जिसमें ९८% पुरुष और २% महिलाएँ है। साक्षरता दर ६३% है जो राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक है (पुरुष ६३%, महिला ३६%)। ०% लोग ६ वर्ष से नीचे के हैं।
यहां स्थापित प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केदारनाथ मंदिर अति प्राचीन है। कहते हैं कि भारत की चार दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद जगतगुरु शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में यहीं श्री केदारनाथ धाम में समाधि ली थी। उन्हीं ने वर्तमान मंदिर बनवाया था। यहां एक झील है जिसमें बर्फ तैरती रहती है इस झील के बारे में प्रचलित है इसी झील से युधिष्ठिर स्वर्ग गये थे। श्री केदारनाथ धाम से छह किलोमीटर की दूरी चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है यहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं तथा इस ताल का पानी काफी ठंडा होता है। यहां गौरी कुण्ड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनि, पंच केदार आदि दर्शनीय स्थल हैं।
केदारनाथ आने के लिए कोटद्वार जो कि केदारनाथ से २६० किलोमीटर तथा ऋर्षिकेश जो कि केदारनाथ से २२९ किलोमीटर दूर है तक रेल द्वारा आया जा सकता है। सड़क मार्ग द्वारा गौरीकुण्ड तक जाया जा सकता है जो कि केदारनाथ मंदिर से १४ किलोमीटर पहले है। यहां से पैदल मार्ग या खच्चर तथा पालकी से भी केदारनाथ जाया जा सकता है। नजदीक हवाई अड्डा जौली ग्रांट २४६ किलोमीटर दूरी पर स्थित है, यहां से केदारनाथ के लिए हवाई सेवा हाल ही में शुरू हुई है जो सुलभ है।
हिमालय के पवित्र तीर्थों के दर्शन करने हेतु तीर्थयात्रियों को रेल, बस, टैक्सी आदि के द्वारा हरिद्वार आना चाहिए। हरिद्वार से उत्तराखंड की यात्राओं के लिए साधन उपलब्ध होते हैं। हरिद्वार से केदारनाथ की दूरी २४७ किलोमीटर है। हरिद्वार से गौरीकुण्ड २३३ किलोमीटर की यात्रा मोटरमार्ग से की जाती है, जबकि गौरी कुण्ड से केदारनाथ तक १४ किलोमीटर की दूरी पैदल मार्ग से जाना पड़ता है। पैदल चलने में असमर्थ व्यक्ति के लिए गौरी कुण्ड से घोड़ा, पालकी, पिट्ठू आदि के साधन मिलते हैं। यह यात्रा हरिद्वार से ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, तिलवाड़ा, अगस्त्यमुनि कुण्ड, गुप्तकाशी, नाला, फाटा, रामपुर, सोनप्रयाग, गौरीकुण्ड, रामबाढ़ा और गरुड़चट्टी होते हुए श्रीकेदारनाथ तक पहुँचती है।
केदारनाथ भारत के उत्तराखंड राज्य में एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। यह हिंदुओं का अत्यधिक धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है। "केदारनाथ का इतिहास" हिंदू पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से निकटता से जुड़ा हुआ है।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, केदारनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में एक है, जिन्हें भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास माना जाता है। कहानी यह है कि कुरुक्षेत्र युद्ध (जैसा कि भारतीय महाकाव्य महाभारत में वर्णित है) के बाद, पांडवों ने युद्ध के दौरान किए गए अपने पापों, विशेषकर अपने रिश्तेदारों की हत्या के लिए भगवान शिव से क्षमा मांगी। हालाँकि, शिव उनसे मिलना नहीं चाहते थे और उन्होंने एक बैल (नंदी) का रूप धारण किया और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में छिप गए।
माफी मांगने के लिए दृढ़ संकल्पित पांडवों ने शिव का पीछा किया और अंततः उन्हें मंदाकिनी और गंगा नदियों के संगम पर पाया। उन्हें पहचानकर, शिव ने जमीन में गोता लगाया, लेकिन भीम (पांडवों में से एक) ने बैल की पूंछ पकड़ ली। शिव ने उनकी दृढ़ता और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें क्षमा कर दी और पांच अलगअलग स्थानों पर अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए, जिन्हें अब पंच केदार के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि बैल का कूबड़ केदारनाथ में प्रकट हुआ था, जहां भगवान शिव के सम्मान में एक मंदिर बनाया गया था।
माना जाता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण ८वीं शताब्दी ईस्वी में महान भारतीय दार्शनिक और धर्मशास्त्री आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था। उन्हें कई हिंदू मठ संस्थानों की स्थापना करने और पूरे भारत में हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने का श्रेय दिया जाता है। मंदिर की वास्तुकला हिंदू और तिब्बती शैलियों का मिश्रण दर्शाती है।
इन्हें भी देखें
केदारनाथ का आधिकारिक जालस्थल
श्री केदारनाथ जी की आरती
केदारनाथ यात्रा मार्गदर्शिका
उत्तराखण्ड के नगर
रुद्रप्रयाग ज़िले के नगर
भारत के तीर्थ |
बेतवा नदी (बेतवा रिवर), जिसका प्राचीन नाम वेत्रवती (वेत्रवती) था, भारत के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्यों में बहने वाली एक नदी है। यह यमुना नदी की उपनदी है। यह मध्य प्रदेश में रायसेन ज़िले के कुम्हारागाँव से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा, झाँसी, ललितपुर आदि ज़िलों से होकर बहती है। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं, किन्तु झाँसी के निकट यह काँप के मैदान में धीमे-धीमें बहती है। इसकी सम्पूर्ण लंबाई ५९० किलोमीटर है। यह बुंदेलखण्ड पठार की सबसे लम्बी नदी है। यह हमीरपुर के निकट यमुना में मिल जाती है। इसके किनारे सांची और विदिशा के प्रसिद्ध व सांस्कृतिक नगर स्थित हैं। लोगों का मानना है कि,आल्हा की लडाई में इतना खून बहाया गया की पूरी नदी लाल हो गयी थी उस समय से अब तक यहां लाल रंग का मौरंग पाया जाता है।बीना नदी इसकी एक प्रमुख उपनदी है।
लोक संस्कृति में
भारतीय नौसेना ने बैटवा नदी के सम्मान में एक फ्रिगेट्सको आईएनएस बेतवा नाम दिया है।
इन्हें भी देखें
बेतवा नदी (इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी))
मध्य प्रदेश की नदियाँ
उत्तर प्रदेश की नदियाँ
यमुना नदी की उपनदियाँ |
ओक्लाहोमा () संयुक्त राज्य के दक्षिण मध्य क्षेत्र में एक राज्य है। इसे १९०७ में ४६वें राज्य के रूप में संघ में भर्ती किया गया था। इसकी सीमा पूर्व में अर्कांसस और मिसौरी से, उत्तर में केन्सास से, कॉलोराडो से उत्तर-पश्चिम में, न्यू मेक्सिको से दूर पश्चिम में और टेक्सास से दक्षिण में लगती है। ओक्लाहोमा सिटी राज्य की राजधानी है।
राज्य का ज्यादातर हिस्सा १८०३ में अमेरिका ने फ्रांस से खरीदा था। १८८९ तक यह इलाका मूल अमेरिकी लोगों के लिये आरक्षित था। उसके बाद केंद्रीय सरकार ने यहाँ बसने के लिये लोगों को अनुमति दी। राज्य का ज्यादातर हिस्सा ग्रेट प्लेन और प्रेरी में आता है। अलास्का और कैलिफ़ोर्निया के बाद ओक्लाहोमा में सर्वाधिक मूल अमरीकी बसते हैं। हालांकि अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा का दर्जा प्राप्त है पर कुछ मूल अमरीकी भाषाओं को कुछ काउंटी में अधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है।
२०१६ के अनुमान मुताबिक राज्य की जनसंख्या ३९,२३,५६१ है। इस हिसाब से इसका सारे अमेरिकी राज्यों में २८वां स्थान हुआ। क्षेत्र के हिसाब से इसका २०वां स्थान है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य |
वेद, प्राचीन भारत वर्ष के पवित्र साहित्य हैं जो धरती के प्राचीनतम सनातन हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं । वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन एवं वर्णाश्रम धर्म के मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है जानना,अतः वेद का शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान' । इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। इन्हें देववाणी के रूप में माना गया है| इसीलिए ये ' श्रुति' कहलाते हैं| वेदों को परम सत्य माना गया है| उनमें लौकिक अलौकिक सभी विषयों का ज्ञान भरा पड़ा है| प्रत्येक वेद के चार अंग हैं| वे हैं वेदसंहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक तथा उपनिषद्|
आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार हैं :-
ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या १०४६२,मंडल की संख्या १० तथा सूक्त की संख्या १०२८ है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या ४३२००० है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।
यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये १९७५ गद्यात्मक मन्त्र हैं।
सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में लगे सुर को गाने के लिये १८७५ संगीतमय मंत्र।
अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये ५९७७ कवितामयी मन्त्र हैं।
चारों वेदों का सम्बन्ध यज्ञ से है| यज्ञ करने में चार प्रकार के ऋत्विजों की आवश्यकता होती है| यथा- होता उद्गाता अध्वर्यु ब्रह्मा | को अपौरुषेय (जिसे किसी पुरुष के द्वारा न किया जा सकता हो, (अर्थात् ईश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम थे; के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया, उन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। क्योंकि इन्हें सुनकर के लिखा गया था। अन्य आर्य ग्रंथों को स्मृति कहते हैं, अर्थात वेदज्ञ मनुष्यों की वेदानुगत बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रन्थ। वेद मंत्रों की व्याख्या करने के लिए अनेक ग्रंथों जैसे ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद की रचना की गई। इनमे प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कहलाती है जो लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ स्रोत माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्त्व बना हुआ है।
वेदों को समझना प्राचीन काल से ही पहले भारतीय और बाद में संपूर्ण विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः अंगों - शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन और उपांगों जिनमें छः शास्त्र - पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदांत व दस उपनिषद् - इशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक आते हैं। प्राचीन समय में इनको पढ़ने के बाद वेदों को पढ़ा जाता था। प्राचीन काल के वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा चतुर्वेदभाष्य माधवीय वेदार्थदीपिका बहुत मान्य हैं। यूरोप के विद्वानों का वेदों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही है। अतः वे इसमें लोगों, जगहों, पहाड़ों, नदियों के नाम ढूँढते रहते हैं - लेकिन ये भारतीय परंपरा और गुरुओं की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता। अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर कई विद्वानों में असहमति बनी रही है।
वेदों में अनेक वैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होते हैं।
मुख्य लेख वैदिक सभ्यता
वेद सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं। संहिता की तारीख लगभग १७००-११०० ईसा पूर्व, और "वेदांग" ग्रंथों के साथ-साथ संहिताओं की प्रतिदेयता कुछ विद्वान वैदिक काल की अवधि १५००-६०० ईसा पूर्व मानते हैं तो कुछ इससे भी अधिक प्राचीन मानते हैं। जिसके परिणामस्वरूप एक वैदिक अवधि होती है, जो १००० ईसा पूर्व से लेकर २०० ई.पूर्व तक है। कुछ विद्वान इन्हे ताम्र पाषाण काल (४००० ईसा पूर्व) का मानते हैं। वेदों के बारे में यह मान्यता भी प्रचलित है कि वेद सृष्टि के आरंभ से हैं और परमात्मा द्वारा मानव मात्र के कल्याण के लिए दिए गए हैं। वेदों में किसी भी मत, पंथ या सम्प्रदाय का उल्लेख न होना यह दर्शाता है कि वेद विश्व में सर्वाधिक प्राचीनतम साहित्य है। वेदों की प्रकृति विज्ञानवादी होने के कारण पश्चिमी जगत में इनका डंका बज रहा है। वैदिक काल, वेद ग्रंथों की रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है, संपूर्ण उत्तर भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण ग्रंथों के अर्थों के साथ मंत्र संहिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है, बुद्ध और पाणिनी के काल में भी वेदों का बहुत अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था यह भी प्रमाणित है। माइकल विटजेल भी एक समय अवधि देता है १५०० से ५००-४०० ईसा पूर्व, माइकल विटजेल ने 1४०० ईसा पूर्व माना है, उन्होंने विशेष संदर्भ में ऋग्वेद की अवधि के लिए इंडो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलालेख दिया था। उन्होंने १५० ईसा पूर्व (पतंजलि) को सभी वैदिक संस्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एंटी क्वीन के रूप में, और 1२०० ईसा पूर्व (प्रारंभिक आयरन आयु) अथर्ववेद के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया। मैक्समूलर ऋग्वेद का रचनाकाल 1२०० ईसा पूर्व से २०० ईसा पूर्व के काल के मध्य मानता है। दयानन्द सरस्वती चारों वेदों का काल १९६०८५२९७६ वर्ष हो चुके हैं यह (१८७६ ईसवी में) मानते है।
वैदिक काल में ग्रंथों का संचरण मौखिक परंपरा द्वारा किया गया था, विस्तृत नैमनिक तकनीकों की सहायता से परिशुद्धता से संरक्षित किया गया था। मौर्य काल (३२२-१८५ ई० पू०) में बौद्ध धर्म (६०० ई० पू०) के उदय के बाद वैदिक समय के बाद साहित्यिक परंपरा का पता लगाया जा सकता है। इसी काल में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों की रचना हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। इसी काल में संस्कृत व्याकरण पर पाणिनी ने 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ लिखा। अन्य दो व्याकरणाचार्य कात्यायन और पतञ्जलि उत्तर मौर्य काल में हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। शायद १ शताब्दी ईसा पूर्व के यजुर्वेद के कन्वा पाठ में सबसे पहले; हालांकि संचरण की मौखिक परंपरा सक्रिय रही। माइकल विटजेल ने १ सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में लिखित वैदिक ग्रंथों की संभावना का सुझाव दिया। कुछ विद्वान जैसे जैक गूडी कहते हैं कि "वेद एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं", इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य संस्कृतियों जैसे विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के संचरित संस्करणों में विसंगतियों की तुलना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते हुए, उस पर ध्यान देते हुए वैदिक साहित्य बहुत सुसंगत और विशाल है जिसे लिखे बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना दिया गया था। हालांकि जैक गूडी कहते हैं, वैदिक ग्रंथों कि एक लिखित और मौखिक परंपरा दोनों में शामिल होने की संभावना है, इसे "साक्षरता समाज के समानांतर उत्पाद" कहते हैं।
वैदिक काल में पुस्तकों को ताड़ के पेड़ के पत्तों पर लिखा जाता था। पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का १४ वीं शताब्दी से ऋग्वेद पांडुलिपि है; हालांकि, नेपाल में कई पुरानी वेद पांडुलिपियां हैं जो ११ वीं शताब्दी के बाद से हैं।
वेद, वैदिक अनुष्ठान और उसके सहायक विज्ञान वेदांग कहलाते थे, ये वेदांग प्राचीन विश्वविद्यालयों जैसे तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला में पाठ्यक्रम का हिस्सा थे।
प्राचीन काल में माना जाता है कि ब्रह्मा , विष्णु , महेश (शिव), ने ही सारे संसार का संचालन किया है और सारे देवता उसमें सहायक होते हैं। भगवान शिव ने सात ऋषियों को वेद ज्ञान दिया। इसका उल्लेख गीता में हुआ है। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके मरीचि, अत्रि आदि सात और पौत्र कश्यप और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था। व्यास ऋषि ने गीता में कई बार वेदों (श्रुति ग्रंथों) का ज़िक्र किया है। अध्याय २ में कृष्ण, अर्जुन से ये कहते हैं कि वेदों की अलंकारमयी भाषा के बदले उनके वचन आसान लगेंगे।
मध्यकाल में सायण आचार्य को वेदों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार वेदों के भाष्य या अनुवाद में देवी-देवता, इतिहास और कथाओं का उल्लेख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे।
आधुनिक काल में राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज और दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज लगभग एक ही समय (१८००-१९०० ईसवी) में वेदों के सबसे बड़े प्रचारक बने। दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद और ऋग्वेद का लगभग सातवें मंडल के कुछ भाग तक भाष्य किया। सामवेद और अथर्ववेद का भाष्य पं० हरिशरण सिद्धान्तलंकार ने किया है। वैदिक संहिताओं के अनुवाद में रमेशचंद्र दत्त बंगाल से, रामगोविन्द त्रिवेदी एवं जयदेव वेदालंकार के हिन्दी में एवं श्रीधर पाठक का मराठी में कार्य भी लोगों को वेदों के बारे में जानकारी प्रदान करता रहा है। इसके बाद गायत्री तपोभूमि के श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी वेदों के भाष्य प्रकाशित किये हैं - इनके भाष्य सायणाधारित हैं। अन्य भी वेदों के अनेक भाष्यकार हैं।
वेदों का प्रकाशन
वेदों का प्रकाशन शंकर पाण्डुरंग ने सायण भाष्य के अलावा अथर्ववेद का चार खण्ड में प्रकाशन किया। लोकमान्य तिलक ने ओरायन और द आर्कटिक होम इन वेदाज़ नामक दो ग्रंथ वैदिक साहित्य की समीक्षा के रूप में लिखे। बालकृष्ण दीक्षित ने सन् १८७७ ई० में कोलकाता से सामवेद पर अपने ज्ञान का प्रकाशन कराया। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने सातारा में चारों वेदों की संहिता का श्रमपूर्वक प्रकाशन कराया। तिलक विद्यापीठ, पुणे से पाँच जिल्दों में प्रकाशित ऋग्वेद के सायण भाष्य के प्रकाशन को भी प्रामाणिक माना जाता है।
सत्रहवीं सदी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के भाई दारा शूकोह ने कुछ उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया (सिर्र ए अकबर, महान रहस्य) जो पहले फ्रांसिसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुईं। यूरोप में इसके बाद वैदिक और संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। मैक्स मूलर जैसे यूरोपीय विद्वान ने भी संस्कृत और वैदिक साहित्य पर बहुत अध्ययन किया है। लेकिन यूरोप के विद्वानों का ध्यान हिन्द आर्य भाषा परिवार के सिद्धांत को बनाने और उसको सिद्ध करने में ही लगा हुआ है। शब्दों की समानता को लेकर बने इस सिद्धांत में ऐतिहासिक तथ्यों और काल निर्धारण को तोड़-मरोड़ करना ही पड़ता है। इस कारण से वेदों की रचना का समय १८००-१००० ईसा पूर्व माना जाता है जो संस्कृत साहित्य और हिन्दू सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन आर्य जातियों के प्रयाण के सिद्धांत के तहत और भाषागत दृष्टि से यही काल इन ग्रंथों की रचना का मान लिया जाता है।
वेदों का काल
वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए २०१७ (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत २०७४) को १,९६,०८,५३,११7 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदों को संरक्षित करने अथवा अच्छी तरह से समझने के लिये वेदों से ही वेदांगों का आविष्कार किया गया।
इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानुसार कई इतिहासकार इसे ५००० से ७००० साल पुराना मानते हैं परंतु आत्मचिंतन से ज्ञात होता है कि जैसे सात दिन बीत जाने पर पुनः रविवार आता है वैसे ही ये खगोलीय घटनाएं बार बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं।
वेद हमें ब्रह्मांड के अनोखे, अलौकिक व ब्रह्मांड के अनंत राज बताते हैं जो साधारण समझ से परे हैं।
वेद की पुरातन नीतियां व ज्ञान इस दुनिया को न केवल समझाते हैं अपितु इसके अलावा वे इस दुनियां को पुनः सुचारू तरीके से चलाने में मददगार साबित हो सकते हैं।
वेदों का महत्व
प्राचीन काल से भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम (हिन्दू) धर्म के अनुसार वैदिक काल में ब्रह्मा से लेकर वेदव्यास तथा जैमिनि तक के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने शब्द, प्रमाण के रूप में इन्हीं को माना है और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किया है। पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीन काल के वेदवेत्ता कहते हैं। वेदों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने की परम्परा रही है <रेफ>शतपथ ब्राह्मण के अनुसार - अग्नेर्वाऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः, यानि अग्नि ऋषि से ऋक्, वायु ऋषि से यजुस् और सूर्य ऋषि से सामवेद का ज्ञान मिला। अंगिरस ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान मिला। इससे ब्रह्मा जैसे ऋषियोंने चारो वेदौंकी शिक्षाको स्वयं साक्षात्कार कर अन्य विद्वानों में फैलाया। श्रुतिपरंपरा में वेदग्रहणकालमें ब्रह्मा के चतुर्मुख होने का वर्णन आया है </रेफ>। अतः फलस्वरूप एक ही वेद का स्वरुप भी मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् के रुप में चार ही माना गया है। इतिहास (महाभारत), पुराण आदि महान् ग्रन्थ वेदों का व्याख्यान के स्वरूप में रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य विषय - देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्दों को लेकर हुए। वेदवेत्ता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है। वेद में मूर्ति पूजा को अमान्य कहा गया है
कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्" और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत माना है। हिन्दू धर्म अनुसार सबसे प्राचीन नियम विधाता महर्षि मनु ने कहा वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद अर्थात् समग्र संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद के रूप में वेद ही धर्म व धर्मशास्त्र का मूल आधार है।
न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता को जानने का वेद ही तो एकमात्र साधन है। मानव-जाति और विशेषतः वैदिकों ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान केवल वेदों से मिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनको प्राचीनतम ग्रन्थ (पुस्तक) माना जाता है। भारतीय भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है।
यूनेस्को ने ७ नवम्बर २००३ को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियाँ और मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया।
प्राचीन काल में, भारत में ही, इसकी विवेचना के अंतर के कारण कई मत बन गए थे। मध्ययुग में भी इसके भाष्य (व्याख्या) को लेकर कई शास्त्रार्थ हुए। वैदिक सनातन वर्णाश्रमी इसमें वर्णित चरित्रों देव को पूज्य और मूर्ति रूपक आराध्य समझते हैं जबकि दयानन्द सरस्वती सहित अन्य कईयों का मत है कि इनमें वर्णित चरित्र (जैसे अग्नि, इंद्र आदि) एकमात्र ईश्वर के ही रूप और नाम हैं। इनके अनुसार देवता शब्द का अर्थ है - (उपकार) देने वाली वस्तुएँ, विद्वान लोग और सूक्त मंत्र (और नाम) न कि मूर्ति-पूजनीय आराध्य रूप।
आर्यन आक्रमण थ्योरी पुरी तरह अब खंडित हो जाने से कोई वैदिक विवाद नही है। सरल बात है कि आर्य आर्यावर्त या भारतवर्ष के मूल वासी हैं। तथा निराधार आर्यन आगमन कि थ्योरी अंग्रेज़ों ने गढी थी।
कुछ देशभक्त जैसे बाल गंगाधर तिलक भी इन सच्चाई ढंग से लिखने लगे। उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वे तो जो कुछ लिखे, अंग्रेजों के वैदिक अनुवाद का अध्ययन करके ही लिखे
वैदिक वांगमय का वर्गीकरण
वैदिकौं का यह सर्वस्वग्रन्थ 'वेदत्रयी' के नाम से भी विदित है। पहले यह वेद ग्रन्थ एक ही था जिसका नाम यजुर्वेद था- एकैवासीद् यजुर्वेद चतुर्धाः व्यभजत् पुनः वही यजुर्वेद पुनः ऋक्-यजुस्-सामः के रूप मे प्रसिद्ध हुआ जिससे वह 'त्रयी' कहलाया। बाद में वेद को पढ़ना बहुत कठिन प्रतीत होने लगा, इसलिए उसी एक वेद के तीन या चार विभाग किए गए। तब उनको ऋग्यजुसामके रुप में वेदत्रयी अथवा बहुत समय बाद ऋग्यजुसामाथर्व के रूप में चतुर्वेद कहलाने लगे। मंत्रों का प्रकार और आशय यानि अर्थ के आधार पर वर्गीकरण किया गया। इसका आधार इस प्रकार है -
वैदिक परम्परा दो प्रकार की है - ब्रह्म परम्परा और आदित्य परम्परा। दोनों परम्पराओं में वेदत्रयी परम्परा प्राचीन काल में प्रसिद्ध थी।
विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शैलियाँ होती हैं: पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं -
वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद
वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद
वेद का गायन भाग - सामवेद
पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चित अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजुः' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र 'साम' कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये त्रयी शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यजुर्वेद गद्यसंग्रह है, अत: इस यजुर्वेद में जो ऋग्वेद के छंदोबद्ध मंत्र हैं, उनको भी यजुर्वेद पढ़ने के समय गद्य जैसा ही पढ़ा जाता है।
द्वापर युग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इन तीन शब्द-शैलियों मे संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। बाद में जब अथर्व भी वेद के समकक्ष हो गया, तब ये 'त्रयी' के स्थान पर 'चतुर्वेद' कहलाने लगे । गुरु के रुष्ट होने पर जिन्होने सभी वेदों को आदित्य से प्राप्त किया है उन याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति मे वेदत्रयी के बाद और पुराणों के आगे अथर्व को सम्मिलित कर बोला वेदासथर्वपुराणानि इति।
वर्तमान काल में वेद चार हैं- लेकिन पहले ये एक ही थे। वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं। परंतु इन चारों को मिलाकर एक ही 'वेद ग्रंथ' समझा जाता था।एकैवासीत्यजुर्वेदस्तंचतुर्धाःव्यवर्तयत् - गरुड पुराण
लक्षणतः त्रयी होते हुये भी वेद एक ही था, फिर उसको चार भागों में बाँटा गया।
एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्मय - महाभारत
वेदों को सुनने से फैलने और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद रखने के कारण व सृष्टिकर्ता ब्रहमाजी द्वारा भी अपौरुषेय वाणी के रुप में प्राप्त करने के कारण श्रुति, स्वतः प्रमाण के कारण आम्नाय, पुरुष (जीव) भिन्न ईश्वरकृत होने से अपौरुषेय इत्यादि नाम भी दिये जाते हैं।
वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को 'श्रुति' भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम 'आम्नाय' भी है। वेदों की रक्षार्थ महर्षियों ने अष्ट विकृतियों की रचना की है -जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः | अष्टौ विकृतयः प्रोक्तो क्रमपूर्वा महर्षयः || जिसके फलस्वरुप प्राचीन काल की तरह आज भी ह्रस्व, दीर्घ, प्लूत और उदात्त, अनुदात्त स्वरित आदि के अनुरुप मन्त्रोच्चारण होता है।
साहित्यिक दृष्टि से
इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- उपर वर्णित प्रत्येक वेद के चार भाग होते हैं। पहले भाग मन्त्रभाग (संहिता) के अलावा अन्य तीन भाग को वेद न मानने वाले भी हैं लेकिन ऐसा विचार तर्कपूर्ण सिद्ध होते नहीं देखा गया हैं। अनादि वैदिक परम्परा में मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद एक ही वेद के चार अवयव है। कुल मिलाकर वेद के भाग ये हैं :-
संहिता मन्त्रभाग- यज्ञानुष्ठान मे प्रयुक्त व विनियुक्त भाग।
ब्राह्मण-ग्रन्थ - यज्ञानुष्ठान में प्रयोगपरक मन्त्र का व्याख्यायुक्त गद्यभाग में कर्मकाण्ड की विवेचना।
आरण्यक - यज्ञानुष्ठान के आध्यात्मपरक विवेचनायुक्त भाग अर्थ के पीछे के उद्देश्य की विवेचना।
उपनिषद - ब्रह्म माया व परमेश्वर, अविद्या जीवात्मा और जगत के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन वाला भाग। जैसा की कृष्णयजुर्वेद में मन्त्रखण्ड में ही ब्राह्मण है। शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में ही ईशावास्योपनिषद है।
उपर के चारों खंड वेद होने पर भी कुछ लोग केवल 'संहिता' को ही वेद मानते हैं।
वर्गीकरण का इतिहास
द्वापरयुग की समाप्ति के समय श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध है। पिप्लाद, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक -चार शिष्यों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की शिक्षा दी। इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीन वेदों के प्रचार व संरक्षण के कारण वे वैदिक ग्रन्थ, चरण, शाखा, प्रतिशाखा और अनुशाखा के माध्यम से अनेक रूपों में विस्तारित हो गये व उन्हीं प्रचारक ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेकिन अनेक विद्वानों का मानना है कि वेद आरंभ से ही चार हैं।
पूर्वोक्त चार शिष्यों ने शुरु में जितने शिष्यों को अनुश्रवण कराया वे चरण समूह कहलाये। प्रत्येक चरण समूह में बहुत सी शाखाएं होती हैं और इसी तरह प्रतिशाखा, अनुशाखा आदि बन गए। वेद की अनेक शाखाएं यानि व्याख्यान का तरीका बतायी गयी हैं। ऋषि पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००१, अर्थववेद की ९ अतः इस प्रकार ११३१ शाखाएं हैं परन्तु आज १२ शाखाओं के ही मूल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। वेद की प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्दराशि चार भागों में उपलब्ध है: १. संहिता २. ब्राह्मण ३. आरण्यक ४. उपनिषद्। कुछ लोग इनमें संहिता को ही वेद मानते हैं। शेष तीन भाग को वेदों के व्याख्या ग्रन्थ मानते हैं।
अलग अलग शाखाओं में मूल संहिता तो वही रहती है लेकिन आरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में अन्तर आ जाता है। कई मंत्र भागों में भी उपनिषद मिलता है जैसा कि शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में इशावास्योपनिषद। पुराने समय में जितनी शाखाएं थी उतने ही मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद होते थे। इतनी शाखायें होने के बाबजूद भी आजकल कुल ९ शाखाओं के ही ग्रंथ मिलते हैं। अन्य शाखाओं में किसी के मन्त्र, किसी के ब्राह्मण, किसी के आरण्यक तो किसी के उपनिषद ही पाया जाता है। इतना ही नही, कई शाखाओं के तो केवल उपनिषद ही पाए जाते हैं, तभी तो उपनिषद अधिक मिलते हैं।
वेदों के विषय
वैदिक ऋषियौ ने वेदों को जनकल्याणमे प्रवृत्त पाया। निस्संदेह जैसा कि -:यथेमां वाचं कल्याणिमावदानि जनेभ्यः वैसा ही वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता कालानुपूर्व्याभिहिताश्च यज्ञाः तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् वेदौं की प्रवृत्तिः जनकल्यण के कार्य मे है। वेद शब्द विद् धातु में घं प्रत्यय लगने से बना है। संस्कृत ग्रथों में विद् ज्ञाने और विद् लाभे जैसे विशेषणों से विद् धातु से ज्ञान और लाभ के अर्थ का बोध होता है।
वेदों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में), सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गुण, धर्म (उचित-अनुचित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जैसे विषय इसमें बारंबार आते हैं। यज्ञ में देवता, द्रव्य, उद्देश्य,और विधि आदि विनियुक्त होते हैं। ग्रंथों के हिसाब से इनका विवरण इस प्रकार है -
ऋग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार से बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे १० मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में, सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं। कुल ऋचाएं १०६४7 हैं। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में ६४ अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या २०२४ है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी २१ शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है।
इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं। इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है। प्राचीन काल में इसकी १०१ शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का संकलन महर्षि वेद व्यास ने किया है। इसका दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता भी है। इसमें मंत्र और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं। शुक्ल यजुर्वेद - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदेश के रूप में दिया था। इसमें १५ शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसनेयी भी कहते हैं प्राप्त हैं। इसमें ४० अध्याय, ३०३ अनुवाक एवं १९७५ मंत्र हैं। अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है।
यह गेय ग्रन्थ है। इसमें गान विद्या का भण्डार है, यह भारतीय संगीत का मूल है। ऋचाओं के गायन को ही साम कहते हैं। इसकी १००१ शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में बांटा गया है। पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल ६४० मंत्र हैं। फिर महानाम्न्यार्चिक के १० मंत्र हैं। इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल ६५० मंत्र हैं। छः प्रपाठक हैं। उत्तरार्चिक को २१ अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल १२२५ मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल १८७५ मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा सकता है।
इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषय वर्णित हैं। कुछ लोग इसमें मंत्र-तंत्र भी खोजते हैं। यह वेद जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करता है, वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप में अथर्वण और आंगिरस ऋषियों के मंत्र होने के कारण अथर्व आंगिरस भी कहते हैं। यह २० काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड में कई-कई सूत्र हैं और सूत्रों में मंत्र हैं। इस वेद में कुल ५९७७ मंत्र हैं। इसकी आजकल दो शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है।
प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ दर्शऩ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है।
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।
स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।
धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।
गन्धर्वेद - गायन कला।
आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।
वेद के अंग
वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा (वेदांग), निरुक्त, व्याकरण, छन्द, और कल्प (वेदांग), ज्योतिष के ग्रन्थ हैं जिन्हें ६ अंग कहते हैं।
अंग के विषय इस प्रकार हैं -
शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण।
निरुक्त - शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किस लिये आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली, और शब्द निरुक्त के विषय हैं।
व्याकरण - संधि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक।
छन्द - गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश।
५.कल्प - यज्ञ के लिए विधिसूत्र। इसके अन्तर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र |वेदोक्त कार्य सम्पन्न करना और समर्पण करनेमे इनका महत्व है।
६.ज्योतिष - समय का ज्ञान और उपयोगिता| आकाशीय पिंडों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति से । इसमें वेदांगज्योतिष नामक ग्रन्थ प्रत्येक वेदके अलग अलग थे | अब लगधमुनि प्रोक्त चारों वेदों के वेदांगज्योतिषों में दो ग्रन्थ ही पाए जा रहे हैं -एक आर्च पाठ और दुसरा याजुस् पाठ | इस ग्रन्थ में सोमाकर नामक विद्वानके प्राचीन भाष्य मिलता है साथ ही कौण्डिन्न्यायन संस्कृत व्याख्या भी मिलता है।
वैदिक स्वर प्रक्रिया
वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रेखायें लगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित के नाम से अभिहित किया गया है। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है।
स्वरों को अधिक या न्यून रूप से बोले जाने के कारण इनके भी दो-दो भेद हो जाते हैं। जैसे उदात्त-उदात्ततर, अनुदात्त-अनुदात्ततर, स्वरित-स्वरितोदात्त। इनके अलावा एक और स्वर माना गया है - श्रुति - इसमें तीनों स्वरों का मिलन हो जाता है। इस प्रकार कुल स्वरों की संख्या ७ हो जाती है। इन सात स्वरों में भी आपस में मिलने से स्वरों में भेद हो जाता है जिसके लिए स्वर चिह्नों में कुछ परिवर्तन हो जाता है। यद्यपि इन स्वरों के अंकण और टंकण में कई विधियाँ प्रयोग की जाती हैं और प्रकाशक-भाष्यकारों में कोई एक विधा सामान्य नहीं है, अधिकांश स्थानों पर अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे एक आड़ी लकीर तथा स्वरित के लिए अक्षर के ऊपर एक खड़ी रेखा बनाने का नियम है। उदात्त का अपना कोई चिह्न नहीं है। इससे अंकण में समस्या आने से कई लेखक-प्रकाशक स्वर चिह्नों का प्रयोग ही नहीं करते।
ये स्वर इतने क्षमतावान होते है कि सही प्रयोग न होने पर मन्त्रों के अर्थों को भी बदल देते हैं।
वैदिक मंत्रों में प्रयुक्त छंद कई प्रकार के हैं जिनमें मुख्य हैं -
गायत्री - सबसे प्रसिद्ध छंद।आठ वर्णों (मात्राओं) के तीन पाद। गीता में भी इसको सर्वोत्तम बताया गया है (ग्यारहवें अध्याय में)। इसी में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र ढला है।
त्रिष्टुप - ११ वर्णों के चार पाद - कुल ४४ वर्ण।
अनुष्टुप - ८ वर्णों के चार पाद, कुल ३२ वर्ण। वाल्मीकि रामायण तथा गीता जैसे ग्रंथों में भई इस्तेमाल हुआ है। इसी को श्लोक भी कहते हैं।
जगती - ८ वर्णों के ६ पाद, कुल ४८ वर्ण।
बृहती- ८ वर्णों के ४ पाद कुल ३२ वर्ण
पंक्ति- ४ या ५ पाद कुल ४० अक्षर २ पाद के बाद विराम होता है पादों में अक्षरों की संख्याभेद से इसके कई भेद हैं
उष्णिक- इसमें कुल २८ वर्ण होते हैं तथा कुल ३ पाद होते हैं २ में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे में १२ वर्ण होते हैं दो पद के बाद विराम होता है बढे हुए अक्षरों के कारण इसके कई भेद होते हैं
वेद की शाखाएँ
इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं का विस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा, यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखा और अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है।
उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैः-
ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा।
यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा
शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा।
सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा।
अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा।
उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है-शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
अन्य मतों की दृष्टि में वेद
जैसा कि उपर लिखा है, वेदों के कई शब्दों का समझना उतना सरल नहीं रहा है। वेदों का वास्तविक अर्थ समझने के लिए इनके भितर से ही वेदांङ्गो का निर्माण किया गया | इसकी वजह इनमें वर्णित अर्थों को जाना नही जा सकता | सबसे अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के स्वरूप, यानि एकमात्र या अनेक देवों के सदृश्य को लेकर हुआ है। वेदों के वास्तविक अर्थ वही कर सकता है जो वेदांग- शिक्षा,कल्प, व्याकरण, निरुक्त,छन्द और ज्योतिष का ज्ञाता है। यूरोप के संस्कृत विद्वानों की व्याख्या भी हिन्द-आर्य जाति के सिद्धांत से प्रेरित रही है। प्राचीन काल में ही इनकी सत्ता को चुनौती देकर कई ऐसे मत प्रकट हुए जो आज भी धार्मिक मत कहलाते हैं लेकिन कई रूपों में भिन्न हैं। इनका मुख्य अन्तर नीचे स्पष्ट किया गया है। उनमे से जिसका अपना अविच्छिन्न परम्परा से वेद,शाखा,और कल्पसूत्रों से निर्देशित होकर एक अद्वितीय ब्रह्मतत्वको ईश्वर मानकर किसी एक देववाद मे न उलझकर वेदवाद में रमण करते हैं वे वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म मननेवाले है वे ही वेदों को सर्वोपरि मानते है। इसके अलावा अलग अलग विचार रखनेवाले और पृथक् पृथक् देवता मानने वाले कुछ सम्प्रदाय ये हैं-:
जैन - इनको मूर्ति पूजा के प्रवर्तक माना जाता है। ये वेदों को श्रेष्ठ नहीं मानते पर अहिंसा के मार्ग पर ज़ोर देते हैं।
बौद्ध - इस मत में महात्मा बुद्ध के प्रवर्तित ध्यान और तृष्णा को दुःखों का कारण बताया है। वेदों में लिखे ध्यान के महत्व को ये तो मानते हैं पर ईश्वर की सत्ता से नास्तिक हैं। ये भी वेद नही मानते |
शैव - वेदों में वर्णित रूद्र के रूप शिव को सर्वोपरि समझने वाले। अपनेको वैदिक धर्म के मानने वाले शिव को एकमात्र ईश्वर का कल्याणकारी रूप मानते हैं, लेकिन शैव लोग शंकर देव के रूप (जिसमें नंदी बैल, जटा, बाघंबर इत्यादि हैं) को विश्व का कर्ता मानते हैं।
वैष्णव - विष्णु और उनके अवतारों को ईश्वर मानने वाले। वैदिक ग्रन्थौं से अधिक अपना आगम मत को सर्वोपरी मानते है। विष्णु को ही एक ईश्वर बताते हैं और जिसके अनुसार सर्वत्र फैला हुआ ईश्वर विष्णु कहलाता है।
शाक्त अपनेको वेदोक्त मानते तो है लेकिन् पूर्वोक्त शैव,वैष्णवसे श्रेष्ठ समझते है, महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वतीके रुपमे नवकोटी दुर्गाको इष्टदेवता मानते है वे ही सृष्टिकारिणी है ऐसा मानते है।
सौर जगतसाक्षी सूर्य को और उनके विभिन्न अवतारों को ईश्वर मानते हैं। वे स्थावर और जंगमके आत्मा सूर्य ही है ऐसा मानते है।
गाणपत्य गणेश को ईश्वर समझते है। साक्षात् शिवादि देवों ने भी उनकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त किया है, ऐसा मानते हैं।
सिख - इनका विश्वास एकमात्र ईश्वर में तो है, लेकिन वेदों को ईश्वर की वाणी नहीं समझते हैं।
आर्य समाज - ये निराकार ईश्वर के उपासक हैं। ये वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। ये मानते हैं कि वेद आदि सृष्टि में अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा आदि ऋषियों के अन्तस् में उत्पन्न हुआ। वेदों को अंतिम प्रमाण स्वीकार करते हैं। और वेदों के अनन्तर जिन पुराण आदि की रचना हुई इनको वेद विरुद्ध मानते हुए अस्वीकार करते हैं। रामायण तथा महाभारत के इतिहास को स्वीकार करते हैं। इस समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द हैं जिन्होंने वेदों की ओर लौटने का संदेश दिया। ये अर्वाचीन वैदिक है।
यज्ञ के वर्तमान रूप के महत्व को लेकर कई विद्वानों, मतों और भाष्कारों में विरोधाभाष है। यज्ञ में आग के प्रयोग को प्राचीन पारसी पूजन विधि के इतना समान होना और हवन की अत्यधिक महत्ता के प्रति विद्वानों में रूचि रही है।
देवता:देव शब्द का लेकर ही कई विद्वानों में असहमति रही है। वेदोक्त निर्गुण- निराकार और सगुण- साकार मे से अन्तिम पक्षको मानने वाले कई मतों में (जैसे- शैव, वैष्णव और शाक्त सौर गाणपत,कौमार) इसे महामनुष्य के रूप में विशिष्ट शक्ति प्राप्त साकार चरित्र समझते हैं और उनका मूर्ति रूप में पूजन करते हैं तो अन्य कई इन्हें ईश्वर (ब्रह्म, सत्य) के ही नाम बताते हैं। परोपकार (भला) करने वाली वस्तुएँ (यथा नदी, सूर्य), विद्वान लोग और मार्गदर्शन करने वाले मंत्रों को देव कहा गया है।
उदाहरणार्थ अग्नि शब्द का अर्थ आग न समझकर सबसे आगे यानि प्रथम यानि परमेश्वर समझते हैं। देवता शव्द का अर्थ दिव्य, यानि परमेश्वर (निराकार, ब्रह्म) की शक्ति से पूर्ण माना जाता है - जैसे पृथ्वी आदि। इसी मत में महादेव, देवों के अधिपति होने के कारण ईश्वर को कहते हैं। इसी तरह सर्वत्र व्यापक ईश्वर विष्णु और सत्य होने के कारण ब्रह्मा कहलाता है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महादेव किसी चरित्र के नाम नहीं बल्कि ईश्वर के ही नाम है। व्याकरण और निरुक्तके वलपर ही वैदिक और लौकिक शब्दौंके अर्थ निर्धारण कीया जाता है। इसके अभावमे अर्थके अनर्थ कर बैठते है। इसी प्राकर गणेश (गणपति), प्रजापति, देवी, बुद्ध, लक्ष्मी इत्यादि परमेश्वर के ही नाम हैं। वेदादि शास्त्रौंमे आए विभन्न एक ही परमेश्वरके है। जैसा की उपनिषदौंमे कहा गया है- एको देव सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा | कुछ लोग ईश्वरके सगुण- निर्गुण स्वरुपमे झगडते रहते है। इनमेसे कोई मूर्तिपूजा करते है और कोई ऐसे लोग है जो मूर्तिपूजा के विरूद्ध हैं और ईश्वर को एकमात्र सत्य, सर्वोपरि समझते हैं।
राजा द्वारा न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना अश्वमेध यज्ञ कहलाता है। अनेक विद्वानों का मानना है कि मेध शब्द में अध्वरं का भी प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है अहिंसा। अतः मेध का भी अर्थ कुछ और रहा होगा। इसी प्रकार अश्व शब्द का अर्थ घोड़ा न रहकर शक्ति रहा होगा। श्रीराम शर्मा आचार्य कृत भाषयों के अनुसार अश्व शब्द का अर्थ शक्ति, गौ'' शब्द का अर्थ पोषण है। इससे अश्वमेध का अर्थ घोड़े का बलि से इतर होती प्रतीत होती है।सोम:'''
कुछ लोग इसे शराब (मद्य) मानते हैं लेकिन कई अनुवादों के अनुसार इसे कूट-पीसकर बनाया जाता था। अतः ये शराब जैसा कोई पेय नहीं लगता। पर इसके असली रूप का निर्धारण नहीं हो पाया है।
इन्हें भी देखें
चारों वेद, हिन्दी अर्थ सहित (आर्यसमाज, जामनगर)
चार वेद, हिन्दी अर्थ सहित
महर्षि प्रबंधन विश्वविद्यालय - यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है।
ऋग्वेद, हिन्दी अर्थ सहित (रामगोविन्द त्रिवेदी, १९५४)
ज्ञानामृतम् - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक जानकारी
वेद एवं वेदांग - आर्य समाज, जामनगर के जालघर पर सभी वेद एवं उनके भाष्य दिये हुए हैं।
पुराण विषय अनुक्रमणिका - यहाँ वेदों आदि में आये हुए शब्दों के अर्थ एवं सन्दर्भ दिये हुए हैं।
वेद - हिन्दू धर्म के महान पक्षों पर सुविचारित सामग्री
वेद-पुराण - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है। |
सिंहली भाषा श्रीलंका में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है।
सिंहली के बाद श्रीलंका में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा तमिल है। प्राय: ऐसा नहीं होता कि किसी देश का जो नाम हो, वही उस देश में बसने वाली जाति का भी हो और वही नाम उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा का भी हो। सिंहल द्वीप की यह विशेषता है कि उसमें बसने वाली जाति भी "सिंहल" कहलाती चली आई है और उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा भी "सिंहल" है।
अनेक भारतीय भाषाओं की लिपियों की तरह सिंहल भाषा की लिपि भी ब्राह्मी लिपि का ही परिवर्तित विकसित रूप हैं।
सिंहल भाषा को दो रूप मान्य हैं - (१) शुद्ध सिंहल तथा (२) मिश्रित सिंहल
शुद्ध सिंहल को केवल बत्तीस अक्षर मान्य रहे हैं-
अ, आ, ऍ, ऐ, इ, ई, उ, ऊ, ऒ, ओ, ऎ, ए क, ग ज ट ड ण त द न प ब म य र ल व स ह क्ष अं।
सिंहल के प्राचीनतम व्याकरण ग्रन्थ सिदत्संगरा (सीड़त्संगर (१३०० अध)) का मत है कि ऍ तथा ऐ -- अ, तथा आ की ही मात्रा वृद्धि वाली मात्राएँ हैं।
वर्तमान मिश्रित सिंहल ने अपनी वर्णमाला को न केवल पाली वर्णमाला के अक्षरों से समृद्ध कर लिया है, बल्कि संस्कृत वर्णमाला में भी जो और जितने अक्षर अधिक थे, उन सब को भी अपना लिया है। इस प्रकार वर्तमान मिश्रित सिंहल में अक्षरों की संख्या चौवन (५४) है। अट्ठारह अक्षर "स्वर" तथा शेष छत्तीस अक्षर व्यंजन माने जाते हैं।
दो अक्षर (पूर्व अक्षर तथा पर अक्षर) जब मिलकर एकरूप होते हैं, तो यह प्रक्रिया "संधि" कहलाती है। शुद्ध सिंहल में संधियों के केवल दस प्रकार माने गए हैं। किंतु आधुनिक सिंहल में संस्कृत शब्दों की संधि अथवा संधिच्छेद संस्कृत व्याकरणों के नियमों के ही अनुसार किया जाता है।
"एकाक्षर" अथवा "अनेकाक्षरों" के समूह पदों को भी संस्कृत की ही तरह चार भागों में विभक्त किया जाता है - नामय, आख्यात, उपसर्ग तथा निपात।
सिंहल में हिंदी की ही तरह दो वचन होते हैं - "एकवचन" तथा "बहुवचन"। संस्कृत की तरह एक अतिरिक्त "द्विवचन" नहीं होता। इस "एकवचन" तथा "बहुवचन" के भेद को संख्या भेद कहते हैं।
जिस प्रकार "वचन" को लेकर "हिंदी" और "सिंहल" का साम्य है उसी प्रकार हम कह सकते हैं कि "लिंग" के विषय में भी हिंदी और शुद्ध सिंहल समानधर्मा है। पुरुष तीन ही हैं - प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष। तीनों पुरुषों में व्यवहृत होने वाले सर्वनामों के आठ कारक हैं, जिनकी अपनी-अपनी विभक्तियाँ हैं। "कर्म" के बाद प्राय: "करण" कारक की गिनती होती है, किंतु सिंहल के आठ कारकों में "कर्म" तथा "करण" के बीच में "कर्तृ" कारक की गिनती की जाती है। "संबोधन" कारक नहीं होने से "कर्तृ" कारक के बावजूद कारकों की गिनती आठ ही रहती है।
वाक्य का मुख्यांश "क्रिया" को ही मानते हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में कोई भी कथन बनता ही नहीं है। यों सिंहल व्याकरण अधिकांश बातों में संस्कृत की अनुकृति मात्र है। तो भी उसमें न तो संस्कृत की तरह "परस्मैपद" तथा "आत्मनेपद" होते हैं और न लट् लोट् आदि दस लकार। सिंहल में क्रियाओं के ये आठ प्रकार माने गए हैं-
(१) कर्ता कारक क्रिया (२) कर्म कारक क्रिया, (३) प्रयोज्य क्रिया, (४) विधि क्रिया,
(५) आशीर्वाद क्रिया, (६) असंभाव्य, (७) पूर्व क्रिया, तथा (८) मिश्र क्रिया।
सिंहल भाषा बोलने-चालने के समय हमारी भोजपुरी आदि बोलियों की तरह प्रत्ययों की दृष्टि से बहुत ही आसान है, किंतु लिखने-पढ़ने में उतनी ही दुरूह। बोलने-चालने में यनवा (या गमने) क्रियापद से ही जाता हूँ, जाते हैं, जाता है, जाते हो, (वह) जाता है, जाते हैं इत्यादि ही नहीं, जाएगा, जाएंगे आदि सभी क्रियास्वरूपों का काम बन जाता है।
लिंगभेद हिंदी के विद्यार्थियों के लिए टेढ़ी खीर माना जाता है। सिंहल भाषा इस दृष्टि से बड़ी सरल है। वहाँ "अच्छा" शब्द के समानार्थी "होंद" शब्द का प्रयोग आप "लड़का" तथा "लड़की" दोनों के लिए कर सकते हैं।
प्रत्येक भाषा के मुहावरे उसके अपने होते हैं। दूसरी भाषाओं में उनके ठीक-ठीक पर्याय खोजना बेकार है। तो भी अनुभव साम्य के कारण दो भिन्न जातियों द्वारा बोली जाने वाली दो भिन्न भाषाओं में एक जैसी मिलती-जुलती कहावतें उपलब्ध हो जाती हैं। सिंहल तथा हिंदी के कुछ मुहावरों तथा कहावतों में पर्याप्त एकरूपता है।
सिंहल-भाषा एवं साहित्य का इतिहस
उत्तर भारत की एक से अधिक भाषाओं से मिलती-जुलती सिंहल भाषा का विकास उन शिलालेखों की भाषा से हुआ है जो ई. पू. दूसरी तीसरी शताब्दी के बाद से लगातार उपलब्ध है।
भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के दो सौ वर्ष बाद अशोकपुत्र महेंद्र सिंहल द्वीप पहुँचे, तो "महावंश" के अनुसार उन्होंने सिंहल द्वीप के लोगों को द्वीप भाषा में ही उपदेश दिया था। महामति महेंद्र अपने साथ "बुद्धवचन" की जो परंपरा लाए थे, वह मौखिक ही थी। वह परंपरा या तो बुद्ध के समय की "मागधी" रही होगी, या उनके दो सौ वर्ष बाद की कोई ऐसी "प्राकृत" जिसे महेंद्र स्थविर स्वयं बोलते रहे होंगे। सिंहल इतिहास की मान्यता है कि महेंद्र स्थविर अपने साथ न केवल त्रिपिटक की परंपरा लाए थे, बल्कि उनके साथ उसके भाष्यों अथवा उसकी अट्ठकथाओं की परंपरा भी। उन अट्ठकथाओं का बाद में सिंहल अनुवाद हुआ। वर्तमान पालि अट्ठकथाएँ मूल पालि अट्ठकथाओं के सिंहल अनुवादों के पुन: पालि में किए गए अनुवाद हैं।
कुछ प्रमुख सिंहल शब्द और उनके अर्थ
इन्हें भी देखें
हेलु भाषा (सिंहल प्राकृत)
हिंदी-सिंहल वार्तालाप पुस्तिका
सिंहल ब्लॉग संकलक
हिन्दी-सिंहल-हिन्दी आनलाइन शब्दकोश
विश्व की प्रमुख भाषाएं
श्रीलंका की भाषाएँ |
चंद्रिका कुमारतुंगे श्रीलंका की राष्ट्रपति थी, १९९४ से २००५ तक।
चंद्रिका कुमार तुंगे की माता का नाम सिरीमावो भंडारनायके था जो कि विश्व की प्रथम महिला प्रधानमंत्री हुई।
श्रीलंका के राष्ट्रपति |
पर्सी महेंद्र "महिन्द्रा राजपक्षे", (सिंहल , तमिल: , जन्म:१८ नवम्बर १९४५), श्रीलंका के पूर्व और छठे राष्ट्रपति और श्रीलंकाई सशस्त्र बलों के सर्वोच्च सेनापति (कमांडर इन चीफ) हैं। पेशे से वकील, राजपक्षे श्रीलंका की संसद के लिए सबसे पहले सन १९७० में चुने गए थे। ६ अप्रैल २००४ से अपने २००५ में राष्ट्रपति चुने जाने तक वो श्रीलंका के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने १९ नवंबर, २००५ को श्रीलंका के राष्ट्रपति के रूप में छह वर्ष के कार्यकाल के लिए शपथ ली। २७ जनवरी, २०१० को राजपक्षे पुनः एक बार अपने दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए।
इन्हें भी देखें |
गैरी कास्परोव (रूसी: , जन्म: १३ अप्रैल १९६३) एक रूसी ग्रांडमास्टर, पूर्व विश्व शतरंज चैंपियन, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता है।
जन्म और बचपन
कास्पारोव का जन्म बाकू, आज़रबाइजान, सोवियत संघ में १३ अप्रैल १९६३ को हुआ था। वह ६ वर्ष की उम्र में शतरंज खेलने लगा। १३ वर्ष की उम्र होने से पहले वे सोवियत युव चैंपियन बन गए और अपना पहला अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट १६ वर्ष की उम्र में जीत गए। १९८० में कास्पारोव ग्रेंडमास्टर बन गए। १९७३ से १९७८ तक वे पूर्व विश्व शतरंज चैंपियन मिखेल बौट्विन्निक के मार्गदर्शन में पढा।
विश्व शतरंज चैंपियन
१९८५ विश्व शतरंज चैंपियनशिप में उन्होंने ऐनैटोली कार्पोव को पराजित करके इतिहास में सबसे कम उम्र का विश्व शतरंज चैंपियन बन गए। वर्ष २००० में उन्होंने व्लादिमीर क्रैमनिक के खिलाफ शास्त्रीय विश्व शतरंज चैंपियनशिप हार गए।
डीप ब्लू के खिलाफ मैच
१९९७ और १९९८ में गैरी कास्पारोव ने आईबीएम ( इंटरनेशनल बिजनेस मशीन) के डीप ब्लू नामक कंप्यूटर के खिलाफ दो शतरंज मैच खेले। उन्होंने पहला मैच जीता: ६ खेलों में से उन्होंने ३ जीते, २ ड्रॉ किए और १ हार गए। हालाँकि वे दूसरा मैच हार गए: ६ खेलों में से उन्होंने १ जीता, ३ ड्रॉ किए और २ हार गए।
डीप जूनियर के खिलाफ मैच
२००३ में कास्पारोव ने डीप जूनियर नामक कम्प्यूटर के खिलाफ एक शतरंज मैच खेला जिसका परिणाम ३-३ ड्रॉ था।
रूस के लोग
रूस के शतरंज खिलाड़ी |
इतिहास के पन्नों में टीपू सुल्तान के नाम पर भले ही विवाद चली आ रही है किन्तु टीपू सुल्तान का नाम मिटा पाना असम्भव है। २० नवंबर १७५० में कर्नाटक के देवनाहल्ली में जन्मे टीपू का पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था।
उनके पिता का नाम हैदर अली और माँ का फकरुन्निसाँ था। उनके पिता मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे लेकिन अपनी ताकत के बल पर वो १७६१ में मैसूर के शासक बने।
उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए ४ मई १७९९ को टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हो गए।
१८वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदर अली का देहावसान एवं टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है। अपने पिता हैदर अली के पश्चात १७८२ में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठे।
अपने पिता की तरह ही वह भी अत्याधिक महत्वाकाँक्षी कुशल सेनापति और चतुर कूटनीतिज्ञ थे यही कारण था कि वह हमेशा अपने पिता की पराजय का बदला अंग्रेजों से लेना चाहते थे, अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे। टीपू सुल्तान की आकृति में अंग्रेजों को नेपोलियन की तस्वीर दिखाई पड़ती थी। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे अपने पिता के समय में ही उन्होंने प्रशासनिक सैनिक तथा युद्ध विधा लेनी प्रारम्भ कर दी थी परन्तु उनका सबसे बड़ा अवगुण जो उनकी पराजय का कारण बना वह फ्रांसिसियों पर बहुत अधिक निर्भरता और भरोसा ।
वह अपने पिता के समान ही निरंकुश थे । वह कट्टर व धर्मान्त मुस्लमान थे।
उनके चरित्र के सम्बन्ध में विद्वानों ने काफी मतभेद है।
मैसूर में एक कहावत है कि हैदर साम्राज्य स्थापित करने के लिए पैदा हुए थे और टीपू रक्षा के लिए। कुछ ऐसे भी विद्वान है जिन्होंने टीपू सुल्तान के चरित्र की काफी प्रशंसा की है।
वस्तुत: टीपू एक परिश्रमी शासक मौलिक सुधारक और अच्छे योद्धा थे। इन सारी बातों के बावजूद वह अपने पिता के समान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी थे, यह उनका सबसे बड़ागुण था।
टीपू का नाम उर्दू पत्रकारिता के अग्रणी के रूप में भी याद किया जाएगा, क्योंकि उनकी सेना का साप्ताहिक बुलेटिन उर्दू में था, यह सामान्य धारणा है कि जाम-ए-जहाँ नुमा, १८२३ में स्थापित पहला उर्दू अखबार था।
वह गुलामी को खत्म करने वाले पहले शासक थे। कुछ मौलवियों ने इस उपाय को थोड़ा बहुत बोल्ड और अनावश्यक माना। टीपू अपनी बन्दूकों से चिपक गए। उन्होंने पूरे जोश के साथ उस लाइन को लागू करने के फैसले को लागू कर दिया जिसमें उनके देश में प्राप्त स्थिति को इस उपाय की आवश्यकता थी।
टीपू सुल्तान का सामन्तवाद के प्रति दृष्टिकोण अलग था। उन्होंने इसे एक बार में समाप्त कर दिया और नतीजा यह है कि आज भी कर्नाटक के किसान - विशेष रूप से पूर्व मैसूर क्षेत्र में - उत्तरी भारत के किसानों से अलग हैं। जमीन के टिलर टीपू के दिनों से ही अपनी पकड़ के मालिक थे। इस उपाय के परिणामस्वरूप, यह क्षेत्र में एक विकसित प्रान्त है। कर्नाटक के किसान भूमि मालिक हैं और उनके बेटों और बेटियों ने शिक्षा में अच्छा किया है।
टीपू सुल्तान भी अपने राज्य के ब्राह्मण पुरोहितों के प्रति निष्ठावान थे और उनके सहयोग की माँग करते थे - यहाँ तक कि उनके द्वारा देवताओं के आशीर्वाद के लिए विशेष प्रार्थना करने का भी अनुरोध किया जाता था। १७९१ में श्रीगंगातट के जगतगुरु स्वामी को लिखे उनके पत्र हिन्दू विषयों के साथ उनके उत्कृष्ट सम्बन्धों के प्रमाण हैं। इस दावे के लिए टीपू के कुछ ३० पत्रों को भारतीय पुरातत्व विभाग में संरक्षित किया गया है। दक्षिण भारत के विल्क्स हिस्टोरिकल स्केच।
गांधीजी ने उन सभी इतिहास की पुस्तकों का विमोचन किया, जो टीपू सुल्तान को हिंदुओं धर्मांतरण के लिए मजबूर करती थी। वह सोचते थे कि कन्नड़ भाषा में टीपू के पत्र हिंदुओं के प्रति उनकी उदारता का जीवंत प्रमाण हैं। गांधीजी ने टीपू द्वारा वक्फों (ट्रस्टों) को हिंदू मंदिरों के समानांतर स्थापित किया। उनके महल वेंकटरमन श्रीनिवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों के करीब खड़े थे। वह विशेष रूप से मैसूर के शासक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शेर के जीवन का एक दिन सियार के १०० साल के जीवन से बेहतर होता है।
टीपू का सुसंस्कृत मन था। मोहिबुल हसन के अनुसार, वह बहुमुखी थे और हर तरह के विषयों पर बात कर सकते थे। वह कन्नड़ और हिंदुस्तानी (उर्दू) बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने ज्यादातर फ़ारसी में बात की जो उन्होंने आसानी से लिखी थी। उन्हें विज्ञान, चिकित्सा, संगीत, ज्योतिष और इंजीनियरिंग में दिलचस्पी थी, लेकिन धर्मशास्त्र और सूफीवाद उनके पसन्दीदा विषय थे। कवियों और विद्वानों ने उसके दरबार को सुशोभित किया, और वह उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करने के शौकीन थे। वह सुलेख में बहुत रुचि रखते थे, और उनके द्वारा आविष्कृत सुलेख के नियमों पर ""रिसाला डार खत-ए-तर्ज़-ए-मुहम्मदी"" नामक फारसी में एक ग्रन्थ मौजूद है। उन्होंने ज़बरजद नामक ज्योतिष पर एक किताब भी लिखी। उनकी लाइब्रेरी की अनेक पुस्तकें पैगम्बर मोहम्मद, उनकी बेटी फातिमा और उनके बेटों, हसन और हुसैन के नाम को कवर के मध्य में और चार कोनों पर चार खलीफाओं के नाम के साथ ले जाती हैं। उनकी निजी लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, उर्दू और हिन्दी पाण्डुलिपियों के २,००० से अधिक संगीत, हदीस, कानून, सूफीवाद, हिन्दू धर्म, इतिहास, दर्शन, कविता और गणित से सम्बन्धित हैं।
तृतीय मैसूर युद्ध
मंगलोर की संन्धि से भी अंग्रेजों और मैसूर युद्ध समाप्त नहीं हो पाया दोनों पक्ष इस सन्धि को चिरस्थाई नहीं मानते थे। १७८६ ई. में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बना । वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के मामले में सामर्थ नहीं था लेकिन उस समय की परिस्थिति को देखते हुए उसे हस्तक्षेप करना पड़ा क्योंकि उस समय टीपू सुल्तान उनका प्रमुख शत्रु था इसलिए अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए निजाम के साथ सन्धि कर ली इस पर टीपू ने भी फ्रांसीसियो से मित्रता के लिए हाथ बढ़ाया ताकि दक्षिण में अपना वर्चस्व स्थापित करें।
कार्नवालिस जानता था कि टिपु के साथ उसका युद्ध अनिवार्य है इसलिए वह महान शक्तियों के साथ मित्रता स्थापित करना चाहता था। उसने निजाम और मराठों के साथ सन्धि कर एक संयुक्त मोर्चा कायम किया और इसके बाद उसने टीपू के खिलाफ युद्ध कि घोषणा कर दी इस तरह तृतीय मैसुर युद्ध प्रारम्भ हुआ यह युद्ध दो वर्षों तक चलता रहा प्रारमँभ में अंग्रेज असफल रहे लेकिन अन्त में उनकी विजय हुई। मार्च १७९२ ई. में श्री रंगापटय कि सन्धि के साथ युद्ध समाप्त हुआ टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा और ३० लाख पौंड संयुक्त मोर्चे को दण्ड स्वरूप दिया इसका सबसे बड़ा हिस्सा कृष्ण ता पन्द नदी के बीच का प्रदेश निजाम को मिला।
कुछ हिस्सा मराठों को भी प्राप्त हुआ जिससे उसकी राज्य की सीमा तंगभद्रा तक बढ़ गई, शेष हिस्सों पर अंग्रेजों का अधिकार रहा टीपू सुल्तान ने जायतन के रूप में अपने दो पुगों को भी कार्नवालिस को सुपुर्द किया। इस पराजय से टीपु सुल्तान को भारी क्षति उठानी पड़ी उनका राज्य कम्पनी राज्य से घिर गया तथा समुद्र से उनका सम्पर्क टुट गया।
आलोचकों का कहना है कि कार्नवालिस ने इस सन्धि को करने में जल्दबाजी की और टीपू का पूर्ण विनाश नहीं कर के भारी भूल की अगर वह टीपु की शक्ति को कुचल देता तो भविष्य में चतुर्थ मैसुर युद्ध नहीं होता लेकिन वास्तव में कार्नवालिस ने ऐसा नहीं करके अपनी दूरदर्शता का परिचय दिया था उस समय अंग्रेजी सेना में बिमारी फैली हुई थी और युरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच युद्ध की सम्भावना थी। ऐसी स्थिति में टीपू फ्रांसिसीयों की सहायता ले सकते थे अगर सम्पूर्ण राज्य को अंग्रेज ब्रिटिश राज्य में मिला लेते तो मराठे और निजाम भी उससे जलने लगते इसलिए कार्नवालिस का उद्देश्य यह था कि टीपू की शक्ति समाप्त हो जाए और साथ ही साथ कम्पनी के मित्र भी शक्तिशाली ना बन सके इसलिए उन्होंने बिना अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाये टीपू की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया।
चतुर्थ अंग्रेज मैसूर युद्ध
टीपु सुल्तान रंगापट्टी की अपमानजनक सन्धि से काफी दुखी थे और अपनी बदनामी के कारण वह अंग्रेजो को पराजित कर दूर करना चाहते थे, प्रकृति ने उन्हें ऐसा मौका भी दिया लेकिन भाग्य ने टीपु का साथ नहीं दिया। जिस समय इंग्लैण्ड और फ्रांस में युद्ध चल रहा था ,इस अंतरराष्ट्रीय विकट परिस्थिति से लाभ उठाने के लिए टीपू ने विभिन्न देशों में अपना राजदुत भेजे। फ्रांसीसियों को उसने अपने राज्य में विभिन्न तरह की सुविधाएं प्रदान कर अपने सैनिक संगठन में उन्होने फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किये और कुछ फ्रांसीसियों ने अप्रैल १७९८ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध टीपू की सहायता की। फलत: अंग्रेज और टीपु के बीच संघर्ष आवश्यक हो गया। इसी समय लार्ड वेलेजली बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। उन्होनें टीपू कि शक्ति को कुचलने का निश्चय किया टीपु के विरुद्ध उसने निजाम और मराठों के साथ गठबंधन करने कि चेष्टा की निजाम को मिलाने में वह सफल हुए लेकिन मराठों ने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया १७९८ में निजाम के साथ वेलेजली ने सहायक सन्धि की और यह घोषणा कर दी जीते हुए प्रदेशों में कुछ हिस्सा मराठों को भी दिया जाएगा। पुर्ण तैयारी के साथ वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया इस तरह मैसुर का चौथा युद्ध प्रारंभ हुआ। और टीपू सुल्तान वीरता के साथ आखिर तक युद्ध करते करते मृत्यु को प्राप्त हुए। मैसूर पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया इस् प्रकार ३३ वर्ष पुर्व मैसुर में जिस मुस्लिम शक्ति का उदय हुआ था सिर्फ उसका अन्त ही नहीं हुआ बल्कि अंग्रेज मैसुर युद्ध का नाटक ही समाप्त हो गया। मैसुर जो ३३ वर्षों से लगातार अंग्रेजों कि प्रगति का शत्रु बना था अब वह अंग्रेजों के अधिकार में आ गया था। अंग्रेज और निजाम ने मिल कर मैसुर का बंटवारा कर लिया। मराठों को भी उत्तर पश्चिम में कुछ प्रदेश दिये गये लेकिन उन्होंने लेने से इनकार कर दिया,शेष मैसुर पुराने हिन्दु राजवंश के एक नाबालिग लड़के को सन्धि के साथ दिया जिसके अनुसार मैसुर की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर आ गया वहाँ ब्रिटिश सेना तैनात किया गया सेना का खर्च मैसुर के राजा ने देना स्वीकार किया। इस नीति से अंग्रेजों को काफी लाभ पहुँचा मैसुर राज्य बिल्कुल छोटा पड़ गया और दुश्मन का अन्त हो गया ब्रिटिश कम्पनी की शक्ति में काफी वृद्धि हुई । फलत: मैसुर चारों ओर से ब्रिटिश राज्य से घिर गया इसका फायदा उन्होनें भविष्य में उठाया जिससे ब्रिटिश शक्ति के विकास में काफी सहायता मिली और एक दिन उसने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया ।
टीपू सुल्तान की धार्मिक नीति
हिन्दू संस्थाओं के लिए उपहार
१७९१ में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने शृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान सम्पत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए।
शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को २०० राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें। शृंगेरी मन्दिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और १७९० के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे। टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई झटकों का सामना करना पड़ा था। यह सम्भव है कि टीपू ने ये खत अपनी हिन्दू प्रजा का समर्थन हासिल करने के लिए लिखे थे।
टीपू सुल्तान ने अन्य हिन्दू मन्दिरों को भी तोहफ़े पेश किए। मेलकोट के मन्दिर में सोने और चाँदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे। ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे। १७८२ और १७९९ के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को ३४ दान के सनद जारी किए। इनमें से कई को चाँदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए। ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है। ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया। श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चाँदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश किया। मान्यता है कि ये दान हिंदू शासकों के साथ गठबंधन बनाने का एक तरीका थे।
४ मई १७९९ को ४8 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में टीपू सुल्तान की बहुत धूर्तता से अंग्रेजों द्वारा हत्या कर दी गयी। हत्या के बाद उनकी तलवार अंग्रेज अपने साथ ब्रिटेन ले गए। टीपू की मृत्यू के बाद सारा राज्य अंग्रेजों के हाथ आ गया।
मैसूर के लोग
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी |
अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार हैं। वाजपेयी जी भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक पूर्वाधिकारी हैं, परंतु एक कवि के रूप में आपकी प्रसिद्धि अधिक है। आपका जन्म १६ जनवरी १९४१ को दुर्ग (छ०ग०) में हुआ। 'कहीं नहीं वहीं' काव्य संग्रह के लिए सन् १९९४ में आपको भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। वाजपेयी महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं। वर्तमान में आप ललित कला अकादमी के अध्यक्ष हैं। भोपाल में भारत भवन की स्थापना में भी आपने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अशोक वाजपेयी के अबतक (जनवरी २०२० तक) प्रकाशित काव्य संग्रह हैं:-
शहर अब भी संभावना है
एक पतंग अनंत में
अगर इतने से
कहीं नहीं वहीं
घास में दुबका आकाश
जो नहीं है
अभी कुछ और
समय के पास समय
कहीं कोई दरवाजा
दुःख चिट्ठीरसा है
कुछ रफू कुछ थिगड़े
इस नक्षत्रहीन समय में
कम से कम
कवि ने कहा
खुल गया है द्वार एक
शब्दांकन पर अशोक वाजपेयी।
अशोक वाजपेयी की रचनाएँ कविताकोश में।
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार
१९४१ में जन्मे लोग |
जयपाल सिंह मुंडा (३ जनवरी 190३ २० मार्च १९७०) भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और १९२५ में ऑक्सफोर्ड ब्लू का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे। उनकी कप्तानी में १९२८ के ओलिंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।। ओपनिवेशिक भारत में जयपाल सिंह मुंडा सर्वोच्च सरकारी पद पर थे ।
जयपाल सिंह छोटा नागपुर (अब झारखंड) राज्य की मुंडा जनजाति के थे। मिशनरीज की मदद से वह ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए गए। वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। उन्होंने पढ़ाई के अलावा खेलकूद, जिनमें हॉकी प्रमुख था, के अलावा वाद-विवाद में खूब नाम कमाया।
उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह १९२८ में एम्सटरडम में ओलंपिक हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंड चले गए थे। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया, उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
उन्होंने बिहार के शिक्षा जगत में योगदान देने के लिए तत्कालीन बिहार कांग्रेस अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद को इस संबंध में पत्र लिखा. परंतु उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. १९३८ की आखिरी महीने में जयपाल ने पटना और रांची का दौरा किया. इसी दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत देखकर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया.
१९३८ जनवरी में उन्होंने आदिवासी महासभा की अध्यक्षता ग्रहण की जिसने बिहार से इतर एक अलग झारखंड राज्य की स्थापना की मांग की। इसके बाद जयपाल सिंह देश में आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए। उनके जीवन का सबसे बेहतरीन समय तब आया जब उन्होंने संविधान सभा में बेहद वाकपटुता से देश की आदिवासियों के बारे में सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखी। संविधान सभा में 'अनुसूचित जनजाति' की जगह आदिवासियों को 'मूलवासी आदिवासी' करने की बात कही।
इन्हें भी देखें
मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा
जयपाल सिंह मुंडा : संविधान सभा में आदिवासियों की बुलंद आवाज
झारखंड के लोग
भारत के हॉकी खिलाड़ी
भारत के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता
१९०३ में जन्मे लोग
१९७० में निधन |
सर आइज़ैक न्यूटन इंग्लैंड के एक वैज्ञानिक थे। जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण का नियम और गति के सिद्धान्त की खोज की। वे एक महान गणितज्ञ, भौतिक वैज्ञानिक, ज्योतिष एवं दार्शनिक थे। इनका शोध प्रपत्र प्राकृतिक दर्शन के गणितीय सिद्धांतों सन् १६८७ में प्रकाशित हुआ, जिसमें सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण एवं गति के नियमों की व्याख्या की गई थी और इस प्रकार चिरसम्मत भौतिकी (क्लासिकल भौतिकी) की नींव रखी।
उनकी फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका, १६८७ में प्रकाशित हुई, यह विज्ञान के इतिहास में अपने आप में सबसे प्रभावशाली पुस्तक है, जो अधिकांश साहित्यिक यांत्रिकी के लिए आधारभूत कार्य की भूमिका निभाती है।
इस कार्य में, न्यूटन ने सार्वत्रिक गुरुत्व और गति के तीन नियमों का वर्णन किया जिसने अगली तीन शताब्दियों के लिए भौतिक ब्रह्मांड के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। न्यूटन ने दर्शाया कि पृथ्वी पर वस्तुओं की गति और आकाशीय पिंडों की गति का नियंत्रण प्राकृतिक नियमों के समान समुच्चय के द्वारा होता है, इसे दर्शाने के लिए उन्होंने ग्रहीय गति के केपलर के नियमों तथा अपने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बीच निरंतरता स्थापित की, इस प्रकार से सूर्य केन्द्रीयता और वैज्ञानिक क्रांति के आधुनिकीकरण के बारे में पिछले संदेह को दूर किया।
यांत्रिकी में, न्यूटन ने संवेग तथा कोणीय संवेग दोनों के संरक्षण के सिद्धांतों को स्थापित किया। प्रकाशिकी में, उन्होंने पहला व्यावहारिक परावर्ती दूरदर्शी बनाया और इस आधार पर रंग का सिद्धांत विकसित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को कई रंगों में अपघटित कर देता है जो दृश्य स्पेक्ट्रम बनाते हैं। उन्होंने शीतलन का नियम दिया और ध्वनि की गति का अध्ययन किया। गणित में, अवकलन और समाकलन कलन के विकास का श्रेय गोटफ्राइड लीबनीज के साथ न्यूटन को जाता है। उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का भी प्रदर्शन किया और एक फलन के शून्यों के सन्निकटन के लिए तथाकथित "न्यूटन की विधि" का विकास किया और घात श्रेणी के अध्ययन में योगदान दिया।
वैज्ञानिकों के बीच न्यूटन की स्थिति बहुत शीर्ष पद पर है, ऐसा ब्रिटेन की रोयल सोसाइटी में २००५ में हुए वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण के द्वारा प्रदर्शित होता है, जिसमें पूछा गया कि विज्ञान के इतिहास पर किसका प्रभाव अधिक गहरा है, न्यूटन का या एल्बर्ट आइंस्टीन का। इस सर्वेक्षण में न्यूटन को अधिक प्रभावी पाया गया।. न्यूटन अत्यधिक धार्मिक भी थे, हालाँकि वे एक अपरंपरागत ईसाई थे, उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान, जिसके लिए उन्हें आज याद किया जाता है, की तुलना में बाइबिल हेर्मेनेयुटिक्स पर अधिक लिखा।
आइजैक न्यूटन का जन्म ४ जनवरी 16४3 को नई शैली और पुरानी शैली की तिथि २५ दिसंबर 16४2</स्मॉल>लिनकोलनशायर के काउंटी में एक हेमलेट, वूल्स्थोर्पे-बाय-कोल्स्तेर्वोर्थ में वूलस्थ्रोप मेनर में हुआ। न्यूटन के जन्म के समय, इंग्लैंड ने ग्रिगोरियन केलेंडर को नहीं अपनाया था और इसलिए उनके जन्म की तिथि को क्रिसमस दिवस २५ दिसंबर 16४2 के रूप में दर्ज किया गया।
न्यूटन का जन्म उनके पिता की मृत्यु के तीन माह बाद हुआ, वे एक समृद्ध किसान थे उनका नाम भी आइजैक न्यूटन था। पूर्व परिपक्व अवस्था में पैदा होने वाला वह एक छोटा बालक था; उनकी माता हन्ना ऐस्क्फ़ का कहना था कि वह एक चौथाई गेलन जैसे छोटे से मग में समा सकता था।
जब न्यूटन तीन वर्ष के थे, उनकी माँ ने दुबारा शादी कर ली और अपने नए पति रेवरंड बर्नाबुस स्मिथ के साथ रहने चली गई और अपने पुत्र को उसकी नानी मर्गेरी ऐस्क्फ़ की देखभाल में छोड़ दिया। छोटा आइजैक अपने सौतेले पिता को पसंद नहीं करता था और उसके साथ शादी करने के कारण अपनी माँ के साथ दुश्मनी का भाव रखता था। जैसा कि १९ वर्ष तक की आयु में उनके द्वारा किये गए अपराधों की सूची में प्रदर्शित होता है: "मैंने माता और पिता स्मिथ के घर को जलाने की धमकी दी."
बारह वर्ष से सत्रह वर्ष की आयु तक उन्होंने द किंग्स स्कूल, ग्रान्थम में शिक्षा प्राप्त की (जहाँ पुस्तकालय की एक खिड़की पर उनके हस्ताक्षर आज भी देखे जा सकते हैं) उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और अक्टूबर १६५९ वे वूल्स्थोर्पे-बाय-कोल्स्तेर्वोर्थ आ गए. जहाँ उनकी माँ, जो दूसरी बार विधवा हो चुकी थी, ने उन्हें किसान बनाने पर जोर दिया। वह खेती से नफरत करते थे। किंग्स स्कूल के मास्टर हेनरी स्टोक्स ने उनकी माँ से कहा कि वे उन्हें फिर से स्कूल भेज दें ताकि वे अपनी शिक्षा को पूरा कर सकें। स्कूल के एक लड़के के खिलाफ बदला लेने की इच्छा से प्रेरित होने की वजह से वे एक शीर्ष क्रम के छात्र बन गए।
जून १६६१ में, उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक सिजर-एक प्रकार की कार्य-अध्ययन भूमिका, के रूप में भर्ती किया गया। उस समय कॉलेज की शिक्षाएँ अरस्तु पर आधारित थीं। लेकिन न्यूटन अधिक आधुनिक दार्शनिकों जैसे डेसकार्टेस और खगोलविदों जैसे कोपरनिकस, गैलीलियो और केपलर के विचारों को पढना चाहता था।
१६६५ में उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय की खोज की और एक गणितीय सिद्धांत विकसित करना शुरू किया जो बाद में अत्यल्प कलन के नाम से जाना गया। अगस्त १६६५ में जैसे ही न्यूटन ने अपनी डिग्री प्राप्त की, उसके ठीक बाद प्लेग की भीषण महामारी से बचने के लिए एहतियात के रूप में विश्वविद्यालय को बंद कर दिया। यद्यपि वे एक कैम्ब्रिज विद्यार्थी के रूप में प्रतिष्ठित नहीं थे, इसके बाद के दो वर्षों तक उन्होंने वूल्स्थोर्पे में अपने घर पर निजी अध्ययन किया और कलन, प्रकाशिकी और गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर अपने सिद्धांतों का विकास किया।
१६६७ में वह ट्रिनिटी के एक फेलो के रूप में कैम्ब्रिज लौट आए।
बीच के वर्ष
अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि न्यूटन और लीबनीज ने अत्यल्प कलन का विकास अपने अपने अद्वितीय संकेतनों का उपयोग करते हुए स्वतंत्र रूप से किया।
न्यूटन के आंतरिक चक्र के अनुसार, न्यूटन ने अपनी इस विधि को लीबनीज से कई साल पहले ही विकसित कर दिया था, लेकिन उन्होंने लगभग १६९३ तक अपने किसी भी कार्य को प्रकाशित नहीं किया और १७०४ तक अपने कार्य का पूरा लेखा जोखा नहीं दिया. इस बीच, लीबनीज ने १६८४ में अपनी विधियों का पूरा लेखा जोखा प्रकाशित करना शुरू कर दिया. इसके अलावा, लीबनीज के संकेतनों तथा "अवकलन की विधियों" को महाद्वीप पर सार्वत्रिक रूप से अपनाया गया और १८२० के बाद में , ब्रिटिश साम्राज्य में भी इसे अपनाया गया। जबकि लीबनीज की पुस्तिकाएं प्रारंभिक अवस्थाओं से परिपक्वता तक विचारों के आधुनिकीकरण को दर्शाती हैं, न्यूटन के ज्ञात नोट्स में केवल अंतिम परिणाम ही है।
न्यूटन ने कहा कि वे अपने कलन को प्रकाशित नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था वे उपहास का पात्र बन जायेंगे.
न्यूटन का स्विस गणितज्ञ निकोलस फतियो डे दुइलिअर के साथ बहुत करीबी रिश्ता था, जो प्रारम्भ से ही न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे। १६९१ में दुइलिअर ने न्यूटन के फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका के एक नए संस्करण को तैयार करने की योजना बनायी, लेकिन इसे कभी पूरा नहीं कर पाए.बहरहाल, इन दोनों पुरुषों के बीच सम्बन्ध १६९३ में बदल गया। इस समय, दुइलिअर ने भी लीबनीज के साथ कई पत्रों का आदान प्रदान किया था।
१६९९ की शुरुआत में, रोयल सोसाइटी (जिसके न्यूटन भी एक सदस्य थे) के अन्य सदस्यों ने लीबनीज पर साहित्यिक चोरी के आरोप लगाये और यह विवाद १७११ में पूर्ण रूप से सामने आया।
न्यूटन की रॉयल सोसाइटी ने एक अध्ययन द्वारा घोषणा की कि न्यूटन ही सच्चे आविष्कारक थे और लीबनीज ने धोखाधड़ी की थी। यह अध्ययन संदेह के घेरे में आ गया, जब बाद पाया गया कि न्यूटन ने खुद लीबनीज पर अध्ययन के निष्कर्ष की टिप्पणी लिखी।
इस प्रकार कड़वा न्यूटन बनाम लीबनीज विवाद शुरू हो गया, जो बाद में न्यूटन और लीबनीज दोनों के जीवन में १७१६ में लीबनीज की मृत्यु तक जारी रहा।
न्यूटन को आम तौर पर सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का श्रेय दिया जाता है, जो किसी भी घात के लिए मान्य है। उन्होंने न्यूटन की सर्वसमिकाओं, न्यूटन की विधि, वर्गीकृत घन समतल वक्र (दो चरों में तीन के बहुआयामी पद) की खोज की, परिमित अंतरों के सिद्धांत में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भिन्नात्मक सूचकांक का प्रयोग किया और डायोफेनताइन समीकरणों के हल को व्युत्पन्न करने के लिए निर्देशांक ज्यामिति का उपयोग किया।
उन्होंने लघुगणक के द्वारा हरात्मक श्रेढि के आंशिक योग का सन्निकटन किया, (यूलर के समेशन सूत्र का एक पूर्वगामी) और वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आत्मविश्वास के साथ घात शृंखला का प्रयोग किया और घात शृंखला का विलोम किया।
उन्हें १६६९ में गणित का ल्युकेसियन प्रोफेसर चुना गया। उन दिनों, कैंब्रिज या ऑक्सफ़ोर्ड के किसी भी सदस्य को एक निर्दिष्ट अंग्रेजी पुजारी होना आवश्यक था। हालाँकि, ल्युकेसियन प्रोफेसर के लिए जरुरी था कि वह चर्च में सक्रिय न हो। (ताकि वह विज्ञान के लिए और अधिक समय दे सके)
न्यूटन ने तर्क दिया कि समन्वय की आवश्यकता से उन्हें मुक्त रखना चाहिए और चार्ल्स द्वितीय, जिसकी अनुमति अनिवार्य थी, ने इस तर्क को स्वीकार किया। इस प्रकार से न्यूटन के धार्मिक विचारों और अंग्रेजी रूढ़ीवादियों के बीच संघर्ष टल गया।
१६७० से १६७२ तक, न्यूटन का प्रकाशिकी पर व्याख्यान दिया. इस अवधि के दौरान उन्होंने प्रकाश के अपवर्तन की खोज की, उन्होंने प्रदर्शित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को रंगों के एक स्पेक्ट्रम में वियोजित कर देता है और एक लेंस और एक दूसरा प्रिज्म बहुवर्णी स्पेक्ट्रम को संयोजित कर के श्वेत प्रकाश का निर्माण करता है।
उन्होंने यह भी दिखाया कि रंगीन प्रकाश को अलग करने और भिन्न वस्तुओं पर चमकाने से रगीन प्रकाश के गुणों में कोई परिवर्तन नहीं आता है। न्यूटन ने वर्णित किया कि चाहे यह परावर्तित हो, या विकिरित हो या संचरित हो, यह समान रंग का बना रहता है।
इस प्रकार से, उन्होंने देखा कि, रंग पहले से रंगीन प्रकाश के साथ वस्तु की अंतर्क्रिया का परिणाम होता है नाकि वस्तुएं खुद रंगों को उत्पन्न करती हैं।
यह न्यूटन के रंग सिद्धांत के रूप में जाना जाता है।
इस कार्य से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि, किसी भी अपवर्ती दूरदर्शी का लेंस प्रकाश के रंगों में विसरण (रंगीन विपथन) का अनुभव करेगा और इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अभिदृश्यक के रूप में एक दर्पण का उपयोग करते हुए, एक दूरदर्शी का निर्माण किया, ताकि इस समस्या को हल किया जा सके. दरअसल डिजाइन के निर्माण के अनुसार, पहला ज्ञात क्रियात्मक परावर्ती दूरदर्शी, आज एक न्यूटोनियन दूरबीन के रूप में जाना जाता है, इसमें तकनीक को आकार देना तथा एक उपयुक्त दर्पण पदार्थ की समस्या को हल करना शामिल है। न्यूटन ने अत्यधिक परावर्तक वीक्षक धातु के एक कस्टम संगठन से, अपने दर्पण को आधार दिया, इसके लिए उनके दूरदर्शी हेतु प्रकाशिकी कि गुणवत्ता की जाँच के लिए न्यूटन के छल्लों का प्रयोग किया गया।
फरवरी १६६९ तक वे रंगीन विपथन के बिना एक उपकरण का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। १६७१ में रॉयल सोसाइटी ने उन्हें उनके परावर्ती दूरदर्शी को प्रर्दशित करने के लिए कहा। उन लोगों की रूचि ने उन्हें अपनी टिप्पणियों ओन कलर के प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित किया, जिसे बाद में उन्होंने अपनी ऑप्टिक्स के रूप में विस्तृत कर दिया।
जब रॉबर्ट हुक ने न्युटन के कुछ विचारों की आलोचना की, न्यूटन इतना नाराज हुए कि वे सार्वजनिक बहस से बाहर हो गए। हुक की मृत्यु तक दोनों दुश्मन बने रहे। [२७]
न्यूटन ने तर्क दिया कि प्रकाश कणों या अतिसूक्षम कणों से बना है, जो सघन माध्यम की और जाते समय अपवर्तित हो जाते हैं, लेकिन प्रकाश के विवर्तन को स्पष्ट करने के लिए इसे तरंगों के साथ सम्बंधित करना जरुरी था। (ऑप्टिक्स बीके।ई, प्रोप्स. ज़ी-ल). बाद में भौतिकविदों ने प्रकाश के विवर्तन के लिए शुद्ध तरंग जैसे स्पष्टीकरण का समर्थन किया। आज की क्वाण्टम यांत्रिकी, फोटोन और तरंग-कण युग्मता के विचार, न्यूटन की प्रकाश के बारे में समझ के साथ बहुत कम समानता रखते हैं।
१६७५ की उनकी प्रकाश की परिकल्पना में न्यूटन ने कणों के बीच बल के स्थानान्तरण हेतु, ईथर की उपस्थिति को मंजूर किया।
ब्रह्म विद्यावादी हेनरी मोर के संपर्क में आने से रसायन विद्या में उनकी रुचि पुनर्जीवित हो गयी। उन्होंने ईथर को कणों के बीच आकर्षण और प्रतिकर्षण के वायुरुद्ध विचारों पर आधारित गुप्त बलों से प्रतिस्थापित कर दिया. जॉन मेनार्ड केनेज, जिन्होंने रसायन विद्या पर न्यूटन के कई लेखों को स्वीकार किया, कहते हैं कि "न्युटन कारण के युग के पहले व्यक्ति नहीं थे: वे जादूगरों में आखिरी नंबर पर थे।" रसायन विद्या में न्यूटन की रूचि उनके विज्ञान में योगदान से अलग नहीं की जा सकती है। (यह उस समय हुआ जब रसायन विद्या और विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट भेद नहीं था।)
यदि उन्होंने एक निर्वात में से होकर एक दूरी पर क्रिया के गुप्त विचार पर भरोसा नहीं किया होता तो वे गुरुत्व का अपना सिद्धांत विकसित नहीं कर पाते।
(आइजैक न्यूटन के गुप्त अध्ययन भी देखें)
१७०४ में न्यूटन ने आप्टिक्स को प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अपने प्रकाश के अतिसूक्ष्म कणों के सिद्धांत की विस्तार से व्याख्या की.उन्होंने प्रकाश को बहुत ही सूक्ष्म कणों से बना हुआ माना, जबकि साधारण द्रव्य बड़े कणों से बना होता है और उन्होंने कहा कि एक प्रकार के रासायनिक रूपांतरण के माध्यम से "सकल निकाय और प्रकाश एक दूसरे में रूपांतरित नहीं हो सकते हैं,....... और निकाय, प्रकाश के कणों से अपनी गतिविधि के अधिकांश भाग को प्राप्त नहीं कर सकते, जो उनके संगठन में प्रवेश करती है?" न्यूटन ने एक कांच के ग्लोब का प्रयोग करते हुए, (ऑप्टिक्स, ८ वां प्रश्न) एक घर्षण विद्युत स्थैतिक जनरेटर के एक आद्य रूप का निर्माण किया।
यांत्रिकी और गुरुत्वाकर्षण
१६७७ में, न्यूटन ने फिर से यांत्रिकी पर अपना कार्य शुरू किया, अर्थात्, गुरुत्वाकर्षण और ग्रहीय गति के केपलर के नियमों के सन्दर्भ के साथ, ग्रहों की कक्षा पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव और इस विषय पर हुक और फ्लेमस्टीड का परामर्श।
उन्होंने जिरम में डी मोटू कोर्पोरम में अपने परिणामों का प्रकाशन किया। (१६८४) इसमें गति के नियमों की शुरुआत थी जिसने प्रिन्सिपिया को सूचित किया।
फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका (जिसे अब प्रिन्सिपिया के रूप में जाना जाता है) का प्रकाशन एडमंड हेली की वित्तीय मदद और प्रोत्साहन से ५ जुलाई १६८७ को हुआ। इस कार्य में न्यूटन ने गति के तीन सार्वभौमिक नियम दिए जिनमें २०० से भी अधिक वर्षों तक कोई सुधार नहीं किया गया है। उन्होंने उस प्रभाव के लिए लैटिन शब्द ग्रेविटास (भार) का इस्तेमाल किया जिसे गुरुत्व के नाम से जाना जाता है और सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण के नियम को परिभाषित किया। इसी कार्य में उन्होंने वायु में ध्वनि की गति के, बॉयल के नियम पर आधारित पहले विश्लेषात्मक प्रमाण को प्रस्तुत किया। बहुत अधिक दूरी पर क्रिया कर सकने वाले एक अदृश्य बल की न्यूटन की अवधारणा की वजह से उनकी आलोचना हुई, क्योंकि उन्होंने विज्ञान में "गुप्त एजेंसियों" को मिला दिया था।
प्रिन्सिपिया के साथ, न्यूटन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. उन्हें काफी प्रशंसाएं मिलीं, उनके एक प्रशंसक थे, स्विटजरलैण्ड में जन्मे निकोलस फतियो दे दयुलीयर, जिनके साथ उनका एक गहरा रिश्ता बन गया, जो १६९३ में तब समाप्त हुआ जब न्यूटन तंत्रिका अवरोध से पीड़ित हो गए।
बाद का जीवन
१६९० के दशक में, न्यूटन ने कई धार्मिक शोध लिखे जो बाइबल की साहित्यिक व्याख्या से सम्बंधित थे। हेनरी मोर के ब्रह्मांड में विश्वास और कार्तीय द्वैतवाद के लिए अस्वीकृति ने शायद न्यूटन के धार्मिक विचारों को प्रभावित किया। उन्होंने एक पांडुलिपि जॉन लोके को भेजी जिसमें उन्होंने ट्रिनिटी के अस्तित्व को विवादित माना था, जिसे कभी प्रकाशित नहीं किया गया। बाद के कार्य [३९]दी क्रोनोलोजी ऑफ़ एनशियेंट किंगडेम्स अमेनडेड (१७२८) और ओब्सरवेशन्स अपोन दी प्रोफिसिज ऑफ़ डेनियल एंड दी एपोकेलिप्स ऑफ़ सेंट जॉन (१७३३)[४०] का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद हुआ। उन्होंने रसायन विद्या के लिए भी अपना बहुत अधिक समय दिया (ऊपर देखें)।
न्यूटन १६८९ से १६९० तक और १७०१ में इंग्लैंड की संसद के सदस्य भी रहे. लेकिन कुछ विवरणों के अनुसार उनकी टिप्पणियाँ हमेशा कोष्ठ में एक ठंडे सूखे को लेकर ही होती थीं और वे खिड़की को बंद करने का अनुरोध करते थे।
१६९६ में न्यूटन शाही टकसाल के वार्डन का पद संभालने के लिए लन्दन चले गए, यह पद उन्हें राजकोष के तत्कालीन कुलाधिपति, हैलिफ़ैक्स के पहले अर्ल, चार्ल्स मोंतागु के संरक्षण के माध्यम से प्राप्त हुआ।
उन्होंने इंग्लैंड का प्रमुख मुद्रा ढल्लाई का कार्य संभाल लिया, किसी तरह मास्टर लुकास के इशारों पर नाचने लगे (और एडमंड हेली के लिए अस्थाई टकसाल शाखा के उप नियंता का पद हासिल किया)
१६९९ में लुकास की मृत्यु न्यूटन शायद टकसाल के सबसे प्रसिद्ध मास्टर बने, इस पद पर न्यूटन अपनी मृत्यु तक बने रहे.ये नियुक्तियां दायित्वहीन पद के रूप में ली गयीं थीं, लेकिन न्यूटन ने उन्हें गंभीरता से लिया, १७०१ में अपने कैम्ब्रिज के कर्तव्यों से सेवानिवृत हो गए और मुद्रा में सुधार लाने का प्रयास किया तथा कतरनों तथा नकली मुद्रा बनाने वालों को अपनी शक्ति का प्रयोग करके सजा दी.
१७१७ में टकसाल के मास्टर के रूप में "ला ऑफ़ क्वीन एने" में न्यूटन ने अनजाने में सोने के पक्ष में चांदी के पैसे और सोने के सिक्के के बीच द्वि धात्विक सम्बन्ध स्थापित करते हुए, पौंड स्टर्लिंग को चांदी के मानक से सोने के मानक में बदल दिया।
इस कारण से चांदी स्टर्लिंग सिक्के को पिघला कर ब्रिटेन से बाहर भेज दिया गया। न्यूटन को १७०३ में रोयल सोसाइटी का अध्यक्ष और फ्रेंच एकेडमिक डेस साइंसेज का एक सहयोगी बना दिया गया। रॉयल सोसायटी में अपने पद पर रहते हुए, न्यूटन ने रोयल खगोलविद जॉन फ्लेमस्टीड को शत्रु बना लिया, उन्होंने फ्लेमस्टीड की हिस्टोरिका कोलेस्तिस ब्रिटेनिका को समय से पहले ही प्रकाशित करवा दिया, जिसे न्यूटन ने अपने अध्ययन में काम में लिया था।
अप्रैल १७०५ में क्वीन ऐनी ने न्यूटन को ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक शाही यात्रा के दौरान नाइट की उपाधि दी।
यह नाइट की पदवी न्यूटन को टकसाल के मास्टर के रूप में अपनी सेवाओ के लिए नहीं दी गयी थी और न ही उनके वैज्ञानिक कार्य के लिए दी गयी थी बल्कि उन्हें यह उपाधि मई १७०५ में संसदीय चुनाव के दौरान उनके राजनितिक योगदान के लिए दी गयी थी।
न्यूटन की मृत्यु लंदन में ३१ मार्च १७२७ को हुई, [पुरानी शैली २० मार्च १७२६] और उन्हें वेस्टमिंस्टर एब्बे में दफनाया गया था। उनकी आधी-भतीजी, कैथरीन बार्टन कोनदुइत, ने लन्दन में जर्मीन स्ट्रीट में उनके घर पर सामाजिक मामलों में उनकी परिचारिका का काम किया; वे उसके "बहुत प्यारे अंकल" थे, ऐसा जिक्र उनके उस पत्र में किया गया है जो न्यूटन के द्वारा उसे तब लिखा गया जब वह चेचक की बीमारी से उबर रही थी।
न्यूटन, जिनके कोई बच्चे नहीं थे, उनके अंतिम वर्षों में उनके रिश्तदारों ने उनकी अधिकांश संपत्ति पर अधिकार कर लिया और निर्वसीयत ही उनकी मृत्यु हो गई।
उनकी मृत्यु के बाद, न्यूटन के शरीर में भारी मात्रा में पारा पाया गया, जो शायद उनके रासायनिक व्यवसाय का परिणाम था। पारे की विषाक्तता न्यूटन के अंतिम जीवन में सनकीपन को स्पष्ट कर सकती है।
मृत्यु के बाद
फ्रेंच गणितज्ञ जोसेफ लुईस लाग्रेंज अक्सर कहते थे कि न्यूटन महानतम प्रतिभाशाली था और एक बार उन्होंने कहा कि वह "सबसे ज्यादा भाग्यशाली भी था क्योंकि हम दुनिया की प्रणाली को एक से ज्यादा बार स्थापित नहीं कर सकते." अंग्रेजी कवि अलेक्जेंडर पोप ने न्यूटन की उपलब्धियों के द्वारा प्रभावित होकर प्रसिद्ध स्मृति-लेख लिखा:
न्यूटन अपनी उपलब्धियों का बताने में खुद संकोच करते थे, फरवरी १६७६ में उन्होंने रॉबर्ट हुक को एक पत्र में लिखा:
हालांकि आमतौर पर इतिहासकारों का मानना है कि उपर्युक्त पंक्तियां, नम्रता के साथ कहे गए एक कथन के अलावा [५१] या बजाय [५२], हुक पर एक हमला थीं (जो कम ऊंचाई का और कुबडा था). उस समय प्रकाशिकीय खोजों को लेकर दोनों के बीच एक विवाद चल रहा था।
बाद की व्याख्या उसकी खोजों पर कई अन्य विवादों के साथ भी उपयुक्त है, जैसा कि यह प्रश्न कि कलन की खोज किसने की, जैसा कि ऊपर बताया गया है।
बाद में एक इतिहास में, न्यूटन ने लिखा:
मैं नहीं जानता कि मैं दुनिया को किस रूप में दिखाई दूंगा लेकिन अपने आप के लिए मैं एक ऐसा लड़का हूँ जो समुद्र के किनारे पर खेल रहा है और अपने ध्यान को अब और तब में लगा रहा है, एक अधिक चिकना पत्थर या एक अधिक सुन्दर खोल ढूँढने की कोशिश कर रहा है, सच्चाई का यह इतना बड़ा समुद्र मेरे सामने अब तक खोजा नहीं गया है।
न्यूटन का स्मारक (१७३१) वेस्टमिंस्टर एब्बे में देखा जा सकता है, यह गायक मंडल स्क्रीन के विपरीत गायक मंडल के प्रवेश स्थान के उत्तर में है।
इसे मूर्तिकार माइकल रिज्ब्रेक ने (१६९४-१७७०) सफ़ेद और धूसर संगमरमर में बनाया है, जिसका डिजाइन वास्तुकार विलियम कैंट (१६८५-१७४८) द्वारा बनाया गया है। इस स्मारक में न्यूटन की आकृति पत्थर की बनी हुई कब्र के ऊपर टिकी हुई है, उनकी दाहिनी कोहनी उनकी कई महान पुस्तकों पर रखी है और उनका बायां हाथ एक गणीतिय डिजाइन से युक्त एक सूची की और इशारा कर रहा है।
उनके ऊपर एक पिरामिड है और एक खगोलीय ग्लोब राशि चक्र के संकेतों तथा १६८० के धूमकेतु का रास्ता दिखा रहा है।
एक राहत पैनल दूरदर्शी और प्रिज्म जैसे उपकरणों का प्रयोग करते हुए, पुट्टी का वर्णन कर रहा है। आधार पर दिए गए लेटिन शिलालेख का अनुवाद है:
यहाँ नाइट, आइजैक न्यूटन, को दफनाया गया, जो दिमागी ताकत से लगभग दिव्य थे, उनके अपने विचित्र गणितीय सिद्धांत हैं, उन्होंने ग्रहों की आकृतियों और पथ का वर्णन किया, धूमकेतु के मार्ग बताये, समुद्र में आने वाले ज्वार का वर्णन किया, प्रकाश की किरणों में असमानताओं को बताया और वो सब कुछ बताया जो किसी अन्य विद्वान ने पहले कल्पना भी नहीं की थी, रंगों के गुणों का वर्णन किया।
वे मेहनती, मेधावी और विश्वासयोग्य थे, पुरातनता, पवित्र ग्रंथों और प्रकृति में विश्वास रखते थे, वे अपने दर्शन में अच्छाई और भगवान के पराक्रम की पुष्टि करते हैं और अपने व्यवहार में सुसमाचार की सादगी व्यक्त करते हैं।
मानव जाति में ऐसे महान आभूषण उपस्थित रह चुके हैं!
वह २५ दिसम्बर १६४२ को जन्मे और २० मार्च १७२६/ ७ को उनकी मृत्यु हो गई।--जी एल स्मिथ के द्वारा अनुवाद, दी मोंयुमेंट्स एंड जेनिल ऑफ़ सेंट पॉल्स केथेड्रल, एंड ऑफ़ वेस्टमिंस्टर एब्बे (१८२६), ई, ७034.
१९७८ से १९८८ तक, हेरी एकलेस्तन के द्वारा डिजाइन की गयी न्यूटन की एक छवि इंग्लेंड के बैंक के द्वारा जारी किये गए ड १ शृंखला के बैंक नोटों पर प्रदर्शित की गयी, (अंतिम १ नोट जो इंग्लेंड के बैंक के द्वारा जारी किये गए).
न्यूटन को नोट के पिछली ओर हाथ में एक पुस्तक पकडे हुए दर्शाया गया है, साथ ही एक दूरदर्शी, एक प्रिज्म और सौर तंत्र का एक मानचित्र भी है।
एक सेब पर खड़ी हुई आइजैक न्यूटन की एक मूर्ति, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में देखी जा सकती है।
रेफ>[४३] ^ "न्यूटन के चुनाव के लिए रानी की 'बहुत बड़ी सहायता' थी उसे नाईट की उपाधि देना, यह सम्मान उन्हें न तो विज्ञान में योगदान के लिए दिया गया और न ही टकसाल के लिए उनके द्वारा दी गयी सेवओं के लिए दिया गया। बल्कि १७०५ में चुनाव में दलीय राजनीती में योगदान के लिए दिया गया।"
वेस्टफॉल १९९४ पी २४५
इतिहासकार स्टीफन डी. स्नोबेलेन का न्यूटन के बारे में कहना है कि "आइजैक न्यूटन एक विधर्मी थे। लेकिन ... उन्होंने अपने निजी विश्वास की सार्वजनिक घोषणा कभी नहीं की- जिससे इस रूढ़िवादी को बेहद कट्टरपंथी जो समझा गया। उन्होंने अपने विश्वास को इतनी अच्छी तरह से छुपाया कि आज भी विद्वान उनकी निजी मान्यताओं को जान नहीं पायें हैं।" स्नोबेलेन ने निष्कर्ष निकाला कि न्यूटन कम से कम एक सोशिनियन सहानुभूति रखते थे, (उनके पास कम से कम आठ सोशिनियन किताबें थीं ओर उन्होंने इन्हें पढ़ा), संभवतया एरियन ओर लगभग निश्चित रूप से एक ट्रिनिटी विरोधी थे। तीन पुर्वजी रूप जो आज यूनीटेरीयनवाद कहलाते हैं।
उनकी धार्मिक असहिष्णुता के लिए विख्यात एक युग में, न्यूटन के कट्टरपंथी विचारों के बारे में कुछ सार्वजनिक अभिव्यक्तियां हैं, सबसे खास है, पवित्र आदेशों का पालन करने के लिए उनके द्वारा इनकार किया जाना, ओर जब वे मरने वाले थे तब उन्हें पवित्र संस्कार लेने के लिए कहा गया ओर उन्होंने इनकार कर दिया।
स्नोबेलेन के द्वारा विवादित एक दृष्टिकोण में, टीसी फ़ाइजनमेयर ने तर्क दिया कि न्यूटन ट्रिनिटी के पूर्वी रुढिवादी दृष्टिकोण को रखते थे, रोमन कैथोलिक, अंग्रेजवाद और अधिकांश प्रोटेसटेंटों का पश्चिमी दृष्टिकोण नहीं रखते थे। उनके अपने दिन में उन पर एक रोसीक्रुसियन होने का आरोप लगाया गया। (जैसा कि रॉयल सोसाइटी और चार्ल्स द्वितीय की अदालत में बहुत से लोगों पर लगाया गया था।)
यद्यपि गति और गुरुत्वाकर्षण के सार्वत्रिक नियम न्यूटन के सबसे प्रसिद्ध अविष्कार बन गए, उन्हें ब्रह्माण्ड को देखने के लिए एक मशीन के तौर पर इनका उपयोग करने के खिलाफ चेतावनी दी गयी, जैसे महान घडी के समान।
उन्होंने कहा, "गुरुत्व ग्रहों की गति का वर्णन करता है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि किसने ग्रहों को इस गति में स्थापित किया।
भगवान सब चीजों का नियंत्रण करते हैं और जानते हैं कि क्या है और क्या किया जा सकता है।"
उनकी वैज्ञानिक प्रसिद्धि उल्लेखनीय है, साथ ही उनका प्रारंभिक चर्च के पादरियों व बाइबल का अध्ययन भी उल्लेखनीय है।
न्यूटन ने शाब्दिक आलोचना पर लिखा, सबसे विशेष है। एन हिस्टोरिकल अकाउंट ऑफ़ टू नोटेबल करप्शन ऑफ़ स्क्रिप्चर
उन्होंने ३ अप्रैल ई. ३३ को यीशु मसीह का क्रूसारोपण भी किया, जो एक पारंपरिक रूप से स्वीकृत तारीख़ के साथ सहमत है। उन्होंने बाइबल के अन्दर छुपे हुए संदेशों को खोजने का असफल प्रयास किया।
उनके अपने जीवनकाल में, न्यूटन ने प्राकृतिक विज्ञान से अधिक धर्म के बारे में लिखा.वह तर्कयुक्त विश्वव्यापी दुनिया में विश्वास करते थे, लेकिन उन्होंने लीबनीज और बरुच स्पिनोजा में निहित हाइलोजोइज्म को अस्वीकार कर दिया.इस प्रकार, आदेशित और गतिशील रूप से सूचित ब्रह्माण्ड को समझा जा सकता था और इसे एक सक्रिय कारण के द्वारा समझा जाना चाहिए.उनके पत्राचार में, न्यूटन ने दावा किया कि प्रिन्सिपिया में लिखते समय "मैंने एक नज़र ऐसे सिद्धांतों पर रखी, ताकि देवता में विश्वास रखते हुए मनुष्य पर विचार किया जा सके." उन्होंने दुनिया की प्रणाली में डिजाइन का प्रमाण देखा: ग्रहीय प्रणाली में ऐसी अद्भुत एकरूपता को पसंद के प्रभाव की अनुमति दी जानी चाहिए।"
लेकिन न्यूटन ने जोर दिया कि अस्थायित्व की धीमी वृद्धि के कारण दैवी हस्तक्षेप अंत में प्रणाली के सुधार के लिए आवश्यक होगा. इसके लिए लीबनीज
ने उन पर निंदा लेख किया: "सर्वशक्तिमान ईश्वर समय समय पर अपनी घड़ी को समाप्त करना चाहता है: अन्यथा यह स्थानांतरित करने के लिए बंद कर दिया जायेगा. ऐसा लगता है कि उसके पास इसे एक सतत गति बनाने के लिए पर्याप्त दूरदर्शिता नहीं थी।"
न्यूटन की स्थिति को उनके अनुयायी शमूएल क्लार्क द्वारा एक प्रसिद्ध पत्राचार के द्वारा सख्ती से बचाने का प्रयास किया गया।
धार्मिक विचार पर प्रभाव
न्यूटन और रॉबर्ट बोयल के यांत्रिक दर्शन को बुद्धिजीवी क़लमघसीट द्वारा रूढ़ीवादियों और उत्साहियों के लिए एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में पदोन्नत किया गया और इसे रूढ़िवादी प्रचारकों तथा असंतुष्ट प्रचारकों जैसे लेटीट्युडीनेरियन के द्वारा हिचकिचाकर स्वीकार किया गया। इस प्रकार, विज्ञान की स्पष्टता और सरलता को नास्तिकता के खतरे तथा अंधविश्वासी उत्साह दोनों की भावनात्मक और आध्यात्मिक अतिशयोक्ति का मुकाबला करने के लिए एक रास्ते के रूप में देखा गया, और उसी समय पर, अंग्रेजी देवत्व की एक दूसरी लहर ने न्यूटन की खोजों का उपयोग एक "प्राकृतिक धर्म" की संभावना को प्रर्दशित करने के लिए किया।
पूर्व-आत्मज्ञान के खिलाफ किये गए हमले "जादुई सोच," और ईसाईयत के रहस्यमयी तत्व, को ब्रह्माण्ड के बारे में बोयल की यांत्रिक अवधारणा से नींव मिली.
न्यूटन ने गणितीय प्रमाणों के माध्यम से बोयल के विचारों को पूर्ण बनाया और शायद अधिक महत्वपूर्ण रूप से वे उन्हें लोकप्रिय बनाने में बहुत अधिक सफल हुए. न्यूटन ने एक हस्तक्षेप भगवान द्वारा नियंत्रित दुनिया को एक ऐसी दुनिया में बदल डाला जो तर्कसंगत और सार्वभौमिक सिद्धांतों के साथ भगवान के द्वारा कलात्मक रूप से बनायीं गयी है। ये सिद्धांत सभी लोगों के लिए खोजने हेतु उपलब्ध हैं, ये लोगों को इसी जीवन में अपने उद्देश्यों को फलदायी रूप से पूरा करने की अनुमति देते हैं, अगले जीवन का इन्तजार नहीं करते हैं और उन्हें उनकी अपनी तर्कसंगत शक्तियों से पूर्ण बनाते हैं।
न्यूटन ने भगवान को मुख्य निर्माता के रूप में देखा, जिसके अस्तित्व को सभी निर्माणों की भव्यता के चेहरे में नकारा नहीं जा सकता है। उनके प्रवक्ता, क्लार्क, ने लीबनीज के धर्म विज्ञान को अस्वीकृत कर दिया, जिसने भगवान को "ल'ओरिजने दू माल " के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया, इसके लिए भगवान को उसके निर्माण में योगदान से हटा दिया, चूँकि जैसा कि क्लार्क ने कहा था ऐसा देवता केवल नाम से ही राजा होगा, लेकिन नास्तिकता से एक कदम दूर होगा. लेकिन अगली सदी में न्यूटन की प्रणाली की सफलता का अनदेखा धर्म विज्ञानी परिणाम, लीबनीज के द्वारा बताई गयी आस्तिकता की स्थिति को मजबूत बनाएगा.
दुनिया के बारे में समझ अब साधारण मानव के कारण के स्तर तक आ गयी और मानव, जैसा कि ओडो मर्कवार्ड ने तर्क दिया, बुराई के सुधार और उन्मूलन के लिए उत्तरदायी बन गया।
दूसरी ओर, लेटीट्युडीनेरियन और न्यूटोनियन के विचारों के परिणाम बहुत दूरगामी थे, एक धार्मिक गुट यांत्रिक ब्रह्मांड की अवधारणा को समर्पित हो गया, लेकिन इसमें उतना ही उत्साह और रहस्य था कि प्रबुद्धता को नष्ट करने के लिए कठिन संघर्ष किया गया।
दुनिया के अंत के बारे में दृष्टिकोण
एक पांडुलिपि जो उन्होंने १७०४ में लिखी, जिसमें उन्होंने बाइबल से वैज्ञानिक जानकारी निकालने के अपने प्रयास का वर्णन किया है, उनका अनुमान था कि दुनिया २०६० से पहले समाप्त नहीं होगी।
इस भविष्यवाणी में उहोने कहा कि, "इसमें में यह नहीं कह रहा कि अंतिम समय कौन सा होगा, लेकिन मैं इससे उन काल्पनिक व्यक्तियों के अटकलों को बंद करना चाहता हूँ जो अक्सर अंत समय के बारे में भविष्यवाणी करते हैं और इस भविष्यवाणी के असफल हो जाने पर पवित्र भविष्यद्वाणी बदनाम होती है।"
आत्मज्ञानी दार्शनिकों ने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों के एक छोटे इतिहास को चुना-गैलिलियो, बोयल और मुख्य रूप से न्यूटन- यह चुनाव दिन के प्रत्येक भौतिक और सामाजिक क्षेत्र के लिए प्राकृतिक नियम और प्रकृति की एकल अवधारणा के उनके अनुप्रयोग के मार्गदर्शन और जमानत के रूप मैं किया गया।
इस संबंध में, इस पर निर्मित सामाजिक संरंचनाओं और इतिहास के अध्याय त्यागे जा सकते थे।
प्राकृतिक और आत्मज्ञानी रूप से समझने योग्य नियमों पर आधारित ब्रह्माण्ड के बारे में यह न्यूटन की ही संकल्पना थी जिसने आत्मज्ञान विचारधारा के लिए एक बीज का काम किया। लोके और वॉलटैर ने आंतरिक अधिकारों की वकालत करते हुए प्राकृतिक नियमों की अवधारणा को राजनितिक प्रणाली पर लागू किया; फिजियोक्रेट और एडम स्मिथ ने आत्म-रूचि और मनोविज्ञान की प्राकृतिक अवधारणा को आर्थिक प्रणाली पर लागू किया तथा समाजशास्त्रियों ने प्रगति के प्राकृतिक नमूनों में इतिहास को फिट करने की कोशिश के लिए तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की आलोचना की.
मोनबोडो और सेमयूल क्लार्क ने न्यूटन के कार्य के तत्वों का विरोध किया, लेकिन अंततः प्रकृति के बारे में उनके प्रबल धार्मिक विचारों को सुनिश्चित करने के लिए इसे युक्तिसंगत बनाया।
न्यूटन और जालसाजी
शाही टकसाल के प्रबंधक के रूप में, न्यूटन ने अनुमान लगाया कि दुबारा ढलाई किये जाने वाले सिक्कों में २०% जाली थे। जालसाजी एक बहुत बड़ा राजद्रोह था, जिसके लिए फांसी की सजा थी। इस के बावजूद, सबसे ज्वलंत अपराधियों को पकड़ना बहुत मुश्किल था; यद्यपि, न्यूटन इस कार्य के लिए सही साबित हुए. भेष बदल कर शराबखाने और जेल में जाकर उन्होंने खुद बहुत से सबूत इकट्ठे किये। सरकार की शाखाओं को अलग करने और अभियोजन पक्ष के लिए स्थापित सभी बाधाओं हेतु, अंग्रेजी कानून में अभी भी सत्ता के प्राचीन और दुर्जेय रिवाज थे।
न्यूटन को शांति का न्यायाधीश बनाया गया और जून १६९८ और क्रिसमस १६९९ के बीच उन्होंने गवाह, मुखबिरों और संदिग्धों के २०० परिक्षण करवाए।
न्यूटन ने अपनी प्रतिबद्धता को जीता और फरवरी १६९९ में उनके पास दस कैदी रिहाई का इन्तजार कर रहे थे।[१०३]
राजा के वकील के रूप में न्यूटन का एक मामला विलियम चलोनेर के खिलाफ था। चलोनेर की योजना थी कैथोलिक के जाली षड्यंत्र को तय करना और फिर अभागे षड़यंत्रकारी में बदल देना जिसको वह बंधक बना लेता था।
चलोनेर ने अपने आप को पर्याप्त समृद्ध सज्जन बना लिया। संसद में अर्जी देते हुए चलोनर ने टकसाल में नकली सिक्के बनाने के लिए उपकरण भी उपलब्ध कराये. (ऐसा आरोप दूसरो ने उस पर लगाया) उसने प्रस्ताव दिया कि उसे टकसाल की प्रक्रियाओं का निरीक्षण करने की अनुमति दी जाए ताकि वह इसमें सुधार के लिए कुछ कर सके।
उसने संसद में अर्जी दी कि सिक्कों की ढलाई के लिए उसकी योजना को स्वीकार कर लिया जाये ताकि जालसाजी न की जा सके, जबकि उसी समय जाली सिक्के सामने आये। न्यूटन ने चलोनर पर जालसाजी का परीक्षण किया और सितम्बर १६९७ में उसे न्यू गेट जेल में भेज दिया। लेकिन चलोनर के उच्च स्थानों पर मित्र थे, जिन्होंने उसे उसकी रिहाई के लिए मदद की। न्यूटन ने दूसरी बार निर्णायक सबूत के साथ उस पर परिक्षण किया।
चलोनेर को उच्च राजद्रोह का दोषी पाया गया था और उसे २३ मार्च १६९९ को तिबुर्न गेलोज में फांसी दे कर दफना दिया गया।
न्यूटन के गति के नियम
गति के प्रसिद्द तीन नियम
न्यूटन के पहला नियम (जिसे जड़त्व के नियम भी कहा जाता है) के अनुसार एक वस्तु जो स्थिरवस्था में है वह स्थिर ही बनी रहेगी और एक वस्तु जो समान गति की अवस्था में है वह समान गति के साथ उसी दिशा में गति करती रहेगी जब तक उस पर कोई बाहरी बल कार्य नहीं करता है।
न्यूटन के दूसरे नियम के अनुसार एक वस्तु पर लगाया गया बल \वेक{, समय के साथ इसके संवेग \वेक{ में परिवर्तन की दर के बराबर होता है।
गणितीय रूप में इसे निम्नानुसार व्यक्त किया जा सकता है
चूंकि दूसरा नियम एक स्थिर द्रव्यमान की वस्तु पर लागू होता है, (द्म /त = ०), पहला पद लुप्त हो जाता है और त्वरण की परिभाषा का उपयोग करते हुए प्रतिस्थापन के द्वारा समीकरण को संकेतों के रूप में निम्नानुसार लिखा जा सकता है
पहला और दूसरा नियम अरस्तु की भौतिकी को तोड़ने का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें ऐसा माना जाता था कि गति को बनाये रखने के लिए एक बल जरुरी है।
वे राज्य में व्यवस्था की गति का एक उद्देश्य है राज्य बदलने के लिए हैं कि एक ही शक्ति की जरूरत है। न्यूटन के सम्मान में बल की सी इकाई का नाम न्यूटन रखा गया है।
न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इसका अर्थ यह है कि जब भी एक वस्तु किसी दूसरी वस्तु पर एक बल लगाती है तब दूसरी वस्तु विपरीत दिशा में पहली वस्तु पर उतना ही बल लगती है।
इसका एक सामान्य उदाहरण है दो आइस स्केट्स एक दूसरे के विपरीत खिसकते हैं तो विपरीत दिशाओं में खिसकने लगते हैं।
एक अन्य उदाहरण है बंदूक का पीछे की और धक्का महसूस करना, जिसमें बन्दूक के द्वारा गोली को दागने के लिए उस पर लगाया गया बल, एक बराबर और विपरीत बल बंदूक पर लगाता है जिसे गोली चलाने वाला महसूस करता है।
चूंकि प्रश्न में जो वस्तुएं हैं, ऐसा जरुरी नहीं कि उनका द्रव्यमान बराबर हो, इसलिए दोनों वस्तुओं का परिणामी त्वरण अलग हो सकता है (जैसे बन्दूक से गोली दागने के मामले में)।
अरस्तू के विपरीत, न्यूटन की भौतिकी सार्वत्रिक हो गयी है। उदाहरण के लिए, दूसरा नियम ग्रहों तथा एक गिरते हुए पत्थर पर भी लागू होता है। दूसरे नियम की सदिश प्रकृति बल की दिशा और वस्तु के संवेग में परिवर्तन के प्रकार के बीच एक ज्यामितीय सम्बन्ध स्थापित करती है। न्यूटन से पहले, आम तौर पर यह माना जाता था कि सूर्य के चारों और घूर्णन कर रहे एक ग्रह के लिए एक अग्रगामी बल आवश्यक होता है जिसकी वजह से यह गति करता रहता है। न्यूटन ने दर्शाया कि इस के बजाय सूर्य का अन्दर की और एक आकर्षण बल आवश्यक होता है। (अभिकेन्द्री आकर्षण) यहाँ तक कि प्रिन्सिपिया के प्रकाशन के कई दशकों के बाद भी, यह विचार सार्वत्रिक रूप से स्वीकृत नहीं किया गया। और कई वैज्ञानिकों ने डेसकार्टेस के वोर्टिकेस के सिद्धांत को वरीयता दी.
न्यूटन का सेब
न्यूटन अक्सर खुद एक कहानी कहते थे कि एक पेड़ से एक गिरते हुए सेब को देख कर वे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बनाने के लिए प्रेरित हो पाए।
बाद में व्यंग्य करने के लिए ऐसे कार्टून बनाये गए जिनमें सेब को न्यूटन के सर पर गिरते हुए बताया गया और यह दर्शाया गया कि इसी के प्रभाव ने किसी तरह से न्यूटन को गुरुत्व के बल से परिचित कराया. उनकी पुस्तिकाओं से ज्ञात हुआ कि १६६० के अंतिम समय में न्यूटन का यह विचार था कि स्थलीय गुरुत्व का विस्तार होता है, यह चंद्रमा के वर्ग व्युत्क्रमानुपाती होता है; हालाँकि पूर्ण सिद्धांत को विकसित करने में उन्हें दो दशक का समय लगा। जॉन कनदयुइत, जो रॉयल टकसाल में न्यूटन के सहयोगी थे और न्यूटन की भतीजी के पति भी थे, ने इस घटना का वर्णन किया जब उन्होंने न्यूटन के जीवन के बारे में लिखा:
१६६६ में वे कैम्ब्रिज से फिर से सेवानिवृत्त हो गए और अपनी मां के पास लिंकनशायर चले गए। जब वे एक बाग़ में घूम रहे थे तब उन्हें एक विचार आया कि गुरुत्व की शक्ति धरती से एक निश्चित दूरी तक सीमित नहीं है, (यह विचार उनके दिमाग में पेड़ से नीचे की और गिरते हुए एक सेब को देख कर आया) लेकिन यह शक्ति उससे कहीं ज्यादा आगे विस्तृत हो सकती है जितना कि पहले आम तौर पर सोचा जाता था।
उन्होंने अपने आप से कहा कि क्या ऐसा उतना ऊपर भी होगा जितना ऊपर चाँद है और यदि ऐसा है तो, यह उसकी गति को प्रभावित करेगा और संभवतया उसे उसकी कक्षा में बनाये रखेगा, वे जो गणना कर रहे थे, इस तर्क का क्या प्रभाव हुआ।
सवाल गुरुत्व के अस्तित्व का नहीं था बल्कि यह था कि क्या यह बल इतना विस्तृत है कि यह चाँद को अपनी कक्षा में बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है। न्यूटन ने दर्शाया कि यदि बल दूरी के वर्ग व्युत्क्रम में कम होता है तो, चंद्रमा की कक्षीय अवधि की गणना की जा सकती है और अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। उन्होंने अनुमान लगाया कि यही बल अन्य कक्षीय गति के लिए जिम्मेदार है और इसीलिए इसे सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नाम दे दिया।
एक समकालीन लेखक, विलियम स्तुकेले, सर आइजैक न्यूटन की ज़िंदगी को अपने स्मरण में रिकोर्ड करते हैं, वे १५ अप्रैल १७२६ को केनसिंगटन में न्यूटन के साथ हुई बातचीत को याद करते हैं, जब न्यूटन ने जिक्र किया कि "उनके दिमाग में गुरुत्व का विचार पहले कब आया।
जब वह ध्यान की मुद्रा में बैठे थे उसी समय एक सेब के गिरने के कारण ऐसा हुआ। क्यों यह सेब हमेशा भूमि के सापेक्ष लम्बवत में ही क्यों गिरता है? ऐसा उन्होंने अपने आप में सोचा। यह बगल में या ऊपर की ओर क्यों नहीं जाता है, बल्कि हमेशा पृथ्वी के केंद्र की ओर ही गिरता है।"
इसी प्रकार के शब्दों में, वोल्टेर महाकाव्य कविता पर निबंध (१७२७) में लिखा, "सर आइजैक न्यूटन का अपने बागानों में घूम रहे थे, पेड़ से गिरते हुए एक सेब को देख कर, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की प्रणाली के बारे में पहली बार सोचा।
विभिन्न पेड़ों को "वह" सेब के पेड़ होने का दावा किया जाता है जिसका न्यूटन ने वर्णन किया है। दी किंग्स स्कूल, ग्रान्थम दावा करता है कि यह पेड़ स्कूल के द्वारा खरीद लिया गया था, कुछ सालों बाद इसे जड़ सहित लाकर प्रधानाध्यापक के बगीचे में लगा दिया गया। नेशनल ट्रस्ट जो वूलस्थ्रोप मेनर का मालिक है, का वर्तमान स्टाफ इस पर विवाद करता है, ओर दावा करता है कि वह पेड़ उनके बगीचे में उपस्थित है जिस के बारे में न्यूटन ने बात की।
मूल वृक्ष का वंशज ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के मुख्य द्वार के बाहर उगा हुआ देखा जा सकता है, यह उस कमरे के नीचे है जिसमें न्यूटन पढाई के समय रहता था।
ब्रोग्डेल में राष्ट्रीय फलों का संग्रह उन पेड़ों से ग्राफ्ट की आपूर्ति कर सकता है, जो फ्लॉवर ऑफ़ केंट के समान दिखाई देता है, जो एक मोटे गूदे की पकाने की किस्म है।
न्यूटन के लेखन
मेथड ऑफ़ फ़्लक्सियन्स (१६७१)
ऑफ़ नेचर ओब्वियस लॉस एंड प्रोसेसेज इन वेजिटेशन (अप्रकाशित सी.१६७१-७५)
डे मोटू कोर्पोरम इन जिरम (१६८४)
फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका (१६८७)
टकसाल में मास्टर के रूप में रिपोर्टें (१७०१-२५)
एरिथमेटिका युनीवरसेलिस (१७०७)
दी सिस्टम ऑफ़ दी वर्ल्ड, ऑप्टिकल लेक्चर्स, ''दी क्रोनोलोजी ऑफ़ एनशियेंट किंगडेम्स , (संशोधित) और डी मुंडी सिस्टमेट (१७२८ में मरणोपरांत प्रकाशित की गयी),
"डेनियल पर प्रेक्षण और डी एपोकलिप्स ऑफ़ सेंट जॉन" (१७३३)
धर्म-ग्रन्थ के दो उल्लेखनीय भ्रष्टाचारों का ऐतिहासिक लेखा जोखा (१७५४)
इन्हें भी देखें
न्यूटन की डिस्क
न्यूटन का झूला
न्यूटन की असमानताएं
न्यूटन के गति के नियम.
न्यूटन के संकेतन
न्यूटन का प्रतिक्षेपक
न्यूटन के धार्मिक विचार
न्यूटन की परिक्रामी कक्षाओं की प्रमेय
न्यूटन- यूलर समीकरण
स्पालडिंग जेंटलमेन्स सोसाइटी
पादटिप्पणी और सन्दर्भ
[१२४]यह अच्छी तरह से प्रलेखित काम, विशेष रूप से, पुर्वाचार्य सम्बन्धी न्यूटन के ज्ञान के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है।
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विज्ञान विश्व की जीवनी
वैज्ञानिक शब्दकोश की जीवनी
न्यूटन की प्रिन्सिपिया- पढो और खोजो
न्यूटन के ज्योतिष का खंडन
न्यूटन के धार्मिक विचारों पर पुनर् विचार
न्यूटन के शाही टकसाल की रिपोर्टें
न्यूटन के छुपे हुए रहस्य नोवा टी वी कार्यक्रम.
दर्शन के स्टैनफोर्ड विश्वकोश से
आइजैक न्यूटन, जॉर्ज स्मिथ द्वारा
न्यूटन की फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका, जॉर्ज स्मिथ द्वारा
न्यूटन के दर्शन, एंड्रयू जनिअक द्वारा
न्यूटन के अन्तरिक्ष, समय और गति के विचार रॉबर्ट राइनसिवीज के द्वारा
न्यूटन के कास्टल की शैक्षिक सामग्री
आइजैक न्यूटन के रासायनिक विज्ञान के लेखन पर शोध
फ्मा लाइव!बच्चों को न्यूटन के नियम सिखाने के लिए कार्यक्रम
न्यूटन की धार्मिक स्थिति
न्यूटन की प्रिन्सिपिया की दी "जनरल स्कोलियम"
कंडास्वामी, आनंद एम.न्यूटन / लाइबनिट्स के संघर्ष के सन्दर्भ में.
न्यूटन का पहला ओड़े- इस बात का अध्ययन कि अनंत श्रृंख्ला का उपयोग करते हुए न्यूटन ने कैसे पहले क्रम के ओड़े के समाधान का अंदाजा लगाया.
आइजैक न्यूटन की छवियाँ, ऑडियो, एनिमेशन और इंटरैक्टिव घटकों पर नियंत्रण
१६४३ में जन्मे लोग
१७२७ में निधन
१७ वीं शताब्दी के अंग्रेजी लोग
१७ वीं शताब्दी के लेटिन लेखक
१७ वीं शताब्दी की गणितज्ञ
१८ वीं सदी के अंग्रेजी लोग
१८ वीं सदी के लाटिन लेखकों
१८ वीं सदी के गणितज्ञ
ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के पूर्व छात्र
वेस्टमिंस्टर एब्बे में दफनाना
अंग्रेजी रसायन विज्ञानी
रॉयल सोसायटी के अध्येताओं
ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के अध्येताओं
गणित के ल्युकेसियन प्रोफेसर
टकसाल के मालिक
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के लिए संसद के सदस्य
१७०७ की प्रारंभ में अंग्रेजी संसद के सदस्य
लिंकनशायर के लोग
स्टर्लिंग बैंक नोटों पर दिए गए लोगों के चित्र.
विज्ञान के दार्शनिकों
रॉयल सोसायटी के अध्यक्ष
धर्म और विज्ञान
वैज्ञानिक उपकरण के निर्माता
सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी |
दफ़ला नागलैंड प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है।
विश्व की भाषाएँ |
कंगारू आस्ट्रेलिया में पाया जानेवाला एक स्तनधारी पशु है। यह आस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय पशु भी है। कंगारू शाकाहारी, धानीप्राणी (मारसूपियल, मारसुपिल) जीव हैं जो स्तनधारियों में अपने ढंग के निराले प्राणी हैं। इन्हें सन् १७७३ ई. में कैप्टन कुक ने देखा और तभी से ये सभ्य जगत् के सामने आए। इनकी पिछली टाँगें लंबी और अगली छोटी होती हैं, जिससे ये उछल उछलकर चलते हैं। पूँछ लंबी और मोटी होती है जो सिरे की ओर पतली होती जाती है।
कंगारू स्तनधारियों के शिशुधनिन भाग (मार्सूपियल, मारसुपियालिया) के जीव हैं जिनकी विशेषता उनके शरीर की थैली है। जन्म के पश्चात् उनके बच्चे बहुत दिनों तक इस थैली में रह सकते हैं। इनमें सबसे बड़े, भीम कंगारू (जायंट कंगारू) छोटे घोड़े के बराबर और सबसे छोटे, गंध कंगारू (मस्क कंगारू) खरहे से भी छोटे होते हैं।
कंगारू केवल आस्ट्रलिया में ही पाए जाते हैं। वहाँ इनकी २१ प्रजातियों (जीनस, जीनस) का अब तक पता चल सका है जिनमें १५८ जातियाँ तथा उपजातियाँ सम्मिलित हैं। इनमें कुछ प्रसिद्ध कंगारू इस प्रकार हैं :
न्यू गिनी में डोरकोपसिस (डोर्कोप्सिस) जाति के कंगारू मिलते हैं जो कुत्ते के बराबर होते हैं। इनकी पूँछ और टाँगें छोटी होती हैं। इन्हीं के निकट संबंधी तरुकुरंग (डेंड्रोलेगस कंगारू, देंद्रोलेगस कंगारूस) हैं जो पेड़ों पर भी चढ़ जाते हैं। इनके कान छोटे और पूँछ पतली तथा लंबी होती है।
पैडीमिलस (पडेमेलॉस) नामक कंगारू डोलकोपसिस के बराबर होने पर भी छोटे सिरवाले होते हैं। ये न्यु गिनी से टैक्मेनिया तक फैले हुए हैं।
प्रोटेमनोडन (प्रोटेमनोदों) जाति के कई कंगारू बहुत प्रसिद्ध हैं जो घास के मैदानों में रहते हैं। ये रात में चराई करके दिन का समय किसी झाड़ी में बिताते हैं। इनकी पूँछ, कान और टाँगें लंबी होती हैं।
मैकरोपस (मैकरोपस) जाति का महान् धूम्रवर्ण कंगारू (ग्रेट ग्रे कंगारू) भी बहुत प्रसिद्ध है। यह घास के मैदान का निवासी है। इसी का निकट संबंधी लाल कंगारू भी किसी से कम प्रसिद्ध नहीं है, यह आस्ट्रेलिया के मध्य भाग के निचले पठारों पर रहता है।
शैलधाकुरंग (पेट्रोग्रोल, पेट्रोगोले) और ओनीकोगोल (ओनीकोगोले) प्रजाति के शैल वैलेबी (रॉक वैलेबी, रॉक वलेबी) और नखपुच्छ (नेल टेल) वैलेबी नाम के कंगारू बहुत सुंदर और छोटे कद के होते हैं। इनमें से पूर्वोंक्त प्रजातिवाले कंगारू पहाड़ की खोहों में और दूसरे घास के मैदानों में रहते हैं।
पैलार्किस्टिस (पलार्चिस्टेस) जाति के प्रातिनूतन भीम कंगारू (प्लाइस्टोसीन जायंट कंगारू, प्लिएस्टोसीने गियांट कंगारू) काफी बड़े (लगभग छोटे घोड़े के भार के) होते हैं। इनका मुख्य भोजन घास पात और फल फल है। इनका सिर छोटा, जबड़ा भारी और टाँगें छोटी होती हैं।
कंगारू के पैरों में अँगूठे नहीं होते। इनकी दूसरी और तीसरी अँगुलियाँ पतली और आपस में एक झिल्ली से जुड़ी रहती हैं, चौथी और पाँचवीं अँगुली बड़ी होती हैं। चौथी में पुष्ट नख रहता है।
कंगारू की पूँछ लंबी और भारी होती है। उछलते समय वे इसी से अपना संतुलन बनाए रहते हैं और बैठते समय इसी को टेककर इस प्रकार बैठे रहते हैं मानों कुर्सी पर बैठे हों। वे अपनी अगली टाँगों और पूँछ को टेककर पिछली टाँगों को आगे बढ़ाते हैं और उछलकर पर्याप्त दूरी तक पहुँच जाते हैं।
कंगारू का मुखछिद्र छोटा होता है जिसका पर्याप्त भाग ओठों से छिपा रहता है। मुख में निचले कर्तनकदंत (इनसाइज़र्स, इन्सिसर्स) आगे की ओर पर्याप्त बढ़े रहते हैं, जिनसे ये अपना मुख्य भोजन, घास पात, सुगमता से कुतर लेते हैं। इनकी आँखें भूरी और औसत कद की, कान गोलाई लिए बड़े और घूमनेवाले होते हैं, जिन्हें हिरन आदि की भाँति इधर-उधर घुमाकर ये दूर आहट पा लेते हैं। इनके शरीर के रोएँ पर्याप्त कोमल होते हैं और कुछ के निचले भाग में घने रोओं की एक और तह भी रहती है।
कंगारू की थैली उसके पेट के निचले भाग में रहती है। यह थैली आगे की ओर खुलती है और उसमें चार थन रहते हैं। जाड़े के आरंभ में इनकी मादा एक बार में एक बच्चा जनती है, जो दो चार इंच से बड़ा नहीं होता। प्रारंभ में बच्चा माँ की थैली में ही रहता है। वह उसको लादे हुए इधर-उधर फिरा करती है। कुछ बड़े हो जाने पर भी बच्चे का सबंध माँ की थेली से नहीं छूटता और वह तनिक सी आहट पाते ही भागकर उसमें घुसजाता है। किंतु और बड़ा हो जाने पर यह थेली उसके लिए छोटी पड़ जाती है और वह माँ के साथ छोड़कर अपना स्वतंत्र जीवन बिताने लगता है। आस्ट्रेलिया के लोग कंगारू का मांस खाते हैं और उसकी पूँछ का रसा बड़े स्वाद से पीते हैं। वैसे तो यह शांतिप्रिय शाकाहारी जीव है, परंतु आत्मरक्षा के समय यह अपनी पिछली टाँगों से भयंकर प्रहार करता है।
इन्हें भी देखें
ऑस्ट्रेलिया के स्तनधारी |
रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी देवताओं की आकृतियाँ। इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है। इन्हें प्रायः घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुकूल अलग-अलग होते हैं। इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली,हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के केन्द्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच में या चारों ओर बनाया जाता है। कभी-कभी इसे फूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है।
रंगोली का इतिहास
रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतः यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं। अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं।
रंगोली का उद्देश्य
रंगोली धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है। अल्पना जीवन दर्शन की प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्फ पूजागृह तक सीमित नहीं रह गई है। स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं। यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की भावना का प्रतीक भी है। रंगोली में बनाए जाने वाले चिह्न जैसे स्वस्तिक, कमल का फूल, लक्ष्मीजी के पग (पगलिए) इत्यादि समृद्धि और मंगलकामना के सूचक समझे जाते हैं। आज कई घरों, देवालयों के आगे नित्य रंगोली बनाई जाती है। रीति-रिवाजों को सहेजती-सँवारती यह कला आधुनिक परिवारों का भी अंग बन गई है। शिल्प कौशल और विविधतायुक्त कलात्मक अभिरुचि के परिचय से गृह-सज्जा के लिए बनाए जाने वाले कुछ माँडणों को छोड़कर प्रायः सभी माँडणे किसी मानवीय भावना के प्रतीक होते हैं। और इस प्रकार ये हमारी सांस्कृतिक भावनाओं को साकार करने में महत्त्वपूर्ण साधन माने जाते हैं। हर्ष और प्रसन्नता का प्रतीक रंगोली रंगमयी अभिव्यक्ति है।
विभिन्न प्रांतों की रंगोली
रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में 'अदूपना', कुमाऊँ में लिखथाप या थापा, तो केरल में कोलम। इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके। भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है। दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के 'कोलम' में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है। सूखे चावल के आटे को अँगूठे व तर्जनी के बीच रखकर एक निश्चित साँचे में गिराया जाता है। राजस्थान का मांडना जो मंडन शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मांडने को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है। कुमाऊँ के'लिख थाप' या थापा में अनेक प्रकार के आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों का प्रयोग किया जाता है। लिखथाप में समाज के अलग-अलग वर्गों द्वारा अलग-अलग चिह्नों और कला माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। आमतौर पर दक्षिण भारतीय रंगोली ज्यामितीय आकारों पर आधारित होती है जबकि उत्तर भारत की शुभ चिह्नों पर।
रंगोली के प्रमुख तत्त्व
रंगोली भारत के किसी भी प्रांत की हो, वह लोक कला है, अतः इसके तत्व भी लोक से लिए गए हैं और सामान्य हैं। रंगोली का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व उत्सवधर्मिता है। इसके लिए शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। इस प्रकार के प्रतीक पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं - और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। नई पीढी पारंपरिक रूप से इस कला को सीखती है और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को कायम रखती है। रंगोली के प्रमुख प्रतीकों में कमल का फूल, इसकी पत्तियाँ, आम, मंगल कलश, मछलियाँ, अलग अलग तरह की चिड़ियाँ, तोते, हंस, मोर, मानव आकृतियाँ और बेलबूटे लगभग संपूर्ण भारत की रंगोलियों में पाए जाते हैं। विशेष अवसरों पर बनाई जाने वाली रंगोलियों में कुछ विशेष आकृतियाँ भी जुड़ जाती हैं जैसे दीपावली की रंगोली में दीप, गणेश या लक्ष्मी। रंगोली का दूसरा प्रमुख तत्त्व प्रयोग आने वाली सामग्री है। इसमें वही सामग्री प्रयुक्त होती है जो आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला अमीर-गरीब सभी के घरों में प्रचलित है। सामान्य रूप से रंगोली बनाने की प्रमुख सामग्री है- पिसे हुए चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी, लकड़ी का बुरादा आदि। रंगोली का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पृष्ठभूमि है। रंगोली की पृष्ठभूमि के लिए साफ़ या लीपी हुई ज़मीन या दीवार का प्रयोग किया जाता है। रंगोली आँगन के मध्य में, कोनों पर, या बेल के रूप में चारों ओर बनाई जाती है। मुख्यद्वार की देहरी पर भी रंगोली बनाने की परंपरा है। भगवान के आसन, दीप के आधार, पूजा की चौकी और यज्ञ की वेदी पर भी रंगोली सजाने की परंपरा है। समय के साथ रंगोली कला में नवीन कल्पनाओं एवं नए विचारों का भी समावेश हुआ है। अतिथि सत्कार और पर्यटन पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और इसका व्यावसायिक रूप भी विकसित हुआ है। इसके कारण इसे होटलों जैसे स्थानों पर सुविधाजनक रंगों से भी बनाया जाने लगा है पर इसका पारंपरिक आकर्षण, कलात्मकता और महत्त्व अभी भी बने हुए हैं।
रंगोली की रचना
रंगोली दो प्रकार से बनाई जाती है। सूखी और गीली। दोनों में एक मुक्तहस्त से और दूसरी बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाती है। बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाने वाली रंगोली के लिए पहले सफेद रंग से जमीन पर किसी विशेष आकार में निश्चित बिंदु बनाए जाते हैं फिर उन बिंदुओं को मिलाते हुए एक सुंदर आकृति आकार ले लेती है। आकृति बनाने के बाद उसमें मनचाहे रंग भरे जाते हैं। मुक्तहस्त रंगोली में सीधे जमीन पर ही आकृति बनाई जाती है। पारंपरिक मांडना बनाने में गेरू और सफ़ेद खड़ी का प्रयोग किया जाता है। बाज़ार में मिलने वाले रंगोली के रंगों से रंगोली को रंग बिरंगा बनाया जा सकता है। रंगोली बनाने के झंझट से मुक्ति चाहने वालों के लिए अपनी घर की देहरी को सजाने के लिए 'रेडिमेड रंगोली' स्टिकर भी बाज़ार में मिलते हैं, जिन्हें मनचाहे स्थान पर चिपकाकर रंगोली के नमूने बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बाजार में प्लास्टिक पर बिंदुओं के रूप में उभरी हुई आकृतियाँ भी मिलती हैं, जिसे जमीन पर रखकर उसके ऊपर रंग डालने से जमीन पर सुंदर आकृति उभरकर सामने आती है। अगर रंगोली बनाने का अभ्यास नहीं है तो इन वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ साँचे ऐसे भी मिलते हैं जिनमें आटा या रंग का पाउडर भरा जा सकता है। इसमें नमूने के अनुसार छोटे छेद होते हैं। इन्हें ज़मीन से हल्का सा टकराते ही निश्चित स्थानों पर रंग झरता है और सुंदर नमूना प्रकट हो जाता है। रंगोली बनाने के लिए प्लास्टिक के स्टेंसिल्स का प्रयोग भी किया जाता है। गीली रंगोली चावल को पीसकर उसमें पानी मिलाकर तैयार की जाती है। इस घोल को ऐपण, ऐपन या पिठार कहा जाता है। इसे रंगीन बनाने के लिए हल्दी का प्रयोग भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त रंगीन रंगोली बाज़ार में मिलने वाले पोस्टर, क्रेयॉन, फ़ेब्रिक और एक्रिलिक रंगों से भी बनाई जाती हैं।
पानी और रंगोली
आजकल रंगोली के लिए कलाकारों ने पानी को भी माध्यम बना लिया है। इसके लिए एक टब या टैंक में पानी को लेकर स्थिर व समतल क्षेत्र में पानी को डाल दिया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि पानी को हवा या किसी अन्य तरह के संवेग से वास्ता न पड़े। इसके बाद चारकोल के पावडर को छिड़क दिया जाता है। इस पर कलाकार अन्य सामग्रियों के साथ रंगोली सजाते हैं। इस तरह की रंगोली भव्य नजर आती है। भरे हुए पानी पर फूलों की पंखुडियों और दियों की सहायता से भी रंगोली बनाई जाती है। पानी सतह पर रंगों को रोकने के लिए चारकोल की जगह, डिस्टेंपर या पिघले हुए मोम का भी प्रयोग किया जाता है। कुछ रंगोलियाँ पानी के भीतर भी बनाई जाती हैं। इसके लिए एक कम गहरे बर्तन में पानी भरा जाता है फिर एक तश्तरी या ट्रे पर अच्छी तरह से तेल लगाकर रंगोली बनाई जाती है। बाद में इसपर हल्का सा तेल स्प्रे कर के धीरे से पानी के बर्तन की तली में रख दिया जाता है। तेल लगा होने के कारण रंगोली पानी में फैलती नहीं। महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली वंदना जोशी को रंगोली बनाने में महारत हासिल है। वह पानी के ऊपर रंगोली बनाने वाली विश्व की पहली महिला हैं और वह ७ फरवरी २००४ को दुनिया की सबसे बड़ी रंगोली बनाकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं। पानी पर रंगोली बनाने वाले दूसरे प्रमुख कलाकार राजकुमार चन्दन हैं। वे देवास में मीता ताल के १७ एकड़ जल पर विशालकाय रंगोली बनाने का अद्भुत काम कर चुके हैं।
विश्वास और मान्यताएँ
तमिल नाडु में यह मिथक प्रचलित है कि मारकाड़ी के महीने में देवी आंडाल ने भगवान तिरुमाल से विवाह की विनती की। लम्बी साधना के बाद वो भगवान तिरुमाल में विलीन हो गईं। इसलिए इस महीने में अविवाहित लड़कियाँ सूर्योदय से पहले उठकर भगवान तिरुमाल के स्वागत के लिए रंगोली सजाती हैं। रंगोली के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय ग्रंथ 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है- एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया। ब्रह्मा ने राजा से कहा कि वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना या रंगोली की शुरुआत हुई। इसी सन्दर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति रंगोली का प्रथम रूप है। रंगोली के संबंध में और भी पौराणिक सन्दर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी रंगोली का उल्लेख है। दक्षिण में रंगोली का सांस्कृतिक विकास चोल शासकों के युग में हुआ। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे यह मान्यता है कि चींटी को खाना खिलाना चाहिए। यहाँ यह माना जाता है कि कोलम के बहाने अन्य जीव जन्तु को भोजन मिलता है जिससे प्राकृतिक चक्र की रक्षा होती है। रंगोली को झाडू या पैरों से नहीं हटाया जाता है बल्कि इन्हें पानी के फव्वारों या कीचड़ सने हाथों से हटाया जाता है। मिथिलांचल में ऐसा कोई पर्व-त्योहार या (उपनयन-विवाह जैसा कोई) समारोह नहीं जब घर की दीवारों और आंगन में चित्रकारी नहीं की जाती हो। प्रत्येक अवसर के लिए अलग ढँग से "अरिपन" बनाया जाता है जिसके अलग-अलग आध्यात्मिक अर्थ होते हैं। विवाह के अवसर पर वर-वधू के कक्ष में दीवारों पर बनाए जाने वाले "कोहबर" और "नैना जोगिन" जैसे चित्र, जो वास्तव में तंत्र पर आधारित होते हैं, चित्रकला की बारीकियों के प्रतिमान हैं।
रंगोली में निहित परंपरा और आधुनिकता
रंगोली भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में सबसे प्राचीन लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के तीन प्रमुख रूप मिलते हैं- भूमि रेखांकन, भित्ति चित्र और कागज़ तथा वस्त्रों पर चित्रांकन। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भूमि रेखांकन हैं, जिन्हें अल्पना या रंगोली के रूप में जाना जाता है। भित्ति चित्रों के लिए बिहार का मधुबनी और महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली नामक स्थान प्रसिद्ध है। इनकी रचना शैली और रचनात्मक सामग्री रंगोली के समान ही होती है। इसमें विभिन्न अवसरों पर शुभ चिह्नों के साथ अनेक प्रकार के चित्रों से दीवारों की सजावट की जाती है। तीसरे प्रकार के चित्रांकन कागज़ों अथवा कपड़ों पर होते हैं। कुमाऊँ में इसे ज्यूँति, राजस्थान में फड़ या पड़क्यें कहा जाता है। ज्यूँति में जहाँ जीवमातृकाओं और देवताओं के चित्र बने होते हैं वहीं फड़ में राजाओं और लोकदेवताओं की वंशावली चित्रित होती है। आंध्र-प्रदेश की कलमकारी और उड़ीसा के पट्टचित्र भी इसी लोक कला के उदाहरण हैं इससे पता चलता है कि लोक संस्कृति हाथ से चित्रित करने की यह परंपरा अत्यंत व्यापक और प्राचीन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के मूल में कितनी कलात्मकता और लालित्य निहित है।
यह कलात्मकता और लालित्य आज भी रूप बदलकर शुभ अवसरों पर दिखाई पड़ता है। सम्पन्नता के विकास के साथ आजकल इसे सजाने के लिए शुभ अवसरों के आने की प्रतीक्षा नहीं की जाती बल्कि किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को रंगोली सजाकर शुभ बना लिया जाता है। चाहे किसी चीज का लोकार्पण हो या होटलों के प्रचार-प्रसार की बात हो, रंगोली की सजावट आवश्यक समझी जाती है। इसके अतिरिक्त आजकल कलाकारों ने रंगोली प्रर्दशनी और रंगोली प्रतियोगिताएँ भी शुरू कर दी है। कुछ रंगोलियाँ ऐसी भी होती हैं जो देखने में एक कलाकृति की भाँति दिखाई देती हैं। इनमें आधुनिकता और परंपरा का समावेश आसानी से लक्षित किया जा सकता है। रंगोली बनाने की प्रतियोगिताएँ और रेकार्डों का भी अद्भुत क्रम शुरू हुआ है। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड तक रंगोली पहुँचाने वाली पहली महिला विजय लक्ष्मी मोहन थीं, जिन्होंने सिंगापुर में ३ अगस्त २००३ को यह रेकार्ड बनाया। २००९ तक यह रेकार्ड हर साल टूटता रहा है। इसके अतिरिक्त पानी पर रंगोली बनाने के रेकार्ड भी गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल हो चुके हैं।
रंगोली के नमूने
रंगोली की परंपरा |
मास्को या मॉस्को ( / मोस्कवा), रूस की राजधानी एवं यूरोप का सबसे बडा शहर है। मॉस्को का शहरी क्षेत्र विश्व के सबसे बडे शहरी क्षेत्रों में गिना जाता है। मास्को रूस की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है। यह मोस्कवा नदी के तट पर बसा हुआ है। ऐतिहासिक रूप से यह पुराने सोवियत संघ एवं प्राचीन रूसी साम्राज्य की राजधानी भी रही है। मास्को को संसार के अरबपतियों का नगर भी कहा जाता है जहाँ विश्व के सबसे अधिक अरबपति बसते हैं। २००७ में मास्को को लगातार दूसरी बार विश्व का सबसे महँगा नगर भी घोषित किया गया था।
मास्को नगरी का नाम मोस्कवा नदी पर रखा गया है। १२३७-३८ के आक्रमण के बाद, मंगोलों ने सारा नगर जला दिया और लोगों को मार दिया। मास्को ने दुबारा विकास किया और १३२७ में व्लादिमीर - सुज्दाल रियासत की राजधानी बनाई गई। वोल्गा नदी के शुरूवात पर स्थित होने के कारण यह नगर अनुकूल था और इस कारण धीरे धीरे शहर बड़ा होने लगा। मास्को एक शांत और संपन्न रियासत बन गया और सारे रूस से लोग आकर यहाँ बसने लगे।
१६५४-५६ के प्लेग ने मास्को की आधी जनसंख्या को समाप्त कर दिया। १७०३ में बाल्टिक तट पर पीटर महान द्वारा सैंट पीटर्सबर्ग के निर्माण के बाद, १७१२ से मास्को रूस की राजधानी नहीं रही। १७७१ का प्लेग मध्य रूस का अन्तिम बड़ा प्लेग था, जिसमे केवल मास्को के ही १००००० व्यक्तियों के प्राण गए।
१९०५ में, अलेक्जेंडर अद्रिनोव मास्को के पहले महापौर बने। १९१७ के रुसी क्रांति के पश्चात, मास्को को सोवियत संघ की राजधानी बनाया गया।
मई ८,१९६५ को, नाजी जर्मनी पर विजय की २०वीं वर्षगांठ के अवसर पर मास्को को हीरो सिटी की उपाधि प्रदान की गयी।
मास्को यूरोप की सबसे बड़ी शहरी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यह रूस के सकल घरेलू उत्पाद का करीब २४% योगदान करता है। २००८ में मास्को की अर्थव्यवस्था ८.४४ ट्रिलियन रूबल थी | मास्को में औसत मासिक वेतन ४१६०० रूबल है। २०१० में, मास्को में बेरोजगारी दर सिर्फ १% थी, जो रूस के सभी प्रशासनिक क्षेत्रों में सबसे कम है।
मास्को रूस का निर्विवादित रूप से मुख्य आर्थिक केंद्र है। यहाँ रूस के सबसे बड़े बैंक और कंपनियाँ स्थित हैं जिनमे रूस की सबसे बड़ी कंपनी गेज्प्रोम भी शामिल है। मास्को की रूस की खुदरा बिक्री में १७% एवं सभी निर्माण गतिविधियों में १३% हिस्सेदारी है। चेर्किजोव्सकी बाजार, ३ करोड़ डॉलर की दैनिक बिक्री एवं दस हजार विक्रेताओं के साथ यूरोप का सबसे बड़ा बाजार है। यह बाजार प्रशासनिक रूप से १२ भागों में बँटा है और शहर के एक बड़े भूभाग पर स्थित है।२००८ में, मास्को में ७४ अरबपति थे और यह न्यूयोर्क, ७१ अरबपति, से ऊँचे पायदान पर है।
देखें, मास्को राज्य विश्वविद्यालय
मास्को में १६९६ उच्चतर विद्यालय एवं ९१ महाविद्यालय हैं। इनके अलावा, २२२ अन्य संस्थान भी उच्च शिक्षा उपलब्ध करातें हैं, जिनमे ६० प्रदेश विश्वविद्यालय एवं १७५५ में स्थापित लोमोनोसोव मास्को स्टेट विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। विश्वविद्यालय में २९ संकाय एवं ४५० विभाग हैं जिनमे ३०००० पूर्वस्नातक एवं ७००० स्नातकोत्तर छात्र पढते हैं। साथ ही विश्वविद्यालय में, उच्चतर विद्यालय के करीब १०००० विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं एवं करीब २००० शोधार्थी कार्य करते हैं। मास्को स्टेट विश्वविद्यालय पुस्तकालय, रूस के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है, यहाँ लगभग ९० लाख पुस्तकें हैं।
शहर में ४५२ पुस्तकालय हैं, जिनमे से १६८ बच्चों के लिए हैं। १८६२ में स्थापित रुसी स्टेट पुस्तकालय, रूस का राष्ट्रीय पुस्तकालय है।
मास्को का स्थापत्य विश्व प्रसिद्ध है। मास्को सेंट बेसिल केथेड्रल, क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल और सेवेन सिस्टर्स के लिए प्रसिद्ध है।
लंबे समय तक मास्को पर रूढ़िवादी चर्चों का प्रभाव रहा | हालाँकि, शहर के समग्र रूप में सोवियत काल से भारी परिवर्तन हुआ है, खासकर जोसेफ स्टालिन के शहर के आधुनिकीकरण के बड़े पैमाने पर किये प्रयास के कारण यह परिवर्तन हुआ | स्टालिन की शहर के लिए योजना में चौड़े रास्तों और सडकों का जाल शामिल था जिनमे कई सड़कें १० लेन तक चौड़ी थीं | इससे शहर का यातायात सुगम हो गया, पर इसके लिए बहुत सारी एतिहासिक इमारतों को हटाना पड़ा |
स्टालिनवादी अवधि का सबसे प्रसिद्ध योगदान सेवेन सिस्टर्स (सात बहनें) माना जा सकता है। सेवेन सिस्टर्स सात गगनचुम्बी इमारतें हैं, जो क्रेमलिन से समान दूरी पर शहर भर में फैली हुईं हैं। सात टावरों को शहर के सभी ऊँचे स्थानों से देखा जा सकता है। ओस्तान्कियो टॉवर के अलावा ये सात टॉवर मध्य मास्को की सबसे ऊँची इमारतों में से हैं। ओस्तान्कियो टॉवर का निर्माण १९६७ में पूरा हुआ था, उस समय यह दुनिया की सबसे ऊँची मुक्त खड़ी भूमि संरचना थी | आज बुर्ज खलीफा दुबई, केंतून टॉवर ग्वांगझू और सी.एन. टॉवर टोरोंटो के बाद चौथे स्थान पर है।
हर नागरिक और उसके परिवार को अनिवार्य आवास उपलब्ध कराने की सोवियत नीति एवं मास्को की आबादी के तेजी से विकास के कारण, विशाल एवं नीरस आवासीय परिसरों का निर्माण किया गया | इन परिसरों को इनकी शैली, आयु, मजबूती एवं निर्माण सामग्री के आधार पर विभेदित किया जा सकता है। इनमे से अधिकतर का निर्माण स्टालिन युग के पश्चात हुआ और इनकी निर्माण शैलियाँ नेताओं (ब्रेज्हेनेव, ख्रुश्चेव इत्यादि) के नाम से जानी जाती हैं। आमतौर पर इन परिसरों का रखरखाव खराब है।
विकी ट्रैवल पर मॉस्को के बारे में
रूसी सरकार के पर्यटन मंत्रालय के जालस्थल पर मॉस्को
आधिकारिक मॉस्को प्रशासन
द मॉस्को टाईम्स - मॉस्को का एक बडा अंग्रेजी अखबार
द मॉस्को न्यूज - मॉस्को के सबसे पुराने अंग्रेजी अखबारों में से एक
अगले छह दिनों के मास्को का मौसम मॉस्को.थे.बाय
चित्र एवँ वीडियो
यूरोप के नगर
रूस के नगर
यूरोप में राजधानियाँ |
ओस्लो युरोप महादेश में स्थित नार्वे देश की राजधानी एवं वहां का सबसे बडा़ शहर है। इसे सन १६२४ से १८७९ तक क्रिस्टैनिया के नाम से जाना जाता था। आधुनिक ओस्लो की स्थापना ३ जनवरी १८३८ को एक नगर निगम के रूप में की गयी थी।
भौगोलिक स्थिती एवं जलवायु
राजनीति एवं शासन
उच्च शिक्षण संस्थान
यूरोप में राजधानियाँ |
जकार्ता इंडोनेशिया की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। इसका पुुुरा नाम बटाबिया है ।जकार्ता जावा के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ६६१कि.मी. है एवं २०१० की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या लगभग ९५,८०,००० है। जकार्ता देश का आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक केंद्र है। जकार्ता जनसँख्या के मामले में इंडोनेशिया एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रथम एवं विश्व में दसवें स्थान पर है। जकार्ता की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई और यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक बंदरगाह गया। जकार्ता डच ईस्ट इंडीज़ की राजधानी था और १९४५ में स्वतंत्रता मिलने के बाद भी यह इंडोनेशिया की राजधानी बना रहा।
अधिकारिक रूप से, जकार्ता एक नगर नहीं, एक प्रान्त है, जिसे इंडोनेशिया की राजधानी होने का विशेष दर्जा प्राप्त है। यहाँ महापौर के स्थान पर राज्यपाल होते हैं। जकार्ता को कई उपक्षेत्रों में विभाजित किया गया है, जिनके अपने प्रशासनिक तंत्र हैं।
जकार्ता को पांच कोटा अथवा कोटामाद्य (नगरपालिका) में विभाजित किया गया है, जिनके अध्यक्ष महापौर होते हैं।
जकार्ता की पांच नगरपालिकाएं:
जकार्ता की अर्थव्यवस्था वित्तीय सेवाओं, व्यापार और विनिर्माण पर आश्रित है। यहाँ के उद्योगों में इलेक्ट्रानिक, ऑटोमोटिव, रसायन, यांत्रिक अभियांत्रिकी और जैव चिकित्सा मुख्य है। २००९ में, करीब १३% आबादी की आय १०००० डॉलर से अधिक है। २००७ में, जकार्ता की आर्थिक वृद्धि दर ६.४४% थी, जो २००६ में ५.९५% थी। २००७ में, सकल घरेलू उत्पाद ५६६ ट्रिलियन रूपिया (५६ बिलियन डॉलर) था। सकल घरेलू उत्पाद में सर्वाधिक योगदान वित्तीय एवं व्यापारिक सेवाओं (२९%) का है, इसके बाद होटल एवं रेस्त्रां (२०%) और विनिर्माण उद्योग (१६%) का है।
२००७ में लागू कानून ने भीख देना, नदियों एवं हाईवे के किनारों पर झुग्गी बस्तियों का निर्माण करना एवं सार्वजनिक यातायात के साधनों में थूकना और धूम्रपान करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अनाधिकृत लोगों द्वारा कार की सफाई करने पर और चौराहों पर यातायात निर्देशन के लिए धन लेने वालों पर जुर्माना लगाया जायेगा|
जकार्ता मुख्य रूप से प्रशासनिक एवं व्यापारिक नगर है। इसे, पुराने शहर को छोड़कर, पर्यटन केंद्र के रूप में कम ही देखा जाता है। पुराना शहर एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थान है। हालाँकि, जकार्ता प्रशासन की इसे सेवा एवं पर्यटन केंद्र के रूप में स्थापित करने की कोशिश है। नगर में कई नए पर्यटन बुनियादी सुविधाएँ, मनोरंजन केंद्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के होटल एवं रेस्त्रां का निर्माण किया जा रहा है। जकार्ता में कई ऐतिहासिक स्थल एवं सांस्कृतिक विरासतें हैं।
राष्ट्रीय स्मारक, नगर के मध्य में स्थित सेंट्रल पार्क, मर्डेका स्क्वायर, के मध्य में स्थित है। राष्ट्रीय स्मारक के पास महाभारत पर आधारित अर्जुन विजय रथ मूर्ति एवं फुव्वारा स्थित है। मध्य जकार्ता में स्थित विस्मा ४६ इमारत, जकार्ता एवं इंडोनेशिया की सबसे ऊँची इमारत है। ज्यादातर विदेशी पर्यटक पड़ोसी आसियान देशों, जैसे मलेशिया और सिंगापुर, के होते हैं, जो जकार्ता ख़रीददारी करने के उद्देश्य से आते हैं। जकार्ता सस्ते परन्तु उचित गुणवत्ता के सामान जैसे कपड़े, शिल्प एवं फैशन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है।
जकार्ता में कई विश्वविद्यालय हैं, जिनमे इंडोनेशिया विश्वविद्यालय सबसे बड़ा है। इंडोनेशिया विश्वविद्यालय सरकारी स्वामित्व वाला विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना २ फ़रवरी १९५० को हुई थी। यह बारह संकायों में विभाजित है: चिकित्सा संकाय, दन्त चिकित्सा संकाय, गणित एवं प्राकृतिक विज्ञान संकाय, विधि संकाय, मनोविज्ञान संकाय, अभियांत्रिकी संकाय, अर्थशास्त्र संकाय, जन स्वास्थ्य संकाय, समाज एवं राजनीति शास्त्र संकाय, मानविकी संकाय, अभिकलित्र विज्ञान संकाय और उपचर्या संकाय|
सबसे बड़ा नगर एवं राजधानी होने के कारण, जकार्ता में इंडोनेशिया के सभी हिस्सों से विद्यार्थी आते हैं। आधारभूत शिक्षा के लिए कई प्राथमिक एवं माध्यमिक शालायें हैं, जो सार्वजनिक, निजी एवं अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में वर्गीकृत की गई हैं।
एशिया में राजधानियाँ
इण्डोनेशिया के आबाद स्थान
राजधानी ज़िले और क्षेत्र |
बेतिया (बेटीयाह) भारत के बिहार राज्य के पश्चिमी चम्पारण ज़िले में स्थित एक नगर है। यह इसी नाम के सामुदायिक विकास खंड का मुख्यालय भी है।
बेतिया का प्रशासन महापौर-परिषद व्यवस्था से करा जाता है। साथ ही यह बेतिया राज की राजधानी है । पश्चिमी चंपारण जिला का मुख्यालय भी है। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित है। इसके पश्चिम में उत्तर प्रदेश का कुशीनगर जिला पड़ता है। 'बेतिया' शब्द 'बेंत' (कने) से व्युत्पन्न है जो कभी यहाँ बड़े पैमाने पर उत्पन्न होता था (अब नहीं)। अंग्रेजी काल में बेतिया राज दूसरी सबसे बड़ी ज़मींदारी थी जिसका क्षेत्रफल १८०० वर्ग मील थी। इससे उस समय २० लाख रूपये लगान मिलता था। इसका उत्तरी भाग ऊबड़-खाबड़ तथा दक्षिणी भाग समतल तथा उर्वर है। यह हरहा नदी की प्राचीन तलहटी में स्थित प्रमुख नगर है। यह मुजफ्फरपुर से १२४ किमी दूर है तथा पहले बेतिया जमींदारी की राजधानी था। यहाँ के दर्शनीय स्थल:-[१] बेतिया राज का महल [२] उदयपुर पक्षी उद्यान [३] सागर पोखरा [४]काली मंदिर [५] दुर्गा मंदिर [६] सरया मन दर्शनीय है। महात्मा गांधी ने बेतिया के हजारी मल धर्मशाला में रहकर सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी। १९७४ के संपूर्ण क्रांति में भी बेतिया की अहम भुमिका थी। यहां के अमवा मझार गांव के रहने वाले श्यामाकांत तिवारी ने जयप्रकाश नारायण के कहने पर पूरे जिले में आंदोलन को फैलाया। यह एक कृषि प्रधान क्षेत्र है जहाँ गन्ना, धान और गेहूँ सभी उगते हैं। यह गाँधी की कर्मभूमि और ध्रुपद गायिकी के लिए प्रसिध है। बेतिया से मुंबई फ़िल्म उद्योग का सफ़र तय कर चुके मशहूर फ़िल्म निर्देशक प्रकाश झा ने इस क्षेत्र के लोगों की सरकारी नौकरी की तलाश पर 'कथा माधोपुर' की रचना की।
वायु मार्ग- यहाँ का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा महारानी जानकी कुँअर राजकीय हवाई अड्डा है जो ३ किलोमीटर दूरी पर है | दुसरी तरफ २०४ किलोमीटर की दूरी पटना में है। तीसरी तरफ हवाई अड्डा गोरखपुर में है।
रेल मार्ग- बेतिया यहाँ का सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन है जहां से भारत के अधिकांश शहरों के लिए ट्रेन उपलब्ध है। यह बडी लाईन के द्वारा भारतिय रेल तंत्र से जुडा हुआ है।इसके दोहरीकरण की योजना है! मुजफ्फरपुर से मोतिहारी होते हुए नरकटियागंज तक मार्ग का
विद्युतीकरण हो चुका है। दोहरीकरण होना बाकी है जिसके लिए सरकार ने सहमति दे दी है...
सड़क मार्ग- यहाँ के सरकारी बस अड्डे से राजधानी पटना के अलावा देश के और भी जगहों के लिए बसें खुलती है।
इन्हें भी देखें
वाल्मीकि राष्ट्रीय अभयारण्य
पश्चिमी चम्पारण ज़िला
बिहार के शहर
पश्चिमी चम्पारण जिला
पश्चिमी चम्पारण ज़िले के नगर |
बाबूलाल मराण्डी (जन्म ११ जनवरी १९५८) एक भारतीय राजनीतिज्ञ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य हैं। वह झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और वर्तमान में झारखंड विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। वह झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वह १२वीं, १३वीं, १४वीं और १५वीं लोकसभा में मरांडी से सांसद भी रहे। वह १९९८ से २००० में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री थे।
इनका जन्म ११ जनवरी १९५८ को वर्तमान झारखण्ड के गिरिडीह जिले के कोदाईबांक नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम छोटे लाल मराण्डी तथा माता का नाम श्रीमती मीना मुर्मू है।
उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से भूगोल में स्नातकोत्तर किया।कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मराण्डी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। संघ से पूरी तरह जुड़ने से पहले मरांडी ने गाँव के स्कूल में कुछ सालों तक कार्य किया। इसके बाद वे संघ परिवार से जुड़ गए। उन्हें झारखण्ड क्षेत्र के विश्व हिन्दू परिषद का संगठन सचिव बनाया गया।
१९८३ में वह दुमका जाकर सन्थाल परगना डिवीजन में कार्य करने लगे। १९८९ में इनकी शादी शान्ति देवी से हुई। एक बेटा भी हुआ अनूप मराण्डी, जिसकी २७ अक्टूबर २००७ को झारखण्ड के गिरिडीह क्षेत्र में हुए नक्सली हमले में मौत हो गई।
१९९१ में मराण्डी भाजपा के टिकट पर दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। १९९६ में वह फिर शिबू शोरेन से हारे। इसके बाद भाजपा ने १९९८ में उन्हें विधानसभा चुनाव के दौरान झारखण्ड भाजपा का अध्यक्ष बनाया। पार्टी ने उनके नेतृत्व में झारखण्ड क्षेत्र की १४ लोकसभा सीटों में से १२ पर कब्जा किया।
१९९८ के चुनाव में उन्होंने शिबू शोरेन को सन्थाल से हराकर चुनाव जीता था, जिसके बाद एनडीए की सरकार में बिहार के ४ सांसदों को कैबिनेट में जगह दी गई। इनमें से एक बाबूलाल मराण्डी थे।
२००० में बिहार से अलग होकर झारखण्ड राज्य बनने के बाद एनडीए के नेतृत्व में बाबूलाल मराण्डी ने राज्य की पहली सरकार बनाई।
उस समय के राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार मराण्डी राज्य को बेहतर तरीके से विकसित कर सकते थे। राज्य की सड़कें, औद्योगिक क्षेत्र तथा राँची को ग्रेटर राँची बना सकते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई सराहनीय कदम उठाये। छात्राओं के लिए साइकिल की व्यवस्था, ग्राम शिक्षा समिति बनाकर स्थानीय विद्यालयों में पारा शिक्षकों की बहाली, आदिवासी छात्र छात्राओं के लिए प्लेन पायलट की प्रशिक्षण, सभी गाँवों, पंचायतों और प्रखण्डों में आवश्यकतानुसार विद्यालयों का निर्माण, राज्य में सड़कें, बिजली और पानी की उचित व्यवस्था के लिए अन्य योजनाओं की शुरुआत की। जनता को विश्वास होने लगा था झारखण्ड राज्य विकास की ओर अग्रेसित हो रहा है। हालाँकि मराण्डी उनके इस विश्वास को कम समय में पूरा नहीं कर सके और उन्हें जदयू के हस्तक्षेप के बाद सत्ता छोड़ अर्जुन मुण्डा को सत्ता सौंपनी पड़ी।
इसके बाद उन्होंने राज्य में एनडीए को विस्तार (विशेषकर राँची में) देने का कार्य किया। २००४ के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा सीट से चुनाव जीता, जबकि अन्य उम्मीदवार हार गए। मराण्डी ने २००६ में कोडरमा सीट सहित भाजपा की सदस्यता से भी इस्तीफा देकर 'झारखण्ड विकास मोर्चा' नाम से नई राजनीतिक दल बनाया।
भाजपा के ५ विधायक भी भाजपा छोड़कर इसमें शामिल हो गए। इसके बाद कोडरमा उपचुनाव में वे निर्विरोध चुन लिए गए। २००९ के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पार्टी की ओर से कोडरमा सीट से चुनाव लड़कर बड़ी जीत हासिल की।
-१९९१ में भाजपा के महामंत्री गोविन्दाचार्य ने भाजपा में शामिल किया
-१९९१ में पहली बार झामुमो के शिबू सोरेन के विरुद्ध दुमका लोकसभा से खड़े हुए, हार मिली।
-१९९६ में महज ५००० वोट से शिबू सोरेन से हारे
-१९९६ में पार्टी ने उन्हें वनांचल भाजपा का अध्यक्ष नियुक्त किया
-१९९८ के लोकसभा चुनाव में उन्हें शिबू सोरेन को हराने में सफलता पाई
-१९९९ के चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन की पत्नी रूपी सोरेन को दुमका से हराया
-१९९९ में अटल सरकार में उन्हें वन पर्यावरण राज्य मन्त्री बनाया गया
-२००० में झारखण्ड के पहले मुख्यमन्त्री चुने गए
-२००३ में दल के आन्तरिक विरोध के कारण उन्हें मुख्यमन्त्री पद त्यागना पड़ा।
-२००६ में झारखण्ड विकास मोर्चा नामक दल का गठन किया।
-२०१९ में धनवार विधानसभा जेवीएम पार्टी से इलेक्शन लड़े और बड़ी जीत हासिल किए इसके बाद श्री मरांडी ने अपनी जेवीएम पार्टी को भारतीय जनता पार्टी में विलय कर बीजेपी में ज्वॉइन हो गए
१९५८ में जन्मे लोग
झारखण्ड के मुख्यमंत्री
१४वीं लोक सभा के सदस्य
१५वीं लोकसभा के सदस्य
भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री |
विदर्भ महाराष्ट्र प्रांत का एक उपक्षेत्र है।
इस उपक्षेत्र में कुल ११ जिले है। महाराष्ट्र में कोयला खदान और मूल्यवान मँगणिज कि खदाने विदर्भ में हि बहुतायत में पाये जाते हैं। कोयला खदानो कि वजह से हि विदर्भ में चंद्रपूर, कोराडी, खापरखेडा, मौदा और तिरोडा में औष्णिक विद्युत निर्माण संयंत्र पाये जाते हैं। जिससे संपुर्ण महाराष्ट्र विद्युत आपूर्ती में लाभान्वित होता है।
इसके अलावा महाराष्ट्र कि ज्यादातर वनसंपदा विदर्भ क्षेत्र में हि मौजूद है।
इसके व्यतिरिक्त चावल उत्पादन में तुमसर मंडी विदर्भ में हि है जो महाराष्ट्र में सबसे बड़ी कृषी उत्पाद कि मंडी का सम्मान पाती है। प्रसिद्ध बासमती चावल का उत्पादन भी इसी क्षेत्र में होता है। विदर्भ के हि चंद्रपूर जिले में महाराष्ट्र के कुल सिमेंट कारखानो में सर्वाधिक कारखाने अकेले चंद्रपूर जिले में है। विदर्भ में मराठी और हिन्दी बोली जाती हैं। विदर्भ सन १९५६ तक मध्यप्रदेश प्रांत का उपक्षेत्र हुआ करता था। विदर्भ अब महाराष्ट्र प्रदेश में आता है, महाराष्ट्र में हरितक्रांती और श्वेत क्रांती गोरराजवंशी वसंतराव नाईक रणसोत ने लायी, वे विदर्भ के ही थे , जलक्रांती के नायक सुधाकरराव नाइक भी विदर्भ से आते है। विदर्भ से मारोतराव कन्नमवार , वसंंतराव नायक, सुधाकरराव नायक और देवेंद्र फडणवीस के रूप में मुख्यमंत्री मिले। और प्रतिभा देविसींग शेखावत के रुपमे देश को महिला राष्ट्रपती मिलने का सौभाग्य भी मिला।
महाराष्ट्र का भूगोल
विदर्भ, महाराष्ट्र राज्य का उत्तर पूर्वी प्रादेशिक क्षेत्र है, वर्तमान में इस क्षेत्र के अंतर्गत नागपुर और अमरावती दो डिवीजन है जिनके अंतर्गत महाराष्ट्र के नागपुर, अमरावती, चंद्रपुर, अकोला, वर्धा, बुलढाना, यवतमाल, भंडारा, गोंदिया, वाशिम, गढ़चिरौली जिले आते हैं।
नागपुर साल १८५३ से १८६१ तक 'नागपुर प्रॉविंस' की राजधानी रहा. इसके बाद मध्य प्रांत और बरार का साल १९५० तक. इसके बाद मध्य प्रदेश राज्य का जन्म हुआ और नागपुर एक बार फिर इसकी राजधानी बना. लेकिन १९६० में महाराष्ट्र राज्य के निर्माण के बाद इस शहर ने यह रुतबा खो दिया और तब से इसके रुतबे को वापस लाने के लिए एक आंदोलन जारी है.
वर्मा इसीलिए कहते हैं, "हम एक नए राज्य की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि नागपुर के खोए हुए दर्जे को वापस बहाल करने की मांग कर रहे हैं."
ग्यारहवीं शताब्दी में विदर्भ , धार के सम्राट परमार भोज के अधिन मालवा साम्राज्य का अंग था। इसलिये पँवार नरेश भोज को विदर्भराज कहाँ जाता था। भोज परमार के बाद भी विदर्भ पर भोज वंशीयो का राज्य रहा। |
तीस हजारी दिल्ली का एक "थाना क्षेत्र" है यहाँ दिल्ली जिला न्यायालय होने की वजह से तीस हजारी मशहूर है।
तीस हजारी, दिल्ली, दिल्ली मेट्रो रेल की रेड लाइन (दिल्ली मेट्रो) रेड लाइन शाखा का एक स्टेशन भी है।
दिल्ली के क्षेत्र |
अम्बाला (अंबाला) भारत के हरियाणा राज्य के अम्बाला ज़िले में स्थित एक नगर व नगरपालिका है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली, से लगभग २०० किमी उत्तर में है। यहाँ सिन्धु नदी का जलसम्भर क्षेत्र और गंगा नदी का जलसम्भर मिलता है, और अम्बाला पंजाब राज्य की सीमा से सटा हुआ है। राज्य सीमा के पार समीप ही पटियाला नगर है। अम्बाला लम्बे काल से भारतीय सेना की एक प्रमुख छावनी रही है ईऔर दो भागों में विभाजित है - अम्बाला छावनी और अम्बाला नगर, जो एक-दूसरे से लगभग ८ किमी दूर हैं। अम्बाला दो नदियों से घिरा है, उत्तर में घग्गर नदी और दक्षिण में टांगरी नदी। श्रीनगर से कन्याकुमारी जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग ४४ यहाँ से गुज़रता है। भौगोलिक स्थिति के कारण पर्यटन कें क्षेत्र में भी अम्बाला का महत्वपूर्ण स्थान है।
अम्बाला नाम की उत्पत्ति शायद महाभारत की अम्बालिका के नाम से हुई होगी। आज के जमाने में अम्बाला अपने विज्ञान सामग्री उत्पादन व मिक्सी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। अम्बाला को विज्ञान नगरी कह कर भी पुकारा जाता है कयोंकि यहां वैज्ञानिक उपकरण उद्योग केंद्रित है। भारत के वैज्ञानिक उपकरणों का लगभग चालीस प्रतिशत उत्पादन अम्बाला में ही होता है। एक अन्य मत यह भी है कि यहां पर आमों के बाग बगीचे बहुत थे, जिससे इस का नाम अम्बा वाला अर्थात् अम्बाला पड़ गया।
अम्बाला की स्थापना अम्बा नामक राजपूत शाशक ने की कुछ लोगों का मानना है। अम्बाला अंबिका माता का मंदिर होने के कारण इसका नाम अंबाला पड़ा कुछ लोगों का मानना है कि यहाँ आम की पैदावार अधिक होती थी इस लिए इसे अम्बवाला कहा जाता था, जो अब अंबाला बन गया।
अंबाला नगर, सिंधु तथा गंगा नदी तंत्रो के बीच जल विभाजक पर स्थित है। अंबाला से सुंदरवन तक मैदान की लम्बाई १,८०० कि०मी० है। यहाँ से चण्डीगढ़ ४७किमी उत्तर, कुरुक्षेत्र ५०किमी दक्षिण, शिमला १48किमी पूर्वोत्तर, अमृतसर २६०किमी पश्चिमोत्तर और दिल्ली१98किमी दक्षिण में स्थित हैं।
अम्बाला छावनी में सनातन धर्म कालेज, आर्य कन्या महाविद्यालय, गांधी स्मारक कॉलेज तथा राजकीय महाविद्यालय स्थित हैं। एस डी कॉलेज में कार्यालय प्रबंधन के अध्यापन की व्यवस्था बी ए, बी कॉम तथा डिप्लोमा स्तर पर उपलब्ध है। इस विषय के अध्यापन की सुविधा मात्र सनातन धर्म कॉलेज, अम्बाला छावनी में ही है। संस्कृत के गहन अध्ययन के लिये अम्बाला छावनी में श्री दीवान कृष्ण किशोर सनातन धर्म आदर्श संस्कृत महाविद्यालय भी विद्यमान है। अम्बाला शहर में एम डी एस डी गर्ल्ज कॉलेज, डी ए वी कॉलेज तथा आत्मा नन्द जैन कॉलेज स्थित हैं। अम्बाला शहर में श्री आत्मानन्द जैन सीनियर सेकेन्डरी स्कूल, श्री आत्मानन्द जैन सीनियर मॉडल स्कूल, श्री आत्मानन्द जैन विजय वल्लभ स्कूल, गंगा राम सनातन धर्म स्कूल, एन एन एम डी स्कूल, डी ए वी पब्लिक स्कूल, पी के आर जैन स्कूल, चमन वाटिका, आर्य समाज सीनियर सेकेन्डरी स्कूल, स्प्रिन्ग्फ़ील्ड स्कूल और भी कई स्कूल हैं। अम्बाला शहर में दो राजकीय बहुतकनीकी संस्थान हैं। अम्बाला से २० मील दूर मुलाना में एम एम विश्वविधालय है।
कृषि और खनिज
अंबाला के पास आमों की खेती की जाती है।
यातायात और परिवहन
यह शहर अमृतसर और दिल्ली से सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। शहर से संलग्न अंबाला छावनी में रेलों के एक बड़े जंक्शन के साथ एक हवाई अड्डा भी है। साथ ही यह भारत की सबसे बड़ी छावनियों में से एक है।
उद्योग और व्यापार
अंबाला एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक शहर है। वैज्ञानिक उपकरणों, सिलाई मशीनों, मिश्रण यंत्रों (मिक्सर) और मशीनी औज़रों के निर्माण तथा कपास की ओटाई, आटा मिलों व हथकरघा उद्योग की दृष्टि से अंबाला छावनी व शहर, दोनों उल्लेखनीय हैं। एक महत्त्वपूर्ण कृषि मंडी होने के साथ अंबाला में एक सरकारी धातु कार्यशाला भी है।
अम्बाला में भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर भारत का प्रमुख वायु सेना मुख्यालय भी स्थित है। यहां पर पटेल पार्क, नेता जी सुभाष चंद्र पार्क, इन्दिरा पार्क तथा महावीर उद्यान स्थित हैं। इस पार्कों में स्थानीय नागरिक सुबह और शाम घूमने जाते हैं। मनोरंजन हेतु यहां पर निगार, कैपिटल, निशात तथा नावल्टी सिनेमाघर विद्यमान हैं। सेंट पॉल कैथेड्रल भी दर्शनीय है। अम्बाला से वैसे तो अनेक लघु पत्रपत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। पश्चिमोत्तर भारत का एक प्रमुख हिन्दी दैनिक पंजाब केसरी भी अम्बाला से प्रकाशित होता है।
अम्बाला छावनी, अम्बाला सदर तथा अम्बाला शहर तीन पृथक व स्तंत्रत स्थानीय निकाय यहां पर लोक प्रशासन हेतु स्थापित हैं। अंबाला शहर में प्रसिद्ध अम्बिका देवी मंदिर स्थित है। जोकि अंबाला शहर बैस स्टैंड से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर है । नवरात्रि में यहां बड़े मेले लगते है और मां अंबिका के दर्शनार्थ पंजाब,उत्तरप्रदेश और स्थानीय लोग आते है। अंबिका देवी का सम्बन्ध महाभारत काल से है। अंबिका देवी मन्दिर के समीप ही नोरंगराय तालाब स्थित है जिसके बीचोबीच विष्णु जी के अवतार वामन भगवान की प्रतिमा स्थापित है । जहा वामन द्वादशी तिथि को बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।
इन्हें भी देखें
अम्बाला कैंट जंक्शन रेलवे स्टेशन
अम्बाला लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र
अम्बाला एयर फ़ोर्स स्टेशन
हरियाणा के शहर
अम्बाला ज़िले के नगर
भारतीय सेना की छावनियाँ |
पानीपत (अँग्रेज़ी: पानीपत) भारत के हरियाणा राज्य के पानीपत ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। कोरवो और पांडुवो में मध्य महाभारत का युद्ध पानीपत के लिए हुआ था , पांडुवों ने चार अन्य गांवों के साथ पानीपत की मांग कौरवों से की थी पर कौरवों ने सुई की नोक के बराबर भी हिस्सा देने से मना कर दिया था ल सन् १५२६, १५५६ और १७६१ में तीन महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए थे। पानीपत की भाषा हरियाणवी हैं। पानीपत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का एक हिस्सा हैं।
पानीपत एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है। पानीपत का प्राचीन नाम 'पाण्डवप्रस्थ' था। यह दिल्ली-चंडीगढ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली के अन्तर्गत आता है और दिल्ली से ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
पानीपत को पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के साथ ही बसाया था, पानीपत का किला अर्जुन द्वारा बनवाया गया था (एच ए बरारी) तब पानीपत को पनप्रस्त या पांडवप्रस्त के नाम से जाना जाता था । पानीपत को दोबारा राजा दंडपाणी ने ईसा से ७०७ साल पहले फिर बसाया इसका नाम पानीपथ पड़ा (सर सैय्यद अहमद खान) ।
पांडवों का पानीपत में लिखा है कि पानीपत नगर पहले सिर्फ किले के अंदर बसा था । यह किला पांडवों द्वारा निर्मित था जो १८५७ तक मौजूद था । जिसे १८५७ की क्रांति के बाद ढाया गया जिसके अवशेष आज भी मौजूद है । किले पर एक तोप भी थी जिसे बाद में दिल्ली ले जाया गया । आशियाईक सोसायटी ऑफ इंडिया बंगाल के १८६८ के रिसर्च पेपर में पानीपत हस्तीनापुर और अन्य कई महाभारतकालीन किलो की ईंटो की बनावट पर शोध करके लिखा है कि ईंटों के साइज माप और बनावट से यह किला भी महाभारत काल का बना हुआ है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार पानीपत के किले पर भगवान हरिहर का मंदिर था जिसे गुलाम वंश का शासन होने पर तोड़ा गया था, बाद में भगवान हरिहर की प्रतिमा देवी मंदिर के पास सरोवर से खुदाई में मिली । किले पर कई जैन मंदिर भी थे । जैन धर्म के संबंधित साहित्य के अनुसार उस समय पानीपत को पानीपथ दुर्ग भी कहा जाता था । पानीपत के लिए एक ही लड़ाई हुई जिसे महाभारत का युद्ध कहा जाता है । पानीपत के आखिरी हिंदू राजा जो तोमर (तंवर) वंश का था को परिवार सहित बलबन के समय धोखे से मार दिया गया । किले में काम करने वाले कुम्हारों ने जो परिवार सहित किले में थे राजा की गर्भवती पोत्रवधु को छिपा लिया इस कारण उसकी जान बच गई यह ज्वालापुर (हरिद्वार के पास) के राजा की बेटी थी जिसे कुछ समय बाद किसी तरह से कुम्हारों ने उसके मायके ज्वालापुर पहुंचा दिया । वहां उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अमर सिंह था । जिसे किशोर अवस्था में पता चला कि वह तो पानीपत के राजा का पौत्र है तो वह पानीपत आया । जहां पर उसे उसकी अपनी जायदाद लौटने का लालच दिया या जान का हवाला, पानीपत के शेख सरफुद्दीन कलंदर ने अमर सिंह को कलमा पढ़वा कर धर्म परिवर्तन कर दिया और उसे नया नाम अमीरुल्ला खान दिया और बल्बन के नाम उसकी जमीन उसे देने का परवाना लिख दिया । पर बलबन तो पहले ही अमर सिंह के परिवार की जमीन पानीपत पर कब्जा करने में सहायता करने वाले तीन परिवारों के दे चुका था तो अमर सिंह के हाथ पूरा पानीपत न आकर सिर्फ चौथा भाग से भी कम ही आया । आज भी पानीपत में राजस्व विभाग के अनुसार जमीन की चार पट्टियाँ है । जो बलवन के समय से चली आ रही है ।
१ अंसार पट्टी
२ अफगान पट्टी
३ पानीपत तरफ मखदूम ज़ादगान पट्टी
४ पानीपत तरफ राजपूतान पट्टी
पानीपत में शेख शरफुद्दीन कलंदर जो पहले दिल्ली में काज़ी था बाद में पानीपत आया ने उस समय ३०० राजपूतों को मुसलमान बनाया । थे मेमोइर्स ऑफ सूफीस रिटएन इन इंडिया में लिखा है कि पानीपत में शेख शरफुद्दीन कलंदर जो पहले दिल्ली में काज़ी था बाद में पानीपत आया ने उस समय ३०० राजपूतों को मुसलमान बनाया ।
१५२६ में पानीपत में इब्राहिम लोधी के साथ विदेशी आक्रमणकारी बाबर के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए ग्वालियर का राजा विक्रमजित तोमर शहीद हो गया उसकी समाधी पानीपत में वर्तमान जीटी रोड पर आजकल सरकारी अस्पताल बना है के पास बनी हुई थी जिसे अंग्रेजो ने १८६६ में खुर्दबुर्द कर दिया जीटी रोड बनाते समय उसका नामोनिशान मिटा दिया गया । यह क्षेत्र को गंज शहीदा कहलाता था । यही राजा विक्रमजीत कोहिनूर हीरे का मालिक था । राजा विक्रमजीत के पानीपत में शहीद होने के उपरांत हमायूं ने आगरा में राजा जी की विधवा रानी से कोहिनूर हीरा छीन लिया ।
गुरु नानक देव जी भी पहली उदासी में दिल्ली बनारस जाते हुए पानीपत आए थे और नगर के बाहर एक कुएं पर रुके थे । इस स्थान पर आज एक गुरुद्वारा साहब बना हुआ है । आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद जी भी लुधियाना से दिल्ली जाते हुए कुछ समय के लिए पानीपत में ठहरे थे । वे डाक गाड़ी ( जिसमे घोड़े जुते होते थे ) से पानीपत आए । डाक गाड़ी पानीपत के पालिका बाजार के पास लाल बत्ती की तरफ स्थान पर रुकती थी । जहाँ वर्तमान में एक छोटा डाक खाना बना हुआ है । डाक गाड़ी रुकने पर स्वामी दयानंद ने पानीपत नगर के कुछ लोगो से वार्तालाप किया और अपने कार्य को बताया ।
१७६१ में जब मराठे पानीपत आए तो उन्होंने भगवान शंकर जी के मन्दिर में अपनी कुल देवी की स्थापना कर पूजा अर्चना की, यही शंकर जी का मंदिर आज देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है । बाद में १७६५ के आसपास मराठों ने यहां पर बड़ी पहाड़ मोहल्ले में रामचन्द्र जी का मंदिर भी बनवाया, जिसके नाम एक ५१ एकड़ जमीन (लगान फ्री) भी की । पानीपत के मथुरादास ने शंकर जी के मन्दिर के पास एक सरोवर का निर्माण करवाया । १८०३ में इस इलाके में अंग्रेजो ने काबिज होने के बाद पानीपत जो जिला मुख्यालय बनाया जिसका हेडक्वार्टर पांडव कालीन किला ही बना और किले पर ही कार्यालय बनाए गए ।
स्किनर हॉर्स के कर्नल जेम्स स्किनर की जमींदारी पानीपत में थी उसने अपने नाम से एक बसाया स्किनर पुर जिसे आज सिकंदरपुर गढ़ी ने नाम से जाना जाता है । बाद में कर्नल स्किनर के परिवार से इन गांव की जमींदारी पानीपत के एक धनवान परिवार ने खरीद ली ।
भारत के मध्य-युगीन इतिहास को एक नया मोड़ देने वाली तीन प्रमुख लड़ाईयां यहां लड़ी गयी थी। प्राचीन काल में पांडवों एवं कौरवों के बीच महाभारत का युद्ध इसी के पास कुरुक्षेत्र में हुआ था, अत: इसका धार्मिक महत्व भी बढ़ गया है। महाभारत युद्ध के समय में युधिष्ठिर ने दुर्योधन से जो पाँच स्थान माँगे थे उनमें से यह भी एक था। आधुनिक युग में यहाँ पर तीन इतिहासप्रसिद्ध युद्ध भी हुए हैं। प्रथम युद्ध में, सन् १५२६ में बाबर ने भारत की तत्कालीन शाही सेना को हराया था। द्वितीय युद्ध में, सन् १५५६ में अकबर ने उसी स्थल पर अफगान आदिलशाह के जनरल हेमू को परास्त किया था। तीसरे युद्ध में, सन् १७६१ में, अहमदशाह दुर्रानी ने मराठों को हराया था। यहाँ अलाउद्दीन द्वारा बनवाया एक मकबरा भी है। इसे बुनकरों की नगरी भी कहा जाता है। नगर में पीतल के बरतन, छुरी, काँटे, चाकू बनाने तथा कपास ओटने का काम होता है। यहाँ शिक्षा एवं अस्पताल का भी उत्तम प्रबंध है।
१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पानीपत की ऐतिहासिक भूमिका रही है। यहां के लोगो ने सबसे पहले अंग्रेजो को लगा देना बंद किया था। सबसे पहले गांव मांडी , नौल्था सहित आसपास के १६ गावों के नंबरदारो ने भूमि लगान इकठ्ठा करने से मना कर दिया और अंग्रेजो के कर्मचारियों के गावों में घुसने पर स्मपूर्ण रोक लगा दी और इक्कठे होकर सभी संग्राम में भाग लेने पहले रोहतक गए और उसके बाद अंग्रेजो से लड़ने दिल्ली वहां से २२ दिन बाद वापिस आए।
श्री सोम सन्तोश एजुकेशनल सोसाइटी, पानीपत - गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था।
एलीमेंट्री एंड टेक्निकल स्किल कौंसिल ऑफ़ इंडिया - गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क कंप्यूटर शिक्षा, नि:शुल्क ब्यूटी एंड वैलनेस एवं नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था।
गर्ग सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, पानीपत
दीक्षा एजुकेशनल एंड वेलफेयर सोसाइटी, पानीपत
गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क कंप्यूटर शिक्षा एवं नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था।
युवा एकता पानीपत संस्था जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिन प्रतिदिन सामाजिक कार्य कर रही हैं ।
एस डी कालेज, पानीपत
आई बी कालेज, पानीपत
आर्य कालेज, पानीपत
राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय,मांडी पानीपत
पानीपत इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्सटाईल एंड इंजिनयरिंग, समालखा
एशिया पैसिफ़िक इंस्टीट्यूट आफ़ इन्फ़ार्मेशन टेक्नालजी, पानीपत
एन सी कालेज आफ़ इंजिनयरिंग, इसराना
राजकीय आदर्श संस्कृति विद्यालय जी टी रोड
एमएएसडी पब्लिक स्कूल
बाल विकास विद्यालय, माडल टाऊन
केन्द्रीय विद्यालय, एनएफ़एल - अब बंद
डाक्टर एम के के आर्ये माडल स्कूल
एस डी विद्या मंदिर, हूड्डा
डी ए वी स्कूल, थर्मल
सेंट मेरी स्कूल
एस डी सीनीयर सेकेंडरी स्कूल
आर्य सीनियर सेकेंडरी स्कूल
आर्य बाल भारती पब्लिक स्कूल
एस डी माडर्न सीनियर सेकेंडरी स्कूल
एस डी बालिका विद्यालय
राणा पब्लिक स्कूल (शिव नगर)
प्रयाग इंटरनेशनल स्कूल
देवी मंदिर पानीपत के धार्मिक स्थान
देवी मंदिर पानीपत शहर, हरियाणा में स्थित है। देवी मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है। यह मंदिर पानीपत शहर का मुख्य मंदिर है तथा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। मराठो के आगमन से पहले यह शंकर जी का मंदिर था| सन १७०० के आसपास पानीपत के मथुरा दास नमक बनिए ने यहाँ पर एक पक्के सरोवर का निर्माण करवाया जिसे आजकल देवी तालाब कहते है यह देवी मंदिर के किनारे पर बना है | १७६१ में मराठो ने इस प्रांगण में अपनी कुल देवी की स्थापना की थी
यह मंदिर एक तालाब के किनारे स्थित है जोकि अब सुख गया है और इस सुखे हुए तालाब में एक उपवन का निर्माण किया गया है जहां बच्चे व बुर्जग सुबह-शाम टहलने आते है। इस पार्क में नवरात्रों के दौरान रामलीला का आयोजन भी किया जाता है जोकि लगभग १०० वर्षों से किया जाता रहा है।
देवी के मंदिर में सभी देवी-देवताओं कि मूर्तियां है तथा मंदिर में एक यज्ञशाला भी है। मंदिर का पुनः निर्माण किया गया है जो कि बहुत ही सुन्दर तरीके से किया गया है, जो भारतीय वास्तुकला की एक सुन्दर छवि को दर्शाता है। इस मंदिर में भक्त दर्शन के लिए लगभग पुरे भारत से आते है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास लगभग २५० वर्ष पुराना है इस मंदिर का निर्माण १८वीं शाताब्दी में किया गया था। १८वीं शताब्दी के दौरान, मराठा इस क्षेत्र में सत्तारूढ़ थे, मराठा योद्धा सदाशिवराव भाऊ अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए यहां आये थे। सदाशिवराव भाऊ अफगान से आया अहमदशाह अब्दाली जोकि आक्रमणकारी था, उसके खिलाफ युद्ध के लिए यहां लगभग दो महीने रूके थे। ऐसा माना जाता है कि सदाशिवराव को देवी की मूर्ति तालाब के किनारे मिली थी, तब सदाशिवराय ने यहां मंदिर बनाने का फैसला किया। ऐसा माना जाता है कि जब मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो देवी की मूर्ति को रात को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा गया था परन्तु सुबह मूर्ति उसी स्थान मिली थी जहां से उसे पाया गया था, तब यह निर्णय लिया गया कि मंदिर उसी स्थान पर बनाया जाये जहां देवी की मूर्ति मिली है। देवी मंदिर में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर दुर्गा पूजा व नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इस दिन मंदिर को फूलो व रोशनी से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है।
पानीपत के ही गाँव सींक पाथरी मे एक और मंदिर है जिसको पाथरी वाली माता के नाम से जाना जाता है।
गावं सींक में महाभारत कालीन यक्ष का प्राचीन मंदिर है इसी स्थान पर वही तालाब भी है जहाँ यक्ष ने युधिष्टर से सवाल किये थे
महाभारत के समय गावं पाथरी के स्थान पर गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी का निवास था
गावं चुलकाना में प्राचीन श्याम जी का मंदिर है
गावं मांडी पानीपत में प्राचीन गुगा वीर का मंदिर है इस स्थान पर नौवीं को मेला लगता है और इनामी दंगल का आयोजन होता है
पानीपत में भगवन हरिहर का मंदिर होता था जिसकी प्रतिमा देवी तालाब की खुदाई से प्राप्त हुई थी
पहली उदासी के समय गुरु नानक देव जी भी पानीपत आये थे। वही आज पहली पातशाही गुरुद्वारा बना हुआ है।
इन्हें भी देखें
अर्जुन, पांडु प्रस्त के संस्थापक किले का निर्माण किया
दण्डपाणी, पांडु प्रस्त से पानीपत नामकरण किया ७०७ बी.सी. पहले
रामचन्द्र लाल ,एक भारतीय गणितज्ञ, जन्म १८२१,पानीपत
भगवान दास केला , पत्रकार ,संपादक , राजा महेंद्र प्रताप के समाचार पत्र "प्रेम" के संपादक, जन्म २१अक्टूबर १८९० गांव बबैल, पानीपत
चौधरी रामकिशन घनगस - जन्म १० अक्तूबर १९४४, गांव मांडी के प्रसिद्ध समाजसेवी स्वर्गीय चौधरी रामकिशन घनगस भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है, वे जाट महासभा हरियाणा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी रहे थे ।
देशबन्धु गुप्ता, राजनीतिक स्वतंत्रता सेनानी, संपादक दैनिक तेज,
सलीम पानीपती- मौलाना सलीम पानीपती का जन्म पानीपत में हुआ। सलीम पानीपत उर्दू के प्रोफेसर, संपादक,शायर और प्रसिद्ध गद्यकार थे। सलीम साहब जीवन के बारे में मुंशी प्रेमचंद ने अपनी "किताब कलम,तलवार और त्याग" में लिखा है।
पंडित समर सिंह मलिक -आजादी के बाद विधायक बने गांव सींक के निवासी थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए काशी गए इस लिए जाट होकर पंडित कहलाए आर्य समाजी थे।
पानीपत का आधिकारिक जाल स्थल -अंग्रेजी में
हरियाणा के शहर
पानीपत ज़िले के नगर |
सोनीपत (सोनीपत) भारत के हरियाणा राज्य के सोनीपत ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
स्थापना व इतिहास
नई दिल्ली से उत्तर में ४३ किमी दूर स्थित इस नगर की स्थापना संभवतः लगभग १५०० ई.पू. में आरंभिक आर्यों ने की थी। यमुना नदी के तट पर यह शहर फला-फूला, जो अब १५ किमी पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गई है। हिन्दू महाकाव्य महाभारत में इसका 'स्वर्णप्रस्थ' के रूप में उल्लेख है। शहर में 'अब्दुल्ल नसीरुद्दीन की मस्जिद' (१२७२ में निर्मित), 'ख़्वाजा ख़िज़्र का मक़बरा (१५22 या १५25 ईसवी में निर्मित)' और पुराने क़िले के अवशेष है।यहाँ पर हिन्दुओं का बाबा धाम मंदिर प्रसिद्ध है। सोनीपत दिल्ली से अमृतसर को जोड़ने वाले रेलमार्ग पर स्थित है। लोग काम के लिए रोज़ाना सोनीपत से दिल्ली आते-जाते हैं।
जिला सोनीपत २२ दिसम्बर १९७२ को अस्तित्व में आया उस समय गोहाना और सोनीपत दो तहसीले थी। सोनीपत एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर है। इतिहासकारों के अनुसार १५०० ईसवी पूर्व इस नगर की स्थापना आर्यों द्वारा की गई थी और इसका नाम राजा सैन के नाम से सोनपत और बाद में सोनीपत बना। महाभारत काल में इस नगर का नाम स्वर्णप्रस्त था। कहा जाता है कि पांडवों ने महाभारत युद्ध को रोकने के लिए जिन पांच पतों की मांग की थी उनमें स्वर्णप्रस्त भी एक था। शेष चार पत थे पानीपत, इन्द्रपत या इन्द्रप्रस्त, बागपत, तिलपत। कहा जाता है कि पांडवों का खजाना भी इसी नगर में था।
वर्ष १८७१ में यहां स्थित टीले पर की गई खुदाई से प्राप्त १२०० ग्रीकों बैक्टेरियन्ज अवशेषों से प्रमाणित होता है की यह नगर सांतवीं शताब्दी तक ग्रीकों बैक्टेरियन्ज शासित रहा है। खुदाई के दौरान यहां से यौधेय काल के सिक्के तथा महाराजा हर्षवर्धन की तांबे से बनी एक मोहर प्राप्त हुई थी। वर्ष १८६६ में यहां से शोरा की मिट्टी से बनी पक्की प्रतिमा प्राप्त हुई थी।
११वीं शताब्दी में इस नगर पर जागीरदार दिपालहर का शासन था। १०३७ ईसवीं में गजनी के सुल्तान मसूद ने दिल्ली विजय पर जाते हुए रास्ते में जागीरदार दिपालहर को हराया था।
सोनीपत नगर एक ऊचें टीले पर बसा हुआ है जो पूर्व नगरों के ध्वस्त होने से बना है। पहले यमुना नदी इस नगर के साथ लगती हुई बहती थी परन्तु अब रास्ता बदलकर १७ किलोमीटर दूर बहने लगी है। नगर के उत्तर में शेरशाह सूरी के वंशज पठान का खिजर खां का मकबरा है। जिस पर कलात्मक कार्य दर्शनीय है। नगर के मध्य में एक विशाल दुर्ग के अवशेष देखने का मिलते है। इस दुर्ग के निकट ही एक ऐतिहासिक दरगाह सैयद नसिरूदीन (मामा भांजा) है। जिस का इस क्षेत्र में विशेष महत्व है। इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। कहते है कि इस दरगाह की स्थापना एक गौड ब्राह्मण हिन्दू राजा द्वारा शिव मन्दिर में की गई थी।
राजीव गांधी एजुकेशन सिटी
सोनीपत के कुंडली में "राजीव गांधी एजुकेशन सिटी (र्जेक)", उच्च शिक्षा संस्थानों की एक हब विकसित करने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (ईत) ने पहले से ही अपने दिल्ली परिसर के विस्तार के लिए ५० एकड़ जमीन का कब्जा ले लिया है। कई अन्य विश्वविद्यालयों ने भी अपने परिसर स्थापित करने के लिए अपनी परियोजनाओं को शुरू कर दिया है।
दीनबंधु छोटू राम यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ूड एंड टेक्नोलॉजी
ओ.प. जिंदल ग्लोबल कॉलेज
भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ूड टेक्नोलॉजी इंटरप्रेनियरशिप एंड मैनेजमेंट
दिल्ली से निकटता होने के कारण सोनीपत के औद्योगिक विकास का सहयोग मिला है।
सोनीपत ज़िला एक मैदानी इलाक़ा है। जिनके ८३ प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। गेहूँ और चावल प्रमुख फ़सलें है, अन्य फ़सलों में ज्वार, दलहन, गन्ना, बाजरा, तिलहन और सब्ज़ियां शामिल हैं।
कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग ९५ प्रतिशत हिस्सा नहरों और नलकूपों द्वारा सिंचित है।
सोनीपत देश के अग्रणी साइकिल निर्माताओं में से एक है। इसके अतिरिक्त अन्य उद्योगों के मशीनी उपकरण, सूती वस्त्र, होज़री, शक्कर, इस्पात पुनर्ढ़लाई, सिलाई मशीन के पुर्जे, परिवहन उपकरण तथा पुर्ज़े, क़ालीन, हथकरघा वस्त्र और हस्तशिल्प में पीतल व तांबे की वस्तुएं शामिल हैं।
२००१ की जनगणना के अनुसार जनसंख्या नगरपालिका क्षेत्र की २,१६,२13 थी। सोनीपत ज़िले की कुल जनसंख्या 1२,७८,८३० थी।
२०११ की जनगणना के अनुसार सोनीपत की कुल जनसंख्या २७८,१४९ थी, जिनमे १४८,३६४ पुरुष तथा १२९,७८५ महिलाए है।
इन्हें भी देखें
सोनीपत लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र
सोनीपत विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र, हरियाणा
हरियाणा के शहर
सोनीपत ज़िले के नगर |
तरन तारन साहिब (तर्न तरण साहब) भारत के पंजाब राज्य के तरन तारन ज़िले में स्थित एक नगर है। इस शहर का सिख धर्म में विशेष महत्व है। शहर की स्थापना पाँचवे गुरु, गुरु अर्जन देव जी, ने की थी।
इन्हें भी देखें
तरन तारन ज़िला
गुरु अर्जन देव जी
पंजाब के शहर
तरन तारन ज़िला
तरन तारन ज़िले के नगर |
हंस (स्वान) अनैटिडाए कुल के जलपक्षियों के सिग्नस (सायगन्स) वंश के पक्षी होते हैं। वर्तमान विश्व में इसकी ६ जीवित जातियाँ हैं, हालांकि इसकी कई अन्य जातियाँ भी थीं जो विलुप्त हो चुकी हैं। हंस का बत्तख और कलहंस से जीववैज्ञानिक सम्बन्ध है, लेकिन हंस इन दोनों से आकार में बड़े और लम्बी गर्दन वाले होते हैं। नर और मादा हंस आमतौर पर जीवन-भर के लिए जोड़ा बनाते हैं।
अपनी सुंदरता और लम्बी यात्राओं के लिए हंसों को कई संस्कृतियों में महत्व मिला है। भारतीय साहित्य में इसे बहुत विवेकी पक्षी माना जाता है। और ऐसा विश्वास है कि यह नीर-क्षीर विवेक (पानी और दूध को अलग करने वाला विवेक) से युक्त है। यह विद्या की देवी सरस्वती का वाहन है। ऐसी मान्यता है कि यह मानसरोवर में रहते हैं। हंसों को आजीवन जोड़ा बनाने के लिए भी प्रेम-सम्बन्ध और विवाह का प्रतीक माना गया है।
इन्हें भी देखें
साधारण पक्षी नाम |
शेरबहादुर देउवा (जन्म: १३ जून, १९४६) नेपाली कांग्रेस सभापति एवम् नेपालके पूर्व प्रधानमंत्री प्रधानमन्त्री हैं। उन्होने नेपाल के ४०वें प्रधानमंत्री के रूप में सन २०१७ में शपथ ली है।। वे १९९५ से १९९७ तक, फिर २००१ से २००२ तक, और २००४ से २००५ तक नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। देउवा का जन्म एक क्षत्रिय(राजपूत) जाति में हुआ है। बीबीसी पर प्रसारित कॉमन क्वेश्चन प्रोग्राम में पांच साल पहले प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउवा से सवाल पूछने के लिए मशहूर हुए सागर ढकाल संसदीय चुनाव लड़ने की तैयारी के साथ डडेल्धुरा पहुंच गए हैं.
उन्होंने कुछ समय पहले कहा था कि वह प्रधानमंत्री के खिलाफ डडेल्धुरा से संसदीय चुनाव लड़ेंगे। सागर, जिन्होंने घोषणा की है कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र से प्रधान मंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे, उसी की तैयारी के लिए दडेलधुरा पहुंच गए हैं, उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी दी।
उन्होंने सोशल नेटवर्क पर देउवा की ओर इशारा करते हुए लिखा, 'मैं इस पोस्ट के माध्यम से अपने दादाजी से अनुरोध करना चाहूंगा कि मेरे पोते के साथ डडेल्धुरा लोकल नाइट बस में मेरे प्रतिद्वंद्वी माननीय प्रधान मंत्री शेर बहादुर दादाजी के साथ हाथ पकड़ें। मैंने सुना है कि डडेल्धुरा के एक गरीब गांव से राजनीति में आए मेरे दादाजी ने मेरे जन्म से ही जमीन पर पैर नहीं रखा है।चुरलुम पारिवारिक जीवन में अकल्पनीय रूप से डूब गया है। डडेल्धुरा भी पांच साल में एक बार जाना पड़ता है। इस बार मैं उसे नीचे गिराने की कोशिश करूंगा। जमीन पर पोते के नेतृत्व में दादाजी का नेतृत्व किया जाएगा।
प्रारंभिक राजनीतिक कैरियर
देउवा ने अपने छात्र राजनीतिक जीवन की शुरुआत १९६५ में १९ वर्ष की आयु में की। उन्होंने १९६५ से १९६८ तक सुदूर-पश्चिमी छात्र समिति, काठमांडू के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। देउवा नेपाल छात्र संघ के संस्थापक सदस्य थे, जो नेपाली कांग्रेस का एक सहयोगी संगठन था। १९६० और १९७० के दशक में पंचायत व्यवस्था के खिलाफ काम करने के लिए उन्हें रुक-रुक कर नौ साल की जेल हुई। उन्होंने १९८० के दशक में नेपाली कांग्रेस की राजनीतिक सलाहकार समिति के समन्वयक के रूप में भी कार्य किया।
देउवा का जन्म दूर-पश्चिमी नेपाल (वर्तमान गण्यपधुरा ग्रामीण नगरपालिका) के डडेल्धुरा जिले के एक दूरदराज के गांव आशिग्राम में हुआ था। उन्होंने डॉ आरजू राणा देउवा से शादी की है। देउवा के पास कला और कानून में स्नातक की डिग्री है और उनके पास राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री है। नवंबर २०१६ में, देउवा को भारत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था।
१९९० के बाद का जन आंदोलन
१९९० के जन आंदोलन के बाद, देउवा १९९१ में डडेल्धुरा से प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गए; एक सीट जिसके बाद से उन्होंने हर चुनाव में कब्जा किया है। उन्होंने गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व वाले कैबिनेट में गृह मंत्री के रूप में कार्य किया। कोइराला द्वारा संसद भंग करने और १९९४ के मध्यावधि चुनावों में उनकी सरकार के हारने के बाद, देउवा नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता चुने गए। मनमोहन अधिकारी ने १९९५ में संसद को फिर से भंग करने की कोशिश की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया, देउवा को १९९५ में प्रधान मंत्री नियुक्त किया गया और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया। उनका प्रशासन, जो माओवादी विद्रोह की शुरुआत का गवाह था, मार्च १९९७ में गिर गया और लोकेंद्र बहादुर चंद ने उनका उत्तराधिकारी बना लिया, जिन्होंने अल्पसंख्यक गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया।
गिरिजा प्रसाद कोइराला के प्रधान मंत्री के रूप में इस्तीफे के बाद, देउवा ने सुशील कोइराला को हराकर नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता बने और जुलाई २००१ में दूसरी बार प्रधान मंत्री नियुक्त किए गए। प्रधान मंत्री के रूप में उनका दूसरा कार्यकाल शाही नरसंहार के तुरंत बाद शुरू हुआ। और माओवादी विद्रोह के चरम के दौरान, और देउवा का प्राथमिक कार्य विद्रोहियों के साथ बातचीत करना था। नवंबर २००१ में माओवादियों द्वारा बातचीत से हटने और सेना पर हमला करने के बाद, देउवा के संकट से निपटने के तरीके पर सवाल खड़ा हो गया। २००२ की शुरुआत में, नेपाली कांग्रेस की केंद्रीय समिति ने देउवा को आपातकाल की स्थिति को नवीनीकृत नहीं करने का निर्देश दिया। देउवा ने मई २००२ में संसद को भंग करने का अनुरोध करते हुए नए चुनाव कराने और अपनी अलग पार्टी, नेपाली कांग्रेस (डेमोक्रेटिक) पार्टी की स्थापना करने का अनुरोध किया। अक्टूबर २००२ में, जब देउवा ने चुनाव स्थगित करने की मांग की, तो राजा ज्ञानेंद्र ने उन्हें अक्षम होने के कारण बर्खास्त कर दिया। दो वर्षों में दो अन्य सरकारों के बाद, ज्ञानेंद्र ने २००४ में देउवा को प्रधान मंत्री के रूप में फिर से नियुक्त किया। लेकिन इसके तुरंत बाद, उन्हें १ फरवरी २००५ को राजा द्वारा फिर से पद से हटा दिया गया, जिन्होंने संविधान को निलंबित कर दिया और प्रत्यक्ष अधिकार ग्रहण किया। देउवा को जुलाई २००५ में भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत दो साल जेल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में १3 फरवरी २००६ को भ्रष्टाचार विरोधी संस्था द्वारा उन्हें सजा देने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था। सितंबर २००७ में, देउवा ने अपनी अलग पार्टी को भंग कर दिया और नेपाली कांग्रेस में फिर से शामिल हो गए।
'२००८ संविधान सभा चुनाव
१० अप्रैल २००८ को हुए संविधान सभा के चुनाव में, देउवा को नेपाली कांग्रेस द्वारा दादेलधुरा -१ और कंचनपुर -४ दोनों निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया था। उन्होंने दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की, और अपनी कंचनपुर -४ सीट छोड़ दी, जहां उनकी जगह यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के हरीश ठकुल्ला ने ले ली, जिसे उन्होंने उप-चुनाव के बाद आम चुनाव में हराया था। १5 अगस्त २००८ को संविधान सभा में आयोजित प्रधान मंत्री के लिए बाद के वोट में, देउवा को नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया था, लेकिन यूसीपीएन (माओवादी) के पुष्प कमल दहल ने उन्हें हराया था। देउवा को ११3 वोट मिले, जबकि दहल को ४6४ वोट मिले। २००८ में एथेंस, ग्रीस में आयोजित सोशलिस्ट इंटरनेशनल की २३ वीं कांग्रेस में, देउबा को संगठन का उपाध्यक्ष चुना गया, जो 20१2 तक सेवा कर रहा था। २००९ में, दहल के नेतृत्व वाली सरकार के पतन और पार्टी अध्यक्ष गिरिजा प्रसाद कोइराला के बीमार स्वास्थ्य के बाद, देउवा ने फिर से प्रधान मंत्री बनने के लिए नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता बनने के लिए अपनी उम्मीदवारी रखी, लेकिन था रामचंद्र पौडेल ने पराजित किया।
सुशील कोइराला की मृत्यु के बाद, देउवा पार्टी के तेरहवें आम सम्मेलन में नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, उन्होंने अपने अंतर-पार्टी प्रतिद्वंद्वी राम चंद्र पौडेल को हराकर लगभग ६०% वोट प्राप्त किए। अगस्त २०१६ में, देउवा ने पुष्प कमल दहल के साथ नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (माओवादी केंद्र) की गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए २०१७ के अंत में आम चुनावों की अगुवाई में नौ महीने के लिए एक समझौता किया। समझौते के अनुसार, वह था ७ जून २०१७ को चौथे कार्यकाल के लिए प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली। देउवा उस सरकार के प्रभारी थे जिसने २०१७ में विभिन्न चरणों में सभी तीन स्तरों (संसदीय, प्रांतीय और स्थानीय) के चुनाव सफलतापूर्वक आयोजित किए। उन्होंने १५ फरवरी २०१८ को इस्तीफा दे दिया। २०१७ के चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) के नेता केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया है।
वह १९९१, १९९४, १९९९ और २०१७ में डडेलधुरा १ से नेपाली कांग्रेस के टिकट पर प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गए। उन्होंने २००८ और 20१3 के संविधान सभा चुनावों में डडेलधुरा १ से जीत हासिल की। उन्होंने २००८ के सीए चुनाव में दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और जीता और अपनी कंचनपुर ४ सीट छोड़ दी।
नेपाल के प्रधानमन्त्री
१९४६ में जन्मे लोग |
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (, इसरो) भारत का राष्ट्रीय अंतरिक्ष संस्थान है जिसका मुख्यालय कर्नाटक राज्य के बंगलौर में है। संस्थान का मुख्य कार्यों में भारत के लिये अंतरिक्ष सम्बधी तकनीक उपलब्ध करवाना व उपग्रहों, प्रमोचक यानों, साउन्डिंग राकेटों और भू-प्रणालियों का विकास करना शामिल है।
१९६२ में एक समिति जिसका नाम 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) के रूप में इसकी स्थापना की गई थी। परंतु १५ अगस्त १९६९ को एक संगठन के रूप में इसका पुनर्गठन किया गया और इसे वर्तमान नाम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) कहकर बुलाया जाने लगा।
भारत का पहला उपग्रह, आर्यभट्ट, १९ अप्रैल १९7५ को सोवियत संघ के रॉकेट की सहायता अंतरिक्ष में छोड़ा गया था। इसका नाम महान गणितज्ञ आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया था । इसने ५ दिन बाद काम करना बन्द कर दिया था। लेकिन यह अपने आप में भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी।
७ जून 19७9 को भारत का दूसरा उपग्रह भास्कर जो ४४२ किलो का था, पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया।
१९८० में रोहिणी उपग्रह पहले भारत-निर्मित प्रक्षेपण यान एसएलवी-३ द्वारा कक्षा में स्थापित किया गया।
इसरो ने बाद में दो अन्य रॉकेट विकसित किए। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) और भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) ।
जनवरी २०१४ में इसरो सफलतापूर्वक जीसैट -१४ का एक जीएसएलवी-डी ५ प्रक्षेपण में एक स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग किया गया।
इसरो के वर्तमान निदेशक डॉ एस सोमनाथ हैं। आज भारत न सिर्फ अपने अंतरिक्ष संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है बल्कि दुनिया के बहुत से देशों को अपनी अंतरिक्ष क्षमता से व्यापारिक और अन्य स्तरों पर सहयोग कर रहा है।
इसरो ने २२ अक्टूबर २००८ को चंद्रयान-१ भेजा जिसने चन्द्रमा की परिक्रमा की। इसके बाद २४ सितम्बर 20१4 को मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाला मंगलयान (मंगल आर्बिटर मिशन) भेजा। सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश किया और इस प्रकार भारत अपने पहले ही प्रयास में सफल होने वाला पहला राष्ट्र बना।
दुनिया के साथ ही एशिया में पहली बार अंतरिक्ष एजेंसी में एजेंसी को सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा तक पहुंचने के लिए इसरो चौथे स्थान पर रहा।
भविष्य की योजनाओं मे शामिल जीएसएलवी एमके ई के विकास (भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए) उल्व, एक पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान, मानव अंतरिक्ष, आगे चंद्र अन्वेषण, ग्रहों के बीच जांच, एक सौर मिशन अंतरिक्ष यान के विकास आदि।
इसरो को शांति, निरस्त्रीकरण और विकास के लिए साल २०१४ के इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के लगभग एक वर्ष बाद इसने २९ सितंबर २०१५ को एस्ट्रोसैट के रूप में भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला स्थापित किया।
जून २०१६ तक इसरो लगभग २० अलग-अलग देशों के ५७ उपग्रहों को लॉन्च कर चुका है, और इसके द्वारा उसने अब तक १० करोड़ अमेरिकी डॉलर कमाए हैं।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान का इतिहास
भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने १८०४ में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने इसरो की खोज १९४५ में की थी।१९४७ में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई।
भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। १९५७ में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, १९६१ में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, १९६२ में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त किया
जापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। १९६२ में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। ये इंग्लैंड और रूस की तर्ज पर बनाये गये। फिर भी पहले दिन से ही, अंतरिक्ष कार्यक्रम की विकासशील देशी तकनीक की उच्च महत्वाकांक्षा थी और इसके चलते भारत ने ठोस इंधन का प्रयोग करके अपने अनुसंधित रॉकेट का निर्माण शुरू कर दिया, जिसे रोहिणी की संज्ञा दी गई।
भारत अंतरिक्ष कार्यक्रम ने देशी तकनीक की आवश्यकता, एवं कच्चे माल एवं तकनीक आपूर्ति में भावी अस्थिरता की संभावना को भांपते हुए, प्रत्येक माल आपूर्ति मार्ग, प्रक्रिया एवं तकनीक को अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न किया। जैसे जैसे भारतीय रोहिणी कार्यक्रम ने और अधिक संकुल एवं वृहताकार रोकेट का प्रक्षेपण जारी रखा, अंतरिक्ष कार्यक्रम बढ़ता चला गया और इसे परमाणु उर्जा विभाग से विभाजित कर, अपना अलग ही सरकारी विभाग दे दिया गया। परमाणु उर्जा विभाग के अंतर्गत इन्कोस्पार कार्यक्रम से १९६९ में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन किया गया, जो कि प्रारम्भ में अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत कार्यरत था और परिणामस्वरूप जून, १९७२ में, अंतरिक्ष विभाग की स्थापना की गई।
२००३ के दशक में डॉ॰ साराभाई ने टेलीविजन के सीधे प्रसारण के जैसे बहुल अनुप्रयोगों के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले कृत्रिम उपग्रहों की सम्भव्यता के सन्दर्भ में नासा के साथ प्रारंभिक अध्ययन में हिस्सा लिया और अध्ययन से यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि, प्रसारण के लिए यही सबसे सस्ता और सरल साधन है। शुरुआत से ही, उपग्रहों को भारत में लाने के फायदों को ध्यान में रखकर, साराभाई और इसरो ने मिलकर एक स्वतंत्र प्रक्षेपण वाहन का निर्माण किया, जो कि कृत्रिम उपग्रहों को कक्ष में स्थापित करने, एवं भविष्य में वृहत प्रक्षेपण वाहनों में निर्माण के लिए आवश्यक अभ्यास उपलब्ध कराने में सक्षम था। रोहिणी श्रेणी के साथ ठोस मोटर बनाने में भारत की क्षमता को परखते हुए, अन्य देशो ने भी समांतर कार्यक्रमों के लिए ठोस रॉकेट का उपयोग बेहतर समझा और इसरो ने कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (एस.एल.वी.) की आधारभूत संरचना एवं तकनीक का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। अमेरिका के स्काउट रॉकेट से प्रभावित होकर, वाहन को चतुर्स्तरीय ठोस वाहन का रूप दिया गया।
इस दौरान, भारत ने भविष्य में संचार की आवश्यकता एवं दूरसंचार का पूर्वानुमान लगते हुए, उपग्रह के लिए तकनीक का विकास प्रारम्भ कर दिया। भारत की अंतरिक्ष में प्रथम यात्रा १९७५ में रूस के सहयोग से इसके कृत्रिम उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण से शुरू हुयी। १९७९ तक, नव-स्थापित द्वितीय प्रक्षेपण स्थल सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से एस.एल.वी. प्रक्षेपण के लिए तैयार हो चुका था। द्वितीय स्तरीय असफलता की वजह से इसका १९७९ में प्रथम प्रक्षेपण सफल नहीं हो पाया था। १९८० तक इस समस्या का निवारण कर लिया गया। भारत का देश में प्रथम निर्मित कृत्रिम उपग्रह रोहिणी-प्रथम प्रक्षेपित किया गया।
सोवियत संघ के साथ भारत के बूस्टर तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का अमरीका द्वारा परमाणु अप्रसार नीति की आड़ में काफी प्रतिरोध किया गया। १९९२ में भारतीय संस्था इसरो और सोवियत संस्था ग्लावकास्मोस पर प्रतिबंध की धमकी दी गयी। इन धमकियों की वजह से सोवियत संघ ने इस सहयोग से अपना हाथ पीछे खींच लिया । सोवियत संघ क्रायोजेनिक लिक्वीड राकेट इंजन तो भारत को देने के लिये तैयार था लेकिन इसके निर्माण से जुड़ी तकनीक देने को तैयार नही हुआ जो भारत सोवियत संघ से खरीदना चाहता था।
इस असहयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत अमरीकी प्रतिबंधों का सामना करते हुये भी सोवियत संघ से बेहतर स्वदेशी तकनीक दो सालो के अथक शोध के बाद विकसित कर ली। ५ जनवरी २०१४ को, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान की डी५ उड़ान में किया
१९६० और १९७० के दशक के दौरान, भारत ने अपने राजनीतिक और आर्थिक आधार के कारण से स्वयं के प्रक्षेपण यान कार्यक्रम की शुरूआत की। १९६०-१९७० के दशक में, देश में सफलतापूर्वक साउंडिंग रॉकेट कार्यक्रम विकसित किया गया। और १९८० के दशक से उपग्रह प्रक्षेपण यान-३ पर अनुसंधान का कार्य किया गया। इसके बाद ने पीएसएलवी जीएसएलवी आदि रॉकेट को विकसित किया। हिंदुस्तान से जुड़ी कुछ अनसुनी और रोचक बातें एक भारतीय होने के नाते आपको भारत से जुड़ी यह बातें जरूर जान लेनी चाहिए वैसे तो भारत कि हर बात खास और रोमांचक होती है। चाहे वह बात भारत के इतिहास के बारे में हो या फिर संस्कृति के बारे में
उपग्रह प्रक्षेपण यान
उपग्रह प्रक्षेपण यानया एसएलवी (स्ल्व) परियोजनाभारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठनद्वारा १९७० के दशक में शुरू हुई परियोजना है जो उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकी विकसित करने के लिए की गयी थी। उपग्रह प्रक्षेपण यान परियोजना एपीजे अब्दुल कलाम की अध्यक्षता में की गयी थी। उपग्रह प्रक्षेपण यान का उद्देश्य ४०० किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचना और ४० किलो के पेलोड को कक्षा में स्थापित करना था।अगस्त १९७९ में एसएलवी-३ की पहली प्रायोगिक उड़ान हुई, परन्तु यह विफल रही।
संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान
संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (ऑगमेंटेड सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल)भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित एक पांच चरण ठोस ईंधन रॉकेट था। यह पृथ्वी की निचली कक्ष में १५० किलो के उपग्रहों स्थापित करने में सक्षम था।इस परियोजना को भू-स्थिर कक्षा में पेलोड के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए १९८० के दशक के दौरान भारत द्वारा शुरू किया गया था।इसका डिजाइनउपग्रह प्रक्षेपण यानपर आधारित था
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यानयापी.एस.एल.वीभारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठनद्वारा संचालित एक उपभोजित प्रक्षेपण प्रणाली है।भारतने इसे अपनेसुदूर संवेदी उपग्रहकोसूर्य समकालिक कक्षामें प्रक्षेपित करने के लिये विकसित किया है। पीएसएलवी के विकास से पूर्व यह सुविधा केवलरूसके पास थी। पीएसएलवी छोटे आकार केउपग्रहोंकोभू-स्थिर कक्षामें भी भेजने में सक्षम है। अब तक पीएसएलवी की सहायता से ७०अन्तरिक्षयान(३० भारतीय + ४० अन्तरराष्ट्रीय) विभिन्न कक्षाओं में प्रक्षेपित किये जा चुके हैं।इससे इस की विश्वसनीयता एवं विविध कार्य करने की क्षमता सिद्ध हो चुकी है।
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान(अंग्रेज़ी:जियोस्टेशनरी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, लघु: जी.एस.एल.वी)अंतरिक्षमेंउपग्रहकेप्रक्षेपणमें सहायक यान है। जीएसएलवी का इस्तेमाल अब तक बारह लॉन्च में किया गया है, २००१ में पहली बार लॉन्च होने के बाद से २९ मार्च २०१८ को जीएसएटी -६ ए संचार उपग्रह ले जाया गया था। ये यान उपग्रह कोपृथ्वीकी भूस्थिर कक्षा में स्थापित करने में मदद करता है। जीएसएलवी ऐसा बहुचरण रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक भार के उपग्रह को पृथ्वी से ३६000 कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा की सीध में होता है। ये रॉकेट अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके तीसरे यानी अंतिम चरण में सबसे अधिक बल की आवश्यकता होती है। रॉकेट की यह आवश्यकता केवलक्रायोजेनिक इंजनही पूरा कर सकते हैं।इसलिए बिना क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवीरॉकेटका निर्माण मुश्किल होता है। अधिकतर काम के उपग्रह दो टन से अधिक के ही होते हैं। इसलिए विश्व भर में छोड़े जाने वाले ५० प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर निश्चित कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही इसकी की प्रमुख विशेषता है।हालांकिभूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण ३(जीएसएलवी मार्क ३) नाम साझा करता है, यह एक पूरी तरह से अलग लॉन्चर है।
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान मार्क ३
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण ३:जेऑसिंक्रॉनस सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल मार्क ३, और ग्सल्व मक३,जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लाँच वहीकल मार्क ३, याजीएसएलवी मार्क ३), जिसेलॉन्च वाहन मार्क ३(लम ३)भी कहा जाता है,भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन(इसरो) द्वारा विकसित एक प्रक्षेपण वाहन (लॉन्च व्हीकल) है।
भारत का पहला उपग्रह आर्यभट्ट सोवियत संघ द्वारा कॉसमॉस-३एम प्रक्षेपण यान से १९ अप्रैल १९75 को कपूस्टिन यार से लांच किया गया था। इसके बाद स्वदेश में बने प्रयोगात्मक रोहिणी उपग्रहों की श्रृंखला को भारत ने स्वदेशी प्रक्षेपण यान उपग्रह प्रक्षेपण यान से लांच किया। वर्तमान में, इसरो पृथ्वी अवलोकन उपग्रह की एक बड़ी संख्या चल रहा है।
इन्सैट (भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली) इसरो द्वारा लांच एक बहुउद्देशीय भूस्थिर उपग्रहों की श्रृंखला है। जो भारत के दूरसंचार, प्रसारण, मौसम विज्ञान और खोज और बचाव की जरूरत को पूरा करने के लिए है। इसे १९८३ में शुरू किया गया था। इन्सैट एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे बड़ी घरेलू संचार प्रणाली है। यह अंतरिक्ष विभाग, दूरसंचार विभाग, भारत मौसम विज्ञान विभाग, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन का एक संयुक्त उद्यम है। संपूर्ण समन्वय और इनसैट प्रणाली का प्रबंधन, इनसैट समन्वय समिति के सचिव स्तर के अधिकारी पर टिकी हुई है।
भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह शृंखला
भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह (आईआरएस) पृथ्वी अवलोकन उपग्रह की एक श्रृंखला है। इसे इसरो द्वारा बनाया, लांच और रखरखाव किया जाता है। आईआरएस श्रृंखला देश के लिए रिमोट सेंसिंग सेवाएं उपलब्ध कराता है। भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह प्रणाली आज दुनिया में चल रही नागरिक उपयोग के लिए दूरसंवेदी उपग्रहों का सबसे बड़ा समूह है। सभी उपग्रहों को ध्रुवीय सूर्य समकालिक कक्षा में रखा जाता है। प्रारंभिक संस्करणों १(ए, बी, सी, डी) नामकरण से बना रहे थे। लेकिन बाद के संस्करण अपने क्षेत्र के आधार पर ओशनसैट, कार्टोसैट, रिसोर्ससैट नाम से नामित किये गए।
राडार इमेजिंग सैटेलाइट
इसरो वर्तमान में दो राडार इमेजिंग सैटेलाइट संचालित कर रहा है। रीसैट-१ को २६ अप्रैल २0१२ को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान(सल्व) से सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र,श्रीहरिकोटा से लांच किया गया था। रीसैट-१ एक सी-बैंड सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) पेलोड ले के गया। जिसकी सहायता से दिन और रात दोनों में किसी भी तरह के ऑब्जेक्ट पर राडार किरणों से उसकी आकृति और प्रवत्ति का पता लगाया जा सकता था। तथा भारत ने रीसैट-२ जो २009 में लांच हुआ था। इसराइल से ११ करोड़ अमेरिकी डॉलर में खरीद लिया था।
११ दिसंबर २०१९ को इसरो ने पीएसएलवी सी-४८ रॉकेट के साथ रीसैट-२बीआर१ लॉन्च किया।
इसरो ने भूस्थिर प्रायोगिक उपग्रह की श्रृंखला जिसे जीसैट श्रृंखला के रूप में जाना जाता को भी लांच किया। इसरो का पहला मौसम समर्पित उपग्रह कल्पना-१ को १2 सितंबर २००२ को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान द्वारा लांच किया गया था। इस उपग्रह को मेटसैट-१ के रूप में भी जाना जाता था। लेकिन फरवरी २००३ में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्पेस शटल कोलंबिया में मारी गयी भारतीय मूल की नासा अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला की याद में इस उपग्रह का नाम कल्पना-१ रखा।
इसरो ने २५ फरवरी, २०१३ १२:३१ यूटीसी पर सफलतापूर्वक भारत-फ्रांसीसी उपग्रह सरल लांच किया। सरल एक सहकारी प्रौद्योगिकी मिशन है। यह समुद्र की सतह और समुद्र के स्तर की निगरानी के लिए इस्तेमाल की जाती है।
जून २०१४ में, इसरो ने पीएसएलवी-सी२३ प्रक्षेपण यान के माध्यम से फ्रेंच पृथ्वी अवलोकन उपग्रह स्पॉट-७ (७14 किलो) के साथ सिंगापुर का पहला नैनो उपग्रह वेलॉक्स-ई, कनाडा का उपग्रह कन-क्स५, जर्मनी का उपग्रह ऐसत लांच किये। यह इसरो का चौथा वाणिज्यिक प्रक्षेपण था।
गगन उपग्रह नेविगेशन प्रणाली
गगन अर्थात् जीपीएस ऐडेड जियो ऑगमेंटिड नैविगेशन को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया और इसरो ने ७५० करोड़ रुपये की लागत से मिलकर तैयार किया है। गगन के नाम से जाना जाने वाला यह भारत का उपग्रह आधारित हवाई यातायात संचालन तंत्र है। अमेरिका, रूस और यूरोप के बाद १० अगस्त 20१० को इस सुविधा को प्राप्त करने वाला भारत विश्व का चौथा देश बन गया।
पहला गगन नेविगेशन पेलोड अप्रैल २०१० में जीसैट-४ के साथ भेजा गया था। हालाँकि जीसैट-४ कक्षा में स्थापित नहीं किया जा सका। क्योंकि भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान डी३ मिशन पूरा नहीं हो सका। दो और गगन पेलोड बाद में जीसैट-८ और जीसैट-१० भेजे गए।
आईआरएनएसएस उपग्रह नेविगेशन प्रणाली
आईआरएनएसएस भारत द्वारा विकसित एक स्वतंत्र क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका नाम भारत के मछुवारों को समर्पित करते हुए नाविक रखा है। इसका उद्देश्य देश तथा देश की सीमा से १५०० किलोमीटर की दूरी तक के हिस्से में इसके उपयोगकर्ता को सटीक स्थिति की सूचना देना है। आईआरएनएसएस दो प्रकार की सेवाओं प्रदान करेगा। (१)मानक पोजिशनिंग सेवा और (२)प्रतिबंधित या सीमित सेवा। प्रतिबंधित या सीमित सेवा मुख्यत: भारतीय सेना, भारतीय सरकार के उच्चाधिकारियों व अतिविशिष्ट लोगों व सुरक्षा संस्थानों के लिये होगी। आईआरएनएसएस के संचालन व रख रखाव के लिये भारत में लगभग १6 केन्द्र बनाये गये हैं।
सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से आईआरएनएसएस-१ए उपग्रह ने १ जुलाई २०१3 रात ११:४१ बजे उड़ान भरी। प्रक्षेपण के करीब २० मिनट बाद रॉकेट ने आईआरएनएसएस-१ए को उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया। वर्तमान में सभी ७ उपग्रह को उनकी कक्षा में स्थापित किया जा चुका है। और ४ उपग्रह बैकअप के तौर पर भेजे जाने की योजना है।
दक्षिण एशिया उपग्रह
५ मई २०१७ को दक्षिण एशिया उपग्रह को श्रीहरिकोटा उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र से प्रक्षेपित कर दिया गया। यह उपग्रह पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सभी सार्क (सार्क) देशों के लिए एक उपहार के समान था। इस उपग्रह के द्वारा पडोसी देशों के हॉटलाइन से जल्दी संपर्क बनाने, टी.वी. प्रसारण,भारतीय सीमा पर हलचल को रोकना आदि कार्य किए जा सकते हैं।
अंतरिक्ष में भारत का १०४ उपग्रहों का प्रक्षेपण रिकॉर्ड
अंतरिक्ष में भारत की सबसे बड़ी कामयाबी, इसरो ने एक साथ रिकॉर्ड १०४ सैटेलाइट का प्रक्षेपण कर रचा इतिहास। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रक्षेपण यान पीएसएलवी ने १५/०२/२०१७ श्रीहरिकोटा स्थित अंतरिक्ष केन्द्र से एक एकल मिशन में रिकार्ड १०४ उपग्रहों का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। यहां से करीब १२५ किलोमीटर दूर श्रीहरिकोटा से एक ही प्रक्षेपास्त्र के जरिये रिकॉर्ड १०४ उपग्रहों का प्रक्षेपण सफलतापूर्वक किया गया। जानकारी के अनुसार, इन १०४ उपग्रहों में भारत के तीन और विदेशों के १०१ सैटेलाइट शामिल है। भारत ने एक रॉकेट से १०४ उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर इस तरह का इतिहास रचने वाला पहला देश बन गया है।
प्रक्षेपण के कुछ देर बाद पीएसएलवी-सी३७ ने भारत के काटरेसैट-२ श्रृंखला के पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह और दो अन्य उपग्रहों तथा १०३ नैनो उपग्रहों को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित कर दिया। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सफल अभियान को लेकर इसरो को बधाई दी है। इसरो के अनुसार, पीएसएलवी-सी३७-काटरेसेट २ श्रृंखला के सेटेलाइट मिशन के प्रक्षेपण के लिए उलटी गिनती बुधवार सुबह ५.२8 बजे शुरू हुई। मिशन रेडीनेस रिव्यू कमेटी एंड लांच ऑथोराइजेशन बोर्ड ने प्रक्षेपण की मंजूरी दी थी। अंतरिक्ष एजेंसी का विश्वस्त ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी-सी ३७) अपने ३९वें मिशन पर अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ताओं से जुड़े रिकॉर्ड १०४ उपग्रहों को प्रक्षेपित किया। प्रक्षेपण के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी बड़ी संख्या में रॉकेट से उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। भारत ने इससे पहले जून २0१५ में एक बार में ५7 उपग्रहों को प्रक्षेपण किया था। यह उसका दूसरा सफल प्रयास है। इसरो के वैज्ञानिकों ने एक्सएल वैरियंट का इस्तेमाल किया है जो सबसे शक्तिशाली रॉकेट है और इसका इस्तेमाल महत्वाकांक्षी चंद्रयान में और मंगल मिशन में किया जा चुका है।दोनों भारतीय नैनो-सेटेलाइट आईएनएस-१ए और आईएनएस-१बी को पीएसएलवी पर बड़े उपग्रहों का साथ देने के लिए विकसित किया गया था। अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों की नैनो-सेटेलाइटों का प्रक्षेपण इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स कॉपरेरेशन लिमिटेड की व्यवस्था के तहत किया जा रहा है।
मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम
मुख्य लेख- भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन अपने मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए १२४ अरब के बजट का प्रस्ताव किया। अंतरिक्ष आयोग के अनुसार जो बजट की सिफारिश की है। उसकी अंतिम मंजूरी के ७ साल के बाद ही एक मानव रहित उड़ान लांच की जाएगी। अगर घोषित समय-सीमा में बजट जारी किया गया। तो भारत सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद चौथा देश बन जाएगा। जो स्वदेश में ही सफलतापूर्वक मानव मिशन कर चुके है। भारत सरकार ने अक्टूबर २०१६ तक मिशन को मंजूरी नहीं दी है।
इसरो ने मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के लिए क्रांतिक प्रौद्योगिकियों पर विकास क्रियाकलाप शुरू किए हैं। मार्च २०१२ के आँकड़ों के अनुसार इस दिशा में आवंटित निधि १४५ करोड़ हैं। विभिन्न तकनीकी क्रियाकलापों लिए आवंटित निधि मुख्य शीर्षों के तहत है- क्रू माड्यूल प्रणाली (६१ करोड़), मानव अनुकूल और प्रमोचक राकेट (२७ करोड़), राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ अध्ययन (३६ करोड़) और वायु गतिकी विशिष्टीकरण एवं मिशन अध्ययन जैसे अन्य क्रियाकलाप के लिये (२१ करोड़)।
मुख्य लेख- स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट
स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट (एसआरई या सामान्यतः एसआरई-१) एक प्रयोगात्मक भारतीय अंतरिक्ष यान है। जो पीएसएलवी सी७ रॉकेट का उपयोग कर तीन अन्य उपग्रहों के साथ लांच किया गया था। यह पृथ्वी के वायुमंडल में फिर से प्रवेश करने से पहले १२ दिनों के लिए कक्षा में रहा और २२ जनवरी को ४:१6 जी.एम.टी. पर बंगाल की खाड़ी में नीचे उतरा। स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट-१ का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उपग्रह को पृथ्वी पर बापस उतरने की क्षमता का प्रदर्शन करना था। इसका यह भी उद्देश्य था। कि थर्मल सुरक्षा, नेविगेशन, मार्गदर्शन, नियंत्रण, गिरावट और तैरने की क्रिया प्रणाली, हाइपरसोनिक एयरो-ऊष्मा का अच्छी तरह से अध्ययन, संचार ब्लैकआउट का प्रबंधन और बापसी के संचालन का परीक्षण करना था। इसरो निकट भविष्य में एसआरई-२ और एसआरई-३ लांच करने की योजना बना रहा है। जो भविष्य के मानव मिशन के लिए उन्नत पुनः प्रवेश प्रौद्योगिकी के परीक्षण करेंगे।
अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण और अन्य सुविधाएं
इसरो मानवयुक्त वाहन पर उड़ान के लिए दल को तैयार करने के लिए बंगलौर में एक अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना करेगी। केंद्र में चयनित अंतरिक्ष यात्रियों को शून्य गुरुत्वाकर्षण में अस्तित्व, बचाव और वापिस के संचालन में प्रशिक्षित करने के लिए सिमुलेशन सुविधाओं का उपयोग किया जायेगा।
चालक दल के वाहन के विकास
भविष्य में आने वाली परियोजनाएं
इसरो ने निकट भविष्य में कई नई पीढ़ी के पृथ्वी अवलोकन उपग्रहों को लॉन्च करने की योजना बनाई है। इसरो नए लॉन्च वाहनों और अंतरिक्ष यान के विकास भी करेगा। इसरो ने कहा है कि वह मंगल और निकट के पृथ्वी ऑब्जेक्ट्स पर मानव रहित मिशन भेजेगा। इसरो ने २०१२-१७ के दौरान ५८ मिशनों की योजना बनाई है।
अन्य ग्रहों पर अन्वेषण
भविष्य के प्रक्षेपण यान
पुन: प्रयोज्य लॉन्च वाहन-प्रौद्योगिकी प्रदर्शनकार (आरएलवी-टीडी)
टू स्टेज टू ऑर्बिट (टीएसटीओ) पूरी तरह से पुन: उपयोग योग्य लॉन्च वाहन को साकार करने की ओर यह पहला कदम है। इसमें प्रौद्योगिकी प्रदर्शन मिशन की एक श्रृंखला की कल्पना की गई है। इस प्रयोजन के लिए एक विंग रीज्युलेबल लॉन्च वाहन टेक्नोलॉजी डेमॉन्स्ट्रेटर (आरएलवी-टीडी) कॉन्फ़िगर किया गया है। आरएलवी-टीडी विभिन्न तकनीकों जैसे, हाइपरसोनिक फ्लाईट, स्वायत्त लैंडिंग, पॉवर क्रूज फ्लाईट और एयर-श्वास प्रणोदन का उपयोग करते हुए हाइपरसॉनिक उड़ान के लिए उड़ान परीक्षण के रूप में कार्य करेगा। सबसे पहले प्रदर्शन परीक्षणों की श्रृंखला हाइपरसोनिक फ्लाइट प्रयोग (हेक्स) है।
भारत के भविष्य की अंतरिक्ष शटल का एक मानव रहित संस्करण, २० मई २०15 को थुम्बा में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) पर अंतिम रूप दिया गया। "आरएलवी-टीडी का 'अंतरिक्ष विमान' हिस्सा लगभग तैयार है। अब हम उसकी बाहरी सतह पर विशेष टाइलें लगाने की प्रक्रिया में हैं जो पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश के दौरान तीव्र गर्मी को बर्दाश्त करने के लिए आवश्यक है," वीएसएससी के निदेशक एम चंद्रनाथन ने कहा। इसरो ने फरवरी २०16 के लिए श्रीहरिकोटा स्पेसपोर्ट के पहले लॉन्चपैड से प्रोटोटाइप टेस्ट फ्लाइट करने की योजना बनाई। लेकिन निर्माण की समाप्ति के आधार पर तारीख को अंतिम रूप दिया गया। प्रस्तावित आरएलवी दो भागों में बनाया गया है; एक मानवयुक्त अंतरिक्ष विमान का एक एकल चरण , दूसरा बूस्टर रॉकेट ठोस ईंधन का उपयोग करने के लिए। बूस्टर रॉकेट एक्सपेंडेबल है, इसका उडान के बद्द उपयोग नहीं किया जायेगा। जबकि आरएलवी पृथ्वी पर वापस आ जाएगा और मिशन के बाद एक सामान्य हवाई जहाज की तरह जमीन उतरेगा।
प्रोटोटाइप- 'आरएलवी-टीडी' का वजन लगभग १.५ टन है और यह ७० किलोमीटर की ऊंचाई तक उड़ सकता है। हेक्स (हाइपरसोनिक फ्लाईट एक्सपेरिमेंट) को सफलतापूर्वक १:३० गम्त, २३ मई 20१6 को पूरा किया गया।
एकीकृत प्रक्षेपण यान
एकीकृत प्रक्षेपण यान (यूएलवी या यूनिफाइड लॉन्च वाहन), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकासित किया जा रहा एक प्रक्षेपण वाहन है। परियोजना के मुख्य उद्देश्य मॉड्यूलर आर्किटेक्चर को डिज़ाइन करना है जो कि पीएसएलवी, जीएसएलवी एमके १/२ और जीएसएलवी ३ आदि राकेट को लांचरों के एक परिवार के साथ प्रतिस्थापन करेगा।
अन्य ग्रहों पर अन्वेषण
पृथ्वी की कक्षा से बाहर के इसरो के मिशन में चंद्रयान-१ (चंद्रमा) और मंगल ऑर्बिटर मिशन मिशन (मंगल ग्रह) शामिल हैं। इसरो चंद्रयान-२ के साथ, वीनस और निकट-पृथ्वी वस्तुओं जैसे क्षुद्रग्रहों और धूमकेतु जैसे मिशनों का अनुसरण करने की योजना बना रहा है।
१२वीं पंचवर्षीय योजना, २०१२-१७ के दौरान इसरो ने ५८ अंतरिक्ष मिशनों के संचालन की योजना बनाई हैं, जिसके लिए अनंतिम रूप से ३९,७५० करोड़ रुपये के योजना परिव्यय की व्यवस्था की गई है। २०१२-१३ के दौरान ५,६१५ करोड़ रुपये की राशि आबंटित की गई।
१९६२: परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा अंतरिक्ष अनुसंधान के लिये एक राष्ट्रीय समिति का गठन और त्रिवेन्द्रम के समीप थुम्बा में राकेट प्रक्षेपण स्थल के विकास की दिशा में पहला प्रयास प्रारंभ।
१९६३: थुंबा से (२१ नवंबर, १९६३) को पहले राकेट का प्रक्षेपण
१९६५: थुंबा में अंतरिक्ष विज्ञान एवं तकनीकी केन्द्र की स्थापना।
१९६७: अहमदाबाद में उपग्रह संचार प्रणाली केन्द्र की स्थापना।
१९७२: अंतरिक्ष आयोग एवं अंतरिक्ष विभाग की स्थापना।
१९७५: पहले भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट का (अप्रैल १९, १९७५) को प्रक्षेपण।
१९७६: उपग्रह के माध्यम से पहली बार शिक्षा देने के लिये प्रायोगिक कदम।
१९७९: एक प्रायोगिक उपग्रह भास्कर - १ का प्रक्षेपण। रोहिणी उपग्रह का पहले प्रायोगिक परीक्षण यान एस एल वी-३ की सहायता से प्रक्षेपण असफल।
१९८०: एस एल वी-३ की सहायता से रोहिणी उपग्रह का सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापन।
१९८१: 'एप्पल' नामक भूवैज्ञानिक संचार उपग्रह का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण। नवंबर में भास्कर - २ का प्रक्षेपण।
१९८२: इन्सैट-१आ का अप्रैल में प्रक्षेपण और सितंबर अक्रियकरण।
१९८३: एस एल वी-३ का दूसरा प्रक्षेपण। आर एस - डी२ की कक्षा में स्थापना। इन्सैट-१ब का प्रक्षेपण।
१९८४: भारत और सोवियत संघ द्वारा संयुक्त अंतरिक्ष अभियान में राकेश शर्मा का पहला भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनना।
१९८७: ए एस एल वी का श्रोस-१ उपग्रह के साथ प्रक्षेपण।
१९८८: भारत का पहला दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस-१आ का प्रक्षेपण. इन्सैट-१च का जुलाई में प्रक्षेपण। नवंबर में परित्याग।
१९९०: इन्सैट-१ड का सफल प्रक्षेपण।
१९९१: अगस्त में दूसरा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-१ब का प्रक्षेपण।
१९९२: श्रोक्-च के साथ ए एस एल वी द्वारा तीसरा प्रक्षेपण मई महीने में। पूरी तरह स्वेदेशी तकनीक से बने उपग्रह इन्सैट-२आ का सफल प्रक्षेपण।
१९९३: इन्सैट-२ब का जुलाईमहीने में सफल प्रक्षेपण। पी एस एल वी द्वारा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-१ए का दुर्घटनाग्रस्त होना।
१९९४: मईमहीने में एस एस एल वी का चौथा सफल प्रक्षेपण।
१९९५: दिसंबर महीने में इन्सैट-२च का प्रक्षेपण। तीसरे दूर संवेदी उपग्रह का सफल प्रक्षेपण।
१९९६: तीसरे भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-प३ का पी एस एल वी की सहायता से मार्च महीने में सफल प्रक्षेपण।
१९९७: जून महीने में प्रक्षेपित इन्सैट-२ड का अक्टूबर महीने में खराब होना। सितंबर महीने में पी एस एल वी की सहायता से भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-१ड का सफल प्रक्षेपण।
१९९९: इन्सैट-२ए इन्सैट-२ क्रम के आखिरी उपग्रह का फ्रांस से सफल प्रक्षेपण। भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-प४ श्रीहरिकोटा परिक्षण केन्द्र से सफल प्रक्षेपण। पहली बार भारत से विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण : दक्षिण कोरिया के किटसैट-३ और जर्मनी के डी सी आर-टूबसैट का सफल परीक्षण।
२०००: इन्सैट-३ब का २२ मार्च, २००० को सफल प्रक्षेपण।
२००१: जी एस एल वी-ड१, का प्रक्षेपण आंशिक सफल।
२००२: जनवरी महीने में इन्सैट-३च का सफल प्रक्षेपण। पी एस एल वी-च४ द्वारा कल्पना-१ का सितंबर में सफल प्रक्षेपण।
२००४: जी एस एल वी एड्यूसैट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण।
२००८: २२ अक्टूबर को चन्द्रयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
२०१३: ५ नवम्बर को मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
२०१४ : २४ सितम्बर को मंगलयान (प्रक्षेपण के २९८ दिन बाद) मंगल की कक्षा में स्थापित, भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी-डी५) का सफल प्रक्षेपण (५ जनवरी २०१४), आईआरएनएसएस-१बी (०४ अप्रैल २०१४) व १ सी(१6 अक्टूबर २०१४) का सफल प्रक्षेपण, जीएसएलवी एमके-३ की सफल पहली प्रायोगिक उड़ान(१8 दिसंबर २०१४)
२०१५ - २९ सितंबर को खगोलीय शोध को समर्पित भारत की पहली वेधशाला एस्ट्रोसैट का सफल प्रक्षेपण किया।
२०१६ - २३ मई को पूरी तरह भारत में बना अपना पहला पुनर्प्रयोज्य अंतरिक्ष शटल (रियूजेबल स्पेस शटल) प्रमोचित किया।
२०१६ - २२ जून : पीएसएलवी सी-३४ के माध्यम से रिकॉर्ड २० उपग्रह एक साथ छोड़े गए।
२०१६ - २८ अगस्त: वायुमंडल प्रणोदन प्रणाली वाला स्क्रेमजेट इंजन का पहला प्रायोगिक परीक्षण सफल।
२०१६ - ०८ सितंबर: स्वदेश में विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज(सीयूएस) का पहली बार प्रयोग करते हुए जीएसएलवी-एफ०५ की सफल उड़ान के साथ इनसैट-३डीआर अंतरिक्ष में स्थापित।
१५ फरवरी २०१७ - एक साथ १०४ उपग्रह प्रक्षेपित करके विश्व कीर्तिमान बनाया। सल्व-च३७/कार्टोसात२ शृंखला उपग्रह मिशन में कार्टोसैट-२ के अलावा १०१ अन्तरराष्ट्रीय लघु-उपग्रह (नैनो-सैटेलाइट) और दो भारतीय लघु-उपग्रह इंश्य्-१आ तथा इंश्य्-१ब थे।
२२ जुलाई, २०२३ - चन्द्रयान-२ का सफल प्रक्षेपण
२३ अगस्त 20२३''' - चंद्रयान-३ का सफल अवतरण
इन्हें भी देखें
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण ३ (जीएसएलवी मार्क ३)
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी)
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान ( पीएसएलवी)
भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम
भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली
दक्षिण एशिया उपग्रह
इसरो का आधिकारिक वेबसाइट हिन्दी में* (अँग्रेजी में)
इसरो की उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम : हाल के सफल अभियान
बड़ी कामयाबी, इसरो ने रॉकेट तकनीक से बनाया कृत्रिम 'दिल' (अप्रैल २०१६)
इसरो की सस्ती लांचिंग से घबराए अमेरिकी उद्यमी (नई दुनिया ; अप्रैल २०१६)
विश्व के प्रमुख अंतरिक्ष संगठन |
सर दोराबजी टाटा (१८५९-१९३३ ई०) जमशेदजी टाटा के सबसे बड़े पुत्र थे।
सर दोराबजी जमशेदजी टाटा (१८५९ - १९३३ ई०) जमशेदजी नौसरवान जी के ज्येष्ठ पुत्र थे जो २९ अगस्त १८५९ ई. को बंबई में जन्मे। माँ का नाम हीराबाई था। १८७५ ई. में बंबई प्रिपेटरी स्कूल में पढ़ने के उपरांत इन्हें [इंग्लैंड]] भेजा गया जहाँ दो वर्ष वाद ये कैंब्रिज के गोनविल और कायस कालेज में भरती हुए। १८७९ ई. में बंबई लौटे और तीन वर्ष बाद बंबई विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त की।
अपने योग्य और अनुभवी पिता के निर्देशन में आपने भारतीय उद्योग और व्यापार का व्यापक अनुभव प्राप्त किया। पिता की मृत्यु के बाद आप उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने में जुट गए। १९०४ में अपने पिता जमशेदजी टाटा की मृत्यु के बाद अपने पिता के सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया। लोहे की खानों का ज्यादातर सर्वेक्षण उन्हीं के निर्देशन में पूरा हुआ। वे टाटा समूह के पहले चैयरमैन बने और १९०८ से १९३२ तक चैयरमैन बने रहे। साकची को एक आदर्श शहर के रूप में विकसित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही है जो बाद में जमशेदपुर के नाम से जाना गया। १९१० में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा नाईटहुड से सम्मानित किया गया था।
पिता की योजनाओं के अनुसार झारखण्ड में इस्पात का भारी कारखाना स्थापित किया और उसका बड़े पैमाने पर विस्तार भी किया। १९४५ ई. तक वह भारत में अपने ढंग का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना बन गया जिसमें १,२०,००० स्त्री और पुरुष काम करते थे और जिसकी पूँजी ५४,०००,००० पौंड थी।
सर दोराब जी ने एक ओर जहाँ भारत में औद्योगिक विकास के निमित्त पिता द्वारा सोची अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया, वहीं दूसरी ओर समाजसेवा के भी कार्य किए। पत्नी की मृत्य के बाद 'लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट' की स्थापना की जिसका उद्देश्य रक्त संबंधी रोगों के अनुसंधान ओर अध्ययन में सहायता करना था। शिक्षा के प्रति भी इनका दृष्टिकोण बड़ा उदार था। जीवन के अंतिम वर्ष में इन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने नाम से स्थाति ट्रस्ट को सार्वजनिक कार्यों के लिये सौंप दी। यह निधि १९४५ में अनुमानत: २,०००,००० पौंड थी जिसमें से आठ लाख पौंड की धनराशि विभिन्न दान कार्यो में तथा कैंसर के इलाज के लिए स्थापित टाटा मेमोरियल हास्पिटल, टाटा इंस्टिट्यटू ऑव सोशल साइंसेज और टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के कार्यों में खर्च की जा चुकी है।
अपनी सेवाओं के लिए इन्हें १९१० ई. में 'नाइट' की उपाधि भी मिली। १९१५ में ये इंडियन इंडस्ट्रियल कान्फरेंस के अध्यक्ष हुए, तथा १९१८ ई. तक इंडियन इंडस्ट्रियल कमीशन के सदस्य रहे।
इनका विवाह १८९७ में मेहरबाई से हुआ था जिनसे कोई संतान न हुई। उपर्युक्त ट्रस्ट की स्थापना के बाद ये अप्रैल, १९३२ में यूरोप गए। ३ जून १९३२ को किसिंग्रन में इनकी मत्यु हुई। इनका अवशेष इंगलैंड ले जाया गया जहाँ व्रकवुड के पारसी कब्रगाह में पत्नी की बगल में वह दफना दिया गया। |
यह भूटान के नगरों की सूची है।
नगर की जनसंख्या :९८,६७६
जिले का नाम:थिम्फू
नगर की जनसंख्या :२१,५००
जिले का नाम :पुनाखा
नगर की जनसंख्या :१८,६६७
जिले का नाम:चिरांग
नगर की जनसंख्या :१७,०४३
जिले का नाम: चूखा
नगर की जनसंख्या :१३,८६४
जिले का नाम: पेमागटशेल
नगर की जनसंख्या :१०,४१६
जिले का नाम : गेलेजफुग
नगर की जनसंख्या :७,50७
जिले का नाम : वांग्दी फोडरंग
८-नगर : सामद्रूप जोंगखार
नगर की जनसंख्या :७,50७
जिले का नाम: सामद्रूप जोंगखार
नगर की जनसंख्या:५,४७९
नगर की जनसंख्या:४,८२९
जिले का नाम: बुमथांग
श्रेणी :भूटान के नगर |
यह सूची रूस के नगरों की है। २००२ रूसी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, रूस में शहरों और कस्बों की कुल संख्या १,१08 हैं।
रूस के नगर |
जर्मनी में कुल नगर और कस्बों की संख्या २,०६४ (१ अप्रैल २0१3 के अनुसार) है। |
गोपालगंज (गोपालगंज) भारत के बिहार राज्य के गोपालगंज ज़िले में स्थित एक नगर है।
गोपालगंज सारन प्रमंडल अंतर्गत एक शहर एवं जिला है। गंडक नदी के पश्चिमी तट पर बसा यह भोजपुरी भाषी जिला ईंख उत्पादन के लिए जाना जाता है। मध्यकाल में चेरों राजाओं तथा अंग्रेजों के समय यह हथुवा राज का केंद्र रहा है। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख, बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री एवं भूतपूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद का गृह जिला है। थावे दुर्गा मंदिर , नेचुआ जलालपुर दुर्गा मंदिर, रामबृक्ष धाम,बुद्ध मंदिर, बेलवनवा हनुमान मंदिर,दिधवादुबौली सिंहासनी मंदिर,बहुरहवा शिव धाम(हथुआ),पुरानी किला(हथुआ),गोपाल मंदिर(हथुआ) प्रमुख दर्शनीय स्थल है। गोपालगंज उत्तर बिहार का अंतिम जिला है जो उत्तर प्रदेश के सीमा के समीप है। गोपालगंज मेंं १४ प्रखण्ड एव २३४ पंचायत है ।
वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर प्रस्थान किया। अग्नि ने उन्हे गंडक के पास अपने राज्य की स्थापना के लिए कहा जो विदेह कहलाया। आर्यों की एक शाखा सारन में बस गया। महाजनपद काल में यह प्रदेश कोशल गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह शक्तिशाली मगध के मौर्य, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। सारन में मिले साक्ष्य यह साबित करते हैं कि लगभग ३००० ईसा पूर्व में भी इस हिस्से में आबादी कायम थी। संभव है कि आर्यों के यहाँ आनेपर सत्ता संघर्ष हुआ हो। १३ वीं सदी में मुसलमान शासक ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा किया लेकिन इसके पूर्व चेरों साम्राज्य के राजा काफी समय यहाँ अपनी सत्ता तक कायम रखने में सक्षम रहे। शोरे के व्यापार के चलते सबसे पहले डचों का यहाँ आगमन हुआ लेकिन बक्सर युद्ध के बाद १७६५ में अंग्रेजों ने यहाँ अपना आधिपत्य कायम कर लिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गोपालगंज की भूमि आजादी की माँग के नारों के बीच उथल-पुथल भरा रहा। २ अक्टुबर १९७२ को यह सारन से अलग स्वतंत्र जिला बना।
गोपालगंज जिले का विस्तार २५० १२ से २६०३९ उत्तरी अक्षांश तथा ८३०५४ से ८४०५५ पूर्वी देशांतर के बीच है। गोपालगंज जिला के उत्तर में पूर्वी एवं पश्चिमी चंपारन, दक्षिण में सिवान एवं छपरा, पूर्व में मुजफ्फरपुर एवं पूर्वी चंपारन तथा पश्चिम में उत्तर प्रदेश का कुशीनगर जिला है। कुल क्षेत्रफल २०३३ वर्ग किलोमीटर है जहाँ लगभग २२ लाख लोग रहते हैं। गोपालगंज, बरौली, सिधवलिया, मीरगंज, भोरे , कटेया, सासामुसा एवं विजयीपुर यहाँ का मुख्य शहरी अधिवास है।
नदियाँ - गंडक, झरही, दाहा, खनुआ, तथा सारन
२०११ जनगणना के अनुसार -
कुल जनसंख्या- २,56२,01२
स्त्री-पुरुष अनुपात- १०२१ / १०००
ग्रामीण जनसंख्या- ९३.६५%
शहरी जनसंख्या- ६.३५%
अनुमंडल - गोपालगंज एवं हथुआ
प्रखंड - गोपालगंज, भोरे, माझा, उचकागाँव, कुचायकोट, कटेया, विजयपुर, बरौली, हथुआ, बैकुंठपुर, फुलवरिया, थावे, पंचदेवरी, एवं सिधवलिया
कृषि एवं उद्योग
गोपालगंज जिला एक समतल एवं उपजाऊ भूक्षेत्र है। गंडक नहर एवं इससे निकलने वाली वितरिकाएँ सिंचाई का मुख्य स्रोत है। चावल, गेहूँ, ईंख तथा मूंगफली जिले की प्रमुख फसलें हैं। चावल एवं रोटी ही लोगों का मुख्य भोजन है। गोपालगंज में कृषि आधरित उद्योग विकसित हुए हैं जिसमे चीनी मिल तथा दाल मिल के अलावे कुटीर उद्योग प्रमुख है। वर्तमान में ५ बड़े तथा ३० लघु उद्योग इकाईयाँ कार्यरत हैं। गोपालगंज, सिधवलिया, सासामुसा एवं हथुवा प्रमुख औद्योगिक केंद्र है।
प्राथमिक विद्यालय- २९०
माध्यमिक विद्यालय- १००
उच्चतर माध्यमिक विद्यालय- ८
डिग्री महाविद्यालय:- सभी ५ अंगीभूत महाविद्यालय जय प्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के अंतर्गत आते हैं।
व्यवसायिक शिक्षा:- पॉलिटेक्निक कॉलेज, औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र, एक्युप्रेशर काउंसिल, सैनिक स्कूल
थावे: गोपालगंज में थावे स्थित हथुवा राजा द्वारा बनवाया गया दुर्गा मन्दिर सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। जिला मुख्यालय से इसकी दूरी मात्र ५ किमी है। चैत्र महीने में यहाँ विशाल मेला लगता है। मंदिर के पास ही देखने योग्य एक विशाल पेड़ है जिसका वानस्पतिक वर्गीकरण नहीं किया जा सका है। मन्दिर की मूर्ति एवं विशाल पेड़ के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित है।
दिघवा दुबौली: गोपालगंज से ४० किलोमीटर दक्षिण-पूरब तथा छपरा मशरख रेल लाईन पर ५६ किलोमीटर उत्तर में दिघवा-दुबौली एक गाँव है जहाँ पिरामिड के आकार के दो टीले हैं ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये टीले यहाँ शासन कर रहे चेरों राजा द्वारा बनवाए गए थे
हुसेपुर: गोपालगंज से २४ किलोमीटर उत्तर-पचिम में झरनी नदी के किनारे हथवा महाराजा का बनवाया किला अब खंडहर की अवस्था में है। यह गाँव पहले हथुवा नरेश की गतिविधियों का केंद्र था। किले के चारों तरफ बने खड्ड अब भर चुके हैं। किले के सामने बने टीला हथुवा राजा की पत्नी द्वारा सती होने का गवाह है।
लकड़ी दरगाह: पटना के मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर लकड़ी की बहुत अच्छी कासीगरी की गयी है। रब्बी-उस-सानी के ११ वें दिन होनेवाले उर्स पर यहाँ भाड़ी मेला लगता है। कहा जाता है कि इस स्थान की शांति के चलते शाह अर्जन बस गए थे और उन्होंने ४० दिनों तक यहाँ चिल्ला किया था। * कुचायकोट गोपालगंज जिला का सबसे बडा प्रखण्ड है। कुचायकोट प्रखण्ड में बेलवनवा हनुमान मन्दिर, नेचुआ जलालपुर रामबृक्ष धाम ,बुद्ध मंदिर,दुर्गा मंंदिर, कुचायकोट बंगलामुखी माँ मन्दिर,सूर्य मंदिर, बंगरा शिवं मंंदिर प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है।
भोरे गोपाल गंज जिला का एक प्रखण्ड है। भोरे से २ किलोमीटर दक्षिण में शिवाला और रामगढ़वा डीह स्थित है। शिवाला में शिव का मंदिर व पोखरा है। रामगढ़वा डीह के बारे में यह मान्य़ता है कि यहाँ महाभारत काल के राजा भुरिश्वा की राजधानी थी। इस स्थान पर आज भी महलों के खण्डहरों के भग्नावशेष मिलते हैं तथा प्राचीन वस्तुएँ खुदाई के दौरान निकलती हैं। महाराज भुरिश्वा महाभारत के युद्ध में कौरवों के चौदहवें सेनापति थे। महाराज भुरिश्वा के नाम पर ही इस जगह का नाम भोरे पड़ गया।
हथुआ: यह गोपालगंज जिले का एक अनुमंडल हैं. बीच हथुआ में स्थित गोपालमंदिर हैं जहा पर एक पोखरा और संगीत महाविद्यालय हैं और एक मैरिज हॉल भी हैं। यह गोपालमंडिर शाम ४ बजे खुलता हैं। यहां पर कई सारे महाविद्यालय तथा प्राथमिक विद्यालय एवं माध्यमिक विद्यालय भी है। यहां पर गोपेश्वर महाविद्यालय सैनिक स्कूल तथा डॉ राजेंद्र प्रसाद हाई स्कूल+२ तथा इंपीरियल स्कूल भी है जो कि हथुआ के राजा का है है जोकि अत्यंत ही पर्यटन स्थान है। यहां पर गली मंडी के आगे एक पुराने किला भी है जोकि अत्यंत खूबसूरत जगह है। यहां पर एक बोरावा शिव धाम जो की बड़ा कोईरोली में स्थित है। यहां पर एक और धाम है जिसका नाम है बेलवती धाम है जोकि महाइचा में स्थित है यह अत्यंत ही खूबसूरत पर्यटन स्थान है यहां पर अनेक देवी देवताओं के मंदिर तथा उनकी खूबसूरत मूर्तियां हैं। तथा यहां पर एक हथवा पैलेस भी है जिसमें ३०० के आसपास रूम है जोकि अत्यंत खूबसूरत एवं पर्यटन का स्थान है।
यातायात एवं संचार व्यवस्था
गोपालगंज जिले से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग ८५ छपरा से सिवान होते हुए गोपालगंज जाती है। लखनऊ से शुरू होनेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग २८ जिले से गुजरते हुए मुजफ्फरपुर और बरौनी जाती है। राजकीय राजमार्ग संख्या ४५, ४७, ५३ तथा ९० की कुल लंबाई ५२ किलोमीटर है। सार्वजनिक यातायात मुख्यतः निजी बसों, ऑटोरिक्शा और निजी वाहनों पर आश्रित है।
दिल्ली-गुवाहाटी रेलमार्ग से हटकर छपरा से कप्तानगंज के लिए जानेवाली रेललाईन पर गोपालगंज एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह पूर्व मध्य रेलवे के सोनपुर मंडल में पड़ता है। जिले में थावे एक महत्वपूर्ण रेल जंक्शन है। थावे से सिवान के बीच बड़ी लाईन मौजूद है जो गोरखपुर जाती है। हथुआ से फुलवरिया एक नई रेल लाइन की शुरुआत हुई है। यहाँ से सिवान, छपरा, भटनी, वाराणसी (बनारस), गोरखपुर तक की रेलवे सेवा है।;वायु मार्ग:
गोपालगंज का नजदीकी हवाई अड्डा सबेया (हथुआ) में है, लेकिन यहाँ से विमान सेवाएँ उपलब्ध नहीं है। राज्य की राजधानी पटना में जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र नागरिक हवाई अड्डा है जहाँ से दिल्ली, कोलकाता, राँची आदि शहरों के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिसर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमान सेवाएँ उपलब्ध हैं। गोपालगंज से छपरा पहुँचकर राष्ट्रीय राजमार्ग १९ द्वारा २१५ किलोमीटर दूर पटना हवाई अड्डा जाया जाता है। एक और नजदीकी हवाई अड्डा उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में है, जो जिला मुख्यालय से लगभग १२० कि॰मी॰ है।
गोपालगंज में ४१ डाकघर तथा ११ टेलिग्राफ केंद्र है जहाँ से सभी प्रकार की डाक सेवाएँ उपलब्ध हैं।
गोपालगंज में ८ राष्ट्रीयकृत तथा २ सहकारी बैक है। भारतीय स्टेट बैंक तथा केनरा बैंक, पंजाब नैशनल बैंक एटीएम,द गोपालगंज सेन्ट्रल कोऑपरेटिव बैंक,एचडीएफसी बैंक,तथा युको बैंक के एटीएम है।
इन्हें भी देखें
गोपालगंज जिले का आधिकारिक बेवजाल
बिहार पर्यटन के बेवजाल पर गोपालगंज जिला
गोपालगंज में सड़क व्यवस्था
बिहार के शहर
गोपालगंज ज़िले के नगर |
मधेपुरा भारत के बिहार राज्य का जिला है। इसका मुख्यालय मधेपुरा शहर है। सहरसा जिले के एक अनुमंडल के रूप में रहने के उपरांत ९ मई १९८१ को उदाकिशुनगंज अनुमंडल को मिलाकर इसे जिला का दर्जा दे दिया गया। यह जिला उत्तर में अररिया और सुपौल, दक्षिण में खगड़िया और भागलपुर जिला, पूर्व में पूर्णिया तथा पश्चिम में सहरसा जिले से घिरा हुआ है। वर्तमान में इसके दो अनुमंडल तथा ११ प्रखंड हैं। मधेपुरा धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध जिला है। चंडी स्थान, सिंहेश्वर स्थान, बाबा बिशु राउत मंदिर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से हैं। यहाँ का रेल कारखाना पूरे भारत में प्रसिद्ध है।
मधेपुरा के नामकरण के संबंध में कई कहानियाँ हैं, हालाँकि इतिहासकारों द्वारा इसके नामकरण के संबंध में आम तौर पर दो स्वीकृत सिद्धांत हैं; एक मत यह है कि चूंकि मधेपुरा कोसी घाटी के मध्य में स्थित है, इसलिए इसे मध्यपुरा कहा जाता था, जो बाद में बदलकर मधेपुरा हो गया। दूसरा मत यह है कि कहा जाता है कि इस क्षेत्र में माधववंशियों (यादवों का शाखा) की बहुलता के कारण इसे माधवपुरा कहा जाता था जो कालान्तर में माधवपुरा से मधेपुरा बन गया।
प्राचीन काल में मधेपुरा मिथिला राज्य का हिस्सा था।
ऐसा माना जाता है कि पौराणिक काल में कोशी नदी के तट पर ऋषया श्रृंग का आश्रम था। ऋषया श्रृंग भगवान शिव के भक्त थे और वह आश्रम में भगवान शिव की प्रतिदिन उपासना किया करता था। श्रृंग ऋषि के आश्रम स्थल को श्रृंगेश्वर के नाम से जाना जाता था। कुछ समय बाद इस उस जगह का नाम बदलकर सिंघेश्वर हो गया। महाजनपद काल में मधेपुरा अंग महाजनपद का हिस्सा था। मौर्य वंश का भी यहां शासन रहा। इसका प्रमाण उदा-किशनगंज स्थित मौर्य स्तम्भ से मिलता है। गुप्त वंश के शासन काल में यह मिथिला प्रांत का हिस्सा रहा। मधेपुरा का इतिहास कुषाण वंश के शासनकाल से भी सम्बन्धित है। शंकरपुर प्रखंड के बसंतपुर तथा रायभीर गांवों में रहने वाले भांट समुदाय के लोग कुशान वंश के परवर्ती हैं।
मुगल काल में मधेपुरा सरकार तिरहुत के अधीन रहा। उदा-किशुनगंज अंतर्गत सरसंडी गांव में अकबर के समय की एक मस्जिद आज मौजूद है। इसके अतिरिक्त, सिकंदर साह ने भी जिले का दौरा किया था, जो साहुगढ़ गांव से मिले सिक्कों से स्पष्ट होता है।
मधेपुरा शहर से लगभग २२ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में स्थित श्रीनगर एक गांव है। इस गांव में दो किले हैं। माना जाता है कि इनसे से एक किले का इस्तेमाल राजा श्री देव रहने के लिए किया गया था। किले के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर दो विशाल कुंड स्थित है; पहले कुंड को हरसैइर और दूसर कुंड को घोपा पोखर् के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यहां एक मंदिर भी है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर में स्थित पत्थरों से बने स्तंभ इसकी खूबसूरती को और अधिक बढ़ाते हैं।
मधेपुरा के दक्षिण से लगभग २४ किलोमीटर की दूरी पर बसंतपुर गांव स्थित है। यहां पर एक किला है जो कि पूरी तरह से विध्वंस हो चुका है। माना जाता है कि यह किला राजा विराट के रहने का स्थान था।
सोनबरसा रेलवे स्टेशन से लगभग ९ किलोमीटर की दूरी पर बिराटपुर गांव है। यह गांव देवी चंडिका के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि इस मंदिर का सम्बन्ध महाभारत काल से है। ११वीं शताब्दी में राजा कुमुन्दानंद के सुझाव से इस मंदिर के बाहर पत्थर के स्तम्भ बनवाए गए थे। इन स्तम्भों पर अभिलेख देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही यहां पर दो स्तूप भी है। मंदिर के पश्चिम से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा टीला है।
कोशी नदी के मैदानों में स्थित इस जिले की स्थिति २५. ३४ - २६.०७ उत्तरी अक्षांश तथा ८६ .१९ से ८७.०७ पूर्वी देशान्तर के बीच है। इसके उत्तर में अररिया जिला तथा सुपौल जिला है तथा इसका उत्तरी छोर नेपाल से सिर्फ ६० कि॰मी॰ की दूरी पर है। पूर्व की दिशा में पूर्णियां जिला, पश्चिम में सहरसा तथा दक्षिण में खगड़िया तथा भागलपुर हैं।
यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। पटना से मधेपुरा २३४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
मधेपुरा रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन दौरम मधेपुरा है।
भारत के कई प्रमुख शहरों शहरों से मधेपुरा सड़कमार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर ३१ से होते हुए मधेपुरा पहुंचा जा सकता है।
यहाँ स्थित प्राचीन शिव मंदिर इस जिले का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषया श्रृंग के आश्रम में एक प्राकृतिक शिवलिंग उत्पन्न हुई थी। उस स्थान पर बाद में एक खूबसूरत मंदिर बना। एक व्यापारी जिसका नाम हरि चरण चौधरी था, ने वर्तमान मंदिर का निर्माण लगभग २०० वर्ष पूर्व करवाया था। यह शिवलिंग एक विशाल चट्टान पर स्थित है, जो कि करीबन १५-१६ फीट ऊंचा है। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है।
बाबा बिशु राउत मंदिर
मधेपुरा के चौसा प्रखंड सबसे अंतिम छोर पर अवस्थित बाबा बिशु राउत पचरासी धाम लोगो की आस्था का केंद्र है। यह मंदिर मधेपुरा से ६५ किलोमीटर व चौसा प्रखंड मुख्यालय से ७ किलोमीटर की दुरी पर है।
लोकदेव के रूप में चर्चित बाबा बिशु राउत का मंदिर पशु पलकों के लिए पूजन का महत्पूर्ण केंद्र माना जाता है। पचरासी धाम में भव्य मेला का आयोजन लगभग २०० (अनुमानित ) वर्षों से किया जा रहा है। वर्ष २०१५ में सूबे के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार मेला का उद्घाटन कर लोक देवता बाबा विशु की प्रतिमा पर दुधाभिषेक किया था। तत्कालीन पर्यटन मंत्री अशोक कुमार सिंह ने भी इसे पर्यटन का दर्जा देने की घोषणा की थी। इसके पूर्व लालू प्रसाद ने भी अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में कई बार इस मेला में पहुंच कर बाबा विशु राउत की प्रतिमा पर दुधाभिषेक करने के बाद आयोजित आम सभा में पचरासी स्थल को पर्यटन दर्जा देने की घोषणा किया था।
दुर्गा मंदिर, उदाकिशुनगंज
मनोकामना शक्ति पीठ के रुप में ख्याति प्राप्त उदाकिशुनगंज सार्वजनिक दुर्गा मंदिर न केवल धार्मिक और अध्यात्मिक बल्कि ऐतिहासिक महत्व को भी दर्शाता है। यहां सदियों से पारंपरिक तरीके से दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है। पूजा के दौरान कई देवी-देवताओं की भव्य प्रतिमा स्थापित की जाती है। मंदिर कमिटी और प्रशासन के सहयोग से विशाल मेले का भी आयोजन किया जाता है। अध्यात्म की स्वर्णिम छटा बिखेर रही सार्वजनिक दुर्गा मंदिर के बारे में कहा जाता है कि करीब २५० वर्षों से भी अधिक समय से यहां मां दुर्गा की पूजा की जा रही है। बड़े-बुजूर्गो का कहना है कि करीब २५० वर्ष पूर्व १८ वीं शताब्दी में चंदेल राजपूत सरदार उदय सिंह और किशुन सिंह के प्रयास से इस स्थान पर मां दुर्गा की पूजा शुरू की गयी थी। तब से यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहा है। उन्होंने कहा कि कोशी की धारा बदलने के बाद आनंदपुरा गांव के हजारमनी मिश्र ने दुर्गा मंदिर की स्थापना के लिए जमीन दान दी थी। उन्हीं के प्रयास से श्रद्धालुओं के लिए एक कुएं का निर्माण कराया गया था, जो आज भी मौजूद है। उदाकिशुनगंज निवासी प्रसादी मिश्र मंदिर के पुजारी के रुप में १७६८ ई में पहली बार कलश स्थापित किया था। उन्हीं के पांचवीं पीढ़ी के वंशज परमेश्वर मिश्र उर्फ पारो मिश्र वर्तमान में दुर्गा मंदिर के पुजारी हैं ।प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है।
महर्षि मेंही अवतरण भूमि, मझुआ
यहाँ स्थित भव्य सत्संग आश्रम इस जिले का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। यहाँ एक भव्य सत्संग आश्रम बना है, जो कि अत्यंत सुन्दर है. यहाँ संत शिशु सूरज जी बड़ी लगन से आश्रम का निर्माण करवाया।
२०वी सदी के महान संत महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का जन्म मझुआ नामक गांव में हुआ था। इनका जन्म २८-०४-१८८५ ईस्वी को नानाजी के यहाँ हुआ. इनकी माता जी का नाम जनकवती देवी था. स्व श्री चुमन लाल जी व् स्व श्री जय कुमार लाल दास जी इनके मामा जी थे. श्री कामेश्वर लाल दास जी इनके ममेरे भाई हैं, जो की जयकुमार लाल दास जी के सुपुत्र है।
प्रतिवर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष के चतुर्दसी के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है।
बी.पी. मंडल, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष भी रहे जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है।
बिहार के जिले |
यूरोपीय संघ (अंग्रेज़ी: यूरोपियन यूनियन)(यू) मुख्यत: यूरोप में स्थित २७ देशों का एक राजनैतिक एवं आर्थिक मंच है जिनमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रो पर लागू होती है। इसका अभ्युदय १ जनवरी १993 में रोम की संधि द्वारा यूरोपिय आर्थिक परिषद के माध्यम से छह यूरोपिय देशों की आर्थिक भागीदारी से हुआ था। तब से इसमें सदस्य देशों की संख्या में लगातार बढोत्तरी होती रही और इसकी नीतियों में बहुत से परिवर्तन भी शामिल किये गये। १992 में मास्त्रिख संधि द्वारा इसके आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गयी। दिसम्बर २००९ में लिस्बन समझौता जिसके द्वारा इसमें और व्यापक सुधारों की प्रक्रिया १ जनवरी २००८ से शुरु की गयी है।
यूरोपिय संघ सदस्य राष्ट्रों को एकल बाजार के रूप में मान्यता देता है एवं इसके कानून सभी सदस्य राष्ट्रों पर लागू होता है जो सदस्य राष्ट्र के नागरिकों की चार तरह की स्वतंत्रताएँ सुनिश्चित करता है:- लोगों, सामान, सेवाएँ एवं पूँजी का स्वतंत्र आदान-प्रदान.
संघ सभी सदस्य राष्ट्रों के लिए एक तरह की व्यापार, मतस्य, क्षेत्रीय विकास की नीति पर अमल करता है १९९९ में यूरोपिय संघ ने साझी मुद्रा यूरो की शुरुआत की जिसे पंद्रह सदस्य देशों ने अपनाया। संघ ने साझी विदेश, सुरक्षा, न्याय नीति की भी घोषणा की। सदस्य राष्ट्रों के बीच श्लेगन संधि के तहत पासपोर्ट नियंत्रण भी समाप्त कर दिया गया।
यूरोपिय संघ में लगभग ५० करोड़ नागरिक हैं, एवं यह विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का ३१% योगदानकर्ता है जो २००७ में लगभग (यूएस$१.६६ नील) था।
यूरोपीय संघ समूह आठ संयुक्त राष्ट्रसंघ एवं विश्व व्यापार संगठन में अपने सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करता है। यूरोपीय संघ के २१ देश नाटो के भी सदस्य हैं। यूरोपीय संघ के महत्वपूर्ण संस्थानों में यूरोपियन कमीशन, यूरोपीय संसद, यूरोपीय संघ परिषद, यूरोपीय न्यायलय एवं यूरोपियन सेंट्रल बैंक इत्यादि शामिल हैं। यूरोपीय संघ के नागरिक हर पाँच वर्ष में अपनी संसदीय व्यवस्था के सदस्यों को चुनती है।
यूरोपीय संघ को वर्ष २०१२ में यूरोप में शांति और सुलह, लोकतंत्र और मानव अधिकारों की उन्नति में अपने योगदान के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
द्वीतिय विश्व युद्ध के समाप्ति के बाद पश्चिमी यूरोप के देशों में एकता के पक्ष में माहौल बनना शुरु हुआ जिसे लोग अति राष्ट्रवाद, (जिसने कई राष्ट्रों को नेस्तनाबूद कर दिया था) के फलस्वरूप उपजे परिस्थितियों से पलायन के रूप में भी देखते हैं। यूरोप के एकीकरण का सबसे पहला सफल प्रस्ताव १९५१ में आया जब यूरोप के कोयला एवं स्टील उद्योग लाबी ने लामबंदी शुरु की। यह मुख्यतया सदस्य राष्ट्रों, खासकर फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी में कोयला और इस्पात उद्योगों को एकीकृत नियंत्रण में लाने का प्रयास था। ऐसा खासकर इसलिए सोचा गया ताकि इन दो राष्ट्रों में संघर्ष की स्थिति भविष्य में उत्पन्न न हो। इस लाबी के कर्ता धर्ता ने तभी इसे संयुक्त राज्य यूरोप की परिकल्पना के रूप में प्रचारित किया था। यूरोपीय संघ के अन्य संस्थापक राष्ट्रों में बेल्जियम, इटली, लक्जमबर्ग, एवं नीदरलैंड प्रमुख थे।
इस सांगठनिक प्रयास के बाद बाद १९५७ में दो संस्थायें गठित की गयी जिसमें यूरोपियन इकानामिक कम्यूनिटी एवं यूरोपीय परमाणु उर्जा कम्यूनिटी प्रमुख थे। इन संस्थाओं का उद्देश्य नाभीकिय उर्जा एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग करना था। १९६७ में उपरोक्त तीनों संस्थाओं का विलय होकर एक संस्था का निर्माण हुआ जिसे यूरोपियन कम्यूनिटी के नाम से जाना गया। (एक).
१९७३ में इस समुदाय में डेनमार्क, आयरलैंड एवं ब्रिटेन का पदार्पण हुआ। नार्वे भी इसी समय इसमें शामिल होना चाहता था लेकिन जनमत संग्रह के विपरित परिणामों के कारण उसे सदस्यता से वंचित रहना पड़ा। १९७९ में पहली बार यूरोपीय संसद का गठन हुआ और इसमें लोकतांत्रिक पद्धति से सदस्य चुने गये।
यूनान, स्पेन एवं पुर्तगाल १९८० में यूरोपीय संघ के सदस्य बने। १९८५ में श्लेगेन संधि संपन्न हुई जिसके बाद सदस्य राष्ट्रों के नागरिकों का एक-दूसरे के राष्ट्र में बगैर पासपोर्ट के आना जाना शुरु हुआ। १९८६ में यूरोपीय संघ के सदस्यों ने सिंगल यूरोपियन एक्ट पर हस्ताक्षर किये और संघ का झंडा वजूद में आया। १९९० में पूर्वी जर्मनीका पश्चिमी जर्मनी में एकीकरण हुआ।
मस्त्रिख की संधि १ नवंबर १993 से प्रभावी हुई। मस्त्रिख की संधि के बाद यूरोपियन कम्यूनिटिज अब आधिकारिक रूप से यूरोपियन कम्यूनिटी बन गया। जिसमें एकीकृत रूप से विदेश निती, पुलिस एवं न्याय व्यवस्था के मसलो पर एक जैजी नीतियाँ बनने लगीं।
१९९५ में इस संघ में आस्ट्रिया, स्वीडन एवं फिनलैंड भी आ जुड़े। १९९७ में मस्त्रिख संधि का स्थान एम्स्टर्डम संधि ने ले लिया जिसके बाद विदेश नीति एवं लोकतंत्र संबंधी नीतियों में व्यापक परिवर्तन हुए। एम्स्टर्डम के पश्चात २००१ में नीस की संधि आई जिससे रोम एवं मिस्त्रिख में हुई संधियों में सुधार किया गया जिससे पूर्व में संध के विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ। २००२ में यूरो को १२ सदस्य राष्ट्रों ने अपनी राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्वीकार किया। २००४ में दस नये राष्ट्रों का इसमें और जुड़ाव हुआ जो ज्यादातर पूर्वी यूरोप के देश थे। २००७ के प्रारंभ में रोमानिया एवं बुल्गारिया ने यूरोपीय संघ की सदस्यता ग्रहण की और स्लोवानिया ने यूरो को अपनाया। पहली जनवरी २००८ को माल्टा एवं साईप्रस ने भी यूरोपीय संघ में प्रवेश लिया।
यूरोपीय संघ के गठन के लिए २००४ में रोम में एक संधि पर हस्ताक्षर किए गये जिसका उद्देश्य पिछले सभी संधियों को नकार कर एकीकृत कर एकल दस्तावेज तैयार करना था। लेकिन ऐसा कभी संभव न हो सका क्योंकि इस उद्देश्य के लिए कराए गये जनमत सर्वेक्षण में फ्रांसिसी एवं डच मतदाताओं ने इसे नकार दिया। २००७ में एक बार फिर लिस्बन समझौता हुआ जिसमें पिछली संधियों को बगैर नकारे हुए उनमें सुधार किए गये। जनवरी २००९ से इस संधि के प्रावधानों को पूरी तरह लागू कर दिया गया।
२० फरवरी २०१६ को ब्रितानी प्रधानमंत्री डैविड कैमरन ने ब्रिटेन की यूरोपीय संघ में सदस्यता पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की। २३ जून को हुए इस जनमत संग्रह का परिणाम ब्रिटेन के युरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में आया।
इसे यूरोपीय संघ की एकता के लिए गहरे आघात के रूप में देखा गया। लिस्बन संधी के अनुसार ब्रिटेन के पास अलगाव की प्रक्रिया पूरी करने के लिए दो वर्ष का समय है।
यूरोपीय संघ में पहले २८ देश थे जिसमें ब्रिटेन ३१ जनवरी २०२० को बाहर निकल गया इस घटना को ब्रेक्जिट (ब्रेक्सिट)कहते हैं। २७ संप्रभु राष्ट्र हैं जो सदस्य राष्ट्रों के तौर पर जाने जाते हैं:- आस्ट्रिया, बेल्जियम, बुल्गारिया, साइप्रस, चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्तोनिया, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, हंगरी, आयरलैंड, ईटली, लातीविया, लिथुआनिया, लक्जमबर्ग, माल्टा, नीदरलैंड, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवानिया, स्पेन, स्वीडन,.कोएशिया इस समय तीन राष्ट्र आधिकारिक तौर पर इसकी सदस्यता की प्रतीक्षा में हैं, मकदूनिया एवं तुर्की; पश्चिमी बाल्कन राष्ट्र अल्बानिया, बोस्निया हर्जोगोविना, मांटीनीग्रो एवं सर्बिया आधिकारिक तौर पर संभावित सदस्य देशों के रूप में चिन्हित किये गये हैं।
यूरोपीय परिषद द्वारा यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए कोपेनहेगन पात्रता की शर्ते निर्धारित की गयी हैं, जिसके अनुसार: स्थायी लोकतंत्र जिसमें मानवाधिकारों एवं न्याय पर आधारित शासन व्यव्स्था हो; एक कार्यकारी बाजार व्यवस्था हो जो संघ के अंतर्गत प्रतियोगिता को बढावा देता हो; एवं संघ की नीतियों का पालन करने की वचनबद्धता शामिल है।
पश्चिम यूरोप के चार राष्ट्रों ने संघ की सदस्यता न लेकर आंशिक रूप से संघ की आर्थिक व्यवस्था में शामिल हैं जिनमें आइसलैंड, लीकटेन्स्टीन एवं नार्वे प्रमुख हैं, एवं स्वीटजरलैंड ने भी द्वीपक्षीय समझौते के तहत ऐसा स्वीकार किया है। यूरो का प्रयोग एवं अन्य सहयोग कर सकते हैं।
यूरोपीय संघ का भौगोलिक क्षेत्र २७ सदस्य देशों की भूमि है जिनमें कुछ अपवादीय स्थितियाँ शामिल हैं। यूरोपीय संघ का क्षेत्र पूरा यूरोप नहीं है चूँकि कुछ यूरोपीय देश जैसे स्वीटजरलैंड, नार्वे, एवं सोवियत रूस इसका हिस्सा नहीं हैं। कुछ सदस्य राष्ट्रों के भूमि क्षेत्र भी यूरोप का हिस्सा होते हुए भी संघ के भौगोलिक नक्शे में शामिल नहीं है, उदहारण के तौर पर चैनल एवं फरोर द्वीप के हिस्से। सदस्य देशों के वे हिस्से जो यूरोप का हिस्सा नहीं हैं वे भी यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा से परे माने गये हैं:- जैसे ग्रीनलैंड, अरूबा, नीदरलैंड के कुछ हिस्से और ब्रिटेन के वे सारे क्षेत्र जो यूरोप का हिस्सा नहीं हैं। कुछ खास सदस्य देशों का भौगोलिक क्षेत्र जो यूरोप का अंग नहीं है, फिर भी उन्हें यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा में शामिल माना गया है, उदहारण के तौर पर अजोरा, कैनरी द्वीप, फ्रेंच गुयाना, गुडालोप, मदेरिया, मार्तीनीक एवं रेयूनियोन.
यूरोपीय संघ की संयुक्त भौगोलिक सीमा ४४२२७७३ वर्ग किमी है। यूरोपीय संघ विश्व की भौगोलिक क्षेत्रीय सीमा के अनुसार सांतवी सबसे बड़ी है और इस सीमा के अंदर सबसे ऊँचा क्षेत्र आल्प्स पर्वत स्थित माउंट ब्लांक है जो समुद्रतल से ४८०७ मीटर ऊँचा है। यहाँ का भूक्षेत्र, यहाँ की जलवायु एवं यहाँ की अर्थव्यवस्था में इसकी ६५९९३ किमी लंबी तटरेखा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो कनाडा के बाद सबसे लंबी तटरेखा है।
यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा में (यूरोप से बाहर के देशों को मिलाकर) जलवायु के लिहाज से यहाँ का मौसम ध्रुवीय जलवायु से लेकरशीतोष्ण कटिबंधिय का अनुभव किया जा सकता है, इसलिए पूरे संघ के औसत मौसम की बात करना बेमानी होती है। व्यवहारिक तौर पर यूरोपीय संघ के ज्यादातर क्षेत्र में मेडिटेरेनियन (दक्षिणी यूरोप), विषुवतीय (पश्चिमी यूरोप) एवं ग्रीष्म (पूर्वी यूरोप) जलवायु पाया जाता है।
यूरोपीय संघ अपने कई प्रशासनिक एवं अन्य इकाइयों द्वारा संचालित होता है, जिनमें मुख्य रूप से काउंसिल ऑफ यूरोपियन यूनियन, यूरोपियन कमीशन, एवं यूरोपियन पार्लियामेंटसबसे प्रमुख हैं।
यूरोपीय आयोग संघ के प्रमुख कार्यकारी अंग के तौर पर काम करता है और इसके दैनंदिन कामों की जिम्मेवारी इसी पर होती है जिसे इसके २७ कमीश्नर संचालित करते हैं जो २७ सदस्य राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस आयोग के अध्यक्ष एवं सभी २७ प्रतिनिधि यूरोपीय परिषद द्वारा नामित किये जाते हैं। अध्यक्ष एवं सभी २७ प्रतिनिधियों की नियुक्ति पर यूरोपीय संसद की मंजूरी आवश्यक होती है।
यूरोपीय परिषद (यूरोपियन काउंसिल) जिसे काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स के नाम से भी जाना जाता है, के आधे सदस्य संघ की न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा होते है। न्यायिक कामों के अलावा परिषद विदेश एवं सुरक्षा नीतियों के कार्यान्वण एवं निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
यूरोपीय संघ में उच्च स्तर के राजनैतिक निर्णय के लिए नेतृत्व यूरोपीय काउंसिल अर्थात यूरोपीय परिषद द्वारा किया जाता है। यूरोपीय परिषद की बैठक साल में चार बार होती है एवं इसकी अध्यक्षता उस साल यूरोपीय संघ का अध्यक्ष राष्ट्रप्रमुख करता है जिसका मुख्य कार्य यूरोपीय संघ की नीतियों के अनुरूप काम करना एवं भविष्य के लिए दिशा निर्देश जारी करना होता है।
यूरोपीय संघ की अध्यक्षता का कार्य हर सदस्य देश के जिम्मे रोटेटिंग आधार पर छह महीने के लिए आता है, इस दौरान यूरोपियन काउंसिल एवं काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स के हर बैठक की जिम्मेवारी उस सदस्य राष्ट्र पर होती है। अध्यक्षता के दौरान अध्यक्ष राष्ट्र अपने खास एजेंडों पर ध्यान देता है जिसमे आम तौर पर आर्थिक एजेंडा, यूरोपीय संघ में सुधार एवं संघ के विस्तार एवं एकीकरण के मुद्दे खास होते हैं।
यूरोपीय संघ के न्यायिक प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा यूरोपीय संसद होती है। यूरोपीय संसद के सदस्य के ७८५ सदस्य हर पांच वर्ष में यूरोपीय संघ की जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं। हलांकि इन सदस्यों का चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर होता है परंतु यूरोपीय संसद में वे अपनी राष्ट्रीयता के अनुसार न बैठकर दलानुसार बैठते हैं। हर सदस्य राष्ट्र के लिए सीटों की एक निश्चित संख्या आवंटित होती है। यूरोपीय संसद को संघ के विधायी शक्तियों के मामलों में यूरोपीय परिषद की तरह ही शक्तियां हासिल होती हैं और संसद वे संघ की खास विधायिकाओं को स्वीकृत या अस्वीकृत करने की शक्ति से लैस होते हैं। यूरोपीय संसद का अध्यक्ष न सिर्फ बाहरी मंचों पर संघ का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि यूरोपीय संसद के स्पीकर का भी दायित्व निभाता है। अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव यूरोपीय संसद के सदस्य हर ढा़ई साल के अंतराल पर करते हैं।
कुछेक मामलों को छोडकर ज्यादातर मामलों में न्यायिक प्रक्रिया की शुरुआत करने का अधिकार युरोपियन कमीशन को होता है, ऐसा ज्यादातर रेग्यूलेशन, एवं संसद के अधिनियमों द्वारा किया जाता है जिसे सदस्य राष्ट्रों को अपने अपने देशों में लागू करने की बाध्यता होती है।
अक्सर यूरोपीय संघ की राजनीति को तीन तत्वों से सबसे ज्यादा संचालित माना जाता है जिसे "पिलर्स" या स्तंभ कहा जाता है। यूरोपीय कम्यूनिटी की पुरानी नीतियों को इसका पहला स्तंभ कहा जाता है, दूसरे स्तंभ के तौर पर संयुक्त विदेश एवं सुरक्षा नीति का नाम लिया जाता है जबकि तीसरा स्तंभ पहले तो न्यायिक एवं घरेलू मामलात हुआ करते थे लेकिन एम्सटर्डम एवं नीस के समझौतों के बाद पुलिस एवं आपराधिक मामलों में सहयोग पर ज्यादा केंद्रित हो गया है। मोटे तौर पर कहा जाए तो अंतर्षाट्रीय मामलों को देखते हुए दूसरा एवं तीसरा स्तंभ महत्वपूर्ण हो जाता है।
इस समय यूरोपीय संघ के समक्ष दो सबसे बडे़ मुद्दे हैं, वे हैं यूरोपीय एकीकरण एवं विस्तार। खासकर विस्तार, नये राष्ट्रों का यूरोपीय संघ में समावेश बडा़ राजनैतिक मुद्दा है। नये राष्ट्रों के समावेश का समर्थन करने वालों का मानना है कि इससे लोकतंत्र का विस्तार होता है एवं यूरोपीय अर्थव्यवस्था को भी संबल मिलता है। जबकि विरोध करनेवालों का मानना है कि यूरोपीय संघ अपनी वर्तमान राजनैतिक क्षमताओं एवं सीमाओं से परे एवं अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर जा रहा है जो इसके हित में नहीं है। जहां तक जनमत और राजनैतिक दलों का सवाल है, इस बारे में वे खासे सशंकित हैं खासकर २००४ में एक साथ दस नये सदस्य देश बनने के पश्चात और यह आशंका तुर्की की उम्मीद्वारी के बाद और भी बलवती हो गयी है।
एकीकरण एक दूसरा महत्वपूर्ण मसला है जहां अक्सर माना जाता है कि राष्ट्रीय भावनायें अक्सर यूरोपीय संघ के बृहत उद्देश्यों से टकराहट मोल लेती रहती है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच समन्वय का लक्ष्य अक्सर राष्ट्रीय शक्तियों को यूरोपीय संघ में विलयित करने को बाध्य करता है जिसकी आलोचना अक्सर यूरोस्केपिस्ट लोगों द्वारा संप्रभुता खोने का डर दिखाकर की जाती रहती है। सन २००४ में राष्ट्रीय नेताओं एवं यूरोपीय संघ के अधिकारियों द्वारा एक साझा यूरोपीय संविधान पर सहमति बनायी गयी थी लेकिन इसे दो सदस्य राष्ट्रों के जनमत सर्वेक्षण में खारिज कर दिये जाने के कारण लागू नहीं किया गया क्योंकि उन्हें डर था कि अन्य देशों में भी इसे खारिज कर दिया जाएगा। बाद में अक्टूबर २००७ में लिस्बन समझौते के बाद एक नया संविधान बनाया गया जिसमें ज्यादातर पुराने नियमों एवं प्रावधानों को ही रखा गया।
प्रस्तावित समझौते का २००९ में प्रभावी होना तय किया गया है। यदि यह सर्वस्वीकृत रहा तो इससे यूरोपीय संसद की शक्तियां काफी बढ जायेगी। इस समझौते के लागू होने से उपर उल्लेख किये गये पिलर्स भी निष्प्रभावी हो जायेंगे। विदेश नीति के बहुत से मुद्दे इससे विभिन्न राष्ट्रों के बीच सुलझाये जाने की बजाय सीधे सीधे यूरोपीय संघ की संस्थाओं द्वारा निर्देशित एवं संचालित होंगे।
यूरोपीय संघ का आधार विभिन्न ऐतिहासिक समझौते हैं, जिनसे पहले तो यूरोपीय संघ की स्थापना हुई और फिर उन समझौतों में तरह तरह के सुधार किये जाते रहे। ये समकझौते यूरोपीय संघ की बृहत नीतियों का आधार एवं उद्देश्य निर्धारित करती हैं तथा उन्हें आवश्यक विधायी शक्तियां प्रदान करती है। इन विधायी शक्तियों में किसी कानून को लागू करवाने की शक्ति जो सीधे-सीधे सभी सदस्य राष्ट्रों एवं उसके नागरिकों को प्रभावित करती है।
यूरोपीय संघ के २३ आधिकारिक एवं कार्यकारी भाषायें: बुल्गारियाई, चेक, डैनिश, डच, अंग्रेजी, एस्तोनियाई, फिनिश, फ्रेंच, जर्मन, यूनानी, हंगेरियाई, इतालवी, आयरिश, लातीवियाई, लिथुयानियाई, माल्टी, पोलिश, पुर्तगाली, रुमानियाई, स्लोवाक, स्लोवानियाई, स्पैनिश एवं स्वीडिश हैं।
यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष
यूरोपा यूरोपिय संघ का आधिकारिक जालस्थल
नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन
नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता |
विनयपत्रिका तुलसीदास रचित एक ग्रंथ है। यह ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है। विनय पत्रिका में २१ रागों का प्रयोग हुआ है। विनय पत्रिका का प्रमुख रस शांतरस है तथा इस रस का स्थाई भाव निर्वेद होता है। विनय पत्रिका अध्यात्मिक जीवन को परिलक्षित करती है। इस में सम्मलित पदों की संख्या २७९ है।
विनय पत्रिका तुलसीदास के २७९ स्तोत्र गीतों का संग्रह है। प्रारम्भ के ६३ स्तोत्र और गीतों में गणेश, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, सीता और विष्णु के एक विग्रह विन्दु माधव के गुणगान के साथ राम की स्तुतियाँ हैं। इस अंश में जितने भी देवी-देवताओं के सम्बन्ध के स्तोत्र और पद आते हैं, सभी में उनका गुणगान करके उनसे राम की भक्ति की याचना की गयी है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि तुलसीदास भले ही इन देवी-देवताओं में विश्वास रखते रहे हों, किंतु इनकी उपयोगिता केवल तभी तक मानते थे, जब तक इनसे राम भक्ति की प्राप्ति में सहयोग मिल सके।
रामभक्ति के बारे में विनयपत्रिका के ही एक प्रसिद्ध पद में उन्होंने कहा है तुलसीदास जी एक बहुत ही महान कवि थे।।
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रान ते प्यारो।
जासों होय सनेह राम पद एतो मतो हमारो॥
तुलसीदासजी अब असीघाट पर रहने लगे, तब एक रात कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आऐ और उन्हें त्रास देने लगे। गोस्वामीजी ने हनुमान्जी का ध्यान किया। तब हनुमान्जी ने उन्हें विनय के पद रचने के लिए कहा; इस पर गोस्वामीजी ने विनय-पत्रिका लिखी और भगवान् के चरणों में उसे समर्पित कर दिया। श्रीराम ने उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।
तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथ |
ब्रह्मा जी के पुत्र दरीची, दरीची के पुत्र महर्षि कूर्म ( कुर्मी )कश्यप के वंश से जो सूर्यवंश हुआ उसी के इक्षवा कुल में श्री राम का जन्म हुआ इन्हें रामचंद्र भी कहते हैं, रामायण के अनुसार,महाराजा प्रजापति दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र, सीता के पति व लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के भ्राता थे। हनुमान उनके परम भक्त है। लंका के राजा रावण का वध उन्होंने ही किया था। उनकी प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है क्योंकि उन्होंने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता तक का त्याग किया।
वे भगवान विष्णु प्रजापति के अवतार माने जाते हैं।श्री राम का जन्म वैवस्वत मन्वंतर में २३ वे चतुर्युग के त्रेता में हुआ था । उन्होंने करीब ११००० वर्ष अयोध्या का शासन किया था , श्री राम विश्वामित्र के साथ यज्ञ की रक्षा के लिए छोटे भाई लक्षण के साथ गए और ताड़का आदि राक्षस मारे उसके बाद गुरु के साथ राजा जनक के यहा उनकी पुत्री सीता के स्वयंवर में पहुंच कर शिव के धनुष को तोड़ सीता से विवाह किया , जब उन्होंने अगला राजा बनाया जा रहा था तब उनके पिता के वचन के लिए १४ वर्ष वनवास जाना हुआ जहां पर लक्ष्मण ने शुर्पनखा के नाक कान काट दिए और उसके भाई खर दूषण का राम ने वध कर दिया माता सीता का अपहरण रावण द्वारा किया गया जिसकी खोज में जटायु पक्षी जो बात करता था जिसने रावण का प्रतिकार किया था का पिता के समान अंत्येष्ठि संस्कार किया आगे हनुमान सुग्रीव से मिले सुग्रीव ले भाई बाली का वध कर सुग्रीव को राजा बनाया हनुमान ने माता सीता की खोज की रावण के भाई विभीषण को शरण दी रावण और इसके १लाख से अधिक पुत्र डेढ़ लाख से अधिक पौत्र को कुंभकरण ,मेघनाद सहित मार गिराए , रामेश्वर में शिवलिंग स्थापित किया जो की ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हैं नवरात्रि शक्ति की पूजा की समुद्र पर पुल बनाया और रावण को विभीषण के द्वारा अबताए रहस्य से जान कर मार गिराया पुष्पक विमान ले माता सीता को अग्नि परीक्षा करा लेकर शीघ्र भारत भैया के पास अयोध्या पहुंचे मेंषि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी।लेखक गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की रचना की थी। इन दोनों के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामायण की रचनाएँ हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। स्वामी करपात्री ने रामायण मीमांसा में विश्व की समस्त रामायण का लेखा हैं , दक्षिण के क्रांतिकारी पेरियार रामास्वामी व ललई सिंह यादव की रामायण भी मान्यताप्राप्त है। भारत में श्री राम अत्यन्त पूजनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं तथा विश्व के कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं जैसे नेपाल, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि । इन्हें पुरुषोत्तम शब्द से भी अलंकृत किया जाता है। इनका परिवार, आदर्श थाईलैंडी परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। रामरघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा रघुकुल रीति सदा चलि आई प्राण जाई पर बचन न जाई की थी। ब्राह्मणों के अनुसार राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया, इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके दो पुत्रों कुश व लव ने इनके राज्यों अयोध्या और कोशलपुर को संभाला।
वैदिक धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, श्रीराम की वन-कथा से जुड़े हुए हैं। रामायण भारतीयों के मन में बसता आया है, और आज भी उनके हृदयों में इसका भाव निहित है। भारत में किसी व्यक्ति को नमस्कार करने के लिए राम राम, जय सियाराम जैसे शब्दों को प्रयोग में लिया जाता है।
ये भारतीय संस्कृति के आधार हैं।। राम और कृष्ण दोनो ही विष्णु का अवतार हैं अतः ये दोनो एक ही हैं।
नाम-व्युत्पत्ति एवं अर्थ
'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है। 'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं - "रमते कणे कणे इति रामः"। 'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।
कबीर साहेब जी आदि राम की परिभाषा बताते है की आदि राम वह अविनाशी परमात्मा है जो सब का सृजनहार व पालनहार है। जिसके एक इशारे पर धरती और आकाश काम करते हैं जिसकी स्तुति में तैंतीस कोटि देवी-देवता नतमस्तक रहते हैं। जो पूर्ण मोक्षदायक व स्वयंभू है।"एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा, एक राम का सकल उजियारा, एक राम जगत से न्यारा"।।
अवतार रूप में प्राचीनता
वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ में तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है; लेकिन वहां भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ के पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। यद्यपि नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं, परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है। स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकार के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) का तथा एक स्थल पर 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।
ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय में दो स्थलों पर (७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार 'मृगवु' नामक स्त्री का पुत्र है। [] में एक स्थल पर 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)। यहां 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है। तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है।
रामायण में वर्णन के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ को चौथेपन तक संतान प्राप्ति नहीं हुई, "एक बार दशरथ मन माही, भई गलानि मोरे सुत नाही" तदोपरांत सम्राट दशरथ ने पुत्रेश्टी यज्ञ (पुत्र प्राप्ती यज्ञ) कराया जिसके फलस्वरूप उनके पुत्रों का जन्म हुआ। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। किंतु अपनी बहन से छोटे थे। भगवान राम की सगी बहन शांता थीं जो श्रीराम और उनके तीनों भाइयों की बड़ी बहन थीं। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या राम नवमी का पर्व मनाया संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है।
कुछ हिंदू ग्रंथों में, राम के बारे में कहा गया है कि वे त्रेता युग या द्वापर युग में रहते थे कि उनके लेखकों का अनुमान लगभग ५,००० ईसा पूर्व था। कुछ अन्य शोधकर्ता राम को कुरु और वृष्णि नेताओं की पुन: सूचियों के आधार पर 12५0 ईसा पूर्व, के आसपास रहने के लिए अधिक उपयुक्त स्थान देते थे, जो अगर अधिक यथार्थवादी शासनकाल में दिए जाते हैं, तो उस अवधि के आसपास, राम के समकालीन, भरत और सत्त्व को स्थान देंगे। एक भारतीय पुरातत्वविद् हंसमुख धीरजलाल सांकलिया के अनुसार, जो प्रोटो- और प्राचीन भारतीय इतिहास में विशिष्ट है, यह सब "शुद्ध अटकलें" हैं।
राम की महाकाव्य कहानी की रचना, रामायण अपने वर्तमान रूप में, आमतौर पर ७ वीं और चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की है। ऑक्सफोर्ड के संस्कृत के एक प्रोफेसर जॉन ब्रॉकिंगटन के अनुसार, रामायण पर उनके प्रकाशनों के लिए जाना जाता है, मूल पाठ संभवतः अधिक प्राचीन काल में मौखिक रूप से रचित और प्रसारित किया गया था, और आधुनिक विद्वानों ने १ सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में विभिन्न शताब्दियों का सुझाव दिया है। ब्रॉकिंगटन के विचार में, "भाषा, शैली और काम की सामग्री के आधार पर, लगभग पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व की तारीख सबसे अनुमानित अनुमान है"।
भगवान राम के जन्म-समय पर पौराणिक शोध
राम के कथा से सम्बद्ध सर्वाधिक प्रमाणभूत ग्रन्थ आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में रामजी के-जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है: चैत्रे नावमिके तिथौ।।
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।
अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (रामजी का जन्म हुआ)।
यहां केवल बृहस्पति तथा चन्द्रमा की स्थिति स्पष्ट होती है। बृहस्पति उच्चस्थ है तथा चन्द्रमा स्वगृही। आगे पन्द्रहवें श्लोक में सूर्य के उच्च होने का उल्लेख है। इस प्रकार बृहस्पति तथा सूर्य के उच्च होने का पता चल जाता है। बुध हमेशा सूर्य के पास ही रहता है। अतः सूर्य के उच्च (मेष में) होने पर बुद्ध का उच्च (कन्या में) होना असंभव है। इस प्रकार उच्च होने के लिए बचते हैं शेष तीन ग्रह मंगल, शुक्र तथा शनि। इसी कारण से प्रायः सभी विद्वानों ने रामजी के जन्म के समय में सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि को उच्च में स्थित माना है।
परम्परागत रूप से राम का जन्म त्रेता युग में माना जाता है। ब्राह्मण / हिन्दू धर्मशास्त्रों में, विशेषतः पौराणिक साहित्य में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एक चतुर्युगी में ४३,२०,००० वर्ष होते हैं, जिनमें कलियुग के ४,३२,००० वर्ष तथा द्वापर के ८,6४,००० वर्ष होते हैं। राम का जन्म त्रेता युग में अर्थात द्वापर युग से पहले हुआ था। चूंकि कलियुग का अभी प्रारंभ ही हुआ है (लगभग ५,५00 वर्ष ही बीते हैं) और राम का जन्म त्रेता के अंत में हुआ तथा अवतार लेकर धरती पर उनके वर्तमान रहने का समय परंपरागत रूप से ११,००० वर्ष माना गया है। अतः द्वापर युग के ८,6४,००० वर्ष + राम की वर्तमानता के ११,००० वर्ष + द्वापर युग के अंत से अबतक बीते ५,१०० वर्ष = कुल ८,८0,१०० वर्ष। अतएव परंपरागत रूप से राम का जन्म आज से लगभग ८,८0,१०० वर्ष पहले माना जाता है।
प्रख्यात मराठी शोधकर्ता विद्वान डॉ॰ पद्माकर विष्णु वर्तक ने एक दृष्टि से इस समय को संभाव्य माना है। उनका कहना है कि वाल्मीकीय रामायण में एक स्थल पर विन्ध्याचल तथा हिमालय की ऊंचाई को समान बताया गया है। विन्ध्याचल की ऊंचाई ५,००० फीट है तथा यह प्रायः स्थिर है, जबकि हिमालय की ऊंचाई वर्तमान में २९,0२९ फीट है तथा यह निरंतर वर्धनशील है। दोनों की ऊंचाई का अंतर २४,0२९ फीट है। विशेषज्ञों की मान्यता के अनुसार हिमालय १०० वर्षों में ३ फीट बढ़ता है। अतः २४,0२९ फीट बढ़ने में हिमालय को करीब ८,०१,००० वर्ष लगे होंगे। अतः अभी से करीब ८,०१,००० वर्ष पहले हिमालय की ऊंचाई विन्ध्याचल के समान रही होगी, जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में वर्तमानकालिक रूप में हुआ है। इस तरह डाॅ॰ वर्तक को एक दृष्टि से यह समय संभव लगता है, परंतु उनका स्वयं मानना है कि वे किसी अन्य स्रोत से इस समय की पुष्टि नहीं कर सकते हैं। अपने सुविख्यात ग्रंथ 'वास्तव रामायण' में डॉ॰ वर्तक ने मुख्यतः ग्रहगतियों के आधार पर गणित करके वाल्मीकीय रामायण में उल्लिखित ग्रहस्थिति के अनुसार राम की वास्तविक जन्म-तिथि ४ दिसंबर 7३2३ ईसापूर्व को सुनिश्चित किया है। उनके अनुसार इसी तिथि को दिन में १:३0 से ३:०० बजे के बीच श्री राम का जन्म हुआ होगा।
डॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बाद (२००४ ईस्वी से) 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके रामजी का जन्म १० जनवरी ५११४ ईसापूर्व में सिद्ध किया। उनका मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है। 'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व ३००० से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है। वस्तुतः २०१३ ईस्वी से पहले इतने पहले का ग्रह-गणित करने हेतु सक्षम सॉफ्टवेयर उपलब्ध ही नहीं था। इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी। बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा "एजप्ल्डे४३१" सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी सही गणना में तिथि तो नवमी हो जाती है परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में। अतः १० जनवरी ५११४ ईसापूर्व की तिथि वस्तुतः राम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में अब यदि डॉ० पी० वी० वर्तक और डॉ० यज्ञदत्त शर्मा द्वारा पहले ही परिशोधित तिथि सॉफ्टवेयर द्वारा प्रमाणित हो जाए तभी रामजी का वास्तविक समय प्रायः सर्वमान्य हो पाएगा अथवा प्रमाणित न हो पाने की स्थिति में नवीन तिथि के शोध का रास्ता खुलेगा अथवा ब्राह्मण धर्म यानी हिन्दू धर्म ग्रंथों या शास्त्रों में वर्णित तिथि ही सर्वमान्य प्रमाण है।
भगवान श्री राम के जीवन की प्रमुख घटनाएं
बालपन और सीता-स्वयंवर
पुराणों में श्री राम के जन्म के बारे में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि श्री राम का जन्म वर्तमान भारत के अयोध्या नामक नगर में हुआ था। अयोध्या, जो कि भगवान राम के पूर्वजों की ही राजधानी थी। रामचन्द्र के पूर्वज रघु थे।
भगवान राम बचपन से ही शान्त स्वभाव के वीर पुरूष थे। उन्होंने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज (अच्छे राज) की बात होती है तो रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरू वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्हें वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए साथ ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ थे। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र, जो ब्रह्म ऋषि बनने से पहले राजा विश्वरथ थे, उनकी तपोभूमि बिहार का बक्सर जिला है। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र वेदमाता गायत्री के प्रथम उपासक हैं, वेदों का महान गायत्री मंत्र सबसे पहले ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र के ही श्रीमुख से निकला था। कालांतर में विश्वामित्रजी की तपोभूमि राक्षसों से आक्रांत हो गई। ताड़का नामक राक्षसी विश्वामित्रजी की तपोभूमि में निवास करने लगी थी तथा अपनी राक्षसी सेना के साथ बक्सर के लोगों को कष्ट दिया करती थी। समय आने पर विश्वामित्रजी के निर्देशन प्रभु श्री राम के द्वारा वहीं पर उसका वध हुआ। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही गुरु विश्वामित्र उन्हें ले गये। वहां के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक स्वयंवर समारोह आयोजित किया था। जहां भगवान शिव का एक धनुष था जिसकी प्रत्यंचा चढ़ाने वाले शूरवीर से सीता जी का विवाह किया जाना था। बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे। जब बहुत से राजा प्रयत्न करने के बाद भी धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर उसे उठा तक नहीं सके, तब विश्वामित्र जी की आज्ञा पाकर श्री राम ने धनुष उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया। उनकी प्रत्यंचा चढ़ाने के प्रयत्न में वह महान धनुष घोर ध्वनि करते हुए टूट गया। महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्वनि को सुना तो वे वहां आ गये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटने पर रोष व्यक्त करने लगे। लक्ष्मण जी उग्र स्वभाव के थे। उनका विवाद परशुराम जी से हुआ। (वाल्मिकी रामायण में ऐसा प्रसंग नहीं मिलता है।) तब श्री राम ने बीच-बचाव किया। इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्त लोगों ने आशीर्वाद दिया। अयोध्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे। लोग राम को बहुत चाहते थे। उनकी मृदुल, जनसेवायुक्त भावना और न्यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी। राजा दशरथ वानप्रस्थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। अत: उन्होंने राज्यभार राम को सौंपने का सोचा। जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा, उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्त करने वाले हैं। उस समय राम के अन्य दो भाई भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल कैकेेय गए हुए थे। कैकेयी की दासी मन्थरा ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्हारे साथ गलत कर रहें है। तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चाहते हैं।
भगवान राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है।
श्री राम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए पति के साथ वन (वनवास) जाना उचित समझा। भाई लक्ष्मण ने भी राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आए। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। जब राम वनवासी थे तभी उनकी पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम ने हनुमान, सुग्रीव आदि वानर जाति के महापुरुषों की सहायता से सीता को ढूंंढा। समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे तथा रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता जी को वापस ले कर आये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया।
राजा दशरथ के तीन रानियां थीं: कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। भगवान राम कौशल्या के पुत्र थे, सुमित्रा के दो पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पुत्र भरत थे। राज्य नियमों के अनुसार राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का पात्र होता है अत: श्री राम का अयोध्या का राजा बनना निश्चित था। कैकेयी जिन्होंने दो बार राजा दशरथ की जान बचाई थी और दशरथ ने उन्हें यह वर दिया था कि वो जीवन के किसी भी पल उनसे दो वर मांग सकती हैं। राम को राजा बनते हुए और भविष्य को देखते हुए कैकेयी चाहती थी कि उनका पुत्र भरत ही अयोध्या का राजा बने, इसलिए उन्होंने राजा दशरथ द्वारा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया और अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांग लिया। वचनों में बंधे राजा दशरथ को विवश होकर यह स्वीकार करना पड़ा। श्री राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। श्री राम की पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण जी भी वनवास गये थे।
सीता जी का अपहरण
वनवास के समय, रावण ने सीता जी का हरण किया था। रावण एक राक्षस तथा लंका का राजा था। रामायण के अनुसार, जब राम, सीता और लक्ष्मण कुटिया में थे तब एक स्वर्णिम हिरण की वाणी सुनकर, पर्णकुटी के निकट उस स्वर्ण मृग को देखकर देवी सीता व्याकुल हो गयीं। देवी सीता ने जैसे ही उस सुन्दर हिरण को पकड़ना चाहा वह हिरण या मृग घनघोर वन की ओर भाग गया।
वास्तविकता में यह असुरों द्वारा किया जा रहा एक षडयंत्र था ताकि देवी सीता का अपहरण हो सके। वह स्वर्णमृग या सुनहरा हिरण राक्षसराज रावण का मामा मारीच था। उसने रावण के कहने पर ही सुनहरे हिरण का रूप धारण किया था ताकि वो योजना अनुसार राम - लक्ष्मण को सीता जी से दूर कर सकें और सीता जी का अपहरण हो सके। उधर षडयन्त्र से अनजान सीता जी उसे देख कर मोहित हो गईं और रामचंद्र जी से उस स्वर्ण हिरण को जीवित एवं सुरक्षित पकड़ने करने का अनुरोध किया ताकि उस अद्भुत सुन्दर हिरण को अयोध्या लौटने पर वहां ले जा कर पाल सकें ।
रामचन्द्र जी अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने चल पड़े और लक्ष्मण जी से सीता की रक्षा करने को कहा। कपटी मारीच राम जी को बहुत दूर ले गया। श्री राम को दूर ले जाकर मारीच ने ज़ोर से "हे सीता ! हे लक्ष्मण !" की आवाज़ लगानी प्रारंभ कर दी ताकि उस आवाज़ को सुन कर सीता जी चिन्तित हो जाएं और लक्ष्मण को राम के पास जाने को कहें, जिससे रावण सीता जी का हरण सरलता पूर्वक कर सके । इस प्रकार छल या धोखे का अनुमान लगते ही अवसर पाकर श्री राम ने तीर चलाया और उस स्वर्णिम हिरण का रूप धरे राक्षस मारीच का वध कर दिया ।
दूसरी ओर सीता जी मारीच द्वारा लगाए अपने तथा लक्ष्मण के नाम के ध्वनियों को सुन कर अत्यंत चिन्तित हो गईं तथा किसी प्रकार के अनहोनी को समीप जानकर लक्ष्मण जी को श्री राम के पास जाने को कहने लगीं। लक्ष्मण जी राक्षसों के छल - कपट को समझते थे इसलिए लक्ष्मण जी देवी सीता को असुरक्षित अकेला छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, पर देवी सीता द्वारा बलपूर्वक अनुरोध करने पर लक्ष्मण जी अपनी भाभी की बातों को अस्वीकार नहीं कर सके।
वन में जाने से पहले सीता जी की रक्षा के लिए लक्ष्मण जी ने अपने बाण से एक रेखा खींची तथा सीता जी से निवेदन किया कि वे किसी भी परिस्थिति में इस रेखा का उल्लंघन नहीं करें, यह रेखा मंत्र के उच्चारण पूर्वक खिंची गई है इसलिए इस रेखा को लांघ कर कोई भी इसके अन्दर नहीं आ पाएगा। लक्ष्मण जी ने देवी सीता की रक्षा के लिए जो अभिमंत्रित रेखा अपने बाण के द्वारा खिंची थी वह लक्ष्मण रेखा के नाम से प्रसिद्ध है।
लक्ष्मण जी के घोर वन में प्रवेश करते ही तथा देवी सीता को अकेला पाकर पहले से षडयंत्र पूर्वक घात लगाकर बैठे रावण को सीता जी के अपहरण का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। रावण शीघ्र ही राम - लक्ष्मण - सीता के निवास स्थान उस पर्णकुटी या कुटिया में जहां परिस्थिति वश देवी सीता इस समय अकेली थीं, आ गया। उसने साधु का वेष धारण कर रखा था । पहले तो उसने उस सुरक्षित कुटिया में सीधे घुसने का प्रयास किया लेकिन लक्ष्मण रेखा खींचे होने के कारण वह कुटिया के अंदर जहां देवी सीता विद्यमान थीं, नहीं घुस सका।
तब उसने दूसरा उपाय अपनाया, साधु का वेष तो उसने धारण किया हुआ ही था, सो वह कुटिया बाहरी द्वार पर खड़े होकर "भिक्षाम् देही - भिक्षाम् देही" का उद्घोष करने लगा। इस वाणी को सुन कर देवी सीता कुटिया के बाहर निकलीं (लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन किए बिना)। द्वार पर साधु को आया देख कर वो कुटिया के चौखट से ही (लक्ष्मण रेखा के भीतर से ही) उसे अन्न - फल आदि का दान देने लगीं। तब धूर्त रावण ने सीता जी को लक्ष्मण रेखा से बाहर लाने के लिए स्वयं के भूखे - प्यासे होने की बात बोल कर भोजन की मांग की।
आर्यावर्त की परंपरा के अनुसार द्वार पर आये भिक्षुक एवं भूखे को खाली हाथ नहीं लौटाने की बात सोच कर वो भोजन - जल आदि लेकर भूल वश लक्ष्मण रेखा के बाहर निकल गई। जैसे ही सीता जी लक्ष्मण रेखा के बाहर हुई, घात लगाए रावण ने झटपट उनका अपहरण कर लिया। रावण सीता जी को पुष्पक विमान में बल पूर्वक बैठाकर ले जाने लगा।
पुष्पक विमान में अपहृत होकर जाते समय सीता जी ने अत्यन्त उच्च स्वर में श्री राम और लक्ष्मण जी को पुकारा तथा अपनी सुरक्षा की गुहार लगायी। इस ऊंचे ध्वनि को सुनकर जटायु नामक एक विशाल गिद्ध पक्षी जो मनुष्यों के समान स्पष्ट वाणी में बोल सकता था तथा पूर्व काल में राजा दशरथ का परम मित्र था, वन प्रदेश को छोड़कर आकाश मार्ग में उड़ कर पहुंचा। जटायु देखता है कि अधर्मी रावण एक सुन्दर युवती को अपहरण कर लेकर जा रहा है तथा वह युवती अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रही है।
यह अन्याय देख कर जटायु रावण को चुनौती देता है तथा उस युवती को छोड़ देने की चेतावनी देता है लेकिन अहंकारी रावण भला कहां मानने वाला था सो रावण और जटायु में आकाश मार्ग में ही युद्ध छिड़ जाता है। बलशाली रावण अपने अमोघ खड्ग से जटायु के दोनों पंख काट देता है जिससे जटायु नि:सहाय हो कर पृथ्वी पर गिर जाता है। रावण पुष्पक विमान में सीता जी को लेकर आगे बढ़ने लगता है।
सीता जी ने जब देखा कि उनकी रक्षा करने के लिए आए विशाल गिद्ध पक्षी जो मनुष्यों की भांति बोल सकता था, रावण के खड्ग प्रहार करने से धराशायी हो गया है तब पुष्पक विमान में आकाशमार्ग अथवा वायुमार्ग से जाते समय सीता जी अपने आभूषण / गहने को उतार कर नीचे धरती पर फेंकने लगीं।
भगवान राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में दर-दर भटक रहे थे। तब वे हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बड़े भक्त बने।
रावण का वध
रामायण में सीता के खोज में सीलोन या लंका या श्रीलंका जाने के लिए ४८ किलोमीटर लम्बे ३ किलोमीटर चोड़े पत्थर के सेतु का निर्माण करने का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसको रामसेतु कहते हैं।
सीता को को पुनः प्राप्त करने के लिए राम ने हनुमान, विभीषण और वानर सेना की सहायता से रावण के सभी बंधु-बांधवों और उसके वंशजों को पराजित किया तथा लौटते समय विभीषण को लंका का राजा बनाकर अच्छे शासक बनने के लिए मार्गदर्शन किया।
राम ने रावण को युद्ध में परास्त किया और उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया। राम, सीता, लक्षमण और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर प्रस्थान किये । वहां सबसे मिलने के बाद राम और सीता का अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ। पूरा राज्य कुशल समय व्यतीत करने लगा।
जब रामचन्द्र जी का जीवन पूर्ण हो गया, तब वे यमराज की सहमति से सरयू नदी के तट पर गुप्तार घाट में देह त्याग कर पुनः बैकुंठ धाम में विष्णु रूप में विराजमान हो गये।
इन्हें भी देखें
भगवान महावीर का साधना काल
रामकथा : उत्पत्ति और विकास
जैन धर्म में राम
राम की प्रतिमा
श्री राम जी पर आधारित वेबसाइट
रामायण के पात्र |
मुहम्मद ५७० ई - ८ जून ६३२ ई) इस्लाम के संस्थापक थें। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, वह एक पैगम्बर और ईश्वर के संदेशवाहक थे, जिन्हें इस्लाम के पैग़म्बर भी कहते हैं, जो पहले आदम , इब्राहीम , मूसा ईसा (येशू) और अन्य पैगम्बर द्वारा प्रचारित एकेश्वरवादी शिक्षाओं को प्रस्तुत करने और पुष्टि करने के लिए भेजे गए थे। इस्लाम की सभी मुख्य शाखाओं में उन्हें अल्लाह के अंतिम पैगम्बर के रूप में देखा जाता है, हालांकि कुछ आधुनिक संप्रदाय इस विश्वास से अलग भी नज़र आते हैं। मुसलमान यह विश्वास रखते हैं कि कुरान जिब्राईल (ईसाईयत में गैब्रियल) नामक एक फरिश्ते के द्वारा, मुहम्मद को ७वीं सदी के अरब में, लगभग ४० साल में याद-कंठस्थ कराया गया था। मुहम्मद , विश्वासियों को एकजुट करने में एक मुस्लिम धर्म स्थापित करने में, एक साथ इस्लामिक धार्मिक विश्वास के आधार पर कुरान के साथ-साथ उनकी शिक्षाओं और प्रथाओं के साथ नज़र आते हैं।
लगभग ५७० ई (आम-अल-फ़ील (हाथी का वर्ष)) में अरब के शहर मक्का में पैदा हुए, मुहम्मद की छह साल की उम्र तक उनके माता-पिता का देहांत हो चुका था। ; वह अपने पैतृक चाचा अबू तालिब और अबू तालिब की पत्नी फातिमा बिन्त असद की देखभाल में थे। समय-समय पर, वह प्रार्थना के लिए कई रातों के लिए हिरा नाम की पर्वत गुफा में अल्लाह की याद में बैठते। बाद में ४० साल की उम्र में उन्होंने गुफा में जिब्रील अलै. को देखा, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें अल्लाह से अपना पहला इल्हाम प्राप्त हुआ। तीन साल बाद, ६१० में,
मुहम्मद ने सार्वजनिक रूप से इन रहस्योद्घाटनों का प्रचार करना शुरू किया, यह घोषणा करते हुए कि " ईश्वर एक है ", अल्लाह को पूर्ण "समर्पण" (इस्लाम) कार्यवाही का सही तरीका है (दीन), और वह इस्लाम के अन्य पैगम्बर के समान, ख़ुदा के पैगंबर और दूत हैं।
मुहम्मद ने शुरुआत में कुछ अनुयायियों को प्राप्त किया,और मक्का में अविश्वासियों से शत्रुता का अनुभव किया। चल रहे उत्पीड़न से बचने के लिए,उन्होंने कुछ अनुयायियों को ६१५ ई में अबीसीनिया भेजा, इससे पहले कि वह और उनके अनुयायियों ने मक्का से मदीना (जिसे यस्रीब के नाम से जाना जाता था)से पहले ६२२ ई में हिजरत (प्रवास या स्थानांतरित)किया। यह घटना हिजरा या इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत को चिह्नित करता है,जिसे हिजरी कैलेंडर के रूप में भी जाना जाता है। मदीना में,मुहम्मद साहब ने मदीना के संविधान के तहत जनजातियों को एकजुट किया। दिसंबर ६२२ में,मक्का जनजातियों के साथ आठ वर्षों के अंतराल युद्धों के बाद,मुहम्मद साहब ने १०,००० मुसलमानों की एक सेना इकट्ठी की और मक्का शहर पर चढ़ाई की। विजय बहुत हद तक अनचाहे हो गई, ६३२ में विदाई तीर्थयात्रा से लौटने के कुछ महीने बाद, वह बीमार पड़ गए और वह इस दुनिया से विदा हो गए।
रहस्योद्घाटन (प्रत्येक को आयह के नाम से जाना जाता है, (अल्लाह के इशारे), जो मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम ने दुनिया से जाने तक प्राप्त करने की सूचना दी, कुरान के छंदों का निर्माण किया, मुसलमानों द्वारा शब्द" अल्लाह का वचन "के रूप में माना जाता है और जिसके आस-पास धर्म आधारित है। कुरान के अलावा, हदीस और सीरा (जीवनी) साहित्य में पाए गए मुहम्मद साहब की शिक्षाओं और प्रथाओं (सुन्नत) को भी इस्लामी कानून के स्रोतों के रूप में उपयोग किया जाता है, मुहम्मद २ वक्त का खाना। खाते खाने में एक ही सब्जी लेते।
मुहम्मद का जन्म मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार अरब के रेगिस्तान के शहर मक्का में ८ जून, ५७० ई. मेंं हुआ। मुहम्मद का अर्थ होता है जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो'। इनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और माता का नाम आमिना है। मुहम्मद की सशक्त आत्मा ने इस सूने रेगिस्तान से एक नए संसार का निर्माण किया, एक नए जीवन का, एक नई संस्कृति और नई सभ्यता का। आपके द्वारा एक ऐसे नये राज्य की स्थापना हुई, जो मराकश से ले कर इंडीज़ तक फैला और जिसने तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका, और यूरोप के विचार और जीवन पर अपना अभूतपूर्व प्रभाव डाला।
नाम और कुरान में प्रश्ंसा
मोहम्मद (/मंड,-हम्ड/) का अर्थ है "प्रशंसनीय" और कुरान में चार बार प्रकट होता है। कुरान दूसरे अपील में मुहम्मद को विभिन्न अपीलों से संबोधित करता है; भविष्यवक्ता, दूत, अल्लाह का अब्द (दास), उद्घोषक ( बशीर ), गवाह (शाहिद), अच्छी ख़बरें (मुबारशीर), चेतावनीकर्ता (नाथिर), अनुस्मारक (मुधाकीर), जो [अल्लाह की तरफ बुलाता है] (दायी) कहते हैं, तेजस्व व्यक्तित्व (नूर), और प्रकाश देने वाला दीपक (सिराज मुनीर)। मुहम्मद को कभी-कभी पते के समय अपने राज्य से प्राप्त पदनामों द्वारा संबोधित किया जाता है: इस प्रकार उन्हें में ढका हुआ (अल-मुज़ममिल) के रूप में जाना जाता है और झुका हुआ अल-मुदाथथिर) सुरा अल-अहज़ाब में ३३:४० ईश्वर ने मुहम्मद को " भविष्यद्वक्ताओं की मुहर " या भविष्यवक्ताओं के अंतिम रूप में एकल किया। कुरान मुहम्मद को अहमद के रूप में भी संदर्भित करता है "अधिक प्रशंसनीय" (अरबी : , सूरा (, सूरा अस-सफ़ ).
अबू अल-कासिम मुहम्मद इब्न 'अब्द अल्लाह इब्न' अब्द अल-मुत्तलिब इब्न हाशिम नाम, कुन्या अबू से शुरू होता है, जो अंग्रेजी के पिता के अनुरूप है।
मुहम्मद साहब की पत्नियां
मुसलमानों का मानना है कि मुहम्मद साहब की पत्नियां विश्वासियों के माता (अरबी: उम्महत अल-मुमीनिन) है। मुसलमानों ने सम्मान की निशानी के रूप में उन्हें संदर्भित करने से पहले या बाद में प्रमुख शब्द का प्रयोग किया। यह शब्द कुरान ३३: ६ से लिया गया है: "पैगंबर अपने विश्वासियों की तुलना में विश्वासियों के करीब है, और उनकी पत्नियां उनकी माताओं (जैसे) हैं।"
मुहम्मद साहब २५ वर्ष के लिए मोनोग्राम थे। अपनी पहली पत्नी खदीजा बिन्त खुवायलद की मृत्यु के बाद, उन्होंने नीचे दी गई पत्नियों से शादी करने के लिए आगे बढ़ दिया, और उनमें से ज्यादातर विधवा थे मुहम्मद के जीवन को पारम्परिक रूप से दो युगों के रूप में चित्रित किया गया है: पूर्व हिजरत (पश्चिमी उत्प्रवासन) में मक्का में ५७० से ६२२ तक, और मदीना में, ६२२ से ६३२ तक अपनी मृत्यु तक। हिजरत (मदीना के प्रवास) के बाद उनके विवाह का अनुबंध किया गया था। मुहम्मद की तेरह "पत्नियों" से एक मारिया अल किबतिया, वास्तव में केवल उपपत्नी थीं; हालांकि, मुसलमानों में बहस होती है कि इन एक पत्नियां बन गईं हैं। उनकी १३ पत्नियों और में से केवल दो बच्चों ने उसे बोर दिया था, जो कि एक तथ्य है जिसे कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के करीब ईस्टर्न स्टडीज डेविड एस पॉवर्स के प्रोफेसर द्वारा "जिज्ञासु" कहा गया है।
वैज्ञानिक अध्ययन: इस्लामी इतिहास के शोधकर्ताओं ने समय के साथ इस्लाम के जन्मस्थान और किबला के परिवर्तन की जांच की है। पेट्रीसिया क्रोन, माइकल कुक और कई अन्य शोधकर्ताओं ने पाठ और पुरातात्विक अनुसंधान के आधार पर यह मान लिया है कि "मस्जिद अल-हरम" मक्का में नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिमी अरब प्रायद्वीप में स्थित था।
कुरान इस्लाम का केंद्रीय धार्मिक पाठ है। मुसलमानों का मानना है कि यह मलक जिब्रील द्वारा मुहम्मद को अल्लाह की जानिब से भेज गया कलाम है। कुरान, हालांकि, मुहम्मद की कालानुक्रमिक जीवनी के लिए न्यूनतम सहायता प्रदान करता है; कुरान एक पवित्र किताब है जो इंसान को भलाई के मार्ग पर ले जाने का काम करती है, दुनिया के कई ऐसे रेह्स्यो के बारे में बताया गया है जिसके बारे में लोग अभी तक नहीं जान पाए हैं जैसे एक चीन्टी दूसरी चीन्टी से कैसे संपर्क करती है इसके बारे में क़ुरआन में बताया गया है कि चीटी अपने दोनों बालों जो उनके सर उगे होते है उनको रगडकर संपर्क करती। ऐसी ही कई रोचक और दिल का सुकून देने वाली बहुत सी बाते हैं।
मुख्य लेख: भविष्यवाणी जीवनी
मुहम्मद के जीवन के बारे में महत्वपूर्ण स्रोत मुस्लिम युग (हिजरी - ८ वीं और ९वीं शताब्दी ई) की दूसरी और तीसरी शताब्दियों के लेखकों द्वारा ऐतिहासिक कार्यों में पाया जा सकता है। इनमें मुहम्मद की पारंपरिक मुस्लिम जीवनी शामिल हैं, जो मुहम्मद के जीवन के बारे में अतिरिक्त जानकारी प्रदान करती हैं।
सबसे पुरानी जीवित सिरा (मुहम्मद की जीवनी और उद्धरण उनके लिए जिम्मेदार) इब्न इशाक का जीवन भगवान का मैसेंजर लिखित सी है। ७६७ सीई (१५० एएच)। यद्यपि काम खो गया था, इस सीरा का इस्तेमाल इब्न हिशाम और अल-ताबररी द्वारा थोड़ी सी सीमा तक किया गया था। हालांकि, इब्न हिशम मुहम्मद की अपनी जीवनी के प्रस्ताव में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इब्न इशाक की जीवनी से मामलों को छोड़ दिया जो "कुछ लोगों को परेशान करेगा"। एक और प्रारंभिक इतिहास स्रोत मुहम्मद के अभियानों का इतिहास अल-वकिदी (मुस्लिम युग की मृत्यु २०७), और उनके सचिव इब्न साद अल-बगदादी (मुस्लिम युग की मौत २३०) का काम है।
कई विद्वान इन शुरुआती जीवनी को प्रामाणिक मानते हैं, हालांकि उनकी सटीकता अनिश्चित है। हाल के अध्ययनों ने विद्वानों को कानूनी मामलों और पूरी तरह से ऐतिहासिक घटनाओं को छूने वाली परंपराओं के बीच अंतर करने का नेतृत्व किया है। कानूनी समूह में, परंपराएं आविष्कार के अधीन हो सकती थीं, जबकि ऐतिहासिक घटनाएं, असाधारण मामलों से अलग हो सकती हैं, केवल "प्रवृत्त आकार" के अधीन हो सकती हैं।
अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों में हदीस संग्रह, मौखिक और शारीरिक शिक्षाओं और मुहम्मद की परंपराओं के विवरण शामिल हैं। हदीस के ग्रन्थ सहीह अल-बुख़ारी, मुस्लिम इब्न अल-हजज, मुहम्मद इब्न ईसा -तिर्मिधि, अब्द अर-रहमान अल-नसाई, अबू दाऊद, इब्न माजह, मालिक इब्न अनस, अल-दराकुत्नी सहित अनुयायियों द्वारा मुहम्मद की मृत्यु के बाद संकलित किया गया था।
कुछ पश्चिमी शिक्षाविदों ने सावधानीपूर्वक हदीस संग्रह को सटीक ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में देखा है। मैडलंग जैसे विद्वान बाद की अवधि में संकलित किए गए कथाओं को अस्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन इतिहास के संदर्भ में और घटनाओं और आंकड़ों के साथ उनकी संगतता के आधार पर उनका न्याय करते हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम विद्वान आमतौर पर जीवनी साहित्य की बजाय हदीस साहित्य पर अधिक जोर देते हैं, क्योंकि हदीस ट्रांसमिशन (इस्नद) की एक सत्यापित श्रृंखला बनाए रखते हैं; जीवनी साहित्य के लिए ऐसी श्रृंखला की कमी से उनकी आंखों में कम सत्यापन योग्य हो जाता है।
पूर्व इस्लामी अरब
अरब प्रायद्वीप काफी हद तक शुष्क और ज्वालामुखीय था, जो निकट ओएस या स्प्रिंग्स को छोड़कर कृषि को मुश्किल बना देता था। परिदृश्य कस्बों और शहरों के साथ बिखरा हुआ था; मक्का और मदीना के सबसे प्रमुख दो हैं। मदीना एक बड़ा समृद्ध कृषि समझौता था, जबकि मक्का कई आसपास के जनजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण वित्तीय केंद्र था। रेगिस्तानी स्थितियों में अस्तित्व के लिए सांप्रदायिक जीवन जरूरी था, कठोर पर्यावरण और जीवनशैली के खिलाफ स्वदेशी जनजातियों का समर्थन करना। जनजातीय संबद्धता, चाहे संबंध या गठजोड़ पर आधारित, सामाजिक एकजुटता का एक महत्वपूर्ण स्रोत था। स्वदेशी अरब या तो भयावह या आसन्न थे, पूर्व लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर यात्रा करते थे और अपने झुंडों के लिए पानी और चरागाह मांगते थे, जबकि बाद में व्यापार और कृषि पर ध्यान केंद्रित करते थे। नोमाडिक अस्तित्व भी हमलावर कारवां या ओसेस पर निर्भर करता है; मनोदशा इसे अपराध के रूप में नहीं देखते थे।
पूर्व इस्लामी अरब में, देवताओं या देवियों को व्यक्तिगत जनजातियों के संरक्षक के रूप में देखा जाता था, उनकी आत्मा पवित्र पेड़ों, पत्थरों, झरनों और कुओं से जुड़ी थी। साथ ही साथ वार्षिक तीर्थयात्रा की साइट होने के कारण, मक्का में काबा मंदिर में जनजातीय संरक्षक देवताओं की ३६० मूर्तियां थीं। तीन देवी अल्लाह के साथ उनकी बेटियों के रूप में जुड़े थे: अल्लात, मनात और अल-उज्जा। ईसाई और यहूदी समेत अरब में एकेश्वरवादी समुदाय मौजूद थे। हनीफ - मूल पूर्व-इस्लामी अरब जिन्होंने "कठोर एकेश्वरवाद का दावा किया" - कभी-कभी पूर्व इस्लामी अरब में यहूदियों और ईसाइयों के साथ भी सूचीबद्ध होते हैं, हालांकि उनकी ऐतिहासिकता विद्वानों के बीच विवादित होती है। मुस्लिम परंपरा के मुताबिक, मुहम्मद खुद हनीफ और इब्राहीम अलै. के पुत्र ईस्माइल अलै. के वंशज थे।
छठी शताब्दी का दूसरा भाग अरब में राजनीतिक विकार की अवधि थी और संचार मार्ग अब सुरक्षित नहीं थे। धार्मिक विभाजन संकट का एक महत्वपूर्ण कारण थे। यहूदी धर्म यमन में प्रमुख धर्म बन गया, जबकि ईसाई धर्म ने फारस खाड़ी क्षेत्र में जड़ ली। प्राचीन दुनिया के व्यापक रुझानों के साथ, इस क्षेत्र में बहुसंख्यक संप्रदायों के अभ्यास और धर्म के एक और आध्यात्मिक रूप में बढ़ती दिलचस्पी में गिरावट देखी गई। जबकि कई लोग विदेशी विश्वास में परिवर्तित होने के लिए अनिच्छुक थे, वहीं उन धर्मों ने बौद्धिक और आध्यात्मिक संदर्भ बिंदु प्रदान किए।
मुहम्मद के जीवन के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, कुरैशी जनजाति वह पश्चिमी अरब में एक प्रमुख शक्ति बन गई थी। उन्होंने हम्स के पंथ संघ का गठन किया, जो पश्चिमी अरब में कई जनजातियों के सदस्यों को काबा में बंधे और मक्का अभयारण्य की प्रतिष्ठा को मजबूत किया। अराजकता के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए, कुरैश ने पवित्र महीनों की संस्था को बरकरार रखा, जिसके दौरान सभी हिंसा को मना कर दिया गया था, और बिना किसी खतरे के तीर्थयात्रा और मेलों में भाग लेना संभव था। इस प्रकार, हालांकि, हम्स का संघ मुख्य रूप से धार्मिक था, लेकिन इसके लिए शहर के लिए भी महत्वपूर्ण आर्थिक परिणाम थे।
बचपन और प्रारंभिक जीवन
अबू अल-क़ासिम मुहम्मद इब्न 'अब्द अल्लाह इब्न' अब्द अल-मुआलिब इब्न हाशिम, वर्ष ५७० के बारे में पैदा हुआ था और उनका जन्मदिन रबी अल-औवाल के महीने में माना जाता है। वह कुरैशी जनजाति का हिस्सा बनू हाशिम कबीले का था, और मक्का के प्रमुख परिवारों में से एक था, हालांकि यह मुहम्मद के शुरुआती जीवनकाल में कम समृद्ध प्रतीत होता है। परंपरा हाथी के वर्ष के साथ मुहम्मद के जन्म के वर्ष को रखती है, जिसका नाम उस वर्ष मक्का के असफल विनाश के नाम पर रखा गया है, यमन के राजा, जिन्होंने हाथियों के साथ अपनी सेना को पूरक बनाया था। वैकल्पिक रूप से कुछ २० वीं शताब्दी के विद्वानों ने ५६८ या ५६ ९ जैसे विभिन्न वर्षों का सुझाव दिया है।
मुहम्मद के पिता अब्दुल्लाह का जन्म होने से लगभग छह महीने पहले उनकी मृत्यु हो गई थी। इस्लामी परंपरा के अनुसार, जन्म के तुरंत बाद उन्हें रेगिस्तान में एक बेडौइन परिवार के साथ रहने के लिए भेजा गया था, क्योंकि शिशु जीवन शिशुओं के लिए स्वस्थ माना जाता था; कुछ पश्चिमी विद्वान इस परंपरा की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं। मुहम्मद अपनी पालक-मां, हलीमा बंट अबी धुआब और उसके पति के साथ दो वर्ष की उम्र तक रहे। छः वर्ष की आयु में, मुहम्मद ने अपनी जैविक मां अमिना को बीमारी से खो दिया और अनाथ बन गये। अगले दो सालों तक, जब तक वह आठ वर्ष का नहीं था, तब तक मुहम्मद बनू हाशिम वंश के अपने दादा अब्दुल-मुतालिब की अभिभावक के अधीन थे। तब वह बनू हाशिम के नए नेता, अपने चाचा अबू तालिब की देखभाल में आए। इस्लामी इतिहासकार विलियम मोंटगोमेरी वाट के अनुसार ६ वीं शताब्दी के दौरान मक्का में जनजातियों के कमजोर सदस्यों की देखभाल करने में अभिभावकों ने एक सामान्य उपेक्षा की थी, "मुहम्मद के अभिभावकों ने देखा कि वह मौत के लिए भूखे नहीं थे, लेकिन यह मुश्किल था उन्हें उनके लिए और अधिक करने के लिए, खासकर जब हाशिम के कबीले की किस्मत उस समय घट रही है।
अपने किशोर व्यवस्था में, मुहम्मद वाणिज्यिक व्यापार में अनुभव हासिल करने के लिए सीरिया के व्यापारिक यात्रा पर अपने चाचा के साथ थे। इस्लामी परंपरा में कहा गया है कि जब मुहम्मद या तो बारह या तो बारह के मक्का के कारवां के साथ थे, तो उन्होंने एक ईसाई भिक्षु या बहरी नाम से भक्त से मुलाकात की, जिसे भगवान के भविष्यवक्ता के रूप में मुहम्मद के करियर के बारे में बताया गया था।
बाद के युवाओं के दौरान मुहम्मद के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है, उपलब्ध जानकारी खंडित है, जिससे इतिहास को किंवदंती से अलग करना मुश्किल हो गया है। यह ज्ञात है कि वह एक व्यापारी बन गया और " हिंद महासागर और भूमध्य सागर के बीच व्यापार में शामिल था।" अपने ईमानदार चरित्र के कारण उन्होंने उपनाम " अल-अमीन " (अरबी: ) का अधिग्रहण किया, जिसका अर्थ है "विश्वासयोग्य, भरोसेमंद" और "अल-सादिक" जिसका अर्थ है "सत्य" और निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में बाहर निकला गया। उनकी प्रतिष्ठा ने ४० वर्षीय विधवा ख़दीजा से ५९५ में एक प्रस्ताव को आकर्षित किया। मुहम्मद ने विवाह को सहमति दी, जो सभी खातों से एक खुश था।
कई सालों बाद, इतिहासकार इब्न इशाक द्वारा एकत्रित एक वर्णन के अनुसार, मुहम्मद ६०५ सीई में काबा की दीवार में काले पत्थर की स्थापना के बारे में एक प्रसिद्ध कहानी के साथ शामिल थे। काले पत्थर, एक पवित्र वस्तु, काबा के नवीनीकरण के दौरान हटा दी गई थी। मक्का नेता इस बात से सहमत नहीं हो सकते कि कौन से कबीले को ब्लैक स्टोन को अपनी जगह पर वापस कर देना चाहिए। वे अगले आदमी है जो कि निर्णय करने के लिए गेट के माध्यम से आता है पूछने का फैसला किया; वह आदमी ३५ वर्षीय मुहम्मद थे। यह घटना गैब्रियल द्वारा उनके पहले प्रकाशन के पांच साल पहले हुई थी। उसने एक कपड़े के लिए कहा और ब्लैक स्टोन को अपने केंद्र में रख दिया। कबीले नेताओं ने कपड़े के कोनों को पकड़ लिया और साथ में ब्लैक स्टोन को सही जगह पर ले जाया, फिर मुहम्मद ने पत्थर रख दिया, सभी के सम्मान को संतुष्ट किया।
कुरान की शुरुआत
मुहम्मद ने हर साल कई हफ्तों तक मक्का के पास जबल अल-नूर पर्वत पर ग़ार ए हिरा नाम की एक गुफा में अकेले प्रार्थना करना शुरू किया। इस्लामिक परंपरा का मानना है कि उस गुफा में उनकी एक यात्रा के दौरान, वर्ष ६१० में परी जिब्रिल अलै. ने उनके सामने प्रकट किया और मुहम्मद को उन छंदों को पढ़ने का आदेश दिया जो कुरान में शामिल किए जाएंगे। आम सहमति मौजूद है कि पहले कुरानिक शब्द प्रकट हुए थे सुराह ९६:१ की शुरुआत। मुहम्मद अपने पहले रहस्योद्घाटन प्राप्त करने पर बहुत परेशान थे। घर लौटने के बाद, मुहम्मद को खदिजा रजी. और उसके ईसाई चचेरे भाई वारका इब्न नवाफल ने सांत्वना दी और आश्वस्त किया। उन्हें यह भी डर था कि अन्य लोग अपने दावों को बर्खास्त कर देंगे। शिया परंपरा कहती है कि मुहम्मद जिब्रिल अलै. की उपस्थिति में हैरान नहीं था या भयभीत नहीं थे; बल्कि उन्होंने परी का स्वागत किया, जैसे कि उसकी उम्मीद थी। प्रारंभिक प्रकाशन के बाद तीन साल की रोकथाम (एक अवधि जिसे वत्रा कहा जाता है) जिसके दौरान मुहम्मद उदास महसूस करते थे और आगे प्रार्थनाओं और आध्यात्मिक प्रथाओं को देते थे। जब रहस्योद्घाटन फिर से शुरू हुआ, तो उसे आश्वस्त किया गया और प्रचार करने का आदेश दिया गया: "तेरा अभिभावक-यहोवा ने तुम्हें त्याग दिया नहीं है, न ही वह नाराज है।"
सहहि बुखारी ने मुहम्मद को अपने रहस्योद्घाटन का वर्णन करते हुए बताया कि "कभी-कभी यह घंटी बजने की तरह (प्रकट होता है)" होता है। आयेशा रजी. ने बताया, "मैंने पैगंबर को बहुत ही ठंडे दिन ईश्वरीय रूप से प्रेरित किया और देखा कि पसीना उसके माथे से गिर रहा है (जैसे प्रेरणा खत्म हो गई थी)"। वेल्च के अनुसार इन विवरणों को वास्तविक माना जा सकता है, क्योंकि बाद में मुसलमानों द्वारा जाली की संभावना नहीं है। मुहम्मद को भरोसा था कि वह इन संदेशों से अपने विचारों को अलग कर सकता है। कुरान के मुताबिक, मुहम्मद की मुख्य भूमिकाओं में से एक अपने एस्चतोलॉजिकल सजा के अविश्वासियों को चेतावनी देना है ((कुरान , कुरान )। कभी-कभी कुरान ने स्पष्ट रूप से जजमेंट डे को संदर्भित नहीं किया लेकिन विलुप्त समुदायों के इतिहास से उदाहरण प्रदान किए और मुहम्मद के समान आपदाओं के समकालीन लोगों को चेतावनी दी ). मुहम्मद ने न केवल उन लोगों को चेतावनी दी जिन्होंने परमेश्वर के प्रकाशन को खारिज कर दिया, बल्कि उन लोगों के लिए अच्छी खबर भी दी जिन्होंने बुराई छोड़ दी, दिव्य शब्दों को सुनकर और परमेश्वर की सेवा की। मुहम्मद के मिशन में एकेश्वरवाद का प्रचार भी शामिल है: कुरान मुहम्मद को अपने भगवान के नाम की घोषणा और प्रशंसा करने का आदेश देता है और उसे मूर्तियों की पूजा करने या भगवान के साथ अन्य देवताओं को जोड़ने के लिए निर्देश नहीं देता है।
प्रारंभिक कुरानिक छंदों के प्रमुख विषयों में मनुष्य के प्रति अपने निर्माता की ज़िम्मेदारी शामिल थी; मृतकों के पुनरुत्थान, भगवान के अंतिम निर्णय के बाद नरक में उत्पीड़न और स्वर्ग में सुख, और जीवन के सभी पहलुओं में ईश्वर (अल्लाह) के संकेतों के स्पष्ट वर्णन के बाद। इस समय विश्वासियों के लिए आवश्यक धार्मिक कर्तव्यों कम थे: भगवान में विश्वास, पापों की क्षमा मांगना, लगातार प्रार्थनाओं की पेशकश करना, विशेष रूप से उन लोगों की सहायता करना, धोखाधड़ी को अस्वीकार करना और धन के प्यार (वाणिज्यिक जीवन में महत्वपूर्ण माना जाता है) मक्का), शुद्ध होने और महिला बालहत्या नहीं कर रहा है।
मुस्लिम परंपरा के अनुसार, मुहम्मद की पत्नी खदीजा रजी. पहली बार मानते थे कि वह एक भविष्यवक्ता थे। उसके बाद मुहम्मद के दस वर्षीय चचेरे भाई अली इब्न अबी तालिब रजी., करीबी दोस्त अबू बकर रजी., और बेटे जैद रजी. को अपनाया गया। लगभग ६१३, मुहम्मद जनता के लिए प्रचार करना शुरू कर दिया (कुरान ). अधिकांश मक्का ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया और उनका मज़ाक उड़ाया, हालांकि कुछ उसके अनुयायी बन गए। इस्लाम के शुरुआती परिवर्तनों के तीन मुख्य समूह थे: छोटे भाइयों और महान व्यापारियों के पुत्र; वे लोग जो अपने जनजाति में पहले स्थान से बाहर हो गए थे या इसे प्राप्त करने में नाकाम रहे; और कमजोर, ज्यादातर असुरक्षित विदेशियों।
इब्न साद रजी. के मुताबिक, मक्का में विपक्ष तब शुरू हुआ जब मुहम्मद ने उन छंदों को बचाया जो मूर्ति पूजा और मक्का के पूर्वजों द्वारा किए गए बहुविश्वास की निंदा करते थे। हालांकि, कुरान के एकेगेसिस का कहना है कि यह शुरू हुआ क्योंकि मुहम्मद सार्वजनिक प्रचार शुरू किया। जैसे ही उनके अनुयायियों में वृद्धि हुई, मुहम्मद शहर के स्थानीय जनजातियों और शासकों के लिए खतरा बन गया, जिनकी संपत्ति काबा पर विश्राम करती थी, मक्का धार्मिक जीवन का केंद्र बिंदु मुहम्मद ने उखाड़ फेंकने की धमकी दी थी। मक्का पारंपरिक धर्म के मुहम्मद की निंदा विशेष रूप से अपने जनजाति, कुरैशी के लिए आक्रामक थी, क्योंकि वे काबा के अभिभावक थे। शक्तिशाली व्यापारियों ने मुहम्मद को अपने प्रचार को त्यागने के लिए मनाने का प्रयास किया; उन्हें व्यापारियों के आंतरिक मंडल के साथ-साथ एक फायदेमंद विवाह में प्रवेश की पेशकश की गई थी। उन्होंने इन दोनों प्रस्तावों से इंकार कर दिया।
मुहम्मद और उसके अनुयायियों की ओर छेड़छाड़ और बीमारियों के दौरान लंबे समय तक पारंपरिक अभिलेख। सुमायाह बिन खयायत, एक प्रमुख मक्का नेता अबू जहल का गुलाम, इस्लाम के पहले शहीद के रूप में प्रसिद्ध है; जब उसने अपनी आस्था छोड़ने से इनकार कर दिया तो उसके मालिक द्वारा भाले के साथ मारा गया। बिलाल रजी., एक और मुस्लिम दास, उमायाह बिन खल्फ ने यातना दी थी, जिन्होंने अपनी छाती पर भारी चट्टान लगाया था ताकि वह अपना रूपांतरण लागू कर सके।
६१५ में, मुहम्मद के कुछ अनुयायी अकुम के इथियोपियाई साम्राज्य में चले गए और ईसाई इथियोपियाई सम्राट अमामा इब्न अबजर की सुरक्षा के तहत एक छोटी कॉलोनी की स्थापना की। इब्न साद ने दो अलग-अलग प्रवासन का उल्लेख किया। उनके अनुसार, अधिकांश मुसलमान हिजरा से पहले मक्का लौट आए, जबकि दूसरा समूह उन्हें मदीना में फिर से शामिल कर दिया। इब्न हिशम और तबारी, हालांकि, केवल इथियोपिया के प्रवासन के बारे में बात करते हैं। ये खाते इस बात से सहमत हैं कि मक्का के उत्पीड़न ने मुहम्मद के फैसले में एक प्रमुख भूमिका निभाई है ताकि यह सुझाव दिया जा सके कि उनके कई अनुयायी अबिसिनिया में ईसाइयों के बीच शरण लेते हैं। अल- ताबारी में संरक्षित' उआरवा के प्रसिद्ध पत्र के मुताबिक, मुसलमानों का बहुमत अपने मूल शहर लौट आया क्योंकि इस्लाम ने उमर और हमजाह जैसे कनवर्ट किए गए मक्काओं की ताकत और उच्च रैंकिंग हासिल की।
हालांकि, मुसलमान इथियोपिया से मक्का तक लौटने के कारण पर एक पूरी तरह से अलग कहानी है। इस खाते के मुताबिक- अल-वकिदी द्वारा शुरू में उल्लेख किया गया था, फिर इब्न साद और तबारी द्वारा, लेकिन इब्न हिशाम द्वारा नहीं, इब्न इशाक द्वारा नहीं -मुहम्मद, जो अपने जनजाति के साथ आवास की उम्मीद कर रहे थे,एक कविता स्वीकार की तीन मक्का देवी के अस्तित्व को अल्लाह की बेटियां माना जाता है। मुहम्मद ने अगले दिन छंदों को जिब्रिल अलै. के आदेश पर वापस ले लिया, दावा किया कि छंद स्वयं शैतान द्वारा फुसफुसाए गए थे। इसके बजाय, इन देवताओं का एक उपहास पेश किया गया था। इस प्रकरण को "द स्टोरी ऑफ द क्रेन" के नाम से जाना जाता है, जिसे " शैतानिक वर्सेज " भी कहा जाता है। कहानी के अनुसार, इसने मुहम्मद और मक्का के बीच एक सामान्य सुलह का नेतृत्व किया, और एबीसिनिया मुसलमानों ने घर लौटना शुरू कर दिया। जब वे पहुंचे तो जिब्रिल अलै. ने मुहम्मद को सूचित किया था कि दो छंद रहस्योद्घाटन का हिस्सा नहीं थे, लेकिन शैतान ने उन्हें डाला था। उस समय के विद्वानों ने इन छंदों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता और कहानी को विभिन्न आधारों पर तर्क दिया। इस्लिक विद्वानों जैसे मलिक इब्न अनास, अल-शफीई, अहमद इब्न हनबल, अल-नासाई, अल बुखारी, अबू दाऊद, अल-इस्की द्वारा अल-वकिदी की गंभीर आलोचना की गई थी। नवावी और दूसरों को झूठा और फोर्जर के रूप में। बाद में, इस घटना को कुछ समूहों के बीच कुछ स्वीकृति मिली, हालांकि दसवीं शताब्दी के दौरान इसके लिए मजबूत आपत्तियां जारी रहीं। इन छंदों को अस्वीकार करने तक आपत्तियां जारी रहीं और कहानी अंततः एकमात्र स्वीकार्य रूढ़िवादी मुस्लिम स्थिति बन गई।
६१७ में, मखज़म के नेता और बानू अब्द-शम्स, दो महत्वपूर्ण कुरैश कुलों ने मुहम्मद की सुरक्षा को वापस लेने में दबाव डालने के लिए अपने व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी बनू हाशिम के खिलाफ सार्वजनिक बहिष्कार घोषित कर दिया। बहिष्कार तीन साल तक चला, लेकिन आखिर में गिर गया क्योंकि यह अपने उद्देश्य में विफल रहा। इस समय के दौरान, मुहम्मद केवल पवित्र तीर्थ महीनों के दौरान प्रचार करने में सक्षम थे, जिसमें अरबों के बीच सभी शत्रुताएं निलंबित कर दी गई थीं।
इस्रा और मिराज
इस्लामी परंपरा में कहा गया है कि ६२० में, मुहम्मद ने इस्रा और मिराज का अनुभव किया, एक चमत्कारिक रात्रि लंबी यात्रा देवदुत जिब्रिल के साथ हुई थी। यात्रा की शुरुआत में, कहा जाता है कि इस्रा, मक्का से "सबसे दूर की मस्जिद" के लिए एक बुर्राक़ जानवर पर यात्रा कर रहे थे। बाद में, मिराज के दौरान, मुहम्मद ने स्वर्ग और नरक का दौरा किया, और पहले के नबी, जैसे इब्राहीम , मूसा और यीशु के साथ बात की थी। मुहम्मद की पहली जीवनी के लेखक इब्न इशाक ने इस घटना को आध्यात्मिक अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया; बाद में इतिहासकार, जैसे अल-ताबारी और इब्न कथिर , इसे एक शारीरिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
कुछ पश्चिमी विद्वान का कहना है कि इस्रा और मिराज यात्रा ने मक्का में पवित्र घेरे से स्वर्ग के माध्यम से दिव्य अल-बेत अल-मामूर (काबा का स्वर्गीय प्रोटोटाइप) तक यात्रा की; बाद की परंपराओं ने मुक्का से यरूशलेम जाने के रूप में मुहम्मद की यात्रा को इंगित किया।
हिजरत से पिछले साल पहले
मुहम्मद की पत्नी खदिजा रजी. और चाचा अबू तालिब दोनों की मृत्यु ६१९ में हुई, इस साल इस वर्ष " दुःख का वर्ष " कहा जाता है। अबू तालिब की मृत्यु के साथ, बानू हाशिम वंश के नेतृत्व ने मुहम्मद के एक दृढ़ दुश्मन अबू लहब को पारित किया। इसके तुरंत बाद, अबू लाहब ने मुहम्मद पर कबीले की सुरक्षा वापस ले ली। इसने मोहम्मद को खतरे में डाल दिया; कबीले संरक्षण की वापसी से संकेत मिलता है कि उसकी हत्या के लिए रक्त बदला ठीक नहीं किया जाएगा। मुहम्मद ने फिर अरब में एक और महत्वपूर्ण शहर ताइफ़ का दौरा किया, और एक संरक्षक को खोजने की कोशिश की, लेकिन उनका प्रयास विफल रहा और आगे उनहें शारीरिक खतरे में लाया। मुहम्मद को मक्का लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। मुक्ति इब्न आदि (और बनू नफाइल के जनजाति की सुरक्षा) नामक एक मक्का आदमी ने उसे अपने मूल शहर में सुरक्षित रूप से प्रवेश करने के लिए संभव बनाया।
कई लोग व्यापार पर मक्का गए या काबा के तीर्थयात्रियों के रूप में गए। मुहम्मद ने अपने और अपने अनुयायियों के लिए एक नया घर तलाशने का अवसर लिया। कई असफल वार्ता के बाद, उन्हें यसरब (बाद में मदीना शहर) के कुछ लोगों के साथ आशा मिली। यसरब की अरब आबादी एकेश्वरवाद से परिचित थी और एक भविष्यवक्ता की उपस्थिति के लिए तैयार थी क्योंकि वहां एक यहूदी समुदाय मौजूद था। उन्होंने मक्का पर सर्वोच्चता हासिल करने के लिए, मुहम्मद और नए विश्वास के माध्यम से आशा की थी; तीर्थयात्रा की जगह के रूप में यसरब अपने महत्व के प्रति ईर्ष्यावान थे। इस्लाम में कनवर्ट मदीना के लगभग सभी अरब जनजातियों से आया; अगले वर्ष जून तक, पचास मुस्लिम तीर्थयात्रा के लिए मक्का आए और मुहम्मद से मिलते थे। रात को गुप्त रूप से उससे मिलकर, समूह ने " अल-अबाबा का दूसरा वचन " या ओरिएंटलिस्ट के विचार में, " युद्ध की शपथ " के रूप में जाना जाता है। अकबाह के प्रतिज्ञाओं के बाद, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को यसरब में जाने के लिए प्रोत्साहित किया। एबिसिनिया के प्रवासन के साथ, कुरैशी ने प्रवासन को रोकने का प्रयास किया। हालांकि, लगभग सभी मुस्लिम छोड़ने में कामयाब रहे।
अंत में सन् ६२२ में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर हिजरी की शुरुआत होती है। मदीना में उनका स्वागत हुआ और कई संभ्रांत लोगों द्वारा स्वीकार किया गया। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान-सी थी और मुहम्मद के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। उस समय मदीना में तीन महत्वपूर्ण यहूदी कबीले थे। आरंभ में मुहम्मद ने जेरुसलम को प्रार्थना की दिशा बनाने को कहा था।
सन् ६३० में मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के साथ मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्के वालों ने हथियार डाल दिये। मक्का मुसलमानों के आधीन में आगया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। सन् ६३२ में मुहम्मद का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक लगभग सम्पूर्ण अरब इस्लाम कबूल कर चुका था।
हिजरा ६२२ ई में मक्का से उनके अनुयायियों और मक्का से मदीना का प्रवास है। जून ६२२ में, उन्हें मारने के लिए एक साजिश की चेतावनी दी गई, मुहम्मद गुप्त रूप से मक्का से बाहर निकल गये और मक्का के उत्तर में ४५० किलोमीटर (२८० मील) उत्तर में अपने अनुयायियों को मदीना ले गये।
मदीना में प्रवासन
मदीना के बारह महत्वपूर्ण कुलों के प्रतिनिधियों से मिलकर एक प्रतिनिधिमंडल ने मुहम्मद को पूरे समुदाय के लिए मुख्य मध्यस्थ के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया; एक तटस्थ बाहरी व्यक्ति के रूप में उनकी स्थिति के कारण। यसरब में लड़ रहा था: मुख्य रूप से इस विवाद में अरब और यहूदी निवासियों को शामिल किया गया था, और अनुमान लगाया गया था कि ६२० से पहले सौ साल तक चल रहा था। परिणामी दावों पर आवर्ती हत्याएं और असहमति, विशेष रूप से बुआथ की लड़ाई के बाद जिसमें सभी कुलों शामिल थे, ने उन्हें स्पष्ट किया कि रक्त-विवाद की आबादी की अवधारणा और आंखों की आंख अब तक काम करने योग्य नहीं थी जब तक कि विवादित मामलों में निर्णय लेने के लिए एक व्यक्ति नहीं था। मदीना के प्रतिनिधिमंडल ने खुद को और उनके साथी नागरिकों को मुहम्मद को अपने समुदाय में स्वीकार करने और शारीरिक रूप से उन्हें अपने आप में से एक के रूप में संरक्षित करने का वचन दिया।
मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को मदीना में जाने के लिए निर्देश दिया, जब तक कि उनके लगभग सभी अनुयायियों ने मक्का छोड़ दिया। परंपरा के अनुसार, प्रस्थान पर चिंतित होने के कारण, मक्का ने मुहम्मद की हत्या करने की योजना बनाई। अली रजी. की मदद से, मुहम्मद ने उन्हें देखकर मक्का को मूर्ख बना दिया, और गुप्त रूप से अबू बकर रजी. के साथ शहर से फिसल गये। ६२२ तक, मुहम्मद एक बड़ी कृषि ओएसिस मदीना चले गए। मुहम्मद के साथ मक्का से प्रवास करने वाले लोग मुहाजिरीन (प्रवासियों) के रूप में जाने जाते थे।
एक नई राजनीति की स्थापना
पहली बातों में मुहम्मद ने मदीना के जनजातियों में लंबी शिकायतों को कम करने के लिए किया था, मदीना के आठ मेदिनी जनजातियों और मुस्लिम प्रवासियों के बीच मदीना के संविधान के रूप में जाना जाने वाला एक दस्तावेज तैयार करना था, "गठबंधन या संघ का एक प्रकार स्थापित करना"; सभी नागरिकों के इस निर्दिष्ट अधिकार और कर्तव्यों, और मदीना के विभिन्न समुदायों के संबंध (मुस्लिम समुदाय सहित अन्य समुदायों, विशेष रूप से यहूदी और अन्य " पुस्तक के लोग ")। मदीना, उम्मा के संविधान में परिभाषित समुदाय का धार्मिक दृष्टिकोण था, जो व्यावहारिक विचारों से भी आकार था और पुराने अरब जनजातियों के कानूनी रूपों को काफी हद तक संरक्षित करता था।
मदीना में इस्लाम में परिवर्तित होने वाला पहला समूह महान नेताओं के बिना कुलों थे; इन कुलों को बाहर से शत्रुतापूर्ण नेताओं द्वारा अधीन कर दिया गया था। इसके बाद कुछ अपवादों के साथ मदीना की मूर्तिपूजा आबादी द्वारा इस्लाम की सामान्य स्वीकृति मिली। इब्न इशाक के मुताबिक, यह इस्लाम के लिए साद इब्न मुआद (एक प्रमुख मेदीन नेता) के रूपांतरण से प्रभावित था। मदीन जो इस्लाम में परिवर्तित हो गए और मुस्लिम प्रवासियों को आश्रय खोजने में मदद मिली, उन्हें अंसार (समर्थक) के रूप में जाना जाने लगा। तब मुहम्मद ने प्रवासियों और समर्थकों के बीच भाईचारे की स्थापना की और उन्होंने अली रजी. को अपने भाई के रूप में चुना।
सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत
प्रवासन के बाद, मक्का के लोगों ने मुस्लिम प्रवासियों की संपत्ति मदीना को जब्त कर ली। युद्ध बाद में मक्का और मुसलमानों के बीच टूट जाएगा। मुहम्मद ने कुरान के छंदों को मुसलमानों को मक्का से लड़ने की अनुमति दी (सूरा अल-हज , कुरान )। परंपरागत खाते के अनुसार, ११ फरवरी ६२४ को, मदीना में मस्जिद अल-क़िबलायत में प्रार्थना करते हुए, मुहम्मद को भगवान से खुलासा हुआ कि उन्हें प्रार्थना के दौरान यरूशलेम की बजाय मक्का का सामना करना चाहिए। मुहम्मद ने नई दिशा में समायोजित किया, और उनके साथ प्रार्थना करने वाले उनके साथी प्रार्थना के दौरान मक्का का सामना करने की परंपरा शुरू करते हुए उनके नेतृत्व का पीछा करते थे।
मार्च ६२४ में, मुहम्मद ने मक्का व्यापारी कारवां पर छापे में लगभग तीन सौ योद्धाओं का नेतृत्व किया। मुसलमानों ने बद्र में कारवां के लिए हमला किया। योजना से अवगत, मक्का कारवां ने मुस्लिमों को छोड़ दिया। एक मक्का बल को कारवां की रक्षा के लिए भेजा गया था और मुसलमानों को यह शब्द प्राप्त करने के लिए मुकाबला करने के लिए चला गया था कि कारवां सुरक्षित था। बद्र की लड़ाई शुरू हुई। हालांकि तीन से एक से अधिक की संख्या में, मुसलमानों ने युद्ध जीता, जिसमें चौदह मुसलमानों के साथ कम से कम पचास मक्का मारे गए। वे अबू जहल समेत कई मक्का नेताओं की हत्या में भी सफल रहे। सत्तर कैदियों का अधिग्रहण किया गया था, जिनमें से कई को छुड़ौती मिली थी। मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने जीत को उनके विश्वास की पुष्टि के रूप में देखा और मुहम्मद ने एक अदृश्य मेजबानों की सहायता से जीत के रूप में जीत दर्ज की। इस अवधि के कुरानिक छंद, मक्का छंदों के विपरीत, सरकार की व्यावहारिक समस्याओं और लूट के वितरण जैसे मुद्दों से निपटा।
जीत ने मदीना में मुहम्मद की स्थिति को मजबूत किया और अपने अनुयायियों के बीच पहले के संदेहों को दूर कर दिया। नतीजतन, उनका विरोध कम मुखर हो गया। जिन लोगों ने अभी तक परिवर्तित नहीं किया था, वे इस्लाम के अग्रिम के बारे में बहुत कड़वा थे। दो पगान, अवेस मणत जनजाति के असमा बंट मारवान और अमृत बी के अबू 'अफक । 'ऑफ जनजाति, मुसलमानों को टाउंटिंग और अपमानित छंद बना दिया था। वे अपने या संबंधित कुलों से संबंधित लोगों द्वारा मारे गए थे, और मुहम्मद ने हत्याओं को अस्वीकार नहीं किया था। हालांकि, इस रिपोर्ट को कुछ लोगों द्वारा एक निर्माण के रूप में माना जाता है। उन जनजातियों के अधिकांश सदस्य इस्लाम में परिवर्तित हो गए, और थोड़ा मूर्तिपूजा विपक्ष बना रहा।
मोहम्मद ने मदीना से तीन मुख्य यहूदी जनजातियों में से एक बनू क़ैनुक़ा से निष्कासित किया, लेकिन कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि मुहम्मद की मृत्यु के बाद निष्कासन हुआ। अल- वकिदी के अनुसार, अब्द-अल्लाह इब्न उबाई ने उनके लिए बात करने के बाद, मुहम्मद ने उन्हें निष्पादित करने से रोका और आदेश दिया कि उन्हें मदीना से निर्वासित किया जाए। बद्र की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने अपने समुदाय को हेजाज़ के उत्तरी हिस्से से हमलों से बचाने के लिए कई बेदुईन जनजातियों के साथ पारस्परिक सहायता गठजोड़ भी किया।
मक्का के साथ संघर्ष
मक्का उनकी हार का बदला लेने के लिए उत्सुक थे। आर्थिक समृद्धि को बनाए रखने के लिए, मक्का को अपनी प्रतिष्ठा बहाल करने की आवश्यकता थी, जिसे बदर में कम कर दिया गया था। आने वाले महीनों में, मक्का ने मदीना को हमला करने वाले दलों को भेजा जबकि मुहम्मद ने मक्का के साथ संबद्ध जनजातियों के खिलाफ अभियान चलाया और हमलावरों को मक्का कारवां पर भेज दिया। अबू सूफान ने ३००० पुरुषों की एक सेना इकट्ठी की और मदीना पर हमले के लिए तैयार किया।
एक स्काउट ने एक दिन बाद मक्का सेना की उपस्थिति और संख्याओं के मुहम्मद को चेतावनी दी। अगली सुबह, युद्ध के मुस्लिम सम्मेलन में, एक विवाद सामने आया कि मक्का को कैसे पीछे हटाना है। मुहम्मद और कई वरिष्ठ आंकड़ों ने सुझाव दिया कि मदीना के भीतर लड़ना और भारी मजबूत गढ़ों का लाभ उठाना सुरक्षित होगा। युवा मुसलमानों ने तर्क दिया कि मक्का फसलों को नष्ट कर रहे थे, और गढ़ों में उलझन से मुस्लिम प्रतिष्ठा नष्ट हो जाएगी। मुहम्मद अंततः युवा मुस्लिमों को स्वीकार कर लिया और युद्ध के लिए मुस्लिम बल तैयार किया। मुहम्मद ने उहूद (मक्का शिविर का स्थान) के पहाड़ पर अपनी सेना का नेतृत्व किया और २३ मार्च ६२५ को उहूद की लड़ाई लड़ी। हालांकि मुस्लिम सेना के शुरुआती मुठभेड़ों में लाभ था, अनुशासन की कमी रणनीतिक रूप से रखे तीरंदाजों का हिस्सा मुस्लिम हार का कारण बन गया; मुहम्मद के चाचा हमजा समेत ७५ मुस्लिम मारे गए, जो मुस्लिम परंपरा में सबसे प्रसिद्ध शहीदों में से एक बन गए। मक्का ने मुसलमानों का पीछा नहीं किया, बल्कि, वे मक्का को जीत घोषित कर दिया। घोषणा शायद इसलिए है क्योंकि मुहम्मद घायल हो गए थे और मरे हुए थे। जब उन्होंने पाया कि मुहम्मद रहते थे, तो उनकी सहायता के लिए आने वाली नई ताकतों के बारे में झूठी जानकारी के कारण मक्का वापस नहीं लौटे। हमले मुस्लिमों को पूरी तरह से नष्ट करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहे थे। मुसलमानों ने मरे हुओं को दफनाया और उस शाम मदीना लौट आए। नुकसान के कारणों के बारे में जमा प्रश्न; मुहम्मद ने कुरान के छंदों को ३: १५२ दिया जो दर्शाता है कि हार दो गुना थी: आंशिक रूप से अवज्ञा के लिए सजा, आंशिक रूप से दृढ़ता के लिए एक परीक्षण।
अबू सुफ़ियान ने मदीना पर एक और हमले की दिशा में अपना प्रयास निर्देशित किया। उन्होंने मदीना के उत्तर और पूर्व में भिक्षु जनजातियों से समर्थन प्राप्त किया; मुहम्मद की कमजोरी, लूट के वादे, कुरैश प्रतिष्ठा की यादें और रिश्वत के माध्यम से प्रचार का उपयोग करना। मुहम्मद की नई नीति उनके खिलाफ गठजोड़ को रोकने के लिए थी। जब भी मदीना के खिलाफ गठबंधन गठित किए गए, तो उन्होंने उन्हें तोड़ने के लिए अभियानों को भेजा। मुहम्मद ने मदीना के खिलाफ शत्रुतापूर्ण इरादे से पुरुषों के बारे में सुना, और गंभीर तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की। एक उदाहरण बनू नादिर के यहूदी जनजाति के प्रधान काब इब्न अल-अशरफ की हत्या है। अल-अशरफ मक्का गए और कविताओं को लिखा जो मकर के दुःख, क्रोध और बद्री की लड़ाई के बाद बदला लेने की इच्छा रखते थे। लगभग एक साल बाद, मुहम्मद ने मदीना से बनू नादिर को सीरिया में प्रवासन करने के लिए मजबूर कर दिया; उन्होंने उन्हें कुछ संपत्ति लेने की इजाजत दी, क्योंकि वह अपने गढ़ों में बनू नादिर को कम करने में असमर्थ थे। मुहम्मद ने भगवान के नाम पर उनकी बाकी संपत्ति पर दावा किया था क्योंकि यह रक्तपात से प्राप्त नहीं हुआ था। मुहम्मद ने विभिन्न अरब जनजातियों को व्यक्तिगत रूप से आश्चर्यचकित कर दिया, जिससे भारी दुश्मनों ने उन्हें दुश्मनों को खत्म करने के लिए एकजुट हो गया। मुहम्मद के खिलाफ एक कन्फेडरेशन रोकने की कोशिशें असफल रहीं, हालांकि वह अपनी ताकतों को बढ़ाने में सक्षम था और कई संभावित जनजातियों को अपने दुश्मनों से जुड़ने से रोक दिया था।
मदीना की घेराबंदी
निर्वासित बानू नादिर की मदद से, कुरैश के सैन्य नेता अबू सूफान ने १०,००० लोगों की एक शक्ति जताई। मुहम्मद ने लगभग ३,००० पुरुषों की एक सेना तैयार की और उस समय अरब में अज्ञात रक्षा का एक रूप अपनाया; मुसलमानों ने एक खाई खोद दी जहां मदीना घुड़सवार हमले के लिए खुली थी। इस विचार को फ़ारसी में इस्लाम, सलमान फारसी में परिवर्तित करने के लिए श्रेय दिया जाता है। मदीना की घेराबंदी ३1 मार्च ६२७ को शुरू हुई और दो सप्ताह तक चली। अबू सुफ़ियान की सेना किलेबंदी के लिए तैयार नहीं थी, और एक अप्रभावी घेराबंदी के बाद, गठबंधन ने घर लौटने का फैसला किया। कुरान ३३: ९-२७. छंद में सुर अल-अहज़ाब में इस लड़ाई पर चर्चा करता है। [८८] युद्ध के दौरान, मदीना के दक्षिण में स्थित बनू कुरैजा के यहूदी जनजाति ने मुहम्मद के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मक्का सेनाओं के साथ वार्ता में प्रवेश किया। यद्यपि मक्का सेनाओं को सुझावों से प्रभावित किया गया था कि मुहम्मद को अभिभूत होना निश्चित था, लेकिन अगर संघ उन्हें नष्ट करने में असमर्थ था तो वे आश्वासन चाहते थे। लंबे समय तक वार्ता के बाद कोई समझौता नहीं हुआ, आंशिक रूप से मुहम्मद के स्काउट्स द्वारा तबाही के प्रयासों के कारण। गठबंधन की वापसी के बाद, मुसलमानों ने विश्वासघात के बनू कुरैजा पर आरोप लगाया और उन्हें २५ दिनों तक अपने किलों में घेर लिया। अंततः बानू कुरैजा ने आत्मसमर्पण कर दिया; इब्न इशाक के मुताबिक, इस्लाम में कुछ धर्मों के अलावा सभी पुरुष मारे गए थे, जबकि महिलाएं और बच्चे दास थे। [ वलीद एन अराफात और बराकत अहमद ने इब्न इशाक की कथा की सटीकता पर विवाद किया है। अराफात का मानना है कि इस घटना के १०0 वर्षों बाद बोलते हुए इब्न इशाक के यहूदी स्रोतों ने यहूदी इतिहास में पहले नरसंहार की यादों के साथ इस खाते को स्वीकार किया; उन्होंने नोट किया कि इब्न इशाक को उनके समकालीन मलिक इब्न अनास द्वारा अविश्वसनीय इतिहासकार माना गया था, और बाद में इब्न हजर द्वारा "विषम कहानियों" का एक ट्रांसमीटर माना गया था। अहमद का तर्क है कि केवल कुछ जनजाति मारे गए थे, जबकि कुछ सेनानियों को केवल गुलाम बना दिया गया था। वाट को अराफात के तर्क "पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं" मिलते हैं, जबकि मीर जे किस्टर ने अराफात और अहमद के तर्कों की व्याख्या का खंडन किया है।
मदीना की घेराबंदी में, मक्का ने मुस्लिम समुदाय को नष्ट करने के लिए उपलब्ध ताकत प्रदान की। विफलता के परिणामस्वरूप प्रतिष्ठा का एक महत्वपूर्ण नुकसान हुआ; सीरिया के साथ उनका व्यापार गायब हो गया। खाई की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने उत्तर में दो अभियान किए, दोनों बिना किसी लड़ाई के समाप्त हो गए। इन यात्राओं में से एक (या कुछ शुरुआती खातों के अनुसार कुछ साल पहले) लौटने के दौरान, मुहम्मद की पत्नी आइशा रजी. के खिलाफ व्यभिचार का आरोप लगाया गया था। आइशा रजी. को आरोपों से दूर कर दिया गया जब मुहम्मद ने घोषणा की कि उन्हें आइशा रजी. की निर्दोषता की पुष्टि करने और निर्देशन के आरोपों को चार प्रत्यक्षदर्शी (सूरा २४, अन-नूर) द्वारा समर्थित किया गया है।
हुदैबिया की संधि
यद्यपि मुहम्मद ने हज को आदेश देने वाले कुरान के छंद दिए थे, मुसलमानों ने कुरैश शत्रुता के कारण इसे नहीं किया था। शाववाल ६२८ के महीने में, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को बलिदान जानवरों को प्राप्त करने और मक्का को एक तीर्थयात्रा (उम्रह) तैयार करने का आदेश दिया और कहा कि भगवान ने उन्हें इस दृष्टिकोण की पूर्ति का वादा किया था जब वह पूरा होने के बाद अपने सिर को हिला रहे थे हज १,४०० मुसलमानों की सुनवाई पर, कुरैशी ने उन्हें रोकने के लिए २०० घुड़सवार भेज दिए। मुहम्मद ने उन्हें एक और कठिन मार्ग लेकर उन्हें उखाड़ फेंक दिया, जिससे उनके अनुयायियों को मक्का के बाहर अल-हुदायबिया पहुंचने में मदद मिली। वाट के अनुसार, हालांकि तीर्थयात्रा बनाने का मुहम्मद का निर्णय उनके सपने पर आधारित था, लेकिन वह मूर्तिपूजक मक्काओं का भी प्रदर्शन कर रहा था कि इस्लाम ने अभयारण्यों की प्रतिष्ठा को खतरा नहीं दिया था, कि इस्लाम एक अरब धर्म था।
मक्का से यात्रा करने वाले उत्सवों के साथ बातचीत शुरू हुई। हालांकि, ये जारी रहे, अफवाहें फैल गईं कि मुस्लिम वार्ताकारों में से एक उथमान बिन अल-एफ़ान कुरैशी द्वारा मारा गया था। मुहम्मद ने तीर्थयात्रियों को मक्का के साथ युद्ध में उतरने पर प्रतिज्ञा करने के लिए कहा था (या मुहम्मद के साथ रहना, जो भी निर्णय लिया)। इस प्रतिज्ञा को "स्वीकृति का वचन" या " पेड़ के नीचे प्रतिज्ञा " के रूप में जाना जाने लगा। उथमान की सुरक्षा के समाचारों को जारी रखने के लिए वार्ता की अनुमति दी गई, और दस साल तक चलने वाली संधि पर अंततः मुसलमानों और कुरैशी के बीच हस्ताक्षर किए गए। संधि के मुख्य बिंदुओं में शामिल थे: शत्रुता का समापन, मुहम्मद की तीर्थयात्रा का स्थगित अगले वर्ष, और किसी भी मक्का को वापस भेजने के लिए समझौता जो उनके संरक्षक से अनुमति के बिना मदीना में आ गया।
कई मुसलमान संधि से संतुष्ट नहीं थे। हालांकि, कुरानिक सुर " अल-फाथ " (विजय) (कुरान ४८: १-२९) ने उन्हें आश्वासन दिया कि अभियान को विजयी माना जाना चाहिए। बाद में यह हुआ कि मुहम्मद के अनुयायियों ने संधि के पीछे लाभ को महसूस किया। इन लाभों में मुसलमानों को मुहम्मद की पहचान करने के लिए मिलिना को सैन्य गतिविधि की समाप्ति के रूप में पहचानने की आवश्यकता शामिल थी, जिसमें मदीना को ताकत हासिल करने की अनुमति मिली, और तीर्थयात्रा अनुष्ठानों से प्रभावित मक्का की प्रशंसा।
संघर्ष पर हस्ताक्षर करने के बाद, मुहम्मद खैबर के यहूदी ओएसिस के खिलाफ अभियान चलाए, जिसे खैबर की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। यह संभवतः बानू नादिर के आवास के कारण था जो मुहम्मद के खिलाफ शत्रुता को उत्तेजित कर रहे थे, या हुदैबिया के संघर्ष के असंगत परिणाम के रूप में दिखाई देने वाली प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए। मुस्लिम परंपरा के अनुसार, मुहम्मद ने कई शासकों को पत्र भी भेजे, उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए कहा (सटीक तारीख स्रोतों में अलग-अलग दी गई है)। उन्होंने बीजान्टिन साम्राज्य (पूर्वी रोमन साम्राज्य), फारस के खोसरू, यमन के मुखिया और कुछ अन्य लोगों के हेराकेलियस को दूत भेजे। हुदैबिया के संघर्ष के बाद के वर्षों में, मुहम्मद ने मुहता की लड़ाई में ट्रांसजॉर्डियन बीजान्टिन मिट्टी पर अरबों के खिलाफ अपनी सेनाओं को निर्देशित किया।
मक्का पर विजय
हुदैबिय्याह का संघर्ष दो साल तक लागू किया गया था। बानू खुजा के जनजाति के साथ मुहम्मद के साथ अच्छे संबंध थे, जबकि उनके दुश्मन बानू बकर ने मक्का के साथ सहयोग किया था। बकर के एक समूह ने खुजा के खिलाफ रात की छाप छोड़ी, उनमें से कुछ को मार डाला। मक्का ने बानू बकर को हथियार से मदद की और कुछ सूत्रों के मुताबिक, कुछ मक्का ने भी लड़ाई में हिस्सा लिया। इस घटना के बाद, मुहम्मद ने मक्का को तीन शर्तों के साथ एक संदेश भेजा, उनसे उनमें से एक को स्वीकार करने के लिए कहा। ये थे: या तो मक्का खूजाह जनजाति के बीच मारे गए लोगों के लिए रक्त धन का भुगतान करेंगे, वे स्वयं बानू बकर से वंचित हो जाएंगे, या उन्हें हुदाय्याह के नल की घोषणा करनी चाहिए।
मक्का ने जवाब दिया कि उन्होंने अंतिम स्थिति स्वीकार कर ली है। जल्द ही उन्होंने अपनी गलती को महसूस किया और मुहम्मद द्वारा अस्वीकार किया गया अनुरोध, हुदैबिय्याह संधि को नवीनीकृत करने के लिए अबू सूफान को भेजा।
मुहम्मद ने अभियान की तैयारी की शुरुआत की। ६३० में, मुहम्मद ने १०,००० मुस्लिम धर्मों के साथ मक्का पर चढ़ाई की। कम से कम हताहतों के साथ, मुहम्मद ने मक्का का नियंत्रण जब्त कर लिया। उन्होंने पिछले पुरुषों के लिए माफी घोषित की, दस लोगों और महिलाओं को छोड़कर जो "हत्या या अन्य अपराधों के दोषी थे या युद्ध से उछल गए थे और शांति को बाधित कर दिया था"। इनमें से कुछ बाद में क्षमा कर दिए गए थे। अधिकांश मक्का इस्लाम में परिवर्तित हो गए और मुहम्मद काबा के आसपास और आसपास अरब देवताओं की सभी मूर्तियों को नष्ट कर दिया। इब्न इशाक और अल-अज़राकी द्वारा एकत्रित रिपोर्टों के मुताबिक, मुहम्मद ने व्यक्तिगत रूप से मैरी और जीसस के चित्रों या भित्तिचित्रों को बचाया, लेकिन अन्य परंपराओं से पता चलता है कि सभी चित्र मिटा दिए गए थे। कुरान मक्का की विजय पर चर्चा करता है।
अरब पर विजय
मक्का की विजय के बाद, मुहम्मद हौजिन की संघीय जनजातियों से सैन्य खतरे से डर गए थे, जो मुहम्मद के आकार को एक सेना को बढ़ा रहे थे। बनू हवाज़िन मक्का के पुराने दुश्मन थे। वे बनू याकिफ़ (ताइफ़ शहर में रहने वाले) से जुड़े थे जिन्होंने मक्का की प्रतिष्ठा के पतन के कारण मक्का विरोधी नीति को अपनाया था। मुहम्मद हुनैन की लड़ाई में हवाजिन और थाकिफ जनजातियों को हराया।
उसी वर्ष, मुहम्मद ने मुहता की लड़ाई में अपनी पिछली हार और मुस्लिमों के खिलाफ शत्रुता की रिपोर्ट के कारण उत्तरी अरब के खिलाफ हमला किया। बड़ी कठिनाई के साथ उन्होंने ३०,००० पुरुषों को इकट्ठा किया; जिनमें से आधे दूसरे दिन अब्द-अल्लाह इब्न उबाय के साथ लौट आये, जो मुहम्मद उन पर डूबने वाले हानिकारक छंदों से परेशान थे। यद्यपि मोहम्मद तबुक में शत्रुतापूर्ण ताकतों से जुड़ा नहीं था, फिर भी उन्होंने इस क्षेत्र के कुछ स्थानीय प्रमुखों को जमा कर लिया।
उन्होंने पूर्वी अरब में किसी भी शेष मूर्तिपूजक मूर्तियों के विनाश का भी आदेश दिया। पश्चिमी अरब में मुस्लिमों के खिलाफ होने वाला अंतिम शहर ताइफ था। मुहम्मद ने शहर के आत्मसमर्पण को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जब तक वे इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए सहमत नहीं हुए और पुरुषों को उनकी देवी अल-लात की मूर्ति को नष्ट करने की अनुमति दी। </रेफ>
तबूक की लड़ाई के एक साल बाद, बनू थाकिफ ने मंत्रियों को मुहम्मद को आत्मसमर्पण करने और इस्लाम को अपनाने के लिए भेजा। मुहम्मद को अपने हमलों के खिलाफ सुरक्षा और युद्ध की लूट से लाभ उठाने के लिए कई बेदूइन प्रस्तुत किए गए। हालांकि, बेडरूम इस्लाम की प्रणाली के लिए विदेशी थे और स्वतंत्रता बनाए रखना चाहते थे: अर्थात् उनके गुण और पितृ परंपराओं का कोड। मुहम्मद को एक सैन्य और राजनीतिक समझौते की आवश्यकता होती है जिसके अनुसार वे "मुसलमानों और उनके सहयोगियों पर हमले से बचने के लिए, और मुस्लिम धार्मिक टैक्स जकात का भुगतान करने के लिए मदीना की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं।"
यह भी देखें: ग़दीर ए ख़ुम की घटना
६३२ में, मदीना के प्रवास के दसवें वर्ष के अंत में, मुहम्मद ने अपनी पहली सच्ची इस्लामी तीर्थयात्रा पूरी की, वार्षिक महान तीर्थयात्रा के लिए प्राथमिकता स्थापित की, जिसे हज के नाम से जाना जाता है। धू अल-हिजजाह मुहम्मद के ९ वें स्थान पर मक्का के पूर्व में अराफात पर्वत पर अपने विदाई उपदेश दिया गया। इस उपदेश में, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को कुछ पूर्व इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन न करने की सलाह दी। मिसाल के तौर पर, उन्होंने कहा कि एक सफेद पर काले रंग की कोई श्रेष्ठता नहीं है, न ही एक काले रंग की शुद्धता और अच्छी क्रिया के अलावा एक सफेद पर कोई श्रेष्ठता है। उन्होंने पूर्व जनजातीय व्यवस्था के आधार पर पुराने रक्त विवादों और विवादों को समाप्त कर दिया और नए इस्लामी समुदाय के निर्माण के प्रभाव के रूप में पुरानी प्रतिज्ञाओं को वापस करने के लिए कहा। अपने समाज में महिलाओं की भेद्यता पर टिप्पणी करते हुए, मुहम्मद ने अपने पुरुष अनुयायियों से "महिलाओं के लिए अच्छा होने का उपदेश दिया, क्योंकि वे आपके घरों में शक्तिहीन बंधुआ (अवान) हैं। आप उन्हें अल्लाह के विश्वास में लाये, और अल्लाह ने आप को अपने यौन संबंधों को वचन के साथ वैध बना दिया, तो अपनी इंद्रियों को काबू में रखो, और मेरे शब्दों को सुनें ... "उन्होंने उनसे कहा कि वे अपनी पत्नियों को अनुशासन देने के हकदार थे लेकिन दयालुता से ऐसा करना चाहिए। उन्होंने पितृत्व के झूठे दावों या मृतक के साथ ग्राहक संबंधों को मना कर विरासत के मुद्दे को संबोधित किया और अपने अनुयायियों को अपनी संपत्ति को विवादास्पद उत्तराधिकारी को देने से मना कर दिया। उन्होंने प्रत्येक वर्ष चार चंद्र महीने की पवित्रता को भी बरकरार रखा। सुन्नी तफ़सीर के अनुसार, इस घटना के दौरान निम्नलिखित कुरानिक आयात वितरित की गई: "आज मैंने आपके धर्म को पूरा किया है, और आपके लिए मेरे पक्षों को पूरा किया है और इस्लाम को आपके लिए धर्म के रूप में चुना है" (कुरान ५: ३)। शिया तफ़सीर के अनुसार, यह मुहम्मद के उत्तराधिकारी के रूप में खुम के तालाब में अली इब्न अबी तालिब की नियुक्ति को संदर्भित करता है, यह कुछ दिनों बाद हुआ जब मुसलमान मक्का से मदीना लौट रहे थे।
मौत और मक़बरा
विदाई तीर्थयात्रा के कुछ महीने बाद, मुहम्मद बीमार पड़ गए और बुखार, सिर दर्द और कमजोरी के साथ कई दिनों तक पीड़ित हो गए। सोमवार, ८ जून ६३२, मदीना में ६२ वर्ष या ६३ वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी आइशा रजी. के घर में उनकी मृत्यु हो गई। अपने सिर के साथ आइशा रजी. की गोद में आराम करने के बाद, उसने उससे अपने आखिरी सांसारिक सामान (सात सिक्कों) का निपटान करने के लिए कहा, फिर अपने अंतिम शब्द बोलते हुए कहा:
इस्लाम के विश्वकोष के मुताबिक, मुहम्मद की मौत को मेडिनन बुखार शारीरिक और मानसिक थकान से उत्तेजित होने के कारण माना जा सकता है।
अकादमिक रीसाइट हैलामाज और फतेह हरपी का कहना है कि अर-रफीक अल-आला भगवान का जिक्र कर रहे हैं। उन्हें दफनाया गया जहां वह आइशा रजी. के घर में मर गए। उमायद खलीफ अल-वालिद प्रथम के शासनकाल के दौरान, मुहम्मद की मकबरे की साइट को शामिल करने के लिए अल-मस्जिद-ए-नबवी (पैगंबर की मस्जिद) का विस्तार किया गया था। मकबरे के ऊपर ग्रीन डोम १३ वीं शताब्दी में मामलुक सुल्तान अल मंसूर कलकवुन द्वारा बनाया गया था, हालांकि १६ वीं शताब्दी में ग्रीन रंग जोड़ा गया था, जो ओटोमन सुल्तान सुलेमान द मैग्नीफिशेंट के शासनकाल में था। मुहम्मद के समीप कब्रिस्तानों में से उनके साथी (सहाबा), पहले दो मुस्लिम खलीफा अबू बकर रजी. और उमर रजी. हैं, और एक खाली व्यक्ति जो मुसलमानों का मानना है कि यीशु का इंतजार है। जब बिन सौद ने १८०५ में मदीना लिया, मुहम्मद की मकबरा अपने सोने और गहने के गहने से छीन ली गई थी। वहाबीवाद के अनुयायियों, बिन सऊद के अनुयायियों ने अपनी पूजा को रोकने के लिए मदीना में लगभग हर मकबरे गुंबद को नष्ट कर दिया, और मुहम्मद में से एक को बच निकला है। इसी तरह की घटनाएं १९२५ में हुईं जब सऊदी मिलिशिया ने पीछे हटना शुरू किया- और इस बार शहर को रखने में कामयाब रहे। इस्लाम की वहाबी व्याख्या में, अनियमित कब्रों में दफनाया जाना है। हालांकि सौदी द्वारा फंसे हुए, कई तीर्थयात्रियों ने मयूरत-एक अनुष्ठान का दौरा किया-मकबरे के लिए।
मुहम्मद के बाद
मुहम्मद का उत्तराधिकार केंद्रीय मुद्दा है जिसने मुस्लिम समुदाय को मुस्लिम इतिहास की पहली शताब्दी में कई डिवीजनों में विभाजित किया। उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले, मुहम्मद ने गदिर खुम में एक उपदेश दिया जहां उन्होंने घोषणा की कि अली इब्न अबी तालिब उनके उत्तराधिकारी होंगे। उपदेश के बाद, मुहम्मद ने मुसलमानों को अली रजी. के प्रति निष्ठा देने का आदेश दिया। शिया और सुन्नी दोनों स्रोत इस बात से सहमत हैं कि अबू बकर रजी., उमर इब्न अल-खत्ताब रजी. और उस्मान इब्न अफ़ान रजी. इस घटना में अली रजी. के प्रति निष्ठा देने वाले कई लोगों में से थे। हालांकि, मुहम्मद की मृत्यु के बाद, मुस्लिमों का एक समूह साकिफा में मिला, जहां उमर रजी. ने अबू बकर रजी. के प्रति निष्ठा का वचन दिया था। अबू बकर रजी. ने राजनीतिक शक्ति ग्रहण की, और उनके समर्थकों को सुन्नी के रूप में जाना जाने लगा। इसके बावजूद, मुसलमानों के एक समूह ने अली रजी. को अपना निष्ठा रखा। इन लोगों, जो शिया के नाम से जाना जाने लगा, ने कहा कि अली रजी. के राजनीतिक नेता होने का अधिकार लिया जा सकता है, फिर भी वह मुहम्मद के बाद धार्मिक और आध्यात्मिक नेता थे।
आखिरकार, अबू बकर रजी. और दो अन्य सुन्नी नेताओं, उमर रजी. और उस्मान रजी. की मौत के बाद, सुन्नी मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व के लिए अली रजी. गए। अली रजी. की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र हसन इब्न अली रजी. ने शासकीय रूप से शिया के अनुसार राजनीतिक रूप से और दोनों सफल हुए। हालांकि, छह महीने बाद, उन्होंने मुवाइया इब्न अबू सूफान के साथ एक शांति संधि की, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि, अन्य स्थितियों में, मुवाया के पास राजनीतिक शक्ति होगी जब तक कि वह यह नहीं चुनता कि वह कौन सफल होगा। मुआविया ने संधि तोड़ दी और अपने बेटे यजीद को उनके उत्तराधिकारी बना दिया, इस प्रकार उमायाद वंश बना दिया। हालांकि यह चल रहा था, हसन रजी. और, उनकी मृत्यु के बाद, उनके भाई हुसैन इब्न अली रजी., कम से कम शिया के अनुसार, धार्मिक नेताओं बने रहे। इस प्रकार, सुन्नी के मुताबिक, जो भी राजनीतिक सत्ता धारण करता था उसे मुहम्मद के उत्तराधिकारी माना जाता था, जबकि शिया ने बारह इमाम (अली रजी., हसन रजी., हुसैन रजी. और हुसैन रजी. के वंशज) मुहम्मद के उत्तराधिकारी थे, भले ही वे राजनीतिक शक्ति नहीं रखते।
इन दो मुख्य शाखाओं के अतिरिक्त, मुहम्मद के उत्तराधिकार के संबंध में कई अन्य राय भी बनाई गईं।
इस्लामी सामाजिक सुधार
विलियम मोंटगोमेरी वाट के मुताबिक, मुहम्मद के लिए धर्म एक निजी और व्यक्तिगत मामला नहीं था, बल्कि "अपनी व्यक्तित्व की कुल प्रतिक्रिया जिसकी कुल स्थिति में वह खुद को मिली थी। वह [न केवल] ... धार्मिक और बौद्धिक पहलुओं पर प्रतिक्रिया दे रहा था स्थिति के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दबावों के लिए भी समकालीन मक्का विषय थे। " बर्नार्ड लुईस का कहना है कि इस्लाम में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक परंपराएं हैं - मोहम्मद में एक राजनेता के रूप में और मुहम्मद मक्का में एक विद्रोही के रूप में। उनके विचार में, इस्लाम नए समाजों के साथ पेश होने पर, एक क्रांति के समान, एक महान परिवर्तन है।
इतिहासकार आम तौर पर सहमत हैं कि सामाजिक सुरक्षा , पारिवारिक संरचना, दासता और महिलाओं और बच्चों के अधिकारों जैसे अरब समाज की स्थिति में इस्लामी सामाजिक परिवर्तन। उदाहरण के लिए, लुईस के अनुसार, इस्लाम "पहली बार अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार से वंचित, पदानुक्रम को खारिज कर दिया, और प्रतिभा के लिए खुले करियर का एक सूत्र अपनाया"। मुहम्मद के संदेश ने अरब प्रायद्वीप में समाज और समाज के नैतिक आदेशों को बदल दिया; समाज ने अनुमानित पहचान, विश्व दृश्य और मूल्यों के पदानुक्रम में परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित किया। आर्थिक सुधारों ने गरीबों की दुर्दशा को संबोधित किया, जो पूर्व इस्लामी मक्का में एक मुद्दा बन रहा था। कुरान को गरीबों के लाभ के लिए एक भत्ता कर (ज़कात) का भुगतान करने की आवश्यकता है; चूंकि मुहम्मद की शक्ति में वृद्धि हुई, उन्होंने मांग की कि जनजातियां जो उनके साथ सहयोग करने की कामना करती हैं, विशेष रूप से जकात को लागू करें।
मुहम्मद के वर्णन के बारे में अल बुखारी की किताब साहिह अल बुखारी में अध्याय ६१ में दिए गए विवरण, हदीस ५७ और हदीस ६०, उनके दो साथी द्वारा चित्रित किया गया है:
मोहम्मद इब्न ईसा में- तिर्मिधि की पुस्तक शामाइल अल-मुस्तफा में दिए गए विवरण, अली इब्न अबी तालिब और हिंद इब्न अबी हला को जिम्मेदार ठहराया गया है:
मुहम्मद के कंधों के बीच "पैग़म्बर की मुहर" (मुहर ए नबुव्वत) को आमतौर पर एक कबूतर के अंडा के आकार के उठाए गए तिल के रूप में वर्णित किया जाता है। मुहम्मद का एक अन्य विवरण उम्म माबाद द्वारा प्रदान किया गया था, वह एक महिला जो मदीना की यात्रा पर मिली थी:
इन तरह के विवरण अक्सर सुलेख पैनलों (हिला या तुर्की, हिली में) में पुन: उत्पन्न किए जाते थे, जो १७ वीं शताब्दी में तुर्क साम्राज्य में अपने स्वयं के एक कला रूप में विकसित हुआ था।
मुहम्मद का जीवन पारंपरिक रूप से दो अवधियों में परिभाषित किया जाता है: मक्का में पूर्व-हिजरा (प्रवासन) (५७० से ६२२ तक), और मदीना में पोस्ट-हिजरा (६२२ से ६३२ तक)। कहा जाता है कि मुहम्मद की कुल में तेरह पत्नियां थीं (हालांकि दो में संदिग्ध खाते हैं, रेहाना बिंत जयद और मारिया अल-क़िबतिया, पत्नी या उपनिवेश के रूप में। )) मदीना के प्रवास के बाद तेरह विवाह का ग्यारह हुआ।
२५ साल की उम्र में, मुहम्मद ने अमीर खदीजा बिंत खुवेलीड से विवाह किया जो ४० साल का था। शादी २५ साल तक चली और वह खुश था। मुहम्मद इस विवाह के दौरान किसी और महिला के साथ शादी में नहीं गए थे। खदीजा (रजी.) की मौत के बाद, खवला बिंत हाकिम ने मुहम्मद को सुझाव दिया कि उन्हें उस्मान विधवा सावा बिंत जमा, उम्म रुमान और मक्का के अबू बकर की बेटी आइशा (रजी.) से शादी करनी चाहिए। कहा जाता है कि मुहम्मद दोनों से शादी करने की व्यवस्था के लिए कहा गया है। खदीजा (रजी.) की मृत्यु के बाद मुहम्मद के विवाहों को ज्यादातर राजनीतिक या मानवीय कारणों से अनुबंधित किया गया था। महिलाएं या तो युद्ध में मारे गए मुस्लिमों की विधवा थीं और उन्हें संरक्षक के बिना छोड़ दिया गया था, या महत्वपूर्ण परिवारों या कुलों से संबंधित थे जिन्हें गठबंधन के सम्मान और मजबूत करने के लिए जरूरी था।
परंपरागत स्रोतों के मुताबिक, आइशा (रजी.) मुहम्मद से प्रार्थना करते समय छः या सात वर्ष का था, विवाह के साथ नौ या दस वर्ष की आयु में युवावस्था तक पहुंचने तक शादी नहीं हो रही थी। इसलिए वह शादी में एक कुंवारी थीं। आधुनिक मुस्लिम लेखक जो आइशा की उम्र की गणना के अन्य स्रोतों के आधार पर गणना करते हैं, जैसे कि ऐशा और उनकी बहन असमा के बीच उम्र अंतर के बारे में हदीस, का अनुमान है कि वह तेरह से अधिक थीं और शायद अपने विवाह के समय किशोरों के उत्तरार्ध में।
मदीना के प्रवास के बाद, मुहम्मद , जो उसके अर्धशतक में थे, ने कई और महिलाओं से विवाह किया।
मुहम्मद ने घर के कामों का प्रदर्शन किया जैसे भोजन, सिलाई कपड़े और जूते की मरम्मत करना। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पत्नियों को बातचीत करने का आदी माना था; उन्होंने उनकी सलाह सुनी, और पत्नियों ने बहस की और यहां तक कि उनके साथ तर्क भी दिया।
कहा जाता है कि खदीजा (रजी.) मुहम्मद (रुक्यायाह बिन मुहम्मद, उम्म कुलथम बिंत मुहम्मद, जैनब बिंत मुहम्मद, फातिमाह जहर) और दो बेटे (अब्द-अल्लाह इब्न मुहम्मद और कासिम इब्न मुहम्मद, जो बचपन में दोनों की मृत्यु हो गई) के साथ चार बेटियां थीं। उसकी बेटियों में से एक, फातिमा, उसके सामने मृत्यु हो गई। कुछ शिया विद्वानों का तर्क है कि फातिमा (रजी.) मुहम्मद की एकमात्र बेटी थीं। मारिया अल-क़िबतिया ने उन्हें इब्राहिम इब्न मुहम्मद नाम का एक पुत्र बनाया, लेकिन जब वह दो साल का था तब बच्चा मर गया।
मुहम्मद की पत्नियों में से नौ ने उसे बचा लिया। सुन्नी परंपरा में मुहम्मद की पसंदीदा पत्नी के रूप में जाने जाने वाले आइशा (रजी.) दशकों तक जीवित रहे और इस्लाम की सुन्नी शाखा के लिए हदीस साहित्य बनाने वाले मुहम्मद की बिखरी हुई कहानियों को इकट्ठा करने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फातिमा (रजी.) के माध्यम से मुहम्मद के वंशज शरीफ , सिड्स या सय्यियस के रूप में जाने जाते हैं। ये अरबी में आदरणीय खिताब हैं, शरीफ का अर्थ 'महान' है और कहा जाता है या कहा जाता है या 'भगवान' या 'सर' कहता है। मुहम्मद के एकमात्र वंश के रूप में, उन्हें सुन्नी और शिया दोनों का सम्मान किया जाता है, हालांकि शिआ उनके भेद पर अधिक जोर और मूल्य डालते हैं।
जयद इब्न हरिथा एक दास था जिसे मुहम्मद ने खरीदा, मुक्त किया, और फिर अपने बेटे के रूप में अपनाया। उसके पास एक गीली नर्स भी थी। बीबीसी सारांश के मुताबिक, "मुहम्मद ने दासता को खत्म करने की कोशिश नहीं की, और खुद को दास, बेचा, कब्जा कर लिया, और मालिकों का स्वामित्व किया। लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि दास मालिक अपने दासों को अच्छी तरह से मानते हैं और गुलामों को मुक्त करने के गुण पर बल देते हैं। मुहम्मद ने मनुष्यों के रूप में दासों का इलाज किया और स्पष्ट रूप से सर्वोच्च सम्मान में कुछ लोगों को रखा।
अल्लाह की एकता के प्रमाणन के बाद, मुहम्मद की भविष्यवाणी में विश्वास इस्लामी विश्वास का मुख्य पहलू है। हर मुस्लिम शहादा में घोषित करता है: "मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, और मैं प्रमाणित करता हूं कि मुहम्मद अल्लाह के संदेशवाहक हैं।" शहादा इस्लाम का मूल धर्म या सिद्धांत है। इस्लामी विश्वास यह है कि आदर्श रूप से शहादा पहला शब्द है जो नवजात शिशु सुनेंगे; बच्चों को तुरंत इसे पढ़ाया जाता है और इसे मृत्यु पर सुनाया जाएगा। मुसलमान प्रार्थना (सलात) और प्रार्थना के लिए कॉल (अज़ान में शाहदाह दोहराते हैं। इस्लाम में परिवर्तित करने की इच्छा रखने वाले गैर-मुसलमानों को इन पंक्तियों को पढ़ना आवश्यक है।
इस्लामी विश्वास में, मुहम्मद को अल्लाह द्वारा भेजे गए अंतिम भविष्यवक्ता के रूप में जाना जाता है। कुरान १०:३७ कहता है कि "... यह (कुरान) इसकी पुष्टि (रहस्योद्घाटन) है जो इससे पहले चला गया, और पुस्तक की पूर्ण व्याख्या - जिसमें दुनिया के अल्लाह से कोई संदेह नहीं है। " इसी प्रकार कुरान ४६:१२ कहता है "... और इससे पहले मूसा अलैहिस्सलाम की पुस्तक एक गाइड और दया के रूप में थी। और यह पुस्तक पुष्टि करता है (यह) ...", जबकि २: १३६ इस्लाम के विश्वासियों को आज्ञा देता है " : हम अल्लाह में विश्वास करते हैं और जो हमें बताया गया है, और जो इब्राहीम अलै. और इस्माईल अलै., इसहाक अलै. और याकूब अलै. और जनजातियों के लिए प्रकट हुआ था, और जो मूसा अलै. और ईसा (यीशु) अलै. ने प्राप्त किया था, और जो भविष्यवक्ताओं ने उनके भगवान से प्राप्त किया था। हम नहीं करते उनमें से किसी के बीच भेद, और उसके लिए हमने आत्मसमर्पण कर दिया है। "
मुस्लिम परंपरा मुहम्मद को कई चमत्कारों या अलौकिक घटनाओं के साथ श्रेय देती है। उदाहरण के लिए, कई मुस्लिम टिप्पणीकारों और कुछ पश्चिमी विद्वानों ने सूरह ५४: १-२ का अर्थ दिया है, मुहम्मद को कुरैशी के मद्देन में चंद्रमा को विभाजित करते हुए, जब उन्होंने अनुयायियों को सताया था। इस्लाम के पश्चिमी इतिहासकार डेनिस ग्रिल का मानना है कि कुरान मुहम्मद प्रदर्शन चमत्कारों का अत्यधिक वर्णन नहीं करता है, और मुहम्मद का सर्वोच्च चमत्कार "कुरान" के साथ ही पहचाना जाता है।
इस्लामी परंपरा के अनुसार, मुहम्मद पर ताइफ के लोगों ने हमला किया था और बुरी तरह घायल हो गये। परंपरा में एक देवदूत प्रकट होता है और हमलावरों के खिलाफ प्रतिशोध की पेशकश करता है, मुहम्मद ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और ताइफ के लोगों के मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की।
सुन्नह या सुन्नत मुहम्मद के कार्यों और कहानियों का प्रतिनिधित्व करता है (हदीस के नाम से जाना जाने वाली रिपोर्टों में संरक्षित), और धार्मिक अनुष्ठानों, व्यक्तिगत स्वच्छता, मृतकों के दफन से लेकर मनुष्यों और ईश्वर के बीच प्रेम को शामिल करने वाले रहस्यमय प्रश्नों से लेकर गतिविधियों और मान्यताओं की विस्तृत श्रृंखला को शामिल करता है। सुन्नतों को पवित्र मुसलमानों के लिए अनुकरण का एक आदर्श माना जाता है और मुस्लिम संस्कृति को प्रभावित करने के लिए एक बड़ी डिग्री है। अभिवादन कि मुहम्मद ने मुसलमानों को एक-दूसरे की पेशकश करने के लिए सिखाया था, "आप पर शांति हो" (अरबी: अस्सलामु अलैकुम) दुनिया भर में मुस्लिमों द्वारा उपयोग की जाती है। दैनिक इस्लामिक अनुष्ठानों जैसे कि दैनिक प्रार्थनाओं, उपवास और वार्षिक तीर्थयात्रा के कई विवरण केवल सुन्नत में पाए जाते हैं, कुरान में नहीं।
मुहम्मद के नाम लिखने के बाद पारंपरिक रूप से जोड़ा गया, "ईश्वर उन्हें सम्मान दे और उन्हें शांति प्रदान करे" का सुलेख प्रस्तुत करता है। ।
सुन्नतो ने इस्लामिक कानून के विकास में विशेष रूप से पहली इस्लामी शताब्दी के अंत तक योगदान दिया। मुस्लिम रहस्यवादी, जो सूफ़ी के नाम से जाना जाता है, जो कुरान के आंतरिक अर्थ और मुहम्मद की आंतरिक प्रकृति की तलाश में थे, उन्होंने इस्लाम के पैगंबर को न केवल एक भविष्यद्वक्ता के रूप में बल्कि एक परिपूर्ण इंसान के रूप में भी देखा। सभी सूफी आदेश मुहम्मद को आध्यात्मिक वंश की अपनी श्रृंखला का पता लगाते हैं।
मुसलमानों ने परंपरागत रूप से मुहम्मद के लिए प्यार और पूजा व्यक्त की है। मुहम्मद के जीवन की कहानियां, उनके मध्यस्थता और उनके चमत्कार (विशेष रूप से " चंद्रमा का विभाजन ") ने लोकप्रिय मुस्लिम विचार और कविता में प्रवेश किया है। मिस्र के सूफी अल-बुसीरी (१२११-१२९४) द्वारा मुहम्मद, क़सीदा अल-बुर्दा जो अरबी में अरबी शैली में लिखा गया और मशहूर भी है। और व्यापक रूप से मानसिक शांति और आध्यात्मिक शक्ति रखने के लिए आयोजित किया जाता है। कुरान मुहम्मद को "दुनिया के लिए दया (रमत)" के रूप में संदर्भित करता है (कुरान २१: १०७ )। ओरिएंटल देशों में दया के साथ बारिश के सहयोग ने मुहम्मद को बारिश बादल के रूप में आशीर्वाद देने और भूमि पर फैलाने, मृत दिल को पुनर्जीवित करने के लिए प्रेरित किया है, जैसे वर्षा बारिश पृथ्वी को पुनर्जीवित करती है (उदाहरण के लिए, सिंधी कविता शाह 'अब्द अल-लतीफ)। मुहम्मद इनका जन्मदिन इस्लामी दुनिया भर में एक प्रमुख दावत के रूप में मनाया जाता है, वहाबी- सशस्त्र सऊदी अरब को छोड़कर जहां इन सार्वजनिक समारोहों को हतोत्साहित किया जाता है। जब मुस्लिम मुहम्मद का नाम कहते हैं या लिखते हैं, तो वे आम तौर पर इसका पालन करते हैं और भगवान उन्हें सम्मान दे सकते हैं (अरबी: लाहु अलैही व म)। अनौपचारिक लेखन में, इसे कभी-कभी पीबीयूएच या एसएडब्ल्यू के रूप में संक्षिप्त किया जाता है; मुद्रित पदार्थ में, एक छोटा सा सुलेख चित्र आमतौर पर उपयोग किया जाता है ()।
७ वीं शताब्दी के बाद से मुहम्मद की आलोचना अस्तित्व में रही है, जब मुहम्मद को उनके गैर-मुस्लिम अरब समकालीनों ने एकेश्वरवाद प्रचार करने के लिए और अरब के यहूदी जनजातियों द्वारा बाइबिल के वर्णनों और आंकड़ों के अनचाहे विनियमन के लिए अपमानित किया था, यहूदी विश्वास का विघटन, और खुद को किसी भी चमत्कार किए बिना " आखिरी भविष्यद्वक्ता " के रूप में घोषित करना और न ही हिब्रू बाइबिल में किसी भी व्यक्तिगत आवश्यकता को दिखाने के लिए एक झूठे दावेदार से इज़राइल के भगवान द्वारा चुने गए एक सच्चे भविष्यद्वक्ता को अलग करना ; इन कारणों से, उन्होंने उन्हें अपमानजनक उपनाम हे- मेशगाह ( हिब्रू : , "मैडमैन" या "कब्जा") दिया। मध्य युग के दौरान विभिन्न पश्चिमी और बीजान्टिन ईसाई विचारकों ने मुहम्मद को विकृत माना, अपमानजनक व्यक्ति, एक झूठा भविष्यद्वक्ता, और यहां तक कि एंटीक्राइस्ट माना, क्योंकि वह अक्सर ईसाईजगत में एक विद्रोही के रूप में देखे गए थे।
मुहम्मद की आलोचना में मुहम्मद की ईमानदारी के संदर्भ में एक भविष्यद्वक्ता, उनकी नैतिकता और उनके विवाह होने का दावा शामिल था। ७ वीं शताब्दी के बाद से आलोचना का अस्तित्व है, जब मुहम्मद को उनके गैर-मुस्लिम अरब समकालीन लोगों ने उपेक्षित एकेश्वरवाद के लिए निंदा की थी। मध्य युग के दौरान वह अक्सर ईसाई धर्म में एक विद्रोही के रूप में देखा जाता था, और / या राक्षसों के पास था।
मुहम्मद के विवाह
२० वीं शताब्दी के बाद से, विवाद का एक आम मुद्दा मुहम्मद और आइशा के विवाह के बारे में उठाया गया है, जिसे पारंपरिक इस्लामिक स्रोतों में हज़रात आइशा की उम्र नौ वर्ष की, या इब्न हिशम के अनुसार दस वर्ष की, या फिर जब शादी तक पहुंचने के अपने युवावस्था पर शादी हुई थी। अमेरिकी इतिहासकार डेनिस स्पेलबर्ग का कहना है कि "दुल्हन की उम्र के इन विशिष्ट संदर्भों में आइशा के पूर्व-मेनारच्चिल दर्जा को और मजबूत किया जाता है।" मुस्लिम लेखकों ने अपनी बहन अस्मा के बारे में उपलब्ध अधिक विस्तृत जानकारी के आधार पर आयशा की आयु की गणना की है। वह तेरह से अधिक थी और शायद उनकी शादी के दौरान सत्रह और उन्नीस के बीच थी।
इस्लामिक अध्ययन के यूके के प्रोफेसर कॉलिन टर्नर, में कहा गया है कि जब एक बूढ़े आदमी और एक जवान लड़की के बीच विवाह हो जाती है, तो एक बार जब तक प्रौढ़ व्यक्ति उम्र के होने के बारे में सोचता है, तब तक वह बीमारियों में रूढ़िवादी थे, और इसलिए मुहम्मद विवाह को उनके समकालीनों द्वारा अनुचित नहीं माना जाता।
तुलनात्मक धर्म पर ब्रिटिश लेखक करेन आर्मस्ट्रांग ने पुष्टि की है कि "मुहम्मद की आइशा से शादी में कोई अनौचित्य नहीं था। एक गठबंधन को मुहैया कराने के लिए अनुपस्थिति में किए गए विवाह अक्सर वयस्कों और नाबालिगों के बीच अनुबंधित होते थे जो अब भी आयशा से भी छोटे थे। अभ्यास यूरोप में अच्छी तरह से शुरुआती आधुनिक काल में जारी रहा। "
मुहम्मद पर बनी फिल्में
द मेसेज (१९७६ फ़िल्म)
उमर (टीवी सीरियल)
मुहम्मद द मेसेंजर ऑफ़ गॉड (फ़िल्म)
यह भी देखें
मुहम्मद के अभियानों की सूची
मुहम्मद की पत्नियाँ
इस्लाम का उदय
सफिय्या बिन्ते हुयेय
रेहाना बिन्त ज़ैद
हाशिम इब्न अब्द मुनाफ
अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मुत्तलिब
अबू ताहिर अल-जनाबी
मूहाम्मद: द फाइनाल लिगेसी
द सेटेनिक वर्सेज़
इस्लामी पौराणिक कथाएँ
मुहम्मद का वंश वृक्ष
हिंद बिंत उतबाह
इस्लाम से पहले का अरब
इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद
५७० में जन्मे लोग
६३२ में निधन
मदीना के लोग
मक्का के लोग
इस्लाम का इतिहास
इस्लाम के पैग़म्बर |
बेंजामिन उम्कापा अफ्रीका के देश तंजानिया के राष्ट्रपति थे, १९९५ से २००५ तक। |
अंडमान बंगाल की खाड़ी में स्थित भारत के अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह का उत्तरी भाग है। अंडमान अपने आंचल में मूंगे (कोरल) की दीवारों, साफ-स्वच्छ सागर तट, पुरानी यादों से जुड़े खंडहर और अनेक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियां संजोए हैं। इस द्वीपसमूह में कुल ५७२ द्वीप हैं। अंडमान का लगभग ८६ प्रतिशत क्षेत्रफल जंगलों से ढका हुआ है। समुद्री जीवन, इतिहास और जलक्रीड़ाओं में रुचि रखने वाले सैलानियों को यह द्वीप बहुत रास आता है। क्या अंदवान मे ट्रेन चलती हैं
अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर किए गए अत्याचारों की मूक गवाह इस जेल की नींव १८९७ में रखी गई थी। इस जेल के अंदर ६९४ कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल-जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहाँ एक संग्रहालय भी है जहाँ उन अस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।
कार्बिन कोव्स समुद्रतट
हरे-भरे वृक्षों से घिरा यह बीच एक मनोरम स्थान है। यहां समुद्र में डुबकी लगाकर पानी के नीचे की दुनिया का अवलोकन किया जा सकता है। यहां से सूर्यास्त का अद्भुत नजारा काफी आकर्षक प्रतीत होता है। यह बीच अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए लोकप्रिय है।
यह द्वीप ब्रिटिश वास्तुशिल्प के खंडहरों के लिए प्रसिद्ध है। रॉस द्वीप २०० एकड़ में फैला हुआ है। फीनिक्स उपसागर से नाव के माध्यम से चंद मिनटों में रॉस द्वीप पहुंचा जा सकता है। सुबह के समय यह द्वीप पक्षी प्रेमियों के लिए स्वर्ग के समान है।
८० एकड़ में फैला पिपोघाट फार्म दुर्लभ प्रजातियों के पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं के लिए जाना जाता है। यहां एशिया का सबसे प्राचीन लकड़ी चिराई की मशीन छातास सा मिल है।
यहां भारत का एकमात्र सक्रिय है ज्वालामुखी है। यह द्वीप लगभग ३ किलोमीटर में फैला है। यहां का ज्वालामुखी २८ मई २००५ में फटा था। तब से अब तक इससे लावा निकल रहा है।
उत्तरी अंडमान द्वीप में स्थित प्रकृति प्रेमियों को बहुत पसंद आता है। यह स्थान अपने संतरों, चावलों और समुद्री जीवन के लिए प्रसिद्ध है। यहां की सेडल पीक आसपास के द्वीपों से सबसे ऊंचा प्वाइंट है जो ७३२ मीटर ऊंचा है। अंडमान की एकमात्र नदी कलपोंग यहां से बहती है।
यहां किसी जमाने में गुलाम भारत से लाए गए बंदियों को पोर्ट ब्लेयर के पास वाइपर द्वीप पर उतारा जाता था। अब यह द्वीप एक पिकनिक स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। यहां के टूटे-फूटे फांसी के फंदे निर्मम अतीत के साक्षी बनकर खड़े हैं।
सिंक व रडिस्किन द्वीप
यहां के स्वच्छ निर्मल पानी का सौंदर्य सैलानियों का मन मोह लेता है। इन द्वीपों में कई बार तेरती हुई डाल्फिन मछलियों के झुंड देखे जा सकते हैं। सीसे की तरह साफ पानी के नीचे जलीय पेड़-पौधे व रंगीन मछलियों को तेरते देखकर पर्यटक अपनी बाहरी दुनिया को अक्सर भूल जाते हैं।
पोर्ट ब्लेयर से चैन्नई, कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, बंगलूरू और भुवनेश्वर की दिन भर में १८ उड़ाने हैं। सभी प्रमुख एयर लाईन्स अपनी सेवाएं दे रही हैं।
कोलकाता, चैन्नई और विशाखापट्टनम से पानी के जहाज पोर्ट ब्लेयर जाते हैं। जाने में दो-तीन दिन का समय लगता है। पोर्ट ब्लेयर से जहाज छूटने का कोई निश्चित समय नहीं है।
नाम की उत्पत्ति
विद्वानों का मानना है के "अण्डमान" शब्द "हनुमान" का एक और रूप है और संस्कृत मूल से मलय भाषा से होते हुए प्रचलित हो गया है। मलय में रामायण के "हनुमान" पात्र को "हन्डुमान" कहते हैं।
इन्हें भी देखें
अंडमान के निवासी
अंडमान निकोबार: जिसे जापान ने अंग्रेजों से छीनकर 'नेताजी' को दे दिया
अंग्रेजों के विरुद्ध अंडमानी आदिवासी संघर्ष
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह |
पोर्ट ब्लेयर (पोर्ट ब्लेयर) भारत के अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूह केन्द्रशासित प्रदेश की राजधानी है। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण अण्डमान द्वीप पर स्थित है और प्रशासनिक दृष्टि से दक्षिण अण्डमान ज़िले में आता है।
यह क्षेत्र पहाड़ी भूरचना है। टिम्बर जैसी लकड़ियाँ यहाँ प्रचुरता से पायी जाती हैं, हरियाली भी भरपूर है। यहाँ समुद्र का पानी देखने में नीला है। बंगाल की खाड़ी के इस जल क्षेत्र में अनंत लैगून मिल जाएंगे, जिनमें रंगबिरंगी मछलियाँ अठखेलियाँ करती मिलेंगी। सेल्यूलर जेल, मानव विकास के इतिहास को चित्रित करता संग्रहालय (एंथ्राॉपोलॉजिकल म्यूजियम), समुद्र संग्रहालय, लघु उघोग संग्रहालय, मिनी ज़ू, चैथम सा मिल, कोरबाइन कोव बीच, मैरीन पार्क, वाइपर आइलैंड, सिपीघाट वाटर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स।
सिपीघाट फार्म (पोर्ट ब्लेयर से १४ किलोमीटर)
चिरिया टापू (३० किलोमीटर)
वांडूर बीच (३० किलोमीटर)
क्लक एंड रेड स्किन आइलैंड
हवाई जहाज से जाने वाले पर्यटकों के लिए इंडियन की सेवाएं उपलब्ध हैं। चोई, कोलकाता से ये पकड़ी जा सकती हैं। समुद्री जहाज से भी यहाँ आया जाता है। चोई से तीन जहाज यहाँ आते हैं, दूरी करीब ११९० किलोमीटर है। कोलकाता से पोर्ट ब्लेयर की दूरी १२५५ किलोमीटर और विजयवाड़ा से १२०० किलोमीटर है। विशाखापटनम से भी राजधानी पोर्ट ब्लेयर के लिए जहाज जाता है। कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली से राजधानी पोर्ट ब्लेयर आने के लिए सीधी विमान सेवाएं हैं। यहाँ आने के लिए समुद्री जहाज सौगात जैसी लगती है! हालांकि यहाँ यात्रा की कुछ बंदिशें हैं यानी कुछ चुने हुए द्वीपों में पर्यटन की अनुमति है। यही बात खूबसूरत तटों और मूंगों वाली विस्तृत जल क्षेत्र के लिए हैं।
इन्हें भी देखें
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह
दक्षिण अण्डमान द्वीप
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह के नगर
दक्षिण अण्डमान ज़िले के नगर
भारत की बंदरगाहें
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह |
पिपली भारत के हरियाणा प्रान्त का शहर है।
राष्ट्रीय राजमार्ग १ पर बसा यह कस्बा कुरुक्षेत्र का द्वार है तथा यहाँ का बस अड्डा कुरुक्षेत्र हाईवे बस अड्डा के नाम से भी जाना जाता है।
हरियाणा के शहर |
हाफलांग (हफ्लोंग) भारत के असम राज्य के डिमा हासाओ ज़िले में स्थित एक शहर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। यह शहर अपने सुहाने मौसम और प्राकृतिक दृश्यों के लिए माना जाता है।
इन्हें भी देखें
डिमा हासाओ ज़िला
डिमा हासाओ ज़िला
असम के नगर
डिमा हासाओ ज़िले के नगर |
डिब्रूगढ़ (डिब्रुगढ़) भारत के असम राज्य के डिब्रूगढ़ ज़िले में स्थित एक शहर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। अहोम भाषा की बुरंजी ऐतिहासिक कृतियों में शहर का नाम ती-फाओ (ती-फाओ) दिया गया है, जिसका अर्थ "स्वर्ग-स्थल" है।
डिब्रूगढ़ ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा हुआ है और हिमालय की शृंखलाओं के समीप है। यह पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण है और एक ऐतिहासिक शहर है। डिब्रूगढ़ शहर असम के दो मुख्य शहर मैं से एक हैं जिसे एशियाई विकास बैंक से आर्थिक सहायता मिली है।
डिब्रूगढ़ चाय बागानों की एक यात्रा असम की चाय दुनिया भर में जानी जाती है। शहर भर में कई चाय के बागान हैं, जो ब्रिटिश के समय से हैं। यहाँ भारी संख्या में पर्यटक आते हैं।
भारत में ब्रह्मपुत्र नदी विशाल नदियों में से एक मानी जाती है। हर साल यह हिमालय से वृहद रूप में नीचे आती है, शहरों और जंगलों को बाढ़ से ढक लेती है। डिब्रूगढ़ भी ब्रह्मपुत्र के बेहिसाब प्रवाह का एक बड़ा हिस्सा देखता है। फिर भी यह शहर की सुंदरता को बढ़ाती है।
डिब्रूगढ़ सतराओं की धार्मिक यात्रा
डिब्रूगढ़ के सतरा डिब्रूगढ़ पर्यटन के अभिन्न रूप हैं। अहोम राजाओं द्वारा पीछे छोड़ दी गई सांस्कृतिक धरोहरों सामाजिक, सांस्कृतिक और साथ ही धार्मिक संस्थाओं को सतरा कहा जाता है। यही सतरा ही डिब्रूगढ़ पर्यटन के प्रमुख आकर्षण हैं। दिन्जोय सतरा, कोली आई थान और दिहिंग सतरा घूमे बगैर अधूरी मानी जाती है। कोली आई थान असम में सबसे पुराना 'थान' माना जाता है, वहीं दिन्जोय सतरा और दीहिंग सतरा दोनों इतिहास और विरासत के साथ प्रभावकारी रूप से स्थापित हैं। आज ये सतरा असम की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के मूर्त रूप बन गए हैं।
डिब्रूगढ़ ट्रेनों, विमानों और सड़क परिवहन के माध्यम से देश के बाकी हिस्सों से अच्छी तरह जुड़ा है। दिलचस्प बात है कि, देश के पूरबी शहर में डिब्रूगढ़ एक ऐसा शहर है जहां रेलवे स्टेशन है। यहां पर एक हवाई अड्डा भी है।
डिब्रूगढ़ में साल भर एक सुखद मौसम रहता है। यहां का जलवायु पर्यटकों को वर्ष के किसी भी समय इस जगह की यात्रा करने के लिए संभव बनाता है।
इन्हें भी देखें
असम के नगर
डिब्रूगढ़ ज़िले के नगर |
उन घरों या स्थानों को धर्मशाला कहते हैं जहाँ तीर्थयात्रियों को निःशुल्क या अत्यन्त कम शुल्क पर ठहरने की व्यवस्था होती है। प्राचीन काल से ये भारत में प्रचलित हैं। |
बक्सर (बक्सर) भारत के बिहार राज्य के बक्सर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।
भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है। यहाँ की अर्थ-व्यवस्था मुख्य रूप से खेतीबारी पर आधारित है। यह शहर मुख्यतः धर्मिक स्थल के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल में इसका नाम 'व्याघ्रसर' था। क्योंकि उस समय यहाँ पर बाघों का निवास हुआ करता था तथा एक बहुत बड़ा सरोवर भी था जिसके परिणामस्वरुप इस जगह का नाम व्याघ्रसर पड़ा।
बक्सर पटना से लगभग ७५ मील पश्चिम और मुगलसराय से ६० मील पूर्व में पूर्वी रेलवे लाइन के किनारे स्थित है। यह एक व्यापारिक नगर भी है। यहाँ बिहार का एक प्रमुख कारागृह हैं जिसमें अपराधी लोग कपड़ा आदि बुनते और अन्य उद्योगों में लगे रहते हैं। सुप्रसिद्ध बक्सर की लड़ाई शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ की तथा अंग्रेज मेजर मुनरो की सेनाओं के बीच यहाँ ही १७६४ ई॰ में लड़ी गई थी जिसमें अंग्रेजों की विजय हुई। इस युद्ध में शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ के लगभग २,००० सैनिक डूब गए या मारे थे। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ बड़ा मेला लगता है, जिसमें लाखों व्यक्ति इकट्ठे होते हैं।
इसका इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। बक्सर में गुरु विश्वामित्र का आश्रम था। यहीं पर राम और लक्ष्मण का प्रारम्भिक शिक्षण-प्रशिक्षण हुआ। प्रसिद्ध ताड़का राक्षसी का वध राम द्वारा यहीं पर किया गया था। १७६४ ई॰ का 'बक्सर का युद्ध' भी इतिहास प्रसिद्ध है। इसी नाम का एक ज़िला शाहबाद (बिहार में) का अनुमंडल है। बक्सर के युद्ध (१७६४) के परिणामस्वरूप निचले बंगाल का अंतिम रूप से ब्रिटिश अधिग्रहण हो गया। मान्यता है कि एक महान पवित्र स्थल के रूप में पहले इसका मूल नाम 'वेदगर्भ' था। कहा जाता है कि वैदिक मंत्रों के बहुत से रचयिता इस नगर में रहते थे। इसका संबंध भगवान राम के प्रारंभिक जीवन से भी जोड़ा जाता है।
मौर्यकाल की अनेक सुंदर लघु मूर्तियाँ बक्सर उत्खनन में प्राप्त हुई थीं जो अब पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
२०११ की जनगणना के अनुसार बक्सर ज़िले की कुल जनसंख्या लगभग १,७०७,६४३ है।
इन्हें भी देखें
बक्सर की लड़ाई
मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नहीं पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी
जनवरी १७६४ में मीर कासिम उस से मिला उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे।
इन्हें भी देखें
बक्सर का युद्ध
बिहार के शहर
बक्सर ज़िले के नगर |
रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण (संक्षेप में आर॰के॰ लक्ष्मण; २४ अक्टूबर १९२१ २६ जनवरी २०१५) भारत के प्रमुख हास्यरस लेखक और व्यंग-चित्रकार थे। उन्हें द कॉमन मैन नामक उनकी रचना और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए उनके प्रतिदिन लिखी जानी वाली कार्टून शृंखला "यू सैड इट" के लिए जाना जाता है जो वर्ष १९५१ में आरम्भ हुई थी।
लक्ष्मण ने अपना कार्य स्थानीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में अंशकालिक कार्टूनकार के रूप में अपना कैरियर आरम्भ किया था। जबकि कॉलेज छात्र के रूप में उन्होंने अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण की कहानियों को द हिन्दू में चित्रित किया। उनका पहला पूर्णकालिक कार्य मुम्बई में द फ्री प्रेस जर्नल में राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में आरम्भ किया था। उसके बाद उन्होंने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में कार्य करना आरम्भ कर दिया और कॉमन मैन के चरित्र ने उन्हें प्रसिद्धि दी।
जन्म और बाल्यावस्था
आर॰के॰ लक्ष्मण का जन्म मैसूर में सन् १९२१ में हुआ। उनके पिता प्रधानाचार्य थे और लक्ष्मण उनकी छः सन्तानों में सबसे छोटे थे। उनके एक बड़े भाई आर॰के॰ लक्ष्मण उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। लक्ष्मण पाइड पाइपर ऑफ़ डेल्ही (दिल्ली का चितकबरा मुरलीवाला) से प्रसिद्ध हुए।
उन्हें प्रसिद्धि मिलने से पूर्व ही द स्ट्रैंड, पंच, बायस्टैंडर, वाइड वर्ल्ड और टिट-बिट्स जैसी पत्रिकाओं में चित्रकारी का कार्य कर चुके थे। शीघ्र ही उन्होंने अपने ऊपर, फूलों पर, अपने घर की दिवारों पर और विद्यालय में अपने अध्यापकों का विरूप-चित्रण आरम्भ कर दिया; उनकी पीपल का पता चित्रित करने की एक अध्यापक ने प्रशंसा की और उन्हें एक कलाकार नज़र आने लगा। इसके अलावा उनपर एक शुरुआती प्रभाव विश्व-प्रसिद्ध ब्रितानी कार्टूनकार डेविड लो का पड़ा।
लक्ष्मण का प्रारम्भिक कार्य स्वराज्य और ब्लिट्ज़ नामक पत्रिकाओं सहित समाचार पत्रों में रहा। उन्होंने मैसूर महाराजा महाविद्यालय में पढ़ाई के दौरान अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण कि कहानियों को द हिन्दू में चित्रित करना आरम्भ कर दिया तथा स्थानीय तथा स्वतंत्र के लिए राजनीतिक कार्टून लिखना आरम्भ कर दिया। लक्ष्मण कन्नड़ हास्य पत्रिका कोरवंजी में भी कार्टून लिखने का कार्य किया। यह पत्रिका १९४२ में डॉ॰ एम॰ शिवरम स्थापित की थी, इस पत्रिका के संस्थापक एलोपैथिक चिकित्सक थे तथा बैंगलोर के राजसी क्षेत्र में रहते थे। उन्होंने यह मासिक पत्रिका विनोदी, व्यंग्य लेख और कार्टून के लिए यह समर्पित की। शिवरम अपने आप में प्रख्यात कन्नड हास्य रस लेखक थे। उन्होंने लक्ष्मण को भी प्रोत्साहित किया।
लक्ष्मण ने मद्रास के जैमिनी स्टूडियोज में ग्रीष्मकालीन रोजगार आरम्भ कर दिया। उनका प्रथम पूर्णकालिक व्यवसाय मुम्बई की द फ्री प्रेस जर्नल के राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में की थी। इस पत्रिका में बाल ठाकरे उनके साथी काटूनकार थे। लक्ष्मण ने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, बॉम्बे से जुड़ गये तथा उसमें लगभग पचास वर्षों तक कार्य किया। उनका "कॉमन मैन" चरित्र प्रजातंत्र के साक्षी के रूप में चित्रित हुआ।
लक्ष्मन का पहला विवाह भारतनाट्यम नर्तकी और फ़िल्म अभिनेत्री कुमारी कमला लक्ष्मण के साथ हुआ। कुमारी कमला ने अपना फ़िल्मी कैरियर बाल-कलाकार के रूप में आरम्भ किया था। उनके तलाक के समय तक उनकी कोई सन्तान नहीं थी तथा लक्ष्मण ने दूसरा विवाह कर लिया। उनकी दुसरी पत्नी का नाम भी कमला लक्ष्मण ही था। वो एक लेखिका तथा बाल-पुस्तक लेखिका थीं। लक्ष्मण ने "द स्टार आई नेवर मेट" नामक कार्टून शृंखला और फ़िल्म पत्रिका फिल्मफेयर में अपनी दूसरी पत्नी कमला लक्ष्मण का "द स्टार आई ऑनली मेट" शीर्षक से कार्टून चित्रित किया। दम्पती के एक पुत्र हुआ।
सितम्बर २००३ में, उनके बायें भाग को लकवा मार गय। उन्होंने आंशिक रूप से इसके प्रभावों से मुक्ति प्राप्त कर लिया। २० जून २०१० की शाम को लक्ष्मण को मुम्बई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ति करवाया गया और बाद में पुणे स्थानान्तरित किया गया।
अक्टूबर २०१२ में लक्ष्मण ने पुणे में अपना ९१वाँ जन्मदिन मनाया। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे, वैज्ञानिक जयन्त नार्लीकर तथा सिम्बायोसिस विश्वविद्यालय के कुलपति एस॰बी॰ मजुमदार ने भी इसमें भाग लिया।
सम्मान एवं पुरस्कार
बी डी गोयनका पुरस्कार - दि इन्डियन एक्सप्रेस द्वारा।
दुर्गा रतन स्वर्ण पदक - हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा।
पद्म विभूषण - भारत सरकार
पद्म भूषण - भारत सरकार
रमन मैग्सेसे पुरस्कार (१९८४)
दि एलोक्वोयेन्ट ब्रश
द बेस्ट ऑफ लक्षमण सीरीज
सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया
द टनल ऑफ टाईम (आत्मकथा)
इंडिया थ्रू थे आईज ऑफ़ आर. के. लक्ष्मण-देन टू नाउ (सीडी रोम)
लक्ष्मण रेखास-टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशन
आर. के. लक्ष्मण की दुनिया- सब टीवी पर एक शो
१९२१ में जन्मे लोग
२०१५ में निधन
मैसूर के लोग
मैगसेसे पुरस्कार विजेता
पद्म भूषण सम्मान प्राप्तकर्ता
पद्म विभूषण धारक |
फ़्रान्स या फ्रांस (आधिकारिक तौर पर फ़्रान्स गणराज्य ; फ़्रान्सीसी: र्पब्लिक फ्रानैसे) पश्चिम यूरोप में स्थित एक देश है किन्तु इसका कुछ भूभाग संसार के अन्य भागों में भी हैं। पेरिस इसकी राजधानी है। यह यूरोपीय संघ का सदस्य है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह यूरोप महाद्वीप का सबसे बड़ा देश है, जो उत्तर में बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग, पूर्व में जर्मनी, स्विट्ज़रलैण्ड, इटली, दक्षिण-पश्चिम में स्पेन, पश्चिम में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में भूमध्यसागर तथा उत्तर पश्चिम में इंग्लिश चैनल द्वारा घिरा है। इस प्रकार यह तीन ओर सागरों से घिरा है।
लौह युग के दौरान, अभी के महानगरीय फ्रांस को कैटलिक से आये गॉल्स ने अपना निवास स्थान बनाया। रोम ने ५२ ईसा पूर्व में इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया। फ्रांस, गत मध्य युग में सौ वर्ष के युद्ध (१३३७ से १४५३) में अपनी जीत के साथ राज्य निर्माण और राजनीतिक केंद्रीकरण को मजबूत करने के बाद एक प्रमुख यूरोपीय शक्ति के रूप में उभरा। पुनर्जागरण के दौरान, फ्रांसीसी संस्कृति विकसित हुई और एक वैश्विक औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित हुआ, जो २० वीं सदी तक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी थी। १६ वीं शताब्दी में यहाँ कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट (ह्यूजेनॉट्स) के बीच धार्मिक नागरिक युद्धों का वर्चस्व रहा। फ्रांस, लुई चौदहवें के शासन में यूरोप की प्रमुख सांस्कृतिक, राजनीतिक और सैन्य शक्ति बन कर उभरा। १८ वीं शताब्दी के अंत में, फ्रेंच क्रांति ने पूर्ण राजशाही को उखाड़ दिया, और आधुनिक इतिहास के सबसे पुराने गणराज्यों में से एक को स्थापित किया, साथ ही मानव और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा के प्रारूप का मसौदा तैयार किया, जोकि आज तक राष्ट्र के आदर्शों को व्यक्त करता है।
१९वीं शताब्दी में नेपोलियन ने वहाँ की सत्ता हथिया कर पहले फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना की, इसके बाद के नेपोलियन युद्धों ने ही वर्तमान यूरोप महाद्वीपीय के स्वरुप को आकार दिया। साम्राज्य के पतन के बाद, फ्रांस में १८७० में तृतीय फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना हुई, हलाकि आने वाली सभी सरकार लचर अवस्था में ही रही। फ्रांस प्रथम विश्व युद्ध में एक प्रमुख भागीदार था, जहाँ वह विजयी हुआ, और द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्र में से एक था, लेकिन १९40 में धुरी शक्तियों के कब्जे में आ गया। १९44 में अपनी मुक्ति के बाद, चौथे फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना हुई जिसे बाद में अल्जीरिया युद्ध के दौरान पुनः भंग कर दिया गया। पाँचवां फ्रांसीसी गणतंत्र, चार्ल्स डी गॉल के नेतृत्व में, १९58 में बनाई गई और आज भी यह कार्यरत है। अल्जीरिया और लगभग सभी अन्य उपनिवेश १९60 के दशक में स्वतंत्र हो गए पर फ्रांस के साथ इसके घनिष्ठ आर्थिक और सैन्य संबंध आज भी कायम हैं।
फ्रांस लंबे समय से कला, विज्ञान और दर्शन का एक वैश्विक केंद्र रहा है। यहाँ पर यूरोप की चौथी सबसे ज्यादा सांस्कृतिक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल मौजूद है, और दुनिया में सबसे अधिक, सालाना लगभग ८३ मिलियन विदेशी पर्यटकों की मेजबानी करता है। फ्रांस एक विकसित देश है जोकि जीडीपी में दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तथा क्रय शक्ति समता में नौवीं सबसे बड़ा है। कुल घरेलू संपदा के संदर्भ में, यह दुनिया में चौथे स्थान पर है। फ्रांस का शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, जीवन प्रत्याशा और मानव विकास की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में अच्छा प्रदर्शन है। फ्रांस, विश्व की महाशक्तियों में से एक है, वीटो का अधिकार और एक आधिकारिक परमाणु हथियार संपन्न देश के साथ ही यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में से एक है। यह यूरोपीय संघ और यूरोजोन का एक प्रमुख सदस्यीय राज्य है। यह समूह-८, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो), आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी), विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) और ला फ्रैंकोफ़ोनी का भी सदस्य है।
फ्रांस शब्द लातीनी भाषा के फ्रैन्किया (फ्रांसिया) से आया है, जिसका अर्थ फ्रांक्स की भूमि या फ्रांकलैंड है। आधुनिक फ्रांस की सीमा प्राचीन गौल की सीमा के समान ही है। प्राचीन गौल में सेल्टिक गॉल निवास करते थे। गौल पर पहली शताब्दी में रोम के जुलिअस सीज़र ने जीत हासिल की थी। तदोपरांत गौल ने रोमन भाषा (लातिनी, जिससे फ्रांसीसी भाषा विकसित हुई) और रोमन संस्कृति को अपनाया। ईसाइयत दूसरी शताब्दी और तीसरी शताब्दी में पहुँची और चौथी और पाँचवीं शताब्दी तक स्थापित हो गई।
चौथी सदी में जर्मनिक जनजाति, मुख्यतः फ्रैंक्स ने गौल पर कब्जा जमाया। इस से फ्रांसिस नाम दिखाई दिया। आधुनिक नाम "फ्रांस" पेरिस के आसपास के फ्रांस के कापेतियन राजाओं के नाम से आता है। फ्रैंक्स यूरोप की पहली जनजाति थी, जिसने रोमन साम्राज्य के पतन के बाद आरियानिज्म को अपनाने की बजाए कैथोलिक ईसाई धर्म को स्वीकार किया।
वर्दन संधि (८४३) के बाद शारलेमेग्ने का साम्राज्य तीन भागों में विभाजित हो गया। इनमें सबसे बड़ा क्षेत्र पश्चिमी फ्रांसिया था, जो आज के फ्रांस के बराबर था।
ह्यूग कापेट के फ्रांस के राजा बनने तक कारोलिंगियन राजवंश ने ९८७ तक फ्रांस पर राज किया। उनके वंशजों ने अनेक युद्धों और पूर्वजों की विरासत के साथ देश को एकीकृत किया। १७ वीं सदी और लुई चौदहवें के शासनकाल के दौरान फ्रांस सबसे अधिक शक्तिशाली था। उस समय फ्रांस की यूरोप में सबसे बड़ी आबादी थी। देश का यूरोपीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर एक बड़ा प्रभाव था। फ्रांसीसी भाषा अंतरराष्ट्रीय मामलों में कूटनीति की आम भाषा बन गई। फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने १८ वीं सदी में बड़ी वैज्ञानिक खोज की। फ्रांस ने अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में अनेक स्थानों पर विजय आधिपत्य जमाया।
फ्रांस में फ़्रांसीसी क्रांति से पहले १७८९ तक राजशाही मौजूद थी। राजा लुई चौदहवें और उनकी पत्नी, मेरी अन्तोइनेत्ते १७९३ में मार डाला गया। हजारों की संख्या में अन्य फ्रांसीसी नागरिक भी मारे गए थे। नेपोलियन बोनापार्ट ने १७९९ में गणतंत्र पर नियंत्रण ले लिया। बाद में उन्होंने खुद को पहले साम्राज्य (१८०४-१८१४) का महाराज बनाया। उसकी सेनाओं ने महाद्वीपीय यूरोप के अधिकांश भाग पर विजय प्राप्त की।
१८१५ में वाटरलू की लड़ाई में नेपोलियन के अंतिम हार के बाद, दूसरी राजशाही आई। बाद में लुई-नेपोलियन बोनापार्ट ने १८५२ में द्वितीय साम्राज्य बनाया। लुई-नेपोलियन को १८७० के फ्रांसीसी जर्मन युद्ध में हार के बाद हटा दिया गया था। उसके शासन का स्थान तीसरे गणराज्य ने लिया।
फ्रांस के १८ वीं और १९ वीं सदी में एक बड़ा औपनिवेशिक साम्राज्य बनाया। इस साम्राज्य में पश्चिम अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ हिस्से भी शामिल थे। इन क्षेत्रों की संस्कृति और राजनीति फ्रांस के प्रभाव में रही। कई भूतपूर्व उपनिवेशों में फ्रांसीसी भाषा आधिकारिक भाषा हैं।
महानगरीय फ्रांस पश्चिमी यूरोप में स्थित है। इसकी सीमा बेल्जियम, लक्सेम्बर्ग, जर्मनी, स्विटजरलैंड, इटली, मोनाको, अंडोरा और स्पेन से मिलती है। फ्रांस की सीमा से लगी हुई दो पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, पूर्व में आल्प्स और दक्षिण में प्रेनिस। फ्रांस से प्रवाहित होने वाली कई नदियों में से दो नदियाँ प्रमुख हैं, सेन और लवार। फ्रांस के उत्तर और पश्चिम में निचली पहाड़ियों और नदी घाटियाँ हैं।
यह देश समतल एवं साथ-साथ पहाड़ी भी है। उत्तर में स्थित पैरिस तथा ऐक्विटेन बेसिन बृहद् मैदान के ही भाग हैं। पश्चिम की ओर ब्रिटैनी, यूरोप की उत्तर-पश्चिमी, उच्च पेटीवाली भूमि से संबंधित है। पूर्व की ओर प्राचीन चट्टानों के भूखंडों का क्रम मिलता है, जैसे मध्य का पठार तथा आर्डेन (आर्डेन्स) पर्वत। इस देश के दक्षिण में पिरेनीज़ तथा ऐल्प्स-जूरा पर्वतों का समूह पाया जाता है। इसका दक्षिण-पूर्वी भाग पहाड़ी व ऊबड़ खाबड़ है जो ६,००० फुट से भी अधिक ऊँचा है।
फ्रांस में अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मौसम का प्रभाव पाया जाता है। उत्तर और पश्चिम में अंध महासागर का मौसम पर गहरा प्रभाव है, जिसकी वजह से क्षेत्र का तापमान साल भर एक जैसा रहता है। पूर्व में सर्दियों ठंडी और मौसम अच्छा है। गर्मी गर्म और तूफानी रहती है। दक्षिण में गर्मी गर्म और सूखी रहती है। सर्दियों का मौसम ठंडा और नमी वाला रहता है।
प्राकृतिक आधार पर इसे आठ भागों में बाँट सकते हैं।
१. पैरिस बेसिन - यह देश का अति महत्वपूर्ण भाग है, जो यातायात साधनों द्वारा देश के हर भाग से जुड़ा है। यह बेसिन एक कटोरी के रूप में है, जो बीच में गहरा तथा चारों ओर ऊँचा होता गया है। इस भाग को पुन: (१) मध्य का बेसिन, (२) शैपेन एवं वरगंडी के कगार, (३) लोरेन के कगार, (४) पूर्वी प्रदेश तथा रोन घाटी और (५) ल्वार (लोईर) प्रदेश तथा नॉरमैंडी, भागों में विभाजित किया गया है।
२. उत्तर-पश्चिमी प्रदेश - यह एक समतल भाग है। यहाँ पर नॉरमैंडी तथा ब्रिटैनी पहाड़ियाँ अवश्य कुछ ऊँचा नीचा धरातल प्रस्तुत करती हैं। यहाँ दो समांतर श्रेणियाँ दक्षिण-पश्चिम में दाउनिनैज खाड़ी के उत्तर-दक्षिण में फैली हैं। उत्तरी श्रेणी मॉट्स डे आरी कहलाती है, जिसका सर्वोच्च शिखर सेंट माईकेल (१,२८५ फुट) है। यही ब्रिटैनी का सबसे ऊँचा भाग है।
३. ऐक्विटेन बेसिन - यह त्रिभुजाकार निम्न भूमि है। इसके सागरतटीय भाग में रेत के टीले मिलते हैं। इसका आंतरिक प्रदेश 'लैडीज़' कहलाता है, जो प्राय: बंजर सा है।
४. मध्य का पठार - इस भाग की औसत ऊँचाई २,५०० फुट से भी अधिक है। इसकी ऊँचाई दक्षिण-पूर्व को उठती जाती है और रोन की घाटी में समाप्त हो जाती है। इसकी पूर्वी सीमा पर सेवेन (सेवेन्स) पर्वत स्थित है। यहाँ क्लेयरमॉन्ट के निकटवर्ती क्षेत्र में अब भी शंकु के आकार की ७० पहाड़ियाँ हैं, जिनका उद्गार प्राचीन समय में हुआ था। पुएज डी डोम ज्वालामुखी चोटी सागरतल से ४,८०५ फुट ऊँची है।
५. पूर्वी सीमाप्रदेश - इस प्रदेश में बोज़ तथा आर्डेन पर्वतों का क्रम फैला है। दोनों के बीच में राइन घाटी स्थित है। बोज़ पर्वत १७५ मील की लंबाई में श्रेणी के रूप में फैला है। यहाँ की वर्षा का पानी जमीन के अंदर चला जाता है तथा जमीन के ऊपर धाराएँ कम दिखाई देती हैं।
६. रोन सेऑन घाटी - यह मध्य के पठार तथा ऐल्प्स-जूरा-श्रेणियों के मध्य में स्थित है। यह मॉन्टेग्निज डेला कोटि डे ओर, सेऑन तथा ल्वार के खड्ड से प्रारंभ होती है और सेन नदी के उद्गम स्थान तक चली जाती है।
७. भूमध्य सागरीय प्रदेश - राइन डेल्टा के पूर्वी भाग में सीधी खड़ी चट्टानें सागरतट के पास तक आ गई हैं। मार्सेई के पश्चिम में अनेक दलदल मिलते हैं। राइन डेल्टा के पश्चिमी तट पर पिरेनीज़ तक तथा पश्चिम की ओर गैरोनि तक लैग्विडॉक का प्रसिद्ध क्षेत्र पाया जाता है। इस क्षेत्र को सेवेन की श्रेणी काटती है। इसका तट निम्न तथा रेतीला है।
८. पश्चिमी ऐल्प्स तथा जूरा प्रदेश - फ्रांस की दक्षिणपश्चिमी सीमाएँ पिनाइन, ग्रेनाइन, कोटियान तथा मैरिटाइम ऐल्प्स द्वारा बनी है। सवॉय पर १५,७७५ फुट ऊँचा माउंट ब्लैक स्थित है। समुद्र की ओर औसत ऊँचाई बराबर घटती जाती है। इस भाग में कई प्रमुख दर्रे हैं। जूरा पर्वत फ्रांस में सबसे ऊँचा है। इसकी प्रमुख चोटियाँ क्रेट डि ला नीगे (क्रेट दे ला नेईगे) ५,५०० फुट तथा मॉन्ट डि ओर (मॉन्ट दे और) ५,६६० फुट हैं।
यहाँ की जलवायु समुद्री है, जिसका प्रभाव सागर से दूर जाने पर कम होता जाता है। यूरोपीय विचार से पश्चिमी तटीय भाग में निम्न ताप, पर्याप्त वर्षा, शीतल गरमियाँ तथा ठंडी सर्दियाँ जलवायु की विशेषताएँ हैं। पूर्वी तथा मध्य के भाग में महाद्वीपीय जलवायु मिलती है, जहाँ ग्रीष्म में गर्मी, पर्याप्त वर्षा एवं सर्दियों में कड़ी सर्दी पड़ती है। दक्षिणी फ्रांस में, पर्वतीय भागों को छोड़कर शेष में, भूमध्य सागरीय जलवायु मिलती है, जहाँ ठंडी सर्दियाँ, गरम गरमियाँ तथा कम वर्षा होती है। पैरिस का औसत ताप १० डिग्री सेल्सियस तथा वर्षा २२ इंच है। वर्षा ब्रिटैनी, उत्तरी तटीय भाग तथा पहाड़ी भागों में अधिक होती है।
खनिज - कोयला, लोरेन तथा मध्यवर्ती जिलों में मिलता है। कोयला कम होते हुए भी फ्रांस को कोयले में विश्व में तीसरा स्थान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त यहाँ ऐंटिमनी, बॉक्साइट, मैग्नीशियम, पाइराइट तथा टंग्स्टन, नमक, पोटाश, फ्लोरस्पार भी मिलता है।
उद्योग - लोरेन तथा मध्यवर्तीय भाग में स्थित लौह इस्पात उद्योग सबसे प्रमुख उद्योग है। उद्योगों के लिए पिरेनीज़ तथा ऐल्प्स से पर्याप्त विद्युत् प्राप्त हो जाती है। लील (लिले), ऐल्सैस तथा नॉरमैंडी में बाहर से रूई मँगाकर सूती कपड़े बनाए जाते हैं। ऊनी वस्त्रों के लिए रूबे (रुबऐक्स) तथा टूरक्वै (टुर्कोइंग) प्रमुख जिले हैं। लेयॉन में रेशमी कपड़ा बनता है। इसके अलावा जलयान निर्माण, स्वचालित यंत्र, चित्रमय परदे, सुगंधित द्रव्य, चीनी मिट्टी के बरतन, शराब, आभूषण, शृंगार की वस्तुओं, फीते, लकड़ी की वस्तुओं के उत्पादन में तो फ्रांस ने विश्व के अन्य देशों को पीछे छोड़ दिया है।
राजनीति और सरकार
फ्रेंच पाँचवें गणतंत्र के फ्रेंच संविधान के द्वारा देश में सरकार की एक अर्द्ध राष्ट्रपति प्रणाली निर्धारित की गई है। इसमें राष्ट्र ने अपने को "एक अविभाज्य, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक गणराज्य" घोषित किया है। इसमें कहा गया है कि फ्रांस १७८९ की घोषणा के अनुसार, मनुष्य के अधिकार की जिस तरह से घोषणा उससे जुड़ा हुआ है। फ्रांस में ८ मई २०१७ को एमनुअल मैक्रोन को नए राष्ट्रपति निर्वाचित किये गए हैं।
प्रशासनिक विभाग (क्षेत्र)
फ्रांस अनेक (प्रशासनिक) क्षेत्रों में विभाजित है, इनमें से २२ क्षेत्र महानगर फ्रांस के अंतर्गत आते हैं:
कोर्स के अन्य २१ महानगरीय क्षेत्रों की तुलना में एक अलग स्थिति है। यह र्जियोन एट द्पार्टमेंट ड'आउटर-मेर कहा जाता है।
फ्रांस के चार विदेशी क्षेत्र भी है:
गुआदेलूप (कैरिबियन में)
फ्रेंच गयाना (दक्षिण अमेरिका में)
मार्टीनिक (कैरिबियन में)
रीयूनियन (हिंद महासागर में)
ये चार विदेशी क्षेत्रों की महानगरीय वाले के रूप में एक ही स्थिति है। वे अलास्का और हवाई के विदेशी अमेरिकी राज्यों की तरह हैं। इसके बाद फ्रांस १०० विभागों में विभाजित है। यह विभाग ३४२ भागो (अर्रोंदिस्सेमेंट्स) में विभाजित हैं। ये अर्रोंदिस्सेमेंट्स ४०३२ भागों (कान्तोंस) में विभाजित है। इस छोटा उपखंड कम्यून है। १ जनवरी २००८ को, फ्रांस में ३६,७८१ कम्यून्स की गिनती की गई थी। इनमें से ३६.५६९ महानगरीय फ्रांस में हैं और इनमें से २१२ विदेशी फ्रांस में हैं।
जी-७ (पूर्व में जी-८) जैसे प्रमुख औद्योगिक देशों के समूह का सदस्य फ़्रांस को क्रय-शक्ति समता के आधार पर दुनिया का नौवां सबसे बड़ा और यूरोपीय संघ की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में दर्जा प्राप्त है। २०१५ में दुनिया की ५०० सबसे बड़ी कंपनियों में से ३१ के साथ, फ़्रांस फॉर्च्यून ग्लोबल ५०० में जर्मनी और ब्रिटेन से आगे चौथे स्थान पर है। १९९३ में फ्रांस ने ११ अन्य यूरोपीय संघ के सदस्य के साथ मिल कर, एक नई मुद्रा यूरो को अपना कर अपनी पुरानी मुद्रा फ्रेंच फ्रैंक () की जगह यूरो सिक्कों और बैंक नोटों को देश में लागु कर दिया।
फ्रांस में एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। जहाँ सरकारी हस्तक्षेप के साथ व्यापक निजी उद्यम के साथ ही कई शासकीय उद्यम भी उपस्थित है। प्रशासन रेलवे, बिजली, विमान, परमाणु ऊर्जा और दूरसंचार के बहुसंख्य स्वामित्व के साथ कई बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण रखती है। हलाकि १९९० के दशक के शुरूआती दौर से ही यह इन क्षेत्रों पर नियंत्रण काम कर रहा है। प्रशासन धीरे-धीरे सरकारी उद्यम को निजी उद्यम की तरह ढालने की कोशिश कर रही है और साथ ही टेलेकॉम, एयर फ़्रांस, साथ ही बीमा, बैंकिंग और रक्षा उद्योगों में अपनी हिस्सेदारी को बेच रही है। फ़्रांस में यूरोपीय कंसोर्टियम एयरबस के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण एयरोस्पेस उद्योग संचालित है, जिसका अपना एक राष्ट्रीय स्पेसपोर्ट, सेंटर स्पेयरियल गुयानास है।
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अनुसार, २००९ में फ्रांस दुनिया का छठा सबसे बड़ा निर्यातक तथा विनिर्मित वस्तुओं का चौथा सबसे बड़ा आयातक था। २००८ में, फ्रांस ओईसीडी देशों के बीच, ११८ अरब डॉलर विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का तीसरा सबसे बड़ा प्राप्तकर्ता था, यह लक्ज़मबर्ग (जहां विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अनिवार्य रूप से वहाँ स्थित बैंकों के लिए मौद्रिक स्थानान्तरण था) और अमेरिका ($ ३१६ बिलियन) के पीछे लेकिन ब्रिटेन (९६.९ अरब डॉलर), जर्मनी (२५ अरब डॉलर) या जापान (२४ अरब डॉलर) से ऊपर था।
उसी वर्ष, फ्रांस की कंपनियों ने फ्रांस के बाहर २२० अरब डॉलर का निवेश किया, फ्रांस को ओईसीडी में दूसरा सबसे बड़ा बाहरी निवेशक, अमेरिका (३११ अरब डॉलर) के पीछे, वही ब्रिटेन (१११ अरब डॉलर), जापान (१२८ अरब डॉलर) और जर्मनी ($ १५७ बिलियन) से आगे था।
यहाँ वित्तीय सेवाओं, बैंकिंग और बीमा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पेरिस स्टॉक एक्सचेंज (फ्रेंच: ला बोर्स डे पेरिस) एक पुरानी संस्था है, जिसका निर्माण लुइस क्स्व द्वारा १७२४ में किया गया था। २००० में, पेरिस, एम्स्टर्डम और ब्रुसेल्स के स्टॉक एक्सचेंजों को विलय कर यूरोनेक्स्ट नाम दिया गया। २००७ में यूरोनेक्स्ट, न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज के साथ विलय कर दुनिया के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज, एनवाईएसई यूरोनेक्स्ट का निर्माण किया। यूरोनेक्स्ट पेरिस, एनवाईएसई यूरोनेक्स्ट समूह की फ्रांसीसी शाखा, लंदन स्टॉक एक्सचेंज के पीछे यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज बाजार है।
फ्रांस यूरोपीय एकल बाजार का हिस्सा है जो ५०० मिलियन से अधिक उपभोक्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है। कई घरेलू वाणिज्यिक नीतियाँ यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्यों और यूरोपीय संघ के कानूनों के बीच समझौते से निर्धारित होती हैं। फ़्रांस ने २००२ में आम यूरोपीय मुद्रा, यूरो की शुरुआत की। यह यूरोजोन का सदस्य है जो लगभग ३३० मिलियन नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है।
फ्रांसीसी कंपनियों ने बीमा और बैंकिंग उद्योगों में अपना प्रमुख स्थान बनाए रखा है: यहाँ की एएक्सए दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कंपनी है। बीएनपी परिबास और क्रेडिट एग्रीओल प्रमुख फ्रांसीसी बैंक हैं, जो २०१० में (परिसंपत्तियों के आधार पर) दुनिया के पहले और छठे सबसे बड़े बैंकों के रूप में जाने जाते हैं, जबकि सोसिएट गेनेराल ग्रुप को २००९ में दुनिया का आठवां सबसे बड़ा स्थान दिया गया था।
यहाँ कृषि प्रमुख उद्योग है। यूरोप में कृषिगत वस्तुओं के निर्यात में नीदरलैंड्स के बाद इसका ही स्थान है। कृषि योग्य क्षेत्र अधिकांश उत्तरी भाग में स्थित है। कृषि में गेहूँ, जौ, जई, चुकंदर, पटुआ, आलू तथा अंगूर का स्थान प्रमुख है।
२०१२ में अमेरिका (६७ मिलियन पर्यटक) और चीन (५८ मिलियन पर्यटक) से कही आगे, ८३ मिलियन विदेशी पर्यटकों के साथ, फ्रांस को पर्यटन स्थल के रूप में प्रथम स्थान दिया गया हैं। इस ८३ मिलियन लोगो के आँकड़े में २४ घंटे से कम समय तक रहने वाले लोगों जैसे की उत्तरी यूरोपीय लोग स्पेन या इटली जाने के लिए फ्रांस को पार करते हैं को शामिल नहीं किया गया हैं। यात्रा की कम अवधि के कारण यह पर्यटन से आय में तीसरा है यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में फ्रांस की ३७ स्थल हैं इसके अलावा समुद्र तटों और समुद्र के किनारे के रिसॉर्ट, स्की रिसोर्ट और ग्रामीण क्षेत्रों की सुंदरता और शांति का लोग आनंद लेते हैं। फ़्रांस, सेंट जेम्स और लॉरडेस जाने वाले धार्मिक तीर्थयात्रियों से भी भरा रहता है, जिनकी संख्या एक साल में कई लाख तक पहुँच सकती है।
फ्रांस, विशेष रूप से पेरिस में, दुनिया के बड़े और प्रसिद्ध संग्रहालय हैं, जिनमे से कुछ जैसे की लौवर, जो कि दुनिया में सबसे अधिक देखे जाने वाली कला संग्रहालय है, म्यूसी डी'ओर्से, जोकि प्रभावितवाद को समर्पित है,
मोंसोरो महल-समकालीन कला संग्रहालय और ब्यूबुर्ग, जोकि समकालीन कला को समर्पित हैं। डिज़नीलैंड पेरिस यूरोप का सबसे लोकप्रिय थीम पार्क है, २००९ में डिजनीलैंड पार्क और वॉल्ट डिज़नी स्टूडियोज पार्क में आने वाले आगंतुक की संख्या १५ मिलियन थी।
फ्रांस के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में: (प्रति वर्ष २००३ की रैंकिंग आगंतुकों के अनुसार): एफिल टॉवर (६.२ मिलियन), लौवर म्यूजियम (५.७ मिलियन), वर्सेल्स पैलेस (२.८ मिलियन), म्यूसी डी'ओर्से (२.१ मिलियन ), आर्क डे ट्रायम्फे (१.२ मिलियन), सेंटर पोम्पिडौ (१.२ मिलियन), मोंट सेंट-मिशेल (१ मिलियन), शैटे डी चंबर्ड (७११,०००), सैंट-चैपल (६८3,०००), शैटॉ डु हौथ-केनग्सबर्ग (५4 ९, ०००), पु दे डोमे (५00,०००), म्यूसी पिकासो (44१,०००), कार्कासन (3६२,०००) शामिल हैं। २0१८ में, फ्रांस ने ८८ मिलियन लोगों का स्वागत किया। स्पेन ८२ मिलियन आगंतुकों के साथ दूसरा सबसे लोकप्रिय गंतव्य था, इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (७७ मिलियन), चीन (६१ मिलियन) और इटली (५९ मिलियन) थे।
जनवरी २०२० तक फ्रांस की जनसंख्या लगभग ७० मिलियन अनुमानित हैं, जिसमे ६४.८ मिलियन लोग महानगरीय फ्रांस में रहते हैं। फ्रांस विश्व में २०वां सबसे आबादी वाला देश है और यूरोप में तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है।
२००६ से २०११ तक जनसंख्या वृद्धि औसतन + ०.६% प्रति वर्ष थी। इसमें आप्रवासी भी प्रमुख योगदानकर्ता हैं; 2०1० में, मेट्रोपॉलिटन फ्रांस में पैदा हुए २७% नवजात शिशुओं के माता या पिता फ्रांस के बाहर पैदा हुए थे, जबकि कम से कम २४% शिशुओं के माता या पिता यूरोप के बाहर पैदा हुए थे (विदेशी क्षेत्रों में पैदा हुए माता-पिता को भी फ्रांस में पैदा हुए माना जाता है)।
फ्रांस एक बेहद शहरीकृत देश है, इसके सबसे बड़े शहरों में पेरिस (१२,४०५,४२६), ल्यों (२,२37,६७६), मार्सैय (१,७३४,२77), तुलूज़ (१,२9१,5१7), बोर्दो (१,१78,३३५), लिली (१,१75,8२8), नीस (१,००४,8२6) आदि हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से भारी मात्रा में प्रवासन यहाँ की २0 वीं शताब्दी की सबसे बड़ी राजनीतिक मुद्दा रही थी।
इन्हें भी देखें
फ्रांस का इतिहास
फ्रांस की क्रांति
फ़्रांसीसी औपनिवेशिक साम्राज्य
फ्रांस सपनों के भीतर का सच (सुचिता भट)
चलते चलते : फ़्रांस भारत और खेती -(विवेक जी)
शब्दकोश शब्दकोश फ़्रांसीसी भाषा -हिन्दी
फोन बुक फ्रेंच भाषा फोन बुक
फ्रांस: आसान नहीं डगर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मैक्रों की - बैक हिन्दी
यूरोप के देश
फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र |
इथियोपिया (गिइज़: , इत्योप्प्या) अफ्रीका के सींग में स्थित एक स्थल-रुद्ध देश है जो सरकारी तौर पर इथियोपिया संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में जाना जाता है। यह अफ़्रीका का दूसरा सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला देश है और इसमें ११ करोड़ से अधिक लोग बसे हुए हैं। क्षेत्रफल के हिसाब से यह अफ़्रीका का दसवाँ सबसे बड़ा देश है। इसकी राजधानी अदीस अबाबा है। इथियोपिया सूडान से दक्षिणपूर्व में, इरिट्रिया से दक्षिण में, जिबूती और सोमालिया से पश्चिम में, केन्या से उत्तर में और दक्षिण सूडान से पूर्व में स्थित है। यह दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला स्थल-रुद्ध देश है।
इथियोपिया अपने इतिहास के अधिकांश के लिए एक राजशाही थी और इथियोपिया वंश २ शताब्दी ई.पू. के लिए अपनी जड़ों [६] इथियोपिया भी एक मानव वैज्ञानिकों को ज्ञात आज अस्तित्व का सबसे पुराना स्थलों की। होने निशान मानवता का सबसे पुराना निशान के कुछ मिले। [७] यह क्षेत्र हो सकता है जिसमें से होमोसेक्सुअल सैपियंस पहले मध्य पूर्व और अंक के लिए बाहर सेट से परे [८] [९] [१०] जब अफ्रीका ने बर्लिन सम्मेलन में यूरोपीय शक्तियों द्वारा विभाजित किया गया था। इथियोपिया केवल एक में से एक था दोनों देशों है कि अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखा। यह एक राष्ट्र लीग के केवल चार अफ्रीकी सदस्यों में से एक था। इतालवी व्यवसाय का एक संक्षिप्त अवधि के बाद, इथियोपिया में संयुक्त राष्ट्र का एक चार्टर सदस्य बन गया। जब अन्य अफ्रीकी देशों में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की, उनमें से कई इथियोपिया ध्वज के रंग को अपनाया है और कई अंतरराष्ट्रीय अदीस अबाबा अफ्रीका पर ध्यान केंद्रित संगठनों के स्थान बन गया।
आधुनिक इथियोपिया और इसकी वर्तमान सीमा की ओर दक्षिण में उत्तर विस्तार में महत्वपूर्ण क्षेत्रीय कमी का परिणाम होते हैं, कई माईग्रेशन्स और वाणिज्यिक एकीकरण के साथ ही सम्राट मेनेलिक द्वितीय और रास गोबेना द्वारा विशेष रूप से विजय, के कारण. १९७४ में, हैली सेलैसी के नेतृत्व राजवंश के रूप में सिविल युद्ध तेज परास्त किया गया था। तब से, इथियोपिया सरकारी प्रणालियों की एक किस्म को देखा है। इथियोपिया एक गुट निरपेक्ष (एनएएम) आंदोलन, जी -७७ और अफ्रीकी एकता संगठन (ओऔ) के संस्थापक सदस्यों में से एक है। आज, अदीस अबाबा अभी भी अफ्रीकी संघ के मुख्यालय, नील नदी बेसिन आयोग, [११] वाणिज्य पान अफ्रीकी चैम्बर (पागई) और [१२] उनेका. देश एक अफ्रीका और अदीस अबाबा में सबसे शक्तिशाली सेनाओं में से एक है महाद्वीपीय अफ्रीकी अतिरिक्त बल (अस्फ) के मुख्यालय है। इथियोपिया कुछ अफ्रीकी देशों के लिए अपने स्वयं के वर्णमाला है एक है [१३] इथियोपिया भी अपने खुद के समय प्रणाली और अनूठा कैलेंडर, ग्रेगोरियन कैलेंडर के पीछे सात से आठ साल की है।. यह अफ्रीका में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की संख्या सबसे अधिक है। [१४]
देश के प्राकृतिक विरोधाभासों का देश झरने और साथ है, ज्वालामुखी हॉट स्प्रिंग्स. इथियोपिया अफ्रीका के सर्वोच्च पहाड़ों में से कुछ के रूप में समुद्र के स्तर से नीचे दुनिया का सबसे कम अंक में से कुछ भी है। अफ्रीका में सबसे बड़ी गुफा इथियोपिया में सॉफ उमर में स्थित है और देश के उत्तरी क्षेत्र में डालोल एक सबसे पृथ्वी पर स्थानों साल कहीं दौर से एक है। वहाँ कुल मिलाकर आज कर रहे हैं लगभग ८० इथियोपिया में विभिन्न जातीय समूहों के दो ओरोमो और अम्हारा, जो दोनों के एफ्रो एशियाई भाषाओं में बात की जा रही सबसे बड़ी के साथ. देश भी अपनी ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने के लिए प्रसिद्ध है, रॉक कटाकर गिराय हुआ चर्चों और वह जगह है जहां कॉफी की फलियों के रूप में जन्म लिया। वर्तमान में, इथियोपिया शीर्ष कॉफी और अफ्रीका में शहद उत्पादक देश है और सबसे बड़ी अफ्रीका में पशुधन आबादी के लिए घर है। इथियोपिया सब दुनिया के प्रमुख अब्राहमिक धर्मों में से तीन के पास ऐतिहासिक संबंध है। यह एक विश्व में पहले ईसाई देशों में से एक था, होने आधिकारिक तौर पर ४ शताब्दी में राज्य धर्म के रूप में ईसाई धर्म अपनाया. यह एक ईसाई बहुमत है और आबादी का एक तिहाई मुसलमान हैं। इथियोपिया इस्लामी इतिहास में पहली हिजरा और अफ्रीका में सबसे पुराना नेगाश पर मुस्लिम निपटान की साइट है। 19८० इथियोपिया इथियोपिया में बसता यहूदियों का एक बड़ा आबादी तक. देश में भी रास्तेवरी धार्मिक आंदोलन के आध्यात्मिक देश है।
इथियोपिया, जो अफ्रीका की दूसरी सबसे बड़ी पनबिजली क्षमता है [१५] कुल नील जल प्रवाह का ८५% से अधिक स्रोत है और अमीर मिट्टी होते हैं, लेकिन यह फिर भी १९८० के दशक में अकाल की एक शृंखला, प्रतिकूल भू राजनीति और नागरिक युद्ध द्वारा एक्सेसर्बटेड लिया, हजारों की सैकड़ों की मौत हो जाती है [१६] धीरे धीरे, लेकिन, देश के लिए ठीक हो शुरू हो गया है और आज इथियोपिया पूर्वी अफ्रीका (जीडीपी) [१७] के रूप में इथियोपिया की अर्थव्यवस्था का भी है कि सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। तेजी दुनिया में बढ़ रहा है। यह हॉर्न और पूर्वी अफ्रीका में. [१८] [१९] [२०] [२१] एक क्षेत्रीय महाशक्ति देश राजनीतिक रूप से नाजुक बनी हुई है।
इन्हें भी देखें
अफ़्रीका के देश |
अल्बानिया गणराज्य (अल्बानियाई: रिपब्लिका ए श्क़ीप्रिस) उत्तरपूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी भू सीमाएं उत्तर में कोसोवो, उत्तर पश्चिम में मोन्टेनेग्रो, पूर्व में भूतपूर्व यूगोस्लाविया और दक्षिण में यूनान से मिलती हैं। तटीय सीमाएं दक्षिण पश्चिम में आड्रियाटिक सागर और आयोनियन सागर से मिलती हैं।
अल्बानिया एक संसदीय लोकतंत्र और अवस्थांतर अर्थव्यवस्था है। अल्बानिया की राजधानी, तिराना, लगभग ८,९५,००० निवासियों वाला नगर है जो देश की ३६ लाख की जनसंख्या का चौथाई भाग है और यह नगर अल्बानिया का वित्तीय केन्द्र भी है। मुक्त बाजार सुधारों के कारण विदेशी निवेश के लिए देश की अर्थव्यस्था खोल दी गई है मुख्यतः ऊर्जा के विकास और परिवहन आधारभूत ढांचे में।
अल्बानिया संयुक्त राष्ट्र, नाटो, यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन, यूरोपीय परिषद, विश्व व्यापार संगठन, इस्लामिक सम्मेलन संगठन इत्यादि का सदस्य है और भूमध्य क्षेत्र संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक था। अल्बानिया जनवरी २००३ से यूरोपीय संघ में विलय के लिए एक संभावित प्रत्याशी रहा है और इसने औपचारिक रूप से २८ अप्रैल, २००९ को यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए आवेदन किया।
अल्बानिया में २६ नवंबर २०१९,मंगलवार को भूकंप आया
अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण के अनुसार ६.४ तीव्रता के साथ आये भूकंप का केन्द्र राजधानी तिराना से ३० किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में था। इसके बाद ५.१ और ५.४ की तीव्रता वाले झटके महसूस किए गए।भूकंप से सबसे ज़्यादा नुक़सान दुर्रेस में हुआ है।
कुर्बिन में भूकंप आने पर घबरा कर अपने घर से बाहर छलांग लगा देने के कारण तथा उत्तरी शहर लेज्हा में सड़क के टूटने से एक अन्य व्यक्ति की मौत हो गई।
अल्बानिया के राष्ट्रपति इलिर मेटा ने कहा कि थुमाने में स्थिति काफी गंभीर है। लोगों को बचाने की पूरी कोशिश की जा रही है। अल्बानिया के प्रधानमंत्री एदी रमा ने कहा कि सभी सरकारी एजेंसियां सतर्क हैं और दुर्रेस और थुमाने में लोगों की जान बचाने के लिए काम कर रही हैं।
इससे पहले साल १९७९ में ६.९ तीव्रता के भूकंप में 13६ लोगों की जान गई थी और क़रीब एक हज़ार लोग घायल हुए थे।
दूसरी से चौथी सदी तक यह क्षेत्र रोमन साम्राज्य का भाग था। इसके अगले १००० वर्षों तक यह यूनानी भाषा बोलने वाले ओस्ट्रोमीरिज का भाग था। स्कान्दरबर्ग, जिसे बाद में अल्बानिया के राष्ट्रीय नायक होने का गौरव प्राप्त हुआ, ने अपनी मृत्यु तक तुर्कों को अल्बानिया से खदेड़े रखा। इसके बाद लगभग ५०० वर्षों का तुर्क आधिपत्य काल आया, जिसका अन्त बाल्कन युद्ध के बाद हुआ और अल्बानिया १९१२ में एक स्वतन्त्र देश बना।
प्रथम बाल्कन युद्ध के बाद अल्बानिया ने ऑटोमन साम्राज्य से अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। देश में स्थिति अभी भी अशांत थी। द्वितीय विश्व युद्घ के दौरान इटली ने इसपर अधिकार कर लिया, लेकिन इसका लगातार एन्वर होक्ज़ा के नेतृत्व में साम्यवादी विरोध जारी रहा और इतालवियों के देश छोड़ने के बाद साम्यवादियों ने सत्ता सम्भाली।
१९९० में एन्वर होक्ज़ा की मृत्यु के पाँच वर्षों बाद तक, अल्बानिया एक पृथक्कृत देश था।
देश में बहुदलीय व्यस्था को सुदृढ़ किया जा रहा है, लेकिन देश में अभी भी बहुत सी आर्थिक समस्याएं बनीं हुई हैं, जैसे निवेश की कमी और आधारभूत ढाँचे की कमी और अपर्याप्त बिजली आपूर्ती। इसके अतिरिक्त यहाँ भ्रष्टाचार, 'काली' अर्थव्यस्था और संगठित अपराध की भी भारी समस्या है। २००५ में इन समस्याओं का समाधान करने के लिए पहल की गई लेकिन उससे बहुत अधिक उत्साहवर्धक परिणाम नहीं निकले।
१९९७ में देश में सशस्त्र विद्रोह हो गया और सैन्य हथियार लूट लिए गए। इसका कारण था जिन कम्पनियों में लोगों ने पैसा निवेश किया था वह ढह गईं और अल्बानियाईयों का पैसा डूब गया। इटली के नेतृत्व में नाटो सेनाएं यहाँ तैनात की गईं ताकी शांति और कानून व्यस्था बनी रहे। सत्तारूढ राष्ट्रपति साली बेरिशा को अपदस्त होने के लिए बाध्य किया गया और इस बीच समाजवादी नेता फ़ातोस नानो को छोड़ा गया। संसदीय चुनावों के बाद समाजवादी सत्ता में आए।
सितम्बर १९९८ में एक प्रमुख नेता आज़ेम हज्दारी की हत्या का प्रयास किया गया जिसके बाद दंगे भड़क उठे। फ़ातोस नानो विदेश भाग गए और उनके स्थान पर एक अन्य समाजवादी नेता पान्देली माज्को सत्ता में आए।
अल्बानिया नाटो और यूरोपीय संघ का सदस्य बनना चाहता है और इसने अफ़्गानिस्तान और ईराक में अमेरिकी सेना का समर्थन किया है। यूरोपीय संघ, विश्व बैंक इत्यादि ने अल्बानिया की समस्याओं को लेकर इसकी आलोचना की है, लेकिन पिछ्ले कुछ वर्षों में यहाँ विकास हुआ है जिसके बाद यूरोपीय संघ ने अल्बानिया के साथ अब तक की स्थिति के उलट अधिक सहयोग किया है।
होक्ज़ा की सत्ता ढहने के बाद से अल्बानिया पर साली बेरिशा के अधीन लोकतन्त्रवादियों का शासन है। २००५ के आम चुनावों में समाजवादियों की हार हुई और लोकतन्त्रवादियों को पुनः सत्ता प्राप्त हुई और इस हार के बाद फ़ातोस नानो ने पार्टी चेयरमैन का पद त्याग दिया और तिराना के मेयर एदि रामा नए चेयरमैन बने।
अल्बानिया में राष्ट्रपति राष्ट्र प्रमुख होता है, जिसका चुनाव कुवेन्दी पॉपुल्लर या विधानसभा द्वारा किया जाता है। विधानसभा के १५५ सदस्यों का चुनाव प्रति पाँच वर्ष में होने वाले चुनावों द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति द्वारा सरकार के मन्त्रियों का चुनाव किया जाता है जिनका मुखिया अल्बानिया का प्रधानमन्त्री होता है।
अल्बानिया में १८ वर्ष से ऊपर के सभी अल्बानियाई नागरिक मतदान कर सकते हैं।
राष्ट्र प्रमुखः देश का राष्ट्रपति
सरकार प्रमुखः प्रधानमन्त्री
मन्त्रीपरिषदः मन्त्रीपरिषद प्रधानमन्त्री द्वारा सुझाई जाती है, राष्ट्रपति द्वारा नामित होती है और संसद द्वारा स्वीकृत की जाती है।
एकविधायी विधानसभा या कुवेन्दी (कुवेंदी)(१४० सीटें; १०० सदस्य लोकप्रिय मतों द्वारा और ४० सदस्य आनुपातिक मतों द्वारा चुने जाते हैं जिनका कार्यकाल ४ वर्षों का होता है।
चुनावः पिछले चुनाव ३ जुलाई, २००५ को हुए थे, अगले २००९ में।
संवैधानिक न्यायालय, उच्चतम न्यायालय (चेयरमैन का चुनाव जन सभा द्वारा चार वर्षीय अवधि के लिए किया जाता है) और विभिन्न जिला स्तरीय न्यायालय।
अल्बानिया ३६ प्रभागों में विभक्त है, जिन्हें अल्बानिया में रेथे (रेथे) कहा जाता है। राजधानी तिराना को विशेष दर्जा प्राप्त है। ये प्रभाग हैं:
अल्बानिया का क्षेत्रफल २८,७४८ वर्ग किलोमीटर है। इसकी तटरेखा ३६२ किलोमीटर लंबी है और एड्रियाटिक और आयोनियन सागरों साथ लगती हुई है। पश्चिम की निम्नभूमि एड्रियाटिक सागर की ओर मुखातिब है। देश का ७०% भूपरिदृश्य पर्वतीय है और बाहर से अभिगमन प्रायः दुर्गम है। सबसे ऊँचा पर्वत कोराब पर्वत, दिब्रा जिले में स्थित है और २,७५३ मीटर (९,०३० फुट) ऊँचा है। देश की ऊँचे क्षेत्रों में ठंडी सर्दियों और गर्मियों के साथ जलवायु महाद्वीपीय है। राजधानी तिराना के अतिरिक्त, जिसकी जनसंख्या ८,००,००० है, अन्य प्रमुख नगर हैं डूरेस (दुर्र्स), कोर्से (कोर), इल्बासन (एल्बासन), श्कोदर (श्कोद्र), जिरोकास्तर (ग्जीरोकस्त्र), व्लोरे (व्लोर) और कूकेस (कुक्स) हैं।
बाल्कन प्रायद्वीप की तीन सबसे विशाल और गहरी टेक्टोनिक झीलें आंशिक रूप से अल्बानिया में पड़ती हैं। देश के उत्तर्पश्चिम में स्थित श्कोदेर झील की सतह ३७० किमी२ से ५३० किमी२ तक है, जिसमें से एक तिहाई अल्बानिया में और शेष मोंटेनेग्रो में आता है। झील से लगता अल्बानियाई तट ५७ किमी का है। ऑर्चिड झील देश के दक्षिण-पश्चिम में है यह अल्बानिया और मैसिडोनिया के बीच विभाजित है। इसकी अधिकतम गहराई २८९ मीटर है यहाँ पर विभिन्न प्रकार के अनूठे वनस्पति और जीव पाए जाते हैं, जैसे "जीवित जीवाश्म" और कई विलुप्त प्रजातियां। अपने प्राकृतिक और एतिहासिक महत्त्व के कारण ऑर्चिड झील यूनेस्को के संरक्षण में है।
अल्बानिया, पूर्वी यूरोपीय मानकों के आधार पर एक निर्धन देश है। वर्ष २००८ में इसका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (पी पी एस में व्यक्त-व्यय शक्ति मानक) यूरोपीय संघ के औसत का २५ प्रतिशत था। फिर भी, अल्बानिया ने आर्थिक विकास की क्षमता दिखाई है, जबसे अधिक से अधिक व्यापार प्रतिष्ठान यहाँ स्थानांतरित हो रहे हैं और वर्तमान वैश्विक लागत-कटौती के चलते उपभोक्ता वस्तुएँ उभरते बाज़ारी व्यापारियों द्वारा यहाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। यूरोप में केवल अल्बानिया और साइप्रस ही ऐसे दो देश हैं जिन्होंने २००९ की प्रथम तिमाही में आर्थिक विकास दर्ज किया है।
देश में तेल और प्राकृतिक गैस के कुछ भण्डार पाए जाते हैं, लेकिन तेल उत्पादन केवल ६,४२५ बैरल प्रतिदिन है। प्राकृतिक गैस का उत्पादन, जो लगभग ३ करोड़ घन मीटर है, घरेलू माँग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। अन्य प्राकृतिक सन्साधन हैं कोयला, बॉक्साइट, ताँबा और लौह अयस्क।
कृषि क्षेत्र सबसे प्रमुख है, जिसमें देश की ५८% कार्यशक्ति लगी हुई है और इससे सकल घरेलू उत्पाद का २१% भाग उत्पन्न होता है। अल्बानिया पर्याप्त मात्रा में गेहूँ, मक्काम तंबाकू, मछली (विश्व में १३ वें स्थान पर) और जैतून का उत्पादन करता है।
अल्बानिया एक सजातीय देश है: ९४% लोग मूल अल्बानियाई हैं, जो दो मुख्य समूहों में बँटे हैं - घेस (उत्तर) और तोस्क (दक्षिण) और भौगोलिक रूप से श्कुम्बिन नदी इस क्षेत्रों को अलग करती है। अन्य जातीय समूह हैं यूनानी (२%), आर्मेनियाई (३%), जिप्सी, सर्ब और मैसिडोनियाई (१%)।
१९१३ के हुए बिभाजन के बाद से बहुत से अल्बानियाई पड़ोसी देशों जैसे कोसोवो, मैसिडोनिया के पश्चिम में, उत्तरी यूनान इत्यादि में रहते हैं। १९१२-१३ में लंदन में हुए राजदूत सम्मेलन में हुई सन्धि के कारण अल्बानिया के पड़ोसी देशों को अल्बानिया का ४०% भूभाग और जनसंख्या दिए गए।
यूरोप में अल्बानिया की प्रवासन दर सर्वाधिक है, लगभग एक तिहाई अल्बानियाई विदेशों में रहते हैं, २००६ में लगभग ९,००,०००, जिनमें से अधिकांश मुख्यतः दो सीमाई देशों - इटली और यूनान में बसे हुए हैं। इसका एक प्रमुख कारण अल्बानिया का शेष यूरोप की तुलना में जीवन स्तर कम होना है। परिणाम स्वरूप देश की कुल जनसंख्या में भी १९९१ और २००१ के बीच जन्म दर के सन्तुलित रहने के पश्चात भी १,००,००० की गिरावट आई है। अभी भी देश में प्रवासन जारी है भले ही आधिकारिक आँकड़ो में इसमें कमी दर्शायी जाती हो।
बड़ी संख्या में अल्बानियाई लोग या तो नास्तिक हैं या अज्ञेयवादी। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, अल्बानिया में धार्मिक कार्यकलापों में लगे हुए लोगों का प्रतिशत २५ से ४० के बीच है, अर्थात् ६०% से ७५% तक अल्बानियाई अधार्मिक हैं (या कम से कम सार्वजनिक रूप से धार्मिक प्रदर्शनों में नहीं हैं)। यद्यपि अल्बानियाई बहुत अधिक धार्मिक नहीं हैं, लेकिन लगभग ७०% लोग सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से मुसलमान है, अल्बानियाई ऑर्थडॉक्स २०% और कैथलिक १०% हैं।
आज के अल्बानिया में धार्मिक बनावट की बहुत कम भूमिका है और लम्बे समय से यहाँ ईसाई और मुसलमान शान्तिपूर्ण रूप से रहते आए हैं।
अल्बानिया की प्रमुख भाषा है अल्बानियाई, जो एक हिन्द यूरोपीय भाषा है। यह अल्बानिया के अतिरिक्त मैसिडोनिया, मोंटेनेग्रो, कोसोवो और इटली के अर्बेरेश (अरब्रेश) और यूनान के अर्वानितेस (अरवानिट्स) में बोली जाती है। इसकी दो मुख्य बोलियाँ हैं:
घेग, जो श्कुम्बिन नदी के उत्तर में बोली जाती है
तोस्क, जो दक्षिणी अल्बानिया में बोली जाती है, श्कुम्बिन नदी के दक्षिण में
१९०९ में इस भाषा को औपचारिक रूप से लातिन लिपि में लिखा जाने लगा और द्वितीय विश्व युद्ध के अन्त से लेकर १९६८ तक कोसोवो, मैसिडोनिया और मोंटेनेग्रो में रह रहे अल्बानियाईयों में इसे आधिकारिक रूप से प्रयुक्त किया। १९७२ में साम्यवाद के उत्त्थान के बाद से इस भाषा को और गति मिली और यह आज अल्बानिया की आधिकारिक भाषा है।
अल्बानियाई लोक संगीत तीन समूहों में विभाजित है, अन्य महत्वपूर्ण संगीत क्षेत्र श्कोदर और तिराना के आसपास हैं; प्रमुख समूह हैं उत्तर के घेग और दक्षिण के लैब्स और तोस्क। उत्तरी और दक्षिणी परंपराओं में अन्तर है, उत्तरी संगीत "ऊबड़ और वीरतापूर्ण" और दक्षिणी संगीत "शांतिपूर्ण, मृदुल और असाधारण रूप से सुंदर" है।
इन दो अलग शैलियों का एकीकरण तब होता है "जब दोनों, कलाकार और श्रोता ध्यानपूर्वक संगीत को देशभक्ति की अभिव्यक्ति के लिए एक माध्यम के रूप में प्रयुक्त करते हैं और मौखिक रूप से इतिहास का वर्णन करते हैं"। अल्बानियाई लोक संगीत का प्रथम संकलन प्जीतर दुन्गु (प्जेत्र दुंगु) द्वारा १९४० में किया गया था।
अल्बानिया का भोजन अन्य भूमध्य और बाल्कन देशों के ही समान, अपने इतिहास से दृढ़ता से प्रभावित है। अलग अलग समय में, अल्बानिया पर यूनान, इटली और ऑटोमन तुर्को ने अधिकार किया और प्रत्येक ने अल्बानियाई खानपान पर अपनी छाप छोड़ी। अल्बानिया के लोगों का मुख्य भोजन दोपहर का भोजन है और इसमें आमतौर हरी सब्जियों के सलाद जैसे टमाटर, खीरे, हरी मिर्च और जैतून का तेल, सिरका और नमक लिया जाता है। दोपहर के भोजन में प्रमुख व्यंजन रे रूप में सब्जियाँ और मांस भी सम्मिलित है। तटीय क्षेत्रों जैसे डूरेस, व्लोरे और सारान्दे में समुद्री-आहार भी विशेष रूप से प्रचलित है। लम्बे समय से अल्बानिया में यह परम्परा रही है कि किसी सामाजिक सभा का संयोजक, जिसे पापि मूएजर (पापी मुएजर) कहा जाता है, वहाँ उपस्थित लोगों के लिए किसी स्थानीय मधुशाला में प्रथम बार की मदिरा खरीदता है।
साम्यवादी शासन से पहले, अल्बानिया में निरक्षरता दर ८५% थी। प्र्थम और द्वितीय विश्व युद्धों के बीच विद्यालय बहुत कम थे। १९४४ में साम्यवादी अधिग्रहण वाली सरकार ने निरक्षरता को समाप्त करने की ठानी। विनियामक इतने कड़े कर दिए गए की १२ से ४० वर्ष तक के आयुवर्ग में जो कोई भी पढ़ना या लिखना नहीं जानता था, के लिए विद्यालय जाना अनिवार्य कर दिया गया। संघर्ष के इस दौर के बाद से देश में साक्षरता की दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। आज अल्बानिया की साक्षरता दर ९८.७% है, पुरूष साक्षरता ९९.२% और महिला साक्षरता दर ९८.३% है। १९९० के बाद से जनसंख्या के तेज़ी से नगरीय क्षेत्रों की ओर पलायन के कारण शिक्षा का भी पलायन हुआ है और हज़ारों शिक्षक अपने विद्यार्थियों के पीछे-२ नगरीय क्षेत्रों में चले गए हैं।
समाजवाद के पतन के बाद से देश में स्वास्थ सेवाएं निरंतर चरमराई है, लेकिन २००० के बाद से इस क्षेत्र में आधिनिकीकरण किया गया है। आरंभिक २००० में देशभर में कुल ५१ अस्पताल थे जिन्में एक सैन्य अस्पताल और विशेषज्ञ सुविधाएं भी सम्मिलित हैं। अल्बानिया ने सफ़लतापूर्वक मलेरिया का उन्मूलन किया है।
जीवन प्रत्याशा ७७.४३ वर्ष है, जो विश्व में ५१ वें स्थान पर है और बहुत से अन्य यूरोपीय देशों जैसे हंगरी और चेक गणराज्य से अधिक है।
आयुर्विज्ञान विद्यालय, तिराना विश्वविद्यालय का चिकित्सा संकाय, तिराना में है। देश के कई अन्य नगरों में भी नर्सिंग विद्यालय हैं।
रोमन साम्राज्य के इलिरियाई सम्राट (प्रमुखतः क्लौडियस द्वितीय औरिलियन, डियोक्लेटियन, प्रोबस)
२५ से अधिक ऑटोमन मन्त्री
पोप क्लीमेन्ट एकादशम (१७००)
नोबल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा
अल्बानिया का राष्ट्रपति
अल्बानियाई सरकार (मन्त्री परिषद)
अल्बानिया की सन्सद
अल्बानियाई सम्वैधानिक न्यायालय
अल्बानियाई सांख्यिकी सन्स्थान
राजय प्रमुख और मन्त्री परिषद के सदस्य
राष्ट्रीय पर्यटन संगठन देशाटन और पर्यटन के लिए आधिकारिक जालपृष्ठ
अल्बानिया के लिए मार्गदर्शक (चित्रों सहित)
यूरोप के देश |
कोयम्बतूर (कोयम्बटूर) या कोयंबुत्तूर भारत के तमिल नाडु राज्य के कोयम्बतूर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर बसा शहर मुख्य रूप से एक औद्योगिक नगरी है। शहर रेल और सड़क और वायु मार्ग से अच्छी तरह पूरे भारत से जुड़ा है। कोयंबुत्तूर एक महत्वपूर्ण औद्योगिक शहर है। दक्षिण भारत के मैनचेस्टर के नाम से प्रसिद्ध कोयंबुत्तूर एक प्रमुख कपड़ा उत्पादन केंद्र है। नीलगिरी की तराई में स्थित यह शहर पूरे साल सुहावने मौसम का अहसास कराता है। दक्षिण से नीलगिरी की यात्रा करने वाले पर्यटक कोयंबुत्तूर को आधार शिविर की तरह प्रयोग करते हैं। कपड़ा उत्पादन कारखानों के अतिरिक्त भी यहां बहुत कुछ है जहां सैलानी घूम-फिर सकते हैं। यहां का जैविक उद्यान, कृषि विश्वविद्यालय संग्रहालय और वीओसी पार्क विशेष रूप से पर्यटकों को आकर्षित करता है। कोयंबुत्तूर में बहुत सारे मंदिर भी हैं जो इस शहर के महत्त्व को और भी बढ़ाते हैं।
वीओसी पार्क कोयंबटूर का मुख्य आकर्षण है। इस उद्यान का नाम मशहूर स्वतंत्रता सैनानी वी.ओ. चिदंबरम के नाम पर पड़ा। यूं तो यह पार्क सभी आयु वर्ग के लोगों को पसंद आता है लेकिन बच्चों को यह उद्यान खास तौर से लुभाता है। यहां पर एक एक्वेरियम भी है जहां विभिन्न प्रजातियों की मछलियों को देखा जा सकता हैं। इसके अलावा यहां एक छोटा चिड़ियाघर और टॉय ट्रेन भी है जिनका आनंद उठाया जा सकता है।
तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय कोयंबटूर के रोचक पर्यटक स्थलों में से एक है। रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर दूर स्थित यह विश्वविद्यालय एशिया के सर्वश्रेष्ठ कृषि विश्वविद्यालयों में से एक है। यहां का मुख्य आकर्षण यहां का जैविक उद्यान है। करीब ३०० हैक्टेयर में फैले इस उद्यान में विविध प्रजाति के पेड़-पौधों का अच्छा संग्रह है।
पेरुर कोयंबटूर से ६ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा शहर है। इसका मुख्य आकर्षण पेरुर मंदिर है जो सात कोंगु शिवालयम में से एक है। मंदिर की बाहरी इमारत मदुरै के शासकों ने १७वीं शताब्दी में बनवाई थी लेकिन अंदर का मुख्य मंदिर उससे काफी पुराना है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर के प्रवेश द्वार के पास स्तंभ के नीचे उकेरी गई एक सैनिक की प्रतिमा यहां का मुख्य आकर्षण है। इस सिपाही की वर्दी औरंगजेब के सैनिकों के समान है।
कोयंबटूर रेलवे स्टेशन से १२ किलोमीटर दूर पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर भगवान सुब्रमण्यम को समर्पित है। यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण इस मंदिर के मुख्य देवता दंडयुथपाणी हैं। इनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने यहां कई चमत्कार किए थे। थाई पूसम और तिरुकर्तीगई उत्सव यहां बहुत धूम-धाम से मनाए जाते हैं।
शहर से ३७ किलोमीटर दूर स्थित है सिरुवनी जलप्रपात और बांध। इनकी खूबसूरती से यहां आने वाले दर्शक मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहते। इसी सुंदरता के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों पर्यटक यहां घूमने आते हैं। सिरुवनी के पानी का भी अलग ही स्वाद है। इसलिए यहां आने पर इसे जरूर चखना चाहिए।
अन्नामलई वन्यजीव अभयारण्य
पोल्लाची के पास स्थित अन्नामलई वन्यजीव अभयारण्य कोयंबटूर से कुछ दूरी पर स्थित एक रोमांचक स्थान है। समुद्र तल से १४०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह अभयारण्य विभिन्न प्रकार के जानवरों और पक्षियों का घर है। इनमें से कुछ प्रमुख जीव और पक्षी हैं- हाथी, गौर, बाघ, चीता, भालू, भेड़िया, रॉकेट टेल ड्रॉन्गो, बुलबुल, काले सिर वाला पीलक, बतख और हरा कबूतर। अन्नामलई के अमरावती सरोवर में बड़ी संख्या में मगरमच्छ भी देखे जा सकते हैं।
अन्नामलई अभयारण्य में कई ऐसी खूबसूरत जगहें भी हैं जो प्रकृति से रूबरू कराती हैं जैसे करैन्शोला, अनैकुंती शोला, हरे-भरे पहाड़, झरने, बांध और सरोवर। यहां आकर प्रकृति को करीब से जानने का मौका मिलता है।
उदुमपेट से २० किलोमीटर दूर पलानी-कोयंबटूर राजमार्ग पर तिरुमूर्ति मंदिर स्थित है। यह मंदिर तिरुमूर्ति पहाड़ी के नीचे तिरुमूर्ति बांध के पास है। एक बारामासी जलधारा श्री अमरलिंगेश्वर मंदिर के पास बहती है। पास ही स्थित एक झरना इस स्थान की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। यहां से करीब २५ किलोमीटर की दूरी पर अमरावती बांध के पास क्रोकोडाइल फार्म है जिसकी सैर भी की जा सकती है।
कोयंबटूर हवाई अड्डा शहर से १२ किलोमीटर दूर है और मुंबई, चेन्नई और कोजीकोड से जुड़ा हुआ है।
कोयंबटूर शहर में दो रेलवे स्टेशन हैं जिनमें से कोयंबटूर जंक्शन मुख्य स्टेशन है। कई महत्वपूर्ण ट्रेनें इस शहर से होकर गुजरती हैं। इनमें से कुछ हैं- त्रिवेंद्रम-नई दिल्ली केरल एक्सप्रेस, त्रिवेंद्रम-निजामुद्दीन एक्सप्रेस, कोयंबटूर-निजामुद्दीन कोंगु एक्सप्रेस, चेन्नई-कोयंबटूर इंटरसिटी एक्सप्रेस आदि।
सड़क मार्ग के जरिए कोयंबटूर बंगलुरु, चेन्नई, एर्नाकुलम, कोट्टायम, पुदुचेरी, रामेश्वरम और तिरुवनंतपुरम से जुड़ा हुआ है।
इन्हें भी देखें
तमिल नाडु के शहर
कोयम्बतूर ज़िले के नगर
चेन्नई रेलवे मंडल |
रवांडा नरसंहार तुत्सी और हुतु समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। १९९४ में ६ अप्रैल को किगली में हवाई जहाज पर बोर्डिंग के दौरान रवांडा के राष्ट्रपति हेबिअरिमाना और बुरुन्डियान के राष्ट्रपति सिप्रेन की हत्या कर दी गई, जिसके बाद ये संहार शुरू हुआ। करीब १०० दिनों तक चले इस नरसंहार में ५ लाख से लेकर दस लाख लोग मारे गए। तब ये संख्या पूरे देश की आबादी के करीब २० फीसदी के बराबर थी।
इस संघर्ष की नींव खुद नहीं पड़ी थी, बल्कि ये रवांडा की हुतू जाति के प्रभाव वाली सरकार जिसने इस जनसंहार को प्रायोजित किया था। इस सरकार का मकसद विरोधी तुत्सी आबादी का देश से सफाया था। इसमें ना सिर्फ तुत्सी लोगों का कत्ल किया गया, बल्कि तुत्सी समुदाय के लोगों के साथ जरा सी भी सहानुभूति दिखाने वाले लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।
नरसंहार को सफल बनाने वालों में रवांडा सेना के अधिकारी, पुलिस विभाग, सरकार समर्थित लोग, उग्रवादी संगठन और हुतु समुदाय के लोग शामिल थे। हुतु और तुत्स समुदाय में लंबे समय से चली आ रही आला दर्जे की दुश्मनी एक बड़ी वजह थी।
जुलाई के मध्य में इस संहार पर काबू पाया गया। हालांकि, हत्या और बलात्कार की इन वीभत्स घटनाओं ने अफ्रीका की आबादी के बड़े हिस्से के लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है, इस घटना का असर लोगों के दिलो दिमाम पर आज भी बरकरार है।
इस संहार के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका, ब्रिटेन, बेल्जियम समेत तमाम देशों को उनकी निष्क्रियता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र यहां शांति स्थापना करने में नाकाम रहा। वहीं, पर्यवेक्षकों ने इस नरसंहार को समर्थन देने वाली फ्रांस की सरकार की भी जमकर आलोचना की। मानवाधिकार की पैरोकार अधिकांश पश्चिमी देश इस पूरे मसले को खामोशी से देखते रहे। आधुनिक शोध इस बात पर बल देते हैं सामान्य जातीय तनाव इस नरसंहार की वजह न देकर इसकी वजह युरोपीय उपनिवेशवादी देशों अपने स्वार्थों के लिये हुतू और तुत्सी लोगों को कृत्रिम रूप से विभाजित किया जाना है।
इन्हें भी देखें
अफ़्रीका का इतिहास
अफ्रीका में नरसंहार |
मीना कुमारी (१ अगस्त, १933 - 3१ मार्च, १972) (अस्ल नाम-महज़बीं बानो) भारत की एक मशहूर हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री थीं। इन्हें खासकर दुखांत फ़िल्मों में इनकी यादगार भूमिकाओं के लिये याद किया जाता है।
मीना कुमारी को भारतीय सिनेमा की ट्रैजेडी क्वीन (शोकान्त महारानी) भी कहा जाता है। अभिनेत्री होने के साथ-साथ मीना कुमारी एक उम्दा शायारा एवम् पार्श्वगायिका भी थीं। इन्होंने वर्ष १९३९ से १९७२ तक फ़िल्मी पर्दे पर काम किया।
जन्म व बचपन
मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं। उनके पिता अली बक्श पारसी रंगमंच के एक मँझे हुए कलाकार थे और उन्होंने फ़िल्म "शाही लुटेरे" में संगीत भी दिया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो), भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी। मीना कुमारी की बड़ी बहन खुर्शीद जुनियर और छोटी बहन मधु (बेबी माधुरी) भी फिल्म अभिनेत्री थीं। कहा जाता है कि दरिद्रता से ग्रस्त उनके पिता अली बक़्श उन्हें पैदा होते ही अनाथाश्रम में छोड़ आए थे चूँकि वे उनके डाॅक्टर श्रीमान गड्रे को उनकी फ़ीस देने में असमर्थ थे।हालांकि अपने नवजात शिशु से दूर जाते-जाते पिता का दिल भर आया और तुरंत अनाथाश्रम की ओर चल पड़े।पास पहुंचे तो देखा कि नन्ही मीना के पूरे शरीर पर चीटियाँ काट रहीं थीं।अनाथाश्रम का दरवाज़ा बंद था, शायद अंदर सब सो गए थे।यह सब देख उस लाचार पिता की हिम्मत टूट गई,आँखों से आँसु बह निकले।झट से अपनी नन्हीं-सी जान को साफ़ किया और अपने दिल से लगा लिया।अली बक़्श अपनी चंद दिनों की बेटी को घर ले आए।समय के साथ-साथ शरीर के वो घाव तो ठीक हो गए किंतु मन में लगे बदकिस्मती के घावों ने अंतिम सांस तक मीना का साथ नहीं छोड़ा।
टैगोर परिवार से संबंध
मीना कुमारी की नानी हेमसुन्दरी मुखर्जी पारसी रंगमंच से जुड़ी हुईं थी। बंगाल के प्रतिष्ठित टैगोर परिवार के पुत्र जदुनंदन टैगोर (१८४०-६२) ने परिवार की इच्छा के विरूद्ध हेमसुन्दरी से विवाह कर लिया। 18६२ में दुर्भाग्य से जदुनंदन का देहांत होने के बाद हेमसुन्दरी को बंगाल छोड़कर मेरठ आना पड़ा। यहां अस्पताल में नर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने एक उर्दू के पत्रकार प्यारेलाल शंकर मेरठी (जो कि ईसाई था) से शादी करके ईसाई धर्म अपना लिया। हेमसुन्दरी की दो पुत्री हुईं जिनमें से एक प्रभावती, मीना कुमारी की माँ थीं।
शुरुआती फिल्में (१९३९-५२)
महजबीं पहली बार १९३९ में फिल्म निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म "लैदरफेस" में बेबी महज़बीं के रूप में नज़र आईं। १९४० की फिल्म "एक ही भूल" में विजय भट्ट ने इनका नाम बेबी महजबीं से बदल कर बेबी मीना कर दिया। १९४६ में आई फिल्म बच्चों का खेल से बेबी मीना १३ वर्ष की आयु में मीना कुमारी बनीं। मार्च १९४७ में लम्बे समय तक बीमार रहने के कारण उनकी माँ की मृत्यु हो गई। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं जिनमें हनुमान पाताल विजय, वीर घटोत्कच व श्री गणेश महिमा प्रमुख हैं।
उभरती सितारा (१९५२-५६)
१९५२ में आई फिल्म बैजू बावरा ने मीना कुमारी के फिल्मी सफ़र को नई उड़ान दी। मीना कुमारी द्वारा अभिनीत गौरी के किरदार ने उन्हें घर-घर में प्रसिद्धि दिलाई। फिल्म १०० हफ्तों तक परदे पर रही और १९५४ में उन्हें इसके लिए पहले फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
१९५३ तक मीना कुमारी की तीन फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं। परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूँकि इस फिल्म में भारतीय नारी की आम जिंदगी की कठिनाइयों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू छाया रहा और लगातार दूसरी बार उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार के लिए चयनित किया गया।
१९५४ से १९५६ के बीच मीना कुमारी ने विभिन्न प्रकार की फिल्मों में काम किया। जहाँ चाँदनी चौक (१९५४) और एक ही रास्ता (१९५६) जैसी फिल्में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करती थीं, वहीं अद्ल-ए-जहांगीर (१९५५) और हलाकू (१९५६) जैसी फिल्में तारीख़ी किरदारों पर आधारित थीं। १९५५ की फ़िल्म आज़ाद, दिलीप कुमार के साथ मीना कुमारी की दूसरी फिल्म थी। ट्रेजेडी किंग और ट्रेजेडी क्वीन के नाम से प्रसिद्ध दिलीप और मीना के इस हास्य प्रधान फ़िल्म ने दर्शकों की खूब वाहवाही लूटी। मीना कुमारी के उम्दा अभिनय ने उन्हें फ़िल्मफ़ेयर ने फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया। फ़िल्म आज़ाद के गाने "अपलम चपलम" और "ना बोले ना बोले" आज भी प्रचलित हैं।
१९५७ में मीना कुमारी दो फिल्मों में पर्दे पर नज़र आईं। प्रसाद द्वारा कृत पहली फ़िल्म मिस मैरी में कुमारी ने दक्षिण भारत के मशहूर अभिनेता जेमिनी गणेशन और किशोर कुमार के साथ काम किया। प्रसाद द्वारा कृत दूसरी फ़िल्म शारदा ने मीना कुमारी को भारतीय सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन बना दिया। यह उनकी राज कपूर के साथ की हुई पहली फ़िल्म थी। जब उस ज़माने की सभी अदाकाराओं ने इस रोल को करने से मन कर दिया था तब केवल मीना कुमारी ने ही इस रोल को स्वीकार किया था और इसी फिल्म ने उन्हें उनका पहला बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिलवाया।
१९५८:फिल्म सहारा के लिए (लेखराज भाखरी द्वारा निर्देशित), मीना कुमारी को फिल्मफेयर नामांकन मिला। फ़िल्म यहूदी, बिमल रॉय द्वारा निर्देशित थी जिसमें मीना कुमारी, दिलीप कुमार, सोहराब मोदी, नजीर हुसैन और निगार सुल्ताना ने अभिनय किया। यह रोमन साम्राज्य में यहूदियों के उत्पीड़न के बारे में, पारसी - उर्दू रंगमंच में एक क्लासिक, आगा हाशर कश्मीरी द्वारा यहूदी की लड़की पर आधारित थी। यह फ़िल्म मुकेश द्वारा गाए गए प्रसिद्ध गीत "ये मेरा दीवानापन है" के साथ बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। फरिश्ता - मुख्य नायक के रूप में अशोक कुमार और मीना कुमारी ने अभिनय किया। फिल्म को औसत से ऊपर दर्जा दिया गया था। फ़िल्म सवेरा सत्येन बोस द्वारा निर्देशित की गई, जिसमें मीना कुमारी और अशोक कुमार प्रमुख भूमिकाओं में थे।
१९५९: देवेन्द्र गोयल द्वारा निर्देशित और निर्मित, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ में राजेंद्र कुमार और हनी ईरानी के साथ मीना कुमारी दिखीं। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही और मीना कुमारी को उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर नामांकन मिला। चार दिल चार राहें का निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया, जिसमें स्टार मीना कुमारी, राज कपूर, शम्मी कपूर, कुमकुम और निम्मी थे। फिल्म को आलोचकों से गर्म समीक्षा मिली। शरारात - एक १९५९ की रोमांटिक ड्रामा फिल्म थी, जिसे हरनाम सिंह रवैल द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया था, जिसमें मीना कुमारी, किशोर कुमार, राज कुमार और कुमकुम मुख्य भूमिकाओं में थे। किशोर कुमार द्वारा गाए गया यादगार गीत "हम मतवाले नौजवान" आज भी याद किया जाता है।
१९६०: दिल अपना और प्रीत पराई, किशोर साहू द्वारा लिखित और निर्देशित एक हिंदी रोमांटिक ड्रामा थी। इस फिल्म में मीना कुमारी, राज कुमार और नादिरा ने मुख्य भूमिका निभाई। फिल्म एक सर्जन की कहानी बताती है जो एक पारिवारिक मित्र की बेटी से शादी करने के लिए बाध्य है, जबकि उसे एक सहकर्मी नर्स से प्यार है, जिसे मीना कुमारी ने निभाया है। यह मीना कुमारी के करियर के प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन द्वारा दिया गया है, और हिट गीत, "अजीब दास्तान है ये" लता मंगेशकर द्वारा गाया गया है। १९६१ के फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में इसने सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक श्रेणी के लिए नौशाद के लोकप्रिय संगीत महाकाव्य मुग़ल-ए-आज़म को हराकर खलबली मचा दी। बहाना - कुमार द्वारा निर्देशित, मीना कुमारी, सज्जन, अनवर की स्टार कास्ट थी। कोहिनूर - एस. यू. सनी द्वारा निर्देशित मीना कुमारी, दिलीप कुमार, लीला चिटनिस और कुमकुम के साथ बनाई गई फ़िल्म थी। यह एक मज़ाइया फ़िल्म थी और काफी हिट रही।
१९६१: भाभी की चूड़ीयां एक पारिवारिक ड्रामा थी जिसका निर्देशन सदाशिव कवि ने मीना कुमारी और बलराज साहनी के साथ किया था। यह मीना कुमारी के प्रसिद्ध फिल्मों में से एक है। यह फिल्म लता मंगेशकर के प्रसिद्ध गीत "ज्योति कलश छलके" के साथ भारतीय बॉक्स ऑफिस पर वर्ष की सबसे अधिक कमाई वाली फिल्मों में से एक थी। ज़िन्दगी और ख्वाब - मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार अभिनीत एस. बनर्जी निर्देशित भारतीय बॉक्स ऑफ़िस पर हिट रही। प्यार का सागर का निर्देशन मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार के साथ देवेंद्र गोयल ने किया था।
१९६२ और उसके बाद
१९६२: साहिब बीबी और गुलाम, गुरु दत्त द्वारा निर्मित और अबरार अल्वी द्वारा निर्देशित फिल्म थी। यह बिमल मित्र के बंगाली उपन्यास "साहेब बीबी गोलम" पर आधारित है। फिल्म में मीना कुमारी, गुरु दत्त, रहमान, वहीदा रहमान और नाज़िर हुसैन हैं। इसका संगीत हेमंत कुमार का है और गीत शकील बदायुनी के हैं। इस फिल्म को वी. के. मूर्ति और गीता दत्त द्वारा गाए गए प्रसिद्ध गीत "ना जाओ सईयां छुड़ा के बइयां" और "पिया ऐसो जिया में" के लिए भी जाना जाता है।
फिल्म ने चार फिल्मफेयर पुरस्कार जीते, जिसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी शामिल है। इस फिल्म को १३ वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर के लिए नामित किया गया था, जहाँ मीना कुमारी को एक प्रतिनिधि के रूप में चुना गया था। साहिब बीबी और गुलाम को ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुना गया था।
फणी मजूमदार द्वारा निर्देशित आरती में मीना कुमारी, अशोक कुमार, प्रदीप कुमार और शशिकला निर्णायक भूमिका में हैं। कुमारी को इस फिल्म के लिए बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। मैं चुप रहुंगी - ए. भीमसिंह द्वारा निर्देशित मीना कुमारी और सुनील दत्त के साथ मुख्य भूमिका में, वर्ष की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में से एक थी और मीना कुमारी को उनके प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए फिल्मफेयर नामांकन मिला।
१९६३: दिल एक मंदिर, सी. वी. श्रीधर द्वारा निर्देशित थी जिसमें मीना कुमारी, राजेंद्र कुमार, राज कुमार और महमूद मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म का संगीत शंकर जयकिशन द्वारा दिया गया है। यह बॉक्स ऑफिस पर एक बड़ी हिट थी। फ़िल्म अकेली मत जाइयो को नंदलाल जसवंतलाल ने निर्देशित किया था। यह मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार के साथ एक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है। किनारे किनारे को चेतन आनंद ने निर्देशित किया था और इसमें मीना कुमारी, देव आनंद और चेतन आनंद ने मुख्य भूमिकाओं थे।
१९६४: सांझ और सवेरा - हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिसमें मीना कुमारी, गुरुदत्त और महमूद ने अभिनय किया था। यह फ़िल्म गुरु दत्त की अंतिम फ़िल्म थी। बेनज़ीर - एस. खलील द्वारा निर्देशित एक मुस्लिम सामाजिक फिल्म थी, जिसमें मीना कुमारी, अशोक कुमार, शशि कपूर और तनुजा ने अभिनय किया था। मीरा कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार द्वारा अभिनीत और किदार शर्मा द्वारा निर्देशित चित्रलेखा १९३४ के हिंदी उपन्यास पर आधारित थी, जो इसी नाम से भगवती चरण वर्मा द्वारा मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले बीजगुप्त और राजा चंद्रगुप्त मौर्य (३४० ईसा पूर्व -२९८ ईसा पूर्व) के बारे में थी। फिल्म का संगीत और बोल रोशन और साहिर लुधियानवी के थे और "संसार से भीगे फिरते हो" और "मन रे तू कहे" जैसे गीतों के लिए प्रसिद्ध थे। मीना कुमारी और सुनील दत्त द्वारा अभिनीत वेद-मदन द्वारा निर्देशित गजल एक मुस्लिम सामाजिक फिल्म थी, इसमें साहिर लुधियानवी के गीतों के साथ मदन मोहन का संगीत था, जिसमें मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाए गए "रंग और नूर की बारात", लता मंगेशकर द्वारा गाया गया "नगमा ओ शेर की सौगात" जैसे उल्लेखनीय फ़िल्म-ग़ज़ल शामिल हैं। मैं भी लड़की हूँ का निर्देशन ए. सी. तिरूलोकचंदर ने किया था। फिल्म में मीना कुमारी नवोदित अभिनेता धर्मेंद्र के साथ हैं।
१९६५: काजल ने राम माहेश्वरी द्वारा निर्देशित जिसमें मीना कुमारी, धर्मेंद्र, राज कुमार, पद्मिनी, हेलेन, महमूद और मुमताज़ हैं। यह फिल्म १९६५ की शीर्ष २० फिल्मों में सूचीबद्ध थी। मीना कुमारी ने काजल के लिए अपना चौथा और आखिरी फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। फिल्म मूल रूप से गुलशन नंदा के उपन्यास "माधवी" पर आधारित थी। मीना कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार के साथ कालिदास के निर्देशन में बनी भीगी रात, लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी द्वारा दो अलग-अलग संस्करणों में गाए गए प्रसिद्ध गीत "दिल जो ना कह सका" के साथ वर्ष की सबसे बड़ी हिट में से एक थी। । नरेंद्र सूरी द्वारा निर्देशित फिल्म पूर्णिमा में मुख्य भूमिकाओं में मीना कुमारी और धर्मेंद्र थे।
१९६६: फूल और पत्थर, ओ. पी. रल्हन द्वारा निर्देशित फ़िल्म, जिसमें मीना कुमारी और धर्मेंद्र ने मुख्य भूमिकाओं में अभिनय किया। यह फिल्म एक स्वर्ण जयंती हिट बन गई और धर्मेंद्र के फिल्मी सफर में मील का पत्थर साबित हुई यह फ़िल्म उस वर्ष की सबसे अधिक कमाई वाली फिल्म थी। फिल्म में मीना कुमारी के प्रदर्शन ने उन्हें उस वर्ष के लिए फिल्मफेयर पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी में नामांकित किया। फिल्म पिंजरे की पंछी का निर्देशन सलिल चौधरी ने किया था, जिसमें मुख्य भूमिकाओं में मीना कुमारी, बलराज साहनी और महमूद थे।
१९६७: मझली दीदी का निर्देशन हृषिकेश मुखर्जी और मीना कुमारी के साथ धर्मेंद्र ने अभिनय किया। यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए ४१ वें अकादमी पुरस्कारों में भारत की प्रविष्टि थी। फिल्म बहू बेगम का निर्देशन एम. सादिक ने किया था, जिसमें मीना कुमारी, प्रदीप कुमार और अशोक कुमार थे। फिल्म में संगीत रोशन और गीत साहिर लुधियानवी द्वारा दिया गया है। नूरजहाँ, मोहम्मद सादिक द्वारा निर्देशित, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार अभिनीत एक ऐतिहासिक फिल्म थी, जिसमें हेलन और जॉनी वॉकर छोटी भूमिकाओं में थे। इसमें महारानी नूरजहाँ और उनके पति, मुगल सम्राट जहाँगीर की महाकाव्य प्रेम कहानी का वर्णन किया गया है। फिल्म चंदन का पलना इस्माइल मेमन द्वारा निर्देशित किया गया, जिसमें मीना कुमारी और धर्मेंद्र ने अभिनय किया। ग्रहण के बाद (इंग्लिश: आफ्टर थे इक्लिप्से), एस सुखदेव द्वारा निर्देशित ३७ मिनट की एक रंगीन डॉक्यूमेंट्री थी जो वाराणसी के उपनगरीय इलाके में शूट की गई, इसमें अभिनेता शशि कपूर की आवाज के साथ मीना कुमारी की आवाज भी थी।
१९६८: बहारों की मंज़िल एक सस्पेंस थ्रिलर है जिसका निर्देशन याकूब हसन रिज़वी ने किया, जिसमें मीना कुमारी, धर्मेंद्र, रहमान और फरीदा जलाल शामिल हैं। यह फिल्म साल की प्रमुख हिट फिल्मों में से एक थी। फिल्म अभिलाषा का निर्देशन अमित बोस ने किया था। कलाकारों में मीना कुमारी, संजय खान और नंदा शामिल हैं।
७० का दशक
७० के दशक की शुरुआत में, मीना कुमारी ने अंततः अपना ध्यान अधिक 'अभिनय उन्मुख' या चरित्र भूमिकाओं पर केन्द्रित कर दिया। उनकी अंतिम छह फिल्में- जबाव, सात फेरे, मेरे अपने, दुश्मन, पाकीज़ा और गोमती के किनारे में से केवल पाकीज़ा में उनकी मुख्य भूमिका थी। मेरे अपने और गोमती के किनारे में, हालांकि उन्होंने एक मुख्य नायिका की भूमिका नहीं निभाई, लेकिन उनकी भूमिका वास्तव में कहानी का केंद्रीय चरित्र थी।
१९७०: फ़िल्म जवाब मीना कुमारी, जीतेंद्र, लीना चंदावरकर और अशोक कुमार द्वारा अभिनीत, रमन्ना द्वारा निर्देशित फिल्म थी। सात फेरे का निर्देशन सुधीर सेन ने किया था, जिसमें मीना कुमारी, प्रदीप कुमार और मुकरी मुख्य भूमिकाओं में थे।
१९७१: गुलज़ार द्वारा लिखित और निर्देशित, मेरे अपने में मीना कुमारी, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के साथ देवेन वर्मा, पेंटाल, असित सेन, असरानी, डैनी डेन्जोंगपा, केश्टो मुखर्जी, ए. के. हंगल, दिनेश ठाकुर, महमूद और योगिता बाली हैं। दुलाल गुहा द्वारा निर्देशित दुश्मन, जिसमें मुख्य भूमिकाओं में मुमताज के साथ मीना कुमारी, रहमान और राजेश खन्ना हैं। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर "सुपर-हिट" रही।
१९७२: सावन कुमार टाक द्वारा निर्देशित गोमती के किनारे में मीना कुमारी, संजय खान और मुमताज़ ने अभिनय किया। यह फ़िल्म मीना कुमारी की मृत्यु के बाद २२ नवंबर १९७२ को रिलीज हुई।
पाकीज़ा का समापन (१९५६-७२)
१९५४ में, फ़िल्म आज़ाद की शूटिंग के दौरान, मीना कुमारी और कमाल अमरोही दक्षिण भारत में थे, और यहाँ कमाल अमरोही ने अपनी पत्नी के साथ अपनी अगली फिल्म के कथानक की रूपरेखा तैयार करना शुरू किया और इसे पाकीज़ा कहने का फैसला किया। मीना कुमारी ने फिल्म को पूरा करने के लिए ठान लिया था और वह अपने जीने के लिए सीमित समय से अच्छी तरह वाकिफ थी, अपने तेजी से बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद, उन्होंने अपने प्रदर्शन को अंतिम रूप दिया। पाकीज़ा का ३ फरवरी १९७२ को मध्य बॉम्बे के मराठा मंदिर थिएटर में एक भव्य प्रीमियर हुआ, और प्रिंट एक अलंकृत पालकी पर रखे जा रहे थे। प्रीमियर के दौरान मीना कुमारी कमाल अमरोही के बगल में बैठी थीं. जब मोहम्मद ज़हूर खय्याम ने मीना कुमारी को "शाहकर बन गया" (यह अनमोल है) के साथ बधाई दी, तो वह रो पड़ी। पूरी फिल्म देखने के बाद, कुमारी ने एक दोस्त से कहा कि उन्हें यकीन है कि उनके पति भारत में सबसे बेहतरीन फिल्म निर्माता हैं। फ़िल्म अंततः अगले दिन, ४ फरवरी १९७२ को रिलीज़ हुई। पाकीज़ा ने ३३ सप्ताह तक सफलतापूर्वक चलने का आनंद लिया और अपनी रजत जयंती भी मनाई। मीना कुमारी ने मरणोपरांत पाकीज़ा के लिए अपना बारहवां और अंतिम फिल्मफेयर नामांकन प्राप्त किया। बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन अवार्ड्स ने 197३ में मीना कुमारी को पाकीज़ा के लिए विशेष पुरस्कार प्रदान किया।
पार्श्वगायक के रूप में करियर
मीना कुमारी एक पार्श्व गायिका भी थीं। उन्होंने १९४५ तक बहन जैसी फिल्मों के लिए एक बाल कलाकार के रूप में गाया। एक नायिका के रूप में, उन्होंने दुनिया एक सराय (१९४६), पिया घर आजा (१९४८), बिछड़े बालम (१९४८) और पिंजरे के पंछी (१९६६) जैसी फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी। उन्होंने पाकीज़ा (१९७२) के लिए भी गाया, हालांकि, इस गाने का फिल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया था और बाद में इसे पाकीज़ा-रंग बा रंग (१९७७) एल्बम में रिलीज़ किया गया था।
कमाल अमरोही से विवाह
वर्ष १९५१ में फिल्म तमाशा के सेट पर मीना कुमारी की मुलाकात उस ज़माने के जाने-माने फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही से हुई जो फिल्म महल की सफलता के बाद निर्माता के तौर पर अपनी अगली फिल्म अनारकली के लिए नायिका की तलाश कर रहे थे।मीना का अभिनय देख वे उन्हें मुख्य नायिका के किरदार में लेने के लिए राज़ी हो गए।दुर्भाग्यवश २१ मई १९५१ को मीना कुमारी महाबलेश्वरम के पास एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गईं जिससे उनके बाहिने हाथ की छोटी अंगुली सदा के लिए मुड़ गई। मीना अगले दो माह तक बम्बई के ससून अस्पताल में भर्ती रहीं और दुर्घटना के दूसरे ही दिन कमाल अमरोही उनका हालचाल पूछने पहुँचे। मीना इस दुर्घटना से बेहद दुखी थीं क्योंकि अब वो अनारकली में काम नहीं कर सकती थीं। इस दुविधा का हल कमाल अमरोही ने निकाला, मीना के पूछने पर कमाल ने उनके हाथ पर अनारकली के आगे 'मेरी' लिख डाला।इस तरह कमाल मीना से मिलते रहे और दोनों में प्रेम संबंध स्थापित हो गया।
१४ फरवरी १९५२ को हमेशा की तरह मीना कुमारी
के पिता अली बख़्श उन्हें व उनकी छोटी बहन मधु को रात्रि ८ बजे पास के एक भौतिक चिकित्सकालय (फिज़्योथेरेपी क्लीनिक) छोड़ गए। पिताजी अक्सर रात्रि १० बजे दोनों बहनों को लेने आया करते थे।उस दिन उनके जाते ही कमाल अमरोही अपने मित्र बाक़र अली, क़ाज़ी और उसके दो बेटों के साथ चिकित्सालय में दाखिल हो गए और १९ वर्षीय मीना कुमारी ने पहले से दो बार शादीशुदा ३४ वर्षीय कमाल अमरोही से अपनी बहन मधु, बाक़र अली, क़ाज़ी और गवाह के तौर पर उसके दो बेटों की उपस्थिति में निक़ाह कर लिया। १० बजते ही कमाल के जाने के बाद, इस निक़ाह से अपरिचित पिताजी मीना को घर ले आए।इसके बाद दोनों पति-पत्नी रात-रात भर बातें करने लगे जिसे एक दिन एक नौकर ने सुन लिया।बस फिर क्या था, मीना कुमारी पर पिता ने कमाल से तलाक लेने का दबाव डालना शुरू कर दिया। मीना ने फैसला कर लिया की तबतक कमाल के साथ नहीं रहेंगी जबतक पिता को दो लाख रुपये न दे दें।पिता अली बक़्श ने फिल्मकार महबूब खान को उनकी फिल्म अमर के लिए मीना की डेट्स दे दीं परंतु मीना अमर की जगह पति कमाल अमरोही की फिल्म दायरा में काम करना चाहतीं थीं।इसपर पिता ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा कि यदि वे पति की फिल्म में काम करने जाएँगी तो उनके घर के दरवाज़े मीना के लिए सदा के लिए बंद हो जाएँगे। ५ दिन अमर की शूटिंग के बाद मीना ने फिल्म छोड़ दी और दायरा की शूटिंग करने चलीं गईं।उस रात पिता ने मीना को घर में नहीं आने दिया और मजबूरी में मीना पति के घर रवाना हो गईं। अगले दिन के अखबारों में इस डेढ़ वर्ष से छुपी शादी की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरीं।
पति से अलगाव और शराब की लत
अपनी शादी के बाद, कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को अपने फ़िल्मी करियर को जारी रखने की अनुमति दी, लेकिन इस शर्त पर कि वे अपने मेकअप रूम में उनके मेकअप आर्टिस्ट के अलावा किसी और पुरूष को नहीं बुलाएंगी और हर शाम ६:३० बजे तक केवल अपनी कार में ही घर लौटेंगी| मीना कुमारी सभी शर्तों से सहमत थीं, लेकिन समय बीतने के साथ वे उन्हें तोड़ती रहीं। साहिब बीबी और गुलाम के निर्देशक अबरार अल्वी ने सुनाया कि कैसे कमाल अमरोही अपने जासूस और दाएं हाथ के आदमी बाकर अली को मेकअप रूम में मीना पर निगाह रखने के लिए रखते थे, और एक शाम जब एक शॉट पूरा करने के लिए शेड्यूल से परे काम कर रही थी, तब उन्हें बिलखती हुई मीना का सामना करना पड़ा था।
१९६३ में, साहिब बीबी और गुलाम को बर्लिन फिल्म समारोह में भारतीय प्रविष्टि के रूप में चुना गया और मीना कुमारी को एक प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री सत्य नारायण सिन्हा ने दो टिकटों की व्यवस्था की, एक मीना कुमारी के लिए और दूसरा उनके पति के लिए, लेकिन कमाल अमरोही ने अपनी पत्नी के साथ जाने से इनकार कर दिया जिस कारण बर्लिन की यात्रा कभी नहीं हुई। इरोस सिनेमा में एक प्रीमियर के दौरान, सोहराब मोदी ने मीना कुमारी और कमाल अमरोही को महाराष्ट्र के राज्यपाल से मिलवाया। सोहराब मोदी ने कहा "यह प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी हैं, और यह उनके पति कमाल अमरोही हैं"। बधाई देने से पहले, कमाल अमरोही ने कहा, "नहीं, मैं कमाल अमरोही हूं और यह मेरी पत्नी, प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी हैं"। यह कहते हुए कमाल अमरोही सभागार से चले गए। मीना कुमारी ने अकेले प्रीमियर देखा।
मीना कुमारी को उनकी शादी में शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ा। उनकी जीवनी के लेखक विनोद मेहता बताते हैं कि हालांकि अमरोही ने इस तरह के आरोपों से बार-बार इनकार किया, उन्होंने छह अलग-अलग स्रोतों से जाना कि वह वास्तव में एक पीड़ित थी। १९७२ में उनकी मृत्यु के बाद, साथी अभिनेत्री नरगिस ने उनके बारे में एक निबंध लिखा, जो एक उर्दू पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। नरगिस ने उल्लेख किया कि मैं चुप राहुंगी के एक आउटडोर शूट पर, जब वे दोनों बगल के कमरे साझा कर रहीं थीं, उन्होंने स्वयं भी बगल के कमरे से शोर सुना। अगले दिन, वह एक सूजी हुई आंखों वाली कुमारी से मिली, जो शायद पूरी रात रोई थी। इस तरह की अफवाहों को फ़िल्म पिंजरे के पंछी के मूहर्त पर उनका आधार मिला। ५ मार्च १९६४ को, कमाल अमरोही के सहायक, बाकर अली ने मीना कुमारी को थप्पड़ मार दिया जब उन्होंने गुलज़ार को अपने मेकअप रूम में प्रवेश करने की अनुमति दी। कुमारी ने तुरंत अमरोही को फिल्म के सेट पर आने के लिए बुलाया लेकिन वह कभी नहीं आए। इसके बजाय, अमरोही ने मीना को घर आने के लिए कहा ताकि वे तय कर सकें के आगे क्या करना है। इसने न केवल मीना कुमारी को नाराज़ किया बल्कि उनके पहले से तनावपूर्ण संबंधों में अंतिम तिनके के रूप में भी काम किया। मीना सीधे अपनी बहन मधु के घर गईं। जब कमाल अमरोही उन्हें वापस लाने के लिए वहां गए, तो बार-बार मनाने के बाद भी उन्होंने अमरोही से बात करने से इनकार कर दिया। उसके बाद, न तो अमरोही ने मीना को वापस लाने की कोशिश की और न ही मीना कुमारी वापस लौटीं। कुमारी की मृत्यु के बाद अपने कार्यक्रम फूल खिले हैं गुलशन गुलशन पर जब तबस्सुम ने कमाल अमरोही से मीना कुमारी के बारे में पूछा तब अमरोही ने मीना को "एक अच्छी पत्नी नहीं बल्कि एक अच्छी अभिनेत्री के रूप में याद किया, जो खुद को घर पर भी एक अभिनेत्री मानती थी।"
स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से १९६४ में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है। शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।
फ़िल्म पाक़ीज़ा के रिलीज़ होने के तीन हफ़्ते बाद मीना कुमारी की तबीयत बिगड़ने लगी। २८ मार्च १९७२ को उन्हें बम्बई के सेंट एलिज़ाबेथ अस्पताल में दाखिल करवाया गया।
३१ मार्च १९७२, गुड फ्राइडे वाले दिन दोपहर ३ बजकर २५ मिनट पर महज़ ३8 वर्ष की आयु में मीना कुमारी ने अंतिम सांस ली। पति कमाल अमरोही की इच्छानुसार उन्हें बम्बई के मज़गांव स्थित रहमताबाद कब्रिस्तान में दफनाया गया। मीना कुमारी इस लेख को अपनी कब्र पर लिखवाना चाहती थीं:
मीना के पति कमाल अमरोही की ११ फरवरी १९९३ को मृत्यु हुई और उनकी इच्छनुसार उन्हें मीना के बगल में दफनाया गया।
सम्मान और श्रद्धांजलि
उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद, साथी अभिनेत्री नरगिस ने एक उर्दू पत्रिका में एक निजी निबंध लिखा - शमा , जिसका शीर्षक है मीना - मौत मुबारक हो । अक्टूबर १९७३ में, उन्होंने मीनाजी की याद में मीना कुमारी मेमोरियल फॉर द ब्लाइंड की स्थापना की और इस ट्रस्ट की वे अध्यक्ष भी थीं।
१९७९ में, मीना कुमारी की अमर कहानी , दिवंगत अभिनेत्री को समर्पित एक फिल्म थी। सोहराब मोदी द्वारा इसे निर्देशित किया गया था और राज कपूर और राजेंद्र कुमार जैसे विभिन्न फिल्मी हस्तियों के विशेष साक्षात्कार लिए गए थे। फिल्म के लिए संगीत खय्याम द्वारा संगीतबद्ध किया गया था।
अगले वर्ष, शायरा (वैकल्पिक रूप से साहिरा शीर्षक) जारी की गई थी। यह मीना कुमारी पर एक लघु वृत्तचित्र थी और एस सुख देव द्वारा गुलज़ार के साथ निर्देशित की गई थी। इस डॉक्यूमेंट्री का निर्माण कांता सुखदेव ने किया था।
उनके सम्मान में अंकित मूल्य ५०० पैसे का एक डाक टिकट १३ फरवरी २०११ को भारतीय डाक द्वारा जारी किया गया था।
२०१० में, फिल्मफेयर ने साहिब बीबी और गुलाम और पाकीज़ा में कुमारी के प्रदर्शन को बॉलीवुड की "८० प्रतिष्ठित प्रदर्शनों" की सूची में शामिल किया। उनकी दो फिल्में बैजू बावरा और दो बीघा जमीन को ब्रिटिश फिल्म संस्थान के एक सर्वेक्षण में सबसे महान फिल्मों में माना गया है। भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष के अवसर पर, सीएनएन-आईबीएन द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में, पाकीज़ा, साहिब बीबी और गुलाम और दो बीघा ज़मीन को अब तक की १०० सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल किया गया। हिंदुस्तान टाइम्स सहित विभिन्न प्रकाशनों ने उन्हें बॉलीवुड के शीर्षतम सेक्स प्रतीकों में से एक का उल्लेख किया।
२०१२ में, बांद्रा, मुंबई में बैंडस्टैंड प्रोमेनेड का एक खंड, वॉक ऑफ द स्टार्स, हिंदी फिल्म उद्योग के फिल्म कलाकारों को सम्मानित करने के लिए खोला गया था। मीना कुमारी के ऑटोग्राफ के साथ-साथ अन्य कलाकारों की मूर्तियों, हस्त-चिह्नों और ऑटोग्राफ को भी चित्रित किया गया था। हालांकि, वॉक ऑफ द स्टार्स को २०१४ में भंग कर दिया गया था।
मई २०१८ में, जयपुर के जवाहर कला केंद्र के रंगायन सभागार में, मीना कुमारी के जीवन को दर्शाने वाले नाटक, अजीब दास्तां है ये का मंचन किया गया था।
१ अगस्त 20१8 को, सर्च इंजन गूगल ने मीना कुमारी को उनकी ८५ वीं जयंती पर डूडल के साथ याद किया।
मीना कुमारी पर पहली जीवनी अक्टूबर १९७२ में विनोद मेहता द्वारा उनकी मृत्यु के बाद लिखी गई थी। कुमारी की आधिकारिक जीवनी, इसे मीना कुमारी - द क्लासिक बायोग्राफी शीर्षक दिया गया था। जीवनी मई २०१३ में फिर से प्रकाशित हुई थी।
मोहन दीप द्वारा लिखा गया निंदनीय सिम्पली सकेन्डलॉस लेख १९९८ में प्रकाशित एक अनौपचारिक जीवनी थी। यह मुंबई के हिंदी दैनिक दोपहर का सामना में एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित किया गया था।
मीना कुमारी की एक और जीवनी, आखरी अधाई दिन को मधुप शर्मा ने हिंदी में लिखा था। पुस्तक २००६ में प्रकाशित हुई थी।
मीना कुमारी हमेशा बड़े पैमाने पर फिल्म निर्माताओं के बीच रुचि का विषय रही हैं। २००४ में, उनकी फिल्म साहिब बीबी और गुलाम का एक आधुनिक रूपांतर प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशंस द्वारा किया जाना था, जिसमें ऐश्वर्या राय और बाद में प्रियंका चोपड़ा को उनकी छोटी बहू की भूमिका को चित्रित करना था। हालांकि, फिल्म को निर्देशक ऋतुपॉर्नो घोष द्वारा बाद में इसे एक धारावाहिक के रूप में बनाया गया, जिसमें अभिनेत्री रवीना टंडन ने इस भूमिका को निभाया।
२०१५ में, यह बताया गया कि तिग्मांशु धूलिया को हिंदी सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन पर एक फिल्म बनानी थी, जो विनोद मेहता की किताब "मीना कुमारी - द क्लासिक बायोग्राफी" का स्क्रीन रूपांतरण होना था। अभिनेत्री कंगना रनौत को कुमारी को चित्रित करने के लिए संपर्क किया गया था, लेकिन प्रामाणिक तथ्यों की कमी और मीना कुमारी के सौतेले बेटे ताजदार अमरोही के कड़े विरोध के बाद फिल्म को फिर से रोक दिया गया था।
२०१७ में, निर्देशक करण राजदान ने भी उन पर एक आधिकारिक बायोपिक निर्देशित करने का फैसला किया। इसके लिए, उन्होंने माधुरी दीक्षित और विद्या बालन से फ़िल्मी पर्दे पर मीना कुमारी की भूमिका निभाने के लिए संपर्क किया, लेकिन कई कारणों के कारण, दोनों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बाद में उन्होंने अभिनेत्री सन्नी लियोन की ओर रुख किया, जिन्होंने इस किरदार में बहुत दिलचस्पी दिखाई। ऋचा चड्ढा, जया प्रदा और जान्हवी कपूर सहित कई अन्य अभिनेत्रियों ने भी शानदार आइकन की भूमिका निभाने की इच्छा व्यक्त की।
२०१८ में, निर्माता और पूर्व बाल कलाकार कुट्टी पद्मिनी ने गायक मोहम्मद रफ़ी और अभिनेता-निर्देशक जे पी चंद्रबाबू के साथ एक वेब श्रृंखला के रूप में मीना कुमारी पर एक बायोपिक बनाने की घोषणा की। पद्मिनी ने मीना कुमारी के साथ फिल्म दिल एक मंदिर में काम किया है और इस बायोपिक के साथ दिवंगत अभिनेत्री को सम्मानित करना चाहती हैं।
२०१९ में, संजय लीला भंसाली ने कुमारी की १९५२ की क्लासिक बैजू बावरा के रीमेक की घोषणा की, जिसमें आलिया भट्ट ने गौरी के चरित्र को दोहराया, एक भूमिका जो मूल रूप से कुमारी द्वारा निभाई गई थी। अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने भी उसी फिल्म में कुमारी की भूमिका निभाने की इच्छा व्यक्त की। फिल्म की शूटिंग जो अक्टूबर २०२१ से शुरू होनी थी, अभी तक शुरू नहीं हुई है।
२०२० में, ऑलमाइटी मोशन पिक्चर्स ने मीना कुमारी के जीवन पर एक वेब श्रृंखला की घोषणा की, जो पत्रकार अश्विनी भटनागर द्वारा लिखित स्टारिंग.. महजबीन के रूप में मीना कुमारी पर आधारित है। इसके बाद ताजदार अमरोही की आपत्ति आई जिन्होंने पत्रकार पर दिवंगत अभिनेत्री की जीवनी न केवल उनकी सहमति के बिना लिखने का आरोप लगाया बल्कि कमाल अमरोही को एक पीड़ा के रूप में चित्रित करने का भी आरोप लगाया। भटनागर ने बाद में स्पष्ट किया कि पुस्तक में कभी भी अमरोही का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा और यह मुख्य रूप से मीना कुमारी के पेशेवर जीवन पर केंद्रित थी। बाद में उन्होंने तर्क दिया कि कुमारी एक सार्वजनिक हस्ती थीं और कोई भी कला का एक काम बनाने की अनुमति देने के अपने अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। श्रृंखला जिसके बाद एक फीचर फिल्म होगी, निर्माता प्रभलीन कौर संधू द्वारा निर्देशित की जाएगी। २०२१ में, हीरामंडी की कास्टिंग के दौरान, फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली ने स्पष्ट रूप से मीना कुमारी की पाकीज़ा को इस वेब श्रृंखला के निर्माण के पीछे अपनी प्रेरणा बताया, जो लाहौर के दरबारियों के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। अभिनेत्री आलिया भट्ट ने गंगूबाई काठियावाड़ी में एक वेश्या की भूमिका की तैयारी के लिए मीना कुमारी की फिल्में देखने का भी उल्लेख किया।
फरवरी २०२२ में, म्यूजिक लेबल सारेगामा और अभिनेता बिलाल अमरोही (कमल अमरोही के पोते) ने फिल्म पाकीजा के निर्माण की पृष्ठभूमि में कुमारी और उनके फिल्म निर्माता पति कमाल अमरोही की प्रेम कहानी पर एक वेब श्रृंखला की घोषणा की। यूडली फिल्मों द्वारा निर्देशित श्रृंखला के २०२३ में शूरु होने की उम्मीद है। अगले महीने, यह बताया गया कि कृति सैनॉन को टी-सीरीज़ द्वारा नियोजित एक बायोपिक में कुमारी की भूमिका निभाने के लिए संपर्क किया गया है। हालांकि, अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है।
मीना की फ़िल्में
नामांकन और पुरस्कार
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार
बंगाल फ़िल्म पत्रकार संगठन पुरस्कार
मीना कुमारी की जीवनी (अंग्रेजी में)
मीना कुमारी की रचनाएँ कविता कोश में
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता
१९३२ में जन्मे लोग
१९७२ में निधन |
टाटा स्टील द्वारा निर्मित जुबली पार्क जमशेदपुर न्यायलय परिसर के समीप स्थित यह पार्क जमशेदपुर पर्यटन के प्रमुखा आकर्षणों में से एक है। शहर के इस केन्द्रीय पार्क के निर्माण की शुरुआत १९३७ में श्री एस लैंकस्टर के निर्देशन में शुरू किया गया था परन्तु बीच में इसमें कई बाधाएँ आई। १९५५ के अगस्त महीने में इस पार्क का निर्माण टाटा स्टील के आनेवाले ५० वीं वर्षगाँठ को ध्यान में रखकर फिर से शुरू किया गया और इसबार जिम्मेवारी श्री जी एच क्रुम्बिगेल और बी एस निर्दय को दिया गया जो पहले मैसूर और दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन के निर्माण कार्य की देख रेख कर चुके थे।
पूरा बाग लगभग ५०० एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है तथा इसके उत्तर में दलमा अभयारण्य की सुरम्य दलमा पहाड़ का दृश्य तथा दक्षिण में टाटा स्टील के कारखाने का दृश्य देखने को मिलता है। लगभग दो वर्षों के अंतराल में बनाया गया यह बाग भारत के सबसे खूबसूरत बागों में से एक है। बाग की मुख्य धुरी जमशेदपुर के संस्थापक जमशेदजी टाटा की मूर्ति है और उसके गिर्द फैली है रोज गार्डन, मुगल गार्डन, मुख्य झील, मनोरंजन पार्क और टाटा स्टील वन्य जीव उद्यान और झील के बीचोबीच स्थित कृत्रिम टापू। इसके अलावा मनोरंजन पार्क तथा बच्चों के पार्क में स्केटिंग केन्द्र तथा कैफेटेरिया की सुविधा भी मौजूद है। झील में नौका विहार का आनंद भी लिया जा सकता है।
मुगल गार्डन में तीन मुख्य फव्वारों के साथ साथ सैकड़ों छोटे संगीतमय फव्वारे रात को खास रोशनी के इंतजाम से जगमगा उठते हैं। संस्थापक दिवस ३ मार्च को बाग में खास रोशनी का इंतजाम और समारोह को देखने के लिये हजारों प्रय्टक आस पास के इलाके से यहाँ आते हैं।
इन्हें भी देखें |
कर्नाटक संगीत या संस्कृत में कर्णाटक संगीतं भारत के शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम है, जो उत्तरी भारत की शैली हिन्दुस्तानी संगीत से काफी अलग है।
कर्नाटक संगीत ज्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और ज्यादातर रचनाएँ हिन्दू देवी देवताओं को संबोधित होता है। इसके अलावा कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है।
जैसा कि आमतौर पर भारतीय संगीत मे होता है, कर्नाटक संगीत के भी दो मुख्य तत्व राग और ताल होता है।
कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिंदुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की 'त्रिमूर्ति' कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं।
कर्नाटक गायन शैली के प्रमुख रूप
वर्णम: इसके तीन मुख्य भाग पल्लवी, अनुपल्लवी तथा मुक्तयीश्वर होते हैं। वास्तव में इसकी तुलना हिंदुस्तानी शैली के ठुमरी के साथ की जा सकती है।
जावाली: यह प्रेम प्रधान गीतों की शैली है। भरतनाट्यम के साथ इसे विशेष रूप से गाया जाता है। इसकी गति काफी तेज होती है।
तिल्लाना: उत्तरी भारत में प्रचलित तराना के समान ही कर्नाटक संगीत में तिल्लाना शैली होती है। यह भक्ति प्रधान गीतों की गायन शैली है।
इन्हें भी देखें
कर्नाटक संगीत की शब्दावली
श्रीहरिदास संकीर्तन स्रवंति
श्री अन्नमाचारि पदसौरभं - १
श्री अन्नमाचारि पदसौरभं - २
सुनादम् - कर्नाटक संगीत में दक्षता विकसित कराने वाला सॉफ्टवेयर
भारतीय शास्त्रीय संगीत |
संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में २६ दिसम्बर २००४ के दी जापान के कोबे शहर में आयोजित प्रांभिक घोषणा की गयी कि हिंद महासागर क्षेत्र में सूनामी की पूर्व चेतावनी देने वाले तंत्र का विकास किया जाना चाहिये। २००४ की सूनामी कई देशों में आई जैसे श्रीलंका, भारत, इंडोनेशिया और जापान और लगभग १,००,००0 लोगों की जान चली गई है और लगभग ५,००,००0 लोग बेघर हो गए। |
भारत के राष्ट्रपति, भारत गणराज्य के कार्यपालक अध्यक्ष होते हैं। संघ के सभी कार्यपालक कार्य उनके नाम से किये जाते हैं। अनुच्छेद ५३ के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उनमें निहित हैं। वह भारतीय सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी हैं। सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला, युद्ध/शान्ति की घोषणा करने वाला होता है। वह देश के प्रथम नागरिक हैं। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है।
सिद्धान्ततः राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है। पर कुछ अपवादों के अलावा राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद के द्वारा उपयोग किए जाते हैं।
भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल के नाम से भी जाना जाता है। राष्ट्रपति अधिकतम कितनी भी बार पद पर रह सकते हैं इसकी कोई सीमा तय नहीं है। अब तक केवल पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने ही इस पद पर दो बार अपना कार्यकाल पूरा किया है।
प्रतिभा पाटिल भारत की १२वीं तथा इस पद को सुशोभित करने वाली पहली महिला राष्ट्रपति हैं। उन्होंने २५ जुलाई २००७ को पद व गोपनीयता की शपथ ली थी। वर्तमान में द्रौपदी मुर्मू भारत के १५वीं राष्ट्रपति हैं।
१५ अगस्त १९४७ को भारत ब्रिटेन से स्वतन्त्र हुआ था और अन्तरिम व्यवस्था के तहत देश एक राष्ट्रमण्डल अधिराज्य बन गया। इस व्यवस्था के तहत भारत के गवर्नर जनरल को भारत के राष्ट्रप्रमुख के रूप में स्थापित किया गया, जिन्हें ब्रिटिश इंडिया में ब्रिटेन के अन्तरिम राजा - जॉर्ज वि द्वारा ब्रिटिश सरकार के बजाय भारत के प्रधानमन्त्री की सलाह पर नियुक्त करना था।
यह एक अस्थायी उपाय था, परन्तु भारतीय राजनीतिक प्रणाली में साझा राजा के अस्तित्व को जारी रखना सही मायनों में सम्प्रभु राष्ट्र के लिए उपयुक्त विचार नहीं था। आजादी से पहले भारत के आखरी ब्रिटिश वाइसराय लॉर्ड माउण्टबेटन ही भारत के पहले गवर्नर जनरल बने थे। जल्द ही उन्होंने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को यह पद सौंप दिया, जो भारत के इकलौते भारतीय मूल के गवर्नर जनरल बने थे। इसी बीच डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में संविधान सभा द्वारा २६ नवम्बर १९४९ को भारतीय संविधान का मसौदा तैयार हो चुका था और २६ जनवरी १९५० को औपचारिक रूप से संविधान को स्वीकार किया गया था। इस तिथि का प्रतीकात्मक महत्व था क्योंकि २६ जनवरी १९३० को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटेन से पहली बार पूर्ण स्वतन्त्रता को आवाज दी थी। जब संविधान लागू हुआ और डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भारत के पहले राष्ट्रपति का पद संभाला तो उसी समय गवर्नर जनरल और राजा का पद एक निर्वाचित राष्ट्रपति द्वारा प्रतिस्थापित हो गया।
इस कदम से भारत की एक राष्ट्रमण्डल अधिराज्य की स्थिति समाप्त हो गया। लेकिन यह गणतन्त्र राष्ट्रों के राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना रहा। क्योंकि भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने तर्क किया की यदि कोई भी राष्ट्र ब्रिटिश सम्राट को "राष्ट्रमण्डल के प्रधान" के रूप में स्वीकार करे पर आवश्यक नहीं है कि वह ब्रिटिश सम्राट को अपने राष्ट्रप्रधान की मान्यता दे, उसे राष्ट्रमण्डल में रहने की अनुमति दी जानी चाहिए। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निर्णय था जिसने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नए-स्वतन्त्र गणराज्य बने कई अन्य पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों के राष्ट्रमण्डल में रहने के लिए एक मिसाल स्थापित किया।
राष्ट्रपति का चुनाव
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव अनुच्छेद ५५ के अनुसार आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के एकल संक्रमणीय मत पद्धति के द्वारा होता है।
राष्ट्रपति को भारत के संसद के दोनो सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) तथा साथ ही राज्य विधायिकाओं (विधान सभाओं) के निर्वाचित सदस्यों द्वारा पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है। मत आवण्टित करने के लिए एक फार्मूला इस्तेमाल किया गया है ताकि हर राज्य की जनसंख्या और उस राज्य से विधानसभा के सदस्यों द्वारा मत डालने की संख्या के बीच एक अनुपात रहे और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों और राष्ट्रीय सांसदों के बीच एक समानुपात बनी रहे। अगर किसी उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त नहीं होती है तो एक स्थापित प्रणाली है जिससे हारने वाले उम्मीदवारों को प्रतियोगिता से हटा दिया जाता है और उनको मिले मत अन्य उम्मीदवारों को तबतक हस्तान्तरित होता है, जब तक किसी एक को बहुमत नहीं मिलता।
राष्ट्रपति बनने के लिए आवश्यक योग्यताएँ:
भारत का कोई नागरिक जिसकी उम्र ३५ साल या अधिक हो वह पद का उम्मीदवार हो सकता है। राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार को लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता होना चाहिए और सरकार के अधीन कोई लाभ का पद धारण किया हुआ नहीं होना चाहिए। परन्तु निम्नलिखित कुछ कार्यालय-धारकों को राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने की अनुमति दी गई है:
किसी भी राज्य के राज्यपाल
संघ या किसी राज्य के मन्त्री।
राष्ट्रपति के निर्वाचन सम्बन्धी किसी भी विवाद में निणर्य लेने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को है।
राष्ट्रपति पर महाभियोग
अनुच्छेद ६१ राष्ट्रपति के महाभियोग से संबंधित है। भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति मात्र महाभियोजित होता है, अन्य सभी पदाधिकारी पद से हटाये जाते हैं। महाभियोजन एक विधायिका सम्बन्धित कार्यवाही है जबकि पद से हटाना एक कार्यपालिका सम्बन्धित कार्यवाही है। महाभियोजन एक कड़ाई से पालित किया जाने वाला औपचारिक कृत्य है जो संविधान का उल्लघंन करने पर ही होता है। यह उल्लघंन एक राजनैतिक कृत्य है जिसका निर्धारण संसद करती है। वह तभी पद से हटेगा जब उसे संसद में प्रस्तुत किसी ऐसे प्रस्ताव से हटाया जाये जिसे प्रस्तुत करते समय सदन के १/४ सदस्यों का समर्थन मिले। प्रस्ताव पारित करने से पूर्व उसको १४ दिन पहले नोटिस दिया जायेगा। प्रस्ताव सदन की कुल संख्या के २/३ से अधिक बहुमत से पारित होना चाहिये। फिर दूसरे सदन में जाने पर इस प्रस्ताव की जाँच एक समिति के द्वारा होगी। इस समय राष्ट्रपति अपना पक्ष स्वंय अथवा वकील के माध्यम से रख सकता है। दूसरा सदन भी उसे उसी २/३ बहुमत से पारित करेगा। दूसरे सदन द्वारा प्रस्ताव पारित करने के दिन से राष्ट्रपति पद से हट जायेगा।
संविधान का ७२वाँ अनुच्छेद राष्ट्रपति को न्यायिक शक्तियाँ देता है कि वह दंड का उन्मूलन, क्षमा, आहरण, परिहरण, परिवर्तन कर सकता है।
क्षमादान किसी व्यक्ति को मिली संपूर्ण सजा तथा दोष सिद्धि और उत्पन्न हुई निर्योज्ञताओं को समाप्त कर देना तथा उसे उस स्थिति में रख देना मानो उसने कोई अपराध किया ही नहीं था। यह लाभ पूर्णतः अथवा अंशतः मिलता है तथा सजा देने के बाद अथवा उससे पहले भी मिल सकती है।
लघुकरण दंड की प्रकृति कठोर से हटा कर नम्र कर देना उदाहरणार्थ सश्रम कारावास को सामान्य कारावास में बदल देना
परिहार दंड की अवधि घटा देना परंतु उस की प्रकृति नहीं बदली जायेगी
विराम दंड में कमी ला देना यह विशेष आधार पर मिलती है जैसे गर्भवती महिला की सजा में कमी लाना
प्रविलंबन दंड प्रदान करने में विलम्ब करना विशेषकर मृत्यु दंड के मामलों में
राष्ट्रपति की क्षमाकारी शक्तियां पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर करती हैं। उन्हें एक अधिकार के रूप में मांगा नहीं जा सकता है। ये शक्तियां कार्यपालिका प्रकृति की है तथा राष्ट्रपति इनका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करेगा। न्यायालय में इनको चुनौती दी जा सकती है। इनका लक्ष्य दंड देने में हुई भूल का निराकरण करना है जो न्यायपालिका ने कर दी हो।
शेरसिंह बनाम पंजाब राज्य १९८३ में सुप्रीमकोर्ट ने निर्णय दिया की अनु ७२, अनु १६१ के अंतर्गत दी गई दया याचिका जितनी शीघ्रता से हो सके उतनी जल्दी निपटा दी जाये। राष्ट्रपति न्यायिक कार्यवाही तथा न्यायिक निर्णय को नहीं बदलेगा वह केवल न्यायिक निर्णय से राहत देगा याचिकाकर्ता को यह भी अधिकार नहीं होगा कि वह सुनवाई के लिये राष्ट्रपति के समक्ष उपस्थित हो
विधायिका की किसी कार्यवाही को विधि बनने से रोकने की शक्ति वीटो शक्ति कहलाती है संविधान राष्ट्रपति को तीन प्रकार के वीटो देता है।
पूर्ण वीटो निर्धारित प्रकिया से पास बिल जब राष्ट्रपति के पास आये (संविधान संशोधन बिल के अतिरिक्त) तो वह् अपनी स्वीकृति या अस्वीकृति की घोषणा कर सकता है किंतु यदि अनु ३६८ (सविधान संशोधन) के अंतर्गत कोई बिल आये तो वह अपनी अस्वीकृति नहीं दे सकता है। यद्यपि भारत में अब तक राष्ट्रपति ने इस वीटो का प्रयोग बिना मंत्रिपरिषद की सलाह के नहीं किया है माना जाता है कि वह ऐसा कर भी नहीं सकता (ब्रिटेन में यही पंरपंरा है जिसका अनुसरण भारत में किया गया है)।
निलम्बनकारी वीटो संविधान संशोधन अथवा धन बिल के अतिरिक्त राष्ट्रपति को भेजा गया कोई भी बिल वह संसद को पुर्नविचार हेतु वापिस भेज सकता है किंतु संसद यदि इस बिल को पुनः पास कर के भेज दे तो उसके पास सिवाय इसके कोई विकल्प नहीं है कि उस बिल को स्वीकृति दे दे। इस वीटो को वह अपने विवेकाधिकार से प्रयोग लेगा। इस वीटो का प्रयोग अभी तक संसद सदस्यों के वेतन बिल भत्ते तथा पेंशन नियम संशोधन १९९१ में किया गया था। यह एक वित्तीय बिल था। राष्ट्रपति रामस्वामी वेंकटरमण ने इस वीटो का प्रयोग इस आधार पर किया कि यह बिल लोकसभा में बिना उनकी अनुमति के लाया गया था।
पॉकेट वीटो संविधान राष्ट्रपति को स्वीकृति अस्वीकृति देने के लिये कोई समय सीमा नहीं देता है यदि राष्ट्रपति किसी बिल पर कोई निर्णय ना दे (सामान्य बिल, न कि धन या संविधान संशोधन) तो माना जायेगा कि उस ने अपने पॉकेट वीटो का प्रयोग किया है यह भी उसकी विवेकाधिकार शक्ति के अन्दर आता है। पेप्सू बिल १९५६ तथा भारतीय डाक बिल १९८४ में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इस वीटो का प्रयोग किया था।
राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति
राष्ट्रपति संसद का अंग है। कोई भी बिल बिना उसकी स्वीकृति के पास नहीं हो सकता अथवा सदन में ही नहीं लाया जा सकता है।
राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियाँ
अनु ७४ के अनुसार
अनु ७८ के अनुसार प्रधान मंत्री राष्ट्रपति को समय समय पर मिल कर राज्य के मामलों तथा भावी विधेयकों के बारे में सूचना देगा, इस तरह अनु ७८ के अनुसार राष्ट्रपति सूचना प्राप्ति का अधिकार रखता है यह अनु प्रधान मंत्री पर एक संवैधानिक उत्तरदायित्व रखता है यह अधिकार राष्ट्रपति कभी भी प्रयोग ला सकता है इसके माध्यम से वह मंत्री परिषद को विधेयकों निर्णयों के परिणामों की चेतावनी दे सकता है
जब कोई राजनैतिक दल लोकसभा में बहुमत नहीं पा सके तब वह अपने विवेकानुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति करेगा
निलंबन वीटो/पॉकेट वीटो भी विवेकी शक्ति है
संसद के सदनो को बैठक हेतु बुलाना
अनु ७५ (३) मंत्री परिषद के सम्मिलित उत्तरदायित्व का प्रतिपादन करता है राष्ट्रपति मंत्री परिषद को किसी निर्णय पर जो कि एक मंत्री ने व्यक्तिगत रूप से लिया था पर सम्मिलित रूप से विचार करने को कह सकता है।
लोकसभा का विघटन यदि मंत्रीपरिषद को बहुमत प्राप्त नहीं है
संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति
रामजस कपूर वाद तथा शेर सिंह वाद में निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसदीय सरकार में वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद में है। ४२, ४४ वें संशोधन से पूर्व अनु ७४ का पाठ था कि एक मंत्रिपरिषद प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में होगी जो कि राष्ट्रपति को सलाह सहायता देगी। इस अनुच्छेद में यह नहीं कहा गया था कि वह इस सलाह को मानने हेतु बाध्य होगा या नही। केवल अंग्रेजी पंरपरा के अनुसार माना जाता था कि वह बाध्य है। ४२ वे संशोधन द्वारा अनु ७४ का पाठ बदल दिया गया राष्ट्रपति सलाह के अनुरूप काम करने को बाध्य माना गया। ४४वें संशोधन द्वारा अनु ७४ में फिर बदलाव किया गया। अब राष्ट्रपति दी गयी सलाह को पुर्नविचार हेतु लौटा सकता है किंतु उसे उस सलाह के अनुरूप काम करना होगा जो उसे दूसरी बार मिली हो।
इन्हें भी देखें
भारत के राष्ट्रपतियों की सूची
भारतीय राष्ट्रपति चुनाव, २०१७
हमें राष्ट्रपति कैसा चाहिए? डॉ॰ वेदप्रताप वैदिक
एडउकेशनल विडियो - भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एवं निर्वाचन प्रक्रिया
भारत का संविधान |