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जल या पानी एक आम रासायनिक पदार्थ है जिसका अणु दो हाइड्रोजन परमाणु और एक ऑक्सीजन परमाणु से बना है - ह२ओ। यह सारे प्राणियों के जीवन का आधार है। आमतौर पर जल शब्द का प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है पर यह ठोस अवस्था (बर्फ) और गैसीय अवस्था (भाप या जल वाष्प) में भी पाया जाता है। पानी जल-आत्मीय सतहों पर तरल-क्रिस्टल के रूप में भी पाया जाता है।
पृथ्वी का लगभग ७१% सतह को १.४६० पीटा टन (पीटी) (१०2१ किलोग्राम) जल से आच्छदित है जो अधिकतर महासागरों और अन्य बड़े जल निकायों का हिस्सा होता है इसके अतिरिक्त, १.६% भूमिगत जल एक्वीफर और ०.००१% जल वाष्प और बादल (इनका गठन हवा में जल के निलंबित ठोस और द्रव कणों से होता है) के रूप में पाया जाता है।
खारे जल के महासागरों में पृथ्वी का कुल ९७%, हिमनदों और ध्रुवीय बर्फ चोटिओं में २.४% और अन्य स्रोतों जैसे नदियों, झीलों और तालाबों में ०.६% जल पाया जाता है। पृथ्वी पर जल की एक बहुत छोटी मात्रा, पानी की टंकिओं, जैविक निकायों, विनिर्मित उत्पादों के भीतर और खाद्य भंडार में निहित है। बर्फीली चोटिओं, हिमनद, एक्वीफर या झीलों का जल कई बार धरती पर जीवन के लिए साफ जल उपलब्ध कराता है।
जल लगातार एक चक्र में घूमता रहता है जिसे जलचक्र कहते है, इसमे वाष्पीकरण या ट्रांस्पिरेशन, वर्षा और बह कर सागर में पहुॅचना शामिल है। हवा जल वाष्प को स्थल के ऊपर उसी दर से उड़ा ले जाती है जिस गति से यह बहकर सागर में पहुंचता है लगभग ३६ ट (१०१२ किलोग्राम) प्रति वर्ष। भूमि पर १०७ ट वर्षा के अलावा, वाष्पीकरण ७१ ट प्रति वर्ष का अतिरिक्त योगदान देता है। साफ और ताजा पेयजल मानवीय और अन्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन दुनिया के कई भागों में खासकर विकासशील देशों में भयंकर जलसंकट है और अनुमान है कि २०२५ तक विश्व की आधी जनसंख्या इस जलसंकट से दो-चार होगी।.
जल विश्व अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह रासायनिक पदार्थों की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए विलायक के रूप में कार्य करता है और औद्योगिक प्रशीतन और परिवहन को सुगम बनाता है। मीठे जल की लगभग ७०% मात्रा की खपत कृषि में होती है।
पदार्थों में से है जो पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से सभी तीन अवस्थाओं में मिलते हैं। जल पृथ्वी पर कई अलग अलग रूपों में मिलता है: आसमान में जल वाष्प और बादल; समुद्र में समुद्री जल और कभी कभी हिमशैल; पहाड़ों में हिमनद और नदियां ; और तरल रूप में भूमि पर एक्वीफर के रूप में।
जल में कई पदार्थों को घोला जा सकता है जो इसे एक अलग स्वाद और गंध प्रदान करते है। वास्तव में, मानव और अन्य जानवरों समय के साथ एक दृष्टि विकसित हो गयी है जिसके माध्यम से वो जल के पीने को योग्यता का मूल्यांकन करने में सक्षम होते हैं और वह बहुत नमकीन या सड़ा हुआ जल नहीं पीते हैं। मनुष्य ठंडे से गुनगुना जल पीना पसंद करते हैं; ठंडे जल में रोगाणुओं की संख्या काफी कम होने की संभावना होती है। शुद्ध पानी ह२ओ स्वाद में फीका होता है जबकि सोते (झरने) के पानी या लवणित जल (मिनरल वाटर) का स्वाद इनमे मिले खनिज लवणों के कारण होता है। सोते (झरने) के पानी या लवणित जल की गुणवत्ता से अभिप्राय इनमे विषैले तत्वों, प्रदूषकों और रोगाणुओं की अनुपस्थिति से होता है।
रसायनिक और भौतिक गुण
जल एक रसायनिक पदार्थ है जिसका रसायनिक सूत्र ह२ओ है: जल के एक अणु में दो हाइड्रोजन के परमाणु सहसंयोजक बंध के द्वारा एक ऑक्सीजन के परमाणु से जुडे़ रहते हैं।जल के प्रमुख रसायनिक और भौतिक गुण हैं:जल सामान्य तापमान और दबाव में एक फीका, बिना गंध वाला तरल है। जल और बर्फ़ का रंग बहुत ही हल्के नीला होता है, हालांकि जल कम मात्रा में रंगहीन लगता है। बर्फ भी रंगहीन लगती है और जल वाष्प मूलतः एक गैस के रूप में अदृश्य होता है।
जल पारदर्शी होता है, इसलिए जलीय पौधे इसमे जीवित रह सकते हैं क्योंकि उन्हे सूर्य की रोशनी मिलती रहती है। केवल शक्तिशाली पराबैंगनी किरणों का ही कुछ हद तक यह अवशोषण कर पाता है।
ऑक्सीजन की वैद्युतऋणात्मकता हाइड्रोजन की तुलना में उच्च होती है जो जल को एक ध्रुवीय अणु बनाती है। ऑक्सीजन कुछ ऋणावेशित होती है, जबकि हाइड्रोजन कुछ धनावेशित होती है जो अणु को द्विध्रुवीय बनाती है। प्रत्येक अणु के विभिन्न द्विध्रुवों के बीच पारस्परिक संपर्क एक शुद्ध आकर्षण बल को जन्म देता है जो जल को उच्च पृष्ट तनाव प्रदान करता है।
एक अन्य महत्वपूर्ण बल जिसके कारण जल अणु एक दूसरे से चिपक जाते हैं, हाइड्रोजन बंध है।
जल का क्वथनांक (और अन्य सभी तरल पदार्थ का भी) सीधे बैरोमीटर का दबाव से संबंधित होता है। उदाहरण के लिए, एवरेस्ट पर्वत के शीर्ष पर, जल ६८च पर उबल जाता है जबकि समुद्रतल पर यह १००च होता है। इसके विपरीत गहरे समुद्र में भू-उष्मीय छिद्रों के निकट जल का तापमान सैकड़ों डिग्री तक पहुँच सकता है और इसके बावजूद यह द्रवावस्था में रहता है।
जल का उच्च पृष्ठ तनाव, जल के अणुओं के बीच कमजोर अंतःक्रियाओं के कारण होता है (वान डर वाल्स बल) क्योंकि यह एक ध्रुवीय अणु है। पृष्ठ तनाव द्वारा उत्पन्न यह आभासी प्रत्यास्था (लोच), केशिका तरंगों को चलाती है।
अपनी ध्रुवीय प्रकृति के कारण जल में उच्च आसंजक गुण भी होते है।
केशिका क्रिया, जल को गुरुत्वाकर्षण से विपरीत दिशा में एक संकीर्ण नली में चढ़ने को कहते हैं। जल के इस गुण का प्रयोग सभी संवहनी पौधों द्वारा किया जाता है।
जल एक बहुत प्रबल विलायक है, जिसे सर्व-विलायक भी कहा जाता है। वो पदार्थ जो जल में भलि भाँति घुल जाते है जैसे लवण, शर्करा, अम्ल, क्षार और कुछ गैसें विशेष रूप से ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड उन्हे हाइड्रोफिलिक (जल को प्यार करने वाले) कहा जाता है, जबकि दूसरी ओर जो पदार्थ अच्छी तरह से जल के साथ मिश्रण नहीं बना पाते है जैसे वसा और तेल, हाइड्रोफोबिक' (जल से डरने वाले) कहलाते हैं।
कोशिका के सभी प्रमुख घटक (प्रोटीन, डीएनए और बहुशर्कराइड) भी जल में घुल जाते हैं।
शुद्ध जल की विद्युत चालकता कम होती है, लेकिन जब इसमे आयनिक पदार्थ सोडियम क्लोराइड मिला देते है तब यह आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है।
अमोनिया के अलावा, जल की विशिष्ट उष्मा क्षमता किसी भी अन्य ज्ञात रसायन से अधिक होती है, साथ ही उच्च वाष्पीकरण ऊष्मा (४०.६५ क्ज मोल१) भी होती है, यह दोनों इसके अणुओं के बीच व्यापक हाइड्रोजन बंधों का परिणाम है। जल के यह दो असामान्य गुण इसे तापमान में हुये उतार-चढ़ाव का बफ़रण कर पृथ्वी की जलवायु को नियमित करने पात्रता प्रदान करते हैं।
जल का घनत्व अधिकतम ३.९८च पर होता है। जमने पर जल का घनत्व कम हो जाता है और यह इसका आयतन ९% बढ़ जाता है। यह गुण एक असामान्य घटना को जन्म देता जिसके कारण: बर्फ जल के ऊपर तैरती है और जल में रहने वाले जीव आंशिक रूप से जमे हुए एक तालाब के अंदर रह सकते हैं क्योंकि तालाब के तल पर जल का तापमान ४च के आसपास होता है।
जल कई तरल पदार्थ के साथ मिश्रय होता है, जैसे इथेनॉल, सभी अनुपातों में यह एक एकल समरूप तरल बनाता है। दूसरी ओर, जल और तेल अमिश्रय होते हैं और मिलाने परत बनाते है और इन परतों में सबसे ऊपर वाली परत का घनत्व सबसे कम होता है। गैस के रूप में, जल वाष्प पूरी तरह हवा के साथ मिश्रय है।
जल अन्य कई विलायकों के साथ एक एज़िओट्रोप बनाता है।
जल को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विद्युतपघटन द्वारा विभाजित किया जा सकता है।
हाइड्रोजन की एक ऑक्साइड के रूप में, जब हाइड्रोजन या हाइड्रोजन-यौगिकों जलते हैं या ऑक्सीजन या ऑक्सीजन-यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं तब जल का सृजन होता है। जल एक ईंधन नहीं है। यह हाइड्रोजन के दहन का अंतिम उत्पाद है। जल को विद्युतपघटन द्वारा वापस हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजन करने के लिए आवश्यक ऊर्जा, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को पुनर्संयोजन से उत्सर्जित ऊर्जा से अधिक होती है।
वह तत्व जो हाइड्रोजन से अधिक वैद्युतधनात्मक (इलेक्ट्रोपॉजिटिव) होते हैं जैसे लिथियम, सोडियम, कैल्शियम, पोटेशियम और सीजयम, वो जल से हाइड्रोजन को विस्थापित कर हाइड्रोक्साइड (जलीयऑक्साइड) बनाते हैं। एक ज्वलनशील गैस होने के नाते, हाइड्रोजन का उत्सर्जन खतरनाक होता है और जल की इन वैद्युतधनात्मक तत्वों के साथ प्रतिक्रिया बहुत विस्फोटक होती है।
और इसे भी देखें भारत के जल संसाधन
जल का उपयोग जब मानव करता है तो यह उसके लिये संसाधन हो जाता है। दैनिक कार्यों से लेकर कृषि में और विविध उद्द्योगों में जल का उपयोग होता है। जल मानव जीवन के लिये इतना महत्वपूर्ण संसाधन है कि यह मुहावरा ही प्रचलित है कि जल ही जीवन है''।
जीवन पर प्रभाव
जैविक दृष्टिकोण से, पानी में कई विशिष्ट गुण हैं जो जीवन के प्रसार के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह कार्बनिक यौगिकों को उन तरीकों पर प्रतिक्रिया देने की अनुमति देता है जो अंततः प्रतिकृति की अनुमति देती है। जीवन के सभी ज्ञात रूप पानी पर निर्भर करते हैं। जल एक विलायक के रूप में दोनों महत्वपूर्ण है जिसमें शरीर के कई विलायकों को भंग किया जाता है और शरीर के भीतर कई चयापचय प्रक्रियाओं का एक अनिवार्य हिस्सा होता है।
पानी प्रकाश संश्लेषण और श्वसन के लिए मौलिक है। ऑक्सीजन से पानी के हाइड्रोजन को अलग करने के लिए प्रकाश संश्लेषक कोशिका सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हैं। हाइड्रोजन को२ (हवा या पानी से अवशोषित) के साथ मिलाकर ग्लूकोज और ऑक्सीजन को रिलीज करने के लिए जोड़ा जाता है। सभी जीवित कोशिकाओं ने इस तरह के ईंधन का उपयोग किया और सूर्य की ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए हाइड्रोजन और कार्बन को ऑक्सीकरण, प्रक्रिया में पानी और को२ (सेलुलर श्वसन) का उपयोग किया।
पानी का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग कृषि में है, जो खाने के उत्पाद में महत्वपूर्ण है| कुछ विकासशील देशों ९०% पानी का उपयोग सिंचाई में होता है और अधिक आर्थिक रूप से विकसित देशों में भी बहुत सारा उत्पाद होता है (जैसे अमरीका में, ३०% ताजे मिठे जल का उपयोग सिंचाई के लिए होता है)।
पचास साल पहले, आम धारणा यह थी कि पानी एक अनंत संसाधन था। उस समय, धरती पर इंसानों की संख्या आज के संख्या के आधे से भी काम था। लोग भी आज जितने आमिर नहीं थे और खाना, खास तौर पर, मांस कम खाते थे, इसलिए उनके भोजन का उत्पादन करने के लिए कम पानी की जरूरत थी उन्हें पानी की एक तिहाई आवश्यकता होती जो हम वर्तमान में नदियों से लेते हैं। आज, जल संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा तीव्र है, जो "पीक पानी" की अवधारणा को जन्म देती है। इसका कारण यह है कि अब इस ग्रह पर सात अरब लोग हैं, जल-प्यास मांस और सब्जियों की खपत बढ़ रही है, और उद्योग, शहरीकरण और जैव-ईंधन फसलों से पानी की बढ़ती प्रतिस्पर्धा है। भविष्य में, भोजन का उत्पादन करने के लिए और भी ज्यादा पानी की आवश्यकता होगी क्योंकि पृथ्वी की आबादी २०५० तक ९ अरब तक पहुंचने का अनुमान है।
कृषि में जल प्रबंधन का मूल्यांकन २००७ में श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान द्वारा किया गया था यह देखने के लिए कि दुनिया के बढ़ती आबादी के लिए भोजन उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त पानी है या नहीं। इसने वैश्विक स्तर पर कृषि के लिए पानी की मौजूदा उपलब्धता का मूल्यांकन किया और पानी की कमी से पीड़ित स्थानों का नक्शा बनाया। यह पाया गया कि दुनिया में १.२ अरब (बिलियन) से अधिक (कुल जान-संख्या का पांचवां हिस्सा) भौतिक पानी की कमी के क्षेत्र में रहता है , जहां सभी मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। एक और १.६ अरब (बिलियन) लोग आर्थिक जल की कमी का सामना कर रहे इलाकों में रहते हैं, जहां पानी में निवेश की कमी या अपर्याप्त मानव क्षमता से अधिकारियों को पानी की मांग को पूरा करना असंभव बना देता है। रिपोर्ट में पाया गया कि भविष्य में आवश्यक भोजन का उत्पादन करना संभव होगा, लेकिन आज के खाद्य उत्पादन और पर्यावरण के रुझान को जारी रखने से दुनिया के कई हिस्सों में संकट पैदा हो जाएगा। वैश्विक जल संकट से बचने के लिए, किसानों को भोजन की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास करना होगा, और उद्योगों और शहरों को पानी अधिक कुशलता से उपयोग करने के तरीके खोजने होंगे|
कपास के उत्पादन के कारण भी पानी की कमी हुई है: १ किलोग्राम कपास - एक जींस पतलून के बराबर - उत्पाद करने के लिए १०.९ मीटर ३ पानी का उपयोग किया जाता है। जबकि कपास का उत्पादन दुनिया के २.४% पानी ही उपयोग करता है,यह उपयोग उन क्षेत्रों में किया जाता है जो पहले से ही पानी की कमी के जोखिम में हैं। महत्वपूर्ण पर्यावरणीय नुकसान हुआ है, जैसे कि अराल सागर के लापता होना।
(वैज्ञानिक रूप से जल विज्ञान चक्र के रूप में जाना जाता है) जल, वायुमंडल, मिट्टी के पानी, सतह के पानी, भूजल और पौधों के बीच जल के निरंतर आदान-प्रदान को दर्शाता है। पानी इन चक्रों में से प्रत्येक के माध्यम से सख्ती से जल चक्र में निम्नलिखित स्थानांतरण प्रक्रियाओं को शामिल करता है: महासागरों और अन्य जल निकायों से हवा में वाष्पीकरण और भूमि के पौधों और जानवरों से हवा में प्रत्यारोपण। वर्षा से, हवा से घनीभूत वायु वाष्प से और पृथ्वी या सागर तक गिरने से। आम तौर पर समुद्र तक पहुंचने वाले देश से बहने वाला पानी
महासागरों पर अधिकांश जल वाष्प महासागरों में लौटता है, लेकिन हवाएं समुद्र में जल प्रवाह के रूप में उसी दर पर पानी की वाष्प लेती हैं, प्रति वर्ष लगभग ४७ टीटी। भूमि के ऊपर, बाष्पीकरण और संवहन प्रति वर्ष एक और ७२ टीटी का योगदान करते हैं। जमीन पर प्रति वर्ष ११९ टन प्रति वर्ष की दर से वर्षा होती है, इसमें कई रूप होते हैं: सबसे अधिक बारिश, बर्फ, और ओलों, कोहरे और ओस से कुछ योगदान के साथ।ओस पानी की छोटी बूंद है जो पानी के वाष्प की एक उच्च घनत्व एक शांत सतह से मिलता है जब गाढ़ा रहे हैं ओस आम तौर पर सुबह में बना रहता है जब तापमान सबसे कम होता है, सूर्योदय से पहले और जब पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ना शुरू हो जाता है।
लवणीय जल (या खारा जल)
भारत का जल-पोर्टल
जल प्रश्नोत्तरी (बच्चों का कोना; केन्द्रीय जल आयोग) |
सत्य के प्रयोग, महात्मा गांधी की आत्मकथा है। यह आत्मकथा उन्होने गुजराती भाषा में लिखी थी। हर २७ नवम्बर को 'सत्य का प्रयोग' के आधारित प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता हैं। ३० जनवरी १९४८ को महात्मा गाँधी की नाथुराम गोडसे द्वारा हत्या करने के दिन को ' शहीद दिवस ' के रुप में मनाया जाता हैं ।
यहां कुछ उक्तियां है जो गांधी जी ने अपनी आत्म कथा - सत्य के प्रयोग -- में कही हैं। ये उनके जीवन दर्शन को दर्शाती है।
पिछले तीस सालों से जिस चीज को पाने के लिये लालायित हूं वो है स्व की पहचान, भगवान से साक्षात्कार, और मोक्ष। इस लक्ष्य के पाने के लिये ही मैं जीवन व्यतीत करता हूं। मैं जो कुछ भी बोलता और लिखता हूं या फिर राजनीति में जो कुछ भी करता हू वो सब इन लक्ष्यो की प्राप्ति के लिये ही है।
गाँधी जी का जन्म १८६९ मे पोरबंदर मे हूआ।
इन्हें भी देखें
अन्य विकि परियोजनाओं में |
क्रिकेट विश्व कप (आधिकारिक रूप से आईसीसी पुरुष क्रिकेट विश्व कप के रूप में जाना जाता है) एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय (वनडे) क्रिकेट की अंतर्राष्ट्रीय चैम्पियनशिप है। इस खेल का आयोजन खेल शासी निकाय, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) द्वारा हर चार साल में किया जाता है, जिसमें प्रारंभिक योग्यता के दौर में फ़ाइनल टूर्नामेंट तक होता है। यह टूर्नामेंट दुनिया के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले खेल आयोजनों में से एक है और इसे आईसीसी द्वारा "अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट कैलेंडर का प्रमुख कार्यक्रम" माना जाता है।
पहला विश्व कप जून १९७५ में इंग्लैंड में आयोजित किया गया था, जिसमें पहला वनडे क्रिकेट मैच केवल चार साल पहले खेला गया था। हालाँकि, पहले पुरुष टूर्नामेंट से दो साल पहले एक अलग महिला क्रिकेट विश्व कप आयोजित किया गया था, और एक टूर्नामेंट जिसमें कई अंतर्राष्ट्रीय टीमों को शामिल किया गया था, १९१२ के शुरू में आयोजित किया गया था, जब ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका के बीच टेस्ट मैचों का एक त्रिकोणीय टूर्नामेंट खेला गया था। पहले तीन विश्व कप इंग्लैंड में आयोजित किए गए थे। १९८७ टूर्नामेंट के बाद से, एक अनौपचारिक रोटेशन प्रणाली के तहत देशों के बीच मेजबानी साझा की गई है, जिसमें चौदह आईसीसी सदस्यों ने टूर्नामेंट में कम से कम एक मैच की मेजबानी की है।
वर्तमान प्रारूप में एक योग्यता दौर शामिल है, जो पिछले तीन वर्षों में होता है, यह निर्धारित करने के लिए कि कौन सी टीम प्रतियोगिता के किस चरण के लिए अर्हता प्राप्त करेगी। टूर्नामेंट के चरण में, स्वचालित रूप से योग्य मेज़बान राष्ट्र सहित १० टीमें, लगभग एक महीने से अधिक समय तक मेज़बान देश के स्थानों पर खिताब के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। टूर्नामेंट के ग्यारह संस्करणों में कुल बीस टीमों ने प्रतिस्पर्धा की है, जिसमें हाल ही में २०१९ टूर्नामेंट में दस टीमों ने प्रतिस्पर्धा की है। ऑस्ट्रेलिया ने पांच बार, भारत और वेस्टइंडीज ने दो-दो बार टूर्नामेंट जीता है, जबकि पाकिस्तान, श्रीलंका और इंग्लैंड ने इसे एक-एक बार जीता है। एक सहयोगी सदस्य टीम द्वारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन तब हुआ जब केन्या ने २००३ टूर्नामेंट के सेमीफाइनल में जगह बनाई।
२०१९ संस्करण जीतने के बाद इंग्लैंड मौजूदा चैंपियन है। अगला टूर्नामेंट २०२३ में भारत में होगा। ठीक हैं
पहला अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच कनाडा और अमेरिका के बीच २४ और २५ सितंबर १८४४ को खेला गया था। हालांकि, पहला क्रेडिट टेस्ट मैच १८७७ में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच खेला गया था और बाद के वर्षों में दोनों टीमों ने एशेज के लिए नियमित रूप से प्रतिस्पर्धा की। १८८९ में दक्षिण अफ्रीका को टेस्ट दर्जा दिया गया। द्विपक्षीय क्रिकेट प्रतियोगिता के परिणामस्वरूप प्रतिनिधि क्रिकेट टीमों को एक दूसरे के दौरे के लिए चुना गया था। साल १९०० पेरिस खेलों में एक ओलंपिक खेल के रूप में क्रिकेट को भी शामिल किया गया था, जहाँ ग्रेट ब्रिटेन ने फ्रांस को हराकर स्वर्ण पदक जीता था। ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में यह क्रिकेट की एकमात्र उपस्थिति थी।
उस समय इंग्लैंड में तीन टेस्ट खेलने वाले देशों में पहला अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय टूर्नामेंट १९१२ त्रिकोणीय टूर्नामेंट, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के बीच एक टेस्ट क्रिकेट मैच था। यह आयोजन सफल नहीं था: गर्मियों में बहुत गीला था, बिना पक्की पिचों पर खेलना मुश्किल था और भीड़ कम थी, यही कारण है कि इसे "क्रिकेट की गति" कहा जाता है। तब से, अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट क्रिकेट को आम तौर पर द्विपक्षीय शृंखला के रूप में आयोजित किया गया है: १९९९ में त्रिकोणीय एशियाई टेस्ट चैम्पियनशिप तक एक बहुपक्षीय टेस्ट टूर्नामेंट फिर से आयोजित नहीं किया गया था।
टेस्ट क्रिकेट खेलने वाले देशों की संख्या धीरे-धीरे समय के साथ बढ़ती गई, १९२८ में वेस्ट इंडीज के साथ, १९३० में न्यूजीलैंड, १९३२ में भारत और १९५२ में पाकिस्तान के साथ हुई। हालाँकि, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट तीन, चार या पाँच दिनों में द्विपक्षीय टेस्ट मैचों के रूप में खेला जाता रहा।
१९६० के दशक की शुरुआत में, अंग्रेजी काउंटी क्रिकेट टीमों ने क्रिकेट का एक छोटा संस्करण खेलना शुरू किया जो केवल एक दिन तक चला। वनडे क्रिकेट इंग्लैंड में लोकप्रियता में वृद्धि हुई है, जिसकी शुरुआत १९६२ में मिडलैंड्स नॉक-आउट कप के चार-टीम नॉकआउट चरणों और १९६३ में जिलेट कप के उद्घाटन के साथ हुई थी। १९६९ में एक नेशनल संडे लीग का गठन किया गया था। पहला ओडीआई १९७१ में मेलबर्न में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच वर्षा-असफल टेस्ट के पांचवें दिन खेला गया था, इसलिए समय था और जो लोग निराश थे, उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिए। यह एक चालीस ओवर का खेल था जिसमें आठ गेंदें प्रति ओवर थीं।
१९७० के दशक के उत्तरार्ध में, केरी पैकर ने प्रतिद्वंद्वी विश्व सीरीज क्रिकेट (डब्ल्यूएससी) प्रतियोगिता की स्थापना की। इसने वन डे इंटरनेशनल क्रिकेट की कई सामान्य विशेषताओं को पेश किया, जिसमें रंगीन वर्दी, एक सफेद गेंद और अंधेरे दृष्टि स्क्रीन के साथ फ्लड लाइट के तहत रात में खेले जाने वाले मैच, और टेलीविजन प्रसारण, कई कैमरा कोण, पिच पर खिलाड़ी का प्रभाव माइक्रोफोन से ध्वनियों को पकड़ने के लिए शामिल हैं और ऑन-स्क्रीन ग्राफिक्स। रंग की वर्दी के साथ मैचों में पहली बार डब्ल्यूएससी आस्ट्रेलियन में मवेशी सोने बनाम डब्ल्यूएससी पश्चिम भारतीयों में कोरल गुलाबी, १७ जनवरी १९७९ को मेलबर्न में व्हीएफएल पार्क में खेला गया था। इंग्लैंड और दुनिया के अन्य हिस्सों में घरेलू एक दिवसीय प्रतियोगिताओं की सफलता और लोकप्रियता, साथ ही साथ शुरुआती एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय, ने आईसीसी को क्रिकेट विश्व कप के आयोजन पर विचार करने के लिए प्रेरित किया।
प्रूडेंशियल विश्व कप (१९७५-१९८३)
१९७५ में, इंग्लैंड ने उद्घाटन क्रिकेट विश्व कप की मेजबानी की उस समय यह एकमात्र राष्ट्र था जो इतनी विशालता को व्यवस्थित करने के लिए संसाधनों को आगे रखने में सक्षम था। १९७५ का टूर्नामेंट ७ जून को शुरू हुआ था। पहले तीन कार्यक्रम इंग्लैंड में आयोजित किए गए थे और प्रायोजक प्रुडेंशियल पीएलसी के बाद आधिकारिक रूप से प्रूडेंशियल कप के रूप में मान्यता दी गई थी। मैचों में प्रति टीम छह बॉल के ६० ओवर शामिल थे, जो पारंपरिक रूप में दिन के दौरान खेला जाता था, जिसमें खिलाड़ियों के सफेद कपड़े होते थे और लाल क्रिकेट गेंदों का उपयोग करते थे।
पहले टूर्नामेंट में आठ टीमें थीं: ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, भारत, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान और वेस्ट इंडीज (उस समय छह टेस्ट राष्ट्र) और श्रीलंका और पूर्वी अफ्रीका की एक संयुक्त टीम। एक उल्लेखनीय चूक दक्षिण अफ्रीका की थी, जिन्हें रंगभेद के कारण अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस टूर्नामेंट को वेस्टइंडीज ने जीता था, जिसने फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को लॉर्ड्स में १७ रनों से हराया था। वेस्टइंडीज के रॉय फ्रेडरिक पहले बल्लेबाज थे जिन्होंने १९७५ विश्व कप फाइनल के दौरान वनडे में हिट-विकेट हासिल किया था।
१९७९ विश्व कप में श्रीलंका और कनाडा के क्वालीफाइंग के साथ विश्व कप के लिए गैर-टेस्ट खेलने वाली टीमों का चयन करने के लिए आईसीसी ट्रॉफी प्रतियोगिता की शुरुआत हुई। वेस्टइंडीज ने लगातार दूसरा विश्व कप टूर्नामेंट जीता, फाइनल में मेज़बान इंग्लैंड को ९२ रन से हराया। विश्व कप के बाद होने वाली एक बैठक में, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट सम्मेलन प्रतियोगिता को एक चतुष्कोणीय आयोजन बनाने के लिए सहमत हुआ।
१९८३ की घटना को इंग्लैंड ने लगातार तीसरी बार आयोजित किया था। इस चरण तक, श्रीलंका एक टेस्ट खेलने वाला देश बन गया था, और जिम्बाब्वे ने आईसीसी ट्रॉफी के माध्यम से क्वालीफाई किया था। स्टंप्स से दूर एक फील्डिंग सर्कल पेश किया गया था। चार क्षेत्ररक्षक को हर समय इसके अंदर रहने की आवश्यकता थी। नॉक-आउट में जाने से पहले टीमों ने दो बार एक-दूसरे का सामना किया। फाइनल में वेस्टइंडीज को ४३ रनों से हराकर भारत चैंपियन बन गया।
विभिन्न चैंपियन (१९८७-१९९६)
भारत और पाकिस्तान ने संयुक्त रूप से १९८७ टूर्नामेंट की मेजबानी की, पहली बार यह प्रतियोगिता इंग्लैंड के बाहर आयोजित की गई थी। इंग्लैंड की गर्मियों की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप में दिन के उजाले के घंटे कम होने के कारण खेल प्रति पारी ६० से ५० ओवर तक कम हो गया था। ऑस्ट्रेलिया ने फाइनल में इंग्लैंड को ७ रनों से हराकर चैंपियनशिप जीती, इंग्लैंड और न्यूजीलैंड के बीच २०१९ संस्करण तक विश्व कप फाइनल में निकटतम अंतर था।
ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में आयोजित १९९२ विश्व कप ने खेल में कई बदलावों को पेश किया, जैसे रंगीन कपड़े, सफेद गेंद, दिन/रात के मैच और क्षेत्ररक्षण प्रतिबंध नियमों में बदलाव आ गए थे। रंगभेद शासन के पतन और अंतर्राष्ट्रीय खेल बहिष्कार की समाप्ति के बाद पहली बार दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट टीम ने इस आयोजन में भाग लिया। पाकिस्तान ने टूर्नामेंट में निराशाजनक शुरुआत की और अंततः फाइनल में इंग्लैंड को २२ रनों से हरा दिया और विजेता के रूप में उभरा।
१९९६ की चैंपियनशिप भारतीय उपमहाद्वीप में दूसरी बार आयोजित की गई थी, जिसमें ग्रुप के कुछ मैचों के लिए श्रीलंका को मेज़बान के रूप में शामिल किया गया था। सेमीफाइनल में, श्रीलंका ने ईडन गार्डन पर भारत को कुचलने वाली जीत की ओर बढ़ रहे थे, जब मेज़बान टीम ने आठ विकेट गंवाकर २५२ रन के लक्ष्य का पीछा करते हुए १२० रन बनाए थे, तो भारतीय प्रदर्शन के विरोध में भीड़ की अशांति के बाद डिफ़ॉल्ट रूप से जीत हासिल की गई थी। लाहौर में फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को सात विकेट से हराकर श्रीलंका ने अपनी पहली चैंपियनशिप जीती।
ऑस्ट्रेलियाई ट्रेबल (१९९९-२००७)
१९९९ में इस प्रतिस्पर्धा की मेजबानी इंग्लैंड ने की थी, जिसमें कुछ मैच स्कॉटलैंड, आयरलैंड, वेल्स और नीदरलैंड में भी आयोजित किए गए थे। विश्व कप में १२ टीमों ने चुनाव लड़ा। मैच के अंतिम ओवर में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अपने सुपर ६ मैच में अपने लक्ष्य तक पहुंचने के बाद ऑस्ट्रेलिया ने सेमीफाइनल के लिए क्वालीफाई किया। इसके बाद वे सेमीफाइनल में एक टाई मैच के साथ दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ भी फाइनल में पहुंच गए, जहां दक्षिण अफ्रीका के बल्लेबाज लांस क्लूजनर और एलन डोनाल्ड के बीच मिक्स-अप ने डोनाल्ड को अपना बल्ला गिराते देखा और बीच-बीच में रन आउट होने के लिए फंसे। फाइनल में, ऑस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान को १३२ रनों पर आउट कर दिया और फिर २० ओवर से कम और आठ विकेट के साथ लक्ष्य हासिल कर लिया।
दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे और केन्या ने २००३ विश्व कप की मेजबानी की। आयोजन में भाग लेने वाली टीमों की संख्या बारह से बढ़कर चौदह हो गई। श्रीलंका और जिम्बाब्वे के बीच केन्या की जीत - और न्यूजीलैंड टीम द्वारा एक जाली, जिसने सुरक्षा चिंताओं के कारण केन्या में खेलने से इनकार कर दिया - केन्या को सेमीफाइनल में पहुंचने में सक्षम बनाया, एक सहयोगी द्वारा सबसे अच्छा परिणाम। फाइनल में, ऑस्ट्रेलिया ने दो विकेट के नुकसान पर ३५९ रन बनाए, एक फाइनल में अब तक का सबसे बड़ा, भारत को १२५ रन से हराया।
२००७ में इस टूर्नामेंट की मेजबानी वेस्ट इंडीज ने की और सोलह टीमों का विस्तार किया। ग्रुप स्टेज में वर्ल्ड कप डेब्यूटेंट्स आयरलैंड को मिली पाकिस्तान की हार के बाद पाकिस्तानी कोच बॉब वूल्मर अपने होटल के कमरे में मृत पाए गए। जमैका पुलिस ने शुरू में वूलर की मौत की हत्या की जांच शुरू की थी, लेकिन बाद में पुष्टि की कि उनकी हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई। ऑस्ट्रेलिया ने फाइनल में श्रीलंका को ५३ रनों (डी/एल) से दूर की हल्की परिस्थितियों में हराया, और विश्व कप में अपने अपराजित रन को २९ मैचों तक बढ़ाया और तीन सीधे चैंपियनशिप जीती।
मेज़बान जीत (२०११-२०१९)
भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश ने एक साथ २०११ क्रिकेट विश्व कप की मेजबानी की। २००९ में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हुए आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान ने अपने मेजबानी अधिकार छीन लिए थे, मूल रूप से पाकिस्तान ने दूसरे मेज़बान देशों को पुनर्वितरित करने वाले खेलों के साथ। विश्व कप में भाग लेने वाली टीमों की संख्या चौदह हो गई। ऑस्ट्रेलिया ने १९ मार्च २०११ को पाकिस्तान के खिलाफ अपने अंतिम ग्रुप स्टेज मैच को खो दिया, जिसने ३५ विश्व कप मैचों की नाबाद लकीर को समाप्त कर दिया, जिसकी शुरुआत २३ मई १९99 को हुई थी। भारत ने मुंबई में फाइनल में श्रीलंका को ६ विकेट से हराकर अपना दूसरा विश्व कप खिताब जीता और घरेलू धरती पर फाइनल जीतने वाला पहला देश बन गया।
ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने संयुक्त रूप से २०१५ क्रिकेट विश्व कप की मेजबानी की। प्रतिभागियों की संख्या चौदह पर रही। टूर्नामेंट में कुल तीन जीत के साथ आयरलैंड सबसे सफल एसोसिएट राष्ट्र था। न्यूजीलैंड ने दक्षिण अफ्रीका को अपने पहले विश्व कप फाइनल के लिए क्वालीफाई करने के लिए पहले सेमीफाइनल में हरा दिया। ऑस्ट्रेलिया ने मेलबर्न में फाइनल में न्यूजीलैंड को सात विकेट से हराकर पांचवीं बार विश्व कप जीता।
२०१९ क्रिकेट विश्व कप की मेजबानी इंग्लैंड और वेल्स ने की थी। प्रतिभागियों की संख्या घटाकर १० कर दी गई। पहला सेमीफाइनल जहां न्यूजीलैंड ने भारत को हराया था, उसे बारिश के दिन के बाद आरक्षित दिन के लिए धकेल दिया गया था जिससे मैच मूल निर्धारित दिन पर पूरा नहीं हो सका। इंग्लैंड ने गत चैंपियन ऑस्ट्रेलिया को हराकर दूसरे सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड से फाइनल में जगह बनाई। इससे पहले किसी भी फाइनलिस्ट ने इस पॉइंट तक क्रिकेट विश्व कप नहीं जीता है। फाइनल में, ५० ओवर के बाद स्कोर २४१ से बराबरी पर था और मैच सुपर ओवर में चला गया। सुपर ओवर के बाद, स्कोर फिर से १५ पर बंधे थे। इसलिए मैच टाई हो गया था, लेकिन विश्व कप इंग्लैंड ने अपनी संबंधित बल्लेबाजी पारी में न्यूजीलैंड की तुलना में अधिक बाउंड्री के कारण फाइनल जीता था।
१९७५ के पहले विश्व कप से लेकर २०१९ के विश्व कप तक, अधिकांश टीमों ने भाग लिया जो स्वचालित रूप से योग्य थे। २०१५ विश्व कप तक यह ज्यादातर आईसीसी की पूर्ण सदस्यता के माध्यम से था, और २०१९ विश्व कप के लिए यह ज्यादातर आईसीसी वनडे चैम्पियनशिप में रैंकिंग की स्थिति के माध्यम से था।
१९७९ के दूसरे विश्व कप से लेकर २०१९ के विश्व कप तक, जो टीमें योग्य थीं, उनमें से कुछ ही संख्या में ऐसे लोग शामिल हुए, जिन्होंने क्वालिफिकेशन प्रक्रिया के जरिए वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई किया। आईसीसी ट्रॉफी होने वाला पहला क्वालीफाइंग टूर्नामेंट; बाद में इस प्रक्रिया का पूर्व-योग्यता वाले टूर्नामेंटों के साथ विस्तार हुआ। २०११ विश्व कप के लिए, आईसीसी विश्व क्रिकेट लीग ने पूर्व-योग्यता प्रक्रियाओं को बदल दिया; और "आईसीसी ट्रॉफी" का नाम बदलकर "आईसीसी विश्व कप क्वालीफायर" कर दिया गया। विश्व क्रिकेट लीग आईसीसी के एसोसिएट और संबद्ध सदस्यों को अर्हता प्राप्त करने के अधिक अवसर प्रदान करने के लिए प्रदान की गई योग्यता प्रणाली थी। पूरे वर्ष में विभिन्न योग्यता रखने वाली टीमों की संख्या।
२०२३ विश्व कप के बाद से, केवल मेज़बान राष्ट्र स्वतः योग्य होंगे। योग्यता को निर्धारित करने के लिए सभी देश लीग की एक शृंखला में भाग लेंगे, एक विश्व कप चक्र से अगले करने के लिए डिवीजनों के बीच स्वचालित पदोन्नति और आरोप के साथ।
क्रिकेट विश्व कप का प्रारूप अपने इतिहास के दौरान बहुत बदल गया है। पहले चार टूर्नामेंटों में से प्रत्येक को आठ टीमों द्वारा खेला गया था, जिन्हें चार के दो समूहों में विभाजित किया गया था। प्रतियोगिता में दो चरण, एक ग्रुप चरण और एक नॉक-आउट चरण शामिल थे। प्रत्येक ग्रुप में चार टीमों ने राउंड-रॉबिन ग्रुप चरण में एक दूसरे के साथ खेला, प्रत्येक ग्रुप में शीर्ष दो टीमों ने सेमीफाइनल में प्रवेश किया। सेमीफाइनल के विजेता फाइनल में एक दूसरे के खिलाफ खेले। रंगभेद बहिष्कार की समाप्ति के परिणामस्वरूप १९९२ में पांचवें टूर्नामेंट में दक्षिण अफ्रीका के लौटने के साथ, नौ टीमों ने ग्रुप चरण में एक बार एक दूसरे से खेला और शीर्ष चार टीमों ने सेमीफाइनल में प्रवेश किया। १९९६ में टूर्नामेंट का विस्तार किया गया था, जिसमें छह टीमों के दो समूह थे। प्रत्येक समूह की शीर्ष चार टीमें क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल में पहुंचीं।
१९९९ और २००३ विश्व कप के लिए एक अलग प्रारूप का उपयोग किया गया था। टीमों को दो पूलों में विभाजित किया गया था, जिसमें प्रत्येक पूल में शीर्ष तीन टीमों को सुपर ६ से आगे बढ़ाया गया था। सुपर ६ टीमों ने तीन अन्य टीमों को खेला जो दूसरे समूह से उन्नत थीं। जब वे आगे बढ़े, तो टीमों ने उनके साथ पिछले मैचों से आगे बढ़कर अपनी टीमों को आगे बढ़ाया और उन्हें ग्रुप चरणों में अच्छा प्रदर्शन करने का प्रोत्साहन दिया। सुपर ६ चरण की शीर्ष चार टीमें सेमीफाइनल में पहुंचीं, जिसमें फाइनल में विजेता रहे।
२००७ विश्व कप में प्रयुक्त प्रारूप में १६ टीमों को चार के चार समूहों में आवंटित किया गया था। प्रत्येक समूह के भीतर, टीमों ने एक-दूसरे को राउंड-रॉबिन प्रारूप में खेला। टीमों ने जीत के लिए अंक और संबंधों के लिए आधे अंक अर्जित किए। प्रत्येक समूह की शीर्ष दो टीमें सुपर ८ राउंड में आगे बढ़ीं। सुपर ८ टीमों ने अन्य छह टीमों को खेला जो विभिन्न समूहों से आगे बढ़े। टीमों ने समूह चरण की तरह ही अंक अर्जित किए, लेकिन अन्य टीमों के खिलाफ पिछले मैचों से अपने अंक को आगे बढ़ाया, जो उसी समूह से सुपर ८ चरण के लिए योग्य थे। सेमीफाइनल में सुपर ८ राउंड से शीर्ष चार टीमें सेमीफाइनल में पहुंचीं और सेमीफाइनल के विजेता फाइनल में खेले।
२०११ और २०१५ विश्व कप में उपयोग किए गए प्रारूप में सात टीमों के दो समूहों को दिखाया गया था, जिनमें से प्रत्येक ने राउंड-रॉबिन प्रारूप में खेला था। प्रत्येक समूह की शीर्ष चार टीमें क्वार्टर फाइनल, सेमीफाइनल और अंततः फाइनल से मिलकर नॉक आउट चरण तक आगे बढ़ीं।
२०१९ विश्व कप में, भाग लेने वाली टीमों की संख्या १० तक गिर गई। हर टीम को एक बार राउंड रॉबिन प्रारूप में एक दूसरे के खिलाफ खेलने के लिए निर्धारित किया गया था, सेमीफाइनल में प्रवेश करने से पहले, १९९२ विश्व कप के समान प्रारूप।
आईसीसी क्रिकेट विश्व कप ट्रॉफी विश्व कप के विजेताओं को प्रस्तुत की जाती है। वर्तमान ट्रॉफी १९९९ चैंपियनशिप के लिए बनाई गई थी, और टूर्नामेंट के इतिहास में यह पहला स्थायी पुरस्कार था। इससे पहले, प्रत्येक विश्व कप के लिए अलग-अलग ट्राफियां बनाई गई थीं। ट्रॉफी को लंदन में गैरार्ड एंड कंपनी के कारीगरों की एक टीम ने दो महीने में डिजाइन और तैयार किया था।
वर्तमान ट्रॉफी चांदी और गिल्ट से बनाई गई है, और इसमें तीन रजत स्तंभों द्वारा रखे गए एक सुनहरे ग्लोब की विशेषता है। स्टंप और बेल्स के आकार वाले स्तंभ क्रिकेट के तीन मूलभूत पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं: बल्लेबाजी, गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण, जबकि ग्लोब एक क्रिकेट गेंद की विशेषता है। सीम को पृथ्वी के अक्षीय झुकाव का प्रतीक माना जाता है। यह ६० सेंटीमीटर ऊंचा है और इसका वज़न लगभग ११ किलोग्राम है। पिछले विजेताओं के नाम ट्राफी के आधार पर उत्कीर्ण हैं, जिसमें कुल बीस शिलालेख हैं। आईसीसी मूल ट्रॉफी रखता है। केवल शिलालेख में भिन्न होने वाली प्रतिकृति को स्थायी रूप से विजेता टीम से सम्मानित किया जाता है।
यह टूर्नामेंट दुनिया के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले खेल आयोजनों में से एक है। २०११ क्रिकेट विश्व कप फाइनल में २०० से अधिक देशों में २.२ मिलियन दर्शकों को दिखाया गया था। टेलीविजन अधिकार, मुख्य रूप से २०११ और २0१5 विश्व कप के लिए, उस$१.१ बिलियन से अधिक में बेचे गए, और प्रायोजन अधिकार उस$५०० मिलियन में बेचे गए। २००3 क्रिकेट विश्व कप के मैचों में 6२6,८४५ लोग शामिल हुए, जबकि २००7 क्रिकेट विश्व कप में 67२,००० से अधिक टिकट बिके। २0१5 विश्व कप में १.१ मिलियन से अधिक टिकट बिके जो एक रिकॉर्ड था।
लगातार विश्व कप टूर्नामेंट ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है क्योंकि एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट अधिक स्थापित हो गया है। दक्षिण अफ्रीका में २००३ का विश्व कप पहली बार एक शुभंकर, डैज़लर ने ज़ेबरा को दिया था। मेलो के नाम से जानी जाने वाली एक नारंगी नेवला २००७ क्रिकेट विश्व कप के लिए शुभंकर था। स्टम्पी, एक नीला हाथी २०११ विश्व कप के लिए शुभंकर था।
१३ फरवरी को, गूगल डूडल के साथ २०१५ टूर्नामेंट का उद्घाटन मनाया गया।
इंग्लैंड २०१९ के फाइनल में पहुंचने के कारण, स्थानीय टेलीकास्टर स्काई स्पोर्ट्स के साथ राइट्स शेयर में चैनल ४ (बाद में मैच में मोर४ के लिए कदम) द्वारा स्थलीय प्रसारण के लिए मैच को चुना गया।
मेजबानों का चयन
इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल की कार्यकारी समिति ने क्रिकेट विश्व कप आयोजित करने के इच्छुक राष्ट्रों द्वारा की गई बोलियों की जांच करने के बाद टूर्नामेंट के मेजबानों के लिए वोट किया।
इंग्लैंड ने पहले तीन प्रतियोगिताओं की मेजबानी की। आईसीसी ने फैसला किया कि इंग्लैंड को पहले टूर्नामेंट की मेजबानी करनी चाहिए क्योंकि वह उद्घाटन समारोह के आयोजन के लिए आवश्यक संसाधनों को समर्पित करने के लिए तैयार था। भारत ने तीसरे क्रिकेट विश्व कप की मेजबानी करने के लिए स्वेच्छा से काम किया, लेकिन अधिकांश आईसीसी सदस्यों ने इंग्लैंड को जून में दिन के उजाले की लंबी अवधि के रूप में पसंद किया, इसका मतलब था कि एक मैच एक दिन में पूरा हो सकता है। १९८७ क्रिकेट विश्व कप भारत और पाकिस्तान में आयोजित किया गया था, जो इंग्लैंड के बाहर पहली बार आयोजित किया गया था।
कई टूर्नामेंटों को संयुक्त रूप से एक ही भौगोलिक क्षेत्र के राष्ट्रों द्वारा होस्ट किया गया है, जैसे कि १९८७, १९९६ और २०११ में दक्षिण एशिया, १९९२ और २०१५ में ऑस्ट्रेलेशिया (ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में), २००३ में दक्षिणी अफ्रीका और २००७ में वेस्ट इंडीज।
बीस देशों ने कम से कम एक बार क्रिकेट विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया है। हर टूर्नामेंट में सात टीमों ने प्रतिस्पर्धा की है, जिनमें से छह टीमों ने खिताब जीता है। वेस्ट इंडीज ने पहले दो टूर्नामेंट जीते, ऑस्ट्रेलिया ने पांच जीते, भारत ने दो जीते, जबकि पाकिस्तान, श्रीलंका और इंग्लैंड ने एक-एक बार जीत दर्ज की। वेस्टइंडीज (१९७५ और १९७९) और ऑस्ट्रेलिया (१९८७, १९९९, २००३, २००७ और २०१५) लगातार खिताब जीतने वाली एकमात्र टीम हैं। ऑस्ट्रेलिया बारह फाइनल (१९७५, १९८७, १९९६, १९९९, २००३, २००७ और २०१५) में से सात में खेल चुका है। न्यूजीलैंड को विश्व कप जीतना बाकी है, लेकिन दो बार (२०१५ और २०१९) उपविजेता रहा है। एक टेस्ट नहीं खेलने वाले देश द्वारा सबसे अच्छा परिणाम २००३ के टूर्नामेंट में केन्या द्वारा सेमी फाइनल में उपस्थिति है; जबकि टेस्ट नहीं खेलने वाली टीम द्वारा अपनी शुरुआत में सर्वश्रेष्ठ परिणाम २००७ में आयरलैंड द्वारा सुपर ८ (दूसरा दौर) है।
१९९६ के विश्व कप के सह-मेजबान के रूप में श्रीलंका, टूर्नामेंट जीतने वाला पहला मेज़बान था, हालांकि फाइनल पाकिस्तान में आयोजित किया गया था। भारत २०११ में मेज़बान के रूप में जीता था और अपने देश में खेला गया फाइनल जीतने वाली पहली टीम थी। ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड ने क्रमशः २०१५ और २०१९ में उपलब्धि दोहराई। इसके अलावा, इंग्लैंड ने १९७९ में मेज़बान के रूप में फाइनल में जगह बनाई। अन्य देश जिन्होंने टूर्नामेंट की सह-मेजबानी करते हुए अपने सर्वश्रेष्ठ विश्व कप परिणामों को हासिल किया है या उनकी बराबरी की है, २०१५ में न्यूजीलैंड को फाइनल में जिम्बाब्वे के रूप में, जो २००३ में सुपर सिक्स में पहुंचे और केन्या को २००३ में सेमीफाइनलिस्ट के रूप में चुना गया। १९८७ में, भारत और पाकिस्तान के सह-मेजबान दोनों सेमीफाइनल में पहुंचे, लेकिन क्रमशः इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया ने इसे समाप्त कर दिया। १९९२ में ऑस्ट्रेलिया, १९९९ में इंग्लैंड, २००३ में दक्षिण अफ्रीका और २०११ में बांग्लादेश मेज़बान टीम रही जो पहले दौर में ही बाहर हो गई थी।
टीमों का प्रदर्शन
हर विश्व कप में टीमों के प्रदर्शन का अवलोकन:
अब मौजूद नहीं है।
१९९२ के विश्व कप से पहले दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के कारण प्रतिबंध लगा दिया गया था।
रन-रेट के बाद जीत की संख्या १९८७ विश्व कप तक रैंकिंग निर्धारित करने के लिए मानदंड है।
इसके बाद अंक, हेड टू हेड परफॉर्मेंस और उसके बाद नेट रन-रेट १९९२ से वर्ल्ड कप के लिए रैंकिंग निर्धारित करने के लिए मापदंड है।
रु उप विजेता
स६ सुपर सिक्स (१९९९२००३)
स८ सुपर आठ (२००७)
क़्फ क्वार्टर फाइनल (१९९६, २०११२०१५)
ग्प ग्रुप चरण / पहला दौर
क योग्य, अभी भी विवाद में है
१९८९ में भंग हो गया।
नीचे दी गई तालिका २०१९ टूर्नामेंट के अंत तक पिछले विश्व कप में टीमों के प्रदर्शन का अवलोकन प्रदान करती है। टीमों को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन, मैचों के बाद, कुल जीत की संख्या, खेलों की कुल संख्या और वर्णानुक्रम से रैंक किया जाता है।
अब मौजूद नहीं है।
जीत प्रतिशत कोई परिणाम नहीं निकालता है और आधी जीत के रूप में संबंधों को गिनता है।
टीमों को उनके सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के आधार पर क्रमबद्ध किया जाता है, फिर जीत प्रतिशत, फिर (यदि बराबर) वर्णमाला के क्रम से।
विश्व कप में टीमें
१९८९ में भंग हो गया।
मैन ऑफ द टूर्नामेंट
१९९२ से, विश्व कप फाइनल के अंत में एक खिलाड़ी को "मैन ऑफ़ द टूर्नामेंट" घोषित किया गया:
फाइनल में मैन ऑफ द मैच
१९९२ से पहले मैन ऑफ द टूर्नामेंट पुरस्कार नहीं थे, लेकिन व्यक्तिगत मैचों के लिए मैन ऑफ द मैच पुरस्कार हमेशा दिए गए हैं। फाइनल में मैन ऑफ द मैच जीतना तार्किक रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि यह इंगित करता है कि खिलाड़ी ने विश्व कप फाइनल में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। आज तक पुरस्कार हमेशा जीतने वाले पक्ष के सदस्य के पास गया है। प्रतियोगिता के फाइनल में मैन ऑफ द मैच का पुरस्कार दिया गया है:
इन्हें भी देखें
आईसीसी अंडर-१९ क्रिकेट विश्व कप
आईसीसी वर्ल्ड ट्वेंटी २०
आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी
महिला क्रिकेट विश्व कप
विश्वकप क्रिकेट २०११
अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धा
अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद की प्रतियोगिताएं |
लेजर (लेसर=लाइट एम्प्लिफिकेशन बाय स्टीमुलेटेड एमिशन ऑफ रेडिएशन =विकिरण के उद्दीप्त उत्सर्जन द्वारा प्रकाश का प्रवर्धन) एक ऐसा विद्युतवुम्बकीय विकिरण है जो प्रेरित उत्सर्जन (स्टीमुलेटेड एमिशन) की प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न किया जाता है। अतः लेजर भी एक विद्युतचुम्बकीय विकिरण ही है जिसमें कुछ विशेष गुण भी होते हैं। लेजर शब्द प्रकाश प्रवर्धन का प्रेरित उत्सर्जन के द्वारा विकिरण का संक्षिप्त (एक्रोनीम) शब्द है। लेजर प्रकाश आमतौर पर आकाशिक रूप से सशक्त (कोहरेंट), होते हैं, जिसका अर्थ है कि प्रकाश या तो एक संकरे, निम्न प्रवाहित किरण (लो-डाइवरजंस बीम) के रूप में निकलेगी, या उसे देखने वाले यंत्रों जैसे लैंस (लेंस) लैंसों की मदद से एक कर दिया जाएगा। आमतौर पर, लेजर का अर्थ संकरे तरंगदैर्ध्य (वैवलेथ) प्रकाशपुंज से निकलने वाले प्रकाश (मोनोक्रोमेटिक प्रकाश) से लगाया जाता है। यह अर्थ सभी लेजरों के लिए सही नहीं है, हालांकि कुछ लेजर व्यापक प्रकाशपुंज की तरह प्रकाश उत्सर्जित करते हैं, जबकि कुछ कई प्रकार के विशिष्ट तरंगदैर्घ्य पर साथ साथ प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। पारंपिरक लेसर के उत्सर्जन में विशिष्ट सामन्जस्य होता है। प्रकाश के अधिकतर अन्य स्रोत असंगत प्रकाश उत्सर्जित करते हैं जिनमें विभिन्न चरण (फेस) होते हैं और जो समय और स्थान के साथ निरंतर बदलता रहता है।
लेजर शब्द की उत्पति प्रकाश प्रवर्धन द्वारा प्रेरित विकिरण के उत्सर्जन के संक्षिप्त शब्द (एक्रोनीम) रूप में हुई थी ई इस वाक्य में प्रकाश शब्द का व्यापक अर्थ है, इसका संदर्भ किसी दिखनेवाले प्रकाशपुंज के विद्युत् चुम्बकीय विकिरण से ही नहीं है ई इसलिए इन्फ्रारेड लेज़र, पराबैंगनी लेज़र एक्स-रे लेज़र्स, आदि प्रकाश होते हैं, लेज़र्स के समकक्ष सूक्ष्मतरंगें (माइक्रोवेव), मेसर (मसेर), सबसे पहले विकिसत किया गया था, ऐसे यंत्र जो सूक्ष्म तरंगें और रेडियो आवृतियां उत्सर्जित करते हैं उन्हें मेसर्स कहा जाता है ईप्राचीन साहित्य में, विशेषकर बेल टेलीफोन प्रयोगशालाओं (बेल टेलिफोन लेबोरेट्री) के शोधकर्ताओं द्वारा, इस लेज़र को अक्सर ऑप्टिकल मेसर कहा जाता था। लेकिन इस शब्द का प्रयोग अब चलन में नहीं है और १९९८ से बेल प्रयोगशाला भी लेज़र शब्द का प्रयोग करती है।
पुनः गठित (बऐक-फॉर्मेड) क्रिया लेज़ करना का अर्थ है "लेज़र किरण पैदा करना" या "किसी वस्तु पर लेजर प्रकाश लगाना" ई कभी कभी "लेजर" शब्द का प्रयोग अन्य प्रकाशीय तकनीकों का वर्णन करने के लिए किया जाता है इ उदाहरण के लिए, असम्बद्ध अवस्था में अणुओं के स्रोत को "अणु लेजर (एटम लेसर)" कहा जाता है ई
लेजर एक अत्यधिक परावर्तक तालीय छिद्र (ऑप्टिकल केविटी) के अन्दर लाभ माध्यम (गेन मीडियम) से बना होता है, साथ ही इसमें लाभ माध्यम को ऊर्जा प्रदान करने का माध्यम भी होता है। लाभ माध्यम ऐसे गुणों वाला पदार्थ होता है जो प्रेरित उत्सर्जन के द्वारा प्रकाश प्रवर्धन की अनुमति देता है। इसके सरलतम रूप में, एक छिद्र में दो दर्पणों की ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें हर बार लाभ माध्यम से गुजरते हुए प्रकाश आगे पीछे उछलती रहती है। ख़ास तौर पर दो में से एक दर्पण, उत्पादित युग्मक (आउटपुट कोपलर), आंशिक रूप से पारदर्शी होते हैं। उत्पादित लेसर किरण इस दर्पण के माध्यम से उत्सर्जित होती है।
एक विशिष्ट तरंगदैर्घ्य वाली प्रकाश जो लाभ माध्यम से गुजरती है काप्रवर्धन (एम्प्लिफिड) (शक्ति में वृद्धि) होता है; आसपास के दर्पण यह सुनिश्चित करते हैं कि अधिकतर प्रकाश लाभ माध्यम से कई बार गुजरें, बार बार प्रवर्धित होने के लिए। प्रकाश का वह भाग जो दर्पण के बीच में रहता है (जो छिद्र में होता है) वह आंशिक रूप से पारदर्शी दर्पण से गुजरता है और प्रकाश की किरण (बीम ऑफ लाइट) के रूप में बच के निकलता है।
प्रवर्धन के लिए आवश्यक ऊर्जा की आपूर्ति प्रक्रिया को पम्पिंग (पंपिंग) कहते है। ख़ास तौर पर यह ऊर्जा बिद्युत धारा के रूप में या विभिन्न तरंगदैर्घ्य के प्रकाश के रूप में आपूर्ति की जाती है। ऐसी रोशनी चमक वाले चिराग (फ्लैशआम) या एक और लेजर द्वारा प्रदान की जा सकती है। अधिकांश व्यावहारिक लेसरों में अतिरिक्त तत्व शामिल होते हैं जो उनके गुणों जैसे उत्सर्जित प्रकाश का तरंगदैर्य और किरण का आकार को प्रभावित करते हैं।
एक लेज़र का लाभ माध्यम नियंत्रित शुद्धता, आकार, एकाग्रता वाला पदार्थ होता है, जो प्रेरित उत्सर्जन की प्रक्रिया द्वारा किरण का प्रवर्धन करता है। यह किसी भी अवस्था (स्टेट) में हो सकता है: गैस (गैस), तरल (लिक्विड), ठोस (सोलिड) या प्लास्मा (प्लाज्मा).यह लाभ माध्यम बढाये गए ऊर्जा को अवशोषित करती है, जो कुछ इलेक्ट्रॉनों को उच्च ऊर्जा में बढाती है ("उत्तेजित (एक्सिटेड)") प्रमात्रा अवस्था (कुअंतम स्टेट) ई फोटोन्स को सोखकर या फोटोन्स उत्सर्जित करके कण प्रकाश के साथ घुल मिल सकते हैं। उत्सर्जन सहज या प्रेरित हो सकता है। बाद के मामले में, फोटोन उसी दिशा में उत्सर्जित होता है जिस दिशा से प्रकाश गुजरता है। जब एक उत्तेजित अवस्था में कणों की संख्या कुछ निम्न ऊर्जा अवस्था में कणों की संख्या से अधिक हो जाती है, जनसंख्या का ह्रास (पॉपुलशन इनवेरस्न) प्राप्त होता है और प्रकाश के इसमें से गुजरने के कारण प्राप्त प्रेरित उत्सर्जन की गति, रोशनी अवशोषण की मात्रा से अधिक होती है ईअंततः, प्रकाश प्रवर्धित होता है। अपने आप से, यह एक प्रकाशिक प्रवर्धक (ऑप्टिकल एम्प्लिफिर) बनाता है जब एक प्रकाशिक प्रवर्धक को एक अनुकाम्पन्युक्त तालीय गुहा के अंदर रखा जाता है, तो इससे लेज़र प्राप्त.होता है
प्रेरित उत्सर्जन द्वारा उत्पन्न प्रकाश आतंरिक संकेतों के तरंगदैर्घ्य के सामान होती है, चरण (फेस) और ध्रुवीकरण के संदर्भ में ईयह लेजर प्रकाश को इसकी सुसंगति विशेषता देती है और इसे एक सामान ध्रुवीकरण बनाए रखने की अनुमति देता है और अक्सर तालीय गह्वर रुपरेखा द्वारा एक वर्णिता स्थापित किया जाता है।
तालीय छिद्र, एक प्रकार का छिद्र प्रतिध्वनि यंत्र (केविटी रिसोनेटर), में प्रकाश का सुसंगत किरण परावर्तक सतहों के बीच में होता है ताकि उत्पादन छिद्र से उत्सर्जित होने या अपवर्तन या अवशोषण में खो जाने से पहले प्रकाश लाभ माध्यम से एक बार से अधिक गुजरे ईजैसे जैसे प्रकाश लाभ माध्यम से होकर छिद्र से गुजरता है, अगर अनुकम्पन में हानि के मुकाबले माध्यम में लाभ (प्रवर्धन) अधिक ताकतवर होता है, तो इस फैलते प्रकाश की शक्ति में तीव्र (एक्सपोनेन्टियली) वृद्धि होती जाती है ईलेकिन लाभ माध्यम की क्षमता को आगे के प्रवर्धन के लिए कम करते हुए हर प्रेरित उत्सर्जन की घटना कण को उतेजित अवस्था से शांत अवस्था में लाती है ईजब यह प्रभाव मजबूत हो जाता है, तो लाभ भरा हुआ मान लिया जाता है ईलाभ संतृप्त के खिलाफ पम्प शक्ित का संतुलन और छिद्र में ह्रास छिद्र में उपिस्थित कम शक्ित के बीच संतुलन पैदा करता है; यह संतुलन लेजर शक्ित का संचालन केन्द्र स्थापित करता है। यदि चुनी गई पम्प श्ाक्ित बहुत छोटी है, तो प्रतिध्वनि घाटे से उबरने में लाभ पर्याप्त नहीं होगा और लेजर बहुत कम प्रकाश शक्ित उत्सर्जित करेगा। लेजर कार्रवाई शुरू करने के लिए बढाई गयी आवश्यक न्यूनतम शक्ति को लेज़र उत्तपन्न करने की शुरूआती सीमा (लासिंग थ्रेशोल्ड) कहा जाता है। ईलाभ माध्यम, अपने अंदर से गुजरने वाले किसी भी फोटोन को प्रबर्धित कर लेगा, चाहे वह किसी भी दिशा में हो, लेकिन केवल छिद्र से मिले हुए फोटोन ही एक से अधिक बार माध्यम से होकर गुजर सकते हैं और महत्वपूर्ण प्रवर्धन प्राप्त करते हैं।
छिद्र में प्रकाश और लेजर में निकलने वाली प्रकाश, यदि वे स्वतंत्र स्थान पर पैदा हो ना कि तरंग निर्देशकों में (प्रकाश तंतु (ऑप्टिकल फाइबर) जैसे लेजर), निम्र स्तर में सर्वश्रेष्ठ होती हैं। गौस्सियन प्रकाश (गौसियन बीम) हालांकि ऐसा शक्तिशाली लेज़रों के मामले में कम ही होता है। यदि किरण एक निम्न स्तर का गौस्सियन आकार का नहीं है, प्रकाश की अनुप्रस्थ विधि (ट्रांसवर्स मोड़) यों को हेर्मिते (हेर्मिट)--गौस्सियन (गौसियन) या लागुएर्रे (लागूरे)-गाऊसी किरणे के अति अवस्था के रूप में.(स्थिर-गह्वर लेसरों के लिए) वर्णित किया जा सकता हैईदूसरी ओर अस्थिर अनुकम्पन लेजर, टुकरों के आकार के उत्पादन को प्रर्दशित करती है। यह किरण उच्च स्तर कासंघानिक (कोलिमटेड) हो सकता है, यह बिना झुकाव (डाइवरजिंग) के समानांतर होता है। हालांकि, एक बिल्कुल संघानित किरण अपवर्तन (डिफ़रैक्शन) के कारण, नहीं बनाया जा सकता है ईयह किरण एक दूरी तक संघानित होती है जिसमें किरण के व्यास के वर्ग के अनुसार भिन्नता होती है और जो अंततः ऐसे कोण पर झुक जाती है जो किरण के व्यास के विपरीत रूप से भिन्न होते हैं ई इस प्रकार, एक छोटी लेजर प्रयोगशाला द्वारा उत्पादित प्रकाश जैसे कि हीलियम-नीयन लेजर (हीलियम-नियोन लेसर) १.६ किलोमीटर (१ मील) के व्यास में फ़ैल जाता है यदि पृथ्वी से चंद्रमा कि ओर दिखाया जाय.तुलनात्मक रूप में, एक विशिष्ट अर्धचालक लेजर का उत्पाद, इसके छोटे व्यास के कारण, में झुकाव आ जाता है जैसे ही वह छिद्र से निकलता है, यह ५० तक किसी भी कोण पर हो सकता है ईहालांकि, इस तरह के झुकावदार किरणों को एक लेंस के माध्यम से संघामिक किरणों में परिवर्तित किया जा सकता है ई इसके विपरीत, गैरलेजर प्रकाश स्रोतों के किरणों को संघानित प्रकाश विज्ञानं द्वारा भी नहीं किया जा सकता है।
हालांकि लेजर का यह तथ्य प्रमात्रा भौतिकी (कुअंतम फिजिक्स) की मदद से खोजा गया था, यह मूलतः अन्य प्रकाश स्रोतों की तुलना में अधिक प्रमात्रा यांत्रिकी नहीं है ईमुक्त इलेक्ट्रॉन लेजर (फ़्री इलेक्ट्रॉन लेसर) कि कार्यवाही का वर्णन बिना प्रमात्रा यांत्रिकी (कुअंतम मेकैनिक) के संदर्भ के भी किया जा सकता है ई
कार्यवाही कि विधियां
लेज़र का निरंतर रूप से एक्सामान-उत्पादन हो सकता है (जो जाने जाते हैं क या निरंतर तरंग (कॉन्टिनुस वेव) के रूप में); या स्पंदित, क्यू-स्विचिंग (क-स्विचिंग), विधि को ताला देकर (मॉडलॉकिंग), या गेन-स्विचिंग से (गेन-स्विचिंग) स्पंदित कार्यवाही में, अधिक उच्च शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती है।
लेज़रों के कुछ प्रकार, जैसे कि डाई लेसरों और कम्पन युक्त ठोस अवस्था वाली लेज़र विस्तृत किस्म वाले तरंगदैर्घ्य का प्रकाश उत्पादन कर सकते हैं, यह गुण छोटे स्पंदन वाली प्रकाश के उत्पादन के लिए उन्हें कुछ फेम्तो सेकंड्स (फेंटोसेकंड) (१०१५स) में.उपयुक्त बनाता है,
निरंतर तरंग कार्यवाही
निरंतर तरंग की (कॉन्टिनुस वेव) (क) कार्यवाही विधि में, समय के साथ साथ एक लेज़र के उत्पादन में अपेक्षाकृत एक्सामानता होती है। लेजर उत्पादन के लिए आवश्यक जनसंख्या ह्रास को एक एक निरंतर पम्प स्रोत से नियंत्रित रखा जाता है ई
कार्यवाही की स्पंदित विधि में, समय के साथ लेज़र का उत्पादन भिन्न होता है, ख़ास तौर पर वह एक के बाद एक "खोलने" और "बंद"करने का रूप ले लेती है। कई प्रयोगों में कम से कम समय में अधिक से अधिक ऊर्जा जमा करने का प्रयास किया जाता है। उदाहरण के लिए, लेजर अपवर्तन (लेसर अबलेशन) में काम करने वाले टुकड़े के सतह पर एक छोटी पदार्थ की मात्रा वाष्पित हो सकती है अगर छोटे समय में इसकी ज़रूरत के मुताबिक ऊर्जा इसे गर्म करने के लिए मिल जाती है। हालांकि, यदि, यही ऊर्जा एक लम्बे समय तक उपलब्ध होती रहे, तो तापमान को थोक मात्रा में टुकडों में बिखरने (डिस्पर्स) का समय मिल जाता है और इससे कम पदार्थ ही वाष्पित हो पाते हैं ई इसे प्राप्त करने के बहुत से तरीके हैं ई
एक क्यू-स्विच वाले लेजर में, जनसंख्या ह्रास (आमतौर पर सी डब्ल्यू की तरह ही उत्पादित होती है) के निर्माण की अनुमति लेजर के लिए छिद्र की परिस्थितियों को ('क्यू') के प्रतिकूल बनाकर तैयार की जाती है। जब ऊर्जा लेजर माध्यम में पम्प की गई ऊर्जा वांछित स्तर पर संग्रहित हो, तब स्पंदन को छोड़ते हुए 'क्यू' को अनुकूल परिस्थितियों में (इलेक्ट्रो या एकौस्टो-ऑप्टिकली) समायोजित किया जाता है ईइसका परिणाम उच्च शक्तियों में होता है, जैसा की इस लेजर की औसत शक्ति (जहाँ वो क विधि में चल रहा हो) को एक छोटे समयावधि में रखा जाता है ई
एक मोडलॉक लेजर अत्यधिक छोटी स्पंदन दसियों पिको सेकंड (पिकोसेकंड) ओं से १० फेम्तो सेकंड्स (फेंटोसेकंड) से भी कम क्रम में उत्सर्जित करता है ईइन स्पंदनों को मुख्या रूप से समय पर ऐसे अलग किया जाता है कि एक स्पंदन प्रतिध्वनित यंत्र छिद्र में एक गोल चक्र पूरा कर ले ईफूरियर सीमा (फोरियर लीमित) के कारण (जो ऊर्जा समय अनिश्चितता (अन्सर्टेन्टी) के रूप में भी जाना जाता है), ऐसे कम लंबाई के एक स्पंदन में किरणपुंज होता है जिसमें विस्तृत श्रृंखला वाली तरंगदैर्घ्य शामिल होती है ईइस कारण, लेजर माध्यम में एक पर्याप्त लाभ रुपरेखा होनी चाहिए ताकि वह उन सभी को संवर्द्धित कर सके। एक उपयुक्त पदार्थ का उदाहरण है टाइटेनियम-कृत्रिम, कृत्रिम रूप से विकसित नीलमणि (ती: नीलमणि (ती:सैफायर)).
मॉडल लॉक लेजर ऐसी शोध प्रक्रियाओं के लिए सबसे बहुमुखी यंत्र है जो बहुत तीव्र समय में की जाती है और जिन्हें फेमतोसेकेन्ड भौतिकी, फेमतोसेकेन्ड रसायनशास्त्र (फेंटोसेकंड केमिस्ट्री) और अतितीव्र विज्ञान (अल्ट्राफस्त साइंस) भी कहा जाता है, प्रकाशीय पदार्थों और अपवर्तन अनुप्रयोगों में गैररेखीय प्रभाव (नॉनलिनियऋती) को कम करने के लिए (उदाहरण के लिए दूसरी-अनुकूल पीढ़ी (सेकंड-हारमोनिक जनेरेशन), अर्धमापीय प्रणाली (परमेट्रिक डाउन-कॉन्वर्सन), प्रकाशीय अर्धमापीय प्रणाली (ऑप्टिकल परमेट्रिक ओस्किलेटर) और इन जैसे अन्य) ईछोटी समयावधि के शामिल होने के कारण, ये लेजर अत्यधिक उच्च शक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
स्पंदित लेजर विधि प्राप्त करने का एक और तरीका है एक ऐसे लेजर पदार्थ को पम्प किया जाय जिसमें ऐसा स्रोत हो जो खुद स्पंदित होता हो, या तो इलेक्टॉन के अवशोषित होने पर चमकने वाले चिराग का मामला हो, या कोई दूसरा लेज़र जो पहले से ही स्पंदित हो ईऐतिहासिक तौर पर स्पंदित पंपिंग डाई लेसरों में प्रयोग किया गया था जहां एक डाई अणु का विपरीत जनसंख्या जीवन इतना छोटा होता था उसे एक उच्च ऊर्जा युक्त तीव्र पम्प की आवश्यकता होती थी ईइस समस्या को दूर करने के लिए किसी बड़े संघारित्र (कपसिटर्स) को चार्ज किया जाता है और फिर इन्हें चमक वाली चिराग के माध्यम से डिस्चार्ज किया जाता है, जो एक व्यापक किरण पुंज जैसे चमक पम्प करती है। स्पंदित पंपिंग भी उन लेज़रों के लिए आवश्यक है जो लेजर प्रक्रिया के दौरान लाभ माध्यम को इतना बाधित करती है कि लेजर उत्पादन एक छोटी अवधि के लिए रुक जाता है इ .ये लेजर, जैसे कि द्विपरमाणविक अनु वाली लेजर और तांबा वाष्प लेजर, कभी भी सी डब्ल्यू विधि में संचालित नहीं की जा सकती है ई
१९१७ में अल्बर्ट आइन्स्टीन, ने अपने शोधपत्र जूर क्वांटनथ्योरी डेर स्ट्राहलंग (विकिरण का प्रमात्रा सिद्धांत) में लेजर और उसकी आने वाले पीढी के आविष्कार की नींव डाली, मजेर (मसेर), मैक्स प्लैंक के कॉन्सेप्ट ऑफ प्रोबेबलिटी कोइफिशियेन्टस (जिसे बाद में आइन्स्टाइन कोइफिशियेन्टस (एंस्टीन कॉएफिशिंट्स) कहा गया) के संबंध में एक अति विश्वसनीय खुलासे में अवशोषण, स्वतःप्रवर्तित उत्सर्जन और विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए विकिरण के सिद्धांत अवशोषण, स्वतःप्रवर्तित उत्सर्जन और विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए विकिरण के सिद्धांत ई
१९२८ में, रूडोल्फ डब्ल्यू लेंदेनबर्ग ने प्रेरित उत्सर्जन और नकारात्मक अवशोषण के अस्तित्व की पुष्टि कीई १९३९ में, वैलेन्टिन ए. फब्रिकांत ने "लघु" तरंगों के प्रबर्धन में प्रेरित उत्सर्जन के उपयोग की भविष्यवाणी की ई
१९४७ में, विल्स ई. लैम्ब (विलिस ए. लैम्ब) और आर. सी. रदरफोर्ड ने हाइड्रोजन स्पेक्ट्रा में स्पष्ट प्रेरित उत्सर्जन पाया और प्रेरित उत्सर्जन का पहला प्रदर्शन किया ई
१९५० में, अल्फ्रेड कस्त्लेर (एल्फ्रेड कस्टलर) (१९६६ में भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार) ने प्रकाशीय पंपिंग की विधि को प्रस्तावित किया, जिसकी प्रयोगात्मक रूप में पुष्टि ब्रोस्सेल, कस्त्लेर और विंटर द्वारा दो साल बाद की गयी।
पहले क्रियाशील लेजर का प्रदर्शन १६ मई १९६० में थिओडोर मेमन (थियोडोरे मैमान) द्वारा ह्यूजेस अनुसंधान प्रयोगशाला (ह्यूजेस रिसर्च लेबोरेट्री). में किया गया था ई तब से, लेजर अरबों डॉलर का बाजार बन गया है ईलेसरों का अब तक का सबसे बड़ा एकल उपयोग प्रकाशीय भंडारण (ऑप्टिकल स्टोराज) कॉम्पैक्ट डिस्क (कम्पक्ट डिस्क) और डीवीडी प्लेयर (द्व्ड प्लेयर) जैसे उपकरणों में हो रहा है, जिसमें अर्धचालक लेजर (सेमिकंडक्टर लेसर) एक मिलीमीटर से भी कम चौड़े डिस्क की सतह पर होते हैं ई तंतु प्रकाशीय संचार (फाइबर-ऑप्टिक कम्युनिकेशन) दूसरा सबसे बड़ा उपकरण है ईलेजर के अन्य उपकरण हैं बार कोड (बार कोड) रीडर, लेजर प्रिंटर (लेसर प्रिंटर) और लेजर प्वाइंटर (लेसर पॉइंटर) ई
१९५३ में, चार्ल्स एच. तोव्नेस (चार्ल्स ह. टाउनस) और स्नातक छात्रों जेम्स पी. गॉर्डन और हरबर्ट जे ज़इगेर ने, पहला सूक्ष्म तरंग प्रबर्धक बनाया, एक ऐसा यन्त्र जो लेजर के समान सिद्धांतों पर काम करता था, लेकिन यह अवरक्त या दृष्टिगोचर विकिरण कि बजाय सूक्ष्म तरंगों (माइक्रोवेव) को प्रवर्धित करता था ईटाउन्स का मसेर (मेसर) सतत उत्पादन में असमर्थ था ईसोवियत संघ (सोवियत यूनियन) के निकोले बासोव (निकोलय बसोव) और अलेक्सांद्र प्रोखोरोव (अलेकचन्द्र प्रोखोरोव) ने स्वतंत्र रूप से प्रमात्रा दोलक (ओस्किलेटर) पर काम किया और सतत उत्पादन प्रणालियों की समस्या को हल करते हुए दो से अधिक ऊर्जा स्तरों का उपयोग करके पहली मसेर का उत्पादन किया ई ये प्रणालियाँ बिना भूमि पर गिरे प्रेरित उत्सर्जन (स्टीमुलेटेड एमिशन) करतीं हैं, इस प्रकार ये जनसंख्या ह्रास (पॉपुलशन इनवेरस्न) को बनाए रखती हैं ई १९५५ में प्रोखोरोव और बासोव ने जनसंख्या ह्रास को प्राप्त करने के लिए बहुस्तरीय प्रकाश पंपिंग प्रणाली का सुझाव दिया, जो बाद में लेजर पंपिंग का मुख्य तरीका बन गया ई
टाउन्स के विवरण को उनके बहुत से प्रतिष्ठित सहयोगियों के विरोध का सामना करना पड़ा जिनका विचार था कि मसेर सिद्धांततः असंभव है- - इनमें शामिल थे निएल्स बोर, जॉन वॉन नयूमन्न (जॉन वॉन न्युमान), इसिडोर राबी, पोल्य्कर्प कुस्च (पोलीकार्प कुश्छ) और ल्लेवेल्ल्यं एच. थॉमस .
टाउन्स, बसोव और प्रोखोरोव को १९६४ में संयुक्त रूप से प्रमात्रा इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में आधारभूत कार्यों के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार (नोबेल प्राइज़ इन फिजिक्स) मिला, जिसने मसेर लेजर सिद्धांत पर आधारित कम्पन यन्त्र और प्रबर्धन यन्त्र के निर्माण का रास्ता प्रशस्त किया ई
१९५७ में, बेल प्रयोगशाला (बेल लैब्स) में चार्ल्स हार्ड टाउन्स और आर्थर लियोनार्दो स्चाव्लो (आर्थर लियोनार्ड सोअवलो) ने अवरक्त लेसर पर एक गंभीर अध्ययन शुरू किया ई जैसे जैसे यह विचार विकसित हुआ, अवरक्त आवृत्तियों से ध्यान हटा कर उनकी जगह दृश्य प्रकाशपर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा ईयह अवधारणा मूलतः एक "प्रकाशीय मसेर" के रूप में जाना जाता था ईएक साल बाद बेल प्रयोगशाला ने प्रस्तावित प्रकाशीय मसेर के लिए एकाधिकार का आवेदन दायर किया ईस्चाव्लो और तोव्नेस ने सैद्धांतिक गणना की एक पांडुलिपि भौतिक समीक्षा (फिजिकल रेवीव) को भेजा, जिसमें उनके शोधपत्र को उसी साल प्रकाशित किया गया। (भाग ११२, अंक ६).
उन्हीं दिनों गॉर्डन गोउल्ड (गॉर्डन गोल्ड), कोलंबिया विश्वविद्यालय (कोलम्बिया यूनिवर्सिटी) में स्नातक के एक छात्र, उत्तेजित थैलियम (थैल्लियम) के ऊर्जा स्तरों पर डॉक्टरेट शोध पत्र (डॉतोराल थेसिस) पर काम कर रहे थे ईगोल्ड और टाउन्स के मिलने पर विकिरण उत्सर्जन (एमिशन) के सामान्य विषय पर बातचीत हुई ई नवंबर १९५७ में गोल्ड ने "लेजर" सम्बन्धी अपने विचारों को लिखा जिसमें एक खुली गूंजनेवाला (रिसोनेटर) यंत्र के उपयोग करने का सुझाव जो भविष्य के लेजरों के लिए महत्वपूर्ण घटक बना ई
१९५८ में, प्रोखोरोव ने स्वतंत्र रूप से एक खुले गुंजयमान यंत्र के उपयोग का प्रस्ताव रखा, जो उनका पहला प्रकाशित विचार था ई स्चाव्लो और टाउन्स ने भी एक खुले गुंजयमान यंत्र की रुपरेखा तैयार की, वे प्रोखोरोव और गोल्ड के प्रकाशित काम से अंजान थे ई
"लेजर" शब्द को पहली बार सार्वजनिक रूप से गोउल्ड के १९५९ के सम्मेलन पत्र "द लेजर, लाइट एम्प्लिफिकेशन बाई स्टिम्युलेटेड एमिशन ऑफ रेडिएशन" में इस्तेमाल किया गया। गोउल्ड का इरादा "-एसर" प्रत्यय के लिए, किसी ऐसे उपसर्ग का इस्तमाल करने का था जो इस यन्त्र द्वारा उत्सर्जित प्रकाश के वर्णक्रम के लिए उपयुक्त हो (एक्स रे: क्सासेर, पराबैंगनी: उवासेर, आदि) ई कोई अन्य शब्द लोकप्रिय नहीं हो पाया, हालांकि "रेजर"शब्द कुछ समय के लिए रेडियो आवृत्ति उत्सर्जन उपकरण के रूप में जाना गया ई
गोउल्ड ने अपने नोट में, लेजर के लिए एक उपकरण जैसे स्पेक्ट्रोमेट्री (स्पेक्ट्रोमेटी), इंटरफेरोमेटरी (इहेरफेरोमिटी), रडार (राडार) और नाभिकीय संलयन (नूक्लियर फेशन) शामिल किया था ईउसने अपने विचार पर काम जारी रखा और अप्रैल १९५९ में एक पेटेंट आवेदन (पेटेंट आप्लिकेशन) दायर किया ईअमेरिकी पेटेंट कार्यालय (उ.स. पेटेंट ऑफिस) ने उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया और यह पेटेंट बेल लेबोरेटरी (बेल लैब्स) को १९६० में दे दिया ईइससे कानूनी लड़ाई छिड़ गई जो २८ साल तक चली और इसमें वैज्ञानिक प्रतिष्ठा और अधिक पैसे दांव पर लगे ईगोउल्ड ने १९७७ में अपना पहला लघु पेटेंट जीता, लेकिन १९८७ तक वे अपने पहले पेटेंट की जीत का दावा तब तक नहीं कर सके जब तक कि उन्हें एक फेडरल जज ने ऑप्टिकली पंप लेजर और गैस की निरावेसित (गैस डिस्चार्ज) लेजर के लिए पेटेंट जारी करने के लिए सरकार के आदेश दिए।
पहला क्रियागत लेजर थिओडोर एच. माईमेन (थियोडोरे ह. मैमान) ने १९६० में ह्यूजेस अनुसंधान प्रयोगशाला (ह्यूजेस रिसर्च लेबोरेट्री) में मालीबू, कैलिफोर्निया (मालीबू, कैलिफोर्निया) बनाकर टाउन्स (टाउनस)कोलंबिया विश्वविद्यालय (कोलम्बिया यूनिवर्सिटी) में, आर्थर स्चाव्लो (आर्थर सोअवलो) बेल लेबोरेटरी (बेल लैब्स) में, और गोल्ड कंपनी में टीआरजी (तकनीकी अनुसंधान समूह) जैसे कई अनुसंधान समूहों को पीछे छोड़ दिया माईमेन ने ६९४ नैनोमीटर तरंगदैर्घ्य पर लाल लेज़र प्रकाश पैदा करने के लिए एक ठोस क्षेत्र फलैश लैम्प (फ्लैशआम)-सिंथेटिक पंप लाल (रूबी)क्रिस्टल का उपयोग किया ईकेवल माईमेन का लेजर अपने तीन स्तरीय पम्पिंग के कारण स्पंदित आपरेशन करने में सक्षम था ई
बाद में १९६० में ईरानइआन भौतिकविद् अली जावन (अली जवान), ने विलियम आर. बेनेट (विलियम र. बेनेट) और डोनाल्ड हैरोइट (डोनाल्ड हेरियोट) के साथ काम करते हुए, पहला गैस लेजर (गैस लेसर) हीलियम और नीयन का उपयोग करते हुए बनाया ई जावन को बाद में अल्बर्ट आइंस्टीन पुरस्कार (अल्बर्ट एंस्टीन अवार्ड) १९९३ में प्राप्त हुआ ई
इस अर्धचालक लेजर डायोड (लेसर दायोड़े) की अवधारणा बसोव और जावन ने प्रस्तावित किया था ईपहले लेजर डायोड का प्रदर्शन१९६२ में रॉबर्ट एन. हॉल (रॉबर्ट न. हाल) ने किया ई हॉल का उपकरण गैलियम आर्सेनाइड से बना था जो बनाया गया था और -अवरक्त स्पेक्ट्रम के क्षेत्र में ८५० एनएम के पास पर उत्सर्जित था। दृश्य उत्सर्जन के साथ पहला अर्धचालक लेजर का प्रदर्शन बाद में उसी साल निक होलोनायक, जूनियर (निक हॉलोंयक, ज्र) के द्वारा किया गया ई पहले गैस लेज़रों में, इन अर्धचालक लेजर का उपयौग केवल स्पंदित आपरेशन में ही किया जा सकता है और वह भी तब जब केवल तरल नाइट्रोजन (लिक्विड नाइट्रोजन) के तापमान (७७ क) पर ठंडा किया जाय ई
१९७० में, ज़ोरस अल्फेरोव ने सोवियत संघ और इज़ुयो हयाशी व मोर्टन पानिश बेल टेलीफोन लेबोरेटरी (बेल टेलिफोन लेबोरेट्री) ने लगातार कमरे के तापमान पर संचालित हेटरोजंक्शन (हेतेरोजंक्शन) संरचना का उपयोग कर, स्वतंत्र रूप से लेजर डायोड विकसित किया ई
हाल की नवीन खोज
लेजर इतिहास के प्रारंभिक काल से ही, लेजर अनुसंधान में सुधार और विशेष प्रकार के लेजर की एक किस्म, सहित विभिन्न अनुकूलित लक्ष्यों के प्रदर्शन के लिए उत्पादन किया गया है, इनमें शामिल हैं:
नई तरंगदैर्घ्य बैंड
अधिकतम औसत उत्पादन शक्ति
अधिकतम उच्च उत्पादन शक्ति
न्यूनतम उत्पादन स्पंद अवधि
अधिकतम शक्ति दक्षता
और यह शोध अब तक जारी है ई
बिना उत्साहित माध्यम में जनसंख्या हरास को बनाए रखने के लिए १९९२ में सोडियम गैस और फिर १९९५ में रूबिडीयाम गैस की विभिन्न अंतरराष्ट्रीय टीमों द्वारा खोज की गई ई बाहरी मेसर का उपयोग करके "ऑप्टिकल पारदर्शिता"प्रेरित करने के लिए एक माध्यम से शुरू करने और विध्वंस हस्तक्षेप द्वारा दो रास्तों के बीच की मूल इलेक्ट्रॉन के बदलाव को पूरा करने के लिए यह किया गया, ताकि मूल इलेक्ट्रॉनों द्वारा ऊर्जा को अवशोषित करने की किसी भी संभावना को रद्द किया जा सके ई
प्रकार और ऑपरेटिंग सिद्धांतों
लेजर प्रकार की एक पूरी सूची के लिए यह लेजर प्रकार की सूची (लिस्ट ऑफ लेसर टाइपिस) देखें ई
गैस लेजर (गैस लेसर) जो कई गैस (गैस) गैसों का उपयोग करते हैं का निर्माण अनेक कार्यों के लिए किया गया ई
यह हीलियम-नियोन लेजर (हीलियम-नियोन लेसर) (हीनी) विभिन्न तरंगदैर्घ्य और यूनिट जो ६३३ एण्ड एनबीएसपी एनएम जो अपने न्यूनतम मूल्य के कारण बेहद सामान्य होती है पर पर उत्सर्जित होती है ई
कार्बन डाइऑक्साइड लेजर (कार्बन डीऑक्सिड लेसर) सैकड़ों किलोवाट ९.६म (म) और १०.६ म, विकीर्ण कर सकता है और यह अक्सर उद्योग में काटने और वेल्डिंग के लिए उपयोग किया जाता है ई एक को२ लेजर की क्षमता१०% से अधिक है।
आरगोन-आइओएन लेजर (आर्गन-आयोन) ३५१-५२८.७ एण्डएनबीएसपी;एनएम पैर प्रकाश उत्सर्जित करता हैं ई प्रकाशिकी और लेजर ट्यूब लाइनों की भिन्न भिन्न संख्या पर निर्भर करते हुए भिन्न भिन्न तरह की लाइनें है लेकिन प्रयोग करने योग्य है सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला लाइनें ४५८&ब्सप एनएम, ४८८&ब्सप एनएम और ५१४.५&ब्सप एनएम हैं।
एक नाइट्रोजन अनुप्रस्थ विद्युत वायुमंडलीय दबाव में गैस उत्सर्जित करता है (ट्रांसवर्स इलेक्ट्रिकल डिस्चार्ज इन गैस एट आत्मोस्फेरिक प्रेशर) (टी) लेजर एक सस्ती गैस लेजर है जो ३३७.१एण्डएनबीएसपी;एनएम पर यूवी लाइट उत्पादित करता है ई
धातु आयन लेजर गैस लेजर होती हैं जो गहरी पराबैंगनी (दीप अल्ट्रावायोलेट) तरंगदैर्घ्य को उत्पन्न करते हैं।हीलियम--चांदी (हीग) २२४एण्डएनबीएसपी;एनएम और नीयन--ताम्बा (नेकू) २४८एण्डएनबीएसपी;एनएम का दो उदाहरण हैं। इन लेसरों में विशेषकर संकीर्ण कंपन होता है जो रेखीय चौड़ाई (लाइन्विडथ) ३ घ्ज़ (०,५ पिकमिटर (पिकमिटर)), से कम होती है और यह इन्हें रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी (रमण स्पेक्ट्रोस्कोपी) दबे प्रतिदीप्ति (फ्लोरोसेंस) में इस्तेमाल होने के लिए सही उम्मीदवार बनाता है ई
रासायनिक लेजर (केमिकल लेसर) एक रासायनिक प्रतिक्रिया से युक्त होते हैं और सतत संचालन में उच्च अधिकार प्राप्त कर सकते हैं ई उदाहरण के लिए हाइड्रोजन फ्लोराइड लेजर (हाइड्रोजन फ्लोरायड लेसर) में (२७००-२९००न्म) और डियुटेरियम फ्लोराइड लेजर (डेऊटेरियम फ्लोरायड लेसर) (३८००न्म) प्रतिक्रिया दहन उत्पादों एसाइलीन (एसाइलीन) में नाइट्रोजन ट्राइफ्लोराइड (नाइट्रोजन त्रिफ्लोरायड) के साथ हाइड्रोजन या डियुटेरियम गैस का संयोजन है ईये जॉर्ज सी. पिमेंटेल (जॉर्ज च. पिमेन्टेल) द्वारा आविस्कर किये गए थे ई
एक्साइमर लेजर (एक्सिमर लेसर) रासायनिक प्रतिक्रिया से शक्तियुक्त होते हैं जिनमें उत्तेजित डिमेर, या एक्साइमर (एक्सिमर) शामिल होते हैं, जो कि एक लघु डिमेरिक या हेटरोडिमेरिक अणु होता हैं जिसमे से कम से कम एक उत्तेजित इलेक्ट्रॉनिक अवस्था में होता है (एक्सिटेड इलेक्ट्रॉनिक स्टेट) ईये आमतौर पर पराबैंगनी प्रकाश, उत्पादित करते हैं और सेमी कंडक्टर फोटालिथोग्राफी (फोटोलिथोग्राफी) और लेसिक (लासिक) नेत्र शल्य चिकित्सा में उपयोग किया जाता है ईसामान्यतया प्रयोग किए जाने वाले एक्साइमर अणुओं में शामिल है फ२ (फ्लोराइन जो उत्सर्जित करता है १५७न्म), और नोबल गैस कम्पाउंड (अर्फ़ [१९३न्म], क्रल [२२२न्म], क्र्फ [२48न्म], ज़ेक्ल [३०८न्म] और ज़ेफ [३५१न्म]) ई
ठोस-स्तर के लेजर
का उपयोग करती है ई
ठोस-स्तर के लेजर (सोलिड-स्टेट लेसर) सामग्री सामान्यतः "डोपिंग " क्रिस्टलीय ठोस पदार्थ से बनते हैं जो आवश्यक ऊर्जा क्षेत्र आयनों के साथ होते हैं और आवश्यक ऊर्जा स्तर प्रदान करते हैं ई उदाहरण के लिए, पहला क्रियागत लेजर एक लाल लेजर (रूबी लेसर) था, जो लाल (रूबी) (क्रोमियम-डोप्ड कोरन्डम (कॉरंडम)) से बनाया गया था ई जनसंख्या हास (पॉपुलशन इनवेरस्न) वास्तव में "डोपेन्ट" में क्रोमियम या नियोडायमियम (नीयोडाइमियम) जैसे बनाये रखे जाते हैं ईऔपचारिक रूप से, ठोस लेजर में फाइबर लेजर (फाइबर लेसर) सक्रिय माध्यम के रूप में (रेशा) मजबूत स्थिति में शामिल होते हैं ई व्यावहारिक रूप से, वैज्ञानिक साहित्य, में ठोस राज्य के लेजर (सोलिड-स्टेट लेसर) का मतलब, थोक सक्रिय माध्यम लेजर से है जबकि तरंगो से संचालित लेसरों को फाइबर लेजर (फाइबर लेसर) कहते है ई
"सेमीकंडक्टर लेजर" भी ठोस स्तर के लेजर हैं, लेकिन पारंपरिक लेजर शब्दावली में ठोस स्तर के लेजर सेमीकंडक्टर लेजर से अलग होते हैं और उनका अपना नाम होता है ई
नियोडायमियम (नीयोडाइमियम) एक आम "डोपेन्ट" है जिसमें विभिन्न ठोस स्तर के लेजर क्रिस्टल शामिल होते हैं, जैसे इट्रियम आर्थोवेनाडेट (यट्रियम आर्तोवनड़ते) (एन डी: एवो ४ (न्द:एवो४)), इट्रियम लिथियम फ्ल्युराइड (यट्रियम लीथियम फ्लोरायड) (न्द:यफ) और इट्रियम ऐलुमिनियम गार्नेट (यट्रियम एलुमिनियम गर्नेट) (न्द:याग) ई सभी लेसरों अवरक्त स्पेक्ट्रम में 106४न्म पर उच्च शक्ति उत्पादित कर सकते हैं ई इसका उपयोग, वेल्डिंग काटने धातुओं और अन्य सामग्रियों पर निशान देने के लिए किया जाता है, स्पेक्ट्रोस्कोपी (स्पेक्ट्रोस्कोपी) और डाई लेसर (ड्ये लेसर) में पम्पिंग के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है ईये लेजर भी सामान्यतः दोगुनी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी डबलड), तीन गुना (त्रिप्ल्ड) या चार गुना (क्वाड्रुप्ल्ड) ५३२न्म का उत्पादन करने के लिए (हरा, दृश्य), ३५५न्म (यूवी) और २६६न्म (यूवी) प्रकाश जब यह तरंगदैर्घ्य आवश्यक हो ई
येटरबियम (इटर्बिअम), होल्मियम (होल्मियम), थ्यूलियम (थुलियम) और एर्बियम (अर्बिअम) अन्य "डोपेन्ट" में ठोस स्तर के आम लेजर हैं ई येटरबियम जिन क्रिस्टल में प्रयोग किया जाता है वे हैं यब:याग, यब: काँव, यब: क्य्व, यब: सिस, यब: बॉयज़, यब: कफ२, जो आम तौर पर 10२0-१०५०न्म पैर संचालित होते हैं ईवे संभवतः बहुत कुशल हैं और छोटी मात्रा में दोष के कारण उच्च शक्ति के होते हैं ईअल्ट्राशॉर्ट स्पंदन में अत्यधिक उच्च शक्ति यब: याग. होल्मियम (होल्मियम)-डोप्ड याग क्रिस्टल २097न्म पर प्राप्त किया जा सकता है और एक कुशल लेजर ऑपरेटिंग अवरक्त तरंगदैर्घ्य जल ऊतकों द्वारा अवशोषित होती है ई हो-याग आमतौर पर एक स्पंदित मोड में चलाया जाता है और ऑप्टिकल फाइबर के माध्यम से सर्जिकल उपकरणों में संगठित जोड़ों से गुजारा जाता है जो दांत के जड़ से हटाने, कैंसर और गुर्दे और पित्त पत्थरों को छिटकाने में मददगार होता है ई
टाइटेनियम-डोपेड नीलमणि (ती: नीलमणि (ती:सैफायर)) एक उच्चटृयुनेबल (तुनेबल)अवरक्त लेजर उत्पादित करती है, जो आमतौर परस्पेक्ट्रोस्कोपी (स्पेक्ट्रोस्कोपी) में इस्तेमाल किया जाता है, साथ ही सबसे सामान्य अल्ट्राशॉर्ट स्पंदन (अल्ट्राशोर्ट पल्स) लेजर भी उत्पादित करती है ई
थर्मल सीमाओं में ठोस स्तर के लेजर अपरिवर्तित पंप शक्ित से निकलते हैं ये अपने आप में गर्मी और फोनोन (फोनों) ऊर्जा को व्यक्त करते हैं ईयह गर्मी, जब एक उच्च थर्मामीटरों-गुणांक ऑप्टिक के साथ युग्मित होता है तब (दन/ त) थर्मल लेंसिंग को जन्म दे सकता है और साथ ही क्वांटम दक्षता को घटा सकता है ईइस प्रकार के मुद्दों को दूसरे प्रकार के एक और अभिनव डायोड-स्पंदित ठोस स्तर के लेजर डायोड-स्पंदित डिस्क लेजर (डिस्क लेसर) से हल किया जा सकता है ईइस प्रकार के लेजर में थर्मल सीमाओं को एक लेज़र माध्यम के ज्यामिति उपयोग के द्वारा जिसमें मोटाई व्यास से छोटी होती है, के माध्यम से कम किया जा सकता है ईयह सामग्री में और भी थर्मल दूसरे मिश्रणों को शामिल करता है ईपतले डिस्क लेजरओं (डिस्क लेसर) को किलोवाट स्तर तक के उत्पादन करते हुए दिखाया गया है।
ठोस स्तर के लेजर जहां रोशनी को एक ऑप्टिकल फाइबर (ऑप्टिकल फाइबर) में कुल आंतरिक प्रतिबिंब (टोटल इंटरनाल रिफ्लेक्शन) के हिसाब से निर्देशित किया जाता है को फाइबर लेजर (फाइबर लेसर) कहते हैं ईप्रकाश का निर्देशन अति लंबे लाभ क्षेत्रों को ठंडा करने देता है; फाइबर में मात्रा अनुपात के मुकाबले उच्च भूतल क्षेल होता है जो प्रभावकारी रूप से ठंडा करने में सहायक होता है ईइसके अतिरिक्त, फाइबर की तरंगनिर्देशित गुण प्रकाश के थर्मल विरूपण को कम करते हैं ईऐसे लासेरों में एर्बियम (अर्बिअम) और इट्रिबीयम (इटर्बिअम) आयन सामान्य सक्रिय प्रजातियां होती हैं ई
अक्सर, फाइबर लेजर को एक द्वीस्तरीय फाइबर (डबल-क्लाड फाइबर) के रूप में डिजाईन किया जाता है ईइस प्रकार का फाइबर एक मध्य रेशा, एक आंतरिक स्तरीय और बाह्य स्तरीय रूप, से निर्मित होता है ईतीन गाढ़ी परतों का सूचकांक इस प्रकार से चुना जाता है कि फाइबर कोर एकल फाइबर के रूप में लेजर उत्सर्जन के लिए कार्य करता रहे वहीं बाह्य स्तरीय रूप एक उच्च बहुपद्वति कोर के रूप में काम करता रहे ईयह बिजली की पंप में एक बड़ी शक्ति भीतरी कोर क्षेत्र के माध्यम से प्रवेश कराती है जबकि उच्च संख्यात्मक एपर्चर (ना) आसन उड़ान के लिए बना रहता है ई
फाइबर डिस्क लेजर (फाइबर डिस्क लेसर) या ऐसे अन्य लेजर बनाकर पम्प प्रकाश को प्रभावशाली तरीके से प्रयोग किया जा सकता है ई
फाइबर लेजर की एक मौलिक सीमा होती है जिसमें तंतु में रोशनी की तीव्रता इतनी उच्च नहीं होती है कि प्रकाश अग्निमेय जो स्थानीय बिजली क्षेत्र से तीव्र होते हैं वो शक्तिशाली हो जाएं और लेजर की कार्यप्रणाली को प्रभावित करें और फाइबर पदार्थ को क्षतिग्रस्त करें ईइस प्रभाव को फोटोडारकेनिंग (फोटोडार्कनिंग) कहा जाता है ई थोक लेजर पदार्थों में, ठंडक इतनी प्रभावकारी नहीं होती है और फोटोडारकेनिंग के प्रभाव को थर्मल प्रभाव से अलग करना कठिन होता है, लेकिन फाइबर में प्रयोगों से यह पता चलता है कि फोटोडारकेनिंग को लम्बे चलने वाले कलर केंद्र (कलर सेंटर) केन्द्रों से जोड़ा जा सकता है ई
फोटोनिक क्रिस्टल लेजर
फोटोनिक क्रिस्टल लेजर नैनो संरचनाओं पर आधारित लेजर हैं जो माध्यम में मिले होते हैं और ऑप्टिकल क्षेत्रों का घनत्व (देन्सिटी ऑफ ऑप्टिकल स्टेट्स) (डोस) संरचना प्रतिक्रिया के लिए आवश्यक होता है ई ये माइक्रोमीटर साइज के होते हैं और फोटोनिक क्रिस्टल के बैंड पर इन्हें चलाया जा सकता है ई
अर्धचालक पराबैंगनी किरण
अर्धचालक पराबैंगनीकिरण भी ठोस स्तर की होती हैं लेकिन इनके लेजर आपरेशन की एक अलग विधि होती है ई
वाणिज्यिक लेजर डायोड (लेसर दायोड़े) ३७५न्म से १८००न्म और ३म से अधिक तरंगदैर्घ्य पर उत्सर्जित होती हैं ईकम शक्ति के लेजर डायोड का प्रयोग लेजर प्रिंटर (लेसर प्रिंटर) प्रिंटरों और सीडी / डीवीडी प्लेयरों में होता है ईअधिक शक्तिशाली लेजर डायोड का प्रयोग मुख्य रूप से ऑप्टिकली पंप (पम्प) या अन्य पैराबैंगनी किरणों को उच्च क्षमता के साथ पंप करने के लिए होता है ईउच्च क्षमता के औद्योगिक लेजर डायोड, १० किलोवाट (७०दम) तक शक्ति का प्रयोग उद्योग जगत में काटने और वेल्डिंग के लिए होता है ईबाहरी-गह्वर अर्धचालक पराबैंगनीकिरण में एक गह्वर अर्धचालक सक्रिय माध्यम विशाल आकर में होता है ईये उपकरण उच्च शक्ति के आउटपुट, अच्छी बीम गुणवत्ता के साथ संकीर्ण तरंगदैर्ध्य-रेखीय चौड़ाई (लाइन्विडथ) विकिरण, या अतिसूक्ष्म लेजर स्पंदन, पैदा कर सकते हैं ई
लेजर उत्सर्जित करते हुए सीधा गह्वर सतह- (वीसीएसईएल (व्क्सेल)) अर्धचालक पराबैंगनीकिरण होते हैं जिनकी उत्सर्जन दिशा पानी की सतह से अभिलम्ब होती है ईवीसीएसईएल उपकरण में आमतौर पर परंपरागत लेजर डायोड की तुलना में परवृताकार उत्पाद बीम होते हैं और यह संभवतः उत्पादन में अधिक सस्ते होते हैं ई २००५ तक केवल ८५०न्म वीसीएसईएल व्यापक रूप से उपलब्ध थे, जिसमें से १३००न्म के व्यापारीकरण की शुरुआत हो चुकी है और १५५०न्म अनुसंधान के क्षेत्र में हैं ईवीसीएसईएल (वेक्सेल) वीसीएसईएलओं बाहरी गह्वर वीसीएसईएल हैं ई क्वांटम केस्केड लेजर (कुअंतम कस्केड लेसर) ऐसे अर्धचालक लेजर हैं जिनका एक इलेक्ट्रॉन के ऊर्जा के उप बैंड के बीच एक सक्रिय पारगमन ऐसी संरचना में होता है जिसमे कई क्वांटम वेल (कुअंतम वेल) होते हैं ई
सिलिकॉन लेजर का विकासऑप्टिकल कंप्यूटिंग (ऑप्टिकल कंप्युटिंग) के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका अर्थ यह है कि यदि सिलिकॉन, कंप्यूटर चिप्स (कंप्यूटर चिप्स) का मुख्य संघटक यदि लेसरों का उत्पादन करने में समर्थ होते तो इससे प्रकाश को इलेक्ट्रॉनों की तरह संचालित करने में आसानी होती जैसे कि सामान्य एकीकृत सर्किट में होता है ईइस प्रकार सर्किट में फोटोन्स इलेक्ट्रॉनों की जगह ले लेंगे जिससे कंप्यूटर की गति आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जायेगी ईदुर्भाग्य से सिलिकॉन एक कठिन लेजिंग पदार्था है क्योंकि इसकी कुछ खूबियां लेजिंग को बाधित करती हैं हाल ही में कुछ अध्ययन दलों ने सिलिकॉन में लेजिंग पदार्थों को सम्मिलित करने की विधि से सिलिकॉन लेजर और कुछ अन्य सेमिकंडक्टर जैसे इंडियम (ई), फोस्फाइड (इंडियम(ई) फॉस्फिड) या गैलियम (ई), अर्सेनाइड, बनाए हैं जो संसक्त प्रकाश को सिलिकॉन उत्पादित करने की अनुमति देते हैं ईइन्हेसंकर सिलिकॉन लेजर (हाइब्रिड सिलिकॉन लेसर) कहा जाता है ईएक दूसरा प्रकार रमन लेजर (रमण लेसर) है जो पदार्थों में से लेज़र जैसे सिलिकॉन का निर्माण करने के लिएरमन बिखराव (रमण स्कऐटरिंग) से फायदा उठाता है ई
डाई लेसर (ड्ये लेसर) एक कार्बनिक डाई का उपयोग लाभ माध्यम के रूप में करते हैं ईउपलब्ध डाई का चौड़ा प्रकाश लेजर को उच्च रूप से निरूपित होने देता है या बेहद कम समय के स्पंदन(क्रम (ऑन थे ऑर्डर ऑफ) कुछफेमटोसेकेन्ड (फेंटोसेकंड)) में पैदा करने देता है ई
मुक्त इलेक्ट्रॉन लेजर
मुक्त इलेक्ट्रॉन लेजर (फ़्री इलेक्ट्रॉन लेसर), या फेल्स, जो संसक्त, उच्च शक्ति विकिरण पैदा करते हैं, जो व्यापक रूप से चलने योग्य है, वर्तमान में तरंगदैर्घ्य और माइक्रोवेव के रेंज में तेराहेर्त्ज़ विकिरण और अवरक्त स्पेक्ट्रम से दृश्य स्पेक्ट्रम, से नरम एक्स रे तक ईइनकी किसी भी प्रकार के लेजर से व्यापक आवृत्ति रेंज होती है ई फेल बीम में भी अन्य लेजर की तरह समान ऑप्टिकल लक्षण होते हैं जैसे संसक्त विकिरण, फेल आपरेशन काफी अलग हैं ईगैस के विपरीत, तरल या ठोस स्तर के लेजर, जो परमाणु बंधन या आणविक स्तर पर निर्भर करते हैं, फेल्स इलेक्ट्रॉन लेजिंग माध्यम की तरह किरण बीम का उपयोग करते हैं, जिसे मुक्त इलेक्ट्रॉन कहा जाता है ई
सुंदर लेजर मीडिया
सितम्बर २००७ में, बीबीसी समाचार (बीबीसी न्यूज़) ने सूचित किया था कि इस बात की संभावना थी कि पोजिट्रोनियम (पॉजिट्रोनियम)विनाशक (अन्नीहिलशन) का उपयोग बेहद खतरनाक गामा किरण लेजर. में किया जाये ईनदी के किनारे बसे, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, रिवरसाइड) के डॉक्टर डेविड केसिडी ने यह सुझाया कि एक अकेली लेजर को नाभिकीय संलयन (नूक्लियर फेशन) प्रतिक्रिया सत लिए उकसाया जा सकता है जो सैकड़ों लेजर जो पारंपरिक आतंरिक बंदिश (इनर्शियल कॉनफिनमेंट फेशन) प्रयोगों में इस्तेमाल होते हैं को स्थानान्तरित कर देता है ई
अंतरिक्ष आधारित एक्सरे लेजर जो एक परमाणु विस्फोट से पंप किया गया को भी प्रक्षेपास्त्र विरोधी हथियार के रूप में प्रस्तावित किया गया है ई इस तरह के उपकरणों एक बार में दागने वाले हथियार होंगे ई
१९६० में जब लेजर का आविष्कार हुआ था, तब उन्हें "समस्याओं का हल कहा गया था" ई तब से इनका, हर जगह बहुउपयोग होने लगा और ये हजारों विविध उपकरणों और आधुनिक समाज के सभी वर्गों में प्रयोग होने लगे जैसे उपभोक्ता इलेक्ट्रानिक्स (कन्सूमर इलेक्ट्रॉनिक्स), सूचना प्रोद्योगिकी, विज्ञान, दवाएं, उद्योग (इंडस्ट्री), कानून प्रवर्तन (लॉ एन्फ़ोर्सीमेंट), मनोरंजन और सेना (मिलिट्री) ई
सामान्य आबादी के दैनिक जीवन में लेजर का पहला प्रयोग सुपरमार्केट बारकोड (बार्कोड) में दिखा जिसे १९७४ में इस्तेमाल किया गया था ईलेजरडिस्क (लेसरडिस्क) प्लेयर, १८७८ में इस्तेमाल किये गए, पहला सफल उपभोक्ता उत्पाद था जिसमें लेजर का इस्तेमाल किया गया था ई लेकिन कॉम्पेक्ट डिस्क (कम्पक्ट डिस्क) प्लेयर पहला लेजर-युक्त उपकरण था जो सचमुच में उपभोक्ता के घरो में आम हो गया, १९८२ में शुरूआत हुई और इसके बाद लेजर प्रिंटर (लेसर प्रिंटर) आये ई
कुछ अन्य उपकरणों में शामिल हैं:
उद्योग (इंडस्ट्री): काटना वेल्डिंग (वेल्डिंग), तत्व का ताप, पुर्जो पर चिह्न लगाना
लेजर से त्वचा का इलाज जैसे मुँहासे का उपचार और बाल हटाना (हैर रिमूवर) ई
२००४ में, डायोड लेज़रों को छोड़कर, लगभग१३१,००० लेजर दुनिया भर में बेचे गए थे, २.१९ अरब अमेरिकी डॉलर के मूल्य के बराबर ई इसी साल ७३३ मिलियन डायोड लेजर ३.२0 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर बेचे गए ई
शक्ति द्वारा उदाहरण
विभिन्न उपयोगों के लिए विभिन्न शक्ित आउटपुट के लेजरों की आवश्यकता होती है ईलेजर जो एक सतत किरण या कम स्पंदन की एक श्रृंखला पैदा करती है को उसकी औसत शक्ति के आधार पर तुलना की जा सकती है ईलेजर जो स्पंदन पैदा करती है को प्रत्येक स्पंदन की उच्च शक्ति के आधार पर विशेषित किया जा सकता है ईएक स्पंदित लेजर की चरम शक्ति कई परिमाण के श्रेणी है जो इसकी औसत शक्ति से अधिक होती है ईऔसत उत्पादन शक्ति हमेशा बिजली खपत की तुलना में कम है।
सतत या औसत शक्ति जो कुछ कार्यों के लिए उपयोग होती है :
१ मेगावाट-उपभोक्ता से कमलेजर सूचकांक (लेसर पॉइंटर)
१०० मेगावाट-उच्च गति सीडी-आरडब्ल्यू (चड-रू) बर्नर
२५० मेगावाट-उपभोक्ता डीवीडी-आर ई (द्व्ड-र) बर्नर
१ डब्ल्यू-हरा लेजर होलोग्राफिक बहुमुखी डिस्क (होलोग्राफिक वर्सटाइले डिस्क) में मूलरूप विकास
माइक्रो मशीनिंग के लिए वाणिज्यिक स्तर पर ठोस स्तर के लेजर१-२० डब्ल्यू- आउटपुट जो उपलब्ध हैं ई
३०-१०० डब्ल्यू - आमतौर पर मुहरबंद को२ सर्जिकल लेसरों
१००-३००० डब्ल्यू (१.५ किलोवाट चरम उत्पादन) - विशिष्ठ मुहरबंद को२ औद्योगिक लेजर कटाव (लेसर कट्टिंग) में इस्तेमाल होने वाला ई
१ किलोवाट -उत्पादन शक्ति एक प्रोटोटाइप १कम डायोड लेजर बार से प्राप्त होने की आशा होती है
उच्च चरम शक्ति के साथ स्पंदित प्रणालियों के उदाहरण:
७०० त्व (त्व) (७०० १०१२ डब्ल्यू) - राष्ट्रीय इग्निशन सुविधा (नेशनल इग्निशन फेसिलिटी) एक प्रणाली पर काम कर रही है जो पूरा होने पर १९२-किरण,१.८-मेगाजोल लेजर प्रणाली से युक्त होगी, एक १0 मीटर-व्यास लक्ष्य चैंबर के साथ ई इस प्रणाली के अप्रैल २००९ में पूरा होने की उम्मीद है ई
१.३ पू (पू) (१.३१0१5 व) १998 तक की विश्व की सबसे ताकतवर लेजर है जो लॉरेंस लॉरेंस लिवरमोर प्रयोगशाला में है (लॉरेंस लिवरमोर लेबोरेट्री)
शौक का उपयोग
हाल के वर्षों में, कुछ शौकीन लोग लेसरों में रूचि लेने लगे हैं। आमतौर पर शौकीन लोगो के द्वारा उपयोग किये जाने वाले लेजर वर्ग ईइया या ईब के हैं, हालाँकि कुछ ने अपना अलग वर्ग इव बना लिया है ई हालांकि, अन्य शौकिया लोगो की तुलना में, लेसर के शौकीन लोगो की संख्या इसकी लागत और संभावित खतरों के कारण कम है ईलेसरों की लागत के कारण, कुछ शौकीन लोग, सस्ती लेजर जैसे डीवीडी बर्नर से निकलने वाले डायोड का इस्तेमाल कर रहे हैं ई (द्व्ड बर्नर)
शौकिया लोग अतिरिक्त स्पंदित लेजर रिटायर मिलिटरी उपकरणों से लेकर उन्हें स्पंदित होलोग्राफी के लिए नवीनीकृत कर रहे हैंस्पंदित लाल और स्पंदित याग लेसरों का उपयोग किया जाता है ई
यहां तक कि पहले लेजर को संभावित खतरे के रूप में पहचाना गया था ईथिओडोर माइमैन (थियोडोरे मैमान) ने पहले लेजर के एक शक्ित होने की विशेषता दी "जिलेट (जिलेट)" यह एक जिलेट (जिलेट)रेजर ब्लेड (रज़ोर ब्लेड) के माध्यम से जल सकता था ईआज, यह स्वीकार कर लिया गया है कि कुछ मिलिवॉट्स आउटपुट शक्ति कि लेजर से निकला प्रकाश यदि सीधे या किसी चमकीली सतह से टकराने के बाद परछाई बनकर आंखों पर पड़ें तो यह मनुष्यों की आंख के लिए खतरा हो सकते हैं ई तरंगदैर्घ्य जिस पर कोरनिया और लैंस अच्छी तरह से केन्द्रित हो, लेजर लाइट का अनुकूलन और निम्न बिखराव का मतलब है कि वह आंख कि रेटिना (रेटिना) के छोटे बिन्दुओं पर केन्द्रित रह सकती है जिससे की सेकेन्ड में ही स्थानीय जलन और स्थाई नुकसान हो ई
आमतौर पर लेजर का वर्गीकरण एक सुरक्षित वर्ग अंक से किया जाता है जो यह चिन्हित करती है कि लेजर कितना खतरनाक है:
कक्षा ल/ १ स्वाभाविक रूप से सुरक्षित है, क्योंकि आमतौर पर प्रकाश एक बंद उत्पाद में संग्रहित होता है, उदाहरण के लिए सीडी प्लेयर ई
द्वितीय श्रेणी ल्ल/ २ सामान्य उपयोग के दौरान सुरक्षित है, आंख का पलक झपकाना (ब्लिक रेफ़्लेक्स) क्षति को रोकता है ई आमतौर पर१ मेगावाट से ऊपर की बिजली, उदाहरण के लिए लेजर बिन्दु (लेसर पॉइंटर) बिन्दुओं ई
कक्षा ईइया/३र लेजर आमतौर पर ५ मेगावाट तक होती हैं और इनसे आंखों को झपकाने के दौरान हल्का नुकसान होने का खतरा होता है ईऐसे किसी प्रकाश में कुछ समय तक देखने से आंखों को (मामूली) नुकसान हो सकता है ई
कक्षा ईब/३ब के संपर्क में आने से आंखों को गंभीर नुकसान हो सकता है ईआमतौर पर ५०० मेगावाट तक के लेजर, सीडी और डीवीडी बर्नरों जैसे लेजर ई
वर्ग इव/ लेजर त्वचा को जला सकती है और कुछ मामलों में, बिखरा हुआ प्रकाश भी आंख और / या त्वचा को नुकसान पंहुचा सकती है ईकई औद्योगिक और वैज्ञानिक लेजर इस वर्ग में शामिल हैं ई
प्रदर्शित शक्तियां दृश्य प्रकाश, नियमित तरंग लेजर के लिए हैं ईस्पंदित लेसरों और अदृश्य तरंगदैर्घ्य के लिए, अन्य शक्ति सीमा लागू ई ३ब और वर्ग ४ लेज़रों के साथ काम करने वाले लोग एक विशेष्ा प्रकार के सुरक्षा चश्मा से अपनी आंखों का बचाव कर सकते हैं जो एक खास तरंगदैर्घ्य पर प्रकाश को अवशोषित करने की विशेषता रखता है ई
१.४ से अधिक तरंगदैर्घ्य की कुछ पराबैंगनी किरणें अक्सर "आंखों के लिए सुरक्षित" बतायी जाती हैं ईऐसा पानी के आंतरिक आणविक कंपन के कारण होता है जो मजबूती से स्पेक्ट्रम के इस भाग के प्रकाश को सोख लेते हैं और इस तरंगदैर्घ्य पर लेजर प्रकाश पूरी तरह से ऐसे मिला होता है जैस की आंखों की कोरनिया से निकलते हुए रेटिना (रेटिना) और लैंस पर कोई प्रकाश केन्द्रित नहीं रहे ईलेबल "नेत्र सुरक्षित" गुमराह किया जा सकता है, हालांकि, क्योंकि यह केवल अपेक्षाकृत कम बिजली लगातार लहर पर लागू होता है और किसी भी उच्च शक्ति या बीम क्यू-स्विचित (क-स्विचड़) इन तरंगदैर्य पर लेजर, कॉर्निया को जला सकता है। नेत्र गंभीर नुकसान पैदा कर सकता है
हथियार के रूप में लेजर
लेजर प्रकाश को विज्ञान कथाओं में हथियार प्रणाली के तौर पर दिखाया जाता है, लेकिन वास्तविक लेजर हथियार (एक्च्युअल लेसर विपन) अब बाजारों में उपलब्ध हो रहे हैं ईलेजर प्रकाश हथियारों के पीछे मुख्य योजना प्रकाश के स्पंदन की संक्षिप्त प्रशिक्षण से लक्ष्य को भेदने की होती है ई सतह का तेजी से वाष्पीकरण और विस्तार कम्पन पैदा करता हैं और लक्ष्य को नुकसान पहुंचाता है ई
इस प्रकार के उच्च शक्ित लेजर प्रकाश को पेश करने के लिए आवश्यक शक्ित वर्तमान मोबाइल शक्ति तकनीकों के लिए कठिन हैसार्वजनिक प्रोटोटाइप रासायनिक-शक्ति वाले गतिशील गैस लेजर (गैस डाइनामिक लेसर) होते हैं ई
कम शक्ित के लेजर के साथ साथ सभी लेजर आंखों की तरफ निशाना साधने पर पूर्ण या आंशिक रूप से आंखों की रोशनी को कम करने की क्षमता के कारण संभावित रूप से अतिसक्षम हथियारों के रूप में इस्तेमाल किए जा सकते हैं ईलेजर के संपर्क में आने से आंखों को होने वाले नुकसान के प्रकार, चरित्र और अवधि में लेजर की शक्ति, तरंगदैर्ध्य, प्रकाश की तीव्रता, प्रकाश के उदभव और आंखों के लेजर के संपर्क में आने के समय के हिसाब से अंतर होता है ई शक्ति में एक वाट के एक अंश का लेजर कुछ परिस्िथतियों में आंखों को पूर्ण नुकसान पहुंचा सकता है, ऐसे लेजर कम घातक लेकिन खतरानक हथियार बन जाते हैं ईलेजर से होने वाला अंधापन अति विकलांग्ता है और कम खतरनाक हथियार के रूप में भी लेजर के इस्तेमाल को यह नैतिक रूप से विवादास्पद बनाता है ई
उड्डयन के क्षेत्र में मैदान पर उपस्थित लेजरों के संपर्क में आने से होने वाली समस्याएं विमान चालकों के लिए समस्या है और इस संदर्भ में यह कहा जाता है कि उड्डयन अधिकारियों के पास ऐसी समस्याओं से निबटने के लिए विशेष उपाय होते हैं ई
उत्पादन में काटने (कट्टिंग), मोड़ने और धातु और अन्य पदार्थों की वेल्डिंग के लिए और किसी पदार्थ की सतह और उसकी विशेषता में बदलाव लाकर या उसके उत्पादन के तरीकों में बदलाव लाने के लिए
लेजरों का प्रयोग किया जाता है ई
विज्ञान में, लेज़रों का प्रयोग कई उपकरणों में किया जाता है ई लेजर के कुछ प्रयोगों में लेजर स्पेक्ट्रोस्कोपी (लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी) सबसे आम है जिसमें लेजर के स्थापित तरंगदैर्ध्यों का लाभ लिया जाता है या बेहद कम स्पंदन वाला प्रकाश पैदा किया जाता है ईसेना द्वारा सीमा-खोज (रंज-फिंडिंग), लक्ष्य निर्धारण (टारगेट देसिग्नेशन) और रौशनी पैदा करने के लिए (इल्ल्युमिनेशन) लेजर का उपयोग किया जाता है ईऊर्जा निर्देशित हथियारों (डाइरेक्टेड-एनर्जी विपोन) के लिए भी लेजरों की जांच की जाने लगी है ईलेजर का उपयोग दवाओं सर्जरी (सर्जरी), बीमारी की जांच और चिकित्सकीय उपकरणों में की जाती है ई
लेजर के लिए काल्पनिक कहानियों में लेजर गन (राय गुण) देखें ई
प्रेरित उत्सर्जन (स्टीमुलेटेड एमिशन) की खोज से पहले उपन्यासकारों (नोवेलिस्ट) ने ऐसी मशीनों का खोज कर लिया था जिन्हें लेजर के तौर पर चिन्हित किया जा सके ई
अलेक्सी टॉलस्टॉय (अलेक्से टॉलस्टॉय) के उपन्यास साई फाई में एक लेजर जैसे उपकरण का वर्णन किया गया थाद हाइपरबोलोयिड ऑफ इंजीनियर गेरिन (थे हाइपर्बोलॉइड ऑफ इंजीनियर गरीन) १९२७ में ई
मिखाइल बुल्गाकोव (मिखाइल बुलगाकोव) ने अपनी साई-फाई किताब घातक अंण्डों (फाताल एगस) (१९२५) में जैविक प्रभाव (लेजर जैव उत्सर्जन) को बढ़ा चढ़ा कर, इस लाल रंग के स्रोत के बिना तर्कसंगत वर्णन के लिखा ई(इस उपन्यास में, लाल बत्ती अक्सर माइक्रोस्कोप की सूक्ष्म चमकीली व्यवस्था से उत्पन्न होती थी इसके बाद नायक प्रोफेसर पर्सिकोव लाल बत्ती पैदा करने के लिए विशेष प्रकार के सेट की व्यवस्था करता है)
इन्हें भी देखें
नोट्स और संदर्भ
आगे के अध्ययन के लिए
बर्टलोटी, मारियो (१९९९, ट्रांस. २००४). लेजर का इतिहास, भौतिकी संस्थान ईसब्न ०-75०३-०911-३
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सिगमेन, एंथोनी ई. (१९८६). लेजर, विश्वविद्यालय की विज्ञान की किताबें. इसब्न ०-9३57०2-११-३
सिल्वास्ट, विलियम टी. (१९९६).लेजर के सिद्धांत, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस इसब्न ०-५२१-५५६१७-१
सेवेल्टो, ओराजि़यो (१९९८). लेजर के सिद्धांत, ४. एड. (ट्रांस. डेविड हन्ना), स्प्रिंगर.इसब्न ०-3०6-४57४8-२
विल्सन, जे एंड हॉक्स, ज.फ.ब. (१९८७). लेजर: सिद्धांत और उपकरणऑप्टोइलेक्ट्रानिक्स में प्रिंटिस हॉल (प्रेण्टिस हाल) का अंतरराष्ट्रीय संस्करण ईसब्न ०-१३-५२३६९७-५
यारिव, अम्नोन (१९८९). क्वांटम इलेक्ट्रॉनिक्स, तीसरा संस्करण, विलि ईसब्न ०-४७१-6०997-८
एप्लाइड फिजिक्स बी: लेजर और प्रकाशिकी (इसन ०९४६-२१७१)
ईई प्रकाश तरंग प्रौद्योगिकी का जर्नल (इसन ०७३३-८७२४)
ईई क्वांटम इलेक्ट्रॉनिक्स का जर्नल (इसन ००१८-९१९७)
ईई चयनित विषय की क्वांटम इलेक्ट्रॉनिक्स का जर्नल (इसन १०७७-२६०क्स)
ईई फोटोनिक्स प्रौद्योगिकी पत्र
अमेरिका ऑप्टिकल सोसाइटी का जर्नलने ब: ऑप्टिकल भौतिकी (इसन ०७४०-३२२४)
फोटोनिक्स स्पेक्ट्रा (इसन ०७३१-१२३०)
डॉक्टर रूडिगर पाश्चोटा द्वारा लिखित लेजर भौतिकी और तकनीक की अनुक्रमणिका
सैम्युअल एम. गोल्डवेसर की ए प्रेकटिकल गाइड टू लेजर्स फॉर एक्सपेरिमेन्टर्स एण्ड हॉबिसिस्ट
प्रोफेसर मार्क सेसेल की होमबिल्ट लेजर पेज
शक्तिशाली लेसर 'ब्रह्मांड' में सबसे शक्तिशाली रोशनी है -२००८ तक दुनिया के सबसे शक्तिशाली लेसर सुपरनोवा जैसे कम्पन तरंग पैदा कर सकते हैं (न्यू साइंटिस्ट, ९ अप्रैल २००८)
किप केदेर्षा की होममेड लेजर प्रोजेक्ट
"प्रोफेसर एफ बालेम्बोइस और डाक्टर एस फोरगेट की "द लेजर: बेसिक प्रिंसिपल्स" एन ऑन लाइन कोर्स.इंस्ट्रुमेंटेशन फॉर आप्टिक्स, २००८
लेजरेटी, लेजर से संबंधित लोगों के लिए एक सामाजिक वेबसाइट
नॉर्थरोप ग्रुमैन की प्रेस रिलीज ऑन द फायरस्ट्राइक १५केडब्ल्यू टेकटिकल लेजर प्रोडक्ट |
२४ दिसम्बर १९०६ की शाम कनाडाई वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फेसेंडेन ने जब अपना वॉयलिन बजाया और अटलांटिक महासागर में तैर रहे तमाम जहाजों के रेडियो ऑपरेटरों ने उस संगीत को अपने रेडियो सेट पर सुना, वह दुनिया में रेडियो प्रसारण की शुरुआत थी।
इससे पहले जगदीश चन्द्र बसु ने भारत में तथा गुल्येल्मो मार्कोनी ने सन १९०० में इंग्लैंड से अमरीका बेतार संदेश भेजकर व्यक्तिगत रेडियो संदेश भेजने की शुरुआत कर दी थी, पर एक से अधिक व्यक्तियों को एक साथ संदेश भेजने या ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत १९०६ में फेसेंडेन के साथ हुई। ली द फोरेस्ट और चार्ल्स हेरॉल्ड जैसे लोगों ने इसके बाद रेडियो प्रसारण के प्रयोग करने शुरु किए। तब तक रेडियो का प्रयोग सिर्फ नौसेना तक ही सीमित था। १९१७ में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद किसी भी गैर फौज़ी के लिये रेडियो का प्रयोग निषिद्ध कर दिया गया।
पहला रेडियो स्टेशन
१९१८ में ली द फोरेस्ट ने न्यू यॉर्क के हाईब्रिज इलाके में दुनिया का पहला रेडियो स्टेशन शुरु किया। पर कुछ दिनों बाद ही पुलिस को ख़बर लग गई और रेडियो स्टेशन बंद करा दिया गया।
एक साल बाद ली द फोरेस्ट ने १९१९ में सैन फ्रैंसिस्को में एक और रेडियो स्टेशन शुरु कर दिया।
नवंबर १९२० में नौसेना के रेडियो विभाग में काम कर चुके फ्रैंक कॉनार्ड को दुनिया में पहली बार क़ानूनी तौर पर रेडियो स्टेशन शुरु करने की अनुमति मिली।
कुछ ही सालों में देखते ही देखते दुनिया भर में सैकड़ों रेडियो स्टेशनों ने काम करना शुरु कर दिया।
रेडियो में विज्ञापन की शुरुआत १९२३ में हुई। इसके बाद ब्रिटेन में बीबीसी और अमरीका में सीबीएस और एनबीसी जैसे सरकारी रेडियो स्टेशनों की शुरुआत हुई।
नवंबर १९४१ को सुभाष चंद्र बोस ने रेडियो जर्मनी से भारतवासियों को संबोधित किया।
भारत और रेडियो
१९२७ तक भारत में भी ढेरों रेडियो क्लबों की स्थापना हो चुकी थी। १९३६ में भारत में सरकारी इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया की शुरुआत हुई जो आज़ादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया।
१९३९ में द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाइसेंस रद्द कर दिए गए और ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करने के आदेश दे दिए गए।
नरीमन प्रिंटर उन दिनों बॉम्बे टेक्निकल इंस्टीट्यूट बायकुला के प्रिंसिपल थे। उन्होंने रेडियो इंजीनियरिंग की शिक्षा पाई थी। लाइसेंस रद्द होने की ख़बर सुनते ही उन्होंने अपने रेडियो ट्रांसमीटर को खोल दिया और उसके पुर्जे अलग-अलग जगह पर छुपा दिए।
इस बीच गांधी जी ने अंग्रेज़ों भारत छोडो का नारा दिया। गांधी जी समेत तमाम नेता ९ अगस्त 1९42 को गिरफ़्तार कर लिए गए और प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई।
कांग्रेस के कुछ नेताओं के अनुरोध पर नरीमन प्रिंटर ने अपने ट्रांसमीटर के पुर्जे फिर से एकजुट किया। माइक जैसे कुछ सामान की कमी थी जो शिकागो रेडियो के मालिक नानक मोटवानी की दुकान से मिल गई और मुंबई के चौपाटी इलाक़े के सी व्यू बिल्डिंग से २७ अगस्त १९४२ को नेशनल कांग्रेस रेडियो का प्रसारण शुरु हो गया।
अपने पहले प्रसारण में उद्घोषक उषा मेहता ने कहा, ४१.७८ मीटर पर एक अंजान जगह से यह नेशनल कांग्रेस रेडियो है।
रेडियो पर विज्ञापन की शुरुआत १९२३ में हुई।
इसके बाद इसी रेडियो स्टेशन ने गांधी जी का भारत छोड़ो का संदेश, मेरठ में ३०० सैनिकों के मारे जाने की ख़बर, कुछ महिलाओं के साथ अंग्रेज़ों के दुराचार जैसी ख़बरों का प्रसारण किया जिसे समाचारपत्रों में सेंसर के कारण प्रकाशित नहीं किया गया था।
पहला ट्रांसमीटर १० किलोवाट का था जिसे शीघ्र ही नरीमन प्रिंटर ने और सामान जोड़कर सौ किलोवाट का कर दिया। अंग्रेज़ पुलिस की नज़र से बचने के लिए ट्रांसमीटर को तीन महीने के भीतर ही सात अलग अलग स्थानों पर ले जाया गया।
१२ नवम्बर १९४२ को नरीमन प्रिंटर और उषा मेहता को गिरफ़्तार कर लिया गया और नेशनल कांग्रेस रेडियो की कहानी यहीं ख़त्म हो गई।
नवंबर १९४१ में रेडियो जर्मनी से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भारतीयों के नाम संदेश भारत में रेडियो के इतिहास में एक और प्रसिद्ध दिन रहा जब नेताजी ने कहा था, तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।
इसके बाद १९४२ में आज़ाद हिंद रेडियो की स्थापना हुई जो पहले जर्मनी से फिर सिंगापुर और रंगून से भारतीयों के लिये समाचार प्रसारित करता रहा।
स्वतन्त्रता के पश्चात
स्वतन्त्रता के पश्चात से १६ नवम्बर २००६ तक रेडियो केवल सरकार के अधिकार में था। धीरे-धीरे आम नागरिकों के पास रेडियो की पहुँच के साथ इसका विकास हुआ।
सरकारी संरक्षण में रेडियो का काफी प्रसार हुआ। १९४७ में आकाशवाणी के पास छह रेडियो स्टेशन थे और उसकी पहुंच ११ प्रतिशत लोगों तक ही थी। आज आकाशवाणी के पास २२३ रेडियो स्टेशन हैं और उसकी पहुंच ९९.१ फ़ीसदी भारतीयों तक है।
टेलीविज़न के आगमन के बाद शहरों में रेडियो के श्रोता कम होते गए, पर एफएम रेडियो के आगमन के बाद अब शहरों में भी रेडियो के श्रोता बढ़ने लगे हैं। पर गैरसरकारी रेडियो में अब भी समाचार या समसामयिक विषयों की चर्चा पर पाबंदी है।
रेडियो का दुरुपयोग न हो इसलिए सरकार इसे चलाने की अनुमति आम जनता को नहीं देना चाहती थी। इस बीच आम जनता को रेडियो स्टेशन चलाने देने की अनुमति के लिए सरकार पर दबाव बढ़ता रहा है।
१९९५ में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नहीं है। वर्ष २००२ में एनडीए सरकार ने शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो स्टेशन खोलने की अनुमति दी। १६ नवम्बर २००६ को यूपीए सरकार ने स्वयंसेवी संस्थाओं को रेडियो स्टेशन खोलने की इज़ाज़त दी है।
इन रेडियो स्टेशनों में भी समाचार या समसामयिक विषयों की चर्चा पर पाबंदी है, पर इसे रेडियो जैसे जन माध्यम के लोकतंत्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम माना जा रहा है।
इन्हें भी देखें
जगदीश चन्द्र बसु
रेडियो संग्राही (रेडियो रिसीवर)
इंटरनेट पर हिन्दी रेडियो स्टेशनों की सूची |
ऐसे मानव हिजड़ा कहलाते हैं जो लैंगिक रूप से न नर होते हैं न मादा। जन्म के समय लैंगिक विकृति के कारण ऐसा होता है।
'हिजड़ा' शब्द दक्षिण एशिया में प्रचलित है। अधिकांश हिजड़े शारीरिक रूप से 'नर' होते हैं या अन्त:लिंगी (इंटरसेक्स) किन्तु कुछ मादा (स्त्री) भी होते हैं। वे अपने-आप के लिये प्राय: स्त्रीलिंग भाषा का प्रयोग करते हैं (जैसे, मैं सुन्दर लग रही हूँ?)।
आजकल हिजड़ों के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। |
कुरुफ़ (पोलिश: , अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि: ['कुरूफ़]) एक दक्षिणपूर्वी पोलैंड में गाँव है पुवावी और लुबलिन के बीच में, कुरुफ़का नदी में। यह गाँव एक अलग नगरपालिका का राजधानी है, लुबलिन प्रान्त के अन्दर में और वहाँ २७८२ लोग रहते हैं (२००६ में)। |
पुदुच्चेरी, (पहले पॉन्डिचेरी), भारत गणराज्य का एक केन्द्र शासित प्रदेश है। पहले पुदुच्चेरी एक फ्रांसीसी उपनिवेश था जिसमे ४ पृथक जिलों का समावेश था। पुदुच्चेरी का नाम पॉन्डिचरी इसके सबसे बड़े जिले पुदुच्चेरी के नाम पर पड़ा था। सितम्बर २००६ में पॉन्डिचरी का नाम आधिकारिक रूप से बदलकर पुदुच्चेरी कर दिया गया जिसका कि स्थानीय तमिल में अर्थ नया गाँव होता है। भारत का यह क्षेत्र लगभग ३०० वर्षों तक फ्रांसीसी अधिकार में रहा है और आज भी यहां फ्रांसीसी वास्तुशिल्प और संस्कृति देखने को मिल जाती है। पुराने समय में यह फ्रांस के साथ होने वाले व्यापार का मुख्य केंद्र था। आज अनेक पर्यटक इसके सुंदर समुद्र तटों और तत्कालीन सभ्यता की झलक पाने के लिए यहां आते हैं। केवल पर्यटन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से भी यह स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। इस कारण प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में पर्यटक यहां आते हैं।
पुदुच्चेरी बंगाल की खाड़ी के पूर्व में स्थित एक केंद्र शासित प्रदेश है। पुदुच्चेरी मूलतः ४ पृथक (बिना जुड़े हुये) जिलों से मिलकर बना है। ये जिले है:
कराईकल जो तमिलनाडु से घिरा है जबकि
यानम बंगाल की खाड़ी में (आन्ध्र प्रदेश) और
माहे (केरल) अरब सागर में है।
पुदुच्चेरी और कराइकल इनमे से सबसे बड़े जिले हैं।
तमिल, तेलुगु, मलयालम और फ्रांसीसी यहाँ की आधिकारिक भाषाएँ हैं। प्रत्येक जिले के साथ-साथ हर भाषा की स्थिति भिन्न है। विभिन्न जिलों के बीच संवाद स्थापित करने के लिए आमतौर पर अंग्रेज़ी का उपयोग किया जाता है।
तमिल: इस भाषा का उपयोग पुदुच्चेरी के तमिल बहुल जिलों और कराइकल में किया जाता है। यह तमिल नाडु राज्य की भी आधिकारिक भाषा है, साथ ही यह श्रीलंका तथा सिंगापुर में भी एक सह-आधिकारिक भाषा है। मलेशिया और मॉरीशस में भी यह भाषा बोली जाती है।
तेलुगु: पुदुच्चेरी की एक अन्य आधिकारिक भाषा, जो अधिकतर यनम में प्रयोग होती है। इसलिए अधिक सही ढंग से कहें तो यह पुदुच्चेरी में क्षेत्रीय आधिकारिक भाषा है, जबकि यनम जिले की यह आधिकारिक भाषा है। यह आंध्र प्रदेश राज्य में भी आधिकारिक भाषा है। और यह पुदुच्चेरी और कराइकल में भी व्यापक रूप से बोली जाती है।
मलयालम: पुदुच्चेरी की एक अन्य आधिकारिक भाषा, पर माहे (मलयालम जिले) में अधिक उपयोग में लाई जाती है। इसलिए अधिक सही ढंग से कहें तो यह पुदुच्चेरी में क्षेत्रीय आधिकारिक भाषा है, जबकि माहे जिले की आधिकारिक भाषा। यह केरल राज्य और लक्षद्वीप केन्द्र शासित प्रदेश में भी आधिकारिक भाषा है।
फ्रांसीसी: पुदुच्चेरी की एक अन्य आधिकारिक भाषा। यह फ्रांसीसी इंडिया की भी आधिकारिक भाषा थी (१६७३-१९५४) और इसका आधिकारिक दर्जा २८ मई १९५८ को भारत और फ्रांस के बीच हुई समर्पण संधि से संरक्षित रहा।
अनुच्छेद २८ के अनुसार फ्रांसीसी पुदुच्चेरी के वैधानिक आधिकारिक भाषा है और समर्पण संधि के अनुसार,
फ्रांसीसी भाषा तब तक प्रतिष्ठानों की आधिकारिक भाषा रहेगी जब तक की जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा अन्यथा भिन्न निर्णय नहीं लिया जाता है। (हिन्दी संस्करण)
पुदुचेरी में भारतीय और फ्रेंच संस्कृति की एक साथ दर्शन होते हैं। यहां के स्मारक इतिहास से रूबरू कराते हैं तो वहीं मंदिर मन को श्रद्धा से भर देते हैं।
आध्यात्म की भूमि
जीवन की भागदौड़ से थक चुके लोग जो शांति व आध्यात्म की तलाश में हैं, उनके लिए पुदुचेरी बिल्कुल सही जगह है। प्राचीन काल से ही पुदुचेरी वैदिक संस्कृति का केंद्र रहा है। यह महान ऋषि अगस्त्य की भूमि है। पुदुचेरी की आध्यात्मिक शक्ति १२वीं शताब्दी में और बढ़ी, जब यहां अरविदों आश्रम की स्थापना हुई। प्रतिवर्ष सैकड़ों लोग सुकून की तलाश में यहां आते हैं।
यह बीच शहर से ८ किलोमीटर दूर कुड्डलोर मेन रोड के पास स्थित है। इस बीच के एक ओर छोटी खाड़ी है। यहां केवल नाव द्वारा ही जाया जा सकता है। नाव पर जाते समय पानी में डॉल्फिन के करतब देखना एक सुखद अनुभव है। यहां का वातावरण देखकर इसके नाम की सार्थकता का अहसास होता है। यह वास्तव में स्वर्ग के समान है।
जैसा कि नाम से ही जाहिर है यह बीच ऑरोविल्ले के पास स्थित है। पुदुचेरी से १२ किलोमीटर दूर इस तट का पानी अधिक गहरा नहीं है। इसलिए पानी में तैरने के शौकीनों के लिए यह बिल्कुल सही जगह है। सप्ताहांत में यहां समय बिताना लोगों को बहुत भाता है। उस दौरान यहां बहुत भीड़ रहती है। बाकी दिन यहां ज्यादा भीड़भाड़ नहीं होती।
पुदुचेरी के बीचों बीच स्थित यह सरकारी पार्क यहां का सबसे खूबसूरत सार्वजनिक स्थान है। यहां का मुख्य आकर्षण पार्क के केंद्र में बना आयी मंडपम है। इस सफेद इमारत का निर्माण नेपोलियन तृतीय के शासन काल में किया गया था। यह ग्रीक-रोमन वास्तु शिल्प का उत्कृष्ट नमूना है। इस जगह का नाम महल में काम करने वाली एक महिला के नाम पर रखा गया था। उस महिला ने अपने घर के स्थान पर एक जलकुंड बनाया था। कभी नेपोलियन ने यहां का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई थी और वह इससे खुश होकर स्मारक का नाम आयी मंडपम रखा।
यह ऐतिहासिक जगह पुदुचेरी के ४ किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यह स्थानीय लोगों के रोमन कॉलोनियों के साथ व्यापार का प्रतीक है। यह व्यापार ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में होता था। यहां स्थानीय व्यापारी वाइन का आयात करते थे और इसके बदले में कपड़ा, बहुमूल्य रत्न और आभूषण निर्यात करते थे। अभी भी यहां १८वी. शताब्दी में निर्मित फ्रेंच जेसूट मिशन हाउस के खंडहर देखे जा सकते हैं। यह हाउस १७८३ में बंद कर दिया गया था।
आनंद रंगा पिल्लई महल
जब यहां फ्रांसीसी शासन था, तब आनंद रंगा पिल्लई पुदुचेरी के राज्यपाल थे। उनके द्वारा लिखीं डायरियां १८वीं शताब्दी के फ्रांस और भारत संबंधों के बारे में जानकारी देती हैं। यह महल दक्षिणी भाग पर बची हुई कुछ प्राचीन इमारतों में से एक है। इसका निर्माण १७३८ में किया गया था। इसका वास्तुशिल्प भारतीय और फ्रेंच शैली का अनूठा मिश्रण है।
डुप्लेक्स की प्रतिमा
फ्रेंकॉइस डुप्लेक्स पुदुचेरी के गवर्नर थे जो १७५४ तक इस पद पर रहे। १८७० में इनके द्वारा किए गए कार्यो को देखते हुए इन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने के उद्देश्य से दो प्रतिमाओं की स्थापना की गई थी। एक फ्रांस में और दूसरा पुदुचेरी में है। २.८८ मी. ऊंची ग्रेनाइट से निर्मित यह मूर्ति गौवर्ट एवेन्यू पर स्थित है।
श्री गोकिलंबल तिरुकामेश्वर मंदिर पुदुचेरी से १० किलोमीटर दूर है। दस दिवसीय ब्रह्मोत्सव के दौरान यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। यह ब्रह्मोत्सव मई-जून के बीच मनाया जाता है। इस उत्सव में मंदिर के १५ मी. ऊंचे रथ को खींचा जाता है। हजारों भक्तों द्वारा रथ खींचे जाने का दृश्य अदभूत होता है। पुदुचेरी के उपराज्यपाल भी इस यात्रा में भाग लेते हैं। सर्वधर्म समभाव की प्रतीक यह यात्रा फ्रेंच शासन काल के दौरान भी होती थी। उस समय गवर्नर फ्रेंच स्वयं इस रथ को खींचते थे। इसके अलावा यहां १० हैक्टेयर में फैली ऑस्टेरी झील है जहां पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं।
निकटवर्ती दर्शनीय स्थल
पुदुचेरी के उत्तर पश्चिम में स्थित विल्लुपुरम जिले में इस क्षेत्र का सबसे सुंदर और आकर्षक किला शिंजी है। ८०० फीट ऊंचा यह विशाल किला तीन पहाड़ियों (राजगिरी, कृष्णागिरी और चंद्रायन दुर्ग) तक फैला है। किले का मुख्य हिस्सा राजगिरी पहाड़ पर है जो तीनों पहाड़ों में से सबसे बड़ा है। किले के अंदर अन्नभंडार गृह, शस्त्रागार, टैंक और मंदिर है। इसका प्रवेश द्वार कल्याण महल के सामने है। लगभग ७०० मी. की ऊँचाई पर एक पुल है जो किले को अन्य इमारतों से जोड़ता है। इतनी ऊँचाई से नीचे शिंजी नगर को देखना रोमांचित कर देता है। उचित शुल्क देकर आप इस ऐतिहासिक किले को निकट से देख सकते हैं।
यह जगह पुदुचेरी के दक्षिण में राष्ट्रीय राजमार्ग ४५ए पर स्थित है। चिदम्बरम शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहां शिव की शुभनायक नटराज अवतार की पूजा होती हैं। इस मंदिर का निर्माण १०वीं से १४वीं शताब्दी के बीच हुआ था। कहा जाता है कि १०वीं शताब्दी में चोल राजा परांतका प्रथम ने इस मंदिर को सोने से ढक दिया था जिसके बाद सूरज की रोशनी में मंदिर जगमगाता रहता था। मंदिर में शिवजी की अक्ष लिंगम रूप में भी पूजा की जाती है।
नजदीकी हवाई अड्डा चैन्नई है जो भारत और दुनिया के प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
निकटतम रेल जंक्शन विल्लापुरम है जो चेन्नई और मदुरै/त्रिवेंद्रम से जुड़ा है।
राष्ट्रीय राजमार्ग ४५ के द्वारा पुदुचेरी जाया जा सकता है।
पांडिचेरी : संस्कृतियों का संगम (वेबदुनिया)
पाण्डिचेरी में फ्रांस
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
तमिल-भाषी देश व क्षेत्र
फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र |
अणु पदार्थ का वह छोटा कण है जो प्रकृति में स्वतंत्र अवस्था में पाया जाता है लेकिन रासायनिक प्रतिक्रिया में भाग नहीं ले सकता है। रसायन विज्ञान में अणु दो या दो से अधिक, एक ही प्रकार या अलग अलग प्रकार के परमाणुओं से मिलकर बना होता है। परमाणु मजबूत रसायनिक बंधन के कारण आपस में जुड़े रहते हैं और अणु का निर्माण करते हैं। अणु की संकल्पना ठोस, द्रव और गैस के लिये अलग अलग हो सकती है।
अणु पदार्थ के सबसे छोटे भाग को कहते हैं। यह कथन गैसो के लिये ज्यादा उपयुक्त है। उदाहरण के लिये, ऑक्सीजन गैस उसके स्वतन्त्र अणुओं का एक समूह है। द्रव और ठोस में अणु एक दूसरे से किसी ना किसी बन्धन में रहते हैं, इनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है। कई अणु एक दूसरे से जुडे होते हैं और एक अणु को अलग नहीं किया जा सकता है। अणु में कोई विद्युत आवेश नहीं होता है। अणु एक ही तत्त्व के परमाणु से मिलकर बने हो सकते हैं या अलग अलग तत्वों के परमाणु से मिलकर।
अन्य भाषाओँ में
अंग्रेज़ी में "अणु" को "मॉलीक्यूल" (मोलेकुले) कहते हैं।
अणु का विज्ञान आण्विक रसायन या आण्विक भौतिकी कहलाता है। विज्ञान की वह शाखा जिसमें अणु के निर्माण और विखंडन का अध्ययन किया जाता है उसे आण्विक रसायन विज्ञान कहा जाता है, जबकि विज्ञान की जिस शाखा में आण्विक संचरना से जुड़े सिद्धांतों और गुणों का अध्ययन किया जाता है उसे आण्विक भौतिकी कहा जाता है।
अणु का निर्माण
अणु पदार्थ के छोटे कण को कहते हैं जो परमाणु से मिलकर बना होता है।
इसे भी देखें
स्कूल ऑफ केमिस्ट्री, यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल |
श्री खाटू श्याम जी भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में एक प्रसिद्ध गांव है, जहाँ पर बाबा श्याम का विश्व विख्यात मंदिर है। यह मंदिर १०२७ ई॰ में रूपसिंह चौहान और नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया। इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के तीनों पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र बर्बरीक के सिर की पूजा होती है। जबकि बर्बरीक के शरीर की पूजा हरियाणा के हिसार जिले के एक छोटे से गांव स्याहड़वा में होती है।
हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी ने द्वापरयुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। बर्बरीक जी का शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। कथा के अनुसार एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर १०२७ ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
इन्हें भी देखें
रानी सती मन्दिर
राजस्थान में हिन्दू मन्दिर |
हिन्दुओं के प्राचीन धर्मग्रंथ रामायण के अनुसार रामायण की मुख्य पात्रा सीता का जन्म प्राचीन मिथिला की इसी नगरी में हुआ था।
ग्रन्थों के अनुसार प्राचीन मिथिला की राजधानी जनकपुरधाम ही थी। जनकपुरधाम नेपालमें स्थित है। जनकपुरधाम महत्वपूर्ण कुन्ड एवं सागरों के लिए प्रख्यात है।
जनकपुरधाम की प्रसिद्ध मन्दिर : जानकी मन्दिर, राम मन्दिर, संकटमोचन (हनुमान) मन्दिर, कुपेश्वरनाथ मन्दिर, कपिलेश्वरनाथ मन्दिर, विवाह मण्डप और अन्य छोटे बडे मन्दिर
प्रमुख धर्मशाला : गोपाल धर्मशाला
प्रमुख कुन्ड : धनुष सागर, गंगा सागर, अंगराज सर, मुरली सर, रत्न सागर, अग्नि कुण्ड, पापधौत सागर |
सुनील गावस्कर भारत के क्रिकेट के पूर्व-खिलाड़ी हैं। सुनील गावस्कर वर्तमान युग में क्रिकेट के महान बल्लेबाजों में गिने जाते हैं। इन्होंने बल्लेबाजी से संबंधित कई कीर्तिमान स्थापित किए। इनका जन्म १० जुलाई १९४९ को मुम्बई (महाराष्ट्र) में हुआ था। गावस्कर टेस्ट क्रिकेट में केवल छह बल्लेबाजों में से एक थे, जिनका बल्लेबाजी औसत ५० से अधिक था, जब उन्होंने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेला था, और टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण के बाद से उनका बल्लेबाजी औसत ५० से नीचे कभी नहीं गिरा।
उनकी पत्नी का नाम मार्शनील है। इनके पुत्र रोहन गावस्कर भी भारतीय क्रिकेट टीम में खेल चुके हैं।
इन्होंने बल्लेबाज़ी से संबंधित कई कीर्तिमान स्थापित किए। गावस्कर ने (अपने समय काल में) विश्व क्रिकेट में ३ बार, एक वर्ष में एक हज़ार रन, सर्वाधिक शतक (३4), सर्वाधिक रन (नौ हज़ार से अधिक), सर्वाधिक शतकीय भागेदारियाँ एवं प्रथम श्रृंखला में सर्वाधिक रन बनाने वाले एकमात्र बल्लेबाज थे। 'सनी' गावस्कर की हर पारी एवं रन ऐतिहासिक होते हैं। उन्होंने भारतीय टीम का कुशल नेतृत्व किया और कई महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त कीं, जिनमें 'एशिया कप' एवं 'बेसन एंण्ड हेजेस विश्वकप' (बेंसन & हजेस वर्ल्ड कप) प्रमुख है।
'क्रिकेट के आभूषण' कहे जाने वाले गावस्कर ने एक दिवसीय मैचों में भी अपनी टीम के लिए ठोस आधार प्रस्तुत किया है। वे १०० कैचों का कीर्तिमान भी इंग्लैंड में बना चुके हैं। १९८६ में उनके खेल जीवन का उत्तरार्द्ध होने के बाद भी उनके खेल में और निखार आया। अपने कॉलेज की ओर से क्रिकेट खेलते समय भी वे सबसे सफल बल्लेबाज माने जाते थे। १९७१ में उन्हें टैस्ट टीम के वेस्टइंडीज दौरे के लिए चुना गया था। सनी को विश्व का सर्वोपरी खिलाड़ी माना जाता है।
इन्हें १९८० में भारत सरकार द्वारा खेल जगत के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। भारत में सुनील गावस्कर को १९७५ में 'अर्जुन पुरस्कार' प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त कई देशों में उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। १९८० में ही वे 'विस्डेन' भी प्राप्त कर चुके हैं।
गावस्कर ने क्रिकेट से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखी हैं। जिनमें सनी डेज, आइडल्स, रंस एण्ड रूइंस तथा वन डे वंडर्स काफ़ी लोकप्रिय हुई हैं। आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी सुनील गावस्कर एक फ़िल्म में भी अभिनय कर चुके हैं।
सुनील गावस्कर के अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट शतकों की सूची
भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी
१९८० पद्म भूषण
१९४९ में जन्मे लोग
भारतीय क्रिकेट कप्तान
भारतीय टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी
भारतीय एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी
अर्जुन पुरस्कार के प्राप्तकर्ता |
देसी शब्द भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों, संस्कृतियों, उत्पादों और उनके प्रवास का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो संस्कृत शब्द "देश" से लिया गया है। देशी विशेष रूप से भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश के लोगों के लिए उपयुक्त होता है। |
जीरा (वानस्पतिक नाम:क्यूमिनम सायमिनम) ऍपियेशी परिवार का एक पुष्पीय पौधा है। यह पूर्वी भूमध्य सागर से लेकर भारत तक के क्षेत्र का देशज है। इसके प्रत्येक फल में स्थित एक बीज वाले बीजों को सुखाकर बहुत से खानपान व्यंजनों में साबुत या पिसा हुआ मसाले के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह दिखने में सौंफ की तरह होता है। संस्कृत में इसे जीरक कहा जाता है, जिसका अर्थ है, अन्न के जीर्ण होने में (पचने में) सहायता करने वाला।
"जीरा" संस्कृत भाषा के "जीरक" से आता है, अर्थात जो पचनक्रिया में सहाय करता है।
अंग्रेज़ी में "क्युमिन" शब्द की उत्पत्ति पुरातन अंग्रेज़ी के शब्द सायमैन या लैटिन भाषा के शब्द क्युमिनम, से हुई है। यह शब्द मूलतः यूनानी भाषा के (कुमीनों), के लातिनीकरण से बना है। इसका साथ यहूदी भाषा के (कॅम्मन) एवं अरबी भाषा के (कैम्मन) ने दिया है। इस शब्द के रूप का समर्थन कई प्राचीन भाषाओं के शब्द हैं, जैसे अक्कैडियाई भाषा में कमूनु,, सुमेरियाई भाषा में गैमुन। माईसेनियाइ यूनानी भाषा का शब्द (क्युमिनॉ) इसका प्राचीनतम उदाहरण है।
जीरा इसी नाम (जैविक नाम: क्युमिनम सायमिनम) के जैविक पौधे के बीज को कहा जाता है। यह पौधा पार्स्ले परिवार का सदस्य है। इसका पौधा की ऊंछाइ तक बढ़ता है और इसके फ़लों को हाथ से ही तोड़ा जाता है। यह वार्षिक फ़सल वाला मुलायम एवं चिकनी त्वचा वाला हर्बेशियस पौधा है। इसके तने में कई शाखाएं होती हैं एवं पौधा २०-३० सेंमी ऊंचा होता है। प्रत्येक शाखा की २-३ उपशाखाएं होती हैं एवं सभी शाखाएं समान ऊंचाई लेती हैं जिनसे ये छतरीनुमा आकार ले लेता है इसका तना गहरे हरे रंग का सलेटी आभा लिये हुए होता है। इन पर ५-१० सेंमी की धागे जैसे आकार की मुलायम पत्तियां होती हैं। इनके आगे श्वेत या हल्के गुलाबी वर्ण के छोटे-छोटे पुष्प अम्बेल आकार के होते हैं। प्रत्येक अम्बेल में ५-७ अम्ब्लेट होती हैं।
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जीरे की आरगैनिक खेती
जीरे की उन्नत खेती |
भाषा विज्ञान के आधार पर हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा है। नस्तालीक़ लिपि में लिखी गई हिन्दी भाषा को उर्दू कहा जाता है। उर्दू का स्वतन्त्र व्याकरण नहीं है। उर्दू ज़बान हिन्द आर्य भाषा है। उर्दू भाषा हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप मानी जाती है। उर्दू में संस्कृत के तत्सम शब्द न्यून हैं और अरबी-फ़ारसी और संस्कृत से तद्भव शब्द अधिक हैं। ये मुख्यतः दक्षिण एशिया में बोली जाती है। यह भारत की शासकीय भाषाओं में से एक है तथा पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है। इस के अतिरिक्त भारत के राज्य जम्मू और कश्मीर की मुख्य प्रशासनिक भाषा है। साथ ही तेलंगाना, दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश की अतिरिक्त शासकीयभाषा है।
'उर्दू' शब्द की व्युत्पत्ति
उर्दू नाम का प्रयोग सबसे पहले १७८० के आसपास कवि गुलाम हमदानी मुशाफी ने हिंदुस्तानी भाषा के लिए किया था। हालांकि उन्होंने ख़ुद भी भाषा को परिभाषित करने के लिए अपनी शायरी में हिंदवी शब्द का इस्तेमाल किया था। तुर्क भाषा में (ऑर्डू ओर्दू) का मतलब सेना होता है। १८वीं शताब्दी के अंत में, इसे ज़बाने उर्दूए मुअ़ल्ला के नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ है ऊंचे खेमे की भाषा। पहले इसे हिंदवी, हिंदी और हिंदोस्तानी के नाम से जाना जाता था।
१३वीं शताब्दी से १९वीं शताब्दी के अंत तक आज के उर्दू भाषा को हिन्दी हिन्दवी, हिंदोस्तानी के नाम से जाना जाता था।
मुहम्मद हुसैन आज़ाद, उर्दू की उत्पत्ति ब्रजभाषा से मानते हैं। 'आबे हयात' में वे लिखते हैं कि 'हमारी ज़बान ब्रजभाषा से निकली है।'
उर्दू में साहित्य का प्राङ्गण विशाल है। अमीर खुसरो उर्दू के आद्यकाल के कवियों में एक हैं। उर्दू-साहित्य के इतिहासकार वली औरंगाबादी (रचनाकाल १७०० ई. के बाद) के द्वारा उर्दू साहित्य में क्रान्तिकारक रचनाओं का आरम्भ हुआ। शाहजहाँ ने अपनी राजधानी, आगरा के स्थान पर, दिल्ली बनाई और अपने नाम पर सन् १६४८ ई. में शाहजहाँनाबाद वसाया, लालकिला बनाया। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके पश्चात राजदरबारों में फ़ारसी के साथ-साथ 'ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला' में भी रचनाएँ तीव्र होने लगीं। यह प्रमाण मिलता है कि शाहजहाँ के समय में पण्डित चन्द्रभान (ब्राह्मण)ने बाज़ारों में बोली जाने वाली इस जनभाषा को आधार बनाकर रचनाएँ कीं। ये फ़ारसी लिपि जानते थे। अपनी रचनाओं को इन्होंने फ़ारसी लिपि में लिखा। धीरे-धीरे दिल्ली के शाहजहाँनाबाद की उर्दू-ए-मुअल्ला का महत्त्व बढ़ने लगा।
भले ही आज उर्दू को एक अलग ज़ुबान की हैसियत मिला, लेकिन मश्हूर उर्दु लेखक और कातिबों ने १९ वीं सदी की पहली कुच दशकों तक अपनी ज़ुबान को हिन्दी या हिन्दवी के रूप पर शनाख़त करते आये है।
जैसे ग़ुलाम हमदान मुस्हफ़ी ने अपनी एक शायरी में लिखा -
और शायर मीर तक़ी मीर ने कहा है:-
उन्होंने दूसरी और एक जगह में लिखा -
भाषा तथा लिपि का भेद रहा है क्योंकि राज्यसभाओं की भाषा फ़ारसी थी तथा लिपि भी फ़ारसी थी। उन्होंने अपनी रचनाओं को जनता तक पहुँचाने के लिए भाषा तो जनता की अपना ली, लेकिन उन्हें फ़ारसी लिपि में लिखते रहे।
उर्दू भाषा का व्याकरण पूर्णतः हिन्दी भाषा के व्याकरण जैसा है तथा यह अनेक भारतीय भाषाओं से मेल खाता है।
उर्दू नस्तालीक़ लिपि में लिखी जाती है, जो फ़ारसी-अरबी लिपि का एक रूप है। उर्दू दाएँ से बाएँ लिखी जाती है।
उर्दू की उपभाषाएँ
मातृभाषा के स्तर पर उर्दू बोलने वालों की संख्या
भारत - ५.०७ करोड़
पाकिस्तान - १.८७ करोड़
बांग्लादेश - ६.५ लाख
संयुक्त अरब अमीरात - ६ लाख
ब्रिटेन - ४ लाख
सऊदी अरब - ३.८२ लाख
कनाडा - ८०८९५
क़तर - १५०००
फ़्रांस - १५ ०००
इन्हें भी देखें
"एक पृष्ठ में उर्दू पढ़ना सीखें" - हिन्दी मातृभाषियों के लिए एक पृष्ठ का लेख, जिसमें उर्दू लिखने-पढ़ने के नियम दिये गये हैं
उर्दू-हिन्दी शब्दकोश - यहाँ उर्दू शब्द और उनके अर्थ देवनागरी लिपि में दिये गये हैं।
उर्दू-हिन्दी कोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - बदरीनाथ कपूर)
भाषायी अस्मिता और हिन्दी (गूगल पुस्तक; लेखक - डॉ रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्यायें (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ रामविलास शर्मा)
उर्दू साहित्य कोश (गूगल पुस्तक ; लेखिका कमला नसीम)
भारत की भाषाएँ
पाकिस्तान की भाषाएँ हू तू |
हिन्द-आर्य भाषाएँ हिन्द-यूरोपीय भाषाओं की हिन्द-ईरानी शाखा की एक उपशाखा हैं, जिसे 'भारतीय उपशाखा' भी कहा जाता है। इनमें से अधिकतर भाषाएँ संस्कृत से जन्मी हैं। हिन्द-आर्य भाषाओं में आदि-हिन्द-यूरोपीय भाषा के घ् और ध् और भ् जैसे व्यंजन परिरक्षित हैं, जो अन्य शाखाओं में लुप्त हो गये हैं। इस समूह में यह भाषाएँ आती हैं : संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, बांग्ला, कश्मीरी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, रोमानी, असमिया, गुजराती, मराठी, इत्यादि।
शाखाएँ और उपशाखाएँ
गत दो शताब्दियों में भाषावैज्ञानिकों ने हिन्द-आर्य भाषाओं को कई प्रकार से वर्गीकृत करा है और यह व्यवस्थाएँ समय-समय पर बदलती रही हैं। आधुनिक काल में निम्न व्यवस्था अधिकतर भाषावैज्ञानिकों के लिए मान्य है और मसिका (१९९१) व काउसेन (२००६) के प्रयासों पर आधारित है।
कुछ उल्लेखनीय भाषाएँ हैं:
कश्मीरी, पाशाई, खोवार, शीना, कोहिस्तानी। यह मुख्य रूप से पश्चिमोत्तर भारत, उत्तरी पाकिस्तान और पूर्वोत्तरी अफ़्ग़ानिस्तान में बोली जाती हैं।
डोगरी-कांगड़ी (पश्चिमी पहाड़ी) डोगरी, कांगड़ी
पंजाबी दोआबी, लहन्दा, सराइकी, हिन्दको, माझी, मालवाई
राजस्थानी मारवाड़ी, राजस्थान, हाड़ौती
मध्य क्षेत्र (हिन्दी)
पश्चिमी हिन्दी हिन्दुस्तानी, हरियाणवी, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी
पूर्वी हिन्दी अवधी, फ़ीजी हिन्दी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
डोमारीरोमानी और पर्या ऐतिहासिक रूप से मध्य क्षेत्र की सदस्य थी लेकिन भौगोलिक दूरी के कारण उनमें कई व्याकरणीय और शाब्दिक बदलाव आए हैं।
पूर्वी क्षेत्र (मगधी)
यह भाषाएँ मगधी अपभ्रंश से विकसित हुई हैं।
बिहारी भोजपुरी, मगही, मैथिली, कैरेबियाई हिंदुस्तानी, अंगिका, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुरमाली
बंगाली-असामिया असमिया, बाङ्ला, बिष्णुप्रिया मणिपुरी, रोहिंग्या
यह भाषाएँ महाराष्ट्री प्राकृत से विकसित हुई हैं।
द्वीपीय हिन्द-आर्य सिंहली, मालदीवी (मह्ल, दिवेही)
इन द्वीपीय भाषाएँ में कुछ आपसी समानताएँ हैं जो मुख्यभूमि की हिन्द-आर्य भाषाओं में उपस्थित नहीं हैं।
निम्नलिखित भाषाएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं लेकिन हिन्द-आर्य परिवार में इनका वर्ग अभी श्रेणीकृत नहीं हो पाया है:
दनुवार (राय), बोट, दरइ
चिनाली, लाहुल लोहार
निम्नलिखित भाषाओं पर अधिक अध्ययन नहीं हुआ है और ऍथ्नोलॉग १७ में इन्हें हिन्द-आर्य में अवर्गीकृत लिखा गया है:
कंजरी (पंजाबी?), ओड (मराठी?), वागड़ी बूली (हक्कीपिक्की), आंध, कुमहाली, सोन्हा (शायद मध्य क्षेत्र की हो)।
खोलोसी भाषा हाल ही में दक्षिणी ईरान के दो गाँवों में बोली जाती मिली है और यह स्पष्ट रूप से एक हिन्द-आर्य भाषा है लेकिन अभी वर्गीकृत नहीं करी गई है।
इन्हें भी देखें
हिन्द-आर्य भाषाओं की सूची
हिन्द ईरानी भाषाएँ
हिन्द-आर्य भाषाओं का तुलनात्मक शब्दकोष
भारत की भाषाएँ |
हिन्द ईरानी शाखा हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की एक शाखा है। ये सातम वर्ग के अन्दर आती है। इसकी दो उपशाखाएँ हैं :
हिन्द आर्य उपशाखा : जो भाषाएँ संस्कृत से जन्मी हैं, जैसे हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, रोमानी, मराठी, कश्मीरी, आदि।
ईरानी उपशाखा : इस उपशाखा की प्राचीनतम भाषाएँ हैं अवस्ताई (पारसियों की धर्मभाषा) और प्राचीन फ़ारसी। इनसे जन्मी भाषाएँ हैं फ़ारसी, बलोची, दरी, पश्तो, कुर्दी इत्यादि।
इस परिवार में सभी भाषाओं के सामान्य पूर्वज को प्रोटो-इंडो-ईरानी कहा जाता है - जिसे सामान्य आर्य भी कहा जाता है - जो लगभग तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में बोली जाती थी। आधुनिक इंडो-ईरानी भाषाओं की तीन शाखाएं इंडो-आर्यन, ईरानी और नूरिस्तानी हैं। एक चौथी स्वतंत्र शाखा, डार्डिक, को पहले रखा गया था, लेकिन हाल ही में सामान्य स्थानों में छात्रवृत्ति भारतीय-आर्यन शाखा के पुरातन सदस्यों के रूप में डार्डिक भाषाओं को स्थापित करती है। |
अरबी भाषा सामी भाषा परिवार की एक भाषा है। ये हिन्द यूरोपीय परिवार की भाषाओं से मुख़्तलिफ़ है, यहाँ तक कि फ़ारसी से भी। ये इब्रानी भाषा से सम्बन्धित है। अरबी इस्लाम धर्म की धर्मभाषा है, जिसमें क़ुरान-ए-शरीफ़ लिखी गयी है।
अरब कई देशों की राजभाषा है, जैसे सउदी अरब, लेबनान, सीरिया, यमन, मिस्र, जॉर्डन, इराक़, अल्जीरिया, लीबिया, सूडान, क़तर, ट्यूनिशिया, मोरक्को, माली इत्यादि। दुनिया की सारी भाषाए
अरबी भाषा को अरबी लिपि में लिखा जाता है। ये दाएँ से बाएँ लिखी जाती है। इसकी कई ध्वनियाँ उर्दू की ध्वनियों से अलग हैं। हर एक स्वर या व्यंजन के लिये (जो अरबी भाषा में प्रयुक्त होता है)
इन्हें भी देखें
अरबी-हिन्दी कोश (केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय)
विश्व की प्रमुख भाषाएं |
गंगोत्री (गंगोत्री) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी ज़िले में स्थित एक नगर व प्रमुख हिन्दू तीर्थस्थल है। गंगोत्री नगर से १९ किमी दूर गोमुख है, जो गंगोत्री हिमानी का अन्तिम छोर है और गंगा नदी का उद्गम स्थान है।
गंगोत्री का गंगाजी मंदिर, समुद्र तल से ३०४२ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है। यह स्थान उत्तरकाशी से १०० किमी की दूरी पर स्थित है। गंगा मैया के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा १८ वी शताब्दी के शुरूआत में किया गया था वर्तमान मंदिर का पुननिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया था। प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनो के बीच पतित पावनी गंगा मैंया के दर्शन करने के लिए लाखो श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते है। यमुनोत्री की ही तरह गंगोत्री का पतित पावन मंदिर भी अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खुलता है और दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद होते है।
पौराणिक कथाओ के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी। इस पवित्र शिलाखंड के निकट ही १८ वी शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण किया गया। ऐसी मान्यता है कि देवी भागीरथी ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। ऐसी भी मान्यता है कि पांडवो ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गये अपने परिजनो की आत्मिक शांति के निमित इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यह पवित्र एवं उत्कृष्ठ मंदिर सफेद ग्रेनाइट के चमकदार २० फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। दर्शक मंदिर की भव्यता एवं शुचिता देखकर सम्मोहित हुए बिना नहीं रहते।
शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। यह दृश्य अत्यधिक मनोहार एवं आकर्षक है। इसके देखने से दैवी शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पौराणिक आख्यानो के अनुसार, भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओ को फैला कर बैठ गए और उन्होने गंगा माता को अपनी घुंघराली जटाओ में लपेट दिया। शीतकाल के आरंभ में जब गंगा का स्तर काफी अधिक नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उक्त पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते है।
गंगोत्री शहर धीरे-धीरे उस मंदिर के इर्द-गिर्द विकसित हुआ जिसका इतिहास १२०० वर्ष पुराना हैं, इसके पहले भी अनजाने कई सदियों से यह मंदिर हिदुओं के लिये आध्यात्मिक प्रेरणा का श्रोत रहा है। चूंकि पुराने काल में चारधामों की तीर्थयात्रा पैदल हुआ करती थी तथा उन दिनों इसकी चढ़ाई दुर्गम थी इसलिये वर्ष १९८० के दशक में गंगोत्री की सड़क बनी और तब से इस शहर का विकास द्रुत गति से हुआ।
गंगोत्री शहर तथा मंदिर का इतिहास अभिन्न रूप से जुड़ा है। प्राचीन काल में यहां मंदिर नहीं था।गंगोत्री में सेमवाल पुजारियों के द्वारा गंगा माँ के साकार रूप यानी गंगा धारा की पूजा की जाती थी भागीरथी शिला के निकट एक मंच था जहां यात्रा मौसम के तीन-चार महीनों के लिये देवी-देताओं की मूर्तियां रखी जाती थी इन मूर्तियों को मुखबा आदि गावों से लाया जाता था जिन्हें यात्रा मौसम के बाद फिर उन्हीं गांवों में लौटा दिया जाता था।
गढ़वाल के गुरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने १८वीं सदी में गंगोत्री मंदिर का निर्माण सेमवाल पुजारियों केेे निवेदन पर उसी जगह जहां भागीरथ ने तप किया था। माना जाता है कि जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने २०वीं सदी में मंदिर की मरम्मत करवायी।
ई.टी. एटकिंस ने दी हिमालयन गजेटियर (वोल्युम ई भाग ई, वर्ष १८८२) में लिखा है कि अंग्रेजों के टकनौर शासनकाल में गंगोत्री प्रशासनिक इकाई पट्टी तथा परगने का एक भाग था। वह उसी मंदिर के ढांचे का वर्णन करता है जो आज है। एटकिंस आगे बताते हैं कि मंदिर परिवेश के अंदर कार्यकारी ब्राह्मण (पुजारी) के लिये एक छोटा घर था तथा बाहर तीर्थयात्रियों के लिये लकड़ी का छायादार ढांचा था।
ग्रीष्म- दिन के समय सुहावना तथा रात में समय सर्द। न्यूनतम तापमान ६ सें. तथा अधिकतम २० सें
शीतकाल- सितंबर से नवंबर तक दिन के समय सुहावना, रात के समय अधिक ठंडा। दिसंबर से मार्च तक हिमाच्छादित। तापमान शून्य से कम
गंगोत्री अवस्था को एक नाम दिया जा सकता है- प्रेरणात्मक। नाटकीय परिदृश्यों में शामिल हैं ऊंचे बर्फीले शिखर जिसकी पृष्ठभूमि में हैं गहरी गढ़ी घाटियां जहां सिरों एवं देवदार के पेड़ों के बीच झिलमिलाती नदियों का आगमन होता है। यह भौतिक दृश्य एक जादू बिखेरता है। सदियों से यह लाखों तीर्थयात्रियों को आध्यात्मिक उत्साह तथा हजारों साहसिकों को एक चिरन्तर चुनौती देता रहा है।
समुद्र तल से ३,१४० मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर भोज वृक्षों से घिरा तथा किनारे पर खड़े पर्वत की शिवलिंग, सतोपंथ जैसी चोटियों के साथ देवदार जंगल के बीच एक सुंदर घाटी है। भागीरथी घाटी के बाहर निकलकर केदारगंगा तथा भागीरथी के कोलाहल को छोड़कर जल गंगा से मिल जाती है, इस सुंदर घाटी के अंत में मंदिर है।
इस क्षेत्र में वनस्पतियों की विशाल प्रजातियां है। हिमालय का बलूत सर्वाधिक प्रमुख है। अन्य में शामिल हैं बुरांस, सफेद सरो (एवीज पींड्रो), स्वच्छ पेड़ (पाईसिया स्मिल बियाना), सदाबहार पेड़ (साईप्रेसस तरूलोस) तथा नीले देवदार आदि हैं। जब बलूत के पेड़ विलीन हो रहे होते है तो पैंगर (एसक्युलस ईडिका), कबासी (कोरिलस जैकुमोंटी), कंजुला (एसर कैसियम) तथा रींगाल (जानसेरेसिंस) इसकी जगह आ जाते हैं। परर्णांग, विसर्पी पौधे तथा शैवाक की यहां बहुतायत है।
इस क्षेत्र में पाये जाने वाले सामान्य जीव-जंतुओं में हैं लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, सामान्य लोमड़ी, चीते, बर्फीले चीते, भोंकते हिरण सांभर, कस्तूरी मृग, सेरो, बरड़ मृग, साही, तहर आदि। विभिन्न रंगों की तितलियां तथा कीटें भी यहां पायी जाती हैं।
गढ़वाल क्षेत्र रंगीन एवं संगीतमय जीव-जंतुओं से भरा पड़ा हैं। हिमालयी सीटी बजाती सारिकाएं, स्वणिर्म किरीटधारी, पाश्चात्य रंग-विरंगे हैंसोड़, साखिएं मोनाल एवं कोकल तीतर, चक
वेश-भूषा- अप्रैल से जुलाई तक हल्के ऊनी वस्त्र तथा सितंबर से नवंबर तक भारी ऊनी वस्त्र
तीर्थ-यात्रा का समय- अप्रैल से नवंबर तक
भाषा- हिन्दी, अंग्रेजी तथा गढवाली।
आवास- गंगोत्री तथा यात्रा मार्ग में समस्त प्रमुख स्थानो पर जीएमवीएन यात्री विश्राम गृह, निजी विश्राम गृह तथा धर्मशालाएं
यहाँ पर स्थानीय लोग सेमवाल जाती के ब्रह्म भारद्वाज गौत्र के ब्राह्मण है जो गंगोत्री मंदिर के पुजारी भी है, ये यहा पर ९ वीं शताब्दी से यहां पर ही रहते हैं ओर शीतकालीन माह के समय मुखबा गांव में आ जाते हैं
गंगोत्री से १९ किलोमीटर दूर३,८९२ मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है। चढ़ाई उतनी कठिन नहीं है तथा कई लोग उसी दिन वापस भी आ जाते है। गंगोत्री में कुली एवं ट्ट्टु उपलब्ध होते हैं। २५ किलोमीटर लंबा, ४ किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग ४0 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गौमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी वर्फानी नदी में पानी ५,००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है।
भागीरथी के अलावा इस गांव के निवासी ही गंगोत्री मंदिर के पुजारी हैं जहां मुखीमठ मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष दीवाली में जब गंगोत्री मंदिर बंद होने पर जाड़ों में देवी गंगा को एक बाजे एवं जुलुस के साथ इस गांव में लाया जाता है। इसी जगह जाड़ों के ६ महीनों, बसंत आने तक गंगा की पूजा होती है जब प्रतिमा को गंगोत्री वापस लाया जाता है। केदार खंड में मुख्यमठ की तीर्थयात्रा को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे सटा है मार्कण्डेयपुरी जहां मार्कण्डेय मुनि के तप किया तथा उन्हें भगवान विष्णु द्वारा सृष्टि के विनाश का दर्शन कराया गया। किंबदन्ती अनुसार इसी प्रकार से मातंग ऋषि ने वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये यहां तप किया।
धाराली से १६ किलोमीटर तथा गंगोत्री से ९ किलोमीटर। भैरों घाटी, जध जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। यहां तेज बहाव से भागीरथी गहरी घाटियों में बहती है, जिसकी आवाज कानों में गर्जती है। वर्ष 1९85 से पहले जब संसार के सर्वोच्च जाधगंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं।
भटवारी से ४३ किलोमीटर तथा गंगोत्री से २० किलोमीटर दूर स्थितहर्षिल का वर्णन सिर्फ एक वाक्य में हो सकता हैः आर्श्ययजनक। यह हिमाचल प्रदेश के बस्पा घाटी के ऊपर स्थित एक बड़े पर्वत की छाया में, भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में अवस्थित है। बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है। मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है। यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मीठे सेब के लिये मशहूर है। हर्षिल के आकर्षण में हवादार एवं छाया युक्त सड़क, लंबे कगार, ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, सुनहले तथा हरे चारागाह आदि शामिल हैं।
गंगोत्री से २५ किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक में नंदनवन ले जाती है जो भागीरथी चोटी के आधार (बस) शिविर गंगोत्री से २५ किलोमीटर दूर है।
यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो यहां अपने सुंदर चारागाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के आधार के चारों तरफ फैला है।
(दूरीः ९ किलोमीटर, समयः ३-४ घंटे)
गौमुख के रास्ते पर ३,६०० फीट ऊंचे स्थान पर स्थित चिरबासा एक अत्युत्तम शिविर स्थल (केम्प स्पॉट) है जो विशाल गौमुख ग्लेशियर का आश्चर्यजनक दर्शन कराता है। चिरबासा का अर्थ है चिर का पेड़। यहां से आप ६,५११ मीटर ऊंचा मांडा चोटी, ५,३६६ मीटर पर हनुमान तिब्बा, ६,००० मीटर ऊंचा भृगु पर्वत तथा भागीरथी ई, ई, एवं ई देख सकते हैं। चिरबासा की पहाड़ियों के ऊपर घूमते भेड़ों को देखा जा सकता है।
(दूरीः १४ किलोमीटर, समयः६-७ घंटे)
भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण भोजबासा गंगोत्री से १४ किलोमीटर दूर है। यह जाट गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है। गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। मूल रूप से लाल बाबा द्वारा निर्मित एक आश्रम में मुफ्त भोजन का लंगर चलाता है तथा गढ़वाल मंडल विकास निगम का गृह, आवास प्रदान करता है। रास्ते में आप किंवदन्त धार्मिक फूल ब्रह्मकमल देख सकते है जो ब्रह्मा का आसन है।
गंगोत्री से १४ किलोमीटर दूर
इस मनोरम झील तक की चढ़ाई में अनुभवी आरोहियों (ट्रेकर्स) की भी परीक्षा होती है। बहुत ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों पर चढ़ने के लिये एक मार्गदर्शक की नितांत आवश्यकता होती है। रास्ते में किसी प्रकार की सुविधा नहीं है इसलिये सब कुछ पहले प्रबन्ध करना होता है। झील पूर्ण साफ है, जहां विशाल थलयसागर चोटी है। यह स्थान समुद्र तल से १५,००० फीट ऊंचा है तथा थलयसागर जोगिन, भृगुपंथ तथा अन्य चोटियों पर चढ़ने के लिये यह आधार शिविर है। जून-अक्टुबर के बीच आना सर्वोत्तम समय है। केदार ग्लेशियर के पिघलते बर्फ से बनी यह झील भागीरथी की सहायक केदार गंगा का उद्गम स्थल है, जिसे भगवान शिव द्वारा भागीदारी को दान मानते हैं। चढ़ाई थोड़ी कठिन जरूर है पर इस स्थान का सौदर्य आपकी थकावट दूर करने के लिये काफी है।
जब सर्दी प्रारंभ होती है, देवी गंगा अपने निवास स्थान मुखबा गांव चली जाती है। वह अक्षय द्वितीया के दिन वापस आती है। उसके दूसरे दिन अक्षय तृतीया, जो प्रायः अप्रैल महीने के दूसरे पखवाड़े में पड़ता है, हिन्दु कैलेण्डर का अति पवित्र दिन होता है। इस समय बर्फ एवं ग्लेशियर का पिघलना शुरू हो जाता है तथा गंगोत्री मंदिर पूजा के लिए खुल जाते हैं। देवी गंगा के गंगोत्री वापस लौटने की यात्रा को पारम्परिक रीति-रिवाजों, संगीत, नृत्य, जुलुस तथा पूजा-पाठ के उत्सव के साथ मनाया जाता है। इस यात्रा का रिकार्ड इतिहास कम से कम ७०० वर्ष पुराना है और इस बात की कोई जानकारी नहीं कि इससे पहले कितनी सदियों से यह यात्रा मनायी जाती है। मुखबा, मतंग ऋषि के तपस्या स्थान के रूप में जाना जाता है। इस यात्रा के तीन या चार दिनों पहले मुखबा गांव के लोग तैयारियां शुरू कर देते हैं। गंगा की मूर्त्ति को ले जाने वाली पालकी को हरे और लाल रंग के रंगीन कपड़ो से सजाया जाता है। जेवरातों से सुसज्जित कर गंगा की मूर्त्ति को पालकी के सिंहासन पर विराजमान करते हैं। पूरा गांव गंगात्री तक की २५ किलोमीटर की यात्रा में शामिल होते हैं। भक्तगण गंगा से अगले वर्ष पुनः वापस आने की प्रार्थना कर ही जुलुस से विदा लेते हैं। जुलुस के शुरू होने से पहले बर्षा होना जो प्रायः होती है मंगलकारी होने का शुभ संकेत हैं।
जुलुस में पास के गांव से भी देवी गंगा के साथ अन्य देवी देवताओं की डोली शामिल होती हैं। उनमें से कुछ अपने क्षेत्र की सीमा तक साथ रहते हैं। सोमेश्वर देवता भी पालकी में सुसज्जित होकर शामिल होते हैं। गंगा औऱ सोमेश्वर देवता का मिलन अधिकाधिक उत्सव का संकेत हैं। लोग दोने देवताओं की प्रतिमा को साथ में लेकर स्थानीय संगीत के धुन में नाचते एवं थिरकते चलते हैं। जब दोनों पालकी की यात्रा शुरू होती है तो इस जुलुस में सोमेश्वर देवता की अगुआनी। नेतृत्व में गढ़वाल स्काउट (आर्मी बेण्ड) पारम्परिक रीति-रिवाजों में भाग लेते हैं तथा पारम्परिक संगीत बजाते हैं। रास्ते में लोग देवी-देवताओ की पूजा करते हैं तथा भक्तगणों को जलपान मुहैया कर उन्हें मदद करते हैं। धराली गांव की सीमा पर, सोमेश्वर देवता की यात्रा समाप्त होती है तथा गंगा अपनी यात्रा जारी रखती हैं। यात्रा के दूसरे दिन यह जुलुस गंगात्री पहुंचता हैं तथा भक्तगण देवी गंगा के आगमन एवं स्वागत की प्रतिक्षा कर रहे होता हैं। विस्तृत रीति-रिवाजों तथा पूजा-पाठ के बाद मंदिर के दरबाजे खोले जाते हैं और गंगा की प्रतिमा को मंदिर में स्थापित किया जाता हैं। इसके साथ ही गंगात्री मंदिर के दरबाजे पुनः लोगों के पूजा-पाठ के लिए खोल दिये जाते हैं। इसी प्रकार जब बर्फ जमना शुरू होने और यात्रा सीजन समाप्त होने पर पारम्परिक रीति-रिवाजों तथा उत्सव के साथ देवी गंगा वापस मुखबा गांव वापस चली जाती हैं।
वायुमार्ग- देहरादून स्थित जौलीग्रांट निकटतम हवाई अड्डा है। दूरी २२६ किमी है।
सड़क मार्ग- गंगोत्री ऋषिकेश से बस, कार अथवा टैक्सी द्वारा पहुंचा जा सकता है। यह मार्ग २५९ किमी है। गंगोत्री से यमुनोत्री में फूलचट्टी तक की दूरी ८ किमी है तथा बस, कार अथवा टैक्सी द्वारा गंगोत्री तक की दूरी २२९ किमी है।
मार्ग संख्या १ बी- यमुनोत्री से गंगोत्री (२३७ किमी) यमुनोत्री (५ किमी पैदल), जानकीचट्टी (३ किमी पैदल), फूलचट्टी (२ किमी पैदल) बनास (३ किमी) हनुमानचट्टी (३ किमी), राणाचट्टी (५ किमी), सयानाचट्टी (१२ किमी) कुथनूर (१५ किमी), गंगनाणी (९ किमी), बडकोट (५8 किमी), धरासू, ३(१६ किमी), नकुरी (१२ किमी), उत्तरकाशी (५ किमी), गंगोरी (३ किमी), नेताला (६ किमी), मनेरी (१4 किमी), भटवाडी (१३ किमी), गंगनाणी (१९ किमी) सूखी धार (१२ किमी), हरसिल (११ किमी), लंका (२ किमी), भैरोघाटी (९ किमी), गंगोत्री।
मार्ग संख्या २ बी- हरिद्वार/ऋषिकेश से गंगोत्री (२83 किमी)/ऋषिकेश से गंगोत्री (२59 किमी)
हरिद्वार (२४ किमी), ऋषिकेश (१६ किमी), नरेंद्रनगर (४५ किमी), चंबा (टिहैंरी गढवाल) (३१ किमी), दोबाटा (नई टिहैंरी होकर) (४० किमी), धरासू (१९ किमी), नकुरी (१२ किमी), उत्तरकाशी, उत्तरकाशी से गंगोत्री (९६ किमी), मार्ग
इन्हें भी देखें
उत्तराखण्ड के नगर
उत्तरकाशी ज़िले के नगर
उत्तराखण्ड के तीर्थ
भारत के तीर्थ |
भारतीय कानून, ब्रितानी कानून पर आधारित है। अंग्रेज़ो ने इसे पहली बार अपने शासनकाल के दौरान लागू किया। अंग्रेज़ो द्वारा लागू किये कई अधिनियम (एक्ट्स) और अध्यादेश (ऑर्डीनांस) आज भी प्रभावशील हैं।
भारतीय संविधान के लेखन के दौरान इसमें आयरलैंड, संयुक्त राज्य अमेरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के कानूनों को समाहित (सिन्थेसिज) किया गया था। भारतीय कानून, संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार और वातावरण संम्बधी दिशानिर्देशों के अनुरूप है। इसमें कुछ अंतरराष्ट्रीय कानूनों, जैसे बौधिक अधिकारों आदि, को भारत में लागू किया गया है।
भारतीय नागरिक कानून (इंडियन सिविल लॉ) एक जटिल कानून है जिसमें प्रत्येक धर्म-विशेष के अपने कानून हैं। अधिकांश राज्यों में विवाह और तलाक के लिए पंजीकरण आवश्यक नहीं है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख व अन्य धर्मों के अपने कानून हैं। इसका अकेला अपवाद गोवा राज्य है जहां पुर्तगाली समान नागरिक संहिता प्रभावी है और सभी धर्मों के लिए विवाह, तलाक और (बच्चा) गोद लेने सम्बंधी एक जैसे कानून हैं
भारतीय दण्ड संहिता
भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, १८७२
भारत में मानवाधिकार
समान नागरिक संहिता
भारतीय श्रम कानून
भारतीय विधि आयोग |
यह लेख गणित के आधुनिक उपविषय बीजगणित (अल्जेब्रा) के बारे में है। भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ के लिए बीजगणित (संस्कृत ग्रन्थ) देखें।
बीजगणित (अल्जेब्रा) गणित के व्यापक विभागों में से एक है। संख्या सिद्धांत, ज्यामिति और विश्लेषण आदि गणित के अन्य बड़े विभाग हैं। अपने सबसे सामान्य रूप में, बीजगणित गणितीय प्रतीकों और इन प्रतीकों में हेरफेर करने के नियमों का अध्ययन है। बीजगणित लगभग सम्पूर्ण गणित को एक सूत्र में पिरोने वाला विषय है। आरम्भिक समीकरण हल करने से लेकर समूह (ग्रुप्स), रिंग और फिल्ड का अध्ययन जैसे अमूर्त संकल्पनाओं का अध्ययन आदि अनेकानेक चीजें बीजगणित के अन्तर्गत आ जातीं हैं। बीजगणित के प्रगत अमूर्त भाग को अमूर्त बीजगणित कहते हैं।
गणित, विज्ञान, इंजीनियरी ही नहीं चिकित्साशास्त्र और अर्थशास्त्र के लिए भी आरम्भिक बीजगणित अपरिहार्य माना जाता है। आरम्भिक बीजगणित, अंकगणित से इस मामले में अलग है कि यह सीधे संख्याओं का प्रयोग करने के बजाय उनके स्थान पर अक्षरों का प्रयोग करता है जो या तो अज्ञात होतीं हैं या जो अनेक मान धारण कर सकतीं हैं।
बीजगणित चर तथा अचर राशियों के समीकरण को हल करने तथा चर राशियों के मान निकालने पर आधारित है। बीजगणित के विकास के फलस्वरूप निर्देशांक ज्यामिति व कैलकुलस का विकास हुआ जिससे गणित की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी। इससे विज्ञान और तकनीकी के विकास को गति मिली।
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने कहा है -
पूर्व प्रोक्तं व्यक्तमव्यक्तं वीजं प्रायः प्रश्नानोविनऽव्यक्त युक्तया।
ज्ञातुं शक्या मन्धीमिर्नितान्तः यस्मान्तस्यद्विच्मि वीज क्रियां च।
अर्थात् मन्दबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है।
बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परन्तु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे
क्ष = ल क्स च
बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारम्भ हुआ है; परन्तु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से २००० वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से ३०० वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे।
मोटे अर्थ में बीजगणित, गणित की उस शाखा को कहते हैं जिसमें संख्याओं के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों का विवेचन सामान्य प्रतीकों (सिम्बॉल्स) द्वारा किया जाता है। ये प्रतीक अधिकांशतः अक्षर (आ, ब, च,...,क्स, य, ज़) और संक्रिया चिह्न (ओपरेशन सिगन्स) (+, -, *,...) और संबंधसूचक चिह्न (=, > , <...) होते हैं। उदाहरणत:, क्स२ +३क्स = २8 का अर्थ है, 'कोई ऐसी संख्या क्स है, जिसके वर्ग में यदि उसका तीन गुना जोड़ दिया जाए, तो फल २8 मिलता है। बीजगणितीय प्रतीकों और संख्याओं का उपयोग न केवल गणित में किन्तु विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में होने लगा है। व्यापक अर्थ में बीजगणित में निम्नलिखित विषयों का विवेचन सम्मिलित होता है :
बीजगणित की शाखाएँ तथा क्षेत्र
आज बीजगणित में केवल समीकरणों का ही समावेश नहीं होता, इसमें बहुपद, वितत भिन्न, अनन्त गुणनफल, संख्या अनुक्रम, समघात या रूप (फॉर्म), नए प्रकार की संख्याएँ जैसे संख्यायुग्म, सारणिक आदि अनेक प्रकरणों का अध्ययन किया जाता है।
बीजगणित को प्रायः निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
प्रारम्भिक बीजगणित (एलमंटरी अल्जेब्रा) यह प्रायः स्कूलों में 'बीजगणित' के नाम से पढ़ाया जाता है। विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाया जाने वाला 'ग्रुप सिद्धान्त' भी प्रारम्भिक बीजगणित कहा जा सकता है।
अमूर्त बीजगणित (अबस्ट्रैक्ट अल्जेब्रा) - इसे कभी-कभी 'आधुनिक बीजगणित' भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत ग्रुप्स, रिंग्स, फिल्ड्स आदि बीजगणितीय संरचनाएँ इसके अन्तर्गत सिखाई जाती हैं।
रैखिक बीजगणित (लाइन्यर अल्जेब्रा) - इसमें सदिश स्पेस के गुणों का अध्ययन किया जाता है। मैट्रिक्स भी इसी के अन्तर्गत आता है।
सर्वविषयक बीजगणित (यूनिवर्सल अल्जेब्रा) - इसमें सभी प्रकार के बीजगणितीय संरचनाओं (अल्जेब्रैक स्ट्रक्टर्) के सर्वनिष्ट (कॉमन) गुणों का अध्ययन किया जाता है।
बीजगणितिय संख्या सिद्धांत (अल्जेब्रैक नंबर थ्योरी) - इसमें संख्याओं के गुणों का अध्ययन बीजगणितीय पद्धति से किया जाता है। संख्या सिद्धान्त ने ही बीजगणित में अमूर्तिकरन का बीज बोया।
बीजगणितीय ज्यामिति (अल्जेब्रैक ज्यामेटी) - यह ज्यामितीय समस्याओं पर अमूर्त बिजगणित का प्रयोग करती है।
बीजगणितीय संयोजिकी (अल्जेब्रैक कॉम्बिनेटोरिक्स) - इसके अन्तर्गत संयोजिकी (क्रमचय-संचय) के प्रश्नों के हल के लिये अमूर्त बीजगणित का प्रयोग किया जाता है।
बीजगणित की उत्पत्ति प्राचीन बेबीलोनियों के लिए खोजी जा सकती है, जिन्होंने एक स्थितीय संख्या प्रणाली विकसित की जिसने उन्हें उनके आलंकारिक बीजगणितीय समीकरणों को हल करने में बहुत मदद की।प्राचीन ग्रीस के गणितज्ञों ने एक ज्यामितीय प्रकार का बीजगणित बनाकर एक महत्वपूर्ण परिवर्तन पेश किया, जहां "शब्दों" को "ज्यामितीय वस्तुओं के किनारों" द्वारा दर्शाया गया था, आमतौर पर वे रेखाएं जिनसे वे अक्षरों को जोड़ते थे। हेलेनिक गणितज्ञ हीरो ऑफ अलेक्जेंड्रिया और डायोफैंटस के साथ-साथ ब्रह्मगुप्त जैसे भारतीय गणितज्ञों ने मिस्र और बेबीलोनिया की परंपराओं का पालन किया, हालांकि डायोफैंटस की अरिथमेटिका और ब्रह्मगुप्त की ब्रह्मस्फुटसिद्धांत बहुत उच्च विकास के स्तर पर हैं। ८२५ ई. के आसपास मुहम्मद इब्नमूसा अल ख्वारिज़्मी ने बगदाद में अपने एक ग्रंथ का नाम "अलजब्र व अल मुकाबला" रखा। 'अलजब्र' अरबी का शब्द है तथा 'मुकाबला' फारसी का, और दोनों का अर्थ समीकरण या उससे संबंधित है। इस महत्वपूर्ण ग्रंथ के नाम पर ही यूरोप में इस विषय का नाम ऐलजेबरा (अल्जेब्रा) पड़ा। चीनी भाषा में इसके लिए ट्मैन-यूँ (अर्थात् दैवी अवयव), जापानी में किगेनसी हो (अर्थात् अज्ञातबोधी), इतालवी में आर्स मेग्ना (अर्थात् महान कला) प्रयुक्त हुआ। इनके अतिरिक्त भी अन्य नाम हैं, जो विषय की पुरातनता के द्योतक हैं।में १२वीं शताब्दी में भास्कर ने भी बीजगणित पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की।
यदि समस्यासाधन हेतु वैज्ञानिक ढंग से की गई अटकलबाजी को मान्यता देना स्वीकार हो, तो २,००० वर्ष ई. पू. और उससे भी पहले बीजगणित के प्रादुर्भाव का संकेत मिलता है। यदि शब्दगत समीकरण व्याख्या को और धनमूल वाले सरल समीकरणों के ज्यामितीय आरेखों पर अवलंबित हल को मान्यता दी जाए, तो कहना होगा कि ३०० ई. पू. में यूक्लिड और ऐलेक्ज़ेंड्रिया स्कूल को बीजगणित का ज्ञान था। १६वीं शताब्दी में मुद्रण कला के विकास और रुडोल्फ, राबर्ट रेकार्ड, रेफ़िल नोंवेली तथा क्रेवियस और विद्वानों के प्रयासों से इस विषय ने व्यापकीकृत अंकगणित का रूप धारण कर लिया और १७वीं शताब्दी में प्रतीक पद्धति के परिपूर्ण हो जाने पर बीजगणित का विकास बहुत जोरों से हुआ।
अंकगणित में समस्त संकेतों का मान विदित रहता है। बीजगणित में व्यापक संकेतों से काम लिया जाता है, जिसका मान आरम्भ में अज्ञात रहता है। इसलिए इन दोनों विज्ञानों के अन्य प्राचीन नाम व्यक्त गणित और अव्यक्त गणित भी हैं। अंग्रेजी में बीजगणित को 'अलजब्रा' (अल्जेब्रा) कहते हैं। यह नाम अरब देश से आया है। सन् ८२५ ई. में अरब के गणितज्ञ अल् ख्वारिज्मी ने एक गणित की पुस्तक की रचना की, जिसका नाम था अल-जब्र-वल-मुकाबला। अरबी में अल-जब्र और फारसी में मुकाबला समीकरण को ही कहते हैं। अतः संभवतः लेखक ने अरबी तथा फारसी भाषाओं के समीकरण के पर्यावाची नामों को लेकर पुस्तक का नाम अल-जब्र-वल-मुकाबला रखा। यूनानी गणित के स्वर्णिम युग में अलजब्रा का आधुनिक अर्थ में नामोनिशान तक नहीं था।
यूनानी लोग बीजगणित के अनेक कठिन प्रश्नों को हल करने की योग्यता तो रखते थे, परन्तु उनके सभी हल ज्यामितीय होते थे। वहाँ बीजगणित हल सर्वप्रथम डायफ्रैंटस (लगभग २७५ ई.) के ग्रंथों में देखने को मिलते हैं; जबकि इस काल में भारतीय लोग बीजगणित के क्षेत्र में अन्य राष्ट्रों से बहुत आगे थे। ईसा से ५०० वर्ष पूर्व गणित के विकास में जैनाचार्यों का श्लाघनीय योगदान रहा है। इस काल की प्रमुख कृतियाँ सूर्य प्रज्ञप्ति तथा चंद्र प्रज्ञप्ति जैन धर्म के प्रसिद्ध धर्मग्रंथ हैं। इन ग्रंथों की संख्या-लेखक-पद्धति, भिन्नराशिक व्यवहार तथा मिश्रानुपात, बीजगणित समीकरण एवं इनके अनुप्रयोग, विविध श्रेणियाँ, क्रमचय-संचय, घातांक, लघुगणक के नियम, समुच्चय सिद्धांत आदि अनेक विषयों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। जॉन नेपियर (१५५०-१६१७ ई.) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था, जो सार्वभौम सत्य है।
पूर्व-मध्यकाल (५०० ई. पू. से ४०० ई. तक) में भक्षाली गणित, हिंदू गणित की एकमात्र लिखित पुस्तक है, जिसका काल ईसा की प्रारंभिक शताब्दी माना गया है। इस पुस्तक में इष्टकर्म में अव्यक्त राशि कल्पित की गई है। गणितज्ञों की मान्यता है कि इष्टकर्म ही बीजगणित के विस्तार का आदि-स्रोत है। ६२८ ई. काल में ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुट सिद्धांत के २५ अध्यायों में से २ अध्यायों में गणितीय सिद्धांतों एवं विधियों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने गणित की २0 क्रियाओं तथा ८ व्यवहारों पर प्रकाश डाला है। बीजगणित में समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्धार्य द्विघात समीकरण (इंडेटर्मिनते क्वादरेटिक इक्वेशन्स) का समाधान भी बताया, जिसे आयलर (यूलर) ने १७६४ ई. में और लांग्रेज ने 176८ ई. में प्रतिपादित किया। मध्ययुग के अद्वितीय गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सिद्धान्तशिरोमणि (लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय, ग्रहगणितम्) एवं करण कुतूहल में गणित की विभिन्न शाखाओं तथा अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति आदि को एक प्रकार से अंतिम रूप दिया है।
वेदों में जो सिद्धांत सूत्र रूप में थे, उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति भास्कराचार्य की रचना में हुई है। इनमें ब्रह्मगुप्त द्वारा बताई गई २० प्रक्रियाओं और ८ व्यवहारों का अलग-अलग विवरण और उनमें प्रयोग में लाई जानेवाली विधियों का प्रतिपादन सुव्यवस्थित और सुसाध्य रूप से किया गया है। लीलावती में संख्या पद्धति का जो आधारभूत एवं सृजनात्मक प्रतिपादन किया गया है, वह आधुनिक अंकगणित तथा बीजगणित की रीढ़ है।
१८०० ई. से पहले गणित का सरोकार मुख्यतः दो सामान्य समझ-बूझ की संकल्पनाओं, संख्या और आकृति से था। १९वीं शताब्दी के आरम्भ में दो नए विचारों ने गणित के क्षेत्र को एकदम विस्तृत कर दिया : पहला यह कि गणित का व्यवहार केवल संख्याओं और आकृतियों के लिए ही नहीं, वरन् किन्हीं भी वस्तुओं के लिए किया जा सकता है। दूसरे विचार के अनुसार अमूर्तीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाकर, गणित को केवल तर्कयुक्त विधान माना जाने लगा, जिसका किसी वस्तुविशेष से कोई सरोकार न था। पहला विचार वैज्ञानिकों को उपयोगी लगा और दूसरा शुद्ध गणितज्ञ को, जिसके लिए गणित केवल सुन्दर प्रतिरूपों का अध्ययन मात्र रह गया। इन दो दृष्टिकोणों में कोई वास्तविक विरोधाभास नहीं, क्योंकि प्राय: सुंदर प्रतिरूप भौतिक प्रकृति में ठीक बैठते हैं और वैज्ञानिक द्वारा प्रकृति में पाए गए गणितीय प्रतिरूप प्राय: सुंदर होते हैं।
बीजीय ज्यामिति - गणित की व शाखा है जिसमें बीजीय समीकरणों की सहायता से आरेखों और चित्रों के गुणधर्मों का विवेचन किया जाता है।
बीजगणित का संक्षिप्त परिचय
साररूप में इतिहास
संक्षेप में बीजगणित के विकास में उसकी विषय सीमा इन स्तरों से विस्तृत होती गई :
(१) लगभग १,८०० ई. पू. से २७५ ई. तक के काल में संख्या सम्बंधी पहेलियों का हल, बिना किसी प्रतीक-पद्धति की सहायता के, किया जाना;
(२) दिए हुए क्षेत्रफल का वर्ग ज्यामितीय विधि से खींचना;
(३) स्थूल प्रतीक पद्धति का विकास;
(४) समीकरणों का अधिक तर्कयुक्त विवेचन ८००-१२०० ई. तक;
(५) १६वीं शताब्दी में द्विघात और त्रिघात समीकरणों के साधन हेतु सिद्धान्त का प्रतिपादन;
(६) सुस्पष्ट और सुविधामय प्रतीक पद्धति का विकास तथा
(७) १८०० ई. से अमूर्त बीजगणित का विकास।
वस्तुओं के गिनने में जो संख्याएँ प्रयुक्त होती हैं प्राकृतिक संख्याएँ (नेचुरल नंबर्स) कहलाती हैं। अन्य संख्याओं को कृत्रिम संख्याएँ (आर्टिफिशियल नंबर्स) कहते हैं। कृत्रिम संख्याओं का अध्ययन अंकगणित में ही आरम्भ हो जाता है, किन्तु वहाँ केवल भिन्नों का ज्ञान पर्याप्त होता है। बीजगणित में ऋण संख्याओं, अपरिमेय, बीजातीत, मिश्र आदि संख्याओं का विवेचन आवयक हो जाता है।
२आ का अर्थ है आ +आ, अर्थात् आ का दुगुना। व्यापक रूप से, यदि म कोई धन पूर्ण संख्या है, तो मा का अर्थ है आ का म गुना। मा को म और आ का गुणनफल भी कहते हैं।
आ२ का अर्थ है आ.आ ; आ३ का अर्थ है आ.आ.आ । व्यापक रूप से, यदि म कोई धन पूर्ण संख्या है तो आम का अर्थ है
आम में म को घात (एक्सपोनेंट) और आ को आधार (बसे) कहते हैं। आगे चलकर मा और आम के अर्थ विस्तृत कर उन स्थितियों में भी बताए जाते हैं जब म ऋण, भिन्न, अपरिमेय आदि कोई भी संख्या हो।
सामान्य संख्याओं के प्रतीक एक या अधिक अक्षरों और किसी संख्या के गुणनफल को पद (टर्म) कहते हैं, जैसे ३आ२ब, -४आ, क्स (अर्थात १क्स) आदि। कई एक पदों के योगफल को बीजीय व्यंजक (अल्जेब्रैक एक्सप्रेशन) कहते हैं। पूर्वोक्त तीन पदोंवाला व्यंजक ३आ२ब - ४आ +क्स है। अकेले पद को एकपद व्यंजक (मोनोमियल), दो पदोंवाले व्यंजक को द्विपद (बिनोमियल), तीन पदवाले को त्रिपद (ट्रिनोमियल) कहते हैं। एक से अधिक पदवाले व्यंजक को बहुपद (पोलिनोमियल) कहते हैं। दो या अधिक पदों के गुणनफल से एक पद ही प्राप्त होता है। गुणा किया जानेवाला प्रत्येक पद गुणनफल वाले पद का गुणनखण्ड (फक्टर) कहलाता है।
वैसे तो पद के किसी एक गुणनखंड का गुणांक (कॉएफिशियन्ट) शेष गुणनखंडों का गुणनफल है, जैसे ३आ३ब२ में आ३ का गुणांक ३ब२ कहा जा सकता है, किन्तु प्रथा आरम्भवाले गुणनखंडों के गुणनफल को शेष खंडों के गुणनफल का गुणांक मानने की है। इस प्रकार ब२ का गुणांक ३आ३ है, आ३ब२ का गुणांक ३ है। यदि गुणांक संख्यामात्र हो, तो उसे संख्यात्मक गुणांक कहते हैं। कोष्ठकों में बन्द कर व्यंजक को एक पद की भाँति प्रयुक्त किया जा सकता है।
बहुपदों पर सामान्य संक्रियाओं, योग, व्यवकलन (सुबत्रैक्शन), गुणन तथा विभाजन - के अतिरिक्त गुणनखंडन, घातक्रिया (इंवॉल्यूशन), वर्गमूल निर्धारण, दो या अधिक बहुपदों के लघुतम समापवर्त्य तथा महत्तम समापवर्तक ज्ञात करने की विधियाँ प्रारंभिक बीजगणित की पुस्तकों में अच्छी तरह समझाई रहती हैं (देखें, बहुपद)। अनुपात और गुणनखंड व्यापक अर्थ में सभी प्रकार की संख्याओं के लिए प्रयुक्त होते हैं।
समता मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं :
(१) ३ +२=५ संख्याओं का संबंध है।
(२) क्स +२क्स =३क्स ऐसा संबंध है जो क्स के सभी मानों के लिए सत्य है; इसे सर्वसमिका (इडेन्टाइटी) कहते हैं।
(३) क्स +३ =२ ऐसी समता है जो क्स के केवल एक ही मान (वस्तुतः -१) के लिए सत्य है; इसे समीकरण (इक्वेशन) कहते हैं। प्राय: सर्वसमिका में उसका समीकरण से विभेद स्पष्ट करने के लिए, चिह्न = के स्थान में तुल्यचिह्न () का प्रयोग किया जाता है। एकघात और द्विघात समीकरणों का हल डायफेंटस ने लगभग २५० ई. में दिया था (देखें डायेफैंटीय समीकरण)। भारत में आर्यभट्ट ने ४७६ ई. में द्विघात समीकरण का हल मौलिक रूप से दिया।
मध्यकालीन युग में समांतर (अरीथ्मेटिक), गुणोत्तर, आदि श्रेढियों के अध्ययन की ओर काफी रुचि थी। इसी कारण इन श्रेढियों का संकलन (योगफल ज्ञात करना) प्रारंभिक बीजगणित का रोचक विषय है। उदाहरणार्थ दो सूत्र लीजिए :
गुणोत्तर श्रेढी का अध्ययन हमें अनन्त श्रेणियों के अध्ययन पर ले जाता है। तब सीमा आदि महत्वपूर्ण संकल्पनाएँ आवश्यक हो जाती हैं और अवकलन तथा समाकलन बोधगम्य हो जाते हैं।
प्रारम्भिक बीजगणित का महत्व
अंकगणित की अपेक्षा प्रतीकों का प्रयोग कर, कम श्रम से अत्यन्त व्यापक फल प्राप्त करना बीजगणित की उपलब्धि है। इसीलिए बीजगणित को भाषा की 'आशुलिपि' (शॉर्ट हैंड) कहते हैं। फ्रांसीसी गणितज्ञ बर्टैड (सन् १८२२-१९००) के अनुसार बीजगणित में संक्रियाओं (ऑपरेशन्स) और परिकल्पनात्मक क्रियाकलाप का अध्ययन, जिन संख्याओं पर वे प्रयोज्य होती हैं उनसे स्वतंत्र रहकर किया जाता है। यही इस विज्ञान की विशेषता है। विज्ञान की साधना में बीजगणित का अध्ययन आवयक है। सूत्रों के रूप में तो बीजगणित की अनिवार्यता तुरन्त प्रकट हो जाती है।
व्यापकीकरण और अमूर्त बीजगणित
बीजगणित, व्यापकीकृत अंकगणित है और व्यापकीकरण की क्रिया बीजगणित के उत्तरोत्तर विकास में जारी रहती है। प्रारंभिक बीजगणित में ही अब, आम, आम. अन, (आम)न आदि के अर्थों को व्यापक कर आ, ब, म, न के सभी मानों के लिए निचित अर्थवाला बना दिया जाता है। यह सब (-१) के वर्गमूल की कल्पना के कारण ही सम्भव हुआ। दुर्भाग्य से इस राशि को 'काल्पनिक' मान लिया गया और इसके अंग्रेजी अनुवाद (इमेंगिनरी) का पहला अक्षर ई इसका प्रतीक बना। जब १७ वीं और १८वीं शताब्दी में समस्या समाधान हेतु ई को इतना अधिक उपयोगी पाया गया, तो इसकी प्रकृति की ओर ध्यान गया। इसे संख्या न माने जाने पर, अमूर्त रूप से इसे संख्यायुग्मों पर कुछ स्वेच्छ संक्रियाओं का प्रतीक माना गया और मूर्त रूप से इसकी ज्यामितीय व्याख्या 'समतल में समकोण तक घुमाओ' दी गई। इन व्याख्याओं से प्रेरणा हुई कि क्यों न ई जैसे अन्य प्रतीक खोजे जाएँ। इसी प्रयास में सन् १८४३ में हैमिल्टन ने त्रिविमी घूर्णन के संदर्भ में क्वाटर्नियंस ई और ज का आविष्कार किया और बताया कि इज =-जी , जो एक अत्यन्त महत्वपूर्ण खोज थी, क्येंकि अब तक के बीजगणित में सदा ही अब =बा था। अब गणितज्ञों ने नाना प्रकार की 'अतिसंमिश्र संख्याओं' और संक्रिया प्रतीकों को खोज कर डाली। अन्ततः यह प्रन उठता ही था कि क्यों न साधारण संख्याओं के स्थान में किन्हीं प्रतीकों को लेकर और उनके संयोजन के नियम निर्धारित कर, विशेष प्रकार के बीजगणित की रचना की जाए।
इस प्रकार सदिश बीजगणित और मैट्रिक्स (या व्यूह) बीजगणित की रचना हुई। बीजगणित की मूलभूत संक्रियाओं के व्यापकीकरण से नाना प्रकार के बीजीय तंत्र (अल्जेब्रैक सिस्टम्स) मिलते हैं। इन तंत्रों में अवयवों के संयोजन (कॉम्बिनेशन) सम्बन्धी अलग अलग नियम होते हैं, जिनसे अन्य अवयव बनते हैं। चूँकि इन तंत्रों के अध्ययन में इस बात की विशेष महत्ता नहीं होती कि अवयव वास्तव में क्या हैं, बल्कि उनमें नियमों की प्राथमिकता होती है। इसलिए इन तंत्रों को अमूर्त बीजगणित (अबस्ट्रैक्ट अल्जेब्रा) की संज्ञा दी गई है।
अमूर्त तंत्रों के कुछ उदाहरण देने के लिए किसी संक्रियाँ * के प्रति निम्न संकल्पनाएँ आवयक हैं -
(१) अवगुंठन (क्लोचर) : यदि किसी समुच्चय के कोई दो अवयव (एलमंट्स) आ और ब हों, तो आ*ब भी उसी समुच्चय का अवयव है।
(४) सर्वसमिका (इडेन्टाइटी) का अस्तित्व : समुच्चय में ऐसा अवयव ए हो कि आ*ए =ए*आ =आ
(५) प्रतिलोम (इनवेर्स) का अस्तित्व : समुच्चय में किसी भी अवयव आ के संगत ऐसा अवयव आ-१ हो कि आ*आ-१ = आ-१*आ = ए
किसी समुच्चय को संक्रिया * के प्रति ग्रुप (या संघ) तब कहते है जब उसमें गुणधर्म १, ३, ४, ५ हों। यदि गुणधर्म २ भी हो तो उसे क्रम विनिमेयी, अथवा आबेली ग्रुप कहते हैं।
दो संक्रियाओं * और के प्रति समुच्चय को रिंग तब कहा जाता है जब पहली के प्रति पाँचों गुणधर्म १ से ५ तक हों, दूसरी के प्रति १, ३ और सम्मिलिततः दोनों के प्रति ६ हों।
ऐसी रिंग को फील्ड कहते हैं, जिसमें दूसरी संक्रिया के प्रति गुणधर्म २ तथा ४ हों और पहली संक्रिया के सर्वसमक (अर्थात् आ*आ-१) को छोड़ अन्य हरेक अवयव का प्रतिलोम दूसरी संक्रिया के प्रति हो।
जोड़ और गुणन संक्रियाओं के प्रति
(१) शून्य समेत सभी पूर्णसंख्याओं का सम्मुच्चय रिंग है
(२) सभी परिमेय संख्याओं का, अथवा वास्तविक संख्याओं का, अथवा संमिश्र संख्याओं का सम्मुच्चय फील्ड है।
गणित की अन्य शाखाओं में विाशिष्ट समस्याओं के हल करने के प्रयास में कई नए बीजीय तंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। अवकल समीकरणों के वर्गीकरण प्रयास में ली ग्रुप का आविष्कार हुआ। इसी प्रकार स्थिति विश्लेषण (टोपोलॉजी) की कुछ समस्याओं ने होमोलोजिकल बीजगणित को जन्म दिया। १८५० ई. के लगभग बूल (बोले) ने सांकेतिक बीजगणित का विकास किया जिसका अब महत्वपूर्ण प्रयोग टेलीफोन परिपथ और डिजिटल इलेक्ट्रॉनिकी में हुआ है।
इन्हें भी देखें
बीजगणित (संस्कृत ग्रन्थ) |
वाशिंगटन () संयुक्त राज्य अमेरिका का सबसे उत्तर-पश्चीमीय राज्य है। इसके उत्तर में कनाडा, पूर्व में इडाहो और दक्षिण में औरिगन है। वाशिंगटन राज्य का निर्माण ओरिगन संधि के तहत १८४६ में ब्रिटेन द्वारा दिए गए क्षेत्र के पश्चिमी भाग में हुआ था। यह ४२वें राज्य के रूप में १८८९ में संघ में भर्ती कराया गया था। इसका नाम संयुक्त राज्य अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन के नाम पर रखा गया है।
वॉशिंगटन १८वां सबसे बड़ा अमेरिकी राज्य है। २०१६ में इसकी जनसंख्या ७२,८८,००० अनुमानित की गई है। जिससे इसका इस मामले २५वां स्थान हुआ। ओलंपिया राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर सिएटल है। राज्य सबसे विकसित राज्यों में से एक है। वॉशिंगटन में विनिर्माण उद्योगों में विमान और मिसाइल, जहाज निर्माण और अन्य परिवहन उपकरण, लकड़ी, खाद्य प्रसंस्करण, धातु और धातु उत्पाद, रसायन और मशीनरी शामिल हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य |
हिन्दुस्तानी (नस्तालीक़: , अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि: ) बोली हिन्दी और उर्दू का एकीकृत रूप है। ये हिन्दी और उर्दू, दोनो के बोलचाल की भाषा है। इसमें संस्कृत के तत्सम शब्द और अरबी-फ़ारसी के उधार लिये गये शब्द, दोनों कम होते हैं। यही हिन्दी और उर्दू का वह रूप है जो भारत की जनता दैनिक जीवन में उपयोग करती है और हिन्दी सिनेमा इसी पर आधारित है। ये हिन्द यूरोपीय भाषा परिवार की भारोपीय भाषा की शाखा में आती है। ये देवनागरी या फ़ारसी-अरबी, किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है।
हिन्दुस्तानी भाषा की अवधारणा को "एकीकृत भाषा" या "फ्यूज़न भाषा" के रूप में महात्मा गांधी द्वारा समर्थित किया गया था। हिन्दी से उर्दू में रूपान्तरण (या इसके विपरीत) आम तौर पर अनुवाद के बजाय केवल दो लिपियों के बीच लिप्यन्तरण द्वारा प्राप्त किया जाता है, जो आमतौर पर केवल धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थों के लिए आवश्यक होता है।
पुरानी हिन्दी के रूप में पहली बार लिखी गई काव्य-खण्ड का पता ७६९ ईस्वी के आरम्भ में लगाया जा सकता है।
दिल्ली सल्तनत के दौरान, जिसने लगभग सम्पूर्ण भारत (आज के अधिकांश पाकिस्तान, दक्षिणी नेपाल और बांग्लादेश) पर राज किया था और जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों का सम्पर्क हुआ, पुरानी हिन्दी जो प्राकृत पर आधारित थी तथा फ़ारसी से शब्दों को लेकर समृद्ध हुई, जो कि वर्तमान में भी विकसित हो रही है।
हिन्दुस्तानी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति बन गई, और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की आम भाषा के रूप में बोली जाती है, जो बॉलीवुड फ़िल्मों और गीतों की हिन्दुस्तानी शब्दावली में परिलक्षित होती है।
भाषा की मूल शब्दावली प्राकृत (संस्कृत की एक वंशज) से ली गई है, जिसमें फ़ारसी और अरबी (फ़ारसी के माध्यम से) से पर्याप्त मात्रा में शब्द लिए गए हैं। एथनोलॉग की रिपोर्ट है कि, २०२० तक, ८१ करोड़ वक्ताओं के साथ हिन्दी और उर्दू मिलकर अंग्रेजी और मैण्डरिन के बाद दुनिया में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा का गठन करतीं हैं।
१९९५ में हिन्दी-उर्दू बोलने वालों की कुल संख्या ३० करोड़ से अधिक बताई गई, जिससे हिन्दुस्तानी दुनिया में तीसरी या चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई।
मानक हिन्दी, भारत की २२ आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक और संघ की आधिकारिक भाषा है, आमतौर पर हिन्दी, भारत की स्वदेशी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और उर्दू की तुलना में कम फ़ारसी और अरबी प्रभाव दिखाती है। इसमें गद्य, कविता, धर्म और दर्शन के साथ ५०० वर्षों का साहित्य है। एक बोली के विभिन्न स्पेक्ट्रम और रजिस्टरों के बारे में कल्पना कर सकते हैं, स्पेक्ट्रम के एक छोर पर अत्यधिक फ़ारसीकृत उर्दू और दूसरे छोर पर वाराणसी के आसपास के क्षेत्र में बोली जाने वाली एक संस्कृत की विविधता है। वहीं दूसरी ओर, भारत में सामान्य उपयोग में, हिन्दी में उन सभी बोलियों को शामिल किया गया है जो उर्दू के आसपास की नहीं हैं।
भारत भर के स्कूलों में मानक हिन्दी पढ़ाई जाती है (तमिलनाडु एक अपवाद है।)
पुरुषोत्तम दास टण्डन द्वारा औपचारिक और आधिकारिक हिन्दी की वकालत करने के बाद और स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार द्वारा स्थापित, जो कि संस्कृत से बहुत प्रभावित है,
पूरे भारत में हिन्दुस्तानी की बोलियाँ बोली जाती हैं,
लोकप्रिय टेलीविजन और फ़िल्मों में प्रयुक्त हिन्दुस्तानी का तटस्थ रूप (जो लगभग बोलचाल की उर्दू के समान है), और
टेलीविज़न और प्रिण्ट समाचार रिपोर्टों में हिन्दुस्तानी के अधिक औपचारिक तटस्थ रूप का उपयोग किया जाता है।
उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा और राज्य भाषा है और भारत की २२ आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक है। भारत के कुछ भागों को छोड़ कर, यह अरबी-पश्तो की (विस्तारित) नस्तलीक़ लिपि में लिखी जाती है। यह फ़ारसी शब्दावली से बहुत प्रभावित है और ऐतिहासिक रूप से रेख़्ता के रूप में भी जानी जाती है।
भाषा के साहित्य के शुरुआती रूपों को अमीर खुसरो देहलवी की १३वीं-१४वीं शताब्दी की कृतियों में देखा जा सकता है, जिन्हें अक्सर "उर्दू साहित्य का पिता" कहा जाता है, जबकि वाली डेक्कानी को उर्दू कविता के पूर्वज के रूप में देखा जाता है।
हिन्दी और इससे सम्बन्धित भाषाएँ
भारत की भाषाएँ |
हिन्दी सिनेमा, जिसे बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, हिन्दी भाषा में फ़िल्म बनाने का उद्योग है। बॉलीवुड नाम अंग्रेज़ी सिनेमा उद्योग हॉलीवुड के तर्ज़ पर रखा गया है। हिन्दी फ़िल्म उद्योग मुख्यतः मुम्बई शहर में बसा है। ये फ़िल्में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और विश्व के कई देशों के लोगों के दिलों की धड़कन हैं। अधिकतर फ़िल्मों में कई संगीतमय गाने होते हैं। इन फ़िल्मों में हिन्दी की "हिन्दुस्तानी" शैली का चलन है। हिन्दी और उर्दू (खड़ीबोली) के साथ साथ अवधी, बम्बइया हिन्दी,पंजाबी जैसी भाषाओं का भी संवाद और गानों में उपयुक्त होते हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। ज़्यादातर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं। भारत में सबसे बड़ी फिल्म निर्माताओं में से एक, शुद्ध बॉक्स ऑफिस राजस्व का ४३% का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमिल और तेलुगू सिनेमा ३६% का प्रतिनिधित्व करते हैं,क्षेत्रीय सिनेमा के बाकी २०१४ के रूप में २१% का गठन है। बॉलीवुड दुनिया में फिल्म निर्माण के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। बॉलीवुड कार्यरत लोगों की संख्या और निर्मित फिल्मों की संख्या के मामले में दुनिया में सबसे बड़ी फिल्म उद्योगों में से एक है। किसी भी राष्ट्र की आत्म उसकी संस्कृति होती है। बालीवुड ने भारतीय संस्कृति को, भारत की आत्मा को मिटाने का कार्य दशको से किया है। और यह नेपोटिज्म, अभारतीयकरण, सनातन धर्म विरोध, भारतीय सेना का निरंतर अपमान, पाकिस्तान प्रेम, भारत का अराष्ट्रीयकरण तथा २०१९ के लाकडाउन में बढी फुहडता, अमर्यादा, अनैतिकता और अश्लीलता के कारण आम जन के निशाने पर आ गया है। और इसका पूर्ण बहिष्कार भारत में २०१९ से ही निरंतर जारी है। इसे अब कुछ वर्षों से कराची वुड या उर्दू वुड भी कहा जाता है। कोरोना काल के बाद हिंदी सिनेमा जगत के लिए बहिष्कार ही जारी है। आए दिन किसी भी फिल्म या कलाकार को सोशल मीडिया पर बायकॉट किया जाता है। रिलीज से पहले ही फिल्मों का बहिष्कार किया जाता है। इतना ही नहीं कई मौकों पर पूरी बॉलीवुड इंडस्ट्री को ही बायकॉट करने की मुहिम चलाई जा चुकी है।
भारत में प्रारंभिक सिनेमा
१८९५ में लूमियर ब्रदर्स ने पेरिस सैलून सभाभवन में इंजन ट्रेन की पहली फिल्म प्रदर्शित की थी। इन्हीं लूमियर ब्रदर्श ने ७ जुलाई १८९६ को बंबई के वाटसन होटल में फिल्म का पहला शो भी दिखाया था। एक रुपया प्रति व्यक्ति प्रवेश शुल्क देकर बंबई के संभ्रात वर्ग ने वाह-वाह और करतल ध्वनि के साथ इसका स्वागत किया। उसी दिन भारतीय सिनेमा का जन्म हुआ था। जनसमूह की जोशीली प्रतिक्रियाओं से प्रोत्साहित होकर नावेल्टी थियेटर में इसे फिर प्रदर्शित किया गया और निम्न वर्ग तथा अभिजात्य दोनों वर्गों को लुभाने के लिए टिकट की कई दरें रखी गईं। रूढ़िवादी महिलाओं के लिए जनाना शो भी चलाया गया। सबसे सस्ती सीट चार आने की थी और एक शताब्दी बाद भी यही चवन्नी वाले ही सिनेमा, इनके सितारों, संगीत निर्देशकों और दरअसल भारत के संपूर्ण व्यावसायिक सिनेमा के भाग्य विधाता हैं। १९०२ के आसपास अब्दुल्ली इसोफल्ली और जे. एस. मादन जैसे उद्यमी छोटे, खुले मैदानों में घूम-घूमकर तंबुओं में बाइस्कोप का प्रदर्शन करते थे। इन्होंने बर्मा(म्यांमार) से लेकर सीलोन(श्रीलंका) तक सिनेमा के वितरण का साम्राज्य खड़ा किया। प्रारंभिक सिनेमा पियानो अथवा हारमोनियम वादक पर निर्भर होता था जिनकी आवाज प्रोजेक्टर की घड़घड़ाहट में खो जाती थी। लेकिन आयातित फिल्मों और डाक्यूमेंट्री फिल्मों के नयेपन का आकर्षण बहुत जल्दी ही दम तोड़ने लगा। फिर फिल्म प्रदर्शकों को अपनी प्रस्तुतियों को आकर्षक बनाने के लिए नृत्यांगनाओं, करतबबाजों और पहलवानों को मंच पर उतारना पड़ा।
शुरुआती दिनों में विवेकशील भारतीय दर्शक विदेशी फिल्मों से स्वयं को जुड़ा हुआ नहीं पाते थे। १९०१ में एच.एस. भटवाड़ेकर ('सावे दादा' के नाम से विख्यात) ने पहली बार भारतीय विषयवस्तु और न्यूज रीलों की शूटिंग की। इसके तुरंत बाद तमाम यूरोपीय और अमेरिकी कंपनियों ने भारतीय दर्शकों के लिए भारत में शूट की गई भारतीय न्यूज रीलों का लाभ लिया। फरवरी, १९०१ में कलकत्ता के क्लासिक थियेटर में मंचित अलीबाबा, बुद्ध, सीताराम नामक नाटकों की पहली बार फोटोग्राफी हीरालाल सेन ने की। यद्यपि भारतीय बाजार यूरोपीय और अमेरिकी फिल्मों से पटा हुआ था, लेकिन बहुत कम दर्शक इन फिल्मों को देखते थे क्योंकि आम दर्शक इनसे अपने को अलग-थलग पाते थे। मई १९१२ में आयातित कैमरा, फिल्म स्टॉक और यंत्रों का प्रयोग करके हिंदू संत पुण्डलिक पर आधारित एक नाटक का फिल्मांकन आर. जी. टोरनी ने किया जो शायद भारत की पहली फुललेंथ फिल्म है।
पहली फिल्म थी १९१३ में दादासाहेब फालके द्वारा बनाई गई राजा हरिश्चन्द्र। फिल्म काफी जल्द ही भारत में लोकप्रिय हो गई और वर्ष १९३० तक लगभग २०० फिल्में प्रतिवर्ष बन रही थी। पहली बोलती फिल्म थी अरदेशिर ईरानी द्वारा बनाई गई आलम आरा। यह फिल्म काफी ज्यादा लोकप्रिय रही। जल्द ही सारी फिल्में, बोलती फिल्में थी।
आने वाले वर्षो में भारत में स्वतंत्रता संग्राम, देश विभाजन जैसी ऎतिहासिक घटना हुई। उन दरमान बनी हिंदी फिल्मों में इसका प्रभाव छाया रहा। १९५० के दशक में हिंदी फिल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हो गई। फिल्मों का विषय मुख्यतः प्रेम होता था और संगीत फिल्मों का मुख्य अंग होता था। १९६०-७० के दशक की फिल्मों में हिंसा का प्रभाव रहा। १९८० और १९९० के दशक से प्रेम आधारित फिल्में वापस लोकप्रिय होने लगी। १९९०-२००० के दशक में बनी फिल्में भारत के बाहर भी काफी लोकप्रिय रही। प्रवासी भारतीयो की बढती संख्या भी इसका प्रमुख कारण थी। हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीयों के विषय लोकप्रिय रहे।
चर्चित फिल्मकार अविजित मुकुल किशोर की फिल्में बदलते शहर, कस्बे और उनमें रहने वाले लोगों और जगहों की बात करती हैं। अपने कैमरे के ज़रिए वे यहां होने वाले बदलाव को बहुत ही खूबसूरती से कैद करते हैं। फिल्मी शहर ऑनलाइन मास्टरक्लास में अविजित मुकुल किशोर के साथ मिलकर सिनेमा की भाषा एवं उसके नज़रिए की पड़ताल की गई है। द थर्ड आई की ये पहल, कोशिश है हिन्दी भाषा में फिल्मों एवं उनके द्वारा गढ़ी जा रही छवियों पर बात करने की। साथ ही यह पता लगाने की, की हमारा सिनेमा तेज़ी से बदल रहे हमारे गांव और शहर को कैसे देख रहा है। फिल्मी शहर में सिनेमा के भीतर मौजूद वर्ग, जाति, जेंडर, यौनिकता और विभिन्न तरह की असमानताओं की परतें एक के बाद एक खुलती जाती हैं।
भारतीय सिनेमा के प्रवर्तक : दादा साहब फालके
राजा हरिश्चंद्र (१९१३) भारत में बनी पहली हिंदी फिल्म थी। इसे दादासाहेब फाल्के ने निर्देशित किया था। मूक फिल्मों के दौर में फिल्मों के सीनों का फिल्मांकन दिन में ही पूर्ण कर लिया जाता था क्योंकि कृत्रिम रौशनी का प्रयोग असंभव था।
संजय लीला भंसाली
कुन्दन लाल सहगल
यो यो हनी सिंह
सचिन देव बर्मन
राहुल देव बर्मन
ए आर रहमान
शंकर एहसान लौय
आनन्द राज आनन्द
पंडित नरेन्द्र शर्मा
संतोष आनंद जी
इन्हें भी देखें
हिन्दी फिल्मों की सूची (वर्णक्रमानुसार)
हिंदी फिल्मों की सूची
बॉलीवुड फ़िल्मों की सूची
भारतीय फिल्मों की सूची
कलाकार (अभिनीत फिल्में)
हिंदी सिनेमा (बॉलीवुड)
भारतीय फिल्म इंडस्ट्रीज की सूची |
इस्लाम ( ; अल-इस्लाम ) एक इब्राहीमी पन्थ है, जो प्रेषित परम्परा से निकला एकेश्वरवादी पन्थ है।इसकी शुरुआत ७वीं सदी के अरबी प्रायद्वीप में हुई है। इस्लामी परम्परा के अनुसार अल्लाह के अन्तिम पैगम्बर मुहम्मद के द्वारा मनुष्यों तक पहुँचाई गई अवतरित किताब कुरान की शिक्षा पर आधारित है, तथा इसमें हदीस, सीरत उन-नबी व शरीयत ग्रन्थ शामिल हैं। इस्लाम में सुन्नी, शिया, सूफ़ी व अहमदिया समुदाय प्रमुख हैं। इस्लाम की मज़हबी स्थल मस्जिद कहलाती हैं। अनुयाइयों की कुल आबादी के अनुसार इस्लाम विश्व का दूसरा सबसे बड़ा पन्थ है। विश्व में आज लगभग १.९ अरब (या १९० करोड़) से २.० अरब (२०० करोड़) मुसलमान हैं। इनमें से लगभग ८५% सुन्नी और लगभग १5% शिया हैं। सबसे अधिक मुसलमान दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के देशों में रहते हैं। मध्य पूर्व, अफ़्रीका और यूरोप में भी मुसलमानों के बहुत समुदाय रहते हैं। विश्व में लगभग ५६ देश ऐसे हैं जहाँ मुसलमान अधिक संख्या में हैं। विश्व में कई देश ऐसे भी है। जहाँ की मुसलमान जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इस्लामों के लिये अल्लाह द्वारा रसूलों को प्रदान की गयी सभी मज़हबी किताबें वैध हैं। इस्लामों के अनुसार क़ुरआन ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान की गयी अन्तिम मज़हबी किताब है। क़ुरआन में चार और किताबों का महत्त्व है :-
सहूफ़ ए इब्राहीमी जो कि हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को प्रदान की गयी थी।
तोराह जो कि हजरत मूसा अलैहिस्सलाम को प्रदान की गयी थी।
ज़बूर जो कि राजा दाउद अलैहिस्सलाम को प्रदान की गयी थी।
इंजील जो कि हजरत ईसा अलैहिस्सलाम को प्रदान की गयी थी।मुसलमान यह मानते हैं कि यहूदियों और ईसाइयों ने अपनी क़िताबों के सन्देशों में बदलाव कर दिये हैं।
इस्लाम पन्थ के प्रमुख मत यह हैं:
अल्लाह की एकता
इस्लाम धर्म मान्ने वाले एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे [[अल्लाह]] (फ़ारसी: खुदा) कहते हैं। एकेश्वरवाद को अरबी में तौहीद कहते हैं, जो शब्द वाहिद से आता है। जिसका अर्थ है एक। इस्लाम में अल्लाह को मानव की समझ से परे माना जाता है। मुसलमानों से अल्लाह की कल्पना करने के बजाय उसकी प्रार्थना और जय-जयकार करने को कहा गया है। मुसलमानों के अनुसार अल्लाह अद्वितीय है - उसके जैसा और कोई नहीं। इस्लाम में अल्लाह की एक विलक्षण अवधारणा पर बल दिया गया है और यह भी माना जाता कि उसका सम्पूर्ण विवरण करना मनुष्य से परे है। कहो:
नबी (दूत) और रसूल
इस्लाम के अनुसार ईश्वर ने धरती पर मनुष्य के मार्गदर्शन के लिये समय समय पर और हर समाज (समुदाय) में किसी व्यक्ति को अपना दूत बनाया। संसार में लगभग १२४,००० नबी (दूत) एक खुदा को पूजने का सन्देश देने के लिये भेजे गये थे। यह दूत भी मानवों में से होते थे और ईश्वर की ओर लोगों को बुलाते थे। ईश्वर इन दूतों से विभिन्न रूपों में समपर्क रखता था। इन दूतों को इस्लाम में नबी कहते हैं। जिन नबियों को ईश्वर ने आकाशवाणी के जरिये पुस्तकें प्रदान कीं उन्हें रसूल कहते हैं। इस्लाम के पहले नबी आदम अलैहिस्सलाम (अरबी: , रोमणिजड: दम) है। मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम भी इसी कड़ी का भाग थे और इस्लाम के अंतिम नबी थे । उनको जो आकाशवाणी पुस्तक प्रदान की गयी उसका नाम कुरान है। कुरान में अल्लाह के २५ अन्य नबियों का वर्णन है। स्वयं कुरान के अनुसार ईश्वर ने इन नबियों के अलावा धरती पर और भी कई नबी भेजे हैं। जिनका वर्णन कुरान में नहीं है।
सभी मुसलमान ईश्वर द्वारा भेजे गये सभी नबियों की वैधता स्वीकार करते हैं और मुसलमान, मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम को ईशवर का अन्तिम नबी मानते हैं। अहमदिय्या समुदाय मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम को अन्तिम नबी नहीं मानता तथापि स्वयं को इस्लाम का अनुयायी कहता है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकारा भी जाता है। हालाँकि कई इस्लामी राष्ट्रों में उसे मुस्लिम मानना प्रतिबन्धित है। भारत के उच्चतम न्यायालय के अनुसार उनको भारत में मुसलमान माना जाता है।
मुसलमान देवदूतों (अरबी में मलाइका/ उर्दु में "फ़रिश्ते") के अस्तित्व को मानते हैं। उनके अनुसार देवदूत स्वयं कोई विवेक नहीं रखते और ईश्वर की आज्ञा का यथारूप पालन ही करते हैं। वह केवल रोशनी से बनीं हुई अमूर्त और निर्दोष आकृतियाँ हैं जो कि न पुरुष हैं न स्त्री, बल्कि मनुष्य से हर दृष्टि से अलग हैं। हालाँकि देवदूत अगणनीय हैं, पर कुछ देवदूत कुरान में प्रभाव रखते हैं:
जिब्राईल अलैहिस्सलाम जो नबीयों और रसूलों को ईश्वर का सन्देश ला कर देते थे।
इज़्राईल अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के समादेश से मृत्यु का दूत जो मनुष्य की आत्मा ले जाता है।
मीकाईल अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के समादेश पर मौसम बदलनेवाला देवदूत है।
इस्राफ़ील अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के समादेश पर प्रलय के दिन के आरम्भ पर एक आवाज़ देगा।
किरामन कातिबीन (हिन्दी में "प्रतिष्ठित लेखक") जो मनुष्य के कर्मों को लिखते हैं। इस्लामिक मान्यता अनुसार प्रत्येक मनुष्य के साथ दो देवदूत लगे होते हैं जो उसके कर्मों को लिखते रहते हैं(कुरआन -८२-९ व १०)
मुनकिर नकीर या नकीरैन - मनुष्य के मरणोपरान्त उसकी कब्र में आ कर उससे तीन प्रशन पूछने वाले।
कयामत (यौम अल-कियामा)
मध्य एशिया के अन्य धर्मों (ईसाई और यहूदी) के समान इस्लाम में भी ब्रह्माण्ड का अन्त प्रलय के दिन द्वारा माना जाता है। इसके अनुसार ईश्वर एक दिन संसार को समाप्त करेगा जिसे इस्लाम में यौम अल-क़ियाम के नाम से जाना जाता है। यह दिन कब आयेगा इसकी सही जानकारी केवल ईश्वर को ही है। इस्लाम के अनुसार सभी मृत लोगों को उस दिन पुनर्जीवित किया जाएगा और अल्लाह के आदेशानुसार अपना जीवन व्यतीत करने वालों को स्वर्ग भेजा जाएगा और उसका आदेश न मनाने वालों को नरक में जलाया जाएगा।
जन्नत (स्वर्ग) और जहन्नम (नर्क)
जन्नत (स्वर्ग) : इस्लाम के अनुसार अल्लाह /ईश्वर ने अपने बन्दों (अल्लाह को मानने वालो) को उनके अच्छे आमाल (कर्मो) का अपने फज़ल व कर्म से बदला और इनाम देने के लिए आखिरत (मौत के बाद वाला जीवन) में जो शानदार मकान तैयार कर रखा है उसका नाम जन्नत है, और उसी को बह्शत भी कहते हैं इनके आलावा इसे स्वर्ग (हेवन) भी कहा जाता है। इस्लाम के अतिरिक्त अन्य धर्मो जैसे ईसाई, यहूदी, हिन्दू ,तथा जैन धर्म में भी स्वर्ग को महत्त्व दिया है। इस्लाम के अनुसार जो नमाज़ (प्रार्थना) करते हैं, दान करते हैं, नेक काम (पुण्य) करते हैं, कुरान पढ़ते हैं, अल्लाह/ईश्वर में विश्वास रखते हैं, फ़रिश्तो (स्वर्गदूतों), उनकी प्रकट किताबें, पैगम्बर और दूत, रोज़-ए-हश्र (न्याय का दिन) और उसके बाद का जीवन अर्थात् आखेरत, और अपने जीवन में अल्लाह/ईश्वर के आदेश का पालन करें वही लोग जन्नत (स्वर्ग) में जा सकते हैं। इस्लाम में, जन्नत (स्वर्ग) की प्रचुरता और सुन्दरता इतनी अधिक है कि वे मानव के सांसारिक दिमाग से समझने की क्षमता से परे हैं।
जहन्नम (नर्क) : जन्नत के विपरीत अल्लाह /ईश्वर ने जन्नुम [अरबी (जहान्नाम) नरक (नारक) (हिंदू), दोज़ख़ (दोज़ैक्स) (जोरास्ट्रीनीज्म एंड इस्लाम) हेल ] भी बनाई है। जहन्नुम एक ऐसी भयानक जगह है जिसमें जाने वाले इंसानों को दर्दनाक सजा दी जाएगी। इस्लाम के अतिरिक्त अन्य धर्मो के लोग जैसे ईसाई, यहूदी, हिन्दू ,तथा जैन भी जहन्नुम (नर्क) पर विश्वास करते है। धर्म और लोककथाओं में, जहन्नुम (नरक) जीवन के बाद का एक ऐसा स्थान है जिसमें बुरी आत्माओं को दंडात्मक पीड़ा के अधीन किया जाता है। इस्लाम के अनुसार अल्लाह /ईश्वर उन लोगों को जहन्नुम में डालेगा जो लोग दुनिया में उसके आदेशों का पालन नहीं करते हैं।
मुसलमानों के फ़राइज़ (कर्तव्य) और शरीयत
इस्लाम के ५ स्तम्भ
१ तौहीद(एक इश्वर) २ नमाज़ ३ रोज़ा (उपवास) ४ ज़ाक़त(दान करना) ५ हज (तीर्थ यात्रा)
इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं, शिया और सुन्नी। दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। बहुत से सुन्नी, शियाओं को पूर्णत: मुसलमान नहीं मानते। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के ५ आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के ५ स्तम्भ भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तम्भ कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के ५ स्तंभ हैं:-
१. साक्षी होना (शहादत )- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ में इस अरबी घोषणा से हैः इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है। यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकारे।
२. प्रार्थना (सलात)- इसे फ़ारसी में नमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह काबा (मक्का) की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में ५ बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में (शरीयत में आसान नियम बताये गए हैं ) इसे नहीं टाला जा सकता है।
३. व्रत (रमज़ान) (सौम )- इस के अनुसार इस्लामी कैलेंडर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये सूर्योदय (फजर) से सूर्यास्त (मग़रिब) तक व्रत रखना(भूखा प्यासा रहना)अनिवार्य है। इस व्रत को रोज़ा भी कहते हैं। रोज़े में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित(मना) है। अन्य व्यर्थ कर्मों से भी अपनेआप को दूर रखा जाता है। यौन गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। विवशता में रोज़ा रखना आवश्यक नहीं होता। रोज़ा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि दुनिया के बाकी आकर्षणों से ध्यान हटा कर ईश्वर से निकटता अनुभव की जाए और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो।
४. दान (ज़कात )- यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धन मुसलमानों में बांटना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का २.५% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पूंजी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल कि सुरक्षा होती है।
५. तीर्थ यात्रा (हज)- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के १२वें महीने में मक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।
शरीयत और इस्लामी न्यायशास्त्र
मुसलमानों के लिये इस्लाम जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव रखता है। इस्लामी सिद्धान्त मुसलमानों के घरेलू जीवन, उनके राजनैतिक या आर्थिक जीवन, मुसलमान राज्यों की विदेश निति इत्यादि पर प्रभाव डालते हैं। शरीयत उस समुच्चय नीति को कहते हैं जो इस्लामी कानूनी परम्पराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है। शरीयत की नीति को नींव बना कर न्यायशास्त्र के अध्य्यन को फिक़ह कहते हैं। फिक़ह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग अलग व्याख्याओं के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बट गया और कई अलग अलग न्यायशास्त्र से सम्बन्धित विचारधारओं का जन्म हुआ। इन्हें पन्थ कहते हैं। सुन्नी इस्लाम में प्रमुख पन्थ हैं-
हनफ़ी पन्थ- इसके अनुयायी दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में हैं।
मालिकी पन्थ-इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ भागों में हैं।
शाफ्यी पन्थ-इसके अनुयायी पूर्वी अफ़्रीका, अरब के कुछ भागों और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं।
हंबली पन्थ- इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं।
अधिकतर मुसलमानों का मानना है कि चारों पन्थ आधारभूत रूप से सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वह न्यायशास्त्र की बारीक व्याख्याओं को लेकर है।
पैगंबर मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम
पैगंबर मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम (५७०-६३२) को मक्का की पहाड़ियों में कुरान का ज्ञान ६१० के आसपास प्राप्त हुआ। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायीयों के साथ मक्का से [मदीना] के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरी(हिजरत)कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और हजरत मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम साहब के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। ६३२ में पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ।
वैज्ञानिक अध्ययन: इस्लामी इतिहास के शोधकर्ताओं ने समय के साथ इस्लाम के जन्मस्थान और किबला के परिवर्तन की जांच की है। पेट्रीसिया क्रोन, माइकल कुक और कई अन्य शोधकर्ताओं ने पाठ और पुरातात्विक अनुसंधान के आधार पर यह मान लिया है कि "मस्जिद अल-हरम" मक्का में नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिमी अरब प्रायद्वीप में स्थित था। डैन गिब्सन ने कहा कि पहले इस्लामिक मस्जिद और कब्रिस्तान झुकाव (क़िबला) ने पेट्रा की ओर इशारा किया, यहाँ मुहम्मद को अपने पहले रहस्योद्घाटन प्राप्त हुए, और यहाँ इस्लाम की स्थापना हुई।
राशिदून खलीफा और गृहयुद्ध
मुहम्मद के ससुर अबु बक्र सिद्दीक़ मुसलमानों के पहले खलीफा (सरदार) ६३२ में बनाये गये। कई प्रमुख मुसलमानों ने मिल के उनका खलीफा होना स्वीकार किया। सुन्नी मुसलमानों (८०-९०%) के अनुसार अबु बक्र सिद्दीक की खिलाफ़त के सम्बंध में कोई विवाद नहीं हुआ अपितु सभी ने उन्हे खलिफ़ा स्वीकार कर लिया था, सुन्नी मान्यताओं के अनुसार हजरत मुहम्मद साहब ने स्वयं अपने स्वर्गवास से पूर्व ही अबु बक्र सिद्दीक को अपने स्थान पर इमामत करने सलात (फ़ारसी में "नमाज") पढ़ाने का कार्य भार देकर अबु बक्र सिद्दीक के खलिफ़ा होने का संकेत दे दिया था । सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज मेंख़ुम्म सरोवरके निकट अपने साथियों को संबोधित किया था। शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को हजरत अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं किया। इसी बात को लेकर दोनों पक्षों में मतभेद शुरु होता है।
हज के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़ेसहाबियोंको बुला कर कहा कि मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तोउमरने कहा कि ये हिजयान कह रहे हे और नहीं देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम)। शिया इतिहास के अनुसार जब पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो भी ये वापस न आकर सकिफा में सभा करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और मित्र मुहम्मद साहब (स्०) को दफ़नाने में लगे थे,अबु बक़रमदीना में जाकर ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे। मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि कबीले) अबु बकर को खलीफा बनाने पर सहमत हो गये। ध्यान रहे कि मोहम्मद साहेब एवम अली के कबीले वाले यानिबनी हाशिमअली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार अली, जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतानफ़ातिमासे शादी की थी) ही मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया। इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे। परन्तु शिया मुस्लिम (१०-२०%)के अनुसार मुहम्मद के चाचा जाद भाई, अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। लेकिन यह विवाद इस्लाम की तबाही को रोक्ने के लिए वास्तव में हज़रत अली की सूझ बुझ के कारण टल गया अबु बक्र के कार्यकाल में पूर्वी रोमन साम्राज्य और ईरानी साम्राज्य से मुसलमान फौजों की लड़ाई हुई। यह युद्ध मुहम्मद के ज़माने से चली आ रही दुश्मनी का हिस्सा थे। अबु बक्र के बाद उमर बिन खत्ताब को ६३४ में खलीफा बनाया गया। उनके कार्यकाल में इस्लामी साम्राज्य बहुत तेज़ी से फैला और समपूर्ण ईरानी साम्राज्य और दो तिहाई पूर्वी रोमन साम्राज्य पर मुसलमानों ने कबजा कर लिया। पूरे साम्राज्य को विभिन्न प्रदेशों में बाट दिया गया और और हर प्रदेश का एक राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया जो की खलीफा का अधीन होता था।
उमर बिन खत्ताब के बाद उसमान बिन अफ्फान ६४४ में खलीफा बने। यह भी मुहम्मद के प्रमुख साथियों में से थे। उसमान बिन अफ्फान पर उनके विरोधियों ने ये आरोप लगाने शुरु किये कि वो पक्षपात से नियुक्तियाँ करते हैं और अली (मुहम्मद साहिब के चाचा जाद भाई) ही खलीफा होने के सही हकदार हैं। तभी मिस्र में विद्रोह की भावना जागने लगी और वहाँ से १००० लोगों का एक सशस्त्र समूह इस्लामी साम्राज्य की राजधानी मदीना आ गया। उस समय तक सभी खलीफा आम लोगों की तरह ही रहते थे। इस लिये यह समूह ६५६ में उसमान की हत्या करने में सफल हो गया। कुछ प्रमुख मुसलमानों ने अब अली को खलीफा स्वीकार कर लिया लेकिन कुछ प्रमुख मुसलमानों का दल अली के खिलाफ भी हो गया। इन मुसलमानों का मानना था की जबतक उसमान के हत्यारों को सज़ा नहीँ मिलती अली का खलीफा बनना सही नहीं है। यह इस्लाम का पहला गृहयुद्ध था। शुरु में इस दल के एक हिस्से की अगुआई आयशा, जो की मुहम्मद की पत्नी थी, कर रही थीं। अली और आश्या की सेनाओं के बीच में जंग हुई जिसे जंग-ए-जमल कहते हैं। इस जंग में अली की सेना विजय हुई। अब सीरिया के राज्यपाल मुआविया ने विद्रोह का बिगुल बजाया। मुआविया उसमान के रिश्तेदार भी थे मुआविया की सेना और अली की सेना के बीच में जंग हुई पर कोई परिणाम नहीं निकला। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।
शिया और सुन्नी वर्गों की नींव
अली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग रह गया जिसका मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद साहब के परिवार का ही हो सकता है। उनका मानना था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। यह वर्ग शिया वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद साहब का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी कहलाये। सुन्नी पहले चारों खलीफाओं को राशिदून खलीफा कहते हैं जिसका अर्थ है सही मार्ग पे चलने वाले खलीफा।
मुआविया के खलीफा बनने के बाद खिलाफत वंशानुगत हो गयी। इससे उमय्यद ख़िलाफ़त का आरंभ हुआ। शिया इतिहास कारों के अनुसार मुआविया क बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया, उसके कृत्य से धार्मिक मुसलमान असहज स्थिति में आ गए, अब यज़ीद को आयश्यकता थी कि अपनी गलत नीतिओ को ऐसे व्यक्ति से मान्यता दिला दे जिस पर सभी मुस्लमान भरोसा करते हो, इस काम के लिए यज़ीद ने हज़रत मुहम्मद के नवासे, हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद की इकलौती पुत्री फातिमा के पुत्र हज़रत हुसैन से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करनी चाही परन्तु हज़रत हुसैन ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी मंजूरी देने से मना कर दिया, हज़रत हुसैन के मना करने पर यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया,कई सुन्नी इतिहास कारों ने भी अपनी पुस्तकों में यज़ीद को हुसैन के क़त्ल का ज़िम्मेदार माना है परन्तु ये सभी शिया इतिहास कारों से प्रेरित थे या इनके ज्ञान का असल केन्द्र शियाओं की गढी़ गयी बनू उमय्या के विरुद्ध झूठी कहानियां है। सुन्नी मत के बड़े विद्वानों इमाम अहमद बिन हंब्ल, इमाम गंज़ाली वगैरह ने यज़ीद को क़त्ले हुसैन करने का ज़िम्मेदार नहीं माना है। इस जंग में हुसैन को शहादत प्राप्ति हो गयी। शिया लोग १० मुहर्रम के दिन इसी का शोक मनाते हैं।
इस्लाम का स्वर्ण युग (७५०-१२५८)
उम्मयद वंश ७० साल तक सत्ता में रहा और इस दौरान उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिन्ध और मध्य एशिया के कई हिस्सों पर उनका कब्ज़ा हो गया। उम्मयद वंश के बाद अब्बासी वंश ७५० में सत्ता में आया। शिया और अजमी मुसलमानों ने (वह मुसलमान जो कि अरब नहीं थे) अब्बासियों को उम्मयद वंश के खिलाफ विद्रोह करने में बहुत सहायता की। उम्मयद वंश की एक शाखा दक्षिण स्पेन और कुछ और क्षेत्रों पर सिमट कर रह गयी। केवल एक इस्लामी साम्राज्य की धारणा अब समाप्त होने लगी।
अब्बासियों के राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ। अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे। मुस्लिम दुनिया बहुत तेज़ी से विशव में ज्ञान केन्द्र बनने लगी। कई विद्वानों ने प्राचीन युनान, भारत, चीन और फ़ारसी सभय्ताओं की साहित्य, दर्शनशास्र, विज्ञान, गणित इत्यादी से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन किया और उनका अरबी में अनुवाद किया। विशेषज्ञों का मानना है कि इस के कारण बहुत बड़ा ज्ञानकोश इतिहास के पन्नों में खोने से रह गया। मुस्लिम विद्वानों ने सिर्फ अनुवाद ही नहीं किया। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी छाप भी छोड़ी।
चिकित्सा विज्ञान में शरीर रचना और रोगों से संबंधित कई नई खोजें भारत हूईं जैसे कि खसरा और चेचक के बीच में जो फर्क है उसे समझा गया। इबने सीना (९८०-१०३७) ने चिकित्सा विज्ञान से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं जो कि आगे जा कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार बनीं। इस लिये इबने सीना को आधुनिक चिकित्सा का पिता भी कहा जाता है। इसी तरह से अल हैथाम को प्रकाशिकी विज्ञान का पिता और अबु मूसा जबीर को रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है। अल ख्वारिज़्मी की किताब किताब-अल-जबर-वल-मुक़ाबला से ही बीजगणित को उसका अंग्रेजी नाम मिला। अल ख्वारिज़्मी को बीजगणित की पिता कहा जाता है।
इस्लामी दर्शनशास्त्र में प्राचीन युनानी सभय्ता के दर्शनशास्र को इस्लामी रंग से विकसित किया गया। इबने सीना ने नवप्लेटोवाद, अरस्तुवाद और इस्लामी धर्मशास्त्र को जोड़ कर सिद्धांतों की एक नई प्रणाली की रचना की। इससे दर्शनशास्र में एक नई लहर पैदा हुई जिसे इबनसीनावाद कहते हैं। इसी तरह इबन रशुद ने अरस्तू के सिद्धांतों को इस्लामी सिद्धांतों से जोड़ कर इबनरशुवाद को जन्म दिया। द्वंद्ववाद की मदद से इस्लामी धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की कला को विकसित किया गया। इसे कलाम कहते हैं। मुहम्मद साहब के उद्धरण, गतिविधियां इत्यादि के मतलब खोजना और उनसे कानून बनाना स्वयँ एक विषय बन गया। सुन्नी इस्लाम में इससे विद्वानों के बीच मतभेद हुआ और सुन्नी इस्लाम कानूनी मामलों में ४ हिस्सों में बट गया।
राजनैतिक तौर पर अब्बासी साम्राज्य धीरे धीरे कमज़ोर पड़ता गया। अफ्रीका में कई मुस्लिम प्रदेशों ने ८५० तक अपने आप को लगभग स्वतंत्र कर लिया। ईरान में भी यही हाल हो गया। सिर्फ कहने को यह प्रदेश अब्बासियों के अधीन थे। महमूद ग़ज़नी (९७१-१०३०) ने अपने आप को तो सुल्तान भी घोषित कर दिया। सल्जूक तुरकों ने अब्बासियों की सेना शक्ति नष्ट करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मध्य एशिया और ईरान के कई प्रदेशों पर राज किया। हालांकि यह सभी राज्य आपस में युद्ध भी करते थे पर एक ही इस्लामी संस्कृति होने के कारण आम लोगों में बुनियादी संपर्क अभी भी नहीं टूटा था। इस का कृषिविज्ञान पर बहुत असर पड़ा। कई फसलों को नई जगह ले जाकर बोया गया। यह मुस्लिम कृषि क्रांति कहलाती है।
विभिन्न मुस्लिम साम्राज्यों की रचना और इस्लाम
फातिमिद वंश (९०९-११७१) जो कि शिया था ने उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर के अपनी स्वतंत्र खिलाफत की स्थापना की। (हालांकि इस खिलाफत को अधिकतम मुसल्मान आज अवैध मानते हैं।) मिस्र में गुलाम सैनिकों से बने ममलूक वंश ने १२५० में सत्ता हासिल कर ली। मंगोलों ने जब १२५८ में अब्बासियों को बग़दाद में हरा दिया तब अब्बासी खलीफा एक नाम निहाद हस्ती की तरह मिस्र के ममलूक साम्राज्य की शरण में चले गये। एशिया में मंगोलों ने कई साम्राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया और बोद्ध धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लिया। मुस्लिम साम्राज्यों और इसाईयों के बीच में भी अब टकराव बढ़ने लगा। अय्यूबिद वंश के सलादीन ने ११८७ में येरुशलाईम को, जो पहली सलेबी जंग (१०९६-१०९९) में इसाईयों के पास आ गया था, वापस जीत लिया। १३वीं और १४वीं सदी से उस्मानी साम्राज्य(१२९९-१९२४) का असर बढ़ने लगा। उसने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप के कई प्रदेशों को और उत्तरी अफ्रीका को अपना अधीन कर लिया। खिलाफत अब वैध रूप से उस्मानी वंश की होने लगी। ईरान में शिया सफवी वंश(१५०१-१७२२) और भारत में दिल्ली सुल्तानों (१२०६-१५२७) और बाद में मुग़ल साम्राज्य(१५२६-१८५७) की हुकूमत हो गयी।
नवीं सदी से ही इस्लाम में अब एक धार्मिक रहस्यवाद की भावना का विकास होने लगा था जिसे सूफी मत कहते हैं। ग़ज़ाली (१०५८-११११) ने सूफी मत के पष में और दर्शनशास्त्र की निरर्थकता के बारे में कुछ ऐसे तर्क दिये थे कि दर्शनशास्त्र का ज़ोर कम होने लगा। सूफी काव्यात्मकता की प्रणाली का अब जन्म हुआ। रूमी (१२०७-१२७३) की मसनवी इस का प्रमुख उदाहरण है। सूफियों के कारण कई मुसलमान धर्म की ओर वापस आकर्षित होने लगे। अन्य धर्मों के कई लोगों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया। भारत और इंडोनेशिया में सूफियों का बहुत प्रभाव हुआ। मोइनुद्दीन चिश्ती, बाबा फरीद, निज़ामुदीन जैसे भारतीय सूफी संत इसी कड़ी का हिस्सा थे।
१९२४ में तुर्की के पहले प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद उस्मानी साम्राज्य समाप्त हो गया और खिलाफत का अंत हो गया। मुसल्मानों के अन्य देशों में प्रवास के कारण युरोप और अमरीका में भी इस्लाम फैल गया है। अरब दैशों में तेल के उत्पादन के कारण उनकी अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से सुधर गयी। १९वीं और २०वीं सदी में इस्लाम में कई पुनर्जागरण आंदोलन हुए। इन में से सलफ़ी और देवबन्दी मुख्य हैं। एक पश्चिम विरोधी भावना का भी विकास हुआ जिससे कुछ मुसलमान कट्टरपंथ की तरफ आकर्षित होने लगे।
विश्व में आज लगभग १.९ अरब (या फिर १९० करोड़) से २.० अरब (२०० करोड़) मुसलमान हैं। इन्में से लगभग ८५% सुन्नी और लगभग १5% शिया हैं। सुन्नी और शिया के अतिरिक्त इस्लाम में कुछ अन्य वर्ग भी हैं परन्तु इन का प्रभाव बहुत कम है। सबसे अधिक मुसलमान दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के देशों में रहते हैं। मध्य पूर्व, अफ़्रीका और यूरोप में भी मुसलमानों के बहुत समुदाय रहते हैं। विश्व में लगभग ५६देश ऐसे हैं जहां मुसलमान बहुमत में हैं। विश्व में कई देश ऐसे भी हैं जहां की मुसलमान जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है।
मुसलमानों के उपासनास्थल को मस्जिद कहते हैं। मस्जिद इस्लाम में केवल ईश्वर की प्रार्थना का ही केंद्र नहीं होता है बल्कि यहाँ पर मुस्लिम समुदाय के लोग विचारों का आदान प्रदान और अध्ययन भी करते हैं। मस्जिदों में अक्सर इस्लामी वास्तुकला के कई अद्भुत उदाहरण देखने को मिलते हैं। विश्व की सबसे ए अक़सा भी इस्लाम में महत्वपूर्ण हैं।बड़ी मस्जिद मक्का की मस्जिद अल हरम है। मुसलमानों का पवित्र स्थल काबा इसी मस्जिद में है। मदीना की मस्जिद अल नबवी और जेरूसलम की मस्जिद
पारिवारिक और सामाजिक जीवन
मुसलमानों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इस्लामी कानूनों और इस्लामी प्रथाओं से प्रभावित होता है। विवाह एक प्रकार का कानूनी और सामाजिक अनुबंध होता है जिसकी वैधता केवल पुरुष और स्त्री की मर्ज़ी और २ गवाहों से निर्धारित होती है (शिया वर्ग में केवल १ गवाह चाहिए होता है)। इस्लामी कानून स्त्रियों और पुरुषों को विरासत में आधा हिस्सा देता है। स्त्रियों का हिस्सा पुरुषों की तुलना में आधा होता है।
इस्लाम के दो महत्वपूर्ण त्यौहार ईद उल फितर और ईद-उल-अज़्हा हैं। रमज़ान का महीना (जो कि इस्लामी कैलेण्डर का नवाँ महीना होता है) बहुत पवित्र समझा जाता है। अपनी इस्लामी पहचान दिखाने के लिये मुसलमान अपने बच्चों का नाम अक्सर अरबी भाषा से लेते हैं। इसी कारण वह दाढ़ी भी रखते हैं। इस्लाम में कपड़े पहनते समय लज्जा रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इसलिये अधिकतर स्त्रियाँ बुर्का पहनती हैं और कुछ स्त्रियाँ नकाब भी पहनती हैं।
अन्य पन्थ से इस्लाम का सम्पर्क समय और परिस्थितियों से प्रभावित रहा है। यह सम्पर्क मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के समय से ही शुरु हो गया था। उस समय इस्लाम के अलावा अरब में ३ परम्पराओं के मानने वाले थे। एक तो अरब का पुराना पन्थ (जो अब लुप्त हो चुका है) था जिसकी वैधता इस्लाम ने नहीं स्वीकार की। इसका कारण था कि वह पन्थ ईश्वर की एकता को नहीं मानता था। जो कि इस्लाम के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध था। ईसाई पन्थ और यहूदी पन्थ को इस्लाम ने वैध तो स्वीकार कर लिया पर इस्लाम के अनुसार इन मज़हब के अनुयायीयों ने इनमें बदलाव कर दिये थे। मुहम्म्द सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने मक्का से मदीना पहुँचने के बाद वहाँ के यहूदियों के साथ एक सन्धि करी जिसमें यहूदियों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को स्वीकारा गया। अरब बहुदेववादियों के साथ भी एक सन्धि हुई जिसे हुदैबा की सुलह कहते हैं।
मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद से अक्सर राजनैतिक कारण अन्य धर्मों की ओर इस्लाम का व्यवहार निर्धारित करते आये हैं। जब राशिदून खलीफाओं ने अरब से बाहर कदम रखा तो उनका सामना पारसी पन्थ से हुआ। उसको भी वैध स्वीकार कर लिया गया। इन सभी धर्मों/पन्थ के अनुयायीयों को धिम्मी कहा गया। मुसलमान खलीफाओं को इन्हें एक शुल्क देना होता था जिसे जिज़्या या जजिया कहते हैं। इसके बदले राज्य उन्हें हानी न पहुँचाने और सुरक्षा देने का वादा करता था। उम्मयदों के कार्यकाल में इस्लाम कबूल करने वाले को अक्सर हतोत्साहित किया जाता था। इसका कारण था कि कई लोग केवल राजनैतिक और आर्थिक लाभों के लिये ही इस्लाम कबूल करने लगे थे। इससे जज़िया या जजिया कम होने लगा था।
इन्हें भी देखें
इस्लाम से पहले का अरब
इस्लाम का उदय
भारतीय उपमहाद्वीप का इस्लामिक इतिहास
कुरआन हिन्दी कुरआन के अरबी सहित हिन्दी अनुवाद |
ईसाई धर्म, ईसाइयत या मसीही धर्म (अंग्रेज़ी- क्रिस्टियानिटी, क्रिश्चियानिटी, , क्रिस्तियानिस्मोस् से व्युत्पन्न; ; अरामी: ) नासरत के यीशु के जीवन और शिक्षाओं पर आधारित एक इब्राहीमी एकेश्वरवादी धर्म है । यह दुनिया का सबसे बड़ा, सर्वाधिक जनसंख्या वाला सबसे व्यापक धर्म है, जिसके लगभग २.४ अरब अनुयायी वैश्विक जनसंख्या का एक तिहाई प्रतिनिधित्व करते हैं । अनुमान के अनुसार, इसके अनुयायी, जिन्हें ईसाई या मसीही कहा जाता है, १५७ देशों और क्षेत्रों में आबादी के बहुसंख्यक हैं, और यह मानते हैं कि यीशु ईश्वर के पुत्र हैं , जिनकी मसीहा के रूप में भविष्यवाणी हिब्रू बाइबिल ( ईसाई धर्म में जिसे पुराना नियम कहा जाता है) में की गई थी और बाइबिल के नए नियम में इसका वर्णन किया गया। यह विश्व के प्राचीन धर्मों में से एक है जो प्राचीन यहूदी परंपरा से निकला है। ईसाई परंपरा के अनुसार इसकी शुरुआत प्रथम सदी ई. में फिलिस्तीन में हुई है और आज इसके मुख्ययतः तीन संप्रदाय हैं, कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और पूर्वी रूढ़िवादी चर्च ईसाइयों के धर्मस्थल को गिरिजाघर कहते हैं।
ईसाई धर्मअपनीपश्चिमीऔरपूर्वी शाखाओं मेंसांस्कृतिक रूप से विविधहै , और उद्धार कीऔचित्य और प्रकृति,कलिसीयाशास्त्र, पुरोहिताभिषेकऔर मसीहशास्त्रके संबंध में सैद्धांतिक रूप से विविध है । विभिन्नईसाई संप्रदायोंके धर्मसारआम तौर पर यीशु को ईश्वर के पुत्र के रूप में मानते हैं -लोगोस् काअवतरित रूप - जिन्होंनेसेवकाई की,पीड़ा उठायाऔरक्रूस पर मृत्यु को प्राप्त हो गए,लेकिनमानव जाति केउद्धारके लिएमृतक से पुनः जी उठे ; जिसे कहा जाता हैसुसमाचार या गॉस्पेल, जिसका अर्थ है "अच्छी खबर"।यीशु के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन मत्ती,मरकुस, लुकाऔरयहुन्नाकेचारविहित सुसमाचारोंमें किया गया है , जिसमें पुराने नियम को सुसमाचार की सम्मानित पृष्ठभूमि के रूप में दर्शाया गया है।
ईसाई धर्मयीशु के जन्म के बादपहली शताब्दी मेंयहूदिया केरोमनप्रांतमेंहेलेनीयाई प्रभाववाले एकयहूदीसंप्रदाय के रूप में शुरू हुआ।बड़ी मात्रा में उत्पीड़नके बावजूद, यीशु के शिष्योंनेपूर्वी भूमध्यसागरीयक्षेत्रमेंअपनी अस्था फैलायी।अन्यजातियों और गैर-यहुदीयोंको शामिल करनेसे ईसाई धर्म धीरे-धीरेयहूदी परम्परा(दूसरी शताब्दी) से अलग हो गया। सम्राट कॉन्सटेंटाइन महान नेमिलान के राजादेशद्वारारोमन साम्राज्यमें ईसाई धर्म को अपराधमुक्त कर दिया(३१३), बाद मेंनिकिया परिषद(३२५) बुलाई गई जहां प्रारंभिक ईसाई धर्म कोरोमन साम्राज्य के राज्य चर्च(३८०) में समेकित किया गया।पूर्व की कलीसिया औरप्राच्य रूढ़ीवाद दोनोंमसीहशास्त्र(५वीं शताब्दी)में मतभेदों के कारण अलग हो गए,जबकिपूर्वी रूढ़ीवादि कलीसियाऔरकैथोलिक कलीसियापूर्व-पश्चिम विच्छेद(10५4)में अलग हो गए । धर्मसुधारयुग (१६वीं शताब्दी) मेंप्रोटेस्टेंटवादकैथोलिक चर्च से कई संप्रदायों में विभाजित हो गया ।खोज के युग काअनुसरण (1५वीं-१७वीं शताब्दी), धर्मप्रचार कार्य, व्यापक व्यापार और उपनिवेशवाद केमाध्यम से ईसाई धर्म का दुनिया भर में विस्तार हुआ।ईसाई धर्म ने पाश्चात्य सभ्यताकेविकासमें, विशेष रूप से यूरोप मेंप्राचीन कालऔरमध्य युग सेएक प्रमुख भूमिकानिभाई।
ईसाई धर्म की छह प्रमुखशाखाएँहैं: रोमन कैथोलिक पंथ(१.३ अरब लोग),प्रोटेस्टेंटवाद(८० करोड़),पूर्वी रूढ़िवादी(२२ करोड़),प्राच्य रूढ़िवादी(६ करोड़), पुनर्स्थापनवाद(३.५ करोड़) ,औरपूर्व की कलीसिया(६00 हजार)।एकता ( सार्वभौमिक अंतरकलिसीयाई एकतावाद)के प्रयासों के बावजूद छोटे चर्च समुदायों की संख्या हजारों में है।पश्चिममें , ईसाई धर्मपालन में गिरावटके बावजूद भी यह वहाँ का प्रमुख धर्म बना हुआ है, जिसकी लगभग ७०% आबादी ईसाई के रूप में स्वयं की पहचान रखती है। दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले महाद्वीपअफ्रीका औरएशियामेंईसाई धर्म बढ़ रहा है। ईसाइयों को दुनिया के कई क्षेत्रों में, विशेष रूप सेमध्य पूर्व,उत्तरी अफ्रीका,पूर्वी एशियाऔरदक्षिण एशिया व भारतमें बहुतउत्पीड़ितजाता है।
इस पन्थ की मान्यता यह है कि परमेश्वर आत्मा है और आत्मा का हड्डी और मांस नहीं होता है अर्थात् जिसे हम देख नही सकते उसकी प्रतिमा कैसे बना सकते हैं। उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर को कभी किसी ने भी शारीरिक आंखों से नही देखा। पर परमेश्वर ने मानवजाति पर अपनी प्रेम इस रीति प्रकट किया कि उसने मनुष्य रूप धारण किया। वह पराकर्मी परमेश्वर जिसने काल, समय और मनुष्य को बनाया। वह खुद अपने काल, समय, में सिमटकर आया। ताकि मानवजाति उसके द्वारा अपने अपने पापों से छुटकारा पा सके।
चौथी सदी तक यह पन्थ किसी क्रांति की तरह फैला, किंतु इसके बाद ईसाई पन्थ में अत्यधिक ||कर्मकांडों|| की प्रधानता तथा पन्थ सत्ता ने दुनिया को अंधकार युग में धकेल दिया था। फलस्वरूप पुनर्जागरण के बाद से इसमें रीति-रिवाजों के बजाय आत्मिक परिवर्तन पर अधिक जोर दिया जाता है।
ईसाई तीन तत्त्व वादी हैं, और वे ईश्वर को तीन रूपों में समझते हैं - परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा।
परमपिता इस सृष्टि के रचयिता हैं और इसके शासक भी।
ईसा मसीह स्वयं परमेश्वर के पुत्र है| जो पतन हुए (पापी) सभी मनुष्यों को पाप और मृत्यु से बचाने के लिए जगत में देहधारण होकर (देह में होकर) आए थे। परमेश्वर जो पवित्र हैं। एक देह में प्रकट हुए ताकि पापी मनुष्यों को नहीं परंतु मनुष्यों के अंदर के पापों को खत्म करें। वे इस पृथ्वी पर जो पापी, बीमार, मूर्खों और सताए हुए थे उनका पक्ष लिया और उनके बदले में पाप की कीमत अपनी जान देकर चुकाई ताकि मनुष्य बच सकें। यह पापी मनुष्य और पवित्र परमेश्वर के मिलन का मिशन था जो प्रभु ईसा मसीह के कुरबानी से पूरा हुआ। एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर हो कर उन्होंने पापियों को नहीं मारा बल्कि पाप का इलाज किया।
यह बात परमेश्वर पिता का मनुष्यों के प्रति अटूट प्रेम को प्रकट करता है। मनुष्यों को पाप से बचाने के लिये परमेश्वर शरीर में आए। यह बात ही ईसा मसीह का परिचय है। ईसा मसीह परमेश्वर के पुत्र थे। यही बात आज का ईसाई धर्म का आधार है। उन्होंने स्वयं कहा मैं हूँ। ईसा मसीह (यीशु) एक यहूदी थे जो इजराइल के गाँव बेतलहम में जन्मे है (४ ईसा पूर्व)। ईसाई मानते हैं कि उनकी माता मरियम "नर्तकी" थीं। ईसा मसीह उनके गर्भ में परमपिता परमेश्वर की कृपा से चमत्कारिक रूप से आये है। ईसा मसीह के बारे में यहूदी रब्बीयों ने भविष्यवाणी की थी कि एक मसीहा (नबी) जन्म लेगा। ईसा मसीह ने इजराइल में यहूदियों के बीच प्रेम का संदेश सुनाया और कहा कि वो ही ईश्वर के पुत्र हैं। इन बातों पर पुराणपंथी यहूदी धर्मगुरु भड़क उठे और उनके कहने पर इजराइल के रोमन राज्यपाल ने ईसा मसीह को क्रॉस पर चढ़ाकर मारने का प्राणदंड दे दिया। ईसाई मानते हैं कि इसके तीन दिन बाद ईसा मसीह का पुनरुत्थान हुआ या ईसा मसीह पुनर्जीवित हो गये। ईसा के उपदेश बाइबिल के नये नियम में उनके १२ शिष्यों द्वारा रेखांकित किये गये हैं।
ईसा मसीह का पुनरुत्थान यानी मृत्यु पर विजय पाने के बाद अथवा तीसरे दिन में जीवित होने के बाद ईसा मसीह एक साथ प्रार्थना कर रहे सभी शिष्य और अन्य मिलाकर कुल ४० लोग वहाँ मौजूद थे पहले उन सभी के सामने प्रकट हुए । उसके बाद बहुत सी जगहों पर और बहुत लोगो के साथ भी।
पवित्र आत्मा त्रित्व परमेश्वर के तीसरे व्यक्तित्व हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपने अंदर ईश्वर का अहसास करता है। ये ईसा मसीह के गिरजाघर एवं अनुयाईयों को निर्देशित करते हैं।
ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल में दो भाग हैं। पहला भाग पुराना नियम कहलाता है, जो कि यहूदियों के धर्मग्रंथ तनख़ का ही संस्करण है। दूसरा भाग नया नियम कहलाता तथा ईसा मसीह के उपदेश, चमत्कार और उनके शिष्यों के कामों का वर्णन करता है।
ईसाइयों के मुख्य संप्रदाय हैं :
कैथोलिक संप्रदाय में पोप को सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।
ऑर्थोडॉक्स रोम के पोप को नहीं मानते, पर अपने-अपने राष्ट्रीय धर्मसंघ के कुलपति (पैट्रिआर्च) को मानते हैं और परंपरावादी होते हैं।
प्रोटेस्टेंट किसी पोप को नहीं मानते है और इसके बजाय पवित्र बाइबल में पूरी श्रद्धा रखते हैं। मध्य युग में जनता के बाइबिल पढ़ने के लिए नकल करना मना था। जिससे लोगो को ईसाई धर्म का उचित ज्ञान नहीं था। कुछ बिशप और पादरियों ने इसे सच्चे ईसाई धर्म के अनुसार नहीं समझा और बाइबिल का अपनी अपनी भाषाओ में भाषांतर करने लगे, जिसे पोप का विरोध था। उन बिशप और पादारियों ने पोप से अलग होके एक नया संप्रदाय स्थापित किया जिसे प्रोटेस्टेंट कहते हैं।
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(खालसा या सिखमत ;पंजाबी: ) सिख एक भारतीय धर्म है, और एक दर्शनशास्र है, जिसकी शुरुआत १५वीं शताब्दी के अंत में गुरु नानक देव जी ने भारतीय उपमहाद्वीप के पंजाब क्षेत्र में की थी। धर्म में इनके धार्मिक स्थल को गुरुद्वारा कहते हैं। आमतौर पर सिखों के दस सतगुर माने जाते हैं, लेकिन सिखों के धार्मिक ग्रंथ में छः गुरुओं सहित तीस भगतों की बानी है, जिन की सामान सिख्याओं को सिख मार्ग पर चलने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह एक पंथइस्म बेलीफ/सर्वेश्वरवाद आस्था /में एक ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास करने वाला धर्म हे।इसमें लगभग २५-३० मिलियन अनुयायी शामिल हैं (जिन्हें सिख कहा जाता है)।
१४६९ ईस्वी में पंजाब में जन्मे नानक देव ने गुरमत को खोजा और गुरमत की सिख्याओं को देश देशांतर में खुद जा कर फैलाया था। सिख उन्हें अपना पहला गुरु मानते हैं। गुरमत का परचार बाकि ९ गुरुओं ने किया। १०वे गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ये परचार खालसा को सोंपा और ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब की सिख्याओं पर अम्ल करने का उपदेश दिया। इसकी धार्मिक परम्पराओं को गुरु गोबिन्द सिंह ने ३० मार्च 16९९ के दिन अंतिम रूप दिया। विभिन्न जातियों के लोग ने सिख गुरुओं से दीक्षा ग्रहणकर ख़ालसा पन्थ को सजाया। पाँच प्यारों ने फिर गुरु गोबिन्द सिंह को अमृत देकर ख़ालसे में शामिल कर लिया। इस ऐतिहासिक घटना ने सिख पंंथ के तक़रीबन ३०0 साल इतिहास को तरतीब किया। संत कबीर, धना, साधना, रामानंद, परमानंद, नामदेव इतियादी, जिन की बानी आदि ग्रंथ में दर्ज है, उन भगतों को भी सिख सत्गुरुओं के सामान मानते हैं और उन कि सिख्याओं पर अमल करने कि कोशिश करते हैं। सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं और किसी भी देवी देवता की मूर्ति अति चित्र की पूजा करना सीख धर्म में मना है, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है।
भारत में सिख का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े।
गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं।
पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार।
आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू।
कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥६॥
(आदिग्रन्थ, पृ. ५५)
गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-
सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ।
ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥
(आदिग्रन्थ, पृ. ६१७)
सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ १५ संतों एवं १४ रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास १५ संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे १४ रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया।
उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य १६०४ ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में १५ संतों के कुल ७७८ पद हैं। इनमें ५४१ कबीर साहेब के, १२२ शेख फरीद के, ६० नामदेव के और ४० संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत ४०0 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। लेकिन अपने देहावसान के पूर्व गुरु गोविन्द सिंह ने सभी सिखों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए गुरु ग्रन्थ साहब और उनके सांसारिक दिशा-निर्देशन के लिए समूचे खालसा पंथ को गुरु पद पर आसीन कर दिया। उस समय आदिग्रन्थ गुरु साहब के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।
सिख धर्म को कालजयी बनाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने सभी धर्मों और जातियों के लोगों को गुरु-शिष्य-परम्परा में दीक्षित किया। उन्होंने आने वाली शताब्दियों के लिए इस नए मनुष्य का सृजन किया। यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संचरना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (ज़फ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी।
यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ।
सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई लंगर (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है।
सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है।
पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है। सिख गुरुओं का इतिहास उठाकर देख लीजिए, उन्होंने साम्राज्यवादी अवधारणा कतई नहीं बनाई, उल्टे सांस्कृति, क धार्मिक एवं आध्यात्मिक सामंजस्य के माध्यम से मानवतावादी संसार की दृष्टि ही करते रहे। आज़ादी के पूर्व, भारत-पाक विभाजन एवं इसके बाद कई दशकों में पंजाब में समय-समय पर आए हिंसात्मक-ज़लज़लों एवं निर्दयी विध्वंसों के बावजूद इस धरती के लोगों ने अपना शान्तिपूर्ण अस्तित्व बनाए रखा है। कौंध इनका मार्गदर्शन करती रही है।
सिख का इतिहास, पंजाब का इतिहास और दक्षिण एशिया (मौजूदा पाकिस्तान और भारत) के १६वीं सदी के सामाजिक-राजनैतिक महौल से बहुत मिलता-जुलता है। दक्षिण एशिया पर मुग़लिया सल्तनत के दौरान (१५५६-१७०७), लोगों के मानवाधिकार की हिफ़ाज़ात हेतु सिखों के संघर्ष उस समय की हकूमत से थी, इस कारण से सिख गुरुओं ने मुस्लिम मुगलों के हाथो बलिदान दिया। इस क्रम के दौरान, मुग़लों के ख़िलाफ़ सिखों का फ़ौजीकरण हुआ। सिख मिसलों के अधीन 'सिख राज' स्थापित हुआ और महाराजा रणजीत सिंह के हकूमत के अधीन सिख साम्राज्य, जो एक ताक़तवर साम्राज्य होने के बावजूद इसाइयों, मुसलमानों और हिन्दुओं के लिए धार्मिक तौर पर सहनशील और धर्म निरपेक्ष था। आम तौर पर सिख साम्राज्य की स्थापना सिख धर्म के राजनैतिक तल का शिखर माना जाता है, इस समय पर ही सिख साम्राज्य में कश्मीर, लद्दाख़ और पेशावर शामिल हुए थे। हरी सिंह नलवा, ख़ालसा फ़ौज का मुख्य जनरल था जिसने ख़ालसा पन्थ का नेतृत्व करते हुए ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से पार दर्र-ए-ख़ैबर पर फ़तह हासिल करके सिख साम्राज्य की सरहद का विस्तार किया। धर्म निरपेक्ष सिख साम्राज्य के प्रबन्ध के दौरान फ़ौजी, आर्थिक और सरकारी सुधार हुए थे।
१९४७ के बाद पंजाब का बँटवारा की तरफ़ बढ़ रहे महीनों के दौरान, पंजाब में सिखों और मुसलमानों के दरम्यान तनाव वाला माहौल था, जिसने पश्चिम पंजाब के सिखों और हिन्दुओं और दूसरी ओर पूर्व पंजाब के मुसलमानों का प्रवास संघर्षमय बनाया।
सिखों के दस गुरु है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी
श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी सिखों का धार्मिक ग्रन्थ है।
सिखमत की शुरुआत ही "एक" से होती है। सिखों के धर्म ग्रंथ में "एक" की ही व्याख्या हैं। एक को निरंकार, पारब्रह्म आदिक गुणवाचक नामों से जाना जाता हैं। निरंकार का स्वरूप श्री गुरुग्रंथ साहिब के शुरुआत में बताया है जिसको आम भाषा में 'मूल मन्त्र' कहते हैं।
१ओंकार, सतिनामु, करतापुरखु, निर्भाओ, निरवैरु, अकालमूर्त, अजूनी, स्वैभंग गुर पर्सादि॥जपु॥आदि सचु जुगादि सचु ॥है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥ पर मूल मन्त्र समाप्त होता है।
तकरीबन सभी धर्म इसी "एक" की आराधना करते हैं, लेकिन "एक" की विभिन्न अवस्थाओं का ज़िक्र व व्याख्या श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दी गई है वो अपने आप में निराली है।
जीव आत्मा जो निराकार है, उस के पास निरंकार के सिर्फ ४ ही गुण व्याप्त है
औंकार, सतिनाम, करता पुरख, स्वैभंग
बाकी चार गुण प्राप्त करते ही जीव आत्मा वापस निरंकार में समां जाती है, लेकिन उसको प्राप्त करने के लिए जीव आत्मा को खुद को गुरमत के ज्ञान द्वारा समझना ज़रूरी है। इसे सिख धर्म में "आतम चिंतन" कहा जाता है।
आत्मा का निराकारी स्वरूप मन (आत्म), चित (परात्म), सुरत, बुधि, मति आदिक की जानकारी सिख धर्म के मूल सिख्याओं में दी जाती है। इन की गतिविधिओं को समझ कर इंसान खुद को समझ सकता है।
सिख धर्म की शुरुआत ही आतम ज्ञान से होती है। आत्मा क्या है? कहा से आई है? वजूद क्यों है? करना क्या है इतिहादी रूहानियत के विशे सिख प्रचार द्वारा पढाये जाते हैं। आत्मा के विकार क्या हैं, कैसे विकार मुक्त हो। आत्मा स्वयम निरंकार की अंश है। इसका ज्ञान करवाते करवाते निरंकार का ज्ञान हो जाता है।
पाप पुण्य दोउ एक सामान
सिख्मत कार्मिक फल में यकीन नहीं रखता। अन्य धर्मो का कहना है कि प्रभु को अछे कर्म पसंद हैं और बुरे कर्मो वालों के साथ परमेश्वर बहुत बुरा करता है। लेकिन सिख धर्म के अनुसार इंसान खुद कुछ कर ही नहीं सकता। इंसान सिर्फ़ सोचने तक सीमित है करता वही है जो "हुक्म" में है, चाहे वो किसी गरीब को दान दे रहा हो चाहे वो किसी को जान से मार रहा हो। यही बात श्री गुरुग्रन्थ साहिब जी के शुरू में ही दृढ़ करवा दी थी :
हुक्मे अंदर सब है बाहर हुक्म न कोए
जो हिता है हुकम में ही होता है। हुक्म से बाहर कुछ नहीं होता।
इसी लिए गुरमत में पाप पुण्य को नहीं मन जाता। अगर इंसान कोई क्रिया करता है तो वो अंतर आत्मा के साथ आवाज़ मिला कर करे। यही कारण है की गुरमत कर्म कांड के विरुद्ध है। श्री गुरु नानक देव जी ने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए जन-साधारण को धर्म के ठेकेदारों, पण्डों, पीरों आदि के चंगुल से मुक्त करने की कोशिश की।
निम्नलिखित चार 'पदार्थ' मानव को अपने जीवनकाल में प्राप्त करना अनिवार्य है :
(१) ज्ञान पदार्थ या प्रेम पदार्थ : यह पदार्थ किसी से ज्ञान लेकर प्राप्त होता है। कहीं से गुरमत का ज्ञान पढ़ कर या समझ कर। भक्त लोक ये पदार्थ देते हैं। इसमे माया में रह कर माया से टूटने का ज्ञान है। सब विकारों को त्यागना और निरंकार को प्राप्ति करना ही विषये है।
(२) मुक्त पदार्थ: ज्ञान के बाद ही मुक्त है। माया की प्यास ख़त्म हो गयी है। मन चित एक है। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं।
(३) नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको धुर की बनी भी कहते हैं। ये बगैर कानो के सुनी जाती है और हृदय में प्रगत होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है।
(३)जन्म पदार्थ: ""नानक नाम मिले तां जीवां"", यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है लेकिन सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो हुकम होता है वो करता है
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं:
ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन, कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत को
वस्तु पूजा का खंडन
सिखमत में भक्तों एवम सत्गुरों ने निरंकार को अकार रहित कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ तो एक दिन खत्म हो जाते हैं लेकिन परब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे अकाल कहा गया है। यही नहीं जीव आत्मा भी आकर रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका वजूद शरीर के बगैर भी है, जो आम मनुष्य की बुधि से दूर है।
यही कारण है की सिखमत मूर्ति पूजा के सख्त खिलाफ़ है। सत्गुरुओं एवं भक्तों ने मूर्ती पूजकों को अँधा, जानवर इतियादी शब्दों से निवाजा है। उस की तस्वीर बने नहीं जा सकती। यही नहीं कोई भी संसारी पदार्थ जैसे की कबर, भक्तो एवं सत्गुरुओं के इतिहासक पदार्थ, प्रतिमाएं आदिक को पूजना सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ़ है।
धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान एक विधि जो निरंकार के देश की तरफ लेकर जाती है, जिसके समक्ष सिख नतमस्तक होते हैं, लेकिन धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ है।
अवतारवाद और पैगम्बरवाद का खंडन
सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है "मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान"। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं।
पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान आम लोकई में बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि "हर जुग जुग भक्त उपाया"। भक्त समे दर समे पैदा होते हैं और निरंकार का सन्देश लोगों तक पहुंचाते हैं। सिखमत "ला इलाहा इल्ल अल्लाह (अल्लाह् के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है )" से सहमत है लेकिन सिर्फ़ मुहम्मद ही रसूल अल्लाह है इस बात से सहमत नहीं। अर्जुन देव जी कहते हैं "धुर की बानी आई, तिन सगली चिंत मिटाई", अर्थात् मुझे धुर से वाणी आई है और मेरी सगल चिंताएं मिट गई हैं किओंकी जिसकी ताक में मैं बैठा था मुझे वो मिल गया है।
मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |
यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |
आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |
भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |
आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |
दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है।
दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है।
सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैं
सिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |
आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं। और पुरातन ग्रन्थ की मदद के साथ साथ गुरमत को ध्यान में रखते हुए इतिहास लिख रहे हैं |
इन्हें भी देखें
गुरु गोविन्द सिंह
सिखों के दस गुरू
गुरु ग्रंथ साहिब
महाराजा रणजीत सिंह |
बौद्ध धर्म नेपाल की श्रावक परंपरा से निकला ज्ञान धर्म और दर्शन है। श्रावक ( संस्कृत ) या सावक ( पाली ) का अर्थ है "सुनने वाला" या, अधिक सामान्यतः, "शिष्य"। इस शब्द का प्रयोग बौद्ध धर्म और जैन धर्म में किया जाता है । ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया गया। गौतम बुद्ध का जन्म सिंहली परंपरा के अनुसार ६२४ ईसा पूर्व । एक सामान्य परंपरा के अनुसार ५६३ ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल में) में में हुआ, उन्हें बोध गया में ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके बाद सारनाथ में प्रथम उपदेश दिया, और उनका महापरिनिर्वाण ४८३ ईसा पूर्व कुशीनगर,भारत में हुआ था। उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी फैल गया। भगवान बुद्ध ओर महात्मा बौद्ध दोनों एक ही है ,
हीनयान, थेरवाद, महायान और वज्रयान धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय हैं। दुनिया के करीब २ अरब (२9%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का ७% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालाँकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं। प्रबुद्ध सोसाइटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. श्री प्रकाश बरनवाल के अनुसार दुनिया के २00 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं। किन्तु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैंड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कंबोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल १३ देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी करोड़ों बौद्ध अनुयायी हैं।
गौतम बुद्ध के जीवन के विषय में प्रामाणिक सामग्री विरल है। इस प्रसंग में उपलब्ध अधिकांश वृत्तान्त एवं कथानक भक्तिप्रधान रचनाएँ हैं और बुद्धकाल के बहुत बाद के हैं। प्राचीनतम सामग्री में पालि त्रिपिटक के कुछ स्थलों पर उपलब्ध अल्प विवरण उल्लेख्य हैं, जैसे - बुद्ध की पर्येषणा, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन एवं महापरिनिर्वाण के विवरण। बुद्ध की जीवनी के आधुनिक विवरण प्रायः पालि की निदानकथा अथवा संस्कृत के महावस्तु, ललितविस्तर एवं अश्वघोष कृत बुद्धचरित पर आधारित होते हैं। किंतु इन विवरणों की ऐतिहासिकता वहीं तक स्वीकार की जा सकती है जहाँ तक उनके लिए प्राचीनतर समर्थन उपलब्ध हों।
ईसा पूर्व ५६३ के लगभग शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी वन में गौतम बुद्ध का जन्म प्रसिद्ध है। यह स्थान वर्तमान नेपाल राज्य के अंतर्गत भारत की सीमा से ७ किलोमीटर दूर है। यहाँ पर प्राप्त अशोक के रुम्मिनदेई स्तंभलेख से ज्ञात होता है 'हिद बुधे जाते' (= यहाँ बुद्ध जन्मे थे)। सुत्तनिपात में शाक्यों को हिमालय के निकट कोशल में रहनेवाले गौतम गोत्र के क्षत्रिय कहा गया है। कोशलराज के अधीन होते हुए भी शाक्य जनपद स्वयं एक गणराज्य था। इस प्रकार के राजा शुद्धोदन बुद्ध के पिता एवं मायादेवी उनकी माता प्रसिद्ध हैं। जन्म के पाँचवे दिन बुद्ध को 'सिद्धार्थ' नाम दिया गया और जन्मसप्ताह में ही माता के देहांत के कारण उनका पालन-पोषण उनकी मौसी एवं विमाता महाप्रजापती गौतमी द्वारा हुआ।
बुद्ध के शैशव के विषय में प्राचीन सूचना अत्यंत अल्प है। सिद्धार्थ के बत्तीस महापुरुषलक्षणों को देखकर असित मुनि ने उनके बुद्धत्व की भविष्यवाणी की, इसके अनेक वर्णन मिलते हैं। ऐसे भी कहा जाता है कि एक दिन जामुन की छाँह में उन्हें सहज रूप में प्रथम ध्यान की उपलब्धि हुई थी। दूसरी ओर ललितविस्तार आदि ग्रंथों में उनके शैशव का चमत्कारपूर्ण वर्णन प्राप्त होता है। ललितविस्तर के अनुसार जब सिद्धार्थ को देवायतन ले जाया गया तो देवप्रतिमाओं ने स्वयं उठकर उन्हें प्रणाम किया। उनके शरीर पर सब स्वर्णाभरण मलिन प्रतीत होते थे, लिपिशिक्षक आचार्य विश्वामित्र को उन्होंने ६४ लिपियों का नाम लेकर और गणक महामात्र अर्जुन को परमाणु-रजः प्रवेशानुगत गणना के विवरण से विस्मय में डाल दिया। नाना शिल्प, अस्त्रविद्या, एवं कलाओं में सहज-निष्णात सिद्धार्थ का दंडपाणि की पुत्री गोपा के साथ परिणय संपन्न हुआ। पालि आकरों के अनुसार सिद्धार्थ की पत्नी सुप्रबुद्ध की कन्या थी और उसका नाम 'भद्दकच्चाना', भद्रकात्यायनी, यशोधरा, बिंबा, अथवा बिंबासुंदरी था। विनय में उसे केवल 'राहुलमाता' कहा गया है। बुद्धचरित में यशोधरा नाम दिया गया है।
सिद्धार्थ के प्रव्राजित होने की भविष्यवाणी से भयभीत होकर शुद्धोदन ने उनके लिए तीन विशिष्ट प्रासाद (महल) बनवाएँ - ग्रैष्मिक, वार्षिक, एवं हैमंतिक। इन्हें रम्य, सुरम्य और शुभ की संज्ञा भी दी गई है। इन प्रासादों में सिद्धार्थ को व्याधि और जन्म-मरण से दूर एक कृत्रिम, नित्य मनोरम लोक में रखा गया जहाँ संगीत, यौवन और सौंदर्य का अक्षत साम्राज्य था। किंतु देवताओं की प्रेरणा से सिद्धार्थ को उद्यानयात्रा में व्याधि, जरा, मरण और परिव्राजक के दर्शन हुए और उनके चित्त में प्रव्राज्या का संकल्प विरूढ़ हुआ। इस प्रकार के विवरण की अत्युक्ति और चमत्कारिता उसके आक्षरिक सत्य पर संदेह उत्पन्न करती है। यह निश्चित है कि सिद्धार्थ के मन में संवेग संसार के अनिवार्य दुःख पर विचार करने से उत्पन्न हुआ। उनकी ध्यानप्रवणता ने, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, इस दुःख की अनुभूति को एक गंभीर सत्य के रूप में प्रकट किया होगा। निदानकथा के अनुसार इसी समय उन्होंने पुत्रजन्म का संवाद सुना और नवजात को 'राहुल' नाम मिला। उसी अवसर पर प्रासाद की ओर जाते हुए सिद्धार्थ की शोभा से मुग्ध होकर राजकुमारी कृशा गौतमी ने उनकी प्रशंसा में एक प्रसिद्ध गाथा कही जिसमें 'नुबुत्त' (निर्वृत्त, प्रशांत) शब्द आता है।
निब्बुता नून सा माता निब्बुतो नून सो पिता।
निब्बुता नून सा नारी यस्सायमीदिसो पति॥
(अवश्य ही परम शांत है वह माता, परम शांत है वह पिता, परम शांत है वह नारी जिसका ऐसा पति हो।)
सिद्धार्थ को इस गाथा में गुरुवाक्य के समान गंभीर आध्यात्मिक संकेत उपलब्ध हुआ। उन्होने सोचा कि इसने पाप और पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए मुझे संदेश दिया है। इसके साथ ही उन्होने मोतियों का अपना हार उतारकर उस युवती को दे दिया।
आधी रात के अंधकार में सोती हुई पत्नी और पुत्र को छोड़कर सिद्धार्थ कंथक पर आरूढ़ हो नगर से और कुटुंबजीवन से निष्क्रांत हुए। उस समय सिद्धार्थ २९ वर्ष के थे। निदानकथा के अनुसार रात भर में शाक्य, कोलिय और मल्ल (राम ग्राम) इन तीन राज्यों को पार कर सिद्धार्थ ३० योजन की दूरी पर अनोमा नाम की नदी के तट पर पहुँचे। वहीं उन्होंने प्रव्राज्या के उपयुक्त वेश धारण किया और छन्दक को विदा कर स्वयं अपनी अनुत्तर शांति की पर्येषणा (खोज) की ओर अग्रसर हुए।
आर्य पर्येषणा के प्रसंग में सिद्धार्थ अनेक तपस्वियों से मिले जिनमें आलार कालाम (आराड़) एवं उद्दक रामपुत्त (रुद्रक) मुख्य हैं। ललितविस्तर में आलार कालाम का स्थान वैशाली कहा गया है जबकि अश्वघोष के बुद्धिचरित में उसे विंध्य कोष्ठवासी बताया गया है। पालि निकायों से विदित होता है कि कालाम ने बोधिसत्व को 'आर्किचन्यायतन' नाम की 'अल्प समापत्ति' सिखाई। अश्वघोष ने कालाम के सिद्धांतों का सांख्य से सादृश्य प्रदर्शित किया है। ललितविस्तर में रुद्रक का आश्रम राजगृह के निकट कहा गया है। रुद्रक के 'नैवसंज्ञानासंज्ञायतन' के उपदेश से भी बोधिसत्व असंतुष्ट रहे। राजगृह में उनका मगधराज बिंबिसार से साक्षात्मार सुत्तनिपात के पब्बज्जसुत्त, ललितविस्तर और बुद्धचरित में वर्णित है।
गया में बोधिसत्व ने यह विचार किया कि जैसे गीली लकड़ियों से अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती, ऐसे ही भोगों में स्पृहा रहते हुए ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव उरुविल्व के निकट सेनापति ग्राम में निरंजना नदी के तटवर्ती रमणीय प्रदेश में उन्होंने कठोर तपश्चर्या (प्रधान) का निश्चय किया। किंतु अंततोगत्वा उन्होंने तप को व्यर्थ समझकर छोड़ दिया। इसपर उनके साथ कौंडिन्य आदि पंचवर्षीय परिव्राजकों ने उन्हें तपोभ्रष्ट निश्चित कर त्याग दिया। बोधिसत्व ने अब शैशव में अनुभूत ध्यानाभ्यास का स्मरण कर ध्यान के द्वारा ज्ञानप्राप्ति का यत्न किया। इस ध्यानकाल में उन्हें मार सेना का सामना करना पड़ा, यह प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित है। स्पष्ट ही मार घर्षण को काम और मृत्यु पर विजय का प्रतीकात्मक विवरण समझना चाहिए। आर्य पर्येषणा के छठे वर्ष के पूरे होने पर वैशाखी पूर्णिमा को बोधिसत्व ने संबोधि प्राप्त की। रात्रि के प्रथम याम में उन्होंने पूर्वजन्मों की स्मृति रूपी प्रथम विद्या, द्वितीय याम में दिव्य चक्षु और तृतीय याम में प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान प्राप्त किया। एक मत से इसके समानांतर ही सर्वधर्माभिसमय रूप सर्वाकारक प्रज्ञा अथवा संबोधि का उदय हुआ।
संबोधि के अनंतर बुद्ध के प्रथम वचनों के विषय में विभिन्न परंपराएँ हैं जिनमें बुद्धघोष के द्वारा समर्थित 'अनेक जाति संसार संघाविस्सं पुनप्पुनं' आदि गाथाएँ विशेषतः उल्लेखनीय हैं। संबोधि की गंभीरता के कारण बुद्ध के मन में उसके उपदेश के प्रति उदासीनता स्वाभाविक थी। संसारी जीव उस गंभीर सत्य को कैसे समझ पाएँगे जो अत्यंत सूक्ष्म और अतर्क्य है? बुद्ध की इस अनभिरुचि पर ब्रह्मा ने उनसे धर्मचक्र-प्रवर्तन का अनुरोध किया जिसपर दुःखमग्न संसारियों को देखते हुए बुद्ध ने उन्हें विकास की विभिन्न अवस्थाओं में पाया।
सारनाथ के ऋषिपत्तन मृगदान में भगवान बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देकर धर्मचक्रप्रवर्तन किया। इस प्रथम उपदेश में दो अंतों का परिवर्जन और मध्यमा प्रतिपदा की आश्रयणीयता बताई गई है। इन पंचवर्गीयों के अनंतर श्रेष्ठिपुत्र यश और उसके संबंधी एवं मित्र सद्धर्म में दीक्षित हुए। इस प्रकार बुद्ध के अतिरिक्त ६० और अर्हत उस समय थे जिन्हें बुद्ध ने अलग-अलग दिशाओं में प्रचारार्थ भेजा और वे स्वयं उरुवेला के सेनानिगम की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में ३० भद्रवर्गीय कुमारों को उपदेश देते हुए उरुवेला में उन्होंने तीन जटिल काश्यपों को उनके एक सहस्र अनुयायियों के साथ चमत्कार और उपदेश के द्वारा धर्म में दीक्षित किया। इसके पश्चात राजगृह जाकर उन्होंने मगधराज बिंबिसार को धर्म का उपदेश दिया। बिंबिसार ने वेणुवन नामक उद्यान भिक्षुसंघ को उपहार में दिया। राजगृह में ही संजय नाम के परिव्राजक के दो शिष्य कोलित और उपतिष्य सद्धर्म में दीक्षित होकर मौद्गल्यायन और सारिपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। विनय के महावग्ग में दिया हुआ संबोधि के बाद की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण यहाँ पूरा हो जाता है।
इस प्रकार अस्सी वर्ष की आयु तक धर्म का प्रचार करते हुए उन क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे जो वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश और बिहार के के अंतर्गत आते हैं। श्रावस्ती में उनका सर्वाधिक निवास हुआ और उसके बाद राजगृह, वैशाली और कपिलवस्तु में।
प्रसिद्ध महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की अंतिम पदयात्रा का मार्मिक विवरण प्राप्त होता है। बुद्ध उस समय राजगृह में थे जब मगधराज अजातशत्रु वृजि जनपद पर आक्रमण करना चाहता था। राजगृह से बुद्ध पाटलि ग्राम होते हुए गंगा पार कर वैशाली पहुँचे जहाँ प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली ने उनको भिक्षुसंघ के साथ भोजन कराया। इस समय परिनिर्वाण के तीन मास शेष थे। वेलुवग्राम में भगवान ने वर्षावास व्यतीत किया। यहाँ वे अत्यंत रुग्ण हो गए। वैशाली से भगवान भंडग्राम और भोगनगर होते हुए पावा पहुँचे। वहाँ चुंद कम्मारपुत्त के आतिथ्य ग्रहण में 'सूकर मद्दव' खाने से उन्हें रक्तातिसार उत्पन्न हुआ। रुग्णावस्था में ही उन्होंने कुशीनगर की ओर प्रस्थान किया और हिरण्यवती नदी पार कर वे शालवन में दो शालवृक्षों के बीच लेट गए। सुभद्र परिव्राजक को उन्होंने उपदेश दिया और भिक्षुओं से कहा कि उनके अनंतर धर्म ही संघ का शास्ता रहेगा। छोटे मोटे शिक्षापदों में परिवर्तन करने की अनुमति भी इन्होंने संघ को दी और छन्न भिक्षु पर ब्रह्मदंड का विधान किया। पालि परंपरा के अनुसार भगवान के अंतिम शब्द थे 'वयधम्मा संखारा अप्पमादेन संपादेथ।' (वयधर्माः संस्काराः अप्रमादेन संपादयेत - सभी संस्कार नाशवान हैं, आलस्य न करते हुये संपादन करना चाहिए।)
बुद्ध के समकालीन
बुद्ध के प्रमुख गुरु थे - आदिगुरु, आलार कालाम, उद्दक रामपुत्त, सूरज आजाद आदि। उनके प्रमुख शिष्य थे- आनंद, अनिरुद्ध, महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किंबाल, देवदत्त, उपाली, अंगुलिमाल आदि।
गुरु आलार कालाम और उद्दक रामपुत्त : ज्ञान की तलाश में सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलारा कालाम और उद्दक रामपुत्त के पास पहुँचे। उनसे उन्होंने योग-साधना सीखी। कई माह तक योग करने के बाद भी जब ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई तो उन्होंने उरुवेला पहुँच कर वहाँ घोर तपस्या की। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। तब एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ। बात सिद्धार्थ को जंच गई। वह मान गए कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बस फिर क्या था कुछ ही समय बाद ज्ञान प्राप्त हो गया।
आनंद :- यह बुद्ध और देवदत्त के भाई थे और बुद्ध के दस सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं। यह लगातार बीस वर्षों तक बुद्ध की संगत में रहे। इन्हें गुरु का सर्वप्रिय शिष्य माना जाता था। आनंद को बुद्ध के निर्वाण के पश्चात प्रबोधन प्राप्त हुआ। वह अपनी स्मरण शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
महाकश्यप : महाकश्यप मगध के ब्राह्मण थे, जो तथागत के नजदीकी शिष्य बन गए थे। इन्होंने प्रथम बौद्ध अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
रानी खेमा : रानी खेमा सिद्ध धर्मसंघिनी थीं। यह बिंबिसार की रानी थीं और अति सुंदर थीं। आगे चलकर खेमा बौद्ध धर्म की अच्छी शिक्षिका बनीं।
महाप्रजापति : महाप्रजापति बुद्ध की माता महामाया की बहन थीं। इन दोनों ने राजा शुद्धोदन से विवाह किया था। गौतम बुद्ध के जन्म के सात दिन पश्चात महामाया की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महाप्रजापति ने उनका अपने पुत्र जैसे पालन-पोषण किया। राजा शुद्धोदन की मृत्यु के बाद बौद्ध मठ में पहली महिला सदस्य के रूप में महाप्रजापिता को स्थान मिला था।
त्रिपिटक (तिपिटक) बुद्ध धर्म का मुख्य ग्रंथ है। यह पालिभाषा में लिखा गया है। यह ग्रंथ बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात बुद्ध के द्वारा दिया गया उपदेशों को सूत्रबद्ध करने का सबसे वृहद प्रयास है। बुद्ध के उपदेशों को इस ग्रंथ में सूत्र (पालि : सुत्त) के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सूत्रों को वर्ग (वग्ग) में बांधा गया है। वग्ग को निकाय (सुत्तपिटक) में व खंड में समाहित किया गया है। निकायों को पिटक (अर्थ : टोकरी) में एकिकृत किया गया है। इस प्रकार से तीन पिटक निर्मित है जिन के संयोजन को त्रि-पिटक कहा जाता है।
पालिभाषा का त्रिपिटक थेरवादी (और नवयान) बुद्ध परंपरा में श्रीलंका, थाइलैंड, बर्मा, लाओस, कंबोडिया, भारत आदि राष्ट्र के बौद्ध धर्म अनुयायी पालना करते है। पालि के तिपिटक को संस्कृत में भी भाषांतरण किया गया है, जिस को त्रिपिटक कहते है। संस्कृत का पूर्ण त्रिपिटक अभी अनुपलब्ध है। वर्तमान में संस्कृत त्रिपिटक प्रयोजन का जीवित परंपरा केवल नेपाल के नेवार जाति में उपलब्ध है। इस के अलावा तिब्बत, चीन, मंगोलिया, जापान, कोरिया, वियतनाम, मलेशिया, रुस आदि देश में संस्कृत मूल मंत्र के साथ में स्थानीय भाषा में बौद्ध साहित्य परंपरा पालना करते है।
बुद्ध की शिक्षाएँ
भगवान बुद्ध की मूल देशना (शिक्षा) क्या थी, इसपर प्रचुर विवाद है। स्वयं बौद्धों में कालांतर में अलग-अलग संप्रदायों का जन्म और विकास हुआ और वे सभी अपने को बुद्ध से अनुप्राणित मानते हैं।
अधिकांश आधुनिक विद्वान पालि त्रिपिटक के अंतर्गत विनयपिटक और सुत्तपिटक में संगृहीत सिद्धांतों को मूल बुद्धदेशना मान लेते हैं। कुछ विद्वान सर्वास्तिवाद अथवा महायान के सारांश को मूल देशना स्वीकार करना चाहते हैं। अन्य विद्वान मूल ग्रंथों के ऐतिहासिक विश्लेषण से प्रारंभिक और उत्तरकालीन सिद्धांतों में अधिकाधिक विवेक करना चाहते हैं, जिसके विपरीत कुछ अन्य विद्वान इस प्रकार के विवेक के प्रयास को प्रायः असंभव समझते हैं।
आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिता, पंचशील आदि के रूप में बुद्ध की शिक्षाएँ समझी जा सकतीं हैं।
तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये हैं।
इस दुनिया में दुःख है। जन्म में, बूढ़े होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीजों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है।
२. दुःख कारण
तृष्णा, या चाहत, दुःख का कारण है और फिर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है।
३. दुःख निरोध
दुःख-निरोध के आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें अष्टांगिक मार्ग कहा गया है। तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है।
४. दुःख निरोध का मार्ग
तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।
बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य का आर्य अष्टांग मार्ग है दुःख निरोध पाने का रास्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :
१. सम्यक दृष्टि- वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक दृष्टि है।
२. सम्यक संकल्प- आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक संकल्प है।
३. सम्यक वाक- सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक वाक है।
४. सम्यक कर्मांत- इसका आशय अच्छे कर्मों में संलग्न होने तथा बुरे कर्मों के परित्याग से है।
५. सम्यक आजीव- विशुद्ध रूप से सदाचरण से जीवन-यापन करना ही सम्यक आजीव है।
६. सम्यक व्यायाम- अकुशल धर्मों का त्याग तथा कुशल धर्मों का अनुसरण ही सम्यक व्यायाम है।
७. सम्यक स्मृति- इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप के संबंध में सदैव जागरूक रहना है।
८. सम्यक समाधि - चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक समाधि है।
कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते है, जिसमें आगे बढ़ने के लिए, पिछले के स्तर को पाना आवश्यक है। और लोगों को लगता है कि इस मार्ग के स्तर सब साथ-साथ पाए जाते है। मार्ग को तीन हिस्सों में वर्गीकृत किया जाता है : प्रज्ञा, शील और समाधि।
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलों का पालन करने की शिक्षा दी है।
पालि में पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी !
अर्थ मैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
पालि में आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
पालि में कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ मैं व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
पालि नें मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
५. सभी नशा से विरत
पालि में सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी।
अर्थ मैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
गौतम बुद्ध ने जिस ज्ञान की प्राप्ति की थी उसे 'बोधि' कहते हैं। माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। इस समय, लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मा में विश्वास सब गायब हो जाते हैं। बोधि के तीन स्तर होते हैं : श्रावकबोधि, प्रत्येकबोधि और सम्यकसंबोधि। सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।
दर्शन एवं सिद्धांत
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय उपस्थित हो गये हैं, परंतु इन सब के बहुत से सिद्धांत मिलते हैं।
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्मं (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शुन्य होती है। परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को, जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते हैं।तृष्णा शून्य जीवन केवल विपश्यना से संभव है। आज के इस युग मे प्रतीत्यसमुत्पाद समाज से कही गायब हो ।
इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक है और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं। परंतु वैदिक मत से भिन्न है।
आत्मा का अर्थ 'मैं' होता है। किन्तु, प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नहीं है। क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलिए, 'मैं' अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज नहीं। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। आत्मा का स्थान मन ने लिया है।
बुद्ध ने ब्रह्म-जाल सुत्त में सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ, ये बताया है। सृष्टि का निर्माण होना और नष्ट होना बार-बार होता है। ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नहीं करते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कार्यकरण-भाव के नियम पर चलती है। भगवान बुद्ध के अनुसार, मनुष्यों के दू:ख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है, ईश्वर या महाब्रह्मा नहीं। पर अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा हैं।
शून्यता महायान बौद्ध सम्प्रदाय का प्रधान दर्शन है।
बौद्ध धर्म का मतलब निराशावाद नहीं है। दुख का मतलब निराशावाद नहीं है, बल्कि सापेक्षवाद और यथार्थवाद है।
बुद्ध, धम्म और संघ, बौद्ध धर्म के तीन त्रिरत्न हैं।
भिक्षु, भिक्षुणी, उपसका और उपसिका संघ के चार अवयव हैं।
दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब "बुद्ध" कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अंतिम लक्ष्य है संपूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं।
बौद्ध धर्म में संघ का बड़ा स्थान है। इस धर्म में बुद्ध, धम्म और संघ को 'त्रिरत्न' कहा जाता है। संघ के नियम के बारे में गौतम बुद्ध ने कहा था कि छोटे नियम भिक्षुगण परिवर्तन कर सकते है। उन के महापरिनिर्वाण पश्चात संघ का आकार में व्यापक वृद्धि हुआ। इस वृद्धि के पश्चात विभिन्न क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक अवस्था, दीक्षा, आदि के आधार पर भिन्न लोग बुद्ध धर्म से आबद्ध हुए और संघ का नियम धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा। साथ ही में अंगुत्तर निकाय के कालाम सुत्त में बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर धर्म पालन करने की स्वतंत्रता दी है। अतः, विनय के नियम में परिमार्जन/परिवर्तन, स्थानीय सांस्कृतिक/भाषिक पक्ष, व्यक्तिगत धर्म का स्वतंत्रता, धर्म के निश्चित पक्ष में ज्यादा वा कम जोड़ आदि कारण से बुद्ध धर्म में विभिन्न संप्रदाय व संघ में परिमार्जित हुए। वर्तमान में, इन संघ में प्रमुख संप्रदाय या पंथ थेरवाद, महायान और वज्रयान है। भारत में बौद्ध धर्म का नवयान संप्रदाय है जो भीमराव आंबेडकर द्वारा निर्मित है।
थेरवाद बुद्ध के मौलिक उपदेश ही मानता है।
श्रीलंका, थाईलैंड, म्यान्मार, कंबोडिया, लाओस, बांग्लादेश, नेपाल आदि देशों में थेरवाद बौद्ध धर्म का प्रभाव हैं।
महायान बुद्ध की वास्तविक शिक्षाओं का पालन नहीं करता।
बुद्ध के अलावा हजारों बोधिसत्व की पूजा करता है।
बोधिसत्त्वतंत्रयान / वज्रयान
महायान बुद्ध की पूजा करता है।
चीन, जापान, उत्तर कोरिया, वियतनाम, दक्षिण कोरिया आदी देशों में प्रभाव हैं।
महायान की शाखा
वज्रयान को तिब्बती तांत्रिक धर्म भी कहा जाता हैं।
भूटान में राष्ट्रधर्म
भूटान, तिब्बत और मंगोलिया में प्रभाव
डॉ. भीमराव आंबेडकर के सिद्धांतों का अनुसरण
बुद्ध की मूल शिक्षाओं का अनुसरण
महायान, वज्रयान, थेरवाद से भिन्न सिद्धांत
भारत में (मुख्यतः महाराष्ट्र में) प्रभाव
भगवान बुद्ध के अनुयायीओं के लिए विश्व भर में पाँच मुख्य तीर्थ मुख्य माने जाते हैं :
(१) लुंबिनी जहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ।
(२) बोधगया जहाँ बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त हुआ।
(३) सारनाथ जहाँ से बुद्ध ने दिव्यज्ञान देना प्रारंभ किया।
(४) कुशीनगर जहाँ बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ।
(५) दीक्षाभूमि, नागपुर जहाँ भारत में बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान हुआ।
यह स्थान नेपाल की तराई में नौतनवाँ रेलवे स्टेशन से २५ किलोमीटर और गोरखपुर-गोंडा लाइन के सिद्धार्थ नगर स्टेशन से करीब १२ किलोमीटर दूर है। अब तो सिद्धार्थ नगर से लुंबिनी तक पक्की सड़क भी बन गई है। ईसा पूर्व ५६३ में राजकुमार सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) का जन्म यहीं हुआ था। हालाँकि, यहाँ के बुद्ध के समय के अधिकतर प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। केवल सम्राट अशोक का एक स्तंभ अवशेष के रूप में इस बात की गवाही देता है कि भगवान बुद्ध का जन्म यहाँ हुआ था। इस स्तंभ के अलावा एक समाधि स्तूप में बुद्ध की एक मूर्ति है। नेपाल सरकार ने भी यहाँ पर दो स्तूप और बनवाएँ हैं।
लगभग छह वर्ष तक जगह-जगह और विभिन्न गुरुओं के पास भटकने के बाद भी बुद्ध को कहीं परम ज्ञान न मिला। इसके बाद वे गया पहुँचे। आखिर में उन्होंने प्रण लिया कि जब तक असली ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, वह पिपल वृक्ष के नीचे से नहीं उठेंगे, चाहे उनके प्राण ही क्यों न निकल जाएँ। इसके बाद करीब छह साल तक दिन रात एक पीपल वृक्ष के नीचे भूखे-प्यासे तप किया। आखिर में उन्हें परम ज्ञान या बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। जिस पिपल वृक्ष के नीचे वह बैठे, उसे बोधि वृक्ष अर्थात 'ज्ञान का वृक्ष' कहा जाता है। वहीं गया को बोधगया के नाम से जाना जाता है।
बनारस छावनी स्टेशन से छह किलोमीटर, बनारस-सिटी स्टेशन से साढ़े तीन किलोमीटर और सड़क मार्ग से सारनाथ चार किलोमीटर दूर पड़ता है। यह पूर्वोत्तर रेलवे का स्टेशन है और बनारस से यहाँ जाने के लिए सवारी तांगा और रिक्शा आदि मिलते हैं। सारनाथ में बौद्ध-धर्मशाला है। यह बौद्ध तीर्थ है। लाखों की संख्या में बौद्ध अनुयायी और बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले लोग हर साल यहाँ पहुँचते हैं। बौद्ध अनुयायीओं के यहाँ हर साल आने का सबसे बड़ा कारण यह है कि भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। सदियों पहले इसी स्थान से उन्होंने धर्म-चक्र-प्रवर्तन प्रारंभ किया था। बौद्ध अनुयायी सारनाथ के मिट्टी, पत्थर एवं कंकरों को भी पवित्र मानते हैं। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुओं में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का प्राचीन मंदिर, धामेक स्तूप, चौखंडी स्तूप, आदि शामिल हैं।
कुशीनगर बौद्ध अनुयायीओं का बहुत बड़ा पवित्र तीर्थ स्थल है। भगवान बुद्ध कुशीनगर में ही महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। कुशीनगर के समीप हिरन्यवती नदी के समीप बुद्ध ने अपनी आखरी साँस ली। रंभर स्तूप के निकट उनका अंतिम संस्कार किया गया। उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर से ५५ किलोमीटर दूर कुशीनगर बौद्ध अनुयायीओं के अलावा पर्यटन प्रेमियों के लिए भी खास आकर्षण का केंद्र है। ८० वर्ष की आयु में शरीर त्याग से पहले भारी संख्या में लोग बुद्ध से मिलने पहुँचे। माना जाता है कि लगभग २० वर्षीय ब्राह्मण सुभद्र ने बुद्ध के वचनों से प्रभावित होकर संघ से जुड़ने की इच्छा जताईं। माना जाता है कि सुभद्र आखरी भिक्षु थे जिन्हें बुद्ध ने दीक्षित किया।
दीक्षाभूमि, नागपुर महाराष्ट्र राज्य के नागपुर शहर में स्थित पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। यहीं पर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने १४ अक्टूबर, १९५६ को विजयादशमी / दशहरा के दिन पहले स्वयं अपनी पत्नी डॉ. सविता आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और फिर अपने ५,००,००0 हिंदू दलित समर्थकों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। १९५६ से आज तक हर साल यहाँ देश-विदेश से २० से 2५ लाख बुद्ध और बाबासाहेब के बौद्ध अनुयायी दर्शन करने के लिए आते है। इस पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल को महाराष्ट्र सरकार द्वारा अवर्ग पर्यटन एवं तीर्थ स्थल का दर्जा दिया गया हैं।
संपूर्ण विश्व में लगभग २ अरब लोग बौद्ध हैं। इनमें से लगभग ७०% महायानी बौद्ध और शेष २5% से ३०% थेरावादी, नवयानी (भारतीय) और वज्रयानी बौद्ध है। महायान और थेरवाद (हीनयान), नवयान, वज्रयान के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में इनके अन्य कई उपसंप्रदाय या उपवर्ग भी हैं परंतु इन का प्रभाव बहुत कम है। सबसे अधिक बौद्ध पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में रहते हैं। दक्षिण एशिया के दो देशों में भी बौद्ध धर्म बहुसंख्यक है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका और यूरोप जैसे महाद्वीपों में भी बौद्ध रहते हैं। विश्व में लगभग ८ से अधिक देश ऐसे हैं जहाँ बौद्ध बहुसंख्यक या बहुमत में हैं। विश्व में कई देश ऐसे भी हैं जहाँ की बौद्ध जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं हैं।
बहुसंख्यक बौद्ध देश
आज विश्व में ८ से अधिक देशों (गणतंत्र राज्य भी) में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक या प्रमुख धर्म के रूप में हैं।
अधिकृत बौद्ध देश
विश्व में , कंबोडिया, भूटान, थाईलैंड, म्यान्मार और श्रीलंका यह देश "अधिकृत" रूप से 'बौद्ध देश' है, क्योंकि इन देशों के संविधानों में बौद्ध धर्म को राजधर्म या राष्ट्रधर्म का दर्जा प्राप्त है।
इन्हें भी देखें
विश्व में बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म का इतिहास
पालि भाषा का साहित्य
भारत में बौद्ध धर्म
तिब्बती बौद्ध धर्म
चीनी बौद्ध धर्म
दलित बौद्ध आंदोलन
भारत में बौद्ध धर्म का पतन |
जैन धर्म श्रमण परम्परा से निकला है तथा इसके प्रवर्तक हैं २४ तीर्थंकर, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं। जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले अनेक उल्लेख साहित्य और विशेषकर पौराणिक साहित्यो में प्रचुर मात्रा में हैं। श्वेतांबर व दिगम्बर जैन पन्थ के दो सम्प्रदाय हैं, तथा इनके ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र हैं। जैनों के प्रार्थना स्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं। कार्य करती है
'जिन परम्परा' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन मन वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसे बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है खानपान आचार नियम मे विशेष रुप से देखा जा सकता है। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। जैन दर्शन मे सृष्टिकर्ता को कोई स्थान नहीं दिया गया है। जैन धर्म में अनेक शासन देवी-देवता हैं पर उनकी आराधना को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है।
जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही | जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते है तब उन्हें सिद्ध कहा जाता है। उन्हीं की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं। जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत 'स्याद्वाद' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है।
जैन धर्म मे २४ तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-
वैदिक दर्शन परम्परा में भी ॠषभदेव का विष्णु के २४ अवतारों में से एक के रूप में संस्तवन किया गया है। भागवत में अर्हन् राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है।
हिन्दूपुराण श्रीमद्भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि (जैन धर्म में नाभिराय नाम से उल्लिखित) थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये। भागवतपुराण अनुसार भगवान ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं गुणवान थे। उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन थे।
विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है।
जैन नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल सतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। अंतिम दो तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी ऐतिहासिक पुरुष है। महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पहले होना ग्रंथों से पाया जाया है। शेष के विषय में अनेक प्रकार की अलौकिक और प्रकृतिविरुद्ध कथाएँ हैं।
ऋषभदेव की कथा भागवत आदि कई पुराणों में आई है और इनमें विष्णु के २४ अवतारों के रूप में की गई है। महाभारत के अनुशासन पर्व, महाभारत के शांतिपर्व, स्कन्ध पुराण, जैन प्रभास पुराण, जैन लंकावतार आदि अनेक ग्रंथो में अरिष्टनेमि का उल्लेख है।
जैन पन्थ के सिद्धान्त
रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण 'वर्धमान महावीर' की उपाधि 'जिन' थी। अतः उनके द्वारा प्रचारित धर्म 'जैन' कहलाता है। जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन पन्थ में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।
जैन पन्थ का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कर्म महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।
जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं श्वेताम्बर (उजला वस्त्र पहनने वाला)और दिगम्बर (नग्न रहने वाला) ।
जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध सँवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर व्रत, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। जैन सिद्धान्त में रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये 'रत्नत्रय ' हैं-सम्यक् दर्शन ,सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र्य।मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अन्तकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।
अनेकान्तवाद जैन पन्थ का तीसरा मुख्य सिद्धान्त है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी मत या सिद्धान्त को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकान्तवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धान्त को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा, स्यात् अस्ति', 'स्यात् नास्ति', स्यात् अस्ति नास्ति', 'स्यात् अवक्तव्य,' 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' और 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य', इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पार्श्वनाथ के चार महाव्रत थे
१.अहिंसा २.सत्य ३.अस्तेय ४.अपरिग्रह
महावीर ने पाँचवा महाव्रत 'ब्रह्मचर्य' के रूप में भी स्वीकारा।जैन सिद्धांतों की संख्या ४५ है, जिनमें ११ अंग हैं।
जैन सम्प्रदाय में पञ्चास्तिकायसार, समयसार और प्रवचनसार को 'नाटकत्रयी ' कहा जाता है।
जैन के मत में ३ प्रमाण हैं-प्रत्यक्ष,अनुमान तथा आगम(आगम)।
जैन पन्थ में आत्मशुद्धि पर बल दिया गया है। आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिये जैन पन्थ में देह-दमन और कष्टसहिष्णुता को मुख्य माना गया है। निर्ग्रंथ और निष्परिग्रही होने के कारण तपस्वी महावीर नग्न अवस्था में विचरण किया करते थे। यह बाह्य तप भी अन्तरंग शुद्धि के लिये ही किया जाता था। प्राचीन जैन सूत्रों में कहा गया है कि भले ही कोई नग्न अवस्था में रहे या एक एक महीने उपवास करे, किन्तु यदि उसके मन में माया है तो उसे सिद्धि मिलने वाली नहीं। जैन आचार-विचार के पालन करने को 'शूरों का मार्ग' कहा गया है। जैसे लोहे के चने चबाना, बालू का ग्रास भक्षण करना, समुद्र को भुजाओं से पार करना और तलवार की धार पर चलना दुस्साध्य है, वैसे ही निर्ग्रंथ प्रवचन के आचरण को भी दुस्साध्य कहा गया है।
बौद्ध पन्थ की भाँति जैन पन्थ में भी जाति भेद को स्वीकार नहीं किया गया। प्राचीन जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि सच्चा ब्राह्मण वही है जिसने राग, द्वेष और भय पर विजय प्राप्त की है और जो अपनी इन्द्रियों पर निग्रह रखता है। जैन धर्म में अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की कल्पना की गई है, किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने से नहीं। महावीर ने अनेक म्लेच्छ, चोर, डाकू, मछुए, वेश्या और चांडालपुत्रों को जैन धर्म में दीक्षित किया था। इस प्रकार के अनेक कथानक जैन ग्रन्थों में पाए जाते हैं।
जैन पन्थ के सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए थे। इससे मालूम होता है कि पूर्वकाल में जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म था, लेकिन आजकल अधिकांश वैश्य लोग ही इसके अनुयायी हैं। वैसे दक्षिण भारत में सेतवाल आदि कितने ही जैन खेतीबारी का धंधा करते हैं। पंचमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के धंधे करनेवाले लोग पाए जाते हैं। जिनसेन मठ (कोल्हापुर) के अनुयायियों को छोड़कर और किसी मठ के अनुयायी चतुर्थ नहीं कहे जाते। चतुर्थ लोग साधारणतया खेती और जमींदारी करते हैं। सतारा और बीजापुर जिलों में कितने ही जैन धर्म के अनुयायी जुलाहे, छिपी, दर्जी, सुनार और कसेरे आदि का पेशा करते हैं।
जैन ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन मिलता हैं। यह हैं-
जीव- जैन दर्शन में आत्मा के लिए "जीव" शब्द का प्रयोग किया गया हैं। आत्मा द्रव्य जो चैतन्यस्वरुप है।
अजीव- जड़ या की अचेतन द्रव्य को अजीव (पुद्गल) कहा जाता है।
आस्रव - पुद्गल कर्मों का आस्रव करना
बन्ध- आत्मा से कर्म बन्धना
संवर- कर्म बन्ध को रोकना
निर्जरा- कर्मों को क्षय करना
मोक्ष - जीवन व मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।
जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है। तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है -
अहिंसा - किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना। किसी जीव के प्राणों का घात नहीं करना।
सत्य - हित, मित, प्रिय वचन बोलना।
अस्तेय - बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्य - मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का त्याग करना।
अपरिग्रह- पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धिपूर्वक त्याग।
मुनि इन व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करते है, वही श्रावक स्थूल रूप से करते है।
जैन ग्रंथों के अनुसार जीव और अजीव, यह दो मुख्य पदार्थ हैं। आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप अजीव द्रव्य के भेद हैं।
जैन धर्म के अनुसार लोक ६ द्रव्यों (सब्सटेन्स) से बना है। यह ६ द्रव्य शाश्वत हैं अर्थात इनको बनाया या मिटाया नहीं जा सकता।
यह है जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल।
सम्यक् दर्शन - सम्यक् दर्शन को प्रगताने के लिए तत्त्व निर्णय की साधना करनी चहिये | तत्त्व निर्णय - मै इस शरीर आदि से भिन्न एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हू, यह शरीरादी मै नहीं और यह मेरे नहीं |
सम्यक् ज्ञान - सम्यक ज्ञान प्रगताने के लिए भेद ज्ञान की साधना करनी चहिये | भेद ज्ञान - जिस जीव का, जिस दृव्य का जिस समय जो कुछ भी होना है, वह उसकी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा। उसे कोई ताल फेर बदल सकता नहीं।
सम्यक् चारित्र - सम्यक चारित्र की साधना के लिए वस्तु स्वरुप की साधना करना चहिये। सम्यक चरित्र का तात्पर्य नैैतिक आचरण से है | पंचमहाव्रत का पालन ही शिक्षा है जो चरित्र निर्माण करती है|
यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता। सम्यक्त्व के आठ अंग है निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन / उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य।
क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषाय है जिनके कारण कर्मों का आस्रव होता है।
इन चार कषाय को संयमित रखने के लिए माध्यस्थता, करुणा, प्रमोद, मैत्री भाव धारण करना चहिये |
चार गतियाँ जिनमें संसरी जीव का जन्म मरण होता रहता है देव गति, मनुष्य गति, तिर्यंच गति, नर्क गति। मोक्ष को पंचम गति भी कहा जाता है।
अहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। सभी जैन शाकाहारी होते हैं।अहिंसा का पालन करना सभी मुनियो और श्रावकों का परम धर्म होता है। जैन धर्म का मुख्य वाक्य हि "अहिंसा परमो धर्म" है।
अनेकान्त का अर्थ है- किसी भी विचार या वस्तु को अलग अलग दष्टिकोण से देखना, समझना, परखना और सम्यक भेद द्धारा सर्व हितकारी विचार या वस्तु को मानना ही अंनेकात है ।
स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।
यह जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है जो प्राकृत भाषा में है-
णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पंच परमेष्ठी हैं।
जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि, हर वस्तु का मान, आयु, बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि, हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण का जन्म होता है। इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है। ऊपर जो २४ तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है।
जैन धर्म कितना प्राचीन है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। महावीर स्वामी या वर्धमान ने ईसा से ४६८ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। इसी समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। जैनों ने अपने ग्रंथों को आगम, पुराण आदि में विभक्त किया है। प्रो॰ जेकोबी आदि के आधुनिक अन्वेषणों के अनुसार यह सिद्ध किया गया है की जैन धर्म बौद्ध धर्म से पहले का है। उदयगिरि, जूनागढ आदि के शिलालेखों से भी जैनमत की प्राचीनता पाई जाती है। हिन्दू ग्रन्थ, स्कन्द पुराण (अध्याय ३७) के अनुसार: "ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा"|
भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का प्रचार विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ। पर जैनों के मूल ग्रंथ अंगों में यवन ज्योतिष का कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार वेद संहिता में पंचवर्षात्मक युग है और कृत्तिका से नक्षत्रों की गणना है उसी प्रकार जैनों के अंग ग्रंथों में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है।
भगवान महावीर के बाद
भगवान महावीर के पश्चात इस परंम्परा में कई मुनि एवं आचार्य भी हुये है, जिनमें से प्रमुख हैं-
भगवान महावीर के पश्चात ६२ बर्ष में तीन केवली (५२७-४६५ ब.च.)
गौतम स्वामी (६०७-५१५ ब.च.)
सुधर्मास्वामी (६०७-५०७ ब.च.)
जम्बूस्वामी (५४२-४६५ ब.च.)
इसके पश्चात १०० बर्षो में पॉच श्रुत केवली (४६५-३६५ ब.च.)
आचार्य भद्रबाहु- अंतिम श्रुत केवली (४३३-३५७)
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी (२०० आ.ड.)
आचार्य उमास्वामी (२०० आ.ड.)
आचार्य पूज्यपाद (४७४-५२५)
आचार्य वीरसेन (७९०-८२५)
आचार्य जिनसेन (८००-८८०)
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती
तीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न रही जैन परंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों में विभक्त हो गयी : दिगंबर और श्वेताम्बर। मुनि प्रमाणसागर जी ने जैनों के इस विभाजन पर अपनी रचना 'जैनधर्म और दर्शन' में विस्तार से लिखा है कि आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में १२ वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है इसलिए उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए। आचार्य भद्रबाहु के साथ हजारों जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु और कर्नाटक की ओर प्रस्थान कर गए और अपनी साधना में लगे रहे। परन्तु कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रुक गए थे। अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह आगमानुरूप नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं, जैसे कटि वस्त्र धारण करना, ७ घरों से भिक्षा ग्रहण करना, १४ उपकरण साथ में रखना आदि। १२ वर्ष बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परम्परा को अपना लें पर साधु राजी नहीं हुए और तब जैन धर्म में दिगंबर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गए।
दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है, नग्न रहते हैं|दिगम्बर मत में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया है।
दिगंबर समुदाय तीन में भागों विभक्त हैं।
श्वेताम्बर एवं साध्वियाँ और संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं, तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिमा पर धातु की आंख, कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार किया जाता है।
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है:
मूर्तिपूजक एवं अमूर्तिपूजक
मूर्तिपूजक - यॆ तीर्थकरों की प्रतिमाओं की पूजा करतॆ हैं।
अमूर्तिपूजक - ये मूर्ति पूजा नहीँ करते। द्रव्य पूजा की जगह भाव पूजा में विश्वास करते हैं।
अमूर्तिपूजक के भी दो भाग हैं:-
दिगम्बर आचार्यों द्वारा समस्त जैन आगम ग्रंथो को चार भागो में बांटा गया है -
तत्त्वार्थ सूत्र- सभी जैनों द्वारा स्वीकृत ग्रन्थ
प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं :-
षट्खण्डागम- मूल आगम ग्रन्थ
आचार्य कुंद कुंद द्वारा विरचित ग्रन्थ- समयसार, प्रवचनसार,नियमसार, रयणसार
श्रीरविषेणाचार्य कृत पद्मपुराण
जिनसहस्त्र नाम स्त्रोत
आचार्य तारण स्वामी विरचित-;मालारोहण, पंडित पूजा,कमलबत्तीसी,तारण तरण श्रावकाचार,न्यानसमुच्चय साथ,उपदेशशुद्ध सार,त्रिभंगीसार,चौबीस ठाणा,ममलपाहुड,षातिकाविशेष,सिद्धस्वभाव,सुन्नस्वभाव,छद्मस्थवाणी,नाममाला।
जैन धर्म के प्रमुख त्यौहार इस प्रकार हैं
अक्षय तृतीया पर्व
वीरशासन जयंती पर्व
क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी जयंती पर्व
इन्हें भी देखें
जैन धर्म में योग
जैन धर्म के बारे में उपयोगी जानकारी
जैनधर्म में विज्ञान (गूगल पुस्तक ; नारायण लाल कछारा)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (गूगल पुस्तक ; जिनेन्द्र वाणी) |
पारसी पंथ अथवा ज़ोरोएस्ट्रिनिज़म फ़ारस का राजपंथ हुआ करता था। यह ज़न्द अवेस्ता नाम के ग्रन्थ पर आधारित है। इसके संस्थापक ज़रथुष्ट्र हैं, इसलिये इसे ज़रथुष्ट्री पंथ भी कहते हैं। जोरोएस्ट्रिनिइजम दुनिया के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक है। दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की संभावित जड़ों के साथ, पारसी धर्म ५वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लिखित इतिहास में प्रवेश करता है। यह लगभग ६०० ईसा पूर्व से ६५० सीई तक एक सहस्राब्दी से अधिक के लिए प्राचीन ईरानी साम्राज्यों के राज्य धर्म के रूप में कार्य करता था, लेकिन ६३३-६५४ के फारस की मुस्लिम विजय और पारसी लोगों के बाद के उत्पीड़न के बाद ७ वीं शताब्दी सीई से इसमें गिरावट आई। हाल के अनुमानों में पारसी की वर्तमान संख्या लगभग ११०,०००१२०,००० है, जिसमें से अधिकांश भारत, ईरान और उत्तरी अमेरिका में रहते हैं; माना जाता है कि उनकी संख्या घट रही है।
ज़न्द अवेस्ता के अब कुछ ही अंश मिलते हैं। इसकी भाषा अवेस्तन भाषा है।
पारसी पंथ की शिक्षा हैः हुमत, हुख्त, हुवर्श्त जो संस्कृत में सुमत, सूक्त, सुवर्तन अथवा सुबुद्धि, सुभाष, सुव्यवहार हुआ।
पारसी एक ईश्वर को मानते हैं, जिसे अहुरा मज़्दा (होरमज़्द) कहते हैं।
अग्नि को ईश्वरपुत्र समान और अत्यन्त पवित्र माना जाता है। उसी के माध्यम से अहुरा मज़्दा की पूजा होती है। पारसी मंदिरों को आतिश बेहराम कहा जाता है।
स्पेन्ता अमेशा इनके सात (अथवा छः) .फ़रिश्ते हैं।
पारसी विश्वास के मुताबिक अहुरा मज़्दा का दुश्मन दुष्ट अंगिरा मैन्यु (आहरीमान) है।
ऐतिहासिक रूप से पारसी पंथ की शुरुआत ६वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुई। एक ज़माने में पारसी धर्म (जोरोएस्ट्रिनिइजम) ईरान का राजपंथ हुआ करता था। उन्होंने भारत में शरण ली। तब से आज तक पारसियों ने भारत के उदय में बहुत बड़ा योगदान दिया है। ईरान पारसी देश हुआ करता था। फारसियों के इस्लाम ग्रहण करने के उपरांत समस्त ईरान को मुस्लिम देश बना दिया गया।
पंथ के बारे में
प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था, तब पैगंबर जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए पारसी पंथ की नींव रखी।
जरथुस्त्र व उनके अनुयायियों के बारे में विस्तृत इतिहास ज्ञात नहीं है। कारण यह कि पहले सिकंदर की फौजों ने तथा बाद में अरब के आक्रमणकारियों ने प्राचीन फारस का लगभग सारा मज़हबी एवं सांस्कृतिक साहित्य नष्ट कर डाला था। आज हम इस इतिहास के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ईरान के पहाड़ों में उत्कीर्ण शिला लेखों तथा वाचिक परंपरा की बदौलत है।
सातवीं सदी ईस्वी तक आते-आते फारसी साम्राज्य अपना पुरातन वैभव तथा शक्ति गँवा चुका था। जब अरबों ने इस पर निर्णायक विजय प्राप्त कर ली तो अपने पंथ की रक्षा हेतु अनेक जरथोस्ती धर्मावलंबी समुद्र के रास्ते भाग निकले और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली।
यहाँ वे 'पारसी' (फारसी का अपभ्रंश) कहलाए। आज विश्वभर में मात्र सवा से डेढ़ लाख के बीच जरथोस्ती हैं। इनमें से आधे से अधिक भारत में हैं।
फारस के शहंशाह विश्तास्प के शासनकाल में पैंगबर जरथुस्त्र ने दूर-दूर तक भ्रमण कर अपना संदेश दिया। उनके अनुसार ईश्वर एक ही है (उस समय फारस में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी)। इस ईश्वर को जरथुस्त्र ने 'अहुरा मजदा' कहा अर्थात 'महान जीवन दाता'।
अहुरा मजदा कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि सत्व है, शक्ति है, ऊर्जा है। जरथुस्त्र के दर्शनानुसार विश्व में दो आद्य आत्माओं के बीच निरंतर संघर्ष जारी है।
इनमें एक है अहुरा मजदा की आत्मा, 'स्पेंता मैन्यू'। दूसरी है दुष्ट आत्मा 'अंघरा मैन्यू'। इस दुष्ट आत्मा के नाश हेतु ही अहुरा मजदा ने अपनी सात कृतियों यथा आकाश, जल, पृथ्वी, वनस्पति, पशु, मानव एवं अग्नि से इस भौतिक विश्व का सृजन किया।
वे जानते थे कि अपनी विध्वंसकारी प्रकृति तथा अज्ञान के चलते अंघरा मैन्यू इस विश्व पर हमला करेगा और इसमें अव्यवस्था, असत्य, दुःख, क्रूरता, रुग्णता एवं मृत्यु का प्रवेश करा देगा।
मनुष्य, जो कि अहुरा मजदा की सर्वश्रेष्ठ कृति है, की इस संघर्ष में केन्द्रीय भूमिका है। उसे स्वेच्छा से इस संघर्ष में बुरी आत्मा से लोहा लेना है। इस युद्ध में उसके अस्त्र होंगे अच्छाई, सत्य, शक्ति, भक्ति, आदर्श एवं अमरत्व। इन सिद्धांतों पर अमल कर मानव अंततः विश्व की तमाम बुराई को समाप्त कर देगा।
कुछ अधिक वैज्ञानिक कसौटी पर पंथ को परखने वाले 'स्पेंता मैन्यू' की व्याख्या अलग तरह से करते हैं। इसके अनुसार 'स्पेंता मैन्यू' कोई आत्मा नहीं, बल्कि संवृद्धिशील, प्रगतिशील मन अथवा मानसिकता है।
अर्थात यह अहुरा मजदा का एक गुण है, वह गुण जो ब्रह्माण्ड का निर्माण एवं संवर्द्धन करता है। ईश्वर ने स्पेंता मैन्यू का सृजन इसीलिए किया था कि एक आनंददायक विश्व का निर्माण किया जा सके।
प्रगतिशील मानसिकता ही पृथ्वी पर मनुष्यों को दो वर्गों में बाँटती है। सदाचारी, जो विश्व का संवर्द्धन करते हैं तथा दुराचारी, जो इसकी प्रगति को रोकते हैं। जरथुस्त्र चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर तुल्य बने, जीवनदायी ऊर्जा को अपनाए तथा निर्माण, संवर्द्धन एवं प्रगति का वाहक बने।
पैगंबर जरथुस्त्र के उपदेशों के अनुसार विश्व एक नैतिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था को स्वयं को कायम ही नहीं रखना है, बल्कि अपना विकास तथा संवर्द्धन भी करना है। जरथोस्ती पंथ में जड़ता की अनुमति नहीं है।
विकास की प्रक्रिया में बुरी ताकतें बाधा पहुँचाती हैं, परंतु मनुष्य को इससे विचलित नहीं होना है। उसे सदाचार के पथ कर कायम रहते हुए सदा विकास की दिशा में बढ़ते रहना है।
जीवन के प्रत्येक क्षण का एक निश्चित उद्देश्य है। यह कोई अनायास शुरू होकर अनायास ही समाप्त हो जाने वाली चीज नहीं है। सब कुछ ईश्वर की योजना के अनुसार होता है।
सर्वोच्च अच्छाई ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। मनुष्य को अच्छाई से, अच्छाई द्वारा, अच्छाई के लिए जीना है। 'हुमत' (सद्विचार), 'हुउक्त' (सद्वाणी) तथा 'हुवर्षत' (सद्कर्म) जरथोस्ती जीवन पद्धति के आधार स्तंभ हैं।
जरथोस्ती पंथ में मठवाद, ब्रह्मचर्य, व्रत-उपवास, आत्म दमन आदि की मनाही है। ऐसा माना गया है कि इनसे मनुष्य कमजोर होता है और बुराई से लड़ने की उसकी ताकत कम हो जाती है।
निराशावाद व अवसाद को तो पाप का दर्जा दिया गया है। जरथुस्त्र चाहते हैं कि मानव इस विश्व का पूरा आनंद उठाए, खुश रहे। वह जो भी करे, बस एक बात का ख्याल अवश्य रखे और वह यह कि सदाचार के मार्ग से कभी विचलित न हो।
भौतिक सुख-सुविधाओं से संपन्न जीवन की मनाही नहीं है, लेकिन यह भी कहा गया है कि समाज से तुम जितना लेते हो, उससे अधिक उसे दो। किसी का हक मारकर या शोषण करके कुछ पाना दुराचार है। जो हमसे कम सम्पन्न हैं, उनकी सदैव मदद करनी चाहिए।
जरथोस्ती पंथ में दैहिक मृत्यु को बुराई की अस्थायी जीत माना गया है। इसके बाद मृतक की आत्मा का इंसाफ होगा। यदि वह सदाचारी हुई तो आनंद व प्रकाश में वास पाएगी और यदि दुराचारी हुई तो अंधकार व नैराश्य की गहराइयों में जाएगी, लेकिन दुराचारी आत्मा की यह स्थिति भी अस्थायी है। आखिर जरथोस्ती पंथ विश्व का अंतिम उद्देश्य अच्छाई की जीत को मानता है, बुराई की सजा को नहीं।
अतः यह मान्यता है कि अंततः कई मुक्तिदाता आकर बुराई पर अच्छाई की जीत पूरी करेंगे। तब अहुरा मजदा असीम प्रकाश के रूप में सर्वसामर्थ्यवान होंगे। फिर आत्माओं का अंतिम फैसला होगा।
इसके बाद भौतिक शरीर का पुनरोत्थान होगा तथा उसका अपनी आत्मा के साथ पुनर्मिलन होगा। समय का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और अहुरा मजदा की सात कृतियाँ शाश्वत धन्यता में एक साथ आ मिलेंगी और आनंदमय, अनश्वर अस्तित्व को प्राप्त करेंगी।
इन्हें भी देखे
भारत में पारसी धर्म |
यहूदी धर्म या यूदावाद (जुदैम) विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से है, तथा दुनिया का प्रथम एकेश्वरवादी धर्म माना जाता है। इस्राइल और हिब्रू भाषियों का राजधर्म है। इस धर्म में ईश्वर और उसके नबी यानि पैग़म्बर की मान्यता प्रधान है। इनके धार्मिक ग्रन्थों में तनख़, तालमुद तथा मिद्रश प्रमुख हैं। यहूदी मानते हैं कि यह सृष्टि की रचना से ही विद्यमान है। यहूदियों के धार्मिक स्थल को मन्दिर व प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। ईसाई धर्म व इस्लाम का आधार यही परम्परा और विचारधारा है। इसलिए इसे इब्राहिमी धर्म भी कहा जाता है।
बाबिल (बेबीलोन) के निर्वासन से लौटकर इज़रायली जाति मुख्य रूप से येरूसलेम तथा उसके आसपास के 'यूदा' (जुदाह) नामक प्रदेश में बस गया था, इस कारण इज़रायलियों के इस समय के धार्मिक एवं सामाजिक संगठन को यूदावाद (यूदाइज़्म/जुदैम) कहते हैं।
उस समय येरूसलेम का मंदिर यहूदी धर्म का केन्द्र बना और यहूदियों को मसीह के आगमन की आशा बनी रहती थी। निर्वासन के पूर्व से ही तथा निर्वासन के समय में भी यशयाह, जेरैमिया, यहेजकेल और दानिएल नामक नबी इस यूदावाद की नींव डाल रहे थे। वे यहूदियों को याहवे के विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म का उपदेश दिया करते थे और सिखलाते थे कि निर्वासन के बाद जो यहूदी फिलिस्तीन लौटेंगे वे नए जोश से ईश्वर के नियमों पर चलेंगे और मसीह का राज्य तैयार करेंगे।
निर्वासन के बाद एज्रा, नैहेमिया, आगे, जाकारिया और मलाकिया इस धार्मिक नवजागरण के नेता बने। ५३७ ई॰पू॰ में बाबिल से जा पहला काफ़िला येरूसलेम लौटा, उसमें यूदावंश के ४०,००० लोग थे, उन्होंने मन्दिर तथा प्राचीर का जीर्णोंद्धार किया। बाद में और काफिले लौटै। यूदा के वे इजरायली अपने को ईश्वर की प्रजा समझने लगे। बहुत से यहूदी, जो बाबिल में धनी बन गए थे, वहीं रह गए किन्तु बाबिल तथा अन्य देशों के प्रवासी यहूदियों का वास्तविक केन्द्र येरूसलेम ही बना और यदा के यहूदी अपनी जाति के नेता माने जाने लगे।
किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा का तीव्र विरोध तथा अन्य धर्मों के साथ समन्वय से घृणा यूदावाद की मुख्य विशेषता है। उस समय यहूदियों का कोई राजा नहीं था और प्रधान याजक धार्मिक समुदाय पर शासन करते थे। वास्तव में याह्वे (ईश्वर) यहूदियों का राजा था और बाइबिल में संगृहीत मूसा संहिता समस्त जाति के धार्मिक एवं नागरिक जीवन का संविधान बन गई। गैर यहूदी इस शर्त पर इस समुदाय के सदस्य बन सकते थे। कि वे याह्वे का पन्थ तथा मूसा की संहिता स्वीकार करें। ऐसा माना जाता था कि मसीह के आने पर समस्त मानव जाति उनके राज्य में संमिलित हो जायगी, किन्तु यूदावाद स्वयं संकीर्ण ही रहा।
यूदावाद अंतियोकुस चतुर्थ (१७५-१६४ ई०पू०) तक शान्तिपूर्वक बना रहा किन्तु इस राजा ने उसपर यूनानी संस्कृति लादने का प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप मक्काबियों के नेतृत्व में यहूदियों ने उनका विरोध किया था।
यहूदी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर एक है और उसके अवतार या स्वरूप नहीं है, लेकिन वो दूत से अपने संदेश भेजता है। ईसाई और इस्लाम धर्म भी इन्हीं मान्यताओं पर आधारित है पर इस्लाम में ईश्वर के निराकार होने पर अधिक ज़ोर डाला गया है। यहूदियों के अनुसार मूसा को ईश्वर का संदेश दुनिया में फैलाने के लिए मिला था जो लिखित (तनाख) तथा मौखिक रूपों में था। यहोवा ने इसरायल के लोगों को एक ईश्वर की अर्चना करने का आदेश दिया।
यहूदी धर्मग्रन्थ अलग अलग लेखकों के द्वारा कई सदियों के अन्तराल में लिखे गए हैं। ये मुख्यतः इब्रानी व अरामी भाषा में लिखे गए हैं।
ये धार्मिक ग्रन्थ हैं तनख़, तालमुद तथा मिद्रश।
इनके अलावा सिद्दूर, हलाखा, कब्बालाह आदि।
यहूदी धर्मग्रन्थ तोराह के अनुसार हजरत नूह ने ईश्वर के आदेश पर जलप्रलय के समय बहुत बड़ा जहाज बनाया, और उसमें सारी सृष्टि को बचाया था।
अब्राहम, यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म तीनों के पितामह माने जातें हैं।
तोराह के अनुसार अब्राहम लगभग २००० ई॰पू॰ अकीदियन साम्राज्य के ऊर प्रदेश में अपने इब्रानी कबीले के साथ रहा करते थे।
जहाँ प्रचलित मूर्तिपूजा से व्यथित होकर इन्होंने ईश्वर की खोज में अपने कबीले के साथ एक लम्बी यात्रा को शुरू किया।
यर्दन नदी की तराई के प्रदेश में पहुँचने के बाद प्रथम इज़राएली प्रदेश की नींव पड़ी।
यहूदी मान्यता के अनुसार कालांतर में कनान प्रदेश में भीषण अकाल पड़ने के कारण इब्रानियों को सम्पन्न मिस्र देश में जाकर शरण लेनी पड़ी।
मिस्र में कई वर्षों बाद इज़राएलियों को गुलाम बना लिया गया।
मूसा का जन्म मिस्र के गोशेन शहर में हुआ था।
यहूदी इतिहास के अनुसार इन्होंने इब्रानियों को मिस्र की ४०० वर्ष की गुलामी से बाहर निकालकर उन्हें कनान देश तक पहुँचाने में उनका नेतृत्व किया।
मूसा को ही यहूदी धर्मग्रन्थ की प्रथम पाँच किताबों, तोराह का रचयिता माना जाता है।
इन्होंने ही ईश्वर के दस विधान व व्यवस्था इब्रानियों को प्रदान की थी।
तनख़ के अनुसार मूसा मिस्र में रामेसेस द्वितीय के शासन में थे, जो कि लगभग १३०० ई॰पू॰ था।
यहूदी मृत्यु के बाद की दुनिया में यकीन नहीं रखते। उनके हिसाब से सभी मनुष्यों का यहूदी होना जरूरी नहीं है। यहूदी दर्शन में वर्तमान को ही महत्वपूर्ण माना जाता है, एवं हर क्षण को भरपूरी के साथ जीना ही आवश्यक है।
ईश्वर समय-समय पर सही राह दिखाने के लिए नबियों को भेजता है।
अपने हाथों से बनाई हुई मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजना पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है।
अपने सारे कर्तव्यों को ईश्वर को समर्पित कर उनका पूरी ईमानदारी से निर्वाह ही असल धर्म है।
यहूदी धर्म किसी निर्धारित पाप को मान्यता नहीं देता जिसमें मनुष्य जन्म से ही पापी हो बल्कि, इसमें पाप व प्रायश्चित को निरन्तर प्रक्रिया के रूप में माना जाता है। प्रायश्चित ही मुक्ति है।
बाइबल के पूर्वार्ध में जिस धर्म और दर्शन का प्रतिपादन किया गया है वह निम्नलिखित मौलिक सिद्धांतों पर आधारित है -
एक ही सर्वशक्तिमान् ईश्वर को छोड़कर और कोई देवता नहीं है। ईश्वर इजरायल तथा अन्य देशों पर शासन करता है और वह इतिहास तथा पृथ्वी की एंव घटनाओं का सूत्रधार है। वह पवित्र है और अपने भक्तों से यह माँग करता है कि पाप से बचकर पवित्र जीवन बिताएँ। ईश्वर एक न्यायी एवं निष्पक्ष न्यायकर्ता है जो कूकर्मियों को दंड और भले लोगों को इनाम देता है। वह दयालु भी हे और पश्चाताप करने पर पापियों को क्षमा प्रदान करता है, इस कारण उसे पिता की संज्ञा भी दी जा सकती है। ईश्वर उस जाति की रक्षा करता है जो उसकी सहायता माँगती है। यहूदियों ने उस एक ही ईश्वर के अनेक नाम रखे थे, अर्थात एलोहीम, याहवे और अदोनाई। बाइबिल के पूर्वार्ध से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ईश्वर इस जीवन में ही अथवा परलोक में भी पापियों को दण्ड और अच्छे लोगों को इनाम देता है।
इतिहास में ईश्वर ने अपने को अब्राहम तथा उसके महान वंशजों पर प्रकट किया है। उसने उनको सिखलाया है कि वह स्वर्ग, पृथ्वी तथा सभी चीजों का सृष्टिकर्ता है। सृष्टि ईश्वर का कोई रूपान्तर नहीं है क्योंकि ईश्वर की सत्ता सृष्टि से सर्वथा भिन्न है, इस लोकोत्तर ईश्वर ने अपनी इच्छाशक्ति द्वारा सभी चीजों की सृष्टि की है। यहूदी लोग सृष्टिकर्ता और सृष्टि इन दोनों को सर्वथा भिन्न समझते थे।
समस्त मानव जाति की मुक्ति हेतु अपना विधान प्रकट करने के लिये ईश्वर ने यहूदी जाति को चुन लिया है। यह जाति अब्राहम से प्रारंभ हुई थी (दे० अब्राहम) और मूसा के समय ईश्वर तथा यहूदी जाति के बीच का व्यवस्थान संपन्न हुआ था।
मसीह का भावी आगमन यहूदी जाति के ऐतिहासिक विकास की पराकाष्ठा होगी। मसीह समस्त पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करेंगे और मसीह के द्वारा ईश्वर यहूदी जाति के प्रति उपनी प्रतिज्ञाएं पूरी करेगा। किन्तु बाइबिल के पूर्वार्ध में इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि मसीह कब और कहाँ प्रकट होने वाले हैं।
मूसा संहिता यहूदियों के आचरण तथा उनके कर्मकाण्ड का मापदण्ड था किन्तु उनके इतिहास में ऐसा समय भी आया जब वे मूसासंहिता के नियमों की उपेक्षा करने लगे। ईश्वर तथा उसके नियमों के प्रति यहूदियों के इस विश्वासघात के कारण उनको बाबिल के निर्वासन का दण्ड भोगना पड़ा। उस समय भी बहुत से यहूदी प्रार्थना, उपवास तथा परोपकार द्वारा अपनी सच्ची ईश्वरभक्ति प्रमाणित करते थे।
यहूदी धर्म की उपासना येरूसलेम के महामन्दिर में केन्द्रीभूत थी। उस मन्दिर की सेवा तथा प्रशासन के लिये याजकों का श्रेणीबद्ध संगठन किया गया था। येरूसलेम के मन्दिर में ईश्वर विशेष रूप से विद्यमान है, यह यहूदियों का द्दढ़ विश्वास था और वे सब के सब उस मंदिर की तीर्थयात्रा करना चाहते थे ताकि वे ईश्वर के सामने उपस्थित होकर उसके प्रति अपना हृदय प्रकट कर सकें। मन्दिर के धार्मिक अनुष्ठान तथा त्योहारों के अवसर पर उसमें आयोजित समारोह भक्त यहूदियों को आनन्दित किया करते थे। छठी शताब्दी ई० पू० के निर्वासन के बाद विभिन्न स्थानीय सभाघरों में भी ईश्वर की उपासना की जाने लगी।
प्रारम्भ से ही कुछ यहूदियों (और बाद में मुसलमानों ने) बाइबिल के पूर्वार्ध में प्रतिपादित धर्म तथा दर्शन की व्याख्या अपने ढंग से की है। ईसाइयों का विश्वास है कि ईसा ही बाइबिल में प्रतिज्ञात मसीह है किन्तु ईसा के समय में बहुत से यहूदियों ने ईसा को अस्वीकार कर दिया। आजकल भी यहूदी धर्मावलम्बी सच्चे मसीह की राह देख रहे हैं। संत पॉल के अनुसार यहूदी जाति किसी समय ईसा को मसीह के रूप में स्वीकार करेगी।
इन्हें भी देखें
भारत में यहूदियों का इतिहास
आई० एपस्टाइन: जूदाइज्म, पेंग्विन, १९५९। (कामिल बुल्के) |
प्रधानमंत्री एक राजनैतिक पद होता है, जिसके पदाधिकारी पर सरकार की कार्यकारिणी का संचालन करने का भार होता है। सामान्यतः, प्रधानमंत्री अपने देश की संसद का सदस्य भी होता है।
भारत में प्रधानमन्त्री या अन्य कोई मन्त्री छः माह तक बिना संसद सदस्य रहते हुए भी पद पर बने रह सकते हैं लेकिन उन्हे छः महीने के अन्दर संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनना पडेगा। अगर प्रधानमन्त्री या मन्त्री इस अवधि में संसद के सदस्य बनने में विफल रहते हैं तो उन्हे त्यागपत्र देना पडेगा। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हर बार छ: माह के लिए आप सदन के सदस्य न रहते हुए भी मन्त्री पद पर आसीन रहे। इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यालय का निर्णय अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
प्रधानमंत्री की शक्तियां एवं कार्य
वर्तमान (सन् २०२२) भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व्यक्तिगत तौर पर भारत के १५वें प्रधानमन्त्री हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद ७५ केवल इतना कहता है कि भारत का एक प्रधानमंत्री होगा जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा। प्रधानमंत्री, मंत्री परिषद का नेता होता है। हेमंत सिंह के अनुसार राष्ट्रपति केवल नाममात्र का शासक होता है राष्ट्रपति से ज्यादा अधिकार प्रधानमंत्री के पास होते है जबकि प्रमुख कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री में निहित होती हैं।
मंत्री नियुक्त करने हेतु अपने दल के सदस्यों के नाम राष्ट्रपति को सुझाता है।
राष्ट्रपति उन लोगों को मंत्री बनाता है जिनके नामों की सिफारिस प्रधानमंत्री करता है।
यह निश्चित करता है कि किस मंत्री को कौन सा विभाग दिया जायेगा और वह उनको आवंटित विभाग में फेरबदल भी कर सकता है।
वह मंत्री परिषद् की बैठक की अध्यक्षता भी करता है और अपनी मर्जी के हिसाब से निर्णय बदल भी सकता है।
किसी मंत्री को त्यागपत्र देने या उसे बर्खास्त करने की सलाह राष्ट्रपति को दे सकता है।
वह सभी मंत्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित और निर्देशित भी करता है।
वह अपने पद से त्यागपत्र देकर पूरे मंत्रिमंडल को बर्खास्त करने की सलाह भी राष्ट्रपति को दे सकता है। अर्थात् वह राष्ट्रपति को लोकसभा भंग कर नये सिरे से चुनाव करवाने की सलाह भी दे सकता।
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भारत का प्रधानमंत्री
भारत का हो
भारत के प्रधानमंत्री के बारे में यह जरूर जान लें |
जावास्क्रिप्ट, संक्षेप में जेएस, एचटीएमएल और सीएसएस के साथ, वर्ल्ड वाइड वेब की एक मुख्य भाषा है। २०२२ तक, ९८% वेबसाइट क्लाइंट साइट में जावास्क्रिप्ट का इस्तेमाल करती है। ज़्यादातर ब्राउज़र में यूज़र के तरफ से कोड चालू करने के लिए कोई जावास्क्रिप्ट इंजन है।
जाल पृष्ठों के गत्यात्मक (डाइनामिक) बनाने में उपयोगी
क्लाएंट साइड में (प्रयोक्ता के कम्प्यूटर पर) चलती है।
यह एक इन्टरप्रिटेड भाषा है।
आब्जेक्ट ओरिएन्टेड भाषा है।
इसमें प्रथम श्रेणी के फंशन हैं।
जावास्क्रिप्ट का सिन्टैक्स, सी के सिन्टैक्स से प्रभावित है।
जावास्क्रिप्ट का वास्तविक नाम "इक्मास्क्रिप्ट" है।
यद्यपि इसके नाम में जावा शब्द आया हुआ है, तथापि इसका जावा नामक प्रोग्रामन भाषा से कोई सम्बन्ध नही है। हाँ, जावा तथा जावास्क्रिप्ट दोनो का सिन्टैक्स, सी के सिन्टैक्स से प्रभावित है। जावास्क्रिप्ट की डिजाइन के मुख्य सिद्धान्त सेल्फ (सेल्फ) नामक प्रोग्रामिंग भाषा से लिये गये हैं।
जावास्क्रिप्ट के विभिन्न उपयोग
जावास्क्रिप्ट, एचटीएमएल डिजाइनरों के लिये प्रोग्रामिंग की सुविधा प्रदान करती है।
जावास्क्रिप्ट, एचटीएमएल पृष्ठों में गतिशील टेक्स्ट (डाइनामिक टेक्स्ट) डालने की सुविधा देती है।
उपरोक्त जावास्क्रिप्ट स्टेटमेन्ट, किसी हत्मल पेज में चर-पाठ (वरिएबल टेक्स्ट) लिखने के लिये प्रयोग किया जा सकता है।
जावास्क्रिप्ट, घटनाओं (ईवेंट्स) के अनुसार वांछित प्रतिक्रिया करने के लिये उपयोग की जाती है। उदाहरण के लिये किसी एचटीएमएल पेज के किसी बटन पर क्लिक करने पर कोई पूर्व-निर्धारित कार्य करने के लिये।
जावास्क्रिप्ट, एलमंट्स को पढ़ या लिख सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी हत्मल पेज के किसी अवयव के बारे में जानकारी प्राप्त करके उसे बदला या हटाया जा सकता है। इस तरह उस पेज को परिवर्तित कर सकते हैं।
जावास्क्रिप्ट, आंकड़ों की जाँच-परख कर सकती है। किसी फार्म के प्रयोक्ता द्वारा उस फार्म में भरे गये आंकडों को पहले जाँच लेने के बाद सर्वर के पास भेजने से सुविधा हो जाती है। इससे सर्वर का समय बचता है और प्रयोक्ता को भी त्रुटियों की जानकारी जल्दी हो जाती है।
जावास्क्रिप्ट, किसी पेज पर आये आगन्तुक () के ब्राउजर के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकती है। इसका उपयोग करके उस ब्राउजर के अनुकूल समुचित व्यवहार कर सकती है ताकि वह पेज सभी ब्राउजरों में ठीक से दिखाया जा सके।
जावास्क्रिप्ट का प्रयोग कुक्की (कुकीज) के निर्माण में किया जा सकता है।
जावास्क्रिप्ट के अवयव
जावास्क्रिप्ट में हर चीज या तो मूल मान (प्रीमितिव वेल्यू) होता है या ऑब्जेक्ट।
जाल पृष्ठों के निर्माण में जावास्क्रिप्ट
जावास्क्रिप्ट का मुख्य उपयोग ऐसे फंशन लिखने में होता है जो हत्मल पेजों में अन्तर्निहित (एम्बेडएड) होते हैं। नीचे एक उदाहरण दिया गया है जो दर्शाता है कि हत्मल में जावास्क्रिप्ट किस प्रकार समाहित (इनक्लूड) करते हैं। |
रोमन धर्म प्राचीन रोम नगर और इटली देश का सबसे मुख्य और राजधर्म था। रोमन धर्म सामी धर्म बिलकुल नहीं था। वो एक भारोपीय (हिन्द-यूरोपीय) धर्म था। ये एक मूर्तिपूजक और बहुदेवतावादी धर्म था। इसमें एक अदृश्य ईश्वर की अवधारणा नहीं थी। ईसाई धर्म के राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद ये लुप्त हो गया। इस धर्म के कई देवताओं के सम्तुल्य देवता प्राचीन यूनानी धर्म में, जर्मनिक धर्म और फ़ारसी धर्म में मिलते हैं। मूर्तिपूजा और बहुदेववाद इसकी मुख्य विशेषताएं है !
इस धर्म में कई देवता थे: जुपिटर (देवराज), बैक्कस, अपोलो, क्यूपिड, मार्स, मरक्युरी, प्लूटो, सैटर्न, वुल्कन, नेप्चून, मिथ्रास (मित्र), इत्यादि। रोमन देवताओं में बाद के रोमन सम्राट भी शामिल थे।
प्रमुख देवियाँ थीं जूनो, मिनर्वा, सिरीस, फ़्लोरा, फ़ोर्तूना, डायना, वीनस, इत्यादि।
पूजा मुख्यतः पशुबलि द्वारा होती थी (गाय, सांड, सूअर, भेड़, आदि)। इस धर्म में कुछ ख़ास आध्यात्मिकता नहीं थी।
इन्हें भी देखें
रोम के देवी-देवता |
प्राचीन यूनानी धर्म (अथवा प्राचीन ग्रीक धर्म) प्राचीन यूनान (ग्रीस) देश का सबसे मुख्य- और राजधर्म था। ये एक मूर्तिपूजक और बहुदेवतावादी धर्म था। इसमें एक अदृश्य ईश्वर की अवधारणा नहीं थी। ईसाई धर्म के राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया और इसके देवी-देवताओं को शैतान करार दिया। इसके बाद ये लुप्त हो गया।
ग्रीक पौराणिक कथाएं, उन प्राचीन यूनानियों, उनके देवताओं, नायकों, दुनिया की प्रकृति, अनुष्ठान प्रथाओं के महत्व के विषय में संबंधित मिथकों और किंवदंतियों का आधार हैं। वे प्राचीन ग्रीस में धर्म का एक हिस्सा थीं आधुनिक विद्वानों ने इन मिथकों का अध्ययन कर प्राचीन ग्रीस, इसकी सभ्यता की धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं पर प्रकाश डाला है और लाभ मिथक बनाने की प्रकृति को समझने का प्रयास किया है।
ग्रीक पौराणिक कथाएं कथा रूप मे भारी मात्रा में संग्रहीत हैं। इनका बड़ा संग्रह परोक्ष रूप मे फूलदानओं पर उकेरी कला कृतियों के रूप में, भित्तिचित्रों कि द्वारा दुनिया कि उत्पत्ति के विवरणओं, जीवन और देवताओं, देवी, नायकों, नायिकाओं और पौराणिक प्राणियों की एक विस्तृत विविधता के रोमांच की व्याख्या करने का प्रयास करतए है। इन कथनकों को शुरू में एक मौखिक काव्य परंपरा में फैलाया गया, आज ग्रीक मिथकों को ग्रीक साहित्य से मुख्य रूप से जाना जाता है।
इलियाड और ओडिसी दो महाकाव्य, प्राचीनतम ज्ञात यूनानी साहित्यिक स्रोत, ट्रोजन युद्ध के आसपास की घटनाओं पर ध्यान केंद्रित हैं। होमर के समकालीन हेसियड, थियोगोनी के आक्ख्यान दुनिया की उत्पत्ति, दिव्य शासकों व उनके उत्तराधिका्रियों के, मानव युगों के बारे में मानवीय संकट के भययोग्य उद्गम और बलि प्रथाओं केविषय मे जानकारी देते हैं। मिथक होमेर के भजनों में भी संरक्षित हैं, इस काल के काव्य खण्डों में, गेय कविताओं में, पांचवीं शताब्दी ई.पू. के हेलेनिस्टिक युग के विद्वानों और कवियों की रचनाओं में से, रोमन साम्राज्य के समय प्लूटार्क और पौषनियास जैसे लेखकों द्वारा त्रासदियों की रचना की गई।
इस धर्म के कई देवताओं के सम्तुल्य देवता प्राचीन रोमन धर्म में मिलते हैं और कुछ हिन्दू धर्म में भी।
इस लेख में देवताओं के अंग्रेज़ी उच्चारण दिये गये हैं, मौलिक यूनानी नहीं।
इस धर्म में कई देवता थे : ज़्यूस (देवराज), डायोनाइसस, अपोलो, ईरोस, एरीस, हरमीस, हेडीस, क्रोनोस, हैफ़ीस्टस, पोसाइडन, इत्यादि। लगभग सभी देवी-देवताओं के रोमन धर्म में समकक्ष देवतागण मिल सकते हैं।
प्रमुख देवियाँ थीं : हीरा, ऐफ़्रोडाइटी, अथीना, आर्टेमिस, डिमीटर, हेस्टिया, पर्सिफ़ोनी, इत्यादि।
पूजा मुख्यतः पशुबलि द्वारा होती थी (गाय, सांड, सूअर, भेड़, बकरा आदि)। यूनानी लोगों ने देवताओं के लिये कई ख़ूबसूरत संगेमरमरी मंदिर बनाये थे।
यूनानी पुरुष देवताओं के सम्मान में ओलम्पिक खेल हर साल आयोजित करते थे। वो मानते थे कि उनके देवतागण ओलम्पिक पर्वत पर रहते हैं। बारह प्रमुख ओलम्पियन देवतागण थे : ज़्यूस, डायोनाइसस, हीरा, पोसाइडन, हेडीस, ऐफ़्रोडाइटी, अथीना, हेस्टिया, अथीना, अपोलो, आर्टेमिस, एरीस, हैफ़ीस्टस और हरमीस (इनमें से बारह कौन हैं, इसमें अन्तर्विरोध था)।
यूनान के देवी-देवता |
यूनान यूरोप महाद्वीप में स्थित देश है। यहां के लोगों को यूनानी अथवा यवन कहते हैं। अंग्रेजी तथा अन्य पश्चिमी भाषाओं में इन्हें ग्रीक कहा जाता है। यहाँ के निवासी अपने देश को एल्लास कहते हैं। यह भूमध्य सागर के उत्तर-पूर्व में स्थित द्वीपों का समूह है। प्राचीन यूनानी लोग इस द्वीप से अन्य कई क्षेत्रों में गए जहाँ वे आज भी अल्पसंख्यक के रूप में उपस्थित है, जैसे - तुर्की, मिस्र, पश्चिमी यूरोप इत्यादि।
यूनानी भाषा ने आधुनिक अंग्रेज़ी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं को कई शब्द दिये हैं। तकनीकी क्षेत्रों में इनकी श्रेष्ठता के कारण तकनीकी क्षेत्र के कई यूरोपीय शब्द यूनानी भाषा के मूलों से बने हैं। इसके कारण ये अन्य भाषाओं में भी आ गए हैं।
स्थिति: ३५ से ४१ ३०' उ.अ. तथा १९ ३०' से २७ पू.दे.; क्षेत्रफल- ५१,१८२ वर्ग मील, जनसंख्या ८५,५५,००० (१९58, अनुमानित) बालकन प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में बालकन राज्य का एक देश है जिसके उत्तर में अल्बानिया, यूगोस्लाविया और बलगेरिया, पूर्व के तुर्की, दक्षिण-पश्चिम, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में क्रमश: आयोनियन सागर, भूमध्यसागर और ईजियन सगर स्थित हैं। यूनान को हेलाज़ (हेलास) का राज्य कहते हैं।
ग्रीस की सबसे आकर्षक भौगोलिक विशेषता उसके पर्वतीय भाग, बहुत गहरी कटी फटी तटरेखा तथा द्वीपों की अधिकता है। पर्वतश्रेणियाँ इसके ३/४ क्षेत्र में फैली हुई हैं। पश्चिमी भाग में पिंडस पर्वत समुद्र और तटरेखा के समांतर लगातार फैला हुआ है। इसके विपरीत, पूर्व में पर्वतश्रेणियाँ समुद्र के साथ समकोण बनाती हुई चलती हैं। इस प्रकार की छिन्न-भिन्न तटरेखा और यूरोप में एक अद्भुत झालरदार (फ्रिंज) द्वीप का निर्माण करती हैं। सर्वप्रमुख बंदरगाह इसी झालरदार द्वीप पर स्थित हैं और समीपवर्ती ईजियन समुद्र लगभग २,००० द्वीपों से भरा हुआ है। ये एशिया और यूरोप के बीच में सीढ़ी के पत्थर का काम करते हैं। देश का कोई भी भाग समुद्र से ८० मील से अधिक दूर नहीं है। इस देश में ्थ्रोस, मैसेडोनिया और थेसाली केवल तीन विस्तृत मैदान हैं।
ग्रीस की जलवायु इसके विस्तार के विचार से असाधारण रूप से भिन्न है। इसके प्रधान कारण ऊँचाई में विभिन्नता, देश की लंबी आकृति और बालकन तथा भूमध्यसागरीय हवाओं की उपस्थिति है। समुद्रतटीय भागों में भूमध्यसागरी जलवायु पाई जाती है जिसकी विशेषता लंबी, उष्ण तथा शुष्क गर्मियाँ और वर्षायुक्त ठंढी जाड़े की ऋतुएँ हैं, थेसाली, मैसेडोनिया तथा थ्रोस के मैदानों की जलवायु वर्षा, जाड़े की ऋतु ठंड़ी तथा गर्मियाँ अधिक उष्ण होती हैं। अल्पाइन पर्वत पर तीसरा जलवायु खंड पाया जाता है।
यूनान को पाँच प्राकृतिक विभागों- १. थ्रोस और मैसेडोनिया, २. ईपीरस, ३. थेसाली, ४. मध्य ग्रीस और ५. द्वीपसमूह में बाँटा जा सकता है।
थ्रोस और मैसेडोनिया
उत्तरी भाग पूर्णतया पर्वतीय हैं। वारदर, स्ट्रुमा, नेस्टास और मेरिक प्रमुख नदियाँ हैं। पर्वतीय हैं। समीप विस्तृत मैदान हैं जिनमें खाद्यान्नों, तंबाकू और फलों की खेती होती है। इस प्रदेश में एलेक्जैंड्रोपोलिस, कावला तथा सालोनिका प्रमुख बंदरगाह हैं।
अधिकांश भाग पर्वतीय तथा विषम है। इसलिये कुछ सड़कों को छोड़कर यातायात का अन्य कोई साधन नहीं हैं। पर्वतीय लोगों का मुख्य उद्यम भेड़ पालना है। छोटे छोटे मैदानों में कुछ फस्लें, विशेषतया मक्का, पैदा की जाती हैं।
मैसेडोनिया की ही तरह थेसाली के मैदान अत्यंत उपजाऊ हैं जहाँ ग्रीस के किसी भी भाग की अपेक्षा व्यापक पैमाने पर खेती की जाती है। मुख्य फसलें गेहूँ, मक्का, जौ और कपास हैं। लारिसा यहाँ का मुख्य नगर तथा वोलास मुख्य बंदरगाह हैं।
मध्य ग्रीस में थेब्स (थेवाई), लेवादी और लामियाँ के मैदानों के अतिरिक्त पथरीली और विषम भूमि के भी क्षेत्र हैं। मैदानों में मुनक्का, नारंगी, खजूर, अंजीर, जैतून, अंगूर, नीबू और मक्का की उपज होती है। पथरीली और विषम भूमि के क्षेत्र में खाल और ऊन प्राप्त होता है।
इसी खंड में राष्ट्रीय राजधानी एथेन्स ग्रीस का प्रमुख बंदरगाह एवं औद्योगिक पिरोस आते हैं।
इनमें मुख्यत: आयोनियन, ईजियन, यूबोआ, साईक्लेड्स तथा क्रीट द्वीप उल्लेख्य हैं। क्रीट इनमें सबसे बड़ा द्वीप हैं, जिसकी लंबाई १६० मील तथा चौड़ाई ३५ मील हैं। सन् १९५१ में इसकी जनसंख्या ४,६१,३०० थी तथा इसमें दो प्रमुख नगर, कैंडिया और कैनिया, स्थित हैं।
आयोनियन द्वीप बहुत ही घने बसे हुए हैं। सभी द्वीपों में कुछ शराब, जैतून का तेल, अंगूर, चकोतरा तथा तरकारियाँ पैदा होती हैं। यहाँ के अधिकांश निवासी मछुए, नाविक या स्पंज गोताखोर के रूप में जीविकोपार्जन करते हैं।
खनिज : ग्रीस में पर्याप्त खनिज संपत्ति है लेकिन व्यवस्थित रूप में अनुसंधान न होने से इस प्राकृतिक धन का उपयोग नहीं हो पाता है। खनिज पदार्थों के विकासार्थ संयुक्तराष्ट्र द्वारा गठित उपसमिति (उनर्रा) की सिफारिश (१९४७) के आधार पर १९५१ ई. में एथेन्स के उपधरातलीय अन्वेषण केंद्र ने १/५०,००० अनुमाप पर ग्रीस के भूगर्भीय मानचित्र का निर्माण कार्य प्रारंभ किया।
यहाँ के मुख्य खनिज लौह धातु, वाक्साइट, आयरन पाइराइट (आइरन पाइरीट), कुरुन पत्थर, बेराइट। सीस, जस्ता, मैगनेसाइट, गंधक, मैंगनीज, ऐंटीमीनी और लिगनाइट हैं। १९५१ ई. में संयुक्त राष्ट्र आयोग की खोज से यह पता चला कि मेसिना जाते, कर्दिस्ता, त्रिकाला और ्थ्रोस के क्षेत्रों में खोदे जाने योग्य तेल के भंडार हैं।
इसका भी पर्याप्त विकास नहीं हो सका है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के आहार और कृषि संगठन (फ.आ.ओ.) की सूचना (मार्च, १९४७) के अनुसार जलविद्युत् की क्षमता ८,००,००0 किलावाट और ५,००,००,००,००0 किलोवाट घंटा प्रति वर्ष थी जबकि विश्वयुद्ध के पूर्व केवल २२,००,००,००0 किलोवाट घंटा विद्युत् तैयार की जाती थी और तापविद्युत्यंत्रों के लिये कीमती ईधंन आयात किया जाता था। ग्रीस की अनियंत्रित नदियों से कटाव, बाढ़ तथा रेत की समस्या से छुटकारा पाने के लिये नदीघाटी योजनाओं द्वारा इन्हें नियंत्रित कर शक्ति एवं कृषि के लिये अतिरिक्त भूमि प्राप्त की जा रही है। इन योजनाओं में आगरा (मैसेडोनिया), लेदन नदी (पेलोपानीसस), लौरास नदी (ईपीरस) और अलीवेरियन (यूबोआ) मुख्य हैं।
प्राकृतिक वनस्पति एवं पशु
यूनान की वनस्पति को चार खंडों में विभाजित किया जा सकता है :
१. समुद्रतल से १500 फुट तक इस क्षेत्र में तंबाकू, कपास, नारंगी, जैतून, खजूर, बादाम, अंगूर, अंजीर और अनार पाए जाते हैं तथा नदियों के किनारे लारेल, मेहँदी, गोंद, करवीर, सरो एवं सफेद चिनार के वृक्ष पाए जाते हैं।
२. दूसरे क्षेत्र में (१५००' -३५००') पर्वतीय ढालों पर बलूत, (ओक) अखरोट और चीड़ के वृक्ष पाए जाते हैं। चीड़ से रेजिन निकाल कर उसका उपयोग तारपीन का तेल बनाने तथा ग्रीस की प्रसिद्ध शराब रेट्जिना (रेतसीना) को स्वादिष्ट बनाने के लिये होता है।
३. तृतीय खंड में (३500' -५५००') विशेषकर बीच (बीच) पाया जाता है। ऊँचाई पर फर और निचले भागों में चीड़ के वृक्ष मिलते हैं।
४. अल्पाइन क्षेत्र में ५,५00' से अधिक ऊँचाई पर छोटे छोटे पौधे-लाइकन और काई-मिलते हैं। वसंत ऋतु में रंग बिरंगे जंगली फूल पहाड़ी भागों को सुशोभित करते हैं।
जगंली जानवरों में भालू, सुअर, लिडक्स, वेदगर, गीदड़, लोमड़ी, जंगली बिल्ली तथा नेवला आदि हैं। पिंडस श्रेणी में हरिण तथा पर्वतीय क्षेत्रों में भेड़िए मिलते हैं। यहाँ नाना प्रकार के पक्षी, जिनमें गिद्ध, बाज, गरुड़, बुलबुल तथा बत्तख मुख्य हैं, पाए जाते हैं।
कुल क्षेत्र का केवल १/४ भाग कृषियोग्य है। प्रति व्यक्ति कृषिक्षेत्र (०.7४ एकड़) तथा प्रति एकड़ उत्पादन (१3.५ बुशल) दोनों यूरोपीय देशों में सबसे कम हैं। उत्पादन की कमी के मुख्य कारण अपर्याप्त वर्षा, अनुपजाऊ भूमि, बहुत चरे हुए चरागाह तथा पुरानी कृषि प्रणालियाँ हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले प्रति दिन प्रति व्यक्ति 2५०० कैलॉरी (कलोरी) भोजन की मात्रा होती थी, जबकि अधिक उन्नत देशों में यह मात्रा 3०० से 32०० तक हैं। यूनानियों के आहार में मांस तथा दुग्ध पदार्थों का उपभोग बहुत ही कम रहा है। अधिकांश कृषक पहले अपने ही परिवार के लिये भोजन पैदा करते थे। अभी तक पर्वतीय क्षेत्रों तथा छोटे द्वीप के कृषक आत्मनिर्भर हैं। अब अधिकांश भागों में विशेष कृषि होती है और एक ही फसल पैदा की जाती है।
कृषि योग्य भूमि के ७४% भाग में खाद्यान्नों और राई, गेंहूँ, मक्का, जौ, जई का उत्पादन होता है। १९५१ ई. में इनका उत्पादन १३,९०,००० मीटरी टन (अनुमानित) रहा। थोड़ी मात्रा में दाल, सोयाबीन, ब्राडबीन (ब्रॉड बीन्स) और चिक पी (चिक पीस) पैदा होती हैं और आवश्यकतानुसार इन्हें विदेशों से आयात करते हैं। आलू की पूर्ति देश से ही हो जाती है। ग्रीस की व्यावसायिक फसलें तंबाकू और कपास हैं, जिनका उत्पादन १९५१ ई. में क्रमश: ६२,००० तथा ८१,०० मीटरी टन रहा। यहाँ का कपास उच्च कोटि का है तथा उद्योग के विकास के साथ इसका उत्पादन भी बढ़ता जा रहा है।
फलों का उत्पादन २६% कृषि क्षेत्र में होता है और इनसे ३६% कृषिआय प्राप्त होती है। इनमें जैतून के बगीचे सर्वप्रमुख हैं। खाने योग्य जैतून एवं जैतून के तेल का उत्पादन १९५१ ई. में क्रमश: ८१,००० तथा १,४०,००० मीटर टन (अनुमानित) रहा। इनका निर्यात पर्याप्त मात्रा में होता है। अन्य फल मुख्यत: चकोतरा, नासपाती, सेब, खुबानी, बादाम, पिस्ता, अखरोट, अंगूर, तथा काष्ठफल आदि हैं।
पशु पालन ग्रीस की कृषिव्यवस्था की एक प्रमुख शाखा है। यहाँ प्रत्येक गाँव में पशुपालन होता है। सन् १९५५ में यहाँ ८९,७०,००० भेंड़ें और ९,५७,००० पशु थे।
कोयला, बिजली, तथा पूँजी की कमी के कारण ग्रीस के उद्योगों का विकास बहुत ही मंद रहा। निर्माण उद्योगों में, जो कृषि पदार्थों पर ही आधारित है, केवल ८% जनसंख्या लगी हुई है। इन उद्योगों में वस्त्र, रसायनक और भोज्य पदार्थ मुख्य हैं। अन्य निर्मित माल में जैतून के तेल, शराब, कालीन, आटा, सिगरेट, उर्वरक और भवननिर्माण सामग्री हैं। औद्योगिक विकास एथेन्स तथा सोलोनिका के आसपास है। ईधेसा सूती वस्त्र निर्माण का प्रमुख केंद्र है।
यहाँ से निर्यात की जानेवाली प्रमुख कृषि वस्तुएँ तंबाकू, मुनक्का, रेजिन, जैतून, जैतून का तेल, अंगूर तथा शराब हैं। मुनक्का का निर्यात १९३७ ई. के १५% से बढ़कर १९५१ ई. में ३२% हो गया। ग्रीस के प्रमुख ग्राहक पश्चिम जर्मनी, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रिया, इटली, फ्रांस तथा मिस्त्र हैं। आयात की वस्तुओं में तैयार माल, भोजन तथा कच्चे माल हैं, जिनकी पूर्ति मुख्यतया संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, इटली, बेल्जियम और लक्सेमबर्ग द्वारा होती है।
यातायात के साधन मुख्यत: जलयान, रेलें तथा सड़कें हैं। यहाँ १९५६ में (१०० टन तथा ऊपर के) ३४७ व्यापारिक जहाज थे जिनकी क्षमता १३,०७,३३६ टन थी। १९५५ ई. में रेलमार्गो की लंबाई १६७८ मील तथा १९५३ ई. में कुल सड़कों की लंबाई १४,२२१ मील थी। द्वितीय विश्वयुद्ध काल में ग्रीस की यातायात व्यवस्था को अप्रत्याशित हानि उठानी पड़ी लेकिन संयुक्त राज्य की सहायता द्वारा सन् १९५० तक इन्हें पूर्णतया ठीक कर लिया गया।
यहाँ सात वर्ष से लेकर १४ वर्ष तक प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। सन् १९५४ में प्रारंभिक पाठशालाएँ ९,३६८, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय ४२५, तथा दो विश्वविद्यालय-एथेन्स एवं सालोनिका में थे। इनके अतिरिक्त एथेन्स में कई प्राविधिक तथा विदेशी विद्यालय हैं।
प्राचीन यूनानी लोग ईसापूर्व १५०० इस्वी के आसपास इस द्वीप पर आए जहाँ पहले से आदिम लोग रहा करते थे। ये लोग हिन्द-यूरोपीय समूह के समझे जाते हैं। ११०० ईसापूर्व से ८०० ईसापूर्व तक के समय को अन्धकार युग कहते हैं। इसके बाद ग्रीक राज्यों का उदय हुआ। एथेन्स, स्पार्टा, मेसीडोनिया (मकदूनिया) इन्ही राज्यों में प्रमुख थे। इनमें आपसी संघर्ष होता रहता था। इस समय ग्रीक भाषा में अभूतपूर्व रचनाए हुईं। विज्ञान का भी विकास हुआ। इसी समय फ़ारस में हख़ामनी (एकेमेनिड) उदय हो रहा था। रोम भी शक्तिशाली होता जा रहा था। सन् ५०० ईसापूर्व से लेकर ४४८ ईसापूर्व तक फ़ारसी साम्राज्य ने यूनान पर चढ़ाई की। यवनों को इन युद्धों में या तो हार का मुँह देखना पड़ा या पीछे हटना पड़ा। पर ईसापूर्व चौथी सदी के आरंभ में तुर्की के तट पर स्थित ग्रीक नगरों ने फारसी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह करना आरंभ कर दिया।
सन् ३३५ ईसापूर्व के आसपास मकदूनिया में सिकन्दर (अलेक्ज़ेन्डर, अलेक्षेन्द्र) का उदय हुआ। उसने लगभग सम्पूर्ण यूनान पर अपना अधिपत्य जमाया। इसके बाद वो फ़ारसी साम्राज्य की ओर बढ़ा। आधुनिक तुर्की के तट पर वो ३३० ईसापूर्व में पहुँचा जहाँ पर उसने फारस के शाह दारा तृतीय को हराया। दारा रणभूमि छोड़ कर भाग गया। इसके बाद सिकन्दर ने तीन बार फ़ारसी सेना को हराया। फिर वो मिस्र की ओर बढ़ा। लौटने के बाद वो मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक़, उस समय फारसी नियंत्रण में) गया। अपने साम्राज्य के लगभग ४० गुणे बड़े साम्राज्य पर कब्जा करने के बाद सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक चला आया। यंहा पर उसका सामना पोरस ( पुरु ) से हुआ. युद्ध में भले ही पोरस की हार हुई, जैसा कि कुछ इतिहासकार मानते हैं, लेकिन इस युद्ध से सिकंदर की सेना आगे बढ़ने का हौसला नही रख पाई. पोरस के बाद अभी भारतवर्ष को जीतने के लिए अनेको शासको से युद्ध करना पड़ता इसलिए सिकंदर की सेना ने आगे बढ़ने से मना कर दिया. यूनानी इतिहासकारों ने इस तथ्य को छिपा लिया और सेना के थकने की थ्योरी पैदा की. आगे न बढ़ पाने की स्थिति में वह वापस लौट गया. सन् ३२३ में बेबीलोनिया में उसकाी मृत्यु हो गई। उसकी इस विजय से फारस पर उसका नियंत्रण हो गया पर उसकी मृत्यु के बाद उसके साम्राज्य को उसके सेनापतियों ने आपस में बाँट लिया। आधुनिक अफ़गानिस्तान में केन्द्रित शासक सेल्युकस इसमें सबसे शक्तिशाली साबित हुआ। पहली सदी ईसा पूर्व तक उत्तरपश्चिमी भारत से लेकर ईरान तक एक अभूतपूर्व हिन्द-यवन सभ्यता का सृजन हुआ।
सिकन्दर के बाद सन् ११७ ईसापूर्व में यूनान पर रोम का नियंत्रण हो गया। यूनान ने रोम की संस्कृति को बहुत प्रभावित किया। यूनानी भाषा रोम के दो आधिकारिक भाषाओं में से एक थी। यह पूर्वी रोमन साम्राज्य की भी भाषा बनी। सन् १४५३ में कस्तुनतूनिया के पतन के बाद यह उस्मानी (ऑटोमन तुर्क) नियंत्रण में आ गया। इसके बाद सन् १८२१ तक यह तुर्कों के अधीन रहा जिस समय यहाँ से कई लोग पश्चिमी यूरोप चले गए और उन्होंने अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अपने ग्रंथों का अनुवाद किया। इसके बाद ही इनका महत्व यूरोप में जाना गया।
सन् १८२१ में तुर्कों के नियंत्रण से मुक्त होने के बाद यहाँ स्वतंत्रता रही है पर यूरोपीय शक्तियों का प्रभाव यहाँ भी देकने को मिला है। प्रथम विश्वयुद्ध में इसने तुर्कों के खिलाफ़ मित्र राष्ट्रों का साथ दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनों ने यहाँ कुछ समय के लिए अपना नियंत्रण बना लिया था। इसके बाद यहाँ गृह युद्ध भी हुए। सन् १९७५ में यहाँ गणतंत्र स्थापित कर दिया गया। साइप्रस को लेकर ग्रीस और तुर्की में अबतक तनाव बना हुआ है।
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परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है।
संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।
धर्म और दर्शन में परमेश्वर की महिमा
ईसा मसीह के अनुयायी ईसाई के रूप में जाने जाते हैं। यीशु का जन्म लगभग ६ ई.पू. बेथलेहम में हुआ। ईसाई धर्म की मुख्य पुस्तक बाइबल तीन पवित्र पुस्तकों- तोराह, इंजिल और ज़बूर का संग्रह है। ईसाई और इस्लाम दोनों धर्मों में यह माना जाता है कि ईश्वर द्वारा बनाया गया पहला मानव आदम था और हम सभी उसके पुत्र और पुत्रियाँ हैं। उनके वंश में, कई पैगंबर जन्में थे। उनमें से कुछ हज़रत दाऊद, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा हैं।
जिसका प्रमाण पवित्र बाइबिल - उत्पत्ति ग्रंथ में भी है । उत्पत्ति ग्रंथ १:२९ - मैंने आपके खाने के लिए सभी प्रकार के अनाज और सभी प्रकार के फल प्रदान किए हैं और उत्पत्ति ग्रंथ १:३० - लेकिन सभी जंगली जानवरों और सभी पक्षियों के लिए मैंने भोजन के लिए घास और पत्तेदार पौधे प्रदान किए हैं-इसलिए मैंने उन्हें शाकाहारी होने का आदेश दिया। ईसाई धर्म में परमात्मा को निराकार मना जाता है, परंतु सच्चाई यह है कि परमात्मा साकार और निराकार दोनो है। वह अपने अपने अनुसार निराकार और साकार होता रहता है। प्रमाण के लिए देखें: बाइबल (उत्पत्ति १:१), (इब्रियों ११:६), (रोमन १:२०), (रोमन १:१9, २०), साल्म/स्तोत्र ५३:१-३)।
(इब्रियों ११:६) : विश्वास के बिना, भगवान को प्रसन्न करना असंभव है, क्योंकि जो कोई भी उनके पास आता है उसे विश्वास करना चाहिए कि वह अस्तित्व में है और वह उन लोगों को पुरस्कृत करता है जो दृढ़ता से उसकी तलाश करते हैं
(रोमन १:२०) : सृष्टि रचना के बाद से उनकी (परमात्मा की) अदृश्य विशेषताओं, उनकी शाश्वत शक्ति और दिव्य प्रकृति को स्पष्ट रूप से देखा गया है।
वो ईश्वर को अल्लाह कहते हैं। इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक कुरान है और प्रत्येक मुसलमान ईश्वर शक्ति में विश्वास रखता है।
इस्लाम का मूल मंत्र "लॉ इलाह इल्ल , अल्लाह , मुहम्मद उर रसूल अल्लाह" है, अर्थात् अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके आखरी रसूल (पैगम्बर)हैं।
इस्लाम में मुसलमानों को खड़े खुले में पेशाब(इस्तीनज़ा) करने की इजाज़त नहीं क्योंकि इससे इंसान नापाक होता है और नमाज़ पढ़ने के लायक नहीं रहता इसलिए इस्लाम में बैठके पेशाब करने को कहा गया है और उसके बाद पानी से शर्मगाह को धोने की हुक्म दिया गया है।
इस्लाम में ५ वक़्त की नामाज़ मुक़र्रर की गई है और हर नम्र फ़र्ज़ है।इस्लाम में रमज़ान एक पाक महीना है जो कि ३० दिनों का होता है और ३० दिनों तक रोज़ रखना फ़र्ज़ है जिसकी उम्र १२ या १२ से ज़्यादा हो।१२ से कम उम्र पे रोज़ फ़र्ज़ नहीं।सेहत खराब की हालत में भी रोज़ फ़र्ज़ नहीं लेकिन रोज़े के बदले ज़कात देना फ़र्ज़ है।वैसा शख्स जो रोज़ा न रख सके किसी भी वजह से तो उसको उसके बदले ग़रीबो को खाना खिलाने और उसे पैसे देने या उस गरीब की जायज़ ख्वाइश पूरा करना लाज़मी है।
वेद के अनुसार हर व्यक्ति ईश्वर का अंश है। परमेश्वर एक ही है। वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है कि वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे हैं। हिंदू धर्म ईश्वर को दोनों अर्थात् साकार तथा निराकार रूप में देखता है।इस के अनुसार जो ईश्वर सब चीजों को साकार रूप देता है,वो खुद भी साकार तथा निराकार रूप धारण कर सकता है।सनातन धर्म (लोकपरिचित हिंदू धर्म) आत्मा (ईश्वर का अंश)को जीवन को आधार मानता है। हिंदू धर्म मानव को किसी पाप समलित होने आज्ञा नहीं देता।इसके अनुसार जीव को मानव जन्म में सद्कर्म तथा मानवता आचरण करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी न किसी उद्देश्य से हुआ है। ईश्वर अनंत है , अजन्म है। हिंदू धर्म में आदिशक्ति मां को श्रृष्टि का आधार बताया गया। ब्रह्मा को श्रृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालनहार तथा महेश को श्रृष्टि का विनाशक बताया गया है।
जैन धर्म में तीर्थंकर एक धार्मिक मार्ग का आध्यात्मिक शिक्षक होता है जिसे जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र पर विजय प्राप्त किया हुआ माना जाता है; जिनकी धार्मिक विचारधारा को जैन धर्म के सभी भक्त निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करने के लिए पालन करते हैं। जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड के समय का चक्र दो हिस्सों में बांटा गया है। आरोही समय चक्र को उत्सर्पिनी कहा जाता है और अवरोही समय चक्र को अवसरपिनी कहा जाता है। जैन धर्म में २४ तीर्थंकर हैं जिन्हें उनके आध्यात्मिक शिक्षक और सफल उद्धारक माना जाता है। ऋषभ देव जैन धर्म के संस्थापक और पहले तीर्थंकर हैं। महावीर जैन धर्म के अंतिम यानी चौबीसवें तीर्थंकर थे। भगवान महावीर के अन्य नाम वीर, अतिवीर, सनमती, महावीर और वर्धमान हैं।
बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के आधार पर कई परंपराओं और प्रथाओं का पालन किया जाता है। बौद्ध धर्म की स्थापना २६०० साल पहले, एक भारतीय तत्ववेत्ता और धार्मिक शिक्षक सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के द्वारा की गई थी। गौतम बुद्ध ने देवताओं को संसार के समान चक्र में फंसे हुए प्राणियों के रूप में देखा है। उन्होंने केवल भगवान की अवधारणा को भगवान के अस्तित्व के बारे में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए बिना एक तरफ रख दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए देवताओं पर विश्वास करना जरूरी नहीं है। गौतम बुद्ध का मानना था कि "भगवान अन्य सभी प्राणियों की तरह पुनर्जन्म के चक्र में शामिल हैं और आखिरकार, वे गायब हो जाएंगे। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए 'ईश्वर में विश्वास' आवश्यक नहीं है।"
१५ वीं शताब्दी में स्थापित सिख धर्म दुनिया के चार प्रमुख धर्मों में से एक है। सिक्ख धर्म की स्थापना गुरु नानक (ई.स. १४६९-१५39) जी द्वारा की गई थी। सिख धर्म का मुख्य उद्देश्य लोगों को भगवान के सच्चे नाम (सतनाम) से जोड़ना है। सिक्खों का पवित्र ग्रंथ "गुरु ग्रंथ साहिब" है। सिक्ख मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मानव जीवन में एक गुरु होना चाहिए और बाकी सभी से ऊपर एक परमात्मा है। गुरु नानक देव, सिख धर्म के संस्थापक ने हमें गुरु ग्रंथ साहेब में कई संकेत दिए हैं कि हम केवल सद्गुरु / तत्त्वदर्शी गुरु की शरण में जाने से ही मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सद्गुरु मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विभिन्न मूल भाषाओं में भगवान का वास्तविक नाम कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषा में), हक्का कबीर (पृष्ठ संख्या ७२१ पर गुरु ग्रंथ साहिब में पंजाबी भाषा में) है। सिक्ख धर्म के लोग वाहेगुरु को सच्चा मंत्र जान कर उसका जाप करते हैं जबकि वास्तविकता में 'वाहेगुरु' एक शब्द है जिसे ईश्वर, परम पुरुष या सभी के निर्माता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। कबीर साहेब का अर्थ परमात्मा से है कुछ लोग कबीर शब्द को महात्मा कबीर दास से जोड़ देते है जो की गलत है कबीर दास जी कोई भगवान नही थे बल्कि वो खुद परमात्मा के निराकार रूप के भक्त थे। वाहेगुरु शब्द सतलोक में भगवान के रूप में देखने के बाद, श्री नानक जी के मुख से "वाहेगुरु" शब्द निकला था। गुरु नानक जी ने एकेश्वरवाद के विचार पर जोर देने के लिए ओंकार शब्द के पहले "इक"() का उपसर्ग दिया।
इक ओंकार सत-नाम करत पुरख निरभउ,
निरवैर अकाल मूरत अंजुनि सिभन गुर प्रसाद।
अर्थात् यहां केवल एक ही परम पुरुष है, शास्वत सच, हमारा रचनहार, भय और दोष से रहित, अविनाशी, अजन्मा, स्वयंभू परमात्मा। जिसकी जानकारी कृपापात्र भगत को पूर्ण गुरु से प्राप्त होती है।
नास्तिक लोग और नास्तिक दर्शन ईश्वर को झूठ मानते हैं। परन्तु ईश्वर है या नहीं इस पर कोई ठोस तर्क नहीं दे सकता।
विभिन्न हिन्दू दर्शनों में ईश्वर का अस्तित्व/नास्तित्व
भारतीय दर्शनों में "ईश्वर" के विषय में क्या कहा गया है, वह निम्नवत् है-
इस दर्शन के कुछ टीकाकारों ने ईश्वर की सत्ता का निषेध किया है। उनका तर्क है- ईश्वर चेतन है, अतः इस जड़ जगत् का कारण नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती. या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान् नहीं है, या फिर वह उदार और दयालु नहीं है, अन्यथा दुःख, शोक, वैषम्यादि से युक्त इस जगत् को क्यों उत्पन्न करता? यदि ईश्वर कर्म-सिद्धान्त से नियन्त्रित है, तो स्वतन्त्र नहीं है और कर्मसिद्धान्त को न मानने पर सृष्टिवैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।
हालाँकि सांख्य और योग दोनों पूरक दर्शन हैं किन्तु योगदर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। पतंजलि ने ईश्वर का लक्षण बताया है- "क्लेशकर्मविपाकाराशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः" अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) और आशय (कर्म-संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष-विशेष ईश्वर है। यह योग-प्रतिपादित ईश्वर एक विशेष पुरुष है; वह जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, नियन्ता नहीं है। असंख्य नित्य पुरुष तथा नित्य अचेतन प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्वों के रूप में ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान हैं। साक्षात् रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष के बन्धन और मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।
कणाद कृत वैशेषिकसूत्रों में ईश्वर का स्पष्टोल्लेख नहीं हुआ है। "तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" अर्थात् तद्वचन होने से वेद का प्रामाण्य है। इस वैशेषिकसूत्र में "तद्वचन" का अर्थ कुछ विद्वानों ने "ईश्वरवचन" किया है। किन्तु तद्वचन का अर्थ ऋषिवचन भी हो सकता है। तथापि प्रशस्तपाद से लेकर बाद के ग्रन्थकारों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकारी है एवं कुछ ने उसकी सिद्धि के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ और पूर्ण हैं। ईश्वर अचेतन, अदृष्ट के संचालक हैं। ईश्वर इस जगत् के निमित्तकारण और परमाणु उपादानकारण हैं। अनेक परमाणु और अनेक आत्मद्रव्य नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में ईश्वर के साथ विराजमान हैं; ईश्वर इनको उत्पन्न नहीं करते क्योंकि नित्य होने से ये उत्पत्ति-विनाश-रहित हैं तथा ईश्वर के साथ आत्मद्रव्यों का भी कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय, अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में संचरित कर देना; और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।
नैयायिक उदयनाचार्य ने अपनी न्यायकुसुमांजलि में ईश्वर-सिद्धि हेतु निम्न युक्तियाँ दी हैं-
कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।
वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥ (- न्यायकुसुमांजलि. ५.१)
(क) कार्यात्- यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।
(ख) आयोजनात्- जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते. जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता. अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।
(ग) धृत्यादेः - जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है। और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है।
(घ) पदात्- पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। "इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है", यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है।
(ङ) संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं। अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है।
(च) अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं। किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर की सत्ता तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती. ईश्वर के पक्ष में जितने प्रबल तर्क दिये जा सकते हैं उतने ही प्रबल तर्क उनके विपक्ष में भी दिये जा सकते हैं। तथा, बुद्धि पक्ष-विपक्ष के तुल्य-बल तर्कों से ईश्वर की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकती. वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर केवल श्रुति-प्रमाण से सिद्ध होता है; अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।
इन्हें भी देखें
ईश्वर (भारतीय दर्शन) |
भगवान गुण वाचक शब्द है। जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह "भग" धातु से बना है ,भग के ६ अर्थ है:-
६त्याग (बैराग्य) जिसमें ये ६ गुण है वह भगवान है। कोई भी मनुष्य या देवता आदि भगवान नही कहे जा सकते है। यह शब्द केवल परमात्मा के लिए है।
संस्कृत भाषा में भगवान "भंज" धातु से बना है जिसका अर्थ हैं:- सेवायाम् । जो सभी की सेवा में लगा रहे कल्याण और दया करके सभी मनुष्य जीव ,भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर को दूषित ना होने दे सदैव स्वच्छ रखे वो भगवान का भक्त होता है
न=नित्य, जिसे हमेशा ध्यान करने का मन करता है।
मुख्य रूप से भगवान का अर्थ- भूमि,गगन,वायु,अग्नि, नीर (जो एक प्राकृत को दर्शाता है) इस लिए हम कह सकते है की प्राकृत हमारे भगवान है जिससे हमे जीवन जीने का आधार मिलता है।
भगवान वह हो सकते हैं जो सर्वशक्तिमान और सर्वमान्य हैं जिन्हें संपूर्ण पृथ्वी के हर एक मानव स्वीकार करें अगर हम किसी शरीर धारी को भगवान मानते हैं तो यह सर्वमान्य नहीं है कोई भी धर्म इसे स्वीकार नहीं करती है तो इस आधार से भगवान निराकार हैं जैसा की एक हिंदी गाने में वर्णन आता है आंख ना जाने दिल पहचाने सुरततिया कुछ ऐसी आंख बिना जो सब कुछ देखिए कान बिना जो सब कुछ सुने अब ऐसा मनुष्य तो हो नहीं सकता है जरूर वह सर्वशक्तिमान ही होगी तो मेरी मान्यता के अनुसार जैसा कि हिंदू धर्म में भी भगवान को कोई साकार रूप में कोई आकर रूप में कोई निराकार रूप में मानते हैं निराकार के भी मानता है जिसका प्रतीक शिवलिंग के रूप में हमारे संपूर्ण भारतवर्ष में १२ ज्योतिर्लिंग के रूप में मनाया जाता है और क्रिश्चियन धर्म में भी ऐसा मानता है कि क्राइस्ट ने कभी भी अपने आप को भगवान नहीं कहा उन्होंने कहा मैं भगवान का पुत्र हूं इस्लाम धर्म में भी उन्होंने माना है अल्लाह नूर है जिसका की यादगार मक्का में अभी भी मुस्लिम भाई बहने जाकर उस नूर का दीदार करते हैं सिख धर्म में भी गुरु नानक देव जी ने कहा एक ओंकार निराकार और भी अनेक अनेक धर्म में देखा जाए तो वह प्रकाश को ज्योति को ही परमात्मा मानते हैं और जब दुख दर्द होता था ऊपर वाले को ऊपर देखकर याद करते नीचे देखकर याद नहीं करते हैं इस अनुसार से देखा जाए तो परमात्मा निराकार हैं और वह धरती पर अवतरित होकर फिर से हमें सुख शांति संपन्न दुनिया में ले जाने के लिए आए हैं जिसका आधार स्रोत सोर्स है प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय जहां पर राजयोग के द्वारा अपने जीवन की बुराइयों को छोड़कर अपने जीवन में दिव्य गुणों को धारण करके परमात्मा निराकार ज्योति बिंदु स्वरूप परमात्मा के बताये गए मार्ग पर चलकर हम अपने जीवन को फिर से पति से पावन बना रहे हैं परमात्मा धरती पर आ चुके हैं और फिर से वह हम सभी मनुष्य आत्माओं को सुख शांति संपन्न जीवन का वरदान दे रहे हैं।
इस दृष्टि से यदि हम देखते हैं तो भगवान वितरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी होना चाहिए जो राग और द्वेष दोनों भावनाओं से मुक्त हो। इसका यह अर्थ है कि भगवान विश्व की हर चीज को जानने और देखने की शक्ति रखता हो परंतु उसमें हस्तक्षेप नहीं करता हो क्योंकि वह तो संसार से विरक्त हो चुके हैं अतः राग (अर्थात किसी विशेष व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करना, स्वानुभूति रखना, अपनापन जताना, मोह रखना उसे लाभ पहुंचाना) और द्वेष (अर्थात किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष से घृणा करना, उसकी उपेक्षा करना, उसे दुख देना, उसका भला बुरा करना आदि) इन दोनों चीजों से मुक्त होना चाहिए। उसे हम भगवान का दर्जा दे सकते हैं क्योंकि हर व्यक्ति वस्तु में समभाव रखने वाली आत्मा ही भगवान का दर्जा प्राप्त कर सकती है इस दृष्टि से उसे राग द्वेष से मुक्त होना पड़ेगा इस दृष्टि से में जैन धर्म में जिस भगवान परमात्मा की व्याख्या की गई है वह इन सब दृष्टि से उपयुक्त मानी जा सकती है। जैन धर्म में विश्व की सर्वोच्च सत्ता के रूप में सिद्ध परमेष्ठी अर्थात निराकार रूप को भगवान का दर्जा प्राप्त है।
भगवान किसी का भला बुरा नहीं करते यदि वे भला बुरा करते हैं तो वह उनके उपर पक्षपाती होने का आरोप लगाया जाएगा अतः हमें यह मान्यता अधिक सटीक लगती है कि भगवान किसी का भला बुरा नहीं करते क्योंकि हर व्यक्ति अपने किए पूर्व कर्मों के अनुसार संसार में सुख और दुख को भोक्ता है उसमें भगवान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है।
भगवान के लिए जो मान्यताएं अन्य धर्म में घड़ी गई है उसमें उसे दयालु तो कहा गया परंतु वह अपने भक्तों से कुछ अपेक्षा करने वाला माना गया है जो उसकी ज्यादा भक्ति करेगा उसे वह में अच्छा फल देंगे, जो उसके लिए उपहार चढ़ाएगा उसे वह अच्छा मानेंगे, और यहां तक की अपने भगवान को खुश करने के लिए पशु पक्षियों की और कहीं-कहीं तो मानव की बलि देने की बात को भी कुछ संस्कृतियों में स्वीकार किया गया जो की भगवान की दृष्टि से पूरी तरह अनुचित है क्योंकि भगवान तो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, दयालु , करूणावान है उसे किसी चीज की क्या आवश्यकता फिर वह अपने भक्तों से अपनी खुशी के लिए कोई उपहार या बली को क्यों स्वीकार करेगा? भगवान तो दयालु होता है उसके लिए तो हर प्राणी एक समान ही है फिर वह अपने लिए किसी पशु पक्षी या मानव की बलि क्यों स्वीकार करेगा ? इन सब बातों को यदि हम गहराई से विचार करें तो यह धर्म में आई विकृति के रूप में देख सकते हैं। जिन लोगों को चोरी करने की आदत है वह भगवान को चोर के रूप में पूजता है, जिनको नशा करने की आदतें वह भगवान को नशा करवाता है, ताकि वह खुद भी नशा कर सके। जिन लोगों को मांस भक्षण या मदिरा पान की छूट चाहिए तो वह पशु पक्षियों की बली और भगवान को मदारापान करने वाला बता देते हैं ताकि भगवान के नाम पर वह खुद इन चीजों को ग्रहण करें और उसमें लोगों उन्हें कुछ नहीं कह सके यह सब तो विकृतियां मानव ने अपने फायदे के लिए मानव ने भगवान में गढी है जो की पूरी तरह अनुचित है। श्रमण संस्कृति जैन विचारधारा इन सब विकृतियो से दूरी बनाकर रखती है वहां सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को महत्वता प्रदान की गई है जब मानव इन गुणों को धारण करता है तो वह खुद भी भगवान बनने की क्षमता रख सकता है यह विचारधारा एक सही रूप से भगवान विवेचना करती है।
अब निर्णय तो आप स्वयं को ही अपने विवेक के अनुसार करना पड़ेगा।
संज्ञा के रूप में भगवान् हिन्दी में लगभग हमेशा ईश्वर / परमेश्वर का मतलब रखता है। इस रूप में ये देवताओं के लिये नहीं प्रयुक्त होता।
विशेषण के रूप में भगवान् हिन्दी में ईश्वर / परमेश्वर का मतलब नहीं रखता। इस रूप में ये देवताओं, विष्णु और उनके अवतारों (राम, कृष्ण), शिव, आदरणीय महापुरुषों जैसे, महावीर, धर्मगुरुओं, गीता, इत्यादि के लिये उपाधि है। इसका स्त्रीलिंग भगवती है।
जैन धर्म में भगवान |
परमेश्वर का शाब्दिक अर्थ 'परम ईश्वर' है। इसके अन्य पर्याय है ईश्वर, भगवान, खुदा, परमात्मा आदि! संसार में जितने भी आस्तिक व्यक्ति हैं उनकी मान्यता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति का मूल कारण परमेश्वर अर्थात ईश्वर है! ईश्वर की भिन्न-भिन्न मान्यताओं को लेकर विश्व में अनेक धर्म और संप्रदाय हैं! फिर भी ईश्वर को लेकर कुछ बातों में सारे संप्रदाय एकमत है और वो ये है, कि ईश्वर स्रष्टा( संसार का रचयिता), सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अमर और दयालु है! ईश्वर को लेकर बाकी अन्य मान्यताएं, जैसे उसके रूप और अन्य गुण सभी धर्म और संप्रदाय में भिन्न-भिन्न है! जहां एक तरफ नास्तिक व्यक्ति इसे एक कल्पना मात्र मानते हैं तो वही आस्तिक व्यक्ति, ईश्वर पर आस्था और भरोसा रखते हैं! अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण एवं ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए आस्तिक व्यक्ति ईश्वर-भक्ति करते हैं और भिन्न-भिन्न स्थानों की तीर्थ यात्रा करते हैं!
शैव सम्प्रदाय, हिंदू धर्म के ४ मुख्य सम्प्रदाय में से एक है। हिंदू धर्म की अन्य मुख्य सम्प्रदाय: वैष्णव सम्प्रदाय, स्मार्त सम्प्रदाय व शाक्त सम्प्रदाय हैं। शैव सम्प्रदाय में भगवान शिव को सर्वोच्च इश्वर माना जाता है। शैव सिद्धांत, शैव सम्प्रदाय के ६ मुख्य विचारधारा विद्यालयों में से एक है। शैव सिद्धांत के अनुसार भगवान शिव की ३ परिपूर्णता या पहलु हैं। यह तीन परिपूर्णता:- परशिव, पराशक्ति एवं परमेश्वर हैं। परमेश्वर व पराशक्ति की परिपूर्णता में भगवान शिव का आकार होता है परन्तु परशिव की परिपूर्णता में भगवान शिव निराकार हैं। परमेश्वर की परिपूर्णता में वह मनुष्य के शरीर जैसा आकार लेते हैं जिसमें उनके हाथ में त्रिशूल, गले में सांप और हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में होता है।
परमेश्वर की परिपूर्णता में शिव में यह पाँच रूप या शक्तियाँ होती हैं:
महेश्वर, गोपन करने के इश्वर
सदाशिव, प्रकट करने के इश्वर
परमेश्वर को शैव सिद्धांत में 'मूल आत्मा' भी कहा जाता है क्यों कि इस परिपूर्णता में भगवान शिव अपनी छवि और समानता में आत्माओं की रचना करते हैं और यह समस्त आत्माओं का प्रोटोटाइप है।
इन्हें भी देखें |
परमात्मा शब्द दो शब्दों परम तथा `आत्मा की सन्धि से बना है। परम का अर्थ सर्वोच्च एवं आत्मा से अभिप्राय है चेतना, जिसे प्राण शक्ति भी कहा जाता है। आधुनिक हिन्दी में ये शब्द भगवान का ही मतलब रखता है। परमात्मा का अर्थ परम आत्मा से हैं परम का अर्थ होता है सबसे श्रेष्ठ यानी सबसे श्रेष्ठ आत्मा आत्मा का अर्थ होता है हर प्राणी के अंदर विराजमान चेतना के रूप में एक चेतन स्वरूप तो इसका अभिप्राय हुआ कि परमात्मा एक आत्मा है और वह आत्मा सबसे बड़ी है और सबसे शुद्ध और पवित्र है।
प्रभु-जन्म की आरती |
ब्रह्म (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिस पर विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
मनुष्य का जन्म होता है तो जन्म क्षण में ही उसके हृदय में चैतन्य मन से होते हुऐ अवचेतन मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुऐ मन से होते हुए मस्तिष्क में चेतना प्रवेश करती हैं वही आत्मा है और ये आत्मा किसी मनुष्य की मृत्यु हुई थी तो उसकी चेतना अर्थात आत्मा अपने मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुए अवचेतन मन से होते हुऐ चैतन्य मन से होते हुऐ दूसरे शरीर में अवचेतन मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुऐ मन से होते हुए मस्तिष्क में पहुंचती है यही क्रम हर जन्म में होता है ।
जब मनुष्य जागता है तो उसके हृदय से ऊर्जाओं का विखण्डन होते जाता है सबसे पहले हृदय में प्राण शक्ति जिसे ब्रह्म कहते है उसे अव्याकृत ब्रह्म अर्थात सचेता ऊर्जा बनती है वह सचेता ऊर्जा से नादब्रह्म बनता है अर्थात अंतर्मन का निर्माण होता है जिसे ध्वनि उत्पन्न होती है फिर उसे व्याकृत ब्रह्म बनता है मस्तिष्क में चेतना उत्पन्न हो जाती है फिर उस चेतना से पंचमहाभूत बनते है जिसे ज्योति स्वरूप ब्रह्म कहते है सम्पूर्ण शरीर के होने का एहसास होता है फिर मनुष्य कर्म क्रिया प्रतिक्रिया करता है संसार में। अगर सोता है तो मनुष्य ज्योति स्वरूप ब्रह्मचेतना अर्थात व्याकृत ब्रह्म मे समा जाता है फिर वह नादब्रह्म में समा जाता है फिर वह नादब्रह्म अव्याकृत ब्रह्म समा जाता है वह अव्याकृत ब्रह्म प्राण ऊर्जा अर्थात ब्रह्म में समा जाता है इसलिए मनुष्य ही ब्रह्म है ।
ब्रह्म को मन से जानने की कोशिश करने पर मनुष्य योग माया वश उसे परम् ब्रह्म की परिकल्पना करता है और संसार में खोजता है तो अपर ब्रह्म जो प्राचीन प्रार्थना स्थल की मूर्ति है उसे माया वश ब्रह्म समझ लेता है अगर कहा जाऐ तो ब्रह्म को जानने की कोशिश करने पर मनुष्य माया वश उसे परमात्मा समझ लेता है ।
ब्रह्म जब मनुष्य गहरी निद्रा में रहता है तो वह निर्गुण व निराकार ब्रह्म में समा जाऐ रहता है और जब जागता है तो वह सगुण साकार ब्रह्म में होता है अर्थात यह विश्व ही सगुण साकार ब्रह्म है ।
ब्रह्म मनुष्य है सभी मनुष्य उस ब्रह्म के प्रतिबिम्ब अर्थात आत्मा है सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है जो शून्य है वह ब्रह्म है मनुष्य इस विश्व की जितना कल्पना करता है वह ब्रह्म है ।
ब्रह्म स्वयं की भाव इच्छा सोच विचार है ।
ब्रह्म सब कुछ है और जो नहीं है वह ब्रह्म है ।
परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और अनन्त गुणों वाला भी है। "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह्म ही सत्य है, बाकि सब मिथ्या है। वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है। परन्तु अद्वैत वेदांत का एक मत है इसी प्रकार वेदांत के अनेक मत है जिनमें आपसी विरोधाभास है परंतु अन्य पांच दर्शन शास्त्रों मेंं कोई विरोधाभास नहीं | वहींं अद्वैत मत जिसका एक प्रचलित श्लोक नीचे दिया गया है-
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रम्हैव नापरः
(ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या (सच-झूठ से परे) है।)
अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं। वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है। अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है।
इन्हें भी देखें |
इन्द्र(कूर्मि) (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। इन्द्र कि पत्नी इन्द्रानी था।
वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। इन्द्र का जन्म अदिति के गर्भ से हुआ था। इन्द्र ही आदित्यों में सबसे बड़े हैं तथा कश्यप प्रजापति के सभी पुत्रों में भी सबसे बड़े पुत्र इन्द्र हैं। इन्द्र के कई पुत्र हैं जिनमें जयन्त सबसे ज्येष्ठ हैं। जयन्त के अतिरिक्त इन्द्र के अन्य भी पुत्र हैं उनके नाम हैं वसुत्क और वृषा। इसके अतिरिक्त त्रेतायुग में इन्द्र के पुत्र बालि था जोकि वानरों के सम्राट थे। द्वापरयुग में इन्द्र के पुत्र का नाम अर्जुन था जो कुरू राजकुमारों में से एक और पाण्डवों में तीसरे स्थान पर थे।
ऋग्वेद में इन्द्र
ऋग्वेद के लगभग एक-चौथाई सूक्त इन्द्र से सम्बन्धित हैं। २५० सूक्तों के अतिरिक्त ५० से अधिक मन्त्रों में उसका स्तवन प्राप्त होता है। वह ऋग्वेद का सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण देवता है। उसे आर्यों का राष्ट्रीय देवता भी कह सकते हैं। मुख्य रूप से वह वर्षा का देवता है जो कि अनावृष्टि अथवा अन्धकार रूपी दैत्य से युद्ध करता है तथा अवरुद्ध जल को अथवा प्रकाश को विनिर्मुक्त बना देता है। वह गौण रूप से आर्यों का युद्ध-देवता भी है, जो आदिवासियों के साथ युद्ध में उन आर्यों की सहायता करता है।
इन्द्र का मानवाकृतिरूपेण चित्रण दर्शनीय है। उसके विशाल शरीर, शीर्ष भुजाओं और बड़े उदर का बहुधा उल्लेख प्राप्त होता है। उसके अधरों और जबड़ों का भी वर्णन मिलता है। उसका वर्ण हरित् है। उसके केश और दाढ़ी भी हरित्वर्णा है। वह स्वेच्छा से विविध रूप धारण कर सकता है।
ऋग्वेद इन्द्र के जन्म पर भी प्रकाश डालता है। पूरे दो सूक्त इन्द्र के जन्म से ही सम्बन्धित हैं। निष्टिग्री अथवा शवसी नामक गाय को उसकी माँ बतलाया गया है। उसके पिता द्यौः या त्वष्टा हैं। एक स्थल पर उसे सोम से उत्पन्न कहा गया है। उसके जन्म के समय द्यावा-पृथ्वी काँप उठी थी। इन्द्र के जन्म को विद्युत् के मेघ-विच्युत होने का प्रतीक माना जा सकता है।
इन्द्र के सगे-सम्बन्धियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। अग्नि और पूषन् उसके भाई हैं। इसी प्रकार इन्द्राणी उसकी पत्नी है। संभवतः 'इन्द्राणी' नाम परम्परित रूप से पुरुष (पति) के नाम का स्त्रीवाची बनाने से ही है मूल नाम कुछ और ('शची') हो सकता है। मरुद्गण उसके मित्र तथा सहायक हैं। उसे वरुण, वायु, सोम, बृहस्पति, पूषन् और विष्णु के साथ युग्मरूप में भी कल्पित किया गया है तीन चार सूक्तों में वह सूर्य का प्रतिरूप है।
इन्द्र एक वृहदाकार देवता है। उसका शरीर पृथ्वी के विस्तार से कम से कम दस गुना है। वह सर्वाधिक शक्तिमान् है। इसीलिए वह सम्पूर्ण जगत् का एक मात्र शासक और नियन्ता है। उसके विविध विरुद शचीपति (=शक्ति का स्वामी), शतक्रतु (=सौ शक्तियों वाला) और शक्र (=शक्तिशाली), आदि उसकी विपुला शक्ति के ही प्रकाशक हैं।
सोमरस इन्द्र का परम प्रिय पेय है। वह विकट रूप से सोमरस का पान करता है। उससे उसे स्फूर्ति मिलती है। वृत्र के साथ युद्धके अवसर पर पूरे तीन सरोवरों को उसने पीकर सोम-रहित कर दिया था। दशम मण्डल के ११९वें सूक्त में सोम पीकर मदविह्वल बने हुए स्वगत भाषण के रूप में अपने वीर-कर्मों और शक्ति का अहम्मन्यतापूर्वक वर्णन करते हुए इन्द्र को देखा जा सकता है। सोम के प्रति विशेष आग्रह के कारण ही उसे सोम का अभिषव करने वाले अथवा उसे पकाने वाले यजमान का रक्षक बतलाया गया है।
इन्द्र का प्रसिद्ध आयुध वज्र है, जिसे कि विद्युत्-प्रहार से अभिन्न माना जा सकता है। इन्द्र के वज्र का निर्माण त्वष्टा नामक देवता-विशेष द्वारा किया गया था। इन्द्र को कभी-कभी धनुष-बाण और अंकुश से युक्त भी बतलाया गया है। उसका रथ स्वर्णाभ है। दो हरित् वर्ण अश्वों द्वारा वाहित उस रथ का निर्माण देव-शिल्पी ऋभुओं द्वारा किया गया था।
इन्द्रकृत वृत्र-वध ऋग्वेद में बहुधा और बहुशः वर्णित और उल्लिखित है। सोम की मादकता से उत्प्रेरित हो, प्रायः मरुद्गणों के साथ, वह वृत्र अथवा अहि नामक दैत्यों (=प्रायः अनावृष्टि और अकाल के प्रतीक) पर आक्रमण करके अपने वज्र से उनका वध कर डालता है और पर्वत को भेद कर बन्दीकृत गायों के समान अवरुद्ध जलों को विनिर्मुक्त कर देता है। उक्त दैत्यों का आवास-स्थल पर्वत मेघों के अतिरिक्त कुछ नहीं है, जिनका भेदन वह जल-विमोचन हेतु करता है। इसी प्रकार गायों को अवरुद्ध कर रखने वाली प्रस्तर-शिलाएँ भी जल-निरोधक मेघ ही हैं। मेघ ही वे प्रासाद भी हैं जिनमें पूर्वोक्त दैत्य निवास करते हैं। इन प्रासादों की संख्या कहीं ९०, कहीं ९९ तो कहीं १०० बतलाई गई है, जिनका विध्वंस करके इन्द्र पुरभिद् विरुद धारण करता है।
वृत्र या अहि के वधपूर्वक जल-विमोचन के साथ-साथ प्रकाश के अनवरुद्ध बना दिये जाने की बात भी बहुधा वर्णित है। उस वृत्र या अहि को मार कर इन्द्र सूर्य को सबके लिये दृष्टिगोचर बना देता है। यहाँ पर उक्त वृत्र या अहि से अभिप्राय या तो सूर्य प्रकाश के अवरोधक मेघ से है, या फिर निशाकालिक अन्धकार से। सूर्य और उषस् के साथ जिन गायों का उल्लेख मिलता है, वे प्रातः कालिक सूर्य की किरणों का ही प्रतिरूप हैं, जो कि अपने कृष्णाभ आवास-स्थल से बाहर निकलती हैं। इस प्रकार इन्द्र का गोपपतित्व भी सुप्रकट हो जाता है।
वृत्र और अहि के वध के अतिरिक्त अन्य अनेक उपाख्यान भी इन्द्र के सम्बन्ध में उपलब्ध होते हैं। सरमा की सहायता से उसने पणि नामक दैत्यों द्वारा बन्दी बनाई गई गायों को छीन लिया था। उषस् के रथ का विध्वंस, सूर्य के रथ के एक चक्र की चोरी, सोम-विजय आदि उपाख्यान भी प्राप्त हैं।
इन्द्र ने कम्पायमान भूतल और चलायमान पर्वतों को स्थिर बनाया है। चमड़े के समान उसने द्यावापृथिवी को फैला कर रख दिया है। जिस प्रकार एक धुरी से दोनों पहिये निकाल दिये जायँ, उसी प्रकार उसने द्युलोक और पृथ्वी को पृथक् कर दिया है।
इन्द्र बड़े उग्र स्वभाव का है। स्वर्ग की शान्ति को भंग करने वाला वही एकमात्र देवता है। अनेक देवताओं से उसने युद्ध किया। उषस् के रथ को उसने भंग किया, सूर्य के रथ का एक चक्र उसने चुराया, अपने अनुयायी मरुतों को उसने मार डालने की धमकी दी। अपने पिता त्वष्टा को उसने मार ही डाला।
अनेक दैत्यों को भी उसने पराजित और विनष्ट किया, जिसमें से वृत्र, अहि, शम्बर, रौहिण के अतिरिक्त उरण विश्वरूप, अर्बुद, बल, व्यंश और नमुचि प्रमुख हैं। आर्यों के शत्रुभूत दासों अथवा दस्युओं को भी उसने युद्धों में पराभूत किया। कम से कम ५०००० अनार्यों का विनाश उसके द्वारा किया गया।
इन्द्र अपने पूजकों का सदा रक्षक, सहायक और मित्र रहा है। वह दस्युओं को बन्दी बना कर उनकी भूमि आदि अपने भक्तों में विभक्त कर देता है। आहुति प्रदाता को वह धन-सम्पत्ति से मालामाल कर देता है। उसकी इस दानशीलता के कारण ही उसकी उपाधि मघवन् (=ऐश्वर्यवान्) की सार्थकता है।
इन्द्र का अनेक ऐतिहासिक पुरुषों से भी साहचर्य उल्लिखित है। उसकी ही सहायता से दिवोदास ने अपने दास-शत्रु तथा कुलितर के पुत्र शम्बर को पराजित किया। तुर्वश और यदु दोनों को नदियों के पार उस इन्द्र ने ही पहुँचाया। दस नृपतियों के विरुद्ध युद्ध में राजा सुदास की उसने सहायता की।
इस प्रकार इन्द्र ऋग्वेद का सर्वप्रधान देवता है, जिसे मैक्समूलर सूर्य का वाची, रॉथ मेघों और विद्युत् का देवता, बेनफ़े वर्षाकालिक आकाश का प्रतीक, ग्रॉसमन उज्ज्वल आकाश का प्रतीक, हापकिन्स विद्युत् का प्रतिरूप और मैकडॉनल तथा कीथ आदि पाश्चात्य से लेकर आचार्य बलदेव उपाध्याय जैसे भारतीय विद्वान् वर्षा का देवता मानते हैं।
इन्द्र वृहदाकार है। देवता और मनुष्य उसके सामर्थ्य की सीमा को नहीं पहुँच पाते। वह सुन्दर मुख वाला है। उसका आयुध वज्र अथवा शरु है। उसकी भुजाएँ भी वज्रवत् पुष्ट एवं कठोर हैं। वह सप्त संख्यक पर्जन्य रूपी रश्मियों वाला एवं परम कीर्तिमान् है।
नृमणस्य मह्ना स जनास इन्द्रः कह कर स्वयं गृत्समद ऋषि ने उसके बलविक्रम का उद्घोष कर दिया है। पर्वत उससे थर-थर काँपते हैं। द्यावा-पृथिवी अर्थात् वहाँ के लोग भी इन्द्र के बल से भय-भीत रहते हैं। वह शत्रुओं की धन-सम्पत्ति को जीत कर उसी प्रकार अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है, जिस प्रकार एक आखेटक कुक्कुरों की सहायता से मृगादिक का वध कर व्याध अपनी लक्ष्य-सिद्धि करता है अथवा विजय-प्राप्त जुआरी जिस प्रकार जीते हुए दाँव के धन को समेट कर स्वायत्त कर लेता है। इतना ही नहीं वह शत्रुओं की पोषक समृद्धि को नष्ट-विनष्ट भी कर डालता है। वह एक विकट योद्धा है और युद्ध में वृक् (=भेड़िया) के समान हिंसा करता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह मनस्वान् (=मनस्वी) है।
रक्षक एवं सहायक
इन्द्र अपने भक्तों का रक्षक, सहायक एवं मित्र है। कहा भी है कि--यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः.............अविता। उसकी सहायता के बिना विजयलाभ असम्भव है। इस लिये योद्धा-गण विजय के लिए और अपनी रक्षा के लिये उसका आवाहन करते हैं। यह बात निम्नलिखित मन्त्र से और भी स्पष्ट हो जाती है :-
यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्राः।
समानं चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः।।
इन्द्र आर्यों को अनार्यों के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्रदान कर उन्हें विजयी बनाता है। एतदर्थ वह वस्तुओं का हनन एवं अपने अपूजकों व विरोधियों का वध करता है। वह जिस पर प्रसन्न हुआ, उसे समृद्ध और जिस पर अप्रसन्न हुआ, उसे कृश (=निर्धन) बना देता है। उसके तत्तद् गुणों के प्रभाव से अश्व, गो, ग्राम एवं रथादि उसके वश में रहते हैं। इस प्रकार वह निखिल विश्व का प्रतिनिधि है। देवता तक उसकी कृपा के पात्र हैं।
अनेक सृष्टि-कार्यों का सम्पादक
इन्द्र ने अस्थिर पृथ्वी को स्थैर्य प्रदान किया है। इधर-उधर उड़ते-फिरते पर्वतों के पंख-छेदन कर इन्द्र ने ही उन्हें तत्तत् स्थान पर प्रस्थापित किया है। उसने द्यु-लोक को भी स्तब्ध किया और इस प्रकार अन्तरिक्ष का निर्माण किया। दो मेघों के मध्य में वैद्युत् अग्नि अथवा दो प्रस्तर-खण्डों के मध्य में सामान्य अग्नि का जनक इन्द्र ही है। इन्द्र को सूर्य और हवा उषा का उद्भावक भी कहा गया है। वह अन्तरिक्ष-गत अथवा भूतलवर्ती जलों का प्रेरक है। इसीलिए उसे वर्षा का देवता मानते हैं। पृथ्वी को ही नहीं प्रत्युत सम्पूर्ण लोकों को स्थिर करने वाला अथवा उन्हें रचने वाला भी इन्द्र से भिन्न कोई और नहीं है। इससे उसने सभी पदार्थों को गतिमान बनाया यह अर्थ ग्रहण करने पर भी इन्द्र का माहात्म्य नहीं घटता।
इन्द्र के वीरकर्म
इन्द्र ने भयवशात् पर्वतों में छिपे हुए शम्बर नाम के दैत्य को ४० वें वर्ष (अथवा शरद् ऋतु की ४० वीं तिथि को) ढूँढ निकाला और उसका वध कर दिया। बल-प्रदर्शन करने वाले अहि नामक दानव का भी उसने संहार किया। उक्त अहि को मार कर इन्द्र ने समर्पणशील जलों को अथवा गंगा आदि सात नदियों को प्रवाहित किया। हिंसार्थ स्वर्ग में चढ़ते हुए रौहिण असुर को भी इन्द्र ने अपने वज्र से मार डाला। बल नामक दैत्य ने असंख्य गायों को अपने बाड़े में निरुद्ध कर रखा था। उन गायों की लोककल्याणार्थ बलपूर्वक बाहर निकालने का श्रेय इन्द्र को ही है।
कुछ विद्वान् अहि-विनाश, वृत्र-वध, शम्बर-संहार एवं बल-विमर्दनादि का ऐक्यारोपण करके सूर्य रूप में इन्द्र द्वारा ध्रुवप्रदेशीय अन्धकार का नाश अथवा जलों को जमा देने वाली घोर सर्दी का विनाश अथवा अहिरूपी मेघों का विमर्दन करके जल-विमोचन अथवा बलरूपी मेघों से आच्छन्न सूर्य की किरणरूपी गायों के विमुक्त किये जाने की कल्पना करते हैं, जो सत्य से अधिक दूर नहीं प्रतीत होता।
यः सोमपा कह कर ऋषि ने इन्द्र की दुर्व्यसन-परता की ओर भी इंगित किया है। सोम इन्द्र का परमप्रिय पेय पदार्थ है। उसके बराबर कोई अन्य देवता सोम-पान नहीं कर सकता। सोम उसे युद्धों के लिए शक्ति और स्फूर्ति प्रदान करता है।
सोम-सेवी होने के कारण इन्द्र को वे लोग परमप्रिय हैं, जो सोम का अभिषव करते हैं अथवा पका कर उसे सिद्ध करते हैं। ऐसे लोगों की वह रक्षा करता है। इतना ही नहीं, ऐसे प्रिय व्यक्तियों को वह धन-वैभव से पुरस्कृत भी करता है।
यह बात दूसरी है कि वह सोम पायी है, अपने अपूजकों का अपने आयुध वज्र से वध करता है, शूद्रों को अधोगति प्रदान करने वाला अथवा अपने अपूजकों को नरक प्रदान करने वाला है, फिर भी वह अपने अन्य सद्गुणों के कारण सर्वथा पूजनीय है। द्यावापृथिवी के प्राणी उसे सदा नमन करते हैं। लोग उससे यह प्रार्थना किया करते हैं कि हे इन्द्र! सुन्दर पुत्र-पौत्रादि से युक्त होकर तथा तुम्हारे प्रियपात्र बने हुए हम सदा तुम्हारी प्रार्थना में तत्पर रहें।
इस प्रकार स्पष्ट है कि इन्द्र वैदिक देवी-देवताओं में सर्वोपरि और सर्वोत्तम स्थान का अधिकारी है।
वृत्र-वध पर कुछ मन्तव्य
इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है।
इन्द्र और वृत्र के युद्ध को आरम्भ से ही सांकेतिक माना गया है। यास्ककृत निरुक्त में कहा गया है कि 'वृत्र' निरुक्तकारों के अनुसार 'मेघ' है। ऐतिहासिकों के अनुसार त्वष्टा का पुत्र असुर है (इसी मत का विकसित रूप महाभारत और भागवत महापुराण में वर्णित वृत्र-वध आख्यान है।) और ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार वह 'अहि' (सर्प) समान है जिसने अपने शरीर-विस्तार से जल-प्रवाह को रोक लिया था और इन्द्र के द्वारा विदीर्ण किये जाने पर अवरुद्ध जल प्रवाहित हुआ।
निरुक्तकार के मतानुसार वृत्र अन्धकारपूर्ण, आवरण करने वाला है। जल और प्रकाश (विद्युत) का मिश्रण होने से वर्षा होती है ; ऐसा होना रूपक के रूप में युद्ध का वर्णन है।
लोकमान्य तिलक के अनुसार इन्द्र सूर्य का प्रतीक है तथा वृत्र हिम का। यह उत्तरी ध्रुव में शीतकाल में हिम जमने और वसंतकालीन सूर्य द्वारा पिघलाने पर नदियों के प्रवाहित होने का प्रतीक है।
हिलेब्राण्ट के मत से भी वृत्र हिमानी का प्रतीक है। परन्तु अधिकांश पश्चिमी विद्वान् भी निरुक्त के पूर्वोक्त मत से सहमत हैं और ये लोग मानते हैं कि इन्द्र वृष्टि लाने वाला तूफान का देवता है।
देव-युग्म : इन्द्र और वरुण
ऋग्वेद में इन्द्र का नाम सात देव-युग्मों में भी आता है। ऐसे युग्मों में ११ सूक्त इन्द्र-अग्नि के लिए हैं, ९ सूक्त इन्द्र-वरुण के लिए, ७ इन्द्र-वायु के लिए, २ इन्द्र-सोम, २ इन्द्र-बृहस्पति, १ इन्द्र-विष्णु और १ सूक्त इन्द्र-पूषण के लिए हैं।
इनमें से सबके साथ इन्द्र की समानता होने के साथ भिन्नताएँ भी हैं। उदाहरण के लिए इन्द्र और वरुण के युग्म को लिया जा सकता है।
यद्यपि वरुण का वर्णन काफी कम सूक्तों में है, परन्तु वे इन्द्र के बाद सर्वाधिक महनीय माने गये हैं। ९ सूक्तों में इन्द्र और वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों में अनेक समानताएँ हैं। कहा गया है कि जगत् के अधिपति इन्द्रावरुण ने सरिताओं के पथ खोदे और सूर्य को द्युलोक में गतिमान बनाया। वे वृत्र को पछाड़ते हैं। युद्ध में सहायक हैं। उपासकों को विजय प्रदान करते हैं। क्रूरकर्मा पामरों पर अपना अमोघ वज्र फेंकते हैं।
इन समानताओं के बावजूद दोनों में कई वैषम्य भी हैं :-
एक (इन्द्र) युद्ध में शत्रुओं को मारता है। दूसरा (वरुण) सर्वदा व्रतों का रक्षण करता है।
वरुण मनुष्यों को विवेक प्रदान कर पोषण करता है और इन्द्र शत्रुओं को इस प्रकार मारता है कि वे पुनः उठ न सके। इसलिए इन्द्र को युद्ध प्रिय माना गया है और वरुण को शान्तिप्रिय, बुद्धिदाता।
वरुण का अपना अस्त्र पाश कहा गया है।
वरुण व्रत का उल्लंघन करने वाले को दण्ड देते हैं पर पाश को ढीला भी कर देते हैं।
वरुण सम्पूर्ण भुवनों के राजा हैं।
वरुण की वेश-भूषा जल है।
सप्त सिन्धु वरुण के मुख में प्रवाहित है; तथा वे समुद्र में चलने वाली नाव (जहाज) को भी जानते हैं। वरुण का गहरा सम्बन्ध समुद्र से भी है।
वरुण औषधियों के भी स्वामी हैं। उनके पास १०० या १००0 औषधियाँ हैं जिनसे वे मृत्यु को जीत लेते हैं तथा भक्तों का पाप-भंजन करते हैं।
वरुण अत्यधिक क्षमाशील हैं और जीवन का अंत भी कर सकते हैं तो आयु बढ़ा देने वाले के रूप में भी उनका स्मरण किया गया है। अपवाद रूप में इन्द्र ने भी शुनःशेप की आयु बचायी थी पर वरुण का सामान्य रूप से ऐसा उल्लेख किया गया है। दोनों में और भी कतिपय विभिन्नताएँ हैं। जिस प्रकार इन्द्र भौतिक स्तर पर सबसे बड़े देवता थे उसी प्रकार वरुण नैतिक स्तर पर महनीय देवता थे।
आत्म-ज्ञान विषयक कथा
उपनिषदों में स्वाभाविक विषयानुसार यदा-कदा इन्द्र को भी ज्ञान-प्राप्ति हेतु उत्सुक दिखाया गया है। छान्दोग्योपनिषद् से ऐसी एक कथा दी जा रही है :-
प्रजापति की उक्ति थी कि पापरहित, जराशून्य, मृत्यु-शोक आदि विकारों से रहित आत्मा को जो कोई जान लेता है, वह संपूर्ण लोक तथा सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। प्रजापति की उक्ति सुनकर देवता तथा असुर दोनों ही उस आत्मा को जानने के लिए उत्सुक हो उठे, अत: देवताओं के राजा इन्द्र तथा असुरों के राजा विरोचन परस्पर ईर्ष्याभाव के साथ हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास पहुंचे। दोनों ने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन किया, तदुपरांत प्रजापति ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उनकी जिज्ञासा जानकर प्रजापति ने उन्हें सुन्दर वस्त्रालंकरण से युक्त होकर जल से आपूरित सकोरे में स्वयं को देखने के लिए कहा और बताया कि वही आत्मा है। दोनों सकोरों में अपना-अपना प्रतिबिंब देखकर, संतुष्ट होकर चल पड़े। प्रजापति ने सोचा कि देव हों या असुर, आत्मा का साक्षात्कार किये बिना उसका पराभव होगा। विरोचन संतुष्ट मन से असुरों के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आत्मा (देह) ही पूजनीय है। उसकी परिचर्या करके मनुष्य दोनों लोक प्राप्त कर लेता है।
देवताओं के पास पहुँचने से पूर्व ही इन्द्र ने सोचा कि सकोरे में आभूषण पहनकर सज्जित रूप दिखता है, खंडित देह का खंडित रूप, अंधे का अंधा रूप, फिर यह अजर-अमर आत्मा कैसे हुई? वे पुन: प्रजापति के पास पहुंचे। प्रजापति ने इन्द्र को पुन: बत्तीस वर्ष अपने पास रखा तदुपरांत बताया-'जो स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा, अमृत, अभय तथा ब्रह्म हैं।' इन्द्र पुन: पुनः शंका लेकर प्रजापति की सेवा में प्रस्तुत हुए। इस प्रकार तीन बार बत्तीस-बत्तीस वर्ष तक तथा एक बार पांच वर्ष तक (कुल १०१ वर्ष तक) इन्द्र को ब्रह्मचर्यवास में रखकर प्रजापति ने उन्हें आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान कुछ इस तरह करवाया :-
यह आत्मा स्वरूप स्थित होने पर अविद्याकृत देह (मरणशील) तथा इन्द्रियों एवं मन से युक्त है। सर्वात्मभाव की प्राप्ति के उपरांत वह आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है। आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य कर्तव्य-कर्म करता हुआ अपनी आयु की समाप्ति कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और फिर नहीं लौटता।
पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु और शिव का महत्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है। यहीं नन्दन वन है, पारिजात तथा कल्पवृक्ष है। सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। इनके घोड़े का नाम उच्चैःश्रवा है। जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्राय: तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता हुआ पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है। अनेक शक्तियों से युक्त तथा मान्य राजा होने पर भी कभी-कभी इन्हें असंयत एवं उद्धत भी दिखाया गया है, जिसके कारण इनका पतन भी होते रहा है। दुर्वासा के शाप से पतन की एक कथा आगे दी जा रही है।
दुर्वासा के शाप की कथा
एक बार दुर्वासा ऋषि ने विद्याधरी से प्राप्त सन्तानक पुष्पों की एक माला आशीर्वाद के साथ इन्द्र को दिया। इन्द्र को ऐश्वर्य का इतना मद था कि उन्होंने वह पुष्प अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया। पुष्प के प्रभाव से हाथी उसकी सुगन्ध से आकर्षित होकर होकर उसे सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दिया। इन्द्र उसे संभालने में असमर्थ रहे। दुर्वासा ने उन्हें श्रीहीन होने का श्राप दिया। अमरावती भी अत्यंत भ्रष्ट हो चली। इन्द्र पहले बृहस्पति की और फिर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। समस्त देवता विष्णु के पास गये। उन्होंने लक्ष्मी को सागर-पुत्री होने की आज्ञा दी। अत: लक्ष्मी सागर में चली गयी। विष्णु ने लक्ष्मी के परित्याग की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करके उन्हें सागर-मंथन करने का आदेश दिया। मंथन से जो अनेक रत्न निकले, उनमें लक्ष्मी भी थी। लक्ष्मी ने नारायण को वरमाला देकर प्रसन्न किया। लक्ष्मी ने देवों को त्रिलोक से अब विरहित नहीं होने का वरदान दिया।
रामायण में इन्द्र
देवताओं का राजा इन्द्र कहलाता था। वाल्मीकीय रामायण में वर्णित है कि मेघगिरि नामक पर्वत् पर देवताओं ने हरित रंग के अश्व वाले पाकशासन इन्द्र को राजा के पद पर अभिषिक्त किया था। रामायण में भी इन्हें वर्षा का देवता माना गया है। गौतम के शाप के परिणामस्वरूप उन्हें मेषवृषण भी कहा गया है। रामायण में इनका चित्रण कठोर शासक, महान् योद्धा, विश्ववन्द्य लोकपाल तथा सहानुभूतिशील देवता के साथ-साथ विलासी, ईर्ष्याशील एवं षड्यंत्री के रूप में भी हुआ है।
इन्होंने त्रिशंकु को स्वर्ग में पहुँचा देखकर उसे वहाँ से उल्टा गिरा दिया। इन्होंने अम्बरीष के यज्ञ-पशु का अपहरण कर लिया था। अम्बरीष ने जब ऋचीक के मँझले पुत्र शुनःशेप को यज्ञ-पशु बनाया तो शुनःशेप की स्तुति से प्रसन्न होकर इन्होंने उसे बचाया तथा दीर्घायु बनाया। इनके प्रति आदर भाव तथा संकट से बचाने की भावना जन-सामान्य में बरकरार है। वन-यात्रा में राम की रक्षा के लिए कौसल्या इन्द्र का भी आह्वान करती है। रामायण में इनका षड्यंत्री रूप भी दिखता है। एक सत्यवादी और पवित्र तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालने के लिए इन्होंने अपना उत्तम खड्ग धरोहर के रूप में उसे दे दिया था। वैदिक इन्द्र भयभीत नहीं होते थे। रामायण में इन्द्र भी रावण के भय से काँप उठते थे। मरुत्त के यज्ञ के समय रावण को उपस्थित देखकर इन्द्र मोर बन गये थे। हालाँकि इनकी वीरता असंदिग्ध रही है। शची से विवाह के लिए इन्होंने शची के पिता पुलोम तथा छलपूर्वक शची को हरने वाले अनुह्लाद को भी मार डाला था। रावण के स्वर्ग पर आक्रमण के समय देवसेना को विनष्ट होते देखकर इन्होंने बिना किसी घबराहट के रावण का सामना कर उसे युद्ध से विमुख कर दिया था। मेघनाद माया के बल से ही इन्हें बन्दी बना पाया था। राम-रावण युद्ध देखकर देव-गन्धर्व-किन्नरों ने कहा कि यह युद्ध समान नहीं है क्योंकि रावण के पास तो रथ है और राम पैदल हैं। अत: इन्द्र ने अपना रथ राम के लिए भेजा, जिसमें इन्द्र का कवच, विशाल धनुष, बाण तथा शक्ति भी थे। विनीत भाव से हाथ जोड़कर मातलि ने रामचंद्र से कहा कि वे रथादि वस्तुओं को ग्रहण करें और जैसे महान् इन्द्र दानवों का संहार करते हैं, उसी तरह रावण का वध करें। युद्ध-समाप्ति के बाद राम ने मातलि को आज्ञा दी कि वह इन्द्र का रथ आदि लौटाकर ले जाय।
इन्द्र के प्रसंग में कुछ लोग अहल्या की पौराणिक (विशेषतः वाल्मीकीय रामायण और रामचरितमानस आदि की) कथा को मनगढ़ंत वैदिक सन्दर्भ देकर उसकी मनमानी व्याख्या करके अपनी विद्वता का अनर्थक प्रदर्शन करते हैं। वैसे लोग वैदिक सन्दर्भ के नाम पर अहल्या का अर्थ 'बिना हल चलायी हुई भूमि' (बंजर भूमि) अर्थ करते हैं। इस सन्दर्भ में अनिवार्यतः ध्यातव्य पहली बात यह है कि ऋग्वेद में 'अहल्या' या 'अहिल्या' शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं है। ऋग्वेद ही नहीं, अन्य वैदिक संहिताग्रन्थों में भी यह शब्द नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका उल्लेख मात्र है। शतपथ ब्राह्मण (३.३.४.१८) में इन्द्र के लिए 'अहल्यायै जार' शब्द का प्रयोग हुआ है। स्पष्टतः यह प्रयोग उसी कथा की ओर संकेत करता है जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण आदि ग्रन्थों में है। दूसरी बात यह कि ऋग्वेद में 'हल' शब्द का भी प्रयोग नहीं हुआ है। कृषिकार्य में प्रयुक्त हल के लिए ऋग्वेद में 'लांगल' शब्द का प्रयोग हुआ है। हल के लिए प्रयुक्त दूसरा शब्द है 'सीरा' (डाॅ. सूर्यकान्त ने 'वैदिक कोश' में सम्भवतः 'वैदिक इण्डेक्स' के प्रभाव में 'सीर' शब्द ही लिखा है, परन्तु सही शब्द 'सीरा' है।) अन्य संहिता ग्रन्थों तथा ब्राह्मणों में भी 'हल' का प्रयोग नहीं है। वस्तुतः हल का प्रयोग वेदांगों के समय में सम्भवतः आरंभ हुआ होगा और लौकिक संस्कृत में ही इसका अधिक प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में अहल्या की पूर्वोक्त व्याख्या कम-से-कम वैदिक सन्दर्भों से भिन्न अथवा दूर अवश्य है। रही प्रतीकात्मक व्याख्या की बात तो वह तो अनेकानेक पौराणिक कथाओं के लिए सम्भव है और ऐसे प्रयत्न होते भी रहे हैं। परन्तु इन्द्र तथा अहल्या की कथा को मनगढ़ंत वैदिक संस्पर्श देकर उसके कथारूप को राम का ईश्वरत्व सिद्ध करने के लिए रामकथा के कवियों की कल्पना मानना वास्तव में राम तथा ईश्वर के प्रति अपनी तथ्यहीन अश्रद्धा प्रकट करना ही है जो वस्तुतः अपनी व्यक्तिगत मान्यता की बात है; किसी ज्ञानकोशीय सामग्री के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है।
वाल्मीकीय रामायण में इन्द्र-अहल्या प्रसंग की कथा दी गयी है। इन्द्र ने गौतम की धर्मपत्नी अहल्या का सतीत्व अपहरण किया था। कहानी इस प्रकार है- शचीपति इन्द्र ने आश्रम से गौतम की अनुपस्थिति जानकर और मुनि का वेष धारण कर अहल्या से कहा।। १७।। हे अति सुन्दरी! कामीजन भोगविलास के लिए ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते, अर्थात यह बात नहीं मानते कि जब स्त्री मासिक धर्म से निवृत हों केवल तभी उनके साथ समागम करना चाहिए। अतः हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूं।। १८।। विश्वामित्र कहते हैं कि हे रघुनन्दन! वह मूर्खा मुनिवेशधारी इन्द्र को पहचान कर भी इस विचार से कि 'स्वयं देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं', इस प्रस्ताव से सहमत हो गयी।। १९।। तदनंतर (समागम के पश्चात्) वह संतुष्टचित्त होकर देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र से बोली कि हे सुरोत्तम! मैं कृतार्थ हो गयी। अब आप यहां से शीघ्र चले जाइये।। २०।। तब इन्द्र ने भी हँसते हुए कहा कि हे सुन्दर नितम्बों वाली! मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूं। अब जहां से आया हूं, वहां चला जाऊँगा। इस प्रकार अहल्या के साथ संगम कर वह कुटिया से निकला।
वाल्मीकीय रामायण में इस प्रसंग का काफी हद तक मानवीय रूप में वर्णन है। यहाँ अहल्या के पत्थर या नदी होने का उल्लेख भी नहीं है। शाप में बस यही कहा गया है कि वह लम्बे समय तक सबसे छिपकर (अदृश्य) रहेगी। वायु पीकर ही अर्थात् उपवास करती हुई रहेगी और राम के आने पर उनका आतिथ्य-सत्कार करने पर पूर्व रूप में आ जाएगी। शाप की समाप्ति के बारे में भी स्पष्ट लिखा है कि राम के दर्शन से पहले उसको देख पाना किसी के लिए कठिन था (दुर्निरीक्ष्या), राम के दर्शन हो जाने पर वह सबको दिखायी देने लगी। इससे पूरी तरह स्पष्ट है कि शिला(पत्थर) या नदी होने की कल्पना वाल्मीकीय रामायण से बहुत बाद की है। त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित होने तथा इन्द्र की महत्ता निरन्तर कम होने के क्रम में ही सारा दोष इन्द्र पर ही मढ़ दिया गया और अहल्या का चरित्र पावन माना गया।
कतिपय विद्वानों ने इस कथा को प्रतीकात्मक अर्थ देने का प्रयत्न किया है। धार्मिक ग्रन्थों में रहस्यवादी शब्दावली का प्रयोग प्राचीनकाल से प्रचलित है उसपर वैदिक शब्दावली सोने पे सुहागा का काम करती थी अत: उपरोक्त कथन प्रतीकात्मक भी हो सकता है। विश्लेषण करने पर भिन्न-भिन्न अर्थ सामने आते हैं:-
लौकिक संस्कृत में अहल्या का एक अर्थ होता है " बिना हल चली " यानि बंजर भूमि। जैसा कि ज्ञात ही है इंद्र दूसरे देशों (असुरो के) पर आक्रमण करता था तो परिणाम स्वरूप हरी-भरी भूमि बंजर हो जाती थी (उस समय लोग कृषि पर निर्भर रहते थे और खेती ही उनका मुख्य भोजन का स्रोत भी था।) इंद्र, इस भोजन के स्रोत या जंगल के स्रोत जिससे फल, कंद-मूल आदि मिलते थे उन्हें नष्ट कर के अपने दुश्मनों को नुकसान पहुँचाता था। कालांतर में विश्वामित्र ने राम से जब कहा कि ये अहल्या है, तो हो सकता है उनका तात्पर्य हो कि ये "बिना हल चली" यानि बंजर भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ और राम ने उस भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया हो।
दूसरा प्रसंग 'नदी' के सन्दर्भ में 'ब्रह्मपुराण (८७-५९)" और "आनंद रामायण (१.३.2१)" के अनुसार हो सकता है। अपभ्रंश में 'सिरा '(शिला) शब्द के दो अर्थ हैं एक तो पत्थर और दूसरा सूखी नदी। जैसा कृषि के रूप में विश्लेषण किया गया है उसी तरह यह भी हो सकता है कि वस्तुत: कोई नदी होगी जो इंद्र के दुश्मन देश में जाती होगी और उसके मुख्य पानी के स्रोत को इंद्र ने सुखा दिया होगा ताकि दुश्मन देश को पानी न मिल सके और बाद में राम ने इसे जलयुक्त बनाया होगा।
इस प्रकार देखें तो अहल्या-प्रसंग प्रकृति का मानवीकरण मात्र है।
महाभारत में इन्द्र
महाभारत में इन्द्र का पौराणिक स्वरूप ही मिलता है। यहां उनका वैदिक-साहित्य में वर्णित गौरव नहीं रह गया है। इन्हें विशेषतः 'शक्र' नाम से सम्बोधित किया गया है। अपना देवराज पद खो जाने का भय इन्हें बराबर सताया करता है और इससे बचने के लिए ये उचित-अनुचित प्रयत्न करते रहते हैं। विश्वामित्र के तप से भयभीत होकर मेनका नामक अप्सरा को उनका तप भंग करने भेजा। शरद्वत के तप से भयभीत होकर जानपदी नामक अप्सरा को उनका तप भंग करने भेजा। यवक्रीत के तप से भयभीत होकर इन्द्र ने एक ब्राह्मण का रूप धारण कर उन्हें तप से विरत किया।
वाल्मीकीय रामायण में वर्णित अहल्या-प्रसंग का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। यहाँ उसे बलात्-कार्य माना गया है।
ऋग्वेद में उल्लिखित इन्द्र के 'हरिश्मश्रु' होने का कथात्मक समर्थन महाभारत में भी मिलता है। यहाँ कहा गया है कि गौतम के शाप के कारण ही इन्द्र को हरिश्मश्रु (हरी दाढ़ी-मूँछों से युक्त) होना पड़ा।
ये ही अर्जुन के पिता थे। वृत्रासुर के भय से सभी देवताओं ने अपनी शक्तियाँ इन्हें समर्पित कर दी थी। इसलिए अर्जुन को उनसे ही दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए कहा गया। इनसे सम्बन्धित अनेक कहानियाँ महाभारत में दी गयी हैं।
इन्द्र एक 'पद' का नाम
इन्द्र वस्तुतः एक पद का नाम है। देवताओं के राजा के पद को 'इन्द्र' कहते हैं। उस पद पर बैठने वाले व्यक्ति का नाम भी इन्द्र हो जाता है। इसके संकेत तो अनेक पौराणिक कथाओं एवं विवरणों में मिलता है, परन्तु महाभारत के अनेक सन्दर्भों से यह भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि यह एक पद का नाम है। जिन-जिन कथाओं में ये पद छिन जाने से भयभीत होते हैं उन कथाओं के साथ इन्द्र बनने की अन्य व्यक्तियों की कथाओं को मिलाकर देखने पर बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। अनेक जगह 'इन्द्र' शब्द का व्यक्तिवाची प्रयोग न होकर पदवाची ('इन्द्रत्व') प्रयोग हुआ है। कुछ सन्दर्भ द्रष्टव्य हैं :-
शिव ने इन्द्र को मूर्छित कर पूर्वकाल के अन्य चार इन्द्रों के साथ एक गुफा में डाल दिया। इन्द्रपद('ऐन्द्रं प्रार्थयते स्थानं') की अभिलाषा रखने वाले नरकासुर का विष्णु ने वध किया। शक्र के नेतृत्व में ऋषियों, देवताओं ने(तथा स्वयं शक्र ने भी) स्कन्द से देवों का 'इन्द्र' बनने के लिए कहा। ब्रह्महत्या से ग्रस्त हो जाने पर शक्र के इन्द्र-पद छोड़ देने पर नहुष 'इन्द्र' बने। बाद में नहुष का पतन होने पर विष्णु के आदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करके शक्र ने पुनः इन्द्र-पद प्राप्त किया। इनके सिवा भी इन्द्र-पद (इन्द्रत्व) के अनेक स्पष्ट उल्लेख महाभारत में उपलब्ध हैं।
श्रीविष्णुपुराण में तृतीय अंश के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में तथा भागवत महापुराण के अष्टम स्कन्ध के प्रथम एवं त्रयोदश अध्याय में १४ मन्वन्तरों के अलग-अलग इन्द्रों के नाम दिये गये हैं।
महाकवि स्वयम्भू विरचित 'पउम चरिउ' महाकाव्य की अट्ठमो संधि (आठवीं संधि) में एक ऐसे व्यक्ति की कथा दी गयी है जिसने देवराज इन्द्र से प्रभावित होकर अपने नाम के साथ सब कुछ इन्द्रवत् करना चाहा था।
रथनूपुर नगर के विद्याधर राजा सहस्रार की सुनितम्बिनी पीनपयोधरा पत्नी का नाम था मानस सुन्दरी। सुरश्री से(देव-शोभा निरीक्षण के पश्चात्) उसे जो पुत्र हुआ, उसका नाम इन्द्र रखा गया। इन्द्र जब राजा बना तो सहायक विद्याधरों में से मंत्री का नाम रखा बृहस्पति, हाथी ऐरावत, इसी प्रकार पवन, कुबेर, वरुण, यम और चन्द्र तथा अपनी गायिकाओं के नाम उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा आदि रखकर घोषित किया कि इन्द्र के जो-जो चिह्न हैं वे मेरे भी हैं। मैं पृथ्वी मंडल का इन्द्र हूँ। उसकी समृद्धि की बात सुनकर लंका के शासक राक्षस मालि ने अपने भाई सुमालि तथा विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। घमासान युद्ध के पश्चात् राक्षसराज मारा गया तथा सुमालि पाताल लंका में प्रवेश कर गया। इन्द्र कुछ समय के लिए इन्द्रवत् शासन करने लगा।
यह कथा पउम चरिउ की अन्य अनेक कथाओं की तरह ही संस्कृत-परम्परा से बिल्कुल भिन्न है। वाल्मीकीय रामायण में इस विद्याधर इन्द्र का उल्लेख तो नहीं ही है, मालि (माली) के वध के बारे में भी स्पष्ट लिखा है कि राक्षसों द्वारा स्वर्गलोक पर आक्रमण के समय द्वन्द्व युद्ध में विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर डाला।
जैन धर्म में इन्द्र
बौद्ध धर्म में इन्द्र
बौद्ध धर्म मैं देवताओ को जन्ममृत्यु के चक्र मैं बद्ध जिव माना जाता हैं।उस्सी तरह इंद्र भी एक देवता हैं पद हैं।
वज्रयान बौद्ध धर्म के तंत्र ग्रन्थ साधनमाला नामक ग्रन्थ मैं इंद्र/अग्नि/वरुण आदि देवताओं को बौद्ध तंत्र देवताओ के पैरो के नीचे कुचलते हए दिखाया गया हैं।
जीस मैं हरी हरी हरी वाहन देवता को विष्णू के ऊपर विराजमान दिखाया गया हैं इस्सी अन्य देवताओं को भी उदहारण के लिए भगवान गणपती और इंद्र देवता।
अन्य सभ्यताओं में इन्द्र
बोगाजकोई शिलालेख के अनुसार मितन्नी जाति के देवताओं में वरुण, मित्र एवं नासत्यों (अश्विन्) के साथ इन्द्र का भी उल्लेख मिलता है (१४०० ई.पू.)। ईरानी धर्म में इन्द्र का स्थान है, परन्तु देवतारूप में नहीं, दानवरूप में। वेरेथ्रघ्न वहाँ विजय का देवता है, जो वस्तुतः 'वृत्रघ्न' (वृत्र को मारने वाला) का ही रूपान्तर है। इसी कारण डाॅ.कीथ इन्द्र को भारत-पारसीक एकता के युग से सम्बद्ध मानते हैं। |
आग: आग को तत्सम रूप में अग्नि कहते हैं।
अग्नि देव: हिन्दू देवता
अग्नि (आयुर्वेद) - पाचक अग्नि |
श्रीकृष्ण, हिन्दू धर्म में भगवान हैं। वे विष्णु के ८वें अवतार माने गए हैं। कन्हैया, माधव, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता है। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तृत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस उपदेश के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है।
कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। देवकी कंस की बहन थी। कंस एक अत्याचारी राजा था। उसने आकाशवाणी सुनी थी कि देवकी के आठवें पुत्र द्वारा वह मारा जाएगा। इससे बचने के लिए कंस ने देवकी और वसुदेव को मथुरा के कारागार में डाल दिया। मथुरा के कारागार में ही भादो मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनका जन्म हुआ। कंस के डर से वसुदेव ने नवजात बालक को रात में ही यमुना पार गोकुल में यशोदा के यहाँ पहुँचा दिया। गोकुल में उनका लालन-पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता-पिता थे।
बाल्यावस्था में ही उन्होंने बड़े-बड़े कार्य किए जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। अपने जन्म के कुछ समय बाद ही कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी पूतना का वध किया , उसके बाद शकटासुर, तृणावर्त आदि राक्षस का वध किया। बाद में गोकुल छोड़कर नंद गाँव आ गए वहां पर भी उन्होंने कई लीलाएं की जिसमे गोचारण लीला, गोवर्धन लीला, रास लीला आदि मुख्य है। इसके बाद मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न संकटों से उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और रणक्षेत्र में ही उन्हें उपदेश दिया। १२४ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनके अवतार समाप्ति के तुरंत बाद परीक्षित के राज्य का कालखंड आता है। राजा परीक्षित, जो अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा अर्जुन के पौत्र थे, के समय से ही कलियुग का आरंभ माना जाता है।
नाम और उपशीर्षक
"कृष्ण" एक संस्कृत शब्द है, जो "काला", "अंधेरा" या "गहरा नीला" का समानार्थी है। "अंधकार" शब्द से इसका सम्बन्ध ढलते चंद्रमा के समय को कृष्ण पक्ष कहे जाने में भी स्पष्ट झलकता है। इस नाम का अनुवाद कहीं-कहीं "अति-आकर्षक" के रूप में भी किया गया है।
श्रीमदभागवत पुराण के वर्णन अनुसार कृष्ण जब बाल्यावस्था में थे तब नन्दबाबा के घर आचार्य गर्गाचार्य द्वारा उनका नामकरण संस्कार हुआ था। नाम रखते समय गर्गाचार्यने बताया कि, 'यह पुत्र प्रत्येक युग में अवतार धारण करता है। कभी इसका वर्ण श्वेत, कभी लाल, कभी पीला होता है। पूर्व के प्रत्येक युगों में शरीर धारण करते हुए इसके तीन वर्ण हो चुके हैं। इस बार कृष्णवर्ण का हुआ है, अतः इसका नाम कृष्ण होगा।' वसुदेव का पुत्र होने के कारण उनको 'वासुदेव' कहा जाता है। "कृष्ण" नाम के अतिरिक्त भी उन्हें कई अन्य नामों से जाना जाता रहा है, जो उनकी कई विशेषताओं को दर्शाते हैं। सबसे व्यापक नामों में मोहन, गोविन्द, माधव, और गोपाल प्रमुख हैं।
कृष्ण भारतीय संस्कृति में कई विधाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका चित्रण आमतौर पर विष्णु जैसे कृष्ण , काले या नीले रंग की त्वचा के साथ किया जाता है। हालांकि, प्राचीन और मध्ययुगीन शिलालेख ,भारत और दक्षिणपूर्व एशिया दोनों में , और पत्थर की मूर्तियों में उन्हें प्राकृतिक रंग में चित्रित किया है, जिससे वह बनी है। कुछ ग्रंथों में, उनकी त्वचा को काव्य रूप से जांबुल ( जामून , बैंगनी रंग का फल) के रंग के रूप में वर्णित किया गया है।
कृष्ण को अक्सर मोर-पंख वाले पुष्प या मुकुट पहनकर चित्रित किया जाता है, और अक्सर बांसुरी (भारतीय बांसुरी) बजाते हुए उनका चित्रण हुआ है। इस रूप में, आम तौर पर त्रिभन्ग मुद्रा में दूसरे के सामने एक पैर को दुसरे पैर पर डाले चित्रित है। कभी-कभी वह गाय या बछड़ा के साथ होते है, जो चरवाहे गोविंद के प्रतीक को दर्शाती है।
अन्य चित्रण में, वे महाकाव्य महाभारत के युद्ध के दृश्यों का एक हिस्सा है। वहा उन्हें एक सारथी के रूप में दिखाया जाता है, विशेष रूप से जब वह पांडव राजकुमार अर्जुन को संबोधित कर रहे हैं, जो प्रतीकात्मक रूप से हिंदू धर्म का एक ग्रंथ,भगवद् गीता को सुनाते हैं। इन लोकप्रिय चित्रणों में, कृष्ण कभी पथ प्रदर्शक के रूप में सामने में प्रकट होते हैं, या तो दूरदृष्टा के रूप में, कभी रथ के चालक के रूप में।
कृष्ण के वैकल्पिक चित्रण में उन्हें एक बालक (बाल कृष्ण) के रूप में दिखाते हैं, एक बच्चा अपने हाथों और घुटनों पर रेंगते हुए ,नृत्य करते हुए , साथी मित्र ग्वाल बाल को चुराकर मक्खन देते हुए (मक्खन चोर), लड्डू को अपने हाथ में लेकर चलते हुए (लड्डू गोपाल) अथवा प्रलय के समय बरगद के पत्ते पर तैरते हुए एक अलौकिक शिशु जो अपने पैर की अंगुली को चूसता प्रतीत होता है। (ऋषि मार्कंडेय द्वारा विवरणित ब्रह्मांड विघटन) कृष्ण की प्रतिमा में क्षेत्रीय विविधताएं उनके विभिन्न रूपों में देखी जाती हैं, जैसे ओडिशा में जगन्नाथ, महाराष्ट्र में विट्ठल या विठोबा। , राजस्थान में श्रीनाथ जी, गुजरात में द्वारकाधीश और केरल में गुरुवायरुप्पन
अन्य चित्रणों में उन्हें राधा के साथ दिखाया जाता है जो राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम का प्रतीक माना जाता है। उन्हें कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप में भी दिखाया जाता है जिसमें उनके कई मुख हैं और सभी लोग उनके मुख में जा रहे हैं। अपने मित्र सुदामा के साथ भी उनको दिखाया जाता है जो मित्रता का प्रतीक है।
वास्तुकला में कृष्ण चिह्नों एवं मूर्तियों के लिए दिशानिर्देशों का वर्णन मध्यकालीन युग में हिन्दू मंदिर कलाओं जैसे वैखानस अगम , विष्णु धर्मोत्तर पुराण, बृहत संहिता और अग्नि पुराण में वर्णित है। इसी तरह, मध्यकालीन युग के शुरुआती तमिल ग्रंथों में कृष्ण और रुक्मणी की मूर्तियां भी सम्मिलित हैं। इन दिशानिर्देशों के अनुसार बनाई गई कई मूर्तियां सरकारी संग्रहालय,चेन्नई के संग्रह में हैं।
ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत
एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले महाकाव्य महाभारत में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। महाकाव्य की मुख्य कहानियों में से कई कृष्ण केंद्रीय हैं श्री भगवत गीता का निर्माण करने वाले महाकाव्य के छठे पर्व ( भीष्म पर्व ) के अठारहवे अध्याय में युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हैं। महाभारत के बाद के परिशिष्ट में हरिवंश में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है।
१८० ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे। भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है। । सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम - संकर्षण के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।
प्राचीन संस्कृत व्याकरण पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है। पाणिनी की श्लोक ३.१.२६ पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी प्रयोग करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदंतियों का एक महत्वपूर्ण अंग है। ।
हेलीडियोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख
मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एंटिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परंपरा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)। इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल हैं महाभारत के अद्याय ११.७ का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )।
हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल १९वी सदी ईसा पूर्व है उनमे भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (कृष्ण का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है ।
कई पुराणों में कृष्ण की जीवन कथा को बताया या कुछ इस पर प्रकाश डाला गया है । दो पुराण, भागवत पुराण और विष्णु पुराण में कृष्ण की कहानी की सबसे विस्तृत जानकारी है , लेकिन इन और अन्य ग्रंथों में कृष्ण की जीवन कथाएं अलग-अलग हैं और इसमें महत्वपूर्ण असंगतियां हैं। भागवत पुराण में बारह पुस्तकें उप-विभाजित हैं जिनमें ३३२ अध्याय, संस्करण के आधार पर १६,००० और १८,००० छंदो के बीच संचित हैं । पाठ की दसवीं पुस्तक, जिसमें लगभग ४००० छंद (~ २५ %) शामिल हैं और कृष्ण के बारे में किंवदंतियों को समर्पित है, इस पाठ का सबसे लोकप्रिय और व्यापक रूप से अध्ययन किया जाने वाला अध्याय है।
जीवन और किवदंतियां
अवतरण एवं महाप्रयाण
कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र के दिन रात्री के १२ बजे हुआ था । कृष्ण का जन्मदिन जन्माष्टमी के नाम से भारत, नेपाल, अमेरिका सहित विश्वभर में मनाया जाता है। कृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था। वे माता देवकी और पिता वासुदेव की ८वीं संतान थे। श्रीमद भागवत के वर्णन अनुसार द्वापरयुग में भोजवंशी राजा उग्रसेन मथुरा में राज करते थे। उनका एक आततायी पुत्र कंस था और उनकी एक बहन देवकी थी। देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था। कंस ने अपने पिता को कारागार में डाल दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन गया। कंस की मृत्यु उनके भानजे, देवकी की ८वी संतान के हाथों होनी थी। कंस ने अपनी बहन और बहनोई को भी मथुरा के कारागार में कैद कर दिया और एक के बाद एक देवकी की सभी संतानों को मार दिया। कृष्ण का जन्म आधी रात को हुआ तब कारागृह के द्वार स्वतः ही खुल गए और सभी सिपाही निंद्रा में थे। वासुदेव के हाथो में लगी बेड़िया भी खुल गईं। गोकुल के निवासी नन्द की पत्नी यशोदा को भी संतान प्राप्ति होने वाली थी। वासुदेव अपने पुत्र को सूप में रखकर कारागृह से निकल पड़े
कई भारतीय ग्रंथों में कहा गया है कि पौराणिक कुरुक्षेत्र युद्ध (महाभारत के युद्ध ) में गांधारी के सभी सौ पुत्रों की मृत्यु हो जाती है। दुर्योधन की मृत्यु से पहले रात को, कृष्णा ने गांधारी को उनकी संवेदना प्रेषित की थी । गांधारी कृष्ण पर आरोप लगाती है कि कृष्ण ने जानबूझ कर युद्ध को समाप्त नहीं किया, क्रोध और दुःख में उन्हें श्राप देती है कि उनके अपने "यदु राजवंश" में हर व्यक्ति उनके साथ ही नष्ट हो जाएगा। महाभारत के अनुसार, यादवों के बीच एक त्यौहार में एक लड़ाई की शुरुवात हो जाती है, जिसमे सब एक-दूसरे की हत्या करते हैं।कुछ दिनों बाद एक वृक्ष के नीचे नींद में सो रहे कृष्ण को एक हिरण समझ कर , जरा नामक शिकारी तीर मारता है जो उन्हें घातक रूप से घायल करता है कृष्णा जरा को क्षमा करते है और देह त्याग देते हैं । गुजरात में भालका की तीर्थयात्रा ( तीर्थ ) स्थल उस स्थान को दर्शाता है जहां कृष्ण ने अपना अवतार समाप्त किया तथा वापस वैकुण्ठ को गए । यह देहोतसर्ग के नाम से भी जाना जाता है। भागवत पुराण , अध्याय ३१ में कहा गया है कि उनकी मृत्यु के बाद, कृष्ण अपनी योगिक एकाग्रता की वजह से सीधे वैकुण्ठ में लौटे। ब्रह्मा और इंद्र जैसे प्रतीक्षारत देवताओं को भी कृष्ण को अपना मानव अवतार छोड़ने और वैकुण्ठ लौटने के लिए मार्ग का पता नहीं लगा ।
बाल्यकाल और युवावस्था
कृष्ण ने देवकी और उनके पति, यदुवंशी क्षत्रिय वासुदेव के यहां जन्म लिया। देवकी का भाई कंस नामक दुष्ट राजा था । पौराणिक उल्लेख के अनुसार देवकी के विवाह में कंस को भविष्यद्वक्ताओं ने बताया कि देवकी के पुत्र द्वारा उसका वध निश्चित है। कंस देवकी के सभी बच्चों को मारने की व्यवस्था करता है। जब कृष्ण जन्म लेते हैं, वासुदेव चुपके से शिशु कृष्ण को यमुना के पार ले जाते हैं और एक अन्य शिशु बालिका के साथ उनका आदान-प्रदान करते हैं। जब कंस इस नवजात शिशु को मारने का प्रयास करता है तब शिशु बालिका हिंदू देवी दुर्गा के रूप में प्रकट होती है, तथा उसे चेतावनी देते हुए कि उसकी मृत्यु उसके राज्य में आ गई है, लोप हो जाती हैं। पुराणों में किंवदंतियों के अनुसार ,कृष्ण, नंद और उनकी पत्नी यशोदा के साथ आधुनिक काल के मथुरा के पास पलते बढ़ते हैं। इन पौराणिक कथाओं के अनुसार, कृष्ण के दो भाई-बहन भी रहते हैं,बलराम और सुभद्रा । कृष्ण के जन्म का दिन जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है।
भागवत पुराण कृष्ण की आठ पत्नियों का वर्णन करता है, जो इस अनुक्रम में( रुक्मिणी , सत्यभामा, जामवंती , कालिंदी , मित्रवृंदा , नाग्नजिती (जिसे सत्य भी कहा जाता है), भद्रा और लक्ष्मणा (जिसे मद्रा भी कहते हैं) प्रकट होती हैं। डेनिस हडसन के अनुसार, यह एक रूपक है, आठों पत्नियां उनके अलग पहलू को दर्शाती हैं। जॉर्ज विलियम्स के अनुसार, वैष्णव ग्रंथों में कृष्ण की पत्नियों के रूप में सभी गोपियों का उल्लेख है, लेकिन यह सभी भक्ति एवं आध्यात्मिक सम्बन्ध का प्रतीक हैं। और प्रत्येक के लिए कृष्ण पूर्ण श्रद्धेय हैं। उनकी पत्नी को कभी-कभी रोहिणी , राधा , रुक्मिणी, स्वामीनिजी या अन्य कहा जाता है। कृष्ण-संबंधी हिंदू परंपराओं में, वह राधा के साथ सबसे अधिक चित्रित होते हैं। उनकी सभी पत्नियां को और उनके प्रेमिका राधा को हिंदू परंपरा में विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी के अवतार के रूप में माना जाता है। गोपियों को राधा के कई रूप और अभिव्यक्तियों के रूप में माना जाता है।
कुरुक्षेत्र का महाभारत युद्ध
महाभारत के अनुसार, कृष्ण कुरुक्षेत्र युद्ध के लिए अर्जुन के सारथी बनते हैं, लेकिन इस शर्त पर कि वह कोई भी हथियार नहीं उठाएंगे।दोनों के युद्ध के मैदान में पहुंचने के बाद और यह देखते हुए कि दुश्मन उसके अपने परिवार के सदस्य , उनके दादा, और उनके चचेरे भाई और प्रियजन हैं, अर्जुन क्षोभ में डूब जाते हैं और कहते है कि उनका ह्रदय उन्हें अपने परिजनों से लड़ने और मारने की अनुमति नहीं देगा। वह राज्य को त्यागने के लिए और अपने गाण्डीव (अर्जुन के धनुष) को छोड़ने के लिए तत्पर हो जाते है । कृष्ण तब उसे जीवन, नैतिकता और नश्वरता की प्रकृति के बारे में ज्ञान देते है। जब किसी को अच्छे और बुरे के बीच युद्ध का सामना करना पड़ता है तब , परिस्थिति की स्थिरता, आत्मा की स्थायीता और अच्छे बुरे का भेद ध्यान में रखते हुए , कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाते हुए , वास्तविक शांति की प्रकृति और आनंद और विभिन्न प्रकार के योगों को आनंद और भीतर की मुक्ति के लिए ऐसा योध अनिवार्य होता है । कृष्ण और अर्जुन के बीच बातचीत को भगवद् गीता नामक एक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है।
सभी हिन्दू ग्रंथों में, श्रीमद भगवत गीता को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि इसमें एक व्यक्ति के जीवन का सार है और इसमें महाभारत काल से द्वापर तक कृष्ण के सभी लीलाओ का वर्णन हैं।
ऐसी मान्यता है की यह महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित है हालांकि, इसमें कोई प्रमाण नहीं है लेकिन भगवद गीता एक पुस्तक है जो अर्जुन और उनके सारथी श्री कृष्ण के बीच वार्तालाप पर आधारित है।
गीता में सांख्य योग , कर्म योग, भक्ति योग, राजयोग, एक ईश्वरावाद आदि पर बहुत ही सुंदर तरीके से चर्चा की गई है।
संस्करण और व्याख्याएं
कृष्ण की जीवन कथा के कई संस्करण हैं, जिनमें से तीन का सबसे अधिक अध्ययन किया गया है: हरिवंश , भागवत पुराण और विष्णु पुराण । ये सब मूल कहानी को ही दर्शाते हैं लेकिन उनकी विशेषताओं, विवरण और शैलियों में काफी भिन्नताएं हैं। सबसे मूल रचना, हरिवंश को एक यथार्थवादी शैली में बताया गया है जो कृष्ण के जीवन को एक गरीब ग्वाले के रूप में बताता है, लेकिन काव्यात्मक और अलौकिक कल्पना से ओतप्रोत है । यह कृष्ण की अवतार समाप्ति के साथ समाप्त नहीं होती। कुछ विवरणों के अनुसार विष्णु पुराण की पांचवीं पुस्तक हरिवंश के यथार्थवाद से दूर हो जाती है और कृष्ण को रहस्यमय शब्दों और स्तम्भों में आवरण करती है कई संस्करणों में विष्णु पुराण की पांडुलिपियां मौजूद हैं।
भागवत पुराण की दसवीं और ग्यारहवीं पुस्तकों को व्यापक रूप से एक कविष्ठ कृति माना जाता है, जो कि कल्पना और रूपकों से भरा हुआ है, हरिवंश में पाये जाने वाले जीवों के यथार्थवाद से कोई संबंध नहीं है। कृष्ण के जीवन को एक ब्रह्मांडीय नाटक ( लीला ) के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जहां उनके पिता धर्मगुरू नंद को एक राजा के रूप में पेश किया गया था। कृष्ण का जीवन हरिवंश में एक इंसान के करीब है, लेकिन भागवत पुराण में एक प्रतीकात्मक ब्रह्मांड है, जहां कृष्ण ब्रह्मांड के भीतर हैं और इसके अलावा, साथ ही ब्रह्मांड भी हमेशा से है और रहेगा । कई भारतीय भाषाओं में भागवत पुराण पांडुलिपियां कई संस्करणों में भी मौजूद हैं।
कृष्णा का जन्म हर साल जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है । महाभारत और कुछ पुराणों में किंवदंतियों के अनुसार घटनाओं के आधार पर यह कहा जाता है कि कृष्ण एक वास्तविक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। उदाहरण के लिए, लानवान्य वेंसानी कहते हैं कि कृष्ण का पुराणों में ३२२७ ईसा पूर्व - ३१०२ ईसा पूर्व के बीच होने का अनुमान लगाया जा सकता है । इसके विपरीत, जैन परंपरा में पौराणिक कथाओं के अनुसार कृष्ण नेमिनाथ के चचेरे भाई थे, जो जैनों के २२ वें तीर्थंकर थे। ९वीं शताब्दी से जैन परंपरा का मानना है कि नेमिनाथ ८४,००० वर्ष पहले पैदा हुए। "गाय बेक" कहती हैं कि कृष्ण - चाहे मानव हो या दिव्य अवतार - प्राचीन भारत में वास्तविक व्यक्ति को दर्शाता है, जो कम से कम १००० ईसा पूर्व रहते थे, लेकिन इस ऐतिहासिक प्रमाणों से , विशुद्ध रूप से संस्कृत सिद्धांत के अध्ययन से ,यह प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है।
लुडो रोशेर और हज़रा जैसे अन्य विद्वानों का कहना है कि पुराण "भारतीय इतिहास" के लिए एक विश्वसनीय स्रोत नहीं है, क्योंकि इसमें राजाओं, विभिन्न लोगों, ऋषियों और राज्यों के बारे में लिखी गई पांडुलिपियों में विसंगतियां हैं। वे कहते हैं कि ये कहानियां संभवतया वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं, जो कि विज्ञान पर आधारित हैं और कुछ भागों में कल्पना द्वारा सुशोभित हैं। उदाहरण के लिए मत्स्य पुराण में कहा गया है कि कुर्म पुराण में १८,००० छंद हैं, जबकि अग्नि पुराण में इसी पाठ में ८००० छंद हैं, और नारदीय यह पुष्टि करते हैं कि कुर्म पांडुलिपि में १७,००० छंद हैं। पुराणिक साहित्य समय के साथ धीमी गति से बदला, साथ ही साथ कई अध्यायों का अचानक विलोप और इसकी नई सामग्री के साथ प्रतिस्थापित किया गया है। वर्तमान में परिणित पुराण उन लोगों के उल्लेख से पूरी तरह अलग है जो ११वीं सदी, या १६वीं सदी से पहले मौजूद थे।। उदाहरण के लिए, नेपाल में ताड़ पत्र पांडुलिपि की खोज ८१० ईस्वी में हुई है , लेकिन वह पत्र ,पुराने पाठ के संस्करणों से बहुत अलग है जो दक्षिण एशिया में औपनिवेशिक युग के बाद से परिचालित हो रहा है।
दर्शन और धर्मशास्त्र
हिंदू ग्रंथों में धार्मिक और दार्शनिक विचारों की एक विस्तृत श्रृंखला ,जो कृष्ण के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। रामानुज,जो एक हिंदू धर्मविज्ञानी थे एवं जिनके काम भक्ति आंदोलन में अत्यधिक प्रभावशाली थे , ने विशिष्टाद्वैत के संदर्भ में उन्हें प्रस्तुत किया। माधवचार्य, एक हिंदू दार्शनिक जिन्होंने वैष्णववाद के हरिदास संप्रदाय की स्थापना की , कृष्ण के उपदेशो को द्वैतवाद (द्वैत) के रूप में प्रस्तुत किया । गौदिया वैष्णव विद्यालय के एक संत जीव गोस्वामी, कृष्ण धर्मशास्त्र को भक्ति योग और अचिंत भेद-अभेद के रूप में वर्णित करते थे।धर्मशास्त्री वल्लभाचार्य द्वारा कृष्ण के दिए गए ज्ञान को अद्वैत (जिसे शुद्धाद्वैत भी कहा जाता है) के रूप में प्रस्तुत , जो वैष्णववाद के पुष्टि पंथ के संस्थापक थे । भारत के एक अन्य दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती, कृष्ण धर्मशास्त्र को अद्वैत वेदांत में प्रस्तुत करते थे, जबकि आदि शंकराचार्य , जो हिंदू धर्म में विचारों के एकीकरण और मुख्य धाराओं की स्थापना के लिए जाने जाते हैं, शुरुआती आठवीं शताब्दी में पंचायत पूजा पर कृष्ण का उल्लेख किया है ।
कृष्ण पर एक लोकप्रिय ग्रन्थ भागवत पुराण,असम में एक शास्त्र की तरह माना जाता है, कृष्ण के लिए एक अद्वैत, सांख्य और योग के रूपरेखा का संश्लेषण करता है, लेकिन वह कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति के मार्ग पर चलते हैं। ब्रायंट भागवत पुराण में विचारों के संश्लेषण का इस प्रकार वर्णन करते हैं
शेरिडन और पिंटचमैन दोनों ब्रायंट के विचारों की पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि भागवत में वर्णित वेदांतिक विचार भिन्नता के साथ गैर-द्वैतवादी हैं। परंपरागत रूप से वेदांत , वास्तविकता में एक दूसरे पर आधारित हैं और भागवत यह भी प्रतिपादित करता है कि वास्तविकता एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और बहुमुखी हैं ।
विभिन्न थियोलॉजीज और दर्शन के अलावा ,सामान्यतः कृष्ण को दिव्य प्रेम का सार और प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें मानव जीवन और दिव्य का प्रतिबिंब है। कृष्ण और गोपियों की भक्ति और प्रेमपूर्ण किंवदंतियां और संवाद ,दार्शनिक रूप से दिव्य और अर्थ के लिए मानव इच्छा के रूपकों के समतुल्य माना जाता है और सार्वभौमिक शक्ति और मानव आत्मा के बीच का समन्वय है । कृष्ण की लीला प्रेम-और आध्यात्म का एक धर्मशास्त्र है। जॉन कोल्लेर के अनुसार, "मुक्ति के साधन के रूप में प्रेम को प्रस्तुत नहीं किया जाता है, यह सर्वोच्च जीवन है"। मानव प्रेम भगवान का प्रेम है। हिंदू परंपराओं में अन्य ग्रंथ ,जिनमें भगवद गीता सम्मिलित है, ने कृष्ण के उपदेशों पर कई भाष्य (टिप्पणी) लिखने के लिए प्रेरित किया है।
कृष्ण की पूजा वैष्णववाद का हिस्सा है, जो हिंदू धर्म की एक प्रमुख परंपरा है। कृष्ण को विष्णु का पूर्ण अवतार माना जाता है, या विष्णु स्वयं अवतरित हुए ऐसा माना जाता है। हालांकि, कृष्ण और विष्णु के बीच का सटीक संबंध जटिल और विविध है, कृष्ण के साथ कभी-कभी एक स्वतंत्र देवता और सर्वोच्च माना जाता है। वैष्णव विष्णु के कई अवतारों को स्वीकार करते हैं, लेकिन कृष्ण विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। शब्द कृष्णम और विष्णुवाद को कभी-कभी दो में भेद करने के लिए इस्तेमाल किया गया है, जिसका अर्थ है कि कृष्णा श्रेष्ठतम सर्वोच्च व्यक्ति है।
सभी वैष्णव परंपराएं कृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार मानती हैं; अन्य लोग विष्णु के साथ कृष्ण की पहचान करते हैं, जबकि गौदीया वैष्णववाद , वल्लभ संप्रदाय और निम्बारका संप्रदाय की परंपराओं में कृष्ण को स्वामी भगवान का मूल रूप या हिंदू धर्म में ब्राह्मण की अवधारणा के रूप में सम्मान करते हैं। जयदेव अपने गीतगोविंद में कृष्ण को सर्वोच्च प्रभु मानते हैं जबकि दस अवतार उनके रूप हैं। स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक स्वामीनारायण ने भगवान के रूप में कृष्ण की भी पूजा की। "वृहद कृष्णवाद" वैष्णववाद में , वैसुलिक काल के वासुदेव और वैदिक काल के कृष्ण और गोपाल को प्रमुख मानते हैं । आज भारत के बाहर भी कृष्ण को मानने वाले एवं अनुसरण एवं विश्वास करने वालो की बहुत बड़ी संख्या है।
प्रभु श्रीकृष्ण-वासुदेव ("कृष्ण, वसुदेव के पुत्र") ऐतिहासिक रूप से कृष्णवाद और वैष्णववाद में इष्ट देव के प्रारंभिक रूपों में से एक हैं। प्राचीन काल में कृष्ण धर्म को प्रारंभिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परंपरा माना जाता था। इसके बाद, विभिन्न समान परंपराओं का एकीकरण हुआ इनमें प्राचीन भगवतवाद , गोपाला का पंथ, "कृष्ण गोविंदा" (गौपालक कृष्ण), बालकृष्ण और "कृष्ण गोपीवलभा" (कृष्ण प्रेमिका) सम्मिलित हैं । आंद्रे कोटेर के अनुसार, हरिवंश ने कृष्ण के विभिन्न पहलुओं के रूप में संश्लेषण में योगदान दिया।
भक्ति परम्परा में आस्था का प्रयोग किसी भी देवता तक सीमित नहीं है। हालांकि, हिंदू धर्म के भीतर कृष्ण भक्ति , परंपरा का एक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय केंद्र रहा है, विशेषकर वैष्णव संप्रदायों में । कृष्ण के भक्तों ने लीला की अवधारणा को ब्रह्मांड के केंद्रीय सिद्धांत के रूप में माना जिसका अर्थ है 'दिव्य नाटक'। यह भक्ति योग का एक रूप है, तीन प्रकार के योगों में से एक भगवान कृष्ण द्वारा भगवद गीता में चर्चा की है।
दक्षिण में , खासकर महाराष्ट्र में , वारकरी संप्रदाय के संत कवियों जैसे ज्ञानेश्वर , नामदेव , जनाबाई , एकनाथ और तुकाराम ने विठोबा की पूजा को प्रोत्साहित किया।दक्षिणी भारत में, कर्नाटक के पुरंदरा दास और कनकदास ने उडुपी की कृष्ण की छवि के लिए समर्पित गीतों का निर्माण किया। गौड़ीय वैष्णववाद के रूपा गोस्वामी ने भक्ति-रसामृत-सिंधु नामक भक्ति के व्यापक ग्रन्थ को संकलित किया है। दक्षिण भारत में, श्री संप्रदाय के आचार्य ने अपनी कृतियों में कृष्ण के बारे में बहुत कुछ लिखा है, जिनमें अंडाल द्वारा थिरुपावई और वेदांत देसिका द्वारा गोपाल विमशती शामिल हैं ।
तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल के राज्यों में कई प्रमुख कृष्ण मंदिर हैं और जन्माष्टमी दक्षिण भारत में व्यापक रूप से मनाए जाने वाले त्योहारों में से एक है।
एशिया के बाहर
१९६५ तक कृष्ण-भक्ति आंदोलन भारत के बाहर भक्तवेदांत स्वामी प्रभुपाद (उनके गुरु , भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर द्वारा निर्देशित )द्वारा फैलाया गया। अपनी मातृभूमि पश्चिम बंगाल से वे न्यूयॉर्क शहर गए थे । एक साल बाद १९६६ में, कई अनुयायियों के सानिध्य में उन्होंने कृष्ण चेतना (इस्कॉन) के लिए अंतर्राष्ट्रीय सोसायटी का निर्माण किया था, जिसे हरे कृष्ण आंदोलन के रूप में जाना जाता है। इस आंदोलन का उद्देश्य अंग्रेजी में कृष्ण के बारे में लिखना था और संत चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं को फैलाने का कार्य करना था तथा कृष्ण भक्ति के द्वारा पश्चिमी दुनिया के लोगों के साथ गौद्द्य वैष्णव दर्शन को साझा करना था। चैतन्य महाप्रभु की आत्मकथा में वर्णित जब उन्हें गया में दीक्षा दी गई थी तो उन्हें काली-संताराण उपनिषद के छह शब्द की कविता ,ज्ञान स्वरुप बताई गई थी, जो की "हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्णा कृष्णा हरे हरे, हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे " थी । गौड़ीय परंपरा में कृष्ण भक्ति के संदर्भ ने यह महामंत्र या महान मंत्र है। इसका जप हरि-नाम संचरित के रूप में जाना जाता था।
महा-मंत्र ने बीटल्स रॉक बैंड के जॉर्ज हैरिसन और जॉन लेनन का ध्यान आकर्षित किया और हैरिसन ने १९६९ को लंदन स्थित राधा कृष्ण मंदिर में भक्तों के साथ मंत्र की रिकॉर्डिंग की। " हरे कृष्ण मंत्र " शीर्षक से, यह गीत ब्रिटेन के संगीत सूची पर शीर्ष बीस तक पहुंच गया और यह पश्चिम जर्मनी और चेकोस्लोवाकिया में भी अत्यधिक लोकप्रिय रहा। उपनिषद के मंत्र ने भक्तिवेदांत और कृष्ण को पश्चिम में इस्कॉन विचारों को लाने में मदद की। इस्कॉन ने पश्चिम में कई कृष्ण मंदिर बनाए, साथ ही दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य स्थानों में भी मंदिरो का निर्माण किया।
दक्षिण पूर्व एशिया
कृष्ण दक्षिणपूर्व एशियाई इतिहास और कला में पाए जाते हैं, लेकिन उनका शिव , दुर्गा , नंदी , अगस्त्य और बुद्ध की तुलना में बहुत कम उल्लेख है । जावा , इंडोनेशिया में पुरातात्विक स्थलों के मंदिरों ( कैंडी ) में उनके गांव के जीवन या प्रेमी के रूप में उनकी भूमिका का चित्रण नहीं है और न ही जावा के ऐतिहासिक हिंदू ग्रंथों में इसका उल्लेख है। इसके बजाए, उनका बाल्य काल अथवा एक राजा और अर्जुन के साथी के रूप में उनके जीवन को अधिक उल्लेखित किया गया है।
कृष्ण की कलाओं को , योगकार्ता के निकट सबसे विस्तृत मंदिर , प्रम्बनन हिंदू मंदिर परिसर में ,कृष्णायण मंदिरो की एक श्रृंखला के रूप में उकेरा गया है। ये ९वी शताब्दी ईस्वी के है । कृष्ण १४ वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य से जावा सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का हिस्सा बने रहे। पनातरान के अवशेषों के अनुसार पूर्व जावा में हिंदू भगवान राम के साथ इनके मंदिर प्रचलन में थे और तब तक रहे जब तक की इस्लाम ने द्वीप पर बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म की जगह ली।
वियतनाम और कंबोडिया की मध्यकालीन युग में कृष्ण कला की विशेषता है। सबसे पहली जीवंत मूर्तियां और उनके अवशेष ६ ठी और ७ वीं शताब्दी ईस्वी को प्राप्त हुए थे , इन में वैष्णववाद प्रतिमा का समावेश है। जॉन गाइ , एशियाई कलाओं के निर्देशक,के अनुसार मेट्रोपोलिटन म्यूज़ियम ऑफ साउथ ईस्ट एशिया में , दानंग में ६ ठी / ७ वी शताब्दी ईस्वी के वियतनाम के कृष्ण गोवर्धन कला और ७ वीं शताब्दी के कंबोडिया, अंगकोर 'बोरी में फ्नॉम दा' गुफा में, इस युग के सबसे परिष्कृत मंदिर हैं।
सूर्य और विष्णु के साथ कृष्ण की प्रतिमाओं को थाईलैंड में भी पाया गया है , सी-थेप में बड़ी संख्या में मूर्तियां और चिह्न पाए गए हैं। उत्तरी थाइलैंड के फीटबुन क्षेत्र में थिप और कलाग्ने स्थलों पर , फनान और झेंला काल के पुरातात्विक स्थलों से, ये ७ वीं और ८ वीं शताब्दी के अवशेष पाए गए हैं ।
भारतीय नृत्य और संगीत थिएटर प्राचीन ग्रंथो जैसे वेद और नाट्यशास्त्र ग्रंथों को अपना आधार मानते हैं । हिंदू ग्रंथों में पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से प्रेरित कई नृत्यनाटिकाओं को और चलचित्रों को , जिसमें कृष्ण-संबंधित साहित्य जैसे हरिवंश और भागवत पुराण शामिल हैं ,अभिनीत किया गया है ।
कृष्ण की कहानियों ने भारतीय थियेटर, संगीत, और नृत्य के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेष रूप से रासलीला की परंपरा के माध्यम से। ये कृष्ण के बचपन, किशोरावस्था और वयस्कता के नाटकीय कार्य हैं। एक आम दृश्य में कृष्ण को रासलीला में बांसुरी बजाते दिखाया जाता हैं, जो केवल कुछ गोपियों को सुनाई देती है तथा जो धर्मशास्त्रिक रूप से दिव्य वाणी का प्रतिनिधित्व करती है जिसे मात्र कुछ प्रबुद्ध प्राणियों द्वारा सुना जा सकता है। कुछ पाठ की किंवदंतियों ने गीत गोविंद में प्रेम और त्याग जैसे माध्यमिक कला साहित्य को प्रेरित किया है।
भागवत पुराण जैसे कृष्ण-संबंधी साहित्य, प्रदर्शन के लिए इसके आध्यात्मिक महत्व को मानते हैं और उन्हें धार्मिक अनुष्ठान के रूप में मानते हैं तथा प्रतिदिन जीवन को आध्यात्मिक अर्थ के साथ जोड़ते हैं। इस प्रकार एक अच्छा, ईमानदार / सत्यनिष्ठा और सुखी जीवन व्यतीत करने का पथ प्रदर्शित करते हैं। इसी तरह, कृष्ण द्वारा प्रेरित प्रदर्शन का उद्देश्य विश्वासयोग्य अभिनेताओं और श्रोताओं के हृदय को शुद्ध करना है। कृष्ण लीला के किसी भी हिस्से का गायन, नृत्य और प्रदर्शन, पाठ में धर्म को याद करने का एक कार्य है। यह पराभक्ति (सर्वोच्च भक्ति) के रूप में है। किसी भी समय और किसी भी कला में कृष्ण को याद करने के लिए, उनकी शिक्षा पर देते हुए, उनकी सुन्दर और दिव्य पूजा की जाती है।
विशेषकर कथक , ओडिसी , मणिपुरी , कुचीपुड़ी और भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य शैलियां उनके कृष्ण-संबंधी प्रदर्शनों के लिए जाने जाते हैं। कृष्णाट्टम ( कृष्णट्टम ) ने अपने मूल को कृष्ण पौराणिक कथाओं के साथ रखा है और यह कथकली नामक एक अन्य प्रमुख शास्त्रीय भारतीय नृत्य रूप से जुड़ा हुआ है। ब्रायंट, भागवत पुराण में कृष्ण कहानियों के प्रभाव का सारांश देता है, " संभवतः किसी भी अन्य पाठ की तुलना में संस्कृत साहित्य के इतिहास में ,रामायण के अपवाद के साथ ,इतने अधिक व्युत्पन्न साहित्य, कविता, नाटक, नृत्य, थियेटर और कला को प्रेरित नहीं किया। ।
जैन धर्म की परंपरा में ६३ शलाकपुरुषों की सूची है, जिनमे चौबीस तीर्थंकर (आध्यात्मिक शिक्षक) और त्रिदेव के नौ समीकरण शामिल हैं। इनमें से एक समीकरण में कृष्ण को वासुदेव के रूप में, बलराम को बलदेव के रूप में, और जरासंध को प्रति -वासुदेव के रूप में दर्शाया जाता है। जैन चक्रीय समय के प्रत्येक युग में बड़े भाई के साथ वासुदेव का जन्म हुआ है, जिसे बलदेव कहा जाता है। तीनों के बीच, बलदेव ने ,जैन धर्म का एक केंद्रीय विचार, अहिंसा के सिद्धांत को बरकरार रखा है। खलनायक प्रति -वासुदेव है, जो विश्व को नष्ट करने का प्रयास करता है। विश्व को बचाने के लिए, वासुदेव-कृष्ण को अहिंसा सिद्धांत को त्यागना और प्रति -वासुदेव को मारना पड़ता है। इन तीनों की कहानियां, जिनसेना के हरिवंश पुराण (महाभारत के एक शीर्षक से भ्रमित हो )(८ वीं शताब्दी ईस्वी ) में पढ़ी जा सकती है एवं हेमचंद्र की त्रिशक्ति-शलाकापुरुष -चरित में भी इनका उल्लेख है।
विमलसुरी को हरिवंश पुराण के जैन संस्करण का लेखक माना जाता है, लेकिन ऐसी कोई पांडुलिपि नहीं मिली है जो इसकी पुष्टि करती है। यह संभावना है कि बाद में जैन विद्वानों, शायद ८ वीं शताब्दी के जिनसेना ने , जैन परंपरा में कृष्ण किंवदंतियों का एक पूरा संस्करण लिखा और उन्हें प्राचीन विमलसुरी में जमा किया। कृष्ण की कहानी के आंशिक और पुराने संस्करण जैन साहित्य में उपलब्ध हैं,
जैसे कि श्वेताम्बर अगम परंपरा के अंतगत दसाओ में ये वर्णित है।
अन्य जैन ग्रंथों में, कृष्ण को बाइसवे तीर्थंकर, नेमिनाथ के चचेरे भाई कहा जाता है। जैन ग्रंथों में कहा गया है कि नेमिनाथ ने कृष्ण को सर्व ज्ञान सिखाया था जिसने बाद में भगवद गीता में अर्जुन को दिया था। जेफरी डी लांग के अनुसार, कृष्ण और नेमिनाथ के बीच यह संबंध एक ऐसा ऐतिहासिक कारण है जिस कारण जैनियो को भगवद् गीता को एक आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण पाठ के रूप में स्वीकार, पढ़ना, और उद्धृत करना पड़ा तथा कृष्ण- संबंधित त्योहारों और हिंदूओं को आध्यात्मिक चचेरे भाई के रूप में स्वीकार करना पड़ा ।
कृष्ण की कहानी बौद्ध धर्म की जातक कहानियों में मिलती है। विदुरपंडित जातक में मधुरा (संस्कृत: मथुरा) का उल्लेख है, घट जातक में कंस , देवभग ( देवकी), उपसागरा या वासुदेव, गोवधन (गोवर्धन), बलदेव (बलराम) और कान्हा या केसव ( कृष्ण, केशव ) का उल्लेख है
कृष्ण को चौबीस अवतार में कृष्ण अवतार के रूप में वर्णित किया गया है, जो परंपरागत रूप से और ऐतिहासिक रूप से गुरु गोबिंद सिंह को समर्पित दशम ग्रंथ है ।
बहाई पंथिओं का मानना है कि कृष्ण " ईश्वर के अवतार " या भविष्यद्वक्ताओं में से एक है जिन्होंने धीरे-धीरे मानवता को परिपक्व बनाने हेतु भगवान की शिक्षा को प्रकट किया है। इस तरह, कृष्ण का स्थान इब्राहीम , मूसा , जोरोस्टर , बुद्ध , मुहम्मद , यीशु , बाब , और बहाई विश्वास के संस्थापक बहाउल्लाह के साथ साझा करते हैं। ।
अहमदिया , एक आधुनिक युग का पंथ है , कृष्ण को उनके मान्य प्राचीन प्रवर्तकों में से एक माना जाता है। अहमदी खुद को मुसलमान मानते हैं, लेकिन वे मुख्यधारा के सुन्नी और शिया मुसलमानों द्वारा इस्लाम धर्म के रूप में खारिज करते हैं, जिन्होंने कृष्ण को अपने भविष्यद्वक्ता के रूप में मान्यता नहीं दी है।
गुलाम अहमद ने कहा कि वह स्वयं कृष्ण, यीशु और मुहम्मद जैसे भविष्यद्वक्ताओं की तरह एक भविष्यवक्ता थे, जो धरती पर धर्म और नैतिकता के उत्तरार्द्ध पुनरुद्धार के रूप में आए थे ।
कृष्ण की पूजा या सम्मान को १९ वीं के बाद से कई नए धार्मिक आंदोलनों द्वारा अपनाया गया है। उदाहरण के लिए, एडवर्ड शूरे , कृष्ण को एक महान प्रवर्तक मानते है , जबकि थियोसोफिस्ट कृष्ण को मैत्रेय ( प्राचीन बुद्ध के गुरुओ में से एक) के अवतार के रूप में मानते हैं, जो बुद्ध के सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक गुरु है। ।
यह भी देखें
प्रेम मंदिर वृंदावन
श्री कृष्ण जी की गुरू दक्षिणा
श्री कृष्ण जी ने अपने गुरू और गुरू माता को दक्षिणा में दिया वचन पूरा किया।
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प्राचीन मिस्र का धर्म (अथवा प्राचीन इजिप्शन धर्म, इजिप्शियन रिलिग्न) प्राचीन मिस्र देश का सबसे मुख्य- और राजधर्म था। ये एक मूर्तिपूजक और बहुदेवतावादी धर्म था। एक छोटी अवधि के लिये इसमें एकेश्वरवाद की अवधारणा भी रही थी। ईसाई धर्म और बाद में इस्लाम के राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद ये लुप्त हो गया।
इस लेख में देवताओं के अंग्रेज़ी उच्चारण दिये गये हैं, मौलिक इजिप्शन नहीं।
इस धर्म में कई देवता थे : रा (सूर्यदेव), अतुम, च्नुम, अमुन, पिताह, अमुन-रा, ओसिरिस (यमदेव), अनूबिस, अतेन (सृष्टादेव), मिन, थोथ (चन्द्रदेव), होरस इत्यादि। सभी मिस्र के सम्राट (फ़राओ) भी जनता द्वारा जीवित देव्ताओं की तरह पूजे जाते हैं।
प्रमुख देवियाँ थीं : ईसिस (ओसिरिस]] की बहन और पत्नी), नेफ़्थिस, बास्त, नुत, मात इत्यादि।
पूजा मुख्यतः पशुबलि द्वारा होती थी (सांड, सूअर, भेड़, आदि)। यूनानी लोगों ने देवताओं के लिये कई ख़ूबसूरत मंदिर बनाये थे।
ममी और पिरामिड
लगभग हर फ़राओ अपनी लिये मौत के बाद की ज़िन्दगी के लिये बहुत बड़े पिरमिड बनवाता था, जो आज दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक है।
मिस्र का धर्म
मिस्र के देवी-देवता |
कानपुर ( ) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर नगर ज़िले में स्थित एक औद्योगिक महानगर है। यह नगर गंगा नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से ८० किलोमीटर पश्चिम स्थित यहाँ नगर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताओं के लिए चर्चित ब्रह्मावर्त (बिठूर) के उत्तर मध्य में स्थित ध्रुवटीला त्याग और तपस्या का सन्देश देता है।
माना जाता है कि इस शहर का नाम ही सोमवंशी राजपूतों के राजा कान्हा सोम से आता है, जिनके वंशज कानहवांशी कहलाए। कानपुर का मूल नाम 'कान्हपुर' था। नगर की उत्पत्ति का सचेंदी के राजा हिंदूसिंह से, अथवा महाभारत काल के वीर कर्ण से संबद्ध होना चाहे संदेहात्मक हो पर इतना प्रमाणित है कि अवध के नवाबों में शासनकाल के अंतिम चरण में यह नगर पुराना कानपुर, पटकापुर, कुरसवाँ, जुही तथा सीसामऊ गाँवों के मिलने से बना था। पड़ोस के प्रदेश के साथ इस नगर का शासन भी कन्नौज तथा कालपी के शासकों के हाथों में रहा और बाद में मुसलमान शासकों के। १७७३ से १८०१ तक अवध के नवाब अलमास अली का यहाँ सुयोग्य शासन रहा।
१७७३ की संधि के बाद यह नगर अंग्रेजों के शासन में आया, फलस्वरूप १७७८ ई. में यहाँ अंग्रेज छावनी बनी। गंगा के तट पर स्थित होने के कारण यहाँ यातायात तथा उद्योगों की सुविधा थी। अतएव अंग्रेजों ने यहाँ उद्योगों को जन्म दिया तथा नगर के विकास का प्रारम्भ हुआ। सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहाँ नील का व्यवसाय प्रारम्भ किया। १८३२ में ग्रैंड ट्रंक सड़क के बन जाने पर यह नगर इलाहाबाद से जुड़ गया। १८६४ ई. में लखनऊ, कालपी आदि मुख्य स्थानों से मार्गों द्वारा जोड़ दिया गया। ऊपरी गंगा नहर का निर्माण भी हो गया। यातायात के इस विकास से नगर का व्यापार पुन: तेजी से बढ़ा।
विद्रोह के पहले नगर तीन ओर से छावनी से घिरा हुआ था। नगर में जनसंख्या के विकास के लिए केवल दक्षिण की निम्नस्थली ही अवशिष्ट थी। फलस्वरूप नगर का पुराना भाग अपनी सँकरी गलियों, घनी आबादी और अव्यवस्थित रूप के कारण एक समस्या बना हुआ है। १८५७ के विद्रोह के बाद छावनी की सीमा नहर तथा जाजमऊ के बीच में सीमित कर दी गई; फलस्वरूप छावनी की सारी उत्तरी-पश्चिमी भूमि नागरिकों तथा शासकीय कार्य के निमित्त छोड़ दी गई। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरठ के साथ-साथ कानुपर भी अग्रणी रहा। नाना साहब की अध्यक्षता में भारतीय वीरों ने अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। इन्होंने नगर के अंग्रेजों का सामना जमकर किया किन्तु संगठन की कमी और अच्छे नेताओं के अभाव में ये पूर्णतया दबा दिए गए।
शान्ति हो जाने के बाद विद्रोहियों को काम देकर व्यस्त रखने के लिए तथा नगर का व्यावसायिक दृष्टि से उपयुक्त स्थिति का लाभ उठाने के लिए नगर में उद्योग धंधों का विकास तीव्र गति से प्रारंभ हुआ। १८५९ ई. में नगर में रेलवे लाइन का सम्बन्ध स्थापित हुआ। इसके पश्चात् छावनी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सरकारी चमड़े का कारखाना खुला। १८६१ ई. में सूती वस्त्र बनाने की पहली मिल खुली। क्रमश: रेलवे संबंध के प्रसार के साथ नए-नए कई कारखाने खुलते गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् नगर का विकास बहुत तेजी से हुआ। यहाँ मुख्य रूप से बड़े उद्योग-धन्धों में सूती वस्त्र उद्योग प्रधान था। चमड़े के कारबार का यह उत्तर भारत का सबसे प्रधान केन्द्र है। ऊनी वस्त्र उद्योग तथा जूट की दो मिलों ने नगर की प्रसिद्धि को अधिक बढ़ाया है। इन बड़े उद्योगों के अतिरिक्त कानपुर में छोटे-छोटे बहुत से कारखानें हैं। प्लास्टिक का उद्योग, इंजीनियरिंग तथा इस्पात के कारखाने, बिस्कुट आदि बनाने के कारखाने पूरे शहर में फैले हुए हैं। १६ सूती और दो ऊनी वस्त्रों में मिलों के सिवाय यहाँ आधुनिक युग के लगभग सभी प्रकार के छोटे बड़े कारखाने थे।
कानपुर छावनी कानपुर नगर में ही है। सन् १७७८ ई. में अंग्रेज़ी छावनी बिलग्राम के पास फैजपुर 'कम्पू' नामक स्थान से हटकर कानपुर आ गई। छावनी के इस परिवर्तन का मुख्य कारण कानपुर की व्यावसायिक उन्नति थी। व्यवसाय की प्रगति के साथ इस बात की विशेष आवश्यकता प्रतीत होने लगी कि यूरोपीय व्यापारियों तथा उनकी दूकानों और गोदामों की रक्षा के लिए यहाँ फौज रखी जाए। अंग्रेज़ी फौज पहले जुही, फिर वर्तमान छावनी में आ बसी। कानपुर की छावनी में पुराने कानपुर की सीमा से जाजमऊ की सीमा के बीच का प्राय: सारा भाग सम्मिलित था। कानपुर के सन् १८४० ई. के मानचित्र से विदित होता है कि उत्तर की ओर पुराने कानपुर की पूर्वी सीमा से जाजमऊ तक गंगा के किनारे-किनारे छावनी की सीमा चली गई थी। पश्चिम में इस छावनी की सीमा उत्तर से दक्षिण की ओर भैरोघोट के सीसामऊ तक चली गई थी। यहाँ से यह वर्तमान मालरोड (महात्मा गांधी मार्ग) के किनारे-किनारे पटकापुर तक चली गई थी। फिर दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़कर क्लेक्टरगंज तक पहुँचती थी। वहाँ से यह सीमा नगर के दक्षिण-पश्चिमी भाग को घेरती हुई दलेलपुरवा पहुँचती थी और यहाँ से दक्षिण की ओर मुड़कर ग्रैंड ट्रंक रोड के समान्तर जाकर जाजमऊ से आनेवाली पूर्वी सीमा में जाकर मिल जाती थीं। छावनी के भीतर एक विशाल शस्त्रागार तथा यूरोपियन अस्पताल था। परमट के दक्षिण में अंग्रेज़ी पैदल सेना की बैरक तथा परेड का मैदान था। इनके तथा शहर के बीच में कालीपलटन की बैरकें थीं जो पश्चिम में सूबेदार के तालाब से लेकर पूर्व में क्राइस्ट चर्च तक फैली हुई थीं। छावनी के पूर्वी भाग में बड़ा तोपखाना था तथा एक अंग्रेज़ी रिसाला रहता था। १८५७ के विद्रोह के बाद छावनी की प्राय: सभी इमारतें नष्ट कर दी गईं। विद्रोह के बाद सीमा में पुन: परिवर्तन हुआ। छावनी का अधिकांश भाग नागरिकों को दे दिया गया।
इस समय छावनी की सीमा उत्तर में गंगा नदी, दक्षिण में ग्रैंड ट्रंक रोड तथा पूर्व में जाजमऊ है। पश्चिम में लखनऊ जानेवाली रेलवे लाइन के किनारे-किनारे माल रोड पर पड़नेवाले नहर के पुल से होती हुई फूलबाग के उत्तर से गंगा के किनारे हार्नेस फैक्टरी तक चली गई है। छावनी के मुहल्लों-सदरबाजार, गोराबाजार, लालकुर्ती, कछियाना, शुतुरखाना, दानाखोरी आदि-के नाम हमें पुरानी छावनी के दैनिक जीवन से संबंध रखनेवाले विभिन्न बाजारों की याद दिलाते हैं।
आजकल छावनी की वह रौनक नहीं है जो पहले थी। उद्देश्य पूर्ण हो जाने के कारण अंग्रेज़ों के काल में ही सेना का कैंप तोड़ दिया गया, पर अब भी यहाँ कुछ सेनाएँ रहती हैं। बैरकों में प्राय: सन्नाटा छाया हुआ है। छावनी की कितनी ही बैरकें या तो खाली पड़ी हुई हैं या अन्य राज्य कर्मचारी उनमें किराए पर रहते हैं। मेमोरियल चर्च, कानपुर क्लब और लाट साहब की कोठी (सरकिट हाउस) के कारण यहाँ की रौनक कुछ बनी हुई है। छावनी का प्रबंध कैंटूनमेंट बोर्ड के सुपुर्द है जिसके कुछ चुने हुए सदस्य होते हैं।
मान्यता है इसी स्थान पर ध्रुव ने जन्म लेकर परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाल्यकाल में कठोर तप किया और ध्रुवतारा बनकर अमरत्व की प्राप्ति की। रखरखाव के अभाव में टीले का काफी हिस्सा गंगा में समाहित हो चुका है लेकिन टीले पर बने दत्त मन्दिर में रखी तपस्या में लीन ध्रुव की प्रतिमा अस्तित्व खो चुके प्राचीन मंदिर की याद दिलाती रहती है। बताते हैं गंगा तट पर स्थित ध्रुवटीला किसी समय लगभग १९ बीघा क्षेत्रफल में फैलाव लिये था। इसी टीले से टकरा कर गंगा का प्रवाह थोड़ा रुख बदलता है। पानी लगातार टकराने से टीले का लगभग १२ बीघा हिस्सा कट कर गंगा में समाहित हो गया। टीले के बीच में बना ध्रुव मंदिर भी कटान के साथ गंगा की भेंट चढ़ गया। बुजुर्ग बताते हैं मन्दिर की प्रतिमा को टीले के किनारे बने दत्त मन्दिर में स्थापित कर दिया गया। पेशवा काल में इसकी देखरेख की जिम्मेदारी राजाराम पन्त मोघे को सौंपी गई। तब से यही परिवार दत्त मंदिर में पूजा अर्चना का काम कर रहा है। मान्यता है ध्रुव के दर्शन पूजन करने से त्याग की भावना बलवती होती है और जीवन में लाख कठिनाइयों के बावजूद काम को अंजाम देने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
कानपुर के दर्शनीय स्थल
शोभन मंदिर(जो कि एक सिध्द धाम है),
नानाराव पार्क (बितूर),ब्लू वर्ल्ड ,चिड़ियाघर, राधा-कृष्ण मन्दिर, सनाधर्म मन्दिर, काँच का मन्दिर, श्री हनुमान मन्दिर पनकी, सिद्धनाथ मन्दिर, जाजमऊ आनन्देश्वर मन्दिर परमट, जागेश्वर मन्दिर चिड़ियाघर के पास, सिद्धेश्वर मन्दिर चौबेपुर के पास, बिठूर साँई मन्दिर, गंगा बैराज, छत्रपति साहूजी महाराज विश्वविद्यालय (पूर्व में कानपुर विश्वविद्यालय), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, हरकोर्ट बटलर प्रौद्योगिकी संस्थान (एच.बी.टी.आई.), चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवँ प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, ब्रह्मदेव मंदिर, रामलला मंदिर (रावतपुर गांव ) बाबा श्री महाकालेश्वर धाम बर्रा ५ इत्यादि
जाजमऊ को प्राचीन काल में सिद्धपुरी नाम से जाना जाता था। यह स्थान पौराणिक काल के राजा ययाति के अधीन था। वर्तमान में यहां सिद्धनाथ और सिद्ध देवी का मंदिर है। साथ ही जाजमऊ लोकप्रिय सूफी संत मखदूम शाह अलाउल हक के मकबरे के लिए भी प्रसिद्ध है। इस मकबरे को १३५८ ई. में फिरोज शाह तुगलक ने बनवाया था। १६७९ में कुलीच खान की द्वारा बनवाई गई मस्जिद भी यहां का मुख्य आकर्षण है। १९५७ से ५८ के बीच यहां खुदाई की गई थी जिसमें अनेक प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई थी।
श्री राधाकृष्ण मंदिर
यह मंदिर जे. के. मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। बेहद खूबसूरती से बना यह मंदिर जे. के. ट्रस्ट द्वारा बनवाया गया था। प्राचीन और आधुनिक शैली से निर्मित यह मंदिर कानपुर आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहता है। यह मंदिर मूल रूप से श्रीराधाकृष्ण को समर्पित है। इसके अलावा श्री लक्ष्मीनारायण, श्री अर्धनारीश्वर, नर्मदेश्वर और श्री हनुमान को भी यह मंदिर समर्पित है।
जैन ग्लास मंदिर
वर्तमान में यह मंदिर पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन गया है। यह खूबसूरत नक्कासीदार मंदिर कमला टॉवर के विपरीत महेश्वरी मोहाल में स्थित है। मंदिर में ताम्रचीनी और कांच की सुंदर सजावट की गई है।
कमला रिट्रीट एग्रीकल्चर कॉलेज के पश्चिम में स्थित है। इस खूबसूरत संपदा पर सिंहानिया परिवार का अधिकार है। यहां एक स्वीमिंग पूल बना हुआ है, जहां कृत्रिम लहरें उत्पन्न की जाती है। यहां एक पार्क और नहर है। जहां चिड़ियाघर के समानांतर बोटिंग की सुविधा है। कमला रिट्रीट में एक संग्रहालय भी बना हुआ है जिसमें बहुत सी ऐतिहासिक और पुरातात्विक वस्तुओं का संग्रह देखा जा सकता है। यहां जाने के लिए डिप्टी जनरल मैनेजर की अनुमति लेना अनिवार्य है।
फूल बाग को गणेश उद्यान के नाम से भी जाना जाता है। इस उद्यान के मध्य में गणेश शंकर विद्यार्थी का एक मैमोरियल बना हुआ है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यहां ऑथरेपेडिक रिहेबिलिटेशन हॉस्पिटल बनाया गया था। यह पार्क शहर के बीचों बीच मॉल रोड पर बना है।
एलेन फोरस्ट ज़ू
१९७१ में खुला यह चिड़ियाघर देश के सर्वोत्तम चिड़ियाघरों में एक है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह देश का तीसरा सबसे बड़ा चिड़ियाघर है और यहाँ १२५० जानवर हैं। कुछ समय पिकनिक के तौर पर बिताने और जीव-जंतुओं को देखने के लिए यह चिड़ियाघर एक बेहतरीन जगह है। इस चिड़ियाघर में मिनी ट्रेन और विधुत रिक्शा भी चलता है।
कानपुर मैमोरियल चर्च
१८७५ में बना यह चर्च लोम्बार्डिक गोथिक शैली में बना हुआ है। यह चर्च उन अंग्रेज़ों को समर्पित है जिनकी १८५७ के विद्रोह में मृत्यु हो गई थी। ईस्ट बंगाल रेलवे के वास्तुकार वाल्टर ग्रेनविले ने इस चर्च का डिजाइन तैयार किया था।
नाना राव पार्क
नाना राव पार्क फूल बाग से पश्चिम में स्थित है। १८५७ में इस पार्क में बीबीघर था। आज़ादी के बाद पार्क का नाम बदलकर नाना राव पार्क रख दिया गया।
जेड स्क्वायर मॉल
वर्तमान में यह जगह शहर का सबसे बड़ा आकर्शन का केन्द्र है। यहाँ पे कई सारी खाने पीने और् खरीदारी के शोरूम है।
श्री श्री राधा माधव मंदिर (इस्कॉन मंदिर)
श्री श्री राधा माधव मंदिर जिसे "इस्कॉन मंदिर" के नाम से जाना जाता है, मैनावती मार्ग, बिठूर रोड पर स्थित एक भव्य मंदिर है।
लखनऊ का अमौसी यहां का निकटतम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है, जो लगभग ६५ किलोमीटर की दूरी पर है। कानपुर का अपना भी एक हवाई अड्डा है गणेश शंकर विद्यार्थी चकेरी एअरपोर्ट और यह दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद, बागडोगरा एवं बेंगलूर से जुड़ा हुआ है। एयरपोर्ट डायरेक्टर द्वारा बताया गया है कि शीघ्र ही कानपुर एयरपोर्ट से देश के अन्य १८ बड़े शहरों अमृतसर जम्मू जयपुर पटना गुवाहाटी भुवनेश्वर इंदौर हैदराबाद कोचीन मद्रास रायपुर चंडीगढ़ देहरादून पंतनगर रांची गोवा श्रीनगर एवं त्रिचनापल्ली लिए शीघ्र विमान सेवा उपलब्ध होगी साथ ही अहिरवां में डेढ़ सौ एकड़ जमीन में नवीन अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट का निर्माण होना है। एवं खाड़ी देशों , संयुक्त अरब अमीरात कुवैत बहरीन अदीस अबाबा सऊदी अरब के लिए भी सीधी विमान सेवा उपलब्ध हो सकेगी। इसके अलावा कानपुर में आईआईटी एयरपोर्ट, सिविल एयरपोर्ट्ट जीटी रोड कैंट एवं कानपुर देहात एयरपोर्ट शिवली में स्थित है।
कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन देश के विभिन्न हिस्सों से अनेक रेलगाड़ियों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, वाराणसी, लखनऊ, हावड़ा,गोरखपुर , झाँसी, कन्नौज , मथुरा, आगरा, बांदा, मुंबई, चेन्नई, जबलपुर,भोपाल,मानिकपुर,फतेहपुर आदि शहरों से यहाँ के लिए नियमित रेलगाड़ियाँ हैं। शताब्दी, राजधानी, नीलांचल, मगध विक्रमशिला, वैशाली, गोमती, संगम, पुष्पक आदि ट्रेनें कानपुर होकर जाती हैं। और श्रमशक्ति एक्सप्रेस ट्रेन कानपुर से नई दिल्ली जाती है
देश के प्रमुख शहरों से कानपुर सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग २ इसे दिल्ली, इलाहाबाद, आगरा और कोलकाता से जोड़ता है, जबकि राष्ट्रीय राजमार्ग २5 कानपुर को लखनऊ, झांसी और शिवपुरी आदि शहरों से जोड़ता है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कल्याणपुर, कानपुर
चन्द्र शेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, नवाबगंज
राष्ट्रीय शर्करा संस्था
राष्ट्रीय दलहन अनुसंधान जीटी रोड कानपुर
भारतीय वन एवं पौध प्रशिक्षण संस्थान कानपुर
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद उत्तरी क्षेत्र कानपुर
प्रशिक्षण एवं शिक्षुता कार्यालय लखनपुर कानपुर
शोध विकास एवं प्रशिक्षण संस्थान विकास नगर कानपुर
गणेश शंकर विद्यार्थी राजकीय मेडीकल कालेज
जे०के० ह्रदय संस्थान रावतपुर कानपुर
जवाहरलाल नेहरू होम्योपैथिक कालेज लखनपुर कानपुर
छत्रपति साहू जी महाराज युनिवर्सिटी कानपुर
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उत्तर प्रदेश टेक्सटाइल तकनीकी संस्थान शूटर गंज कानपुर
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प्रनवीर सिंह इंस्टीटूट ऑफ टेकनोलोजी कानपुर
रामा इंजीनियरिंग कॉलेज मंधना कानपुर
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महाराणा प्रताप इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल टेक्नोलॉजी बिठूर कानपुर
कृष्णा इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी पुरुष वर्ग मंधना कानपुर
कृष्णा इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी महिला मंधना कानपुर
कानपुर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी महाराजपुर कानपुर
विजन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कानपुर
एलनहाउस इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कानपुर
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पूज्या भाऊराव देवरस महाविद्यालय कानपुर
डॉ.हरिबंश राय बच्चन महाविद्यालय नौबस्ता कानपुर
एशियन इंस्टिट्यूट ऑफ रूरल टेक्नोलॉजी बाघपुर कानपुर
दयानन्द एंग्लो-वैदिक महाविद्यालय (डीएवी कॉलेज), कानपुर
काकादेव कोचिंग सेन्टर (मेडिकल,इंजीनियरिन्ग समेत अन्य प्रतियोगी संस्थान)
दिल्ली की तरह कानपुर में भी मेट्रो दौड़ेगी | कानपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने मेट्रो का शुभारंभ करके यहां भी लोगों को जल्द मेट्रो शुरू करने का वादा किया है। आने वाले २०२१ तक मेट्रो कानपुर में दौड़ने लगेगी | कानपुर में मेट्रो रूट तैयार कर लिया गया है और काम जोरों से चल रहा है। कानपुर मेट्रो को दो चरणों में निर्मित किया जाएगा। प्रथम चरण आईआईटी कानपुर से होते हुए नौबस्ता तक एवं द्वितीय चरण सीएसए यूनिवर्सिटी से होते हुए जरौली गांव तक चाहेगा,२८ दिसम्बर २०२१ से प्राथमिक कारीडोर मे मैट्रो सेवा चालू हो चुकी है। इसके साथ ही कानपुर के यातायात को सुगम बनाने के लिए बैटरी द्वारा संचालित नगर बसों का भी शुभारंभ होने वाला है जिसके लिए महाराजपुर मंधना पनकी एवं नौबस्ता में चार्जिंग स्टेशन बनाने का प्लान है, वर्तमान मे ये बस सेवा भी चालू हो चुकी है, अभी ६६ इलेक्ट्रानिक बसें दौड़ रही हैं।
मैदानी भाग होने के कारण गर्मियों में अधिक गर्मी तथा सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ती है। वर्षा का स्तर मध्यम है।
२०११ की जनसंख्या के अनुसार कानपुर नगर की आबादी ४५८१२६८ थी। यहाँ की साक्षरता दर ८३.९८% है।
यहाँ पर हिन्दू और मुस्लिम प्रमुख धर्म है। ७६% हिन्दू, २०% मुस्लिम, १.७% जैन तथा २.३% अन्य धर्मों के मतावलंबी है।
गणेश शंकर विद्यार्थी
पंडित जगतवीर सिंह द्रोण
इन्हें भी देखें
कानपुर नगर ज़िला
कानपुर नगर ज़िला
उत्तर प्रदेश के नगर
कानपुर नगर ज़िले के नगर |
स्विट्जरलैंड (जर्मन: (दिए) स्क्वेइज़ (दी) श्वाइत्स, फ़्रान्सीसी: (ला) सुइसए (ला) सुईस, लातिनी: हैल्वेतिया हेल्वेतिया ; औपचारिक: स्विस संघराज्य) मध्य यूरोप का एक देश है। इसकी ६० % सरज़मीन ऐल्प्स पहाड़ों से ढकी हुई है, सो इस देश में बहुत ही ख़ूबसूरत पर्वत, गाँव, सरोवर (झील) और चारागाह हैं। स्विस लोगों का जीवनस्तर दुनिया में सबसे ऊँचे जीवनस्तरों में से एक है। स्विस घड़ियाँ, चीज़, चॉकलेट, बहुत मशहूर हैं।
इस देश की तीन राजभाषाएँ हैं : जर्मन (उत्तरी और मध्य भाग की मुख्य भाषा), फ़्रांसिसी (पश्चिमी भाग) और इतालवी (दक्षिणी भाग) और एक सह-राजभाषा है : रोमांश (पूर्वी भाग)। इसके प्रान्त कैण्टन कहे जाते हैं। स्विट्स़रलैण्ड एक लोकतन्त्र है जहाँ आज भी प्रत्यक्ष लोकतन्त्र देखने को मिल सकता है। यहाँ कई बॉलीवुड फ़िल्म के गानों की शूटिंग होती है। लगभग २० % स्विस लोग विदेशी मूल के हैं। इसके मुख्य शहर और पर्यटक स्थल हैं : ज़्यूरिख़, जनीवा, बर्न (राजधानी), बासल, इंटरलाकेन, लोज़ान, लूत्सर्न, इत्यादि।
यहाँ एक तरफ बर्फ के सुंदर ग्लेशियर हैं। ये ग्लेशियर साल में आठ महीने बर्फ की सुंदर चादर से ठके रहते हैं। तो वहीँ दूसरी तरफ सुंदर वादियाँ हैं जो सुंदर फूलों और रंगीन पत्तियों वाले पेड़ों से ढकीं रहती हैं।
भारतीय निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्मों में इस खूबसूरत देश के कई नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलते हैं।
ला टान सभ्यता ईसापूर्व ४५० के समय रही होगी। ईसा के १५ साल पहले यह रोमन साम्राज्य का अंग बन गया। चौथी सदी में यह बिजेन्टाइन साम्राज्य से स्वतंत्र हो गया और कई प्राचीन साम्राज्यों के बीच बँटा रहा।
सन् १७९८ में फ्रांस के अधीन में आने के बाद नेपोलियन ने यहाँ पर फ्रांस का संविधान लागू किया। बाद में इसे हटा लिया गया। दोनों विश्वयुद्धों में से किसी में भी स्विट्ज़रलैंट पर कोई खास आक्रमण नहीं हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध में १९१७ तक लेनिन यहीं रहे थे।
दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व में आल्प्स पर्वत श्रेणिया हैं। देश में कई झीले है - जेनेवा झील का नाम इनमें प्रमुख है। इसके उत्तर पूर्व में जर्मनी, पश्चिम में फ्रांस, दक्षिण में इटली और पूर्व में आस्ट्रिया स्थित है।
यह प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एकमात्र उदाहरण है।
देश के उत्तर में जर्मन (६३.६%), पश्चिम में फ्रांसिसी (२०.४%), दक्षिण में इतालवी तथा रोमांस मूल के लोग रहते हैं।
खास आकर्षण -
इंटरलेकन ओस्ट को बॉलीवुल की पसंदीदा जगह कहा जाता है। यहाँ पर दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे से लेकर ढाई अक्षर प्रेम के, जुदाई, हीरो जैसी फिल्में फिल्माईं गईं हैं। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर इस शहर में आप स्विट्जरलैंड के इतिहास और वर्तमान दोनों से मुलाकात कर सकते हैं।
यदि आपके पास थोड़ा सा वक्त और हौसला हो तो सूर्योदय के समय यहाँ की पहाड़ियों पर चहलकदमी करना बेहद सुखद लगता है। यदि पैदल नहीं जा सकते तो यहाँ से एक ट्रेन सीधी पहाड़ी के ऊपर जाती है। बिना चूके उसका टिकट ले लीजिए। और पहाड़ी के ऊपर से सुंदर स्विट्जरलैंड का नजारा लीजिए।
जंगफ्रोज- समुद्र तल से ४१५८ मीटर ऊँचाई पर बना यह यूरोप की सबसे ऊँची पर्वत श्रंखला है। इसी के साथ-साथ यहाँ यूरोप का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन भी है। इंटरलेकन स्टेशन से यहाँ के लिए ट्रेन मिलती है। इस ट्रेन से अपना सफर शुरू कर खूबसूरत स्विट्जरलैंड को अपनी आँखों में कैद करते हुए आप जंगफ्रोज पहुँच जाएंगें। बर्फ के पहाड़ों को काटती हुई ऊपर जाती इस ट्रेन से आप नयनाभिराम दृश्य देख और अपने कैमरे में कैद कर सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहाँ आईस स्कींग का लुफ्त उठाया जा सकता है। यहाँ की बर्फ पर पड़ती सूरज की तिरछी किरणों की आभा देखने का आनंद ही कुछ और है।
जंगफ्रोज में बॉलीवुड की इतनी फिल्में फिल्माईं गईं हैं कि यहाँ बॉलीबुड रेस्त्रां ही बना दिया गया है। यह रेस्त्रां १५ अप्रैल से १५ सितंबर के मध्य खुलता है। इसके अलावा आइस पैलेस भी जंगफ्रोज का खास आकर्षण है।
शिल्थॉर्न ग्लेशियर - जंगफ्रोज के अलावा शिल्थॉर्न ग्लेशियर का रास्ता भी इंटरलेकन ओस्ट से होकर जाता है। इसे विश्व के सबसे खूबृसूरत बर्फ के पहाड़ों में शुमार किया जाता है। यहाँ पाइन ग्लोरिया नामक राइड से आप पूरे ग्लेशियर का पैरोनामिक व्यू ले सकते हैं। यहाँ भव्य रेस्टोरेंट की श्रृंखला है। इन पड़ावों पर रुककर आप शिल्थॉर्न की खूबसूरती अपनी आँखों में कैद कर सकते हैं।
टिटलिस पर्वत श्रृंखला- वादियों के इस देश का अगला पड़ाव है टिटलिस पर्वत श्रृंखला। यहाँ आप केबल कार के जिरए पूरे टिटलिस ग्लेशियर का खूबसूरती को निहार सकते हैं। केबल कार के सफर में आप स्विट्जरलैंड से ही जर्मनी के ब्लैक फारेस्ट के नजारे भी देख सकते हैं। इसी के साथ यहाँ के ग्लैशियर पार्क में घूमता मत भूलिएगा। इस पार्क में आइस से जुड़ी कई फन पैक्ड राइड्स हैं। जिनका रोमांच अलग मजा देता है। यह पार्क मई से अक्टूबर के मध्य खुला होता है।
ग्लेशियर ग्रोटो- यदि आप स्विट्जरलैंड जाएँ तो ग्लेशियर ग्रोटो को निहारना मत भूलिएगा। यहाँ बर्फ में बनी सुंदर गुफाएँ हैं। इन गुफाओं की बर्फ की दीवारों पर ८,४५० लेम्पस जगमगाते हैं। यहाँ हॉल ऑफ फेम भी है। जिसमें स्विट्जरलैंड आए प्रमुख हस्तियो के फोटों लगे हैं। यहाँ करिशमा कपूर, वीरेंद्र सहवाग से लेकर कई भारतीय हस्तियों के फोटो पारंपरिक स्विज पोशाक में लगे हुए हैं।
मैटरहार्न- प्राकृतिक सुंदरता के अलावा यदि आप रोमांचक खेलों के शौकीन हैं तो मैटरहार्न जाना मत भूलिएगा। यदि आप खतरों के खिलाड़ी हैं और बेहद नजदीक से ग्लेशियरों का नजारा देखना चाहते हैं तो यहाँ के मैटरहार्न क्लाइंबर्स क्लब की सदस्यता आपका इंतजार कर रही है। यहीं पर यूरोप का सबसे बड़ा आईस स्कींग जोन भी है।
ग्रोरनरग्रेट- फिर ग्रोरनरग्रेट जिसे अल्पाइन का स्वर्ग कहते हैं की खूबसूरती जरूर निहारिए। सर्दियों में बर्फ से ढके रहने वाला यह ग्लेशियर गर्मियों में फूलों की घाटी में बदल जाता है। म्यूजिक लवर्स के लिए रिगी फोलकरोले का सफर बेहद यादगार रहेगा। हर जुलाई में यहाँ स्विज सरकार म्यूजिक प्ले करवाती है। जिसमें सात घंटे तक लगातार लाइव कांसर्ट होते हैं।
रिगी कुलम- यह ग्लेशियर नीली स्याही जैसी झीलों के लिए प्रसिद्द है। यहाँ तक आप ल्यूजरैन शहर से बाय बोट, बाय कार, बाय केबल कार जैसा आप चाहे पहुँच सकते हैं। पहुँचने के बाद स्टीम ट्रेन में सफर करना न भूले। बैली यूरोप सैलून रेल कार नामक यह ट्रेन आपको पचास के दशक के राजसी वैभव का अहसास कराएगी। यहाँ का एंटीक महोगनी फर्नीचर, ब्रांज वर्क, रेड कारपेट और बैकग्राउंड म्यूजिक आपको दूसरी दुनिया में ले जाएंगे।
कब जाएँ -
यूँ तो स्विट्जरलैंड बेहद खूबसूरत देश हैं। कुदरत हर मौसम में यहाँ अलग रंग दिखाती है। लेकिन यदि आप यहाँ जाना चाहते हैं तो ठंड के मौसम में न जाएं। इस मौसम में आप खूबसूरती की सही छटा नहीं देख पाएँगे। खास तौर पर आपका आइस स्कींग का लुफ्त उठाने का सपना अधूरा रह जाएगा।
स्विट्जरलैंड की सैर करते हुए आप जितने प्रयोग करें उतना अच्छा होगा। कहीं आप केबल कार से जाइए। कहीं बोट, कहीं ट्रेन तो कहीं कार से। यहाँ किराए पर सुविधाजनक कारें आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। हर जगह अलग-अलग साधन अपनाने से आप धरती के इस स्वर्ग को बेहद करीब से इसके हर दिलकश रूप में निहार पाएंगें।
स्विट्जरलैंड के बारे में सबसे खास बात यह है कि जितनी खूबसूरती इसे प्रकृति ने बख्शी है उतना ही ध्यान यहां की सरकार भी रखती है। यहाँ के ऊंचे-ऊंचे ग्लेशियरों पर टूरिस्टों से जुड़ी हर सुख-सुविधा है। यहाँ के शहर चाहे वह ज्यूरिच हो, ल्यूजरेन हो या फिर इंटरलेकन हर जगह सर्वसुविधा युक्त टूरिस्ट सेंटर बने हैं। जहाँ से आप टूर्स से संबंधित सारी जानकारी हासिल कर सकते हैं। टूर्स बुक कर सकते हैं।
यूरोप के देश
जर्मन-भाषी देश व क्षेत्र
फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र |
स्विट्ज़रलैंड देश का कोई भी एक प्रान्त कैंटन कहलाता है। इसमें ज़्यादातर एक या दो बड़े शहरों के साथ कई कस्बे और गाँव शामिल होते हैं। हर कैण्टन की अपनी एक या दो राजभाषाएं होती हैं। |
बर्न शहर (अंग्रेज़ी : बर्न ब:(र्) न, फ़्रांसिसी : बर्न बॅर्न, जर्मन : बर्न बॅर्न) स्विट्ज़रलैंड देश की राजधानी है। इसकी दो राजभाषाएँ हैं : जर्मन और फ़्रांसिसी।
ये भी देखें
स्विट्ज़रलैंड के शहर
यूरोप में राजधानियाँ |
१ अगस्त ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 2१3वॉ (लीप वर्ष मे 2१4 वॉ) दिन है। साल मे अभी और १52 दिन बाकी है।
१८३१ - लंदन ब्रिज को यातायात के लिए खोल दिया गया।
१८८३ - ग्रेट ब्रिटेन में अंतर्देशीय डाक सेवा शुरु की गई।
१९१४ - जर्मनी द्वारा रूस पर हमले के साथ प्रथम विश्वयुद्ध की शरुआत।
१९१६ - महिला अधिकारों की समर्थक तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष एनी बेसेंट ने होम रूल लीग की शुरुआत की।
महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की।
महात्मा गांधी ने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त केसर-ए-हिंद की उपाधि लौटाा दी।
भारत में सभी एयरलाइंसों का हवाई निगम अधिनियम के तहत राष्ट्रीयकरण किया गया।
क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो को गिरफतार कर लिया गया।
१९५७ - नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना हुई।
१९६० - इस्लामाबाद को पाकिस्तान की संघीय राजधानी घोषित किया गया।
१९७५ - भारत की दर्बा बनर्जी व्यावसायिक यात्री विमान उड़ाने वाली विश्व की पहली महिला पायलट बनीं।
२००६ - जापान ने दुनिया की पहली भूकम्प पूर्व चेतावनी सेवा शुरू की।
२०१०- अनुषा रिजवी द्वारा निर्देशित किसानों की आत्महत्या और मीडिया तथा राजनीतिक ड्रामे पर आधारित पीपली लाइव को ३१वें डरबन अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार प्रदान किया गया।
२०१८ को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद में विशेष समारोह में वर्ष २०१३ से २०१७ के लिए उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार प्रदान किए। यह पुरस्कार २०१३ के लिए नजमा हेबतुल्ला, २०१४ के लिए हुक्मदेव नारायण यादव, २०१५ के लिए गुलाम नबी आज़ाद, २०१६ के लिए दिनेश त्रिवेदी और २०१७ के लिए भर्तृहरि मेहताब को दिए गए।
१८८२ - पुरुषोत्तम दास टंडन - स्वतंत्रता सेनानी
१८९९ - कमला नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पत्नी)
भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी मुहम्मद निसार का जन्म १ अगस्त १9१0 को हुआ था.
प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता एवं फ़िल्म निर्माता-निर्देशक भगवान दादा का जन्म १ अगस्त १9१3 को हुआ था.
१९२१ - जैक क्रेमर - अमरीकी टेनिस खिलाड़ी
१९३२ - मीना कुमारी
१९७२ - मार्टिन डैम - युगल टेनिस खिलाड़ी
१९५५ - अरुण लाल - पूर्व भारतीय क्रिकेटर
१९३९ - गोविन्द मिश्र -प्रसिद्ध साहित्यकार
१९३२ - मीना कुमारी - फ़िल्म अभिनेत्री
१९२४ - फ्रैंक वोरेल - वेस्ट इंडीज के पूर्व क्रिकेटर
* १९२४ - शाह अब्दुल्ला - सऊदी अरब के राजा।
१९१० - मुहम्मद निसार - भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी
१८६९ - हरकोर्ट बटलर - उत्तर प्रदेश के प्रथम राज्यपाल थे।
१९१३ - देवकीनन्दन खत्री (हिन्दी के महान और प्रथम तिलस्मी लेखक)
१९२० - बाल गंगाधर तिलक (भारतीय समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी)
प्रसिद्ध तबला वादक पंडित कण्ठे महाराज का निधन १ अगस्त १970 को हुआ था.
१९९९ - एन.सी. चौधरी (बंगाली तथा अंग्रेजी लेखक)
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध शायर अली सरदार जाफ़री का निधन १ अगस्त २००० को हुआ था.
भारतीय राजनेता हरकिशन सिंह सुरजीत का निधन १ अगस्त २००८ को हुआ था.
२०२० - अमर सिंह(राजनेता) - भारतीय राजनीतिज्ञ थे, जिनका सम्बंध समाजवादी पार्टी से था।
२०१८ - भीष्म नारायण सिंह - भारतीय राजनीतिज्ञ थे, जो असम और मेघालय के राज्यपाल रहे।
२००८ - हरकिशन सिंह सुरजीत, भारतीय राजनेता।
२००१ - बेगम ऐज़ाज़ रसूल - भारतीय संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं।
२००० - अली सरदार जाफ़री, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध शायर।
१९९९ - नीरद चन्द्र चौधरी - भारत में जन्मे प्रसिद्ध बांग्ला तथा अंग्रेज़ी लेखक और विद्वान।
१९६९ - कांठे महाराज - भारत के प्रसिद्ध तबला वादकों में से एक थे।
१९२० - बाल गंगाधर तिलक, विद्वान, गणितज्ञ, दार्शनिक और भारतीय राष्ट्रवादी नेता
१९१३ - देवकीनन्दन खत्री - हिन्दी के महान् और प्रथम तिलिस्मी लेखक।
१८६३ - ज़िन्दाँ रानी - सरदार मन्ना सिंह औलख जाट की पुत्री थी। पंजाब के महाराज रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थी।
१५९१ - उर्फ़ी शीराजी - मुग़ल दरबार में बादशाह अकबर के प्रसिद्ध कवियों में से एक था।
आज का दिन
विश्व स्तनपान दिवस (सप्ताह) |
मह्ल (, माहल) या महल या दिवेही एक हिन्द-आर्य भाषा है जो भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित मालदीव द्वीपसमूह में और भारत के लक्षद्वीप संघीय-क्षेत्र के मिनिकॉय द्वीप पर बोली जाती है। मह्ल और श्रीलंका में बोली जाने वाली सिंहली भाषा एक दूसरे के काफ़ी क़रीब हैं और इन्हें हिन्द-आर्य भाषा-परिवार के अधीन कभी-कभी 'द्वीपीय हिन्द-आर्य' नामक शाखा में डाल दिया जाता है।
इन्हें भी देखें
भारत की भाषाएँ
मालदीव की भाषाएँ
लक्षद्वीप की भाषाएँ |
मलिक (मह्ल: ; ) भारतीय द्वीपसमूह लक्षद्वीप का सबसे दक्षिण में स्थित एटोल है। प्रशासकीय दृष्टि से यह केन्द्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप का कस्बा है।
यहां मौसम बेधशाला एवं प्रकाश स्तम्भ स्थित है।
मलिक (मिनिकॉय) का प्राचीन नाम महिलादू था जो महिला और दू (द्वीप) की सन्धि से बना है अर्थात महिलाओं का द्वीप। हालांकि, मिनिकॉय को आज स्थानीय भाषा में मलिक कहा जाता है। मलिक शब्द की व्युत्पति द्वीप पर आने वाले अरबी व्यापारियों से सम्बंधित मानी जाती है।
मिनिकॉय द्वीपसमूह लम्बे समय से बंगाल की खाड़ी के निकोबार द्वीपसमूह द्वारा शासित रहे हैं। वहाँ के उपनिवेशक लगातार मिनिकॉय की यात्रा करते रहे हैं।
एक बार एक ब्रितानी अधिकारी ने मिनिकॉय निवासी से पूछा कि उनके द्वीप का नाम क्या था। द्वीपवासी ने अधिकारी को बताया कि वो मलिक से हैं लेकिन सामान्यतः "मिनिका-राज्जे" (निकोबार) में रहते हैं। आधिकारिक विचारों के अनुसार मलिक और मिनिका एक हीइ स्थान के नाम थे और इस द्वीपवासी का घर मिनिका के रूप में लिखा। बाद में इसका आँग्लीकरण मिनिकॉय के रूप में हो गया।
मिनिकॉय, लक्षद्वीप मण्डल का सबसे दक्षिणी और दूसरा सबसे बड़ा द्वीप है। यह कल्पेनी से २०१ किमी दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में, नौ डिग्री चैनल का सबसे दक्षिणी सीरे पर और थुराकुनु, मालदीव से १२५ किमी उत्तर में स्थित है। इसकी अदल लम्बाई १० किमी और अधिकत्तम चौड़ाई ६ किमी है। इसके निकटतम भौगोलिक सुविधा इन्वेस्टिगेटर बैंक है जो इसके उत्तर-पूर्व में ३१ किमी जलमग्न रेती पर स्थित है।
मिनिकॉय में कुल ११ गाँव हैं। उत्तर से दक्षिण तक वो निम्न प्रकार हैं:
मिनिकॉय वर्षभर में गर्म ताप के साथ उष्णकटिबंधीय सवाना जलवायु (कोपेन का जलवायु वर्गीकरण अव) क्षेत्र में आता है। वर्षभर वर्षा भी होती रहती है; केवल जनवरी से मार्च का समय तुलनात्मक रूप से शुष्क होते हैं।
२००१ की जनगणना के अनुसार मिनिकॉय द्वीप की कुल जनसंख्या ९,४९५ थी। इसमें ४९% पुरुष और ५१% महिलायें थीं। मिनिकॉय की औसत साक्षरता दर ८२% रहा जो भारत के राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक है। वहाँ पुरुष साक्षरता ८४% एवं महिला साक्षरता ८०% रही। मिनिकॉय की कुल जनसंख्या का १२% भाग ६ वर्ष से कम आयु के बच्चे हैं।
लक्षद्वीप के द्वीप
भारत के द्वीप
लक्षद्वीप के नगर |
येशु या येशु मसीह प्रथम शताब्दी के यहूदी उपदेशक और धार्मिक नेता थे। वह विश्व के वृहत्तम धर्म ईसाई धर्म के केन्द्रीय व्यक्ति हैं। अधिकांश ईसाई मानते हैं कि वह पुत्र ईश्वर के अवतार है और इब्रानी बाइबल में प्रतीक्षित मसीहा की भविष्यवाणी की गई है।
प्राचीन काल के लगभग सभी आधुनिक विद्वान येशु के ऐतिहासिक अस्तित्व की सत्यता पर सहमत हैं। ऐतिहासिक येशु में अनुसन्धान ने गॉस्पलों की ऐतिहासिक विश्वसनीयता पर कुछ अनिश्चितता उत्पन्न की है और नए नियम में येशु को कितनी ध्यान से चित्रित किया गया है, ऐतिहासिक येशु को दर्शाता है, क्योंकि येशु के जीवन का एकमात्र विस्तृत अभिलेख गॉस्पेलों में निहित है। येशु एक गालीलियन यहूदी था जिनका शिश्नाग्र चर्मछेदन हुआ था, योह्या द्वारा बपतिस्मा लिया गया था, और अपनी स्वयं की परिचर्या शुरू की थी। उनकी शिक्षाओं को शुरू में मौखिक प्रसारण द्वारा संरक्षित किया गया था और उन्हें अक्सर "रब्बी" कहा जाता था। येशु ने साथी यहूदियों के साथ इस बात पर बहस की कि कैसे परमेश्वर का सर्वोत्तम अनुसरण किया जाए, चंगाई में लगे हुए, दृष्टान्तों में सिखाया गया और अनुयायियों को इकट्ठा किया। उन्हें यहूदी अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया, रोमन सरकार को सौंप दिया गया, और यरूशलेम के रोमन प्रीफेक्ट पोन्तियोस पिलातुस के आदेश पर क्रूस पर चढ़ाया गया। उनकी मृत्यु के बाद, उनके अनुयायियों का मानना था कि वह मृतकों में से जी उठे, और उन्होंने जो समुदाय बनाया वह अंततः प्रारंभिक ईसाई चर्च बन गया।
येशु अन्य धर्मों में भी पूजनीय हैं। इस्लाम में, येशु (अक्सर उनके क़ुरानीय नाम ईसा द्वारा जाने जाते हैं) को ईश्वर और मसीहा का अन्तिम पैगंबर माना जाता है। मुसलमानों का मानना है कि येशु का जन्म कुंवारी मरियम (इस्लाम में सम्मानित एक अन्य व्यक्ति) से हुआ था, लेकिन वह न तो ईश्वर थे और न ही ईश्वर का पुत्र थे; क़ुरान कहता है कि येशु ने कभी भी दिव्य होने का दावा नहीं किया। अधिकांश मुस्लिम यह नहीं मानते कि उन्हें मार दिया गया या उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया, लेकिन यह कि ईश्वर ने उन्हें जीवित रहते हुए स्वर्ग लोक में आरोहित किया। इसके विपरीत, यहूदी धर्म इस विश्वास को खारिज करता है कि येशु प्रतीक्षित मसीहा थे, यह तर्क देते हुए कि उन्होंने मसीहा की भविष्यवाणियों को पूरा नहीं किया, और न ही दिव्य थे और न ही पुनर्जीवित हुए।
जन्म और बचपन
बाइबिल के अनुसार ईसा की माता मरियम गलीलिया प्रांत के नाज़रेथ गाँव की रहने वाली थीं। उनकी सगाई दाऊद के राजवंशी यूसुफ नामक बढ़ई से हुई थी। विवाह के पहले ही वह कुँवारी रहते हुए ही ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गईं। ईश्वर की ओर से संकेत पाकर यूसुफ ने उन्हें पत्नीस्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार जनता ईसा की अलौकिक उत्पत्ति से अनभिज्ञ रही। विवाह संपन्न होने के बाद यूसुफ गलीलिया छोड़कर यहूदिया प्रांत के बेथलेहेम नामक नगरी में जाकर रहने लगे, वहाँ ईसा का जन्म हुआ। शिशु को राजा हेरोद के अत्याचार से बचाने के लिए यूसुफ मिस्र भाग गए। हेरोद ४ ई.पू. में चल बसे अत: ईसा का जन्म संभवत: ४ ई.पू. में हुआ था। हेरोद के मरण के बाद यूसुफ लौटकर नाज़रेथ गाँव में बस गए। ईसा जब बारह वर्ष के हुए, तो यरुशलम में तीन दिन रुककर मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्न करते हुए पाया।
लूका २:४७ और जिन्होंने उन को सुना वे सब उनकी समझ और उनके उत्तरों से चकित थे। तब ईसा अपने माता पिता के साथ अपना गांव वापिस लौट गए। ईसा ने यूसुफ का पेशा सीख लिया और लगभग ३० साल की उम्र तक उसी गाँव में रहकर वे बढ़ई का काम करते रहे। बाइबिल (इंजील) में उनके १३ से २9 वर्षों के बीच का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। ३० वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से पानी में डुबकी (दीक्षा) ली। डुबकी के बाद ईसा पर पवित्र आत्मा आया। ४० दिन के उपवास के बाद ईसा लोगों को शिक्षा देने लगे।
हेरोदेस राजा के दिनों में जब यहूदिया के बैतलहम में यीशु का जन्म हुआ, तो देखो, पूर्व से कई ज्योतिषी यरूशलेम में आकर पूछने लगे।
कि यहूदियों का राजा जिस का जन्म हुआ है, कहां है? क्योंकि हम ने पूर्व में उसका तारा देखा है और उस को प्रणाम करने आए हैं।
यह सुनकर हेरोदेस राजा और उसके साथ सारा यरूशलेम घबरा गया।
और उस ने लोगों के सब महायाजकों और शास्त्रियों को इकट्ठे करके उन से पूछा, कि मसीह का जन्म कहाँ होना चाहिए?
उन्होंने उस से कहा, यहूदिया के बैतलहम में; क्योंकि भविष्यद्वक्ता के द्वारा यों लिखा है।
कि हे बैतलहम, जो यहूदा के देश में है, तू किसी रीति से यहूदा के अधिकारियों में सब से छोटा नहीं; क्योंकि तुझ में से एक अधिपति निकलेगा, जो मेरी प्रजा इस्राएल की रखवाली करेगा।
तब हेरोदेस ने ज्योतिषियों को चुपके से बुलाकर उन से पूछा, कि तारा ठीक किस समय दिखाई दिया था।
और उस ने यह कहकर उन्हें बैतलहम भेजा, कि जाकर उस बालक के विषय में ठीक ठीक मालूम करो और जब वह मिल जाए तो मुझे समाचार दो ताकि मैं भी आकर उस को प्रणाम करूं।
वे राजा की बात सुनकर चले गए और देखो, जो तारा उन्होंने पूर्व में देखा था, वह उन के आगे आगे चला और जंहा बालक था, उस जगह के ऊपर पंहुचकर ठहर गया॥
उस तारे को देखकर वे अति आनन्दित हुए।
और उस घर में पहुंचकर उस बालक को उस की माता मरियम के साथ देखा और मुंह के बल गिरकर उसे प्रणाम किया; और अपना अपना यैला खोलकर उसे सोना और लोहबान और गन्धरस की भेंट चढ़ाई।
और स्वप्न में यह चितौनी पाकर कि हेरोदेस के पास फिर न जाना, वे दूसरे मार्ग से होकर अपने देश को चले गए॥
उन के चले जाने के बाद देखो, प्रभु के एक दूत ने स्वप्न में यूसुफ को दिखाई देकर कहा, उठ; उस बालक को और उस की माता को लेकर मिस्र देश को भाग जा; और जब तक मैं तुझ से न कहूं, तब तक वहीं रहना; क्योंकि हेरोदेस इस बालक को ढूंढ़ने पर है कि उसे मरवा डाले।
वह रात ही को उठकर बालक और उस की माता को लेकर मिस्र को चल दिया।
और हेरोदेस के मरने तक वहीं रहा; इसलिये कि वह वचन जो प्रभु ने भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा था कि मैं ने अपने पुत्र को मिस्र से बुलाया पूरा हो।
जब हेरोदेस ने यह देखा, कि ज्योतिषियों ने मेरे साथ ठट्ठा किया है, तब वह क्रोध से भर गया; और लोगों को भेजकर ज्योतिषियों से ठीक ठीक पूछे हुए समय के अनुसार बैतलहम और उसके आस पास के सब लड़कों को जो दो वर्ष के, वा उस से छोटे थे, मरवा डाला।
तब जो वचन यिर्मयाह भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा गया था, वह पूरा हुआ,
कि रामाह में एक करूण-नाद सुनाई दिया, रोना और बड़ा विलाप, राहेल अपने बालकों के लिये रो रही थी और शान्त होना न चाहती थी, क्योंकि वे हैं नहीं॥
हेरोदेस के मरने के बाद देखो, प्रभु के दूत ने मिस्र में यूसुफ को स्वप्न में दिखाई देकर कहा।
कि उठ, बालक और उस की माता को लेकर इस्राएल के देश में चला जा; क्योंकिं जो बालक के प्राण लेना चाहते थे, वे मर गए।
वह उठा और बालक और उस की माता को साथ लेकर इस्राएल के देश में आया।
परन्तु यह सुनकर कि अरिखलाउस अपने पिता हेरोदेस की जगह यहूदिया पर राज्य कर रहा है, वहां जाने से डरा; और स्वप्न में चितौनी पाकर गलील देश में चला गया।
और नासरत नाम नगर में जा बसा; ताकि वह वचन पूरा हो, जो भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा कहा गया था, कि वह नासरी कहलाएगा॥
और बालक बढ़ता और बलवन्त होता और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।
उसके माता-पिता प्रति वर्ष फसह के पर्व में यरूशलेम को जाया करते थे।
जब वह बारह वर्ष का हुआ, तो वे पर्व की रीति के अनुसार यरूशलेम को गए।
और जब वे उन दिनों को पूरा करके लौटने लगे, तो वह लड़का यीशु यरूशलेम में रह गया; और यह उसके माता-पिता नहीं जानते थे।
वे यह समझकर, कि वह और यात्रियों के साथ होगा, एक दिन का पड़ाव निकल गए: और उसे अपने कुटुम्बियों और जान-पहचानों में ढूंढ़ने लगे।
पर जब नहीं मिला, तो ढूंढ़ते-ढूंढ़ते यरूशलेम को फिर लौट गए।
और तीन दिन के बाद उन्होंने उसे मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्न करते हुए पाया।
और जितने उस की सुन रहे थे, वे सब उस की समझ और उसके उत्तरों से चकित थे।
तब वे उसे देखकर चकित हुए और उस की माता ने उस से कहा; हे पुत्र, तू ने हम से क्यों ऐसा व्यवहार किया? देख, तेरा पिता और मैं कुढ़ते हुए तुझे ढूंढ़ते थे।
उस ने उन से कहा; तुम मुझे क्यों ढूंढ़ते थे? क्या नहीं जानते थे, कि मुझे अपने पिता के भवन में होना अवश्य है?
परन्तु जो बात उस ने उन से कही, उन्होंने उसे नहीं समझा।
तब वह उन के साथ गया और नासरत में आया और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं॥
और यीशु बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया॥
छठवें महीने में परमेश्वर की ओर से जिब्राईल स्वर्गदूत गलील के नासरत नगर में एक कुंवारी के पास भेजा गया।
जिस की मंगनी यूसुफ नाम दाऊद के घराने के एक पुरूष से हुई थी: उस कुंवारी का नाम मरियम था।
और स्वर्गदूत ने उसके पास भीतर आकर कहा; आनन्द और जय तेरी हो, जिस पर ईश्वर का अनुग्रह हुआ है, प्रभु तेरे साथ है।
वह उस वचन से बहुत घबरा गई और सोचने लगी, कि यह किस प्रकार का अभिवादन है?
स्वर्गदूत ने उस से कहा, हे मरियम; भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है।
और देख, तू गर्भवती होगी और तेरे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम यीशु रखना।
वह महान होगा; और परमप्रधान का पुत्र कहलाएगा; और प्रभु परमेश्वर उसके पिता दाऊद का सिंहासन उस को देगा।
और वह याकूब के घराने पर सदा राज्य करेगा; और उसके राज्य का अन्त न होगा।
मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, यह क्योंकर होगा? मैं तो पुरूष को जानती ही नहीं।
स्वर्गदूत ने उस को उत्तर दिया; कि पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा और परमप्रधान की सामर्थ तुझ पर छाया करेगी इसलिये वह पवित्र जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा।
यीशु ने और भी बहुत चिन्ह चेलों के साम्हने दिखाए, जो इस पुस्तक (बाईबल) में लिखे नहीं गए। परन्तु ये इसलिये लिखे गए हैं, कि तुम विश्वास करो, कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है: और विश्वास कर के उसके नाम से जीवन पाओ।( यूहन्ना २०:३०,३१)। यह बहुत अच्छे इंसान थे जिसके सिर पर हाथ वह धन्य हो जाता था येशु ने अपने जीवन में अनगिनत चमत्कार किये जो पृथ्वी पर किसी और के लिए नामुमकिन थे
तीस साल की उम्र में ईसा ने इस्राइल की जनता को यहूदी धर्म का एक नया रूप प्रचारित करना शुरु कर दिया। उस समय तीस साल से कम उम्र वाले को सभागृह मे शास्त्र पढ़ने के लिए और उपदेश देने के लिए नही दिया करते थे। उन्होंने कहा कि ईश्वर (जो केवल एक ही है) साक्षात प्रेमरूप है और उस वक़्त के वर्त्तमान यहूदी धर्म की पशुबलि और कर्मकाण्ड नहीं चाहता। यहूदी ईश्वर की परमप्रिय नस्ल नहीं है, ईश्वर सभी मुल्कों को प्यार करता है। इंसान को क्रोध में बदला नहीं लेना चाहिए और क्षमा करना सीखना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वे ही ईश्वर के पुत्र हैं, वे ही मसीह हैं और स्वर्ग और मुक्ति का मार्ग हैं। यहूदी धर्म में क़यामत के दिन का कोई ख़ास ज़िक्र या महत्त्व नहीं था, पर ईसा ने क़यामत के दिन पर ख़ास ज़ोर दिया - क्योंकि उसी वक़्त स्वर्ग या नर्क इंसानी आत्मा को मिलेगा। ईसा ने कई चमत्कार भी किए।
विरोध, मृत्यु और पुनरुत्थान
यहूदियों के कट्टरपन्थी रब्बियों (धर्मगुरुओं) ने ईसा का भारी विरोध किया। उन्हें ईसा में मसीहा जैसा कुछ ख़ास नहीं लगा। उन्हें अपने कर्मकाण्डों से प्रेम था। ख़ुद को ईश्वरपुत्र बताना उनके लिये भारी पाप था। इसलिये उन्होंने उस वक़्त के रोमन गवर्नर पिलातुस को इसकी शिकायत कर दी। रोमनों को हमेशा यहूदी क्रान्ति का डर रहता था। इसलिये कट्टरपन्थियों को प्रसन्न करने के लिए पिलातुस ने ईसा को क्रूस (सलीब) पर मौत की दर्दनाक सज़ा सुनाई।
बाइबल के मुताबिक़, रोमी सैनिकों ने ईसा को कोड़ों से मारा। उन्हें शाही कपड़े पहनाए, उनके सर पर कांटों का ताज सजाया और उनपर थूका और ऐसे उन्हें तौहीन में "यहूदियों का बादशाह" बनाया। पीठ पर अपना ही क्रूस उठवाके, रोमियों ने उन्हें गल्गता तक लिया, जहां पर उन्हें क्रूस पर लटकाना था। गल्गता पहुंचने पर, उन्हें मदिरा और पित्त का मिश्रण पेश किया गया था। उस युग में यह मिश्रण मृत्युदंड की अत्यंत दर्द को कम करने के लिए दिया जाता था। ईसा ने इसे इंकार किया। बाइबल के मुताबिक़, ईसा दो चोर के बीच क्रूस पर लटकाया गया था।
ईसाइयों का मानना है कि क्रूस पर मरते समय ईसा मसीह ने सभी इंसानों के पाप स्वयं पर ले लिए थे और इसलिए जो भी ईसा में विश्वास करेगा, उसे ही स्वर्ग मिलेगा। मृत्यु के तीन दिन बाद ईसा वापिस जी उठे और ४० दिन बाद सीधे स्वर्ग चले गए। ईसा के १२ शिष्यों ने उनके नये धर्म को सभी जगह फैलाया। यही धर्म ईसाई धर्म कहलाया।
इन्हें भी देखें
यीशु का सुसमाचार
ईसा इब्न मरियम
इस्लाम में यीशु
मरियम (ईसा मसीह की माँ)
सम्पूर्ण हिन्दी बाइबल (ऑनलाइन पुस्तक) |
मुसलमान (अरबी: फ़ारसी: , अंग्रेजी: मुस्लिम) का मतलब वह व्यक्ति है जो इस्लाम में विश्वास रखता हो। हालाँकि मुसलमानों की आस्था के अनुसार इस्लाम ईश्वर का धर्म है और यह धर्म हज़रत मुहम्मद से पहले मौजूद था। जो लोग अल्लाह के धर्म का पालन करते रहे वह मुसलमान हैं। जैसे कुरान के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम भी मुसलमान थे। मगर आजकल मुसलमान का मतलब उसे लिया जाता है जो हज़रत मुहम्मद लाए हुए दीन का पालन करता हो और विश्वास रखता हो। मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने भारत को हिन्द अथवा हिन्दोस्ताँ कहा है।
मुख्य इस्लामी धर्म
मुसलमान यह स्वीकार करते हैं कि अल्लाह अकेला परवरदिगार है और हज़रत मुहम्मद (स) अल्लाह के प्रेषित (रसूल) हैं। इस तरीके से कोई भी व्यक्ति इस्लाम में जाता है। जब हज़रत मोहम्मद(स) को अल्लाह का रसूल मान ले तो उस पर वाजिब हो जाता है कि उनकी हर बात पर विश्वास रखे और अमल करने की कोशिश करे। जैसे उन्होंने कहा कि मेरे बाद कोई नबी नहीं और वे परमेश्वर के अन्तिम रसूल हैं तो इस बात पर विश्वास रखना इस्लाम के एकाधिकार में है। इस्लाम के मुख्य धर्म जिन पर मुसलमानों के किसी समुदाय में कोई मतभेद नहीं, निम्नलिखित हैं
अल्लाह एकमात्र परमेश्वर है। इसके अलावा कोई पूजा के योग्य नहीं।
हज़रत मुहम्मद (स) अल्लाह के सबसे प्यारे और अन्तिम रसूल हैं।
नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज,कलमा
कुरान अल्लाह की किताब है और उसका हर शब्द और अक्षर अल्लाह से है।
क़यामत और हिसाब और किताब यानी हयात बाद (बाद अल मौत) पर विश्वास।
फ़रिशतों, पूर्व अम्बिया (नबी का बहुवचन) और पुस्तकों पर विश्वास।
उपरोक्त बातों पर विश्वास करने को मुसलमान कहते हैं। उनके अलावा अन्य मतभेद फरोइई और राजनीतिक हैं।
इन्हें भी देखें |
यरुशलम (, अरबी : अल-क़ुद्स) एक अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र है।
फिलिस्तीन द्वारा यरुशलम को अपने देश की राजधानी होने का दावा किया जाता है। ये यहूदी पन्थ, ईसाई पन्थ और इस्लाम पन्थ, तीनों की पवित्र नगरी है। येरुशलम फिलीस्तीन देश का केन्द्र और राजधानी रहा है। यहीं मुसलमानों का परमपवित्र अल-अक्सा मस्जिद है। ये शहर ईसा मसीह की कर्मभूमि रहा है। यहीं से हज़रत मुहम्मद पैगंबर, मेराज के सफर पर गए थे।
राजधानी होने के अलावा यह एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल भी है। इस शहर में १५८ गिरिजाघर तथा ७३ मस्जिदें स्थित हैं। इन गिरिजाघरों और मस्जिदों के अलावा भी यहाँ देखने लायक बहुत कुछ है। , अल अक्सा मस्जिद, कुब्बत अल-सख़रा, मुसाला मरवान, वेस्टर्न वॉल, डेबिडस गुम्बद आदि। यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।
इस म्यूजियम में प्रवेश का कोई शुल्क नहीं है। दस वर्ष से कम उम्र के बच्चों को म्यूजियम के सभी भागों में प्रवेश की अनुमति नहीं है।
यह अभ्यारण जेरुसलम के पुराने शहर के मुस्लिम भाग में स्थित है। शहर के इस भाग में मुस्लिम काल के उम्मैयद शासन से लेकर ऑटोमन शासन के दौरान बनी महत्वपूर्ण इमारतों को देखा जा सकता है। यह भाग उस समय से लेकर आज तक मुस्लिम धर्म की शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र बना हुआ है। यह अभ्यारण ३५ एकड़ क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इस अभ्यारण में फव्वारे, बगीचे, गुम्बद आदि बने हुए हैं।
इसी मस्जिद से इस्लाम धर्म की उत्पति मानी जाती है। माना जाता है कि इसी स्थान से इस्लाम धर्म के पैंगम्बर मुहम्मद (सल्लाहो अलैहि वसल्लम) स्वर्ग के लिए प्रस्थान किए थे। जो की कुरान में मौजूद है ई (सूरा अल इसरा आयात १) यह मुसलमानो की बहुत पुराणी मस्जिद है. यह मुसलमानों के लिए दूसरा सबसे पवित्र स्थल है.
जिसका नाम अभी तक अक्सा मस्जिद है जो की कुरान शरीफ में मौजूद है
कुव्वत अल सकारा
यह इमारत नोबेल अभ्यारण के मध्य में अल-अक्सा मस्जिद के विपरीत दिशा में स्थित है। यह जेरुसलम का सबसे महत्वपूर्ण भाग माना जाता है। इस इमारत का गुंबद सोने का बना हुआ है। इस इमारत का दीवाल अष्टकोणीय है। इसको अरबी शैली में सजाया गया है।
इस म्यूजियम में प्राचीनतम ग्रंथ रखे हुए हैं। इजरायल म्यूज़ियम में प्राचीन शहर का मॉडल भी रखा हुआ है। इसमें पुरातात्विक वस्तुओं का भी अच्छा संग्रह है। इस म्यूजियम का अधिकांश भाग २०१० ई. तक पुर्नर्निमाण कार्यों के कारण आम जनता के लिए बंद कर दिया गया है।
यह संरचना नोबेल अभ्यारण के दक्षिणी भाग में स्थित है। यह भवन ८वीं सदी में उम्मैयद शासन में बनवाया गया था। इस इमारत का प्रयोग में वर्तमान में नमाज पढ़ने के लिए किया जाता है।
बाइबिल में इसका उल्लेख प्रथम मंदिर के नाम से मिलता है। इस मंदिर का निर्माण १०वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था। लेकिन बेबीलोन के शासकों ने ५८६ ई. में इसे तोड़ डाला था। बाद में इस मंदिर का पुर्नर्निमाण किया गया। आज भी इस मंदिर के अवशेषों को देखा जा सकता है। यह मंदिर हिब्रू संप्रदाय से संबंधित है।
इसे कोटेल के नाम से भी जाना जाता है। यह जेरुसलम के पुराने शहर में स्थित है। यह वॉल ईसाई धर्म से संबंधित है। इसका निर्माण १९ ई. के करीब हुआ था।
यह गुम्बद पुराने शहर में जियोन पहाड़ी पर बना हुआ है। हिब्रू बाइबिल के अनुसार डेविड को यहीं पर दफनाया गया था।
हवाई जहाज द्वारा जेरुसलम जाना सबसे सुगम माना जाता है। वेन गुरियन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा यहाँ का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है। यह हवाई अड्डा विश्व के प्रमुख देशों से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
एशिया में राजधानियाँ |
यहूदी जाति 'यहूदी' का मौलिक अर्थ है- येरूशलेम के आसपास के 'यूदा' नामक प्रदेशों का निवासी। यह प्रदेश याकूब के पुत्र यूदा के वंश को मिला था। बाइबिल में 'यहूदी' के निम्नलिखित अर्थ मिलते हैं- याकूब का पुत्र यहूदा, उनका वंश, उनकर प्रदेश, कई अन्य व्यक्तियों के नाम।
यूदा प्रदेश के निवासी प्राचीन इजरायल के मुख्य ऐतिहासिक प्रतिनिधि बन गए थे, इस कारण समस्त इजरायली जाति के लिये यहूदी शब्द का प्रयोग होने लगा। इस जाति का मूल पुरूष अब्राहम थे, अत: वे 'इब्रानी' भी कहलाते हैं। याकूब का दूसरा नाम था इजरायल, इस कारण 'इब्रानी' और 'यहूदी' के अतिरक्ति उन्हें 'इजरायली' भी कहा जाता है।
यहूदी धर्म को मानने वालों को यहूदी (:एन:ज्यू) कहा जाता है। यहूदियों का निवास स्थान पारंपरिक रूप से पश्चिम एशिया में आज के इसरायल को माना जाता है जिसका जन्म १९४७ के बाद हुआ। मध्यकाल में ये यूरोप के कई क्षेत्रों में रहने लगे जहाँ से उन्हें उन्नीसवीं सदी में निर्वासन झेलना पड़ा और धीरे-धीरे विस्थापित होकर वे आज मुख्यतः इसरायल तथा अमेरिका में रहते हैं। इसरायल को छोड़कर सभी देशों में वे एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में रहते हैं। इन्का मुख्य काम व्यापार है।
यहूदी धर्म को इसाई और इस्लाम धर्म का पूर्ववर्ती कहा जा सकता है। इन तीनों धर्मों को संयुक्त रूप से 'इब्राहिमी धर्म' भी कहते हैं। यहूदी धर्म एक प्र।चीन है कुछ सही है
यहूदियों की आबादी वाले देश
इन्हें भी देखें |
हिन्दुस्तान (अथवा 'हिन्दोस्तान' या 'हिन्द') भारत देश का कई भाषाओं (जैसे, उर्दू, हिन्दी, अरबी, फ़ारसी, संताली इत्यादि) में अनाधिकारिक लेकिन विख्यात नाम है।
आजकल अरब देशों और ईरान में "हिन्दुस्तान" शब्द भारतीय उपमहाद्वीप के लिये प्रयुक्त होता है और भारत गणराज्य को हिन्द (अरबी : अल-हिन्द) कहा जाता है। हिंदुस्तान एवं हिन्द शब्द का प्रयोग अक्सर अरबी एवं ईरानी किआ करते थे।।
हिंदुस्तान शब्द का इतिहास हिन्दुकुश पहाड़ियों से भी जुड़ा हुआ है। हिन्दू कुश की पहाड़ियों के पीछे की जगह को ही हिंदुस्तान कहा जाता था। जब मुगल भारत में आए तो उससे पहले उन्हें इन पहाड़ियों का सामना करना पड़ा था।
हिंदुस्तान शब्द का एक और स्रोत माना जाता है। इसके अनुसार ईरानी (पर्शिया) का शब्द 'हिन्दू' एवं संस्कृत के शब्द सिन्धु से भी हिन्दुस्तान शब्द की उत्पत्ति हुई हो सकती है।
ये भी कहा जाता है कि जब दरिउस (डैरियस ई) प्रथम ने जब सिन्धु घाटी पर अधिकार किया तो उसने सिन्धु नदी के पीछे वाली भूमि को हिन्दुस्तान कहकर पुकारा। शायद मध्य पर्शियाई काल में प्रत्यय 'स्तान' भी हिन्दू के साथ जोड़ दिया गया होगा और फिर दोनों शब्दों के योग से बना शब्द - हिन्दुस्तान।
हिन्दुस्तान शब्द के अनेक अलग अलग अर्थ हैं। हालाँकि ऐतिहासिक तौर पर ये प्रमुख रूप से गंगा के मैदानों के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। आज के समय में हिंदुस्तान शब्द केवल भारत के लिए प्रयोग किया जाता है, हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग भारतीयों के लिए किआ जाता है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों।
प्रायः बंगाल के निवासी हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग उपरी गंगा के मैदानों में रहेने वालों के लिया करते हैं।
हिन्दुस्तानी शब्द कई बार मॉरीशस और सूरीनाम में रह रहे भारतियों मूल के निवासियों के लिए किया जाता है। जैसे डच शब्द हिंद्वेस्टनें दक्षिण एशियाई लोगों के लिए किआ जाता है।
पाकिस्तान के निवासी हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग 'भारत' के लिए करते हैं। भारत में भी लोग हिन्दुस्तान शब्द का खूब प्रयोग करते हैं।
हिन्दुस्तानी भाषा हिंदी
हिन्दुस्तानी शब्द हिंदुस्तान एवं पाकिस्तान के निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के लिए किया जाता है जिसमे हिंदी, उर्दू एवं अन्य भाषओं तथा कूच बोलियों के लिए किया जाता है। हिन्दुस्तानी भाषा भारत एवं पाकिस्तान के बड़े हिस्सों में बोली जाती है।
भारत का भूगोल |
काश्मीर (कश्मीरी : (नस्तालीक़), कऺशीर (देवनागरी)) जम्मू - कश्मीर का उत्तरी भौगोलिक क्षेत्र है। १८४६ में, पहले एंग्लो-सिख युद्ध में सिख की हार के बाद, और अमृतसर की सन्धि के तहत ब्रिटिश से क्षेत्र की खरीद पर, जम्मू के राजा, गुलाब सिंह, कश्मीर के नए शासक बने। उनके वंशजों का शासन, ब्रिटिश क्राउन की सर्वोपरि (अधिराजस्व) के तहत हुआ जो १९४७ में भारत के विभाजन तक चला। ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की पूर्व रियासत अब एक विवादित क्षेत्र बन गया, जिसे अब तीन देशों द्वारा प्रशासित किया जाता है: भारत, पाकिस्तान और चीन।
कश्मीर का नाम और व्युत्पत्ति सप्तर्षि महर्षि कश्यप से जुड़ा है। कश्मीर एक मुस्लिमबहुल क्षेत्र है।
निलामाता पुराण घाटी के जल से उत्पत्ति का वर्णन करता है, एक प्रमुख भू-भूवैज्ञानिकों द्वारा पुष्टि की गई तथ्य, और यह दर्शाता है कि जमीन का नाम कितना
परिशोध की प्रक्रिया से लिया गया था - का का मतलब है "पानी" और शमीर का मतलब है "शुष्क करना"। इसलिए, कश्मीर "पानी से निकलने वाला देश" के लिए खड़ा है एक सिद्धान्त भी है जो कश्मीर को कश्यप-मीरा या कश्यमिरम या कश्यममरू, "कश्यप के समुद्र या पर्वत" का संकुचन लेता है, ऋषि जो प्राच्य झील सट्सार के पानी से निकलने के लिए श्रेय दिया जाता है, कि कश्मीर से पहले इसे पुनः प्राप्त किया गया था। निलामाता पुराण काश्मीरा (कश्मीर घाटी में वालर झील मीरा "का नाम देता है जिसका अर्थ है कि समुद्र झील या ऋषि कश्यप का पहाड़।" संस्कृत में 'मीरा' का अर्थ है महासागर या सीमा, इसे उमा के अवतार के रूप में मानते हुए और यह कश्मीर है जिसे आज विश्व को पता है। हालाँकि, कश्मीरियों ने इसे 'काशीर' कहते हैं, जो कश्मीर से ध्वन्यात्मक रूप से प्राप्त हुए हैं। प्राचीन यूनानियों ने इसे ' कश्पापा-पुर्का, जो कि हेकाटेयस के कस्पेरियोस (बायज़ांटियम के एपड स्टेफेनस) और हेरोडोटस के कस्तुतिरोस (३.१०२, ४.४४) से पहचाने गए हैं। कश्मीर भी टॉलेमी के कस्पीरीया के द्वारा देश माना जाता है। कश्मीरी वर्तमान-कश्मीर की एक प्राचीन वर्तनी है, और कुछ देशों में यह अभी भी इस तरह की वर्तनी है। सेमीट जनजाति का एक गोत्र 'काश' (जिसका अर्थ है देशी में एक गहरा स्लेश माना जाता है कि यह कशान और कशगर के शहरों की स्थापना कर रहा है, कश्यपी जनजाति से कैस्पियन से भ्रमित नहीं होना चाहिए। भूमि और लोगों को 'काशीर' के नाम से जाना जाता था, जिसमें से 'कश्मीर' भी उसमें से प्राप्त किया गया था। इसे प्राचीन ग्रीस के प्राचीन ग्रीक कास्पीरिया कहा जाता है शास्त्रीय साहित्य में हेरोडोटस इसे "कस्पातिरोल" कहते हैं जुआनज़ांग, चीन - चीनी भिक्षु ने 6३1 एडी को कश्मीर का दौरा किया यह क्या-शि-मी-लो तिब्बत एह ने इसे खाचा कहा, जिसका अर्थ है "बर्फ वाई पहाड़" यह है और नदी, झील और वन्य फ्लावर एस की भूमि रही है। झेलम नदी घाटी की पूरी लम्बाई चलाती है
बुर्ज़होम पुरातात्विक स्थल (श्रीनगर के उत्तरपश्चिम में १६ किलोमीटर (९.९ मील) स्थित) में पुरातात्विक उत्खनन ने ३,००० ईसा पूर्व और १,००० ईसा पूर्व के बीच सांस्कृतिक महत्त्व के चार चरणों का खुलासा किया है। अवधि ई और ई नवपाषाण युग का प्रतिनिधित्व करते हैं; अवधि ईएलआई मेगालिथिक युग (बड़े पैमाने पर पत्थर के मेन्शर और पहिया लाल मिट्टी के बर्तनों में बदल गया); और अवधि इव प्रारंभिक ऐतिहासिक अवधि (उत्तर-महापाषाण काल) से संबंधित है। प्राचीनकाल में कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा है। माना जाता है कि यहाँ पर भगवान शिव की पत्नी देवी सती रहा करती थीं और उस समय ये वादी पूरी पानी से ढकी हुई थी। यहाँ एक राक्षस नाग भी रहता था, जिसे वैदिक ऋषि कश्यप और देवी सती ने मिलकर हरा दिया और ज़्यादातर पानी वितस्ता (झेलम) नदी के रास्ते बहा दिया। इस तरह इस जगह का नाम सतीसर से कश्मीर पड़ा। इससे अधिक तर्कसंगत प्रसंग यह है कि इसका वास्तविक नाम कश्यपमर (अथवा कछुओं की झील) था। इसी से कश्मीर नाम निकला।
कश्मीर का अच्छा-ख़ासा इतिहास कल्हण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से (और बाद के अन्य लेखकों से) मिलता है। प्राचीन काल में यहाँ हिन्दू आर्य राजाओं का राज था।
मौर्य सम्राट अशोक और कुषाण सम्राट कनिष्क के समय कश्मीर बौद्ध धर्म और संस्कृति का मुख्य केन्द्र बन गया। पूर्व-मध्ययुग में यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट ललितादित्य ने एक विशाल साम्राज्य क़ायम कर लिया था। कश्मीर संस्कृत विद्या का विख्यात केन्द्र रहा।
कश्मीर शैवदर्शन भी यहीं पैदा हुआ और पनपा। यहाँ के महान मनीषीयों में पतञ्जलि, दृढबल, वसुगुप्त, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कल्हण, क्षेमराज आदि हैं। यह धारणा है कि विष्णुधर्मोत्तर पुराण एवं योग वासिष्ठ यहीं लिखे गये।
१९४७ और १९४८
रणबीर सिंह के पोते महाराज हरि सिंह, जो १९२५ में कश्मीर के सिंहासन पर चढ़े थे, १९४७ में उपमहाद्वीप के ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के बाद के नए स्वतन्त्र डोमिनियन ऑफ़ इण्डिया और डोमिनियन के पाकिस्तान विभाजन के बाद राज करने वाले सम्राट थे। १९४८ के अन्तिम दिनों में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम पर सहमति बनी। हालाँकि, जब से संयुक्त राष्ट्र द्वारा जनमत संग्रह की माँग की गई, भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्धों में खटास नहीं आई, [७३] और अन्ततः १९६५ और १९९९ में कश्मीर पर दो और युद्ध हुए।
वर्तमान स्थिति और राजनीतिक विभाजन
भारत के पास जम्मू और कश्मीर की पूर्व रियासत के लगभग आधे क्षेत्र पर नियन्त्रण है, जिसमें जम्मू और कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं, जबकि पाकिस्तान एक तिहाई क्षेत्र को नियन्त्रित करता है, जो दो वास्तविक प्रान्तों, आज़ाद कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान में विभाजित है। पहले ही राज्य, जम्मू और कश्मीर और लद्दाख के कुछ हिस्सों को भारत द्वारा ५ अगस्त २०१९ से केन्द्र शासित प्रदेशों के रूप में प्रशासित किया जाता है, राज्य की सीमित स्वायत्तता और द्विभाजन के निरसन के बाद।
कश्मीर की पूर्व रियासत का पूर्वी क्षेत्र भी एक सीमा विवाद में शामिल है, जो १९वीं शताब्दी के अन्त में शुरू हुआ और २१वीं सदी में जारी रहा। हालाँकि कश्मीर की उत्तरी सीमाओं पर ग्रेट ब्रिटेन, अफगानिस्तान और रूस के बीच कुछ सीमा समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे, चीन ने कभी भी इन समझौतों को स्वीकार नहीं किया और १९49 की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद चीन की आधिकारिक स्थिति नहीं बदली, जिसने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना की। १९50 के दशक के मध्य तक चीनी सेना लद्दाख के उत्तर-पूर्वी हिस्से में प्रवेश कर चुकी थी।
यह क्षेत्र तीन देशों के बीच एक क्षेत्रीय विवाद में विभाजित है: पाकिस्तान उत्तर-पश्चिमी भाग (उत्तरी क्षेत्र और कश्मीर) को नियन्त्रित करता है, भारत मध्य और दक्षिणी भाग (जम्मू और कश्मीर) और लद्दाख को नियन्त्रित करता है, और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना पूर्वोत्तर भाग को नियंत्रित करता है। अक्साई चिन एण्ड द ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट)। भारत सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र के अधिकांश हिस्से को नियंत्रित करता है, जिसमें साल्टोरो रिज पास भी शामिल है, जबकि पाकिस्तान सॉल्टोरो रिज के दक्षिण-पश्चिम में निचले क्षेत्र को नियन्त्रित करता है। भारत विवादित क्षेत्र के को नियन्त्रित करता है, पाकिस्तान को नियन्त्रित करता है, और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना शेष को नियंत्रित करता है।
जम्मू और आज़ाद कश्मीर पीर पंजाल रेंज के बाहर स्थित हैं, और क्रमशः भारतीय और पाकिस्तानी नियन्त्रण में हैं। ये आबादी वाले क्षेत्र हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान, जिसे पहले उत्तरी क्षेत्र के रूप में जाना जाता था, चरम उत्तर में प्रदेशों का एक समूह है, जो काराकोरम, पश्चिमी हिमालय, पामीर और हिन्दू कुश पर्वतमाला से घिरा है। गिलगित शहर में अपने प्रशासनिक केन्द्र के साथ, उत्तरी क्षेत्र के क्षेत्र को कवर करते हैं और १ मिलियन (१0 लाख) की अनुमानित आबादी रखते हैं।
लद्दाख उत्तर में कुनलुन पर्वत शृंखला और दक्षिण में मुख्य महान हिमालय के बीच है। क्षेत्र के राजधानी शहर लेह और कारगिल हैं। यह भारतीय प्रशासन के अधीन है और २०१९ तक जम्मू और कश्मीर राज्य का हिस्सा था। यह क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है और मुख्य रूप सेभारोपीय और तिब्बती मूल के लोगों द्वारा बसा हुआ है। [७६] अक्साई चिन नमक का एक विशाल उच्च ऊँचाई वाला रेगिस्तान है जो तक ऊँचाई तक पहुँचता है। भौगोलिक रूप से तिब्बती पठार का हिस्सा अक्साई चिन को सोडा मैदान के रूप में जाना जाता है। यह क्षेत्र लगभग निर्जन है, और इसकी कोई स्थायी बस्ती नहीं है।
यद्यपि ये क्षेत्र अपने-अपने दावेदारों द्वारा प्रशासित हैं, लेकिन न तो भारत और न ही पाकिस्तान ने औपचारिक रूप से दूसरे द्वारा दावा किए गए क्षेत्रों के उपयोग को मान्यता दी है। भारत उन क्षेत्रों पर दावा करता है, जिसमें १९६३ में ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट में पाकिस्तान द्वारा चीन को "सीडेड" क्षेत्र शामिल किया गया था, जो उसके क्षेत्र का एक हिस्सा है, जबकि पाकिस्तान अक्साई चिन और ट्रांस-काराकोरम ट्रैक्ट को छोड़कर पूरे क्षेत्र का दावा करता है। दोनों देशों ने इस क्षेत्र पर कई घोषित युद्ध लड़े हैं। १९४७ का भारत-पाक युद्ध ने आज की उबड़-खाबड़ सीमाओं की स्थापना की, जिसमें पाकिस्तान ने कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा रखा, और भारत ने एक-आध, संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित नियन्त्रण रेखा के साथ। १९६५ का भारत-पाक युद्ध के परिणामस्वरूप गतिरोध और संयुक्त राष्ट्र के बीच युद्ध विराम हुआ।
ये ख़ूबसूरत भूभाग मुख्यतः झेलम नदी की घाटी (वादी) में बसा है। भारतीय कश्मीर घाटी में छः ज़िले हैं : श्रीनगर, बड़ग़ाम, अनन्तनाग, पुलवामा, बारामुला और कुपवाड़ा। कश्मीर हिमालय पर्वती क्षेत्र का भाग है। जम्मू खण्ड से और पाकिस्तान से इसे पीर-पंजाल पर्वत-श्रेणी अलग करती है। यहाँ कई सुन्दर सरोवर हैं, जैसे डल, वुलर और नगीन। यहाँ का मौसम गर्मियों में सुहावना और सर्दियों में बर्फीला होता है। इस प्रदेश को धरती का स्वर्ग कहा गया है। एक नहीं कई कवियों ने बार बार कहा है :
गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त,
हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त।
(फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द)
स्थानीय लोगों का विश्वास है कि इस विस्तृत घाटी के स्थान पर कभी मनोरम झील थी जिसके तट पर देवताओं का वास था। एक बार इस झील में ही एक असुर कहीं से आकर बस गया और वह देवताओं को सताने लगा। त्रस्त देवताओं ने ऋषि कश्यप से प्रार्थना की कि वह असुर का विनाश करें। देवताओं के आग्रह पर ऋषि ने उस झील को अपने तप के बल से रिक्त कर दिया। इसके साथ ही उस असुर का अन्त हो गया और उस स्थान पर घाटी बन गई। कश्यप ऋषि द्वारा असुर को मारने के कारण ही घाटी को कश्यप मार कहा जाने लगा। यही नाम समयान्तर में कश्मीर हो गया। निलमत पुराण में भी ऐसी ही एक कथा का उल्लेख है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास और यहाँ के सौंदर्य का वर्णन कल्हण रचित राज तरंगिनी में बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। वैसे इतिहास के लम्बे कालखण्ड में यहाँ मौर्य, कुषाण, हूण, करकोटा, लोहरा, मुगल, अफगान, सिख और डोगरा राजाओं का राज रहा है। कश्मीर सदियों तक एशिया में संस्कृति एवं दर्शन शास्त्र का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा और सूफी सन्तों का दर्शन यहाँ की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
मध्ययुग में मुस्लिम आक्रान्ता कश्मीर पर क़ाबिज़ हो गये। कुछ मुसल्मान शाह और राज्यपाल (जैसे शाह ज़ैन-उल-अबिदीन) हिन्दुओं से अच्छा व्यवहार करते थे पर कई (जैसे सुल्तान सिकन्दर बुतशिकन) ने यहाँ के मूल कश्मीरी हिन्दुओं को मुसल्मान बनने पर, या राज्य छोड़ने पर या मरने पर मजबूर कर दिया। कुछ ही सदियों में कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुमत हो गया। मुसल्मान शाहों में ये बारी बारी से अफ़ग़ान, कश्मीरी मुसल्मान, मुग़ल आदि वंशों के पास गया। मुग़ल सल्तनत गिरने के बाद से सिख महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में शामिल हो गया। कुछ समय बाद जम्मू के हिन्दू डोगरा राजा गुलाब सिंह डोगरा ने ब्रिटिश लोगों के साथ सन्धि करके जम्मू के साथ साथ कश्मीर पर भी अधिकार कर लिया (जिसे कुछ लोग कहते हैं कि कश्मीर को ख़रीद लिया)। डोगरा वंश भारत की आज़ादी तक कायम रहा।
कश्मीर से कुछ यादगार वस्तुएँ ले जानी हों तो यहां कई सरकारी एम्पोरियम हैं। अखरोट की लकड़ी के हस्तशिल्प, पेपरमेशी के शो-पीस, लेदर की वस्तुएँ, कालीन, पश्मीना एवं जामावार शाल, केसर, क्रिकेट बैट और सूखे मेवे आदि पर्यटकों की खरीदारी की खास वस्तुएँ हैं। लाल चौक क्षेत्र में हर तरह के शॉपिंग केन्द्र है। खानपान के शौकीन पर्यटक कश्मीरी भोजन का स्वाद जरूर लेना चाहेंगे। बाजवान कश्मीरी भोजन का एक खास अंदाज है। इसमें कई कोर्स होते है जिनमें रोगन जोश, तबकमाज, मेथी, गुस्तान आदि डिश शामिल होती है। स्वीट डिश के रूप में फिरनी प्रस्तुत की जाती है। अन्त में कहवा अर्थात कश्मीरी चाय के साथ वाजवान पूर्ण होता है।
भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग १५ % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान। आतंकवाद शुरू होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ ४ % हिन्दू बाकी रह गये हैं, यानि कि वादी में ९६ % मुस्लिम बहुमत है। ज़्यादातर मुसल्मानों और हिन्दुओं का आपसी बर्ताव भाईचारे वाला ही होता है। कश्मीरी लोग खुद काफ़ी खूबसूरत खूबसूरत होते है
यहाँ की सूफ़ी-परम्परा बहुत विख्यात है, जो कश्मीरी इस्लाम को परम्परागत शिया और सुन्नी इस्लाम से थोड़ा अलग और हिन्दुओं के प्रति सहिष्णु बना देती है। कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीरी पण्डित कहा जाता है और वो सभी ब्राह्मण माने जाते हैं। सभी कश्मीरियों को कश्मीर की संस्कृति, यानि कि कश्मीरियत पर बहुत नाज़ है। वादी-ए-कश्मीर अपने चिनार के पेड़ों, कश्मीरी सेब, केसर (ज़ाफ़रान, जिसे संस्कृत में काश्मीरम् भी कहा जाता है), पश्मीना ऊन और शॉलों पर की गयी कढ़ाई, गलीचों और देसी चाय (कहवा) के लिये दुनिया भर में मशहूर है। यहाँ का सन्तूर भी बहुत प्रसिद्ध है। आतंकवाद से बशक इन सभी को और कश्मीरियों की खुशहाली को बहद धक्का लगा है। कश्मीरी व्यंजन भारत भर में बहुत ही लज़ीज़ माने जाते हैं!मुसल्मानों के (मांसाहारी) व्यंजन हैं : कई तरह के कबाब और कोफ़्ते, रिश्ताबा, गोश्ताबा, इत्यादि। परम्परागत कश्मीरी दावत को वाज़वान कहा जाता है। कहते हैं कि हर कश्मीरी की ये ख्वाहिश होती है कि ज़िन्दगी में एक बार, कम से कम, अपने दोस्तों के लिये वो वाज़वान परोसे। कुल मिलाकर कहा जाये तो कश्मीर हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों का अनूठा मिश्रण है।
धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर ग्रेट हिमालयन रेंज और पीर पंजाल पर्वत शृंखला के मध्य स्थित है। यहाँ की नैसर्गिक छटा हर मौसम में एक अलग रूप लिए नजर आती है। गर्मी में यहाँ हरियाली का आँचल फैला दिखता है, तो सेबों का मौसम आते ही लाल सेब बागान में झूलते नजर आने लगते हैं। सर्दियों में हर तरफ बर्फकी चादर फैलने लगती है और पतझड शुरू होते ही जर्द चिनार का सुनहरा सौंदर्य मन मोहने लगता है। पर्यटकों को सम्मोहित करने के लिए यहाँ बहुत कुछ है। शायद इसी कारण देश-विदेश के पर्यटक यहाँ खिंचे चले आते हैं। वैसे प्रसिद्ध लेखक थॉमस मूर की पुस्तक लैला रूख ने कश्मीर की ऐसी ही खूबियों का परिचय पूरे विश्व से कराया था।
भारत की स्वतन्त्रता के समय हिन्दू राजा हरि सिंह यहाँ के शासक थे। शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस (बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस) उस समय कश्मीर की मुख्य राजनैतिक पार्टी थी। कश्मीरी पंडित, शेख़ अब्दुल्ला और राज्य के ज़्यादातर मुसल्मान कश्मीर का भारत में ही विलय चाहते थे। पर पाकिस्तान को ये बर्दाश्त ही नहीं था कि कोई मुस्लिम-बहुमत प्रान्त भारत में रहे (इससे उसके दो-राष्ट्र सिद्धान्त को ठेस लगती थी)। सो १९४७-४८ में पाकिस्तान ने कबाइली और अपनी छद्म सेना से कश्मीर में आक्रमण करवाया और क़ाफ़ी हिस्सा हथिया लिया। उस समय प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने मोहम्मद अली जिन्ना से विवाद जनमत-संग्रह से सुलझाने की पेशक़श की, जिसे जिन्ना ने उस समय ठुकरा दिया क्योंकि उनको अपनी सैनिक कार्यवाही पर पूरा भरोसा था। महाराजा ने शेख़ अब्दुल्ला की सहमति से भारत में कुछ शर्तों के तहत विलय कर दिया। जब भारतीय सेना ने राज्य का काफ़ी हिस्सा बचा लिया और ये विवाद संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया तो संयुक्तराष्ट्र महासभा ने दो क़रारदाद (संकल्प) पारित किये :
पाकिस्तान तुरन्त अपनी सेना काबिज़ हिस्से से खाली करे।
शान्ति होने के बाद दोनो देश कश्मीर के भविष्य का निर्धारण वहाँ की जनता की चाहत के हिसाब से करेंगे (बाद में कहा गया जनमत संग्रह से)।
दोनो में से कोई भी संकल्प अभी तक लागू नहीं हो पाया है।
जम्मू और कश्मीर की लोकतान्त्रिक और निर्वाचित संविधान-सभा ने १९५७ में एकमत से महाराजा के विलय के कागजात को हामी दे दी और राज्य का ऐसा संविधान स्वीकार किया जिसमें कश्मीर के भारत में स्थायी विलय को मान्यता दी गयी थी।
कई चुनावों में कश्मीरी जनता ने वोट डालकर भारत का साथ दिया है। भारतीय फौज की नये सिपाहियों के भर्ती अभियान में हजारों कश्मीरी नवयुवक आते हैं।
भारत पाकिस्तान के दो-राष्ट्र सिद्धान्त को नहीं मानता। भारत स्वयं पन्थनिरपेक्ष है।
कश्मीर का भारत में विलय ब्रिटिश "भारतीय स्वातन्त्र्य अधिनियम" के तहत कानूनी तौर पर सही था।
पाकिस्तान अपनी भूमि पर अतंकवादी शिविर चला रहा है (खास तौर पर १९८९ से) और कश्मीरी युवकों को भारत के खिलाफ़ भड़का रहा है। ज़्यादातर आतंकवादी स्वयं पाकिस्तानी नागरिक (या तालिबानी अफ़गान) ही हैं। ये और कुछ कश्मीरी मिलकर इस्लाम के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ रखे हैं। लगभग सभी कश्मीरी पण्डितों को आतंकवादियों ने वादी के बाहर निकाल दिया है और वो शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं।
राज्य को संविधान के अनुच्छेद ३७० के तहत स्वायत्ता प्राप्त है। कोई गैर-कश्मीरी यहाँ जमीन नहीं खरीद सकता। उम्मीद है कि बहुत जल्द ये अनुच्छेद जनमत से हटा दिया जाएगा.
अनुच्छेद ३७० और ३५आ इसे हटा दिया गया है ५ अगस्त २०१९ को अब इसके तहत कोई भी गैर कश्मीरी वहाँ जमीन खरीद सकता है।
चूँकि कश्मीर पर सैकड़ों वर्षों पूर्व तक हिन्दू राजाओं का साम्रज्य कायम रहा है, कुछ विदेशी आक्रांताओं के कारण बाद में कश्मीर क्षणिक रूप में मुस्लिम बाहुल्य हो गया जिस कारण इस सम्पूर्ण समस्या/विवाद की स्थिति उत्पन्न हुयी, परन्तु सत्य यही है कि सम्पूर्ण कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा था।पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान भारत में रहते हैं और ये धार्मिक महत्त्व का विषय नहीं रह गया है, अपितु कुछ पाकिस्तानी राजनेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस मुद्दे को हवा देकर अपनी पाकिस्तानी आवाम का ध्यान महँगाई और घरेलू मुद्दो से भटकाने के लिए इसे इस्तेमाल करते रहते हैं।
कश्मीर और जवाहरलाल नेहरू
वह सर्वविदित है कि पं॰ नेहरू तथा माउन्टबेटन के परस्पर विशेष सम्बन्ध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। पण्डित नेहरू के प्रयासों से ही माउण्टबेटन को स्वतन्त्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउण्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउण्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउन्टबेटन मार्च २४, १९४७ से जून ३०, १९४८ तक भारत में रहे। इन पन्द्रह महीनों में वह न केवल संवैधानिक प्रमुख रहे बल्कि भारत की महत्वपूर्ण नीतियों का निर्णायक भी रहे। पं॰ नेहरू उन्हें सदैव अपना मित्र, मार्गदर्शक तथा महानतम सलाहकार मानते रहे। वह भी पं॰ नेहरू को एक "शानदार", "सर्वदा विश्वसनीय" "कल्पनाशील" तथा "सैद्धान्तिक समाजवादी" मानते रहे।
कश्मीर के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को पं॰ नेहरू ने अत्यधिक महत्त्व दिया। पं॰ नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बन्ध थे। शेख अब्दुल्ला ने १९३२ में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम॰एस॰सी॰ किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने १९३२ में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और "मुस्लिम क्फ्रोंंस" स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु १९३९ में इसके द्वार अन्य पन्थों, मज़हबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम "नेशनल कान्फ्रेंस" रख दिया तथा इसने पण्डित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने १९४० में नेशनल क्फ्रोंंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में पण्डित नेहरू को बुलाया था। शेख अब्दुल्ला से पं॰ नेहरू की अन्धी दोस्ती और भी गहरी होती गई। शेख अब्दुल्ला समय-समय पर अपनी शब्दावली बदलते रहे और पं॰ नेहरू को भी धोखा देते रहे। बाद में भी नेहरू परिवार के साथ शेख अब्दुल्ला के परिवार की यही दोस्ती चलती रही। श्रीमती इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और अब राहुल गांधी की दोस्ती क्रमश: शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला तथा वर्तमान में उमर अब्दुल्ला से चल रही है।
महाराजा से कटु सम्बन्ध
दुर्भाग्य से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (१९२५-१९४७) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही पण्डित नेहरू के सम्बन्ध अच्छे रह पाए। महाराजा कश्मीर शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, स्वार्थी और अलगाववादी सोच तथा कश्मीर में हिन्दू-विरोधी रवैये से परिचित थे। वे इससे भी परिचित थे कि "क्विट कश्मीर आन्दोलन" के द्वारा शेख अब्दुल्ला महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर है। जबकि पं॰ नेहरू भारत के अन्तरिम प्रधानमन्त्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेस में पण्डित नेहरू को आने का निमन्त्रण दिया था। इस कांफ्रेस में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा कश्मीर को हटाने का। मजबूर होकर महाराजा ने पं॰ नेहरू से इस क्फ्रोंंस में न आने को कहा। पर न मानने पर पं॰ नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं॰ नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवन भर न भूले। पाकिस्तानी फौज व कबायली आक्रमण के समय राजा हरी सिंह को सबक सिखाने के उद्देश्य से नेहरु जी ने भारतीय सेना को भेजने में जानबूझ के देरी की, जिससे कश्मीर का दो तिहायी हिस्सा पाकिस्तान कब्ज़ाने में सफल रहा। इस घटना से शेख अब्दुल्ला को दोहरी प्रसन्नता हुई। इससे वह पं॰ नेहरू को प्रसन्न करने तथा महाराजा को कुपित करने में सफल हुआ।जिसके कारण अभी भी भारत और कश्मीर में विवाद हैं।
कश्मीरियत की भावना
पं. नेहरू का व्यक्तित्व यद्यपि राष्ट्रीय था परन्तु कश्मीर का प्रश्न आते ही वे भावुक हो जाते थे। इसीलिए जहां उन्होंने भारत में चौतरफा बिखरी ५६० रियासतों के विलय का महान दायित्व सरदार पटेल को सौंपा, वहीं केवल कश्मीरी दस्तावेजों को अपने कब्जे में रखा। ऐसे कई उदाहरण हैं जब वे कश्मीर के मामले में केन्द्रीय प्रशासन की भी सलाह सुनने को तैयार न होते थे तत्कालीन विदेश सचिव वाई॰डी॰ गुणडेवीय का कथन था, "आप प्रधानमंत्री से कश्मीर पर बात न करें। कश्मीर का नाम सुनते ही वे अचेत हो जाते हैं।" प्रस्तुत लेख के लेखक का स्वयं का भी एक अनुभव है-१९५८ में मैं एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ पं॰ नेहरू के निवास तीन मूर्ति गया। वहाँ स्कूल के बच्चों ने उनके सामने कश्मीर पर पाकिस्तान को चुनौती देते हुए एक गीत प्रस्तुत किया। इसमें "कश्मीर भला तू क्या लेगा?" सुनते ही पं॰ नेहरू तिलमिला गए तथा गीत को बीच में ही बन्द करने को कहा।
महाराजा की भारत-प्रियता
जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। तत्कालीन कश्मीर के प्रधानमन्त्री काक ने भी उनसे मिलाने का वायदा किया था। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही थी। परन्तु महाराजा ने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला गद्दी हथियाने तथा इसे एक मुस्लिम प्रदेश (देश) बनाने को आतुर थे। पं॰ नेहरू भी अपमानित महसूस कर रहे थे। उधर माउण्टबेटन भी जून मास में तीन दिन कश्मीर रहे थे। शायद वे कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे, क्योंकि उन्होंने मेहरचन्द महाजन से कहा था कि "भौगोलिक स्थिति" को देखते हुए कश्मीर के पाकिस्तान का भाग बनना उचित है। इस समस्त प्रसंग में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने निभाई। वे महाराजा कश्मीर से बातचीत करने १८ अक्टूबर को श्रीनगर पहुँचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह पक्ष में हो गए थे।
नेहरू की भयंकर भूलें
जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा अक्टूबर २२, १९४७ को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमन्त्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के २५० जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर २४ अक्टूबर को माउण्टबेटन ने "सुरक्षा कमेटी" की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। २६ अक्टूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार २६ अक्टूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी॰पी॰ मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी॰पी॰ मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुँचे। विलय पत्र मिलने के बाद २७ अक्टूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।
दूसरे'', जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं॰ नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज पाकिस्तान द्वारा "आजाद कश्मीर" के नाम से पुकारे जाते हैं।तीसरे, माउन्टबेटन की सलाह पर पं॰ नेहरू एक जनवरी, १९४८ को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।चौथी भयंकर भूल पं॰ नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताआें के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा ३७० जुड़ गई। न्यायाधीश डी॰डी॰ बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमन्त्री पं॰ नेहरू ने रियासत राज्यमन्त्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा अक्टूबर १७, १९४९ को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमन्त्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।पांचवीं' भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का "प्रधानमन्त्री" बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहाँ जेल में उनकी हत्या कर दी गई। पं॰ नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं॰ नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, १९६४ में उन्हें पुन: रिहा कर दिया।
यह भी देखिये
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, २०१९
कश्मीरी राजा सूची
कश्मीर: इतिहास की कैद में भविष्य
कश्मीरी पंडितों की वेबसाईट
जम्मू और कश्मीर |
साण्ड, वृषभ या ऋषभ गोजातीय एक अक्षुण्ण (अर्थात् नपुंसक नहीं किया गया) वयस्क नर है। एक ही प्रजाति की मादाओं (यानी, गायों) की तुलना में अधिक मांसल और आक्रामक, साण्ड दीर्घ समय से कई धर्मों में एक महत्वपूर्ण प्रतीक रहे हैं, जिसमें पशुबलि भी शामिल हैं। ये पशु वृषभ युद्ध और साण्ड सवार सहित कई प्रकार की खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
लिपिबद्ध इतिहास के आरम्भ से पूर्व से पवित्र साण्डों ने मानव संस्कृति में महत्व का स्थान रखा है। हिन्दू धर्म में, नन्दी नामक एक नॄषभ (आधा नर-आधा साण्ड), जिसे प्रायः आसीन दर्शाया जाता है, को भगवान शिव के वाहन के रूप में पूजा जाता है और देवता की कई छवियों पर चित्रित किया जाता है।
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भारत का इतिहास कई सहस्र वर्ष पुराना माना जाता है। ६५,००० साल पहले, पहले आधुनिक मनुष्य, या होमो सेपियन्स, अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचे थे, जहाँ वे पहले विकसित हुए थे। सबसे पुराना ज्ञात आधुनिक मानव आज से लगभग ३०,००० वर्ष पहले दक्षिण एशिया में रहता है। ६५00 ईसा पूर्व के बाद, खाद्य फसलों और जानवरों के वर्चस्व के लिए सबूत, स्थायी संरचनाओं का निर्माण और कृषि अधिशेष का भण्डारण मेहरगढ़ और अब बलूचिस्तान के अन्य स्थलों में दिखाई दिया। ये धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता में विकसित हुए, दक्षिण एशिया में पहली शहरी संस्कृति, जो अब पाकिस्तान और पश्चिमी भारत में २५००-१९०० ई.पू. के दौरान पनपी। मेहरगढ़ पुरातत्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है जहां नवपाषाण युग (7००० ईसा-पूर्व से २५०० ईसा-पूर्व) के बहुत से अवशेष मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता, जिसका आरम्भ काल लगभग 3३०0 ईसापूर्व से माना जाता है, प्राचीन मिस्र और सुमेर सभ्यता के साथ विश्व की प्राचीनतम सभ्यता में से एक हैं। इस सभ्यता की लिपि अब तक सफलता पूर्वक पढ़ी नहीं जा सकी है। सिन्धु घाटी सभ्यता वर्तमान पाकिस्तान और उससे सटे भारतीय प्रदेशों में फैली थी। पुरातत्त्व प्रमाणों के आधार पर १९०० ईसापूर्व के आसपास इस सभ्यता का अकस्मात पतन हो गया।
१९वीं शताब्दी के पाश्चात्य विद्वानों के प्रचलित दृष्टिकोणों के अनुसार आर्यों का एक वर्ग भारतीय उप महाद्वीप की सीमाओं पर २००० ईसा पूर्व के आसपास पहुंचा और पहले पंजाब में बस गया और यहीं ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना की गई। आर्यों द्वारा उत्तर तथा मध्य भारत में एक विकसित सभ्यता का निर्माण किया गया, जिसे वैदिक सभ्यता भी कहते हैं। प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारम्भिक सभ्यता है जिसका सम्बन्ध आर्यों के आगमन से है। इसका नामकरण आर्यों के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। आर्यों की भाषा संस्कृत थी और धर्म "वैदिक धर्म" या "सनातन धर्म" के नाम से प्रसिद्ध था, बाद में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा इस धर्म का नाम हिन्दू पड़ा।
वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के तटीय क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब (भारत) और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल २००० ईसा पूर्व से ६०० ईसा पूर्व के बीच में मानते है, परन्तु नए पुरातत्त्व उत्खननों से मिले अवशेषों में वैदिक सभ्यता से संबंधित कई अवशेष मिले है जिससे कुछ आधुनिक विद्वान यह मानने लगे हैं कि वैदिक सभ्यता भारत में ही शुरु हुई थी, आर्य भारतीय मूल के ही थे और ऋग्वेद का रचना काल ३००० ईसा पूर्व रहा होगा, क्योंकि आर्यों के भारत में आने का न तो कोई पुरातत्त्व उत्खननों पर अधारित प्रमाण मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानों से कोई प्रमाण मिला है। हाल ही में भारतीय पुरातत्व परिषद् द्वारा की गयी सरस्वती नदी की खोज से वैदिक सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता और आर्यों के बारे में एक नया दृष्टिकोण सामने आया है। हड़प्पा सभ्यता को सिन्धु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया है, क्योंकि हड़प्पा सभ्यता की 2६०० बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र २६५ बस्तियाँ थीं, जबकि शेष अधिकांश बस्तियाँ सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं, सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है, यह आज से ४००० साल पूर्व भूगर्भी बदलाव की वजह से सूख गयी थी।
आर्य लोग खानाबदोश गड़ेरियों की भांति अपने जंगली परिवारों और पशुओं को लिए इधर से उधर भटकते रहते थे। इन लोगों ने पत्थर के नुकीले हथियारों से काम लेना सीखा। मनुष्यों की इस सभ्यता को वे 'यूलिथ- सभ्यता' कहते हैं। इस सभ्यता में कुछ सुधार हुआ तो फिर 'चिलियन' सभ्यता आई। इन हथियार औजारों की सभ्यता के समय का मनुष्य नर वानर के रूप में थे। उनमें वास्तविक मनुष्यत्व का बीजारोपण नहीं हुआ था।
" मुस्टेरियन " सभ्यता के पश्चात " रेनडियन " सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। इस समय लोगों में मानवोचित बुद्धि का विकास होने लगा था। फिर इसके बाद वास्तविक सभ्यताएं आई जिसमें पहली सभ्यता नव पाषाण कालीन कही जाती है। इस सभ्यता के युग का मनुष्य अपने जैसा ही वास्तविक मनुष्य था। अतः यूथिल सम्यता से लेकर नव पाषाण सभ्यता तक का काल पाषाण- युग कहलाता है।
पाषाण युग के बाद मानव जाति में धातु युग का प्रादुर्भाव हुआ। धातु युग का प्रारम्भ ताम्रयुग से होता है। नव पाषाण युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि ही सम्यता की माता थी। आर्य ही संसार में सबसे प्रथम कृषक थे। कृषि के उपयोगी स्थानों की खोज में आर्य पंजाब की भूमि में आए और इसी का नाम सप्तसिन्धु प्रदेश रखा। आर्य लोग सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश में फैल गए, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट था। सरस्वती नदी तट पर ही आर्यों ने ताम्रयुग की स्थापना की। यहाँ उन्हें ताम्बा मिला और वे अपने पत्थर के हथियारों को छोड़कर ताम्बे के हथियारों को काम में लेने लगे। इस ताम्रयुग के चिन्ह अन्वेषकों को " चान्हू डेरों " तथा "विजनौत " नामक स्थानों में खुदाई में मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही है। मैसापोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता " प्रोटो इलामाइट " सभ्यता कहलाती है। सुमेरू जाति प्रोटाइलामाइट जाति के बाद मैसोपोटामिया में जाकर बसी है। सुमेरू सभ्यता के बाद मिस्र की सभ्यता का उदय हुआ। प्रसिद्ध अमेरिकन पुरातत्वविद् डा० डी० टेरा ने सिन्धु प्रदेश को पत्थर और धातुयुग में मिलानेवाला कहते हैं। ताम्र सभ्यता के बाद काँसे की सभ्यता आई। काँसे की सभ्यता संभवतः सुमेरियन लोगों की थी। मैसोपोटामिया के उर- फरा- किश तथा इलाम के सुसा और तपा- मुस्यान आदि जगहों में उन्हें खुदाई में काँसे की सभ्यता के नीचे ताम्र सभ्यता के अवशेष मिले हैं। मैसोपोटामिया में जहाँ जहां इस प्रोटो इलामाइट कही जाने वाली ताम्र सभ्यता के चिन्ह मिले हैं, उसके और सुमेरू जाति की कांसे की सभ्यता के स्तरो के बीच में किसी बहुत बड़ी बाढ़ के पानी द्वारा जमी हुई चिकनी मिट्टी का उसे चार फुट मोटा स्तर प्राप्त हुआ है। यूरोपिय पुरातत्ववेत्ताओं का यह मत है कि मिट्टी का यह स्तर उस बड़ी बाढ़ द्वारा बना था, जिसको प्राचीन ग्रन्थों में नूह का प्रलय कहते हैं। ताम्रयुग की प्रोटोइलामाइट सभ्यता के अवशेष इस प्रलय के स्तर के नीचे प्राप्त हुए हैं। इसका यह अर्थ लगाया गया कि इस प्रलय के प्रथम में ही प्रोटो इलामाइट सभ्यता का अस्तित्व था। इस सभ्यता के अवशेषों के नीचे कुछ स्थानों में निम्न श्रेणी की पाषाण सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं।
ईसा पूर्व ७वीं और शुरूआती ६वीं शताब्दि सदी में जैन और बौद्ध धर्म सम्प्रदाय लोकप्रिय हुए। अशोक (ईसापूर्व 2६5-२४१) इस काल का एक महत्वपूर्ण राजा था जिसका साम्राज्य अफगानिस्तान से मणिपुर तक और तक्षशिला से कर्नाटक तक फैल गया था। पर वो सम्पूर्ण दक्षिण तक नहीं जा सका। दक्षिण में चोल सबसे शक्तिशाली निकले। संगम साहित्य की शुरुआत भी दक्षिण में इसी समय हुई। भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व ७ वीं और शुरूआती ६ वीं शताब्दी के दौरान सोलह बड़ी शक्तियाँ (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतन्त्रीय राज्य भी थे, जिनमें से कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, कुरु, पान्चाल, चेदि और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्यों का विस्तार हो रहा था। इसके बाद भारत छोटे-छोटे साम्राज्यों में बंट गया।
आठवीं सदी में सिन्ध पर अरबों का अधिकार हो गया। यह इस्लाम का प्रवेश माना जाता है। बारहवीं सदी के अन्त तक दिल्ली की गद्दी पर तुर्क दासों का शासन आ गया जिन्होंने अगले कई सालों तक राज किया। दक्षिण में हिन्दू विजयनगर और गोलकुण्डा के राज्य थे। १५५६ में विजय नगर का पतन हो गया। सन् १५२६ में मध्य एशिया से निर्वासित राजकुमार बाबर ने काबुल में पनाह ली और भारत पर आक्रमण किया। उसने मुग़ल वंश की स्थापना की जो अगले ३०० वर्षों तक चला। इसी समय दक्षिण-पूर्वी तट से पुर्तगाल का समुद्री व्यापार शुरु हो गया था। बाबर का पोता अकबर धार्मिक सहिष्णुता के लिए विख्यात हुआ। उसने हिन्दुओं पर से जज़िया कर हटा लिया। १६५९ में औरंगज़ेब ने इसे फिर से लागू कर दिया। औरंगज़ेब ने कश्मीर में तथा अन्य स्थानों पर हिन्दुओं को बलात मुसलमान बनवाया। उसी समय केन्द्रीय और दक्षिण भारत में शिवाजी के नेतृत्व में मराठे शक्तिशाली हो रहे थे। औरंगज़ेब ने दक्षिण की ओर ध्यान लगाया तो उत्तर में सिखों का उदय हो गया। औरंगज़ेब के मरते ही (१७०७) में मुगल साम्राज्य बिखर गया। अंग्रेज़ों ने डचों, पुर्तगालियों तथा फ्रांसिसियों को भगाकर भारत पर व्यापार का अधिकार सुनिश्चित किया और १८५७ के एक विद्रोह को कुचलने के बाद सत्ता पर काबिज हो गए। भारत को आज़ादी १९४७ में मिली जिसमें महात्मा गांधी के अहिंसा आधारित आन्दोलन का योगदान महत्वपूर्ण था। १९४७ के बाद से भारत में गणतान्त्रिक शासन लागू है। आज़ादी के समय ही भारत का विभाजन हुआ जिससे पाकिस्तान का जन्म हुआ और दोनों देशों में कश्मीर सहित अन्य मुद्दों पर तनाव बना हुआ है।
प्राचीन भारत का इतिहास
समान्यत विद्वान भारतीय इतिहास को एक संपन्न पर अर्धलिखित इतिहास बताते हैं पर भारतीय इतिहास के कई स्रोत है। सिंधु घाटी की लिपि, अशोक के शिलालेख, हेरोडोटस, फ़ा हियान, ह्वेन सांग, संगम साहित्य, मार्कोपोलो, संस्कृत लेखकों आदि से प्राचीन भारत का इतिहास प्राप्त होता है। मध्यकाल में अल-बेरुनी और उसके बाद दिल्ली सल्तनत के राजाओं की जीवनी भी महत्वपूर्ण है। बाबरनामा, आईन-ए-अकबरी आदि जीवनियां हमें उत्तर मध्यकाल के बारे में बताती हैं।
प्रागैतिहासिक काल (३३०० ईसा पूर्व तक)
भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण १००,००० से ८०,००० वर्ष पूर्व का है।। पाषाण युग (भीमबेटका, मध्य प्रदेश) के चट्टानों पर चित्रों का कालक्रम ४०,००० ई पू से ९००० ई पू माना जाता है। प्रथम स्थायी बस्तियां ने ९००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया। उत्तर पश्चिम में सिन्धु घाटी सभ्यता ७००० ई पू विकसित हुई, जो २६वीं शताब्दी ईसा पूर्व और २०वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। वैदिक सभ्यता का कालक्रम भी ज्योतिष के विश्लेषण से ४००० ई पू तक जाता है।
आर्य लोग खानाबदोश गड़ेरियों की भांति अपने जंगली परिवारों और पशुओं को लिए इधर से उधर भटकते रहते थे। इन लोगों ने पत्थर के नुकीले हथियारों से काम लेना सीखा। मनुष्यों की इस सभ्यता को वे 'यूलिथ- सभ्यता' कहते हैं। इस सभ्यता में कुछ सुधार हुआ तो फिर 'चिलियन' सभ्यता आई। इन हथियार औजारों की सभ्यता के समय का मनुष्य नर वानर के रूप में थे। उनमें वास्तविक मनुष्यत्व का बीजारोपण नहीं हुआ था।
" मुस्टेरियन " सभ्यता के पश्चात " रेनडियन " सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। इस समय लोगों में मानवोचित बुद्धि का विकाश होने लगा था। फिर इसके बाद वास्तविक सभ्यताएं आई जिसमें पहली सभ्यता नव पाषाण कालीन कही जाती है। इस सभ्यता के युग का मनुष्य अपने ही जैसा ही वास्तविक मनुष्य था। अतः यूथिल सम्यता से लेकर नव पाषाण सभ्यता तक का काल पाषाण- युग कहलाता है।
पाषाण युग के बाद मानव जाति में धातु युग का प्रादुर्भाव हुआ। धातु युग का प्रारम्भ ताम्रयुग से होता है। नव पाषाण युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि ही सम्यता की माता थी। आर्य ही संसार में सबसे प्रथम कृषक थे। कृषि के उपयोगी स्थानों की खोज में आर्य पंजाब की भूमि में आए और इसी का नाम सप्तसिन्धु प्रदेश रखा। आर्य लोग सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश में फैल गए, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट था। सरस्वती नदी तट पर ही आर्यों ने ताम्रयुग की स्थापना की। यहाँ उन्हें ताम्बा मिला और वे अपने पत्थर के हथियारों को छोड़कर ताम्बे के हथियारों को काम में लेने लगे। इस ताम्रयुग के चिन्ह अन्वेषकों को " चान्हू डेरों " तथा "विजनौत " नामक स्थानों में खुदाई में मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही है। मैसोपोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता " प्रोटो इलामाइट " सभ्यता कहलाती है। सुमेरू जाति प्रोटाइलामाइट जाति के बाद मैसोपोटामिया में जाकर बसी है। सुमेरू सभ्यता के बाद मिस्र की सभ्यता का उदय हुआ। प्रसिद्ध अमेरिकन पुरातत्वविद् डा० डी० टेरा ने सिन्धु प्रदेश को पत्थर और धातुयुग में मिलानेवाला कहते हैं। ताम्र सभ्यता के बाद काँसे की सम्यता आई। काँसे की सभ्यता संभवतः सुमेरियन लोगों की थी। मैसोपोटामिया के उर- फरा- किश तथा इलाम के सुसा और तपा- मुस्यान आदि जगहों में उन्हें खुदाई में काँसे की सभ्यता के नीचे ताम्र सभ्यता के अवशेष मिले हैं। मैसोपोटामिया में जहाँ जहां इस प्रोटो इलामाइट कही जाने वाली ताम्र सभ्यता के चिन्ह मिले हैं, उसके और सुमेरू जाति की कांसे की सभ्यता के स्तरो के बीच में किसी बहुत बड़ी बाढ़ के पानी द्वारा जमी हुई चिकनी मिट्टी का उसे चार फुट मोटा स्तर प्राप्त हुआ है। योरोपिय पुरातत्ववेत्ताओं का यह मत है कि मिट्टी का यह स्तर उस बड़ी बाढ़ द्वारा बना था, जिसको प्राचीन ग्रन्थों में नूह का प्रलय कहते हैं। ताम्रयुग की प्रोटोइलामाइट सभ्यताके अवशेष इस प्रलय के स्तर के नीचे प्राप्त हुए हैं। इसका यह अर्थ लगाया गया कि इस प्रलय के प्रथम ही प्रोटो इलामाइट सभ्यता का अस्तित्व था। इस सभ्यता के अवशेषों के नीचे कुछ स्थानों में निम्न श्रेणी की पाषाण सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं।
पहला नगरीकरण (३३०० ईसापूर्व१५०० ईसापूर्व)
सिन्धु घाटी सभ्यता
नव पाषाण युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि ही सम्यता की माता थी। आर्य ही संसार में सबसे प्रथम कृषक थे। कृषि के उपयोगी स्थानों की खोज में आर्य पंजाब की भूमि में आए और इसी का नाम सप्तसिन्धु प्रदेश रखा। आर्य लोग सम्पूर्ण सप्तसिन्धु प्रदेश में फैल गए, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट था। सरस्वती नदी तट पर ही आर्यों ने ताम्रयुग की स्थापना की। यहाँ उन्हें ताम्बा मिला और वे अपने पत्थर के हथियारों को छोड़कर ताम्बे के हथियारों को काम में लेने लगे। इस ताम्रयुग के चिन्ह अन्वेषकों को " चान्हू डेरों " तथा "विजनौत " नामक स्थानों में खुदाई में मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही है। मैसोपोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता " प्रोटो इलामाइट " सभ्यता कहाती है। सुमेरू जाति प्रोटाइलामाइट जाति के बाद मैसोपोटामिया में जाकर बसी है। सुमेरू सभ्यता के बाद मिस्र की सभ्यता का उदय हुआ। प्रसिद्ध अमेरिकन पुरातत्वविद् डा० डी० टेरा ने सिन्धु प्रदेश को पत्थर और धातुयुग में मिलानेवाला कहते हैं।
वैदिक सभ्यता (१५०० ईसापूर्व६०० ईसापूर्व)
भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभु मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे।
ईसा से कोई चार सहस्र वर्ष पूर्व भारतवर्ष के मूल पुरुष स्वायंभुव मनु उत्पन्न हुए। इनकी तीन पुत्रियां तथा दो पुत्र हुए। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उतानपाद थे। प्रियव्रत के दस पुत्र हुए। इन्हें प्रियव्रत ने पृथ्वी बांट दी। ज्येष्ठ पुत्र अग्निन्ध्र को उसने जम्बुद्दीप( एशिया) दिया। इसे उसने अपने हाथों नौ पुत्रों में बाँट दिया। बड़े पुत्र नाभि को हिमवर्ष- हिमालय से अरब समुद्र तक देश मिला। नाभि के पुत्र महाज्ञानी- सर्वत्यागी ऋषभ देव हुए। ऋषभदेव के पुत्र महाप्रतापी भरत हुए, जिन्होने अष्ट द्वीप जय किए, और अपने राज्य को नौ भागों में बांटा। भरत के नाम पर हिमवर्ष का नाम भारत, भारतवर्ष या भरतखण्ड प्रसिद्ध हुआ।
इसके अनन्तर इस प्रियव्रत शाखा में पैंतीस प्रजापति और चार मनु हुए। चारों मनुओं के नाम स्वारोचिष, उतम, तामस और रैवत थे। इन मनुओं के राज्यकाल को मन्वन्तर माना गया। चाक्षुष रैवत मन्वन्तर की समाप्ति पर छतीसवां प्रजापति और छठा मनु, स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र उतानपाद की शाखा में चाक्षुष नाम से हुआ। इस शाखा में ध्रुव, चाक्षुष मनु, वेन, पृथु, प्रचेतस आदि प्रसिद्ध प्रजापति हुए। इसी चाक्षुष मन्वन्तर में बड़ी बड़ी घटनाएं हुई। भरतवंश का विस्तार हुआ। राजा की मर्यादा स्थापित हुई। वेदोदय हुआ। इस वंश का वेन प्रथम राजा था। इस वंश का प्रथु- वैन्य प्रथम वेदर्षि था। उसने सबसे प्रथम वैदिक मंत्र रचे। अगम भूमि को समतल किया गया। उसमें बीज बोया गया। इसी के नाम पर भूमि का पृथ्वी नाम विख्यात हुआ। इसी वंश के राजा प्रचेतस ने बहुत से जंगलों को जला कर उन्हें खेती के येाग्य बनाया। जंगल साफ कर नई भूमि निकाली। कृषि का विकास किया। इन छहों मनुओं के काल का समय जो लगभग तेरह सौ वर्ष का काल है, सतयुग के नाम से प्रसिद्ध है। मन्वन्तर काल में वह प्रसिद्ध प्रलय हुआ, जिसमें काश्यप सागर तट की सारी पृथ्वी जल में डूब गई। केवल मन्यु अपने कुछ परिजनो के साथ जीवित बचा।
सतयुग को ऐतिहासिक दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है। एक प्रियव्रत शाखा काल, जिसमें पैंतीस प्रजापति और पांच मनु हुए। दूसरा उतानपाद शाखा काल, जिसमें चाक्षुष मन्वन्तर में दस प्रजापति और राजा हुए।
सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस काल के दो भाग किए जाते हैं। एक प्राकवेद काल, उनतालीसवें प्रजापति तक एवम दूसरा वेदोदय काल। भूमि का बंटवारा, महाजल प्रलय, भूसंस्कार, कृषि, राज्य स्थापना, वेदोदय तथा भारत और पर्शिया में भरतों की विजय इस काल की बड़ी सांस्कृतिक और राजनैतिक घटनाएं है। वेदोदय चाक्षुष मन्वन्तर की सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना है।
चाक्षुष मनु के पाँच पुत्र थे। अत्यराति जानन्तपति, अभिमन्यु, उर, पुर और तपोरत। उर के द्वितीय पुत्र अंगिरा थे। इन छहो वीरों ने पर्शिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उस काल में पर्शिया का साम्राज्य चार खण्डों में विभक्त था। जिनके नाम सुग्द, मरू, वरवधी और निशा थे। बाद में हरयू( हिरात) और वक्रित( काबुल) भी इसी राज्य में मिला लिए गए थे। यहाँ पर प्रियव्रत शाखा के स्वारोचिष मनु के वंशज राज्य कर रहे थे। जानन्तपति महाराज अत्यराति चक्रवर्ती कहे जाते थे। भारतवर्ष की सीमा के अंतिम प्रदेश और पर्शिया का पूर्वी प्रान्त सत्यगिदी के नाम से विख्यात था, उस समय इस स्थान को सत्यलोक भी कहते थे। उसी के सामने सुमेरू के निकट बैकुण्ठ धाम था, जो देमाबन्द- एलवुर्ज पर्वत पर ईरानियन पैराडाइस के नाम से अभी जाना जाता है। देमाबन्द तपोरिया प्रान्त में था। इसी प्रान्त के तपसी विकुण्ठा और उनके पुत्र का नाम बैकुण्ठ था। बैकुण्ठधाम उन्हीं की राजधानी थी।
चक्रवर्ती महाराज अत्यराति जानन्तपति के दूसरे भाई का नाम मन्यु या अभिमन्यु था। प्राचीन पर्शियन इतिहास में उन्हें मैन्यू और ग्रीक में मैमनन कहा गया है। अर्जनेम में अभिमन्यु(अफुमों) दुर्ग के निर्माता तथा ट्राय युद्ध के विजेता यही है। प्रसिद्ध पुराण काव्य 'ओडेसी' में इन्हीं अभिमन्यु महाराज की प्रशस्ति वर्णन की गई है। इन्होंने ही सुषा नाम की नगरी बसाई और उसे अपनी राजधानी बनाया। सुषा संसार भर में प्राचीनतम नगरी थी। इसी का नाम मन्युपुरी था। यह मन्युपूरी वरुण देव के समय में सुषा के नाम से विख्यात था बाद में इंद्रपुरी अमरावती के नाम से विख्यात हुआ। यह प्रसिद्ध नगरी बेरसा नदी के तट पर थी जो उस काल में सभ्यता का केंद्र थी।
चक्रवर्ती महाराज अत्यराति के तीसरे भाई का नाम उर था। इन्होंने अफ्रीका, सीरिया, बेबीलोनिया आदि देशों में विजय प्राप्त किया और ईसा से २००० वर्ष पूर्व अब्राहम को पद से हटाकर पूर्वी मिस्र में अपना राज्य स्थापित किया था। इस बात का संकेत ईसाइयों के पुराने अहदनामें में मिलता है। उर बेबिलोनिया का ही एक प्रदेश था। प्रसिद्ध अप्सरा उर्वशी इसी उर प्रदेश की थी। ईरान के एक पर्वत का नाम भी उरल है। उरमिया प्रदेश भी हैं, जहाँ जोरास्टर का जन्म हुआ था। उर वंशियों के ईरान में उर, पुर और वन ये तीन राज्य स्थापित हुए थे। जल प्रलय से पूर्व बेबीलोनिया में मत्स्य जाति के लोगों का ही राज्य था। यह प्राचीन जाति चिरकाल से उस देश पर शासन करती थी। यह जाति प्रसिद्ध नाविक थी।
चाक्षुष मनु के चौथे पुत्र एवं जानन्तपति महाराजा अत्यराति के भाई का नाम पुर था। इनकी राजधानी एलबुर्ज पर्वत के निकट पुरसिया था। इन्हीं के नाम पर ईरान का नाम पर्शिया पड़़ा।
महाराज अत्यराति के पाँचवे भाई का नाम तपोरत था। इन्होंने तपोरत नाम से अपना राज्य स्थापित किया जो तपोरिया प्रांत कहलाता था। इसी तपोरत प्रदेश में बैकुंठ था जो देमाबंद पर्वत पर है। तपसी बैकुंठ महाराज तपोरत के ही वंशज थे। इन्हीं की राजधानी बैकुंठ धाम थी। तपोरत के राजा बाद में देमाबंद कहाने लगे, जीन्हे हम देवराज कहते हैं। इस तपोरिया भूमि को मजांदिरन भी कहते हैं।
जानन्तपति अत्यराति के वंशज अर्राट थे। आरमेनिया इनका प्रान्त था। अर्राटों ने आगे असुरों से भारी भारी युद्ध किये थे। अर्राट पर्वत भी अत्यराति के नाम पर ही है। सीरिया का नगर अत्यरात (अधरावत ) इन्हीं के नाम पर था।
उर के पुत्र अंगिरा ने अफ्रिका को जीतकर वहाँ राज्य स्थापित किया था। अंगिरा- पिक्यूना के निर्माता और विजेता यही थे। अंगिरा और मन्यु की विजयों और युद्ध अभियानों के वर्णन से ईरानी- हिब्रु धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। इनके सर्वग्राही और भयानक आक्रमण से पददलित होकर ईरान के लोग उन्हें अहित देव- दुखदाई अहरिमन और शैतान कह कर पुकारने लगे। अवस्ता में अंगिरामन्यु- अहरिमन कहा है। बाइबिल में उन्हें शैतान कहा गया है। मिल्टन के " स्वर्गनाश " की कथा में इसी विजेता को शैतान कहा गया है। पाश्चात्य देशों के ग्रन्थ इतिहास इन्हीं छह विजेताओं की दिग्विजय के वर्णनों से भरे पड़े हैं। पाश्चात्य साहित्य में इन्हें विकराल देव और शैटानिक-होस्ट के अधिनायक कहा गया है। ये छहों ईरान के प्राचीन उपास्यदेव हो गए थे। उन्हींकी विजय गाथा मिल्टन ने चालीस वर्ष तक गाये हैं। पाश्चात्य इतिहासवेत्ताओं ने इस आक्रमण का काल ईसा से करीब तेइस सौ वर्ष पूर्व बताते हैं।
भारत के उत्तरापथ में आर्यावर्त था जिसमें दो राज्य थे सूर्य मंडल और चंद्र मंडल। ये दोनों आर्य राज्य समुह थे। सूर्य मंडल में मानव कुल और चंद्र मंडल में एल कुल का राज्य था। सूर्य कुल ने आर्य जाति का निर्माण किया उसी प्रकार वरुण ने सुमेर जाती को जन्म दिया। यह सुमेर जाती सुमेर सभ्यता की प्रस्तारक और इराक के सबसे प्राचीन शासक थी। संसार के पुरातत्वविद् डाक्टर फ्रेंक फोर्ट और लेग्डन आदि यह कहते हैं कि प्रोटो ईलामाइट सभ्यता का ही विकसित रूप सुमेरू सभ्यता है अर्थात प्रोटोइलामाइट सभ्यता से ही सुमेरू सभ्यता का जन्म हुआ है। जल प्रलय के पहले चाक्षुष मनु के वंशज का यहां राज्य था। मनु पुत्र चक्रवर्ती महाराज अत्यराति जानन्तपति यहां के राजा थे। चाक्षुष मनु का वंश ही प्रोटोइलामाइट सभ्यता का जनक था। जल प्रलय में मनु के संपूर्ण वंशज का विनाश हो गया था सिर्फ कुछ को छोड़कर।
दूसरा नगरीकरण (६०० ईसापूर्व२०० ईसापूर्व)
१००० ईसा पूर्व के पश्चात १६ महाजनपद उत्तर भारत में मिलते हैं। ५०० ईसवी पूर्व के बाद, कई स्वतंत्र राज्य बन गए। उत्तर में मौर्य वंश, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक सम्मिलित थे, ने भारत के सांस्कृतिक पटल पर उल्लेखनीय छाप छोड़ी | १८० ईसवी के आरम्भ से, मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप में इंडो-ग्रीक, इंडो-स्किथिअन, इंडो-पार्थियन और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए | तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का "स्वर्णिम काल" कहलाया। दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न समयकाल में कई राजवंश चालुक्य, चेर, चोल, कदम्ब, पल्लव तथा पांड्य चले | विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोल शास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले |
प्रारंभिक मध्यकालीन भारत (२०० ईसापूर्व१२०० ईसवी)
१२वीं शताब्दी के प्रारंभ में, भारत पर इस्लामी आक्रमणों के पश्चात, उत्तरी व केन्द्रीय भारत का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत के शासनाधीन हो गया; और बाद में, अधिकांश उपमहाद्वीप मुगल वंश के अधीन। दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य शक्तिशाली निकला। हालांकि, विशेषतः तुलनात्मक रूप से, संरक्षित दक्षिण में, अनेक राज्य शेष रहे अथवा अस्तित्व में आये।
गत मध्यकालीन भारत (१२०० १५२६ ईसवी)
प्रारंभिक आधुनिक भारत (१५२६ १८५८ ईसवी)
भारत में उपनिवेश और ब्रिटिश राज
१७वीं शताब्दी के मध्यकाल में पुर्तगाल, डच, फ्रांस, ब्रिटेन सहित अनेकों युरोपीय देशों, जो कि भारत से व्यापार करने के इच्छुक थे, उन्होनें देश में स्थापित शासित प्रदेश, जो कि आपस में युद्ध करने में व्यस्त थे, का लाभ प्राप्त किया। अंग्रेज दुसरे देशों से व्यापार के इच्छुक लोगों को रोकने में सफल रहे और १८४० ई तक लगभग संपूर्ण देश पर शासन करने में सफल हुए। १८५७ ई में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध असफल विद्रोह, जो कि भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम से जाना जाता है, के बाद भारत का अधिकांश भाग सीधे अंग्रेजी शासन के प्रशासनिक नियंत्रण में आ गया।
आधुनिक और स्वतन्त्र भारत (१८५० ईसवी के बाद)
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये संघर्ष चला। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप १५ अगस्त, १९४७ ई को सफल हुआ जब भारत ने अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की, मगर देश को विभाजन कर दिया गया। तदुपरान्त २६ जनवरी, १९५० ई को भारत एक गणराज्य बना।
इन्हें भी देखें
भारत का संक्षिप्त इतिहास (स्वतंत्रता-पूर्व)
स्वतन्त्रता के बाद भारत का संक्षिप्त इतिहास
भारत का आर्थिक इतिहास
मगध के राजवंशों और शासकों की सूची
भारत के राजवंशों और सम्राटों की सूची
हिन्दू साम्राज्यों और राजवंशों की सूची
भयानक युद्ध जिन्होंने भारत का इतिहास बदल दिया (हिन्दीवार्ता.कॉम)
भारत का इतिहास (भास्कर)
हिन्दू और जैन इतिहास की रूपरेखा
सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज (गूगल पुस्तक)
हिस्ट्री ऑफ इंडिया (अंग्रेजी में) - राजनैतिक, आर्थिक, संस्थात्मक, शैक्षिक एवं तकनीकी इतिहास
नन्द-मौर्य युगीन भारत (गूगल पुस्तक ; लेखक - नीलकान्त शास्त्री)
वाकटक-गुप्त युग : लगभग २२० से ५५० ई तक भारतीय जन का इतिहास (गूगल पुस्तक)
पूर्व-मध्यकालीन भारत (गूगल पुस्तक; लेखक - श्रीनेत्र पाण्डेय)
हम और हमारी आजादी (गूगल पुस्तक; अंग्रेजों के पूर्व से लेकर इक्कीसवीं सदी के आरम्भ तक भारत का इतिहास)
भारतीय इतिहास - प्रागैतिहासिक काल से स्वातंत्रोत्तर काल तक (गूगल पुस्तक; लेखक - विपुल सिंह)
भारतीय इतिहास : एक समग्र अध्ययन (गूगल पुस्तक ; लेखक - मनोज शर्मा)
मध्यकालीन भारत का इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - शैलेन्द्र सेंगर)
भारतीय इतिहास, एक दृष्टि (गूगल पुस्तक ल; लेखक - डॉ ज्योतिप्रसाद जैन)
भारत का इतिहास |
क़ुरआन (, अल-क़ुर्'आन) इस्लाम की पाक किताब है मुसलमान मानते हैं कि इसे अल्लाह ने फ़रिश्ते जिब्रईल अलैहिस्सलाम द्वारा पैगम्बर मुहम्मद साहब को सुनाया था। मुसलमान मानते हैं कि क़ुरआन ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च और आखरी आसमानी किताब है। हालाँकि आरम्भ में इसका प्रसार मौखिक रूप से हुआ पर पैगम्बर मुहम्मद साहब के विसाल (स्वर्गवास) के बाद सन् ६३३ में इसे पहली बार लिखा गया था और सन् ६५३ में इसे मानकीकृत कर इसकी प्रतियाँ इस्लामी साम्राज्य में वितरित की गईं थी। मुसलमानों का मानना है कि अल्लाह द्वारा भेजे गए पाक संदेशों के सबसे अन्तिम संदेश कुरआन में लिखे गए हैं। इन संदेशों की शुरुआत आदम से हुई थी। हज़रत आदम इस्लामी (और यहूदी तथा ईसाई) मान्यताओं में सबसे पहले नबी (पैगम्बर या पयम्बर) थे।
क़ुरआन अल्लाह/ईश्वर का कलाम (सन्देश) है, जो आखिरी सन्देष्टा पैगंबर मोहम्मद पर अवतरित हुआ। सम्पूर्ण क़ुरआन वही के माध्यम से पूरे २३ साल में नाज़िल (अवतरित) हुआ। क़ुरआन सूरह अल-फातिहा से शुरू हो कर सूरह अन-निसा पर समाप्त होता है। सम्पूर्ण कुरान ३० पारो (खंडों) में विभाजित किया गया है तथा इसमें ११४ सूरतें (अध्याय) हैं। क़ुरआन की कुल ११४ सूरतो में ५५८ रुकू है तथा सम्पूर्ण क़ुरआन में 6२३6 आयत (छंद या वर्स्स) है तथा क़ुरआन में कलिमात यानी (वाक्यों) की संख्या ७७४३९ है (शेख़ मुज़मद रज्जब की किताब "हक़ायक़ हौल-अल-क़ुरआन) तथा क़ुरआन में हुरूफ़ यानी शब्दों की संख्या ३४०७४० है(स्पष्ट नहीं है)। सम्पूर्ण कुरान में कुल १४ सजदे है।
व्युत्पत्ति और अर्थ
"क़ुरआन" शब्द का पहला ज़िक्र ख़ुद क़ुरआन में ही मिलता है जहाँ इसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उचारा। यह शब्द इसके सिरियाई समानांतर कुरियना का अर्थ लेता है जिसका अर्थ होता है ग्रंथों को पाठ करना। हालाँकि पाश्चात्य जानकार इसको सीरियाई शब्द से जोड़ते हैं, अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि इसका मूल क़ुरा शब्द ही है। पर चाहे जो हज़रत मुहम्मद के जन्मदिन के समय ही यह एक अरबी शब्द बन गया था।
ख़ुद क़ुरआन में इस शब्द का कोई ७० बार ज़िक्र हुआ है। इसके अलावे भी क़ुरआन के कई नाम हैं। इसे अल फ़ुरक़ान (कसौटी), अल हिक्मः (बुद्धिमता), धिक्र/ज़िक्र (याद) और मस्हफ़ (लिखा हुआ) जैसे नामों से भी संबोधित किया गया है। क़ुरआन में अल्लाह ने २५ अम्बिया का ज़िक्र किया है।
क़ुरआन शब्द कुरान में लगभग ७० बार प्रकट होता है, जो विभिन्न अर्थों को मानता है। यह अरबी क्रिया क़रा () का एक मौखिक संज्ञा (मसदर) है, जिसका अर्थ है "वह पढ़ता है"। सिरिएक समतुल्य () क़रयाना है, जो "शास्त्र पढ़ने" या "सबक" को संदर्भित करता है। जबकि कुछ पश्चिमी विद्वान इस शब्द को सिरिएक से प्राप्त करने पर विचार करते हैं, मुस्लिम अधिकारियों के बहुमत में शब्द की उत्पत्ति क़रा ही होती है। भले ही, यह मुहम्मद के जीवनकाल में अरबी शब्द बन गया था। शब्द का एक महत्वपूर्ण अर्थ "पाठ का कार्य" है, जैसा कि प्रारंभिक कुरआनी मार्ग में दर्शाया गया है: "यह हमारे लिए इसे इकट्ठा करना और इसे पढ़ना है (क़ुरआनहू)।
अन्य छंदों में, शब्द "एक व्यक्तिगत मार्ग [मुहम्मद द्वारा सुनाई गई]" को संदर्भित करता है। इसका कई संदर्भ में कई प्रकार से अदब किया जाता है। उदाहरण के तौर पर: "जब अल-क़ुरआन पढ़ा जाता है, तो इसे सुनें और चुप रहें।" अन्य धर्मों के ग्रन्थ जैसे तोराह और सुसमाचार के साथ वर्णित अर्थ भी ग्रहण कर सकता है।
इस शब्द में समानार्थी समानार्थी शब्द भी हैं जो पूरे क़ुरआन में नियोजित हैं। प्रत्येक समानार्थी का अपना अलग अर्थ होता है, लेकिन इसका उपयोग कुछ संदर्भों में कुरान के साथ मिल सकता है। इस तरह के शब्दों में किताब (पुस्तक), आयह (इशारा); और सूरा (ग्रान्धिक रूप) शामिल हैं। बाद के दो शब्द भी प्रकाशन की इकाइयों को दर्शाते हैं। संदर्भों के बड़े बहुमत में, आमतौर पर एक निश्चित लेख (अल-) के साथ, शब्द को "प्रकाशन" (वही) के रूप में जाना जाता है, जिसे अंतराल पर "भेजा गया" (तंज़ील) दिया गया है। अन्य संबंधित शब्द हैं: ज़िकर (स्मरण), क़ुरआन को एक अनुस्मारक और चेतावनी के अर्थ में संदर्भित करता है, और हिकमह (ज्ञान), कभी-कभी प्रकाशन या इसके हिस्से का जिक्र करता है।
क़ुरआन खुद को "समझदारी" (अल-फ़ुरकान),"गाइड" (हुदा), "ज्ञान" (हिकमा), "याद" (ज़िक्र) के रूप में वर्णित करता है। और "रहस्योद्घाटन" (तंज़ील ; कुछ भेजा गया है, एक वस्तु के वंश को एक उच्च स्थान से कम जगह पर संकेत)। एक और शब्द अल-किताब (शास्त्र/ग्रंथ) हैं, जैसे तोरात और बाइबिल के लिए अरबी भाषा में भी प्रयोग होता है। मुस्हफ़ ('लिखित कार्य') शब्द का प्रयोग अक्सर विशेष कुरआनी लिपियों के संदर्भ में किया जाता है लेकिन क़ुरआन में भी पहले की किताबों की पहचान करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
क़ुरआन के उतरने और संग्रह व संकलन के बारे में
क़ुरआन एक पवित्र किताब है जो अंतिम नबी हज़रत मुहम्मद पर उतारी गयी। यह अल्लाह/ईश्वर का कलाम (सन्देश) है जिसे अल्लाह ने अपने पैग़म्बर मुहम्मद पर नाज़िल (अवतरित) किया। इस्लाम का आधार इसी आसमानी फ़रमान (आदेश) पर है जिसने इसका अनुपालन किया वह इस्लाम के दायरे में दाख़िल (प्रवेश) हुआ। जब पैग़म्बर मुहम्मद की उम्र ४० साल की हुई उस समय आप को नबुव़त प्रदान की गयी और रिसालत (रसूल अर्थात् दूत का काम,पद) का ताज आप के सर पर रखा गया। इसी ज़माने से क़ुरआन के उतरने की शुरुआत हुई। यदा कदा यथा क़ुरआन ज़रूरत के अवसर पर थोड़ा-थोड़ा २३ साल तक नाज़िल होता रहा है। पिछली आसमानी किताबों (तौरात,इंजील,ज़बूर) की तरह पूरा एक ही बार में नहीं उतरा (हज़रत मूसा अलैहि पर तौरात, हज़रत ईसा अलैहि पर इंजील और हज़रत दाऊद अलैहि पर ज़ुबूर ये सब किताबें एक ही बार में उतरी गयी और सौभाग्य से ये सब किताबें रमज़ान ही के महीने में उतरी)
सही यह है कि आप (सल्ल०) की नबुवत (नबी होने का एलान या घोषणा) के बात रमज़ान की शबे-क़द्र (पवित्र रजनी) में पूरा क़ुरआन लौहे महफूज़ (अल्लाह के पास से) उस आसमान पर जिसे हम देख रहे हैं अल्लाह के हुक्म (आदेश) से उतारा गया और इसके बाद हज़रत जिब्रील अलैहि(देवदूत) को जिस समय हुक्म हुआ उन्होंने पवित्र कलाम को बिल्कुल वैसा ही बिना किसी परिवर्तन या कमी-बेशी के नबी मुहम्मद तक पहुंचाया। कभी दो आयतें (छंद या वर्स्स), कभी तीन आयतें और कभी एक आयत से भी कम, कभी दस-दस आयतें और कभी पूरी-पूरी सूरतें (अध्याय)। इसी को इस्लाम में वह्यी या वह्य कहते हैं। उलमा (विद्वानों) ने वह्यी के विभिन्न तरीके हदीसों से पेश किए हैं
फ़रिश्ता (देवदूत) वह्यी लेकर आए और एक आवाज़ घंटी जैसी मालूम हो। यह स्थिति अनेक हदीसों से साबित है और यह क़िस्म (प्रकार) वह्यी की सभी क़िस्मों में सख़्त थी। बहुत कष्ट नबी सल्ल० को होता था यहां तक कि आपने (मुहम्मद ) ने फ़रमाया (बताया) कि जब कभी ऐसी वह्यी आती है तो मैं समझता हू कि अब जान निकल जाएगी।
फ़रिश्ता दिल में कोई बात डाल दे।
फ़रिश्ता इंसान के रूप में आ कर बात करे। यह क़िस्म बहुत आसान थी इसमें कष्ट न होता था।
अल्लाह तआला जागते में नबी सल्ल० से कलाम (वार्ता या आदेश) फ़रमाए जैसे कि शबे मेअराज (मेअराज की रत) में।
अल्लाह तआला सपने की हालत में कलाम फ़रमाए। यह क़िस्म भी सही हदीसों से साबित है।*
फ़रिश्ता सपने की हालत में आकर कलाम करे।* परन्तु अंतिम दो क़िस्मों से क़ुरआन खाली है। पूरा क़ुरआन जागने की स्थिति में नाज़िल हुआ।
क़ुरआन के बदफ़आत (थोड़ा-थोड़ा या धीरे-धीरे) नाज़िल होने में यह भी हिक्मत (उत्तम युक्ति) थी कि इस में कुछ आयतें वे थीं जिन का किसी समय रद्द कर देना अल्लाह को मंज़ूर था। कुरान में तीन प्रकार के मंसूखात (रद्द करना) हुए हैं। कुछ वे जिनका हुक्म भी मंसूख (रद्द) और तिलावत (उच्चारण) भी मंसूख (रद्द) ।
जब साफ़अे क़ियामत (क़ियामत के दिन सिफ़ारिश करने वाले) और उम्मत को पनाह देने वाले हुज़ूर मुहम्मद ने रफ़ीके आला जल्ल मुजद्दहू की रहमत में सकूनत अख़्तियार फ़रमाई अर्थात इस दुनिया से रुख़्सत (इंतिक़ाल, वफ़ात) फ़रमाई और वह्यी उतरना बंद हो गयी। कुरान किसी किताब में, जैसा कि आजकल है जमा नहीं था अलग-अलग चीजों पर सूरतें और आयतें लिखी हुई थीं और वे अलग-अलग लोगों के पास थीं। अधिकांश सहाबा (पैग़म्बर मुहम्मद के साथी) को क़ुरआन पूरा ज़बानी (मौखिक) याद था। अब से पहले कुरान को एक जगह जमा करने का ख़्याल (विचार) हज़रत अमीरुल मोमिनीन फ़ारुक़ आज़म रज़ि० के दिल में पैदा हुआ और अल्लाह ने उन के ज़रिए (माध्यम) से अपने सच्चे वायदे (वचन) को पूरा किया जो अपने पैग़म्बर से किया था अर्थात कुरान के हम (अल्लाह) हाफ़िज़ है इस का जमा करना और हिफाज़त करना हमारे ज़िम्मे है। यह ज़माना (काल) हज़रत अमीरुल मोमिनीन सिद्दीक अक़बर रज़ि० की ख़िलाफ़ते राशिदा का था। हज़रत फ़ारुक़ रज़ि० ने उन की सेवा में अर्ज़ (निवेदन) किया क़ुरआन के हाफ़िज़ (जिन्हें कुरान मौखिक याद हो) शहीद होते जा रहे हैं और बहुत से यमाना की जंग में शहीद हो गए। मुझे डर है कि यदि यही हाल रहेगा तो बहुत बड़ा हिस्सा कुरान का हाथ से चला जायेगा। अतः मैं उचित समझता हू कि आप इस तरफ़ तवज्जोह (ध्यान) दें और कुरान के जमा करने का प्रबंध करें। हज़रत सिद्दीक़ ने फ़रमाया कि जो काम नबी सल्ल० ने नहीं किया उसको हम कैसे कर सकते हैं ? हज़रत उमर फ़ारुख़ ने अर्ज़ किया कि ख़ुदा की क़सम यह बहुत अच्छा काम है। फिर कभी-कभी हज़रत फ़ारुक़ रज़ि० इसकी याद दिलाते रहे यहां तक कि हज़रत सिद्दीक़ रज़ि० के दिले मुबारक अर्थात ह्रदय में भी यह बात जम गयी। उन्होंने ज़ैद बिन साबित रज़ि० को तलब किया और यह सब क़िस्सा बयान करके फ़रमाया कि कुरान को जमा करने के लिए मैंने आप को चुना है, आप (ज़ैद बिन साबित रज़ि०) क़ातिब-इ-वह्यी (वह्यी को लिखने वाले थे) और जवान व नेक (सज्जन) थे। उन्होंने भी वही बात कही कि जो काम नबी सल्ल० ने नहीं किया, उसको हम लोग कैसे कर सकते हैं ? अन्त में वह राज़ी (सहमत) हो गए और उन्होंने बड़े अह्तमाम (बहुत प्रबन्धित ज़िम्मेदारी) से क़ुरआन को जमा करना शुरू किया।
ज़ैद बिन साबित रज़ि० को चुने जाने की वजह उलमा (विद्वानों) ने यह लिखी है कि हर साल रमज़ान में हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम से नबी सल्ल० क़ुरआन का दौर (पढ़ कर सुनना) किया करते थे और इंतक़ाल के साल में दो बार क़ुरआन का दौर हुआ और ज़ैद बिन साबित रज़ि० इस अंतिम दौरे में शरीक (उपस्थित) थे और इस अंतिम दौर के बाद फिर कोई आयत मंसूख (रद्द) नहीं हुई जितना कुरान इस दौरे में पढ़ा गया, वह सब बाक़ी रहा अर्थात यही पूरा क़ुरआन था अतः उनको (ज़ैद बिन साबित रज़ि०) उन आयतों का ज्ञान था जिनकी तिलावत मंसूख हुई थी अर्थात जिनका पढ़ना मना था और ये आयते क़ुरआन में शामिल नहीं थी। (शरह सन्न:)
जब क़ुरआन सहाबा रज़ि० (पैग़म्बर मुहम्मद के साथीगण) के प्रबन्ध से जमा हो चुका था अर्थात किताब की शक्ल में, हज़रत फ़ारुक़ रज़ि० ने अपनी ख़िलाफ़त के ज़माने में उसकी नज़र सानी (दोबारा देखना) की और जहां कहीं किताब (लिखने में) ग़लती हो गयी थी उसको ठीक किया। सालों इस चिंता में रहे और कभी-कभी सहाबा रज़ि० से मुनाज़िरा (चर्चा) किया। कभी कहीं गलती (लिखने में) दिखती तो फ़ौरन उसको सही कर देते थे फिर जब ये सब दर्जे (पैमाने) तै हो चुके तो हज़रत फ़ारुक़ रज़ि० ने इस के पढ़ने-पढ़ाने की सख़्त व्यवस्था की और हाफ़िज़ सहाबा रज़ि० (कुरान के विद्वान) को दूर के देशों में कुरान व फ़िक़्ह की शिक्षा के लिए भेजा, जिसका सिलसिला आज पूरे विश्व में पंहुचा। सच यह है कि हज़रत फ़ारुक़ रज़ि० का एहसान (कृतज्ञता) इस बारे में पूरी उम्मते मुहम्मदिया (मुसलमानों) पर है। उन्हीं के कारण आज कुरान मुसलमानों के क़िताबी शक़्ल में मौजूद है और आज कुरान की तिलावत (पढ़ना) हर मुस्लिम घरों में की जाती है।
फ़िर हज़रत उस्मान रज़ि० ने अपनी खिलाफ़त के ज़माने में उन्होंने इस मसहफ़ शरीफ़ (क़ुरआन) की सात नक़लें (प्रतियाँ) करा कर दूर-दूर के देशों में भेज दीं। और तिलावत क़िरआत (क़ुरआन पाठ करने के तरीक़ो) की वजह से जो मतभेद और झगड़े हो रहे थे और एक दूसरे की क़िरआत को हक़ के ख़िलाफ़ और ग़लत समझा जाता था, इस सब झगड़ों से इस्लाम को पाक कर दिया अर्थात झगड़ों को ख़त्म कर दिया। केवल एक क़िरआत (कुरान पाठ करने के तरीक़ो) पर सब को सहमत कर दिया।
नबी का दौर
इस्लामी परंपरा से संबंधित है कि मुहम्मद ने पहाड़ों पर हिरा की गुफा में अपनी इबादत के दौरान अपना पहला प्रकाशन प्राप्त किया था। इसके बाद, उन्हें २३ वर्षों की अवधि में पूरा क़ुरआन का खुलासा प्राप्त हुआ। हदीस और मुस्लिम इतिहास के मुताबिक, मुहम्मद मदीना में आकर एक स्वतंत्र मुस्लिम समुदाय का गठन करने के बाद, उन्होंने अपने कई साथी क़ुरआन को पढ़ने और कानूनों को सीखने और सिखाने का आदेश दिया, जिन्हें दैनिक बताया गया था। यह संबंधित है कि कुछ कुरैश जिन्हें बद्र की लड़ाई में कैदियों के रूप में ले जाया गया था, उन्होंने कुछ मुसलमानों को उस समय के सरल लेखन को सिखाए जाने के बाद अपनी आजादी हासिल कर ली। इस प्रकार मुसलमानों का एक समूह धीरे-धीरे साक्षर बन गया। जैसा कि शुरू में कहा गया था, क़ुरआन को तख्तों, खालों, हड्डियों, और के तने के चौड़े लकड़ियों पर दर्ज किया गया था। मुसलमानों के बीच ज्यादातर सूरे उपयोग में थे क्योंकि सुन्नी और शिया दोनों स्रोतों द्वारा कई हदीसों और इतिहास में उनका उल्लेख किया गया है, मुहम्मद के इस्लाम के आह्वान के रूप में क़ुरआन के उपयोग से संबंधित, प्रार्थना करने और पढ़ने के तरीके के रूप में। हालांकि, क़ुरआन ६३२ में मुहम्मद की मृत्यु के समय पुस्तक रूप में मौजूद नहीं था। विद्वानों के बीच एक समझौता है कि मुहम्मद ने खुद को रहस्योद्घाटन नहीं लिखा था।
वैज्ञानिक अध्ययन: इस्लामी इतिहास के शोधकर्ताओं ने समय के साथ इस्लाम के जन्मस्थान और किबला के परिवर्तन की जांच की है। पेट्रीसिया क्रोन, माइकल कुक और कई अन्य शोधकर्ताओं ने पाठ और पुरातात्विक अनुसंधान के आधार पर यह मान लिया है कि "मस्जिद अल-हरम" मक्का में नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिमी अरब प्रायद्वीप में स्थित था। डैन गिब्सन ने कहा कि पहले इस्लामिक मस्जिद और कब्रिस्तान झुकाव (क़िबला) ने पेट्रा की ओर इशारा किया, यहाँ मुहम्मद को अपने पहले रहस्योद्घाटन प्राप्त हुए, और यहाँ इस्लाम की स्थापना हुई।
मक्का नगर और धरम-इ-इस्लाम के बारे पेट्रिसिया क्रोन, डैन गिब्सन व़ माइकेल कूक के अनुसंधान और उन्के नतीजा पर मुस्लिम गवेषक, विद्वानों ने कई सारे ग्रंथेँ और व़ैब सैट पर जव़ाब दे कर उन्के अभियोगों को खंडन करने की प्रयास किया।
सहीह अल-बुख़ारी हदीस में मुहम्मद को रहस्योद्घाटन का वर्णन करते हुए बताया, "कभी-कभी यह घंटी बजने की तरह (प्रकट होता है)" और आइशा ने बताया, "मैंने देखा कि पैगंबर बहुत ही ठंडे दिन में वही से प्रेरित हो रहे हैं और उनके माथे से पसीना निकल रहा था। जैसे ही वही की प्रेरणा खत्म हो जाती तो उनकी बेचैनी दूर होजाती। " कुरान के अनुसार मुहम्मद का पहला प्रकाशन, एक दृष्टि के साथ था। प्रकाशन के माध्यम "एक शक्तिशाली" के रूप में वर्णित किया गया है, वह व्यक्ति जो "सबसे ऊपर क्षितिज पर था जब देखने के लिए स्पष्ट हुआ। फिर वह निकट आ गया और मुहम्मद से बात करने लगा। " इस्लामी अध्ययन विद्वान वेल्च विश्वकोष में बताते हैं कि उनका मानना है कि इन क्षणों पर मुहम्मद की हालत और विवरणों को वास्तविक माना जा सकता है, क्योंकि इन रहस्योद्घाटनों के बाद उन्हें गंभीर रूप से परेशान किया गया था। वेल्च के मुताबिक, मुहम्मद की प्रेरणाओं की अतिमानवी उत्पत्ति के लिए उनके आस-पास के लोगों ने इन दौरे को देखा होगा। हालांकि, मुहम्मद के आलोचकों ने उन्हें एक व्यक्ति, एक कवी या जादूगर होने का आरोप लगाया क्योंकि उनके अनुभव प्राचीन अरब में ऐसे आंकड़ों द्वारा दावा किए गए लोगों के समान थे। वेल्च अतिरिक्त रूप से बताता है कि यह अनिश्चित है कि मुहम्मद के भविष्यवाणियों के प्रारंभिक दावे से पहले या बाद में ये अनुभव हुए थे।
क़ुरआन मुहम्मद को "उम्मी" के रूप में वर्णित करता है, जिसे परंपरागत रूप से "अशिक्षित" के रूप में व्याख्या किया जाता है, लेकिन इसका अर्थ अधिक जटिल है। मध्यकालीन टिप्पणीकारों जैसे अल-तबरी ने कहा कि इस शब्द ने दो अर्थों को प्रेरित किया: पहला, सामान्य रूप से पढ़ने या लिखने में असमर्थता; दूसरा, पिछली किताबों या ग्रंथों की अनुभवहीनता या अज्ञानता (लेकिन उन्होंने पहले अर्थ को प्राथमिकता दी)। मुहम्मद की निरक्षरता को उनकी भविष्यवाणी की वास्तविकता के संकेत के रूप में लिया गया था। उदाहरण के लिए, फखरुद्दीन अल-राज़ी के अनुसार, यदि मुहम्मद ने लेखन और पढ़ाई में महारत हासिल की थी तो संभवतः उन्हें पूर्वजों की किताबों का अध्ययन करने का संदेह होता। वाट जैसे कुछ विद्वान "उम्मी" का दूसरा अर्थ पसंद करते हैं - वे इसे पहले पवित्र ग्रंथों के साथ अपरिचितता को इंगित करने के लिए लेते हैं।
क़ुरआन की अंतिम आयत वर्ष १०वीं हिजरी में धू अल-हिजजाह के इस्लामी महीने के १८ वीं तारीख़ को प्रकट हुई थी, जो एक तारीख है जो मोटे तौर पर फरवरी या मार्च ६३२ से मेल खाती है । पैगंबर ने गदीर ए खुम्म में अपना उपदेश देने के बाद यह खुलासा किया था।
६३२ में मुहम्मद की मृत्यु के बाद, पहले ख़लीफ़ा, अबू बक्र (६३४ ई), बाद में पुस्तक को एक ग्रन्थ में इकट्ठा करने का फैसला किया ताकि इसे संरक्षित किया जा सके। ज़ैद इब्न थाबित (६५५ई) क़ुरआन को इकट्ठा करने वाले पहले व्यक्ति थे क्योंकि वह अल्लाह के नबी मुहम्मद से पढ़े गए अयातों और सूरों को लिखा करते थे। इस प्रकार, शास्त्रीय समूह, सबसे महत्वपूर्ण ज़ैद बिन थाबित (ज़ैद बिन साबित) ने छंद एकत्र किए और पूरी किताब का संकलन करके कुरआन को किताब का रूप दिया था। इस तरह क़ुरआन एक ग्रन्थ के रूप में आगई और उसकी प्रती अबू बक्र के साथ ही रही। इस कार्य के लिए ज़ैद ने उन तमाम पन्ने जिन्हें हड्डी पर, पत्तों पर, पत्थरों पर लिखा गया था और कई लोग कंठस्त भी किये थे उन सब का क्रोडीकरण किया। अबू बकर के बाद, मुहम्मद की विधवा हफसा बिन्त उमर को लगभग ६५० में इस पांडुलिपि को सौंपा गया था। तीसरे खलीफ उथमान इब्न अफ़ान (डी ६५६) ने कुरान के उच्चारण में मामूली मतभेदों को ध्यान में रखना शुरू किया क्योंकि इस्लाम अरब प्रायद्वीप से परे फारस , लेवंट और उत्तरी अफ्रीका में फैला था। पाठ की पवित्रता को संरक्षित करने के लिए, उन्होंने जयद की अध्यक्षता में एक समिति का आदेश दिया ताकि अबू बकर की प्रतिलिपि का उपयोग किया जा सके और क़ुरआन की एक मानक प्रति तैयार की जा सके। इस प्रकार, मुहम्मद की मृत्यु के २० वर्षों के भीतर, क़ुरआन लिखित रूप में प्रतिबद्ध था। यह पाठ उस मॉडल बन गया जहां से मुस्लिम दुनिया के शहरी केंद्रों में प्रतियां बनाई गईं और प्रक्षेपित की गईं, और अन्य संस्करणों को नष्ट कर दिया गया माना जाता है। क़ुरआन पाठ का वर्तमान रूप मुस्लिम विद्वानों द्वारा अबू बकर द्वारा संकलित मूल संस्करण माना जाता है।
शिया के अनुसार, अली इब्न अबी तालिब (डी। ६६१) ने मुहम्मद की मृत्यु के तुरंत बाद कुरान का एक पूर्ण संस्करण संकलित किया। इस पाठ का क्रम उथमान के युग के दौरान बाद में इकट्ठा हुआ था कि इस संस्करण को कालक्रम क्रम में एकत्रित किया गया था। इसके बावजूद, उन्होंने मानकीकृत क़ुरआन के खिलाफ कोई आपत्ति नहीं की और क़ुरआन को परिसंचरण में स्वीकार कर लिया। क़ुरआन की अन्य व्यक्तिगत प्रतियां इब्न मसूद और उबे इब्न काब के कोडेक्स समेत मौजूद हो सकती हैं, जिनमें से कोई भी आज मौजूद नहीं है।
क़ुरआन मुहम्मद के जीवनकाल के दौरान बिखरी हुई लिखित रूप में सबसे अधिक संभावना है। कई स्रोत बताते हैं कि मुहम्मद के जीवनकाल के दौरान बड़ी संख्या में उनके साथी ने खुलासा याद किया था। प्रारंभिक टिप्पणियां और इस्लामी ऐतिहासिक स्रोत क़ुरआन के शुरुआती विकास की उपर्युक्त समझ का समर्थन करते हैं। क़ुरआन अपने वर्तमान रूप में अकादमिक विद्वानों द्वारा मुहम्मद द्वारा बोली जाने वाले शब्दों को रिकॉर्ड करने के लिए आम तौर पर माना जाता है क्योंकि वेरिएंट की खोज ने बहुत महत्व नहीं दिया है। शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फ्रेड डोनर ने कहा कि "... क़ुरआन के एक समान व्यंजन पाठ को स्थापित करने का एक बहुत ही शुरुआती प्रयास था, जो संभवतः संचरण में संबंधित ग्रंथों का एक व्यापक और अधिक विविध समूह था। इस मानकीकृत कैननिकल पाठ के निर्माण के बाद, पहले आधिकारिक ग्रंथों को दबा दिया गया था, और सभी मौजूदा पांडुलिपियों - उनके कई रूपों के बावजूद-इस मानक व्यंजन पाठ की स्थापना के बाद एक समय की तारीख लगती है। " हालांकि क़ुरआन के पाठ के अधिकांश संस्करण रीडिंग को प्रसारित करना बंद कर दिया गया है, कुछ अभी भी हैं। वहां कोई महत्वपूर्ण पाठ नहीं हुआ है जिस पर क़ुरआनी पाठ का विद्वान पुनर्निर्माण आधारित हो सकता है। ऐतिहासिक रूप से, क़ुरआन की सामग्री पर विवाद शायद ही कभी एक मुद्दा बन गया है, हालांकि इस विषय पर बहस जारी है।
१९७२ में, यमन के शहर सना की एक मस्जिद में, पांडुलिपियों की खोज की गई थी जो बाद में उस समय मौजूद सबसे प्राचीन क़ुरआनी पाठ साबित हुए थे। सना की पांडुलिपियों में एक पृष्ठ है जिसमें से चर्मपत्र पुन: प्रयोज्य बनाने के लिए धोया गया है- एक अभ्यास जो प्राचीन समय में लेखन सामग्री की कमी के कारण आम था। हालांकि, बेहोश धोया हुआ अंतर्निहित पाठ ( स्क्रिप्टियो अवरुद्ध ) अभी भी मुश्किल से दिखाई देता है और इसे "पूर्व-उथमानिक" क़ुरआनी सामग्री माना जाता है, जबकि शीर्ष पर लिखे गए पाठ (स्क्रिप्टियो श्रेष्ठ) को उथमानिक समय माना जाता है। रेडियोकार्बन डेटिंग का उपयोग करने वाले अध्ययन से पता चलता है कि चर्मपत्र ६७१ सीई से पहले की अवधि के लिए ९९ प्रतिशत संभावना के साथ दिनांकित हैं।
२०१५ में, १३७० साल पहले डेटिंग करने वाले बहुत ही शुरुआती कुरान के टुकड़े इंग्लैंड के बर्मिंघम विश्वविद्यालय की पुस्तकालय में खोजे गए थे। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी रेडियोकार्बन एक्सेलेरेटर यूनिट द्वारा किए गए परीक्षणों के मुताबिक, "९५% से अधिक की संभावना के साथ, चर्मपत्र ५६८ और ६४५ के बीच था"। पांडुलिपि लिजा अरबी के प्रारंभिक रूप हिजाजी लिपि में लिखी गई है। यह संभवतः क़ुरआन का सबसे पुराना उदाहरण है, लेकिन परीक्षणों की एक विस्तृत तारीख की अनुमति है, इसलिए यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा संस्करणों में से कौन सा सबसे पुराना है। सऊदी विद्वान सौद अल-सरहान ने टुकड़ों की उम्र में संदेह व्यक्त किया है क्योंकि उनमें डॉट्स और अध्याय विभाजक शामिल हैं जिन्हें माना जाता है कि बाद में इसका जन्म हुआ था।
इस्लाम में महत्व
मुस्लिमों का मानना है कि क़ुरआन २३ साल की अवधि में अल्लाह ने जिब्रील के माध्यम से मुहम्मद से दिव्य मार्गदर्शन की पुस्तक बन गया है और कुरान को मानवता के लिए अल्लाह के अंतिम प्रकाशन के रूप में देखता है। इस्लामी और क़ुरआनी संदर्भों में प्रकाशितवाक्य का मतलब है कि अल्लाह का कार्य किसी व्यक्ति को संबोधित करना, प्राप्तकर्ताओं की एक बड़ी संख्या के लिए संदेश भेजना। जिस प्रक्रिया से अल्लाह के संदेशवाहक के दिल में दैवीय संदेश आता है वह तंजिल (नीचे भेजने के लिए) या नुज़ुल (नीचे आना) है। जैसा कि क़ुरआन कहता है, "सच्चाई के साथ हमने इसे नीचे भेज दिया है और सच्चाई के साथ यह नीचे आ गया है।"
क़ुरआन अक्सर अपने पाठ में जोर देता है कि इसे अल्लाह रूप से नियुक्त किया जाता है। क़ुरआन में कुछ छंद यह इंगित करते हैं कि अरबी बोलने वाले भी लोग क़ुरआन को समझेंगे अगर उन्हें सुनाया जाता है। क़ुरआन एक लिखित पूर्व-पाठ, "संरक्षित टैबलेट" को संदर्भित करता है, जो इसे भेजने से पहले भी भगवान के भाषण को रिकॉर्ड करता है।
क़ुरआन बनाया गया मुद्दा यह मुद्दा नौवीं शताब्दी में एक मज़हबी बहस (कुरान की रचना) बन गया। तर्क और तर्कसंगत विचारों के आधार पर एक इस्लामी स्कूल मुताजिलस ने कहा कि क़ुरआन बनाया गया था, जबकि मौलाना की सबसे व्यापक किस्में क़ुरआन को अल्लाह के मानते थे और इसलिए अकुशल थे। सूफी दार्शनिक इस सवाल को कृत्रिम या गलत तरीके से तैयार करते हैं।
मुसलमानों का मानना है कि क़ुरआन का वर्तमान शब्द मुहम्मद को पता चला है, और क़ुरआन १५: ९ की उनकी व्याख्या के अनुसार, यह भ्रष्टाचार से संरक्षित है ("दरअसल, यह वह है जिसने क़ुरआन को भेजा और वास्तव में, हम होंगे इसके अभिभावक। ")। मुस्लिम क़ुरआन को मार्गदर्शक मानते हैं, मुहम्मद की भविष्यवाणी और मजहब की सच्चाई का संकेत की है, और क़ुरआन का अध्ययन करने के लिए भाषाई दृष्टिकोण का उपयोग किया है। अन्य लोग तर्क देते हैं कि क़ुरआन में महान विचार हैं, आंतरिक अर्थ हैं, उम्र के माध्यम से अपनी ताजगी बनाए रखते हैं। और क़ुरआन के ज़रिये व्यक्तिगत स्तर पर और इतिहास में बड़े बदलाव हुए हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि क़ुरआन में वैज्ञानिक जानकारी है जो आधुनिक विज्ञान से सहमत है। कुरान की चमत्कारीता के सिद्धांत पर मुहम्मद की निरक्षरता पर जोर दिया गया है क्योंकि अज्ञात भविष्यद्वक्ता को क़ुरआन लिखने की क्षमता कैसे होगी। इस लिए यह अल्लाह वाणी है।
इस क़ानून की परिभाषा दो स्रोतों से होती है। पहली इस्लाम का धर्मग्रन्थ क़ुरआन है और दूसरा इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा दी गई मिसालें हैं (जिन्हें सुन्नाह कहा जाता है)। इस्लामी क़ानून को बनाने के लिए इन दो स्रोतों को ध्यान से देखकर नियम बनाए जाते हैं। इस क़ानून बनाने की प्रक्रिया को 'फ़िक़्ह' (, फिक)। शरीयत में बहुत से विषयों पर मत है, जैसे कि स्वास्थ्य, खानपान, पूजा विधि, व्रत विधि, विवाह, जुर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था इत्यादि।
पारंपरिक शरिया प्रथाओं में से कुछ में गंभीर "मानवाधिकारों" का उल्लंघन है।
नमाज़ या सलात में
क़ुरआन का पहला सूरा सूरा ए फ़ातिहा दैनिक प्रार्थनाओं (नमाज़) और अन्य अवसरों में पढ़ा और दोहराया जाता है। यह सूरा, जिसमें सात छंद होते हैं, कुरान का सबसे अधिक बार पढ़ा जाने वाला सूरा है:
शुरू करता हूँ ख़ु़दा के नाम से जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है; सब तारीफ ख़ु़दा ही के लिए हैं ज़ो सबक़ा रब अौर मालिक़ है; और सारे जहाँन का पालने वाला बड़ा मेहरबान रहम वाला है; रोज़े जज़ा का मालिक है; ख़ु़दाया हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद चाहते हैं; तो हमको सीधी राह पर साबित क़दम रखवा; उनकी राह जिन्हें तूने (अपनी) नेअमत अता की है न उनकी राह जिन पर तेरा ग़ज़ब ढ़ाया गया और न गुमराहों की। "
क़ुरआन को अन्य वर्ग भी दैनिक प्रार्थनाओं में पढ़ते हैं।
क़ुरआन के लिखित पाठ का सम्मान कई मुसलमानों द्वारा धार्मिक विश्वास का एक महत्वपूर्ण तत्व है, और कुरान को सम्मान के साथ माना जाता है। परंपरा के आधार पर और कुरान की एक शाब्दिक व्याख्या ५६:७९ ("कोई भी स्पर्श नहीं करेगा लेकिन जो शुद्ध हैं"), कुछ मुसलमानों का मानना है कि उन्हें कुरान की एक प्रति छूने से पहले वज़ू (पानी के साथ एक अनुष्ठान साफ) करना होगा, हालांकि यह विचार नहीं है सार्वभौमिक। पुराणी बोसीदा कुरान की प्रतियां कपड़े में लपेटी जाती हैं और एक सुरक्षित जगह में अदब के साथ अनिश्चित काल तक संग्रहीत की जाती हैं। कभी मस्जिद या एक मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया जाता है, या जला दिया जाता है और राख को दफन किया जाता है या पानी पर बिखरा हुआ होता है।
इस्लाम में, धर्मशास्त्र, दर्शन, रहस्यवाद और न्यायशास्त्र समेत अधिकांश बौद्धिक विषयों, कुरान से चिंतित हैं या उनकी शिक्षाओं में उनकी नींव रखते हैं। मुसलमानों का मानना है कि क़ुरआन के प्रचार या पढ़ना अधिक प्राधान्यता रखता है। इस के प्रचार और पढने वालों को दिव्य पुरस्कारों से पुरस्कृत किया जाता है। ऐसा करना विभिन्न प्रकार के अजहर, सवाब या हसनह (हसनत) कहा जाता है।
इस्लामी कला में
क़ुरआन ने इस्लामी कलाओं और विशेष रूप से सुलेख और रोशनी के तथाकथित क़ुरआनी कलाओं को भी प्रेरित किया। क़ुरआन को चित्रकारी छवियों से कभी सजाया नहीं जाता है, लेकिन कई कुरानों को पृष्ठ के मार्जिन में या लाइनों के बीच या सूरे की शुरुआत में सजावटी पैटर्न के साथ सजाया जाता है। इस्लामिक छंद कई अन्य मीडिया, भवनों और मस्जिदों या एल्बमों के लिए मस्जिद लैंप, बर्तनों पर, मिट्टी के बर्तनों और सुलेख के पृष्ठों जैसे सभी आकारों की वस्तुओं पर दिखाई देते हैं।
क़ुरआन में कुल ११४ अध्याय हैं जिन्हें सूरा कहते हैं। बहुचन में इन्हें सूरत कहते हैं। अपने सत्ता समय में हज़रत सिद्दीक़्क़ी अकबर (रज़ि.) द्वारा संकलित क़ुरआन की ९ प्रतियाँ तैयार करके कई देशों में भेजी थी उनमें से दो क़ुरआन की प्रतियाँ अभी भी पूर्ण सुरक्षित हैं। एक ताशक़ंद में और दूसरी तुर्की में मौजूद है। यह ५०० साल पुरानी हैं, इसकी भी जाँच वैज्ञानिक रूप से काराई जा सकती है। फिर यह भी एतिहासिक रूप से प्रमाणित है कि इस किताब में एक मात्रा का भी अंतर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के समय से अब तक नहीं आया है।
पाठ और व्यवस्था
मुख्य लेख: सूरा और आयत
कुरान में अलग-अलग लंबाई के ११४ अध्याय हैं, जिन्हें हर प्रत्येक को सूरा के नाम से जाना जाता है। सुरा को मक्की या मदनी के रूप में वर्गीकृत किया गया है, इस पर निर्भर करता है कि मुहम्मद के मदीना के प्रवास से पहले या बाद में आयात प्रकट किए गए थे या नहीं। हालांकि, मदनी के रूप में वर्गीकृत एक सूरे में मक्की आयत हो सकती है और इसके विपरीत भी। सूरा शीर्षक टेक्स्ट में चर्चा किए गए नाम या गुणवत्ता से, या सूर्या के पहले अक्षर या शब्दों से प्राप्त होते हैं। घटते आकार के क्रम में सूरज मोटे तौर पर व्यवस्थित होते हैं। इस प्रकार सूर्य व्यवस्था प्रकाशन के अनुक्रम से जुड़ी नहीं है। नौवें सूरे को छोड़कर प्रत्येक सूरा बिस्मिल्लाह ( ) के साथ शुरू होता है, जिसका अर्थ अरबी वाक्यांश है जिसका अर्थ है "अल्लाह के नाम पर"। हालांकि, कुरान में रानी शेबा को सुलैमान के पत्र के उद्घाटन के रूप में (कुरान २७:३०) बिस्मिल्लाह मौजूद है। इस तरह कुरान में बिस्मिल्लाह की ११४ घटनाएं अभी भी मौजूद हैं।
प्रत्येक सूरा में कई छंद होते हैं, जिन्हें अयत कहा जाता है, जिसका मूल रूप से भगवान द्वारा भेजा गया "संकेत" या "सबूत" होता है। छंदों की संख्या हर सूरा में अलग है। एक व्यक्तिगत कविता केवल कुछ अक्षर या कई लाइनें हो सकती है। कुरान में छंदों की कुल संख्या ६,23६ है; हालांकि, संख्या भिन्न होती है यदि बिस्मिल्लाह अलग-अलग गिना जाता है।
सूरों में विभाजन के अलावा और स्वतंत्र होने के अलावा, कुरान को पढ़ने में सुविधा के लिए लगभग बराबर लंबाई के हिस्सों में विभाजित करने के कई तरीके हैं। एक महीने में पूरे कुरान के माध्यम से पढ़ने के लिए ३० जुज़ '(बहुवचन अजज़ा) का उपयोग किया जा सकता है। इनमें से कुछ हिस्सों को नामों से जाना जाता है- जो पहले कुछ शब्द हैं जिनके द्वारा जुज़ शुरू होता है। एक जुज़ ' कभी-कभी दो हिज़्ब (बहुवचन हज़ाब) में विभाजित होता है, और प्रत्येक हिजब चार रूब' अल-अहज़ब में विभाजित होता है। एक सप्ताह में कुरान को पढ़ने के लिए कुरान को लगभग सात बराबर भागों, मंजिल (बहुवचन मनाज़िल) में विभाजित किया गया है।
अनुच्छेदों के समान अर्थात् इकाइयों द्वारा एक अलग संरचना प्रदान की जाती है और इसमें लगभग दस आयत शामिल होते हैं। इस तरह के एक खंड को रुकू कहा जाता है।
हुरुफ़ मुक़त्तआत (अंग्रेज़ी अब्ब्रेविएशन्स) (अरबी : ) "बेजुड़े अक्षर"; "रहस्यमय पत्र") ११४ सूरहों में से २९ की शुरुआत में एक और पांच अरबी अक्षरों के संयोजन के संयोजन हैं (अध्याय) [कुरान] के बिस्मिल्ला हिर्रहमा / निर्रहीम|बसमला के बाद। अक्षरों को फवातीह () या "सलामी अक्षर" के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि वे अपने संबंधित सूरों के उद्घाटन बनाते हैं। चार सूरों का नाम उनके मुक़त्ततात, ता-हा, या-सीन, सआद और क़ाफ़ के लिए रखा गया है। अक्षरों का मूल महत्व अज्ञात है। तफसीर ने उन्हें अल्लाह के नाम या गुणों या संबंधित सूरों के नाम या सामग्री के लिए संक्षेप में व्याख्या की है ।
एक अनुमान के मुताबिक कुरान में ७७,४३० शब्द, १८,९९४ अद्वितीय शब्द, १२,१८३ उपजी, ३,३82 लीमा और १,६८५ मूल शब्द शामिल हैं ।
मुख्य लेख: इस्लाम में ईश्वर इस्लामी दर्शन, क़ुरआन और विज्ञान, इस्लामी पैग़म्बर
क़ुरआन की सामग्री बुनियादी इस्लामी मान्यताओं से संबंधित है जिसमें भगवान और पुनरुत्थान के अस्तित्व शामिल हैं। शुरुआती भविष्यद्वक्ताओं, नैतिक और कानूनी विषयों के कथाएं, मुहम्मद के समय, दान और प्रार्थना की ऐतिहासिक घटनाएं कुरान में भी दिखाई देती हैं। कुरान के छंदों में सही और गलत और ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में सामान्य उपदेश शामिल हैं, सामान्य नैतिक पाठों की रूपरेखा से संबंधित हैं। प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित वर्सेज मुसलमानों द्वारा कुरान के संदेश की प्रामाणिकता के संकेत के रूप में व्याख्या की गई है।
कुरान का केंद्रीय विषय एकेश्वरवाद है। भगवान को जीवित, शाश्वत, सर्वज्ञानी और सर्वज्ञ के रूप में चित्रित किया गया है वह सब कुछ, स्वर्ग और पृथ्वी का निर्माता है और उनके बीच क्या है (देखें, उदाहरण के लिए, कुरान १३:१६ , ५०:३८ , आदि)। सभी मनुष्य ईश्वर पर उनकी पूर्ण निर्भरता के बराबर हैं, और उनका कल्याण उनके तथ्य को स्वीकार करने और तदनुसार रहने पर निर्भर करता है।
कुरान भगवान के अस्तित्व को साबित करने के लिए शर्तों का जिक्र किए बिना विभिन्न छंदों में ब्रह्माण्ड संबंधी और आकस्मिक तर्कों का उपयोग करता है। इसलिए, ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है और उसे उत्प्रेरक की आवश्यकता है, और जो भी अस्तित्व में है उसके अस्तित्व के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए। इसके अलावा, ब्रह्मांड के डिजाइन को अक्सर चिंतन के बिंदु के रूप में जाना जाता है: "यह वह है जिसने सद्भाव में सात स्वर्ग बनाए हैं। आप भगवान की सृष्टि में कोई गलती नहीं देख सकते हैं, फिर फिर देखें: क्या आप कोई दोष देख सकते हैं?" </स्पैन>
यहूदी, ईसाई और इस्लामी विचारों के इतिहास में "ईश्वर के बारे में एक मानवशास्त्रीय भाषा" का उपयोग करना या न करना "गहन बहस का विषय" रहा है। एक पर विश्वास, अद्वितीय ईश्वर इस्लामी तौहीद का आधार है अब्राहमिक धर्मों की पवित्र पुस्तकों में मानवरूपी उदाहरण हैं, साथ ही ऐसे भाव भी हैं जो ईश्वर को प्राणियों से अलग करते हैं। एक सामान्य दृष्टिकोण से, यह कहा जा सकता है कि कुरान और बाइबिल में तंजीह की तुलना में अधिक उपमाएं हैं।
पैगंबर और उनकी किताबें (जिन्हें कुरान में अल्लाह द्वारा भेजे जाने के बारे में कहा गया है) खुद को अन्य देवताओं (जैसे, यहोवा) के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। उदाहरण के लिए, एलिय्याह (अरबी में इलियास) एक हिब्रू शब्द है जिसका अर्थ है "मेरा भगवान याहू/जाह है" कुरान में गेब्रियल (जिब्रिल) और मिकेल जैसे एंजेल नाम अन्य अब्राहमिक धर्मों की तरह एल (या इल) से जुड़े हैं।
कुरान में गेब्रियल (जिब्रिल) और मिकेल जैसे एंजेल नाम अन्य अब्राहमिक धर्मों की तरह एल (या इल) से जुड़े हैं। अल्लाहुम्मा, कुरान में भी उल्लेख किया गया है और पारंपरिक रूप से दुआ शुरू करने के लिए इस्लाम में इस्तेमाल किया जाता है, (संभवतः) हिब्रू शब्द एलोहिम का अरबी उच्चारण था एलोहीम का इस्तेमाल हिब्रू में अभिवादन बहुवचन (जिसका अर्थ है "भगवान!") के रूप में किया गया था, जैसे "आपकी महिमा!" वाक्यांश में है। शब्द 'रब (भगवान, मास्टर), ("जो आज्ञा के कारण यहोवा के बजाय प्रयोग किया जाता है" "तू अपने परमेश्वर यहोवा का नाम व्यर्थ नहीं बोलना चाहिए , "पवित्र पुस्तक" में) अक्सर कुरान में भगवान के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
पुराने नियम में "गेहिन्नोम" या हिन्नोम के पुत्र की घाटी यरूशलेम में एक शापित घाटी है (जहां बच्चों की बलि दी गई थी (यिर्मयाह ३२:३५))। सुसमाचारों में, यीशु "गेहन्ना" के बारे में एक ऐसे स्थान के रूप में बात करते हैं जहाँ "कीड़ा कभी नहीं मरता और आग कभी नहीं बुझती"। (मरकुस ९:४८) दूसरी शताब्दी के आसपास लिखी गई एज्रा की अपोक्रिफल पुस्तक में, गेहिन्नोम सजा के एक पारलौकिक स्थान के रूप में प्रकट होता है। यह परिवर्तन बेबीलोन के तल्मूड में पूरा होता है। (लगभग ५०० ईस्वी सन् में लिखा गया) "जहानम" को अक्सर कुरान में अनन्त सजा के स्थान के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
अंतिम दिन यौम अल-क़ियामा और आकिरत (ब्रह्मांड के अंतिम भाग्य) के सिद्धांत कुरान के दूसरे महान सिद्धांत के रूप में माना जा सकता है। यह अनुमान लगाया गया है कि कुरान का लगभग एक तिहाई आकिरात है, अगली दुनिया में बाद के जीवन के साथ और समय के अंत में निर्णय के दिन से निपटने। कुरान के अधिकांश पृष्ठों पर बाद के जीवन का एक संदर्भ है और बाद में जीवन में विश्वास को आम अभिव्यक्ति के रूप में भगवान में विश्वास के साथ संदर्भित किया जाता है: "भगवान और अंतिम दिन में विश्वास करें"। ४४, ५६, ७५, ७८, ८१ और १०१ जैसे कई सूरे सीधे जीवन के बाद और इसकी तैयारी से संबंधित हैं। कुछ सूर्या इस घटना के निकटता को इंगित करते हैं और आने वाले दिनों के लिए लोगों को तैयार होने की चेतावनी देते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्या २२ के पहले छंद, जो शक्तिशाली भूकंप और उस दिन लोगों की परिस्थितियों से निपटते हैं, दिव्य पते की इस शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं: "हे लोग! अपने भगवान का सम्मान करें। समय का भूकंप एक शक्तिशाली है चीज़।"
कुरान अक्सर अपने चित्रण में स्पष्ट होता है कि अंत में क्या होगा। वाट ने अंत समय के कुरान के दृष्टिकोण का वर्णन किया:
"इतिहास की समाप्ति, जब वर्तमान दुनिया खत्म हो जाती है, को विभिन्न तरीकों से संदर्भित किया जाता है। यह 'न्याय का दिन', 'अंतिम दिन,' 'पुनरुत्थान का दिन' या बस 'घंटा' है। ' कम बार यह 'भेद का दिन' होता है (जब अच्छे बुरे से अलग होते हैं), 'इकट्ठा करने का दिन' (मनुष्यों की उपस्थिति में पुरुषों के) या 'बैठक का दिन' (भगवान के साथ पुरुषों का) )। समय अचानक आ जाता है। यह एक चिल्लाहट से, एक गरज से, या तुरही के विस्फोट से घिरा हुआ है। तब एक ब्रह्माण्ड उथल-पुथल होता है। पहाड़ धूल में भंग हो जाते हैं, समुद्र उबलते हैं, सूरज अंधकारमय हो जाता है, सितारे गिरते हैं और आकाश लुढ़का जाता है। भगवान न्यायाधीश के रूप में प्रकट होते हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति को वर्णित करने के बजाय संकेत दिया जाता है। केंद्रीय हित, ज़ाहिर है, न्यायाधीश के समक्ष सभी मानव जाति को इकट्ठा करने में है। सभी उम्र, जीवन में बहाल, जोर से शामिल हो गए। अविश्वासियों की अपमानजनक आपत्तियों के लिए कि पूर्व पीढ़ी लंबे समय से मर चुके थे और अब धूल और मोड़ने वाली हड्डियां थीं, जवाब यह है कि भगवान उन्हें फिर भी जीवन में बहाल करने में सक्षम हैं। "
क़ुरआन मानव आत्मा की प्राकृतिक अमरता पर जोर नहीं देता है , क्योंकि मनुष्य का अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है: जब वह चाहता है, तो वह मनुष्य को मरने का कारण बनता है; और जब वह चाहता है, तो वह शारीरिक पुनरुत्थान में उसे फिर से जीवन में ले जाता है।
प्रेषित (पैगम्बर या नबी)
कुरान के मुताबिक, भगवान ने मनुष्य के साथ संवाद किया और अपनी इच्छा को संकेतों और रहस्योद्घाटनों के माध्यम से जाना। पैगम्बरों, या 'भगवान के संदेशवाहक', रहस्योद्घाटन प्राप्त किया और उन्हें मानवता के लिए पहुंचा दिया। संदेश समान है और सभी मानव जाति के लिए। "तुमसे कुछ भी नहीं कहा गया है कि आपके सामने दूतों से यह नहीं कहा गया था कि आपके भगवान के पास उसकी कमांड क्षमा और साथ ही साथ सबसे गंभीर दंड भी है।" रहस्योद्घाटन सीधे ईश्वर से भविष्यद्वक्ताओं तक नहीं आता है। भगवान के संदेशवाहक के रूप में कार्य करने वाले एन्जिल्स उन्हें दिव्य प्रकाशन प्रदान करते हैं। यह कुरान ४२:५१ में आता है, जिसमें यह कहा गया है: "यह किसी भी प्राणघातक के लिए नहीं है कि भगवान को उनसे बात करनी चाहिए, प्रकाशन के अलावा, या पर्दे के पीछे से, या किसी भी संदेश को प्रकट करने के लिए एक संदेश भेजकर वह होगा।"
क़ुरान पर विशवास नैतिकता का एक मौलिक पहलू है, और विद्वानों ने कुरान में "विश्वास" और "आस्तिक" की अर्थपूर्ण सामग्री निर्धारित करने की कोशिश की है। धार्मिक आचरण से निपटने वाली नैतिक-कानूनी अवधारणाओं और उपदेशों को ईश्वर के प्रति गहन जागरूकता से जोड़ा जाता है, जिससे विश्वास, उत्तरदायित्व और भगवान के साथ प्रत्येक इंसान के अंतिम मुठभेड़ में विश्वास पर जोर दिया जाता है। लोगों को विशेष रूप से जरूरतमंदों के लिए दान के कृत्य करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। विश्वास करने वाले "रात और दिन में, गुप्त और सार्वजनिक रूप से" अपनी संपत्ति का खर्च करने का वादा किया जाता है कि वे "अपने भगवान के साथ अपना इनाम लेंगे, उन पर कोई डर नहीं होगा, न ही वे दुखी होंगे"। यह शादी, तलाक और विरासत के मामलों पर कानून बनाकर पारिवारिक जीवन की पुष्टि भी करता है। ब्याज और जुए जैसे कई अभ्यास प्रतिबंधित हैं। कुरान इस्लामी कानून (शरिया) के मौलिक स्रोतों में से एक है। कुछ औपचारिक धार्मिक प्रथाओं को कुरान में औपचारिक प्रार्थनाओं (सलात) और रमजान के महीने में उपवास सहित महत्वपूर्ण ध्यान मिलता है। जिस तरह से प्रार्थना आयोजित की जानी है, कुरान प्रस्तुति को संदर्भित करता है। चैरिटी, जकात के लिए शब्द का शाब्दिक अर्थ है शुद्धिकरण। कुरान के अनुसार चैरिटी आत्म-शुद्धिकरण का साधन है।
आज मानव अधिकारों की दृष्टि से युद्धों में बंदी महिलाओं की स्थिति एक गंभीर मुद्दा है। कुरान की पारंपरिक व्याख्याओं के अनुसार, इन महिलाओं को कब्जा की गई वस्तु (युद्ध लूट) के रूप में माना जाता है। इन महिलाओं की शादी हुई है या नहीं, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है, और अन्य अर्जित दास महिलाओं की तरह, अधिकार-धारक (योद्धा या खरीदार) उनकी सहमति के बिना उनके शरीर पर यौन व्यवहार कर सकते हैं।(२३:५-६)(देखें:युद्ध अपराध)
विज्ञान में रुचि
ब्रह्मांड विज्ञान; कुरान की आयतों के शाब्दिक और प्रत्यक्ष अर्थों के अनुसार, दुनिया को अल्लाह ने सपाट बनाया था। कुरान की कथा में, अल्लाह अर्श पर बैठता है और ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है, (जिसमें स्वर्ग और पृथ्वी शामिल है), उसने ६ दिनों में बनाया। इस ब्रह्मांड में देवदूत एस, दानव एस, जिन्न एस, शैतान जैसे जीव हैं। सितारों को कभी-कभी राक्षसों को बाहर निकालने के लिए पत्थरों को फेंकने के रूप में उपयोग किया जाता है "जो समाचार चुराने के लिए आकाश में चढ़ते हैं"। (सूरह ६7: १-५) प्रलय का दिन दृश्य भी कुरान के ब्रह्मांड और ईश्वर के मॉडल का प्रतिबिंब है। जब सर्वनाश आएगा, तारे पृथ्वी पर गिरेंगे, गर्भवती महिलाओं का गर्भपात होगा, और लोग डर के मारे भागते रहेंगे। फिर एक वर्ग स्थापित किया जाता है और भगवान को न्याय के वर्ग में लाया जाता है जो एन्जिल्स द्वारा उठाए गए सिंहासन पर होता है और अपने बछड़े को दिखाता है।(६8:४२)
कुरान के बारे में छद्म-वैज्ञानिक दावों की अत्यधिक आलोचना करते हुए खगोलशास्त्री निधल गॉसौम ने कुरान के बारे में प्रोत्साहित किया है कि कुरान "ज्ञान की अवधारणा" विकसित करके प्रदान करता है। वह लिखते हैं: "कुरान सबूत के बिना अनुमान लगाने के खतरे पर ध्यान खींचता है (और उस अनुयायियों का पालन न करें जिसके बारे में आपने (निश्चित) ज्ञान नहीं किया है ... १७:३६) और कई अलग-अलग छंदों में मुसलमानों से पूछता है प्रमाणों की आवश्यकता के लिए (कहो: यदि आप सत्य हैं २: १११), तो सबूत की आवश्यकता है, दोनों धार्मिक विश्वास और प्राकृतिक विज्ञान में। " गुएससोम कुरान के अनुसार "सबूत" की परिभाषा पर घालेब हसन उद्धृत "स्पष्ट और मजबूत ... दृढ़ सबूत या तर्क।" साथ ही, इस तरह का सबूत प्राधिकरण से तर्क पर निर्भर नहीं हो सकता है, पद ५: १०४ का हवाला देते हुए। आखिरकार, पद ४: १७४ के अनुसार, दोनों दावे और अस्वीकृति के सबूत की आवश्यकता होती है। इस्माइल अल- फ़रुकी और ताहा जबीर अलालवानी इस विचार से हैं कि मुस्लिम सभ्यता का कोई भी पुनरुत्थान कुरान के साथ शुरू होना चाहिए; हालांकि, इस मार्ग पर सबसे बड़ी बाधा "ताफसीर (एक्जेजेसिस) और अन्य शास्त्रीय विषयों की सदियों पुरानी विरासत है जो कुरान के संदेश की" सार्वभौमिक, महामारी विज्ञान और व्यवस्थित अवधारणा "को रोकती है। दार्शनिक मोहम्मद इकबाल ने कुरान की पद्धति और महाद्वीप को अनुभवजन्य और तर्कसंगत माना।
यह आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि लगभग ७५० छंद हैं कुरान में प्राकृतिक घटना से निपटने में। इनमें से कई छंदों में प्रकृति का अध्ययन "प्रोत्साहित और अत्यधिक अनुशंसित" है, और अल-बिरूनी और अल-बट्टानी जैसे ऐतिहासिक इस्लामिक वैज्ञानिकों ने कुरान के छंदों से अपनी प्रेरणा ली। मोहम्मद हाशिम कमली ने कहा है कि "वैज्ञानिक अवलोकन, प्रयोगात्मक ज्ञान और तर्कसंगतता" प्राथमिक साधन हैं जिनके साथ मानवता कुरान में इसके लिए निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त कर सकती है। ज़ियाउद्दीन सरदार ने कुरान की बार-बार बुलाए जाने वाले प्राकृतिक घटनाओं पर ध्यान देने और प्रतिबिंबित करने के लिए मुसलमानों के लिए आधुनिक विज्ञान की नींव विकसित करने का मामला बनाया।
भौतिक विज्ञानी अब्दुस सलाम ने अपने नोबेल पुरस्कार भोज पते में कुरान (६७: ३-४) की एक प्रसिद्ध कविता उद्धृत की और फिर कहा: "यह प्रभाव सभी भौतिकविदों का विश्वास है: जितना गहरा हम चाहते हैं, उतना ही अधिक हमारे आश्चर्य उत्साहित, हमारे नज़र का चमक है "। सलाम की मूल मान्यताओं में से एक यह था कि इस्लाम और खोजों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है कि विज्ञान मानवता को प्रकृति और ब्रह्मांड के बारे में बताता है। सलाम ने यह भी राय रखी कि कुरान और अध्ययन और तर्कसंगत प्रतिबिंब की इस्लामी भावना असाधारण सभ्यता के विकास का स्रोत थी। सलाम विशेष रूप से, इब्न अल-हेथम और अल-बिरूनी का अनुभव अनुभवजन्य के अग्रदूतों के रूप में करते थे जिन्होंने प्रयोगात्मक दृष्टिकोण पेश किया, अरिस्टोटल के प्रभाव से तोड़ दिया और इस प्रकार आधुनिक विज्ञान को जन्म दिया। सलाम आध्यात्मिक विज्ञान और भौतिकी के बीच अंतर करने के लिए भी सावधान थे, और अनुभवी रूप से कुछ मामलों की जांच करने के खिलाफ सलाह दी गई थी, जिन पर "भौतिकी चुप है और ऐसा ही रहेगी," जैसे कि सलम के विचार में विज्ञान की सीमाओं के बाहर है और इस प्रकार धार्मिक विचारों को "रास्ता देता है"।
कुरान का संदेश विभिन्न साहित्यिक संरचनाओं और उपकरणों के साथ व्यक्त किया गया है। मूल अरबी में, सूर्या और छंद ध्वन्यात्मक और विषयगत संरचनाओं को नियोजित करते हैं जो पाठ के संदेश को याद करने के लिए दर्शकों के प्रयासों में सहायता करते हैं। मुस्लिम जोर दें (कुरान के अनुसार) कि कुरान की सामग्री और शैली अनुचित है।
कुरान की भाषा को "कविता गद्य" के रूप में वर्णित किया गया है क्योंकि यह कविता और गद्य दोनों का हिस्सा है; हालांकि, यह विवरण कुरानिक भाषा की लयबद्ध गुणवत्ता को व्यक्त करने में विफल होने का जोखिम चलाता है, जो कुछ हिस्सों में अधिक काव्य है और दूसरों में अधिक गद्य जैसा है। कुरान, जबकि पूरे कुरान में पाया गया था, पहले के कई मक्का सूरस में विशिष्ट है, जिसमें अपेक्षाकृत कम छंद गायन के शब्दों को प्रमुखता में फेंक देते हैं। इस तरह के रूप की प्रभावशीलता उदाहरण के लिए सूरा ८१ में स्पष्ट है, और इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन मार्गों ने श्रोताओं के विवेक को प्रभावित किया। छंदों के एक सेट से दूसरे सिग्नल में अक्सर कविता का परिवर्तन चर्चा के विषय में एक बदलाव होता है। बाद के खंड भी इस फॉर्म को संरक्षित करते हैं लेकिन शैली अधिक एक्सपोजिटरी है। ज्युइशेंसायक्लोपिडिया.कॉम क्र्नर, मोसेस ब. एलीजर
कुरान के पाठ में कोई शुरुआत, मध्य या अंत नहीं है, इसकी गैरलाइन संरचना एक वेब या नेट के समान है। पाठ्यचर्या व्यवस्था को कभी-कभी निरंतरता की कमी, किसी भी कालक्रम या विषयगत क्रम और दोहराव की अनुपस्थिति को प्रदर्शित करने के लिए माना जाता है। आलोचक नॉर्मन ओ। ब्राउन के काम का हवाला देते हुए माइकल बेल्स , ब्राउन के अवलोकन को स्वीकार करते हैं कि कुरानिक साहित्यिक अभिव्यक्ति के प्रतीत होने वाले विघटन - बिक्री के वाक्यांश में इसकी बिखरी हुई या खंडित मोड - वास्तव में एक साहित्यिक डिवाइस सक्षम है गहरा प्रभाव देने के लिए जैसे भविष्यवाणी संदेश की तीव्रता मानव भाषा के वाहन को तोड़ रही थी जिसमें इसे संप्रेषित किया जा रहा था। बेचना कुरान की अधिक चर्चा की पुनरावृत्ति को भी संबोधित करता है, इसे एक साहित्यिक उपकरण के रूप में भी देखता है।
एक पाठ आत्म-संदर्भित होता है जब यह स्वयं के बारे में बोलता है और खुद को संदर्भित करता है। स्टीफन वाइल्ड के अनुसार, कुरान संचरित होने वाले शब्दों को समझाने, वर्गीकृत करने, व्याख्या करने और न्यायसंगत करके इस मेटाटेक्स्टिलिटी को दर्शाता है। उन अनुच्छेदों में आत्म- रेफरेंसियलिटी स्पष्ट है जहां कुरान स्वयं को एक आत्मनिर्भर तरीके से (प्रकाशन (स्पष्ट रूप से अपनी दिव्यता पर जोर देते हुए, ' (स्मरण), समाचार ( नाबा'), मानदंड (फरकन) के रूप में स्वयं को प्रकट करने के रूप में संदर्भित करता है। एक धन्य याद है जिसे हमने नीचे भेज दिया है, तो क्या आप अब इसे अस्वीकार कर रहे हैं? "), या" कहें "टैग की लगातार उपस्थिति में, जब मुहम्मद को बोलने का आदेश दिया जाता है (उदाहरण के लिए," कहो: "भगवान का मार्गदर्शन सच मार्गदर्शन है "," कहो: 'क्या आप हमारे साथ भगवान के विरुद्ध विवाद करेंगे?' ")। जंगली के अनुसार कुरान अत्यधिक आत्म-संदर्भित है। प्रारंभिक मक्का सुरस में यह सुविधा अधिक स्पष्ट है।
मुख्य लेख: तफ़सीर
कुरान ने कुरान के छंदों के अर्थों को समझाने, उनके आयात को स्पष्ट करने और उनके महत्व को जानने के उद्देश्य से टिप्पणी और व्याख्या (तफ़सीर) का एक विशाल निकाय उड़ाया है।
तफसीर मुसलमानों की सबसे शुरुआती शैक्षणिक गतिविधियों में से एक है। कुरान के अनुसार, मुहम्मद पहला व्यक्ति था जिसने प्रारंभिक मुसलमानों के लिए छंदों के अर्थों का वर्णन किया था। अन्य शुरुआती निकायों में मुहम्मद के कुछ साथी शामिल थे, जैसे ' अली इब्न अबी तालिब ,' अब्दुल्ला इब्न अब्बास , अब्दुल्ला इब्न उमर और उबेय इब्न काब । उन दिनों में एक्जेजेसिस कविता के साहित्यिक पहलुओं, इसके प्रकाशन की पृष्ठभूमि और कभी-कभी, दूसरे की मदद से एक कविता की व्याख्या के स्पष्टीकरण तक ही सीमित था। यदि कविता एक ऐतिहासिक घटना के बारे में थी, तो कभी-कभी मुहम्मद की कुछ परंपराओं (हदीस) को इसका अर्थ स्पष्ट करने के लिए वर्णित किया गया था।
चूंकि कुरान शास्त्रीय अरबी में बोली जाती है, बाद में कई इस्लाम (ज्यादातर गैर-अरब) में परिवर्तित नहीं होते थे, वे हमेशा कुरानिक अरबी को नहीं समझते थे, उन्होंने उन मुसलमानों को नहीं पकड़ा जो मुसलमानों के अरबी में धाराप्रवाह थे और वे सुलझाने से चिंतित थे कुरान में विषयों के स्पष्ट संघर्ष। अरबी में टिप्पणी करने वाले टिप्पणीकारों ने संकेतों को समझाया, और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझाया कि मुहम्मद के भविष्यवाणियों के कैरियर में कुरान के छंदों का खुलासा किया गया था, जो कि सबसे शुरुआती मुस्लिम समुदाय के लिए उपयुक्त था, और जिसे बाद में प्रकट किया गया था, रद्द करना या " निरस्त करना " नासख ) पहले के पाठ (मानसख)। हालांकि, अन्य विद्वानों का कहना है कि कुरान में कोई निरसन नहीं हुआ है। अहमदीय मुस्लिम समुदाय ने कुरान पर दस खंड वाली उर्दू टिप्पणी प्रकाशित की है, जिसका नाम ताफसीर ई कबीर है ।
गूढ़ व्याख्या या सूफी व्याख्या कुरान के आंतरिक अर्थों का अनावरण करने का प्रयास करती है। सूफीवाद छंदों के स्पष्ट ( ज़हीर ) बिंदु से आगे बढ़ता है और इसके बजाय कुरान के छंद को आंतरिक या गूढ़ (बातिन) और चेतना और अस्तित्व के आध्यात्मिक आयामों से संबंधित करता है। सैंड्स के अनुसार, गूढ़ व्याख्याएं घोषणात्मक से अधिक सूचक हैं, वे स्पष्टीकरण (तफसीर) के बजाय संकेत (इशारात) हैं। वे संभावनाओं को इंगित करते हैं जितना कि वे प्रत्येक लेखक की अंतर्दृष्टि का प्रदर्शन करते हैं।
एनाबेल केलर के अनुसार सूफी व्याख्या, प्यार के विषय के उपयोग का भी उदाहरण है, उदाहरण के लिए कुरैरी की कुरान की व्याख्या में देखा जा सकता है। कुरान ७: १४३ कहता है:
जब मूसा उस वक्त आया जब हमने नियुक्त किया, और उसके अल्लाह ने उससे बात की, तो उसने कहा, 'हे मेरे अल्लाह, मुझे अपने आप को दिखाओ! मुझे तुम्हे देखने दो!' उसने कहा, 'तुम मुझे नहीं देखोगे, लेकिन उस पहाड़ को देखो, अगर यह दृढ़ रहता है तो आप मुझे देखेंगे।' जब उसके भगवान ने पहाड़ पर खुद को प्रकट किया, तो उसने इसे खराब कर दिया। मूसा बेहोश हो गया। जब वह ठीक हो गया, उसने कहा, 'जय हो! मैं तुमसे पश्चाताप करता हूँ! मैं विश्वास करने वाला पहला व्यक्ति हूं!
७: १४३ में मूसा, प्रेम में रहने वालों का मार्ग आता है, वह एक दृष्टि मांगता है लेकिन उसकी इच्छा से इनकार किया जाता है, उसे पहाड़ के अलावा अन्य देखने के लिए आज्ञा दी जाती है, जबकि पर्वत देखने में सक्षम होता है परमेश्वर। पर्वत पर भगवान के प्रकट होने की दृष्टि से पर्वत चूर और मूसा बेहोश होजाते हैं। कुशायरी के शब्दों में, मूसा हजारों पुरुषों की तरह आया जिन्होंने महान दूरी की यात्रा की, और मूसा के मूसा को कुछ भी नहीं बचा था। खुद से उन्मूलन की स्थिति में, मूसा को वास्तविकताओं का अनावरण दिया गया था। सूफी के दृष्टिकोण से, भगवान हमेशा प्रिय और रास्ते में रहने वाले की इच्छा और पीड़ा सच्चाई को साकार करने का कारण बनती है।
मुहम्मद हुसैन ताबाबातेई कहते हैं कि बाद के उत्थानों के बीच लोकप्रिय स्पष्टीकरण के अनुसार, ताविल का अर्थ है कि एक कविता का निर्देश दिया गया है। तावल के विरोध में, प्रकाशन ( तंजिल ) का अर्थ, शब्दों के स्पष्ट अर्थ के अनुसार स्पष्ट है, जैसा कि उन्हें बताया गया था। लेकिन यह स्पष्टीकरण इतना व्यापक हो गया है कि, वर्तमान में, यह ताविल का प्राथमिक अर्थ बन गया है, जिसका मूल रूप से "वापसी करने" या "वापसी स्थान" का अर्थ था। तबाताई के विचार में, जिसे ताइविल या कुरान की हर्मेन्यूटिक व्याख्या कहा जाता है, को शब्दों के संकेत के साथ चिंतित नहीं है। इसके बजाय, यह कुछ सच्चाई और वास्तविकताओं से संबंधित है जो पुरुषों के सामान्य भाग की समझ से परे है; फिर भी यह इन सत्यों और वास्तविकताओं से है कि सिद्धांत के सिद्धांत और कुरान के व्यावहारिक निषेध जारी हैं। व्याख्या कविता का अर्थ नहीं है बल्कि यह उस अर्थ के माध्यम से पारगमन के एक विशेष प्रकार में पारदर्शी है। एक आध्यात्मिक वास्तविकता है- जो एक कानून का पालन करने का मुख्य उद्देश्य है, या दैवीय गुण का वर्णन करने का मूल उद्देश्य है- और फिर एक वास्तविक महत्व है कि एक कुरान की कहानी का संदर्भ है। तबतबा'ई, तफ्सीर अल-मिज़न, टॉपिक: डेसिजिव एंड अंबिगुस वर्स्स एंड "ता'विल"
शिया मान्यताओं के अनुसार, जो मुहम्मद और इमाम जैसे ज्ञान में दृढ़ता से निहित हैं, कुरान के रहस्यों को जानते हैं। तबाताई के अनुसार, बयान "कोई भी भगवान को छोड़कर इसकी व्याख्या को जानता है" किसी भी विरोधी या योग्यता खंड के बिना मान्य रहता है। इसलिए, जहां तक इस कविता का सवाल है, कुरान की व्याख्या का ज्ञान भगवान के लिए आरक्षित है। लेकिन तबताबाई अन्य छंदों का उपयोग करता है और निष्कर्ष निकाला है कि जो लोग भगवान द्वारा शुद्ध हैं कुरान की व्याख्या कुछ हद तक पता है।
तबाताई के अनुसार, स्वीकार्य और अस्वीकार्य गूढ़ व्याख्याएं हैं। स्वीकार्य ता'विल अपने शाब्दिक अर्थ से परे एक कविता के अर्थ को संदर्भित करता है; बल्कि अंतर्निहित अर्थ, जो अंततः केवल भगवान के लिए जाना जाता है और अकेले मानव विचारों के माध्यम से सीधे समझा नहीं जा सकता है। प्रश्न में छंद यहां आने, जाने, बैठने, संतुष्टि, क्रोध और दुःख के मानवीय गुणों को संदर्भित करते हैं, जिन्हें स्पष्ट रूप से भगवान के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है । अस्वीकार्य ता'विल वह है जहां एक सबूत के माध्यम से एक अलग अर्थ के लिए एक कविता का स्पष्ट अर्थ "स्थानांतरित" होता है; यह विधि स्पष्ट विसंगतियों के बिना नहीं है। यद्यपि यह अस्वीकार्य ता'विल ने काफी स्वीकृति प्राप्त की है, यह गलत है और कुरानिक छंदों पर लागू नहीं किया जा सकता है। सही व्याख्या यह है कि वास्तविकता एक कविता को संदर्भित करती है। यह सभी छंदों में पाया जाता है, निर्णायक और अस्पष्ट एक जैसे; यह शब्द का अर्थ नहीं है; यह एक तथ्य है कि शब्दों के लिए बहुत शानदार है। भगवान ने उन्हें अपने दिमाग में थोड़ा सा लाने के लिए शब्दों के साथ तैयार किया है; इस संबंध में वे कहानियों की तरह हैं जिनका उपयोग दिमाग में एक तस्वीर बनाने के लिए किया जाता है, और इस प्रकार श्रोता को स्पष्ट रूप से इच्छित विचार को समझने में मदद मिलती है।
सूफी की टिप्पणियों का इतिहास
१२ वीं शताब्दी से पहले गूढ़ व्याख्या के उल्लेखनीय लेखकों में से एक सुलामी (डी। १०२१) है जिसका काम बिना शुरुआती सूफी की अधिकांश टिप्पणियों को संरक्षित नहीं किया गया था। सुलामी की प्रमुख टिप्पणी हैकिक अल-ताफसीर (" एक्जेजेसिस के सत्य") की एक पुस्तक है जो पहले सूफी की टिप्पणियों का संकलन है। ११ वीं शताब्दी से कुशायरी (डी। १०७४), दयालम (डी। ११93), शिराज़ी (डी। १२09) और सुहरावर्दी (डी। १२34) की टिप्पणियों सहित कई अन्य काम सामने आए। इन कार्यों में सुलामी की किताबों और लेखक के योगदान से सामग्री शामिल है। कई काम फारसी में लिखे गए हैं जैसे कि मबड़ी (डी। ११35) कश्फ अल-असर ("रहस्यों का अनावरण") के काम। रुमी (डी। १२73) ने अपनी पुस्तक मथनावी में विशाल रहस्यमय कविता लिखी थी। रुमी अपनी कविता में कुरान का भारी उपयोग करता है, एक ऐसी विशेषता जिसे कभी-कभी रुमी के काम के अनुवाद में छोड़ दिया जाता है। मथनावी में बड़ी संख्या में कुरानिक मार्ग पाए जा सकते हैं, जिनमें से कुछ कुरान की एक सूफी व्याख्या पर विचार करते हैं। रुमी की पुस्तक कुरान पर उद्धरण और विस्तार के लिए असाधारण नहीं है, हालांकि, रुमी कुरान का अधिक बार उल्लेख करता है। सिमनानी (डी। १३३६) ने कुरान पर गूढ़ एकेगेसिस के दो प्रभावशाली कार्यों को लिखा था। उन्होंने सुन्नी इस्लाम की भावनाओं के साथ और भौतिक संसार में भगवान के अभिव्यक्ति के विचारों को सुलझा लिया। १८ वीं शताब्दी में इस्माइल हाकी बुर्सवी (डी। १७२५) के काम जैसे व्यापक सूफी टिप्पणियां दिखाई देती हैं। उनके काम रूह अल-बायान (स्पष्टता की आत्मा) एक विशाल मारिफ़त है। अरबी में लिखा गया है, यह लेखक के अपने विचारों को उनके पूर्ववर्तियों (विशेष रूप से इब्न अरबी और गजली ) के साथ जोड़ता है।
अर्थ के स्तर
सलफ़ी और ज़ाहिरी के विपरीत, शिया और सूफ़ी के साथ-साथ कुछ अन्य मुस्लिम दार्शनिकों का मानना है कि कुरान का अर्थ शाब्दिक पहलू तक ही सीमित नहीं है। उनके लिए, यह एक आवश्यक विचार है कि कुरान में भी आंतरिक पहलू हैं। हेनरी कॉर्बिन एक हदीस का वर्णन करता है जो मुहम्मद वापस जाता है:
क़ुरआन में बाहरी उपस्थिति और एक छिपी गहराई, एक असाधारण अर्थ और एक गूढ़ अर्थ है। बदले में यह गूढ़ अर्थ एक गूढ़ अर्थ छुपाता है (इस गहराई में खगोलीय क्षेत्रों की छवि के बाद गहराई होती है, जो एक-दूसरे के भीतर संलग्न होती हैं)। तो यह सात गूढ़ अर्थों (छिपी गहराई की सात गहराई) के लिए चला जाता है।
इस विचार के अनुसार, यह भी स्पष्ट हो गया है कि कुरान का आंतरिक अर्थ अपने बाहरी अर्थ को खत्म या अमान्य नहीं करता है। इसके बजाय, यह आत्मा की तरह है, जो शरीर को जीवन देता है। कॉर्बिन इस्लामिक दर्शन में एक भूमिका निभाने के लिए कुरान को मानता है, क्योंकि नैनोविज्ञान स्वयं भविष्यवक्ता के साथ हाथ में आता है।
पाठ के ज़हीर (बाहरी पहलुओं) से निपटने वाली टिप्पणियों को ताफसीर कहा जाता है, और बैटिन से निपटने वाली हर्मेनेटिक और गूढ़ टिप्पणियों को ताविल ("व्याख्या" या "स्पष्टीकरण" कहा जाता है), जिसमें पाठ को इसकी शुरुआत में वापस लेना शामिल है। एक गूढ़ स्लंट के साथ टिप्पणीकारों का मानना है कि कुरान का अंतिम अर्थ केवल भगवान के लिए जाना जाता है। इसके विपरीत, कुरानिक शाब्दिकता , इसके बाद सलाफिस और जहीरिस , यह विश्वास है कि कुरान को केवल इसके स्पष्ट अर्थ में ही लिया जाना चाहिए।
पुनर्मूल्यांकन कुछ पूर्व मुसलमानों की हर्मेनियुटील शैली का नाम है जो ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं। उनकी शैली या पुनरावृत्ति विज्ञापन और गैर-व्यवस्थित है और माफी मांगने की दिशा में तैयार है। व्याख्या की यह परंपरा निम्नलिखित प्रथाओं पर आधारित है: व्याकरण संबंधी पुनर्विचार, पाठ्यचर्या वरीयता, पुनर्प्राप्ति, और रियायत का पुनर्विचार।
मुख्य लेख: कुरआन के अनुवादों की सूची
यह भी देखें: कुरान के अनुवादों की सूची
कुरान का अनुवाद हमेशा समस्याग्रस्त और कठिन रहा है। कई लोग तर्क देते हैं कि कुरानिक पाठ को किसी अन्य भाषा या रूप में पुन: उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, एक अरबी शब्द के संदर्भ के आधार पर कई अर्थ हो सकते हैं, सटीक अनुवाद को और भी कठिन बनाते हैं।
फिर भी, कुरान का अनुवाद अधिकांश अफ्रीकी, एशियाई और यूरोपीय भाषाओं में किया गया है। कुरान का पहला अनुवादक सलमान फारसी था , जिसने सातवीं शताब्दी के दौरान सूरत अल-फतिहा का अनुवाद फारसी में किया था। हिंदू राजा मेहरक के अनुरोध पर अब्दुल्ला बिन उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के आदेशों से कुरान का एक और अनुवाद अलवर ( सिंध , भारत , अब पाकिस्तान ) में ८८४ में पूरा हुआ था।
कुरान के पहले पूर्ण प्रमाणित पूर्ण अनुवाद फारसी में १० वीं और १२ वीं सदी के बीच किए गए थे। सामनिद राजा, मंसूर प्रथम (९६१- ९७६) ने कोरसैन के विद्वानों के समूह को मूल रूप से अरबी में, ताफसीर अल- ताबारी का अनुवाद करने का आदेश दिया। बाद में ११ वीं शताब्दी में, अबू मंसूर अब्दुल्ला अल-अंसारी के छात्रों में से एक ने फारसी में कुरान के एक पूर्ण ताफसीर को लिखा। १२ वीं शताब्दी में, नजम अल-दीन अबू हाफ्स अल-नासाफी ने कुरान का अनुवाद फारसी में किया था। सभी तीन पुस्तकों की पांडुलिपियां बचे हैं और कई बार प्रकाशित हुई हैं।
इस्लामी परंपरा में यह भी कहा गया है कि अनुवाद एबीसिनिया और बीजान्टिन सम्राट हेराकेलियस के सम्राट नेगस के लिए किए गए थे, क्योंकि दोनों को मुहम्मद द्वारा कुरान से छंद युक्त पत्र प्राप्त हुए थे । सदियों की शुरुआत में, अनुवादों की अनुमति एक मुद्दा नहीं था, लेकिन क्या कोई प्रार्थना में अनुवाद का उपयोग कर सकता था।
१९३६ में, १०२ भाषाओं में अनुवाद ज्ञात थे। २०१० में, हुर्रियेट डेली न्यूज एंड इकोनॉमिक रिव्यू ने बताया कि कुरान को तेहरान में १८ वें अंतरराष्ट्रीय कुरान प्रदर्शनी में ११२ भाषाओं में प्रस्तुत किया गया था।
पीटर के आदरणीय , लेक्स महुमेट स्यूडोप्रोफेट के लिए कुरान के केटटन के ११४३ अनुवाद के रॉबर्ट , पश्चिमी भाषा ( लैटिन ) में सबसे पहले थे। अलेक्जेंडर रॉस ने एंड्रयू डु रियर द्वारा एल 'अलकोरन डी महोमेट (१६४७) के फ्रांसीसी अनुवाद से १६४९ में पहला अंग्रेजी संस्करण पेश किया। १७३४ में, जॉर्ज सेल ने कुरान के पहले विद्वानों का अनुवाद अंग्रेजी में किया; दूसरा १९३७ में रिचर्ड बेल द्वारा और १ ९ ५५ में आर्थर जॉन आर्बेरी द्वारा एक और उत्पादित किया गया था। ये सभी अनुवादक गैर-मुसलमान थे। मुसलमानों द्वारा कई अनुवाद हुए हैं। अहमदीय मुस्लिम समुदाय ने ५० अलग-अलग भाषाओं में कुरान के अनुवाद प्रकाशित किए हैं पांच खंड वाली अंग्रेजी कमेंट्री और कुरान का अंग्रेजी अनुवाद ।
बाइबिल के अनुवाद के साथ, अंग्रेजी अनुवादकों ने कभी-कभी अपने आधुनिक या पारंपरिक समकक्षों पर पुरातन अंग्रेजी शब्दों और निर्माण का पक्ष लिया है; उदाहरण के लिए, दो व्यापक रूप से पढ़ने वाले अनुवादक, ए यूसुफ अली और एम। मार्मड्यूक पिकथल, अधिक आम " आप " के बजाय बहुवचन और एकवचन "ये" और "तू" का उपयोग करते हैं।
गुरुमुखी में कुरान शरीफ का सबसे पुराना गुरुमुखी अनुवाद पंजाब के मोगा जिले के गांव लैंडे में पाया गया है, जिसे १९११ में मुद्रित किया गया था।
पठन के नियम
कुरान का उचित पाठ ताजविद नामक एक अलग अनुशासन का विषय है जो विस्तार से निर्धारित करता है कि कुरान को कैसे पढ़ा जाना चाहिए, प्रत्येक व्यक्ति के अक्षर को कैसे उच्चारण किया जाना चाहिए, उन स्थानों पर ध्यान देने की आवश्यकता जहां विराम होना चाहिए, एलिसन्स के लिए , जहां उच्चारण लंबा या छोटा होना चाहिए, जहां अक्षरों को एक साथ सुनाया जाना चाहिए और जहां उन्हें अलग रखा जाना चाहिए, आदि। यह कहा जा सकता है कि यह अनुशासन कुरान के उचित पाठ के नियमों और विधियों का अध्ययन करता है और तीन मुख्य क्षेत्रों: व्यंजनों और स्वरों का उचित उच्चारण (कुरानिक ध्वनियों की अभिव्यक्ति), पठन में विराम के नियम और पठन की बहाली, और पाठ की संगीत और सुन्दर विशेषताएं।
गलत उच्चारण से बचने के लिए, अभिलेख जो अरबी भाषा के देशी वक्ताओं नहीं हैं मिस्र या सऊदी अरब जैसे देशों में प्रशिक्षण के कार्यक्रम का पालन करते हैं। कुछ मिस्र के पाठकों के पठन पढ़ने की कला के विकास में अत्यधिक प्रभावशाली थे। दक्षिणपूर्व एशिया विश्व स्तरीय पाठ के लिए जाना जाता है, जो कि जकार्ता के मारिया उलफाह जैसी महिला पाठकों की लोकप्रियता में प्रमाणित है।
दो प्रकार के पाठ हैं: मुरत्तल धीमी रफ्तार से है, जो अध्ययन और अभ्यास के लिए उपयोग किया जाता है। मुजावाड़ एक धीमी पठन को संदर्भित करता है जो प्रशिक्षित विशेषज्ञों द्वारा सार्वजनिक प्रदर्शन के रूप में तकनीकी कलात्मकता और सुन्दर मॉडुलन को बढ़ाता है। मुजवाड़ पाठक श्रोताओं को शामिल करने की इच्छा रखने के लिए दर्शकों पर निर्देशित और निर्भर है।
९वीं शताब्दी के अंत तक विशिष्ट स्वर ध्वनियों को इंगित करने वाले वोकलाइजेशन मार्कर अरबी भाषा में पेश किए गए थे। पहली कुरानिक पांडुलिपियों में इन अंकों की कमी थी, इसलिए कई पाठ स्वीकार्य रहते हैं। दोषपूर्ण स्वर की प्रकृति द्वारा अनुमत पाठ के रीडिंग में भिन्नता १० वीं शताब्दी के दौरान क़राअत की संख्या में वृद्धि हुई। बगदाद, इब्न मुजाहिद से १० वीं शताब्दी के मुस्लिम विद्वान कुरान के सात स्वीकार्य पाठ क़राअत स्थापित करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने विभिन्न क़राअत और उनकी भरोसेमंदता का अध्ययन किया और मक्का, मदीना, कूफ़ा, बसरा और दमिश्क के शहरों से सात ८ वीं शताब्दी के क़रीयों को चुना। इब्न मुजाहिद ने यह नहीं समझाया कि उन्होंने छः या दस की बजाय सात पाठकों को क्यों चुना, लेकिन यह एक भविष्यवाणी परंपरा (मुहम्मद की कहानियों ) से संबंधित हो सकता है कि कुरान को सात " अरुफ " (अर्थात् सात अक्षरों या मोड) में प्रकट किया गया था। आज, सबसे लोकप्रिय क़ारी हाफ़िज़ (डी। 7९6) और वारश (डी। ८12) द्वारा प्रेषित हैं जो इब्न मुजाहिद के दो पाठकों, आसिम इब्न अबी अल-नजुद (कुफा, डी। ७४५) और नफी अल के अनुसार हैं -मदानी (मदीना, डी। 7८5) क्रमशः। काहिरा के प्रभावशाली मानक कुरान (1९24) संशोधित स्वर संकेतों और मिनटों के विवरण के लिए अतिरिक्त प्रतीकों का एक सेट का उपयोग करता है और 'असिम के पाठ, कुफा के ८ वीं शताब्दी के पाठ पर आधारित है। यह संस्करण कुरान के आधुनिक प्रिंटिंग के लिए मानक बन गया है।
कुरान के संस्करण रीडिंग एक प्रकार का टेक्स्ट संस्करण हैं। मेलचेर के मुताबिक, अधिकांश असहमतिओं को स्वरों के साथ आपूर्ति करने के लिए करना पड़ता है, उनमें से अधिकतर अंततः डायलेक्टल मतभेदों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं और लगभग आठ असहमतिओं में से एक को ऊपर या नीचे बिंदुओं को रखना है या नहीं लाइन।
नासर विभिन्न उपप्रकारों में भिन्न क़राअत को वर्गीकृत करता है, जिसमें आंतरिक स्वर, लंबे स्वर, रत्न (शद्दाह), आकलन और परिवर्तन शामिल हैं।
कभी-कभी, एक प्रारंभिक कुरान एक विशेष पढ़ने के साथ संगतता दिखाता है। ८ वीं शताब्दी से एक सीरियाई पांडुलिपि इब्न अमीर विज्ञापन-दीमाशकी के पढ़ने के अनुसार लिखी गई है। एक और अध्ययन से पता चलता है कि इस पांडुलिपि में हेसी क्षेत्र का मुखरता है।
लेखन और मुद्रण
१९वीं शताब्दी में मुद्रण को व्यापक रूप से अपनाया जाने से पहले, कुरान को कॉलिग्राफर्स और प्रतिवादियों द्वारा बनाई गई पांडुलिपियों में प्रसारित किया गया था। सबसे पुरानी पांडुलिपियों को इजाजी- टाइप स्क्रिप्ट में लिखा गया था। हिजाजी शैली पांडुलिपियों ने फिर भी पुष्टि की है कि लेखन में कुरान का प्रसारण शुरुआती चरण में शुरू हुआ था। शायद नौवीं शताब्दी में, स्क्रिप्टों में मोटे स्ट्रोक की सुविधा शुरू हुई, जिन्हें परंपरागत रूप से कुफिक स्क्रिप्ट के रूप में जाना जाता है। नौवीं शताब्दी के अंत में, कुरान की प्रतियों में नई स्क्रिप्ट दिखाई देने लगे और पहले की लिपियों को प्रतिस्थापित किया। पिछली शैली के उपयोग में विघटन का कारण यह था कि उत्पादन के लिए बहुत लंबा समय लगा और प्रतियों की मांग बढ़ रही थी। इसलिए कॉपीिस्ट सरल लेखन शैलियों का चयन करेंगे। ११ वीं शताब्दी की शुरुआत में, नियोजित लेखन की शैलियों मुख्य रूप से नाख , मुक्काक , रेयनी और दुर्लभ मौकों पर, थुलुथ लिपि थीं । नाख बहुत व्यापक उपयोग में था। उत्तरी अफ्रीका और स्पेन में, मगरीबी शैली लोकप्रिय थी। बिहारी लिपि अधिक विशिष्ट है जिसका उपयोग पूरी तरह से भारत के उत्तर में किया जाता था। फारसी दुनिया में नास्तिक शैली का शायद ही कभी इस्तेमाल किया जाता था। पीटर ग. रिडएल, टोनी स्ट्रीट, एंथनी हार्ल जॉन्स, इस्लाम: एस्सास ऑन स्क्रिपचर, थॉट एंड सोसायटी : आ फेस्टऑरिफ्ट इन हॉन्र ऑफ एंथनी ह. जॉन्स , प्प. १७०१७४, ब्रिल, १९97, ,
शुरुआत में, कुरान में वोकलिज़ेशन चिह्न नहीं था। जैसा कि हम आज जानते हैं, वोकलाइजेशन की प्रणाली, नौवीं शताब्दी के अंत में पेश की गई प्रतीत होती है। चूंकि अधिकांश मुसलमानों के लिए एक पांडुलिपि खरीदने के लिए यह बहुत महंगा होता, इसलिए कुरान की प्रतियां मस्जिदों में लोगों के लिए सुलभ बनाने के लिए आयोजित की जाती थीं। ये प्रतियां अक्सर ३० भागों या जुज़ की श्रृंखला का रूप लेती हैं । उत्पादकता के मामले में, तुर्क प्रतिवादी सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रदान करते हैं। यह व्यापक मांग, मुद्रण विधियों की अलोकप्रियता और सौंदर्य कारणों के जवाब में था।
कुरान से अर्क की लकड़ी-ब्लॉक मुद्रण १० वीं शताब्दी के शुरू में रिकॉर्ड पर है।
मध्य पूर्वी ईसाईयों के बीच वितरण के लिए पोप जूलियस द्वितीय (आर १५०३-१५१२) द्वारा अरबी जंगम प्रकार के मुद्रण का आदेश दिया गया था। चलने वाले प्रकार के साथ मुद्रित पहला पूर्ण कुरान वेनिस में १५३७/१५३८ में पगिनिनो पागनिनी और एलेसेंड्रो पागनिनी द्वारा तुर्क बाजार के लिए बनाया गया था। दो और संस्करणों पादरी द्वारा प्रकाशित किए जाते शामिल अब्राहम हिंकेलमैन में हैम्बर्ग १६९४ में, और इतालवी पुजारी द्वारा लुडोविको मराककी में पडुआ लैटिन अनुवाद व टीका के साथ १६९८ में।
इस अवधि के दौरान कुरान की मुद्रित प्रतियां मुस्लिम कानूनी विद्वानों से मजबूत विरोध के साथ मुलाकात की : अरबी में कुछ भी प्रिंट करना १४८३ और १७२६ के बीच तुर्क साम्राज्य में प्रतिबंधित था -शुरुआत में, मृत्यु के दंड पर भी। १७२६ में अरबी लिपि में छपाई पर तुर्क प्रतिबंध पर इब्राहिम म्यूटेरिकिका के अनुरोध पर गैर-धार्मिक ग्रंथों के लिए उठाया गया था , जिन्होंने १७२९ में अपनी पहली पुस्तक मुद्रित की थी। बहुत कम किताबें, और कोई धार्मिक ग्रंथ मुद्रित नहीं किया गया था एक और शताब्दी के लिए तुर्क साम्राज्य में।
१७८६ में, रूस के कैथरीन द ग्रेट ने सेंट पीटर्सबर्ग में "तातार और तुर्की ऑर्थोग्राफी" के लिए एक प्रिंटिंग प्रेस प्रायोजित किया , जिसमें एक मुल्ला उस्मान इस्माइल अरबी प्रकार के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार था। १७८७ में इस प्रेस के साथ एक कुरान मुद्रित किया गया था, १७९० और १७९३ में सेंट पीटर्सबर्ग में और १ ९९ ३ में कज़ान में पुनर्निर्मित किया गया था । ईरान में मुद्रित पहला संस्करण तेहरान (१828) में दिखाई दिया, तुर्की में एक अनुवाद १842 में काहिरा में मुद्रित किया गया था, और पहली आधिकारिक स्वीकृत ओटोमन संस्करण अंततः कॉन्स्टेंटिनोपल में १875 और १877 के बीच दो खंडों के सेट के रूप में मुद्रित किया गया था, पहले संवैधानिक युग के दौरान ।
गुस्ताव फ्लूजेल १८३४ में कुरान के एक संस्करण प्रकाशित में लीपज़िग है, जो एक सदी के करीब के लिए आधिकारिक बने रहे, जब तक कैरो के अल अजहर विश्वविद्यालय कुरान के एक संस्करण प्रकाशित १९२४ में इस संस्करण एक लंबे तैयारी के परिणाम के रूप में यह कुरआन मानकीकृत था ऑर्थोग्राफी और बाद के संस्करणों का आधार बना हुआ है।
मुख्य लेख: क़ुरआन की आलोचना
अन्य साहित्य के साथ संबंध
यह भी देखें: बाइबिल के वर्णन और कुरान और तोरात
कुरान पूर्व पुस्तकों (तोराह और इंजील (सुसमाचार)) के साथ संबंधों के बारे में अच्छी तरह से बोलता है और उनकी समानताओं को उनके अद्वितीय उत्पत्ति के गुण देता है और कहता है कि उन सभी को एक अल्लाह (ईश्वर) ने प्रकट किया है।
कुरान की भाषा थी समान करने के लिए सिरिएक भाषा। कुरान यहूदी और ईसाई पवित्र किताबों (तनाख, बाइबिल) और भक्ति साहित्य (अपोक्राफा, मिड्रैश) में सुनाई गई कई लोगों और घटनाओं की कहानियों को याद करता है, हालांकि यह कई विवरणों में भिन्न है। आदम, इदरीस, नूह, एबर, सालेह, इब्राहीम, लूत, इश्माईल, इसहाक़, याकूब, यूसुफ़, अय्यूब, शोएब, दाऊद, सुलैमान, एलिय्याह, एलीशा, यूनुस, हारून, मूसा, ज़कारिया, यूहन्ना ईसा का उल्लेख कुरान में रसूल के और नबी के रूप में किया गया है (इस्लाम के पैगम्बर को देखें)। वास्तव में, कुरान में किसी अन्य व्यक्ति की तुलना में मूसा का अधिक उल्लेख किया गया है। मुहम्मद की तुलना में कुरान में ईसा का अक्सर उल्लेख किया गया है, जबकि मरियम (मैरी) का उल्लेख क़ुरान में किया गाया है और इंजील में नहीं।
बहाई और द्रूस जैसे कुछ गैर-मुस्लिम समूह कुरान को पवित्र मानते हैं। यूनिटियन यूनिवर्सलिस्ट भी कुरान को अपवित्र मानता हैं। डायटेसेरॉन, जेम्स की प्रोटेवांगेलीन, इन्फंसी गोस्पेल ऑफ़ थॉमस, गोस्पेल ऑफ़ सूडो मैथ्यूस जैसी किताबों के सारांश कुरआन से असमानताएं रखते हैं।
कुरान के अवतरण के बाद, और इस्लाम के सामान्य उदय, अरबी वर्णमाला तेजी से एक कला रूप में विकसित हुआ।
शिकागो विश्वविद्यालय में पास पूर्वी भाषाओं और सभ्यताओं के प्रोफेसर वदाद कादी, और यंगस्टाउन स्टेट यूनिवर्सिटी में इस्लामी अध्ययन के प्रोफेसर मुस्तसिर मीर, के मुताबिक:
अल्लाह ने इस धरती पर मनुष्य को अपना ख़लीफ़ा (प्रतिहारी) बनाकर भेजा है। भेजने से पूर्व उसने हर व्यक्ति को ठीक ठीक समझा दिया था कि वे थोड़े समय के लिए धरती पर जा रहे हैं, उसके बाद उन्हें उसके पास लौट कर आना है। जहाँ उसे अपने उन कार्यों का अच्छा या बुरा बदला मिलेगा जो उसने धरती पर किए।
इस धरती पर मनुष्य को कार्य करने की स्वतंत्रता है। धरती के साधनों को उपयोग करने की छूट है। अच्छे और बुरे कार्य को करने पर उसे तक्ताल कोई रोक या इनाम नहीं है। किन्तु इस स्वतंत्रता के साथ ईश्वर ने धरती पर बसे मनुष्यों को ठीक उस रूप में जीवन गुज़ारने के लिए ईश्वरीय आदेशों के पहुंचाने का प्रबंध किया और धरती के हर भाग में उसने अपने दूत (पैग़म्बर) भेजे, जिन्होंने मनुष्यों तक ईश्वर का संदेश भेजा। कहा जाता है कि ऐसे ईशदूतों की संख्या १,८४,००० के क़रीब रही। इस सिलसिले की अंतिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) थे। आप (सल्ल.) के बाद अब कोई दूत नहीं आएगा किन्तु हज़रत ईसा (अलै.) अपने जीवन के शेष वर्ष इस धरती पर पुन: गुज़ारेंगे। ईश्वर की अंतिम किताब आपके हाथ में है कोई और ईश्वरीय किताब अब नहीं आएगी।
हज़ारों वर्षों तक निरंतर आने वाले पैग़म्बरों का चाहे वे धरती के किसी भी भाग में अवतरित हुए हों, उनका संदेश एक था, उनका मिशन एक था, ईश्वरीय आदेश के अनुसार मनुष्यों को जीना सिखाना। हज़ारों वर्षों का समय बीतने के कारण ईश्वरीय आदेशों में मनुष्य अपने विचार, अपनी सुविधा जोड़ कर नया धर्म बना लेते और मूल धर्म को विकृत कर एक आडम्बर खड़ा कर देते और कई बार तो ईश्वरीय आदेशों के विपरित कार्य करते। क्यों कि हर प्रभावी व्यक्ति अपनी शक्ति के आगे सब को नतमस्तक देखना चाहता था।
आख़िर अंतिम नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) क़ुरआन के साथ इस धरती पर आए और क़ुरआन ईश्वर के इस चैलेंज के साथ आया कि इसकी रक्षा स्वयं ईश्वर करेगा। १५०० वर्ष का लम्बा समय यह बताता है कि क़ुरआन विरोधियों के सारे प्रयासों के बाद भी क़ुरआन के एक शब्द में भी परिवर्तन संभव नहीं हो सका है। यह किताब अपने मूल स्वरूप में प्रलय तक रहेगी। इसके साथ क़ुरआन का यह चैलेंज भी अपने स्थान पर अभी तक क़ायम है कि जो इसे ईश्वरीय ग्रंथ नहीं मानते हों तो वे इस जैसी पूरी किताब नहीं उसका एक छोटा भाग ही बना कर दिखा दें।
क़ुरआन के इस रूप को जानने के बाद यह जान लीजिए कि यह किताब रूप में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को नहीं दी गई कि इसे पढ़कर लोगों को सुना दें और छाप कर हर घर में रख दें। बल्कि समय समय पर २३ वर्षों तक आवश्यकता अनुसार यह किताब अवतरित हुई और आप (सल्ल.) ने ईश्वर की मर्ज़ी से उसके आदेशों के अनुसार धरती पर वह समाज बनाया जैसा ईश्वर का आदेश था।
पश्चिमी विचारक एच.जी.वेल्स के अनुसार इस धरती पर प्रवचन तो बहुत दिए गए किन्तु उन प्रवचनों के आधार पर एक समाज की रचना पहली बार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने करके दिखाई। यहाँ यह जानना रूचिकर होगा कि वेल्स इस्लाम प्रेमी नहीं बल्कि इस्लाम विरोधी है और उसकी किताबें इस्लाम विरोध में प्रकाशित हुई हैं।
वैज्ञानिक तथ्य जो अब तक हमें ज्ञात हैं, क़ुरआन में छुपे हैं और ऐसे सैकड़ों स्थान है जहां लगता है कि मनुष्य ज्ञान अभी उस हक़ीक़त तक नहीं पहुंचा है। बार बार क़ुरआन आपको विचार करने की दावत देता है। ज़मीन और आसमान के रहस्यों को जानने का आमंत्रण देता हैं।
एक उलझन और सामने आती है। कुरआन के दावे के अनुसार वह पूरी धरती के मनुष्यों के लिए और शेष समय के लिए है, किन्तु उसके संबोधित उस समय के अरब नज़र आते हैं। सरसरी तौर पर यही लगता है कि क़ुरआन उस समय के अरबों के लिए ही अवतरित किया गया था लेकिन आप जब भी किसी ऐसे स्थान पर पहुँचें जब यह लगे कि यह बात केवल एक ख़ास काल तथा देश के लिए है, तब वहाँ रूक कर विचार करें या इसे नोट करके बाद में इस पर विचार करें तो आप को हर बार लगेगा कि मनुष्य हर युग और हर भू भाग का एक है और उस पर वह बात ठीक वैसी ही लागू होती है, जैसी उस समय के लोग|अरबों पर लागू होती थी।
मुसलमानों के लिए
मुसलमानों के लिए क़ुरआन के संबंध में बड़ी बड़ी किताबें लिखी गई हैं और लिखी जा सकती हैं। यहां उद्देश्य क़ुरआन का एक संक्षिप्त परिचय और उसके उम्मत पर क्या हक़ हैं, यहा स्पष्ट करना है।
हज़रत अली (रज़ि.) से रिवायत की गई एक हदीस है। हज़रत हारिस फ़रमाते हैं कि मैं मस्जिद में दाखिल हुआ तो देखा कि कुछ लोग कुछ समस्याओं में झगड़ा कर रहे हैं। मैं हज़रत अली (रज़ि.) के पास गया और उन्हें इस बात की सूचना दी। हज़रत अली (रज़ि.) ने फरमाया- क्या यह बातें होने लगीं? मैंने कहा, जी हां। हज़रत अली (रज़ि.) ने फरमाया- याद रखो मैंने रसूल अल्लाह (सल्ल.) से सुना है। आप (सल्ल.) ने फरमाया- खबरदार रहो निकट ही एक बड़ा फ़ितना सर उठाएगा मैंने अर्ज़ किया- इस फ़ितने में निजात का ज़रिया क्या होगा? फरमाया-अल्लाह की किताब।
इसमें तुमसे पूर्व गुज़रे हुए लोगों के हालात हैं।
तुम से बाद होने वाली बातों की सूचना है।
तुम्हारे आपस के मामलात का निर्णय है।
यह एक दो टूक बात हैं, हंसी दिल्लगी की नहीं है।
जो सरकश इसे छोड़ेगा, अल्लाह उसकी कमर तोड़ेगा।
और जो कोई इसे छोड़ कर किसी और बात को अपनी हिदायत का ज़रिया बनाएगा। अल्लाह उसे गुमराह कर देगा।
ख़ुदा की मज़बूत रस्सी यही है।
यही हिकमतों से भरी हुई पुन: स्मरण (याददेहानी) है, यही सीधा मार्ग है।
इसके होते इच्छाऐं गुमराह नहीं करती हैं।
और ना ज़बानें लड़खड़ाती हैं।
ज्ञानवान का दिल इससे कभी नहीं भरता।
इसे बार बार दोहराने से उसकी ताज़गी नहीं जाती (यह कभी पुराना नहीं होता)।
इसकी अजीब (विचित्र) बातें कभी समाप्त नहीं होंगी।
यह वही है जिसे सुनते ही जिन्न पुकार उठे थे, निसंदेह हमने अजीबोग़रीब क़ुरआन सुना, जो हिदायत की ओर मार्गदर्शन करता है, अत: हम इस पर ईमान लाऐ हैं।
जिसने इसकी सनद पर हां कहा- सच कहा।
जिसने इस पर अमल किया- दर्जा पाएगा।
जिसने इसके आधार पर निर्णय किया उसने इंसाफ किया।
जिसने इसकी ओर दावत दी, उसने सीधे मार्ग की ओर राहनुमाई की।
क़ुरआन का सारा निचोड़ इस एक हदीस में आ जाता है। क़ुरआन धरती पर अल्लाह की अंतिम किताब उसकी ख्याति के अनुरूप है। यह अत्यंत आसान है और यह बहुत कठिन भी है। आसान यह तब है जब इसे याद करने (तज़क्कुर) के लिए पढ़ा जाए। यदि आप की नियत में खोट नहीं है और क़ुरआन से हिदायत चाहते हैं तो अल्लाह ने इस किताब को आसान बना दिया है। समझने और याद करने के लिए यह विश्व की सबसे आसान किताब है। खुद क़ुरआन मे है 'और हमने क़ुरआन को समझने के लिए आसान कर दिया है, तो कोई है कि सोचे और समझे?' (सूर: अल क़मर:१७)
दूसरी ओर दूरबीनी (तदब्बुर) की दृष्टि से यह विश्व की कठिनतम किताब है पूरी पूरी ज़िंदगी खपा देने के बाद भी इसकी गहराई नापना संभव नहीं। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह एक समुद्र है। सदियां बीत गईं और क़ुरआन का चमत्कार अब भी क़ायम है। और सदियां बीत जाऐंगी किन्तु क़ुरआन का चमत्कार कभी समाप्त नहीं होगा।
केवल हिदायत पाने के लिए आसान तरीक़ा यह है कि अटल आयतों (मुहकमात) पर ध्यान रहे और आयतों (मुतशाबिहात) पर ईमान हो कि यह भी अल्लाह की ओर से हैं। दुनिया निरंतर प्रगति कर रही है, मानव ज्ञान निरंतर बढ़ रहा है, जो क़ुरआन में कल मुतशाबिहात था आज वह स्पष्ट हो चुका है, और कल उसके कुछ ओर भाग स्पष्ट होंगे।
इसी तरह ज्ञानार्जन के लिए भी दो विभिन्न तरीक़े अपनाना होंगे। आदेशों के लिहाज़ से क़ुरआन में विचार करने वाले को पीछे की ओर यात्रा करनी होगी। क़ुरआन के आदेश का अर्थ धर्म शास्त्रियों (फ़ुह्लाँहा), विद्वानों (आलिमों) ने क्या लिया, तबाताबईन (वे लोग जिन्होने ताबईन को देखा। ), ताबईन (वे लोग जिन्होने सहाबा (हज़रत मुहम्मद (सल्ल.)) के साथियों को देखा। ) और सहाबा ने इसका क्या अर्थ लिया। यहां तक कि ख़ुद को हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के क़दमों तक पहुंचा दे कि ख़ुद साहबे क़ुरआन का इस बारे में क्या आदेश था?
दूसरी ओर ज्ञानविज्ञान के लिहाज़ से आगे और निरंतर आगे विचार करना होगा। समय के साथ ही नहीं उससे आगे चला जाए। मनुष्य के ज्ञान की सतह निरंतर ऊंची होती जा रही है। क़ुरआन में विज्ञान का सर्वोच्च स्तर है उस पर विचार कर नए अविष्कार, खोज और जो वैज्ञानिक तथ्य हैं उन पर कार्य किया जा सकता है।
ख़ुदा का चमत्कार (क़ुदरत)
मौअजज़ा उस चमत्कार को कहते हैं जो किसी नबी या रसूल के हाथ पर हो और मानव शक्ति से परे हो, जिस पर मानव बुध्दि हैरान हो जाए।
हर युग में जब भी कोई रसूल (ईश दूत) ईश्वरीय आदेशों को मानव तक पहुँचता, तब उसे अल्लाह की ओर से चमत्कार दिए जाते थे। हज़रत मूसा (अलै.) को असा (हाथ की लकड़ी) दी गई, जिससे कई चमत्कार दिखाए गये। हज़रत ईसा (अलै.) को मुर्दों को जीवित करना, बीमारों को ठीक करने का मौअजज़ा दिया गया। किसी भी नबी का असल मौअजज़ा वह है जिसे वह दावे के साथ पेश करे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के हाथ पर सैकड़ों मौअजज़े वर्णित हैं, किन्तु जो दावे के साथ पेश किया गया और जो आज भी चमत्कार के रूप में विश्व के समक्ष मौजूद है, वह है क़ुरआन जिसका यह चेलेंज़ दुनिया के समक्ष अनुत्तरित है कि इसके एक भाग जैसा ही बना कर दिखा दिया जाए। यह दावा क़ुरआन में कई स्थान पर किया गया।
क़ुरआन पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगा, इस दावे को १५०० वर्ष बीत गए और क़ुरआन सुरक्षित है, पूर्ण सुरक्षित है। यह सिद्ध हो चुका है, जो एक चमत्कार है।
क़ुरआन विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है, और उसके वैज्ञानिक वर्णनों के आगे वैज्ञानिक नतमस्तक हैं। यह भी एक चमत्कार है। १५०० वर्ष पूर्व अरब के रेगिस्तान में एक अनपढ़ व्यक्ति ने ऐसी किताब प्रस्तुत की जो बीसवीं सदी के सारे साधनों के सामने अपनी सत्यता ज़ाहिर कर रही है। यह कार्य क़ुरआन के अतिरिक्त किसी अन्य किताब ने किया हो तो विश्व उसका नाम जानना चाहेगा। क़ुरआन का यह चमत्कारिक रूप आज हमारे लिए है और हो सकता है आगे आने वाले समय के लिए उसका कोई और चमत्कारिक रूप सामने आए।
जिस समय क़ुरआन अवतारित हुआ उस युग में उसका मुख्य चमत्कार उसका वैज्ञानिक आधार नहीं था। उस युग में क़ुरआन का चमत्कार था उसकी भाषा, साहित्य, वाग्मिता, जिसने अपने समय के अरबों के भाषा ज्ञान को झकझोर दिया था। यहां स्पष्ट करना उचित होगा कि उस समय के अरबों को अपने भाषा ज्ञान पर इतना गर्व था कि वे शेष विश्व के लोगों को अजमी (गूंगा) कहते थे। क़ुरआन की शैली के कारण अरब के भाषा ज्ञानियों ने अपने घुटने टेक दिए।
क़ुरआन ऐसी किताब है जिसके आधार पर एक क्रांति लाई गई। रेगिस्तान के ऐसे अनपढ़ लोगों को जिनका विश्व के नक्शे में उस समय कोई महत्व नहीं था। क़ुरआन की शिक्षाओं के कारण, उसके प्रस्तुतकर्ता की ट्रेनिंग ने उन्हे उस समय की महान शाक्तियों के समक्ष ला खड़ा किया और एक ऐसे क़ुरआनी समाज की रचना मात्र २३ वर्षों में की गई जिसका उत्तर विश्व कभी नहीं दे सकता।
आज भी दुनिया मानती है कि क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक आदर्श समाज की रचना की। इस दृष्टि से यदि क़ुरआन का अध्ययन किया जाए तो आपको उसके साथ क़दम मिला कर चलना होगा। उसकी शिक्षा पर अमल करें। केवल निजी जीवन में ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और क़ानूनी क्षैत्रों में, तब आपके समक्ष वे सारे चरित्र जो क़ुरआन में वर्णित हैं, जीवित नज़र आऐंगे। वे सारी कठिनाई और वे सारी परेशानी सामने आजाऐंगी। तन, मन, धन, से जो गिरोह इस कार्य के लिए उठे तो क़ुरआन की हिदायत हर मोड़ पर उसका मार्ग दर्शन करेगी।
अल्लाह की रस्सी
क़ुरआन अल्लाह की रस्सी है। इस बारे में तिरमिज़ी में हज़रत ज़ैद बिन अरक़म (रज़ि.) द्वारा वर्णित हदीस है जिसमें कहा गया है कि क़ुरआन अल्लाह की रस्सी है जो ज़मीन से आसामान तक तनी है। यह शब्द हुज़ूर (सल्ल.) के है जिन्हे हज़रत ज़ैद (रज़ि.) ने वर्णित किया है।
तबरानी में वर्णित एक और हदीस है जिसमें कहा गया है कि एक दिन हुज़ूर (सल्ल.) मस्जिद में तशरीफ लाए तो देखा कुछ लोग एक कोने में बैठे क़ुरआन पढ़ रहे हैं और एक दूसरे को समझा रहे हैं। यह देख कर आप (सल्ल.) के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। आप (सल्ल.) सहाबा के उस गुट के पास पहुंचे और उन से कहा- क्या तुम मानते हो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य माबूद (ईश) नहीं है, मैं अल्लाह का रसूल हुँ और क़ुरआन अल्लाह की किताब है? सहाबा ने कहा, या रसूल अल्लाह हम गवाही देते हैं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई माबूद नहीं, आप अल्लाह के रसूल हैं और क़ुरआन अल्लाह की किताब है। तब आपने कहा, खुशियां मानाओ कि क़ुरआन अल्लाह की वह रस्सी है जिसका एक सिरा उसके हाथ में है और दूसरा तुम्हारे हाथ में।
क़ुरआन अल्लाह की रस्सी इस अर्थ में भी है कि यह मुसलमानों को आपस में बांध कर रखता है। उनमें विचारों की एकता, मत भिन्नता के समय अल्लाह के आदेशों से निर्णय और जीवन के लिए एक आदर्श नमूना प्रस्तुत करता है।
ख़ुद क़ुरआन में है कि अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकड़ लो। क़ुरआन के मूल आधार पर मुसलमानों के किसी गुट में कोई टकराव नहीं है।
क़ुरआन का हक़ क़ुरआन के हर मुसलमान पर पांच हक़ हैं, जो उसे अपनी शाक्ति और सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण करना चाहिए।
ईमान: हर मुसलमान क़ुरआन पर ईमान रखे जैसा कि ईमान का हक़ है अर्थात केवल ज़बान से इक़रार नहीं हो, दिल से यक़ीन रखे कि यह अल्लाह की किताब है।
तिलावत: क़ुरआन को हर मुसलमान निरंतर पढ़े जैसा कि पढ़ने का हक़ है अर्थात उसे समझ कर पढ़े। पढ़ने के लिए तिलावत का शब्द खुद क़ुरआन ने बताया है, जिसका अरबी में शाब्दिक अर्थ है तो फॉलो (पीछा करना)। पढ़ कर क़ुरआन पर अमल करना (उसके पीछे चलना) यही तिलावत का सही हक़ है। खुद क़ुरआन कहता है और वे इसे पढ़ने के हक़ के साथ पढ़ते हैं। (२:1२1) इसका विद्वानों ने यही अर्थ लिया है कि ध्यान से पढ़ना, उसके आदेशों में कोई फेर बदल नहीं करना, जो उसमें लिखा है उसे लोगों से छुपाना नहीं। जो समझ में नहीं आए वह विद्वानों से जानना। पढ़ने के हक़ में ऐसी समस्त बातों का समावेश है।
समझना: क़ुरआन का तीसरा हक़ हर मुसलमान पर है, उसको पढ़ने के साथ समझना और साथ ही उस पर विचार ग़ौर व फिक्र करना। खुद क़ुरआन ने समझने और उसमें ग़ौर करने की दावत मुसलमानों को दी है।
अमल: क़ुरआन को केवल पढ़ना और समझना ही नहीं। मुसलमान पर उसका हक़ है कि वह उस पर अमल भी करे। व्यक्तिगत रूप में और सामजिक रूप मे भी। व्यक्तिगत मामले, क़ानून, राजनिति, आपसी मामलात, व्यापार सारे मामले क़ुरआन के प्रकाश में हल किए जाऐं।
प्रसार: क़ुरआन का पांचवां हक़ यह है कि उसे दूसरे लोगों तक पहुंचाया जाए। हुज़ूर (सल्ल.) का कथन है कि चाहे एक आयत ही क्यों ना हो। हर मुसलमान पर क़ुरआन के प्रसार में अपनी सार्मथ्य के अनुसार दूसरों तक पहुंचाना अनिवार्य है।
समझने के लिए
क़ुरआन को समझने के लिए उसके अवतीर्ण (नुज़ूल) की पृष्ठ भूमि जानना ज़रूरी है। यह इस तरह की किताब नहीं है कि इसे पूरा लिख कर पैग़म्बर (सल्ल.) को देकर कह दिया गया हो कि जाओ इसकी ओर लोगों को बुलाओ। बल्कि क़ुरआन थोड़ा थोड़ा उस क्रांति के अवसर पर जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने अरब में आरंभ की थी, आवश्यकता के अनुसार अवतरित किया गया। आरंभ से जैसे ही क़ुरआन का कुछ भाग अवतरित होता आप (सल्ल.) उसे लिखवा देते और यह भी बता देते कि यह किसके साथ पढ़ा जाएगा।
अवतीर्ण के क्रम से विद्वानों ने क़ुरआन को दो भागों में बांटा है। एक मक्की भाग, दूसरा मदनी भाग। आरंभ में मक्के में छोटी छोटी सूरतें नाज़िल हुईं। उनकी भाषा श्रेष्ठ, प्रभावी और अरबों की पसंद के अनुसार श्रेष्ठ साहित्यिक दर्जे वाली थी। उसके बोल दिलों में उतर जाते थे। उसके दैविय संगीत (दैविन मुज़िक) से कान उसको सुनने में लग जाते और उसके दैविय प्रकाश (दैविन लाइट) से लोग आकर्षित हो जाते या घबरा जाते। इसमें सृष्टि के वे नियम वर्णित किए गए जिन पर सदियों के बाद अब भी मानव आश्चर्य चकित है, किन्तु इसके लिए सारे उदाहरण स्थानीय थे। उन्हीं के इतिहास, उन्ही का माहौल। ऐसा पांच वर्ष तक चलता रहा।
इसके बाद मक्के की राजनैतिक तथा आर्थिक सत्ता पर क़ब्ज़े वाले लोगों ने अपने लिए इस खतरे को भांप का ज़ुल्म व ज्यादती का वह तांडव किया कि मुसलमानों की जो थोड़ी संख्या थी उसमें भी कई लोगों को घरबार छोड़ कर हब्शा (इथोपिया) जाना पड़ा। खुद नबी (सल्ल.) को एक घाटी में सारे परिवारजनों के साथ क़ैद रहना पड़ा और अंत में मक्का छोड़ कर मदीना जाना पड़ा।
मुसलमानों पर यह बड़ा सख्त समय था और अल्लाह ने इस समय जो क़ुरआन नाज़िल किया उसमें तलवार की काट और बाढ़ की तेज़ी थी। जिसने पूरा क्षैत्र हिला कर रख दिया। मुसलमानों के लिए तसल्ली और इस कठिन समय में की जाने वाली प्रार्थनाऐं हैं जो इस आठ वर्ष के क़ुरआन का मुख्य भाग रहीं। इस हिंसात्मक प्रकरण से स्पष्ट होता है कि मानवीय रचनाधर्मिता एवं भावनाओं का प्रभाव इस ग्रंथ की रचना में रहा।
मक्की दौर के तेरह वर्ष बाद मदीने में मुसलमानों को एक केन्द्र प्राप्त हो गया। जहाँ सारे ईमान लाने वालों को एकत्रित कर तीसरे दौर का अवतीर्ण शुरू हुआ। यहाँ मुसलमानों का दो नए प्रकार के लोगों से परिचय हुआ। प्रथम यहूदी जो यहाँ सदियों से आबाद थे और अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार अंतिम नबी (सल्ल.) की प्रतिक्षा कर रहे थे। किन्तु अंतिम नबी (सल्ल.) को उन्होंने अपने अतिरिक्त दूसरी क़ौम में देखा तो उत्पात मचा दिया। क़ुरआन में इस दौर में अहले किताब (ईश्वरीय ग्रंथों को मानने वाले विषेश कर यहूदी तथा ईसाई) पर क़ुरआन में सख्त टिप्पणियाँ की गईं। इसी युग में कुटाचारियों (मुनाफिक़ों) का एक गुट मुसलमानों में पैदा हो गया जो मुसलमान होने का नाटक करते और विरोधियों से मिले रहत
यहीं मुसलमानों को सशस्त्र संघर्ष की आज्ञा मिली और उन्हें निरंतर मक्का वासियों के हमलों का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर एक इस्लामी राज्य की स्थापना के साथ पूरे समाज की रचना के लिए ईश्वरीय नियम अवतरित हुए। युध्द, शांति, न्याय, समाजिक रीति रिवाज, खान पान सबके बारे में ईश्वर के आदेश इस युग के क़ुरआन की विशेषता हैं। जिनके आधार पर समाजिक बराबरी का एक आदर्श राज्य अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने खड़ा कर दिया। जिसके आधार पर आज सदियों बाद भी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का क्रम विश्व नायकों में प्रथम माना जाता है। उन्होंने जीवन के हर क्षैत्र में ज़बानी निर्देश नहीं दिए, बल्कि उस पर अमल करके दिखाया।
इस पृष्ठ भूमि के कारण ही क़ुरआन में कई बार एक ही बात को बार बार दोहराया जाना लगता है। एकेश्वरवाद, धार्मिक आदेश, स्वर्ग, नरक, सब्र (धैर्य), धर्म परायणता (तक्वा) के विषय हैं जो बार बार दोहराए गए।
क़ुरआन ने एक सीधे साधे, नेक व्यापारी इंसान को, जो अपने परिवार में एक भरपूर जीवन गुज़ार रहा था। विश्व की दो महान शक्तियों (रोमन तथा ईरानी साम्राज्य) के समक्ष खड़ा कर दिया। केवल यही नहीं उसने रेगिस्तान के अनपढ़ लोगों को ऐसा सभ्य बना दिया कि पूरे विश्व पर इस सभ्यता की छाप से सैकड़ों वर्षों बाद भी पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। क़ुरआन ने युध्द, शांति, राज्य संचालन इबादत, परिवार के वे आदर्श प्रस्तुत किए जिसका मानव समाज में आज प्रभाव है।
कुरआन पर शोध
कुछ वर्षों पूर्व अरबों के एक गुट ने भ्रुण शास्त्र से संबंधिक क़ुरआन की आयतें एकत्रित कर उन्हे इंग्लिश में अनुवाद कर, प्रो. कीथ एल० मूर के समक्ष प्रस्तुत की जो भ्रूण शास्त्र (एम्ब्र्योलॉजी) के प्रोफेसर और टोरंटो विश्वविद्यालय (कनाडा) के विभागाध्यक्ष हैं। इस समय विश्व में भ्रूण शास्त्र के सर्वोच्च ज्ञाता माने जाते हैं।
उनसे कहा गया कि वे क़ुरआन में भ्रूण शास्त्र से संबंधित आयतों पर अपने विचार प्रस्तुत करें। उन्होंने उनका अध्ययन करने के पश्चात कहा कि भ्रूण शास्त्र के संबंध में क़ुरआन में वर्णन ठीक आधुनिक खोज़ों के अनुरूप हैं। कुछ आयतों के बारे में उन्होंने कहा कि वे इसे ग़लत या सही नहीं कह सकते क्यों कि वे खुद इस बात में अनभिज्ञ हैं। इसमें सबसे पहले नाज़िल की गई क़ुरआन की वह अयात भी शामिल थी जिसका अनुवाद है।
अपने परवरदिगार का नाम ले कर पढ़ो, जिसने (दुनिया को) सृजन किया। जिसने इंसान को खून की फुटकी से बनाया।
इसमें अरबी भाषा में एक शब्द का उपयोग किया गया है अलक़ इस का एक अर्थ होता खून की फुटकी (जमा हुआ रक्त) और दूसरा अर्थ होता है जोंक जैसा।
डॉ. मूर को उस समय तक यह ज्ञात नहीं था कि क्या माता के गर्भ में आरंभ में भ्रूण की सूरत जोंक की तरह होती है। उन्होंने अपने प्रयोग इस बारे में किए और अध्ययन के पश्चात कहा कि माता के गर्भ में आरंभ में भ्रूण जोंक की आकृति में ही होता है। डॉ कीथ मूर ने भ्रूण शास्त्र के संबंध में ८० प्रश्नों के उत्तर दिए जो क़ुरआन और हदीस में वर्णित हैं।
उन्ही के शब्दों में, यदि ३० वर्ष पूर्व मुझसे यह प्रश्न पूछे जाते तो मैं इनमें आधे भी उत्तर नहीं दे पाता। क्यों कि तब तक विज्ञान ने इस क्षैत्र में इतनी प्रगति नहीं की थी।
१९८१ में सऊदी मेडिकल कांफ्रेंस में डॉ. मूर ने घोषणा की कि उन्हें क़ुरआन की भ्रूण शास्त्र की इन आयतों को देख कर विश्वास हो गया है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ईश्वर के पैग़म्बर थे। क्यों कि सदियों पूर्व जब विज्ञान खुद भ्रूण अवस्था में हो इतनी सटीक बातें केवल ईश्वर ही कह सकता है।
डॉ. मूर ने अपनी किताब के १९८२ के संस्करण में सभी बातों को शामिल किया है जो कई भाषाओं में उपलब्ध है और प्रथम वर्ष के चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती है। इस किताब (थे डेवलपिंग हमन) को किसी एक व्यक्ति द्वारा चिकित्सा शास्त्र के क्षैत्र में लिखी किताब का अवार्ड भी मिल चुका है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्हे क़ुरआन की इस टीका में आप निरंतर पढ़ेंगे।
मत भिन्नता एक एतराज़ किया जाता है कि जब क़ुरआन इतनी सिध्द किताब है तो उसकी टीका में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से अब तक विद्वानों में मत भिन्नता क्यों है।
यहां इतना कहना काफी होगा कि पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने अपने अनुयायियों में सेहतमंद विभेद को बढ़ावा दिया किन्तु मतभिन्नता के आधार पर कट्टरपन और गुटबंदी को आपने पसंद नहीं किया। सेहतमंद मतभिन्नता समाज की प्रगति में सदैव सहायक होती है और गुटबंदी सदैव नुक़सान पहुंचाती है।
इसलिए इस्लामी विद्वानों की मतभिन्नता भी क़ुरआन हदीस में कार्य करने और आदर्श समाज की रचना में सहायक हुई है किन्तु नुक़सान इस मतभिन्नता को कट्टर रूप में विकसित कर गुटबंदी के कारण हुआ है।
शाब्दिक वह्य क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर अवतरित हुआ वह ईश्वरीय शब्दों में था। यह वह्य शाब्दिक है, अर्थ के रूप में नहीं। यह बात इसलिए स्पष्ठ करना पड़ी कि ईसाई शिक्षण संस्थाओं में यह शिक्षा दी जाती है कि वह्य ईश्वरीय शब्दों में नहीं होती बल्कि नबी के हृदय पर उसका अर्थ आता है जो वह अपने शब्दों में वर्णित कर देता है। ईसाईयों के लिए यह विश्वास इसलिए ज़रूरी है कि बाईबिल में जो बदलाव उन्होंने किए हैं, उसे वे इसी प्रकार सत्य बता सकते थे। पूरा ईसाई और यहुदी विश्व सदियों से यह प्रयास कर रहा है कि किसी प्रकार यह सिध्द कर दे कि क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के शब्द हैं और उनकी रचना है। इस बारे में कई किताबें लिखी गई और कई तरीक़ों से यह सिध्द करने के प्रयास किए गए किन्तु अभी तक किसी को यह सफलता नहीं मिल सकी।
डॉ. डेनियल ब्रुबेकर ने सबसे पुराने कुरान के ग्रंथों पर किए गए परिवर्तनों, सुधारों और परिवर्धन (स्वर और विराम चिह्नों जैसे शब्दों के मामूली पढ़ने के अंतर से परे) के बारे में इंटरनेट पर एक वीडियो श्रृंखला ("वैरिएंट क़ुरआन" नाम से) प्रकाशित की।
इन्हें भी देखें
इस्लाम के नबी
क़ुरआन में सूरह की सूची
इस्लामी पवित्र ग्रन्थ
कुरान में महिलाओं का ज़िक्र
कुरान और चमत्कार
क़ुरान की तफ़सीर
बांग्ला भाषा में कुरआन का अनुवाद
क़ुरआन के हिंदी अनुवाद
कुरान की आलोचना
द जर्नल ऑफ क़ुरआनिक स्टडीज़
क़ुरआन का एकीकृत विश्वकोश
क़ुरआन हिंदी में ऑनलाइन पढ़ें]
अल-कुरान कुरान ऑनलाइन पढ़िए (हिन्दी 'अबूबकर महमौड़ गुमी') - ३५ भाषाओं (हिंदी स्मिथ और स्मिथ सहित) में १४० से अधिक अनुवाद
कुरान शरीफ़ ऑनलाइन पढ़िए: संवादात्मक अरबी कुरान
कुरआन का सरल हिन्दी अनुवाद
कुरआन मजीद की इन्साइक्लोपीडिया हिंदी पीडीऍफ़
क़ुरआन के अनुवाद ९३ भाषाओं में |
बाइबिल ईसाई धर्म (मसीही) पन्थ की आधारशिला तथा ईसाइयों (मसीहियों) का पवित्रतम धर्मग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं : पूर्वविधान और नवविधान। बाइबिल का पूर्वार्ध यहूदियों का भी धर्मग्रन्थ है, तथा उत्तरार्द्ध ईसा मसीह एवं उनकी शिक्षाओं पर आधारित है। बाइबिल ईश्वरप्रेरित है किन्तु ईश्वर ने बाइबिल के विभिन्न लेखकों को इस प्रकार प्रेरित किया है कि वे ईश्वरकृत होते हुए भी उनकी अपनी रचनाएँ भी कही जा सकती हैं। ईश्वर ने बोलकर उनसे बाइबिल नहीं लिखवाई। वे अवश्य ही ईश्वर की प्रेरणा से लिखने में प्रवृत्त हुए किंतु उन्होंने अपनी संस्कृति, शैली तथा विचारधारा की विशेषताओं के अनुसार ही उसे लिखा है। अत: बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा तथा मानवीय परिश्रम दोनों का सम्मिलित परिणाम है।
मानव जाति तथा यहूदियों के लिए ईश्वर ने जो कुछ किया और इसके प्रति मनुष्य की जो प्रतिक्रिया हुई उसका इतिहास और विवरण ही बाइबिल का वण्र्य विषय है। बाइबिल गूढ़ दार्शनिक सत्यों का संकलन नहीं है बल्कि इसमें दिखलाया गया है कि ईश्वर ने मानव जाति की मुक्ति का क्या प्रबन्ध किया है। वास्तव में बाइबिल ईश्वरीय मुक्तिविधान के कार्यान्वयन का इतिहास है जो ओल्ड टेस्टामेंट में प्रारंभ होकर ईसा के द्वारा न्यू टेस्टामेंट में संपादित हुआ है। अत: बाइबिल के दोनों भागों में घनिष्ठ संबंध है। ओल्ड टेस्टामेंट की घटनाओं द्वारा ईसा के जीवन की घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। न्यू टेस्टामेंट में दिखलाया गया है कि मुक्तिविधान किस प्रकार ईसा के व्यक्तित्व, चमत्कारों, शिक्षा, मरण तथा पुनरुत्थान द्वारा सम्पन्न हुआ है; किस प्रकार ईसा ने चर्च की स्थापना की और इस चर्च ने अपने प्रारम्भिक विकास में ईसा के जीवन की घटनाओं को किस दृष्टि से देखा है कि उनमें से क्या निष्कर्ष निकाला है।
बाइबिल में प्रसंगवश लौकिक ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी बातें भी आ गई हैं; उनपर तात्कालिक धारणाओं की पूरी छाप है क्योंकि बाइबिल उनके विषय में शायद ही कोई निर्देश देना चाहती है। मानव जाति के इतिहास की ईश्वरीय व्याख्या प्रस्तुत करना और धर्म एवं मुक्ति को समझना, यही बाइबिल का प्रधान उद्देश्य है, बाइबिल की तत्सम्बन्धी शिक्षा में कोई भ्राँति नहीं हो सकती। उसमें अनेक स्थलों पर मनुष्यों के पापाचरण का भी वर्णन मिलता है। ऐसा आचरण अनुकरणीय आदर्श के रूप में नहीं प्रस्तुत हुआ है किन्तु उसके द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य कितने कलुषित हैं और उनको ईश्वर की मुक्ति की कितनी आवश्यकता है।
इसमें प्राचीन यहूदी धर्म और यहूदी लोगों की गाथाएँ, पौराणिक कहानियाँ, (ख़ास तौर पर सृष्टि) आदि का वर्णन है। इसकी मूलभाषा इब्रानी और अरामी थी।
ये ईसा मसीह के बाद की है, जिसे ईसा के शिष्यों ने लिखा था। इसमें ईसा (यीशु) की जीवनी, उपदेश और शिष्यों के कार्य लिखे गये हैं। इसकी मूलभाषा कुछ अरामी और अधिकतर बोलचाल की प्राचीन ग्रीक थी। इसमें ख़ास तौर पर चार शुभसंदेश (सुसमाचार) हैं जो ईसा की जीवनी का उनके चार शिष्यों के नाम से किसी और के द्वारा वर्णन है : मत्ती, लूका, युहन्ना और मरकुस।
यहूदी धर्म का धर्मग्रंथ या बाइबिल तनख़ है। ईसाई बाइबिल का प्रथम भाग (पुराना नियम) तनख़ का ही संस्करण है।।
बाइबिल कुल मिलाकर ६६ ग्रंथों का संकलन है - पूर्वविधान में ३९ तथा नवविधान में २७ ग्रंथ हैं।
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पूर्वविधान की सामग्री
(१) ऐतिहासिक ग्रंथ पेंतातुख, जोसुए अथवा यहोशू, न्यायाधीश, रूथ, सामुएल, राजा, पुरावृत्त (पैरालियोमेनोन), एज्रा (एस्ट्रास), नेहेमिया, एस्तर, तोबियास, यूदिथ, मकाबी।
(२) शिक्षाप्रधान ग्रंथ - इययोव, भजनसंहिता, नीतिवचन, उपदेशक (एल्केसिआस्तेस) श्रेष्ठगीत, प्रज्ञा, एल्केसियास्तिकस अथना सिराह।
(३) नबियों के ग्रंथ : यशयाह, जेरेमिया, विलापगीत, बारूह, ऐजेकिएल, अथवा यहेजकेल, दानिएल और बारह गौण नबी अर्थात् ओसेआ अथवा होशे, जोएल, योएल आमोस, ओबद्याह, योना, मिकेयाह, नाहूम, हाबाकुक, सोफ़ोनिया, हग्गै, जाकारिआ, मलाकी
नवविधान की सामग्री
नवविधान के प्रथम पाँच ग्रंथ ऐतिहासिक हैं अर्थात् चारों सुसमाचार (गास्पैल) तथा ऐक्ट्स आव दि एपोसल्स (ईसा) के पट्ट शिष्यों के कार्य। अंतिम ग्रंथ एपोकालिप्स (प्रकाशना) कहलाता है। इसमें सुसमाचार लेखक संत योहन प्रतीकात्मक शैली में चर्च के भविष्य तथा मुक्तिविधान की परिणति का चित्र अंकित करते हैं। नवविधान के शेष २१ ग्रंथ शिक्षा प्रधान हैं, अर्थात् संत पाल के १४ पत्र, संतपीटर के दो पत्र, सुसमाचार लेखक संत योहन के तीन पत्र, संत याकूब और संत जूद का एक एक पत्र। संत पाल के पत्र या तो किसी स्थानविशेष के निवासियों के लिए लिखे गए हैं (कोरिंथियों तथा थेस्सालुनीकियों के नाम दो दो पत्र; रोमियों, एफिसियों, फिलिपियों और कुलिसियों के नाम एक एक पत्र) या किसी व्यक्तिविशेष को (तिमोथी के नाम दो और तितुस तथा फिलेमोन के नाम एक एक पत्र)। इब्रानियों के नाम जो पत्र बाइबिल में सम्मिलित हैं, इनकी प्रामाणिकता के विषय में संदेह नहीं है किंतु संत पाल के विचारों से प्रभावित होते हुए भी इनका लेखक कोई दूसरा ही होगा।
बाइविल के प्रामाणिक ग्रंथों की उपर्युक्त सूची में से पूर्वविधान के कुछ ग्रंथ इब्रानी बाइबिल में सम्मिलित नहीं थे, अर्थात् तोबियास, यूदिथ, मकाबी, प्रज्ञा सिराह और दानिएल एवं एस्तेर के कुछ अंश। यहूदी और बहुत से प्रोटेस्टैंट संप्रदाय इन ग्रंथों को अप्रमाणित मानकर अपनी बाइबिल में स्थान नहीं देते।
भाषा और रचनाकाल
प्राय: समस्त पूर्वविधान की मूल भाषा इब्रानी है। अनेक ग्रंथ यूनानी भाषा में तथा थोड़े से अंश अरामेयिक (इब्रानी बोलचाल) में लिखे गए हैं। समस्त नवविधान की भाषा कोइने नामक यूनानी बोलचाल है।
बाइबिल का रचनाकाल १२०० ई.पू. से १०० ई. तक माना जाता है। इसके बहुसंख्यक लेखकों में से मूसा सबसे प्राचीन हैं, उन्होंने लगभग १२०० ई.पू. में पूर्वविधान का कुछ अंश लिखा था। पूर्वविधान की अधिकांश रचनाएँ ९०० ई.पू. और १०० ई.पू. के बीच की है। समस्त नवविधान ५० वर्ष की अवधि में लिखा गया है अर्थात् सन् ५० ई. से सन् १०० ई. तक।
बाइबिल में जो ग्रंथ सम्मिलित किए गए हैं वे एक ही शैली में नहीं, अनेक शैलियों में लिखे गए हैं - इसमें लोककथाएँ, काव्य और भजन, उपदेश और नीतिकथाएँ आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक रूप पाए जाते हैं। अध्ययन तथा व्याख्यान करते समय प्रत्येक अंश की अपनी शैली का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।
शताब्दियों से बाइबिल के अनुवाद का कार्य चला आ रहा है। इसराएली लोग इब्रानी बाइबिल क्रा छायानुवाद अरामेयिक बोलचाल में किया करते थे। सिकंदरिया के यहूदियों ने दूसरी शताब्दी ई.पू. में इब्रानी बाइबिल का यूनानी अनुवाद किया था जो सेप्टुआर्जिट (सप्तति) के नाम से विख्यात है। लगभग सन् ४०० ई. में संत जेरोम ने समस्त बाइबिल की लैटिन अनुवाद प्रस्तुत किया था जो वुलगाता (प्रचलित पाठ) कहलाता है और शताब्दियों तक बाइबिल का सर्वाधिक प्रचलित रूप रहा है। आधुनिक काल में इब्रानी तथा यूनानी मूल के आधार पर सहस्त्र से भी अधिक भाषाओं में बाइबिल का अनुवाद हुआ है। पूर्वविधान का सर्वोत्तम प्रामाणिक इब्रानी पाठ किट्टल द्वारा (सन् १९३७ ई.) तथा यूनानी पाठ राल्फस द्वारा (१९१४ ई.) प्रस्तुत किया गया है। नव विधान के अनेक उत्तम प्रामाणिक यूनानी पाठ मिलते हैं, जैसे टिशनडार्फ, वेस्टकोट होर्ट, नेस्टले, वोगेल्स, मेर्क और सोटर के संस्करण।
यूनानी बाइबिल की प्राचीन हस्तलिपियों का विवरण इस प्रकार है -
(१) वाटिकानुस (चौथी श.ई.; रोम मे सुरक्षित);
(२) सिनाइटिकुस (चौथी श.ई.; ब्रिटिश म्युजियम);
(३) एलेक्सैंड्रिकुस (पाँचवीं श.ई.; ब्रिटिश म्युजियम);
(४) एफ्राएम (पाँचवीं श.ई.; पेरिस का लूग्र म्यूजियम)।
इनके अतिरिक्त १५ संपूर्ण तथा ४००० से अधिक आंशिक नवविधान की यूनानी हस्तलिपियाँ प्राप्त हैं जिनका लिपिकाल सन् २०० ई. तथा ७०० ई. के बीच है। नवविधान की प्राचीनतम हस्तलिपि सन् २१४ डे. का पैपीरस चेस्टर बीरी है। अंग्रेजी भाषा के निम्नलिखित अनुवाद सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं - ऑयॉराइज़द वर्शन अथवा किंग जेम्स बाइबिल (सन् १८११ई.); हुए वर्शन (१६०९ ई.); काफ्राटर्निटी वर्शन (१९४१ ई.) आर.ए. नीक्स बाइब्रिल (१९४४ई.); न्यू इंग्लिश बाइबिल (१९६१ ई.)। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रोटेस्टैंट मिशनरी कैरे ने बाइबिल का हिंदी अनुवाद तैयार किया था; "धर्मशास्त्र" के नाम से इसके बहुत से संस्करण छप चुके हैं और उसमें संशोधन भी होता रहा है। २००9 में यहोवा के साक्षियों ने एक हिंदी अनुवाद, नयी दुनिया अनुवाद मसीही यूनानी शास्त्र, छापा और यह अनुवाद उनके वेब साईट में भी उपलब्ध है।
बाइबिल ईश्वर प्रेरित भी है और साधारण मनुष्यों की रचना भी है; अत: इसकी व्याख्या में इस दोहरे कर्तृत्व का ध्यान रखना आवश्यक है।
मनुष्य की कृति होने के कारण अन्य लौकिक साहित्य की तरह बाइबिल का अध्ययन किया जाना चाहिए; अत:
(१) पाठानुसंधान के नियमों के अनुसार शुद्ध पाठ का निर्धारण करना है;
(२) परोक्ष एवं प्रत्यक्ष संदर्भ के अनुसार शब्दों तथा वाक्यों का अर्थ लगाना है;
(३) इस कार्य में समानांतर रचनाओं, प्राचीन अनुवादों तथा प्रामाणिक व्याख्याओं का सहारा लेना है; और
(४) विभिन्न लेखकों के समय, स्थान, शैली तथा उद्देश्य का ध्यान रखना है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बाइबिल के व्याख्याता के लिए बाइबिल में उल्लिखित देशों की विस्तृत जानकारी के अतिरिक्त भाषाविज्ञान, इतिहास, भूगोल, पुरातत्व, धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन जैसी अनेक सहायक विधाएँ अत्यंत आवश्यक हैं।
बाइबिल ईश्वर की प्रेरणा से लिखी गई है, अत: इसकी व्याख्या करते समय
(१) इसके धार्मिक उद्देश्य की रक्षा होनी चाहिए
(२) इसकी शिक्षा निभ्र्रांत सिद्ध हो जानी चाहिए क्योंकि ईश्वर भ्रांति नहीं सिखला सकता;
(३) धर्म तथा नैतिकता के प्रश्नों के विषय में ईसा (ईश्वर) द्वारा स्थापित चर्च की आधिकारिक व्याख्या दी जानी चाहिए।
(४) प्रत्येक व्याख्या को ईसाई धर्म के सामूहिक सत्य के साथ सामंजस्य रखना चाहिए।
उपर्युक्त नियमों के दोहरे पक्ष का संतुलन रखना आवश्यक है। चर्च की परंपरा के अनुसार ही बाइबिल की वैज्ञानिक व्याख्या सार्थक हो सकती है।
अंग्रेजी साहित्य में बाइबिल
भौगोलिक दृष्टि से बाइबिल का प्रभाव बहुत ही विस्तृत है। शायद यह एक आकस्मिकता हो। मूलत: एक दमित जनता के धर्म के रूप में ईसाइयत अनेक परीक्षणों के पश्चात् अपने विजितों का धर्म बनी।
बाइबिल का प्राचीन धर्मनियम (टेस्टामेंट) आध्यात्मिकता की दृष्टि से कुरान और इस्लाम से संयुक्त है और एक चुने हुए विशिष्ट जनसमूह से संबद्ध है। मूसा अथवा ईसा, अब्राहम या सुलेमान मुस्लिमों में श्रद्धेय नाम हैं। बाइबिल इससे भिन्न है। यह कई ग्रंथों का निचोड़ है। यह यहूदी जनता की समूची कहानी है और शायद प्राचीन लोगों में यहूदियों के अनुभव सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण हैं। यह ऐसी जाति थी जो खूँखार कबीलों से घिरी थी और जो स्वयं भी कम खूँखार न थी। कभी कभी उन्हें नीचा दिखाया गया, विजित किया गया और गुलाम भी बनाया गया। इस जाति ने कभी अपने शत्रुओं को विजित किया तथा उनकी शक्ति आजमाई, फिर भूमिसात् कर डाला (सैमुअल परिच्छेद ८:२)।
यह एक ऐसी ही जनता की आकांक्षा और प्रेरणा तथा जय और पराजय है जिसका वर्णन बाइबिल में अद्भुत सजीवता के साथ किया गया है। उसने हमें अपने अब्राहम और मूसा जैसे महान नेताओं, दाऊद और सुलेमान जैसे महान राजाओं तथा महान अवतारों के विषय में ज्ञान कराया है जिन्होंने समय समय पर उत्पन्न होकर अपने दृढ़ वचनों द्वारा अनुचित मार्ग पर आरूढ़ जनता को टोका। सेवानोरोला तक तो यही क्रम रहा है। उन्होंने उनकी हिंसापरायण वृत्ति को स्वयं भोग लिया, आलस्य और क्रूरता की निंदा की जिसकी ओर जनता स्वभावत: अभिमुख थी। बाइबिल (प्राचीन धर्मनियम) ने अब्राहम तथा , भयंकर हिंसक राजाओं और असभ्य रानियों के विषय में भी दर्शाया है। यह जनता की ऐतिहासिक घटनाओं और तिथियों की संहिता है। किसी ग्रंथ की अपरिहार्य लघु सीमाओं में यह वस्तुत: एक जातीय इतिहास होते हुए भी आश्चर्यचकित कर देनेवाले सत्यों से परिपूर्ण हैं।
प्राचीन धर्मनियम की समाप्ति के साथ उसमें एक आकस्मिक परिवर्तन होता दिखाई देता है। इतिहास वही रहता है किंतु उसकी प्रकृति बदल जाती है। यहूदियों का भयंकर ईश्वर हटा दिया जाता है और कल्पना में भारतीय ढंग का एक स्नेही ईश्वर उभड़ आता है। कदाचित् एक ऐसी ही प्रवृत्ति के प्रथम धुँधले चित्र स्वयं प्राचीन धर्मनियम के हृदयदेश के मध्य कुछ अवतारों में, विशेषकर इसैयाह आदि में पाए जाते हैं।
किंतु ईश्वर के संबंध में यह इब्रानियो की कोई आनुपातिक कल्पना नहीं है। उनकी भावना नेत्र के लिए नेत्र की थी। लेकिन जब ईसा ने उनसे कहा कि वे उनके दाएँ गाल पर थप्पड़ जमानेवाले के सामने अपना बायाँ गाल भी फेर दें, वे ऐसे क्रांतिकारी दर्शन और हिंसा के निपट अस्वीकार की बातें न समझ सके। इस प्रकार उन्होंने इस नवीन धार्मिक धारणा के लेखक को अमान्य घोषित कर दिया और अंतत: उन्हें शूली दे दी। किंतु उस दिन गलगोथा नामक स्थान पर क्रॉस से प्रवाहित रक्तबिंदुओं की धारा ने एक नए धर्म को जन्म दिया। ईसाई जन उसको अपने लिए जैसे एक प्रतीक रूप में देखते हैं और ईसा के वचनों का उपदेश देते हैं। इस प्रकार, बुनियादी तौर पर धैर्य और प्रेम ने त्वरा और घृणा पर विजय प्राप्त की। कोई नहीं सोचता था कि रोम के अंदर गुप्त तथा सुसज्जित कंदराओं या कुटियों में मिले समवेत रूप से मंद उच्चारित गायन में सम्मिलित होनेवाले लोग, जो पहले भयंकर रोमन पर्वों की जमातों के प्रसन्नार्थ ही उपयुक्त थे, एक न एक दिन केवल रोम की राजकीय शक्ति को ही नहीं हिला देंगे, अपितु आगामी दिनों में एक महत्तर और अधिक गौरवशाली रोम जैसे सनातन नगर का निर्माण करेंगे।
फिर ईसाई लोग क्रॉस रूपी शस्त्र से सुसज्जित होकर तमाम रोम में फैल गए। यद्यपि यहाँ वह रोमन सैन्यदल नहीं था बल्कि तालपत्रों से युक्त पादरी और भिक्षापात्र लिए संत थे, जो हजारों की संख्या में हँसते हँसते मृत्यु की भेंट चढ़ गए, उन्होंने यूरोप के विकराल और असभ्य जनों के बीच बाइबिल के संदेशों का प्रचार किया। बाइबिल (नवीन धर्मनियम) के शब्दों ने उन असभ्यों का आंशिक रूप से सभ्य बनाया।
इस प्रकार चर्च या ईसाई धर्म संस्थान कम से कम हजार वर्षों तक, अपनी संपूर्ण व्याप्ति के साथ यूरोप के मन पर अधिकार किए रहा। यहाँ तक कि साधारण से साधारण आचार अथवा विचार-कल्पना पर भी ईसाइयत की छाप रखती पड़ती थी। किंतु वही चर्च जो मूलत: अत्याचार और दमन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए विकसित हुआ था, अब स्वयं जुल्म और निरंकुशता का सबसे बड़ा वाहक यंत्र बन गया।
पुन: बाइबिल जनता को संकटमुक्त करने के लिए आगे आई। यह अपने आप में एक विरोधाभास है। जब चर्च अपनी असीम शक्ति के कारण मान्य हो गया था और पादरियों ने क्रॉस को विस्मृत कर दिया तथा महंथ लोग अनुचित लाभ उठाने लगे थे जनता बेदॉव होकर पुन: ईश्वरी वचनों को ढूँढ़ने लगी।
मूल रूप से इब्रानी और अराभेइक में (जिसमें संभवत: नवीन धर्म नियम के कुछ अंश ग्रीक में लिखे गए थे) लिखी जाकर यह ४००ई. में सेंट जेरोम सी. द्वारा लैटिन में अनूदित हुई और यह प्रामाणिक अनुवाद रोमन खैथोलिक गिरजाघरों द्वारा उपयोग में लाया गया। किंतु लैटिन सर्वसामान्य लोगों की भाषा न थी, दूसरे ईसाई धर्मगुरु भाषाओं या फूहड़ बोलियों में हुए बाइबिल के अनुवादों से बहुत चिढ़ते थे।
यह केवल इसीलिए ही नहीं कि ईसाई धर्मगुरु अपने विशेषाधिकार की स्थिति बनाए रखना चाहते थे, यद्यपि वहाँ इसकी अधिकता थी, वे डरते यह थे कि कहीं बोलचाल की भाषा में अनूदित होने से उसके वचन ईश्वरीय वचनों की शक्ति और आशय न खो दें। केवल एक चिरपरिचित मुहावरा पूज्य भाव और भक्ति को उत्तेजित करनेवाला अत्युत्तम माध्यम नहीं है अथवा अनिवार्य रूप से गहन सत्यों का सर्वोपरि संप्रेषक नहीं है।
किसी न किसी प्रकार चर्च के दुराचरण से ही धर्म और धार्मिक संस्थान में नया संघर्ष आरंभ हो गया। इस अवधि में, साथ ही साथ भूमध्यसागर के पूर्वी तटों पर एक नई शक्ति का उदय हो रहा था और इस्लाम के उमड़ते ज्वार के पूर्व अनेक ईसाई मतावलंबी पश्चिम की ओर बढ़ चढ़ आए थे। यद्यपि वास्तविक पुनर्जागरण कई दशकों बाद आया तथापि ईसाई धर्म के ये विद्वान् और उपासक उसके अग्रदूत थे। उन्होंने लोगों को अनिर्दिष्ट उत्तेजनाओं से भर दिया।
इंग्लैड में पहले पहल चर्च के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वालों को "लोलार्ड" कहा जाता था ई "लोलार्ड" एक अपमानजनक संज्ञा थी ई यह एक संप्रदाय था जो जनता में ईसा मसीह के उपदेशों की शिक्षा देता था और चर्च तथा मठ के विचार का विरोध करता था। उनका नेता जॉन विक्लिफ़ अद्भुत साहस और पांडित्यसंपन्न व्यक्ति था। उसने अनुभव किया कि विचारपरिवर्तन के लिए लोगों को ईसा के उपदेशवचनों की जानकारी आवश्यक है। इसके लिए जनभाषा में बाइबिल का अनुवाद आवश्यक हो गया। इस प्रकार उस काल की नवीन चेतना विक्लिफ़ की आवाज में ध्वनित हुई।
विक्लिफ़ उस समय हुआ था जब अँग्रेजी गद्य में बाइबिल के पूर्ण ऐश्वर्य और सौदर्य को अभिव्यक्त करने की बहुत ही कम शक्ति थी। इसका अपना अनुवाद बहुत ही रुक्ष है। शायद अँग्रेजी बोलचाल के संगीत के लिए उसके पास कान ही नहीं था। इब्रानी पद्य की कुछ अपनी निजी विशेषताओं के कारण उसके मूल संस्करण में एक ऐसी भव्यता भी थी और प्रयोग से कहीं अधिक महत्व हिब्रूवाली बाइबिल के शब्दसौंदर्य का था जो कुछ प्राचीन अनुवादों में सहज ही खो गया था। वाक्यखंड में संज्ञा का एक विशेष स्थान होता है और विभक्तियों की आज जैसी अनिवार्यता उस समय थी भी नहीं, क्योंकि यह एक महान वास्तविक कल्पना थी जो यहूदियों की अपनी थी तथा शब्दों के प्रति उनका संवेदन मर्मस्पर्शी था।
इस प्रकार कुछ शब्दों में ही सामथ्र्य और तीव्रता होती थी क्योंकि वे शब्द लागू न होकर बीज रूप में होते थे। इसके अतिरिक्त प्राचीन धर्मनियम की विषयवस्तु व्यापक रूप से सुगम है। विषयवस्तु के रुचिकर होने और अल्प-समय-साध्य होने के गुणों के कारण इसकी गाथाएँ, वर्णन, नाट्यगीतियाँ (जाब की पुस्तक) भविष्यवाणियाँ, सूक्तियाँ, लघु कथाएँ (रूथ के अध्ययन की कथा) सभी ने मिलकर एक सावयव आकार-प्रकार धारण कर लिया था। अंत में नवीन धर्म नियम (न्यू टेस्टामेंट) में ईसा के वचन हैं। अत: उन्हें समझने में थोड़ी भी चूक अथवा भ्रम हो जाने पर न केवल उलझन ही बढ़ जाती है बल्कि संपूर्ण आशय ही भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि गिरजाघरों ने अनुवादों को उचित नहीं समझा।
फिर भी विलियम टिंडेल ने बाइबिल के अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम प्रामाणिक प्रयास किया। उसने मूल इतालीय (इटैलियन) संस्करण का उपयोग किया जो पंद्रहवीं शताब्दी में इटली में तैयार किया गया था तथा चौदहवीं शताब्दी में किए गए विक्लिफ़ के अनुवाद का सहारा भी लिया था। अनुवाद के लिए उसने सरलतम आंग्ल शब्दों को चुना और इस प्रकार जनसाधारण की भाषा से नैकट्य स्थापित करते हुए अपना अनुवाद प्रस्तुत किया (१५२५)। टिंडेल ने इरैस्मस और र्माटिन लूथर (१४८३ -१५४६) और ज़िं्वग्ली (१५२४-२९) के जूरिख संस्करण का भी उपयोग किया था। फिर भी टिंडेल की सहजता कहीं कहीं अटपटे प्रयोगों से संबद्ध थी। किंतु टिंडेल की बाइबिल के निकट होकर ही कवरडेल एक महान धर्मोपदेशक था। वह टिंडेल की स्पष्टता को निबाहने में सफल हुआ है किंतु उसने उसे वाग्मीयता से भर दिया है। इसी नाते वह गद्य का असाधारण शिल्पी सिद्ध हो जाता है।
कवरडेल के पश्चात् सन् १६११ तक इस दिशा में कई प्रयास किए गए। सात वर्षों के अथक परिश्रम से प्रामाणिक संस्करण प्रस्तुत हुआ। ४७ विद्वानों, विशपों ने लैसलॉट ऐंडजु की अध्यक्षता में, वेस्टमिंस्टर के दो विश्वविद्यालयों में, इस कार्य को तीन खंडों में पूरा किया।
विद्वानों ने बुद्धिमत्तापूर्वक टिंडेल की स्पष्टता और कवरडेल की लयात्मक वाक्पटुता को काफी हद तक छोड़ दिया। उन्होंने अन्य अनुवादों से भी सहायता ली और इस प्रकार अपने प्रामाणिक अनुवाद को एक सुव्यवस्थित सौंदर्य तथा संगीतात्मक स्वर माधुरी प्रदान की जिसका अँग्रेजी भाषा में दुबारा पाया जाना संभव नहीं है। इससे केवल यही भर नहीं हुआ कि उसमें इब्रानी का सहज सौंदर्य और तात्विक शक्ति अक्षुण्ण रही बल्कि उचित शब्दों में, उसे एक "चित्रात्मक" और गीतात्मक गुण प्राप्त हो गया जो अत्युत्तम अंग्रेजी प्रतिभा का परिणाम है। यह जनता की बोली में घुलमिल गया है। विद्वानों का कहना है कि उसके ९३ऽ शब्द अंग्रेजी के हैं। उसका शब्द कभी भी प्राप्त या सीखा हुआ नहीं है तथा अनुवाद में गृहीत शब्द बिलकुल ही नहीं है।
आशय का स्पष्ट होना जरूरी भी था क्योंकि ईश्वरी पुस्तक माने जाने वाले ग्रंथ में दुरूहता की कोई गुंजायश नहीं होनी चाहिए थी। यद्यपि शैली बोलचाल की ही होनी आवश्यक थी ताकि लोग समझ सकें, तथापि गँवारूपन के लिए बिलकुल ही स्थान न था। फिर, शब्दों का सरल होना भी जरूरी या और यथा अवसर सौंदर्य तथा संयम भी अपेक्षित था। प्रामाणिक अनुवाद में इन सभी गुणों का प्राचुर्य था। |
देवदूत या स्वर्गदूत (इब्रानी: मलाख़ , अरबी : मलाक , फ़ारसी : फ़रिश्ता ) एक परालौकिक आकृति होती है, जिसे ईशदूत (देवदूत) कहा जा सकता है। इब्राहीमी धर्मों (ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म, यहूदी धर्म) में देवदूत को परमेश्वर का संदेशवाहक समझा जाता है, जो ईश्वर का गुणगान करते हैं और मनुष्यों तक उसका सन्देश पहुँचाते हैं।
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इब्राहीमी धर्म उन धर्मों को कहते हैं जो एक ईश्वर को मानते हैं एवं इब्राहीम (अरबी: ) को ईश्वर का पैग़म्बर (ईश्वर का संदेशवाहक) मानते है। इनमें यहूदी, ईसाई, इस्लाम और बहाई धर्म, आदि शामिल हैं। ये धर्म मध्य पूर्व में पनपे थे और एकेश्वरवादी हैं। यहूदी परम्परा विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से है।
यह औपचारिक रूप से स्थापित कोई धर्म नहीं है, ना इसके कोई अनुयायी हैं और ना ही इसकी कोई नींव है. विशेषज्ञों का यहां तक कहना है कि यह सिर्फ एक धार्मिक प्रोजेक्ट है जिसका मकसद इस्लाम ,ईसाई और यहूदी धर्म के बीच समानता को देखते हए इनके बीच के मतभेदों को मिटाना है. वैसे भी आमतौर पर इन तीनों धर्मों को अब्राहमी धर्म की श्रेणी में ही रखा जाता है।
यहूदी परंपरा का दावा है कि इज़राइल की बारह जनजातियाँ इब्राहीम से उनके बेटे इसहाक और पोते जैकब के वंशज हैं, जिनके बेटों ने सामूहिक रूप से कनान में इज़राइलियों का राष्ट्र बनाया; इस्लामी परंपरा का दावा है कि इश्माएलियों के रूप में जानी जाने वाली बारह अरब जनजातियां इब्राहीम से अरब में अपने बेटे इश्माएल के माध्यम से निकली हैं; बहाई परंपरा का दावा है कि बहाउल्लाह अपनी पत्नी केतुरा के माध्यम से अब्राहम के वंशज थे। पुरातात्विक जांच की एक सदी के बाद, इन ऐतिहासिक कुलपति के लिए कोई सबूत नहीं मिला है। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि इब्राहीम की कहानी छठी शताब्दी ईसा पूर्व में उत्पन्न हुई थी, और यह कि उत्पत्ति की पुस्तक ऐतिहासिक घटनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती है।
इस्लाम के कैथोलिक विद्वान लुई मैसिग्नन ने कहा कि "अब्राहम धर्म" वाक्यांश का अर्थ है कि ये सभी धर्म एक आध्यात्मिक स्रोत से आते हैं। आधुनिक शब्द कुरानिक संदर्भ के बहुवचन रूप से आता है, जो इब्राहीम के नाम का अरबी रूप, दीन इब्राहिम, 'इब्राहिम का धर्म' है।
उत्पत्ति १५:४-८ में अब्राहम के वारिसों के बारे में परमेश्वर का वादा यहूदियों के लिए आदर्श बन गया, जो उसे "हमारे पिता अब्राहम" (अवराम अविनु) के रूप में बोलते हैं। ईसाई धर्म के उदय के साथ, प्रेरित पौलुस ने, रोमियों ४:११-१२ में, उसी तरह उन्हें "सबका पिता" कहा, जो विश्वास, खतना या खतनारहित हैं। इसी तरह इस्लाम ने खुद को इब्राहीम के धर्म के रूप में माना। सभी प्रमुख अब्राहमिक धर्म अब्राहम के सीधे वंश का दावा करते हैं:
अब्राहम को तोराह में इस्राएलियों के पूर्वज के रूप में अपने बेटे इसहाक के माध्यम से दर्ज किया गया है, जो उत्पत्ति में किए गए वादे के माध्यम से सारा से पैदा हुआ था। [उत्पत्ति १७:१६]
ईसाई इब्राहीम में यहूदियों के पैतृक मूल की पुष्टि करते हैं। ईसाई धर्म यह भी दावा करता है कि यीशु अब्राहम के वंशज थे। [मैथ्यू १:१-१7]
मुहम्मद, एक अरब के रूप में, मुसलमानों द्वारा इब्राहीम के बेटे इश्माएल के वंशज, हागर के माध्यम से माना जाता है। यहूदी परंपरा भी इश्माएल, इश्माएलियों के वंशजों की तुलना अरबों से करती है, जबकि जैकब द्वारा इसहाक के वंशज, जिसे बाद में इज़राइल के रूप में भी जाना जाता था, इज़राइली हैं।
बहाई धर्म प्रचार करता है कि बहाउल्लाह अपनी पत्नी केतुराह के पुत्रों के माध्यम से अब्राहम के वंशज थे।
राजनीतिक चाल होने का शक
अब्राहमिक धर्म के विचार का विरोध भी हो रहा है। कई लोगों का मानना है कि यह समन्वय बिठने की आड़ में एक राजनीतिक चाल है। इस नए धर्म का मुख्य मकसद अरब देशों के साथ इज़रायल के संबंधों को बढ़ाना है।
'अब्राहमिया' शब्द का इस्तेमाल सितंबर २०२० में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के साथ इजरायल के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के साथ शुरू हुआ था।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और उनके सलाहकार जेरेड कुशनर द्वारा प्रायोजित इस समझौते को 'अब्राहमियन समझौता' कहा जाता है। इस समझौते को लेकर अमेरिकी विदेश विभाग का कहना है कि अमेरिका तीन अब्राहमिक धर्मों और सभी मानवता के बीच शांति को आगे बढ़ाने के लिए और धार्मिक संवाद का समर्थन करने की कोशिशों को बढ़ावा देता है।
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इस्लाम का इतिहास |
तमिल (तमिळ)एक मानव प्रजातीय मूल है, जिनका मुख्य निवास भारत के तमिलनाडु तथा उत्तरी श्रीलंका में है। तमिल समुदाय से जुड़ी चीजों को भी तमिल कहते हैं जैसे, तमिल तथा तमिलनाडु के वासियों को भी तमिल कहा जाता है। तामिल, द्रविड़ जाति की ही एक शाखा है।
मनुसंहिता, महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में द्रविड देश और द्रविड जाति का उल्लेख है। मागधी प्राकृत या पाली में इसी 'द्राविड' शब्द का रूप 'दामिलो' हो गया। तामिल वर्णमाला में त, ष, द आदि के एक ही उच्चारण के कारण 'दामिलो' का 'तामिलो' या 'तामिल' हो गया। शंकराचार्य के शारीरक भाष्य में 'द्रमिल' शब्द आया है। हुएनसांग नामक चीनी यात्री ने भी द्रविड देश को 'चिमोलो' करके लिखा है। तमिल व्याकरण के अनुसार द्रमिल शब्द का रूप 'तिरमिड़' होता है। आजकल कुछ विद्वानों की राय हो रही है कि यह 'तिरमिड़' शब्द ही प्राचीन है जिससे संस्कृतवालों ने 'द्रविड' शब्द बना लिया। जैनों के 'शत्रुंजय माहात्म्य' नामक एक ग्रन्थ में 'द्रविड' शब्द पर एक विलक्षण कल्पना की गई है। उक्त पुस्तक के मत से आदि तीर्थकर ऋषभदेव को 'द्रविड' नामक एक पुत्र जिस भूभाग में हुआ, उसका नाम 'द्रविड' पड़ गया। पर भारत, मनुसंहिता आदि प्राचीन ग्रन्थों से विदित होता है कि द्रविड जाति के निवास के ही कारण देश का नाम द्रविड पड़ा।
तामिल जाति अत्यन्त प्राचीन हे। पुरातत्वविदों का मत है कि यह जाति अनार्य है और आर्यों के आगमन से पूर्व ही भारत के अनेक भागों में निवास करती थी। रामचन्द्र ने दक्षिण में जाकर जिन लोगों की सहायता से लंका पर चढ़ाई की थी और जिन्हें वाल्मीकि ने बन्दर लिखा है, वे इसी जाति के थे। उनके काले वर्ण, भिन्न आकृति तथा विकट भाषा आदि के कारण ही आर्यों ने उन्हें बन्दर कहा होगा। पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि तामिल जाति आर्यों के संसर्ग के पूर्व ही बहुत कुछ सभ्यता प्राप्त कर चुकी थी। तामिल लोगों के राजा होते थे जो किले बनाकर रहते थे। वे हजार तक गिन लेते थे। वे नाव, छोटे मोटे जहाज, धनुष, बाण, तलवार इत्यादि बना लेते थे और एक प्रकार का कपड़ा बुनना भी जानते थे। राँगे, सीसे और जस्ते को छोड़ और सब धातुओं का ज्ञान भी उन्हें था। आर्यों के संसर्ग के उपरान्त उन्होंने आर्यों की सभ्यता पूर्ण रूप से ग्रहण की। दक्षिण देश में ऐसी जनश्रुति है कि अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण में जाकर वहाँ के निवासियों को बहुत सी विद्याएँ सिखाई। बारह-तेरह सौ वर्ष पहले दक्षिण में जैन धर्म का बड़ा प्रचार था। चीनी यात्री हुएनसांग जिस समय दक्षिण में गया था, उसने वहाँ दिगम्बर जैनों की प्रधानता देखी थी।
तमिल भाषा का साहित्य भी अत्यन्त प्राचीन है। दो हजार वर्ष पूर्व तक के काव्य तामिल भाषा में विद्यमान हैं। पर वर्णमाला नागरी लिपि की तुलना में अपूर्ण है। अनुनासिक पंचम वर्ण को छोड़ व्यंजन के एक एक वर्ग का उच्चारण एक ही सा है। क, ख, ग, घ, चारों का उच्चारण एक ही है। व्यंजनों के इस अभाव के कारण जो संस्कृत शब्द प्रयुक्त होते हैं, वे विकृत्त हो जाते हैं; जैसे, 'कृष्ण' शब्द तामिल में 'किट्टिनन' हो जाता है। तामिल भाषा का प्रधान ग्रन्थ कवि तिरुवल्लुवर रचित कुराल काव्य है।
कई अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकला कि आम तौर पर प्रोटो-तमिल, और द्रविड़ लोग जुड़े हुए हैं और प्राचीन दक्षिणी ईरान में नियोलिथिक ज़ग्रोस किसानों के साथ एक आम उत्पत्ति साझा करते हैं, जो बाद में इलाम के रूप में जाना जाता है। यह नवपाषाण पश्चिम एशियाई संबंधित वंश सभी दक्षिण एशियाई लोगों का मुख्य पुश्तैनी घटक है। एस्को पारपोला के अनुसार, अधिकांश अन्य द्रविड़ लोगों के रूप में प्रोटो-तमिल, सिंधु घाटी सभ्यता के वंशज हैं, जो संभवतः एलामाइट्स से भी जुड़ा हुआ है।
आज के तमिलनाडु में तमिल लोगों की उपस्थिति के प्रमाण महापाषाणकाल के दफनाये गए पात्रों में के रूप में मिलते हैं जो संभवतः १५०० वर्ष ईसा पूर्व के आसपास के हैं, जिन्हें कई जगहों पर, विशेषकर तिरुनेलवेली जिले के आदिकनाल्ल्रूर में, उत्खनन में प्राप्त किया गया है और इनके द्वारा शास्त्रीय युग के तमिल साहित्य में वर्णित अंतिम संस्कार के वर्णनों की पुष्टि होती है।
दसवीं सदी के बाद से तमिलों की प्राचीनता के विषय में कई प्रकार की कथाएँ प्रचलन में दिखलाई पड़ती हैं। इरइयन्नार अगप्पोरुल के अनुसार, जो संगम साहित्य पर दसवीं/ग्यारहवीं सदी की टीका है, तमिल देश का दक्षिणी विस्तार (कुमारि कंदम अथवा लेमूरिया) भारतीय उपमहादीप के वर्तमान भैतिक सीमाओं से कहीं अधिक दूर तक विस्तृत था और कुल ४९ नाडुओं (उपविभागों) से मिलकर बना था। यह भूमि एक भयावह बाढ़ में नष्ट हो गयी मानी जाती है। संगम कथाएँ तमिल प्राचीनता के दावे के रूप में तीन संगमों के दौरान, दस हजार वर्षों के सतत साहित्यक गतिविधियों का उल्लेख करतीं हैं।
प्राचीन काल में तमिलों की भूमि पर तीन राजसत्ताओं का शासन था, जिनके मुखिया के रूप में राजा को "वेंधार" कहा गया है और कई जनजातीय सरदारों द्वारा नियंत्रित बड़े कबीलों में विभक्त था, सरदारों को "वेळ" अथवा "वेळिर" कहा गया ह। और निचले स्तर के कबीलों के मुखिया को "किझर" अथवा "मन्नार" के नाम से जाना जाता था। तमिल सरदार और राजा हमेशा राज्यक्षेत्रों और संपत्ति को लेकर श्रेष्ठता साबित करने के लिए आपस में लड़ते रहते थे। शाही दरबार एक प्रकार के सामाजिक मेलमिलाप हेतु एकत्रण के स्थल थे न कि सत्ता के नियंत्रण के स्थल थे; वे संसाधनों के वितरण के केन्द्र के रूप में थे। प्राचीन तमिल संगम साहित्य; और व्याकरण सम्बन्धी रचना, तोलकप्पियम; दस काव्यगाथाएँ, पत्तुपट्टु; और आठ महा गाथाएँ, एट्टुत्तोकोइ; सभी प्राचीन तमिल लोगों पर प्रकाश डालते हैं। राजा और सरदार कला के प्रश्रयदाता थे और इस काल का साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इस साहित्यिक रचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुत से सांस्कृतिक रिवाज जो ख़ासतौर पर तमिलों के माने जाते हैं, इस शास्त्रीय युग जितने पुराने हैं।
कृषि का इस युग में पर्याप्त महत्त्व था और इस बात के सबूत भी मिलते हैं कि सिंचाई के संजाल हेतु कृत्रिम जलमार्गों का निर्माण करने की कला तीसरी सदी ईसापूर्व तक पुरानी है। आन्तरिक और बाह्य वाणिज्य काफी फलाफूला और प्राचीन रोम के साथ संपर्क के पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। करूर और अरिकामेदु में उत्खननों में भारी मात्र में प्राप्त रोमन सिक्के यहाँ रोमन व्यापारियों की उपस्थति का प्रबल प्रमाण हैं। पांड्य राजाओं द्वारा कम से कम दो दूतदल रोम के सम्राट ऑगस्टस के दरबार में भेजे गए थे। तमिल लेखनयुक्त मृद्भांडों के टुकड़े लाल सागर के क्षेत्रों के उत्खनन में प्राप्त हुए हैं जो इस इलाके में तमिल व्यापारियों की उपस्थिति का प्रमाण हैं।
तमिलों का यह प्राचीन स्वर्णयुग लगभग चौथी सदी के आसपास अपने अंत तक आ पहुँचा जब इनपर कालाभ्र द्वारा आक्रमण हुए। इन्हें तमिल साहित्य और शिलालेखों में कलप्पिरार के नाम से संबोधित किया गया है। इन आक्रान्ताओं का विवरण तमिल भूमि के उत्तर से आये बर्बर और दुर्दान्त लोगों के रूप में मिलता है। तमिल अंध युग के नाम से जाना जाने वाला यह दौर पल्लव साम्राज्य के उत्थान के साथ खत्म हुआ। क्लैरेंस मेलनी के अनुसार, तमिल स्वर्णयुग के दौरान तमिल लोग मालदीव द्वीपसमूह पर भी बसे हुए थे।
ब्रिटिश उपनिवेश स्थापित करने वालों ने तमिल राज्यक्षेत्रों को संगठित रूप देकर मद्रास प्रेसिडेंसी का निर्माण किया, जो ब्रिटिश राज का अभिन्न अंग बना। इसी तरह, श्रीलंका के तमिल भाषी क्षेत्रों को इस द्वीप के अन्य हिस्सों से जोड़ा गया और सीलोन उपनिवेश बनाया गया, १८०२ के आसपास। ये लोग भारत और श्रीलंका के क्रमशः १९४७ और १९४८ में आजाद होने के बाद भी राजनीतिक रूप से सम्बद्ध रहे।
भारत की १९४७ स्वतन्त्रता के बाद, मद्रास प्रेसिडेंसी मद्रास राज्य बना, जो वर्तमान में तमिलनाडु राज्य, तटीय आन्ध्र प्रदेश, उत्तरी केरल, और कर्नाटक का दक्षिणी पश्चिमी तटीय इलाका है। बाद में इस राज्य को भाषायी आधार पर विभाजित किया गया। १९५३ में उत्तरी जिले आन्ध्र प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आये। १९५६ के राज्य पुनर्गठन आयोग के लागू होने के बाद मद्रास राज्य के पश्चिमी तटीय हिस्से छिन गए। बेलारी और दक्षिण कन्नार को मैसूर राज्य में शामिल कर दिया गया। और मालाबार जिले और त्रावणकोर और कोचीन की राजशाहियों से केरल राज्य का निर्माण हुआ। १९६८ में मद्रास राज्य का नाम बदल कर तमिलनाडु कर दिया गया। श्रीलंका की कुल जनसंख्या का १५% हिस्सा तमिलों का है।
भारत में ज्यादातर तमिल लोग तमिल नाडु राज्य में निवास करते हैं। संघराज्यक्षेत्र पुद्दुचेरी में तमिल लोग बहुसंख्यक हैं। पुद्दुचेरी पहले फ्रांसीसी उपनिवेश रह चुका है और चारों ओर से तमिलनाडु से घिरा हुआ है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी जनसंख्या का कम से कम छठवाँ हिस्सा तमिल है।
इसके अतिरिक्त भारत के अन्य इलाकों में उल्लेखनीय तमिल जनसंख्या निवास करती है। इनमें से ज्यादातर काफी हाल में, औपनिवेशिक काल अथवा आजादी के बाद के दौर में यहाँ पहुँचे हैं, हालाँकि कि कुछ संख्या मध्यकाल के दौरान की भी है। तमिल जनसंख्या की महत्वपूर्ण उपस्थिति कर्नाटक (२९ लाख), महाराष्ट्र (१४ लाख), आन्ध्र प्रदेश (१२ लाख), केरल (६ लाख) और दिल्ली (१ लाख) में है।
श्री लंका में दो प्रकार के तमिल लोग हैं, श्री लंकाई तमिल और भारतीय तमिल। श्री लंकाई तमिल, प्राचीन जाफना राजवंश और पूर्वी तटीय कबीलों के वंशज हैं। भारतीय तमिल (अथवा पहाड़ी तमिल) उन बंधुआ मजदूरों के वंशज हैं जिन्हें उन्निस्वीं सदी में चाय बागानों में मजदूरी के लिए भारत से ले जाया गया। श्री लंका में एक महत्वपूर्ण समुदाय मुस्लिम तमिलों का भी है, जो तमिल भाषी है और इस्लाम में आस्था रखते हैं, हालाँकि इनके नृजातीय रूप से तमिल होने के प्रमाण भी कई हैं, हालाँकि ये लोग विवादास्पद रूप से श्रीलंका सरकार द्वारा अलग नृजातीय समुदाय के रूप में सूचीबद्ध किये जाते हैं।
ज्यादातर श्रीलंकाई तमिल उत्तरी और पूर्वी प्रान्त में और कुछ मात्रा में राजधानी कोलम्बो में रहते हैं, जबकि ज्यादातर भारतीय तमिल मध्य प्रान्त के पहाड़ी इलाकों में बसते हैं। ऐतिहासिक रूप से दोनों समुदाय एक दूसरे को अलग मानते हैं, हालाँकि १९८० के दशक के बाद इनमें एकता की भावना मजबूत हुई है।
१९६० के दशक में भारतीय और श्रीलंका सरकार के मध्य हुए कतिपय समझौतों के बाद लगभग ४० भारतीय तमिलों को नागरिकता मिल गयी और बाकियों को भारत भेज दिया गया। १९९० के दशक आते-आते, ज्यादातर भारतीय तमिलों को श्रीलंकाई नागरिकता हासिल हो गयी।
तमिलों का बाहर की ओर प्रवास महत्वपूर्ण रूप से अठारहवीं सदी में शुरू हुआ जब ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने बहुत से गरीब तमिलों को साम्राज्य के सुदूरवर्ती हिस्सों में मजदूर के रूप में भेजा, विशेषकर मलाया, दक्षिण अफ्रीका, फ़िजी, मॉरिशस, त्रिनिदाद और टोबैगो, गयाना, सूरीनाम, जमैका, फ्रेंच गयाना और मार्टिनीक के लिए। लगभग उसी दौर में, बहुत से तमिल व्यवसायी भी साम्राज्य के बिभिन्न भागों के लिए प्रवास कर गये, विशेषकर बर्मा और पूर्व अफ्रीका के लिए।
इनमें से बहुत से तमिल अब भी इन देशों में निवास करते हैं, और सिंगापुर, रियूनियन, मलेशिया, और दक्षिण अफ्रीका में निवास करने वाले इन तमिल समुदायों ने काफी हद तक अपनी भाषा और मूल संस्कृति को बरकरार रखा है। मलेशिया में बहुत से तमिल बच्चे तमिल स्कूलों में पढ़ते हैं और काफी सारे तमिल बच्चों की परवरिश तमिल मातृभाषी के रूप में होती है। सिंगापुर में, और मॉरिशस और रियूनियन में, तमिल बच्चे तमिल भाषा को दूसरी भाषा के रूप में स्कूलों में पढ़ते हैं जबकि पहली भाषा अंग्रेजी होती है। सिंगापुर में तमिल भाषा के संरक्षण हेतु सरकार ने इसे आधिकारिक भाषा का दर्जा दे रखा है बावजूद इसके कि यहाँ कुल जनसंख्या का मात्र ५% तमिल हैं, और तमिल लोगों को तमिल भाषा में पढ़ाई को अनिवार्य कर रखा है। अन्य तमिल समुदाय, जैसे कि दक्षिण अफ्रीका, फ़िजी, मॉरिशस, त्रिनिदाद और टोबैगो, गयाना, सूरीनाम, जमैका, फ्रेंच गयाना, गुआदेलोप, मार्टिनीक और कैरेबियन देशों में अपनी पहली भाषा के रूप में भले ही तमिल न बोलते हों, मजबूत तमिल पहचान को अक्षुण्ण रखा है यह भाषा आसानी से समझ सकते हैं, जबकि बहुत से बुजुर्ग लोग इसे प्रथम भाषा के रूप में अब भी बोलते हैं। पकिस्तान में एक छोटी सी संख्या तमिलों की है जो १९४७ में भारत विभाजन के बाद यहाँ बसे।
१९८० के दशक में भी बड़े पैमाने पर बाहर की ओर प्रवास शुरू हुआ जब श्री लंका के तमिलों ने नृजातीय संघर्षों के चलते बचने के लिए पलायन किया। ये बाद के प्रवासी लोग ऑस्ट्रेलिया, यूरोप उत्तर अमेरिका, और दक्षिण पूर्व एशिया में जा बसे हैं।
आजकल दक्षिण एशिया से बाहर सबसे अधिक तमिल लोगों का संकेन्द्रण कनाडा के टोरंटो में है।
तमिल-हिन्दी व्यावहारिक लघु कोश |
पंजाबी का इनमें से मतलब हो सकता:
पंजाबी भाषा, पंजाब क्षेत्र के निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा
पंजाबी समुदाय, पंजाब क्षेत्र से जातीय समूह
पंजाबी खाना, पंजाबी लोगों का भोजन |
बिहारी भाषा: भारत के बिहार प्रांत में बोली जाने वाली भाषा।
बिहारी (साहित्यकार) : हिंदी के रीतिकालीन कवि। |
तेलुगु भाषा (तेलुगू: ) भारत के आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों की मुख्यभाषा और राजभाषा है। ये द्रविड़ भाषा-परिवार के अन्तर्गत आती है। विश्वभर में सबसे ज़्यादा वक्ताओं वाली द्रविड़ भाषा का दर्जा तेलुगु को मिलता है और यह भारत की उन चुनिंदा भाषाओं में शामिल है जिन्हें एक से ज़्यादा राज्यों में राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। तेलुगु कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडिशा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, गुजरात और केरल राज्यों एवं पुदुच्चेरी और अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह संघ राज्यक्षेत्रों (केंद्र शासित प्रदेश) में भाषाई अल्पसंख्यक है। तेलुगु भारत की उन ६ भाषाओं में से एक है जिन्हें शास्त्रीय भाषा के दर्जे से नामित और सम्मानित किया गया है।
२०११ की जनगणना के अनुसार, भारत के ८.१ लाख वक्ताओं के साथ, तेलुगु भारत की चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा और एथनोलौग की विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं की सूची के अनुसार तेलुगु पंद्रहवें स्थान पर है। तेलुगु भारतीय गणतंत्र की २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक है। यह संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे तेजी से बढ़ने वाली भाषा भी है, जहां एक बड़ा तेलुगू भाषी समुदाय है। तेलुगु भाषा में लगभग १0,००० पूर्व-औपनिवेशिक शिलालेख मौजूद हैं।
तेलुगु शब्द की व्युत्पत्ति
आंध्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेदीय ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। तेलुगु शब्द का मूलरूप संस्कृत में "त्रिलिंग" है। इसका तात्पर्य आंध्र प्रदेश के श्रीशैल के मल्लिकार्जुन लिंग, कालेश्वर और द्राक्षाराम के शिवलिंग से है। इन तीनों सीमाओं से घिरा देश त्रिलिंगदेश और यहाँ की भाषा त्रिलिंग (तेलुगु) कहलाई। इस शब्द का प्रयोग तेलुगु के आदि-कवि "नन्नय भट्ट" के महाभारत में मिलता है। यह शब्द त्रिनग शब्द से भी उत्पन्न हुआ माना जाता है। इसका आशय तीन बड़े बड़े पर्वतों की मध्य सीमा में व्याप्त इस प्रदेश से है। आंध्र जनता उत्तर दिशा से दक्षिण की ओर जब हटाई गई तो दक्षिणवासी होने के कारण इस प्रदेश और भाषा को "तेनुगु" नाम दिया गया। (तमिल भाषा में दक्षिण का नाम तेन है)। तेनुगु नाम होने का एक और कारण भी है। तेनुगु में तेने (तेने उ शहद, अगु उ जाहो) शब्द का अर्थ है शहद। यह भाषा मधुमधुर होने के कारण तेनुगु नाम से प्रसिद्ध है। यह प्रदेश "वेगिनाम" से भी ज्ञात है। "वेगि" का अर्थ है कृष्णा गोदावरी नदियों का मध्यदेश जो एक बार जल गया था। यह नाम भाषा के लिये व्यवहृत नहीं है। आंध्र एक जाति का नाम है। ऋग्वेद की कथा के अनुसार ऋषि विश्वामित्र के शाप से उनके ५० पुत्र आंध्र, पुलिंद और शबर हो गए।
अधिकांश संस्कृत शब्दों से संकलित भाषा "आंध्र" भाषा के नाम से व्यवहृत होती है। तेलुगुदेशीय शब्दों का प्राचुर्य जिस भाषा में है वह तेलुगु भाषा के नाम से प्रख्यात है। तेलुगु भाषा के विकास के संबंध में विद्वानों के दो मत हैं। डा चिलुकूरि नारायण राव के मतानुसार तेलुगु भाषा द्राविड़ परिवार की नहीं है किंतु प्राकृतजन्य है और उसका संबंध विशेषत: पैशाची भाषा से है। इसके विपरीत बिशप कार्डवेल और कोराड रामकृष्णय्य आदि विद्वानों के मत से तेलुगु भाषा का संबंध द्राविड़ परिवार से ही है। जो हो, इस का विकास दोनों प्रकार की भाषाओं के सम्मेलन से हुआ है। आजकल उपर्युक्त तीन नामों से प्रचलित इस भाषा में लगभग ७५ प्रतिशत संस्कृत शब्दों का सम्मिश्रण है। इसकी मधुरता का मूल कारण संस्कृत तथा तेलुगु का (मणिकांचन) संयोग ही है। पश्चिम के विद्वानों ने भी तेलुगु को "पूर्व की इतालीय भाषा" कहकर इसके माधुर्य की सराहना की है।
प्राय: सभी ध्वनियों के लिये लिपिचिह्न इस भाषा में पाए जाते हैं। इसकी विशेषता यह है कि ह्रस्व ए, ओ, दंत्य च, ज़ एवं शकट रेफ नाम से एक अधिक "र" के अतिरिक्त अर्धबिंदु और "ळ" भी इस भाषा में है। इस तरह संस्कृत वर्णमाला की अपेक्षा तेलुगु वर्णमाला में छह अक्षर अधिक पाए जाते हैं। प्राय: संस्कृत के मंगल, ताल और कला आदि शब्दों के "ल" वर्ण तेलुगु में "ळ" से उच्चरित होते हैं। अर्धानुस्वार का अस्तित्व उच्चारण में नहीं है लेकिन भाषा का क्रमविकस जानने के लिय इसके लिखने की अवश्यकता है। कुछ शब्द एक ही प्रकार से उच्चरित होते हुए भी अर्धानुस्वार के समावेश से भिन्न-भिन्न अर्थ देते है। उदाहरणत: "एडु" का अर्थ सात संख्या है। उसी को अर्धानुसार से 'एँडु' शब्द लिखा जाए तो इसका ध्यानअर्थ वर्ष अर्थात् संवत्सर होता है। तेलुगु स्वरांत याने "अजंत" भाषा है जबकि हिंदी "व्यंजनांत" या "हलंत भाषा"। स्वरांत भाषा होने के कारण तेलुगु संगीत के लिये अत्यंत उपयुक्त मानी गई है। अत: कर्नाटक संगीत में ९० प्रतिशत शब्द तेलुगु के पाए जाते हैं।
तेलुगु लिपि मोतियों की माला के समान सुंदर प्रतीत होती है। अक्षर गोल होते हैं। तेलुगु और कन्नड लिपियों में बड़ा ही सादृश्य है। ईसा के आरंभकाल की "ब्राह्मी लिपि" ही आंध्र-कर्नाटक लिपि में परिवर्तित हुई। इस लिपि का प्रचार "सालंकायन" राजाओं के समय सुदूर देशों में भी हुआ। तमिलों ने सातवीं शताब्दी में अपनी अलग लिपि बना ली।
तेलुगु साहित्य का विभाजन (१) पुराणकाल, (२) काव्यकाल, (३) ह्रासकाल और (४) आधुनिककाल के आधार पर किया जाता है।
विस्तृत जानकारी के लिये तेलुगू साहित्य देखें।
अधिक प्रयोग होने वाले तेलुगु शब्द
अंट (अव्य) - ऐसा कहते हैं
अंडि (अव्य) - जी
अंडी (संज्ञा) - जी
अंत (विशे) - के उतना
अक्का (विशे) - दीदी
अट्टु (अव्य) - वैसा
अट्टुगा (अव्य) - वैसा
अट्टुगाने (अव्य) - वैसा ही
अट्टू (अव्य) - वैसा ही
अट्लु (अव्य) - वैसा
अट्लू (अव्य) - वैसा ही
अनि (अव्य) - ऐसा
अन्ना (विशे) - भाई
अप्पुडल्ला (अव्य) - तब तब
अम्मा (विशे) - अम्मा{स्त्री}
अयि (अव्य) - हो कर
अयिते (अव्य) - होना पर
अयिना (अव्य) - [हुआ] तो भी
अय्या (विशे) - अय्या {पु.}
अर (संज्ञा) - १.आधा/अपूर्ण
अर्रा (विशे) - रे
अल्ला (अव्य) - तो
अल्ले (अव्य) - १.जैसे/की तरह/के समान
अव्वा (विशे) - दादी मा
अस्त (विशे) - अस्त
अस्थ (विशे) - अस्थ
आ (अव्य) - क्या
आत्मक (विशे) - आत्मक
आर (अव्य) - [के] भर
आरा (अव्य) - [के] भर
आस्पद (विशे) - आस्पद
इंत (संज्ञा) - ना
इंपु (संज्ञा) - ना
ई (अव्य) - भी
ऊ (अव्य) - भी
सामान्य वार्तालाप १
भाषा ( )
मेरा नाम : "ना पेरु" ( )
बाथरूम कहाँ है? : बाथरूम एक्कडा उन्धि? ( ? )
आप कैसे हैं? : एला वुन्नारु? ( ? )
सामान्य वार्तालाप २
आ : नमस्कार, आप कैसे हैं? "नमस्कारम, एला उन्नारु"
ब : मैं अच्छा हूँ, आप कैसे हैं? "नेनु बागुन्नानु, मीरु एला उन्नारु"
आ : खाना खाया? "लन्च तिन्नारा या भोजनम चेसियरा या भोजनम अय्यिन्धा"
ब : मैं खाना खाने रेस्तरां जा रहा हूँ। "भोजनम तिनाडानिकी रेस्टॉरेन्ट कि वेलुतुन्ना"
सामान्य वार्तालाप ३
हिन्दी तेलुगू कोश
तेलुगु हिन्दी कोश (इसमें तेलुगु शब्द भी देवनागरी लिपि में दिए गये हैं)
तेलुगु भाषा में वार्ता
व्यावहारिक लघु कोश
विश्व की प्रमुख भाषाएं
भारत की भाषाएँ
आन्ध्र प्रदेश की भाषाएँ
आंध्र प्रदेश की संस्कृति |
नेपाली, नेपाल की राष्ट्रभाषा है और भारतीय संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित भाषाओं में से एक है। नेपाली भाषानेपाल की राष्ट्रीय भाषा हैं। यह भाषा नेपाल की लगभग ४५% लोगों की मातृभाषा भी है। यह नेपाली भाषा नेपाल के अतिरिक्त भारत के सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों (आसाम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय) तथा उत्तराखण्ड के अनेक भारतीय लोगों की मातृभाषा है। भूटान, तिब्बत और म्यानमार के भी अनेक लोग यह भाषा बोलते हैं।
नेपाली भाषा साहित्य
नेपाली भाषा साहित्य के आदिकवि भानुभक्त आचार्य है। इस भाषा के महाकवि लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा है। इस भाषा के प्रमुख लेखक है :-
माधव प्रसाद घिमिरे
इन्द्र बहादुर राई
नेपाली में ११ वटा ध्वनिकीय विशिष्ट स्वर और ३० व्यञ्जन हैं। नेपाली में दश डिफ़्थॉंग/संध्यक्षर भी मौजूद हैं।
मलाई नेपाली भाषा आउँदैन (हिन्दीः मुझे नेपाली नहीं आती।)
मेरो देश नेपाल हो (हिन्दीः मेरा देश नेपाल है।)
तपाईंलाई/तिमीलाई कस्तो छ? (आप/तुम कैसे हो?)
के छ? हजुर नमस्कार - (नमस्ते जी कैसे हो?) (अनौपचारिक)
संचै हुनुहुन्छ? - (सब ठीक तो है?) (औपचारिक)
खाना खाने ठाउँ कहाँ छ? (खाने खाने की जगह कहाँ है?)
काठ्माडौँ जाने बाटो धेरै लामो छ काठमांडू जाने का रास्ता बहुत लम्बा है।
नेपालमा बनेको नेपाल में निर्मित
म नेपाली हूँ मैं नेपाली हूँ।
अरु चाहियो? - और चाहिए?
पुग्यो/भयो बस !
इन्हें भी देखें
नेपाली भाषाएँ एवं साहित्य
नेपाली कविता कोश
समकालीन नेपाली शब्दकोश
नेपाली-हिन्दी कोश (केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय)
हिन्दी से नेपाली अनुवादक प्रोग्राम
नेपाल की भाषाएँ
भारत की भाषाएँ
सिक्किम की भाषाएँ
पश्चिम बंगाल की भाषाएँ
विश्व की प्रमुख भाषाएं |
जर्मन भाषा (, दॉइच) संख्या के अनुसार यूरोप की सब से अधिक बोली जाने वाली भाषा है। ये जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया की मुख्य- और राजभाषा है। ये रोमन लिपि में लिखी जाती है (अतिरिक्त चिन्हों के साथ)। ये हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में जर्मनिक शाखा में आती है। अंग्रेज़ी से इसका निकटवर्ती सम्बन्ध है। किन्तु रोमन लिपि के अक्षरों का इसकी ध्वनियों के साथ मेल अंग्रेज़ी की तुलना मे कहीं बेहतर है। आधुनिक मानकीकृत जर्मन को उच्च जर्मन कहते हैं।
जर्मन भाषा भारोपीय परिवार के जर्मेनिक वर्ग की भाषा, सामान्यत: उच्च जर्मन का वह रूप है जो जर्मनी में सरकारी, शिक्षा, प्रेस आदि का माध्यम है। यह आस्ट्रिया में भी बोली जाती है। इसका उच्चारण १८९८ ई. के एक कमीशन द्वारा निश्चित है। लिपि, फ्रेंच और अंग्रेजी से मिलती-जुलती है। वर्तमान जर्मन के शब्दादि में अघात होने पर काकल्यस्पर्श है। तान (टोन) अंग्रेजी जैसी है। उच्चारण अधिक सशक्त एवं शब्दक्रम अधिक निश्चित है। दार्शनिक एवं वैज्ञानिक शब्दावली से परिपूर्ण है। शब्दराशि अनेक स्रोतों से ली गई हैं।
उच्च जर्मन, केंद्र, उत्तर एवं दक्षिण में बोली जानेवाली अपनी पश्चिमी शाखा (लो जर्मन-फ्रिजियन, अंग्रेजी) से लगभग छठी शताब्दी में अलग होने लगी थी। भाषा की दृष्टि से "प्राचीन उच्च जर्मन" (७५०-१०५०), "मध्य उच्च जर्मन" (१३५० ई. तक), "आधुनि हाई जर्मन" (१२०० ई. के आसपास से अब तक) तीन विकास चरण हैं। उच्च जर्मन की प्रमुख बोलियों में यिडिश, श्विज्टुन्श, आधुनिक प्रशन स्विस या उच्च अलेमैनिक, फ्रंकोनियन (पूर्वी और दक्षिणी), टिपृअरियन तथा साइलेसियन आदि हैं।
जर्मन भाषा के प्रयोग एवं पठन-पाठन को बढ़ावा देने वाले कई संस्थान हैं। इनमें से प्रमुख हैं-
वेरें डेच स्प्रचे -- इसकी स्थापना १९९७ में हुई थी। जर्मन भाषा के प्रचार-प्रसार का समर्थक है। विश्व का सबसे बड़ा भाषा संघ है।
डेच वेले -- जर्मन राज्य प्रसारक (ब्राडकास्टर)। बीबीसी के तुल्य। जर्मन भाषा तथा विश्व की अन्य ३० भाषाओं में (हिन्दी सहित) रेडियो और टीवी का प्रसारण करता है।
हिन्दी-जर्मन बोलचाल के वाक्य
* इस और की सही ध्वनि हिंदी में नहीं होती हैं. ये ध्वनि ए और ई करीब है
** जर्मन "च" का उच्चारण उर्दू का "ख़" ध्वनि करीब है
कुछ सर्वाधिक प्रयुक्त जर्मन शब्द
इन्हें भी देखें
हिन्दी --> जर्मन शब्दकोश
जर्मन --> हिन्दी शब्दकोश
हिन्दी माध्यम से जर्मन भाषा सीखें
जर्मन भाषा सीखें (दू)
विश्व की प्रमुख भाषाएं |
रूसी ( लिप्यंतरण: रूस्कि यज़िक) एक पूर्वी स्लाव भाषा है जो मुख्य रूप से पूरे रूस में बोली जाती है। यह रूसियों की मातृभाषा है, और हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार से संबंधित है। यह तीन जीवित पूर्वी स्लाव भाषाओं में से एक है, और यह बड़ी बाल्टो-स्लाव भाषाओं का भी एक हिस्सा है। रूस के अलावा, रूसी बेलारूस, कज़ाख़िस्तान और किर्गिस्तान में एक आधिकारिक भाषा है, और पूरे यूक्रेन, काकेशस, मध्य एशिया और बाल्टिक राज्यों में कुछ हद तक एक सम्पर्क भाषा के रूप में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। यह पूर्व सोवियत संघ की वास्तविक भाषा थी, और सोवियत के बाद के सभी राज्यों में अलग-अलग दक्षता के साथ सार्वजनिक जीवन में इसका इस्तेमाल जारी है।
रूसी के दुनिया भर में कुल २५८ मिलियन से अधिक वक्ता हैं। यह सबसे अधिक बोली जाने वाली स्लाव भाषा है, और यूरोप में सबसे अधिक बोली जाने वाली मूल भाषा है, साथ ही यूरेशिया की सबसे भौगोलिक दृष्टि से व्यापक भाषा है। यह देशी वक्ताओं की संख्या के हिसाब से दुनिया की सातवीं सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, और बोलने वालों की कुल संख्या के हिसाब से दुनिया की आठवीं सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। रूसी अन्तर्राष्ट्रीय अन्तरिक्ष स्टेशन पर सवार दो आधिकारिक भाषाओं में से एक है, साथ ही संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाओं में से एक है।
रूसी को सीरिलिक लिपि के रूसी वर्णमाला का उपयोग करके लिखा गया है; यह व्यंजन ध्वनियों के बीच तालु माध्यमिक अभिव्यक्ति और बिना तथाकथित "नरम" और "कठिन" ध्वनियों के बीच अंतर करता है। लगभग हर व्यंजन का एक कठोर या नरम प्रतिरूप होता है, और भेद भाषा की एक प्रमुख विशेषता है। एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू अस्थिर स्वरों की कमी है। आघात, जो अप्रत्याशित होता है, सामान्य रूप से लेखनवर्तनी से इंगित नहीं किया जाता है, हालांकि आघात को चिह्नित करने के लिए एक वैकल्पिक तीव्र विशेषक चिह्न का उपयोग किया जा सकता है - जैसे कि होमोग्राफ़ शब्दों के बीच अंतर करने के लिए या असामान्य शब्दों या नामों के उचित उच्चारण को इंगित करने के लिए।
रूस संयुक्त राज्य के ५ सदस्य देशों की आधिकारिक भाषा है । ये देश है:
निम्न देशों मे स्थानीय स्तर पर आधिकारिक दर्जा है:
दनीस्टर का लेफ्ट बैंक
क्रिमिया का स्वायत्त गणराज्य
संयुक्त राज्य संस्थान
अल्पसंख्यक भाषा के रूप में मान्य है:
रूसी भाषा को विज्ञान की रूसी अकादमी का रूसी भाषा संस्थान नियंत्रित करता है।
रूसी सिरिलिक लिपि (पुरानी स्लाव वर्णमाला) में लिखी जाती है। रूसी वर्णमाला में ३३ अक्षर होते हैं।
रूसी भाषा की गिनती
२०वीं सताब्दी के रूसी क्रांति व उसके बाद हुए साम्यवाद के राजनीतिक विचारधारा मे परिवर्तन ने लिखित रूसी भाषा को उसका नवीन रूप दिया।
ये रूप १९१८ के स्पेलिंग् सुधार के बाद ही आ पाया। लेकिन रूसी भाषा को उसकी वैश्विक ख्याति मध्य २०वीं शताब्दी के बाद मिली जिसमे मुख्य हाथ सोवियत संघ के सैन्य, वैज्ञानिक व तकनीकी स्तरों (मुख्यतः कॉस्मो अंतरिक्ष विज्ञान) की उपलब्धि थी।
आज रूसी प्रथम भाषीय के अनुसार ७वीं सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है।
और कुल भाषा वक्ता के अनुसार ८वीं सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है।
इन्हें भी देखें
रूसी भाषा का साहित्य
तालिका में रूसी वर्णमाला
रूसी भाषा और भारत
हिंदी रूसी और रूसी हिंदी शब्दकोश | - -
काव्य रूसी भाषा सम्पादन
रूसी-हिन्दी कोश (केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय)
रूसी भाषा का स्कूल (रेडियो रूस)
हिन्दी-रूसी (हिन्दी ब्लॉग)
संस्कृत और रूसी भाषाओं के बीच सास-बहू का रिश्ता
विश्व की प्रमुख भाषाएं
रूस की भाषाएँ
१८६० में जन्मे लोग |
पुर्तगाली भाषा (पुर्तगाली : लंगुआ पुर्तुगेसा, पुर्तुगस) एक यूरोपीय भाषा है। ये मूल रूप से पुर्तगाल की भाषा है और इसके कई भूतपूर्व उपनिवेशों में भी बहुमत भाषा है, जैसे ब्राज़ील। ये हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की रोमांस शाखा में आती है। इसकी लिपि रोमन है। इस भाषा के प्रथम भाषी लगभग २० करोड़ हैं।
पुर्तगाली या (पोर्तगाली) नवलातीनी परिवार की भाषा है। इस परिवार की अन्य भाषाएँ स्पेनी, फ्रांसीसी, रूमेनी, लातीनी, प्रोवेंसाली तथा कातालानी हैं। यह लातीनी वोल्गारे (लातीनी अपभ्रंश) का विकसित रूप है जिसे रोमन विजेता अपने साथ लूसीतानिया में लगभग तीसरी शती ईसवी पूर्व में ले गए थे। रोमन विजेताओं की संस्कृति मूल निवासियों की अपेक्षा उच्च थी। उसके प्रभाव के कारण स्थानीय बोलियाँ दब गईं, भौगोलिक नामों तथा कुछ शब्दों (एस्क्वेदों वेइगा) में उनके अवशेष मिलते हैं।
पाँचवीं शतीं में आइबीरिया प्रायद्वीप पर बर्बरों का आक्रमण हुआ। आक्रमणकारियों ने विजितों की भाषा को अपनाया। पुर्तगाली की शब्दावली में जर्मन भाषा वर्ग के बहुत ही कम शब्द हैं। प्राय: युद्ध से संबंधित कुछ शब्द मिलते हैं जो महत्वपूर्ण नहीं हैं।
आठवीं शती में आइबीरिया पर अरब आक्रमण हुआ। इनका अधिकार पाँच सौ वर्षों तक रहा। यद्यपि आक्रामकों की संस्कृति बहुत उन्नत थी तथापि उन्होंने अपनी भाषा को पुर्तगालियों पर थोपा नहीं। दोनों ही अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग करते रहे। ऐसा होने पर भी पुर्तगाली में बहुत से अरबी के शब्द रह गए हैं। ऐसे शब्दों को अरबी के "अल्" उपसर्ग से युक्त होने से आसानी से पहचाना जा सकता है (अल्खूवे अल्मोक्रेवे, अल्मोफारिज़)।
१३वीं शती की पुर्तगाली नीति कविता पर प्रोवेंसाली का बहुत प्रभाव था। इसलिए कविता को भाषा में अनेक प्रोवेंसाली शब्द प्रयुक्त हुए, किंतु बोलचाल की भाषा में अपेक्षाकृत कम प्रोवेंसाली शब्द मिलते हैं। पुर्तगाली शब्दावली को सबसे अधिक समृद्ध किया स्पेनी और फ्रांसीसी भाषाओं ने। स्पेनी का प्रभाव उनकी भौगोलिक समीपता तथा साहित्यिक समृद्धि, विशेषकर नाट्य साहित्य, के कारण पड़ा। पुर्तगाल पर स्पेन का आधिपत्य (१५८०-१६४०) रहना भी प्रभाव का एक कारण है। फ्रांसीसी का प्रभाव में तो पड़ा ही, क्योंकि ११वीं शती में पुर्तगाल के प्रथम राजवंश का प्रतिष्ठाता काउंट ऑव पुर्तगाल बरगंडी का हेनरी था। उसके बाद १८वीं शती से २०वीं शती के आरंभ तक फ्रांसीसी संस्कृति के प्रवेश के कारण फ्रांसीसी भाषा ने पुर्तगाली को प्रभावित किया। आधुनिक युग में यूरोप की अन्य भाषाओं के समान अंग्रेजी का प्रभाव पुर्तगाली पर भी देखा जा सकता है। अमरीकी सभ्यता ने यांत्रिक क्षेत्र में जो प्रगति की, उसका प्रभाव पुर्तगाली भाषा पर भी लक्षित हो रहा है।
पुर्तगाली में, विशेषकर कला से संबंधित, अनेक इतालीय शब्द भी हैं। इनमें से अधिकांश शब्द इतालीय साहित्यिक प्रवृत्तियों की सफलता के कारण १६वीं शती में प्रवेश कर गए थे। १६वीं शती के पश्चात् लातीनी साहत्य के अध्ययन की विशेष रूचि के फलस्वरूप साहित्यिक पुर्तगाली पर लातीनी का प्रभाव पड़ा। वाक्यविन्यास तथा शब्दावली दोनों पर लातीनी का प्रभाव पड़ा। लातीनी शब्दों से ही वने फ्रियो, फ्रोजिदो, जैसे सरल शब्दों के रहते आडंबरपूर्ण अस्वाभाविक शब्दों (आंदोलोक्वो, उनबीवागो) का प्रयोग होने लगा। ग्रीक से वैज्ञानिक शब्दावली ली गई।
१५वीं शती से ही जो खोजें आरंभ हुई उनके माध्यम से पुर्तगालियों का संपर्क अफ्रीका, एशिया और अमरीका के निवासियों से हुआ। फलस्वरूप अनेक नए शब्द पुर्तगाली में आ गए (कांचिम्बा, वातुक्वे, मांदिओका)।
लातीनी और पुर्तगाली की तुलना
लातीनी की तुलना में पुर्तगाली की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं :
ध्वनिविषयक अनुनासिक व्यंजन के कारण स्वरों में परिवर्तन - मानूऊमाँओ; पोनितऊपोंए;
स्वरमध्यवर्ती अघोष व्यंजनों का घोष हो जाना तऊद, पऊब, चऊज (लाकुऊलागो; सापेरेऊसाबेर);
स्वरों के बीच में आनेवाले द और ल व्यंजनों का लोप हो जाना (फीदेऊफैएऊफे; दोलोरेऊदोर;
स्वर समुदाय अउ के स्थान पर ओर कभी-कभी ओह हो जाता है (ताउरुऊतोउरोऊतोहरो; आउरुऊओउरो, ओहरो) ;
शब्दारंभ में आनेवाले संयुक्त क्ल, फ्ल, प्ल के स्थान पर क (क्लावेऊ कावे (शावे) ;
फ्लामाऊकामा (सामा) फ्लोरारेऊकोरार (सोरार) हो जाता है;
शब्द के मध्यवर्ती वल के स्थान पर ल्ह हो जाता है - ओकुलुऊआल्हो।
पुर्तगाली में वाक्यविन्यासात्मक ध्वनिप्रक्रिया ध्यान देने योग्य है : शब्दांत में आनेवाले 'स' का उच्चारण प्राय: 'शिप' के 'श' के समान होता है, किंतु जब उसके पश्चात् और शब्द रहते हैं तब उसका उच्चारण ज़ (ज़) जैसा होता है, जैसे आस में ज़ ; स्वर के पूर्व में रहने से तथा घोष वर्ण के पूर्व उसका उच्चारण प्णस्रे के स जैसा होता है, किंतु अघोष वर्ण के परे स ही रहता है। 'ओस पीस' का उच्चारण 'उस पेस्स' होता है - क्योंकि प अधोष है, 'आस आर्टेस' का उच्चारण 'अज़ आर्तेस्स' होता है क्योंकि 'आर्टेस' के प्रारंभ में स्वर है। 'ओस डेंट्स' का उच्चारण 'ओज़ देन्तेस्स' होता है क्योंकि 'द' घोष है।
नवलातीनी अन्य भाषाओं की सामान्य विशेषताओं (विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति, कारक विभक्तियों का लोप, नपुंसक लिंग के भेद का लोप, भविष्यत् और हेतु लकार की रूपरचना) के अतिरिक्त पुर्तगाली में एक विशेषता मिलती है जो अन्य किसी भाषा में नहीं मिलती। मूल अपरिवर्तनशील क्रिया रूप के अतिरिक्त पुर्तगाली में एक और व्यक्तिवाचक या सविभक्तिक क्रिया रूप मिलता है जो निश्चित वाक्यांश से प्राय: मिलता है। 'ऐ उना वेरगोन्हा नॉओ साबेरमोए एस्क्रेवेर' - यह लज्जा की बात है कि हम लिख नहीं सकते।
नैयमिक क्रियाओं में लेट् भविष्य रूप भी होता है जो व्यक्तिवाचक क्रिया के सामान्य रूप के समान होता है।
अन्य नवलातीनी (रोमांस) भाषाओं (स्पेनी और प्रोवेंसाल) के समान पुर्तगाली इस दृष्टि से भी भिन्न है कि उसमें लातीनी का पूर्णभूत संकेतकाल भी शेष रह गया है (अमावेरामऊअमारामऊअमारा)।
कारकों का लोप हो जाने के कारण लातीनी की विस्तृत विविधता की तुलना में शब्दों के क्रम के नियम कड़े करना आवश्यक हो गया। स्वराघातहीन व्यक्तिवाचक सर्वनाम के प्रयोग के क्रम के विषय में जटिल नियम है और ब्राजील की पुर्तगाली में प्राय: उसके प्रयोग में भेद रहता है। पुर्तगाली भाषा पुर्तगाल के सिवा स्पेन के कुछ भागों में, अजोर्ज़ और मादेरा के जलडमरूमध्य में, ब्राजील, अफ्रीका और एशिया के पुर्तगाली उपनिवेशों में, तथा कुछ अन्य भागों में, जो पहले पुर्तगाल के उपनिवेश थे, बोली जाती है।
१२वीं शती में गालीशियन-पुर्तगाली भाषा का पहला लेख मिलता है जो आइबेरिया प्रायद्वीप में बोली जानेवाली बोलियों से भिन्न है।
विश्व की प्रमुख भाषाएं |
चीनी भाषा (; /, हाय; या ह्वा-य्वी, ज़ंगन चुङ-वन) चीन देश की मुख्य भाषा और राजभाषा है। यह संसार में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह चीन एवं पूर्वी एशिया के कुछ देशों में बोली जाती है। चीनी भाषा चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार में आती है और वास्तव में कई भाषाओं और बोलियों का समूह है। मानकीकृत चीनी असल में एक 'मन्दारिन' नामक भाषा है। इसमें एकाक्षरी शब्द या शब्द भाग ही होते हैं और ये चीनी भावचित्र में लिखी जाती है (परम्परागत चीनी लिपि या सरलीकृत चीनी लिपि में)। चीनी एक सुरभेदी भाषा है।
भाषाविद् चीन-तिब्बती भाषा परिवार के हिस्से के रूप में चीनी की सभी किस्मों को बर्मी, तिब्बती और हिमालय और दक्षिण पूर्व एशिया में बोली जाने वाली कई अन्य भाषाओं के साथ वर्गीकृत करते हैं।
चीनी भाषा की बोलियाँ (विभाषाएँ)
चीनी भाषा वास्तव में एक भाषा न होकर, कई भिन्न बोलियों का वर्ग है, जिसमें सात मुख्य समूह हैं:
क्वान (गुआन, उत्तरी या मन्दारिन, / या /) - ८५ करोड़ वक्ता
ऊ (वू /, जिसमें शंघाई भी शामिल है) - लगभग ९ करोड़ वक्ता
मिन (मीन या फुजियानस, जिसमें ताइवानवी शामिल है, /) - लगभग ५ करोड़ वक्ता
श्याङ (ज़ियांग ) - लगभग ३.५ करोड़ वक्ता
हाक्का (हक्का या ) - लगभग ३.५ करोड़ वक्ता
कान (गण /) - लगभग २ करोड़ वक्ता
इन्हें भी देखें
चीनी भाषा और साहित्य
चीनी भाषा सीखिये - चाइना रेडियो इंटरनेशनल की प्रस्तुति * चीनी सीखिए - निम्नलिखित साधनों का प्रयोग चीनी सीखने के लिए करें
चीनी-हिन्दी शब्दकोश (हिन्दी निदेशालय)
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विश्व की भाषाएँ |
ज़्यूस (, यूनानी : ज़ेउस - , दीअस - ) प्राचीन यूनानी धर्म (ग्रीक धर्म) के सर्वोच्च देवता थे। वो सभी देवताओं के राजा थे। भाषाविद् मानते हैं कि ज़्यूस का नाम आदिम-हिन्द-यूरोपीय (आदिम आर्य) लोगों के प्रमुख देवता द्येउस के नाम का रूपन्तरण है -- जो देवता द्यौस् के नाम से ऋग्वेद में सभी देवताओं के पिता माने गये हैं। देवराज ज़्यूस की पत्नी हीरा थीं। ज़्यूस बादल, कड़कती बिजली और वज्र के देवता थे। वो इन्द्र की तरह वज्र लियी रहते थे। उनके लिये प्राचीन यूनान (ग्रीस) में कई ख़ूबसूरत मंदिर थे, जहाँ उनके नाम पर पशुबलि चढ़ाई जाती थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे जुपिटर जिन्हें प्राचीन संस्कृत साहित्य में वृहस्पति देवताओं के गुरु कहा गया है, समान प्रतीत होते हैं।
यूनान के देवी-देवता
ओलंपिक खेल प्रथम बार ज्यूस के सम्मान में खेला गया था यूनान के ओलंपिया शहर में ७७६ ई पू.
ज्यूस हिंदू समतुल्य देवता इंद्र. |
डायोनाइसस (अंग्रेज़ी : :एन:डायोनिसस, यूनानी : दियोनूसोस्) प्राचीन यूनानी धर्म (ग्रीक धर्म) के एक प्रमुख देवता थे। वो नेचर और बैलेंस के देवता थे। उनकी पूजा मंदिरों में लिंग द्वारा होती थी। उनको पशुबलि और अंगूरी शराब चढ़ाई जाती थी। उनके समतुल्य देवता प्राचीन रोमन धर्म में बैक्कस थे।
यूनान के देवी-देवता |
अपोलो (अंग्रेज़ी : :एन:अपोलो; यूनानी : आओल अपोल्लोन) प्राचीन यूनानी धर्म (ग्रीक धर्म) और प्राचीन रोमन धर्म के सर्वोच्च देवताओं में से एक थे। उनके लिये प्राचीन यूनान (ग्रीस) और इटली में कई ख़ूबसूरत मंदिर थे, जहाँ उनके नाम पर पशुबलि चढ़ाई जाती थे। वो प्रकाश, कविता, नृत्य, संगीत, चिकित्सा, भविष्यवाणी और खेल के देवता थे। वो आदर्श पुरुष-सौन्दर्य और यौवन का प्रतिनिधित्व करते थे। मूर्तियों में उनके अत्यधिक ख़ूबसूरत (नग्न) युवा के समान दिखाया जाता था। उनके कई पुरुष-प्रेमी (यूनानी मिथकों के अनुसार) भी थे। वो ख़ास तौर पर व्यायामशाला में युवाओं के इष्टदेव थे और डेल्फ़ी की देववाणी उन्हीं को समर्पित थी। |
हीरा (अंग्रेज़ी : हेरा, यूनानी : हैरा) प्राचीन यूनानी धर्म (ग्रीक धर्म) के सर्वोच्च देवता ज़्यूस की पत्नी थीं। वो सभी देवताओं की रानी थीं। वो शादी और महिलाओं की देवी थीं। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवी थीं जूनो। ग्रीक धर्म में हीरा का महत्व सर्वाधिक है!
यूनान के देवी-देवता |
एरीस (अंग्रेज़ी : :एन:एर्स, यूनानी : आरैस) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो युद्ध के देवता थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे मार्स।
यूनान के देवी-देवता |
हरमीस''' (अंग्रेज़ी : :एन:हर्मीस, यूनानी : हेर्मैस '') प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो यात्री, विज्ञान और खोज, चरवाहों, साहित्य, कविता, भाषण, बुद्धि और चालाकी के देवता थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे मरक्युरी।
यूनान के देवी-देवता |
हेडीस (अंग्रेज़ी : :एन:हेडेस, यूनानी : हादैस ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो मृत्यु और यमलोक के देवता थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे प्लूटो।
यूनान के देवी-देवता |
क्रोनोस (अंग्रेज़ी : :एन:क्रॉनोस, यूनानी : क्रोनोस) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो खेती-बाड़ी के देवता थे और ज़्यूस आदि के पिता भी। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे सैटर्न।
यूनान के देवी-देवता |
ईरोस (यूनानी : एरोस ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो प्यार, कामना, वासना और संभोग के देवता थे। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक वो पुरुष-पुरुष प्रेम का ख़ास तौर पर प्रतिनिधित्व करते थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे क्यूपिड।
हिंदू समतुल्य देवता कामदेव.
यूनान के देवी-देवता |
पोसाइडन (अंग्रेज़ी : :एन:पोसिडों, यूनानी : पोसेइदोन ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो समन्दर, घोड़ों और भूकम्प के देवता थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे नेप्चून।
यूनान के देवी-देवता
पोसाइडन समुद्री यात्रियों का रक्षक है। पोसाइडन ने ट्रोजन युद्ध के समय ग्रीक का साथ दिया था। ग्रीक नायक ओडिसस ने पोसाइडन के पुत्र को अंधा कर दिया दण्डस्वरूप पोसाइडन ने समुद्री तूफान उत्पन्न कर उसका जहाज डुबो दिया। |
अथीना (अथवा अथाना, अथेने या अथेना) (अंग्रेज़ी : :एन:एथेना, यूनानी : अथैना ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो बुद्धि, हुनर और युद्ध की देवी थीं। वो अथेन्स सहर की इष्टदेवी थीं, जहाँ उनका बहुत ब.दा मंदिर था। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं - मिनर्वा।
यह अत्तिका प्रदेश एवं बियोतिया प्रदेश में स्थित एथेंस नामक नगरों की अधिष्ठात्री देवी थी। इसकी माता मेतिस (संस्कृत मति) ज्यूस की प्रथम पत्नी थी। मेतिस के गर्भवती होने पर ज्यूस को यह भय हुआ कि मेतिस का पुत्र मुझसे अधिक बलवान होगा और मुझे मेरे पद से च्युत कर देगा, अतएव वह अपनी गर्भवती पत्नी को निगल गया। इसके उपरांत प्रोमेथियस ने कुल्हाड़ी से उसकी खोपड़ी को चीर डाला और उसमें से अथीना पूर्णतया शस्त्रास्त्रों और कवच से सुसज्जित सुपुष्ट अंगांगों सहित निकल पड़ी। अथीना और पोसेइदॉन में अत्तिका प्रदेश की सत्ता प्राप्त करने के लिए द्वंद्व छिड़ गया। देवताओं ने यह निर्णय किया कि उन दोनों में से जनता के लिए जो भी अधिक उपयोगी वस्तु प्रदान करेगा उसको ही इस प्रदेश की सत्ता मिलेगी। पोसेइदॉन ने अपने त्रिशूल से पृथ्वी पर प्रहार किया और पृथ्वी से घोड़े की उत्पत्ति हुई। दूसरे लोगों का यह कहना है कि भूविवर से खारे जल का स्रोत फूट निकला। अथीना ने जैतून के पेड़ को उत्पन्न किया जिसको देवताओं ने अधिक मूल्यवान आँका। तभी से एथेंस में अथीना की पूजा चल पड़ी। इसका नाम पल्लास अथीने और अथीना पार्थेनॉस (कुमारी) भी है। एक बार हिफाएस्तस् ने इसके साथ बलात्कार करना चाहा, पर उसको निराश होना पड़ा। उसके स्खलित हुए वीर्य से एरैक्थियस् का जन्म हुआ और उसको अथीना ने पाला।
अथीना को आधुनिक आलोचक प्राक्-हेलेनिक देवी मानते हैं, जिसका संबंध क्रीत और मिकीनी की पुरानी सभ्यता से था। एथेंस में उसका मंदिर अक्रोपौलिस् में था। अन्य स्थानों पर भी उनके मंदिर और मूर्तियाँ थीं। यद्यपि अथीना को युद्ध की देवी माना जाता है एवं उसके शिरस्त्राण, कवच, ढाल और भाले इत्यादि को भी देखकर यही धारणा पुष्ट होती है, तथापि वह युद्ध में भी क्रूरता नहीं प्रदर्शित करती। इसके अतिरिक्त वह सुमति और सद्बुद्धि की भी देवी है। ग्रीक लोग उसको अनेक कला-कौशल की भी अधिष्ठात्री मानते थे। अथीना के संबंध में अनेक उत्सव भी मनाए जाते थे। इनमें से पानाथेनाइयां सबसे महान् उत्सव होता था, जो देवी का जन्म महोत्सव था। यह जुलाई-अगस्त मास में हुआ करता था। प्रत्येक चौथे वर्ष यह उत्सव अत्यधिक ठाठ-बाट के साथ मनाया जाता था। अथीना स्वयं कुमारी थी और उसकी पूजा तथा उत्सवों में कुमारियों का महत्त्वपूर्ण भाग रहता था। उसके वस्त्र भी कुमारियाँ ही बुना करती थीं। ई. पू. ४३८ में एथेंस के श्रेष्ठ मूर्तिकार फिदियास ने अथीना की एक विशाल मूर्ति कोरी। यह मूर्ति स्वर्ण और हाथी दाँत की थी और ४० फुट ऊँची थी। यह यूनानी मूर्तिकला का सर्वोत्कृष्ट निदर्शक थी। इसी मूर्तिकार ने अथीना की एक कांस्य मूर्ति भी बनाई थी जो ३० फुट ऊँची थी।
फार्नेल काल्ट्ज ऑव दि ग्रीक स्टेट्स, १९२१;
एडिथ हैमिल्टन माइथोलॉजी, १९५४;
राबर्ट ग्रेब्ज द ग्रीक मियल, १९५५. |
आर्टेमिस (अंग्रेज़ी : :एन:आर्टेमिस, यूनानी : अर्तेमिस ) प्राचीन यूनानी धर्म की प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो कुमारित्व, शिकार, जंगली जानवर और (बाद में) चाँद की देवी थीं। उनको सदाकुमारी माना जाता था। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं डायना।
यूनान के देवी-देवता |
डिमीटर (अंग्रेज़ी : :एन:डिमिटर, यूनानी : दैमैतैर ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो हरी धरती, कृषि, चारागाह, शादी और पवित्र कानून की देवी थीं। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं सिरीस।
यूनान के देवी-देवता |
पर्सिफ़ोनी (अंग्रेज़ी : :एन:पर्सफोन, यूनानी : पैर्सेफोनै ) प्राचीन यूनानी धर्म की देवियों में से एक थीं। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं प्रोसर्पीन।
यूनान के देवी-देवता |
हेस्टिया (, यूनानी : हेस्तिआ ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो परिवार, चूल्हे और घरेलू अग्नि की देवी थीं। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं वेस्टा।
यूनान के देवी-देवता |
हैफ़ीस्टस (अंग्रेज़ी : :एन:हेफैस्टस, यूनानी : हैफाइस्तोस ) प्राचीन यूनानी धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो अग्नि, लोहारो, धातुकी और कारख़ानों के देवता थे। प्राचीन रोमन धर्म में उनके समतुल्य देवता थे वुल्कन।
यूनान के देवी-देवता |
ऐफ़्रोडाइटी (अंग्रेज़ी : :एन:एफ्रोडाइट, यूनानी : आफ्रोदितै ) प्राचीन यूनानी धर्म की प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो प्रेम, ख़ूबसूरती और संभोग की देवी थीं। उनको बेहद ख़ूबसूरत माना जाता था और मिथकों के अनुसार उनकी उत्पत्ति युवतीरूप में ही समुद्र से हुई थी। प्राचीन रोमन धर्म में उनकी समतुल्य देवी थीं वीनस।
यूनान के देवी-देवता |
जूनो (अंग्रेज़ी : :एन:जुनो, लातिनी : इव्नो यूनो ) प्राचीन रोमन धर्म में देवराज बृहस्पति की पत्नी और मंगल, वल्कन, बेलोना तथा जुवेंटस की माँ तथा प्रमुख देवियों में से एक थीं। वे राज्य की संरक्षिका और विशेष सलाहकार थीं। वे देवताओं की रानी और स्त्रियों और विवाहों की देवी थीं। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म की देवी थीं हीरा (देवी)। जूनो को रोम और रोमन साम्राज्य की संरक्षक देवी के रूप में रेजिना ("क्वीन") कहा जाता था और वह कैपिटलिन त्रय (जूनो कैपिटलिना) का सदस्य थीं, जो रोम में कैपिटलिन पर्वत पर केंद्रित था, इसमें बृहस्पति और ज्ञान की मिनर्वा देवी भी शामिल थीं।
रोमी जन के मध्य जूनो का अपना जंगी पहलू उनकी पोशाक से झलकता है। इस जंगी पहलू के पारंपरिक चित्रण को ग्रीक देवी एथेना से लिया गया था, जिन्होंने एक बकरी की खाल या एक बकरी की ढाल, जिसे तत्वावधान कहा जाता है, को जन्म दिया। जूनो को भी एक मुकुट पहने दिखाया गया था।
जूनो नाम को एक बार प्रेम (जोव) से भी जोड़कर भी देखा गया, मूल रूप से दियोवोना के डिउनो और डियोव के रूप में। इसे २०वीं शताब्दी के आरंभ में इयूवेन-(लातिन:इउवेनिस, "युवा") और इयून-(इनिक्स, "बछिया", और ईनियर, "छोटा") के समन्वित रूप से व्युत्पन्न माना गया।
इऊन-लातिन अइवम तथा ग्रीक आयोन से संबंधित है जो आम भारोपीय मूल से लिया गया है तथा जीवन ऊर्जा या "उर्वर काल" की संकल्पना को संदर्भित करता है। युवेनिस वह है जिसके पास जीवन शक्ति की परिपूर्णता है। कुछ शिलालेखों में बृहस्पति को स्वयं इउंटस कहा जाता है, और बृहस्पति के विशेषणों में से एक इओविस्ते है, जो इउएन का एक उत्कृष्ट रूप है-जिसका अर्थ है "सबसे छोटा"। इउवेंटस युवा दो देवताओं में से एक थे जिन्होंने कैपिटोल(टारपिय पहाड़ी पर बना बृहस्पति रोमन मंदिर) छोड़ने से मना कर दिया। जूनो प्रेम और विवाह की रोमन देवी है। जूनो के नाम को कभी-कभी नए तथा ढलते चंद्रमा के नवीनीकरण से भी जोड़ा जाता है। संभवतः इसका अर्थ है-चंद्र देवी के विचारों पर अमल करना।
जूनो का धर्मशास्त्र रोमन धर्म में सबसे जटिल और विवादित मुद्दों में से एक है।
यूनान के देवी-देवता |
मिनर्वा या मीनरवा (अंग्रेज़ी : :एन:मिनर्वा, लातिनी : मिनर्वा मिनेर्वा ) प्राचीन रोमन धर्म की प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो बुद्धि, संगीत, चिकित्सा, कविता, हुनर और वाणिज्य की देवी थीं। वो सदाकुमारी थीं। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्मब १ की देवी थीं अथीना।
रोम के देवी-देवता |
डायना (अंग्रेज़ी : :एन:दियाना, लातिनी : दियाना दिआना ) प्राचीन रोमन धर्म की प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो शिकार, जंगल, वन्यपशु और (बाद में) चांद की देवी थीं। उन्हें सदाकुमारी माना जाता था। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म की देवी थीं आर्टेमिस।
यूनान के देवी-देवता |
फ़ोर्तूना (अंग्रेज़ी : :एन:फॉर्टूना फ़ोर्चूना, लातिनी : फॉर्टूना फ़ोर्तूना ) प्राचीन रोमन धर्म की प्रमुख देवियों में से एक थीं। वो भाग्य और दुनिया के छलावे की देवी थीं। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म की देवी थीं टाइकी।
रोम के देवी-देवता |
फ़्लोरा (, लातिनी:फ्लोरा; उच्चारण:फ़्लोरा ) किसी क्षेत्र अथवा काल विशेष में पाए जाने वाले पौधों और वनस्पतियों के समूह को कहते हैं। आमतौर पर इसमें उस क्षेत्र में मानव द्वारा बाहर से लाकर स्थापित प्रजातियों को शामिल नहीं किया जाता। कभी कभी बैक्टीरिया और कवकों को भी फ़्लोरा में शामिल किया जाता है, जैसे गुट फ्लोरा अथवा स्किन फ्लोरा जैसी शब्दावलियों में इसका प्रयोग।
फ़्लोरा (फ्लोरा) प्राचीन रोमन धर्म की देवियों में से एक थीं। वो वनों, पेड़-पौधों और फूलों की देवी थीं। संभवतः इसी देवी के नाम पर किसी क्षेत्र की सम्पूर्ण वनस्पतियों को सामूहिक रूप से फ़्लोरा के नाम से पुकारा जाता है।
एफ्लोरस फ़्लोरा का एक ऑनलाइन संग्रह |
मार्स (अंग्रेज़ी : मार्स, लातिनी : मार्स मार्स ) प्राचीन रोमन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो युद्ध के देवता थे और देवी वीनस के पति माने जाते थे। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म के देवता थे एरीस। मार्स के नाम पर ही मार्च महीने का नाम पड़ा है।
रोम के देवी-देवता |
मरक्युरी (अंग्रेज़ी : :एन:मर्करी (मिथोलॉजी), लातिनी : मर्क्युरियस मेर्कूरिउस ) प्राचीन रोमन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो वाणिज्य और व्यापार के देवता थे। वो अन्य देवताओं के देवदूत भीथे। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म के देवता थे हरमीस।
रोम के देवी-देवता |
प्लूटो के अनेक अर्थ हो सकते हैं| कृपया अपना वांछित अर्थ निम्नलिखित में से चुनें|
प्लूटो ग्रह सौर मण्डल का सबसे बाहरी ग्रह है।
प्लूटो ज्योतिष में |
प्लूटो वाल्ट डिज़्नी का एक कार्टून पात्र है |
रोम के देवी-देवता |
वुल्कन (अंग्रेज़ी : :एन:वुल्कन, लातिनी : वुल्कन उल्कान ) प्राचीन रोमन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक थे। वो अग्नि, ज्वालामुखी और धातुकी के देवता थे। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म के देवता थे हैफ़ीस्टस।
रोम के देवी-देवता |
वरुण, (अंग्रेजी : नॅप्टयून या नॅप्चयून; प्रतीक: ) हमारे सौर मण्डल में सूर्य से आठवाँ ग्रह है। व्यास के आधार पर यह सौर मण्डल का चौथा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर तीसरा बड़ा ग्रह है। वरुण का द्रव्यमान पृथ्वी से १७ गुना अधिक है और अपने पड़ौसी ग्रह अरुण (युरेनस) से थोड़ा अधिक है। खगोलीय इकाई के हिसाब से वरुण की कक्षा सूरज से ३०.१ ख॰ई॰ की औसत दूरी पर है, यानि वरुण पृथ्वी के मुक़ाबले में सूरज से लगभग तीस गुना अधिक दूर है। वरुण को सूरज की एक पूरी परिक्रमा करने में १६४.७९ वर्ष लगते हैं, यानि एक वरुण वर्ष १६४.७९ पृथ्वी वर्षों के बराबर है।
हमारे सौर मण्डल में चार ग्रहों को गैस दानव कहा जाता है, क्योंकि इनमें मिटटी-पत्थर की बजाय अधिकतर गैस है और इनका आकार बहुत ही विशाल है। वरुण इनमे से एक है - बाकी तीन बृहस्पति, शनि और अरुण (युरेनस) हैं। इनमें से अरुण की बनावट वरुण से बहुत मिलती-जुलती है। अरुण और वरुण के वातावरण में बृहस्पति और शनि के तुलना में बर्फ़ अधिक है - पानी की बर्फ़ के अतिरिक्त इनमें जमी हुई अमोनिया और मीथेन गैसों की बर्फ़ भी है। इसलिए कभी-कभी खगोलशास्त्री इन दोनों को "बर्फ़ीले गैस दानव" नाम की श्रेणी में डाल देते हैं।
खोज और नामकरण
वरुण पहला ग्रह था जिसकी अस्तित्व की भविष्यवाणी उसे बिना कभी देखे ही गणित के अध्ययन से की गयी थी और जिसे फिर उस आधार पर खोजा गया। यह तब हुआ जब अरुण की परिक्रमा में कुछ अजीब गड़बड़ी पायी गयी जिनका अर्थ केवल यही हो सकता था के एक अज्ञात पड़ौसी ग्रह उसपर अपना गुरुत्वाकर्षक प्रभाव डाल रहा है। खगोल में खोजबीन करने के बाद यह अज्ञात ग्रह २३ सितम्बर १८४६ को पहली दफ़ा दूरबीन से देखा गया और इसका नाम "नॅप्टयून" रख दिया गया। "नॅप्टयून" प्राचीन रोमन धर्म में समुद्र के देवता थे, जो स्थान प्राचीन भारत में "वरुण" देवता का रहा है, इसलिए इस ग्रह को हिन्दी में वरुण कहा जाता है। रोमन धर्म में नॅप्टयून के हाथ में त्रिशूल होता था इसलिए वरुण का खगोलशास्त्रिय चिन्ह है।
रंग-रूप और मौसम
जहाँ अरुण ग्रह सिर्फ एक गोले का रूप दिखता है जिसपर कोई निशान या धब्बे नहीं हैं, वहाँ वरुण पर बादल, तूफ़ान और मौसम का बदलाव साफ़ नज़र आता है। माना जाता है के वरुण पर तूफ़ानी हवा सौर मण्डल के किसी भी ग्रह से ज़्यादा तेज़ चलती है और २,१०० किमी प्रति घंटा तक की गतियाँ देखी जा चुकी हैं। जब १९८९ में वॉयेजर द्वितीय यान वरुण के पास से गुज़रा तो वरुण पर एक "बड़ा गाढ़ा धब्बा" नज़र आ रहा था, जिसकी तुलना बृहस्पति के "बड़े लाल धब्बे" से की गयी है। क्योंकि वरुण सूरज से इतना दूर है, इसलिए उसका ऊपरी वायुमंडल बहुत ही ठंडा है और वहाँ का तापमान -१२८ सेंटीग्रेड (५५ कैल्विन) तक गिर सकता है। इसके बड़े अकार की वजह से इस ग्रह के केंद्र में इसके गुरुत्वाकर्षण के भयंकर दबाव से तापमान ५,००० सेंटीग्रेड तक पहुँच जाता है। वरुण के इर्द-गिर्द कुछ छितरे-से उपग्रही छल्ले भी हैं जिन्हें वॉयेजर द्वितीय ने देखा था। वरुण का हल्का नीला रंग अपने ऊपरी वातावरण में मौजूद मीथेन गैस से आता है।
परिक्रमा एवं घूर्णन
नेप्च्यून एवं सूर्य के बीच की औसत दूरी ४.५० अरब किमी (लगभग ३०.१ एयू) है, एवं यह औसतन हर १6४.७९ ०.१ वर्षों में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है।
इन्हें भी देखें
वरुण के प्राकृतिक उपग्रह
सौर मंडल के ग्रह
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना |