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मैसूर (मैसूर) भारत के कर्नाटक राज्य का एक महानगर है। यह कर्नाटक का दूसरा सबसे बड़ा शहर है और प्रदेश की राजधानी बैगलुरू से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दक्षिण में केरल की सीमा पर स्थित है।
मैसूर का इतिहास भारत पर सिकंदर के आक्रमण (३२७ ई० पू०) के बाद से प्राप्त होता है। उस तूफान के पश्चात् ही मैसूर के उत्तरी भाग पर सातवाहन वंश का अधिकार हुआ था और यह द्वितीय शती ईसवी तक चला। मैसूर के ये राजा 'सातकर्णी' कहलाते थे। इसके बाद उत्तर कशचमी क्षेत्र पर कदंब वंश का और उतर पूर्वी भाग पर पल्लवों का शासन हुआ। कदंबों की राजधनी वनवासी में तथा पल्लवों की कांची में थी। इसी बीच उतर से इक्ष्वाकु वंश के सातवें राजा दुर्विनीत ने पल्लवों से कुछ क्षेत्र छीनकर अपने अधिकार में कर लिए। आठवें शासक श्रीपुरूष ने पल्लवों को हारकर "परमनदि" की उपाधि धारण की, जो गंग वंश के परवर्ती शासकों की भी उपाधि कायम रही।
उत्तर पश्चिमी क्षेत्र पर पांचवी शती में चालुक्यों ने आक्रमण किया। छठी शती में चालुक्य नरेश पुलिकैशिन ने पल्लवों से वातादि (वादामी) छीन लिया ओर वहीं राजधानी स्थापित की। आठवीं शती के अंत में राष्ट्रकूट वंश के ध्रूव या धारावर्ष नामक राजा ने पल्लव नरेश से कर वसूल किया और गंग वंश के राजा को भी कैेद कर लिया बाद में गंग राजा मुक्त कर दिया गया। राचमल (लगभग ८२० ई०) के बाद गंग वंश का प्रभाव पुन: बढ़ने लगा। सन् 1००4 में चोलवंशीय राजेंद्र चोल ने गंगों को हराकर दक्षिण तथा पूर्वी हिस्से पर अपना अधिकार कर लिया।
मैसूर के शेष भाग याने उत्तर तथा पशिचमी क्षेत्र पर पश्चिमी चालुक्यों का अधिकार रहा। इनमें विक्रमादित्य बहुत प्रसिद्ध था, जिसने १०७६ से ११२६ तक शासन किया। ११५५ में चालुक्यों का स्थान कलचूरियों ने ले लिया। इनकी सत्ता ११५३ तक ही कायम रही।
गंग वंश की समाप्ति पर पोयसल या होयसाल वंश का अधिकार स्थापित हो गया। ये अपने को यादव या चंद्रवंशी कहते थे। इनमें बिट्टिदेव अधिक प्रसिद्ध था जिसने ११०४ से ११४१ तक शासन किया। १११६ में तलकाद पर कब्जा करने के बाद उसने मैसूर से चोलों को निकाल बाहर किया। सन् १३४३ में इस वंश का प्रमुख समाप्त हो गया।
सन् १३३६ में तुंगभद्रा के पास विजयनगर नामक एक हिंदु राज्य उभरा। इसके संस्थापक हरिहर तथा बुक्क थे। इसके आठ राजाओं सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसकी मृत्यु के बाद उसके तीन पुत्रों, नरसिंह, कृष्णराय तथा अच्युतराय, ने बारी बारी से राजसता संभाली। सन् १५६५ में बीजापुर, गोलकुंडा आदि मुसलमान राज्यों के सम्मिलित आक्रमण से तालीफोटा की लड़ाई में विजयनगर राज्य का अंत हो गया।
१८वीं शती में मैसूर पर मुसलमान शासक हैदर अली की पताका फहराई। सन् १७८२ में उसकी मृत्यु के बाद १७९९ तक उसका पुत्र टीपू सुल्तान शासक रहा। इन दोनों ने अंग्रेजों से अनेक लड़ाईयाँ लड़ी। श्रीरंगपट्टम् के युद्ध में टीपू सुल्तान की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् मैसूर के भाग्यनिर्णय का अधिकार अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले लिया। किंतु राजनीतिक स्थिति निरंतर उलझी हुई बनी रही, इसलिये १८31 में हिंदु राजा को गद्दी से उतारकर वहाँ अंग्रेज कमिश्नर नियुक्त हुआ। १८81 में हिंदु राजा चामराजेंद्र गद्दी पर बैठे। १८94 में कलकत्ते में इनका देहावसान हो गया। महारानी के संरक्षण में उनके बड़े पुत्र राजा बने और १९०२ में शासन संबंधी पूरे अधिकार उन्हें सौंप दिए गए। भारत के स्वतंत्र होने पर मैसूर नाम का एक पृथक् राज्य बना दिया गया जिसमें पास पास के भी कुछ क्षेत्र सम्मिलित कर दिए गए। भारत में राज्यों के पुनर्गठन के बाद मैसूर, कर्नाटक में आ गया।
मैसूर न सिर्फ कर्नाटक में पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि आसपास के अन्य पर्यटक स्थलों के लिए एक कड़ी के रूप में भी काफी महत्वपूर्ण है। शहर में सबसे ज्यादा पर्यटक मैसूर के दशहरा उत्सव के दौरान आते हैं। जब मैसूर महल एवं आसपास के स्थलों यथा जगनमोहन पैलेस जयलक्ष्मी विलास एवं ललिता महल पर काफी चहल पहल एवं त्यौहार सा माहौल होता है। कर्ण झील चिड़ियाखाना इत्यादि भी काफी आकर्षण का केन्द्र होते हैं। मैसूर के सग्रहालय भी काफी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। मैसूर से थोड़ी दूर कृष्णराज सागर डैम एवं उससे लगा वृंदावन गार्डन अत्यंत मोहक स्थलों में से है। इस गार्डन की साज-सज्जा, इसके संगीतमय फव्वारे इत्यादि पर्यटकों के लिए काफी अच्छे स्थलों में से है। ऐतिहासिकता की दृष्टि से यहीं श्रीरंग पट्टनम का ऐतिहासिक स्थल है जो मध्य तमिल सभ्यताओं के केन्द्र बिन्दु के रूप में स्थापित था।
मैसूर में केन्द्रीय विद्यालय संगठन का शिक्षा एवं प्रशिक्षण आँचलिक संस्थान है।
नगर अति सुंदर एवं स्वच्छ है, जिसमें रंग बिरंगे पुष्पों से युक्त बाग बगीचों की भरमार है। चामुडी पहाड़ी पर स्थित होने के कारण प्राकृतिक छटा का आवास बना हुआ है। भूतपूर्व महाराजा का महल, विशाल चिड़ियाघर, नगर के समीप ही कृष्णाराजसागर बाँध, वृंदावन वाटिका, चामुंडी की पहाड़ी तथा सोमनाथपुर का मंदिर आदि दर्शनीय स्थान हैं। इन्हीं आकर्षणों के कारण इसे पर्यटकों का स्वर्ग कहते हैं। यहाँ पर सूती एवं रेशमी कपड़े, चंदन का साबुन, बटन, बेंत एवं अन्य कलात्मक वस्तुएँ भी तैयार की जाती हैं। यहाँ प्रसिद्ध मैसूर विश्वविद्यालय भी है।
यह महल मैसूर में आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र है। मिर्जा रोड पर स्थित यह महल भारत के सबसे बड़े महलों में से एक है। इसमें मैसूर राज्य के वुडेयार महाराज रहते थे। जब लकड़ी का महल जल गया था, तब इस महल का निर्माण कराया गया। १९१२ में बने इस महल का नक्शा ब्रिटिश आर्किटैक्ट हेनरी इर्विन ने बनाया था। कल्याण मंडप की कांच से बनी छत, दीवारों पर लगी तस्वीरें और स्वर्णिम सिंहासन इस महल की खासियत है। बहुमूल्य रत्नों से सजे इस सिंहासन को दशहरे के दौरान जनता के देखने के लिए रखा जाता है। इस महल की देखरख अब पुरातत्व विभाग करता है।
समय: सुबह १० बजे-शाम ५.३० बजे तक, उचित शुल्क, जूते-चप्पल अंदर ले जाना मना, कैमरा ले जाना मना। महल रविवार, राष्ट्रीय अवकाश के दिन शाम ७-८ बजे तक और दशहर के दौरान शाम ७ बजे-रात ९ बजे तक रोशनी से जगमगाता है।
इस महल का निर्माण महाराज कृष्णराज वोडेयार ने १८६१ में करवाया था। यह मैसूर की सबसे पुरानी इमारतों में से एक है। यह तीन मंजिला इमारत सिटी बस स्टैंड से १० मिनट कर दूरी पर है। १९१५ में इस महल को श्री जयचमाराजेंद्र आर्ट गैलरी का रूप दे दिया गया जहां मैसूर और तंजौर शैली की पेंटिंग्स, मूर्तियां और दुर्लभ वाद्ययंत्र रखे गए हैं। इनमें त्रावणकोर के शासक और प्रसित्र चित्रकार राजा रवि वर्मा तथा रूसी चित्रकार स्वेतोस्लेव रोएरिच द्वारा बनाए गए चित्र भी शामिल हैं।
समय: सुबह ८.३०-शाम ५.३० बजे तक, कैमरा ले जाना मना
मैसूर से १३ किलोमीटर दक्षिण में स्थित चामुंडा पहाड़ी मैसूर का एक प्रमुख पर्यटक स्थल है। इस पहाड़ी की चोटी पर चामुंडेश्वरी मंदिर है जो देवी दुर्गा को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण १२वीं शताब्दी में किया गया था। यह मंदिर देवी दुर्गा की राक्षस महिषासुर पर विजय का प्रतीक है। मंदिर मुख्य गर्भगृह में स्थापित देवी की प्रतिमा शुद्ध सोने की बनी हुई है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का एक अच्छा नमूना है। मंदिर की इमारत सात मंजिला है जिसकी कुल ऊँचाई ४० मी. है। मुख्य मंदिर के पीछे महाबलेश्वर को समर्पित एक छोटा सा मंदिर भी है जो १००० साल से भी ज्यादा पुराना है। पहाड़ की चोटी से मैसूर का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता है। मंदिर के पास ही महिषासुर की विशाल प्रतिमा रखी हुई है। पहाड़ी के रास्ते में काले ग्रेनाइट के पत्थर से बने नंदी बैल के भी दर्शन होते हैं।
पूजा का समय: सुबह ७.३०-दोपहर २ बजे तक, दोपहर ३.३०-शाम ६ बजे तक, शाम ७.३०-रात ९ बजे तक
सेंट फिलोमेना चर्च
१९३३ में बना यह चर्च भारत के सबसे बड़े चर्च में से एक है। मैसूर शहर से ३ किलोमीटर दूर कैथ्रेडल रोड पर स्थित यह चर्च निओ-गोथिक शली में निर्मित है। भूमिगत कमरे में तीसरी शताब्दी के संत इन संत की प्रतिमा स्थापित है। इसकी १७५ फीट ऊंची जुड़वा मीनारें मीलों दूर से दिखाई दे जाती हैं। यहां की दीवारों पर ईसा मसीह के जन्म से लेकर पुनर्जन्म तक उनके जीवन की विभिन्न घटनाओं का दर्शाती हुई ग्लास पेंटिग्स लगी हुई हैं। वर्तमान में इस चर्च को सेंट जोसेफ चर्च के नाम से जाना जाता है। समय: सुबह ५-शाम ८ बजे तक
कृष्णराज सागर बांध
या केआरएस बांध
१९३२ में बना यह बांध मैसूर से १२ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसका डिजाइन श्री एम.विश्वेश्वरैया ने बनाया था और इसका निर्माण कृष्णराज वुडेयार चतुर्थ के शासन काल में हुआ था। इस बांध की लंबाई ८६०० फीट, ऊँचाई १३० फीट और क्षेत्रफल १३० वर्ग किलोमीटर है। यह बांध आजादी से पहले की सिविल इंजीनियरिंग का नमूना है। यहां एक छोटा सा तालाब भी हैं जहां बोटिंग के जरिए बांध उत्तरी और दक्षिणी किनारों के बीच की दूरी तय की जाती है। बांध के उत्तरी कोने पर संगीतमय फव्वार हैं। बृंदावन गार्डन नाम के मनोहर बगीचे बांध के ठीक नीचे हैं।
समय: सुबह ७-रात ८ बजे तक
जीआरएस फैंटेसी पार्क
यह पार्क मैसूर का एकमात्र अम्यूजमेंट वॉटर पार्क है। ३० एकड़ में फैला यह पार्क सभी उम्र के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस पार्क के मुख्य आकर्षण पानी के खेल, रोमांचक सवारी और बच्चों के लिए तालाब हैं। जीआरएस पार्क मैसूर रलवे स्टेशन से ५ किलोमीटर दूर है। पार्क के अंदर शाकाहारी खाने का एक रेस्टोरेंट भी है। बाहर से खाने-पीने का सामान लाना मना है।
समय: सोमवार से शुक्रवार सुबह १०.३०-६ बजे तक, रविवार और सार्वजनिक अवकाश के दिन शाम ७.३० बजे तक, गर्मियों में शनिवार के दिन भी ७.३० बजे तक खुलता है।
यह चिड़ियाघर विश्व के सबसे पुराने चिड़ियाघरों में से एक है। इसका निर्माण १८९२ में शाही संरक्षण में हुआ था। इस चिड़ियाघर में ४० से भी ज्यादा देशों से लाए गए जानवरों को रखा गया है। यहां के बगीचों को बहुत ही खूबसूरती से सजाया और संभाला गया है। शेर यहां के मुख्य आकर्षण हैं। इसके अलावा हाथी, सफेद मोर, दरियाई घोड़े, गैंडे और गोरिल्ला भी यहां देखे जा सकते हैं। चिड़ियाघर में करंजी झील भी है। यहां बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं। इसके अतिरिक्त यहां एक जैविक उद्यान भी है जहां भारतीय और विदेशी पेड़ों की करीब ८५ प्रजातियां रखी गई हैं।
समय: सुबह ८ बजे-शाम ५.३० बजे तक, मंगलवार को बंद
यह संग्रहालय कृष्णराज सागर रोड पर स्थित सीएफटी रिसर्च इंस्टीट्यूट के सामने है। यहां मैसूर स्टेट रेलवे की उन चीजों को प्रदर्शित किया गया है जो १८८१-१९५१ के बीच की हैं। १९७९ में स्थापित इस संग्रहालय में एक विशेष क्षेत्र से जुड़ी हुई वस्तुओं का अच्छा संग्रह है। यहां प्रदर्शित वस्तुओं में भाप से चलने वाले इंजन, सिग्नल और १८९९ में बना सभी सुविधाओं वाला महारानी का सैलून शामिल है। यहां का मुख्य आकर्षण चामुंडी गैलरी है जहां रेलवे विभाग के विकास का दर्शाती तस्वीरों का रखा गया है। यह संग्रहालय बच्चों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उनके ज्ञान को भी बढ़ाता है।
समय: सुबह १० बजे-दोपहर १ बजे तक, दोपहर ३ बजे-रात ८ बजे तक
यूं तो दशहरा पूर देश में मनाया जाता है लेकिन मैसूर में इसका विशेष महत्त्व है। १० दिनों तक चलने वाला यह उत्सव चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है। इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत माना जाता है। इस पूरे महीने मैसूर महल को रोशनी से सजाया जाता है। इस दौरान अनेक सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उत्सव के अंतिम दिन बैंड बाजे के साथ सजे हुए हाथी देवी की प्रतिमा को पारंपरिक विधि के अनुसार बन्नी मंटप तक पहुंचाते है। करीब ५ किलोमीटर लंबी इस यात्रा के बाद रात को आतिशबाजी का कार्यक्रम होता है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उसी उत्साह के साथ निभाई जाती है।
आसपास दर्शनीय स्थल
यह नगर कबीनी नदी के किनारे मैसूर के दक्षिण में राज्य राजमार्ग १७ पर है। यह स्थान नंजुंदेश्वर या श्रीकांतेश्वर मंदिर (दूरभाष: ०८२१-२२६२४५) के लिए प्रसिद्ध है। दक्षिण काशी कही जाने वाली इस जगह पर स्थापित लिंग के बार में माना जाता है कि इसकी स्थापना गौतम ऋषि ने की थी। यह मंदिर नंजुडा को समर्पित है। कहा जाता है कि हकीम नंजुडा ने हैदर अली के पसंदीदा हाथी को ठीक किया था। इससे खुश होकर हैदर अली ने उन्हें बेशकीमती हार पहनाया था। आज भी विशेष अवसर पर यह हार उन्हें पहनाया जाता है।
समय: सुबह ६.३०-दोपहर १ बजे तक, शाम ४-रात ८.३० बजे तक, रविवार, सोमवार और सरकारी छुट्टी के दिन सुबह ६.३०-रात ८.३० बजे तक, अभिषेक का समय सुबह ७, ९, ११ बजे, दोपहर १2 बजे, शाम ५.३० और ७ बजे
यहां का मुख्य आकर्षण गोमतेश्वर/ बाहुबली स्तंभ है। बाहुबली मोक्ष प्राप्त करने वाले प्रथम र्तीथकर थे। यहां जैन तपस्वी की ९८३ ई. में स्थापित ५७ फुट लंबी प्रतिमा है। इसका निर्माण राजा रचमल्ला के एक सेनापति ने कराया था। यह प्रतिमा विंद्यागिरी नामक पहाड़ी से भी दिखाई देती है। श्रवणबेलगोला नामक कुंड पहाड़ी की तराई में स्थित है। बारह वर्ष में एक बार होने वाले महामस्ताभिषेक में बड़ी संख्या में लोग भाग लेते हैं। यहां पहुंचने के रास्ते में छोटे जैन मंदिर भी देखे जा सकते हैं।
यह छोटा गांव मैसूर के पूर्व में कावेरी नदी के किनारे बसा है। यहां का मुख्य आकर्षण केशव मंदिर है जिसका निर्माण १२६८ में होयसल सेनापति, सोमनाथ दंडनायक ने करवाया था। सितार के आकार के चबूतरे पर बने इस मंदिर को मूर्तियों से सजाया गया है। इस मंदिर में तीन गर्भगृह हैं। उत्तर में जनार्दन और दक्षिण में वेणुगोपाल की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मुख्य गर्भगृह में केशव की मूर्ति स्थापित थी किन्तु वह अब यहां नहीं है। समय: सुबह ९.३०-शाम ५.३० बजे तक
नजदीकी हवाई अड्डा बैंगलोर (१३९ किलोमीटर) है। यहां से सभी प्रमुख शहरों के लिए उड़ानें आती-जाती हैं।
बैंगलोर से मैसूर के बीच अनेक रेलें चलती हैं। शताब्दी एक्सप्रेस मैसूर को चेन्नई से जोड़ती है।
राज्य राजमार्ग मैसूर को राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ते हैं। कर्नाटक सड़क परिवहन निगम और पड़ोसी राज्यों के परिवहन निगम तथा निजी परिवहन कंपनियों की बसें मैसूर से विभिन्न राज्यों के बीच चलती हैं। मैसूर में केन्द्रीय विद्यालय संगठन का शिक्षा एवं प्रशिक्षण आँचलिक संस्थान है।
इन्हें भी देखें
१९२६ बिन्नी मिल्ज़ हड़ताल
कर्नाटक के शहर
मैसूर ज़िले के नगर |
बेगूसराय जिला भारत के पावन मिथिला क्षेत्र में गंगा नदीके उत्तरी किनारे पर स्थित है। १८७० ईस्वी में यह मुंगेर जिले के सब-डिवीजन के रूप में स्थापित हुआ। १९७२ में बेगूसराय स्वतंत्र जिला बना।
बेगूसराय उत्तर बिहार में २५१५' और २५ ४५' उतरी अक्षांश और 85४५' और ८६३६" पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। बेगूसराय शहर पूरब से पश्चिम लंबबत रूप से राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ा है। इसके उत्तर में समस्तीपुर, दक्षिण में गंगा नदी और लक्खीसराय, पूरब में खगड़िया और मुंगेर तथा पश्चिम में समस्तीपुर और पटना जिला हैं।
सब-डिवीजनों की संख्या-०५
प्रखंडों की संख्या-१८
पंचायतों की संख्या-२५७
राजस्व वाले गांवों की संख्या-१२२९
कुल गांवों की संख्या-११९८
नगर परिषद बीहट
नगर परिषद बखरी,नगर परिषद तेघड़ा,
२००१ की जनगणना के अनुसार इस जिले की जनसंख्या:
पुरुष : १२२६०५७
स्त्री : १११६९३२
वृद्धि : २९.११%
वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार बेगूसराय की आबादी ३३ लाख है। बेगूसराय की जनसंख्या वृद्धि दर २.३ प्रतिशत वार्षिक है। इसकी जनसंख्या वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव होती रही है। बेगूसराय की कुल आबादी का 5२ प्रतिशत पुरूष और ४८ प्रतिशत महिलाएं है। यहां औसत साक्षरता दर ६५ प्रतिशत है जो राष्ट्रीय साक्षरता दर के करीब है। यहां महिला साक्षरता दर ४१ प्रतिशत तथा पुरूष साक्षरता दर ७१ प्रतिशत है। यहां की १५ प्रतिशत आबादी छह वर्ष से कम उम्र की है।
बेगूसराय बिहार के औद्योगिक नगर के रूप में जाना जाता है। यहां मुख्य रूप से तीन बड़े उद्योग हैं-
इण्डियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड , बरौनी तेलशोधक कारखना,
बरौनी थर्मल पावर स्टेशन अब [न्ट्प्क]
हिंदुस्तान यूरिया रसायन लिमिटेड[हर्ल] र्निर्माण कार्य चालू हैं
इसके अलावा कई छोटे-छोटे और सहायक उद्योग भी है। यहां कृषि उद्योगों की संभवना काफी ज्यादा है।
बेगूसराय बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्ली-गुवाहाटी रेलवे लाईन बेगूसराय होकर गुजरती है। बेगूसराय से पांच किलोमीटर की दूरी पर ऊलाव में एक छोटा हवाई अड्डा भी है, जहां नगर आने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों का आगमन होता है। बरौनी जंक्शन से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता आदि महत्वपूर्ण शहरों के लिए रेल गाड़ियां चलती हैं। बेगूसराय में अठारह रेलवे स्टेशन हैं। जिले का आंतरिक भाग सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। गंगानदी पर बना राजेंद्र पुल उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २८ और ३१ बेगूसराय से होकर गुजरती है। जिले में इस मार्ग की कुल लंबाई ९५ किलोमीटर है। जिले में राजकीय मार्ग की कुल लंबाई 2९५ किलोमीटर है। जिले के ९५ प्रतिशत गांव सड़कों से जुड़े हुए हैं।
साहित्य और संस्कृति
बेगूसराय हमारे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि है। उन्हीं के नाम पर नगर का टाउन हॉल दिनकर कला भवन के नाम से जाना जाता है। यहां आकाश गंगा रंग चौपाल बरौनी ,द फैक्ट रंगमंडल. आशीर्वाद रंगमंडल जैसी कई प्रमुख नाट्यमंडलियां हैं जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पास आउट गणेश गौरव और प्रवीण गुंजन लगातार कला और साहित्य के लिए प्रतिबद्ध हैं। रंग कार्यशाला लगाकर रंगकर्म और कला साहित्य की नई पीढ़ी तैयार करने में लगे हैं । जिले के दिनकर भवन में लगातार नाटकों और कला से जुड़े विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रदर्शन किया जाता रहा है। प्रतिवर्ष राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव रंग संगम, रंग माहौल, आशीर्वाद नाट्य महोत्सव आदि का आयोजन किया जाता है। जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के कलाकारों ने अपनी बेहतरीन प्रस्तुति देते हैं। यहां की संस्कृति , साहित्य को बढ़ावा देने में लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार व प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय-महासचिव राजेन्द्र राजन, कवि अशांत भोला,जनकवि दीनानाथ सुमित्र,चर्चित कवि प्रफुल्ल मिश्र, नवोदित कवि वरुण सिंह गौतम एवं उनके दादा शिवबालक सिंह भी बहुचर्चित कवि थे , गीतकार रामा मौसम, वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल पतंग, कार्टूनिस्ट सीताराम, युवा कवि व पत्रकार नवीन कुमार, युवा कवि डॉ अभिषेक कुमार.युवा गीतकार अखिल सिंह,युवा कवयित्री सीमा संगसार ,समाँ प्रवीण, का नाम उल्लेखनीय है। सिमरिया धाम एक आदि कुंभ स्थली हैं जहां स्वामी चिदात्मन द्वारा आदि कुंभ स्थली सिमरिया धाम का पुनर्जागरण किया गया। आदि कुंभा स्थली की खोज संंत शिरोमणि करपात्री अग्निहोत् परमहंस स्वामी चिदात्मन जी महाराज नेे किया और २०१७ में यहां महाकुंभ भी लगा था फिर २०२३ में यहां अर्ध कुंभ लगेगा. यहां वेद पढ़ने वााले विद्यार्थियों और शिक्षकों के नाम आचार्य रामनरेश झा.आचार्य वरुण पाठक विद्यार्थी पद्मनाभ झा, राम झा, लक्ष्मण झा, श्याम झा अन्य हैं।
राष्ट्रीय फलक पर दैदीप्यमान, बेगूसराय की साहित्यिक पहचान "विप्लवी पुस्तकालय", जो बिहार सरकार द्वारा चयनित राज्य का विशिष्ट पुस्तकालय है। यहाँ हर साल ४-५ राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन होता ही है। विप्लवी पुस्तकालय, गोदरगावां, बेगूसराय ही देश में पहली बार अपने ग्रामीण माहौल में लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन का सफल आयोजन किया जिसमें देश विदेश से 3५0 प्रबुद्ध लेखकों ने हिस्सा लिया। प्रसिद्ध नाटककार मरहूम हबीब तनवीर द्वारा "राजरक्त" नाटक का खुला मंचन किया गया १०हजार से ज्यादा दर्शकदीर्घा में रहे होंगे।
शहर से ७ किलोमीटर दूर गोदरगांवा ग्राम में सन १९३१ से स्थित इस पुस्तकालय में तकरीबन ५० हजार पुस्तकें और पत्रिकाएं हैं जिसका लाभ नियमित रूप से अनेक पाठक उठाते हैं। पुस्तकालय के संरक्षक राजेन्द्र राजन जो क्षेत्र के पूर्व विधानसभा सदस्य होने के साथ साथ प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव रहे हैं।
पुस्तकालय प्रांगण में विद्रोहिणी मीरा कबीर मुन्शी प्रेमचन्द. चन्द्रशेखर आजद शहीद सरदार भगत सिंह महात्मा गांधी तथा डॉ पी गुप्ता की मुर्तियां अपने आप में संस्कृतिक धरोहर के रुप में स्थित है।
पुस्तकालय भवन के ठीक सामने वैदेही सभागार है जिसमें तकरीबन पाँच से लोगों के बैठने की उचित व्यवस्था है।
बेगूसराय जिले के सभी महाविद्यालय ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा से संबद्ध हैं। यहां के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में गणेश दत्त महाविद्यालय, एसबीएसएस कॉलेज, श्री कृष्ण महिला कॉलेज. चंद्रमा असरफी भागीरथ सिंघ कॉलेज खमहार .एपीएसएम कॉलेज बरौनी. आरसीएस कॉलेज मन्झौल. आदि हैं। अहम विद्यालयों में जे.के. इंटर विधालय. बीएसएस इंटर कॉलेजिएट हाईस्कूल, आर. के. सी. +२ विद्यालय फुलवरिया बरौनी, बीपी हाईस्कूल,श्री सरयू प्रसाद सिंह विद्यालय विनोदपुर , सेंट पाउल्स स्कूल, डीएवी बरौनी, बीआर डीएवी (आईओसी), केवी आईओसी, डीएवी इटवानगर,सुह्रद बाल शिक्षा मंदिर, साइबर स्कूल, जवाहर नवोदय विद्यालय, हमारे यहां बेगूसराय में सिमरिया धाम जो कि आदि कुंभ स्थलीन्यू गोल्डेन इंग्लिश स्कूल,विकास विद्यालय आदि।यहाँ सरकारी नौकरी और टेट,सीटेट,एस्टेट,सीयूईटी और विभिन्न प्रतियोगिता परिक्षा से संबंधित तैयारी के लिए १९९४ ईस्वी में स्थापित प्रख्यात संस्थान नव मार्कस्मान कोचिंग है जो कालीस्थान में अवस्थित है।
बेगूसराय की संस्कृति मिथिला की सांस्कृतिक विरासत को परिभाषित करती है। बेगूसराय के लोग भी मिथिला पेंटिंग बनाते हैं। बेगूसराय सिमरिया मेले के लिए भी प्रसिद्ध है, जो भारतीय पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक के महीने के दौरान भक्ति महत्व का मेला है। नवंबर).
बेगूसराय में पुरुष और महिलाएं बहुत धार्मिक हैं और पर्वो के अनुसार वस्त्र पहनते हैं। बेगूसराय की वेशभूषा मिथिला की समृद्ध पारंपरिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। पंजाबी कुर्ता और धोती के साथ मिथिला चित्रकारी से सजा मैरून गमछा कंधे पर रखते हैं जो शोर्य,प्रेम और साहस का प्रतीक है। संग में वे अपनी नाक में सोने की बाली,कंठ में रूद्र माला और कलाई में बल्ला धारण करते हैं जो भगवान विष्णु से प्रेरित समृद्धि और वैभव का प्रतीक है।
प्राचीन समय में मिथिला में कोई रंग विकल्प नहीं था, इसलिए मैथिल महिलाएं लाल बॉर्डर वाली सफेद या पीली साड़ी पहनती थीं, लेकिन अब उनके पास बहुत सारी विविधता और रंग विकल्प हैं और वे लाल-पारा (पारंपरिक लाल बोर्ड वाली सफेद या पीली साड़ी) कुछ विशेष अवसरों पर पहनती हैं। इसके संग वे हाथ में लहठी के साथ शाखा-पोला भी पहनते हैं जो मिथिला में विवाह के बाद पहनना अनिवार्य है। मिथिला संस्कृति में, यह नई शुरुआत, जुनून और समृद्धि का प्रतिनिधित्व करता है। लाल हिंदू देवी दुर्गा का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो नई शुरुआत और स्त्री शक्ति का प्रतीक है। छइठ के दौरान मिथिला की महिलाएं बिना सिले शुद्ध सूती धोती पहनती हैं जो मिथिला की शुद्ध, पारंपरिक संस्कृति को दर्शाता है। आमतौर पर दैनिक उपयोग के लिए सूती साड़ी और अवसरों के लिए रेशम अथवा बनारसी साड़ी को पहना जाता है। मिथिला की महिलाओं के लिए पारंपरिक पोशाक में जामदानी, बनारसी और भागलपुरी और कई अन्य शामिल हैं। मिथिला में वर्ष भर कई पर्व मनाए जाते हैं। छइठ,दुर्गा पूजाऔरकाली पूजाको मिथिला के सभी उत्सवों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
== मुख्य त्यौहार
कुल क्षेत्र-१,८७,९६७.५ हेक्टेयर
कुल सिंचित क्षेत्र-७४,२२५.५७ हेक्टेयर
स्थायी सिंचित-६३८४.२९ हेक्टेयर
मौसमी सिंचित-४८६६.३७ हेक्टेयर
बागवानी आदि-५००० हेक्टेयर
रबी- १०००० हेक्टेयर
जलक्षेत्र और परती-२११८
सिंचाई का मुख्य साधन-ट्यूबवेल
प्राकृतिक और जल संपदा
बेगूसराय जिला गंगा के समतल मैदान में स्थित है। यहां मुख्य नदियां-बूढ़ी गंडक, बलान, बैंती, बाया और चंद्रभागा है। (चंद्रभागा सिर्फ मानचित्रों में बच गई है।) कावर झील एशिया की सबसे बडी मीठे जल की झीलों में से एक है। यह पक्षी अभयारण्य के रूप में प्रसिद्ध है।
आर्थिक महत्व का कोई खनिज नहीं है।
बेगूसराय में कोई वन नहीं है। लेकिन आम, लीची, केले, अमरूद, नींबू के कई उद्यान हैं। कई जगहों पर अच्छी बागवानी भी है। मुबारकपुर शंख, चकमुजफ्फर और नावकोठी गांव केले के लिए मशहूर है। यहां जंगली पशु देखने को शायद ही मिलते हैं, लेकिन कावरझील में विविध प्रकार की पक्षियां मिलती हैं। हाल ही में खोज से पता चला है कि गंगा के बेसिन में पेट्रोलियम या गैस के भंडार हैं।
बेगूसराय बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्ली-गुवाहाटी रेललाइन बेगूसराय से गुजरती है। उलाव में एक छोटा सा हवाई अड्डा है, जो बेगूसराय जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर है। इस हवाई अड्डे का इस्तेमाल महत्वपूर्ण व्यक्तियों के शहर आगमन के लिए होता है। बेगूसराय में रेलवे की बड़ी लाइन की लंबाई ११९ किलोमीटर और छोटी लाइन की लंबाई ६७ किलोमीटर है। बरौनी रेलवे जंक्शन का पूर्व-मध्य बिहार में अहम स्थान है। यहां से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई, बैंगलोर आदि जगहों के लिए ट्रेने खुलती है। गंगा नदी पर राजेंद्र पुल उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। बेगूसराय जिले में कुल अठारह रेलवे स्टेशन है। जिले का आंतरिक भाग मुख्य सड़कों से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २८ और ३१ इस जिले को देश के दूसरे भागों से जोड़ता है। जिले में राजमार्ग की लंबाई ९५ किलोमीटर है, जबकि राजकीय पथ की लंबाई २६२ किलोमीटर है। जिले के ९५ प्रतिशत गांव सड़क से जुड़े हुए हैं। शहर में कई अच्छे अच्छे होटल भी हैं।
इन्हें भी देखें
बिहार स्टेट पॉवर होल्डिंग कंपनी लिमिटेड
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बेगूसराय जिला आधिकारिक पृष्ठ
बेगूसराय जिला आपातकालीन सुविधा
बिहार के शहर
बेगूसराय ज़िले के नगर |
धनबाद के पास स्थित झरिया भारत के झारखंड प्रान्त का एक शहर है।
झारखंड के शहर |
मोतीहारी बिहार राज्य के पूर्वी चंपारण जिले का मुख्यालय है। बिहार की राजधानी पटना से १७० किमी दूर पूर्वी चम्पारण बिल्कुल नेपाल की सीमा पर बसा है। इसे मोतिहारी के नाम से भी लोग जानते है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस जिले को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। किसी समय में चम्पारण, राजा जनक के साम्राज्य का अभिन्न भाग था। स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महात्मा गांधी ने तो अपने राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत यही से की थी। उनकी याद में यहा गांधीवादी मेमोरियल स्तंभ बनाया गया है जिसे शांतिनिकेतन के प्रसिद्ध कलाकार नंद लाल बोस द्वारा डिजाइन किया गया था। स्तंभ की आधारशिला १० जून १९७२ को तत्कालीन राज्यपाल डी.के. बरूच द्वारा रखी गई थी। यह ४८ फीट लंबा पत्थर का स्तंभ है और उसी स्थान पर स्थित है, जहां महात्मा गांधी को अदालत में पेश किया गया था।
मोतिहारी की स्थलाकृति अद्भुत दर्शनीय थी। तेजस्वी सुंदरता की मोतीझील झील (शास्त्रीय शब्दों में) शहर को दो हिस्सों में बांटती है। पर्यटन की दृष्टि यहां सीताकुंड, अरेराज, केसरिया, चंडी स्थान,ढा़का जैसे जगह घूमने लायक है।
मोतीहारी की स्थिति पर है। इसकी समुद्र तल औसत ऊंचाई ६२ मीटर (२०३ फीट) है। मोतिहारी, बिहार की राजधानी पटना से उत्तर-पश्चिम में लगभग १६५ किलोमीटर, बेतिया से ४५ किलोमीटर, मुज़फ़्फ़रपुर से ७२ किलोमीटर की दूरी पर, मेहिया से ४० किमी, सीतामढी से ७५ किलोमीटर की दूरी पर और चकिया से ३० किलोमीटर की दूरी पर है। शहर नेपाल के करीब है। बीरगंज, ५५ किमी दूर है।
यहां की जलवायु कोपेन जलवायु वर्गीकरण के उप-प्रकार आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय है। जलवायु में उच्च तापमान और समान रूप से वर्ष भर वितरित वर्षा की विशेषता है।
२०११ की भारत की जनगणना के अनुसार, और जनगणना भारत की अनंतिम रिपोर्टों के अनुसार, २०११ में मोतिहारी की जनसंख्या १२५,१८३ थी; जिनमें से पुरुष और महिला क्रमशः ६७,४३८ और ५७,७४५ हैं। मोतिहारी शहर का लिंगानुपात प्रति १,००० पुरुषों पर ८५६ है।
मोतिहारी शहर में कुल साक्षरताएं ९४,९२६ हैं, जिनमें ५२,९०४ पुरुष हैं जबकि ४२,०२२ महिलाएं हैं। औसत साक्षरता दर ८७.२० प्रतिशत है जिसमें पुरुष और महिला साक्षरता ९०.३६ और ८३.५२ प्रतिशत थी।
२०११ की जनगणना इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, मोतिहारी शहर में ०६ आयु वर्ग के बच्चे १६,३२५ हैं। ८,८9१ लड़के और ७,४३४ लड़कियां थीं। लड़कियों का बाल लिंगानुपात प्रति १,००० लड़कों पर ८36 है।
मोतिहारी रेलवे और रोडवेज के माध्यम से भारत के विभिन्न शहरों से जुड़ा हुआ है। नई दिल्ली, मुंबई, जम्मू, कोलकाता और गुवाहाटी के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध हैं। एशियाई राजमार्ग ४२, राष्ट्रीय राजमार्ग २८आ और राज्य राजमार्ग ५४ शहर से गुजरते हैं। निकटतम हवाई अड्डा दरभंगा में स्थित है जो मोतिहारी से कुछ किमी दूर है।
इस स्थान कि व्याख्या बालमिकी रामायण तथा तुलसी दास जी के रामचरितमानष मे भी मिलता है। जो मोतिहारी से १६ किमी दूर पीपरा रेलवे स्टेशन से २ किमी उत्तर में बेदीबन मधुबन पंचायत मे यह स्थान स्थित है। माना जाता है कि भगवान राम के विवाह के पाश्चात, जनकपुर से लौटती बारात ने एक रात्रि का विश्राम इसी स्थान पर किया था। और भगवान राम और देवी सीता के विवाह कि चौथी तथा कंगन खोलाई कि विधि इसी स्थान पर संपन्न किया गया था। उस समय यहाँ पर एक कुंड खुदाया गया था जिसमें पृथ्वी के अंदर से सात अथाह गहराई वाले कुऑ मिला था जिसका पानी कभी कम नही होता है और वो आज भी है, इसे सीताकुंड के नाम से जाना जाता है क्योकि इस कुंड के जल से सर्वप्रथम देवी सीता ने पुजा किया था।। इसके किनारे मंदिर भी बने हूए है और इसके १ किमी के अंदर ही ऐसे ५ पोखरा(कुंड) है जो त्रेतायुग से अबतक अपने जल का अलग-अलग उपयोग के लिए प्रसिद्ध है जिसमें एक सबसे प्रसिद्ध गंगेया पोखरा है जहाँ गंगा स्नान के दिन हजारो-हजार कि संख्या मे लोग स्नान करने आते है क्योकि लोग यह मानते है कि जब यहा बारात रूकी थी तो गंगा मैया स्वयं यहाँ आयी थी ताकि देवी सीता और भगवान राम सहित सभी स्नान कर लें। यही पास मे ही लगभग ४० फीट ऊँची बेदी भी है जिस पर देवी सीता और भगवान राम ने पुजा अर्चना की। सीताकुंड धाम पर रामनवमी के दिन एक विशाल मेला लगता है। हजारों की संख्या में इस दिन लोग भगवान राम और सीता की पूजा अर्चना करने यहां आते है।
शहर से २८ किमी दूर दक्षिण-पश्चिम में अरेराज स्थित है। यहीं पर भगवान शिव का प्रसिद्व मंदिर सोमेश्वर शिव मंदिर है। श्रावणी मेला (जुलाई-अगस्त) के समय केवल मोतिहारी के आसपास से ही नहीं वरन नेपाल से भी हजारों की संख्या में भक्तगण भगवान शिव पर जल चढ़ाने यहां आते है।
यहा गांव अरेराज अनुमंडल से २ किमी दूर बेतिया-अरेराज रोड पर स्िथत है। सम्राट अशोक ने २49 ईसापूर्व में यहां पर एक स्तम्भ का निर्माण कराया था। इस स्तम्भ पर सम्राट अशोक ने धर्म लेख खुदवाया था। माना जाता है कि ३६ फीट ऊंचे व ४१.८ इंच आधार वाले इस स्तम्भ का वजन ४० टन है। सम्राट अशोक ने इस स्तम्भ के अग्र भाग पर सिंह की मूर्ति लगवाई थी लेकिन बाद में पुरातत्व विभाग द्वारा सिंह की मूर्ति को कलकत्ता के म्यूजियम में भेज दिया गया।
मुजफ्फरपुर से ७२ किमी तथा चकिया से २२ किमी दक्षिण-पश्चिम में यह स्थल स्थित है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा १९९८ ईसवी में खुदाई के दौरान यहां पर बौद्व स्तूप मिला था। माना जाता है कि यह स्तूप विश्व का सबसे बड़ा बौद्व स्तूप है। पुरातत्व विभाग के एक रिपोर्ट के मुताबिक जब भारत में बौद्व धर्म का प्रसार हुआ था तब केसरिया स्तूप की लंबाई १५० फीट थी तथा बोरोबोदूर स्तूप (जावा) की लंबाई १३८ फीट थी। वर्तमान में केसरिया बौद्व स्तूप की लंबाई १०४ फीट तथा बोरोबोदूर स्तूप की लंबाई १०३ फीट है। वही विश्व धरोहर सूची में शामिल साँची स्तूप की ऊँचाई ७७.५० फीट है। पुरातत्व विभाग के आकलन के अनुसार इस स्तूप का निर्माण लिच्छवी वंश के राजा द्वारा बुद्व के निर्वाण प्राप्त होने से पहले किया गया था। कहा जाता है कि चौथी शताब्दी में चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने भी इस जगह का भ्रमण किया था।
गांधी स्मारक स्तम्भ
भारत में अपने राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत गांधीजी ने चम्पारण से ही शुरु की थी। अंग्रेज जमींदारों द्वारा जबरन नील की खेती कराने का सर्वप्रथम विरोध महात्मा गांधी के नेतृत्व में यहां के स्थानीय लोगों द्वारा किया गया था। इस कारण्ा से गांधीजी पर घारा १४४ (सीआरपीसी) का उल्लंघन करने का मुकदमा यहां के स्थानीय कोर्ट में दर्ज हुआ था। जिस जगह पर उन्हें न्यायालय में पेश किया गया था वही पर उनकी याद में ४८ फीट लंबे उनकी प्रतिमा का निर्माण किया गया। इसका डिजाइन शांति निकेतन के प्रसिद्व मूर्तिकार नंदलाल बोस ने तैयार की थी। इस प्रतिमा का उदघाटन १८ अप्रैल १९७८ को विधाधर कवि द्वारा किया गया था।
शहर से ४८ किमी पूरब में यह जगह मुजफ्फरपुर-मोतिहारी मार्ग पर स्थित है। यह अपने शिल्प-बटन उघोग के लिए पूरे भारत में ही नहीं वरन् विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हो चुका है। इस उघोग की शुरुआत करने का श्रेय यहां के स्थानीय निवासी भुवन लाल को जाता है। सर्वप्रथम १९०५ ईसवी में उसने सिकहरना नदी से प्राप्त शंख-सिप से बटन बनाने का प्रयास किया था। लेकिन बेहतर तरीके से तैयार न होने के कारण यह नहीं बिक पाया। १९०८ ईसवी में जापान से १००० रुपए में मशीन मंगाकर तिरहुत मून बटन फैक्ट्री की स्थापना की गई और फिर बडे पैमाने पर इस उघोग का परिचालन शुरु किया गया। धीरे-धीरे बटन निर्माण की प्रक्रिया ने एक उघोग का रूप अपना लिया और उस समय लगभग १६० बटन फैक्ट्री मेहसी प्रखंड के १३ पंचायतों चल रहा था। लेकिन वर्तमान में यह उधोग सरकार से सहयोग नहीं मिल पाने के कारण बेहतर स्िथति में नहीं है
मोतिहारी शहर से २१ किलोमीटर पूरब में अवस्थित ढ़ाका एक ऐतिहासिक शहर है। जो नेपाल के सीमा पर अवस्थित है। ढाका से नेपाल की दूरी लगभग २५ किलोमीटर के आसपास है।
इसके अलावा पर्यटक चंडीस्थान (गोविन्दगंज), हुसैनी, रक्सौल जैसे जगह की भी सैर कर सकते है।
राजधानी पटना में स्थित जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा यहां का नजदीकी एअरपोर्ट है।
मोतिहारी रेलवे स्टेशन से देश के लगभग सभी महत्वपूर्ण जगहों के लिए ट्रेन सेवा उपलब्ध है।
यह राष्ट्रीय रागमार्ग २८ द्वारा जुडा हुआ है। यहां से राजधानी पटना के लिए हरेक आधे घंटे पर बस उपलब्ध है।
अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ऑरवेल - एनिमल फार्म और नाइंटीन एटीफोर जैसी कृतियों के रचयिता जार्ज़ ऑरवेल का जन्म सन १९०३ में मोतिहारी में हुआ था। उनके पिता रिचर्ड वॉल्मेस्ले ब्लेयर बिहार में अफीम की खेती से संबंधित विभाग में उच्च अधिकारी थे। जब ऑरवेल महज एक वर्ष के थे, तभी अपनी मॉ और बहन के साथ वापस इंग्लैण्ड चले गए थे। मोतिहारी शहर से ऑरवेल के जीवन से जुडे तारों के बारे में हाल तक लोगबाग अनभिज्ञ थे। वर्ष २००३ में ऑरवेल के जीवन में इस शहर की भूमिका तब जगजाहिर हुई जब देशी-विदेशी पत्रकारों का एक जत्था जॉर्ज ऑरवेल की जन्मशताब्दी के अवसर पर यहॉ पहुंचा। स्थानीय प्रशासन अब यहां जॉर्ज ऑरवेल के जीवन पर एक संग्रहालय के निर्माण की योजना बना रहा है।
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, कवि-कथाकार - रमेश चन्द्र झा, जिन्होंने न सिर्फ़ १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में चंपारन, बिहार से अग्रणी भूमिका निभाई बल्कि देशभक्ति और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत अमर साहित्य की रचना भी की. चंपारन और यहाँ के साहित्यकारों का सबसे प्रामाणिक और विस्तृत इतिहास भी रमेश चंद्र झा ने की कलमबद्ध किया है. आउटलुक ने एक लेख प्रकाशित करते हुए बताया है कि - "रमेशचंद्र झा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और पिता लक्ष्मीनारायण झा से प्रभावित होकर बचपन में ही बागी बन गए थे। उनके पिता को महात्मा गांधी की चंपारण यात्रा के पहले ही दिन गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था और ६ महीने की सश्रम सजा हुई थी। महज १४ साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त रमेशचंद्र झा पर ब्रिटिश पुलिस चौकी पर हमले और उनके हथियार लूटने का संगीन आरोप लगा।"
रवीश कुमार - टीवी एंकर और पत्रकार, एनडीटीवी दिल्ली।
सकीबुल गनी- अपने प्रथम श्रेणी पदार्पण पर तिहरा शतक बनाने वाले दुनिया के पहले क्रिकेटर हैं।
संजीव के झा- एक फिल्म निर्माता और पटकथा लेखक हैं, जो वर्तमान में मुंबई में रहते हैं, जिन्होंने कई लोकप्रिय टीवी शो और फिल्में लिखी हैं। जबरिया जोड़ी, बरोट हाउस और सुमी (फिल्म) उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। साथ ही मोतिहारी के पहले लेखक जिनकी लिखी फिल्म सुमी को तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले।
रक्षा गुप्ता- कई उल्लेखनीय भोजपुरी फिल्मों ठीक है, कमांडो अर्जुन, राउडी इंस्पेक्टर (२०२२ फिल्म), डोली सजा के रखना (२०२२ फिल्म), शंखनाद में अभिनेत्री हैं।
मोतिहारी - महात्मा गांधी ने तो अपने राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत यही से की थी (यात्रा सलाह)
बिहार के शहर
पूर्वी चम्पारण जिला
पूर्वी चम्पारण ज़िले के नगर |
रतलाम (रतलाम) भारत के मध्य प्रदेश राज्य के मालवा क्षेत्र में स्थित एक नगर निगम। यह रतलाम ज़िले का मुख्यालय भी है।
रतलाम शहर समुद्र सतह से १५७७ फीट कि ऊन्चाई पर स्थित है। रतलाम के पहले राजा महाराजा रतन सिंह थे। यह नगर सेव, सोना, सट्टा, मावा, साडी तथा समोसा, कचोरी, दाल बाटी के लिये प्रसिद्ध है। रतलाम की सबसे ज्यादा प्रसिद्ध रतलामी सेव हैं जिसका पुराना नाम भीलडी सेव था, सेव की खोज भील जनजाति ने करी थी।"ट्राइबल इन्वेंटेड सेव २०० ईयर्स एगो. नो, सेव मकर्स अरे एविक्टिंग थेम," निहार गोखले, ३१ मार्च २०१९, इंडियस्पेंड१९ वी शताब्दी के दौरान रतलाम में भील शासकों का शासन था चूंकि मुगल और राजपूतों के आपसी संबंधों के कारण मुगलों का आगमन रतलाम में होता रहता था उस दौरान एक मुगल बादशाह ने रतलाम आकर सेवाया खाने की इच्छा जाहिर की उस दौरान रतलाम के भील सरदार ने बेसन से बनी सेव को मुगल बादशाह को खिलाया था ।
महाराजा रतनसिंह और उनके पुत्र रामसिंह के नामों के संयोग से शहर का नाम रतनराम हुआ, जो बाद में अपभ्रंशों के रूप में बदलते हुए क्रमशः रतराम और फिर रतलाम के रूप में जाना जाने लगा। मुग़ल बादशाह शाहजहां ने रतलाम जागीर को रतन सिह को एक हाथी के खेल में, उनकी बहादुरी के उपलक्ष में प्रदान की थी। उसके बाद, जब शहजादा शुजा और औरंगजेब के मध्य उत्तराधिकारी की जों जंग शरू हुई थी, उसमे रतलाम के राजा रतन सिंह ने बादशाह शाहजहां का साथ दिया था। औरंगजेब के सत्ता पर असिन होने के बाद, जब अपने सभी विरोधियो को जागीर और सत्ता से बेदखल किया, उस समय, रतलाम के राजा रतन सिंह को भी हटा दिया था और उन्हें अपना अंतिम समय मंदसौर जिले के सीतामऊ में बिताना पड़ा था और उनकी मृत्यु भी सीतामऊ में भी हुई, जहाँ पर आज भी उनकी समाधी की छतरिया बनी हुई हैं। औरंगजेब द्वारा बाद में, रतलाम के एक सय्यद परिवार, जों की शाहजहां द्वारा रतलाम के क़ाज़ी और सरवनी जागीर के जागीरदार नियुक्त किये गए थे, द्वारा मध्यस्ता करने के बाद, रतन सिंह के बेटे को उत्तराधिकारी बना दिया गया।
इसके आलावा रतलाम जिले का ग्राम सिमलावदा अपने ग्रामीण विकास के लिये पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हे। यहाँ के ग्रामीणों द्वारा जनभागीदारी से गांव में ही कई विकास कार्य किये गए हे। रतलाम से ३० किलोमीटर दूर बदनावर इंदौर रोड पर सिमलावदा से ४ किलोमीटर दूर कवलका माताजी का अति प्राचीन पांडवकालीन पहाड़ी पर स्थित मन्दिर हे। यहाँ पर दूर दूर से लोग अपनी मनोकामना पूरी करने और खासकर सन्तान प्राप्ति के लिए यहाँ पर मान लेते हे।
रतलाम जिला क्षेत्र के आधार पर जिले में कुल पाँच विधानसभा निर्वाचनक्षेत्र हैं:
रतलाम नगर (श्री चेतन्य कश्यप) सेेठजि
रतलाम ग्रामीण (श्री दिलीप मकवाना)
सेलाना (श्री हर्षविजय गहलोत गुड्डू)
जावरा (श्री राजेंद्र पांडे )
आलोट (श्री मनोज चावला)
लोकसभा निर्वाचनक्षेत्र तीन हैं - रतलाम नगर, रतलाम ग्रामीण, सेलाना।
२०११ की जनगणना के अनुसार, रतलाम शहर की जनसंख्या २६४,९१४ है, जिसमें १३४,९१५ पुरुष और १२९,९९९ महिलाएँ हैं। लिंगानुपात ९६४ महिलाओं पर १००० पुरुषों का है। ० से ६ वर्ष की आयु के बच्चों की संख्या २९,७६3 है। रतलाम में साक्षरों की कुल संख्या २०4,1०1 थी, जो जनसंख्या का ७७.०% थी, जिसमें पुरुष साक्षरता ८१.२% और महिला साक्षरता ७२.८% थी। रतलाम की ७+ जनसंख्या की प्रभावी साक्षरता दर ८६.८% थी, जिसमें पुरुष साक्षरता दर ९१.७% और महिला साक्षरता दर ८१.८% थी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या क्रमशः २७,1२4 और 1२,5६७ थी। रतलाम में कुल परिवारों की संख्या ५३१३३.२८.1७% है जो कि रतलाम जिले की कुल जनसंख्या का २८.1७% अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) है। रतलाम का आदिवासी समूह
भील - रतलाम की जनजातियों में भील प्रमुख जनजाति है। रतलाम की सेव प्रसिद्ध है, और इस सेव के निर्माण सबसे पहले भील जनजाति ने ही किया था , इतिहास में भील सरदार का वर्णन मिलता है ।
बैगा - बैगा एक जनजाति है।
रतलाम में कई उद्योग हैं जो तांबे के तार, प्लास्टिक की रस्सियाँ, रसायन और ऑक्सीजन सहित अन्य उत्पाद बनाते हैं। रतलाम सोना, चाँदी, रतलामी सेव, रतलामी साड़ी और हस्तशिल्प के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है। रतलाम शहर में कई बड़ी कंपनियाँ स्थित हैं। सार्वजनिक सूचीबद्ध कंपनियां जैसे डीपी वायर्स, डीपी आभूषण लिमिटेड और कटारिया वायर लिमिटेड। अंबी वाइन की विनिर्माण इकाई भी रतलाम में स्थित है
जिले में उगाई जाने वाली प्रमुख फ़सलों में सोयाबीन, गेहूं, मक्का, चना, कपास, लहसुन, प्याज, मटर, अमरूद, अनार, अंगूर और अफीम शामिल हैं जो रतलाम की जावरा तहसील के क्षेत्र में हैं।
जल मन्दिर कालका माता मंदिर ,
ओर छोटे केदारेश्वर,
सैलाना केक्टस गार्डन,
सैलाना के कवलका माताजी पहाड़ी मन्दिर ,
सिमलावदा गढ़खनकाई माताजी राजपुरा,
बाजना रोड वेदुमाला सागर झरना छत्री ,
धोलावाड डैम ,धोलावाद
इन्हें भी देखें
मध्य प्रदेश के शहर
रतलाम ज़िले के नगर |
विशाखपटनम (विशाखापत्तनम) भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य का सबसे बड़ा नगर है। यह पूर्वी घाट की पहाड़ियों और बंगाल की खाड़ी के तट के बीच, गोदावरी नदी के नदीमुख पर विस्तारित है। चेन्नई के बाद यह भारत के पूर्वी तट का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। यह विशाखपटनम ज़िले का मुख्यालय भी है। और ये प्रदेश की नयी राजधानी होगी|
विशाखपटनम भारतीय नौसेना के पूर्वी कमांड का केन्द्र है। यहाँ जलयान बनाने का कारखाना है। यह एक प्राकृतिक तथा सुरक्षित समुद्री बन्दरगाह है। कृषि एवं खनिज सम्पत्ति में समृद्ध आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं उड़ीसा राज्य इस बन्दरगाह के पृष्ठ-प्रदेश कहलाते हैं। यह एक उल्लेखनीय मत्स्य-शिकार का केन्द्र भी है। विशाखपटनम एक छोटी खाड़ी पर है और इसका प्राकृतिक बंदरगाह दो उठे हुए अतंरीपों द्वारा निर्मित है, जो शहर से एक छोटी नदी द्वारा विभक्त है। विशाखपटनम आन्ध्र प्रदेश के उत्तरी सरकारी तट पर गोदावरी नदी के मुहाने के उत्तर में अवस्थित है। विशाखपटनम को वाइज़ाम के नाम से भी जाना जाता है। विशाखपटनम भारत का चौथा सबसे बड़ा बंदरगाह है।
विशाखपटनम के बंदरगाह का महत्त्व काफ़ी बढ़ा है क्योंकि कोरोमंडल तट पर यही एकमात्र संरक्षित बंदरगाह है। इसमें किए गए सुधारों से अब यह १०.२ मीटर ऊँचे पोतों को भी आश्रय देने की स्थिति में है। यह शहर एक महत्त्वपूर्ण पोत निर्माण केंद्र भी है। भारत में बने पहले स्टीमर का विशाखपटनम के बंदरगाह में १९४८ में उद्घाटन हुआ था। विशाखपटनम मैंगनीज़ व तिलहन का निर्यात करता है और यहाँ एक तेल परिशोधनशाला तथा चिकित्सा संग्रहालय भी है। सघन वनों से युक्त इसके पूर्वी घाट और सुदूर पूर्वी क्षेत्र गोदावरी व इंद्रावती सहित अनेक नदियों द्वारा अपवाहित होते हैं। इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है।
बंगाल की खाड़ी के उत्तरी छोर पर स्थित उपनगर वॉल्टेयर में आंध्र विश्वविद्यालय है। यहाँ के शैक्षणिक संस्थानों में आंध्र मेडिकल कॉलेज, कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग, कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, गाँधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट एवं कई महाविद्यालय हैं।
विशाखपटनम में पानी का जहाज़ बनाने का कारख़ाना है। यह एक प्राकृतिक तथा सुरक्षित समुद्री बन्दरगाह है। कृषि एवं खनिज सम्पत्ति में समृद्ध आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं उड़ीसा राज्य इस बन्दरगाह के पृष्ठ प्रदेश कहलाते हैं। यह एक उल्लेखनीय मत्स्य-शिकार का केन्द्र भी है। आन्ध्र प्रदेश और एशिया में सबसे तेज़ी से बढ़ रहे शहरों में से दूसरे सबसे बड़े इस शहर में उद्योग, जहाज़ निर्माण, एक बड़ी तेल रिफाइनरी, एक विशाल इस्पात और बिजली संयंत्र केन्द्र है।
विशाखपटनम वायु, रेल और सड़क मार्ग से प्रमुख भारतीय शहरों और राज्य की राजधानी हैदराबाद के साथ जुड़ा हुआ है। इंडियन एयरलाइंस की दैनिक उड़ाने दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद और चेन्नई से संचालित होती हैं।
विशाखपटनम प्राचीन बौद्ध विरासत, भूवैज्ञानिक चमत्कार, प्रसिद्ध मन्दिरों के एक उदार मिश्रण में संस्कृति, कला और शिल्प आदि के लिए प्रसिद्ध है। यह एक समय के साथ क़दम रखने वाला शहर है, यहाँ तक कि यह शहर अपने समृद्ध अतीत के संरक्षण के प्रति भी सजग है। इसके सुन्दर पूर्वी घाट बंगाल की खाड़ी के नीले पानी पर एक जादुई स्पर्श देते हैं।
२०११ की जनगणना के अनुसार विशाखापत्तनम शहर की जनसंख्या १,७२८,१28 है।
इन्हें भी देखें
सिंहाचलम मंदिर, विशाखपटनम
कम्बालकोंडा वन्य अभयारण्य
सुस्वागत विशाखपटनम पोर्ट ट्रस्ट
आन्ध्र प्रदेश के नगर
विशाखपटनम ज़िले के नगर
भारत के तटीय वासस्थान
भारत में बंदरगाह नगर
भारत के महानगर |
इन्दौर भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक महानगर है। जनसंख्या की दृष्टि से यह मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा शहर है, २०११ जनगणना, के अनुसार २१,६७,४४७
लोगों की आबादी सिर्फ ५३० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में वितरित है। यह मध्यप्रदेश में सबसे अधिक घनी आबादी वाला शहर भी है। यह भारत में टीयर-२ शहरों के अन्तर्गत आता है। इंदौर महानगरीय क्षेत्र (शहर व आसपास के इलाके) की आबादी ३ए लाख लोगों के साथ राज्य में सबसे अधिक है। यह इन्दौर जिला तथा इन्दौर संभाग दोनों के मुख्यालय के रूप में कार्य करता है। यह मध्य प्रदेश राज्य की वाणिज्यिक राजधानी भी कहलाती है। इसके साथ ही यह नगर न केवल मध्य प्रदेश बल्कि देश के अन्य क्षेत्रों के लिये शिक्षा के एक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध है। भारत के स्वतन्त्र होने के पूर्व यह यह इन्दौर रियासत की राजधानी था। मालवा पठार के दक्षिणी छोर पर स्थित इंदौर शहर, राज्य की राजधानी भोपाल से १९० किमी पश्चिम में स्थित है।
इंदौर को उज्जैन से ओंकारेश्वर की ओर जाने वाले नर्मदा नदी घाटी मार्ग पर एक व्यापार बाजार के रूप में स्थापित किया गया था, वहीं इंद्रेश्वर मंदिर (१७४१) का निर्माण किया गया, जहाँ से ही पहले इंदूर और बाद में इन्दौर नाम प्राप्त हुआ। मराठा काल में बाजीराव पेशवा ने इस क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर, अपने सेनानायक मल्हारराव होलकर को यहां का जमींदार बना दिया, जिन्होंने होलकर राजवंश की नींव डाली। होलकर वंश का शासनकाल भारत के स्वतंत्र होने तक रहा। यह मध्य प्रदेश में शामिल होने से पहले ब्रिटिश सेंट्रल इंडिया एजेंसी और मध्य भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी (१९४८५६) भी था। खान (कान्ह) नदी के तट पर बनी कृष्णापुरा छत्रियाँ, होलकर शासकों को समर्पित हैं।
ब्रिटिश काल के समय से ही इन्दौर को एक औद्योगिक शहर के रूप में विकसित किया जाता रहा है। यहाँ लगभग ५,००० से अधिक छोटे-बडे उद्योग हैं। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में ४०० से अधिक उद्योग हैं और इनमे १०० से अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के उद्योग हैं। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र के प्रमुख उद्योग व्यावसायिक वाहन बनाने वाले व उनसे सम्बन्धित उद्योग हैं, इसे "भारत का डेट्राइट" भी कहा जाता है। भारत का तीसरा सबसे पुराना शेयर बाजार, मध्यप्रदेश स्टॉक एक्सचेंज इंदौर में स्थित है।
औद्योगिक शहर होने के साथ-साथ इन्दौर शिक्षा का भी केन्द्र बन के उभरा है। यह भारत का एकमात्र शहर है, जहाँ भारतीय प्रबन्धन संस्थान (आईआईएम इन्दौर) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी इन्दौर) दोनों स्थापित हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के "स्मार्ट सिटी मिशन" में १०० भारतीय शहरों को चयनित किया गया है जिनमें से इन्दौर भी एक स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा। स्मार्ट सिटी मिशन के पहले चरण के अंतर्गत २० शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जायेगा और इंदौर भी इस प्रथम चरण का हिस्सा है। २०२१ के स्वच्छता सर्वेक्षण के परिणामों में लगातार पाँचवी बार इन्दौर भारत का सबसे स्वच्छ नगर रहा है।
उज्जैन पर विजय पाने की राह में, राजा इंद्र सिंह ने काह्न नदी (आधुनिक नाम कान(कहन) और विकृत नाम खान) के निकट एक शिविर रखी और वे इस जगह की प्राकृतिक हरियाली से बहुत प्रभावित हुए।
इस प्रकार वह नदियों काह्न और सरस्वती के संगम की जगह पर एक शिवलिंग रखी और १७३१ ई. में इन्द्रेश्वर मंदिर का निर्माण प्रारम्भ किया। साथ ही इंद्रपुर की स्थापना की गई। कई वर्षों बाद जब पेशवा बाजीराव-१ द्वारा, मराठा शासन के तहत, इसे मराठा सूबेदार 'मल्हार राव होलकर' को दिया गया था तब से इसका नाम इन्दूर पड़ा। ब्रिटिश राज के दौरान यह नाम अपने वर्तमान रूप इंदौर में बदल गया था।
१६वीं सदी के दक्कन (दक्षिण) और दिल्ली के बीच एक व्यापारिक केंद्र के रूप में इन्दौर का अस्तित्व था।
मराठा राज (होलकर युग)
मुग़ल युग के दौरान, आधुनिक इंदौर जिले के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र उज्जैन और मांडू के प्रशासन (सरकारों) के बीच समान रूप से विभाजित था। कम्पेल मालवा सुबाह (प्रांत) की उज्जैन सरकार के अधीन एक महल (प्रशासनिक इकाई) का मुख्यालय था। आधुनिक इंदौर शहर का क्षेत्र कम्पेल परगना (प्रशासनिक इकाई) में शामिल था।
१७१५ में, मराठों ने इस क्षेत्र (मुगल क्षेत्र) पर आक्रमण किया और कंपेल के मुगल अमिल (प्रशासक) से चौथ (कर) की मांग की। आमिल उज्जैन भाग गए, और स्थानीय ज़मींदार मराठों को चौथ देने के लिए तैयार हो गए। मुख्य जमींदार, नंदलाल चौधरी (जिसे बाद में नंदलाल मंडलोई के नाम से जाना जाता था) ने लगभग रुपये का चौथ का भुगतान किया। मराठों को २५,००० मालवा के मुगल गवर्नर जय सिंह द्वितीय, ८ मई १७१५ को कंपेल पहुंचे और गांव के पास एक युद्ध में मराठों को हराया। मराठा १७१६ की शुरुआत में वापस आए, और १७१७ में कम्पेल पर छापा मारा। मार्च १७१८ में, संताजी भोंसले के नेतृत्व में मराठों ने फिर से मालवा पर आक्रमण किया, लेकिन इस बार असफल रहे।
१७२० तक, शहर में बढ़ती व्यावसायिक गतिविधियों के कारण, स्थानीय परगना का मुख्यालय कंपेल से इंदौर स्थानांतरित कर दिया गया था। १७२४ में, नए पेशवा बाजी राव ई के तहत मराठों ने मालवा में मुगलों पर एक नया हमला किया। बाजी राव प्रथम ने स्वयं इस अभियान का नेतृत्व किया, उनके साथ उनके लेफ्टिनेंट उदाजी राव पवार, मल्हारराव होलकर और रानोजी सिंधिया थे। मुगल निज़ाम ने १८ मई १७२४ को नालछा में पेशवा से मुलाकात की और क्षेत्र से चौथ लेने की उनकी मांग को स्वीकार कर लिया। पेशवा दक्कन लौट आए, लेकिन चौथ संग्रह की देखरेख के लिए मल्हार राव होल्कर को इंदौर में छोड़ दिया।
मराठों ने राव नन्दलाल चौधरी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे, जिनका स्थानीय सरदारों (प्रमुखों) पर प्रभाव था। १७२८ में, उन्होंने अमझेरा में मुगलों को निर्णायक रूप से हराया और अगले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में अपना अधिकार मजबूत किया। ३ अक्टूबर १७३० को, मल्हार राव होल्कर को मालवा के मराठा प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया था। मराठा शासनकाल के दौरान स्थानीय ज़मींदारों, जिनके पास चौधरी की उपाधि थी, को मंडलोई (मंडल के बाद, एक प्रशासनिक इकाई) के रूप में जाना जाने लगा। मराठों के होल्कर राजवंश, जिसने इस क्षेत्र को नियंत्रित किया, ने स्थानीय जमींदार परिवार को राव की उपाधि प्रदान की। नंदलाल की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र तेजकराना को पेशवा बाजी राव प्रथम द्वारा कंपेल के मंडलोई के रूप में स्वीकार किया गया था। परगना औपचारिक रूप से १७३३ में पेशवा द्वारा २८ और डेढ़ परगना को विलय करके मल्हार राव होल्कर को दे दिया गया था। परगना मुख्यालय को वापस स्थानांतरित कर दिया गया था। अपने शासनकाल के दौरान कम्पेल को। उनकी मृत्यु के बाद, उनकी बहू अहिल्याबाई होल्कर ने १७६६ में मुख्यालय को इंदौर स्थानांतरित कर दिया। कंपेल की तहसील को नाम में परिवर्तन करके इंदौर तहसील में बदल दिया गया। अहिल्याबाई होल्कर १७६७ में राज्य की राजधानी महेश्वर चली गईं, लेकिन इंदौर एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक और सैन्य केंद्र बना रहा।
शहर में बढ़ रही व्यावसायिक गतिविधियों के कारण स्थानीय परगना मुख्यालय कम्पेल से इंदौर के लिए १७२० में स्थानांतरित कर दिया गया। १८ मई १७२४ को, निज़ाम ने बाजीराव प्रथम द्वारा क्षेत्र से चौथ (कर) इकट्ठा करने के लिए मंज़ूरी दे दी। १७३३ में, पेशवा ने मालवा का पूर्ण नियंत्रण ग्रहण किया, और सेनानायक मल्हारराव होलकर को प्रान्त के सूबेदार (राज्यपाल) के रूप में नियुक्त किया। नंदलाल चौधरी ने मराठों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। मराठा शासन के दौरान, चौधरीयों को "मंडलोई" (मंडल से उत्पत्ति) के रूप में जाना जाने लगा। होलकरों ने नंदलाल के परिवार को राव राजा" की विभूति प्रदान की। साथ ही साथ होलकर शासकों दशहरा पर होलकर परिवार से पहले "शमी पूजन" करने की अनुमति भी दे दी।
२९ जुलाई १७३२, बाजीराव पेशवा प्रथम ने होलकर राज्य में '२८ और आधा परगना' में विलय कर दी जिससे मल्हारराव होलकर ने होलकर राजवंश की स्थापना की।
उनकी पुत्रवधू देवी अहिल्याबाई होलकर ने १७६७ में राज्य की नई राजधानी महेश्वर में स्थापित की। लेकिन इंदौर एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सैन्य केंद्र बना रहा।
ब्रिटिश काल (इंदौर/होलकर रियासत)
१८१८ में, तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान, महिदपुर की लड़ाई में होलकर, ब्रिटिश से हार गए थे, जिसके परिणामस्वरूप राजधानी फिर से महेश्वर से इंदौर स्थानांतरित हो गयी। इंदौर में ब्रिटिश निवास स्थापित किया गया, लेकिन मुख्य रूप से दीवान तात्या जोग के प्रयासों के कारण होलकरों ने इन्दौर पर एक रियासत के रूप में शासन करना जारी रखा। उस समय, इंदौर में ब्रिटिश मध्य भारत एजेंसी का मुख्यालय स्थापित किया गया। उज्जैन मूल रूप से मालवा का वाणिज्यिक केंद्र था। लेकिन जॉन मैल्कम जैसे ब्रिटिश प्रबंधन अधिकारियों ने इंदौर को उज्जैन के लिए एक विकल्प के रूप में बढ़ावा देने का फैसला किया, क्योंकि उज्जैन के व्यापारियों ने ब्रिटिश विरोधी तत्वों का समर्थन किया था।
१९०६ में शहर में बिजली की आपूर्ति शुरू की गई, १९०९ में फायर ब्रिगेड स्थापित किया गया और १९१८ में, शहर के पहले मास्टर-योजना का उल्लेख वास्तुकार और नगर योजनाकार, पैट्रिक गेडडेज़ द्वारा किया गया था। (१८५२-१८८६) की अवधि के दौरान महाराजा तुकोजी राव होलकर द्वितीय के द्वारा इंदौर के औद्योगिक व नियोजित विकास के लिए प्रयास किए गए थे। १८७५ में रेलवे की शुरुआत के साथ, इंदौर में व्यापार महाराजा तुकोजीराव होलकर तृतीय, यशवंतराव होलकर द्वितीय, महाराजा शिवाजी राव होलकर के शासनकाल तक तरक्की करता रहा।
आजादी के पश्चात
१९४७ में भारत के स्वतंत्र होने के कुछ समय बाद, अन्य पड़ोसी रियासतों के साथ साथ इस रियासत ने भारतीय संघ को स्वीकार कर लिया। १९४८ में मध्य भारत के गठन के साथ इंदौर, राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गया। परन्तु १ नवंबर, १९५६ को मध्यप्रदेश राज्य के गठन के साथ, राजधानी को भोपाल स्थानांतरित कर दिया गया। इंदौर, लगभग २१ लाख निवासियों के एक शहर आज, एक पारंपरिक वाणिज्यिक शहरी केंद्र से राज्य की एक आधुनिक गतिशील वाणिज्यिक राजधानी में परिवर्तित हो गया है।
इंदौर मालवा पठार के दक्षिणी किनारे पर मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित है। क्षिप्रा नदी की सहायक नदियों, सरस्वती और कान (खान) नदियों, पर स्थित हैं और समुद्र तल से औसत ऊंचाई के ५५३.०० मीटर है। यह एक ऊंचा मैदान है जिसके दक्षिण पर विंध्य शृंखला है।
यशवंत सागर झील के अलावा, वहाँ कई झील जैसे की सिरपुर टैंक, बिलावली तालाब, सुखनिवास झील और पिपलियापाला तालाब सहित शहर को पानी की आपूर्ति कर रहे हैं। शहर क्षेत्र में मुख्य रूप से काली मिट्टी पाई जाती है। उपनगरों में, मिट्टी काफी हद तक लाल और काले रंग की है। क्षेत्र के अंतर्निहित चट्टान काली बेसाल्ट से बनी है, और उनके अम्लीय और बुनियादी वेरिएंट क्रीटेशयस युग तक जाते हैं। इस क्षेत्र को भारत के भूकंपीय जोन में तृतीय क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसके अनुसार यह रिक्टर पैमाने पर ६.५ व ऊपर की तीव्रता वाले एक भूकंपीय क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।
पश्चिम में, पीथमपुर और बेटमा जैसे शहरों के साथ इंदौर ज़िले की सीमा धार के प्रशासनिक जिले के साथ लगी हुई हैं; और साथ ही उत्तर-पश्चिम में हातोद व देपालपुर; उत्तर की ओर सांवेर के उज्जैन जिले के साथ; पूर्वोत्तर में माँगलिया सड़क की देवास ज़िले के साथ; दक्षिण पूर्व में सिमरोल; दक्षिण में महू, और मानपुर की सीमा खंडवा जिले के साथ।
इन शहरों (और कुछ बड़े पास के उपनगरों, जैसे राऊ, अहिरखेड़ी, हुकमाखेड़ी, खंडवा नाका, कनाड़िया, रंगवासा, पालदा, सिहांसा) को मिलाकर इंदौर एक सन्निहित निर्मित शहरी क्षेत्र इंदौर महानगर क्षेत्र कहलाता है। जो की एक अनौपचारिक प्रशासनिक जिला माना जाता है।
इंदौर में नम उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है। तीन अलग मौसम होते है: गर्मी, वर्षा और शीत ऋतु। ग्रीष्मकाल मार्च के मध्य में शुरू होता हैं और अप्रैल और मई में बेहद गर्म होता है। कई बार दिन का तापमान तक चला जाता हैं। लेकिन उमस बहुत कम रहती है, गर्मियों में औसत तापमान से भी उच्च जा सकता हैं।
शीत ऋतु मध्यम और आमतौर पर सूखी होती है, और औसत तापमान १०-१५ सेल्सियस रहती है।
इंदौर में जुलाई-सितम्बर में दक्षिणपूर्व मानसून के चलते की मध्यम वर्षा होती है। वर्षा, मध्य जून से मध्य सितंबर तक होती है, बारिश का ९५% मानसून के मौसम के दौरान होते हैं।
इंदौर मध्य प्रदेश में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। मध्य भारत में इंदौर सबसे बड़ा नगर है। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार, इंदौर शहर (नगर निगम के तहत क्षेत्र) की जनसंख्या १९,६४,०८६ है। इंदौर महानगर की आबादी (शहरी व पड़ोसी क्षेत्रों को मिलाकर) २१,६७,४४७ है। २०१० में, शहर की जनसंख्या घनत्व ९७१८/प्रति वर्ग किमी थी, जोकि मध्य प्रदेश के १,००,००० से अधिक आबादी वाले सभी नगर पालिकाओं से सबसे घनी हैं।
वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार, इंदौर शहर ८७.३८% की एक औसत साक्षरता दर ७४% के राष्ट्रीय औसत से अधिक है। पुरुष साक्षरता ९१.८४% थी, और महिला साक्षरता ८२.५५% था। इंदौर की जिला प्रशासन। २००९ इंदौर में लिया, जनसंख्या का १२.७२% उम्र के ६ वर्ष से कम (प्रति २०११ की जनगणना के रूप में) है। जनसंख्या की औसत वार्षिक वृद्धि दर २०११ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार।
हिन्दी इंदौर शहर की आधिकारिक भाषा है, और जनसंख्या के बहुमत द्वारा बोली जाती हैं। मराठा सम्राज्य के प्रभुत्व के कारण यहाँ मराठी बोलने वाले लोगो की भी काफ़ी संख्या हैं। प्रदेश के एक मुख्य शहर होने के साथ ही यहाँ विभिन्न राज्यो से आकर बसे पर्याप्त संख्या में लोगो के साथ अन्य भाषाएँ जैसे बुंदेली, मालवी, गुजराती, सिंधी, बंगाली, छत्तीसगढ़ी,उर्दू भी बोली जाती हैं।
२०१२ के आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तानी हिन्दू प्रवासी शहर (कुल राज्य के १०,००० में से) में रहते हैं
इंदौर सामान और सेवाओं के लिए एक वाणिज्यिक केंद्र है। २०११ में इंदौर का सकल घरेलू उत्पाद $१४,अरब था शहर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में कई देशों से निवेशकों को आकर्षित करता है।
इंदौर अनाज मंडी, इंदौर संभाग की मुख्य व केन्द्रीय मंडी है, यह सोयाबीन के लिये देश का प्रमुख विपणन केन्द्र है। इसके अलावा यहाँ पर से गेहू, चना, डॉलर चना, सभी प्रकार की दाले, कपास व अन्य सभी फसलों का कारोबार किया जाता है, इंदौर अनाज मंडी से आसपास के जिलो जैसे धार, खरगोन, उज्जैन, देवास आदि के किसान भी जुड़े हुए है।
इंदौर के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र में निम्न सम्मिलित हैं : पीथमपुर (चरण- ई,ई व ई) के आसपास के क्षेत्रों में अकेले १५०० बड़े, मध्यम और लघु औद्योगिक सेट-अप हैं। , इंदौर के विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज लगभग ३००० एकड़),, सांवेर औद्योगिक बेल्ट (१००० एकड़), लक्ष्मीबाई नगर औद्योगिक क्षेत्र (औ.क्षे.), राऊ (औ.क्षे.), भागीरथपुरा काली बिल्लोद (औ.क्षे.), रणमल बिल्लोद (औ.क्षे.), शिवाजी नगर भिंडिको (औ.क्षे.), हातोद (औ.क्षे.), क्रिस्टल आईटी पार्क (५.५ लाख वर्गफ़ीट) , आईटी पार्क परदेशीपुरा (१ लाख वर्गफ़ीट) ), इलेक्ट्रॉनिक कॉम्प्लेक्स, टीसीएस सेज, इंफोसिस सेज आदि है, साथ ही डायमंड पार्क, रत्न और आभूषण पार्क, फूड पार्क, परिधान पार्क, नमकीन क्लस्टर और फार्मा क्लस्टर आदि क्षेत्र भी विकसित किये गये है।
पीथमपुर को भारत के डेट्रॉइट के रूप में जाना जाता है। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र विभिन्न दवा उत्पादन कम्पनियाँ जैसे इप्का लैबोरेटरीज़, सिप्ला, ल्यूपिन लिमिटेड, ग्लेनमार्क फार्मास्युटिकल्स, यूनिकेम लेबोरेटरीज और बड़ी ऑटो कंपनियों इनमें से प्रमुख फोर्स मोटर्स, वोल्वो आयशर वाणिज्यिक, महिंद्रा वाहन लिमिटेड उत्पादन कर रहे हैं
मध्य प्रदेश स्टॉक एक्सचेंज (म्प्से) मूल रूप से १९१९ में स्थापना के बाद से मध्य भारत का एकमात्र शेयर बाज़ार और भारत में तीसरा सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है जो कि इंदौर में स्थित है।
कुछ ही दिनों पूर्व नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) ने शहर में एक निवेशक सेवा केंद्र की स्थापना की। औद्योगिक रोजगार ने इंदौर के आर्थिक भूगोल को प्रभावित किया। १९५६ में मध्यप्रदेश में विलय के बाद, इंदौर ने उच्च स्तर के उपनगरीय विस्तार और अधिकाधिक कार स्वामित्व का अनुभव किया। कई कंपनियों ने अपेक्षाकृत सस्ते भूमि का फायदा उठाते हुए अपने उद्योगों का विस्तार किया है।
कपड़ा उत्पादन और व्यापार का अर्थव्यवस्था में बहुत समय से योगदान रहा हैं , रियल एस्टेट कंपनियों डीएलएफ लिमिटेड, सनसिटी, ज़ी समूह, ओमेक्स, सहारा, पार्श्वनाथ, अंसल एपीआई, एम्मार एमजीएफ ने कई आवासीय परियोजनाओं को इंदौर में शुरू किया है।
इंफोसिस सुपर कॉरिडोर पर एक चरण में १०० करोड़ रुपये के निवेश से इंदौर में एक नया विकास केंद्र स्थापित कर रही है इंफोसिस १३० एकड़ क्षेत्र में इंदौर में अपनी नई कैम्पस खोला है जिससे लगभग १३,००० लोगों को रोजगार देने का वायदा किया है। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज इंदौर में अपने परिसर का निर्माण कार्य शुरू कर दिया है, सरकार द्वारा भूमि का आवंटन किया गया है कोल्लाबेरा ने भी इंदौर में परिसरों खोलने की योजना की घोषणा की। इन के अलावा, वहाँ कई छोटे और मध्यम आकार सॉफ्टवेयर इंदौर में विकास कंपनियाँ हैं।
सार्वजनिक यातायात की दृष्टि से सन् २००५ तक इन्दौर बहुत पिछड़ा था किन्तु उसके बाद इन्दौर नगर निगम ने नगर बस सेवा आरम्भ की जो भारत में सर्वोत्तम कही जा सकती है। रेल यातायात की दृष्टि से इन्दौर मुख्य रेल मार्ग पर स्थित नहीं है। तथापि यहां से दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, हैदराबाद, पटना, देहरादून तथा जम्मू-तवी के लिये सीधी गाड़ियाँ उपलब्ध हैं। इन्दौर से सीहोर, भोपाल, खरगोन और खण्डवा के लिये बहुत अच्छी बस सेवा उपलब्ध है।
इंदौर का विमानक्षेत्र इसे भारत के प्रमुख शहरों से हवाई मार्ग से जोड़ता है। यहां से दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, बेंगलुरु, नागपुर, हैदराबाद, कानपुर इत्यादि प्रमुख महानगरों के लिये विमान सेवाएं उपलब्ध हैं, और यहां से दुबई के लिये अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएं भी उपलब्ध है।
इंदौर जंक्शन ५० करोड़ (५०० मिलियन) रुपये से अधिक का राजस्व के साथ एक ए-१ (आ-१) ग्रेड रेलवे स्टेशन है। सिटी पश्चिम रेलवे की रतलाम रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आता है। इंदौर सीधे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पुणे, लखनऊ, कोच्चि, जयपुर, अहमदाबाद और सीहोर आदि जैसे प्रमुख शहरों से जुड़ा है।
मीटर गेज ट्रेन का परिचालन फ़रवरी २०१५ से बंद कर दिया गया। इंदौर-महू अनुभाग अब ब्रॉड गेज करने के लिए उन्नत किया जा रहा है। इंदौर - देवास - उज्जैन विद्युतीकरण जून २०१२ में पूरा कर लिया और रतलाम - इंदौर ब्रॉडगेज रूपांतरण सितंबर २०१४ में पूरा कर लिया गया
प्लैटफॉर्म क्र. १ को ब्रॉड गेज करने के लिए उन्नत किया जा रहा है दो नए प्लेटफार्मों के साथ आधुनिक स्टेशन परिसर राजकुमार रेलवे ओवर ब्रिज के करीब विकसित किया जा रहा है
मुख्य जंक्शन को छोड़कर, इंदौर महानगरीय क्षेत्र में ७ अन्य रेलवे स्टेशनों भी हैं जो है:
इन्दौर शहर अपने चारों ओर के शहरों से सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यहां से आगरा-बॉम्बे राजमार्ग (एनएच ३) होकर गुजरती हैं।
शहर के प्रमुख बस-अड्डे हैं:
सरवटे बस स्टैंड (इन्दौर रेलवे स्टेशन के पास)
गंगवाल बस स्टैंड (लाबरिया भैरू, धार रोड)
नवलखा बस-स्टैंड (आगरा-बॉम्बे राजमार्ग)
विजय नगर आईएसबीटी (ए.बी. रोड) बस टर्मिनल जो की पूरा अंतर-राज्य बस-अड्डे के रूप में अच्छी तरह से विकसित किया जायेगा।
इंदौर सिटी बस
इंदौर में एक अच्छी तरह से विकसित परिवहन प्रणाली है। अटल इंदौर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विसेज लिमिटेड, एक पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप योजना के तहत शहर में बसों और रेडियो टैक्सियां का संचालन करती है। ८४ मार्गों पर, ४२१ बस स्टॉप के साथ, ३६१ बसें संचालित हैं। बसों को उनके मार्ग के अनुसार तीन रंगों नीला, मैजेंटा और नारंगी में रंगा गया है।
इन्दौर बीआरटीएस (आईबस)
इंदौर बीआरटीएस एक बस रैपिड ट्रांजिट प्रणाली है जिसका १० मई २०१३ से परिचालन शुरू किया गया है। यह वातानुकूलित (एसी) बसों के साथ चलती हैं। इन बसों में भी जीपीएस और आईवीआर जैसी सेवाओं जैसे एलईडी प्रदर्शन होते हैं। यह निरंजनपुर और राजीव गांधी चौराहा के बीच समर्पित गलियारे में चलाई जाती है।
सार्वजनिक परिवहन के साथ यहां ऑटो रिक्शा, मारुति वैन और टाटा मैजिक वैन भी संचालित है। कई निजी टैक्सी सेवा जैसे ओला कैब्स, उबर और चार्टर्ड कैब्स (पहले मेट्रो टैक्सी) शहर में संचालित होते हैं।
इंदौर महाविद्यालयो और विद्यालयो की शृंखला के लिए जाना जाता है। इंदौर में छात्रों की एक बड़ी आबादी है और यह मध्य भारत में शिक्षा का एक बड़ा केंद्र है। इंदौर में अधिकांश प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से मान्यता प्राप्त है। हालांकि, स्कूलों की संख्या में काफी कुछ आईसीएसई बोर्ड, एनआईओएस बोर्ड, कब्सी बोर्ड और राज्य स्तर सांसद के साथ संबद्ध हैं।
द डेली कॉलेज, १८८२ में स्थापना की, दुनिया में सबसे पुराना सह-शिक्षा बोर्डिंग स्कूलो में से एक है, जो 'मराठा' की केन्द्रीय भारतीय रियासतों के शासकों को शिक्षित करने के लिए स्थापित किया गया था।
होलकर विज्ञान महाविद्यालय, आधिकारिक तौर पर सरकार के मॉडल स्वायत्त होलकर साइंस कॉलेज के रूप में जाना जाता है। महाविद्यालय की स्थापना १० जून, १८९१
को शिवाजी राव होलकर द्वारा की गई थी।
इंदौर भारत में एकमात्र शहर है जहाँ भारतीय प्रबन्धन संस्थान (आईआईएम इंदौर) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी इंदौर) दोनों स्थापित है।
सोशल वर्क इंदौर स्कूल (इसव्) सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में एक स्कूल है जो दोनों शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में कार्य करता है। वर्ष १९५१ से पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ताओ को प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है।
देवी अहिल्या विश्वविद्यालयय, जो "डी ए वी वी" (पूर्व में 'इंदौर विश्वविद्यालय' के रूप में जाना जाता था) के रूप में जाना कई अपने तत्वावधान ऑपरेटिंग कॉलेजों के साथ इंदौर में एक विश्वविद्यालय है। यह शहर के भीतर दो परिसरों, तक्षशिला परिसर (भंवरकुआ चौराहे के पास) में एक और रवींद्र नाथ टैगोर रोड, इंदौर में है। विश्वविद्यालय सहित कई विभागों चलाता इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज (आईएमएस), संगणक विज्ञान एवं सूचना प्रौद्योगिकी का विद्यालय (स्क्सिट), कानून के स्कूल (एसओएल), इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (आईईटी), शैक्षिक मल्टीमीडिया रिसर्च सेंटर (एमर्च), व्यावसायिक अध्ययन के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट (आईआईपीएस), फार्मेसी के स्कूल, ऊर्जा और पर्यावरण अध्ययन के स्कूल - एम टेक के लिए प्राइमर स्कूलों में से एक। (ऊर्जा प्रबंधन), पत्रकारिता के स्कूल और फ्यूचर्स अध्ययन और योजना है, जो दो एम टेक चलाता स्कूल। प्रौद्योगिकी प्रबंधन और सिस्टम साइंस एंड इंजीनियरिंग, एमबीए (बिजनेस पूर्वानुमान), और एमएससी में विशेषज्ञता के साथ पाठ्यक्रम। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में। परिसर में कई अन्य अनुसंधान और शिक्षा विभाग, हॉस्टल, खेल के मैदानों और कैफ़े के घरों।
महात्मा गांधी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय (मगमक) एक और पुरानी संस्था है, और पूर्व में किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज के रूप में जाना जाता था
श्री गोविन्दराम सेकसरिया प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान (स्ग्सिट्स) को १९५२ में स्थापित किया गया।
डिजिटल गुरुकुल का मुख्यालय इंदौर में स्थापित है।
स्वच्छता में सिरमौर
इंदौर नगर निगम
इंदौर शहर देश का स्वच्छतम शहर लगातार ६ वर्षों से बना हुआ है। पूरे देश के ४२०० से अधिक अर्बन लोकल बॉडीज़ में इंदौर नगर निगम ने बाजी मारी है। इयास [म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन|हर्षिका सिंह] शहर की दूसरी महिला म्युनिसिपल कमिश्नर हैं।
सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट
इंदौर के सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट मॉडल यूनाइटेड नेशन द्वारा स्वीकृत है और ऑर्गेनिक कचरे से ईंधन बनाने का साउथ एशिया का सवसे बड़ा बायो गैस प्लांट इंदौर में ही है। यह ५५०टन प्रतिदिन कचरे से बायो कम्प्रेस्ड गैस बनाता है।
वेस्ट मैनेजमेंट स्टार्टअप
आईआईटी इंदौर के एलुमनी द्वारा शुरू किया गया देश का सबसे बड़ा और सफल स्टार्टअप स्वाह भी इंदौर में है और शहर की स्वच्छता में अपना योगदान दे रहा है।
इंदौर अपने विशिस्ट खान-पान के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ के नमकीन, पोहा और जलेबी, चाट (नमकीन), कचोरी (कचौड़ी), गराड़ू, भुट्टे का कीस, सेंव-परमल और साबूदाना खिचड़ी स्वाद में अपनी अलग पहचान बनाये हुए है। मिठाई में मूंग का हलवा, गाजर का हलवा, रबड़ी, मालपुए, फालूदा कुल्फी, गुलाब जामुन, रस-मलाई, रस गुल्ला चाव से खाये जाते हैं। इसके अलावा विभिन्न रेस्तरां में विभिन्न प्रकार के व्यंजन, और मराठा, मुगलई, बंगाली, राजस्थानी, और एक किस्म का स्थानीय व्यंजन दाल-बाफला काफी प्रसिद्ध है। सराफा बाजार और छप्पन दुकान, इंदौर के एक प्रमुख खाद्य स्थल है। आम तौर पर, नमकीन इंदौर में प्रमुखता से परोसा जाता है। यहाँ के नमकीन की प्रसिद्धि सम्पूर्ण देश में है | तथा सेंव-परमल यहाँ का प्रसिद नास्ता है। जो की मालवा का नास्ता माना जाता है। हाल ही में मैकडोनल्ड, डोमिनोज़, पिज्जा हट, केएफसी, सबवे, बरिस्ता लवाज़ा और कैफे कॉफी डे जैसी कई राष्ट्रीय कंपनियों ने इंदौर में अपनी शाखाएं खोली है।
अटल बिहारी वाजपेयी क्षेत्रीय पार्क (पिप्लियापाला पार्क या इंदौर क्षेत्रीय पार्क) के रूप में जाना जाता है, यह इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) द्वारा विकसित किया गया है। पार्क के विकास के तालाब और इस टैंक के पास ४२ एकड़ भूमि की भूमि में से ८० एकड़ जमीन पर है। वहाँ एक नहर है, जो पूरे पार्क तालाब के एक बिंदु से शुरू करने और दूसरे भाग में समाप्त शामिल किया गया है। पार्क में आकर्षण, एक संगीतमय फव्वारा शामिल जेट फव्वारा, 'कलाकार गांव, भूलभुलैया, फ्रेंच उद्यान, जैव-विविधता उद्यान, धुंध फव्वारा, फास्ट फूड जोन, नौका विहार, और एक मिनी दो डेक मिलनसार ८० के साथ "मालवा क्वीन" नाम क्रूज कूद लोग, एक रेस्तरां और निजी पार्टी कमरे।
कमला नेहरु प्राणी संग्रहालय या इंदौर चिड़ियाघर ४,००० वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ इंदौर का सबसे पुराना प्राणी उद्यानों में से एक है।
सफ़ेद बाघ, हिमालयी भालू और सफेद मोर, इसकी प्रजातियों के लिए जाना जाता है, इंदौर चिड़ियाघर भी प्रजनन, संरक्षण और जानवरों, पौधों और उनके निवास की प्रदर्शनी के लिए एक केंद्र है।
मेघदूत गार्डन शहर के विजयनगर क्षेत्र में स्थित है। यह २००१-०१ में पुनर्निर्मित किया गया था। जमीन मकान लॉन, रोशन और नृत्य के फव्वारे, और सुंदर बगीचों की उपस्थिति। फॉर्च्यून लैंडमार्क और सयाजी होटल इस पार्क के करीब हैं।
सिनेमा इंदौर में और साथ ही साथ पूरे देश में मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम है। शहर में कई सिनेमाघर हैं जैसे की:
आइनॉक्स (सपना-संगीता रोड)
आइनॉक्स (सेंट्रल मॉल, रीगल चौराहा)
आइनॉक्स सत्यम (सी२१ मॉल, विजय नगर)
कार्निवल सिनेमाज़ (मल्हार मेगा मॉल, विजय नगर)
पीवीआर सिनेमाज़ (ट्रेज़र आइलैंड मॉल, दक्षिण तुकोगंज)
मधुमिलन (मधुमिलन चौराहा)
मंगल बिग सिनेमा (मंगल सिटी, विजय नगर)
इंदौर में कई मॉल, जो दर्शकों के लिए विभिन्न प्रकार और आराम प्रदान करने के लिए मेज़बान है। ट्रेजर आईलैंड, मंगल सिटी मॉल, इंदौर सेंट्रल मॉल, सी२१ मॉल, मल्हार मेगा मॉल, ऑर्बिट मॉल बहुत अच्छी तरह से जाना जाता है। २०११ में, वॉलमार्ट की एक शाखा, नामित बेस्ट प्राइस भी दुकानदारों छूट माल खरीदने के लिए खोला गया। इंदौर मध्य भारत में सबसे अधिक मॉल होने का रिकार्ड बना रही है।
यहाँ से २० हिन्दी दैनिक समाचार पत्र, ७ अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र, २४ साप्ताहिक और मासिक, ४ चतुर्मासिक, २ द्विमासिक पत्रिका, एक वार्षिक कागज, और एक मासिक हिंदी भाषा शैक्षिक "कैम्पस डायरी" नाम अखबार शहर से प्रकाशित हो रहे हैं। भारत की 'पंप उद्योग पर केवल पत्रिका पंप्स भारत और वाल्व पत्रिका वाल्व भारत यहां से प्रकाशित किया जाता है
प्रमुख हिंदी अखबारों और राष्ट्रीय मीडिया घरानों का इंदौर में अपना क्षेत्रीय कार्यालय है।
रेडियो उद्योग निजी और सरकारी स्वामित्व वाली एफएम चैनलों के शुरू होने के साथ विस्तार किया गया है।
निम्न एफ़एम रेडियो चैनल है जो कि शहर में प्रसारण कर रहें हैं।
बिग एफ़एम (९२.७ मेगाहर्ट्ज़ (म्झ))
रेड एफ़एम (९३.५ मेगाहर्ट्ज़ (म्झ))
माय एफ़एम (९४.३ मेगाहर्ट्ज़ (म्झ))
रेडियो मिर्ची एफ़एम (९८.३ मेगाहर्ट्ज़ (म्झ))
विविध भारती एफ़एम (१०१.६ मेगाहर्ट्ज़ (म्झ))
आकाशवाणी ज्ञानवाणी एफएम (१०५.६ मेगाहर्ट्ज़ (म्झ))
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा चलाए डिजिटलीकरण के दूसरे चरण के तहत २०१३ में केबल टीवी का डिजिटलीकरण पूर्ण कर दिया था।
सिटी केबल सीटी केबल (सिटी केबल) एक डिजिटल सिटी के ७०% कवरेज के साथ केबल वितरण कंपनी है। मध्य प्रदेश क्षेत्र का प्रधान कार्यालय इंदौर है और सिटी केबल ७ स्थानीय चैनलों भी चलाता है।
इंदौर को प्रकाशीय तन्तु (ऑप्टिकल फ़ाइबर) तारों के एक नेटवर्क के द्वारा कवर किया जाता है। यहाँ लैंडलाइन के तीन ऑपरेटर हैं बीएसएनएल, रिलायंस और एयरटेल। वहीं आठ मोबाइल फोन कंपनियों, जिसमें जीएसएम में निम्न खिलाड़ी में शामिल हैं
वीडियोकाॅन मोबाइल सर्विस
रिलायंस जियो टेलिकॉम
जबकि सीडीएमए सेवाओं में बीएसएनएल और रिलायंस हैं।
स्टूडियो और ट्रांसमिशन के साथ दूरदर्शन केन्द्र इंदौर जुलाई २००० से शुरू कर दिया गया।
इंदौर से लगभग ७५ हिंदी समाचार पोर्टल, १९ अंग्रेजी समाचार पोर्टल चलाये जाते हैं।
यहाँ पर सोशल मीडिया ग्रुप्स शहर की छवि और जन अभियानों के लिए बेहद सक्रिय है।
क्रिकेट शहर में सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक है। इंदौर मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ (म्प्का) और मध्य प्रदेश टेबल टेनिस एसोसिएशन (म्पत्ता) के लिए घर है और शहर के एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट ग्राउंड, होलकर क्रिकेट स्टेडियम है। राज्य में पहली बार क्रिकेट वनडे मैच जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, इंदौर में खेला गया था।
क्रिकेट के अलावा, इंदौर कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिए एक केंद्र है। शहर ने दक्षिण एशियाई चैम्पियनशिप की मेजबानी की और बिलियर्ड तीन दिवसीय राष्ट्रीय ट्रायथलन चैंपियनशिप है, जिसमें लगभग ४५० खिलाड़ियों और २५० खेल के २३ राज्यों से संबंधित अधिकारियों को कार्यवाही में भाग लेने के लिए एक मेज़बान है।
इंदौर बास्केटबॉल के लिए भी एक पारंपरिक केंद्र है, और एक वर्ग के इनडोर बास्केटबाल स्टेडियम के साथ भारत का पहला नेशनल बास्केटबॉल एकेडमी का घर है। इंदौर में सफलतापूर्वक विभिन्न नेशनल बास्केटबॉल चैंपियनशिप का आयोजन किया गया है।
निम्न प्रमुख खेल स्टेडियम में शामिल हैं:
बास्केट बॉल - बास्केटबॉल कॉम्प्लेक्स, बास्केट बॉल क्लब
क्रिकेट - होल्कर क्रिकेट स्टेडियम, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, इंदौर, खालसा स्कूल स्टेडियम, महाराजा स्कूल स्टेडियम
लॉन टेनिस - इंदौर टेनिस क्लब, इंदौर रेसीडेंसी क्लब
टेबल टेनिस नेहरू स्टेडियम टीटी हॉल, अभय खेल प्रशाल
कबड्डी - लकी वांडरर्स
शतरंज - एसकेएम शतरंज अकादमी, इलेड शतरंज अकादमी
डाइविंग'' - नेहरू पार्क
इंदौर के नाम दो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स दर्ज है, इसे दुनिया में सबसे बड़ी चाय पार्टी के लिए और दुनिया के सबसे बड़े बर्गर बनाने के लिए शामिल किया गया था।
स्थानीय पर्यटन आकर्षण
राजबाड़ा - यह नगर के बीचोबीच स्थित है। १९८४ के दंगों के समय इसमें आग लग जाने से इसको बहुत क्षति पहुँची थी। उसके बाद इसको कुछ हद तक पुनर्निर्मित करने का प्रयत्न किया गया है।
कांच मन्दिर - यह एक जैन मन्दिर है जिसमें दीवारों पर अन्दर की तरफ कांच से सजाया गया है।
नाहर शाह वली दरग़ाह - हजरत नाहर शाह वली दरगाह इंदौर की सबसे पुरानी दरगाह है और खजराना क्षेत्र में स्थित है।
कृष्णपुरा की छतरियाँ - काह्न नदी के किनारे होलकर काल में बनाई गई छतरियां हैं। यह स्थान राजबाड़े से लगभग १०० मीटर की दूरी पर है।
खजराना मंदिर - खजराना मंदिर भगवान गणेश का एक सुन्दर मंदिर है। ये मंदिर विजय नगर से पास है। ये मंदिर अहिल्या बाई होलकर ने दक्षिण शैली में बनवाया था। यह मंदिर इन्दौरवासियों की आस्था का केंद्र है। यहाँ पर भगवान गणेश के साथ माता दुर्गा, लक्ष्मी, साईबाबा आदि भगवान के मंदिर है।
किठोदा में नवनिर्मित सतलोक आश्रम फिलहाल चर्चा का विषय है
जोकि इंदौर से ३५ किमी उज्जैन से २० किमी देवास से ३५ किमी. दूर है।
इसके अलावा अन्य आकर्षण स्थलों में:
बड़ा गणपती मन्दिर लालबाग, मल्हार आश्रम, बिजासन माता मन्दिर, अन्नपूर्णा देवी मन्दिर, यशवंत निवास, जमींदार बाडा, हरसिद्धी मंदिर, पंढ़रीनाथ, टाउन हॉल, अहिल्याश्रम, छत्रीबाग, माणिक बाग, सुखनिवास, फूटीकोठी, दुर्गादेवी मंदिर, इमामबाडा, श्री ऋद्धि सिद्धि चिन्तामन गणेश मंदिर आदि शामिल है।
आसपास के पर्यटन आकर्षण
इन्दौर के आस-पास कई प्रमुख पर्यटन स्थल है।
महेश्वर -महेश्वर मध्य प्रदेश राज्य के खरगोन जिले में एक शहर है, और इंदौर से ९० किमी की दूरी पर है। ६ जनवरी १८१८ तक यह इन्दौर रियासत की राजधानी रहीं, फिर मल्हार राव होलकर तृतीय द्वारा राजधानी इंदौर शहर में स्थानांतरित कर दिया गया था। महेश्वर ५वीं सदी के बाद से हथकरघा बुनाई का एक केंद्र रहा है। महेश्वर भारत के हाथ करघा कपड़े परंपराओं में से एक का घर है। यह अपने मंदिरों, नर्मदा घाटों, किले और महलों के लिये जाना जाता है।
मांडवगढ़ या मांडू - माण्डू धार जिले के वर्तमान माण्डव क्षेत्र में स्थित एक नष्ट कर दिया गया किला-शहर है। यह इन्दौर से ९९ किमी दूर स्थित है। मांडू अपने किलों, महलों और प्राकृतिक परिदृश्य के लिए जाना जाता है।
पातालपानी झरना -
यह इंदौर से ३५ किमी दूर, इंदौर के उपनगर महू की ओर स्थित एक झरना है।
सीतला माता झरना - मानसून के दौरान यह झरना पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन जाता है।
टिनचा झरना - यह झरना भी मानसून के मौसम के दौरान जीवन्त हो उठता है।
के एम करिअप्पा
दिग्विजय सिंह (राजनीतिज्ञ)
उस्ताद अमीर खान
भालचंद्र दत्तात्रे मोंडे
पद्मश्री डॉ जनक पलटा मगिलिगन
पद्मश्री कुट्टी मेनन
पद्मभूषण पंडित गोकुलोत्सव महाराज
इन्हें भी देखें
इन्दौर शहर की सरकारी एजेंसियाँ
इन्दौर जिला प्रशासन
इन्दौर पुलिस प्रशासन
नगर पालिक निगम, इन्दौर
इन्दौर विकास प्राधिकरण
इन्दौर सिटी बस (अटल इन्दौर शहर परिवहन सेवा लिमिटेड)
इंदौर नगर तथा लाल बाग़ राजमहल के बारे में
लालबाग महल, इन्दौर (भारत दर्शन, हिन्दी चिट्ठा)
सॉफ्टवेर टेक्नोलॉजी पार्क्स ऑफ़ इंडिया, इंदौर
इन्दौर पुलिस का ब्लॉग
मेरा इंदौर शहर (भरपूर जानकारी युक्त हिंदी ब्लॉग)
इन्दौर का मौसम
मध्य प्रदेश के शहर |
एर्नाकुलम (एरनाकुलम) भारत के केरल राज्य का एक नगर है। यह कोच्चि महानगर का केन्द्रीय भाग है। इसके नाम पर एर्नाकुलम ज़िले का नाम रखा गया है।
एर्नाकुलम केरल राज्य के मध्य में स्थित है। यह कोच्चि शहर के पूर्वी, मुख्यभूमि हिस्से को संदर्भित करता है। यह कोच्चि का सबसे शहरी भाग है। एरनाकुलम को केरल राज्य की वाणिज्यिक राजधानी कहा जाता है। केरल हाईकोर्ट, कोचिंग कॉरपोरेशन का कार्यालय और कोचीन स्टॉक एक्सचेंच यहाँ स्थित है। शहर मे कई मलयाली उद्यमियों के लिए इनक्यूबेटर के रूप मे काम किया है और केरल के एक प्रमुख वित्तीय और वाणिज्यिक केंद्र है।
मरीन ड्राइव, कोची
दरबार हॉल ग्राउंड
बच्चों के पार्क
महात्मा गांधी रोड (कोच्चि)
केरल उच्च न्यायालय
बी.आर. अम्बेडकर स्टेडियम
इन्हें भी देखें
केरल के शहर
एर्नाकुलम ज़िले के नगर |
ईटानगर (इटानगर) भारत के अरुणाचल प्रदेश राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। प्रशासनिक दृष्टि से यह पपुम पारे ज़िले में स्थित है और दिकरोंग नदी के किनारे बसा हुआ है।
ईटानगर हिमालय की तराई में बसा हुआ है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई ३५० मी. है। चूंकि यह अरूणाचल प्रदेश की राजधानी है, इसलिए यहां तक आने के लिए सड़कों की अच्छी व्यवस्था है। गुवाहटी और ईटानगर के नाहरलागुन के बीच हेलीकॉप्टर सेवा का भी विकल्प है। हेलीकॉप्टर के अलावा पर्यटक बसों द्वारा भी गुवाहटी से ईटानगर तक पहुंच सकते हैं। गुवाहटी से ईटानगर तक डीलक्स बसें भी चलती हैं।
ईटानगर का नाम ईटा दुर्ग से आया है। ईटानगर में पर्यटक ईटा किला भी देख सकते हैं। इस किले का निर्माण १४-१५वीं शताब्दी में राजाओं ने किया था। इसके नाम पर ही इस नगर का नाम ईटानगर रखा गया है। पर्यटक इस किले में कई खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं। अब इस किले को राजभवन के नाम से जाना जाता है और यह राज्यपाल का सरकारी आवास है।
मुख्य पर्यटन स्थल
ईटानगर में पर्यटक ईटा किला भी देख सकते हैं। इस किले का निर्माण १४-१५वीं शताब्दी में किया गया था। इसके नाम पर ही इसका नाम ईटानगर रखा गया है। पर्यटक इस किले में कई खूबसूरत दृश्य देख सकते हैं। किले की सैर के बाद पर्यटक यहां पर पौराणिक गंगा झील भी देख सकते हैं।
पौराणिक गंगा झील
यह ईटानगर से ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। झील के पास खूबसूरत जंगल भी है। यह जंगल बहुत खूबसूरत है। पर्यटक इस जंगल में सुन्दर पेड़-पौधे, वन्य जीव और फूलों के बगीचे देख सकते हैं। यहां आने वाले पर्यटकों को इस झील और जंगल की सैर जरूर करनी चाहिए।
यहां पर एक खूबसूरत बौद्ध मन्दिर है। बौद्ध गुरु दलाई लामा भी इसकी यात्रा कर चुके हैं। इस मन्दिर की छत पीली है और इस मन्दिर का निर्माण तिब्बती शैली में किया गया है। इस मन्दिर की छत से पूरे ईटानगर के खूबसूरत दृश्य देखे जा सकते हैं। इस मन्दिर में एक संग्राहलय का निर्माण भी किया गया है। इसका नाम जवाहर लाल नेहरू संग्राहलय है। यहां पर पर्यटक पूरे अरूणाचल प्रदेश की झलक देख सकते हैं।
इसके अलावा यहां पर लकड़ियों से बनी खूबसूरत वस्तुएं, वाद्ययंत्र, शानदार कपड़े, हस्तनिर्मित वस्तुएं और केन की बनी सुन्दर कलाकृतियों को देख सकते हैं। संग्रहालय में एक पुस्ताकलय का निर्माण भी किया गया है। इसके अलावा भी यहां पर पर्यटक कई शानदार पर्यटन स्थलों की सैर कर सकते हैं।
इन पर्यटन स्थलों में दोन्यी-पोलो विद्या भवन, विज्ञान संस्थान, इंदिरा गांधी उद्यान और अभियांत्रिकी संस्थान प्रमुख हैं।
निकटवर्ती पर्यटन स्थल
अरूणाचल प्रदेश का पापुम पेर एक खूबसूरत स्थान है। इसका मुख्यालय युपिआ में स्थित है। यह ईटानगर से २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पापुम पेर हिमालय की तराई में बसा हुआ है। इस कारण पर्यटक यहां पर अनेक चोटियों को देख सकते हैं। चोटियों के अलावा पर्यटक यहां पर अनेक जंगलों, नदियों और पर्यटक स्थलों को भी देख सकते हैं।
इसकी उत्तरी दिशा में कुरूंग कुमे, पूर्व में निचला सुबांसिरी, पश्चिम में पूर्वी कमेंग और दक्षिण में असम स्थित है। यहां पर निशी जाति के लोग रहते हैं। यह अपनी वीरता के लिए जाने जाते हैं। निशी के अलावा यहां पर मिकीर जाति भी रहती है। निशी जाति के लोग इण्डो-मंगोल प्रजाति से संबंध रखते हैं और इनकी भाषा तिब्बत-बर्मा भाषा परिवार से संबंधित है। निशी जाति के लोग फरवरी के पहले हफ्ते में अपना उत्सव भी मनाते हैं। इस उत्सव का नाम न्योकुम है। यहां पर अनेक पर्यटन स्थल भी हैं। इन पर्यटन स्थलों की यात्रा करना पर्यटकों को बहुत पसंद आता है।
पापुम पेर में कई खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं। इसके अधिकतर पर्यटन स्थल ईटानगर, दोईमुख, सिगेली और किमीन में स्थित है। इन पर्यटन स्थलों की यात्रा करने के लिए पर्यटकों को अरूणाचल प्रदेश के सरकारी कार्यालयों से परमिट लेना पड़ता है।
इन्हें भी देखें
पपुम पारे ज़िला
पपुम पारे ज़िला
अरुणाचल प्रदेश के नगर
पपुम पारे ज़िले के नगर
अरुणाचल प्रदेश में हिल स्टेशन |
सराइकेला (सेरैकेला) भारत के झारखण्ड राज्य के सराइकेला खरसावाँ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। यहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग ४३ गुज़रता है।
इन्हें भी देखें
सराइकेला खरसावाँ ज़िला
सराइकेला खरसावाँ ज़िला
झारखंड के शहर
सराइकेला खरसावाँ ज़िले के नगर |
गुरदासपुर (गुरदासपुर) भारत के पंजाब राज्य के गुरदासपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय है, हालांकि ज़िले का सबसे बड़ा शहर यह नहीं बल्कि बटाला शहर है। गुरु नानक देव जी की पत्नि गुरदासपुर से थीं।
इन्हें भी देखें
पंजाब के शहर
गुरदासपुर ज़िले के नगर |
भीलवाड़ा भारत के राजस्थान राज्य में स्थित एक शहर है। यह शहर भीलवाड़ा ज़िले का मुख्यालय है। यह राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में स्थित है तथा उदयपुर से १५२ कि.मी. दूर स्थित है। राजस्थान में यह अपने वस्त्र उद्योग के लिए प्रसिद्ध है, इस कारण इसे राज्य की वस्त्रनगरी भी कहते हैं। पूरा ज़िला पारम्परिक "फड़ चित्रकला" के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है।
भीलवाड़ा का इतिहास ११वीं शताब्दी से संबंधित है और उस समय भील राजाओं ने जटाऊ शिव मंदिर का निर्माण करवाया। हालांकि, इस जगह की स्थापना की असल तारीख और समय का अब तक पता नहीं चल पाया है। पुष्टि के अनुसार, वर्तमान भीलवाड़ा शहर में एक टकसाल था जहां 'भिलाडी' के नाम से जाने जाने वाले सिक्कों का खनन किया जाता था और इसी संप्रदाय से जिले का नाम लिया गया था। और दूसरी कहानी इस प्रकार है कि भील नामक एक जनजाति ने मुगल साम्राज्य के खिलाफ युद्ध में महाराणा प्रताप की मदद की थी, राजा अकबर भीलवाड़ा क्षेत्र में रहते थे, इस क्षेत्र को भील + बड़ा (भील का क्षेत्र) भीलवाड़ा के नाम से जाना जाने लगा। वर्षों से यह राजस्थान के प्रमुख शहरों में से एक के रूप में उभरा है। आजकल भीलवाड़ा को देश में टेक्सटाइल सिटी के रूप में जाना जाता है। १९४८ में राजस्थान का भाग बनने से पूर्व भीलवाड़ा भूतपूर्व उदयपुर रियासत का हिस्सा था।
थला की माता जी देवली भीलवाड़ा शहर से १५ किलोमीटर दूर बनास नदी के किनारे बहुत पुराना और विशाल बढ़ा देवी का मंदिर है यह बहुत विख्यात है यहां पर बारिश के मौसम में बड़ी संख्या में लोग घूमने के लिए आते हैं यहां पर नवरात्रा में रामायण वह बड़े-बड़े कलाकारों का ताता लगा रहता है वह अष्टमी के दिन बड़े मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें राष्ट्रीय स्तर केेे कलाकार आते है वह अष्टमी के दिन देवली मैं भव्य जुलूस निकलता है बाद में माता जी के यहां पर आते हैं यहां पर आने के लिए भीलवाड़ा से पुर देवली से २ किलोमीटर है।
भीलवाड़ा से १५ किलोमीटर कोटा रोड़ कि तरफ चावंडिया तालाब स्थित है जहां तालाब के मध्य माता चामुंडा का मंदिर स्थित है। यहां हर वर्ष अक्टूबर से मार्च के मध्य विदेशी प्रवासी पक्षी आते है और इसी कारण इसे पक्षी ग्राम के नाम से जाना जाता है।यह पर्यटकों और पक्षी प्रेमियों के लिए बहुत ही सुन्दर जगह है। हर वर्ष ज़िला प्रशासन और कुछ संस्थाओं के द्वारा हर वर्ष पक्षी महोत्सव का आयोजन किया जाता है जहां देश विदेश से पक्षी विशेषज्ञ पक्षी अवलोकन के लिए आते है।
दरगाह हजरत गुल अली बाबा
शहर के सांगानेरी गेट पर स्थित यह दरगाह आस्ताना हज़रत गुल अली बाबा रहमतुल्लाह अलेही के नाम से मशहूर है यहाँ सभी धर्मो के लोग आस्था रखते है दरगाह पर प्रति वर्ष १ से ३ नवम्बर तक उर्स का आयोजन होता है जो बड़ी धूमधाम से मनाया जा ता हैल दरगाह के पास ही एक विशाल मस्जिद भी स्थित है जो रज़ा मस्जिद के नाम से जानी जाती है | आस्ताना गुल अली में ही एक दारुल उलूम भी संचालित है जिसका नाम सुल्तानुल हिन्द ओ रज़ा दारुल उलूम है इस दारुल उलूम में देश के कई राज्यों से आये बच्चे इल्म हासिल करते है
गाँधी सागर तालाब
यह तालाब शहर के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है किसी ज़माने में यह लोगो के लिए प्रमुख पेयजल स्रोत हुआ करता था इस तालाब के मध्य में एक विशाल टापू स्थित है यह तालाब लोगो के लिए महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है इसके उत्तरी छोर पर एक तरफ तेजाजी का मंदिर, दूसरी तरफ बालाजी का मंदिर तथा मध्य में हज़रत मंसूर अली बाबा और हज़रत जलाल शाह बाबा की दरगाह स्थित हे इस पर्यटन स्थल को विकसित करने के लिए इसके दक्षिणी किनारे पर एक मनोरम पार्क का निर्माण कराया गया है जिसका नाम ख्वाज़ा पार्क रखा गया है बरसात के मोसम में इस तालाब से गिरते पानी का मनोरम दृश्य देखते ही बनता है
भीलवाड़ा से ६ किलोमीटर दूर मंगरोप रोड़ पर शिवालय है। जो कि हरणी महोदव के नाम से प्रसिद्ध है। जहां पर प्रत्येक शिवरात्रि पर ३ दिवसीय भव्य मेले का आयोजन होता है। मेले का आयोजना जिला प्रशासन द्वारा नगर परिषद के सहयोग से किया जाता है। जिसमें ३ दिन तक प्रत्येक रात्रि में अलग-अलग कार्यक्रम यथा धार्मिक भजन संध्या (रात्रि जागरण), कवि सम्मेलन व सांस्क़तिक संध्या का आयोजन किया जाता है।
यह मन्दिर पहाड़ी की तलहटी पर स्थित है। प्राचीन समय में यहां घना आरण्य होने से आरण्य वन कहा जाता था, जिसका अपभ्रंश हो कर हरणी नाम से प्रचलित हो गया।
भीलवाडा शहर से ७२ किलोमीटर दूर स्थित इस कस्बे का इतिहास में एक अलग ही महत्व हे जब मेड़ता के राजा जयमल ने राणा उदेसिंह से सहायता के लिए कहा तो राणा ने जयमल को बदनोर जागीर के रूप में दिया बदनोर में कई देखने योग्य स्थल हे उनमे से निम्न हे - छाचल देव। अक्षय सागर। जयमल सागर। बैराट मंदिर। धम धम शाह बाबा की दरगाह। आंजन धाम। केशर बाग़। जल महल। आदि
वर्तमान मे शाहपुरा जिले मे स्थित है
भीलवाडा शहर से २३ किलोमीटर दूर स्थित इस कस्बे का नाम आते ही सबसे पहले विख्यात श्री कोटडी़ चारभुजा जी का मंदिर स्मृति में आता है। भीलवाडा-जहाजपुर रोड पर स्थित यह नगर भगवान के चारभुजा जी के मन्दिर के कारण काफी प्रसिद्ध
कोठाज श्री चारभुजा मन्दिर
प्राचीन देवनारायण जी का मन्दिर देवतलाई मे बना हुआ है जहाँ पर मन्दिर का निर्माण का रातो_रात मे हुआ है ( १)यह मन्दिर हिन्दु,जैन,ईसाई,
मुस्लिम सभी शैलियो का मिश्रण से निर्मित है ,
इस मन्दिर परिसर मे सभी धर्मो के देवताओ कि
प्राचीन मूर्तिया लगी हुई है तथा प्राचिन शिलालेख भी लगा हुआ है (२) इसी गांव मे सोने के विशाल भण्डार खोजे गये है अतः यह राजस्थान कि पहली सोने कि खदान होगी, यहां पर सोने के साथ साथ चांदी तांबा ,लौहा, आदि धातुओ के भण्डार है
(१)बागडा़ गांव मे भगवान देवनारायण जी का मन्दिर बना हुआ है जिसे सारण श्याम जी के नाम से जाना जाता है यहां पर देवनारायण जी कि मूर्तिया का जमीन मे भण्डार होने के कारण इसे मेवाड का नागपहाड़ (मिनी नागपहाड़) कहा जाता है क्योकि नाग पहाड़ के समान हि यहां पर देवनारायण जी कि मूर्तियो का भण्डार पाया जाता है
(२) सर्वाधिक महिला लिंगानूपात वाला गांव
(३)कोटडी़ तहसील का जैविक गांव
(४)सर्वाधिक कपास का उत्पादन वाला गांव
१९२१ में बसा गुर्जरों का गढ़ सरकाखेड़ा गांव भी
(१) लगु सम्मेद शिखर के नाम से विख्यात चंवलेश्वर जी जैन मन्दिर( चैनपुरा_पारोली) मे है,
(२)मीराबाई का आश्रम
यह भीलवाडा जिले का सबसे पुराना शहर हे बनेड़ा में दुर्ग हे, जो महाराजा सरदार सिंह ने बनवाया था। ये ऐक तहसील व् उपखंड कार्यालय है यह ऐक ऐतिहासिक सत्र हे सबसे पुराना जेन मंदिर हे व् बहुत बड़ा दुर्ग के परकोटा बना हुआ है।
माण्डलगढ से २० किलोमीटर दूर चित्तौड़गढ़ की सीमा पर स्थित पुरातात्विक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य स्थल मेनाल में १२ वीं शताब्दी के चौहानकला के लाल पत्थरों से निर्मित महानालेश्वर मंदिर, हजारेश्वर मंदिर देखने योग्य हैं। सैकडों फीट ऊंचाई से गिरता मेनाली नदी का जल प्रपात भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का प्रमुख केन्द्र हैं।
भीलवाडा का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल, जिसका इतिहास बड़ा रंगबिरंगा रहा हैं। कर्नल जेम्स टॉड १८२० में उदयपुर जाते समय यहाँ आये थे। यहाँ का बड़ा देवरा (पुराने मंदिरों का समूह), पुराना किला और गैबीपीर के नाम से प्रसिद्ध मस्जिद दर्शनीय हैं।यहा पर जैन धर्म का मंदिर भी है जो स्वस्तिधाम के नाम से जाना जाता हे इस मंदिर श्री मुनि सुवर्तनाथ की प्राकट्य प्रतिमा है जो बहुत अदभुद हे यह प्रतिमा चमत्कारी है यह मंदिर शाहपुरा रोड पर स्थित है|जहाजपुर से १२ किलोमीटर दूर श्री घटारानी माता जी का मंदिर है जो अतिसुन्दर व् दर्शनीय है तथा इस मंदिर से २ किलोमीटर दूर पंचानपुर चारभुजा का प्राकट्य स्थान मंदिर है|जहाजपुर क्षेत्र में एक नागदी बांध है जो अतिसूंदर व् आकर्षक है यहाँ एक नदी भी हे जिसे नागदी नदी के नाम से जाना जाता हैं इसे जहाजपुर की गंगा भी कहते है| जहाजपुर में देखने के लिए अनेको मंदिर व् धर्मस्तल है| जहाजपुर की भाषा व् जीवन शैली अदभुद है|जहाजपुर क्षेत्र में मीणा जाति सर्वाधिक निवास करती हैं|जहाजपुर में एक पहाड़ी पर मांगट देव का मंदिर है जो मोटिस (मीणाओ) का प्रमुख धार्मिक स्थान है|जहाजपुर बसस्टैंड के पास देवली रोड पर एसबीआई बैंक के सामने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर जी का एक सर्किल भी है जिस पर बाबा साहेब की विशाल मूर्ति लगी है|
माण्डलगढ से लगभग ३५ किलोमीटर दूर स्थित बिजौलिया में प्रसिद्ध मंदाकिनी मंदिर एवं बावडियाँ स्थित हैं। ये मंदिर १२ वीं शताब्दी के बने हुए हैं। लाल पत्थरों से बने ये मंदिर पुरातात्विक व ऐतिहासिक महत्व के स्थल इतिहास प्रसिद्ध किसान आन्दोलन के लिए भी बिजौलियाँ प्रसिद्ध रहा हैं। यहाँ पर बना भूमिज शैली का विष्णु भगवान का मंदीर १००० वर्ष सै भी पुराना है , जो भीलवाडा का एक मात्र मंदिर है। यहा बिजोलिया अभिलेख हैं जिससे चौहानो की जानकारी मिलती हैं व इसमे चौहनो को ब्राह्मण बताया गया हैं
भीलवाडा तहसील मुख्यालय से ५० किलोमीटर पूर्व में शाहपुरा राज्य की राजधानी था। यहाँ रेल्वे स्टेशन नहीं ह परन्तु यह सडक मार्ग द्वारा जिला मुख्यालय से जुडा हुआ हैं। यह स्थान रामस्नेही सम्प्रदाय के श्रद्धालुओं का प्रमुख तीर्थ स्थल हैं। जिसे रामद्वारा के नाम से जानते है,मुख्य मंदिर रामद्वारा के नाम से जाना जाता हैं। यहाँ पूरे भारत से और बर्मा तक तक से तीर्थ यात्री आते हैं। यहाँ लोक देवताओं की फड पेंटिंग्स भी बनाई जाती हैं। यहाँ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी केसरी सिंह बारहठ की हवेली एक स्मारक के रूप में विद्यमान हैं। जो वर्तमान में एक संग्रहालय के रूप में है जिसे देखने लोग आते हैं,शाहपुरा में प्रसिद्ध क्रांतिकारी प्रतापसिंह बारहट के नाम से महाविधालय है जिसके प्रांगण मे प्रतापसिंह बारहट की मूर्ति लगी है,यहाँ होली के दूसरे दिन प्रसिद्ध फूलडोल मेला लगता हैं, जो लोगों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र होता हैं। यहाँ शाहपुरा से ३० किलो मीटर दूर धनोप माता का मंदिर भी हे और खारी नदी के तट पर शिव मंदिर छतरी भी लोगों को काफी पसंद हे
भीलवाडा से १४ किलोमीटर दूर स्थित माण्डल कस्बे में प्राचीन स्तम्भ मिंदारा पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यहाँ से कुछ ही दूर मेजा मार्ग पर स्थित प्रसिद्ध जगन्नाथ कछवाह की बतीस खम्भों की विशाल छतरी ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का स्थल हैं। छह मिलोकमीटर दूर भीलवाडा का प्रसिद्ध पर्यटन स्थल मेजा बांध हैं। होली के तेरह दिन पश्चात रंग तेरस पर आयोजित नाहर नृत्य लोगों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र होता हैं। कहते हैं कि शाहजहाँ के शासनकाल से ही यहाँ यह नृत्य होता चला आ रहा हैं। यहां के तालाब के पाल पर प्राचीन शिव मंदिर स्थित है। जिसे भूतेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
भीलवाडा से ५१ किलोमीटर दूर माण्डलगढ नामक अति प्राचीन विशाल दुर्ग ह मांडलगढ़ दुर्ग का निर्माण चांदना गुर्जर ने करवाया था। त्रिभुजाकार पठार पर स्थित यह दुर्ग राजस्थान के प्राचीनतम दुर्गों में से एक हैं। यह दुर्ग बारी-बारी से मुगलों व राजपूतों के आधिपत्य में रहा हैं। इस दुर्ग के बारे में बहुत सारी दंत कथाएं भी प्रचलित है यह बहुत ही अच्छा और विशाल दुर्ग है
भीलवाडा-उदयपुर मार्ग पर ४५ मिलोमीटर दूर गगापुर में गंगाबाई की प्रसिद्ध छतरी पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक दष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस छतरी का निर्माण सिंधिया महारानी गंगाबाई की याद में महादजी सिंधिया ने करवाया था।
भीलवाड से ५५ किलोमीटर दूर खारी नदी के बायें किनारे पर स्थित भीलवाडा का एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल। राजस्थान के लोक देवता देवनारायण जी का यह तीर्थ स्थल ह और इनका यहाँ एक भव्य मंदिर स्थित हैं। इसे इसके निर्माता भोजराव के नाम पर सवाईभोज कहते हैं।
इन्हें भी देखें
राजस्थान के शहर
भीलवाड़ा ज़िले के नगर |
हिसार (हिसार) भारत के हरियाणा राज्य के हिसार ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यह एक प्राचीन शहर है।
हिसार भारत की राजधानी नई दिल्ली के १६४ किमी पश्चिम में राष्ट्रीय राजमार्ग ९ एवं राष्ट्रीय राजमार्ग ५२ पर पड़ता है। यह भारत का सबसे बड़ा जस्ती लोहा उत्पादक है। इसीलिए इसे इस्पात का शहर के नाम से भी जाना जाता है। पश्चिमी यमुना नहर पर स्थित हिसार राजकीय पशु फार्म के लिए विशेष विख्यात है। अनिश्चित रूप से जल आपूर्ति करनेवाली घग्गर एकमात्र नदी है। यमुना नहर हिसार जिला से होकर जाती है। जलवायु शुष्क है। कपास पर आधारित उद्योग हैं। भिवानी, हिसार, हाँसी तथा सिरसा मुख्य व्यापारिक केंद्र है। अच्छी नस्ल के साँडों के लिए हिसार विख्यात है।
हिसार की स्थापना सन १३५४ ई. में तुगलक वंश के शासक फ़िरोज़ शाह तुग़लक ने की थी। घग्गर एवं दृषद्वती नदियां एक समय हिसार से गुजरती थी। हिसार में महाद्वीपीय जलवायु देखने को मिलती है जिसमें ग्रीष्म ऋतु में बहुत गर्मी होती है तथा शीत ऋतु में बहुत ठंड होती है।
यहाँ हिन्दी एवं अंग्रेज़ी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएँ हैं। यहाँ की औसत साक्षरता दर ८१.०४ प्रतिशत है। १९६० के दशक में हिसार की प्रति व्यक्ति आय भारत में सर्वाधिक थी।
पाणिनि ने उनके ग्रंथ अष्टाध्यायी में इसुकार नाम के स्थान का उल्लेख किया है जिसे इतिहासकारों द्वारा हिसार का प्राचीन नाम माना गया है। १३५४ ई. में जब फ़िरोज़ शाह तुग़लक ने हिसार की स्थापना की तो उन्होंने इसका नाम हिसार-ए-फिरोज़ा रखा जिसका अरबी भाषा में अर्थ होता है फिरोज़ का किला। हालांकि अकबर के काल में इसके नाम से फिरोज़ हट गया तथा इसे सिर्फ हिसार के नाम से जाना जाने लगा।
हिसार पर बहुत सारे साम्राज्यों का शासन रहा है। यह तीसरी सदी ई.पू. में मौर्य राजवंश का, १३वीं सदी में तुगलक वंश का, १६वीं सदी में मुगल साम्राज्य का तथा १९वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य का भाग रहा है। भारत की स्वतन्त्रता के बाद यह पंजाब प्रान्त का भाग बना दिया गया किन्तु १९६६ ई. में पंजाब के विभाजन के बाद यह हरियाणा का भाग बन गया।
मुस्लिम विजय के पूर्व हिसार का अर्ध बलुआ भाग चौहान राजपूतों का अपयान स्थान था। १८वीं शताब्दी के अंत में भट्टी और भटियाला लोगों ने इसे अधिकृत किया था। १८०३ ई. में अंशत: यह ब्रिटिश अधिकार में आ गया किंतु १८१० ई. तक इनका शासन लागू न हो सका। १८५७ के प्रथम स्वंत्रता युद्ध, के बाद निरापद रूप से, हिसार ब्रिटिश अधिकार में आ गया।
तुग़लक़ वंश के शासक बादशाह फ़िरोज़ शाह तुग़लक ने १३५४ ई. में एक दुर्ग के रूप में हिसार की स्थापना की थी। यह शहर बाद में एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। १७८३ ई. के दुर्भिक्ष में हिसार प्राय: पूर्णत: जनहीन हो गया था, किंतु आयरलैंड के साहसी अभियानकर्ता जार्ज थामस ने एक दुर्ग बनवाकर इसे पुन: बसाया।
१८६७ ई. में हिसार की नगरपालिका का अध्ययन किया गया। यह शहर एक दीवार से घिरा है। जिसमें चार दरवाज़े हैं- नागोरी गेट, मोरी गेट, दिल्ली गेट तथा तलाकी गेट के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ फ़िरोज़ शाह के क़िले व महल के अवशेषों के साथ-साथ कई प्राचीन मस्जिदें हैं, जिनमें जहाज़ भी एक है, जो अब एक जैन मंदिर है। प्राचीन समय में यह हड़प्पा सभ्यता का मुख्य केन्द्र था। प्राचीन समय में यहाँ कई आदिवासी जातियाँ रहती थी। इन जातियों में भरत, पुरू, मुजावत्स और महावृष प्रमुख थी।
कृषि और खनिज
गेहूँ व कपास यहाँ की प्रमुख फ़सलें हैं। अन्य फ़सलों में चना, बाजरा, चावल, सरसों व गन्ना शामिल हैं। विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग तरह की फसलों का उत्पादन किया जाता है, मुख्य रूप से हिसार में फसलों का उत्पादन एक अच्छे स्तर पर किया जाता है। गेहूँ का हिसार जिले में रिकॉर्ड उत्पादन होता है।
उद्योग और व्यापार
उद्योगों में कपास की ओटाई, हथकरघा बुनाई और कृषि यंत्रों व सिलाई मशीनों के निर्माण से जुड़े उद्योग शामिल हैं। यहाँ पर कपास, अनाज और तेल के बीजों का बड़ा बाज़ार है। इस बाज़ार के लिए यह बहुत प्रसिद्ध है।
यातायात और परिवहन
हिसार शहर एक प्रमुख रेल व सड़क जंक्शन है।
क्र्म जाट कॉलेज, क्र्म जाट स्र. सेक. स्कूल, क्र्म जाट लॉ कॉलेज, काँव स्र. सेक. स्कूल, दव पब्लिक स्कूल, महाराजा अग्रसेन चिकित्सा महाविद्यालय, अग्रोहा, इस शहर में चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, गुरु जंभेश्वर विश्वविद्यालय, सी.सी. शाहू प्रबंधन महाविद्यालय, कृषि इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, राजकीय बहुतकनीकी, हिसार गवर्नमेंट कॉलेज और डी.एन. कॉलेज सहित कई महाविद्यालय शामिल हैं। फतेहाबाद रोड पर स्थित कल्पना चावला कॉलेज भी खासा प्रतिष्ठित संस्थान है।
हिसार एक सुन्दर स्थान तथा पर्यटन का आकर्षक स्थल है। पर्यटक यहाँ पर कई ख़ूबसूरत स्थलों की सैर कर सकते हैं। यहाँ पर सम्राट अशोक के काल का एक स्तम्भ, कुषाण वंश के सिक्के व अन्य अवशेष भी मिले हैं। कुल मिलाकर हिसार बहुत ख़ूबसूरत है और पर्यटक यहाँ पर अनेक ख़ूबसूरत स्थान देख सकते हैं। पर्यटक स्थलों की सैर के बाद यहाँ पर अनेक ऐतिहासिक इमारतों की यात्रा की जा सकती है।
२०११ की जनगणना के अनुसार हिसार की जनसंख्या ३०१,२४९ है। हिसार भारत का १४१वां सर्वाधिक आबादी वाला शहर है। पुरुष ५४ प्रतिशत आबादी का गठन करते हैं जबकि महिलाएँ ४६ प्रतिशत आबादी का गठन करती हैं। यहाँ लिंग अनुपात ८४४ महिला प्रति हजार पुरुष है। औसत साक्षरता दर ८१.०४ प्रतिक्षत है: पुरुष साक्षरता दर ८६.१३ प्रतिक्षत है जबकि महिला साक्षरता दर ७५.०० है। हिन्दु हिसार की लगभग ९७ प्रतिशत आबादी का गठन करते हैं तथा मुस्लिम, जैन, सिख और इसाई बाकी आबादी का गठन करते हैं। १९वीं सदी में हिसार में आर्य समाज बहुत सफल हुआ और इसमे लाला लाजपत राय का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान था। अग्रहरि जाति के लोग हिसार को अपना जन्मस्थान मानते हैं।
हिसार के कुछ प्रमुख व्यक्तित्व
भजनलाल - हरियाणा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री
अरविंद केजरीवाल - दिल्ली के मुख्यमंत्री
कुलदीप बिश्नोई- बिश्नोई महासभा संरक्षक
सुभाष चन्द्रा- राज्यसभा सदस्य
राजा जाटवान मलिक देपल(दीपालपुर)- कुतुबुद्दीन ऐबक से भयंकर युद्ध करके हांसी को आजाद करवाया। युद्ध ३ दिन ३ रात तक जारी रहा और लेकिन जाटवान की सेना बहुत कम थी। अतः अंत में वे लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
चौधरी न्योन्दराम बुरा -१८५७ में हांसी लाल सड़क पर कुचले जाने वाले प्रथम क्रांतिकारी। ये रोहनात गांव के निवासी थे।
लाला हुकमचन्द जैन - १८५७ की क्रांति के शहीद।
चौधरी मनीराम शेहरावत खरड़ अलीपुर- दिल्ली में जॉर्ज पंचम की मूर्ति को तोड़ने पर इन्हें आंग्रेजो ने कारावास की सजा दी थी।
एम् एम् जुनेजा द्वारा लिखित हिसार का इतिहास: आरंभ से स्वतंत्रता तक, १३५४-१९४७; वर्ष १९८९, हरियाणा: मोडर्न बुक कं., ४८४ पृष्ठ; इसब्न ०४३९४१०२३३
एम् एम् जुनेजा द्वारा लिखित हिसार शहर: स्थान तथा शख़्सियत; वर्ष २००४, हरियाणा: मोडर्न पब्लिशर्स, ७४४ पृष्ठ
इन्हें भी देखें
हिसार लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र
हिसार का आधिकारिक जालस्थल
हिसार की नगर निगम का आधिकारिक जालस्थल
हिसार पुलिस का आधिकारिक जालस्थल
हिसार की स्थान-विवरणिका
हरियाणा के शहर
हिसार ज़िले के नगर |
सेलम (सलेम) भारत के तमिल नाडु राज्य के सेलम ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।
इन्हें भी देखें
तमिल नाडु के शहर
सेलम ज़िले के नगर |
श्रीनगर (श्रीनगर) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य का सबसे बड़ा शहर और ग्रीष्मकालीन राजधानी है। यह कश्मीर घाटी में झेलम नदी के किनारे बसा हुआ है, जो सिन्धु नदी के एक प्रमुख उपनदी है। प्रसिद्ध डल झील और आंचार झील भी नगर-भूगोल का महत्वपूर्ण भाग हैं। कश्मीर घाटी के मध्य में बसा यह नगर भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। दस लाख से अधिक जनसंख्या रखने वाला यह भारत का उत्तरतम नगर है। श्रीनगर अपने उद्यानों व प्राकृतिक वातावरण के लिए जाना जाता है और यहाँ के कश्मीर शॉल व मेवा देशभर में प्रसिद्ध है।
श्रीनगर विभिन्न मंदिरों व मस्जिदों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। १७०० मीटर ऊंचाई पर बसा श्रीनगर विशेष रूप से झीलों और हाऊसबोट के लिए जाना जाता है। इसके अलावा श्रीनगर परम्परागत कश्मीरी हस्तशिल्प और सूखे मेवों के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है। श्रीनगर का इतिहास काफी पुराना है। माना जाता है कि इस जगह की स्थापना सम्राट अशोक मौर्य ने की थी। इस जिले के चारों ओर पांच अन्य जिले स्थित है। श्रीनगर जिला कारगिल के उत्तर, पुलवामा के दक्षिण, बुद्धगम के उत्तर-पश्चिम के बगल में स्थित है। श्रीनगर प्रान्त की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। ये शहर और उसके आस-पार के क्षेत्र एक ज़माने में दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत पर्यटन स्थल माने जाते थे -- जैसे डल झील, शालिमार और निशात बाग़, गुलमर्ग, पहलगाम, चश्माशाही, आदि। यहाँ हिन्दी सिनेमा की कई फ़िल्मों की शूटिंग हुआ करती थी। श्रीनगर की हज़रतबल मस्जिद में माना जाता है कि वहाँ हजरत मुहम्मद की दाढ़ी का एक बाल रखा है। श्रीनगर में ही शंकराचार्य पर्वत है जहाँ विख्यात हिन्दू धर्मसुधारक और अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आदि शंकराचार्य सर्वज्ञानपीठ के आसन पर विराजमान हुए थे। डल झील और झेलम नदी (संस्कृत : वितस्ता, कश्मीरी : व्यथ) में आने जाने, घूमने और बाज़ार और ख़रीददारी का ज़रिया ख़ास तौर पर शिकारा नाम की नावें हैं। कमल के फूलों से सजी रहने वाली डल झील पर कई ख़ूबसूरत नावों पर तैरते घर भी हैं जिनको हाउसबोट कहा जाता है। इतिहासकार मानते हैं कि श्रीनगर मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बसाया गया था।
श्रीनगर से कुछ दूर एक बहुत पुराना मार्तण्ड (सूर्य) मन्दिर है। कुछ और दूर अनन्तनाग ज़िले में शिव को समर्पित अमरनाथ की गुफा है जहाँ हज़ारों तीर्थयात्री जाते हैं। श्रीनगर से तीस किलोमीटर दूर मुस्लिम सूफ़ी संत शेख़ नूरुद्दिन वली की दरगाह चरार-ए-शरीफ़ है, जिसे कुछ वर्ष पहले इस्लामी आतंकवादियों ने ही जला दिया था, पर बाद में इसकी वापिस मरम्मत हुई।
श्रीनगर का वास्तु
श्रीनगर केवल प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, वास्तु विरासत की दृष्टि से भी खूब समृद्ध है। यहां कई सुंदर मस्जिदें हैं। हजरत बल यहां का महत्वपूर्ण धर्मस्थल है। यहां हजरत मोहम्मद का बाल संग्रहीत होने के कारण मुसलिम समुदाय के लिए यह अत्यंत पवित्र स्थान है। संगमरमर की बनी इस सफेद इमारत का गुंबद दूर से ही पर्यटकों को इसकी भव्यता का एहसास कराता है। शाह हमदान मसजिद होने के कारण प्रसिद्ध है। १३९५ में इसका पहली बार जीर्णोद्धार हुआ था। इसके बाद कई बार इसका जीर्णोद्धार किया गया। यहां की जामा मसजिद भी लकडी द्वारा निर्मित मसजिद है। इसकी इमारत तीन सौ से अधिक स्तंभों पर खडी है। ये स्तंभ देवदार वृक्ष के तने के हैं। इनके अतिरिक्त पत्थर मस्जिद, दस्तगीर साहिब एवं मख्दूम साहिब भी देखने योग्य हैं। श्रीनगर के मध्य हरीपर्वत पहाडी पर १६वीं शताब्दी में बना एक किला भी पर्यटकों को आकर्षित करता है। इसका निर्माण अफगान गवर्नर अता मुहम्मद खान ने करवाया था। अकबर ने इस किले का विस्तार किया था। दूसरी ओर डल झील के सामने तख्त-ए-सुलेमान पहाडी है। उसके शिखर पर प्रसिद्ध शंकराचार्य मंदिर है। यह प्राचीन मंदिर भगवान शंकर को समर्पित है। १०वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य यहां आए थे, जिसके कारण इस मंदिर का यही नाम पड गया। पहाडी से एक ओर डल झील का विस्तार तो दूसरी ओर श्रीनगर का विहंगम दृश्य देखते बनता है। पृष्ठभूमि में हिमशिखरों की भव्य कतार साफ नजर आती है।
यहां आने वाला हर सैलानी सबसे पहले श्रीनगर पहुंचता है, जो कि यहां का प्रमुख शहर तथा राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। श्रीनगर घाटी का मुख्य व्यावसायिक केंद्र भी है। अन्य पर्वतीय स्थलों की तुलना में यह शहर कुछ अलग लगता है। यहां के घर व बाजार पहाडी ढलानों पर नहीं बसे। एक विस्तृत घाटी के मध्य स्थित होने के कारण यह मैदानी शहरों जैसा लगता है। किंतु पृष्ठभूमि में दिखाई पडते बर्फाछादित पर्वत शिखर यह एहसास कराते हैं कि सैलानी वास्तव में समुद्रतल से १७३० मीटर ऊंची सैरगाह में हैं। हाउसबोट में रहने वालों को जब कहीं आना-जाना होता है तो पहले वे शिकारे से सडक तक आते हैं। झील के सौंदर्य को निरखने के लिए शिकारे से जरूर घूमना चाहिए। इस तरह घूमते हुए शॉल, केसर, आभूषण, फूल आदि बेचने वाले अपने शिकारे में सजी दुकान के साथ आपके करीब आते रहेंगे। यही नहीं, आप पानी में तैरते फोटो स्टूडियो में कश्मीरी ड्रेस में अपनी तसवीर भी खिंचवा सकते हैं।
श्रीनगर का सबसे बडा आकर्षण यहां की डल झील है। जहां सुबह से शाम तक रौनक नजर आती है। सैलानी घंटों इसके किनारे घूमते रहते हैं या शिकारे में बैठ नौका विहार का लुत्फउठाते हैं। दिन के हर प्रहर में इस झील की खूबसूरती का कोई अलग रंग दिखाई देता है। देखा जाए तो डल झील अपने आपमें एक तैरते नगर के समान है। तैरते आवास यानी हाउसबोट, तैरते बाजार और तैरते वेजीटेबल गार्डन इसकी खासियत हैं। कई लोग तो डल झील के तैरते घरों यानी हाउसबोट में रहने का लुत्फलेने के लिए ही यहां आते हैं। झील के मध्य एक छोटे से टापू पर नेहरू पार्क है। वहां से भी झील का रूप कुछ अलग नजर आता है। दूर सडक के पास लगे सरपत के ऊंचे झाडों की कतार, उनके आगे चलता ऊंचा फव्वारा बडा मनोहारी मंजर प्रस्तुत करता है। झील के आसपास पैदल घूमना भी सुखद लगता है। शाम होने पर भी यह झील जीवंत नजर आती है। सूर्यास्त के समय आकाश का नारंगी रंग झील को अपने रंग में रंग लेता है, तो सूर्यास्त के बाद हाउसबोट की जगमगाती लाइटों का प्रतिबिंब झील के सौंदर्य को दुगना कर देता है। शाम के समय यहां खासी भीड नजर आती है।
भीड-भाड से परे शांत वातावरण में किसी हाउसबोट में रहने की इछा है तो पर्यटक नागिन लेक या झेलम नदी पर खडे हाउसबोट में ठहर सकते हैं। नागिन झील भी कश्मीर की सुंदर और छोटी-सी झील है। यहां प्राय: विदेशी सैलानी ठहरना पसंद करते हैं। उधर झेलम नदी में छोटे हाउसबोट होते हैं।
हाउसबोट का इतिहास
आज हाउसबोट एक तरह की लग्जरी में तब्दील हो चुके हैं और कुछ लोग दूर-दूर से केवल हाउसबोट में रहने का लुत्फउठाने के लिए ही कश्मीर आते हैं। हाउसबोट में ठहरना सचमुच अपने आपमें एक अनोखा अनुभव है भी। पर इसकी शुरुआत वास्तव में लग्जरी नहीं, बल्कि मजबूरी में हुई थी। कश्मीर में हाउसबोट का प्रचलन डोगरा राजाओं के काल में तब शुरू हुआ था, जब उन्होंने किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा कश्मीर में स्थायी संपत्ति खरीदने और घर बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय कई अंग्रेजों और अन्य लोगों ने बडी नाव पर लकडी के केबिन बना कर यहां रहना शुरू कर दिया। फिर तो डल झील, नागिन झील और झेलम पर हाउसबोट में रहने का चलन हो गया। बाद में स्थानीय लोग भी हाउसबोट में रहने लगे। आज भी झेलम नदी पर स्थानीय लोगों के हाउसबोट तैरते देखे जा सकते हैं। शुरुआती दौर में बने हाउसबोट बहुत छोटे होते थे, उनमें इतनी सुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन अब वे लग्जरी का रूप ले चुके हैं। सभी सुविधाओं से लैस आधुनिक हाउसबोट किसी छोटे होटल के समान हैं। डबल बेड वाले कमरे, अटैच बाथ, वॉर्डरोब, टीवी, डाइनिंग हॉल, खुली डैक आदि सब पानी पर खडे हाउसबोट में होता है। लकडी के बने हाउसबोट देखने में भी बेहद सुंदर लगते हैं। अपने आकार एवं सुविधाओं के आधार पर ये विभिन्न दर्जे के होते हैं। शहर के मध्य बहती झेलम नदी पर बने पुराने लकडी के पुल भी पर्यटकों के लिए एक आकर्षण है। कई मस्जिदें और अन्य भवन इस नदी के निकट ही स्थित है।
बादशाहों का उद्यान प्रेम
मुगल बादशाहों को वादी-ए-कश्मीर ने सबसे अधिक प्रभावित किया था। यहां के मुगल गार्डन इस बात के प्रमाण हैं। ये उद्यान इतने बेहतरीन और नियोजित ढंग से बने हैं कि मुगलों का उद्यान-प्रेम इनकी खूबसूरती के रूप में यहां आज भी झलकता है। मुगल उद्यानों को देखे बिना श्रीनगर की यात्रा अधूरी-सी लगती है। अलग-अलग खासियत लिए ये उद्यान किसी शाही प्रणय स्थल जैसे नजर आते हैं। शाहजहां द्वारा बनवाया गया चश्म-ए-शाही इनमें सबसे छोटा है। यहां एक चश्मे के आसपास हरा-भरा बगीचा है। इससे कुछ ही दूर दारा शिकोह द्वारा बनवाया गया परी महल भी दर्शनीय है। निशात बाग १६३३ में नूरजहां के भाई द्वारा बनवाया गया था। ऊंचाई की ओर बढते इस उद्यान में १२ सोपान हैं। शालीमार बाग जहांगीर ने अपनी बेगम नूरजहां के लिए बनवाया था। इस बाग में कुछ कक्ष बने हैं। अंतिम कक्ष शाही परिवार की स्त्रियों के लिए था। इसके सामने दोनों ओर सुंदर झरने बने हैं। मुगल उद्यानों के पीछे की ओर जावरान पहाडियां हैं, तो सामने डल झील का विस्तार नजर आता है। इन उद्यानों में चिनार के पेडों के अलावा और भी छायादार वृक्ष हैं। रंग-बिरंगे फूलों की तो इनमें भरमार रहती है। इन उद्यानों के मध्य बनाए गए झरनों से बहता पानी भी सैलानियों को मुग्ध कर देता है। ये सभी बाग वास्तव में शाही आरामगाह के उत्कृष्ट नमूने हैं।
श्रीनगर में कई धार्मिक पवित्र स्थान हैं। वे हैं:
जामा मस्जिद, श्रीनगर
संगीत और फिल्में
१९९० के दशक में उग्रवाद के उदय से पहले, अकेले श्रीनगर में लगभग १० सिनेमा हॉल थे - फिरदौस, शिराज, खय्याम, नाज़, नीलम, शाह, ब्रॉडवे, रीगल और पैलेडियम।
१९८९ के आतंक के कारण श्रीनगर में नौ सहित कश्मीर में सिनेमाघर बंद कर दिए गए थे। आईनॉक्स गोल्ड क्लास, एक तीन-स्क्रीन मल्टीप्लेक्स श्रीनगर के प्रसिद्ध सिनेमा हॉल के निकट स्थित है जिसे ब्रॉडवे सिनेमा कहा जाता है। यह कश्मीर में पहला मल्टीप्लेक्स है और इसे श्रीनगर के बादामी बाग छावनी क्षेत्र में शिवपोरा में मेसर्स टकसाल हॉस्पिटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी द्वारा बनाया गया है, जिसके मालिक विजय धर हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि श्री धर दिल्ली पब्लिक स्कूल, श्रीनगर भी चलाते हैं। आइनॉक्स गोल्ड मल्टीप्लेक्स का उद्घाटन एलजी मनोज सिन्हा ने २० सितंबर, २०22 को किया था, बाद में समारोह के बाद पत्रकारों और चयनित दर्शकों के लिए पहली फिल्म लाल सिंह चड्ढा दिखाई गई। सिनेमा को ३० सितंबर को आम जनता के लिए खोल दिया गया था, रिलीज हुई फिल्में विक्रम वेधा और पोन्नियिन सेल्वन: ई थीं।
हजरतबल मस्जिद श्रीनगर में स्थित प्रसिद्ध डल झील के किनारे स्थित है। इसका निर्माण पैगम्बर मोहम्मद मोई-ए-मुक्कादस के सम्मान में करवाया गया था। इस मस्जिद को कई अन्य नामों जैसे हजरतबल, अस्सार-ए-शरीफ, मादिनात-ऊस-सेनी, दरगाह शरीफ और दरगाह आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस मस्जिद के समीप ही एक खूबसूरत बगीचा और इश्रातत महल है। जिसका निर्माण १६२३ ई. में सादिक खान ने करवाया था।
शहर से लगभग ८ किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ निगीन झील अपने नील पानी और आश्चर्यजनक खूबसूरती के लिए जाना जाता है जो डल झील का ही एक हिस्सा है। यह श्रीनगर में एक लोकप्रिय स्थल है और शांति से समय बिताने के लिए एकदम सही जगह है। यह झील चिनार के पेड़ों के घने जंगलों से घिरी हुई है और ज़बरवां पर्वत की तलहटी में स्थित है। रोमांच और मस्ती चाहने वालों के लिए यह आकर्षक झील, नौकायन और कई जल गतिविधियों के लिए एक आदर्श स्थान है। निगीन झील, डल झील की तुलना में कम भीड़ भाड़ वाली स्थान है और झील के नील साफ पानी इस स्थान को एक अद्भुत रूप देती है।
यह मंदिर शंकराचार्य पर्वत पर स्थित है। शंकराचार्य मंदिर समुद्र तल से ११०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इसे तख्त-ए-सुलेमन के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर कश्मीर स्थित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण राजा गोपादित्य ने ३७१ ई. पूर्व करवाया था। डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह ने मंदिर तक पंहुचने के लिए सीढ़िया बनवाई थी। इसके अलावा मंदिर की वास्तुकला भी काफी खूबसूरत है।
जामा मस्जिद कश्मीर की सबसे पुरानी और बड़ी मस्जिदों में से है। मस्जिद की वास्तुकला काफी अदभूत है। माना जाता है कि जामा मस्जिद की नींव सुल्लान सिकंदर ने १३९८ ई. में रखी थी। इस मस्जिद की लंबाई ३८४ फीट और चौड़ाई ३८ फीट है। इस मस्जिद में तीस हजार लोग एक-साथ नमाज अदा कर सकते हैं।
खीर भवानी मंदिर
श्रीनगर जिले के तुल्लामुला में स्थित खीर भवानी मंदिर यहां के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मंदिर माता रंगने देवी को समर्पित है। प्रत्येक वर्ष जेष्ठ अष्टमी (मई-जून) के अवसर पर मंदिर में वार्षिक उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर काफी संख्या में लोग देवी के दर्शन के लिए विशेष रूप से आते हैं।
चेत्ती पदशाही कश्मीर के प्रमुख सिख गुरूद्वारों में से एक है। सिखों के छठें गुरू कश्मीर घूमने के लिए आए थे, उस समय वह यहां कुछ समय के लिए ठहरें थे। यह गुरूद्वारा हरी पर्वत किले से बस कुछ ही दूरी पर स्थित है।
इस बगीचे को १६३३ ई. में नूरजहां के भाई आसिफ खान ने बनवाया था। यह बगीचा डल झील के किनारे स्थित है। श्रीनगर जिला मुख्यालय से निशांत गार्डन ११ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस जगह से झील के साथ-साथ अन्य कई खूबसूरत दृश्यों का नजारा देखा जा सकता है।
पांच मील लम्बी और ढाई मील चौड़ी डल झील श्रीनगर की ही नहीं बल्कि पूरे भारत की सबसे खूबसूरत झीलों में से है। दुनिया भर में यह झील विशेष रूप से शिकारों या हाऊस बोट के लिए जानी जाती है। डल झील के आस-पास की प्राकृतिक सुंदरता अधिक संख्या में लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। डल झील चार भागों गगरीबल, लोकुट डल, बोड डल और नागिन में बंटी हुई है। इसके अलावा यहां स्थित दो द्वीप सोना लेंक और रूपा लेंक इस झील की खूबसूरती को ओर अधिक बढ़ाते हैं।
कश्मीर घाटी में श्रीनगर से दूर भी किसी दिशा में निकल जाएं तो प्रकृति के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि लगता है जैसे उसने अपना खजाना यहीं समेट रखा है। राजमार्गो पर लगे दिशा-निर्देशों पर लिखे अनेक शहरों के नाम सैलानियों को आकर्षित करते हैं। लेकिन अधिकतर सैलानी, गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम आदि घूमने जाते हैं। गुलमर्ग के रास्ते में कई छोटे सुंदर गांव और आसपास धान के खेत आंखों को सुहाते हैं। सीधी लंबी सडक के दोनों और ऊंची दीवार के समान दिखाई पडती पेडों की कतार अत्यंत भव्य दिखाई देती है। पुरानी फिल्मों में इन रास्तों के बीच फिल्माए गीत पर्यटकों को याद आ जाते हैं। तंग मार्ग के बाद ऊंचाई बढने के साथ ही घने पेडों का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ देर बाद सैलानी गुलमर्ग पहुंचते हैं तो घास का विस्तृत तश्तरीनुमा मैदान देख कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार उत्तराखंड में पहाडी ढलवां मैदानों को बुग्याल कहते हैं, कश्मीर में उन्हें मर्ग कहते है। गुलमर्ग का अर्थ है फूलों का मैदान। समुद्र तल से २६८० मीटर की ऊंचाई पर स्थित गुलमर्ग सैलानियों के लिए वर्ष भर का रेसॉर्ट है। यहां से किराये पर घोडे लेकर खिलनमर्ग, सेवन स्प्रिंग और अलपत्थर जैसे स्थानों की सैर भी कर सकते हैं।
विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फकोर्स भी यहीं है। सर्दियों में जब यहां बर्फ की मोटी चादर बिछी होती है तब यह स्थान हिमक्रीडा और स्कीइंग के शौकीन लोगों के लिए तो जैसे स्वर्ग बन जाता है। यहां चलने वाली गंडोला केबल कार द्वारा बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचना रोमांचक लगता है। ढलानों पर लगे चीड या देवदार के पेडों पर बर्फलदी दिखती है। तमाम पर्यटक बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेते हैं तो बहुत से स्लेजिंग करके ही संतुष्ट हो लेते हैं। यहां पर्यटक चाहें तो स्कीइंग कोर्स भी कर सकते हैं। हर वर्ष होने वाले विंटर गेम्स के समय यहां विदेशी सैलानी भी बडी तादाद में आते हैं।
सोनमर्ग का अर्थ सोने से बना घास का मैदान होता है। यह जगह श्रीनगर के उत्तर-पूर्व से ८७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सोनमर्ग पर स्थित सिंध घाटी कश्मीर की सबसे बड़ी घाटी है। यह घाटी करीबन साठ मील लम्बी है।
सोनमर्ग भी कश्मीर की एक निराली सैरगाह है। समुद्र तल से लगभग ३००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह एक रमणीक स्थल है। सिंध नदी के दोनों और फैले यहां के मर्ग सोने से सुंदर दिखाई देते हैं। इसीलिए इसे सोनमर्ग अर्थात सोने का मैदान कहा गया होगा। सोनमर्ग से घुडसवारी करके थाजिवास ग्लेशियर भी देखने जा सकते हैं। वहां ग्लेशियर पर घूमने का आनंद भी लिया जा सकता है। अनंत हिमनदों के सामने खडे होकर प्रकृति की विशालता का एहसास मन में रोमांच उत्पन्न कर देता है। प्रतिवर्ष होने वाली अमरनाथ यात्रा का एक मार्ग सोनमर्ग से बलतल होकर भी है। यहां से लद्दाख के रास्ते में पडने वाला जोजीला दर्रा ३० किमी दूर है। पहलगाम का रास्ता भी सैलानियों को बहुत प्रभावित करता है। मार्ग में पाम्पोर में केसर के खेत दिखाई देते हैं। जगह-जगह क्रिकेट के बैट रखे नजर आते हैं। यहां विलो-ट्री की लकडी से ये बैट बनते हैं। इनके अलावा अवंतिपुर में ९वीं शताब्दी में बने दो मंदिरों के भग्नावशेष तथा मार्तड का सूर्य मंदिर भी आकर्षक हैं। सागरतल से 21३० मीटर की ऊंचाई पर बसा पहलगाम कभी चरवाहों का छोटा सा गांव था। किंतु यहां बिखरी नैसर्गिक छटा ने इसे खुशनुमा सैरगाह बना दिया। लिद्दर नदी इसकी छटा को और बढाती है। नदी पर कई जगह बने लकडी के पुल और दूर दिखते हिमशिखर तो पिक्चर पोस्टकार्ड से दृश्य प्रस्तुत करते हैं। देवदार के जंगल, झरने और फूलों के मैदान तो जगह-जगह नजर आएंगे। बैसरन के मर्ग, आडु, चंदनवाडी जैसे स्थान घोडों पर बैठकर घूमे जा सकते हैं। साहसी पर्यटक पहलगाम से तरसर, मरसर झीलें, दुधसर झील और कोलहाई ग्लेशियर जैसे ट्रेकिंग रूटों पर निकल सकते हैं। अमरनाथ यात्रा का मुख्य मार्ग पहलगाम से चंदनवाडी, शेषनाग होते हुए जाता है।
सैलानियों को आकर्षित करने वाले अन्य स्थानों में कोकरनाग २०१२ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान औषधीय गुणों वाले प्राकृतिक चश्मों के लिए प्रसिद्ध है। कश्मीरी भाषा में नाग का अर्थ चश्मा भी होता है। वेरीनाग में भी कुछ प्राकृतिक चश्में हैं। यहां बादशाह जहांगीर ने चश्मों का जल एक ताल में एकत्र कर उसके आसपास एक उद्यान बनवाया था। ८० मीटर के दायरे में फैले आठ कोणों वाले इस ताल एवं उद्यान में चिनार के वृक्षों की कतारें सैलानियों का मन मोह लेती है।
सबसे नजदीकी हवाई अड्डा श्रीनगर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। इंडियन एयरलाइन्स दिल्ली, अमृतसर, जम्मू, लेह, चंडीगढ़, अहमदाबाद और मुम्बई से श्रीनगर के लिए उड़ान भरती है।
हाल ही में श्रीनगर में रेलवे स्टेशन बन गया है, व रेल सेवा भी आरंभ हो चुकी है। श्रीनगर रेल मार्ग द्वारा अनंतनाग, क़ाज़ीगुंड तक जुड़ा है। जून २०१३ में क़ाज़ीगुंड से बनिहाल तक, भारत की सबसे बड़ी सुरंग के रास्ते, रेल सेवा शुरु कर दी गयी है। इसके बाद भारत की मुख्य रेलवे का सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन जम्मू तवी है। रेलवे स्टेशन से जम्मू तवी २९३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बनिहाल से जम्मू तवी तक रेलमार्ग निर्माणाधीन है।
श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग ४४ (पुराना संख्यांक १ए) द्वारा कई प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग ४४ पूरे भारत को पार करता हुआ कन्याकुमारी तक जाता है।
विभिन्न शहरों से दूरी
जम्मू- २९३ किलोमीटर
लेह - ४३४ किलोमीटर
कारगिल- २०४ किलोमीटर
गुलमर्ग- ५२ किलोमीटर
दिल्ली- ८७६ किलोमीटर
चंडीगढ़- ६३० किलोमीटर
इन्हें भी देखें
जम्मू और कश्मीर के शहर
श्रीनगर ज़िले के नगर
भारत के तीर्थ
भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की राजधानियाँ |
फ़िरोज़ाबाद (फिरोजाबाद) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के फ़िरोज़ाबाद ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। राष्ट्रीय राजमार्ग १९ यहाँ से गुज़रता है।
फ़िरोज़ाबाद का पुराना नाम चंदवार के नाम से जाना जाता था। यह शहर चूड़ियों के निर्माण के लिये प्रसिद्ध है। यह आगरा से ४० किलोमीटर और राजधानी दिल्ली से २५० किलोमीटर की दूरी पर पूर्व की तरफ स्थित है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ यहाँ से लगभग २५० किमी पूर्व की तरफ है। फिरोज़ाबाद ज़िले के अन्तर्गत बड़े कस्बे टुंडला , सिरसागंज, और शिकोहाबाद आते हैं। टुंडला पश्चिम तथा शिकोहाबाद शहर के पूर्व में स्थित है। फिरोज़ाबाद में मुख्यतः चूडियों का कारोबार होता है। यहाँ पर आप रंग बिरंगी चूडियों को अपने चारों ओर देख सकते हैं। लेकिन अब यहाँ पर गैस का कारोबार होता है। यहाँ पर काँच का अन्य सामान (जैसे काँच के झूमर) भी बनते हैं। इस शहर की आबो हवा गरम है। यहाँ की आबादी बहुत घनी है। यहाँ के ज्यादातर लोग कोरोबार से जुडे हैं। घरों के अन्दर महिलाएं भी चूडियों पर पालिश और हिल लगाकर रोजगार अर्जित कर लेती हैं। बाल मज़दूरी यहाँ आम है। सरकार तमाम प्रयासों के बावजूद उन पर अंकुश नहीं लगा सकी है। प्राचीन समय में चन्द्रनगर के नाम से जाना जाता था
फ़िरोज़ाबाद का पुराना नाम चंदवार बताया जाता है। उस समय चंद्रवार के राजा चन्द्रसेन, जो हिंदू धर्म के अनुयायी थे। फ़िरोज़ाबाद की भगवान चन्दाप्रभु की स्फटिक मणि की प्रतिमा विश्व की सबसे बड़ी स्फटिक मणि की प्रतिमा है, जो की राजा चन्द्रसेन के समय में प्राप्त हुयी थी। उस चंदाप्रभु भगवान् की प्रतिमा के कारण और राजा चन्द्रसेन के नाम के कारण उस समय चंद्रवार का नाम पड़ा। आज भी फ़िरोज़ाबाद के चदरवार नगर जो यमुना नदी के किनारे बसा हुआ है, पर राजा चन्द्रसेन का खंडहर हुआ पुराना किले के अवशेष और प्राचीन जैन मंदिर मौजूद है यहाँ पसीने वाले हनुमान जी का मदिर और एक पुराना शिव मंदिर भी है। वर्तमान नाम अकबर के समय में मनसबदार फ़िरोज़शाह द्वारा १५६६ में दिया गया।
चंदवार (या चंदावर) में चौहान वंश के राजा चन्द्रसेन और मुहम्मद ग़ोरी के बीच ११९४ ई। में युद्ध लड़ा गया जिसमें राजा चन्द्रसेन की हार हुई फ़िरोज़ाबाद का प्राचीन नाम चंदवार नगर था। फ़िरोज़ाबाद का नाम अकबर के शासन में फिरोज शाह मनसब दार द्वारा १५६६ में दिया गया था। कहते हैं कि राजा टोडरमल गया से तीर्थ यात्रा कर के इस शहर के माध्यम से लौट रहे थे ,तब उन्हें लुटेरो ने लूट लिया|उनके अनुरोध पर, अकबर ने मनसबदार फिरोज शाह को यहा भेजा| फिरोज शाह दतौजि, रसूलपुर,मोहम्मदपुर गजमलपुर ,सुखमलपुर निज़ामाबाद, प्रेमपुर रैपुरा के आस-पास उतरा|फिरोज शाह का मकबरा और कतरा पठनं के खंडहर इस तथ्य का सबूत है और इतिहासकारों का मानना है कि फिरोजशाह ने भारी संख्या में हिंदू का जबरन धर्म परिवर्तित करवाया।
ईस्ट इंडिया कंपनी से सम्बंदित एक व्यापारी पीटर ने ९ अगस्त १६३२ में यहाँ का दौरा किया और शहर को अच्छी हालत में पाया|यह आगरा और मथुरा की विवरणिका में लिखा है की फ़िरोज़ाबाद को एक परगना के रूप में उन्नत किया गया था|शाहजहां के शाशन में नबाब सादुल्ला को फ़िरोज़ाबाद जागीर के रूप में प्रदान किया गया|जहांगीर ने १६०५ से १६२७ तक शाशन किया|इटावा, बदायूं मैनपुरी, फ़िरोज़ाबाद सम्राट फर्रुखसियर के प्रथम श्रेणी मनसबदार के अंतर्गत थे।
बाजीराव पेशवा ने मोहम्मद शाह के शासन में १७३७ में फ़िरोज़ाबाद और एतमादपुर लूटा|महावन के जाटों ने फौजदार हाकिम काजिम पर हमला किया और उसे ९ मई 173९ में मारे दिया|जाटों ने फ़िरोज़ाबाद पर ३० साल शासन किया।
मिर्जा नबाब खान यहाँ १७८२ तक रुके थे। १८ वीं सदी के अंत में फ़िरोज़ाबाद पर मराठाओं के सहयोग के साथ हिम्मत बहादुर गुसाईं द्वारा शासन किया गया। फ्रेंच, आर्मी चीफ डी. वायन ने नवंबर १७९४ में एक आयुध फैक्टरी की स्थापना की। श्री थॉमस ट्रविंग ने भी अपनी पुस्तक 'ट्रवल्स इन इंडिया ' में इस तथ्य का उल्लेख किया है।
मराठाओं ने सूबेदार लकवाददस को यहां नियुक्त किया,जिसने पुरानी तहसील के पास एक किले का निर्माण कराया जो वर्तमान में गाढ़ी के पास स्थित है|जनरल लेक और जनरल वेल्लजल्ल्य ने १८०२ में फ़िरोज़ाबाद पर आक्रमण किया|ब्रिटिश शासन की शुरुआत में फ़िरोज़ाबाद इटावा जिले में था। लेकिन कुछ समय बाद यह अलीगढ़ जिले में संलग्न किया गया| जब १८३२ में सादाबाद को नया ज़िला बनाया गया तो फ़िरोज़ाबाद को इस में सम्मिलित कर दिया गया। पर बाद में १८३३ में फ़िरोज़ाबाद को आगरा में सम्मिलित कर दिया गया।१८४७ में लाख का व्यापर यहाँ बहुत फल-फूल रहा था।
१८५७ के स्वतंत्रा संग्राम में चंदवार के जमींदारो ने स्थानीय मलहो के साथ सक्रिय भाग लिया ग्राम- हिरनगऊ वर्तमान-(राजस्व ग्राम हिरनगाँव) जनपद फिरोजाबाद निवासी क्रांतिकारी क्रांतिकारी पंडित तेजसिंह तिवारी द्वारा १८५७ क्रांति की लो को स्थानीय लोगों के दिलों में जलाते रहे प्रसिद्ध उर्दू कवि मुनीर शिकोहाबादी को ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने काला पानी की सजा सुनाई थी। इस शहर के लोगो ने 'खिलाफत आंदोलन', 'भारत छोड़ो आंदोलन' और 'नमक सत्याग्रह' में भाग लिया और राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान जेल गये।।
इसी जिले के निवासी अश्वनी कुमार के आर पी जी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के तौर पर कार्य कर रहे हैं।
नगर पालिका की स्थापना
आगरा गजेटियर १९६५ के पृष्ठ २६३ के अनुसार फिरोजावाद नगर पालिका की स्थापना सन् १८६८ में प्रारम्भ हुई, अनेक वर्षों तक जुवान्त मजिस्ट्रेट इसका अध्यक्छ हुआ करता था। उस समय पुलिस की व्यवस्था भी नगर पालिका के अंतर्गत थी।
काँच उद्योग का प्रारम्भ
अलीगढ इंस्टिट्यूट गजट सन १८८० के पृष्ठ १०८३ पर उर्दू के कवि मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली ने लिखा है कि फ़िरोज़ाबाद में खजूर के पटटे की पंखिया एशी उम्दा वनती है कि हिंदुस्तान में शायद ही कही वनती हो। सादी पंखिया जिसमे किसी कदर रेशम का काम होता है एक रुपया कीमत की हमने भी यहाँ देखी। इस कथन से स्पस्ट होता है कि १८८० तक यहाँ काँच उद्योग का प्रारम्भ नहीं हुआ था, आगरा गजेटियर १८८४ के पृष्ठ ७४० के अनुसार उस समय फ़िरोज़ाबाद में लाख का व्यवसाय भी अच्छी स्थिति में था ये व्यवसाय कालान्तर में समाप्त हो गया है ,परंतु वर्तमान में भारत में सबसे अधिक काँच की चूड़ियाँ, सजावट की काँच की वस्तुएँ, वैज्ञानिक उपकरण, बल्ब आदि फ़िरोज़ाबाद में बनाये जाते हैं। फ़िरोज़ाबाद में मुख्यत:चूड़ियों का व्यवसाय होता है। यहाँ पर आप रंगबिरंगी चूड़ियों की दुकानें चारों ओर देख सकते हैं। घरों के अन्दर महिलाएँ भी चूडियों पर पॉलिश लगाकर रोजगार अर्जित कर लेती हैं। भारत में काँच का सर्वाधिक फ़िरोज़ाबाद नामक छोटे से शहर में बनाया जाता है। इस शहर के अधिकांश लोग काँच के किसी न किसी सामान के निर्माण से जुड़े उद्यम में लगे हैं। सबसे अधिक काँच की चूड़ियों का निर्माण इसी शहर में होता है। रंगीन काँच को गलाने के बाद उसे खींच कर तार के समान बनाया जाता है और एक बेलनाकार ढाँचे पर कुंडली के आकार में लपेटा जाता है। स्प्रिंग के समान दिखने वाली इस संरचना को काट कर खुले सिरों वाली चूड़ियाँ तैयार कर ली जातीं हैं। अब इन खुले सिरों वाली चूड़ियों के विधिपूर्वक न सिर्फ़ ये सिरे जोड़े जाते हैं बल्कि चूड़ियाँ एकरूप भी की जाती हैं ताकि जुड़े सिरों पर काँच का कोई टुकड़ा निकला न रह जाये। यह एक धीमी प्रक्रिया है जिसमें काँच को गर्म व ठण्डा करना पड़ता है।
रेल का प्रारम्भ
सन १८६२ में १ अप्रेल को टूंडला से शिकोहाबाद के लिए पहली रेलगाड़ी चालू हुई इससे अगले वर्ष मार्च १863 ई० से टूंडला से अलीगढ तक रेल चलने लगी।
नगर की आबादी
सन १८७२ ई० में 1०,76००5
सन १८८१ ई० में ०9,७४६५६
सन १९०१ ई० में 1०,6०528
सन १९११ ई० में
यह आगरा और इटावा के बीच प्रमुख रेलवे जंक्शन है। दिल्ली से रेल द्वारा आसानी से टूंडला जंक्शन एवम् हिरनगाँव रेलवे स्टेशन होते हुए फ़िरोज़ाबाद रेलगाड़ी से पंहुचा जा सकता है एवम् फ़िरोज़ाबाद पहुँचने हेतु बस आदि की भी समुचित व्यवस्ता है।
.इस शहर का नाम फिरोजशाह मनसबदार के नाम पर रखा गया जोकि अकबर कई सेनापतियों में से एक थे। फिरोजशाह की कब्र आज भी मौजूद है।
फिरोजाबाद में ही एक गांव है राजा का ताल जिसमें ताल का निर्माण अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल ने किया था।
राजा टोडर मल ने मानक वजन और एक भूमि सर्वेक्षण और निपटान प्रणाली, राजस्व जिलों और अधिकारियों की शुरुआत की। पटवारी द्वारा रखरखाव की इस प्रणाली का उपयोग अभी भी भारतीय उपमहाद्वीप में किया जाता है जिसे ब्रिटिश राज और भारत सरकार द्वारा सुधार किया गया था।
१८५७ की क्रांति में, स्थानीय जनता के साथ फिरोजाबाद के जमींदारों ने भी सक्रिय भाग लिया।
प्रसिद्ध उर्दू कवि मुनीर शिकोहाबादी को भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने कालापानी की सजा सुनाई थी।
इन्हें भी देखें
उत्तर प्रदेश के नगर
फ़िरोज़ाबाद ज़िले के नगर |
कटिहार (कातिहार) भारत के बिहार राज्य के कटिहार ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
पश्चिम बंगाल की सीमा पर स्थित कटिहार एक ऐतिहासिक शहर है। त्रिमोहिनी संगम , बाल्दीबाड़ी, बेलवा, दुभी-सुभी, गोगाबिल झील, नवाबगंज, मनिहारी और कल्याणी झील आदि यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से है। पूर्व समय में यह जिला पूर्णिया जिले का एक हिस्सा था। इसका इतिहास बहुत ही समृद्ध रहा है। इस जिले का नाम इसके प्रमुख शहर दीघी-कटिहार के नाम पर रखा गया था। मुगल शासन के अधीन इस जिले की स्थापना सरकार तेजपुर ने की थी। १३वीं शताब्दी के आरम्भ में यहाँ पर मोहम्मद्दीन शासकों ने राज किया। १७७० ई॰ में जब मोहम्मद अली खान पूर्णिया के गर्वनर थे, उस समय यह जिला ब्रिटिशों के हाथ में चला गया। अत: काफी लम्बे समय तक इस जगह पर कई शासनों ने राज किया। अत: २ अक्टूबर १९७३ ई॰ को स्वतंत्र जिले के रूप में घोषित कर दिया गया। 1२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन 1२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
बिहार के कटिहार जिले के अंतर्गत कुर्सेला प्रखंड के कटरिया गांव के न्ह-३१ से रास्ता त्रिमोहिनी संगम की ओर जाती है।प्रकृति की अनुपम दृश्य देखने को मिलता है।
यहाँ तीन नदियों का संगम है जिसमे प्रमुख रूप से गंगा और कोशी का मिलन है।त्रिमोहिनी संगम भारत की सबसे बड़ी उत्तरायण गंगा का संगम है। गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में प्रवाहित होती है। सूर्योदय से ही उत्तर दिशा में प्रवाहित होती है। सूर्योदय की किरणें सीधे गंगा के लहरों पर पड़ती है। जिससे प्रकृति का अनुपम दृश्य उपस्थित हो जाता है। नेपाल से निकलने वाली कोसी के सप्तधाराओं में एक सीमांचल क्षेत्र के कई जिलों से गुजरते हुए यहां आकर गंगा नदी से संगम कर अपना वजूद खो देती है। एक नदी की उत्पत्ति भारत कि सबसे बड़ी उत्तरवाहिनी गंगा तट से हुई है।जिसे कलबलिया के नाम से जाना जाता है। कलबलिया करीब ३२ किलोमीटर का सफर तय करती है। १२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन १२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
गुरु तेग बहादुर एतिहासिक गुरुद्वारा लक्ष्मीपुर
सिखों के नवमें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर की याद में यह गुरुद्वारा स्थापित है। सन १६६६ में गुरु जी यहां के कांतनगर में पधारे थे। इस गुरुद्वारे में गुरुजी से जुड़ी कई अनमोल धरोहर आज भी सुरक्षित है। लक्ष्मीपुर सिख बाहुल्य गांव है व यहां प्रत्येक वर्ष गुरु तेग बहादुर जी का शहीदी दिवस मनाया जाता है।
शान्ति टोला फसीया
यह एक छोटा सा गांव है। मुख्यालय से लगभग ६ किलोमीटर की दूरी पर है। इस गाँव की आबादी लगभग १३०० है। इस गांव में सभी जाति के लोग रहते हैं।इस गांव में एक २०० वर्ष पुराना मंदिर भी है जिसे महंथ स्थान के नाम से जाना जाता है।इस गांव में एक राधा कृष्ण का भी मन्दिर है।यह अपने जिला मुख्यालय से ४ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है ,यह अब नगरनिगम कटिहार के वार्ड न.४४ के अंतर्गत आता है।इस गांव के लोग अपनी सादगी एवं सद्भाव के लिए जाने जाते हैं यंहा ९९ % लोग खरवार समुदाय जो अनुसूचित जनजाति से आते हैं। ये लोग पहले खेती बाड़ी एवं मजदूरी कर अपना जीवन यापन करते थे पर इधर कुछ वर्षों से इनके शिक्षा में सुधार के कारण काफी संख्या में युवा वर्ग अच्छे पदों पर नियुक्त हुए हैं जिससे इनके जीवन स्तर में काफी सुधार हुआ है।
इस गांव के लोग काफी मिलनसार हैं यह हमारे इतिहास का अनमोल धरोहर है।जिसे हम सब को संजो कर रखनी है।
गंगा नदी के समीप स्थित मनिहारी से लगभग २.५ किलोमीटर की दूरी पर बाल्दीबाड़ी गांव स्थित है। इसी जगह पर मुर्शीदाबाद के नवाब सिराज-उद-दौला और पूर्णिया के गर्वनर नवाब शौकत जंग के बीच युद्ध हुआ था।
यह एक छोटा सा गांव है। यह जगह बरसोई के खण्ड मुख्यालय के दक्षिण से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ पर प्राचीन समय की कई इमारतें स्थित है। इसके अतिरिक्त यहाँ एक मंदिर भी है। इस मंदिर में भगवान शिव और देवी सरस्वती की पत्थर की मूर्तियां स्थित है। प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी के अवसर पर यहाँ मेले का आयोजन किया जाता है।
यह गांव बरसोई खण्ड में स्थित है। इस जगह का सम्बन्ध एक दिलचस्प कहानी के साथ जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि एक नवयुवक ने कुश से अपना गला काटकर प्राणों की आहुति दी थी। यह घटना लगभग ७० वर्ष पूर्व की है। इस कारण धार्मिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।
यह गांव मनिहारी से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मुगल काल के समय में इस जिले के गर्वनर नवाब शौकत गंज के पुराने सिंहासन के लिए यह जगह जानी जाती है।
कटिहार के दक्षिण से २५ किलोमीटर की दूरी पर मनिहारी तहसील स्थित है। पौराणिक कथा के अनुसार, इस जगह पर भगवान कृष्ण से एक मणी (आभूषण) खो गया था, जिसे ढूंढते हुए वह इस जगह पर पहुंचे थे।इस कारण से इस जगह का नाम मनिहारी पड़ा|
झौआ रेलवे स्टेशन के उत्तर से पांच किलोमीटर की दूरी पर कल्याणी झील स्थित है। प्रत्येक वर्ष माघ मास की पूर्णिमा तिथि के अवसर पर काफी संख्या में लोग यहाँ स्नान करने के लिए आते हैं। यूँ तो सभी दिन पवित्रता के लिए इक्के-दुक्के आवागमन होते रहते है। प्रतिवर्ष माघी पूर्णिमा मेले में लोग पुजा अर्चना बाजार करने बहुत दुरदराज से लोग पहुँचते है। इसके अलावे पुराने पुरोहितों के अनुसार यहाँ साक्षात् माँ कल्याणी देवी के अनेक रहस्य भी है। जिनके कारण ये स्थान अतुल्य है। इस नदी के तट में एक ऐतिहासिक पत्थरनुमा शिवलिंग है जो अनेकों वर्षों से स्थित है स्थानीय लोगों के अनुसार यह अपने आकार में पहले की अपेक्षा बढ़ रहा है। अभी गत् वर्ष २०१५ में नियम निष्ठा पूर्वक माँ कल्याणी देवी मंदिर के समीप अनेक कलाकृत्यों द्वारा निर्मित भव्य शिवमंदिर शिवलिंग के साथ स्थापित किया गया।
वायु मार्ग: यहाँ का सबसे निकटतम हवाई अड्डा बागडोगड़ा (सिलीगुड़ी के निकट) हवाई अड्डा है।
रेल मार्ग: कटिहार में रेलवे स्टेशन कटिहार रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। पूर्वोतर के राज्यों में आवागमन का प्रमुख रेल मार्ग बरौनी-कटिहार-गौहाटी ही है। और मुख्य पाँच अलग - अलग मार्गाों में ट्रेनों का आवागमन भी यही से होता है।
सड़क मार्ग: भारत के कई प्रमुख शहरों से कटिहार सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। राष्ट्रीय राजमार्ग ३१ इस जिले तक पहुंचने का सुलभ राजमार्ग है।और झारखण्ड जाने के लिए मनिहारी गंगा में एल टी सी सेवा उपलब्ध् है,जो गंगा नदी के रास्ते साहिबगंज को जाती है। और मनिहारी में गंगा पुल होने का कार्य भी प्रारम्भ हो चुका है जो जल्दी ही कटिहार-झारखंड मार्ग को अति सुलभ बनाऐगी।
कटिहार में बहुत से शिक्षा संस्थान हैं-
रामकृष्ण मिशन विद्यामन्दिर
रामकृष्ण मिशन सारदा विद्यामन्दिर
जवाहर नवोदय विद्यालय
मनिपाल पब्लिक स्कूल
सूर्यदेव विधि महाविद्यालय
कटिहार आयुर्विज्ञान महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केन्द्र
जयमाला शिक्षा निकेतन
इन्हें भी देखें
बिहार के शहर
कटिहार ज़िले के नगर |
कुरुक्षेत्र (कुरुक्षेत्र) भारत के हरियाणा राज्य के कुरुक्षेत्र ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर और तीर्थ स्थल है। यहाँ महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। कुछ भाग इंडोनेशिया में भी उपलब्ध है
कुरुक्षेत्र हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुआ है तथा दिल्ली और अमृतसर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एतिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं ज्योतिसर नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि यहाँ स्थित विशाल तालाब का निर्माण महाकाव्य महाभारत में वर्णित कौरवों और पांडवों के पूर्वज राजा कुरु ने करवाया था। कुरुक्षेत्र नाम 'कुरु के क्षेत्र' का प्रतीक है।
कुरुक्षेत्र का इलाका भारत में आर्यों के आरंभिक दौर में बसने (लगभग १५०० ई. पू.) का क्षेत्र रहा है और यह महाभारत की पौराणिक कथाओं से जुड़ा है। इसका वर्णन भगवद्गीता के पहले श्लोक में मिलता है। इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा गया है। थानेसर नगर राजा हर्ष की राजधानी (६०६-६४७) था, सन १०११ ई. में इसे महमूद गज़नवी ने तहस-नहस कर दिया।
आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपंचक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण में आया है कि कुरु-पांचाल शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया। एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है। तैत्तिरीय आरण्यक में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था। उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन, लाट्यायन एवं कात्यायन के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से सरस्वती निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने ८३वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन' एवं 'सरक' के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात का है। नारदीय पुराण ने कुरुक्षेत्र के लगभग १०० तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे। ऐंश्येण्ट जियाग्राफी आव इण्डिया में आया है कि यह सर ३५४६ फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण १९०० फुट चौड़ा था।
कुरुक्षेत्र जिला एक मैदानी क्षेत्र है, जिसके ८८ प्रतिशत हिस्से पर खेती की जाती है और अधिकांश क्षेत्र पर दो फसलें उगाई जाती है। लगभग समूचा कृषि क्षेत्र नलकूपों द्वारा सिंचित है। कृषि में चावल और गेहूं की प्रधानता है। अन्य फसलों में गन्ना, तिलहन और आलू शामिल है। लगभग सभी गाँव सड़कों से जुड़े हैं। कुरुक्षेत्र नगर में हथकरघा, चीनी, कृषि उपकरण, पानी के उपकरण और खाद्य उत्पाद से जुड़े उद्योग अवस्थित है।
कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा ४८ कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, पानीपत और जींद का क्षेत्र सम्मिलित हैं।
इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहां की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्व है। सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेद व्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा ४८ कोस की मानी गई है। वन पर्व में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।' इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है। नारदीय पुराण में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।
कुरुक्षेत्र अम्बाला से २५ मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' अथर्ववेद में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद में आया है- 'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'
कुरू ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरूक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरू बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरू ने कहा-"जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।" इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बताया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-"यदि संभव हो तो कुरू को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।" तब इन्द्र ने पुन: कुरू के पास जाकर कहा-"नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।" कुरू ने यह बात मान ली। यही स्थान समंत-पंचक अथवा प्रजापति की उत्तरवेदी कहलाता है।
कुरुक्षेत्र के प्रमुख तीर्थ स्थान
शक्तिपीठ श्री भद्रकाली मन्दिर,
ज्योतिसर (श्रीमद्भागवतगीता उपदेश स्थली)
श्री स्थानेश्वर महादेव मन्दिर
कुरुक्षेत्र की पावन धरती पर श्री स्थानेश्वर महादेव मन्दिर स्थित है। लोक मन्यता है कि महाभारत के युद्ध से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन समेत यहाँ भगवान शिव की उपासना कर अशिर्वाद प्राप्त किया था। इस तीर्थ की विशेषता यह भी है कि यहाँ मन्दिर व गुरुद्वरा एक हि दिवार से लगते है। यहाँ पर हजारो देशी विदेशी पर्यटक दर्शन हेतु आते हैं।
कुरुक्षेत्र के अन्य ऐतिहासिक व पर्यटन स्थल
हर्ष का टीला - सम्राट हर्षवर्धन से संबंधित पुरातात्विक स्थल
शेख चेहेली का मकबरा - शेख चेहेली दारा शिकोह के आध्यात्मिक गुरु थे।
सड़क मार्ग: यह राष्ट्रीय राजमार्ग १ पर स्थित है। हरियाणा रोडवेज और अन्य राज्य निगमों की बसों से कुरुक्षेत्र पहुंचा जा सकता हैं। यह दिल्ली, चंडीगढ़ और अन्य महत्वपूर्ण स्थानों से सड़क मार्ग से पूरी तरह जुड़ा हुआ है।
हवाई मार्ग: कुरुक्षेत्र के करीब हवाई अड्डों में दिल्ली और चंडीगढ़ हैं, जहां कुरुक्षेत्र के लिए टैक्सी और बस सेवा उपलब्ध है। करनाल में नया हवाई अड्डा प्रस्तावित है।
रेल मार्ग : कुरुक्षेत्र में रेलवे जंक्शन है, जो देश के सभी महत्वपूर्ण कस्बों और शहरों के साथ-साथ सीधा दिल्ली से जुड़ा है। यहाँ शताब्दी एक्सप्रेस रुकती है।
जलवायु - यहाँ की जलवायु जुलाई और अगस्त में बारिश के साथ (१ डिग्री सेल्सियस के नीचे तक) और बहुत गर्मी में गर्म (४७ डिग्री सेल्सियस के ऊपर तक) पहुँच जाती है, जबकि सर्दियों में काफी ठंड पड़ती है।
प्रवेश - कुरुक्षेत्र अच्छी तरह से राष्ट्रीय राजमार्ग एक से जुड़ा हुआ है और सड़क, रेल तथा वायु द्वारा यहाँ सहजता से पहुंचा जा सकता है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के द्वारा कुरुक्षेत्र की एतिहासिकता को लेकर महाभारत के शांति पर्व पर आधारित एक महाकाव्य की रचना की गयी है। यह उस समय लिखा गया था, जब द्वितीय विश्व युद्ध की यादें कवि के मन में ताज़ा थी।
इन्हें भी देखें
कल्पना चावला प्लैनेटोरियम
पावन तीर्थ कुरुक्षेत्र अतीत एवं वर्तमान
कुरुक्षेत्र की आधिकारिक वेबसाइट
हरियाणा के शहर
कुरुक्षेत्र ज़िले के नगर
प्राचीन भारत के नगर
हिन्दू तीर्थ स्थल
भारत के तीर्थ
महाभारत में स्थान |
कोहिमा, भारत के उत्तर पूर्वी राज्य नागालैंड की राजधानी है। लगभग १००,०००, की आबादी के साथ, यह राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। मूल रूप से केवीरा के नाम से जाना जाने वाले, कोहिमा की स्थापना १८७८ में हुई थी जब ब्रिटिश साम्राज्य ने यहाँ तत्कालीन नागा पहाड़ियों का मुख्यालय स्थापित किया था। १९६३ में नागालैंड राज्य के उद्घाटन के बाद से यह शहर आधिकारिक तौर पर राज्य की राजधानी बन गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोहिमा में सबसे खूनी लड़ाइयों में से एक लड़ी गई थी। इस लड़ाई को अक्सर 'पूर्व का स्टेलिनग्राद' भी कहा जाता है। २०१३ में, ब्रिटिश नेशनल आर्मी म्यूजियम ने कोहिमा की लड़ाई को 'ब्रिटेन की सबसे बड़ी लड़ाई' बताया था।
कोहिमा नगरपालिका के अंतर्गत २० वर्गकिमी (७.७ वर्ग मील) क्षेत्र आता है। कोहिमा शहर कोहिमा जिले के अंतर्गत आता है और जिले के दक्षिण में स्थित जपफू पर्वतमाला की तलहटी में () पर स्थित है और इसकी औसत ऊंचाई १,26१ मीटर (4१3७ फीट) है।
कोहिमा एक सुन्दर शहर है। कोहिमा में अधिकतर नागा समुदाय के लोग रहते हैं। सांस्कृतिक दृश्यों व अनुभवों के अलावा पर्यटक यहां पर कई बेहतरीन और ऐतिहासिक पर्यटक स्थलों की सैर भी कर सकते हैं। इनमें राज्य संग्राहलय, एम्पोरियम, नागा हेरिटेज कॉम्पलैक्स, कोहिमा गांव, दजुकोउ घाटी, जप्फु चोटी, त्सेमिन्यु, खोनोमा गांव, दज्युलेकी और त्योफेमा टूरिस्ट गांव प्रमुख हैं। यह सभी पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं क्योंकि इनकी खूबसूरत उन्हें मंत्रमुग्ध कर देती है।
कोहिमा की औसत ऊंचाई है १२६१मीटर (४१३७फीट)।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों ने नागालैंड पर हमला किया था। इस हमले में बड़ी संख्या में सैनिक और अधिकारी मारे गए थे। हमले में मारे गए सैनिकों को गैरीसन हिल पर दफनाया गया था। वहां पर सैनिकों को समर्पित १४२१ समाधियों का निर्माण किया गया है। स्थानीय निवासी शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए नियमित रूप से यहां आते हैं। स्थानीय निवासियों के साथ-साथ पर्यटकों में भी यह समाधियां काफी लोकप्रिय हैं और कोहिमा आने वाले पर्यटक इन समाधियों के दर्शन जरूर करते हैं।
नागालैंड की राजधानी कोहिमा में पर्यटक एशिया के सबसे बड़े चर्च को देख सकते हैं। यह चर्च काफी बड़ा है और कोहिमा की पहचान बन चुका है। इस चर्च में लगभग ३,००० लोगों के बैठने की व्यवस्था है और यह लगभग २५,००० वर्ग फीट में फैला है। चर्च में बेथलेहम जैतुन की लकड़ी से बनी सुन्दर नाद देखी जा सकती। यह नाद चर्च की खूबसूरती को कई गुना बड़ा देती है। पर्यटकों को यहां पर आकार बहुत अच्छा लगता है क्योंकि यहां प्रार्थना करने के बाद उन्हें शांति का अहसास होता है।
नागा आदिवासियों की संस्कृति से जुड़े कोई विशेष दस्तावेज नहीं मिलते लेकिन उनकी संस्कृति और इतिहास काफी रोचक है। नागालैंड सरकार ने बयावी पहाड़ी पर संग्राहलय का निर्माण कराया है। इस संग्राहलय में नागालैंड की संस्कृति और इतिहास से जुड़ी अनेक वस्तुओं को देखा जा सकता है। इन वस्तुओं में कीमती रत्नों, हाथी दांत व मोतियों से बना हार, लकड़ी और भैंस के सींगों से बने वाद्ययंत्र तथा अन्य वस्तुएं प्रमुख हैं। कला प्रेमियों के लिए इस संग्राहलय में आर्ट गैलरी भी बनाई गई हैं। इसमें स्थानीय कलाकारों द्वारा बनाई गई खूबसूरत पेंटिंग्स को देखा और खरीदा जा सकता है।
नागा हेरिटेज कॉम्पलैक्स
नागालैंड सरकार ने १ दिसम्बर २००३ को इस कॉम्पलैक्स का उदघाटन किया था। यहां पर प्रतिवर्ष हॉरनबिल उत्सव मनाया जाता है। उत्सव के अलावा यहां पर नागालैंड का छोटा प्रतिरूप देखा जा सकता है। कॉम्पलैक्स में द्वितीय युद्ध की घटनाओं से जुड़े संग्रहालय, खरीदारी के लिए दुकानों, खाने-पीने के लिए रेस्तरां और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए एम्फीथियेटर का निर्माण किया गया है। इन सबके अलावा यहां पर फूलों के बगीचे के मनोरम दृश्य भी देखे जा सकते हैं। यह कॉम्पलैक्स बहुत खूबसूरत है और पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है।
कोहिमा गांव को एशिया में सबसे घनी आबादी वाला गांव माना जाता है। इसकी स्थापना व्हिनुओ नामक व्यक्ति ने की थी। इस गांव को भूतकाल और भविष्यकाल का संगम माना जाता है। यह कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहां पर सात झीलें और सात द्वार थे। लेकिन एक द्वार को छोड़कर यह सभी गायब हो चुके हैं। यह द्वार बहुत सुन्दर है और इस को भैंस के सींगो व विभिन्न आकार के पत्थरों से सजाया गया है जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। पर्यटकों को यह बहुत पसंद आता है और वह इसकी खूबसूरत तस्वीरों को अपने कैमरों में कैद करके ले जाते हैं।
दजुकोउ घाटी और जप्फु चोटी
कोहिमा की दक्षिण दिशा में ३० कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित दजुकोउ घाटी बहुत खूबसूरत है। अपनी खूबसूरती के दम पर इसने पर्यटकों के बीच खास पहचान बनाई हैं। यहां पर पर्यटक विभिन्न रंगों और आकार के खूबसूरत फूलों को देख सकते हैं। इन फूलों में एकोनिटम और एन्फोबियस प्रमुख हैं। दजुकोउ घाटी के खूबसूरत दृश्य देखने के बाद जप्फु चोटी के मनोहारी दृश्य देखे जा सकते हैं। यह चोटी सदाबहार जंगलों से भरी पड़ी है। इन जंगलों में सबसे ऊंचे वृक्ष को देखा जा सकता है। अपनी इस विशेषता के कारण इस पेड़ को गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्डस में शामिल किया गया है।
नागालैंड के दीमापुर विमानक्षेत्र में हवाई अड्डे का निर्माण किया गया है। यहां से कोहिमा तक पहुंचना काफी आसान है।
हवाई अड्डे के अलावा दीमापुर में रेलवे स्टेशन का भी निर्माण किया गया है। दीमापुर से कोहिमा मात्र ७४ कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है।
कोहिमा बस अड्डा नागालैंड का सबसे व्यस्तम बस अड्डा है। यहां से नागालैंड के विभिन्न स्थानों के लिए बसों का परिचालन किया जाता है। बसों के अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग ३९ से निजी वाहनों द्वारा भी कोहिमा तक पहुंचा जा सकता है।
इन्हें भी देखें
नागालैण्ड के नगर
कोहिमा ज़िले के नगर
नागालैण्ड में हिल स्टेशन |
ग्वालियर भारत के मध्य प्रदेश राज्य के ग्वालियर ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर और राज्य का का एक प्रमुख शहर है।
भौगोलिक दृष्टि से ग्वालियर म.प्र. राज्य के उत्तर में स्थित है। यह शहर और इसका प्रसिद्ध दुर्ग उत्तर भारत के प्राचीन शहरों के केन्द्र रहे हैं। यह शहर गुर्जर-प्रतिहार राजवंश, तोमर तथा कछवाहा की राजधानी रही है ।
ग्वालियर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रमुख स्मार्ट सिटीज मिशन के तहत स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित होने वाले सौ भारतीय शहरों में से एक के रूप में चुना गया है। </स्पैन>
ग्वालियर शहर के नाम के पीछे एक इतिहास छिपा है। छठी शताब्दी में एक राजा हुए सूरजसेन, एक बार वे एक अज्ञात बीमारी से ग्रस्त हो मृत्युशैया पर थे, तब ग्वालिपा नामक सन्त ने उन्हें ठीक कर जीवनदान दिया। उन्हीं के सम्मान में इस शहर की नींव पड़ी और इसे नाम दिया ग्वालियर। कहते है, सूरजसेन पाल के ८३ वंशजों ने किले पर राज्य किया, लेकिन ८४ वें, जिसका नाम तेज करण था, इसे हार गया।
ग्वालियर किले में चतुर्भुज मंदिर एक लिखित संख्या के रूप में शून्य की दुनिया की पहली घटना का दावा करता है। हालाँकि पाकिस्तान में भकशाली शिलालेख की खोज होने के बाद यह दूसरे स्थान पर आ गया। ग्वालियर का सबसे पुराना शिलालेख हूण शासक मिहिरकुल की देन है, जो छठी सदी में यहाँ राज किया करते थे। इस प्रशस्ति में उन्होंने अपने पिता तोरमाण (४९३-५१५) की प्रशंसा की है।
१२३१ में इल्तुतमिश ने ११ महीने के लंबे प्रयास के बाद ग्वालियर पर कब्जा कर लिया और तब से १३ वीं शताब्दी तक यह मुस्लिम शासन के अधीन रहा। १३75 में राजा वीर सिंह को ग्वालियर का शासक बनाया गया और उन्होंने तोमरवंश की स्थापना की। उन वर्षों के दौरान, ग्वालियर ने अपना स्वर्णिम काल देखा। इसी तोमर वंश के शासन के दौरान ग्वालियर किले में जैन मूर्तियां बनाई गई थीं।
राजा मान सिंह तोमर ने अपने सपनों का महल, मैन मंदिर पैलेस बनाया जो अब ग्वालियर किले में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। बाबर ने इसे " भारत के किलों के हार में मोती" और "हवा भी इसके मस्तक को नहीं छू सकती" के रूप में वर्णित किया था। बाद में १७३० के दशक में, सिंधियों ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया| फिर सन १७४० मे गोहद के जाट राजा भीम सिंह राणा ने ग्वालियर को जीत लिया और कई वर्षों तक यहां शासन किया| फिर दुबारा सिंधियों ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया और ब्रिटिश शासन के दौरान यह एक रियासत बना रहा।
१५ वीं शताब्दी तक, शहर में एक प्रसिद्ध गायन स्कूल था जिसमें तानसेन ने भाग लिया था। ग्वालियर पर मुगलों ने सबसे लंबे समय तक शासन किया और फिर मराठों ने।
क़िले पर आयोजित दैनिक लाइट एंड साउंड शो ग्वालियर किले और मान मंदिर पैलेस के इतिहास के बारे में बताता है।
१८५७ का स्वाधीनता संग्राम
१८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ग्वालियर ने भाग नहीं लिया था। बल्कि यहाँ के सिंधिया शासक ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। झाँसी के अंग्रेज़ों के हाथ में पड़ने के बाद रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर भागकर आ पहुँचीं और वहाँ के शासक से उन्होंने पनाह माँगी। अंग्रेज़ों के सहयोगी होने के कारण सिंधिया ने पनाह देने से इंकार कर दिया, किंतु उनके सैनिकों ने बग़ावत कर दी और क़िले को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। कुछ ही समय में अंग्रेज़ भी वहाँ पहुँच गए और भीषण युद्ध हुआ। महाराजा सिंधिया के समर्थन के साथ अंग्रेज़ १,६०० थे, जबकि हिंदुस्तानी २०,०००। फिर भी बेहतर तकनीक और प्रशिक्षण के चलते अंग्रेज़ हिन्दुस्तानियों पर हावी हो गए। जून १858 में रानी लक्ष्मीबाई भी अंग्रेज़ों से लड़ते हुए ग्वालियर में वीरगति को प्राप्त हो गईं। वहीं तात्या टोपे और नाना साहिब वहाँ से फ़रार होने में कामयाब रहे। रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान आज भी पूरे भारत में याद किया जाता है।
मुख्य आलेख- ग्वालियर रियासत
ग्वालियर पर आज़ादी से पहले सिंधिया वंश का राज था, जो मराठा समूहों में से एक थे। इसमें १८वीं और १९वीं शताब्दी में ग्वालियर राज्य शासक, १९वीं और २०वीं शताब्दी के दौरान औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के सहयोगी और स्वतंत्र भारत में राजनेता शामिल थे।
ग्वालियर के ऐतिहासिक स्थल
मुरार: पहले यह सैन्य क्षेत्र हुआ करता था, जिसे मिलिट्री ऑफिसर्स रेजिडेंशियल एरिया रिजर्व्ड (म.ओ.र.आ.र.) कहा जाता था और संक्षेप में मोरार। मोरार शब्द का लोप होकर मुरार हो गया।
थाटीपुर: रियासत काल में यहाँ सेना के सरकारी आवास थे, जिस का नाम थर्टी फोर लांसर था। आज़ादी के बाद यह आवास मध्य प्रदेश शासन के अधीन आ गए, जिसे थर्टी फोर की जगह थाटीपुर कहा गया।
सहस्त्रबाहु मंदिर या सासबहू का मंदिर : ग्वालियर दुर्ग पर इस मंदिर के बारे में मान्यता है की यह सहत्रबाहु अर्थात हजार भुजाओं वाले भगवन विष्णु को समर्पित है। बाद में धीरे-धीरे सासबहू का मंदिर कहा जाने लगा।
गोरखी: पुराने रजिस्ट्रार ऑफिस से गजराराजा स्कूल तक सिंधियावंश ने रहने का स्थान बनाया था। यही उनकी कुल देवी गोराक्षी का मंदिर बनाया गया। बाद में यह गोरखी बन गई।
पिछड़ी ड्योढ़ी: स्टेट टाइम में महल बनने से पहले सफ़ेद झंडा गाड़ा जाता था। जब महल बना तो इसके पीछे की ड्योढ़ी और बाद में पिछड़ी ड्योढ़ी कहलाने लगी।
तेली का मंदिर: ८ वी शताब्दी में राजा के सेनापति तेल्प ने दुर्ग पर दक्षिण और उत्तर भारतीय शैली का मंदिर बनवाया था, जिसे तेल्प का मंदिर कहा जाता था। आज इसे तेली का मंदिर कहा जाता है।
पान पत्ते की गोठ: पूना की मराठा सेना जब पानीपत युद्ध से पराजित होकर लौट रही थी, तब उसने यहीं अपना डेरा डाल लिया। पहले इसे पानीपत की गोठ कहा जाता था। बाद में यह पान पत्ते की गोठ हो गई।
डफरिन सराय: १८ वी शतदि में यहां कचहरी लगाई जाती थी। यहां ग्वालियर अंचल के करीब ८०० लोगों को लॉर्ड डफरिन ने फांसी की सजा सुनाई थी, इसी के चलते इसे डफरिन सराय कहा जाता है।
कोटा की सराय
१७ जून १८५८ को महारानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों का अंतिम महा युद्ध हुआ।
१५ जून १८५८ महारानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों का अंतिम महा युद्ध हुआ।
१ जून और १६ जून १८५८ को महारानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेज और सिंधिया का युद्ध हुआ।
१७ जून १८५८ की सुर्यास्त के समय महारानी लक्ष्मीबाई का यहा बाबा गंगादास महाराज के मठ में अंतिम संस्कार हुआ। आज यहा स्मारक है।
महाराजा मान सिंह का क़िला
सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उँचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आसपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दि में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजपूत राजा मानसिंह तोमर और गुर्जर रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। ग्वालियर का किला से आगरा १२० कि॰मी॰ दूर स्थित है। इसे 'भारत का जिब्राल्टर' कहा जाता है।
तेली का मंदिर
९वीं शताब्दी में निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो की १०० फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड़ संगम है।
इसे १४८६ से १५१७ के बीच ग्वालियर के प्रतापी राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छीनी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं।राजा मानसिंह पराक्रमी योद्धा होने के साथ ही ललित कला प्रेमी व स्थापत्य शैली के जानकार भी थे।उनके शासनकाल को ग्वालियर का स्वर्ण युग कहा जाता है।इस किले के विशाल कक्षों में अतीत आज भी स्पंदित है। यहां जालीदार दीवारों से बना संगीत कक्ष है, जिनके पीछे बने जनाना कक्षों में राज परिवार की स्त्रियां संगीत सभाओं का आनंद लेतीं और संगीत सीखतीं थीं। इस महल के तहखानों में एक कैदखाना है, इतिहास कहता है कि औरंगज़ेब ने यहां अपने भाई मुराद को कैद रखवाया था और बाद में उसे समाप्त करवा दिया। जौहर कुण्ड भी यहां स्थित है। इसके अतिरिक्त किले में इस शहर के प्रथम शासक के नाम से एक कुण्ड है ' सूरज कुण्ड। विष्णु जी का एक मन्दिर है 'सहस्रबाहु का मन्दिर' जिसे अब सास-बहू का मंदिर नाम से भी जानते हैं। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था।
जयविलास महल और संग्रहालय
यह सिंधिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं, बल्कि एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के ३५ कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिद्ध चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहाँ हैं।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है।
विवस्वान सूर्य मन्दिर
यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है।
गोपाचल पर्वत ग्वालियर के किले के अंचल में, प्राचीन कलात्मक जैन मूर्ति समूह का अद्वितीय स्थान है। यहाँ पर हजारों विशाल दि. जैन मूर्तियाँ सं. १३९८ से सं. १५३६ के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइधू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई।
झाँसी महारानी लक्ष्मीबाई समाधी स्थान
रानी लक्ष्मीबाई स्मारक शहर के पड़ाव क्षैत्र में है। कहते हैं यहां झाँसी की रानी वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की सेना ने अंग्रेजों से लड़ते हुए पड़ाव डाला और यहां के तत्कालीन शासक महाराजा जयाजीराव शिंदे उर्फ सिंधिया से सहायता मांगी किन्तु सदैव से मुगलों और अंग्रेजों के प्रभुत्व में रहे यहां के शासक उनकी मदद न कर सके और वे यहां १७ जून १८५८ को सुर्यास्त के समय कोटा की सराय के फुलबाग में वीरगति को प्राप्त हुईं। बाबा गंगादास महाराज के मठ में महारानी लक्ष्मीबाई का गुप्तरूप से अंतिम संस्कार हुआ। उनकी अंतिम संस्कार में व्यत्यय ना आये इसलिये ७४५ साधूओं ने अंग्रेजों से लोहा लिया और सदा के लिये अमर हुये। उसी स्थान पर उनका भव्य अश्वारूढ पुतला का स्मारक है।
१८ जून १८५८ की शाम को अंग्रेजों ने ग्वालियर में महारानी लक्ष्मीबाई की खोज की रानी लक्ष्मीबाई का कुछ भी पता न चलने पर शाम के समय महारानी लक्ष्मीबाई को अधिकारीक रूप से मृत घोषित किया गया। १९ जून को यह जानकारी फोर्ट विल्यम तथा रानी विक्टोरिया को टेलिग्राफ द्वारा हॅमिल्टन ने दी। २० जून को न्युज पेपर के जरिये पुरे हिंदुस्थान तथा इंग्लैंड और अमरिका में रानी लक्ष्मीबाई के मृत्यु की जानकारी थी गयी।
ग्वालियर मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग में पर स्थित है। यह दिल्ली से क़रीब ३०० किमी दूर पड़ता है।
ग्वालियर में मार्च के अंत से लेकर जून की शुरुआत तक गर्म ग्रीष्मकाल के साथ उप-उष्णकटिबंधीय जलवायु होती है, जून के अंत से अक्टूबर की शुरुआत तक आर्द्र मानसून का मौसम होता है, और नवंबर के अंत से फरवरी के अंत तक ठंडी शुष्क सर्दी होती है।कोपेन के जलवायु वर्गीकरण के तहत शहर में आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है।
लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा विश्वविद्यालय, भारत के बड़े शारीरिक शिक्षा विश्वविद्यालयों में से एक है। ग्वालियर में कृत्रिम टर्फ़ का रेलवे हॉकी स्टेडियम भी है। रूप सिंह स्टेडियम ४५,००० की क्षमता वाला अन्तर्रष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम है, जहाँ १० एक दिवसिय अन्तर्रष्ट्रीय मैचों क आयोजन हो चुका है। यह स्टेडियम दुधिया रोशनी से सुसज्जित है, तथा १९९६ के क्रिकेट विश्व कप का भारत - वेस्ट इन्डीज़ मेच का आयोजन कर चुका है। इस मैदान पर सचिन तेंडुलकर, एक दिवसीय मैच में दोहरा शतक जमाने वाले विश्व के पहले खिलाडी बने थे, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका टीम के खिलाफ २४ फरवरी २०१० को लगाया था।
ग्वालियर संगीत के शहर के रूप में भी जाना जाता है।राजा मान सिंह तोमर (१४८६ ई.)के शासनकाल में संगीत महाविद्यालय की नींव रखी गई। बैजू बावरा, हरिदास ,तानसेन आदि ने यहीं संगीत साधना की। संगीत सम्राट तानसेन ग्वालियर के बेहट में पैदा हुए।म. प्र. सरकार द्वारा तानसेन समारोह ग्वालियर में हर साल आयोजित किया जाता है। सरोद उस्ताद अमजद अली ख़ान भी ग्वालियर के शाही शहर से है। उनके दादा गुलाम अली खान बंगश ग्वालियर के दरबार में संगीतकार बने। बैजनाथ प्रसाद (बैजू बावरा) ध्रुपद के गायक थे जिन्होने ग्वालियर को अपनी कर्म भूमि बनाई।
यह ख़याल घरानों में सबसे पुराना घराना है, जिससे कई महान संगीतज्ञ निकले है। ग्वालियर घराने का उदय महान मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल (१५४२-१६०५) के साथ शुरू हुआ। तानसेन जैसे इस कला के संरक्षक ग्वालियर से आये।
ग्वालियर का राजमाता विजया राजे सिंधिया विमानतल, शहर को दिल्ली, मुंबई, इंदौर, भोपाल व जबलपुर से जोड़ता है। यहाँ भारतीय वायु सेना का मिराज़ विमानों का विमान केन्द्र है।
ग्वालियर का रेलवे स्थानक देश के विविध रेलवे स्थानकों से जुड़ा हुआ है। यह रेलवे स्थानक भारतीय रेल के दिल्ली-चैन्नई मुख्य मार्ग पर पड़ता है। साथ ही यह शहर कानपुर, मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलूरू, हैदराबाद आदि शहरों से अनेक रेलगाडियों के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
ग्वालियर शहर राज्य व देश के अन्य भागों से काफ़ी अच्छे से जुड़ा हुआ है। आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग न्ह-३, ग्वालियर से गुजरता है। ग्वालियर झाँसी से न्ह-७५ से जुड़ा है। नॉर्थ-साउथ कॉरीडोर भी ग्वालियर से गुजरता है, एवं ग्वालियर भिण्ड से न्ह-९२ से जुड़ा हुआ है।
ग्वालियर पश्चिमको राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रसे धन सहायता के साथ एक "काउंटर मैग्नेट" परियोजना के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसे शिक्षा, उद्योग और रियल एस्टेट में निवेश बढ़ाने के लिए पेश किया गया है।हॉटलाइन, सिमको और ग्रासिम ग्वालियर जैसे निर्माताओं के समापन का मुकाबला करने की उम्मीद है। स्थानीय कलेक्टर और नगर निगम द्वारा शुरू की गई ग्वालियर मास्टर योजना शहर की बढ़ती आबादी को पूरा करने और साथ ही शहर को पर्यटकों के लिए सुंदर बनाने के लिए शहर के बुनियादी नागरिक बुनियादी ढांचे में सुधार करने की पहल करती है।
ग्वालियर के कुम्भकार
ग्वालियर मृणशिल्पों की दृष्टि से आज उतना समृद्व भले ही न दिखता हो किन्तु लगभग पच्चीस वर्ष पहले तक यहां अनेक सुन्दर खिलौने बनाये जाते थे। दीवाली, दशहरे के समय यहां का जीवाजी चौक जिसे बाड़ा भी कहा जाता है, में खिलौनों की दुकाने बड़ी संख्या में लगती थी। मिट्टी के ठोस एवं जल रंगों से अलंकृत वे खिलौने अधिकांशतः बनना बन्द हो गये हैं। गूजरी, पनिहारिन, सिपाही, हाथी सवार, घोड़ा सवार, गोरस, गुल्लक आदि आज भी बिकते है। अब यहां मिटटी के स्थान पर कागज की लुगदी के खिलौने अधिक बनने लगे हैं जिन पर स्प्रेगन की सहायता से रंग ओर वार्निश किया जाता है।
यहां बनाये जाने वाले मृण शिल्पों में अनुष्ठानिक रूप से महत्वपूर्ण है, महालक्ष्मी का हाथी, हरदौल का धोड़ा, गणगौर, विवाह के कलश, टेसू, गौने के समय वधू को दी जाने वाली चित्रित मटकी आदि।
ग्वालियर, कुंभार (प्रजापति) समुदाय की सामाजिक संरचना के अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां हथेरिया एवं चकरेटिया दोनों ही प्रकार के कुंभार पाये जाते है। हथरेटिया कुंभार चकरेटिया कुंभारों की भांति बर्तन बनाने के लिए चाक का प्रयोग नहीं करते, वे हाथों से ही, एक कूंढे की सहायता से मिटटी को बर्तनों को आकार देते हैं। उनके बनाये बर्तनों की दीवारें मोटी होती हैं। ये लोग खिलौनें बनाने में दक्ष होते है।
ग्वालियर से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की लघु-पत्रिकाएँ
शिक्षा एवं शिक्षण संस्थान
ग्वालियर में जीवाजी विश्वविद्यालय (१९६४) और इससे संबंद्ध कला, विज्ञान, वाणिज्य, चिकित्सा तथा कृषि महाविद्यालय हैं और नगर में साक्षरता की दर काफ़ी ऊंची है। ग्वालियर में संगीत की यशस्वी परंपरा रही है और उसकी अपनी ख़ास शैली रही है। जो ग्वालियर 'घराना' नाम से प्रसिद्ध है।
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
लक्ष्मीबाई नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल एजुकेशन
माधव प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, ग्वालियर
राजमाता विजयराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय
अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी और प्रबंधन संस्थान
राष्ट्रीय पर्यटन संस्थान, ग्वालियर
प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन संस्थान, ग्वालियर
एमिटी विश्वविद्यालय, ग्वालियर
आई टी एम विश्वविद्यालय, ग्वालियर
आईपीएस महाविद्यालयीन समूह, ग्वालियर
ग्वालियर इंजीनियरिंग कॉलेज़, ग्वालियर
ग्वालियर सूचना प्रौद्यौगिकी संस्थान, ग्वालियर
सिंधिया कन्या विद्यालय, ग्वालियर
आई आई आई टी एम, ग्वालियर
रुस्तमजी प्रौद्योगिकी संस्थान, टेकनपुर
श्री रामनाथ सिंह महाविद्यालय फार्मेसी, ग्वालियर
जनसंख्या, साक्षरता एवं धर्म
२०११ की जनगणना के मुताबिक ग्वालियर की कुल जनसंख्या २०,३०,५४३ है, जिसमे पुरुष १०,९०,६४७ व महिला ९,३९,८९६ है। साक्षरता ५७.४७% है (पुरुष ७०.८१%, महिला ४१.७२%)।
ग्वालियर से प्रसिद्ध हस्तियाँ
तानसेन - अक़बर के दरबार में संगीतज्ञ
गणेश शंकर विद्यार्थी - प्रसिद्ध हिन्दी लेखक
अटल बिहारी वाजपेयी - भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री एवं जाने माने कवि
अतुल कुमार (लेखक) - प्रसिद्व हिंदी लेखक
रूप सिंह - भारतीय हॉकी खिलाड़ी
माधवराव सिंधिया - भारतीय राजनेता व केन्द्रीय मंत्री
कौशलेन्द्र सिंह घुरैया -प्रसिद्व हिंदी लेखक
कार्तिक आर्यन- सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता
अमजद अली ख़ान - सरोद वादक व संगीतज्ञ
ज्योतिरादित्य सिंधिया -बीजेपी के एक प्रमुख नेता
शिवेन्द्र सिंह - भारतीय हॉकी खिलाड़ी
निदा फ़ाज़ली - प्रसिद्ध उर्दू लेखक व शायर
नरेन्द्र सिंह तोमर - सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री
विवेक अग्निहोत्री - फिल्म निर्माता
मीत ब्रदर्स - बॉलीबुड की प्रसिद्ध गायक जोड़ी
इन्हें भी देखें
ग्वालियर का क़िला
टीन का पुरा
ग्वालियर में "विवेकानन्द केन्द्र" : एक परिचय
ग्वालियर का "विवेकानन्द नीडम्" : एक परिचय
मध्य प्रदेश के शहर
ग्वालियर ज़िले के नगर |
कूचबिहार (, राजबंग्शी/कामतापुरी: ) भारत के पश्चिम बंगाल प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित कूचबिहार ज़िले का एक नगर है, जो उस ज़िले का मुख्यालय भी है। सन् १५८६ से १९४९ तक यह एक छोटी रियासत के रूप में था। यह भूटान के दक्षिण में पश्चिम बंगाल और बिहार की सीमा पर स्थित एक शहर है। कूच बिहार अपने सुन्दर पर्यटक स्थलों के लिए प्रसिद्ध है। पर्यटक स्थलों के अलावा यह अपने आकर्षक मन्दिरों के लिए भी पूरे विश्व में जाना जाता है। अपने बेहतरीन पर्यटक स्थलों और मन्दिरों के अतिरिक्त यह अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है।
शहर की भाग-दौड़ से दूर कूच बिहार एक शांत इलाका है। यहां पर छुट्टियां बिताना पर्यटकों का बहुत पसंद आता है क्योंकि इसकी प्राकृतिक सुन्दरता उनमें नई स्फूर्ति और ऊर्जा का संचार कर देती है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहां पर कोच राजाओं का शासन था और वह नियमित रूप से बिहार की यात्रा किया करते थे। इस कारण इसका नाम कूच बिहार पड़ा।
मदन मोहन बाड़ी
कूच बिहार के हृदय में स्थित मदन मोहन बाड़ी बहुत खूबसूरत है। इसका निर्माण महाराजा नृपेन्द्र नारायण ने १८८५-१८८९ ई. में कराया था। मदन मोहन बाड़ी में पर्यटक मदन मोहन, मां काली, मां तारा और भवानी की मनोरम प्रतिमाओं को देख सकते हैं। यहां पर हर वर्ष रस पूजा आयोजित की जाती है। इस पूजा के मुख्य आकर्षण रस यात्रा और रस मेला होते हैं। यह यात्रा और मेला पर्यटकों को बहुत पसंद आता है और वह इनमें भाग लेने के लिए प्रतिवर्ष यहां आते हैं।
कूचबिहार राजबाड़ी कूच बिहार के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। इसका निर्माण यूरोपियन शैली में किया गया है। इस पैलेस का निर्माण कोच सम्राट महाराजा नृपेन्द्र नारायण ने १८८७ ई. में कराया था। यह दो मंजिला पैलेस है। इन दोनों मंजिलों का निर्मार्ण ईटों से किया गया है। पैलेस का कुल क्षेत्रफल ४७६८ वर्ग मी. और इसकी लंबाई व चौड़ाई क्रमश: १२० और ९० मी. है। पर्यटकों को यह पैलेस बहुत पसंद आता है और वह इसकी खूबसूरत तस्वीरों को अपने कैमरों में कैद करके ले जाते हैं।
कूच बिहार की उत्तर दिशा में १० कि॰मी॰ की दूरी पर अर्धनारीश्वर मन्दिर स्थित है। इस मन्दिर में पर्यटक १० फीट लंबे शिवलिंग को देख सकते हैं, जो एक चौकोर शिला पर स्थित है। मन्दिर के दूसर भाग में गौरीपट है, जो बहुत आकर्षक है और पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। अर्धनारीश्वर मन्दिर के प्रागंण में एक तालाब भी है, जिसमें पर्यटक अनेक प्रजातियों के कछुओं को देख सकते हैं। इनमें कई कछुए सामान्य से बड़े आकार के हैं। शिव चर्तुदशी के दिन यहां पर एक हफ्ते के लिए भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है। इस मेले में स्थानीय निवासी और पर्यटक बड़े उत्साह से भाग लेते हैं।
दिन्हाता रेलवे स्टेशन के पास कामतेश्वरी मन्दिर स्थित है। इस मन्दिर का निर्माण महाराजा प्राण नारायण ने १६६५ ई. में कराया था। हालांकि इस मन्दिर की असली इमारत का अधिकतर भाग ढह चुका है, लेकिन यह मन्दिर आज भी बहुत खूबसूरत है। इसके प्रांगण में २ छोटे-छोटे मन्दिर भी हैं, जो बहुत खूबसूरत हैं और पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। कामतेश्वरी मन्दिर के प्रवेश द्वार पर पर्यटक तारकेश्वर शिवलिंग के दर्शन भी कर सकते हैं। माघ में यहां पर देवी को समर्पित एक भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है।
सिद्धांत शिव मन्दिर
धौलाबाड़ी में स्थित सिद्धांत शिव मन्दिर बहुत खूबसूरत है। इस मन्दिर का निर्माण महाराजा हरेन्द्र नारायण और महाराजा शिवेन्द्र नारायण ने १७९९-१८४३ ई. में संयुक्त रूप कराया था। यह मन्दिर टेरोकोटा शैली में बना हुआ है। इसका मुख्य आकर्षण ५ खूबसूरत गुम्बद है जो पर्यटकों को बहुत आकर्षित करते हैं। स्थानीय निवासियों में इस मन्दिर के प्रति बहुत श्रद्धा है और वह पूजा करने के लिए प्रतिदिन यहां आते हैं। कूच बिहार से पर्यटक आसानी से यहां तक पहुंच सकते हैं।
भारत की रियासतें
पश्चिम बंगाल के शहर
कूचबिहार ज़िले के नगर |
नगाँव (नागांव) भारत के असम राज्य के नगाँव ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। नगाँव गुवाहाटी से १२० किमी पूर्व में कोलोंग नदी के किनारे बसा हुआ है, और असम का पाँचवा सबसे बड़ा नगर है।
नगांव कृषि व्यापार केंद्र है और यहाँ गुवाहाटी विश्वविद्यालय से संबद्ध कई होमोयोपैथिक चिकित्सा महाविद्यालय स्थित हैं। नगांव से पांच किमी दक्षिण-पश्चिम में संचोआ में एक रेल जंक्शन हैं। नगांव के आसपास का क्षेत्र ब्रह्मपुत्र नदी घाटी का एक हिस्सा है और इसमें कई दलदल और झीलें हैं, जिनमें से कई मत्स्यपालन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इसके इर्द-गिर्द के जंगल सागौन व साल की इमारती लकड़ियां और लाख उपलब्ध कराते हैं कृषि उत्पादों में चावल, जूट, चाय और रेशम शामिल हैं।
इसके उत्तर में दरें, पूर्व एवं दक्षिण में संयुक्त मिकिर उत्तरी कछार पहाड़ियाँ, पश्चिम तथ उत्तर-पश्चिम में क्रमश: उत्तरी कछार और जयंतिया पहाड़ियाँ एव दरं जिले हैं। यह जिला पहाड़ी है। इसके किनारे की ढालें खड़ी तथा जंगलों से युक्त हैं। यहाँ की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र है जो उत्तरी सीमा पर बहती है। इसके अतिरिक्त अन्य कई छोटी नदियाँ भी यहाँ बहती हैं। ब्रह्मपुत्र के उत्तर में हिमखंडित हिमालय दिखलाई पड़ता है। ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे १,५०० फुट ऊँची कामाख्या पहाड़ी है जिसकी चोटी पर कामाख्या देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। जिले का मैदानी भाग जलोढ मिट्टी से बना है। जंगलों में अनेक जानवर पाए जाते हैं। नवंबर से लेकर मध्य मार्च तक का जलवायु ठंडा तथा आनंदायक रहता है। वर्ष के शेष भाग में जलवायु गरम रहता है। गरम से गरम दिन का ताप ३८डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है, किंतु वायु में नमी की मात्रा अधिक रहती है। वर्षा का वार्षिक औसत ७० इंच से ८० इंच तक रहता है। धान मुख्य उपज है। इसके अतिरिक्त चाय, गन्ना, तिल, कपास की भी खेती होती है। यहाँ थोड़ी मात्रा में कच्चा लोहा, चूने का पत्थर तथा कोयले का भी खनन होता है।
चाय उद्योग के अतिरिक्त यहाँ अन्य कोई उन्नतिशील उद्योग नहीं है, केवल कुछ घरेलू उद्योग धंधे हैं, जिनमें सूती एवं रेशमी कपड़े बुनना, आभूषणों के काम, चटाइयाँ तथा टोकरियाँ बनाना, पीतल के बरतन बनाना आदि मुख्य हैं। यहाँ एक प्रकार की पत्तियों से टोप बनाए जाते हैं। चाय, तिलहन, कपास, लाख, बाँस की चटाइयाँ इत्यादि यहाँ से बाहर जाती हैं तथा चावल, चना एवं अन्य अनाज, चीनी, नमक तथा मिट्टी का एवं अन्य तेल, घी आदि बाहर से यहाँ आते हैं। यातायात के साधन अच्छे हैं। यहाँ के मुख्य नगर नगांव, लामडिं, होजय और ढिंग हैं।
नगाँव जिले में इसी नाम का कोलोंग नदी के बाएँ किनारे पर स्थित नगर है। सन् १८९७ में इस नगर को भूचाल से बहुत हानि उठानी पड़ी, मकान नष्ट हो गए तथा दलदलों का तल ऊपर उठ जाने से चारों तरफ पानी फैल गया था। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य अच्छे हैं, किंतु गरमी के कारण जलवायु अस्वास्थ्यप्रद है। यहाँ का अधिकांश व्यापार मारवाड़ी लोगों के हाथ में है। यहाँ से सरसों, कपास, लाख आदि बाहर भेजे जाते हैं तथा नमक, तेल, सूती कपड़े, अनाज आदि बाहर से मँगाए जाते हैं। यहाँ शिक्षा का प्रबंध भी है।
इन्हें भी देखें
असम के नगर
नगाँव ज़िले के नगर |
गुंटूर आंध्र प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। आंध्र प्रदेश के उत्तर पूर्वी भाग में कृष्णा नदी डेल्टा में स्थित है गुंटूर। विजयवाड़ा-चेन्नई ट्रंक रोड पर स्थित गुंटूर की स्थापना फ्रांसिसी शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य में की थी। करीब १० शताब्दियों तक उन्होंने यहां राज किया। बाद में १७८८ में इसे ब्रिटिश साग्राज्य में मिला दिया गया। गुंटूर बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र रहा है। प्रकृति ने अपनी खूबसूरती ऊचें पहाड़ों, हरीभरी घाटियों, कलकल बहती नदियों और मनमोहक तटों के रूप में यहां बिखेरी है। आज गुंटूर अपने धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों तथा चटपटे अचार के लिए दुनिया भर में जाना जाता है।
गुंटूर नगर की स्थापना १८वीं शताब्दी के मध्य में फ़्रांसीसियों द्वारा की गई थी, लेकिन १७८८ में अंग्रेजी का इस पर स्थायी रूप से अधिकार हो गया। १८66 में यहाँ नगरपालिका का गठन किया गया।
उद्योग और व्यापार
रेलवे जंक्शन और व्यापारिक केंद्र गुंटूर की अर्थव्यवस्था पटसन, तंबाकू और चावल की खेती पर निर्भर है। गुंटूर में एक कृषि शोध केंद्र भी है।
कृषि और खनिज
गुंटूर के आसपास के क्षेत्रों में ज्वार, मिर्च, मूंगफली और तंबाकू की खेती भी होती है।
जिनमें बापटलाल इंजीनियरिंग कॉलेज, के. एल. कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, आर. वी. आर. कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, विज्ञान इंजीनियरिंग कॉलेज, एम. बी. टी. एस. राजकीय पॉलिटेक्निक, राजकीय महिला पॉलिटेक्निक, गुंटूर मेडिकल कॉलेज, महात्मा गांधी कॉलेज फ़ॉर पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सेज़ और आंध्र विश्वविद्यालय से संबद्ध कई महाविद्यालय हैं। निकट ही १२वीं शताब्दी का भरनप्राथ पहाड़ी दुर्ग स्थित है।
गुंटूर ज़िले का क्षेत्रफल ११,३७७ वर्ग किमी है और पूर्व तथा उत्तर में यह कृष्णा नदी से घिरा है |
भवनारायण स्वामी मंदिर
गुंटूर से ४९ किलोमीटर दूर बपाट्ला का भवनारायणस्वामी मंदिर भगवान भवनारायण को समर्पित है। समय बीतने के साथ अब इन्हें बापट्ला के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर गुंटूर जिले का सबसे प्राचीन और सबसे प्रमुख मंदिर है। इतिहास और शिल्प की दृष्टि से मंदिर का बहुत महत्व है।
अमरावती गुंटूर से ३५ किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में कृष्णा नदी के किनारे स्थित है। यहां पूरे वर्ष श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है इसलिए यहां पर्यटकों के लिए सुविधाओं की अच्छी व्यवस्था है। यहां भगवान शिव के प्रमुख मंदिरों में से एक अमरेश्वर है जहां शिवरात्रि के अवसर पर भक्तों की भारी भीड़ होती है। अमरावती में विश्वप्रसिद्ध बौद्ध स्तूप भी है जहां भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्रों को देखा जा सकता है।
कोटप्पा कोंडा नरसराओपेट से १३ किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से ऋत्रिकोटेश्वर स्वामी की पूजा की आती है जिनका मंदिर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। अब राज्य सरकार इस स्थान को पर्यटन और धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रही है। इसके लिए यहां पर्यटन सुविधाएं बढ़ाए जाने की व्यवस्था की जा रही है।
मंगलागिरी विजयवाड़ा-चेन्नई ट्रंक रोड पर स्थित है। प्रागैतिहासिक काल से ही यह स्थान बहुत प्रसिद्ध रहा है। मंगलागिरी पर्वत पर भ्ागवान लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी का मंदिर है इसलिए इसे बहुत ही पवित्र पर्वत माना जाता है। माना जाता है कि जो जल भक्त प्रभु को चढ़ाते हैं उनमें से आधा भगवान पी लेते हैं और बाकी आधा भक्त प्रसाद के रूप में ले जाते हैं। लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी को पनकला नरसिम्हा स्वामी या पनकला स्वामी भी कहा जाता है।
गुंटूर से ५ किलोमीटर दूर नल्लापडु या नसिंहपुरम का नाम यहां पहाड़ी पर स्थित नरसिंहस्वामी मंदिर के कारण पड़ा है। इस मंदिर के अलावा भी यहां कई प्राचीन मंदिर भी हैं। यहां के अगस्लेश्वरस्वामी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह कई शताब्दी पुराना है। इस मंदिर में सुसज्जित ध्वजस्तंभम, पांच नागों की उकेरी गई प्रतिमाएं, शिव जी और ब्रह्मरंब, उनकी पत्नी की प्रतिमाएं तथा शंकराचार्य मंदिर दर्शनीय हैं।
गुटूर से ११ किलोमीटर दूर पोंडुगला में बहुत सारे मंदिर हैं। इनमें सबसे प्रमुख मंदिर है गंटाला रामलिंगेश्वरा स्वामी मंदिर। इस मंदिर के स्तंभों में पाली में लिखे शिलालेखों को देखा जा सकता है। पास ही दंडीवगु नदी के किनारे स्थित अयेगरीपालम गांव में भी एक मंदिर है जहां संस्कृत में लिखे दो शिलालेख मिले हैं। इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है।
आसपास दर्शनीय स्थल
नागार्जुनसागर बांध नि:संदेह भारत की शान है। यह पत्थर से बना दुनिया का सबसे ऊंचा बांध है। इस बांध का पानी नालगोंडा, प्रकासम, खम्मम और गुंटूर जैसे आंध्र प्रदेश के अनेक जिलों में सिंचाई के काम आता है।
नागार्जुनसागर श्रीसैलम अभ्यारण्य
३५६८ गर्व किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह अभ्यारण्य भारत में सबसे बड़ा टाइगर रिजर्व माना जाता है। इसके अलावा यहां फूलों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां भी पाई जाती हैं। अभ्यराण्य के साथ ही नागार्जुनसागर बांध है। यहां की गहरी घाटियों की सुंदरता देखते ही बनती है।
नजदीकी हवाई अड्डा गन्नवरम है।
नजदीकी रेलवे स्टेशन गुंटूर और विजयवाड़ा हैं जो सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
बस सेवाएं गुंटूर को जिले के अंदर व बाहर के प्रमुख स्थानों से जोड़ती हैं जिनमें राज्य मुख्यालय भी शामिल हैं।
२००१ की जनगणना के अनुसार क्षेत्र की जनसंख्या ५,१४,७०७ है और ज़िला कुल जनसंख्या ४४,0५,५21 है।
इन्हें भी देखें
गुंटूर नगर निगम
गुंटूर शहर व जिला प्रशासन
गुंटूर - विकिमैपिया पर
गुंटूर - गूगल मैप्स पर
गुंटूर का नक्शा नासा द्वारा
वर्तमान तापमान @ गुंटूर सहर में
गुंटूर स्थानीय समय
आन्ध्र प्रदेश के नगर
गुंटूर रेलवे मंडल
दक्षिण मध्य रेलेवे मंडल
गुन्टूर ज़िले के नगर |
मदुरई (मदुरै) या मदुरै भारत के तमिल नाडु राज्य के मदुरई ज़िले में स्थित एक नगर है और उस ज़िले का मुख्यालय भी है। यह भारतीय प्रायद्वीप के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक है। इस शहर को अपने प्राचीन मंदिरों के लिये जाना जाता है। इस शहर को कई अन्य नामों से बुलाते हैं, जैसे कूडल मानगर, तुंगानगर (कभी ना सोने वाली नगरी), मल्लिगई मानगर (मोगरे की नगरी) था पूर्व का एथेंस। यह वैगई नदी के किनारे स्थित है। लगभग २५०० वर्ष पुराना यह स्थान तमिल नाडु राज्य का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और व्यावसायिक केंद्र है। यहां का मुख्य आकर्षण मीनाक्षी मंदिर है जिसके ऊंचे गोपुरम और दुर्लभ मूर्तिशिल्प श्रद्धालुओं और सैलानियों को आकर्षित करते हैं। इस कारणं इसे मंदिरों का शहर भी कहते हैं।
मदुरै एक समय में तमिल शिक्षा का मुख्य केंद्र था और आज भी यहां शुद्ध तमिल बोली जाती है। यहाँ शिक्षा का प्रबंध उत्तम है। यह नगर जिले का व्यापारिक, औद्योगिक तथा धार्मिक केंद्र है। उद्योगों में सूत कातने, रँगने, मलमल बुनने, लकड़ी पर खुदाई का काम तथा पीतल का काम होता है। यहाँ की जनसंख्या ११ लाख ८ हजार ७५५ (२००४ अनुमानित) है। आधुनिक युग में यह प्रगति के पथ पर अग्रसर है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पाने में प्रयासरत है, किंतु अपनी समृद्ध परंपरा और संस्कृति को भी संरक्षित किए हुए है। इस शहर के प्राचीन यूनान एवं रोम की सभ्यताओं से ५५० ई.पू. में भी व्यापारिक संपर्क थे।
स्थानीय लोग इसे तेन मदुरा कहते हैं, यानि दक्षिणी मथुरा - उत्तर भारत के मथुरा की उपमा में। अन्य भी कई किंवदंतियाँ हैं इसके नामाकरण को लेकर जैसे - भगवान शिव की जटा से निकले अमृत के मधुर होने से मधुरा, या ५ भूमि-प्रकारों में से एक मरुदम के नाम पर। लेकिन पहला (दक्षिण मथुरा) अधिक उपयुक्त लगता है क्योंकि यहाँ ऐतिहासिक रूप से पांड्य राजाओं का शासन रहा है, चोळों के साम्राज्य में भी यहाँ पांड्यों की उपस्थिति रही है। याद रहे कि तमिळ लिखावट को देखकर यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि इसका नाम और उच्चारण मथुरा था या मतुरा या मदुरा या मधुरा - तमिळ उच्चारण में भी यह अंतर स्पष्ट नहीं होता।
भूगोल एवं मौसम
मदुरई शहर का क्षेत्रफल ५२कि॰मी॰ है, जिसका शहरी क्षेत्र अब १३०कि.मी तक फैल चुका है। इसकी स्थिति पर है। इस शहर की औसत समुद्रतल से ऊंचाई १०१ मीटर है। यहां का मौसम शुष्क एवं गर्म है, जो अक्टूबर-दिसम्बर में वर्षा के कारण आर्द्र हो जाता है। ग्रीष्म काल में तापमान अधिकतम ४० डि. एवं न्यूनतम २६.३ डि. से. रहता है। शीतकाल में यह २९.६ तथा १८ डि.से. के बीच रहता है। औसत वार्षिक वर्षा ८५से.मी. होती है।
भारत की २००१ की जनगणनुसार, मदुरई शहर की नगरपालिका सीमा के भीतर जनसंख्या ९२८,८६९ है, एवं शहरी क्षेत्र की जनसंख्या १,१९४,६६५ है। इसमें से ५१% पुरुष एवं ४९% स्त्रियां हैं। मदुरई की औसत साक्षरता दर ७९% है, जो राष्ट्रीय दर ५९.५% से कहीं ऊंची है। पुरुष दर ८४% एवं स्त्री दर ७४% है। शहर की १०% जनसंख्या ६ वर्ष से नीचे की है। शहर में प्रत्येक १००० पुरुषों पर ९६८ स्त्रियों की संख्या है।
पहले इसका नाम मधुरा या मधुरापुरी था। कतिपय शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों से विदित होता है कि ११वीं शती तक यहाँ, बीच में कुछ समय को छोड़कर पांड्य राजवंश का शासन था। संगम-काल के कवि नक्कीरर ने ही सुंदरेश्वरर के कुछ अंश रचे थे- जो आज भी मंदिर के पारंपरिक उत्सवों पर आयोजित नाट्य होते हैं। मदुरई शहर का उत्थान दसवीं शताब्दी तक हुआ, जब इस पर चोल वंश के राजा का अधिकार हुआ। मदुरई की संपन्नता शताब्दी के आरंभिक भाग में कुछ कम स्तर पर फिर से वापस आई, फिर यह शहर विजयनगर साम्राज्य के अधीन हो गया और यहां नायक वंश के राजा आए, जिनमें सर्वप्रथम तिरुमल नायक था। पांड्य वंश के अंतिम राजा सुंदर पांड्य के समय मलिक काफूर ने मदुरा पर आक्रमण किया (१३११ ई)। १३७२ में कंपन उदैया ने इसपर अधिकार कर लिया और यह विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया गया। १५५९-६३ ई० तक नायक वंश के प्रतिष्ठाता विश्वनाथ ने राज्य का विस्तार किया। १६५९ में राजा तिरुमल की मृत्यु के बाद मदुरा राज्य की शक्ति क्षीण होनी लगी। १७४० में चाँद साहब के आक्रमण के बाद नायक वंश की सत्ता समाप्त हो गई। कुछ समय पश्चात् इसपर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया। मूर्ति और मंदिर निर्माण के शिल्प की दृष्टि से मदुरा का विशेष महत्व है। मीनाक्षी और सुंदरेश्वर शिव के मंदिर प्राचीन भारतीय शिल्प के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
मदुरई शहर मीनाक्षी सुंदरेश्वरर मंदिर को घेरे हुए आसपास बसा हुआ है। मंदिर के किनारे से एक दूसरे को घेरे हुए आयताकार सड़कें, महानगर की शहरी संरचना का भास देती हैं। पूरा शहर एक कमल के रूप में रचा हुआ है।
मदुरई और निकटवर्ती क्षेत्रों में मुख्यतः तमिल भाषा ही बोली जाती है। मदुरई तमिल की बोली कोंगू तमिल, नेल्लई तमिल, रामनाड तमिल एवं चेन्नई तमिल से भिन्न है। तमिल के संग अन्य बोली जाने वाली भाषाएं हैं हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दु, सौराष्ट्र, मलयालम एवं कन्नड़, हालांकि उन सभी भाषाओं में यहां तमिल शब्द समा गए हैं।
वंदीयुर मरियम्मन तेप्पाकुलम
वंदीयुर मरियम्मन तेप्पाकुलम एक विशाल कुंड है। सरोवर के उत्तर में तमिलनाडु की ग्रामीण देवी मरियम्मन का मंदिर है। १६३६ में बना यह कुंड मदुरै का पत्थर से बना सबसे बड़ा कुंड है। इसका निर्माण राजा तिरुमलई नायक ने करवाया था। उनकी वर्षगांठ (जनवरी-फरवरी) पर यहां रंगबिरंगे फ्लोट फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है जिसमें सरोवर को रोशनी और दियों से सजाया जाता है। इस उत्सव में भाग लेने के लिए स्थानीय लोगों के अलावा बड़ी संख्या में सैलानी भी यहां आते हैं।
तिरुमलई नायक पैलेस
तिरुमलई नायक पैलेस मदुरै का एक प्रमुख पर्यटक स्थल है। इसका निर्माण १६३६ में किया गया था। इटली के एक वास्तुकार ने राजा के लिए इसे बनाया था। राजा और उनका परिवार यहां रहते थे। स्वर्गविलास और रंगविलास महल के दो हिस्से हैं। इसके अलावा भी महल मे अनेक स्थान हैं जहां पर्यटकों को जाने की अनुमति है। इस महल में घूमने के लिए प्रवेश शुल्क देना पड़ता है। कहा जाता है कि ब्रिटिश राज में इस जगह का इस्तेमाल प्रशासनिक कार्यो के लिए किया जाता था। अब इसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है और इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जा चुका है। शाम को यहां ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जिसमें रोशनी और ध्वनि के माध्यम से राजा के जीवन और उनके मदुरै में शासन के बार में बताया जाता है।
गांधी संग्रहालय रानी मंगम्मल के लगभग ३०० वर्ष पुराने महल में स्थित है। यह संग्रहालय देश के उन सात संग्रहालयों में से एक है जिनका निर्माण गांधी मेमोरियल ट्रस्ट ने करवाया था। यहां पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन और कार्यो को दर्शाया गया है। संग्रहालय में गांधीजी की किताबों और पत्रों, दक्षिण भारतीय ग्रामीण उद्योगों एवं हस्तशिल्प का सुंदर संग्रह देखा जा सकता है। इसे कुछ भागों के बांटा जा सकता है जैसे- प्रदर्शिनी, फोटो गैलरी, खादी, ग्रामीण उद्योग विभाग, ओपन एयर थिएटर और संग्रहालय।
देवी मीनाक्षी को समर्पित मीनाक्षी मंदिर मदुरै की पहचान है। यह देश के प्रमुख शक्ति पीठों में से एक है। यहां प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। ६५ हजार वर्ग मीटर में फैले इस विशाल मंदिर को यहां शासन करने वाले विभिन्न वंशों ने विस्तार प्रदान किया। दक्षिण में स्थित इमारत सबसे ऊंची है जिसकी ऊंचाई १६० फीट है। इसका निर्माण १६वीं शताब्दी में किया गया था। मंदिर परिसर का सबसे प्रमुख आकर्षण हजार स्तंभों वाला कक्ष है जो सबसे बाहर की ओर स्थित है।
दर्शन का समय: सुबह ५ बजे-दोपहर १३:३० बजे, शाम ४ बजे-रात ०९:३० बजे
भगवान मुरुगन के छ: निवास स्थानों में से एक तिरुप्परनकुंद्रम मदुरै से १० किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहां साल भर भक्तों का जमावड़ा लगा रहता है। इसी स्थान पर भगवान मुरुगन का देवयानी के साथ विवाह हुआ था इसलिए यह स्थान शादी करने के लिए पवित्र माना जाता है। चट्टानों को काट कर बनाए गए इस मंदिर में भगवान गणपति, शिव, दुर्गा, विष्णु आदि के अलग से मंदिर भी बने हुए हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके सबसे भीतरी मंदिर को एक ही चट्टान से काटकर बनाया गया है। इस मंदिर की एक और विशेषता यहां के गुफा मंदिर हैं जिनमें तराशी गई भगवान की प्रतिमाएं समान दूरी पर बनाई गई हैं। उनकी यह समानता सभी को आकर्षित करती है। इन गुफाओं तक आने के लिए संकर अंधियारे रास्ते से होकर जाना पड़ता है।
मदुरै शहर से २१ किलोमीटर दूर अजगर भगवान विष्णु का खूबसूरत मंदिर हे। यहां पर भगवान विष्णु को अजगर नाम से पुकारा जाता है। वे देवी मीनाक्षी के भाई थे। जब चित्रई माह में देवी का विवाह हुआ था तो अजगर शादी में शामिल होने के लिए यहां से मदुरै गए थे। भगवान सुब्रमण्यम के छ: निवासों में से एक पलामुधिरसोलक्षर अजगर कोइल के ऊपर चार किलोमीटर दूर है। पहाड़ी की चोटी पर नुबुरगंगई नामक झरना है जहां तीर्थयात्री स्नान करते हैं।
परियार वन्यजीव अभयारण्य
मदुरै से १५५ किलोमीटर दूर पेरियार वन्यजीव अभयारण्य है। मुख्य रूप से यह अभयारण्य भारतीय हाथियों के निवास स्थान के रूप में जाना जाता है। अभयारण्य में एक मानव निर्मित झील है जहां हाथी, गौर और सांभर को पानी पीते देखा जा सकता है। अक्टूबर से जून यहां आने का सही समय होता है।
यह मंदिर हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। हिन्दू मान्यतानुसार एक हिंदू के लिए मुक्ति प्राप्ति की यात्रा बनारस में शुरु होती है और रामेश्वरम में खत्म होती है। हिंदू महाकाव्यों के अनुसार यहीं पर भगवान राम ने शिव की उपासना की थी। इसलिए वैष्णव और शैव दोनों के लिए यह स्थान महत्व रखता है। समुद्र के पूर्वी किनारे पर स्थित रामनाथस्वामी मंदिर अपने अद्भुत आकार और खूबसूरती से तराशे गए स्तंभों के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर का गलियारा एशिया का सबसे बड़ा गलियारा है। इस मंदिर का निर्माण १२वीं शताब्दी के बाद के विभिन्न वंशों ने विभिन्न समय अवधियों के दौरान किया था।
आज रामेश्वरम की पहचान पर्यटक स्थल के साथ-साथ दक्षिण भारत के प्रमुख समुद्री भोजन केंद्र के रूप में की जाती है। रामेश्वरम में एक भारत-नॉर्वे मछलीपालन परियोजना चलाई जा रही है जहां आधुनिक मछली उद्योग के विकास में सहायता की जाती है।
यह दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्वतीय स्थल है। समुद्र तल से २१३० मीटर की ऊंचाई पर स्थित कोडईकनाल को कोडई नाम से भी पुकारा जाता है। पहाड़ों से घिरे इस स्थान पर पूरे वर्ष मौसम सुहाना बना रहता है। यहां अनेक प्रकार के फूल भी देखे जा सकते हैं। बारह साल में एक बार खिलने वाला कुरिंजी फूल यहां देखा जा सकता है। यहां के खूबसूरत झरने और झील पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं।
मदुरै विमानक्षेत्र नियमित उड़ानों के जरिए चेन्नई, कालीकट, मुंबई और पांडिचेरी से जुड़ा हुआ है।
मदुरै रेलवे स्टेशन शहर को चेन्नई और तिरुनेलवेली से जोड़ता है। यह दक्षिणी रेलवे का महत्वपूर्ण जंक्शन है। इन दो शहरों के अलावा भी यह देश के अन्य प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
मदुरै से चेन्नई, बंगलुरु, कोयंबटूर, कन्याकुमारी, रामेश्वरम, पांडिचेरी आदि दक्षिण भारतीय शहरों के लिए नियमित बसें चलती हैं।
मदुरै अपने मंदिरों और ऐतिहासिक स्थलों के लिए ही नहीं बल्कि सूत और रेशम के लिए भी प्रसिद्ध है। इनका प्रमुख बाजार पुथु मंडपम में है। यह एक स्तंभ वाला हॉल मीनाक्षी मंदिर के प्रवेश द्वार के पास है। यह स्थान सूत की दुकानों के लिए प्रसिद्ध है। मदुरै की सनगुंडी साड़ी भी प्रसिद्धह हैं। यह साड़ी महिलाओं के बीच बहुत पसंद की जाती है। सजावट के लिए मदुरै से लकड़ी और पीतल से बनी सजावटी वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं।
इन्हें भी देखें
मदुरई की एक चतुर्थ श्रेणी की छात्रा माइक्रोसॉफ्ट प्रमाणित व्यावसायिक परीक्षा (मैसे) उत्तीर्ण करने वाली सबसे छोटी प्रत्याशी बनी देखिए एन.डी.टी.वी पर
मदुरई की एक ९ वर्षीय छात्रा ने माइक्रोसॉफ्ट प्रमाणित व्यावसायिक परीक्षा (मैसे) उत्तीर्ण किया - डिजिटल जर्नल पर
मदुरई कामराज विश्वविद्यालय में स्मार्ट क्लासरूम बनाए जा रहे हैं
आइ-मिंट अब मदुरई में भी- द हिन्दू पर
मदुरई के होटल- ट्रैवल कार्पो. ऑफ इण्डिया
मदुरई में होटल
मदुरई में रेस्तरां
ऑनलाइन फिल्म टिकट बुकिंग
बिग सिनेमाज़ गणेश की टिकट बुकिंग
कीझाकोविलकुड़ी में विदेशी पर्यटक पोंगल का आनंद लेते हुए
मदर्स रेसिपीस पर मदुरई
मदुरई सुधार हेतु ब्लॉग
मदुरई शहर की डिजिटल मार्गदर्शिका
मदुरई- संपन्नता का प्रवेशद्वार
मदुरई से अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें
तमिल नाडु के शहर
मदुरई ज़िले के नगर
हिन्दू पवित्र शहर
मदुरई रेलवे मंडल |
| नामी = लद्दाख़
| निकनामी =
| मैप_अल्ट =
| इमेज_कैप्शन = लद्दाख केन्द्र-शासित प्रदेश (भारत)
| सीट = लेह। लद्दाख का कुल क्षेत्रफल १,६६,६९८ वर्ग किलोमीटर है। जिसमें से ५९,१46 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र भारत के नियंत्रण में है।बाकि क्षेत्र पाकिस्तान और चीन के अवैध कब्जे में है।
| पार्ट्स_लिपी = ज़िले
| प१ = २
| फाउनार =
| गवर्नींग_बॉडी = लद्दाख प्रशासन उपराज्यपाल -बी डी मिश्रा
| लीडर_नामी ब्रिगेडियर (रिटायर्ड)बी डी मिश्रा]
| लीडर_नामी१ = जमयांग सेरिंग नामग्याल (भारतीय जनता पार्टी)
| लीडर_नामी२ = जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय
| टिमेजोन१ = भामस
| पोस्ट_कोड = लेह: १९४१०१; कर्गिल: १९४१०३
लद्दाख़ (तिब्बती लिपि: ; "ऊँचे दर्रों की भूमि") भारत का एक केन्द्र शासित प्रदेश है, जो उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच में स्थित है। यह भारत के सबसे विरल जनसंख्या वाले भागों में से एक है। भारत गिलगित बलतिस्तान और अक्साई चिन को भी इसका भाग मानता है, जो वर्तमान में क्रमशः पाकिस्तान और चीन के अवैध कब्जे में है। यह पूर्व में तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र, दक्षिण में भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में जम्मू और कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश और पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगित-बल्तिस्तान से घिरा है। सुदूर उत्तर में क़ाराक़ोरम दर्रा पर शिंजियांग। यह काराकोरम रेंज में सियाचिन ग्लेशियर से लेकर उत्तर में दक्षिण में मुख्य महान हिमालय तक फैला हुआ है। पूर्वी छोर, जिसमें निर्जन अक्साई चिन मैदान शामिल हैं, भारत सरकार द्वारा लद्दाख के हिस्से के रूप में दावा किया जाता है, और १९६२ से चीनी नियन्त्रण में है। अगस्त २०१९ में, भारत की संसद ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, २०१९ पारित किया जिसके द्वारा ३१ अक्टूबर २०१९ को लद्दाख एक केन्द्र शासित प्रदेश बन गया। लद्दाख क्षेत्रफल में भारत का सबसे बड़ा केन्द्र शासित प्रदेश है। लद्दाख सबसे कम आबादी वाला केन्द्र शासित प्रदेश है।
केन्द्र शासित प्रदेश लद्दाख के अन्तर्गत पाक अधिकृत गिलगित बलतिस्तान ,चीन अधिकृत अक्साई चिन और शक्सगम घाटी का क्षेत्र भी शामिल है । सन १९६३ में पाकिस्तान द्वारा ५१८० वर्ग किलोमीटर का शक्सगम घाटी क्षेत्र चीन को उपहार में दिया गया ,जो लद्दाख का हिस्सा है । इसके उत्तर में चीन तथा पूर्व में तिब्बत की सीमाएँ हैं। सीमावर्ती स्थिति के कारण सामरिक दृष्टि से इसका बड़ा महत्व है। लद्दाख, उत्तर-पश्चिमी हिमालय के पर्वतीय क्रम में आता है, जहाँ का अधिकांश धरातल कृषि योग्य नहीं है। यहाँ की जलवायु अत्यन्त शुष्क एवं कठोर है। वार्षिक वृष्टि ३.२ इंच तथा वार्षिक औसत ताप ५ डिग्री सें. है। नदियाँ दिन में कुछ ही समय प्रवाहित हो पाती हैं, शेष समय में बर्फ जम जाती है। सिंधु मुख्य नदी है। केन्द्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी एवं प्रमुख नगर लेह है, जिसके उत्तर में कराकोरम पर्वत तथा दर्रा है। अधिकांश जनसंख्या घुमक्कड़ है, जिसकी प्रकृति, संस्कार एवं रहन-सहन तिब्बत से प्रभावित है। पूर्वी भाग में अधिकांश लोग बौद्ध हैं तथा पश्चिमी भाग में अधिकांश लोग मुसलमान हैं। बौद्धों का सबसे बड़ा धार्मिक संस्थान है।
लद्दाख में कई स्थानों पर मिले शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। लद्दाख के प्राचीन निवासी मोन और दार्द लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी, टॉलमी और नेपाली पुराणों ने भी किया है। पहली शताब्दी के आसपास लद्दाख कुषाण राज्य का हिस्सा था। बौद्ध धर्म दूसरी शताब्दी में कश्मीर से लद्दाख में फैला। उस समय पूर्वी लद्दाख और पश्चिमी तिब्बत में परम्परागत बोन धर्म था। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है।
आठवीं शताब्दी में लद्दाख पूर्व से तिब्बती प्रभाव और मध्य एशिया से चीनी प्रभाव के टकराव का केन्द्र बन गया। इस प्रकार इसका आधिपत्य बारी-बारी से चीन और तिब्बत के हाथों में आता रहा। सन ८४२ में एक तिब्बती शाही प्रतिनिधि न्यिमागोन ने तिब्बती साम्राज्य के विघटन के बाद लद्दाख को कब्जे में कर लिया और पृथक लद्दाखी राजवंश की स्थापना की। इस दौरान लद्दाख में मुख्यतः तिब्बती जनसंख्या का आगमन हुआ। राजवंश ने उत्तर-पश्चिम भारत खासकर कश्मीर से धार्मिक विचारों और बौद्ध धर्म का खूब प्रचार किया। इसके अलावा तिब्बत से आये लोगों ने भी बौद्ध धर्म को फैलाया।
और पश्चिम में तिब्बतियों का सामना एक विदेशी राज्य शुंग शांग से हुआ जिसकी राजधानी क्युंगलुंग थी। कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील इस राज्य के भाग थे। इसकी भाषा हमें प्रारम्भिक आलेखों से पता चलती है। यह अभी भी अज्ञात है, लेकिन यह इण्डो-यूरोपियन लगती है। ... भौगोलिक रूप से यह राज्य भ्रत व कश्मीर दोनों के रास्ते नेपाल से मिलता है। कैलाश नेपालीयों के लिये पवित्र स्थान है। वे यहां की तीर्थयात्रा पर आते हैं। कोई नहीं जानता कि वे ऐसा कब से कर रहे हैं, लेकिन वे तब से पहले से आते हैं जब शांगशुंग तिब्बत से आजाद था।
शांगशुंग कितने समय तक उत्तर, पूर्व और पश्चिम से अलग रहा, यह नहीं मालूम।... हमारे पास यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि पवित्र कैलाश पर्वत के कारण यहां हिन्दू धर्म से मिलता-जुलता धर्म रहा होगा। सन ९५० में, काबुल के हिन्दू राजा के पास विष्णु जी की तीन सिर वाली एक मूर्ति थी जिसे उसने भोट राजा से प्राप्त हुई बताया था।
१७वीं शताब्दी में लद्दाख का एक कालक्रम बनाया गया, जिसका नाम ला ड्वाग्स रग्याल राब्स था। इसका अर्थ होता है लद्दाखी राजाओं का शाही कालक्रम। इसमें लिखा है कि इसकी सीमाएं परम्परागत और प्रसिद्ध हैं। कालक्रम का प्रथम भाग १६१० से १६४० के मध्य लिखा गया और दूसरा भाग १७वीं शताब्दी के अन्त में। इसे ए. एच. फ्रैंक ने अंग्रेजी में अनुवादित किया और नेपाली प्राचीन तिब्बत के नाम से १९२६ में कलकत्ता में प्रकाशित कराया। इसके दूसरे खण्ड में लिखा है कि राजा साइकिड-इडा-नगीमा-गोन ने राज्य को अपने तीन पुत्रों में विभक्त कर दिया और पुत्रों ने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखा।
पुस्तक के अवलोकन से पता चलता है कि रुडोख लद्दाख का अभिन्न भाग था। परिवार के विभाजन के बाद भी रुडोख लद्दाख का हिस्सा बना रहा। इसमें मार्युल का अर्थ है निचली धरती, जो उस समय लद्दाख का ही हिस्सा थी। दसवीं शताब्दी में भी रुडोख और देमचोक दोनों लद्दाख के हिस्से थे।
१३वीं शताब्दी में जब दक्षिण एशिया में इस्लामी प्रभाव बढ रहा था, तो लद्दाख ने धार्मिक मामलों में तिब्बत से मार्गदर्शन लिया। लगभग दो शताब्दियों बाद सन १६०० तक ऐसा ही रहा। उसके बाद पड़ोसी मुस्लिम राज्यों के हमलों से यहां आंशिक धर्मान्तरण हुआ।
राजा ल्हाचेन भगान ने लद्दाख को पुनर्संगठित और शक्तिशाली बनाया व नामग्याल वंश की नींव डाली जो वंश आज तक जीवित है। नामग्याल राजाओं ने अधिकतर मध्य एशियाई हमलावरों को खदेडा और अपने राज्य को कुछ समय के लिये नेपाल तक भी बढा लिया। हमलावरों ने क्षेत्र को धर्मान्तरित करने की खूब कोशिश की और बौद्ध कलाकृतियों को तोडा फोडा। सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में कलाकृतियों का पुनर्निर्माण हुआ और राज्य को जांस्कर व स्पीति में फैलाया। फिर भी, मुगलों के हाथों हारने के बावजूद भी लद्दाख ने अपनी स्वतन्त्रता बरकरार रखी। मुगल पहले ही कश्मीर व बाल्टिस्तान पर कब्जा कर चुके थे।
सन १५९४ में बाल्टी राजा अली शेर खां अंचन के नेतृत्व में बाल्टिस्तान ने नामग्याल वंश वाले लद्दाख को हराया। कहा जाता है कि बाल्टी सेना सफलता से पागल होकर पुरांग तक जा पहुंची थी जो मानसरोवर झील की घाटी में स्थित है। लद्दाख के राजा ने शान्ति के लिये विनती की और चूंकि अली शेर खां की इच्छा लद्दाख पर कब्जा करने की नहीं थी, इसलिये उसने शर्त रखी कि गनोख और गगरा नाला गांव स्कार्दू को सौंप दिये जायें और लद्दाखी राजा हर साल कुछ धनराशि भी भेंट करे। यह राशि लामायुरू के गोम्पा तब तक दी जाती रही जब तक कि डोगराओं ने उस पर अधिकार नहीं कर लिया।
सत्रहवीं शताब्दी के आखिर में लद्दाख ने किसी कारण से तिब्बत की लडाई में भूटान का पक्ष लिया। नतीजा यह हुआ कि तिब्बत ने लद्दाख पर भी आक्रमण कर दिया। यह घटना १६७९-१६८४ का तिब्बत-लद्दाख-मुगल युद्ध कही जाती है। तब कश्मीर ने इस शर्त पर लद्दाख का साथ दिया कि लेह में एक मस्जिद बनाई जाये और लद्दाखी राजा इस्लाम कुबूल कर ले। १६८४ में तिंगमोसगंज की सन्धि हुई जिससे तिब्बत और लद्दाख का युद्ध समाप्त हो गया। १८३४ में डोगरा राजा गुलाब सिंह के जनरल जोरावर सिंह ने लद्दाख पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया। १८४२ में एक विद्रोह हुआ जिसे कुचल दिया गया तथा लद्दाख को जम्मू कश्मीर के डोगरा राज्य में विलीन कर लिया गया। नामग्याल परिवार को स्टोक की नाममात्र की जागीर दे दी गई। १८५० के दशक में लद्दाख में यूरोपीय प्रभाव बढा और फिर बढता ही गया। भूगोलवेत्ता, खोजी और पर्यटक लद्दाख आने शुरू हो गये। १८८५ में लेह मोरावियन चर्च के एक मिशन का मुख्यालय बन गया।
१९४७ में भारत विभाजन के समय डोगरा राजा हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को भारत में विलय की मंजूरी दे दी। पाकिस्तानी घुसपैठी लद्दाख पहुंचे और उन्हें भगाने के लिये सैनिक अभियान चलाना पडा। युद्ध के समय सेना ने सोनमर्ग से जोजीला दर्री पर टैंकों की सहायता से कब्जा किये रखा। सेना आगे बढी और द्रास, कारगिल व लद्दाख को घुसपैठियों से आजाद करा लिया गया।
१९४९ में चीन ने नुब्रा घाटी और जिनजिआंग के बीच प्राचीन व्यापार मार्ग को बन्द कर दिया। १९५५ में चीन ने जिनजिआंग व तिब्बत को जोदने के लिये इस इलाके में सडक बनानी शुरू की। उसने पाकिस्तान से जुडने के लिये कराकोरम हाईवे भी बनाया। भारत ने भी इसी दौरान श्रीनगर-लेह सडक बनाई जिससे श्रीनगर और लेह के बीच की दूरी सोलह दिनों से घटकर दो दिन रह गई। हालांकि यह सडक जाडों में भारी हिमपात के कारण बन्द रहती है। जोजीला दर्रे के आरपार ६.५ किलोमीटर लम्बी एक सुरंग का प्रस्ताव है जिससे यह मार्ग जाडों में भी खुला रहेगा। पूरा जम्मू कश्मीर राज्य भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच युद्ध का मुद्दा रहता है। कारगिल में भारत-पाकिस्तान के बीच १९४७, 19६५ और १९७१ में युद्ध हुए और १९९९ में तो यहां परमाणु युद्ध तक का खतरा हो गया था।
१९९९ में जो कारगिल युद्ध हुआ उसे भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय का नाम दिया गया। इसकी वजह पश्चिमी लद्दाख मुख्यतः कारगिल, द्रास, मश्कोह घाटी, बटालिक और चोरबाटला में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ थी। इससे श्रीनगर-लेह मार्ग की सारी गतिविधियां उनके नियन्त्रण में हो गईं। भारतीय सेना ने आर्टिलरी और वायुसेना के सहयोग से पाकिस्तानी सेना को लाइन ऑफ कण्ट्रोल के उस तरफ खदेडने के लिये व्यापक अभियान चलाया।
१९८४ से लद्दाख के उत्तर-पूर्व सिरे पर स्थित सियाचिन ग्लेशियर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की एक और वजह बन गया। यह विश्व का सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र है। यहां १९७२ में हुए शिमला समझौते में पॉइण्ट ९८४२ से आगे सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। यहां दोनों देशों में साल्टोरो रिज पर कब्जा करने की होड रहती है। कुछ सामरिक महत्व के स्थानों पर दोनों देशों ने नियन्त्रण कर रखा है, फिर भी भारत इस मामले में फायदे में है।
१९७९ में लद्दाख को कारगिल व लेह जिलों में बांटा गया। १९८९ में बौद्धों और मुसलमानों के बीच दंगे हुए। १९९० के ही दशक में लद्दाख को कश्मीरी शासन से छुटकारे के लिये लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेण्ट काउंसिल का गठन हुआ और अंततः ५ अगस्त २०१९ को यह भारत का नौवाँ केन्द्र शासित प्रदेश बन गया।
नोट:'तिबतन सिविलाइजेशन'' के लेखक रोल्फ अल्फ्रेड स्टेन के अनुसार शांग शुंग का इलाका ऐतिहासिकि रूप से तिब्बत का भाग नहीं था। यह तिब्बतियों के लिये विदेशी भूमि था। उनके अनुसार:
लद्दाख जम्मू कश्मीर राज्य के पूर्व में स्थित एक ऊंचा पठार है जिसका अधिकतर हिस्सा ३००० मीटर (९८०० फीट) से ऊंचा है। यह हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रृंखला और सिन्धु नदी की ऊपरी घाटी में फैला है।
इसमें बाल्टिस्तान (वर्तमान में पाकिस्तान अधिकृत लद्दाख अर्थात् गिलगित बाल्टिस्तान), सिन्धु घाटी, जांस्कर, दक्षिण में लाहौल और स्पीति, पूर्व में रुडोक व गुले, अक्साईचिन और उत्तर में खारदुंगला के पार नुब्रा घाटी शामिल हैं। लद्दाख की सीमाएं पूर्व में तिब्बत से, दक्षिण में लाहौल और स्पीति से, पश्चिम में जम्मू कश्मीर व बाल्टिस्तान से और सुदूर उत्तर में कराकोरम दर्रे के उस तरफ जिनजियांग के ट्रांस कुनलुन क्षेत्र से मिलती हैं।
विभाजन से पहले बाल्टिस्तान (अब पाकिस्तानी नियन्त्रण में) लद्दाख का एक जिला था। स्कार्दू लद्दाख की शीतकालीन राजधानी और लेह ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी।
इस क्षेत्र में ४५ मिलियन वर्ष पहले भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के दबाव से पर्वतों का निर्माण हुआ। दबाव बढता गया और इस क्षेत्र में इससे भूकम्प भी आते रहे। जोजीला के पास पर्वत चोटियां ५००० मीटर से शुरू होकर दक्षिण-पूर्व की तरफ ऊंची होती जाती हैं और नुनकुन तक इनकी ऊंचाई ७००० मीटर तक पहुंच गई है।
सुरु और जांस्कर घाटी शानदार द्रोणिका का निर्माण करती हैं। सूरू घाटी में रांगडम सबसे ऊंचा आवासीय स्थान है। इसके बाद पेंसी-ला तक यह उठती ही चली जाती है। पेंसी-ला जांस्कर का प्रवेश द्वार है। कारगिल जोकि सुरू घाटी का एकमात्र शहर है, लद्दाख का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। यह १९४७ से पहले कारवां व्यापार का मुख्य स्थान था। यहां से श्रीनगर, पेह, पदुम और स्कार्दू लगभग बराबर दूरी पर स्थित हैं। इस पूरे क्षेत्र में भारी बर्फबारी होती है। पेंसी-ला केवल जून से मध्य अक्टूबर तक ही खुला रहता है। द्रास और मश्कोह घाटी लद्दाख का पश्चिमी सिरा बनाते हैं।
सिन्धु नदी लद्दाख की जीवनरेखा है। ज्यादातर ऐतिहासिक और वर्तमान स्थान जैसे कि लेह, शे, बासगो, तिंगमोसगंग सिन्धु किनारे ही बसे हैं। १९४७ के भारत-पाक युद्ध के बाद सिन्धु का मात्र यही हिस्सा लद्दाख से बहता है। सिन्धु हिन्दू धर्म में एक पूजनीय नदी है, जो केवल लद्दाख में ही बहती है।
सियाचिन ग्लेशियर पूर्वी कराकोरम रेंज में स्थित है जो भारत पाकिस्तान की विवादित सीमा बनाता है। कराकोरम रेंज भारतीय महाद्वीप और चीन के मध्य एक शानदार जलविभाजक बनाती है। इसे तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। ७० किलोमीटर लम्बा यह ग्लेशियर कराकोरम में सबसे लम्बा है और धरती पर ध्रुवों को छोडकर दूसरा सबसे लम्बा ग्लेशियर है। यह अपने मुख पर ३६२० मीटर से लेकर चीन सीमा पर स्थित इन्दिरा पॉइण्ट पर ५७५३ मीटर ऊंचा है। इसके पास के दर्रे और कुछ ऊंची चोटियां दोनों देशों के कब्जे में हैं।
भारत में कराकोरम रेंज की सबसे पूर्व में स्थित सासर कांगडी सबसे ऊंची चोटी है। इसकी ऊंचाई ७६७२ मीटर है। लद्दाख में ८५७ वर्ग किमी लंबी सीमा में से केवल ३६८ वर्ग किमी अंतरराष्ट्रीय सीमा है, और शेष ४८९ वर्ग किमी वास्तविक नियंत्रण रेखा है।
लद्दाख रेंज में कोई प्रमुख चोटी नहीं है। पंगोंग रेंज चुशुल के पास से शुरू होकर पंगोंग झील के साथ साथ करीब १०० किलोमीटर तक लद्दाख रेंज के समानान्तर चलती है। इसमें श्योक नदी और नुब्रा नदी की घाटियां भी शामिल हैं जिसे नुब्रा घाटी कहते हैं। कराकोरम रेंज लद्दाख में उतनी ऊंची नहीं है जितनी बाल्टिस्तान में। कुछ ऊंची चोटियां इस प्रकार हैं- अप्सरासास समूह (सर्वोच्च चोटी ७२४५ मीटर), रीमो समूह (सर्वोच्च चोटी ७३८५ मीटर), तेराम कांगडी ग्रुप (सर्वोच्च चोटी ७४६४ मीटर), ममोस्टोंग कांगडी ७५२६ मीटर और सिंघी कांगडी ७७५१ मीटर। कराकोरम के उत्तर में कुनलुन है। इस प्रकार, लेह और मध्य एशिया के बीच में तीन श्रंखलाएं हैं- लद्दाख श्रंखला, कराकोरम और कुनलुन। फिर भी लेह और यारकन्द के बीच एक व्यापार मार्ग स्थापित था।
लद्दाख एक उच्च अक्षांसीय मरुस्थल है क्योंकि हिमालय मानसून को रोक देता है। पानी का मुख्य स्रोत सर्दियों में हुई बर्फबारी है। पिछले दिनों आई बाढ (२०१० में) के कारण असामान्य बारिश और पिघलते ग्लेशियर हैं जिसके लिये निश्चित ही ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार है।
द्रास, सूरू और जांस्कर में भारी बर्फबारी होती है और ये कई महीनों तक देश के बाकी हिस्सों से कटे रहते हैं। गर्मियां छोटी होती हैं यद्यपि फिर भी कुछ पैदावार हो जाती है। गर्मियां शुष्क और खुशनुमा होती हैं। गर्मियों में तापमान ३ से ३5 डिग्री तक तथा सर्दियों में -२० से -३5 डिग्री तक पहुंच जाता है।
भूभाग का वर्गीकरण
बौद्ध- ६४.५६ %
हिन्दू- १७.१४ %
मुसलमान- १४.२८ %
सिख- २.३६ %
इसाई- ०.४९ %
अन्य- १.४८ %
जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ
यह क्षेत्र शुष्क होने के कारण वनस्पति विहीन है। यहां जानवरों के चरने के लिए कहीं-कहीं पर ही घास एवं छोटी-छोटी झाड़ियां मिलती है।
घाटी में सरपत,विलो एवं पॉपलर के उपवन देखे जा सकते हैं। ग्रीष्म ऋतु में सेब,खुबानी एवं अखरोट जैसे पेड़ पल्लवित होते हैं। लद्दाख में पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां नजर आती हैं, इनमें रॉबिन, रेड स्टार्ट,तिब्बती स्नोकोक, रेवेन यहां खूब पाए जाने वाले सामान्य पक्षी है।
लद्दाख के पशुओं में जंगली बकरी, जंगली भेड़ एवं याक,विशेष प्रकार के कुत्ते,आदि पाले जाते हैं।इन पशुओं को दूध,मांस,खाल प्राप्त करने के लिए पाला जाता है।
इन्हें भी देखें
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, २०१९
भारत का राजनीतिक एकीकरण
लद्दाख की सामाजिक सांस्कृतिक यात्रा
सीधे-सादे लोगों की धरती है लद्दाख
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश |
शिमोगा (शिमोगा), जिसका आधिकारिक नाम शिवमोग्गा (शिवमोगआ) है, भारत के कर्नाटक राज्य के शिमोगा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और तुंगा नदी के किनारे मलेनाडु क्षेत्र में बसा हुआ है। इसे पश्चिमी घाट का द्वार माना जाता है। शिमोगा समुद्रतल से ५६९ मीटर की ऊँचाई पर है और चारों ओर हरे-भरे धान के क्षेत्र और नारियल के वृक्षों के समूह हैं।
इन्हें भी देखें
कर्नाटक के शहर
शिमोगा ज़िले के नगर |
पावापुरी (पावापुरी), जिसे पावा (पावा) भी कहा जाता है, भारत के बिहार राज्य के नालंदा ज़िले जिले में राजगीर और बोधगया के समीप स्थित एक स्थान है। यह जैन धर्म के मतावलंबियो के लिये एक अत्यंत पवित्र शहर है भगवान महावीर को यहीं मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। यहाँ के जलमंदिर की शोभा देखते ही बनती है। संपूर्ण शहर कैमूर की पहाड़ी पर बसा हुआ है।
१३वीं शती ई॰ में जिनप्रभसूरीजी ने अपने ग्रंथ विविध तीर्थ कल्प रूप में इसका प्राचीन नाम अपापा बताया है। पावापुरी का अभिज्ञान बिहार शरीफ रेलवे स्टेशन (बिहार) से ९ मील पर स्थित पावा नामक स्थान से किया गया है। यह स्थान राजगृह से दस मील दूर है। भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहाँ खंडहर के रूप में स्थित है। स्तूप से प्राप्त ईटें राजगृह के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं। जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है। कनिंघम के मत में जिसका आधार शायद बुद्धचरित[२] में कुशीनगर के ठीक पूर्व की ओर पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है, कसिया जो प्राचीन कुशीनगर के नाम से विख्यात है, से 1२ मील दूर पदरौना नामक स्थान ही पावा है। जहाँ गौतम बुद्ध के समय मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी।
भगवान महावीर का मोक्ष ७२ वर्ष की आयु में हुआ था।
जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था। जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी।
कनिंघम ने पावा का अभिज्ञान कसिया के दक्षिण पूर्व में १० मील पर स्थित फ़ाज़िलपुर नामक ग्राम से किया है। जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताया था। यहीं उन्होंने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन किया था, इसी कारण इस नगरी को जैन संम्प्रदाय का सारनाथ माना जाता है। महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में ही की गई थी।
फाजिलपुर वर्तमान में फाजिलनगर है जिसे पावा नगर भी कहते हैं। यह स्थान उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद से २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर भगवान महावीर का एक मंदिर भी है।
यहाँ कमल तालाब के बीच जल मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। समोशरण मंदिर, मोक्ष मंदिर और नया मन्दिर भी दर्शनीय हैं।
इन्हें भी देखें
बिहार के गाँव
नालंदा ज़िले के गाँव |
पुरी (पूरी) भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी ज़िले में बंगाल की खाड़ी से तटस्थ एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। पुरी भारत के चार धाम में से एक है और यहाँ १२वीं शताब्दी के जगन्नाथ मंदिर स्थित होने के कारण इसे श्री जगन्नाथ धाम भी कहा जाता है।
भारत के चार पवित्रतम स्थानों में से एक है पुरी, जहाँ समुद्र इस शहर के पांव धोती है। कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति यहां तीन दिन और तीन रात ठहर जाए तो वह जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति पा लेता है। पुरी, भगवान जगन्नाथ (संपूर्ण विश्व के भगवान), सुभद्रा और बलभद्र की पवित्र नगरी है, हिंदुओं के पवित्र चार धामों में से एक पुरी संभवत: एक ऐसा स्थान है जहां समुद्र के आनंद के साथ-साथ यहां के धार्मिक तटों और 'दर्शन' की धार्मिक भावना के साथ कुछ धार्मिक स्थलों का आनंद भी लिया जा सकता है। पुरी एक ऐसा स्थान है जिसे हजारों वर्षों से कई नामों - नीलगिरी, नीलाद्रि, नीलाचल, पुरुषोत्तम, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम, जगन्नाथ पुरी - से जाना जाता है। पुरी में दो महाशक्तियों का प्रभुत्व है, एक भगवान द्वारा सृजित है और दूसरी मनुष्य द्वारा सृजित है। पुरी मूलरूप से भील शासकों द्वारा शासित क्षेत्र था , सरदार विश्वासु भील जिन्हें , सदियों पहले भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति प्राप्त हुई थी।
स्मारक एवं दर्शनीय स्थल
यह ६५ मी. ऊंचा मंदिर पुरी के सबसे शानदार स्मारकों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण १२वीं शताब्दी में चोड़गंग ने अपनी राजधानी को दक्षिणी उड़ीसा से मध्य उड़ीसा में स्थानांतरित करने की खुशी में करवाया था। यह मंदिर नीलगिरी पहाड़ी के आंगन में बना है। चारों ओर से २० मी. ऊंची दीवार से घिरे इस मंदिर में कई छोट-छोटे मंदिर बने हैं। मंदिर के शेष भाग में पारंपरिक तरीके से बना सहन, गुफा, पूजा-कक्ष और नृत्य के लिए बना खंबों वाला एक हॉल है। इस मंदिर के विषय में वास्तव में यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि यहां जाति को लेकर कभी भी मतभेद नहीं रहे हैं। सड़क के एक छोर पर गुंडिचा मंदिर के साथ ही भगवान जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन मंदिर है। यह मंदिर ग्रांड रोड के अंत में चार दीवारी के भीतर एक बाग में बना है। यहां एक सप्ताह के लिए मूर्ति को एक साधारण सिंहासन पर विराजमान कराया जाता है। भुवनेश्वर में लिंगराज मंदिर की भांति इस मंदिर में भी गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है। उन्हें मंदिर परिसर के बाहर से ही दर्शन करने पड़ते हैं। यहां बड़ा प्रसाद भंडार है।
पुरी से ८ कि॰मी॰ दूर नुआनई नदी के मुहाने पर बालीघई बीच, एक प्रसिद्ध पिकनिक-स्पॉट है, यह चारों ओर कॉसरीना पेड़ों से घिरा है।
सत्यवादी (साक्षीगोपाल) -
भगवान साक्षीगोपाल का मंदिर पुरी से केवल २० कि॰मी॰ की दूरी पर है। केवल 'अनतला नवमी' के दिन यहां श्री राधा जी के पवित्र पैरों के दर्शन किए जा सकते हैं। बड़ा डांडा यहाँ का शॉपिंग का एक आदर्श स्थान है।
हिन्दू नव वर्ष
हिन्दू नव वर्ष की खुशी में यहां चंदन यात्रा निकाली की जाती है। जून माह की पूर्णिमासी (ज्येष्ठ) को यहां स्नान यात्रा का आयोजन किया जाता है, जिसमें भगवान जगन्नाथ को विधि-विधान से स्नान कराया जाता है। इस दौरान जनता मूल मूर्तियों के दर्शन करती है। झुला यात्रा के दौरान विशाल शोभा यात्रा के रूप में २१ दिनों के लिए मूर्तियों के प्रतिरूप को नर्मदा टैंक में सुंदर ढंग से सजी बोटों में निकाला जाता है।
और, वस्तुत:, पूरे भारतवर्ष और विश्व के पर्यटकों के लिए रथयात्रा आकर्षण का प्रमुख केंद्र है, यह यात्रा जून माह में आयोजित होती है-जो पुरी यात्रा केलिए सर्वश्रेष्ठ समय है। भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र को वार्षिक अवकाश पर मुख्य मंदिर से २ कि॰मी॰ दूर एक छोटे मंदिर 'गुंडिचा घर' में ले जाया जाता है। यह यात्रा रथ-यात्रा के रूप में आयोजित की जाती है। गुंडिचा मंदिर के श्रद्धालु भक्त तीनों मूर्तियों को अलग-अलग रथ (लकड़ी के रथ) में खींचकर ले जाते है। इन रथों को व्यापक रूप से विविध रंगों में सजाया जाता है, ये रंग प्रत्येक मूर्ति के महत्व के दर्शाते हैं
रथयात्रा और नव कलेबर् पुरी के प्रसिद्ध पर्व हैं। ये दोनों पर्व भगवान जगन्नाथ की मुख्य मूर्ति से संबद्ध हैं। नव कलेबर बहुत ही महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है, तीनों मूर्तियों- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का बाहरी रूप बदला जाता है। इन नए रूपों को विशेष रूप से सुगंधित चंदन-नीम के पेड़ों से निर्धारित कड़ी धार्मिक रीतियों के अनुसार सुगंधित किया जाता है। इस दौरान पूरे विधि-विधान और भव्य तरीके से 'दारु' (लकड़ी) को मंदिर में लाया जाता है।
इस दौरान विश्वकर्मा (लकड़ी के शिल्पी) २१ दिन और रात के लिए मंदिर में प्रवेश करते हैं और नितांत गोपनीय ढंग से मूर्तियों को अंतिम रूप देते हैं। इन नए आदर्श रूपों में से प्रत्येक मूर्ति के नए रूप में 'ब्रह्मा' को प्रवेश कराने के बाद उसे मंदिर में रखा जाता है। यह कार्य भी पूर्ण धार्मिक विधि-विधान से किया जाता है। पुरी बीच पर्व वार्षिक तौर पर नवंबर माह के आरंभ में आयोजित किया जाता है, उड़ीसा की शिल्पकला, विविध व्यंजन और सांस्कृतिक संध्याएं इस पर्व का विशेष आकर्षण हैं। पुरी में रथयात्रा का त्योहार साल में एक बार मनाया जाता है। इस रथयात्रा को देखने के लिए तीर्थयात्री देश के विभिन्न कोने से आते हैं। रथयात्रा में श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा की पूजा-अर्चना करते हैं। यह भव्य त्योहार नौ दिनों तक मनाया जाता है।
रथयात्रा जगन्नाथ मन्दिर से प्रारम्भ होती है तथा गुंडिचा मन्दिर तक समाप्त होती है। भारत में चार धामों में से एक धाम पुरी को माना जाता है। आनंद बाजार में हर प्रकार का प्रसाद मिलता है। यह विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है। पुरी में कई मन्दिर हैं। गुंडिचा मन्दिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र तथा सुभद्रा देवी की प्रतिमा स्थित है।
यह बहुत ही प्रसिद्ध शिव मन्दिर है जगन्नाथ मन्दिर से यह एक किलोमीटर दूर है। यहाँ के निवासियों में ऐसा विश्वास है कि भगवान राम ने इस जगह पर अपने हाथों से इस शिवलिंग की स्थापना की थी। त्योहारों के समय इस मन्दिर में विशेष पूजन का आयोजन किया जाता है।
पुरी के पुल विश्व में प्रसिद्ध हैं। इस धार्मिक स्थल पर एक छोटा सा टाउन स्थित है। यहाँ पर दस्तकार तथा कलाकार बसे हुए हैं। इन कलाकारों द्वारा विविध प्रकार के चित्र बनाए जाते हैं। सबसे प्रसिद्ध कला है सेनडार्ट। रघुराजपुर की चित्रकला भी बहुत प्रसिद्ध है।
यहाँ की संस्कृति तथा साहित्य से परिचित होने के लिए पर्यटक विभिन्न प्रकार के संग्रहालयों में कदम रख सकते हैं जैसे - ओड़िशा स्टेट संग्रहालय, ट्राइबल रिसर्च संग्रहालय तथा हैंडीक्राफ्ट हाउस। पुरी के पास स्थित रिसोर्ट पर्यटकों के लिए एक आकर्षषण का केन्द्र बन गया है। रिसोर्ट तथा होटलों में रहकर आप समुद्र का नज़ारा देख सकते हैं तथा लुभावने मौसम का आनंद उठाने के साथ-साथ पर्यटक तैर भी सकते हैं।
बालीघाई तथा सत्यवादी
दोनों ही प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं। इन तीर्थस्थलों में भगवान साक्षीगोपाल की पूजा की जाती है। यहाँ पर एक प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर है कोणार्क। यह भ्रमण के लिए एक अनोखा स्थल है। यहाँ १३वीं सदी की वास्तुकला और मूर्तिकला को देख सकते हैं। पुरी एक आकर्षक धार्मिक स्थल है।
आप रेल, बस तथा हवाई जहाज से पुरी पहुँच सकते हैं। सबसे नजदीक का हवाईअड्डा यहाँ से ६० किलोमीटर दूरी पर स्थित है। अगर पर्यटक समुद्री तट का आनंद उठाना चाहते हैं तब वे गर्मियों में छुट्टियाँ मनाने के लिए पुरी आ सकते हैं। भ्रमण करने के लिए यहाँ पर बस, टैक्सी तथा ऑटो की सेवाएँ उपलब्ध हैं।
इन्हें भी देखें
ओड़िशा के शहर
हिन्दू धर्म के चार धाम
ओड़िशा के बालूतट
पुरी ज़िले के नगर
हिन्दू पवित्र शहर |
घाटमपुर (घाटामपुर) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर नगर ज़िले में स्थित एक नगर पालिका है। यह इसी नाम की तहसील का मुख्यालय भी है।
माना जाता है कि घाटमपुर की स्थापना राजा घाटमदेव ने की थी। शहर के पूरब में कूष्मांडा देवी का एक प्राचीन मन्दिर है जो हिन्दुओं की श्रद्धा का महान केंद्र है।जो नवरात्रि में चौथी देवी क़े रूप मैं पूजी जाती है, जहां कार्तिक पूर्निमा में हर साल विशाल मेले का अयोजन होता है शहर के दक्षिण में एक ऐतिहासिक बौद्ध मन्दिर है। शहर की पूर्वोत्तर दिशा में १३ किलोमीटर दूर भीतरगांव नामक स्थान पर एक गुप्तकालीन प्राचीन मन्दिर है। २० किलोमीटर दक्षिण में जिला हमीरपूर स्थित है जिसे पवित्र नदी यमुना ने घाटमपुर से अलग किया है। कानपुर की सबसे बडी तहसील होने का गौरव भी इसे प्राप्त है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इसकी स्थापना राजा घाटमदेव ने की थी जिस कारण इसका नाम घाटमपुर पड़ा।
सन १९६७ के चुनाव में कांग्रेस से बेनी सिंह अवस्थी विधायक चुने गए, जिन्हे खाद्य रसद, स्वायत्त शासन समेत कई विभागों के कैबिनेट की जिम्मेदारी रही। १९८० एवं ८५ में चुने गए कुंवर शिवनाथ सिंह विधायक के बाद विधानसभा उपाध्यक्ष और राज्यमंत्री भी बनाए गए। रामआसरे १९७७ में जेएनपी से और १९८९ में जनता दल से विधायक निर्वाचित हुए। इसके बाद १९९६ में राजाराम पाल विधायक चुनने के बाद राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त बने। वहीं २०१७ में भाजपा की ओर से कमलारानी वरुण विधायक बनीं। तो वर्तमान यूपी सरकार ने उन्हें मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री की जिम्मेदारी दी। बीमारी की चपेट में आने से अकस्मात निधन हो गया। तत्पश्चात उपचुनाव में वर्ष २०२० में भाजपा प्रत्याशी उपेंद्रनाथ पासवान विधायक बने। २०२२ में अपना दल से सरोज कुरील ने समाजवादी पार्टी के भगवती सागर को १४४७४ वोटों के मार्जिन से हराया था।
घाटमपुर में बहुत बड़ी ईदगाह भी स्थित है जिसमे हर साल ईद और बकरीद की नमाज पढ़ाई जाती है और मां कुष्मांडा देवी मंदिर के कारण प्रत्येक नवरात्रि के चौथे दिन घाटमपुर में होने वाला दीपदान का पर्व दर्शनीय है। साथ ही महाशिवरात्रि के दिन घाटमपुर में आयोजित कार्यक्रम भी आसपास के क्षेत्र में प्रसिद्ध है।
घाटमपुर में काजीबाबा रहमुतुल्लाह और अरब शाह बाबा रहमतुल्लाह की बहुत प्रसिद्ध
दरगाह स्थित हैं इनका सलाना उर्स बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है|जिसमे कव्वाली प्रोग्राम का आयोजन किया जाता हैं|जुनेद मौली साहब की दरगाह भी स्थित है|
अज्योरी (सजेती) गांव के बिहारेश्वर महादेव मंदिर को दिल्ली सम्राट अकबर के प्रिय मंत्री बीरबल ने बनवाया था।। इतिहासकारों के मुताबिक दिल्ली में औरंगजेब की कैद में रखे गए मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी जेल से फरार होने के बाद काफी दिनों तक इसी मंदिर में भेष बदलकर रुके थे। मंदिर कानपुर-सागर राजमार्ग के ठीक किनारे स्थित है। सिधौल गांव में स्थित मार्कण्डेयश्वर महादेव का मंदिर भी काफी प्राचीन है। पतारा के बैजनाथ धाम मंदिर का वर्णन परिमाल रासो (आल्हाखंड) में मिलता है। पतरसा गांव के पातालेश्वर महादेव और नंदना गांव के रामेश्वर महादेव मंदिर में मेला और रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं।
रिंद नदी के किनारे बसे बरनांव गांव का बाणेश्वर महादेव मंदिर, सिमौर गांव के कालेश्वर और चौबेपुर (नवेड़ी) गांव के भोलेश्वर महादेव मंदिर भी प्राचीन और दर्शनीय हैं। नई तहसील नर्वल का सृजन होने के बाद कई प्राचीन शिवालय घाटमपुर तहसील के राजस्व नक्शे से बाहर हो गए हैं। इनमें पुरातत्व विभाग से संरक्षित रिंद नदी के किनारे बसे करचुलीपुर गांव का औलियाश्वर महादेव मंदिर के अलावा परौली, कोरथा, गोपालपुर और पालपुर गांव के प्राचीन शिवालय शामिल हैं।
यहाँ एक रेलवे स्टेशन भी है। यह कानपुर-मानिकपुर रेलमार्ग पर स्थित है। लखनऊ-भोपाल राजमार्ग भी यहाँ से होकर गुजरता है। राष्ट्रीय राजमार्ग ३४ यहाँ से गुज़रता है। घाटमपुर के सबसे निकट चकेरी एयरपोर्ट स्थित है।
पावर प्लांट प्रोजेक्ट
घाटमपुर में १९८० मेगावाट की यह परियोजना नेवेली लिग्नाइट और उत्तर प्रदेश विदयुत उत्पादन निगम लिमिटेड का एक संयुक्त उपक्रम है। इसमें ५१ प्रतिशत भागीदारी एनएलसी की होगी जबकि २९ प्रतिशत भागीदारी यूपीआरवीयूएनएल की होगी।इससे पैदा होने वाली बिजली का ८० फीसदी बिजली उत्तर प्रदेश को मिलेगी तथा २० फीसदी बिजली केन्द्रीय ग्रिड को दी जाएंगी। उन्होंने बताया कि बिजली संयत्र स्थापित हो जाने से उत्तर प्रदेश में बिजली की कमी पूरी तरह से खत्म हो जायेगी और प्रदेश में बिजली की समस्या का हल निकल आएगा।
इन्हें भी देखें
कानपुर नगर ज़िला
इस कस्बे की जमीन बहुत उपजाऊ जमीन है यहां पर हर साल गेहूं,चावल, मूंग की दाल, अरहर की दाल और अनेक प्रकार की फैसले पैदा की जाती है लेकिन सबसे सर्वाधिक मात्रा में गेहूं , चावल और सरसों (लाही) का उत्पादन बहुत होता है |
कानपुर नगर ज़िला
उत्तर प्रदेश के नगर
कानपुर नगर ज़िले के नगर |
ओड़िया () भारत के ओड़िशा प्रान्त में बोली जाने वाली भाषा है। यह भाषा यहाँ के राज्य सरकार की राजभाषा भी है। भाषाई परिवार के तौर पर ओड़िआ एक आर्य भाषा है और नेपाली, बांग्ला, असमिया और मैथिली से इसका निकट संबंध है। ओड़िशा की भाषा और जाति दोनों ही अर्थो में उड़िया शब्द का प्रयोग होता है, किंतु वास्तव में ठीक रूप ओड़िआ होना चाहिए। इसकी व्युत्पत्ति का विकासक्रम कुछ विद्वान् इस प्रकार मानते हैं ओड्रविषय, ओड्रविष, ओडिष, आड़िषा या ओड़िशा। सबसे पहले भरत के नाट्यशास्त्र में उड्रविभाषा का उल्लेख मिलता है।
हीना वनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृताः ॥
भाषातात्विक दृष्टि से ओड़िआ भाषा में आर्य, द्राविड़ और मुंडारी भाषाओं के संमिश्रित रूपों का पता चलता है, किंतु आज की ओड़िआ भाषा का मुख्य आधार भारतीय आर्यभाषा है। साथ ही साथ इसमें संथाली, मुंडारी, शबरी, आदि मुंडारी वर्ग की भाषाओं के और औराँव, कुई (कंधी) तेलुगु आदि द्राविड़ वर्ग की भाषाओं के लक्षण भी पाए जाते हैं।
इसकी लिपि का विकास भी नागरी लिपि के समान ही ब्राह्मी लिपि से हुआ है। अंतर केवल इतना है कि नागरी लिपि की ऊपर की सीधी रेखा ओड़िआ लिपि में वर्तुल हो जाती है और लिपि के मुख्य अंश की अपेक्षा अधिक जगह घेर लेती है। विद्वानों का कहना है कि ओड़िआ में पहले तालपत्र पर लौह लेखनी से लिखने की रीति प्रचलित थी और सीधी रेखा खींचने में तालपत्र के कट जाने का डर था। अत: सीधी रेखा के बदले वर्तुल रेखा दी जाने लगी और ओड़िआ लिपि का क्रमश: आधुनिक रूप आने लगा।
सम्पूर्ण ओड़िआ भाषा के इतिहास को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है -
प्राचीन ओड़िआ (१०वीं शताब्दी-१३००),
प्रारम्भिक मध्य ओड़िआ (१३००-१५००),
मध्य ओड़िआ (१५००-१७००),
नूतन मध्य ओड़िआ (१७००-१८५०), एवं
आधुनिक ओड़िआ (१८५०-वर्तमान).
ओड़िआ एक पूर्वी इंडो-आर्य भाषा होने के नाते इंडो-आर्य भाषा परिवार का सदस्य है। इसे पूर्व मागधी नामक प्राकृत भाषा का वंशधर माना जाता जिसे कि १५०० साल पहले पूर्व भारत में प्रयोग किया जाता था। इस का आधुनिक बांग्ला, मैथिली, नेपाली एवं असमिया भाषाओं से निकट संबंध है। अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं के मुकाबले में ओड़िआ, पार्सी भाषा द्वारा सबसे कम प्रभावित हुआ है। लिखित ओड़िआ भाषा का प्राचीनतम उदाहरण मादला पांजि (पुरी के जगन्नाथ मंदिर की पंजिका) में मिलता है जिन्हे ताड़ के पत्तों पर लिखा गया था।
मिदनापुरी ओड़िआ: पश्चिम बंगाल के मिदनापुर क्षेत्र में बोली जाने वाली
सिंहभूम ओड़िआ: झारखंड के पूर्वी सिंगभूम, पश्चिमी सिंगभूम एवं सरायकेला-खरसावां जिलों में बोली जाने वाली
बालेश्वरी ओड़िआ: बालेश्वर, भद्रक एवं मयूरभंज जिलों में बोली जाने वाली
गंजामी ओड़िआ: ओड़िशा के गंजाम एवं गजपति जिलों में, आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम् जिले में बोली जाने वाली
कळाहाण्डि ओड़िआ: ओड़िशा के कलाहाण्डि जिलों में बोली जाने वाली
देशीय ओड़िआ: कोरापुट, रायगड़ा, नवरंगपुर एवं मालकानगिरि जिलों में तथा आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम जिले में बोली जाने वाली
संबलपुरी ओड़िआ: सम्बलपुर, देवगड़, सुन्दरगड़, बलांगिर, झारसुगुडा जिला, सुबर्नपुर, बौध जिला एवं बरगढ़ जिलों, ओर अनुगुल जिला के आठमल्लिक सबडिविजन तथा छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़, बिलासपुर, जैशपुर जिलों में बोली जाने वाली भाषा।
भात्री: दक्षिण-पश्चिमी ओड़िशा एवं पूर्व-दक्षिणी छत्तीसगढ़ में बोली जाने वाली भाषा
ओड़िआ भाषा के प्रथम महान कवि झंकड के सारला दास थे जिन्होने देवी दुर्गा की स्तुति में चंडी पुराण और विलंका रामायण की रचना की थी। अर्जुन दास के द्वारा लिखित राम-विवाह ओड़िआ भाषा की प्रथम दीर्घ कविता है। प्रारंभिक काल के बाद से लगभग १७०० तक के समय को ओड़िआ साहित्य में पंचसखा युग के नाम से जाना जाता है। इस युग का प्रारंभ श्रीचैतन्य के वैष्ण्ब धर्म के प्रचार से हुआ। बलराम दास, जगन्नाथ दास, यशोवंत दास, अनंत दास एवं अच्युतानंद दास-इन पांचों को पंचसखा कहा जाता है। इस युग के अन्य साहित्यिकों की तरह इनकी रचनाएं भी धर्म पर आधारित थीं। इस काल के रचनाएं प्रायः संस्कृत से अनुवादित की हुई होति थीं या उन्हि पर आधारित होति थीं। अनुवादों में आक्षरिक के अपेक्षा भावानुवाद का प्रचलन ज्यादा था।
हिन्दी-ओड़िया शब्दकोश (हिन्दी विक्षनरी)
कन्साइज़ ओडिया-अंग्रेज़ी शब्दकोष (गूगल पुस्तक: आर जे ग्रण्डी)
भारतीय भाषा ज्योति (ओड़िया) - हिन्दी माध्यम से ओड़िया सींखें
दूध का कटोरा (ओडिया कथा संग्रह) (गूगल पुस्तक ; संकलन - कमलेश्वर)
ओडिया सीखने व सिखाने की मार्गदर्शिका
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भारत की भाषाएँ
ओड़िशा की भाषाएँ
पूर्वी हिन्द-आर्य भाषाएँ |
माथेरान (माथेरान) भारत के महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ ज़िले की कर्जत तालुका में स्थित एक नगर और हिल स्टेशन है।
माथेरान मुंबई से मात्र ११० किलोमीटर दूर प्राकृतिक खूबसूरती से भरा छोटा-सा हिल स्टेशन है। यह पश्चिमी घाट पर्वत शृंखला में समुद्र तल से ८०० मीटर (२६२५ फीट) की उँचाई पर बसा है। मुंबई और पुणे से इसकी दूरी क्रमशः ९० और १२० किलो मीटर है। बड़े शहरोंसे इसकी निकटता के कारण माथेरान शहरी नागरिकों के लिए एक सप्ताहांत बिताने के लिए लोकप्रिय स्थल है। यहाँ की खासियत है कि यहां किसी भी प्रकार के वाहन का प्रवेश वर्जित है। मुंबई, पुणे, नाशिक और सूरत के लोगों की तो यह पसंदीदा जगह है ही लेकिन अब उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों को भी यह स्थान अपनी ओर आकर्षित करने लगा है।
समुद्र तल से ८०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित देश के इस सबसे छोटे हिल स्टेशन की खोज मई १८५० में ठाणे जिले के कलेक्टर ह्यूज पोयन्ट्स मलेट ने की थी। मुंबई के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड एल्फिंस्टोन ने यहां भविष्य के हिल स्टेशन की नींव रखी और गर्मी के दिनों में वक्त गुजारने की दृष्टि से इसे विकसित किया गया। माथेरान का शाब्दिक अर्थ होता है माथे (पर्वत के) पर स्थित अरन्य।
माथेरान का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन नेरल स्टेशन है, जो यहां से ९ किलोमीटर दूर है। इसके आगे वाहनों का प्रवेश वर्जित है। आगे जाने के लिए या तो पैदल जाना होगा, या बग्गी, रिक्शे या घोड़ों का प्रयोग करना होगा। लेकिन यहां पहुंचने का सबसे अच्छा साधन है यहां की टॉय ट्रेन जिसके हाल ही में १०० साल पूरे हुए हैं। पहाड़ों पर चढ़ती उतरती इस ट्रेन में बैठकर ढाई घंटे की यात्रा में खूबसूरत प्राकृतिक नजारों का आनंद उठाया जा सकता है। इसके अलावा ट्रॉली से भी यहां तक पहुंचा जा सकता है।
यहाँ साल भर पर्यटकों का तांता लगा रहता है और मॉनसून यहाँ आने का सबसे अच्छा मौसम है। उस समय घाटियों में फैला कोहरा, हवा में तैरते बादल और भीगा-भीगा मौसम होते हैं। माथेरान में प्राकृतिक नजारों का आनंद लेने के लिए ३८ दृश्य बिंदु (व्यू पॉइंट्स) हैं। इसके अलावा माउंट बेरी और शारलॉट लेक भी यहां के मुख्य आकर्षण हैं। माउंट बेरी से नेरल से आती हुई ट्रेन का दृश्य देखा जा सकता है। शारलॉट लेक के दायीं ओर पीसरनाथ का प्राचीन मंदिर है। वहीं बायीं और दो पिकनिक स्पॉट लुईस पॉइंट और इको पॉइंट हैं। हनीमून पॉइंट पर रस्सी के द्वारा घाटी को पार करने का साहसिक और रोमांचक कार्य का भी अनुभव यहां किया जा सकता है। इसके अलावा एलेक्जेंडर पॉइंट, रामबाग पॉइंट, लिटिल चौक पॉइंट, चौक पॉइंट, वन ट्री हिल पॉइंट, ओलंपिया रेसकोर्स, लॉर्डस पॉइंट, सेसिल पॉइंट, पनोरमा पॉइंट इत्यादि अनेक स्थानों पर पर्यटक आते हैं।
माथेरान में पनोरमा पॉइंट सहित लगभग ३६ पूर्व निस्चित लुक-आउट पायंट्स हैं जहाँ से सारे क्षेत्र के अलावा नेरल शाहर का भी विहंगम दृश्य प्राप्त कर सकते है। पनोरमा पॉइंट से सूर्योदय और सूर्यास्त देखा जा सकता है। लूयीसा पॉइंट के प्रबल फ़ोर्ट का सुस्पष्ट दर्शन होता है। वन ट्री हिल पॉइंट, हार्ट पॉइंट, मंकी पॉइंट, पोर्क्युपाइन पॉइंट, रामबाघ पॉइंट इत्यादि यहाँ के अन्य मुख्य पॉइंट हैं।
माथेरान की खोज १८५० में थाने जिले के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर ह्यू पायंट्ज़ मेल्ट द्वारा की गयी थी। उस समय के बंबई के गवर्नर लॉर्ड एलफिन्सटोन ने इस भावी हिल स्टेशन की आधारशिला रखी। अँग्रेज़ सरकार ने इस इलाक़े में पड़ने वाली गर्मी से बचाव के लिए माथेरान का विकास किया। माथेरान हिल रेलवे का निर्माण १९०७ में सर आदंजी पीर्भोय द्वारा किया गया था। घने जंगलो के विशाल इलाक़े में फैला यह रेलवे २० किलो मीटर (१२ मिल) की दूरी तय करता है। माथेरान लाइट रेलवे के नाम से भी मशहूर इस स्थान का युनेसको वर्ल्ड हेरिटेज साइट के अधिकारियों द्वारा भी निरीक्षण किया गया था पर यह वर्ल्ड हेरिटेज साइट की सूची में स्थान पाने में असफल रहा।
वन और वन्य जीवन
माथेरान को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया है और यह अपने आप में एक स्वास्थ्य आरोग्यआश्रम कहा जा सकता है। इस इलाक़े के अनेको सूखे पेड़ो का संग्रह ब्लात्तेर हर्बेरियम, स्ट्रीट। आइयेवियर'स कॉलेज, बॉमबे, मुंबई में देखा जा सकता है। माथेरान में उपस्थित एक मात्र स्वचालित वाहन इसकी नगरपालिका द्वारा संचालित एम्बुलेंस ही है। किसी भी निजी स्वचालित वाहन को अनुमति नहीं दी जाती। माथेरान के भीतर यातयात के साधानो के रूप में घोड़े और हाथ से खींचे जाने वाला रिक्सा ही उपलब्ध होता है। माथेरान में बड़ी संख्या में औषधीय पौधे और जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं. इस शहर में बॉनेट मकाक्स, हनुमान लंगूरस समेत बहुत सारे बंदर भी पाए जाते हैं। निकट में ही अवस्थित लेक शार्लट माथेरान का पीने के पानी का प्रमुख स्रोत है। जंगल के अंदर कई तरह के जानवर जैसे कि तेंदुए, हिरण, मलाबार जाइयंट गिलहरी, लोमड़ी, जंगली सुअर, नेवले आदि पाए जाते हैं।
माथेरान मुंबई और पुणे से रेल और सड़क द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। इसका निकटतम रेलवे स्टेशन नेरल है। निकटतम हवाई अड्डा छत्रपति शिवाजी इंटरनॅशनल एरपोर्ट, मुंबई है। माथेरान शहर के केंद्र में एक नॅरो गेज रेलवे स्टेशन है। माथेरान हिल रेलवे से नेरल के लिए प्रतिदिन सेवा उपलब्ध है। इस पर चलने वाली खिलोना गाड़ी मुख्य लाइन से नेरल जक्सन में जुड़ती है जो की सी.एस.टी - कर्जत मार्ग के द्वारा सी.एस.टी से अच्छी तरह जुड़ा है।
इन्हें भी देखें
रायगढ़ ज़िला, महाराष्ट्र
टॉय ट्रेन पर नरेल से माथेरान
रायगढ़ ज़िला, महाराष्ट्र
महाराष्ट्र के शहर
रायगढ़ ज़िले, महाराष्ट्र के नगर
रायगढ़ ज़िले, महाराष्ट्र में पर्यटन आकर्षण
महाराष्ट्र में हिल स्टेशन |
माण्डू या माण्डवगढ़, धार ज़िला जिले धार के माण्डव क्षेत्र में स्थित एक प्राचीन शहर है। यह भारत के पश्चिमी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में स्थित है। यह धार शहर से ३५ किमी दूर स्थित है। यह ११ वीं शताब्दी में, माण्डू तारागंगा या तरंगा राज्य का उपभाग था। यहाँ परमारों के काल मे इसे प्रसिद्धि प्राप्त हुई और फिर १३ वीं शताब्दी में, यह क्षेत्र मुस्लिम शासकों के अंतर्गत आ गया।विन्ध्याचल पर्वत शृंखला में स्थित होने के कारण इसका सुरक्षा कि दृस्टि से बहुत अधिक महत्व था।
आज यह एक पर्यटक स्थल के रूप मे प्रशिद्ध है। जहाँ हजारों कि संख्या में सैलानी यहाँ के दर्शनीय स्थलों जैसे जहाज महल, हिन्डोला महल, शाही हमाम और वास्तुकला के उत्कृष्टतम उदाहरण आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद को देखने आते है। इसकी इन्दौर शहर से दुरी १०० किमी है। सर्वश्रेष्ठ हेरिटेज सिटी का राष्ट्रीय पुरस्कार मांडू को २०१८ में प्राप्त हुआ। इस के दर्शनीय स्थल तारापुर दरवाजा जहांगीर दरवाजा दिल्ली दरवाजा जहाज महल हिंडोला महल होशंग शाह का मकबरा जामा मस्जिद अशरफी महल रेवा कुंड रूपमती मंडप नीलकंठ महल हाथी महल तथा लोहानी गुफा है।
पुर्व तालकपुर (धार जिले में ही) राज्य से मिले एक शिलालेख के अनुसार, एक व्यापारी चंद्रसिंह ने "मंडपा दुर्गा" में स्थित पार्सवनाथ मंदिर में एक मूर्ति स्थापित की। "माण्डू" शब्द मंडपा दुर्गा का ही समय के साथ बदला हुआ नाम है। ६१२ विक्रम संवत के एक शिलालेख इंगित करती है कि ६वीं सदी में मांडू एक समृद्ध शहर हुआ करता था।
१०वीं और ११वीं शताब्दी में माण्डू को परमारों के शासनकाल् में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। ६३३ मीटर (२०७९ फीट) की ऊंचाई पर स्थित मांडू शहर, विंध्य पर्वत में १३ किमी (८.१ मील) पर फैला हुआ है। उत्तर में मालवा का पठार और दक्षिण में नर्मदा नदी की घाटी, परमारों के इस किला-राजधानी को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करता थी। जयवर्मन द्वितीय से शुरू होने वाले परमार राजाओं के अभिलेखों में माण्डू ("मंडपा-दुर्गा" के रूप में) को शाही निवास के रूप में उल्लेख किया गया है। यह संभव है कि जयवर्मन या उसके पुर्वज जैतूगि ने पड़ोसी राज्यों के लगातार हमलों के कारण, पारंपरिक परमार राजधानी धार से माण्डू स्थानांतरित कर दिया होगा। बलबान, दिल्ली के सुल्तान नसीर-उद-दीन के जनरल, इस समय परमार क्षेत्र के उत्तरी सीमा तक पहुंच गए थे। इसी समय, परमारों को देवगिरि के यादव राजा कृष्ण और गुजरात के वघेला राजा विशालदेव से हमलों का सामना करना पड़ा। धार, जो मैदानी इलाकों में स्थित है, की तुलना में माण्डू के पहाड़ी क्षेत्र में स्थिति एक बेहतर रक्षात्मक अवस्थिति प्रदान करती होगी।
इन्दौर से लगभग ९० किमी दूर है। माण्डू विन्ध्य की पहाडियों में 2००० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलत: मालवा के परमार राजाओं की राजधानी रहा था। तेरहवीं शती में मालवा के सुलतानों ने इसका नाम शादियाबाद यानि "खुशियों का शहर" रख दिया था। वास्तव में यह नाम इस जगह को सार्थक करता है। यहाँ के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिन्डोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद वास्तुकला के उत्कृष्टतम रूप हैं।ख़िलजी शासकों द्वारा बनाए गए इस नगर में जहाज और हिंडोला महल खास हैं। यहाँ के महलों की स्थापत्य कला देखने लायक है। मांडू इंदौर से 1०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सड़क मार्ग से यह धार से भी जुड़ा हुआ है।
मांडू में दाखिल होने के लिए १२ दरवाजे हैं। मुख्य रास्ता दिल्ली दरवाजा कहलाता है। दूसरे दरवाजे रामगोपाल दरवाजा, जहांगीर दरवाजा और तारापुर दरवाजा कहलाते हैं।
जहाजनुमा आकार में इस महल को दो मानवनिर्मित तालाबों के बीच बनाया गया था।
टेड़ी दीवारों के कारण इस महल को हिंडोला महल कहा जाता है।
होशंग शाह का मकबरा (जामा मस्जिद)
होशंग शाह गौरी (१४०६-१४३५) मांडू का प्रथम इस्लामिक सुल्तान था। उसके पिता का नाम दिलावर खान गोरी था, जिसको फिरोजशाह तुगलक ने मांडू का राज्यपाल नियुक्त किया था। मकबरे का निर्माण कार्य होशंग शाह गोरी ने शुरू किया था, जो महमूद खिलजी (१४३६-१४६९) ने १४४० ई में पूर्ण किया।
रानी रूपमती महल
कहां जाता है रानी रूपमती हिन्दु गायिका थी रानी रूपमती पर मालवा के अफगान सुल्तान बाज बहादुर खान [१५५६-१५६२] ई.आकर्षित हो गए और रूपमती से विवाह कर लिया रानी रूपमती नर्मदा दर्शन के उपरांत भोजन ग्रहण करती थी इसलिए उन्होंने रानी रूपमती महल का निर्माण करवाया था।
इनके अलावा नहर झरोखा, बाज बहादुर महल, और नीलकंठ महल भी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। शुरुआत में अशर्फी महल होशंग शाह द्वारा बनवाया गया था परन्तु तत्पश्चात इसे मेहमूद खिलजी ने इसका पुनः निर्माण करवाया
हर वर्ष मान्डु में प्रशासन द्वारा मान्डु उत्सव मनाया जाता है।
भोज का माण्डव
मालवा का कश्मीर है माण्डू
ऐतिहासिक इमारतों का स्थान मांडू (वेबदुनिया)
मालवा का कश्मीर है माण्डू
मांडू की हसीन वादिया
कम दिनों में 'दिल' की सैर
भारत की हृदय स्थली - विहंगम मध्य प्रदेश
जहाज महल - मांडव
मध्य प्रदेश में पर्यटन आकर्षण |
तिलका माँझी, (संथाल: ) (११ फ़रवरी १७५० - १३ जनवरी १७८५) तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। इनमें सबसे लोकप्रिय तिलका मांझी हैं।
जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ के जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म ११ फ़रवरी १७५० ई. में हुआ था। १७७१ से १७८४ तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने १७७८ ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। १७८४ में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः १३ जनवरी १७८५। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए - हांसी-हांसी चढ़बो फांसी ...! - वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं।
पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं।
तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़िया विवाद
तिलका मांझी संताल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है। आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्मु टोटेम का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। तिलका मांझी के पिता का नाम सुंदर मुर्मू था. सुंदर मुर्मू तिलकपुर गांव के ग्राम प्रधान (आतु मांझी) थे. उनके पिता के नाम से साफ पता चलता है तिलका मांझी संथाल परिवार में जन्मे एक संथाल आदिवासी समुदाय के थे. तिलका मांझी (मुर्मू) का जन्म ११फरवरी १७५० को हुआ है. सुल्तानगंज भागलपुर क्षेत्र में पहाड़िया जनजाति लोगों का भी निवास करते थे, तिलका मांझी संथाल और पहाड़िया जनजाति के बीच में रहकर पले बढ़े हैं, लेकिन फिर भी संतालों का हक और अधिकार के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने में कभी पीछे नहीं हटे है. संताल एवं आदिवासी समुदाय में इतिहासकारों की कमी होने के कारण दूसरे जाति समुदाय के इतिहासकारों ने इस संथाल समुदाय के इतिहास को तड़ मरोड़ा जा रहा है इतिहास के साथ छेड़छाड़ किया जा रहा है, इसलिए ही तिलका मांझी को पहाड़िया जनजाति के साथ कुछ इतिहासकारों द्वारा जोड़ा जा रहा है जो गलत जानकारी है. मांझी और मुर्मू सरनेम संतालों का है और तिलका और सुंदर नाम भी अभी भी संतालों के बीच मौजूद हैं. तिलका मांझी का असली नाम तिलका मुर्मू है जबरा पहाड़िया नहीं. तिलका मांझी संतालो के बीच काफी लोकप्रिय है और उनका पुजा भी किया जाता है लेकिन पहाड़िया जनजाति के लोग तिलका मांझी का पुजा पाठ या कोई अन्य उनके नाम पर समारोह आयोजित नहीं देखने को मिलता है. संथालों के अनेकों लोक गीतों में उनका नाम है। और रही बात इतिहास की तो भारत देश मे सदैव उच्च जाति और पैसे वालों के आगे झुकता रहा है । शुरू में संतालों का स्थाई निवास स्थान नहीं था, स्थाई नहीं होने का कारण संतालों को दूसरे जाति समुदाय के लोगों द्वारा भागाया जाता रहा है. झारखंड प्रदेश में सर्वप्रथम गिरिडीह जिला (शिर दिशोम शिखर) क्षेत्र में प्रवेश किया. धीरे धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी और संतालों का क्षेत्र भी बढ़ने लगा. लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संताल आदिवासी समुदाय के लोग १७७० के अकाल के कारण १७९० के बाद संताल परगना की तरफ आए और बसे। लेकिन संताल (आगील हापड़ाम कोवा काथा ) इतिहास के आधार पर संताल सर्वप्रथम वर्तमान झारखंड के उत्तर पूर्व क्षेत्र तथा वर्तमान बिहार राज्य के दक्षिण क्षेत्र में निवास करते थे. अंग्रेज शासन के पहले संताल अपने को होड़ कहते थे. संतालों के लिए संताल शब्द अंग्रेजों के समय आया है. संताल का मूल शब्द है सांवता. सांवता का अर्थ होता है साथ साथ रहना. कलांतर में इनका शब्द सांवता से सांवताल, सांवतार, संताल, सांतार, सांथाल, संताड़ होने लगा.
थे अन्नल ऑफ रुरल बंगाल, वोलुमे १, १868 बाय सिर विलियम विल्सन हंटर (पाग नो 2१9 तो २२७) में साफ लिखा है कि संताल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। १790 के अकाल के समय उनका माइग्रेशन आज के संताल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, १792 से संतालों नया इतिहास शुरू होता है (पृ. २२०)। १838 तक संताल परगना में संतालों के ४० गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी ३००० थी (पृ. २२३)। हंटर यह भी बताता है कि १847 तक मि. वार्ड ने १50 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया (पृ. २२४)।
१९१० में प्रकाशित बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना, वोल्यूम १३ में एल.एस.एस. ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड १८२७ में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संतालों के ३ गांव पतसुंडा में और २७ गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ये लोग खुद को सांतार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं। (पृ. ९७) दामिनेकोह में संतालों के बसने का प्रामाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना के पृष्ठ ९७ से ९९ पर उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त आर. कार्सटेयर्स जो १८८५ से १८९८ तक संताल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास हाड़मा का गांव (हरमवक एटो) की शुरुआत ही पहाड़िया लोगों के इलाके में संतालों के बसने के तथ्य से की है। संतालों का अपना इतिहासकारों की कमी के कारण इतिहास को सही सही नहीं लिखा गया है, संताल को पहले अपने आप को होड़ से संबंधित होते थे, अंग्रेजों द्वारा संतालों को जब होड़ से संताल में परिवर्तन किया गया और अपना दस्तावेजों में लिखना प्रारम्भ किया तब के बाद से संतालों का इतिहास देखने को मिलता है.
साहित्य में जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी
बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास 'शालगिरर डाके' की रचना की है। अपने इस उपन्यास में महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी को मुर्मू गोत्र का संताल आदिवासी बताया है। यह उपन्यास हिंदी में 'शालगिरह की पुकार पर' नाम से अनुवादित और प्रकाशित हुआ है।
हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने जबकि अपने उपन्यास हूल पहाड़िया में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है। हूल पहाड़िया उपन्यास २०१२ में प्रकाशित हुआ है।
तिलका मांझी के नाम पर भागलपुर में तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय नाम से एक शिक्षा का केंद्र स्थापित किया गया है।
हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास हूल पहाड़िया मैं तिलका मांझी को जाबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है।
इन्हें भी देखें
संथाल परगना में पहाड़िया राज का इतिहास
नेपथ्य का नायक तिलका मांझी, राकेश बिहारी
जंगलतरी में तिलका मांझी का विद्रोह (१७८३-८४)
तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय |
तुर्कमेनिस्तान (तुर्कमेनिया के नाम से भी जाना जाता है) मध्य एशिया में स्थित एक तुर्किक देश है। १९९१ तक तुर्कमेन सोवियत समाजवादी गणराज्य (तुर्कमेन स्र) के रूप में यह सोवियत संघ का एक घटक गणतंत्र था। इसकी सीमा दक्षिण पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान, दक्षिण पश्चिम में ईरान, उत्तर पूर्व में उज़्बेकिस्तान, उत्तर पश्चिम में कज़ाख़िस्तान और पश्चिम में कैस्पियन सागर से मिलती है। 'तुर्कमेनिस्तान' नाम फारसी से आया है, जिसका अर्थ है, 'तुर्कों की भूमि'। देश की राजधानी अश्गाबात (अश्क़ाबाद) है। इसका हल्के तौर पर "प्यार का शहर" या "शहर जिसको मोहब्बत ने बनाया" के रूप में अनुवाद होता है। यह अरबी के शब्द 'इश्क़' और फारसी प्रत्यय 'आबाद' से मिलकर बना है।
तुर्कमेनिस्तान का धरातल बहुत ही विषम है। यहाँ पर पर्वत, पठार, मरूस्थल एवं मैदान सभी मिलते हैं परन्तु समुद्र से दूर होने के कारण यहाँ की जलवायु पर महाद्वीपीय प्रभाव है। पशु-पालन यहाँ का प्रधान व्यवसाय है। तुर्कमेनिस्तान में वर्षा की कमी के कारण प्राकृतिक वनस्पति की कमी है। तुर्कमेनिस्तान के ७०% क्षेत्रफल पर काराकुम रेगिस्तान फैला हुआ है। मरुस्थलीय भूमि की अधिकता होने के कारण यहाँ के अधिकांश भागों में शुष्क मरुस्थलीय कँटीली झाड़ियाँ मिलती हैं।
इन्हें भी देखें
एशिया के देश |
चेकोस्लोवाकिया मध्य यूरोप में स्थित एक देश हुआ करता था जो अक्टूबर १९१८ से १९९२ तक अस्तित्व में रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान १९३९ से १९४५ के एक अंतराल में इसका ज़बरदस्ती जर्मनी में विलय कर दिया गया इसलिए वास्तविकता में यह देश उस ज़माने में अस्तित्व में नहीं था, हालांकि औपचारिक रूप से मित्रपक्ष शक्तियाँ तब भी इसे मान्यता देती रहीं। १९४५ में सोवियत संघ ने इसके एक पूर्वी हिस्से को चेकोस्लोवाकिया से अलग करके अपने क्षेत्र का भाग बना लिया। शीत युद्ध काल में चेकोस्लोवाकिया पर साम्यवाद (कोम्युनिस्ट) शासन रहा और यह देश सोवियत संघ के नेतृत्व में गठित वारसा संधि के मित्रपक्ष में शामिल था। सोवियत संघ के टूटने पर १९९० में यहाँ भी साम्यवाद ख़त्म हो गया। धीरे-धीरे देश के दो मुख्य समुदायों - चेक और स्लोवाक - के बीच तनाव बढ़ता रहा और लगने लगा कि वे एक राष्ट्र में मिलकर नहीं रह पाएँगे। १९९२ में रायशुमारी (लोगों का विभाजन के प्रश्न पर सीधा मतदान) की गई और जनता ने देश को बांटने का फ़ैसला चुना। १ जनवरी १९९३ को देश बिना किसी हिंसा के दो अलग राष्ट्रों में बाँट गया जिन्हें चेक गणतंत्र और स्लोवाकिया के नामों से जाना जाता है। विश्व में अन्य देशों के हुए विभाजनों की तुलना में यह बंटवारा इतने कोमल और शांतिपूर्वक ढंग से हुए कि इस घटना को इतिहासकार और समीक्षक कभी-कभी 'मख़मली तलाक़' कहते हैं।
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यूरोप का इतिहास |
ऑस्ट्रिया (जर्मन: स्टेरीच एओस्तेराइख़, अर्थात पूर्वी राज्य) मध्य यूरोप में स्थित एक स्थल रुद्ध देश है। इसकी राजधानी वियना है। इसकी (मुख्य- और राज-) भाषा जर्मन भाषा है। देश का ज़्यादातर हिस्सा ऐल्प्स पर्वतों से ढका हुआ है। यूरोपीय संघ के इस देश की मुद्रा यूरो है। इसकी सीमाएं उत्तर में जर्मनी और चेक गणराज्य से, पूर्व में स्लोवाकिया और हंगरी से, दक्षिण में स्लोवाकिया और इटली और पश्चिम में स्विटजरलैंड और लीश्टेनश्टाइन से मिलती है। इस देश का उद्भव नौवीं शताब्दी के दौरान ऊपरी और निचले हिस्से में आबादी के बढ़ने के साथ हुआ। ओस्टेरिची शब्द का पहले पहल इस्तेमाल ९९६ में प्रकाशित आधिकारिक लेख में किया गया, जो बाद में स्टेरीच एओस्तेराइख़ में बदल गया।
आस्ट्रिया में पूर्वी आल्प्स की श्रेणियाँ फैली हुई हैं। इस पर्वतीय देश का पश्चिमी भाग विशेष पहाड़ी है जिसमें ओट्जरस्टुवार्ड, जिलरतुल आल्प्स (१,२४६ फुट) आदि पहाड़ियाँ हैं। पूर्वी भाग की पहाड़ियां अधिक ऊँची नहीं हैं। देश के उत्तर पूर्वी भाग में डैन्यूब नदी पश्चिम से पूर्व को (३३० किमी लंबी) बहती है। ईन, द्रवा आदि देश की सारी नदियां डैन्यूब की सहायक हैं। उत्तरी पश्चिमी सीमा पर स्थित कांस्टैंस, दक्षिण पूर्व में स्थित न्यूडिलर तथा अतर अल्फ गैंग, आसे आदि झीलें देश की प्राकृतिक शोभा बढ़ाती हैं।
आस्ट्रिया की जलवायु विषम है। यहां ग्रर्मियों में कुछ अधिक गर्मी तथा जाड़ों में अधिक ठंडक पड़ती है। यहां पछुआ तथा उत्तर पश्चिमी हवाओं से वर्षा होती है। आल्प्स की ढालों पर पर्याप्त तथा मध्यवर्ती भागों में कम पानी बरसता है।
यहाँ की वनस्पति तथा पशु मध्ययूरोपीय जाति के हैं। यहाँ देश के ३८ प्रतिशत भाग में जंगल हैं जिनमें ७१ प्रतिशत चीड़ जाति के, १९ प्रतिशत पतझड़ वाले तथा १० प्रतिशल मिश्रित जंगल हैं। आल्प्स के भागों में स्प्रूस (एक प्रकार का चीड़) तथा देवदारु के वृक्ष तथा निचले भागों में चीड़, देवदारु तथा महोगनी आदि जंगली वृक्ष पाए जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि आस्ट्रिया का प्रत्येक दूसरा वृक्ष सरो है। इन जंगलों में हिरन, खरगोश, रीछ आदि जंगली जानवर पाए जाते हैं।
देश की संपूर्ण भूमि के २९ प्रतिशत पर कृषि होती है तथा ३० प्रतिशत पर चारागाह हैं। जंगल देश की बहुत बड़ी संपत्ति है, जो शेष भूमि को घेरे हुए है। लकड़ी निर्यात करनेवाले देशों में आस्ट्रिया का स्थान छठा है।
ईजबर्ग पहाड़ के आसपास लोहे तथा कोयले की खानें हैं। शक्ति के साधनों में जलविद्युत ही प्रधान है। खनिज तैल भी निकाला जाता है। यहां नमक, ग्रैफाइट तथा मैगनेसाइट पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। मैगनेसाइट तथा ग्रैफाइट के उत्पादन में आस्ट्रिया का संसार में क्रमानुसार दूसरा तथा चौथा स्थान है। तांबा, जस्ता तथा सोना भी यहां पाया जाता है। इन खनिजों के अतिरिक्त अनुपम प्राकृतिक दृश्य भी देश की बहुत बड़ी संपत्ति हैं।
आस्ट्रिया की खेती सीमित है, क्योंकि यहां केवल ४.५ प्रतिशत भूमि मैदानी है, शेष ९२.३ प्रतिशत पर्वतीय है। सबसे उपजाऊ क्षेत्र डैन्यूब की पार्श्ववर्ती भूमि (विना का दोआबा) तथा वर्जिनलैंड है। यहां की मुख्य फसलें राई, जई (ओट), गेहूँ, जौ तथा मक्का हैं। आलू तथा चुकंदर यहां के मैदानों में पर्याप्त पैदा होते हैं। नीचे भागों में तथा ढालों पर चारेवाली फसलें पैदा होती हैं। इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों में तीसी, तेलहन, सन तथा तंबाकू पैदा किया जाता है। पर्वतीय फल तथा अंगूर भी यहाँ होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ों को काटकर सीढ़ीनुमा खेत बने हुए हैं। उत्तरी तथा पूर्वी भागों में पशुपालन होता है तथा यहाँ से वियना आदि शहरों में दूध, मक्खन तथा चीज़ पर्याप्त मात्रा में भेजा जाता है। जोरारलबर्ग देश का बहुत बड़ा संघीय पशुपालन केंद्र है। यहां बकरियां, भेड़ें तथा सुअर पर्याप्त पाले जाते हैं जिनसे मांस, दूध तथा ऊन प्राप्त होता है।
आस्ट्रिया की औद्योगिक उन्नति महत्वपूर्ण है। लोहा, इस्पात तथा सूती कपड़ों के कारखाने देश में फैले हुए हैं। रासायनिक वस्तुएँ बनाने के बहुत से कारखाने हैं। यहाँ धातुओं के छोटे मोटे सामान, वियना में विविध प्रकार की मशीनें तथा कलपुर्जे बनाने के कारखाने हैं। लकड़ी के सामान, कागज की लुग्दी, कागज एवं वाद्यतंत्र बनाने के कारखाने यहां के अन्य बड़े धंधे हैं। जलविद्युत् का विकास खूब हुआ है। देश को पर्यटकों का भी पर्याप्त लाभ होता है।
पहाड़ी देश होने पर भी यहाँं सड़कों (कुल सड़कें ४१,६४९ कि.मी.) तथा रेलवे लाइनों (५,९०८ कि.मी.) का जाल बिछा हुआ है। वियना यूरोप के प्राय: सभी नगरों से संबद्ध है। यहां छह हवाई अड्डे हैं जो वियना, लिंज़, सैल्बर्ग, ग्रेज, क्लागेनफर्ट तथा इंसब्रुक में हैं। यहां से निर्यात होनेवाली वस्तुओं में इमारती लकड़ी का बना सामान, लोहा तथा इस्पात, रासायनिक वस्तुएं और कांच मुख्य हैं।
विभिन्न विषयों की उच्चतम शिक्षा के लिए आस्ट्रिया का बहुत महत्व है। वियना, ग्रेज, लिंज़ तथा इंसब्रुक में संसारप्रसिद्ध विश्वविद्यालय हैं।
आस्ट्रिया में गणतंत्र राज्य है। यूरोप के ३६ राज्यों में, विस्तार के अनुसार, आस्ट्रिया का स्थान १९वाँ है। यह नौ प्रांतों में विभक्त है। वियना प्रांत में स्थित वियना नगर देश की राजधानी है। आस्ट्रिया की संपूर्ण जनसंख्या का १/४ भाग वियना में रहता है जो संसार का २२वाँ सबसे बड़ा नगर है। अन्य बड़े नगर ग्रेज, जिंज, सैल्जबर्ग, इंसब्रुक तथा क्लाजेनफर्ट हैं।
अधिकांश आस्ट्रियावासी काकेशीय जाति के हैं। कुछ आलेमनों तथा बवेरियनों के वंशज भी हैं। देश सदा से एक शासक देश रहा है, अत: यहां के निवासी चरित्रवान् तथा मैत्रीपूर्ण व्यवहारवाले होते हैं। यहाँ की मुख्य भाषा जर्मन है।
आस्ट्रिया का इतिहास बहुत पुराना है। लौहयुग में यहाँ इलिरियन लोग रहते थे। सम्राट् आगस्टस के युग में रोमन लोगों ने देश पर कब्जा कर लिया था। हूण आदि जातियों के बाद जर्मन लोगों ने देश पर कब्जा कर लिया था (४३५ ई.)। जर्मनों ने देश पर कई शताब्दियों तक शासन किया, फलस्वरूप आस्ट्रिया में जर्मन सभ्यता फैली जो आज भी वर्तमान है। १९१९ ई. में आस्ट्रिया वासियों की प्रथम सरकार हैप्सबर्ग राजसत्ता को समाप्त करके, समाजवादी नेता कार्ल रेनर के प्रतिनिधित्व में बनी। १९३८ ई. में हिटलर ने इसे महान् जर्मन राज्य का एक अंग बना लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैंड आदि देशों ने आस्ट्रिया को स्वतंत्र करने का निश्चय किया और १९४५ ई. में अमरीकी, ब्रितानी, फ्रांसीसी तथा रूसी सेनाओं ने इसे मुक्त करा लिया। इससे पूर्व अक्टूबर, १९४३ ई. की मास्को घोषणा के अंतर्गत ब्रिटेन, अमरीका तथा रूस आस्ट्रिया को पुन: एक स्वतंत्र तथा प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित कराने का अपना निश्चय व्यक्त कर चुके थे। २७ अप्रैल, १९४५ को डा. कार्ल रेनर ने आस्ट्रिया में एक अस्थायी सरकार की स्थापना की जिसने १९२०-२९ ई. के संविधान के अनुरूप आस्ट्रियाई गणतंत्र को पुन: प्रतिष्ठित किया। आस्ट्रिया की उक्त जनतांत्रिक सरकार को चारों मित्रराष्ट्रों की नियंत्रण परिषद् (कंट्रोल काउंसिल) ने २० अक्टूबर, १९४५ ई. को मान्यता दे दी। किंतु देश को वास्तविक स्वतंत्रता २७ जुलाई, १९५५ ई. को मिली जब ब्रिटेन, अमरीका, रूस तथा फ्रांस के साथ हुई आस्ट्रियन स्टेट संधि (१५ मई, १९५५ ई.) लागू की गई और बलात् अधिकार करनेवाली विदेशी सेनाएं वापस चली गईं।
वियना के भूतपूर्वू लार्ड मेयर फ्ऱांज जोनास २३ मई, १९६५ को आस्ट्रियाई गणतंत्र के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और २५ अप्रैल, १९७१ को पुन: इन्हें ही राष्ट्रपति के पद पर चुन लिया गया जबकि इनके प्रतिद्वंद्वी कुर्ट बाल्ढीम असफल रहे। १० अक्टूबर, १९७१ को राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव संपन्न हुए जिसमें ९३ समाजवादी, ८० पीपुल्स पार्टी और १० फ्रीडम पार्टी के प्रतिनिधि चुने गए।
यह भी देखिए
विक्षनरी में ऑस्ट्रिया
यूरोप के देश |
स्पेन ( एस्पान्या ''), मुख्य रूप से दक्षिण-पश्चिमी यूरोप में अटलांटिक महासागर और भूमध्य सागर के पार एक देश है। स्पेन का सबसे बड़ा भाग इबेरिया प्रायद्वीप पर स्थित है। इसके क्षेत्र में अटलांटिक महासागर में कनारिया द्वीपसमूह, भूमध्य सागर में बलेयार द्वीप समूह और अफ़्रीका में सेउता और मेलिया के स्वायत्त नगर भी शामिल हैं। देश की मुख्य भूमि दक्षिण में जिब्राल्टर से लगती है; भूमध्य सागर द्वारा दक्षिण और पूर्व में; उत्तर में फ्रांस, अण्डोरा और बिस्के की खाड़ी; और पश्चिम में पुर्तुगाल और अटलांटिक महासागर द्वारा। ५०५,९९० क्म के क्षेत्रफल के साथ, स्पेन यूरोपीय संघ में दूसरा सबसे बड़ा देश है और ४.7४ करोड़ से अधिक जनसंख्या के साथ, चौथा सबसे अधिक जनसंख्या वाला यूरोपीय सङ्घ का सदस्य राज्य है। स्पेन की राजधानी और सबसे बड़ा नगर मद्रिद है; अन्य प्रमुख शहरी क्षेत्रों में बार्सेलोना, वालेन्सिया, सविल, सरागोसा, मलागा, मर्सिया, पाल्मा दे मल्लोर्का, लास पाल्मास और बिल्बो शामिल हैं।
स्पेनी कला, संगीत, साहित्य और व्यंजन दुनिया भर में प्रभावशाली रहे हैं, विशेषकर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में। अपनी विशाल सांस्कृतिक सम्पदा के प्रतिबिम्ब के रूप में, स्पेन में विश्व की चौथी सबसे बड़ी संख्या में विश्व धरोहर स्थल (४९) हैं और यह विश्व का दूसरा सबसे अधिक भ्रमण किया जाने वाला देश है। इसका सांस्कृतिक प्रभाव ५७ करोड़ स्पेनी-भाषियों तक फैला हुआ है, जिससे स्पेनी विश्व की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली मूल भाषा बन गई है।
स्पेन एक विकसित देश है, एक धर्मनिरपेक्ष संसदीय लोकतंत्र और एक संवैधानिक राजतंत्र है, जिसमें राजा फ़ेलिपे षष्ठम राष्ट्रप्रमुख हैं। यह एक उच्च आय वाला देश और एक उन्नत अर्थव्यवस्था है, नाममात्र सकल घरेलू उत्पाद द्वारा विश्व की सोलहवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और पीपीपी द्वारा सोलहवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। स्पेन में विश्व में बारह-उच्चतम जीवन प्रत्याशा है। यह स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता में विशेष रूप से उच्च स्थान पर है, इसकी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को विश्व भर में सबसे कुशल में से एक माना जाता है। यह अंग प्रत्यारोपण और अंग दान में विश्व में अग्रणी है। स्पेन संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ, यूरोक्षेत्र, यूरोप की परिषद, इबेरो-अमेरिकी राज्यों के संगठन, भूमध्य संघ, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओक्ड), यूरोप में सुरक्षा और सहयोग संगठन (ओस्स), विश्व व्यापार संगठन (व्टो) और कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का सदस्य है।।
प्रागैतिहासिक काल से लेकर एक देश के रूप में अस्तित्व में आने तक स्पेन का राज्यक्षेत्र अपनी खास अवस्थिति की वजह से, कई बाहरी प्रभावों के अधीन रहा था। रोमन काल में यह हिस्पानिया राज्य था। रोमन प्रभाव सीमित होने के बाद विसिगोथिक राज्य बने। सन् ७११ में अफ़्रीक़ा के मूर शासक तारीक बिन जियाद ने विसिगोथिकों की आपसी लड़ाई का फ़यदा उठाकर आक्रमण किया और जीत हासिल की। इसके बाद यहाँ सीरिया से निष्कासित उमय्यद ख़िलाफत की पीठ बनी। मुस्लिमों का शासन पूरे स्पेन (अल-अंदलूस) पर रहा - लेकिन उत्तर तथा उत्तर पूर्व में दो छोटे स्वतंत्र राज्य भी रहे। दसवीं सदी में कोर्दोबा स्थित साम्राज्य में मुस्लमान, ईसाइयों और यहूदियों के साथ मिलकर एक बहुआयामी संस्कृति का हिस्सा थे। दसवीं सदी में मुस्लमानों को ईसाइयों ने हराना आरंभ किया। इसके बाद ईसाइयों ने जेरुशलम से मुसलमानों का कब्ज़ा बटाने के लिए धर्मयुद्धों में भाग लिया। पोप के आग्रह पर सैनिक तुर्की होते हुए जेरुशलम पहुँचने लगे। इस समय तुर्की पर मुस्लिम तुर्कों का शासन आरंभ हो गया था जिसकी वजह से ईसाई यूरोपियों का उनके पवित्र धार्मिक स्थल जेरुशलम पहुँचना मुश्किल हो गया था। शुरुआत में तो ईसाई सफल रहे पर सन् ११८० के दशक में मामलुक सेनापति सलादीन के प्रयास के बाद यूरोप के सैनिक हारते गए। इसके साथ ही पूर्व से मसालों, रेशम और कीमती आभूषणों के मार्ग पर भी मुस्लमानों का कब्ज़ा हो गया। इन चीजों के यूरोप में भाव बढ़ते गए और इन कारणों से मुस्लमानों के खिलाफ रोष भी।
पंद्रहवीं सदी में पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी और अन्य ने अफ्रीका के स्युटा और मोरक्को पर आक्रमण किया और सफल हुए। इसके बाद पश्चिम अफ्रीका के तटों पर भी नौअन्वेषण चलते रहे। हेनरी और उसकी नौसमूह सेनेगल नदी के मुहाने तक पहुंच गया जो इस समय एक बड़ी उपलब्धि थी - क्योंकि इस जगह को दुनिया का अंत समझा जाता था। कई ऐसी यात्राओं के बाद यूरोप में लोगों का दुनिया के बारे में विश्वास बदलने लगा। पुर्तगाल के राजा और हेनरी के भाई-भतीजों ने कई नौअन्वेषी अभियान चलाए . सन् १४९२ में मार्को पोलो की यात्रा-वृत्तांत से प्रभावित होकर पूरब जाने के लिए पश्चिम की यात्रा पर निकला - यह साबित करने कि दुनिया गोल है। वो वेस्ट-इंडीज़ तक पहुँचा। इसके बाद १४९८ में वास्को द गामा, अपने कई पूर्वर्तियों के बनाए नक्शे और किले का सहारा लेकर उत्तमाशा अंतरूप और फिर भारत तक पहुँच गया।
१५ वीं सदी में कैथोलिक सम्राटों की शादी और १४९२ में औबेरियन प्रायद्वीप पर पुनर्विजय (रिकनक्विस्ता) के पूरा होने के बाद स्पेन एक एकीकृत देश के रूप में उभरा। इसके विपरीत, स्पेन अन्य कई क्षेत्रों को प्रभावित करने का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है, विशेष रूप से आधुनिक काल में जब यह एक वैश्विक साम्राज्य बना और अपने पीछे दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है स्पानी के लगभग ५० करोड़ भाषाभाषियों की विरासत को छोड़ दिया।
स्पेन पाँच स्थलाकृतिक (टोपोग्राफिक) क्षेत्रों में विभक्त है,
(१) उत्तरी तटवर्ती कटिबंध,
(२) केंद्रीय पठार येसेता,
(३) स्पेन का सबसे बड़ा नगर आन्दालूसीआ
(४) दक्षिणी पूर्वी भूमध्यसागरीय कटिबंध लेवान्ते (लेवनते) और
(५) उत्तर पूर्व क्षेत्र की कातालूनिआ (कैटालोन्या) तथा एब्रो (एब्रो) घाटी।
स्पेन में छह मुख्य पर्वतमालाएँ हैं। सबसे ऊँची चोटी पेरदीदो (पर्डिडो) है। स्पेन में पाँच मुख्य नदियाँ हैं, एब्रो, दुएरो (दुएरो), तागूस (टैगस), दुआदिआना (दुआडियाना) तथा गुआदलकीवीर (गुआदलक्विवीर)। स्पेन का समुद्री तट चट्टानी है।
स्पेन की जलवायु बदलती रहती है। उत्तरी तटवर्ती क्षेत्रों की जलवाय ठंढी और आर्द्र (ह्यूमिड) है। केंद्रीय पठार जाड़ों में ठंढा तथा गर्मियों में गरम रहता है। उत्तरी तटवर्ती क्षेत्र तथा दक्षिणी तटवर्ती कटिबंध में वार्षिक औसत वर्षा क्रमश: १०० सेमी तथा ७५ सेमी है। विभिन्न किस्म की जलवायु होने के कारण प्राकृतिक वनस्पतियों में भी विभिन्नता पाई जाती है। उत्तर के आर्द्र क्षेत्रों में पर्णपाती (डेसिडुस) वृक्ष जैसे अखरोट, चेस्टनट (चेस्टनट), एल्म (एल्म) आदि पाए जाते हैं।
स्पेन की राजधानी माद्रीद है। अन्य बड़े नगर बार्सेलोना, वालेनसीआ (वैलेंसिया), सिवेये (सिवेल), मालागा (मालागा) तथा सारागोसा (ज़रगोजा) आदि हैं। लगभग सभी स्पेनवासी कैथोलिक धर्म के अनुयायी हैं।
यद्यपि अन्य साधनों की तुलना में खेती का विकास नहीं हुआ है फिर भी यहाँ की आय का प्रमुख साधन कृषि ही है है। बैलिऐरिक तथा कानेरी द्वीपों की भूमि सहित यहाँ पर कुल ४,४3,३२,००० हेक्टर भूमि कृषि योग्य है। अनाज विशेषकर गेहूँ की पैदावार केंद्रीय पठार में होती है। स्पेन की मुख्य फसल गेहूँ है। अन्य उल्लेखनीय फसलें नारंगी, धान और प्याज आदि है। स्पेन संसार का सबसे बड़ा जैतून उत्पादक है तथा यहाँ आलू, रूई, तंबाकू तथा केला आदि का भी उत्पादन होता है। स्पेन में भेड़े सर्वाधिक संख्या में पाली जाती हैं।
उत्तरी समुद्रतट पर मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। सारडीन (सर्दिन), कॉड (कोड) तथा टूना (तुना) आदि जातियों की मछलियाँ ही मुख्य रूप से पकड़ी तथा बेची जाती हैं। लवणित सारडीन तथा कॉड डिब्बों में बंदकर विदेशों को भेजी जाती हैं।
यद्यपि यहाँ की कुल के १०% क्षेत्र में जंगल पाए जाते हैं फिर भी इमारती लकड़ियों का आयात करना पड़ता है। स्पेन संसार का दूसरा सबसे बड़ा कार्क (कॉर्क) उत्पादक देश है। रेज़िन तथा टर्पेंटाइन (टर्पेन्टाइन) अन्य प्रमुख जंगली उत्पादक हैं।
यहाँ लगभग सभी ज्ञात खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। खनन (मिनिंग) यहाँ की आय का मुख्य साधन है। लोहा, कोयला, ताँबा, जस्ता, सीसा, गंधक, मैंगनीज आदि की खानें पाई जाती हैं। संसार में सबसे अधिक पारे का निक्षेप स्पेन के अल्मादेन (अलमाडन) की खानों में पाया जाता है।
वस्त्र उद्योग यहाँ का प्रमुख लघु उद्योग है। महत्वपूर्ण रासायनिक उत्पाद सुपर फॉस्फेट, सल्फ्यूरिक अम्ल, रंग तथा दवाएँ आदि हैं। लोह तथा इस्पात उद्योग उल्लेखनीय भारी उद्योग हैं। सीमेंट तथा कागज उद्योग भी काफी विकसित हैं। स्पेन में उद्योग का तेजी से विकास हो रहा है।
शिक्षण संस्थाएँ सरकारी तथा गैरसरकासी दोनों प्रकार की हैं। गैरसरकारी शिक्षण-संस्थाएँ गिरजाघरों द्वारा नियंत्रित होती हैं। प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य तथा नि:शुल्क है। स्पेन में विश्वविद्यालयों की संख्या १२ है। माद्रीद विश्वविद्यालय छात्रों की संख्या की दृष्टि से स्पेन का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है। यहाँ का सर्वप्राचीन विश्वविद्यालय सालामान्का (सलामानका) है। इसकी स्थापना १२50 ई. में हुई थी।
स्पेन में माद्रीद शहर तथा यहाँ का संग्रहालय, माद्रीद के समीपस्थ एस्कोरिआल महल (एस्कोरियल प्लेस), तोलेदो (टॉलेडो) तथा सान सेबासतिआन (सन सेबस्तीयन) के पास का एमेरालेद समुद्रतट (एमरेल्ड कोस्ट) आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। स्पेन में त्योहारों तथा अन्य दिनों में भी वृषभयुद्ध का आयोजन किया जाता है।
यहां की अर्थव्यवस्था काफी हद अच्छी है, इस देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में सबसे अधिक मदद करता है यहां का पर्यटन स्थल। पूरे विश्व से यह हर साल लाखों लोग घूमने, छुट्टियां मानने आतें हैं।
२०१९ में, स्पेन की जनसंख्या आधिकारिक तौर पर ४.७ करोड़ लोगों तक पहुंच गई। स्पेन की जनसंख्या घनत्व, ९१/किमी२ (२35/वर्ग मील) पर, अधिकांश पश्चिमी यूरोपीय देशों की तुलना में कम है और देश भर में इसका वितरण बहुत असमान है। राजधानी मैड्रिड के आसपास के क्षेत्र को छोड़कर, सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्र तटीय इलाकों के आसपास स्थित हैं। १९०० के बाद से स्पेन की जनसंख्या ढ़ाई गुना बढ़ गई है, उस समय वहां की जनसंख्या १.८६ करोड़ थी, मुख्यतः १960 और १9७0 के दशक में जनसांख्यिकीय में शानदार उछाल देखा गया था।
२०१७ में, स्पेन भर में औसत कुल प्रजनन दर १.३३ प्रति महिला थी, जोकि २.१ की प्रतिस्थापन दर से नीचे, दुनिया में सबसे कम हैं, वहीं यह १86५ में यहां के प्रजनन दर ५.११ प्रति महिला के उच्च स्तर से काफी नीचे है। स्पेन ४३.१ वर्ष की औसत आयु के साथ दुनिया की सबसे उम्रदराज़ आबादी वाले देशों में से एक है।
स्पेन की कुल आबादी का ८८% मूल स्पेनवासी हैं। १९८० के दशक में जन्म दर में गिरावट और स्पेन की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट के बाद, १९७० के दशक के दौरान अन्य यूरोपीय देशों में प्रवास कर गए स्पेनियों की वापसी से जनसंख्या फिर से ऊपर की ओर बढ़ी, और हाल ही में, बड़ी संख्या में अप्रवासियों के आगमन से इसमें और तेजी आई है, जोकि जनसंख्या का १२% का प्रतिनिधित्व करते है। आप्रवासियों का आगमन मुख्य रूप से लैटिन अमेरिका (३९%), उत्तरी अफ्रीका (१६%), पूर्वी यूरोप (१५%) और उप-सहारा अफ्रीका (४%) से हुआ है। २००५ में, स्पेन ने तीन महीने का माफी कार्यक्रम शुरू किया, जिसके माध्यम से कुछ अनिर्दिष्ट अप्रवासियों को कानूनी निवास दिया गया था।
२००८ में, स्पेन ने ८४,१७० व्यक्तियों को नागरिकता प्रदान की, जिनमें ज्यादातर इक्वाडोर, कोलंबिया और मोरक्को के लोग थे। स्पेन में विदेशी निवासियों का एक बड़ा हिस्सा अन्य पश्चिमी और मध्य यूरोपीय देशों से भी आता है। ये ज्यादातर ब्रिटिश, फ्रेंच, जर्मन, डच और नार्वे के हैं। वे मुख्य रूप से भूमध्यसागरीय तट और बेलिएरिक द्वीपों पर रहते हैं, जहां कई लोग अपनी सेवानिवृत्ति के बाद रहना पसंद करते हैं।
स्पेन कानूनी रूप से बहुभाषी है, और संविधान सुनिश्चित करता है कि राष्ट्र "सभी स्पेनियों और स्पेन के लोगों को मानवाधिकारों, उनकी संस्कृतियों और परंपराओं, भाषाओं और संस्थानों के प्रयोग में रक्षा करेगा।
स्पेनिश (एस्पेनॉल) - संविधान में कैस्टिलियन (कास्टेलानो) के रूप में मान्यता प्राप्त है - पूरे देश की आधिकारिक भाषा है, और यह भाषा जानने के लिए हर स्पेनिश का अधिकार और कर्तव्य है। संविधान यह भी स्थापित करता है कि "अन्य स्पेनिश भाषाएं"-अर्थात, स्पेन की अन्य भाषाएं- उनके संबंधित स्वायत्त समुदायों में उनके क़ानून, उनके जैविक क्षेत्रीय विधानों के अनुसार आधिकारिक होंगी, और यह कि "विशिष्ट भाषाई की समृद्धि" स्पेन के तौर-तरीके एक विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं जो विशेष सम्मान और सुरक्षा का उद्देश्य होगा।"
स्पेन की अन्य आधिकारिक भाषाएँ, स्पेनिश के साथ सह-आधिकारिक हैं:
कैटलन (कैटालू या वैलेंसी) - कैटलोनिया में, वैलेंशिया समुदाय और बेलिएरिक द्वीप समूह में ;
गैलिशियन् (गैलेगो)- गैलिशिया में ;
बास्क (यूस्करा) - बास्क देश और नावारा में ; तथा
ओसीटान (अरनेस) -कैटलोनिया में।
स्पेन की सरकार
डेउत्स्च्ह्लन्द बेर अल्लेस १४८८
यूरोप के देश
स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्रइस |
आर्जेंटीना दक्षिण अमेरिका में स्थित एक देश है। क्षेत्रफल एवं जनसंख्या की दृष्टि से दक्षिणी अमरीका का ब्राजील देश के बाद द्वितीय विशालतम देश है (क्षेत्रफल: २७,७६,६५६ वर्ग कि.मी.)। इसके उतत्र में ब्राजील पश्चिम में चिली तथा उत्तरपश्चिम में पराग्वे है। देश २२ द.अ. तथा ५५ द.अ. के मध्य ३७,७०० कि॰मी॰ की लंबाई में उत्तर दक्षिण फैला हुआ है। इसकी आकृति एक अधोमुखी त्रिभुज के समान है जो लगभग २,६०० कि॰मी॰ चौड़े आधार से दक्षिण की ओर संकरा होता चला गया है। उत्तर में यह बोलिविया एवं परागुए, उत्तर, पूर्व में युरुगए तथा ब्राजील और पश्चिम में चिली देश से घिरा है।
अर्जेन्टीना का नाम अर्जेन्टम से पड़ा जिसाक अर्थ चाँदी होता है। चांदी के लिए प्रयुक्त लैटिन तथा स्पैनिश पर्यायवाची शब्दों से ही, जो क्रमश: 'अर्जेटम' एवं 'प्लाटा' हैं, अर्जेटीना और 'रायो डी ला प्लाटा' (देश की महान एस्चुअरी) का नामकरण हुआ है।
आरंभ में यह उपनिवेश था जिसकी स्थापना स्पेन के चार्ल्स तृतीय ने पुर्तगाली दबाव को रोकने के लिए की थी। सन् १८१० ई. में देश की जनता ने स्पेन की सत्ता के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया जिसके परिणाम स्वरूप १८१६ ई. में यह स्वतंत्र हुआ। परंतु स्थायी सरकार की स्थापना १८५३ ई से ही संभव हुई।
आर्जेटीना गणतंत्र के अतंर्गत २२ राज्यों के अतिरिक्त एक फेडरल जिला तथा टेरा डेल फ्यूगो, अंटार्कटिका महाद्वीप के कुछ भाग और दक्षिणी अतलांतक सागर के कुछ द्वीप हैं।
पश्चिम के पर्वतीय क्षेत्रफल को छोड़कर देश का अन्य शेष भाग मुख्यत: निम्न भूमि है। देश सामान्यत: चार स्थलाकृतिक प्रदेशों में विभक्त हो जाता है: ऐंडीज़ पर्वतीय प्रदेश, उत्तर का मैदान, पंपाज़ और पैटागोनिया।
ऐंडीज़ पर्वतीय प्रदेश के अंतर्गत देश का लगभग ३० प्रतिशत भाग आता है। पश्चिम में उत्तर दक्षिण फैली इस पर्वतश्रेणी का उत्थान तृतीयक कल्प में आल्प्स गिरि-निर्माण-काल में हुआ था। यह चिली देश के साथ प्राकृतिक सीमा निर्धारित करती है। इस श्रेणी में ही, मध्य एशिया के पश्चात् सीमा निर्धारित करती है। इस श्रेणी में ही, मध्य एशिया के पश्चात्, विश्व के उच्चतम शिखर स्थित हैं, जैसे माउंट अकोंकागुआ (७,०२३ मीटर), मर्सीडरियो (६,६७२ मीटर) और टुपनगाटो (६,८०२ मीटर)। इस प्रदेश में अंगूर, शहतूत तथा अन्य फल बहुतायत से पैदा होते हैं।
उत्तर के मैदानी प्रदेश के अंतर्गत चैको मैसोपोटामिया तथा मिसिओनेज़ क्षेत्र हैं। इस प्रदेश में जलोढ के विस्तृत निक्षेप पाए जाते हैं। अधिकांश भाग वर्षा में बाढ़ग्रस्त हो जाते हैं। चैको क्षेत्र वनसंसाधन में धनी है तथा मिसिओनेज़ में यर्बा माते (एक प्रकार की चाय) की खेती होती है। पराना, परागुए आदि नदियों से घिरा मैसोपोटामिया पशुओं के लिए प्रसिद्ध है।
देश के मध्य में स्थित पम्पास अत्यधिक उपजाऊ और विस्तृत समतल घास की मैदान है। यह देश का सबसे समृद्धिशाली भाग है जिसमें ८० प्रतिशत जनसंख्या रहती है। कृषि एवं पशुपालन उद्योगों के कुल उत्पादन का लगभग दो तिहाई भाग यहीं से प्राप्त होता है।
पैटागोनिया प्रदेश रायो निग्रो से दक्षिण की ओर देश के दक्षिणी छोर तक फैला है (क्षेत्रफल: ७,७७,००० वर्ग कि.मी.)। यह अर्धशुष्क एवं अल्प जनसंख्यावाला पठारी प्रदेश है। यहाँ विशेष रूप से पशु पालन का कारोबार होता है।
नदियां ऐंडीज़ पर्वत अथवा उत्तर की उच्च भूमि से निकलकर पूर्व की ओर प्रवाहित होती है और अतलांतक सागर में गिरती हैं। पराना, परागुए तथा युरुगुए मुख्य नदियां हैं।
देश की जलवायु प्रधानत: शीतोष्ण है। परंतु, उत्तर में चैको की अत्यधिक उष्ण जलवायु, मध्य में पंपाज़ की सम ओर सुहावनी जलवायु, तथा उपअंटार्कटिक शीत से प्रभावित दक्षिणी पैटागोनिया का हिमानी क्षेत्र जलवायु की विविधता को प्रदर्शित करते हैं। देश का यथेष्ट अक्षांशीय विस्तार तथा उच्चावच का विशिष्ट अंतर ही इस विविधता के प्रधान कारण है। अधिकतम ताप (५५०सें.) उत्तरी छोर पर और निम्नतम (१८०सें.) दक्षिणी छोर पर मिलते हैं। वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है।
जलवायु, मिट्टी और उच्चावच में विशिष्ट क्षेत्रीय विभिन्नताओं के कारण ही देश में उष्णकटिबंधीय वर्षावाले वनों से लेकर मरुस्थलीय कांटेदार झाडियां तक पाई जाती हैं।
जनसंख्या एवं नगर
देश की जनंसख्या का अधिकांश, कुछ समय पूर्व से (१८८० ई.), आप्रवासित यूरोपवासी (मुख्यत: इटली एवं स्पेन निवासी) हैं। अन्य दक्षिणी अमरीका के देशों के विपरीत यहाँ नीग्रो अथवा इंडियन आदिवासियों की संख्या नगण्य है। इस प्रकार देशवासियों में प्रजातीय एवं सांस्कृतिक समानताएं मिलती हैं। स्पैनिश राष्ट्रभाषा है। ९५ प्रतिशत मनुष्य रोमन कैथॉलिक हैं।
नगरीय जनसंख्या के आधे लोग ग्रेटर ब्यूनस आयर्स में वास करते हैं। इस क्षेत्र की गणना विश्व के विशालतम महानगरीय क्षेत्रों में होती है। मुख्य नगर हैं- ब्यूनस आयर्स, रोज़ैरियो, कार्डोबा, ला प्लाटा, मार डेल प्लाटा, तुकुमन, सांता फे, पराना, बाहिया ब्लैंका, साल्टा, कोरियेंटीयज़, तथा मैंडोजा।
पराना, युरुगुए तथा परागुए नदियां अंतर्देशीय जल यातायात के लिए विश्वविख्यात हैं। ब्यूनस आयर्स एवं ला प्लाटा (दोनों प्लाटा एस्चुअरी पर स्थित) और बाहिया ब्लैका मुख्य पत्तन हैं। पराना नदी पर रोज़ेरियो सबसे बड़ा अंतर्देशीय पत्तन है ब्यूनस आयर्स पश्चिमी गोलार्ध का, न्यूयार्क के बाद, दूसरा विशालतम पत्तन है तथा इसके अंतर्गत देश का ८० प्रतिशत आयात निर्यात आता हैं।
अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था विश्व बैंक के अनुसार वित्तीय वर्ष २०१७ के लिए एक उच्च आय वाली अर्थव्यवस्था है। [१] यह लैटिन अमेरिका की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, [२] और ब्राजील के बाद दक्षिण अमेरिका में दूसरी सबसे बड़ी है। [३]
इस देश के तुलनात्मक लाभों में समृद्ध प्राकृतिक संसाधन, एक अत्यधिक साक्षर आबादी, एक निर्यात प्रधान कृषि क्षेत्र और एक विविध औद्योगिक आधार शुमार हैं। अर्जेंटीना का आर्थिक प्रदर्शन ऐतिहासिक रूप से बहुत असमान रहा है, जिसमें उच्च आर्थिक विकास के साथ बारी-बारी से गंभीर मंदी देखने को मिलती है, विशेष रूप से बीसवीं शताब्दी के बाद से, जब आय बढ़ोतरी में असमानता और गरीबी दोनों बढ़ी। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में अर्जेंटीना का दुनिया के दस सबसे ज़्यादा प्रति व्यक्ति जीडीपी स्तर वाले देशों में आता था, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के बराबर और फ्रांस और इटली दोनों से आगे। [४] अर्जेंटीना की मुद्रा २०१८ में लगभग ५०% घटकर ३८ से अधिक अर्जेंटीना पेसोस प्रति अमेरिकी डॉलर हो गई और आज वह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक स्टैंड-बाय प्रोग्राम के तहत है। [५]
अर्जेंटीना को एफटीएसई ग्लोबल इक्विटी इंडेक्स (२०१८), [६] द्वारा एक उभरता हुआ बाजार माना जाता है और यह जी -२० की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है ।
अर्जेटीना विश्व का एक महत्वपूर्ण खाद्य उत्पादक और खाद्य निर्यातक देश है। गेहूँ मुख्य व्यावसायिक फसल है जिसकी अधिकतम खेती पंपाज़ में होती है। इस प्रदेश की अन्य महत्वपूर्ण फसलें मक्का, जौ, जई, पटुआ और अल्फाल्फा हैं। यर्बा माते, सोयाबीन, सूरज मुखी के बीज, गन्ना कपास, अंगूर जैतून इत्यादि का उत्पादन देश के अन्य भागों में काफी मात्रा में होता है।
मांस, चमड़ा तथा ऊन के उत्पादन एवं निर्यात की दृष्टि से आर्जेटीना विश्व का एक महत्वपूर्ण देश है। पशुपालन उद्योग मुख्यत: पंपाज़ प्रदेश में विकसित किया गया है। देश में डेरी उद्योग का भी यथेष्ट विकास हुआ है। मत्स्यक्षेत्रों के विकास की संभावनाओं को लेकर यह देश आगे बढ़ रहा है।
इसमें देश निर्धन है। सीसा, जस्ता, टंगस्टन, मैंगनीज़, लोहा और बेरीलियम ही यहाँ के उल्लेखनीय खनिज हैं। मिट्टी का तेल भी आर्जेटीना का मुख्य खनिज है जो मुख्यतया पैटागोनिया प्रदेश में मिलता है। यांत्रिक ऊर्जा में भी देश निर्धन है यद्यपि पेट्रेलियम के उत्पादन में अब वृद्धि हो रही है।
मुख्यत: ब्यूनस आयर्स फ़ेडरल कैपिटल में (३२ प्रतिशत), ब्यूनस आयर्स राज्य (३२ प्रतिशत) तथा सांता फे (१० प्रतिशत) में केंद्रित है। वस्तुनिर्माण उद्योग की वृद्धि का कृषि एवं पशुपालन उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। मांस को डिब्बों में बंद करना, कांच, शृंगारसामग्री, रंग, हल्की मशीनों, यंत्र, वस्त्र, वस्तुनिर्माण की मशीनों और बिजली की मोटरों आदि का निर्माण महत्वपूर्ण उद्योग है।
यहाँ से मांस, धान्य फसलों, अलसी तथा अलसी का तेल, ऊन, चमड़ा, वन्य एवं दुग्ध पदार्थ और पशुओं का निर्यात होता है। मशीनों, ईधन एवं स्नेहक, लोहा तथा इस्पात से निर्मित वस्तुओं, लकड़ी, खाद्यपदार्थ, रसायन एवं ओषधि, अलौह धातु तथा उनसे निर्मित सामान का यहाँ आयात किया जाता है। यह व्यापार मुख्यत: संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, बाज़ीज, पश्चिमी जर्मनी, नीदरलैंड, इटली, वेनेज्युला तथा फ्रांस से होता है।
अर्जेन्टीना में २४ प्रान्त हैं -
यह भी देखिए
अर्जेंटीना का आर्थिक इतिहास
स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र |
बेल्जियम राजतन्त्र उत्तर-पश्चिमी यूरोप में एक देश है। यह यूरोपीय संघ का संस्थापक सदस्य है और उसके मुख्यालय का मेज़बान है, साथ ही, अन्य प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संगठनों का, जिसमें नाटो भी शामिल है। १०.७ मीलियन की जनसंख्या वाले बेल्जियम का क्षेत्रफल है।
जर्मनिक और लैटिन यूरोप के मध्य अपनी सांस्कृतिक सीमा को विस्तृत किये हुए बेल्जियम, दो मुख्य भाषाई समूहों, फ्लेमिश और फ्रेंच-भाषी, मुख्यतः वलून्स सहित जर्मन भाषियों के एक छोटे समूह का आवास है। बेल्जियम के दो सबसे बड़े क्षेत्र हैं, उत्तर में ५९% जनसंख्या सहित फ्लेंडर्स का डच भाषी क्षेत्र और वालोनिया का फ्रेंच भाषी दक्षिणी क्षेत्र, जहाँ ३१% लोग बसे हैं। ब्रुसेल्स-राजधानी क्षेत्र, जो आधिकारिक तौर पर द्विभाषी है, मुख्यतः फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत एक फ्रेंच भाषी एन्क्लेव है और यहाँ १०% जनसंख्या बसी है। पूर्वी वालोनिया में एक छोटा जर्मन भाषी समुदाय मौजूद है। बेल्जियम की भाषाई विविधता और संबंधित राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संघर्ष, राजनीतिक इतिहास और एक जटिल शासन प्रणाली में प्रतिबिंबित होता है।
बेल्जियम नाम, गॉल के उत्तरी भाग में एक रोमन प्रान्त, गैलिया बेल्जिका से लिया गया है, जो केल्टिक और जर्मन लोगों के एक मिश्रण बेल्जी का निवास स्थान था। ऐतिहासिक रूप से, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्ज़मबर्ग, निचले देश के रूप में जाने जाते थे, जो राज्यों के मौजूदा बेनेलक्स समूह की तुलना में अपेक्षाकृत कुछ बड़े क्षेत्र को आवृत किया करते थे। मध्य युग की समाप्ति से लेकर १७ वीं सदी तक, यह वाणिज्य और संस्कृति का एक समृद्ध केन्द्र था। १६वीं शताब्दी से लेकर १८३० में बेल्जियम की क्रांति तक, यूरोपीय शक्तियों के बीच बेल्जियम के क्षेत्र में कई लड़ाइयाँ लड़ी गईं, जिससे इसे यूरोप के युद्ध मैदान का तमगा मिला - एक छवि जिसे दोनों विश्व युद्ध ने और पुष्ट किया। अपनी स्वतंत्रता पर, बेल्जियम ने उत्सुकता के साथ औद्योगिक क्रांति में भाग लिया और उन्नीसवीं सदी के अंत में, अफ्रीका में कई उपनिवेशों पर अधिकार जमाया। २०वीं सदी के उत्तरार्ध को फ्लेमिंग्स और फ्रैंकोफ़ोन के बीच साँप्रदायिक संघर्ष की वृद्धि के लिए जाना जाता है, जिसे एक तरफ तो सांस्कृतिक मतभेद ने भड़काया, तो दूसरी तरफ फ्लेनडर्स और वालोनिया के विषम आर्थिक विकास ने. अब भी सक्रिय इन संघर्षों ने पूर्व में एक एकात्मक राज्य बेल्जियम को संघीय राज्य बनाने के दूरगामी सुधारों को प्रेरित किया।
पहली शताब्दी ई.पू. में, स्थानीय कबीलों को हराने के बाद रोमन ने गैलिया बेल्जिका का प्रान्त बनाया। ५वीं शताब्दी के दौरान जर्मनिक फ्रेंकिश जनजातियों द्वारा क्रमिक आप्रवास ने इस क्षेत्र को मेरोविन्गियन राजाओं के शासन के अधीन कर दिया। ८वीं सदी के दौरान शक्ति के क्रमिक बदलाव ने फ्रैंक्स राज्य को केरोलिंगियन साम्राज्य के रूप में विकसित होने को प्रेरित किया। ८43 में वर्दन संधि ने इस क्षेत्र को मध्य और पश्चिमी फ्रान्सिया में विभाजित किया, यानी कमोबेश स्वतंत्र जागीरों के एक सेट में, जो मध्ययुग के दौरान या तो फ्रांस के राजा के या पवित्र रोमन सम्राट के जागीरदार थे। इनमें से कई जागीरों को १४वीं और 1५वीं सदी के बरगंडियन नीदरलैंड में एकीकृत कर लिया गया। सम्राट चार्ल्स व ने 1५40 के दशक में सत्रह प्रान्तों के व्यक्तिगत संघ को विस्तृत किया और इसे 1५49 के राजकीय अध्यादेश द्वारा एक व्यक्तिगत संघ से अधिक बनाते हुए अपना प्रभाव प्रिंस-बिशपरिक ऑफ़ लीग पर फैलाया।
अस्सी साल के युद्ध (१५६८-१६४८) ने निचले देशों को उत्तरी संयुक्त प्रान्तों में विभाजित किया (लैटिन में बेल्जिका फोडराटा, "फेडरेटेड नीदरलैंड्स") और दक्षिणी नीदरलैंड्स (बेल्जिका रेजिया, "रॉयल नीदरलैंड्स"). उत्तरवर्ती पर क्रमिक रूप से स्पेन और ऑस्ट्रियाई हैब्सबर्ग ने शासन किया और इसमें अधिकांश आधुनिक बेल्जियम शामिल था। १७वीं और १८वीं शताब्दियों के दौरान, यह अधिकांश फ्रेंको-स्पेनिश और फ्रेंको-ऑस्ट्रियाई युद्धों की स्थल था। फ्रांसीसी क्रांतिकारी युद्ध में १७94 के अभियानों के परिणामस्वरूप, निचले देशों पर - उन प्रदेशों सहित, जो कभी नाममात्र भी हैब्सबर्ग शासन के अधीन नहीं रहे। जैसे प्रिंस बिशोपरिक ऑफ़ लीग - इस क्षेत्र में ऑस्ट्रियाई शासन को समाप्त करते हुए फ्रेंच फस्ट रिपब्लिक द्वारा कब्जा कर लिए गए। यूनाइटेड किंगडम ऑफ़ द नीदरलैंड के रूप में निचले देशों का पुनः एकीकरण, १८15 में प्रथम फ्रेंच साम्राज्य के विघटन पर हुआ।
१८३० बेल्जियम क्रांति के परिणामस्वरूप एक अस्थायी सरकार और एक राष्ट्रीय कांग्रेस के अधीन, एक स्वतंत्र, कैथोलिक और निष्पक्ष बेल्जियम की स्थापना हुई. १८३१ में राजा के रूप में लियोपोल्ड ई के आरोहण के बाद से, बेल्जियम एक संवैधानिक राजशाही और संसदीय लोकतंत्र रहा है। हालांकि मताधिकार को शुरू में रोका गया, लेकिन पुरुषों के लिए सार्वभौमिक मताधिकार १८९३ में शुरू किया गया (१९१९ तक एकाधिक मतदान के साथ) और महिलाओं के लिए १९४९ में. १९वीं सदी के मुख्य राजनीतिक दल थे, कैथोलिक पार्टी और लिबरल पार्टी और बेल्जियम लेबर पार्टी सदी के अंत में उभरने लगी. मूल रूप से फ्रेंच, कुलीन और पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनाई गई एकमात्र आधिकारक भाषा थी। उत्तरोत्तर इसने अपना समग्र महत्व खो दिया, चूंकि डच भी अच्छी तरह से पहचानी जाने लगी. यह पहचान १८९८ में आधिकारिक बन गई और १९67 में संविधान का एक डच संस्करण कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया गया।
१८८५ के बर्लिन सम्मेलन ने कांगो फ्री स्टेट का नियंत्रण राजा लियोपोल्ड ई को उनके निजी अधिकार के रूप में सौंप दिया। लगभग १९०० से वहाँ पर लियोपोल्ड ई के अधीन कोंगोलीज़ जनता के साथ उग्र और वहशी व्यवहार के प्रति अंतर्राष्ट्रीय चिन्ता बढ़ती जा रही थी, जिसके लिए कांगो मुख्य रूप से हाथी दांत और रबर उत्पादन से राजस्व का स्रोत था। १९०८ में इस खलबली ने बेल्जियम राज्य को उपनिवेश सरकार की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए प्रेरित किया और उसके बाद से इसे बेल्जियन कांगो कहा गया।
१९१४ में श्लीफेन योजना के हिस्से के रूप में जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण किया और प्रथम विश्व युद्ध के पश्चिमी मोर्चे की अधिकांश लड़ाई देश के पश्चिमी भागों में हुई. बेल्जियम ने युद्ध के दौरान रुंआडा-उरुंडी के जर्मन उपनिवेशों (आधुनिक रवांडा और बुरुंडी) पर अधिकार कर लिया और १९२४ में उन्हें लीग ऑफ़ नेशंस द्वारा बेल्जियम को सौंपा गया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, प्रशिया के युपेन और मालमेडी जिले पर बेल्जियम द्वारा १९२५ में कब्जा कर लिया गया, जिसके कारण एक जर्मन भाषी अल्पसंख्यक समुदाय की उपस्थिति फलित हुई. १९४० में जर्मनी ने ब्लिट्जक्रीग आक्रमण के दौरान इस देश पर फिर से हमला किया और और इस पर तब तक कब्ज़ा बनाए रखा, जब तक कि मित्र-राष्ट्रों द्वारा १९४५ में इसे मुक्त नहीं करा लिया गया। १९६० में कांगो संकट के दौरान बेल्जियन कांगो को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, दो साल बाद रुंआडा-उरुंडी ने अनुगमन किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, बेल्जियम एक संस्थापक सदस्य के रूप में नाटो में शामिल हो गया और नीदरलैंड और लक्ज़मबर्ग के साथ देशों के बेनेलक्स समूह का गठन किया। बेल्जियम १९५१ में यूरोपीय कोयला और स्टील समुदाय के छह संस्थापक सदस्यों में से एक बन गया और १९५७ में स्थापित, यूरोपीय परमाणु ऊर्जा समुदाय और यूरोपीय आर्थिक समुदाय का सदस्य बना। उत्तरवर्ती अब यूरोपीय संघ है, जिसके लिए बेल्जियम प्रमुख प्रशासन और संस्थाओं का मेज़बान है, जिसमें शामिल है यूरोपियन कमीशन, यूरोपीय संघ की परिषद और असाधारण तथा यूरोपीय संसद के समिति सत्र.
सरकार और राजनीति
बेल्जियम एक संवैधानिक, लोकप्रिय राजशाही और एक संसदीय लोकतंत्र है।
संघीय द्विसदनीय संसद, एक सीनेट और चैंबर ऑफ़ रिप्रेसेनटेटिव से निर्मित है। सिनेट, ४० प्रत्यक्ष निर्वाचित राजनीतिज्ञो और २१ प्रतिनिधियों से बना है, जिनकी नियुक्ति ३ सामुदायिक संसद, १० सहयोजित सिनेटर और आधिकारिक तौर पर सिनेटर के रूप में राजा की संतानों द्वारा होती है, जो व्यवहार में अपना वोट नहीं डालते हैं। चेंबर के १५० प्रतिनिधि, ११ चुनावी जिलों से एक आनुपातिक मतदान प्रणाली के तहत चुने जाते हैं। बेल्जियम उन कुछ देशों में से एक है, जहाँ अनिवार्य मतदान प्रचलित है और इस तरह यह दुनिया में मतदाता मतदान के उच्चतम दर को धारित करने वालों में से एक है।
राजा (वर्तमान में अल्बर्ट द्वितीय) राज्य का मुखिया है, हालांकि उसके विशेषाधिकार सीमित हैं। वह एक प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की नियुक्ति करता है, जिनके पास संघीय सरकार बनाने के लिए प्रतिनिधि मंडल का विश्वास मौजूद है। डच और फ्रेंच भाषी मंत्रियों की संख्या संविधान द्वारा निर्धारित संख्या के बराबर है। न्यायिक प्रणाली नागरिक कानून पर आधारित है और इसकी उत्पत्ति नेपोलियन कोड से हुई है। कोर्ट ऑफ़ केसेसन अंतिम फैसले की अदालत है, जिसके एक स्तर नीचे है कोर्ट ऑफ़ अपील.
बेल्जियम की राजनीतिक संस्थाएं जटिल हैं; अधिकांश राजनीतिक सत्ता, मुख्य सांस्कृतिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करने की आवश्यकता के इर्द-गिर्द आयोजित है। लगभग १९७० के बाद महत्वपूर्ण राष्ट्रीय बेल्जियम राजनीतिक दल अलग-अलग घटकों में विभाजित हो गए, जो मुख्य रूप से इन समुदायों के राजनीतिक और भाषायी हितों का प्रतिनिधित्व करता है। हर समुदाय में प्रमुख पार्टियां, राजनीतिक केन्द्र के नज़दीक रहने के बावजूद, तीन मुख्य समूहों से संबंधित हैं: दक्षिणपंथी उदारवादी, सामाजिक रूप से रूढ़िवादी क्रिश्चियन डेमोक्रेट और वामपंथियों का गठन करते समाजवादी. इसके अलावा, पिछली सदी के मध्य के बाद कई प्रमुख पार्टियां, मुख्य रूप से, भाषाई, राष्ट्रवादी, या पर्यावरण विषयों के इर्द-गिर्द अस्तित्व में आईं और हाल ही में कुछ विशिष्ट उदार प्रकृति के छोटे दल भी बने हैं।
१९५८ से क्रिश्चियन डेमोक्रेट गठबंधन की सरकारों का सिलसिला १९९९ में प्रथम डाइऑक्सिन संकट, एक प्रमुख खाद्य संदूषण घोटाले के बाद टूट गया। छह दलों से एक 'इंद्रधनुष गठबंधन' उभरा: फ्लेमिश और फ्रेंच भाषी उदारवादी, सोशल डेमोक्रेट, ग्रीन्स. बाद में, २००३ के चुनाव में ग्रीन द्वारा अपनी अधिकांश सीटों को हार जाने के बाद, उदारवादियों और सोशल डेमोक्रेट के एक 'बैंगनी गठबंधन' का निर्माण हुआ। १९९९ से २००७ तक प्रधानमंत्री गाइ वर्होफ़स्टाट के नेतृत्व वाली सरकार ने एक संतुलित बजट, कुछ कर-सुधार, श्रम बाजार सुधार, निर्धारित परमाणु निरस्त्रीकरण और अधिक कड़े युद्ध अपराध और अधिक लचीले अमादक दवा उपयोग अभियोजन की अनुमति देते हुए विधि को उकसाया। इच्छामृत्यु पर प्रतिबंध को कम किया और सम-लैंगिक विवाह को वैध किया गया। सरकार ने अफ्रीका में सक्रिय कूटनीति को बढ़ावा दिया और इराक पर आक्रमण का विरोध किया। जून २००७ के चुनावों में वर्होफ़स्टाट के गठबंधन ने खराब प्रदर्शन किया। देश ने एक वर्ष से ज़्यादा, राजनीतिक संकट का अनुभव किया। यह संकट ऐसा था कि कई पर्यवेक्षकों ने बेल्जियम के संभावित विभाजन की अटकलें लगाईं. २१ दिसम्बर २००७ से २० मार्च २०08 तक वर्होफ़स्टाट ई सरकार अस्थायी रूप से कार्यरत थी। फ्लेमिश और फ्रैंकोफ़ोन क्रिश्चियन डेमोक्रेट, फ्लेमिश और फ्रैंकोफ़ोन उदारवादी के साथ फ्रैंकोफ़ोन सोशल डेमोक्रेट का यह गठबंधन २० मार्च २०08 तक एक अंतरिम सरकार था। उस दिन फ्लेमिश क्रिश्चियन डेमोक्रेट वेस लेतर्मे, जून २००७ के संघीय चुनाव के असली विजेता के नेतृत्व वाली एक नई सरकार को राजा ने शपथ दिलाई. चूंकि संवैधानिक सुधारों में कोई प्रगति नहीं हुई, १५ जुलाई २०08 को लेतर्मे ने राजा को कैबिनेट के इस्तीफे की घोषणा की.
दिसंबर २००८ में बॉप परिबास को फोर्टीस बेचे जाने की घटना के इर्द-गिर्द मंडराते संकट के बाद, उन्होंने एक बार फिर राजा को अपने इस्तीफे की पेशकश की. ऐसे हालात में, उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया और फ्लेमिश क्रिश्चियन डेमोक्रेट हरमन वान रोम्पे को प्रधानमंत्री के रूप में ३० दिसम्बर २००८ को शपथ दिलाई गई।
रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स ने अपने २००७ के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक, पर बेल्जियम को (फिनलैंड और स्वीडन के साथ) १६९ देशों में ५वें स्थान पर रखा.
समुदाय और क्षेत्र
एक चलन जिसका संबंध बरगंडियन और हैब्सबर्गियन कोर्ट से है, १९वीं सदी में शासी उच्च वर्ग की श्रेणी में आने के लिए फ्रेंच में बात करना ज़रूरी था और जो केवल डच में वार्तालाप करते थे, वे प्रभावी रूप से दूसरी श्रेणी के नागरिक थे। उस सदी के उत्तरार्ध में और २०वीं सदी में जारी रहते हुए, इस परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए फ्लेमिश आंदोलन विकसित होने लगे. वलून्स और अधिकांश ब्रुसलर्स ने अपनी पहली भाषा के रूप में फ्रेंच को अपनाया, फ्लेमिंग्स ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और डच को फ्लेनडर्स की राजभाषा के रूप में अधिरोपित करने में उत्तरोत्तर सफल होते गए। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, बेल्जियम की राजनीति उसके दो मुख्य भाषा समुदायों की स्वायत्तता से दबी रही. अंतर्सामुदायिक तनाव बढ़ते गए और संविधान में संघर्ष तीव्रता को कम करने के लिए संशोधन किया गया।
१९६२-६३ में परिभाषित चार भाषा क्षेत्रों के आधार पर (डच, द्विभाषी, फ्रेंच और जर्मन भाषा के क्षेत्र) देश के संविधान के १९७०, १९८०, १९८८ और १९९३ में लगातार संशोधन ने राजनीतिक शक्ति को अलग-अलग तीन स्तरों पर विभाजित करते हुए एक अनोखे संघीय राज्य की स्थापना की.
ब्रुसेल्स आधारित संघीय सरकार.
फ्लेमिश समुदाय (डच भाषी);
फ्रांसीसी (यानी, फ्रेंच भाषी) समुदाय;
जर्मन भाषी समुदाय.
फ्लेमिश क्षेत्र, पांच प्रान्तों में उपविभाजित;
वलून क्षेत्र, पांच प्रान्तों में उपविभाजित
संवैधानिक भाषा क्षेत्र अपने नगर पालिकाओं में राजभाषाओं को, साथ ही, विशिष्ट मामलों के लिए अधिकार प्राप्त संस्थाओं की भौगोलिक सीमा को भी निर्धारित करते हैं। हालांकि इससे सात संसदों और सरकारों के लिए अनुमति मिलेगी, पर जब १९८० में समुदाय और क्षेत्र बनाए गए, तो फ्लेमिश राजनीतिज्ञों ने दोनों के विलय का फैसला किया। इस प्रकार फ्लेमिंग्स के पास सिर्फ संसद का एकल संस्थागत निकाय है और सरकार के पास संघीय और विशिष्ट म्युनिसिपल मामलों को छोड़कर सभी के लिए अधिकार हैं। क्षेत्र और समुदाय की अतिच्छादित सीमाओं ने दो उल्लेखनीय विशेषताओं का निर्माण किया है: ब्रुसेल्स राजधानी क्षेत्र का राज्य क्षेत्र (जो अन्य क्षेत्रों के करीब एक दशक बाद अस्तित्व में आया) फ्लेमिश और फ्रेंच, दोनों समुदायों में शामिल है और जर्मन भाषी समुदाय का क्षेत्र पूरी तरह से वलून क्षेत्र के भीतर स्थित है। निकायों के बीच विवादों को बेल्जियम के संवैधानिक न्यायालय द्वारा हल किया जाता है। यह संरचना, एक समझौते के तौर पर है, ताकि विभिन्न संस्कृतियाँ एक साथ शांतिपूर्ण तरीके से रह सकें.
संघीय राज्य की सत्ता में शामिल हैं, न्याय, रक्षा, संघीय पुलिस, सामाजिक सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा, मौद्रिक नीति और सार्वजनिक ऋण और सार्वजनिक वित्त के अन्य पहलू. राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों में बेल्जियम डाक समूह और बेल्जियम रेल शामिल है। संघीय सरकार, यूरोपीय संघ और नाटो के प्रति बेल्जियम तथा संघात्मक संस्थानों के दायित्वों के लिए ज़िम्मेदार है। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य, गृह मंत्रालय और विदेश मामलों के विस्तृत हिस्से को नियंत्रित करती है। संघीय सरकार द्वारा नियंत्रित-ऋणरहित-बजट-राष्ट्रीय वित्तीय आय का ५०% होता है। संघीय सरकार नागरिक सेवकों के का.१२% को नियुक्त करती है।
समुदाय केवल भाषा निर्धारित भौगोलिक सीमाओं के भीतर अपने अधिकार का प्रयोग करते हैं, मूलतः एक सामुदायिक भाषा के व्यक्तियों की ओर उन्मुख: संस्कृति (श्रव्य-दृश्य मीडिया सहित), शिक्षा और प्रासंगिक भाषा का प्रयोग. निजी मामलों के विस्तार में शामिल हैं, जोकि सीधे भाषा से नहीं जुड़े हैं, स्वास्थ्य नीति (उपचारात्मक और निवारक दवा) और व्यक्तियों के लिए सहायता (युवाओं का संरक्षण, सामाजिक कल्याण, परिवार सहायता, आप्रवासी सहायता सेवा, आदि).
क्षेत्रों में प्रान्तीय सत्ता है, जिसे मोटे तौर पर उनके राज्य क्षेत्र के साथ जोड़ा जा सकता है। इनमें शामिल हैं, अर्थव्यवस्था, रोज़गार, कृषि, जल नीति, आवास, लोक निर्माण, ऊर्जा, परिवहन, पर्यावरण, शहर और ग्रामीण योजना, प्रकृति संरक्षण, ऋण और विदेशी व्यापार. वे प्रान्तों, नगर पालिकाओं और अंतर्सामुदायिक उपयोगिता कंपनियों की निगरानी करते हैं।
कई क्षेत्रों में, विभिन्न स्तर में प्रत्येक की किसी विशिष्ट पर अपनी पकड़ होती है। उदाहरण के लिए, शिक्षा के मामले में समुदायों की स्वायत्तता में ना तो अनिवार्य पहलू के बारे में निर्णय शामिल है और ना ही योग्यता बांटने के लिए न्यूनतम अर्हता को स्थापित करने की अनुमति है, जो संघीय मामला ही है। सरकार के प्रत्येक स्तर को उसकी शक्तियों से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधान और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में शामिल किया जा सकता है। क्षेत्रों और समुदाय सरकारों की संधि करने की शक्तियाँ विश्व के सभी संघों की संघीय इकाइयों की तुलना में सबसे अधिक विस्तृत हैं।
भूगोल, जलवायु और पर्यावरण
बेल्जियम की सीमा फ्रांस (), जर्मनी (), लक्ज़मबर्ग () और नीदरलैंड के साथ साझा होती है। सतही जल क्षेत्र सहित इसका कुल क्षेत्रफल, ३३,९९० वर्ग किलोमीटर है; अकेले भूमि क्षेत्र ३०,५२८ कि॰मी॰२ है। बेल्जियम के तीन प्रमुख भौगोलिक क्षेत्र हैं: उत्तर-पश्चिम में तटीय मैदान और केन्द्रीय पठार, दोनों आंग्ल-बेल्जियम बेसिन के हैं; दक्षिण-पूर्व में आर्डेंस उच्चभूमि, हर्सीनियन ओरोजेनिक बेल्ट का हिस्सा है। पेरिस बेसिन, बेल्जियम के सुदूर दक्षिणी छोर पर, बेल्जियम लोरेन के एक छोटे चौथाई क्षेत्र तक पहुँचता है।
तटीय मैदान मुख्य रूप से रेत के टीलों और पोल्डरों से निर्मित है। आगे अंदर है चिकना, धीरे-धीरे ऊंचा होता भूदृश्य, जो कई जलमार्ग द्वारा सिंचित होता है, जहाँ हैं उपजाऊ घाटियाँ और कैम्पाइन (केम्पेन) के पूर्वोत्तर रेतीले मैदान. आर्डेंस के घने वनाच्छादित पहाड़ और पठार अधिक ऊबड़-खाबड़ और पथरीले हैं, जहाँ गुफाएं और छोटे दर्रे हैं, जो निम्न कृषि क्षमता के साथ बेल्जियम का अधिकांश वन्य जीवन समेटे हुए हैं। फ्रांस में पश्चिम की ओर बढ़ें, तो यह क्षेत्र पूर्व में उच्च फेंस पठार द्वारा जर्मनी में आइफेल से जुड़ा है, जिस पर सिग्नल डे बोट्रंज देश के सबसे ऊंचे स्थल का निर्माण करता है।
जलवायु समुद्री समशीतोष्ण है और सभी मौसमों में पर्याप्त वर्षा होती है, (कोपेन जलवायु वर्गीकरण: कब). औसत तापमान जनवरी में सबसे कम रहता है और जुलाई में सबसे अधिक. प्रति माह औसत वर्षा फरवरी या अप्रैल में से लेकर जुलाई में के बीच होती है। वर्ष २००० से २००६ तक का औसत, न्यूनतम दैनिक तापमान को दर्शाता है और अधिकतम तथा मासिक वर्षा ; ये क्रमशः १च और पिछली सदी के सामान्य मूल्यों से करीब १0 मिलीमीटर ऊपर है।
पादपविकासभूगोल के आधार पर बेल्जियम, बोरिअल किंगडम के अंदर सर्कमबोरिअल क्षेत्र के केन्द्रीय यूरोपीय प्रान्तों और अटलांटिक यूरोपियन के बीच साझा होता है। वॉफ के मुताबिक बेल्जियम का राज्यक्षेत्र अटलांटिक मिश्रित वनों के पारिस्थितिक-क्षेत्र के अधीन है।
अपनी उच्च जनसंख्या घनत्व, पश्चिमी यूरोप के केन्द्र में उसकी अवस्थिति और अपर्याप्त राजनीतिक प्रयास के कारण, बेल्जियम गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का सामना करता है। २००३ की एक रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि बेल्जियम का प्राकृतिक जल
(नदियाँ और भूजल) १२२ देशों के अध्ययन में न्यूनतम जल गुणवत्ता युक्त है।
२००६ में पायलट पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में, बेल्जियम ने समग्र पर्यावरण प्रदर्शन में ७५.९% प्राप्त किये और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में निम्नतम स्थान पर था, हालांकि यह १३३ देशों में सिर्फ 3९वें पर था।
बेल्जियम एक मज़बूत वैश्विक अर्थव्यवस्था है और इसकी बुनियादी परिवहन सुविधाएं यूरोप के साथ एकीकृत हैं। एक उच्च औद्योगिक पारिक्षेत्र के केन्द्र में इसकी अवस्थिति ने इसे २००७ के दुनिया के १५वें सबसे बड़े व्यापारिक देश बनने में मदद की. इसकी अर्थ-व्यवस्था की विशेषताओं में शामिल है, उच्च उत्पादक कार्य बल, उच्च ग्zप (सकल राष्ट्रीय उत्पाद) और प्रति व्यक्ति उच्च निर्यात. बेल्जियम के मुख्य आयात हैं, खाद्य उत्पाद, मशीनरी, कच्चे हीरे, पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पाद, रसायन, कपड़े और सामान और वस्त्र. इसके मुख्य निर्यात हैं, मोटर वाहन, खाद्य उत्पाद, लोहा और इस्पात, तराशे हीरे, वस्त्र, प्लास्टिक, पेट्रोलियम उत्पाद और अलोह धातुएं. बेल्जियम की अर्थ-व्यवस्था गभीर रूप से सेवा उन्मुख है और दोहरी प्रकृति दर्शाती है: एक गतिशील फ्लेमिश अर्थ-व्यवस्था और एक वलून अर्थ-व्यवस्था, जो पिछड़ी है। यूरोपीय संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक, बेल्जियम दृढ़ता से एक खुली अर्थ-व्यवस्था और सदस्य अर्थ-व्यवस्थाओं के एकीकरण के लिए यूरोपीय संघ के संस्थानों की शक्तियों के विस्तार करने का समर्थन करता है। १९२२ से बेल्जियम और लक्ज़मबर्ग, सीमाशुल्क और मुद्रा संघ के अंतर्गत एकल व्यापार बाज़ार रहे। हैं: द बेल्जियम-लक्ज़मबर्ग इकोनोमिक यूनियन.
बेल्जियम पहला यूरोपीय महाद्वीपीय देश था, जो १८०० की शुरूआत में औद्योगिक क्रांति से गुज़रा. लीग और चारलेरोई ने तेज़ी से खनन और इस्पात निर्माण का विकास किया, सिलॉन इंडस्ट्रियल, जो २०वीं शताब्दी के मध्य तक संबर मेयुस घाटी में फला-फूला और १८३० से १९१० के बीच बेल्जियम को विश्व के शीर्ष तीन सबसे औद्योगीकृत देशों में खड़ा कर दिया। हालांकि, १८४० के दशक तक फ्लेनडर्स का वस्त्र उद्योग गंभीर संकट में था और १८४६-५० में यह क्षेत्र अकाल से गुज़रा.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, गेन्ट और एंटवर्प, रासायनिक और पेट्रोलियम उद्योगों के तीव्र विकास के साक्षी बने. १९७३ और १९७९ के तेल संकट ने अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेल दिया; यह विशेष रूप से वालोनिया में लंबे समय तक जारी रहा, जहाँ इस्पात उद्योग कम प्रतिस्पर्धी रह गया था और गंभीर गिरावट से गुज़र रहा था। १९८० और ९० के दशक में देश का आर्थिक केन्द्र उत्तर की ओर खिसकता रहा और अब यह घनी आबादी वाले फ्लेमिश डायमंड क्षेत्र में केन्द्रित है।
१९८० के दशक के अंत तक, बेल्जियम की वृहत आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप, गप का १२०% का संचयी सरकारी कर्ज हो गया। यथा २००६ बजट संतुलित था और सार्वजनिक ऋण गप के ९०.३०% के बराबर था। २००५ और २००६ में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद दर, जो क्रमशः १.५% और ३.०% थी, यूरो क्षेत्र के औसत से थोड़ा ऊपर थे। २००५ में बेरोजगारी की ८.४% की दर और २००६ में ८.२% की दर, क्षेत्र के औसत के क़रीब थी।
१८३२ से २००२ तक, बेल्जियम की मुद्रा बेल्जियम फ्रैंक थी। बेल्जियम ने २००२ में इसे यूरो से बदल दिया, जिसके तहत यूरो सिक्कों का पहला सेट १९९९ में ढाला गया। जबकि मानक बेल्जियन यूरो सिक्के, जो संचलन के लिए निर्धारित हैं राजा अल्बर्ट द्वितीय का चित्र लिए हुए हैं, ऐसा स्मारक सिक्कों के लिए नहीं हुआ, जहाँ डिज़ाइन स्वतंत्र रूप से चुने गए हैं।
२००७ की शुरूआत में बेल्जियम की लगभग ९२% जनसंख्या राष्ट्रीय नागरिक थी और लगभग ६% अन्य यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से नागरिक थे। प्रचलित विदेशी नागरिकों में थे, इतालवी (१७१,९१८), फ्रांसीसी (१२५,0६1), डच (11६,९७०), मोरक्कन (८०,५७९), स्पेनी (४२,7६5), तुर्की (३९,४१९) और जर्मन (३७,६21).
बेल्जियम की लगभग पूरी आबादी शहरी है- २००४ में ९७%. बेल्जियम का जनसंख्या घनत्व ३४२ प्रति वर्ग किलोमीटर है (८८६ प्रति वर्ग मील)- यूरोप में सर्वाधिक में से एक, नीदरलैंड्स और मोनाको जैसे कुछ लघु राज्यों के बाद. सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र फ्लेमिश डायमंड है - एंटवर्प- लोवेन - ब्रुसेल्स - गेन्ट के संकुलन द्वारा संक्षेपित. आर्डेंस का सबसे कम घनत्व है। यथा २००६, फ्लेमिश क्षेत्र की आबादी, इसके सर्वाधिक आबादी वाले शहर एंटवर्प (४५७,७४९), गेन्ट (२३०,९५१) और ब्रुगेस (११७,२५१) सहित, लगभग ६,०७८,६०० थी; वालोनिया की आबादी, इसका सबसे अधिक आबादी वाले चारलेरोई (२०१,३७३), लीग (१८५,५७४) और नामुर (१०७,१७८) सहित ३,4१३,९७8 थी। ब्रुसेल्स में राजधानी क्षेत्र की १९ नगर पालिकाओं में १,0१8,८०४ रहते हैं, जिनमें से दो में १,००,००0 निवासियों से अधिक हैं।
बेल्जियम की तीन राजभाषाएं, जो सबसे ज़्यादा बोलने वालों से लेकर सबसे कम बोलने वालों के क्रमानुसार डच, फ्रेंच और जर्मन हैं। कई गैर-आधिकारिक, अल्पसंख्यक भाषाएँ भी बोली जाती हैं।
चूंकि कोई जनगणना मौजूद नहीं है, बेल्जियम की तीन राजभाषाओं या उनकी बोलियों के उपयोग अथवा वितरण के बारे में कोई आधिकारिक सांख्यिकीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। बहरहाल, विभिन्न मानदंडों से जैसे माता-पिता की भाषा, शिक्षा की भाषा, या विदेशी पैदाइश वालों की दूसरी भाषा की स्थिति से आंकड़ों के संकेत उपलब्ध हो सकते हैं। अनुमानित रूप से बेल्जियम जनसंख्या का करीब ५९% डच (बोलचाल की भाषा में अक्सर "फ्लेमिश" के रूप में उल्लिखित) और ४०% फ्रेंच बोलता है। डच बोलने वालों की कुल संख्या है ६.२३ मीलियन, जो फ्लेनडर्स के उत्तरी क्षेत्र में केन्द्रित हैं, जबकि फ्रेंच बोलने वाले ३३.२ मीलियन वालोनिया में और अनुमानित रूप से ०.८७ मीलियन या ८५%, आधिकारिक तौर पर द्विभाषी ब्रुसेल्स-राजधानी क्षेत्र के हैं। वालून क्षेत्र के पूर्व में जर्मन भाषी समुदाय ७३,००० लोगों से बना है; करीब 1०,००० जर्मन और ६०,००० बेल्जियन नागरिक जर्मन भाषी हैं। लगभग २३,००० और जर्मन भाषी आधिकारिक समुदाय के निकट नगर पालिकाओं में रहते हैं।
बेल्जियम में बोली जाने वाली डच और बेल्जियन फ्रेंच, दोनों में क्रमशः नीदरलैंड और फ्रांस में बोली जाने वाली किस्मों से शब्दावली और शब्दार्थ बारीकियों में मामूली भिन्नता है। कई फ्लेमिश लोग अभी भी अपने स्थानीय परिवेश में डच की बोलियां बोलते हैं। वालून, जो कभी वालोनिया की मुख्य क्षेत्रीय भाषा हुआ करती थी, अब यदा-कदा ही, ज़्यादातर बुज़ुर्ग लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। वालोनिया की बोलियां, पिकार्ड वाली सहित, सार्वजनिक जीवन में प्रयोग नहीं की जाती हैं।
बेल्जियन के लिए छह से लेकर अठारह तक शिक्षा अनिवार्य है, लेकिन कई २३ साल की उम्र तक अध्ययन जारी रखते हैं। २००२ में, १८-२१ उम्र वाले माध्यमिकोत्तर शिक्षा में नामांकित लोगों के साथ बेल्जियम, ओक्ड देशों में ४२% सहित तीसरे सर्वाधिक अनुपात पर था। हालांकि वयस्क आबादी का अनुमानित ९८% साक्षर है, कार्यात्मक निरक्षरता को लेकर चिन्ता बढ़ रही है।
ओक्ड द्वारा समन्वित, अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन कार्यक्रम, वर्तमान में बेल्जियम की शिक्षा को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ के हिसाब से १९वें स्थान पर रखता है, जो कि महत्वपूर्ण रूप से ओक्ड औसत से अधिक है।
१९वीं शताब्दी के उदारवादी और कैथोलिक दलों की विशिष्टताओं से यक्त बेल्जियम के राजनैतिक परिदृश्य की दोहरी संरचना को प्रतिबिंबित करते हुए, शिक्षा प्रणाली को एक धर्मनिरपेक्ष और एक धार्मिक वर्ग के बीच पृथक किया गया है। स्कूली शिक्षा की धर्मनिरपेक्ष शाखा का नियंत्रण समुदायों, प्रान्तों, या नगर पालिकाओं द्वारा किया जाता है, जबकि धार्मिक का, मुख्य रूप से कैथोलिक शाखा शिक्षा का प्रबंधन धार्मिक अधिकारियों द्वारा होता है, यद्यपि यह समुदायों द्वारा सब्सिडी प्राप्त और उनकी निगरानी होती है।
देश की आजादी के बाद से, दृढ़ स्वतंत्रविचार आंदोलनों से प्रतिभारित रोमन कैथोलिक धर्म की बेल्जियम की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन मुख्य तौर पर बेल्जियम एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहाँ लाइसिस्ट संविधान धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है और सरकार आम तौर पर व्यवहार में इस अधिकार का सम्मान करती है। अल्बर्ट ई और बौडोइन के शासनकाल के दौरान, राजशाही की प्रतिष्ठा कैथोलिक मत में गहरे विश्वासी की रही.
प्रतीकात्मक और वास्तविक रूप में, रोमन कैथोलिक चर्च एक लाभप्रद स्थिति में बना हुआ है। बेल्जियम की 'मान्यता प्राप्त धर्म' की अवधारणा ने इस्लाम के लिए यहूदी और प्रोटेस्टेंट धर्मों के साथ व्यवहार विकसित करने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। जबकि अन्य अल्पसंख्यक धर्मों, जैसे हिंदू धर्म के पास अभी तक ऐसी स्थिति नहीं है, बौद्ध धर्म ने २००७ में कानूनी मान्यता की ओर पहला कदम उठाया। २००१ सर्वे एंड स्टडी ऑफ़ रिलिजन के मुताबिक जनसंख्या का ४७% खुद को कैथोलिक चर्च से संबंधित के रूप में पहचानता है, जबकि ३.५% पर इस्लाम, दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। २००६ की एक जांच में फ्लेनडर्स में, जो वालोनिया से अधिक धार्मिक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, पता चला कि ५५% लोग अपने को धार्मिक मानते हैं और ३6% का विश्वास था कि भगवान ने दुनिया बनाई गई।
२००५ के सबसे हाल के यूरोबैरोमीटर चुनाव के अनुसार, बेल्जियम के ४३% नागरिकों ने उत्तर दिया कि "उनका मानना है कि भगवान होता है", जबकि २९% का उत्तर था कि "उनका मानना है कि आत्मा जैसी या जीवन शक्ति जैसी कुछ तो है" और २७% ने कहा कि "वे नहीं मानते कि किसी भी तरह की कोई आत्मा, भगवान, या जीवन शक्ति होती है".
ऐसा अनुमान है कि बेल्जियम की जनसंख्या का ३% से ४% मुसलमान (९८% सुन्नी) (३5०००0-४०००00 लोग) है। बेल्जियम के मुसलमानों में अधिकांश एंटवर्प, ब्रसेल्स और चारलेरोई जैसे बड़े शहरों में रहते हैं। बेल्जियम में आप्रवासियों का सबसे बड़ा समूह मोरक्कन का है, जिनकी संख्या 26४,97४ है। तुर्क तीसरा सबसे बड़ा समूह और दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम जातीय समूह है, जिनकी संख्या १५९,३३6 है। यहाँ हिंदूओं की एक छोटी आबादी भी है। इसके अलावा करीब १०,००० सिक्ख भी बेल्जियम में मौजूद हैं.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में योगदान देश के सम्पूर्ण इतिहास में दिखाई देता है। सोलहवीं सदी में प्रारंभिक आधुनिक पश्चिमी यूरोप के उत्कर्ष के सबसे प्रभावशाली वैज्ञानिकों में शामिल थे मानचित्रकार गेरार्डस मर्केटर, शरीररचना-विज्ञानी ऐनद्रिआस वेसेलिअस, औषधि-ज्ञानी रेम्बर्ट डोडोएन्स और गणितज्ञ सिमोन स्टेविन.
तेजी से विकसित और घनी बेल्जियम रेलवे प्रणाली ने ला ब्रुजोइस एट निवेलेस जैसी प्रमुख कंपनियों (अब बम्बारडिअर ट्रांसपोर्टेशन का ब्न विभाग) को विशिष्ट प्रौद्योगिकियों और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अत्यंत गहन कोयला खनन के विकास के लिए प्रेरित किया, क्योंकि प्रथम औद्योगिक क्रांति के दौरान खनन इंजीनियरों के लिए अत्यधिक प्रतिष्ठित विशेष अध्ययन की जरूरत थी।
उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी ने, व्यावहारिक विज्ञान और शुद्ध विज्ञान के क्षेत्र में बेल्जियम की महत्वपूर्ण उन्नति देखी. १८६० के दशक में, रसायनज्ञ अर्नेस्ट सोल्वे और इंजीनियर ज़ेनोब ग्रेम (कोल इंडस्ट्रीयल दे लीगे) ने क्रमशः सोल्वे प्रक्रिया और ग्रेम डाइनेमो को अपना नाम दिया था। १९०७-१९०९ में लियो बेकलैंड द्वारा बेकलाईट विकसित की गई। जॉरजेस लेमेत्रे (लोवेन का कैथोलिक विश्वविद्यालय) को १९२७ में ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बिग बैंग सिद्धांत को पेश करने का श्रेय दिया जाता है। तीन शरीर-क्रिया विज्ञान या चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार बेल्जियन को प्राप्त हुए हैं: १९१९ में जूल्स बोर्डेट (यूनिवर्सित लिब्रे दे ब्रुसेल्स), १९३८ में कोर्नेल हेमंस (गेन्ट विश्वविद्यालय) और १९७४ में अल्बर्ट क्लाड (यूनिवर्सित लिब्रे दे ब्रुसेल्स) के साथ में क्रिस्चियन डे दूव (यूनिवर्सित कैथोलिक दे लौवैं). १९७७ में इल्या प्रिगोगिन (यूनिवर्सित लिब्रे दे ब्रुसेल्स) को रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सांस्कृतिक जीवन आजकल हर भाषा समुदाय में केन्द्रित है और विभिन्न प्रकार के बंधनों ने एक साझा सांस्कृतिक माहौल को धुंधला कर दिया है। १९७० के दशक के बाद से, देश में रॉयल मिलिटरी अकादमी को छोड़कर एक भी द्विभाषी विश्वविद्यालय नहीं है, कोई आम मीडिया नहीं है और कोई ऐसा बड़ा सांस्कृतिक या वैज्ञानिक संगठन नहीं है, जिसमें दोनों प्रमुख समुदायों का प्रतिनिधित्व हो. बेल्जियन को कभी एक साथ बांधने वाली ताकतें - रोमन कैथोलिक और डच का आर्थिक और राजनीतिक विरोध - अब मजबूत नहीं रह गए हैं।
इसके राजनीतिक और भाषाई विभाजन के बावजूद, जो सदियों से बदलता गया है, वर्तमान बेल्जियम से संबंधित इस क्षेत्र ने प्रमुख कलात्मक आंदोलनों के उत्कर्ष को देखा है, जिसका यूरोपीय कला और संस्कृति पर काफी प्रभाव पड़ा है।
चित्रकला और वास्तुकला के लिए योगदान विशेष रूप से समृद्ध रहा है। मोज़न कला, अर्ली नीदरलैंडीश, फ्लेमिश पुनर्जागरण और बैरक पेंटिंग और रोमनेस्क, गोथिक, पुनर्जागरण और बैरक वास्तुकला के प्रमुख उदाहरण, कला के इतिहास में मील के पत्थर रहे। हैं। जहाँ निचले देशों में १५वीं सदी की कला में जैन वैन आइक और रोजिअर वन डेर वेडेन के धार्मिक चित्रों का प्रभुत्व रहा, वहीं १६वीं सदी शैलियों के एक व्यापक पैनल द्वारा परिभाषित हुई, जैसे पीटर ब्रौयल की लैंडस्केप पेंटिंग और लाम्बर्ट लोम्बार्ड की प्राचीन वस्तुओं की प्रस्तुति. हालांकि पीटर पॉल रूबेंस और एंथनी वैन डिक की बैरक शैली दक्षिणी नीदरलैंड में आरंभिक १७वीं सदी में फली-फूली, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे इसका पतन होता गया।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान, कई मौलिक रोमांटिक अभिव्यन्जनावादी और अतियथार्थवादी बेल्जियन चित्रकार उभरे, जिनमें शामिल थे जेम्स एन्सर, कोंस्टैन्ट पेर्मेक, पॉल डेलवौक्स और रेने मेग्रिट. कला के क्षेत्र में अग्रगामी कोबरा आंदोलन १९५० में उभरा, जबकि मूर्तिकार पानामरेंको समकालीन कला में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बने रहे। . बहुआयामी कलाकार जैन फेबर और चित्रकार ल्यूक टैमंस समकालीन कला परिदृश्य पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अन्य व्यक्ति हैं। वास्तुकला में बेल्जियम का योगदान उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भी जारी रहा, जिसमें विक्टर होर्टा और हेनरी वैन डे वेल्डे के कार्य भी शामिल हैं, जो आर्ट नोव्यू शैली के प्रमुख प्रणेता थे।
फ्रेंको फ्लेमिश स्कूल का गायन, निचले देशों के दक्षिणी हिस्से में विकसित हुआ और पुनर्जागरण संस्कृति के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान था। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी ने प्रमुख वायलिन वादकों का उदय देखा, जैसे हेनरी व्युक्सटेम्प्स, यूजीन साए और आर्थर ग्रुमिआक्स, जबकि अडोल्फ सैक्स ने १८४६ में सैक्सोफोन का आविष्कार किया। संगीतकार सीज़र फ्रैंक लीग में १८२२ में पैदा हुए थे। बेल्जियम में समकालीन संगीत की भी ख्याति है। जैज़ संगीतकार टूट्स थिएलमंस और गायक जैक्स ब्रेल ने वैश्विक ख्याति प्राप्त की. रॉक/पॉप संगीत में, टेलेक्स, फ्रंट २४२, क'स चॉयस, हूवरफोनिक, जैप मामा, सोलवैक्स और डेस सुविख्यात हैं।
बेल्जियम में कई विख्यात लेखक पैदा हुए हैं, जिनमें शामिल हैं कवि एमिल फरहारेन और उपन्यासकार हेंड्रिक कॉनशेंस, जोर्जेस सीमेनन, सुज़ेन लिलार और अमेलि नोथोम. १९११ में कवि और नाटककार मौरिस मेटरलिंक ने साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता. हेर्ग द्वारा द एडवेंचर्स ऑफ़ टिनटिन, सर्वाधिक मशहूर फ्रेंको-बेल्जियम कोमिक्स है, लेकिन कई अन्य प्रमुख लेखकों ने जिनमें शामिल हैं पेयो (द स्मर्फ्स), आन्द्रे फ्रेंक्विन, एडगर पी. जैकब्स और विली वेंडरस्टीन, बेल्जियम कार्टून स्ट्रिप उद्योग को अमेरिका और जापान के समानांतर ला खड़ा किया।
बेल्जियम सिनेमा ने कई, मगर मुख्य रूप से फ्लेमिश उपन्यासों को परदे पर जीवंत किया है। बेल्जियम के अन्य निर्देशकों में शामिल हैं आन्द्रे डेलवौक्स, सतिज्न कोनिन्क्स, लक और जीन पियरे डारडेन; प्रसिद्ध अभिनेताओं में शामिल हैं जैन डेक्लेयर और मैरी गिलेन; और सफल फिल्मों में शामिल हैं मैन बाइट्स डॉग और द अल्ज़ाइमर अफेयर . १९८० के दशक में, एंटवर्प की रॉयल अकादमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स ने महत्वपूर्ण फैशन निर्माताओं को पैदा किया, जिन्हें एंटवर्प सिक्स के नाम से जाना जाता है।
बेल्जियम के सांस्कृतिक जीवन में लोककथाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका है: इस देश में शोभा यात्राओं, काफिलों, परेडों, 'ओमेनगांग्स' और 'डुकासेस', 'कर्मेस' और अन्य स्थानीय त्यौहारों की अपेक्षाकृत एक उच्च संख्या पाई जाती है, जिसके पीछे लगभग हमेशा मौलिक रूप से धार्मिक या पौराणिक पृष्ठभूमि होती है। अपने प्रसिद्ध गाइल्स के साथ बिन्च कार्निवल और अथ, ब्रुसेल्स, डेन्डरमोंड, मेकलेन और मोन्स के 'जुलूस के दैत्य और ड्रेगन' युनेस्को द्वारा मानवता के मौखिक और अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियों के रूप में मान्यता प्राप्त हैं। अन्य उदाहरण हैं, आल्स्ट का कार्निवल; ब्रुगेस में पवित्र रक्त का अभी भी अत्यंत धार्मिक जुलूस, हासेल में विर्गा जेस बसीलीका और मेकलेन में हान्सविक; लीग में १५ अगस्त का त्योहार; और नामूर में वलून त्योहार. १८३२ में प्रारंभ और १९६० के दशक में पुनर्जीवित जेंट्से फीसटेन, एक आधुनिक परंपरा बन गया है। एक प्रमुख गैर सरकारी अवकाश है सेंट निकोलस दिवस, जो बच्चों के लिए और लीग में, छात्रों के लिए एक उत्सव है।
एसोसिएशन फुटबॉल और साइकिलिंग बेल्जियम में सबसे लोकप्रिय खेल हैं। टूर डी फ्रांस में पांच जीत और साइकिलिंग में कई अन्य रिकॉर्ड के साथ, बेल्जियम के एडी मेर्क्स सर्वकालिक साइकिल चालक के रूप में #१ रैंक पर हैं। उनका घंटा गति का रिकॉर्ड (१972 में स्थापित) बारह साल तक बना रहा. जीन-मारी फाफ, बेल्जियम के पूर्व गोलकीपर, फुटबॉल के इतिहास में महानतम में से एक माने जाते हैं। बेल्जियम वर्तमान में नीदरलैंड के साथ 20१8 विश्व कप की मेजबानी के लिए बोली लगा रहा है। दोनों देशों ने पहले २००० में उएफा यूरोपीय फुटबॉल चैम्पियनशिप की मेजबानी की थी। बेल्जियम ने १972 में यूरोपीय फुटबॉल चैम्पियनशिप की मेजबानी भी की.
किम क्लिस्टर्स और जस्टिन हेनिन, दोनों महिला टेनिस संघ में वर्ष की खिलाड़ी थीं, चूंकि उन्हें नंबर एक महिला टेनिस खिलाड़ी का दर्जा मिला था।
स्पा-फ्रेंकरचैम्प्स मोटर रेसिंग सर्किट फार्मूला वन विश्व चैम्पियनशिप बेल्जियम ग्रां प्री की मेजबानी करता है। बेल्जियम के ड्राइवर, जैकी इक्स ने आठ ग्रांड प्रिक्स और छह २४ आवर्स ऑफ़ ले मांस जीती है और फॉर्मूला वन विश्व चैंपियनशिप में दो बार वे द्वितीय स्थान पर रहे। हैं। बेल्जियम की मोटोक्रॉस में भी एक मजबूत प्रतिष्ठा है; विश्व चैंपियन रोजर डी कोस्टर, योल रॉबर्ट, जोर्जेस जोब, एरिक गेबोर्स, योएल स्मेट्स और स्टेफन एवेर्ट्स शामिल हैं।
बेल्जियम में सालाना आयोजित होने वाले खेल कार्यक्रमों में शामिल है मेमोरियल वान डैम एथलेटिक्स प्रतियोगिता, बेल्जियम ग्रांड प्रिक्स फॉर्मूला वन और कई क्लासिक साइकिल दौड़, जैसे कि रोन्डे वन व्लानडेरेन और लीग-बस्टोंन-लीग. १९२० ग्रीष्मकालीन ओलंपिक एंटवर्प, बेल्जियम में आयोजित हुए थे।
कई उच्च रैंक वाले बेल्जियन रेस्तरां, मिशेलिन गाइड जैसे सबसे प्रभावशाली गैस्ट्रोनोमिक गाइड में पाए जा सकते हैं। बेल्जियम, वेफल्स और फ्रेंच फ्राइज़ के लिए प्रसिद्ध है। अपने नाम के विपरीत, फ्रेंच फ्राइज़ की उत्पत्ति भी बेल्जियम में हुई है। "फ्रेंच फ्राइज़" नाम वास्तव में जिस तरह से आलू काटा जाता है, उसके वर्णन को सन्दर्भित करता है। "फ्रेंच" करने का अर्थ है लंबा टुकड़ा करना. राष्ट्रीय पकवान हैं "सलाद के साथ स्टेक और फ्राइज़" और मुसेल्स विथ फ्राइज़.
बेल्जियम के चॉकलेट और प्रलाइन के ब्रांड जैसे कैलबौट, कोट डी'ओर, नॉयहॉउस, लियोनाइडस, गेलियन, गैलेर एंड गोडिवा विश्व प्रसिद्ध और व्यापक रूप से बिकने वाली हैं।
बेल्जियम बियर की ५०० किस्मों से अधिक का उत्पादन करता है। ऐबे ऑफ़ वेस्टलेटरन की ट्रैपिस्ट बियर को लगातार दुनिया की सर्वश्रेष्ठ बियर की श्रेणी में रखा गया है।
दुनिया में सबसे बड़ी मात्रा में शराब बनानेवाला लोवेन में स्थित ऐनहॉयज़र बुश इनबेव है।
इन्हें भी देखें
बेल्जियम की रूपरेखा
बेल्जियम के सूचकांक से संबंधित लेख
सामान्य ऑनलाइन स्रोत
(अन्य मूल स्रोतों का उल्लेख)
२००७/०६/०७ को पुनःप्राप्त.
बेल्जियम संबंधित राष्ट्र और राष्ट्र-राज्य विकास पर कुछ विचार
बेल्जियम के राजनीतिक इतिहास का ऐतिहासिक सिंहावलोकन
एक चॉकलेटी दुनिया बेल्जियम
ब्रिटैनिका विश्वकोश में बेल्जियम प्रविष्टि
संयुक्त राज्य विभाग से बेल्जियम जानकारी
संयुक्त राज्य कांग्रेस पुस्तकालय से पोर्टाल तो थे वर्ल्ड
बेल्जियम, कैथोलिक विश्वकोश १९१३ में प्रविष्टि, विकिसोर्स पर पुनर्प्रकाशित
बेल्जियम सार्वजनिक कूटनीति विकी पर प्रविष्टि, सार्वजनिक कूटनीति पर उस्क केन्द्र की निगरानी में
यूरोपीय संप्रभु राज्य
यूरोपीय संघ के सदस्य राज्य
अटलांटिक महासागर से सटे देश
डच भाषी देश
फ्रेंच भाषी देश
जर्मन भाषी देश
ला फ्रैंकोफोनी के सदस्य राज्य
१८३० में स्थापित राज्य और शासित प्रदेश
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यूरोप के देश |
इताली, आधिकारिक रूप से इतालीय गणराज्य, दक्षिणी यूरोप का एक देश है। यह भूमध्य सागर के मध्य में स्थित है, और इसका क्षेत्र काफ़ी हद तक इसी नाम के भौगोलिक क्षेत्र के साथ मेल खाता है। इताली को पश्चिमी यूरोप का भाग भी माना जाता है, और फ़्रान्स, स्वित्सरलैंड, औस्ट्रिया, स्लोवेनिया और वैटिकन सिटी और सान मारिनो के अन्तर्क्षेत्रीय लघुराज्यों के साथ भूमि सीमाएँ साझा करता है। इसका स्वित्सरलैंड, कैंपियोन में एक बहिःक्षेत्र है। इताली ६ करोड़ से अधिक की जनसंख्या के साथ ३०१,२३० वर्ग किमी के क्षेत्र में विस्तृत है। यह यूरोपीय संघ का तृतीय सर्वाधिक जनसंख्या वाला सदस्य राज्य है, यूरोप का षष्ठ सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है, और भूमि क्षेत्र के हिसाब से महाद्वीप का दशम सबसे बड़ा देश है। इताली की राजधानी और सबसे बड़ा नगर रोम है।
इताली कई सभ्यताओं का मूल स्थान था, जैसे कि इत्रस्की सभ्यता, जबकि दक्षिणी यूरोप और भूमध्य द्रोणी में इसकी केन्द्रीय भौगोलिक स्थिति के कारण, देश ऐतिहासिक रूप से असंख्य लोगों और संस्कृतियों का घर भी रहा है, जो पूरे इतिहास के दौरान प्रायद्वीप में बस गए थे। मध्य इताली के मूल निवासी लातीनों ने ८वीं शताब्दी ई॰पू॰ में रोमन साम्राज्य का गठन किया, जो अन्ततः सीनेट और लोगों की सरकार के साथ एक गणराज्य बन गया। रोमन गणराज्य ने शुरू में इतालीय प्रायद्वीप पर अपने पड़ोसियों को जीत लिया और आत्मसात कर लिया, अन्ततः यूरोप, उत्तरी अफ़्रीका और एशिया के कुछ भागों का विस्तार और विजय प्राप्त की। पहली शताब्दी ई॰पू॰ तक, रोमन साम्राज्य भूमध्य द्रोणी में प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा और पाक्स रोमाना का उद्घाटन करते हुए एक प्रमुख सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक केंद्र बन गया, जो २०० से अधिक वर्षों की अवधि के दौरान इटली के कानून, प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था, कला और साहित्य का विकास हुआ।
प्रारंभिक मध्य युग के दौरान, इताली ने पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन और बर्बर आक्रमणों को सहन किया, लेकिन ११वीं शताब्दी तक, कई नगर-राज्य और सामुद्रिक गणराज्य, अधिकांशतः उत्तर में, व्यापार, और वाणिज्य के माध्यम से समृद्ध हो गए, जिन्होंने आधुनिक पूंजीवाद की नींव रखी। पुनर्जागरण इताली में शुरू हुआ और शेष यूरोप में फैल गया, जिससे मानवतावाद, विज्ञान, अन्वेषण और कला में नूतन रुचि जन्म हुई। मध्य युग के दौरान, इतालीय खोजकर्ताओं ने खोज के यूरोपीय युग में प्रवेश करने में सहायता करते हुए सुदूर पूर्व और नया विश्व के लिए नए मार्गों की खोज की। भूमध्यसागर से गुजरने वाले व्यापार मार्गों के खुलने से इताली की वाणिज्यिक और राजनैतिक शक्ति में काफ़ी अभाव आया। १५वीं और १६वीं शताब्दी के इतालीय युद्धों के दौरान इतालीय नगर-राज्यों और अन्य यूरोपीय शक्तियों के आक्रमणों के बीच सदियों की प्रतिद्वन्द्विता और अन्तर्द्वन्द्व ने इताली के कुछ भागों को राजनीतिक रूप से खण्डित कर दिया।
१९वीं शताब्दी के मध्य तक, अन्य सामाजिक, आर्थिक और सैन्य घटनाओं के साथ-साथ बढ़ते इतालीय राष्ट्रवाद ने क्रांतिकारी राजनीतिक उथल-पुथल की अवधि का नेतृत्व किया। शताब्दियों के राजनीतिक और प्रादेशिक विभाजनों के बाद, १८६१ में स्वतंत्रता के युद्ध के बाद इताली लगभग पूरी तरह से एकीकृत हो गया, जिससे इताली साम्राज्य की स्थापना हुई। १९वीं शताब्दी के अन्त से लेकर २०वीं शताब्दी की आरम्भ तक, इताली ने तेजी से औद्योगीकरण किया, मुख्य रूप से उत्तर में, और एक औपनिवेशिक साम्राज्य का अधिग्रहण किया, जबकि दक्षिण बड़े पैमाने पर गरीब बना रहा और औद्योगीकरण से बाहर रखा गया, जिससे एक बड़े और प्रभावशाली विकीर्णन को बढ़ावा मिला। प्रथम विश्व युद्ध में विजयी सहयोगी शक्तियों में से एक होने के बावजूद, इताली ने आर्थिक संकट और सामाजिक उथल-पुथल के दौर में प्रवेश किया, जिससे १९22 में इतालवी फासीवादी तानाशाही का उदय हुआ। धुरी पक्ष पर द्वितीय विश्वयुद्ध में फासीवादी इटली की भागीदारी समाप्त हो गई सैन्य हार में। इतालीय प्रतिरोध और उसके बाद के इतालीय गृहयुद्ध और इताली की मुक्ति के उदय के बाद, देश ने अपनी राजशाही को समाप्त कर दिया, एक लोकतांत्रिक एकात्मक संसदीय गणराज्य की स्थापना की, लम्बे समय तक आर्थिक उछाल का आनन्द लिया और एक अत्यधिक विकसित देश बन गया।
इताली की एक उन्नत अर्थव्यवस्था है, जो विश्व में दशम सबसे बड़ी प्रति व्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद (यूरोपीय संघ में तृतीय) है, राष्ट्रीय संपत्ति के हिसाब से नवम सबसे बड़ा और केन्द्रीय बैंक के स्वर्ण भण्डार के हिसाब से तृतीय सबसे बड़ा है। यह जीवन प्रत्याशा, जीवन की गुणवत्ता, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा में उच्च स्थान पर है। देश एक महान शक्ति है, और क्षेत्रीय और वैश्विक आर्थिक, सैन्य, सांस्कृतिक और राजनयिक मामलों में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इताली यूरोपीय संघ का एक संस्थापक और अग्रणी सदस्य है और संयुक्त राष्ट्र, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन, जी७, लातिन संघ, शैङन क्षेत्र और कई अन्य सहित कई अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों का सदस्य है। कई आविष्कारों और खोजों का स्रोत, देश को एक सांस्कृतिक महाशक्ति माना जाता है और लम्बे समय से कला, संगीत, साहित्य, दर्शन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यटन और वेश-भूषा का एक वैश्विक केंद्र रहा है, साथ ही विविध क्षेत्रों में बहुत प्रभावित और योगदान दिया है जिसमें सिनेमा, व्यंजन, खेल, न्यायशास्त्र, बैंकिंग और व्यवसाय शामिल हैं। इसमें विश्व की सर्वाधिक संख्या में विश्व धरोहर स्थल (५८) हैं, और यह विश्व का पंचम सबसे अधिक भ्रमण किया जाने वाला देश है।
इटली की मुख्य भूमि तीन तरफ़ (दक्षिण और सूर्यपारगमन की दोनों दिशाओं) से भूमध्य सागर द्वारा जलावृत है। इस प्रयद्वीप को इटली के नाम पर ही इटालियन (या इतालवी) प्रायद्वीप कहते हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ३,०१,००० वर्ग किलोमीटर है जो मध्यप्रदेशो के क्षेत्रफल से थोड़ा कम है। द्वीपों को मिलाकर इसकी तटरेखा कोई ७,६०० किलोमीटर लंबी है। उत्तर में इसकी सीमा फ्रांस (४८८ कि.मी.), ऑस्ट्रिया (४३० कि.मी.), स्लोवेनिया (२३२ कि.मी.) तथा स्विट्ज़रलैंड से लगती है। वेटिकन सिटी तथा सैन मरीनो चारों तरफ़ से इटली से घिरे हुए हैं।
इटली की जलवायु मुख्यतः भूमध्यसागरीय है पर इसमें बहुत अधिक बदलाव पाया जाता है। उदाहरण के लिए ट्यूरिन, मिलान जैसे शहरों की जलवायु को महाद्वीपीय या आर्द्र महाद्वीपीय जलवायु की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इटली यूरोप के दक्षिणवर्ती तीन बड़े प्रायद्वीपों में बीच का प्रायद्वीप है जो भूमध्यसागर के मध्य में स्थित है। प्रायद्वीप के पश्चिम, दक्षिण तथा पूर्व में क्रमश: तिरहेनियन, आयोनियन तथा ऐड्रियाटिक सागर हैं और उत्तर में आल्प्स पहाड़ की श्रैणियाँ फैली हुई हैं। सिसली, सार्डीनिया तथा कॉर्सिका (जो फ्रांस के अधिकार में हैं), ये तीन बड़े द्वीप तथा लिग्यूरियन सागर में स्थित अन्य टापुओं के समुदाय वस्तुत: इटली से संबद्ध हैं। प्रायद्वीप का आकार एक बड़े बूट (जूते) के समान है जो उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व को चौड़ाई ८० मील से १५० मील तक है। सुदूर दक्षिण में चौड़ाई ३५ मील से २० मील तक है।
इटली पर्वतीय देश है जिसके उत्तर में आल्प्स पहाड़ तथा मध्य में रीढ़ की भाँति अपेनाइन पर्वत की श्रृंखलाएँ फैली हुई हैं। अपेनाइन पहाड़ जेलोआ तथा नीस नगरों के मध्य से प्रारंभ होकर दक्षिण पूर्व दिशा में एड्रियाटिक समुद्रतट तक चला गया है और मध्य तथा दक्षिणी इटली में रीढ़ की भाँति दक्षिण की तरफ फैला हुआ है।
प्राकृतिक भूरचना की दृष्टि से इटली निम्नलिखित चार भागों में बाँटा जा सकता है :
(१) आल्प्स की दक्षिणी ढाल, जो इटली के उत्तर में स्थित है।
(२) पो तथा वेनिस का मैदान, जो पो आदि नदियों की लाई हुई मिट्टी से बना है।
(३) इटली प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग, जिसमें सिसली भी सम्मिलित है। इस संपूर्ण भाग में अपेनाइन पर्वतश्रेणी अतिप्रमुख हैं।
(४) सार्डीनिया, कॉर्सिका तथा अन्य द्वीपसमूह।
किंतु वनस्पति, जलवायु तथा प्राकृतिक दृष्टि से यह प्रायद्वीप तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
१. उत्तरी इटली, २. मध्य इटली तथा ३. दक्षिणी इटली।
यह इटली का सबसे घना बसा हुआ मैदानी भाग है जो तुरीय काल में समुद्र था, बाद में नदियों की लाई हुई मिट्टी से बना। यह मैदान देश की १७ प्रतिशत भूमि घेरे हुए है जिसमें चावल, शहतूत तथा पशुओं के लिए चारा बहुतायत से पैदा होता है। उत्तर में आल्प्स पहाड़ की ढाल तथा पहाड़ियाँ हैं जिनपर चरागाह, जंगल तथा सीढ़ीनुमा खेत हैं। पर्वतीय भाग की प्राकृतिक शोभा कुछ झीलों तथा नदियों से बहुत बढ़ गई है। उत्तरी इटली का भौगोलिक वर्णन पो नदी के माध्यम ये ही किया जा सकता है। पो नदी एक पहाड़ी सोते के रूप में माउंट वीज़ो पहाड़ (ऊँचाई ६,००० फुट) से निकलकर २० मील बहने के बाद सैलुजा के मैदान में प्रवेश करती है। सोसिया नदी के संगम से ३३७ मील तक इस नदी में नौपरिवहन होता है। समुद्र में गिरने के पहले नदी दो शाखाओं (पो डोल मेस्ट्रा तथा पो डि गोरो) में विभक्त हो जाती है। पो के मुहाने पर २० मील चौड़ा डेल्टा है। नदी की कुल लंबाई 4२० मील है तथा यह २९,००० वर्ग मील भूमि के जल की निकासी करती है। आल्प्स पहाड़ तथा अपेनाइंस से निकलनेवाली पो की मुख्य सहायक नदियाँ क्रमानुसार टिसिनो, अद्दा, ओगलियो और मिन्सिओ तथा टेनारो, टेविया, टारो, सेचिया और पनारो हैं। टाइबर (२४४ मील) तथा एड्रिज (2२० मील) इटली की दूसरी तथा तीसरी सबसे बड़ी नदियाँ हैं। ये प्रारंभ में सँकरी तथा पहाड़ी हैं किंतु मैदानी भाग में इनका विस्तार बढ़ जाता है और बाढ़ आती है। ये सभी नदियाँ सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन की दृष्टि से परम उपयोगी हैं, किंतु यातायात के लिए अनुपयुक्त। आल्प्स, अपेनाइंस तथा एड्रियाटिक सागर के मध्य में स्थित एक सँकरा समुद्रतटीय मैदान है। उत्तरी भाग में पर्वतीय ढालों पर मूल्यवान फल, जैसे जैतून, अंगूर तथा नारंगी बहुत पैदा होती है। उपजाऊ घाटी तथा मैदानों में घनी बस्ती है। इनमें अनेक गाँव तथा शहर बसे हुए हैं। अधिक ऊँचाइयों पर जंगल हैं।
मध्य इटली के बीच में अपनाइंस पहाड़ उत्तर-उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की दिशा में एड्रियाटिक समुद्रतट के समांतर फैला हुआ है। अपेनाइंस का सबसे ऊँचा भाग ग्रैनसासोडी इटैलिया (९,५६० फुट) इसी भाग में है। यहाँ पर्वतश्रेणियों का जाल बिछा हुआ है, जिनमें अधिकांश नवंबर से मई तक बर्फ से ढकी रहती हैं। यहाँ पर कुछ विस्तृत, बहुत सुंदर तथा उपजाऊ घाटियाँ हैं, जैसे एटरनो की घाटी (२,३८० फुट)। मध्य इटली की प्राकृतिक रचना के कारण यहाँ एक ओर अधिक ठंढा, उच्च पर्वतीय भाग है तथा दूसरी ओर गर्म तथा शीतोष्ण जलवायुवाली ढाल तथा घाटियाँ हैं। पश्चिमी ढाल एक पहाड़ी ऊबड़ खाबड़ भाग है। दक्षिण में टस्कनी तथा टाइबर के बीच का भाग ज्वालामुखी पहाड़ों की देन है, अत: यहाँ शंक्वाकार पहाड़ियाँ तथा झीलें हैं। इस पर्वतीय भाग तथा समुद्र के बीच में काली मिट्टीवाला एक उपजाऊ मैदानी भाग है जिसे कांपान्या कहते हैं। मध्य इटली के पूर्वी तट की तरफ श्रेणियाँ समुद्र के बहुत निकट तक फैली हुई हैं, अत: एड्रियाटिक सागर में गिरनेवाली नदियों का महत्त्व बहुत कम है। यह विषम भाग फलों के उद्यानों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ जैतून तथा अंगूर की खेती होती है। यहाँ बड़े शहरों तथा बड़े गाँवों का अभाव है; अधिकांश लोग छोटे-छोटे कस्बों तथा गाँवों में रहते हैं। खनिज संपत्ति के अभाव के कारण यह भाग औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। फुसिनस, ट्रेसिमेनो तथा चिडसी यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं। पश्चिमी भाग की झीलें ज्वालामुखी पहाड़ों की देन हैं।
यह संपूर्ण भाग पहाड़ी है जिसके बीच में अपेनाइंस रीढ़ की भाँति फैला हुआ है तथा दोनों ओर नीची पहाड़ियाँ हैं। इस भाग की औसत चौड़ाई ५० मील से लेकर ६० मील तक है। पश्चिमी तट पर एक सँकरा "तेरा डी लेवोरो" नाम का तथा पूर्व में आपूलिया का चौड़ा मैदान है। इन दो मैदानों के अतिरिक्त सारा भाग पहाड़ी है और अपेनाइंस की ऊँची नीची श्रंखलाओं से ढका हुआ है। पोटेंजा की पहाड़ी दक्षिणी इटली की अंतिम सबसे ऊँची पहाड़ी (पोलिनो की पहाड़ी) से मिलती है। सुदूर दक्षिण में ग्रेनाइट तथा चूने के पत्थर की, जंगलों से ढकी हुई पहाड़ियाँ तट तक चली गई हैं। लीरी तथा गेटा आदि एड्रियाटिक सागर में गिरनेवाली नदियाँ पश्चिमी ढाल पर बहनेवाली नदियों से अधिक लंबी हैं। ड्रिनगो से दक्षिण की ओर गिरनेवाली विफरनो, फोरटोरे, सेरवारो, आंटों तथा ब्रैडानो मुख्य नदियाँ हैं। दक्षिणी इटली में पहाड़ों के बीच स्थित लैगोडेल-मोटेसी झील है।
इटली के समीप स्थित सिसली, सार्डीनिया तथा कॉर्सिका के अतिरिक्त एल्वा, कैप्रिया, गारगोना, पायनोसा, मांटीक्रिस्टो, जिग्लिको आदि मुख्य मुख्य द्वीप हैं। इन द्वीपों में इस्चिया, प्रोसिदा तथा पोंजा, जो नेपुल्स की खाड़ी के पास हैं, ज्वालामुखी पहाड़ों की देन हैं। एड्रियाटिक तट पर केवल ड्रिमिटी द्वीप है।
जलवायु तथा वनस्पति
देश की प्राकृतिक रचना, अक्षांशीय विस्तार (१० डिग्री २९ मिनट) तथा भूमध्यसागरीय स्थिति ही जलवायु की प्रधान नियामक है। तीन ओर समुद्र तथा उत्तर में उच्च आल्प्स से घिरे होने के कारण यहाँ की जलवायु की विविधता पर्याप्त बढ़ जाती है। यूरोप के सबसे अधिक गर्म देश इटली में जाड़े में अपेक्षाकृत अधिक गर्मी तथा गर्मी में साधारण गर्मी पड़ती है। यह प्रभाव समुद्र से दूरी बढ़ने पर घटता है। आल्प्स के कारण यहाँ उत्तरी ठंढी हवाओं का प्रभाव नहीं पड़ता है। किंतु पूर्वी भाग में ठंढी तथा तेज बोरा नामक हवाएँ चला करती हैं। अपेनाइंस पहाड़ के कारण अंध महासागर से आनेवाली हवाओं का प्रभाव तिर हीनियन समुद्रतट तक ही सीमित रहता है।
उत्तरी तथा दक्षिणी इटली के ताप में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। ताप का उतार चढ़ाव ५२ डिग्री फा. से ६६ डिग्री फा. तक होता है। दिसंबर तथा जनवरी सबसे अधिक ठंढे तथा जुलाई और अगस्त सबसे अधिक गर्म महीने हैं। पो नदी के मैदन का औसत ताप ५५ डिग्री फा. तथा ५०० मील दूर स्थित सिसली का औसत ताप ६४ डिग्री फा. है। उत्तर के आल्प्स के पहाड़ी क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा ८०फ़फ़ होती है। अपेनाइंस के ऊँचे पश्चिमी भाग में भी पर्याप्त वर्षा होती है। पूर्वी लोंबार्डी के दक्षिण पश्चिमी भाग में वार्षिक वर्षा २४फ़फ़ होती है, किंतु उत्तरी भाग में उसका औसत ५०फ़फ़ होता है तथा गर्मी शुष्क रहती है। आल्प्स के मध्यवर्ती भाग में गर्मी में वर्षा होती है तथा जाड़े में बर्फ गिरती है। पो नदी की द्रोणी में गर्मी में अधिक वर्षा होती है। स्थानीय कारणों के अतिरिक्त इटली की जलवायु भूमध्यसागरीय है जहाँ जाड़े में वर्षा होती है तथा गर्मी शुष्क रहती है।
जलवायु की विषमता के कारण यहाँ की बनस्पतियाँ भी एक सी नहीं हैं। मनुष्य के सतत प्रयत्नों से प्राकृतिक वनस्पतियाँ केवल उच्च पहाड़ों पर ही देखने को मिलती हैं। जहाँ नुकीली पत्तीवाले जंगल पाए जाते हैं। इनमें सरो, देवदारु, चीड़ तथा फर के वृक्ष मुख्य हैं। उत्तर के पर्वतीय ठंढे भागों में अधिक ठंडक सहन करनेवाले पौधे पाए जाते हैं। तटीय तथा अन्य निचले मैदानों में जैतून, नारंगी, नीबू आदि फलों के उद्यान लगे हुए हैं। मध्य इटली में अपेनाइंस पर्वत की ऊँची श्रेणियों को छोड़कर प्राकृतिक वनस्पति अन्यत्र नहीं है। यहाँ जैतून तथा अंगूर की खेती होती है। दक्षिणी इटली में तिरहीनियन तटपर जैतून, नारंगी, नीबू, शहतूत, अंजीर आदि फलों के उद्यान हैं। इस भाग में कंदों से उगाए जानेवाले फूल भी होते हैं। यहाँ ऊँचाई पर तथा सदाबहार जंगल पाए जाते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि पूरे इटली को आधुनिक किसानों ने फलों, तरकारियों तथा अन्य फसलों से भर दिया है, केवल पहाड़ों पर ही जंगली पेड़ तथा झाड़ियाँ पाई जाती हैं।
इटली वासियों का सबसे बड़ा व्यवसाय खेती है। संपूर्ण जनसंख्या का भाग खेती से ही अपनी जीविका प्राप्त करता है। जलवायु तथा प्राकृतिक दशा की विभिन्नता के कारण इस छोटे से देश में यूरोप में पैदा होनेवाली सारी चीजें पर्याप्त मात्रा में पैदा होती हैं, अर्थात् राई से लेकर चावल तक, सेब से लेकर नारंगी तक तथा अलसी से लेकर कपास तक। संपूर्ण देश में लगभग ७,०५,००,००0 एकड़ भूमि उपजाऊ है, जिसमें १,८३,७4,००0 एकड़ में अन्न, २८,६२,००0 एकड़ में दाल आदि फसलें, ७,७२,००0 एकड़ में औद्योगिक फसलें, १4,९०,००0 एकड़ में तरकारियाँ, २३,८६,००0 एकड़ में अंगूर, २०,३३,००0 एकड़ में जैतून, २,१9,००0 एकड़ में चरागाह और चारे की फसलें तथा १,४४,५८,००0 एकड़ में जंगल पाए जाते हैं। यहाँ की खेती प्राचीन ढंग से ही होती है। पहाड़ी भूमि होने के कारण आधुनिक यंत्रों का प्रयोग नहीं हो सका है।
जनसंख्या : पूर्व ऐतिहासिक काल में यहाँ की जनसंख्या बहुत कम थी। जनवृद्धि का अनुपात द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले पर्याप्त ऊँचा था (१९३१ ई. में वार्षिक वृद्धि ०.८७ प्रति शत थी)।
पर्वतीय भूमि तथा सीमित औद्योगिक विकास के कारण जनसंख्या का घनत्व अन्य यूरोपिय देशों की अपेक्षा बहुत कम है। अधिकांश लोग गाँवों में रहते हैं। देश में ५०,००० से ऊपर जनसंख्यावाले नगरों की संख्या ७० है। यहाँ अधिकांश लोग रोमन कैथोलिक धर्म माननेवाले हैं। १९३१ ई. की जनगणना के अनुसार ९९.६ प्रतिशत लोग कैथोलिक थे, ०.३४ प्रतिशत लोग दूसरे धर्म के थे तथा। ०६ प्रतिशत ऐसे लोग थे जिनका कोई विशेष धर्म नहीं था। शिक्षा तथा कला की दृष्टि से इटली प्राचीन काल से अग्रणी रहा है। रोम की सभ्यता तथा कला इतिहासकाल में अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई थी (द्र. "रोम")। यहाँ के कलाकार और चित्रकार विश्वविख्यात थे। आज भी यहाँ शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा है। निरक्षरता नाम मात्र की भी नहीं है। देश में ७० दैनिक पत्र प्रकाशित होते हैं। छविगृहों की संख्या लगभग ९,7७० है (1९६९ ई.)।
खनिज तथा उद्योग धंधे
इटली में खनिज पदार्थ अपर्याप्त हैं, केवल पारा ही यहाँ से निर्यात किया जाता है। यहाँ सिसली (काल्टानिसेटा), टस्कनी (अरेंजो, फ्लोरेंस तथा ग्रासेटो), सार्डीनिया (कैगलिआरी, ससारी तथा इंग्लेसियास) एवं पिडमांट क्षेत्रों में ही खनिज तथा औद्योगिक विकास भली भाँति हुआ है।
देश का प्रमुख उद्योग कपड़ा बनाने का है। यहाँ १९६९ ई. में सूती कपड़े बनाने के ९४५ कारखाने थे। रेशम का व्यवसाय पूरे इटली में होता है, किंतु लोंबार्डी, पिडमांट तथा वेनेशिया मुख्य सिल्क उत्पादक क्षेत्र हैं। १९६९ में गृहउद्योग को छोड़कर रेशमी कपड़े बनाने के २४ तथा ऊनी कपड़े बनाने के ३४८ कारखाने थे। रासायनिक वस्तु बनाने के तथा चीनी बनाने के भी पर्याप्त कारखाने हैं। देश में मोटर, मोटर साइकिल तथा साइकिल बनाने का बहुत बड़ा उद्योग है। १९६९ ई. में १५,९५,९५1 मोटरें बनाई गई थीं जिनमें से ६,३०,07६ मोटरें निर्यात की गई थीं। अन्य मशीनें तथा औजार बनाने के भी बहुत से कारखाने हैं। जलविद्युत् पैदा करने का बहुत बड़ा धंधा यहाँ होता है। यहाँ १५,८८,०३१ कारखाने हैं, जिनमें ६8,००,६73 व्यक्ति काम करते हैं। इटली का व्यापारिक संबंध यूरोप के सभी देशों से तथा अर्जेंटीना, संयुक्त राज्य (अमरीका) एवं कैनाडा से है। मुख्य आयात की वस्तुएँ कपास, ऊन, कोयला और रासायनिक पदार्थ हैं तथा निर्यात की वस्तुएँ फल, सूत, कपड़े, मशीनें, मोटर, मोटरसाइकिल एवं रासायनिक पदार्थ हैं। इटली का आयात निर्यात से अधिक होता है।
संपूर्ण देश १९ क्षेत्रों तथा ९२ प्रांतों में बँटा हुआ है। १९वीं शताब्दी के मध्य से नगरों की संख्या काफी बढ़ी है। अत: प्रांतीय राजधानियों का महत्त्व बढ़ा तथा लोगों का झुकाव नगरों की तरफ हुआ। देश में एक लाख के ऊपर जनसंख्या के कुल २६ नगर हैं। सन् १९69 में ५,००,००0 से अधिक जनसंख्या के नगर रोम (इटली की राजधानी, जनसंख्या २७,३१,३९७), मिलान (१७,०१,६१२), नेपुल्स (१२,७६,८५4), तूरिन (११,७७,०३९) तथा जेनेवा (८,४१,८४१) हैं।
विश्व में सर्वाधिक विश्व धरोहर स्थल इटली में हैं।
इटली के नगर: टोरीनो बर्गमो वेनिस रवेन्ना बारी रोमा सियेना फ्लोरेन्स पीसा नापोलि पाम्पे सोरेन्टो पलेर्मो मिलानो ट्रिएस्ट वेरोना जेनोआ ब्रिंडिसि आदि हैं। अन्नु
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यूरोप के देश |
आर्मीनिया (आर्मेनिया) पश्चिम एशिया और यूरोप के काकेशस क्षेत्र में स्थित एक पहाड़ी देश है जो चारों तरफ़ ज़मीन से घिरा है। १९९० के पूर्व यह सोवियत संघ का एक अंग था जो एक राज्य के रूप में था। सोवियत संघ में एक जनक्रान्ति एवं राज्यों के आजादी के संघर्ष के बाद आर्मीनिया को २३ अगस्त १९९० को स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई, परन्तु इसके स्थापना की घोषणा २१ सितंबर, १९९१ को हुई एवं इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता २५ दिसंबर को मिली। इसकी राजधानी येरेवन है।
अर्मेनियाई मूल की लिपि आरामाईक एक समय (ईसा पूर्व ३००) भारत से लेकर भूमध्य सागर के बीच प्रयुक्त होती थी। पूर्वी रोमन साम्राज्य और फ़ारस तथा अरब दोनों क्षेत्रों के बीच अवस्थित होने के कारण मध्य काल से यह विदेशी प्रभाव और युद्ध की भूमि रहा है जहाँ इस्लाम और ईसाइयत के कई आरंभिक युद्ध लड़े गए थे। आर्मेनिया प्राचीन ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर वाला देश है। आर्मेनिया के राजा ने चौथी शताब्दी में ही ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार आर्मेनिया राज्य ईसाई धर्म ग्रहण करने वाला प्रथम राज्य है। देश में आर्मेनियाई एपोस्टलिक चर्च सबसे बड़ा धर्म है। इसके अलावा यहाँ कैथोलिक ईसाईयों, मुसलमानों और अन्य संप्रदायों का छोटा समुदाय है।
आर्मेनिय़ा का कुल क्षेत्रफल २९,८०० कि.मी (११,५०६ वर्ग मील) है जिसका ४.७१% जलीय क्षेत्र है। अनुमानतः (जुलाई २००८) यहाँ की जनसंख्या ३२,३१,९०० है एवं वर्ग किमी घनत्व १०१ व्यक्ति है। इसकी सीमाएँ तुर्की, जॉर्जिया, अजरबैजान और ईरान से लगी हुई हैं। आज यहाँ ९७.९ प्रतिशत से अधिक आर्मीनियाई जातीय समुदाय के अलावा १.३% यज़िदी, ०.५% रूसी और अन्य अल्पसंख्यक निवास करते हैं। यहां की जनसंख्या का १०.६% भाग अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा (अमरीकी डालर १.२५ प्रतिदिन) से नीचे निवास करता है। आर्मेनिया ४० से अधिक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का सदस्य है। इसमें संयुक्त राष्ट्र, यूरोप परिषद, एशियाई विकास बैंक, स्वतंत्र देशों का राष्ट्रकुल, विश्व व्यापार संगठन एवं गुट निरपेक्ष संगठन आदि प्रमुख हैं।
अर्मेनियाई मूल के लोग अपने को हयक का वंशज मानते हैं जो नूह (इस्लाम ईसाईयत और यहूदियों में पूज्य) का पर-परपोता था। कुछ ईसाईयों की मान्यता है कि नोआ (इस्लाम में नूह) और उसका परिवार यहीं आकर बस गया था। आर्मीनिया का अर्मेनियाई भाषा में नाम हयस्तान है जिसका अर्थ हायक की जमीन है। हायक नोह के पर-परपोते का नाम था।
इस्लाम, ईसाई और यहूदी धर्म की उभय मान्यताओं के अनुसार पौराणिक महाप्रलय की बाढ़ से बचाने वाले नोआ (अरबी में नूह, हिन्दू मत्स्यावतार से मेल खाता) का नाव यरावन की पहाड़ियों के पास आकर रुक गया था। अर्मेनियाई अपने को नोहे के परपोते के पोते हयक का वंशज मानते हैं। कांस्य युग में हिट्टी तथा मितन्नी जैसे साम्राज्यों की भूमि रहा है। लौह काल में अरामे के उरातु साम्राज्य ने सभी शक्तियों को एक किया और उसी के नाम पर इस क्षेत्र का नाम अर्मेनिया पड़ा।
इतिहास के पन्नों पर आर्मीनिया का आकार कई बार बदला है। ८० ई.पू. में आर्मेनिया राजशाही के अंतर्गत वर्तमान तुर्की का कुछ भू-भाग, सीरिया, लेबनान, ईरान, इराक, अज़रबैजान और वर्तमान आर्मीनिया के भू-भाग सम्मिलित थे। रोमन काल में अर्मेनिया फ़ारस और रोम के बीच बंटा रहा। ईसाई धर्म का प्रचार यूरोप और ख़ुद अर्मेनिया में इसी समय हुआ। सन ५९१ में बिज़ेन्टाईनों ने पारसियों को हरा दिया पर ६४५ में वे ख़ुद दक्षिण में शक्तिशाली हो रहे मुस्लिम अरबों से हार गए। इसके बाद यहाँ इस्लाम के भी प्रचार हुआ। ईरान के सफ़वी वंश के समय (१५०१-१७३०) यह चार बार इस्तांबुल के उस्मानी तुर्कों और इस्फ़हान के शिया सफ़वी शासकों के बीच हस्तांतरित होता रहा। १९२० से लेकर १९९१ तक आर्मीनिया एक साम्यवादी देश था। यह सोवियत संघ का एक सदस्य था। आज आर्मीनिया की तुर्की और अज़रबैजान से लगती सीमा संघर्ष की वजह से बंद रहती हैं। नागोर्नो-काराबाख पर आधिपत्य को लेकर १९९२ में आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच लड़ाई हुई थी जो १९९४ तक चली थी। आज इस जमीन पर आर्मीनिया का अधिकार है लेकिन अजरबैजान अभी भी जमीन पर अपना अधिकार बताता है।
आर्मेनिया दस प्रांतों (मर्ज़) में बंटा हुआ है। प्रत्येक प्रांत का मुख्य कार्यपालक (मार्ज़पेट) आर्मेनिया सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। इनमें येरवान कों राजधानी शहर (कघाक़) () होने से विशिष्ट दर्जा मिला है। येरवान का मुख्य कार्यपालक महापौर होता है, एवं राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। हरेक प्रांत में स्व-शासित समुदाय (हमायन्क) होते हैं। वर्ष २००७ के आंकड़ों के अनुसार आर्मेनिया में ९१५ समुदाय थे, जिनमें से ४९ शहरी एवं ८६६ ग्रामीण हैं। राजधानी येरवान शहरी समुदाय है, जो १२ अर्ध-स्वायत्त जिलों में भी बंटा हुआ है।
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हेलाइफ.आरयू: आर्मीनिया के बारे में जानकारी
यूरोप के देश
एशिया के देश
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जमैका ग्रेटर एंटीलिज पर स्थित एक द्वीप राष्ट्र है, २३४ किमी लंबाई और ८० किमी चौड़ाई वाले इस द्वीप राष्ट्र का कुल विस्तार ११,१०० वर्ग किमी है। कैरेबियन सागर में स्थित यह देश क्यूबा से १४५ किमी दक्षिण, हैती से १९० किमी पश्चिम में स्थित है। स्पेनिश अधिशासन के दौरान सेंतियागो और बाद में ब्रिटिश क्राउन उपनिवेश जमैका बन गया। २८ लाख की आबादी के साथ यह देश उत्तरी अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के बाद तीसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। राष्ट्रकुल के सदस्य के रूप में यहां की मुखिया महारानी एलिजाबेथ द्वितीय हैं। यहां की राजधानी किंग्सटन है।
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उत्तर अमेरिका के देश
कॅरीबियाई में देश |
मॉरीशस गणराज्य (अंग्रेज़ी: रिपब्लिक ऑफ मॉरिशिस, फ़्रांसीसी : र्पब्लिक दे मौरिस), अफ्रीकी महाद्वीप के तट के दक्षिणपूर्व में लगभग ९०० किलोमीटर की दूरी पर हिंद महासागर में और मेडागास्कर के पूर्व में स्थित एक द्वीपीय देश है। मॉरीशस में हिंदुओं की आबादी तीसरे नंबर पर है दुनिया में मॉरीशस द्वीप के अतिरिक्त इस गणराज्य मे, सेंट ब्रेंडन, रॉड्रीगज़ और अगालेगा द्वीप भी शामिल हैं। दक्षिणपश्चिम में २०० किलोमीटर पर स्थित फ्रांसीसी रीयूनियन द्वीप और ५७० किलोमीटर उत्तर पूर्व में स्थित रॉड्रीगज़ द्वीप के साथ मॉरीशस मस्कारेने द्वीप समूह का हिस्सा है। मारीशस की संस्कृति, मिश्रित संस्कृति है, जिसका कारण पहले इसका फ्रांस के आधीन होना तथा बाद में ब्रिटिश स्वामित्व में आना है। मॉरीशस द्वीप विलुप्त हो चुके डोडो पक्षी के अंतिम और एकमात्र घर के रूप में भी विख्यात है।
मॉरीशस के सबसे पुराने अभिलेख लगभग १० वीं शताब्दी की शुरुआत के हैं जो द्रविड़ (तमिल) और औस्ट्रोनेशी नाविकों के संदंर्भ से आते है। पुर्तगाली नाविकों पहले पहल यहाँ १५०७ में आये और उन्होने इस निर्जन द्वीप पर एक यात्रा अड्डा स्थापित किया और फिर इस द्वीप को छोड़ कर चले गये। सन् १५९८ में हॉलैंड के तीन पोत जो मसाला द्वीप (स्पाइस आइलैंड) की यात्रा पर निकले थे एक चक्रवात के दौरान रास्ता भटक कर यहाँ पहुँच गये। उन्होने इस द्वीप का नाम अपने नासाओ के युवराज मॉरिस के सम्मान में मॉरिशस रख दिया। सन्१६३८ में, डच लोगों ने यहाँ पहली स्थायी बस्ती बसाई। चक्रवातों वाली कठोर जलवायु परिस्थितियों और बस्ती को होने वाले लगातार नुक्सान के कारण डचो ने कुछ दशकों बाद इस द्वीप को छोड़ दिया। फ्रांस, जिसका पहले से ही इसके पड़ोसी आइल बॉरबोन (अब रीयूनियन) द्वीप पर नियंत्रण था ने सन् १७१५ में मॉरीशस पर कब्ज़ा कर लिया और इसका नाम बदलकर आइल दे फ्रांस (फ्रांस का द्वीप) रख दिया। फ्रांस के शासन मे, यह द्वीप एक समृद्ध अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हुआ जो चीनी उत्पादन पर आधारित थी। यह आर्थिक परिवर्तन गवर्नर (राज्यपाल) फ्रेंकॉएस माहे दे लेबॉर्डॉनाइस के द्वारा शुरू किया गया था।
ब्रिटेन के साथ अपने कई सैन्य संघर्षों के दौरान, फ्रांस ने गैरकानूनी घोषित जलदस्युओं "कोर्सेर्स" को शरण दी, जो अक्सर ब्रिटिश जहाजो, जिन पर मूल्यवान व्यापार का माल लदा होता था को उनकी भारत और ब्रिटेन के मध्य होने वाली यात्राओं के दौरान लूट लेते थे। सन् १८०३-१८१५ के दौरान हुए नेपोलियन युद्धों में ब्रिटिश इस द्वीप का नियंत्रण पाने में सफल हो गये। ग्रांड पोर्ट की लड़ाई जीतने के बावजूद, जो कि नेपोलियन की ब्रिटिशों पर एकमात्र समुद्री विजय थी, फ्रांसीसी, तीन महीने बाद, केप मैलह्युरॉ में ब्रिटेन से हार गये। उन्होनें औपचारिक रूप से ३ दिसम्बर १८१० को कुछ शर्तों के साथ समर्पण कर दिया, ये शर्तें थीं, कि द्वीप पर फ्रांसीसी भाषा का प्रयोग जारी रहेगा और आपराधिक मामलों में नागरिकों पर फ्रांस का कानून लागू होगा। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत, इस द्वीप का नाम बदलकर वापस मॉरीशस कर दिया गया।
सन् १९६५ में, ब्रिटेन (यूनाइटेड किंगडम) ने चागोस द्वीपसमूह को मॉरीशस से अलग कर दिया। उन्होने ऎसा ब्रिटिश हिंद महासागर क्षेत्र स्थापित करने के लिये किया जिससे वे सामरिक महत्व के द्वीपों का प्रयोग संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग के विभिन्न प्रयोजनों के लिए कर सकें। हालाँकि मॉरीशस की तत्कालीन सरकार उनके इस कदम से सहमत थी पर बाद की सरकारों ने उनके इस कदम को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत अवैध बताया है और इन द्वीप समूहों पर अपना अधिकार जताया है। उनके इस दावे को, संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी मान्यता दी गयी है ।
मॉरीशस ने १९६८ में स्वतंत्रता प्राप्त की और देश सन् १९९२ में एक गणतंत्र बना। मॉरीशस एक स्थिर लोकतंत्र है जहाँ नियमित रूप से स्वतंत्र चुनाव होते हैं और मानवाधिकारों के मामले में भी देश की छवि अच्छी है, इसके चलते यहाँ काफी विदेशी निवेश हुआ है और यह देश अफ्रीका में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाले देशों में से एक है।
मॉरीशस एक संसदीय लोकतंत्र है जिसकी संरचना ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली पर आधारित है। राज्य का प्रमुख राष्ट्रपति होता है जिसका कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है और उसका चुनाव राष्ट्रीय सभा, मॉरीशस की एकसदनीय संसद करती है। राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) के ६२ सदस्य जनता द्वारा चुने जाते हैं जबकि चार से आठ सदस्यों की नियुक्ति चुनाव में हारे "श्रेष्ट पराजित" उम्मीदवारों के बीच से जातीय अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने के लिये तब की जाती है जब इन समुदायों को चुनाव से उचित प्रतिनिधित्व ना मिला हो। प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद सरकार का नेतृत्व करते हैं। सरकार पांच साल के आधार पर निर्वाचित होती है। सबसे हाल के आम चुनाव ३ जुलाई २००५ में मुख्य भूमि के सभी २० निर्वाचन क्षेत्रों के साथ ही रॉड्रीगज़ द्वीप के निर्वाचन क्षेत्र में भी कराये गये थे। अंतरराष्ट्रीय मामलों में, मॉरीशस हिंद महासागर आयोग, दक्षिणी अफ्रीकी विकास समुदाय, राष्ट्रमंडल और ला फ्रेंकोफोनी (फ़्रांसीसी बोलने वाले देशों) का हिस्सा है। सन् २०06 में, मॉरीशस को पुर्तगाली भाषाई देशों के समुदाय का एक प्रेक्षक सदस्य बनने को कहा गया जिससे यह उन देशों के और करीब हो सके। मॉरीशस की कोई सेना नहीं है, लेकिन इसके पास एक तटरक्षक बल तथा पुलिस और सुरक्षा बल हैं।
जिले और अधीन क्षेत्र
मॉरीशस द्वीप नौ जिलों में विभाजित है:
वर (राजधानी: बैम्बॉस)
फ्लाक़ (राजधानी: सेन्टर दे फ्लाक़)
ग्रांड पोर्ट (राजधानी: माहेबॉर्ग)
मोका (राजधानी: क्वार्टियर मिलिटायरे)
पैम्प्लेमूजे़स (राजधानी: ट्रिओलेट)
प्लाईनेस् विल्हेम्स (राजधानी: रोज़ हिल/ क्यूरेपाईप)
पोर्ट लुई (मॉरीशस की राजधानी)
रिवियेरे दु रेम्पार्त (राजधानी: मापाउ)
सवान्ने (राजधानी: सूलेक)
रॉड्रीगज़, द्वीप जो मॉरीशस के उत्तर पूर्व में ५६० किलोमीटर पर स्थित है, जिसे अक्टूबर २००२ में आंशिक स्वायत्ता प्रदान की गयी, स्वायत्ता मिलने से पहले यह मॉरीशस का १० वाँ प्रशासनिक जिला था।
अगालेगा, मॉरीशस के उत्तर में ९३३ किलोमीटर पर दो छोटे टापू हैं।
कार्गादोस काराजोस शोआल्स, जिसे सेंट ब्रेन्डन द्वीप के नाम से भी जाना जाता है मॉरीशस के उत्तर में ४०२ किलोमीटर पर स्थित है।
मॉरीशस के अन्य क्षेत्र
साउदेन टापू (पूर्वी साउदेन टापू सहित)
साया दे मल्हा टापू
मॉरीशस निम्न क्षेत्रों पर भी अधिकार जताता है:
ट्रोमेलिन द्वीप, सम्प्रति में फ्रान्स के आधीन।
छगोस द्वीपसमूह, सम्प्रति में ब्रिटेन के आधीन ब्रिटिश हिन्द महासागर क्षेत्र की शक्ल में...!
मॉरीशस मास्कारेने द्वीप समूह का हिस्सा है। इस द्वीपसमूह की श्रृंखला उन अंत:समुद्री ज्वालामुखीय विस्फोटों के कारण बनी है जो अब सक्रिय नहीं हैं। यह ज्वालामुखीय विस्फोट अफ्रीकी प्लेट के रीयूनियन तप्तबिन्दु के ऊपर सरकने के कारण हुए थे। मॉरीशस द्वीप एक केंद्रीय पठार के चारों ओर बना है, जिसकी उच्चतम चोटी पितोन डे ला पेतित रिवियेरे नोएरे ८२८ मीटर (२७१७ फुट) उंची है और इसके दक्षिण में स्थित है। पठार के आसपास, मूल गर्त फिर भी पहाड़ों से अलग दिखाई पड़ता है।
स्थानीय जलवायु उष्णकटिबंधीय है, जो दक्षिणपूर्व की हवाओं द्वारा संशोधित होती है। यहाँ मई से नवंबर तक शुष्क सर्दियों पड़तीं हैं और नवम्बर से मई का मौसम गर्म, आद्र और गीली गर्मी का होता है। विरोधी-चक्रवात देश को मई से सितंबर के दौरान प्रभावित करते है। चक्रवातों का समय नवंबर-अप्रैल होता है। हॉलैंडा (१९९४) और दीना (२००२) पिछले दो चक्रवात हैं जिन्होने द्वीप को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है।
उत्तरपश्चिम में स्थित पोर्ट लुई इस द्वीप की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। अन्य महत्वपूर्ण शहरों में क्यूरेपाइप, वकोआस, फ़ीनिक्स, कुआर्ते बोर्नेस, रोज़ हिल और बीयू-बासिन शामिल है।
यह् द्वीप अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। उदाहरण के लिए, लेखक मार्क ट्वेन, ने अपने निजी यात्रा वृतांत फॉलॉइंग द एक्वेटर में लिखा है कि " मॉरिशस के देख कर आपको विचार आता है पहले मॉरिशस बना और फिर स्वर्ग और स्वर्ग, मॉरीशस की एक नकल मात्र है।
सन् १९६८ में आजादी के बाद से, मारीशस एक निम्न आय वाली, कृषि उत्पाद आधारित अर्थव्यवस्था से विकसित होकर एक विविधतापूर्ण मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गया है जिसमे तेजी से बढ़ता औद्योगिक, वित्तीय और पर्यटन क्षेत्र शामिल है। अधिकांश अवधि में वार्षिक वृद्धि दर, ५ % से ६ % के बीच दर्ज की गई है। यह दर बढ़ती जीवन प्रत्याशा, घटती शिशु मृत्यु दर और बुनियादी ढांचे में सुधार से परिलक्षित होती है।
सन् २००५ में, अनुमानित १०१५५ अमरीकी डालर, क्रयशक्ति समता (पीपीपी), के साथ मॉरीशस अफ्रीका में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के हिसाब से सातवें स्थान पर है, इससे आगे हैं रीयूनियन (१९२३३ अमरीकी डॉलर, वास्तविक विनिमय दरों पर), सेशल्स (१३८८७ अमरीकी डालर, पीपीपी पर), गैबॉन (१२७४२ अमरीकी डालर, पीपीपी पर), बोत्सवाना (१२०५७ अमरीकी डालर पीपीपी पर), भूमध्य रेखीय गिनी (११९९९ अमरीकी डालर, पीपीपी पर) और लीबिया (१०७२७ अमरीकी डालर, पीपीपी पर)।
अर्थव्यवस्था मुख्यतः गन्ना बागान, पर्यटन, कपड़ा और सेवा क्षेत्र पर निर्भर है, लेकिन अन्य क्षेत्रों में भी तेजी से विकास हो रहा हैं। मॉरीशस, लीबिया और सेशल्स केवल तीन ऎसे अफ्रीकी देश हैं जिनका दर्ज़ा " मानव विकास सूचकांक के हिसाब से उच्च है। (रीयूनियन, को फ्रांस का हिस्से मानते हुए, संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास सूचकांक की वरीयता श्रेणी में सूचीबद्ध नहीं किया है)
गन्ना ९०% कृषि योग्य भूमि पर उगाया जाता है और जिससे कुल निर्यात आय का २५% प्राप्त होता है। लेकिन १९९९ में पड़े भयंकर सूखे से गन्ने की फसल बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई थी। सरकार की विकास योजनायें विदेशी निवेश पर आधारित है। मारीशस ने ९०00 से अधिक अपतटीय संस्थाओं को आकर्षित किया है जिनका उद्देश्य भारत और दक्षिण अफ्रीका से व्यापार करना है जबकि अकेले बैंकिंग क्षेत्र में निवेश १ अरब डॉलर से अधिक पहुँच गया है। दिसम्बर २००४ में बेरोजगारी की दर ७.६ % थी। फ्रांस देश का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है जिसका इस देश के साथ न सिर्फ निकट संबंध है, बल्कि वो इसे विभिन्न रूपों में तकनीकी सहायता प्रदान करता है।
स्थानीय निवासिओं को कम कीमतों पर आयात करने की सुविधा देने और अधिक पर्यटकों जो फिलहाल दुबई और सिंगापुर जाते हैं, को आकर्षित के लिए मॉरीशस अगले चार साल में एक शुल्क मुक्त (ड्यूटी फ्री) द्वीप बनने की दिशा में प्रयासरत है। कई उत्पादों पर ड्यूटी (शुल्क) समाप्त कर दिया गया है और १८५० से अधिक उत्पादों पर जिनमें कपड़े, भोजन, गहने, छायांकन (फोटोग्राफिक) उपकरण, श्रव्य दृश्य उपकरण और प्रकाश व्यवस्था के उपकरण शामिल है पर शुल्क घटा दिया गया है। इसके अतिरिक्त, नए व्यावसायिक अवसरों को आकर्षित करने के उद्देश्य से आर्थिक सुधारों को भी लागू किया गया है। हाल ही में, २००७-२००८ के बजट में वित्त मंत्री राम सीतानन ने कंपनी (कार्पोरेट) कर को घटा कर १५ % कर दिया है । ब्रिटिश अमेरिकी इंवेस्टमेंट कंपनी मॉरीशस में मर्सिडीज बेंज, पीजो, मित्सुबिशी और साब कारों की बिक्री का प्रतिनिधित्व करती है।
ए डी बी नेटवर्क की योजना पूरे मॉरीशस में लोगों को वायरलेस इंटरनेट पहुँचाने की है, अभी तक यह पहुँच द्वीप के ६०% क्षेत्र और ७०% जनसंख्या के पास है।
भारत के कुल १०.९८ अरब अमरीकी डालर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में मॉरीशस का स्थान पहला है। शीर्ष २००० और जनवरी २००५ के बीच होने वाला मॉरीशस का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश मुख्यत: बिजली के उपकरण, दूरसंचार, ईंधन, सीमेंट और जिप्सम उत्पाद तथा सेवा क्षेत्र (वित्तीय और गैर वित्तीय) जैसे विभिन्न क्षेत्रों में आकर्षित है।
मॉरीशस का समाज विभिन्न जातीय समूहों के लोगों से मिल कर बना है। १ जुलाई 20१9 तक मॉरीशस गणराज्य की अनुमानित जनसंख्या १,२६५,९८५ थी, जिसमें ६२६,34१ पुरुष और ६३९,६४४ महिलाएं थीं। मॉरीशस द्वीप पर जनसंख्या १,२२२,३४० थी, और रोड्रिग्स द्वीप की जनसंख्या ४३,37१ था। अगालेगा और सेंट ब्रैंडन की अनुमानित जनसंख्या २७४ थी। मॉरीशस, अफ्रीका महाद्वीप में दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला देश है। १982 में एक संवैधानिक संशोधन के बाद, जनगणना के उद्देश्य के लिए किसी मॉरीशियाई को अपनी जातीय पहचान प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जातीयता पर आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। १972 की जनगणना, जातीय आधार पर होने वाली अंतिम जनगणना थी। मॉरीशस एक बहुजातीय समाज है, जिसमें भारतीय, अफ्रीकी, चीनी और यूरोपीय (ज्यादातर फ्रांसीसी) मूल के व्यक्ति शामिल हैं।
मॉरीशस की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है, इसलिए सरकार का सारा प्रशासनिक कामकाज अंग्रेजी में होता है। शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी के साथ फ़्रांसीसी का भी इस्तेमाल किया जाता है। फ्रांसीसी भाषा मीडिया की मुख्य भाषा है, चाहें प्रसारण हो या मुद्रण। इसके अलावा व्यापार और उद्योग जगत के मामलों में भी मुख्यतः फ्रांसीसी ही प्रयोग में आती है। सबसे व्यापक रूप से यहाँ मॉरीशियन क्रेयोल भाषा बोली जाती है। हिन्दी भी एक बड़े वर्ग द्वारा बोली व समझी जाती है। देखें (मॉरिशस में हिन्दी।
सांख्यिकी मॉरीशस द्वारा की गयी २०११ की जनगणना के अनुसार, ४८.५% मॉरिशियाई जनसंख्या हिन्दु धर्म का पालन करती है, इसके बाद ३२.७% ईसाई, १७.२% मुस्लिम और लगभग ०.७% अन्य धर्मों को मानती है। ०.७% लोगों ने स्वयं को नास्तिक या अधार्मिक बताया जबकि ०.१% ने कोई उत्तर नहीं दिया।
मॉरीशस को इसके स्वादिष्ट खाने से भी जाना जाता है, जो भारतीय, चीनी, क्रेयोल और यूरोपियन खानो का मिश्रण है।
इस द्वीप पर रम का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है। १६३८ में डच लोगों ने मॉरीशस को सबसे पहले गन्ना से परिचित कराया। डच गन्ने की खेती मुख्यतः अरक (रम का एक पूर्व प्रकार) के उत्पादन के लिए करते थे। लेकिन फ्रांस और ब्रिटेन के शासन के दौरान यहाँ गन्ने की खेती को बड़े पैमाने पर किया गया जिसने इस द्वीप के आर्थिक विकास में काफी योगदान दिया। पियरे चार्ल्स फ्रेंकोएज़ हरेल पहला व्यक्ति था जिसने १८५० में मॉरीशस में रम के स्थानीय आसवन का प्रस्ताव किया।
सेगा स्थानीय लोक संगीत है। सेगा मूलत: अफ्रीकी संगीत है जिसमे परंपरागत वाद्यो का उपयोग होता है जैसे रवाने जिसे बकरी की त्वचा से बनाया जाता है। आमतौर पर सेगा में गुलामी के दिनों की यातनाओं का वर्णन होता है साथ ही इन गीतों में आजकल के दौर में अश्वेतों की सामाजिक समस्याओं को भी उठाया जाता है। आमतौर पर पुरुषों वाद्य बजाते हैं और महिलायें साथ में नृत्य करती हैं। तटीय क्षेत्र के होटलों में ये शो नियमित रूप से आयोजित किये जाते है।
१८४७ में मॉरीशस डाक टिकट जारी करने वाला पाँचवां देश बना। यहाँ से दो प्रकार के डाक टिकट जारी किए गये जिन्हें तब मॉरीशस "डाकघर" टिकट के नाम से जाना जाता था। एक टिकट एक "लाल पेनी" और दूसरी " दो नीले पेंस" मूल्य वर्ग की थी और आज यह टिकट शायद दुनिया की सबसे प्रसिद्ध और मूल्यवान टिकटें है।
मॉरीशस की जब इसकी खोज हुई थी, तब यह द्वीप एक अज्ञात पक्षी प्रजाति का घर था जिसे, पुर्तगालियों ने डोडो (मूर्ख) कह कर पुकारा क्योकि यह बहुत अक्लमंद नहीं लगते थे। लेकिन, १६८१ तक सभी डोडो पक्षियों को बसने वालों और उनके पालतू जानवरों ने मार दिया। एक वैकल्पिक सिद्धांत बताता है कि बसने वालों के साथ आये जंगली सूअरों ने धीमी गति से प्रजनन करने वाले डोडो के घोंसले उजाड़ दिये। फिर भी, डोडो आज मॉरीशस का राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह बन गया है।
मॉरिशस का भूगोल
हिन्द महासागर के द्वीप
अफ़्रीका के द्वीप
अंग्रेज़ी-भाषी देश व क्षेत्र
फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र
अफ़्रीका के देश |
ब्रुनेई (मलय : नेगारा ब्रुनेई दारुस्सलाम) जम्बुद्वीप में स्थित एक देश है। ये इण्डोनेशिया के पास स्थित है। ये एक राजतन्त्र (सल्तनत) है। ब्रुनेई पूर्व में एक समृद्ध मुस्लिम सल्तनत थी, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण बोर्नियो तथा फिलीपिन्स के कुछ भागों तक था। १८८८ में यह ब्रिटिश संरक्षण में आ गया। १९४१ में जापानियों ने यहाँ अधिकार कर लिया। १९४५ में ब्रिटेन ने इसे मुक्त करवाकर पुन: अपने संरक्षण में ले लिया। १९७१ में ब्रुनेई को आन्तरिक स्वशासन का अधिकार मिला। १९८४ में इसे पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।
१४ वीं से १६ वीं शताब्दी तक ब्रुनेई दारुसलाम सबा, सरवाक और दक्षिणी फिलीपींस के ऊपर एक शक्तिशाली सल्तनत की सीट थी। इस प्रकार, वर्तमान सुल्तान दुनिया में सबसे पुराने सत्तारूढ़ राजवंशों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। १९वीं शताब्दी तक, ब्रुनेई दारुसलाम साम्राज्य युद्ध, समुद्री डाकू और यूरोपीय शक्तियों के औपनिवेशिक विस्तार से दूर हो गया था।
१८४७ में, सुल्तान ने ग्रेट ब्रिटेन के साथ एक संधि समाप्त की और १८८८ में ब्रुनेई दारुसलाम आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश संरक्षक बन गया। १९०६ में, ब्रुनेई दारुसलाम में आवासीय प्रणाली की स्थापना की गई थी। मलय परंपराओं, परंपराओं और इस्लामी धर्म को छोड़कर सभी मामलों में सुल्तान को सलाह देने के लिए ब्रिटिश निवासी को ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नामित किया गया था।
१९५९ समझौते ने एक लिखित संविधान की स्थापना की जिसने ब्रुनेई दारुसलाम को आंतरिक स्व-सरकार प्रदान की। १९७१ में, रक्षा और बाहरी मामलों को छोड़कर पूर्ण आंतरिक आजादी के लिए समझौते में संशोधन और संशोधित किया गया था।
१९६७ में उनके महामहिम सुल्तान हाजी सर मुदा उमर अली सैफुद्दीन ने अपने बेटे पेंगीरान मुदा महाकोता हसनल बोलकिया के पक्ष में त्याग किया। १ जनवरी, १984 को ब्रुनेई दारुसलाम ने पूरी आजादी फिर से शुरू की और सुल्तान ने छः मंत्रिमंडल की अध्यक्षता में प्रधान मंत्री, वित्त मंत्री और गृह मंत्री मंत्री के रूप में पदभार संभाला। अक्टूबर १986 में, मंत्रिमंडल को ११ सदस्यों तक विस्तारित किया गया था, उनके महामहिम ने वित्त और गृह मामलों के पोर्टफोलियो को छोड़ दिया और १984 से उनके स्वर्गीय पिता के रक्षा पोर्टफोलियो को संभाला। १988 में एक और बदलाव ने उप मंत्री की उन्नति के बारे में बताया एक पूर्ण मंत्री और देश के विकास को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन किए गए उद्योग और प्राथमिक संसाधन मंत्रालय के निर्माण के लिए।
बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिम आबादी (लगभग १/३ आबादी) और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना के बावजूद, सुल्तान ने अभी भी मुस्लिम बहुमत पर पूरी तरह से लागू करने और आंशिक रूप से गैर-मुस्लिमों पर लागू करने के लिए ब्रुनेई को शरिया कानून को अपनाने की घोषणा की । 20१6 में ३ चरणों के बाद पूर्ण प्रभाव लेने की उम्मीद है, और 20१4 में अपने पहले चरण में आंशिक प्रवर्तन शुरू कर दिया था। यह शरिया कानून का अभ्यास करने के लिए पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया का पहला देश है।
ब्रुनेई में ब्रुनेई रिंगगिट का व्यापार करने के लिए उपयोग करते है। हालांकि, सिंगापुर डॉलर का उपयोग यहां किया जा सकता है क्योंकि दोनों मुद्राएं एक ही मूल्य की हैं।
आधिकारिक तौर पर, ब्रुनेई में कोई स्थान नहीं है जिसमें "शहर" की स्थिति है।
कुछ महत्वपूर्ण स्थान ही हैं जिसमें "शहर" की स्थिति है। वे शहर है:
बंदर सेरी बेगवान (जनसंख्या ~ १८१,५००, बंदर सेरी बेगवान नगर परिषद)
कुआला बेलैत (जनसंख्या ~ ~ ३८,०००, बंदर सेरी बेगवान नगर परिषद)
सेरिया (जनसंख्या ~ ३५,४००, कुआला बेलैत / सेरिया नगर परिषद)
जेरुडोंग (जनसंख्या ~ ३०,०००, कुआला बेलैत / सेरिया नगर परिषद)
तुतुंग (जनसंख्या ~ २७,५००, तुतुंग नगर परिषद)
बंगार (टेम्पबरोंग जिले का प्रशासनिक केंद्र)
मुरा टाउन - ब्रुनेई का एकमात्र गहरा समुद्री बंदरगाह है
यह भी देखिए
बंदर सेरी बेगवान ( ब्रुनेई का एक "शहर")
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश
दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र |
बोत्सवाना गणराज्य (अंग्रेजी: रिपब्लिक ऑफ बोट्सवाना, श्वाना: लीफेटशे ला बोट्सवाना), अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिण में स्थित एक स्थल-रुद्ध देश है। ३० सितम्बर १९६० को ब्रिटेन की यूनाइटेड किंगडम से स्वतंत्रता मिलने से पूर्व इसे ब्रिटिश संरक्षित राज्य, बेचुआनालैंड के नाम से जाना जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत इस देश ने एक नया नाम बोत्सवाना अपना लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ लगातार स्वतंत्र और निष्पक्ष लोकतांत्रिक चुनाव आयोजित किये जा रहे हैं। जिम्बाब्वे,अंगोला, जांबिया और दक्षिण अफ्रीका इसके पड़ोसी देश हैं।
भौगोलिक दृष्टि से बोत्सवाना एक सपाट देश है और इसके लगभग ७०% भाग में कालाहारी मरुस्थल फैला है। इसके दक्षिण और दक्षिणपश्चिम में दक्षिण अफ्रीका, पश्चिम और उत्तर में नामीबिया तथा उत्तरपूर्व में जिम्बाब्वे स्थित है। यह सिर्फ एक बिंदु पर जाम्बिया से मिलता है।
यह एक छोटा सा देश है, जिसकी जनसंख्या सिर्फ २० लाख है। स्वतंत्रता के समय यह अफ्रीका के कुछ सबसे गरीब देशों मे से एक था जिसका सकल घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति मात्र ७० अमेरिकी डॉलर था, लेकिन तब से लेकर अब तक बोत्सवाना ने आर्थिक रूप से तरक्की की है और अब इसकी गिनती अफ्रीका के मध्यम आय वाले देशों में होने लगी है। इसकी अर्थव्यवस्था विश्व की कुछ सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से है, जिसकी औसत वृद्धि दर ९% की है और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के २०10 के अनुमान के अनुसार इसका सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति समता) प्रति व्यक्ति लगभग १४,८०० अमेरिकी डॉलर के बराबर है।
बड़े स्तर पर व्याप्त गरीबी, असमानता और निम्न मानव विकास सूचकांक के बावजूद बोत्सवाना ने, सुशासन और व्यापक आर्थिक वित्तीय प्रबंधन द्वारा समर्थित विकास के स्तरों पर प्रभावशाली रूप से तरक्की की है। सकल घरेलू उत्पाद का १० प्रतिशत शिक्षा पर व्यय किए जाने से इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण शैक्षिक उपलब्धियों हासिल हुई हैं और देश में लगभग लगभग सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया है, हालाँकि इस सबके बावजूद देश में पर्याप्त कौशल और कार्यबल का अभाव है। बेरोजगारी की दर भी लगातार २० प्रतिशत के साथ उच्च स्तर पर बनी हुई है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू आय काफी कम है, हालाँकि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की दर में गिरावट आई है, लेकिन अभी भी वो शहरी क्षेत्रों की तुलना में काफी अधिक है। सरकार की ओर से एचआईवी /एड्स की दवाओं की नि:शुल्क उपलब्धता के चलते एचआईवी/एड्स संक्रमण की दर में अभूतपूर्व कमी दर्ज की गयी है।
हीरे और मांस बाजार पर बुरी तरह निर्भर देश की अर्थव्यवस्था में, विविधता लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
इन्हें भी देखें |
कनाडा उत्तरी अमेरिका का एक देश है जिसमें दस प्रान्त और तीन केन्द्र शासित प्रदेश हैं। यह महाद्वीप के उत्तरी भाग में स्थित है जो अटलाण्टिक से प्रशान्त महासागर तक और उत्तर में आर्कटिक महासागर तक फैला हुआ है। इसका कुल क्षेत्रफल ९९.८ लाख वर्ग किलोमीटर है और कनाडा कुल क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का दूसरा और भूमि क्षेत्रफल की दृष्टि से द्वितीय सबसे बड़ा देश है। इसकी संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अन्तरराष्ट्रीय सीमा विश्व की सबसे बड़ी भू-सीमा है।कनाडा एक विकसित देश है इसकी प्रति व्यक्ति आय विश्व स्तर पर दसवें स्थान पर हैं साथ ही साथ मानव विकास सूचकाङ्क पर इसकी रैंकिङ्ग नौवें नम्बर पर है। इसकी, सरकार पारदर्शिता, नागरिक स्वतन्त्रता, जीवन, आर्थिक स्वतन्त्रता, और शिक्षा की गुणवत्ता के अन्तरराष्ट्रीय माप में सबसे ऊँची रैंकिङ्ग हैं। कनाडा, राष्ट्र के राष्ट्रमण्डल का सदस्य है। इसके साथ ही यह कई प्रमुख अन्तरराष्ट्रीय और अन्तर-सरकारी संस्थाओं या समूहों का हिस्सा हैं जिनमे संयुक्त राष्ट्र, उत्तर अटलाण्टिक सन्धि सङ्गठन, जी-८, प्रमुख १० देशों के समूह, जी-२०, उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौता, एशिया-प्रशान्त महासागरीय आर्थिक सहयोग प्रमुख हैं।
शब्द कनाडा सेंट लॉरेंस इरोक्वॉयाई शब्द कनाटा से बना हुआ है जिसका अर्थ "गाँव" अथवा "बसावट" होता है। सन् १५३५ में वर्तमान क्यूबेक नगर क्षेत्र के स्टैडकोना गाँव की खोज ज़ाक कार्तिए ने की थी। कार्तिए ने बाद में डोंनकना (स्टैडकोना के मुखिया) से सम्बंधित पूर्ण क्षेत्र के लिए कनाडा शब्द से उल्लिखीत किया; इसके बाद सन् १५४५ से यूरोपीय पुस्तकों और मानचित्रों में इस क्षेत्र को कनाडा नाम से उल्लिखित किया जाने गया।
वर्तमान में कनाडा में आदिवासी लोगों में प्रथमराष्ट्र, इनुइट, और मेटीस लोग शामिल हैं। इसके अलावा मिश्रित नस्ल भी हैं, जोकी मध्य १७वीं सदी में प्रथमराष्ट्र और इनुइट लोगो की बाहर से बसने आये यूरोपीयो के साथ विवाह के बाद बनी। उत्तरी अमेरिका की पहले निवासी १५,००० वर्ष पहले साइबेरिया पलायन कर बेरिंग-भूमि पुल के माध्यम से पहुंचे। यूरोपीय आव्रजन के पहले कनाडा में आदिवासी जनसंख्या २ लाख से लेकर २० लाख तक का अनुमान किया जाता रहा, हलाकि कनाडा की रॉयल आयोग द्वारा ५००,००० का आंकड़ा स्वीकार किया गया। यूरोपियनो के आने के साथ ही वहाँ इन्फ्लूएंजा, खसरा, और चेचक जैसी घातक बीमारिया भी साथ आ गई, और एक ही सदी में वहाँ की आदिवासी जनसंख्या में ८० प्रतिशत की कमी हो गई।
यूरोपीय उपनिवेशवाद का पहला उदाहरण नॉर्समैन द्वारा १००० ई के आसपास न्यूफाउंडलैंड में ले'ऐंसेअक्स में देखने को मिला। इसके बाद सीधे १४९७ में इतालवी नाविक जॉन केबोट ने कनाडा के अटलांटिक तट का पता लगाया और इंग्लैंड के राजा हेनरी सप्तम के नाम पर अधिकार प्रतिपादित किया। इसी के बाद ही बास्क और पुर्तगाली नाविकों ने १६वीं सदी में अटलांटिक तट पर मछली पकड़ने और व्हेल का शिकार करने की चौकियों की स्थापना की। सन १५३४ फ्रेंच एक्सप्लोरर जैक्स कार्टियर ने कनाडा में सेंट लॉरेंस नदी की खोज की और फ़्रांस के राजा फ्रांसिस प्रथम के नाम से वहाँ के छेत्र पर आधिपत्य कर व्यापार चौकी स्थापित किया, हलाकि यह चौकी ज्यादा दिन नहीं चल सका
सन १५८३ में, सर हम्फ्री गिल्बर्ट, महारानी एलिजाबेथ प्रथम के शाही विशेषाधिकार से न्यूफाउंडलैंड में सेंट जॉन की स्थापना की इसे ही उत्तरी अमेरिकी पर पहला अंग्रेजी उपनिवेश मन गया।. फ्रेंच खोजी शमूएल डी चैंपलिन १६०३ में वहाँ पहुंचे और पहले स्थायी यूरोपीय बस्तियों, पोर्ट रॉयल (१६०५ में) और क्यूबेक सिटी (१६०८ में) कि स्थापना की। इसके बाद तो वहाँ उपनिवेशवाद का सिलसिला ही चालू हो गया, अंग्रेजो ने १६१० में क्यूपिड और फ्रीलैंड , न्यूफाउंडलैंड में अतिरिक्त कालोनियों की स्थापना की। इसके बाद दक्षिण के क्षेत्र में जल्द ही अन्य तेरह उपनिवेश बस्ती स्थापित कि गई।
शीघ्र ही अंग्रेजो ओर फ़्रांस में लड़ाई छिड़ गई, जिसमे सात वर्ष का युद्ध का प्रमुख रहा, पेरिस की संधि १७६३ के बाद कनाडा के अधिकतर भूभाग में अंग्रेजो का अधिकार हो गया
१७८३ की पेरिस संधि से अमेरिकी स्वतंत्रता को मान्यता दी गई और ग्रेट झील के दक्षिण के प्रदेशों को नए संयुक्त राज्य अमेरिका को सौंप दिया गया। १८१२ के संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन के बीच युद्ध में कनाडा ने मुख्य भूमिका अदा कि,युद्धशांति १८१५ में आई, हलाकि दोनों कि सीमा में कोई बदलाव नहीं आया। १८१५-५० के बीच ब्रिटिश आप्रवासन कि संख्या ९६०,००० से अधिक रही। इनमे आयरिश शरणार्थियों तथा गेलिकभाषी स्कॉट्स प्रमुख थे। संक्रामक रोगों के कारण १८९१ से पहले कनाडा में आकर बसने वाले यूरोपीयो कि २५ -३३ प्रतिशत लोगो की मृत्यु हो गई।
परिसंघ और विस्तार
कई संवैधानिक सम्मेलनों के बाद १८६७ संविधान अधिनियम के तहत १ जुलाई, १८६७ को चार प्रांतों ओंटारियो, क्यूबेक, नोवा स्कोटिया, और नई ब्रंसविक कि आधिकारिक तौर पर घोषणा की गई। कनाडा ने रूपर्ट कि भूमि तथा उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र का अधिकरण कर उत्तर पश्चिमी प्रदेशों का गठन किया, वही मेटीस की शिकायतों से लाल नदी के विद्रोह पनपा और जुलाई १870 में मैनिटोबा प्रांत के सृजन हुआ। ब्रिटिश कोलंबिया और वैंकूवर द्वीप (जो १866 में एकजुट कर दिया गया था), १87१ में कनाडा में शामिल हो गए, जबकि प्रिंस एडवर्ड द्वीप में १873 में शामिल हुए। कनाडा की संसद ने विनिर्माण उद्योगों, रेलवे तथा आव्रजन को लेकर कई बिल पास किये गए।
कोलोराडो विश्वविद्यालय लाइब्रेरीज गोवपूब्स पर कनाडा (अंग्रेज़ी में)।
बीबीसी न्यूज़ से कनाडा (अंग्रेज़ी में)।
सीआइए वर्ल्ड फेक्टबुक पर कनाडा (अंग्रेज़ी में)।
ओईसीडी पर कनाडा की प्रोफाइल (अंग्रेज़ी में)।
कैनेडियन: कनाडा के राष्ट्रीय ग्रंथ सूची
कनाडा सरकार का आधिकारिक जालस्थल
कनाडा के गवर्नर जनरल का आधिकारिक जालस्थल
कनाडा का आधिकारिक पर्यटन जालस्थल
इंटरनेशनल कौंसिल फॉर कैनेडियन स्टडीज (कनाडाई अध्ययन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय परिषद्) पर दिशानिर्देश स्रोत
अंग्रेज़ी-भाषी देश व क्षेत्र
फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र |
क्रोएशिया दक्षिण पूर्व यूरोप यानि बाल्कन में पानोनियन प्लेन, और भूमध्य सागर के बीच बसा एक देश है। देश का दक्षिण और पश्चिमी किनारा एड्रियाटिक सागर से मिलता है। देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर जगरेब है, जो तट से भीतर स्थित है। एड्रियाटिक सागर के किनारे कई हज़ार द्वीप हैं, इस समुद्र के किनारे पर्यटन के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ हैं।
पूर्व यूगोस्लाविविया के देश इनके पड़ोसी हैं जैसे - उत्तर में स्लोवेनिया और हंगरी, उत्तर पूर्व में सर्बिया, पूर्व में बॉस्निया और हर्ज़ेगोविना और दक्षिण पूर्व में मोंटेंग्रो से इसकी सीमाएं मिलती हैं। एड्रियाटिक सागर के पार इटली है (३५० क्म) जिसका द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यहाँ उपस्थिति थी। यहाँ के निवासी मुख्यतः क्रोएट हैं जो अपने आपको ह्राओत कहते हैं। यहाँ की भाषा भी पूर्वी स्लाविक वर्ग में आती है।
आज जिसे क्रोएशिया के नाम से जाना जाता है, वहां सातवीं शताब्दी में क्रोट्स ने कदम रखा था। उन्होंने राज्य को संगठित किया। तामिस्लाव प्रथम का ९२५ ई. में राज्याभिषेक किया गया और क्रोएशिया राज्य बना। राज्य के रूप में क्रोएशिया ने अपनी स्वायत्तता करीबन दो शताब्दियों तक बरकरार रखी और राजा पीटर क्रेशमिर चतुर्थ और जोनीमिर के शासन के दौरान अपनी ऊंचाई पर पहुंचा। वर्ष ११०२ में पेक्टा समझौता के माध्यम से क्रोएशिया के राजा ने हंगरी के राजा के साथ विवादास्पद समझौता किया। वर्ष १५२६ में क्रोएशियन संसद ने फ्रेडिनेंड को हाउस ऑफ हाब्सबर्ग से सिहांसन पर आरुढ़ किया। १९१८ में क्रोएशिया ने आस्ट्रिया-हंगरी से अलग होने की घोषणा कर यूगोस्लाविया राज्य में सहस्थापक के रूप में जुड़ गया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाजियों ने क्रोएशिया के क्षेत्र पर कब्जा जमा स्वतंत्र राज्य क्रोएशिया की स्थापना की। युद्ध खत्म होने के बाद क्रोएशिया दूसरे यूगोस्लाविया के संस्थापक सदस्य के रूप में शामिल हो गया। २५ जून १९९१ में क्रोएशिया ने स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए संप्रभु राज्य बन गया।
मध्य में पहाड़ी और तट पर एड्रियाटिक का महत्वपूर्ण स्थान है। औसत तापमान -३ से १८ डिग्री तक रहता है। भूमध्य सागर के किनारे होने से तटीय इलाक़ों में भूमध्यसागरीय जलवायु है।
यह भी देखिए
यूरोप के देश |
कूबा गणतंत्र कैरिबियाई सागर में स्थित एक द्वीपीय देश है। हवाना कूबा की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। कूबा दूसरा सबसे बड़ा शहर सेंटिआगो डे है। कूबा गणराज्य में कूबा द्वीप, इस्ला दी ला जुवेतुद आदि कई द्वीप समूह शामिल हैं। कूबा, कैरेबियाई समूह में सबसे ज्यादा आबादी वाला द्वीप है, जिसमें ११ लाख से ज्यादा लोग निवास करते हैं। वक्त के साथ अलग-अलग जगह से पहुंचे लोगों और उपनिवेश का असर यहां की संस्कृति पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
कूबा का इतिहास
२८ अक्टूबर १४९२ को क्रिस्टोफर कोलम्बस ने कूबा की धरती पर कदम रखा और विश्व को एक नये देश से परिचित करवाया। कालांतर में १६ वीं और १७ वीं शताब्दी तक कूबा स्पेन का उपनिवेश रहा। स्पानी भाषा, संस्कृति, धर्म तथा संस्थाओं ने कूबा की जातीय मानसिकता पर गहरा प्रभाव डाला।
कूबा लातिन अमेरिका का एक समाजवादी गणतंत्र है। १९५९ में फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्रांति के पूर्व कूबा ने तानाशाही और सर्वाधिकारवादी व्यवस्था से निजात पायी और एक दलीय जनतंत्र की नींव रखी गयी। पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो और वर्तमान राष्ट्रपति रऊल कास्त्रो के नेतृत्व में कूबा ने शासन व्यवस्था में समाजवादी पद्धति को अपनाया। कूबा की राजनीतिक व्यवस्था अमेरिका सरीखी पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतिरोध करती है। कूबा का नेतृत्व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में वामपंथी विचारधारा का पक्षधर रहा है।
दक्षिण अमेरिका के देश
कॅरीबियाई में देश
स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र |
घाना गणराज्य पश्चिम अफ्रीका में स्थित एक देश है। इसकी सीमा पश्चिम में कोट द' आईवोर (आइवरी कोस्ट), उत्तर में बुर्किना फासो, पूर्व में टोगो और दक्षिण में गिनी की खाड़ी से मिलती है। घाना शब्द का अर्थ "लड़ाकू राजा" है।
औपनिवेशिक समय से पूर्व घाना पर अनेक प्राचीन राजवंशों का प्रभुत्व था, जिनमें पूर्वी तट पर गा-दामेस और अंदरुनी क्षेत्र में अशांति साम्राज्य के अलावा तटीय और अंदरुनी क्षेत्रों में अनेक फान्ते और इवे राज्य शामिल थे। १५ वीं सदी में पुर्तगालियों के साथ संपर्क में आने के बाद यूरोपिय देशों के साथ व्यापार की बढ़ोतरी हुई और ब्रिटेन ने १८७४ में गोल्ड कोस्ट, के नाम से राजशाही उपनिवेश की स्थापना की।
गोल्ड कोस्ट १९५७ में यूनाइटेड किंगडम से स्वतंत्रता हासिल करने वाला पहला उप सहारा अफ्रीकी राष्ट्र बना। प्राचीन साम्राज्य घाना, जिसका विस्तार एक समय पूरे पश्चिम अफ्रीका में था, के नाम पर नए देश का नाम घाना रखा गया। घाना अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों का सदस्य है, जिनमें राष्ट्रमंडल, पश्चिम अफ्रीकी राज्यों का आर्थिक सामुदायिक, अफ्रीकी संघ और संयुक्त राष्ट्र शामिल हैं।
घाना आधिकारिक वेबसाइट
घाना की संसद आधिकारिक साइट
संस्कृति पर राष्ट्रीय आयोग आधिकारिक साइट
चीफ ऑफ राज्य और मंत्रिमंडल के सदस्य
देश प्रोफ़ाइल बीबीसी समाचारसे
घाना विश्वकोश ब्रिटानिकासे
घाना यूसीबी पुस्तकालयों गोव्पुब्ससे
अफ्रीकी कार्यकर्ता पुरालेख परियोजना
अफ़्रीका के देश
पश्चिम अफ्रीका के देश |
संयुक्त मेक्सिकन राज्यों , सामान्यतः मेक्सिको के रूप में जाना जाता एक देश है जो की उत्तर अमेरिका में स्थित है। यह एक संघीय संवैधानिक गणतंत्र है। यह संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तर पर सीमा से लगा हुआ हैं। दक्षिण प्रशांत महासागर इसके पश्चिम में, ग्वाटेमाला, बेलीज और कैरेबियन सागर इसके दक्षिण में और मेक्सिको की खाड़ी इसके पूर्व की ओर हैं। मेक्सिको लगभग २ मिलियन वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ हैं, मेक्सिको अमेरिका में पांचवा और दुनिया में १४ वा सबसे बड़ा स्वतंत्र राष्ट्र है। ११ करोड़ की अनुमानित जनसंख्या के साथ, यह ९ वीं सबसे अधिक आबादी वाला देश है। मेक्सिको एक इकतीस राज्यों और एक संघीय जिला, राजधानी शामिल फेडरेशन है।
मेक्सिको में सबसे पहले की मानव कलाकृतियाँ हैं, जो मैक्सिको के घाटी में कैम्प फायर अवशेषों के पास पाए गए पत्थर के औजारों के चिप्स हैं और १०,००० साल पहले सर्कोटा-डेटेड टू सर्का। मेक्सिको मक्का, टमाटर और फलियों के वर्चस्व का स्थल है, जिसने कृषि अधिशेष का उत्पादन किया। इसने लगभग 5००० ईसा पूर्व से शुरू होने वाले गतिहीन कृषि गांवों में पैलियो-भारतीय शिकारी-संग्रहकर्ताओं के संक्रमण को सक्षम किया। इसके बाद के प्रारंभिक युगों में, मक्का की खेती और सांस्कृतिक लक्षण जैसे कि एक पौराणिक और धार्मिक परिसर, और एक विगेसिमल (बेस २०) संख्यात्मक प्रणाली, मैक्सिकन संस्कृतियों से मेसोअमेरिकन संस्कृति क्षेत्र के बाकी हिस्सों में फैल गए थे। इस अवधि में, गाँव आबादी के मामले में सघन हो गए, एक कारीगर वर्ग के साथ सामाजिक रूप से स्तरीकृत हो गए और प्रमुख लोगों के रूप में विकसित हुए। सबसे शक्तिशाली शासकों के पास धार्मिक और राजनीतिक शक्ति थी, जो विकसित बड़े औपचारिक केंद्रों के निर्माण को व्यवस्थित करता था।
अप्रैल २०२० तक, मेक्सिको में २० वां सबसे बड़ा नाममात्र जीडीपी (यूएस $ १.१ ट्रिलियन) और क्रय शक्ति समता (यूएस $ २.४५ ट्रिलियन) द्वारा ११ वां सबसे बड़ा है। सकल घरेलू उत्पाद की वार्षिक औसत वृद्धि २०१6 में २.९% और २०१७ में २% थी। कृषि में पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था का ४% शामिल है, जबकि उद्योग ३३% (ज्यादातर मोटर वाहन, तेल और इलेक्ट्रॉनिक्स) और सेवाओं (विशेष रूप से वित्तीय सेवाओं और सेवाओं) का योगदान देता है पर्यटन) का योगदान ६३% है। पीपीपी में मेक्सिको की जीडीपी प्रति व्यक्ति यूएस $ १८,७१४.०५ थी। विश्व बैंक ने २००९ में बताया कि बाजार की विनिमय दरों में देश की सकल राष्ट्रीय आय लैटिन अमेरिका में दूसरे स्थान पर थी, ब्राजील के बाद १,८३०.३९२ बिलियन अमेरिकी डॉलर, जिसके कारण इस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय $ १5,३११ थी। मेक्सिको अब एक उच्च-मध्यम-आय वाले देश के रूप में मजबूती से स्थापित है। २००१ की मंदी के बाद, देश बरामद हुआ है और २००४, २००५ और २००6 में ४.२, ३.० और ४.८ प्रतिशत बढ़ा है, भले ही इसे मैक्सिको की संभावित वृद्धि से नीचे माना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष २०१८ और २०१९ के लिए क्रमशः २.३% और ०.७% की विकास दर की भविष्यवाणी करता है।
इंस्टीट्यूटो नेसियन डी डे एस्टाडिका वाई जोग्राफिया (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड जियोग्राफी) द्वारा २०१० की जनगणना ने रोमन कैथोलिक धर्म को ८२.७% जनसंख्या के साथ मुख्य धर्म के रूप में दिया, जबकि १०% (१०,९२४,१०३) अन्य ईसाई संप्रदायों से संबंधित हैं, जिनमें इवेंजेलिकल (५) शामिल हैं। %); पेंटेकोस्टल (१.६%); अन्य प्रोटेस्टेंट या रिफॉर्म्ड (०.७%); यहोवा के साक्षी (१.४%); सातवें दिन के एडवेंटिस्ट्स (०.६%); और चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लैटर-डे सेंट्स (०.३%) के सदस्य। १७२,89१ (या कुल के ०.२% से कम) अन्य, गैर-ईसाई धर्मों के थे; ४.७% घोषित किया गया कि कोई धर्म नहीं है; २.७% अनिर्दिष्ट थे।
मैक्सिकन संस्कृति स्वदेशी संस्कृतियों और स्पेन की संस्कृति के सम्मिश्रण के माध्यम से देश के इतिहास की जटिलता को दर्शाती है, स्पेन के ३०० साल के औपनिवेशिक शासन के दौरान स्पेन में। समय बीतने के साथ विदेशी सांस्कृतिक तत्वों को मैक्सिकन संस्कृति में शामिल किया गया है।
मेक्सिको में घूमने के लिए सबसे अच्छे पर्यटन स्थानों की खोज करें: प्राचीन खंडहर, पैराडाइसियल बीच, जादुई औपनिवेशिक शहर और महान कॉस्मोपॉलिटन शहर।
मेक्सिको दुनिया के सबसे खूबसूरत देशों में से एक है क्योंकि आपको यहां सब कुछ मिलेगा: स्वादिष्ट भोजन, सभी प्रकार के इलाके और जलवायु, वनस्पतियों और जीवों के संदर्भ में एक अतुलनीय धन, विचारधाराओं के विपरीत, परंपराओं और आधुनिकीकरण के बीच एक संलयन प्रेहिस्पेनिक और मेस्टिजो संस्कृतियों, शानदार होटल और रहने के स्थानों और निश्चित रूप से, अपने निवासियों की गर्मी और भव्यता के पिघलने पॉट।
इन्हें भी देखें
मेक्सिको के राजनैतिक विभाग
कातारीना दे सान होआन (चीना पोबलाना)
उत्तर अमेरिका के देश
स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र |
नीदरलैंड युरोप महाद्वीप का एक प्रमुख देश है। यह उत्तरी-पूर्वी यूरोप में स्थित है। इसकी उत्तरी तथा पश्चिमी सीमा पर उत्तरी समुद्र स्थित है, दक्षिण में बेल्जियम एवं पूर्व में जर्मनी है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम है। "द हेग" को प्रशासनिक राजधानी का दर्जा दिया जाता है।
नीदरलैंड को अक्सर हॉलैंड के नाम संबोधित किया जाता है एवं सामान्यतः नीदरलैंड के निवासियों तथा इसकी भाषा दोनों के लिए डच शब्द का उपयोग किया जाता है।
नीदरलैंड्स यूरोप के उत्तर-पश्चिम में समुद्र के किनारे स्थित देश है। इसे हॉलैंड भी कहते हैं, किंतु इसका राष्ट्रीय नाम 'नीदरलैंड्स' है। इसका अधिकांश क्षेत्र समुद्रतल से भी नीचे हैं, जिसके कारण इसका नामकरण हुआ है। इसके पूर्व में पश्चिमी, जर्मनी, दक्षिण में बेल्जियम, पश्चिम और उत्तर में उत्तरी सागर हैं। इसका क्षेत्रफल ३३,५९१ वर्ग किलोमीटर है। इस देश की सर्वाधिक लंबाई ३०४ किलोमीटर (उत्तर-दक्षिण) तथा अधिकतम चौड़ाई २५६ किलोमीटर (दक्षिणपश्चिम से उत्तर-पूर्व) है।
नीदरलैंड पहली संसदीय लोकतंत्र देशों में से एक है। यह यूरोपीय संघ (ई.यू.), नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (ना.टो.), आर्थिक एवं विकास संगठन (ओ.इ.सी.डी.) एवं विश्व व्यापार संगठन (डब्लू.टी.ओ.) का संस्थापक सदस्य है। बेल्जियम तथा लक्समबर्ग के साथ यह "बेनेलक्स" आर्थिक संघ का रूप लेता है।
यह पांच अंतराष्ट्रीय अदालतों का मेज़बान है : स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पी.सी.ए), अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय, पूर्वी युगोस्लावाकिया के लिए अंतराष्ट्रीय अपराधिक ट्रिब्यूनल (आई.टी.सी.वाई), अंतर्राष्ट्रीय अपराधिक न्यायालय (आई.सी.सी) एवं ट्रिब्यूनल फॉर लेबनान। इनमे से प्रथम चार न्यायलय, यूरोपियन संघ की खुफिया एगेंसी (यूरोपोल) तथा न्यायिक सहयोगी एगेंसी (युरोजस्ट) नीदरलैंड के द हेग शहर में स्थित हैं। यही कारण है कि "द हेग" को विश्व की 'न्यायिक राजधानी' कहा जाता है। १५७ देशों की आर्थिक सवतंत्रता की सूची में नीदरलैंड का स्थान १५ है।
नीदरलैंड भौगोलिक सन्दर्भ में एक निचला देश है। इसका लगभग २०% क्षेत्र समुद्री तल से नीचे है। लगभग २१% आबादी समुद्री तल से नीचे रहती है एवं लगभग ५०% आबादी समुद्री तल से बस एक मीटर की ऊँचाई पर है।
इस देश के क्षेत्रफल में तटीय कटाव के कारण कमी तथा प्रवाह प्रणाली के घुमाव और बाँध द्वारा इसमें वृद्धि होती रहती है। यूरोपीय महाद्वीप के अन्य किसी भी देश के इतने निवासी अपने देश के क्षेत्र निर्माण में नहीं लगे हैं जितने कि नीदरलैंड्स में।
इस देश की स्थलीय आकृतियाँ तथा समुद्री सीमाएँ मुख्यतया मास, राइन और स्खेल्डै नदियों के डेल्टा से प्रभावित होती हैं। डेल्टा का निर्माण प्रत्यक्ष रूप से इन नदियों के ज्वारीय क्षेत्र में गिरने से होता है। इससे ऊँचा उठा हुआ भाग समाप्त हो जाता है और पतले तथा लंबे गड्ढों का निर्माण होता है, जो नदियों की वेगवती धाराओं द्वारा लाए गए अवसादों से भर जाते हैं। इस तरह डेल्टा क्षेत्र का विस्तार हुआ है।
इस देश की सर्वाधिक ऊँचाई सुदूर दक्षिण पूर्व कोने में नीदरलैंड्स जर्मनी तथा बेल्जियम के मिलनबिंदु पर (३२२ मीटर) है। यहाँ बहुत ही कम क्षेत्र की ऊँचाई समुद्रतल से ४६ मीटर अधिक है। ३५ प्रतिशत से भी अधिक भूमिभाग तो ऐम्सटरडैम के स्तर से भी एक मीटर कम ऊँचा है।
इस देश की जलवायु लगभग सभी जगह एक समान है। जनवरी सबसे ठंडा महीना है। यूट्रेख्ट (उतरेचट) नगर का औसत वार्षिक ताप १.२ डिग्री है। इसके पूर्व का अधिकांश हिम से ढका रहता है। नीदरलैंड्स में दक्षिण-पश्चिमी हवाएँ वर्ष के नौ महीने चलती हैं, इनसे जाड़े का ताप थोड़ा सा बढ़ जाता है, लेकिन अप्रैल से जून तक पश्चिमी हवाएँ चलती हैं, जो ग्रीष्म ऋतु को थोड़ा सा नम कर देती हैं। वायु की दिशा के कारण देश का पश्चिमी भाग पूर्वी भाग की अपेक्षा नम है। देश के मध्य की औसत वार्षिक वर्षा २७ इंच है।
वर्षा के दिनों की संख्या २०० से कुछ अधिक है लेकिन इस काल में सापेक्षिक आर्द्रता बहुत अधिक (८० प्रतिशत) रहती है। इससे धुंध तथा समुद्री तुषार प्राय: पड़ते हैं, जिनका हानिकारक प्रभाव फ्राइसलैंड और ज़ीलैंड पर पड़ता है तथा यहाँ फेफड़े संबंधी बीमारियाँ अधिक होती हैं।
इस घने बसे देश में जंगल अल्प मात्रा में हैं। यहाँ की वनस्पति को चार भागों में बाँटा जा सकता है :
१. झाड़ीवाली वनस्पति,
३. बालू के टीले की वनस्पति और
४. तटीय वनस्पति।
झाड़ियाँ देश की पूर्वी बालुका प्रदेश में पाई जाती हैं। बालू के टीलों पर वनस्पतियाँ अपनी ही जाति की दूसरी जगह की वनस्पतियों से छोटी तथा पतली होती हैं। यहाँ का मुख्य पौधा डच ऐल्म (डच एल्म) या चिकना नरकट है, जो बालुकाकणों का आपस में बाँधे रखने के लिए प्रति वर्ष उगाया जाता है। इससे चटाइयाँ बनाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त बलूत, देवदार, चीड़, लिंडन, सफेदा आदि वनस्पतियाँ एवं फूलों में डच ट्यूलिप अत्यंत प्रसिद्ध हैं। समुद्र तट पर कुछ पौधों का उपयोग कीचड़वाले भाग को सुखाने तथा निक्षेप को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
जंगलों की कमी के कारण जंगली जानवर कम पाए जाते हैं। पूर्वी शुष्क जंगली क्षेत्र में हरिण तथा लोमड़ी पर्याप्त संख्या में पाई जाती है। ऊदविलाव तथा रीछ भी कहीं कहीं मिलते हैं। एरेमिन नेवला तथा ध्रुवीय तथा बिल्लियाँ (पोल कैट्स) प्राय: सभी जगह पाई जाती हैं। यहाँ विभिन्न प्रकार की चिड़ियाँ भी मिलती हैं। जंगली मुर्गा, वाज, नीलकंठ, मैगपाई, कौवा, उल्लू, कबूतर, लावा, चील तथा बुलबुल यहाँ के मुख्य पक्षी हैं। पालतू जानवरों में गाय, बैल, सुअर, घोड़े, भेड़ें, मुर्गियाँ आदि मुख्य हैं।
नीदरलैंड एक समृद्ध और खुली अर्थव्यवस्था वाला देश है एवं १९८० के दशक के पश्चात् सरकार की भूमिका अर्थव्यवस्थायी निर्णयों में कम हो गयी है। यहाँ की प्रमुख औद्योगिक गतिविधियाँ हैं : भोजन प्रसंस्करण (युनीलीवर, हेनेकेन), वित्तीय सेवा (आई.एन.जी.), रासायनिक (डी.एस.एम.), पेट्रोलियम (शेल) एवं विद्युत् मशीनरी (फिलिप्स और ए.एस.एम.एल.)।
प्राकृतिक साधनों की कम के कारण नीदरलैंड बाहर से कच्चा माल मँगाकर उनसे विभिन्न प्रकार के समान तैयार करता है, और उनका निर्यात करता है। टेक्सटाइल, धातुकार्मिक (मेटाल्लुर्जिकल), काष्ठकला, तैल शोधन, आदि यहाँ के मुख्य उद्योग हैं। कृषिगत उत्पादन के एक तिहाई भाग का निर्यात होता है।
सारी अर्थव्यवस्था प्राय: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर आधारित है। इसीलिए अन्य देशों की आर्थिक अवस्थाएँ नीदरलैंड को न्यूनाधिक प्रभावित करती हैं।
यहीं की मुख्य फसलें गेहूँ, राई, जई, आलू, चुकंदर, जौ इत्यादि हैं। निर्यात के लिए डेफोडिल्स तथा ट्यूलिप (एक प्रकार के सुंदर फूल) अधिक उगाए जाते हैं।
विद्युत्, गैस एवं खनिज
कोयला, पेट्रोल तथा नमक यहाँ के मुख्य खनिज हैं। कोयले की खानें लिंबर्ग प्रदेश में है। यहाँ विद्युच्छक्ति काफी पैदा की जाती है।
यहाँ के उद्योगों में धातु, वस्त्र और भोज्य सामग्री का निर्माण, खनन, रसायन और सिलाई उद्योग मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त शीशा, चूना मिट्टी एवं पत्थर की वस्तुएँ बनाने, हीरा जैसे कीमती पत्थरों को काटने तथा पालिश करने, कार्क तथा लकड़ी की विभिन्न वस्तुएँ बनाने, चमड़े और रबर की वस्तुएँ तैयार करने तथा कागज बनाने की उद्योग होते हैं।
व्यापार की वृद्धि के लिए नीदरलैंड्स, बेल्जियम और लक्सेमबर्ग ने बैनीलक्स संघ की स्थापना की है जिसके अनुसार एक दूसरे देश के आयात-निर्यात व्यापार पर कर नहीं देना पड़ता। नीदरलैंड्स से व्यापार करनेवाले देश मुख्यत: इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमरीका, पश्चिम जर्मनी, बेल्जियम, लक्सेमबर्ग, फ्रांस तथा स्वीडन हैं। व्यापार में ऐग्सटग्डैम प्रमुख तथा रोटरडैम एवं हेग द्वितीय स्थान रखते हैं।
यहाँ यातायात का बहुत विस्तार हुआ है। नौगम्य नदियों एवं नहरों की कुल लंबाई ६,७६८ किलोमीटर है जिसमें से १,७१० किलोमीटर तक १०० या इससे अधिक मीट्रिक टन की क्षमतावाले जहाज जा सकते हैं। रेल मार्गों में भी काफी उन्नति हुई है।
संपूर्ण रेलों की व्यवस्था 'दि नीदरलैंड्स रेलवेज' (एन. वी.) नामक एक संयुक्त कंपनी द्वारा होती है। रोटरडैम, ऐम्सटरडैम, हेग प्रसिद्ध हवाई अड्डे हैं।
जनसंख्या एवं नगर
एक लाख से अधिक जनसंख्यावाले नगर ऐम्सटरडैम, आर्नहेम, ब्रेडा, आईयोवेन, एन्सखेडे, ग्रोनिंगेन, हारलेम, हिलवरसम, निजमैगन, रोटरडैम, टिलवर्ग यूट्रेख्ट, दि हेग हैं।
यहाँ धर्म संबंधी पूरी स्वतंत्रता है। शाही परिवार डच रिफॉर्म्ड चर्च से संबंध रखता है। इसके अतिरिक्त प्रोटेस्टैंट, ओल्ड कैथोलिक, रोमन कैथोलिक तथा यहूदी अन्य मुख्य धर्म हैं।
जाति, भाषा और धर्म
नीदरलैंड के मूल निवासी डच हैं। फ्रांकिश (फ्र्न्कीश), सेक्सन (सक्सोन) और फ्रीज़न (फ्रिसियन) जैसे अलग अलग वंशों के होते हुए भी वे परस्पर भिन्न नहीं दिखाई देते। हाल में इंडोनेशिया से आए लोग, जो प्राय: यूरेशियन हैं, अवश्य सबसे भिन्न मालूम पड़ते हैं। कुछ रक्त मिश्रण के कारण भी पहले जैसे एकरूपता अब डचों में नहीं रह गई है।
डच भाषा यहाँ की प्रधान और राजकाज की भाषा है। फ्रीसलैंड (फ्रीलैंड) में फ्रीजन का प्रचलन है। यह एंगलो-सैक्सन भाषा के निकट पड़ती है, किंतु अनेक रूपों में यह डच से भी मिलती जुलती है। नीदरलैंड के निवासी फ्रांसीसी, अंग्रेजी और जर्मन भी जानते हैं। ये भाषाएँ वहाँ के स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं।
४३ प्रतिशत निवासी प्रोटेस्टेंट और ३८ प्रतिशत रोमन कैथोलिक धर्मावलंबी हैं। १७ प्रतिशत असांप्रदायिक हैं और शेष २ प्रतिशत विभिन्न मतों के अनुयायी हैं। प्रोटेस्टेंटों में अधिकतर लोग कैल्विनिस्ट चर्च को मानते हैं। लूथरवादियों की संख्या १ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं रही।
यूरोप के देश
डच-भाषी देश व क्षेत्र |
रुआण्डा (रवांडा) मध्य-पूर्व अफ़्रीका में स्थित एक देश है। इसका क्षेत्रफल लगभग २६ हज़ार वर्ग किमी है, जो भारत के केरल राज्य से भी छोटा है। यह अफ़्रीका महाद्वीप की मुख्यभूमि पर स्थित सबसे छोटे देशों में से एक है। रुआण्डा पृथ्वी की भूमध्य रेखा (इक्वेटर) से ज़रा दक्षिण में स्थित है और महान अफ़्रीकी झीलों के क्षेत्र का भाग है। इसके पश्चिम में पहाड़ियाँ और पूर्व में घासभूमि है।
रुआण्डा में तीन मुख्य मानव जातियाँ हैं। त्वा लोग (तवा) जंगलों में बसने वाले पिग्मी हैं। टुटसी (टूट्सी) और हूटू (हुतु) दोनों बांटू जातियाँ हैं। ऐतिहासिक रूप से टुटसी अल्पसंख्यक रहे हैं लेकिन उन्होने शासन किया है जबकि हूटू बहुसंख्यक होने के बावजूद टुट्सियों के अधीन रहे हैं।
रुआण्डा में रहने वाले लगभग सभी लोग किन्यारुआण्डा भाषा बोलते हैं जो एक बांटू भाषा परिवार की सदस्य है और जिसे रुआण्डा की एक राजभाषा होने का दर्जा प्राप्त है। इसके अलावा फ़्रान्सीसी भाषा और अंग्रेज़ी को भी राजभाषा होने की मान्यता प्राप्त है।
हज़ारों वर्ष पूव पाषाण युग और लौह युग में रुआण्डा क्षेत्र में शिकारी-फ़रमर लोग बसे और वर्तमान रुआण्डा के त्वा लोग उन्ही के वंशज हैं। बाद में यहाँ बांटू जातियों का विस्तार हुआ। यह किस काल और किन कारणों से टुटसी और हूटू में बंट गई इसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। मध्य १८वीं शताब्दी में रुआण्डा राजशाही स्थापित हुई जिसमें टुटसियों ने हूटूओं पर राज किया। सन् १८८४ में जर्मनी ने रुआण्डा को अपना उपनिवेश बना लिया लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में बेल्जियम ने जर्मनों को यहाँ से खदेड़कर १९१४ में रुआण्डा पर अपना राज कर लिया। बांटो और राज करो की विचारधारा के अंतरगत उन्होने हूटू और टुटसिओं में आपसी नफ़रत बढ़ाने के लिये काम किया और टुटसी राजाओं को अपना मित्र बनाकर शासन किया। १९५९ में हूटू जनसमुदाय ने विद्रोह कर दिया और १९६२ में स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल हो गये। टुटसी इस हूटू-केन्द्रित राज्य से असंतुष्ट हुए और उन्होने आर-पी-एफ़ (रप्फ, रवांडन पत्रायोटिक फ्रंट, रुआण्डाई देशभक्त मोर्चा) नामक सेना में संगठित होकर १९९० में सरकार के विरुद्ध गृह युद्ध आरम्भ किया। यह तनाव विस्फोटक रूप से १९९४ के रवांडा जनसंहार का कारण बना जिसमें हूटूओं ने ५ से १० लाख के बीच टुटसी और निरपेक्ष हूटू मारे। यह नरसंहार तब समाप्त हुआ जब आर-पी-एफ़ सेना ने विजय प्राप्त कर ली।
इन्हें भी देखें
बांटू भाषा परिवार
अफ़्रीका के देश
फ़्रान्सीसी-भाषी देश व क्षेत्र |
खजुराहो(पूर्व में खजूरपुरा) भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है, जो अपने प्राचीन एवं मध्यकालीन मंदिरों के लिये विश्वविख्यात है। यह मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है। खजुराहो को प्राचीन काल में 'खजूरपुरा'(खजूरी) और 'खजूर वाहिका' के नाम से भी जाना जाता था। यहां बहुत संख्या में प्राचीन हिन्दू और जैन मंदिर हैं। मंदिरों का शहर खजुराहो पूरे विश्व में मुड़े हुए पत्थरों से निर्मित मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। खजुराहो को इसके अलंकृत मंदिरों की वजह से जाना जाता है, जो कि देश के सर्वोत्कृष्ठ(सर्वश्रेष्ठ) मध्यकालीन स्मारक हैं। भारत के अलावा दुनिया भर के आगन्तुक और पर्यटक प्रेम के इस अप्रतिम सौंदर्य के प्रतीक को देखने के लिए निरंतर आते रहते हैं। हिन्दू कला और संस्कृति को शिल्पियों ने इस शहर के पत्थरों पर मध्यकाल में उत्कीर्ण(निर्मित) किया था। विभिन्न कामक्रीडाओं को इन मंदिरों में बेहद खूबसूरती के उभारा(बनाया) गया है। खजुराहो का मंदिर एक सभ्य सन्दर्भ, जीवंत सांस्कृतिक संपत्ति, और एक हजार आवाजें, जो सेरेब्रम, से अलग हो रही हैं, खजुराहो ग्रुप ऑफ मॉन्यूमेंट्स, समय और स्थान के अन्तिम बिंदु की तरह हैं, जो मानव संरचनाओं और संवेदनाओं को संयुक्त करती सामाजिक संरचनाओं की भरपाई करती है, जो हमारे पास है। सब रोमांच में। यह मिट्टी से पैदा हुआ एक कैनवास है, जो अपने शुद्धतम रूप में जीवन का चित्रण करने और जश्न मनाने वाले लकड़ी के ब्लॉकों पर फैला हुआ है।
चंदेल वंश द्वारा ९५० - १०५० स के बीच निर्मित, खजुराहो मंदिर भारतीय कला के सबसे महत्वपूर्ण नमूनों में से एक हैं। हिंदू और जैन मंदिरों के इन सेटों को आकार लेने में लगभग सौ साल लगे। मूल रूप से ८५ मंदिरों का एक संग्रह, संख्या २५ तक नीचे आ गई है। एक यूनेस्को विश्व विरासत स्थल, मंदिर परिसर को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी। पश्चिमी समूह में अधिकांश मंदिर हैं, पूर्वी में नक्काशीदार जैन मंदिर हैं, जबकि दक्षिणी समूह में केवल कुछ मंदिर हैं। पूर्वी समूह के मंदिरों में जैन मंदिर चंदेल शासन के दौरान क्षेत्र में फलते-फूलते जैन धर्म के लिए बनाए गए थे। पश्चिमी और दक्षिणी भाग के मंदिर विभिन्न हिंदू देवी-देवताओं को समर्पित हैं। इनमें से आठ मंदिर विष्णु को समर्पित हैं, छह शिव को, और एक गणेश और सूर्य को जबकि तीन जैन तीर्थंकरों को हैं। कंदरिया महादेव मंदिर उन सभी मंदिरों में सबसे बड़ा है, जो बने हुए हैं।
खजुराहो का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है।(९५० से १०५० ईसवी में निर्मित) अपने क्षेत्र में खजुराहो की सबसे पुरानी ज्ञात शक्ति वत्स थी। क्षेत्र में उनके उत्तराधिकारियों में, सुंग, कुषाण, पद्मावती के नागा, वाकाटक वंश, गुप्त, पुष्यभूति,मौर्य,प्रतिहार,बुन्देला राजवंश और चन्देल राजवंश शामिल थे। यह विशेष रूप से गुप्त काल के दौरान था कि इस क्षेत्र में वास्तुकला और कला का विकास शुरू हुआ, हालांकि उनके उत्तराधिकारियों ने कलात्मक परंपरा जारी रखी। य शहर चन्देल क्षत्रिय साम्राज्य की प्रथम राजधानी था। चन्देल वंश और खजुराहो के संस्थापक चन्द्रवर्मन चंदेल थे। चन्द्रवर्मन मध्यकाल में बुंदेलखंड में शासन करने वाले [ धनगर]] राजा थे। वे अपने आप को चन्द्रवंशी(यदुवंशी) मानते थे। चंदेल राजाओं ने दसवीं से बारहवी शताब्दी तक मध्य भारत में शासन किया। खजुराहो के मंदिरों का निर्माण ९५० ईसवीं से १०५० ईसवीं के बीच इन्हीं चन्देल राजाओं द्वारा किया गया। मंदिरों के निर्माण के बाद चन्देलो ने अपनी राजधानी महोबा स्थानांतरित कर दी। लेकिन इसके बाद भी खजुराहो का महत्व बना रहा।
मध्यकाल के विश्व प्रसिद्ध दरबारी कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो के महोबा खंड में चन्देल क्षत्रियों की उत्पत्ति का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है, कि काशी के सेनानायक की पुत्री हेमवती कंवर अपूर्व सौंदर्य की स्वामिनी थी। एक दिन वह गर्मियों की रात में कमल-पुष्पों से भरे हुए तालाब में स्नान कर रही थी। उसकी सुंदरता देखकर भगवान चन्द्र उन पर मोहित हो गए। वे मानव रूप धारण कर धरती पर आ गए और हेमवती का हरण कर लिया। दुर्भाग्य से हेमवती विधवा थी। वह एक बच्चे की मां थी। उन्होंने चन्द्रदेव पर अपना जीवन नष्ट करने और चरित्र हनन का आरोप लगाया।
अपनी गलती के पश्चाताप के लिए चन्द्र देव ने हेमवती को वचन दिया कि वह एक वीर पुत्र की मां बनेगी। चन्द्रदेव ने कहा कि वह अपने पुत्र को खजूरपुरा ले जाए। उन्होंने कहा कि वह एक महान राजा बनेगा। राजा बनने पर वह बाग और झीलों से घिरे हुए अनेक मंदिरों का निर्माण करवाएगा। चन्द्रदेव ने हेमवती से कहा कि राजा बनने पर तुम्हारा पुत्र एक विशाल यज्ञ का आयोजन करेगा, जिससे तुम्हारे सारे पाप धुल जाएंगे। चन्द्रदेव के निर्देशों का पालन कर हेमवती ने पुत्र को जन्म देने के लिए अपना घर छोड़ दिया और एक छोटे-से गांव में पुत्र को जन्म दिया।
हेमवती का पुत्र चन्द्रवर्मन अपने पिता के समान तेजस्वी, बहादुर और शक्तिशाली था। सोलह साल की उम्र में वह बिना हथियार के शेर या बाघ को मार सकता था। पुत्र की असाधारण वीरता को देखकर हेमवती ने चन्द्रदेव की आराधना की जिन्होंने चन्द्रवर्मन को पारस पत्थर भेंट किया और उसे खजुराहो का राजा बनाया। पारस पत्थर से लोहे को सोने में बदला जा सकता था।
चन्द्रवर्मन ने लगातार कई युद्धों में शानदार विजय प्राप्त की। उसने कालिंजर का विशाल किला बनवाया। मां के कहने पर चन्द्रवर्मन ने तालाबों और उद्यानों से आच्छादित खजुराहो में ८५ अद्वितीय मंदिरों का निर्माण करवाया और एक यज्ञ का आयोजन किया जिसने हेमवती को पापमुक्त कर दिया। चन्द्रवर्मन और उसके उत्तराधिकारियों ने खजुराहो में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया।
जब ब्रिटिश इंजीनियर टी एस बर्ट ने खजुराहो के मंदिरों की खोज की है, तब से मंदिरों के एक विशाल समूह को 'पश्चिमी समूह' के नाम से जाना जाता है। यह खजुराहो के सबसे आकर्षक स्थानों में से एक है। इस स्थान को युनेस्को ने १९८६ में विश्व विरासत की सूची में शामिल भी किया है। इसका मतलब यह हुआ, कि अब सारा विश्व इसकी मरम्मत और देखभाल के लिए उत्तरदायी होगा। शिवसागर के नजदीक स्थित इन पश्चिम समूह के मंदिरों के दर्शन के साथ अपनी यात्रा शुरू करनी चाहिए। एक ऑडियो हैडसेट ५० रूपये में टिकट बूथ से ५०0 रूपये जमा करके प्राप्त किया जा सकता है।(वर्तमान में कुछ नियमों में बदलाव हो सकता है)
इसके अलावा दो सौ रूपये से तीन रूपये के बीच आधे या पूरे दिन में चार लोगों के लिए गाइड सेवाएं भी ली जा सकती हैं। खजुराहो को साइकिल के माध्यम से अच्छी तरह देखा जा सकता है। यह साइकिलें २० रूपये प्रति घंटे की दर से पश्चिम समूह के निकट स्टैंड से प्राप्त की जा सकती है।
इस परिसर के विशाल मंदिरों की बहुत ज्यादा सजावट की गई है। यह सजावट यहां के शासकों की संपन्नता और शक्ति को प्रकट करती है। इतिहासकारों का मत है, कि इनमें हिन्दू देवकुलों के प्रति भक्ति भाव दर्शाया गया है। देवकुलों के रूप में या तो शिव या विष्णु को दर्शाया गया है। इस परिसर में स्थित लक्ष्मण मंदिर उच्च कोटि का मंदिर है। इसमें भगवान विष्णु को बैकुंठम के समान बैठा हुआ दिखाया गया है। चार फुट ऊंची विष्णु की इस मूर्ति में तीन सिर हैं। ये सिर मनुष्य, सिंह और वराह के रूप में दर्शाए गए हैं। कहा जाता है, कि कश्मीर के चम्बा क्षेत्र से इसे मंगवाया गया था। इसके तल के बाएं हिस्से में आमलोगों के प्रतिदिन के जीवन के क्रियाकलापों, कूच करती हुई सेना, घरेलू जीवन तथा नृतकों को दिखाया गया है।
मंदिर के प्लेटफार्म की चार सहायक वेदियां हैं। ९५४ ईसवीं में बने इस मंदिर का संबंध तांत्रिक संप्रदाय से है। इसका अग्रभाग दो प्रकार की मूर्तिकलाओं से सजा है जिसके मध्य खंड में मिथुन या आलिंगन करते हुए दंपत्तियों को दर्शाता है। मंदिर के सामने दो लघु वेदियां हैं। एक देवी और दूसरा वराह देव को समर्पित है। विशाल वराह की आकृति पीले पत्थर की चट्टान के एकल खंड में बनी है।
लक्ष्मी मंदिर, लक्ष्मण मंदिर के सामने बना है।
कंदरिया महादेव मंदिर
कंदरिया महादेव मंदिर पश्चिमी समूह के मंदिरों में विशालतम है। यह अपनी भव्यता और संगीतमयता के कारण प्रसिद्ध है। इस विशाल मंदिर का निर्माण महान चन्देल राजा विद्याधर ने महमूद गजनवी पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में किया था। लगभग १०५० ईसवीं में इस मंदिर को बनवाया गया। यह एक शैव मंदिर है। तांत्रिक समुदाय को प्रसन्न करने के लिए इसका निर्माण किया गया था। कंदरिया महादेव मंदिर लगभग १०७ फुट ऊंचा है। मकर तोरण इसकी मुख्य विशेषता है। मंदिर के संगमरमरी लिंगम में अत्यधिक ऊर्जावान मिथुन हैं। अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार यहां सर्वाधिक मिथुनों की आकृतियां हैं। उन्होंने मंदिर के बाहर ६४६ आकृतियां और भीतर २४६ आकृतियों की गणना की थीं।
यह मंदिर कंदरिया महादेव मंदिर और देवी जगदम्बा मंदिर के बीच बना है |
देवी जगदम्बा मंदिर
कंदरिया महादेव मंदिर के चबूतरे के उत्तर में जगदम्बा देवी का मंदिर है। जगदम्बा देवी का मंदिर पहले भगवान विष्णु को समर्पित था और इसका निर्माण १००० से १०२५ ईसवीं के बीच किया गया था। सैकड़ों वर्षों पश्चात यहां छतरपुर के बुन्देला महाराजा ने देवी पार्वती की प्रतिमा स्थापित करवाई थी इसी कारण इसे देवी जगदम्बा मंदिर कहते हैं। यहां पर उत्कीर्ण मैथुन मूर्तियों में भावों की गहरी संवेदनशीलता शिल्प की विशेषता है। यह मंदिर शार्दूलों के काल्पनिक चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। शार्दूल वह पौराणिक पशु था जिसका शरीर शेर का और सिर तोते, हाथी या वराह का होता था।
सूर्य (चित्रगुप्त) मंदिर
खजुराहो में एकमात्र सूर्य मंदिर है जिसका नाम चित्रगुप्त है। [[चित्रगुप्त मंदिर|एक ही चबूतरे पर स्थित चौथा मंदिर है। इसका निर्माण भी विद्याधर के काल में हुआ था। इसमें भगवान सूर्य की सात फुट ऊंची प्रतिमा कवच धारण किए हुए स्थित है। इसमें भगवान सूर्य सात घोड़ों के रथ पर सवार हैं। मंदिर की अन्य विशेषता यह है,कि इसमें एक मूर्तिकार को काम करते हुए कुर्सी पर बैठा दिखाया गया है। इसके अलावा एक ग्यारह सिर वाली भगवान विष्णु की मूर्ति दक्षिण दिशा की दीवार पर स्थापित है।
बगीचे के रास्ते में पूर्व दिशा की ओर पार्वती मंदिर स्थित है। यह एक छोटा-सा मंदिर है,जो विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर को छतरपुर के महाराजा प्रताप सिंह जूदेव बुन्देला द्वारा १८४३-१८४७ ईसवीं के बीच बनवाया गया था। इसमें पार्वती की आकृति को गोह पर चढ़ा हुआ दिखाया गया है। पार्वती मंदिर के दायीं तरफ विश्वनाथ मंदिर है,जो खजुराहो का विशालतम मंदिर है। यह मंदिर शंकर भगवान से संबंधित है। यह मंदिर राजा धंग द्वारा ९९९ ईसवीं में बनवाया गया था। चिट्ठियां लिखती अप्सराएं, संगीत का कार्यक्रम और एक लिंगम को इस मंदिर में दर्शाया गया है।
शिव मंदिरों में अत्यंत महत्वपूर्ण विश्वनाथ मंदिर का निर्माण काल सन् १००२- १००३ ई. है। पश्चिम समूह की जगती पर स्थित यह मंदिर अति सुंदर मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का नामकरण भगवान शिव के एक और नाम विश्वनाथ पर किया गया है। मंदिर की लंबाई ८९' और चौड़ाई ४५' है। पंचायतन शैली का यह स्वरूप शिव भगवान को समर्पित है। गर्भगृह में शिवलिंग के साथ- साथ गर्भगृह के केंद्र में नंदी पर आरोहित शिव प्रतिमा स्थापित की गई है।
नन्दी मंदिर, विश्वनाथ मंदिर के सामने बना है | .
प्रकाश एवं ध्वनि कार्यक्रम
शाम के समय इस परिसर में अमिताभ बच्चन की आवाज़ में लाईट एंड साउंड कार्यक्रम प्रद्रर्शित किया जाता है। यह कार्यक्रम खजुराहो के इतिहास को जीवंत कर देता है। इस कार्यक्रम का आनंद उठाने के लिए भारतीय नागरिक से प्रवेश शुल्क ५० रूपये और विदेशियों से २०० रूपये का शुल्क लिया जाता है। सितम्बर माह से फरवरी माह के बीच अंग्रेजी में यह कार्यक्रम शाम ७ बजे से रात्रि ७:५० बजे तक होता है, जबकि हिन्दी का कार्यक्रम रात आठ से नौ बजे तक आयोजित किया जाता है। मार्च से अगस्त तक इस कार्यक्रम का समय बदल जाता है। इस अवधि में अंग्रेजी कार्यक्रम शाम ७:३० -८:२० के बीच होता है। हिन्दी भाषा में समय बदलकर ८:४० - ९:३० हो जाता है।
पूर्वी समूह के मंदिरों को दो विषम समूहों में बांटा गया है। जिनकी उपस्थिति आज के गांधी चौक से आरंभ हो जाती है। इस श्रेणी के प्रथम चार मंदिरों का समूह प्राचीन खजुराहो गांव के नजदीक है। दूसरे समूह में जैन मंदिर हैं जो गांव के स्कूल के पीछे स्थित हैं। पुराने गांव के दूसरे छोर पर स्थित घंटाई मंदिर को देखने के साथ यहां के मंदिरों का भ्रमण शुरू किया जा सकता है। नजदीक ही वामन और जायरी मंदिर भी दर्शनीय स्थल हैं। १०५० से १०७५ ईसवीं के बीच वामन मंदिर का निर्माण किया गया था। विष्णु के अवतारों में इसकी गणना की जाती है। नजदीक ही जायरी मंदिर हैं जिनका निमार्ण १०७५-११०० ईसवीं के बीच माना जाता है। यह मंदिर भी विष्णु भगवान को समर्पित है। इन दोनों मंदिरों के नजदीक ब्रह्मा मंदिर हैं जिसकी स्थापना ९२५ ईसवीं में हुई थी। इस मंदिर में एक चार मुंह वाला लिंगम है। ब्रह्मा मंदिर का संबंध ब्रह्मा से न होकर शिव से है।
इन मंदिरों का समूह एक कम्पाउंड में स्थित है। जैन मंदिरों को दिगम्बर सम्प्रदाय ने बनवाया था। यह सम्प्रदाय ही इन मंदिरों की देखभाल करता है। इस समूह का सबसे विशाल मंदिर र्तीथकर आदिनाथ को समर्पित है। आदिनाथ मंदिर पार्श्वनाथ मंदिर के उत्तर में स्थित है। जैन समूह का अन्तिम शान्तिनाथ मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी में बनवाया गया था। इस मंदिर में यक्ष दंपत्ति की आकर्षक मूर्तियां हैं।
इस भाग में दो मंदिर हैं। एक भगवान शिव से संबंधित दूल्हादेव मंदिर है और दूसरा विष्णु भगवान से संबंधित है, जिसे चतुर्भुज मंदिर कहा जाता है। दूल्हादेव मंदिर खूड़र नदी के किनारे स्थित है। इसे ११३० ईसवी में राजा मदनवर्मन द्वारा बनवाया गया था। इस मंदिर में खंडों पर मुंद्रित दृढ़ आकृतियां हैं। चतुर्भुज मंदिर का निर्माण ११०० ईसवीं में किया गया था। इसके गर्भ में ९ फुट ऊंची विष्णु की प्रतिमा को संत के वेश में दिखाया गया है। इस समूह के मंदिर को देखने लिए दोपहर का समय उत्तम माना जाता है। दोपहर में पड़ने वाली सूर्य की रोशनी इसकी मूर्तियों को आकर्षक बनाती है।
यह मंदिर जटकारा ग्राम से लगभग आधा किलोमीटर दक्षिण दिशा में स्थित है। यह विष्णु मंदिर निरधार प्रकार का है। इसमें अर्धमंडप, मंडप, संकीर्ण अंतराल के साथ- साथ गर्भगृह है। इस मंदिर की योजना सप्ररथ है। इस मंदिर का निर्माणकाल जावरी तथा दूल्हादेव मंदिर के निर्माणकाल के मध्य माना जाता है। बलुवे पत्थर से निर्मित खजुराहो का यह एकमात्र ऐसा मंदिर है, जिसमें मिथुन प्रतिमाओं का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। सामान्य रूप से इस मंदिर की शिल्प- कला अवनति का संकेत करती है। मूर्तियों के आभूषण के रेखांकन मात्र हुआ है और इनका सूक्ष्म अंकन अपूर्ण छोड़ दिया है। यहाँ की पशु की प्रतिमाएँ एवं आकृतियाँ अपरिष्कृत तथा अरुचिकर है। अप्सराओं सहित अन्य शिल्प विधान रुढिगत हैं, जिसमें सजीवता और भावाभिव्यक्ति का अभाव माना जाता है। फिर भी, विद्याधरों का अंकन आकर्षक और मन को लुभाने वाली मुद्राओं में किया गया है। इस तरह यह मंदिर अपने शिल्प, सौंदर्य तथा शैलीगत विशेषताओं के आधार पर सबसे बाद में निर्मित दूल्हादेव के निकट बना माना जाता है।
चतुर्भुज मंदिर के द्वार के शार्दूल सर्पिल प्रकार के हैं। इसमें कुछ सुर सुंदरियाँ अधबनी ही छोड़ दी गयी हैं। मंदिर की अधिकांश अप्सराएँ और कुछ देव दोहरी मेखला धारण किए हुए अंकित किए गए हैं तथा मंदिर की रथिकाओं के अर्धस्तंभ बर्तुलाकार बनाए गए हैं। ये सारी विशेषताएँ मंदिर के परवर्ती निर्माण सूचक हैं।
यह मूलतः शिव मंदिर है। इसको कुछ इतिहासकार कुंवरनाथ मंदिर भी कहते हैं। इसका निर्माणकाल लगभग सन् १००० ई. है। मंदिर का आकार ६९ न् ४०' है। यह मंदिर प्रतिमा वर्गीकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मंदिर है। निरंधार प्रासाद प्रकृति का यह मंदिर अपनी नींव योजना में समन्वित प्रकृति का है। मंदिर सुंदर प्रतिमाओं से सुसज्जित है। इसमें गंगा की चतुर्भुज प्रतिमा अत्यंत ही सुंदर ढ़ंग से अंकित की गई है। ये प्रतिमाएं इतनी आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक है कि जैसे यह अपने आधार से पृथक होकर आकाश में उड़ने का प्रयास कर रही है। मंदिर की भीतरी - बाहरी भाग में अनेक प्रतिमाएँ अंकित की गई है, जिनकी भावभंगिमाएँ सौंदर्यमयी, दर्शनीय तथा उद्दीपक है। नारियों, अप्सराओं एवं मिथुन की प्रतिमाएँ, इस तरह अंकित की गई है कि,सब अपने अस्तित्व के लिए सजग है। भ्रष्ट मिथुन मोह भंग भी करते हैं, फिर अपनी विशेषता से चौंका भी देते हैं।
इस मंदिर के पत्थरों पर "वसल' नामक कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिला है। मंदिर के वितान गोलाकार तथा स्तंभ अलंकृत हैं और नृत्य करती प्रतिमा एवं सुंदर एवं आकर्षिक हैं। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग योनि- वेदिका पर स्थापित किया गया है। मंदिर के बाहर मूर्तियाँ तीन पट्टियों पर अंकित की गई हैं। यहाँ हाथी, घोड़े, योद्धा और सामान्य जीवन के अनेकानेक दृश्य प्रस्तुत किये गए हैं। अप्सराओं को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि वे स्वतंत्र, स्वच्छंद एवं निर्बाध जीवन का प्रतीक मालूम पड़ती है।
इस मंदिर की विशेषता यह है कि, अप्सरा टोड़ों में अप्सराओं को दो- दो, तीन- तीन की टोली में दर्शाया गया है। मंदिर, मंण्डप, महामंडप तथा मुखमंडप युक्त है। मुखमंडप भाग में गणेश और वीरभद्र की प्रतिमाएँ अपनी रशिकाओं में इस प्रकार अंकित की गई है कि झांक रही दिखती है। यहाँ की विद्याधर और अप्सराएँ गतिशील हैं,परंतु सामान्यतः प्रतिमाओं पर अलंकरण का भार अधिक दिखाई देता है। प्रतिमाओं में से कुछ प्रतिमाओं की कलात्मकता दर्शनीय एवं सराहनीय है। अष्टवसु मगरमुखी है। यम तथा नॠत्ति की केश सज्जा परंपराओं से पृथक पंखाकार है।
मंदिर की जगती ५' उँची है। जगती को सुंदर एवं दर्शनीय बनाया गया है। जंघा पर प्रतिमाओं की पंक्तियाँ स्थापित की गई हैं। प्रस्तर पर पत्रक सज्जा भी है। देवी- देवता, दिग्पाल तथा अप्सराएँ छज्जा पर मध्य पंक्ति देव तथा मानव युग्लों एवं मिथुन से सजाया गया है। भद्रों के छज्जों पर रथिकाएँ हैं। वहाँ देव प्रतिमाएँ हैं। दक्षिणी भद्र के कक्ष- कूट पर गुरु- शिष्य की प्रतिमा अंकित की गई है।
शिखर सप्तरथ मूल मंजरी युक्त है। इस भूमि को ५आम्लकों से सुसज्जित किया गया है। उरु: श्रृंगों में से दो सप्तरथ एक पंच रथ प्रकृति का है। शिखर के प्रतिरथों पर श्रृंग हैं, किनारे की नंदिकाओं पर दो- दो श्रृंग हैं तथा प्रत्येक करणरथ पर तीन- तीन श्रृंग हैं। श्रृंग सम आकार के हैं। अंतराल भाग का पूर्वी मुख का उग्रभाग सुरक्षित है। जिसपर नौं रथिकाएँ बनाई गई हैं, जिनपर नीचे से ऊपर की ओर उद्गमों की चार पंक्तियाँ हैं। आठ रथिकाओं पर शिव- पार्वती की प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं। स्तंभ शाखा पर तीन रथिकाएँ हैं, जिनपर शिव प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं, जो परंपरा के अनुसार ब्रह्मा और विष्णु से घिरी हैं। भूत- नायक प्रतिमा शिव प्रतिमाओं के नीचे हैं, जबकि विश्रांति भाग में नवग्रह प्रतिमाएँ खड़ी मुद्रा में हैं। इस स्तंभ शाखा पर जल देवियाँ त्रिभंगी मुद्राओं में है। मगर और कछुआ भी यहाँ सुंदर प्रकार से अंकित किया गया है। मुख प्रतिमाएँ गंगा- यमुना की प्रतीक मानी जाती है। शैव प्रतिहार प्रतिमाओं में एक प्रतिमा महाकाल भी है, जो खप्पर युक्त है।
मंदिर के बाहरी भाग की रथिकाओं में दक्षिणी मुख पर नृत्य मुद्रा में छः भुजा युक्त भैरव, बारह भुजायुक्त शिव तथा एक अन्य रथिका में त्रिमुखी दश भुजायुक्त शिव प्रतिमा है। इसकी दीवार पर बारह भुजा युक्त नटराज, चतुर्भुज, हरिहर, उत्तरी मुख पर बारह भुजा युक्त शिव, अष्ट भुजायुक्त विष्णु, दश भुजा युक्त चौमुंडा, चतुर्भुज विष्णु गजेंद्रमोक्ष रूप में तथा शिव पार्वती युग्म मुद्रा में है। पश्चिमी मुख पर चतुर्भुज नग्न नॠति, वरुण के अतिरिक्त वृषभमुखी वसु की दो प्रतिमाएँ हैं। उत्तरी मुख पर वायु की भग्न प्रतिमा के अतिरिक्त वृषभमुखी वसु की तीन तथा चतुर्भुज कुबेर एवं ईशान की एक- एक प्रतिमा अंकित की गई है।
खजुराहो के विशाल मंदिरों को टेड़ी गर्दन से देखने के बाद तीन संग्रहालयों को देखा जा सकता है। वेस्टर्न ग्रुप के विपरीत स्थित भारतीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में मूर्तियों को अपनी आंख के स्तर पर देखा जा सकता है। पुरातत्व विभाग के इस संग्रहालय को चार विशाल गृहों में विभाजित किया गया है, जिनमें शैव, वैष्णव, जैन और १०० से अधिक विभिन्न आकारों की मूर्तियां हैं। संग्रहालय में विशाल मूर्तियों के समूह को काम करते हुए दिखाया गया है। इसमें विष्णु की प्रतिमा को मुंह पर अंगुली रखे चुप रहने के भाव के साथ दिखाया गया है। संग्रहालय में चार पैरों वाले शिव की भी एक सुन्दर मूर्ति है।
जैन संग्रहालय में लगभग १०० जैन मूर्तियां हैं, जबकि ट्राईबल और फॉक के राज्य संग्रहालय में जनजाति समूहों द्वारा निर्मित पक्की मिट्टी की कलाकृतियां, धातु शिल्प, लकड़ी शिल्प, पेंटिंग, आभूषण, मुखौटों और टेटुओं को दर्शाया गया है।
भारतीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में प्रवेश शुल्क ५ रूपये रखा गया है। वेस्टर्न ग्रुप के टिकट के साथ इस संग्रहालय में मुफ्त प्रवेश किया जा सकता है। सुबह दस से शाम साढे चार बजे तक यह संग्रहालय खुला रहता है। शुक्रवार को यह संग्रहालय बन्द रहता है। शुल्क: जैन संग्रहालय सुबह सात बजे से शाम छ: बजे तक खुला रहता है और इसमें कोई प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता।
राज्य संग्रहालय में शुल्क के रूप में २० रूपये लिए जाते हैं। यह दोपहर बारह बजे से शाम आठ बजे तक खुला रहता है। सोमवार और सार्वजनिक अवकाश वाले दिन यह बन्द रहता है।
निकटवर्ती दर्शनीय स्थल
खजुराहो के आसपास अनेक ऐसे स्थान हैं जो पर्यटन और भ्रमण के लिहाज से काफी प्रसिद्ध हैं।
कालिंजर और अजयगढ़ का दुर्ग
मैदानी इलाकों से थोड़ा आगे बढ़कर विन्ध्य के पहाड़ी हिस्सों में अजयगढ़ और कालिंजर के किले हैं। इन किलों का संबंध चन्देल वंश के उत्थान और पतन से है। १०५ किलोमीटर दूर स्थित कालिंजर का किला है। यह एक प्राचीन किला है। प्राचीन काल में यह शिव भक्तों की कुटी थी। इसे महाभारत और पुराणों के पवित्र स्थलों की सूची में शामिल किया गया था। इस किले का नामकरण शिव के विनाशकारी रूप काल से हुआ जो सभी चीजों का जर अर्थात पतन करते हैं। काल और जर को मिलाकर कालिंजर बना। इतिहासकारों का मत है कि यह किला ईसा पूर्व का है। महमूद गजनवी के हमले के बाद इतिहासकारों का ध्यान इस किले की ओर गया। १०८ फुट ऊंचे इस किले में प्रवेश के लिए अलग-अलग शैलियों के सात दरवाजों को पार करना पड़ता है। इसके भीतर आश्चर्यचकित कर देने वाली पत्थर की गुफाएं हैं। चोटी पर भारत के इतिहास की याद दिलाती हिन्दू और मुस्लिम शैली की इमारतें हैं। कहा जाता है कि कालिंजर के भूमितल से पतालगंगा नामक नदी बहती है जो इसकी गुफाओं को जीवंत बनाती है। बहुत से बेशकीमती पत्थर यहां बिखर पड़े हैं।
खजुराहो से ८० किलोमीटर दूर अजयगढ़ का दुर्ग है। यह दुर्ग चन्देल शासन के अर्द्धकाल में बहुत महत्वपूर्ण था। विन्ध्य की पहाड़ियों की चोटी पर यह किला स्थित है। किले में दो प्रवेश द्वार हैं। किले के उत्तर में एक दरवाजा और दक्षिण-पूर्व में तरहौनी द्वार है। दरवाजों तक पहुंचने के लिए चट्टान पर ४५ मिनट की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। किले के बीचों बीच अजय पलका तालाव नामक झील है। झील के अन्त में जैन मंदिरों के अवशेष बिखर पड़े हैं। झील के किनारे कुछ प्राचीन काल के स्थापित मंदिरों को भी देखा जा सकता है। किले की प्रमुख विशेषता ऐसे तीन मंदिर हैं जिन्हें अंकगणितीय विधि से सजाया गया है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने कुछ समय पहले इस किले की देखभाल का जिम्मा उठाया है।
खजुराहो में अनेक छोटी-छोटी दुकानें हैं जो लोहे, तांबे और पत्थर के गहने बेचते हैं। यहां विशेष रूप से पत्थरों और धातुओं पर उकेरी गई कामसूत्र की भंगिमाएं प्रसिद्ध हैं। इन्हें यहां की दुकानों से खरीदा जा सकता है। मृगनयनी सरकारी एम्पोरियम के शटर अधिकांश समय गिरे रहते हैं। दिसम्बर में राज्य के ट्राईबल और फॉक संग्रहालय में कारीगरों की एक कार्यशाला आयोजित की जाती है। कार्यशाला से यहां के कारीगर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। उनकी अद्भुत कला के नमूनों को यहां से खरीदा जा सकता है।
खजुराहो जाने के लिए अपनी सुविधा के अनुसार वायु, रेल या सड़क परिवहन को अपनाया जा सकता है।
खजुराहो वायु मार्ग द्वारा दिल्ली, वाराणसी, आगरा और काठमांडु से जुड़ा हुआ हैं। खजुराहो एयरपोर्ट, शहर से तीन किलोमीटर दूर है।
खजुराहो रेलवे स्टेशन से दिल्ली,आगरा,जयपुर,उदयपुर,वाराणसी,भोपाल, इन्दौर,उज्जैन के लिए रेल सेवा उपलब्ध है। दिल्ली और मुम्बई से आने वाले पर्यटकों के लिए झांसी भी सुविधाजनक रेलवे स्टेशन है,जबकि चेन्नई और वाराणसी से आने वालों के लिए सतना अधिक सुविधाजनक होगा। नजदीकी और सुविधाजनक रेल्वे स्टेशन से टैक्सी या बस के माध्यम से खजुराहो पहुंचा जा सकता है। सड़कों की स्थिति बहुत अच्छी है।
खजुराहो महोबा, हरपालपुर, छतरपुर, सतना, पन्ना, झांसी, आगरा, ग्वालियर, सागर, जबलपुर, इंदौर, भोपाल, वाराणसी और इलाहाबाद से नियमित और सीधा जुड़ा हुआ है। दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्ग २ से पलवल, कौसी कला और मथुरा होते हुए आगरा पहुंचा जा सकता है। राष्ट्रीय राजमार्ग ३ से धौलपुर और मुरैना के रास्ते ग्वालियर जाया जा सकता है। उसके बाद राष्ट्रीय राजमार्ग ७५ से झांसी, मउरानीपुर और छतरपुर से होते हुए बमीठा और वहां से राज्य राजमार्ग की सड़क से खजुराहो पहुंचा जा सकता है।
इन्हें भी देखें
भारत के शहर
भारत के प्रान्त
खजुराहो के मंदिर
अन्य पठनीय सामग्री
चित्रगुप्त मंदिर खजुराहो
खजुराहो : पत्थरों पर छवियां जीवन की
खजुराहो के १२८०क्स९६० नाप के १०० चित्र
खजुराहो का विशिष्ट परिचय
हिन्दू पवित्र शहर
मध्य प्रदेश के शहर
भारत के विश्व धरोहर स्थल
मध्य प्रदेश में पर्यटन आकर्षण
छतरपुर ज़िले के नगर |
बुलन्दशहर (बुलंदशहर) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बुलन्दशहर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।
बुलन्दशहर का प्राचीन नाम बरन था। इसका इतिहास लगभग १२०० वर्ष पुराना है। इसकी स्थापना अहिबरन नाम के राजा ने की थी। बुलन्दशहर पर उन्होंने बरन टॉवर की नींव रखी थी। राजा अहिबरन ने एक सुरक्षित किले का भी निर्माण कराया था जिसे ऊपर कोट कहा जाता रहा है इस किले के चारों ओर सुरक्षा के लिए नहर का निर्माण भी था जिसमें इस ऊपर कोट के पास ही बहती हुई काली नदी के जल से इसे भरा जाता था। ब्रिटिश काल में यहाँ राजा अहिबरन के वंशज राजा अनूपराय ने भी यहाँ शासन किया जिन्होंने अनूपशहर नामक शहर बसाया। उनकी शिकारगाह आज शिकारपुर नगर के रूप में प्रसिद्ध है। मुगल काल के अंत और ब्रिटिश काल के उद्भव समय में जनपद में ही मालागढ़ रियासत, छतारी रियासत व दानपुर रियासत की भी स्थापना हो चुकी थी जिनके अवशेष आज भी जनपद में विद्यमान है। दानपुर रियासत का नबाब जलील खान था और छतारी रियासत ब्रिटिश परस्त रही। कहा जाता है कि पांडव भी बुलंदशहर के आहार में कुछ दिन रहे थे।
बुलन्दशहर भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के ठीक पश्चिम में स्थित है। पूर्व में गंगा नदी व पश्चिम में यमुना नदी इसकी सीमा बनाती है। बुलन्दशहर के उत्तर में मेरठ तथा दक्षिण में अलीगढ़ ज़िले हैं। पश्चिम में राजस्थान राज्य पड़ता है। इसका क्षेत्रफल १,८८७ वर्ग मील है। यहाँ की भूमि उर्वर एवं समतल है। गंगा की नहर से सिंचाई और यातायात दोनों का काम लिया जाता है। निम्न गंगा नहर का प्रधान कार्यालय नरौरा स्थान पर है। वर्षा का वार्षिक औसत २६ इंच रहता है। पूर्व की ओर पश्चिम से अधिक वर्षा होती है। बुलंदशहर, अनूपशहर, बुगरासी, औरंगाबाद, खुर्जा, पहासु, स्याना, खानपुर, डिबाई, सिकंदराबाद, जहांगीराबाद व शिकारपुर इसके प्रमुख नगर हैं व बुलन्दशहर नगर इस जनपद का मुख्यालय है। बुलंदशहर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिल्ली से ६४ किलोमीटर की दूरी पर बसा शहर है। साथ ही बहती है काली नदी। यह शहर मुखयतः सड़कों से मेरठ, अलीगढ़, खैर, बदायूं, गौतम बुद्ध नगर व गाजियाबाद से जुडा हुआ है। बुलंदशहर जनपद के नरौरा में गंगा के किनारे भारत वर्ष में विद्यमान परमाणु विद्युत संयंत्र में से एक विद्युत ताप गृह स्थापित व सुचारू रूप से प्रयोग में है।
यातायात और परिवहन
सबसे निकटतम हवाई अड्डा इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। बुलन्दशहर से दिल्ली ७५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
भारत के कई प्रमुख शहरों से रेलमार्ग द्वारा बुलन्दशहर रेलवे स्टेशन जो नगर के निकट ही है, पहुँचा जा सकता है। यह हापुड़ व खुर्जा के बीच ब्रांच लाइन है। रेलवे लाइन के ऊपर बिजली के तार बिछ चुके है शीघ्र ही यह ब्रांच लाइन से मेन लाइन हो जाएगी।
बुलन्दशहर सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली गाजियाबाद मेरठ, पलवल फरीदाबाद मानेसर जयपुर, पैरिफेरल एक्सप्रेसवे द्वारा और आगरा,अलीगढ़ कानपुर नेशनल हाईवे ९१ द्वारा शहरों से सड़कमार्ग द्वारा जुड़ा है।
उद्योग और व्यापार
कुछ स्थानों पर किसानों के परिश्रम से भूमि कृषि योग्य कर ली गई है। यहाँ की मुख्य उपजें गेहूँ, चना, मक्का, जौ, ज्वार, बाजरा, कपास एव गन्ना आम आदि हैं। बुगरासी में आम के बाग विदेशों तक मशहूर है। सूत कातने, कपड़े बनाने का काम जहाँगीराबाद में, बरतनों का काम खुर्जा, लकड़ी का काम बुलंदशहर व शिकारपुर में होता है। कांच से चूड़ियाँ, बोतलें आदि भी बनती हैं। करघे से कपड़ा बुना जाता है। नगर बुलन्दशहर में पानी के हेंडपम्प बनाने की भी कई ईकाई है। खुर्जा व बुलन्दशहर नगर में कई नामी आयुर्वेदिक चिकित्सक भी रहे हैं। खुर्जा चीनी मिट्टी के काम व बिजली के विभिन्न उपकरण भी बनाने के लिए पहचाना जाता है।
जनसंख्या - ५० लाख
क्षेत्रफल - ४३५२ वर्ग किलोमीटर
टेलीफोन कोड - ०५७३२
जनपद में विधानसभा क्षेत्र-
इन्हें भी देखें
उत्तर प्रदेश के नगर
बुलंदशहर ज़िले के नगर |
रक्सौल (रक्सऑल) भारत के बिहार राज्य के पूर्वी चम्पारण ज़िले में स्थित एक शहर है।
रक्सौल भारत-नेपाल सीमा पर स्थित है और अपने चीनी उद्योग के कारण जाना जाता है। इसके पास ही नेपाल का बीरगंज स्थित है। बीरगंज रेलवे स्टेशन नेपाल सरकार रेलवे (नग्र) से भारत की सीमा के पार बिहार के रक्सौल स्टेशन से जुड़ा है। ४७ किमी (२९ मील) रेलवे उत्तर में नेपाल के अमलेखगंज तक फैली हुई है। यह १९२७ में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था, लेकिन दिसंबर १९६५ में बीरगंज से परे बंद कर दिया गया था। [३] रक्सौल से बिरगंज तक ६ किमी (३.७ मील) रेलवे ट्रैक को दो साल बाद ब्रॉड गेज में बदल दिया गया था, क्योंकि भारतीय रेलवे ने ट्रैक को भारत के रक्सौल में ब्रॉड गेज में बदल दिया था। अब, ब्रॉड गेज रेलवे लाइन रक्सौल को सिरसिया (बीरगंज) अंतर्देशीय कंटेनर डिपो (इक) से जोड़ती है, जो २००५ में पूरी तरह से चालू हो गई थी। नेपाल के बीरगंज से नेपाल के अमलेगंज तक रेल मार्ग को फिर से खोलने के लिए वार्ता हुई है, क्योंकि इसे ब्रॉड गेज में परिवर्तित कर दिया गया है। इसका सामाजिक-आर्थिक महत्व है।
रक्सौल : अतीत और वर्तमान (रक्सौल नगर के उद्धव व क्रमागत विकास पर संदर्भ पुस्तक)
इन्हें भी देखें
पूर्वी चम्पारण ज़िला
बिहार के शहर
पूर्वी चम्पारण जिला
पूर्वी चम्पारण ज़िले के नगर |
प्रस्थानत्रयी लिए प्रस्थानत्रयी देखें।
वेदान्त ज्ञानयोग का एक स्रोत है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और वैदिक साहित्य का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकाण्ड और उपासना का मुख्यतः वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है तथा ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में पाया जाता है। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अन्त' (अथवा सार)।
वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य को क्रमशः इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है। इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बार्क, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु शामिल है। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द घोष, स्वामी शिवानन्द स्वामी करपात्री और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है।
'वेदान्त का अर्थ
वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अन्त। आरम्भ में उपनिषदों के लिए वेदान्त शब्द का प्रयोग हुआ किन्तु बाद में उपनिषदों के सिद्धान्तों को आधार मानकर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी वेदान्त शब्द का प्रयोग होने लगा। उपनिषदों के लिए 'वेदान्त' शब्द के प्रयोग के प्रायः तीन कारण दिये जाते हैं :-
(१) उपनिषद् वेद के अन्त में आते हैं। वेद के अन्दर प्रथमतः वैदिक संहिताएँ- ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व आती हैं और इनके उपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् आते हैं। इस साहित्य के अन्त में होने के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं।
(२) वैदिक अध्ययन की दृष्टि से भी उपनिषदों के अध्ययन की बारी अन्त में आती थी। सबसे पहले संहिताओं का अध्ययन होता था। तदुपरान्त गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थों की आवश्यकता पड़ती थी। वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर आरण्यकों की आवश्यकता होती थी, वन में रहते हुए लोग जीवन तथा जगत् की पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते थे। यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी।
(३) उपनिषदों में वेदों का अन्त अर्थात् वेदों के विचारों का परिपक्व रूप है। यह माना जाता था कि वेद-वेदांग आदि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी बिना उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त किये हुए मनुष्य का ज्ञान पूर्ण नहीं होता था।
आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार वेदान्त पद का तात्पर्य है-
वेदादि में विधिपूर्वक अध्ययन, मनन तथा उपासना आदि के अन्त में जो तत्त्व जाना जाये उस तत्त्व का विशेष रूप से यहाँ निरूपण किया गया हो, उस शास्त्र को वेदान्त कहा जाता है।
वेदान्त का साहित्य
ऊपर कहा जा चुका है वेदान्त शब्द मूलतः उपनिषदों के लिए प्रयुक्त होता था। अलग-अलग संहिताओं तथा उनकी शाखाओं से सम्बद्ध अनेक उपनिषद् हमें प्राप्त हैं। जिनमें प्रमुख तथा प्राचीन हैं - ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्रताश्वर तथा बृहदारण्यक। इन उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धान्तों में काफी कुछ समानता है किन्तु अनेक स्थानों पर विरोध भी प्रतीत होता है। कालान्तर में यह आवश्यकता अनुभव की गई कि विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों में समन्वय स्थापित कर सर्वसम्मत उपदेशों का संकलन किया जाये। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बादरायण व्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की जिसे वेदान्त सूत्र, शारीरकसूत्र, शारीरकमीमांसा या उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों के सिद्धान्तों को अत्यन्त संक्षेप में, सूत्र रूप में संकलित किया गया है।
अत्यधिक संक्षेप होने के कारण सूत्रों में अपने आप में अस्पष्टता है और उन्हें बिना भाष्य या टीका के समझना सम्भव नहीं है। इसीलिए अनेक भाष्यकारों ने अपने-अपने भाष्यों द्वारा इनके अभिप्राय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया किन्तु इस स्पष्टीकरण में उनका अपना-अपना दृष्टिकोण था और इसीलिये उनमें पर्याप्त मतभेद है। प्रत्येक ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि उसका भाष्य ही ब्रह्मसूत्रों के वास्तविक अर्थ का स्पष्टीकरण करता है। फलतः सभी भाष्यकार एक-एक वेदान्त सम्प्रदाय के प्रवर्तक बन गये। इनमें प्रमुख है शंकर का अद्वैतवाद, रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद, मध्व का द्वैतवाद, निम्बार्क का द्वैताद्वैतवाद तथा वल्लभ का शुद्धाद्वैतवाद। बलदेव (अचिंत्यभेदाभेदवाद) का गोविन्दभाष्य, इन भाष्यों के अनन्तर इन भाष्यों पर टीकाएँ तथा टीकाओं पर टीकाओं का क्रम चला। अपने-अपने सम्प्रदाय के मत को पुष्ट करने के लिए अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना हुई, जिनसे वेदान्त का साहित्य अत्यन्त विशाल हो गया।
ऐतिहासिक रूप से किसी गुरु के लिये आचार्य बनने / समझे जाने के लिये वेदान्त की पुस्तकों पर टीकाएँ या भाष्य लिखने पड़ते हैं। इन पुस्तकों में तीन महत्वपूर्ण पुस्तक शामिल हैं उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र, जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं। तदनुसार आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य तीनों ने इन तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों पर विशिष्ट रचनायें दी हैं। तीनों ग्रंथों में प्रगट विचारों का कई तरह से व्याख्यान किया जा सकता है। इसी कारण से ब्रह्म, जीव तथा जगत् के संबंध में अनेक मत उपस्थित किए गए और इस तरह वेदान्त के अनेक रूपो का निर्माण हुआ था |
गौड़पाद (३०० ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (७०० ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत् को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान् जगत तत्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्वतः नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत् में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत् से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत् में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत् में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत् जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत् को अपने से पृथक् समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत् का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है।
परन्तु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत् का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीय अवस्था भेदज्ञान शून्य शुद्ध अवस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। तत्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि हम तत्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्व को मानकर जगत् की अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहार व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत् न तो सत् है, न असत् है। सत् होता तो इसका कभी नाश न होता, असत् होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत् असत् से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है।
अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत् का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।
रामानुजाचार्य ने (११वीं शताब्दी) शंकर मत के विपरीत यह कहा कि ईश्वर (ब्रह्म) स्वतंत्र तत्व है परंतु जीव भी सत्य है, मिथ्या नहीं। ये जीव ईश्वर के साथ संबद्ध हैं। उनका यह संबंध भी अज्ञान के कारण नहीं है, वह वास्तविक है। मोक्ष होने पर भी जीव की स्वतंत्र सत्ता रहती है। भौतिक जगत् और जीव अलग अलग रूप से सत्य हैं परंतु ईश्वर की सत्यता इनकी सत्यता से विलक्षण है। ब्रह्म पूर्ण है, जगत् जड़ है, जीव अज्ञान और दु:ख से घिरा है। ये तीनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं क्योंकि जगत् और जीव ब्रह्म के शरीर हैं और ब्रह्म इनकी आत्मा तथा नियंता है। ब्रह्म से पृथक् इनका अस्तित्व नहीं है, ये ब्रह्म की सेवा करने के लिए ही हैं। इस दर्शन में अद्वैत की जगह बहुत्व की कल्पना है परंतु ब्रह्म अनेक में एकता स्थापित करनेवाला एक तत्व है। बहुत्व से विशिष्ट अद्वय ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण इसे विशिष्टाद्वैत कहा जाता है।
विशिष्टाद्वैत मत में भेदरहित ज्ञान असंभव माना गया है। इसीलिए शंकर का शुद्ध अद्वय ब्रह्म इस मत में ग्राह्य नहीं है। ब्रह्म सविशेष है और उसकी विशेषता इसमें है कि उसमें सभी सत् गुण विद्यामान हैं। अत: ब्रह्म वास्तव में शरीरी ईश्वर है। सभी वैयक्तिक आत्माएँ सत्य हैं और इन्हीं से ब्रह्म का शरीर निर्मित है। ये ब्रह्म में, मोक्ष हाने पर, लीन नहीं होतीं; इनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। इस तरह ब्रह्म अनेकता में एकता स्थापित करनेवाला सूत्र है। यही ब्रह्म प्रलय काल में सूक्ष्मभूत और आत्माओं के साथ कारण रूप में स्थित रहता है परंतु सृष्टिकाल में सूक्ष्म स्थूल रूप धारण कर लेता है। यही कार्य ब्रह्म कहा जाता है। अनंत ज्ञान और आनंद से युक्त ब्रह्म को नारायण कहते हैं जो लक्ष्मी (शक्ति) के साथ बैकुंठ में निवास करते हैं। भक्ति के द्वारा इस नारायण के समीप पहुँचा जा सकता है। सर्वोत्तम भक्ति नारायण के प्रसाद से प्राप्त होती है और यह भगवद्ज्ञानमय है। भक्ति मार्ग में जाति-वर्ण-गत भेद का स्थान नहीं है। सबके लिए भगवत्प्राप्ति का यह राजमार्ग है।
मध्व (११९७ ई.) ने द्वैत वेदान्त का प्रचार किया जिसमें पाँच भेदों को आधार माना जाता है- जीव ईश्वर, जीव जीव, जीव जगत्, ईश्वर जगत्, जगत् जगत्। इनमें भेद स्वत: सिद्ध है। भेद के बिना वस्तु की स्थिति असंभव है। जगत् और जीव ईश्वर से पृथक् हैं किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालक और संहारक है। भक्ति से प्रसन्न होनेवाले ईश्वर के इशारे पर ही सृष्टि का खेल चलता है। यद्यपि जीव स्वभावतः ज्ञानमय और आनन्दमय है परन्तु शरीर, मन आदि के संसर्ग से इसे दुःख भोगना पड़ता है। यह संसर्ग कर्मों के परिणामस्वरूप होता है। जीव ईश्वरनियंत्रित होने पर भी कर्ता और फलभोक्ता है। ईश्वर में नित्य प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनन्दभोग करता है। भौतिक जगत् ईश्वर के अधीन है और ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय में यह क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म अवस्था में स्थित होता है। रामानुज की तरह मध्व जीव और जगत् को ब्रह्म का शरीर नहीं मानते। ये स्वतःस्थित तत्व हैं। उनमें परस्पर भेद वास्तविक है। ईश्वर केवल इनका नियंत्रण करता है। इस दर्शन में ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण है, प्रकृति (भौतिक तत्व) उपादान कारण है।
निम्बार्काचार्य ने स्वाभाविक द्वैताद्वैत दार्शनिक सिद्धांत का प्रचार किया जिसमें जगत (सृष्टि), जीव (आत्मा), और ईश्वर (परमात्मा) के बीच द्वैत-अद्वैत का स्वाभाविक संबंध होता है।
निम्बार्काचार्य ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद विपरीत स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही धर्म हैं। किसी एक को उपादेय तथा अन्य को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को अविरोध मत के नाम से भी अभिहित करते हैं।
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का निर्देश देती हैं।
पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान बल-क्रिया च (श्वे० ६/८)
सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः (श्वे० ३/१)
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति (तै० ३/१/१) ।
नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् (कठ० ५/१३)
'अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (गीता १०/८) इत्यादि
श्रुतियाँ ब्रह्म और जगत के भेद का प्रतिपादन करती हैं।
सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् (छा० ६/२/१)
'आत्मा वा इदमेकमासीत् (तै०२/१) 'तत्त्वमसि (छा./१४/३)
अयमात्मा ब्रह्म (बृ० २/५/१६)
'सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छा. ३/१४/१) मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव (गी, ७/७/)
इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
इस प्रकार भेद और अभेद दोनों विरुद्ध पदार्थों का निर्देश करने वाली श्रुतियों में से किसी एक प्रकार की श्रुति को उपादेय अथवा प्रधान कहें तो दूसरी को हेय या गौण कहना पड़ेगा। क्योंकि वेद सर्वांशतया प्रमाण है। श्रुति स्मृतियों का निर्णय है। अतः तुल्य होने से भेद और अभेद दोनों को ही प्रधान मानना होगा, व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो जावे।
श्रीनिम्बार्काचार्यपाद ने उक्त समस्या का समाधान करके ऐसे ही अविरोधी समन्वयात्मक मार्ग का उपदेश किया है।
आपश्री का कहना है
ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा बन जाती है। उसके बिना घड़े की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप से रहते हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक् रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।
सदेव सौम्येदमग्र आसीत् इत्यादि श्रुतियों का यह ही अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उपपत्ति होती है। सद्रूप होने से यह अभेद स्वाभाविक है।
दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है। वह दूध से दही जैसा नहीं है। दूध, दही बनकर अपने दुग्धत्व (दूधपने) को जिस प्रकार समाप्त कर देता है, वैसे ब्रह्म जगत् के रूप में परिणत होकर अपने स्वरूप को समाप्त नहीं करता, अपितु मकड़ी के जाले के समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्॥ -- (श्वे० ६/१०)
यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् (तै. २/६)
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।
ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल भुगताता है, अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत् का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही है।
वल्लभ (१४७९ ई.) के इस मत में ब्रह्म स्वतंत्र तत्व है। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं और जीव तथा जगत् उनके अंश हैं। वही अणोरणीयान् तथा महतो महीयान् है। वह एक भी है, नाना भी है। वही अपनी इच्छा से अपने आप को जीव और जगत् के नाना रूपों में प्रकट करता है। माया उसकी शक्ति है जिसकी सहायता से वह एक से अनेक होता है। परंतु अनेक मिथ्या नहीं है। श्रीकृष्ण से जीव-जगत् की स्वभावत: उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति से श्रीकृष्ण में कोई विकार नहीं उत्पन्न होता। जीव-जगत् तथा ईश्वर का संबंध चिनगारी आग का संबंध है। ईश्वर के प्रति स्नेह भक्ति है। सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य लेकर ईश्वर में राग लगाना जीव का कर्तव्य है। ईश्वर के अनुग्रह से ही यह भक्ति प्राप्य है, भक्त होना जीव के अपने वश में नहीं है। ईश्वर जब प्रसन्न हो जाते हैं तो जीव को (अंश) अपने भीतर ले लेते हैं या अपने पास नित्यसुख का उपभोग करने के लिए रख लेते हैं। इस भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग भी कहते हैं।
अचिंत्य भेदाभेद वेदान्त
महाप्रभु चैतन्य (१४८५-१५३३ ई.) के इस संप्रदाय में अनंत गुणनिधान, सच्चिदानंद श्रीकृष्ण परब्रह्म माने गए हैं। ब्रह्म भेदातीत हैं। परंतु अपनी शक्ति से वह जीव और जगत् के रूप में आविर्भूत होता है। ये ब्रह्म से भिन्न और अभिन्न हैं। अपने आपमें वह निमित्त कारण है परंतु शक्ति से संपर्क होने के कारण वह उपादान कारण भी है। उसकी तटस्थशक्ति से जीवों का तथा मायाशक्ति से जगत् का निर्माण होता है। जीव अनंत और अणु रूप हैं। यह सूर्य की किरणों की तरह ईश्वर पर निर्भर हैं। संसार उसी का प्रकाश है अत: मिथ्या नहीं है। मोक्ष में जीव का अज्ञान नष्ट होता है पर संसार बना रहता है। सारी अभिलाषाओं को छोड़कर कृष्ण का अनुसेवन ही भक्ति है। वेदशास्त्रानुमोदित मार्ग से ईश्वरभक्ति के अनंतर जब जीव ईश्वर के रग में रँग जाता है तब वास्तविक भक्ति होती है जिसे रुचि या रागानुगा भक्ति कहते हैं। राधा की भक्ति सर्वोत्कृष्ट है। वृंदावन धाम में सर्वदा कृष्ण का आनंदपूर्ण प्रेम प्राप्त करना ही मोक्ष है।
स्वामिनारायण (१७८१ १८३० ई.) ने प्रस्थानत्रयी का आधार लेकर इस अक्षरपुरुषोत्तम तत्त्वदर्शन का उद्गाटन किया है। इसमें पांच अनादि तत्त्वों का स्वीकार किया गया है - जीव, ईश्वर, माया, अक्षरब्रह्म और परब्रह्म। इनमें से अक्षरब्रह्म और परब्रह्म ये दोनों तत्त्व नित्य माया से पर चैतन्य तत्त्व हैं। जीव तथा ईश्वर माया से बद्ध हैं। जीवों तथा ईश्वरों द्वारा अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु के सांन्निध्य में साधना करने पर मुक्ति होती है। इस दर्शन में भगवान स्वामिनारायणजी को परब्रह्म माना गया है और उनका धाम अक्षरधाम माना गया है। २१वी शताब्दी में महामहोपाध्याय साधु भद्रेशदासजी ने भगवान स्वामिनारायण प्रबोधित अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन का प्रतिपादन करते हुए प्रस्थानत्रयी पर प्रमाणिक भाष्यों की रचना की है। इन भाष्यों की प्रामाणिकता एवं इस दर्शन की नूतनता, मौलिकता को काशी और तिरुपति समेत भारतवर्ष के अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने समर्थन दिया है। अतः समस्त भारत में इस दर्शन को सप्तम वेदांत दर्शन के रूप में सभीने स्वीकृत किया है।
पश्चिमी विचारकों पर प्रभाव
उपनिषदों का पहला अनुभाग, १८०१ और १८०२ में दो भागों में प्रकाशित हुआ, इस प्रकार पब्लिश हुआ, और इसका महत्वपूर्ण प्रभाव आर्थर शोपेनहॉवर पर पड़ा, जिन्होंने उन्हें अपने जीवन की सांत्वना कहा। उन्होंने अपने दर्शन के बीच स्पष्ट समानताएँ खींची, जैसे कि उन्होंने "द वर्ल्ड अज़ विल एंड रेप्रेजेंटेशन" में व्यक्त किए गए और वेदांत दर्शन के सर विलियम जोन्स की काम में वर्णित किए गए वेदांत दर्शन के बीच। मैक्स मुलर ने वेदांत और स्पिनोज़ा के सिस्टम के बीच मिलती-जुलती विशेषता को नोट किया:
"वेदांत में जैसे ब्रह्मन, जैसा कि उपनिषदों में धारण किया गया है और शंकराचार्य द्वारा परिभाषित किया गया है, वैसा ही स्पिनोज़ा की सब्स्टेंटिया है।"
इन्हें भी देखें
वेदान्तसूत्र - वादरायणकृत सूत्र ग्रन्थ जिसे ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं।
वेदांग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण आदि वेद के छः अंग
शास्त्र (भारतीय दर्शन) |
पीलीभीत भारतीय के उत्तर प्रदेश प्रांत का एक जिला है, जिसका मुख्यालय पीलीभीत है। इस जिले की साक्षरता - ६१% है, समुद्र तल से ऊँचाई -१७१ मीटर और औसत वर्षा - १४०० मि.मी. है। इसका क्षेत्रफल ३,५०४ वर्ग किलोमीटर है जिसमें से ७८४७८ हेक्टेयर भूमि पर सघन वन हैं। हिमालय के बिलकुल समीप स्थित होने के बावजूद इसकी भूमि समतल है। पीलीभीत की अर्थ व्यवस्था कृषि पर आधारित है। यहां के उद्योगों में चीनी, काग़ज़, चावल और आटा मिलों की प्रमुखता है। कुटीर उद्योग में बांस और ज़रदोज़ी का काम प्रसिद्ध है। पीलीभीत मेनका गांधी का चुनाव क्षेत्र भी है।
यह नगर ज्ञान एवं साहित्य की अनेक विभूतियों का कर्मस्थल रहा है। नारायणानंद स्वामी 'अख्तर' संगीतज्ञ, कवि, साहियकार ता इतिहासकार के ूें प्रसिद्ध रहे हैं। चंडी प्रसाद 'हृदयेश' कहानीार, एांकीकार, उपन्यासकार, ीतकार एवं कवि थे। कविवर राधेश्याम पाठक 'श्याम' ने गद्य एवं पद्य दोनों साहित्य का सृजन किया और प्रसिद्ध फिल्मी गीतकार अंजुम पीलीभीती ने 'रतन', 'अनमोल घड़ी', 'ज़ीनत', 'छोटी बहन' एवं 'अनोखी अदा' आदि फिल्मों के प्रसिद्ध गीत लिखकर पीलीभीत नगर का नाम रोशन किया।
"धार्मिक इतिहास में "
राजा मोरोध्वज की कहानी सवने सुनी होगी जिन्होने अपने वेटे को आरे से काट कर कृष्ण भगवान को आधा तथा आधा उनके साथ आये सिंह के रूप में अर्जुन को खिलाने के लिये दे दिया था। उस राजा का किला दियूरिया के जंगल में आज भी है।
"इकहोत्तरनाथ मन्दिर":-पीलीभीत जिले की पूरनपुर तहसील की ग्राम पंचायत सिरसा के निकट रमणीक वन क्षेत्र में गोमती नदी के तट पर स्थित पौराणिक मन्दिर है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र ने गौतम ऋषि द्वारा दिए गये श्राप से मुक्ति पाने के लिए एक ही रात्रि में एक सौ शिव लिंग गोमती तट पर स्थापित करने का निश्चय किया,जिसमें यह इकहत्तरवाँ शिव लिंग है।पीलीभीत में न्योरिया हुसैनपुर नाम का सुंदर नगर है पीलीभीत मे कुतुब शौकत मियां हुज़ूर का जहानाबाद के नाम से एक बड़ा खुशहाल नगर है यह हिन्दू मुस्लिम बहुत भाईचारे भाइचारे के साथ रहते है
मनकामेश्वर महादेव मंदिर,ब्रह्मचारी घाट।
खकरा ओर देवह नदियों के संगम स्थल ब्रह्मचारी घाट पर स्थित मनकामेश्वर महादेव का यह चार सौ वर्ष प्राचीन मंदिर दूर दूर तक प्रसिद्ध है । यंहा हनुमान जी एवं धनेश्वर महादेव के भी सुंदर और सिद्ध मंदिर हैं। यंहा का प्राकृतिक सौन्दर्य देखते ही बनता है संगम में स्नान करके मनकामेश्वर महादेव के दर्शनों से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है ऐसा भक्तो का मत है । यंहा आकर आपको एक असीम शांति का अनुभव होगा। मनकामेश्वर महादेव की उपस्थिति यंहा की शांति और सौन्दर्य में दिव्यता का संचार सा कर देती है जिसे आप यँहा से अपने साथ ले जाएंगे।
ऐतिहासिक गुरुद्वारा -
पीलीभीत के पकड़िया मोहल्ले में सिखों का प्रसिद्ध गुरुद्वारा है। धार्मिक रूप से यह लगभग चार सौ वर्षों पुराना स्थान है। लेकिन इसका जीर्णोद्धार हाल ही में किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि सिक्खों के गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने अमृतसर से नानकमता जाते समय में यहीं रुक कर विश्राम किया था। सन् १९८३ ई. में सुविख्यात बाबा फौजसिंह ने कार सेवा द्वारा पाँच मंज़िल वाले विशाल गुरुद्वारे का निर्माण करवाया। इस प्रकार गुरु गोविंद सिंह की स्मृति में इस ऐतिहासिक गुरुद्वारे का निर्माण हुआ।
गौरी शंकर मंदिर -
गौरी शंकर मंदिर खकरा मुहल्ले में देवहा तथा खकरा नदी के पास स्थित है। यहाँ गौरीशंकर जी के अतिरिक्त हनुमान, भैरों, दुर्गा और गणेश जी की मूर्तियाँ भी हैं। लगभग ढाई सौ साल पुराना यह मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। इसका द्वार अत्यंत भव्य एवं अवलोकनीय है। ऐसा माना जाता है कि यह द्वार नामक एक मुसलमान ने बनवाया था।
जामा मस्जिद -
जामा मस्जिद पीलीभीत का एक और गौरवशाली धर्मस्थल है। इसका निर्माण हाफिज रहमत खाँ ने ११८१- ८२ हिजरी में करवाया। यह मस्जिद दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद की बहुत शानदार प्रतिकृति है। मस्जिद के प्रवेश द्वार से पहले दरवेश इमाम हाफिज नूरुउद्दीन गजनबी का मजार बना हुआ है। वे इस मस्जिद के पहले इमाम भी थे।
शाहजी मियां का मजार -
शाहजी मियां पीलीभीत में जन्मे एक संत थे। मानव कल्याण के कार्यों के कारण उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। वो १२५ वर्ष तक जीवित रहे। आज भी उनके मजार पर सभी धर्मों के लोग मन्नत माँगने आते हैं और चादर चढ़ाते हैं। इनका उर्स हर वर्ष एक सप्ताह के लिए होता है, जिसमें हजारों लोग सम्मिलित होते हैं।
यशवंतरी देवी यशवंतरी देवी मंदिर का इतिहास वहुत पुराना है लगभग कई सौ वर्ष पुराना, यशवंतरी देवी मंदिर के पास नकटादाना नाम की जगहा है कई सौ साल पहले वहां पर नकटा नाम का एक दानव रहा करता था जिसने वहां के लोगो का जीना मुशकिल कर दिया था तव शक्ती ने मां यशवंतरी देवी के रूप में आकर उसका वध किया था।
शिवधाम मंदिर -महादेव का यह मंदिर यशवंतरी देवी मंदिर से निकट ही है तथा इसका भी अपना वहुत महत्व है इस मंदिर में एक पीपल का पेड है जिसके बिषय में यह मान्यता है कि जो व्यक्ति यहां शिव जी पर रोज जल चढाता है पेड पर जितनी पत्तियां है उतनी शक्तियां उसकी रक्षा में लग जाती है। हाल में ही इसका जीर्णोद्र कराया गया है।
पीलीभीत के प्राकृतिक पर्यटन स्थल
पीलीभीत वन प्रभाग द्वारा ७४ वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में शारदा नदी एवं मुख्य शारदा कैनाल के बीच, शारदा सागर के किनारे, एक पर्यटन केंद्र का विकास किया गया है। शारदा सागर जलाशय की लंबाई २२ किलो मीटर और चौड़ाई ३ से ५ किलो मीटर है। इतने बड़े जलक्षेत्र के किनारे स्थित होने के कारण यह 'बीच' जैसा दिखाई पड़ता है अतः इसे 'चूका बीच' कहते है।
जलाशय में अनेक प्रकार की मछलियां पाई जाती हैं। वन क्षेत्र में साल वृक्ष तो हैं ही, अर्जुन, कचनार, कदंब, हर्र, बहेड़ा, कुसुम, जामुन, बरगद, बेल, सेमल आदि अनेक प्रकार के बड़े वृक्ष पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार की जड़ी बूटियां और घासें भी यहां देखी जा सकती हैं। प्राकृतिक संपदा भरपूर होने के कारण यहां वन्यपशुओं, पक्षियों और सरीसृप जाति के प्राणियों की भी बहुतायत है। प्राकृतिक संपदा भरपूर होने के कारण यहां वन्यपशुओं, पक्षियों और सरीसृप जाति के प्राणियों की भी बहुतायत है। यह स्थान पीलीभीत से लगभग ५० किलो मीटर की दूरी पर स्थित है।
लग्गा भग्गा वन क्षेत्र -
बराही क्षेत्र के अंतरगत इस वन प्रभाग की सीमा नेपाल से मिलती है। इसके एक ओर शारदा नदी है, दूसरी ओर नेपाल की 'शुक्ला फाटा सेंचुरी' तीसरी ओर किशनपुर का वन्य जीव विहार। यहां पर एक ओर बड़े-बड़े पेड़ हैं तो दूसरी ओर ऊंची घास और दलदल। यह अनेक प्रकार के पशुओं के निवास की आदर्श परिस्थतियां पैदा करता है। यहां सियार, हिरन और लोमड़ी जैसे मध्य आकार के पशु तो है ही शेर, हाथी और गैंडे भी आराम से विहार करते हुए देखे जा सकते हैं। यह वन क्षेत्र पीलीभीत से ७० किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। विविध प्रकार के रंग बिरंगे पक्षी जैसे धनेश, कठफोड़ा, नीलकंठ, जंगली मुर्गा, मोर, सारस भी यहां देखे जा सकते हैं। यहाँ दुर्लभ प्रजाति का एक खरगोश भी पाया जाता है जिसे 'स्पिड हेअर' कहते हैं।
"गोमती उदगम स्थल "
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की शान गोमती नदी का उदगम पीलीभीत से हुआ है यहां एक सरोवर है जिस्से गोमती नदी निकलती हैा
पीलीभीत शहर से १० कि॰मी॰ की दूरी पर जहानावाद के निकट यह स्थान है यहां का सरोवर चक्र की तरह गोल है
दोनों वन प्रदेशों में जाने व ठहरने की समुचित व्यवस्था है।
पूरनपुर तहसील पूरनपुर में धर्मपुर नाम का एक गांव है वहां पर सत भैया बाबा के नाम से एक प्राचीन मंदिर है जहां भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है
इन्हें भी देखें
पीलीभीत का कार्यकारी जालघर
पीलीभीत का मानचित्र
पीलीभीत यात्रा मार्गदर्शक
उत्तर प्रदेश के जिले |
सातारा (सतारा) भारत के महाराष्ट्र राज्य के सतारा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। सातारा कृष्णा नदी और वेन्ना नदी के संगम के समीप स्थित है। इसकी स्थापना १६वीं शताब्दी में हुई थी और यह मराठा साम्राज्य के छत्रपति, शाहु, की राजधानी थी।
सातारा का नाम "सात तारा" के संक्षिप्तिकरण से हुआ है, जिसमें सात तारों से अभिप्राय सतारा को घेरने वाले सात पहाड़ी दुर्ग हैं।
सतारा, बम्बई प्रेसीडेन्सी (वर्तमान महाराष्ट्र) का एक नगर, पहले यह राज्य (रियासत) भी था। सतारा शाहूजी के वंशजों की राजधानी रहा। यद्यपि मराठा राज्य की सत्ता पेशवाओं के हाथों में जाने के फलस्वरूप यह उनके अधीन था। यहा की मराठो की बोली और मन मे छत्रपती प्रेरणा ही इनको सबसे अलग बनाती है। १८१८ ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय के उपरान्त अंग्रेज़ों ने इसे पुन:आश्रित राज्य बना दिया। १८४८ ई. में गोद प्रथा की समाप्ति का सिद्धान्त लागू किये जाने के फलस्वरूप इसे अंग्रेज़ों के भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया। भारत में डिजल इंजन बनाने का पहला कारखाना सतारा में १९३२ में खोला गया है।
कास पठार - विविध रंगो के और आकार के फूल देखने के लिए मौसम में पर्यटकों की भीड़ यहाँ रहती है।कास पठार को विश्व धरोहर के रूप में प्रसिद्धी मिली है। कास पठारा के रस्ते पर घूमने के लिए सायकल की सशुल्क व्यवस्था है। कास पठार पर घाटात देवी, कास तालाब, वजराई झरना, शिवसागर जलाशय आदि प्रसिद्ध जगह है।
ठोसेघर- यह मनमोहक जलप्रपात के लिए प्रसिद्ध है।
महाबलेश्वर-यह ठंडी हवा का स्थान है।बारिश का मौसम जून से सितंबर ये महीनें छोड़कर बाकी महीनों में पर्यटक यहाँ के ठंडे, खुशनुमा मौसम का मजा लेने आते हैं और वेण्णा लेक में बोटिंग का आनंद लेते हैं।पर्यटक बड़ी संख्या में टेबल लेंड पर घुड़सवारी भी करते हैं।
अजिंक्यतारा- सातारा में अजिंक्यतारा यह किला ११ वी सदी में राजा भोज द्वितीय ने बनाया है।
सज्जनगड- रामदास स्वामी की यहाँ समाधि है।
जरेन्डेश्वर-यहाँ हनुमान मंदिर है वहाँ जाने के लिए तीन रस्ते है एक तरफ से सीढ़ियों के द्वारा चढ़कर जा सकते हैं। ट्रेकिंग के लिए एक अच्छा स्थान है।
औंध-यहाँ का संग्रहालय और यमाईदेवी का मंदिर प्रसिद्ध है।
शिखर शिंगणापूर-महाराष्ट्र के कुल देवता शंभू महादेव का मंदिर प्रसिद्ध है।पास में ही गुप्त लिंग है। बारिश के मौसम में यहाँ का नजारा देखने दूर-दूर से पर्यटक अाते है।
पंचगनी- यहाँ टेबललेंड प्रसिद्ध है जहाँ फिल्म की शूटिंग होती है। यहाँ एक निवासी पाठशाला भी है।
वाई- यहाँ महागणपती का मंदिर प्रसिद्ध है।
भिलार-यह गाँव 'किताबों का गाँव' नाम से पहचाना जाता है।यहाँ आने वाले प्रत्येक वाचन प्रेमी को गाँव के प्रत्येक घर में एक कमरा बैठकर पढ़नेवालों के लिए रखा गया है। विविध विषयों पर यहाँ किताबें उपलब्ध है।
प्रतापगड-शिवाजी महाराज ने यहाँ अफजलखान का वध किया था।
मेनवली-नाना फडणवीस का महल प्रसिद्ध है।
मायनी-पक्षी अभयारण्य है।
नागनाथवाडी- नागनाथ मंदिर प्रसिद्ध है।
मांढरदेवी - देवी का मंदिर प्रसिद्ध है।
सातारा के कंदी नामक पेढे, सुपेकरवढ, चिरोटे प्रसिद्ध है।
कृष्ण इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज "डीम्ड तो बी यूनिवर्सिटी"
गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, कारड
क्रन्तिसिंह नाना पाटिल कॉलेज ऑफ़ वेटरनरी साइंस
डी पी भोसले कॉलेज कोरेगांव
इन्हें भी देखें
महाराष्ट्र के शहर
सतारा ज़िले के नगर |
सीतापुर (सीतापुर) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।
उत्तर प्रदेश राज्य के अवध क्षेत्र में लखनऊ एवं शाहजहांपुर मार्ग के मध्य में सरायन नदी के किनारे पर स्थित है। यह जिला सदैव धार्मिक सहिष्णुता और गंगा जमुनी तहज़ीब को शिखर पर ले जाने वाले जिलों में शुमार किया जाता है। सीतापुर नगर में भारत का प्रसिद्ध नेत्र अस्पताल है। सीतापुर गुड़, गल्ला, दरी की बड़ी मंडी है। यहाँ एक बहुत बड़ा आँख का अस्पताल जिसकी स्थापना प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डॉ महेश प्रसाद मेहरे ने की थी, सैनिक छावनी तथा उत्तर एवं पूर्वोत्तर रेलवे के जंक्शन हैं, प्लाईवुड और तीन बड़े शक्कर के मिल हैं। आजकल ये जनपद औद्योगिक बिन्दु से महुत महत्वपूर्ण नहीं है । इस ज़िले में ५ चीनी मिले , चावल व आटा मिलें कार्यरत हैं। यह जनपद मुख्य रूप से सूती व ऊनी दरियों के लिये प्रसिद्ध है । लहरपुर और खैराबाद विशेष रूप से इसके उत्पादन एवं निर्यात के लिए प्रसिद्ध हैं । यहाँ बनने वाली सूती और ऊनी दरियां देश ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्ध हैं।
यदि सीतापुर के प्राचीन इतिहास को देखें तो संपूर्ण ज़िला गुप्त काल तथा गुप्त प्रभावित मूर्तियों तथा इमारतों से भरा हुआ था। मनवाँ, हरगाँव, बड़ा गाँव, नसीराबाद आदि पुरातात्विक महत्व के स्थान हैं। विजयेन्द्र कुमार माथुर ने लेख किया है। हट, ऊजठ (आस, प.१०४) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में स्थित है। ९वीं शताब्दी ईस्वी के एक मंदिर के अवशेष यहाँ से उत्खनन द्वारा प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश शासन ने ऊजठ में विस्तृत रूप से खुदाई की थी। 'नैमिषारण्य' और 'मिसरिख' पवित्र तीर्थ स्थल हैं। यह सूफियों एवं पैगंबरों की धरती है। इस पावन धरती पर ऋषि वेद व्यास द्वारा पुराणों की रचना की गई । हिन्दू मतानुसार , "पाँच धाम यात्रा" तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक नीमसार अथवा नैमिषारण्य के दर्शन नहीं कर लिए जाते । नैमिषारण्य सीतापुर का एक प्राचीन धार्मिक स्थल है। हज़रत मखदूम साहब, खैराबाद और हज़रत गुलज़ार शाह , बिसवां की दरगाह सामाजिक समरसता की मिसालें हैं ।
प्रारंभिक मुस्लिम काल के लक्षण केवल भग्न हिन्दू मंदिरों और मूर्तियों के रूप में ही उपलब्ध हैं। इस युग के ऐतिहासिक प्रमाण शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित कुओं और सड़कों के रूप में दिखाई देते हैं। उस युग की मुख्य घटनाओं में से एक तो खैराबाद के निकट हुमायूँ और शेरशाह के बीच युद्ध और दूसरी भर राजा सुहेलदेव और सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी के बीच बिसवां और तंबौर के युद्ध हैं। सीतापुर के निकट स्थित खैराबाद मूलत: प्राचीन हिन्दू तीर्थ मानसछत्र था। मुस्लिम काल में खैराबाद, सिधौली के निकट बाड़ी, बिसवाँ इत्यादि इस ज़िले के प्रमुख नगर थे। ब्रिटिश काल (१८५६) में खैराबाद को छोड़कर ज़िले का केंद्र सीतापुर नगर में बनाया गया। सीतापुर का तरीनपुर मोहल्ला प्राचीन स्थान है, इसका प्राचीन नाम छीतापुर पडा,इसका प्रथम उल्लेख राजा टोडरमल के बंदोबस्त में छितियापुर के नाम से आता है। बहुत दिन तक इसे छीतापुर कहा जाता रहा, जो गाँवों में अब भी प्रचलित हैं। १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सीतापुर का प्रमुख हाथ था। बाड़ी के निकट सर हीपग्रांट तथा फैजाबाद के मौलवियों के बीच निर्णंयात्मक युद्ध हुआ था।
१७वीं तथा १८वीं शताब्दी में यह स्थान वस्त्र उद्योग के लिए ख्यात था । ईस्ट इंडिया कंपनी ने खैराबाद और दरियाबाग में बनने वाले हैंडलूम कपड़ों का निर्यात करना प्रारंभ कर दिया । बिसवाँ क्षेत्र मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मशहूर था । यह जनपद दरवाज़ों पर उभरी नक्काशी के लिए भी जाना जाता था। सीतापुर जिले की ही भूमि से 'सुदामा चरित्र' लिखने वाले महाकवि नरोत्तमदास, 'कुरीति गढ़ संग्राम' रचित करने वाले प्रसिद्ध संत एवं कवि रामआसरे दास नाई , महान क्रांतिकारी और १८57 के गदर के लिए बहादुर शाह जफर को फतवा जारी करने वाले अल्लामा फजले हक खैराबादी, प्रसिद्ध उर्दू विद्वान काज़ी अब्दुल सत्तार, प्रसिद्ध क्रांतिकारी इंद्रदेव सिंह, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य नरेंद्र देव एवं बाबू कन्हैया लाल महेंद्र, उर्दू विद्वान एवं कवि जान निसार अख्तर, फिल्म निर्देशक वजाहत मिर्ज़ा, परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडे, एवं प्रसिद्ध अवधी कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित जैसे महाज्ञानियो, महापुरुषों ने इस पावन सीतापुर की धरती पर जन्म लिया।
राष्ट्रीय राजमार्ग ३० यहाँ से गुज़रता है और इसे कई स्थानों से जोड़ता है।
इन्हें भी देखें
उत्तर प्रदेश के नगर
सीतापुर ज़िले के नगर |
भारतीय डाक सेवा () भारत सरकार द्वारा संचालित डाकसेवा है जो ब्रांड नाम के तौर पर इंडिया पोस्ट या भारतीय डाक के नाम से काम करती है।
सैकड़ों साल से जारी सफर
भारतीय डाक प्रणाली का जो उन्नत और परिष्कृत स्वरूप आज हमारे सामने है, वह हजारों सालों के लंबे सफर की देन है। अंग्रेजों ने डेढ़ सौ साल पहले अलग-अलग हिस्सों में अपने तरीके से चल रही डाक व्यवस्था को एक सूत्र में पिरोने की जो पहल की, उसने भारतीय डाक को एक नया रूप और रंग दिया। पर अंग्रेजों की डाक प्रणाली उनके सामरिक और व्यापारिक हितों पर केंद्रित थी। भारत की आजादी के बाद हमारी डाक प्रणाली को आम आदमी की जरूरतों को केंद्र में रख कर विकसित करने का नया दौर शुरू हुआ। नियोजित विकास प्रक्रिया ने ही भारतीय डाक को दुनिया की सबसे बड़ी और बेहतरीन डाक प्रणाली बनाया है। राष्ट्र निर्माण में भी डाक विभाग ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है और इसकी उपयोगिता लगातार बनी हुई है। आम आदमी डाकघरों और पोस्टमैन पर अगाध भरोसा करता है। तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद इतना जन विश्वास कोई और संस्था नहीं अर्जित कर सकी है। यह स्थिति कुछ सालों में नहीं बनी है। इसके पीछे बरसों का श्रम और सेवा छिपी है।
भारतीय डाक और उसकी उत्कृष्ट सेवाएँ
भारतीय डाक के डेढ़ सौ साल पूरे
मई २०१३ के लेख जिनमें स्रोत नहीं हैं |
यह अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, नेपाली और हिंदी साहित्य में भी बेहद लोकप्रिय हुइ। संगीत के क्षेत्र में इस विधा को गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से अलग शैली निर्मित हुई।
अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ है औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना।
ग़ज़ल एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह है। इसके पहले शेर को मतला कहते हैं। ग़ज़ल के अंतिम शेर को मक़्ता कहते हैं। मक़्ते में सामान्यतः शायर अपना नाम रखता है। आम तौर पर ग़ज़लों में शेरों की विषम संख्या होती है (जैसे तीन, पाँच, सात..)।
एक ग़ज़ल में ५ से लेकर 2५ तक शेर हो सकते हैं। ये शेर एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। कभी-कभी एक से अधिक शेर मिलकर अर्थ देते हैं। ऐसे शेर कता बंद कहलाते हैं।
ग़ज़ल के शेर में तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है। रदीफ़ और काफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो काफ़िये पर समाप्त होता हो।
ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर को शाहे बैत कहा जाता है। ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को दीवान कहते हैं जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो। उर्दू का पहला दीवान शायर कुली कुतुबशाह है।
ग़ज़ल के प्रकार
तुकांतता के आधार पर ग़ज़लें दो प्रकार की होती हैं-
मुअद्दस ग़जलें- जिन ग़ज़ल के अश'आरों में रदीफ़ और काफ़िया दोनों का ध्यान रखा जाता है।
मुकफ़्फ़ा ग़ज़लें- जिन ग़ज़ल के अश'आरों में केवल काफ़िया का ध्यान रखा जाता है।
भाव के आधार पर भी गज़लें दो प्रकार की होती हैं-
मुसल्सल गज़लें- जिनमें शेर का भावार्थ एक दूसरे से आद्यंत जुड़ा रहता है।
ग़ैर मुसल्सल गज़लें- जिनमें हरेक शेर का भाव स्वतंत्र होता है।
ग़ज़लों का आरंभ अरबी साहित्य की काव्य विधा के रूप में हुआ। अरबी भाषा में कही गयी ग़ज़लें वास्तव में नाम के ही अनुरूप थी अर्थात उसमें औरतों से बातें या उसके बारे में बातें होती थी।
अरबी से फारसी साहित्य में आकर यह विधा शिल्प के स्तर पर तो अपरिवर्तित रही किंतु कथ्य की दृष्टि से वे उनसे आगे निकल गई। उनमें बात तो दैहिक या भौतिक प्रेम की ही की गई किंतु उसके अर्थ विस्तार द्वारा दैहिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम में बदल दिया गया। अरबी का इश्के मजाज़ी फारसी में इश्के हक़ीक़ी हो गया। फारसी ग़ज़ल में प्रेमी को सादिक (साधक) और प्रेमिका को माबूद (ब्रह्म) का दर्जा मिल गया। ग़ज़ल को यह रूप देने में सूफ़ी साधकों की निर्णायक भूमिका रही। सूफी साधना विरह प्रधान साधना है। इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली।
फ़ारसी से उर्दू में आने पर भी ग़ज़ल का शिल्पगत रूप ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया लेकिन कथ्य भारतीय हो गया। लेकिन उत्तर भारत की आम अवधारणा के विपरीत हिन्दोस्तानी ग़ज़लों का जन्म बहमनी सल्तनत के समय दक्कन में हुआ जहाँ गीतों से प्रभावित ग़ज़लें लिखी गयीं। भाषा का नाम रेख़्ता (गिरा-पड़ा) पड़ा। वली दकनी, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा के शायर थे जिन्होंने एक तरह से अमीर ख़ुसरो (१३१० इस्वी) की परंपरा को आगे बढ़ाया। दक्किनी उर्दू के ग़ज़लकारों ने अरबी फारसी के बदले भारतीय प्रतीकों, काव्य रूढ़ियों, एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर रचना की।
उस समय उत्तर भारत में राजकाज की भाषा फारसी थी इसलिए ग़ज़ल जब उत्तर भारत में आयी तो पुनः उसपर फारसी का प्रभाव बढ़ने लगा। ग़ालिब जैसे उर्दू के श्रेष्ठ ग़ज़लकार भी फारसी ग़ज़लों को ही महत्वपूर्ण मानते रहे और उर्दू ग़जल को फारसी के अनुरूप बनाने की कोशिश करते रहे। बाद में दाउद के दौर में फारसी का प्रभाव कुछ कम हुआ। इकबाल की आरंभिक ग़ज़लें इसी प्रकार की है। बाद में राजनीतिक स्थितियों के कारण उर्दू ग़ज़लों पर फारसी का प्रभाव पुनः बढ़ने लगा। १९४७ के बाद इसमें पुनः कमि आने लगी।
हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया। जिनमें निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन आदि प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्धि दुष्यंत कुमार को मिली।
मिर्जा असदुल्ला खाँ 'ग़ालिब'
मीर तक़ी 'मीर'
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
राजेंद्र नाथ रहबर
कुछ ग़ज़ल गायक |
हामिद करज़ई (जन्म: २४ दिसम्बर १९५७) २०१४ तक अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति रह चुके हैं। उनके पश्चात् अशरफ़ ग़नी अहमदज़ई ने यह पद संभाला।
इनका जन्म दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में कंदहार में हुआ था। उनके पिता पोपलज़ई कबीले के पश्तून (पठान) थे और ज़ाहिर शाह मंत्रीमंडल के सदस्य थे। करज़ई ने स्नातकोत्तर की डिग्री १९७९-८३ के बीच राजनीति शास्त्र में भारत के हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से ली थी।
अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति
१९५७ में जन्मे लोग |
टोनी ब्लेयर उर्फ एंथोनी चार्ल्स लिंटन ब्लेयर () (जन्म ६ मई, १९५३) एक ब्रितानी राजनीतिज्ञ है, जो मई १९९७ से जून २००७ तक यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमन्त्री थे। १९९४ से २००७ तक लेबर पार्टी के नेता रहे और वर्ष १९८३ से २००७ तक सेजफ़ील्ड निर्वाचनक्षेत्र से संसद सदस्य रहे। वह अब अंतर्राष्ट्रीय मध्य-पूर्व चौकड़ी के दूत है।
ब्लेयर का जन्म एडिनबर्ग में हुआ था। फेट्स कॉलेज में अपनी पढ़ाई करने के बाद इन्होंने सेंट जॉन कॉलेज, ऑक्सफोर्ड से अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद इनकी रुचि राजनीति में होने लगी और वे लेबर पार्टी से जुड़े और १९८३ में पहली बार सेजफील्ड से संसद सदस्य बने। इन्होंने पार्टी को ब्रिटिश राजनीति के केंद्र में लाने में काफी मदद किया, जिससे उनकी पार्टी को फिर से सरकार बनाने का मौका मिले। इनकी पार्टी १९७९ से सरकार बनाने में विफल रही थी। १९८८ में इन्हें पार्टी के फ्रंटबेंच में नियुक्त किया गया और १९९२ में यह छाया गृह सचिव बन गए। यह १९९४ में जॉन स्मिथ के मौत के बाद अपने लेबर पार्टी के नेता के रूप में चुनाव के बाद वे विपक्ष के नेता भी बन गए।
यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री |
यांगून म्यानमार देश की पुरानी राजधानी है। इसका पुराना नाम रंगून था। (आधुनिक बर्मी में 'र' के स्थान पर 'य' का उच्चारण होता है।)। बहादुर शाह ज़फ़र यहीं दफ़न हैं। आजाद हिन्द फौज जिसके सर्वोच्च कमाण्डर नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे उस फौज का मुख्यालय यहीं था।
रंगून दक्षिणी वर्मा के मध्यवर्ती भाग में, रंगून नदी के किनारे, मर्तबान की खाड़ी तथा इरावदी नदी के मुहाने से ३० किमी उत्तर, सागरतल से केवल २० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह बर्मा की राजधानी, सबसे बड़ा नगर तथा प्रमुख बंदरगाह है। यहाँ औसत वार्षिक वर्षा १०० इंच होती है। समीपवर्ती क्षेत्र में धान की कृषि अधिक होती है। बंदरगाह से चावल, टीक तथा अन्य लकड़ियाँ, खालें, पेट्रोलियम से निर्मित पदार्थ तथा चाँदी, सीसा, जस्ता, ताँबे की वस्तुओं का निर्यात होता है। वायुमार्ग, नदीमार्ग तथा रेलमार्ग यातायात के प्रमुख साधन हैं। विद्युत् संस्थान, रेशमी एवं ऊनी कपड़े, लकड़ी चिराई का काम, रेलवे के सामान, जलयाननिर्माण तथा मत्स्य उद्योग में काफी उन्नति हो गई है। यहाँ पर सभी आधुनिक वस्तुएँ जैसे बड़े बड़े होटल, सिनेमाघर, भंडार (स्टोराज), पगोडा, गिरजाघर, पार्क, वनस्पतिक उद्यान, अजायबघर तथा विश्वविद्यालय आदि हैं। यहाँ की सबसे प्रमुख इमारत श्वेड्रैगन पगोडा है, जो सागरतल से १६८ फुट की ऊँचाई पर बना है। यह पगोडा ३६८ फुट ऊँचा, ९०० फुट लंबा तथा ६८५ फुट चौड़ा है तथा इसके ऊपर सोने की पन्नी चढ़ी हुई है। नगर को युद्ध तथा ज्वालामुखी से काफी हानि पहुँचती हैं।
बर्मा के आबाद स्थान |
विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व के देशों के स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानव को स्वास्थ्य सम्बन्धी समझ विकसित कराने की संस्था है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के १९४ सदस्य देश तथा दो संबद्ध सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक इकाई है। इस संस्था की स्थापना ७ अप्रैल १९४8 को की गयी थी। इसका उद्देश्य संसार के लोगो के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्ल्यूएचओ का मुख्यालय स्विट्ज़रलैण्ड के जिनेवा शहर में स्थित है। इथियोपिया के डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए महानिदेशक निर्वाचित हुए हैं।
वो डॉक्टर मार्गरेट चैन का स्थान लेंगे जो पाँच-पाँच साल के दो कार्यकाल यानी दस वर्षों तक काम करने के बाद इस पद से रिटायर हो रही हैं।
भारत भी विश्व स्वास्थ्य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है।
इतिहास और कार्य
अन्तरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन, मूल रूप से २३ जून १८५१ को डब्ल्यूएचओ के पहले पूर्ववर्ती थे। १४ सम्मेलनों की एक शृंखला जो १८५१ से १९३८ तक चली, अन्तरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलनों ने कई बीमारियों का मुकाबला करने के लिए काम किया, उनमें से मुख्य हैजा, पीला बुखार, और [[बुबोनिक प्लेग १८९२ में सातवें तक सम्मेलन काफी हद तक अप्रभावी थे; जब एक अन्तरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन जो हैजा से निपटा गया था पारित किया गया था।
पाँच साल बाद, प्लेग के लिए एक सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए थे। सम्मेलनों की सफलताओं के परिणामस्वरूप, पैन-अमेरिकन सेनेटरी ब्यूरो (१९०२), और (१९०७) जल्द ही स्थापित हो गए १९२० में जब [[लीग ऑफ नेशंस] का गठन किया गया, तो उन्होंने राष्ट्र संघ के स्वास्थ्य संगठन की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने डब्ल्यूएचओ के गठन के लिए अन्य सभी स्वास्थ्य संगठनों को अवशोषित किया।
अन्तरराष्ट्रीय संगठन पर १९८८ के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भावेश पटेल, चीन गणराज्य के एक प्रतिनिधि ने नार्वे और ब्राजील के प्रतिनिधियों को एक इंटर्ना बनाने पर सम्मानित किया। इस विषय पर एक प्रस्ताव पारित करने में विफल रहने के बाद, अल्जीरिया हिस, सम्मेलन के महासचिव ने इस तरह के एक संगठन की स्थापना के लिए एक घोषणा का उपयोग करने की सिफारिश की। स्वेज़ और अन्य प्रतिनिधियों ने पैरवी की और स्वास्थ्य पर एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन के लिए एक घोषणा पारित की। "विश्व" शब्द के उपयोग ने, "अन्तरराष्ट्रीय" के बजाय, वास्तव में वैश्विक प्रकृति पर जोर दिया कि संगठन क्या हासिल करना चाहता था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के संविधान पर २२ जुलाई १९४६ को संयुक्त राष्ट्र के सभी ५१ देशों और १० अन्य देशों ने हस्ताक्षर किए थे। इस प्रकार यह संयुक्त राष्ट्र की पहली विशिष्ट एजेंसी बन गई जिसके प्रत्येक सदस्य ने सदस्यता ली। इसका संविधान औपचारिक रूप से पहली विश्व स्वास्थ्य दिवस ७ अप्रैल १९४८ को लागू हुआ, जब इसे २६ वें सदस्य राज्य द्वारा अनुमोदित किया गया था।
विश्व स्वास्थ्य सभा की पहली बैठक २५ जुलाई १ ९ ४ हविंग को समाप्त हुई, १ ९ ४ ९ वर्ष के लिए (तब ) का बजट प्राप्त हुआ। एंड्रीजा अरताम्पर विधानसभा के पहले अध्यक्ष थे, और जी। ब्रॉक चिशोल्म को डब्ल्यूएचओ का महानिदेशक नियुक्त किया गया था, जिसने नियोजन चरणों के दौरान कार्यकारी सचिव के रूप में कार्य किया था। इसकी पहली प्राथमिकताएँ मलेरिया, तपेदिक और यौन संचारित संक्रमण के प्रसार को नियंत्रित करने और मातृ और बाल स्वास्थ्य, पोषण को नियन्त्रित करने के लिए थीं। इसका पहला विधायी कार्य बीमारी के प्रसार और रुग्णता पर सटीक आँकड़ों के संकलन से सम्बन्धित था। विश्व स्वास्थ्य संगठन का लोगो चिकित्सा के लिए प्रतीक के रूप में रॉड ऑफ एसक्लियस की सुविधा देता है।
वो का संचालन इतिहास
वर्ष १९४५ में सैन फ़्रांसिस्को (सन फ्रान्सिस्को) सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन्स) के गठन के समय ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनीसशन) के निर्माण की कल्पना कर ली गई थी।
वर्ष १९४५ में, तीन भौतिकविद चीन की डॉ. ज़ेमंग ज़े, नॉर्वे के कार्ल एवंग तथा ब्राज़ील के गेराल्डो डी पाउलो सोयुज द्वारा समस्त विश्व की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक प्रमुख तथा केन्द्रीय स्वास्थ्य संगठन की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया था।
इस प्रस्ताव के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनीसशन) की स्थापना ७ अप्रैल, १९४८ को वास्तविक ६१ सदस्य राष्ट्रों में से २६ सदस्य राष्ट्रों द्वारा दिये गए अनुसमर्थन (रतिफ्य) से की गई।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुख्यालय जेनेवा, स्विट्ज़रलैण्ड (जेनेवा, स्वित्झरलंड) में स्थित है, तथा इसके ६ क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं, जो हरारे (अफ्रीका), कोपेनहेगेन (यूरोप), नई दिल्ली (दक्षिण पूर्वी एशिया), वाशिंगटन डी सी (अमेरिका), कायरो (पूर्वी मेडिटेरेनियन) तथा मनीला (पश्चिमी पैसिफिक) क्षेत्रों में स्थित हैं।
इसका प्रशासन विश्व स्वास्थ्य सभा के सदस्यों की देख रेख में किया जाता है। यह सदस्य सभी (वर्ष २००५ तक के आँकड़ों के अनुसार) १९२ सदस्य राष्ट्रों द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि ही होते हैं। विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा एक कार्यपालक दल का चुनाव किया जाता है, जिस दल में से ही एक व्यक्ति को संगठन के निदेशक (डाइरेक्टर- जनरल) के रूप में मनोनीत किया जाता है तथा सभा द्वारा उसका चुनाव अन्तिम रूप से किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक का कार्य-काल कुल पाँच वर्ष का होता है।
वर्ष १९४८ में विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रमुख वास्तविक प्राथमिकताओं में मलेरिया (मलेरिया), मातृ तथा शिशु स्वास्थ्य (मोथर एंड चाइल्ड हेल्थ), ट्यूबरक्लोसिस (ट्यूबर्कुलोसिस), यौन रोग (वेनेरेल डिसीज), पोषण (न्यूट्रिशन) तथा पर्यावरणीय स्वच्छता (एन्वायरोनमेंटल सनिटेशन) इत्यादि विषय सम्मिलित थे। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त विषय जो संज्ञान में लिए गए थे, वे थे : जन स्वास्थ्य कल्याण प्रशासन, परजैविक तथा विषाणुजनित बीमारियाँ, तथा मानसिक स्वास्थ्य।
विश्व स्वास्थ्य संगठन उन सभी अन्तरराष्ट्रीय स्वच्छता आयोगों के प्रयासों के परिणाम के रूप में सामने आया, जिन्हें १९वीं शताब्दी में संक्रामक रोगों की रोकथाम तथा उपचार हेतु बनाया गया था। जहाँ एक तरफ पूर्व में बनाये गए संगठनों का उद्देश्य किसी संक्रामक रोग को एक विशेष राष्ट्र अथवा क्षेत्र से बाहर रखना होता था, वहीं दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन का उद्देश्य किसी संक्रामक बीमारी को जड़ से खत्म करना होता है, फिर चाहे वह विश्व के किसी भी राष्ट्र अथवा भाग में फैली हुई हो।
२१वीं शताब्दी के प्रारम्भ में, विश्व स्वास्थ्य संगठन की इमेरजेंसी टीम, जिसमे कि कुशल डॉक्टरों को शामिल किया गया होता है, को किसी नई संक्रमणशील बीमारी, जैसे कि श्वसन सम्बन्धी रोग, फ्लू इत्यदि वाले क्षेत्र में उपचार हेतु भेजा गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने सदस्य राष्ट्रों में स्वास्थ्य सुविधाएँ बेहतर बनाने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तथा केन्द्रों आदि का निर्माण भी करवाता है।
१९४७: वो ने [[[टेलेक्स]], और १९५० तक एक जन तपेदिक टीका बीसीजी वैक्सीन का उपयोग कर इनकोलेशन ड्राइव के माध्यम से एक महामारी विज्ञान सूचना सेवा की स्थापना की थी।
२०२३: मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया था, हालाँकि इसे बाद में उद्देश्य में बदल दिया गया था। १९५५ में मधुमेह मेलेटस और कैंसर पर अनुसंधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी की पहली रिपोर्ट देखी गई।
१९६६: डब्ल्यूएचओ ने अपने मुख्यालय को [[पैलेस ऑफ़ नेशंस] एरियाना विंग से जिनेवा में एक नव निर्मित मुख्यालय में स्थानान्तरित कर दिया।
१९६७: वो ने प्रयास में सालाना २.४ मिलियन डॉलर का योगदान देकर वैश्विक चेचक उन्मूलन को तेज किया और एक नई रोग निगरानी विधि अपनाई। डब्ल्यूएचओ की टीम ने प्रारम्भिक समस्या चेचक के मामलों की अपर्याप्त रिपोर्टिंग थी। डब्ल्यूएचओ ने सलाहकारों का एक नेटवर्क स्थापित किया, जिन्होंने निगरानी और नियन्त्रण गतिविधियों को स्थापित करने में देशों की सहायता की। वो ने आखिरी यूरोपीय प्रकोप को रोकने में मदद की 197२ में यूगोस्लाविया। चेचक से लड़ने के दो दशकों के बाद, डब्ल्यूएचओ ने १९७९ में घोषणा की कि इस बीमारी का उन्मूलन हो गया है - मानव प्रयास से समाप्त होने वाला इतिहास का पहला रोग।
१९६७: वो ने ट्रॉपिकल डिजीजेज में रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग के लिए स्पेशल प्रोग्राम लॉन्च किया और वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली ने डिसेबिलिटी प्रिवेंशन एण्ड रिहाबी पर एक रेजोल्यूशन लागू करने के लिए वोट किया
१९७४: टीकाकरण पर विस्तारित कार्यक्रम और ओंकोसर्शियासिस का नियन्त्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था, [[खाद्य और कृषि संगठन] (एफएओ), [[यूनाइटेड एन] के बीच एक महत्वपूर्ण साझेदारी
१९७७: आवश्यक दवाओं की पहली सूची तैयार की गई थी, और एक साल बाद "स्वास्थ्य के लिए सभी] का महत्वाकाँक्षी लक्ष्य घोषित किया गया था।
१९८६: वो ने एचआईवी / एड्स पर अपना वैश्विक कार्यक्रम शुरू किया। दो साल बाद पीड़ितों के खिलाफ भेदभाव को रोकने के लिए और १९९६ में उनेड्स का गठन किया गया।
१९८८: ग्लोबल पोलियो उन्मूलन पहल की स्थापना की गई थी।
१९९८: डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ने बाल अस्तित्व में लाभ पर प्रकाश डाला, [[शिशु मृत्यु दर] में कमी, जीवन प्रत्याशा में वृद्धि और चेचक के रूप में "दस्तों" और पोलियो की दरों में कमी की हालाँकि, उन्होंने स्वीकार किया कि मातृ स्वास्थ्य की सहायता के लिए और अधिक किया जाना था और इस क्षेत्र में प्रगति धीमी थी।
२०००: [[मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स] के संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के साथ [स्टॉप टीबी पार्टनरशिप]] बनाया गया था।
२००१: खसरा पहल का गठन किया गया था, और २००७ तक बीमारी से वैश्विक मौतों को ६८% तक कम करने का श्रेय दिया गया था।
२००२: ग्लोबल फंड टू फाइट एड्स, ट्यूबरकुलोसिस और मलेरिया उपलब्ध संसाधनों को बेहतर बनाने के लिए तैयार किया गया था।
२००६: संगठन ने जिम्बाब्वे के लिए दुनिया के पहले आधिकारिक एचआईवी / एड्स टूलकिट का समर्थन किया, जिसने वैश्विक रोकथाम, उपचार और एड्स महामारी से लड़ने की योजना का आधार बनाया।
डब्ल्यूएचओ का संविधान बताता है कि इसका उद्देश्य "स्वास्थ्य के उच्चतम सम्भव स्तर के सभी लोगों द्वारा प्राप्त करना है"।
डब्ल्यूएचओ अपने संविधान में परिभाषित किए गए कार्यों के माध्यम से इस उद्देश्य को पूरा करता है: (क) अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्य पर निर्देशन और समन्वय प्राधिकरण के रूप में कार्य करना; (ख) संयुक्त राष्ट्र के साथ प्रभावी सहयोग स्थापित करने और बनाए रखने के लिए, विशेष एजेंसियों, सरकारी स्वास्थ्य प्रशासन, पेशेवर समूहों और ऐसे अन्य संगठनों को समझा जा सकता है ; (ग) स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के अनुरोध पर, सरकारों की सहायता करने के लिए; (घ) उपयुक्त तकनीकी सहायता और आपात स्थितियों में, सरकारों के अनुरोध या स्वीकृति पर आवश्यक सहायता प्रदान करना; (च) संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर, विशेष समूहों को स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं के लिए प्रदान करने या सहायता प्रदान करने के लिए, जैसे कि ट्रस्ट ट्रस्ट के लोग; (छ) महामारी विज्ञान और सांख्यिकीय सेवाओं सहित आवश्यक प्रशासनिक और तकनीकी सेवाओं को स्थापित करने और बनाए रखने के लिए; (ज) महामारी, स्थानिक और अन्य बीमारियों के उन्मूलन के लिए काम को प्रोत्साहित करना और अग्रिम करना; (झ) बढ़ावा देने के लिए, अन्य विशेष एजेंसियों के साथ सहयोग में जहाँ आवश्यक हो, आकस्मिक चोटों की रोकथाम; (ट) जहाँ आवश्यक हो, पोषण, आवास, स्वच्छता, मनोरंजन, आर्थिक या काम करने की स्थिति और एन्वायरनम के अन्य पहलुओं में सुधार के साथ अन्य विशेष एजेंसियों के साथ सहयोग करने के लिए; (ठ) स्वास्थ्य की उन्नति में योगदान देने वाले वैज्ञानिक और व्यावसायिक समूहों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना; (ड) सम्मेलनों, समझौतों और नियमों का प्रस्ताव करने के लिए, और अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मामलों के सम्बन्ध में और प्रदर्शन करने के लिए सिफारिशें करें।
, डब्ल्यूएचओ ने सार्वजनिक स्वास्थ्य में अपनी भूमिका निम्नानुसार परिभाषित की है:
स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण मामलों पर नेतृत्व प्रदान करना और साझेदारियों में संलग्न होना जहां संयुक्त कार्रवाई की आवश्यकता है;
शोध के एजेण्डे को आकार देना और बहुमूल्य ज्ञान के सृजन, अनुवाद और प्रसार को प्रोत्साहित करना;
मानदण्ड और मानक स्थापित करना और उनके कार्यान्वयन को बढ़ावा देना और निगरानी करना;
नीतिगत और साक्ष्य-आधारित नीति विकल्पों को स्पष्ट करना;
तकनीकी सहायता प्रदान करना, परिवर्तन को उत्प्रेरित करना और स्थायी संस्थागत क्षमता का निर्माण करना; तथा
स्वास्थ्य की स्थिति की निगरानी करना और स्वास्थ्य के रुझान का आकलन करना।
क्र्वस (नागरिक पंजीकरण और महत्वपूर्ण आँकड़े) महत्वपूर्ण घटनाओं (जन्म, मृत्यु, विवाह, तलाक) की निगरानी प्रदान करना।
२०१२-२०१३ डब्ल्यूएचओ के बजट में ५ क्षेत्रों की पहचान की गई, जिनमें से धन वितरित किया गया था। संचारी रोगों से संबंधित उन पाँच क्षेत्रों में से दो: पहला, सामान्य रूप से संचारी रोगों के "स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक बोझ" को कम करने के लिए; दूसरा मुकाबला करने के लिए एचआईवी / एड्स, मलेरिया और तपेदिक विशेष रूप से।
२०१५ तक, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उनेड्स नेटवर्क के भीतर काम किया है और [[ह] के आर्थिक और सामाजिक प्रभावों से निपटने के लिए स्वास्थ्य के अलावा समाज के अन्य वर्गों को शामिल करने का प्रयास किया है। यूएनएड्स के अनुरूप, डब्ल्यूएचओ ने खुद को २००९ से २०१५ के बीच अंतरिम कार्य के रूप में निर्धारित किया है, जो १५-२४ वर्ष की आयु के उन लोगों की संख्या को कम करता है जो ५०% से संक्रमित हैं; ९०% बच्चों में नए एचआईवी संक्रमण को कम करना;
१९७० के दशक के दौरान, डब्ल्यूएचओ ने वैश्विक मलेरिया उन्मूलन अभियान के लिए अपनी प्रतिबद्धता को बहुत महत्वाकाँक्षी के रूप में गिरा दिया, इसने मलेरिया नियन्त्रण के लिए एक मजबूत प्रतिबद्धता को बनाए रखा। डब्ल्यूएचओ का वैश्विक मलेरिया कार्यक्रम मलेरिया के मामलों और मलेरिया नियन्त्रण योजनाओं में भविष्य की समस्याओं पर नज़र रखने का काम करता है। २०१२ तक, वो को रिपोर्ट करना था कि क्या र्ट्स, स / आस०१, एक व्यवहार्य मलेरिया वैक्सीन थे। कुछ समय के लिए, कीटनाशक - उपचारित मच्छरदानी स और कीटनाशक स्प्रे का उपयोग मलेरिया के प्रसार को रोकने के लिए किया जाता है, जैसे कि एंटीलेरियल ड्रग्स - विशेष रूप से कमजोर लोगों को जैसे
१९९० से २०१० के बीच, वो की मदद ने तपेदिक से होने वाली मौतों की संख्या में ४०% की गिरावट में योगदान दिया है और २००५ से अब तक ४६ मिलियन से अधिक लोगों का इलाज किया गया है और अनुमानित ७ इनमें राष्ट्रीय सरकारों को शामिल करना और उनके वित्तपोषण, प्रारम्भिक निदान, उपचार का मानकीकरण, तपेदिक के प्रसार और प्रभाव की निगरानी और दवा की आपूर्ति को स्थिर करना शामिल है। इसने एचआईवी / एड्स के पीड़ितों की तपेदिक के जोखिम को भी पहचाना है।
१९८८ में, वो ने पोलियो को मिटाने के लिए ग्लोबल पोलियो उन्मूलन पहल शुरू की। यह उन मामलों को ९९% तक कम करने में मदद करने में सफल रहा है जिनके साथ रोटरी इंटरनेशनल, यूएस सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (कक), संयुक्त राष्ट्र , यह छोटे बच्चों का टीकाकरण करने और "पोलियो मुक्त" घोषित देशों में मामलों के फिर से उभरने को रोकने के लिए काम कर रहा है। २०१७ में, एक अध्ययन आयोजित किया गया था जहां पोलियो वैक्सीन वायरस को मिटाने और नई तकनीक का संचालन करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। ग्लोबल टीकाकरण अभियान की बदौलत पोलियो अब विलुप्त होने के कगार पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा कि उन्मूलन कार्यक्रम ने लाखों लोगों को घातक बीमारी से बचाया है।
तेरह वो प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में से एक का उद्देश्य "पुरानी, मानसिक बीमारी स, वायलिन से" बीमारी, विकलांगता और समय से पहले होने वाली मौतों की रोकथाम और कमी है। लाइफ-कोर्स यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के माध्यम से स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए गैर-संचारी रोगों के प्रभाग ने १९८३ से यूरोप भर में एण्टर नूस पत्रिका प्रकाशित की है।
डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि २०१२ में अस्वास्थ्यकर वातावरण में रहने या काम करने के परिणामस्वरूप १२.६ मिलियन लोग मारे गए - यह कुल वैश्विक मौतों में से ४ में से १ के लिए है। पर्यावरणीय जोखिम कारक, जैसे वायु, जल और मिट्टी प्रदूषण, रासायनिक जोखिम, जलवायु परिवर्तन और पराबैंगनी विकिरण, १00 से अधिक बीमारियों और चोटों में योगदान करते हैं। इसके परिणामस्वरूप प्रदूषण-सम्बन्धी बीमारियों की सूची प्रदूषण-सम्बन्धी बीमारियाँ हो सकती हैं।
२०१८ (३० अक्टूबर - १ नवंबर) : १ वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य पर डब्ल्यूएचओ का पहला वैश्विक सम्मेलन ( वायु की गुणवत्ता में सुधार, जलवायु परिवर्तन से लड़ना - जान बचाना ) ; संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण, विश्व मौसम संगठन (व्मो) और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (सचिवालय) के सचिवालय के सहयोग से आयोजित
जीवन पाठ्यक्रम और जीवन शैली
डब्लूएचओ रुग्णता [और [मृत्यु | मृत्यु]] को कम करने और गर्भावस्था, प्रसव, नवजात अवधि, बचपन और किशोरावस्था सहित जीवन के प्रमुख चरणों के दौरान स्वास्थ्य को बेहतर बनाने का काम करता है।
यह "तम्बाकू, शराब, ड्रग्स और अन्य मनोदैहिक पदार्थों, अस्वास्थ्यकर आहार और शारीरिक निष्क्रियता के उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य स्थितियों" के लिए जोखिम कारकों को रोकने या कम करने की कोशिश करता है।
वो पोषण, खाद्य सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा में सुधार लाने और यह सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और सतत विकास पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।
अप्रैल २०१९ में, डब्ल्यूएचओ ने यह कहते हुए नई सिफारिशें जारी कीं कि दो और पाँच साल की उम्र के बच्चों को एक दिन में एक घण्टे से अधिक नहीं बिताना चाहिए, जो एक डरावना के सामने आसीन व्यवहार में संलग्न हैं
सर्जरी और आघात देखभाल
विश्व स्वास्थ्य संगठन यातायात से सम्बन्धित चोटों को कम करने के लिए सड़क सुरक्षा को बढ़ावा देता है। इसने आपातकालीन और आवश्यक शल्य चिकित्सा देखभाल सहित सर्जरी में वैश्विक पहलों पर भी काम किया है, ट्रुमा कारे, और सुरक्षित सर्जरी। डब्ल्यूएचओ सर्जिकल सेफ्टी चेकलिस्ट रोगी सुरक्षा में सुधार के प्रयास में दुनिया भर में वर्तमान उपयोग में है।
प्राकृतिक और मानव निर्मित आपात स्थितियों में विश्व स्वास्थ्य संगठन का प्राथमिक उद्देश्य सदस्य राज्यों और अन्य हितधारकों के साथ समन्वय करना है ताकि "जीवन के नुकसान को कम किया जा सके और डिस का बोझ कम किया जा सके""
५ मई २०१४ को, वो ने घोषणा की कि पोलियो का प्रसार एक विश्व स्वास्थ्य आपातकाल था - एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में इस बीमारी का प्रकोप "असाधारण" माना जाता था।
८ अगस्त २०१४ को, वो ने घोषणा की कि इबोला का प्रसार एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल था; ऐसा प्रकोप जिसके बारे में माना जाता था कि यह गिनी में शुरू हुआ था, लाइबेरिया जैसे अन्य नजदीकी देशों में फैल गया था। पश्चिम अफ्रीका में स्थिति बहुत गम्भीर मानी जाती थी।
३० जनवरी २०२० को, वो ने कोविड-१९ महामारी को घोषित किया था अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संबंधी सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल (फेइक)।
डब्ल्यूएचओ सरकार स्वास्थ्य नीति को दो उद्देश्यों से सम्बोधित करता है: सबसे पहले, "नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से स्वास्थ्य के अंतर्निहित सामाजिक और आर्थिक निर्धारकों को संबोधित करना जो स्वास्थ्य इक्विटी को बढ़ाते हैं और गरीबों, लिंग-उत्तरदायी और मानव अधिकारों-बा को एकीकृत करते हैं।
संगठन, स्वास्थ्य नीति विकल्पों को सूचित करने के लिए सदस्य राज्यों का समर्थन करने के लिए साक्ष्य-आधारित उपकरणों, मानदंडों और मानकों के उपयोग को विकसित और बढ़ावा देता है। यह अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियम के कार्यान्वयन की देखरेख करता है, और चिकित्सा वर्गीकरण की एक श्रृंखला प्रकाशित करता है; इनमें से, तीन "संदर्भ वर्गीकरण" से अधिक हैं: रोगों के अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकीय वर्गीकरण (इक), [कार्यशीलता, विकलांगता और स्वास्थ्य का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण] (इक) और [[स्वास्थ्य का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण वो द्वारा निर्मित अन्य अन्तरराष्ट्रीय नीतिगत ढाँचों में स्तन दूध का अंतर्राष्ट्रीय कोड (१९८१ में अपनाया गया), शामिल हैं। तंबाकू नियंत्रण पर फ्रेमवर्क कन्वेंशन (२००३ में अपनाया गया) स्वास्थ्य मानव संसाधन # स्वास्थ्य कर्मियों की अंतर्राष्ट्रीय भर्ती पर अभ्यास का वैश्विक कोड। स्वास्थ्य कर्मियों की अंतर्राष्ट्रीय भर्ती पर अभ्यास का वैश्विक कोड (२०१ में अपनाया गया और साथ ही आवश्यक दवाओं की डब्ल्यूएचओ मॉडल सूची और इसके बाल चिकित्सा समकक्ष।
स्वास्थ्य सेवाओं के सन्दर्भ में, वो "शासन, वित्त, स्टाफ और प्रबन्धन" और नीति का मार्गदर्शन करने के लिए साक्ष्य और अनुसन्धान की उपलब्धता और गुणवत्ता में सुधार करता है। यह "चिकित्सा उत्पादों और प्रौद्योगिकियों के बेहतर उपयोग, गुणवत्ता और उपयोग को सुनिश्चित करने" का भी प्रयास करता है। डब्लूएचओ - दाता एजेंसियों और राष्ट्रीय सरकारों के साथ काम करना - अनुसन्धान सबूतों के उनके उपयोग के बारे में और उनके रिपोर्टिंग के उपयोग में सुधार कर सकता है।
शासन और समर्थन
डब्ल्यूएचओ की तेरह पहचान नीति क्षेत्रों के शेष दो स्वयं डब्ल्यूएचओ की भूमिका से संबंधित हैं:
"नेतृत्व प्रदान करने के लिए, शासन को मजबूत बनाने और साझेदारी और देशों, संयुक्त राष्ट्र प्रणाली और अन्य हितधारकों के साथ सहयोग में, जो कि डब्ल्यूएचओ के आदेश को पूरा करने के लिए; तथा
"एक लचीली, सीखने वाली संस्था के रूप में डब्ल्यूएचओ को विकसित और बनाए रखने के लिए, यह अपने जनादेश को अधिक कुशलता और प्रभावी ढंग से पूरा करने में सक्षम है".
विश्व बैंक के साथ वो अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य साझेदारी (इह्प +) के संचालन के लिए जिम्मेदार कोर टीम का गठन करता है। इह्प + साझेदार सरकारों, विकास एजेंसियों, नागरिक समाज और अन्य लोगों का एक समूह है जो विकासशील देशों में नागरिकों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। पार्टनर्स सहायता प्रभावशीलता और स्वास्थ्य क्षेत्र में व्यवहार में विकास सहयोग के लिए अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों को रखने के लिए एक साथ काम करते हैं।
संगठन अपने काम को सूचित करने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिकों और पेशेवरों के योगदान पर निर्भर करता है, जैसे कि डब्ल्यूएचओ विशेषज्ञ समिति जैविक मानक समिति, थे वो एक्सपर्ट कमित्ती ऑन लैप्रोसी, और डब्ल्यूएचओ स्टडी ग्रुप ऑन इंटरप्रिटेशनल एजुकेशन एंड कोलैबोरेटिव प्रैक्टिस।
डब्ल्यूएचओ स्वास्थ्य नीति और प्रणाली अनुसंधान के लिए गठबंधन, स्वास्थ्य नीति और सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए लक्षित है।
डब्ल्यूएचओ का लक्ष्य विकासशील देशों जैसे हिनार नेटवर्क के माध्यम से स्वास्थ्य अनुसंधान और साहित्य तक पहुंच में सुधार करना है।
डब्ल्यूएचओ ने एड्स, क्षय रोग और मलेरिया से लड़ने के लिए ग्लोबल फ़ण्ड, यूनीतेड, और संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के आपातकालीन सहायता योजना के लिए सहयोग किया एचआईवी कार्यक्रमों के विकास को बढ़ावा देने और वित्त पोषण करने के लिए।
वो ने हिव पर सिविल सोसायटी संदर्भ समूह बनाया, जो नीति निर्माण और दिशानिर्देशों के प्रसार में शामिल अन्य नेटवर्क को साथ लाता है।
डब्ल्यूएचओ, संयुक्त राष्ट्र के एक क्षेत्र, यूएनएड्स के साथ साझेदार दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में एचआईवी प्रतिक्रियाओं के विकास में योगदान करने के लिए।
डब्ल्यूएचओ एचआईवी पर तकनीकी सलाहकार समिति के माध्यम से तकनीकी साझेदारी की सुविधा देता है, जो उन्होंने डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों और नीतियों को विकसित करने के लिए बनाया।
२०१४ में, वो ने वर्ल्डवाइड हॉस्पिस पालिऐटिव केयर अलाउंस के साथ एक संयुक्त प्रकाशन, सहयोगी एनजीओ में काम कर रहे सहयोगी के साथ ग्लोबल एटलस ऑफ़ पेलियेटिव केयर ऑफ़ द एण्ड ऑफ़ लाइफ़ का विमोचन किया।
सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा और कार्रवाई
हर साल, संगठन विश्व स्वास्थ्य दिवस और एक विशिष्ट स्वास्थ्य संवर्धन विषय पर ध्यान केन्द्रित करने वाले अन्य अवलोकन करता है। विश्व स्वास्थ्य दिवस प्रत्येक वर्ष ७ अप्रैल को पड़ता है, जिसे डब्ल्यूएचओ की स्थापना की वर्षगाँठ से मिलान करने के लिए समय दिया जाता है। हाल के विषय वेक्टर-जनित रोग (२०१४), स्वस्थ उम्र बढ़ने (२०१२) और दवा प्रतिरोध (२०११) रहे हैं।
वो द्वारा चिह्नित अन्य आधिकारिक वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियान हैं विश्व तपेदिक दिवस, विश्व टीकाकरण सप्ताह, विश्व मलेरिया दिवस, विश्व तंबाकू निषेध दिवस, विश्व रक्तदाता दिवस ,
संयुक्त राष्ट्र के हिस्से के रूप में, विश्व स्वास्थ्य संगठन सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों की दिशा में काम का समर्थन करता है। आठ सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में से, तीन - दो तिहाई से बाल मृत्यु दर को कम करना, मातृ मृत्यु को तीन-चौथाई से कम करना, और एचआईवी / एड्स के प्रसार को कम करना और शुरू करना - सम्बन्धित ; अन्य पाँच अन्तर-सम्बन्धित और विश्व स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
डेटा हैंडलिंग और प्रकाशन
विश्व स्वास्थ्य संगठन विभिन्न डेटा संग्रह प्लेटफार्मों के माध्यम से आवश्यक स्वास्थ्य और कल्याण के साक्ष्य प्रदान करने के लिए काम करता है, जिसमें विश्व स्वास्थ्य सर्वेक्षण लगभग ४०० मिलियन प्रतिक्रिया शामिल है। और ग्लोबल एजिंग और एडल्ट हेल्थ पर अध्ययन। ग्लोबल एजिंग और एडल्ट हेल्थ पर अध्ययन (सागे) २३ देशों में ५० से अधिक उम्र के ५०,००० से अधिक व्यक्तियों को कवर करता है। देश स्वास्थ्य खुफिया पोर्टल (सीएचआईपी) को विभिन्न देशों में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए विकसित किया गया है। इस पोर्टल में एकत्रित जानकारी का उपयोग देशों द्वारा भविष्य की रणनीतियों या योजनाओं, कार्यान्वयन, निगरानी और मूल्यांकन के लिए प्राथमिकताएँ निर्धारित करने के लिए किया जाता है।
डब्ल्यूएचओ ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता को मापने और निगरानी के लिए विभिन्न उपकरण प्रकाशित किए हैं और स्वास्थ्य कार्यबल। ग्लोबल हेल्थ ऑब्जर्वेटरी (जीएचओ) डब्ल्यूएचओ का मुख्य पोर्टल रहा है जो दुनिया भर में स्वास्थ्य स्थितियों की निगरानी करके प्रमुख स्वास्थ्य विषयों के लिए डेटा और विश्लेषण प्रदान करता है।
मानसिक स्वास्थ्य प्रणालियों के लिए डब्ल्यूएचओ आकलन उपकरण (वो-ऐम्स), वो क्वालिटी ऑफ लाइफ इंस्ट्रूमेंट (वोकोल), और सेवा उपलब्धता और तत्परता मूल्यांकन (सारा) डेटा संग्रह के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। डब्लूएचओ और अन्य एजेंसियों के बीच सहयोगात्मक प्रयास, जैसे कि हेल्थ मेट्रिक्स नेटवर्क के माध्यम से, सरकारी निर्णय लेने में सहायता के लिए पर्याप्त उच्च-गुणवत्ता की जानकारी प्रदान करना है। डब्लूएचओ साक्ष्य-सूचित नीति नेटवर्क (एवीप्नेट) के माध्यम से, अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं को सम्बोधित करने वाले अनुसन्धान का उपयोग करने और उत्पादन करने के लिए सदस्य राज्यों में क्षमताओं के विकास को बढ़ावा देता है। पैन अमेरिकन हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (पहो / एमरो) सितम्बर २००९ में अनुमोदित स्वास्थ्य के लिए अनुसन्धान पर एक नीति विकसित करने और पारित करने वाला पहला क्षेत्र बन गया।
१० दिसंबर २०१३ को एक नया वो डेटाबेस, जिसे मिंडबैंक के नाम से जाना जाता है, ऑनलाइन हुआ। डेटाबेस को मानवाधिकार दिवस पर लॉन्च किया गया था, और यह डब्ल्यूएचओ की क्वालिटी राइट्स पहल का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों वाले लोगों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन को समाप्त करना है। नया डेटाबेस मानसिक स्वास्थ्य, मादक द्रव्यों के सेवन, विकलांगता, मानव अधिकारों और विभिन्न नीतियों, रणनीतियों, कानूनों और सेवा मानकों के लागू होने के बारे में बहुत सारी जानकारी प्रस्तुत करता है। इसमें महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज और जानकारी भी शामिल है। डेटाबेस आगंतुकों को डब्ल्यूएचओ सदस्य राज्यों और अन्य भागीदारों की स्वास्थ्य जानकारी तक पहुँचने की अनुमति देता है। उपयोगकर्ता नीतियों, कानूनों और रणनीतियों की समीक्षा कर सकते हैं और मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में सर्वोत्तम प्रथाओं और सफलता की कहानियों की खोज कर सकते हैं।
डब्ल्यूएचओ नियमित रूप से एक विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट , अपने प्रमुख प्रकाशन को प्रकाशित करता है, जिसमें एक विशिष्ट वैश्विक स्वास्थ्य विषय का विशेषज्ञ मूल्यांकन शामिल है। वो के अन्य प्रकाशनों में विश्व स्वास्थ्य संगठन के बुलेटिन 'शामिल हैं। पूर्वी भूमध्य स्वास्थ्य जर्नल (ईएमआरओ द्वारा निरीक्षण), [[[स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधन] '([बायोमेड सेंट्रल] के सहयोग से प्रकाशित), और पान अमेरिकन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ (पहो / एमरो द्वारा निरीक्षण)।
२०१६ में, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एचआईवी पर एक वैश्विक स्वास्थ्य क्षेत्र की रणनीति का मसौदा तैयार किया। मसौदे में, विश्व स्वास्थ्य संगठन वर्ष २०३० तक एड्स महामारी को समाप्त करने की अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है वर्ष २०२० के लिए अन्तरिम लक्ष्यों के साथ। इन लक्ष्यों की दिशा में उपलब्धियां हासिल करने के लिए, मसौदा उन कार्यों को सूचीबद्ध करता है जो देशों और डब्ल्यूएचओ को ले सकते हैं, जैसे कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज, चिकित्सा पहुँच, रोकथाम और उन्मूलन के लिए एक प्रतिबद्धता। मसौदे में किए गए कुछ उल्लेखनीय बिन्दुओं में लैंगिक असमानता को सम्बोधित करना शामिल है, जहाँ महिलाएँ एचआईवी से संक्रमित होने की सम्भावना से लगभग दोगुना हैं और भीड़ वाले क्षेत्रों में एचआईवी और संसाधनों को सिलाई करने के लिए। किए गए बिन्दुओं के बीच, यह स्पष्ट लगता है कि यद्यपि एचआईवी संचरण की व्यापकता घट रही है, फिर भी इस महामारी को समाप्त करने के लिए संसाधनों, स्वास्थ्य शिक्षा और वैश्विक प्रयासों की आवश्यकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन संयुक्त राष्ट्र विकास समूह का सदस्य है।
वो के १९४ सदस्य देश हैं: लिकटेंस्टीन , कुक आइलैंड्स और नीयू को छोड़कर संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य राष्ट्र। (विश्व स्वास्थ्य संगठन के संविधान के रूप में ज्ञात सन्धि की पुष्टि करके एक राज्य वो का पूर्ण सदस्य बन जाता है।) , इसके दो सहयोगी सदस्य भी थे, प्यूर्टो रिको और टोकेलौ। कई अन्य देशों को पर्यवेक्षक का दर्जा प्रदान किया गया है। फिलिस्तीन संयुक्त राष्ट्र के संकल्प ३११८ के तहत अरब लीग के लीग द्वारा मान्यता प्राप्त "राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन" के रूप में एक पर्यवेक्षक है। होली सी एक पर्यवेक्षक के रूप में भी उपस्थित होता है, जैसा कि संप्रभु सैन्य आदेश माल्टा का आदेश। माल्टा का आदेश है।
वो के सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि विश्व स्वास्थ्य सभा, वो के सर्वोच्च निर्णय लेने वाले निकाय नियुक्त करते हैं। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य डब्ल्यूएचओ की सदस्यता के लिए पात्र हैं, और डब्ल्यूएचओ की वेबसाइट के अनुसार, "अन्य देशों को सदस्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जब उनके आवेदन को एक साधारण बहुमत के मत से अनुमोदित किया गया हो। विश्व स्वास्थ्य सभा सभी सदस्य राज्यों के प्रतिनिधिमण्डल में शामिल होती है, और संगठन की नीतियों को निर्धारित करती है।
कार्यकारी बोर्ड स्वास्थ्य में तकनीकी रूप से योग्य सदस्यों से बना है, और विश्व स्वास्थ्य सभा के निर्णयों और नीतियों को प्रभावी बनाता है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षक संगठनों रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति और रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट सोसायटीज़ का अंतर्राष्ट्रीय संघ ने "आधिकारिक सम्बन्धों" में प्रवेश किया है विश्व स्वास्थ्य सभा में, वे अन्य गैर-सरकारी संगठनों के साथ बैठे हैं।
विश्व स्वास्थ्य सभा और कार्यकारी बोर्ड
विश्व स्वास्थ्य सभा (व्हा) वो का विधायी और सर्वोच्च निकाय है। जिनेवा में आधारित, यह आम तौर पर मई में वार्षिक रूप से मिलता है। यह हर पाँच साल में महानिदेशक की नियुक्ति करता है और प्रस्तावित बजट सहित वो की नीति और वित्त के मामलों पर वोट देता है। यह कार्यकारी बोर्ड की रिपोर्ट की भी समीक्षा करता है और यह तय करता है कि आगे परीक्षा की आवश्यकता वाले कार्य क्षेत्र हैं या नहीं। विधानसभा ३४ सदस्यों का चुनाव करती है, जो तकनीकी रूप से स्वास्थ्य के क्षेत्र में तीन साल के लिए कार्यकारी बोर्ड के लिए योग्य हैं। बोर्ड के मुख्य कार्य विधानसभा के निर्णयों और नीतियों को आगे बढ़ाना है, ताकि यह सलाह दे सके और अपने काम को सुविधाजनक बना सके। अप्रैल २०२० तक, कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ। हिरोकी नकटानी हैं।
संगठन का प्रमुख महानिदेशक विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा चुना जाता है। यह शब्द ५ साल तक रहता है, और डायरेक्टर्स-जनरल को आम तौर पर मई में नियुक्त किया जाता है, जब विधानसभा मिलती है। वर्तमान महानिदेशक डॉ टेड्रोस एडहानॉम घेब्रेयस हैं, जिन्हें १ जू पर नियुक्त किया गया था
क्षेत्रीय, देश और सम्पर्क कार्यालयों के अलावा, विश्व स्वास्थ्य सभा ने अनुसन्धान को बढ़ावा देने और आगे बढ़ाने के लिए अन्य संस्थानों की भी स्थापना की है।
अंतरराष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान संस्था (आईएआरसी)
डब्ल्यूएचओ के क्षेत्रीय विभाजन १९४९ और १९५२ के बीच बनाए गए थे, और डब्ल्यूएचओ के संविधान के अनुच्छेद ४४ पर आधारित हैं, जो डब्ल्यूएचओ को वें से मिलने के लिए एक [एकल] क्षेत्रीय संगठन स्थापित करने की अनुमति देता है। क्षेत्रीय स्तर पर कई निर्णय किए जाते हैं, जिसमें डब्ल्यूएचओ के बजट पर महत्वपूर्ण चर्चाएँ शामिल हैं, और अगली विधानसभा के सदस्यों को तय करने में, जो कि क्षेत्रों द्वारा निर्दिष्ट किए जाते हैं।
प्रत्येक क्षेत्र में एक क्षेत्रीय समिति होती है, जो आम तौर पर साल में एक बार मिलती है, आमतौर पर शरद ऋतु में। प्रतिनिधि उन राज्यों सहित प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक सदस्य या सहयोगी सदस्य से शामिल होते हैं, जो पूर्ण सदस्य नहीं हैं। उदाहरण के लिए, फिलिस्तीन [विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्वी भूमध्य क्षेत्रीय कार्यालय की बैठकों में भाग लेता है। प्रत्येक क्षेत्र में एक क्षेत्रीय कार्यालय भी है। प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालय का नेतृत्व एक निदेशक करता है, जिसे क्षेत्रीय समिति द्वारा चुना जाता है। बोर्ड को इस तरह की नियुक्तियों को मंजूरी देनी चाहिए, हालाँकि २००४ तक, इसने कभी भी क्षेत्रीय समिति की प्राथमिकता पर शासन नहीं किया। प्रक्रिया में बोर्ड की सटीक भूमिका बहस का विषय रही है, लेकिन व्यावहारिक प्रभाव हमेशा छोटा रहा है। १९९९ के बाद से, क्षेत्रीय निदेशक एक बार नवीकरणीय पंचवर्षीय कार्यकाल के लिए काम करते हैं, और आम तौर पर १ फरवरी को अपना पद ग्रहण करते हैं।
डब्ल्यूएचओ की प्रत्येक क्षेत्रीय समिति में सभी स्वास्थ्य विभाग प्रमुख होते हैं, जो इस क्षेत्र का गठन करने वाली देशों की सभी सरकारों में शामिल हैं। क्षेत्रीय निदेशक के चुनाव के अलावा, क्षेत्रीय समिति स्वास्थ्य और अन्य नीतियों द्वारा कार्यान्वित क्षेत्र के भीतर, कार्यान्वयन के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करने की भी प्रभारी है। क्षेत्रीय समिति इस क्षेत्र के भीतर डब्ल्यूएचओ के कार्यों के लिए प्रगति समीक्षा बोर्ड के रूप में भी कार्य करती है।
क्षेत्रीय निदेशक प्रभावी रूप से अपने क्षेत्र के लिए डब्ल्यूएचओ का प्रमुख होता है। आरडी क्षेत्रीय कार्यालयों और विशेष केन्द्रों में स्वास्थ्य और अन्य विशेषज्ञों के कर्मचारियों का प्रबन्धन और / या पर्यवेक्षण करता है। र्ड प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण प्राधिकारी भी है - जो वो के महानिदेशक के साथ-साथ, वो के सभी प्रमुख कार्यालयों के प्रमुख हैं, जिन्हें इस क्षेत्र के भीतर वो प्रतिनिधि के रूप में जाना जाता है।
डब्ल्यूएचओ १४९ देशों और क्षेत्रों में ७,००० लोगों को रोजगार देता है। तंबाकू मुक्त काम के माहौल के सिद्धांत के समर्थन में, वो सिगरेट पीने वालों की भर्ती नहीं करता है। संगठन ने इससे पहले २००३ में तंबाकू नियंत्रण पर फ्रेमवर्क कन्वेंशन को उकसाया था।
वो संचालित करता है " सद्भावना राजदूत"; डब्ल्यूएचओ की पहल की ओर ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से कला, खेल या सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों के सदस्य। वर्तमान में पाँच सद्भावना राजदूत (जेट ली, नैन्सी ब्रिंकर, पेंग लियुआन, योही ससाकावा और वियना धर्मोन्मुखी ऑर्केस्ट्रा और एक और राजदूत से जुड़े हुए हैं।
देश और सम्पर्क कार्यालय
विश्व स्वास्थ्य संगठन छह अलग-अलग क्षेत्रों में १५० देश कार्यालयों का संचालन करता है। यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को कवर करने वाला एक कार्यालय सहित यह कई संपर्क कार्यालय भी संचालित करता है। यह ल्योन, फ़्रांस, कोबे, जापान में स्वास्थ्य विकास के लिए वो केन्द्र में इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर का संचालन भी करता है। अतिरिक्त कार्यालयों में प्रिस्टिना के लोग शामिल हैं; वेस्ट बैंक और गाजा; एल पासो में यूएस-मेक्सिको बॉर्डर फील्ड ऑफिस; कैरेबियन कार्यक्रम कोऑर्डि का कार्यालय आम तौर पर राजधानी में एक डब्ल्यूएचओ देश का कार्यालय होगा, कभी-कभी सवाल में देश के प्रान्तों या उप-क्षेत्रों में उपग्रह कार्यालयों के साथ।
देश कार्यालय का नेतृत्व एक डब्ल्यूएचओ प्रतिनिधि (डब्ल्यूआर) करता है। , उस देश का राष्ट्रीय होने के लिए यूरोप से बाहर का एकमात्र डब्ल्यूएचओ प्रतिनिधि लीबिया अरब जमहीरिया ("लीबिया") था; अमेरिका में वो प्रतिनिधियों ने अमेरिका को पहो / वो प्रतिनिधि कहा है। यूरोप में, डब्ल्यूएचओ के प्रतिनिधि देश कार्यालय के प्रमुख के रूप में भी काम करते हैं, और सर्बिया के अपवाद के साथ नागरिक हैं; अल्बानिया, रूसी संघ, ताजिकिस्ट में कण्ट्री ऑफिस के प्रमुख भी हैं र संयुक्त राष्ट्र प्रणाली देश की टीम का सदस्य है जो संयुक्त राष्ट्र प्रणाली रेजिडेंट कोऑर्डिनेटर द्वारा समन्वित है।
देश के कार्यालय में डब्ल्यूआर, और कई स्वास्थ्य और अन्य विशेषज्ञ शामिल हैं, दोनों विदेशी और स्थानीय, साथ ही आवश्यक सहायक कर्मचारी। डब्ल्यूएचओ देश के कार्यालयों के मुख्य कार्यों में स्वास्थ्य और दवा नीतियों के मामले में उस देश की सरकार का प्राथमिक सलाहकार होना शामिल है।
वित्त पोषण और भागीदारी
वो को सदस्य राज्यों और बाहरी दानदाताओं के योगदान से वित्तपोषित किया जाता है। २०२० तक, सबसे बड़ा योगदानकर्ता संयुक्त राज्य अमेरिका है, जो सालाना ४०० मिलियन डॉलर से अधिक देता है। डब्ल्यूएचओ में यू.एस. के योगदान को यू.एस. के माध्यम से वित्त पोषित किया जाता है। राज्य विभाग का] अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के योगदान के लिए (सियो) २०१८ में सबसे बड़ा योगदानकर्ता ($ १५० + प्रत्येक) संयुक्त राज्य अमेरिका, बिल एण्ड मेलिण्डा गेट्स फ़ाउण्डेशन, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी और जीएवीआई एलायंस थे।
अप्रैल २०२० में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, जिन्हें उनकी पार्टी के सदस्यों के एक समूह ने समर्थन दिया, घोषणा की कि उनका प्रशासन डब्लूएचओ को फ़ण्डिंग रोक देगा। डब्ल्यूएचओ के लिए पहले से रखे गए फण्डों को ६०-९० दिनों के लिए आयोजित किया जाना था, जो कि डब्ल्यूएचओ के कोविड-१९ महामारी से निपटने की जाँच लम्बित थी, विशेष रूप से संगठन के उद्देश्य के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित विश्व नेताओं द्वारा घोषणा की तुरन्त आलोचना की गई; हाइको मास, जर्मन विदेश मन्त्री; और मौसा फाकी
योगदान दिया राज्यों के धन और जनसंख्या के आधार पर सदस्य राज्य भुगतान करते हैं
'स्वैच्छिक योगदान निर्दिष्ट' सदस्य राज्यों या अन्य भागीदारों द्वारा प्रदान किए गए विशिष्ट कार्यक्रम क्षेत्रों के लिए धन है
' कोर स्वैच्छिक योगदान ' सदस्य राज्यों या अन्य भागीदारों द्वारा प्रदान किए गए लचीले उपयोगों के लिए धन है
२१ वीं सदी की शुरुआत में, डब्ल्यूएचओ के काम में बाहरी निकायों के साथ सहयोग बढ़ाना शामिल था। }, कुल ४ आस३ गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने डब्ल्यूएचओ के साथ भागीदारी की। औपचारिक "आधिकारिक सम्बन्धों" में अन्तरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों के साथ १८९ की भागीदारी थी - बाकी को चरित्र में अनौपचारिक माना जाता है। साझेदारों में बिल एण्ड मेलिण्डा फ़ाउण्डेशन शामिल हैं। और रॉकफ़ेलर फ़ाउण्डेशन।
, सदस्य राज्यों का सबसे बड़ा वार्षिक मूल्यांकन संयुक्त राज्य अमेरिका ($ ११० मिलियन), जापान ($ ५८ मिलियन), जर्मनी ($ ३७ मिलियन), यूनाइटेड किंगडम ($ ३१) से आया है संयुक्त २०१२-२०१३ के बजट में कुल ३,९५९ मिलियन डॉलर का खर्च प्रस्तावित किया गया था, जिसमें से ९४४ मिलियन डॉलर (२४%) का मूल्यांकन योगदान से होगा। यह पिछले २००९-२०१० के बजट की तुलना में परिव्यय में महत्वपूर्ण गिरावट का प्रतिनिधित्व करता है, जो पिछले अण्डरस्क्रिप्स के खाते को समायोजित करता है। सुनिश्चित योगदान समान रखा गया। स्वैच्छिक योगदान $ ३,०१५ मिलियन (७६%) के लिए होगा, जिसमें से $ ८०० मिलियन को अत्यधिक या मध्यम लचीली निधि के रूप में माना जाता है, शेष के साथ विशेष कार्यक्रमों या बँधे हुए
वैश्विक प्रधान कार्यालय
संगठन की सीट जिनेवा, स्विट्जरलैंड में है। यह स्विस वास्तुकार जीन सेंचुमी द्वारा डिजाइन किया गया था और १९६६ में इसका उद्घाटन किया गया था। २०१७ में, संगठन ने अपने मुख्यालय को फिर से डिज़ाइन और विस्तारित करने के लिए एक अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता शुरू की। |
हृदयाघात आज मनुष्य-जाति के सर्वाधिक प्राणलेवा रोगों में से प्रमुख है जो मानसिक तनाव एवं अवसाद से जुड़ा हुआ है। दोषपूर्ण भोजन-विधि, मद्यपान, धूम्रपान, मादक पदार्थों का सेवन तथा विश्रामरहित परिश्रम इत्यादि हृदय-रोग के प्रमुख कारण हैं। इसके निदान के लिए जीवन-शैली में परिवर्तन लाने की आवश्यकता प्रमुख है। आधुनिक सभ्यता का यह अभिशाप है कि मनुष्य के जीवन में केवल बाह्य परिस्थितियाँ ही दवाब उत्पन्न नहीं करती बल्कि इंसान स्वयं भी काल्पनिक एवं मिथ्या दवाब उत्पन्न करके अपने को अकारण ही पीड़ित करने लगता है। जब मानव मस्तिष्क को कोई उतेजनापूर्ण सन्देश मिलता है, कुछ ग्रन्थियों मे तत्काल स्राव प्रारम्भ हो जाता है जिसके प्रभाव से सारे देह यन्त्र में विशेषत: हृदय तथा रक्त-संचार में एक उथल-पुथल सी मच जाती है, जिसका आभास नाड़ी के भड़कने से होने लगता है। हृदय शरीर का अत्यन्त संवेदनशील अंग है तथा सारे जीवन बिना क्षणभर विश्राम किए हुए ही निरन्तर सक्रिय रहकर समस्त अवयवों को रक्त तथा पोषक तत्वों की आपूर्ति करता है। मस्तिष्क का अत्याधिक दवाब हृदय में इतनी धड़कन उत्पन्न कर देता है कि उसे सहसा आघात (हार्ट एटैक) हो जाता है।
अघात के कारण
यद्यपि हृदय आघात के कारण अनेक हैं तथापि दबाव ही आघात का प्रमुख कारण है। पुष्टिप्रद भोजन लेते रहने पर भी मानसिक दबाव हृदय को आहत कर देता है। दीर्घकाल तक मानसिक दबाव एवं तनाव के रहने पर पेट में व्रण (पेप्टिक अल्सर), भयानक सिरदर्द (माइग्रेन), अम्लपित (हाइपर एसिडिटि), त्वचा-रोग इत्यादि भी उत्पन्न हो जाते हैं।
मनुष्यों में व्यक्तिगत भेद होते हैं तथा बाह्य परिस्थितियों को ही सारा दोष देना उचित नहीं है। कुछ लोग अन्यन्त विषम परिस्थिति में भी पर्याप्त सीमा तक सम और शान्त रहते हैं तथा कुछ अन्य साधारण-सी विषमता में भी अशान्त हो जाने के कारण सहसा भीषण हृदय-रोग से आहत हो जाते हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि मनुष्य का दोषपूर्ण स्वभाव अथवा दोषपूर्ण चिन्तन ही हृदयघात का प्रमुख कारण है।
अघात से बचाव
हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्राय: मानसिक दवाब बाह्य परिस्थिति की प्रतिक्रिया होता है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक प्रतिक्रिया बौद्धिक-शक्ति के भेद के कारण भिन्न होती है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में अपनी चिन्तन-शक्ति एवं संकल्प-शक्ति को जगाते रहने का निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए तथा अपने स्वाभाव एवं सामर्थ्य तथा परिस्थितियों के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य को अपने मानसिक दबाव और उससे उत्पन्न तनाव के मूल कारण को अपने भीतर ही अर्थात अपनी चिन्तन-शैली एवं स्वभाव के भीतर ही खोजकर उसके समाधान का बुद्धिमतापूर्ण उपाय करना चाहिए। अतएव यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने विचारों और स्वभाव को पूरी तरह से जानें जिससे कि हम विवेक के सदुपयोग द्वारा अपने मानसिक दबावों का नियन्त्रण एवं निराकरण कर सकें। हमें आत्म-विश्लेषण द्वारा अपने गुण, अपने दोष, अपने विश्वास, अपनी आस्थाएं, मान्यताएं, अपने भय और चिन्ताएं, अपनी दुर्बलताएं, हीनताएं, अपनी समस्याएं, अपने दायित्व, अपनी अभिरुचि, सामर्थ्य और सीमाएं जानकर अपने चिन्तन, स्वाभाव एवं जीवन-शैली में आवश्यक परिर्वतन लाने का प्रयत्न करना चाहिए। |
रायलसीमा भारत का एक "अनाधिकारिक" भौगोलिक क्षेत्र है जो आंध्र प्रदेश प्रान्त का एक हिस्सा है, इस क्षेत्र में मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश के कर्नूल, नंद्याल, श्री सत्या साई, अन्नामय्या, तिरुपति , कुडप्पा, अनंतपुर और चित्तूर जिले आते हैं।
२०११ की भारत की जनगणना के अनुसार, चार जिलों वाले क्षेत्र में १५,१८४,९०८ की आबादी थी और ६७,५२६ किमी २ (२6,07२ वर्ग मील) का क्षेत्र शामिल था।
रायलसीमा का अधिकांश हिस्सा तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के अन्य तटीय इलाकों के मुक़ाबले अविकसित या अर्धविकसित है। तेलंगाना के अलग राज्य के रूप में माँग की जोर पकड़ने के कारण रायलसीमा के दु:खों पर केन्द्रित कई आंदोलन भी खड़े हुये हैं। इन सारे आंदोलनों का प्रमुख ध्येय रायलसीमा की समस्याओं पर ध्यान आकर्षित करना होता है। खासकर कृष्णा नदी और गोदावरी के पानी इनकी सबसे बड़ी समस्या है जिसके न होने से यहाँ हर साल लगभग अकाल जैसी स्थिति होती है। इस ईलाके के ज्यादातर लोग तेलंगाना की तर्ज पर अलग प्रान्त की माँग, या आंध्र प्रदेश की राजधानी को रायलसीमा में स्थानांतरित करने की माँग पर सहमत दिखते हैं।
१९२८ में, नंदील में आयोजित आंध्र महासभा के नेताओं से एक मजबूत नापसंद व्यक्त किया गया था। इस क्षेत्र को चिलुकुरी नारायण राव के प्रस्ताव के साथ रायलसीमा (चट्टानों की भूमि) के रूप में अपना नाम मिला और स्वीकार कर लिया गया।
ब्रिटिश काल के दौरान, हैदराबाद के निज़ाम ने इस क्षेत्र को अंग्रेजों को सौंपा, और इसलिए इस क्षेत्र के ज़िलों को सीडेड जिलों के नाम से बुलाया गया। स्वतंत्रता के बाद, इसका नाम बदलकर रायलसीमा रखा गया, जो आज के जिलों के समान विजयनगर साम्राज्य की एक प्रशासनिक क्षेत्रीय इकाई थी।
स्वतंत्रता के बाद
इस क्षेत्र के चार जिले १९५३ तक मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा थे। १९५३-१९५६ से, यह क्षेत्र आंध्र राज्य का हिस्सा था और १९५६ में तेलंगाना क्षेत्र आंध्र प्रदेश राज्य बनाने के लिए आंध्र प्रदेश के साथ विलय कर दिया गया था। २ फरवरी १९७० को, करनूल यानी मार्कपुर , कुंबम और गिद्दालुर के तीन तालुक ने नेल्लोर जिले और गुंटूर जिले के कुछ अन्य तालुकों के साथ प्रकाशम जिले बनाने के लिए विलय कर दिए।
फरवरी २०१४ में, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०१४ बिल को जिलों में तेलंगाना राज्य के गठन के लिए भारत की संसद द्वारा पारित किया गया। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना दोनों के लिए हैदराबाद १० वर्षों तक संयुक्त पूंजी के रूप में रहेगा। तेलंगाना का नया राज्य भारत के राष्ट्रपति से अनुमोदन के बाद २ जून २०१४ को अस्तित्व में आया।
रायलसीमा क्षेत्र आंध्र प्रदेश राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित है । यह क्षेत्र दक्षिण में तमिलनाडु राज्य, पश्चिम में कर्नाटक और उत्तर में तेलंगाना सीमा से है।
रायलसीमा खनिजों में समृद्ध है - एस्बेस्टोस, बैरेट्स, चीन मिट्टी, कैल्साइट, डोलोमाइट, हीरे, ग्रीन क्वार्ट्ज, लौह, चूना पत्थर और सिलिका रेत इत्यादी। दुर्लभ लाल चंदन समृद्ध वन धन भी है। रायलसीमा क्षेत्र सूखे से ग्रस्त है। २०१५ में, स्थानीय लोगों ने विशेष रूप से सिंचाई के क्षेत्रों में सूखे को कम करने के लिए कई परियोजनाओं की उपेक्षा के बारे में सर्कार के सामने शिकायत और प्रस्ताव रखा।
श्रीकृष्ण देवराय के तहत विजयनगर शासन के दौरान तेलुगू संस्कृति अपने चरम पर पहुंच गई। अष्ट डिगज, अल्लसानी पेद्दाना, धूर्जटी, नंदी तिम्मना, मादययगारी मल्लन्ना और अय्याराजू राम भद्रुडू में से हैं। कडपा जिले के श्री पोटुलुरी विराब्रह्मेन्द्र स्वामी ने अपने साहित्यिक कार्यों के माध्यम से आम लोगों को शिक्षित करने में एक बड़ी भूमिका निभाई। यह १९३० के दशक तक अधिकांश विशेषज्ञों (कंदुकुरी वीरसलिंगम इत्यादि) द्वारा भी लिखा गया है, जो आंध्र महाभागवतम लिखने वाले पोतना वास्तव में कडपा जिले के ओटोमिट्टा गांव से संबंधित थे। भारतीय दार्शनिक और आध्यात्मिक शिक्षक जिद्दू कृष्णमूर्ति और कट्टामंची रामलिंग रेड्डी - एक निबंधकार, कवि और शिक्षाविद इस क्षेत्र से हैं। योगी वेमना भी एक उल्लेखनीय कवि है। अन्नामय्या कदप्पा जिले से हैं जो चित्तौर जिले के तिरुपति में बस गए और श्री वेंकटेश्वर स्वामी की प्रशंसा में कई गाने बनाये गये विजयनगर काल के हैं और तेलुगू साहित्य के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार में से एक है।
संगीत और अभिनेता
फिल्म उद्योग में कई उल्लेखनीय अभिनेता हैं जैसे चित्तुरु नागय्या, कदीरी वेंकट रेड्डी, पासूपुलेट कन्नम्बा, बसवराज वेंकट पद्मनाभा राव, चाडलावाड़ा कुतुंबा राव इत्यादि। संगीतकारों और कवियों में शामिल हैं, अन्नामय्या, रल्लपल्ली अनंत कृष्णा शर्मा, वेलाला सुब्बाम्मा इत्यादि।
अन्नामय्या एक आध्यात्मिक गुरु है, जिन्होंने भगवान वेंकटेश्वर आध्यात्मिक गीत लिखे हैं, श्री पोतुलूरी विराब्रह्मेन्द्र स्वामी, गणपति सचिदानंद, सत्य साईं बाबा, जिद्दू कृष्णमूर्ति एक तत्वज्ञानी हैं।
गंडिकोटा ११२३ ई तक के सबसे पुराने किले में से एक है। बेलम गुफाएं भारतीय उपमहाद्वीप में दूसरी सबसे बड़ी गुफा हैं और भारतीय उपमहाद्वीप के मैदानों में सबसे लंबी गुफाएं हैं। यह करनूल जिले के बेलम गांव में स्थित है। श्री लंकामलेश्वर वन्यजीव अभयारण्य दुनिया का एकमात्र अभयारण्य है जो जेर्डन कोर्सेर नामक एक पक्षी के लिए घर प्रदान करता है। चित्तूर जिले के गुर्रम कोंडा, चंद्रगिरी, हार्सिली हिल्स, कुप्पम और तलाकोना ।
तिम्मम्मा मर्रीमानु दुनिया का सबसे बड़ा बरगद का पेड़ है, जो ५.२ एकड़ (२1,००० मीटर वर्ग) में फैला है, और ५५0 वर्ष पुराना है। यह पेड़ अपना नाम गिन्निस रिकॉर्ड में कर चुका है। यह अनंतपुर से 1२0 किलोमीटर दूर कदिरी के पास स्थित है।
रायलसीमा में तीर्थयात्रा के कई महत्वपूर्ण स्थान हैं। तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर, भगवान वेंकटेश्वर का निवास दुनिया का सबसे अमीर और सबसे अधिक देखी जाने वाली जगह है। दूसरा श्रीशैलम, अहबिलम, श्रीकालहस्ती, कनिपाकम, कदीरी, रायदुर्गम, पन्ना अहबिलम, महानंदी, मंत्रालयम, पुट्टपर्थी, यागांति, लेपाक्षी, ओन्टिमिट्टा, ब्रममगारिथम आदि शामिल हैं। अदोनी में शाही जामिया मस्जिद दक्षिण भारत में सबसे पुराने निर्माण में से एक है, जो आसपास बनाया गया है १६६२ ईस्वी सिद्दी मसूद खान द्वारा निर्मित है। भारत में एक प्रसिद्ध सूफी खानखाह और दरगाह अमीन पीर दरगाह शहर कडपा में है।
रायलसीमा क्षेत्र में विश्वविद्यालयों, चिकित्सा महाविद्यालयों, केंद्रीय प्रीमियर संस्थानों और समख्यात विश्वविद्यालयों की अच्छी संख्या है।
श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय
श्रीकृष्ण देवाराय विश्वविद्यालय
योगी वेमना विश्वविद्यालय
श्री पद्मावती महिला विश्वविद्यालयम
जेएनटीयूए कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पुलिवेन्दुला
वाईएसआर इंजीनियरिंग कॉलेज ऑफ वाईवीयू, प्रोड्डात्तूर
राजीव गांधी यूनिवर्सिटी ऑफ नॉलेज टेक्नोलॉजीज, इडुपुलापाया ।
श्री वेंकटेश्वर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज
राजीव गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, कडापा
करनूल मेडिकल कॉलेज
सरकारी मेडिकल कॉलेज, अनंतपुर
पशु चिकित्सा विज्ञान कॉलेज, प्रोद्दटूर।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरुपति
भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान, तिरुपति
भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी डिजाइन और विनिर्माण, कुरनूल
भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, श्री सिटी ।
श्री सत्य साई विश्वविद्यालय
राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ ।
सरकारी पॉलिटेक्निक हिंदुपुर
गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज, प्रोड्डात्तूर
रायलसीमा क्षेत्र सड़कों, रेलवे और हवाई अड्डों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। समुद्र से दूर स्थित होने पर इस क्षेत्र में समुद्री बंदरगाह नहीं है।
क्षेत्र में सड़क नेटवर्क में कई राष्ट्रीय राजमार्ग शामिल हैं जैसे एनएच ४०, एनएच ४२, एनएच ४४, एनएच 1४०, एनएच १६७, एनएच 3४०, एनएच ६७, एनएच ६९, एनएच ७१, एनएच ७१6।
रेल कनेक्टिविटी आवंटित परियोजनाओं के साथ बेहतर हो रही है या नंदील-येरागुंटला , नादिकुडी-श्रीकालहस्ती , कदपा-बंगलौर खंडों के क्षेत्र में हिस्सा विकसित हो रहे हैं जो विकास परियोजनाओं के तहत हैं जो इस क्षेत्र का एक हिस्सा हैं। अधिकांश क्षेत्र दक्षिण मध्य रेलवे क्षेत्र के गुंटकल रेलवे डिवीजन के अधिकार क्षेत्र में आता है।
रायलसीमा क्षेत्र में तिरुपति हवाई अड्डा, पुट्टपर्थी हवाई अड्डा और कडपा हवाई अड्डा के तीन हवाई अड्डों के साथ हवाई कनेक्टिविटी है।
रायलसीमा क्षेत्र में थर्मल के साथ-साथ सौर ऊर्जा संयंत्र भी हैं। रायलसीमा थर्मल पावर स्टेशन कडप्पा जिले में स्थित है और आंध्र प्रदेश सरकार ने हाल ही में ४००० एमडब्ल्यू की क्षमता के साथ रायलसीमा जिलों में सौर ऊर्जा पार्कों को मंजूरी दे दी है। आज आंध्र प्रदेश राज्य सौर ऊर्जा उत्पादन में स्थापित स्थिति के साथ नंबर १ स्थान पर रहा १868 मेगावाट आर्टियल१8289685.एस भारत में और १000 मेगावॉट का दुनिया का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा पार्क भी आंध्र प्रदेश में स्थित है ।
नीलम संजीव रेड्डी, दमोदरम संजीवय्या, कोटला विजया भास्कर रेड्डी, एन चंद्रबाबू नायडू, वाई एस राजशेखर रेड्डी और एन किरण कुमार रेड्डी वे लोग हैं जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत थे और हैं, राज्य के रायलसीमा क्षेत्र से हैं, चंद्रबाबू नायडू अब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। इस क्षेत्र से राज्य के ६ मुख्य मंत्री थे ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सांसद कोटला सूर्यप्रकाश रेड्डी इस क्षेत्र की जनता को एकजुट करने की मुहिम में जुटे हैं। वे आंधर प्रदेश तटीय शहर नेल्लोर, प्रकाशम, कर्नूल और कर्नाटक के बेल्लारी को शामिल कर एक अलग रायलसीमा प्रान्त के गठन के लिये एक मुहिम खड़ी करने की कोशिश में हैं।
१५ नवंबर १९३७ को हस्ताक्षर किए गए श्री बाग संधि के आधार पर, मद्रास राज्य से आंध्र राज्य के विभाजन के बाद कर्नूल को नए राज्य की राजधानी के रूप में बनाया गया था। दूसरे राज्य संकल्प आयोग के अनुसार, राजधानी आंध्र प्रदेश के गठन पर हैदराबाद चली गई थी।
यह भी देखें
भारत के पारंपरिक क्षेत्र |
कबड्डी एक खेल है, जो मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में खेली जाती है। कबड्डी नाम का प्रयोग प्राय: उत्तर भारत में किया जाता है, इस खेल को दक्षिण में चेडुगुडु और पूर्व में हु तू तू के नाम से भी जानते हैं। यह खेल भारत के पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में भी उतना ही लोकप्रिय है। तमिल, कन्नड़ और मलयालम में ये मूल शब्द, (-) "कै" (हाथ), "पिडि" (पकडना) का रूपान्तरण है, जिसका अनुवाद है 'हाथ पकडे रहना'। कबड्डी, बांग्लादेश का राष्ट्रीय खेल है
साधारण शब्दों में इसे ज्यादा अंक हासिल करने के लिए दो टीमों के बीच की एक स्पर्धा कहा जा सकता है। अंक पाने के लिए एक टीम का रेडर (कबड्डी-कबड्डी बोलने वाला) विपक्षी पाले (कोर्ट) में जाकर वहाँ मौजूद खिलाडियों को छूने का प्रयास करता है। इस दौरान विपक्षी टीम के स्टापर (रेडर को पकड़ने वाले) अपने पाले में आए रेडर को पकड़कर वापस जाने से रोकते हैं और अगर वह इस प्रयास में सफल होते हैं तो उनकी टीम को इसके बदले एक अंक मिलता है। और अगर रेडर किसी स्टापर को छूकर अपने पाले में चला जाता है तो उसकी टीम के एक अंक मिल जाता और जिस स्टापर को उसने छुआ है उसे नियमत: कोर्ट से बाहर जाना पड़ता है।
कबड्डी में १२ खिलाड़ी होते हैं जिसमें से ७ कोर्ट में होते हैं और ५ रिज़र्व होते हैं। कबड्डी कोर्ट डॉज बॉल गेम जितना बड़ा होता है। कोर्ट के बीचोबीच एक लाइन खिंची होती है जो इसे दो हिस्सों में बाँटती है। कबड्डी महासंघ के हिसाब से कोर्ट का माप १३ मीटर १० मीटर होता है।
खेलने का तरीका
खिलाडियों के पाले में आने के बाद टॉस जीतने वाली टीम सबसे पहले कोर्ट की साइड या रेड करना चुनती हैं। फिर रेडर कबड्डी-कबड्डी बोलते हुए जाता है और विपक्षी खिलाडियों को छूने का प्रयास करता हैं। वह अपनी चपलता का उपयोग कर विपक्षी खिलाडियों (स्टापरों) को छूने का प्रयास कर सकता है। इस प्रक्रिया में अगर वह विपक्षी टीम के किसी भी स्टापर को छूने में सफल होता है तो उस स्टापर को मरा हुआ (डेड) समझ लिया जाता है। ऐसे में उस स्टापर को कोर्ट से बाहर जाना पड़ता है। और अगर स्टापरों को छूने की प्रक्रिया में रेडर अगर स्टापरों की गिरफ्त में आ जाता है तो उसे मरा हुआ (डेड) मान लिया जाता है। यह प्रक्रिया दोनों टीमों की ओर से बारी-बारी चलती रहती है।
इस तरह जिस दल के ज़्यादा अंक होते हैं उसे विजेता घोषित किया जाता हैं।
खेल की अवधि
यह खेल आमतौर पर २०-२० मिनट के दो हिस्सों में खेला जाता है। हर हिस्से में टीमें पाला बदलती हैं और इसके लिए उन्हें पाँच मिनट का ब्रेक मिलता है। हालाँकि आयोजक इसके एक हिस्से की अवधि १० या १५ मिनट की भी कर सकते हैं। हर टीम में ५-६ स्टापर (पकड़ने में माहिर खिलाड़ी) व ४-५ रेडर (छूकर भागने में माहिर) होते हैं। एक बार में सिर्फ चार स्टापरों को ही कोर्ट पर उतरने की इजाजत होती है। जब भी स्टापर किसी रेडर को अपने पाले से बाहर जाने से रोकते हैं उन्हें एक अंक मिलता है लेकिन अगर रेडर उन्हें छूकर भागने में सफल रहता है तो उसकी टीम को अंक मिल जाता है।
मैचों का आयोजन आयु और वजन के आधार पर किया जाता है, परन्तु आजकल महिलाओं की भी काफी भागेदारी हो रही है।
पूरे मैच की निगरानी आठ लोग करते हैं: एक रेफ़री, दो अम्पायर, दो लाइंसमैन, एक टाइम कीपर, एक स्कोर कीपर और एक टीवी अम्पायर।
पिछले तीन एशियाई खेल में भी कबड्डी को शामिल करने से जापान और कोरिया जैसे देशों में भी कबड्डी की लोकप्रियता बढ़ी है।
कबड्डी की प्रमुख प्रतियोगिताएँ
एशियाई खेलों में कबड्डी
एशिया कबड्डी कप
प्रो कबड्डी लीग
कबड्डी विश्व कप
महिला कबड्डी विश्व कप
यूके कबड्डी कप
विश्व कबड्डी लीग
एशियाई खेलों में कबड्डी
कबड्डी का विश्वकप सबसे पहले २००४ में खेला गया था। उसके बाद २००७, २०१०, २०१२ और २०१६ में हुआ। अभी तक भारत सभी में विजेता रहा है।
| भारत ५५ २७ ईरान
| भारत २९ १९ ईरान
| भारत ५८ ५१ पाकिस्तान
| भारत ५९ २५ कनाडा
| भारत ५९ २२ पाकिस्तान
| भारत ३८-२९ ईरान
इन्हें भी देखें
विश्व कप कबड्डी (मानक शैली)
प्रथम महिला विश्व कबड्डी प्रतियोगिता</स्पैन>
प्रो कबड्डी लीग
कैसा रहा हमारे बचपन के खेल कबड्डी का दिलचस्प सफर
दिल्ली से लंदन तक गूँज रहा: कबड्डी कबड्डी कबड्डी (चौथी दुनिया)
कबड्डी - अमर उजाला
कबड्डी के विभिन्न प्रकार और नियम (स्पोर्ट्सकीड़ा)
भारत में खेल |
टेक्सास (टेक्सास) संयुक्त राज्य अमेरिका का एक दक्षिणी प्रान्त है। स्थिति : ३१ डिग्री ४० मिनट उ. अ. तथा ९८ डिग्री ३० मिनट पं॰ दे.। यह संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिणी मध्य राज्यों में से एक राज्य है। इसके पूर्व में लुइज़िऐना (लूसियाना) और आरकैनसस (अर्कन्सास), पश्चिम में न्यूमेक्सिको, उत्तर में आरकैनसस तथा ओक्लाहोमा (ओक्लाहोमा) तथा दक्षिण में मेक्सिको एवं मेक्सिको की खाड़ी स्थित है। इस राज्य का क्षेत्रफल २,६७,३३९ वर्ग मील है जिसमें से ३,६९५ वर्ग मील क्षेत्र जल से घिरा हुआ है। इसकी राजधानी ऑस्टिन (ऑस्टिन) है।
टक्सैस की ढाल गल्फ कोस्ट से उत्तर, उत्तर-पश्चिम और पश्चिम की ओर है। सुदूर उत्तर-पश्चिम तथा पश्चिम में इसकी ऊँचाई ४,००० फुट है। सुदूर पश्चिम में रॉकी पर्वतमाला की पूर्वी शाखा इसे पार करती है, जिसकी मुख्य चोटियाँ ग्वॉडलूप (गुडालुपे) ८,७१५ फुट, लिवरमूर (लिवरमोर) ८,3८2 फुट तथा ऐमॉरी (एमोरी) ७,८35 फुट ऊँची हैं। यहाँ की मुख्य नदियाँ रीओग्रैंड, न्यूएसेस, सैन ऐनटोनिओ, ग्वॉडलूप, कॉलोरॉडो, ब्रैजस, ट्रिनिटी, नेचेज तथा साबीन हैं।
टेक्सैस के निम्नलिखित चार प्राकृतिक भाग हैं :
१. गल्फ कोस्टल प्लेन्स - यह राज्य की पूर्वी सीमा से लेकर लोअर रीओ ग्रैंड घाटी तक फैला हुआ है।
२. लोअर वेस्टर्न प्लेन्स - इसमें उत्तरी मध्य टेक्सैस आता है, जिसके अंतर्गत ब्लैक लैंड, ग्रैंड प्रेयरी (प्रऐरियर) तथा पश्चिमी मध्य टेक्सैस के लहरदार मैदान हैं।
३. वेस्टर्न हाई प्लेन्स - इसके अंतर्गत नार्थ टेक्सैस पैनहैंडिल, दक्षिण में रीओ ग्रैंड और पूर्व में जहाँ सैन ऐनटोनिओ हाई प्लेन्स तथा एडवर्ड पठार में विभक्त होता है, वहाँ तक का क्षेत्र सम्मिलित है।
४. पर्वतीय क्षेत्र - इसके अंतर्गत पेकस नदी का पश्चिमी भाग आता है।
टेक्सैस की लंबी तटीय रेखा पर कई बंदरगाह हैं जिनमें से गैलवेस्टन, ह्यूस्टन, टेक्सैस सिटी, बोमॉन्ट, पोर्ट आर्थर कॉर्पस क्रिस्टी एवं पोर्ट अरैनसैस प्रमुख हैं।
टेक्सैस की जलवायु उत्तर में उपोष्ण कटिबंधीय, दक्षिण में मध्य शीतोष्ण, पूर्व में आर्द्र तथा पश्चिम में शुष्क है। यहाँ का औसत ताप १९० सें. तथा औसत वार्षिक वर्षा ३०.२५"" है। तटीय मैदानों में अनुसमुद्री (मैरिटाइम) जलवायु प्रधान है, सूदूर पश्चिम में पर्वतीय मौसम तथा उपर्युक्त दोनों स्थलों के मध्य के क्षेत्र में महाद्वीपीय जलवायु पाया जाता है। लोअर रीओ ग्रैंड घाटी जंगलविहीन है तथा पैनहैंडिल (पनहांडल) पर औसत वार्षिक हिमपात १५"" है। टेक्सैस में सिंचाई तथा पेय जल के पचास प्रति शत की पूर्ति भूमिगत जल से होती है।
पूर्वी टेक्सैस की चीड़ पट्टी (पीन बेल्ट) प्रमुख जंगली क्षेत्र है। छोटी पत्ती, बड़ी पत्ती तथा पिंडकीय पत्तीवाला चीड़ इस क्षेत्र का प्रमुख उत्पाद है। सफेद और लाल बांज, लाल और काली मैग्नोलिया तथा साखू (साइप्रेस) यहाँ मिलते हैं। इनके अतिरिक्त देवदारु तथा मेस्कीट (मेस्क्विट) भी यहाँ होता है। इस राज्य में ५७० किस्म की घासें तथा ४,००० किस्म के फूल होते हैं। सफेद दुमबाले वर्जिनिया हरिण यहाँ बहुतायत से पाए जाते हैं और इनका शिकार होता है। इसके अतिरिक्त गिलहरियों की कई किस्में, स्यूल डियर (मुले दीर), हरिण (ऐंटीलोप), भेड़िए की कई किस्में तथा लोमड़ी पाई जाती है। हंस और बतख भी पर्याप्त संख्या में यहाँ मिलते है। चिड़ियों की लगभग आठ सौ जातियाँ (स्पेश) यहाँ पाई जाती हैं। तटीय जल में मछलियाँ बहुतायत से मिलती हैं।
पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस तथा गंधक यहाँ के प्रमुख कच्चे माल हैं। गेहूँ तथा धान की खेती होती है। भेड़ का ऊन तथा मोहेयर (मोहऐर) का उत्पादन यहाँ होता है। यहाँ चमड़ा तथा चमड़े की वस्तुओं, काच, विद्युद्यंत्र, धातु की वस्तुओं तथा कागज एवं उससे संबंधित अन्य वस्तुओं का निर्माण होता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य |
इलिनॉय () अमरीका का एक राज्य है। इसकी राजधानी स्प्रिंगफील्ड है। इस राज्य में शिकागो सबसे बड़ा शहर है। इसे १८१८ में राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। यह ६वां सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य और भूमि क्षेत्र के मामले में २५वां सबसे बड़ा राज्य है। इलिनोइस का एक विविध आर्थिक आधार है और यह एक प्रमुख परिवहन केंद्र है। शिकागो का बंदरगाह विशाल झीलों के माध्यम से राज्य को अन्य वैश्विक बंदरगाहों से जोड़ता है। दशकों से ओ'हारे अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा को दुनिया के सबसे व्यस्ततम हवाई अड्डों में से एक के रूप में गिना जाता है।
सबसे पहले १७वीं और १८वीं शताब्दी में यूरोपीय जनसंख्या राज्य के पश्चिम में मिसिसिपी नदी पर बसी, जो कि फ्रांसीसी कनाडाई उपनिवेशवादी थे। अमेरिकी क्रन्तिकारी युद्ध के पश्चात् संयुक्त राज्य की स्थापना हुई और अमेरिकी आबादकार १८10 के दशक में एपलाशियन पर्वतमाला को पार करके बसना शुरू हुए। शिकागो की १८30 के दशक में शिकागो नदी के तट पर स्थापना की गई जो कि दक्षिणी मिशिगन झील पर चुनिंदा प्राकृतिक बंदरगाहों में से एक है। जॉन डेयर के नए प्रकार के स्टील के हल के आविष्कार ने इलिनोइस के समृद्ध प्रेरी को दुनिया के सबसे अधिक उत्पादक पूर्ण और मूल्यवान खेतों में बदल दिया, जिसने जर्मनी और स्वीडन के नए आप्रवासी किसानों को आकर्षित किया।
इलिनोइस में रहने के दौरान तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों का निर्वाचिन हुआ है: अब्राहम लिंकन, युलीसेस सिंपसन ग्रांट, और बराक ओबामा। इसके अतिरिक्त रोनाल्ड रीगन, जिनका राजनीतिक कैरियर कैलिफोर्निया में स्थित था, इलिनोइस में पैदा और पले-बढ़े हुए एकमात्र अमेरिकी राष्ट्रपति है। अब इलिनोइस ने लिंकन को अपने आधिकारिक नारे, लैंड ऑफ़ लिंकन के साथ सम्मानित किया है जो कि १९५४ से उसके लाइसेंस प्लेटों पर प्रदर्शित किया जा रहा है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य |
न्यू इंग्लैंड () संयुक्त राज्य अमेरिका का एक भौगोलिक क्षेत्र है जिसमें पूर्वोत्तर संयुक्त राज्य के छह राज्य शामिल हैं: मेन, वरमॉण्ट, न्यू हैम्पशायर, मैसाचुसेट्स, रोड आइलैंड और कनेक्टिकट। यह न्यूयॉर्क से पश्चिम और दक्षिण में सीमा रखता है और कनाडाई प्रान्तों न्यू ब्रंसविक और क्यूबेक से क्रमशः उत्तर-पूर्व और उत्तर में। मैसाचुसेट्स की राजधानी बोस्टन, न्यू इंग्लैंड का सबसे बड़ा शहर है।
१६२० में पहले अंग्रेज लोग मैसाचुसेट्स में बसना शुरू हुए थे। १८वीं शताब्दी के अंत में, न्यू इंग्लैंड कॉलोनियों के राजनीतिक नेताओं ने नए कर लागू करने के ब्रिटेन के प्रयासों के प्रति प्रतिरोध शुरू किया। इस टकराव ने १७७५ में अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध की पहली लड़ाई और वसंत १७७६ में इस क्षेत्र से ब्रिटिश अधिकारियों के निष्कासन का नेतृत्व किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में गुलामी को खत्म करने के लिए इस क्षेत्र ने आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। यह अमेरिका का पहला क्षेत्र भी था जिसमें औद्योगिक क्रांति का बदलाव हुआ।
न्यू इंग्लैंड की भौगोलिक भूगोल विविध है। दक्षिणपूर्व न्यू इंग्लैंड संकीर्ण तटीय मैदान है, जबकि पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्रों में एपलाशियन पर्वतमाला के उत्तरी छोर के चोटियों का प्रभुत्व है। २०१० में, न्यू इंग्लैंड की आबादी १,४४,४४,८६५ थी। मैसाचुसेट्स सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है, जबकि वरमोंट कम से कम आबादी वाले राज्य है। श्वेत अमेरिकी कुल जनसंख्या के ८३.४% हैं। अंग्रेज़ी घर पर बोली जाने वाली सबसे आम भाषा है। 8१.३% निवासी घर पर केवल अंग्रेज़ी ही बोलते हैं। 20१5 तक, न्यू इंग्लैंड की जीडीपी ९5३.९ अरब डॉलर थी।
इन्हें भी देखें
संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य |
ब्रसेल्स (, , ; , ), जिसे अधिकृत तौर पर ब्रुसेल्स का क्षेत्र या ब्रुसेल्स-राजधानी क्षेत्र कहा जाता है, बेल्जियम देश की राजधानी, व यूरोपीय संघ की मानी हुई राजधानी है। यह १९ महानगर पालिकाओं के साथ बेल्जियम का सबसे बड़ा शहर है।
ब्रुसेल्स की स्थापना १०वि-शताब्दी के किला शहर के रूप में हुई थी जिसे चर्लिमगने के एक वंशज ने स्थापित किया था व जिसमे दस लाख से अधिक वासी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के पश्च्यात ब्रुसेल्स अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य केन्द्र बिंदु रहा है। यहाँ यूरोपीय संघ की मुख्य इमारतो के साथ-साथ उत्तरी अटलांटिक संधि संस्था (नाटो) का मुख्यालय भी है।
यूरोप में राजधानियाँ
बेल्जियम के नगर |
किशोर कुमार (जन्म: ४ अगस्त, १९२९ खण्डवा मध्यप्रदेश निधन: १३ अक्टूबर, १९८७) भारतीय सिनेमा के मशहूर पार्श्वगायक समुदाय में से एक रहे हैं। वे एक अच्छे अभिनेता के रूप में भी जाने जाते हैं। हिन्दी फ़िल्म उद्योग में उन्होंने बंगाली, हिन्दी, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी, मलयालम, उड़िया और उर्दू सहित कई भारतीय भाषाओं में गाया था। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक के लिए ८ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते और उस श्रेणी में सबसे ज्यादा फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीतने का रिकॉर्ड बनाया है। उसी साल उन्हें मध्यप्रदेश सरकार द्वारा लता मंगेशकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उस वर्ष के बाद से मध्यप्रदेश सरकार ने "किशोर कुमार पुरस्कार"(एक नया पुरस्कार) हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए चालु कर दिया था।
श्री किशोर कुमार का जन्म ०४ अगस्त १९२९ को मध्य प्रदेश के खण्डवा शहर में वहाँ के जाने माने वकील
श्री कुंजीलाल जी के यहाँ हुआ था। किशोर कुमार का मूल नाम आभास कुमार गांगुली था। किशोर कुमार चार भाई बहनों में चौथे नम्बर पर थे। उन्होंने अपने जीवन के हर क्षण में खण्डवा को याद किया, वे जब भी किसी सार्वजनिक मंच पर या किसी समारोह में अपना कर्यक्रम प्रस्तुत करते थे, गर्व से कहते थे किशोर कुमार खण्डवे वाले, अपनी जन्म भूमि और मातृभूमि के प्रति ऐसी श्रद्धा बहुत कम लोगों में दिखाई देता है।
किशोर कुमार इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़े थे और उनकी आदत थी कॉलेज की कैंटीन से उधार लेकर खुद भी खाना और दोस्तों को भी खिलाना। वह ऐसा समय था जब १०-२० पैसे की उधारी भी बहुत मायने रखती थी। किशोर कुमार पर जब कैंटीन वाले के पाँच रुपया बारह आना उधार हो गए और कैंटीन का मालिक जब उनको अपने पाँच रुपया बारह आना चुकाने को कहता तो वे कैंटीन में बैठकर ही टेबल पर गिलास और चम्मच बजा बजाकर पाँच रुपया बारह आना गा-गाकर कई धुन निकालते थे और कैंटीन वाले की बात अनसुनी कर देते थे। बाद में उन्होंने अपने एक गीत में इस पाँच रुपया बारह आना का बहुत ही भली-भांति प्रयोग किया। बहुत कम लोगों को पाँच रुपया बारह आना वाले गीत की यह मूल कहानी ज्ञात होगी।
किशोर कुमार ने चार विवाह किये थे। विवाह की पहली पत्नी बंगाली गायक और अभिनेत्री रुमा गुहा ठाकुरता उर्फ रुमा घोष थीं। यह विवाह सम्बन्ध १९५० से १९५८ तक चला । किशोर दा ने दूसरा विवाह अभिनेत्री मधुबाला से किया था, जिन्होंने उनके घरेलू फिल्म चल्ती का नाम गाड़ी (१९५८) और झूमूओ (१ ९ 6१) सहित कई फिल्मों में उनके साथ काम किया था। जब किशोर कुमार ने उनके सामने प्रस्ताव रखा, मधुबाला बीमार थीं और इलाज के लिए लन्दन जाने की योजना बना रही थीं। उन्हें वेंट्रिकुलर सेप्टल डिसीस (दिल में छेद) था, और किशोर कुमार अभी भी रुमा से विवाह बन्धन में थे। तलाक के बाद, इस जोड़े ने १९60 में सिविल विवाह किया और किशोर कुमार इस्लाम में परिवर्तित हो गए और कथित तौर पर अपना नाम बदल कर करीम अब्दुल कर दिया। उनके माता-पिता ने विवाह समारोह में भाग लेने से मना कर दिया। माता-पिता को खुश करने के लिए जोड़े ने हिंदू विवाह पद्धति से भी विवाह किया, लेकिन मधुबाला को कभी भी उन्होंने अपनी बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया। विवाह के एक महीने के भीतर, मधुबाला अपने पति किशोर कुमार के घर में तनाव की वजह से बांद्रा में अपने बंगले में वापस चली गईं किन्तु वे विवाह में बने रहे, लेकिन मधुबाला के जीवन का बाकी हिस्सा तनाव से भरा रहा। यह सम्बन्ध २३ फरवरी १९6९ को मधुबाला की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ था।
किशोर दा का तीसरा विवाह योगिता बाली सेे किया जो १९७६ से ४ अगस्त १९७८ तक चला। किशोर कुमार का चौथा ओर अंतिम विवाह १९८० मे लीना चन्दावरकर से हुआ था। किशोर कुमार के दो बेटे थे, अमित कुमार रुमा के साथ, और सुमित कुमार लीना चन्दावरकर के साथ थे।
अभिनय का आरम्भ
किशोर कुमार की शुरुआत एक अभिनेता के रूप में फ़िल्म शिकारी (१९४६) से हुई। इस फ़िल्म में उनके बड़े भाई अशोक कुमार ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। उन्हें पहली बार गाने का मौका मिला १९४८ में बनी फ़िल्म जिद्दी में, जिसमें उन्होंने देव आनन्द के लिए गाना गाया। किशोर कुमार के एल सहगल के विशिष्ट प्रशंसक थे, इसलिए उन्होंने यह गीत उन की शैली में ही गाया। जिद्दी की सफलता के बावजूद उन्हें न तो पहचान मिली और न कोई खास काम मिला। उन्होंने १९५१ में फणी मजूमदार द्वारा निर्मित फ़िल्म 'आन्दोलन' में हीरो के रूप में काम किया मगर फ़िल्म फ़्लॉप हो गई। १९५४ में उन्होंने बिमल राय की 'नौकरी' में एक बेरोज़गार युवक की संवेदनशील भूमिका निभाकर अपनी प्रभावकारी अभिनय प्रतिभा से भी परिचित किया। इसके बाद १९५५ में बनी "बाप रे बाप", १९५६ में "नई दिल्ली", १९५७ में "मि. मेरी" और "आशा" और १९५८ में बनी "चलती का नाम गाड़ी" जिसमें किशोर कुमार ने अपने दोनों भाईयों अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ काम किया और उनकी अभिनेत्री थी मधुबाला। यह भी मजेदार बात है कि किशोर कुमार की शुरुआत की कई फ़िल्मों में मोहम्मद रफ़ी ने किशोर कुमार के लिए अपनी आवाज दी थी। मोहम्मद रफ़ी ने फ़िल्म रागिनी तथा शरारत में किशोर कुमार को अपनी आवाज उधार दी तो मेहनताना लिया सिर्फ एक रुपया। काम के लिए किशोर कुमार सबसे पहले एस डी बर्मन के पास गए थे, जिन्होंने पहले भी उन्हें १९५० में बनी फ़िल्म "प्यार" में गाने का मौका दिया था। एस डी बर्मन ने उन्हें फिर "बहार" फ़िल्म में एक गाना गाने का मौका दिया। कुसुर आप का और यह गाना बहुत हिट हुआ।
गीत संगीत के संग
शुरू में किशोर कुमार को एस डी बर्मन और अन्य संगीतकारों ने अधिक गंभीरता से नहीं लिया और उनसे हल्के स्तर के गीत गवाए गए, लेकिन किशोर कुमार ने १९५७ में बनी फ़िल्म "फंटूस" में दुखी मन मेरे गीत अपनी ऐसी धाक जमाई कि जाने माने संगीतकारों को किशोर कुमार की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ा। इसके बाद एस डी बर्मन ने किशोर कुमार को अपने संगीत निर्देशन में कई गीत गाने का मौका दिया। आर डी बर्मन के संगीत निर्देशन में किशोर कुमार ने 'मुनीम जी', 'टैक्सी ड्राइवर', 'फंटूश', 'नौ दो ग्यारह', 'पेइंग गेस्ट', 'गाईड', 'ज्वेल थीफ़', 'प्रेमपुजारी', 'तेरे मेरे सपने' जैसी फ़िल्मों में अपनी जादुई आवाज से फ़िल्मी संगीत के दीवानों को अपना दीवाना बना लिया। एक अनुमान के किशोर कुमार ने वर्ष १९४० से वर्ष १९८७ के बीच के अपने करियर के दौरान करीब २७०० से अधिक गाने गाए।
किशोर कुमार ने हिन्दी के साथ ही तमिल, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी, मलयालम और उड़िया फ़िल्मों के लिए भी लगभग ७०० गीत गाए। किशोर कुमार को आठ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिले, उनको पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार १९६९ में अराधना फ़िल्म के गीत रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना के लिए दिया गया था। किशोर कुमार की विशेषता यह थी कि उन्होंने देव आनंद से लेकर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन के लिए अपनी आवाज दी और इन सभी अभिनेताओं पर उनकी आवाज ऐसी रची बसी मानो किशोर खुद उनके अंदर मौजूद हों। किशोर कुमार ने ८१ फ़िल्मों में अभिनय किया और १८ फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। फ़िल्म 'पड़ोसन' में उन्होंने जिस मस्त मौला आदमी के किरदार को निभाया वही किरदार वे जिंदगी भर अपनी असली जिंदगी में निभाते रहे।
१९७५ में देश में आपातकाल के समय एक सरकारी समारोह में भाग लेने से साफ मना कर देने पर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ला ने किशोर कुमार के गीतों के आकाशवाणी से प्रसारित किए जाने पर पर रोक लगा दी थी और किशोर कुमार के घर पर आयकर के छापे भी डाले गए। मगर किशोर कुमार ने आपात काल का समर्थन नहीं किया। यह दुर्भाग्य और शर्म की बात है कि किशोर कुमार द्वारा बनाई गई कई फ़िल्में आयकर विभाग ने ज़ब्त कर रखी है और लावारिस स्थिति में वहाँ अपनी दुर्दशा पर आँसू बहा रही है। इन फ़िल्मो में कई फिल्में अब तक अदृश्य भी हैं।
किशोर कुमार ने भारतीय सिनेमा उस स्वर्ण काल में संघर्ष शुरु किया था जब उनके भाई अशोक कुमार एक सफल सितारे के रूप में स्थापित हो चुके थे। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, बलराज साहनी, गुरुदत्त और रहमान जैसे कलाकारों के साथ ही पार्श्वगायन में मोहम्मद रफी, मुकेश, तलत महमूद और मन्ना डे जैसे दिग्गज गायकों का बोलबाला था। किशोर कुमार की पहली शादी रुमा देवी के से हुई थी, लेकिन जल्दी ही शादी टूट गई और इस के बाद उन्होंने मधुबाला के साथ विवाह किया। उस दौर में दिलीप कुमार जैसे सफल और शोहरत की बुलंदियों पर पहुँचे अभिनेता जहाँ मधुबाला जैसी रूप सुंदरी का दिल नहीं जीत पाए वही मधुबाला किशोर कुमार की दूसरी पत्नी बनी।
१९६१ में बनी फ़िल्म "झुमरु" में दोनों एक साथ आए। यह फ़िल्म किशोर कुमार ने ही बनाई थी और उन्होंने खुद ही इसका निर्देशन किया था। इस के बाद दोनों ने १९६२ में बनी फ़िल्म "हाफ टिकट" में एक साथ काम किया जिस में किशोर कुमार ने यादगार कॉमेडी कर अपनी एक अलग छबि पेश की। १९६९ में मधुबाला की मृत्यु के बाद १९७६ में उन्होंने योगिता बाली से शादी की मगर इन दोनों का यह साथ मात्र कुछ महीनों का ही रहा। इसके बाद योगिता बाली ने मिथुन चक्रवर्ती से शादी कर ली। १९८० में किशोर कुमार ने चौथी शादी लीना चंदावरकर से की जो उम्र में उनके बेटे अमित कुमार से दो साल बड़ी थीं।
मनोज कुमार की जुबानी
मनोज कुमार किशोर कुमार को लेकर एक यादगार किस्सा सुनाते हैं। एक बार उनकी फ़िल्म ' उपकार ' के लिए किशोर कुमार को गाना गाने के लिए आमंत्रित किया तो वह यह कहकर भाग खड़े हुए कि वे तो फ़िल्म के हीरो के लिए ही गाने गाते हैं, किसी खलनायक पर फ़िल्माया जाने वाला गाना नहीं गा सकते। लेकिन ' उपकार ' का यह गीत ' कसमे वादे प्यार वफ़ा ...' जब हिट हुआ तो किशोर कुमार मनोज कुमार के पास गए और कहने लगे इतने अच्छे गाने का मौका उन्होने छोड़ दिया। इसके साथ ही उन्होंने यह स्वीकार करने में भी देर नहीं की कि मन्ना डे ने जिस खूबसूरती से इस गाने को गाया है ऐसा तो मैं कई जन्मों तक नहीं गा सकूंगा। अच्छा ही हुआ कि मैने इस गाने को नहीं गाया नहीं तो लोग इतने अच्छे गीत में मन्ना डे की इस खूबसूरत आवाज से वंचित रह जाते।
किशोर कुमार की जगह लेने के लिए किसी के लिए असंभव: आशा भोसले
अनुभवी गायक आशा भोसले ने कहा कि,"किशोर कुमार एक तरह का था। उसने हर किसी को अपनी मज़ेदार आवाज के साथ घुमाया और यहां तक कि उसके चारों ओर हर किसी को हमेशा खुश कर दिया।"अनुभवी गायक आशा भोसले का कहना है कि देर से गायक किशोर कुमार एक तरह का था और किसी के लिए अपना स्थान लेना असंभव है। संगीत रियलिटी शो दिल है हिंदुस्तान २ के एक एपिसोड के लिए शूटिंग करते समय आशा ने अपने पसंदीदा सह-गायक किशोर कुमार के बारे में एक बयान पढ़ा। उन्होंने १९५७ की फिल्म आशा से गीत "एना मीना देका" को रिकॉर्ड करने के बारे में भी उपाख्यानों को साझा किया। आशा ने कहा"किशोर कुमार एक तरह का था। उसने हर किसी को अपनी मज़ेदार आवाज के साथ घुमाया और यहां तक कि उसके चारों ओर हर किसी को हमेशा खुश कर दिया।""वह संगीत उद्योग के लिए एक असली मणि रहा है। मैंने हमेशा उसके साथ काम करने का आनंद लिया है। आज किसी के लिए अपना स्थान लेना वास्तव में असंभव है।"दोनों ने आप यहाँ आये किस् लिए , छोड डो आँचल ज़माना कया कहेगा और ओ साथी चाल जैसे हिट गाने दिए थे।
श्रैयाँश जैन, मूंदी किशोरदा की पुण्यतिथि पर श्रध्दाजंली देते हुए याद करते हुए लिखा है :-
"कोई है खास हमारा जो अब दुनिया मे नही,आवाज गुजती है उसकी वह अब दिखता नहीं, कल है बरसी उसकी, दिल की एक आस अधूरी, मिलना चाहते है हम उनसे मगर ये मुमकिन नहीं.....बस इस बात का गम हमे खाए जाता है, और १३ ओक्टूबर हमे हर साल रूला जाता है....",
किशोर कुमार के गीतों का संग्रह रखने वाले उनके प्रशंशक मनीष घनश्याम निमाड़े खरगोन मप्र, अश्रुपूरित श्रद्धांजलि देते हुवे कहते है ,
जाते जाते वो अपने जाने का गम दे गये,
सब बहार ले गये रोने का मौसम दे गये।
आज भी गीतों के माध्यम से किशोर दा को आभास किया जा सकता है ।
" बहुत सितम है दवा नहीं है,
ये दिल है क़र्बला नहीं,
बहार जिसके साथ थी , वो शख्श अब रहा नहीं ,,,
किशोर कुमार के सांगीतिक और व्यक्तिगत जीवन का एक दिलचस्प सफ़रनामा
किशोर कुमार जी के गाए हुए हिन्दी गीत
किशोरजी के गाये हुए कुछ गाने
किशोर कुमार जीवन
मध्य प्रदेश के लोग
१९२९ में जन्मे लोग
१९८७ में निधन
फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता |
फूलन देवी (१० अगस्त १९६३ - २५ जुलाई २००१) बागी से सांसद बनी एक भारत की एक राजनेता थीं।
एक निम्न वर्ग में उनका जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव गोरहा का पूर्वा में एक मल्लाह के घर हुआ था। १९९४ में, समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने उनके खिलाफ सभी आरोपों को सरसरी तौर पर वापस ले लिया और फूलन को रिहा कर दिया गया। वह तब समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में संसद के चुनाव के लिए खड़ी हुईं और दो बार मिर्जापुर के लिए संसद सदस्य के रूप में लोकसभा के लिए चुनी गईं। २००१ में, शेर सिंह राणा द्वारा नई दिल्ली में उनके आधिकारिक बंगले (सांसद के रूप में उन्हें आवंटित) के द्वार पर उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, जिनके रिश्तेदारों को उनके गिरोह द्वारा बेहमई में मार डाला गया था। १९९४ की फिल्म बैंडिट क्वीन (जेल से उनकी रिहाई के समय के आसपास बनी) उस समय तक उनके जीवन पर शिथिल रूप से आधारित है।
बेहमई में हुआ हादसा
फूलन को बेहमई गांव में एक घर के एक कमरे में बंद कर दिया गया था। तीन सप्ताह की अवधि में कई पुरुषों द्वारा उसे पीटा गया, बलात्कार किया गया और अपमानित किया गया। उन्होंने उसे गाँव के चारों ओर नग्न कर घुमाया। इस तीन सप्ताह की कैद से वह भागने में सफल रहीं |
बेहमई में नरसंहार
बेहमाई से भागने के कई महीनों बाद, फूलन बदला लेने के लिए गाँव लौटी। १४ फरवरी १९८१ की शाम को, उस समय जब गाँव में एक शादी चल रही थी, फूलन और उसके गिरोह ने पुलिस अधिकारियों के रूप में पहनी हुई बेहमई में शादी की। फूलन ने मांग की कि उनके "श्री राम" और "लाला राम" को उत्पीड़ित किया जाए। [उद्धरण वांछित] उन्होंने कथित तौर पर कहा, दो व्यक्तियों को नहीं मिला। और इसलिए देवी ने गाँव के सभी युवकों को गोल कर दिया और एक कुएँ से पहले एक लाइन में खड़ा कर दिया। फिर उन्हें फाइल में नदी तक ले जाया गया। हरे तटबंध पर उन्हें घुटने टेकने का आदेश दिया गया। गोलियों की बौछार हुई और २२ लोग मारे गए। बेहमई नरसंहार ने पूरे देश में आक्रोश पैदा किया। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वी॰पी॰ सिंह ने बेहमाई हत्याओं के मद्देनजर इस्तीफा दे दिया। [१५] एक विशाल पुलिस अभियान शुरू किया गया था, जो फूलन का पता लगाने में विफल रहा था। यह कहा जाने लगा कि मानहुंट सफल नहीं था क्योंकि फूलन को इस क्षेत्र के गरीब लोगों का समर्थन प्राप्त था; रॉबिन हुड मॉडल की कहानियाँ मीडिया में घूमने लगीं। फूलन को बैंडिट क्वीन कहा जाने लगा, और उसे भारतीय मीडिया [१२] के वर्गों द्वारा एक निडर और अदम्य महिला के रूप में महिमामंडित किया गया, जो दुनिया में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रही थी। आत्मसमर्पण और जेल की अवधि
बेहमई नरसंहार के दो साल बाद भी पुलिस ने फूलन को नहीं पकड़ा था। इंदिरा गांधी सरकार ने आत्मसमर्पण पर बातचीत करने का फैसला किया। इस समय तक, फूलन की तबीयत खराब थी और उसके गिरोह के अधिकांश सदस्य मर चुके थे, कुछ पुलिस के हाथों मारे गए थे, कुछ अन्य प्रतिद्वंद्वी गिरोह के हाथों मारे गए थे। फरवरी १९८३ में, वह अधिकारियों को आत्मसमर्पण करने के लिए सहमत हुई। हालाँकि, उसने कहा कि उसे उत्तर प्रदेश पुलिस पर भरोसा नहीं है और उसने जोर देकर कहा कि वह केवल मध्य प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करेगी। उसने यह भी आग्रह किया कि वह महात्मा गांधी और हिंदू देवी दुर्गा की तस्वीरों के सामने अपनी बाहें रखेगी, पुलिस के सामने नहीं। [१६] उसने चार और शर्तें रखीं:
एक वादा कि आत्मसमर्पण करने वाले उसके गिरोह के किसी भी सदस्य पर मृत्युदंड नहीं लगाया जाएगा
गिरोह के अन्य सदस्यों के लिए कार्यकाल आठ वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए।
जमीन का एक प्लॉट उसे दिया जाए
उसके पूरे परिवार को पुलिस द्वारा उसके आत्मसमर्पण समारोह का गवाह बनाया जाना चाहिए
एक निहत्थे पुलिस प्रमुख ने उनसे चंबल के बीहड़ों में मुलाकात की। उन्होंने मध्य प्रदेश के भिंड की यात्रा की, जहाँ उन्होंने गांधी और देवी दुर्गा के चित्रों के समक्ष अपनी राइफल रखी। दर्शकों में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के अलावा लगभग १०,००० लोग और ३०० पुलिसकर्मी शामिल थे। उसके गिरोह के अन्य सदस्यों ने भी उसी समय उसके साथ आत्मसमर्पण कर दिया।
डकैती (दस्यु) और अपहरण के तीस आरोपों सहित फूलन पर अड़तालीस अपराधों का आरोप लगाया गया था। उसके मुकदमे को ग्यारह साल की देरी हो गई, इस दौरान वह एक उपक्रम के रूप में जेल में रहा। इस अवधि के दौरान, उन्हें डिम्बग्रंथि अल्सर के लिए ऑपरेशन किया गया और एक हिस्टेरेक्टॉमी से गुजरना पड़ा। अस्पताल के डॉक्टर ने कथित तौर पर मजाक में कहा कि "हम फूलन देवी को अधिक फूलन देवी नहीं बनाना चाहते हैं"। [१ रिपोर्टेड] अंत में उसे निषाद समुदाय के नेता विशम्भर प्रसाद निषाद, (नाविकों और मछुआरों के मल्लाह समुदाय का दूसरा नाम) के हस्तक्षेप के बाद १९९४ में पैरोल पर रिहा किया गया था। मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके खिलाफ सभी मामलों को वापस ले लिया। इस कदम ने पूरे भारत में सदमे की लहर भेज दी और सार्वजनिक चर्चा और विवाद का विषय बन गया।
आमतौर पर फूलनदेवी को डकैत के रूप में (रॉबिनहुड) की तरह गरीबों का पैरोकार समझा जाता था। सबसे पहली बार (१९८१) में वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में तब आई जब उन्होने ऊँची जातियों के बाइस लोगों का एक साथ तथाकथित (नरसंहार) किया जो (मैना दादी ) जाति के (पिछड़े ) लोग थे। लेकिन बाद में उन्होने इस नरसंहार से इन्कार किया था।
बाद में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार तथा प्रतिद्वंदी गिरोहों ने फूलन को पकड़ने की बहुत सी नाकाम कोशिशें की। इंदिरा गाँधी की सरकार ने (१९८३) में उनसे समझौता किया की उसे (मृत्यु दंड) नहीं दिया जायेगा और उनके परिवार के सदस्यों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा और फूलनदेवी ने इस शर्त के तहत अपने दस हजार समर्थकों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
बौद्ध धर्म में अपना धर्मातंरण
बिना मुकदमा चलाये ग्यारह साल तक जेल में रहने के बाद फूलन को १९९४ में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने रिहा कर दिया। ऐसा उस समय हुआ जब दलित लोग फूलन के समर्थन में गोलबंद हो रहे थे और फूलन इस समुदाय के प्रतीक के रूप में देखी जाती थी। फूलन ने अपनी रिहाई के बौद्ध धर्म में अपना धर्मातंरण किया। १९९६ में फूलन ने उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर सीट से (लोकसभा) चुनाव जीता और वह संसद तक पहुँची। २५ जुलाई सन २००१ को दिल्ली में उनके आवास पर फूलन की हत्या कर दी गयी। उसके परिवार में सिर्फ़ उसके पति उम्मेद सिंह हैं।
शेखर कपूर ने माला सेन की १९९३ की पुस्तक भारत की बैंडिट क्वीन: द ट्रू स्टोरी ऑफ़ फूलन देवी पर आधारित फूलन देवी के जीवन के बारे में उनके १९८३ के आत्मसमर्पण के बारे में बताया। हालाँकि फूलन देवी फिल्म में नायिका हैं, लेकिन उन्होंने इसकी सटीकता पर विवाद किया और इसे भारत में प्रतिबंधित करने के लिए संघर्ष किया। यहाँ तक कि उसने एक थिएटर के बाहर खुद को आत्मदाह करने की धमकी दी कि अगर फिल्म वापस नहीं ली गई। आखिरकार, निर्माता चैनल ४ द्वारा उसे ४0,००० का भुगतान करने के बाद उसने अपनी आपत्तियाँ वापस ले लीं। फिल्म ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। लेखक-कार्यकर्ता अरुंधति रॉय ने अपनी फिल्म समीक्षा में "द ग्रेट इंडियन रेप ट्रिक" शीर्षक से कहा, "रेस्टेज थे रप ऑफ आ लिविंग वुमान विदऔत हेर पर्मिशन",के अधिकार पर सवाल उठाया, और शेखर कपूर पर फूलन देवी का शोषण करने और उसके जीवन और उसकी गलत व्याख्या करने का आरोप लगाया
दिल्ली के तिहाड़ जेल में कैद अपराधी शेर सिंह राणा ने फूलन की हत्या की। हत्या से पहले वह देश की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल से फर्जी तरीके से जमानत पर रिहा होने में कामयाब हो गया। हत्या के बाद शेर सिंह फरार हो गया। कुछ समय बाद शेर सिंह ने एक वीडियो क्लिप जारी करके अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधी ढूँढकर उनकी अस्थियाँ भारत लेकर आने की कोशिश का दावा किया। हालाँकि बाद में दिल्ली पुलिस ने उसे पकड़ लिया। फूलन की हत्या का राजनीतिक षडयंत्र भी माना जाता है। उनकी हत्या के छींटे उसके पति उम्मेद सिंह पर भी आए और फूलन के परिवार वाले उन्हें पीट भी चुके हैं। हालाँकि उम्मेद आरोपित नहीं हुआ।
भारत में राजनीतिक हत्याएं |
[[चित्र:श्यामा प्रसाद मूकर्जी.जप्ग|राइट|ठुमब|३५०प्क्स|भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी]]अखिल भारतीय जनसंघ भारत का एक पुराना राजनैतिक दल है, पहले इसका नाम भारतीय जनसंघ था। इस दल का स्थापना २१ अक्टूबर १९५१ को दिल्ली में की गयी थी। इसके तीन संस्थापक सदस्य थे- श्यामा प्रसाद मुखर्जी, प्रोफेसर बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय।
इस पार्टी का चुनाव चिह्न दीपक था। इसने १९५२ के संसदीय चुनाव में ३ सीटें प्राप्त की थी जिसमे डाक्टर मुखर्जी स्वयं भी शामिल थे।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल (१९७५-१९७६) के बाद जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों का विलय कर के एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया। आपातकाल से पहले बिहार विधानसभा के भारतीय जनसंघ के विधायक दल के नेता लालमुनि चौबे ने जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में बिहार विधानसभा से अपना त्यागपत्र दे दिया।
सन १९८० में जनता पार्टी टूट गयी। भारतीय जनसंघ के एक गुट ने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में जनसंघ से अलग होकर समाजवादी और गांधीवादी विचारधारा के नेताओं के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। उसके बाद भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य प्रोफेसर बलराज मधोक ने अखिल भारतीय जनसंघ को चुनाव आयोग से पंजीकरण कराकर भारतीय जनसंघ को बनाए रखा। प्रोफेसर बलराज मधोक २०१६ तक अखिल भारतीय जनसंंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर रहे। उनकी मृत्यु के पश्चात अखिल भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. आचार्य भारतभूषण पाण्डेय हैं।
अखिल भारतीय जनसंघ की कथित विचारधारा "एकात्म मानववाद" सर्वप्रथम १९६५ में दीनदयाल उपाध्याय ने दी थी।
लोकसभा चुनावों में उत्तरोत्तर सफलता
१९५२ में ३.१ प्रतिशत वोट ३ सीट,
१९५७ में ५.९ प्रतिशत वोट ४ सीट,
१९६२ में ६.४ प्रतिशत वोट और १४ सीट, तथा
१९६७ में ९.४ प्रतिशत वोट ३५ सीट हासिल की।१९७१ में ७.३७ प्रतिशत वोट २२''' सीट हासिल की।
जनसंघ के अध्यक्ष
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (१९५१५२)
मौलि चन्द्र शर्मा (१९५४)
प्रेम नाथ डोगरा (१९५५)
आचार्य देवप्रसाद घोष (१९५६५९)
पीताम्बर दास (१९६०)
अवसरला राम राव (१९६१)
आचार्य देवप्रसाद घोष (१९६२)
रघु वीर (१९६३)
आचार्य देवप्रसाद घोष (१९६४)
बच्छराज व्यास (१९६५)
बलराज मधोक (१९६६)
दीनदयाल उपाध्याय (१९८७६८)
अटल बिहारी वाजपेयी (१९६९७२)
लालकृष्ण आडवाणी (१९७३७७)
भारतीय जनता पार्टी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
'जनसंघ पर खड़ी है भारतीय जनता पार्टी की नींव'
आइये जानिये जनसंघ से भाजपा की विकास यात्रा (अजमेरनामा)
जनसंघ अकेला संगठन जो पहले प्रांतों में बना, फिर फैला (प्रभासाक्षी)
भारत के राजनीतिक दल |
सुमात्रा पश्चिमी इंडोनेशिया के सुंडा द्वीपसमूह में से एक है। यह सबसे बड़ा द्वीप है जो पूरी तरह से इंडोनेशियाई क्षेत्र के भीतर है, साथ ही दुनिया में छठा सबसे बड़ा द्वीप (४७५,८०७.६३क्म२ (18२,81२मील) पर है।२)), सिमलूऐ, नियास, मेंटावाई, एंगानो जैसे निकटवर्ती द्वीपों सहित, रियाउ द्वीप समूह, बंगका बेलितुंग और क्राकाटोआ द्वीपसमूह के जैसे द्विपसमूहो के साथ।
सुमात्रा एक विस्तृत तिरछा द्विप है जो उत्तर-पश्चिम-दक्षिण-पूर्व अक्ष पर तिरछा हुआ है। हिंद महासागर, सुमात्रा के उत्तर-पश्चिम, पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम तटों की सीमा शिमुल्यू, नियास, मेंटावाई, और एंगानो की द्वीप श्रृंखला के साथ है। ] पश्चिमी तट से दूर। उत्तर पूर्व में, संकरा मलक्का जलडमरूमध्य द्वीप को मलय प्रायद्वीप से अलग करता है, जो यूरेशियाएन महाद्वीप का विस्तार है। दक्षिण-पूर्व में, संकीर्ण सुंडा जलडमरूमध्य, जिसमें क्राकाटोआ द्वीपसमूह शामिल है, सुमात्रा को जावा से अलग करता है। सुमात्रा का उत्तरी सिरा अंडमान द्वीपसमूह के पास है, जबकि दक्षिणपूर्वी तट पर बांगका और बेलितुंग, करीमाता जलडमरूमध्य और जावा सागर के द्वीप स्थित हैं। बुकित बरिसन पहाड़, जिनमें कई सक्रिय ज्वालामुखी हैं, द्वीप की रीढ़ हैं, जबकि उत्तरपूर्वी क्षेत्र में दलदलों, मैंग्रोव वन और जटिल नदी प्रणालियों के साथ बड़े मैदान और तराई हैं। भूमध्य रेखा पश्चिम सुमात्रा और रियाउ प्रांतों में अपने केंद्र में द्वीप को पार करती है। द्वीप की जलवायु उष्णकटिबंधीय, गर्म और नम है।
हरे-भरे उष्णकटिबंधीय वर्षा वन एक समय परिदृश्य पर हावी थे।
सुमात्रा में पौधों और जानवरों की प्रजातियों की एक विस्तृत श्रृंखला है, लेकिन पिछले ३५ वर्षों में अपने उष्णकटिबंधीय वर्षावन का लगभग ५०% खो दिया है। कई प्रजातियां अब गंभीर रूप से लुप्तप्राय हैं, जैसे कि सुमात्रन ग्राउंड कोयल, सुमात्राण बाघ, सुमात्राण हाथी, सुमात्राण गैंडे, और सुमात्रन ऑरंगुटन। वनों की कटाई के परिणामस्वरूप पड़ोसी देशों में गंभीर मौसमी धुएं की धुंध भी हुई है, जैसे कि २०१३ दक्षिण पूर्व एशियाई धुंध जिसके कारण इंडोनेशिया और प्रभावित देशों मलेशिया और सिंगापुर के बीच काफी तनाव पैदा हो गया।
सुमात्रा को प्राचीन काल में सुवर्णद्वीप(संस्कृत; 'सोने का द्वीप') नाम से जाना जाता था और सुवर्णभूमि('सोने की भूमि'), द्वीप के ऊंचे इलाकों में सोने के भंडार के कारण। वर्तमान रूप "सुमात्रा" का सबसे पहला ज्ञात उल्लेख १०१७ में था, जब स्थानीय राजा हाजी सुमात्राभूमि ("सुमात्रा की भूमि के राजा") चीन में एक दूत भेजा था। अरब भूगोलवेत्ताओं ने इस द्वीप को लमड़ी(लामुरी, लम्बरी या रमनी) कहा दसवीं से तेरहवीं शताब्दी में, आधुनिक समय के बांदा आचे के पास एक राज्य के संदर्भ में, जो व्यापारियों के लिए पहला भूमि बिछल था।
१३वीं शताब्दी के अंत में, मार्को पोलो ने राज्य को सामारा(समारा) कहा, जबकि उनके समकालीन साथी इतालवी यात्री पोर्डेनोन के ओडोरिक ने सुमोल्त्रा(सुमोल्ट्रा) के रूप का इस्तेमाल किया .
तब से, बाद के यूरोपीय लेखकों ने पूरे द्वीप के लिए ज्यादातर सुमात्रा या इसी तरह के नाम का इस्तेमाल किया।
६९२ तक, मेलायु साम्राज्य श्रीविजय द्वारा अवशोषित कर लिया गया था।
दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य द्वारा पराजित होने के बाद ११वीं शताब्दी वर्ष १०२५ में श्रीविजय का प्रभाव कम हो गया। १२वीं शताब्दी के अंत तक श्रीविजय एक छोटे से राज्य में सिमट गया था, और दक्षिण सुमात्रा में अंतिम राजा रातु सेकेखुमोंग के साथ इसकी प्रमुख भूमिका थी। उसी समय, इंडोनेशिया में इस्लाम का प्रसार धीरे-धीरे और अप्रत्यक्ष रूप से हुआ, इंडोनेशिया के पश्चिमी क्षेत्रों जैसे कि सुमात्रा क्षेत्र से शुरू हुआ, जो कि द्वीपसमूह में इस्लाम के प्रसार के लिए पहला स्थान बन गया, फिर जावा इंडोनेशिया के पूर्वी क्षेत्रों में, सुलावेसी और मलूकु। ६वीं और ७वीं शताब्दी ईस्वी में पवित्र अरबों और भारतीय व्यापारियों के माध्यम से इस्लाम ने सुमात्रा में प्रवेश किया। १३वीं शताब्दी के आरंभ और अंत में राज्य के गठन के समय, समुद्र साम्राज्य के राजा इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे। मार्को पोलो ने १२९२ में द्वीप का दौरा किया, और १३२१ में पोर्डेनोन के उनके साथी इतालवी ओडोरिक ने ।
मोरक्कन विद्वान इब्न बतूता ने १५ दिनों के लिए सुल्तान के साथ दौरा किया, यह देखते हुए कि समुद्र शहर "लकड़ी की दीवारों और टावरों के साथ एक अच्छा, बड़ा शहर" था, और उनकी वापसी की यात्रा में दो महीने और थे। समुद्र के बाद शक्तिशाली ऐश सल्तनत आई, जो २०वीं सदी तक जीवित रही। डचों के आने के साथ, कई सुमात्रा रियासतें धीरे-धीरे उनके नियंत्रण में आ गईं। आचे, उत्तर में, बड़ी बाधा थी, क्योंकि डच लंबे और महंगे आचे युद्ध (१८७३-१९०३) में शामिल थे।
१९७६ से २००५ तक आचे विद्रोह में इंडोनेशियाई सरकारी बलों के खिलाफ फ्री ऐश आंदोलन लड़ा २००१ और २००२ में सुरक्षा कार्रवाई के परिणामस्वरूप कई हज़ार नागरिक मारे गए।
द्वीप १८८३ क्राकाटोआ विस्फोट और २००४ बॉक्सिंग डे सुनामी दोनों से भारी प्रभावित हुआ था।
सुमात्रा विशेष रूप से घनी आबादी वाला नहीं है, औसतन लगभग १२६ लोग प्रति किमी २ - लगभग ५९,९७७,३००कुल मिलाकर लोग (२0२२ के मध्य तक आधिकारिक अनुमानों के अनुसार)। इसके आकार के कारण, यह फिर भी दुनिया का पांचवां सबसे अधिक आबादी वाला द्वीप है।
सुमात्रा में सबसे बड़े स्वदेशी जातीय समूह मलय, मिनांगकाबॉस, बटाक्स, एसेनीज़ और लैम्पुंग हैं। अन्य प्रमुख गैर-स्वदेशी जातीय समूह जावानीस, सुंदानी और चीनी हैं।
नीचे २०१० की जनगणना के आधार पर सुमात्रा में ११ सबसे बड़े जातीय समूह ( रियाउ द्वीप समूह, बंगका बेलितुंग, नियास, मेंतावाई, सिमेउलू और इसके आसपास के द्वीप शामिल हैं) का फल दिखाया गया है।
यहां ५२ से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से सभी (चीनी और तमिल को छोड़कर) ऑस्ट्रोनेशियन भाषा परिवार की मलय-पॉलिनेशियन शाखा से संबंधित हैं। मलयो-पॉलिनेशियन के भीतर, उन्हें कई उप-शाखाओं में विभाजित किया गया है: चामिक (जो एसेहनीज़ द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसमें कंबोडिया और वियतनाम में एथनिक चाम्स द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ इसके निकटतम रिश्तेदार हैं), मलयिक ( मलय, मिनंगकाबाऊ और अन्य निकट संबंधी भाषाएँ), नॉर्थवेस्ट सुमात्रा-बैरियर द्वीप समूह ( बटक भाषाएं, गायो और अन्य), लैम्पुंगिक (उचित लैम्पुंग और कोमेरिंग शामिल हैं) और बोर्नियन ( रेजांग द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया है जिसमें इसके निकटतम भाषाई रिश्तेदार बकर सदोंग और भूमि दयाक हैं जो पश्चिम कालीमंतन और सारावाक ( मलेशिया ) में बोली जाती हैं) . नॉर्थवेस्ट सुमात्रा-बैरियर द्वीप समूह और लैम्पुंगिक शाखाएं द्वीप के लिए स्थानिक हैं। इंडोनेशिया के सभी भागों की तरह, इंडोनेशियाई (जो रियाउ मलय पर आधारित था) आधिकारिक भाषा और मुख्य भाषा है। हालांकि सुमात्रा की अपनी स्थानीय भाषा है, मलय के प्रकार जैसे मेदान मलय और पालेम्बैंग मलय उत्तर और दक्षिण सुमात्रा में लोकप्रिय हैं, खासकर शहरी क्षेत्रों में। मिनांगकाबाउ (पदंग बोली) पश्चिम सुमात्रा, उत्तरी सुमात्रा के कुछ हिस्सों, बेंगकुलु, जांबी और रियाउ (विशेष रूप से पेकानबरू और पश्चिम सुमात्रा की सीमा वाले क्षेत्रों में) में लोकप्रिय है, जबकि एसेनीज़ का उपयोग संचार के एक अंतर-जातीय माध्यम के रूप में भी किया जाता है। आचे प्रांत के कुछ हिस्से।
सुमात्रा में अधिकांश लोग मुस्लिम (८७.१%) हैं, जबकि १0.७% ईसाई हैं, और २% से कम बौद्ध और हिंदू हैं।
सुमात्रा इंडोनेशिया के सात भौगोलिक क्षेत्रों में से एक है, जिसमें इसके निकटवर्ती छोटे द्वीप शामिल हैं। सुमात्रा १९४५ और १९४८ के बीच इंडोनेशिया के आठ मूल प्रांतों में से एक था। आम तौर पर सुमात्रा (जैसे रियाउ द्वीप समूह, नियास और बंगका-बेलितुंग समूह) के साथ शामिल निकटवर्ती द्वीपसमूहों को शामिल करते हुए, यह अब इंडोनेशिया के ३७ प्रांतों में से दस को कवर करता है, जो नीचे उनके क्षेत्रों और आबादी के साथ निर्धारित किए गए हैं।
द्वीप की सबसे लंबी धुरी लगभग चलती है उत्तर-पश्चिम-दक्षिणपूर्व, केंद्र के पास भूमध्य रेखा को पार करना। अपने सबसे बड़े बिंदु पर, द्वीप तक फैला हुआ है । द्वीप के आंतरिक भाग में दो भौगोलिक क्षेत्रों का प्रभुत्व है: पश्चिम में बारिसन पर्वत और पूर्व में दलदली मैदान। सुमात्रा मुख्य भूमि एशिया के निकटतम इंडोनेशियाई द्वीप है।
दक्षिण-पूर्व में जावा है, जो सुंडा जलडमरूमध्य से अलग है। उत्तर में मलय प्रायद्वीप (एशियाई मुख्य भूमि पर स्थित) है, जो मलक्का जलडमरूमध्य द्वारा अलग किया गया है। पूर्व में करीमाता जलडमरूमध्य के पार बोर्नियो है। द्वीप के पश्चिम में हिंद महासागर है।
द ग्रेट सुमात्रान फॉल्ट (एक स्ट्राइक-स्लिप फॉल्ट), और सुंडा मेगाथ्रस्ट (एक सबडक्शन ज़ोन ), इसके पश्चिमी तट के साथ द्वीप की पूरी लंबाई को चलाते हैं। २६ दिसंबर २००४ को, हिंद महासागर में आए भूकंप के बाद पश्चिमी तट और सुमात्रा के द्वीप, विशेष रूप से असेह प्रांत, सूनामी से प्रभावित हुए थे। यह रिकॉर्ड किया गया सबसे लंबा भूकंप था, जो ५०० और ६०० सेकंड के बीच रहता था। मुख्य रूप से आचे में १७०,००० से अधिक इंडोनेशियाई मारे गए थे। सुमात्रा में आने वाले अन्य हालिया भूकंपों में २००५ का नियास-सिमुल्यू भूकंप और २०१० का मेंतवई भूकंप और सुनामी शामिल हैं।
टोबा झील एक पर्यवेक्षी विस्फोट का स्थल है जो लगभग ७४,००० साल पहले हुआ था, जो जलवायु-परिवर्तनकारी घटना का प्रतिनिधित्व करता है।
सुमात्रा की सबसे महत्वपूर्ण नदियाँ दक्षिण चीन सागर के जलग्रहण क्षेत्र से संबंधित हैं। उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए, असहन, रोकन, सियाक, कांपार, इंद्रगिरी, बटांघरी मलक्का जलडमरूमध्य में बहती हैं, जबकि द्वीप की सबसे बड़ी नदी, मूसी, दक्षिण में बंगका जलडमरूमध्य में समुद्र में बहती है।
पूर्व की ओर, बड़ी नदियाँ पहाड़ों से गाद ले जाती हैं, जिससे दलदलों से घिरी विशाल तराई का निर्माण होता है। भले ही ज्यादातर खेती के लिए अनुपयुक्त हो, यह क्षेत्र वर्तमान में इंडोनेशिया के लिए बहुत आर्थिक महत्व रखता है। यह मिट्टी के ऊपर और नीचे दोनों से तेल पैदा करता है - ताड़ का तेल और पेट्रोलियम ।
सुमात्रा इंडोनेशियाई कॉफी का सबसे बड़ा उत्पादक है। छोटे धारक हाइलैंड्स में अरेबिका कॉफी ( कॉफ़िया अरेबिका ) उगाते हैं, जबकि रोबस्टा ( कॉफ़िया कैनेफ़ोरा ) तराई में पाई जाती है। गायो, लिंटोंग और सिद्दीकिलैंग के क्षेत्रों की अरेबिका कॉफी को आमतौर पर गिलिंग बसाह (वेट हलिंग) तकनीक का उपयोग करके संसाधित किया जाता है, जो इसे एक भारी शरीर और कम अम्लता देता है।
सुमात्रा एक अत्यधिक भूकंपीय द्वीप है, पूरे इतिहास में विशाल भूकंप दर्ज किए गए हैं, १७९७ में ८.९ भूकंप ने पश्चिमी सुमात्रा को हिला दिया, 1८33 में ९.२ भूकंप ने बेंगकुलु और पश्चिमी सुमात्रा को हिला दिया, दोनों घटनाओं ने बड़ी सुनामी का कारण बना। वे पश्चिम के तटीय क्षेत्र और द्वीप के केंद्र में बहुत आम हैं, क्षेत्र में उच्च भूकंपीयता के कारण सूनामी आम हैं।
सबसे बड़े शहर
जनसंख्या के हिसाब से मेदान सुमात्रा का सबसे बड़ा शहर है। सुमात्रा में मेदान सबसे अधिक देखा जाने वाला और विकसित शहर भी है।
वनस्पति और जीव
सुमात्रा वनस्पति प्रकारों की एक विस्तृत श्रृंखला का समर्थन करता है जो पौधों की १७ स्थानिक प्रजातियों सहित प्रजातियों की एक समृद्ध विविधता का घर है। अद्वितीय प्रजातियों में सुमात्रन पाइन शामिल है जो द्वीप के उत्तर में उच्च पर्वतों के सुमात्रन उष्णकटिबंधीय देवदार के जंगलों और रैफलेसिया अर्नोल्डी (दुनिया का सबसे बड़ा व्यक्तिगत फूल) और टाइटन अरुम (दुनिया का सबसे बड़ा अशाखित पुष्पक्रम ) जैसे वर्षावन पौधों पर हावी है।
यह द्वीप २०१ स्तनपायी प्रजातियों और ५८० पक्षी प्रजातियों का घर है। मुख्य भूमि सुमात्रा पर नौ स्थानिक स्तनपायी प्रजातियाँ हैं और १४ और पास के मेंतावई द्वीपों के लिए स्थानिक हैं। सुमात्रा में लगभग ३०० मीठे पानी की मछली प्रजातियाँ हैं। सुमात्रा में ९३ उभयचर प्रजातियां हैं, जिनमें से २१ सुमात्रा के लिए स्थानिक हैं।
सुमात्रन बाघ, सुमात्रन गैंडे, सुमात्रन हाथी, सुमात्रन ग्राउंड कोयल, सुमात्रन ऑरंगुटान और तपनौली ऑरंगुटान सभी गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं, जो उनके अस्तित्व के लिए उच्चतम स्तर के खतरे का संकेत देते हैं। अक्टूबर २००८ में, इंडोनेशियाई सरकार ने सुमात्रा के शेष वनों की रक्षा के लिए एक योजना की घोषणा की।
इस द्वीप में १० से अधिक राष्ट्रीय उद्यान शामिल हैं, जिनमें से तीन को सुमात्रा विश्व विरासत स्थल के उष्णकटिबंधीय वर्षावन विरासत के रूप में सूचीबद्ध किया गया है - गुनुंग लेउसर नेशनल पार्क, केरिन्सी सेब्लैट नेशनल पार्क और बुकित बरिसन सेलाटन नेशनल पार्क । बरबक राष्ट्रीय उद्यान इंडोनेशिया के तीन राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है, जिसे रामसर कन्वेंशन के तहत अंतर्राष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमि के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
नीदरलैंड ईस्ट इंडीज के दौरान बनाए गए कई असंबद्ध रेलवे नेटवर्क सुमात्रा में मौजूद हैं, जैसे उत्तरी सुमात्रा में बांदा आचेह - लहोकसेउमावे - बेसिटांग - मेदन -तेबिंगटिंग्गी- पेमाटांग सियांटार -रंतौ प्रपत को जोड़ने वाले (बांदा आचेह-बेसितांग खंड को १९७१ में बंद कर दिया गया था, लेकिन वर्तमान में पुनर्निर्माण किया जा रहा है)। पश्चिमी सुमात्रा में पैदांग - सोलोक - बुकीटिंग्गी, और दक्षिणी सुमात्रा में बंदर लैम्पुंग - पालेमबांग -लहाट-लुबुक लिंगगौ।
विलियम मार्सडेन, द हिस्ट्री ऑफ़ सुमात्रा, (१७८३); तीसरा संस्करण। (१८११) स्वतंत्र रूप से ऑनलाइन उपलब्ध है।
हिन्द महासागर के द्वीप
बृहत्तर सुन्दा द्वीपसमूह
इण्डोनेशिया के द्वीप |
मुलायम सिंह यादव (जन्म : २२ नवम्बर १९३९-१० अक्टूबर 20२२) भारत के एक राजनेता एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री थे। मुलायम सिंह यादव भारत के रक्षा मंत्री भी रह चुके हैं। इससे पहले एक शिक्षक थे किन्तु शिक्षण कार्य छोड़कर इन्होंने राजनीति में कदम रखा। वर्ष १९९२ में एक राजनीतिक पार्टी समाजवादी पार्टी की स्थापना की। नेताजी को २६ जनवरी
२०२३ की पूर्व संध्या पर पद्म विभूषण से भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु द्वारा सम्मानित किया गया
मुलायम सिंह यादव का जन्म २२ नवम्बर १९३९ को इटावा जिले के सैफई गाँव में मूर्ति देवी व सुघर सिंह यादव के किसान परिवार में हुआ। मुलायम सिंह यादव अपने पाँच भाई-बहनों में रतनसिंह यादव से छोटे व अभयराम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव, राजपाल सिंह और कमला देवी से बड़े हैं। प्रोफेसर रामगोपाल यादव इनके चचेरे भाई हैं।पिता सुघर सिंह उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे किन्तु पहलवानी में अपने राजनीतिक गुरु चौधरी नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती-प्रतियोगिता में प्रभावित करने के पश्चात उन्होंने नत्थूसिंह के परम्परागत विधान सभा क्षेत्र जसवन्त नगर से अपना राजनीतिक सफर शुरू किया।
राजनीति में आने से पूर्व मुलायम सिंह यादव आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम०ए०) और बी० टी० करने के उपरान्त इन्टर कालेज में प्रवक्ता नियुक्त हुए और सक्रिय राजनीति में रहते हुए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। मुलायम सिंह जी का काफ़ी लंबी बीमारी के कारण १० अक्टूबर २०२२ को मेदांता अस्पताल गुरुग्राम में निधन हो गया।
मुलायम सिंह उत्तर भारत के बड़े समाजवादी और किसान नेता रहे हैं। एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने वाले मुलायम सिंह ने अपना राजनीतिक जीवन उत्तर प्रदेश में विधायक के रूप में शुरू किया। बहुत कम समय में ही मुलायम सिंह का प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में नज़र आने लगा। मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग समाज का सामाजिक स्तर को ऊपर करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। सामाजिक चेतना के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग का महत्वपूर्ण स्थान हैं। समाजवादी नेता रामसेवक यादव के प्रमुख अनुयायी (शिष्य) थे तथा इन्हीं के आशीर्वाद से मुलायम सिंह १९६७ में पहली बार विधान सभा के सदस्य चुने गये और मन्त्री बने। १९९२में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। वे तीन बार क्रमशः ५ दिसम्बर १९८९ से २४ जनवरी १९९१ तक, ५ दिसम्बर १९९३ से ३ जून १९९६ तक और २९ अगस्त 200३ से ११ मई २००७ तक उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री रहे। इसके अतिरिक्त वे केन्द्र सरकार में रक्षा मन्त्री भी रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश में यादव समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में मुलायम सिंह की पहचान है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने में मुलायम सिंह ने साहसिक योगदान किया। मुलायम सिंह की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष नेता की है। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी माना जाता है। उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में मुलायम सिंह यादव को प्यार से नेता जी कहा जाता है।
२०१२ में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिला। यह पहली बार हुआ था कि उत्तर प्रदेश में सपा अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में थी। नेता जी के पुत्र और सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा की सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर शोर से उठाया और प्रदेश के सामने विकास का एजेंडा रखा। अखिलेश यादव के विकास के वादों से प्रभावित होकर पूरे प्रदेश में उनको व्यापक जनसमर्थन मिला। चुनाव के बाद नेतृत्व का सवाल उठा तो नेताजी ने वरिष्ठ साथियों के विमर्श के बाद अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। अखिलेश यादव मुलायम सिंह के पुत्र है। अखिलेश यादव ने नेता जी के बताए गये रास्ते पर चलते हुए उत्तर प्रदेश को विकास के पथ पर आगे बढ़ाया.
'समाजवादी पार्टी' के नेता मुलायम सिंह यादव पिछले तीन दशक से राजनीति में सक्रिय हैं। अपने राजनीतिक गुरु नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती प्रतियोगिता में प्रभावित करने के पश्चात मुलायम सिंह ने नत्थूसिंह के परम्परागत विधान सभा क्षेत्र जसवन्त नगर से ही अपना राजनीतिक सफर आरम्भ किया था। मुलायम सिंह यादव जसवंत नगर और फिर इटावा की सहकारी बैंक के निदेशक चुने गए थे। विधायक का चुनाव भी 'सोशलिस्ट पार्टी' और फिर 'प्रजा सोशलिस्ट पार्टी' से लड़ा था। इसमें उन्होंने विजय भी प्राप्त की। उन्होंने स्कूल के अध्यापन कार्य से इस्तीफा दे दिया था। पहली बार मंत्री बनने के लिए मुलायम सिंह यादव को १९७७ तक इंतज़ार करना पड़ा, जब कांग्रेस विरोधी लहर में उत्तर प्रदेश में भी जनता सरकार बनी थी। १९८० में भी कांग्रेस की सरकार में वे राज्य मंत्री रहे और फिर चौधरी चरण सिंह के लोकदल के अध्यक्ष बने और विधान सभा चुनाव हार गए। चौधरी साहब ने विधान परिषद में मनोनीत करवाया, जहाँ वे प्रतिपक्ष के नेता भी रहे।
१९९६ में मुलायम सिंह यादव ग्यारहवीं लोकसभा के लिए मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र से चुने गए थे और उस समय जो संयुक्त मोर्चा सरकार बनी थी, उसमें मुलायम सिंह भी शामिल थे और देश के रक्षामंत्री बने थे। यह सरकार बहुत लंबे समय तक चली नहीं। मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने की भी बात चली थी। प्रधानमंत्री पद की दौड़ में वे सबसे आगे खड़े थे, किंतु उनके सजातियों ने उनका साथ नहीं दिया। लालू प्रसाद यादव और शरद यादव ने उनके इस इरादे पर पानी फेर दिया। इसके बाद चुनाव हुए तो मुलायम सिंह संभल से लोकसभा में वापस लौटे। असल में वे कन्नौज भी जीते थे, किंतु वहाँ से उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को सांसद बनाया।
केंद्रीय राजनीति में मुलायम सिंह का प्रवेश १९९६ में हुआ, जब काँग्रेस पार्टी को हरा कर संयुक्त मोर्चा ने सरकार बनाई। एच. डी. देवेगौडा के नेतृत्व वाली इस सरकार में वह रक्षामंत्री बनाए गए थे(*सैनिकों के शव को युद्ध क्षेत्र से वापस लाने की प्रथा मुलायम सिंह यादव ने ही शुरू की थी।), किंतु यह सरकार भी ज़्यादा दिन चल नहीं पाई और तीन साल में भारत को दो प्रधानमंत्री देने के बाद सत्ता से बाहर हो गई। 'भारतीय जनता पार्टी' के साथ उनकी विमुखता से लगता था, वह काँग्रेस के नज़दीक होंगे, लेकिन १९९९ में उनके समर्थन का आश्वासन ना मिलने पर काँग्रेस सरकार बनाने में असफल रही और दोनों पार्टियों के संबंधों में कड़वाहट पैदा हो गई। २००२ के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने ३९१ सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए, जबकि १९९६ के चुनाव में उसने केवल २८१ सीटों पर ही चुनाव लड़ा था।
राजनीतिक दर्शन तथा विदेश यात्रा
मुलायम सिंह यादव की राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों में अटूट आस्था रही है। भारतीय भाषाओं, भारतीय संस्कृति और शोषित पीड़ित वर्गों के हितों के लिए उनका अनवरत संघर्ष जारी रहा है। उन्होंने ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैण्ड, पोलैंड और नेपाल आदि देशों की भी यात्राएँ की हैं।
कहा जाता है कि मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की किसी भी जनसभा में कम से कम पचास लोगों को नाम लेकर मंच पर बुला सकते हैं। समाजवाद के फ़्राँसीसी पुरोधा 'कॉम डी सिमॉन' की अभिजात्यवर्गीय पृष्ठभूमि के विपरीत उनका भारतीय संस्करण केंद्रीय भारत के कभी निपट गाँव रहे सैंफई के अखाड़े में तैयार हुआ है। वहाँ उन्होंने पहलवानी के साथ ही राजनीति के पैंतरे भी सीखे।
लोकसभा से मुलायम सिंह यादव ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और पंद्रहवीं लोकसभा के सदस्य चुने गये थे।
विधान परिषद १९८२-१९८५
विधान सभा १९६७, १९७४, १९७७, १९८५, १९८९, १९९१, १९९३ और १९९६ (आठ बार)
विपक्ष के नेता, उत्तर प्रदेश विधान परिषद १९८२-१९८५
विपक्ष के नेता, उत्तर प्रदेश विधान सभा १९८५-१९८७
केंद्रीय कैबिनेट मंत्री
सहकारिता और पशुपालन मंत्री १९७७
रक्षा मंत्री १९९६-१९९८
पुरस्कार व सम्मान
पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को २८ मई, २०१२ को लंदन में 'अंतर्राष्ट्रीय जूरी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ़ जूरिस्ट की जारी विज्ञप्ति में हाईकोर्ट ऑफ़ लंदन के सेवानिवृत न्यायाधीश सर गाविन लाइटमैन ने बताया कि श्री यादव का इस पुरस्कार के लिये चयन बार और पीठ की प्रगति में बेझिझक योगदान देना है। उन्होंने कहा कि श्री यादव का विधि एवं न्याय क्षेत्र से जुड़े लोगों में भाईचारा पैदा करने में सहयोग दुनियाभर में लाजवाब है।
ज्ञातव्य है कि मुलायम सिंह यादव ने विधि क्षेत्र में ख़ासा योगदान दिया है। समाज में भाईचारे की भावना पैदाकर मुलायम सिंह यादव का लोगों को न्याय दिलाने में विशेष योगदान है। उन्होंने कई विधि विश्वविद्यालयों में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।
मुलायम सिंह पर पुस्तकें
मुलायम सिंह पर कई पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। इनमे पहला नाम "मुलायम सिंह यादव- चिन्तन और विचार" का है जिसे अशोक कुमार शर्मा ने सम्पादित किया था। इसके अतिरिक्त राम सिंह तथा अंशुमान यादव द्वारा लिखी गयी "मुलायम सिंह: ए पोलिटिकल बायोग्राफी" अब उनकी प्रमाणिक जीवनी है। लखनऊ की पत्रकार डॉ नूतन ठाकुर ने भी मुलायम सिंह के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक महत्व को रेखांकित करते हुए एक पुस्तक लिखने का कार्य किया है।
अपने एक भाषण के दौरान मुलायम सिंह ने बलात्कार की घटना पर कहा कि लड़के गलतियां करते हैं। "
लोक सभा २००९ के चुनाव अभियान में मुलायम सिंह ने कहा कि अंग्रेजी और कम्प्यूटर की शिक्षा समाप्त करने को कहा इससे बेरोजगारी फैलती है।
दिनांक १८ अगस्त २०१५ को एक सभा में बलात्कार पर विवादित ब्यान दिया।
मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ में ई-रिक्शा के वितरण समारोह में (१८ अगस्त २०१५ ) बलात्कार पर विचार व्यक्त करने पर महोबा जिले की स्थानीय कोर्ट ने अदालत में उपस्थिति के लिए समन जारी किया था।
निलंबित आई पी एस अधिकारी अमिताभ ठाकुर को धमकाने आरोप में सी जे एम सोमप्रभा मिश्रा ,लखनऊ ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के विरुद्ध आई पी सी की धारा १५६(३) के अंतर्गत एफ आई आर दर्ज करने का आदेश दिया।
१९९० के दशक के शुरुआत में राम जन्मभूमि मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद अपने चरम पर था। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए कारसेवा शुरू कर दिया था। कारसेवा और राममंदिर निर्माण हेतु भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सितम्बर १९९० में सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक रथ यात्रा शुरू कर दी उस समय यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे। मुलायम सिंह यादव ने अक्टूबर १९९० में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा का विरोध करते हुए कहा था, उन्हें कोशिश करने दें और अयोध्या में प्रवेश करने दें। हम उन्हें कानून का अर्थ सिखाएंगे। कोई मस्जिद नहीं तोड़ी जाएगी। हालांकि आडवाणी उस समय आयोध्या नहीं पहुंच सकें क्योंकि बिहार की तत्कालीन जनता दल सरकार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उन्हें समस्तीपुर से गिरफ्तार करवा दिया लेकिन अक्टूबर १९९० के अंतिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन फैजाबाद जिले में कारसेवकों की विशाल भीड़ एकत्र होने लगी। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का भरोसा देते हुए बयान दिया की बाबरी मस्जिद पर कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता, ३० अक्टूबर १९९० को कारसेवकों के साथ पूरे देश से आये साधु-संतों की भीड़ हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ने का प्रयास करने लगी,कारसेवकों का इरादा विवादित बाबरी मस्जिद तोड़ कर राम जन्म भूमि मंदिर का निर्माण करने का था। पूरे शहर में सुरक्षा और कानून-व्यवस्था के मद्देनजर कर्फ्यू लगा दिया गया इसके बावजूद अयोध्या में भीड़ बेकाबू हो रही थी। उत्तर प्रदेश पुलिस ने बाबरी मस्जिद के आसपास १.५ किलोमीटर के इलाके में बैरिकेडिंग कर रखी थी प्रशासन और सुरक्षा बलों के अलावा किसी का भी प्रतिबंधित इलाके में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। सुबह का समय था कारसेवकों की भीड़ लगातार मस्जिद के ओर बढ़ रही थी, सुरक्षा बलों और प्रशासन के अधिकारी गण लगातार कारसेवकों से पीछे हटने का आग्रह कर रही थी इसी वक़्त कारसेवकों की भीड़ ने बैरिकेडिंग का एक हिस्सा तोड़ा दिया और मस्जिद की ओर बढ़ने लगे तो पुलिस और सुरक्षा बलों ने फायरिंग कर दी जिसमें भगदड़ हुए और कई कारसेवक पुलिस की गोली से घायल हुए। २ नवंबर १९९० को कारसेवकों का जत्था फिर रणनीति अपनाते हुए बाबरी मस्जिद की ओर प्रस्थान किया। प्रदर्शनकारियों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए तैनात सुरक्षाकर्मियों के पैर छूकर कारसेवक आगे बढ़े, जिनमें महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल थे। पैर छूने वाले इरादे से स्तब्ध फायरिंग की घटना के दो दिन बाद सुरक्षाकर्मी पीछे हट जाते और कारसेवक आगे बढ़ते।
सुरक्षाकर्मियों ने रणनीति को देखा और उन्हें चेतावनी दी। हालांकि, कारसेवक नहीं रुके और सुरक्षा बलों ने तीन दिन में दूसरी बार फायरिंग कर दी। झड़पों में कई की मौत हो गई। आधिकारिक रिकॉर्ड में १७ मौतें दिखाई गईं लेकिन भाजपा ने मरने वालों की संख्या अधिक बताई। मरने वालों में कोलकाता के कोठारी भाई- राम और शरद भी शामिल थे। उन्हें ३० अक्टूबर को बाबरी मस्जिद के ऊपर भगवा झंडा पकड़े देखा गया था।
बाद में मुलायम सिंह ने कहा की भाजपा वालों ने ११लाख की भीड़ कारसेवा के नाम खड़ी कर दी थी,देश की एकता के लिए उन्हें अयोध्या में गोली चलवानी पड़ी थी। अगर गोली नहीं चलती तो मुसलमानों का देश से विश्वास उठ जाता। उन्होंने कहा गोली चलने का अफसोस है मगर देश की एकता के लिए १६ की जगह ३० जानें भी जातीं तो भी पीछे नहीं हटते'', बाद में फिर एक कार्यक्रम में मुलायम सिंह कहा था कि गोली चलवाने से उनकी बहुत आलोचना हुई। संसद में उनका विरोध भी हुआ। मगर यह कदम देश हित में था। ऐसा न होता तो हिन्दुस्तान का मुसलमान कहता कि अगर हमारा धर्मस्थल नहीं बच सकता तो हिन्दुस्तान में रहने का क्या औचित्य। समाजवाद का मतलब सबको साथ लेकर चलना है। भेदभाव नहीं होना चाहिए। अयोध्या गोली कांड और मंदिर मस्जिद विवाद की खबरें अंतराष्ट्रीय खबरों में बहुत सुर्खियों में रहीं थी|
१९३९ में जन्मे लोग
समाजवादी पार्टी के राजनीतिज्ञ
२०२२ में निधन |
कविता कृष्णमूर्ति (जन्म:१९५८) भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण पार्श्वगायिका है। कविता जब आठ साल की थीं तो उन्होंने एक गायन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता। तभी से वह बड़ी होकर एक मशहूर गायिका बनने का सपना देखने लगी थीं। २००५ को उन्हें पद्मश्री से पुरस्कृत किया गया।कविता को चार फिल्मफेयर बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर अवार्ड्स से सम्मानित किया गया। उनके लिए एकोलेड्स में स्टारडस्ट मिलेनियम २००० अवार्ड्स में "बेस्ट सिंगर ऑफ़ द मिलेनियम" अवार्ड, अंतर्राष्ट्रीय हिट फिल्म देवदास से डोला रे डोला के लिए जी सिने अवार्ड २००३ शामिल है और वह बॉलीवुड अवार्ड की दो बार प्राप्तकर्ता हैं।
हिंदी सिनेमा जगत की लोकप्रिय पार्श्व गायिका कविता का जन्म १९५८ में नई दिल्ली में हुआ। संगीत की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें घर में ही मिली। उन्होंने बाद में बलराम पुरी से शास्त्रीय संगीत सीखा। नौ साल की उम्र में कविता को स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ बांग्ला भाषा में एक गीत गाने का मौका मिला। यहीं से उन्होंने पार्श्वगायन के क्षेत्र में आने का फैसला किया।
मुंबई के सेंट जेवियर कॉलेज में स्नातक करने के दौरान कविता हर प्रतियोगिता में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। यही वक्त था, जब एक कार्यक्रम में मशहूर गायक मन्ना डे ने उनका गाना सुना और उन्हें विज्ञापनों में गाने का मौका दिया।
फिल्मो में गायन
साल १९८० में कविता ने अपना पहला पार्श्व गीत काहे को ब्याही मांग भरो सजना गाया। हालांकि यह गाना बाद में फिल्म से हटा दिया गया था।
साल १९८५ में फिल्म प्यार झुकता नहीं के गानों ने उन्हें पार्श्व गायिका के रूप में पहचान दिलाई। इसके बाद फिल्म मिस्टर इंडिया के गाने हवा हवाई और करते हैं हम प्यार ने उन्हें सुपरहिट गायिका का दर्जा दिलाया।
९० के दशक में कविता कृष्णमूर्ति हिंदी सिनेमा की अग्रणी पार्श्व गायिका बनकर उभरीं। फिल्म १९४२: अ लव स्टोरी में गाए उनके गाने आज भी पसंद किए जाते हैं। उन्होंने अपने करियर में आनंद-मिलिंद, उदित नारायण, ए.आर. रहमान, अनु मलिक जैसे गायकों व संगीत निर्देशकों के साथ काम किया है।
कविता ने एक बार एक साक्षात्कार में बताया था कि बचपन में उनको अभिनेता दिलीप कुमार बहुत पसंद थे। वह जब बड़ी हो रही थीं, तब अभिनेताओं में संजीव कुमार को पसंद करती थीं। उन्हें अमिताभ बच्चन और आमिर खान भी पसंद हैं।
अभिनेत्रियों में श्रीदेवी, रानी मुखर्जी, काजोल और प्रीति जिंटा पसंद हैं। शबाना आजमी को वह बेहतरीन अभिनेत्री मानती हैं। कविता ने शबाना आजमी, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, मनीषा कोइराला और ऐश्वर्या राय सरीखी शीर्ष की अभिनेत्रियों के लिए गाने गाए हैं।
कविता वायलिन वादक एल. सुब्रमण्यम की पत्नी हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था एक बार उन्हें गायक हरिहरन के साथ मिलकर सुब्रमण्यम के लिए गाना गाना था, तब उनकी शादी नहीं हुई थी।
भारतीय फिल्म पार्श्वगायक
१९५८ में जन्मे लोग |
पंडित भीमसेन गुरुराज जोशी (, जन्म: फरवरी ४, १९२२) शास्त्रीय संगीत के हिन्दुस्तानी संगीत शैली के सबसे प्रमुख गायकों में से एक है।
पंडित भीमसेन जोशी को बचपन से ही संगीत का बहुत शौक था। वह किराना घराने के संस्थापक अब्दुल करीम खान से बहुत प्रभावित थे। १९३३ में वह गुरु की तलाश में घर से निकल पड़े। अगले दो वर्षो तक वह बीजापुर, पुणे और ग्वालियर में रहे। उन्होंने ग्वालियर के उस्ताद हाफिज अली खान से भी संगीत की शिक्षा ली। लेकिन अब्दुल करीम खान के शिष्य पंडित रामभाऊ कुंदगोलकर से उन्होने शास्त्रीय संगीत की शुरूआती शिक्षा ली। घर वापसी से पहले वह कलकत्ता और पंजाब भी गए।
वर्ष १९३७ तक पंडित भीमसेन जोशी एक जाने-माने खयाल गायक बन गये थे। वहाँ उन्होंने सवाई गंधर्व से कई वर्षो तक खयाल गायकी की बारीकियाँ भी सीखीं। उन्हें खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी और भजन में भी महारत हासिल की है
पंडित भीमसेन जोशी का देहान्त २५ जनवरी २०११ को हुआ।
इन्हें ४ नवम्बर, २००८ को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न पुरस्कार के लिए चुना गया, जो कि भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। इन्हें भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में सन १९७५ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
कर्नाटक के गडक जिले में ४ फ़रवरी वर्ष १९२२ को जन्मे पं॰ भीमसेन जोशी को इससे पहले भी पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री समेत कई अलंकरण और सम्मान दिए जा चुके हैं।
१९८५ पद्म भूषण
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
भारतीय शास्त्रीय गायक
२०११ में निधन
पद्म विभूषण धारक |
चाँदनी चौक दिल्ली का सबसे पुराना एवं सबसे व्यस्त क्षेत्र है। यह पुरानी दिल्ली के सबसे व्यस्त बाजारों में से एक है। चांदनी चौक पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के नजदीक स्थित है। लाल किला स्मारक बाजार के भीतर स्थित है। यह १७ वीं शताब्दी में भारत के मुगल सम्राट शाहजहां द्वारा बनाया गया था, और इसका डिजाइन उनकी बेटी जहांआरा द्वारा तैयार किया गया था। चांद की रोशनी को प्रतिबिंबित करने के लिए बाजार को नहरों द्वारा विभाजित किया गया था और यह भारत के सबसे बड़े थोक बाजारों में से एक बना हुआ है।
स्थिति तथा विस्तार
चांदनी चौक पुरानी दिल्ली के मध्य में लाल किले के लाहौरी गेट से शुरू होकर फतेहपुरी मस्जिद तक विस्तृत है। इसी बाजार के नाम पर आस पास के क्षेत्र को भी चांदनी चौक कहा जाता है। एक नहर किसी समय में सड़क के बीच में बहती थी, और चौक के तालाब में जल भरा करती थी। आरंभिक कल में इसे तीन खंडों में बांटा गया था:
लाहोरी गेट से चौक कोटवली (गुरुद्वारा शीश गंज के पास): शाही निवास के निकट, यह खंड उर्दू बाजार या शिविर बाजार भी कहा जाता था। उर्दू भाषा को इस बाजार से अपना नाम मिला। गालिब ने १८५७ के भारतीय विद्रोह और इसके बाद के विद्रोहों के दौरान इस बाजार के विनाश का उल्लेख किया है।
चौक कोटवली से चांदनी चौक: चांदनी चौक शब्द मूल रूप से इसी खंड को संदर्भित करता है, जिसमें एक तालाब स्थित था। इस खंड को मूल रूप से जोहरी बाजार कहा जाता था।
चांदनी चौक से फतेहपुरी मस्जिद: इसे फतेहपुरी बाजार कहा जाता था।
बाजार का इतिहास राजधानी शाहजहानाबाद की स्थापना से शुरू होता है, जब सम्राट शाहजहां ने अपनी नई राजधानी के बगल में यमुना नदी के तट पर लाल किले की स्थापना की थी।
चांदनी चौक को १६५० ईस्वी में शाहजहां की पुत्री, राजकुमारी जहांआरा बेगम ने डिजाइन किया था। १,५६० दुकानों वाला यह बाजार मूल रूप से ४० गज चौड़ा और १,५२० गज लम्बा था। बाजार आकृति में चौकोर था, तथा इसके केंद्र में एक ताल उपस्थित था, जो चांदनी रात में चमकता था, और इसी कारण बाजार का नाम चांदनी चौक पड़ा था। सभी दुकानों को उस समय आधे चंद्रमा के आकार के पैटर्न में बनाया गया था, जो अब विलुप्त हो गया था। यह बाजार अपने चांदी के व्यापारियों के लिए प्रसिद्ध था, जिस कारण इसे "सिल्वर स्ट्रीट" के नाम से भी पहचाना गया है।
चांदनी चौक एक समय में भारत का सबसे बड़ा बाजार था। मुगल शाही जुलूस चांदनी चौक से गुजरते थे। १९०३ में दिल्ली दरबार के आयोजन के समय इस परंपरा को पुनर्स्थापित किया गया था। १८६३ में ब्रिटिश सरकार द्वारा चौक के पास दिल्ली टाउन हॉल बनाया गया था। चौक के तालाब को १९५० के दशक तक एक घंटाघर से प्रतिस्थापित कर दिया गया था। इसी कारण बाजार का केंद्र अभी भी घंटाघर के नाम से जाना जाता है।
प्रचलित लोकसंस्कृति में
चांदनी चौक को कई फिल्मों में पुरानी दिल्ली की अभिन्न पहचान के रूप में दर्शाया गया है। २००१ की बॉलीवुड फिल्म कभी खुशी कभी गम में चांदनी चौक को प्रमुखता से दर्शाया गया था; यहां फिल्म की पात्र अंजलि (काजोल) और उनकी बहन पूजा (करीना कपूर) रहते थे। २००८ में अनिल कपूर, अनुराग सिन्हा, शेफाली छाया और अदिति शर्मा अभिनीत बॉलीवुड फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट चांदनी चौक में सेट है। इसके बाद अगले ही वर्ष आयी दो अन्य फिल्में भी चांदनी चौक के आसपास केंद्रित थी; अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण, मिथुन चक्रवर्ती और रणवीर शौरी अभिनीत चाँदनी चौक टू चाइना, और अभिषेक बच्चन, सोनम कपूर, वहीदा रहमान, ओम पुरी, अतुल कुलकर्णी और दिव्या दत्ता अभिनीत दिल्ली - ६। २०१७ से सब टीवी पर प्रसारित हो रहा टीवी कार्यक्रम जीजाजी छत पर हैं भी चांदनी चौक में ही सेट है।
दिल्ली के बाजार
दिल्ली का इतिहास
भारत में नगर चौक |
ब्रह्मपुत्र भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। यह तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। ब्रह्मपुत्र का उद्गम हिमालय के उत्तर में तिब्बत के पुरंग जिले में स्थित मानसरोवर झील के निकट होता है, जहाँ इसे यरलुङ त्सङ्पो कहा जाता है। तिब्बत में बहते हुए यह नदी भारत के अरुणांचल प्रदेश राज्य में प्रवेश करती है। आसाम घाटी में बहते हुए इसे ब्रह्मपुत्र और फिर बांग्लादेश में प्रवेश करने पर इसे जमुना कहा जाता है। पद्मा (गंगा) से संगम के बाद इनकी संयुक्त धारा को मेघना कहा जाता है, जो कि सुंदरबन डेल्टा का निर्माण करते हुए बंगाल की खाड़ी में जाकर मिल जाती है।
ब्रह्मपुत्र नदी एक बहुत लम्बी (२९०० किलोमीटर) नदी है। ब्रह्मपुत्र का नाम तिब्बत में सांपो, अरुणाचल में डिहं तथा असम में ब्रह्मपुत्र है। ब्रह्मपुत्र नदी बांग्लादेश की सीमा में जमुना के नाम से दक्षिण में बहती हुई गंगा की मूल शाखा पद्मा के साथ मिलकर बंगाल की खाड़ी में जाकर मिलती है। सुवनश्री, तिस्ता, तोर्सा, लोहित, बराक आदि ब्रह्मपुत्र की उपनदियां हैं। ब्रह्मपुत्र के किनारे स्थित शहरों में डिब्रूगढ़, तेजपुर एंव गुवाहाटी हैं। ब्रह्मपुत्र की औसत गहराई ३८ मीटर (१२४ फीट) तथा अधिकतम गहराई १२० मीटर (३८0 फीट) है।
प्रायः भारतीय नदियों के नाम स्त्रीलिंग में होते हैं पर ब्रह्मपुत्र एक अपवाद है। संस्कृत में ब्रह्मपुत्र का शाब्दिक अर्थ ब्रह्मा का पुत्र होता है।
ब्रह्मपुत्र के अन्य नाम
बांग्ला भाषा में जमुना के नाम से जानी जाती है।
चीन में या-लू-त्सांग-पू चियांग या यरलुंग ज़ैगंबो जियांग कहते है।
तिब्बत में यरलुंग त्संगपो या साम्पो के नाम से जानी जाती है।
मध्य और दक्षिण एशिया की प्रमुख नदी कहते हैं।
अरुणाचल में ब्रह्मपुत्र देहांग के नाम से जानी जाती है।
असम में ब्रह्मपुत्र को ब्रह्मपुत्र कहते है।
गंगा नदी को बांग्लादेश में पद्मा कहते है।
ब्रह्मपुत्र को बांग्लादेश में जमुना कहा जाता है।
गंगा और ब्रह्मपुत्र की संयुक्त धारा मेघना कहलाती है जिसकी सहायक नदी बराक है।
इस नदी का उद्गम तिब्बत में कैलाश पर्वत के निकट जिमा यॉन्गजॉन्ग झील है। आरंभ में यह तिब्बत के पठारी इलाके में, यार्लुंग सांगपो नाम से, लगभग ४००० मीटर की औसत उचाई पर, १७०० किलोमीटर तक पूर्व की ओर बहती है, जिसके बाद नामचा बार्वा पर्वत के पास दक्षिण-पश्चिम की दिशा में मुङकर भारत के अरूणाचल प्रदेश में घुसती है जहां इसे सियांग कहते हैं।
उंचाई को तेजी से छोड़ यह मैदानों में दाखिल होती है, जहां इसे दिहांग नाम से जाना जाता है। असम में नदी काफी चौड़ी हो जाती है और कहीं-कहीं तो इसकी चौड़ाई १० किलोमीटर तक है। डिब्रूगढ तथा लखिमपुर जिले के बीच नदी दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। असम में ही नदी की दोनो शाखाएं मिल कर मजुली द्वीप बनाती है जो दुनिया का सबसे बड़ा नदी-द्वीप है। असम में नदी को प्रायः ब्रह्मपुत्र नाम से ही बुलाते हैं, पर बोडो लोग इसे भुल्लम-बुथुर भी कहते हैं जिसका अर्थ है- कल-कल की आवाज निकालना।
इसके बाद यह बांग्लादेश में प्रवेश करती है जहां इसकी धारा कई भागों में बट जाती है। एक शाखा गंगा की एक शाखा के साथ मिल कर मेघना बनाती है। सभी धाराएं बंगाल की खाङी में गिरती है।
सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण
१९५४ के बाद बाढ़ नियंत्रण योजनाएँ और तटबंधों का निर्माण प्रारम्भ किए गए थे, बांग्लादेश में यमुना नदी के पश्चिम में दक्षिण तक बना ब्रह्मपुत्र तटबंध बाढ़ को नियंत्रित करने में सहायक सिद्ध होता है। तिस्ता बराज परियोजना, सिंचाई और बाढ़, दोनों की सुरक्षा योजना है। ब्रह्मपुत्र या असम घाटी से बहुत थोड़ी विद्युत पैदा की जाती है। जबकि उसकी अनुमानित क्षमता काफ़ी है। अकेले भारत में ही यह लगभग हो सकती है १२,००० मेगावाट है। असम में कुछ जलविद्युत केन्द्र बनाए गए हैं। जिनमें से सबसे उल्लेखनीय 'कोपली हाइडल प्रोजेक्ट' है और अन्य का निर्माण कार्य जारी है।
नौ-संचालन और परिवहन
तिब्बत में लात्जू (ल्हात्से दज़ोंग) के पास नदी लगभग ६४४ किलोमीटर के एक नौकायन योग्य जलमार्ग से मिलती है। चर्मावृत नौकाएँ (पशुचर्म और बाँस से बनी नौकाएँ) और बड़ी नौकाएँ समुद्र तल से ३,९६२ मीटर की ऊँचाई पर इसमें यात्रा करती हैं। त्सांगपो पर कई स्थानों पर झूलते पुल बनाए गए हैं।
असम और बांग्लादेश के भारी वाले क्षेत्रों में बहने के कारण ब्रह्मपुत्र सिंचाई से ज़्यादा अंतःस्थलीय नौसंचालन के लिए महत्त्वपूर्ण है। नदी ने पंश्चिम बंगाल और असम के बीच पुराने समय से एक जलमार्ग बना रखा है। यद्यपि यदाकदा राजनीतिक विवादों के कारण बांग्लादेश जाने वाला यातायात अस्तव्यस्त हुआ है। ब्रह्मपुत्र बंगाल के मैदान और असम से समुद्र से १,१26 किलोमीटर की दूरी पर डिब्रगढ़ तक नौकायन योग्य है। सभी प्रकार के स्थानीय जलयानों के साथ ही यंत्रचालित लान्च और स्टीमर भारी भरकम कच्चा माल, इमारती लकड़ी और कच्चे तेल को ढोते हुए आसानी से नदी मार्ग में ऊपर और नीचे चलते हैं।
१९६२ में असम में गुवाहाटी के पास सड़क और रेल, दोनों के लिए साराईघाट पुल बनने तक ब्रह्मपुत्र नदी मैदानों में अपने पूरे मार्ग पर बिना पुल के थी। १९८७ में तेज़पुर के निकट एक दूसरा कालिया भोमौरा सड़क पुल आरम्भ हुआ। ब्रह्मपुत्र को पार करने का सबसे महत्त्वपूर्ण और बांग्लादेश में तो एकमात्र आधन नौकाएँ ही हैं। सादिया, डिब्रगढ़, जोरहाट, तेज़पुर, गुवाहाटी, गोवालपारा और धुबुरी असम में मुख्य शहर और नदी पार करने के स्थान हैं। बांग्लादेश में महत्त्वपूर्ण स्थान हैं, कुरीग्राम, राहुमारी, चिलमारी, बहादुराबाद घाट, फूलचरी, सरीशाबाड़ी, जगन्नाथगंज घाट, नागरबाड़ी, सीरागंज और गोउंडो घाट, अन्तिम रेल बिन्दु बहादुराबाद घाट, फूलचरी, जगन्नाथगंज घाट, सिराजगंज और गोवालंडो घाट पर स्थित है।
अध्ययन और अन्वेषण
ब्रह्मपुत्र का ऊपरी मार्ग १८वीं शताब्दी में ही खोज लिया गया था। हालाँकि १९वीं शताब्दी तक यह लगभग अज्ञात ही था। असम में १८86 में भारतीय सर्वेक्षक किंथूप (१८84 में प्रतिवेदित) और जे.एफ़. नीढ़ैम की खोज ने त्सांग्पो नदी को ब्रह्मपुत्र के ऊपरी मार्ग के रूप में स्थापित किया। २०वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में कई ब्रिटिश अभियानों ने त्सांग्पो की धारा के प्रतिकूल जाकर तिब्बत में जिहकात्से तक नदी के पहाड़ी दर्रों की खोज की।
ब्रह्मपुत्र के किनारे-किनारे
भारत की नदियाँ
चीन की नदियाँ
असम की नदियाँ
अरुणाचल प्रदेश की नदियाँ |
सिलवास या सिलवासा भारत के दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव केन्द्र-शासित प्रदेश की राजधानी है। यह दादरा और नगर हवेली ज़िले में है और अरब सागर के तट पर स्थित है।
अंग्रेजी प्रभाव के चलते सिलवास का उच्चारण अक्सर सिलवासा किया जाता है और अधिकतर लोग अब इसे सिल्वासा या सिलवासा कहकर ही पुकारते हैं। गुजरती जन्सन्ख्या के प्रभाव के कारण इसे 'सेलवास' भी कहा जाता है। शहर में बड़ी संख्या में उद्योग-धंधे स्थापित हैं, जो सरकार को बड़ी मात्रा में राजस्व की वसूली कराते हैं, जिस कारण शहर में करों की दर को काफी कम रखा गया है। करों की निम्न दर के चलते बहुत से उद्योग सिलवासा की ओर आकर्षित हुये हैं और जिन्होनें इस छोटे से आदिवासी क्षेत्र को एक प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र में बदल दिया है। हिन्दी और मराठी, गुजराती शहर की प्रमुख भाषायें हैं, उद्योगों के कारण अंग्रेजी का प्रयोग भी बढ़ रहा है।
इन्हें भी देखें
दादरा और नगर हवेली ज़िला
दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव
दादरा और नगर हवेली ज़िले के नगर |
बुल्गारिया दक्षिण-पूर्व यूरोप में स्थित देश है, जिसकी राजधानी सोफ़िया है। देश की सीमाएं उत्तर में रोमानिया से, पश्चिम में सर्बिया और मेसेडोनिया से, दक्षिण में ग्रीस और तुर्की से मिलती हैं। पूर्व में देश की सीमाएं काला सागर निर्धारित करती है। कला और तकनीक के अलावा राजनैतिक दृष्टि से भी बुल्गारिया का वजूद पाँचवीं सदी से नजर आने लगता है। पहले बुल्गारियन साम्राज्य (६३२/६८१ - १०१८) ने न केवल बाल्कन क्षेत्र बल्कि पूरे पूर्वी यूरोप को अनेक तरह से प्रभावित किया। बुल्गारियन साम्राज्य के पतन के बाद इसे ओटोमन शासन के अधीन कर दिया। १८७७-७८ में हुए रुस-तुर्की युद्ध ने बुल्गारिया राज्य को पुन: स्थापित करने में मदद की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बुल्गारिया साम्यवादी राज्य और पूर्वी ब्लाक का हिस्सा बन गया। १९८९ में क्रांति के बाद १९९० में साम्यवादियों का सत्ता से एकाधिकार समाप्त हो गया और देश संसदीय गणराज्य के रूप में आगे बढ़ने लगा। यह देश २००४ से नाटो का और २००७ से यूरोपियन यूनियन का सदस्य है।
बुल्गारिया जो यूनान और इस्तांबुल के उत्तर में बसा है मानव बसाव की दृष्टि से बहुत पुराना है। मोंटाना के पास ६८०० साल पुराना एक पट्टिकालेख पाया गया है जिसमें चार पंक्तियों में कुछ २४ चिह्न बने पाए गए हैं - इसको पढ़ पाना अभी संभव नहीं हुआ है पर इससे ये अनुमान लगता है कि यहाँ उस समय से मानव रहते होंगे। सन् १९७२ में काला सागर के तट पर स्थित वार्ना में सोने का ख़ज़ाना पाया गया था जिस पर राजसी चिह्न बने थे जिससे ये अनुमान लगता है कि बहुत पुराने समय में भी यहाँ कोई राज्य या सत्ता रही होगी - हाँलांकि इस राज्य के जातीय मूल का पता नहीं चल पाया है।
सामान्यतः थ्रेसियों को बुल्गारों का पूर्ववर्ती माना गया है। थ्रेस के लोगों ने ट्रॉय की लड़ाई (१२०० ईसापूर्व के आसपास) में हिस्सा लिया था। इसके बाद ५०० ईसापूर्व तक उनका एक साम्राज्य स्थापित हुआ था। सिकन्दर ने ३३२ ईसापूर्व में इस पर अधिकार कर लिया और ४६ इस्वी में रोमनों ने। इसके बाद एशिया से कई समूहों का आगमन आरंभ हुआ। स्लाव जाति के लोगों ने ५८१ में बिज़ेन्टाइन के रोमन साम्राज्य के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया। सन् ८६४ में बोरिस प्रथम ने परंपरावादी ईसाइयत को राजधर्म बनाया और सीरीलिक लिपि को अपना लिया। अरबों की सेनाओं को हरा दिया गया।
सन् १०१८ तक बुल्गार साम्राज्य का अंत बिज़ेन्टाइन आक्रमणों से हो गया। सन् ११८५ से १३६० तक दूसरे बुल्गार साम्राज्य का राज्य रहा। उसके बाद उस्मानी (औटोमन) तुर्क लोगों ने इस पर अधिकार कर लिया। सन् १८७७ में रूस ने ऑटोमन साम्राज्य पर हमला कर दिया और उन्हें हरा दिया। सन् १८७८ में तीसरे बुल्गार साम्राज्य का उदय हुआ। १९८० में तुर्कों के ख़िलाफ़ चलाए गए अभियान में ३०००० तुर्क बुल्गारिया छोड़कर तुर्की चले गए। इससे दो दशक पहले ग्रीस में भी ऐसा ही अभियान चला था। १९८९ में वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की नरम शाखा का शासन स्थापित हुआ।
यह भी देखिए
यूरोप के देश |
हंगरी (हंगेरियाई: मैग्यारोर्सग), आधिकारिक तौर पर हंगरी गणराज्य (हंगेरियाई: मैग्यार क्ज़्ट्र्ससग, शाब्दिक अर्थ "हंगरी गणराज्य"), मध्य यूरोप के कापे॓थियन बेसिन में स्थित एक स्थल-रुद्ध देश है। इसके उत्तर में स्लोवाकिया, पूर्व में यूक्रेन और रोमानिया, दक्षिण में सर्बिया और क्रोएशिया, दक्षिण पश्चिम में स्लोवेनिया और पश्चिम में ऑस्ट्रिया स्थित है। इसकी राजधानी और सबसे बड़ा शहर बुडापेस्ट है। हंगरी, यूरोपीय संघ, नाटो, ओईसीडी और विशग्राड समूह का सदस्य है और एक शेंगेन राष्ट्र है। इसकी आधिकारिक भाषा हंगेरियाई है, जो फिन्नो-उग्रिक भाषा परिवार का हिस्सा है और यूरोप में सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली गैर भारोपीय भाषा है।
हंगरी दुनिया के तीस सबसे अधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है और प्रति वर्ष लगभग ६.१ करोड़ पर्यटकों (20१9 के आँकड़े) को आकर्षित करता है। देश में विश्व की सबसे बड़ी गर्म जल की गुफा प्रणाली स्थित है और गर्म जल की सबसे बड़ी झीलों में से एक हेविज़ झील यहीं पर स्थित है। इसके साथ मध्य यूरोप की सबसे बड़ी झील बलातोन झील भी यहीं पर है और यूरोप के सबसे बड़े प्राकृतिक घास के मैदान होर्टोबैगी भी हंगरी के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
हंगरी की सरकार एक संसदीय गणतंत्र है, जिसे १९८९ में स्थापित किया गया था। हंगरी की अर्थव्यवस्था एक उच्च-आय अर्थव्यवस्था है और कुछ क्षेत्रों में यह एक क्षेत्रीय अगुआ है।
केल्टिक (४५० ई.पू. के बाद) और रोमन (९ ई. - ४३० ई.) काल के बाद, हंगरी की नींव ९ वीं शताब्दी के अंत में हंगरी के शासक अर्पाद ने रखी थी, जिनके प्रपौत्र सेंट स्टीफन प्रथम की ताजपोशी के लिए पोप ने सन् १००० में, रोम से ताज भेजा था। हंगरी की यह राजशाही ९46 साल तक चली, इस समय इसे पश्चिमी दुनिया के सांस्कृतिक केन्द्रों में से एक माना जाता था।
आंशिक रूप से ओटोमन (तुर्क) साम्राज्य के अधीन लगभग १५० वर्ष (१५४१-१६९९) तक रहने के बाद, हंगरी को हैब्सबर्ग राजशाही के रूप में एकीकृत किया गया और बाद में यह ऑस्ट्रो-हंगरी दोहरी राजशाही (१८६७-१९१८) का आधा हिस्सा बना। प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक हंगरी एक महान शक्ति था, हालांकि ट्रायानोन संधि जिसकी शर्तों को अधिकतर हंगरी वासी आज भी जरूरत से ज्यादा सख्त मानते हैं, के कारण हंगरी को अपने क्षेत्र का ७०% से अधिक हिस्सा और हंगरी जातीयता की अपनी एक तिहाई जनसंख्या को खोना पड़ा। इसके बाद हंगरी में कम्युनिस्ट युग (१९४७-१९८९) का सूत्रपात हुआ जिसके दौरान हंगरी, १९५६ की क्रांति और १९८९ में ऑस्ट्रिया के साथ अपनी सीमा खोलने के प्राथमिक कदम के चलते बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय चर्चा का केन्द्र बना रहा। हंगरी के इस कदम ने पूर्वी ब्लॉक के तीव्र पतन में सहयोग किया। हंगरी में सरकार का मौजूदा स्वरूप एक संसदीय गणतंत्र है, जिसे १९८९ में स्थापित किया गया था। आज, हंगरी एक उच्च-आय अर्थव्यवस्था है और कुछ क्षेत्रों में एक क्षेत्रीय अगुआ है।
हंगरी गणतंत्र स्थिति
४५अंश ५०मिनट से ४८अंश ४०मिनट उत्तरी. अक्क्षांश तथा १६अंश से २३अंश पर्वी देशान्तर। इस गणतंत्र की अधिकतम लंबाई २५९ किमी और चौड़ाई ४२८ किमी है। हंगरी, मध्य यूरोप की डैन्यूब नदी के मैदान में स्थित है। इसके उत्तर में चेकोस्लोवाकिया पूर्व में रोमानिया, दक्षिण में यूगोस्लाविया तथा पश्चिम में आस्ट्रिया हैं। इस देश में समुद्रतट नहीं है।
यह आल्प्स पर्वतश्रेणियों से घिरा है। यहाँ कार्पेथिऐन पर्वत भी है जो मैदान को लघु एल्फोल्ड और विशाल एल्फोल्ड नामक भागों में विभक्त करता है। सर्वोच्च शिखर केकेस ३,३३0 फुट ऊँचा है। इसमें दो बड़ी झीलें हैं - (१) बालाटान (लंबाई ७७५ किमी और चौड़ाई ५ किमी) (२) न्यूसीडलर (इसे हंगरी में फर्टो (फेर्टो) कहते हैं)। प्रमुख नदियाँ हैं : डैन्यूब, टिजा और द्रवा।
देश की जलवायु शुष्क है। शीतकाल में अधिक सरदी और ग्रीष्मकाल में अधिक गरमी पड़ती है। न्यूनतम ताप ४रू सें. और अधिकतम ताप ३६रू सें. से भी अधिक हो जाता है। पहाड़ी जिलों में औसत वर्षा १०१६ मिमी और मैदानी जिलों में ३८१ मिमी होती है। सबसे अधिक वर्षा जाड़े में होती है जो खेती के लिए हानिप्रद नहीं होती है।
राष्ट्र की आधे से अधिक आय कृषि से होती है। डैन्यूब नदी के मैदानों में मक्का, गेहूँ, जौ, राई आदि अनाजों के अतिरिक्त आलू, चुकंदर प्यास और सन भी उगाए जाते हैं। चुकंदर से चीनी बनाई जाती है। यहाँ अच्छे फल भी उगते हैं। अंगूर से एक विशिष्ट प्रकार की शराब टोके (टोकए) बनाई जाती है। मैदानों में चरागाह हैं जहाँ हिरण, सूअर और खरगोश आदि पशु पाले जाते हैं। पैप्ररीका (पाप्रिका) नामक मिर्च होती है। यहाँ के वनों में चौड़े पत्तेवाले पेड़, ओक, बीच, ऐश तथा चेस्टनट पाए जाते हैं।
देश में खनिज धन अधिक नहीं है। लोहे, मैंगनीज और ऐलुमिनियम (बोक्साइट) के कुछ खनिज निकाले जाते हैं। लोहे के खनिज निम्न कोटि के हैं। कुछ पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस भी निकलती है। लिग्नाइट कोयला भी यहाँ निकाला जाता है। जलविद्युत् के उत्पादन के साधनों का यहाँ बहुत अभाव है।
उद्योग धंधे तथा विदेशी व्यापार
आटा पीसने के अनेक कारखाने हैं। शराब पर्याप्त परिमाण में बनती है और बाहर भेजी जाती है। चीनी का परिष्कार महत्व का उद्योग है। सन से भी अनेक सामान तैयार किए जाते हैं। निर्यात् की वस्तुओं में सूअर, मुर्गियाँ, सूती वस्त्र, आटा, चीनी, मक्खन, ताजे फल, मक्का, शराब, ऊन और सीमेंट आदि हैं। आयात की वस्तुओं में कच्ची रूई, कोयला, इमारती लकड़ी, नमक आदि हैं। छोटी छोटी मशीनें भी यहाँ बनती हैं और उनका निर्यात होता है। यहाँ का व्यापार सोवियत रूस, चेकोस्लोवाकिया, जर्मनी, पोलैंड, यूगोस्लाविया आदि से होता है।
हंगरी के अधिवासियों को मग्यार (मैग्यार) कहते हैं। लगभग ९० प्रतिशत मग्यार ही यहाँ रहते हैं; शेष जनसंख्या में जर्मन, स्लोवाक, रोमानियन, क्रोट, सर्व और जिप्सी हैं। लगभग आधी जनसंख्या नगरों में रहती है। हंगरी की कुल जनसंख्या १,००,५०,००0 (१962 अनुमानित) है। यहाँ के निवासी स्वतंत्र प्रकृति के और आनेवाले होते हैं। इनके लोकगीत और नृत्य सुप्रसिद्ध हैं। यहाँ के लोग रंगबिरंगे वस्त्र पहनते हैं और स्वादिष्ट भोजन करते हैं१ यहाँ के रसोइए जगत् प्रसिद्ध हैं। यहाँ के निवासी फुटबाल, टेनिस, घुड़सवारी, तैराकी आदि के शौकीन हैं।
भाषा और धर्म
हंगरी के ६८ प्रतिशत निवासी रोमनकैथोलिक, २७ प्रतिशत प्रोटेस्टेंट तथा शेष यहूदी एवं अन्य धर्मावलंबी हैं। यहाँ की भाषा मग्यार हैं।
हंगरी में ८८०० किमी लंबी रेल, सड़कें, ६०८०० किमी लंबे राजमार्ग और १९२० किमी लंबा नौगम्य जलमार्ग है। यहाँ का हवाई अड्डा बहुत बड़ा है और समस्त यूरोपीय देशों से संबद्ध है। रेलमार्ग भी अन्य यूरोपीय देशों से संबद्ध है। देश के अंदर भी पर्याप्त विकसित वायु यातायात हहै।
हंगरी के बारे में बहुत सारी जानकारी (हिन्दी
कोबर के सिधांत के अनुसार हंगरी का मैदान मध्यपिण्ड का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है ,जिसे कोबर ने श्वसिंबरग की संज्ञा दी थी सिधांत के अनुसार ही इसके दोंनो ओर भी पर्वत हैं जो की क्रमशः कारपेथियन एवं दिनारिक अल्पस हैं जिनके मध्यावलं से ये अप्रभावित रहा तथा हंगरी के मैदान के रूप मे अस्तित्व मे आया ।
यूरोप के देश |
तंजानिया का संयुक्त गणराज्य (स्वाहिली: जम्हूरी या मूँगनो वा तंजानिया), अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी भाग में स्थित एक देश है, जिसकी सीमायें, उत्तर में कीनिया और युगांडा, पश्चिम में रवांडा, बुरुंडी और कांगो, दक्षिण में ज़ाम्बिया, मलावी और मोजाम्बिक से मिलती हैं, तथा देश की पूर्वी सीमा हिंद महासागर द्वारा निर्धारित होती है।
तंजानिया का संयुक्त गणराज्य, २६ प्रदेशों जिन्हें मिकाओ कहते हैं से मिलकर बना है, जिनमें ज़ांज़ीबार का स्वायत्त क्षेत्र भी शामिल है। २००५ में निर्वाचित राष्ट्रपति जकाया किकवेते म्रिशो देश के वर्तमान राष्ट्रप्रमुख हैं। १९९६ से, तंजानिया की सरकारी राजधानी दोदोमा है, जहां संसद और कुछ सरकारी कार्यालय स्थित हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर १९९६ के बीच, तटीय शहर दार अस सलाम ने देश की राजनीतिक राजधानी बना रहा। आज, दार-एस-सलाम तंजानिया का सबसे प्रमुख वाणिज्यिक शहर है और ज्यादातर सरकारी कार्यालय यहीं पर स्थित हैं। यह देश का और उसके स्थलरुद्ध पड़ोसी देशों के लिए सबसे प्रमुख बंदरगाह है।
तंजानिया नाम दो राष्ट्रों तंगानयिका और ज़ांज़ीबार से मिलकर से मिलकर बना है, जिनके विलय स्वरूप १९६४ में तंगानयिका और ज़ांज़ीबार का संयुक्त गणराज्य अस्तित्व में आया था जिसका नाम उसी वर्ष बाद में बदल कर तंजानिया का संयुक्त गणराज्य कर दिया गया।
इन्हें भी देखें |
युगांडा गणराज्य पूर्वी अफ्रीका में स्थित एक स्थलरुद्ध देश है। इसकी सीमा पूर्व में केन्या, उत्तर में सूडान, पश्चिम में कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य, दक्षिण पश्चिम में रवांडा और दक्षिण में तंजानिया से मिलती है। देश के दक्षिणी हिस्से में विक्टोरिया झील का एक बड़ा भाग शामिल है, जिससे केन्या और तंजानिया से सीमा निर्धारित होती है। युगांडा नाम बुगांडा राजशाही से लिया गया है, जिसमें देश का दक्षिणी ह्स्सिा, राजधानी कंपाला को शामिल कर, आता था। देश की एक तिहाई जनसंख्या अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा (२ डालर प्रतिदिन) से नीचे जीवनयापन करती है।
यूगांडा पूर्वी मध्य-अफ्रीका का एक विषुवत्रेखीय देश है, जो पूर्णत: स्थलरुद्ध है। इसके उत्तर में सूडान, पशिचम में काँगो (लिओपोल्डविल) पूर्व में केन्या, दक्षिण-पश्चिम में रूआंडा, एवं दक्षिण में टैंगैन्यीका देश तथा विक्टोरिया झील स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ९३,९८१ वर्ग मील है, जिसका १३,६८९ वर्ग मील भाग जलग्रस्त एवं दलदली है।
देश का अधिकांश भूभाग पठारी है, जो समुद्रतल से लगभग ४,००० फुट ऊँचा है। पश्चिमी सीमा पर रूबंजोरी पर्वत स्थित है, जिसका उच्चतम शिखर समुद्रतल से १६,७९१ फुट ऊँचा है, जककि पूर्वी सीमा पर स्थित ऐलगन पर्वत की अधिकतम ऊँचाई १४,१७८ फुट है। देश के मध्य में क्योगा एवं दक्षिण में विक्टोरिया झीलें स्थित हैं।
समुद्रतल से अधिक उँचाई पर स्थित इस देश का ताप अन्य विषुवत्रेखीय प्रदेशों की तुलना में न्यून है। औसत वार्षिक ताप उत्तर में १५ सें० एवं दक्षिण में २२ सें० है। वार्षिक तापांतर साधारण हैं। औसत वार्षिक वर्षा की मात्रा उत्तर में ३५ इंच एवं दक्षिण में ५९ इंच तक है।
प्राकृतिक वनस्पति एवं जीवजंतु
पश्चिम के उच्च प्रदेश में लंबी घास तथा वनों की प्रचुरता है। उत्तर के शुष्कतर क्षेत्र में छोटी घास ही अधिक मिलती है। देश के दक्षिणी भाग में प्राकृतिक वनस्पति साफ करके भूमि को कृषियोग्य बना लिया गया है, हिसमें केले की उपज मुख्य है। कहीं कहीं हाथी घास उगती है, जिसकी ऊँचाई १० फुट तक हो जाती है।
पशुओं में हाथी, दरियाई घोड़ा, भैंसा, बंदर इत्यादि अधिक हैं। कुछ भागों में शेर, जिराफ तथा गैंड़े भी मिलते हैं।
कृषि में कपास, कहवा, गन्ना तंबाकू तथा चाय की उपज महत्वपूर्ण है। अन्य फसलों में केला, मक्का और बाजरा उल्लेखनीय हैं।
खनिज ताँबा उत्खनन तथा कपास एवं कहवा संबंधी उद्योग प्रमुख हैं। अन्य उद्योग धंधों के अंतर्गत वस्त्रनिर्माण, सीमेंट, मदिरा, चीनी, लकड़ी चीरने तथा साबुन निर्माण का काम होता है। |
लिथुआनिया यूरोप महाद्वीप के उत्तरी भाग में बाल्टिक सागर के किनारे स्थित एक देश है। लिथुआनिया मार्च १९९० में उसर से स्वतंत्र हुआ, एवं जून १९९० में उसर से अलग हुआ था। यह तीन बाल्टिक देशों (लिथुआनिया, लातविया और ऍस्तोनिया) में से सबसे बड़ा है। इसकी राजधानी विल्नुस है। २०१२ में इसकी आबादी लगभग ३० लाख थी। लिथुआनियाई लोग एक बाल्टिक समुदाय हैं और लिथुआनियाई भाषा हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की बाल्टिक शाखा की केवल दो जीवित भाषाओं में से एक है (दूसरी लातवियाई है)। कहा जाता है कि लिथुआनियाई भाषा ने हमेशा शुद्धता व आदिम हिन्द-यूरोपी भाषा से निकटता बनाई रखी है और संस्कृत भाषा के बहुत समीप है।
१४वीं शताब्दी में लिथुआनिया यूरोप का सबसे बड़ा देश हुआ करता था। आधुनिक बेलारूस व युक्रेन के साथ-साथ पोलैन्ड और रूस के कई हिस्से लिथुआनिया महाड्यूक राज्य के भाग थे। १५६९ में लुबलिन संधि के तहत पोलैन्ड और लिथुआनिया एक द्विराष्ट्रीय 'पोलिश-लिथुआनियाई महाकुल' नामक परिसंघ में जुड़ गए। यह लगभग १५०-२०० वर्षों तक सलामत रहा लेकिन १७२२ से १७९५ काल में पड़ोसी देशों ने इसे धीरे-धीरे तोड़ दिया। लिथुआनिया के अधिकतर भूभाग पर रूसी साम्राज्य का अधिकार हो गया।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान १९१७ में रूस में अक्टूबर समाजवादी क्रांति हुई जिस से रूसी साम्राज्य टूटा और सोवियत संघ ने जन्म लिया। इस उथल-पुथल का लाभ उठाते हुए १६ फ़रवरी १९१८ को लिथुआनियाई राजनैतिक नुमाइन्दो ने 'लिथुआनिया के स्वतंत्रता विधेयक' पर हस्ताक्षर किये और लिथुआनिया को एक आज़ाद राष्ट्र घोषित कर दिया। १९४० में, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, सोवियत संघ ने लिथुआनिया पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लिथुआनियाई सोवियत समाजवादी गणतंत्र के नाम से गठित करके अपना भाग बना लिया। जल्द ही नात्ज़ी जर्मनी की फ़ौजों ने उन्हें निकालकर स्वयं लिथुआनिया पर नियंत्रण कर लिया। १९४४ में जब जर्मनी हारने लगा तो उसने अपनी सेनाएँ लिथुआनिया से हटा लीं और सोवियत संघ ने वापस लिथुआनिया पर अधिकार जमा लिया।
१९९० में जब सोवियत संघ कमज़ोर पड़ा तो ११ मार्च १९९० को लिथुआनिया अपनी अलग स्वतंत्रता घोषित करने वाला पहला सोवियत गणतंत्र बना। आधुनिक लिथुआनिया यूरोपीय संघ, यूरोपीय परिषद और नाटो का सदस्य है और इसकी आर्थिक बढ़ौतरी का दर यूरोप के सबसे तेज़ देशों में से एक है। २००७-२०१० काल के विश्व आर्थिक मंदी का असर इस देश पर भी हुआ था लेकिन उसके बाद से अर्थव्यवस्था फिर से तेज़ी से विकसित हो रही है।
इन्हें भी देखें
यूरोप के देश |
आयरलैण्ड (; उत्तर पश्चिम यूरोप में एक द्वीप है। यह यूरोप का तीसरा सबसे बड़ा द्वीप है और दुनिया में बीसवां सबसे बड़ा द्वीप है। पूर्व में यूनाइटेड किंगडम है।
यूरोप के द्वीप |
सुरेश वाडकर(जन्म ७ अगस्त १९५५) एक भारतीय पार्श्वगायक हैं। वे मुख्यतः हिन्दी और मराठी फिल्मों में गाते हैं। इसके अलावा, उन्होंने, कई भोजपुरी, कोंकणी और ओड़िया गाने भी गाए हैं। उनका जन्म वर्ष १९५५ में कोल्हापुर में हुआ था। फिल्मों में गाने के अलावा वे शास्त्रीय संगीत में भी रुचि रखते हैं। वर्ष २०११ में उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायक की श्रेणी में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था।
सुरेश वाडकर का जन्म ७ अगस्त, १९५५ को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ। उन्हें बचपन से ही गायकी का शौक था। १० साल की आयु से ही उन्होंने अपने गुरु पंडित जियालाल वसंत से विधिवत संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दिया था।
सुरेश ने २० वर्ष की उम्र में एक संगीत प्रतियोगिता 'सुर श्रृंगार' में भाग लिया, जहां संगीतकार जयदेव और रवींद्र जैन बतौर निर्णायक मौजूद थे। सुरेश की आवाज से दोनों निर्णायक प्रभावित हुए, और उन्होंने उन्हें फिल्मों में पार्श्वगायन के लिए भरोसा दिलाया।
रवींद्र जैन ने राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म पहेली में उनसे पहला फिल्मी गीत 'वृष्टि पड़े टापुर टुपुर' गवाया था। इसके बाद जयदेव ने उन्हें फिल्म गमन में 'सीने में जलन' गीत गाने का मौका दिया, जिससे उन्हें लोकप्रियता प्राप्त होने लगी। इसके बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए १९८१ की फिल्म क्रोधी में 'चल चमेली बाग में', और प्यासा सावन में 'मेघा रे मेघा रे' नामक गीत लता मंगेशकर के साथ गाया।
१९८२ की फ़िल्म प्रेम रोग में उन्होंने 'मेरी किस्मत में तू नहीं शायद' और 'मैं हूं प्रेम रोगी' गीत गाए। इस फिल्म में ऋषि कपूर के साथ उनकी आवाज इतनी जमी कि उन्हें ऋषि कपूर की फिल्मों के गीतों के लिए चुना जाने लगा। अगले कुछ वर्षों में सुरेश ने कई बड़े संगीत निर्देशकों के लिए गीत गाए। इनमें 'हाथों की चंद लकीरों का' (कल्याणजी आनंदजी), 'हुजूर इस कदर भी न' (आर. डी. बर्मन), 'गोरों की न कालों की' (बप्पी लाहिड़ी), 'ऐ जिंदगी गले लगा ले' (इल्लायाराजा) और 'लगी आज सावन की' (शिव-हरि) जैसे कई गीत शामिल हैं।
उन्होंने आर. डी. बर्मन और गुलजार के साथ मिलकर कुछ गैर फिल्मी गीतों के कई अलबम भी बनाए, लेकिन वे व्यावसायिक दृष्टि कामयाब नहीं हो पाई। उन्होंने लंबे अंतराल के बाद अपनी फिल्म 'माचिस' में उनसे 'छोड़ आए हम' और 'चप्पा चप्पा चरखा चले' जैसे गीत गाये। २००० के दशक में सुरेश ने प्रमुखतः विशाल भारद्वाज के साथ काम किया, जिनमें फिल्म 'सत्या', 'ओमकारा', 'कमीने' और 'हैदर' के कुछ गीत प्रमुख हैं।
सुरेश ने हिंदी और मराठी के अलावा कुछ गीत भोजपुरी और कोंकणी भाषा में भी गाए हैं। उन्होंने वर्ष १९९८ में 'शिव गुणगान', २०१४ में 'मंत्र संग्रह', २०१६ में 'तुलसी के राम' नामक भक्ति
एल्बम भी बनाए।
निजी जीवन और परिवार
सुरेश वाडकर का विवाह वर्ष १९८८ में पद्मा के साथ हुई थी, जो स्वयं एक प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक हैं उनकी दो बेटियाँ हैं, जिया और अनन्य। उनकी पत्नी, पद्मा मूलतः केरल से हैं, और व्यावसायिक तौरपर संगीत सिखाती हैं। उन्होंने भी कुछ गाने गाए हैं।
नामांकरण तथा पुरस्कार
२००७ में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें महाराष्ट्र प्राइड अवार्ड से सम्मानित किया। वर्ष २०११ में उन्हें को मराठी फिल्म 'ई एम सिंधुताई सपकल' के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भी उन्हें प्रतिष्ठित लता मंगेशकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मराठी फिल्म मी सिंधुताई सपकाळ के गाने:"हे भास्करा क्षितिजवारी या" के लिए २०११ में उन्हें श्रेष्ठ पार्श्वगायक की श्रेणी में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था।
१९५५ में जन्मे लोग
महाराष्ट्र के लोग |
मराठी भारत के महाराष्ट्र प्रांत की इकलौती अधिकारिक राजभाषा है। महाराष्ट्र के बहुसंख्य लोग मराठी बोलते है। भाषाई परिवार के स्तर पर यह एक आर्य भाषा है। मराठी भारत की प्रमुख भाषाओं में से एक है। यह महाराष्ट्र और गोवा की राजभाषा है तथा पश्चिम भारत की सह-राज्यभाषा हैं। मातृभाषियों कि संख्या के आधार पर मराठी विश्व में दसवें और भारत में तिसरे स्थान पर है। इसे बोलने वालों की कुल संख्या लगभग १० करोड़ है। यह भाषा २३०० सालों से अस्तित्व में है और इसका मूल प्राकृत से है।
मराठी भाषा भारत के अतिरिक्त मॉरिशस और इस्राइल में भी मराठी मूल के लोगों द्वारा बोली जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य देश भी हैं जहाँ मराठी मूल के लोग निवास करते है और वे इस भाषा का उपयोग करते है जिनमें प्रमुख हैं - अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ़्रीका, सिंगापुर, जर्मनी, संयुक्त राजशाही (ब्रिटेन), ऑस्ट्रेलिया,वेस्ट ईंडीज और न्यूज़ीलैंड।
भारत में मराठी मुख्यतः महाराष्ट्र में बोली जाती है। इसके अतिरिक्त यह गोवा, कर्णाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिल नाडु और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है। केन्द्र शासित प्रदेशों में यह दमन और दीव और दादर और नागर हवेली में बोली जाती है। जिनमें महाराष्ट्र और गोवा की यह राजभाषा है।
मराठी भारत में एक आर्य भाषा है जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र में उपयोग की जाती है, मराठी भारत में लगभग ८१.१ मिलियन मराठी लोगों द्वारा बोली जाती है। यह क्रमशः पश्चिमी भारत में महाराष्ट्र और गोवा राज्यों में आधिकारिक भाषा और सह-आधिकारिक भाषा है। मराठी भारत की २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक है। 20१9 में, ८३.१ मिलियन मराठी बोलने वालों के साथ, मराठी दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं की सूची में दसवें स्थान पर है। भारत में मराठी बोलने वालों की संख्या हिंदी और बंगाली के बाद तीसरी है। मराठी भाषा में सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के कुछ प्राचीन साहित्य शामिल हैं, जो लगभग ६०० वर्षों से हैं। मराठी की मुख्य बोली मानक मराठी है और इसे बोलिभाषा कहा जाता है।
मराठी कवि और लेखक
मराठी के माध्यम से बैंकिंग हिन्दी सीखें
भारतीय भाषा ज्योति (मराठी) - हिन्दी के माध्यम से मराठी सीखने का उत्तम ई-पुस्तक
हिन्दी माध्यम से मराठी सीखें
मराठी फॉन्ट संग्रह
मराठी साहित्य : परिदृष्य (गूगल पुस्तक ; लेखक - राम पण्डित)
मराठी-हिन्दी शब्दसंग्रह (राजभाषा ज्ञानधारा)
ऑनलाइन मराठी विश्वकोश
बलई_डॉट_कॉम - मराठी विश्वकोश, प्रश्नकोश एवं शब्दकोश
विश्व की प्रमुख भाषाएं
भारत की भाषाएँ
महाराष्ट्र की भाषाएँ
महाराष्ट्र की संस्कृति
गोवा की भाषाएँ |
लमही (लम्ही) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह वाराणसी नगर से ३.७ मील दूर एक छोटा गाँव है, जहाँ हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था।
इन्हें भी देखें
लमही पत्रिका कविता कोश पर
उत्तर प्रदेश के गाँव
वाराणसी ज़िले के गाँव |
विष्णु सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं जिनको नारायण और हरि के नाम से भी जाना जाता है। वे वैष्णववाद के भीतर सर्वोच्च हैं, जो समकालीन हिन्दू धर्म के भीतर प्रमुख परंपराओं में से एक है।
हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व या जगत का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा जी को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव जी को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। कल्की अवतार १०वां (आखिरी) अवतार है।
पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। पौराणिक कथा के अनुसार तुलसी भी भगवान् विष्णु को लक्ष्मी के समान ही प्रिय है और इसलिए उसे 'विष्णुप्रिया' के रूप में मान्यता प्राप्त है। विष्णु का निवास क्षीरसागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।
वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा
(कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख
(पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।
जिवन के मुखय स्त्रोत व देवो के संहायक
शब्द-व्युत्पत्ति और अर्थ
'विष्णु' शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः 'विष्' धातु से ही मानी गयी है। ('विष्' या 'विश्' धातु लैटिन में - विकस और सालविक में वास -वेस का सजातीय हो सकता है।) निरुक्त (१२.१८) में यास्काचार्य ने मुख्य रूप से 'विष्' धातु को ही 'व्याप्ति' के अर्थ में लेते हुए उससे 'विष्णु' शब्द को निष्पन्न बताया है। वैकल्पिक रूप से 'विश्' धातु को भी 'प्रवेश' के अर्थ में लिया गया है, 'क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र प्रवेश किया हुआ होता है।
आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णुसहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) ही माना है, तथा उसकी व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्' धातु का रूप 'विष्णु' बनता है"।
'विश्' धातु को उन्होंने भी विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है; जैसा कि विष्णुपुराण में कहा है-- 'उस महात्मा की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु कहलाता है, क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"।
ऋग्वेद के प्रमुख भाष्यकारों ने भी प्रायः एक स्वर से 'विष्णु' शब्द का अर्थ व्यापक (व्यापनशील) ही किया है। विष्णुसूक्त (ऋग्वेद-१.१54.१ एवं ३) की व्याख्या में आचार्य सायण 'विष्णु' का अर्थ व्यापनशील (देव) तथा सर्वव्यापक करते हैं; तो श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भी इसका अर्थ व्यापकता से सम्बद्ध ही लेते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी 'विष्णु' का अर्थ अनेकत्र सर्वव्यापी परमात्मा किया है और कई जगह परम विद्वान् के अर्थ में भी लिया है।
इस प्रकार सुस्पष्ट परिलक्षित होता है कि 'विष्णु' शब्द 'विष्' धातु से निष्पन्न है और उसका अर्थ व्यापनयुक्त (सर्वव्यापक) है।
ऋग्वेद में विष्णु
वैदिक देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिक दृष्टि से विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि उनका स्तवन मात्र ५ सूक्तों में किया गया है; लेकिन यदि सांख्यिक दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाय तो उनका महत्त्व बहुत बढ़कर सामने आता है। ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर' (विशाल शरीर वाला), युवाकुमार आदि विशेषणों से ख्यापित किया गया है।
ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु के स्वरूप एवं वैशिष्ट्यों का अवलोकन निम्नांकि बिन्दुओं में किया जा सकता है :-
लोकत्रय के शास्ता : तीन पाद-प्रक्षेप
विष्णु की अनुपम विशेषता उनके तीन पाद-प्रक्षेप हैं, जिनका ऋग्वेद में बारह बार उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके तीन पद-क्रम मधु से परिपूर्ण कहे गये हैं, जो कभी भी क्षीण नहीं होते। उनके तीन पद-क्रम इतने विस्तृत हैं कि उनमें सम्पूर्ण लोक विद्यमान रहते हैं (अथवा तदाश्रित रहते हैं)। त्रेधा विचक्रमाणः भी प्रकारान्तर से उनके तीन पाद-प्रक्षेपों को ध्वनित करता है। उरुगाय और उरुक्रम आदि पद भी उक्त तथ्य के परिचायक हैं। मधु से आपूरित उनके तीन पद-क्रम में से दो दृष्टिगोचर हैं, तीसरा सर्वथा अगोचर। इस तीसरे सर्वोच्च पद को पक्षियों की उड़ान और मर्त्य चक्षु के उस पार कहा गया है। यास्क के पूर्ववर्ती शाकपूणि इन तीन पाद-प्रक्षेपों को ब्रह्माण्ड के तीन भागों-- पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक में सूर्य की संचार गति के प्रतीक मानते हैं। यास्क के ही पूर्ववर्ती और्णवाभ उन्हें सूर्य के उदय, मध्याकाश में स्थिति तथा अस्त का वाची मानते हैं। तिलक महोदय इनसे वर्ष के त्रिधाविभाजन (प्रत्येक भाग में ४ महीने) का संकेत मानते हैं।
यदि देखा जाय तो अधिकांश विद्वान् विष्णु को सूर्य-वाची मान कर उदयकाल से मध्याह्न पर्यन्त उसका एक पादप्रक्षेप, मध्याह्न से अस्तकाल पर्यन्त द्वितीय पादप्रक्षेप और अस्तकाल से पुनः अग्रिम उदयकाल तक तृतीय पाद-प्रक्षेप स्वीकारते हैं। इन्हीं पूर्वोक्त दो पाद-प्रक्षेपों को दृष्टिगोचर और तीसरे को अगोचर कहा गया है। लेकिन मैकडाॅनल सहित अन्य अनेक विद्वानों का भी कहना है कि इस अर्थ में तीसरे चरण को 'सर्वोच्च' कैसे माना जा सकता है? इसलिए वे लोग पूर्वोक्त शाकपूणि की तरह तीन चरणों को सौर देवता के तीनों लोकों में से होकर जाने का मार्ग मानते हैं। सूर्य की कल्पना का ही समर्थन करते हुए मैकडानल ने विष्णु द्वारा अपने ९० अश्वों के संचालित किये जाने का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्ये के चार-चार नाम हैं। इस प्रकार ४ की संख्या से गुणीकृत ९० अर्थात् ३६० अश्वों को वे एक सौर वर्ष के दिनों से अभिन्न मानते हैं। वस्तुतः विष्णु के दो पदों से सम्पूर्ण विश्व की नियन्त्रणात्मकता तथा तीसरे पद से उनका परम धाम अर्थात् उनकी प्राप्ति संकेतित है। स्वयं ऋग्वेद में ही इन तीन पदों की रहस्यात्मक व्याख्या की गयी है। इसलिए इस पद को ज्ञानात्मक मानकर ऋग्वेद में ही स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु का परम पद ज्ञानियों द्वारा ही ज्ञातव्य है।
विष्णु-धाम अर्थात् विष्णु का प्रिय आवास (वैकुण्ठ)
वैसे तो विष्णु को वाणी में निवास करने वाला भी माना जाता है, किन्तु उनका परम प्रिय आवास स्थल 'पाथः' ऋग्वेद में बहुचर्चित है। आचार्य सायण ने गिरि पद को श्लिष्ट मानकर उसका अर्थ 'वाणी' के साथ-साथ लाक्षणिक रूप में पर्वत के समान उन्नत लोक भी किया है। 'गिरि' को यदि इन दोनों अर्थों में स्वीकृत कर लिया जाय तो समस्या का समाधान हो जाता है।
विष्णु का तीसरा पद जहाँ पहुँचता है वही उनका आवास स्थान है। विष्णु का लोक परम पद है अर्थात् गन्तव्य रूपेण वह सर्वोत्कृष्ट लोक है। उस परम पद की विशेषता यह है कि वह अत्यधिक प्रकाश से युक्त है। वहाँ अनेक शृंगों वाली गायें (अथवा किरणें) संचरण किया करती हैं। गावः यहाँ श्लिष्ट पद की तरह है। श्लेष से उसका अर्थ गायें करने पर वहाँ दुग्ध आदि भौतिक पुष्टि का प्राचुर्य एवं किरणें करने पर वहाँ प्रकाश अर्थात् आत्मिक उन्नति का बाहुल्य सहज ही अनुमेय है।
विष्णु के परम पद में मधु का स्थायी उत्स (= स्रोत) है। यह मधु देवताओं को भी आनन्दित करनेवाला है। इस श्लिष्ट पद का जो भी अर्थ किया जाय पर वह हर स्थिति में परमानन्द का वाचक है, जिसके लिए देवता सहित समस्त प्राणी अभिलाषी भी रहते हैं और प्रयत्नशील भी। इसलिए उक्त लोक की प्राप्ति की कामना सभी करते हैं। उसी मंत्र मेंवहाँ पुण्यशाली लोगों का, तृप्ति (आनन्द, प्रसन्नता) का अनुभव करते हुए उल्लेख भी हुआ है।
विष्णु-इन्द्र युग्म अर्थात् इन्द्र-सखा
विष्णु की एक प्रमुख विशेषता उनका इन्द्र से मैत्रीभाव है। इन्द्र के साहचर्य में ही उनके तीन पाद-प्रक्षेपों का प्रवर्तन होता है। इन्द्र के साथ मिलकर वह शम्बर दैत्य के ९९ किलों का विनाश करते हैं। इसी प्रकार वह वृत्र के साथ संग्राम में भी इन्द्र की सहायता करते हैं। दोनों को कहीं-कहीं एक दूसरे की शक्तियों से युक्त भी बतलाया गया है। इस प्रकार विष्णु द्वारा सोमपान किया जाना और इन्द्र द्वारा तीन पाद-प्रक्षेप किया जाना भी वर्णित है। ऋग्वेद, मण्डल ६, सूक्त ६9 में दोनों देवों का युग्मरूपेण स्तवन हुआ है। इसी प्रकार ऋग्वेद के मण्डल ५, सूक्त ८७ में इन्द्र के सहचर मरुद्गणों के साथ उनकी सहस्तुति प्राप्त होती है।
'विष्' धातु से व्युत्पन्न विष्णु पद का शाब्दिक अर्थ व्यापक, गतिशील, क्रियाशील अथवा उद्यम-शील होता है। अपने बल-विक्रम के ही कारण वे लोगों द्वारा स्तुत होते हैं।
कुत्सितों के लिए भयकारक
अपने वीर्य (बल) अथवा वीर कर्मों के कारण वे शत्रुओं के भय का कारण हैं। उनसे लोग उसी प्रकार भयभीत रहते हैं, जिस प्रकार किसी पर्वतचारी सिंह से। परमेश्वराद्भीतिः आदि श्रुति-वचनों से सामान्य जनों का भी उनसे भय करना सिद्ध हो जाता है। उनसे भयभीत होना अकारण नहीं है। वे कुत्सितों (शत्रुओं) का वध आदि हिंसाकर्म करने वाले हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वे कुत्सित हिंसादिकर्ता (कुचरः) का ही वध करते है। इसलिए उनके लिए कहा गया है कि वे हत्यारे नहीं हैं।
व्यापक तथा अप्रतिहत गति वाले
विष्णु विस्तीर्ण, व्यापक और अप्रतिहत गति वाले हैं। उरुगाय और उरुक्रम आदि पद इस तथ्य के पोषक हैं। उरुगाय का अर्थ आचार्य सायण द्वारा महज्जनों द्वारा स्तूयमान अथवा प्रभूततया स्तूयमान करने से भी विष्णु की महिमा विखण्डित नहीं होती। डाॅ.यदुनन्दन मिश्र का कहना है कि इस पद का अर्थ विस्तीर्ण गति वाला करने के लिए हम इस लिए आग्रहवान् हैं, क्योंकि उसे सभी लोकों में संचरण करने वाला कहा गया है। उनके पद-क्रम इतने सुदीर्घ होते हैं कि वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं।
विष्णु के तीन पद यदि सृष्टि करते हैं, स्थापन करते हैं, धारण करते हैं तो वहीं पर आश्रित जनों का पालन-पोषण भी किया करते हैं। लोगों को अपना भोग्य अन्नादि उन्हीं तीन पद-क्रमों के प्रसादस्वरूप प्राप्त होता है, जिससे कि वे परम तृप्ति का अनुभव किया करते हैं। जो लोग विष्णु की स्तुति करते हैं, उनका वे सर्वविध कल्याण करते हैं, क्योंकि उनके स्तवनादि कर्म से उसे परम स्फूर्ति मिलती है। इस प्रकार स्फूर्ति-प्रदायिनी स्तुति विष्णु तक पहुँचा पाने के लिये सभी लालायित रहते हैं। वे वरिष्ठ दाता हैं।
विष्णु के गुणों में भी त्रयात्मकता परिलक्षित होती है। वे तीन पद-क्रम वाले, तीन प्रकार की गति करने वाले, तीनों लोकों को नाप लेने वाले और लोकत्रय के धारक हैं। इसी प्रकार वह त्रिधातु अर्थात् सत्, रज और तम का समीकृत रूप अथवा पृथ्वी, जल और तेज से युक्त भी हैं।
विष्णु पार्थिव लोकों का निर्माण और परम विस्तृत अन्तरिक्ष आदि लोकों का प्रस्थापन करने वाले हैं। वे स्वनिर्मित लोकों में तीन प्रकार की गति करने वाले हैं। उनकी ये तीन गतियाँ उद्भव, स्थिति और विलय की प्रतीक हैं। इस प्रकार जड़-जंगम सभी के वे निर्माता भी हैं, पालक भी और विनाशक भी। वे 'लोकत्रय का अकेला धारक' हैं। वे अपने तीन पाद-प्रक्षेपों से अकेले ही तीनों लोकों को नाप लेते हैं। लोकत्रय को नाप लेने से भी यह फलित होता है कि लोकत्रय अर्थात् वहाँ के समग्र प्राणी उनके पूर्ण नियंत्रण में हैं। विष्णु भ्रूण-रक्षक भी हैं। गर्भस्थ बीज की रक्षा के लिए और सुन्दर बालक की उत्पत्ति के लिए विष्णु की प्रार्थना की जाती है।उनके पालक स्वरूप पर स्पष्ट बल देने के कारण ऋग्वेद में अहोरात्र अग्निरूप में भी उन्हें 'विष्णुर्गोपा परमं पाति..' अर्थात् सबके रक्षक-पालक कहा गया है। आचार्य सायण ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के पच्चीसवें सूक्त के बारहवें मन्त्र की व्याख्या में भी विष्णु को स्पष्ट रूप से 'पालन से युक्त' मानते हैं।....
इसलिए समग्र परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में विष्णु को परम हितैषी कहा गया है।
सर्वाधिक मन्त्रों में वर्णित होने के बावजूद इन्द्र को 'सुकृत' और विष्णु को 'सुकृत्तरः' कहा गया है। 'सुकृत्तरः' का आचार्य सायण ने 'उत्तम फल प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ' अर्थ किया है; श्रीपाद सातवलेकर जी ने 'उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ' अर्थ किया है और महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी 'अतीव उत्तम कर्म वाला' अर्थ किया है। इन्द्र 'सुकृत' (उत्तम कर्म करने वाला) है तो विष्णु 'सुकृत्तरः' (उत्तम कर्म करने वालों में सर्वश्रेष्ठ) हैं।तात्पर्य स्पष्ट है कि ऋग्वेद में ही यह मान लिया गया है कि विष्णु सर्वोच्च हैं। इसी प्रकार इन्द्र के राजा होने के बावजूद विष्णु की सर्वोच्चता ऋग्वेद में ही इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि उसमें विष्णु के लिए कहा गया है कि "वे सम्पूर्ण विश्व को अकेले धारण करते हैं" तथा इन्द्र के लिए कहा गया है कि वे राज्य (संचालन) करते हैं। तात्पर्य स्पष्ट है कि सृष्टि के सर्जक एवं पालक विष्णु ने संचालन हेतु इन्द्र को राजा बनाया है। इस सुसन्दर्भित परिप्रेक्ष्य में विष्णु की सर्वोच्चता से सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रन्थों एवं बाद की पौराणिक मान्यताएँ भी स्वतः उद्भासित हो उठती हैं।
ब्राह्मणों में विष्णु
ब्राह्मण-युग में यज्ञ-संस्था का विपुल विकास हुआ और इसके साथ ही देवमंडली में विष्णु का महत्त्व भी पहले की अपेक्षा अधिकतर हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण के आरम्भ में ही यज्ञ में स्थान देने के क्रम में अग्नि से आरम्भ कर विष्णु के स्थान को 'परम' कहा गया है। इनके मध्य अन्य देवताओं का स्थान है।
इस तरह स्पष्ट रूप से वैदिक संहिता ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान प्राप्त अग्नि की अपेक्षा विष्णु को अत्युच्च स्थान दिया गया है। वस्तुतः विष्णु को महत्तम तो ऋग्वेद में भी माना ही गया है, पर वर्णन की अल्पता के कारण वहाँ उनका स्थान गौण लगता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में स्पष्ट कथन के द्वारा उन्हें सर्वोच्च पद दिया गया है। यह श्रेष्ठता इस कथा से भी स्पष्ट होती है कि विष्णु ने अपने तीन पगों द्वारा असुरों से पृथ्वी, वेद तथा वाणी सब छीनकर इन्द्र को दे दी। वैदिक विष्णु के तीन पगों का यह ब्राह्मणों में कथात्मक रूपान्तरण है; और इसी के साथ विष्णु की सर्वश्रेष्ठता भी ब्राह्मण युग में ही स्पष्ट हो गयी।
ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्ट रूप से विष्णु को द्वारपाल की तरह देवताओं का सर्वथा संरक्षक मानता है।
ऋग्वेद तथा ब्राह्मणों में उपलब्ध संकेतों का पुराणों में पर्याप्त परिवर्धन हुआ-- कथात्मक भी, विवरणात्मक भी और व्याख्यात्मक भी। पुराणों ने इस जगत के मूल में वर्तमान, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस तथा हेय के अभाव से निर्मल परब्रह्म को ही विष्णु संज्ञा दी है। वे (विष्णु) 'परानां परः' (प्रकृति से भी श्रेष्ठ), अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा, परम श्रेष्ठ तथा रूप, वर्ण आदि निर्देशों तथा विशेषण से रहित (परे) हैं। वे जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश -- इन छह विकारों से रहित हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं और समस्त विश्व का उन्हीं में वास है; इसीलिए विद्वान् उन्हें 'वासुदेव' कहते हैं। जिस समय दिन, रात, आकाश, पृथ्वी, अन्धकार, प्रकाश तथा इनके अतिरिक्त भी कुछ नहीं था, उस समय एकमात्र वही प्रधान पुरुष परम ब्रह्म विद्यमान थे, जो कि इन्द्रियों और बुद्धि के विषय (ज्ञातव्य) नहीं हैं।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी को विष्णु जी ने जो मूल ज्ञानस्वरूप चतुःश्लोकी भागवत सुनाया था, उसमें भी यही भाव व्यक्त हुआ है -- सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ। इन सन्दर्भों से विष्णु की सर्वोच्चता तथा सर्वनियन्ता होने की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है।
माना गया है कि विष्णु के दो रूप हुए। प्रथम रूप-- प्रधान पुरुष और दूसरा रूप 'काल' है। ये ही दोनों सृष्टि और प्रलय को अथवा प्रकृति और पुरुष को संयुक्त और वियुक्त करते हैं। यह काल रूप भगवान् अनादि तथा अनन्त हैं; इसलिए संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते।
वैष्णवों के सिरमौर तथा 'पुराणों का तिलक' के रूप में मान्य भागवत महापुराण में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रसंग में कहा गया है कि सृष्टि करने की इच्छा होने पर एकार्णव में सोये (एकमात्र) विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ और उसमें समस्त गुणों को आभासित करने वाले स्वयं विष्णु के ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होने से स्वतः वेदमय ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ।
इसी प्रकार अधिकांश पुराणों में विष्णु को परम ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। उनसे सम्बद्ध कथाओं से पुराण भरे पड़े हैं। पालनकर्ता होने के कारण उन्हें जागतिक दृष्टि से यदा-कदा विविध प्रपंचों का भी सहारा लेना पड़ता है। असुरों के द्वारा राज्य छीन लेने पर पुनः स्वर्गाधिपत्य-प्राप्ति हेतु देवताओं को समुद्र-मंथन का परामर्श देते हुए असुरों से छल करने का सुझाव देना; तथा कामोद्दीपक मोहिनी रूप धारणकर असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाना; शंखचूड़ (जलंधर) के वध हेतु तुलसी (वृन्दा) का सतीत्व भंग करने सम्बन्धी देवीभागवत तथा शिवपुराण जैसे उपपुराणों में वर्णित कथाओं में विष्णु का छल-प्रपंच द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में यह अनिवार्यतः ध्यातव्य है कि पालनकर्ता होने के कारण वे परिणाम देखते हैं। किन्हीं वरदानों से असुरों/अन्यायियों के बल-विशिष्ट हो जाने के कारण यदि छल करके भी अन्यायी का अन्त तथा अन्याय का परिमार्जन होता है तो वे छल करने से भी नहीं हिचकते। रामावतार में छिपकर बाली को मारना तथा कृष्णावतार में महाभारत युद्ध में अनेक छलों का विधायक बनना उनके इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। छिद्रान्वेषी लोग इन्हीं कथाओं का उपयोग मनमानी व्याख्या करके ईश्वर-विरोध के रूप में करते हैं। परन्तु, इन्हें सान्दर्भिक ज्ञान की दृष्टि से देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि पुराणों या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में ये प्रसंग विपरीत स्थितियों में सामान्य से इतर विशिष्ट कर्तव्य के ज्ञान हेतु ही उपस्थापित किये गये हैं। ध्यातव्य है कि पुराणों में तात्त्विक ज्ञान को ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् कहा गया है।
विष्णु का स्वरूप
विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों तथा आयुधों को भी प्रतीकात्मक माना गया है :-
कौस्तुभ मणि = जगत् के निर्लेप, निर्गुण तथा निर्मल क्षेत्रज्ञ स्वरूप का प्रतीक
श्रीवत्स = प्रधान या मूल प्रकृति
गदा = बुद्धि
शंख = पंचमहाभूतों के उदय का कारण तामस अहंकार
शार्ङ्ग (धनुष) = इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला राजस अहंकार
सुदर्शन चक्र = सात्विक अहंकार
वैजयन्ती माला = पंचतन्मात्रा तथा पंचमहाभूतों का संघात [वैजयन्ती माला मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील तथा हीरा -- इन पाँच रत्नों से बनी होने से पंच प्रतीकात्मक]
बाण = ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय।
खड्ग = विद्यामय ज्ञान {जो अज्ञानमय कोश (म्यान) से आच्छादित रहता है।}
इस प्रकार समस्त सृजनात्मक उपादान तत्त्वों को विष्णु अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं।
श्रीविष्णु की आकृति से सम्बन्धित स्तुतिपरक एक श्लोक अतिप्रसिद्ध है :-
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभाङ्गम्।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ - जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किये हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत् के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान् श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
विष्णु की सर्वश्रेष्ठता का यह तात्पर्य नहीं है कि शिव या ब्रह्मा आदि उनसे न्यून हैं। ऊँच-नीच का भाव ईश्वर के पास नहीं होता। वह तो लीला में सृष्टि-संचालन हेतु सगुण (सरूप) होने की प्राथमिकता मात्र है। इसलिए वैष्णव हो या शैव -- सभी पुराण तथा महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ एक स्वर से घोषित करते हैं कि ईश्वर एक ही हैं। कहा गया है कि एक ही भगवान् जनार्दन जगत् की सृष्टि, स्थिति (पालन) और संहार के लिए 'ब्रह्मा', 'विष्णु' और 'शिव' -- इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं। अनेकत्र विष्णु तथा शिव के एक ही होने के स्पष्ट कथन उपलब्ध होते हैं।
विष्णु के अवतार
'अवतार' का शाब्दिक अर्थ है भगवान् का अपनी स्वातंत्र्य-शक्ति के द्वारा भौतिक जगत् में मूर्त रूप से आविर्भाव होना, प्रकट होना। अवतार की सिद्धि दो दशाओं में मानी जाती है -- एक तो अपने रूप का परित्याग कर कार्यवश नवीन रूप का ग्रहण; तथा दूसरा नवीन जन्म ग्रहण कर सम्बद्ध रूप में आना, जिसमें माता के गर्भ में उचित काल तक एक स्थिति की बात भी सन्निविष्ट है। इसमें अत्यल्प समय के लिए रूप बदलकर या किसी दूसरे का रूप धारणकर पुनः अपने रूप में आ जाना शामिल नहीं होता।
अवतार का प्रयोजन
श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के सुप्रसिद्ध सातवें एवं आठवें श्लोक में भगवान् ने स्वयं अवतार का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि -- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न होता हूँ।
इसके अतिरिक्त भागवत महापुराण में एक विशिष्ट और अधिक उदात्त प्रयोजन की बात कही गयी है कि भगवान् तो प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश आदि से परे अचिन्त्य, अनन्त, निर्गुण हैं। तो यदि वे अवतार रूप में अपनी लीला को प्रकट नहीं करते तो जीव उनके अशेष गुणों को कैसे समझते? अतः जीवों के प्रेरणारूप कल्याण के लिए उन्होंने अपने को (अवतार रूप में) तथा अपनी लीला को प्रकट किया। इसलिए विभिन्न अवतार-कथाओं में कई विषम स्थितियाँ हैं जिससे जीव यह समझ सके कि परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग कैसा होता है!
अवतारों की संख्या
विष्णु के अवतारों की पहली व्यवस्थित सूची महाभारत में उपलब्ध होती है।
महाभारत के शान्तिपर्व में अवतारों की कुल संख्या १० बतायी गयी है (मूलपाठ) :-
हंस: कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम ॥
वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च।
रामो दाशरथिश्चैव सात्वत: कल्किरेव च ॥
अर्थात् (श्रीभगवान् स्वयं नारद से कहते हैं) हंस कूर्म मत्स्य वराह नरसिंह वामन परशुराम दशरथनन्दन राम यदुवंशी श्रीकृष्ण तथा कल्कि -- ये सब मेरे अवतार हैं।
आगे यह भी कहा गया है कि ये भूत और भविष्य के सभी अवतार हैं।
मूलपाठ में वर्णन छह अवतारों का है :-
१.वराह २.नरसिंह ३.वामन ४.परशुराम ५.राम ६.कृष्ण
चूँकि महाभारत बुद्ध के जन्म से पूर्व की अथवा बुद्ध के अवतारी होने की कल्पना से पहले की रचना है; अतः स्वाभाविक रूप से उसमें कहीं बुद्ध का नामोनिशान नहीं है। उसके बदले हंस को अवतार रूप में गिनने से दश की संख्या पूरी हो गयी है।
महाभारत के दाक्षिणात्य पाठ में अवतार का वर्णन इस प्रकार है :-
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहश्च वामनः।
रामो रामश्च रामश्च कृष्णः कल्की च ते दश॥
यहाँ पूर्वोक्त अवतारों में से हंस को छोड़कर तीसरे राम अर्थात् बलराम को जोड़ देने से दश की संख्या पूरी हो गयी है।
इस विवरण से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि महाभारत-काल तक दश से अधिक अवतारों की कल्पना भी नहीं की गयी थी; अन्यथा उन दश अवतारों को 'भूत और भविष्य के भी सभी अवतार' नहीं कहा गया रहता।
बाद में अन्य अवतारों की भी कल्पना प्रचलित हुई और कुल अवतारों की गणना चौबीस तक पहुँच गयीं।
भागवत महापुराण में २२ तथा २४ अवतारों की गणना के बावजूद अवतारों की बहुमान्य संख्या महाभारत वाली दश ही रही है। पद्मपुराण (उत्तरखण्ड-२५७.४०,४१), लिंगपुराण (२.४८.३१,3२), वराहपुराण (४.२), मत्स्यपुराण (२.८५.६,७) आदि अनेक पुराणों में समान रूप से दश अवतारों की बात ही बतायी गयी है। अग्निपुराण के वर्णन (अध्याय-२से1६) में भी बिल्कुल वही क्रम है। इस सन्दर्भ का निम्नांकित श्लोक (नाममात्र के पाठ भेदों के साथ) प्रायः सर्वनिष्ठ है :-
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किश्च ते दश॥
इस प्रकार विष्णु के दश अवतार ही बहुमान्यता प्राप्त हैं। इनके संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं :
मत्स्यावतार : पूर्व कल्प के अन्त में ब्रह्मा जी की तन्द्रावस्था में उनके मुख से निःसृत वेद को हयग्रीव दैत्य के द्वारा चुरा लेने पर भगवान् ने मत्स्यावतार लिया तथ मनु नामक राजा से कहा कि सातवें दिन प्रलयकाल आने पर समस्त बीजों तथा वेदों के साथ नौका पर बैठ जाएँ। उस समय सप्तर्षि के भी आ जाने पर भगवान् ने महामत्स्य के रूप में उस नौका को उन सबके साथ अनन्त जलराशि पर तैराते हुए उन सबको बचा लिया। पश्चात् हयग्रीव को मारकर वेद वापस ब्रह्मा जी को दे दिया।
कूर्मावतार : असुरराज बलि के नेतृत्व में असुरों द्वारा देवताओं को परास्त कर शासन-च्युत कर देने पर भगवान् ने देवताओं को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को कहा और जब मन्थन के समय मथानी (मन्दराचल) डूबने लगा तो कूर्म (कच्छप) रूप धारणकर उसे अपनी पीठ पर स्थित कर लिया। इसी मन्थन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई।
वराहावतार : वराहावतार में भगवान् विष्णु ने महासागर (रसातल) में डुबायी गयी पृथ्वी का उद्धार किया। वहीं भगवान ने हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध भी किया था।
नरसिंहावतार : हिरण्याक्ष के वध के बाद विष्णुविरोधी हिरण्यकशिपु ने तपस्या के द्वारा अद्भुत वर पाया और देवताओं को परास्त कर अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित कर भगवद्भक्तों पर भीषण अत्याचार करने लगा। अपने पुत्र प्रह्लाद को विष्णु-भक्त जानकर उसने उसका विचार बदलने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन असफल होकर उसे मार डालना चाहा। तब अपने भक्त प्रहलाद को अनेक तरह से भगवान् विष्णु ने बचाया तथा वरदान की शर्त निभाते हुए नरसिंह रूप में आकर हिरण्यकशिपु का वध कर डाला।
वामनावतार : प्रह्लाद के पौत्र, विरोचन के पुत्र असुर नरेश बलि द्वारा स्वर्गाधिपत्य प्राप्त कर लेने पर कश्यप जी के परामर्श से माता अदिति के पयोव्रत से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनके घर जन्म लेकर वामन रूप में बलि की यज्ञशाला में पधारकर तीन पग भूमि माँगी और फिर विराट रूप धारण कर दो पगों में पृथ्वी-स्वर्ग सब नापकर तीसरा पद रखने के लिए बलि द्वारा अपना सिर दिये जाने पर उसे सुतल लोक भेज दिया।
परशुरामावतार: अन्यायी क्षत्रियों और विशेषतः हैहयवंश का नाश करने के लिए भगवान् ने परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया। ये महान् पितृभक्त थे। पिता की आज्ञा से इन्होंने अपनी माता का भी वध कर दिया था और पिता के प्रसन्न होकर वर माँगने के लिए कहने पर पुनः माता को जीवित करवा लिया था। अत्याचारी कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) के हजार हाथों को इन्होंने युद्ध में काट डाला था; और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि ऋषि (परशुराम जी के पिता) को बुरी तरह घायल कर हत्या कर देने पर इन्होंने अत्यन्त क्रोधित होकर उन सबका वध करके इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच कुण्ड भर दिये थे। फिर यज्ञ करके सारी पृथ्वी कश्यप जी को देकर महेन्द्र पर्वत पर चले गये।
रामावतार: इस विश्व-विश्रुत अवतार में भगवान् ने महर्षि पुलस्त्य जी के पौत्र एवं मुनिवर विश्रवा के पुत्र रावणजो कुयोगवश राक्षस हुआके द्वारा सीता का हरण कर लेने से वानर जातियों की सहायता से अनुचरों सहित रावण का वध करके आर्यावर्त को अन्यायी राक्षसों से मुक्त किया तथा आदर्श राज्य की स्थापना की। यह विशेष ध्यातव्य है कि मानवमात्र की प्रेरणा के लिए उच्चतम आदर्श-स्थापना का यह कार्य उन्होंने पूरी तरह मनुष्य-भाव से किया। रामकथा के लिए सर्वाधिक प्रमाणभूत एवं आधार ग्रन्थ वाल्मीकीय रामायण में राम का चरित्र समर्थ मानव-रूप में ही चित्रित है। युद्धादि के समापन के बाद जब सभी देवता उन्हें ब्रह्म मानकर उनकी स्तुति करते हैं, तब भी वे कहते हैं कि -- आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्। सोऽहं यश्च यतश्चाहं भगवांस्तद् ब्रवीतु मे॥ अर्थात् मैं तो अपने को दशरथपुत्र मनुष्य राम ही मानता हूँ। मैं जो हूँ और जहाँ से आया हूँ, हे भगवन् (ब्रह्मा)! वह सब आप ही मुझे बताइए। तब ब्रह्मा जी उन्हें सब बताते हैं। लीला के लिए ही सही, पर पूरी तरह मनुष्यता का यह आदर्श अनुपम है; और जो प्रेरणा इससे मिलती है वह स्वयं को हर समय सर्वशक्तिमान् परात्पर ब्रह्म मानते हुए लीला करने से (जैसा कि बाद की रामायणों में वर्णित है) कभी नहीं मिल सकती है।
कृष्णावतार: इस अवतार में भगवान् ने देवकी और वसुदेव के घर जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। इस अवतार में भगवान् ने विशिष्ट लीलाओं द्वारा सबको चकित करते हुए दुराचारी कंस का वध किया; और विख्यात महाभारत-युद्ध में गीता-उपदेश द्वारा अर्जुन को युद्ध हेतु तत्पर करके विभिन्न विषम उपायों का भी सहारा लेकर कौरवों के विध्वंश के बहाने पृथ्वी के लिए भारस्वरूप प्रायः समस्त राजाओं को ससैन्य नष्ट करवा दिया। यहाँ तक कि उनके बतलाये आदर्शों की अवहेलना कर मद्यपान में रमने वाले यदुवंश का भी विनाश करवा दिया। श्रीकृष्ण ने यह शिक्षा दी कि जीवन की राह सीधी रेखा में ही नहीं चलती। धर्म और अधर्म का निर्णय परिस्थिति और अन्तिम परिणाम के आधार पर होता है, न कि परम्परा के आधार पर। श्रीकृष्ण की बहुत सी लीलाएँ अनुकरणीय नहीं, चिन्तन के योग्य हैं। राम का चरित्र अनुकरण के योग्य है। राम के चरित्र का अनुकरण करके कृष्ण-चरित्र को समझ सकें, इसी में ज्ञान की सार्थकता है। कृष्ण-चरित्र का वर्णन अनेक पुराणों में है। परन्तु महाभारत के अन्तर्गत आये अंशों के अतिरिक्त शेष बाल-लीला एवं अन्य लीलाओं का प्राचीन रूप हरिवंशपुराण में है; उसके बाद का रूप विष्णुपुराण में तथा सर्वथा परिष्कृत रूप श्रीमद्भागवत पुराण के पूरे दशम स्कन्ध में है।
बुद्धावतार: महाभारत में बुद्ध का अवतार के रूप में तो नहीं ही, व्यक्ति रूप में भी नामोनिशान नहीं है। हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों में उनकी पहली उपस्थिति महाभारत का खिल (परिशिष्ट) भाग माने जाने वाले हरिवंशपुराण में है, परन्तु विरोध के रूप में। भागवत महापुराण तक में उन्हें मोहित-भ्रमित करनेवाला ही माना गया है। परन्तु, अथर्ववेद की शाब्दिक स्पष्टता से लेकर महाभारत तक में हिंसा के अत्यधिक विरोध के बावजूद सनातन (हिन्दू) धर्म में इस कदर हिंसा व्याप्त हो गयी कि अहिंसा के प्रबल उपदेशक बुद्ध जयदेव के समय (१२वीं शती) से पहले ही पूरी तरह भगवान् का सहज अवतार मानकर उनके उपदेशों को मान्यता दे दी गयी। गीतगोविन्दम् के प्रथम सर्ग में ही दशावतार-वर्णन के अन्तर्गत जयदेव जी ने बुद्ध की स्तुति में यही कहा है कि आपने श्रुतिवाक्यों (के बहाने) से यज्ञ में पशुओं की हत्या देखकर सदय हृदय होने से यज्ञ की विधियों की निन्दा की।
कल्कि अवतार: यह भविष्य का अवतार है। कलियुग का अन्त समीप आ जाने पर जब अनाचार बहुत बढ़ जाएगा और राजा लोग लुटेरे हो जाएँगे, तब सम्भल नामक ग्राम के विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर भगवान् का कल्कि अवतार होगा। उनके द्वारा अधर्म का विनाश हो जाने पर पुनः धर्म की वृद्धि होगी। धर्म की वृद्धि होना ही सत्य युग (कृतयुग) का आना है।
दशावतार के अतिरिक्त अन्य चौदह अवतारों के नाम (भागवत महापुराण की दोनों सूचियों को मिलाकर) इस प्रकार हैं :-
कौमार सर्ग (सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार) - एक बार लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने चार ऋषियों के रूप में अवतार लिया।
हयशीर्ष (हयग्रीव) - एक बार हयग्रीव ( महर्षि कश्यप और दनु का पुत्र ) नाम के दानव ने माता पार्वती की घोर तपस्या की और उनसे वरदान माँगा कि वह केवल हयग्रीव के हाथों ही मारा जाए। जब उसके अत्याचार बढ़ने लगे तो भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार लेकर उसे मार डाला।
नारद - पुराणों के अनुसार नारद भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। एक बार सप्तऋषियों में विवाद हो गया कि कौन श्रेष्ठ है, जिसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रतियोगिता का भी आयोजन किया। जब उस प्रतियोगिता का भी परिणाम नहीं निकला तो भगवान विष्णु ने नारद का रूप लेकर सप्तऋषियों को ज्ञान-उपदेश दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है कि देवर्षियों में मैं नारद हूँ।
हंस - हंस अवतार का सर्वप्रथम महाभारत में उल्लेख हुआ है। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एक बार सनकादि ऋषियों ने अपने पिता ब्रह्मा से पूछा कि इस सृष्टि की रचना कैसे हुई, इस सृष्टि का आदि कौन है तथा अंत कौन है ? सनकादि ऋषियों के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए भगवान विष्णु ने एक बहुत बड़े हंस का रूप लिया और सभा में जाकर उन्होंने सनकादि ऋषियों के प्रश्नों के उत्तर दिये।
नर-नारायण - नर और नारायण के रूप में भगवान विष्णु ने जुड़वाँ संतों के रूप में ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति रुचि की पत्नी आकूति के गर्भ से जन्म लिया।
कपिल - महर्षि कर्दम के तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कपिल के रूप में देवहूति के गर्भ से जन्म लिया।
दतात्रेय - एक बार त्रिदेवियों को अपने सतीत्व का अहंकार हो गया था तो नारद मुनि ने उनसे अनुसूया के पतिव्रत धर्म की बात की जिससे उनके अहंकार को बहुत ठेस पहुँची। उन्होंने त्रिदेवों से इसके बारे में कहा। त्रिदेव एक ही समय में अत्रि ऋषि के आश्रम में आये। तीनों ने अनुसूया से बिना वस्त्र के भोजन करवाने को कहा। अनुसूया ने अत्रि ऋषि के चरणोदक से त्रिदेवों को बालक बनाया और उन्हें अपने पुत्र के समान स्नेह दिया और उन्हें स्तनपान भी कराया। अंत में त्रिदेवों ने अपने तेज से अनुसूया के गर्भ से जन्म लिया। शंकर के तेज से दुर्वासा , ब्रह्मा के तेज से चन्द्रदेव और विष्णु के तेज से दतात्रेय का जन्म हुआ।
सुयज्ञ- स्वयंभू मनु के यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने आकूति के गर्भ से रूचि प्रजापति के पुत्र के रूप में जन्म लिया।
ऋषभदेव - नाभिराज नाम के राजा की कोई संतान नहीं थी। वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे और अपने कुलगुरु से उन्होंने एक यज्ञ करवाया जिससे भगवान विष्णु प्रसन्न हो गये और नाभिराज को वरदान दिया कि वे उनकी पत्नी के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। समय आने पर भगवान विष्णु ने रानी मरूदेवी के गर्भ से पुत्र-रूप में जन्म लिया।
पृथु - भूमण्डल पर सर्वप्रथम राजा वेन के पुत्र पृथु के रूप में जन्म लिया।
धन्वन्तरि - समुद्र मन्थन में अंतिम रत्न के रूप में भगवान विष्णु धन्वन्तरी के रूप में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इन्हें आयुर्वेद का जनक माना गया है।
मोहिनी - अमृत निकलने के बाद असुर अमृत कलश लेकर भागने लगे थे तो उन्हें रोकने के लिए भगवान विष्णु ने एक सुन्दर स्त्री का रूप लिया और असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पान करवाया।
व्यास - धर्मग्रंथो के अनुसार वेदव्यास भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है। मैं कुमारी हूँ। मेरे पिता क्या कहेंगे?" पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" पाराशर ने फिर से माँग की तो सत्यवती बोली कि "मेरे शरीर से मछली की दुर्गन्ध निकलती है"। तब ऋषि ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा- "तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जाएगी।" इतना कहकर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया ताकि कोई और उन्हें उस हाल में न देखे। इस प्रकार पराशर व सत्यवती में प्रणय-संबंध स्थापित हुआ। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से वेद-वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कहकर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का विभाजन करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुए। विष्णुपुराण और भागवत पुराण के अनुसार वेदव्यास अमर हैं।
श्रीहरि गजेन्द्रमोक्ष दाता - कुछ स्थानों पर इन्हें अवतार के रूप में वर्णित नहीं किया गया है, किन्तु अधिकतर स्थानों पर इन्हें अवतार बताया गया है। एक बार एक हाथी था जो सौ हथिनियों का पति और हजार गज पुत्रों का पिता था। एक बार वह नदी में स्नान करने गया। वहाँ एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। ऐसा कहा जाता है कि उसने हजार वर्षो तक संघर्ष किया किन्तु छूट नहीं पाया। अंत में उसने भगवान् नारायण का स्मरण किया और भगवान विष्णु (श्रीहरि) चतुर्भुज रूप में उसके सम्मुख आये और मगरमच्छ को मारकर उस गजराज को बचाया। गजराज से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे अपना पार्षद बना लिया।
१०८ नाम, महत्त्व और अर्थ
१. नारायण : ईश्वर, परमात्मा
२. विष्णु : हर जगह विराजमान रहने वाले
३. वषट्कार: यज्ञ से प्रसन्न होने वाले
४. भूतभव्यभवत्प्रभु: भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी
५. भूतकृत : सभी प्राणियों के रचयिता
६. भूतभृत : सभी प्राणियों का पोषण करने वाले
७. भाव : सम्पूर्ण अस्तित्व वाले
८. भूतात्मा : ब्रह्मांड के सभी प्राणियों की आत्मा में वास करने वाले
९. भूतभावन : ब्रह्मांड के सभी प्राणियों का पोषण करने वाले
१०. पूतात्मा : शुद्ध छवि वाले प्रभु
११. परमात्मा : श्रेष्ठ आत्मा
१२. मुक्तानां परमागति: मोक्ष प्रदान करने वाले
१३. अव्यय: : हमेशा एक रहने वाले
१४. पुरुष: : हर जन में वास करने वाले
१५. साक्षी : ब्रह्मांड की सभी घटनाओं के साक्षी
१६. क्षेत्रज्ञ: : क्षेत्र के ज्ञाता
१७. गरुड़ध्वज: गरुड़ पर सवार होने वाले
१८. योग: : श्रेष्ठ योगी
१९. योगाविदां नेता : सभी योगियों का स्वामी
२०. प्रधानपुरुषेश्वर : प्रकृति और प्राणियों के भगवान
२१. नारसिंहवपुष: : नरसिंह रूप धरण करने वाले
२२. श्रीमान् : देवी लक्ष्मी के साथ रहने वाले
२३. केशव : सुंदर बाल वाले
२४. पुरुषोत्तम : श्रेष्ठ पुरुष
२५. सर्व : संपूर्ण या जिसमें सब चीजें समाहित हों
२६. शर्व : बाढ़ में सब कुछ नाश करने वाले
२७. शिव : सदैव शुद्ध रहने वाले
२८. स्थाणु : स्थिर रहने वाले
२९. भूतादि : सभी को जीवन देने वाले
३०. निधिरव्यय : अमूल्य धन के समान
३१. सम्भव : सभी घटनाओं में स्वामी
३२. भावन : भक्तों को सब कुछ देने वाले
३३. भर्ता : सम्पूर्ण ब्रह्मांड के संचालक
३४. प्रभव : सभी चीजों में उपस्थित होने वाले
३५. प्रभु : सर्वशक्तिमान प्रभु
३६. ईश्वर : पूरे ब्रह्मांड पर अधिपति
३७. स्वयम्भू : स्वयं प्रकट होने वाले
३८. शम्भु : खुशियां देने वाले
३९. जगन्नाथ - जग के नाथ
४०. पुष्कराक्ष : कमल जैसे नयन वाले
४१. महास्वण : वज्र की तरह स्वर वाले
४२. अनादिनिधन : जिनका न आदि है न अंत
४३. धाता : सभी का समर्थन करने वाले
४४. विधाता : सभी कार्यों व परिणामों की रचना करने वाले
४५. धातुरुत्तम : ब्रह्मा से भी महान
४६. अप्रेमय : नियम व परिभाषाओं से परे
४७. हृषीकेशा : सभी इंद्रियों के स्वामी
४८. पद्मनाभ : जिनके पेट से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई
४९. अमरप्रभु : अमर रहने वाले
५०. विश्वकर्मा : ब्रह्मांड के रचयिता
५१. मनु : सभी विचार के दाता
५२. त्वष्टा : बड़े को छोटा करने वाले
५३.अनन्त : जिसका कोई अन्त नहीं
५४. स्थविरो ध्रुव : प्राचीन देवता
५५. अग्राह्य : मांसाहार का त्याग करने वाले
५६. शाश्वत : हमेशा अवशेष छोड़ने वाले
५७. कृष्ण : काले रंग वाले
५८. लोहिताक्ष : लाल आँखों वाले
५९. प्रतर्दन : बाढ़ के विनाशक
६०. प्रभूत : धन और ज्ञान के दाता
६१. त्रिककुब्धाम : सभी दिशाओं के भगवान
६२. पवित्रां : हृदया पवित्र करने वाले
६३. मंगलपरम् : श्रेष्ठ कल्याणकारी
६४. ईशान : हर जगह वास करने वाले
६५. प्राणद : प्राण देने वाले
६६. प्राण : जीवन के स्वामी
६७. ज्येष्ठ : सबसे बड़े प्रभु
६८. श्रेष्ठ : सबसे महान
६९. प्रजापति : सभी के मुख्य
७०. कैटभभाजित : कैटभ का वध करने वाले
७१. वासुदेव - राजा वसुदेव के पुत्र
७२. माधव : देवी लक्ष्मी के पति
७३. मधुसूदन : रक्षक मधु के विनाशक
७४. ईश्वर : सबको नियंत्रित करने वाले
७५. विक्रमी : सबसे साहसी भगवान
७६. धन्वी : श्रेष्ठ धनुष- धारी
७७. मेधावी : सर्वज्ञाता
७८. विक्रम : ब्रह्मांड को मापने वाले
७९. क्रम : हर जगह वास करने वाले
८०. अनुत्तम : श्रेष्ठ ईश्वर
८१. दुराधर्ष : सफलतापूर्वक हमला न करने वाले
८२. कृतज्ञ : अच्छाई- बुराई का ज्ञान देने वाले
८३. कृति : कर्मों का फल देने वाले
८४. आत्मवान : सभी मनुष्य में वास करने वाले
८५. सुरेश : देवों के देव
८६. शरणम : शरण देने वाले
८७. चक्रधारी - चक्र धारण करने वाले
८८. विश्वरेता : ब्रह्मांड के रचयिता
८९. प्रजाभव : भक्तों के अस्तित्व के लिए अवतार लेने वाले
९०. अह्र : दिन की तरह चमकने वाले
९१. सम्वत्सर : अवतार लेने वाले
९२. व्याल : नाग द्वारा कभी न पकड़े जाने वाले
९३. प्रत्यय : ज्ञान का अवतार कहे जाने वाले
९४. सर्वदर्शन : सब कुछ देखने वाले
९५. अज : जिनका जन्म नहीं हुआ
९६. सर्वेश्वर : सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी
९७. सिद्ध : सब कुछ करने वाले
९८. सिद्धि : कार्यों के प्रभाव देने वाले
९९. सर्वादि : सभी क्रियाओं के प्राथमिक कारण
१००. अच्युत : कभी न चूकने वाले
१०१. वृषाकपि: धर्म और वराह का अवतार लेने वाले
१०२. अमेयात्मा: जिनका कोई आकार नहीं है।
१०३. सर्वयोगविनि: सभी योगियों के स्वामी
१०४. वसु : सभी प्राणियों में रहने वाले
१०५. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाले
१०६. सत्य : सत्य का समर्थन करने वाले
१०७. समात्मा: सभी के लिए एक जैसे
१०८. सममित: सभी प्राणियों में असीमित रहने वाले
इन्हें भी देखें
जय श्री जगतगुरु, जय श्री गुरुदेव |
पठानकोट (पठानकोट) भारत के पंजाब राज्य के पठानकोट ज़िले में स्थित एक नगर है।
सामरिक दृष्टि से पठानकोट भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ठिकानों में से एक है। यहां पर वायुसेना स्टेशन, सेना गोला-बारूद डिपो एवं दो बख्तरबंद ब्रिगेड एवं बख्तरबंद इकाइयां हैं। जनवरी २०१६ में पठानकोट वायुसेना स्टेशन पर आतंकवादी हमला हुआ। यह टपरवेयर के बरतनों के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।
पठानकोट का दूरभाष कोड ९१-१८६ और पिनकोड १४५००१ है।
पठानकोट शिवालिक शृंखलाओं में स्थित है। शहर ३३१ मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। जम्मू और कश्मीर राज्य की सीमा बहुत समीप है और उस राज्य के कठुआ नगर को कभी-कभी पठानकोट का जुड़वा शहर माना जाता है। पठानकोट से समीप के हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा व डलहौजी पर्यटक स्थलों के लिए बसें जाती हैं।
१८४९ से पहले यह नूरपुर की राजधानी था। २०११ में यह नगठित पठानकोट जिले की राजधानी बन गया।
इन्हें भी देखें
२०१६ पठानकोट हमले
पंजाब के शहर
पठानकोट ज़िले के नगर |
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी या विद्यार्थी परिषद) एक भारतीय छात्र संगठन है। इसकी स्थापना ९ जुलाई, १९४९ को संघ कार्यकर्ता बलराज मधोक जी की अगुआई में की गयी थी। मुंबई के प्रोफेसर यशवंत केलकर जी इसके मुख्य कार्यवाहक बने। विद्यार्थी परिषद का नारा है - ज्ञान, शील और एकता। आज विद्यार्थी परिषद् न केवल भारत का बल्कि विश्व का सबसे बड़ा छात्र-संगठन है।
यह संगठन छात्रों से प्रारंभ हो, छात्रों की समस्याओं के निवारण हेतु एक एकत्र छात्र शक्ति का परिचायक है। विद्यार्थी परिषद् के अनुसार, छात्रशक्ति ही राष्ट्रशक्ति होती है। विद्यार्थी परिषद् का मूल उद्देश्य राष्ट्रीय पुनर्निर्माण है।
स्थापना काल से ही संगठन ने छात्र हित और राष्ट्र हित से जुड़े प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया है और देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व किया है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने छात्र-हित से लेकर भारत के व्यापक हित से सम्बद्ध समस्याओं की ओर बार-बार ध्यान दिलाया है। बांग्लादेशी अवैध घुसपैठ और कश्मीर से धारा ३७० को हटाने के लिए विद्यार्थी परिषद् समय-समय पर आन्दोलन चलाता रहा है। बांग्लादेश को तीन बीघा भूमि देने के विरुद्ध परिषद् ने ऐतिहासिक सत्याग्रह किया था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ बार-बार आवाज उठाती रही है। इसके अतिरिक्त अलगाववाद, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के खिलाफ हम लगातार संघर्षरत रहे हैं। बिहार में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नाम सबसे ज्यादा रक्तदान करने का रिकॉर्ड है । इसके अलावा वैसे निर्धन मेधावी छात्र, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिय़े निजी कोचिंग संस्थानों में नहीं जा सकते, उनके लिये स्वामी विवेकानंद निःशुल्क शिक्षा शिविर का आयोजन किया जाता है।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी)
भारत के छात्र संगठन |
बागमती नदी (बागमती रिवर) नेपाल और भारत में बहने वाली एक नदी है। यह नेपाल में काठमाण्डु घाटी से निकलती है जहाँ राष्ट्रीय राजधानी, काठमाण्डु, और पाटन नगर इसके विपरीत तटों पर बसे हैं। फिर यह मधेश प्रदेश से गुज़रकर भारत के बिहार राज्य में प्रवेश करती है, जहाँ इसका विलय कोसी नदी से होता है। बागमती नदी हिन्दूओं और बौद्धधर्मियों के लिए एक पवित्र नदी है और इसके किनारे कई हिन्दू मन्दिर अवस्थित हैं। नेपाल का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल पशुपतिनाथ मंदिर भी इसी नदी के तट पर अवस्थित है। इसकी पवित्रता के कारण स्थानीय हिन्दू इसके किनारे अन्तिम संस्कार करते हैं और किरात समुदाय की समाधियाँ भी इसके किनारे की पहाड़ियों में होती हैं। यह नदी बलौर गांव से होकर गुजरती हैं
नेपाल में सांस्कृतिक महत्व
नेपाली सभ्यता में इस नदी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस नदी के किनारे में अवस्थित आर्य घाटौं पर राजा से लेकर रंक तक सभी का अन्तिम संस्कार किया जाता है।
उद्गम और अपवाह
बागमती नदी नेपाल में हिमालय की महाभारत श्रेणियों में स्थित बागद्वार से निकलती है। काठमाण्डु के टेकु दोभान मैं विष्णुमति नदी इसमें समाहित होती है। यह नदी बलौर से भी गुजरती है। यह नदी नेपाल में लगभग १९५ किलोमीटर की यात्रा तय कर के बिहार के सीतामढ़ी जिले में समस्तीपुर-नरकटियागंज रेल लाइन पर स्थित ढेंग रेलवे स्टेशन के २.५ किलोमीटर उत्तर में भारत में प्रवेश करती है। बिहार में इस नदी की कुल लम्बाई ३९४ किलोमीटर है। नेपाल में इस नदी का कुल जल ग्रहण क्षेत्र ७८८४ वर्ग किलोमीटर है। ढेंग और बैरगनियाँ स्टेशन को जोड़ने वाली रेल लाइन पर बने पुल संख्या ८९, ९०, ९१, ९१आ और ९१ब से होकर यह नदी दक्षिण दिशा में चलती है जहाँ लगभग २.५ किलोमीटर नीचे भारत का जोरियाही नाम का पहला गाँव पड़ता है। यहाँ से ५ किलोमीटर दक्षिण चल कर बागमती शिवहर जिले के बखार चंडिहा और अदौरी गाँव की सीमा में आती है।ढेंग से बखार की दूरी साढे़ ११ कि॰मी॰ है और यहीं से थोड़ा और नीचे चल कर खोरीपाकड़[पूर्वी चंपारण]] देवापुर गाँव के पास उसके दाहिने किनारे पर लालबकेया नदी में मिलती है। इस लम्बाई में नदी की प्रवृत्ति पश्चिम से होकर बहने की है मगर लालबकेया से उसका संगम स्थल प्रायः स्थिर रहता है। नदी की इस लम्बाई में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुए हैं यद्यपि उसकी एक पुरानी धारा का जिक्र और रेखांकन जरूर मिलता है। बिहार के तराई क्षेत्रों में प्रवेश करने के बाद यह नदी बाढ़ के दिनों में अक्सर अपना प्रवाह मार्ग बदल लेती है। इस नदी में बाढ़ के कारण बिहार के सीतामढ़ी, मुजफ़्फ़रपुर, दरभंगा और मधुबनी ज़िलों में काफ़ी क्षति पहुँचाती है। इसकी सहायक नदियों में लाल बकेया नदी, लखनदेई नदी, चकनाहा नदी, जमुने नदी, सिपरीधार नदी, छोटी बागमती, कोला नदी आदि हैं। कोसी परियोजना के अन्तर्गत बागमती नदी को भी नियन्त्रित कर इस पर पुल और नये बाँध बनाए गए हैं। यह कमला नदी से मिलकर कोसी नदी में मिल जाती है। तराई के मैदानों को पार करती हुई बागमती नदी बिहार में प्रवेश करती है और ३६० किलोमीटर दूरी तय करने के बाद दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हुई बूढ़ी गंडक नदी में मिल जाती है।
जल ग्रहण क्षेत्र
बिहार में इस नदी की कुल लम्बाई ३९४ किलोमीटर तथा जल ग्रहण क्षेत्र लगभग ६,५०० वर्ग किलोमीटर होता है। इस तरह नदी उद्गम से गंगा तक कुल लम्बाई लगभग ५८९ किलोमीटर और कुल जल ग्रहण क्षेत्र १४,३८४ वर्ग किलोमीटर बैठता है। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (१९९४) के अनुसार बागमती के ऊपरी क्षेत्र काठमाण्डू के आस-पास सालाना औसत बारिश लगभग १४६0 मिलीमीटर होती है जबकि चम्पारण में १३९२ मि.मी., सीतामढ़ी में ११८४ मि.मी., मुजफ्फरपुर में ११८४ मि.मी., दरभंगा में १२५० मि.मी. और समस्तीपुर में 11६9 मि.मी. होती है।
लाल बकेया नदी
इन्हें भी देखें
मिथिलांचल की नदियाँ
बिहार की नदियाँ
भारत की नदियाँ
नेपाल की नदियाँ |
हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा सनातन (हिन्दुओं) का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है।
पश्चात्कालीन हिदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब धन्वन्तरी उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है। मान्यता है कि चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। वे स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग। इन चारों स्थानों पर बारी-बारी से हर १२वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। एक स्थान के महाकुम्भ से तीन वर्षों के बाद दूसरे स्थान पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार बारहवें वर्ष में एक चक्र पूरा होकर फिर पहले स्थान पर महाकुम्भ का समय आ जाता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं।
एक मान्यता के अनुसार वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उसे हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड माना जाता है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करवाने वाला माना जाता है।
हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसम्बर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया और इस प्रकार ९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया।
आज, यह अपने धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त भी, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है। तेज़ी से विकसित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम, सिद्कुल (सिडकुल), भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) और इसके सम्बंधित सहायक इस नगर के विकास के साक्ष्य हैं। वर्तमान संसाद डॉ० रमेश पोखरियाल निशंक है।
हरिद्वार: पौराणिक माहात्म्य, इतिहास और वर्तमान
हरिद्वार तीर्थ के रूप में बहुत प्राचीन तीर्थ है परंतु नगर के रूप में यह बहुत प्राचीन नहीं है। हरिद्वार नाम भी उत्तर पौराणिक काल में ही प्रचलित हुआ है। महाभारत में इसे केवल 'गंगाद्वार' ही कहा गया है। पुराणों में इसे गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक के नाम से वर्णित किया गया है। प्राचीन काल में कपिलमुनि के नाम पर इसे 'कपिला' भी कहा जाता था। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ कपिल मुनि का तपोवन था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ ने, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया।
'हरिद्वार' नाम का संभवतः प्रथम प्रयोग पद्मपुराण में हुआ है। पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण के उपरोक्त प्रसंग में हरिद्वार की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए उसके सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने की बात कही गयी है:-
हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा।
तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।।
तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः।
प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।।
तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्।
कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।।
यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला।
एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।।
उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्।
अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।।
अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है।
महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद 'भीष्म-पुलस्त्य संवाद' के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते है जहाँ पर गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है। महाभारत में गंगाद्वार (हरिद्वार) को निःसन्दिग्ध रूप से स्वर्गद्वार के समान बताया गया है:-
स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः।
तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः।।
पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।
उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्।।
सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्।
देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते।।
ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः।
अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।।
अर्थात् गंगाद्वार (हरिद्वार) स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है।
यह स्थान बड़ा रमणीक है और यहाँ की गंगा हिन्दुओं द्वारा बहुत पवित्र मानी जाती है। कतिपय प्रमुख पुराणों में हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में गंगा की सर्वाधिक महिमा बतायी गयी है:-
सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।।
अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं।
ह्वेनसांग भी सातवीं शताब्दी में हरिद्वार आया था और इसका वर्णन उसने 'मोन्यु-लो' नाम से किया है। मोन्यू-लो को आधुनिक मायापुरी गाँव समझा जाता है जो हरिद्वार के निकट में ही है। प्राचीन किलों और मंदिरों के अनेक खंडहर यहाँ विद्यमान हैं।
हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण मिले हैं उनमें कुछ महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा पर्याप्त प्राचीन स्थल माने जाते हैं। उसके पश्चात सवाई राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि भी बतायी जाती है, वर्तमान हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के बीचोंबीच स्थित है। यह छतरी निर्मित ऐतिहासिक भवनों में इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन निर्माण माना जाता है। इसके बाद इसकी मरम्मत वगैरह होती रही है। उसके बाद से विगत लगभग तीन सौ - साढ़े तीन सौ वर्षों से यहां गंगा के किनारे मठ-मंदिर, धर्मशाला और कुछ राजभवनों के निर्माण की प्रक्रिया शुरु हुई। वर्तमान में हर की पैड़ी विस्तार योजना के अंतर्गत जम्मू और पुंछ हाउस और आनंद भवन तोड़ दिए गए हैं। उनके स्थान पर घाट और प्लेटफार्म विस्तृत कर बनाये गये हैं। इस प्रकार हरिद्वार में नगर-निर्माण की प्रक्रिया आज से प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई; किंतु तीर्थ के रूप में यह अत्यंत प्राचीन स्थल है। पहले यहाँ पर पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते थे अथवा स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि करते थे तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास निकट के कस्बों कनखल, ज्वालापुर इत्यादि में थे।
यहाँ का प्रसिद्ध स्थान 'हर की पैड़ी' है जहाँ गंगा का मंदिर भी है। हर की पैड़ी पर लाखों यात्री स्नान करते हैं और यहाँ का पवित्र गंगा जल देश के प्राय: सभी स्थानो में यात्रियों द्वारा ले जाया जाता है। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है जिसमें लाखों यात्री इकट्ठे होते हैं। प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होते हैं तब यहां कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला भी लगता है। इनमें कई लाख यात्री इकट्ठे होते और गंगा में स्नान करते हैं। यहाँ अनेक मंदिर और देवस्थल हैं। माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। संभवत: यह १०वीं शताब्दी का बना होगा। इस मंदिर में माया देवी की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति के तीन मस्तक और चार हाथ हैं।
लोगों का विश्वास है कि यहाँ मरनेवाला प्राणी परमपद पाता है और स्नान से जन्म-जन्मांतर का पाप कट जाता है और परलोक में हरिपद की प्राप्ति होती है।
प्रकृतिप्रेमियों के लिए हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदर्शन प्रस्तुत करता है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है (उत्तराखंड के चार धाम है:- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री)। इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं -- हर अर्थात् शिव (केदारनाथ) और हरि अर्थात् विष्णु (बद्रीनाथ) तक जाने का द्वार।
शहरी विकास मंत्रालय द्वारा ४३४ शहरों में स्वच्छता को लेकर हुए सर्वेक्षण में हरिद्वार २४४ वें नंबर पर रहा।
दर्शनीय धार्मिक स्थल
अत्यंत प्राचीन काल से हरिद्वार में पाँच तीर्थों की विशेष महिमा बतायी गयी है:-
गंगाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते।
तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत।।
अर्थात् गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक तीर्थ, नील पर्वत तथा कनखल में स्नान करके पापरहित हुआ मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है।
इनमें से हरिद्वार (मुख्य) के दक्षिण में कनखल तीर्थ विद्यमान है, पश्चिम दिशा में बिल्वकेश्वर या कोटितीर्थ है, पूर्व में नीलेश्वर महादेव तथा नील पर्वत पर ही सुप्रसिद्ध चण्डीदेवी,अंजनादेवी आदि के मन्दिर हैं तथा पश्चिमोत्तर दिशा में सप्तगंग प्रदेश या सप्त सरोवर (सप्तर्षि आश्रम) है।
इन स्थलों के अतिरिक्त भी हरिद्वार में अनेक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं।
सर्वाधिक दर्शनीय और महत्वपूर्ण तो यहाँ गंगा की धारा ही है। 'हर की पैड़ी' के पास जो गंगा की धारा है वह कृत्रिम रूप से मुख्यधारा से निकाली गयी धारा है और उस धारा से भी एक छोटी धारा निकालकर ब्रह्म कुंड में ले जायी गयी है। इसी में अधिकांश लोग स्नान करते हैं। गंगा की वास्तविक मुख्यधारा नील पर्वत के पास से बहती है। 'हर की पैड़ी' से चंडी देवी मंदिर की ओर जाते हुए ललतारो पुल से आगे बढ़ने पर गंगा की यह वास्तविक मुख्य धारा अपनी प्राकृतिक छटा के साथ द्रष्टव्य है। बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आए पत्थरों के असंख्य टुकड़े यहाँ दर्शनीय है। इस धारा का नाम नील पर्वत के निकट होने से नीलधारा है।
नीलधारा (अर्थात् गंगा की वास्तविक मुख्य धारा) में स्नान करके पर्वत पर नीलेश्वर महादेव के दर्शन करने का बड़ा माहात्म्य है।
हर की पौड़ी
'पैड़ी' का अर्थ होता है 'सीढ़ी'। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहीं तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले पहल यह कुण्ड तथा पैड़ियाँ (सीढ़ियाँ) बनवायी थीं। इनका नाम 'हरि की पैड़ी' इसी कारण पड़ गया। यही 'हरि की पैड़ी' बोलचाल में 'हर की पौड़ी' हो गया है।
'हर की पौड़ी' हरिद्वार का मुख्य स्थान है। मुख्यतः यहीं स्नान करने के लिए लोग आते हैं। एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ धरती पर भगवान् विष्णु आये थे। धरती पर भगवान् विष्णु के पैर पड़ने के कारण इस स्थान को 'हरि की पैड़ी' कहा गया जो बोलचाल में 'हर की पौड़ी' बन गया है। इसे हरिद्वार का हृदय-स्थल माना जाता है।
मान्यता है कि दक्ष का यज्ञ हरिद्वार के निकट ही कनखल में हुआ था। लिंगमहापुराण में कहा गया है:-
यज्ञवाटस्तथा तस्य गंगाद्वारसमीपतः।
तद्देशे चैव विख्यातं शुभं कनखलं द्विजाः।।
अर्थात् '' (सूत जी कहते हैं) हे द्विजो ! गंगाद्वार के समीप कनखल नामक शुभ तथा विख्यात स्थान है; उसी स्थान में दक्ष की यज्ञशाला थी।
यहीं सती भस्म हो गयी थी। मान्यता है कि इसके बाद शिव जी के कोप से दक्ष-यज्ञ-विध्वंस हो जाने के बाद यज्ञ की पूर्णता के लिए हरिद्वार के इसी स्थान पर भगवान विष्णु की स्तुति की गयी थी और यहीं वे प्रकट हुए थे। बाद में यह किंवदंती फैल गयी कि यहाँ पर भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं। वास्तव में वह निशान कहीं नहीं है, लेकिन इस स्थान की महिमा अति की हद तक प्रचलित है।
हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है। संध्या समय गंगा देवी की हर की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्त्वपूर्ण अनुभव है। स्वरों व रंगों का एक कौतुक समारोह के बाद देखने को मिलता है जब तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बहाते हैं। विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार-यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित होने का ध्यान रखते हैं।
चण्डी देवी मन्दिर
माता चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध मन्दिर गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के 'नील पर्वत' के शिखर पर विराजमान है। यह मन्दिर कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई० में बनवाया गया था। स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ-निशुम्भ के सेनानायक चण्ड-मुण्ड को देवी चण्डी ने यहीं मारा था; जिसके बाद इस स्थान का नाम चण्डी देवी पड़ गया। मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है। मनसा देवी की तुलना में यहाँ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु यहाँ चढ़ने-उतरने के दोनों रास्तों में अनेक प्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन हो जाते हैं। अब रोपवे ट्राॅली सुविधा आरंभ हो जाने से अधिकांश यात्री सुगमतापूर्वक उसी से यहाँ जाते हैं, लेकिन लंबी कतार का सामना करना पड़ता है।
माता चण्डी देवी के भव्य मंदिर के अतिरिक्त यहाँ दूसरी ओर संतोषी माता का मंदिर भी है। साथ ही एक ओर हनुमान जी की माता अंजना देवी का मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर भी बना हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा दर्शनीय है। मोरों को टहलते हुए निकट से सहज रूप में देखा जा सकता है।
मनसा देवी मन्दिर
हर की पैड़ी से प्रायः पश्चिम की ओर शिवालिक श्रेणी के एक पर्वत-शिखर पर मनसा देवी का मन्दिर स्थित है। मनसा देवी का शाब्दिक अर्थ है वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करती हैं। मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएँ हैं, पहली तीन मुखों व पाँच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ।
मनसा देवी के मंदिर तक जाने के लिए यों तो रोपवे ट्राली की सुविधा भी आरंभ हो चुकी है और ढेर सारे यात्री उसके माध्यम से मंदिर तक की यात्रा का आनंद उठाते हैं, लेकिन इस प्रणाली में लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होती है। इसके अतिरिक्त मनसा देवी के मंदिर तक जाने हेतु पैदल मार्ग भी बिल्कुल सुगम है। यहाँ की चढ़ाई सामान्य है। सड़क से १८७ सीढ़ियों के बाद लगभग १ किलोमीटर लंबी पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है, जिस पर युवा लोगों के अतिरिक्त बच्चे एवं बूढ़े भी कुछ-कुछ देर रुकते हुए सुगमता पूर्वक मंदिर तक पहुंच जाते हैं। इस यात्रा का आनंद ही विशिष्ट होता है। इस मार्ग से हर की पैड़ी, वहाँ की गंगा की धारा तथा नील पर्वत के पास वाली गंगा की मुख्यधारा (नीलधारा) एवं हरिद्वार नगरी के एकत्र दर्शन अपना अनोखा ही प्रभाव दर्शकों के मन पर छोड़ते हैं। प्रातःकाल यहाँ की पैदल यात्रा करके लौटने पर गंगा में स्नान कर लिया जाय तो थकावट का स्मरण भी न रहेगा और मन की प्रफुल्लता के क्या कहने ! हालाँकि धार्मिकता के ख्याल से प्रायः लोग गंगा-स्नान के बाद यहाँ की यात्रा करते हैं।
माया देवी मन्दिर
माया देवी (हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी) का संभवतः ११वीं शताब्दी में बना यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है। इसे देवी सती की नाभि और हृदय के गिरने का स्थान कहा जाता है। यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं।
वैष्णो देवी मन्दिर
हर की पैड़ी से करीब १ किलोमीटर दूर भीमगोड़ा तक पैदल या ऑटो-रिक्शा से जाकर वहाँ से ऑटो द्वारा वैष्णो देवी मंदिर तक सुगमतापूर्वक जाया जा सकता है। यहाँ वैष्णो देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। जम्मू के प्रसिद्ध वैष्णो देवी की अत्यधिक प्रसिद्धि के कारण इस मंदिर में वैष्णो देवी की गुफा की अनुकृति का प्रयत्न किया गया है। इस भव्य मंदिर में बाईं ओर से प्रवेश होता है। पवित्र गुफा को प्राकृतिक रूप देने की चेष्टा की गयी है। मार्ग की दुर्गमता को बनाये रखने का प्रयत्न हुआ है, हालाँकि गुफा का रास्ता तय करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। हाँ अकेले नहीं जा कर दो-तीन आदमी साथ में जाना चाहिए। बाईं ओर से बढ़ते हुए घुमावदार गुफा का लंबा मार्ग तय करके माता वैष्णो देवी की प्रतिमा तक पहुँचा जाता है। वहीं तीन पिंडियों के दर्शन भी होते हैं। यह मंदिर भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।
वैष्णो देवी मन्दिर से कुछ ही आगे भारतमाता मन्दिर है। इस बहुमंजिले मन्दिर का निर्माण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि के द्वारा हुआ है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर इस का लोकार्पण हुआ था। अपने ढंग का निराला यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। इसके विभिन्न मंजिलों पर शूर मंदिर, मातृ मंदिर, संत मंदिर, शक्ति मंदिर, तथा भारत दर्शन के रूप में मूर्तियों तथा चित्रों के माध्यम से भारत की बहुआयामी छवियों को रूपायित किया गया है। ऊपर विष्णु मंदिर तथा सबसे ऊपर शिव मंदिर है। हरिद्वार आने वाले यात्रियों के लिए भारत माता मंदिर के दर्शन से एक भिन्न और उत्तम अनुभूति की प्राप्ति तथा देशभक्ति की प्रेरणा अनायास हो जाती है।
सप्तर्षि आश्रम/सप्त सरोवर
'भारत माता मंदिर' से ऑटो द्वारा आगे बढ़कर आसानी से सप्तर्षि आश्रम तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने पर सड़क की दाहिनी ओर सप्त धाराओं में बँटी गंगा की निराली प्राकृतिक छवि दर्शनीय है। कहा जाता है कि यहाँ सप्तर्षियों ने तपस्या की थी और उनके तप में बाधा न पहुँचाने के ख्याल से गंगा सात धाराओं में बँटकर उनके आगे से बह गयी थी। गंगा की छोटी-छोटी प्राकृतिक धारा की शोभा बाढ़ में पहाड़ से टूट कर आये पत्थरों के असंख्य टुकड़ों के रूप में स्वभावतः दर्शनीय है। यहाँ सड़क की दूसरी ओर 'सप्तर्षि आश्रम' का निर्माण किया गया है। यहाँ मुख्य मंदिर शिवजी का है और उसकी परिक्रमा में सप्त ऋषियों के छोटे छोटे मंदिर दर्शनीय हैं। स्थान प्राकृतिक शोभा से परिपूर्ण है। अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है और कुछ-कुछ दूरी पर सप्तर्षियों के नाम पर सात कुटिया बनी हुई है, जिनमें आश्रम के लोग रहते हैं।
सुप्रसिद्ध मनीषी श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा स्थापित गायत्री परिवार का मुख्य केन्द्र 'शांतिकुंज' हरिद्वार से ऋषिकेश जाने के मार्ग में विशाल परिक्षेत्र में एक-दूसरे से जुड़े अनेक उपखंडों में बँटा आधुनिक युग में धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों का एक अन्यतम कार्यस्थल है। यहां का सुचिंतित निर्माण तथा अन्यतम व्यवस्था सभी श्रेणी के दर्शकों-पर्यटकों के मन को निश्चित रूप से मोहित करता है। यह संस्थान मुख्यत: श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तकों तथा उनकी प्रेरणा से चल रही पत्रिकाओं के प्रकाशन का कार्य भी करता है। शोधकार्य भी इस संस्थान के अंतर्गत चलता रहता है। हरिद्वार जाने वाले यात्रियों के लिए इस संस्थान को देखे बिना हरिद्वार-यात्रा परिपूर्ण नहीं मानी जा सकती है, ऐसा अनुभव यहां आने वाले प्रत्येक यात्री को प्रायः होता ही है।
हरिद्वार की उपनगरी कहलाने वाला 'कनखल' हरिद्वार से ३ किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में स्थित है। यहाँ विस्तृत आबादी एवं बाजार है। आबादी वाले तीर्थस्थलों में हरिद्वार का सबसे प्राचीन तीर्थ कनखल ही है। विभिन्न पुराणों में इसका नाम स्पष्टतः उल्लिखित है।
गंगा की मुख्यधारा से 'हर की पैड़ी' में लायी गयी धारा कनखल में पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। महाभारत के साथ-साथ अनेक पुराणों में भी कनखल में गंगा विशेष पुण्यदायिनी मानी गयी है। इसलिए यहाँ गंगा-स्नान का विशेष माहात्म्य है।
कनखल में ही दक्ष ने यज्ञ किया था, यह ऊपरिलिखित विवरण में दर्शाया जा चुका है। इस यज्ञ का शिवगणों ने विध्वंस कर डाला था। उक्त स्थल पर दक्षेश्वर महादेव का विस्तीर्ण मंदिर है।
कनखल में श्रीहरिहर मंदिर के निकट ही दक्षिण-पश्चिम में पारद शिवलिंग का मंदिर है। इसका उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने ८ मार्च 19८6 को किया था। यहाँ पारद से निर्मित १५१ किलो का पारद शिवलिंग है। मंदिर के प्रांगण में रुद्राक्ष का एक विशाल पेड़ है जिस पर रुद्राक्ष के अनेक फल लगे रहते हैं जिसे देखकर पर्यटक आश्चर्यमिश्रित प्रफुल्लता का अनुभव करते हैं।
दिव्य कल्पवृक्ष वन
देवभूमि हरिद्वार के कनखल स्थित नक्षत्र वाटिका के पास हरितऋषि विजयपाल बघेल के द्वारा कल्पवृक्ष वन लगाया गया है। वैसे तो देवलोक के पेड़ कल्पतरु (पारिजात) को सभी तीर्थ स्थलों पर रोपित किया जा रहा है, परन्तु धरती पर कल्पवृक्ष वन के रूप में एकमात्र यही वन विकसित है, जहाँ दुनिया भर के श्रद्धालु कल्पवृक्ष के दर्शन करके अपनी मनोकामना पूरी करते हैं।
योगगुरु बाबा रामदेव का यह संस्थान भी कनखल क्षेत्र में ही अवस्थित है।
गहन धार्मिक महत्व के कारण हरिद्वार में वर्ष भर में कई धार्मिक त्यौहार आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख हैं :- कवद मेला, सोमवती अमावस्या मेला, गंगा दशहरा, गुघल मेला जिसमें लगभग २०-२५ लाख लोग भाग लेते हैं।
इस के अतिरिक्त यहाँ कुंभ मेला भी आयोजित होता है बार हर बारह वर्षों में मनाया जाता है जब बृहस्पति ग्रह कुम्भ राशिः में प्रवेश करता है। कुंभ मेले के पहले लिखित साक्ष्य चीनी यात्री, हुआन त्सैंग (६०२ - ६६४ ई.) के लेखों में मिलते हैं जो ६२९ ई. में भारत की यात्रा पर आया था।
भारतीय शाही राजपत्र (इम्पीरियल गज़टर इंडिया), के अनुसार १८९२ के महाकुम्भ में हैजे का प्रकोप हुआ था जिसके बाद मेला व्यवस्था में तेजी से सुधार किये गए और, 'हरिद्वार सुधार सोसायटी' का गठन किया गया और १९०३ में लगभग ४,००,००० लोगों ने मेले में भाग लिया। १९८० के दशक में हुए एक कुम्भ में हर-की-पौडी के निकट हुई एक भगदड़ में ६०० लोग मारे गए और बीसियों घायल हुए। १९९८ के महा कुंभ मेले में तो ८ करोड़ से भी अधिक तीर्थयात्री पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के लिए यहाँ आये।
हरिद्वार में हिन्दू वंशावलियों की पंजिका
वह जो अधिकतर भारतीयों व वे जो विदेश में बस गए को आज भी पता नहीं, प्राचीन रिवाजों के अनुसार हिन्दू परिवारों की पिछली कई पीढियों की विस्तृत वंशावलियां हिन्दू ब्राह्मण पंडितों जिन्हें पंडा भी कहा जाता है द्वारा हिन्दुओं के पवित्र नगर हरिद्वार में हस्त लिखित पंजिओं में जो उनके पूर्वज पंडितों ने आगे सौंपीं जो एक के पूर्वजों के असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं सहेज कर रखी गयीं हैं। प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है। यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं। कई स्थितियों में उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं। किसी के लिए किसी की अपितु सात वंशों की जानकारी पंडों के पास रखी इन वंशावली पंजिकाओं से लेना असामान्य नहीं है।
शताब्दियों पूर्व जब हिन्दू पूर्वजों ने हरिद्वार की पावन नगरी की यात्रा की जोकि अधिकतर तीर्थयात्रा के लिए या/ व शव- दाह या स्वजनों के अस्थि व राख का गंगा जल में विसर्जन जोकि शव- दाह के बाद हिन्दू धार्मिक रीति- रिवाजों के अनुसार आवश्यक है के लिए की होगी। अपने परिवार की वंशावली के धारक पंडित के पास जाकर पंजियों में उपस्थित वंश- वृक्ष को संयुक्त परिवारों में हुए सभी विवाहों, जन्मों व मृत्युओं के विवरण सहित नवीनीकृत कराने की एक प्राचीन रीति है।
वर्तमान में हरिद्वार जाने वाले भारतीय हक्के- बक्के रह जाते हैं जब वहां के पंडित उनसे उनके नितांत अपने वंश- वृक्ष को नवीनीकृत कराने को कहते हैं। यह खबर उनके नियत पंडित तक जंगल की आग की तरह फैलती है। आजकल जब संयुक्त हिदू परिवार का चलन ख़त्म हो गया है व लोग नाभिकीय परिवारों को तरजीह दे रहे हैं, पंडित चाहते हैं कि आगंतुक अपने फैले परिवारों के लोगों व अपने पुराने जिलों- गाँवों, दादा- दादी के नाम व परदादा- परदादी और विवाहों, जन्मों और मृत्युओं जो कि विस्तृत परिवारों में हुई हों अपितु उन परिवारों जिनसे विवाह संपन्न हुए आदि की पूरी जानकारी के साथ वहां आयें। आगंतुक परिवार के सदस्य को सभी जानकारी नवीनीकृत करने के उपरांत वंशावली पंजी को भविष्य के पारिवारिक सदस्यों के लिए व प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिए हस्ताक्षरित करना होता है। साथ आये मित्रों व अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी साक्षी के तौर पर हस्ताक्षर करने की विनती की जा सकती है।
ऋषिकेश से हरिद्वार की यात्रा करने के लिए, आप परिवहन के विभिन्न साधनों का उपयोग कर सकते हैं, जैसे कि रोडवेज, रेलवे या बसें। यहाँ विकल्प हैं:
सड़क मार्ग द्वारा (बाय रोड) : ऋषिकेश से हरिद्वार तक यात्रा करने का सबसे सुविधाजनक और सामान्य तरीका सड़क मार्ग है। दूरी लगभग २० किलोमीटर (१२.४ मील) है, और यातायात की स्थिति के आधार पर इसमें लगभग ३० मिनट से एक घंटे का समय लगता है। आप एक टैक्सी किराए पर ले सकते हैं, एक साझा ऑटो-रिक्शा ले सकते हैं, या दो शहरों के बीच चलने वाली सार्वजनिक बसों का भी उपयोग कर सकते हैं।
ट्रेन द्वारा (बाय ट्रेन) : ऋषिकेश और हरिद्वार दोनों में एक रेलवे स्टेशन है। इन दोनों स्टेशनों के बीच ट्रेनें नियमित रूप से चलती हैं और यात्रा में लगभग ३० मिनट लगते हैं। आप ट्रेन के शेड्यूल की जांच कर सकते हैं और टिकट ऑनलाइन या रेलवे स्टेशन पर बुक कर सकते हैं।
बस द्वारा (बाय बस) : ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच नियमित बस सेवाएं हैं। बसों का संचालन उत्तराखंड रोडवेज और निजी ऑपरेटरों द्वारा किया जाता है। यातायात और बस के प्रकार के आधार पर यात्रा में आमतौर पर लगभग ३० मिनट से एक घंटे तक का समय लगता है।
हरिद्वार जिले के पश्चिम में सहारनपुर, उत्तर और पूर्व में देहरादून, पूर्व में पौडी गढवाल जिला और दक्षिण में रुड़की, मुज़फ़्फ़रनगर और बिजनौर हैं। नवनिर्मित राज्य उत्तराखंड ने सम्मिलित किए जाने से पहले यह सहारनपुर डिविज़नल कमिशनरी का एक भाग था।
पूरे जिले को मिलाकर एक संसदीय क्षेत्र बनता है और यहाँ उत्तराखंड विधानसभा की ९ सीटे हैंद जो हैं - भगवानपुर, रुड़की, इकबालपुर, मंगलौर, लांधौर, लक्सर, बहादराबाद, हरिद्वार और लालडांग।
जिला प्रशासनिक रूप से तीन तहसीलों हरिद्वार, रुड़की और लक्सर और छः विकास खण्डों भगवानपुर, रुड़की, नारसन, भद्रबाद, लक्सर और खानपुर में बँटा हुआ है। 'हरीश रावत' हरिद्वार लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद और 'मदन कौशिक' हरिद्वार नगर से उत्तराखंड विधानसभा सदस्य हैं।
हरिद्वार उन पहले शहरों में से एक है जहाँ गंगा पहाडों से निकलकर मैदानों में प्रवेश करती है। गंगा का पानी, अधिकतर वर्षा ऋतु जब कि उपरी क्षेत्रों से मिटटी इसमें घुलकर नीचे आ जाती है के अतिरिक्त एकदम स्वच्छ व ठंडा होता है।
गंगा नदी विच्छिन्न प्रवाहों जिन्हें जज़ीरा भी कहते हैं की श्रृंखला में बहती है जिनमें अधिकतर जंगलों से घिरे हैं। अन्य छोटे प्रवाह हैं: रानीपुर राव, पथरी राव, रावी राव, हर्नोई राव, बेगम नदी आदि। जिले का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा है व राजाजी राष्ट्रीय प्राणी उद्यान जिले की सीमा में ही आता है जो इसे वन्यजीवन व साहसिक कार्यों के प्रेमियों का आदर्श स्थान बनाता है। राजाजी इन गेटों से पहुंचा जा सकता है: रामगढ़ गेट व मोहंद गेट जो देहरादून से २५ किमी पर स्थित है जबकि मोतीचूर, रानीपुर और चिल्ला गेट हरिद्वार से केवल ९ किमी की दूरी पर हैं। कुनाओ गेट ऋषिकेश से ६ किमी पर है। लालधंग गेट कोट्द्वारा से २५ किमी पर है।
२३६० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से घिरा हरिद्वार जिला भारत के उत्तराखंड राज्य के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित है। इसके अक्षांश व देशांतर क्रमशः २९.९६ डिग्री उत्तर व ७८.१६ डिग्री पूर्व हैं।
हरिद्वार समुन्द्र तल से २४९.७ मी की ऊंचाई पर उत्तर व उत्तर- पूर्व में शिवालिक पहाडियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित है।
ग्रीष्मकाल: १५ डिग्री से- ४२ डिग्री तक
शीतकाल: ६ डिग्री से- १६.६ डिग्री तक
२००१ की भारत की जनगणना के अनुसार हरिद्वार जिले की जनसँख्या २,९५,२१३ थी। पुरुष ५४% व महिलाएं ४६% हैं। हरिद्वार की औसत साक्षरता राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक ७०% है: पुरुष साक्षरता ७५% व महिला साक्षरता ६४% है। हरिद्वार में, १२% जनसँख्या ६ वर्ष की आयु से कम है।
हरिद्वार से यमुनोत्री की दूरी कितनी है?
हरिद्वार से यमुनोत्री की कुल दूरी लगभग २३८ किलोमीटर होती है।
हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में निम्नलिखित शिक्षा संस्थान है:-
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की - ३० किमी
भूतपूर्व रुड़की इंजीनियरी कॉलेज, जो २००२ मे एक आई॰आई॰टी बन चुका है, यह भारत में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उच्च शिक्षा का एक महत्वपूर्ण संस्थान है यह स्वतंत्र भारत का पहला तकनीकी वि.वि है जिसकी स्थापना १८४७ मे हुई थी,
यह संस्थान हरिद्वार से ३० मिनट की दूरी पर रुड़की में स्थित है।
कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग (कोएर) - १४ किमी
एक निजी अभियांतिकी संस्थान जो हरिद्वार और रुड़की के बीच राष्ट्रीय महामार्ग ५८ पर स्थित है।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय - ४ किमी
कनखल में गंगा नदी के तट पर हरिद्वार-ज्वालापुर बाइपास सड़क पर स्थित।
चिन्मय डिग्री कॉलेज
हरिद्वार से १० किमी दूर स्थित शिवालिक नगर में बसा यह हरिद्वार के विज्ञान कोलेजों में से एक है।
विश्व संस्कृत विद्यालय
संस्कृत विश्विद्यालय, हरिद्वार जिसकी स्थापना उत्तराखंड सरकार द्वारा की गई थी विश्व का एकमात्र विश्वविद्यालय है जो पूर्णतः प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, पुस्तकों की शिक्षा को समर्पित है। इसके पाठ्यक्रम के अंतर्गत हिन्दू रीतियों, संस्कृति और परंपराओं की शिक्षा दी जाती है और इसका भव्य भवन प्राचीन हिन्दू वास्तुशिल्प पर आधारित है।
दिल्ली पब्लिक स्कूल, रानीपुर
क्षेत्र के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से यह एक है जो विश्वव्यापी दिल्ली पब्लिक स्कूल परिवार का भाग है। यह अपनी उत्कृष्ट शैक्षणिक उपलब्धियों, खेलों, पाठ्यक्रमेतर क्रियाकलापों के साथ-साथ सर्वोत्तम सुविधाओं, प्रयोगशालाओं और शैक्षणिक वातावरण के लिए जाना जाता है।
डी॰ए॰वी सैन्टेनरी पब्लिक स्कूल
जगजीत्पुर में स्थित यह विद्यालय शिक्षा के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों कों नैतिकता का पाठ भी सिखाता है ताकी यहाँ से निकला हर विद्यार्थी संसार के हर कोने को प्रकाशित कर सके।
केन्द्रीय विद्यालय, बी॰एच॰ई॰एल
केन्द्रिय विद्यालय, बी॰एच॰ई॰एल, हरिद्वार के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है, जिसकी स्थापना ७ जुलाई, १९७५ को की गई थी। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्धीकृत, इस विद्यालय में प्री-प्राइमरी से १२वीं तक २,००० से अधिक विद्यार्थी पढ़ते है।
राष्ट्रीय ईंटर कॉलेज ,औरंगाबाद (आन्नेकी)
हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र मे स्थित यह विद्यालय हरिद्वार के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक है। यहाँ छात्रो को शिक्षा के साथ साथ संस्कार भी सिखाये जाते है।
नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र
नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र
नगर के महत्वपूर्ण क्षेत्र
भेल, रानीपुर टाउनशिप: भेल का परिसर, जो की एक महारतना पूएसयू है। यह १२ किमी में फैला हुआ है। जटाशंकर
हरिद्वार अच्छी तरह सड़क मार्ग से राष्ट्रीय राजमार्ग ५८ से जुड़ा है, जो दिल्ली और मानापस को आपस में जोड़ता है। १९०४ ई. में लक्सर से देहरादून तक के लिए रेलमार्ग बना और तभी से हरद्वार की यात्रा सुगम हो गयी। मुख्य रेलवे स्टेशन हरिद्वार में ही स्थित है, जो भारत के सभी प्रमुख नगरों को हरिद्वार से जोड़ता है। निकटतम हवाई अड्डा जौली ग्रांट, देहरादून में है हवाई जहाज सेवा कुछ ही शहरों से जुड़ी है और संख्या भी कम है इनकी,इसलिए नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को प्राथमिकता दी जाती है।
जबसे राज्य सरकार की सरकारी संस्था, सिडकुल (उत्तराखंड राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड) द्वारा एकीकृत औद्योगिक एस्टेट की स्थापना इस ज़िले में की गई है, तबसे हरिद्वार बहुत तेजी से उत्तराखंड के महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है, जो देशभर के कई महत्वपूर्ण औद्योगिक घरानों को आकर्षित कर रहा है, जो यहाँ विनिर्माण सुविधाओं की स्थापना कर रहे हैं।
हरिद्वार पहले से ही एक संपन्न औद्योगिक क्षेत्र में स्थित है जो बाईपास रोड के किनारे बसा है जहाँ पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, भेल की मुख्य सहायक इकाइयां स्थापित है जो यहाँ १९६४ में स्थापित की गयी थी और आज यहाँ ८,००० से अधिक लोग प्रयुक्त हैं।
हरिद्वार जिले का आधिकारिक जालस्थल
हरिद्वार के छायाचित्र
हरिद्वार से यमुनोत्री कैसे पहुंचें
उत्तराखण्ड के नगर
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हरिद्वार ज़िले के नगर |
लेपचा भारत रहने वाली जनजाति और इस जातिद्वारा बोली जाने वाली एक जनजातिय भाषा है।
सिक्किम की भाषाएँ
पश्चिम बंगाल की भाषाएँ |
सासाराम (सासाराम), जिसे सहसराम (सहस्रम) भी कहा जाता है, भारत के बिहार राज्य के रोहतास ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। सूर वंश के संस्थापक अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी का मक़बरा सासाराम में है और देश का प्रसिद्ध 'ग्रांड ट्रंक रोड' भी इसी शहर से होकर गुज़रता है। सहसराम के समीप एक पहाड़ी पर गुफा में अशोक का लघु शिलालेख संख्या एक उत्कीर्ण हैं।
सासाराम को मूल रूप से शाह सेराय (अर्थ "राजा का स्थान") कहा जाता था क्योंकि यह अफगान राजा शेर शाह सूरी का जन्मस्थान है, जो दिल्ली पर शासन करते थे, उत्तरी भारत का बहुत बड़ा हिस्सा, अब पाकिस्तान और पूर्वी अफगानिस्तान के लिए पांच साल बाद मुगल सम्राट हुमायूं को पराजित करना शेर शाह सूरी की कई सरकारी प्रथाएं मुगलों और ब्रिटिश राज द्वारा कराधान, प्रशासन, और काबुल से बंगाल तक एक पक्की सड़क का निर्माण भी शामिल थीं।
शेर शाह सूरी के १२२ फुट (३७ मी) लाल बलुआ पत्थर कब्र, भारत-अफगान शैली में निर्मित सासाराम में एक कृत्रिम झील के बीच में है। यह लोदी शैली से अत्यधिक उधार लेता है, और एक बार वह नीले और पीले रंग के टाइलों में आच्छादित था जो ईरानी प्रभाव का संकेत देते थे। बड़े पैमाने पर मुक्त खड़े गुंबद में बौद्ध स्तूप शैली का मौन काल का एक सौंदर्य पहलू भी है। शेरशाह के पिता हसन खान सूरी की कब्र सासाराम में भी है, और शेरगंज में हरे रंग के मैदान के मध्य में खड़ा है, जिसे सुखा रजा के रूप में जाना जाता है शेर शाह की कब्र के उत्तर-पश्चिम में एक किलोमीटर के बारे में अपने बेटे और उत्तराधिकारी, इस्लाम शाह सूरी की अपूर्ण और जीर्ण मस्तिष्क पर स्थित है। [२] सासाराम में भी एक बाउलिया है, जो स्नान के लिए सम्राट की कंसर्ट्स द्वारा इस्तेमाल किया गया पूल है।
रोहतासगढ़ में शेर शाह सूरी का किला सासाराम में है। इस किले का ७ वें शताब्दी ईस्वी में एक इतिहास रहा है। यह राजा हरिश्चंद्र द्वारा अपने बेटे रोहितशवा के नाम पर बनाया गया था, जो उनके नाम की प्रख्यात राजा हरिश्चंद्र के पुत्र थे, जो उनकी सच्चाई के लिए जाना जाता था। यह चुरासन मंदिर, गणेश मंदिर, दिवाण-ए-ख़स, दिवाण-ए-आम, और विभिन्न अन्य संरचनाओं से अलग शताब्दियों के लिए स्थित है। किले ने राजा शासन के मुख्यालय के रूप में अकबर के शासनकाल के दौरान बिहार और बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य किया था। बिहार में रोहतस का किला उसी नाम के एक और किले के साथ उलझन में नहीं होना चाहिए, जोलहम, पंजाब के पास, जो अब पाकिस्तान है सूरतम में रोहतस का किला शेर शाह सूरी ने भी बनाया था, उस समय के दौरान जब हुमायूं हिंदुस्तान से निर्वासित हो गया था।
देवी तारचंडी का एक मंदिर, दक्षिण में दो मील की दूरी पर है, और चंडी देवी के मंदिर के निकट चट्टान पर प्रताप धवल का एक शिलालेख है। देवी की पूजा करने के लिए बड़ी संख्या में हिंदुओं को इकट्ठा करना ध्वान कुंड, लगभग ३६ किमी स्थित है इस शहर के दक्षिण-पश्चिम, आकर्षक पर्यटन स्थलों में से एक है और यह एक सुंदर प्राकृतिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। गुप्ता धाम भी एक आकर्षक पर्यटक और धार्मिक स्थान है, जो इस जिले के चेनारी ब्लॉक में स्थित है। यह भी सुंदर प्राकृतिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। यह जगह शिव-अराधाना का एक प्रसिद्ध केंद्र है। बड़ी संख्या में हिंदू भगवान शिव की पूजा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। दो झरने में ५०-१०० मेगावाट बिजली पैदा करने की पर्याप्त क्षमता है, अगर इसे ठीक से उपयोग किया जाए।
रोहतास जिले के मुख्यालय सासाराम के पास कई स्मारकों हैं, जिनमें अकबरपुर, देवोमारंदे, रोहतास गढ़, शेरगढ़, ताराचंडी, ध्वान कुंड, गुप्त धाम, भालूनी धाम, ऐतिहासिक गुरुद्वारा और चन्दन शहीद के तख्ते, हसन खान सुर, शेर शाह, सलीम शामिल हैं। सासाराम के दक्षिण में रोहतास, एक बेटा रोहितशवा के नाम पर एक सत्यवाडी राजा हरिश्चंद्र का निवास स्थान है। सासाराम सम्राट अशोक स्तंभ (तेरह लघू शिलालेख में से एक) के लिए प्रसिद्ध है, चंदन शहीद के पास कामर पहाड़ी की एक छोटी सी गुफा में स्थित है। श्री स्वामी परमश्र्वर नंद जी महाराज की समाधि, जिसे अस्वाइट आश्रम, दक्षिण कुटीया के नाम से भी जाना जाता है, जो सासाराम से १२ किमी (७.५ मील) पारम्पुरी (रायपुर चौरा) में स्थित है। यह (आडवाइट आश्रम) कई राज्यों में देश के करीब २४ शाखाएं हैं। मुख्यालय सासाराम में है, और इसे नवलाखा आश्रम के रूप में भी जाना जाता है।
बाबू निशान सिंह जो १८५७ के गदर आजादी के संघर्ष के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे बाबू कुंवर सिंह के सेनापति थे, सासाराम से आए थे। जैननाथ भवन एक महान मकान है जो १ ९ ४५ में बाबू हरिहर प्रसाद वर्मा और उनकी पत्नी उमा देवी वर्मा नामक एक मैजिस्ट्रेट द्वारा बनाया गया था। इस हवेली का नाम बाबू जैननाथ प्रसाद है, जो एक ज़मीन और अंग्रेजी में अभ्यास करने वाला पहला वकील था [अस्पष्ट]। उमर देवी वर्मा द्वारा स्थापित हरिहर उमा माध्यमिक विद्यालय नामक एक माध्यमिक विद्यालय, अभी भी मेरारी बाजार पर चलते हैं, हालांकि यह अब सरकार द्वारा प्रशासित है।
अशोक का लघु शिलालेख
सासाराम अशोक (तरह माइनर रॉक एडिट्स में से एक) के एक शिलालेख के लिए भी प्रसिद्ध है, जो चंदन शहीद के पास कैमूर पहाड़ी की एक छोटी सी गुफा में स्थित है। यह शिलालेख सासाराम के निकट कैमूर रेंज के टर्मिनल स्पर के शीर्ष के पास स्थित है।
सहसराम में शेरशाह सूरी का शानदार मक़बरा बना हुआ है। इसे स्वयं शेरशाह सूरी ने अपने जीवन काल में बनवाया था। यह अपने समय की कला का श्रेष्ठतम नमूना है। एक विशाल झील के मध्य उठे हुए चबूतरे पर बना यह मक़बरा उसके 'व्यक्तित्व का प्रतीक' है। यह तुग़लक़ बादशाहों की इमारतों की सादगी और शाहजहाँ की इमारतों की स्त्रियोचित सुन्दरता के बीच की कड़ी है। यह भवन अपनी परिकल्पना में इस्लामी पर इसका भीतरी भाग हिन्दू वास्तुकला से सजाया-सँवारा गया है।
इसे उत्तर भारत की श्रेष्ठ इमारतों में से एक कहा गया है। इस पर हिन्दू और इस्लामी कला का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। वस्तुतः अकबर के राज्यकाल के पूर्व हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य के समंवय का सबसे सुन्दर नमूना शेरशाह का मक़बरा है।
शेर शाह सूरी का मकबरा
शहर के मध्य में बना शेर शाह का मकबरा, भारत में पठान वास्तुकला के सबसे अच्छे नमूनों में से एक है, पत्थर की एक भव्य संरचना है, जो एक ठीक टैंक के बीच में खड़ी है, और सोलहवीं शताब्दी के मध्य में बनाई गई थी। . इसकी मंजिल से गुंबद के शीर्ष तक की ऊंचाई है और पानी के ऊपर इसकी कुल ऊंचाई फीट से अधिक है।मकबरे को बनाने वाले अष्टभुज का आंतरिक व्यास फीट और बाहरी व्यास फीट है। यह मकबरा भारत का दूसरा सबसे ऊंचा मकबरा है जो पर्यटकों को आकर्षित करता है। सासाराम में शेरशाह सूरी का मकबरा पत्थर की एक भव्य संरचना है जो एक ठीक टैंक के बीच में खड़ी है और एक बड़े पत्थर की छत से उठ रही है। यह छत पानी के किनारे की ओर जाने वाली सीढ़ियों की उड़ान के साथ एक मंच पर तिरछी तरह टिकी हुई है। ऊपरी छत चार कोनों पर अष्टकोणीय गुंबददार कक्षों के साथ एक युद्धपोत पैरापेट दीवार से घिरा हुआ है, इसके चारों किनारों में से प्रत्येक पर दो छोटे प्रोजेक्टिंग खंभे वाली बालकनी हैं और पूर्व में एक द्वार के साथ छेद कर मकबरे के लिए एकमात्र दृष्टिकोण है। ऊपरी छत के बीच में एक कम अष्टकोणीय आधार पर मकबरे की इमारत खड़ी है। इमारत में एक बहुत बड़ा अष्टकोणीय कक्ष है जो चारों तरफ एक विस्तृत बरामदे से घिरा हुआ है। आंतरिक रूप से, बरामदा २४ छोटे गुंबदों की एक श्रृंखला से ढका हुआ है, प्रत्येक चार मेहराबों पर समर्थित है, लेकिन छत एक स्तंभित गुंबद है जो सफेद चमकता हुआ टाइलों के पैनलों से सजाया गया है जो अब बहुत फीका पड़ा हुआ है। मकबरे के कक्ष में आठों में से प्रत्येक पर तीन ऊंचे मेहराब हैं। वे बरामदे की छत से ऊँचे उठते हैं और भव्य और ऊँचे गुम्बद को सहारा देते हैं जो भारत के सबसे बड़े गुम्बदों में से एक है। मुख्य गुंबद के चारों ओर कक्ष की दीवारों के अष्टकोण के कोनों पर आठ स्तंभित गुंबद हैं। मकबरे का आंतरिक भाग पर्याप्त रूप से हवादार है और दीवारों के शीर्ष भाग पर बड़ी खिड़कियों के माध्यम से अलग-अलग पैटर्न में पत्थर की जाली से सुसज्जित है। पश्चिमी दीवार पर मिहराब के मेहराब के जंब और स्पैनड्रिल एक बार कुरान और शिलालेखों के छंदों से सुशोभित थे, ज्यामितीय पैटर्न में व्यवस्थित विभिन्न रंगों की चमकदार टाइलों के साथ और तामचीनी सीमाओं में संलग्न पत्थर में फूलों की नक्काशी के साथ। इस सजावट का अधिकांश हिस्सा पहले ही गायब हो चुका है। तामचीनी या ग्लेज़ेड टाइल कार्यों में समान सजावट के निशान गुंबद के आंतरिक भाग, दीवारों और बाहर के गुंबदों पर भी देखे जा सकते हैं। बाहरी दीवार पर मिहराब के ऊपर एक छोटे से धनुषाकार अवकाश में दो पंक्तियों में एक शिलालेख है, जो शेर शाह की मृत्यु के लगभग तीन महीने बाद उनके बेटे और उत्तराधिकारी सलीम या इस्लाम शाह द्वारा मकबरे को पूरा करने की रिकॉर्डिंग करता है, जिनकी मृत्यु एएच ९५२ (ईस्वी सन्) में हुई थी। १५४५)। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा गुंबद है। शेर शाह के पिता हसन खान सूर का मकबरा भी कस्बे में स्थित है। इस मकबरे को सुखा रोजा के नाम से भी जाना जाता है।
भारत में साक्षरता दर में बिहार सबसे कम दर है, लेकिन सासाराम इस प्रवृत्ति को साझा नहीं करता है और यह दूसरा सबसे साक्षर शहर है। रोज़गार के स्रोतों की कमी के कारण, उच्च शिक्षा के छात्र अक्सर रोजगार की खोज के लिए अन्य शहरों में स्थानांतरित करना चुनते हैं। चार सरकारी महाविद्यालय हैं, लेकिन कोई विश्वविद्यालय नहीं है, और अधिकतर छात्र उच्च शिक्षा के लिए अधिक विकसित शहरों जैसे बंगलौर, नई दिल्ली, पुणे, पटना और वाराणसी जाना पसंद करते हैं। क्षेत्र में स्थापित एक नया इंजीनियरिंग कॉलेज रहा है। हालांकि, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शासन के तहत साक्षरता दर में वृद्धि हुई है; और सासाराम बिहार में दूसरा सबसे साक्षर शहर है, जो बदले में बिहार में रोहतस को सबसे अधिक साक्षर जिले बना। * सावन सासराम [९]
नारायण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल
महादा फुले मेडिकल कॉलेज और अस्पताल बर्दहि मुरादाबाद में, सासाराम
कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट रोहतास
शेरशाह कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग सादन सासाराम
रोहतस लॉ कॉलेज
सरकारी कॉलेज (विज्ञान / कला / वाणिज्य)
श्री शंकर कॉलेज
शांति प्रसाद जैन कॉलेज
शेर शाह सुरी कॉलेज
रोहतस महिला महाविद्यालय
ऑहुत भगवान राम म्हाददायालय
सासाराम सड़क और रेलवे दोनों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग १ ९ (पुराना नंबर: एनएच २) / (ग्रांड ट्रंक रोड) शहर से गुजरता है। स्थानीय परिवहन का मुख्य मोड बसों दोनों निजी ऑपरेटरों और राज्य सरकार द्वारा संचालित है। निजी बसें अधिक बार और अधिकतर स्थानीय बाजारों से जुड़ी हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग १९ उत्तर-पश्चिम में वाराणसी, मिर्जापुर, इलाहाबाद, कानपुर और पूर्व में कोलकाता के माध्यम से गया, गयाबाड़ के माध्यम से धनबाद। विभिन्न राज्य के राजमार्गों में भी सासाराम को पटना, बिहार की राजधानी (बिक्रमगंज, पिरो, आरा के माध्यम से), बक्सर (कोरगढ़, कोछा, राजपुर के माध्यम से गंगा नदी के तट पर) से जुड़ा हुआ है।
इन्हें भी देखें
बिहार के शहर
रोहतास ज़िले के नगर |
कांकरोली (कंक्रोली) भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उदयपुर से उत्तर में है और राजसमन्द का जुड़वा शहर है।
कांकरोली शहर रणनीतिक रूप से राजस्थान के दक्षिण में स्थित है और उदयपुर से ६५ किमी दूर है। कांकरोली २५ डिग्री ४ '० "उत्तरी अक्षांश और ७३ डिग्री ५३' ०" पूर्व रेखांश और ५४७ मीटर की औसत ऊंचाई पर स्थित है। कांकरोली राजस्थान के राजसमंद जिले के प्रशासनिक प्रमुख क्वार्टर हैं। कांकरोली शहर उत्तर की ओर अरावली रेंज और पाली जिले से घिरा हुआ है, पूर्व में भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिलों और उदयपुर दक्षिण की ओर स्थित है।
जलवायु: ग्रीष्मकालीन: अधिकतम ,४२ च और न्यूनतम २७ च शीतकालीन: अधिकतम २५ च, न्यूनतम ९.५ च और औसत वर्षा ४२१ मिमी है।
कांकरोली में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएं हिंदी, अंग्रेजी और राजस्थानी हैं।
खांखाजी चौहान राजपूत यहां के जागीरदार थे। खांखाजी के नाम से इस नगर का नाम खांखारोली हुआ जो बाद में कांकरोली हो गया।
कांकरोली नाम अपभं रस से सुधर कर बना है। वर्षों पूर्व यहां रावतों की बस्ती थी और खाका गौत्र के रावतों को मेवाड़ महाराणा द्वारा डोली यानी जमीन दी जाने से खाकाडोली प्राचीन नाम था। ख का क और डोली की अंग्रेजों द्वारा कोमल रोली हो गया। आज भी गांवों के लोग खांकडोली उच्चारण करते है।
कांकरोली में चारभुजानाथ जी का मंदिर विद्यमान है जहां प्रतिवर्ष देवझुलनी एकादशी पर भव्य रथ की सवारी निकाली जाती है जिसका नेतृत्व छापली और कालागुमान के खांखावत चौहान राजपूत करते है। यहां प्रसिद्ध द्वारिकाधीश का मन्दिर भी है। कांकरोली को द्वारिकाधीश प्रभु की हवेली भी कहा जाता है। द्वारिकाधीश मंदिर भारत के वैष्णव मंदिरों के बीच महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। जन्माष्टमी (भगवान कृष्ण का जन्मदिन), अन्नकुट्टा, और झलजुल्नी ग्यारा यहां प्रसिद्ध त्यौहार हैं। भक्त कांकरोली जाते हैं और सितंबर के महीने के दौरान झील में धार्मिक स्नान करते हैं।
यहां से १ कि.मी. दूर राजसमन्द झील स्थित है। राजसमंद झील (जिसे राजसममुरा झील भी कहा जाता है) १७ वीं शताब्दी में निर्मित, यह लगभग १.७५ मील (२.८२ किमी) चौड़ा, ४ मील (६.४ किमी) लंबा और ६० फीट (१८ मीटर) गहरा है। यह झील गोमाटी, केल्वा और ताली नदियों में लगभग १९६ वर्ग मील (५१० किमी २) के एक पकड़ क्षेत्र के साथ बनाई गई थी। राजसमंद के शहर और जिले का नाम राजसमंद झील के नाम पर रखा गया है। यह कृत्रिम झील १७ वीं शताब्दी के दौरान महाराणा राजा सिंह -१ द्वारा बनाई गई थी। राजसमंद जिला १० अप्रैल १९९१ को गठित किया गया था।
१९९१ में कांकरोली शहर उदयपुर जिले से संबंधित था, इसे जिला प्रमुख के रूप में अलग किया गया था। राजनगर और कांकरोली जुड़वां शहर हैं। कांकरोली शहर भारत में रेडियल टायर क्रांति के लिए भी प्रसिद्ध है। पहला रेडियल टायर १९८० के दशक के दौरान जे के टायर कारखाने से बाहर हो गया था। कांकरोली के पास एक महान शोध संस्थान हैरिशंकर सिंघानिया टायर और एलिस्टोमर रिसर्च इंस्टीट्यूट (हसेत्री) भी है।
इन्हें भी देखें
राजस्थान के शहर
राजसमन्द ज़िले के नगर |
बीकानेर''' [[राजस्थान] एक बड़ा शहर है बीकानेर का पुराना नाम जांगल देश था। यांहा स्थानीय आदिवासी भील राजाओं का शासन था बिका नामक राजपूत सरदार ने स्थानीय आदिवासी भील राजा को मारकर इस नगर का नामकरण उन्हीं के नाम पर बीकानेर किया । बीकानेर राज्य महाभारत काल में जांगल देश था<रेफ></रेफ>
बीकानेर की भौगोलिक स्तिथि ७३ डिग्री पूर्वी अक्षांश २८.०१ उत्तरी देशंतार पर स्थित है। समुद्र तल से ऊँचाई सामान्य रूप से २४३मीटर अथवा ७९७ फीट है
बीकानेर एक अलमस्त शहर है, अलमस्त इसलिए कि यहाँ के लोग बेफिक्र के साथ अपना जीवन यापन करते है।
बीकानेर नगर की स्थापना के विषय मे दो कहानियाँ लोक में प्रचलित है। एक तो यह कि, नापा साँखला जो कि बीकाजी के मामा थे उन्होंने राव जोधा से कहा कि आपने भले ही राव सातल जी को जोधपुर का उत्तराधिकारी बनाया किंतु बीकाजी को कुछ सैनिक सहायता सहित सारुँडे का पट्टा दे दीजिये। वह वीर तथा भाग्य का धनी है। वह अपने बूते खुद अपना राज्य स्थापित कर लेगा। जोधाजी ने नापा की सलाह मान ली। और पचास सैनिकों सहित पट्टा नापा को दे दिया।
बीकाजी ने यह फैसला राजी खुशी मान लिया। उस समय कांधल जी, रूपा जी, मांडल जी, नाथा जी और नन्दा जी ये पाँच सरदार जो जोधा के सगे भाई थे साथ ही नापा साँखला, बेला पडिहार, लाला लखन सिंह बैद, चौथमल कोठारी, नाहर सिंह बच्छावत, विक्रम सिंह राजपुरोहित, सालू जी राठी आदि कई लोगों ने राव बीका जी का साथ दिया। इन सरदारों के साथ राव बीका जी ने बीकानेर की स्थापना की।
बीकानेर की स्थापना के पीछे दूसरी कहानी ये हैं कि एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे बीकाजी दरबार में देर से आये तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीरे धीरे बात करने लगे यह देख कर जोधा ने व्यँग्य में कहा मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं"। इस पर बीका और कांधल ने कहाँ कि यदि आप की कृपा हो तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा भतीजा दोनों दरबार से उठ के चले आये तथा दोनों ने बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संबंध में एक लोक दोहा भी प्रचलित है-पन्द्रह सौ पैंतालवे, सुद बैसाख सुमेर
थावर बीज थरपियो, बीका बीकानेर
बीकानेर के राजा
राव बीकाजी की मृत्यु के पश्चात राव नरा ने राज्य संभाला किन्तु उनकी एक वर्ष से कम में ही मृत्यु हो गयी।उसके बाद राव लूणकरण ने गद्दी संभाली।
बीकानेर के राठौड़ राजाओं के नाम
राय सिंह (१५७३-१६१२)
कर्ण सिंह (१६३१-१६६९)
अनूप सिंह (१६६९-१६९८)
सुजान सिंह (१७००-१७३६)
जोरावर सिंह (१७३६-१७४६)
प्रताप सिंह (१७८७)
सुरत सिंह (१७८७-१८२८)
रतन सिंह (१८२८-१८५१)
सरदार सिंह (१८५१-१८७२)
सार्दुल सिंह (१९४३-१९५०)
ऐतिहासिक बीकानेर राज्य के उत्तर में पंजाब का फिरोजपुर जिला, उत्तर-पूर्व में हिसार, उत्तर-पश्चिम में भावलपुर राज्य, दक्षिण में जोधपुर, दक्षिण-पूर्व में जयपुर और दक्षिण-पश्चिम में जैसलमेर राज्य, पूर्व में हिसार तथा लोहारु के परगने तथा पश्चिम में भावलपुर राज्य थे।
वर्तमान बीकानेर जिला राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। यह २७ डिग्री ११ और २९ डिग्री ०३ उत्तर अक्षांश और ७१ डिग्री ५४ और ७४ डिग्री १२ पूर्व देशांतर के मध्य स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ३२,२०० वर्ग किलोमीटर है। बीकानेर के उत्तर में गंगानगर तथा फिरोजपुर, पश्चिम में जैसलमेर, पूर्व में नागौर एंव दक्षिण में जोधपुर स्थित है।
बीकानेर जिले के साथ पाकिस्तान से लगने वाली अन्तर्राष्ट्रीय सीमा की लंबाई १६८ कि॰मी॰ है जोकि राजस्थान के राज्यों के साथ लगने वाली सबसे छोटी सीमा है।
यहाँ की जलवायु सूखी, पंरतु अधिकतर अरोग्यप्रद है। गर्मी में अधिक गर्मी और सर्दी में अधिक सर्दी पडना यहाँ की विशेषता है। इसी कारण मई, जून और जुलाई मास में यहाँ लू (गर्म हवा) बहुत जोरों से चलती है, जिससे रेत के टीले उड़-उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बन जाते हैं। उन दिनों सूर्य की धूप इतनी असह्महय हो जाती है कि यहाँ के निवासी दोपहर को घर से बाहर निकलते हुए भी भय खाते हैं। कभी-कभी गर्मी के बहुत बढ़ने पर अकाल मृत्यु भी हो जाती है। बहुधा लोग घरों के नीचे भाग में तहखाने बनवा लेते हैं, जो ठंडे रहते है और गर्मी की विशेषता होने पर वे उनमें चले जाते हैं। कड़ी भूमि की अपेक्षा रेत शीघ्रता से ठंड़ा हो जाता है। इसलिए गर्मी के दिनों में भी रात के समय यहाँ ठंडक रहती है। शीतकाल में यहाँ इतनी सर्दी पड़ती है कि पेड़ और पौधे बहुधा पाले के कारण नष्ट हो जाते है।
बीकानेर में रेगिस्तान की अधिकता होने के कारण कुएँ का बहुत अधिक महत्व है। जहाँ कहीं कुआँ खोदने की सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने का स्थान मिला, आरंभ में वहाँ पर बस्ती बस गई। यही कारण है कि बीकानेर के अधिकांश स्थानों में नामों के साथ सर जुड़ा हुआ है, जैसे कोडमदेसर, नौरंगदेसर, लूणकरणसर आदि। इससे आशय यही है कि इस स्थान पर कुएं अथवा तालाब हैं। कुएं के महत्व का एक कारण और भी है कि पहले जब भी इस देश पर आक्रमण होता था, तो आक्रमणकारी कुओं के स्थानों पर अपना अधिकार जमाने का सर्व प्रथम प्रयत्न करते थे। यहाँ के अधिकतर कुएं ३०० या उससे ज्यादा फुट गहरे हैं। इसका जल बहुधा मीठा एंव स्वास्थ्यकर होता है।
जैसलमेर को छोड़कर राजपूताना के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा बीकानेर में सबसे कम वर्षा होती है। वर्षा के अभाव में नहरे कृषि सिंचाई का मुख्य स्रोत है। वर्तमान में कुल २३७१२ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई नहरों द्वारा की जाती है।
अधिकांश हिस्सा अनुपजाऊ एंव जलविहीन मरुभूमि का एक अंश है। जगह-जगह रेतीले टीलें हैं जो बहुत ऊँचे भी हैं। बीकानेर का दक्षिण-पश्चिम में मगरा नाम की पथरीली भूमि है जहाँ अच्छी वर्षा हो जाने पर किसी प्रकार पैदावार हो जाती है। उत्तर-पूर्व की भूमि का रंग कुछ पीलापन लिए हुए हैं तथा उपजाऊ है।
यहाँ अधिकांश भागों में खरीफ फसल होती है। ये मुख्यत: बाजरा, मोठ, ज्वार,तिल और रुई है। रबी की फसल अर्थात गेंहु, जौ, सरसो, चना आदि केवल पूर्वी भाग तक ही सीमित है। नहर से सींची जानेवाली भूमि में अब गेंहु, मक्का, रुई, गन्ना इत्यादि पैदा होने लगे है।
खरीफ की फसल यहाँ प्रमुख गिनी जाती है। बाजरा यहाँ की मुख्य पैदावार है। यहाँ के प्रमुख फल तरबूज एवं ककड़ी हैं। यहाँ तरबूज की अच्छी कि बहुतायत से होती है। अब नहरों के आ जाने के कारण नारंगी, नींबू, अनार, अमरुद, आदि फल भी पैदा होने लगे हैं। शाकों में मूली, गाजर, प्याज आदि सरलता से उत्पन्न किए जाते है।
बीकानेर में कोई सधन जंगल नहीं है और जल की कमी के कारण पेड़ भी यहाँ कम है। साधारण तथा यहाँ 'खेजड़ा (शमी)' के वृक्ष बहुतायत में हैं। उसकी फलियाँ, छाल तथा पत्ते चौपाये खाते हैं। नीम, शीशम और पीपल के पेड़ भी यहाँ मिलते हैं। रेत के टीलों पर बबूल के पेड़ पाए जाते हैं।
थोड़ी सी वर्षा हो जाने पर यहाँ अच्छी घास हो जाती है। इन घासों में प्रधानत: 'भूरट' नाम की चिपकने वाली घास बहुतायत में उत्पन्न होती है।
यहाँ पहाड़ व जंगल न होने के कारण शेर, चीते आदि भयंकर जंतु तो नहीं पर जरख, नीलगाय आदि प्राय: मिल जाते है। घास अच्छी होती है, जिससे गाय, बैल, भैंस, घोड़े, ऊँट, भेड़, बकरी आदि चौपाया जानवर सब जगह अधिकता से पाले जाते हैं। ऊँट यहाँ बड़े काम का जानवर है तथा इसे सवारी, बोझा ढोने, जल लाने, हल चलाने आदि में उपयोग किया जाता है। पक्षियों में तीतर, बटेर, बटबड़, तिलोर, आदि पाए जाते हैं।
राज्य में हिंदु एंव जैन धर्म को मानने वाले लोग की संख्या सबसे अधिक है। सिख और इस्लाम धर्म को मानने वाले भी अच्छी संख्या में है। यहाँ ईसाई एवं पारसी धर्म के अनुयायी बहुत कम हैं।
हिंदुओं में वैष्णवों की संख्या अधिक है। जैन धर्म में श्वेताबर, दिगंबर और थानकवासी (ढूंढिया) आदि भेद हैं, जिनमें थानकवासियों की संख्या अधिक है। मुसलमानों में सुन्नियों की संख्या अधिक है। मुसलमानों में अधिकांश राजपूतों के वंशज हैं, जो मुसलमान हो गए। उनके यहाँ अब तक कई हिंदु रीति-रिवाज प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ अलखगिरी नाम का नवीन मत भी प्रचलित है तथा जसनाथी नाम का दूसरा मत भी हिंदुओं में विद्यमान है।
गुर्जर गौड़ ब्राह्मण
बीकानेर राजनीति के लिहाज से भी महत्वपूर्ण भुमिका निभाता है। राजस्थान के प्रथम नेता-प्रतिपक्ष जसवन्तसिहजी बीकानेर के ही थे। एक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र है और यहाँ से वर्तमान साँसद अर्जुन राम मेघवाल हैं जो भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध हैं। बीकानेर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में सात विधानसभा क्षेत्र आते हैं।
राजस्थान को प्रशासन की सुविधा के लिए जिन ७ मंडलों में विभाजित किया गया है उनमें से एक बीकानेर मंडल है। बीकानेर मंडल में बीकानेर, चूरू, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ जिले हैं।
बीकानेर जिले का कुल क्षेत्रफल २७,२४४ वर्ग कि॰मी॰ है और २०११ जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या २३६७७४५ है।
शहरों में पुरुषों की पोशाक बहुधा लंबा अंगरखा या कोट, धोती और पगड़ी है। मुसलमान लोग बहुधा पाजामा, कुरता और पगड़ी, साफा या टोपी पहनते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी पगड़ी का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं, परंतु धीरे-धीरे अब पगड़ी के स्थान पर साफे या टोपी का प्रचार बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण लोग अधिकतर मोटे कपड़े की धोती, बगलबंदी और फेंटा काम में लाते हैं। स्रियो की पोशाक लहंगा, चोली और दुपट्टा है। मुसलमान औरतों की पोशाक चुस्त पाजामा, लम्बा कुरता और दुपट्टा है उनमें से कई तिलक भी पहनती है।
यहाँ के अधिकांश लोगों की भाषा मारवाड़ी है, जो राजपूताने में बोली जानेवाली भाषाओं में मुख्य है। यहाँ उसके भेद थली, बागड़ी तथा शेखावटी की भाषाएं हैं। उत्तरी भाग के लोग मिश्रित पंजाबी अथवा जाटों की भाषा बोलते हैं। यहाँ की लिपि नागरी है, जो बहुधा घसीट रूप में लिखी जाती है। राजकीय दफ्तरों तथा कर्यालयों में अंग्रेजी एवं हिन्दी का प्रचार है।
भेड़ो की अधिकता के कारण यहाँ ऊन बहुत होता है, जिसके कबंल, लोईयाँ आदि ऊनी समान बहुत अच्छे बनते है। यहाँ के गलीचे एवं दरियाँ भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त हाथी दाँत की चूड़ियाँ, लाख की चूड़ियाँ तथा लाख से रंगी हुई लकड़ी के खिलौने तथा पलंग के पाये, सोने-चाँदी के ज़ेवर, ऊँट के चमड़े के बने हुए सुनहरी काम के तरह-तरह के सुन्दर कुप्पे, ऊँटो की काठियाँ, लाल मिट्टी के बर्त्तन आदि यहाँ बहुत अच्छे बनाए जाते हैं। बीकानेर शहर में बाहर से आने वाली शक्कर से बहुत सुन्दर और स्वच्छ मिश्री तैयार की जाती है जो दूर-दूर तक भेजी जाती है।
साहित्य की दृष्टि से बीकानेर का प्राचीन राजस्थानी साहित्य ज्यादातर चारण, संत और जैनों द्वारा लिखा गया था।
चारण राजा के आश्रित थे तथा डिंगल शैली तथा भाषा में अपनी बात कहते थे। बीकानेर के संत लोक शैली में लिखतें थे। बीकानेर का लोक साहित्य भी काफी महत्वपूर्ण है।
राजस्थानी साहित्य के विकास में बीकनेर के राजाओं का भी योगदान रहा है उनके द्वारा साहित्यकारों को आश्रय़ मिलता रहा था। राजपरिवार के कई सदस्यों ने खुद भी साहित्य में जौहर दिखलायें।
राव बीकाजी ने माधू लाल चारण को खारी गाँव दान में दिया था। बारहठ चौहथ बीकाजी के समकलीन प्रसिद्ध चारण कवि थे। इसी प्रकार बीकाने के चारण कवियों ने बिठू सूजो का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका काव्य राव जैतसी के छंद डिंगल साहित्य में उँचा स्थान रखती है।
बीकानेर के राज रायसिंह ने भी ग्रंथ लिखे थे उनके द्वारा ज्योतिष रतन माला नामक ग्रंथ की राजस्थानी में टीका लिखी थी। रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौड राजस्थानी के सिरमौर कवि थे वे अकबर के दरबार में भी रहे थे वेलि क्रिसन रुक्मणी री नामक रचना लिखी जो राजस्थानी की सर्वकालिक श्रेष्ठतम रचना मानी जाती है।
बीकानेर के जैन कवि उदयचंद ने बीकानेर गजल (नगर वर्णन को गजल कहा गया है)रचकर नाम कमाया था। वे महाराजा सुजान सिंह की तारीफ करते थे।
ज्योतिषियों का गढ़
बीकानेर ज्योतिषियों का गढ़ है। यहाँ पूर्व राजघराने के राजगुरू गोस्वामी परिवार में अनेक विख्यात एवं प्रकांड ज्येातिषी एवं कर्मकांडी विद्वान हुए। ज्योतिष के क्षेत्र में दिवंगत पंडित श्री श्रीगोपालजी गोस्वामी का नाम देश-विदेश में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ज्योतिष और हस्तरेखा के साथ तंत्र, संस्कृत और राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में भी श्रीगोपालजी अग्रणी विशेषज्ञों में शुमार किए जाते थे। पंडित बाबूलालजी शास्त्री, लते. शिवचांद ग पुरोहित (मनु महाराज, सागर) के जमाने में बीकानेर में ज्योतिष विद्या ने नई ऊंचाइयों को देखा। इसके बाद हर्षा महाराज, अशोक थानवी, प्रेम शंकर शर्मा, अविनाश व्यास और प्रदीप पणिया जैसे कृष्णामूर्ति पद्धति के प्रकाण्ड विद्वानों ने दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई और गुजरात में अपने ज्ञान का लोहा मनवाया। इसके अलावा अच्चा महाराज, व्योमकेश व्यास और लोकनाथ व्यास जैसे लोगों ने ज्योतिष में एक फक्कड़ाना अंदाज रखा। संभ्रांतता से जुडे इस व्यवसाय में इन लोगों ने औघड़ की भूमिका का निर्वहन किया है। नई पीढ़ी के ये ज्योतिषी अब पुराने पड़ने लगे हैं। अधिक कुण्डलियाँ भी नहीं देखते और नई पीढ़ी में भी अधिक ज्ञान वाले लोगों को एकान्तिक अभाव नजर आता है।
तांत्रिकों का स्थान
बीकानेर में तंत्र से जुडे भी कई फिरके हैं। इनमें जैन एवं नाथ संप्रदाय तांत्रिक अपना विशेष प्रभाव रखते हैं। मुस्लिम तंत्र की उपस्थिति की बात की जाए तो यहाँ पर दो जिन्नात हैं। एक मोहल्ला चूनगरान में तो दूसरा गोगागेट के पास कहीं। गोगागेट के पास ही नाथ संप्रदाय को दो एक अखाड़े हैं। गंगाशहर और भीनासर में जैन समुदाय का बाहुल्य है। ऐसा माना जाता है कि जैन मुनियों को तंत्र का अच्छा ज्ञान होता है लेकिन यहाँ के स्थानीय वाशिंदों ने कभी प्रत्यक्ष रूप से उन्हें तांत्रिक क्रियाएं करते हुए नहीं देखा है।
उत्सव तथा मेले
पर्व एवं त्योहार
यहाँ हिंदुओं के त्योहारों में शील-सप्तमी, अक्षय तृतीया, रक्षा बंधन, दशहरा, दिवाली और होली मुख्य हैं। राजस्थान के अन्य राज्यों की तरह यहाँ गनगौर, दशहरा, नवरात्रा, रामनवमी, शिवरात्री, गणेश चतुर्थी आदि पर्व भी हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है। तीज का यहाँ विशेष महत्व है। गनगौर एवं तीज स्रियों के मुख्य त्योहार हैं। रक्षाबंधन विशेषकर ब्राह्मणों का तथा दशहरा क्षत्रियों का त्योहार है। दशहरे के दिन बड़ी धूम-धाम के साथ महाराजा की सवारी निकलती है। मुसलमानों के मुख्य त्योहार मुहरर्म, ईदुलफितर, ईद उलजुहा, शबेबरात, बारह रबीउलअव्वल आदि है। महावीर जयंती एवं परयुशन जैनों द्वारा मनाया जाता है। यहाँ के सिख देश के अन्य भागों की तरह वैशाखी, गुरु नानक जयंती तथा गुरु गोविंद जयंती उत्साह के साथ मनाते है।
बीकानेर के सामाजिक जीवन में मेलों का विशेष महत्व है। ज्यादातर मेले किसी धार्मिक स्थान पर लगाए जाते हैं। ये मेले स्थानीय व्यापार, खरीद-बिक्री, आदान-प्रदान के मुख्य केन्द्र हैं। महत्वपूर्ण मेले निम्नलिखित हैं-
कतरियासर जसनाथ जी का मेला -
कतरियासर गाँव में जसनाथ जी महाराज जो जसनाथ सम्प्रदाय के आराधना देव हैं इस सम्प्रदाय के लोग ज्यादातर जाट जाति के लोग हैं तथा अन्य जातियाँ के लोग भी हैं तथा कतरियासर गावँ में जसनाथ जी का भव्य मंदिर है जहाँ भव्य मेला लगता हैं भक्तगण बाड़मेर, नागौर, चुरू, जोधपुर, जैसलमेर, सीकर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़, झुंझुनूं, हरियाणा तथा पंजाब व उत्तरप्रदेश से आते हैं
यहाँ ओर विश्व प्रसिद्ध अग्नि नृत्य होता हैं जो धधकते अंगारो पर किया जाता हैं जो एक चमत्कार हैं जसनाथ जी महाराज का जो देखने लायक हैं अग्नि नृत्य के बीच फ़र्हे फ़र्हे(फतेह-फतेह) का घोष किया जाता हैं व साथ ही में सिंभुदड़ा का पाठन किया जाता हैं
कतरियासर गाँव में जसनाथजी के मंदिर के अलावा सती माता काळलदेजी(जसनाथ जी महाराज की अर्धांगनी) का पवित्र मंदिर हैं जहाँ इनका भी भव्य मेला भरता हैं
जसनाथ जी महाराज के ३६ नियम हैं जिसमे पर्यावरण, वन्य जीव जंतुओं का संरक्षण, आदि के बारे में
लोगों को जागरूक किया गया हैं
कोलायत मेला -
यह मेला प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्लपक्ष के अंतिम दिनों में श्री कोलायत जी में होता है और पूर्णिमा के दिन मुख्य माना जाता है। यहाँ कपिलेश्वर मुनि के आश्रम होने के कारण इस स्थान का महत्व बढ़ गया है। ग्रामीण लोग काफी संख्या में यहाँ जुटते है तथा पवित्र झील में स्नान करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कपिल मुनि, जो ब्रह्मा के पुत्र हैं ने अपनी उत्तर-पूर्व की यात्रा के दौरान स्थान के प्राकृतिक सुंदरता के कारण तप के लिए उपर्युक्त समक्षा। मेले की मुख्य विशेषता इसकी दीप-मालिका है। दीपों को आटे से बनाया जाता है जिसमें दीपक जलाकर तालाब में प्रवाह कर दिया है। यहाँ हर साल लगभग एक लाख तक की भीड़ इकढ्ढा होती है।
मुकाम मेला -
नोखा तहसील में मुकाम नामक गाँव में एक भव्य मेला लगता है। यह मेला श्री जंभेश्वर जी की स्मृति में होता है, जिन्हें बिश्नोई संप्रदाय का स्थापक माना जाता है। फाल्गुन अमावस्या के दिन मेला भरता हैं। लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए देश के विभिन्न भागों से आते है। पर्यावरण एवं वन्य जीव प्रेमी बिश्नोई समाज के लिए मुकाम अंत्यत पवित्र स्थान हैं।
देशनोक मेला -
यह मेला चैत सुदी १-१० तक तथा आश्विन १-१० दिनों तक करणी जी की स्मृति में लगता है। ये एक चारण स्री हैं जिनके विषय में ऐसा माना जाता है कि इनमें दैविय शक्ति विद्यमान थी। देश के विभिन्न हिस्सों से इनका आशीर्वाद लेने के लिए लोगों ताँता लगा रहता है। यहाँ लगभग ३०,००० हजार लोगों तक की भीड़ इकठ्ठा होती है।
नागिनी जी मेला -
देवी नागिनी जी स्मृति में आयोजित यह मेला भादों के धावी अमावश में होता है। इसमें लगभग १०,००० श्रद्धालुगण आते है जिनमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक होती है।
यहाँ के अन्य महत्वपूर्ण मेलो में कतरियासर का मरु मेला, तीज मेला, शिवबाड़ी मेला, नरसिंह चर्तुदशी मेला, सुजनदेसर मेला, केनयार मेला, जेठ भुट्टा मेला, कोड़मदेसर मेला, दादाजी का मेला, रीदमालसार मेला, धूणीनाथ का मेला आदि हैं।
सीसा भैरू -
तीन दिवसीय चलने वाले मेले का आयोजन भैरू भक्त मण्डल पारीक चौक सोनगिरी कुआं, डागा चौक अनेक स्थानों से लोगो का बाबा भैरूनाथ के दर्शन के लिए आते है शहर के साथ-साथ नापासर, नौखा ग्रामिण क्षेत्रों से पैदल यात्री जत्थों के साथ भैरूनाथ के जयकारे के साथ सीसाभैरव आते है इस मेले की विशेषता यह है कि यहाँ एक विशाल हवन का आयोजन किया जाता है। इसमें लगभग ५,००० श्रद्धालुगण आते है जिनमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक होती है। यह मेला भादों में होता है। देश के विभिन्न हिस्सों से इनका आशीर्वाद लेने के लिए लोगों ताँता लगा
लाधूनाथ जी मेला -
राजस्थान के मशहूर लोक देवता एवं नायक समाज के प्रिय देवता श्री लादू नाथ जी महाराज का मेला बीकानेर जिले में मसूरी गाँव में भरा जाता है। यह राजस्थान के मशहूर संत एवं लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं इन्होंने अपने जीवन में अनेक ग्रंथों की रचनाएं की यह लोग देवता होने के साथ-साथ बहुत बड़े संत भी थे इन के मेले में नायक समाज के लोगों की अधिकता दिखाई देती है यह राजस्थान का तीसरा सबसे बड़ा मेला है इस मेले में कई समाज के लोग आते हैं श्री लादू नाथ जी महाराज एक चमत्कारी और बहुत बड़े संत के रूप में माने जाते हैं इनका मेला बड़ी धूम-धाम से और मनोरंजन का एक प्रमुख स्थान है।
राव बीका महाराजा जोधा के चौदह पुत्रों में से एक था। राज्य का मुख्य नगर 'बीकानेर' राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में कुछ ऊँची भूमि पर समुद्र की सतह से ७३६ फुट की ऊँचाई पर बसा है। कुछ स्थानों से देखने पर यह नगर बहुत भव्य तथा विशाल दिखाई पड़ता है। नहर के चारों ओर शहर पनाह चारदिवारी, जो धेरे में साढ़े चार मील है और पत्थर की बनी है। इसकी चौड़ाई ६ फुट तथा ऊँचाई अधिक से अधिक ३० फुट है। इसमें पाँच दरवाजे हैं, जिनके नाम क्रमश: कोट, जस्सूसर, नत्थूसर, सीतला और गोगा है और आठ खिड़कियाँ भी बनी हैं। शहर पनाह का उत्तरी हिस्सा १९०० ई० में बना है।
यह शहर पारंपरिक ढंग से बसा हुआ है। नगर के भीतर बहुत सी भव्य इमारतें हैं, जो बहुधा लाल पत्थरों से बनी है। इन पत्थरों पर खुदाई का काम उत्कृष्ट है।
यहाँ राव लूणकरण (१५४१-१५७२ई.) द्वारा बीकानेर में लूणकरणसर झील का निर्माण कराया | रायसिंह (१५७२-१६१२ ई ) द्वारा जूनागढ़़ दुर्ग के निर्माण (१५८९-१५९४ई.) की कमान अपनेे मंंत्री कर्मचन्द को सौंप रखी थी, जिसके निर्देशन में दुर्गों का निर्माण हुआ, जूनागढ़ दुर्ग के मुख्य द्वार पर दो वीर शिरोमणि जयमल, फत्ता की मूर्तियाँ स्थापित हुई | इन मूर्तियों को लगवाने का श्रेय रायसिंह को दिया जाता है |अनूप सिंह ने बीकानेर में अनूप संग्रहालय को स्थापित किया तथा महाराज अनूप सिंह ने ही बीकानेर दुर्ग में अनूप महल का निर्माण कराया, बताया जाता है अनूप महल की दीवारों पर सोने की कलम से कार्य हुआ, महाराजा अनूप सिंह के बाद के शासकों का राज्याभिषेक इसी अनूप महल में सम्पन्न होता था | राजस्थान में सर्वप्रथम सिंचाई के लिए गंगनहर तथा गंगा गोल्डन जुबली म्युजियम का निर्माण महाराज गंगा सिंह ने कराया | लालगढ़ महल का निर्माण भी महाराज गंगा सिंह के द्वारा अपने पिता लालसिंह की स्मृति में कराया था, यह महल यूरोपियन पद्धति से निर्मित कराया गया | इस महल का वास्तुकार जैकफ था |
बीकानेर के मंदिर
गुरु जसनाथ जी मंदिर कतरियासर
गुरु जंभेश्वर भगवान मंदिर मुकाम
लक्ष्मी नाथ जी मंदिर बीकानेर
वीर तेजाजी मंदिर चौधरी कॉलोनी बीकानेर
रामदेव जी मंदिर सुजानदेसर
राजस्थानी चित्रकला की एक प्रभावी शैली का जन्म बीकानेर से हुआ जो राजस्थान का दूसरा बड़ा राज्य था। बीकानेर राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। सुदूर मरुप्रदेश में राठौरवंशी राव जोधा के छठे पुत्र बीका द्वारा सन् १४८८ में बीकानेर की स्थापना की गई। बीकानेर २७ १२' और ३० १२' उत्तरी अक्षंश तथा ७२ १२' व ७५ ४१' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। बीकानेर राज्य के उत्तर में वहाबलपुर (पाकिस्तान), दक्षिण-पश्चिम में जैसलमेर, दक्षिण में जोधपुर, दक्षिण-पूर्व में लोहारु व हिसार जिला एवं उत्तर पूर्व में फिरोजपुर जिले से घिरी हुई थी। गजनेर व कोलायत यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं।
बीकानेर में शिक्षा
बीकानेर में राजस्थान राज्य का शिक्षा निदेशालय स्थित है। रजवाडों की एक बिल्डिंग में वेटेरनरी कॉलेज के पास स्थित निदेशालय में सैकड़ो कर्मचारी काम करते हैं। कक्षा एक से बारहवीं तक की परीक्षाओं का संचालन और परीक्षा परिणाम, अध्यापकों के स्थानान्तरण सहित कई प्रकार की गतिविधियाँ यहाँ वृहद् स्तर पर चलती रहती है। इसे राज्य की शिक्षा व्यवस्था का कुंभ कहा जा सकता है। शिक्षा विभाग से जुडे कार्मिकों को अपने सेवाकाल में एक बार तो यहाँ चक्कर लगाना पड़ ही जाता है।
अकादमिक स्तर पर देखा जाए तो तीन महाविद्यालय मुख्य रूप से बीकानेर में है। एक है महारानी सुदर्शना महाविद्यालय और दूसरा है राजकीय डूंगर महाविद्यालय। तीसरा है गंगा शार्दुल राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय। करीब पचास साल पुराने तीनों महाविद्यालयों का अपना-अपना इतिहास है। इसके अलावा कई वोकेशनल कोर्सेज और डिग्री कॉलेज भी यहाँ है। पिछले कुछ सालों से बीकानेर में खुले इंजीनियरिंग कॉलेज ने राष्ट्रीय स्तर के सेमीनार करवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है।
यहां पर पंहुचाने के लिए रेल मार्ग की कई शाखा है।
हिसार-बीकानेर१४६९८ में लगने वाला समय ०२:५० आम - ९:२० आम किराया ६० रोजाना का, प्लेटफार्म न.०५ हस्र मे - प्लेटफार्म न.०६ बन पहुंचने पर, दूरी ३०७ क्म
जिला प्रशासन आधिकारिक जालस्थल
राजस्थान के शहर
बीकानेर ज़िले के नगर |