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हम होंगे कामयाब ( का गिरिजा कुमार माथुर द्वारा किया गया हिंदी भावानुवाद) एक प्रतिरोध गीत है। यह गीत बीसवीं सदी में नागरिक अधिकार आंदोलन का प्रधान स्वर बना। इस गीत को आमतौर पर "ई'ल्ल ओवर्कमे सोम दए" ("आई विल ओवरकम सम डे") से काव्यावतरित माना जाता है, जो चार्ल्स अल्बर्ट टिंडले द्वारा गाया गया था और जिसे १९०० में पहली बार प्रकाशित किया गया था।
नागरिक अधिकार आंदोलन
देशभक्ति के गीत |
दैनिक पूजा विधि हिन्दू धर्म की कई उपासना पद्धतियों में से एक है। ये एक दैनिक कर्म है। विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने के लिये कई मन्त्र बताये गये हैं, जो लगभग सभी पुराणों से हैं। वैदिक मन्त्र यज्ञ और हवन के लिये होते हैं।
पूजा की रीति इस तरह है : पहले कोई भी देवता चुनें, जिसकी पूजा करनी है। फ़िर विधिवत निम्नलिखित मन्त्रों (सभी संस्कृत में हैं) के साथ उसकी पूजा करें। पौराणिक देवताओं के मन्त्र इस प्रकार हैं :
विनायक : ॐ सिद्धि विनायकाय नमः .
सरस्वती : ॐ सरस्वत्यै नमः .
लक्ष्मी : ॐ महा लक्ष्म्यै नमः .
दुर्गा : ॐ दुर्गायै नमः .
महाविष्णु : ॐ श्री विष्णवे नमः . और ॐ नमो नारायणाय .
कृष्ण : ॐ श्री कृष्णाय नमः . और ॐ नमो भगवते वासुदेवाय .
राम : ॐ श्री रामचन्द्राय नमः .
नरसिंह : ॐ श्री नारसिंहाय नमः .
शिव : ॐ शिवाय नमः या ॐ नमः शिवाय .
नीचे लिखे मन्त्र गणेश के लिये हैं :
दैनिक विनायक पूजा
शुक्लाम्बर धरं विष्णुं शशि वर्णम् चतुर्भुजम् .
प्रसन्न वदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये ..
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . ध्यायामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . आवाहयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . आसनं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . अर्घ्यं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पाद्यं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . आचमनीयं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . उप हारं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पंचामृत स्नानं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . वस्त्र युग्मं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . यज्ञोपवीतं धारयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . आभरणानि समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . गंधं धारयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . अक्षतान् समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पुष्पैः पूजयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . प्रतिष्ठापयामि .
अथ अंग पूजा
विनायक (गणेश) के पाँच नाम चुनें और ऐसा कहें :
ॐ महा गणपतये नमः . पादौ पूजयामि .
ॐ विघ्न राजाय नमः . उदरम् पूजयामि .
ॐ एक दन्ताय नमः . बाहुं पूजयामि .
ॐ गौरी पुत्राय नमः . हृदयं पूजयामि .
ॐ आदि वन्दिताय नमः . शिरः पूजयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . अंग पूजां समर्पयामि .
अथ पत्र पूजा
विनायक (गणेश) के पाँच नाम चुनें और ऐसा कहें :
ॐ महा गणपतये नमः . आम्र पत्रम् समर्पयामि .
ॐ विघ्न राजाय नमः . केतकि पत्रम् समर्पयामि .
ॐ एक दन्ताय नमः . मन्दार पत्रम् समर्पयामि .
ॐ गौरी पुत्राय नमः . सेवन्तिका पत्रं समर्पयामि .
ॐ आदि वन्दिताय नमः . कमल पत्रं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पत्र पूजां समर्पयामि .
अथ पुष्प पूजा
विनायक (गणेश) के पाँच नाम चुनें और ऐसा कहें :
ॐ महा गणपतये नमः . जाजी पुष्पं समर्पयामि .
ॐ विघ्न राजाय नमः . केतकी पुष्पं समर्पयामि .
ॐ एक दन्ताय नमः . मन्दार पुष्पं समर्पयामि .
ॐ गौरी पुत्राय नमः . सेवन्तिका पुष्पं समर्पयामि .
ॐ आदि वन्दिताय नमः . कमल पुष्पं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पुष्प पूजां समर्पयामि .
अगर सम्भव हो तो गणेश के १०८ नाम जपें :
ॐ सुमुखाय नमः . एक दन्ताय नमः .
कपिलाय नमः . गज कर्णकाय नमः .
लम्बोदराय नमः . विकटाय नमः .
विघ्न राजाय नमः . विनायकाय नमः .
धूम केतवे नमः . गणाध्यक्षाय नमः .
भालचन्द्राय नमः . गजाननाय नमः .
वक्रतुण्डाय नमः . हेरम्बाय नमः .
स्कन्द पूर्वजाय नमः . सिद्धि विनायकाय नमः .
श्री महागणपतये नमः . नाम पूजां समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . धूपं आघ्रापयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . दीपं दर्शयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . नैवेद्यं निवेदयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . फलाष्टकं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . ताम्बूलं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . कर्पूर नीराजनं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . मंगल आरतीं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पुष्पांजलिं समर्पयामि .
यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च .
तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिणा पदे पदे ..
प्रदक्षिणा नमस्कारान् समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . समस्त राजोपचारान् समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . मंत्र पुष्पं समर्पयामि .
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ .
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ..
प्रार्थनां समर्पयामि .
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं .
पूजाविधिं न जानामि क्षमस्व पुरुषोत्तम ..
क्षमापनं समर्पयामि .
ॐ सिद्धि विनायकाय नमः . पुनरागमनाय च . |
हिन्दी जिसके मानकीकृत रूप को मानक हिन्दी कहा जाता है, विश्व की एक प्रमुख भाषा है और भारत की एक राजभाषा है। केन्द्रीय स्तर पर भारत में सह-आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है और अरबीफ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत के संविधान में किसी भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया है। एथनोलॉग के अनुसार हिन्दी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है।
भारत की जनगणना २०११ में ५७.१% भारतीय जनसंख्या हिन्दी जानती है जिसमें से ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित किया था। इसके अतिरिक्त भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १4 करोड़ १0 लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, व्याकरण के आधार पर हिन्दी के समान है, एवं दोनों ही हिन्दुस्तानी भाषा की परस्पर-सुबोध्य रूप हैं। एक विशाल संख्या में लोग हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझते हैं। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १4 आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिन्दी भारत में सम्पर्क भाषा का कार्य करती है और कुछ हद तक पूरे भारत में सामान्यतः एक सरल रूप में समझी जानेवाली भाषा है। कभी-कभी 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नौ भारतीय राज्यों के सन्दर्भ में भी उपयोग किया जाता है, जिनकी आधिकारिक भाषा हिन्दी है और हिन्दी भाषी बहुमत है, अर्थात् बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखण्ड, जम्मू और कश्मीर (२०२० से) उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का।
हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम, नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात में भी हिन्दी या इसकी मान्य बोलियों का उपयोग करने वाले लोगों की बड़ी संख्या मौजूद है। फरवरी २०१९ में अबू धाबी में हिन्दी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिली।
'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। हिन्दी, यूरोपीय भाषा-परिवार के अन्दर आती है। ये हिन्द ईरानी शाखा की हिन्द आर्य उपशाखा के अन्तर्गत वर्गीकृत है।
एथ्नोलॉग (२०२२, २५वां संस्करण) की रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर में हिंदी को प्रथम और द्वितीय भाषा के रूप में बोलने वाले लोगों की संख्या के आधार पर हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
हिन्दी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत शब्द 'सिन्धु' से माना जाता है। 'सिन्धु' सिन्धु नदी को कहते थे और उसी आधार पर उसके आस-पास की भूमि को सिन्धु कहने लगे। यह सिन्धु शब्द ईरानी में जाकर हिन्दू, हिन्दी और फिर हिन्द हो गया। बाद में ईरानी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द के अर्थ में विस्तार होता गया तथा हिन्द शब्द पूरे भारत का वाचक हो गया। इसी में ईरानी का ईक प्रत्यय लगने से (हिन्द+ईक) हिन्दीक बना जिसका अर्थ है हिन्द का। यूनानी शब्द इण्डिका या लैटिन 'इण्डेया' या अंग्रेजी शब्द इण्डिया आदि इस हिन्दीक के ही दूसरे रूप हैं। हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफ़ुद्दीन यज्दी के जफ़रनामा(१४२४) में मिलता है। प्रमुख उर्दू लेखकों ने १९वीं सदी की सूचना तक अपनी भाषा को हिंदी या हिंदवी के रूप में संदर्भित करते रहे।
प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने "हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत" शीर्षक आलेख में हिन्दी की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'स्' ध्वनि नहीं बोली जाती थी बल्कि 'स्' को 'ह्' की तरह बोला जाता था। जैसे संस्कृत शब्द 'असुर' का अवेस्ता में सजाति समकक्ष शब्द 'अहुर' था। अफ़गानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इलाके को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी 'हिन्द', 'हिन्दुश' के नामों से पुकारा गया है तथा यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को विशेषण के रूप में 'हिन्दीक' कहा गया है जिसका मतलब है 'हिन्द का' या 'हिन्द से'। यही 'हिन्दीक' शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में 'इण्डिके', 'इण्डिका', लैटिन में 'इण्डेया' तथा अंग्रेजी में 'इण्डिया' बन गया। अरबी एवं फ़ारसी साहित्य में भारत (हिन्द) में बोली जाने वाली भाषाओं के लिए 'ज़बान-ए-हिन्दी' पद का उपयोग हुआ है। भारत आने के बाद अरबी-फ़ारसी बोलने वालों ने 'ज़बान-ए-हिन्दी', 'हिन्दी ज़बान' अथवा 'हिन्दी' का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया।
भाषायी उत्पत्ति और इतिहास
हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक सहस्र वर्ष पुराना माना गया है। हिन्दी भाषा व साहित्य के जानकार अपभ्रंश की अन्तिम अवस्था 'अवहट्ठ से हिन्दी का उद्भव स्वीकार करते हैं। चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने इसी अवहट्ट को 'पुरानी हिन्दी' नाम दिया।
अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रान्तिकाल कहा जा सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। १००० ई॰ के आसपास इसकी स्वतन्त्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक सन्दर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रूप था - वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ।
अपभ्रंश के सम्बन्ध में देशी शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है। वास्तव में देशी से देशी शब्द एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में उन शब्दों को देशी कहा है जो संस्कृत के तत्सम एवं सद्भव रूपों से भिन्न हैं। ये देशी शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द थे, जो स्वभावतः अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परन्तु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है। प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढाँचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड़ में न आ सके, उनको देशी संज्ञा दी गयी।
अंग्रेजी काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय हिन्दी के विकास में एक नयी चेतना आयी। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय महात्मा गाँधी सहित अनेक नेताओं ने भारतीय एकता के लिये हिन्दी के विकास का समर्थन किया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के प्रयासों से हिन्दी को एक नयी ऊँचाई मिली। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को भारत की राजभाषा स्वीकार किया।
भाषाशास्त्र के अनुसार हिन्दी के चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं :
मानक हिन्दी - हिन्दी का मानकीकृत रूप, जिसकी लिपि देवनागरी है। इसमें संस्कृत भाषा के कई शब्द है, जिन्होंने फ़ारसी और अरबी के कई शब्दों की जगह ले ली है। इसे 'शुद्ध हिन्दी' भी कहते हैं। यह खड़ीबोली पर आधारित है, जो दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।
दक्षिणी - उर्दू-हिन्दी का वह रूप जो हैदराबाद और उसके आसपास की जगहों में बोला जाता है। इसमें फ़ारसी-अरबी के शब्द उर्दू की अपेक्षा कम होते हैं।
रेख्ता - उर्दू का वह रूप जो शायरी में प्रयुक्त होता था।
उर्दू - हिन्दी का वह रूप जो देवनागरी लिपि के बजाय फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखा जाता है। इसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं, और फ़ारसी-अरबी के शब्द अधिक। यह भी खड़ीबोली पर ही आधारित है।
हिन्दी और उर्दू दोनों को मिलाकर हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता है। हिन्दुस्तानी मानकीकृत हिन्दी और मानकीकृत उर्दू के बोलचाल की भाषा है। इसमें शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फ़ारसी-अरबी दोनों के शब्द कम होते हैं और तद्भव शब्द अधिक। उच्च हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा है (अनुच्छेद ३४३, भारतीय संविधान)। यह इन भारतीय राज्यों की भी राजभाषा है : उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली। इन राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, पंजाब और हिन्दी भाषी राज्यों से लगते अन्य राज्यों में भी हिन्दी बोलने वालों की अच्छी संख्या है। उर्दू पाकिस्तान की और भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर की राजभाषा है, इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना और दिल्ली में द्वितीय राजभाषा है। यह लगभग सभी ऐसे राज्यों की सह-राजभाषा है; जिनकी मुख्य राजभाषा हिन्दी है।
हिन्दी एवं उर्दू
भाषाविद हिन्दी एवं उर्दू को एक ही भाषा समझते हैं। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर अधिकांशतः संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करती है। उर्दू, नस्तालिक लिपि में लिखी जाती है और शब्दावली के स्तर पर फ़ारसी और अरबी भाषाओं का प्रभाव अधिक है। हालाँकि व्याकरणिक रूप से उर्दू और हिन्दी में कोई अन्तर नहीं है परन्तु कुछ विशेष क्षेत्रों में शब्दावली के स्रोत (जैसा कि ऊपर लिखा गया है) में अन्तर है। कुछ विशेष ध्वनियाँ उर्दू में अरबी और फ़ारसी से ली गयी हैं और इसी प्रकार फ़ारसी और अरबी की कुछ विशेष व्याकरणिक संरचनाएँ भी प्रयोग की जाती हैं। उर्दू और हिन्दी खड़ीबोली की दो आधिकारिक शैलियाँ हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से हिन्दी और देवनागरी के मानकीकरण की दिशा में निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रयास हुये हैं :-
हिन्दी व्याकरण का मानकीकरण
वर्तनी का मानकीकरण
शिक्षा मंत्रालय के निर्देश पर केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा देवनागरी का मानकीकरण
वैज्ञानिक ढंग से देवनागरी लिखने के लिये एकरूपता के प्रयास
यूनिकोड का विकास
हिन्दी का क्षेत्र विशाल है तथा हिन्दी की अनेक बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं। इनमें से कुछ में अत्यन्त उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना भी हुई है। ऐसी बोलियों में ब्रजभाषा और अवधी प्रमुख हैं। ये बोलियाँ हिन्दी की विविधता हैं और उसकी शक्ति भी। वे हिन्दी की जड़ों को गहरा बनाती हैं। हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो न केवल अपने में एक बड़ी परम्परा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतन्त्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के विरुद्ध भी उसका रचना संसार सचेत है।
हिन्दी की बोलियों में प्रमुख हैं- अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, बघेली, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि। किन्तु हिन्दी के मुख्य दो भेद हैं - पश्चिमी हिन्दी तथा पूर्वी हिन्दी।
हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। इसे नागरी के नाम से भी जाना जाता है। देवनागरी में ११ स्वर और ३३ व्यंजन हैं। इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है।
हिन्दी शब्दावली में मुख्यतः चार वर्ग हैं।
तत्सम शब्द ये वे शब्द हैं जिनको संस्कृत से बिना कोई रूप बदले ले लिया गया है। जैसे अग्नि, दुग्ध, दन्त, मुख। (परन्तु हिन्दी में आने पर ऐसे शब्दों से विसर्ग का लोप हो जाता है जैसे संस्कृत 'नामः' हिन्दी में केवल 'नाम' हो जाता है।)
तद्भव शब्द ये वे शब्द हैं जिनका जन्म संस्कृत या प्राकृत में हुआ था, लेकिन उनमें बहुत ऐतिहासिक बदलाव आया है। जैसे आग, दूध, दाँत, मुँह।
देशज शब्द देशज का अर्थ है 'जो देश में ही उपजा या बना हो'। तो देशज शब्द का अर्थ हुआ जो न तो विदेशी भाषा का हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो। ऐसा शब्द जो न संस्कृत का हो, न संस्कृत-शब्द का अपभ्रंश हो। ऐसा शब्द किसी प्रदेश (क्षेत्र) के लोगों द्वारा बोल-चाल में य़ों ही बना लिया जाता है। जैसे खटिया, लुटिया।
विदेशी शब्द इसके अतिरिक्त हिन्दी में कई शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेजी आदि से भी आये हैं। इन्हें विदेशी शब्द कहते हैं।
जिस हिन्दी में अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी के शब्द लगभग पूर्ण रूप से हटा कर तत्सम शब्दों को ही प्रयोग में लाया जाता है, उसे "शुद्ध हिन्दी" या "मानकीकृत हिन्दी" कहते हैं।
देवनागरी लिपि में हिन्दी की ध्वनियाँ इस प्रकार हैं :
ये स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ीबोली) के लिये दिये गये हैं।
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं :
ऋ इसका उच्चारण संस्कृत में /र/ था मगर आधुनिक हिन्दी में इसे // उच्चारित किया जाता है ।
अं पंचम वर्ण - ङ्, ञ्, ण्, न्, म् का नासिकीकरण करने के लिए (अनुस्वार)
अँ स्वर का अनुनासिकीकरण करने के लिए (चंद्र बिंदु)
अः अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिए (विसर्ग)
जब किसी स्वर प्रयोग ना हो तो वहाँ पर डिफ़ॉल्ट रूप से 'अ' स्वर माना जाता है। स्वर के ना होना व्यंजन के नीचे हलन्त् या विराम लगाके दर्शाया जाता है। जैसे क् /क/, ख् /क/, ग् /ग/ और घ् /ग/।
इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त व्यंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी और वैदिक संस्कृत में सभी का प्रयोग किया जाता है।
संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था : जीभ की नोक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी आवाज करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनि शाखा कुछ वाक़्यात में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था। आधुनिक हिन्दी में ष का उच्चारण पूरी तरह श की तरह होता है।
हिन्दी में ण का उच्चारण कभी-कभी ड़ँ की तरह होता है, यानी कि जीभ मुँह की छत को एक जोरदार ठोकर मारती है। परन्तु इसका शुद्ध उच्चारण जिह्वा को मूर्धा (मुँह की छत. जहाँ से 'ट' का उच्चार करते हैं) पर लगा कर न की तरह का अनुनासिक स्वर निकालकर होता है।
ये ध्वनियाँ मुख्यत: अरबी और फ़ारसी भाषाओं से लिये गये शब्दों के मूल उच्चारण में होती हैं। इनका स्रोत संस्कृत नहीं है। देवनागरी लिपि में ये सबसे करीबी देवनागरी वर्ण के नीचे बिन्दु (नुक़्ता) लगाकर लिखे जाते हैं।
अन्य सभी भारतीय भाषाओं की तरह हिन्दी में भी कर्ता-कर्म-क्रिया वाला वाक्यविन्यास है। हिन्दी में दो लिंग होते हैं पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। नपुंसक वस्तुओं का लिंग भाषा परम्परानुसार पुल्लिंग या स्त्रीलिंग होता है। क्रिया के रूप कर्ता के लिंग पर निर्भर करता है। हिन्दी में दो वचन होते हैं एकवचन और बहुवचन। क्रिया वचन-से भी प्रभावित होती है। विशेषण विशेष्य-के पहले लगता है।
भारत की जनगणना २०११ में ५७.१% भारतीय आबादी हिन्दी जानती है जिसमें से ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित किया था। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में ८,६३,०७७; मॉरीशस में ६,८5,१70; दक्षिण अफ़्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,3२,7६0; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में 5०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है।
भारत में उपयोग
भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों के मध्य परस्पर विचार-विनिमय का माध्यम बनने वाली भाषा को सम्पर्क भाषा कहा जाता है। अपने राष्ट्रीय स्वरूप में ही हिन्दी पूरे भारत की सम्पर्क भाषा बनी हुई है। अपने सीमित रूप प्रशासनिक भाषा के रूप में हिन्दी व्यवहार में भिन्न भाषाभाषियों के बीच परस्पर सम्प्रेषण का माध्यम बनी हुई है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में बोली और समझी जाने वाली (बॉलीवुड के कारण) देशभाषा हिन्दी है, यह राजभाषा भी है तथा सारे देश को जोड़ने वाली सम्पर्क भाषा भी।
हिन्दी भारत की राजभाषा है। १४ सितम्बर १९४९ को हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था।
भारत की स्वतंत्रता के पहले और उसके बाद भी बहुत से लोग हिन्दी को 'राष्ट्रभाषा' कहते आये हैं (उदाहरणतः, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे आदि) किन्तु भारतीय संविधान में 'राष्ट्रभाषा' का उल्लेख नहीं हुआ है और इस दृष्टि से हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने का कोई अर्थ नहीं है।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने के एक हिमायती महात्मा गांधी भी थे, जिन्होंने २९ मार्च १९१८ को इन्दौर में आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। उस समय उन्होंने अपने सार्वजनिक उद्बोधन में पहली बार आह्वान किया था कि हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिये। उन्होने यह भी कहा था कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है। उन्होने तो यहाँ तक कहा था कि हिन्दी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। आजाद हिन्द फौज का राष्ट्रगान 'शुभ सुख चैन' भी "हिन्दुस्तानी" में था। उनका अभियान गीत 'कदम कदम बढ़ाए जा' भी इसी भाषा में था, परन्तु सुभाष चन्द्र बोस हिन्दुस्तानी भाषा के संस्कृतकरण के पक्षधर नहीं थे, अतः शुभ सुख चैन को जनगणमन के ही धुन पर, बिना कठिन संस्कृत शब्दावली के बनाया गया था।
पूर्वोत्तर भारत में
पूर्वोत्तर भारत में अनेक जनजातियाँ निवास करती हैं जिनकी अपनी-अपनी भाषाएँ तथा बोलियाँ हैं। इनमें बोड़ो, कछारी, जयन्तिया, कोच, त्रिपुरी, गारो, राभा, देउरी, दिमासा, रियांग, लालुंग, नागा, मिजो, त्रिपुरी, जामातिया, खासी, कार्बी, मिसिंग, निशी, आदी, आपातानी, इत्यादि प्रमुख हैं। पूर्वोत्तर की भाषाओं में से केवल असमिया, बोड़ो और मणिपुरी को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान मिला है। सभी राज्यों में हिन्दी भाषा का प्रयोग अधिकांश प्रवासी हिन्दी भाषियों द्वारा आपस में किया जाता है।
पूर्वोत्तर में हिन्दी का औपचारिक रूप से प्रवेश वर्ष १९३४ में हुआ, जब महात्मा गांधी अखिल भारतीय हरिजन सभा की स्थापना हेतु असम आये। उस समय गड़मूड़ (माजुली) के सत्राधिकार (वैष्णव धर्मगुरू) एवं स्वतन्त्रता सेनानी पीताम्बर देव गोस्वामी के आग्रह पर गांधी जी सन्तुष्ट होकर बाबा राघव दास को हिन्दी प्रचारक के रूप में असम भेजा। वर्ष १९३८ में असम हिन्दी प्रचार समिति की स्थापना गुवाहाटी में हुई। यह समिति आगे चलकर असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति बनी। आम लोगों में हिन्दी भाषा तथा साहित्य के प्रचार-प्रसार करने हेतु- प्रबोध, विशारद, प्रवीण, आदि परीक्षाओं का आयोजन इस समिति के द्वारा होता आ रहा है।
पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी की स्थिति दिनों-दिन सबल होती जा रही है और यह सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। आजकल अरुणाचल प्रदेश में बड़े पैमाने पर हिन्दी बोली जाने लगी है। हिन्दी का प्रचार-प्रसार तथा उसकी लोकप्रियता एवं व्यावहारिकता टी.वी. (धारावाहिक, विज्ञापन), सिनेमा, आकाशवाणी, पत्रकारिता, विद्यालय, महाविद्यालय तथा उच्च शिक्षा में हिन्दी भाषा के प्रयोग द्वारा बढ़ रही है।
भारत के बाहर
सन् १९९८ के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् १९९७ में 'सैंसस ऑफ़ इण्डिया' का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित होने तथा संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए यूनेस्को द्वारा सन् १९९८ में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर उन्हें भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर यह स्वीकृत है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा सीमित है। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु मातृभाषियों की संख्या अंग्रेजी भाषियों से अधिक है।
विश्वभाषा बनने के सभी गुण हिन्दी में विद्यमान हैं। बीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों में हिन्दी का अन्तरराष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ है। हिन्दी एशिया के व्यापारिक जगत् में धीरे-धीरे अपना स्वरूप बिम्बित कर भविष्य की अग्रणी भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित कर रही है। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिन्दी की माँग जिस तेजी से बढ़ी है वैसी किसी और भाषा में नहीं। विश्व के लगभग १५० विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे-बड़े केन्द्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों में २५ से अधिक पत्र-पत्रिकाएँ लगभग नियमित रूप से हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं। यूएई के 'हम एफ़-एम' सहित अनेक देश हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिन्दी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
दिसम्बर २०१६ में विश्व आर्थिक मंच ने १० सर्वाधिक शक्तिशाली भाषाओं की जो सूची जारी की है उसमें हिन्दी भी एक है। इसी प्रकार 'कोर लैंग्वेजेज' नामक साइट ने 'दस सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषाओं' में हिन्दी को स्थान दिया था। के-इण्टरनेशनल ने वर्ष २०१७ के लिये सीखने योग्य सर्वाधिक उपयुक्त नौ भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिया है।
हिन्दी का एक अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने और विश्व हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन को संस्थागत व्यवस्था प्रदान करने के उद्देश्य से ११ फरवरी २००८ को विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना की गयी थी। संयुक्त राष्ट्र रेडियो अपना प्रसारण हिन्दी में भी करना आरम्भ किया है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाये जाने के लिए भारत सरकार प्रयत्नशील है। अगस्त २०१८ से संयुक्त राष्ट्र ने साप्ताहिक हिन्दी समाचार बुलेटिन आरम्भ किया है।
डिजिटिकरण और कम्प्यूटर क्रान्ति
कम्प्यूटर और इण्टरनेट ने पिछले वर्षों में विश्व में सूचना क्रान्ति ला दी है। आज कोई भी भाषा कम्प्यूटर (तथा कम्प्यूटर सदृश अन्य उपकरणों) से दूर रहकर लोगों से जुड़ी नहीं रह सकती। कम्प्यूटर के विकास के आरम्भिक काल में अंग्रेजी को छोड़कर विश्व की अन्य भाषाओं के कम्प्यूटर पर प्रयोग की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया गया जिसके कारण सामान्य लोगों में यह गलत धारणा फैल गयी कि कम्प्यूटर अंग्रेजी के सिवा किसी दूसरी भाषा (लिपि) में काम ही नहीं कर सकता। किन्तु यूनिकोड (यूनीकोड) के पदार्पण के बाद स्थिति बहुत तेजी से बदल गयी। १९ अगस्त २००९ में गूगल ने कहा की हर ५ वर्षों में हिन्दी की सामग्री में ९४% बढ़ोतरी हो रही है।
हिन्दी की इण्टरनेट पर अच्छी उपस्थिति है। गूगल जैसे सर्च इंजन हिन्दी को प्राथमिक भारतीय भाषा के रूप में पहचानते हैं। इसके साथ ही अब अन्य भाषा के चित्र में लिखे शब्दों का भी अनुवाद हिन्दी में किया जा सकता है। फरवरी २०१८ में एक सर्वेक्षण के हवाले से खबर आयी कि इण्टरनेट की दुनिया में हिन्दी ने भारतीय उपभोक्ताओं के बीच अंग्रेजी को पछाड़ दिया है। यूथ४वर्क की इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने इस आशा को सही साबित किया है कि जैसे-जैसे इण्टरनेट का प्रसार छोटे शहरों की ओर बढ़ेगा, हिन्दी और भारतीय भाषाओं की दुनिया का विस्तार होता जाएगा।
इस समय हिन्दी में सजाल (वेबसाइट), चिट्ठे (ब्लॉग), विपत्र (ईमेल), गपशप (चैट), खोज (वेब-सर्च), सरल मोबाइल सन्देश (एसएमएस) तथा अन्य हिन्दी सामग्री उपलब्ध हैं। इस समय अन्तरजाल पर हिन्दी में संगणन (कम्प्यूटिंग) के संसाधनों की भी भरमार है और नित नये कम्प्यूटिंग उपकरण आते जा रहे हैं। लोगों में इनके बारे में जानकारी देकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है ताकि अधिकाधिक लोग कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग करते हुए अपना, हिन्दी का और पूरे हिन्दी समाज का विकास करें। शब्दनगरी जैसी नई सेवाओं का प्रयोग करके लोग अच्छे हिन्दी साहित्य का लाभ अब इण्टरनेट पर भी उठा सकते हैं।
मुम्बई में स्थित "बॉलीवुड" हिन्दी फ़िल्म उद्योग पर भारत के करोड़ो लोगों की धड़कनें टिकी रहती हैं। हर चलचित्र में कई गाने होते हैं। हिन्दी और उर्दू (खड़ीबोली) के साथ साथ अवधी, बम्बइया हिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों में उपयुक्त होती हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। अधिकतर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं।
अब मोबाइल कम्पनियाँ ऐसे हैंडसेट बना रही हैं जो हिन्दी और भारतीय भाषाओं को सपोर्ट करते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हिन्दी जानने वाले कर्मचारियों को वरीयता दे रही हैं। हॉलीवुड की फिल्में हिन्दी में डब हो रही हैं और हिन्दी फिल्में देश के बाहर देश से अधिक कमाई कर रही हैं। हिन्दी, विज्ञापन उद्योग की पसन्दीदा भाषा बनती जा रही है। गूगल, ट्रांसलेशन, ट्रांस्लिटरेशन, फोनेटिक टूल्स, गूगल असिस्टेण्ट आदि के क्षेत्र में नई नई रिसर्च कर अपनी सेवाओं को बेहतर कर रहा है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का डिजिटलीकरण जारी है।
फेसबुक और व्हाट्सएप हिन्दी और भारतीय भाषाओं के साथ तालमेल बिठा रहे हैं। सोशल मीडिया ने हिन्दी में लेखन और पत्रकारिता के नए युग का सूत्रपात किया है और कई जनान्दोलनों को जन्म देने और चुनाव जिताने-हराने में उल्लेखनीय और हैरान करने वाली भूमिका निभाई है। सितम्बर २०१८ में प्रकाशित हुई एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार हिन्दी में ट्वीट करना अत्यन्त लोकप्रिय हो रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले वर्ष सबसे अधिक पुनः ट्वीट किए गये १५ सन्देशों में से ११ हिन्दी के थे। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का बाजार इतना बड़ा है कि अनेक कम्पनियाँ अपने उत्पाद और वेबसाइटें हिन्दी और स्थानीय भाषाओं में ला रहीं हैं।
इन्हें भी देखें
हिन्दी साहित्य का इतिहास
भारत की भाषाएँ
हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ और उनका साहित्य
हिन्दी भाषियों की संख्या के आधार पर भारत के राज्यों की सूची
हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम
भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी
अन्तरजाल पर हिन्दी सामग्री - क्या कहाँ है?
हिन्दी विकिस्रोत - हिन्दी के कापीराइट-मुक्त पुस्तकों का संग्रह
हिन्दी पर महापुरुषों के विचार
दक्षिण भारत में तेजी से बढ़ रहे हिंदी बोलने वाले, देश के ४४ फीसदी लोगों की बनी भाषा (२०११ जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार)
विश्व की प्रमुख भाषाएं
भारत की भाषाएँ |
फ़ारसी (), एक भाषा है जो ईरान, ताजिकिस्तान, अफ़गानिस्तान और उज़बेकिस्तान में बोली जाती है। यह ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, ताजिकिस्तान की राजभाषा है और इसे ७.५ करोड़ लोग बोलते हैं। भाषाई परिवार के लिहाज़ से यह हिन्द यूरोपीय परिवार की हिन्द ईरानी (इंडो ईरानियन) शाखा की ईरानी उपशाखा का सदस्य है और हिन्दी की तरह इसमें क्रिया वाक्य के अंत में आती है। फ़ारसी संस्कृत से क़ाफ़ी मिलती-जुलती है और उर्दू (और हिन्दी) में इसके कई शब्द प्रयुक्त होते हैं। ये अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है। अंग्रेज़ों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ारसी भाषा का प्रयोग दरबारी कामों तथा लेखन की भाषा के रूप में होता है। दरबार में प्रयुक्त होने के कारण ही अफ़गानिस्तान में इस दरी कहा जाता है।
इसे हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की हिन्द-ईरानी शाखा की ईरानी भाषाओं की उपशाखा के पश्चिमी विभाग में वर्गीकृत किया जाता है। हालाँकि भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ारसी को ग़लती से अरबी भाषा के समीप समझा जाता है, भाषावैज्ञानिक दृष्टि से यह अरबी से बहुत भिन्न और संस्कृत के बहुत समीप है। संस्कृत और फ़ारसी में कई हज़ारों मिलते-जुलते सजातीय शब्द मिलते हैं जो दोनों भाषाओँ की सांझी धरोहर हैं, जैसे की सप्ताह/हफ़्ता, नर/नर (पुरुष), दूर/दूर, हस्त/दस्त (हाथ), शत/सद (सौ), आप/आब (पानी), हर/ज़र (फ़ारसी में पीला-सुनहरा, संस्कृत में पीला-हरा), मय/मद/मधु (शराब/शहद), अस्ति/अस्त (है), रोचन/रोशन (चमकीला), एक/येक, कपि/कपि (वानर), दन्त/दन्द (दाँत), मातृ/मादर, पितृ/पिदर, भ्रातृ/बिरादर (भाई), दुहितृ/दुख़्तर (बेटी), वंश/बच/बच्चा, शुकर/ख़ूक (सूअर), अश्व/अस्ब (घोड़ा), गौ/गऊ (गाय), जन/जान (संस्कृत में व्यक्ति/जीव, फ़ारसी में जीवन), भूत/बूद (था, अतीत), ददामि/दादन (देना), युवन/जवान, नव/नव (नया) और सम/हम (बराबर)।
भारत में इसे फ़ारसी कहा जाता है। इसका मूल नाम 'पारसी' है पर अरब लोग, जिन्होंने फ़ारस पर सातवीं सदी के अंत तक अधिकार कर लिया था, की वर्णमाला में 'प' अक्षर नहीं होता है। इस कारण से वे इसे फ़ारसी कहते थे और यही नाम भारत में भी प्रयुक्त होता है। यूनानी लोग फार्स को पर्सिया (पुरानी ग्रीक में पर्सिस, ) कहते थे। जिसके कारण यहाँ की भाषा पर्सियन (फार्शियन) कहलाई। यही नाम अंग्रेज़ी सहित अन्य यूरोपीय भाषाओं में प्रयुक्त होता है।
फ़ारसी एक ईरानी भाषा है जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की हिंद-ईरानी शाखा में आती है। सामान्यत: ईरानी भाषा तीन अवधियों से जानी जाती है। आमतौर पर इस रूप में इसे ऐसे संदर्भित किया जाता हैं: पुरानी, मध्य और नई (आधुनिक) अवधि। ये ईरानी इतिहास में तीन युगों के अनुरूप हैं; पुराना युग हख़ामनी साम्राज्य से कुछ पहले का समय हैं, हख़ामनी युग और हख़ामनी के कुछ बाद वाला समय (४००-३०० ईसा पूर्व) है, मध्य युग सासानी युग और सासानी के कुछ बाद वाला समय और नया युग वर्तमान दिन तक की अवधि है।
उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, फ़ारसी भाषा "केवल अकेली ईरानी भाषा" है, जिसके लिए इसके तीनों चरणों के नज़दीकी भाषाविज्ञान-संबंधी रिश्ते स्थापित किए गए हैं तो पुरानी, मध्य और नई फ़ारसी एक ही फारसी भाषा का प्रतिनिधित्व करते हैं, कि नई फ़ारसी मध्य और पुरानी फारसी की एक प्रत्यक्ष वंशज है।
दक्षिण एशिया में प्रयोग
फ़ारसी भाषा ने पश्चिम एशिया, यूरोप, मध्य एशिया और दक्षिण एशियाई क्षेत्र की कई आधुनिक भाषाओं के निर्माण को प्रभावित किया। दक्षिण एशिया में तुर्कों-फ़ारसी गज़नवी विजय के बाद, फारसी सबसे पहले इस क्षेत्र में समाविष्ट की गई थी। ब्रिटिश उपनिवेश की स्थापना के पाँच सदियों पूर्व तक, फारसी व्यापक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में एक दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल की जाती थी। इसने उपमहाद्वीप पर कई मुस्लिम दरबारों में संस्कृति और शिक्षा की भाषा के रूप में प्रमुखता ले ली। हालाँकि १८४३ के शुरू से, अंग्रेजी और हिंदुस्तानी ने धीरे धीरे उपमहाद्वीप पर महत्व में फ़ारसी को बदल दिया। फ़ारसी के ऐतिहासिक प्रभाव के साक्ष्य भारतीय उपमहाद्वीप की कुछ भाषाओं पर इसके प्रभाव की सीमा में देखा जा सकता है। फारसी से उधार लिए शब्द अभी भी आमतौर पर कुछ हिंद आर्य भाषाओं में उपयोग किए जाते है। कुछ मुख्य दक्षिण एशियाई साम्राज्य जिनकी राजभाषा फ़ारसी थी:-
मोमिन राजवंश, ग़ज़नवी साम्राज्य, ग़ोरी राजवंश, गुलाम वंश, ख़िलजी वंश, तुग़लक़ वंश, सय्यद वंश, लोदी वंश, सूरी साम्राज्य, मुगल साम्राज्य तथा बहमनी सल्तनत।
पश्चिमी फ़ारसी (फारसी, ईरानी फ़ारसी, या फारसी) ईरान में बोली जाती हैं और इराक और फारस की खाड़ी राज्यों में अल्पसंख्यकों द्वारा।
पूर्वी फ़ारसी (दरी फ़ारसी, अफगान फ़ारसी, या दरी) अफगानिस्तान में बोली जाती है।
ताजिकी (ताजिक फारसी) ताजिकिस्तान और उजबेकिस्तान में बोली जाती है। यह सिरिलिक लिपि में लिखी जाती है।
निम्नलिखित फारसी से संबंधित कुछ भाषाएं हैं:
लूरी, (या लोरी), दक्षिण पश्चिमी ईरान के प्रांतों में मुख्य रूप से बोली जाती हैं जैसे, लूरिस्तान, कोगिलुये और बोयर-अख़्मद प्रांत, फ़ार्स प्रांत के कुछ पश्चिमी भाग और ख़ूज़स्तान के कुछ भाग।
लारी, (दक्षिणी ईरान में)
टाट, अजरबैजान, रूस, आदि के कुछ हिस्सों में बोली जाती हैं।
ईरानी फ़ारसी में छह स्वर और बाईस व्यंजन है।
फारसी एक अभिश्लेषणी भाषा हैं।
फ़ारसी के पदविज्ञान में प्रत्यय प्रबल हैं, हालाँकि उपसर्गों की एक छोटी संख्या है। क्रिया काल और पहलू व्यक्त कर सकते हैं और वे व्यक्ति और संख्या में विषय के साथ सहमत हैं। फारसी में कोई व्याकरणिक लिंग नहीं है और न ही सर्वनाम प्राकृतिक लिंग के लिए चिह्नित हैं।
फ़ारसी ने अरबी भाषा पर कम प्रभाव डाला है और साथ ही मेसोपोटामिया की अन्य भाषाओं पर और इसकी मूल शब्दावली मध्य फारसी मूल की है, पर नई फारसी में अरबी शाब्दिक मदों की काफी मात्रा है, जिनका फ़ारसीकरण हो गया है। अरबी मूल के फारसी शब्दों में विशेष रूप से इस्लामी शब्द शामिल हैं। अन्य ईरानी, तुर्की और भारतीय भाषाओं में अरबी शब्दावली आम तौर पर नई फ़ारसी से नकल की गई है।
आधुनिक ईरानी फारसी और दारी में पाठ विशाल बहुमत से अरबी लिपि के साथ लिखा जाता है। ताजिक, जो मध्य एशिया की रूसी और तुर्की भाषाओं से प्रभावित है, को कुछ भाषाविदों द्वारा फारसी बोली माना जाता है, जिसे ताजिकिस्तान में सिरिलिक लिपि के साथ लिखा जाता है।
इन्हें भी देखें
फारसी का साहित्य
ईरान की भाषाएँ
विश्व की प्रमुख भाषाएं |
देवनागरी भारतीय उपमहाद्वीप में प्रयुक्त प्राचीन ब्राह्मी लिपि पर आधारित बाएँ से दाएँ आबूगीदा है। यह प्राचीन भारत में पहली से चौथी शताब्दी ईस्वी तक विकसित किया गया था और ७वीं शताब्दी ईस्वी तक नियमित उपयोग में था। देवनागरी लिपि, जिसमें १४ स्वर और ३३ व्यञ्जन सहित ४७ प्राथमिक वर्ण हैं, दुनिया में चौथी सबसे व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली लेखन प्रणाली है, जिसका उपयोग १२० से अधिक भाषाओं के लिए किया जा रहा है।
इस लिपि की शब्दावली भाषा के उच्चारण को दर्शाती है। रोमन लिपि के विपरीत, इस लिपि में अक्षर केस की कोई अवधारणा नहीं है। यह बाएँ से दाएँ लिखा गया है, चौकोर रूपरेखा के भीतर सममित गोल आकृतियों के लिए एक दृढ़ प्राथमिकता है, और एक क्षैतिज रेखा द्वारा पहचाना जा सकता है, जिसे शिरोरेखा के रूप में जाना जाता है, जो पूर्ण अक्षरों के शीर्ष के साथ चलती है। एक सरसरी दृष्टि में, देवनागरी लिपि अन्य भारतीय लिपियों जैसे पूर्वी नागरी लिपि या गुरमुखी लिपि से अलग दिखाई देती है, लेकिन एक निकटतम अवलोकन से पता चलता है कि वे कोण और संरचनात्मक जोर को छोड़कर बहुत समान हैं।
अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) जिसे शिरोरेखा कहते हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल अध्वव लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।
भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग 'हू-ब-हू' उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका विशेष मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या इयास्त ।
इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) में प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं, परन्तु उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं, क्योंकि वे सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं (उर्दू को छोड़कर)। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।
देवनागरी' शब्द की व्युत्पत्ति
देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग "क्यों" प्रारम्भ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णतः निश्चित नहीं है।
(क) 'नागर' अपभ्रंश या गुजराती "नागर" ब्राह्मणों से उसका सम्बन्ध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत सन्दिग्ध है।
(ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम "नंदिनागरी" था। हो सकता है "नन्दिनागर" कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ सम्बन्ध रहा हो।
(ग) यह भी हो सकता है कि "नागर" जन इसमें लिखा करते थे, अत: "नागरी" अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब "देवनागरी" भी कहा गया।
(घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को "देवनागर" कहते थे। कालान्तर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह 'देवनागरी' या 'नागरी' कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।
देवनागरी लिपि का उपयोग करने वाली भाषाएँ
पहाड़ी भाषा में भी हम अधिकतम शब्द देवनागरी लिपी के नज़र आते हैं।
देवनागरी, भारत, नेपाल, तिब्बत और दक्षिण पूर्व एशिया की लिपियों के ब्राह्मी लिपि परिवार का हिस्सा है। गुजरात से कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि नागरी लिपि। ये अभिलेख पहली ईसवी से लेकर चौथी ईसवी के कालखण्ड के हैं। ध्यातव्य है कि नागरी लिपि, देवनागरी से बहुत निकट है और देवनागरी का पूर्वरूप है। अतः ये अभिलेख इस बात के साक्ष्य हैं कि प्रथम शताब्दी में भी भारत में देवनागरी का उपयोग आरम्भ हो चुका था। नागरी, सिद्धम और शारदा तीनों ही ब्राह्मी की वंशज हैं। रुद्रदमन के शिलालेखों का समय प्रथम शताब्दी का समय है और इसकी लिपि की देवनागरी से निकटता पहचानी जा सकती हैं। जबकि देवनागरी का जो वर्तमान मानक स्वरूप है, वैसी देवनागरी का उपयोग १००० ई के पहले आरम्भ हो चुका था।
मध्यकाल के शिलालेखों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि नागरी से सम्बन्धित लिपियों का बड़े पैमाने पर प्रसार होने लगा था। कहीं-कहीं स्थानीय लिपि और नागरी लिपि दोनों में सूचनाएँ अंकित मिलतीं हैं। उदाहरण के लिए, ७वीं-८वीं शताब्दी के पट्टदकल्लु (मन्दिर परिसर) (कर्नाटक) के स्तम्भ पर सिद्धमात्रिका और तेलुगु-कन्नड लिपि के आरम्भिक रूप - दोनों में ही सूचना लिखी हुई है। कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के ज्वालामुखी अभिलेख में शारदा और देवनागरी दोनों में लिखा हुआ है।
७वीं शताब्दी तक देवनागरी का नियमित रूप से उपयोग होना आरम्भ हो गया था और लगभग १००० ई तक देवनागरी का पूर्ण विकास हो गया था।
डॉ॰ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (७००-८०० ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया हैं।
७५८ ई. का राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामगढ़ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है। शिलाहारवंश के गंडारादित्य प्रथम के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है। इसका समय बारहवीं शताब्दी हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के चोलराजा राजेन्द्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है। राष्ट्रकूट राजा इंद्रराज (दसवीं शताब्दी) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है। प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (८९१-९०७) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है।
कनिंघम की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानों सिक्के के रूप में महमूद गजनवी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है। मुहम्मद विनसाम (११९२-१२०५) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है। शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (१२१०-१२३५) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है। सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रज़िया, बहराम शाह, अलाऊद्दीन मसूदशाह, नासिरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, गयासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में राम सिया का नाम अंकित है। गयासुद्दीन तुग़लक़, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से देवनागरी
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि मानी जाती है। लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से "चित्रात्मक", "भावात्मक" और "भावचित्रात्मक" लिपियों के अनंतर "अक्षरात्मक" स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है। पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ। सबसे विकसित अवस्था मानी गई है ध्वन्यात्मक(फोनेटिक) लिपि की। "देवनागरी" को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण- अक्षर (सिलेबिल) हैं- स्वर भी और व्यंजन भी। "क", "ख" आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। अत: ग्रीक, रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि भारत की "ब्राह्मी" या "भारती" वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का "पाणिनि" ने वर्णसमाम्नाय के १४ सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में "पतंजलि" (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित "अकार" स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है। वह तत्वतः वर्ण का अंग नहीं है। इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि इस लिपि की वर्णमाला तत्वतः ध्वन्यात्मक है, अक्षरात्मक नहीं।
देवनागरी की वर्णमाला में १२ स्वर और ३४ व्यञ्जन हैं। शून्य या एक या अधिक व्यञ्जनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
निम्नलिखित स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ी बोली) के लिये दिए गए हैं। संस्कृत में इनके उच्चारण थोड़े अलग होते हैं।
संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अइ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है।
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में
ऋ आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह
ॠ केवल संस्कृत में
ऌ केवल संस्कृत में
ॡ केवल संस्कृत में
अं ङ् , ञ् , ण्, न्, म् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
अँ स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
अः अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिये
ऍ और ऑ इनका उपयोग मराठी और कभीकभी हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का निकटतम उच्चारण तथा लेखन करने के लिए किया जाता है।
जब किसी स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' (अर्थात श्वा का स्वर) माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त् अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क् ख् ग् घ्। जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यञ्जन कहते है। दूसरे शब्दो में- व्यञ्जन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।
नोट करें -
इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्श्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त व्यञ्जन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी, वैदिक संस्कृत, कोंकणी, मेवाड़ी, हरयाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खडी बोली इत्यादि में इसका प्रयोग किया जाता है।
संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था: जीभ की नोक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी आवाज़ करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनि शाखा में कुछ वाक़्यात में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था। यदि यह 'ट्, ठ्, ड्, ढ्' ध्वनियों से पहले न आए तो इसका उच्चारण आजकल हिंदी में तालव्य (श) होता है।
हिन्दी में ण का उच्चारण ज़्यादातर ड़ँ की तरह होता है, यानि कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है। पर संस्कृत में ण का उच्चारण न की तरह बिना ठोकर मारे होता था, अन्तर केवल इतना कि जीभ ण के समय मुँह की छत को छूती है।
नुक़्ता वाले व्यञ्जन
हिन्दी भाषा में मुख्यतः अरबी और फ़ारसी भाषाओं से आये शब्दों को देवनागरी में लिखने के लिये कुछ वर्णों के नीचे नुक़्ता (बिन्दु) लगे वर्णों का प्रयोग किया जाता है (जैसे क़, ज़ आदि)। किन्तु हिन्दी में भी अधिकांश लोग नुक्तों का प्रयोग नहीं करते। इसके अलावा संस्कृत, मराठी, नेपाली एवं अन्य भाषाओं को देवनागरी में लिखने में भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
थ़ का प्रयोग मुख्यतः पहाड़ी भाषाओँ में होता है जैसे की डोगरी (की उत्तरी उपभाषाओं) में "आँसू" के लिए शब्द है "अथ़्रू"। हिन्दी में ड़ और ढ़ व्यञ्जन फ़ारसी या अरबी से नहीं लिए गए हैं, न ही ये संस्कृत में पाये जाये हैं। असल में ये संस्कृत के साधारण ड और ढ के बदले हुए रूप हैं।
विराम-चिह्न, वैदिक चिह्न आदि
देवनागरी अङ्क निम्न रूप में लिखे जाते हैं :
देवनागरी लिपि में दो व्यञ्जन का संयुक्ताक्षर निम्न रूप में लिखा जाता है :
ब्राह्मी परिवार की लिपियों में देवनागरी लिपि में सबसे अधिक संयुक्ताक्षर समर्थित हैं। डिजिटन उपकरणों पर छन्दस फॉण्ट देवनागरी में बहुत संयुक्ताक्षर समर्थन हैं।
पुराने समय में प्रयुक्त हुई जाने वाली देवनागरी के कुछ वर्ण आधुनिक देवनागरी से भिन्न हैं।
देवनागरी लिपि के गुण
भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)।
एक ध्वनि के लिये एक सांकेतिक चिह्न -- जैसा बोलें वैसा लिखें।
लेखन और उच्चारण और में एकरुपता -- जैसा लिखें, वैसे पढ़े (वाचें)।
एक सांकेतिक चिह्न द्वारा केवल एक ध्वनि का निरूपण -- जैसा लिखें वैसा पढ़ें।
उपरोक्त दोनों गुणों के कारण ब्राह्मी लिपि का उपयोग करने वाली सभी भारतीय भाषाएँ 'स्पेलिंग की समस्या' से मुक्त हैं।
स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान (ओष्ठ्य, दन्त्य, तालव्य, मूर्धन्य आदि) को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है। देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में, ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम (फोनेटिक ऑर्डर) में व्यवस्थित है। यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (इपा) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया।
वर्णों का प्रत्याहार रूप में उपयोग : माहेश्वर सूत्र में देवनागरी वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में सजाया गया है। इसमें से किसी वर्ण से आरम्भ करके किसी दूसरे वर्ण तक के वर्णसमूह को दो अक्षर का एक छोटा नाम दे दिया जाता है जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं। प्रत्याहार का प्रयोग करते हुए सन्धि आदि के नियम अत्यन्त सरल और संक्षिप्त ढंग से दिए गये हैं (जैसे, आद् गुणः)
देवनागरी लिपि के वर्णों का उपयोग संख्याओं को निरूपित करने के लिये किया जाता रहा है। (देखिये कटपयादि, भूतसंख्या तथा आर्यभट्ट की संख्यापद्धति)
मात्राओं की संख्या के आधार पर छन्दों का वर्गीकरण : यह भारतीय लिपियों की अद्भुत विशेषता है कि किसी पद्य के लिखित रूप से मात्राओं और उनके क्रम को गिनकर बताया जा सकता है कि कौन सा छन्द है। रोमन, अरबी एवं अन्य में यह गुण अप्राप्य है।
लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि में कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम बी है और ध्वनि ब है)
लेखन और मुद्रण में एकरूपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी में हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं)
देवनागरी, 'स्माल लेटर" और 'कैपिटल लेटर' की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है।
मात्राओं का प्रयोग
अर्ध-अक्षर के रूप की सुगमता : खड़ी पाई को हटाकर - दायें से बायें क्रम में लिखकर तथा अर्द्ध अक्षर को ऊपर तथा उसके नीचे पूर्ण अक्षर को लिखकर - ऊपर नीचे क्रम में संयुक्ताक्षर बनाने की दो प्रकार की रीति प्रचलित है।
अन्य - बायें से दायें, शिरोरेखा, संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, अधिकांश वर्णों में एक उर्ध्व-रेखा की प्रधानता, अनेक ध्वनियों को निरूपित करने की क्षमता आदि।
भारतवर्ष के साहित्य में कुछ ऐसे रूप विकसित हुए हैं जो दायें-से-बायें अथवा बाये-से-दायें पढ़ने पर समान रहते हैं। उदाहरणस्वरूप केशवदास का एक सवैया लीजिये :
मां सस मोह सजै बन बीन, नवीन बजै सह मोस समा।
मार लतानि बनावति सारि, रिसाति वनाबनि ताल रमा ॥
मानव ही रहि मोरद मोद, दमोदर मोहि रही वनमा।
माल बनी बल केसबदास, सदा बसकेल बनी बलमा ॥
इस सवैया की किसी भी पंक्ति को किसी ओर से भी पढिये, कोई अंतर नहीं पड़ेगा।
सदा सील तुम सरद के दरस हर तरह खास।
सखा हर तरह सरद के सर सम तुलसीदास॥
देवनागरी लिपि के दोष
(१) कुल मिलाकर ४०३ टाइप होने के कारण टंकण, मुद्रण में कठिनाई। किन्तु आधुनिक प्रिन्टर तकनीक के लिए यह कोई समस्या नहीं है।
(२) कुछ लोग शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक मानते हैं।
(३) अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ष) बहुत से लोग इनका शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते।
(४) द्विरूप वर्ण (अ, ज्ञ, क्ष, त्र, छ, झ, ण, श) आदि को दो-दो प्रकार से लिखा जाता है।
(५) समरूप वर्ण (ख में र+व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
(६) वर्णों के संयुक्त करने की व्यवस्था एकसमान नहीं है।
(७) अनुस्वार एवं अनुनासिक के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
(८) त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बारबार उठाना पड़ता है।
(९) वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर अनेक लोगों को भ्रम की स्थिति।
(११) इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले, किन्तु उच्चारण वर्ण के बाद।
देवनागरी पर महापुरुषों के विचार
आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पड़े तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिंदुस्तान की एकता में देवनागरी लिपि हिंदी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है। अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की संभावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे।
(१) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है।
आचार्य विनोबा भावे
(२) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है।
सर विलियम जोन्स
(३) मानव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है।
(४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी लिपि अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी।
(६) एक सर्वमान्य लिपि स्वीकार करने से भारत की विभिन्न भाषाओं में जो ज्ञान का भंडार भरा है उसे प्राप्त करने का एक साधारण व्यक्ति को सहज ही अवसर प्राप्त होगा। हमारे लिए यदि कोई सर्व-मान्य लिपि स्वीकार करना संभव है तो वह देवनागरी है।
(७) प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं। इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है।
ए एल बाशम, "द वंडर दैट वाज इंडिया" के लेखक और इतिहासविद्
भारत के लिये देवनागरी का महत्त्व
बहुत से लोगों का विचार है कि भारत में अनेकों भाषाएँ होना कोई समस्या नहीं है जबकि उनकी लिपियाँ अलग-अलग होना बहुत बड़ी समस्या है। न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र (१८४८ - १९१७) ने भारत जैसे विशाल बहुभाषा-भाषी और बहुजातीय राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के उद्देश्य से एक लिपि विस्तार परिषद की स्थापना की थी और परिषद की ओर से १९०७ में देवनागर नामक मासिक पत्र निकाला था जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त अर्थात् सन् १९१७ तक निकलता रहा।
गांधीजी ने १९४० में गुजराती भाषा की एक पुस्तक को देवनागरी लिपि में छपवाया और इसका उद्देश्य बताया था कि मेरा सपना है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की लिपि देवनागरी हो।
इस संस्करण को हिंदी में छापने के दो उद्देश्य हैं। मुख्य उद्देश्य यह है कि मैं जानना चाहता हूँ कि, गुजराती पढ़ने वालों को देवनागरी लिपि में पढ़ना कितना अच्छा लगता है। मैं जब दक्षिण अफ्रीका में था तब से मेरा स्वप्न है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की एक लिपि हो, और वह देवनागरी हो। पर यह अभी भी स्वप्न ही है। एक-लिपि के बारे में बातचीत तो खूब होती हैं, लेकिन वही बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे वाली बात है। कौन पहल करे ! गुजराती कहेगा हमारी लिपि तो बड़ी सुन्दर सलोनी आसान है, इसे कैसे छोडूंगा? बीच में अभी एक नया पक्ष और निकल के आया है, वह ये, कुछ लोग कहते हैं कि देवनागरी खुद ही अभी अधूरी है, कठिन है; मैं भी यह मानता हूँ कि इसमें सुधार होना चाहिए। लेकिन अगर हम हर चीज़ के बिलकुल ठीक हो जाने का इंतज़ार करते रहेंगे तो सब हाथ से जायेगा, न जग के रहोगे न जोगी बनोगे। अब हमें यह नहीं करना चाहिए। इसी आजमाइश के लिए हमने यह देवनागरी संस्करण निकाला है। अगर लोग यह (देवनागरी में गुजराती) पसंद करेंगे तो नवजीवन पुस्तक और भाषाओं को भी देवनागरी में प्रकाशित करने का प्रयत्न करेगा।
इस साहस के पीछे दूसरा उद्देश्य यह है कि हिंदी पढ़ने वाली जनता गुजराती पुस्तक देवनागरी लिपि में पढ़ सके। मेरा अभिप्राय यह है कि अगर देवनागरी लिपि में गुजराती किताब छपेगी तो भाषा को सीखने में आने वाली आधी दिक्कतें तो ऐसे ही कम हो जाएँगी।
इस संस्करण को लोकप्रिय बनाने के लिए इसकी कीमत बहुत कम राखी गयी है, मुझे उम्मीद है कि इस साहस को गुजराती और हिंदी पढ़ने वाले सफल करेंगे।
इसी प्रकार विनोबा भावे का विचार था कि-
हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि देगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि सभी भाषाएँ देवनागरी में भी लिखी जाएं। सभी लिपियां चलें लेकिन साथ-साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये। विनोबा जी "नागरी ही" नहीं "नागरी भी" चाहते थे। उन्हीं की सद्प्रेरणा से १९७५ में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई।
विश्वलिपि के रूप में देवनागरी
बौद्ध संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र नागरी के लिए नया नहीं है। चीन और जापान चित्रलिपि का व्यवहार करते हैं। इन चित्रों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण भाषा सीखने में बहुत कठिनाई होती है। देववाणी की वाहिका होने के नाते देवनागरी भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर चीन और जापान के लिए भी समुचित विकल्प दे सकती है। भारतीय मूल के लोग संसार में जहां-जहां भी रहते हैं, वे देवनागरी से परिचय रखते हैं, विशेषकर मारीशस, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो आदि के लोग। इस तरह देवनागरी लिपि न केवल भारत के अंदर सारे प्रांतवासियों को प्रेम-बंधन में बांधकर सीमोल्लंघन कर दक्षिण-पूर्व एशिया के पुराने वृहत्तर भारतीय परिवार को भी बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय अनुप्राणित कर सकती है तथा विभिन्न देशों को एक अधिक सुचारू और वैज्ञानिक विकल्प प्रदान कर विश्व नागरी की पदवी का दावा इक्कीसवीं सदी में कर सकती है। उस पर प्रसार लिपिगत साम्राज्यवाद और शोषण का माध्यम न होकर सत्य, अहिंसा, त्याग, संयम जैसे उदात्त मानवमूल्यों का संवाहक होगा, असत् से सत्, तमस् से ज्योति तथा मृत्यु से अमरता की दिशा में।देवनागरी एक भारतीय लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएँ लिखी जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे शिरोरेखा कहते हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोङ्कणी, सिन्धी, कश्मीरी, हरियाणवी डोगरी, खस, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली भाषाएँ), तमाङ्ग भाषा, गढ़वाली, बोडो, अङ्गिका, मगही, भोजपुरी, नागपुरी, मैथिली, सन्थाली, राजस्थानी बघेली आदि भाषाएँ और स्थानीय बोलियाँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पञ्जाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। यह दक्षिण एशिया की १७० से अधिक भाषाओं को लिखने के लिए प्रयुक्त हो रही है।
लिपि-विहीन भाषाओं के लिये देवनागरी
दुनिया की कई भाषाओं के लिये देवनागरी सबसे अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि यह यह बोलने की पूरी आजादी देता है। दुनिया की और किसी भी लिपि में यह नहीं हो सकता है। इन्डोनेशिया, विएतनाम, अफ्रीका आदि के लिये तो यही सबसे सही रहेगा। अष्टाध्यायी को देखकर कोई भी समझ सकता है की दुनिया में इससे अच्छी कोई भी लिपि नहीं है। अगर दुनिया पक्षपातरहित हो तो देवनागरी ही दुनिया की सर्वमान्य लिपि होगी क्योंकि यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। अंग्रेजी भाषा में वर्तनी (स्पेलिंग) की विकराल समस्या के कारगर समाधान के लिये देवनागरी पर आधारित देवग्रीक लिपि प्रस्तावित की गयी है।
देवनागरी लिपि में सुधार
देवनागरी का विकास उस युग में हुआ था जब लेखन हाथ से किया जाता था और लेखन के लिए शिलाएँ, ताड़पत्र, चर्मपत्र, भोजपत्र, ताम्रपत्र आदि का ही प्रयोग होता था। किन्तु लेखन प्रौद्योगिकी ने बहुत अधिक विकास किया और प्रिन्टिंग प्रेस, टाइपराइटर आदि से होते हुए वह कम्प्यूटर युग में पहुँच गयी है जहाँ बोलकर भी लिखना सम्भव हो गया है।
जब प्रिंटिंग एवं टाइपिंग का युग आया तो देवनागरी के यंत्रीकरण में कुछ अतिरिक्त समस्याएँ सामने आयीं जो रोमन में नहीं थीं। उदाहरण के लिए रोमन टाइपराइटर में अपेक्षाकृत कम कुंजियों की आवश्यकता पड़ती थी। देवनागरी में संयुक्ताक्षर की अवधारणा होने से भी बहुत अधिक कुंजियों की आवश्यकता पड़ रही थी। ध्यातव्य है कि ये समस्याएँ केवल देवनागरी में नहीं थी बल्कि रोमन और
सिरिलिक को छोड़कर लगभग सभी लिपियों में थी। चीनी और उस परिवार की अन्य लिपियों में तो यह समस्या अपने गम्भीरतम रूप में थी।
इन सामयिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों और मनीषियों ने देवनागरी के सरलीकरण और मानकीकरण पर विचार किया और अपने सुझाव दिए। इनमें से अनेक सुझावों को क्रियान्वित नहीं किया जा सका या उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कम्प्यूटर युग आने से (या प्रिंटिंग की नई तकनीकी आने से) देवनागरी से सम्बन्धित सारी समस्याएँ स्वयं समाप्त हों गयीं।
भारत के स्वाधीनता आंदोलनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त होने के बाद लिपि के विकास व मानकीकरण हेतु कई व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास हुए। सर्वप्रथम बम्बई के महादेव गोविन्द रानडे ने एक लिपि सुधार समिति का गठन किया। तदनन्तर महाराष्ट्र साहित्य परिषद पुणे ने सुधार योजना तैयार की। सन १९०४ में बाल गंगाधर तिलक ने अपने केसरी पत्र में देवनागरी लिपि के सुधार की चर्चा की। प्रिणामस्वरूप देवनागरी के टाइपों की संख्या १९० निर्धारित की गयी और इन्हें 'केसरी टाइप' कहा गया।
आगे चलकर सावरकर बंधुओं ने 'अ' की बारहखड़ी प्रयिग करने का सुझाव दिया ( अर्थात् 'ई' न लिखकर अ पर बड़ी ई की मात्रा लगायी जाय)। डॉ गोरख प्रसाद ने सुझाव दिया कि मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग से रखा जाय। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने अनुस्वार के प्रयोग को व्यापक बनाकर देवनागरी के सरलीकरण के प्रयास किये (पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग )। इसी प्रकार श्रीनिवास का सुझाव था कि महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे ऽ चिह्न लगाया जाय। १९४५ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्रीनिवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय लिया गया।
देवनागरी के विकास में अनेक संस्थागत प्रयासों की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। १९३५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन ने नागरी लिपि सुधार समिति के माध्यम से 'अ' की बारहखड़ी और शिरोरेखा से संबंधित सुधार सुझाए। इसी प्रकार, १९४७ में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने बारहखड़ी, मात्रा व्यवस्था, अनुस्वार व अनुनासिक से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। देवनागरी लिपि के विकास हेतु भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने कई स्तरों पर प्रयास किये हैं। सन् १९६६ में मानक देवनागरी वर्णमाला प्रकाशित की गई और १९६७ में हिंदी वर्तनी का मानकीकरण प्रकाशित किया गया। १९८३ में देवनागरी लिपि तथा हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण प्रकाशित किया गया।
देवनागरी के सम्पादित्र व अन्य सॉफ्टवेयर
इंटरनेट पर हिन्दी के साधन देखिये।
देवनागरी से अन्य लिपियों में रूपान्तरण
आजकल अनेक कम्प्यूटर प्रोग्राम उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से देवनागरी में लिखे पाठ को किसी भी भारतीय लिपि में बदला जा सकता है।
कुछ ऐसे भी कम्प्यूटर प्रोग्राम हैं जिनकी सहायता से देवनागरी में लिखे पाठ को लैटिन, अरबी, चीनी, क्रिलिक, आईपीए (इपा) आदि में बदला जा सकता है। (इक्यू ट्रांसफार्म डेमो)
यूनिकोड के पदार्पण के बाद देवनागरी का रोमनीकरण (रोमणिसेशन) अब अनावश्यक होता जा रहा है, क्योंकि धीरे-धीरे कम्प्यूटर, स्मार्ट फोन तथा अन्य डिजिटल युक्तियों पर देवनागरी को (और अन्य लिपियों को भी) पूर्ण समर्थन मिलने लगा है।
संगणक कुंजीपटल पर देवनागरी
क्क क्च क्त क्त्य क्त्र क्त्व क्थ क्न क्प क्प्र क्फ क्म क्य क्र क्ल क्व क्श क्ष क्ष्ण क्ष्म क्ष्म्य क्ष्य क्ष्व क्स
ग्ग ग्ज ग्ज्य ग्ण ग्द ग्ध ग्ध्य ग्ध्र ग्ध्व ग्न ग्न्य ग्ब ग्भ ग्भ्य ग्म ग्य ग्र ग्र्य ग्ल ग्व
घ्न घ्य घ्र घ्व
ङ्क ङ्क्त ङ्क्ष ङ्क्ष्य ङ्क्ष्व ङ्ख ङ्ख्य ङ्ग ङ्ग्य ङ्ग्र ङ्घ ङ्घ्र ङ्ङ ङ्न ङ्म
च्च च्च्य च्छ च्छ्र च्छ्व च्ञ च्य च्व
ज्ज ज्ज्ञ ज्ज्य ज्ज्व ज्ञ ज्म ज्य ज्र ज्व
ञ्च ञ्छ ञ्ज ञ्ज्ञ ञ्झ ञ्श ञ्श्र ञ्श्व
ट्क ट्ट ट्प ट्य ट्र ट्व ट्श ट्स
ड्ग ड्घ ड्ड ड्भ ड्य ड्र ड्व
ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ड्य ण्ड्र ण्ड्व ण्ण ण्म ण्य ण्व
त्क त्क्र त्क्व त्क्ष त्ख त्त त्त्य त्त्र त्त्व त्थ त्न त्न्य त्प त्प्र त्फ त्म त्म्य त्य त्र त्र्य त्व त्व्य त्स त्स्त त्स्त्र त्स्थ त्स्न त्स्न्य त्स्म त्स्य त्स्र त्स्व
द्ग द्ग्र द्घ द्द द्द्य द्द्र द्द्व द्द्व्य द्ध द्ध्य द्ध्र द्ध्व द्न द्ब द्ब्र द्भ द्भ्य द्भ्र द्म द्य द्र द्र्य द्व द्व्य द्व्र
ध्न ध्म ध्य ध्र ध्व
न्क न्क्र न्क्ल न्क्ष न्ख न्ग न्ग्र न्ग्ल न्घ न्घ्र न्च न्छ न्ज न्झ न्ट न्ड न्त न्त्य न्त्र न्त्र्य न्त्व न्त्स न्त्स्य न्थ न्थ्र न्द न्द्य न्द्र न्द्व न्ध न्ध्य न्ध्र न्न न्न्य न्न्व न्प न्प्र न्फ न्फ्र न्ब न्ब्र न्भ न्भ्र न्म न्म्य न्म्र न्य न्र न्व न्व्य न्स न्स्थ न्स्म न्स्व न्ह
प्त प्त्व प्न प्म प्य प्र प्ल प्स प्स्य
ब्ज ब्द ब्द्व ब्ध ब्ध्व ब्य ब्र ब्व भ्ण भ्य भ्र भ्व
म्ण म्न म्प म्प्य म्ब म्ब्य म्भ म्भ्य म्य म्र म्ल म्व
र्क र्क्य र्क्ष र्क्ष्य र्ख र्ग र्ग्य र्ग्र र्घ र्घ्य र्ङ्क र्ङ्ख र्ङ्ग र्ङ्ग्य र्च र्च्छ र्च्य र्छ र्ज र्ज्ञ र्ज्य र्ज्व र्ण र्ण्य र्त र्त्त र्त्म र्त्य र्त्र र्त्व र्त्स र्त्स्न र्त्स्न्य र्त्स्य र्थ र्थ्य र्द र्द्ध र्द्न र्द्म र्द्य र्द्र र्द्व र्ध र्ध्न र्ध्म र्ध्य र्ध्र र्ध्व र्न र्न्य र्प र्प्य र्ब र्ब्य र्ब्र र्भ र्भ्य र्भ्र र्म र्म्य र्य र्ल र्व र्व्य र्श र्श्य र्श्व र्ष र्ष्ट र्ष्ण र्ष्म र्ष्य र्स र्ह र्ह्य र्ह्र
ल्क ल्क्य ल्ग ल्प ल्ब ल्म ल्य ल्ल ल्व
श्च श्च्य श्छ श्न श्प श्फ श्म श्य श्र श्र्य श्ल श्व श्व्य
ष्क ष्क्र ष्ट ष्ट्य ष्ट्र ष्ट्व ष्ठ ष्ठ्य ष्ण ष्ण्य ष्प ष्प्र ष्म ष्म्य ष्य ष्व
स्क स्त स्त्य स्त्र स्त्र्य स्त्व स्थ स्थ्य स्न स्न्य स्प स्फ स्म स्म्य स्य स्र स्व स्स स्स्व
ह्ण ह्न ह्म ह्य ह्र ह्ल ह्व
इन्हें भी देखें
देवनागरी का इतिहास
देवनागरी यूनिकोड खण्ड
नागरी प्रचारिणी सभा
नागरी संगम पत्रिका
नागरी एवं भारतीय भाषाएँ
गौरीदत्त - देवनागरी के महान प्रचारक
हिन्दी के साधन इंटरनेट पर
ब्राह्मी परिवार की लिपियाँ
पूर्वी नागरी लिपि
भारतीय सङ्ख्या प्रणाली
ब्राह्मी-लिपि परिवार का वृक्ष - इसमें ब्राह्मी से उत्पन्न लिपियों की समय-रेखा का चित्र दिया हुआ है।
पहलवी-ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न दक्षिण-पूर्व एशिया की लिपियों की समय-रेखा
हर ढांचे में आसानी से ढल जाती है नागरी (डॉ॰ जुबैदा हाशिम मुल्ला ; ०२ मई २०१२)
राजभाषा हिन्दी (गूगल पुस्तक ; लेखक - भोलानाथ तिवारी)
अंग्रेजी भी देवनागरी में लिखें
देवनागरी लिपि एवं संगणक (अम्बा कुलकर्णी, विभागाध्यक्ष ,संस्कृत अध्ययन विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय)
ब्राह्मी परिवार की लिपियाँ |
| अल्ट_फ्लैग = क्षैतिज तिरंगे झंडे में ऊपर से नीचे तक गहरी केसरिया, सफेद और हरी क्षैतिज पट्टियाँ हैं। सफेद पट्टी के केंद्र में २४ तीलियों वाला एक नेवी-ब्लू पहिया है।
| अल्ट_कोट = तीन शेर बाएं, दाएं और दर्शक की ओर मुख किए हुए हैं, एक फ्रिज़ के ऊपर एक सरपट दौड़ता घोड़ा, एक २४-स्पोक पहिया और एक हाथी है। नीचे एक आदर्श वाक्य है: "सत्यमेव जयते"।
| ओदर_सिमबोल = जन गण मन भारत का राष्ट्रीय गान है, जिसके शब्दों में सरकार अवसर पड़ने पर परिवर्तन कर सकती है; और गीत वंदे मातरम, जिसने भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, को जन गण मन के साथ समान रूप से सम्मानित किया जाएगा और इसके साथ समान दर्जा दिया जाएगा।}}}}
| अल्ट_मैप = भारत पर केन्द्रित ग्लोब की छवि, जिसमें भारत पर प्रकाश डाला गया है।
| मैप_कैप्शन = भारत द्वारा नियंत्रित क्षेत्र को गहरे हरे रंग में दिखाया गया है; दावा किया गया लेकिन नियंत्रित नहीं किया गया क्षेत्र हल्के हरे रंग में दिखाया गया है
| कैपिटल = नयी दिल्ली
| डेमोनीम = भारतीय
| गवर्नमेंट_लिपी = संघीय संसदीय संवैधानिक गणराज्य
| गिनी = ३५.७
| हदी = ०.६३३
| करेंसी = भारतीय रुपया ()
भारत (आधिकारिक नाम: भारत गणराज्य, ) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। भारत भौगोलिक दृष्टि से विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश है, जबकि जनसंख्या के दृष्टिकोण से सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन (तिब्बत), नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। भारतीय महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर में हिमालय पर्वत तथा दक्षिण में भारतीय महासागर स्थित है। दक्षिण-पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में अरब सागर है।
आधुनिक मानव या होमो सेपियंस अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में ५५,००० साल पहले आये थे। १,००० वर्ष पहले ये सिंधु नदी के पश्चिमी हिस्से की तरफ बसे हुए थे जहाँ से इन्होने धीरे धीरे पलायन किया और सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए। १,२०० ईसा पूर्व संस्कृत भाषा संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हुए थी और तब तक यहाँ पर हिंदू धर्म का उद्धव हो चुका था और ऋग्वेद की रचना भी हो चुकी थी। इसी समय बौद्ध एवं जैन धर्म उत्पन्न हो रहे होते हैं।
प्रारंभिक राजनीतिक एकत्रीकरण ने गंगा बेसिन में स्थित मौर्य और गुप्त साम्राज्यों को जन्म दिया।
उनका समाज विस्तृत सृजनशीलता से भरा हुआ था।
प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में, ईसाई धर्म, इस्लाम, यहूदी धर्म और पारसी धर्म ने भारत के दक्षिणी और पश्चिमी तटों पर जड़ें जमा लीं। मध्य एशिया से मुस्लिम सेनाओं ने भारत के उत्तरी मैदानों पर लगातार अत्याचार किया, अंततः दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई और उत्तर भारत को मध्यकालीन इस्लाम साम्राज्य में मिला लिया गया।
१५ वीं शताब्दी में, विजयनगर साम्राज्य ने दक्षिण भारत में एक लंबे समय तक चलने वाली समग्र हिंदू संस्कृति बनाई। पंजाब में सिख धर्म की स्थापना हुई। धीरे-धीरे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का विस्तार हुआ, जिसने भारत को औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया तथा अपनी संप्रभुता को भी मजबूत किया। ब्रिटिश राज शासन १८५८ में शुरू हुआ। धीरे धीरे एक प्रभावशाली राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हुआ जिसे अहिंसक विरोध के लिए जाना गया और ब्रिटिश शासन को समाप्त करने का प्रमुख कारक बन गया। १९४७ में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य को दो स्वतंत्र प्रभुत्वों में विभाजित किया गया, भारतीय अधिराज्य तथा पाकिस्तान अधिराज्य, जिन्हे धर्म के आधार पर विभाजित किया गया।
१९५० से भारत एक संघीय गणराज्य है। भारत की जनसंख्या १९५१ में ३६.१ करोड़ से बढ़कर 20११ में १2१.१ करोड़ हो गई। प्रति व्यक्ति आय $६४ से बढ़कर $१,४९८ हो गई और इसकी साक्षरता दर १६.६% से ७४% हो गई। भारत एक तेजी से बढ़ती हुई प्रमुख अर्थव्यवस्था और सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं का केंद्र बन गया है। अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत ने उल्लेखनीय तथा अद्वितीय प्रगति की। भारतीय फिल्में, संगीत और आध्यात्मिक शिक्षाएँ वैश्विक संस्कृति में विशेष भूमिका निभाती हैं। भारत ने गरीबी दर को काफी हद तक कम कर दिया है। भारत देश परमाणु बम रखने वाला देश है। कश्मीर तथा भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन सीमा पर भारत का पाकिस्तान तथा चीन से विवाद चल रहा है। लैंगिक असमानता, बाल शोषण, बाल कुपोषण, गरीबी, भ्रष्टाचार, प्रदूषण इत्यादि भारत के सामने प्रमुख चुनौतियाँ है। 2१.४% क्षेत्र पर वन है। भारत के वन्यजीव, जिन्हें परंपरागत रूप से भारत की संस्कृति में सहिष्णुता के साथ देखा गया है, इन जंगलों और अन्य जगहों पर संरक्षित आवासों में निवास करते हैं।
१२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गाँधी के अस्थि कलश जिन १२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
भारत के दो आधिकारिक नाम हैं- हिंदी में भारत और अंग्रेजी में इंडिया (इंडिया)। इंडिया नाम की उत्पत्ति सिंधु नदी के अंग्रेजी नाम "इंडस" से हुई है। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार भारत नाम मनु के वंशज तथा ऋषभदेव के सबसे बड़े बेटे एक प्राचीन सम्राट भरत के नाम से लिया गया है। एक व्युत्पत्ति के अनुसार भारत (भा + रत) शब्द का मतलब है आंतरिक प्रकाश या विदेक-रूपी प्रकाश में लीन। एक तीसरा नाम हिंदुस्तान भी है जिसका अर्थ हिंद की भूमि, यह नाम विशेषकर अरब तथा ईरान में प्रचलित हुआ। बहुत पहले भारत का एक मुँहबोला नाम सोने की चिड़िया भी प्रचलित था। संस्कृत महाकाव्य महाभारत में वर्णित है की वर्तमान उत्तर भारत का क्षेत्र भारत के अंतर्गत आता था। भारत को कई अन्य नामों इंडिया, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिंद, हिंदुस्तान, जंबूद्वीप आदि से भी जाना जाता है।
लगभग ५५,००० वर्ष पहले (प्राचीन भारत) आधुनिक मानव या होमो सेपियंस अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचे थे। दक्षिण एशिया में ज्ञात मानव का प्राचीनतम अवशेष ३०,००० वर्ष पुराना है। भीमबेटका, मध्य प्रदेश की गुफाएँ भारत में मानव जीवन का प्राचीनतम प्रमाण हैं जो आज भी देखने को मिलता है। प्रथम स्थाई बस्तियों ने 9००० वर्ष पूर्व स्वरुप लिया था। ६,५०० ईसा पूर्व तक आते आते मनुष्य ने खेती करना, जानवरों को पालना तथा घरों का निर्माण करना शुरू कर दिया था, जिसका अवशेष मेहरगढ़ में मिला था जो कि अभी पाकिस्तान में है। यह धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में विकसित हुए, जो की दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन शहरी सभ्यता है। यह 2६00 ईसा पूर्व और १९०० ईसा पूर्व के मध्य अपने चरम पर थी। यह वर्तमान पश्चिम भारत तथा पाकिस्तान में स्थित है। यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, और कालीबंगा जैसे शहरों के आसपास केंद्रित थी और विभिन्न प्रकार के निर्वाह पर निर्भर थी, यहाँ व्यापक बाजार था तथा शिल्प उत्पादन होता था।
२००० से ५०० ईसा पूर्व तक ताम्र पाषाण युग संस्कृति से लौह युग का आगमन हुआ। इसी युग को हिंदू धर्म से जुड़े प्राचीनतम धर्म ग्रंथ, वेदों का रचनाकाल माना जाता है तथा पंजाब तथा गंगा के ऊपरी मैदानी क्षेत्र को वैदिक संस्कृति का निवास स्थान माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है की इसी युग में उत्तर-पश्चिम से भारतीय-आर्यन का आगमन हुआ था। इसी अवधि में जाति प्रथा भी प्रारंभ हुई थी।
वैदिक सभ्यता में ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी में गंगा के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम भारत में छोटे-छोटे राज्य तथा उनके प्रमुख मिल कर 1६ कुलीन और राजशाही में सम्मिलित हुए जिन्हे महाजनपद के नाम से जाना जाता है। बढ़ते शहरीकरण के बीच दो अन्य स्वतंत्र अ-वैदिक धर्मों का उदय हुआ। महावीर के जीवन काल में जैन धर्म अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म ने मध्यम वर्ग के अनुयायिओं को छोड़कर अन्य सभी वर्ग के लोगों को आकर्षित किया; इसी काल में भारत का इतिहास लेखन प्रारंभ हुआ। बढ़ती शहरी संपदा के युग में, दोनों धर्मों ने त्याग को एक आदर्श माना, और दोनों ने लंबे समय तक चलने वाली मठ परंपराओं की स्थापना की। राजनीतिक रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक मगध साम्राज्य ने अन्य राज्यों को अपने अंदर मिला कर मौर्य साम्राज्य के रूप में उभरा। मगध ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे भारत पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया लेकिन कुछ अन्य प्रमुख बड़े राज्यों ने इसके प्रमुख क्षेत्रों को अलग कर लिया। मौर्य राजाओं को उनके साम्राज्य की उन्नति के लिए तथा उच्च जीवन सतर के लिए जाना जाता है क्योंकि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की स्थापना की तथा शस्त्र मुक्त सेना का निर्माण किया।१८० ईसवी के आरंभ से मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश स्थापित हुए। तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का स्वर्णिम काल कहलाया।
तमिल के संगम साहित्य के अनुसार ईसा पूर्व २०० से २०० ईस्वी तक दक्षिण प्रायद्वीप पर चेर राजवंश, चोल राजवंश तथा पांड्य राजवंश का शासन था जिन्होंने बड़े सतर पर भारत और रोम के व्यापारिक संबंध और पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के साम्राज्यों के साथ व्यापर किया। चौथी-पाँचवी शताब्दी के बीच गुप्त साम्राज्य ने वृहद् गंगा के मैदानी क्षेत्र में प्रशासन तथा कर निर्धारण की एक जटिल प्रणाली बनाई; यह प्रणाली बाद के भारतीय राज्यों के लिए एक आदर्श बन गई। गुप्त साम्राज्य में भक्ति पर आधारित हिन्दू धर्म का प्रचलन हुई। विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, प्राचीन प्रौद्योगिकी, धर्म, तथा दर्शन इन्हीं राजाओं के शासनकाल में फले-फूले, जो शास्त्रीय संस्कृत में रचा गया।
६०० से १२०० के बीच का समय क्षेत्रीय राज्यों में सांस्कृतिक उत्थान के युग के रूप में जाना जाता है। कन्नौज के राजा हर्ष ने ६०६ से ६४७ तक गंगा के मैदानी क्षेत्र में शासन किया तथा उसने दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार करने का प्रयास किया किन्तु दक्क्न के चालुक्यों ने उसे हरा दिया। उसके उत्तराधिकारी ने पूर्व की और राज्य का विस्तार करना चाहा लेकिन बंगाल के पाल शासकों से उसे हारना पड़ा। जब चालुक्यों ने दक्षिण की और विस्तार करने का प्रयास किया तो पल्ल्वों ने उन्हें पराजित कर दिया, जिनका सुदूर दक्षिण में पांड्यों तथा चोलों द्वारा उनका विरोध किया जा रहा था। इस काल में कोई भी शासक एक साम्राज्य बनाने में सक्षम नहीं था और लगातार मूल भूमि की तुलना में दुसरे क्षेत्र की ओर आगे बढ़ने का क्रम जारी था। इस अवधि में नये शासन के कारण जाति में बांटे गए सामान्य कृषकों के लिए कृषि करना और सहज हो गया। जाति व्यवस्था के परिणामस्वरूप स्थानीय मतभेद होने लगे।
६ और ७ वीं शताब्दी में, पहली भक्ति भजन तमिल भाषा में बनाया गया था। पूरे भारत में उनकी नकल की गई और हिंदू धर्म के पुनरुत्थान और इसने उपमहाद्वीप की सभी आधुनिक भाषाओं के विकास का नेतृत्व किया। राजघरानो ने लोगों को राजधानी की आकर्षित किया। शहरीकरण के साथ शहरों में बड़े स्तर पर मंदिरों का निर्माण किया। दक्षिण भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था का प्रभाव दक्षिण एशिया के देशों म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया और जावा में देखा जा सकता है।
१० वीं शताब्दी के बाद घुमन्तु मुस्लिम वंशों ने जातियता तथा धर्म द्वारा संघठित तेज घोड़ों से युक्त बड़ी सेना के द्वारा उत्तर-पश्चिमी मैदानों पर बार बार आकर्मण किया, अंततः १२०६ इस्लामीक दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई। उन्हें उतर भारत को अधिक नियंत्रित करना था तथा दक्षिण भारत पर आकर्मण करना था। भारतीय कुलीन वर्ग के विघटनकारी सल्तनत ने बड़े पैमाने पर गैर-मुस्लिमों को स्वयं के रीतिरिवाजों पर छोड़ दिया। १३ वीं शताब्दी में मंगोलों द्वारा किये के विनाशकारी आकर्मण से भारत की रक्षा की। सल्तनत के पतन के कारण स्वशासित विजयनगर साम्राज्य का मार्ग प्रशस्त हुआ। एक मजबूत शैव परंपरा और सल्तनत की सैन्य तकनीक पर निर्माण करते हुए साम्राज्य ने भारत के विशाल भाग पर शासन किया और इसके बाद लंबे समय तक दक्षिण भारतीय समाज को प्रभावित किया।
प्रारंभिक आधुनिक भारत
१७वीं शताब्दी के मध्यकाल में पुर्तगाल, डच, फ्रांस, ब्रिटेन सहित अनेक यूरोपीय देशों, जो भारत से व्यापार करने के इच्छुक थे, उन्होंने देश की आतंरिक शासकीय अराजकता का फायदा उठाया हालांकि अंग्रेजों ने व्यापार करने के बहाने से देश में आए और आंतरिक विद्रोह करवाने की कोशिश की ताकि वे आपस में लड़ाई करवाकर भारतीयों को कमजोर कर सकें । इसमें वे कामयाब हुए और १८४० तक लगभग संपूर्ण देश पर शासन करने में सफल हुए। वास्तव में ये शासन की दृष्टि से नहीं आए बल्कि वे देश की भोलीभाली जनता को लूटना चाहते थे । क्योंकि भारत देश में बाहर से आया हर कोई मेहमान होता है और उसे वे देवता का दर्जा देते हैं । इसी का फायदा अंग्रेजों ने उठाया और धीरे धीरे आंतरिक अशांति इस प्रकार फैलाई की सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था को बदला जो की दुनियां में सबसे अच्छी व्यवस्था थी । और वर्ण व्यवस्था को जाती वाद में बदल दिया गया । ऊंची नीची जातियों में विभाजन किया । मुस्लिम धर्म वालों को धक्के से गाय माता की हत्या करवाने में लगा दिया । और फिर हिंदुओं को बोला की देखो आपके मुस्लिम भाई , आपकी माता की हत्या कर रहे हैं । ये तो आपके भाई कहलाने के लायक भी नहीं है । इस प्रकार देखते ही देखते दंगा फैला दिया । लेकिन१८५७ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध असफल विद्रोह, जो भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम से भी जाना जाता है, के बाद भारत का अधिकांश भाग सीधे अंग्रेजी शासन के प्रशासनिक नियंत्रण में आ गया।
बीसवी सदी के प्रारम्भ में आधुनिक शिक्षा के प्रसार और विश्वपटल पर बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के चलते भारत में एक बौद्धिक आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसने सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर अनेक परिवर्तनों एवम आन्दोलनों की नीव रखी। १८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक गतिमान स्वरूप दिया। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लम्बे समय तक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये विशाल अहिंसावादी संघर्ष चला, जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी, जो आधिकारिक रूप से आधुनिक भारत के 'राष्ट्रपिता' के रूप में संबोधित किये जाते हैं, इसी सदी में भारत के सामाजिक आन्दोलन, जो सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भी विशाल अहिंसावादी एवं क्रांतिवादी संघर्ष चला, जिसका नेतृत्व डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर ने किया, जो आधुनिक भारत के निर्माता, संविधान निर्माता' एवं दलितों के मसिहा के रूप में संबोधित किये जाते है। इसके साथ-साथ चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, आदि के नेतृत्व में चले क्रांतिकारी संघर्ष के फलस्वरुप १५ अगस्त, १९४७ भारत ने अंग्रेजी शासन से पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्त की। तदुपरान्त २६ जनवरी, १९५० को भारत एक गणराज्य बना।
एक बहुजातीय तथा बहुधार्मिक राष्ट्र होने के कारण भारत को समय-समय पर साम्प्रदायिक तथा जातीय विद्वेष का शिकार होना पड़ा है। क्षेत्रीय असंतोष तथा विद्रोह भी हालाँकि देश के अलग-अलग हिस्सों में होते रहे हैं, पर इसकी धर्मनिरपेक्षता तथा जनतांत्रिकता, केवल १९७५-७७ को छोड़, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी, अक्षुण्ण रही है।
भारत के पड़ोसी राष्ट्रों के साथ अनसुलझे सीमा विवाद हैं। इसके कारण इसे छोटे पैमानों पर युद्ध का भी सामना करना पड़ा है। १९६२ में चीन के साथ, तथा १९४७, १९६५, १९७१ एवं १९९९ में पाकिस्तान के साथ लड़ाइयाँ हो चुकी हैं।
भारत गुटनिरपेक्ष आन्दोलन तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक सदस्य देशों में से एक है।
१९७४ में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था जिसके बाद १९९८ में ५ और परीक्षण किये गये। १९९० के दशक में किये गये आर्थिक सुधारीकरण की बदौलत आज देश सबसे तेज़ी से विकासशील राष्ट्रों की सूची में आ गया है।
भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ की अनुकृति है जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। भारत सरकार ने यह चिह्न २६ जनवरी १९५० को अपनाया। उसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा सिंह दृष्टिगोचर नहीं है। राष्ट्रीय चिह्न के नीचे देवनागरी लिपि में 'सत्यमेव जयते' अंकित है।
भारत के राष्ट्रीय झंडे में तीन समांतर आयताकार पट्टियाँ हैं। ऊपर की पट्टी केसरिया रंग की, मध्य की पट्टी सफेद रंग की तथा नीचे की पट्टी गहरे हरे रंग की है। झंडे की लंबाई चौड़ाई का अनुपात ३:२ का है। सफेद पट्टी पर चर्खे की जगह सारनाथ के सिंह स्तंभ वाले धर्मचक्र अनुकृति अशोक चक्र है जिसका रंग गहरा नीला है। चक्र का व्यास लगभग सफेद पट्टी के चौड़ाई जितना है और उसमें २४ अरे हैं।
कवि रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित 'जन-गण-मन' के प्रथम अंश को भारत के राष्ट्रीय गान के रूप में २४ जनवरी १९५० ई. को अपनाया गया। साथ-साथ यह भी निर्णय किया गया कि बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा लिखित 'वंदे मातरम्' को भी 'जन-गण-मन' के समान ही दर्जा दिया जाएगा, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में 'वंदे मातरम्' गान जनता का प्रेरणास्रोत था।
भारत सरकार ने देश भर के लिए राष्ट्रीय पंचांग के रूप में शक संवत् को अपनाया है। इसका प्रथम मास 'चैत' है और वर्ष सामान्यत: ३६५ दिन का है। इस पंचांग के दिन स्थायी रूप से अंग्रेजी पंचांग के मास दिनों के अनुरूप बैठते हैं। सरकारी कार्यो के लिए ग्रेगरी कैलेंडर (अंग्रेजी कैलेंडर) के साथ-साथ राष्ट्रीय पंचांग का भी प्रयोग किया जाता है।
भारत का संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित करता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसकी द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली की संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है। भारत का प्रशासन संघीय ढांचे के अन्तर्गत चलाया जाता है, जिसके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार और राज्य स्तर पर राज्य सरकारें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा संविधान में दी गई रूपरेखा के आधार पर होता है। वर्तमान में भारत में २८ राज्य और ८ केंद्र-शासित प्रदेश हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में, स्थानीय प्रशासन को राज्यों की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत का सरकारी ढाँचा, जिसमें केंद्र राज्यों की तुलना में ज़्यादा सशक्त है, उसे आमतौर पर अर्ध-संघीय (सेमि-फ़ेडेरल) कहा जाता रहा है, पर १९९० के दशक के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों के कारण इसकी रूपरेखा धीरे-धीरे और अधिक संघीय (फ़ेडेरल) होती जा रही है।
इसके शासन में तीन मुख्य अंग हैं:- न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका।
व्यवस्थापिका संसद को कहते हैं, जिसके दो सदन हैं उच्चसदन राज्यसभा, अथवा राज्यपरिषद् और निम्नसदन लोकसभा. राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं जबकि लोकसभा में ५४५। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके सदस्यों का चुनाव, अप्रत्यक्ष विधि से ६ वर्षों के लिये होता है। राज्यसभा के ज़्यादातर सदस्यों का चयन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है, और हर दूसरे साल राज्य सभा के एक तिहाई सदस्य पदमुक्त हो जाते हैं। लोकसभा के ५४३ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष विधि से, ५ वर्षों की अवधि के लिये आम चुनावों के माध्यम से किया जाता है जिनमें १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीय नागरिक मतदान कर सकते हैं।
कार्यपालिका के तीन अंग हैं राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और मंत्रिमंडल। राष्ट्रपति, जो राष्ट्र का प्रमुख है, की भूमिका अधिकतर आनुष्ठानिक ही है। उसके दायित्वों में संविधान का अभिव्यक्तिकरण, प्रस्तावित कानूनों (विधेयक) पर अपनी सहमति देना और अध्यादेश जारी करना प्रमुख हैं। वह भारतीय सेनाओं का मुख्य सेनापति भी है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को एक अप्रत्यक्ष मतदान विधि द्वारा ५ वर्षों के लिये चुना जाता है। प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख है और कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ उसी के पास होती हैं। इसका चुनाव राजनैतिक पार्टियों या गठबन्धन के द्वारा प्रत्यक्ष विधि से संसद में बहुमत प्राप्त करने पर होता है। बहुमत बने रहने की स्थिति में इसका कार्यकाल ५ वर्षों का होता है। संविधान में किसी उप-प्रधानमंत्री का प्रावधान नहीं है पर समय-समय पर इसमें फेरबदल होता रहा है। मंत्रिमंडल का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। मंत्रिमंडल के प्रत्येक मंत्री को संसद का सदस्य होना अनिवार्य है। कार्यपालिका संसद को उत्तरदायी होती है, और प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमण्डल लोक सभा में बहुमत के समर्थन के आधार पर ही अपने कार्यालय में बने रह सकते हैं।
भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका का ढाँचा त्रिस्तरीय है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय, जिसके प्रधान प्रधान न्यायाधीश है; २४ उच्च न्यायालय और बहुत सारी निचली अदालतें हैं। सर्वोच्च न्यायालय को अपने मूल न्यायाधिकार (ओरिजिनल ज्युरिडिक्शन), और उच्च न्यायालयों के ऊपर अपीलीय न्यायाधिकार के मामलों, दोनो को देखने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के मूल न्ययाधिकार में मौलिक अधिकारों के हनन के इलावा राज्यों और केंद्र, और दो या दो से अधिक राज्यों के बीच के विवाद आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को राज्य और केंद्रीय कानूनों को असंवैधानिक ठहराने के अधिकार है। भारत में २४ उच्च न्यायालयों के अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। संविधान ने न्यायपालिका को विस्तृत अधिकार दिये हैं, जिनमें संविधान की अंतिम व्याख्या करने का अधिकार भी सम्मिलित है।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। बहुदलीय प्रणाली वाले इस संसदीय गणराज्य में छ: मान्यता-प्राप्त राष्ट्रीय पार्टियां, और ४० से भी ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जिसकी नीतियों को केंद्रीय-दक्षिणपंथी या रूढिवादी माना जाता है, के नेतृत्व में केंद्र में सरकार है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हैं। अन्य पार्टियों में सबसे बडी भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस (कॉंग्रेस) है, जिसे भारतीय राजनीति में केंद्र-वामपंथी और उदार माना जाता है। २००४ से २०१४ तक केंद्र में मनमोहन सिंह की गठबन्धन सरकार का सबसे बड़ा हिस्सा कॉंग्रेस पार्टी का था। १९५० में गणराज्य के घोषित होने से १९८० के दशक के अन्त तक कॉंग्रेस का संसद में निरंतर बहुमत रहा। पर तब से राजनैतिक पटल पर भाजपा और कॉंग्रेस को अन्य पार्टियों के साथ सत्ता बांटनी पडी है। १९८९ के बाद से क्षेत्रीय पार्टियों के उदय ने केंद्र में गठबंधन सरकारों के नये दौर की शुरुआत की है।
गणराज्य के पहले तीन चुनावों (१९५१५२, १९५७, १९६२) में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कॉंग्रेस ने आसान जीत पाई। १९६४ में नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिये प्रधानमंत्री बने, और १९६६ में उनकी खुद की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। १९६७ और १९७१ के चुनावों में जीतने के बाद १९७७ के चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पडा। १९७५ में प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा कर दी थी। इस घोषणा और इससे उपजी आम नाराज़गी के कारण १९७७ के चुनावों में नवगठित जनता पार्टी ने कॉंग्रेस को हरा दिया और पूर्व में कॉंग्रेस के सदस्य और नेहरु के केबिनेट में मंत्री रहे मोरारजी देसाई के नेतृत्व में नई सरकार बनी। यह सरकार सिर्फ़ तीन साल चली, और १९८० में हुए चुनावों में जीतकर इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं। १९८४ में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी कॉंग्रेस के नेता और प्रधानमंत्री बने। १९८४ के चुनावों में ज़बरदस्त जीत के बाद १९८९ में नवगठित जनता दल के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय मोर्चा ने वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई, जो केवल दो साल चली। १९९१ के चुनावों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, परंतु कॉंग्रेस सबसे बडी पार्टी बनी, और पी वी नरसिंहा राव के नेतृत्व में अल्पमत सरकार बनी जो अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रही।
१९९६ के चुनावों के बाद दो साल तक राजनैतिक उथल पुथल का वक्त रहा, जिसमें कई गठबंधन सरकारें आई और गई। १९९६ में भाजपा ने केवल १३ दिन के लिये सरकार बनाई, जो समर्थन ना मिलने के कारण गिर गई। उसके बाद दो संयुक्त मोर्चे की सरकारें आई जो कुछ लंबे वक्त तक चली। ये सरकारें कॉंग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी थीं। १९९८ के चुनावों के बाद भाजपा एक सफल गठबंधन बनाने में सफल रही। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग, या एनडीए) नाम के इस गठबंधन की सरकार पहली ऐसी सरकार बनी जिसने अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किय। २००४ के चुनावों में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, पर कॉंग्रेस सबसे बडी पार्टी बनके उभरी, और इसने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग, या यूपीए) के नाम से नया गठबंधन बनाया। इस गठबंधन ने वामपंथी और गैर-भाजपा सांसदों के सहयोग से मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पाँच साल तक शासन चलाया। २००९ के चुनावों में यूपीए और अधिक सीटें जीता जिसके कारण यह साम्यवादी (कॉम्युनिस्ट) दलों के बाहरी सहयोग के बिना ही सरकार बनाने में कामयाब रहा। इसी साल मनमोहन सिंह जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे पहले प्रधानमंत्री बने जिन्हे दो लगातार कार्यकाल के लिये प्रधानमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ। २०१४ के चुनावों में १९८४ के बाद पहली बार किसी राजनैतिक पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ, और भाजपा ने गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाई।
लगभग १३ लाख सक्रिय सैनिकों के साथ, भारतीय सेना दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी है। भारत की सशस्त्र सेना में एक थलसेना, नौसेना, वायु सेना और अर्द्धसैनिक बल, तटरक्षक, जैसे सामरिक और सहायक बल विद्यमान हैं। भारत के राष्ट्रपति भारतीय सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर है।
१९४७ में अपनी स्वतंत्रता के बाद से, भारत ने ज्यादातर देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा है। १९५० के दशक में, भारत ने दृढ़ता से अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय कालोनियों की स्वतंत्रता का समर्थन किया और गुट निरपेक्ष आंदोलन में एक अग्रणी भूमिका निभाई। १९८० के दशक में भारत ने आमंत्रण पर दो पड़ोसी देशों में संक्षिप्त सैन्य हस्तक्षेप किया। मालदीव, श्रीलंका और अन्य देशों में ऑपरेशन कैक्टस में भारतीय शांति सेना को भेजा गया। हालाँकि, भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ एक तनावपूर्ण संबंध बने रहे और दोनों देशों में चार बार युध्द (१९४७, १९६५, १९७१ और १९९९ में) हुए हैं। कश्मीर विवाद इन युद्धों के प्रमुख कारण था, सिवाय १९७१ के, जो कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में नागरिक अशांति के लिए किया गया था। १९६२ के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ १९६५ के युद्ध के बाद भारत ने अपनी सैन्य और आर्थिक स्थिति का विकास करने का प्रयास किया। सोवियत संघ के साथ अच्छे संबंधों के कारण सन् १९६० के दशक से, सोवियत संघ भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा।
आज रूस के साथ सामरिक संबंधों को जारी रखने के अलावा, भारत विस्तृत इजरायल और फ्रांस के साथ रक्षा संबंध रखा है। हाल के वर्षों में, भारत में क्षेत्रीय सहयोग और विश्व व्यापार संगठन के लिए एक दक्षिण एशियाई एसोसिएशन में प्रभावशाली भूमिका निभाई है। १०,००० राष्ट्र सैन्य और पुलिस कर्मियों को चार महाद्वीपों भर में पैंतीस संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में सेवा प्रदान की है। भारत भी विभिन्न बहुपक्षीय मंचों, खासकर पूर्वी एशिया शिखर बैठक और जी-८५ बैठक में एक सक्रिय भागीदार रहा है। आर्थिक क्षेत्र में भारत दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते है। अब भारत एक "पूर्व की ओर देखो नीति" में भी संयोग किया है। यह "आसियान" देशों के साथ अपनी भागीदारी को मजबूत बनाने के मुद्दों की एक विस्तृत शृंखला है जिसमे जापान और दक्षिण कोरिया ने भी मदद किया है। यह विशेष रूप से आर्थिक निवेश और क्षेत्रीय सुरक्षा का प्रयास है।
१९७४ में भारत अपनी पहले परमाणु हथियारों का परीक्षण किया और आगे १९९८ में भूमिगत परीक्षण किया। जिसके कारण भारत पर कई तरह के प्रतिबन्ध भी लगाये गए। भारत के पास अब तरह-तरह के परमाणु हथियारें है। भारत अभी रूस के साथ मिलकर पाँचवीं पीढ़ के विमान बना रहे है।
हाल ही में, भारत का संयुक्त राष्ट्रे अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ आर्थिक, सामरिक और सैन्य सहयोग बढ़ गया है। २००८ में, भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच असैनिक परमाणु समझौते हस्ताक्षर किए गए थे। हालाँकि उस समय भारत के पास परमाणु हथियार था और परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के पक्ष में नहीं था यह अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) से छूट प्राप्त है, भारत की परमाणु प्रौद्योगिकी और वाणिज्य पर पहले प्रतिबंध समाप्त. भारत विश्व का छठा वास्तविक परमाणु हथियार राष्ट्रत बन गया है। एनएसजी छूट के बाद भारत भी रूस, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम और कनाडा सहित देशों के साथ असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर करने में सक्षम है।
वित्त वर्ष २०१४-१५ के केन्द्रीय अंतरिम बजट में रक्षा आवंटन में १० प्रतिशत बढ़ोत्तरी करते हुए २२४,००० करोड़ रूपए आवंटित किए गए। २०१३-१४ के बजट में यह राशि २०३,६७२ करोड़ रूपए थी। २०१२१३ में रक्षा सेवाओं के लिए १,९३,४०७ करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था, जबकि 20११20१2 में यह राशि १,६४,4१५ करोइ़ थी। साल 20११ में भारतीय रक्षा बजट ३६.०३ अरब अमरिकी डॉलर रहा (या सकल घरेलू उत्पाद का १,८३%)। २००८ के एक सिरपी रिपोर्ट के अनुसार, भारत क्रय शक्ति के मामले में भारतीय सेना के सैन्य खर्च ७२.७ अरब अमेरिकी डॉलर रहा। साल 20११ में भारतीय रक्षा मंत्रालय के वार्षिक रक्षा बजट में ११.६ प्रतिशत की वृद्धि हुई, हालाँकि यह पैसा सरकार की अन्य शाखाओं के माध्यम से सैन्य की ओर जाते हुए पैसों में शमिल नहीं होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़े हथियार आयातक है।
२०१४ में नरेन्द्र मोदी नीत भाजपा सरकार ने मेक इन इण्डिया के नाम से भारत में निर्माण अभियान की शुरुआत की और भारत को हथियार आयातक से निर्यातक बनाने के लक्ष्य की घोषणा की। रक्षा निर्माण के द्वार निजी कंपनियों के लिए भी खोल दिए गए और भारत के कई उद्योग घरानों ने बड़े पैमाने पर इस क्षेत्र में पूंजी निवेश की योजनाएँ घोषित की। फ्राँस की डसॉल्ट एविएशन ने अंबानी समूह के साथ साझेदारी में रफेल लड़ाकू विमान, तथा अमेरिका की लॉकहीड मार्टिन ने टाटा समूह के साथ साझेदारी लड़ाकू विमान एफ-१६ का निर्माण भारत में प्रारंभ करने की घोषणाएँ की हैं। अन्य प्रतिष्ठित समूह जैसे एल एंड टी,हप्स://स्कोलर.वाल्पो.एडू/क्गी/वियूकॉन्टेंट.क्गी?रेफ्रर=हप्स://एन.विकिपीड़िया.ऑर्ग/&हप्सरेदिर=१&आर्टियल=१095&कॉनटेक्स्ट=ज्व्बल वालपराइसो विश्वविद्यालय अनुसंधान महिंद्रा, कल्याणी आदि भी कई परियोजनाओं के निर्माण की पहल कर चुके हैं जिनमें तोपें, असला, जलपोत व पनडुब्बियों का निर्मान शामिल है। रूस के साथ कमोव हेलीकॉप्टर का निर्माण भी भारत में करने के लिए समझौता हुआ है।
राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश
वर्तमान में भारत २८ राज्यों तथा
८ केन्द्रशासित प्रदेशों में बँटा हुआ है। राज्यों की चुनी हुई स्वतंत्र सरकारें हैं, जबकि केन्द्रशासित प्रदेशों पर केन्द्र द्वारा नियुक्त प्रबंधन शासन करता है, हालाँकि पॉण्डिचेरी और दिल्ली की लोकतांत्रिक सरकार भी हैं।
अन्टार्कटिका और दक्षिण गंगोत्री और मैत्री पर भी भारत के वैज्ञानिक-स्थल हैं, यद्यपि अभी तक कोई वास्तविक आधिपत्य स्थापित नहीं किया गया है।
राज्यों के नाम निम्नवत हैं (कोष्ठक में राजधानी का नाम)
चंडीगढ़ एक केंद्रशासित प्रदेश है तथा यह पंजाब और हरियाणा दोनों राज्यों की राजधानी है।
२६ जनवरी २०२० को दादरा एव नगर हवेली तथा दमन द्वीप का विलय करके एक केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया है। अब इसका पूरा नाम दादरा एवं नगर हवेली तथा दमन द्वीप है।
भाषाओं के मामले में भारतवर्ष विश्व के समृद्धतम देशों में से है। संविधान के अनुसार हिन्दी भारत की राजभाषा है, और अंग्रेजी को सहायक राजाभाषा का स्थान दिया गया है। १९४७-१९५० के संविधान के निर्माण के समय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी भाषा और हिन्दी-अरबी अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को संघ (केंद्र) सरकार की कामकाज की भाषा बनाया गया था, और गैर-हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के प्रचलन को बढ़ाकर उन्हें हिन्दी-भाषी राज्यों के समान स्तर तक आने तक के लिये १५ वर्षों तक अंग्रेजी के इस्तेमाल की इजाज़त देते हुए इसे सहायक राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया था। संविधान के अनुसार यह व्यवस्था १९५० में समाप्त हो जाने वाली थी, लेकिन् तमिलनाडु राज्य के हिन्दी भाषा विरोधी आन्दोलन और हिन्दी भाषी राज्यों राजनैतिक विरोध के परिणामस्वरूप, संसद ने इस व्यवस्था की समाप्ति को अनिश्चित काल तक स्थगित कर दिया है। इस वजह से वर्तमान समय में केंद्रीय सरकार में काम हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं में होता है और राज्यों में हिन्दी अथवा अपने-अपने क्षेत्रीय भाषाओं में काम होता है। केन्द्र और राज्यों और अन्तर-राज्यीय पत्र-व्यवहार के लिए, यदि कोई राज्य ऐसी मांग करे, तो हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का होना आवश्यक है। भारतीय संविधान एक राष्ट्रभाषा का वर्णन नहीं करता। भारत में कोई राष्ट्रभाषा नहीं है. हिंदी और अंग्रेजी भारत सरकार की आधिकारिक भाषाएं हैं, लेकिन कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। भारत में २२ आधिकारिक भाषाएँ हैं, जिनमें से प्रत्येक को बड़ी संख्या में लोग बोलते हैं। हालाँकि, हिंदी का उपयोग अनिवार्य नहीं है, और अन्य आधिकारिक भाषाओं का भी उपयोग किया जा सकता है।
हिन्दी और अंग्रेज़ी के इलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में २० अन्य भाषाओं का वर्णन है जिन्हें भारत में आधिकारिक कामकाज में इस्तेमाल किया जा सकता है। संविधान के अनुसार सरकार इन भाषाओं के विकास के लिये प्रयास करेगी, और अधिकृत राजभाषा (हिन्दी) को और अधिक समृद्ध बनाने के लिए इन भाषाओं का उपयोग करेगी। आठवीं अनुसूची में दर्ज़ २२ भाषाएँ यह हैं:
राज्यवार भाषाओं की आधिकारिक स्थिति इस प्रकार है:
भूगोल और जलवायु
भारत पूरी तौर पर भारतीय प्लेट के ऊपर स्थित है जो भारतीय आस्ट्रेलियाई प्लेट (इंडो-ऑस्ट्रेलियन प्लेट) का उपखण्ड है। प्राचीन काल में यह प्लेट गोंडवानालैण्ड का हिस्सा थी और अफ्रीका और अंटार्कटिका के साथ जुड़ी हुई थी। तकरीबन ९ करोड़ वर्ष पहले क्रीटेशियस काल में भारतीय प्लेट १५ सेमी. वर्ष की गति से उत्तर की ओर बढ़ने लगी और इओसीन पीरियड में यूरेशियन प्लेट से टकराई। भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के मध्य स्थित टेथीस भूसन्नति के अवसादों के वालन द्वारा ऊपर उठने से तिब्बत पठार और हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। सामने की द्रोणी में बाद में अवसाद जमा हो जाने से सिन्धु-गंगा मैदान बना। भारतीय प्लेट अभी भी लगभग ५ सेमी./वर्ष की गति से उत्तर की ओर गतिशील है और हिमालय की ऊँचाई में अभी भी २ मिमी./वर्ष कि गति से उत्थान हो रहा है।
भारत के उत्तर में हिमालय की पर्वतमाला नए और मोड़दार पहाड़ों से बनी है। यह पर्वतश्रेणी कश्मीर से अरुणाचल तक लगभग १,५०० मील तक फैली हुई है। इसकी चौड़ाई १५० से २०० मील तक है। यह संसार की सबसे ऊँची पर्वतमाला है और इसमें अनेक चोटियाँ २४,००० फुट से अधिक ऊँची हैं। हिमालय की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है जिसकी ऊँचाई २९,०२८ फुट है जो नेपाल में स्थित है।
हिमालय के दक्षिण सिन्धु-गंगा मैदान है जो सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों द्वारा बना है। हिमालय (शिवालिक) की तलहटी में जहाँ नदियाँ पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर मैदान में प्रवेश करती हैं, एक संकीर्ण पेटी में कंकड पत्थर मिश्रित निक्षेप पाया जाता है जिसमें नदियाँ अंतर्धान हो जाती हैं। इस ढलुवाँ क्षेत्र को भाबर कहते हैं। भाबर के दक्षिण में तराई प्रदेश है, जहाँ विलुप्त नदियाँ पुन: प्रकट हो जाती हैं। यह क्षेत्र दलदलों और जंगलों से भरा है। तराई के दक्षिण में जलोढ़ मैदान पाया जाता है। मैदान में जलोढ़ दो किस्म के हैं, पुराना जलोढ़ और नवीन जलोढ़। पुराने जलोढ़ को बाँगर कहते हैं। यह अपेक्षाकृत ऊँची भूमि में पाया जाता है, जहाँ नदियों की बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता। इसमें कहीं कहीं चूने के कंकड मिलते हैं। नवीन जलोढ़ को खादर कहते हैं। यह नदियों की बाढ़ के मैदान तथा डेल्टा प्रदेश में पाया जाता है जहाँ नदियाँ प्रति वर्ष नई तलछट जमा करती हैं।
उत्तरी भारत के मैदान के दक्षिण का पूरा भाग एक विस्तृत पठार है जो दुनिया के सबसे पुराने स्थल खंड का अवशेष है और मुख्यत: कड़ी तथा दानेदार कायांतरित चट्टानों से बना है। पठार तीन ओर पहाड़ी श्रेणियों से घिरा है। उत्तर में विंध्याचल तथा सतपुड़ा की पहाड़ियाँ हैं, जिनके बीच नर्मदा नदी पश्चिम की ओर बहती है। नर्मदा घाटी के उत्तर विंध्याचल प्रपाती ढाल बनाता है। सतपुड़ा की पर्वतश्रेणी उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है और पूर्व की ओर महादेव पहाड़ी तथा मैकाल पहाड़ी के नाम से जानी जाती है। सतपुड़ा के दक्षिण अजंता की पहाड़ियाँ हैं। प्रायद्वीप के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी घाट और पूर्वी किनारे पर पूर्वी घाट नामक पहाडियाँ हैं।
कई महत्वपूर्ण और बड़ी नदियाँ जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, गोदावरी और कृष्णा भारत से होकर बहती हैं।
कोपेन के वर्गीकरण में भारत में छह प्रकार की जलवायु का निरूपण है किन्तु यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भू-आकृति के प्रभाव में छोटे और स्थानीय स्तर पर भी जलवायु में बहुत विविधता और विशिष्टता मिलती है। भारत की जलवायु दक्षिण में उष्णकटिबंधीय है और हिमालयी क्षेत्रों में अधिक ऊँचाई के कारण अल्पाइन (ध्रुवीय जैसी), एक ओर यह पुर्वोत्तर भारत में उष्ण कटिबंधीय नम प्रकार की है तो पश्चिमी भागों में शुष्क प्रकार की।
कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार भारत में निम्नलिखित छह प्रकार के जलवायु प्रदेश पाए जाते हैं:
आर्द्र उपोष्ण (कवा);
उष्ण कटिबंधीय नम और शुष्क (अव);
उष्ण कटिबंधीय नम (आम);
शुष्क मरुस्थलीय (बह).
परंपरागत रूप से भारत में छह ऋतुएँ मानी जाती रहीं हैं परन्तु भारतीय मौसम विज्ञान विभाग चार ऋतुओं का वर्णन करता है जिन्हें हम उनके परंपरागत नामों से तुलनात्मक रूप में निम्नवत लिख सकते हैं:
शीत ऋतु (विंटर) दिसंबर से मार्च तक, जिसमें दिसंबर और जनवरी सबसे ठंडे महीने होते हैं; उत्तरी भारत में औसत तापमान १० से १५ डिग्री सेल्सियस होता है।
ग्रीष्म ऋतु (समर्स और प्री-मान्सून) अप्रैल से जून तक जिसमें मई सबसे गर्म महीना होता है, औसत तापमान ३२ से ४० डिग्री सेल्सियस होता है।
वर्षा ऋतु (मान्सून और रेनी) जून से सितम्बर तक, जिसमें सार्वाधिक वर्षा अगस्त महीने में होती है, वस्तुतः मानसून का आगमन और प्रत्यावर्तन (लौटना) दोनों क्रमिक रूप से होते हैं और अलग अलग स्थानों पर इनका समय अलग अलग होता है। सामान्यतः १ जून को केरल तट पर मानसून के आगमन तारीख होती है इसके ठीक बाद यह पूर्वोत्तर भारत में पहुँचता है और क्रमशः पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण की ओर गतिशील होता है इलाहाबाद में मानसून के पहुँचने की तिथि १८ जून मानी जाती है और दिल्ली में २९ जून।
शरद ऋतु (पोस्ट-मान्सून ओट ऑतुमन) - उत्तरी भारत में अक्टूबर और नवंबर माह में मौसम साफ़ और शांत रहता है और अक्टूबर में मानसून लौटना शुरू हो जाता है जिससे तमिलनाडु के तट पर लौटते मानसून से वर्षा होती है।
भारत के मुख्य शहर हैं दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलोर (बेंगलुरु)|
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मुद्रा स्थानांतरण की दर से भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में दसवें और क्रयशक्ति के अनुसार तीसरे स्थान पर है। वर्ष २००३ में भारत में लगभग ८% की दर से आर्थिक वृद्धि हुई है जो कि विश्व की सबसे तीव्र बढती हुई अर्थव्यवस्थओं में से एक है। परंतु भारत की अत्यधिक जनसंख्या के कारण प्रतिव्यक्ति आय क्रयशक्ति की दर से मात्र ३,२६२ अमेरिकन डॉलर है जो कि विश्व बैंक के अनुसार १२५वें स्थान पर है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार २६५ (मार्च २००९) अरब अमेरिकी डॉलर है। मुम्बई भारत की आर्थिक राजधानी है और भारतीय रिजर्व बैंक और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का मुख्यालय भी। यद्यपि एक चौथाई भारतीय अभी भी निर्धनता रेखा से नीचे हैं, तीव्रता से बढ़ती हुई सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों के कारण मध्यमवर्ग में वृद्धि हुई है। १९९१ के बाद भारत में आर्थिक सुधार की नीति ने भारत के सर्वंगीण विकास में बड़ी भूमिका निभाई है।
१९९१ के बाद भारत में हुए आर्थिक सुधारोँ ने भारत के सर्वांगीण विकास में बड़ी भूमिका निभाई। भारतीय अर्थव्यवस्था ने कृषि पर अपनी ऐतिहासिक निर्भरता कम की है और कृषि अब भारतीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल २५% है। दूसरे प्रमुख उद्योग हैं उत्खनन, पेट्रोलियम, बहुमूल्य रत्न, चलचित्र, वस्त्र, सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं, तथा सजावटी वस्तुऐं। भारत के अधिकतर औद्योगिक क्षेत्र उसके प्रमुख महानगरों के आसपास स्थित हैं। हाल ही के वर्षों में $१७२० करोड़ अमरीकी डालर वार्षिक आय २००४-२००५ के साथ भारत सॉफ़्टवेयर और बीपीओ सेवाओं का सबसे बड़ा केन्द्र बन कर उभरा है। इसके साथ ही कई लघु स्तर के उद्योग भी हैं जोकि छोटे भारतीय गाँव और भारतीय नगरों के कई नागरिकों को जीविका प्रदान करते हैं। पिछले वर्षों में भारत में वित्तीय संस्थानों ने विकास में बड़ी भूमिका निभाई है।
केवल तीस लाख विदेशी पर्यटकों के प्रतिवर्ष आने के बाद भी भारतीय पर्यटन राष्ट्रीय आय का एक अति आवश्यक, परन्तु कम विकसित स्रोत है। पर्यटन उद्योग भारत के जीडीपी का कुल ५,३% है। पर्यटन १०% भारतीय कामगारों को आजीविका देता है। वास्तविक संख्या ४.२ करोड है। आर्थिक रूप से देखा जाए तो पर्यटन भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग $४०० करोड डालर प्रदान करता है। भारत के प्रमुख व्यापार सहयोगी हैं अमरीका, जापान, चीन और संयुक्त अरब अमीरात।
भारत के निर्यातों में कृषि उत्पाद, चाय, कपड़ा, बहुमूल्य रत्न व आभूषण, साफ़्टवेयर सेवायें, इंजीनियरिंग सामान, रसायन तथा चमड़ा उत्पाद प्रमुख हैं जबकि उसके आयातों में कच्चा तेल, मशीनरी, बहुमूल्य रत्न, उर्वरक (फ़र्टिलाइज़र) तथा रसायन प्रमुख हैं। वर्ष २००४ के लिये भारत के कुल निर्यात $६९१८ करोड़ डालर के थे जबकि उसके आयात $८९३३ करोड़ डालर के थे।
दिसम्बर २०१३ के अंत में भारत का कुल विदेशी कर्ज ४२६.० अरब अमरीकी डॉलर था, जिसमें कि दीर्घकालिक कर्ज ३३३.३ अरब (७८,२%) तथा अल्पकालिक कर्ज ९२,७% अरब अमरीकी डॉलर (२1,८%) था। कुल विदेशी कर्ज में सरकार का विदेशी कर्ज ७6.४ अरब अमरीकी डॉलर (कुल विदेशी कर्ज का 1७.९ प्रतिशत) था, बाकी में व्यावसायिक उधार, एनआरआई जमा और बहुउद्देश्यीय कर्ज आदि हैं।
भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। भारत की विभिन्नताओं से भरी जनता में भाषा, जाति और धर्म, सामाजिक और राजनीतिक सौहार्द और समरसता के मुख्य शत्रु हैं।
भारत में २०११ की जनगणना के अनुसार ७४.०४ प्रतिशत साक्षरता है, जिस में से ८२.१४% पुरुष और स्त्रियो की साक्षरता ६५.४६ हैं। लिंग अनुपात की दृष्टि से भारत में प्रत्येक १००० पुरुषों के पीछे मात्र ९४० महिलायें हैं। कार्य भागीदारी दर (कुल जनसंख्या में कार्य करने वालों का भाग) ३९.१% है। पुरुषों के लिए यह दर ५१,७% और स्त्रियों के लिये २५,६% है। भारत की १००० जनसंख्या में २२.३२ जन्मों के साथ बढ़ती जनसंख्या के आधे लोग २२.६६ वर्ष से कम आयु के हैं।
यद्यपि भारत की ७९.८० प्रतिशत या ९६.६२ करोड़ जनसंख्या हिन्दू है, १४.२३ प्रतिशत या १७.२२ करोड़ जनसंख्या के साथ भारत विश्व में मुसलमानों की संख्या में भी इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद तीसरे स्थान पर है। अन्य धर्मावलम्बियों में ईसाई (२.३० % या २.७८ करोड़), सिख (१,७२ % या २.०८ करोड़), बौद्ध (०,७० % या ८४.४३ लाख), जैन (०,३७ % या ४४.५२ लाख), अन्य धर्म (०,६६ % या ७९.३८ लाख) इनमें यहूदी, पारसी, अहमदी और बहाई आदि धर्मीय हैं। नास्तिकता ०,२४% या ३८.३७ लाख है।
भारत दो मुख्य भाषा-सूत्रों: आर्य और द्रविड़ भाषाओं का स्रोत भी है। भारत का संविधान कुल २३ भाषाओं को मान्यता देता है। हिन्दी और अंग्रेजी केन्द्रीय सरकार द्वारा सरकारी कामकाज के लिए उपयोग की जाती हैं। संस्कृत और तमिल जैसी अति प्राचीन भाषाएं भारत में ही जन्मी हैं। संस्कृत, संसार की सर्वाधिक प्राचीन भाषाओं में से एक है, जिसका विकास पथ्यास्वस्ति नाम की अति प्राचीन भाषा/बोली से हुआ था। तमिल के अलावा सारी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से ही विकसित हुई हैं, हालाँकि संस्कृत और तमिल में कई शब्द समान हैं, कुल मिला कर भारत में १६५२ से भी अधिक भाषाएं एवं बोलियाँ बोली जातीं हैं।
भारत की सांस्कृतिक धरोहर बहुत संपन्न है। यहाँ की संस्कृति अनोखी है और वर्षों से इसके कई अवयव अब तक अक्षुण्ण हैं। आक्रमणकारियों तथा प्रवासियों से विभिन्न चीजों को समेट कर यह एक मिश्रित संस्कृति बन गई है। आधुनिक भारत का समाज, भाषाएं, रीति-रिवाज इत्यादि इसका प्रमाण हैं। ताजमहल और अन्य उदाहरण, इस्लाम प्रभावित स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
भारतीय समाज बहुधर्मिक, बहुभाषी तथा मिश्र-सांस्कृतिक है। पारंपरिक भारतीय पारिवारिक मूल्यों को बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है।
विभिन्न धर्मों के इस भूभाग पर कई मनभावन पर्व त्यौहार मनाए जाते हैं - दिवाली, होली, दशहरा, पोंगल तथा ओणम, ईद उल-फ़ित्र, ईद-उल-जुहा, मुहर्रम, क्रिसमस, ईस्टर आदि भी बहुत लोकप्रिय हैं।
भारत में संगीत तथा नृत्य की अपनी शैलियां भी विकसित हुईं, जो बहुत ही लोकप्रिय हैं। भरतनाट्यम, ओडिसी, कथक प्रसिद्ध भारतीय नृत्य शैली है। हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत भारतीय परंपरागत संगीत की दो मुख्य धाराएं हैं। लोक नृत्यों में शामिल हैं पंजाब का भांगड़ा, असम का बिहू, झारखंड का झुमइर और डमकच, झारखंड और उड़ीसा का छाऊ, राजस्थान का घूमर, गुजरात का डांडिया और गरबा, कर्नाटक जा यक्षगान, महाराष्ट्र का लावनी और गोवा का देख्ननी ।
हालाँकि हॉकी देश का राष्ट्रीय खेल है, क्रिकेट सबसे अधिक लोकप्रिय है। वर्तमान में फुटबॉल, हॉकी तथा टेनिस में भी बहुत भारतीयों की अभिरुचि है। देश की राष्ट्रीय क्रिकेट टीम १९८३ और २०११ में दो बार विश्व कप और २००७ का २०२० विश्व-कप जीत चुकी है। इसके अतिरिक्त वर्ष २००३ में वह विश्व कप के फाइनल तक पहुँची थी। १९३० तथा ४० के दशक में हॉकी भारत में अपने चरम पर थी। मेजर ध्यानचंद ने हॉकी में भारत को बहुत प्रसिद्धि दिलाई और एक समय भारत ने अमरीका को 2४० से हराया था जो अब तक विश्व कीर्तिमान है। शतरंज के जनक देश भारत के खिलाड़ी विश्वनाथ आनंद ने अच्छा प्रदर्शन किया है।
वैश्वीकरण के इस युग में शेष विश्व की तरह भारतीय समाज पर भी अंग्रेजी तथा यूरोपीय प्रभाव पड़ रहा है। बाहरी लोगों की खूबियों को अपनाने की भारतीय परंपरा का नया दौर कई भारतीयों की दृष्टि में उचित नहीं है। एक खुले समाज के जीवन का यत्न कर रहे लोगों को मध्यमवर्गीय तथा वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। कुछ लोग इसे भारतीय पारंपरिक मूल्यों का हनन भी मानते हैं। विज्ञान तथा साहित्य में अधिक प्रगति न कर पाने की वजह से भारतीय समाज यूरोपीय लोगों पर निर्भर होता जा रहा है। ऐसे समय में लोग विदेशी अविष्कारों का भारत में प्रयोग अनुचित भी समझते हैं।
सिनेमा और टेलीविज़न
भारतीय फिल्म उद्योग, दुनिया की सबसे ज्यादा देखी जाने वाली सिनेमा का उत्पादन करता है। इसके अलावा यहाँ असमिया, बंगाली, भोजपुरी, हिंदी, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, गुजराती, मराठी, ओडिया, तमिल और तेलुगू भाषाओं के क्षेत्रीय सिनेमाई परंपराएं भी मौजूद हैं। दक्षिण भारतीय सिनेमा का राष्ट्रीय फिल्म राजस्व में ७५% से अधिक का हिस्सा है। भारत में सितंबर २०१६ तक २२०० मल्टीप्लेक्स स्क्रीन सिनेमाघर थे तथा इसके २०१९ तक ३००० तक बढ़ने की अपेक्षा की गई हैं।
१९५९ में भारत में टेलीविजन का प्रसारण, राज्य संचालित संचार के माध्यम के रूप में शुरू हुआ, और अगले दो दशकों तक इसका धीमी गति से विस्तार हुआ। १९९० के दशक में टेलीविजन प्रसारण पर राज्य के एकाधिकार समाप्त हो गया, और तब से, उपग्रह चैनलों ने भारतीय समाज की लोकप्रिय संस्कृति को आकार दिया है। आज, भारत में टेलीविज़न मनोरंजन का सबसे प्रचलित माध्यम हैं, तथा इसकी पैठ समाज के हर वर्ग तक फैली हैं। उद्योग के अनुमान हैं कि भारत में २०१२ तक ४६२ मिलियन उपग्रह या केबल कनेक्शन के साथ, कुल ५५४ मिलियन से अधिक टीवी उपभोक्ता हैं, मनोरंजन के अन्य साधनो में प्रेस मीडिया (३५० मिलियन), रेडियो (१५६ मिलियन) तथा इंटरनेट (३७ मिलियन) भी सम्मलित हैं
भारतीय खानपान बहुत ही समृद्ध है। शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों ही तरह का खाना पसन्द किया जाता है। भारतीय व्यंजन विदेशों में भी बहुत पसन्द किए जाते हैं।
१९४७ में अपनी स्वतंत्रता के बाद, भारत के अधिकांश देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा है। १९५० के दशक में, भारत ने पुरजोर रूप से अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय उपनिवेशों की स्वतंत्रता का समर्थन किया और गुट निरपेक्ष आंदोलन में एक अग्रणी की भूमिका निभाई। १९८० के दशक में भारत दो पड़ोसी देशों के निमंत्रण पर, सेना के द्वारा संक्षिप्त सैन्य हस्तक्षेप किया, एक श्रीलंका में और दुसरा मालदीव में। भारत के पड़ोसी पाकिस्तान के साथ एक तनाव भरा संबंध है और दोनों देशों के बीच चार बार युद्ध हुआ था, १९४७, १९६५, १९७१ और १९९९ में। कश्मीर विवाद इन युद्धों का प्रमुख कारण था। १९६२ के भारत - चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ १९६५ के युद्ध के बाद भारत और सोवियत संघ के साथ सैन्य संबंधों में बहुत बढ़ोतरी हुई। १९६० के दशक के अन्त में सोवियत संघ भारत का सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरी थी।
रूस के साथ सामरिक संबंधों के अलावा, भारत का इजरायल और फ्रांस के साथ विस्तृत रक्षा संबंध हैं। हाल के वर्षों में, भारत ने क्षेत्रीय सहयोग और विश्व व्यापार संगठन के लिए एक दक्षिण एशियाई एसोसिएशन में प्रभावशाली भूमिका निभाई है। भारत ने १००,००० सैन्य और पुलिस कर्मियों को चार महाद्वीपों भर में संयुक्त राष्ट्र के पैंतीस शांति अभियानों में सेवा प्रदान की है। भारत ने विभिन्न बहुपक्षीय मंचों, सबसे खासकर पूर्वी एशिया के शिखर बैठक और जी-८ ५ में एक सक्रिय भागीदारी निभाई है। आर्थिक क्षेत्र में भारत का दक्षिण अमेरिका, एशिया, और अफ्रीका के विकासशील देशों के साथ घनिष्ठ संबंध है।
भारत में कई सारे पर्व मनाए जाते हैं, जिसमें २६ जनवरी को गणतंत्र दिवस, १५ अगस्त को स्वतंत्रता दिवस, २ अक्टूबर को गांधी जयंती, दिवाली, होली, नवरात्रि, रामनवमी, दशहरा और ईद पूरे देश में मनाई जाती है। इसके अलावा अन्य पर्व राज्यों के अनुसार होते हैं।
भारत की जनजातियां
गोंड - गोंड भारत की जनजाति है , मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इनका शासन था ।
भील - भील देश की सबसे विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई जनजाति है , यह जनजाति मुख्यरूप से राजस्थान , मध्यप्रदेश , गुजरात और महाराष्ट्र में निवास करती है , इस जनजाति का इतिहास बेहद ही गौरवशाली रहा है , यह जनजाति प्राचीन समय में एक कबीले में ना रह कर , देश के कई क्षेत्रों पर शासन किया । भील जनजाति देश में भील रेजिमेंट और भील प्रदेश चाहती है।
मीणा - मीणा राजस्थान की जनजाति है। मध्य प्रदेश में मीणाओं को पूर्ण रूप से अनुसूचित जनजाति के रूप में प्रस्तावित किया गया है, जिस पर भारत सरकार विचार कर रही है।
नागा - नागा जनजाति मुख्यरूप से नागालैंड में पाई जाती है , देश में नागा रेजिमेंट है।
गारो - एक जनजाति
भूमिज - भारत की सबसे प्राचीन जनजाति; पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, उड़ीसा और असम में पाई जाती है।
इन्हें भी देखें
सिंधु घाटी सभ्यता
सकल घरेलू उत्पाद के अनुसार देशों की सूची (नाममात्र)
भारत में सबसे बड़े साम्राज्यों की सूची
भारत के प्रथम
भारत का राष्ट्रीय पोर्टल (हिन्दी में)
भारत २०११ (प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित भारत के बारे में सम्पूर्ण जानकारी)
बीबीसी हिन्दी पर भारत
एशिया के देश
१९४७ में स्थापित देश या क्षेत्र
दक्षिण एशिया के देश
अंग्रेज़ी-भाषी देश व क्षेत्र
हिन्दुस्तानी-भाषी देश व क्षेत्र |
संस्कृत (संस्कृतम्, ) भारत की एक भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा है जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है। संस्कृत दिव्य एवं समृद्ध भाषा है। ऐतिहासिकता की दृष्टि में यह संसार की सभी भाषाओं की जननी है। संस्कृत संसार की प्राचीनतम एवं प्रथम भाषा है। भारतीय आर्ष ग्रंथ का समस्त ज्ञान इसी भाषा में लिपिबद्ध है। संस्कृत ज्ञान की अभिव्यक्ति की भाषा है। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, बांग्ला, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गए हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होते हैं।
संस्कृत का अर्थ है "संस्कार की गयी " अर्थात "बदलाव की गयी", संस्कृत भाषा देवनागरी लिपि मे लिखी गयी है, धम्म लिपि में समय के साथ थोड़ा- थोड़ा सुधार (बदलाव) होता रहा उदाहरण के लिए मौर्य का व गुप्त काल के शिलालेखों व अभिलेखों में शब्दो मे थोड़ा फर्क दिखायी पड़ता है। अनेक शताब्दियों तक यह चलता गया तथा पाली प्राकृत भाषा ( धम्म लिपि मे ) से अनेक लिपियों का उदय हुआ जैसे दक्षिण मे तमिल, तेलुगु व उत्तर मे बांगला, नागरी शारदा । १०००० ईसा पूर्व में इंग्लिश लिपि का प्रचलन शुरू हुआ व ११ शताब्दी तक आते आते देवनागरी लिपि पूर्ण से विकसित हो गयी , अगर बात करे संस्कृत भाषा की चूंकि संस्कृत की लिपि देवनागरी है अत: यह भी १० वीं शताब्दी के मध्य आयी है, इससे पहले संस्कृत भाषा का कोई पुरातात्विक प्रमाण नही मिला व ना ही कही इसका जिक्र है। अत: इससे सिद्ध होता है की भारत (जिसका प्राचीन नाम हिंदुस्तान है) की सबसे पुरानी भाषा प्राकृत पाली है व सबसे प्राचीन लिपि धम्म लिपि (आजकल ब्राह्मी लिपि) है। अगर देखा जाए सबसे प्राचीन भाषा व लिपि सिंधु घाटी सभ्यता की भाषा जो अब तक नही पढ़ी गयी है ।
संस्कृत आमतौर पर कई पुरानी इंडो-आर्यन किस्मों को जोड़ती है। इनमें से सबसे पुरातन ऋग्वेद में पाया जाने वाला वैदिक संस्कृत है, जो ९ वीं शताब्दी के बाद रचित १००० भजनों का एक संग्रह है, जो इंडो-आर्यन जनजातियों द्वारा आज के उत्तरी अफगानिस्तान और उत्तरी भारत में अफगानिस्तान से पूर्व की ओर पलायन करते हैं। वैदिक संस्कृत ने उपमहाद्वीप की प्राचीन प्राचीन भाषाओं के साथ बातचीत की, नए पौधों और जानवरों के नामों को अवशोषित किया।
भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में संस्कृत को भी सम्मिलित किया गया है। यह उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश की आधिकारिक राजभाषा है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से संस्कृत में समाचार प्रसारित किए जाते हैं। कतिपय वर्षों से डी. डी. न्यूज (क्क न्यूज) द्वारा वार्तावली नामक अर्धहोरावधि का संस्कृत-कार्यक्रम भी प्रसारित किया जा रहा है, जो हिन्दी चलचित्र गीतों के संस्कृतानुवाद, सरल-संस्कृत-शिक्षण, संस्कृत-वार्ता और महापुरुषों की संस्कृत जीवनवृत्तियों, सुभाषित-रत्नों आदि के कारण अनुदिन लोकप्रियता को प्राप्त हो रहा है।
संस्कृत का इतिहास बहुत पुराना है। वर्तमान समय में प्राप्त सबसे प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ ॠग्वेद है जो कम से कम ढाई हजार ईसापूर्व की रचना है।
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्यों ने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है। किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द-रूप बनाये जाते हैं, जो व्याकरणिक अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूलशब्द के अन्त में प्रत्यय लगाकर बनाये जाते हैं। इस तरह ये कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अन्त-श्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को वागीश शास्त्री ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है।
ध्वनि-तन्त्र और लिपि
संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है, इसलिए इसमें हर एक चिह्न के लिए एक और केवल एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १३ स्वर और ३३ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिए दो पद्धतियाँ अधिक प्रचलित हैं : इयास्त और इतरांस. शून्य, एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
संस्कृत, क्षेत्रीय लिपियों में लिखी जाती रही है।
ये स्वर संस्कृत के लिए दिए गए हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण थोड़े भिन्न होते हैं।
संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अ-इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है।
इसके अलावा निम्नलिखित वर्ण भी स्वर माने जाते हैं :
ऋ -- वर्तमान में, स्थानीय भाषाओं के प्रभाव से इसका अशुद्ध उच्चारण किया जाता है। आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह तथा मराठी में "रु" की तरह किया जाता है ।
ॠ -- केवल संस्कृत में (दीर्घ ऋ)
ऌ -- केवल संस्कृत में (मूर्धन्य शब्दांश ल)
अं -- न् , म् , ङ् , ञ् , ण् और ं के लिए या स्वर का नासिकीकरण करने के लिए
अँ -- स्वर का नासिकीकरण करने के लिए (संस्कृत में नहीं उपयुक्त होता)
अः -- अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिए
जब कोई स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त् अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क् ख् ग् घ्।
इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त व्यंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी और वैदिक संस्कृत में इसका प्रयोग किया जाता है।
संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था : जीभ की नोंक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी ध्वनि करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिनि शाखा में कुछ वाक्यों में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था।
संस्कृत भाषा की विशेषताएँ
(१) संस्कृत, विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक (वेद) की भाषा है। इसलिए इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है।
(२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है।
(३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है।
(४) इसे देवभाषा माना जाता है।
(५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है।
संस्कृत > सम् + सुट् + 'कृ करणे' + क्त, ('सम्पर्युपेभ्यः करोतौ भूषणे' इस सूत्र से 'भूषण' अर्थ में 'सुट्' या सकार का आगम/ 'भूते' इस सूत्र से भूतकाल(पस्ट) को द्योतित करने के लिए संज्ञा अर्थ में क्त-प्रत्यय /कृ-धातु 'करणे' या 'डोइंग' अर्थ में) अर्थात् विभूूूूषित, समलंकृत(वेल-डेकोरेटेड) या संस्कारयुक्त (वेल-कटुर्ड)।
संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।
(६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के २७ रूप होते हैं।
(७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है।
(८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जा है ।
(९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिए सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
(१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
(११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं।
(१२) संस्कृत विश्व की सर्वाधिक 'पूर्ण' (पर्फेक्ट) एवं तर्कसम्मत भाषा है।
(१३) संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं। इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है।
(१४) संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके कई लाख ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। पता नहीं कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है। दीर्घ कालखण्ड के बाद भी असंख्य प्राकृतिक तथा मानवीय आपदाओं (वैदेशिक आक्रमणों) को झेलते हुए आज भी ३ करोड़ से अधिक संस्कृत पाण्डुलिपियाँ विद्यमान हैं। यह संख्या ग्रीक और लैटिन की पाण्डुलिपियों की सम्मिलित संख्या से भी १०० गुना अधिक है। निःसंदेह ही यह सम्पदा छापाखाने के आविष्कार के पहले किसी भी संस्कृति द्वारा सृजित सबसे बड़ी सांस्कृतिक विरासत है।
(१५) संस्कृत केवल एक मात्र भाषा नहीं है अपितु संस्कृत एक विचार है। संस्कृत एक संस्कृति है एक संस्कार है संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना है।
भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व
संस्कृत कई भारतीय भाषाओं की जननी है। इनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गई है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आएगी जिससे भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू की भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है।
हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं।
हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत ही है।
हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं।
भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है। भारतीय संविधान की धारा ३४३, धारा ३४८ (२) तथा ३५१ का सारांश यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी और मूलत: संस्कृत से अपनी पारिभाषिक शब्दावली को लेने वाली हिन्दी राजभाषा है।
संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है।
संस्कृत का साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा।
संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए (कृत्रिम बुद्धि के लिए) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
संस्कृत का अन्य भाषाओं पर प्रभाव
संस्कृत भाषा के शब्द मूलत रूप से सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में हैं। सभी भारतीय भाषाओं में एकता की रक्षा संस्कृत के माध्यम से ही हो सकती है। मलयालम, कन्नड और तेलुगु आदि दक्षिणात्य भाषाएं संस्कृत से बहुत प्रभावित हैं। यहाँ तक कि तमिल में भी संस्कृत के हजारों शब्द भरे पड़े हैं और मध्यकाल में संस्कृत का तमिल पर गहरा प्रभव पड़ा।
विश्व की अनेकानेक भाषाओं पर संस्कृत ने गहरा प्रभाव डाला है। संस्कृत भारोपीय भाषा परिवर में आती है और इस परिवार की भाषाओं से भी संस्कृत में बहुत सी समानता है। वैदिक संस्कृत और अवेस्ता (प्राचीन इरानी) में बहुत समानता है। भारत के पड़ोसी देशों की भाषाएँ सिंहल, नेपाली, म्यांमार भाषा, थाई भाषा, ख्मेर संस्कृत से प्रभावित हैं। बौद्ध धर्म का चीन ज्यों-ज्यों प्रसार हुआ वैसे वैसे पहली शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक सैकड़ों संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। इससे संस्कृत के हजरों शब्द चीनी भाषा में गए। उत्तरी-पश्चिमी तिब्बत में तो अज से १००० वर्ष पहले तक संस्कृत की संस्कृति थी और वहाँ गान्धारी भाषा का प्रचलन था।
देश, काल और विविधता की दृष्टि से संस्कृत साहित्य अत्यन्त विशाल है। इसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है- वैदिक साहित्य तथा शास्त्रीय साहित्य । आज से तीन-चार हजार वर्ष पहले रचित वैदिक साहित्य उपलब्ध होता है।
इनके अतिरिक्त रसविद्या, तंत्र साहित्य, वैमानिक शास्त्र तथा अन्यान्य विषयों पर संस्कृत में ग्रन्थ रचे गये जिनमें से कुछ आज भी उपलब्ध हैं।
शिक्षा एवं प्रचार-प्रसार
भारत के संविधान में संस्कृत आठवीं अनुसूची में सम्मिलित अन्य भाषाओं के साथ विराजमान है। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत संस्कृत भी आती है। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की की वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली संस्कृत से निर्मित है।
भारत तथा अन्य देशों के कुछ संस्कृत विश्वविद्यालयों की सूची नीचे दी गयी है- (देखें, भारत स्थित संस्कृत विश्वविद्यालयों की सूची)
यह भी देखिए
भारत की भाषाएँ
संस्कृत भाषा का इतिहास
संस्कृत का पुनरुत्थान
संस्कृत के विकिपीडिया प्रकल्प
संस्कृत (संस्कृत विकोश:)
राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान
भारतीय विश्वविद्यालयों में संस्कृत पर आधारित शोध प्रबन्धों की निर्देशिका (राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान)
संस्कृत गूगल समूह
हिन्दी-संस्कृत वार्तालाप पुस्तिका (केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
सारस्वतसर्वस्वम् (शब्दकोश, संस्कृत ग्रन्थों आदि का विशाल संग्रह)
संस्कृत के अनेकानेक ग्रन्थ, देवनागरी में
वैदिक साहित्य : महर्षि वैदिक विश्वविद्यालय - पी डी एफ़ प्रारूप, देवनागरी
गौडीय ग्रन्थ-मन्दिर पर सहस्रों संस्कृत ग्रन्थ, बलराम इनकोडिंग में
ग्रेटिल पर सहस्रों संस्कृत ग्रन्थ, अनेक स्रोतों से, अनेक इनकोडिंग में
इंटरनेट सक्रड टेक्स्ट आर्चिव - यहाँ बहुत से हिन्दू ग्रन्थ अंग्रेजी में अर्थ के साथ उपलब्ध हैं। कहीं-कहीं मूल संस्कृत पाठ भी उपलब्ध है।
क्ले संस्कृत पुस्तकालय संस्कृत साहित्य के प्रकाशक हैं; यहाँ पर भी बहुत सारी सामग्री डाउनलोड के लिये उपलब्ध है।
मुक्तबोध डिजिटल पुस्तकालय
मुक्तबोध इंडोलोजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट (तंत्र एवं आगम साहित्य पर विशेष सामग्री)
आंध्रभारती का संस्कृत कोश गपेषणम् : आनलाइन संस्कृत कोश शोधन ; कई कोशों में एकसाथ खोज ; देवनागरी, बंगला आदि कई भारतीय लिपियों में आउटपुट; कई प्रारूपों में इनपुट की सुविधा
संस्कृत-हिन्दी कोश (राज संस्करण) (गूगल पुस्तक ; रचनाकार - वामन शिवराम आप्टे)
आप्टे अंग्रेजी --> संस्कृत शब्दकोश - इसमें परिणाम इच्छानुसार देवनागरी, इतरांस, रोमन यूनिकोड आदि में प्राप्त किये जा सकते हैं।
संक्षिप्त संस्कृत-आंग्लभाषा शब्दकोश (कंसिस संस्कृत-इंग्लिश डाइक्शनरी) - संस्कृत शब्द देवनागरी में लिखे हुए हैं। अर्थ अंग्रेजी में। लगभग १० हजार शब्द। डाउनलोड करके आफलाइन उपयोग के लिये उत्तम !
डाउनलोड योग्य शब्दकोश
संस्कृत विषयक लेख
तीसरी संस्कृत क्रांति अगर भारत में नहीं आएगी तो फिर कहाँ? (स्वराज्य पत्रिका; ऑस्कर पुजोल ; ५ फरवरी २०१९)
संस्कृत - विज्ञान और कंप्यूटर की समर्थ भाषा
सशक्त भाषा संस्कृत
संस्कृत के बारे में महापुरुषों के विचार (अंग्रेजी में)
संस्कृत बनेगी नासा की भाषा, पढ़ने से गणित और विज्ञान की शिक्षा में आसानी
संस्कृत साफ्टवेयर एवं उपकरण
संस्कृत अनुवाद (गूगल ट्रान्स्लेट द्वारा)
रोमन को यूनिकोड संस्कृत में लिप्यंतरित करने का उपकरण
बरह - कम्प्यूटर पर संस्कृत लिखने एवं फाण्ट परिवर्तन का औजार
गणकाष्टाध्यायी - संस्कृत व्याकरण का साफ्टवेयर (पाणिनि के सूत्रों पर आधारित)
संस्कृतटूल्स - संस्कृत टूलबार
संसाधनी (संस्कृत टेक्स्ट के विश्लेषण के औजार)
संस्कृतम् - संस्कृत के बारे में गूगल चर्चा समूह
संस्कृतं भारतस्य जीवनम्
नेपाल की भाषाएँ
भारत की भाषाएँ |
हिंदू ( ; / ह न ड उ ज़ / ) वे लोग हैं जो धार्मिक रूप से हिंदू धर्म का पालन करते हैं। ऐतिहासिक रूप से, इस शब्द का उपयोग भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले लोगों के लिए भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचानकर्ता के रूप में भी किया गया है।
"हिन्दू" शब्द की उत्पत्ति पुरानी फ़ारसी से हुई है जिसने इन नामों को संस्कृत नाम सिंधु , सिंधु नदी का जिक्र करते हुए। समान शब्दों के ग्रीक सजातीय शब्द " इंडस " (नदी के लिए) और " इंडिया " (नदी की भूमि के लिए) हैं। " हिंदू " शब्द का तात्पर्य सिंधु (सिंधु) नदी के आसपास या उससे परे भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले लोगों के लिए एक भौगोलिक, जातीय या सांस्कृतिक पहचानकर्ता भी है। १६वीं शताब्दी ईस्वी तक, यह शब्द उपमहाद्वीप के उन निवासियों को संदर्भित करने लगा जो तुर्क या मुस्लिम नहीं थे। हिंदू एक पुरातन वर्तनी संस्करण है, जिसका उपयोग आज अपमानजनक माना जाता है।
धार्मिक या सांस्कृतिक अर्थ में, स्थानीय भारतीय आबादी के भीतर हिंदू आत्म-पहचान का ऐतिहासिक विकास अस्पष्ट है। प्रतिस्पर्धी सिद्धांतों में कहा गया है कि हिंदू पहचान ब्रिटिश औपनिवेशिक युग में विकसित हुई, या यह मुस्लिम आक्रमणों और मध्ययुगीन हिंदू-मुस्लिम युद्धों के बाद ८वीं शताब्दी ईस्वी के बाद विकसित हुई होगी। हिंदू पहचान की भावना और हिंदू शब्द १३वीं और 1८वीं शताब्दी के बीच संस्कृत और बंगाली के कुछ ग्रंथों में दिखाई देता है। १४वीं और 1८वीं सदी के भारतीय कवियों जैसे विद्यापति, कबीर, तुलसीदास और एकनाथ ने हिंदू धर्म (हिंदू धर्म) वाक्यांश का इस्तेमाल किया और इसकी तुलना तुरक धर्म ( इस्लाम ) से की। ईसाई भिक्षु सेबेस्टियाओ मैनरिक ने १६४९ में एक धार्मिक संदर्भ में 'हिंदू' शब्द का इस्तेमाल किया था। 1८वीं शताब्दी में, यूरोपीय व्यापारियों और उपनिवेशवादियों ने सामूहिक रूप से भारतीय धर्मों के अनुयायियों को हिंदू के रूप में संदर्भित करना शुरू कर दिया था। तुर्क, मुगल और अरब जैसे समूहों के लिए मुसलमानों के विपरीत, जो इस्लाम के अनुयायी थे। १९वीं सदी के मध्य तक, औपनिवेशिक प्राच्यवादी ग्रंथों ने हिंदुओं को बौद्ध, सिख और जैन से अलग कर दिया, लेकिन औपनिवेशिक कानून लगभग २०वीं सदी के मध्य तक उन सभी को हिंदू शब्द के दायरे में मानते रहे। विद्वानों का कहना है कि हिंदू, बौद्ध, जैन और सिखों के बीच अंतर करने की प्रथा एक आधुनिक घटना है।
लगभग १.२ परअरब, ईसाई और मुसलमानों के बाद हिंदू दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक समूह हैं। २0११ की भारतीय जनगणना के अनुसार, हिंदुओं का विशाल बहुमत, लगभग ९६६ मिलियन (वैश्विक हिंदू आबादी का ९४.३%) भारत में रहता है । भारत के बाद, सबसे अधिक हिंदू आबादी वाले अगले नौ देश घटते क्रम में हैं: नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, श्रीलंका, संयुक्त राज्य अमेरिका, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और यूनाइटेड किंगडम । ये विश्व की ९९% हिंदू आबादी के लिए जिम्मेदार हैं, और दुनिया के शेष देशों में कुल मिलाकर लगभग ६ मिलियन हिंदू थे ।
हिंदू शब्द की उत्पत्ति
हिन्दू शब्द एक पर्यायवाची शब्द है। यह हिंदू शब्द इंडो-आर्यन और संस्कृत शब्द सिंधु से बना है, जिसका अर्थ है "पानी का एक बड़ा शरीर", जो "नदी, महासागर" को कवर करता है। इसका उपयोग सिंधु नदी के नाम के रूप में किया गया था और इसकी सहायक नदियों को भी संदर्भित किया गया था। गेविन फ्लड के अनुसार, वास्तविक शब्द ' हिन्दू ' सबसे पहले आता है, "सिंधु (संस्कृत: सिंधु ) नदी के पार रहने वाले लोगों के लिए एक फ़ारसी भौगोलिक शब्द", विशेष रूप से डेरियस प्रथम के ६ठी शताब्दी ईसा पूर्व के शिलालेख में पंजाब क्षेत्र, जिसे वेदों में सप्त सिंधु कहा जाता है, ज़ेंड अवेस्ता में हप्त हिंदू कहा जाता है। डेरियस प्रथम के ६वीं शताब्दी ईसा पूर्व के शिलालेख में उत्तर-पश्चिमी भारत का जिक्र करते हुए हि[एन]डुश प्रांत का उल्लेख है। भारत के लोगों को हिंदूवान कहा जाता था और ८वीं शताब्दी के पाठ चचनामा में हिंदवी का इस्तेमाल भारतीय भाषा के लिए विशेषण के रूप में किया गया था। डीएन झा के अनुसार, इन प्राचीन अभिलेखों में 'हिंदू' शब्द एक जातीय-भौगोलिक शब्द है और यह किसी धर्म का संदर्भ नहीं देता है।
धर्म के अर्थों के साथ 'हिंदू' के सबसे पहले ज्ञात अभिलेखों में बौद्ध विद्वान जुआनज़ैंग द्वारा लिखित ७वीं शताब्दी ई.पू. का चीनी पाठ 'रिकॉर्ड्स ऑन द वेस्टर्न रीजन्स''' शामिल हो सकता है। जुआनज़ैंग लिप्यंतरित शब्द इन-टू का उपयोग करता है जिसका अरविंद शर्मा के अनुसार "अर्थ धार्मिक में बहता है"। जबकि जुआनज़ैंग ने सुझाव दिया कि यह शब्द चंद्रमा के नाम पर रखे गए देश को संदर्भित करता है, एक अन्य बौद्ध विद्वान इत्सिंग ने इस निष्कर्ष का खंडन करते हुए कहा कि इन-टू देश का सामान्य नाम नहीं है।
अल-बिरूनी के ११वीं शताब्दी के ग्रंथ तारिख अल-हिंद, और दिल्ली सल्तनत काल के ग्रंथों में 'हिंदू' शब्द का उपयोग किया गया है, जहां इसमें बौद्ध जैसे सभी गैर-इस्लामिक लोग शामिल हैं, और "एक क्षेत्र" होने की अस्पष्टता बरकरार रखी गई है। या एक धर्म"। भारतीय इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार, 'हिंदू' समुदाय अदालत के इतिहास में मुस्लिम समुदाय के अनाकार 'अन्य' के रूप में आता है। तुलनात्मक धर्म विद्वान विल्फ्रेड केंटवेल स्मिथ कहते हैं कि 'हिंदू' शब्द ने शुरुआत में अपना भौगोलिक संदर्भ बरकरार रखा: 'भारतीय', 'स्वदेशी, स्थानीय', वस्तुतः 'मूल'। धीरे-धीरे, भारतीय समूहों ने खुद को और अपने "पारंपरिक तरीकों" को आक्रमणकारियों से अलग करते हुए, इस शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया।
११९२ ई. में मुहम्मद गोरी के हाथों पृथ्वीराज चौहान की हार के बारे में चंद बरदाई द्वारा लिखित पृथ्वीराज रासो पाठ "हिंदुओं" और "तुर्कों" के संदर्भ से भरा है, और एक स्तर पर कहता है, "दोनों धर्मों ने अपनी घुमावदार तलवारें;" हालाँकि, इस पाठ की तारीख स्पष्ट नहीं है और अधिकांश विद्वान इसे नवीनतम मानते हैं। इस्लामी साहित्य में, 'अब्द अल-मलिक इसामी की फ़ारसी कृति, फ़ुतुहु-सलातीन, जिसकी रचना १३५० में बहमनी शासन के तहत दक्कन में की गई थी, जातीय-भौगोलिक अर्थ में भारतीय के अर्थ में ' हिन्दी ' शब्द का उपयोग करती है और यह शब्द ' हिन्दू ' का अर्थ हिन्दू धर्म के अनुयायी के अर्थ में 'हिन्दू' है। कवि विद्यापति की कृतिलता (१३८०) में हिन्दू शब्द का प्रयोग एक धर्म के अर्थ में किया गया है, यह हिंदुओं की संस्कृतियों के विपरीत है और एक शहर में तुर्क (मुसलमान) और निष्कर्ष निकाला कि "हिंदू और तुर्क एक साथ रहते हैं; प्रत्येक दूसरे के धर्म ( धम्मे ) का मज़ाक उड़ाता है।"
यूरोपीय भाषा (स्पेनिश) में धार्मिक संदर्भ में 'हिंदू' शब्द का सबसे पहला उपयोग १६४९ में सेबस्टियो मैनरिक द्वारा किया गया प्रकाशन था। भारतीय इतिहासकार डीएन झा के निबंध "लुकिंग फॉर ए हिंदू आइडेंटिटी" में वे लिखते हैं: "चौदहवीं शताब्दी से पहले किसी भी भारतीय ने खुद को हिंदू नहीं बताया" और "अंग्रेजों ने 'हिंदू' शब्द भारत से उधार लिया, दिया। इसने एक नया अर्थ और महत्व दिया, [और] इसे हिंदू धर्म नामक एक संशोधित घटना के रूप में भारत में पुनः लाया।" १८वीं शताब्दी में, यूरोपीय व्यापारियों और उपनिवेशवादियों ने भारतीय धर्मों के अनुयायियों को सामूहिक रूप से हिंदू कहना शुरू कर दिया।
'हिंदू' के अन्य प्रमुख उल्लेखों में १४वीं शताब्दी में मुस्लिम राजवंशों के सैन्य विस्तार से लड़ने वाले आंध्र प्रदेश राज्यों के अभिलेखीय शिलालेख शामिल हैं, जहां 'हिंदू' शब्द आंशिक रूप से 'तुर्क' या इस्लामी धार्मिक पहचान के विपरीत एक धार्मिक पहचान को दर्शाता है। हिंदू शब्द का प्रयोग बाद में कभी-कभी कुछ संस्कृत ग्रंथों में किया गया, जैसे कश्मीर की बाद की राजतरंगिणी (हिंदूका, च.१४50 ) और १६वीं से १८वीं शताब्दी के कुछ बंगाली गौड़ीय वैष्णव ग्रंथ, जिनमें चैतन्य चरितामृत और चैतन्य भागवत शामिल हैं। इन ग्रंथों में इसका उपयोग १६वीं शताब्दी के चैतन्य चरितामृत पाठ और १७वीं शताब्दी के भक्त माला पाठ में "हिंदू धर्म " वाक्यांश का उपयोग करते हुए मुसलमानों से हिंदुओं की तुलना करने के लिए किया गया, जिन्हें यवन (विदेशी) या म्लेच्छ (बर्बर) कहा जाता है।
हिंदू पहचान का इतिहास
शेल्डन पोलक कहते हैं, १०वीं शताब्दी के बाद और विशेष रूप से १२वीं शताब्दी के इस्लामी आक्रमण के बाद, राजनीतिक प्रतिक्रिया भारतीय धार्मिक संस्कृति और सिद्धांतों के साथ जुड़ गई। देवता राम को समर्पित मंदिर उत्तर से दक्षिण भारत तक बनाए गए, और पाठ्य अभिलेखों के साथ-साथ भौगोलिक शिलालेखों में रामायण के हिंदू महाकाव्य की तुलना क्षेत्रीय राजाओं और इस्लामी हमलों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया से की जाने लगी। उदाहरण के लिए, पोलक के अनुसार, देवगिरि के रामचन्द्र नाम के यादव राजा का वर्णन १३वीं शताब्दी के एक अभिलेख में इस प्रकार किया गया है, "इस राम का वर्णन कैसे किया जाए.. जिन्होंने वाराणसी को म्लेच्छ (बर्बर, तुर्क मुस्लिम) गिरोह से मुक्त कराया और वहां निर्माण कराया।" सारंगधारा का एक स्वर्ण मंदिर"। पोलक कहते हैं कि यादव राजा रामचन्द्र को देवता शिव (शैव) के भक्त के रूप में वर्णित किया गया है, फिर भी उनकी राजनीतिक उपलब्धियों और वाराणसी में मंदिर निर्माण प्रायोजन, दक्कन क्षेत्र में उनके राज्य के स्थान से दूर, का वर्णन वैष्णववाद के संदर्भ में ऐतिहासिक अभिलेखों में किया गया है। राम, एक देवता विष्णु अवतार। पोलक ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और एक उभरती हुई हिंदू राजनीतिक पहचान का सुझाव देते हैं जो हिंदू धार्मिक ग्रंथ रामायण पर आधारित है, जो आधुनिक समय में भी जारी है, और सुझाव देते हैं कि यह ऐतिहासिक प्रक्रिया भारत में इस्लाम के आगमन के साथ शुरू हुई।
ब्रजदुलाल चट्टोपाध्याय ने पोलक सिद्धांत पर सवाल उठाया है और पाठ्य एवं अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं। चट्टोपाध्याय के अनुसार, इस्लामी आक्रमण और युद्धों के प्रति हिंदू पहचान और धार्मिक प्रतिक्रिया विभिन्न राज्यों में विकसित हुई, जैसे इस्लामी सल्तनत और विजयनगर साम्राज्य के बीच युद्ध, और तमिलनाडु में राज्यों पर इस्लामी हमले। चट्टोपाध्याय कहते हैं, इन युद्धों का वर्णन न केवल रामायण से राम की पौराणिक कहानी का उपयोग करके किया गया था, बल्कि मध्ययुगीन अभिलेखों में धार्मिक प्रतीकों और मिथकों की एक विस्तृत श्रृंखला का उपयोग किया गया था जिन्हें अब हिंदू साहित्य का हिस्सा माना जाता है। राजनीतिक शब्दावली के साथ धार्मिक का यह उद्भव आठवीं शताब्दी ईस्वी में सिंध पर पहले मुस्लिम आक्रमण के साथ शुरू हुआ और १३वीं शताब्दी के बाद तीव्र हुआ। उदाहरण के लिए, १४वीं शताब्दी का संस्कृत पाठ, मधुरविजयम, विजयनगर राजकुमार की पत्नी गंगादेवी द्वारा लिखित एक संस्मरण, धार्मिक शब्दों का उपयोग करके युद्ध के परिणामों का वर्णन करता है,
१३वीं और १४वीं शताब्दी के काकतीय राजवंश काल के तेलुगु भाषा में ऐतिहासिक लेखन एक समान "विदेशी अन्य (तुर्क)" और "आत्म-पहचान (हिंदू)" विरोधाभास प्रस्तुत करते हैं। चट्टोपाध्याय और अन्य विद्वान, कहते हैं कि भारत के दक्कन प्रायद्वीप और उत्तर भारत में मध्ययुगीन युग के युद्धों के दौरान सैन्य और राजनीतिक अभियान, अब संप्रभुता की खोज नहीं थे, उन्होंने इसके खिलाफ एक राजनीतिक और धार्मिक शत्रुता का प्रतीक बना दिया था। "इस्लाम की अन्यता", और इससे हिंदू पहचान निर्माण की ऐतिहासिक प्रक्रिया शुरू हुई।
एंड्रयू निकोलसन ने हिंदू पहचान के इतिहास पर विद्वता की अपनी समीक्षा में कहा है कि भक्ति आंदोलन के १५वीं से १७वीं शताब्दी के संतों, जैसे कबीर, अनंतदास, एकनाथ, विद्यापति का स्थानीय साहित्य बताता है कि हिंदुओं और तुर्कों (मुसलमानों) के बीच अलग-अलग धार्मिक पहचान हैं। ), इन शताब्दियों के दौरान गठित हुआ था। निकोलसन कहते हैं, इस काल की कविता हिंदू और इस्लामी पहचानों के बीच विरोधाभास है और साहित्य "हिंदू धार्मिक पहचान की विशिष्ट भावना" के साथ मुसलमानों की निंदा करता है।
अन्य भारतीय धर्मों के बीच हिंदू पहचान
विद्वानों का कहना है कि हिंदू, बौद्ध और जैन पहचान पूर्वव्यापी रूप से प्रस्तुत आधुनिक निर्माण हैं। दक्षिण भारत जैसे क्षेत्रों में ८वीं शताब्दी के बाद के शिलालेखीय साक्ष्य बताते हैं कि मध्ययुगीन युग के भारत में, कुलीन और लोक धार्मिक प्रथाओं दोनों स्तरों पर, संभवतः "साझा धार्मिक संस्कृति" थी, और उनकी सामूहिक पहचान "एकाधिक" थी। स्तरित और फजी"। यहां तक कि शैव और वैष्णव जैसे हिंदू संप्रदायों में भी, लेस्ली ऑर का कहना है कि हिंदू पहचान में "दृढ़ परिभाषाओं और स्पष्ट सीमाओं" का अभाव था।
जैन-हिंदू पहचानों में ओवरलैप में जैनियों द्वारा हिंदू देवताओं की पूजा करना, जैनियों और हिंदुओं के बीच अंतर्विवाह, और मध्ययुगीन युग के जैन मंदिरों में हिंदू धार्मिक प्रतीक और मूर्तिकला शामिल हैं। भारत से परे, इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर, ऐतिहासिक अभिलेख हिंदुओं और बौद्धों के बीच विवाह, मध्ययुगीन युग के मंदिर वास्तुकला और मूर्तियां जो एक साथ हिंदू और बौद्ध विषयों को शामिल करते हैं, की पुष्टि करते हैं, जहां हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म का विलय हुआ और "एक के भीतर दो अलग-अलग पथ" के रूप में कार्य किया गया। समग्र प्रणाली", ऐन केनी और अन्य विद्वानों के अनुसार। इसी तरह, धार्मिक विचारों और उनके समुदायों दोनों में, सिखों का हिंदुओं के साथ एक जैविक संबंध है, और वस्तुतः सभी सिखों के पूर्वज हिंदू थे। सिखों और हिंदुओं के बीच, विशेषकर खत्रियों के बीच, विवाह अक्सर होते थे। कुछ हिंदू परिवारों ने अपने बेटे को एक सिख के रूप में पाला, और कुछ हिंदू सिख धर्म को हिंदू धर्म के भीतर एक परंपरा के रूप में देखते हैं, भले ही सिख आस्था एक अलग धर्म है।
जूलियस लिपनर का कहना है कि हिंदू, बौद्ध, जैन और सिखों के बीच अंतर करने की प्रथा एक आधुनिक घटना है, लेकिन यह एक सुविधाजनक अमूर्तता है। लिपनर कहते हैं, भारतीय परंपराओं में अंतर करना एक हालिया अभ्यास है, और यह "न केवल सामान्य रूप से धर्म की प्रकृति और विशेष रूप से भारत में धर्म के बारे में पश्चिमी पूर्व धारणाओं का परिणाम है, बल्कि भारत में पैदा हुई राजनीतिक जागरूकता का भी परिणाम है"। इसके लोग और इसके औपनिवेशिक इतिहास के दौरान पश्चिमी प्रभाव का परिणाम है।
फ्लेमिंग और एक जैसे विद्वानों का कहना है कि पहली सहस्राब्दी ईस्वी के बाद के महाकाव्य युग के साहित्य से यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है कि एक पवित्र भूगोल के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐतिहासिक अवधारणा थी, जहां पवित्रता धार्मिक विचारों का एक साझा समूह था। उदाहरण के लिए, शैव धर्म के बारह ज्योतिर्लिंग और शक्ति धर्म के इक्यावन शक्तिपीठों को प्रारंभिक मध्ययुगीन युग के पुराणों में एक विषय के आसपास तीर्थ स्थलों के रूप में वर्णित किया गया है। यह पवित्र भूगोल और शैव मंदिर समान प्रतिमा विज्ञान, साझा विषयों, रूपांकनों और अंतर्निहित किंवदंतियों के साथ भारत भर में पाए जाते हैं, हिमालय से लेकर दक्षिण भारत की पहाड़ियों तक, एलोरा गुफाओं से लेकर वाराणसी तक लगभग मध्य तक। पहली सहस्राब्दी. कुछ सदियों बाद के शक्ति मंदिर पूरे उपमहाद्वीप में सत्यापन योग्य हैं। वाराणसी को एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में स्कंद पुराण के अंदर सन्निहित वाराणसीमहात्म्य पाठ में प्रलेखित किया गया है, और इस पाठ का सबसे पुराना संस्करण ६वीं से ८वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व का है।
भारतीय उपमहाद्वीप में फैली शिव हिंदू परंपरा में बारह पवित्र स्थलों का विचार न केवल मध्ययुगीन युग के मंदिरों में, बल्कि विभिन्न स्थलों पर पाए गए तांबे के शिलालेखों और मंदिर की मुहरों में भी दिखाई देता है। भारद्वाज के अनुसार, गैर-हिंदू ग्रंथ जैसे कि चीनी बौद्ध और फ़ारसी मुस्लिम यात्रियों के संस्मरण पहली सहस्राब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध में हिंदुओं के बीच पवित्र भूगोल की तीर्थयात्रा के अस्तित्व और महत्व की पुष्टि करते हैं।
फ्लेमिंग के अनुसार, जो लोग सवाल करते हैं कि क्या हिंदू और हिंदू धर्म शब्द धार्मिक संदर्भ में एक आधुनिक रचना है, वे कुछ ग्रंथों के आधार पर अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं जो आधुनिक युग में बचे हैं, या तो इस्लामी अदालतों के या पश्चिमी मिशनरियों या औपनिवेशिक द्वारा प्रकाशित साहित्य के। युगीन भारतविद् इतिहास के तर्कसंगत निर्माण का लक्ष्य रखते हैं। हालाँकि, हजारों किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुफा मंदिरों जैसे गैर-पाठ्य साक्ष्य का अस्तित्व, साथ ही मध्ययुगीन युग के तीर्थ स्थलों की सूची, एक साझा पवित्र भूगोल और एक ऐसे समुदाय के अस्तित्व का प्रमाण है जो साझा धार्मिक परिसरों के बारे में स्वयं जागरूक था। और परिदृश्य. इसके अलावा, विकसित होती संस्कृतियों में यह एक आदर्श है कि एक धार्मिक परंपरा की "जीवित और ऐतिहासिक वास्तविकताओं" और संबंधित "पाठ्य प्राधिकारियों" के उद्भव के बीच एक अंतर है। यह परंपरा और मंदिर संभवतः मध्यकालीन युग की हिंदू पांडुलिपियों के सामने आने से बहुत पहले अस्तित्व में थे, जो उनका और पवित्र भूगोल का वर्णन करते हैं। फ्लेमिंग कहते हैं, यह वास्तुकला और पवित्र स्थलों के परिष्कार के साथ-साथ पौराणिक साहित्य के संस्करणों में भिन्नता को देखते हुए स्पष्ट है। डायना एल. एक और आंद्रे विंक जैसे अन्य भारतविदों के अनुसार, ११वीं शताब्दी तक मुस्लिम आक्रमणकारियों को मथुरा, उज्जैन और वाराणसी जैसे हिंदू पवित्र भूगोल के बारे में पता था। इसके बाद की शताब्दियों में ये स्थल उनके सिलसिलेवार हमलों का निशाना बने।
क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट का कहना है कि आधुनिक हिंदू राष्ट्रवाद का जन्म १९२० के दशक में महाराष्ट्र में इस्लामिक खिलाफत आंदोलन की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था, जिसमें भारतीय मुसलमानों ने दुनिया के अंत में सभी मुसलमानों के खलीफा के रूप में तुर्की ओटोमन सुल्तान का समर्थन किया था। युद्ध ई हिंदुओं ने इस विकास को भारतीय मुस्लिम आबादी की विभाजित वफादारी, पैन-इस्लामिक आधिपत्य के रूप में देखा, और सवाल किया कि क्या भारतीय मुस्लिम एक समावेशी उपनिवेशवाद-विरोधी भारतीय राष्ट्रवाद का हिस्सा थे। जेफरलॉट कहते हैं, हिंदू राष्ट्रवाद की जो विचारधारा उभरी, उसे सावरकर द्वारा संहिताबद्ध किया गया था, जब वह ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों के राजनीतिक कैदी थे।
क्रिस बेली हिंदू राष्ट्रवाद की जड़ें हिंदू पहचान और मराठा संघ द्वारा हासिल की गई राजनीतिक स्वतंत्रता में खोजते हैं, जिसने भारत के बड़े हिस्से में इस्लामी मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंका, जिससे हिंदुओं को अपने विविध धार्मिक विश्वासों को आगे बढ़ाने की आजादी मिली और हिंदू पवित्र स्थानों को बहाल किया गया। जैसे वाराणसी. कुछ विद्वान हिंदू लामबंदी और परिणामी राष्ट्रवाद को १९वीं सदी में भारतीय राष्ट्रवादियों और नव-हिंदू धर्म गुरुओं द्वारा ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा हुआ मानते हैं। जैफ़रलोट का कहना है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान ईसाई मिशनरियों और इस्लामी मतांतरणकर्ताओं के प्रयासों ने, जिनमें से प्रत्येक ने हिंदुओं को हीन और अंधविश्वासी होने की पहचान देकर रूढ़िवादी और कलंकित करके अपने धर्म में नए धर्मांतरण कराने की कोशिश की, ने हिंदुओं को फिर से संगठित करने में योगदान दिया। अपनी आध्यात्मिक विरासत पर जोर देते हुए और इस्लाम और ईसाई धर्म की प्रतिपरीक्षा करते हुए, हिंदू सभा'' (हिंदू संघ) जैसे संगठन बनाए और अंततः १९20 के दशक में हिंदू-पहचान से प्रेरित राष्ट्रवाद की स्थापना की।
औपनिवेशिक युग का हिंदू पुनरुत्थानवाद और लामबंदी, हिंदू राष्ट्रवाद के साथ, पीटर वैन डेर वीर कहते हैं, मुख्य रूप से मुस्लिम अलगाववाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद की प्रतिक्रिया और प्रतिस्पर्धा थी। प्रत्येक पक्ष की सफलताओं ने दूसरे पक्ष के भय को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद का विकास हुआ। वान डेर वीर कहते हैं, २०वीं सदी में, भारत में धार्मिक राष्ट्रवाद की भावना बढ़ी, लेकिन केवल मुस्लिम राष्ट्रवाद ही पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (बाद में पाकिस्तान और बांग्लादेश में विभाजित) के गठन के साथ सफल हुआ, जो आजादी के बाद "एक इस्लामी राज्य" के रूप में स्थापित हुआ। . धार्मिक दंगे और सामाजिक आघात के बाद लाखों हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख नव निर्मित इस्लामिक राज्यों से बाहर चले गए और ब्रिटिश-बहुल भारत में फिर से बस गए। १९४७ में भारत और पाकिस्तान के अलग होने के बाद, हिंदू राष्ट्रवाद आंदोलन ने २०वीं सदी के उत्तरार्ध में हिंदुत्व की अवधारणा विकसित की।
हिंदू राष्ट्रवाद आंदोलन ने भारतीय कानूनों में सुधार की मांग की है, आलोचकों का कहना है कि यह भारत के इस्लामी अल्पसंख्यकों पर हिंदू मूल्यों को थोपने का प्रयास है। उदाहरण के लिए, गेराल्ड लार्सन कहते हैं कि हिंदू राष्ट्रवादियों ने एक समान नागरिक संहिता की मांग की है, जहां सभी नागरिक समान कानूनों के अधीन हैं, सभी के पास समान नागरिक अधिकार हैं, और व्यक्तिगत अधिकार व्यक्ति के धर्म पर निर्भर नहीं होते हैं। इसके विपरीत, हिंदू राष्ट्रवादियों के विरोधियों की टिप्पणी है कि भारत से धार्मिक कानून को खत्म करने से मुसलमानों की सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक अधिकारों को खतरा है, और इस्लामी आस्था के लोगों को इस्लामी शरिया -आधारित व्यक्तिगत कानूनों का संवैधानिक अधिकार है। एक विशिष्ट कानून, जो भारत में हिंदू राष्ट्रवादियों और उनके विरोधियों के बीच विवादास्पद है, लड़कियों की शादी की कानूनी उम्र से संबंधित है। हिंदू राष्ट्रवादियों की मांग है कि विवाह की कानूनी उम्र अठारह वर्ष होनी चाहिए, जो सार्वभौमिक रूप से सभी लड़कियों पर लागू होती है, भले ही उनका धर्म कुछ भी हो और विवाह की आयु को सत्यापित करने के लिए विवाह को स्थानीय सरकार के साथ पंजीकृत किया जाए। मुस्लिम मौलवी इस प्रस्ताव को अस्वीकार्य मानते हैं क्योंकि शरिया-व्युत्पन्न व्यक्तिगत कानून के तहत, एक मुस्लिम लड़की की शादी उसके यौवन तक पहुंचने के बाद किसी भी उम्र में की जा सकती है।
कैथरीन एडेनी का कहना है कि भारत में हिंदू राष्ट्रवाद एक विवादास्पद राजनीतिक विषय है, सरकार के स्वरूप और अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों के संदर्भ में इसका क्या अर्थ है या इसका क्या अर्थ है, इस पर कोई आम सहमति नहीं है।
प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, दुनिया भर में १.२ बिलियन से अधिक हिंदू (दुनिया की आबादी का १५%) हैं, जिनमें से ९४.३% से अधिक भारत में केंद्रित हैं। ईसाई (३१.५%), मुस्लिम (२३.२%) और बौद्ध (७.१%) के साथ, हिंदू दुनिया के चार प्रमुख धार्मिक समूहों में से एक हैं। ]]
अधिकांश हिंदू एशियाई देशों में पाए जाते हैं। सबसे अधिक हिंदू निवासियों और नागरिकों (घटते क्रम में) वाले शीर्ष पच्चीस देश भारत, नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, श्रीलंका, संयुक्त राज्य अमेरिका, मलेशिया, म्यांमार, यूनाइटेड किंगडम, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, संयुक्त अरब अमीरात हैं। , कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, त्रिनिदाद और टोबैगो, सिंगापुर, फिजी, कतर, कुवैत, गुयाना, भूटान, ओमान और यमन।
हिंदुओं के उच्चतम प्रतिशत (घटते क्रम में) वाले शीर्ष पंद्रह देश नेपाल, भारत, मॉरीशस, फिजी, गुयाना, भूटान, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, कतर, श्रीलंका, कुवैत, बांग्लादेश, रीयूनियन, मलेशिया और सिंगापुर हैं।
जन्म दर, यानी प्रति महिला बच्चे, हिंदुओं के लिए २.४ है, जो विश्व के औसत २.५ से कम है। प्यू रिसर्च का अनुमान है कि २0५0 तक १.४ अरब हिंदू होंगे।
अधिक प्राचीन समय में, हिंदू साम्राज्यों ने दक्षिण पूर्व एशिया, विशेष रूप से थाईलैंड, नेपाल, बर्मा, मलेशिया, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, फिलीपींस, और जो अब मध्य वियतनाम है, में धर्म और परंपराओं का उदय और प्रसार किया। .
बाली इंडोनेशिया में ३ मिलियन से अधिक हिंदू पाए जाते हैं, एक ऐसी संस्कृति जिसका मूल तमिल हिंदू व्यापारियों द्वारा पहली सहस्राब्दी सीई में इंडोनेशियाई द्वीपों में लाए गए विचारों का पता लगाता है। उनके पवित्र ग्रंथ वेद और उपनिषद भी हैं। पुराण और इतिहास (मुख्य रूप से रामायण और महाभारत) इंडोनेशियाई हिंदुओं के बीच स्थायी परंपराएं हैं, जो सामुदायिक नृत्यों और छाया कठपुतली (वायंग) प्रदर्शनों में व्यक्त की जाती हैं। जैसा कि भारत में, इंडोनेशियाई हिंदू आध्यात्मिकता के चार रास्तों को पहचानते हैं, इसे कैटूर मार्ग कहते हैं। इसी तरह, भारत में हिंदुओं की तरह, बालिनी हिंदुओं का मानना है कि मानव जीवन के चार उचित लक्ष्य हैं, इसे चतुर पुरुषार्थ कहते हैं - धर्म (नैतिक और नैतिक जीवन की खोज), अर्थ (धन और रचनात्मक गतिविधि की खोज), काम (खुशी की खोज) और प्रेम) और मोक्ष (आत्मज्ञान और मुक्ति की खोज)
हिंदू संस्कृति एक शब्द है जिसका इस्तेमाल ऐतिहासिक वैदिक लोगों सहित हिंदुओं और हिंदू धर्म की संस्कृति और पहचान का वर्णन करने के लिए किया जाता है। हिंदू संस्कृति को कला, वास्तुकला, इतिहास, आहार, वस्त्र, ज्योतिष और अन्य रूपों के रूप में गहनता से देखा जा सकता है। भारत और हिंदू धर्म की संस्कृति एक दूसरे के साथ गहराई से प्रभावित और आत्मसात है। दक्षिण पूर्व एशिया और ग्रेटर इंडिया के भारतीयकरण के साथ, संस्कृति ने एक लंबे क्षेत्र और उस क्षेत्र के अन्य धर्मों के लोगों को भी प्रभावित किया है। जैन धर्म, सिख धर्म और बौद्ध धर्म सहित सभी भारतीय धर्म हिंदू धर्म से गहराई से प्रभावित और नरम हैं।
इन्हें भी देखें |
आराधना करने वाले को भक्त कहा जाता है। और भक्त समूह को भक्तों की संज्ञा दी जाती है। किसी धार्मिक स्थान पर सामूहिक रूप से इकट्ठा होना ही भक्तों की श्रेणी मे गिना जाता है। |
पुनर्निर्देशित हिन्दू धर्म की शब्दावली
शब्दकोश (अन्य वर्तनी: शब्दकोष) एक बडी सूची या ऐसा ग्रन्थ जिसमें शब्दों की वर्तनी, उनकी व्युत्पत्ति, व्याकरणनिर्देश, अर्थ, परिभाषा, प्रयोग और पदार्थ आदि का सन्निवेश हो। शब्दकोश एकभाषीय हो सकते हैं, द्विभाषिक हो सकते हैं या बहुभाषिक हो सकते हैं। अधिकतर शब्दकोशों में शब्दों के उच्चारण के लिये भी व्यवस्था होती है, जैसे - अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में, देवनागरी में या आडियो संचिका के रूप में। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग-अलग कार्य-क्षेत्रों के लिये अलग-अलग शब्दकोश हो सकते हैं; जैसे - विज्ञान शब्दकोश, चिकित्सा शब्दकोश, विधिक (कानूनी) शब्दकोश, गणित का शब्दकोश आदि।
सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव जान गया था कि भाव के सही सम्प्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है। सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है। सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं। शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरम्भिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था। इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया। कोश में शब्दों को इकट्ठा किया जाता है।
सब से पहले शब्द संकलन भारत में बने। भारत की यह शानदार परम्परा वेदों जितनीकम से कम पाँच हजार वर्षपुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघण्टु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में १८ सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघण्टु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृत नामलिंगानुशासन या त्रिकाण्ड जिसे सारा संसार 'अमरकोश' के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है।
भारत के बाहर संसार में शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है। यह शायद ईसा पूर्व सातवीं सदी की रचना है। ईसा से तीसरी सदी पहले की चीनी भाषा का कोश है 'ईर्या'।
आधुनिक कोशों की नींव डाली इंग्लैंड में १७५५ में सैमुएल जानसन ने। उन की डिक्शनरी सैमुएल जॉन्संस डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लैंग्वेज ने कोशकारिता को नए आयाम दिए। इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं। असली आधुनिक कोश आया इक्यावन वर्ष बाद १८०६ में अमरीका में नोहा वैब्स्टर्स की नोहा वैब्स्टर्स ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज प्रकाशित हुई। इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था। साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया था। कोश को सफल होना ही था, हुआ। वैब्स्टर के बाद अंग्रेजी कोशों के संशोधन और नए कोशों के प्रकाशन का व्यवसाय तेजी से बढ़ने लगा।
आधुनिक कोश की विधाएँ
वर्तमान युग ने कोशविद्या को अत्यन्त व्यापक परिवेश में विकसित किया। सामान्य रूप से उसकी दो मोटी-मोटी विधाएँ कही जा सकती हैं - (१) शब्दकोश और (२) ज्ञानकोश। शब्दकोश के स्वरूप का बहुमुखी प्रवाह निरंतर प्रौढ़ता की ओर बढ़ता लक्षित होता रहा है। आज की कोशविद्या का विकसित स्वरूप भाषा विज्ञान, व्याकरणशास्त्र, साहित्य, अर्थविज्ञान, शब्दप्रयोगीय, ऐतिहासिक विकास, सन्दर्भसापेक्ष अर्थविकास और नाना शास्त्रों तथा विज्ञानों में प्रयुक्त विशिष्ट अर्थों के बौद्धिक और जागरूक शब्दार्थ संकलन का पुंजीकृत परिणाम है।
हमारे परिचित भाषाओं के कोशों में ऑक्सफोर्ड-इंग्लिश-डिक्शनरी के परिशीलन में उपर्युक्त समस्त प्रवृत्तियों का उत्कृष्ट निदर्शन देखा जा सकता है। उसमें शब्दों के सही उच्चारण का संकेत-चिह्नों से विशुद्ध और परिनिष्ठित बोध भी कराया है। योरप के उन्नत और समृद्ध देशों की प्रायः सभी भाषाओं में विकासित स्तर की कोशविद्या के आधार पर उत्कृष्ट, विशाल, प्रामाणिक और सम्पन्न कोशों का निर्माण हो चुका है और उन दोशों में कोशनिर्माण के लिये ऐसे स्थायी संस्थान प्रतिष्ठापित किए जा चुके हैं जिनमें अबाध गति से सर्वदा कार्य चलता रहता है। लब्धप्रतिष्ठा और बडे़-बडे़ विद्वानों का सहयोग तो उन संस्थानों को मिलता ही है, जागरूक जनता भी सहयोग देती है। अंग्रेजी डिक्शनरी तथा अन्य भाषाओं में निर्मित कोशकारों के रचना-विधान-मूलक वैशिष्टयों का अध्ययन करने से अद्यतन कोशों में निम्ननिर्दिष्ट बातों का अनुयोग आवश्यक लगता है
क) उच्चारणमसूचक संकेतचिह्नों के माध्यम से शब्दों के स्वरों व्यंजनों का पूर्णतः शुद्ध और परिनिष्ठित उच्चारण स्वरूप बताना और स्वराघात बलाघात का निर्देश करते हुए यथासम्भव उच्चार्य अंश के अक्षरों की बद्धता और अबद्धता का परिचय देना;
ख) व्याकरण संबंद्ध उपयोगी और आवश्यक निर्देश देना;
ग) शब्दों की इतिहास- संबंद्ध वैज्ञानिकव्युत्पत्ति प्रदर्शित करना;
घ) परिवारसंबंद्ध अथवा परिवारमुक्त निकट या दूर के शब्दों के साथ शब्दरूप और अर्थरूप का तुलनात्मक पक्ष उपस्थित करना;
ङ) शब्दों के विभिन्न और पृथक्कृत नाना अर्थों को अधिकन्यून प्रयोग क्रमानुसार सूचित करना;
च) अप्रयुक्त-शब्दों अथवा शब्दप्रयोगों की विलोपसूचना देना;
छ) शब्दों के पर्याय बताना; और
ज) संगत अर्थों के समार्नाथ उदाहरण देना;
झ) चित्रों, रेखाचित्रों, मानचित्रों आदि के द्वारा अर्थ को अधिक स्पष्ट करना।
'आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी' का नव्यतम और बृहत्तम संस्करण आधुनिक कोशविद्या की प्रायः सभी विशेषताओं से संपन्न है। नागरीप्रचारिणी सभा के हिंदी शब्दसागर के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाश्यमान मानक शब्दकोश एक विस्तृत आयास है। हिन्दी कोशकला के लब्धप्रतिष्ठ सम्पादक रामचन्द्र वर्मा के इस प्रशंसनीय कार्य का उपजीव्य भी मुख्यातः शब्दसागर ही है। उसका मूल कलेवर तात्विक रूप में शब्दसागर से ही अधिकांशतः परिकलित है। हिन्दी के अन्य कोशों में भी अधिकांश सामग्री इसी कोश से ली गयी है। थोडे-बहुत मुख्यतः संस्कृत कोशों से और यदा-कदा अन्यत्र से शब्दों और अर्थों को आवश्यक अनावश्यक रूप में ठूँस दिया गया है। ज्ञानमण्डल के बृहद् हिन्दी शब्दकोश में पेटेवाली प्रणाली शुरू की गई है। परन्तु वह पद्धति संस्कृत के कोशों में जिनका निर्माण पश्चिमी विद्वानों के प्रयास से आरम्भ हुआ था, सैकड़ो वर्ष पूर्व से प्रचलित हो गई थी। पर आज भी, नव्य या आधुनिक भारतीय भाषाओं के कोश उस स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं जहाँ तक आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अथवा रूसी, अमेरिकन, जर्मन, इताली, फ़्रांसीसी आदि भाषाओं के उत्कृष्ट और अत्यन्त विकसित कोश पहुँच चुके हैं।
कोशरचना की ऊपर वर्णित विधा को हम साधारणतः सामान्य भाषा शब्दकोश कह सकते हैं। इस प्रकार शब्दकोश एकभाषी, द्विभाषी, त्रिभाषी और बहुभाषी भी होते हैं। बहुभाषी शब्दकोशों में तुलनात्मक शब्दकोश भी यूरोपीय भाषाओं में ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान की प्रौढ़ उपलब्धियों से प्रमाणीकृत रूप में निर्मित हो चुके हैं। इनमें मुख्य रूप से भाषावैज्ञानिक अनुशीलन और शोध के परिणामस्वरूप उपलब्ध सामग्री का नियोजन किया गया है। ऐसे तुलनात्मक कोश भी आज बन चुके हैं जिनमें प्राचीन भाषाओं की तुलना मिलती है। ऐसे भी कोश प्रकाशित हैं जिनमें एक से अधिक मूल परिवार की अनेक भाषाओं के शब्दों का तुलनात्मक परिशीलन किया गया है।
शब्दकोशों के नाना रूप
शब्दकोशों के और भी नाना रूप आज विकसित हो चुके हैं और हो रहे हैं। वैज्ञानिक और शास्त्रीय विषयों के सामूहिक और उस-उस विषय के अनुसार शब्दकोश भी आज सभी समृद्ध भाषाओं में बनते जा रहे हैं। शास्त्रों और विज्ञानशाखाओं के परिभाषिक शब्दकोश भी निर्मित हो चुके हैं और हो रहे हैं। इन शब्दकोशों की रचना एक भाषा में भी होती है और दो या अनेक भाषाओं में भी। कुछ में केवल पर्याय शब्द रहते हैं और कुछ में व्याख्याएँ अथवा परिभाषाएँ भी दी जाती है। विज्ञान और तकनीकी या प्रविधिक विषयों से संबद्ध नाना पारिभाषिक शब्दकोशों में व्याख्यात्मक परिभाषाओं तथा कभी कभी अन्य साधनों की सहायता से भी बिलकुल सही अर्थ का बोध कराया जाता है। दर्शन, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान और समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि समस्त आधुनिक विद्याओं के कोश विश्व की विविध सम्पन्न भाषाओं में विशेषज्ञों की सहायता से बनाए जा रहे हैं और इस प्रकृति के सैकडों-हजारों कोश भी बन चुके हैं। शब्दार्थकोश सम्बन्धी प्रकृति के अतिरिक्त इनमें ज्ञानकोशात्मक तत्वों की विस्तृत या लघु व्याख्याएँ भी संमिश्रित रहती है। प्राचीन शास्त्रों और दर्शनों आदि के विशिष्ट एवं पारिभाषिक शब्दों के कोश भी बने हैं और बनाए जा रहे हैं। अनके अतिरिक्त एक-एक ग्रन्थ के शब्दार्थ कोश (यथा मानस शब्दावली) और एक-एक लेखक के साहित्य की शब्दावली भी योरप, अमेरिका और भारत आदि में संकलित हो रही है। इनमें उत्तम कोटि के कोशकारों ने ग्रन्थसन्दर्भों के संस्करणात्मक संकेत भी दिए हैं। अकारादि वर्णानुसारी अनुक्रमणिकात्मक उन शब्दसूचियों काजिनके अर्थ नहीं दिए जाते हैं पर सन्दर्भसंकेत रहता हैंयहाँ उल्लेख आवश्यक नहीं है। योरप और इंगलैड में ऐसी शब्दसूचियाँ अनेक बनीं। शेक्सपियर द्वारा प्रयुक्त शब्दों की ऐसी अनुक्रमणिका परम प्रसिद्ध है। वैदिक शब्दों की और ऋक्संहिता में प्रयुक्त पदों की ऐसी शब्दसूचियों के अनेक संकलन पहले ही बन चुके हैं। व्याकरण महाभाष्य की भी एक एक ऐसी शब्दानुक्रमणिका प्रकाशित है। परन्तु इनमें अर्थ न होने के कारण यहाँ उनका विवेचन नहीं किया जा रहा है।
कोश की एक दूसरी विधा ज्ञानकोश भी विकसित हुई है। इसके वृहत्तम और उत्कष्ट रूप को इन्साइक्लोपिडिया कहा गया है। हिन्दी में इसके लिये विश्वकोश शब्द प्रयुक्त और गृहीत हो गया है। यह शब्द बँगाल विश्वकोशकार ने कदाचित् सर्वप्रथम बंगाल के ज्ञानकोश के लिये प्रयुक्त किया। उसका एक हिन्दी संस्करण हिन्दी विश्वकोश के नाम से नए सिरे से प्रकाशित हुआ। हिन्दी में यह शब्द प्रयुक्त होने लगा है। यद्यपि हिन्दी के प्रथम किशोरोपयोगी ज्ञानकोश (अपूर्ण) को श्री श्रीनारायण चतुर्वेदी तथा पं० कृष्ण वल्लभ द्विवेदी द्वारा विश्वभारती अभिधान दिया गया तो भी ज्ञान कोश, ज्ञानदीपिका, विश्वदर्शन, विश्वविद्यालयभण्डार आदि संज्ञाओं का प्रयोग भी ज्ञानकोश के लिये हुआ है। स्वयं सरकार भी बालशिक्षोपयोगी ज्ञानकोशात्मक ग्रन्थ का प्रकाशन 'ज्ञानसरोवर' नाम से कर रही है। परन्तु इन्साइक्लोपीडिया के अनुवाद रूप में विवकोश शब्द ही प्रचलित हो गया। उडिया के एक विश्वकोश का नाम शब्दार्थानुवाद के अनुसार ज्ञान मण्डल रखा भी गया। ऐसा लगता है कि बृहद् परिवेश के व्यापक ज्ञान का परिभाषिक और विशिष्ट शब्दों के माध्यम से ज्ञान देने वाले ग्रन्थ का इन्साइक्लोपीडिया या विश्वकोश अभिधान निर्धारित हुआ और अपेक्षाकृत लघुतरकोशों को ज्ञानकोश आदि विभिन्न नाम दिए गए। अंग्रेजी आदि भाषाओं में बुक ऑफ़ नालेज, डिक्शनरी आव जनरल नालेज आदि शीर्षकों के अन्तर्गत नाना प्रकार के छोटे बडे विश्वकोश अथवा ज्ञानकोश बने हैं और आज भी निरन्तर प्रकाशित एवं विकसित होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं इन्साइक्लोपीडिया ऑफ़ रिलीजन ऐण्ड एथिक्स आदि विषयविशेष से संबंद्ध विश्वकोशों की संख्या भी बहुत ही बडी है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से निर्मित अनेक सामान्य विश्वकोश और विशष विश्वकोश भी आज उपलब्ध हैं।
इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, इन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना अंग्रेजी के ऐसे विश्वकोश हैं। अंग्रेजी के सामान्य विश्वकोशों द्वारा इनकी प्रामाणिकता और संमान्यता सर्वस्वीकृत है। निरन्तर इनके संशोधित, संवर्धित तथा परिष्कृत संस्करण निकलते रहते हैं। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के दो परिशिष्ट ग्रन्थ भी हैं जो प्रकाशित होते रहते हैं और जो नूतन संस्करण की सामग्री के रूप में सातत्य भाव से संकलित होते रहते हैं। इंग्लैंड में इन्साइक्लोपीडिया के पहले से ही ज्ञानकोशात्मक कोशों के नाना रूप बनने लगे थे।
ज्ञानकोशों के नाना प्रकार
ज्ञानकोशों के भी इतने अधिक प्रकार और पद्धतियाँ हैं जिनकी चर्चा का यहाँ अवसर नहीं है। चरितकोश, कथाकोश इतिहासकोश, ऐतिहासिक कालकोश, जीवनचरितकोश पुराख्यानकोश, पौराणिक- ख्यातपुरुषकोश आदि आदि प्रकार के विविध नामरूपात्मक ज्ञानकोशों की बहुत सी विधाएँ विकसित और प्रचलित हो चुकी हैं। यहाँ प्रसंगतः ज्ञानकोशों का संकेतात्मक नामनिर्देश मात्र कर दिया जा रहा है। हम इस प्रसंग को यहीं समाप्त करते हैं और शब्दार्थकोश से संबंद्ध प्रकृत विषय की चर्चा पर लौट आते हैं।
आधुनिक कोशविद्या : तुलनात्मक दृष्टि
भारत में कोशविद्या के आधुनिक स्वरुप का उद्भव और विकास मध्यकालीन हिंदी कोशों की मान्यता और रचनाप्रक्रिया से भिन्न उद्देश्यों को लेकर हुआ। पाश्चात्य कोशों के आदर्श, मान्यताएँ, उद्देश्य, रचनाप्रक्रिया और सीमा के नूतन और परिवर्तित आयामों का प्रवेश भारत की कोश रचनापद्धति में आरंभ हुआ। संस्कृत और इतर भारतीय भाषाओं में पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वानों के प्रयास से छोटे-बडे बहुत से कोश निर्मित हुए। इन कोशों का भारत और भारत के बाहर भी निर्माण हुआ। आरंभ में भारतीय भाषाओं के, मुख्यतः संस्कृत के कोश अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच आदि भाषाओं के माध्यम से बनाए गए। इनमें संस्कृत आदि के शब्द भी रोमन लिपि में रखे गए। शब्दार्थ की व्याख्या और अर्थ आदि के निर्देश कोश की भाषा के अनुसार जर्मन, अंग्रेजी, फारसी, पुर्तगाली आदि भाषाओं में दिए गए। बँगला, तमिल आदि भाषाओं के ऐसे अनेक कोशों की रचना ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा भारत और आसपास के लघु द्वीपों में हुई। हिंदी के भी ऐसे अनेक कोश बने। सबसे पहला शब्दकोश संभवतः फरग्युमन का 'हिंदुस्तानी अंग्रेजी' (अंग्रेजी हिंदुस्तानी) कोश था जो १७७३ ई० में लंदन में प्रकाशित हुआ। इन आरंभिक कोशों को 'हिंदुस्तानी कोश' कहा गया। ये कोश मुख्यतः हिंदी के ही थे। पाश्चात्य विद्वानों के इन कोशों में हिंदी को हिंदुस्तानी कहने का कदाचित् यह कारण है कि हिंदुस्तान भारत का नाम माना गया और वहाँ की भाषा हिंदुस्तानी कही गई। कोशविद्या के इन पाश्चात्य पंडितों की दृष्टि में हिंदी का ही पर्याय हिंदुस्तानी था और वही सामान्य रूप में हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा थी।
आरंभिक क्रम में कोशनिर्माण की प्रेरणात्मक चेतना का बहुत कुछ सामान्य रूप भारत और पश्चिम में मिलता जुलता था। भारत का वैदिक निघंटु विरल और क्लिष्ट शब्दों के अर्थ और पर्यायों का संक्षिप्त संग्रह था। योरप में भी ग्लासेरिया से जिस कोशविद्या का आरंभिक बीजवपन हुआ था, उसके मूल में भई विरल और क्लिष्ट शब्दों का पर्याय द्वारा अर्थबोध कराना ही उद्देश्य था। लातिन की उक्त शब्दार्थसूची से शनैः शनैः पश्चिम की आधुनिक कोशविद्या के वैकासिक सोपान आविर्भूत हुए। भारत और पश्चिम दोनों ही स्थानों में शब्दों के सकलन में वर्गपद्धति का कोई न कोई रूप मिल जाता है। पर आगे चलकर नव्य कोशों का पूर्वोंक्त प्राचीन और मध्यकालीन कोशों से जो सर्वप्रथम और प्रमुखतम भेदक वैशिष्टय प्रकट हुआ वह था - 'वर्णमालाक्रमानुसारी शब्दयोजना' की पद्धति।
आधुनिक कोश: सीमा और स्वरूप
योरप में आधुनिक कोशों का जो स्वरूप विकसित हुआ, उसकी रूपरेखा का संकेत ऊपर किया जा चुका है। योरप, एशिया और अफ्रिका के उस तटभाग में जो अरब देशों के प्रभाव में आया था, उक्त पद्धति के अनुकरण पर कोशों का निर्माण होने लगा था। भारत में व्यापक पैमाने पर जिस रूप में कोश निर्मत होते चले, उनकी संक्षिप्त चर्चा की जा चुकी है। इन सबके आधार पर उत्तम कोटि के आधुनिक कोशों की विशिष्टताओं का आकलन करते हुए कहा जा सकता है कि:
(क) आधुनिक कोशों में शब्दप्रयोग के ऐतिहाससिक क्रम की सरणि दिखाने के प्रयास को बहुत महत्व दिया गया है। ऐसे कोर्शो को ऐतिहासिक विवरणात्मक कहा जा सकता है। उपलब्ध प्रथम प्रयोग और प्रयोगसंदर्भ का आधार लेकर अर्थ और उनके एकमुखी या बहुमुखी विकास के सप्रमाण उपस्थापन की चेष्टा की जाती है। दूसरे शब्दों में इसे हम शब्दप्रयोग और तद्बोध्यार्थ के रूप की आनुक्रमिक या इतिहासानुसारी विवेचना कह सकते है। इसमें उद्वरणों का उपयोग दोनों ही बातों (शब्दप्रयोग और अर्थविकास) की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं।
(ख) आधुनिक कोशकार के द्वार संगृहीत शब्दों और अर्थों के आधार का प्रामाण्य भी अपेक्षित होता है। प्राचीन कोशकार इसके लिये बाध्य नहीं था। वह स्वत: प्रमाण समझा जाता था। पूर्व तंत्रों या ग्रंथों का समाहार करते हुए यदाकदा इतना भी कह देना उसके लिये बहुधा पर्याप्त हो जाता था। पर आधुनिक कोशों में ऐसे शब्दों के संबंध में जिनका साहित्य व्यवहार में प्रयोग नहीं मिलता, यह बताना भी आवश्यक हो जाता है कि अमुक शब्द या अर्थ कोशीय मात्र हैं।
(ग) आधुनिक कोशों की एक दुसरी नई धारा ज्ञानकोशात्मक है जिनकी उत्कृष्ट रूप 'विश्वकोश' के नाम से सामने आता है। अन्य रूप पारिभाषिक शब्दकोश, विषयकोश, चरितकोश, ज्ञानकोश, अब्दकोश आदि नाना रूपों में अपने आभोग का विस्तार करते चल रहै हैं।
(घ) आधुनिक शब्दकोशों मे अर्थ की स्पष्टता के लिये चित्र, रेखा-चित्र, मानचित्र आदि का उपयोग भी किया जाता है।
(ङ) विशुद्ध शस्त्रीय वाङमय (शस्त्र) के प्राचीन स्तर से हटकर आज के कोश वैज्ञानिक अथवा विज्ञानकल्प रचनाप्रक्रिया के स्तर पर पहुँच गए। ये कोश रूपविकास और अर्थविकास की ऐतिहासिक प्रमाणिकता के साथ साथ भाषवैज्ञानिक सिद्धांत की संगति ढूँढने का पूर्ण प्रयत्न करते हैं। आधुनिक भाषाओं के तद्भव, देशी और विदेशी शब्दों के मूल और स्रोत ढ़ूँढने की चेष्टा की जाती है। कभी कभी प्राचीन भाषा या भाषाओ के मूलस्रोतों की गवेषण के व्युत्पत्ति-दर्शन के सदर्भ में महत्वपूर्ण प्रयास होता है। बहुभाषी पर्यायकोशों में एतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान के सहयोग सहायता द्वारा स्रोतभाषा के कल्पनानिदिप्ट रूप अंगीकृत होते हैं। उदाहरणार्थ प्राचीन भारत योरोपी आर्यभाषा के बहुभाषी तुलनात्मक कोशों में मूल आर्यभाषा (या आर्यों के 'फादर लैंग्वेज') के कल्पित मृलख्वपो का अनुमान किया जाता है। दूसरे शबदो में इसका तात्पर्य यह है कि आधुनिक उत्कृष्ट कोशों में जहां एक ओर प्राचीन और पूर्ववर्ती वाङ्मय का शब्दप्रयोग के क्रमिक ज्ञान के लिये ऐतिहासिक अध्ययन होता है वहां भाषाविज्ञान के ऐतिहासिक, तुलनात्मक और वर्णनात्मक दुष्टिपक्षों का प्रौढ़ सहयोग और विनियोग अपेक्षित रहता है। कोशविज्ञान की नूतन रचानाप्रक्रिया आज के युग में भाषाविज्ञान के नाना अंगों से बहुत ही प्रभावित हो गई है।
कोशारचना को प्रक्रिया और भाषाविज्ञान
कोशनिर्माण का शब्दसंकलन सर्वप्रमुख आधार है। परन्तु शब्दों के संग्रह का कार्य अत्यत कठिन है। मुख्य रूप में शब्दों का चयन दो स्त्रोतों से होता है -
(१) लिखित साहित्य से और
(२) लोकव्यवहार और लोकसाहित्य से।
लिखित साहित्य से सग्रह्य शब्दों के लिये हस्तलिखित और मुद्रित ग्रंथो का सहारा लिया जाता है। परंतु इसके अंतर्गत प्राचीन हस्तलेखों और मुद्रित ग्रथो के आधार पर जब शब्दसंकलन होता है तब उभयविध आधारग्रंथों की प्रामाणिकता और पाठशुद्धि आवश्यक होती है। इनके बिमा गृहीत शब्दों का महत्व कम हो जाता है और उनसे भ्रमसृष्टि की संभावना बढ़ती है।
विविध प्रकार के शब्दकोश
आजकल ऐसे कम्प्यूटर प्रोग्राम उपलब्ध हैं जो शब्दकोश के सारे काम करते हैं। वे कागज पर मुद्रित नहीं हैं बल्कि किसी विशिष्ट फाइल-फॉर्मट में हैं और किसी 'डिक्शनरी सॉफ्टवेयर' के द्वारा प्रयोक्ता को शब्दार्थ ढूढने में मदद करते हैं। इनमें कुछ ऐसी सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं जो परम्परागत शब्दकोशों में सम्भव ही नहीं है; जैसे शब्द का उच्चारण ध्वनि के माध्यम से देना आदि।
शब्दकोशों के कुछ प्रकार ये हैं-
विशिष्ट शब्दकोश - गणित, विज्ञान, विधि, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा आदि के शब्दकोश
पारिभाषिक शब्दकोश - इनमें किसी क्षेत्र (विषय) के प्रमुख शब्दों के संक्षिप्त और मुख्य अर्थ दिए गए होते हैं।
प्राकृतिक भाषा संसाधन के लिए शब्दकोश - ये मानव के बजाय किसी कम्प्यूतर प्रोग्राम द्वारा प्रयोग को ध्यान में रखकर बनाई जातीं हैं।
बाल शब्दकोश तथा वृहत् शब्दकोश आदि
इन्हें भी देंखें
शब्दकोशों का इतिहास
हिन्दी विकि शब्दकोष - विकिपीडिया के बंधु प्रोजाक्ट में से एक है - विक्शनरी, यानी विकि शब्दकोष। कृपया अंग्रेजी से हिन्दी शब्दों की सूची वहाँ बनायें।
शब्दकोश की आत्मकथा (राजस्थान साहित्य अकादमी)
हिन्दी एवं विभिन्न भाषाओं के मध्य शब्दकोष
इ-महाशब्दकोश - सी-डैक्, भारत सरकार द्वारा निर्मित
भारतवाणी : भारतीय भाषाओं द्वारा ज्ञान (यहाँ शब्दकोश, भाषाकोश, ज्ञानकोश आदि सब उपलब्ध हैं।) |
जन गण मन, भारत का राष्ट्रगान है जो मूलतः बंगाली में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखा गया था। भारत का राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् है।
राष्ट्रगान के गायन की अवधि लगभग ५२ सेकेण्ड है। कुछ अवसरों पर राष्ट्रगान संक्षिप्त रूप में भी गाया जाता है, इसमें प्रथम तथा अन्तिम पंक्तियाँ ही बोलते हैं जिसमें लगभग २० सेकेण्ड का समय लगता है। संविधान सभा ने जन-गण-मन हिन्दुस्तान के राष्ट्रगान के रूप में २४ जनवरी १९५० को अपनाया था। इसे सर्वप्रथम २७ दिसम्बर १९११ को कांग्रेस के कलकत्ता अब दोनों भाषाओं में (बंगाली और हिन्दी) अधिवेशन में गाया गया था। पूरे गान में ५ पद हैं।
गीत के बोल
बंगाली और देवनागरी लिप्यन्तरण के साथ
आधिकारिक हिन्दी संस्करण
जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता!
जनगणमन:जनगण के मन/सारे लोगों के मन; अधिनायक:शासक; जय हे:की जय हो; भारतभाग्यविधाता:भारत के भाग्य-विधाता(भाग्य निर्धारक) अर्थात् भगवान</स्मॉल>जन गण के मनों के उस अधिनायक की जय हो, जो भारत के भाग्यविधाता हैं!पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंगविंध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंग
पंजाब:पंजाब/पंजाब के लोग; सिन्ध:सिन्ध/सिन्धु नदी/सिन्धु के किनारे बसे लोग; गुजरात:गुजरात व उसके लोग; मराठा:महाराष्ट्र/मराठी लोग; द्राविड़:दक्षिण भारत/द्राविड़ी लोग; उत्कल:उडीशा/उड़िया लोग; बंग:बंगाल/बंगाली लोगविन्ध्य:विन्ध्यांचल पर्वत; हिमाचल:हिमालय/हिमाचल पर्वत श्रिंखला; यमुना गंगा:दोनों नदियाँ व गंगा-यमुना दोआब; उच्छल-जलधि-तरंग:मनमोहक/हृदयजाग्रुतकारी-समुद्री-तरंग या मनजागृतकारी तरंगेंउनका नाम सुनते ही पंजाब सिन्ध गुजरात और मराठा, द्राविड़ उत्कल व बंगालएवं विन्ध्या हिमाचल व यमुना और गंगा पे बसे लोगों के हृदयों में मनजागृतकारी तरंगें भर उठती हैंतव शुभ नामे जागे, तव शुभाशीष मागेगाहे तव जय गाथा
<स्मॉल>तव:आपके/तुम्हारे; शुभ:पवित्र; नामे:नाम पे(भारतवर्ष); जागे:जागते हैं; आशिष:आशीर्वाद; मागे:मांगते हैंगाहे:गाते हैं; तव:आपकी ही/तेरी ही; जयगाथा:वजयगाथा(विजयों की कहानियां)
सब तेरे पवित्र नाम पर जाग उठने हैं, सब तेरी पवित्र आशीर्वाद पाने की अभिलाशा रखते हैंऔर सब तेरे ही जयगाथाओं का गान करते हैं
जन गण मंगलदायक जय हे भारत भाग्य विधाता!जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
जनगणमंगलदायक:जनगण के मंगल-दाता/जनगण को सौभाग्य दालाने वाले; जय हे:की जय हो; भारतभाग्यविधाता:भारत के भाग्य विधाताजय हे जय हे:विजय हो, विजय हो; जय जय जय जय हे:सदा सर्वदा विजय हो
जनगण के मंगल दायक की जय हो, हे भारत के भाग्यविधाताविजय हो विजय हो विजय हो, तेरी सदा सर्वदा विजय हो
उपरोक्त राष्ट्र गान का पूर्ण संस्करण है और इसकी कुल अवधि लगभग ५२ सेकंड है।
राष्ट्र गान की पहली और अंतिम पंक्तियों के साथ एक संक्षिप्त संस्करण भी कुछ विशिष्ट अवसरों पर बजाया जाता है। इसे इस प्रकार पढ़ा जाता है:
संक्षिप्त संस्करण को चलाने की अवधि लगभग २० सेकंड है।
जिन अवसरों पर इसका पूर्ण संस्करण या संक्षिप्त संस्करण चलाया जाए, उनकी जानकारी इन अनुदेशों में उपयुक्त स्थानों पर दी गई है।
मूल कविता के पांचों पद
जनगणमन-अधिनायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छलजलधितरंग
तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जयगाथा।
जनगणमंगलदायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
अहरह तव आह्वान प्रचारित, सुनि तव उदार बाणी
हिन्दु बौद्ध सिख जैन पारसिक मुसलमान खृष्तानी
पूरब पश्चिम आसे तव सिंहासन-पाशे
प्रेमहार हय गाथा।
जनगण-ऐक्य-विधायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
पतन-अभ्युदय-वन्धुर पन्था, युग युग धावित यात्री।
हे चिरसारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि।
दारुण विप्लव-माझे तव शंखध्वनि बाजे
जनगणपथपरिचायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
घोरतिमिरघन निविड़ निशीथे पीड़ित मूर्छित देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल नतनयने अनिमेषे।
दुःस्वप्ने आतंके रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता।
जनगणदुःखत्रायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
रात्रि प्रभातिल, उदिल रविच्छवि पूर्व-उदयगिरिभाले
गाहे विहंगम, पुण्य समीरण नवजीवनरस ढाले।
तव करुणारुणरागे निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा।
जय जय जय हे जय राजेश्वर भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।
राष्ट्रगान संबंधित नियम व विधियाँ
राष्ट्र गान बजाना
राष्ट्रगान बजाने के नियमों के आनुसार:
राष्ट्रगान का पूर्ण संस्करण निम्नलिखित अवसरों पर बजाया जाएगा:
नागरिक और सैन्य अधिष्ठापन;
जब राष्ट्र सलामी देता है (अर्थात इसका अर्थ है राष्ट्रपति या संबंधित राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों के अंदर राज्यपाल/लेफ्टिनेंट गवर्नर को विशेष अवसरों पर राष्ट्र गान के साथ राष्ट्रीय सलामी - सलामी शस्त्र प्रस्तुत किया जाता है);
परेड के दौरान - चाहे उपरोक्त में संदर्भित विशिष्ट अतिथि उपस्थित हों या नहीं;
औपचारिक राज्य कार्यक्रमों और सरकार द्वारा आयोजित अन्य कार्यक्रमों में राष्ट्रपति के आगमन पर और सामूहिक कार्यक्रमों में तथा इन कार्यक्रमों से उनके वापस जाने के अवसर पर ;
ऑल इंडिया रेडियो पर राष्ट्रपति के राष्ट्र को संबोधन से तत्काल पूर्व और उसके पश्चात;
राज्यपाल/लेफ्टिनेंट गवर्नर के उनके राज्य/संघ राज्य के अंदर औपचारिक राज्य कार्यक्रमों में आगमन पर तथा इन कार्यक्रमों से उनके वापस जाने के समय;
जब राष्ट्रीय ध्वज को परेड में लाया जाए;
जब रेजीमेंट के रंग प्रस्तुत किए जाते हैं;
नौसेना के रंगों को फहराने के लिए।
जब राष्ट्र गान एक बैंड द्वारा बजाया जाता है तो राष्ट्र गान के पहले श्रोताओं की सहायता हेतु ड्रमों का एक क्रम बजाया जाएगा ताकि वे जान सकें कि अब राष्ट्र गान आरम्भ होने वाला है। अन्यथा इसके कुछ विशेष संकेत होने चाहिए कि अब राष्ट्र गान को बजाना आरम्भ होने वाला है। उदाहरण के लिए जब राष्ट्र गान बजाने से पहले एक विशेष प्रकार की धूमधाम की ध्वनि निकाली जाए या जब राष्ट्र गान के साथ सलामती की शुभकामनाएँ भेजी जाएँ या जब राष्ट्र गान गार्ड ऑफ ऑनर द्वारा दी जाने वाली राष्ट्रीय सलामी का भाग हो। मार्चिंग ड्रिल के सन्दर्भ में रोल की अवधि धीमे मार्च में सात कदम होगी। यह रोल धीरे से आरम्भ होगा, ध्वनि के तेज स्तर तक जितना अधिक संभव हो ऊँचा उठेगा और तब धीरे से मूल कोमलता तक कम हो जाएगा, किन्तु सातवीं बीट तक सुनाई देने योग्य बना रहेगा। तब राष्ट्र गान आरम्भ करने से पहले एक बीट का विश्राम लिया जाएगा।
राष्ट्र गान का संक्षिप्त संस्करण मेस में सलामती की शुभकामना देते समय बजाया जाएगा।
राष्ट्र गान उन अन्य अवसरों पर बजाया जाएगा जिनके लिए भारत सरकार द्वारा विशेष आदेश जारी किए गए हैं।
आम तौर पर राष्ट्र गान प्रधानमंत्री के लिए नहीं बजाया जाएगा जबकि ऐसा विशेष अवसर हो सकते हैं जब इसे बजाया जाए।
राष्ट्र गान को सामूहिक रूप से गाना
राष्ट्र गान का पूर्ण संस्करण निम्नलिखित अवसरों पर सामूहिक गान के साथ बजाया जाएगा:
राष्ट्रीय ध्वज को फहराने के अवसर पर, सांस्कृतिक अवसरों पर या परेड के अलावा अन्य समारोह पूर्ण कार्यक्रमों में। (इसकी व्यवस्था एक कॉयर या पर्याप्त आकार के, उपयुक्त रूप से स्थापित तरीके से की जा सकती है, जिसे बैंड आदि के साथ इसके गाने का समन्वय करने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। इसमें पर्याप्त सार्वजनिक श्रव्य प्रणाली होगी ताकि कॉयर के साथ मिलकर विभिन्न अवसरों पर जनसमूह गा सके);
सरकारी या सार्वजनिक कार्यक्रम में राष्ट्रपति के आगमन के अवसर पर (परंतु औपचारिक राज्य कार्यक्रमों और सामूहिक कार्यक्रमों के अलावा) और इन कार्यक्रमों से उनके विदा होने के तत्काल पहले।
राष्ट्र गान को गाने के सभी अवसरों पर सामूहिक गान के साथ इसके पूर्ण संस्करण का उच्चारण किया जाएगा।
राष्ट्र गान उन अवसरों पर गाया जाए, जो पूरी तरह से समारोह के रूप में न हो, तथापि इनका कुछ महत्व हो, जिसमें मंत्रियों आदि की उपस्थिति शामिल है। इन अवसरों पर राष्ट्र गान को गाने के साथ (संगीत वाद्यों के साथ या इनके बिना) सामूहिक रूप से गायन वांछित होता है।
यह संभव नहीं है कि अवसरों की कोई एक सूची दी जाए, जिन अवसरों पर राष्ट्र गान को गाना (बजाने से अलग) गाने की अनुमति दी जा सकती है। परन्तु सामूहिक गान के साथ राष्ट्र गान को गाने पर तब तक कोई आपत्ति नहीं है जब तक इसे मातृ भूमि को सलामी देते हुए आदर के साथ गाया जाए और इसकी उचित गरिमा को बनाए रखा जाए।
विद्यालयों में, दिन के कार्यों में राष्ट्र गान को सामूहिक रूप से गा कर आरंभ किया जा सकता है। विद्यालय के प्राधिकारियों को राष्ट्र गान के गायन को लोकप्रिय बनाने के लिए अपने कार्यक्रमों में पर्याप्त प्रावधान करने चाहिए तथा उन्हें छात्रों के बीच राष्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्मान की भावना को प्रोत्साहन देना चाहिए।
जब राष्ट्र गान गाया या बजाया जाता है तो श्रोताओं को सावधान की मुद्रा में खड़े रहना चाहिए। यद्यपि जब किसी चल चित्र के भाग के रूप में राष्ट्र गान को किसी समाचार की गतिविधि या संक्षिप्त चलचित्र के दौरान बजाया जाए तो श्रोताओं से अपेक्षित नहीं है कि वे खड़े हो जाएं, क्योंकि उनके खड़े होने से फिल्म के प्रदर्शन में बाधा आएगी और एक असंतुलन और भ्रम पैदा होगा तथा राष्ट्र गान की गरिमा में वृद्धि नहीं होगी।
जैसा कि राष्ट्र ध्वज को फहराने के मामले में होता है, यह लोगों की अच्छी भावना के लिए छोड दिया गया है कि वे राष्ट्र गान को गाते या बजाते समय किसी अनुचित गतिविधि में संलग्न नहीं हों।
क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोए एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य एयर १९८० स्क ७४८ [३] नाम के एक वाद में उठाया गया। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिये निकाल दिया गया था क्योंकि इन्होने राष्ट्र-गान जन-गण-मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्र-गान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गाते नहीं थे। गाने के लिये उन्होंने मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इनकी याचिका स्वीकार कर इन्हें स्कूल को वापस लेने को कहा। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र-गान का सम्मान तो करता है पर उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। अत: इसे न गाने के लिये उस व्यक्ति को दण्डित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।
ये भी देखें
भारत सरकार: राष्ट्रगान
भारत सरकार: राष्ट्रगान (ऑडियो)
देशभक्ति के गीत
एशिया के राष्ट्रगान
रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कृतियाँ |
वन्दे मातरम् ( बाँग्ला: ) बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन सन् १८८२ में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में ६५ सेकेंड (१ मिनट और ५ सेकेंड) का समय लगता है।
सन् २००३ में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग ७,००० गीतों को चुना गया था और बी०बी०सी० के अनुसार १५५ देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के १० गीतों में दूसरे स्थान पर था।
यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक "बन्दे मातरम्" होना चाहिये "वन्दे मातरम्" नहीं। चूँकि हिन्दी व संस्कृत भाषा में 'वन्दे' शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में व अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में 'बन्दे मातरम्' का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा "वन्दे मातरम्" उच्चारण करने से "माता की वन्दना करता हूँ" ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा।
आनन्दमठ के हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी-अनुवाद भी प्रकाशित हुए। डॉ॰ नरेशचन्द्र सेनगुप्त ने सन् १९०६ में अब्बे ऑफ ब्लिस के नाम से इसका अंग्रेजी-अनुवाद प्रकाशित किया। अरविन्द घोष ने 'आनन्दमठ' में वर्णित गीत 'वन्दे मातरम्' का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया। महर्षि अरविन्द द्वारा किए गये अंग्रेजी गद्य-अनुवाद का हिन्दी-अनुवाद इस प्रकार है:
मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फसलों के साथ गहरी,
उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर ढकी हुई है,
हँसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली।
रचना की पृष्ठभूमि
सन् १८७०-८० के दशक में ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में गॉड! सेव द क्वीन गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेजों के इस आदेश से बंकिमचन्द्र चटर्जी को, जो उन दिनों एक सरकारी अधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने सम्भवत: १८७६ में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया - वन्दे मातरम्। शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे।
इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी। उन्होंने १८८२ में जब आनन्द मठ नामक बाँग्ला उपन्यास लिखा तब मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने
हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था। इस तथ्यात्मक इतिहास का उल्लेख बंकिम बाबू ने 'आनन्द मठ' के तीसरे संस्करण में स्वयं ही कर दिया था। और मजे की बात यह है कि सारे तथ्य भी उन्होंने अंग्रेजी विद्वानों-ग्लेग व हण्टर की पुस्तकों से दिये थे। उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम का एक संन्यासी विद्रोही गाता है। गीत का मुखड़ा विशुद्ध संस्कृत में इस प्रकार है: "वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्।" मुखड़े के बाद वाला पद भी संस्कृत में ही है: "शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।" किन्तु उपन्यास में इस गीत के आगे जो पद लिखे गये थे वे उपन्यास की मूल भाषा अर्थात् बाँग्ला में ही थे। बाद वाले इन सभी पदों में मातृभूमि की दुर्गा के रूप में स्तुति की गई है। यह गीत रविवार, कार्तिक सुदी नवमी, शके १७९७ (७ नवम्बर १८७५) को पूरा हुआ।कहा जाता है कि यह गीत उन्होंने सियालदह से नैहाटी आते वक्त ट्रेन में ही लिखी थी।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भूमिका
बंगाल में चले स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। ब्रिटिश सरकार इसकी लोकप्रियता से भयाक्रान्त हो उठी और उसने इस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। सन् १८९६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी सन् १९०१ में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह गीत पुनः गाया। सन् १९०५ के बनारस अधिवेशन में इस गीत को सरलादेवी चौधरानी ने स्वर दिया।
कांग्रेस-अधिवेशनों के अलावा आजादी के आन्दोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस 'जर्नल' का प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम् रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान पर आखिरी शब्द "वन्दे मातरम्" ही थे। सन् १९०७ में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में "वन्दे मातरम्" ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिन्टिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से सन् १९२९ में प्रकाशित काकोरी के शहीद पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' की प्रतिबन्धित पुस्तक "क्रान्ति गीतांजलि" में पहला गीत "मातृ-वन्दना" वन्दे मातरम् ही था जिसमें उन्होंने केवल इस गीत के दो ही पद दिये थे और उसके बाद इस गीत की प्रशस्ति में वन्दे मातरम् शीर्षक से एक स्वरचित उर्दू गजल दी थी जो उस कालखण्ड के असंख्य अनाम हुतात्माओं की आवाज को अभिव्यक्ति देती है। ब्रिटिश काल में प्रतिबन्धित यह पुस्तक अब सुसम्पादित होकर पुस्तकालयों में उपलब्ध है।
राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृति
स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गयी। इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को "वन्दे मातरम्" गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् १९३७ में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में २४ जनवरी १९५० में 'वन्दे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया।
डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है) :
शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)
आनन्द मठ उपन्यास को लेकर भी कुछ विवाद हैं, कुछ लोग इसे मुस्लिम विरोधी मानते हैं। उनका कहना है कि इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है। वन्दे मातरम् गाने पर भी विवाद किया जा रहा है। लोगों का कहना है कि-
इस्लाम किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने को मना करता है और इस गीत में भारत की माँ के रूप में वन्दना की गयी है;
यह ऐसे उपन्यास से लिया गया है जो कि मुस्लिम विरोधी है
क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोय एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य के एक वाद में उठाया गया। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिये निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होने राष्ट्र-गान जन गण मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्रगान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गीत को गाते नहीं थे। गाने के लिये उन्होंने मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिका स्वीकार कर ली और स्कूल को उन्हें वापस लेने को कहा। सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान का सम्मान तो करता है पर उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। अत: इसे न गाने के लिये उस व्यक्ति को दण्डित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।
इन्हें भी देखें
वन्दे मातरम का इतिहास
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
जन गण मन
सारे जहाँ से अच्छा
भारत सरकार की आधिकारिक साइट से राष्ट्रगीत का डाउनलोड
गीत गंगा पर वन्दे मातरम् - टैक्स्ट, पॉडकास्ट तथा ऑडियो डाउनलोड: १ २
यू ट्यूब पर लता मंगेशकर द्वारा गाया गया वन्दे मातरम् गीत (फिल्म - आनन्द मठ, १९५२)
निहालचन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित बंकिम समग्र १९८९ हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी।
देशभक्ति के गीत
भारत के राष्ट्रीय प्रतीक
भारत के नारे |
भारत राज्यों का एक संघ है। इसमें २८ राज्य और ८ केन्द्र शासित प्रदेश हैं। ये राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश पुनः जिलों और अन्य क्षेत्रों में बाँटे गये हैं।
भारत के राज्य और केन्द्र-शासित प्रदेश
२८ राज्यों की पूरी सूची :
८ केंद्र शासित प्रदेशों की पूरी सूची :
१९५६ से पूर्व
भारत के इतिहास में भारतीय उपमहाद्वीप पर विभिन्न जातीय समूहों ने शासन किया और इसे अलग-अलग प्रशासन-संबन्धी भागों में विभाजित किया। आधुनिक भारत के वर्तमान प्रशासनिक प्रभाग नए घटनाक्रम हैं, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान विकसित हुए। ब्रिटिश भारत में, वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश, साथ ही अफ़्गानिस्तान प्रांत और उससे जुड़े संरक्षित प्रांत, बाद में उपनिवेश बना, बर्मा (म्यांमार) आदि, सभी राज्य समाहित थे। इस अवधि के दौरान, भारत के क्षेत्रों में या तो ब्रिटिशों का शासन था या उन पर स्थानीय राजाओं का नियंत्रण था। १९४७ में स्वतन्त्रता के बाद इन विभागों को संरक्षित किया गया और पंजाब तथा बंगाल के प्रांतों को भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित किया गया। नए राष्ट्र के लिए पहली चुनौती थी राजसी राज्यों का संघों में विलय।
स्वतन्त्रता के बाद, हालांकि, भारत में अस्थिरता आ गई। कई प्रांत औपनिवेशिकरण के उद्देश्य से ब्रिटिशों द्वारा बनाए गए, पर इन पर भारतीय नागरिकों की या राजसी राज्यों की कोई इच्छा दिखाई नहीं दी। १९५६ में जातीय तनाव ने संसद का दरवाजा खटखटाया और राज्य पुनर्गठन अधिनियम के आधार पर देश को जातीय और भाषाई आधार पर पुनर्निर्माण करने के लिए अधिनियम लाया गया।
१९५६ के बाद
भारत में जिस प्रकार पूर्व में फ़्रांसीसी और पुर्तगाली उपनिवेशों को गणराज्य में समाहित किया गया था, वैसे ही १९६२ में पांडिचेरी, दादरा, नगर हवेली, गोआ, दमन और दियू को संघ राज्य बनाया गया।
१९५६ के बाद कई नए राज्यों और संघ राज्यों को बनाया गया। बम्बई पुनर्गठन अधिनियम के द्वारा १ मई, १९६० को भाषाई आधार पर बंबई राज्य को गुजरात और महाराष्ट्र के रूप में अलग किया गया। १९६६ के पंजाब पुनर्गठन अधिनियम ने भाषाई और धार्मिक पैमाने पर पंजाब (भारत) को हरियाणा के नए हिन्दू बहुल और हिन्दी भाषी राज्यों में बाँटा और पंजाब के उत्तरी जिलों को हिमाचल प्रदेश में स्थानांतरित कर दिया गया और एक जिले को चण्डीगढ़ का नाम दिया जो पंजाब और हरियाणा की साझा राजधानी है। नागालैण्ड १९६२ में, मेघालय और हिमाचल प्रदेश १९७१ में, त्रिपुरा और मणिपुर १९७२ में राज्य बनाए गए। १९७२ में अरुणाचल प्रदेश को एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। सिक्किम राज्य १९७५ में एक राज्य के रूप में भारतीय संघ में सम्मिलित हो गया। १९८६ में मिज़ोरम और १९८७ में गोआ और अरुणाचल प्रदेश राज्य बने जबकि गोवा के उत्तरी भाग दमन और दीयु एक अलग संघ राज्य बन गए। २००० में तीन नए राज्य बनाए गए। पूर्वी मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ (१ नवंबर, २०००) में और उत्तरांचल (९ नवंबर, २०००) बनाए गए जो अब उत्तराखण्ड है। उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों के कारण झारखण्ड (१५ नवंबर २०००) को बिहार के दक्षिणी जिलों में से पृथक कर बनाया गया। दो केन्द्र शासित प्रदेशों दिल्ली और पाण्डिचेरी (जो बाद में पुदुचेरी कहा गया) को विधानसभा सदस्यों का अधिकार दिया गया और अब वे छोटे राज्यों के रूप में गिने जाते हैं।
इन्हें भी देखें
भारत के राज्य और संघशासित प्रदेश
भारत के स्वायत्त क्षेत्र
भारत के राज्य
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
औफ्फिसिअल गवेर्नामेंट ऑफ इंडिया वेबसैट : स्टेटस एंड यूनीयन तेर्रितोरीस
क्लिकेबिल मेप ऑफ इंडिया एंड हिस्ट्री ऑफ स्टेटस
आर्टिकल ओंन सब-नेशेनेल गवर्नेंस इन इंडिया
इंटरेक्टिव मेप ऑफ़ इंडिया
भारत के राज्य
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
भारत के उपविभाग |
सप्ताह के दिन
एक सप्ताह या हफ़्ते में सात दिन होते हैं। हिन्दी में ये निम्न नामों से पुकारे जाते हैं।
रविवार अथवा इतवार
गुरुवार अथवा बृहस्पतिवार अथवा वीरवार
शनिवार अथवा शनिचर
सप्ताह के दिन
सामान्यत: एक माह में चार सप्ताह होते हैं और एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। सप्ताह के प्रत्येक दिन पर नौ ग्रहों के स्वामियों में से क्रमश: पहले सात का राज चलता है. जैसे-
रविवार पर सूर्य का राज चलता है।
सोमवार पर चन्द्रमा का राज चलता है।
मंगलवार पर मंगल का राज चलता है।
बुधवार पर बुध का राज चलता है।
बृहस्पतिवार पर गुरु का राज चलता है।
शुक्रवार पर शुक्र का राज चलता है।
शनिवार पर शनि का राज चलता है।
अन्तिम दो राहु और केतु क्रमश: मंगलवार और शनिवार के साथ सम्बन्ध बनाते हैं।
यहाँ एक बात याद रखना ज़रूरी है- पश्चिम में दिन की शुरुआत मध्य रात्रि से होती है और वैदिक दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है। वैदिक ज्योतिष में जब हम दिन की बात करें तो मतलब सूर्योदय से ही होगा। सप्ताह के प्रत्येक दिन के कार्यकलाप उसके स्वामी के प्रभाव से प्रभावित होते हैं और व्यक्ति के जीवन में उसी के अनुरुप फल की प्राप्ति होती है। जैसे- चन्द्रमा दिमाग और गुरु धार्मिक कार्यकलाप का कारक होता है। इस वार में इनसे सम्बन्धित कार्य करना व्यक्ति के पक्ष में जाता है। सप्ताह के दिनों के नाम ग्रहों की संज्ञाओं के आधार पर रखे गए हैं अर्थात जो नाम ग्रहों के हैं, वही नाम इन दिनों के भी हैं। जैसे-
सूर्य के दिन का नाम रविवार, आदित्यवार, अर्कवार, भानुवार इत्यादि।
शनिश्चर के दिन का नाम शनिवार, सौरिवार आदि।
संस्कृत में या अन्य किसी भी भाषा में भी साप्ताहिक दिनों के नाम सात ग्रहों के नाम पर ही मिलते हैं। संस्कृत में ग्रह के नाम के आगे वार या वासर या कोई ओर प्रयायवाची शब्द रख दिया जाता है।
सप्ताह केवल मानव निर्मित व्यवस्था है। इसके पीछे कोई ज्योतिष शास्त्रीय या प्राकृतिक योजना नहीं है।
स्पेन आक्रमण के पूर्व मेक्सिको में पाँच दिनों की योजना थी।
सात दिनों की योजना यहूदियों, बेबिलोनियों एवं दक्षिण अमेरिका के इंका लोगों में थी।
लोकतान्त्रिक युग में रोमनों में आठ दिनों की व्यवस्था थी, मिस्रियों एवं प्राचीन अथेनियनों में दस दिनों की योजना थी।
ओल्ड टेस्टामेण्ट में आया है कि ईश्वर ने छः दिनों तक सृष्टि की और सातवें दिन विश्राम करके उसे आशीष देकर पवित्र बनाया। - जेनेसिरा१, एक्सोडस२ एवं डेउटेरोनामी३ में ईश्वर ने यहूदियों कोसात दिनों के वृत्त के उद्भव एवं विकास का वर्णन 'एफ. एच. कोल्सन' के ग्रन्थ 'दी वीक'४ में उल्लिखित है।
डायोन कैसिअस (तीसरी शती के प्रथम चरण में) ने अपनी ३७वीं पुस्तक में लिखा है कि 'पाम्पेयी ई. पू. ८३ में येरूसलेम पर अधिकार किया, उस दिन यहूदियों का विश्राम दिन था। उसमें आया है कि ग्रहीय सप्ताह (जिसमें दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर आधारित हैं) का उद्भव मिस्र में हुआ।
डियो ने 'रोमन हिस्ट्री'५ में यह स्पष्ट किया है कि सप्ताह का उद्गम यूनान में न होकर मिस्र में हुआ और वह भी प्राचीन नहीं है बल्कि हाल का है।
रोमन केलैंण्डर में सम्राट कोंस्टेंटाईन ने ईसा के क़रीब तीन सौ वर्ष के बाद सात दिनों वाले सप्ताह को निश्चत किया और उन्हें नक्षत्रों के नाम दिये -
सप्ताह के पहले दिन को 'सूर्य का नाम' दिया गया है।
दूसरे दिन को चाँद का नाम दिया गया है।
तीसरे दिन को मंगल दिया गया है।
चौथे दिन को बुध दिया गया है।
पाँचवें दिन को बृहस्पति दिया गया है।
छठे दिन को शुक्र दिया गया है।
सातवें दिन को शनि का नाम दिया गया है।
आज भी रोमन संस्कृति से प्रभावित देशों में इन्हीं नामों का प्रयोग होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
१ जेनेसिरा २|१-३
२ एक्सोडस २0|८-११,२3|1२-१४
३ डेउटेरोनामी ५|१२-1५
४ एफ. एच. कोल्सन के ग्रन्थ 'दी वीक' कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, १९२६
५ रोमन हिस्ट्री जिल्द ३, पृ० १२९, 1३1 |
चैत्र हिंदू पंचांग का पहला मास है। इसी महीने से भारतीय नववर्ष आरम्भ होता है। हिंदू वर्ष का पहला मास होने के कारण चैत्र की बहुत ही अधिक महता है। अनेक पर्व इस मास में मनाये जाते हैं। चैत्र मास की पूर्णिमा, चित्रा नक्षत्र में होती है इसी कारण इसका महीने का नाम चैत्र पड़ा।
मान्यता है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि की रचना आरम्भ की थी। वहीं सतयुग का आरम्भ भी चैत्र माह से माना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसी महीने की प्रतिपदा को भगवान विष्णु के दशावतारों में से पहले अवतार मतस्यावतार अवतरित हुए एवं जल प्रलय के बीच घिरे मनु को सुरक्षित स्थल पर पहुँचाया था, जिनसे प्रलय के पश्चात नई सृष्टि का आरम्भ हुआ।
इसी दिन आर्य समाज (१८७५) एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (१९२५) की स्थापना हुई थी।
वर्ष प्रतिपदा या युगादि या 'गुड़ी पड़वा'
हनुमान जयन्ती (चैत्र पूर्णिमा को) |
मास या महीना, काल मापन की एक ईकाई है। भारतीय कालगणना में एक वर्ष में १२ मास होते हैं। इसी तरह ग्रेगरी कैलेण्डर में भी एक वर्ष में बारह मास होते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में मासों के नाम अलग-अलग हैं।
हिन्दू पंचांग के अनुसार
एक वर्ष के बारह मासों के नाम ये हैं-
चैत्र नक्षत्र चित्रा में पूर्णिमा होने के कारण
वैशाख विशाखा में होने के
ज्येष्ठ ज्येष्ठा में
आषाढ पूर्वाषाढ़ में
श्रावण श्रवणा में
भाद्रपद पूर्वभाद्रपद में
आश्विन अश्विनी में
कार्तिक कृतिका में
अग्रहायण या मार्गशीर्ष मृगशिरा में
पौष पुष्य में
माघ मघा में
फाल्गुन उत्तराफाल्गुनी में
जैसा आपने पढ़ा की हिन्दू पंचांग के नौसर साल का पहला महिना चेत्र से शुरू होता है और साल का अंतिम महिना फाल्गुन है इन सभी महीनों मे से वैशाख का महिना ही एक ऐसा महिना है जिसमे २८ दिन होते है और लीप बर्ष के दुरान इसमे २९ दिन होते है
ग्रेगरी कालदर्शक के अनुसार
ग्रेगरी कालदर्शक के अनुसार अंग्रेजी भाषा में वर्ष के बारह महीनों के नाम ये हैं- |
यूनिकोड प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष संख्या प्रदान करता है, चाहे कोई भी कम्प्यूटर प्लेटफॉर्म, प्रोग्राम अथवा कोई भी भाषा हो। यूनिकोड स्टैंडर्ड को एपल, एच.पी., आई.बी.एम., जस्ट सिस्टम, माइक्रोसॉफ्ट, ऑरेकल, सैप, सन, साईबेस, यूनिसिस जैसी उद्योग की प्रमुख कम्पनियों और कई अन्य ने अपनाया है। यूनिकोड की आवश्यकता आधुनिक मानदंडों, जैसे एक्स.एम.एल, जावा, एकमा स्क्रिप्ट (जावास्क्रिप्ट), एल.डी.ए.पी., कोर्बा ३.०, डब्ल्यू.एम.एल के लिए होती है और यह आई.एस.ओ/आई.ई.सी. १०६४६ को लागू करने का अधिकारिक तरीका है। यह कई संचालन प्रणालियों, सभी आधुनिक ब्राउजरों और कई अन्य उत्पादों में होता है। यूनिकोड स्टैंडर्ड की उत्पति और इसके सहायक उपकरणों की उपलब्धता, हाल ही के अति महत्वपूर्ण विश्वव्यापी सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी रुझानों में से हैं।
यूनिकोड को ग्राहक-सर्वर अथवा बहु-आयामी उपकरणों और वेबसाइटों में शामिल करने से, परंपरागत उपकरणों के प्रयोग की अपेक्षा खर्च में अत्यधिक बचत होती है। यूनिकोड से एक ऐसा अकेला सॉफ्टवेयर उत्पाद अथवा अकेला वेबसाइट मिल जाता है, जिसे री-इंजीनियरिंग के बिना विभिन्न प्लेटफॉर्मों, भाषाओं और देशों में उपयोग किया जा सकता है। इससे आँकड़ों को बिना किसी बाधा के विभिन्न प्रणालियों से होकर ले जाया जा सकता है।
यूनिकोड क्या है?
यूनिकोड प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष नम्बर प्रदान करता है,
चाहे कोई भी प्लैटफ़ॉर्म हो,
चाहे कोई भी प्रोग्राम हो,
चाहे कोई भी भाषा हो।
कम्प्यूटर, मूल रूप से, नम्बरों से सम्बन्ध रखते हैं। ये प्रत्येक अक्षर और वर्ण के लिए एक नम्बर निर्धारित करके अक्षर और वर्ण संग्रहित करते हैं। यूनिकोड का आविष्कार होने से पहले, ऐसे नम्बर देने के लिये सैंकड़ों विभिन्न संकेत लिपि प्रणालियाँ थीं। किसी एक संकेत लिपि में पर्याप्त अक्षर नहीं हो सकते हैं : उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ को अकेले ही, अपनी सभी भाषाओं को कवर करने के लिये अनेक विभिन्न संकेत लिपियों की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी जैसी भाषा के लिये भी, सभी अक्षरों, विरामचिह्नों और सामान्य प्रयोग के तकनीकी प्रतीकों हेतु एक ही संकेत लिपि पर्याप्त नहीं थी।
ये संकेत लिपि प्रणालियाँ परस्पर विरोधी भी हैं। इसीलिए, दो संकेत लिपियाँ दो विभिन्न अक्षरों के लिए, एक ही नम्बर प्रयोग कर सकती हैं, अथवा समान अक्षर के लिए विभिन्न नम्बरों का प्रयोग कर सकती हैं। किसी भी कम्प्यूटर (विशेष रूप से सर्वर) को विभिन्न संकेत लिपियाँ संभालनी पड़ती है; फिर भी जब दो विभिन्न संकेत लिपियों अथवा प्लेटफ़ॉर्मों के बीच डाटा भेजा जाता है तो उस डाटा के हमेशा खराब होने का जोखिम रहता है।
यूनिकोड से यह सब कुछ बदल रहा है!
यूनिकोड की विशेषताएँ
(१) यह विश्व की सभी लिपियों से सभी संकेतों के लिए एक अलग कोड बिन्दु प्रदान करता है।
(२) यह वर्णों (कैरेक्टर्स) को एक कोड देता है, न कि ग्लिफ (ग्लीफ) को।
(३) जहाँ भी सम्भव यूनिकोड होता है, यह भाषाओं का एकीकरण करने का प्रयत्न करता है। इसी नीति के अन्तर्गत सभी पश्चिम यूरोपीय भाषाओं को लैटिन के अन्तर्गत समाहित किया गया है; सभी स्लाविक भाषाओं को सिरिलिक (सायरिलिक) के अन्तर्गत रखा गया है; हिन्दी, संस्कृत, मराठी, नेपाली, सिन्धी, कश्मीरी आदि के लिये 'देवनागरी' नाम से एक ही खण्ड दिया गया है; चीनी, जापानी, कोरियाई, वियतनामी भाषाओं को 'युनिहान्' (यूनिहान) नाम से एक खण्ड में रखा गया है; अरबी, फारसी, उर्दू आदि को एक ही खण्ड में रखा गया है।
(४) बायें से दायें लिखी जाने वाली लिपियों के अतिरिक्त दायें-से-बायें लिखी जाने वाली लिपियों (अरबी, हिब्रू आदि) को भी इसमें शामिल किया गया है। ऊपर से नीचे की तरफ लिखी जाने वाली लिपियों का अभी अध्ययन किया जा रहा है।
(५) यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यूनिकोड केवल एक कोड-सारणी है। इन लिपियों को लिखने/पढ़ने के लिए इनपुट मैथड एडिटर और फॉण्ट-फाइलें आवश्यक हैं।
यूनिकोड का महत्व एवं लाभ
एक ही दस्तावेज में अनेकों भाषाओं के अक्षर लिखे जा सकते हैं।
अक्षरों को केवल एक निश्चित तरीके से संस्कारित करने की आवश्यकता पड़ती है। जिससे विकास-व्यय एवं अन्य व्यय कम लगते हैं।
किसी सॉफ़्टवेयर-उत्पाद का एक ही संस्करण पूरे विश्व में चलाया जा सकता है। क्षेत्रीय बाजारों के लिए अलग से संस्करण निकालने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
किसी भी भाषा का अक्षर पूरे जगत में बिना किसी रुकावट के चल जाता है। पहले इस तरह की बहुत समस्याएँ आती थीं।
यूनिकोड, आस्की तथा अन्य कैरेकटर कोडों की अपेक्षा अधिक स्मृति (मेमोरी) लेता है। कितनी अधिक स्मृति लगेगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कौन सा यूनिकोड प्रयोग कर रहे हैं। उत्फ़७, उत्फ़८, उत्फ़१६ या वास्तविक यूनिकोड - एक अक्षर अलग-अलग बाइट प्रयोग करते हैं।
देवनागरी यूनिकोड की परास (रेंज) ०९०० से ०९७फ तक है। (दोनो संख्याएँ षोडषाधारी हैं)
क्ष, त्र एवं ज्ञ के लिये अलग से कोड नहीं है। इन्हें संयुक्त वर्ण मानकर अन्य संयुक्त वर्णों की भाँति इनका अलग से कोड नहीं दिया गया है।
इस परास (रेंज) में बहुत से ऐसे वर्णों के लिये भी कोड दिये गये हैं जो सामान्यतः हिन्दी में व्यवहृत नहीं होते। किन्तु मराठी, सिन्धी, मलयालम आदि को देवनागरी में सम्यक ढँग से लिखने के लिये आवश्यक हैं।
नुक्ता वाले वर्णों (जैसे ज़) के लिये यूनिकोड निर्धारित किया गया है। इसके अलावा नुक्ता के लिये भी अलग से एक यूनिकोड दे दिया गया है। अतः नुक्तायुक्त अक्षर यूनिकोड की दृष्टि से दो प्रकार से लिखे जा सकते हैं - एक बाइट यूनिकोड के रूप में या दो बाइट यूनिकोड के रूप में। उदाहरण के लिये ज़ को ' ज ' के बाद नुक्ता (़) टाइप करके भी लिखा जा सकता है।
यूनिकोड कन्सॉर्शियम, एक लाभ न कमाने वाला एक संगठन है। जिसकी स्थापना यूनिकोड स्टैंडर्ड, जो आधुनिक सॉफ़्टवेयर उत्पादों और मानकों में पाठ की प्रस्तुति को निर्दिष्ट करता है, के विकास, विस्तार और इसके प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये की गयी थी। इस कन्सॉर्शियम के सदस्यों में, कम्प्यूटर और सूचना उद्योग में विभिन्न निगम और संगठन शामिल हैं। इस कन्सॉर्शियम का वित्तपोषण पूर्णतः सदस्यों के शुल्क से किया जाता है। यूनिकोड कन्सॉर्शियम में सदस्यता, विश्व में कहीं भी स्थित उन संगठनों और व्यक्तियों के लिये खुली है जो यूनिकोड का समर्थन करते हैं और जो इसके विस्तार और कार्यान्वयन में सहायता करना चाहते हैं।
यूनिकोड का मतलब है सभी लिपिचिह्नों की आवश्यकता की पूर्ति करने में सक्षम 'एकसमान मानकीकृत कोड'।
पहले सोचा गया था कि केवल १६ बिट के माध्यम से ही दुनिया के सभी लिपिचिह्नों के लिये अलग-अलग कोड प्रदान किये जा सकेंगे। बाद में पता चला कि यह कम है। फिर इसे ३२ बिट कर दिया गया। अर्थात इस समय दुनिया का कोई संकेत नहीं है जिसे ३२ बिट के कोड में कहीं न कहीं जगह न मिल गयी हो।
८ बिट के कुल २ पर घात ८ = २56 अलग-अलग बाइनरी संख्याएँ बन सकती हैं; १६ बिट से २ पर घात १६ = ६५५३६ और 3२ बिट से 4२94967२96 भिन्न (डिस्टिनट) बाइनरी संख्याएँ बन सकती हैं।
यूनिकोड के तीन रूप प्रचलित हैं। उत्फ़-८, उत्फ़-१६ और उत्फ़-३२.
इनमें अन्तर क्या है? मान लीजिये आपके पास दस पेज का कोई टेक्स्ट है जिसमें रोमन, देवनागरी, अरबी, गणित के चिन्ह आदि बहुत कुछ हैं। इन चिन्हों के यूनिकोड अलग-अलग होंगे। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि कुछ संकेतों के ३२ बिट के यूनिकोड में शुरू में शून्य ही शून्य हैं (जैसे अंग्रेजी के संकेतों के लिये)। यदि शुरुआती शून्यों को हटा दिया जाय तो इन्हें केवल ८ बिट के द्वारा भी निरूपित किया जा सकता है और कहीं कोई भ्रम या कॉन्फ़्लिक्ट नहीं होगा। इसी प्रकार रूसी, अरबी, हिब्रू आदि के यूनिकोड ऐसे हैं कि शून्य को छोड़ देने पर उन्हें प्राय: १६ बिट = २ बाइट से निरूपित किया जा सकता है। देवनागरी, जापानी, चीनी आदि को आरम्भिक शून्य हटाने के बाद प्राय: २4 बिट = तीन बाइट से निरूपित किया जा सकता है। किन्तु बहुत से संकेत होंगे जिनमें आरम्भिक शून्य नहीं होंगे और उन्हें निरूपित करने के लिये चार बाइट ही लगेंगे।
बिन्दु (५) में बताए गये काम को उत्फ़-८, उत्फ़-१६ और उत्फ़-३२ थोड़ा अलग अलग ढंग से करते हैं। उदाहरण के लिये यूटीएफ़-८ क्या करता है कि कुछ लिपिचिह्नों के लिये १ बाइट, कुछ के लिये २ बाइट, कुछ के लिये तीन और चार बाइट इस्तेमाल करता है। लेकिन उत्फ़-१६ इसी काम के लिये १६ न्यूनतम बिटों का इस्तेमाल करता है। अर्थात जो चीजें उत्फ़-८ में केवल एक बाइट जगह लेती थीं वे अब १६ बिट == २ बाइट के द्वारा निरूपित होंगी। जो उत्फ़-८ में २ बाइट लेतीं थी यूटीएफ-१६ में भी दो ही लेंगी। किन्तु पहले जो संकेतादि ३ बाइट या चार बाइट में निरूपित होते थे यूटीएफ-१६ में ३२ बिट = ४
४ बाइट के द्वारा निरूपित किये जायेंगे। (आपके पास बड़ी-बडी ईंटें हों और उनको बिना तोड़े खम्भा बनाना हो तो खम्भा ज्यादा बड़ा ही बनाया जा सकता है।)
लगभग स्पष्ट है कि प्राय: उत्फ़-८ में इनकोडिंग करने से उत्फ़-१६ की अपेक्षा कम बिट्स लगेंगे।
इसके अलावा बहुत से पुराने सिस्टम १६ बिट को हैंडिल करने में अक्षम थे। वे एकबार में केवल ८-बिट ही के साथ काम कर सकते थे। इस कारण भी उत्फ़-८ को अधिक अपनाया गया। यह अधिक प्रयोग में आता है।
उत्फ़-१६ और उत्फ़-३२ के पक्ष में अच्छाई यह है कि अब कम्प्यूटरों का हार्डवेयर ३२ बिट या ६४ बिट का हो गया है। इस कारण उत्फ़-८ की फाइलों को 'प्रोसेस' करने में उत्फ़-१६, उत्फ़-३२ वाली फाइलों की अपेक्षा अधिक समय लगेगा।
उपयोगी यूनिकोड वर्तमान स्थिती
अगर कोई लेख किसी जगह पर किसी ऐसे फ़ॉण्ट को प्रयोग कर के लिखा गया है। जो कि यूनिकोड नहीं है, तो फ़ॉण्ट परिवर्तक प्रोग्रामों का प्रयोग करके उसे यूनिकोड में बदला जा सकता है।
विस्तृत जानकारी के लिये देखें - 'फॉण्ट परिवर्तक'
जंक (विकृत) यूनिकोड को सही करने के उपाय
याहू जैसे ईमेल सेवाओं में यूनिकोड कैरेक्टर विकृत हो जाने पर मूल ईमेल प्राप्त कर पढ़ने के ऑनलाईन औजार
बालेन्दु शर्मा दाधीच द्वारा विकसित आनलाइन यूनिकोड विकृति संशोधक
इन्हें भी देखें
देवनागरी यूनिकोड खण्ड
यूनिकोड समानुक्रमण अल्गोरिद्म (यूनिकोड कोलेशन अल्गोरिद्म)
यूनिकोड क्या है?
भूमंडलीकरण में आईटी का योगदान है यूनिकोड
यूनिकोड-सक्षम उत्पादों की सूची - आपरेटिंग सिस्टम, ब्राउजर, प्रोग्रामिंग की भाषायें, एवं अन्य अनेक उत्पाद
देवनागरी का यूनिकोड चार्ट (स्टैण्डर्ड ५.०)
हिन्दी एवं देवनागरी के लिए यूनिकोडोत्तर दौर की चुनौती अलग और बड़ी हैं (बालेन्दु शर्मा दाधीच)
हिंदी में यह क्रांति न आती यदि यूनिकोड न होता! (अगस्त २०१५ ; बालेन्दु शर्मा दाधीच)
यूनिकोड उपकरण तथा फॉण्ट
यूनीकोड कोड कॉन्वेर्टर व७.०९ - यूनिकोड को तरह-तरह के वैकल्पिक रूपों में बदलने वाला आनलाइन प्रोग्राम |
शुक्रवार, ०८ अगस्त २००३
हमास का बदले का संकल्प --
फ़लस्तीन के चरमपंथी संगठन हमास की सशस्त्र शाखा ने अपने सदस्यों से अपील की है कि वे इसराइली सेना के हमले में मारे गए दो नेताओं की मौत का बदला लें.
अभिनेता उमर शरीफ़ को सज़ा --
जाने माने अभिनेता उमर शरीफ़ को फ़्राँस की एक अदालत ने मारपीट के आरोप में सज़ा सुनाई है। उन्हें एक महीने की सस्पेंडेड जेल की सज़ा के साथ-साथ ग्यारह सौ पाउंड का जुर्माना भी लगाया गया है।
'अंतरराष्ट्रीय सहयोग ज़रूरी' --
इंडोनेशिया की राष्ट्रपति मेगावती सुकर्णोपुत्री ने आतंकवाद के विरुद्ध दुनियाभर का एक गठबंधन बनाने की माँग उठाई है। राजधानी जकार्ता के एक होटल में मंगलवार को हुए बम धमाके के बाद उन्होंने पहली टिप्पणी में ये माँग उठाई.
अमरीकी रणनीति बदलेगी? --
अमरीका इराक़ में अपनी सैन्य रणनीति में बदलाव करने की योजना बना रहा है। अब अमरीका इराक़ में स्थानीय लोगों को अधिक संख्या में सामने लाना चाहता है और बड़े पैमाने पर होने वाली कार्रवाइयाँ कम करना चाहता है।
नए परमाणु हथियारों पर चर्चा --
अमरीकी रक्षा मुख्यालय पेंटागन ने माना है कि वह सैनिक अधिकारियों और वैज्ञानिकों की एक उच्च स्तरीय बैठक कर रहा है। इसमें अगले चरण के अत्याधुनिक परमाणु हथियारों पर विचार होने की संभावना है। |
भारत बहुत सारी भाषाओं का देश है, परन्तु सरकारी कामकाज में व्यवहार में लायी जाने वाली दो भाषाऍँ हैं, हिन्दी और अंग्रेज़ी। भारत में द्विभाषी वक्ताओं की संख्या ३१.४९ करोड़ है, जो २०११ में जनसंख्या का २६% है।
पालि, प्राकृत, मारवाड़ी/मेवाड़ी, अपभ्रंश, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, राजस्थानी, सिंधी, कश्मीरी, मैथिली, भोजपुरी, नेपाली, मराठी, डोगरी, कुरमाली, नागपुरी, कोंकणी, गुजराती, बंगाली, ओड़िआ, असमिया, गुजरी
तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, तुलू, गोंडी, कुड़ुख
संथाली, हो, मुंडारी, खासी, भूमिज
नेपाल भाषा, मणिपुरी, खासी, मिज़ो, आओ, म्हार, नागा
मातृभाषा के अनुसार बड़ी भारतीय भाषाओं की सूची
यहाँ यह ध्यान रखने योग्य बात है कि भारत में द्विभाषिकता एवं बहुभाषिकता का प्रचलन है इसलिए यह सँख्या उन लोगों की है जिन्होंने ने हिन्दी को अपनी प्रथम भाषा के तौर पर १९९१ की जनगणना में दर्ज़ किया था।
मान्यता प्राप्त भाषाएं
हिंदी भारत के उत्तरी हिस्सों में सबसे व्यापक बोली जाने वाली भाषा है। भारतीय जनगणना "हिंदी" की व्यापक विविधता के रूप में "हिंदी" की व्यापक संभव परिभाषा लेती है। २०११ की जनगणना के अनुसार, ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित कर दिया है। भाषा डेटा २६ जून २०१८ को जारी किया गया था। भिली / भिलोदी १.०४ करोड़ वक्ताओं के साथ सबसे ज्यादा बोली जाने वाली गैर अनुसूचित भाषा थी, इसके बाद गोंडी २९ लाख वक्ताओं के साथ थीं। भारत की जनगणना २०११ में भारत की आबादी का ९६.7१% २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक अपनी मातृभाषा के रूप में बोलता है।
दस लाख से कम व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ
अंग अंग या अंगिका लिपि,
आस. असमिया लिपि,
बेन. बंगाली लिपि,
देव. देवनागरी लिपि,
गुज. गुजराती लिपि,
गुर. गुरमुखी लिपि,
कण. कन्नड़ लिपि,
लत. लैटिन लिपि,
मैं. मैथिली लिपि, मिथिलाक्षर, कैथी
माल. मलयालम लिपि,
ओरी. ओड़िआ लिपि,
सिन. सिंहल लिपि,
तेल. तेलुगु लिपि.
इन्हें भी देखें
भारत का भाषाई इतिहास
भारत के भाषा परिवार
भारत की आधिकारिक भाषाओं में भारत गणराज्य के नाम
भारत की बोलियाँ
हिंदी की विभिन्न बोलियाँ और उनका साहित्य
हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं का परस्परिक सम्बन्ध (डॉ विनोद कुमार)
भारत की भाषाएँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राजमल बोरा)
भारतीय भाषाएँ और हिन्दी अनुवाद (गूगल पुस्तक ; लेखक - कैलाशचन्द्र भाटिया)
भारतीय भाषाओं की पहचान (डॉ सियाराम तिवारी)
भारतीय भाषाएं एवं लिपियाँ सीखें (यहाँ अपनी सुविधा लिपि एवं भाषा के माध्यम से भारत की दूसरी भाषाएँ सीखने की निःशुल्क सुविधा है।)
भारतीय भाषा कोश (२१ भारतीय भाषाओं का एकल कोश) |
हिन्दू धर्म एक धर्म या जीवन पद्धति है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत, नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसके अलावा सूरीनाम, फ़िजी इत्यादि। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म माना जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है।
यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।
इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दू आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है।
सनातन धर्म पृथ्वी के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है; हालाँकि इसके इतिहास के बारे में अनेक विद्वानों के अनेक मत हैं। आधुनिक इतिहासकार हड़प्पा, मेहरगढ़ आदि पुरातात्विक अन्वेषणों के आधार पर इस धर्म का इतिहास कुछ हज़ार वर्ष पुराना मानते हैं। जहाँ भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, भगवान शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, शिवलिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे।
आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग १७०० ईसा पूर्व में आर्य अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गए। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गए, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आए। हिन्दू मान्यता के अनुसार वेद, उपनिषद आदि ग्रन्थ अनादि, नित्य हैं, ईश्वर की कृपा से अलग-अलग मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को अलग-अलग ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ जिन्होंने फिर उन्हें लिपिबद्ध किया। बौद्ध और धर्मों के अलग हो जाने के बाद वैदिक धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया। नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ।
दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल कदाचित सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेहरगढ़ की ६५०० ईपू संस्कृति में मिलता है) से भी पहले की भारतीय परम्परा में है।
हालांकि भारत विरोधी विद्वानों ने कई प्रयासों के बावजूद यहां तक कि भ्रामक प्रमाणो के आधार पर भी अपने विचार को सिद्ध नहीं कर पाए।
भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश "हिन्दुस्तान" है। "बृहस्पति आगम" के अनुसार:
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात् हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
"हिन्दू" शब्द "सिन्धु" से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं - पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र में मिलती है, दूसरा - कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर "न्दु", इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना "हिन्दु" और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दू शब्द उस समय धर्म के बजाय राष्ट्रीयता के रूप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए "हिन्दू" शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।
आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों ने विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है - वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की "स्" ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन "स्") ईरानी भाषाओं की "ह्" ध्वनि में बदल जाती है। इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर हफ्त हिन्दु में परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फ़र्गर्द १.१8)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया। चारों वेदों में, पुराणों में, महाभारत में, स्मृतियों में इस धर्म को हिन्दु धर्म नहीं कहा है, वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म कहा है।
हिन्दू धर्म में कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहीं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना ज़रूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। हिन्दुओं का कोई केन्द्रीय चर्च या धर्मसंगठन नहीं है और न ही कोई "पोप"। इसके अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फ़िर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, इन सब में विश्वास: धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति--जिसके कई रास्ते हो सकते हैं) और बेशक, ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनो कर्म भोग सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते हैं। प्राचीनकाल और मध्यकाल में शैव, शाक्त और वैष्णव आपस में लड़ते रहते थे। जिन्हें मध्यकाल के संतों ने समन्वित करने की सफल कोशिश की और सभी संप्रदायों को परस्पर आश्रित बताया।
संक्षेप में, हिन्दुत्व के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-हिन्दू-धर्म
गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवे च दृढ़ा मतिः।
पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
अर्थात-- गोमाता में जिसकी भक्ति हो, प्रणव जिसका पूज्य मन्त्र हो, पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो--वही हिन्दू है।
मेरुतन्त्र ३३ प्रकरण के अनुसार ' हीनं दूषयति स हिन्दु ' अर्थात जो हीन (हीनता या नीचता) को दूषित समझता है (उसका त्याग करता है) वह हिन्दु है। लोकमान्य तिलक के अनुसार-
असिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
अर्थात्- सिन्धु नदी के उद्गम-स्थान से लेकर सिन्धु (हिन्द महासागर) तक सम्पूर्ण भारत भूमि जिसकी पितृभू (अथवा मातृ भूमि) तथा पुण्यभू (पवित्र भूमि) है, (और उसका धर्म हिन्दुत्व है) वह हिन्दु कहलाता है। हिन्दु शब्द मूलतः फा़रसी है इसका अर्थ उन भारतीयों से है जो भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों, वेदों, पुराणों में वर्णित भारतवर्ष की सीमा के मूल एवं पैदायसी प्राचीन निवासी हैं। कालिका पुराण, मेदनी कोष आदि के आधार पर वर्तमान हिन्दू ला के मूलभूत आधारों के अनुसार वेदप्रतिपादित वर्णाश्रम रीति से वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाला हिन्दू है। यद्यपि कुछ लोग कई संस्कृति के मिश्रित रूप को ही भारतीय संस्कृति मानते है, जबकि ऐसा नहीं है। जिस संस्कृति या धर्म की उत्पत्ती एवं विकास भारत भूमि पर नहीं हुआ है, वह धर्म या संस्कृति भारतीय (हिन्दू) कैसे हो सकती है।
हिन्दू धर्म के सिद्धान्त के कुछ मुख्य बिन्दु
१. ईश्वर एक नाम अनेक.
२. ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है।
३. ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें.
४. हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर.
५. हिन्दुओं में कोई एक पैगम्बर नहीं है।
६. धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर बार-बार पैदा होते हैं।
७. परोपकार पुण्य है, दूसरों को कष्ट देना पाप है।
८. जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा है।
९. स्त्री आदरणीय है।
१०. सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है।
११. हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में.
१२. पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता.
१३. हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी.
१४. आत्मा अजर-अमर है।
१५. सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र.
१६. हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं।
१७. हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है।
१८. हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है।
हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्त्व है (इसे त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा से भ्रमित न करें)। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। ब्रह्म एक और सिर्फ़ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं : परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है, पर उसमें अनन्त सत्य, अनन्त चित् और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नहीं की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। हिन्दू यह मानते हैं कि ओम् की ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में गूंज रही है। ध्यान में गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है।
ब्रह्म और ईश्वर में क्या सम्बन्ध है, इसमें हिन्दू दर्शनों की सोच अलग अलग है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश में रहता है। अर्थात जब माया के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखायी पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति "माया" से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। इस स्थिति में हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उसपर अपना कुप्रभाव नहीं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है। वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से वो हमें कई देवताओं के रूप में प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई फ़र्क नहीं है--और विष्णु (या कृष्ण) ही ईश्वर हैं। न्याय, वैषेशिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है।
जो भी हो, बाकी बातें सभी हिन्दू मानते हैं : ईश्वर एक और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान (जो हिन्दी में सबसे ज़्यादा प्रचलित है)। इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी में) अल्लाह, (फ़ारसी में) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेज़ी में) गॉड और यहूदी (इब्रानी में) याह्वेह कहते हैं।
देवी और देवता
हिन्दू धर्म में कई देवता हैं, जिनको अंग्रेज़ी में ग़लत रूप से "गॉड्स" कहा जाता है। ये देवता कौन हैं, इस बारे में तीन मत हो सकते हैं :
अद्वैत वेदान्त, भगवद गीता, वेद, उपनिषद्, आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं (ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है)। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है। ऋग्वेद के अनुसार, "एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति", अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं।
योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं। योग दर्शन के अनुसार ईश्वर ही प्रजापति औत इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं।
मीमांसा के अनुसार सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं और उनके ऊपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना ज़रूरी है। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है।
एक बात और कही जा सकती है कि ज़्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। तीसरे मत को धर्मग्रन्थ मान्यता नहीं देते।
जो भी सोच हो, ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। वैदिक काल के मुख्य देव थे-- इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव) और देवियाँ-- सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि (कुल ३३)। बाद के हिन्दू धर्म में नये देवी देवता आये (कई अवतार के रूप में)-- गणेश, राम, कृष्ण, हनुमान, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह और देवियाँ (जिनको माता की उपाधि दी जाती है) जैसे-- दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों में उल्लिखित हैं और उनकी कुल संख्या ३३ कोटी बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं, बल्कि महादेव हैं और त्रिमूर्ति के सदस्य हैं।
इन सबके अलावा हिन्दू धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण ३३ कोटि देवी देवता वास करते हैं।
उल्लेखनीय है कि कोटि का यहाँ अर्थ प्रकार से है ना कि करोड़(संख्या) से हैं।
हिंदू धर्म के पांच प्रमुख देवता
हिंदू धर्म मान्यताओं में पांच प्रमुख देवता पूजनीय है। ये एक ईश्वर के ही अलग-अलग रूप और शक्तियाँ हैं।
सूर्य - स्वास्थ्य, प्रतिष्ठा व सफलता।
विष्णु - शांति व वैभव।
शिव - ज्ञान व विद्या।
शक्ति - शक्ति व सुरक्षा।
गणेश - बुद्धि व विवेक।
देवताओं के गुरु
देवताओं के गुरु बृहस्पति माने गए हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वे महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। भगवान शिव के कठिन तप से उन्होंने देवगुरु का पद पाया। उन्होंने अपने ज्ञान बल व मंत्र शक्तियों से देवताओं की रक्षा की। शिव कृपा से ये गुरु ग्रह के रूप में भी पूजनीय हैं। गुरुवार, गुरु बृहस्पतिदेव की उपासना का विशेष दिन है।
दानवों के गुरु
दानवों के गुरु शुक्राचार्य माने जाते हैं। ब्रह्मदेव के पुत्र महर्षि भृगु इनके पिता थे। शुक्राचार्य ने ही शिव की कठोर तपस्या कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की, जिससे वह मृत शरीर में फिर से प्राण फूंक देते थे। ब्रह्मदेव की कृपा से यह शुक्र ग्रह के रूप में पूजनीय हैं। शुक्रवार शुक्र देव की उपासना का ही विशेष दिन है।
हिन्दू धर्म के अनुसार हर चेतन प्राणी में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन, अव्यक्त, अप्रमेय और विकार रहित है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं:
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २-२०॥
(यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न तो मरता ही है तथा न ही यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन, पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।)
किसी भी जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। जन्म-मरण के चक्र में आत्मा स्वयं निर्लिप्त रह्ते हुए अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्मफल के प्रभाव से मनुष्य कुलीन घर अथवा योनि में जन्म ले सकता है जबकि बुरे कर्म करने पर निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड़ता है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मनुष्य के कर्म, पाप और पुण्यमय फल देते हैं और सुकर्म के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मुम्किन है। आत्मा और पुनर्जन्म के प्रति यही धारणाएँ बौद्ध धर्म और सिख धर्म का भी आधार है।
हिंदू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति और स्मृति। श्रुति हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं, जो पूर्णत: अपरिवर्तनीय हैं, अर्थात् किसी भी युग में इनमे कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। स्मृति ग्रन्थों में देश-कालानुसार बदलाव हो सकता है। श्रुति के अन्तर्गत वेद : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ब्रह्म सूत्र व उपनिषद् आते हैं। वेद श्रुति इसलिये कहे जाते हैं क्योंकि हिन्दुओं का मानना है कि इन वेदों को परमात्मा ने ऋषियों को सुनाया था, जब वे गहरे ध्यान में थे। वेदों को श्रवण परम्परा के अनुसार गुरू द्वारा शिष्यों को दिया जाता था। हर वेद में चार भाग हैं- संहितामन्त्र भाग, ब्राह्मण-ग्रन्थगद्य भाग, जिसमें कर्मकाण्ड समझाये गये हैं, आरण्यकइनमें अन्य गूढ बातें समझायी गयी हैं, उपनिषद्इनमें ब्रह्म, आत्मा और इनके सम्बन्ध के बारे में विवेचना की गयी है। अगर श्रुति और स्मृति में कोई विवाद होता है तो श्रुति ही मान्य होगी। श्रुति को छोड़कर अन्य सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति कहे जाते हैं, क्योंकि इनमें वो कहानियाँ हैं जिनको लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया और बाद में लिखा। सभी स्मृति ग्रन्थ वेदों की प्रशंसा करते हैं। इनको वेदों से निचला स्तर प्राप्त है, पर ये ज़्यादा आसान हैं और अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़े जाते हैं (बहुत ही कम हिन्दू वेद पढ़े होते हैं)। प्रमुख स्मृति ग्रन्थ हैं:- इतिहास--रामायण और महाभारत, भगवद गीता, पुराण--(१८), मनुस्मृति, धर्मशास्त्र और धर्मसूत्र, आगम शास्त्र। भारतीय दर्शन के ६ प्रमुख अंग हैं- सांख्य दर्शन, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त।
देव और दानवों के माता-पिता का नाम
हिंदू धर्मग्रंथों के मुताबिक देवता धर्म के तो दानव अधर्म के प्रतीक हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पौराणिक मान्यताओं में देव-दानवों को एक ही पिता, किंतु अलग-अलग माताओं की संतान बताया गया है। इसके मुताबिक देव-दानवों के पिता ऋषि कश्यप हैं। वहीं, देवताओं की माता का नाम अदिति और दानवों की माता का नाम दिति है।
२००८ की गणना के अनुसार
विश्व में अधिकतम हिन्दू जनसँख्या वाले २० राष्ट्र
वैदिक काल और यज्ञ
प्राचीन काल में लोग वैदिक मंत्रों और अग्नि-यज्ञ से कई देवताओं की पूजा करते थे। आर्य देवताओं की कोई मूर्ति या मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रमुख देवता थे : देवराज इन्द्र, अग्नि, सोम और वरुण। उनके लिये वैदिक मन्त्र पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ, इत्यागि की आहुति दी जाती थी।
तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा
भारत एक विशाल देश है, लेकिन उसकी विशालता और महानता को हम तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि उसे देखें नहीं। इस ओर वैसे अनेक महापुरूषों का ध्यान गया, लेकिन आज से बारह सौ वर्ष पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने इसके लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होनें चारों दिशाओं में भारत के छोरों पर, चार पीठ (मठ) स्थापित उत्तर में बदरीनाथ के निकट ज्योतिपीठ, दक्षिण में रामेश्वरम् के निकट श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम में द्वारिकापीठ। तीर्थों के प्रति हमारे देशवासियों में बड़ी भक्ति भावना है। इसलिए शंकराचार्य ने इन पीठो की स्थापना करके देशवासियों को पूरे भारत के दर्शन करने का सहज अवसर दे दिया। ये चारों तीर्थ चार धाम कहलाते है। लोगों की मान्यता है कि जो इन चारों धाम की यात्रा कर लेता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।
ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा साधन है, जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन मात्र हैं।
हिन्दुओं के उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे। तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती थी। एक नज़रिये के मुताबिक बौद्ध और जैन धर्मों द्वारा बुद्ध और महावीर की मूर्तियों और मन्दिरों द्वारा पूजा करने की वजह से हिन्दू भी उनसे प्रभावित होकर मन्दिर बनाने लगे। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर साल लाखों तीर्थयात्री आते हैं।
अधिकाँश हिन्दू चार शंकराचार्यों को (जो ज्योतिर्मठ, द्वारिका, शृंगेरी और पुरी के मठों के मठाधीश होते हैं) हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।
नववर्ष - द्वादशमासै: संवत्सर:।' ऐसा वेद वचन है, इसलिए यह जगत्मान्य हुआ। सर्व वर्षारंभों में अधिक योग्य प्रारंभदिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। इसे पूरे भारत में अलग-अलग नाम से सभी हिन्दू धूम-धाम से मनाते हैं। यद्यपि प्राचीनकालमे माघशुक्ल प्रतिपदासे शिशिर ऋत्वारम्भ उत्तरायणारम्भ और नववर्षाम्भ तिनौं एक साथ माना जाता था।
हिन्दू धर्म में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है।
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है।
श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं।
आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी।
किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग ७०% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है।
प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार - व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया।
अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया।।
सनातनी हिंदू भगवान विष्णु के १० अवतार मानते हैं:- मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नरसिंह, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि।
हनुमान भी भगवान शिव के अवतार हैं।
इन्हें भी देखें
हिन्दू धर्म का इतिहास
हिन्दू धर्म के अद्वितीय सिद्धान्त
हिन्दू धर्म कोश (रचनाकार : महेश शर्मा) |
वेद शब्द का अर्थ 'ज्ञान' है। वेद-पुरुष के शिरोभाग को उपनिषद् कहते हैं। उप (व्यवधानरहित) नि (सम्पूर्ण) षद् (ज्ञान)। किसी विषय के होने न होने का निर्णय ज्ञान से ही होता है। अज्ञान का अनुभव भी ज्ञान ही कराता है। अतः ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए ज्ञान से भिन्न किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उपनिषद् का अन्य अर्थ उप (समीप) निषत् -निषीदति-बैठनेवाला। अर्थात- जो उस परम तत्त्व के समीप बैठता हो। उपनिषद्यते-प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद्। अर्थात्-जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके, वह उपनिषद् है।
मुक्तिकोपनिषद् में एक सौ आठ (१०८) उपनिषदों का वर्णन आता है, इसके अतिरिक्त अडियार लाइब्रेरी मद्रास से प्रकाशित संग्रह में से १७९ उपनिषदों के प्रकाशन हो चुके हैं। गुजराती प्रिटिंग प्रेस बम्बई से मुदित उपनिषद्-वाक्य-महाकोष में २२३ उपनिषदों की नामावली दी गई है, इनमें उपनिषद (१) उपनिधि-त्स्तुति तथा (२) देव्युपनिषद नं-२ की चर्चा शिवरहस्य नामक ग्रंथ में है लेकिन ये दोनों उपलब्ध नहीं हैं तथा माण्डूक्यकारिका के चार प्रकरण चार जगह गिने गए है इस प्रकार अबतक ज्ञात उपनिषदो की संख्या २२० आती हैः-
कुल ज्ञात उपनिषद
४-अथर्वशिर उपनिषद् (सामवेद)
१३-अमृतबिन्दूपनिषद् (ब्रह्मबिन्दूपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
१६-अवधूतोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक) (कृष्णयजुर्वेदीय)
२१-आत्मप्रबोधनोपनिषद् (आत्मबोधोपनिषद्) (ऋग्वेदीय)
२२-आत्मोपनिषद् (वाक्यात्मक) (सामवेद)
२६-आरुणिकोपनिषद् (आरुणेय्युपनिषद्) (सामवेद)
२९-इतिहासोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
उपनषत्स्तुति (शिव रहस्यान्तर्गत, अभी तक अनुपलब्ध है।)
३१-ऊध्वर्पण्ड्रोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)
३३-ऐतेरेयोपनिषद् (अध्यायात्मक) (ऋग्वेदीय)
३६-कठरुद्रोपनिषद् (कण्ठोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
३९-कलिसन्तरणोपनिषद् (हरिनामोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)
५९-गारुड़ोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद)
६६-चाक्षुषोपनिषद् (चक्षरुपनिषद्, चक्षुरोगोपनिषद्, नेत्रोपनिषद्)
७५-तुरीयातीतोपनिषद् (तीतावधूतो०) (शुक्लयजुर्वेदीय)
९०- (१) देव्युपनिषद् (पद्यात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद) * (२) देव्युपनिषद् (शिवरहस्यान्तर्गत-अनुपलब्ध)
९८-नारायणोपनिषद् (नारायणाथर्वशीर्ष) (कृष्णयजुर्वेदीय)
१३३-भावनोपनिषद् (कापिलोपनिषद्) (सामवेद)
१३७-मन्त्रिकोपनिषद् (चूलिकोपनिषद्) (शुक्लयजुर्वेदीय)
१३९-महानारायणोपनिषद् (बृहन्नारायणोपनिषद्, उत्तरनारायणोपनिषद्)
१५४-(१) योगतत्त्वोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)
१९६-संन्यासोपनिषद् (अध्यायात्मक) (सामवेद)
२००-सर्वसारोपनिषद् (सर्वोप०) (कृष्णयजुर्वेदीय)
२०१-स ह वै उपनिषद्
१०८ उपिनषदों की यह सूची मुक्तिक उपनिषद में १:३०-३९ में दी गयी है :
ईश = शुक्ल यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्
केन (उपनिषद्)= सामवेद, मुख्य उपिनषद्
कठ उपनिषद् = कृष्ण यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्
प्रश्न = अथर्व वेद, मुख्य उपिनषद्
मुण्डक = अथर्व वेद, मुख्य उपिनषद्
माण्डुक्य = अथर्व वेद, मुख्य उपिनषद्
तैतरीय = कृष्ण यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्
ऐतरेय = ऋग् वेद, मुख्य उपिनषद्
छान्दोग्य = साम वेद, मुख्य उपिनषद्
बृहदारण्यक उपनिषद (१०) = शुक्ल यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्
ब्रह्म = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
कैवल्य = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्
जाबाल (यजुर्वेद) = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
श्वेताश्वतर = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
हंस = शुक्ल यजुर्वेद, योग उपिनषद्
आरुणेय = साम वेद, संन्यास उपिनषद्
गर्भ = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
नारायण = कृष्ण यजुर्वेद, वैष्णव उपिनषद्
परमहंस = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
अमृत-बिन्दु (२०) = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
अमृत-नाद = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
अथर्व-शिर = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्
अथर्व-शिख = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्
मैत्रायिण = साम वेद, सामान्य उपिनषद्
कौषीिताक = ऋग् वेद, सामान्य उपिनषद्
बृहज्जाबाल = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्
नृसिंहतापनी = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
कालाग्निरुद्र = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्
मैत्रेय = साम वेद, संन्यास उपिनषद्
सुबाल (३०) = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
क्षुरिक = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
मान्त्रिक = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
सर्व-सार = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
निरालम्ब = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
शुक-रहस्य = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
वज्र-सिूच = साम वेद, सामान्य उपिनषद्
तेजो-बिन्दु = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
नाद-बिन्दु = ऋग् वेद, योग उपिनषद्
ध्यानिबन्दु = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
ब्रह्मिवद्या (४०) = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
योगतत्त्व = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
आत्मबोध = ऋग् वेद, सामान्य उपिनषद्
परिव्रात् (नारदपरिव्राजक) = अथर्व वेद, संन्यास उपिनषद्
त्रि-िषिख = शुक्ल यजुर्वेद, योग उपिनषद्
सीता = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्
योगचूडामिण = साम वेद, योग उपिनषद्
निर्वाण = ऋग् वेद, संन्यास उपिनषद्
मण्डलब्राह्मण = शुक्ल यजुर्वेद, उपिनषद्
दकि्षणामूर्ति = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्
शरभ (५०) = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्
स्कन्द (त्िरपाड्िवभूिट) = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
महानारायण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
अद्वयतारक = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
रामरहस्य = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
रामतापिण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
वासुदेव = साम वेद, वैष्णव उपिनषद्
मुद्गल = ऋग् वेद, सामान्य उपिनषद्
शाणि्डल्य = अथर्व वेद, योग उपिनषद्
पैंगल = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
भिक्षुक (६०) = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
महत् = साम वेद, सामान्य उपिनषद्
शारीरक = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
योगिशखा = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
तुरीयातीत = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
संन्यास = साम वेद, संन्यास उपिनषद्
परमहंस-परिव्राजक = अथर्व वेद, संन्यास उपिनषद्
अक्षमालिक = ऋग् वेद, शैव उपिनषद्
अव्यक्त = साम वेद, वैष्णव उपिनषद्
एकाक्षर = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
अन्नपूर्ण (७०) = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्
सूर्य = अथर्व वेद, सामान्य उपिनषद्
अक्षि = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
अध्यात्मा = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
कुण्डिक = साम वेद, संन्यास उपिनषद्
सावित्री = साम वेद, सामान्य उपिनषद्
आत्मा = अथर्व वेद, सामान्य उपिनषद्
पाशुपत = अथर्व वेद, योग उपिनषद्
परब्रह्म = अथर्व वेद, संन्यास उपिनषद्
अवधूत = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
त्रिपुरातपिन (८०) = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्
देवि = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्
त्रिपुर = ऋग् वेद, शाक्त उपिनषद्
कठरुद्र = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
भावन = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्
रुद्र-हृदय = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्
योग-कुण्डिलिन = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्
भस्म = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्
रुद्राक्ष = साम वेद, शैव उपिनषद्
गणपित = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्
दर्शन (९०) = साम वेद, योग उपिनषद्
तारसार = शुक्ल यजुर्वेद, वैष्णव उपिनषद्
महावाक्य = अथर्व वेद, योग उपिनषद्
पंच-ब्रह्म = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्
प्राणाग्नि-होत्र = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
गोपाल-तपिण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
कृष्ण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
याज्ञवल्क्य = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
वराह = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्
शात्यायिन = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपनिषद्
हयग्रीव (१००) = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
दत्तात्रेय = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
गारुड = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्
किल-सण्टारण = कृष्ण यजुर्वेद, वैष्णव उपिनषद्
जाबाल (सामवेद) = साम वेद, शैव उपिनषद्
सौभाग्य = ऋग् वेद, शाक्त उपिनषद्
सरस्वती-रहस्य = कृष्ण यजुर्वेद, शाक्त उपिनषद्
बह्वृच = ऋग् वेद, शाक्त उपिनषद्
मुक्तिक (१०८) = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्
१९ उपिनषद् शुक्ल यजुर्वेद से हैं और उनका शान्तिपाठ पूर्णमदः से आरम्भ होता है |
३२ उपिनषद कृष्ण यजुर्वेद से हैं और उनका शान्तिपाठ सहनाववतु से आरम्भ होता है |
१६ उपिनषद् सामवेद से हैं और उनका शान्तिपाठ आप्यायन्तु से आरम्भ होता है |
३१ उपिनषद् अथर्ववेद से हैं और उनका शान्तिपाठ भद्रं कर्णेभिः से आरम्भ होता है |
१० उपिनषद् ऋग्वेद से हैं और उनका शान्तिपाठ वण्मे मनिस से आरम्भ होता है | |
उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। इनकी संख्या लगभग १०८ है, किन्तु मुख्य उपनिषद १३ हैं। हर एक उपनिषद किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है।
उपनिषदों में कर्मकाण्ड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्त्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल (जगत और पदार्थ) से सूक्ष्म (मन और आत्मा) की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत् का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं। ब्रह्मसूत्र और गीता कुछ सीमा तक उपनिषदों पर आधारित हैं। भारत की समग्र दार्शनिक चिन्तनधारा का मूल स्रोत उपनिषद-साहित्य ही है। इनसे दर्शन की जो विभिन्न धाराएं निकली हैं, उनमें 'वेदान्त दर्शन' का अद्वैत सम्प्रदाय प्रमुख है। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान और कर्तव्यशास्त्र का प्रभाव भारतीय दर्शन के अतिरिक्त धर्म और संस्कृति पर भी परिलक्षित होता है। उपनिषदों का महत्त्व उनकी रोचक प्रतिपादन शैली के कारण भी है। कई सुन्दर आख्यान और रूपक, उपनिषदों में मिलते हैं।
उपनिषद् भारतीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य। उपनिषदों को स्वयं भी 'वेदान्त' कहा गया है। १७वीं सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं। विश्व के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं।
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिन्तनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में प्रस्तुत करनेकि की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अन्तरदृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
उपनिषद शब्द का अर्थ
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - समीप उपवेशन या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द उप, नि उपसर्ग तथा, सद् धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।
प्रारंभिक उपनिषदों की रचना का सामान्य क्षेत्र उत्तरी भारत माना जाता है। यह क्षेत्र पश्चिम में ऊपरी सिंधु घाटी, पूर्व में निचले गंगा क्षेत्र, उत्तर में हिमालय की तलहटी और दक्षिण में विंध्य पर्वत श्रृंखला से घिरा है।
विद्वानों को यथोचित यकीन है कि प्रारंभिक उपनिषदों का निर्माण प्राचीन ब्राह्मणवाद के भौगोलिक केंद्र, कुरु - पंचाल और कोसल - विदेह, जो ब्राह्मणवाद का एक "सीमांत क्षेत्र" था, इसी के साथ-साथ इनके ठीक दक्षिण और पश्चिम के क्षेत्रों में हुआ था। इस क्षेत्र में आधुनिक बिहार, नेपाल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान और उत्तरी मध्य प्रदेश शामिल हैं।
हालाँकि व्यक्तिगत उपनिषदों के सटीक स्थानों की पहचान करने के लिए हाल ही में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं, लेकिन परिणाम अस्थायी हैं। विट्जेल बृहदारण्यक उपनिषद में गतिविधि के केंद्र की पहचान विदेह के क्षेत्र के रूप में करते हैं, जिसके राजा जनक का उल्लेख उपनिषद में प्रमुखता से है।
छांदोग्य उपनिषद की रचना संभवतः भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्वी से अधिक पश्चिमी स्थान पर की गई थी, संभवतः कुरु-पांचाल देश के पश्चिमी क्षेत्र में कहीं।
प्रमुख उपनिषदों की तुलना में, मुक्तिका में दर्ज नए उपनिषद पूरी तरह से अलग क्षेत्र, शायद दक्षिणी भारत से संबंधित हैं, और अपेक्षाकृत हाल के हैं। कौशीतकी उपनिषद के चौथे अध्याय में काशी (आधुनिक बनारस) नामक स्थान का उल्लेख है।
उपनिषदों में मुख्य रूप से 'आत्मविद्या' का प्रतिपादन है, जिसके अन्तर्गत ब्रह्म और आत्मा के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के साधन और आवश्यकता की समीक्षा की गयी है। आत्मज्ञानी के स्वरूप, मोक्ष के स्वरूप आदि अवान्तर विषयों के साथ ही विद्या, अविद्या, श्रेयस, प्रेयस, आचार्य आदि तत्सम्बद्ध विषयों पर भी भरपूर चिन्तन उपनिषदों में उपलब्ध होता है। वैदिक ग्रन्थों में जो दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन यत्र-तत्र दिखार्इ देता है, वही परिपक्व रूप में उपनिषदों में निबद्ध हुआ है।
उपनिषदों में सर्वत्र समन्वय की भावना है। दोनों पक्षों में जो ग्राह्य है, उसे ले लेना चाहिए। दृष्टि से ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग, विद्या और अविद्या, संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश है। उपनिषदों में कभी-कभी ब्रह्मविद्या की तुलना में कर्मकाण्ड को बहुत हीन बताया गया है। र्इश आदि कर्इ उपनिषदें एकात्मवाद का प्रबल समर्थन करती हैं।
उपनिषद् ब्रह्मविद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या नष्ट हो जाती है (विवरण); वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति); जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दुःख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन)। फलतः उपनिषद् वे तत्त्व प्रतिपादक ग्रन्थ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
उपनिषदों की कथाएँ
उपनिषदों में देवता-दानव, ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी, पृथ्वी, प्रकृति, चर-अचर, सभी को माध्यम बना कर रोचक और प्रेरणादायक कथाओं की रचना की गयी है। इन कथाओं की रचना वेदों की व्याख्या के उद्देश्य से की गई। जो बातें वेदों में जटिलता से कही गयी है उन्हें उपनिषदों में सरल ढंग से समझाया गया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अग्नि, सूर्य, इन्द्र आदि देवताओं से लेकर नदी, समुद्र, पर्वत, वृक्ष तक उपनिषद के कथापात्र है।
उपनिषद् गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श उदाहरण हैं। प्रश्नोत्तर के माध्यम से सृष्टि के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन उपनिषदों में सहज ढंग से किया गया है। विभिन्न दृष्टान्तों, उदाहरणों, रूपकों, संकेतों और युक्तियों द्वारा आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म आदि का स्पष्टीकरण इतनी सफलता से उपनिषद् ही कर सके हैं।
रजि की कथा, कार्तवीर्य की कथा, नचिकेता की कथा, उद्दालक और श्वेतकेतु की कथा, सत्यकाम जाबाल की कथा आदि।
आध्यात्मिक चिन्तन की अमूल्य निधि
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बाँधने का प्रयत्न हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
उपनिषदकाल के पहले : वैदिक युग
वैदिक युग सांसारिक आनन्द एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए। जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें। कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी और जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्गम कहाँ है, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।
कुछ लोगों की जीवन देखने की क्षमता गहरी होने लगी, जिसकी वजह से उनको जीवन चक्र दिखने लगा। जीवन में सुख और दुःख दोनों है ये दिखने लगा। कुछ लोगों को ये लगने लगा कि जीवन क्या सिर्फ यही है। उन्होंने 'ना' कहना शुरू किया पेट केंद्रित जीवन को।
इसी "ना" से उपनिषद का आरम्भ हुआ।
उपनिषदकालीन विचारों का उदय
ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं। आत्मा शरीर से भिन्न तत्त्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती है इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का आवागमन क्यों होता है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं हुए। अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी हुआ कि वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई है?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें'? वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकार है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।'वेदों में यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि इस जीवन में सुखी, संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के लिए आवश्यक है कि देवताओं की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ है। यज्ञ के कर्मफल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही सूत्र चारों ओर गुँजित थे। दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने यज्ञ को बहुत अधिक महत्त्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक बढ़ गई तब इस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात हुआ। लोग सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?' 'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस रूप के प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा देंगे?' इस प्रकार, कर्मकाण्ड पर बहुत अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में प्रतिपादित किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार करने को प्रेरित किया।
प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत, पूषन, मित्र, पितर, यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग प्रशस्त किया।
उपनिषदों का स्वरूप
उपनिषद चिंतनशील एवं कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं। जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया जाता है। उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग-अनुसंधान सुविधाएँ संभव है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है। उपनिषद अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान, विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है। सृष्टि के उद्गम एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत में कहा यह गया कि हमारी श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं जानता हो।'
संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था। उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।
उपनिषदों का वर्गीकरण
१०८ उपनिषदों को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है।
वेद से सम्बन्ध
वैदिक संहिताओं के अनन्तर वेद के तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं- ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद। इन ग्रन्थों का सीधा सम्बन्ध अपने वेद से होता है, जैसे ऋग्वेद के ब्राह्राण, ऋग्वेद के आरण्यक और ऋग्वेद के उपनिषदों के साथ ऋग्वेद का संहिता ग्रन्थ मिलकर भारतीय परम्परा के अनुसार 'ऋग्वेद' कहलाता है।
किसी उपनिषद का सम्बन्ध किस वेद से है, इस आधार पर उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
(१) ऋग्वेदीय -- १० उपनिषद्
(२) शुक्ल यजुर्वेदीय -- १९ उपनिषद्
(३) कृष्ण यजुर्वेदीय -- ३२ उपनिषद्
(४) सामवेदीय -- १६ उपनिषद्
(५) अथर्ववेदीय -- ३१ उपनिषद्
कुल -- १०८ उपनिषद्
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
मुख्य उपनिषद एवं गौण उपनिषद
विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने १० पर अपना भाष्य दिया है-
(१) ईश, (२) ऐतरेय (३) कठ (४) केन (५) छान्दोग्य (६) प्रश्न (७) तैत्तिरीय (८) बृहदारण्यक (९) मांडूक्य और (१०) मुण्डक।
उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है-
(१) श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।
अन्य उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के कारण 'तांत्रिक' माने जाते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त, वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है।
प्रतिपाद्य विषय के आधार पर
डॉ॰ ड्यूसेन, डॉ॰ बेल्वेकर तथा रानडे ने उपनिषदों का विभाजन प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इस प्रकार किया है:
१. गद्यात्मक उपनिषद्
१. ऐतरेय, २. केन, ३. छान्दोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि;
इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।
१.ईश, २.कठ, ३. श्वेताश्वतर तथा नारायण
इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।
१.प्रश्न, २.मैत्री (मैत्रायणी) तथा ३.माण्डूक्य
४.आथर्वण (अर्थात् कर्मकाण्डी) उपनिषद्
अन्य अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में की जाती है।
भाषा तथा उपनिषदों के विकासक्रम के आधार पर
भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से डॉ॰ डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में किया है:
१. ईश, २. ऐतरेय, ३. छान्दोग्य, ४. प्रश्न, ५. तैत्तिरीय, ६. बृहदारण्यक, ७. माण्डूक्य और ८. मुण्डक
१. कठ, २. केन
१. कौषीतकि, २. मैत्री (मैत्राणयी) तथा ३. श्वेताश्वतर
उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति एवं काल
उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति मध्यदेश के कुरुपांचाल से लेकर विदेह (मिथिला) तक फैली हुई है।
उपनिषदों के काल के विषय में निश्चित मत नहीं है पर उपनिषदो का काल ३००० ईसा पूर्व से ३५०० ई पू माना गया है। वेदो का रचना काल भी यही समय माना गया है। उपनिषद् काल का आरम्भ बुद्ध से पर्याप्त पूर्व है। "ग्रेट एजेज ऑफ मैन" के सम्पादक इसे लगभग ८०० ई.पू. बतलाते हैं।
उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय में निश्चित मत नहीं है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है
पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण
निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है-
इन्हें भी देखिये
वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र
उपनिषदों ने आत्मनिरीक्षण का मार्ग बताया
उपनिषद् शब्दावली ()
उपनिषद (वन्दे मतरम लाइब्रेरी ट्रस्ट तथा औरो_भारती का संयुक्त उपक्रम)
पीडीईएफ् प्रारूप, देवनागरी में अनेक उपनिषद
डॉ मृदुल कीर्ति द्वारा उपनिषदों का हिन्दी काव्य रूपान्तरण |
रुपया (रु॰) (हिंदी और उर्दू: रुपया, संस्कृत: रूप्यकम् से उत्प्रेरित जिसका अर्थ चांदी का सिक्का है) भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, मॉरीशस और सेशल्स में उपयोग मे आने वाली मुद्रा का नाम है। इंडोनेशिया की मुद्रा को रुपिया जबकि मालदीव की मुद्रा को रुफियाह, के नाम से जाना जाता है जो असल मे हिन्दी शब्द रुपया का ही बदला हुआ रूप है। भारतीय और पाकिस्तानी रुपये मे सौ पैसे होते हैं (एक पैसा) में, श्रीलंकाई रुपये में १०० सेंट, तथा नेपाली रुपये को सौ पैसे या चार सूकों (एकवचन सूक) या दो मोहरों (एकवचन मोहर) मे विभाजित किया जा सकता है।
"रुपया" शब्द का उद्गम संस्कृत के शब्द रुप् या रुप्याह् मे निहित है, जिसका अर्थ कच्ची चांदी होता है और रूप्यकम् का अर्थ चांदी का सिक्का है। कालांतर मे पूरे उपमहाद्वीप मे मौद्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए तीनों धातुओं के सिक्कों का मानकीकरण किया गया।
रुपया आज तक प्रचलन मे है। भारत मे ब्रिटिश राज के दौरान भी यह प्रचलन मे रहा, इस दौरान इसका वजन ११.६६ ग्राम था और इसके भार का ९१.७% तक शुद्ध चांदी थी। १९वीं शताब्दी के अंत मे रुपया प्रथागत ब्रिटिश मुद्रा विनिमय दर, के अनुसार एक शिलिंग और चार पेंस के बराबर था वहीं यह एक पाउंड स्टर्लिंग का १ / १५ हिस्सा था।
उन्नीसवीं सदी मे जब दुनिया में सबसे सशक्त अर्थव्यवस्थायें स्वर्ण मानक पर आधारित थीं तब चांदी से बने रुपये के मूल्य मे भीषण गिरावट आयी। संयुक्त राज्य अमेरिका और विभिन्न यूरोपीय उपनिवेशों में विशाल मात्रा मे चांदी के स्रोत मिलने के परिणामस्वरूप चांदी का मूल्य सोने के अपेक्षा काफी गिर गया। अचानक भारत की मानक मुद्रा से अब बाहर की दुनिया से ज्यादा खरीद नहीं की जा सकती थी। इस घटना को रुपए की गिरावट "के रूप में जाना जाता है।
पहले रुपए (११.६६ ग्राम) को १६ आने या ६४ पैसे या १९२ पाई में बांटा जाता था। रुपये का दशमलवीकरण १८६९ में सीलोन (श्रीलंका) में, १९५७ में भारत मे और १९६१ में पाकिस्तान में हुआ। इस प्रकार अब एक भारतीय रुपया १०० पैसे में विभाजित हो गया। भारत में कभी कभी पैसे के लिए नया पैसा शब्द भी इस्तेमाल किया जाता था। भारत मे भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा जारी की जाती है, जबकि पाकिस्तान मे यह स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान के द्वारा नियंत्रित होता है।
असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में बोली जाने वाली असमिया और बांग्ला भाषाओं में, रुपये को टका के रूप में जाना जाता है और भारतीय बैंक नोटों पर भी इसी रूप में लिखा जाता है। भारत और पाकिस्तान की मुद्रा १, २, ५, १०, २०, ५०, १००, २००, ५०० और २००० रुपये के मूल्यवर्ग में जारी की जाती है, वहीं पाकिस्तान मे ५००० रुपये का नोट भी जारी किया जाता है। रुपये की बड़ी मूल्यवर्ग अक्सर लाख (१,००,०००) करोड़ (१,००,००,०००) और अरब (१,००,००,००,०००) रुपए में गिने जाते हैं।
भारतीय रुपये का प्रतीक चिह्न
वर्ष २०१० में भारत सरकार द्वारा एक रुपये के लिये प्रतीक चिह्न निर्धारित करने हेतु एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। जूरी द्वारा सभी प्रविष्टियों में से पाँच डिजाइनों को चुना गया जिनमें से अन्तिम रूप से आइआइटी के प्रवक्ता उदय कुमार के डिजाइन को चुना गया।
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भौतिक शास्त्र या भौतिकी प्राकृतिक विज्ञान का एक मूल विषय है जो पदार्थ, उसके मूलभूत घटकों, उसकी गति और व्यवहार, देशकाल के माध्यम से और ऊर्जा और बल की सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है। भौतिकी सबसे मौलिक वैज्ञानिक विषयों में से एक है, जिसका मुख्य लक्ष्य यह समझना है कि ब्रह्माण्ड कैसे व्यवहार करता है। एक वैज्ञानिक जो भौतिकी के क्षेत्र में विशेषज्ञता रखता है, भौतिक शास्त्री कहलाता है।
भौतिकी प्राचीनतम शैक्षणिक विषयों में से एक है और, खगोल शास्त्र के समावेश के कारण, प्रायः प्राचीनतम है। पिछली दो सहस्राब्दी में, भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और गणित की कुछ शाखाएँ प्राकृतिक दर्शनशास्त्र का एक अंश थीं, परन्तु १७वीं शताब्दी में वैज्ञानिक क्रान्ति के दौरान ये प्राकृतिक विज्ञान अपने आप में अद्वितीय शोध प्रयासों के रूप में उभरे। भौतिकी अनुसन्धान के कई अन्तर्विषयक क्षेत्रों, जैसे जैवभौतिकी और प्रमात्रा रसायनिकी के साथ प्रतिच्छेद करती है, और भौतिकी की सीमाओं को कठोर रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। भौतिकी में नए विचार प्रायः अन्य विज्ञानों द्वारा अध्ययन किए गए मौलिक तन्त्रों की व्याख्या करते हैं और इन और अन्य शैक्षणिक विषयों जैसे दर्शनशास्त्र में अनुसन्धान के नूतन मार्ग सुझाते हैं।
भौतिकी में प्रगति अक्सर नूतन तकनीकों में प्रगति को सक्षम बनाती है। उदाहरण के लिए, विद्युच्चुम्बकत्व, ठोसावस्था भौतिकी और परमाणु भौतिकी की समझ में हुई प्रगति ने सीधा नूतनोत्पादों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जिन्होंने आधुनिक समाज को नाटकीय रूप से बदल दिया है, जैसे कि दूरदर्शन, संगणकों, गृहोपकरण और परमाण्वस्त्र; ऊष्मगतिकी में प्रगति के कारण औद्योगीकरण का विकास हुआ; और यान्त्रिकी में हुई प्रगति ने कलन के विकास को प्रेरित किया।
भौतिकी की शाखाएँ
चिरसम्मत भौतिकी में पारम्परिक शाखाएँ और विषय शामिल हैं जिन्हें २० वीं शताब्दी की आरम्भ से पूर्व पहचाना और अच्छी तरह से विकसित किया गया था: चिरसम्मत यान्त्रिकी, ध्वनिकी, प्रकाशिकी, ऊष्मगतिकी और विद्युच्चुम्बकत्व। चिरसम्मत यान्त्रिकी गति में पिण्डों और बलों द्वारा पिण्डों पर कार्य किए जाने से सम्बन्धित है और इसे स्थैतिकी में विभाजित किया जा सकता है (किसी पिण्ड या पिण्डों पर बलों का अध्ययन जो त्वरण के अधीन नहीं है), शुद्ध गतिकी (गति के कारणों की ध्यान किए बिना उसका का अध्ययन), और गतिकी (गति का अध्ययन और इसे प्रभावित करने वाले बल); यान्त्रिकी को ठोस यान्त्रिकी और तरल यान्त्रिकी (सातत्यक यान्त्रिकी के रूप में एक साथ जाना जाता है) में विभाजित किया जा सकता है, उत्तरार्द्ध में द्रवस्थैतिकी, द्रवगतिकी, वायुगतिकी और गैसयान्त्रिकी जैसी शाखाएँ शामिल हैं। ध्वनिकी इस का अध्ययन है कि ध्वनि कैसे उत्पन्न, नियन्त्रित, प्रसारित और प्राप्त की जाती है। ध्वनिकी की महत्वपूर्ण आधुनिक शाखाओं में पराध्वनिकी शामिल हैं, मानव श्रवण की सीमा से परे बहुत उच्चावृत्ति की ध्वनि तरंगों का अध्ययन; जैवध्वनिकी, पश्वाह्वानों और श्वरण की भौतिकी, और विद्युद्ध्वनिकी, वैद्युतिकी का प्रयोग करके श्राव्य ध्वनि तरंगों का हेरफेर।
प्रकाशिकी, प्रकाश का अध्ययन, न केवल दृश्य प्रकाश से सम्बन्धित है, बल्कि अवलाल और पराबैंगनी विकिरण से भी सम्बन्धित है, जो दृश्यता के अतिरिक्त दृश्य प्रकाश की सभी परिघटनाओं को प्रदर्शित करता है, जैसे, प्रतिबिम्ब, अपवर्तन, हस्तक्षेप, विवर्तन, विक्षेपण और ध्रुवीकरण। ताप ऊर्जा का एक रूप है, आन्तरिक ऊर्जा जो कणों के पास होती है जिससे पदार्थ बना होता है; ऊष्मगतिकी ताप और ऊर्जा के अन्य रूपों के मध्य सम्बन्धों से सम्बन्धित है। विद्युत और चुम्बकत्व का अध्ययन भौतिकी की एक ही शाखा के रूप में किया गया है क्योंकि १९वीं शताब्दी की आरम्भ में उनके बीच घनिष्ठ सम्बन्ध की खोज की गई थी; एक वैद्युतिक धारा एक चुम्बकीय क्षेत्र को जन्म देता है, और एक परिवर्तित चुम्बकीय क्षेत्र एक वैद्युतिक धारा को प्रेरित करता है। विद्युत्स्थैतिकी स्थैर्य पर वैद्युतिक आवेशों, गतिमान आवेशों के साथ विद्युद्गतिकी और स्थिर चुम्बकीय ध्रुवों के साथ स्थिर चुम्बकिकी से सम्बन्धित है।
चिरसम्मत भौतिकी सामान्यतः अवलोकन के सामान्य स्तर पर पदार्थ और ऊर्जा से सम्बन्धित है, जबकि आधुनिक भौतिकी का अधिकांश भाग अत्यधिक परिस्थितियों में वृहत्तम यह क्षुद्रतम स्तर पर पदार्थ और ऊर्जा के व्यवहार से सम्बन्धित है। उदाहरणार्थ, परमाणु और नाभिकीय भौतिकी क्षुद्रतम स्तर पर पदार्थ का अध्ययन करते हैं जिस पर रासायनिक तत्त्वों की पहचान की जा सकती है। प्राथमिक कणों की भौतिकी और भी क्षुद्रतर स्तर पर है क्योंकि यह पदार्थ की सबसे मूल इकाइयों से संबंधित है; कण त्वरक में कई प्रकार के कणों का उत्पादन करने के लिए आवश्यक अत्यंत उच्चोर्जा के कारण भौतिकी की इस शाखा को उच्चोर्जा भौतिकी के रूप में भी जाना जाता है। इस स्तर पर, अन्तरिक्ष, समय, पदार्थ और ऊर्जा की सामान्य, सामान्य धारणाएँ अब मान्य नहीं हैं।
आधुनिक भौतिकी के दो प्रमुख सिद्धान्त चिरसम्मत भौतिकी द्वारा प्रस्तुत अन्तरिक्ष, समय और पदार्थ की अवधारणाओं की एक भिन्न चित्र प्रस्तुत करते हैं। चिरसम्मत यान्त्रिकी प्रकृति को निरन्तर मानती है, जबकि प्रमात्रा यान्त्रिकी परमाणु और उप-परमाणु स्तर पर कई घटनाओं की असतत प्रकृति और ऐसी परिघटनाओं के विवरण में कणों और तरंगों के पूरक पहलुओं से सम्बन्धित है। सापेक्षता सिद्धान्त परिघटना के वर्णन से सम्बन्धित है जो सन्दर्भ विन्यास में होता है जो एक पर्यवेक्षक के सम्बन्ध में गति में होता है; विशेषापेक्षिकता सिद्धान्त गुरुत्वाकर्षक क्षेत्र की अनुपस्थिति में गति से सम्बन्धित है और गति के साथ सामान्यापेक्षिकता सिद्धान्त और गुरुत्वाकर्षण के साथ इसका सम्बन्ध है। प्रमात्रा सिद्धान्त और सापेक्षता का सिद्धान्त दोनों ही आधुनिक भौतिकी के कई क्षेत्रों में अनुप्रयोग पाते हैं।
भौतिक शास्त्र के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
यांत्रिकी तथा द्रव्यगुण
इन्हें भी देखें
भौतिकी के प्रमुख सूत्र
नूतन भौतिकी कोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - शिवगोपाल मिश्र)
गणित एवं भौतिकी के अप्लेट्स
भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में रोज़गार के अवसर - डॉ॰ सीमिन रुबाब
भौतिकी के नियम (अंग्रेजी में)
प्राचीन भारत में भौतिकी
भौतिकी विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर
भारतीय भौतिकी संस्थान भुवनेश्वर
भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में रोज़गार के अवसर - डॉ॰ सीमिन रुबाब
भारतीय दर्शन और भौतिक विज्ञान |
पन्थ/सम्प्रदाय के अर्थ में धर्म के लिए धर्म (पंथ) देखें। राजधर्म के लिए राजधर्म देखें। दक्षिणा के लिए दक्षिणा देखें।
धर्म ( पालि : धम्म ) भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। "धर्म" शब्द का पश्चिमी भाषाओं में किसी समतुल्य शब्द का पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि।
""धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है, 'धारण करने योग्य' सबसे उचित धारणा, अर्थात जिसे सबको धारण करना चाहिए, यह धर्म हैं। "" धर्म किसी के साथ भेद नहीं करता ""
"धर्म" एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। ऐसा माना जाता है कि धर्म मानव को मानव बनाता है।
मोह माया (मुद्रा) जैसे सामाजिक विश्वासों के आधार पर बनी व्यवस्था व्यावसायिक परिषद कहलाती है इस में पूर्व लिखित कानून व्यस्था लागु होती है जिसे धर्म भी कहा गया है आज के समय ये रिलिजन व संविधान के नाम से जाना जाता है ।
ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यवसायिक परिषद द्वारा लागू शिक्षा व्यवस्था जो बाद मे कॉमन वेल्थ और आज के समय के ग्लोबल एजुकेशन सिस्टम के नाम से जानी जाती है । सिर्फ पूर्व लिखित कानून व्यवस्था यानि धर्म को ही सभ्य मानती है।
वही दूसरी ओर स्थिति , मंशा व दर्शन के आधार पर लागू व्यवस्था जैसे शैविक व्यवस्था (विदथ-गण- सभा-समिति, पंचायत -महापंचायत ,जनपद -महाजनपद आदि ) और वैष्णव व्यवस्था (जमीदार ,सामन्त व अन्य द्वैत व्यवस्था ) को असभ्य मानती है
मानव धर्म शास्त्र
धर्म की आधुनिक अवधारणा, एक अमूर्तता के रूप में जिसमें विश्वासों या सिद्धांतों के अलग-अलग सेट शामिल हैं, अंग्रेजी भाषा में एक हालिया आविष्कार है। प्रोटेस्टेंट सुधार के दौरान ईसाईजगत के विभाजन और अन्वेषण के युग में वैश्वीकरण, जिसमें गैर-यूरोपीय भाषाओं के साथ कई विदेशी संस्कृतियों के संपर्क शामिल थे, के कारण इस तरह का उपयोग १८वीं शताब्दी के ग्रंथों के साथ शुरू हुआ। कुछ लोगों का तर्क है कि इसकी परिभाषा की परवाह किए बिना, धर्म शब्द को गैर-पश्चिमी संस्कृतियों पर लागू करना उचित नहीं है। दूसरों का तर्क है कि गैर-पश्चिमी संस्कृतियों पर धर्म का उपयोग करने से लोग क्या करते हैं और क्या विश्वास करते हैं, यह विकृत हो जाता है।
धर्म की अवधारणा १६वीं और १७वीं शताब्दी में बनाई गई थी, इस तथ्य के बावजूद कि बाइबिल, कुरान और अन्य जैसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में मूल भाषाओं में एक शब्द या धर्म की अवधारणा भी नहीं थी। और न ही वे लोग और न ही वे संस्कृतियां जिनमें ये पवित्र ग्रंथ लिखे गए थे। उदाहरण के लिए, हिब्रू में धर्म का कोई सटीक समकक्ष नहीं है, और यहूदी धर्म धार्मिक, राष्ट्रीय, नस्लीय या जातीय पहचान के बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं करता है। इसकी केंद्रीय अवधारणाओं में से एक हलाखा है, जिसका अर्थ है चलना या पथ जिसे कभी-कभी कानून के रूप में अनुवादित किया जाता है, जो धार्मिक अभ्यास और विश्वास और दैनिक जीवन के कई पहलुओं का मार्गदर्शन करता है। भले ही यहूदी धर्म की मान्यताएं और परंपराएं प्राचीन दुनिया में पाई जाती हैं, प्राचीन यहूदियों ने यहूदी पहचान को एक जातीय या राष्ट्रीय पहचान के रूप में देखा और अनिवार्य विश्वास प्रणाली या विनियमित अनुष्ठानों की आवश्यकता नहीं थी। पहली शताब्दी सीई में जोसीफस ने एक जातीय शब्द के रूप में यूनानी शब्द आयौडाइस्मोस (यहूदी धर्म) का इस्तेमाल किया था और वह धर्म की आधुनिक अमूर्त अवधारणाओं या विश्वासों के समूह से जुड़ा नहीं था। "यहूदी धर्म" की अवधारणा का आविष्कार ईसाई चर्च द्वारा किया गया था। और १९वीं शताब्दी में यहूदियों ने अपनी पुश्तैनी संस्कृति को ईसाई धर्म के समान धर्म के रूप में देखना शुरू किया। यूनानी शब्द थ्रेस्किया, जिसका प्रयोग हेरोडोटस और जोसीफस जैसे यूनानी लेखकों द्वारा किया गया था, नए नियम में पाया जाता है। थ्रेस्केया को कभी-कभी आज के अनुवादों में "धर्म" के रूप में अनुवादित किया जाता है, हालांकि, मध्ययुगीन काल में इस शब्द को सामान्य "पूजा" के रूप में समझा जाता था। कुरान में, अरबी शब्द दीन को अक्सर आधुनिक अनुवादों में धर्म के रूप में अनुवादित किया जाता है, लेकिन १६00 के दशक के मध्य तक अनुवादकों ने दीन को "कानून" के रूप में व्यक्त किया।
संस्कृत शब्द धर्म, जिसे कभी-कभी धर्म के रूप में अनुवादित किया जाता है, इसका अर्थ कानून भी है। पूरे शास्त्रीय दक्षिण एशिया में, कानून के अध्ययन में धर्मपरायणता और औपचारिक के साथ-साथ व्यावहारिक परंपराओं के माध्यम से तपस्या जैसी अवधारणाएं शामिल थीं। मध्यकालीन जापान में पहले शाही कानून और सार्वभौमिक या बुद्ध कानून के बीच एक समान संघ था, लेकिन बाद में ये सत्ता के स्वतंत्र स्रोत बन गए।
हालांकि परंपराएं, पवित्र ग्रंथ और प्रथाएं पूरे समय मौजूद रही हैं, अधिकांश संस्कृतियां धर्म की पश्चिमी धारणाओं के साथ संरेखित नहीं हुईं क्योंकि उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी को पवित्र से अलग नहीं किया। १८वीं और १९वीं शताब्दी में, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, ताओवाद, कन्फ्यूशीवाद और विश्व धर्म शब्द सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में आए। अमेरिकी मूल-निवासियों के बारे में भी सोचा जाता था कि उनका कोई धर्म नहीं है और उनकी भाषाओं में धर्म के लिए कोई शब्द भी नहीं है। १८00 के दशक से पहले किसी ने स्वयं को हिंदू या बौद्ध या अन्य समान शब्दों के रूप में पहचाना नहीं था। "हिंदू" ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के स्वदेशी लोगों के लिए एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचानकर्ता के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अपने लंबे इतिहास के दौरान, जापान के पास धर्म की कोई अवधारणा नहीं थी क्योंकि कोई संबंधित जापानी शब्द नहीं था, न ही इसके अर्थ के करीब कुछ भी, लेकिन जब अमेरिकी युद्धपोत १८53 में जापान के तट पर दिखाई दिए और जापानी सरकार को अन्य मांगों के साथ संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। चीजें, धर्म की स्वतंत्रता, देश को इस विचार से जूझना पड़ा।
१९ वीं शताब्दी में भाषाशास्त्री मैक्स मुलर के अनुसार, अंग्रेजी शब्द धर्म की जड़, लैटिन धर्म, मूल रूप से केवल ईश्वर या देवताओं के प्रति श्रद्धा, दैवीय चीजों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, धर्मपरायणता (जिसे सिसेरो ने आगे अर्थ के लिए व्युत्पन्न किया था) परिश्रम). मैक्स मुलर ने इतिहास में इस बिंदु पर एक समान शक्ति संरचना के रूप में मिस्र, फारस और भारत सहित दुनिया भर में कई अन्य संस्कृतियों की विशेषता बताई। जिसे आज प्राचीन धर्म कहा जाता है, उसे वे केवल कानून कहते।
सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष।
गौतम ऋषि कहते हैं - 'यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।' (जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। )
मनु ने मानव धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस मानव धर्म के लक्षण हैं।)जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥(धर्म का सर्वस्व क्या है, यह सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।)वात्सायन के अनुसार धर्म
वात्स्यायन ने धर्म और अधर्म की तुलना करके धर्म को स्पष्ट किया है। वात्स्यायन मानते हैं कि मानव के लिए धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन और वाणी से भी संबंधित है।
महाभारत के वनपर्व (३१३/१२८) में कहा है-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।
इसी तरह भगवद्गीता में कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
'' अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि) जब-जब धर्म की ग्लानि (पतन) होता है और अधर्म का उत्थान होता है, तब तब मैं अपना सृजन करता हूँ (अवतार लेता हूँ)।
पूर्वमीमांसा में धर्म
मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय 'धर्म' है। धर्म की व्याख्या करना ही इस दर्शन का मुख्य प्रयोजन है। इसलिए धर्म जिज्ञासा वाले प्रथम सूत्र- 'अथातो धर्मजिज्ञासा' के बाद द्वितीय सूत्र में ही सूत्रकार ने धर्म का लक्षण बतलाया है- "चोदनालक्षणोऽर्थों धर्मः" अर्थात् प्रेरणा देने वाला अर्थ ही धर्म है (सैंडल, १९९९) | कुमारिल भट्ट ने इसे 'धर्माख्यं विषयं वक्तुं मीमांसायाः प्रयोजनम्' ('धर्म' नामक विषय के बारे में बोलना मीमांसा का उद्देश्य है) रूप में अभिव्यक्त किया है
जैन ग्रंथ, तत्त्वार्थ सूत्र में १० धर्मों का वर्णन है। यह १० धर्म है:
धर्म का मानवीकरण
पुराणों के अनुसार धर्म, ब्रह्मा के एक मानस पुत्र हैं। वे उनके दाहिने वक्ष से उत्पन्न हुए हैं। धर्म का विवाह दक्ष की १३ पुत्रियों से हुआ था, जिनके नाम हैं- श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति।
श्रद्धा से नर और काम का जन्म हुआ ; तुष्टि से सन्तोष और क्रिया का जन्म हुआ ; क्रिया से दण्ड, नय और विनय का जन्म हुआ।
अहिंसा, धर्म की पत्नी (शक्ति) हैं। धर्म तथा अहिंसा से विष्णु का जन्म हुआ है। धर्म की ग्लानि होने पर उसकी पुनर्प्रतिष्ठा के लिए विष्णु अवतार लेते हैं।
विष्णुपुराण में 'अधर्म' का भी उल्लेख है। अधर्म की पत्नी हिंसा है जिससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नाम की कन्या का जन्म हुआ। भय और नर्क अधर्म के नाती हैं ।
धर्म-रक्षा से आत्म-रक्षा
धर्म और संप्रदाय भिन्न होते हैं। |
खगोल शास्त्र, एक शास्त्र है जिसके अंतर्गत पृथ्वी और उसके वायुमण्डल के बाहर होने वाली घटनाओं का अवलोकन, विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या की जाती है। यह वह अनुशासन है जो आकाश में अवलोकित की जा सकने वाली तथा उनका समावेश करने वाली क्रियाओं के आरंभ, बदलाव और भौतिक तथा रासायनिक गुणों का अध्ययन करता है।
बीसवीं शताब्दी के दौरा
खगोलिकी ब्रह्माण्ड में अवस्थित आकाशीय पिंडों का प्रकाश, उद्भव, संरचना और उनके व्यवहार का अध्ययन खगोलिकी का विषय है। अब तक ब्रह्माण्ड के जितने भाग का पता चला है उसमें लगभग १९ अरब आकाश गंगाओं के होने का अनुमान है और प्रत्येक आकाश गंगा में लगभग १० अरब तारे हैं। आकाश गंगा का व्यास लगभग एक लाख प्रकाशवर्ष है। हमारी पृथ्वी पर आदिम जीव २ अरब वर्ष पहले पैदा हुआ और आदमी का धरती पर अवतण १०-२0 लाख वर्ष पहले हुआ।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक महापिंड के विस्फोट से हुई है। सूर्य एक औसत तारा है जिसके आठ मुख्य ग्रह हैं, उनमें से पृथ्वी भी एक है। इस ब्रह्माण्ड में हर एक तारा सूर्य सदृश है। बहुत-से तारे तो ऐसे हैं जिनके सामने अपना सूर्य अणु (कण) के बराबर भी नहीं ठहरता है। जैसे सूर्य के ग्रह हैं और उन सबको मिलाकर हम सौर परिवार के नाम से पुकारते हैं, उसी प्रकार हरेक तारे का अपना अपना परिवार है। बहुत से लोग समझते हैं कि सूर्य स्थिर है, लेकिन संपूर्ण सौर परिवार भी स्थानीय नक्षत्र प्रणाली के अंतर्गत प्रति सेकेंड १३ मील की गति से घूम रहा है। स्थानीय नक्षत्र प्रणाली आकाश गंगा के अंतर्गत प्रति सेकेंड २०० मील की गति से चल रही है और संपूर्ण आकाश गंगा दूरस्थ बाह्य ज्योर्तिमालाओं के अंतर्गत प्रति सेकेंड १०० मील की गति से विभिन्न दिशाओं में घूम रही है।
चंद्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है जिस पर मानव के कदम पहुँच चुके हैं। इस ब्रह्माण्ड में सबसे विस्मयकारी दृश्य है- आकाश गंगा (गैलेक्सी) का दृश्य। रात्रि के खुले (जब चंद्रमा न दिखाई दे) आकाश में प्रत्येक मनुष्य इन्हें नंगी आँखों से देख सकता है। देखने में यह हल्के सफेद धुएँ जैसी दिखाई देती है, जिसमें असंख्य तारों का बाहुल्य है। यह आकाश गंगा टेढ़ी-मेढ़ी होकर बही है। इसका प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर है। पर प्रात:काल होने से थोड़ा पहले इसका प्रवाह पूर्वोत्तर से पश्चिम और दक्षिण की ओर होता है। देखने में आकाश गंगा के तारे परस्पर संबद्ध से लगते हैं, पर यह दृष्टि भ्रम है। एक दूसरे से सटे हुए तारों के बीच की दूरी अरबों मील हो सकती है। जब सटे हुए तारों का यह हाल है तो दूर दूर स्थित तारों के बीच की दूरी ऐसी गणनातीत है जिसे कह पाना मुश्किल है। इसी कारण से ताराओं के बीच तथा अन्य लंबी दूरियाँ प्रकाशवर्ष में मापी जाती हैं। एक प्रकाशवर्ष वह दूरी है जो दूरी प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से एक वर्ष में तय करता है। उदाहरण के लिए सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सवा नौ करोड़ मील है, प्रकाश यह दूरी सवा आठ मिनट में तय करता है। अत: पृथ्वी से सूर्य की दूरी सवा आठ प्रकाश मिनट हुई। जिन तारों से प्रकाश आठ हजार वर्षों में आता है, उनकी दूरी हमने पौने सैंतालिस पद्म मील आँकी है। लेकिन तारे तो इतनी इतनी दूरी पर हैं कि उनसे प्रकाश के आने में लाखों, करोड़ों, अरबों वर्ष लग जाता है। इस स्थिति में हमें इन दूरियों को मीलों में व्यक्त करना संभव नहीं होगा और न कुछ समझ में ही आएगा। इसीलिए प्रकाशवर्ष की इकाई का वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया है।
मान लीजिए, ब्रह्माण्ड के किसी और नक्षत्रों आदि के बाद बहुत दूर दूर तक कुछ नहीं है, लेकिन यह बात अंतिम नहीं हो सकती है। यदि उसके बाद कुछ है तो तुरंत यह प्रश्न सामने आ जाता है कि वह कुछ कहाँ तक है और उसके बाद क्या है? इसीलिए हमने इस ब्रह्माण्ड को अनादि और अनंत माना। इसके अतिरिक्त अन्य शब्दों में ब्रह्माण्ड की विशालता, व्यापकता व्यक्त करना संभव नहीं है।
अंतरिक्ष में कुछ स्थानों पर दूरदर्शी से गोल गुच्छे दिखाई देते हैं। इन्हें स्टार क्लस्टर या ग्लीट्य्रूलर स्टार अर्थात् तारा गुच्छ कहते हैं। इसमें बहुत से तारे होते हैं जो बीच में घने रहते हैं और किनारे बिरल होते हैं। टेलिस्कोप से आकाश में देखने पर कहीं कहीं कुछ धब्बे दिखाई देते हैं। ये बादल के समान बड़े सफेद धब्बे से दिखाई देते हैं। इन धब्बों को ही नीहारिका कहते हैं। इस ब्रह्माण्ड में असंख्य नीहारिकाएँ हैं। उनमें से कुछ ही हम देख पाते हैं।
इस अपरिमित ब्रह्माण्ड का अति क्षुद्र अंश हम देख पाते हैं। आधुनिक खोजों के कारण जैसे जैसे दूरबीन की क्षमता बढ़ती जाती है, वैसे वैसे ब्रह्माण्ड के इस दृश्यमान क्षेत्र की सीमा बढ़ती जाती है। परन्तु वर्तमान परिदृश्य में ब्रह्माण्ड की पूरी थाह मानव क्षमता से बहुत दूर है।
खगोल भौतिकी का आधुनिक युग जर्मन भौतिकविद् किरचाक से आरंभ हुआ। सूर्य के वातावरण में सोडियम, लौह, मैग्नेशियम, कैल्शियम तथा अनेक अन्य तत्वों का उन्होंने पता लगाया (सन् १८५९)। हमारे देश में स्वर्गीय प्रोफेसर मेघनाद साहा ने सूर्य और तारों के भौतिक तत्वों के अध्ययन में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने वर्णक्रमों के अध्ययन से खगोलीय पिंडों के वातावरण में अत्यंत महत्वपूर्ण खोजें की हैं। आजकल भारत गणराज्य के दो प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ॰ एस. चंद्रशेखर और डॉ॰ जयंत विष्णु नारलीकर भी ब्रह्माण्ड के रहस्यों को सुलझाने में उलझे हुए हैं।
बहुत पहले कोपर्निकस, टाइको ब्राहे और मुख्यत: कैप्लर ने खगोल विद्या में महत्वपर्णू कार्य किया था। कैप्लर ने ग्रहों के गति के संबंध में जिन तीन नियमों का प्रतिपादन किया है वे ही खगोल भौतिकी की आधारशिला बने हुए हैं। खगोल विद्या में न्यूटन का कार्य बहुत महत्वपूर्ण रहा है।
ब्रह्माण्डविद्या के क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों (लगभग ४५ वर्षों पूर्व) की खोजों के फलस्वरूप कुछ महत्वपूर्ण बातें समाने आई हैं। विख्यात वैज्ञानिक हबल ने अपने निरीक्षणों से ब्रह्माण्डविद्या की एक नई प्रक्रिया का पता लगाया। हबल ने सुदूर स्थित आकाश गंगाओं से आनेवाले प्रकाश का परीक्षण किया और बताया कि पृथ्वी तक आने में प्रकाश तरंगों का कंपन बढ़ जाता है। यदि इस प्रकाश का वर्णपट प्राप्त करें तो वर्णपट का झुकाव लाल रंग की ओर अधिक होता है। इस प्रक्रिया को डोपलर प्रभाव कहते हैं। ध्वनि संबंधी डोपलर प्रभाव से बहुत लोग परिचित होंगे। जब हम प्रकाश के संदर्भ में डोपलर प्रभाव को देखते हैं तो दूर से आनेवाले प्रकाश का झुकाव नीले रंग की ओर होता है और दूर जाने वाले प्रकाश स्रोत के प्रकाश का झुकाव लाल रंग की ओर होता है। इस प्रकार हबल के निरीक्षणों से यह मालूम हुआ कि आकाश गंगाएँ हमसे दूर जा रही हैं। हबल ने यह भी बताया कि उनकी पृथ्वी से दूर हटने की गति, पृथ्वी से उनकी दूरी के अनुपात में है। माउंट पोलोमर वेधशाला में स्थित २०० इंच व्यासवाले लेंस की दूरबीन से खगोल शास्त्रियों ने आकाश गंगाओं के दूर हटने की प्रक्रिया को देखा है।
दूरबीन से ब्रह्माण्ड को देखने पर हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम इस ब्रह्माण्ड के केंद्रबिंदु हैं और बाकी चीजें हमसे दूर भागती जा रही हैं। यदि अन्य आकाश गंगाओं में प्रेक्षक भेजे जाएँ तो वे भी यही पाएंगे कि इस ब्रह्माण्ड के केंद्र बिंदु हैं, बाकी आकाश गंगाएँ हमसे दूर भागती जा रही हैं। अब जो सही चित्र हमारे सामने आता है, वह यह है कि ब्रह्माण्ड का समान गति से विस्तार हो रहा है। और इस विशाल प्रारूप का कोई भी बिंदु अन्य वस्तुओं से दूर हटता जा रहा है।
हबल के अनुसंधान के बाद ब्रह्माण्ड के सिद्धांतों का प्रतिपादन आवश्यक हो गया था। यह वह समय था जब कि आइन्सटीन का सापेक्षवाद का सिद्धांत अपनी शैशवावस्था में था। लेकिन फिर भी आइन्सटीन के सिद्धांत को सौरमंडल संबंधी निरीक्षणों पर आधारित निष्कर्षों की व्याख्या करने में न्यूटन के सिद्धांतों से अधिक सफलता प्राप्त हुई थी। न्यूटन के अनुसार दो पिंडों के बीच की गुरु त्वाकर्षण शक्ति एक दूसरे पर तत्काल प्रभाव डालती है लेकिन आइन्सटीन ने यह साबित कर दिया कि पारस्परिक गुरु त्वाकर्षण की शक्ति की गति प्रकाश की गति के समान तीव्र नहीं हो सकती है। आखिर यहाँ पर आइन्सटीन ने न्यूटन के पत्र को गलत प्रमाणित किया। लोगों को आइन्सटीन का ही सिद्धांत पसंद आया। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की तीन धारणाएँ प्रस्तुत हैं----
१. स्थिर अवस्था का सिद्धांत
२. विस्फोट सिद्धांत (बिग बंग सिद्धांत) और
३. दोलन सिद्धांत।
इन धारणाओं में दूसरी धारणा की महत्ता अधिक है। इस धारणा के अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक महापिंड के विस्फोट से हुई है और इसी कारण आकाश गंगाएँ हमसे दूर भागती जा रही है। इस ब्रह्माण्ड का उलटा चित्र आप अपने सामने रखिए तब आपको ब्रह्माण्ड प्रसारित न दिखाई देकर सकुंचित होता हुआ दिखाई देगा और आकाश गंगाएँ भागती हुई न दिखाई देकर आती हुई प्रतीत होगी। अत: कहने का तात्पर्य यह है कि किसी समय कोई महापिंड रहा होगा और उसी के विस्फोट होने के कारण आकाश गंगाएँ भागती हुई हमसे दूर जा रही हैं। क्वासर और पल्सर नामक नए तारों की खोज से भी विस्फोट सिद्धांत की पुष्टि हो रही है।
इन्हें भी देखें
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ज्योतिष, अंक विद्या, हस्तरेखा विद्या और टोने-टुटके |
अर्थशास्त्र , कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शदी ईसापूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (इंस्ट्रुक्शनल) है।
यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य ('कुटिल' से व्युत्पत्न्न) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम 'चणक' होने से) था। अर्थशास्त्र (१५.४३१) में लेखक का स्पष्ट कथन है:
येन शास्त्रं च शस्त्रं च नन्दराजगता च भूः।
अमर्षेणोद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदंकृतम् ॥
इस ग्रंथ की रचना उन आचार्य ने की जिन्होंने अन्याय तथा कुशासन से क्रुद्ध होकर नन्दों के हाथ में गए हुए शस्त्र, शास्त्र एवं पृथ्वी का शीघ्रता से उद्धार किया था।
चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (३२३-२९८ ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यतः सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परम्परा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। (अर्थशास्त्र, १५.६)'
अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, १५.४३१)।
इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., १९१८), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ए.बी. कीथ (ज.रा.ए.सी.) आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं। अन्य भारतीय विद्वानों में डॉ॰ नरेन्द्रनाथ ला (स्टडीज इन ऐंशेंट हिंदू पॉलिटी, १९१४), श्री प्रमथनाथ बनर्जी (पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन इन ऐंशेंट इंडिया), डॉ॰ काशीप्रसाद जायसवाल (हिंदू पॉलिटी), प्रो॰ विनयकुमार सरकार (दि पाज़िटिव बैकग्राउंड ऑव् हिंदू सोशियोलॉजी), प्रो॰ नारायणचंद्र वंद्योपाध्याय, डॉ॰ प्राणनाथ विद्यालंकार आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
यद्यपि कतिपय प्राचीन लेखकों ने अपने ग्रंथों में अर्थशास्त्र से अवतरण दिए हैं और कौटिल्य का उल्लेख किया है, तथापि यह ग्रंथ लुप्त हो चुका था। १९०४ ई. में तंजोर के एक पंडित ने भट्टस्वामी के अपूर्ण भाष्य के साथ अर्थशास्त्र का हस्तलेख मैसूर राज्य पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री आर. शाम शास्त्री को दिया। श्री शास्त्री ने पहले इसका अंशतः अंग्रेजी भाषान्तर १९०५ ई. में "इंडियन ऐंटिक्वेरी" तथा "मैसूर रिव्यू" (१९०६-१९०९) में प्रकाशित किया। इसके पश्चात् इस ग्रंथ के दो हस्तलेख म्यूनिख लाइब्रेरी में प्जय हुए और एक संभवत: कलकत्ता में। तदनन्तर शाम शास्त्री, गणपति शास्त्री, यदुवीर शास्त्री आदि द्वारा अर्थशास्त्र के कई संस्करण प्रकाशित हुए। शाम शास्त्री द्वारा अंग्रेजी भाषान्तर का चतुर्थ संस्करण (१९२९ ई.) प्रामाणिक माना जाता है।
पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत तथा पाश्चात्य देशों में हलचल-सी मच गई क्योंकि इसमें शासन-विज्ञान के उन अद्भुत तत्त्वों का वर्णन पाया गया, जिनके सम्बन्ध में भारतीयों को सर्वथा अनभिज्ञ समझा जाता था। पाश्चात्य विद्वान फ्लीट, जौली आदि ने इस पुस्तक को एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ बतलाया और इसे भारत के प्राचीन इतिहास के निर्माण में परम सहायक साधन स्वीकार किया।
ग्रंथ के अंत में दिए चाणक्यसूत्र (१५.१) में अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार हुई है :
मनुष्यों की वृत्ति को अर्थ कहते हैं। मनुष्यों से संयुक्त भूमि ही अर्थ है। उसकी प्राप्ति तथा पालन के उपायों की विवेचना करनेवाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं।
इसके मुख्य विभाग हैं :
इन अधिकरणों के अनेक उपविभाग (१५ अधिकरण, १५0 अध्याय, १८० उपविभाग तथा ६,००० श्लोक) हैं।
वर्ण्यविषय एवं ग्रन्थ का महत्त्व
अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, १५.४३१)।
इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., १९१८), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ ए.बी. कीथ (ज.रा.ए.सी.) आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं। अन्य भारतीय विद्वानों में डॉ॰ नरेंद्रनाथ ला (स्टडीज इन ऐंशेंट हिंदू पॉलिटी, १९१४), श्री प्रेमथनाथ बनर्जी (पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन इन ऐंशेंट इंडिया), डॉ॰ काशीप्रसाद जायसवाल (हिंदू पॉलिटी), प्रो॰ विनयकुमार सरकार (दि पाज़िटिव बैकग्राउंड ऑव् हिंदू सोशियोलॉजी), प्रो॰ नारायणचंद्र वन्द्योपाध्याय, डॉ॰ प्राणनाथ विद्यालंकार आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
पुस्तक का नाम 'अर्थशास्त्र' ही क्यों ?
कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' राजनीतिक सिद्धांतों की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस संबंध में यह प्रश्न उठता है कि कौटिल्य ने अपनी पुस्तक का नाम 'अर्थशास्त्र' क्यों रखा? प्राचीनकाल में 'अर्थशास्त्र' शब्द का प्रयोग एक व्यापक अर्थ में होता था। इसके अन्तगर्त मूलतः राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कानून आदि का अध्ययन किया जाता था। आचार्य कौटिल्य की दृष्टि में राजनीति शास्त्र एक स्वतंत्र शास्त्र है और आन्वीक्षिकी (दर्शन), त्रयी (वेद) तथा वार्ता एंव कानून आदि उसकी शाखाएँ हैं। सम्पूर्ण समाज की रक्षा राजनीति या दण्ड व्यवस्था से होती है या रक्षित प्रजा ही अपने-अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकती है।
उस समय अर्थशास्त्र को राजनीति और प्रशासन का शास्त्र माना जाता था। महाभारत में इस संबंध में एक प्रसंग है, जिसमें अर्जुन को अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है।
समाप्तवचने तस्मिन्नर्थशास्त्र विशारदः।
पार्थो धर्मार्थतत्त्वज्ञो जगौ वाक्यमनन्द्रितः॥ (३)
निश्चित रूप से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी राजशास्त्र के रूप में लिया गया होगा, यों उसने अर्थ की कई व्याख्याएँ की हैं। कौटिल्य ने कहा है मनुष्याणां वृतिरर्थः (४) अर्थात् मनुष्यों की जीविका को 'अर्थ' कहते हैं। अर्थशास्त्र की व्याख्या करते हुए उसने कहा हैतस्या पृथिव्या लाभपालनोपायः शास्त्रमर्थ-शास्त्रमिति। (५) (मनुष्यों से युक्त भूमि को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने वाले उपायों का निरूपण करने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र कहलाता है।) इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि 'अर्थशास्त्र' के अन्तर्गत राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था दोनों से संबंधित सिद्धांतों का समावेश है। वस्तुतः कौटिल्य 'अर्थशास्त्र' को केवल राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था का शास्त्र कहना उपयुक्त नहीं होगा। वास्तव में, यह अर्थव्यवस्था, राजव्यस्था, विधि व्यवस्था, समाज व्यवस्था और धर्म व्यवस्था से संबंधित शास्त्र है।
कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के पूर्व और भी कई अर्थशास्त्रों की रचना की गयी थी, यद्यपि उनकी पांडुलिपियाँ उपलब्ध नहीं हैं। भारत में प्राचीन काल से ही अर्थ, काम और धर्म के संयोग और सम्मिलन के लिए प्रयास किये जाते रहे हैं और उसके लिये शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणों में विशद् चर्चाएँ की गयी हैं। कौटिल्य ने भी 'अर्थशास्त्र' में अर्थ, काम और धर्म की प्राप्ति के उपायों की व्याख्या की है। वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में भी अर्थ, धर्म और काम के संबंध में सूत्रों की रचना की गयी है।
अपने पूर्व अर्थशास्त्रों की रचना की बात स्वयं कौटिल्य ने भी स्वीकार किया है। अपने 'अर्थशास्त्र' में कई सन्दर्भों में उसने आचार्य वृहस्पति, भारद्वाज, शुक्राचार्य, पराशर, पिशुन, विशालाक्ष आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। कौटिल्य के पूर्व अनेक आचार्यों के ग्रंथों का नामकरण दंडनीति के रूप में किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कौटिल्य के पूर्व शास्त्र दंडनीति कहे जाते थे और वे अर्थशास्त्र के समरूप होते थे। परन्तु जैसा कि अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है कि दंडनीति और अर्थशास्त्र दोनों समरूप नहीं हैं। यू. एन. घोषाल के कथनानुसार अर्थशास्त्र ज्यादा व्यापक शास्त्र है, जबकि दंडनीति मात्र उसकी शाखा है। (६)
कौटिल्य के पाश्चात् लिखे गये शास्त्र 'नीतिशास्त्र' के नाम से विख्यात हुए, जैसे कामंदकनीतिसार, नीतिवाक्यामृत। वैसे कई विद्वानों ने अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र की अपेक्षा ज्यादा व्यापक माना है। परन्तु, अधिकांश विद्वानों की राय में नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों समरूप हैं तथा दोनों के विषय क्षेत्र भी एक ही हैं। स्वयं कामंदक ने नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र को समरूप माना है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के पूर्व और उसके बाद भी 'अर्थशास्त्र' जैसे शास्त्रों की रचना की गयी।
'अर्थशास्त्र' का रचनाकार
इस संबंध में ऐसे विद्वानों की अच्छी-खासी संख्या है जो यह मानते हैं कि कौटिल्य 'अर्थशास्त्र' का रचनाकार नहीं था। ऐसे विद्वानों में पाश्चात्य विद्वानों की संख्या ज्यादा है। स्टेन, जॉली, विंटरनीज व कीथ इस प्रकार के विचार के प्रतिपादक हैं। भारतीय विद्वान आर. जी. भण्डारकर ने भी इसका समर्थन किया है। भंडारकर ने कहा है कि पतंजलि ने महाभाष्य में कौटिल्य का उल्लेख नहीं किया है। 'अर्थशास्त्र' के रचयिता के रूप में कौटिल्य को नहीं मान्यता देनेवालों ने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं
(१) 'अर्थशास्त्र' में मौर्य साम्राज्य या पाटलिपुत्र का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता है। यदि चन्द्रगुप्त का मंत्री कौटिल्य अर्थशास्त्र का रचनाकार होता तो 'अर्थशास्त्र' में उसका कहीं-न-कहीं कुछ जिक्र करता ही।
(२) इस संबंध में यह कहा जाता है कि 'अर्थशास्त्र' की विषय-वस्तु जिस प्रकार की है, उससे यह नहीं प्रतीत होता है कि इसका रचनाकार कोई व्यावहारिक राजनीतिज्ञ होगा। निःसन्देह कोई शास्त्रीय पंडित ने ही इसकी रचना की होगी।
(३) चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री कौटिल्य यदि 'अर्थशास्त्र' का रचनाकार होता तो उसके सूत्र एवं उक्तियाँ बड़े राज्यों के संबंध में होते, परन्तु 'अर्थशास्त्र' के उद्धरण एवं उक्तियाँ लघु एवं मध्यम राज्यों के लिये सम्बोधित हैं। अतः स्पष्ट है कि 'अर्थशास्त्र' का रचनाकार कौटिल्य नहीं था। डॉ॰ बेनी प्रसाद के अनुसार 'अर्थशास्त्र' में जिस आकार या स्वरूप के राज्य का जिक्र किया गया है, निःसन्देह वह मौर्य, कलिंग या आंध्र साम्राज्य के आधार से मेल नहीं खाता है। ७
(४) विंटरनीज ने कहा है कि मेगास्थनीज ने, जो लम्बे अरसे तक चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा और जिसने अपनी पुस्तक 'इंडिका' में चन्द्रगुप्त के दरबार के संबंध में बहुत कुछ लिखा है, कौटिल्य के बारे में कुछ नहीं लिखा है और न ही उसकी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' की कहीं कोई चर्चा की है। यदि 'अर्थशास्त्र' जैसे विख्यात शास्त्र का लेखक कौटिल्य चन्द्रगुप्त का मंत्री होता तो मेगास्थनीज की 'इंडिका' में उसका जिक्र अवश्य किया जाता।
(५) मेगास्थनीज और कौटिल्य के कई विवरणों में मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए मेगास्थनीज के अनुसार उस समय भारतीय रासायनिक प्रक्रिया से अवगत नहीं थे, भारतवासियों को केवल पाँच धातुओं की जानकारी थी, जबकि 'अर्थशास्त्र' में इन सबों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्रशासकीय संरचना, उद्योग-व्यवस्था, वित्त-व्यवस्था आदि के संबंध में भी मेगास्थनीज और 'अर्थशास्त्र' का लेखक चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री कौटिल्य नहीं हो सकता है।
चाणक्य को ही 'अर्थशास्त्र' का रचनाकार मानने के पीछे तर्क
पुस्तक की समाप्ति पर स्पष्ट रूप से लिखा गया है-
प्राय: भाष्यकारों का शास्त्रों के अर्थ में परस्पर मतभेद देखकर विष्णुगुप्त ने स्वयं ही सूत्रों को लिखा और स्वयं ही उनका भाष्य भी किया। (१५/१)
साथ ही यह भी लिखा गया है:
इस शास्त्र (अर्थशास्त्र) का प्रणयन उसने किया है, जिसने अपने क्रोध द्वारा नन्दों के राज्य को नष्ट करके शास्त्र, शस्त्र और भूमि का उद्धार किया। (१५/१)
विष्णु पुराण में इस घटना की चर्चा इस तरह की गई है:
महापदम-नन्द नाम का एक राजा था। उसके नौ पुत्रों ने सौ वर्षों तक राज्य किया। उन नन्दों को कौटिल्य नाम के ब्राह्मण ने मार दिया। उनकी मृत्यु के बाद मौर्यों ने पृथ्वी पर राज्य किया और कौटिल्य ने स्वयं प्रथम चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक किया। चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार हुआ और बिन्दुसार का पुत्र अशोकवर्धन हुआ। (४/2४)
नीतिसार के कर्ता कामन्दक ने भी घटना की पुष्टि करते हुए लिखा है:
इन्द्र के समान शक्तिशाली आचार्य विष्णुगुप्त ने अकेले ही वज्र-सदृश अपनी मन्त्र-शक्ति द्वारा पर्वत-तुल्य महाराज नन्द का नाश कर दिया और उसके स्थान पर मनुष्यों में चन्द्रमा के समान चन्द्रगुप्त को पृथ्वी के शासन पर अधिष्ठित किया।
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि विष्णुगुप्त और कौटिल्य एक ही व्यक्ति थे। अर्थशास्त्र में ही द्वितीय अधिकरण के दशम अध्याय के अन्त में पुस्तक के रचयिता का नाम कौटिल्य बताया गया है:
सब शास्त्रों का अनुशीलन करके और उनका प्रयोग भी जान करके कौटिल्य ने राजा (चन्द्रगुप्त) के लिए इस शासन-विधि (अर्थशास्त्र) का निर्माण किया है। (२/१०)
पुस्तक के आरम्भ में कौटिल्येन कृतं शास्त्रम् तथा प्रत्येक अध्याय के अन्त में इति कौटिलीयेऽर्थशास्त्रे लिखकर ग्रन्थकार ने अपने कौटिल्य नाम को अधिक विख्यात किया है। जहां-जहां अन्य आचार्यों के मत का प्रतिपादन किया है, अन्त में इति कौटिल्य अर्थात् कौटिल्य का मत है-इस तरह कहकर कौटिल्य नाम के लिए अपना अधिक पक्षपात प्रदर्शित किया है।
परन्तु यह सर्वथा निर्विवाद है कि विष्णुगुप्त तथा कौटिल्य अभिन्न व्यक्ति थे। उत्तरकालीन दण्डी कवि ने इसे आचार्य विष्णुगुप्त नाम से यदि कहा है, तो बाणभट्ट ने इसे ही कौटिल्य नाम से पुकारा है। दोनों का कथन है कि इस आचार्य ने दण्डनीति अथवा अर्थशास्त्र की रचना की।
पंचतन्त्र में इसी आचार्य का नाम चाणक्य दिया गया है, जो अर्थशास्त्र का रचयिता है। कवि विशाखदत्त-प्रणीत सुप्रसिद्ध नाटक मुद्राराक्षस में चाणक्य को कभी कौटिल्य तथा कभी विष्णुगुप्त नाम से सम्बोधित किया गया है।
अर्थशास्त्र की रचना शासन-विधि के रूप में प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए की गई। अत: इसकी रचना का काल वही मानना उचित है, जो सम्राट चन्द्रगुप्त का काल है। पुरातत्त्ववेत्ता विद्वानों ने यह काल ३२१ ई.पू. से २९६ ई.पू. तक निश्चित किया है। कई अन्य विद्वान सम्राट सेण्ड्राकोटस (जो यूनानी इतिहास में सम्राट चन्द्रगुप्त का पर्यायवाची है) के आधार पर निश्चित की हुई इस तिथि को स्वीकार नहीं करते।
अर्थशास्त्र का वर्ण्य-विषय
जैसे ऊपर कहा गया है, इसका मुख्य विषय शासन-विधि अथवा शासन-विज्ञान है: कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधि: कृत:। (कौटिल्य ने राजाओं के लिये शासन विधि की रचना की है।) इन शब्दों से स्पष्ट है कि आचार्य ने इसकी रचना राजनीति-शास्त्र तथा विशेषतया शासन-प्रबन्ध की विधि के रूप में की। अर्थशास्त्र की विषय-सूची को देखने से (जहां अमात्योत्पत्ति, मन्त्राधिकार, दूत-प्रणिधि, अध्यक्ष-नियुक्ति, दण्डकर्म, षाड्गुण्यसमुद्देश्य, राजराज्ययो: व्यसन-चिन्ता, बलोपादान-काल, स्कन्धावार-निवेश, कूट-युद्ध, मन्त्र-युद्ध इत्यादि विषयों का उल्लेख है) यह सर्वथा प्रमाणित हो जाता है कि इसे आजकल कहे जाने वाले अर्थशास्त्र (इकोनोमिक्स) की पुस्तक कहना भूल है। प्रथम अधिकरण के प्रारम्भ में ही स्वयं आचार्य ने इसे 'दण्डनीति' नाम से सूचित किया है।
शुक्राचार्य ने दण्डनीति को इतनी महत्त्वपूर्ण विद्या बतलाया है कि इसमें अन्य सब विद्याओं का अन्तर्भाव मान लिया है- क्योंकि 'शस्त्रेण रक्षिते देशे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते' की उक्ति के अनुसार शस्त्र (दण्ड) द्वारा सुशासित तथा सुरक्षित देश में ही वेद आदि अन्य शास्त्रों की चिन्ता या अनुशीलन हो सकता है। अत: दण्डनीति को अन्य सब विद्याओं की आधारभूत विद्या के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है और वही दण्डनीति अर्थशास्त्र है।
जिसे आजकल अर्थशास्त्र (इकनॉमिक्स) कहा जाता है, उसके लिए 'वार्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है, यद्यपि यह शब्द पूर्णतया अर्थशास्त्र का द्योतक नहीं। कौटिल्य ने वार्ता के तीन अंग कहे हैं - कृषि, वाणिज्य तथा पशु-पालन, जिनसे प्राय: वृत्ति या जीविका का उपार्जन किया जाता था। मनु, याज्ञवल्क्य आदि शास्त्रकारों ने भी इन तीन अंगों वाले वार्ताशास्त्र को स्वीकार किया है। पीछे शुक्राचार्य ने इस वार्ता में कुसीद (बैंकिग) को भी वृत्ति के साधन-रूप में सम्मिलित कर दिया है। परन्तु अर्थशास्त्र को सभी शास्त्रकारों ने दण्डनीति, राजनीति अथवा शासनविज्ञान के रूप में ही वर्णित किया है। अत: कौटिल्य अर्थशास्त्र को राजनीति की पुस्तक समझना ही ठीक होगा न कि सम्पत्तिशास्त्र की पुस्तक। वैसे इसमें कहीं-कहीं सम्पत्तिशास्त्र के धनोत्पादन, धनोपभोग तथा धन-विनिमय, धन-विभाजन आदि विषयों की भी प्रासंगिक चर्चा की गई है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण का प्रारम्भिक वचन इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डालने वाला है:
पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्ये: प्रस्तावितानि प्रायश: तानि संहृत्य एकमिदमर्थशास्त्र कृतम्।
अर्थात्-प्राचीन आचार्यों ने पृथ्वी जीतने और पालन के उपाय बतलाने वाले जितने अर्थशास्त्र लिखे हैं, प्रायः उन सबका सार लेकर इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया गया है।
यह उद्धरण अर्थशास्त्र के विषय को जहां स्पष्ट करता है, वहां इस सत्य को भी प्रकाशित करता है कि कौटिल्य अर्थशास्त्र से पूर्व अनेक आचार्यों ने अर्थशास्त्र की रचनाएं कीं, जिनका उद्देश्य पृथ्वी-विजय तथा उसके पालन के उपायों का प्रतिपादन करना था। उन आचार्यों तथा उनके सम्प्रदायों के कुछ नामों का निर्देशन कौटिल्य अर्थशास्त्र में किया गया है, यद्यपि उनकी कृतियां आज उपलब्ध भी नहीं होतीं। ये नाम निम्नलिखित है:
(१) मानव - मनु के अनुयायी
(२) बार्हस्पत्य - बृहस्पति के अनुयायी
(३) औशनस - उशना अथवा शुक्राचार्य के मतानुयायी
(४) भारद्वाज (द्रोणाचार्य)
(७) पिशुन (नारद)
(८) कौणपदन्त (भीष्म)
(९) वाताव्याधि (उद्धव)
(१०) बाहुदन्ती-पुत्र (इन्द्र)।
अर्थशास्त्र के इन दस सम्प्रदायों के आचार्यों में प्राय: सभी के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ ज्ञात है, परन्तु विशालाक्ष के बारे में बहुत कम परिचय प्राप्त होता है। इन नामों से यह तो अत्यन्त स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र के प्रति अनेक महान विचारकों तथा दार्शनिकों का ध्यान गया और इस विषय पर एक उज्ज्वल साहित्य का निर्माण हुआ। आज वह साहित्य लुप्त हो चुका है। अनेक विदेशी आक्रमणों तथा राज्यक्रान्तियों के कारण इस साहित्य का नाम-मात्र शेष रह गया है, परन्तु जितना भी साहित्य अवशिष्ट है वह एक विस्तृत अर्थशास्त्रीय परम्परा का संकेत करता है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में इन पूर्वाचार्यों के विभिन्न मतों का स्थान-स्थान पर संग्रह किया गया है और उनके शासन-सम्बन्धी सिद्धान्तों का विश्लेषणात्मक विवेचन किया गया है।
इस अर्थशास्त्र में एक ऐसी शासन-पद्धति का विधान किया गया है जिसमें राजा या शासक प्रजा का कल्याण सम्पादन करने के लिए शासन करता है। राजा स्वेच्छाचारी होकर शासन नहीं कर सकता। उसे मन्त्रिपरिषद् की सहायता प्राप्त करके ही प्रजा पर शासन करना होता है। राज्य-पुरोहित राजा पर अंकुश के समान है, जो धर्म-मार्ग से च्युत होने पर राजा का नियन्त्रण कर सकता है और उसे कर्तव्य-पालन के लिए विवश कर सकता है।
सर्वलोकहितकारी राष्ट्र का जो स्वरूप कौटिल्य को अभिप्रेत है, वह अर्थशास्त्र के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट है-प्रजा सुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्।नात्मप्रियं प्रियं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥'' (१/१9)
अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
४०० ई० सन् के लगभग कामन्दक ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर कामन्दकीय नीतिसार नामक २० सर्गों में विभक्त काव्यरूप एक अर्थशास्त्र लिखा था। यह नैतिकता और विदेश-नीति के सिद्धान्तों पर भी विचार करता है।
सोमदेव सूरि का नीतिवाक्यामृत, हेमचन्द्र का लघु अर्थनीति, भोज का युक्तिकल्पतरु, शुक्र का शुक्रनीति आदि कुछ दूसरे सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्र हैं, जिनको नीतिशास्त्र के व्यावहारिक पक्ष की व्याख्या करने वाले ग्रन्थों के अन्तर्गत भी गिना जा सकता है। चाणक्यनीतिदर्पण, नीतिश्लोकों का अव्यवस्थित संग्रह है।
इन्हें भी देखें
अर्थ - चार पुरुषार्थों में से एक
चाणक्यनीति - चाणक्य द्वारा रचित नीतिग्रन्थ
नीतिसार -- 'कामंदक' द्वारा रचित यह ग्रंथ कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सारभूत सिद्धांतों (मुख्यत: राजनीति विद्या) का प्रतिपादन करता है।
भारतीय राजनय का इतिहास
द प्रिंस - मकियावेली कृत राजनीति की पुस्तक
कौटिल्यीय अर्थशास्त्र का मूलपाठ, देवनागरी में
कौटिल्य अर्थशास्त्र का हिन्दी भाषानुवाद (प्राणनाथ विद्यालङ्कार)
प्राचीन भारत का इतिहास |
भूगोल () शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- भू + गोल। यहाँ भू शब्द का तात्पर्य पृथ्वी और गोल शब्द का अर्थ गोल आकार से है। यह एक विज्ञान है जिसके द्वारा पृथ्वी के ऊपरी स्वरुप और उसके प्राकृतिक विभागों (जैसे पहाड़, महाद्वीप, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, जल-संधियाँ, वन आदि) का ज्ञान होता है। प्राकृतिक विज्ञानों के निष्कर्षों के बीच कार्य-कारण संबंध स्थापित करते हुए पृथ्वीतल की विभिन्नताओं का मानवीय दृष्टिकोण से अध्ययन ही भूगोल का सार तत्व है। पृथ्वी की सतह पर जो स्थान विशेष हैं उनकी समताओं तथा विषमताओं का कारण और उनका स्पष्टीकरण भूगोल का निजी क्षेत्र है।
सर्वप्रथम प्राचीन यूनानी विद्वान इरैटोस्थनिज़ ने भूगोल को धरातल के एक विशिष्टविज्ञान के रूप में मान्यता दी। जिओग्राफिया शब्द का पहला रिकॉर्ड किया गया उपयोग ग्रीक विद्वान इरैटोस्थनिज़ (२७६-१९४ ईसा पूर्व) की एक पुस्तक के शीर्षक के रूप में था। इसके बाद हिरोडोटस तथा रोमन विद्वान स्ट्रैबो तथा क्लाडियस टॉलमी ने भूगोल को सुनिश्चित स्वरुप प्रदान किया।
हालांकि भूगोल पृथ्वी से विशिष्ट रूप से जुड़ा है फिर भी ग्रह विज्ञान के क्षेत्र में अन्य खगोलीय पिंडों के लिए कई अवधारणाओं को अधिक व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है। ऐसी ही एक अवधारणा, वाल्डो टॉबलर द्वारा प्रस्तावित भूगोल का पहला नियम है, " हर चीज अन्य हर चीज से संबंधित है, लेकिन निकट की चीजें दूर की चीजों से अधिक संबंधित हैं।" भूगोल को "विश्व अनुशासन" और "मानव और भौतिक विज्ञान के बीच का पुल कहा गया है।"
भूगोल पृथ्वी, उसकी विशेषताओं और उस पर होने वाली घटनाओं का एक व्यवस्थित अध्ययन है।
भूगोल के क्षेत्र में आने के लिए आम तौर पर किसी प्रकार के स्थानिक घटक की आवश्यकता होती है जिसे मानचित्र पर रखा जा सकता है, जैसे निर्देशांक, स्थान के नाम या पते। इसने भूगोल को मानचित्रकला और स्थान के नामों से जोड़ दिया है। हालांकि कई भूगोलवेत्ताओं को स्थलाकृति और मानचित्र विज्ञान में प्रशिक्षित किया जाता है पर यह उनका मुख्य व्यवसाय नहीं है। भूगोलवेत्ता पृथ्वी के स्थानिक (स्पशियल) और लौकिक (टेम्पोरल) वितरण, घटनाओं, प्रक्रियाओं और विशेषताओं के साथ-साथ मनुष्यों और उनके पर्यावरण की अंतःक्रिया का अध्ययन करते हैं।
स्पेस और स्थान विभिन्न प्रकार के विषयों को प्रभावित करते हैं, जैसे कि अर्थशास्त्र, स्वास्थ्य, जलवायु, पौधे और जानवर, अतः भूगोल अत्यधिक अन्तः अनुशासित है। भौगोलिक दृष्टिकोण की अन्तः अनुशासित प्रकृति भौतिक और मानवीय घटनाओं और उनके स्थानिक पैटर्न के बीच संबंधों पर ध्यान देने पर निर्भर करती है। भूगोल पृथ्वी ग्रह से विशिष्ट रूप से जुड़ा है, और अन्य खगोलीय पिंडों को भी इसमें शामिल किया गया है, जैसे "मंगल ग्रह का भूगोल", या अन्य नाम एरियोग्राफी (अरियोग्राफी) दिए गए हैं।
यह एक ओर अन्य श्रृंखलाबद्ध विज्ञानों से प्राप्त ज्ञान का उपयोग उस सीमा तक करता है जहाँ तक वह घटनाओं और विश्लेषणों की समीक्षा तथा उनके संबंधों में यथासंभव समन्वय करने में सहायक होता है। दूसरी ओर अन्य विज्ञानों से प्राप्त जिस ज्ञान का उपयोग भूगोल करता है, उसमें अनेक उत्पत्ति संबंधी धारणाएँ एवं निर्धारित वर्गीकरण होते हैं। यदि ये धारणाएँ और वर्गीकरण भौगोलिक उद्देश्यों के लिये उपयोगी न हों, तो भूगोल को निजी उत्पत्ति संबंधी धारणाएँ तथा वर्गीकरण की प्रणाली विकसित करनी होती है। अत: भूगोल मानवीय ज्ञान की वृद्धि में तीन प्रकार से सहायक होता है:
विज्ञानों से प्राप्त तथ्यों का विवेचन करके मानवीय निवास स्थान के रूप में पृथ्वी का अध्ययन करता है।
अन्य विज्ञानों के द्वारा विकसित धारणाओं में अंतर्निहित तथ्य की परीक्षा का अवसर देता है, क्योंकि भूगोल उन धारणाओं का स्थान विशेष पर प्रयोग कर सकता है।
यह सार्वजनिक अथवा निजी नीतियों के निर्धारण में अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि प्रदान करता है, जिसके आधार पर समस्याओं का स्पष्टीकरण सुविधाजनक होता है।
भूगोल पृथ्वी कि झलक को स्वर्ग में देखने वाला आभामय विज्ञान हैं -- क्लाडियस टॉलमी
भूगोल एक ऐसा स्वतंत्र विषय है, जिसका उद्देश्य लोगों को इस विश्व का, आकाशीय पिण्डो का, स्थल, महासागर, जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों, फलों तथा भूधरातल के क्षेत्रों मे देखी जाने वाली प्रत्येक अन्य वस्तु का ज्ञान प्राप्त कराना हैं -- स्ट्रैबो
भूगोल में पृथ्वी तल का अध्यन मानवीय निवास के रूप में क्षेत्रिय भिन्नताओं के आधार पर किया जाता है। -- मोंकहाउस
भूगोल एक प्राचीनतम विज्ञान है और इसकी नींव प्रारंभिक यूनानी विद्वानों के कार्यों में दिखाई पड़ती है। भूगोल शब्द का प्रथम प्रयोग यूनानी विद्वान इरैटोस्थनीज ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में किया था। भूगोल विस्तृत पैमाने पर सभी भौतिक व मानवीय तथ्यों की अन्तर्क्रियाओं और इन अन्तर्क्रियाओं से उत्पन्न स्थलरूपों का अध्ययन करता है। यह बताता है कि कैसे, क्यों और कहाँ मानवीय व प्राकृतिक क्रियाकलापों का उद्भव होता है और कैसे ये क्रियाकलाप एक दूसरे से अन्तर्संबंधित हैं।
भूगोल की अध्ययन विधि परिवर्तित होती रही है। प्रारंभिक विद्वान वर्णनात्मक भूगोलवेत्ता थे। बाद में, भूगोल विश्लेषणात्मक भूगोल के रूप में विकसित हुआ। आज यह विषय न केवल वर्णन करता है, बल्कि विश्लेषण के साथ-साथ भविष्यवाणी भी करता है।
यह काल १५वीं सदी के मध्य से शुरू होकर १८वीं सदी के पूर्व तक चला। यह काल आरंभिक भूगोलवेत्ताओं की खोजों और अन्वेषणों द्वारा विश्व की भौतिक व सांस्कृतिक प्रकृति के बारे में वृहत ज्ञान प्रदान करता है। १७वीं सदी का प्रारंभिक काल नवीन 'वैज्ञानिक भूगोल' की शुरूआत का गवाह बना। कोलम्बस, वास्कोडिगामा, मजेलिन और जेम्स कुक इस काल के प्रमुख अन्वेषणकर्त्ता थे। वारेनियस, कान्ट, हम्बोल्ट और रिटर इस काल के प्रमुख भूगोलवेत्ता थे। इन विद्वानों ने मानचित्रकला के विकास में योगदान दिया और नवीन स्थलों की खोज की, जिसके फलस्वरूप भूगोल एक वैज्ञानिक विषय के रूप में विकसित हुआ।
रिटर और हम्बोल्ट का उल्लेख बहुधा आधुनिक भूगोल के संस्थापक के रूप में किया जाता है। सामान्यतः १९वीं सदी के उत्तरार्ध का काल आधुनिक भूगोल का काल माना जाता है। वस्तुतः रेट्जेल प्रथम आधुनिक भूगोलवेत्ता थे, जिन्होंने चिरसम्मत भूगोलवेत्ताओं द्वारा स्थापित नींव पर आधुनिक भूगोल की संरचना का निर्माण किया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भूगोल का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ। हार्टशॉर्न जैसे अमेरिकी और यूरोपीय भूगोलवेत्ताओं ने इस दौरान अधिकतम योगदान दिया। हार्टशॉर्न ने भूगोल को एक ऐसे विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जो क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन करता है। वर्तमान भूगोलवेत्ता प्रादेशिक उपागम (अप्रोच) और क्रमबद्ध उपागम को विरोधाभासी की जगह पूरक उपागम के रूप में देखते हैं।
भूगोल के दायरे में किसी चीज़ के अस्तित्व के लिए, इसे स्थानिक (स्पशियल) रूप से वर्णित करने में सक्षम होना चाहिए। इस प्रकार, भूगोल की नींव में स्पेस सबसे मौलिक अवधारणा है। यह अवधारणा इतनी बुनियादी है कि भूगोलवेत्ताओं को अक्सर यह परिभाषित करने में कठिनाई होती है कि वास्तव में यह क्या है। निरपेक्ष स्पेस वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थानों, या घटनाओं की जांच के तहत सटीक साइट, या स्थानिक निर्देशांक है। हम स्पेस में मौजूद हैं। निरपेक्ष स्पेस दुनिया को एक तस्वीर के रूप में देखने की ओर ले जाता है, जहां जब निर्देशांक रिकॉर्ड किए गए थे तो सब कुछ स्थिर था। आज, भूगोलवेत्ताओं को यह याद रखने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि दुनिया, मानचित्र पर दिखाई देने वाली स्थिर छवि नहीं है; इसके बजाय, यह एक गतिशील स्थान है जहां सभी प्रक्रियाएं परस्पर क्रिया करती हैं और घटित होती हैं।
स्थान भूगोल में सबसे जटिल और महत्वपूर्ण शब्दों में से एक है। मानव भूगोल में, स्थान पृथ्वी की सतह पर निर्देशांक का संश्लेषण है, जो गतिविधि और उपयोग घटित होता है, हुआ है, और निर्देशांक पर घटित होगा, और मानव व्यक्तियों और समूहों द्वारा स्पेस के लिए जो अर्थ निर्दिष्ट किया गया है। यह असाधारण रूप से जटिल हो सकता है, क्योंकि अलग-अलग स्पेस के अलग-अलग समय पर अलग-अलग उपयोग हो सकते हैं और अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग चीजें हो सकती हैं। भौतिक भूगोल में, एक स्थान में स्थलमंडल, वायुमंडल, जलमंडल और जीवमंडल सहित स्पेस में होने वाली सभी भौतिक घटनाएं शामिल होती हैं। स्थान निर्वात में मौजूद नहीं होते हैं और इसके बजाय एक दूसरे के साथ जटिल स्थानिक संबंध होते हैं, और स्थान का संबंध है कि अन्य सभी स्थानों के संबंध में स्थान कैसे स्थित है। तब एक अनुशासन के रूप में, भूगोल में शब्द स्थान में एक स्थान पर होने वाली सभी स्थानिक घटनाएं शामिल होती हैं, विविध उपयोग और अर्थ जो मनुष्य उस स्थान को देते हैं, और कैसे वह स्थान पृथ्वी पर अन्य सभी स्थानों को प्रभावित करता है और प्रभावित होता है। यी-फू तुआन के एक पेपर में, वे बताते हैं कि उनके विचार में, भूगोल मानवता के लिए एक घर के रूप में पृथ्वी का अध्ययन है, और इस प्रकार स्थान और इस शब्द के पीछे का जटिल अर्थ भूगोल के अनुशासन का केंद्र है।
समय को आमतौर पर इतिहास के दायरे में माना जाता है, हालांकि, यह भूगोल के अनुशासन में महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। भौतिकी में, स्पेस और समय अलग नहीं होते हैं, और स्पेस-टाइम की अवधारणा में संयुक्त होते हैं।भूगोल भौतिकी के नियमों के अधीन है, और स्पेस में होने वाली चीजों का अध्ययन करने में, समय पर विचार किया जाना चाहिए। भूगोल में समय विभिन्न असतत निर्देशांकों पर घटित होने वाली घटनाओं के ऐतिहासिक रिकॉर्ड से कहीं अधिक है; लेकिन इसमें स्पेस के माध्यम से लोगों, जीवों और चीजों की गतिशील क्रियाओं की मॉडलिंग करना भी शामिल है। समय स्पेस के माध्यम से गति की सुविधा देता है, अंततः चीजों को एक प्रणाली के माध्यम से प्रवाहित होने की अनुमति देता है। एक व्यक्ति, या लोगों का समूह, किसी स्थान पर जितना समय व्यतीत करता है, वह अक्सर उस स्थान के प्रति उनके लगाव और दृष्टिकोण को आकार देता है। प्रारंभिक बिंदु, संभावित मार्गों और यात्रा की दर को देखते हुए समय उन संभावित रास्तों को बाधित करता है जिन्हें स्पेस के माध्यम से लिया जा सकता है। मानचित्रकला के संदर्भ में स्पेस पर समय की कल्पना करना चुनौतीपूर्ण है, और इसमें अंतरिक्ष-प्रिज्म, उन्नत ३डी भू-दृश्यकरण, और एनिमेटेड मानचित्र शामिल हैं।
भूगोल के नियम
सामान्य तौर पर, कुछ भूगोल और सामाजिक विज्ञानों में नियमों की पूरी अवधारणा पर ही विवाद करते हैं।इन आलोचनाओं को वाल्डो टॉबलर और अन्य लोगों ने संबोधित किया है। हालाँकि, यह भूगोल में बहस का एक सतत स्रोत है और इसके जल्द ही हल होने की संभावना नहीं है। कई कानून प्रस्तावित किए गए हैं, और टॉबलर का भूगोल का पहला नियम भूगोल में सबसे आम तौर पर स्वीकृत है। कुछ लोगों ने तर्क दिया है कि भौगोलिक नियमों को क्रमांकित करने की आवश्यकता नहीं है। पहले का अस्तित्व दूसरे को आमंत्रित करता है, और बहुतों ने स्वयं को ऐसा प्रस्तावित किया है। यह भी प्रस्तावित किया गया है कि टॉबलर के भूगोल के पहले नियम को दूसरे नियम में स्थानांतरित किया जाना चाहिए और दूसरे के साथ प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए। भूगोल के कुछ प्रस्तावित नियम नीचे हैं:
टॉबलर का भूगोल का पहला नियम: "हर चीज हर चीज से संबंधित है, लेकिन पास की चीजें दूर से ज्यादा संबंधित हैं"
टॉबलर का भूगोल का दूसरा नियम: "भौगोलिक क्षेत्र के बाहर की घटनाएं प्रभावित करती हैं कि अंदर क्या चल रहा है।"
अरबिया का भूगोल का नियम: "हर चीज हर चीज से संबंधित है, लेकिन मोटे स्पैशल रेसोल्यूशन पर देखी गई चीजें बेहतर रेसोल्यूशन पर देखी गई चीजों से अधिक संबंधित हैं।"
अनिश्चितता का सिद्धांत: "भौगोलिक दुनिया असीम रूप से जटिल है और इसलिए किसी भी प्रतिनिधित्व में अनिश्चितता के तत्व शामिल होने चाहिए, भौगोलिक डेटा प्राप्त करने में उपयोग की जाने वाली कई परिभाषाओं में अस्पष्टता के तत्व शामिल हैं, और यह कि पृथ्वी की सतह पर लोकैशन को मापना असंभव है। "
अंग तथा शाखाएँ
भूगोल ने आज विज्ञान का दर्जा प्राप्त कर लिया है, जो पृथ्वी तल पर उपस्थित विविध प्राकृतिक और सांस्कृतिक रूपों की व्याख्या करता है। भूगोल एक समग्र और अन्तर्सम्बंधित क्षेत्रीय अध्ययन है जो स्थानिक संरचना में भूत से भविष्य में होने वाले परिवर्तन का अध्ययन करता है। इस तरह भूगोल का क्षेत्र विविध विषयों जैसे सैन्य सेवाओं, पर्यावरण प्रबंधन, जल संसाधन, आपदा प्रबंधन, मौसम विज्ञान, नियोजन (प्लैनिंग) और विविध सामाजिक विज्ञानों में है। इसके अलावा यह भूगोलवेत्ता दैनिक जीवन से सम्बंधित घटनाओं जैसे पर्यटन, स्थान परिवर्तन, आवासों तथा स्वास्थ्य सम्बंधी क्रियाकलापों में सहायक हो सकता है।
भूगोल पूछताछ की एक शाखा है जो पृथ्वी पर स्थानिक जानकारी पर केंद्रित है। यह एक अत्यंत व्यापक विषय है और इसे कई तरीकों से विभाजित किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए कई दृष्टिकोण रहे हैं, जिसमें "भूगोल की चार परंपराएँ" और "अलग-अलग शाखाएं" शामिल हैं। भूगोल की चार परंपराओं का उपयोग अक्सर उन विभिन्न ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को विभाजित करने के लिए किया जाता है जो भूगोलवेत्ताओं ने अनुशासन में लिए हैं। इसके विपरीत, भूगोल की शाखाएँ समकालीन अनुप्रयुक्त (अप्लाइड) भौगोलिक दृष्टिकोणों का वर्णन करती हैं।
भूगोल की चार परंपराएँ
भूगोल एक अत्यंत विस्तृत क्षेत्र है। इस वजह से कई, दशकों से प्रस्तावित भूगोल की विभिन्न परिभाषाओं को अपर्याप्त मानते हैं। इसे संबोधित करने के लिए, विलियम डी. पैटिसन ने १९६४ में "भूगोल की चार परंपराओं" की अवधारणा का प्रस्ताव रखा। ये परंपराएं स्थानिक या स्थानीय परंपरा, मानव-भूमि या मानव-पर्यावरण संपर्क परंपरा, क्षेत्रीय अध्ययन या क्षेत्रीय परंपरा, और पृथ्वी विज्ञान परंपरा हैं। ये अवधारणाएँ अनुशासन के भीतर एक साथ बंधे भूगोल दर्शन के व्यापक सेट हैं। वे कई तरीकों में से एक हैं जो भूगोलवेत्ता अनुशासन के भीतर विचारों और दर्शन के प्रमुख सेटों को व्यवस्थित करते हैं।
स्थानिक (स्पशियल) या अवस्थिति (लोकेशनल) परंपरा
स्थानिक या अवस्थिति परंपरा किसी स्थान की स्थानिक विशेषताओं का वर्णन करने के लिए मात्रात्मक तरीकों को नियोजित करने से संबंधित है। स्थानिक परंपरा किसी स्थान या घटना को समझने और समझाने के लिए स्थानिक विशेषताओं का उपयोग करना चाहती है। इस परंपरा के योगदानकर्ता ऐतिहासिक रूप से मानचित्रकार थे, लेकिन अब इसमें तकनीकी भूगोल और भौगोलिक सूचना विज्ञान शामिल है।
क्षेत्र अध्ययन या प्रादेशिक परंपरा
क्षेत्र अध्ययन या प्रादेशिक परंपरा पृथ्वी की सतह की अनूठी विशेषताओं के वर्णन से संबंधित है, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक क्षेत्र भौतिक और मानव पर्यावरण के रूप में अपनी पूर्ण प्राकृतिक या तत्वों के संयोजन से उत्पन्न होता है। मुख्य उद्देश्य किसी विशेष क्षेत्र की विशिष्टता, या चरित्र को समझना या परिभाषित करना है जिसमें प्राकृतिक और मानवीय तत्व शामिल हैं। प्रादेशिककरण पर भी ध्यान दिया जाता है, जो क्षेत्रों में इलाके के परिसीमन की उचित तकनीकों को शामिल करता है।
मानव-पर्यावरण अन्तःक्रिया परंपरा
मानव पर्यावरण अन्तःक्रिया परंपरा (मूल रूप से मानव-भूमि अन्तःक्रिया), जिसे एकीकृत भूगोल के रूप में भी जाना जाता है, मानव और प्राकृतिक दुनिया के बीच स्थानिक बातचीत के विवरण से संबंधित है। इसके लिए भौतिक और मानव भूगोल के पारंपरिक पहलुओं की समझ की आवश्यकता होती है, जैसे मानव समाज पर्यावरण की अवधारणा कैसे करते हैं। दो उप-क्षेत्रों, या शाखाओं की बढ़ती विशेषज्ञता के कारण एकीकृत भूगोल मानव और भौतिक भूगोल के बीच एक सेतु के रूप में उभरा है। वैश्वीकरण और तकनीकी परिवर्तन के परिणामस्वरूप पर्यावरण के साथ मानवीय संबंधों में बदलाव के बाद से बदलते और गतिशील संबंधों को समझने के लिए एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता थी। पर्यावरण भूगोल में अनुसंधान के क्षेत्रों के उदाहरणों में शामिल हैं: आपातकालीन प्रबंधन, पर्यावरण प्रबंधन, स्थिरता और राजनीतिक पारिस्थितिकी।
पृथ्वी विज्ञान परंपरा
पृथ्वी विज्ञान परंपरा काफी हद तक भौतिक भूगोल के रूप में संदर्भित है।यह परंपरा प्राकृतिक घटनाओं की स्थानिक विशेषताओं को समझने पर केंद्रित है। कुछ लोगों का तर्क है कि पृथ्वी विज्ञान परंपरा स्थानिक परंपरा का एक उपसमुच्चय है, हालांकि दोनों अलग-अलग होने के लिए अपने फोकस और उद्देश्यों में काफी भिन्न हैं।
भूगोल की शाखाएं
विद्वानों ने भूगोल के तीन मुख्य विभाग किए हैं- गणितीय भूगोल, भौतिक भूगोल तथा मानव भूगोल। पहले विभाग में पृथ्वी का सौर जगत के अन्यान्य ग्रहों और उपग्रहों आदि से संबंध बतलाया जाता है और उन सबके साथ उसके सापेक्षिक संबंध का वर्णन होता है। इस विभाग का बहुत कुछ संबंध गणित ज्योतिष से भी है। दूसरे विभाग में पृथ्वी के भौतिक रूप का वर्णन होता है और उससे यह जाना जाता है कि नदी, पहाड़, देश, नगर आदि किसे कहते है और अमुक देश, नगर, नदी या पहाड़ आदि कहाँ हैं। साधारणतः भूगोल से उसके इसी विभाग का अर्थ लिया जाता है। भूगोल का तीसरा विभाग मानव भूगोल है जिसके अन्तर्गत राजनीतिक भूगोल भी आता है जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि राजनीति, शासन, भाषा, जाति और सभ्यता आदि के विचार से पृथ्वी के कौन विभाग है और उन विभागों का विस्तार और सीमा आदि क्या है।
एक अन्य दृष्टि से भूगोल के दो प्रधान अंग है : शृंखलाबद्ध भूगोल तथा प्रादेशिक भूगोल। पृथ्वी के किसी स्थानविशेष पर शृंखलाबद्ध भूगोल की शाखाओं के समन्वय को केंद्रित करने का प्रतिफल प्रादेशिक भूगोल है।
भूगोल एक प्रगतिशील विज्ञान है। प्रत्येक देश में विशेषज्ञ अपने अपने क्षेत्रों का विकास कर रहे हैं। फलत: इसकी निम्नलिखित अनेक शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हो गई है :
आर्थिक भूगोल-- इसकी शाखाएँ कृषि, उद्योग, खनिज, शक्ति तथा भंडार भूगोल और भू उपभोग, व्यावसायिक, परिवहन एवं यातायात भूगोल हैं। अर्थिक संरचना संबंधी योजना भी भूगोल की शाखा है।
राजनीतिक भूगोल -- इसके अंग भूराजनीतिक शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, औपनिवेशिक भूगोल, शीत युद्ध का भूगोल, सामरिक एवं सैनिक भूगोल हैं।
ऐतिहासिक भूगोल --प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक वैदिक, पौराणिक, इंजील संबंधी तथा अरबी भूगोल भी इसके अंग है।
रचनात्मक भूगोल-- इसके भिन्न भिन्न अंग रचना मिति, सर्वेक्षण आकृति-अंकन, चित्रांकन, आलोकचित्र, कलामिति (फोटोग्रामेटरी) तथा स्थाननामाध्ययन हैं।
इसके अतिरिक्त भूगोल के अन्य खंड भी विकसित हो रहे हैं जैसे ग्रंथ विज्ञानीय, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, गणित शास्त्रीय, ज्योतिष शास्त्रीय एवं भ्रमण भूगोल तथा स्थाननामाध्ययन हैं।
भौतिक भूगोल -- इसके भिन्न भिन्न शास्त्रीय अंग स्थलाकृति, हिम-क्रिया-विज्ञान, तटीय स्थल रचना, भूस्पंदनशास्त्र, समुद्र विज्ञान, वायु विज्ञान, मृत्तिका विज्ञान, जीव विज्ञान, चिकित्सा या भैषजिक भूगोल तथा पुरालिपि शास्त्र हैं।
भू-आकृति (स्थलाकृति) विज्ञान
पृथ्वी पर ७ महाद्वीप हैं: एशिया, यूरोप, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका।
पृथ्वी पर ५ महासागर हैं: अटलांटिक महासागर, आर्कटिक महासागर,हिंद महासागर, प्रशान्त महासागर |
स्थलाकृति विज्ञान -
शैल - (१) आग्नेय शैल (२) कायांतरित शैल (३) अवसादी शैल |
वायुमण्डल, ऋतु, तापमान, गर्मी, उष्णता, क्षय ऊष्मा, आर्द्रता |
मानव भूगोल, भूगोल की वह शाखा है जो मानव समाज के क्रियाकलापों और उनके परिणाम स्वरूप बने भौगोलिक प्रतिरूपों का अध्ययन करता है। इसके अन्तर्गत मानव के राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा आर्थिक पहलू आते हैं।
मानव भूगोल को अनेक श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जैसे:'
|सांस्कृतिक भूगोल || विकास भूगोल || आर्थिक भूगोल || स्वास्थ्य भूगोल
| ऐतिहासिक & समय भूगोल || राजनीतिक भूगोल व भूराजनीति || जनसंख्या भूगोल या जनांकिकी || धार्मिक भूगोल
| सामाजिक भूगोल || परिवहन भूगोल || पर्यटन भूगोल || नगरीय भूगोल
भूगोल एक अन्तर्सम्बंधित विज्ञान के रूप में
इतिहास के भिन्न कालों में भूगोल को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। प्राचीन यूनानी विद्वानों ने भौगोलिक धारणाओं को दो पक्षों में रखा था-
प्रथम गणितीय पक्ष, जो कि पृथ्वी की सतह पर स्थानों की अवस्थिति को केन्द्रित करता था
दूसरा यात्राओं और क्षेत्रीय कार्यों द्वारा भौगोलिक सूचनाओं को एकत्र करता था। इनके अनुसार, भू
गोल का मुख्य उद्देश्य विश्व के विभिन्न भागों की भौतिक आकृतियों और दशाओं का वर्णन करना है।
भूगोल में प्रादेशिक उपागम का उद्भव भी भूगोल की वर्णनात्मक प्रकृति पर बल देता है। हम्बोल्ट के अनुसार, भूगोल प्रकृति से सम्बंधित विज्ञान है और यह पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी साधनों का अध्ययन व वर्णन करता है।
हेटनर और हार्टशॉर्न पर आधारित भूगोल की तीन मुख्य शाखाएँ है : भौतिक भूगोल, मानव भूगोल और प्रादेशिक भूगोल। भौतिक भूगोल में प्राकृतिक परिघटनाओं का उल्लेख होता है, जैसे कि जलवायु विज्ञान, मृदा और वनस्पति। मानव भूगोल भूतल और मानव समाज के सम्बंधों का वर्णन करता है। भूगोल एक अन्तरा-अनुशासनिक विषय है।
भूगोल का गणित, प्राकृतिक विज्ञानों और सामाजिक विज्ञानों के साथ घनिष्ठ सम्बंध है। जबकि अन्य विज्ञान विशिष्ट प्रकार की परिघटनाओं का ही वर्णन करते हैं, भूगोल विविध प्रकार की उन परिघटनाओं का भी अध्ययन करता है, जिनका अध्ययन अन्यविज्ञानों में भी शामिल होता है। इस प्रकार भूगोल ने स्वयं को अन्तर्सम्बंधित व्यवहारों के संश्लेषित अध्ययन के रूप में स्थापित किया है।
भूगोल स्थानों का विज्ञान है। भूगोल प्राकृतिक व सामाजिक दोनों ही विज्ञान है, जोकि मानव व पर्यावरण दोनों का ही अध्ययन करता है। यह भौतिक व सांस्कृतिक विश्व को जोड़ता है। भौतिक भूगोल पृथ्वी की व्यवस्था से उत्पन्न प्राकृतिक पर्यावरणका अध्ययन करता है। मानव भूगोल राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और जनांकिकीय प्रक्रियाओं से सम्बंधित है। यह संसाधनों के विविध प्रयोगों से भी सम्बंधित है। प्रारंभिक भूगोल सिर्फ स्थानों का वर्णन करता था। हालाँकि यह आज भी भूगोल के अध्ययन में शामिल है परन्तु पिछले कुछ वर्षों में इसके प्रतिरूपों के वर्णन में परिवर्तन हुआ है। भौगोलिक परिघटनाओंं का वर्णन सामान्यतः दो उपागमों के आधार पर किया जाता है जैसे (१) प्रादेशिक और (२) क्रमबद्ध। प्रादेशिक उपागम प्रदेशों के निर्माण व विशेषताओं की व्याख्या करता है। यह इस बात का वर्णन करने का प्रयास करता है कि कोई क्षेत्र कैसे और क्यों एक दूसरे से अलग है। प्रदेश भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, जनांकिकीय आदि हो सकता है। क्रमबद्ध उपागम परिघटनाओं तथा सामान्य भौगोलिक महत्वों के द्वारा संचालित है। प्रत्येक परिघटना का अध्ययन क्षेत्रीय विभिन्नताओं व दूसरे के साथ उनके संबंधों का अध्ययन भूगोल आधार पर किया जाता है।
भूगोल का भौतिक विज्ञानों से संबंध
भूगोल और गणित
भूगोल की प्रायः सभी शाखाओं विशेष रूप से भौतिक भूगोल की शाखाओं में तथ्यों के विश्लेषण में गणितीय विधियों का प्रयोग किया जाता है।
खगोल विज्ञान में आकाशीय पिण्डों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। भूतल की घटनाओं और तत्वों पर आकाशीय पिण्डों - सूर्य, चंद्रमा, धूमकेतुओं आदि का प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। इसीलिए भूगोल में सौरमंडल, सूर्य का अपने आभासी पथ पर गमन, पृथ्वी की दैनिक और वार्षि गतियों तथा उनके परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों - दिन-रात और ऋतु परिवर्तन, चन्द्र कलाओं, सूर्य ग्रहण, चन्द्रगहण आदि का अध्ययन किया जाता है। इन तत्वों और घटनाओं का मौलिक अध्ययन खगोल विज्ञान में किया जाता है। इस प्रकार भूगोल का खगोल विज्ञान से घनिष्ट संबंध परिलक्षित होता है।
भू-विज्ञान पृथ्वी के संगठन, संरचना तथा इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन सं संबंधित है। इसके अंतर्गत पृथ्वी के संघठक पदार्थों, भूतल पर क्रियाशील शक्तियों तथा उनसे उत्पन्न संरचनाओं, भूपटल की शैलें की संरचना एवं वितरण, पृथ्वी के भू-वैज्ञानिक कालों आदि का अध्ययन सम्मिलित होता है। भूगोल में स्थलरूपों के विश्लेषण में भूविज्ञान के सिद्धान्तों तथा साक्ष्यों का सहारा लिया जाता है। इस प्रकार भौतिक भूगोल विशेषतः भू-आकृति विज्ञान (जियोमॉर्फोलॉजी) का भू-विज्ञान से अत्यंत घनिष्ट संबंध है।
भूगोल और मौसम विज्ञान
भूतल को प्रभावित करने वाले भौगोलिक कारकों में जलवायु सर्वाधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कारक है। मौसम विज्ञान वायुमण्डल विशेषतः उसमें घटित होने वाले भौतिक प्रक्रमों तथा उससे सम्बद्ध स्थलमंडल और जलमंडल के विविध प्रक्रमों का अध्ययन करता है। इसके अंतर्गत वायुदाब, तापमान, पवन, आर्द्रता, वर्षण, मेघाच्छादन, सूर्य प्रकाश आदि का अध्ययन किया जाता है। मौसम विज्ञान के इन तत्वों का विश्लेषण भूगोल में भी किया जाता है।
जल विज्ञान पृथ्वी पर स्थित जल के अध्ययन से संबंधित है। इसके साथ ही इसमें जल के अन्वेषण, प्रयोग, नियंत्रण और संरक्षण का अध्यन भी समाहित होता है। महासारीय तत्वों के स्थानिक वितरण का अध्ययन भूगोल की एक शखा समुद्र विज्ञन (ओसनोग्राफी) में किया जाता है। समद्र विज्ञान में महसागयी जल केकर पशुओं के पीने, फसलों की सिंचई करने, काखानों में जलापूर्ति, जशक्ति, जल रिवहन, मत्स्यखेट आदि विभिन्न रूपों में जल आवश्यक ही नहीं अनवर्य होता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि भूगोल और जल विज्ञान में अत्यंत निकट का और घनिष्ट संबंध है।
मृदा विज्ञान (पेडोलॉजी और सोइल साइंस) मिट्टी के निर्माण, संरचना और विशेषता का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। भूतल पर मिट्टियों के वितरण का अध्ययन मृदा भूगोल (पेड़ोगेओगाफी और सोइल जियोग्राफी) के अंतर्गत किया जाता है। मिट्टी का अध्ययन कृषि भूगोल का भी महत्वपूर्ण विषय है। इस प्रकार भूगोल की घनिष्टता मृदा विज्ञान से भी पायी जाती है।
भूगोल और वनस्पति विज्ञान
पेड़-पौधों का मानव जीवन से गहरा संबंध है। वनस्पति विज्ञान पादप जीवन (प्लांट लाइफ) और उसके संपूर्ण विश्व रूपों का वैज्ञानिक अध्यय करता है। प्राकृतिक वनस्पतियों के स्थानिक वितरण और विशेषताओं का विश्लेषण भौतिक भूगोल की शाखा जैव भूगोल (बायोजियोग्राफी) और उपशाखा वनस्पति या पादप भूगोल (प्लांट जियोग्राफी) में की जाती है।
भूगोल और जन्तु विज्ञान
जन्तु विज्ञान या प्राणि समस्त प्रकार के प्राणि जीवन की संरचना, वर्गीकरण तथा कार्यों का वैज्ञानिक अध्ययन है। मनुष्य के लिए जन्तु जगत् और पशु संसाधन (अनिमल रिसोर्स) का अत्यधिक महत्व है। पशु मनुष्य के लिए बहु-उपयोगी हैं। मनुष्य को पशुओं से अनेक उपयोगी पदार्थ यथा दूध, मांस, ऊन, चमड़ा आदि प्राप्त होते हैं और कुछ पशुओं का प्रयोग सामान ढोने और परिवहन या सवारी करने के लिए भी किया जाता है। जैव भूगोल की एक उप-शाखा है जंतु भूगोल (अनिमल जियोग्राफी) जिसमें विभिन्न प्राणियों के स्थानिक वितरण और विशेषताओं का विश्लेषण किया जाता है। मानव जीवन के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पशु जगत का महत्वपूर्ण स्थान होने के कारण इसको भौगोलिक अध्ययनों में भी विशिष्ट स्थान प्राप्त है। अतः भूगोल का जन्तु विज्ञान से भी घनिष्ट संबंध प्रमाणित होता है।
भूगोल का सामाजिक विज्ञानों से संबंध
भूगोल और अर्थ शास्त्र
भोजन, वस्त्र और आश्रय मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं जो किसी भी देश, काल या परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य होती हैं। इसके साथ ही मानव या मानव समूह की अन्यान्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि आवश्यकताएं भी होती हैं जो बहुत कुछ अर्थव्यवस्था पर आधारित होती हैं। अर्थव्यवस्था (इकनोमी) का अध्ययन करना अर्थशास्त्र का मूल विषय है। किसी स्थान, क्षेत्र या जनसमुदाय के समस्त जीविका स्रोतों या आर्थिक संसाधनों के प्रबंध, संगठन तथा प्रशासन को ही अर्थव्यवस्था कहते हैं। विविध आर्थिक पक्षों स्थानिक अध्ययन भूगोल की एक विशिष्ट शाखा आर्थिक भूगोल में किया जाता है।
भूगोल और समाजशास्त्र
समाजशास्त्र मनुष्यों के सामाजिक जीवन, व्यवहार तथा सामाजिक क्रिया का अध्ययन है जिसमें मानव समाज की उत्पत्ति, विकास, संरचना तथा सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन सम्मिलित होता है। समाजशास्त्र मानव समाज के विकास, प्रवृत्ति तथा नियमों की वैज्ञानिक व्याख्या करता है। समस्त मानव समाज अनेक वर्गों, समूहों तथा समुदायों में विभक्त है जिसके अपने-अपने रीति-रिवाज, प्रथाएं, परंपराएं तथा नियम होते हैं जिन पर भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव निश्चित रूप से पाया जाता है। अतः समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भौगोलिक ज्ञान आवश्यक होता है।
भूगोल और इतिहास
मानव भूगोल मानव सभ्यता के इतिहास तथा मानव समाज के विकास का अध्ययन भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में करता है। किसी भी देश या प्रदेश के इतिहास पर वहां के भौगोलिक पर्यावरण तथा परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पाया जाता है। प्राकृतिक तथा मानवीय या सांस्कृतिक तथ्य का विश्लेषण विकासात्मक दृष्टिकोण से करते हैं तब मनुष्य और पृथ्वी के परिवर्तनशील संबंधों का स्पष्टीकरण हो जाता है। किसी प्रदेश में जनसंख्या, कृषि, पशुपालन, खनन, उद्योग धंधों, परिवहन के साधनों, व्यापारिक एवं वाणिज्कि संस्थाओं आदि के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन मानव भूगोल में किया जाता है जिसके लिए उपयुक्त साक्ष्य और प्रमाण इतिहास से ही प्राप्त होते हैं।
भूगोल और राजनीति विज्ञान
राजनीति विज्ञान के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु शासन व्यवस्था है। इसमें विभिनन राष्ट्रों एवं राज्यों की शासन प्रणालियों, सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों आदि का अध्ययन किया जाता है। राजनीतिक भूगोल मानव भूगोल की एक शाखा है जिसमें राजनीतिक रूप से संगठित क्षेत्रों की सीमा, विस्तार, उनके विभिनन घटकों, उप-विभागों, शासित भू-भागों, संसाधनों, आंतरिक तथा विदेशी राजनीतिक संबंधों आदि का अध्ययन सम्मिलित होता है। मानव भूगोल की एक अन्य शाखा भूराजनीति (जियोपॉलिटिक्स) भी है जिसके अंतर्गत भूतल के विभिन्न प्रदेशों की राजनीतिक प्रणाली विशेष रूप से अंतर्राष्टींय राजनीति पर भौगोलिक कारकों के प्रभाव की व्याख्या की जाती है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि भूगोल और राजनीति विज्ञान परस्पर घनिष्ट रूप से संबंधित हैं।
जनांकिकी या जनसांख्यिकी के अंतर्गत जनसंख्या के आकार, संरचना, विकास आदि का परिमाणात्मक अध्ययन किया जाता है। इसमें जनसंख्या संबंधी आंकड़ों के एकत्रण, वर्गीकरण, मूल्यांकन, विश्लेषण तथा प्रक्षेपण के साथ ही जनांकिकीय प्रतिरूपों तथा प्रक्रियाओं की भी व्याख्या की जाती है। मानव भूगोल और उसकी उपशाखा जनसंख्या भूगोल में भौगोलिक पर्यावरण के संबंध में जनांकिकीय प्रक्रमों तथा प्रतिरूपों में पायी जाने वाली क्षेत्रीय भिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार विषय सादृश्य के कारण भूगोल और जनांकिकी में घनिष्ट संबंध पाया जाता है।
भूगोल में प्रयुक्त तकनीकें
मापन, पैमाइश करना
भू- वैज्ञानिक मानचित्र
बिट प्रतिचित्र प्रोटोकॉल
खंड प्रतिचित्र सारणी
भौगोलिक सूचना तंत्र
खेत प्रबंध सर्वेक्षण
भूमिगत जल सर्वेक्षण
इन्हें भी देखें
भूगोल की रूपरेखा
भूगोल का इतिहास
देशों की सूची
भूगोलवेत्ताओं की सूची
भूगोल (गूगल पुस्तक ; लेखक - यश पाल सिंह)
भूगोल परिभाषा शब्द संग्रह (गूगल पुस्तक ; लेखक - माजिद हुसैन)
भूगोल मुख्य परीक्षा के लिये (गूगल पुस्तक ; लेखक - डी आर खुल्लर)
स्कूल भुवन - स्कूली बच्चों के लिये भूगोल सीखने का पोर्टल
भूगोल से जुड़े प्रश्न - प्रतियोगी परीक्षा |
इतिहास का प्रयोग विशेषतः दो अर्थों में किया जाता है।जैैसे एक है प्राचीन अथवा विगत काल की घटनाएँ और दूसरा उन घटनाओं के विषय में धारणा भारतीय संस्कृति में इतिहास शब्द (इति + ह + आस ; अस् धातु, लिट् लकार अन्य पुरुष तथा एक वचन) का तात्पर्य है "ऐसा वस्तुत: हुआ है "। ग्रीस के लोग इतिहास के लिए "हिस्ट्री" शब्द का प्रयोग करते थे। "हिस्टरी" का शाब्दिक अर्थ "बुनना" था। अनुमान होता है कि ज्ञात घटनाओं को व्यवस्थित ढंग से बुनकर ऐसा चित्र उपस्थित करने की कोशिश की जाती थी जो सार्थक और सुसंबद्ध हो।
भारतीय इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली है ।
भारतीय संस्कृति में किसी भी अनुष्ठान से पहले
जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते.अमुक। बोलते हैं, इसका अर्थ क्या है?
विज्ञान और अन्वेषण ( रिसर्च) से पता चला है कि कोई ५०० लाख साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप , एशिया से अलग एक पृथक महादीप था जो कालांतर में आकर एशिया से जुड़ गया । इसी कारण हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ जो दो महाद्वीप के टकराव से एक कृत्रिम पर्वत है ।
भारतीय कालगणना के हिसाब से २०२३ में,कल्प के आरंभ से १९७,२९,४९,१२३ वर्ष , सृष्टि के आरंभ से १९५,५८,८५,१२३ वर्ष, कलियुग 5१२३ वर्ष और विक्रम संवत से २०७९ वर्ष बीत चुके हैं । यह गणना भारतीय पंचाग से लिया गया है ।
भारत वर्ष का प्राचीन काल में एक सुनियोजित और क्रमानुसार इतिहास था जो सत्य घटनाओं पर आधारित था । इसे पुराण के नाम से जाना जाता है। विदेशी आक्रांताओं ने उन सारी पुस्तकों को जला दिया या नष्ट कर दिया जिसमे भारत का इतिहास दर्ज था । नालंदा विश्वविद्यालय, तक्षशीला विश्वविद्यालय में लूटपाट कर इस्लामिक लुटेरों ने मानव विकास की क्रमानुकुल इतिहास सहित कई ज्ञान विज्ञान की पुस्तकों को नष्ट कर दिया है ।
आज का इतिहास अंग्रेजों द्वारा रचित इतिहास है जो मानवता के विकास को क्रमानुकूल नही दिखाता।
इसलिए आज के इतिहास शब्द का अर्थ है - परम्परा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि लोक कथाएँ), वीरगाथा (जैसे कि महाभारत) या ऐतिहासिक साक्ष्य। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही इतिहास है। या फिर प्राचीनता से नवीनता की ओर आने वाली, मानवजाति से संबंधित घटनाओं का वर्णन इतिहास है। इन घटनाओं व ऐतिहासिक साक्ष्यों को तथ्य के आधार पर प्रमाणित किया जाता है।
आम तौर पर यह समझा जाता है कि इतिहास की परंपरा सूत व चारण परंपरा से विकसित हुई, जिनके स्तुति काव्य स्वाभाविक रूप से राजाओं और उनके पूर्वजों के वीरता के कृत्यों, विजय और धार्मिकता की कहानियों पर केंद्रित था। इस तरह के पाठ और, बाद में, शिलालेख और साहित्यिक रचनाएँ, सम्राट की महानता और अक्सर उसके दिव्य-वंश की पुष्टि करने का काम करते। यह है एक शैली है जिसमें अतिशयोक्ति को किसी भी प्रकार से दोष नहीं माना जाता। परिणामस्वरूप, रघुवंश और भरत वंश के राजवंशों की यशकाव्य की यह रचनाएं हैं एकत्र होकर अंततः रामायण और महाभारत के स्मारकीय इतिहास-काव्यों में विकसित हुईं।
इतिहास के मुख्य आधार युगविशेष और घटनास्थल के वे अवशेष हैं जो किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं। जीवन की बहुमुखी व्यापकता के कारण स्वल्प सामग्री के सहारे विगत युग अथवा समाज का चित्रनिर्माण करना दुःसाध्य है। सामग्री जितनी ही अधिक होती जाती है उसी अनुपात से बीते युग तथा समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करना साध्य होता जाता है। पर्याप्त साधनों के होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि कल्पनामिश्रित चित्र निश्चित रूप से शुद्ध या सत्य ही होगा। इसलिए उपयुक्त कमी का ध्यान रखकर कुछ विद्वान् कहते हैं कि इतिहास की संपूर्णता असाध्य सी है, फिर भी यदि हमारा अनुभव और ज्ञान प्रचुर हो, ऐतिहासिक सामग्री की जाँच-पड़ताल को हमारी कला तर्कप्रतिष्ठत हो तथा कल्पना संयत और विकसित हो तो अतीत का हमारा चित्र अधिक मानवीय और प्रामाणिक हो सकता है। सारांश यह है कि इतिहास की रचना में पर्याप्त सामग्री, वैज्ञानिक ढंग से उसकी जाँच, उससे प्राप्त ज्ञान का महत्त्व समझने के विवेक के साथ ही साथ ऐतिहासक कल्पना की शक्ति तथा सजीव चित्रण की क्षमता की आवश्यकता है। स्मरण रखना चाहिए कि इतिहास न तो साधारण परिभाषा के अनुसार विज्ञान है और न केवल काल्पनिक दर्शन अथवा साहित्यिक रचना है। इन सबके यथोचित संमिश्रण से इतिहास का स्वरूप रचा जाता है।
इतिहास का आरम्भ
लिखित इतिहास का आरम्भ पद्य अथवा गद्य में वीरगाथा के रूप में हुआ। फिर वीरों अथवा विशिष्ट घटनाओं के संबंध में अनुश्रुति अथवा लेखक की पूछताछ से गद्य में रचना प्रारंभ हुई। इस प्रकार के लेख खपड़ों, पत्थरों, छालों और कपड़ों पर मिलते हैं। कागज का आविष्कार होने से लेखन और पठन पाठन का मार्ग प्रशस्त हो गया। लिखित सामग्री को अन्य प्रकार की सामग्री-जैसे खंडहर, शव, बर्तन, धातु, अन्न, सिक्के, खिलौने तथा यातायात के साधनों आदि के सहयोग द्वारा ऐतिहासिक ज्ञान का क्षेत्र और कोष बढ़ता चला गया। उस सब सामग्री की जाँच पड़ताल की वैज्ञानिक कला का भी विकास होता गया। प्राप्त ज्ञान को सजीव भाषा में गुंफित करने की कला ने आश्चर्यजनक उन्नति कर ली है, फिर भी अतीत के दर्शन के लिए कल्पना कुछ तो अभ्यास, किंतु अधिकतर व्यक्ति की नैसर्गिक क्षमता एवं सूक्ष्म तथा क्रांत दृष्टि पर आश्रित है। यद्यपि इतिहास का आरंभ एशिया में हुआ, तथापि उसका विकास यूरोप में विशेष रूप से हुआ।
एशिया में चीनियों, किंतु उनसे भी अधिक इस्लामी लोगों को, जिनको कालक्रम का महत्त्व अच्छे प्रकार ज्ञात था, इतिहासरचना का विशेष श्रेय है। मुसलमानों के आने के पहले हिंदुओं की इतिहास संबंध में अपनी अनोखी धारणा थी। कालक्रम के बदले वे सांस्कृतिक और धार्मिक विकास या ह्रास के युगों के कुछ मूल तत्वों को एकत्र कर और विचारों तथा भावनाओं के प्रवर्तनों और प्रतीकों का सांकेतिक वर्णन करके संतुष्ट हो जाते थे। उनका इतिहास प्राय: काव्यरूप में मिलता है जिसमें सब कच्ची-पक्की सामग्री मिली जुली, उलझी और गुथी पड़ी है। उसके सुलझाने के कुछ-कुछ प्रयत्न होने लगे हैं, किंतु कालक्रम के अभाव में भयंकर कठिनाइयाँ पड़ रही हैं।
वर्तमान सदी में यूरोपीय शिक्षा में दीक्षित हो जाने से ऐतिहासिक अनुसंधान की हिंदुस्तान में उत्तरोत्तर उन्नति होने लगी है। इतिहास की एक नहीं, सहस्रों धाराएँ हैं। स्थूल रूप से उनका प्रयोग राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में अधिक हुआ है। इसके सिवा अब व्यक्तियों में सीमित न रखकर जनता तथा उसके संबंध का ज्ञान प्राप्त करने की ओर अधिक रुचि हो गई है।
भारत में इतिहास के स्रोत हैं: ऋग्वेद और अन्य वेद जैसे यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद ग्रंथ, इतिहास पुराणस्मृति ग्रंथ आदि। इन्हें ऐतिहासिक सामग्री कहते हैं।
पश्चिम में हिरोडोटस को प्रथम इतिहासकार मानते हैं।
इतिहास का क्षेत्र
इतिहास का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। प्रत्येक व्यक्ति, विषय, अन्वेषण आंदोलन आदि का इतिहास होता है, यहाँ तक कि इतिहास का भी इतिहास होता है। अतएव यह कहा जा सकता है कि दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि अन्य दृष्टिकोणों की तरह ऐतिहासिक दृष्टिकोण की अपनी निजी विशेषता है। वह एक विचारशैली है जो प्रारंभिक पुरातन काल से और विशेषत: १७वीं सदी से सभ्य संसार में व्याप्त हो गई। १९वीं सदी से प्राय: प्रत्येक विषय के अध्ययन के लिए उसके विकास का ऐतिहासिक ज्ञान आवश्यक समझा जाता है। इतिहास के अध्ययन से मानव समाज के विविध क्षेत्रों का जो व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है उससे मनुष्य की परिस्थितियों को आँकने, व्यक्तियों के भावों और विचारों तथा जनसमूह की प्रवृत्तियों आदि को समझने के लिए बड़ी सुविधा और अच्छी खासी कसौटी मिल जाती है।
इतिहास प्राय: नगरों, प्रांतों तथा विशेष देशों के या युगों के लिखे जाते हैं। अब इस ओर चेष्ठा और प्रयत्न होने लगे हैं कि यदि संभव हो तो सभ्य संसार ही नहीं, वरन् मनुष्य मात्र के सामूहिक विकास या विनाश का अध्ययन भूगोल के समान किया जाए। इस ध्येय की सिद्ध यद्यपि असंभव नहीं, तथापि बड़ी दुस्तर है। इसके प्राथमिक मानचित्र से यह अनुमान होता है कि विश्व के संतोषजनक इतिहास के लिए बहुत लंबे समय, प्रयास और संगठन की आवश्यकता है। कुछ विद्वानों का मत है कि यदि विश्वइतिहास की तथा मानुषिक प्रवृत्तियों के अध्ययन से कुछ सर्वव्यापी सिद्धांत निकालने की चेष्टा की गई तो इतिहास समाजशास्त्र में बदलकर अपनी वैयक्तिक विशेषता खो बैठेगा। यह भय इतना चिंताजनक नहीं है, क्योंकि समाजशास्त्र के लिए इतिहास की उतनी ही आवश्यकता है जितनी इतिहास को समाजशासत्र की। वस्तुत: इतिहास पर ही समाजशास्त्र की रचना संभव है।
सैन्य इतिहास युद्ध, रणनीतियों, युद्ध, हथियार और युद्ध के मनोविज्ञान से संबंधित है। १९७० के दशक के बाद से "नए सैन्य इतिहास" जो जनशक्ति से अधिक सैनिकों के साथ, एवं रणनीति से अधिक मनोविज्ञान के साथ और समाज और संस्कृति पर युद्ध के व्यापक प्रभाव से संबंधित है।
धर्म का इतिहास
धर्म का इतिहास सदियों से धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक इतिहासकारों दोनों के लिए एक मुख्य विषय रहा है, और सेमिनार और अकादमी में पढ़ाया जा रहा है। अग्रणी पत्रिकाओं में चर्च इतिहास, कैथोलिक हिस्टोरिकल रिव्यू, और धर्म का इतिहास शामिल है। विषय व्यापक रूप से राजनीतिक और सांस्कृतिक और कलात्मक आयामों से लेकर धर्मशास्त्र और मरणोत्तर गित तक फैला हुआ है। यह विषय दुनिया के सभी क्षेत्रों और जगहों में धर्मों का अध्ययन करता है जहां मनुष्य रहते हैं।
सामाजिक इतिहास, जिसे कभी-कभी "नए सामाजिक इतिहास" कहा जाता है, एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सामान्य लोगों के इतिहास और जीवन के साथ सामना करने के लिए उनकी रणनीतियाँ शामिल हैं। अपने "स्वर्ण युग" १९६० और १९७० के दशक में यह विद्वानों के बीच एक प्रमुख विषय था, और अभी भी इतिहास के विभागों में इसकी अच्छी पैठ है। १९७५ से १९९५ तक दो दशकों में, अमेरिकी इतिहास के प्रोफेसरों का अनुपात सामाजिक इतिहास के साथ-साथ ३१% से बढ़कर ४१% हो गया, जबकि राजनीतिक इतिहासकारों का अनुपात ४०% से ३०% तक गिर गया।
१९८० और १९९० के दशक में सांस्कृतिक इतिहास ने सामाजिक इतिहास कि जगह ले ली। यह आम तौर पर नृविज्ञान और इतिहास के दृष्टिकोण को भाषा, लोकप्रिय सांस्कृतिक परंपराओं और ऐतिहासिक अनुभवों की सांस्कृतिक व्याख्याओं को देखने के लिए जोड़ती है। यह पिछले ज्ञान, रीति-रिवाजों और लोगों के समूह के कला के अभिलेखों और वर्णनात्मक विवरणों की जांच करता है। लोगों ने कैसे अतीत की अपनी स्मृति का निर्माण किया है, यह एक प्रमुख विषय है। सांस्कृतिक इतिहास में समाज में कला का अध्ययन भी शामिल है, साथ ही छवियों और मानव दृश्य उत्पादन (प्रतिरूप) का अध्ययन भी है।
राजनयिक इतिहास राष्ट्रों के बीच संबंधों पर केंद्रित है, मुख्यतः कूटनीति और युद्ध के कारणों के बारे में। हाल ही में यह शांति और मानव अधिकारों के कारणों को देखता है। यह आम तौर पर विदेशी कार्यालय के दृष्टिकोण और लंबी अवधि के रणनीतिक मूल्यों को प्रस्तुत करता है, जैसा कि निरंतरता और इतिहास में परिवर्तन की प्रेरणा शक्ति है। इस प्रकार के राजनीतिक इतिहास समय के साथ देशों या राज्य सीमाओं के बीच अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संचालन का अध्ययन है। इतिहासकार म्यूरीयल चेम्बरलेन ने लिखा है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद, "राजनयिक इतिहास ने ऐतिहासिक जांच के प्रमुख के रूप में संवैधानिक इतिहास का स्थान ले लिया, जोकि कभी सबसे ऐतिहासिक, सबसे सटीक और ऐतिहासिक अध्ययनों में सबसे परिष्कृत था"। उन्होंने कहा कि १९४५ के बाद, प्रवृत्ति उलट गई है, अब सामाजिक इतिहास ने इसकी जगह ले ली है।
यद्यपि १९वीं सदी के उत्तरार्ध से ही आर्थिक इतिहास अच्छी तरह से स्थापित है, हाल के वर्षों में शैक्षिक अध्ययन पारंपरिक इतिहास विभागों से स्थानांतरित हो कर अधिक से अधिक अर्थशास्त्र विभागों की तरफ चला गया है। व्यावसायिक इतिहास व्यक्तिगत व्यापार संगठनों, व्यावसायिक तरीकों, सरकारी विनियमन, श्रमिक संबंधों और समाज पर प्रभाव के इतिहास से संबंधित है। इसमें व्यक्तिगत कंपनियों, अधिकारियों और उद्यमियों की जीवनी भी शामिल है यह आर्थिक इतिहास से संबंधित है; व्यावसायिक इतिहास को अक्सर बिजनेस स्कूलों में पढ़ाया जाता है
पर्यावरण का इतिहास एक नया क्षेत्र है जो १९८० के दशक में पर्यावरण के इतिहास विशेष रूप से लंबे समय में और उस पर मानवीय गतिविधियों का प्रभाव को देखने के लिए उभरा।
विश्व इतिहास पिछले ३००० वर्षों के दौरान प्रमुख सभ्यताओं का अध्ययन है। विश्व इतिहास मुख्य रूप से एक अनुसंधान क्षेत्र की बजाय एक शिक्षण क्षेत्र है। इसे १९८० के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और अन्य देशों में लोकप्रियता हासिल हुई थी, जिससे कि छात्रों को बढ़ते हुए वैश्वीकरण के परिवेश में दुनिया के लिए व्यापक ज्ञान की आवश्यकता होगी।
इतिहासकार पिछली घटनाओं की जानकारी एकत्र करते हैं, इकट्ठा करते हैं, व्यवस्थित करते हैं और प्रस्तुत करते हैं। वे इस जानकारी को पुरातात्विक साक्ष्य के माध्यम से खोजते हैं, जो भूतकाल में प्राचीन स्रोतों जैसे पाण्डुलिपि, शिलालेख आदि से लिये गये और लिखे गए होते हैं। जैसे जगह के नाम, उनकी विचारधारा आवास, व्यवस्था, सामाजिक संस्था, सामाजिक उत्थान और भाषा आदि।
इतिहासकारों की सूची में, इतिहासकारों को उस ऐतिहासिक काल के क्रम में समूहीकृत किया जा सकता है, जिसमें वे लिख रहे थे, जो जरूरी नहीं कि वह अवधि, जिस अवधि में वे विशेषीकृत थे या निपुण थे क्रॉनिकल्स और एनलिस्ट, हालांकि वे सही अर्थों में इतिहासकार नहीं हैं, उन्हें भी अक्सर शामिल किया जाता है।
छद्मइतिहास उन लेखों/रचनाओं के लिये प्रयुक्त किया जाता है जिनकी सामग्री की प्रकृति 'इतिहास जैसी' होती है किन्तु वे इतिहास-लेखन की मानक विधियों से मेल नहीं खाती। इसलिये उनके द्वारा दिये गये निष्कर्ष भ्रामक एवं अविश्वसनीय बन जाते हैं। प्राय: राष्ट्रीय, राजनैतिक, सैनिक, एवं धार्मिक विषयों के सम्बन्ध में नये एवं विवादित और काल्पनिक तथ्यों पर आधारित इतिहास को छद्मइतिहास की श्रेणी में रखा जाता है।
मानव सभ्यता का इतिहास वस्तुत: मानव के विकास का इतिहास है, पर यह प्रश्न सदा विवादग्रस्त रहा है कि आदि मनव और उसकी सभ्यता का विकास कब और कहाँ हुआ। इतिहास के इसी अध्ययन को प्रागैतिहास कहते हैं। यानि इतिहास से पूर्व का इतिहास। प्रागैतिहासिक काल की मानव सभ्यता को ४ भागों में बाँटा गया है।
आदिम पाषाण काल
पूर्व पाषाण काल
उत्तर पाषाण काल
असभ्यता से अर्धसभ्यता, तथा अर्धसभ्यता से सभ्यता के प्रथम सोपान तक हज़ारों सालों की दूरी तय की गई होगी। लेकिन विश्व में किस समय किस तरह से ये सभ्यताएँ विकसित हुईं इसकी कोई जानकारी आज नहीं मिलती है। हाँ इतना अवश्य मालूम हो सका है कि प्राचीन विश्व की सभी सभ्यताएँ नदियों की घाटियों में ही उदित हुईं और फली फूलीं। दजला-फ़रात की घाटी में सुमेर सभ्यता, बाबिली सभ्यता, तथा असीरियन सभ्यता, नील की घाटी में प्राचीन मिस्र की सभ्यता तथा सिंधु की घाटी में सिंधु घाटी सभ्यता का विकास हुआ।
इन्हें भी देखें
इतिहास लेखन (हिस्टोग्राफी)
भारत का इतिहास
इतिहास के इतिहास की भारतीय दृष्टि (हृदयनारायन दीक्षित)
इतिहास दर्शन (गूगल पुस्तक ; लेखक - परमानन्द सिंह)
इतिहास की जरूरत किसे है? (वेबदुनिया)
जो इतिहास में नहीं है (गूगल पुस्तक ; लेखक - राकेश कुमार सिंह, भारतीय ज्ञानपीठ)
इतिहास शब्द-संग्रह (हिन्दी-विकिकोश)
इतिहास परिभाषा कोश (हिन्दी-विकिकोश) |
मनोवैज्ञानिक ज्ञान मानव क्रिया (हमन एक्टिविटी) के भिन्न क्षेत्रों पर लागू होता है, जिसमें दैनिक जीवन के मुद्दे शामिल हैं और -; जैसे परिवार, शिक्षा (एडउकेशन) और रोजगार और - और मानसिक स्वास्थ्य (ट्रेटमंट) समस्याओं का उपचार (मेंटल हेल्थ). मनोविज्ञानवेत्ता व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार में मानसिक कार्य की भूमिका को समझने का प्रयास करते हैं, जबकि इसके तहत आने वाले शरीर कार्यिकी (फिजियोलॉजिकल) तथा तंत्रिका (न्युरोलॉजिकल) प्रक्रियाओं पर भी कार्य करते हैं। मनोविज्ञान में अध्ययन और अनुप्रयोग के कई उपक्षेत्र भी शामिल हैं जैसे मानव विकास (हमन डेवलमेंट), खेल (स्पोर्ट्स), स्वास्थ्य (हेल्थ), उद्योग (इंडस्ट्री), मीडिया (मीडिया) और कानून (लॉ).मनोविज्ञान में प्राकृतिक विज्ञान (नेचुरल साइंसेस), सामाजिक विज्ञान और मानविकी (हमनिटीज) के अनुसंधान भी शामिल हैं। हजककसक सोसकन्सकज़ बस स्वउ८ए दीदी डॉ स९ स
दार्शनिक और वैज्ञानिक जड़ें
दार्शनिक संदर्भ में मनोविज्ञान का अध्ययन मिस्र, ग्रीस (ग्रीस), चीन और भारत की प्राचीन सभ्यताओं से सन्दर्भ रखता है। मनोविज्ञान ने मध्यकाल में अधिक नैदानिक (क्लिनिकल) और प्रयोगात्मक (एक्सपेरिमेंटल) दृष्टिकोण अपना लिया जब मुस्लिम मनोवैज्ञानिकों (मुस्लिम साइकोलॉजिस्ट) और चिकित्सकों (फिजिशियन्स) ने ऐसे उद्देश्यों के लिए मनोरोग अस्पताल (साइकाइत्रिक हॉस्पिटल) बनाने शुरू कर दिए।
१८०२ में, फ्रांसीसी मनोविज्ञानी पियरे कबानीज (पिएरे केबनिस) ने अपने निबंध रेपर्ट्स ड्यू फिजिक एट ड्यू मोरल डी आई 'होम (बायोलॉजिकल साइकोलॉजी) के द्वारा जैव मनो विज्ञान को आगे बढ़ाने की कोशिश की (मानव के शारीरिक और नैतिक पहलुओं के बीच संबंधों पर).
कबानीज ने जीव विज्ञान के पूर्व अध्ययन के प्रकाश में मस्तिष्क के बारे में व्याख्या की और तर्क दिया कि संवेदनशीलता (सेन्सिबिलिटी) और आत्मा (सोल), तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) के गुण हैं।
हालाँकि मनोवैज्ञानिक प्रयोगों (एक्सपेरिमेंट) का उपयोग अल्हाजन (अल्हाजेन'स) की प्रकाशिकी की पुस्तक (बुक ऑफ ऑप्टिक्स) से १०२१ में शुरू हुआ, फिर भी एक स्वतंत्र प्रायोगिक क्षेत्र के रूप में मनोविज्ञान का अध्ययन १८७९ में शुरू हुआ, जब विल्हेम वुन्द्त (विल्हेम वूंड) ने जर्मनी में लीपजीज विश्वविद्यालय (लीप्ज़िग यूनिवर्सिटी) में विशेष रूप से मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के लिए एक पहली प्रयोगशाला बनायी, जिसके लिए वुन्द्त "मनोविज्ञान के जनक " के रूप में जाने जाते हैं। इसी लिए १८७९ को कभी कभी मनोविज्ञान की "जन्म तिथि" कहा जाता है। अमेरिकी दार्शनिक विलियम जेम्स (विलियम जेम्स) ने १८९० में अपनी मौलिक पुस्तक मनोविज्ञान के सिद्धांत (प्रिंसिपल्स ऑफ साइकोलॉजी) में कई ऐसे प्रश्नों की नीव रखी जिन पर आने वाले कई वर्षों में मनो वैज्ञानिकों (साइकोलॉजिस्ट) ने अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस क्षेत्र में अन्य महत्वपूर्ण प्रारंभिक योगदानकर्ता हैं हरमन एब्बिनघस (हर्मान एब्बिनहौस) (१८५०-१९०९), जो बर्लिन विश्वविद्यालय (मेमोरी) में स्मृति (यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन) पर अध्ययन करने में अग्रणी रहे हैं; और रुसी मनो विज्ञानी (फिजियोलॉजिस्ट) इवान पावलोव (इवान पावलव) (१८४९-१९३६) जिन्होंने सीखने की प्रक्रिया (ल्र्निंग) की खोज की जो आज क्लासिकल कंडिशनिंग (क्लासिकल कोंडिशऑनिंग) के नाम से जाना जाता है।
१८९० से लेकर १९३९ में उनकी मृत्यु तक, ऑस्ट्रिया के चिकत्सक सिगमंड फ्रुड ने मनश्चिकित्सा (साइकोथेरेपी) की एक विधि का विकास किया जिसे मनोविश्लेषण (साइकोनालेसिस) के नाम से जाना जाता है। मस्तिष्क के बारे में फ्राइड की समझ बड़े पैमाने पर व्यख्यानात्मक विधियों, आत्मनिरीक्षण (इंट्रोस्पेक्शन) और नैदानिक टिप्पणियों पर आधारित थी और इसने विशेष रूप से अचेत संघर्ष, मानसिक तनाव और मनो रोग विज्ञान (साइकोपेथोलॉजी) पर ध्यान केन्द्रित किया। फ्रुड के सिद्धांत बहुत ही लोकप्रिय हो गए क्योंकि इन्होने कई विषयों जैसे कामुकता (सेक्स्वालिटी), दमन (रिप्रशन) और अचेत मस्तिष्क (उनकॉन्स्शियस माइंड) को मनो वैज्ञानिक विकास के सामान्य पहलुओं के रूप में नियंत्रित किया। इन्हें उस समय बड़े पैमाने पर पाबन्द (ताबू) विषय माना जाता था और फ्रुड ने सभी समाज में इस पर खुले तौर पर चर्चा करने के लिए इनके लिए एक उत्प्रेरक उपलब्ध कराया. हालाँकि फ्रुड को संभवतः उसके मस्तिष्क के त्रिपक्षीय मॉडल के लिए जाना जाता था, जिसमें आई डी (ईद), अहंकार (एगो) और अति अंहकार (सुपरेगो) और इडिपस जटिल (ओएडीपू कॉम्प्लेक्स) के बारे में उनके सिद्धांत शामिल हैं, उनकी सबसे स्थायी विरासत शायद उनके सिद्धांत नहीं हैं बल्कि उनके नैदानिक नवाचार हैं, जैसे मुक्त संघ (फ़्री एसोसिएशन) की विधि और क्लिनिकल इनट्रस्ट इन ड्रीम्स.
फ्रुड ने एक स्विस मनोवैज्ञानिक कार्ल जंग (कार्ल जंग) पर गहरा प्रभाव डाला, जिसका विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान (अनालेटिकल साइकोलॉजी) गहरे मनो विज्ञान (डिप्त साइकोलॉजी) के लिए एक विकल्पी विधि बन गया। मध्य बीसवीं सदी के अन्य प्रसिद्द मनो विश्लेषक विचारक जिसमें सिगमंड फ्रुड की बेटी मनोविश्लेषक ऐना फ्रुड (अन्ना फ़्रुड); जर्मन अमेरिकी मनो विज्ञानी एरिक एरिक्सन (एरिक एरिक्सन), ऑस्ट्रियाई-ब्रिटिश मनोविश्लेषक मेलानीक्लेन (मिलेनिए क्लें), अंग्रेजी मनोवैज्ञानिक और चिकित्सकडोनाल्ड विन्नीकोट (ड. व. विनीकॉट), जर्मन मनोचिकित्सक करेन होर्नी (करें हॉर्नी), जर्मन में जन्मे शामिल मनोवैज्ञानिक और दार्शनिकएरिच फ्रॉम (एरीच फ्रम) और अंग्रेजी मनोचिकित्सक जॉन बोल्बी (जॉन बॉल्बी) शामिल हैं। समकालीन मनोविश्लेषण में विचारों के कई विद्यालय शामिल हैं इनके विषय हैं अहंकार मनोविज्ञान (एगो साइकोलॉजी), उद्देश्य संबंधों (ऑब्जेक्ट रिलेएशन्स), पारस्परिक (इन्टरपर्सनल), लेकेनियन (लाकेनियन) और संबंधपरक मनोविश्लेषण (रिलेएनल साइकोनालेसिस) जंग के सिद्धांतों के संशोधन ने मनोवैज्ञानिक विचारों के आद्य रूप (आर्केतयपाल) तथा प्रक्रिया उन्मुख (प्रोसेस-ओरिएंटेड) स्कूलों का नेतृत्व किया।
ऑस्ट्रियाई-ब्रिटिश दार्शनिक कार्ल पोप्पर (कार्ल पॉपर) ने तर्क दिया कि फ्रुद के मनो विश्लेषक सिद्धांत जांच के अयोग्य (यून्टेस्टेबल) रूप में पेश किये गए। अमेरिकी विश्विद्यालय में मनोविज्ञान के विभाग आज वैज्ञानिक उन्मुख (साइंटिफिकैली ओरिएंटेड) हैं और फ्रुड का सिद्धांत हाशिये पर रख दिया गया है, इसे एक हाल ही के ऐ पी ऐ (आपा) अध्ययन के अनुसार एक "डेसीकेटेड और मृत" ऐतिहासिक तथ्य मन जा रहा है। हाल ही में, तथापि, दक्षिण अफ्रीकी तंत्रिका विज्ञानी मार्क सोल्म्स (मार्क सोम) और तंत्रिका मनो विश्लेषण (न्युरो-साइकोनालेसिस) के विकसित होते हुए क्षेत्र में अन्य अनुसन्धानकर्ताओं का तर्क है कि फ्रुड के सिद्धांत, फ्रुड की अवधारणा से सम्बंधित मस्तिष्क की संरंचनाओं की और इशारा करते हैं, जैसे लिबिडो (लिबिडो), ड्राइव्स (ड्राइव), अचेत (उनकॉन्स्शियस) और दमन (रिप्रशन).
व्यावहारिकता का आंशिक विकास प्रयोगशाला पर आधारित जंतु प्रयोगों की लोकप्रियता के कारण हुआ और आंशिक विकास फ्रुड की मनो गतिकी (साइछोडाइनामिक) की प्रतिक्रिया में हुआ, जिसका मूल रूप से (एम्पिरिकेली) परिक्षण करना मुश्किल था क्योंकि, अन्य कारणों के बीच, यह मामलों के अध्ययन और नैदानिक अनुभवों पर भरोसा करने की प्रवृति रखता था और बड़े पैमाने पर अन्तर-मनो घटना से क्रिया करता था, जिसकी मात्रात्मक गणना करना या उसे घटनात्मक रूप (डेफिन ओपरेशनली) से परिभाषित करना मुश्किल काम था। इसके अलावा, प्रारंभी मनोविज्ञानी विल्हेम वुन्द्त और विलियम जेम्स के विपरीत, जिन्होंने आत्मनिरीक्षण (इंट्रोस्पेक्शन) के माध्यम से मस्तिष्क का अध्ययन किया, व्यवहार विज्ञानियों का तर्क था कि मस्तिष्क के अवयव वैज्ञानिक जाँच के लिए खुले नहीं थे और वैज्ञानिक मनोविज्ञान को केवल प्रेक्षणीय व्यवहार से सन्दर्भ रखना चाहिए। आंतरिक प्रधिनिधित्व या मस्तिष्क के बारे में कोई विचार नहीं किया गया। व्यावहारिकता की शुरुआत २० वीं सदी में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक जॉन बी वाटसन (जॉन ब. वॉटसन) के द्वारा की गयी, इसका विस्तार अमेरिकियों एडवर्ड थोर्नडीके (एडवर्ड थोरंडीके), क्लार्क एल हुल (क्लार्क ल. हुल), एडवर्ड सी. टोलमन (एडवर्ड च. टोलमैन) और बाद में बी एफ स्किनर (ब.फ. स्किनर) के द्वारा किया गया।
व्यावहारिकता अन्य दृष्टिकोणों से कई प्रकार से विभिन्न है। व्यवहार विज्ञानी व्यवहार-पर्यावरण संबंधों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और खुले और निजी व्यवहार को एक जीव के कार्य के रूप में विश्लेषित करते हैं, जो अपने वातावरण के साथ अंतर क्रिया करता है। व्यवहार विज्ञानी, निजी घटनाओं के अध्ययन को अस्वीकृत नहीं करते हैं, (उदाहरण स्वप्न), लेकिन इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देते हैं कि जीव के भीतर एक स्वायत्त संस्था खुले (उदाहरण चलना और बोलना) और निजी व्यवहार (उदाहरण सपने देखना और कल्पना करना) का कारण है।"मस्तिष्क" और "सचेतता" जैसी अव्धार्नाओं को व्यवहार विज्ञानियों के द्वारा प्रयुक्त नहीं किया जाता है, क्योंकि ऐसे शब्द वास्तविक मनो वैज्ञानिक घटनाओं का वर्णन नहीं करते हैं, (जैसे कि कल्पना) लेकिन ये जीव में कहीं पर छुपे हुए स्पष्टीकारक संस्थाओं के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। इसके विपरीत, व्यावहारिकता निजी घटनाओं को व्यवहार मानता है और उन्हें खुले व्यवहार के तरीके से ही विश्लेषित करता है। व्यवहार का उपयोग जीव की ठोस घटनाओं, खुली या निजी के लिए किया जाता है।
अमेरिकी भाषाविद् नोअम चोमस्की के भाषा अधिग्रहण (लैंग्वेज अऐक्विजिशन) के व्यावहारिक मोडल की आलोचना को कई लोगों के द्वारा व्यावहारिकता की सामान्य प्रसिद्धि में कमी में एक मुख्य बिंदु माना जाता है। लेकिन स्किनर की व्यावहारिकता शायद आंशिक रूप से अभी ख़त्म नहीं हुई है, क्योंकि इसने सफल प्रायोगिक अनुप्रयोगों का विकास किया है। मनोविज्ञान के एक व्यापक माडल के रूप में व्यावहारिकता के आरोहण ने, हालाँकि, अगले प्रभावी उदाहरण, संज्ञानात्मक दृष्टिकोण को रास्ता दिया है।
मानवता और अस्तित्ववाद
मानवता मनोविज्ञान (हमनिस्टिक साइकोलॉजी) का विकास १९५० में, व्यावहारिकता और मनो विश्लेषण दोनों की प्रतिक्रिया में हुआ। घटना विज्ञान (फेनोमिनोलॉजी), अंतर विषयता (इंटरसब्जेक्टिविटी) और पहले व्यक्ति की श्रेणी का उपयोग करते हुए, मानवता दृष्टिकोण, पूरे व्यक्ति की झलक देता है-नकि केवल व्यक्तित्व या संज्ञानात्मक कार्य के कुछ खंडों की झलक. मानवतावाद अद्वितीय मानव मुद्दों और जीवन के मूल मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करता है, जैसे अपनी पहचान, मृत्यु, अकेलापन, स्वतंत्रता और अर्थ.ऐसे कई कारक हैं जो मानवीय दृष्टिकोण को मनो विज्ञान के अन्य दृष्टिकोणों से विभेदित करते हैं। इनमें शामिल हैं विषयात्मक अर्थ पर जोर, नियतत्ववाद की अस्वीकृति और रोगविज्ञान के बजाय सकारात्मक विकास के लिए सन्दर्भ.विचारों के इस स्कूल के पीछे कुछ कुछ संस्थापक सिद्धांत वादी अमेरिकी मनो विज्ञानी थे अब्राहम मसलो (अब्राहम मस्लो), जिन्होंने मानव आवश्यकताओं का पदानुक्रम (हिएरार्चय ऑफ हमन नीड्स) बनाया और कार्ल रोजर्स (कार्ल रॉजर्स) जिन्होंने ग्राहक- केन्द्रित चिकित्सा (क्लाइंट-सेन्टर्ड थेरेपी) का निर्माण और विकास किया; और जर्मन-अमेरिकी मनो चिकित्सक फ्रिट्ज पर्ल्स (फ्रिट्ज़ पर्ल्स) जिन्होंने गेसटाल्ट चिकित्सा (गेस्टल्ट थेरेपी) के निर्माण और विकास में योगदान दिया। यह इतना प्रभावी बन गया की मनोविज्ञान, व्यावहारिकता और मनोविश्लेषण में "तीसरा बल" कहा जाने लगा।
जर्मन दार्शनिक मार्टिन हिदेगर (मार्टिन हेइडगेर) और डैनीश दार्शनिकसोरेन कीरकेगार्ड (स्रेन किर्केगार्ड) के कार्य से प्रभावित होकर मनोविश्लेषक दृष्टि से प्रशिक्षित अमेरिकी मनो वैज्ञानिक रोलो मे (रोलो मई) ने १९५० और १९६० के बीच मनोविज्ञान की एक अस्तित्व (एक्सिस्टेन्शियल) प्रजाति का विकास किया। अस्तित्व मनोवैज्ञानिकों ने तर्क दिया की लोगों को अपनी मरण शीलता को स्वीकार करना चाहिए। और ऐसा करने में लोगों को यह स्वीकार करना चाहिए कि वे मुक्त हैं; वे मुक्त इच्छा रखते हैं, वे उम्मीदें करने के लिए स्वतंत्र हैं और अपने जीवन के दौरान उनके अपने अर्थ पूर्ण (मिनिंगफूल) पथ की उपेक्षा कर सकते हैं। में का कि अर्थ निर्माण करने वाली प्रक्रिया का एक मुख्य तत्व, है, मिथक (मिथ) की खोज, या कथात्मक प्रतिरूप जिनमें कोई व्यक्ति फिट हो सकता है।
अस्तित्व के दृष्टिकोण से, न केवल मरण शीलता की स्वीकृति से उत्पन्न अर्थ के लिए प्रश्न किये जाते हैं बल्कि अर्थ की प्राप्ति मृत्यु की सम्भावना को ढक सकती है। ऑस्ट्रिया के एक अस्तित्व मनोचिकित्सक और पूर्ण आहुति उत्तरजीवी विक्टर फ्रेंकल (विक्तोर फ्रेंक्ल) ने देखा, "हम जो एकाग्रता शिविरों (कन्सेंट्रेशन कैंप्स) में रहते थे, उन व्यक्तियों को याद रख सकते हैं जो दूसरों को आराम देते हुए झोपडियों में होकर जाते हैं, अपना रोटी का आखिरी टुकडा भी दूसरों को दे देते हैं। ये संख्या में बहुत कम हो सकते हैं, लेकिन वे इस बात का पर्याप्त प्रमाण देते हैं कि, एक व्यक्ति से सब कुछ वापिस लिया जा सकता है, लेकिन एक चीज: मानव की आखिरी स्वतंत्रता; परिस्थितियों के किसी भी दिए गए समुच्चय में किसी के रवैये का चयन, किसी के अपने रास्ते का चयन.
मे ने अस्तित्व चिकित्सा (एक्सिस्टेन्शियल थेरेपी) के विकास में अग्रणी होने में सहायता की और फ्रेंकल ने इसकी कई किस्मों का विकास किया जो लोगो थेरेपी (लोगोथेरेपी) कहलाती हैं। मे और फ्रेंकल के अलावा, स्विस मनोविश्लेषक लुडविग बिन्सवेंगर (लुडविग बिन्सवांगर) और अमेरिकी मनो चिकित्सक जॉर्ज केली (जॉर्ज केली) को अस्तित्व स्कूल से सम्बंधित कहा जा सकता है। अस्तित्व और मानवता वादी दोनों प्रकार के मनो विज्ञानी तर्क देते हैं कि, लोगों को अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुँचने के लिए भरपूर कोशिश करनी चाहिए, लेकिन केवल मानवतावादी मनोविज्ञानी विश्वास करते हैं कि, यह प्रयास सहज है। अस्तित्व मनोवैज्ञानिकों के लिए, यह प्रयास एक चिंताजनक मरणशीलता, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व का कारण होता है।
व्यावहारिकता, २० वीं शताब्दी के पहले आधे भाग में अमेरिकी मनोविज्ञान में प्रभावी प्रतिमान था। हालाँकि, मनोविज्ञान का आधुनिक क्षेत्र मुख्यतः संज्ञानात्मक मनोविज्ञान (कोग्नीटिव साइकोलॉजी) से प्रभावित रहा। नोअम चोमस्की ने १९५९ में बी॰ ऍफ़॰ स्किनर के मौखिक व्यवहार की समीक्षा की, जिसने उस समय प्रभावी भाषा और व्यवहार के अध्ययन के व्यावहारिक दृष्टिकोण को चुनौती दी और मनोविज्ञान में संज्ञानात्मक क्रांति (कोग्नीटिव रिवॉल्यूशन) में योगदान दिया। चोमस्की 'उत्तेजना', 'प्रतिक्रिया' और ' सुदृढीकरण' के मनमाने विचारों के बारे में जटिलता से सोचते थे, ये विचार स्किनर ने प्रयोगशाला में जंतु प्रयोगों के द्वारा प्राप्त किये। चोमस्की का तर्क था कि स्किनर के विचार केवल जटिल मानव व्यवहार जैसे भाषा अधिग्रहण पर एक अस्पष्ट और सतही तरीके से लागू किये जा सकते हैं। चोमस्की ने इस बात पर जोर दिया कि अनुसंधान और विश्लेषण के दौरान, भाषा के अधिग्रहण में एक बच्चे के योगदान की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और प्रस्तावित किया कि मानव भाषा के अधिग्रहण (अऐकूरे लैंग्वेज) की प्राकृतिक क्षमता के साथ पैदा हुए हैं। मनो विज्ञानी अल्बर्ट बन्दुरा (अल्बर्ट बन्दुरा) से सम्बंधित अधिकंश कार्य, जिन्होंने सामाजिक शिक्षा सिद्धांत (सोशियल ल्र्निंग थ्योरी) की शुरुआत की और इसका अध्ययन किया, ने दर्शाया कि बच्चे अवलोकन अधिगम (ऑबजर्वेशनल ल्र्निंग) के माध्यम से अपने रोल मॉडल से उग्रता सीख सकते हैं, इसके दौरान उनके खुले व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता और इसे उप आंतरिक प्रक्रिया माना जा सकता है।
कंप्यूटर विज्ञान और कृत्रिम बुद्धि के विकास के साथ, मानव के द्वारा सूचना संसाधन (इंफोरमेशन प्रोसेसिंग) और मशीनों के द्वारा सूचना संसाधन के बीच समरूपता को चित्रित किया गया। यह, इस अनुमान के साथ संयोजित हो गया कि मानसिक अभिव्यक्ति उपस्थित होती है और ये मानसिक स्थितियाँ और क्रियाएँ, प्रयोगशाला में वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा निष्कर्षित की जा सकती हैं। जिसने मस्तिष्क के एक लोकप्रिय मोडल के रूप में संज्ञानात्मक (कोग्नीतिविस्म) को जन्म दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के से लेकर हथियारों की क्रिया के बारे में एक बेहतर समझ विकसित करने के लिए संज्ञानात्मक मनोविज्ञान अनुसंधान किया गया।
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान अन्य मनोविज्ञानिक परिप्रेक्ष्यों से दो मुख्य तरीकों से अलग है। पहला, यह वैज्ञानिक विधि के उपयोग को स्वीकार करता है और प्रतीकों का उपयोग करने वाले दृष्टिकोण जैसे फ्रुद की मनो गतिकी के विपरीत सामान्यतः आत्मनिरीक्षण को खोज की एक विधि के रूप में अस्वीकृत करता है। दूसरा, यह स्पष्ट रूप से आंतरिक मानसिक स्थिति के अस्तित्व को स्वीकार करता है और -जैसे विश्वास, इच्छा और प्रेरणा और - जबकि व्यावहारिकता ऐसा नहीं करती है। हालाँकि, फ्रुड और गहरे मनोविज्ञानियों की तरह संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक दमन (रिप्रशन) सहित अचेत प्रक्रिया में रूचि लेते हैं, लेकिन उन्हें प्रचालन-परिभाषित (ओपरेशनली-डेफिन्ड) घटकों के शब्दों में स्पष्ट करना पसंद करते हैं, जैसे कि अचेतन प्रसंस्करण (सुबलिमिनल प्रोसेसिंग) और अंतर्निहित स्मृति (इम्प्लिसिट मेमोरी) जो प्रयोगात्मक जाँच के लिए उत्तरदायी होते हैं। फिर भी संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों ने इन घटकों के अस्तित्व पर कई सवाल उठाये हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिकन मनोवैज्ञानिक एलिजाबेथ लोफ्ट्स (एलिज़ाबेथ लॉफ्टस) ने उन तरीकों के प्रदर्शन के लिए मूल विधियों का उपयोग किया है जिनमें प्रकट होने वाली यादों को दमन के उन्मूलन के बजाय छलरचना (फब्रिकेशन) के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है।
संज्ञानात्मक क्रांति में आगे बढ़ते हुए, कई दशकों के दौरान, हरमन एब्बिनघास स्मृति के प्रायोगिक अध्ययन में अग्रणी रहे हैं, वे तर्क देते हैं की उच्चतर मानसिक प्रक्रियाएं, दृश्य से छुपी हुई नहीं है, लेकिन इसके बजाय प्रयोगों का उपयोग करते हुए उनका अध्ययन किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक गतिविधि और मस्तिष्क (ब्रेन) और तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) के कार्यों के बीच की कड़ियों को समझा गया, ऐसा आंशिक रूप से कुछ लोगों के प्रायोगिक कार्य के कारण हुआ जैसे अंग्रेजी मनो वैज्ञानिक औचार्ल्स शेरिंगटन (चार्ल्स शेरिंगटन) और कनाडा के मनो चिकत्सक डोनाल्ड ओल्डिंग हेब्ब (डोनाल्ड हेब) तथा आंशिक रूप से मस्तिष्क क्षति (ब्रेन इंजरी) से युक्त लोगों के अध्ययन से हुआ। ये मस्तिष्क-शरीर (माइंड-बॉडी) कडियाँ संज्ञानात्मक तंत्रिका मनो विज्ञानियों (कोग्नीटिव न्युरोसायकोलॉजिस्ट) के द्वारा लम्बाई में स्पष्ट की गयीं। मस्तिष्क के कार्यों के मापन के लिए तकनीकों के विकास के साथ, तंत्रिका मनो विज्ञान (न्युरोसायकोलॉजी) और संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान (कोग्नीटिव न्यूरोसाइंस) समकालीन मनोविज्ञान के तेजी से बढ़ते हुए सक्रिय क्षेत्र बन गए हैं। संज्ञानात्मक मनोविज्ञान को अन्य विषयों के साथ शामिल किया गया है जैसे मन के दर्शन (फिलोसफी ऑफ माइंड), कंप्यूटर विज्ञान (कंप्यूटर साइंस) और संज्ञानात्मक विज्ञान (कोग्नीटिव साइंस) के अनुशासन के अधीन तंत्रिका विज्ञान (न्यूरोसाइंस)।
विचारों का विद्यालय
विचारों के कई स्कूलों का तर्क है कि एक मार्गदर्शन सिद्धांत के रूप में एक विशेष मॉडल का उपयोग किया जाता है, जिसके द्वारा सभी या अधिकांश मानव व्यवहार को स्पष्ट किया जा सकता है। इनकी लोकप्रियता समय के साथ बढती घटती रही है। कुछ मनो वैज्ञानिक (साइकोलॉजिस्ट) अपने आप को विचारों के विशेष स्कूल से जोड़ते हैं जबकि अन्य स्कूलों को अस्वीकृत करते हैं, हालाँकि अधिकांशतः प्रत्येक को मस्तिष्क की समझ के लिए एक दृष्टिकोण मानते हैं और जरुरी रूप से परस्पर अनन्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं।तिनबर्जन के चार सवालों (टिनबर्जन'स फोर क्वेस्ट्न्स) के आधार पर मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के सभी क्षेत्रों के रूपरेखा सन्दर्भ स्थापित किये जा सकते हैं। (जिसमें एन्थ्रोपोलोजी अनुसंधान और मानविकी शामिल है)
आधुनिक समय में, मनोविज्ञान ने सचेतता, व्यवहार और सामाजिक अंतर्क्रिया की समझ की दिशा में एक एकीकृत दृष्टिकोण को अपनाया है। इस परिप्रेक्ष्य को सामान्यतः जैव मनो सामाजिक (बायोसाइकोसोशियल) दृष्टिकोण कहा जाता है। जैव मनो सामाजिक मॉडल का मूल सिद्धांत यह है कि कोई भी दिया गया सिद्धांत या मानसिक प्रक्रिया प्रभाव डालती है और गतिक रूप से अंतर सम्बंधित जैविक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारकों को प्रभावित करती है।
मनोवैज्ञानिक पहलू एक भूमिका से सन्दर्भ रखता है जो अनुभूति और भावना एक दी गयी मनोवैज्ञानिक घटना में निभाते हैं; उदाहरण के लिए मूड का प्रभाव या एक घटना के लिए एक व्यक्ति से उम्मीदें या विशवास।जैविक पहलू, मनोवैज्ञानिक घटना में जैविक कारकों की भूमिका से सबंध रखता है और -; उदाहरण के लिए जन्म के पूर्व के वातावरण का मस्तिष्क विकास और संज्ञानात्मक क्षमताओं पर प्रभाव, या व्यक्तिगत स्वभाव पर जीनों का प्रभाव। सामाजिक, सांस्कृतिक पहलू उस भूमिका से सन्दर्भ रखता है जो सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण एकदी गयी मनोवैज्ञानिक घटना में निभाते हैं; उदाहरण के लिए एक व्यक्ति के लक्षणों में अभिभावकों या सहकर्मियों का प्रभाव।
मनोविज्ञान, एक विशाल डोमेन से बना है और इसमें मानसिक प्रक्रिया और व्यवहार के अध्ययन के कई विभिन्न दृष्टिकोण शामिल हैं। नीचे पूछताछ के कई क्षेत्र दिए गए हैं जो मनोविज्ञान से युक्त हैं। मनोविज्ञान में क्षेत्रों और उपक्षेत्रों की एक व्यापक सूची को मनोविज्ञान विषयों की सूची (लिस्ट ऑफ साइकोलॉजी टॉपिक) पर और मनो विज्ञान अनुशासनों की सूची (लिस्ट ऑफ साइकोलॉजी डिस्चीपलाइनस) पर पाया जा सकता है।
असामान्य मनोविज्ञान (एबनॉर्मल साइकोलॉजी) असामान्य व्यवहार (एबनॉर्मल बेहेवियर) का अध्ययन है जिसमें क्रिया के असामान्य प्रतिरूप का वर्णन, अनुमान, स्पष्टीकरण और परिवर्तन किया जाता है। असामान्य मनोविज्ञान मनो रोग विज्ञान (साइकोपेथोलॉजी) और इसके कारणों की प्रकृति का अधययन करता है और इस ज्ञान को मनोवैज्ञानिक विकृतियों से युक्त रोगियों के उपचार के लिए नैदानिक मनोविज्ञान (क्लिनिकल साइकोलॉजी) में लागू किया जाता है।
सामान्य और असामान्य व्यवहार की बीच एक रेखा खींचना मुश्किल हो सकता है। सामान्यतयः, असामान्य व्यवहार अन अनुकूलित होना चाहिए और यह एक व्यक्तिगत महत्वपूर्ण परेशानी का कारण होता है ताकि नैदानिक और अनुसंधान प्रक्रिया को लागू किया जा सके। डीएसएम-आईवी-टीआर के अनुसार व्यवहार को असामान्य माना जा सकता है यदि वे विकलांगता, व्यक्तिगत परेशानी, सामाजिक मानदंडों के उल्लंघन या गलत क्रियाओं से सम्बंधित हो।
जैविक मनोविज्ञान व्यवहार और मानसिक अवस्थाओं के जैविक सब्सट्रेट्स का वैज्ञानिक अध्ययन है। हर व्यवहार को तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) से सम्बंधित मानते हुए, जैविक मनो विज्ञानी महसूस करते हैं कि व्यवहार को समझने के लिए मस्तिष्क (ब्रेन) की कार्य प्रणाली का अध्ययन समझदारी भरा है। यह वह दृष्टिकोण है जो व्यवहार तंत्रिका विज्ञान (बेहेविओरल न्यूरोसाइंस), संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान (कोग्नीटिव न्यूरोसाइंस) और तंत्रिका मनो विज्ञान (न्युरोसायकोलॉजी) में प्रयुक्त किया जाता है। तंत्रिका मनो विज्ञान,मनो विज्ञान की एक शाखा है जो इस बात को समझने में मदद करती है कि मस्तिष्क की संरंचना और कार्य किस प्रकार से विशेष व्यवहारिक और मनो वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से सम्बंधित हैं। तंत्रिका मनो विज्ञान विशेष रूप से मस्तिष्क की क्षति को समझने से सम्बंधित है, ताकि सामान्य मनो वैज्ञानिक कार्यों को बनाये रखने के लिए प्रयास किया जा सके। मस्तिष्क और व्यवहार के बीच सम्बन्ध के अध्ययन के लिए संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान का दृष्टिकोण तंत्रिका इमेजिंग उपकरणों का उपयोग करता है, ताकि यह प्रेक्षण किया जा सके कि मस्तिष्क के कौन से क्षेत्र एक विशेष क्रिया के दौरान सक्रिय हैं।
एक व्यापक स्तर पर, संज्ञानात्मक विज्ञान (कोग्नीटिव साइंस) संज्ञानात्मक मनोविज्ञानियों, तंत्रिका जैव विज्ञानियों (न्युरोबायोलोजिस्ट), तथा कृत्रिम बुद्धि, तर्कविदों (लॉजिसियन्स), भाषाविदों और सामाजिक विज्ञानियों के अनुसंधानकर्ताओं का संयुक्त उद्यम है और यह कम्प्यूटेशनल सिद्धांत व औपचारिकीकरण पर अधिक जोर डालता है। दोनों ही क्षेत्र कम्प्यूटेशनल मॉडल (कंप्यूटइय्नल मॉडल) का उपयोग रूची की घटना का अनुकरण करने के लिए करते हैं। क्योंकि मानसिक घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से प्रेक्षित नहीं किया जा सकता है, कम्प्यूटेशनल मॉडल मस्तिष्क के कार्यात्मक संगठन का अध्ययन करने के लिए एक औजार का उपयोग करते हैं। इस तरह के मॉडल संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों को एक ऐसा तरीका बताते हैं कि जिससे वे हार्डवेयर से स्वतंत्र रहकर मानसिक प्रक्रियाओं के सॉफ्टवेयर का अधययन कर सकते हैं, फिर चाहे वो मस्तिष्क हो या कंप्यूटर.
तुलनात्मक मनोविज्ञान (कंपरतीव साइकोलॉजी) में मानव के अलावा जानवर (अनिमल) में व्यवहार और मानसिक जीवन का अध्ययन किया जाता है। यह मनोविज्ञान के बाहर अनुशासन से सम्बंधित है जिसमें जंतु व्यवहार जैसे इथोलोजी (एथोलॉजी) का अध्ययन किया जाता है। हालाँकि मनोविज्ञान का क्षेत्र प्रारंभिक रूप से मानव से सम्बंधित है, जानवरों (अनिमल) के व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन भी मनो वैज्ञानिक अध्ययन का एक मुख्य भाग है। यह अपने आप में एक अलग विषय हो सकता है (उदाहरण पशु अनुभूति (अनिमल कोग्नीशन) और इथोलोजी) या विकास की कड़ियों के बारे में महत्वपूर्ण हो सकता है और विवादस्पद रूप से मानव मनो विज्ञान पर दृष्टि डालने का एक तरीका हो सकता है। इसे तुलना के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है या भावना और व्यवहार प्रणाली के पशु मोडल्स के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। जैसा कि मनोविज्ञान के तंत्रिका विज्ञान में देखा गया है। (उदाहरण, प्रभावी तंत्रिका विज्ञान (आफेक्टिव न्यूरोसाइंस) और सामाजिक तंत्रिका विज्ञान (सोशियल न्यूरोसाइंस)).
परामर्श मनोविज्ञान (काउन्सलिंग साइकोलॉजी) जीवन के दौरान व्यक्तिगत पारस्परिक (इन्टरपर्सनल) क्रियाओं को बढ़ावा देने का प्रयास करता है और सामाजिक, भावात्मक, व्यावसायिक (वोकेशनल), शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी, विकास और संगठनात्मक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करता है। सलाहकार मुख्य रूप से चिकित्सक होते हैं, ये ग्राहकों के उपचार के लिए मनश्चिकित्सा और अन्य उपायों का इस्तेमाल करते हैं। परंपरागत रूप से, परामर्श मनोविज्ञान ने मनो रोग विज्ञान की तुलना में सामान्य विकास मुद्दों पर और दैनिक तनाव (स्ट्रेस) के मुद्दों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया है, लेकिन यह विभेदन समय के साथ कम हो गया है। परामर्श मनोविज्ञानी कई प्रकार के स्थानों पर कार्य कर रहे हैं जैसे विश्वविद्यालयों, अस्पतालों, स्कूलों, सरकारी संगठनों, व्यापार, निजी प्रैक्टिस और सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य केंद्र।
नैदानिक मनोविज्ञान (क्लिनिकल साइकोलॉजी) में मनोविज्ञान का अध्ययन और अनुप्रयोग शामिल है जो मनोविज्ञान पर आधारित तनाव या रोग से आराम दिलाने के लिए, उसे रोकने या समझने के लिए किया जाता है और व्यक्तिपरक जीवों के (वेल-बेइंग) व व्यक्तिगत विकास के लिए किया जाता है। इसके अभ्यास के केंद्र हैं मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन और मनश्चिकित्सा (साइकोथेरेपी) हालाँकि नैदानिक मनोचिकित्सक अनुसंधान, शिक्षण, परामर्श, न्यायालयिक गवाही में और कार्यक्रम के विकास और प्रशासन में संलग्न हो सकते हैं।
कुछ नैदानिक मनोवैज्ञानिक मस्तिष्क की चोट (ब्रेन इंजरी) के रोगियों में नैदानिक प्रबंधन पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं- यह क्षेत्र नैदानिक तंत्रिका मनोविज्ञान (क्लिनिकल न्युरोसायकोलॉजी) कहलाता है। अनेक देशों में नैदानिक मनोविज्ञान एक विनियमित मानसिक स्वास्थ्य पेशा (मेंटल हेल्थ प्रोफेश्न) है।
नैदानिक मनोवैज्ञानिकों के द्वारा किया गया कार्य कई चिकित्सा मॉडल्स में किया जाता है, जिनमें से सभी में पेशेवर और ग्राहक के बीच एक औपचारिक सम्बन्ध होता है-सामान्यतः एक व्यक्ति, जोड़ा, परिवार, या एक छोटा समूह-जो चिकित्सा प्रक्रियाओं के एक समुच्चय से होकर गुजरता है, मनोवैज्ञानिक समस्योप्न की प्रकृति को स्पष्ट करता है और सोच, अहसास और व्यवहार के नए तरीकों को उत्साहित करता है। चार प्रमुख परिप्रेक्ष्य हैं मनो गतिकी (साइछोडाइनामिक), संज्ञानात्मक व्यवहार (कोग्नीटिव बेहेविओरल), अस्तित्व-मानवतावाद (एक्सिस्टेन्शियल-हमनिस्टिक) और तंत्र या परिवार चिकित्सा (सिस्टम्स और फमिली थेरेपी) इन विभिन्न चिकित्सा दृष्टिकोणों को एकीकृत करने के लिए एक बढ़ता हुआ आन्दोलन रहा है, विशेष रूप से संस्कृति, लिंग, आध्यात्मिकता और यौन उन्मुखता के मुद्दों के सम्बन्ध में एक बढ़ती हुई समझ के साथ। मनो चिकित्सा के सम्बन्ध में अधिक मजबूत शोध निष्कर्षों के आगमन के साथ, इस बात के प्रमाण बढ़ गए हैं की अधिकांश मुख्य चिकित्साएँ बराबर प्रभाविता की होती हैं, जिनमें एक प्रबल चिकित्सा गठबंधन के साथ सामान्य कुंजी तत्व होते हैं। इस वजह से और अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम और मनोविज्ञानी अब एक्लेक्टिक चिकित्सात्मक उन्मुखीकरण (इक्लेक्टिक थेराप्यूटिक ओरिएंटन) को अपना रहे हैं।
गंभीर मनोविज्ञान (क्रिटिकल साइकोलॉजी) मनोविज्ञान के गंभीर सिद्धांतों की विधियों पर लागू होता है। इस प्रकार, यह न केवल यथास्थिति के मानसिक सबसट्रेट्स की आलोचना करता है बल्कि मुख्यधारा मनोविज्ञान के तत्वों की भी आलोचना करता है, जो अपने आप में दमनकारी विचारधारा (इडेओलॉजीस) के योगदानकर्ताओं के रूप में देखे जाते हैं। गंभीर मनोविज्ञान इस विश्वास पर कार्य करती है कि "मनोविज्ञान की मुख्यधारा ने मानव के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र के नैतिक जनादेश के एक संकीर्ण दृष्टिकोण को संस्थागत रूप से संचालित किया है" इसमें सामाजिक बुराईयों को व्यक्तिगत रूप से दूर करने का प्रयास किया गया है, तुच्छ और महत्वहीन अनुसंधान को प्रोत्साहित किया गया है और ऐसी प्रक्रियाओं में भाग लिया गया है कि गंभीर संवीक्षा के तहत सकारात्मक तरीके विफल रहे हैं।
एक गंभीर मनोविज्ञानी पूछ सकता है यदि एक "काम के तनाव का मामला" बडे स्तर के तंत्र को परिवर्तित करने के लिए प्रयास की वारंटी देता है जो कार्य का नियंत्रण करता है, बजाय इसके कि कि उस व्यक्ति का इलाज करता है जो तनाव का अनुभव करता है और-; अधिक सही है कि, अनगिनत अन्य व्यक्तियों के साथ कौन तनाव को शेयर करता है। कोई यह भी पूछ सकता है कि युद्ध में तबाह हो गए समुदायों में "मुख्य धारा के आघात प्रयास, मानव के अधिकारों और सामाजिक न्याय पर ध्यान केन्द्रित करने में क्यों असफल हो जाते हैं" संक्षेप में, गंभीर मनोविज्ञान, जहाँ यह समाज के लिए, एक व्यक्ति से विश्लेषण के मनोवैज्ञानिक स्तर को उठाने में उपयुक्त प्रतीत होता है, और मनोविज्ञान को उन्नत के तुलना में अधिक रूपांतरणीय बनाता है। गंभीर मनोविज्ञान, मनोविज्ञान के अन्य उपक्षेत्रों की विस्तृत सारणी पर लागू होता है और इसके कई सिद्धांतवादी, मुख्यधारा मनोविज्ञानी पेशे में कार्यरत हैं।
विकासात्मक मनोविज्ञान (डेवलमेंटल साइकोलॉजी) में मुख्य रूप से जीवन अवधि के माध्यम से मानव मस्तिष्क के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, इसमें यह बात समझी जाती है कि लोग कैसे दुनिया में होने वाली क्रियाओं को समझते हैं, उन पर प्रतिक्रिया करते हैं और यह प्रक्रिया उनकी उम्र बढ़ने के साथ कैसे बदल जाती है। यह बौद्धिक, सामाजिक, संज्ञानात्मक, तंत्रिका, या नैतिक विकास (मोरल डेवलमेंट) पर ध्यान केन्द्रित कर सकता है। शोधकर्ता जो बच्चों का अध्ययन करते हैं, वे प्राकृतिक सेटिंग्स में अवलोकन करने के लिए कई अद्वितीय अनुसंधान विधियों का प्रयोग करते हैं या उन्हें प्रयोगात्मक कार्यों में व्यस्त करते हैं। इस प्रकार के कार्य सामान्यतः विशेष रूप से डिजाईन किये गए खेल या गतिविधियाँ होती हैं, जो बच्चों के लिए मजेदार भी होती हैं और वैज्ञानिक रूप से उपयोगी भी होती हैं। और शोधकर्ताओं ने यहाँ तक कि छोटे शिशुओं की मानसिक प्रक्रियाओं को अध्ययन करने के लिए भी चतुराई पूर्ण तरीके तैयार किये हैं। बच्चों का अध्ययन करने के अलावा, विकासात्मक मनोविज्ञानी उम्र बढ़ने (एजिंग) का व जीवन अवधि के दौरान होने वाली प्रक्रियाओं का भी अध्ययन करते हैं, यह अध्ययन विशेष रूप से तीव्र परिवर्तन के समय पर किया जाता है (जैसे किशोरावस्था और बुढ़ापे के समय)। विकास मनोवैज्ञानिक अपने अनुसंधान की जानकारी देने के लिए वैज्ञानिक मनोविज्ञान में सिद्धान्तवादियों की पूरी रेंज को आकर्षित करते हैं।
शैक्षिक मनोविज्ञान (एडउकेशनल साइकोलॉजी) में इस बात का अध्ययन किया जाता है कि मनुष्य कैसे शैक्षिक सेटिंग्स में सीखते हैं, साथ ही शैक्षिक हस्तक्षेप की प्रभावशीलता, शिक्षण के मनोविज्ञान और विद्यालयों के संगठनों के सामाजिक मनोविज्ञान (सोशियल साइकोलॉजी) का अध्ययन भी किया जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों जैसे लेव वयगोटस्की (लेव व्य्गोट्स्की), जीन पिअगेत (जीन पियागेट) और जेरोम ब्रूनर (जेरोम ब्रूनर) का कार्य शिक्षण (टीचिंग) तरीकों और शैक्षिक प्रथाओं के निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। शैक्षिक मनोविज्ञान को अक्सर अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम में शामिल किया जाता है, कम से कम उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में ऐसा किया जाता है।
विकासवादी मनोविज्ञान (इवॉल्यूशनरी साइकोलॉजी) मानसिक और व्यवहारिक प्रतिरूप के आनुवंशिक (जीन) जड़ों को स्पष्ट करता है और बताता है कि सामान्य प्रतिरूप उत्पन्न हुए हैं क्योंकि वे उनके पिछले विकास शील वातावरण में मानव के लिए उच्च अनुकूली (अदापतिव) थे; यहाँ तक कि इनमें से कुछ प्रतिरूप आज के वातावरण में उपयुक्त अनुकूली नहीं हैं। विकासवादी मनोविज्ञान से निकट संबंधी क्षेत्र हैं पशु व्यवहार पारिस्थितिकी (बेहेविओरल इकोलॉजी), मानव व्यवहार पारिस्थितिकी (हमन बेहेविओरल इकोलॉजी), दोहरा आनुवंशिक सिद्धांत (दुअल इन्हेरितंस थ्योरी) और सामाजिक जैव विज्ञान (सोसिओबायोलॉजी).मेमेटिक्स (मेमेटिक्स) जिसकी खोज ब्रिटिश विकासवादी जीवविज्ञानी (इवॉल्यूशनरी बायोलोजिस्ट) रिचर्ड डाकिंस (रिचर्ड दऑकिंस) के द्वारा की गयी। यह सम्बंधित लेकिन प्रतिस्पर्धी क्षेत्र है जो बताता है कि सांस्कृतिक विकास (कल्चरल इवॉल्यूशन) एक डार्विनी अर्थ में हो सकता है लेकिन यह मेंडल (मेंडेलियन) की प्रणाली से स्वतंत्र होता है; इसलिए यह उन तरीकों की जाँच करता है जिनमें विचार या मेमे (मेमे), संभवतः जीन से स्वतंत्र रूप से विकसित हो सकते हैं।
फॉरेंसिक मनोविज्ञान (फॉरेन्सिक साइकोलॉजी) प्रथाओं की एक व्यापक रेंज को कवर करता है, जिसमें प्रतिवादी (डेफेंडंट) का नैदानिक मूल्यांकन (एवलुएशन्स) शामिल है। यह दिए गए मुद्दों पर अदालती गवाही, जजों और कानूनी प्रतिनिधियों के लिए रिपोर्ट देता है। फॉरेंसिक मनोवैज्ञानिकों को अदालत के द्वारा नियुक्त किया जाता है या कानूनी प्रतिनिधियों के द्वारा उन्हें हायर किया जाता है ताकि परीक्षण मूल्यांकन का संचालन किया जा सके, कार्यान्वित मूल्यांकन की प्रतिस्पर्धा का संचालन किया जा सके, विवेक मूल्यांकन, अस्वैच्छिक प्रतिबद्धता मूल्यांकन, यौन अपराधी मूल्यांकन और उपचार मूल्यांकन किया जा सके तथा लिखित रिपोर्ट और गवाही के माध्यम से अदालत को सिफारिशें उपलब्ध करायी जा सकें। बहुत से प्रश्न जो अदालत, फॉरेंसिक मनोवैज्ञानिकों से पूछती है, अंततः कानूनी मुद्दों (इश्व्) पर जाते हैं, हालाँकि एक मनोविज्ञानी कानूनी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता है। उदहारण के लिए, मनोविज्ञान में मानसिक संतुलन की परिभाषा नहीं है। बल्कि, मानसिक संतुलन एक कानूनी परिभाषा है जो दुनिया भर में अलग अलग जगह पर अलग अलग होती है। इसलिए, एक फॉरेंसिक मनोवैज्ञानिक की एक प्रमुख योग्यता व्यवस्था, कानून की, विशेष रूप से आपराधिक कानून की एक अभिन्न समझ है।
स्वास्थ्य मनोविज्ञान (हेल्थ साइकोलॉजी) मनोवैज्ञानिक सिद्धांत का अनुप्रयोग है और स्वास्थ्य, बीमारी और स्वास्थ्य देखभाल के लिए अनुसंधान है। जबकि नैदानिक मनोविज्ञान मानसिक स्वास्थ्य, तंत्रिका विकार पर ध्यान केन्द्रित करता है, स्वास्थ्य मनोविज्ञान (हेल्थ साइकोलॉजी) एक स्वास्थ्य संबंधी व्यवहार की एक अधिक व्यापक रेंज के मनो विज्ञान से सम्बंधित है जिसमें स्वस्थ भोजन, चिकित्सक रोगी संबंध, स्वास्थ्य सूचना के बारे में एक रोगी की समझ और बीमारी के बारे में विश्वास शामिल हैं। स्वास्थ्य मनोवैज्ञानिक जन स्वास्थ्य अभियान में शामिल हो सकते हैं, ये बीमारी या स्वास्थ्य नीति के जीवन की गुणवत्ता (क्वालिटी ऑफ लाइफ) पर प्रभाव की जाँच करते हैं और स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा के मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर अनुसंधान करते हैं।
औद्योगिक / संगठनात्मक मनोविज्ञान
औद्योगिक और संगठनात्मक मनोविज्ञान (इंडस्ट्रियल एंड ऑर्गनिज़शनल साइकोलॉजी) (आई / ओ) कार्यस्थान पर मानव की क्षमता को अनुकूलित करने के लिए मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं और विधियों को लागू करते हैं। कार्मिक मनोविज्ञान, आई / ओ मनोविज्ञान का एक उप क्षेत्र, मनोविज्ञान के सिद्धांतों और विधियों को श्रमिकों के चयन और मूल्यांकन पर लागू करता है। आई / ओ मनोविज्ञान का अन्य उपक्षेत्र, संगठनात्मक मनोविज्ञान (ऑर्गनिज़शनल साइकोलॉजी), काम के वातावरण और प्रबंधन शैलियों के कार्यकर्ता प्रेरणा, नौकरी से संतुष्टि और उत्पादकता पर प्रभाव की जाँच करता है।
कानूनी मनोविज्ञान (लीगल साइकोलॉजी) एक शोध उन्मुख क्षेत्र है जिसमें मनो विज्ञान की कई भिन्न क्षेत्रों से अनुसंधानकर्ता होते हैं (हालाँकि सामाजिक (सोशियल) और संज्ञानात्मक (कोग्नीटिव) मनोवैज्ञानिक प्रारूपिक होते हैं।) कानूनी मनोवैज्ञानिक जूरी निर्णय, प्रत्यक्षदर्शी स्मृति, वैज्ञानिक सबूत और कानूनी नीति जैसे विषयों को स्पष्ट करते हैं। शब्द "कानूनी मनोविज्ञान" हाल ही में उपयोग में आया है और आम तौर पर किसी भी गैर नैदानिक कानून से संबंधित अनुसंधान के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
व्यक्तित्व मनोविज्ञान (पर्सनालिटी साइकोलॉजी) एक व्यक्ति में व्यवहार (बेहेवियर), सोच (थॉट) और भावना (इमोशन) के प्रतिरूप का अध्ययन करता है, इसका प्रयोग आम तौर पर व्यक्तित्व के लिए किया जाता है। व्यक्तित्व के सिद्धांत विभिन्न मनोवैज्ञानिक स्कूलों और संस्थाओं में अलग अलग हो सकते हैं। वे ऐसे मुद्दों के लिए भिन्न अनुमान लगा सकते हैं, जैसे अचेत (उनकॉन्स्शियस) की भूमिका और बचपन के अनुभव के महत्व। फ्रुड के अनुसार, व्यक्तित्व अहंकार, अति अहंकार, और आई डी की गतिक अंतर क्रियाओं पर निर्भर करता है। इसके विपरीतविशेषता सिद्धांतवादी (ट्रेट थ्योरिस्ट), कारक विश्लेषण (फक्टर अनालेसिस) की सांख्यिकीय गतिविधियों के द्वारा कुंजी लक्षणों की असतत संख्या के शब्दों में व्यक्तित्व का विश्लेषण करने के प्रयास करते हैं। प्रस्तावित लक्षणों की संख्या व्यापक रूप से कई प्रकार की होती है।हंस आईजेंक (हंस एसेनक) के द्वारा प्रस्तावित एक प्रराम्भ्की मॉडल बताता है कि तीन ऐसे गुण हैं जो मानव व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं: बहिर्मुखी और अंतर मुखी होना (एक्स्ट्रावर्सन-इंट्रोवर्सन), तंत्रिका वाद (न्यूरोटिसिज्म), मनोवाद (साइकोटिसिज्म).रेमंड केटल (रायमंड कऐटेल) ने १६ व्यक्तित्व कारकों (१६ पर्सनालिटी फक्टर्स) का सिद्धांत प्रस्तावित किया। "बड़ा पाँच (बिग फाइव)" पाँच करक मॉडल, जो लुईस गोल्डवर्ग (लुइस गोल्डबर्ग) के द्वारा प्रस्तावित किया गया, वर्तमान में उसे लक्षण सिद्धांत वादियों के बीच प्रबल समर्थन मिला है।
मात्रात्मक मनोविज्ञान (कुआंतितटिव साइकोलॉजी) में मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में गणितीय और सांख्यिकीय मॉडलिंग के अनुप्रयोग शामिल हैं, साथ ही व्यवहारिक आंकडों के विश्लेषण और स्पष्टीकरण के लिए सांख्यिकीय विधियों का विकास भी शामिल है। शब्द मात्रात्मक मनोविज्ञान अपेक्षाकृत नया है और बहुत कम इस्तेमाल किया जाता है, (हाल ही में मात्रात्मक मनोविज्ञान में पीएचडी प्रोग्राम किये गए हैं) और यह शिथिल रूप से मनोमीती (साइकोमेट्रिक्स) और गणितीय मनोविज्ञान (मैथेमेटिकल साइकोलॉजी) उपक्षेत्रों को कवर करता है।
मनोमिति (साइकोमेट्रिक्स) मनो विज्ञान का एक क्षेत्र है जो मनो वैज्ञानिक मापन की तकनीक और सिद्धांत से सम्बंधित है, जिसमें ज्ञान, क्षमता (अबिलिटीज), दृष्टिकोण (अटीट्यूडस) और व्यक्तित्व के लक्षणों (पर्सनालिटी ट्रेट्स) का मापन शामिल है। प्रेक्षण के लिए अयोग्य इस घटना (फेनोमिना) का मापन मुश्किल है और इस विषय में अधिकांश अनुसंधान और संचित ज्ञान का विकास हुआ है ताकि इसे ठीक प्रकार से परिभाषित किया जा सके और ऐसी घटना का मात्रात्मक अनुमान लगाया जा सके। मनोमीती अनुसंधान में प्रारूपिक रूप से दो मुख्य अनुसंधान कार्य शामिल हैं नामतः (ई) यंत्रों (इंस्ट्रूमेंट) का निर्माण और मापन के लिए प्रक्रियाएं और (ई) मापन के लिए सैद्धांतिक दृष्टिकोण के शोधन और विकास.
सामाजिक मनोविज्ञान (सोशियल साइकोलॉजी) सामाजिक व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है, जिसमें इस बात पर जोर दिया जाता है कि लोग कैसे एक दूसरे के बारे में सोचते हैं और कैसे एक दूसरे से सम्बंधित होते हैं। सामाजिक मनोवैज्ञानिक विशेष रूप से इस बात में रूचि लेते हैं, के लोग सामाजिक स्थिति के लिए कैसे प्रतिक्रिया करते हैं। वे ऐसे विषयों को एक व्यक्ति के व्यवहार पर दूसरों के प्रभाव के रूप में अध्ययन करते हैं (उदाहरण समनुरूपता (कॉनफोर्मिटी), अनुनय (पर्सएशन)) और साथ ही अन्य लोगों के बारे में विश्वासों के गठन, दृष्टिकोण (अटीट्यूडस) और स्टीरियोटाइप (स्टेरियोसायपी) पर दूसरों के प्रभाव के रूप में अध्ययन करते हैं।सामाजिक अनुभूति (सोशियल कोग्नीशन) में सामाजिक और संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के तत्व संग्लित हो जाते हैं ताकि इस बात को समझा जा सके के लोग कैसे सामाजिक जानकारियों को याद रखते हैं, उन पर प्रतिक्रिया करते हैं और उन्हें विकृत करते हैं।समूह गतिशीलता (ग्रुप डाइनामिक्स) का अध्ययन नेतृत्व, संचार और वे घटनाएँ जो कम से कम सूक्ष्मदर्शीय (माइक्रोजोशियल) स्तर पर विकसित होती हैं, के अनुकूलन की क्षमता और प्रकृति के बारे में जानकारी प्रकट करता है। हाल ही के वर्षों में, कई सामाजिक मनोवैज्ञानिकों ने अंतर्निहित (इम्प्लिसिट) उपायों, मध्यस्थ (मेडिएशनल) मॉडलों और व्यवहार के लेखांकन में व्यक्तियों और समाज की अंतर क्रिया पर बहुत अधिक रूचि दर्शायी है।
स्कूल मनोविज्ञान (स्कूल साइकोलॉजी) में शैक्षिक मनोविज्ञान (एडउकेशनल साइकोलॉजी) और नैदानिक मनोविज्ञान (क्लिनिकल साइकोलॉजी) दोनों के सिद्धांत शामिल हैं ताकि जिन विद्यार्थियों में सीखने की क्षमता का अभाव है, उनका उपचार किया जा सके और उन्हें समझा जा सके; "बहुत अच्छे" विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास को बढ़ावा दिया जा सके; किशोरों में पूर्व सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा दिया जा सके; और सुरक्षित, सहायक और प्रभावी शिक्षण वातावरण का विकास किया जा सके। स्कूल मनोवैज्ञानिक शैक्षिक और व्यवहार मूल्यांकन, हस्तक्षेप, रोकथाम और परामर्श में प्रशिक्षित होते हैं और अधिकांश अनुसंधान में व्यापक प्रशिक्षण लेते हैं। वर्तमान में, स्कूल मनोविज्ञान एक मात्र क्षेत्र है जिसमें, एक पेशेवर को एक डॉक्टरेट की डिग्री के बिना एक "मनोवैज्ञानिक" कहा जा सकता है,स्कूल मनोविज्ञानवेत्ताओं का राष्ट्रीय संघ (नेशनल एसोसिएशन ऑफ स्कूल साइकोलॉजिस्ट) (एन ऐ एस पी) प्रवेश स्तर पर विशेषज्ञ की डिग्री (स्पेशलिस्ट डिग्री) देता है। यह एक विवादास्पद मामला है क्योंकि ऐ पी ऐ (आपा) एक मनोवैज्ञानिक के लिए प्रवेश स्तर के रूप में एक डॉक्टरेट से नीचे कुछ भी नहीं मानता है। विशेषज्ञ स्तरीय स्कूल मनो विज्ञानी, जो आमतौर पर तीन साल का स्नातक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, वे स्कूल प्रणाली में विशेष रूप से कार्य करते हैं, जबकि डॉक्टरेट के स्तर के लोग अन्य सेटिंग्स में भी पाए जाते हैं, जिनमें विश्व विद्यालय, अस्पताल, क्लिनिक और निजी प्रेक्टिस शामिल है।
अनुसंधान की विधियां
मनोविज्ञान के अधिकांश क्षेत्रों में अनुसंधान वैज्ञानिक विधियों (साइंटीफिक मेथोड़) के मानकों के साथ संचालित किये गए हैं जिसमें गुणात्मक (क्वॉलितटिव)इथोलोजिकल (एथोलॉजिकल) और मात्रात्मक सांख्यिकीय (कुआंतितटिव स्टेटिस्टिकल) दोनों प्रकार की रूपात्मकताये शामिल हैं, जो मनोवैज्ञानिक घटना (एक्सप्लैनटोरी) के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण (हाइपोथिसेस) परिकल्पना (फेनोमिना) का मूल्यांकन करता है और इसे उत्पन्न करता है। जाँच को प्रयोगात्मक प्रोटोकॉल (एक्सपेरिमेंटल प्रोटोकॉल्स) के द्वारा किया जा सकता है, लेकिन कभी कभी नुसंधान नैतिकता के कारण, एक दिए गए अनुसंधान डोमेन में विकास की अवस्था के कारण और अन्य कारणों से वैकल्पिक तरीकों को प्राथमिकता दी जाती है।
मनो विज्ञान एक्लेक्टिक (इक्लेक्टिक) प्रवृति रख सकता है, ताकि मनो वैज्ञानिक घटना को समझने के लिए और उसे स्पष्ट करने के लिए अन्य क्षेत्र से ज्ञान प्राप्त किया जा सके। उदाहरण के लिए, विकासवादी मनो विज्ञानी, मनोविज्ञान, जैव विज्ञान और एन्थ्रोपोलोजी के कई उप क्षेत्रों से आंकडों का निर्माण कर सकते हैं। इसके अलावा, वे दो भिन्न प्रकार के कारणों का व्यापक उपयोग करते हैं। हालाँकि अक्सर सख्त धनात्मकता के निगमनात्मक-नोमोलोजिकल (देदुक्टिव-नोमोलॉजिकल) तर्क को अपनाते हुए, वे आगमनात्मक तर्क (इंदुक्टिव रीसोनिंग) पर भरोसा करते हैं, ताकि शिकारी-संग्राहक (हंटर-गठरेर) जीवन के खाते बनाये जा सके, जो भिन्न विचारों व क्रियाओं के अनुकूली मूल्य को स्पष्ट कर सकेगा .
गुणात्मक मनोवैज्ञानिक अनुसंधान (क्वॉलितटिव साइकोलॉजिकल रिसर्च) प्रेक्षणीय तरीकों के एक व्यापक स्पेक्ट्रमका उपयोग करता है, इसमें क्रिया अनुसंधान (एक्शन रिसर्च), नृवंशविज्ञान (एथनोग्राफी), अन्वेषणत्मक आंकडे (एक्सप्लोरट्री स्टेटिस्टिक्स), संरचित (स्ट्रक्टरड) साक्षात्कार (इन्टरहीव) और भागीदार अवलोकन (पार्टिसिपन्त ऑबजर्वेशन) शामिल है, जो क्लासिकल प्रयोगों के द्वारा अच्छी जानकारी प्राप्त करने में मदद करते हैं। मानवता मनो विज्ञान में अनुसंधान, विज्ञान के बजाय अधिक प्रारूपिक रूप से नृवंशविज्ञान (एथनोग्राफिक), ऐतिहासिक (हिस्टोरिकल) और इतिहास लेखन (हिस्टोरियोग्राफिक) की विधियों से किया जाता है। मनो गतिकी अनुसंधान ने चिकित्सकीय मामलों के अध्ययन के अनुमान में पारंपरिक रूप से भाग लिया है, फ्रुड के मनो विश्लेषण से लेकर नव-जंगीय आद्य रूप मनो विज्ञान तक के उप स्कूलों ने व्याख्या के एक वाहन के रूप में मिथक (मिथ) पर कार्य किया है। हाल ही के विकास विशेष रूप से तंत्रिका मनो विश्लेषण में, विकास ने अपेक्षाकृत रूप से वैज्ञानिक निठरता के उच्च स्तर की मांग की है।
महत्वपूर्ण मनोविज्ञान के लिए एक अग्रदूतमुक्ति मनोविज्ञान (लिबेरेशन साइकोलॉजी) ने अपने बंधन मुक्त प्रश्नों में पारंपरिक सर्वे किया है। महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिकों के बीच एक विवाद है कि केवल उन्हें ही वे अनुसंधान लागू करना चाहिए जिसे वे संचालित करते हैं और उन्हें कैसे क्रियोन्मुख या जागरूकता की और उन्मुख होना चाहिए। सामान्य रूप में, हालाँकि, उनकी विधियां सकारात्मक से ज्यादा जटिल हो सकती हैं और इसीलिए, उन्हें न केवल वैज्ञानिक विधियों से बचना चाहिए बल्कि उन तरीकों की भी पहचान करनी चाहिए जिसमें इस विधि का गलत तरीके से इस्तेमाल किया जाता है और उसका दुरूपयोग किया जाता है। गंभीर मनो वैज्ञानिक अनुसंधान में एक मुख्य अवधारणा है रिफ्लेकसीविटी (रेफ़्लेक्सिविटी) या गंभीर आत्म निरिक्षण जो "इस बात का स्पष्टीकरण देता है कि (मनो विज्ञानी) मूल्य और मान्यताएं किस प्रकार से (उनके) सैद्धांतिक और विधिपूर्वक लक्ष्यों, क्रियाओं और व्याख्याओं को प्रभावित करते हैं। एक रिफ्लेकसिव दृष्टिकोण लेते हुए, गंभीर मनो विज्ञानी मनोवैज्ञानिक मामलों की वर्तमान अवस्था की जाँच करते हैं और "पुराने प्रश्नों और - पर सुरक्षात्मक स्थिति को तलाश में रहते हैं; जैसे कि मुक्त इच्छा बनाम नियतत्ववाद (देटर्मिनिस्म), प्रकृति बनाम पोषण (नेचरे व्स. नूर्चर), [और] चेतना (कॉन्स्शियस्नेस) बनाम अचेत (उनकॉन्स्शियस) बल".
मनोवैज्ञानिक कार्यों के विविध पहलुओं का परीक्षण (टेस्टिंग) मुख्यधारा मनोविज्ञान का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है।
मनोमितीय (साइकोमेट्रिक) और सांख्यिकीय विधियाँ प्रभावी होती हैं, इनमें भिन्न जाने माने मानक परिक्षण शामिल हैं और वे जो स्थिति या प्रयोग को आवश्यकता के अनुसार बनाये जाते हैं।
अकादमिक मनोविज्ञानी, शुद्ध रूप से अनुसंधान और मनो वैज्ञानिक सिद्धांत पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं, जिनका उद्देश्य है विशेष क्षेत्र में अग्रणी मनोवैज्ञानिक समझ, जबकि मनो विज्ञानी अनुप्रयोग मनो विज्ञान (आप्लाएड साइकोलॉजी) पर कार्य कर सकते हैं, ताकि इस प्रकार के ज्ञान को तात्कालिक और प्रायोगिक लाभ पर लागू किया जा सके। ये दृष्टिकोण परस्पर, विशिष्ट नहीं होते हैं और कई मनो विज्ञानी करियर के दौरान किसी बिंदु पर मनोविज्ञान को लागू करने और इस क्षेत्र में अनुसंधान में लगे होते हैं। कई नैदानिक मनोविज्ञान के कार्यक्रमों का लक्ष्य होता है मनोविज्ञानियों के अभ्यास में ज्ञान का विकास और अनुसंधान व प्रायोगिक विधियों में अनुभव का विकास, जब वे मनो वैज्ञानिक मुद्दों से युक्त व्यक्तियों का इलाज करते हैं तब इन विकास के बिन्दुओं को रोगियों पर लागू करते हैं।
जब किसी क्षेत्र को विशेष प्रशिक्षण और विशेष ज्ञान को जरुरत होती है, खासकर अनुप्रयोग क्षेत्रों में, मनोवैज्ञानिक संघ सामान्य रूप से प्रशिक्षण को जरूरतों के प्रबंधन के लिए एक प्रशासन निकाय को स्थापना करते हैं। इसी प्रकार, मनोविज्ञान में विश्व विद्यालयी डिग्री को जरुरत हो सकती है, ताकि विद्यार्थी कई क्षेत्रों में उपयुक्त ज्ञान प्राप्त कर सकें। इसके अतिरिक्त, प्रायोगिक मनोविज्ञान के क्षेत्र, जहाँ मनो विज्ञानी दूसरों का उपचार करते हैं, उन्हें जरुरत हो सकती है कि उन्हें सरकार द्वारा विनियमित किसी इकाई से लाइसेंस लेना पड़े।
प्रायोगिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधान का संचालन एक प्रयोगशाला में नियंत्रित स्थितियों में किया जाता है। अनुसंधान को यह विधि व्यवहार को समझने के लिए वैज्ञानिक विधि (साइंटीफिक मेथोड़) के अनुप्रयोग पर निर्भर करता है। प्रयोगकर्ता कई प्रकार के मापन का प्रयोग करते हैं, जिसमें प्रतिक्रिया की दर, प्रतिक्रिया का समय (रिऐक्शन टाइम) और भिन्न मनोमितीय (साइकोमेट्रिक) शामिल हैं। प्रयोगों को विशेष परिकल्पना (टेस्ट) के परीक्षण (हाइपोथिसेस) के लिए (निगमनात्मक दृष्टिकोण) या कार्यात्मक संबंध के मूल्यांकन के लिए (आगमनात्मक दृष्टिकोण) डिजाईन किया गया है। वे शोधकर्ताओं को व्यवहार और वातावरण के भिन्न पहलूओं के बीच अनौपचारिक सम्बन्ध स्थापित करने की अनुमति देते हैं। एक प्रयोग में, रूचि के एक या अधिक चरों को प्रयोगकर्ता के द्वारा नियंत्रित किया जाता है (स्वतंत्र चर) और अन्य चर का मापन विभिन्न स्थितियों की प्रतिक्रिया में किया जाता है। (आश्रित चर) मनोविज्ञान के कई क्षेत्रों में प्रयोग प्राथमिक अनुसंधान विधियों में से एक है, विशेष रूप से संज्ञानात्मक (कोग्नीटिव)/साइकोनोमिक्स (साइकनॉमिक्स), गणितीय मनोविज्ञान (मैथेमेटिकल साइकोलॉजी), मनोशरीरकार्यिकी (साइकोफिजोलॉजी) और जैविक मनोविज्ञान (बायोलॉजिकल साइकोलॉजी)/संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान (कोग्नीटिव न्यूरोसाइंस).
मानव पर प्रयोग कुछ नियंत्रण के अंतर्गत किये गए हैं, जो नाम के द्वारा सूचित किये गए हैं और स्वैच्छिक सहमति के हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, प्रायोगिक विषयों के नाजी गलतियों की वजह से नुरेमबर्ग कोड (नूरेंबर्ग कोड) की स्थापना की गयी। बाद में, अधिकांश देशों (और वैज्ञानिक पत्रिकाओं) ने हेलसिंकी की घोषणा (डिक्लारेशन ऑफ हेल्सिंकी) को अपना लिया। अमेरिका में, राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान के (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ) ने १९६६ में संस्थागत समीक्षा बोर्ड (इंस्टीट्यूशनल रेवीव बोर्ड) की स्थापना की और १९७४ में राष्ट्रीय अनुसंधान अधिनियम (नेशनल रिसर्च एक्ट) (मानव संसाधन ७७२४) को अपना लिया। इन सभी कारणों से अनुसंधानकर्ता प्रयोगात्मक अध्ययनों में मानव प्रतिभागियों से सूचित सहमति प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित हुए। कई प्रभावी अध्ययनों से इस नियम की स्थापना हुई; इन अध्ययनों में शामिल थे, एमआईटी और फर्नाल्ड स्कूल रेडियो आइसोटोप का अध्ययन, थेलीडोमाईड त्रासदी (थालिडोमिड ट्रासडी), विलोब्रुक हेपेटाइटिस (हेपेटाइटिस) का अध्ययन और स्टैनले मिल्ग्राम (स्टेनली मिलग्राम) का सत्ता के लिए आज्ञाकारिता का अध्ययन।
सांख्यिकी सर्वेक्षणों का उपयोग, मनोविज्ञान में व्यवहार और लक्षणों के मापन के लिए, मूड में परिवर्तन के नियंत्रण के लिए, प्रयोगात्मक अभिव्यक्ती की वैद्यता की जाँच के लिए किया जाता है। साथ ही कई अन्य मनोवैज्ञानिक विषयों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। सबसे अधिक सामान्य रूप से, मनोविज्ञानी कागज और पेंसिल सर्वेक्षण का उपयोग करते हैं। बहरहाल, सर्वेक्षण फोन पर या ई मेल के माध्यम से भी किए जा सकते हैं। तेजी से बढ़ते हुए, वेब आधारित सर्वेक्षण अनुसंधान में प्रयोग किए जा रहे हैं। समान विधी का उपयोग अनुप्रयोग सेटिंग में किया जाता है जैसे नैदानिक मूल्यांकन और आकलन कर्मियों का मूल्यांकन.
एक अनुदैर्ध्य अध्ययन (लॉन्गीटुडीनल स्टडी) अनुसंधान की एक विधी है जो समय के साथ एक विशेष जनसंख्या का प्रेक्षण करती है। उदाहरण के लिए, कोई एक समय अवधि के दौरान व्यक्तियों के एक समूह के प्रेक्षण के द्वारा, कुछ शर्तों के साथविशिष्ट भाषा हानि (स्पेसिफिक लैंग्वेज इम्पेयरमेन्ट) का अध्ययन करना चाह सकता है, इस विधी में यह लाभ होता है कि इससे पता चल जाता है कि कैसे लम्बे समय के दौरान परिस्थितियाँ एक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। हालाँकि, ऐसे अध्ययनों में विषय की मृत्यु हो जाने पर या चले जाने पर मुश्किल हो जाती है। इसके अतिरिक्त, चूँकि समूह के सदस्यों के बीच अंतर नियंत्रित नहीं होता है, जनसंख्या के बारे में निष्कर्ष निकालना मुश्किल हो सकता है।
अनुदैर्ध्य अध्ययन एक विकास अनुसंधान रणनीति है जिसमें कई वर्षों के दौरान बार बार एक आयु वर्ग की जांच की जाती है। अनुदैर्ध्य अध्ययन इस बारे में सजीव प्रश्नों का उत्तर देते हैं कि कैसे लोगों का विकास होता है। यह विकास अनुसंधान कई सालों के दौरान लोगों का अनुसरण करता है और परिणाम, मनोवैज्ञानिक समस्याओं से विशेष रूप से सम्बंधित खोज की अविश्वसनीय सारणी होती है।
प्राकृतिक व्यवस्था में प्रेक्षण
उसी तरह जेन गुडाल (जाने गुडल) ने चिंपांज़ी (चिम्पनजी) की सामाजिक और पारिवारिक जीवन का अध्ययन किया, मनो विज्ञानी इसी प्रकार के अध्ययन मानव के सामाजिक, पेशेवर और पारिवारिक जीवन के लिए करते हैं। कभी कभी प्रतिभागी यह जानते हैं कि उनका प्रेक्षण किया जा रहा है और कभी कभी यह गुप्त होता है: प्रतिभागियों को यह नहीं पता होता कि उन पर प्रेक्षण किया जा रहा है। नीतिशास्त्रीय दिशानिर्देश पर विचार किया जाना चाहिए जब गुप्त प्रेक्षण किया जा रहा है।
गुणात्मक और वर्णनात्मक अनुसंधान
मामलों की वर्तमान स्थिति, जैसे विचार, अहसास और व्यक्ति के व्यवहार, के बारे में प्रश्नों के उत्तर देने के लिए डिजाईन किया गया अनुसंधान, वर्णनात्मक अनुसंधान कहलाता है। वर्णनात्मक अनुसंधान अभिविन्यास में मात्रात्मक या गुणात्मक हो सकता है। गुणात्मक अनुसंधान एक वर्णनात्मक अनुसंधान है जो घटनाओं के प्रेक्षण और वर्णन पर ध्यान केन्द्रित करता है, जब ये घटनाएँ घटती हैं, इसका उद्देश्य है प्रतिदिन के व्यवहार की गुणवत्ता को पकड़ना और घटना को समझने और उसकी खोज की आशा के साथ, जो छूट सकता है यदि अधिक सरसरा परिक्षण किया जाये.
तंत्रिका मनोवैज्ञानिक विधियां
तंत्रिका मनोविज्ञान (न्युरोसायकोलॉजी) में स्वस्थ व्यक्तियों और रोगियों दोनों का अध्ययन शामिल है, प्रारूपिक रूप से जो मस्तिष्क की चोट (ब्रेन इंजरी) या मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं।
संज्ञानात्मक तंत्रिका मनोविज्ञान (कोग्नीटिव न्युरोसायकोलॉजी) और संज्ञानात्मक तंत्रिका मनो चिकित्सा (कोग्नीटिव न्युरोसायकाइएट्री) में तंत्रिका और मानसिक कार्यों का अध्ययन किया जाता है, ताकि सामान्य मस्तिष्क व मन के सिद्धांतों का निष्कर्ष निकला जा सके। इसमें प्रारूपिक रूप से बची हुई क्षमता के प्रतिरूप में अंतर के लिए खोज शामिल है, (जो कार्यात्मक अ-संगठन कहलाता है) जो इस बात के सुराग दे सकता है कि यदि क्षमताएं छोटे कार्य से युक्त हैं या एकमात्र संज्ञानात्मक प्रणाली के द्वारा नियंत्रित की जाती हैं।
इसके अलावा, प्रयोगात्मक तकनीक अक्सर स्वस्थ व्यक्तियों के तंत्रिका विज्ञान के अध्ययन के लिए उपयोग किया जाता है। इसमें व्यवहारिक प्रयोग, मस्तिष्क की स्केनिंग, या कार्यात्मक तंत्रिका इमेजिंग (फंक्शनल न्यूरोइमांजिंग) शामिल है जिसका उपयोग, कार्य निष्पादन के दौरान मस्तिष्क की गतिविधियों की जांच करने के लिए किया जाता है और उन तकनीकों जैसे परा क्रेनियम चुम्बकीय उत्प्रेरण (ट्रांसक्रानिल मैग्नेटाइक स्टीमुलेशन) की जाँच के लिए किया जाता है जो छोटे मस्तिष्क के क्षेत्रों के कार्य को सुरक्षित रूप से परिवर्तित कर सकते हैं ताकि मानसिक गतिविधियों में उनके महत्त्व को प्रकट किया जा सके।
दो परतों के साथ
कम्प्यूटेशनल मॉडलिंग (कंप्यूटइय्नल मॉडलिंग) का उपयोग अक्सर गणितीय मनोविज्ञान (मैथेमेटिकल साइकोलॉजी) और संज्ञानात्मक मनोविज्ञान (कोग्नीटिव साइकोलॉजी) में किया जाता है, ताकि एक कंप्यूटर के उपयोग के द्वारा एक विशेष व्यवहार को उत्तेजित किया जा सके। इस विधि के कई फायदे हैं। चूंकि आधुनिक कंप्यूटर बहुत जल्दी प्रक्रिया करते हैं, कई उत्त्प्रेरण बहुत छोटे समय में किये जा सकते हैं, जो सांख्यिकीय क्षमता की बड़ी मात्रा की अनुमति देते हैं। मोडलिंग मनोविज्ञानियों को उन मानसिक घटनाओं के कार्यात्मक संगठन के बारे में परिकल्पना करने की अनुमति देता है जो मानव में प्रत्यक्ष रूप से प्रेक्षित नहीं की जा सकती हैं।
व्यवहार के अध्ययन के लिए मॉडलिंग के कई प्रकारों का उपयोग किया जाता है।संबंधवाद (कनेक्शनिज़्म) मस्तिष्क को उत्तेजित करने के लिए तंत्रिका नेटवर्क (न्यूरल नेटवर्क) का उपयोग करता है। एनी विधि है प्रतीकात्मक मॉडलिंग, जो चरों और नियमों के उपयोग के द्वारा भिन्न मानसिक वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है। मॉडलिंग के अन्य प्रकारों में शामिल हैं गतिशील प्रणाली (डाइनामिक सिस्टम्स) और स्टोकेस्टिक (स्टोचास्टिक) मॉडलिंग.
पशु अधिगम प्रयोग मनोविज्ञान के कई पहलुओं में महत्वपूर्ण हैं जैसे सीखना, स्मृति और व्यवहार के जैविक आधार पर जांच। १८९० में मनो विज्ञानी इवान पावलोव (इवान पावलव) ने क्लासिकल कंडिशनिंग (क्लासिकल कोंडिशऑनिंग) के प्रदर्शन के लिए कुत्तों का उपयोग किया जो काफी प्रसिद्द रहा। गैर मानव प्राइमेट्स (नॉन-हमन प्रिमत्स) बिलियन, कुत्ते, चूहे और अन्य रोडेन्टस (रोडेंट्स) अक्सर मनो वैज्ञानिक प्रयोगों में प्रयुक्त किये जाते हैं। नियंत्रित प्रयोगों में शामिल है एक समय में केवल एक चर (वरिएबल) को शामिल करना। इसीलिए, प्रयोगों में प्रयुक्त किये जाने वाले पशुओं को प्रयोगशाला सेटिंग्स में रखा जाता है। इसके विपरीत, मानव वातावरण और आनुवंशिक पृष्ठभूमि व्यापक रूप से भिन्न प्रकार के होते हैं, जो मानव विषयों के लिए महत्ववपूर्ण चरों के नियंत्रण को मुश्किल बनाता है।
एक विज्ञान के रूप में स्तर
मनोविज्ञान की आलोचनाएँ अक्सर इस धारणा से आती हैं की यह एक "उलझन भरा " विज्ञान है। दार्शनिक थॉमस कुहन (थॉमस कुँ) के १९६२ के आलोचक ने मनोविज्ञान को एक पूर्व समग्र अवस्था पर लागू किया, जिसमें ऐसे समझौतों का अभाव था जो परिपक्व विज्ञान जैसे रसायन शास्त्र और भौतिकी में पाए जाने वाले सिद्धांतों तक पहुँच सके। मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से इस मुद्दे को संबोधित किया है।
क्योंकि मनोविज्ञान के कुछ क्षेत्र अनुसंधान विधियों जैसे सर्वेक्षण और प्रश्नावली (क्वेस्टियोनेयर) पर भरोसा करते हैं, आलोचकों का यह मानना है की मनोविज्ञान वैज्ञानिक नहीं है। अन्य घटना जिसमें मनोविज्ञानी रूचि लेते हैं, जैसे व्यक्तित्व (पर्सनालिटी), सोच (तींकिंग) और भावना (इमोशन), का मापन प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता है और अक्सर इन्हें विषयी स्व-रिपोर्टों से मापा जाता है, जो समस्या जनक हो सकता है।
संभाव्यता (प्रोबेबिलिटी) की वैद्यता, जो सनुसंधान उपकरण के रूप में जांच करती है, उस पर प्रश्न उठते रहे हैं। इसमें सोचने की बात है कि सांख्यिकीय विधियाँ अर्थपूर्ण रूप में तुच्छ निष्कर्षों को बढ़ावा दे सकती हैं, विशेष रूप से जब बड़े नमूनों का उपयोग किया जाता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने प्रभावी आकार (इफेक्ट साइज) सांख्यिकी के बढे हुए उपयोग के साथ प्रतिक्रिया दी है, इसके बजाय सांख्यिकीय परिकल्पना परिक्षण में यह केवल पारंपरिक पी <.०५ फैसले के नियम पर विश्वास नहीं करता है,
कभी कभी विवाद मनोविज्ञान से उत्पन्न होता है, उदाहरण के लिए, प्रयोगशाला उन्मुख शोधकर्ताओं और चिकित्सकों या प्रेकटिशनर्स के बीच। हाल के वर्षों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य में, चिकित्सीय प्रभावकारिता की प्रकृति के बारे में विवाद (देबतें) बढा है और साथ ही मनो चिकित्सकीय रणनीति की मूल जांच पर भरोसे के बारे में भी विवाद बढ़ गया है। एक तर्क के अनुसार कुछ थेरेपियां बदनाम सिद्धांतों पर आधारित हैं और इन्हें मूल प्रमाणों का समर्थन नहीं मिलता है। दूसरा पक्ष हाल ही के अनुसंधान की और इशारा करता है और बताता है कि सभी मुख्य धरा थेरेपियां सामान प्रभावित से युक्त होती हैं, जबकि इसका यह भी तर्क है कि नियंत्रित अध्ययन अक्सर वास्तविक दुनिया कि स्थितियों में विचाराधीन नहीं होते हैं।
फ्रिंज नैदानिक प्रथायें
वैज्ञानिक सिद्धांत और उसके अनुप्रयोगों के बीच एक कथित अंतर के बारे में सोचने की बात है, विशेष रूप से ऐसी चिकित्सकीय प्रथाओं के लिए जिन्हें साबित नहीं किया गया है या वे उपयुक्त नहीं हैं। अनुसंधानकर्ता जैसे बेयर स्टीन (२००१) कहते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य प्रशिक्षण कार्यक्रमों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है जो विज्ञान के प्रशिक्षण पर भारी नहीं है। लीलिनफील्ड (२००२) के अनुसार" अमान्य और कभी कभी हानिकारक मनो चिकित्सकीय विधियों, की बहुत सी किस्में, जिसमें शिशु अटिस्म के लिए आसान संचार शामिल (फेसिलिटेटेड कम्युनिकेशन) है।..ऐसी तकनीकें जिनकी सलाह स्मृति में सुधार के लिए दी गयी है, (उदाहरण हिप्नोटिक आयु प्रतिगमन, निर्देशित कल्पना, शरीर का कार्य (बॉडी वर्क)), उर्जा थेरेपियां, (उदाहरण विचार क्षेत्र थेरेपी (थॉट फील्ड थेरेपी), भावनात्मक स्वतंत्रता तकनीक (इमोशनल फ्रीडम टेकनीक))....और अंतहीन धारियों की तरह प्रतीत होती हुई नए युग की चिकित्साएँ, (उदाहरण रीबर्थिंग (रेबर्थिंग), री पेरेंटिंग (रेपेरेंटिंग), पास्ट लाइफ रिग्रेशन (पस्ट-लाइफ रेग्रेशन), प्राइमल.......थेरेपी (प्राइमल...थेरेपी), तंत्रिकाभाषी प्रोग्रामिंग (न्युरोलिंगिस्टिक प्रोग्रामिंग), अलाइन एबडकशन थेरेपी, एंजल थेरेपी) हाल ही के दशकों में या तो विकसित हुए हैं, या इन्होने अपनी लोकप्रियता को बनाये रखा है।" एलेन न्युरिन्जर ने १९८४ में व्यवहार के प्रयोगात्मक विश्लेषण के क्षेत्र में सामान बिंदु बनाये हैं।
इन्हें भी देखें
मनोविज्ञान का शब्दकोष |
मनोविज्ञान वह शैक्षिक और अनुप्रयोगात्मक विद्या है जो प्राणी (मनुष्य, पशु आदि) के मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों तथा व्यक्त व अव्यक्त दाेनाें प्रकार के व्यवहाराें का एक क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन करती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो क्रमबद्ध रूप से प्रेक्षणीय व्यवहार का अध्ययन करता है तथा प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं जैसे - चिन्तन, भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करता है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन का विज्ञान कहा गया है। 'व्यवहार' में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। मानसिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत संवेदन, अवधान, प्रत्यक्षण, सीखना (अधिगम), स्मृति, चिन्तन आदि आते हैं।
मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है। इसका उद्देश्य चेतनावस्था की प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप तथा उन्हें निर्धारित करनेवाले नियमों का पता लगाना है।
शिवम- मनोविज्ञान मानव अन्तरनिहित वेदनाओं का संग्रह है
मनोविज्ञान की परिभाषाएँ :-
वाटसन के अनुसार, मनोविज्ञान, व्यवहार का निश्चित या शुद्ध विज्ञान है।
मैक्डूगल के अनुसार, मनोविज्ञान, आचरण एवं व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है
वुडवर्थ के अनुसार, मनोविज्ञान, वातावरण के सम्पर्क में होने वाले मानव व्यवहारों का विज्ञान है।
क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, मनोविज्ञान मानवव्यवहार और मानव सम्बन्धों का अध्ययन है।
बोरिंग के अनुसार, मनोविज्ञान मानव प्रकृति का अध्ययन है।
स्किनर के अनुसार, मनोविज्ञान, व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है।
मन के अनुसार, आधुनिक मनोविज्ञान का सम्बन्ध व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है।
गैरिसन व अन्य के अनुसार, मनोविज्ञान का सम्बन्ध प्रत्यक्ष मानव व्यवहार से है।
गार्डनर मर्फी के अनुसार, मनोविज्ञान वह विज्ञान है, जो जीवित व्यक्तियों का उनके वातावरण के प्रति अनुक्रियाओं का अध्ययन करता है।
स्टीफन के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षणिक विकास का क्रमिक अध्ययन है।
ब्राउन के अनुसार, शिक्षा के द्वारा मानव व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है तथा मानव व्यवहार का अध्ययन ही मनोविज्ञान कहलाता है।
क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक के अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।
स्किनर के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत शिक्षा से सम्बन्धित सम्पूर्ण व्यवहार और व्यक्तित्व आ जाता है।
कॉलसनिक के अनुसार, मनोविज्ञान के सिद्धान्तों व परिणामों का शिक्षा के क्षेत्र में अनुप्रयोग ही शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है।
सारे व टेलफोर्ड के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान का मुख्य सम्बन्ध सीखने से है। यह मनोविज्ञान का वह अंग है जो शिक्षा के मनोवैज्ञानिक पहलुओं की वैज्ञानिक खोज से विशेष रूप से सम्बन्धित है।
किल्फोर्ड के अनुसार, बालक के विकास का अध्ययन हमें यह जानने योग्य बनाता है कि क्या पढ़ायें और कैसे पढाये।
स्किनर के अनुसार, मानव व्यवहार एवं अनुभव से सम्बंधित निष्कर्षो का शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है।
जे.एम. स्टीफन के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक विकास का क्रमिक अध्ययन है।
ट्रो के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिस्थितियों के मनोविज्ञान पक्षों का अध्ययन है। बी एन झा के अनुसार, शिक्षा की प्रकिया पूर्णतया मनोविज्ञान की कृपा पर निर्भर है। एस एस चौहान के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिवेश में व्यक्ति के विकास का व्यवस्थित अध्ययन है। पेस्टोलोजी के अनुसार, शिक्षा मनुष्य की क्षमताओं का स्वाभाविक, प्रगतिशील तथा विरोधहीन विकास है। जॉन डीवी के अनुसार, शिक्षा मनुष्य की क्षमताओं का विकास है , जिनकी सहायता से वह अपने वातावरण पर नियंत्रण करता हुआ अपनी संभावित उन्नति को प्राप्त करता है। जॉन एफ.ट्रेवर्स के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान वह विज्ञान है ,जिसमे छात्र , शिक्षण तथा अध्यापन का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। स्किनर के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान का उद्देश्य शैक्षिक परिस्थति के मूल्य एवं कुशलता में योगदान देना है।''
अभिषेक के अनुसार , किसी मानव मस्तिष्क में किसी जीव या प्राणी के संदर्भ में आए विचारों का मानव मस्तिष्क द्वारा निकाले गए निष्कर्षों को परिभाषित करना मनोविज्ञान कहलाता हैं
प्राक्-वैज्ञानिक काल (प्री-साइंटीफिक पीरियड) में मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र (फिलोसफी) की एक शाखा था। जब विल्हेल्म वुण्ट (विल्हेम वूंड) ने १८७९ में मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला खोली, मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र के चंगुल से निकलकर एक स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा पा सकने में समर्थ हो सका।
मनोविज्ञान पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव
मनोविज्ञान पर वैज्ञानिक प्रवृत्ति के साथ-साथ दर्शनशास्त्र का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। वास्तव में वैज्ञानिक परंपरा बाद में आरंभ हुई पहले तो प्रयोग या पर्यवेक्षण के स्थान पर विचारविनिमय तथा चिंतन समस्याओं को सुलझाने की सर्वमान्य विधियाँ थीं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को दर्शन के परिवेश में प्रतिपादित करनेवाले विद्वानों में से कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं।
डेकार्ट (१५९६ - १६५०) ने मनुष्य तथा पशुओं में भेद करते हुए बताया कि मनुष्यों में आत्मा होती है जबकि पशु केवल मशीन की भाँति काम करते हैं। आत्मा के कारण मनुष्य में इच्छाशक्ति होती है। पिट्यूटरी ग्रंथि पर शरीर तथा आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। डेकार्ट के मतानुसार मनुष्य के कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे जन्मजात कहा जा सकता है। उनका अनुभव से कोई संबंध नहीं होता। लायबनीत्स (१६४६ - १७१६) के मतानुसार संपूर्ण पदार्थ "मोनैड" इकाई से मिलकर बना है। उन्होंने चेतनावस्था को विभिन्न मात्राओं में विभाजित करके लगभग दो सौ वर्ष बाद आनेवाले फ्रायड के विचारों के लिये एक बुनियाद तैयार की। लॉक (१६३२-१७०४) का अनुमान था कि मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिये विचारों के स्रोत के विषय में जानना आवश्यक है। उन्होंने विचारों के परस्पर संबंध विषयक सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए बताया कि विचार एक तत्व की तरह होते हैं और मस्तिष्क उनका विश्लेषण करता है। उनका कहना था कि प्रत्येक वस्तु में प्राथमिक गुण स्वयं वस्तु में निहित होते हैं। गौण गुण वस्तु में निहित नहीं होते वरन् वस्तु विशेष के द्वारा उनका बोध अवश्य होता है। बर्कले (१६८५-१७५३) ने कहा कि वास्तविकता की अनुभूति पदार्थ के रूप में नहीं वरन् प्रत्यय के रूप में होती है। उन्होंने दूरी की संवेदनाके विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अभिबिंदुता धुँधलेपन तथा स्वत: समायोजन की सहायता से हमें दूरी की संवेदना होती है। मस्तिष्क और पदार्थ के परस्पर संबंध के विषय में लॉक का कथन था कि पदार्थ द्वारा मस्तिष्क का बोध होता है। ह्यूम (१७११-१७७६) ने मुख्य रूप से "विचार" तथा "अनुमान" में भेद करते हुए कहा कि विचारों की तुलना में अनुमान अधिक उत्तेजनापूर्ण तथा प्रभावशाली होते हैं। विचारों को अनुमान की प्रतिलिपि माना जा सकता है। ह्यूम ने कार्य-कारण-सिद्धांत के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए आधुनिक मनोविज्ञान को वैज्ञानिक पद्धति के निकट पहुँचाने में उल्लेखनीय सहायता प्रदान की। हार्टले (१७०५-१७५७) का नाम दैहिक मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों में रखा जा सकता है। उनके अनुसार स्नायु-तंतुओं में हुए कंपन के आधार पर संवेदना होती है। इस विचार की पृष्ठभूमि में न्यूटन के द्वारा प्रतिपादित तथ्य थे जिनमें कहा गया था कि उत्तेजक के हटा लेने के बाद भी संवेदना होती रहती है। हार्टले ने साहचर्य विषयक नियम बताते हुए सान्निध्य के सिद्धांत पर अधिक जोर दिया।
हार्टले के बाद लगभग ७० वर्ष तक साहचर्यवाद के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। इस बीच स्काटलैंड में रीड (१७१०-१७९६) ने वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण का वर्णन करते हुए बताया कि प्रत्यक्षीकरण तथा संवेदना में भेद करना आवश्यक है। किसी वस्तु विशेष के गुणों की संवेदना होती है जबकि उस संपूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण होता है। संवेदना केवल किसी वस्तु के गुणों तक ही सीमित रहती है, किंतु प्रत्यक्षीकरण द्वारा हमें उस पूरी वस्तु का ज्ञान होता है। इसी बीच फ्रांस में कांडिलैक (१७१५-१७८०) ने अनुभववाद तथा ला मेट्री ने भौतिकवाद की प्रवृत्तियों की बुनियाद डाली। कांडिलैंक का कहना था कि संवेदन ही संपूर्ण ज्ञान का "मूल स्त्रोत" है। उन्होंने लॉक द्वारा बताए गए विचारों अथवा अनुभवों को बिल्कुल आवश्यक नहीं समझा। ला मेट्री (1७०9-१७५१) ने कहा कि विचार की उत्पत्ति मस्तिष्क तथा स्नायुमंडल के परस्पर प्रभाव के फलस्वरूप होती है। डेकार्ट की ही भाँति उन्होंने भी मनुष्य को एक मशीन की तरह माना। उनका कहना था कि शरीर तथा मस्तिष्क की भाँति आत्मा भी नाशवान् है। आधुनिक मनोविज्ञान में प्रेरकों की बुनियाद डालते हुए ला मेट्री ने बताया कि सुखप्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है।
जेम्स मिल (१७७३-१८३६) तथा बाद में उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल (१८०६-१८७३) ने मानसिक रसायनी का विकास किया। इन दोनों विद्वानों ने साहचर्यवाद की प्रवृत्ति को औपचारिक रूप प्रदान किया और वुंट के लिये उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार की। बेन (१८१८-१९०३) के बारे में यही बात लागू होती है। कांट ने समस्याओं के समाधान में व्यक्तिनिष्ठावाद की विधि अपनाई कि बाह्य जगत् के प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत में जन्मजातवाद का समर्थन किया। हरबार्ट (१७७६-१८४१) ने मनोविज्ञान को एक स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूण्र योगदान किया। उनके मतानुसार मनोविज्ञान अनुभववाद पर आधारित एक तात्विक, मात्रात्मक तथा विश्लेषात्मक विज्ञान है। उन्होंने मनोविज्ञान को तात्विक के स्थान पर भौतिक आधार प्रदान किया और लॉत्से (१८१७-१८८१) ने इसी दिशा में ओर आगे प्रगति की।
मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का आरम्भ
मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का शुभारंभ उनके औपचारिक स्वरूप आने के बाद पहले से हो चुका था। सन् १८३४ में वेबर ने स्पर्शेन्द्रिय संबंधी अपने प्रयोगात्मक शोधकार्य को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। सन् १८३१ में फेक्नर स्वयं एकदिश धारा विद्युत् के मापन के विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित कर चुके थे। कुछ वर्षों बाद सन् १८४७ में हेल्मो ने ऊर्जा सरंक्षण पर अपना वैज्ञानिक लेख लोगों के सामने रखा। इसके बाद सन् १८५६ ई, १८६० ई तथा १८६६ ईदृ में उन्होंने "आप्टिक" नामक पुस्तक तीन भागों में प्रकाशित की। सन् १८५१ ई तथा सन् १८६० ई में फेक्नर ने भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ (ज़ेंड आवेस्टा तथा एलिमेंटे डेयर साईकोफ़िजिक प्रकाशित किए।
सन् १८५८ ई में वुंट हाइडलवर्ग विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान में डाक्टर की उपधि प्राप्त कर चुके थे और सहकारी पद पर क्रियाविज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहे थे। उसी वर्ष वहाँ बॉन से हेल्मोल्त्स भी आ गए। वुंट के लिये यह संपर्क अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी के बाद उन्होंने क्रियाविज्ञान छोड़कर मनोविज्ञान को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।
वुंट ने अनगिनत वैज्ञानिक लेख तथा अनेक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करके मनोविज्ञान को एक धुँधले एवं अस्पष्ट दार्शनिक वातावरण से बाहर निकाला। उसने केवल मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक परिवेश में रखा और उनपर नए दृष्टिकोण से विचार एवं प्रयोग करने की प्रवृत्ति का उद्घाटन किया। उसके बाद से मनोविज्ञान को एक विज्ञान माना जाने लगा। तदनंतर जैसे-जैसे मरीज वैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर प्रयोग किए गए वैसे-वैसे नई नई समस्याएँ सामने आईं।
आधुनिक मनोविज्ञान ==
आधुनिक मनोविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके दो सुनिश्चित रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक तो वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा आविष्कारों द्वारा प्रभावित वैज्ञानिक मनोविज्ञान तथा दूसरा दर्शनशास्त्र द्वारा प्रभावित दर्शन मनोविज्ञान। वैज्ञानिक मनोविज्ञान १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ है। सन् १८६० ई में फेक्नर (१८०१-१८८७) ने जर्मन भाषा में "एलिमेंट्स आव साइकोफ़िज़िक्स" (इसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है) नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक पद्धति के परिवेश में अध्ययन करने की तीन विशेष प्रणालियों का विधिवत् वर्णन किया : मध्य त्रुटि विधि, न्यूनतम परिवर्तन विधि तथा स्थिर उत्तेजक भेद विधि। आज भी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इन्हीं प्रणालियों के आधार पर अनेक महत्वपूर्ण अनुसंधान किए जाते हैं।
वैज्ञानिक मनोविज्ञान में फेक्नर के बाद दो अन्य महत्वपूर्ण नाम है : हेल्मोलत्स (१८२१-१८९४) तथा विल्हेम वुण्ट (१८३२-१९२०)। हेल्मोलत्स ने अनेक प्रयोगों द्वारा दृष्टीर्द्रिय विषयक महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया। इस संदर्भ में उन्होंने प्रत्यक्षीकरण पर अनुसंधान कार्य द्वारा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक अस्तित्व ऊपर उठाया। वुंट का नाम मनोविज्ञान में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने सन् १८७९ ई में लिपज़िग विश्वविद्यालय (जर्मनी) में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला स्थापित की। मनोविज्ञान का औपचारिक रूप परिभाषित किया। लाइपज़िग की प्रयोगशाला में वुंट तथा उनके सहयोगियों ने मनोविज्ञान की विभिन्न समस्याओं पर उल्लेखनीय प्रयोग किए, जिसमें समय-अभिक्रिया विषयक प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।
क्रियाविज्ञान के विद्वान् हेरिंग (१८३४-१९१८), भौतिकी के विद्वान् मैख (१८३८-१९१६) तथा जी ई म्यूलर (१८५० से १९३४) के नाम भी उल्लेखनीय हैं। हेरिंग घटना-क्रिया-विज्ञान के प्रमुख प्रवर्तकों में से थे और इस प्रवृत्ति का मनोविज्ञान पर प्रभाव डालने का काफी श्रेय उन्हें दिया जा सकता है। मैख ने शारीरिक परिभ्रमण के प्रत्यक्षीकरण पर अत्यंत प्रभावशाली प्रयोगात्मक अनुसंधान किए। उन्होंने साथ ही साथ आधुनिक प्रत्यक्षवाद की बुनियाद भी डाली। जी ई म्यूलर वास्तव में दर्शन तथा इतिहास के विद्यार्थी थे किंतु फेक्नर के साथ पत्रव्यवहार के फलस्वरूप उनका ध्यान मनोदैहिक समस्याओं की ओर गया। उन्होंने स्मृति तथा दृष्टींद्रिय के क्षेत्र में मनोदैहिकी विधियों द्वारा अनुसंधान कार्य किया। इसी संदर्भ में उन्होंने "जास्ट नियम" का भी पता लगाया अर्थात् अगर समान शक्ति के दो साहचर्य हों तो दुहराने के फलस्वरूप पुराना साहचर्य नए की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो जाएगा ("जास्ट नियम" म्यूलर के एक विद्यार्थी एडाल्फ जास्ट के नाम पर है)।
सम्प्रदाय एवं शाखाएँ
व्यवहार विषयक नियमों की खोज ही मनोविज्ञान का मुख्य ध्येय था। सैद्धांतिक स्तर पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए। मनोविज्ञान के क्षेत्र में सन् १९१२ ई के आसपास संरचनावाद, क्रियावाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्टवाद तथा मनोविश्लेषण आदि मुख्य मुख्य शाखाओं का विकास हुआ। इन सभी वादों के प्रवर्तक इस विषय में एकमत थे कि मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन ही मनोविज्ञान का उद्देश्य है। उनमें परस्पर मतभेद का विषय था कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे अच्छा ढंग कौन सा है। सरंचनावाद के अनुयायियों का मत था कि व्यवहार की व्याख्या के लिये उन शारीरिक संरचनाओं को समझना आवश्यक है जिनके द्वारा व्यवहार संभव होता है। क्रियावाद के माननेवालों का कहना था कि शारीरिक संरचना के स्थान पर प्रेक्षण योग्य तथा दृश्यमान व्यवहार पर अधिक जोर होना चाहिए। इसी आधार पर बाद में वाटसन ने व्यवहारवाद की स्थापना की। गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षीकरण को व्यवहारविषयक समस्याओं का मूल आधार माना। व्यवहार में सुसंगठित रूप से व्यवस्था प्राप्त करने की प्रवृत्ति मुख्य है, ऐसा उनका मत था। फ्रायड ने मनोविश्लेषणवाद की स्थापना द्वारा यह बताने का प्रयास किया कि हमारे व्यवहार के अधिकांश कारण अचेतन प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित होते हैं।
मनोविज्ञान के सम्प्रदाय
१८७९, प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, संरचनावाद -- डब्ल्यू वुन्ट
१८९६, मनोविश्लेषण -- सिग्मण्ड फ्रॉयड
१९१३, व्यवहारवाद -- जॉन ब्रोडस वाट्सन
१९५४, रेशनल इमोटिव बिहेविअरल थिरैपी -- अल्बर्ट एलिस
१९६०, संज्ञानात्मक चिकित्सा -- आरोन टी बैक
१९६७, संज्ञानात्मक मनोविज्ञान -- उल्रिक नाइजर
१९६२, मानववादी मनोविज्ञान -- अमेरिकन एसोशिएशन ऑफ ह्युमनिस्टिक साइकोलॉजी
१९४०, गेस्ताल्तवाद -- फ्रिट्ज पर्ल्स
आधुनिक मनोविज्ञान में इन सभी "वादों" का अब एकमात्र ऐतिहासिक महत्व रह गया है। इनके स्थान पर मनोविज्ञान में अध्ययन की सुविधा के लिये विभिन्न शाखाओं का विभाजन हो गया है।
प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में मुख्य रूप से उन्हीं समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाने लगा जिन्हें दार्शनिक पहले चिंतन अथवा विचारविमर्श द्वारा सुलझाते थे। अर्थात् संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण। बाद में इसके अंतर्गत सीखने की प्रक्रियाओं का अध्ययन भी होने लगा। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, आधुनिक मनोविज्ञान की प्राचीनतम शाखा है।
मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक नियंत्रित परिस्थितियों में रखा जा सकता है, साथ ही साथ पशुओं की शारीरिक रचना भी मनुष्य की भाँति जटिल नहीं होती। पशुओं पर प्रयोग करके व्यवहार संबंधी नियमों का ज्ञान सुगमता से हो सकता है। सन् १९१२ ई के लगभग थॉर्नडाइक ने पशुओं पर प्रयोग करके तुलनात्मक अथवा पशु मनोविज्ञान का विकास किया। किंतु पशुओं पर प्राप्त किए गए परिणाम कहाँ तक मनुष्यों के विषय में लागू हो सकते हैं, यह जानने के लिये विकासात्मक क्रम का ज्ञान भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त व्यवहार के नियमों का प्रतिपादन उसी दशा में संभव हो सकता है जब कि मनुष्य अथवा पशुओं के विकास का पूर्ण एवं उचित ज्ञान हो। इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए विकासात्मक मनोविज्ञान का जन्म हुआ। सन् १९१२ ई के कुछ ही बाद मैक्डूगल (१८७१-१९३८) के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज मनोविज्ञान की स्थापना हुई, यद्यपि इसकी बुनियाद समाज वैज्ञानिक हरबर्ट स्पेंसर (१८२०-१९०३) द्वारा बहुत पहले रखी जा चुकी थी। धीरे-धीरे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर मनोविज्ञान का प्रभाव अनुभव किया जाने लगा। आशा व्यक्त की गई कि मनोविज्ञान अन्य विषयों की समस्याएँ सुलझाने में उपयोगी हो सकता है। साथ ही साथ, अध्ययन की जानेवाली समस्याओं के विभिन्न पक्ष सामने आए। परिणामस्वरूप मनोविज्ञान की नई-नई शाखाओं का विकास होता गया। इनमें से कुछ ने अभी हाल में ही जन्म लिया है, जिनमें प्रेरक मनोविज्ञान, सत्तात्मक मनोविज्ञान, गणितीय मनोविज्ञान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
मनोविज्ञान की मूलभूत एवं अनुप्रयुक्त - दोनों प्रकार की शाखाएं हैं। इसकी महत्वपूर्ण शाखाएं सामाजिक एवं पर्यावरण मनोविज्ञान, संगठनात्मक व्यवहार/मनोविज्ञान, क्लीनिकल (निदानात्मक) मनोविज्ञान, मार्गदर्शन एवं परामर्श, औद्योगिक मनोविज्ञान, विकासात्मक, आपराधिक, प्रायोगिक परामर्श, पशु मनोविज्ञान आदि है। अलग-अलग होने के बावजूद ये शाखाएं परस्पर संबद्ध हैं।
नैदानिक मनोविज्ञान - न्यूरोटिसिज्म, साइकोन्यूरोसिस, साइकोसिस जैसी क्लीनिकल समस्याओं एवं शिजोफ्रेनिया, हिस्टीरिया, ऑब्सेसिव-कंपलसिव विकार जैसी समस्याओं के कारण क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। ऐसे मनोवज्ञानिक का प्रमुख कार्य रोगों का पता लगाना और निदानात्मक तथा विभिन्न उपचारात्मक तकनीकों का इस्तेमाल करना है।
विकास मनोविज्ञान में जीवन भर घटित होनेवाले मनोवैज्ञानिक संज्ञानात्मक तथा सामाजिक घटनाक्रम शामिल हैं। इसमें शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान व्यवहार या वयस्क से वृद्धावस्था तक होने वाले परिवर्तन का अध्ययन होता है। पहले इसे बाल मनोविज्ञान भी कहते थे।
आपराधिक मनोविज्ञान चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है, जहां अपराधियों के व्यवहार विशेष के संबंध में कार्य किया जाता है। अपराध शास्त्र, मनोविज्ञान आपराधिक विज्ञान की शाखा है, जो अपराध तथा संबंधित तथ्यों की तहकीकात से जुड़ी है।
पशु मनोविज्ञान एक अद्भुत शाखा है।
मनोविज्ञान की प्रमुख शाखाएँ हैं -
मनोविज्ञान का स्वरूप एवं कार्यक्षेत्र
मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र को सही ढंग से समझने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण श्रेणी वह श्रेणी है जिससे यह पता चलता है कि मनोविज्ञानी क्या चाहते हैं ? किये गये कार्य के आधार पर मनोविज्ञानियों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:
पहली श्रेणी में उन मनोविज्ञानियों को रखा जाता है जो शिक्षण कार्य में व्यस्त हैं,
दूसरी श्रेणी में उन मनोवैज्ञानियों को रखा जाता है जो मनोविज्ञानिक समस्याओं पर शोध करते हैं तथा
तीसरी श्रेणी में उन मनोविज्ञानियों को रखा जाता है जो मनोविज्ञानिक अध्ययनों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर कौशलों एवं तकनीक का उपयोग वास्तविक परिस्थिति में करते हैं।
इस तरह से मनोविज्ञानियों का तीन प्रमुख कार्यक्षेत्र हैशिक्षण (टीचिंग), शोध (रिसर्च) तथा उपयोग (आप्लिकेशन)। इन तीनों कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित मुख्य तथ्यों का वर्णन निम्नांकित है
शिक्षण तथा शोध मनोविज्ञान का एक प्रमुख कार्य क्षेत्र है। इस दृष्टिकोण से इस क्षेत्र के तहत निम्नांकित शाखाओं में मनोविज्ञानी अपनी अभिरुचि दिखाते हैं
जीवन-अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान
बाल मनोविज्ञान का प्रारंभिक संबंध मात्र बाल विकास के अध्ययन से था परंतु हाल के वर्षों में विकासात्मक मनोविज्ञान में किशोरावस्था, वयस्कावस्था तथा वृद्धावस्था के अध्ययन पर भी बल डाला गया है। यही कारण है कि इसे 'जीवन अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान' कहा जाता है। विकासात्मक मनोविज्ञान में मनोविज्ञान मानव के लगभग प्रत्येक क्षेत्र जैसेबुद्धि, पेशीय विकास, सांवेगिक विकास, सामाजिक विकास, खेल, भाषा विकास का अध्ययन विकासात्मक दृष्टिकोण से करते हैं। इसमें कुछ विशेष कारक जैसेआनुवांशिकता, परिपक्वता, पारिवारिक पर्यावरण, सामाजिक-आर्थिक अन्तर का व्यवहार के विकास पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है। कुल मनोविज्ञानियों का ५% मनोवैज्ञानिक विकासात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं।
मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान
मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ मानव के उन सभी व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है जिस पर प्रयोग करना सम्भव है। सैद्धान्तिक रूप से ऐसे तो मानव व्यवहार के किसी भी पहलू पर प्रयोग किया जा सकता है परंतु मनोविज्ञानी उसी पहलू पर प्रयोग करने की कोशिश करते हैं जिसे पृथक किया जा सके तथा जिसके अध्ययन की प्रक्रिया सरल हो। इस तरह से दृष्टि, श्रवण, चिन्तन, सीखना आदि जैसे व्यवहारों का प्रयोगात्मक अध्ययन काफी अधिक किया गया है। मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में उन मनोवैज्ञानिकों ने भी काफी अभिरुचि दिखलाया है जिन्हें प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का संस्थापक कहा जाता है। इनमें विलियम वुण्ट, टिचेनर तथा वाटसन आदि के नाम अधिक मशहूर हैं।
यह कथन एक महान विद्वान के द्वारा संचालित किया गया था,जो की चिंतन मनन के बाद भी आज तक वह प्रशंसनीय माना जाता है।
पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान
मनोविज्ञान का यह क्षेत्र मानव प्रयोगात्मक विज्ञान (हमन एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी) के समान है। सिर्फ अन्तर इतना ही है कि यहाँ प्रयोग पशुओं जैसेचूहों, बिल्लियों, कुत्तों, बन्दरों, वनमानुषों आदि पर किया जाता है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में अधिकतर शोध सीखने की प्रक्रिया तथा व्यवहार के जैविक पहलुओं के अध्ययन में किया गया है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में स्कीनर, गथरी, पैवलव, टॉलमैन आदि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। सच्चाई यह है कि सीखने के आधुनिक सिद्घान्त तथा मानव व्यवहार के जैविक पहलू के बारे में हम आज जो कुछ भी जानते हैं, उसका आधार पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान ही है। इस मनोविज्ञान में पशुओं के व्यवहारों को समझने की कोशिश की जाती है। कुछ लोगों का मत है कि यदि मनोविज्ञान का मुख्य संबंध मानव व्यवहार के अध्ययन से है तो पशुओं के व्यवहारों का अध्ययन करना कोई अधिक तर्कसंगत बात नहीं दिखता। परंतु मनोविज्ञानियों के पास कुछ ऐसी बाध्यताएँ हैं जिनके कारण वे पशुओं के व्यवहार में अभिरुचि दिखलाते हैं। जैसे पशु व्यवहार का अध्ययन कम खर्चीला होता है। फिर कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो मनुष्यों पर नैतिक दृष्टिकोण से करना संभव नहीं है तथा पशुओं का जीवन अवधि (लाइफ स्पैन) का लघु होना प्रमुख ऐसे कारण हैं। मानव एवं पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कुछ मनोविज्ञानियों की संख्या का करीब १४% मनोविज्ञानी कार्यरत है।
दैहिक मनोविज्ञान में मनोविज्ञानियों का कार्यक्षेत्र प्राणी के व्यवहारों के दैहिक निर्धारकों (फिजिकल देटर्मिनंट) तथा उनके प्रभावों का अध्ययन करना है। इस तरह के दैहिक मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो जैविक विज्ञान (बायोलॉजिकल साइंस) से काफी जुड़ा हुआ है। इसे मनोजीवविज्ञान (साइकोबायोलॉजी) भी कहा जाता है। आजकल मस्तिष्कीय कार्य (ब्रेन फंक्शनिंग) तथा व्यवहार के संबंधों के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों की रुचि अधिक हो गयी है। इससे एक नयी अन्तरविषयक विशिष्टता (इंटरडिसप्लिनरी स्पेशल्टी) का जन्म हुआ है जिसे न्यूरोविज्ञान (न्यूरोसाइंस) कहा जाता है। इसी तरह के दैहिक मनोविज्ञान हारमोन्स (हार्मोनस) का व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन में भी अभिरुचि रखते हैं। आजकल विभिन्न तरह के औषध (ड्रग) तथा उनका व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन दैहिक मनोविज्ञान में किया जा रहा है। इससे भी एक नयी विशिष्टता (नव स्पेशल्टी) का जन्म हुआ है, जिसे मनोफर्माकोलॉजी (साइकोफार्माकोलॉजी) कहा जाता है तथा जिसमें विभिन्न औषधों के व्यवहारात्मक प्रभाव (बेहेवियरल इफेक्ट) से लेकर तंत्रीय तथा चयापचय (मेटाबॉलिक) प्रक्रियाओं में होने वाले आणविक शोध (मोलेकुलर रिसर्च) तक का अध्ययन किया जाता है।
इन्हें भी देखें
मनोविज्ञान की समयरेखा
मनोविज्ञान का इतिहास तथा शाखाएँ
भारतीय मनोविज्ञान (गूगल पुस्तक; लेखकद्वय - रामनाथ शर्मा एवं अर्चना शर्मा)
आधुनिक मनोविज्ञान के सम्प्रदाय एवं इतिहास (आनलाइन गूगल पुस्तक; लेखक - अरुण कुमार सिंह)
मनोविज्ञान शब्दावली (अंग्रेजी-हिन्दी)
मनोविज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली-१
मनोविज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली-२
मनोविज्ञान के जाँच एवं परीक्षण (गूगल पुस्तक; लेखक - राणाप्रताप सिन्हा)
मनोविज्ञान - मन का विज्ञान या आत्मा का ?
मनोविज्ञान, शिक्षा एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों में अनुसंधान विधियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - रामजी श्रीवास्तव)
मनोविज्ञान के सिद्धान्त व प्रतिपादक/जनक |
खेल, कई नियमों एवं रिवाजों द्वारा संचालित होने वाली एक प्रतियोगी गतिविधि है। खेल सामान्य अर्थ में उन गतिविधियों को कहा जाता है, जहाँ प्रतियोगी की शारीरिक क्षमता खेल के परिणाम (जीत या हार) का एकमात्र अथवा प्राथमिक निर्धारक होती है, लेकिन यह शब्द दिमागी खेल (कुछ कार्ड खेलों और बोर्ड खेलों का सामान्य नाम, जिनमें
भाग्य का तत्व बहुत थोड़ा या नहीं के बराबर होता है) और मशीनी खेल जैसी गतिविधियों के लिए भी प्रयोग किया जाता है, जिसमें मानसिक तीक्ष्णता एवं उपकरण संबंधी गुणवत्ता बड़े तत्त्व होते हैं। सामान्यतः खेल को एक संगठित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रशिक्षित शारीरिक गतिविधि के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें प्रतिबद्धता तथा निष्पक्षता होती है। कुछ देखे जाने वाले खेल इस तरह के गेम से अलग होते है, क्योंकि खेल में उच्च संगठनात्मक स्तर एवं लाभ (जरूरी नहीं कि वह मौद्रिक ही हो) शामिल होता है। उच्चतम स्तर पर अधिकतर खेलों का सही विवरण रखा जाता है और साथ ही उनका अद्यतन भी किया जाता है, जबकि खेल खबरों में विफलताओं और उपलब्धियों की व्यापक रूप से घोषणा की जाती है।
जिन खेलों का निर्णय निजी पसंद के आधार पर किया जाता है, वे सौंदर्य प्रतियोगिताओं और शरीर सौष्ठव कार्यक्रमों जैसे अन्य निर्णयमूलक गतिविधियों से अलग होते हैं, खेल की गतिविधि के प्रदर्शन का प्राथमिक केंद्र मूल्यांकन होता है, न कि प्रतियोगी की शारीरिक विशेषता। (हालाँकि दोनों गतिविधियों में "प्रस्तुति" या "उपस्थिति" भी निर्णायक हो सकती हैं)।
खेल अक्सर केवल मनोरंजन या इसके पीछे आम तथ्य को उजागर करता है कि लोगों को शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम करने की आवश्यकता है।
हालाँकि वे हमेशा सफल नहीं होते है। खेल प्रतियोगियों से खेल भावना का प्रदर्शन करने और विरोधियों एवं अधिकारियों को सम्मान देने व हारने पर विजेता को बधाई देने जैसे व्यवहार के मानदंड के पालन की उम्मीद की जाती है। राजस्थान के खेल गिल्ली डंडा और हाथों लिया चार्ली नारियो लुक मिचली प्रसिद्ध खेल रहे हैं इन से शरीर को बहुत फायदा होता था वह रात को सारी बस्ती की लड़कियों और लड़कों के साथ खेलने में मजा ही कुछ और था
"खेल" ("स्पोर्ट") शब्द की [संस्कृत] शब्द स्पर्ध से उत्पत्ति हुई है, जिसका अर्थ "प्रतियोगिता" है।
प्राप्त कलाकृतियों और ढाँचों से पता चलता है कि चीन के लोग लगभग ४००० ईसा पूर्व से खेल की गतिविधियों में शामिल थे। ऐसा प्रतीत होता है कि चीन के प्राचीन काल में जिम्नास्टिक एक लोकप्रिय खेल था। तैराकी और मछली पकड़ना जैसे खेलों के साथ कई खेल पूरी तरह से विकसित और नियमबद्ध थे। इनका संकेत फराहों के स्मारकों से मिलता है। मिस्र के अन्य खेलों में भाला फेंक, ऊँची कूद और कुश्ती भी शामिल थी। फारस के प्राचीन खेलों में जौरखानेह (ज़ोउर्खनेह) जैसा पारंपरिक ईरानी मार्शल आर्ट का युद्ध कौशल से गहरा संबंध था। अन्य खेलों में फारसी मूल के पोलो और खेल में सवारों का द्वंद्वयुद्ध शामिल हैं।
प्राचीन यूनानी काल में कई तरह के खेलों की परंपरा स्थापित हो चुकी थी और ग्रीस की सैन्य संस्कृति और खेलों के विकास ने एक दूसरे को काफी प्रभावित किया। खेल उनकी संस्कृति का एक ऐसा प्रमुख अंग बन गया कि यूनान ने ओलिंपिक खेलों का आयोजन किया, जो प्राचीन समय में हर चार साल पर पेलोपोनेसस के एक छोटे से गाँव में ओलंपिया नाम से आयोजित किये जाते थे।
प्राचीन ओलंपिक्स से वर्तमान सदी तक खेल आयोजित किये जाते रहे हैं और उनका विनियमन भी होता रहा है। औद्योगिकीकरण की वजह से विकसित और विकासशील देशों के नागरिकों के अवकाश का समय भी बढ़ा है, जिससे नागरिकों को खेल समारोहों में भाग लेने और दर्शक के रूप में मैदानों तक पहुँचने, एथलेटिक गतिविधियों में अधिक से अधिक भागीदारी करने और उनकी पहुँच बढ़ी है। मास मीडिया और वैश्विक संचार माध्यमों के प्रसार से ये प्रवृत्तियाँ जारी रहीं। व्यवसायिकता की प्रधानता हुई, जिससे खेलों की लोकप्रियता में वृद्धि हुई, क्योंकि खेल प्रशंसकों ने रेडियो, टेलीविजन और इंटरनेट के माध्यम से व्यावसायिक खिलाड़ियों के खेल का बेहतरीन आनंद लेना शुरू किया। इसके अलावा व्यायाम और खेल में शौकिया भागीदारी का आनंद लेने का रिवाज भी बढ़ा।
नई सदी में, नए खेल, प्रतियोगिता के शारीरिक पहलू से आगे जाकर मानसिक या मनोवैज्ञानिक पहलू को बढ़ावा दे रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक खेल संगठन दिन पर दिन लोकप्रिय होते जा रहे हैं।
क्रियाएं, जहाँ परिणाम गतिविधि पर निर्णय से निर्धारित होता है, उन्हें प्रदर्शन या प्रतिस्पर्धा माना जाता है।
खेल भावना एक दृष्टिकोण है, जो ईमानदारीपूर्वक खेलने, टीम के साथियों और विरोधियों के प्रति शिष्टाचार बरतने, नैतिक व्यवहार और सत्यनिष्ठा दिखाने तथा जीत या हार में बड़प्पन के प्रदर्शन की प्रेरणा देता है।
खेल भावना एक आकांक्षा या लोकाचार को अभिव्यक्त करती है कि गतिविधि का आनंद खुद गतिविधि ही उठाये। खेल पत्रकार ग्रांटलैंड राइस का प्रसिद्ध कथन है कि "यह अहम नहीं है कि तुम हारे या जीते, अहम यह है कि तुमने खेल कैसा खेला", आधुनिक ओलिंपिक भावना की अभिव्यक्ति इसके संस्थापक पियरे डी कॉबिरटीन ने इस प्रकार की है कि "सबसे महत्वपूर्ण बात है।..जीतना नहीं, बल्कि इसमें हिस्सा लेना" ये इस भावना की विशिष्ट अभिव्यक्ति हैं।
खेल में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और जानबूझकर आक्रामक हिंसा के बीच की रेखा को पार करने से ही हिंसा पैदा होती है। एथलीट, कोच, प्रशंसक, कभी अभिभावक कभी-कभी गुमराह वफादारी, प्रभुत्व, क्रोध, या उत्सव के तौर पर लोगों और संपत्ति को हिंसा की भेंट चढ़ा देते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हुड़दंग और गुंडागर्दी आम बात हो गयी है और यह एक बड़ी समस्या बन गयी है।
खेल के मनोरंजन वाले पहलू, मास मीडिया के प्रसार और अवकाश के लिए समय बढ़ने के साथ-साथ खेलों में व्यावसायिकता बढ़ी है। इसकी वजह से कुछ-कुछ संघर्ष के हालात भी पैदा हुए हैं, जहाँ भुगतान का चेक मनोरंजक पहलुओं से ज्यादा अहम हो जाता है या जहाँ खेलों को ज्यादा से ज्यादा मुनाफेदार और लोकप्रिय बनाने की कोशिश की जाती है और इस तरह कुछ महत्वपूर्ण परंपराएं लुप्त होती जाती हैं।
खेल के मनोरंजन पहलू का मतलब यह भी है कि खिलाड़ियों और महिलाओं को अक्सर सेलिब्रिटी की हैसियत हासिल होती है।
समय के साथ खेल और राजनीति ने एक-दूसरे को काफी प्रभावित किया है।
जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद सरकारी नीति थी, खेलों से जुड़े कई लोग, विशेष रूप से रग्बी यूनियन में आम सहमति से एक दृष्टिकोण अपनाया गया कि उन्हें वहाँ प्रतिस्पर्धात्मक खेलों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। कुछ लोगों को लगता है कि रंगभेद की नीति के खात्मे में इसका एक प्रभावी योगदान था, जबकि दूसरों को लगता है कि यह काफी लंबे समय तक चल सकता था और और अपना सबसे बुरा प्रभाव दिखा सकता था।
१९३६ के बर्लिन में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलंपिक एक मिसाल था, शायद पीछे मुड़कर आत्मनिरीक्षण करने का, जहाँ एक विचारधारा विकसित हुई, जिसने प्रचार-प्रसार के माध्यम से खुद को मजबूत करने के लिए आयोजन का उपयोग किया।
आयरलैंड के इतिहास में, गेलिक खेल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़े हुए थे। २०वीं सदी के मध्य तक कोई व्यक्ति गेलिक फुटबॉल खेलने, प्रक्षेपण, या गेलिक एथलेटिक एसोसिएशन (गा) द्वारा प्रशासित खेलों में भाग लेने से रोका जा सकता था, अगर वह ब्रिटिश मूल के फुटबॉल या अन्य खेलों में भाग लेता या समर्थन करता। हाल तक गा ने गेलिक स्थानों फुटबॉल और रग्बी यूनियन के खेलने पर प्रतिबंध जारी रखा था। यह प्रतिबंध आज भी लागू है, लेकिन क्रोक पार्क में फुटबॉल और रग्बी खेलने की अनुमति देने के लिए कुछ संशोधन किया गया। जबकि लैंसडाउन रोड को पुनर्विकसित किया जा रहा है। हाल तक नियम २१ के तहत, गा ने भी ब्रिटिश सुरक्षा बलों और रुक के सदस्यों पर गेरिक खेल खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन १९९८ में गुड फ्राइडे समझौते के बाद इस प्रतिबंध को हटाया जा सका।
खेल कार्यकलाप के दौरान, या इसकी रिपोर्टिंग में कई बार राष्ट्रवाद उभर कर सामने आ जाता है। राष्ट्रीय दलों में भाग लेने वाले खिलाड़ी या कमेंटेटर और दर्शक पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण अपनाते हैं। कई अवसरों पर ऐसा तनाव खिलाड़ियों या मैदान के भीतर या बाहर के दर्शकों के बीच हिंसक झड़पों को जन्म (फुटबॉल युद्ध देख सकते हैं) देता है। खेल के बुनियादी मूल्यों के विपरीत ये प्रवृतियाँ अपने हित और प्रतियोगियों के मनोरंजन के लिए अपनाई जाती रही हैं।
खेल की कला के साथ कई समानताएं हैं। आइस स्केटिंग व ताई ची और उदाहरण के लिए डाँस स्पोर्ट, ऐसे खेल हैं जो कलात्मक नजरिये के करीब होते हैं। इसी प्रकार, कलात्मक जिमनास्टिक, शरीर सौष्ठव, पार्कआवर, प्रदर्शन कला, योग, बेसबॉल, ड्रेसेज, पाक कला जैसी गतिविधियों में खेल और कला दोनों के तत्त्व दिखते हैं। शायद इसका सबसे अच्छा उदाहरण बुल फाइटिंग (साँडों से लड़ना) है, जिनकी खबरें समाचार पत्रों के कला पन्नों में छापी जाती हैं। वस्तुत: कुछ स्थितियों में खेल, कला के इतने करीब होता है कि वह संभवत: खेल की प्रकृति से संबंधित हो जाता है। उपर्युक्त "खेल" की परिभाषा एक गतिविधि का विचार व्यक्त करती है, जो सामान्य प्रयोजनों के लिए नहीं होती, उदाहरण के लिए दौड़ना केवल कहीं पहुंचने के लिए नहीं होता, बल्कि अपने लिए दौड़ना है, जैसे कि हम दौड़ने में सक्षम हैं।
यह सौंदर्य मूल्यबोध के आम विचार के करीब है, जो वस्तु के सामान्य उपयोग से निकले विशुद्ध कार्यकारी मूल्य से ऊपर है। जैसे, सौंदर्यबोध वाली मनभावन कार वह नहीं है जो ए से बी को मिलती है, बल्कि जो अनुग्रह, शिष्टता और करिश्में से हमें प्रभावित करती है।
उसी तरह, उँची कूद जैसे खेल के प्रदर्शन में सिर्फ बाधाओं से बचने या नदियों को पार करने की गतिविधि हमें प्रभावित नहीं करती। इसमें दिखी योग्यता, कौशल और शैली से हम प्रभावित होते हैं।
कला और खेल के बीच संभवतः स्पष्ट संपर्क प्राचीन ग्रीस के समय से है, जब जिमनास्टिक और कालिस्थेनिक्स (कैलिस्थेनिक्स) ने प्रतिभागियों द्वारा प्रदर्शित शारीरिक गठन, शक्ति और 'एरेट' सौंदर्य की सराहना शुरू की। कौशल के रूप में 'कला' आधुनिक अर्थ प्राचीन ग्रीक शब्द 'अरते से संबंधित है। इस दौर में कला और खेल की निकटता ओलंपिक खेलों के जरिये दिखी, जैसा कि हमने खेल और कलात्मक उपलब्धियों दोनों के समारोहों, कविता, मूर्तिकला और वास्तुकला में देखा है।
खेल में प्रौद्योगिकी की एक महत्वपूर्ण भूमिका है, चाहे उसका किसी एथलीट के स्वास्थ्य के लिए उपयोग किया जाये या एथलीट्स की तकनीक या उपकरण की विशेषताओं के रूप में।
उपकरण चूंकि खेल और अधिक प्रतिस्पर्धी हो गए हैं, इसलिए बेहतर उपकरणों की जरूरत बढ़ी है। नई तकनीक के प्रयोग से गोल्फ क्लब, फुटबॉल हेलमेट, बेसबॉल के बल्ले, फुटबॉल की गेंद, हॉकी, स्केट्स और अन्य उपकरणों में उल्लेखनीय बदलाव देखे गये हैं।
स्वास्थ्य पोषण से लेकर चोटों के इलाज तक, समय के साथ मानव शरीर के ज्ञान में बढोत्तरी होने के कारण एक खिलाड़ी की संभावनाएं भी बढ़ी हैं। एथलीट अब ज्यादा उम्र का होने के बावजूद खेलने में सक्षम हैं, उनके चोट जल्दी ठीक हो रहे हैं और पिछली पीढ़ियों के एथलीटों की तुलना में अधिक प्रभावी ढंग से प्रशिक्षित हो रहे हैं।
अनुदेश प्रौद्योगिकी के विकास ने खेलों में अनुसंधान के लिए नये अवसर पैदा किये हैं। अब खेल के पहलुओं का विश्लेषण संभव है, जिन्हें पहले पहुँच से बाहर समझा जाता था। गति के चित्र लेने से लेकर खिलाड़ी की गति या उन्नत कंप्यूटर सिमुलेशन को पकड़ने से मॉडल भौतिक स्थितियों को कैद करने में सक्षम होने के कारण एथलीट के क्रियाकलापों को समझने और उनमें सुधार करने की क्षमता पैदा हुई है।
ब्रिटिश अंग्रेजी में खेल की गतिविधियाँ सामान्य संज्ञा "खेल" के रूप में चिह्नित हैं। अमेरिकी अंग्रेजी में "खेल" का अधिक इस्तेमाल किया जाता है। अंग्रेजी की सभी बोलियों में, "खेल" एक से अधिक विशिष्ट खेलों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के तौर पर, "फुटबॉल और तैराकी, मेरे पसंदीदा खेल हैं", सभी अंग्रेज़ी बोलने वालों को स्वाभाविक लगेगा जबकि "मैं खेल का आनंद लेता हूँ", उत्तरी अमेरिकियों को "मैं खेलों का आनंद लेता हूँ" की तुलना में कम स्वाभाविक लगेगा।
"खेल" शब्द का उपयोग कभी-कभी शारीरिक गतिविधि के स्तर के अलावा सभी प्रतिस्पर्धात्मक गतिविधियों के लिए किया जाता है। दक्षता वाले खेल और मोटरवाले खेल दोनों ही शारीरिक गतिविधि प्रदर्शित करते हैं, जैसे दक्षता, खिलाड़ीपन और यहाँ तक कि ऊँचे स्तर पर पेशेवर प्रायोजन भी शारीरिक रूप से खेले जाने वाले खेलों से जुड़े होते हैं। हवा के खेल, बिलियर्ड्स, ब्रिज, शतरंज, मोटरसाईकिल दौड़ और पावरबोटिंग, सब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति द्वारा खेल के रूप में मान्यता प्राप्त हैं, क्योंकि आयोक द्वारा मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय खेल संघों की एसोसिएशन में उनकी प्रशासकीय निकायों का प्रतिनिधित्व होता है।
खेल प्रतिभागियों के लिए मनोरंजन का एक रूप होने के बावजूद बहुत सारे खेल दर्शकों के सामने खेले जाते हैं। ज्यादातर पेशेवर खेल किसी तरह के 'थियेटर', एक स्टेडियम, मैदान, गोल्फ कोर्स, दौड़ ट्रैक, या खुली सड़क पर आम जनता के देखने के प्रावधान (अक्सर इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है) के तहत खेले जाते हैं।
खेल में अब बड़े टीवी दर्शकों या रेडियो श्रोताओं को भी आकर्षित किया जाता है, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी प्रसारक कुछ खेलों के प्रसारण 'अधिकार' के लिए बड़ी राशि की बोली लगाते हैं। फुटबॉल विश्व कप, विश्व के लाखों-करोड़ों टीवी दर्शकों को आकर्षित करता है, जैसे २००६ के फाइनल ने अकेले पूरी दुनिया में ७०० मिलियन दर्शकों को आकर्षित किया। संयुक्त राज्य अमेरिका में नल की चैम्पियनशिप खेल- सुपर बाउल- वर्ष का सबसे ज्यादा देखे जाने वाले टेलीविजन प्रसारणों में से एक बन गया। सुपर बाउल रविवार एक तरह से अमेरिका में राष्ट्रीय अवकाश बन जाता है और दर्शकों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि २००७ में प्रति ३० सेकेंड के स्लॉट के लिए २.६ मिलियन डॉलर की दर से विज्ञापन मिले।
इन्हें भी देखें
खेल की रूपरेखा
खिलाड़ियों की सूची
खेल उपस्थिति के आंकड़ों की सूची
पेशेवर खेल लीग की सूची
खेल की समयरेखा
खेल का इतिहास
राष्ट्रवाद और खेल
फिल्म में खेलक९
खेल के प्रशासी निकाय
खेल लीग उपस्थिति
लोगों के नाम पर खेल शर्तों
महिलाओं के खेल
खेल जगत से जुडी ताजा खबरे हिन्दी में |
नृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है। भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया।
भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। इस कला को हिन्दू देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है। भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण कृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है।
भारतीय नृत्य के प्रकार
भारतीय नृत्य उतने ही विविध हैं जितनी हमारी संस्कृति, लेकिन इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है- शास्त्रीय नृत्य तथा लोकनृत्य। हाल ही में बॉलीवुड नृत्य की एक नई शैली लोकप्रिय होती जा रही हैं जो भारतीय सिनेमा पर आधारित है। इसमें भारतीय शास्त्रीय, भारतीय लोक और पाश्चात्य शास्त्रीय तथा पाश्चात्य लोक का समन्वय देखने को मिलता है।
जिस तरह भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलती है वैसे ही नृत्य शैलियाँ भी विविध हैं। प्रमुख भारतीय शास्त्रीय नृत्य हैं:
लोक नृत्यों में प्रत्येक प्रांत के अनेक स्थानीय नृत्य हैं। जैसे पंजाब में भांगड़ा, उत्तर-प्रदेश का पखाउज आदि
भारतीय नृत्य का इतिहास
नृत्य का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तियाँ हैं, जिनके संबंध में पुरातत्वेत्ता नर्तकी होने का दावा करते हैं। ऋगवेद के अनेक श्लोकों में नृत्या शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । तथा नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे। अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। इस युग में नृत्य के साथ निम्नलिखित वाद्यों का प्रयोग होता था। वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्। अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिए और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिये।
यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। पुराणों में भी नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। श्रीमद्भागवत महापुराण, शिव पुराण तथा कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। रामायण और महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था। भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था। इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- वात्स्यायन की कामसूत्र- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है। आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्त्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते। भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।
भारतीय डाकटिकटों में नृत्य
पश्चिमी नृत्य के प्रकार
कई अन्य नृत्य शैलियों बैले के आधार पर कर रहे हैं के रूप में बैले, नृत्य के कई अन्य शैलियों के लिए एक आधार के रूप में कार्य करता है। बैले सदियों से विकसित किया गया है कि तकनीक पर आधारित है। बैले कहानियां बताने के लिए संगीत और नृत्य का उपयोग करता है। बैले नर्तकियों एक और दुनिया के लिए एक दर्शकों को परिवहन करने की क्षमता है।
जैज मौलिकता और कामचलाऊ व्यवस्था पर काफी निर्भर करता है कि एक मजेदार नृत्य शैली है। कई जैज नर्तकियों को अपने स्वयं की अभिव्यक्ति को शामिल, उनके नृत्य में विभिन्न शैलियों का मिश्रण। जैज नृत्य अक्सर् संकुचन सहित बोल्ड, नाटकीय शरीर आंदोलनों का उपयोग करता है।
हिप - हॉप
हिप हॉप संस्कृति से विकसित किया है कि आमतौर पर हिप हॉप संगीत के लिए नृत्य एक नृत्य शैली देश और पश्चिमी नृत्य आम तौर पर देश के पश्चिमी संगीत पर नृत्य किया कई नृत्य रूपों, भी शामिल है। यदि आप कभी भी एक देश और पश्चिमी क्लब या सराय लिए किया गया है, तो आप शायद उनके चेहरे पर बड़ी मुस्कान के साथ डांस फ्लोर के आसपास ट्वर्लिग्ग् कुछ चरवाहे बूट पहने नर्तकों देखा है। बेली नृत्यहै। हिप हॉप ऐसे तोड़ने पॉपिंग, लॉकिंग और क्रम्पिंग्ग् और यहां तक कि घर के नृत्य के रूप में विभिन्न चाल भी शामिल है। कामचलाऊ व्यवस्था और व्यक्तिगत व्याख्या हिप - हॉप नृत्य करने के लिए आवश्यक हैं।
स्विंग नृत्य जोड़े, झूले स्पिन और एक साथ कूद जिसमें एक जीवंत नृत्य शैली है। स्विंग नृत्य एक सामान्य संगीत स्विंग करने के नाच का मतलब है कि अवधि, या संगीत है "झूलों. कि" एक गीत झूलों यदि आप कैसे बता सकते हैं? स्विंग नर्तकियों वे इसे सुना है, वे अभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं जब एक गाना झूलों क्योंकि जानते हैं।
कॉन्ट्रा नृत्य नर्तकियों दो समानांतर लाइनों फार्म और रेखा की लंबाई नीचे विभिन्न भागीदारों के साथ नृत्य आंदोलनों का एक दृश्य जो प्रदर्शन में अमेरिकी लोक नृत्य का एक रूप है। कॉन्ट्रा नृत्य परिवार की तरह वायुमंडल के साथ आराम कर रहे हैं। नृत्य बहुत अच्छा व्यायाम है और नर्तकियों को अपनी गति निर्धारित कर सकते हैं। कॉन्ट्रा नर्तकियों आमतौर पर नृत्य का एक प्यार के साथ दोस्ताना, सक्रिय लोग हैं।
बेली नृत्य कूल्हों और पेट की तेज, रोलिंग आंदोलनों द्वारा विशेषता नृत्य का एक अनोखा रूप है। बेली डांसिंग का असली मूल उत्साही लोगों के बीच बहस कर रहे हैं।
आधुनिक नृत्य भीतर की भावनाओं की अभिव्यक्ति पर बजाय ध्यान केंद्रित, शास्त्रीय बैले के कड़े नियमों से कई को खारिज कर दिया कि एक नृत्य शैली है। आधुनिक नृत्य नृत्यकला और प्रदर्शन में रचनात्मकता पर बल, शास्त्रीय बैले के खिलाफ एक विद्रोह के रूप में बनाया गया था।
लैटिन नृत्य सेक्सी हिप आंदोलनों द्वारा विशेषता एक तेजी से पुस्तक, अक्सर कामुक, साथी नृत्य है। हालांकि, हिप आंदोलनों लैटिन नृत्य में से किसी में जानबूझकर नहीं कर रहे हैं। हिप गति से एक दूसरे पैर से वजन बदलने का एक स्वाभाविक परिणाम है
साल्सा क्यूबा से एक समधर्मी नृत्य शैली है। एकल रूपों में पहचाने जाते हैं, हालांकि साल्सा, सामान्य रूप से एक साथी नृत्य है। साल्सा आमतौर पर साल्सा संगीत पर नृत्य किया जाता है। आप एक साथी आवश्यक नहीं हो सकता है, जिसमें रेखा नृत्य का एक फार्म के रूप में यह नृत्य निर्देशन कर सकते हैं, हालांकि साल्सा, एक जोड़ी की आवश्यकता है। इस नृत्य शैली लैटिन अमेरिका भर में बहुत लोकप्रिय है और समय के साथ यह उत्तरी अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और मध्य पूर्व के माध्यम से फैल गया।
एक लाइन नृत्य लोगों के एक समूह के व्यक्तियों के लिंग के संबंध के बिना एक या एक से अधिक लाइनों या पंक्तियों में नृत्य जिसमें कदम की एक दोहराया अनुक्रम के साथ एक नृत्य नृत्य है, सभी एक ही दिशा का सामना करना पड़ और एक ही समय में कदम क्रियान्वित करने। उनके पास नर्तकियों का हाथ पकड़े हुए हैं जबकि, पुराने नर्तकियों एक दूसरे का सामना जिसमें लाइनें है "रेखा नृत्य", या "रेखा" "लाइन" डांस फ्लोर के चारों ओर एक नेता का पालन में एक चक्र, या सभी नर्तकियों है।
बॉलरूम डांस अपने साथी के साथ किया जाने वाला नृत्य है, जिसे दुनियाभर में बेहद पसंद किया जाता है। हल्की लाइट म्यूजिक में यह डांस बेहद आकर्षक दिखता है। इसमें साल्सा, रूंबा, सांबा, कैसीनो और बक आदि को मिक्स भ्ीा किया जा सकता है। आमतौर पर बॉरूम डांस अपने साथी के साथ एक दूसरे की बाहों में किया जाता है। बॉलरूम नृत्य के दो मुख्य शैलियों हैं - अमेरिकी शैली और अंतर्राष्ट्रीय शैली।
नर्तकी - भारतीय नृत्य का 'प्रवेशद्वार' |
सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायन, वादन व नृत्य तीनों के समावेश को संगीत कहते हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर लिया होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।युगवन वि रीछ क्ल ब्ब व क्व
गायन मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया है। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गायन ने व्यवस्थित रूप धारण किया।
उत्तरी राजस्थान संगीत पद्धति
दक्षिणी संगीत पद्धति
युद्ध, उत्सव और प्रार्थना या भजन के समय मानव गाने बजाने का उपयोग करता चला आया है। संसार में सभी जातियों में बाँसुरी इत्यादि फूँक के वाद्य (सुषिर), कुछ तार या ताँत के वाद्य (तत), कुछ चमड़े से मढ़े हुए वाद्य (अवनद्ध या आनद्ध), कुछ ठोंककर बजाने के वाद्य (घन) मिलते हैं।
ऐसा जान पड़ता है कि भारत में भरत के समय तक गान को पहले केवल 'गीत' कहते थे। वाद्य में जहाँ गीत नहीं होता था, केवल दाड़ा, दिड़दिड़ जैसे शुष्क अक्षर होते थे, वहाँ उसे 'निर्गीत' या 'बहिर्गीत' कहते थे और नृत्त अथवा नृत्य की एक अलग कला थी। किंतु धीरे-धीरे गान, वाद्य और नृत्य तीनों का "संगीत" में अंतर्भाव हो गया - गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगतमुच्यते।
भारत से बाहर अन्य देशों में केवल गीत और वाद्य को संगीत में गिनते हैं; नृत्य को एक भिन्न कला मानते हैं। भारत में भी नृत्य को संगीत में केवल इसलिए गिन लिया गया कि उसके साथ बराबर गीत या वाद्य अथवा दोनों रहते हैं। ऊपर लिखा जा चुका है कि स्वर और लय की कला को संगीत कहते हैं। स्वर और लय गीत और वाद्य दोनों में मिलते हैं, किंतु नृत्य में लय मात्र है, स्वर नहीं। हम संगीत के अंतर्गत केवल गीत और वाद्य की चर्चा करेंगे, क्योंकि संगीत केवल इसी अर्थ में अन्य देशों में भी व्यवहृत होता है।
संगीत का आदिम स्रोत प्राकृतिक ध्वनियाँ ही है। प्राक् संगीत-युग में मनुष्य के प्रकृति की ध्वनियों और उनकी विशिष्ट लय को समझने की कोशिश की। हर तरह की प्राकृतिक ध्वनियाँ संगीत का आधार नहीं हो सकतीं, अत: भाव पैदा करने वाली ध्वनियों को परखकर संगीत का आधार बनाने के साथ-साथ उन्हें लय में बाँधने का प्रयास किया गया होगा। प्रकृति की वे ध्वनियाँ जिन्होंने मनुष्य के मन-मस्तिष्क को स्पर्श कर उल्लसित किया, वही सभ्यता के विकास के साथ संगीत का साधन बनीं। हालांकि विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। दार्शनिकों ने नाद के चार भागों परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी में से मध्यमा को संगीतोपयोगी स्वर का आधार माना। डार्विन ने कहा कि पशु रति के समय मधुर ध्वनि करते हैं। मनुष्य ने जब इस प्रकार की ध्वनि का अनुकरण आरम्भ किया तो संगीत का उद्भव हुआ। कार्ल स्टम्फ ने भाषा उत्पत्ति के बाद मनुष्य द्वारा ध्वनि की एकतारता को स्वर की उत्पत्ति माना। उन्नीसवीं शदी के उत्तरार्द्ध में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा कि संगीत की उत्पत्ति मानवीय संवेदना के साथ हुई। उन्होंने संगीत को गाने, बजाने, बताने (केवल नृत्य मुद्राओं द्वारा) और नाचने का समुच्चय बताया।
प्राच्य शास्त्रों में संगीत की उत्पत्ति को लेकर अनेक रोचक कथाएँ हैं। देवराज इन्द्र की सभा में गायक, वादक व नर्तक हुआ करते थे। गन्धर्व गाते थे, अप्सराएँ नृत्य करती थीं और किन्नर वाद्य बजाते थे। गान्धर्व-कला में गीत सबसे प्रधान रहा है। आदि में गान था, वाद्य का निर्माण पीछे हुआ। गीत की प्रधानता रही। यही कारण है कि चाहे गीत हो, चाहे वाद्य सबका नाम संगीत पड़ गया। पीछे से नृत्य का भी इसमें अन्तर्भाव हो गया। संसार की जितनी आर्य भाषाएँ हैं उनमें संगीत शब्द अच्छे प्रकार से गाने के अर्थ में मिलता है।
'संगीत' शब्द सम्+ग्र धातु से बना है। अन्य भाषाओं में सं का सिं हो गया है और गै या गा धातु (जिसका भी अर्थ गाना होता है) किसी न किसी रूप में इसी अर्थ में अन्य भाषाओं में भी वर्तमान है। ऐंग्लो सैक्सन में इसका रूपान्तर है सिंगन (सिंगन) जो आधुनिक अंग्रेजी में सिंग हो गया है, आइसलैंड की भाषा में इसका रूप है सिग (सिंगजा), (केवल वर्ण विन्यास में अन्तर आ गया है,) डैनिश भाषा में है सिंग (सिंगे), डच में है त्सिंगन (सिंगेन), जर्मन में है सिंगेन (सिंगेन)। अरबी में गना शब्द है जो गान से पूर्णतः मिलता है। सर्वप्रथम संगीतरत्नाकर ग्रन्थ में गायन, वादन और नृत्य के मेल को ही संगीत कहा गया है। वस्तुतः गीत शब्द में सम् जोड़कर संगीत शब्द बना, जिसका अर्थ है गान सहित। नृत्य और वादन के साथ किया गया गान संगीत है। शास्त्रों में संगीत को साधना भी माना गया है।
प्रामाणिक तौर पर देखें तो सबसे प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष, मूर्तियों, मुद्राओं व भित्तिचित्रों से जाहिर होता है कि हजारों वर्ष पूर्व लोग संगीत से परिचित थे। देव-देवी को संगीत का आदि प्रेरक सिर्फ हमारे ही देश में नहीं माना जाता, यूरोप में भी यह विश्वास रहा है। यूरोप, अरब और फारस में जो संगीत के लिए शब्द हैं उस पर ध्यान देने से इसका रहस्य प्रकट होता है। संगीत के लिए यूनानी भाषा में शब्द मौसिकी (मुसीक), लैटिन में मुसिका (मुज़िका), फ्रांसीसी में मुसीक (मुसीक), पोर्तुगी में मुसिका (मुज़िका), जर्मन में मूसिक (मुसिक), अंग्रेजी में म्यूजिक (मुज़िक), इब्रानी, अरबी और फारसी में मोसीकी। इन सब शब्दों में साम्य है। ये सभी शब्द यूनानी भाषा के म्यूज(मुसे) शब्द से बने हैं। म्यूज यूनानी परम्परा में काव्य और संगीत की देवी मानी गयी है। कोश में म्यूज (मुसे) शब्द का अर्थ दिया है दि इन्सपायरिंग गॉडेस ऑफ साँग अर्थात् गान की प्रेरिका देवी। यूनान की परम्परा में म्यूज ज्यौस(जूस) की कन्या मानी गयी हैं। ज्यौस शब्द संस्कृत के द्यौस् का ही रूपान्तर है जिसका अर्थ है स्वर्ग। ज्यौस और म्यूज की धारण ब्रह्मा और सरस्वती से बिलकुल मिलती-जुलती है।
भारतीय संगीतभारतीय संगीत का एक सबसे बड़ा संगीत का स्रोत सामवेद को भी माना जाता है सामवेद पूरा का पूरा संगीत का ही ज्ञान है।
भारतीय संगीत का जन्म वेद के उच्चारण में देखा जा सकता है।
संगीत का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। अन्य ग्रन्थ हैं : बृहद्देशी, दत्तिलम्, संगीतरत्नाकर।
संगीत एवं आध्यात्म भारतीय संस्कृति का सुदृढ़ आधार है। भारतीय संस्कृति आध्यात्म प्रधान मानी जाती रही है। संगीत से आध्यात्म तथा मोक्ष की प्रप्ति के साथ भारतीय संगीत के प्राण भूत तत्व रागों के द्वारा मनः शांति, योग ध्यान, मानसिक रोगों की चिकित्सा आदि विशेष लाभ प्राप्त होते है। प्राचीन समय से मानव संगीत की आध्यात्मिक एवं मोहक शक्ति से प्रभावित होता आया है।
प्राचीन मनीषियों ने सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानी है। ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण जड़-चेतन में नाद व्याप्त है, इसी कारण इसे "नाद-ब्रह्म भी कहते हैं।
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण संसार अप्रत्यक्ष रूप से संगीतमय हैं। संगीत एक ईश्वरीय वाणी है। अतः यह ब्रह्म रूप ही हैं । संगीत आनन्द का अविर्भाव है तथा आनन्द ईश्वर का स्वरूप है। संगीत के माध्यम से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। योग व ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ आचार्य श्री याज्ञवल्क्य जी कहते हैं -
तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।
संगीत एक प्रकार का योग है। इसकी विशेषता है कि इसमें साध्य और साधन दोनों ही सुखरूप हैं। अतः संगीत एक उपासना है, इस कला के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति होती है। यही कारण है कि भारतीय संगीत के सुर और लय की सहायता से मीरा, तुलसी, सूर और कबीर जैसे कवियों ने भक्त शिरोमणि की उपाधि प्राप्त की और अन्त में ब्रह्म के आनन्द में लीन हो गए। इसीलिए संगीत को ईश्वर प्राप्ति का सुगम मार्ग बताया गया है। संगीत में मन को एकाग्र करने की एक अत्यन्त प्रभावशाली शक्ति है तभी से ऋषि मुनि इस कला का प्रयोग परमेश्वर का आराधना के लिए करने लगे।
संगीत की शैलियाँ
संगीत सुनने के लाभ
संगीत हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है। और यह हमारी दैनिक जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। संगीत केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं सुना जाता है। वरन इसके कई सारे फायदे हैं। अब संगीत का प्रयोग वैज्ञानिक अनेक रोगों के उपचार के अंदर भी कर रहे हैं। अनेक वैज्ञानिक रिसर्च ने इस बात को प्रमाणित किया है कि संगीत सुनने से कई सारे मानसिक फायदे होते हैं।
तनाव कम होता है
आज कल हर इंसान की जिंदगी दौड़ धूप से भरी रहती है। काम करते करते हम बुरी तरह से थक जाते हैं। जब संगीत सुनते हैं तो हमारा दिमाग रिलेक्स मोड के अंदर आता है। हमारे दिमाग मे नई एनर्जी का संचार होता है। व हम अच्छा फील करते हैं। संगीत हमारे मूड को बदल देता है। संगीत दिमाग मे कार्टिसोल के स्तर को कम करता है। जिससे दिमाग बेहतर तरीके से काम करता है।
दिमाग की नसों को आराम मिलता है
काम की वजह से दिमाग की नसे ज्यादा थक जाती हैं। संगीत सुनने से दिमाग को आराम मिलता है जहां पर कई बार दवाएं काम नहीं करती हैं ।वहां म्यूजिक थैरेपी काम करती है।स्वर- तरंगें संगीत का रूप लेकर जीवन दायनी सामर्थ्य उत्पन्न करती हैं ।
दर्द कम करने मे लाभप्रद
कुछ वैज्ञानिक शोध यह बताते हैं कि जब इंसान किसी तरह के दर्द से पीड़ित होता है तो उसे उसका मन पसंद संगीत सुनाया जाना चाहिए । जिससे उसका ध्यान दर्द से हट जाता है। और उसे दर्द का एहसास कम होता है।संगीत सुनने से दिमाग मे डोपामाइन का स्तर अधिक होता है। जो खुशी पैदा करता है।
सांस से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए
अमेरिका वैज्ञानिकों के अनुसार संगीत थेरैपी फेफड़ों के लिए काफी अच्छी रहती है। सांस से संबंधित रोगी को संगीत थैरेपी से ईलाज करने से फायदा मिलता है। लेकिन गम्भीर सांस के रोग इससे सही नहीं हो पाते हैं।
स्मृति ह्रास (मेमोरी लॉस) को कम करता है
जिन लोगों की यादाश्त अच्छी नहीं होती है। उनको संगीत सुनना चाहिए । जिससे उनकी यादाश्त अच्छी हो जाती है। और दिमाग काफी बेहतर तरीके से काम करने लग जाता है।
हृदय के लिए भी संगीत अच्छा है
संगीत सुनने से दिमाग के अंदर एंडोर्फिंस हार्मोन का स्त्राव होता है ।वैज्ञानिकों के अनुसार रोजाना ३० मिनट संगीत सुनने से दिल की क्षमता के अंदर बढ़ोतरी होती है। एक्सरसाइज के साथ संगीत सुनने से दिल की कार्यक्षमता के अंदर इजाफा होता है।
नींद अच्छी आती है
अच्छे संगीत सुनने से दिमाग के अंदर चल रहे बेकार के विचारों को विराम मिलता है। और रात के समय दिमाग पूरा खाली हो जाने से अच्छी नींद आती है। आमतौर पर जिन लोगों को नींद नहीं आती उनको सोने से पहले कुछ देर अच्छे गाने सुनने चाहिए।
डी के पट्टम्माल
पंडित भोला नाथ प्रसन्ना
इन्हें भी देखें
संगीत का इतिहास
भारतीय संगीत का इतिहास
संगीत मञ्जूषा (लेखिका - डॉ अंजू मुंजाल)
ध्वनि और संगीत (गूगल पुस्तक ; लेखक - प्रो ललितकिशोर सिंह) |
किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। साहित्य - स+हित+य के योग से बना है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोलेन्द्र पटेल ने साहित्य के संदर्भ में कहा है कि "आदिकाल में दर्शन और कविता के बीच द्वंद्व था, आज साइंस और साहित्य के बीच द्वंद्व है लेकिन साइंस तन को स्वस्थ करता है और साहित्य मन को"
कवि- नवीन पांडेय
भारतीय वाङ्मय को काल की दृष्टि से निम्नलिखित भागों में विभक्त किया गया है -
भारत का संस्कृत साहित्य ऋग्वेद से आरम्भ होता है। व्यास, वाल्मीकि जैसे पौराणिक ऋषियों ने महाभारत एवं रामायण जैसे महाकाव्यों की रचना की। भास, कालिदास एवं अन्य कवियों ने संस्कृत में नाटक लिखे।
भक्ति साहित्य में अवधी में गोस्वामी तुलसीदास, ब्रज भाषा में सूरदास तथा रैदास, मारवाड़ी में मीराबाई, खड़ीबोली में कबीर, रसखान, मैथिली में विद्यापति आदि प्रमुख हैं। अवधी के प्रमुख कवियों में रमई काका सुप्रसिद्ध कवि हैं।
हिन्दी साहित्य में कथा, कहानी और उपन्यास के लेखन में प्रेमचन्द का महान योगदान है।
ग्रीक साहित्य में होमर के इलियड और ऑडसी विश्वप्रसिद्ध हैं। अंग्रेज़ी साहित्य में शेक्स्पियर का नाम कौन नहीं जानता।
इन्हें भी देखें
साहित्य का इतिहास
साहित्यिक निबन्ध (गूगल पुस्तक ; लेखक - गणपतिचन्द्र गुप्त)
साहित्य सिद्धान्त (गूगल पुस्तक)
साहित्यानुशीलन (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ दयाशंकर शुक्ल)
समकालीन हिंदी साहित्य की जाल-पत्रिका 'अभिव्यक्ति'
साहित्य, संस्कृति और भाषा अंतराष्ट्रीय मंच सृजनगाथा
हिन्दी साहित्य प्रश्नोत्तरी (गूगल पुस्तक ; लेखिका - विभा देवसरे)
भारतीय साहित्य का जाल-पुस्तकालय एवं लेखकों और कवियों के बारे में जानकारी के लिए संपूर्ण स्रोत 'पुस्तक'
साहित्य में मूल्यबोध - डॉ॰ हरेकृष्ण मेहेर
मई २०१३ के लेख जिनमें स्रोत नहीं हैं |
मनोरंजन एक ऐसी क्रिया है जिसमें सम्मिलित होने वाले को आनन्द आता है एवं मन शान्त होता हैं। मनोरंजन सीधे भाग लेकर हो सकता है या कुछ लोगों को कुछ करते हुए देखने से हो सकता है।
मनोरंजन के साधन
हास्य रस गोष्ठी |
कविता एक स्त्री नाम है। जिसका अर्थ है काव्य। सुप्रसिद्ध कोरोजयी कवि गोलेन्द्र पटेल ने कविता के संदर्भ में कहा है कि "कविता आत्मा की औषधि है।"
कविता के. बड़जात्या (जन्म १२ नवंबर, १९७७), भारतीय निर्माता।
कविता दासवानी (जन्म १९७१), अमेरिकी-भारतीय लेखिका।
कविता कौशिक (जन्म १५ फरवरी, १९८१), भारतीय अभिनेत्री।
कविता कृष्णमूर्ति (जन्म २५ जनवरी, १९५८), भारतीय पार्श्व गायिका।
कविता राउत (जन्म ५ मई, 198५), भारतीय लंबी दूरी की धावक।
कविता रॉय (जन्म १० अप्रैल, १९८०), भारतीय क्रिकेटर।
कविता सेठ (जन्म १४ सितंबर, १९७०), भारतीय गायिका। |
चित्रकला एक द्विविमीय (टू-डिमेन्स्नल) कला है। भारत में चित्रकला का एक प्राचीन स्रोत विष्णुधर्मोत्तर पुराण है।
चित्रकला का प्रचार चीन, मिस्र, भारत आदि देशों में अत्यंत प्राचीन काल से है। मिस्र से ही चित्रकला यूनान में गई, जहाँ उसने बहुत उन्नति की। ईसा से १४०० वर्ष पहले मिस्र देश में चित्रों का अच्छा प्रचार था। लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में ३००० वर्ष तक के पुराने मिस्री चित्र हैं। भारतवर्ष में भी अत्यंत प्राचीन काल से यह विधा प्रचलित थी, इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। रामायण में चित्रों, चित्रकारों और चित्रशालाओं का वर्णन बराबर आया है। विश्वकर्मीय शिल्पशास्त्र में लिखा है कि स्थापक, तक्षक, शिल्पी आदि में से शिल्पी को ही चित्र बनाना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों को अंकित करने में प्राचीन भारतीय चित्रकार कितने निपुण होते थे, इसका कुछ आभास भवभूति के उत्तररामचरित के देखने से मिलता है, जिसमें अपने सामने लाए हुए वनवास के चित्रों को देख सीता चकित हो जाती हैं। यद्यपि आजकल कोई ग्रंथ चित्रकला पर नहीं मिलता है, तथापि प्राचीन काल में ऐसे ग्रंथ अवश्य थे। कश्मीर के राजा जयादित्य की सभा के कवि दोमोदर गुप्त आज से ११०० वर्ष पहले अपने कुट्टनीमत नामक ग्रंथ में चित्रविद्या के 'चित्रसूत्र' नामक एक ग्रंथ का अल्लेख किया है। अजंता गुफा के चित्रों में प्राचीन भारतवासियों की चित्रनिपुणता देख चकित रह जाना पड़ता है। बड़े बड़े विज्ञ युरोपियनों ने इन चित्रों की प्रशंसा की है। उन गुफाओं में चित्रों का बनाना ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व से आरंभ हुआ ता औरक आठवीं शताब्दी तक कुछ न कुछ गुफाएँ नई खुदती रहीं। अतः डेढ़ दो हजार वर्ष के प्रत्यक्ष प्रमाण तो ये चित्र अवश्य हैं।
चित्रविद्या सीखने के लिये पहले प्रत्येक प्रकार की सीधी टेढ़ी, वक्र आदि रेखाएँ खींचने का अभ्यास करना चाहिए। इसके उपरांत रेखाओं के ही द्वारा वस्तुओं के स्थूल ढाँचे बनाने चाहिए। इस विद्या में दूरी आदि के सिद्धांत का पूरा अनुशीलन किए बिना निपूणता नहीं प्राप्त हो सकती। दृष्टि के समानांतर या ऊपर नीचे के विस्तार का अंकन तो सहज है, पर आँखों के ठीक सामने दूर तक गया हुआ विस्तार अंकित करना कठिन विषय है। इस प्रकार की दूरी का विस्तार प्रदर्शित करने की क्रिया को 'पर्सपेक्टिव' (पर्सपेक्टिव) कहते हैं। किसी नगर की दूर तक सामने गई हुई सड़क, सामने को बही हुई नदी आदि के दृश्य बिना इसके सिद्धांतों को जाने नहीं दिखाए जा सकते। किस प्रकार निकट के पदार्थ बड़े और साफ दिखाई पड़ते हैं और दूर के पदार्थ क्रमशः छोटे और धुँधले होते जाते हैं, ये सब बातें अंकित करनी पड़ती हैं। उदाहरण के लिये दूर पर रखा हुआ एक चौखूँटा संदूक लीजिए। मान लीजिए कि आप उसे एक ऐसे किनारे से देख रहे हैं जहाँ से उसके दो पार्श्व या तीन कोण दिखाई पड़ते हैं। अब चित्र बनाने के निमित्त हम एक पेंसिल आँखों के समानांतर लेकर एक आँख दबाकर देखेंगे तो संदूक की सबके निकटस्थ खड़ी कोणरेखा (ऊँचाई) सबसे बड़ी दिखाई देगी; जो पार्श्व अधिक सामने रहेगा, उसके दूसरे ओर की कोणरेखा उससे छोटी और जो पार्श्व कम दिखाई देगा, उसके दूसरे ओर की कोणरेखा सबसे छोटी दिखाई पड़ेगी। अर्थात् निकटस्थ कोण रेखा से लगा हुआ उस पार्श्व का कोण जो कम दिखाई देता है, अधिक दिखाई पड़नेवाले पार्श्व के कोण से छोटा होगा। दूसरा सिद्धांत आलोक और छाया का है जिसके बिना सजीवता नहीं आ सकती। पदार्थ का जो अंश निकट और सामने रहेगा वह खुलता (आलोकित) और स्पष्ट होगा; और जो दूर या बगल में पड़ेगा, वह स्पष्ट ओर कालिमा लिए होगा। पदार्थोंका उभार और गहराई आदि भी इसी आलोक और छाया के नियमानुसार दिकाई जाती है। जो अंश उठा या उभरा होगा, वह अधिक खुलता होगा और जो धँसा या गहरा होगा वह कुछ स्याही लिए होगा। इन्हीं सिद्धांतों को न जानने के कारण बाजारू चित्रकार शीशे आदि पर जो चित्र बनाते हैं वे खेलवाड़ से जान पड़ते हैं। चित्रों में रंग एक प्रकार की कूँची से भरा जाता है जिसे चित्रकार कलम कहते हैं। पहले यहाँ गिलहरी की पूँछ के बालों की कलम बनती थी। अब विलायती ब्रुश काम में आते हैं।
इन्हें भी देखें
रामायण और चित्रकला
भारतीय चित्रकला (हिन्दी ब्लाग)
चित्रकला विभाग, एमएमएच कॉलेज गाजियाबाद
भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - वाचस्पति गैरोला)
जापानी रंगचित्र कला 'हाइगा' |
सनातन धर्म का सबसे आरम्भिक स्रोत है। इसमें १० मण्डल, १०२८ सूक्त और वर्तमान में १०,४६२ मन्त्र हैं, मन्त्र संख्या के विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद है। मन्त्रों में देवताओं की स्तुति की गयी है। इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाओं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह सनातन धर्म का प्रमुख ग्रन्थ है। ऋग्वेद की रचनाओं को पढ़ने वाले ऋषि को होत्र कहा जाता है।
ऋग्वेद सबसे पुराना ज्ञात वैदिक संस्कृत पुस्तक है। इसकी प्रारम्भिक परतें किसी भी इंडो-यूरोपीय भाषा में सबसे पुराने मौजूदा ग्रन्थों में से एक हैं। ऋग्वेद की ध्वनियों और ग्रन्थों को दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से मौखिक रूप से प्रसारित किया गया है। दार्शनिक और भाषायी साक्ष्य इंगित करते हैं कि ऋग्वेद संहिता के थोक की रचना भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में हुई थी।
ऋक् संहिता में १० मण्डल तथा बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मन्त्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मन्त्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ॰ १०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ॰ १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ॰ १०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ॰ १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है।
इस ग्रन्थ को इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण रचना माना गया है। ईरानी अवेस्ता की गाथाओं का ऋग्वेद के श्लोकों के जैसे स्वरों में होना, जिसमें कुछ विविध भारतीय देवताओं जैसे अग्नि, वायु, जल, सोम आदि का वर्णन है।
कालनिर्धारण और ऐतिहासिक सन्दर्भ
ऋग्वेद किसी भी अन्य इण्डो-आर्यन पाठ की तुलना में कहीं अधिक पुरातन है। इस कारण से, यह मैक्स मूलर और रूडोल्फ रोथ के समय से पश्चिमी विद्वानों के ध्यान के केन्द्र में था। ऋग्वेद वैदिक धर्म के प्रारम्भिक चरण को दर्ज करता है। प्रारम्भिक ईरानी अवेस्ता के साथ मजबूत भाषायी और सांस्कृतिक समानताएं हैं, जो प्रोटो-इंडो-ईरानी काल से व्युत्पन्न हैं, अक्सर प्रारम्भिक एण्ड्रोनोवो संस्कृति (या बल्कि, प्रारम्भिक एण्ड्रोनोवो के भीतर सिंटाष्ट संस्कृति) से जुड़ी हैं। क्षितिज) २००० ईसा पूर्व। ऋग्वेद का समय ईपू १०००० से अधिक प्राचीनतम माना गया है।
ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है-
ॠग्वेद में कुल दस मण्डल हैं जिनमें १०२८ सूक्त हैं और कुल १०,५८० ऋचाएँ हैं। इन मण्डलों में कुछ मण्डल छोटे हैं और कुछ बड़े हैं।
ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ है जो वर्तमान समय में उपलब्ध है।
ॠग्वेद के कई सूक्तों में विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति करने वाले मंत्र हैं। यद्यपि ॠग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु देवताओं की स्तुति करने वाले स्तोत्रों की प्रधानता है।
ऋग्वेद में ३३ देवी-देवताओं का उल्लेख है। इस वेद में सूर्या, उषा तथा अदिति जैसी देवियों का वर्णन किया है। इसमें अग्नि को आशीर्षा, अपाद, घृतमुख, घृत पृष्ठ, घृत-लोम, अर्चिलोम तथा वभ्रलोम कहा गया है। इसमें इन्द्र को सर्वमान्य तथा सबसे अधिक शक्तिशाली देवता माना गया है। इन्द्र की स्तुति में ऋग्वेद में २५० ऋचाएँ हैं। ऋग्वेद के एक मण्डल में केवल एक ही देवता की स्तुति में श्लोक हैं, वह सोम देवता है।
इस वेद में बहुदेववाद, एकेश्वरवाद, एकात्मवाद का उल्लेख है।
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन है।
इस वेद में आर्यों के निवास स्थल के लिए सर्वत्र 'सप्त सिन्धवः' शब्द का प्रयोग हुआ है।
इस में कुछ अनार्यों जैसे - पिसाकास, सीमियां आदि के नामों का उल्लेख हुआ है। इसमें अनार्यों के लिए 'अव्रत' (व्रतों का पालन न करने वाला), 'मृद्धवाच' (अस्पष्ट वाणी बोलने वाला), 'अनास' (चपटी नाक वाले) कहा गया है।
इस वेद लगभग २५ नदियों का उल्लेख किया गया है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिन्धु का वर्णन अधिक है।सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती को माना गया है तथा सरस्वती का उल्लेख भी कई बार हुआ है। इसमें गंगा का प्रयोग एक बार तथा यमुना का प्रयोग तीन बार हुआ है।
ऋग्वेद में राजा का पद वंशानुगत होता था। ऋग्वेद में सूत, रथकार तथा कर्मार नामों का उल्लेख हुआ है, जो राज्याभिषेक के समय पर उपस्थित रहते थे। इन सभी की संख्या राजा को मिलाकर १२ थी।
ऋग्वेद में 'वाय' शब्द का प्रयोग जुलाहा तथा 'ततर' शब्द का प्रयोग करघा के अर्थ में हुआ है।
ऋग्वेद के ९वें मण्डल में सोम रस की प्रशंसा की गई है।
ऋग्वेद के १०वे मंडल में पुरुषसुक्त का वर्णन है।
"असतो मा सद्गमय" वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। सूर्य (सवितृ को सम्बोधित "गायत्री मंत्र" ऋग्वेद में उल्लेखित है।
इस वेद में गाय के लिए 'अहन्या' शब्द का प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेद में ऐसी कन्याओं के उदाहरण मिलते हैं जो दीर्घकाल तक या आजीवन अविवाहित रहती थीं। इन कन्याओं को 'अमाजू' कहा जाता था।
इस वेद में हिरण्यपिण्ड का वर्णन किया गया है। इस वेद में 'तक्षन्' अथवा 'त्वष्ट्रा' का वर्णन किया गया है। आश्विन का वर्णन भी ऋग्वेद में कई बार हुआ है। आश्विन को नासत्य (अश्विनी कुमार) भी कहा गया है।
इस वेद के ७वें मण्डल में सुदास तथा दस राजाओं के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया गया है, जो कि पुरुष्णी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया। इस युद्ध में सुदास की जीत हुई ।
ऋग्वेद में कई ग्रामों के समूह को 'विश' कहा गया है और अनेक विशों के समूह को 'जन'। ऋग्वेद में 'जन' का उल्लेख २७५ बार तथा 'विश' का १७० बार किया गया है। एक बड़े प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में 'जनपद' का उल्लेख ऋग्वेद में केवल एक बार हुआ है। जनों के प्रधान को 'राजन्' या राजा कहा जाता था। आर्यों के पाँच कबीले होने के कारण उन्हें ऋग्वेद में 'पञ्चजनाः' कहा गया ये थे- पुरु, यदु, अनु, तुर्वशु तथा द्रहयु।
'विदथ' सबसे प्राचीन संस्था थी। इसका ऋग्वेद में १२२ बार उल्लेख आया है। 'समिति' का ९ बार तथा 'सभा' का ८ बार उल्लेख आया है।
ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख २४ बार हुआ है।
ऋग्वेद में में कपड़े के लिए वस्त्र, वास तथा वसन शब्दों का उल्लेख किया गया है। इस वेद में 'भिषक्' को देवताओं का चिकित्सक कहा गया है।
इस वेद में केवल हिमालय पर्वत तथा इसकी एक चोटी मुञ्जवन्त का उल्लेख हुआ है।
इस पाठ को दस मण्डलों में बांटा गया है,जो कि अलग-अलग समय में लिखे गए हैं और अलग-अलग लम्बाई के हैं।
मण्डल संख्या २ से ७ ऋग्वेद के सबसे पुराने और सूक्ष्मतम मंडल हैं। यह मण्डल कुल पाठ का ३८% है।
उत्तर वैदिक काल से पहले का वह काल जिसमें ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना हुई थी। इन ऋचाओं की जो भाषा थी वो ऋग्वैदिक भाषा कहलाती है। ऋग्वैदिक भाषा हिंद यूरोपीय भाषा परिवार की एक भाषा है। इसकी परवर्ती पुत्री भाषाएँ अवेस्ता, पुरानी फ़ारसी, पालि, प्राकृत और संस्कृत हैं।
ऋग्वैदिक भाषा के मूल मातृभाषी संस्कृत भाषी हिंद-इरानी थे।
ऋग्वैदिक भाषा और संस्कृत में अंतर
जैसे होमेरिक ग्रीक क्लासिकल ग्रीक से भिन्न है वैसै ऋग्वैदिक भाषा संस्कृत भाषा से भिन्न है। तिवारी ([१९५५] २००५) ने दोनोँ के बीच अंतर को निम्न सिद्धान्त स्वरूप सूचित किया:
ऋग्वैदिक भाषा में वॉयसलेस बिलैबियल फ्रिकेटिव ( फ़, जो उपधमानीय कहलाता था और एक अघोष वर्त्य संघर्षी वॉयसलेस वेलार फ्रिकेटिव (, यानि ख़ जो जिह्वामूलीय कहलाता था)यह तब प्रयोग होता है जब श्वास विसर्ग अः क्रमशः अघोष ओष्ठ्य और वेलार व्यंजनोँ के ठीक पहले आता है। दोनोँ ही संस्कृत में लुप्त हो गए और विसर्ग बन गए। उपधमानीय प और फ, जिह्वामूलीय क और ख से ठीक पहले आता है।
ऋग्वैदिक भाषा में रेट्रोफ़्लेक्स लतेराल अप्प्रोक्सिमंत ळ() और इसका बलाघाती सहायक ळ्ह भी, संस्कृत में लुप्त हो गए, (ड़) और (ढ़) में बदल गए। (क्षेत्रानुसार; वैदिक उच्चारण अभी तक कुछ क्षेत्रोँ में मौलिक हैं, जैसे. दक्षिण भारत, महाराष्ट्र सहित.)
अक्षरात्मक (ऋ), (लृ) और उनके दीर्घ स्वर उत्तर ऋग्वैदिक काल में लुप्त हो गए। बाद में (रि) और (ल्रि) के रूप उच्चारित होने लगा.
स्वर ए (ए) और ओ (ओ) वैदिक में अइ और अउ रूप में उच्चारित हो, पर बाद में संस्कृत में ये पूर्ण शुद्ध ए और ओ हो गए।.
स्वर आई (ऐ) और औ (औ) वैदिक में (आइ) और (आउ) हो गए, पर संस्कृत में ये (अइ) और (अउ) हो गए।
प्रातिशाख्यस् का दावा है कि दंत्य व्यंजन वस्तुतः दाँतोँ की जड़ (दंतमूलीय) थे, पर बाद में पूर्ण दंत्य हो गए। इसमें र भी है जो बाद में रेट्रोफ़्लेक्स हो गया।
वैदिक में सुर का बड़ा महत्त्व था जो कभी भी शब्द का अर्थ बदल देता था और पाणिनि से पहले तक सुरक्षित था। आजकल, सुरभेद केवल पारंपरिक वैदिक में पाया जाता है, बजाय इसके संस्कृत एक राग भेदी भाषा है।
प्लुति स्वर या (त्रैमात्रिक स्वर) वैदिक में ध्वन्यात्मक थे पर संस्कृत में लुप्त हो गए।
वैदिक में दो समान स्वरोँ में संधि के दौरान विकार न होकर मूल ध्वनि सुरक्षित रहती है।
अवेस्ता की भाषा तथा ऋग्वेद की भाषा की तुलना
१९वीं शताब्दी में अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा दोनों पर पश्चिमी विद्वानों की नज़र नई-नई पड़ी थी और इन दोनों के गहरे सम्बन्ध का तथ्य उनके सामने जल्दी ही आ गया। उन्होने देखा के अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा के शब्दों में कुछ सरल नियमों के साथ एक से दुसरे को अनुवादित किया जा सकता था और व्याकरण की दृष्टि से यह दोनों बहुत नज़दीक थे। अपनी सन् १८९२ में प्रकाशित किताब "अवस्ताई व्याकरण की संस्कृत से तुलना और अवस्ताई वर्णमाला और उसका लिप्यन्तरण" में भाषावैज्ञानिक और विद्वान एब्राहम जैक्सन ने उदाहरण के लिए एक अवस्ताई धार्मिक श्लोक का ऋग्वैदिक भाषा में सीधा अनुवाद किया।
एक प्रचलित मान्यता के अनुसार, वेद पहले एक संहिता में थे पर व्यास ऋषि ने अध्ययन की सुगमता के लिए इन्हें चार भागों में बाँट दिया। इस विभक्तीकरण के कारण ही उनका नाम वेद व्यास पड़ा। इनका विभाजन दो क्रम से किया जाता है -
(१) अष्टक क्रम - यह पुराना विभाजन क्रम है जिसमें संपूर्ण ऋक संहिता को आठ भागों (अष्टक) में बाँटा गया है। प्रत्येक अष्टक ८ अध्याय के हैं और हर अध्याय में कुछ वर्ग हैं। प्रत्येक अध्याय में कुछ ऋचाएँ (गेय मंत्र) हैं - सामान्यतः ५।
(२) मण्डल क्रम -ऋग्वेद के मंडल : इसके अतर्गत संपूर्ण संहिता १० मण्डलों में विभक्त हैं। प्रत्येक मण्डल में अनेक अनुवाक और प्रत्येक अनुवाक में अनेक सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कई मंत्र (ऋचा)। कुल दसों मण्डल में ८५ अनुवाक और १०१७ सूक्त हैं। इसके अतिरिक्त ११ सूक्त बालखिल्य नाम से जाने जाते हैं।
ऋग्वेद के सूक्तों के पुरुष रचियताओं में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ आदि प्रमुख हैं। सूक्तों के स्त्री रचयिताओं में लोपामुद्रा, घोषा, शची, कांक्षावृत्ति, पौलोमी आदि प्रमुख हैं।
ऋग्वेद के १० वें मंडल के ९५ सूक्त में पुरुरवा, ऐल और उर्वशी का संवाद है।
वेदों में किसी प्रकार की मिलावट न हो इसके लिए ऋषियों ने शब्दों तथा अक्षरों को गिन कर लिख दिया था। कात्यायन प्रभृति ऋषियों की अनुक्रमणी के अनुसार ऋचाओं की संख्या १०,५८०, शब्दों की संख्या १५३५२६ तथा शौनककृत अनुक्रमणी के अनुसार ४,३२,००० अक्षर हैं। शतपथ ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि प्रजापति कृत अक्षरों की संख्या १२००० बृहती थी। अर्थात् १२००० गुणा ३६ यानि ४,३२,००० अक्षर। आज जो शाकल संहिता के रूप में ऋग्वेद उपलब्ध है उनमें केवल १०५५२ ऋचाएँ हैं।
ऋग्वेद में ऋचाओं का बाहुल्य होने के कारण इसे 'ज्ञान का वेद' कहा जाता है।
ऋग्वेद की जिन २१ शाखाओं का वर्णन मिलता है, उनमें से चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार पाँच ही प्रमुख हैं-
१. शाकल, २. वाष्कल, ३. आश्वलायन, ४. शांखायन और ५. माण्डूकायन।
सबसे पुराना भाष्य (यानि टीका, समीक्षा) किसने लिखा यह कहना मुश्किल है पर सबसे प्रसिद्ध उपलब्द्ध प्राचीन भाष्य आचार्य सायण का है। आचार्य सायण से पूर्व के भाष्यकार अधिक गूढ़ भाष्य बना गए थे। यास्क ने ईसापूर्व पाँचवीं सदी में (अनुमानित) एक कोष लिखा था जिसमें वैदिक शब्दों के अर्थ दिए गए थे। लेकिन सायण ही एक ऐसे भाष्यकार हैं जिनके चारों वेदों के भाष्य मिलते हैं। ऋग्वेद के परिप्रेक्ष्य में क्रम से इन भाष्यकारों ने ऋग्वेद की टीका लिखी -
स्कन्द स्वामी - ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार वेदों का अर्थ समझने और समझाने की क्रिया कुमारिल-शंकर के समय शुरु हुई। स्कन्द स्वामी का काल भी यही माना जाता है - सन् ६२५ के आसपास। ऐसी प्रसिद्धि है कि शतपथ ब्राह्मण के भाष्यकार हरिस्वामी (सन् ६३८) को स्कन्द स्वामी ने अपना भाष्य पढ़ाया था। ऋग्वेद भाष्य के प्रथमाष्टक के अन्त में प्राप्त श्लोक से पता चलता है कि स्कन्द स्वामी गुजरात के वलभी के रहने वाले थे। इसमें प्रत्येक सूक्त के आरंभ में उस सूक्त के ऋषि-देवता और छन्द का उल्लेख किया गया है। साथ ही अन्य ग्रंथों से उद्धरण प्रस्तुत किया गया है। ऐसा माना जाता है कि स्क्न्द स्वामी ने प्रथम चार मंडल पर ही अपना भाष्य लिखा था, शेष भाग नारायण तथा उद्गीथ ने मिलकर पूरा किया था।
माधव भट्ट- प्रसिद्ध भाष्यकारों में माधव नाम के चार भाष्यकार हुए हैं। एक सामवेद भाष्यकार के रूप में ज्ञात हैं तो शेष तीन ऋक् के - लेकिन इन तीनों को सटीक पहचानना ऐतिहासिक रूप से संभव न हो पाया है। एक तो आचार्य सायण खुद हैं जिन्होंने अपने बड़े भाई माधव से प्रेरणा लेकर भाष्य लिखा और इसका नाम माधवीय भाष्य रखा। कुछ विद्वान वेंकट माधव को ही माधव समझते हैं पर ऐसा होना मुश्किल लगता है। वेंकट माधव नामक भाष्यकार की जो आंशिक ऋग्टीका मिलती है उससे प्रतीत होता है कि इनका वेद ज्ञान उच्च कोटि का था। इनके भाष्य का प्रभाव वेंकट माधव तथा स्कन्द स्वामी तक पर मिलता है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि इनका काल स्कन्द स्वामी से भी पहले था।
वेंकट माधव - इनका लिखा भाष्य बहुत संक्षिप्त है। इसमें न कोई व्याकरण संबंधी टिप्पणी है और न ही अन्य कोई टिप्पणी। इसमें एक विशेष बात यह है कि ब्राहमण ग्रंथों से सुन्दर रीति से प्रस्तुत प्रमाण।
धानुष्कयज्वा - विक्रम की १६वीं शती से पूर्व वेद् भाष्यकार धानुष्कयज्वा का उल्लेख मिलता है जिन्होंने तीन वेदों के भाष्य लिखे।
आनन्दतीर्थ - चौदहवीं सदी के मध्य में वैष्णवाचार्य आन्नदतीर्थ जी ने ऋग्वेद के कुछ मंत्रों पर अपना भाष्य लिखा है।
आत्मानन्द - ऋग्वेद भाष्य जहाँ सर्वदा यज्ञपरक और देवपरक मिलते हैं, इनके द्वारा लिखा भाष्य आध्यात्मिक लगता है।
सायण - ये मध्यकाल का लिखा सबसे विश्वसनीय, संपूर्ण और प्रभावकारी भाष्य है। विजयनगर के महाराज बुक्का (वुक्काराय) ने वेदों के भाष्य का कार्य अपने आध्यात्मिक गुरु और राजनीतिज्ञ अमात्य माधवाचार्य को सौंपा था। पमन्चु इस वृहत कार्य को छोड़कर उन्होंने अपने छोटे भाई सायण को ये दायित्व सौंप दिया। उन्होंने अपने विशाल ज्ञानकोश से इस टीका का न केवल सम्पादन किया बल्कि २४ वर्षों तक सेनापतित्व का दायित्व भी निभाया।
आधुनिक भाष्य तथा व्याख्या
आधुनिक कल में ऋग्वेद को समझने हेतु महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" की रचना की गई। और उस भाष्य का फिर आगे सरल संस्कृत एवं हिन्दी में अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया। इसी प्रकार स्वामी जी ने यजुर्वेद का भी भाष्य लिखा। उन्होने अंधविश्वास मिटाने हेतु और सत्य विद्या को जन जन तक पहुँचने हेतु हिन्दी में " सत्यार्थ प्रकाश " नामक ग्रंथ की रचना की और आर्य समाज संस्था कि स्थापना की।
हिंदू धर्म में अभिग्रहण
संपूर्ण रूप से वेदों को हिंदू परंपरा में "श्रुति" के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसकी तुलना पश्चिमी धार्मिक परंपरा में दैवीय रहस्योद्घाटन की अवधारणा से की गई है, लेकिन स्टाल का तर्क है कि "यह कहीं नहीं कहा गया है कि वेद प्रकट हुआ था", और उस श्रुति का सीधा अर्थ है "जो सुना जाता है, इस अर्थ में कि यह से प्रसारित होता है पिता से पुत्र या शिक्षक से शिष्य तक"।
ऋग्वेद एक हिंदू पहचान के आधुनिक निर्माण में एक भूमिका निभाता है, जिसमें हिंदुओं को भारत के मूल निवासियों के रूप में चित्रित किया गया है। ऋग्वेद को "स्वदेशी आर्यों" और भारत के बाहर सिद्धांत में संदर्भित किया गया है। ऋग्वेद को समसामयिक बताते हुए, या यहां तक कि सिंधु घाटी सभ्यता से भी पहले, एक तर्क दिया जाता है कि आईवीसी आर्य था, और ऋग्वेद का वाहक था।
अवेस्ता के साथ समानता
ऋग्वेद के तत्वों में पारसी धर्म के अवेस्ता के साथ समानता है;, उदाहरण के लिए: अहुरा से असुर,देवा डेवा से, अहुरा मज़्दा से हिंदू एकेश्वरवाद, वरुण, विष्णु और गरुड़, अग्नि से अग्नि मंदिर, स्वर्गीय रस सोमा - हाओमा नामक पेय से, समकालीन भारतीय और फारसी युद्ध से देवासुर का युद्ध, अरिया से आर्य, मिथरा से मित्र, द्यौष्पिता और ज़ीउस से बृहस्पति, यज्ञ से यज्ञ, नरिसंग से नरसंगसा, इंद्र, गंधर्व से गंधर्व, वज्र, वायु, मंत्र , यम, अहुति, हमता से सुमति इत्यादि।
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ऋग्वेद (संस्कृत) (विकिस्रोत)
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अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या रहीम, एक मध्यकालीन कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक थे। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न था। वे एक ही साथ कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे। जन्म से एक मुसलमान होते हुए भी हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर रहीम ने जो मार्मिक तथ्य अंकित किये थे, उनकी विशाल हृदयता का परिचय देती हैं। हिंदू देवी-देवताओं, पर्वों, धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का जहाँ भी उनके द्वारा उल्लेख किया गया है, पूरी जानकारी एवं ईमानदारी के साथ किया गया है। वे जीवनभर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे। रहीम ने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और लौकिक जीवनव्यवहार पक्ष को उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है, जो भारतीय संस्कृति की वर झलक को पेश करता है।
छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
का रहीम हरि को घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
अब्दुर्रहीम खानखाना का जन्म संवत् १६१३ (ई. सन् १५५६) में लाहौर में हुआ था। संयोग से उस समय हुमायूँ , सिकंदर , सूरी का आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए सैन्य के साथ लाहौर में मौजूद थे।
रहीम के पिता बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के शिक्षक तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटण नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया। शाही खानदान की परंपरानुरूप रहीम को 'मिर्जा खाँ' का ख़िताब दिया गया। रहीम ने बाबा जंबूर की देख-रेख में गहन अध्ययन किया। शिक्षा समाप्त होने पर अकबर ने अपनी धाय की बेटी माहबानो से रहीम का विवाह करा दिया। इसके बाद रहीम ने गुजरात, कुम्भलनेर, उदयपुर आदि युद्धों में विजय प्राप्त की। इस पर अकबर ने अपने समय की सर्वोच्च उपाधि 'मीरअर्ज' से रहीम को विभूषित किया। सन १५८४ में अकबर ने रहीम को खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित किया। रहीम का देहांत ७१ वर्ष की आयु में सन १६२७ में हुआ। रहीम को उनकी इच्छा के अनुसार दिल्ली में ही उनकी पत्नी के मकबरे के पास ही दफना दिया गया। यह मज़ार आज भी दिल्ली में मौजूद हैं। रहीम ने स्वयं ही अपने जीवनकाल में इसका निर्माण करवाया था। इनके संस्कृत के गुरु बदाऊनी थे।
अकबर के दरबार में
हुमायूँ ने युवराज अकबर की शिक्षा-दिक्षा के लिए बैरम खाँ को चुना और अपने जीवन के अंतिम दिनों में राज्य का प्रबंध की जिम्मेदारी देकर अकबर का अभिभावक नियुक्त किया था। बैरम खाँ ने कुशल नीति से अकबर के राज्य को मजबूत बनाने में पूरा सहयोग दिया। किसी कारणवश बैरम खाँ और अकबर के बीच मतभेद हो गया। अकबर ने बैरम खाँ के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया और अपने उस्ताद की मान एवं लाज रखते हुए उसे हज पर जाने की इच्छा जताई। परिणामस्वरुप बैरम खाँ हज के लिए रवाना हो गये। बैरम खाँ हज के लिए जाते हुए गुजरात के पाटन में ठहरे और पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग सरोवर में नौका-विहार के बाद तट पर बैठे थे कि भेंट करने की नियत से एक अफगान सरदार मुबारक खाँ आया और धोखे से बैरम खाँ की हत्या कर दी। यह मुबारक खाँ ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए किया।
इस घटना ने बैरम खाँ के परिवार को अनाथ बना दिया। इन धोखेबाजों ने सिर्फ कत्ल ही नहीं किया, बल्कि काफी लूटपाट भी मचाया। विधवा सुल्ताना बेगम अपने कुछ सेवकों सहित बचकर अहमदाबाद आ गई। अकबर को घटना के बारे में जैसे ही मालूम हुआ, उन्होंने सुल्ताना बेगम को दरबार वापस आने का संदेश भेज दिया। रास्ते में संदेश पाकर बेगम अकबर के दरबार में आ गई। ऐसे समय में अकबर ने अपने महानता का सबूत देते हुए इनको बड़ी उदारता से शरण दिया और रहीम के लिए कहा इसे सब प्रकार से प्रसन्न रखो। इसे यह पता न चले कि इनके पिता खान खानाँ का साया सर से उठ गया है। बाबा जम्बूर को कहा यह हमारा बेटा है। इसे हमारी दृष्टि के सामने रखा करो। इस प्रकार अकबर ने रहीम का पालन- पोषण एकदम धर्म- पुत्र की भांति किया। कुछ दिनों के पश्चात अकबर ने विधवा सुल्ताना बेगम से विवाह कर लिया। अकबर ने रहीम को शाही खानदान के अनुरुप मिर्जा खाँ की उपाधि से सम्मानित किया। रहीम की शिक्षा- दीक्षा अकबर की उदार धर्म- निरपेक्ष नीति के अनुकूल हुई। इसी शिक्षा-दीक्षा के कारण रहीम का काव्य आज भी हिंदूओं के गले का कण्ठहार बना हुआ है। दिनकर जी के कथनानुसार अकबर ने अपने दीन-इलाही में हिंदूत्व को जो स्थान दिया होगा, उससे कई गुणा ज्यादा स्थान रहीम ने अपनी कविताओं में दिया। रहीम के बारे में यह कहा जाता है कि वह धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे। अकबर के दरबार में हिंदी कवियों में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान था
रहीम की शिक्षा समाप्त होने के पश्चात बादशाह अकबर ने अपने पिता हुमायूँ की परंपरा का निर्वाह करते हुए, रहीम का विवाह बैरम खाँ के विरोधी मिर्जा अजीज कोका की बहन माहबानों से करवा दिया। इस विवाह में भी अकबर ने वही किया, जो पहले करता रहा था कि विवाह के संबंधों के बदौलत आपसी तनाव व पुरानी से पुरानी कटुता को समाप्त कर दिया करता था। रहीम के विवाह से बैरम खाँ और मिर्जा के बीच चली आ रही पुरानी रंजिश खत्म हो गयी। रहीम का विवाह लगभग तेरह साल की उम्र में कर दिया गया था।इनकी दस संताने थी
मीर अर्ज का पद
अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मीर अर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था, जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रूप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया। यह निर्णय सुनकर सारा दरबार सन्न रह गया था। इस पद पर आसीन होने का मतलब था कि वह व्यक्ति जनता एवं सम्राट दोनों में सामान्य रूप से विश्वसनीय है।
रहीम शहजादा सलीम
काफी मिन्नतों तथा आशीर्वाद के बाद अकबर को शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से एक लड़का प्राप्त हो सका, जिसका नाम उन्होंने सलीम रखा। शहजादा सलीम माँ-बाप और दूसरे लोगों के अधिक दुलार के कारण शिक्षा के प्रति उदासीन हो गया था। कई महान लोगों को सलीम की शिक्षा के लिए अकबर ने लगवाया। इन महान लोगों में शेर अहमद, मीर कलाँ और दरबारी विद्वान अबुलफजल थे। सभी लोगों की कोशिशों के बावजूद शहजादा सलीम को पढ़ाई में मन न लगा। अकबर ने सदा की तरह अपना आखिरी हथियार रहीम खाने खाना को सलीम का अतालीक नियुक्त किया। कहा जाता है रहीम यह गौरव पाकर बहुत प्रसन्न थे।
रहीम ने अवधी और ब्रजभाषा दोनों में ही कविता की है जो सरल, स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है।
यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।
बैर, प्रीति, अभ्यास, जस, होत होत ही होय ॥
उनके काव्य में शृंगार, शांत तथा हास्य रस मिलते हैं। दोहा, सोरठा, बरवै, कवित्त और सवैया उनके प्रिय छंद हैं। रहीम दास जी की भाषा अत्यंत सरल है, उनके काव्य में भक्ति, नीति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है। उन्होंने सोरठा एवं छंदों का प्रयोग करते हुए अपनी काव्य रचनाओं को किया है| उन्होंने ब्रजभाषा में अपनी काव्य रचनाएं की है| उनके ब्रज का रूप अत्यंत व्यवहारिक, स्पष्ट एवं सरल है| उन्होंने तदभव शब्दों का अधिक प्रयोग किया है। ब्रज भाषा के अतिरिक्त उन्होंने कई अन्य भाषाओं का प्रयोग अपनी काव्य रचनाओं में किया है| अवधी के ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी रहीमजी ने अपनी रचनाओं में किया है, उनकी अधिकतर काव्य रचनाएं मुक्तक शैली में की गई हैं जो कि अत्यंत ही सरल एवं बोधगम्य है |
रहीम दोहावली, बरवै, नायिका भेद, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, नगर शोभा आदि।
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भक्त कवियों की सूची
भक्तिकाल के कवि
कृष्णाश्रयी शाखा के कवि |
दस सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ हिंदी चलचित्र कुछ लोग इन्हें मानते हैं :
दो बीघा ज़मीन
जाने भी दो यारों |
एस्पेरान्तो की प्रगति चाहने वाले हम लोग यह इश्तिहार सब सरकारों अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और सज्जनों के नाम दे रहे हैं; यहाँ दिये गए उद्देश्यों की ओर दृढ़ निश्चय से काम करने की घोषणा कर रहे हैं; और सब संस्थाओं और लोगों को हमारे प्रयास में जुटने का निमन्त्रण दे रहे हैं।
एस्पेरान्तो जिसका आगाज़ १८८७ में अन्तर्राष्ट्रीय संप्रेषण के लिये एक सहायक भाषा के रूप में हुआ था और जो जल्दी ही अपने आप में एक जीती जागती ज़बान बन गई -- पिछले एक शताब्दी से लोगों को भाषा और संस्कृति की दीवारों को पार कराने का काम कर रही है। जिन उद्देश्यों से एस्पेरान्तो बोलने वाले प्रेरित होते आए हैं, वो उद्देश्य आज भी उतने ही महत्वपूर्ण और सार्थक हैं। ना दुनिया भर में कुछ ही राष्ट्रीय भाषाओं के इस्तेमाल होने से, ना संप्रेषण तकनीकों में प्रगति से, ना ही भाषा सिखाने के नए तौर-तरीक़ों से, यह निम्नलिखित मूल यथार्त हो पायेंगे जिन्हें हम सच्ची और साधक भाषा प्रणाली के लिए अनिवार्य मानते हैं।
ऐसी संचार-प्रणाली जो किसी एक को ख़ास फ़ायदा प्रदान करते हुए औरों से यह चाहे कि वे सालों भर का प्रयास करें और वो भी एक मामूली योग्यता प्राप्त करने के लिए, ऐसी प्रणाली बुनियादी तौर पर अलौकतांत्रिक है। यद्यपि एस्पेरान्तो और ज़बानों की तरह ही, दोष-हीन नहीं है, पर विश्वव्यापक समान संप्रेषण के लिए, एस्पेरान्तो बाकी भाषाओं से कहीं बेहतर है।
हम मानते हैं कि भाषा असमता संप्रेषण असमता को हर स्तर पर पैदा करती है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी। हमारा आन्दोलन लोकतांत्रिक संप्रेषण का आन्दोलन है।
हर जातीय भाषा किसी ना किसी संस्कृति और देश से मिली जुड़ी हुई है। मिसाल के तौर पे, अंग्रेज़ी सीखता छात्र दुनिया के अंग्रेज़ी बोलने वाले देशों के बारे में सीखता है -- ख़ास कर, अमेरिका और इंग्लैंड के बारे में। एस्पेरान्तो सीखने वाला छात्र एक ऐसी दुनिया के बारे में सीखता है जिसमे सीमाएँ नहीं हैं, जहाँ हर देश घर है।
हमारा मत है कि हर भाषा में दी गयी विद्या किसी ना किसी दृष्टिकोण से जुड़ी हुई है। हमारा आन्दोलन विश्वव्यापी विद्या का आन्दोलन है।
विदेशी भाषा सीखने वालों में कुछ प्रतिशत ही विदेशी भाषा में धाराप्रवाह हासिल कर पाते हैं। एस्पेरान्तो में धाराप्रवाह घर बैठ कर पढ़ाई से भी मुमकिन है। कई शोध-पत्रों में साबित किया गया है कि एस्पेरान्तो सीखने से अन्य भाषाओं का सीखना आसान हो जाता है। यह भी अनुशंसित किया गया है कि भाषा-चेतना के पाठ्यक्रमों की बुनियाद में ही एस्पेरान्तो सम्मिलित होना चाहिए।
हमारा मत है कि जिन विद्यार्थियों को दूसरी भाषा सीखने से फ़ायदा हो सकता है, उन विद्यार्थियों केलिए विदेशी भाषाएँ सीखने की कठिनाइयाँ हमेशा एक दीवार बन कर खड़ी रहेंगी। हमारा आन्दोलन प्रभावशील भाषाग्रहण का आन्दोलन है।
एस्पेरान्तो समुदाय उन चुने-गिने विश्वव्यापी समुदायों में से है जिनका हर सदस्य दुभाषी या बहुभाषी है। इस समुदाय के हर सदस्य ने कम से कम एक विदेशी भाषा को बोलचाल-स्तर तक सीखने का प्रयास किया है। कई बार इस कारण अनेक भाषाओं का ग्यान और अनेक भाषाओं के प्रति प्रेम पैदा हुआ है -- निजि मानसिक-क्षितिजों में बढ़ौत्री हुई है।
हम मानते हैं कि हर इनसान को, चाहे वो छोटी ज़बान बोलने वाला हो, या बड़ी, एक दूसरी ज़बान उच्च-स्तर तक सीखने का मौका मिलना चाहिए। हमारा आन्दोलन वह मौका हर एक को देता है।
भाषाओं की ताकतों का असमान वितरण, दुनिया में ज़्यादातर लोगों में भाषा असुरक्षा पैदा करती है, या फिर यह असमानता खुले आम भाषा अत्याचार का रूप लेती है। एस्पेरान्तो समुदाय का हर सदस्य, चाहे वो ताकतवर ज़बान का बोलने वाला हो, या बलहीन, एक समान स्तर पर हर दूसरे सदस्य से मिलता है, समझौता करने के लिए तय्यार। भाषा अधिकारों और ज़िम्मेवारियों का यह समतुलन, अन्य भाषा असमानताओं और संघर्षणों की कसौटी है।
भाषा जो भी हो, बरताव एक ही होगा -- हम मानते हैं कि कई अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों में व्यक्त किया गया यह सिद्धांत, भाषाओं की ताकत में असमानताओं के कारण नसार्थक बन रहा है। हमारा आन्दोलन भाषा-अधिकारों का आन्दोलन है।
सरकारें दुनिया की विशाल भाषा विभिन्नता को संप्रेषण और तरक्की के रास्ते में एक दीवार मानती हैं। मगर एस्पेरान्तो समुदाय भाषा विभिन्नता को एक अत्यावष्यक और निरन्तर धन के रूप में देखती है। इस कारण, हर भाषा, हर प्रकार के जीव-जन्तु की तरह, सहायता और सुरक्षा के लायक है।
हमारा मत है कि संप्रेषण और विकास की नीतियाँ जो सब ज़बानों के सम्मान और सहायता पर आधारित नहीं है, वह नीतियाँ दुनिया के अधिकतर भाषाओं के लिए सज़ा-ए-मौत साबित होंगी। हमारा आन्दोलन भाषा विभिन्नता का आन्दोलन है।
हम मानते हैं कि केवल जातीय भाषाओं पर आधारित रहना अभिव्यक्ति, संप्रेषण और संघठन की स्वतंत्रता में अवश्य ही बाधाएँ पैदा करती है। हमारा आन्दोलन मानव बन्धनमुक्ति का आन्दोलन है।
प्राग, जुलाई १९९६
एस्पेरान्तो: अकसर पूछे जाने वाले कुछ सवाल
अन्तर्राष्ट्रीय सहायक भाषाएँ |
एशिया या जम्बुद्वीप आकार और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से विश्व या दुनिया का सबसे बड़ा महाद्वीप है, जो उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। पश्चिम में इसकी सीमाएँ यूरोप से मिलती हैं, हालाँकि इन दोनों के बीच कोई सर्वमान्य और स्पष्ट सीमा नहीं निर्धारित की गई है। एशिया और यूरोप दोनों देशों को मिलाकर यूरेशिया बना है। यह भूमध्य सागर, अंध सागर, आर्कटिक महासागर, प्रशांत महासागर और हिन्द महासागर से घिरा हुआ है। जिसके कारण काकेशस पर्वत शृंखला और यूराल पर्वत शृंखला प्राकृतिक रूप दोनों पर्वत शृंखलाएँ एशिया को यूरोप से अलग करती है।
विश्व के सबसे प्राचीन मानव सभ्यताओं का जन्म इसी महाद्वीप पर हुआ था जैसे सुमेर, भारतीय सभ्यता, चीनी सभ्यता इत्यादि। चीन और भारत विश्व के दो सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश हैं।
पश्चिम में स्थित एक लंबी भू सीमा यूरोप को एशिया से पृथक करती है। सतह सीमा उत्तर-दक्षिण दिशा में नीचे की ओर रूस में यूराल पर्वत तक जाती है, यूराल नदी के किनारे कैस्पियन सागर तक और फिर काकेशस पर्वत से होते हुए हिंद सागर तक जाती है। रूस का लगभग तीन चौथाई भू-भाग एशिया में तथा शेष भू-भाग यूरोप में है।
विश्व के कुल भू-भाग का लगभग १/१0 वां भाग का ३०% एशिया में है और इस महाद्वीप की जनसंख्या अन्य सभी महाद्वीपों की संयुक्त जनसंख्या से अधिक लगभग ३/५वां भाग का ६०% है। उत्तर में बर्फ़ीले आर्कटिक से लेकर दक्षिण में ऊष्ण भूमध्य रेखा तक यह महाद्वीप लगभग ४,४५,७०,००० किमी क्षेत्र में फैला हुआ है और अपने में कुछ विशाल, रिक्त रेगिस्तानों, विश्व के सबसे ऊँचे पर्वतों और कुछ सबसे लंबी नदियों को समेटे हुए है। एशिया दुनिया के अधिकांश धर्मों का हिंदू धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम, सिख धर्म और साथ ही कई अन्य धर्मों का जन्म स्थान है।
एशिया के इतिहास को कई परिधीय तटीय क्षेत्रों के रूप में देखा जा सकता है : पूर्वी एशिया, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और मध्य पूर्व पश्चिम एशिया, जो मध्य एशियाई मैदानों के आर्द्र द्रव्यमान वाले भाग से जुड़ा हुआ है। तटीय परिधि वाली भाग दुनिया की कुछ शुरुआती अज्ञात सभ्यताओं की पहचान थी, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक उपजाऊ भूमि, नदी घाटियों के आसपास मेसोपोटामिया, सिंधु घाटी और पीली नदी जैसी कई सभ्यताएं विकसित हुई। इन्हीं सभ्यताओं में गणित और पहिया जैसी प्रौद्योगिकियों का अविष्कार हुआ। एशिया के इतिहास के अध्ययन से प्रतीत होता है कि एशिया के इन्हीं तराई क्षेत्रों में लेखन, हस्त कलाये, और नगर, राज्य और बड़े-बड़े साम्राज्य का विकास हुआ है। एशिया के केंद्रीय स्टेपी क्षेत्र में लंबे समय से घोड़े पर सवार खानाबदोशों का निवास स्थल हुआ करता था, जिनका समुह स्टेपी से लेकर एशिया के सभी क्षेत्रों तक शिकार के लिए जाते थे। भाषा के संबंध में देखा जाय तो सर्वप्रथम इंडो-यूरोपीय भाषाओं की खोज इसी क्षेत्र में हुई, जो बाद में मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया और चीन की सीमाओं तक विकसित होने लगी। एशिया का सबसे उत्तरी भाग साइबेरिया, जहां घने जंगलों, जलवायु और टुंड्रा के कारण स्टेपी खानाबदोशों के लिए काफी हद तक यह क्षेत्र दुर्गम बना रहता था। जिसके कारण इस क्षेत्र में बहुत कम आबादी निवास करती थी। अधिकतर पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्र जैसे काकेशस और हिमालय पर्वत और काराकुम और गोबी रेगिस्तान इत्यादि स्टेपी निवासियों के लिए ख़तरनाक क्षेत्र माना जाता था जबकि शहरी निवासी तकनीकी और सामाजिक-आर्थिक रूप से अधिक उन्नत थे। ७वीं शताब्दी की विजय के दौरान बीजान्टिन और फारसी साम्राज्यों की इस्लामिक खलीफा की हार के कारण पश्चिम एशिया और मध्य एशिया के दक्षिणी हिस्से और दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से उसके नियंत्रण में आ गए। १३वीं सदी में मंगोल साम्राज्य ने एशिया के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, जो चीन से लेकर यूरोप तक फैला हुआ क्षेत्र था। मंगोल आक्रमण से पहले, सांग राजवंश में कथित तौर पर लगभग १२० मिलियन आबादी थी; आक्रमण के बाद हुई १३00 की जनगणना में लगभग ६० मिलियन आबादी की सूचना दी गई। 1७वीं शताब्दी से एशिया में रूसी साम्राज्य का विस्तार होना शुरू हुआ, और अंततः १९वीं शताब्दी के अंत तक पूरे साइबेरिया और अधिकांश मध्य एशिया पर कब्ज़ा कर लिया। १६वीं शताब्दी के मध्य से ओटोमन साम्राज्य ने अनातोलिया, अधिकांश मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और बाल्कन को नियंत्रित किया। 1७वीं शताब्दी में मांचू नामक राजा ने चीन पर विजय प्राप्त की और चिंग राजवंश की स्थापना की। १६वीं और १८वीं शताब्दी में इस्लामिक मुगल साम्राज्य और हिंदू मराठा साम्राज्य ने क्रमशः भारत के अधिकांश हिस्से पर अपना अपना साम्राज्य स्थापित किया।
एशिया पृथ्वी पर सबसे बड़ा महाद्वीप है। पृथ्वी के कुल सतह क्षेत्र का ९% या इसके भूमि क्षेत्र का ३०% भाग अनावरण करता है, और इसकी तटरेखा ६२,८०० किलोमीटर (3९,०२२ मील) सबसे लंबी है। एशिया को आम तौर पर यूरेशिया के पूर्वी चौथे-पांचवें हिस्से के रूप में जाना जाता है। यह स्वेज़ नहर और यूराल पर्वत के पूर्व में और काकेशस पर्वत और काला सागर के दक्षिण में स्थित है यह पूर्व में प्रशांत महासागर, दक्षिण में हिंद महासागर और उत्तर में आर्कटिक महासागर से घिरा है।
एशिया को ४९ देशों में विभाजित किया गया है, उनमें से जॉर्जिया, अजरबैजान, रूस, कजाकिस्तान और तुर्की अंतरमहाद्वीपीय देश हैं जो आंशिक रूप से यूरोप में स्थित हैं। भौगोलिक दृष्टि से, रूस एशिया में है, लेकिन सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से इसे एक यूरोपीय राष्ट्र के रूप में जाना जाता है।
जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन
एशिया की जलवायु विशेषताएँ अत्यंत विविध हैं। एशिया की जलवायु साइबेरिया में आर्कटिक से लेकर दक्षिणी भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में उष्णकटिबंधीय तक फैला है। यह दक्षिण-पूर्वी भागों में नम पाये जाते है, और अधिकांश आंतरिक भाग शुष्क पाये जाते हैं। हिमालय की उपस्थिति के कारण मानसून परिसंचरण दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों में हावी रहता है, जिससे तापीय न्यून दाब का निर्माण होता है जो गर्मियों के दौरान नमी को सुखा देता है। इसी कारण एशिया महाद्वीप का दक्षिणी-पश्चिमी भाग गर्म होता है। साइबेरिया का उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ठंडे स्थानों में से एक माना जाता है, इसका प्रभाव मुख्यतः उत्तरी अमेरिका के निम्न द्रव्यमान वाले क्षेत्रों देखा जा सकता है। फिलीपींस के उत्तर-पूर्व और जापान के दक्षिण में उष्णकटिबंधीय चक्रवात के सक्रियता का प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है।एशिया महाद्वीप के कई देशों पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा प्रभाव देखने को मिलता है। वैश्विक जोखिम विश्लेषण फार्म मेपलक्रॉफ्ट द्वारा २०१० में किए गए एक सर्वेक्षण में १६ ऐसे देशों की पहचान की गई जहां जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशीलता देखने को मिलता हैं। प्रत्येक राष्ट्र की भेद्यता की गणना ४२ सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संकेतकों को ध्यान में रख करके की गई, जिसमें अगले ३० वर्षों के दौरान संभावित जलवायु परिवर्तन प्रभावों की पहचान की जाने की संभावना है। और इन देशों के अन्तर्गत भारत, वियतनाम, थाईलैंड, पाकिस्तान, चीन और श्रीलंका के एशियाई देश जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक जोखिम का सामना करने वाले १६ देशों में से माने जाते हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि कुछ बदलाव पहले से ही हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, अर्ध-शुष्क जलवायु वाले भारत के उष्णकटिबंधीय भागों में, १९०१ और २००३ के बीच तापमान में ०.४ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई।
एशिया की अर्थव्यवस्था यूरोप के बाद विश्व की, क्रय शक्ति के आधार पर, दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। एशिया की अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत लगभग ४ अरब लोग आते हैं, जो विश्व जनसंख्या का ८०% है। ये ४ अरब लोग एशिया के ४6 विभिन्न देशों में निवास करते है। छः अन्य देशों के कुछ भूभाग भी आंशिक रूप से एशिया में पड़ते हैं, लेकिन इन देशों का बहुत ही कम भाग एशिया में है इसलिए इन्हें गिना नहीं जाता। वर्तमान में विश्व का सबसे ते़ज़ी उन्नति करता हुआ क्षेत्र है और चीन इस समय एशिया की सबसे बड़ी और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जो कई पूर्वानुमानों के अनुसार अगले कुछ वर्षों में विश्व की भी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी। एशिया काफी हद तक दुनिया का सबसे बड़ा महाद्वीप है और यह पेट्रोलियम, जंगल, मछली, पानी, चावल, तांबा और चांदी जैसे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है। एशिया में विनिर्माण परंपरागत रूप से पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे मजबूत रहा है, विषेशकर चीन, ताइवान , दक्षिण कोरिया, जापान, भारत, फिलीपींस और सिंगापुर में। बहुराष्ट्रीय निगमों के क्षेत्र में जापान और दक्षिण कोरिया का दबदबा कायम है, लेकिन तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारण भारत में भी चीन के जैसा प्रगति हो रही हैं। सस्ते श्रम की प्रचुर आपूर्ति और अपेक्षाकृत विकसित बुनियादी ढांचे का लाभ उठाने के लिए यूरोप, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान की कई कंपनियां एशिया के विकासशील देशों में परिचालन कर रही हैं।
एशिया की ५ सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देश है
भारत और सिंगापुर
एशिया महाद्वीप पृथ्वी के २९.४% भूमि क्षेत्र का अनावरण करता है और इसकी आबादी लगभग ४.७५ बिलियन (२०२२ तक) है, जो विश्व की आबादी का लगभग ६०% है। २०२२ तक चीन और भारत दोनों की संयुक्त जनसंख्या २.८ बिलियन से अधिक होने का अनुमान है। २०५५ तक एशिया की जनसंख्या ५.२५ बिलियन तक बढ़ने का अनुमान है, या उस समय अनुमानित विश्व जनसंख्या का लगभग ५४%। २०२२ तक एशिया में जनसंख्या वृद्धि अत्यधिक असमान दरों के साथ ०.५५% प्रति वर्ष के करीब थी। कई पश्चिमी एशियाई और दक्षिण एशियाई देशों की विकास दर विश्व औसत से ऊपर है, विशेष रूप से पाकिस्तान में २% प्रति वर्ष, जबकि चीन में -०.०६% की मामूली कमी हुई और भारत में २०२२ में ०.६% की वृद्धि हुई।
एशिया की संस्कृति रीति-रिवाजों और परंपराओं का एक विविध मिश्रण है जो सदियों से महाद्वीप के विभिन्न जातीय समूहों द्वारा प्रचलित है। महाद्वीप को छह भौगोलिक उप-क्षेत्रों में विभाजित किया गया है:
इन क्षेत्रों को उनकी सांस्कृतिक समानताओं से परिभाषित किया जाता है, जिसमें सामान्य धर्म, भाषाएं और जातीयताएं शामिल हैं। पश्चिम एशिया, जिसे दक्षिण-पश्चिम एशिया या मध्य पूर्व के रूप में भी जाना जाता है, की सांस्कृतिक जड़ें उपजाऊ क्रिसेंट और मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यताओं में हैं, जिन्होंने फारसी, अरब, ओटोमन साम्राज्यों के साथ-साथ यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इब्राहीम धर्मों को जन्म दिया। इस्लाम। ये सभ्यताएं, जो पहाड़ी किनारों में स्थित हैं, दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से हैं, जिनमें खेती के प्रमाण लगभग ९००० ईसा पूर्व के हैं। महाद्वीप के विशाल आकार और रेगिस्तान और पर्वत शृंखलाओं जैसी प्राकृतिक बाधाओं की उपस्थिति से उत्पन्न चुनौतियों के बावजूद, व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में एशिया की छवि सुदृढ़ बनाने में मदद की है जो पूरे क्षेत्र में साझा की जाती है।
प्रमुख एशियाई सीमाएं
एशिया महाद्वीप अन्य अन्तर्राष्ट्रीय देशों के साथ समुद्री, हवाई, और स्थलीय सीमा साझा करती है। उदाहरण स्वरुप:
एशिया और अफ्रीका के बीच लाल सागर, और स्वेज़ नहर है। और इसके माध्यम से सीमा साझा करती हुईमिस्र से जुड़ती है जिसके कारण मिस्र को आज के संदर्भ में एक अंतरमहाद्वीपीय देश के नाम से जाना जाता है, व्यापारिक दृष्टि से मजबूत देश एशिया में हैं और शेष देश अफ्रीका में है।
एशिया-उत्तरी अमेरिका सीमा
बेरिंग जलडमरूमध्य और बेरिंग सागर एशिया और उत्तरी अमेरिका के भू-भाग को अलग करते हैं, साथ ही रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा भी साझा करते हैं। यह राष्ट्रीय और महाद्वीपीय सीमा बेरिंग जलडमरूमध्य में डायोमेड द्वीप समूह को रूस में बड़ा डायोमेड और संयुक्त राज्य अमेरिका में छोटा डायोमेड से अलग करती है। अलेउतियन द्वीप एक द्वीप शृंखला है जो अलास्का प्रायद्वीप से पश्चिम की ओर रूस के कोमांडोरस्की द्वीप और कामचटका प्रायद्वीप तक फैली हुई है। उनमें से अधिकांश हमेशा उत्तरी अमेरिका से जुड़े होते हैं, पश्चिमी निकट द्वीप समूह को छोड़कर, जो उत्तरी अलेउतियन बेसिन से पुरे एशिया के महाद्वीपीय शाखाओं पर स्थिर है।
नोबेल पुरस्कार विजेता
बहुश्रुत रवीन्द्रनाथ टैगोर, एक बंगाली कवि, नाटककार साहित्यकार थे। १९१३ में पहले एशियाई नोबेल पुरस्कार विजेता बने। उन्हें शांतिनिकेतन के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने अंग्रेजी, फ्रेंच और यूरोप और अमेरिका के अन्य राष्ट्रीय गद्य साहित्य पर कार्य किया और उनके इसी साहित्यिक विचारों के उल्लेखनीय प्रभाव के कारण नोबेल पुरस्कार नवाजा गया। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अन्य एशियाई लेखकों में यासुनारी कावाबाता (जापान, १९६८), केन्ज़ाबुरो ओई (जापान, १९९४), गाओ जिंगजियान (चीन, २०००), ओरहान पामुक (तुर्की, २००६), और मो यान (चीन, २०१२) दलाई लामा इत्यादि शामिल हैं। जिनमें से एक दलाई लामा को अपने आध्यात्मिक और राजनीतिक जीवन काल में लगभग चौरासी पुरस्कार प्राप्त हुए
प्राचीन भारतीय पुस्तकों में वर्तमान एशिया के नाम
जंबुद्वीप - मध्य भूमि।
पुष्करद्वीप- उत्तर पूर्वी प्रदेश।
शाकद्वीप - दक्षिण पूर्वी द्वीप समूह।
एशिया से संबंधित प्रमुख परियोजनाएं देखें
एशियाई राजमार्ग जाल-तंत्र
एशियाई रेलमार्ग की क्षेत्रीय सीमाएँ
एशिया का इतिहास
एशिया का भूगोल
एशिया की अर्थव्यवस्था |
कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती है। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी है। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है।
कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है।
मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में,
अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है -- (साकेत, पंचम सर्ग)
दूसरे शब्दों में -: मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति ही कला है।
कला शब्द का प्रयोग शायद सबसे पहले भरत के "नाट्यशास्त्र" में ही मिलता है। पीछे वात्स्यायन और उशनस् ने क्रमश: अपने ग्रंथ "कामसूत्र" और "शुक्रनीति" में इसका वर्णन किया।
"कामसूत्र", "शुक्रनीति", जैन ग्रंथ "प्रबंधकोश", "कलाविलास", "ललितविस्तर" इत्यादि सभी भारतीय ग्रंथों में कला का वर्णन प्राप्त होता है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या ६४ मानी गयी है। "प्रबंधकोश" इत्यादि में ७२ कलाओं की सूची मिलती है। "ललितविस्तर" में ८६ कलाओं के नाम गिनाये गये हैं। प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ "कलाविलास" में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें ६४ जनोपयोगी, ३२ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सम्बन्धी, ३२ मात्सर्य-शील-प्रभावमान सम्बन्धी, ६४ स्वच्छकारिता सम्बन्धी, ६४ वेश्याओं सम्बन्धी, १० भेषज, १६ कायस्थ तथा १०0 सार कलाओं की चर्चा है। सबसे अधिक प्रामाणिक सूची "कामसूत्र" की है।
यूरोपीय साहित्य में भी कला शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौशल के लिए ही अधिकतर हुआ है। वहाँ प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है। कला का अर्थ है रचना करना अर्थात् वह कृत्रिम है। प्राकृतिक सृष्टि और कला दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं। कला उस कार्य में है जो मनुष्य करता है। कला और विज्ञान में भी अंतर माना जाता है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला में कौशल का। कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को कला की संज्ञा दी जाती है। कौशलविहीन या बेढब ढंग से किये गये कार्यों को कला में स्थान नहीं दिया जाता।
कलाओं के वर्गीकरण में मतैक्य होना सम्भव नहीं है। वर्तमान समय में कला को मानविकी के अन्तर्गत रखा जाता है जिसमें इतिहास, साहित्य, दर्शन और भाषाविज्ञान आदि भी आते हैं।
पाश्चात्य जगत में कला के दो भेद किये गये हैं- उपयोगी कलाएँ (प्रैक्टिस आर्ट्स) तथा ललित कलाएँ (फाइन आर्ट्स)। परम्परागत रूप से निम्नलिखित सात को 'कला' कहा जाता है-
आधुनिक काल में इनमें फोटोग्राफी, चलचित्रण, विज्ञापन और कॉमिक्स जुड़ गये हैं।
उपरोक्त कलाओं को निम्नलिखित प्रकार से भी श्रेणीकृत कर सकते हैं-
साहित्य - काव्य, उपन्यास, लघुकथा, महाकाव्य आदि
मिडिया कला - फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, विज्ञापन
दृष्य कलाएँ - ड्राइंग, चित्रकला, मूर्त्तिकला
कुछ कलाओं में दृश्य और निष्पादन दोनों के तत्त्व मिश्रित होते हैं, जैसे फिल्म।
कला का महत्त्व
जीवन, ऊर्जा का महासागर है। जब अंतश्चेतना जाग्रत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि आत्मा का सत्य स्वरुप झलकता है। कला उस क्षितिज की भाँति है जिसका कोई छोर नहीं, इतनी विशाल इतनी विस्तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे, तभी तो कवि मन कह उठा-
साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छ विषाणहीनः ॥
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के मुख से निकला कला में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है तो प्लेटो ने कहा - कला सत्य की अनुकृति के अनुकृति है।
टालस्टाय के शब्दों में अपने भावों की क्रिया रेखा, रंग, ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करना कि उसे देखने या सुनने में भी वही भाव उत्पन्न हो जाए कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रूप लेती है, कलाकार का अन्तर्मन मानो मूर्त ले उठता है चाहे लेखनी उसका माध्यम हो या रंगों से भीगी तूलिका या सुरों की पुकार या वाद्यों की झंकार। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्यम है। यह कठिन तपस्या है, साधना है। इसी के माध्यम से कलाकार सुनहरी और इन्द्रधनुषी आत्मा से स्वप्निल विचारों को साकार रूप देता है।
कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। कला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उदात्त बनाती है। वह व्यक्ति को स्व से निकालकर वसुधैव कुटुम्बकम् से जोड़ती है।
कला ही है जिसमें मानव मन में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। मनोरंजन, सौन्दर्य, प्रवाह, उल्लास न जाने कितने तत्त्वों से यह भरपूर है, जिसमें मानवीयता को सम्मोहित करने की शक्ति है। यह अपना जादू तत्काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्तरण प्रस्तुत कर सकती है।
जब यह कला संगीत के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्य आत्मविस्मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्हार राग से मेघ बरसना यह कला की साधना का ही चरमोत्कर्ष है। संगीत की साधना; सुरों की साधना है। मिलन है आत्मा से परमात्मा का; अभिव्यक्ति है अनुभूति की।
भाट और चारण भी जब युद्धस्थल में उमंग, जोश से सराबोर कविता-गान करते थे, तो वीर योद्धाओं का उत्साह दुगुना हो जाता था और युद्धक्षेत्र कहीं हाथी की चिंघाड़, तो कहीं घोड़ों की हिनहिनाहट तो कहीं शत्रु की चीत्कार से भर उठता था; यह गायन कला की परिणति ही तो है।पॉप
संगीत केवल मानवमात्र में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों में भी अमृत रस भर देता है। पशु-पक्षी भी संगीत से प्रभावित होकर झूम उठते हैं तो पेड़-पौधों में भी स्पन्दन हो उठता है। तरंगें फूट पड़ती हैं। यही नहीं मानव के अनेक रोगों का उपचार भी संगीत की तरंगों से सम्भव है। कहा भी है:
संगीत है शक्ति ईश्वर की, हर सुर में बसे हैं राम।
रागी तो गाये रागिनी, रोगी को मिले आराम।।
संगीत के बाद ये ललित-कलाओं में स्थान दिया गया है तो वह है- नृत्यकला। चाहे वह भरतनाट्यम हो या कथक, मणिपुरी हो या कुचिपुड़ी। विभिन्न भाव-भंगिमाओं से युक्त हमारी संस्कृति व पौराणिक कथाओं को ये नृत्य जीवन्तता प्रदान करते हैं। शास्त्रीय नृत्य हो या लोकनृत्य इनमें खोकर तन ही नहीं मन भी झूम उठता है।
कलाओं में कला, श्रेष्ठ कला, वह है चित्रकला। मनुष्य स्वभाव से ही अनुकरण की प्रवृत्ति रखता है। जैसा देखता है उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्न करता है। यही उसकी आत्माभिव्यंजना है। अपनी रंगों से भरी तूलिका से चित्रकार जन भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है तो दर्शक हतप्रभ रह जाता है। पाषाण युग से ही जो चित्र पारितोषक होते रहे हैं ये मात्र एक विधा नहीं, अपितू ये मानवता के विकास का एक निश्चित सोपान प्रस्तुत करते हैं। चित्रों के माध्यम से आखेट करने वाले आदिम मानव ने न केवल अपने संवेगों को बल्कि रहस्यमय प्रवृत्ति और जंगल के खूंखार प्रवासियों के विरुद्ध अपने अस्तित्व के लिए किये गये संघर्ष को भी अभिव्यक्त किया है। धीरे-धीरे चित्रकला शिल्पकला सोपान चढ़ी। सिन्धुघाटी सभ्यता में पाये गये चित्रों में पशु-पक्षी मानव आकृति सुन्दर प्रतिमाएँ, ज्यादा नमूने भारत की आदिसभ्यता की कलाप्रियता का द्योतक है।
अजन्ता, बाध आदि के गुफा चित्रों की कलाकृतियों पूर्व बौद्धकाल के अन्तर्गत आती है। भारतीय कला का उज्ज्वल इतिहास भित्ति चित्रों से ही प्रारम्भ होता है और संसार में इनके समान चित्र कहीं नहीं बने ऐसा विद्वानों का मत है। अजन्ता के कला मन्दिर प्रेम, धैर्य, उपासना, भक्ति, सहानुभूति, त्याग तथा शान्ति के अपूर्व उदाहरण है।
मधुबनी शैली, पहाड़ी शैली, तंजौर शैली, मुगल शैली, बंगाल शैली अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण आज जनशक्ति के मन चिन्हित है। यदि भारतीय संस्कृति की मूर्त्ति कला व शिल्प कला के दर्शन करने हो तो दक्षिण के मन्दिर अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। जहाँ के मीनाक्षी मन्दिर, वृहदीश्वर मन्दिर, कोणार्क मन्दिर अपनी अनूठी पहचान के लिए प्रसिद्ध है।
यही नहीं भारतीय संस्कृति में लोक कलाओं की खुश्बू की महक आज भी अपनी प्राचीन परम्परा से समृद्ध है। जिस प्रकार आदिकाल से अब तक मानव जीवन का इतिहास क्रमबद्ध नहीं मिलता उसी प्रकार कला का भी इतिहास क्रमबद्ध नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि सहचरी के रूप में कला सदा से ही साथ रही है। लोक कलाओं का जन्म भावनाओं और परम्पराओं पर आधारित है क्योंकि यह जनसामान्य की अनुभूति की अभिव्यक्ति है। यह वर्तमान शास्त्रीय और व्यावसायिक कला की पृष्ठभूमि भी है। भारतवर्ष में पृथ्वी को धरती माता कहा गया है। मातृभूति तो इसका सांस्कृतिक व परिष्कृत रूप है। इसी धरती माता का श्रद्धा से अलंकरण करके लोकमानव में अपनी आत्मीयता का परिचय दिया। भारतीय संस्कृति में धरती को विभिन्न नामों से अलंकृत किया जाता है। गुजरात में साथिया राजस्थान में माण्डना, महाराष्ट्र में रंगोली उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, बिहार में अहपन, बंगाल में अल्पना और गढ़वाल में आपना के नाम से प्रसिद्ध है। यह कला धर्मानुप्रागित भावों से प्रेषित होती है; जिसमें श्रद्धा से रचना की जाती है। विवाह और शुभ अवसरों में लोककला का विशिष्ट स्थान है। द्वारों पर अलंकृत घड़ों का रखना, उसमें जल व नारियल रखना, वन्दनवार बांधना आदि को आज के आधुनिक युग में भी इसे आदरभाव, श्रद्धा और उपासना की दृष्टि से देखा जाता है।
आज भारत की वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण ताजमहल है, जिसने विश्व की अपूर्व कलाकृत्तियों के सात आश्चर्य में शीर्षस्थ स्थान पाया है। लालकिला, अक्षरधाम मन्दिर, कुतुबमीनार, जामा मस्जिद भी भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण रही है। मूर्त्तिकला, समन्वयवादी वास्तुकला तथा भित्तिचित्रों की कला के साथ-साथ पर्वतीय कलाओं ने भी भारतीय कला से समृद्ध किया है।
सत्य, अहिंसा, करुणा, समन्वय और सर्वधर्म समभाव ये भारतीय संस्कृति के ऐसे तत्त्व हैं, जिन्होंने अनेक बाधाओं के बीच भी हमारी संस्कृति की निरन्तरता को अक्षुण्ण बनाए रखा है। इन विशेषताओं ने हमारी संस्कृति में वह शक्ति उत्पन्न की है कि वह भारत के बाहर एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया में अपनी जड़े फैला सके।
हमारी संस्कृति के इन तत्त्वों को प्राचीन काल से लेकर आज तक की कलाओं में देखा जा सकता है। इन्हीं ललित कलाओं ने हमारी संस्कृति को सत्य, शिव, सौन्दर्य जैसे अनेक सकारात्मक पक्षों को चित्रित किया है। इन कलाओं के माध्यम से ही हमारा लोकजीवन, लोकमानस तथा जीवन का आंतरिक और आध्यात्मिक पक्ष अभिव्यक्त होता रहा है, हमें अपनी इस परम्परा से कटना नहीं है अपितु अपनी परम्परा से ही रस लेकर आधुनिकता को चित्रित करना है।
भारतीय मनीषियों के अनुसार कलाओं की सूची
कामसूत्र के अनुसार
"कामसूत्र" के अनुसार ६४ कलाएँ निम्नलिखित हैं :
(१) गायन, (२) वादन, (३) नर्तन, (४) नाट्य, (५) आलेख्य (चित्र लिखना), (६) विशेषक (मुखादि पर पत्रलेखन), (७) चौक पूरना, अल्पना, (८) पुष्पशय्या बनाना, (९) अंगरागादि लेपन, (१0) पच्चीकारी, (११) शयन रचना, (१२) जलतंरग बजाना (उदक वाद्य), (१३) जलक्रीड़ा, जलाघात, (१४) रूप बनाना (मेकअप), (१५) माला गूँथना, (१६) मुकुट बनाना, (१७) वेश बदलना, (१८) कर्णाभूषण बनाना, (१९) इत्र या सुगंध द्रव बनाना, (२0) आभूषण धारण, (२१) जादूगरी, इंद्रजाल, (२२) असुंदर को सुंदर बनाना, (२३) हाथ की सफाई (हस्तलाघव), (२४) रसोई कार्य, पाक कला, (२५) आपानक (शर्बत बनाना), (२६) सूचीकर्म, सिलाई, (२७) कलाबत्, (२८) पहेली बुझाना, (२९) अंत्याक्षरी, (३0) बुझौवल, (३१) पुस्तक वाचन, (३२) काव्य-समस्या करना, नाटकाख्यायिका-दर्शन, (३३) काव्य-समस्या-पूर्ति, (३४) बेंत की बुनाई, (३५) सूत बनाना, तुर्क कर्म, (३६) बढ़ईगिरी, (३७) वास्तुकला, (३८) रत्नपरीक्षा, (३९) धातुकर्म, (४0) रत्नों की रंग परीक्षा, (४१) आकर ज्ञान, (४२) बागवानी, उपवन विनोद, (४३) मेढ़ा, पक्षी आदि लड़वाना, (४४) पक्षियों को बोली सिखाना, (४५) मालिश करना, (४६) केश-मार्जन-कौशल, (४७) गुप्त-भाषा-ज्ञान, (४८) विदेशी कलाओं का ज्ञान, (४९) देशी भाषाओं का ज्ञान, (५0) भविष्य कथन, (५१) कठपुतली नर्तन, (५२) कठपुतली के खेल, (५३) सुनकर दोहरा देना, (५४) आशुकाव्य क्रिया, (५५) भाव को उलटा कर कहना, (५६) धोखाधड़ी, छलिक योग, छलिक नृत्य, (५७) अभिधान, कोशज्ञान, (५८) नकाब लगाना (वस्त्रगोपन), (५९) द्यूतविद्या, (६0) रस्साकशी, आकर्षण क्रीड़ा, (६१) बालक्रीड़ा कर्म, (६२) शिष्टाचार, (६३) मन जीतना (वशीकरण) और (६४) व्यायाम।
शुक्रनीति के अनुसार
"शुक्रनीति" के अनुसार कलाओं की संख्या असंख्य है, फिर भी समाज में अति प्रचलित ६४ कलाओं का उसमें उल्लेख हुआ है। "शुक्रनीति" के अनुसार गणना इस प्रकार है :-
नर्तन (नृत्य), (२) वादन, (३) वस्त्रसज्जा, (४) रूप परिवर्तन, (५) शैय्या सजाना, (६) द्यूत क्रीड़ा, (७) सासन रतिज्ञान, (८) मद्य बनाना और उसे सुवासित करना, (९) शल्य क्रिया, (१०) पाक कार्य, (११) बागवानी, (1२) पाषाणु, धातु आदि से भस्म बनाना, (1३) मिठाई बनाना, (1४) धात्वौषधि बनाना, (1५) मिश्रित धातुओं का पृथक्करण, (1६) धातु मिश्रण, (1७) नमक बनाना, (1८) शस्त्र संचालन, (1९) कुश्ती (मल्लयुद्ध), (२0) लक्ष्य वेध, (२1) वाद्य संकेत द्वारा व्यूह रचना, (२२) गजादि द्वारा युद्धकर्म, (२३) विविध मुद्राओं द्वारा देव पूजन, (२४) सारथ्य, (२५) गजादि की गति शिक्षा, (२६) बर्तन बनाना, (२७) चित्रकला, (२८) तालाब, प्रासाद आदि के लिए भूमि तैयार करना, (२९) घटादि द्वारा वादन, (३0) रंगसाजी, (३1) भाप के प्रयोग-जलवाटवग्नि संयोगनिरोधै: क्रिया, (३२) नौका, रथादि यानों का ज्ञान, (३३) यज्ञ की रस्सी बाटने का ज्ञान, (३४) कपड़ा बुनना, (३५) रत्न परीक्षण, (३६) स्वर्ण परीक्षण, (३७) कृत्रिम धातु बनाना, (३८) आभूषण गढ़ना, (३९) कलई करना, (४0) चर्मकार्य, (४1) चमड़ा उतारना, (४२) दूध के विभिन्न प्रयोग, (४३) चोली आदि सीना, (४४) तैरना, (४५) बर्त्तन माँजना, (४६) वस्त्र प्रक्षालन (संभवत: पालिश करना), (४७) क्षौरकर्म, (४८) तेल बनाना, (४९) कृषिकार्य, (५0) वृक्षारोहण, (५1) सेवा कार्य, (५२) टोकरी बनाना, (५३) काँच के बर्त्तन बनाना, (५४) खेत सींचना, (५५) धातु के शस्त्र बनाना, (५६) जीन, काठी या हौदा बनाना, (५७) शिशुपालन, (५८) दंडकार्य, (५९) सुलेखन, (६0) तांबूलरक्षण, (६1) कलामर्मज्ञता, (६२) नटकर्म, (६३) कलाशिक्षण और (६४) साधने की क्रिया।
वात्स्यायन के "कामसूत्र" की व्याख्या करते हुए जयमंगल ने दो प्रकार की कलाओं का उल्लेख किया है (१) कामशास्त्र से सम्बन्धित कलाएँ, (२) तंत्र सम्बन्धी कलाएँ। दोनों की अलग-अलग संख्या ६४ है। काम की कलाएँ २४ हैं जिनका सम्बन्ध सम्भोग के आसनों से है, २0 द्यूत सम्बन्धी, १6 कामसुख सम्बन्धी और ४ उच्चतर कलाएँ। कुल ६४ प्रधान कलाएँ हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय साधारण कलाएँ भी बतायी गयी हैं।
प्रगट है कि इन कलाओं में से बहुत कम का सम्बन्ध ललित कला या फ़ाइन आर्ट्स से है। ललित कला अर्थात् चित्रकला, मुर्त्तिकला आदि का प्रसंग इनसे भिन्न और सौंदर्यशास्त्र से सम्बन्धित है।
इन्हें भी देखें
बृहद आधुनिक कला कोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - विनोद भारद्वाज)
भारतीय कला (गूगल पुस्तक ; लेखक : उदय नारायण राय) |
काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है। सुप्रसिद्ध कोरोजयी कवि गोलेन्द्र पटेल ने कविता के संदर्भ में कहा है कि "कविता आत्मा की औषधि है।"
काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है। उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है।
काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं। गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं- कथा और आख्यायिका। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है।
सामान्यत: संस्कृत के काव्य-साहित्य के दो भेद किये जाते हैं- दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य शब्दों के अतिरिक्त पात्रों की वेशभूषा, भावभंगिमा, आकृति, क्रिया और अभिनय द्वारा दर्शकों के हृदय में रसोन्मेष कराता है। दृश्यकाव्य को 'रूपक' भी कहते हैं क्योंकि उसका रसास्वादन नेत्रों से होता है। श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। श्रव्यकाव्य में पद्य, गद्य और चम्पू काव्यों का समावेश किया जाता है। गत्यर्थक में पद् धातु से निष्पन पद्य शब्द गति की प्रधानता सूचित करता है। अत: पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पुन: पद्यकाव्य के दो उपभेद किये जाते हैंमहाकाव्य और खण्डकाव्य। खण्डकाव्य को मुक्तकाव्य भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है
खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। साहित्यदर्पण, ६/३२१
कवित्व के साथ-साथ संगीतात्कता की प्रधानता होने से ही इनको हिन्दी में गीतिकाव्य भी कहते हैं। गीति का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इन सब तत्त्वों के सहयोग से संस्कृत मुक्तककाव्य को एक उत्कृष्ट काव्यरूप माना जाता है। मुक्तकाव्य महाकाव्यों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हुए हैं।
संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण मेघदूत है। अधिकांश प्रबन्ध गीतिकाव्य इसी के अनुकरण पर लिखे गये हैं। मुक्तक वह हैजिसमें प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके सुन्दर उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द मधुर पदावली गीतिकाव्यों की विशेषता है। शृंंगार, नीति, वैराग्य और प्रकृति इसके प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। नारी के सौन्दर्य और स्वभाव का स्वाभाविक चित्रण इन काव्यों में मिलता है। उपदेश, नीति और लोकव्यवहार के सूत्र इनमें बड़े ही रमणीय ढंग से प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि मुक्तकाव्यों में सूक्तियों और सुभाषितों की प्राप्ति प्रचुरता से होती है।
मुक्तककाव्य की परम्परा स्फुट सन्देश रचनाओं के रूप में वैदिक युग से ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद में सरमा नामक कुत्ते को सन्देशवाहक के रूप में भेजने का प्रसंग है। वैदिक मुक्तककाव्य के उदाहरणों में वसिष्ठ और वामदेव के सूक्त, उल्लेखनीय हैं। रामायण, महाभारत और उनके परवर्ती ग्रन्थों में भी इस प्रकार के स्फुट प्रसंग विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं। कदाचित् महाकवि वाल्मीकि के शाकोद्गारों में यह भावना गोपित रूप में रही है। पतिवियुक्ता प्रवासिनी सीता के प्रति प्रेषित श्री राम के संदेशवाहक हनुमान, दुर्योधन के प्रति धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा प्रेषित श्रीकृष्ण और सुन्दरी दयमन्ती के निकट राजा नल द्वारा प्रेषित सन्देशवाहक हंस इसी परम्परा के अन्तर्गत गिने जाने वाले प्रसंग हैं। इस सन्दर्भ में भागवत पुराण का वेणुगीत विशेष रूप से उद्धरणीय है जिसकी रसविभोर करने वाली भावना छवि संस्कृत मुक्तककाव्यों पर अंकित है।
काव्य का प्रयोजन
राजशेखर ने कविचर्या के प्रकरण में बताया है कि कवि को विद्याओं और उपविद्याओं की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। व्याकरण, कोश, छन्द, और अलंकार - ये चार विद्याएँ हैं। ६४ कलाएँ ही उपविद्याएँ हैं। कवित्व के ८ स्रोत हैं- स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, विद्वत्कथा, बहुश्रुतता, स्मृतिदृढता और राग।
स्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता।
स्मृतिदाढर्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य ॥ (काव्यमीमांसा)
मम्मट ने काव्य के छः प्रयोजन बताये हैं-
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥
(काव्य यश और धन के लिये होता है। इससे लोक-व्यवहार की शिक्षा मिलती है। अमंगल दूर हो जाता है। काव्य से परम शान्ति मिलती है और कविता से कान्ता के समान उपदेश ग्रहण करने का अवसर मिलता है।)
कविता या काव्य क्या है इस विषय में भारतीय साहित्य में आलोचकों की बड़ी समृद्ध परंपरा है आचार्य विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, पंडित अंबिकादत्त व्यास, आचार्य श्रीपति, भामह आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा जयशंकर प्रसाद जैसे प्रबुद्ध कवियों और आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने अपने मत व्यक्त किए हैं। विद्वानों का विचार है कि मानव हृदय अनन्त रूपतामक जगत के नाना रूपों, व्यापारों में भटकता रहता है, लेकिन जब मानव अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक सम्बंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।
काव्य के भेद:
काव्य के भेद दो प्रकार से किए गए हैं
स्वरूप के अनुसार काव्य के भेद और
शैली के अनुसार काव्य के भेद
स्वरूप के अनुसार काव्य के भेद:
स्वरूप के आधार पर काव्य के दो भेद हैं - श्रव्यकाव्य एवं दृश्यकाव्य।
जिस काव्य का रसास्वादन दूसरे से सुनकर या स्वयं पढ़ कर किया जाता है उसे श्रव्य काव्य कहते हैं। जैसे रामायण और महाभारत।
श्रव्य काव्य के भी दो भेद होते हैं - प्रबन्ध काव्य तथा मुक्तक काव्य।
इसमें कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं। जैसे रामचरित मानस।
प्रबंध काव्य के दो भेद होते हैं - महाकाव्य एवं खण्डकाव्य।
१- महाकाव्य इसमें किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है।
जैसे - पद्मावत, रामचरितमानस, कामायनी, साकेत आदि महाकव्य हैं।
महाकाव्य में ये बातें होना आवश्यक हैं-
महाकाव्य का नायक कोई पौराणिक या ऐतिहासिक हो और उसका धीरोदात्त होना आवश्यक है।
जीवन की संपूर्ण कथा का सविस्तार वर्णन होना चाहिए।
श्रृंगार, वीर और शांत रस में से किसी एक की प्रधानता होनी चाहिए। यथास्थान अन्य रसों का भी प्रयोग होना चाहिए।
उसमें सुबह शाम दिन रात नदी नाले वन पर्वत समुद्र आदि प्राकृतिक दृश्यों का स्वाभाविक चित्रण होना चाहिए।
आठ या आठ से अधिक सर्ग होने चाहिए, प्रत्येक सर्ग के अंत में छंद परिवर्तन होना चाहिए तथा सर्ग के अंत में अगले अंक की सूचना होनी चाहिए।
२- खंडकाव्य इसमें किसी की संपूर्ण जीवनकथा का वर्णन न होकर केवल जीवन के किसी एक ही भाग का वर्णन होता है।
जैसे - पंचवटी, सुदामा चरित्र, हल्दीघाटी, पथिक, विप्र सुदामा आदि खंडकाव्य हैं।
खंड काव्य में ये बातें होना आवश्यक हैं-
कथावस्तु काल्पनिक हो।
उसमें सात या सात से कम सर्ग हों।
उसमें जीवन के जिस भाग का वर्णन किया गया हो वह अपने लक्ष्य में पूर्ण हो।
प्राकृतिक दृश्य आदि का चित्रण देश काल के अनुसार और संक्षिप्त हो।
इसमें केवल एक ही पद या छंद स्वतंत्र रूप से किसी भाव या रस अथवा कथा को प्रकट करने में समर्थ होता है। गीत कवित्ता दोहा आदि मुक्तक होते हैं।
जिस काव्य की आनंदानुभूति अभिनय को देखकर एवं पात्रों से कथोपकथन को सुन कर होती है उसे दृश्य काव्य कहते हैं। जैसे नाटक में या चलचित्र में।
शैली के अनुसार काव्य के भेद:
१- पद्य काव्य - इसमें किसी कथा का वर्णन काव्य में किया जाता है, जैसे गीतांजलि
२- गद्य काव्य - इसमें किसी कथा का वर्णन गद्य में किया जाता है, जैसे जयशंकर की कमायनी ।।। गद्य में काव्य रचना करने के लिए कवि को छंद शास्त्र के नियमों से स्वच्छंदता प्राप्त होती है।
३- चंपू काव्य - इसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है। मैथिलीशरण गुप्त की 'यशोधरा' चंपू काव्य है।
काव्य का इतिहास
आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास लगभग ८०० साल पुराना है और इसका प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी से समझा जाता है। हर भाषा की तरह हिंदी कविता भी पहले इतिवृत्तात्मक थी। यानि किसी कहानी को लय के साथ छंद में बांध कर अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रंथ कविता में ही लिखे गए हैं। इसका विशेष कारण यह था कि लय और छंद के कारण कविता को याद कर लेना आसान था। जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रख लेने का यह सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।
इन्हें भी देखें
काव्यशास्त्र के मानदण्ड (गूगल पुस्तक; डॉ रामनिवास गुप्त)
भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका (गूगल पुस्तक; लेखक - योगेन्द्र प्रताप सिंह)
कविता क्या है? विकिस्रोत पर, लेखकआचार्य रामचन्द्र शुक्ल। |
ऑस्ट्रेलिया (), सरकारी तौर पर ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रमंडल दक्षिणी गोलार्द्ध के महाद्वीप के अर्न्तगत एक देश है जो दुनिया का सबसे छोटा महाद्वीप भी है और दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप भी, जिसमे तस्मानिया और कई अन्य द्वीप हिंद और प्रशांत महासागर में है। ऑस्ट्रेलिया एकमात्र ऐसी जगह है जिसे एक ही साथ महाद्वीप, एक राष्ट्र और एक द्वीप माना जाता है। पड़ोसी देश उत्तर में इंडोनेशिया, पूर्वी तिमोर और पापुआ न्यू गिनी, उत्तर पूर्व में सोलोमन द्वीप, वानुअतु और न्यू कैलेडोनिया और दक्षिणपूर्व में न्यूजीलैंड है।
१८वी सदी के आदिकाल में जब यूरोपियन अवस्थापन प्रारंभ हुआ था उसके भी लगभग ४० हज़ार वर्ष पहले, ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप और तस्मानिया की खोज अलग-अलग देशो के करीब २५० स्वदेशी ऑस्ट्रेलियाईयो ने की थी। तत्कालिक उत्तर से मछुआरो के छिटपुट भ्रमण और होलैंडवासियो द्वारा १६०६, में यूरोप की खोज के बाद,१७७० में ऑस्ट्रेलिया के अर्द्वपूर्वी भाग पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया और २६ जनवरी १७८८ में इसका निपटारा "देश निकला" दण्डस्वरुप बने न्यू साउथ वेल्स नगर के रूप में हुआ। इन वर्षों में जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई और महाद्वीप का पता चला,१९वी सदी के दौरान दूसरे पांच बड़े स्वयं-शासित शीर्ष नगर की स्थापना की गई।
१ जनवरी १90१ को, छ: नगर महासंघ हो गए और ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रमंडल का गठन हुआ। महासंघ के समय से लेकर ऑस्ट्रेलिया ने एक स्थायी उदार प्रजातांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था का निर्वहन किया और प्रभुता संपन्न राष्ट्र बना रहा। जनसंख्या 2१.७मिलियन (दस लाख) से थोडा ही ऊपर है, साथ ही लगभग ६०% जनसंख्या मुख्य राज्यों सिडनी, मेलबर्न, ब्रिस्बेन, पर्थ और एडिलेड में केन्द्रित है। राष्ट्र की राजधानी केनबर्रा है जो ऑस्ट्रेलियाई प्रधान प्रदेश (एक्ट) में अवस्थित है।
प्रौद्योगिक रूप से उन्नत और औद्योगिक ऑस्ट्रेलिया एक समृद्ध बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है और इसका कई राष्ट्रों की तुलना में इन क्षत्रों में प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा है जैसे स्वास्थ्य, आयु संभाव्यता, जीवन-स्तर, मानव विकास, जन शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और मूलभूत अधिकारों की रक्षा और राजनैतिक अधिकार. ऑस्ट्रेलियाई शहरों को जीवन कुशलता, सांस्कृतिक प्रस्तावों और जीवन-स्तर के क्षेत्र में दुनिया में उच्च स्थान दिया जाता है। यह कई संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र, जी-२०मुख्य अर्थव्यवस्थाएँ, राष्ट्र मंडल देशों, अंज़ूस, ओक्ड और विश्व व्यापार संगठन (व्टो) का सदस्य |
ऑस्ट्रेलिया नाम लैटिन के एक शब्द ऑस्ट्रेलिज़ से लिया गया है जिसका अर्थ "दक्षिणी" होता है। रोमन समय की एक पौराणिक कथा "अननोन लैंड ऑफ़ द साउथ"(टेरा ऑस्ट्रेलिस इनकोग्नीता) और मध्यकालीन भूगोल में भी इसका जिक्र था पर यह महाद्वीप के किसी दस्तावेजी जानकारी पर आधारित नहीं था। १५२१ में प्रशांत महासागर में जहाज चलाने वाले पहले यूरोपियनों में से एक स्पनिअर्ड्स थे। अंग्रेजी में ऑस्ट्रेलिया शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग १६२५ में, मास्टर हक्लुय्त द्वारा लिखित, 'हक्लुयतूस पोस्थुमस ' में सामुएल पुर्चास द्वारा प्रकाशित किताब "ए नोट ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया डेल एस्पिरितु सैनटो" में हुआ।
डच विशेषण रूप ऑस्ट्रैलिस्चे का प्रयोग बताविया में डच ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियो द्वारा १६३८ में दक्षिण में नए भू-भाग खोज लेने के सन्दर्भ में किया गया था।ऑस्ट्रेलिया शब्द का प्रयोग १६९३ में 'जक्क़ुएस सडयूर' उप नाम से गाब्रिएल दे फोइग्न्य द्वारा १६७६ में फ्रेंच में लिखित उपन्यास (लेस एवेंचर् दे जैकस सद्यूर डंस ला द्कॉवर्ट एट ले वोयागे दे ला टेरे ऑस्ट्रेले) के अनुवाद में हुआ था। उसके बाद एलेकजेंडर डेलरिम्पल ने 'समुद्र यात्रा का ऐतिहासिक संचयन'और 'दक्षिणी प्रशांत महासागर में खोज (१७७१)'में समूचे दक्षिण प्रशांत महासागर क्षेत्र के सन्दर्भ में किया था। १७९३ में, जॉर्ज शॉ और सर जेम्स स्मिथ ने जूलोजी (जीव-विज्ञान) और बोटनी ऑफ़ न्यू हॉलैंड (न्यू हॉलैंड का वनस्पति विज्ञान) किताब प्रकाशित की, जिसमे उन्होंने लिखा था "एक विशाल द्वीप या आंशिक रूप से ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप, ऑस्ट्रैलेसिया या न्यू-हॉलैंड". साथ ही १७९९ में जेम्स विल्सन के चार्ट में भी यह दिखाई पड़ा.
ऑस्ट्रेलिया नाम मैथ्यू फ्लिनडेर्स द्वारा मशहूर हुआ, जिन्होंने १८०४ के करीब इसे औपचारिक तौर पर अपनाने के लिए दबाव डाला। जब वह अपनी पाण्डुलिपि और चार्ट अपनी किताब १८१४ ए वोयज टू टेरा ऑस्ट्रैलिस (आ वोयागे तो टेरा ऑस्ट्रेलिस) के लिए तैयार कर रहे थे तब वे अपने सहयोगी सर जोसफ बैंक्स द्वारा टेर्रा ऑस्ट्रैलिस शब्द का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किये गए क्योंकि ये जनता के लिए सबसे परिचित शब्द था। फ्लिनडेर्स ने भी ऐसा ही किया पर एक टिप्पणी के साथ: "क्या मैं अपने आप को मौलिक शब्द से किसी नवरचना को अनुमति दूँ, यह होगा इसे ऑस्ट्रेलिया में बदलना, जो कानों को सुनने में ज्यादा अच्छा लगे और पृथ्वी के दूसरे महान भू-भागो का सम्मिलन हो", उस व्याखान में यही एक मात्र संयोग ऑस्ट्रेलिया शब्द का था लेकिन परिशिष्ट ई,"रॉबर्ट ब्राउन के सामान्य टिप्पणी, भौगोलिक और व्यवस्थित, टेर्रा ऑस्ट्रैलिस का वनस्पति विज्ञान" में ब्राउन ने विशेषण रूप आस्ट्रेलियन ' का लगातार प्रयोग किया है, यह उस रूप का पहला जाना हुआ प्रयोग था। लोकप्रिय धारणा के बावजूद किताब नाम धारण करने में सहायक नहीं बनी, यह नाम अगले दस वर्षो में धीरे-धीरे सामने आया।
लचलान मक्कुँरी 'न्यू-साउथ वेल्स के एक गवर्नर', अनंतर अपने इंग्लैंड के प्रेषणों में इस शब्द का प्रयोग करते थे और १२ दिसम्बर १८१७ को इसे औपचारिक रूप से नगरीय कार्यालयों में प्रयोग के लिए स्वीकार्य बनाने की संस्तुति की। १८२४ में, नौ सेना विभाग सहमत हुआ की अब यह महाद्वीप सरकारी तौर पर ऑस्ट्रेलिया नाम से जाना जाना चाहिए।
ऑस्ट्रेलियाई अंग्रेजी में ऑस्ट्रेलिया शब्द का उच्चारण होता है. २०-वीं सदी के शुरुआती समय में कई बार इस देश को स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय रूप में ओज (ओज़) नाम से उल्लेखित किया गया, ऑस्सी (ऑइ) (कभी-कभी ओजी (ओज़्ज़ी) लिखी जाती है जो उच्चारण को अच्छी तरह पेश करता है) सामान्य बोल-चाल की भाषा में यह एक विशेषण है और संज्ञा रूप में यह शब्द ऑस्ट्रेलियाइयो का उल्लेख करती हैं।
{मुख्य ऑस्ट्रेलिया का इतिहास}
ऑस्ट्रेलिया के मानव निवास-स्थान की शुरुवात आज से ४२००० और ४८००० वर्षो पहले की अनुमानित की गयी है। ये पहले ऑस्ट्रेलियाई आज के आधुनिक स्वदेशी ऑस्ट्रैलियाईयो के पूर्वज रहे होंगे, वे भू-सेतु के रास्ते आये होंगे और छोटी समुद्री यात्रा वहां से कियें होंगे जो आज दक्षिणी-पूर्वी एशिया है। इनमें से अधिकांश लोग शिकारी-संग्राहक और साथ में मिश्रित मौखिक संस्कृति और ड्रीमटाइम में विश्वास और भूमि की इज्ज़त करने पर आधारित आध्यात्मिक गुण वाले थे। द टोर्रेस जलसंयोगी द्वीपवासी एथ्निकल्लीमेलानेसियन, वास्तविक में शिकारी और बागवानी करने वाले थे। उनकी सांस्कृतिक परंपरा हमेशा से महाद्वीप के आदि निवासियों से अलग रही है।
ऑस्ट्रेलियन महाद्वीप का पहला अभिलिखित यूरोपियन अवलोकन डच नाविक विलियम जनस्जून द्वारा किया गया, उन्होंने १६०६ में केप यार्क पेनिन्सुला का अवलोकन किया था। १७वी सदी के दौरान डच ने सम्पूर्ण पश्चिमी और उत्तरी तटरेखा को अभिलिखित किया जिसे उन्होंने न्यू-हॉलैंड कहा, लेकिन उन्होंने इसके अवस्थापन की कोई कोशिश नहीं की। १७70 में, जेम्स कुक ने जहाज़ लेकर पूरा भ्रमण किया और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट का मानचित्र खींचा, जिसे उन्होंने नाम दिया न्यू-साउथ वेल्स और ग्रेट ब्रिटेन के लिए दावा किया।
कूक की खोजों ने नए दंड सम्बन्धी नगर की स्थापना का रास्ता तैयार किया। २६ जनवरी १७८८ को कैप्टेन आर्थर फिलिप द्वारा, न्यू साउथ वेल्स का शीर्ष ब्रिटिश नगर पोर्ट जैक्सन में अवस्थापन शुरू किया गया। यह दिन आगे चल कर ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय दिवस, 'ऑस्ट्रेलिया दिवस' बना।
वेन डीमेंस लैंड जिसे अब तस्मानिया नाम से जाना जाता है, की स्थापना १८०३ में की गयी और १८२५ में यह एक अलग नगर हो गया। ग्रेटब्रिटेन ने १८२९ में औपचारिक रूप से ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी हिस्से पर अपना दावा किया। न्यू साउथ वेल्स के हिस्से से पृथक करके अलग नगरो का निर्माण किया गया, १८३६ में दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया, १८५१ में विक्टोरिया और १८५९ में क्वींसलैंड.उत्तरी सीमावर्ती क्षेत्र की स्थापना १९११ में हुई थी जब इसे दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया से अलग किया गया। दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया की स्थापना एक स्वतंत्र प्रदेश के रूप में की गयी, क्योकि यह कभी भी दंड संबंधी नगर नहीं रहा। विक्टोरिया और पश्चमी ऑस्ट्रेलिया की स्थापना भी स्वतंत्र रूप में की गई परन्तु बाद में ले गए दोषी कारागारवासियों को इसने स्वीकार कर लिया।दोषी कैदियों को न्यू साउथ वेल्स ले जाना नगरवासियों द्वारा चलाये गए एक अभियान के बाद १८४८ में बंद कर दिया गया।
३५०,००० की अनुमानित स्वदेशी ऑस्ट्रेलियाई आबादी जो यूरोपियन अवस्थापन के समय थी, उसमे मुख्यत: स्पर्शसंचारी बिमारियों के कारण १५० वर्षो तक चिन्ताजनक तरीके से कमी आई."चुराई गई पीढ़ी"(आदिवासी बच्चों को उनके परिवारों से हटाना), जिस पर हेनरी रेनॉल्ड्स जैसे इतिहासकार दलील देते है कि इसे जाति संहार का कारण मानना चाहिए, जिसने शायद स्वदेशी जनसंख्या को कम करने में भी अपना योगदान दिया।
आदिकालीन इतिहास के ऐसे भाषांतरण पर कुछ रूढ़ीवादी विवरणकारो द्वारा विवाद किया गया, जैसे भूतपूर्व प्रधानमंत्री हॉवर्ड, जैसे की राजनैतिक या वैचारिक कारणों के लिए अत्युक्ति या कल्पित हुई है। इतिहासकार किथ विंडशटल तर्क देते है कि आदिवासी लोगो के आचरण का प्रबल ऐतिहासिक भाषांतरण श्वेतो के सीमा अवस्थापन में ऑस्ट्रेलिया की कल्पना हुई। वह दावा करते हैं कि यह कार्य राजनैतिक रूप प्रेरित विद्वानों की एक पीढ़ी के कार्यों का नतीज़ा था। उन्होंने आरोप लगाये हैं कि यह कार्य कमज़ोर ऐतिहासिक पद्धति अपनाकर तथ्यों के अभाव में कहानियां गढ़कर, आकृतियां बनाकर, तथ्यों को छुपाकर गलत सन्दर्भ स्रोतों के जरिये किया गया है, जिससे पाठक ठगे गये हैं।
इस वाद-विवाद को ऑस्ट्रेलिया के अन्दर इतिहास युद्धों के रूप में जाना जाता है।१९६७ के रिफ़रेंडम का पालन करते हुए संघीय सरकार ने नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए शक्ति प्राप्त किया और आदिवासियों के लिए कानून बनाया। पारंपरिक भू-स्वामित्व--देशी शीर्षक १९९२ तक मानी नहीं गयी, जबतक उच्च न्यायालयने यूरोपियन अधिग्रहण के समय क्वींसलैंड के विरुद्ध मेबो के मामले में ऑस्ट्रेलिया के मत को टेर्रा न्युलिय्स (अक्षरश "स्वामित्त्व मुक्त भूमि"प्रभावता "खाली जमीन"या भूमि) कह कर उलट न दिया।
१८५० के करीब ऑस्ट्रेलिया में एक स्वर्ण दौड़ शुरू हुई और यूरेका कठघरे के विद्रोहीयों द्वारा, १८५४ में, लाइसेंस शुल्क के खिलाफ सविनय अवज्ञा इसकी शुरूआती अभिव्यक्ति थी। १८५५ और १८९० के बीच छ: नगरो ने स्वतः एक दायित्वपूर्ण सरकार प्राप्त किया, अधिकतर मामलो की वे खुद व्यवस्था करते थे और बाकी ब्रिटिश साम्राज्य के हवाले था।लंदन का नगरीय कार्यालय ने कुछ मामले, विशेष तौर पर विदेशी मामले, रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय पोत-परिवहन को अपने पास रखा। १ जनवरी १90१ को, नगरो का महासंघ, दशको की योजनाओं, परामर्श और मतों के बाद प्राप्त हुआ। ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रमंडल पैदा हुआ और यह १907 में ब्रिटिश हुकूमत का रियासत बना। संघीय प्रमुख राज्यक्षेत्र (बाद में जिसका नाम ऑस्ट्रेलियाई प्रमुख राज्यक्षेत्र पड़ा) १9११ में न्यू साउथ वेल्स के कुछ हिस्सों से बना, जिसका मकसद प्रस्तावित नई संघीय राजधानी के लिए जगह प्रदान करना था। (१90१ से १927 तक मेलबर्न, सरकार का अस्थायी सीट था जबकि केनबर्रा निर्माणाधीन था।) उत्तरी क्षेत्र को दक्षिणी ऑस्ट्रेलियाई सरकार से १9११ में राष्ट्रमंडल स्थानांतरित किया गया।
१९१४ में ऑस्ट्रेलिया, पहला विश्व युद्घ लड़ने में, ब्रिटेन के साथ हो गया जिसे साथ में निर्गामी लिबरल पार्टी और आवक लेबर पार्टी दोनों का समर्थन प्राप्त था। ऑस्ट्रेलियाईयो ने पश्चिमी प्रान्त में हुए कुछ प्रमुख लड़ाइयो में हिस्सा लिया। कई ऑस्ट्रेलियाईयो का मानना है कि गलीपोली में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैन्य दलों की हार, राष्ट्र के जन्म का कारण बनी, जो इसका पहला बड़ा सैन्य अभियान था।कोकोडा मार्ग अभियान को कईयों द्वारा द्वितीय विश्व युद्घ के दौरान की एक अनुरूप राष्ट्र-परिभाषित घटना माना गया है।
ब्रिटेन के १९३१ के वेस्टमिन्स्टर की प्रतिमा ने ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बीच औपचारिक रूप से अधिकांशत संवैधानिक कड़ियों को ख़त्म कर दिया, ऑस्ट्रेलिया ने इसे १९४२ में स्वीकार किया, लेकिन इसे द्वितीय विश्व युद्घ के शुरूआती समय का कर दिया ताकि ऑस्ट्रेलियाई संसद द्वारा युद्घ के दौरान पारित इसकी कानूनी वैधता की पुष्टि हो जाए.ब्रिटेन के १९४२ में एशिया में हार के सदमें और जापानी आक्रमणकारियों की धमकी ने ऑस्ट्रेलिया को संयुक्त राज्य का एक सहयोगी और अपना रक्षक बना दिया। अंज़ूस संधि के तहत,१९५१ से, ऑस्ट्रेलिया अमेरिका का एक औपचारिक सैन्य सहयोगी है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद,१९७० के दशक और ऑस्ट्रेलिया की श्वेत नीति के अंत से, ऑस्ट्रेलिया ने यूरोप सेअप्रवास को बढ़ावा दिया, एशिया और दुसरे जगहों से भी अप्रवास को बढ़ावा दिया गया। परिणामस्वरूप, ऑस्ट्रेलिया की जनसांख्यिकी, संस्कृति और स्वयं की छवि रूपांतरित हो गयी। ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बीच अंतिम संवैधानिक संधि को १९८६ ऑस्ट्रेलिया कानून के पारित होने के बाद अलग कर दिया गया और ऑस्ट्रेलिया राज्य-सरकार में ब्रिटिश भूमिका और उक गुप्त परिषद् को हुए न्यायिक निवेदन को ख़त्म कर दिया गया।१९९९ के जनमत संग्रह पर,५४% ऑस्ट्रेलियाई मतदाताओं ने गणतंत्र बनने और राष्ट्रपति को सांसदों के दो तिहाई मतों से नियुक्त करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। विटलम सरकार के चनाव के बाद १९७२ में, दुसरे प्रशांतीय किनारों के राष्ट्रों तक सम्बन्ध विस्तार पर ध्यान केन्द्रित किया गया, जबकि ऑस्ट्रेलिया के पारंपरिक सहयोगी और व्यापारिक सहयोगियो के साथ संबंधो को मजबूत रखने का प्रयास भी जारी रहा।
ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रमंडल संघीय शक्ति विभाजन पर आधारित, एक संवैधानिक प्रजातंत्र है। सरकार के संसदीय व्यवस्था के साथ सरकार का जो रूप उपयोग होता है वह ऑस्ट्रेलिया का संवैधानिक राजतंत्र है।क्वीन एलिजाबेथ ई ऑस्ट्रेलिया की महारानी है, उनकी भूमिका दुसरे राष्ट्रीय मंडल राज्यों के अधीश्वरो के पदो से अलग है। संघ के स्तर पर गवर्नर-जेनरल के रूप में प्रतिनिधित्व करती है और राज्य स्तर पर गवर्नर के रूप में.जो कुछ भी हो संविधान गवर्नर-जनरल को विस्तृत प्रबंधकारिणी अधिकार देती है, ये सब सामान्यत: प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही प्रयोग होते है। प्रधानमंत्री के आदेश के बाहर जो आरक्षित आधिकार गवर्नर-जनरल को प्राप्त है उसका सबसे उल्लेखनीय प्रयोग १९७५ के संवैधानिक संकट के समय विटलम सरकार की बर्खास्तगी था।
सरकार की तीन शाखाएँ हैं:
विधान सभा: राष्ट्रमंडल संसद, जिसमे महारानी, मंत्री सभा और संसद है। महारानी गवर्नर जनरल के रूप में प्रतिनिधित्व करती है, जो प्रथानुसार प्रधानमंत्री के परामर्श पर कार्यवाही करती है।
कार्यकारिणी: संघीय परिषद(गवर्नर जनरल जैसा कार्यकारिणी पार्षदों के द्वारा परामर्श दिया जाये); वास्तविकता में, पार्षद प्रधानमंत्री और राज्यमंत्री होते है।
न्यायपालिका:ऑस्ट्रेलिया उच्च न्यायालय और अन्य संघीय न्यायालये. १९८६ में जब ऑस्ट्रेलिया कानून पारित हुआ तब से ब्रिटेन के न्यायिक परिषद के खुफिया समिति में ऑस्ट्रेलियाई न्यायालयों द्वारा निवेदन बंद कर दिया गया।
राष्ट्रमंडल के दो सदनों के संसद में महारानी, ७६ सभासदों की मंत्री सभा (ऊपरी सदन) और १५० सदस्यों की एक प्रतिनिधि सभा (निचली सदन) निहित होते है। निचली सदन के सदस्य एकल सदस्य मतदाता क्षेत्र से चुने जाते है; जिसे सामान्य तौर पर "निर्वाचन क्षेत्रों" या "सीटों" के रूप में जाना जाता है, जिसे जनसंख्या के आधार पर राज्यों को बांटा गया है, साथ में हर मूल राज्य के लिए कम से कम पांच सीटें सुनिश्चित है। मंत्री सभा में, हर राज्य बारह सभासदो द्वारा प्रतिनिधित्व किये गए है और हर प्रदेश (ऑस्ट्रेलिया प्रमुख प्रदेश और उत्तरी प्रदेश) दो के द्वारा ब.दोनों सदनों के लिए चुनाव हर तीन साल में होते है, साथ-साथ सांसदों का कार्यकाल अतिव्यापी छ: वर्षो का होता है, जबकि हर चुनाव में आधे सभासदों का चुनाव होता है जब तक कि यह चक्र दोगुनी विलयन द्वारा बाधित न हो। जो पार्टी संसद में बहुमत में होती है सरकार गठन करती है और उसके नेता प्रधानमंत्री बनते है।
संघीय तौर पर और राज्य में दो मुख्य राजनैतिक दल है जो सरकार गठन करती है, वे है: ऑस्ट्रेलियन लेबर पार्टी और गठबंधन जो औपचारिकत: दो दलों का संगठन होता है: द लिबरल पार्टी और उसके छोटे सहयोगी दल, राष्ट्रीय पार्टी.स्वतंत्र सदस्य और कई छोटी पार्टिया- जिसमे ग्रीन्स और ऑस्ट्रेलियन डेमोक्रेट्स शामिल है-इन्होने ऑस्ट्रेलियाई संसद, अधिकांश: ऊपरी सदन में अपना प्रतिनिधित्व प्राप्त कर लिया है।नवम्बर २००७ चुनाव में लेबर पार्टी प्रधान मंत्री के तौर पर केविन रुड के साथ सत्ता में आई.हर ऑस्ट्रेलियाई संसद (संघीय, राज्य और प्रदेशीय) में उस समय २००८ सितम्बर तक एक लेबर पार्टी की सरकार होती थी जबतक पश्चमी ऑस्ट्रेलिया के नेशनल पार्टी के साथ गठ्संघन करके लेबर पार्टी ने एक अल्पसंख्यक सरकार की स्थापना न कर ली। २००४ के चुनाव में, पिछली जॉन हावर्ड की नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने मंत्रीसभा की सत्ता जीती- ऐसा पिछले बीस वर्षो में पहली बार हुआ कि किसी पार्टी (या गठबंधन) ने सरकार में रहते हुए ऐसा किया। हर राज्य और प्रदेश और संघीय स्तर पर १८ और उससे ऊपर के उम्र वालो के लिए मतदान अनिवार्य है. दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर हर जगह मतदान के लिए नामांकन करवाना अनिवार्य है।
राज्यों और प्रदेशों
ऑस्ट्रेलिया के छ: राज्ये और दो मुख्य महाद्वीप प्रदेशे है। साथ ही कुछ छोटे प्रदेशे है जो संघीय सरकार के प्रबंधन के अंतगर्त है।
राज्ये है, न्यू साउथ वेल्स, क्वींसलैंड, साउथ ऑस्ट्रेलिया, तस्मानिया, विक्टोरिया और वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया.दो मुख्य महाद्वीप प्रदेश है उत्तरी प्रदेश और ऑस्ट्रेलियाई प्रमुख प्रदेश (एक्ट).अधिकतर मामलों में, दोनों प्रदेशे राज्यों की तरह कार्य करते है, पर राष्ट्रमंडल संसद इनके सांसदों द्वारा पारित किसी भी कानून की अवहेलना या उसे खारिज कर सकती है। विरोधास्वरूप, संघीय कानून सिर्फ कुछ क्षेत्रों में राज्य कानून की अवहेलना कर सकती है जो ऑस्ट्रेलियाई संविधान के धारा ५१ में है; राज्य संसद के पास शेष सभी अधिकार कायम रहते है जिसमे अस्पताल, शिक्षा, पुलीस, न्यायालय, सड़क, जन परिवहन और स्थानीय सरकार पर अधिकार शामिल है।
हर राज्य या मुख्य महाद्वीप प्रदेश का अपना कानून या संसद है: उत्तरी प्रदेश, द एक्ट और क्वींसलैण्ड में एक सभा या एक सदन और बाकी राज्यों में दो सदन या सभा है। राज्य प्रभुता सम्पन्न है, यद्यपि राष्ट्रमंडल के कुछ विषय पर अधिकार संविधान में परिभाषित है।निचले सदन को विधान सभा के नाम से जाना जाता है (दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया और तस्मानिया में संयोजन सभा) और ऊपरी सदन को विधान परिषद नाम से जाना जाता है। हर राज्य में सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री (प्रेमियर) होता है और हर प्रदेश में मुख्य मंत्री.महारानी की कई भूमिका है, प्रत्येक राज्य में गवर्नर द्वारा प्रतिनिधित्व करती है और उत्तरी प्रदेश में प्रबंधक द्वारा और एक्ट में ऑस्ट्रेलियाई गवर्नर जनरल के रूप में .
संघीय सरकार प्रत्यक्ष रूप से इन प्रदेशों का प्रबंधन करती है:
जर्विस बे प्रदेश एक नौसेना तल और राष्ट्रीय राजधानी के लिए द्वीप में समुंद्री बंदरगाह जो पूर्व में न्यू साउथ वेल्स का हिस्सा था।
क्रिशमस द्वीप और कोकोस (कीलिंग) द्विपें, बाहर बसे प्रदेश
अशमोर और कारटियर द्वीपें
कोरल सुमुद्री द्वीप
हर्ड द्वीपे और मैकडॉनल्ड द्वीपें
ऑस्ट्रेलियाई दक्षिण-ध्रुवीय प्रदेश (विस्तृत:बिना बसा हुआ)
नोरफोर्क द्वीप भी तकनीकी रूप से बाह्य प्रदेश है, जो कुछ भी हो, नोरफोर्क द्वीप कानून १९७९ के तहत यह अपने ही विधान सभा द्वारा स्थानीय तौर पर शासन करती है और इसे अत्यधिक स्वायत्तता दी गयी है।महारानी प्रबंधक द्वारा प्रतिनिधित्व करती है, वर्त्तमान में ओवेन वाल्श.
विदेश संबंध और सेना
पिछले कई दशको से ऑस्ट्रेलिया के विदेश संबंध अमेरिका के साथ हुए अंज़ूस संधि के घनिष्ट सहचर्य के द्वारा चलती है और एशिया, विशेषकर असियान और प्रशांतीय द्वीप फोरम के साथ संबंधो को विकसित करने की इच्छा के साथ.अमिती की संधि और दक्षिणी पूर्वी एशिया सहयोग की अपनी अधिमिलन के द्वारा ऑस्ट्रेलिया ने पूर्वी एशिया सम्मेलन में मंचीय आसन सुनिशिचत कर लिया। ऑस्ट्रेलिया राष्ट्रमंडल देशो का एक सदस्य है, जिसमे राष्ट्रमंडल सरकारों के प्रमुखों के बीच की मुलाक़ात आपसी सहयोग के लिए मुख्य मंच प्रदान करती है। ऑस्ट्रेलिया ने तेजी से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार उदारीकरण के उद्देश्य का अनुसरण किया है। यह कैर्न्स समूह और एशिया प्रशांतीय अर्थव्यवस्था सहयोग गठन का कारण बना। ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और विकास संगठन और विश्व व्यापार संगठन का सदस्य है और इसने कई प्रमुख द्विपक्षिक स्वतंत्र व्यापार अनुबंधों का अनुसरण किया, तत्काल में ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका मुक्त व्यापार अनुबंध और न्यूजीलैंड के साथ बराबर का आर्थिक संबंध.ऑस्ट्रेलिया का जापान के साथ मुक्त व्यापार अनुबंध के लिए वार्ता जारी है, जिसके साथ ऑस्ट्रेलिया का एशिया प्रशांत क्षेत्र में एक विशवासयोग्य साथी के रूप में संबंध है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ब्रिटेन, मलेशिया और सिंगापूर के साथ पांच शक्तिशाली रक्षा सम्बन्धन व्यवस्था दल है।संयुक्त राष्ट्र के स्थापना का एक सदस्य देश, ऑस्ट्रेलिया अपने मध्य शक्ति सहयोगी कनाडा और नॉर्डिक देशों के साथ बहुपक्षीय संबंधो के लिए प्रबल रूप से प्रतिबद्ध है और एक अंतराष्ट्रीय सहायता कार्यक्रम का निर्वहन करता है जिसके अंतर्गत ६० देश सहायता पाते है। २००५-०६ का बजट विकास सहयोग के लिए आ$२.५ करोड़ प्रदान करता है; घरेलू विकास दर (गप) के रूप में यह सहयोग सयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में सिफारिश की गयी राशिः से कम है। ऑस्ट्रेलिया का स्थान २008 वैश्विक विकास केन्द्र में विकास की प्रतिबद्धता सूचि में साँतवा है।
ऑस्ट्रेलियाई सशस्त्र सेनाएँ -- ऑस्ट्रेलियन सुरक्षा बल (अद्फ) में शाही ऑस्ट्रेलियन नौसेना (रण) ऑस्ट्रेलियाई फौज और शाही ऑस्ट्रेलियाई वायु सेना (राफ) की कुल संख्या ७३,००० है (जिसमे 53००० नियमित और 2०००0 आरक्षित) है। ऑस्ट्रेलिया की सेना दुनिया की ६८वी बड़ी सेना है, लेकिन प्रति व्यक्ति आधार पर दुनिया की एक छोटी सेनाहै। ऑस्ट्रेलियाई सुरक्षा बल (अद्फ) की सभी शाखाएँ संयुक्त राष्ट्र में और क्षेत्रीय शांति के लिए (अभी हाल ही में पूर्वी तिमोर,सोलोमन द्वीप और सूडान में), आपदा सहायता और सैन्य संघर्ष, जिसमे २००३ का इराक़ युद्घ सम्मिलित है, में शामिल है। सरकार किसी भी एक सैन्य बल से सुरक्षा बल के अध्यक्ष को नियुक्त करती है; वर्तामान में सुरक्षा बल के अध्यक्ष वायु सेना अध्यक्ष एंगस हस्टन है। २००६-०७ के बजट में रक्षा खर्च $२२ करोड़ था, जो वैश्विक सैन्य खर्च का १% से भी कम है। प्रमुखत:अपने अफगानिस्तान में उपस्थिति के कारण,२००८ विश्व शांति सुचनांक, में ऑस्ट्रेलिया को २७वा स्थान दिया गया। जबकि गवर्नर जनरल ऑस्ट्रेलियाई सुरक्षा बल का प्रधान सेनापति होता है, इनका सुरक्षा बल (अद्फ) को चलाने में कोई सक्रिय योगदान नहीं होता, यह चुनी हुई ऑस्ट्रेलियाई सरकार चलाती है।
ऑस्ट्रेलिया का भूक्षेत्र हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई तख़्ते पर है। हिंद और प्रशांत महासागर से घिरा हुआ है, ऑस्ट्रेलिया एशिया से अराफुरा और तिमुर समुद्रों के कारण विभाजित है। ऑस्ट्रेलिया की तट रेखा है (सभी अपतट द्वीपों को छोड़कर) और के विस्तृत विशेष आर्धिक क्षेत्र पर अधिकार है। इस विशेष आर्थिक क्षेत्र में ऑस्ट्रेलियाई दक्षिण-ध्रुवीय प्रदेश सम्मिलित नहीं है।
विशाल अवरोधक चट्टान, दुनिया का सबसे बड़ा मूंगा- चट्टान, उत्तरी पूर्वी तट से बहुत कम दुरी में स्थित है और से ज्यादा तक फैला हुआ है।माउंट अगस्टस को दुनिया का सबसे बड़ा पत्थर का खम्भा, माना जाता है, जो पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में स्थित है। पर स्थित ग्रेट डिवाइडिंग रेंज पर माउंट कोसिक्जो ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप का सबसे बड़ा चट्टान है; हलाकि हर्ड द्वीप के सुदूर ऑस्ट्रेलियन प्रदेश का मासन पीक लम्बा है।
दूर तक का ऑस्ट्रेलिया का बड़ा भाग मरुस्थल है या अर्धशुष्क भूमि है जिसे सामन्यता पिछड़ा क्षेत्र कहा जाता है। ऑस्ट्रेलिया एक समतल महाद्वीप है, जिसकी मिट्टी सबसे पुरानी और कम उर्वरक है और सबसे सूखा आवासीय महाद्वीप है। सिर्फ महाद्वीप के दक्षिणी पूर्वी और दक्षिणी पश्चिमी किनारे की जलवायु समशीतोष्ण है।जनसँख्या का घनत्व २.८ निवासी प्रति स्क्वायर किलोमीटर है, जो दुनिया के सबसे निचलो में से एक है, हालाँकि जनसँख्या का एक बड़ा भाग दक्षिणी-पूर्वी तट रेख के समशीतोष्ण हिस्से में रहती है। उष्णदेशीय जलवायु के साथ देश के उत्तरी भाग के भू-प्रदेश में वर्षा प्रचुरवन, जंगलीभूमि, घासभूमि, वायुशिफ, दलदल और मरुस्थल सम्मिलित है। महत्वपूर्णता से जलवायु महासागरीय बहावो से प्रभावित होती है, जिसमे भारतीय महासागर द्रिधुव और अल नीनो दक्षिणी दोलन, जो सामयिक सूखे के साथ सहसम्बंधित है और मौसमी उष्णदेशीय निम्न चाप व्यवस्था जो उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में चक्रवात का निर्माण करती है।
हालांकि अधिकांशत: ऑस्ट्रेलिया अर्दशुष्क या मरुस्थल है, इसमें अलपाइन झाडियों से लेकर उष्णदेशीय वर्षाप्रचुरवन के विमित्र आवासीय क्षेणी है और इसे बहुविधिता वाला देश माना गया है। महाद्वीप के इतने पुराने होने के कारण, इसके अत्यधिक अस्थिर मौसम नमूने और इसका लंबी अवधि का भोगोलिक विलगन, ऑस्ट्रेलिया का अधिकांश बायोटा अनूठा और भिन्न-भिन्न प्रकार का है। लगभग ८५% फूल-पौधे, ८४% स्तनपायी, ४५% से ज्यादा चिड़ियाँ और ८९% जलचर, समशीतोष्ण क्षेत्र की मछलियाँ स्थानिक है। ७५५ जातियों के साथ, ऑस्ट्रेलिया में किसी भी देश से ज्यादा सर्पणशील जंतु है। इस क्षेत्र के अर्न्तगत ऑस्ट्रेलिया के कई इकोरीजन और जातियाँ मनुष्य के क्रियाकलापों और नई किस्म के पौधों और जानवरों के कारण खतरे में है। संघीय वातावरण सुरक्षा और जैव विविधता संरक्षण कानून १९९९ खतरे में पड़े प्रजातियों के संरक्षण का एक कानूनी ढाँचा है। अनूठे परितंत्र की सुरक्षा और उसे बचाने के लिए राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना के अंतगर्त विमित्र सुरक्षा क्षेत्र बनाए गए है; ६४ आर्द्रतायुक्त भूमि को रामसर समझौता के अंतगर्त पंजीकृत किया गया है और १६ विश्व मीरास स्थल निर्मित किये गए है। ऑस्ट्रेलिया को २००५ के विश्व पर्यावरण निरंतरता सूचनांक में १३वां स्थान दिया गया।ऑस्ट्रेलियाई जंगलों में बहुधा विभिन्न किस्म के नीलगिरी के वृक्ष है और ज्यादातर उच्च वर्षा दर वाले क्षेत्रों में स्थित है।
अधिकतर ऑस्ट्रेलियाई काष्ठीय पौधों की जातियाँ सदाबहार है और कई आग और सुखा के अनुकूल है, जिसमे नीलगिरी और बबूल शामिल है। ऑस्ट्रेलिया के पास स्थानिक फली जाति के विशाल प्रकार है जो रिजोबिया बैक्टेरिया और माइक्रोजिल फंगी के साथ सहजीविता के कारण कम-पोषण वाले मिट्टियों में पनपते है। बहुप्रचलित ऑस्ट्रेलियाई जानवरों मेंमनोट्रिम्स(प्लेटिपस और इकिडना); मार्सुपिय्ल्स के परिचारक, जिसमे कंगारू, द कोअला और वोमब्रेट; नाम्किनिजल और साफ़ जल मगरमच्छ और चिडियाँ जैसे एमु और कोकबुराहै। ऑस्ट्रेलिया विश्व के कुछ विषैले साँपो का घर है।डिंगो(ऑस्ट्रेलियाई कुत्ता) को ऑस्ट्रोनेसियन लोगो द्वारा लाया गया था जो ३००० ब्स के करीब स्वदेशी ऑस्ट्रेलियाईयो के साथ व्यापार करते थे, पहले मानव अवस्थापन के साथ कई पौधे और जानवरों की जांतिया जल्द ही गायब हो गई, जिसमे ऑस्ट्रेलियाई मेगाफौना; अन्य जो युरोपियन अवस्थान के बाद गायब हुए उसमे थाईलेसीनहै।
हाल के वर्षो में जलवायु परिवर्तन ऑस्ट्रेलिया का बड़ा चिंता का विषय बन गया है, साथ में कई ऑस्ट्रेलियाइयो का मानना है कि पर्यावरण की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मामला है देश अभी जिसका सामना कर रहा है। पहले रुड मंत्रालय ने उत्सर्ग घटाने के लिए कर क्रियाकलाप प्रारंभ किए, रुड का पहला कार्यालयीन कानून, कार्यालय के पहले दिन,क्योटो प्रोटोकोलके दृढीकरण के कारक पर हस्ताक्षर करना। तथापि ऑस्ट्रेलिया का प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड निकासी दुनिया में उच्च में है, कुछ दुसरे औद्दयोगिक देश जैसे अमेरिका, कनाडा और नार्वे से कम है। पिछले सदी के अनंतर ऑस्ट्रेलिया में वर्षा में थोडी बढोत्तरी हुई है, देशभर में और राष्ट्र के दोनों चतुर्थ भाग में.चिरकालिक कमी जो शहरी आबादी में बढोत्तरी और स्थानीय सूखे के कारण हो रही है उसके कारण जलवायु के इस लाभदायक परिवर्तन के बावजूद, ऑस्ट्रेलिया के कई शहरों और क्षेत्रों में जल सीमा लागू है।
ऑस्ट्रेलियाई डॉलर ऑस्ट्रेलियाइ राष्ट्रमंडल की मुद्रा है, जिसमे क्रिशमस द्वीप, कोकोस (किलिंग) द्वीप और नोरफोक द्वीप और साथ ही साथ किरीबती के प्रशांतीय द्वीप राज्य, नौरु और तुवालु शामिल है।ऑस्ट्रेलियन प्रतिभूति एक्सचेंज और सिडनी फ्यूचर्स एक्सचेंज ऑस्ट्रेलिया के बड़े शेयर बाज़ार है।
आर्थिक स्वतंत्रता के सुचनांक के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया एक निर्वाध पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है।ऑस्ट्रेलिया का प्रति व्यक्ति (गप) ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस से क्रय शक्ति समानता मामले में थोड़ा ऊँचा है। देश को २००७ के संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सुचनांक में तीसरा,२००८ के लेगाटम में समृद्धि सुचनांक में पहला और द इकोनोमिस्ट वर्ल्डवाइड २००५ के जीवन स्तर सुचनांक में छठा स्थान दिया गया। ऑस्ट्रेलिया के सभी बड़े शहरों ने जीवन कुशलता के तुलनात्मक सर्वे में अच्छा प्रदर्शन किया; मेलबर्न को २००८ दुनिया के सबसे अच्छे आवासीय शहर में दूसरा स्थान, इस सूची में इसके बाद ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर को चौथा, एडिलेड को ७वाँ और सिडनी को ९वाँ स्थान मिला. सदी के शुरुआत में वस्तुओं के दाम बढ़ते समय, वस्तुओ के निर्माण की जगह उसके निर्यात पर ज्यादा ध्यान देना ऑस्ट्रेलिया के व्यापार में बढोतरी का आधार बना। ऑस्ट्रेलिया का भुगतान संतुलित है जो गप के ७% से ज्यादा नकारात्मक है और ५० वर्षो से भी ज्यादा के एकसमान बड़े चालू खाता घाटा है। ऑस्ट्रेलिया १५ वर्षो से ३.६% की औसत दर से विकसित हुआ है, जिसमे कि एक अवधि तक ओक्ड का वार्षिक औसत २.५% था। इम्फ के अनुसार,1७ वर्षो विकास के बाद ऑस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था २00९ में मंदी की मार खा सकता है।
''' १९८३ में हाक सरकार ने ऑस्ट्रेलियाई डॉलर को चलाया और अंशत: आर्थिक व्यवस्था को नियंत्रण मुक्त किया।हावर्ड सरकार लेबर बाज़ार के अंशत: विनियमन के साथ चली और अधिक राज्य अधीन व्यवसायों का निजिकरण किया, खासकरदूरसंचारउद्योग में.१०% माल और सेवा कर (गस्ट)लागू करने के साथ अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को जुलाई २००० में मूलत: परिवर्तित किया गया, जिसने ऑस्ट्रेलियाई कर व्यवस्था के व्यक्तिगत और कंपनी आयकर पर आत्मनिर्भरता को थोड़ा कम किया।
४.६% बेरोजगारी दर के साथ जनवरी २००७ में १०,०३३,४80 लोग नियोजित थे। पिछले दशको से, महंगाई २-३% और आधारभूत ब्याज दर ५-६% है। अर्थव्यवस्था का सेवा क्षेत्र जिसमे पर्यटन, शिक्षा और आर्थिक सेवाएँ हैं, उनका गप में ६9% योगदान है। यद्यापि कृषि ओर प्राकृतिक संसाधन गप के सिर्फ ३% और ५% के लिए जिम्मेदार है, वे मूलतः निर्यात प्रदर्शन में योगदान करते है। ऑस्ट्रेलिया के बड़े निर्यात बाज़ार जापान, चीन, अमेरिका, दक्षिणी कोरिया और न्यूजीलैण्ड है।
अनुमानित २१.८ मिलियन (दस लाख) में अधिकतर ऑस्ट्रेलियाइ उपनिवेश काल के स्थापितो के वंशज है और यूरोप के उत्तर-संघीय अप्रवासी है और करीब जनसँख्या का ९०% यूरोपीय वंशज के है। पीढ़ियों से, उपनिवेशकालीन स्थापितों और उत्तर संघीय अप्रवासियों का विशाल जनसंख्या ब्रिटिश आइस्ल्स से केवल यहाँ आई और ऑस्ट्रेलियाई लोग अभी भी मुख्यतः ब्रिटिश या आयरिश एथिनिक उत्पति के है। २००६ में ऑस्ट्रेलियाई गणना सबसे ज्यादा जिसमे ऑस्ट्रेलियाई वंशज (३७.१३%), फिर अंग्रेज(३१.६५%), आयरिश(९.0८%), स्कॉटिश(७.५६%), इटालियन(४.2९%), जर्मन (४.0९ %), चाइनीज(३.३७%) और ग्रीक (१.८४%) आते हैं।
ऑस्ट्रेलिया की आबादी पहले विश्व युद्घ से चार गुणा बढ़ गयी है,
और महत्वाकांक्षी आप्रवासी कार्यक्रम के कारण भी बढ़ी.दूसरे विश्व युद्ध से २००० तक, कुल जनसंख्या का करीब ५.९ मिलियन देश में नए अप्रवासी के तौर पर बसे, इसका मतलब हुआ की हर सात में से दो ऑस्ट्रेलियाई समुद्र पार पैदा हुआ। अधिकतर अप्रवासी कुशल है, लेकिन अप्रवासी कोटा में परिवार के सदस्यों और रिफ्यूजी के लिए विभाग शामिल है। २००१ में २३.१% ऑस्ट्रेलियाइयो का पाँच बड़ा समूह समुद्र पार ब्रिटेन, न्यूजीलैण्ड, इटली, वियतनाम और चीन में पैदा हुआ था। १९73 में ऑस्ट्रेलियाई श्वेत नीति के अंत के साथ, बहुसंस्कृतिवाद की नीति के आधार पर जाति सौहार्द को प्रोत्साहन और बढ़ावा देने के लिए कई सरकारी पहलों को स्थापित किया गया।
२००५-०६ में मुख्यतः एशिया और ओसिनिया से १३१,००० से ज्यादा अप्रवासी ऑस्ट्रेलिया आये। 20०६-०७ का प्रवासी लक्ष्य १४४,००० था। २००८-०९ के लिए कुल प्रवासी कोटा ३००,०००-यह द्वितीय विश्व युद्घ के समय बने अप्रवासी विभाग के निर्माण के बाद सबसे ज्यादा है।
स्वदेशी जनसंख्या-महाद्वीपीय आदिवासी और तोर्स स्ट्रेट द्वीपवासियों-की संख्या २००१ में ४१०,००३(कुल जनसंख्या का २.२%) गणना की गयी थी;जिसमे १९७६ की गणना से अभूतपूर्व बढोत्तरी हुई; जिसमें सर्वदेशी जनसंख्या ११५,९५३ गिनी गयी। बड़ी संख्या में स्वदेशी जनसंख्या की गणना नहीं हो सकी क्योंकि उनकी स्वदेशी स्थिति फार्म में दाखिल नहीं हुई थी, कारणों के समन्वय के बाद,अब्स ने २००१ का सही आँकडा लगभग ४६०,१४० (कुल जनसंख्या का २.४%) अनुमानित किया। स्वदेशी ऑस्ट्रेलियाईकारावास और बेरोजगारी, शिक्षा का निचा स्तर और जीवन काल पुरुषों और महिलाओं का जो ११-१७ वर्ष विदेशियों से कम है, से प्रभावित है। कुछ सुदूर स्वदेशी वर्ग को "विफल राज्य" जैसी अवस्था से परिभाषित किया गया है।
विकसित देशों में जो एक बात समान है, ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या बूढी जनसंख्या की ओर बढ़ रही है जिससे सेवानिवृत्ति और सेवा करने वालों की कम उम्र वाले ज्यादा है। २००४ में, सामान्य जनसंख्या की औसत उम्र ३८.८ वर्ष थी। एक बड़ी संख्या में ऑस्ट्रेलियाई (२००२-०३ की अवधि में ७५९,८49) अपने देश से बाहर रहे।
राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी है। अपनी खुद की विशेष उच्चारण गुण और शब्द संग्रह (जिसमे कुछ ने अपने लिए अंग्रेजी की राह खोज ली) के साथ ऑस्ट्रेलियाई अंग्रेजी भाषा का एक मुख्य प्रकार है, लेकिन अमेरिकन या ब्रिटिश अंग्रेजी से आंतरिक बोली भिन्नता में कम (छोटे क्षेत्रीय उच्चारण और शाब्दिक विविधता को छोड़कर) है। व्याकरण और वर्तनी मुख्यत: ब्रिटिश अंग्रेजी पर आधारित है। २००१ की गणना के अनुसार स्वदेश की करीब ८०% जनसंख्या द्वारा सिर्फ अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। दूसरे सामान्य जो भाषा घर में बोली जाती है वह है चीनी (२.१%), इटालियन (१.९%) और ग्रीक (१.४%).पहली और दूसरी पीढ़ी के प्रवासियों का एक उल्लेखनीय अनुपात द्विभाषिक है। ऐसा माना जाता है कि पहले यूरोपियन सम्पर्क के समय,ऑस्ट्रेलियाई प्राचीन भाषाएं २०० से ३०० के बीच थी। इनमे से सिर्फ ७० के करीब ही बच पाए और उनमें से २० अब खतरे में है। एक स्वदेशी भाषा ५०,०००(०.२5%) लोगों की मुख्य भाषा अभी भी बनी हुई है। ऑस्ट्रेलिया के पास एक चिन्ह भाषा है जिसे असलन के नाम से जाना जाता है, जो करीब 6५०० बहरे लोगों की मुख्य भाषा है।
ऑस्ट्रेलिया का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है। २००६ की गणना में, ६४% ऑस्ट्रेलियाई को किसी भी मनुष्य जाति के ईसाई के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, जिसमे २६% रोमन कैथोलिक और १९% एंगलिकेन के रूप में थे।"धर्म रहित"(जिससे मानवतावाद, अनीश्वरवाद, अज्ञेयवाद और बुद्धिवाद) कुल मिलाकर १९% और जो तेजी से बढ़ता हुआ समूह है (२००६ और २००१ के गणना में हुए विभिन्नता के सन्दर्भ में; और १२% जवाब नहीं दिए और न ही अनुवाद पर कोई अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त किए).ऑस्ट्रेलिया में दूसरा बड़ा धर्म बौद्ध, उसके बाद हिन्दू और इस्लाम धर्म है। कुल मिलाकर ६% से कम ऑस्ट्रेलियाई इसाई धर्म के अलावा के पाए गए है।
सर्वेक्षणो से पता चला है कि विकसित देशों में ऑस्ट्रेलिया कम धार्मिक राष्ट्र है, साथ ही ऑस्ट्रेलियाइयों के जीवन के धर्म की कोई महत्वपूर्ण भूमिका के रूप में व्याख्या नहीं की गयी है।शिक्षाविदों के विचार से धर्म से सम्बंधित जनगणना त्रुटिपूर्ण है क्योंकि जनगणना "को धार्मिक आस्था वाले पहचान को मापने के लिए योजनावद्ध किया गया है - न कि स्वंय आस्था या इसकी अनुपस्थिति को" . एकाधिक स्वतंत्र सर्वेक्षण मोनाश विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलियाई कैथोलिक विश्वविद्यालय और ईसाई रिसर्च एसोसिएशन द्वारा किया गया जो इससे तर्कयुक्त है कि जनगणना में सूचित १९% की तुलना में ५२% व्यस्क ऑस्ट्रेलियाइयों का कोई धर्म नहीं है |स्रोत: द एड्वरटाईज़र अप्रैल ११, २००९ "व्हाई एडिलेड इज़ द सेंटर ऑफ़ एथिस्म" पीपी.१०-१२. जैसा कि विभिन्न पश्चिमी देशों में हैं, यहाँ चर्चो में अराधना करने वाले सक्रिय भागीदार कम है और कम हो रही है, चर्च के कायों में, २००४ के गणना के अनुसार, उपस्थित जनसंख्या का करीब ७.५% यानि १.५ मिलियन है।
पूरे ऑस्ट्रेलिया में स्कूल उपस्थिति अनिवार्य है। अधिकांश ऑस्ट्रेलिया राज्य में ५-६ वर्ष के बच्चे ११ वर्ष की अनिवार्य सिक्षा प्राप्त करते है; उसके बाद दो वर्ष और बढ़ सकते है (११ और १२ वर्ष), इसका साक्षरता दर में सहयोग करीब ९९% माना गया है।अन्तराष्ट्रीय विद्यार्थी मुल्यांकन कार्यक्रम, आर्थिक सह भागिता और विकास संगठन (ओक्ड) के सहयोग द्वारा, ऑस्ट्रलियाई शिक्षा को विश्व में आँठवा स्थान दिया गया है, जो विशेषतापूर्वक ३० देशों ओक्ड के औसत स्थान से ज्यादा है। सरकारी अनुदान से ऑस्ट्रेलिया के ३८ विश्वविद्यालयों को समर्थन दी जाती है और जबकि कई नीजि विश्वविद्यालय भी बनाए गए है, जिसमे से अधिकांश को सरकारी निधियन मिला। व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए एक राज्य आधारित व्यवस्था है, जो महाविद्यालयों से ज्यादा है जिसे टेफ संस्थान के नाम से जाना जाता है और कई उद्योग नए उद्यमियो के लिए प्रशिक्षण का प्रबंध करते है। लगभग ५8% 2५ से ६4 वर्ष के ऑस्ट्रेलियाइयो के पास व्यावसायिक या तृतीय श्रेणी की पात्रता है, और ओक्ड देशों में ४९% के स्नातक दर के साथ इसका स्थान सबसे ऊपर है। तृतीय श्रेणी से शिक्षा लेने वाले स्थानीय और अंतराष्ट्रीय विद्यार्थियों का अनुपात ओक्ड के देशों में सबसे ज्यादा ऑस्ट्रेलिया का है।
१७८८ से बाद ऑस्ट्रेलियाई संस्कृति का प्राथमिक आधार एंग्लो सेल्टिक रहा है, यद्यपि देश के प्राकृतिक वातावरण और स्वदेशी से संस्कृतियों से कई ऑस्ट्रेलियाई विशेषताएँ बाहर निकली। २०वीं सदी के मध्य से ऑस्ट्रेलियाई संस्कृति, अमेरिका प्रख्यात संस्कृति (विशेषकर टेलिविज़न और सिनेमा), ऑस्ट्रेलिया के एशियाई पड़ोसी और बड़े पैमाने पर अंग्रेजी भाषा न बोले जाने वाले देशों के अप्रवासियों से प्रभावित रही है।
ऑस्ट्रेलियाई दृश्यकला की शुरुआत अपने स्वदेशी लोगो के गुफाओं और वृक्षों की चित्रकलाओं से मानी गयी है। स्वदेशी ऑस्ट्रेलियाइयो की परंपरा मौखिक रूप से ज्यादा प्रसारित हुई और ड्रीमटाइम की कहानियों को कहने और समारोहों से जुडी हैं। ऑस्ट्रेलियाई प्राचीन संगीत, नृत्य और कला से प्रभावित हुई। यूरोपियन अवस्थापन के समय से, ऑस्ट्रेलियाई कला का विषय ऑस्ट्रेलियाई भूमि प्रदेश का चित्र, जो उदाहरणस्वरूप अल्बर्ट नमत्जीरा, अर्थर स्ट्रीटन और दुसरे हेडिलबर्ग स्कूल और अर्थर बोय्ड साथ जुड़े की कार्यो में देखा जाता है। इस समय जो ऑस्ट्रेलियाई कलाकार आधुनिक अमेरिका और यूरोपियन कलाओं के साथ जुड़े़ हैं उसमें क्यूबिस्ट ग्रेस क्रोवली, सुर्रेलिस्ट जेम्स ग्लीसन, अमूर्त व्यंजक ब्रेट विटले और पॉप कलाकार मार्टिन शार्प शामिल है।ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय चित्रशाला और विभिन्न दूसरे राज्य चित्रशालाएं ऑस्ट्रेलियाई और विदेशी संकलनों को सम्भाल कर रखे हुए हैं। २०वीं सदी के प्रारम्भ से लेकर अबतक ऑस्ट्रेलियाई आधुनिक कलाकारों के लिए देश के भूमि प्रदेश का चित्र मुख्य प्रेरणास्रोत बनी है; इस बात की स्तुति जीत कलाकारों की चित्रों में होती है, वे है सिडनी नोलन, ग्रेस कोसिंगटन स्मिथ, फ्रेड विलियम्स, सिडनी लॉन्ग और क्लिफ्टन पघ.
ऑस्ट्रेलियाई प्रदर्शन कलाओं की कुछ कंपनियाँ संघीय सरकार की ऑस्ट्रेलिया परिषद से आर्थिक सहायता पाती है। हर राज्य के प्रधान शहर में एक स्वररचना वादक यंत्र है और राष्ट्रीय ओपेरा कंपनी, ओपेरा ऑस्ट्रेलिया, जो गायक जॉन सुथेरलैण्ड के द्वारा निकला। निली मेल्बा उनकी विख्यात पूर्वीधिकारी थी। नाटक और नृत्य ऑस्ट्रेलियाई बैलेट और विमित्र राज्य नृत्य कंपनियों के द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं। हर राज्य के पास सार्वजनिक निधि प्राप्त रंगमंच कंपनी हैं।
ऑस्ट्रेलियन सिनेमा उद्योग की शुरुआत ऑस्ट्रेलियाइ बुश रेंजर नेड केली की ७० - मिनट की फिल्म द स्टोरी ऑफ द केली गैंग के प्रदर्शनि के साथ १९०६ में शुरू हुई, जिसे दुनिया की पहली लम्बी फिल्म माना जाता है।द न्यू वेव ऑफ ऑस्ट्रेलियन सिनेमा 19७० के दशक में उत्तेजक और सफल फिल्मे लाइ, कुछ देश के आदिवासियों के भुत-काल का वर्णन करती है, जैसे पिकनिक ऐट हैगिंग राक और द लास्ट वेव .बाद के सफल में मैड मैक्स और गालिपोली शामिल है। हाल ही की सफलता में शाइन, रैबिट-प्रूफ फेंस और हैप्पी फीट शामिल है। ऑस्ट्रेलियाइ के विविध भूमि प्रदेश और शहर कई दूसरे फिल्मों के प्राथमिक स्थान रहे है, जैसे- द मैट्रिक्स, पीटर पैन, सुपरमैन रीटर्न्स और फाइंडिंग नेमो के.हाल के अच्छी तरह विख्यात ऑस्ट्रेलियाई अभिनेता में जुडिथ अन्देरसों, एर्रोल फ़्लाइन, निकोले किडमन, हघ जक्क्मन, हेथ लेजर, गेओफ्फ्रे रश, रुस्सेल्ल क्रोवे, टोनी कोलेट्टे, नओमी वॉट्स और सिडनी रंगमंच कंपनी के संयुक्त निर्देशक- केट ब्लैनकेट शामिल है।
ऑस्ट्रेलियाई साहित्य भी भूमि प्रदेश से प्रभावित हुई है, कई लेखको के काम जैसे बंजो पटेरसों, हेनरी लावसन और डोरोथा मैकेलर ऑस्ट्रेलियाई झाड़ों के अनुभव को लिए। ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों का आचरण, जैसा कि शुरूआती साहित्यों में दर्शाया गया है, वह आधुनिक ऑस्ट्रेलियाइयो में मशहूर है। वे मानते है कि यह समतावाद, मेटशीप और एन्टी-ओथोरीटेनिस्म को बढ़ाता है। १९७३ में पेट्रिक वाईट को नोबल प्राइज़ से नवाजा गया था, ऐसा करने वाले वे एकमात्र ऑस्ट्रेलियाई थे।कोलीन मैक्कुलोफ़, डेविड विलियम्सन और डेविड मुलोफ़ भी प्रसिद्ध लेखक है।
ऑस्ट्रेलिया के पास दो सार्वजनिक प्रसारणकर्ता (द ऑस्ट्रेलियन ब्रोडकास्टिंग निगम और बहुसांस्कृतिक विशेष प्रसारण सेवा), तीन वाणिज्यिक टेलीविजन नेटवर्क, कई पे-टीवी सेवाएँ और विभिन्न सार्वजनिक, लाभ राहित टेलीविजन और रेडियो केंद्र है। हर प्रमुख शहर में रोजाना के अखबारे और दो राष्ट्रीय दैनिक अखबारे, द ऑस्ट्रेलियन और द ऑस्ट्रेलियन फैनैन्शियल रिव्यू है। २००८ में रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया का मुक्त प्रेस द्वारा दिए गए, १७३ देशों को स्थान में २५वां है, न्यूजीलैण्ड के (७वां) और (२३वां) के पीछे लेकिन अमेरिका (४८वां) से आगे.पायदान में नीचे होने का प्रमुख कारण है ऑस्ट्रेलिया में व्याव्सायिक मीडिया के सिमित विभेद, साथ में, अधिकांश ऑस्ट्रेलियन प्रिंट मीडिया निउज कार्पोरेशन और जॉन फेयरफेक्स होल्डिंग्स के नियंत्रण अधीन है।
ऑस्ट्रेलिया खेल क्रियाकलापों में १५ वर्ष के ऊपर वाले करीब २४% ऑस्ट्रेलियाइ नियमित रूप से भाग लेते है। ऑस्ट्रेलिया के कई मजबूत अंतर्राष्ट्रीय टीमें क्रिकेट, फिल्ड हॉकी, नेट बॉल, रग्बी लीग, रग्बी यूनियन में है और यह साइक्लिंग, रोइंग और तैराकी में अच्छा प्रदर्शन करते है। ऑस्ट्रेलिया में कुछ बड़े सफल खिलाडी है तैराक डाउन फ्रेजर, मर्रे रोस और लेन थोर्प, स्प्रिंटर बेट्टी कथब्र्ट, टेनिस खिलाडी रोड लेवर और मेर्ग्रेट कोर्ट और क्रिकेटर डोनाल्ड ब्रेडमैन.राष्ट्रीय तौर पर दुसरे मशहूर खेल है ऑस्ट्रेलियन टूल्स फूटबाल, घुड़दौड़, सर्फ़िंग, फूटबाल (सोकर) और मोटर दौड़.ऑस्ट्रेलिया ने आधुनिक दौर के सभी समर ओलम्पिक खेलो और सभी राष्ट्रमंडल खेलो में हिस्सा लिया है। ऑस्ट्रेलिया ने १९५६ में मेलबर्न समर ओलंपिक और २००० में सिडनी समर ओलंपिक कि मेंजबानी की और २००० में मेडल पाने वाले शीर्ष छ: में शामिल रहां. ऑस्ट्रेलिया ने साथ ही १९३८, १९६२, १९८२ और २००६ राष्ट्रमंडल खेलो की भी मेजबानी कर चूका है। दुसरे महत्वपूर्ण श्रंखलाएं जो ऑस्ट्रेलिया में हुई है उनमे ग्रैंड स्लैम ऑस्ट्रेलियन ओपेन टेनिस टूर्नामेंट, अंतराष्ट्रीय क्रिकेट मैचे और फार्मूला वन ऑस्ट्रेलियन ग्रैंड प्रिक्स शामिल है। उच्च स्थान प्राप्त टेलीविजन कार्यक्रम में खेल प्रसारण जैसे समर ओलंपिक गेम्स, स्टेट्स ऑफ आरिजिन और राष्ट्रीय रग्बी लीग और ऑस्ट्रेलियन फूटबाल लीग के भव्य फाइनल शामिल है।
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ऑस्ट्रेलिया संबंधित लेखो की सूची
ऑस्ट्रेलिया का अपना एक शाही राष्ट्रगान है, "गड सेव दा क़ुइन (या किंग) (गोद सवे थे क्वीन(और किंग))", जिसे शाही परिवार की उपस्तिथि में चलाया जाता है और दुसरे मौके पर ऑस्ट्रेलिया में होते है। दुसरे मौके पर ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रगान "अडवांस ऑस्ट्रेलिया फेयर (एडवांस ऑस्ट्रेलिया फेयर)" बजाया जाता है।
अंग्रेजी को कानूनी दर्जा नहीं प्राप्त है।
इन तीन समय क्षेत्रों में सुक्ष्म अंतर है, ऑस्ट्रेलिया में समय देखे.
ऑस्ट्रेलिया अपने महाद्वीप के दक्षिणी जालीम भाग को दक्षिणी महासागर के रूप में पारिभाषित करता है, ना कि भारतीय महासागर, जैसा की अंतराष्ट्रीय जल्माप चित्रण संगठन (इहो) द्वारा पारिभाषित किया गया है। २००० में, इहो सदस्य देशों का एक मत,'दक्षिणी महासागर' शब्द को परिभाषित किया कि यह अन्टार्टिका और ६० डिग्री दक्षिणी अन्क्षाशा के बीच के जल पर सिर्फ लागू किया जायेगा.
ओस (ऑस) के रूप में, द ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्सनरी में यह पहली बार १९०८ में दर्ज किया गया।
फ्रैंक बौम के उपन्यास 'द वंडरफूल विजार्ड ऑफ़ ओजी (१९००) पर आधारित फिल्म 'द विजार्ड ऑफ ओजी (१९३९) में ओजी के कल्पित भूमि को प्राय: अप्रत्याशित संधर्ब के रूप में प्राय: लिया गया है। ऑस्ट्रेलियाइयो "ऑस्ट्रेलियाइ को ओजी लैण्ड" के रूप में छवि नई नहीं है और इसमें बहुत गहरा समर्पण भावः निहित है। १९३९ के फिल्म के द्वारा ओज़ का अक्षर विन्यांस प्रभावित माना जाता है, जबकि उच्चारण हमेशा /ज़/ के साथ होता है, जैसी है असी (ऑइ) के साथ, कभी-कभी लिखित ओजी (ओज़्ज़ी) .बज लुह्र्मन की फिल्म ऑस्ट्रेलिया (२००८) में द विजार्ड ऑफ़ ओजी के सन्दर्भ को ही दुबारा सन्दर्भित किया, जोऑस्ट्रेलिया की युद्घ समय के हलचलों के ठीक पहले प्रकट हुआ था। एक समीक्षक ने लिखा, "आप लुह्र्मन की बहादुरी पर अपनी सहमति दे सकते है बावजूद इसके की, द विजार्ड ऑफ़ ओजी का, ओजी भूमि एक चमत्कारी जगह इन्द्रधनुष के पार, ऑस्ट्रेलिया में पुनः प्रस्तुत हुआ है". कुछ आलोचकों ने यह अनुमान लगाया कि,ओज भूमि के नामकरण में, बौम 'ऑस्ट्रेलिया' से प्रेरित थे, ओज्मा ऑफ़ ओज में डोर्थी समुद्र पर आये तूफान के परिणाम स्वरुप ओज वापस चला जाता है, जबकि वह और उसके चाचा हेनरी समुंद्री जहाज द्वारा ऑस्ट्रेलिया यात्रा कर रहे है। इसलिए, ऑस्ट्रेलिया की तरह, ओज कैलिफोर्निया के पश्चिम के तरफ कहीं पर है। ऑस्ट्रेलिया की तरह ओजी एक द्वीप महाद्वीप है। ऑस्ट्रेलिया की तरह, ओज में महान सीमा पर आवासीय क्षेत्र बसा हुआ हैं। कोई ऐसा भी सोच सकता है कि बाम ने ओजी को ऑस्ट्रेलिया बना दिया या महान ऑस्ट्रेलियाई मरुस्थल के केंद्र में एक चमत्कारी भूमि.
"ओकर, न २ ऑस्ट्र्ल स्लैंग ....एक खुरदरा, अउपजाऊ, या अग्रसित भूरा ऑस्ट्रेलियाइ आदमी;(विशेषतः रुढिवादी)"(सोएड)
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रोबिनसन जीएम, लौफ्रान आरजे और ट्रैनटर पीजे (२०००) ऑस्ट्रेलिया एंड न्यूज़ीलैंड: इकोनोमी, सोसाइटी एंड इन्वायरनमेंट .लंदन: अर्नोल्ड, नी: औप; ०-34०-72०33-६ पेपर ०-34०-72०32-८ हार्ड).
आस्ट्रेलिया के विदेश मामलों और व्यापार के विभाग से ऑस्ट्रेलिया के बारे में
ऑस्ट्रेलिया प्रवेश प्वाइंट की सरकार (संघीय, राज्य और क्षेत्र)
ऑस्ट्रेलियन गवर्नमेंट एंट्री पोर्टल
पार्लियामेन्ट ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया: हू इज हू (राज्य के प्रमुख शामिल है)
ऑस्ट्रेलिया की संसद: मंत्रालय सूची
ऑस्ट्रेलियाई सांख्यिकी ब्यूरो
सामुदायिक संगठनों का पोर्टल
ऑस्ट्रेलिया एट उब लाइब्रेरीज गोवपब्स''
चार हजार साल पहले आस्ट्रेलिया जाकर बसे भारतीय
ओशिआनिया के देश
अंग्रेजी बोलने वाले देशों और प्रदेशें
राष्ट्रमंडल के राष्ट्रों के सदस्य
पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश
१९०१ में स्थापित राज्य और क्षेत्र.
अंग्रेज़ी-भाषी देश व क्षेत्र |
जर्मनी में कई बड़े नगर हैं।
जर्मनी मध्य यूरोप में स्थित है, इसका कुल क्षेत्रफल ३५७,०२१ कि.मी.२ है|
भौगोलिक दृष्टि से जर्मनी के निम्नलिखित विभाग किए गए हैं :
जर्मनी का मैदान
इस प्रदेश की अधिकतम चौड़ाई लगभग १५० मील है। हिमयुग का प्रभाव यहाँ के भूपटल पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जलप्रवाह का विकास अच्छा नहीं है एवं भूमि हिम कटाव के कारण अनुपजाऊ है। इस भाग की मुख्य नदियाँ एल्बे (एल्बे) तथा वेजर (वेसार) हैं। अनुपजाऊ भागों को पोलैंड के आधार पर उपजाऊ बनाया जा रहा है।
इस प्रदेश के मुख्य नगरों में बर्लिन तथा हैमवर्ग हैं। यहाँ से जर्मनी के प्रत्येक क्षेत्र के लिये आवागमन के साधन सुलभ हैं।
यह संपूर्ण देश का अत्यधिक विकसित प्रदेश है। यहाँ जर्मनी के विशाल उद्योग, खनिज तथा अन्य संबंधित उद्योगों का विकास हुआ है। युद्धों के कारण इस भाग की अत्यधिक क्षति हुई थी। किंतु पुन: उद्योग धंधों का विकास किया गया है। यहाँ कपड़ा, रेशम, लोहा, इस्पात, कांच, बरतन, रसायनक तथा चमड़े के अनेक कारखाने हैं।
प्रमुख नगरों में ड्रेसडेन एल्बे के तट पर स्थित है। लाइपसिग (लीप्ज़िग) महत्वपूर्ण आवागमन का केंद्र है, जो उत्तरी एवं मध्य जर्मनी के मुख्य औद्योगिक नगरों को मिलाता है। इस भौगोलिक विभाग के अंतर्गत सैक्सनी एवं वेस्टफेलिया हैं। वेस्टफेलिया क्षेत्र खनिजों के लिये विश्वप्रसिद्ध है। इसी क्षेत्र में रूर (रूहर) कोयला क्षेत्र स्थित हे, जहाँ प्रति वर्ष लगभग ८,००,००,००0 टन कोयले का उत्खनन होता है। इस प्रदेश के मुख्य औद्योगिक नगरों में एसेन (एसेन) तथा डार्टमंट है। इन नगरों के क्षेत्र में कच्छा लोहा प्राप्त होता है। युद्ध के पहले लोहे इस्पात का उत्पादन यहाँ ग्रेट ब्रिटेन के उत्पादन से भी अधिक था।
दक्षिणी पश्चिमी जर्मनी
इस भौगोलिक विभाग के अंतर्गत राइन घाटी तथा समीपवर्ती प्रदेश आते हैं। यहाँ राइन नदी गहरी घाटी से होकर प्रवाहित होती है। यह क्षेत्र कृषि तथा आवागमन के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस घाटी से आवागमन के मार्ग दक्षिणी यूरोप के लिये बेसेल से होकर स्विटसरलैंड एवं इटली की ओर जाते हैं तथा पश्चिमी यूरोप के लिये सेवर्न गेट से होकर पेरिस जाते हैं।
राइन घाटी के पूर्व की ओर त्रिकोणात्मक रूप में ब्लैक फारेस्ट का विस्तृत प्रदेश है। इस प्रदेश की ऊँचाई २,००० से ३,००० फुट तक है। यहाँ के प्रमुख नगरों में न्यूरेनवर्ग एवं स्टटगॉर्ट (स्टटगर्ट) हैं।
इसके अंतर्गत बवेरिया (बावेरिया) का भाग आता है। यहाँ की भूमि अनुपजाऊ है। बवेरिया प्रमुख नगर तथा क्षेत्रीय राजधानी है। यह नगर आइज़र नदी के तट पर स्थित है। पर्वतीय भागों का प्रदेश अत्यंत ऊँचा नीचा है। यहाँ ओबरामरगोउ (ओबेरमरगौ) प्रसिद्ध दर्शनीय क्षेत्र है।
जर्मनी की जलवायु कई प्रकार की है। उत्तरी जर्मनी मुख्यत: उत्तरी-पश्चिमी यूरोपीय जलवायु प्रदेश के अंतर्गत आता है। मध्य एवं दक्षिणी जर्मनी महाद्वीपी प्रकार की जलवायु के क्षेत्र में सम्मिलित किए जाते हैं।
जाति, भाषा और धर्म
पूर्वी जर्मनी के निवासी प्राय: समजातीय हैं, यद्यपि स्वैबियनों (स्वैबियास), थुरिंजियनों (थरींगीस) सैक्सनियनों (सक्सोनींस), प्रशियनों (प्रसियन) आदि में कुछ परस्पर भेदमूलक विशेषताएँ हैं। पश्चिमी में लगभग ९९% मूल जर्मन हैं। अल्पसंख्यकों में केवल डेनी (दनेस) हैं। हाल में पूर्वी यूरोप से कुछ लोग आकर बसे हैं।
जर्मन राजभाषा है। भिन्न-भिन्न भागों में प्रयोग होनेवाली बोलियाँ जर्मन के ही अंतर्गत हैं।
संविधान द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता मान्य है। प्राय: रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट लोग ही बसते हैं।
जर्मनी एक अत्यंत कुशल श्रम शक्ति, एक बड़े शेयर पूँजी, भ्रष्टाचार का स्तर कम, और नवीनता के एक उच्च स्तर के साथ एक सामाजिक बाजार अर्थव्यवस्था है। यह दुनिया की वस्तुओं का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक, और यूरोप में सबसे बड़ा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में जो भी है दुनिया की चौथी नाममात्र का सकल घरेलू उत्पाद और पीपीपी द्वारा पाँचवें एक करके सबसे बड़ा।
सेवा क्षेत्र की कुल सकल घरेलू उत्पाद (सूचना प्रौद्योगिकी सहित), उद्योग २८% के लगभग ७१%, और कृषि १% योगदान देता है। बेरोजगारी यूरोस्टेट द्वारा प्रकाशित दर जनवरी २०१५, जो सभी २८ यूरोपीय संघ के सदस्य राज्यों की सबसे कम दर है में ४.७% के बराबर है। ७.१% के साथ जर्मनी भी यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देशों के सबसे युवा बेरोजगारी दर है। ओईसीडी जर्मनी के अनुसार विश्व में सबसे अधिक श्रम उत्पादकता के स्तर में से एक है। जर्मनी यूरोपीय एकल बाजार जो अधिक से अधिक ५०८ मिलियन उपभोक्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है का हिस्सा है। कई घरेलू वाणिज्यिक नीतियों यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्यों के बीच और यूरोपीय संघ के कानून द्वारा समझौतों से निर्धारित होते हैं। जर्मनी २००२ मेंम यूरोपीहँझ्जघ्ज शुरू यह यूरोजोन का एक सदस्य जो चारों ओर ३३८ मिलियन नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है। अपनी मौद्रिक नीति यूरोपीय सेंट्रल बैंक, जो फ्रैंकफर्ट, महाद्वीपीय यूरोप के वित्तीय केंद्र में मुख्यालय है द्वारा निर्धारित है।
आधुनिक कार के लिए घर होने के नाते, जर्मनी में मोटर वाहन उद्योग के सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी और दुनिया में अभिनव से एक है, के रूप में माना जाता है और उत्पादन से चौथा सबसे बड़ा है। जर्मनी के शीर्ष १० निर्यात वाहन, मशीनरी, रासायनिक वस्तुओं, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, बिजली के उपकरणों, दवाइयों, परिवहन उपकरण, मूल धातुओं, खाद्य उत्पादों, और रबर और प्लास्टिक हैं।
जर्मनी में सरकारी और प्रमुख बोली जाने वाली भाषा जर्मन भाषा (जर्मन : डेटच डॉइच्) है। यह २४ अधिकारी और यूरोपीय संघ का काम कर रहे भाषाओं में से एक, और यूरोपीय आयोग के तीन कार्य भाषाओं में से एक है। जर्मन लगभग १०० मिलियन देशी वक्ताओं के साथ, यूरोपीय संघ में सबसे व्यापक रूप से बोली पहली भाषा है।
जर्मनी में मान्यता प्राप्त मूल निवासी अल्पसंख्यक भाषाओं, डेनिश, निचला जर्मन हैं सॉर्बियन, रोमानी, और फ़्रिसियाई; वे आधिकारिक तौर पर क्षेत्रीय या अल्पसंख्यक भाषाओं के यूरोपीय चार्टर द्वारा संरक्षित हैं। सबसे अधिक इस्तेमाल किया आप्रवासी भाषाओं, तुर्की, कुर्द हैं पॉलिश, बाल्कन भाषाओं, और रूसी। जर्मनी के आम तौर पर बहुभाषी हैं। जर्मन नागरिकों के ६७% से कम से कम एक विदेशी भाषा और कम से कम दो में २७% में संवाद करने में सक्षम होने का दावा
स्टैंडर्ड जर्मन एक पश्चिम जर्मन भाषा है और बारीकी से संबंधित है और निचला जर्मन, डच, फ़्रिसियाई और अंग्रेजी भाषाओं के साथ वर्गीकृत किया गया है। एक हद तक कम करने के लिए, यह भी पूर्व युरोपीय (विलुप्त) और स्कैंडिनेवियाई भाषाएँ से संबंधित है। अधिकांश जर्मन शब्दावली भारोपीय भाषा परिवार के जर्मनिक शाखा से प्राप्त होता है। शब्दों का महत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों एक छोटे (देंग्लिच के रूप में जाना जाता है) फ्रेंच और सबसे हाल ही में अंग्रेजी से राशि के साथ, लैटिन और ग्रीक से निकाली गई है। जर्मन को लैटिन वर्णमाला का उपयोग कर लिखा गया है। जर्मन बोलियों, पारंपरिक स्थानीय किस्मों वापस युरोपीय जनजाति का पता लगाया है, उनके शब्दकोष, स्वर विज्ञान, और वाक्य रचना द्वारा मानक जर्मन की किस्मों से प्रतिष्ठित हैं।
१८७१ में इसकी नींव के बाद जर्मनी में किया गया है के बारे में दो तिहाई प्रोटेस्टेंट और एक तिहाई रोमन कैथोलिक, एक उल्लेखनीय यहूदी अल्पसंख्यक के साथ। अन्य धर्मों के राज्य में ही अस्तित्व में है, लेकिन एक जनसांख्यिकीय महत्व और इन तीन इकबालिया की सांस्कृतिक प्रभाव हासिल कभी नहीं। जर्मनी लगभग प्रलय के दौरान अपने यहूदी अल्पसंख्यक खो दिया है और देश के धार्मिक मेकअप धीरे-धीरे साथ पश्चिम जर्मनी अधिक धार्मिक विविध बनने आप्रवास के माध्यम से और पूर्वी जर्मनी राज्य की नीतियों के माध्यम से भारी अधार्मिक बनने के बाद १९४५ के दशकों में बदल दिया है। यह १९९० में जर्मन एकीकरण के बाद में विविधता लाने के लिए जारी २०११ की जनगणना के अनुसार जर्मन, ईसाई कुल जनसंख्या का ६६.८% का दावा, जर्मनी में सबसे बड़ा धर्म है। पूरी आबादी के सापेक्ष, ३१.७% प्रोटेस्टेंट के रूप में खुद को घोषित जर्मनी में इंजील चर्च (एकड) (३०.८%) और मुक्त चर्चों के सदस्यों सहित: (जर्मन एवेंजेलीश फ्रेकिर्चेन) (०.९%) और ३१.२% रोमन के रूप में खुद को घोषित कैथोलिक। रूढ़िवादी विश्वासियों, १.३% का गठन किया है, जबकि यहूदियों-०.१%। अन्य धर्मों २.७% के लिए जिम्मेदार है। २०१4 में, कैथोलिक चर्च में २३.९ लाख सदस्य (जनसंख्या का २९.५%) और के लिए २२.६ मिलियन (जनसंख्या का २७.९%) इंजील चर्च के लिए जिम्मेदार है। दोनों बड़े चर्चों हाल के वर्षों में अनुयायियों की महत्वपूर्ण संख्या को खो दिया है।
भौगोलिक दृष्टि से, प्रोटेस्टेंट देश के उत्तरी, मध्य और पूर्वी भागों में केंद्रित है। इनमें से ज्यादातर एकड, जो लूथरन, सुधार और वापस १८१७ रोमन कैथोलिक के प्रशिया संघ के लिए डेटिंग दक्षिण और पश्चिम में केंद्रित है दोनों परंपराओं का प्रशासनिक या इकबालिया यूनियनों शामिल के सदस्य हैं।
२०११ में जर्मनी के ३३% विशेष राज्य का दर्जा के साथ आधिकारिक तौर पर मान्यता धार्मिक संगठनों के सदस्य नहीं थे। जर्मनी में अधर्म पूर्व पूर्वी जर्मनी और मुख्य महानगरीय क्षेत्रों में सबसे मजबूत है।
इस्लाम देश का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। २०११ की जनगणना में, जर्मनी के १.९% के लिए खुद को घोषित मुसलमानों किया जाना है। और हाल ही में अनुमान लगता है, वहाँ २.१ और जर्मनी में रहने वाले ४ लाख मुसलमानों के बीच हैं। मुसलमानों में से अधिकांश सुन्नी और अलेविट्स तुर्की से हैं, लेकिन शिया, अहमदिय्यस और अन्य संप्रदायों की एक छोटी संख्या में हैं।
अन्य जर्मनी की आबादी के कम से कम एक प्रतिशत शामिल धर्मों २५०,००० अनुयायियों (लगभग ०.३%) और कुछ १००,००० अनुयायियों (०.१%) के साथ हिंदू धर्म के साथ बौद्ध धर्म हैं। जर्मनी में अन्य सभी धार्मिक समुदायों की तुलना में कम 5०,००० अनुयायियों प्रत्येक है।
जर्मनी में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक वैश्विक नेता के रूप में यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उपलब्धियों के लिए किया गया है , विकास के प्रयासों की अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा है। नोबेल पुरस्कार से १०७ जर्मन पुरस्कार विजेताओं को सम्मानित किया गया है। यह विज्ञान और इंजीनियरिंग (३१%), दक्षिण कोरिया के बाद में स्नातकों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या पैदा करता है। २० वीं सदी की शुरुआत में, जर्मन पुरस्कार विजेताओं किसी भी अन्य देश के उन लोगों, खासकर विज्ञान (फिजिक्स, केमिस्ट्री, और फिजियोलॉजी या चिकित्सा) की तुलना में अधिक पुरस्कार के लिए किया था।
२० वीं सदी से पहले उल्लेखनीय जर्मन भौतिकविदों हर्मन वॉन हेलम्होल्ट्ज, यूसुफ वॉन फ्र्वहोंफर और गेब्रियल डैनियल फेरनहाइट, दूसरों के बीच में शामिल हैं। अल्बर्ट आइंस्टीन ने क्रमश: १९०५ और १९१५ में प्रकाश और गुरुत्वाकर्षण के लिए सापेक्षता सिद्धांतों की शुरुआत की। मैक्स प्लैंक के साथ उन्होंने क्वांटम यांत्रिकी की शुरूआत की, जिसमें वर्नर हाइजेनबर्ग और अधिकतम जन्मे बाद में प्रमुख योगदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। विल्हेम रॉन्टगन की खोज की एक्स रे। ओटो हैन, रेडियोकमिस्ट्री और पता चला कि परमाणु विखंडन के क्षेत्र में एक अग्रणी था, जबकि फर्डिनेंड कोहन और रॉबर्ट कॉख सूक्ष्म जीव विज्ञान के संस्थापकों में थे। कई गणितज्ञों जर्मनी में पैदा हुए थे, कार्ल फ्रेडरिक गॉस, डेविड हिल्बर्ट, बर्नहार्ड रीमान, गोटफ्राइड लीबनीज, कार्ल वेर्ष्ट्रास, हरमन वेल और फेलिक्स क्लें भी शामिल है।
जर्मनी में कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक और इंजीनियर, हंस गीजर, गीजर काउंटर के निर्माता सहित के घर गई है; और कोनराड झूस, जो पहली बार पूरी तरह से स्वचालित डिजिटल कंप्यूटर का निर्माण किया। इस तरह के जर्मन वैज्ञानिक, इंजीनियर और के रूप में गिनती फर्डिनेंड वॉन टसेपेल्लिन उद्योगपतियों, ओटो लिलींथल, गोटलीब डेमलर, रुडोल्फ डीजल, ह्यूगो जंकर्स और कार्ल बेंज आकार आधुनिक मोटर वाहन और हवाई परिवहन प्रौद्योगिकी में मदद की। जर्मन एयरोस्पेस सेंटर (डीएलआर) की तरह जर्मन संस्थानों ईएसए के लिए सबसे बड़ा योगदान कर रहे हैं। एयरोस्पेस इंजीनियर वेर्नहेर वॉन ब्राउन पीनेमन्दे में पहला अंतरिक्ष रॉकेट विकसित की है और बाद में नासा के एक प्रमुख सदस्य थे और शनि वी मून रॉकेट विकसित की है। विद्युत चुम्बकीय विकिरण के क्षेत्र में हेनरिक रुडोल्फ हर्ट्ज के काम आधुनिक दूरसंचार के विकास के लिए निर्णायक था।
जर्मनी में अनुसंधान संस्थानों के मैक्स प्लैंक सोसायटी, हेलम्होल्ट्ज एसोसिएशन और फ्र्वहोंफर सोसायटी शामिल हैं। ग्रैफ्स्वाल्ड में वेंडेलस्टेन ७ एक्स उदाहरण के लिए संलयन ऊर्जा के अनुसंधान के क्षेत्र में एक सुविधा होस्ट करता है। गाटफ्रीड लैबनिट्ज़ पुरस्कार दस वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों हर साल के लिए प्रदान किया जाता है। लाख २.५ पुरस्कार प्रति की एक अधिकतम के साथ यह दुनिया में सबसे ज्यादा संपन्न अनुसंधान पुरस्कार में से एक है।
जर्मनी का इतिहास
जर्मनी का एकीकरण
यूरोप का 'सुपर पावर' जर्मनी
जर्मनी: दो विश्वयुद्ध में मिली हार की जिल्ल्त, फिर भी आर्थिक महाशक्ति बन गया यह देश
जर्मनी का इतिहास और महत्वपूर्ण जानकारी
यूरोप के देश
जर्मन-भाषी देश व क्षेत्र |
यूरोप पृथ्वी पर स्थित सात महाद्वीपों में से एक महाद्वीप है। यूरोप, एशिया से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। यूरोप और एशिया वस्तुतः यूरेशिया के खण्ड हैं और यूरोप यूरेशिया का सबसे पश्चिमी प्रायद्वीपीय खंड है। एशिया से यूरोप का विभाजन इसके पूर्व में स्थित यूराल पर्वत के जल विभाजक जैसे यूराल नदी, कैस्पियन सागर, कॉकस पर्वत शृंखला और दक्षिण पश्चिम में स्थित काले सागर के द्वारा होता है। यूरोप के उत्तर में आर्कटिक महासागर और अन्य जल निकाय, पश्चिम में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में भूमध्य सागर और दक्षिण पूर्व में काला सागर और इससे जुड़े जलमार्ग स्थित हैं। इस सबके बावजूद यूरोप की सीमायें बहुत हद तक काल्पनिक हैं और इसे एक महाद्वीप की संज्ञा देना भौगोलिक आधार पर कम, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आधार पर अधिक है। ब्रिटेन, आयरलैंड और आइसलैंड जैसे देश एक द्वीप होते हुए भी यूरोप का हिस्सा हैं, पर ग्रीनलैंड उत्तरी अमरीका का हिस्सा है। रूस सांस्कृतिक दृष्टिकोण से यूरोप में ही माना जाता है, हालाँकि इसका सारा साइबेरियाई इलाका एशिया का हिस्सा है। आज ज़्यादातर यूरोपीय देशों के लोग दुनिया के सबसे ऊँचे जीवनस्तर का आनन्द लेते हैं।
यूरोप पृष्ठ क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का दूसरा सबसे छोटा महाद्वीप है, इसका क्षेत्रफल के १०,१८०,००० वर्ग किलोमीटर (३,9३0,००० वर्ग मील) है जो पृथ्वी की सतह का २% और इसके भूमि क्षेत्र का लगभग ६.८% है। यूरोप के ५० देशों में, रूस क्षेत्रफल और आबादी दोनों में ही सबसे बड़ा है, जबकि वैटिकन नगर सबसे छोटा देश है। जनसंख्या के हिसाब से यूरोप एशिया और अफ्रीका के बाद तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला महाद्वीप है, ७३.१ करोड़ की जनसंख्या के साथ यह विश्व की जनसंख्या में लगभग ११% का योगदान करता है, तथापि, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार (मध्यम अनुमान), 20५० तक विश्व जनसंख्या में यूरोप का योगदान घटकर ७% पर आ सकता है। १900 में, विश्व की जनसंख्या में यूरोप का हिस्सा लगभग २५% था।[संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, यूरोप में कुल ४४ देश हैं।थे क्यूरियासिटी बाय पक्रुद्र अद्देड]
पुरातन काल में यूरोप, विशेष रूप से यूनान पश्चिमी संस्कृति का जन्मस्थान है। मध्य काल में इसी ने ईसाईयत का पोषण किया है। यूरोप ने १६ वीं सदी के बाद से वैश्विक मामलों में एक प्रमुख भूमिका अदा की है, विशेष रूप से उपनिवेशवाद की शुरुआत के बाद. १६ वीं और २० वीं सदी के बीच विभिन्न समयों पर, दोनो अमेरिका, अफ्रीका, ओशिआनिया और एशिया के बड़े भूभाग यूरोपीय देशों के नियंत्रित में थे। दोनों विश्व युद्धों की शुरुआत मध्य यूरोप में हुई थी, जिनके कारण २० वीं शताब्दी में विश्व मामलों में यूरोपीय प्रभुत्व में गिरावट आई और संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के रूप में दो नये शक्ति के केन्द्रों का उदय हुआ। शीत युद्ध के दौरान यूरोप पश्चिम में नाटो के और पूर्व में वारसा संधि के द्वारा विभाजित हो गया। यूरोपीय एकीकरण के प्रयासों से पश्चिमी यूरोप में यूरोपीय परिषद और यूरोपीय संघ का गठन हुआ और यह दोनों संगठन १९९१ में सोवियत संघ के पतन के बाद से पूर्व की ओर अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहे
यूरोप का इतिहास
यूरोप में मानव ईसापूर्व ३५,००० के आसपास आया। ग्रीक (यूनानी) तथा लातिनी (रोम) राज्यों की स्थापना प्रथम सहस्त्राब्दी के पूर्वार्ध में हुई। इन दोनों संस्कृतियों ने आधुनिक य़ूरोप की संस्कृति को बहुत प्रभावित किया है। ईसापूर्व ४८० के आसपास य़ूनान पर फ़ारसियों का आक्रमण हुआ जिसमें यवनों को बहुधा पीछे हटना पड़ा। ३३० ईसापूर्व में सिकन्दर ने फारसी साम्राज्य को जीत लिया। १४६ ई.पू. में यूनानी प्रायद्वीप (द्वीपों को छोड़कर) रोमन प्रोटेक्टोरेट का भाग बन गया। यूनान का अन्तिम पतन ८८ ई.पू में हुआ जब पोन्टस के मिथ्रिडेट्स षष्ठ नामक राजा ने रोम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जब वह रोमन जनरल लुसियस कॉर्नेलियस सुला द्वारा यूनान से बाहर खदेड़ा गया तब यूनान पर पुनः रोम का अधिकार हो गया और यूनानी नगर फिर कभी इससे उबर न सके। सन् २७ ईसापूर्व में रोमन गणतंत्र समाप्त हो गया और रोमन साम्राज्य की स्थापना हुई। सन् ३१३ में कांस्टेंटाइन ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया और यह धर्म रोमन साम्राज्य का राजधर्म बन गया। पाँचवीं सदी तक आते आते रोमन साम्राज्य कमजोर हो चला और पूर्वी रोमन साम्राज्य पंद्रहवीं सदी तक इस्तांबुल में बना रहा। इस दौरान पूर्वी रोमन साम्राज्यों को अरबों के आक्रमण का सामना करना पड़ा जिसमें उन्हें अपने प्रदेश अरबों को देने पड़े।
सन् १४५३ में इस्तांबुल के पतन के बाद यूरोप में नए जनमानस का विकास हुआ जो धार्मिक बंधनों से ऊपर उठना चाहता था। इस घटना को पुनर्जागरण (फ़्रेंच में रेनेसाँ) कहते हैं। पुनर्जागरण ने लोगों को पारम्परिक विचारों को त्याग व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों पर विश्वास करने पर जोर दिया। इस काल में भारत तथा अमेरिका जैसे देशों के समुद्री मार्ग की खोज हुई। सोलहवीं सदी में पुर्तगाली तथा डच नाविक दुनिया के देशों के सामुद्रिक रास्तों पर वर्चस्व बनाए हुए थे। इसी समय पश्चिमी य़ूरोप में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हो गया था। सांस्कृतिक रूप से भी य़ूरोप बहुत आगे बढ़ चुका था। साहित्य तथा कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई थी। छपाई की खोज के बाद पुस्तकों से ज्ञानसंचार त्वरित गति से बढ़ गया था।
सन् १७८१ में फ्रांस की राज्यक्रांति हुई जिसने पूरे यूरोप को प्रभावित किया। इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जनभागीदारी तथा उदारता को बल मिला था। रूसी साम्राज्य धीरे धीरे विस्तृत होने लगा था। पर इसका विस्तार मुख्यतः एशिया में अपने दक्षिण की तरफ़ हो रहा था। इस समय ब्रिटेन तथा फ्रांस अपने नौसेना की तकनीकी प्रगति के कारण डचो तथा पुर्तगालियों से आगे निकल गए। पुर्तगाल पर स्पेन का अधिकार हो गया और पुर्तगाली उपनिवेशों को अंग्रेजों तथा फ्रांसिसियों ने अधिकार कर लिया। रूसी सर्फराज्य का पतन १७६१ में हुआ। बाल्कन के प्रदेश उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन) से स्वतंत्र होते गए। १९१८ तथा १९४५ में दो विश्व युद्ध हुए। दोनों में जर्मनी की पराजय हुई। इसके बाद विश्व शीतयुद्ध के दौर से गुजरा। अमेरिका तथा रूस दो महाशक्ति बनकर उभरे। प्रायः पूर्वी य़ूरोप के देश रूस के साथ रहे जबकि पश्चिमी य़ूरोप के देश अमेरिका के। जर्मनी का विभाजन हो गया।
सन् १९५१ में रूस ने अपने कॉस्मोनॉट यूरी गगारिन को अंतरिक्ष में भेजा। १९६९ में अमेरिका ने सफलतापूर्वक मानव को चन्द्रमा की सतह तक पहुँचाने का दावा किया। हथियारों की होड़ बढ़ती गई और अंततः अमेरिका आगे निकल गया। १९८९ में जर्मनी का एकीकरण हुआ। १९९१ में सोवियत संघ का विघटन हो गया। रूस सबसे बड़ा परवर्ती राज्य बना। सन् २००७ में यूरोपीय संघ की स्थापना हुई।
यूरोप में दो पर्वतीय भाग के बीच एक विशाल मैदान है।
यूरोप के सबसे बड़े शहर:
यूरोप मुख्यतः शीतोष्ण जलवायु क्षेत्रों में से है। यूरोप की जलवायु गल्फ स्ट्रीम नामक इस समुद्री गर्म जलधारा के प्रभाव के कारण विश्व भर में एक ही अक्षांश पर स्थित अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम विषम है। गल्फ स्ट्रीम यूरोप की जलवायु गर्म और नम बनाता है। गल्फ स्ट्रीम न केवल यूरोप के सागर तट को तुलनात्मक रूप से गर्म रखता है बल्कि अटलांटिक महासागर से महाद्वीप की ओर चलने वाली प्रचलित पश्चिमी हवाओं को भी गर्म करता है, इसलिए नेपल्स का साल भर का औसत तापमान १६ सेल्सियस (६०.८फ) है, जबकि लगभग उसी ऊँचाई पर स्थित न्यूयॉर्क सिटी का औसत तापमान केवल १२ सेल्सियस (में ५३.६फ) ही रहता है।
प्राकृतिक वनस्पति एवं वन्य जीव
तापमान एवं वर्षा में अन्तर मिलने के कारण यूरोप महाद्वीप की प्राकृतिक वनस्पति में भी काफी अन्तर मिलता है। यूरोप महाद्वीप के उत्तर के आर्कटिक महासागर के तटीय भाग में कठोर शीत के कारण भूमि हिमाच्छादित रहती है। अतः वनस्पति का प्रायः अभाव रहता है। इस भाग की मुख्य वनस्पति काई एवं लाइकेन है। यहाँ गर्मी में बर्फ पिघलने पर सुन्दर-सुन्दर फूलों वाले पौधे उगते हैं। जो अल्पकाल के लिए अपनी छटा दिखाकर समाप्त हो जाते हैं। जीव-जन्तुओं में ध्रुवीय भालू, रेंडियर, लोमड़ी तथा पानी में सील एवं व्हेल पाए जाते हैं। टुण्ड्रा प्रदेश के दक्षिणी भाग नार्वे, स्वीडन, फ़िनलैंड एवं रूस में नुकीली पत्ती वाले कोणधारी वन पाए जाते हैं जिन्हे टैगा कहते हैं। यहाँ के प्रमुख वृक्ष चीड़, स्प्रूस, सिलवर, फर, बर्च, बलूत आदि हैं। इन वनों में भालू, भेड़िया एवं मिंक आदि पशु पाए जाते हैं। टैगा प्रदेश के दक्षिण में कम वर्षा होती है अतः यहाँ शीतोष्ण घास के मैदान मिलते हैं जिन्हें स्टेपीज कहा जाता है। यह मैदान दक्षिणी रूस, रूमानिया एवं हंगरी के डेन्यूब प्रदेश में विस्तृत है। इस घास प्रदेश में घास खाने वाले जानवर जैसे घोड़ा, बारहसिंगा एवं घास में रेंगने वाले जीव पाए जाते हैं।
दक्षिणी यूरोप के भूमध्य सागरीय प्रदेश में जहाँ भूमध्यसागरीय जलवायु पाइ जाती है वहाँ चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन मिलते हैं। यहाँ बलूत, जैतून, सीडार, साइप्रस, अखरोट, बादाम, संतरा, अंजीर एवं अंगूर जैसे फलों के वृक्ष खूब पैदा होते हैं। उत्तरी-पश्चिमी मध्य यूरोप में समशीतोष्ण कटिबन्धीय चौड़ी पत्ती वाले पतझड़ के वन पाए जाते हैं। कठोर शीत से सुरक्षा के लिए यहाँ के वृक्ष जाड़े के प्रारम्भ में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। ऐसे वृक्षों में बलूत, ऐश, बीच, बर्च, एल्म, मैपिल, चेस्टनट और अखरोट मुख्य हैं। ऊँचें पर्वतीय भागों में अधिक ठण्डक के कारण नुकीली पत्ती वाले वन पाए जाते हैं। इनके प्रमुख वृक्ष चीड़, फर, सनोवर, लार्च, स्प्रूस, सीडार और हेमलाक हैं। इस प्रकार यूरोप में पतझड़ एवं नुकीली पत्ती के वृक्षों के मिश्रित वन पाए जाते हैं।
यूराल एवं काकेशश पर्वत एशिया व यूरोप को अलग करते है।
इटली को यूरोप का भारत कहा जाता है (कृषि प्रधान होने के कारण) ।
पो नदी को इटली की गंगा कहा जाता है।
फिनलैंड को झीलों का देश कहा जाता है ।
इन्हें भी देखें |
उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा (जनसंख्या के आधार पर) राज्य और क्षेत्रफल की दृष्टि के आधार पर चौथा सबसे बड़ा राज्य है। लखनऊ प्रदेश की प्रशासनिक व विधायिक राजधानी है और प्रयागराज न्यायिक राजधानी है। आगरा, अयोध्या, अलीगढ़, कानपुर, झाँसी,ललितपुर, बरेली, मेरठ, बुलंदशहर वाराणसी, गोरखपुर, संत कबीरनगर, मथुरा, मुरादाबाद, प्रदेश के अन्य महत्त्वपूर्ण शहर हैं। राज्य के उत्तर में उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली तथा राजस्थान, दक्षिण में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ और पूर्व में बिहार तथा झारखंड राज्य स्थित हैं। इनके अतिरिक्त राज्य की पूर्वोत्तर दिशा में नेपाल देश है।
९ नवम्बर २००० में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिमी (मुख्यतः पहाड़ी) भाग से उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया। गंगा प्रदेश का अधिकतर हिस्सा सघन आबादी वाले गंगा और यमुना दोआब क्षेत्र में आता है। विश्व में केवल पाँच राष्ट्र चीन, स्वयं भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनिशिया और ब्राज़ील की जनसंख्या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक है।
उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर में स्थित है। यह राज्य उत्तर में नेपाल व उत्तराखण्ड, दक्षिण में मध्य प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा पूर्व में बिहार तथा दक्षिण-पूर्व में झारखण्ड व छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है। यह राज्य २,३८,५६६ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ का मुख्य न्यायालय प्रयागराज में है। कानपुर, आगरा; झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट, जालौन, जौनपुर, महोबा, ललितपुर, लखीमपुर खीरी, वाराणसी, गाजीपुर, प्रयागराज, मेरठ, गोरखपुर, संत कबीर नगर,नोएडा, मथुरा, मुरादाबाद, संभल,गाजियाबाद, अलीगढ़, सुल्तानपुर, अयोध्या, बरेली, बदायूँ, बुलंदशहर, आज़मगढ़, मऊ, बलिया, मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर यहाँ के मुख्य नगर हैं। उत्तर प्रदेश के ५ सबसे बड़े महानगर लखनऊ, कानपुर, आगरा, गाजियाबाद, वाराणसी है और तेज़ी से जनसंख्या बड़ने वाले शहर लखनऊ और आगरा हैं इन दोनों शहरों की जनसंख्या पूरे उत्तर प्रदेश में सबसे तेज़ी से बढ़ रही है।
अगर आप भी उत्तर प्रदेश राजधानी क्या है ढूंड रहे हैं तो आप बिलकुल सही जगह पर आये है इस आर्टिकल में हम आपको बताएँगे की उत्तर प्रदेश राजधानी कहाँ है | उत्तर प्रदेश की राजधानी क्या हैं ताकि आपको कैपिटल ऑफ उत्तर प्रदेश में पता चल सके.
इसे जानने से पहले हम आपको बता दे की उत्तर प्रदेश जनसंख्या की दृष्टि से भारत में सबसे बड़ा राज्य है, वही उत्तर प्रदेश में कुल ७५ जिले है जिसमें १८ मंडल है। उत्तर प्रदेश का गठन २६ जनवरी १९५० को हुआ था। इसका सबसे बड़ा शहर कानपूर है।
उत्तर प्रदेश का ज्ञात इतिहास लगभग ४००० वर्ष पुराना है, जब आर्यों ने अपना पहला कदम इस जगह पर रखा। इस समय वैदिक सभ्यता का प्रारम्भ हुआ और उत्तर प्रदेश में इसका जन्म हुआ। आर्यों का फैलाव सिन्धु नदी और सतलुज के मैदानी भागों से यमुना और गंगा के मैदानी क्षेत्र की ओर हुआ। आर्यों ने दोब (दो-आब, यमुना और गंगा का मैदानी भाग) और घाघरा नदी क्षेत्र को अपना घर बनाया। इन्हीं आर्यों के नाम पर भारत देश का नाम आर्यावर्त या भारतवर्ष (भारत आर्यों के एक प्रमुख राजा थे) पड़ा। समय के साथ आर्य भारत के दूरस्थ भागों में फ़ैल गये। संसार के प्राचीनतम नगरों में से एक माना जाने वाला वाराणसी नगर यहीं पर स्थित है। वाराणसी के पास स्थित सारनाथ का चौखंडी स्तूप भगवान बुद्ध के प्रथम प्रवचन की याद दिलाता है। समय के साथ यह क्षेत्र छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया या फिर बड़े साम्राज्यों, यदुवंश, गुप्त, मोर्य और कुषाण का हिस्सा बन गया। ७वीं शताब्दी से ११वी शताब्दी तक कन्नौज गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का प्रमुख केन्द्र था।
उत्तर प्रदेश हिन्दू धर्म का प्रमुख स्थल रहा। प्रयाग के कुम्भ का महत्त्व पुराणों में वर्णित है। त्रेतायुग में विष्णु अवतार श्री रामचन्द्र जी ने अयोध्या में (जो अभी अयोध्या जनपद में स्थित है) में जन्म लिया। राम भगवान का चौदह वर्ष के वनवास में प्रयाग, चित्रकूट, श्रंगवेरपुर आदि का महत्त्व है। भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में और पुराणों के अनुसार विष्णु के दसम अवतार का कलयुग में अवतरण भी उत्तर प्रदेश में ही वर्णित है। काशी (वाराणसी) में विश्वनाथ मन्दिर के शिवलिंग का सनातन धर्म विशेष महत्त्व रहा है। सनातन धर्म के प्रमुख ऋषि रामायण रचयिता महर्षि वाल्मीकि जी, रामचरित मानस रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी (जन्म - राजापुर चित्रकूट), महर्षि भरद्वाज जी। उत्तर प्रदेश में कई देवियों के प्रसिद्ध मंदिर है जैसे मिर्जापुर का विंध्यवासिनी मंदिर, सहारनपुर का शाकंभरी देवी मंदिर जिसकी स्थापना ईसा पूर्व में हुई थी।
सातवीं शताब्दी ई॰पू॰ के अन्त से भारत और उत्तर प्रदेश का व्यवस्थित इतिहास आरम्भ होता है, जब उत्तरी भारत में १६ महाजनपद श्रेष्ठता की दौड़ में शामिल थे, इनमें से सात वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के अंतर्गत थे। बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी (बनारस) के निकट सारनाथ में दिया और एक ऐसे धर्म की नींव रखी, जो न केवल भारत में, बल्कि चीन व जापान जैसे सुदूर देशों तक भी फैला। कहा जाता है कि बुद्ध को कुशीनगर में निर्वाण (शरीर से मुक्त होने पर आत्मा की मुक्ति) प्राप्त हुआ था, जो पूर्वी ज़िले कुशीनगर में स्थित है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी ई॰ तक उत्तर प्रदेश अपनी वर्तमान सीमा से बाहर केन्द्रित शक्तियों के नियंत्रण में रहा, पहले मगध, जो वर्तमान बिहार राज्य में स्थित था और बाद में उज्जैन, जो वर्तमान मध्य प्रदेश राज्य में स्थित है। इस राज्य पर शासन कर चुके इस काल के महान शासकों में चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद और उसके बाद उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट धनानंद जो नाई समाज से थे। सम्राट महापद्मानंद और धनानंद के समय मगध विश्व का सबसे अमीर और बड़ी सेना वाला साम्राज्य हुआ करता था। चन्द्रगुप्त प्रथम (शासनकाल लगभग ३३०-३८० ई॰) व अशोक (शासनकाल लगभग २६८ या २६५-२३८), जो मौर्य सम्राट थे और समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३८० ई॰) और चन्द्रगुप्त द्वितीय हैं (लगभग ३८०-४१५ ई., जिन्हें कुछ विद्वान विक्रमादित्य मानते हैं)। एक अन्य प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन (शासनकाल ६०६-६४७) थे। जिन्होंने कान्यकुब्ज (आधुनिक कन्नौज के निकट) स्थित अपनी राजधानी से समूचे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थानके कुछ हिस्सों पर शासन किया।
इस काल के दौरान बौद्ध संस्कृति, का उत्कर्ष हुआ। अशोक के शासनकाल के दौरान बौद्ध कला के स्थापत्य व वास्तुशिल्प प्रतीक अपने चरम पर पहुँचे। गुप्त काल (लगभग ३२०-५५०) के दौरान हिन्दू कला का भी अधिकतम विकास हुआ। लगभग ६४७ ई॰ में हर्ष की मृत्यु के बाद हिन्दूवाद के पुनरुत्थान के साथ ही बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे पतन हो गया। इस पुनरुत्थान के प्रमुख रचयिता दक्षिण भारत में जन्मे आदि शंकराचार्य थे, जो वाराणसी पहुँचे, उन्होंने उत्तर प्रदेश के मैदानों की यात्रा की और हिमालय में बद्रीनाथ में प्रसिद्ध मन्दिर की स्थापना की। इसे हिन्दू मतावलम्बी चौथा एवं अन्तिम मठ (हिन्दू संस्कृति का केन्द्र) मानते हैं।
यहाँ एक तीर्थ स्थान मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले से पूर्व में २८ किलॉमीटर शुकरताल है मान्यता है कि यहाँ ५००० वर्ष पुराना वट व्रक्ष है जिसके नीचे सूत जी कथा सुनाई थी
इस क्षेत्र में हालाँकि १०००-१०३० ई. तक मुसलमानों का आगमन हो चुका था, किन्तु उत्तरी भारत में १२वीं शताब्दी के अन्तिम दशक के बाद ही मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, जब मुहम्मद ग़ोरी ने गहड़वालों (जिनका उत्तर प्रदेश पर शासन था) और अन्य प्रतिस्पर्धी वंशों को हराया था। लगभग ६५० वर्षों तक अधिकांश भारत की तरह उत्तर प्रदेश पर भी किसी न किसी मुस्लिम वंश का शासन रहा, जिनका केन्द्र दिल्ली या उसके आसपास था। १५२६ ई. में बाबर ने दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी को हराया और सर्वाधिक सफल मुस्लिम वंश, मुग़ल वंश की नींव रखी। इस साम्राज्य ने ३५० वर्षों से भी अधिक समय तक उपमहाद्वीप पर शासन किया। इस साम्राज्य का महानतम काल अकबर (शासनकाल १५५६-१६०५ ई.) से लेकर औरंगज़ेब आलमगीर (१७०७) का काल था, जिन्होंने आगरा के पास नई शाही राजधानी फ़तेहपुर सीकरी का निर्माण किया। उनके पोते शाहजहाँ (शासनकाल १६२८-१६५८ ई.) ने आगरा में ताजमहल (अपनी बेगम की याद में बनवाया गया मकबरा, जो प्रसव के दौरान चल बसी थीं) बनवाया, जो विश्व के महानतम वास्तुशिल्पीय नमूनों में से एक है। शाहजहाँ ने आगरा व दिल्ली में भी वास्तुशिल्प की दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण इमारतें बनवाईं थीं।
उत्तर प्रदेश में केन्द्रित मुग़ल साम्राज्य ने एक नई मिश्रित संस्कृति के विकास को प्रोत्साहित किया। अकबर इसके प्रतिपादक थे, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के अपने दरबार में वास्तुशिल्प, साहित्य, चित्रकला और संगीत विशेषज्ञों को नियुक्त किया था। भारत के विभिन्न मत और इस्लाम के मेल ने कई नए मतों का विकास किया, जो भारत की विभिन्न जातियों के बीच साधारण सहमति प्रस्थापित करना चाहते थे। भक्ति आन्दोलन के संस्थापक रामानन्द (लगभग १४००-१४७० ई॰) का प्रतिपादन था कि, किसी व्यक्ती की मुक्ति लिंग या जाति पर आश्रित नहीं होती। सभी धर्मों के बीच अनिवार्य एकता की शिक्षा देने वाले कबीर ने उत्तर प्रदेश में मौजूद धार्मिक असहिष्णुता के विरुद्ध अपनी लड़ाई केन्द्रित की। १८वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ।
लगभग ७५ वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 17७५, १७९८ और १८०१ में नवाबों, १८०३ में सिन्धिया और १८१६ में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन १८३३ में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेसीडेंसी कहलाता था) गठित किया गया। १८५६ ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे १८७७ ई॰ में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। १९०२ ई॰ में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया।
१८५७-१८५९ ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। १० मई १८५७ ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में २५ से भी अधिक शहरों में फैल गया। १८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। १८५८ ई॰ में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। १८८० ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतन्त्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। १९२२ में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (१९२१ में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए।
सन १८५७ में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक वर्ष तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेजों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, राजा बेनी माधव सिंह कोतवाल धनसिंह गुर्जर और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया।
सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् १९२० में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी।
स्वतन्त्रता पश्चात का काल
१९४७ में संयुक्त प्रान्त नव स्वतन्त्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो वर्ष बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। १९५० में नए संविधान के लागू होने के साथ ही २४ जनवरी सन १९५० को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं।
सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर २००७ में उत्तराखण्ड कर दिया गया है।
उत्तरांचल के प्रथम मुख्यमंत्री एन. डी. तिवारी बने जो अविभाजित उत्तर प्रदेश के भी मुख्यमंत्री रह चुके थे।
राज्य का विभाजन
उत्तर प्रदेश के गठन के तुरन्त बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। इस क्षेत्र के लोगों को लगा कि, विशाल जनसंख्या और वृहद भौगोलिक विस्तार के कारण लखनऊ में बैठी सरकार के लिए उनके हितों की देखरेख करना सम्भव नहीं है। बेरोज़गारी, गरीबी और सामान्य व्यवस्था व पीने के पानी जैसी आधारभूत सुविधाओं की कमी और क्षेत्र के अपेक्षाकृत कम विकास ने लोगों को एक अलग राज्य की माँग करने पर विवश कर दिया। शुरू-शुरू में विरोध कमज़ोर था, लेकिन १९९० के दशक में इसने ज़ोर पकड़ा व आन्दोलन तब और भी उग्र हो गया, जब २ अक्टूबर १९९४ को मुज़फ़्फ़रनगर में इस आन्दोलन के एक प्रदर्शन में पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में ४० लोग मारे गए। अन्तत: नवम्बर, २000 में उत्तर प्रदेश के पश्चिमोत्तर हिस्से से उत्तरांचल के नए राज्य का, जिसमें कुमाऊँ और गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र शामिल थे, गठन किया गया।
उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित कुछ तथ्य
सम्भागोँ की संख्या- १८
जिलोँ की संख्या- ७५ सबसे बड़े महानगर लखनऊ कानपुर आगरा है
तहसीलोँ की संख्या- ३५०
विश्वविद्यालयोँ की संख्या- ५५
विधान सभा सदस्योँ की संख्या- ४०३+१ (एंग्लोइँडियन) = ४०४
विधान परिषद सदस्योँ की संख्या- ९९+१ (एंग्लोइँडियन) = १00
लोकसभा सदस्योँ की संख्या- ८०
राज्यसभा सदस्योँ की संख्या- ३१
उच्च न्यायालय- प्रयागराज (खण्डपीठ- लखनऊ)
भाषा- हिन्दी (उर्दू दूसरी राजभाषा १९८९ से)
राजकीय पक्षी- सारस या क्रौँच
राजकीय पेड़- अशोक
राजकीय पुष्प- पलाश या टेंसू
राजकीय चिन्ह- एक वृत्त में २ मछली एवँ तीर कमान १९३८ से स्वीकृत
स्थापना दिवस- १ नवंबर १956
राष्टीय उद्यान - दुधवा राष्टीय उद्यान
उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर पूर्वी भाग में स्थित है। प्रदेश के उत्तरी एवम पूर्वी भाग की तरफ़ पहाड़ तथा
पश्चिमी एवम मध्य भाग में मैदान हैं। उत्तर प्रदेश को मुख्यतः तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।
उत्तर में हिमालय का - यह् क्षेत्र बहुत ही ऊँचा-नीचा और प्रतिकूल भू-भाग है। यह क्षेत्र अब उत्तरांचल के अन्तर्गत आता है। इस क्षेत्र की स्थलाकृति बदलाव युक्त है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई ९०० से ५००० मीटर तथा ढलान १५० से ६०० मीटर/किलोमीटर है।
मध्य में गंगा का मैदानी भाग - यह क्षेत्र अत्यन्त ही उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी का क्षेत्र है। इसकी स्थलाकृति सपाट है। इस क्षेत्र में अनेक तालाब, झीलें और नदियाँ हैं। इसका ढलान २ मीटर/किलोमीटर है।
दक्षिण का विन्ध्याचल क्षेत्र - यह एक पठारी क्षेत्र है, तथा इसकी स्थलाकृति पहाड़ों, मैंदानों और घाटियों से घिरी हुई है। इस क्षेत्र में पानी कम मात्रा में उप्लब्ध है।
यहाँ की जलवायु मुख्यतः उष्णदेशीय मानसून की है परन्तु समुद्र तल से ऊँचाई बदलने के साथ इसमें परिवर्तन
होता है। उत्तर प्रदेश ८ राज्यों - उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार से घिरा राज्य है
उत्तर प्रदेश के प्रमुख भूगोलीय तत्त्व इस प्रकार से हैं-
भू-आकृति - उत्तर प्रदेश को दो विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों, गंगा के मध्यवर्ती मैदान और दक्षिणी उच्चभूमि में बाँटा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का लगभग ९० प्रतिशत हिस्सा गंगा के मैदान में है। मैदान अधिकांशत: गंगा व उसकी सहायक नदियों के द्वारा लाए गए जलोढ़ अवसादों से बने हैं। इस क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में उतार-चढ़ाव नहीं है, यद्यपि मैदान बहुत उपजाऊ है, लेकिन इनकी ऊँचाई में कुछ भिन्नता है, जो पश्चिमोत्तर में ३०५ मीटर और सुदूर पूर्व में ५८ मीटर है। गंगा के मैदान की दक्षिणी उच्चभूमि अत्यधिक विच्छेदित और विषम विंध्य पर्वतमाला का एक भाग है, जो सामान्यत: दक्षिण-पूर्व की ओर उठती चली जाती है। यहाँ ऊँचाई कहीं-कहीं ही ३०५ से अधिक होती है।
उत्तर प्रदेश में अनेक नदियाँ है जिनमें गंगा, यमुना,
बेतवा, केन, चम्बल, घाघरा, गोमती, सोन आदि मुख्य है। प्रदेश के विभिन्न भागों में प्रवाहित होने वाली इन नदियों के उदगम स्थान भी भिन्न-भिन्न है, अतः इनके उदगम स्थलों के आधार पर इन्हें निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है।
हिमालय पर्वत से निकलने वाली नदियाँ
गंगा के मैदानी भाग से निकलने वाली नदियाँ
दक्षिणी पठार से निकलने वाली नदियाँ हैं बेतवा, केन, चम्बल आदि प्रमुख हैं
उत्तर प्रदेश में झीलों का अभाव है। यहाँ की अधिकांश झीलें कुमाऊँ क्षेत्र में हैं जो कि प्रमुखतः भूगर्भीय शक्तियों के द्वारा भूमि के धरातल में परिवर्तन हो जाने के परिणामस्वरूप निर्मित हुई हैं।
नहरों के वितरण एवं विस्तार की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का अग्रणीय स्थान है। यहाँ की कुल सिंचित भूमि का लगभग ३० प्रतिशत भाग नहरों के द्वारा सिंचित होता है। यहाँ की नहरें भारत की प्राचीनतम नहरों में से एक हैं।
यह राज्य उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वतमाला से उदगमित नदियों के द्वारा भली-भाँति अपवाहित है। गंगा एवं उसकी सहायक नदियों, यमुना नदी, रामगंगा नदी, गोमती नदी, घाघरा नदी और गंडक नदी को हिमालय के हिम से लगातार पानी मिलता रहता है। विंध्य श्रेणी से निकलने वाली चंबल नदी, बेतवा नदी और केन नदी यमुना नदी में मिलने से पहले राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में बहती है। विंध्य श्रेणी से ही निकलने वाली सोन नदी राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में बहती है और राज्य की सीमा से बाहर बिहार में गंगा नदी से मिलती है।
उत्तर प्रदेश के क्षेत्रफल का लगभग दो-तिहाई भाग गंगा तंत्र की धीमी गति से बहने वाली नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी की गहरी परत से ढंका है। अत्यधिक उपजाऊ यह जलोढ़ मिट्टी कहीं रेतीली है, तो कहीं चिकनी दोमट। राज्य के दक्षिणी भाग की मिट्टी सामान्यतया मिश्रित लाल और काली या लाल से लेकर पीली है। राज्य के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में मृदा कंकरीली से लेकर उर्वर दोमट तक है, जो महीन रेत और ह्यूमस मिश्रित है, जिसके कारण कुछ क्षेत्रों में घने जंगल हैं।
उत्तर प्रदेश की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी है। राज्य में औसत तापमान जनवरी में १२.५० से १७.५० से. रहता है, जबकि मई-जून में यह २७.५० से ३२.५० से. के बीच रहता है। पूर्व से (१,००० मिमी से २,००० मिमी) पश्चिम (6१0 मिमी से १,००० मिमी) की ओर वर्षा कम होती जाती है। राज्य में लगभग ९० प्रतिशत वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान होती है, जो जून से सितम्बर तक होती है। वर्षा के इन चार महीनों में होने के कारण बाढ़ एक आवर्ती समस्या है, जिससे ख़ासकर राज्य के पूर्वी हिस्से में फ़सल, जनजीवन व सम्पत्ति को भारी नुक़सान पहुँचता है। मानसून की लगातार विफलता के परिणामस्वरूप सूखा पड़ता है व फ़सल का नुक़सान होता है।
वनस्पति एवं प्राणी जीवन
राज्य में वन मुख्यत: दक्षिणी उच्चभूमि पर केन्द्रित हैं, जो ज़्यादातर झाड़ीदार हैं। विविध स्थलाकृति एवं जलवायु के कारण इस क्षेत्र का प्राणी जीवन समृद्ध है। इस क्षेत्र में शेर, तेंदुआ, हाथी, जंगली सूअर, घड़ियाल के साथ-साथ कबूतर, फ़ाख्ता, जंगली बत्तख़, तीतर, मोर, कठफोड़वा, नीलकंठ और बटेर पाए जाते हैं। कई प्रजातियाँ, जैसे-गंगा के मैदान से सिंह और तराई क्षेत्र से गैंडे अब विलुप्त हो चुके हैं। वन्य जीवन के संरक्षण के लिए सरकार ने 'चन्द्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य' और 'दुधवा अभयारण्य' सहित कई अभयारण्य स्थापित किए हैं।
मण्डल, जनपद व नगर
उत्तर प्रदेश को प्रशसनिक कारणों से ७५ जिलों में बाँटा गया है, जो कि निम्नलिखित १८ मण्डलों में समूहबद्ध हैं -
उत्तर प्रदेश में अब जिलों की संख्या ७५ तथा मण्डल १८ है।
भारत में सबसे अधिक जनसंख्या वाला प्रदेश, उत्तर प्रदेश है। और सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले महानगर लखनऊ कानपुर आगरा है
उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक लोक सभा व राज्य सभा के सदस्य चुने जाते हैं। सीटों की संख्या लोक सभा में ८० और राज्य सभा में ३१ है।
उत्तर प्रदेश देश का सबसे अधिक जिलों वाला प्रदेश है।
उत्तर प्रदेश में कुल ४०३ विधानसभा सीटें हैं।
उत्तर प्रदेश में स्थित प्रयागराज उच्च न्यायालय एशिया का सबसे बड़ा उच्च न्यायालय है।
उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला, देश का एक मात्र ऐसा जिला है, जिसकी सीमाएँ चार प्रदेशों को छूती हैं।
राज्य की ८० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण आवासों की विशेषताएँ हैं- राज्य के पश्चिमी हिस्से में पाए जाने वाले घने बसे हुए गाँव, पूर्वी क्षेत्र में पाए जाने वाले छोटे गाँव और मध्य क्षेत्र में दोनों का समूह होता है, जिसकी छत फूस या मिट्टी के खपड़ों से बनी होती है। इन मकानों में हालाँकि आधुनिक जीवन की बहुत कम सुविधाएँ हैं, लेकिन शहरों के पास बसे कुछ गाँवों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। सीमेण्ट से बने घर, पक्की सड़कें, बिजली, रेडियो, टेलीविजन जैसी उपभोक्ता वस्तुएँ पारम्परिक ग्रामीण जीवन को बदल रही हैं। शहरी जनसंख्या का आधे से अधिक हिस्सा एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में रहता है। लखनऊ, वाराणसी (बनारस), आगरा, कानपुर, मेरठ, गोरखपुर, और प्रयागराज उत्तर प्रदेश के सात सबसे बड़े नगर हैं। कानपुर उत्तर प्रदेश के मध्य क्षेत्र में स्थित प्रमुख औद्योगिक शहर है। कानपुर के पूर्वोत्तर में ८२ किलोमीटर की दूरी पर राज्य की राजधानी लखनऊ स्थित है। हिन्दुओं का सर्वाधिक पवित्र शहर अयोध्य (१३५ किलोमीटर)और वाराणसी विश्व के प्राचीनतम सतत आवासीय शहरों में से एक है। एक अन्य पवित्र शहर प्रयागराज गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती नदी के संगम पर स्थित है। राज्य के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित आगरा में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ द्वारा अपनी बेगम की याद में बनवाया गया मक़बरा ताजमहल स्थित है। यह भारत के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक है।
उत्तर प्रदेश भारत का सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य है। १ मार्च २०११ को १९,९५,८१,४७७ लोगों के साथ, यह विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाली उप राष्ट्रीय इकाई है। विश्व में केवल पाँच राष्ट्रों चीन, स्वयं भारत, सं॰रा॰अमेरिका, इण्डोनेशिया और ब्राज़ील की जनसंख्या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक है। भारत की कुल जनसंख्या में १६.२% लोग उत्तर प्रदेश में निवास करते हैं। १९९१ से २००१ तक राज्य की जनसंख्या में २६% से अधिक की वृद्धि हुई। राज्य का जनसंख्या घनत्व ८२८ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो इसे देश के सबसे सघन जनसंख्या वाले राज्यों में से एक बनाता है। उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की जनसंख्या सबसे अधिक है जबकि अनुसूचित जनजाति के लोगों की संख्या कुल जनसंख्या के १ प्रतिशत से भी कम है।
२०११ में ९१२ महिलाओं प्रति १००० पुरुष का राज्य का लिंगानुपात, ९४३ के राष्ट्रीय आंकड़े से कम था। राज्य की २००१-२०११ की दशकीय विकास दर (उत्तराखण्ड सहित) २०.१% थी, जो १७.६४% की राष्ट्रीय दर से अधिक थी। उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। २०१६ में जारी विश्व बैंक के एक आलेख के अनुसार, राज्य में गरीबी घटने की गति देश के बाकी हिस्सों की तुलना में धीमी रही है। वर्ष २०११-१२ के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी अनुमानों के अनुसार उत्तर प्रदेश में ५.९ करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, जो भारत के किसी भी राज्य के लिए सबसे अधिक हैं। विशेष रूप से राज्य के मध्य और पूर्वी जिलों में गरीबी का स्तर बहुत अधिक है। राज्य खपत असमानता का भी अनुभव कर रहा है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, भारत सरकार की ७ जनवरी २०२० को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य की प्रति व्यक्ति आय ८,००० (यूएस$११०) प्रति वर्ष से भी कम है।
२०११ की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश भारत में सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य है, जहां हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की संख्या सबसे अधिक है। २०११ में राज्य की कुल जनसंख्या में से हिन्दू ७९.७%, मुसलमान १९.३%, सिख ०.३%, ईसाई ०.२%, जैन ०.१%, बौद्ध ०.१% और अन्य ०.३% थे। २०११ की जनगणना में राज्य की साक्षरता दर ६७.७% थी, जो राष्ट्रीय औसत ७४% से कम थी। पुरुषों में साक्षरता दर ७९% और महिलाओं में ५९% है। २००१ में उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर ५६% थी; ६७% पुरुष और ४३% महिलाएं साक्षर थी। केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (एनएसओ) के सर्वेक्षण पर आधारित एक रिपोर्ट के अनुसार २०१७ -१७ में उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर ७३% है, जो राष्ट्रीय औसत ७७.७% से कम है। इसी रिपोर्ट के अनुसार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों में साक्षरता दर ८०.५% और महिलाओं में ६०.४% है, जबकि नगरीय क्षेत्रों में पुरुषों में साक्षरता दर ८६.८% और महिलाओं में ७४.९% है।
हिन्दी उत्तर प्रदेश की आधिकारिक भाषा है और राज्य की अधिकांश जनसंख्या (८०.१६%) द्वारा बोली जाती है। लेकिन अधिकांश लोग क्षेत्रीय भाषाएँ बोलते हैं, जिन्हें जनगणना में हिंदी की बोलियों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। इनमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली खड़ी बोली या कौरवी तथा ब्रज क्षेत्र में बोली जाने वाली ब्रजभाषा, मध्य उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में बोली जाने वाली अवधी तथा कन्नौज के आस-पास बोली जाने वाली कन्नौजी, पूर्वी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बोली जाने वाली भोजपुरी और दक्षिणी उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली बुंदेली शामिल हैं। ५.४% जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली उर्दू को राज्य की अतिरिक्त आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। राज्य में बोली जाने वाली अन्य उल्लेखनीय भाषाओं में पंजाबी (०.३%) और बंगाली (०.१%) शामिल हैं।
भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अनुसार, उत्तर प्रदेश मुठभेड़ और पुलिस-हिरासत में हुई मृत्युओं के मामले में राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है। २०१४ में देश में दर्ज कुल १५३० न्यायिक मृत्युओं में से ३६५ मृत्युएं राज्य में हुई थी। एनएचआरसी ने आगे कहा कि २०१६ में देश में दर्ज ३०,००० से अधिक हत्याओं में से, ४,८८९ मामले उत्तर प्रदेश से थे। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, बरेली में पुलिस-हिरासत में सर्वाधिक २५ मृत्युऐं दर्ज की गई; आगरा (२१), इलाहाबाद (१९) और वाराणसी (९) इससे अगले स्थान पर थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के २०११ के आंकड़े कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में भारत के किसी भी राज्य की तुलना में सबसे अधिक अपराध होते हैं, लेकिन इसकी उच्च जनसंख्या के कारण, प्रति व्यक्ति अपराध की वास्तविक दर काफी कम है। सांप्रदायिक हिंसा की सर्वाधिक घटनाओं वाली राज्यों की सूची में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर बना हुआ है। गृह राज्य मंत्री के २०१४ के एक विश्लेषण के अनुसार भारत में सांप्रदायिक हिंसा की सभी घटनाओं में से २३% घटनाएं उत्तर प्रदेश में घटित हुई। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा एकत्र एक शोध के अनुसार, उत्तर प्रदेश २७ वर्षों (१९९०-२०१७) की अवधि में अपनी मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) रैंकिंग में सुधार करने में विफल रहा है। १९९० से २०१७ तक भारतीय राज्यों के लिए उप-राष्ट्रीय मानव विकास सूचकांक के आंकड़ों के आधार पर, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में मानव विकास सूचकांक का मूल्य समय के साथ १९९० में ०.३९ से बढ़कर २०१७ में ०.५९ हो गया है। राज्य के गृह विभाग द्वारा शासित उत्तर प्रदेश पुलिस दुनिया की सबसे बड़ी पुलिस बल है।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में २०१५ में सड़क और रेल दुर्घटनाओं के कारण सर्वाधिक २३,२१९ मृत्युऐं हुईं। इसमें लापरवाही से वाहन चलाने के कारण हुई ८१०९ मृत्युऐं भी शामिल हैं। २००६ और २०१० के बीच राज्य में तीन आतंकवादी हमले हुए हैं, जिनमें एक ऐतिहासिक पवित्र स्थान, एक अदालत और एक मंदिर में विस्फोट शामिल हैं। २००६ का वाराणसी बम विस्फोट ७ मार्च २००६ को वाराणसी नगर में हुए बम विस्फोटों की एक शृंखला थी, जिसमें कम से कम २८ लोग मारे गए थे और १०१ अन्य घायल हो गए।
२३ नवंबर २००७ की दोपहर में, २५ मिनट की अवधि के भीतर, लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद न्यायालयों में लगातार छह सिलसिलेवार विस्फोट हुए, जिसमें २८ लोग मारे गए और कई अन्य घायल हो गए। ये विस्फोट उत्तर प्रदेश पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा जैश-ए-मोहम्मद के उन आतंकवादियों का भंडाफोड़ करने के एक सप्ताह बाद हुए, जिन्होंने राहुल गांधी का अपहरण करने की योजना बनाई थी। इंडियन मुजाहिदीन ने विस्फोट से पांच मिनट पहले टीवी स्टेशनों को भेजे गए एक ईमेल में इन विस्फोटों की जिम्मेदारी ली थी। एक और धमाका ७ दिसंबर २०१० को वाराणसी के शीतला घाट हुआ, जिसमें ३८ से अधिक लोग मारे गए और कई अन्य घायल हो गए।
कृषि उत्तर प्रदेश में प्रमुख व्यवसाय है और राज्य के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निवल देशीय उत्पाद (एनएसडीपी) के सन्दर्भ में, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसका अनुमानित सकल राज्य घरेलू उत्पाद १४.८९ लाख करोड़ है, जो भारत के कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद का ८.४% है। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, २0१४-१५ में देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी १९% है। राज्य ने पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक विकास की उच्च दर का अनुभव किया है। राज्य में २0१४-१५ में खाद्यान्न उत्पादन ४7,७७३.४ हजार टन था। गेहूँ राज्य की प्रमुख खाद्य फसल है, और गन्ना, जो मुख्यतः पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उगाया जाता है, राज्य की मुख्य व्यावसायिक फसल है। भारत की लगभग ७०% चीनी उत्तर प्रदेश से आती है। गन्ना सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है क्योंकि राज्य देश में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार, सितम्बर २0१५ की वित्तीय तिमाही में भारत में कुल २.८3 करोड़ टन गन्ना उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया था, जिसमें से १.0४ करोड़ टन महाराष्ट्र से और ७३.५ लाख टन उत्तर प्रदेश से था।
राज्य के अधिकतर उद्योग कानपुर क्षेत्र, पूर्वांचल की उपजाऊ भूमि और नोएडा क्षेत्र में स्थानीयकृत हैं। मुगलसराय में कई प्रमुख लोकोमोटिव संयन्त्र हैं। राज्य के प्रमुख विनिर्माण उत्पादों में इंजीनियरिंग उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक्स, विद्युत उपकरण, केबल, स्टील, चमड़ा, कपड़ा, आभूषण, फ्रिगेट, ऑटोमोबाइल, रेलवे कोच और वैगन शामिल हैं। मेरठ भारत की खेल राजधानी होने के साथ-साथ ज्वैलरी हब भी है। उत्तर प्रदेश में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सर्वाधिक लघु-स्तरीय औद्योगिक इकाइयाँ स्थित हैं; कुल २३ लाख इकाइयों के १२ प्रतिशत से अधिक। ३५९ विनिर्माण समूहों के साथ सीमेण्ट उत्तर प्रदेश में लघु उद्योगों में शीर्ष क्षेत्र पर है।
उत्तर प्रदेश वित्तीय निगम (यूपीएफसी) की स्थापना १९५४ में एसएफसी अधिनियम १९५१ के तहत राज्य में लघु और मध्यम स्तर के उद्योगों को विकसित करने के लिए की गई थी। यूपीएफसी अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाली वर्तमान इकाइयों तथा नयी इकाइयों को एकल खिड़की योजना के तहत कार्यशील पूँजी भी प्रदान करता था, किन्तु जुलाई २०१२ में वित्तीय बाधाओं और राज्य सरकार के निर्देशों के कारण राज्य सरकार की योजनाओं को छोड़कर अन्य सभी ऋण गतिविधियों को निलंबित कर दिया गया। राज्य में २०१२ और २०१६ के वर्षों के दौरान २५,०८१ करोड़ रुपये से अधिक का कुल निजी निवेश हुआ है। भारत में व्यापार करने में आसानी पर विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश को शीर्ष १० राज्यों में, और उत्तर भारतीय राज्यों में पहले स्थान पर रखा गया था।
उत्तर प्रदेश बजट दस्तावेज़ (२०१९-२०) के अनुसार उत्तर प्रदेश पर कर्ज का बोझ जीएसडीपी का २९.८ प्रतिशत है। २०११ में राज्य का कुल वित्तीय ऋण २० खरब (२,००,००0 करोड़) था। कई वर्षों से लगातार प्रयासों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश कभी दोहरे अंकों में आर्थिक विकास हासिल नहीं कर पाया है। २०१७-१८ में जीएसडीपी ७ प्रतिशत और २०१८-१९ में ६.५ प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग १० प्रतिशत है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमएआई) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार २०१०-२० के दशक में उत्तर प्रदेश की बेरोजगारी दर ११.४ प्रतिशत अंक से बढ़ी, जो अप्रैल २०२० में २१.५ प्रतिशत आंकी गयी। उत्तर प्रदेश में राज्य से बाहर प्रवास करने वाले अप्रवासियों की सबसे बड़ी संख्या है। प्रवास पर २०११ की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग १.४४ करोड़ (१४.७ %) लोग उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए थे। पुरुषों में प्रवास का सबसे महत्वपूर्ण कारण कार्य/रोजगार जबकि महिलाओं के बीच प्रवास का प्रमुख कारण अप्रवासी पुरुषों से विवाह उद्धृत किया गया।
२००९-१० में, अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र (कृषि, वानिकी और पर्यटन) के राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में ४४% के योगदान और द्वितीयक क्षेत्र (औद्योगिक और विनिर्माण) के ११.२% के योगदान की तुलना में तृतीयक क्षेत्र (सेवा उद्योग) ४४.८% के योगदान के साथ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे बड़ा योगदानकर्ता था। एमएसएमई क्षेत्र उत्तर प्रदेश में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार सृजनकर्ता है, पहला कृषि है जो राज्य भर में 9२ लाख से अधिक लोगों को रोजगार देता है। ११वीं पंचवर्षीय योजना (२00७-२01२) के दौरान, औसत सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की वृद्धि दर ७.३% थी, जो देश के अन्य सभी राज्यों के औसत १५.५% से कम थी। २9,41७ की राज्य की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी भी राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति जीएसडीपी ६०.9७२ से कम थी। हालाँकि, राज्य की श्रम दक्षता २6 थी, जो २५ के राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। कपड़ा और चीनी शोधन, दोनों उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से चले आ रहे उद्योग हैं, जो राज्य के कुल कारखाना श्रम के एक महत्वपूर्ण अनुपात को रोजगार देते हैं। राज्य के पर्यटन उद्योग से भी अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। राज्य के निर्यात में जूते, चमड़े के सामान और खेल के सामान शामिल हैं।
राज्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने में भी सफल रहा है, जो ज्यादातर सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्रों में आया है; नोएडा, कानपुर और लखनऊ सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग के लिए प्रमुख केन्द्र बन रहे हैं और अधिकांश प्रमुख कॉर्पोरेट, मीडिया और वित्तीय संस्थानों के मुख्यालय इन्हीं नगरों में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित सोनभद्र जिले में बड़े पैमाने पर उद्योग हैं, और इसके दक्षिणी क्षेत्र को भारत की ऊर्जा राजधानी के रूप में जाना जाता है। दूरसंचार नियामक, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के अनुसार, मई २०१३ में उत्तर प्रदेश में देश में मोबाइल ग्राहकों की सबसे बड़ी संख्या थी; भारत के ८६.१६ करोड़ मोबाइल फोन कनेक्शनों में से कुल १२.१६ करोड़ उत्तर प्रदेश में थे। नवंबर २०१५ में शहरी विकास मन्त्रालय ने एक व्यापक विकास कार्यक्रम के लिए उत्तर प्रदेश के इकसठ शहरों का चयन किया, जिसे अटल मिशन फॉर रिजुवेनेशन एण्ड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (अमृत मिशन) के रूप में जाना जाता है। शहरों में स्थानीय शहरी निकायों के बेहतर कामकाज के लिए एक योजना, सेवा स्तर सुधार योजना विकसित करने के लिए शहरों के लिए २६० अरब (२६,००० करोड़) का पैकेज घोषित किया गया था।
उत्तर प्रदेश का रेलवे नेटवर्क भारत में सबसे बड़ा है, परन्तु राज्य की समतल स्थलाकृति और सर्वाधिक जनसंख्या के बावजूद रेलवे घनत्व केवल छठा-उच्चतम है। २०११ तक, राज्य में ८,५४६ किमी (५,३१० मील) लम्बी रेल लाइनें थी। उत्तर मध्य रेलवे अंचल का मुख्यालय प्रयागराज में, और पूर्वोत्तर रेलवे अंचल का मुख्यालय गोरखपुर में है। इन अंचलीय मुख्यालयों के अतिरिक्त, लखनऊ और मुरादाबाद में उत्तर रेलवे अंचल के मंडलीय मुख्यालय स्थित हैं। भारत की दूसरी सबसे तेज शताब्दी ट्रेन लखनऊ स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस राज्य की राजधानी लखनऊ को भारतीय राजधानी नई दिल्ली से जोड़ती है जबकि कानपुर शताब्दी एक्सप्रेस, कानपुर को नई दिल्ली से जोड़ती है। नए जर्मन एलएचबी कोचों से युक्त यह भारत की पहली ट्रेन थी। प्रयागराज जंक्शन, आगरा कैंट, लखनऊ एनआर, गोरखपुर जंक्शन, कानपुर सेंट्रल, अयोध्या जंक्शन, मथुरा जंक्शन और वाराणसी जंक्शन भारतीय रेलवे की ५० विश्व स्तरीय रेलवे स्टेशनों की सूची में शामिल हैं।
राज्य में देश में एक विशाल और बहुविध परिवहन प्रणाली है, जिसके अंतर्गत देश का सबसे बड़ा सड़क नेटवर्क भी है। उत्तर प्रदेश अपने नौ पड़ोसी राज्यों और भारत के लगभग सभी अन्य हिस्सों से राष्ट्रीय राजमार्गों के माध्यम से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। कुल ४२ राष्ट्रीय राजमार्ग राज्य में हैं, जिनकी लंबाई ४,९४२ किमी (भारत में राजमार्गों की कुल लंबाई का ९.६%) है। उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की स्थापना १९७२ में राज्य में सस्ती, विश्वसनीय और आरामदायक परिवहन सेवा प्रदान करने के लिए की गई थी, और यह पूरे देश में लाभ में चलने वाला एकमात्र राज्य परिवहन निगम है। राज्य के सभी नगर राज्य राजमार्गों से जुड़े हुए हैं, और सभी जनपद मुख्यालयों को फोर लेन सड़कों से जोड़ा जा रहा है जो राज्य के भीतर प्रमुख केंद्रों के बीच यातायात ले जाती हैं। इन्हीं में से एक है आगरालखनऊ एक्सप्रेसवे, जो कि पुरानी भीड़ग्रस्त सड़कों पर वाहनों के यातायात को कम करने के लिए उत्तर प्रदेश एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (यूपीईआईडीए) द्वारा निर्मित ३०२ किमी (१८८ मील) लम्बा नियंत्रित-पहुंच राजमार्ग है। यह एक्सप्रेसवे देश का सबसे बड़ा ग्रीनफील्ड एक्सप्रेसवे है, जिसने लखनऊ और आगरा के बीच यात्रा के समय को ६ घंटे से घटाकर ३.३० घंटे कर दिया है। अन्य जिला सड़कें व ग्रामीण सड़कें ग्रामों को उनकी सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पहुँच प्रदान करती हैं और साथ ही कृषि उपज को आस-पास के बाजारों तक पहुँचाने के साधन भी प्रदान करती हैं। प्रमुख जिला सड़कें मुख्य सड़कों और ग्रामीण सड़कों को जोड़ने का एक द्वितीयक कार्य करती हैं। उत्तर प्रदेश में भारत में सबसे अधिक सड़क घनत्व (१,०२७ किमी प्रति १००० वर्ग किमी) और देश में सबसे बड़ा नगरीय-सड़क नेटवर्क (५०,७२१ किमी) है।
राज्य में तीन अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र हैं लखनऊ में स्थित चौधरी चरण सिंह अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, अयोध्या में स्थित श्रीरामलला अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र एवं वाराणसी में स्थित लाल बहादुर शास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र। इसके अतिरिक्त आगरा, प्रयागराज, कानपुर, गाजियाबाद, गोरखपुर व बरेली में घरेलू विमानक्षेत्र हैं। लखनऊ विमानक्षेत्र नई दिल्ली में स्थित इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र के बाद उत्तर भारत का दूसरा सबसे व्यस्त हवाई अड्डा है। इन सब के अलावा दो नए अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र कुशीनगर एवं ग्रेटर नोएडा के निकट स्थित जेवर में निर्माणाधीन हैं, जबकि फिरोजाबाद जिले के टुंडला के निकट ताज अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी प्रस्तावित है। लखनऊ मेट्रो ९ मार्च २०१९ से परिचालन में है, जबकि आगरा मेट्रो व कानपुर मेट्रो निर्माणाधीन हैं। राजधानी में अप्रवासियों की संख्या में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है और इस कारण परिवहन के सार्वजनिक साधनों में परिवर्तन पर जोर है। राज्य के आंतरिक परिवहन तंत्र में गंगा, यमुना व सरयू नदियों की अंतर्देशीय जल परिवहन व्यवस्था भी शामिल है।
उत्तर प्रदेश के पारंपरिक खेलों में कुश्ती, तैराकी, कबड्डी और स्थानीय पारंपरिक नियमों के अनुसार आधुनिक उपकरणों के बिना खेले जाने वाले ट्रैक-स्पोर्ट्स या जलक्रीड़ाऐं शामिल हैं, जो अब मुख्यतः मनोरंजन के लिए खेले जाते हैं। कुछ पारम्परिक खेल युद्धकौशल प्रदर्शित करने के लिए खेले जाते थे, जिनमें तलवार या पाटे का उपयोग होता है। संगठित संरक्षण और अपेक्षित सुविधाओं की कमी के कारण, ये खेल ज्यादातर व्यक्तियों के शौक या स्थानीय प्रतिस्पर्धी आयोजनों के रूप में जीवित रहते हैं। आधुनिक खेलों में, मैदानी हॉकी लोकप्रिय है और उत्तर प्रदेश ने भारत के कुछ बेहतरीन हॉकी खिलाड़ियों को जन्म दिया है, जिनमें ध्यानचंद और हाल ही में नितिन कुमार और ललित कुमार उपाध्याय शामिल हैं।
हाल के समय में, राज्य में मैदानी हॉकी की तुलना में क्रिकेट अधिक लोकप्रिय हो गया है। उत्तर प्रदेश ने फरवरी २००६ में रणजी ट्रॉफी के फाइनल मुकाबले में बंगाल को हराकर अपना पहला रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट जीता। राज्य से राष्ट्रीय टीम में भी नियमित रूप से तीन या चार खिलाड़ी होते ही हैं। कानपुर का ग्रीन पार्क स्टेडियम राज्य का सबसे पुराना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त क्रिकेट स्टेडियम है, जिसने भारत की कुछ प्रसिद्ध विजयें देखी है। यह उत्तर प्रदेश क्रिकेट टीम का 'होम ग्राउंड' भी है। उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ (यूपीसीए) का मुख्यालय भी कानपुर में ही है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ५०,००० दर्शकों की क्षमता वाला एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम है। लगभग २०,००० दर्शकों की क्षमता वाला ग्रेटर नोएडा क्रिकेट स्टेडियम एक और नवनिर्मित अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम है।
ग्रेटर नोएडा में स्थित बुद्ध अन्तरराष्ट्रीय परिपथ पर ३० अक्टूबर २०११ को भारत की पहली 'फॉर्मूला वन' ग्रैण्ड प्रिक्स का आयोजन हुआ था। ५.१४ किलोमीटर (३.१९ मील) लम्बे इस परिपथ जो जर्मन वास्तुकार और रेसट्रैक डिजाइनर हरमन टिल्के द्वारा अन्य विश्व स्तरीय रेस परिपथों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए डिजाइन किया गया था। हालांकि, दर्शकों की अनुपस्थिति और सरकारी समर्थन की कमी के कारण रद्द होने से पहले यह केवल तीन बार ही आयोजित हो पायी। उत्तर प्रदेश सरकार ने फॉर्मूला वन को खेल का दर्जा न देकर मनोरंजन माना, और इस कारण इसके आयोजन एवं प्रतिभागियों पर अतिरिक्त कर लगाया गया था।
उत्तर प्रदेश में शिक्षा की एक पुरानी परम्परा रही है, हालांकि ऐतिहासिक रूप से यह मुख्य रूप से कुलीन वर्ग और धार्मिक विद्यालयों तक ही सीमित थी। संस्कृत आधारित शिक्षा वैदिक से गुप्त काल तक शिक्षा का प्रमुख हिस्सा थी। जैसे-जैसे विभिन्न संस्कृतियों के लोग इस क्षेत्र में आये, वे अपने-अपने ज्ञान को साथ लाए, और क्षेत्र में पाली, फारसी और अरबी की विद्व्त्ता आयी, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के उदय तक क्षेत्र में हिंदू-बौद्ध-मुस्लिम शिक्षा का मूल रही। देश के अन्य हिस्सों की ही तरह उत्तर प्रदेश में भी शिक्षा की वर्तमान स्कूल-टू-यूनिवर्सिटी प्रणाली की स्थापना और विकास का श्रेय विदेशी ईसाई मिशनरियों और ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन को जाता है। राज्य में विद्यालयों का प्रबंधन या तो सरकार द्वारा, या निजी ट्रस्टों द्वारा किया जाता है। सीबीएसई या आईसीएसई बोर्ड की परिषद से संबद्ध विद्यालयों को छोड़कर अधिकांश विद्यालयों में हिन्दी ही शिक्षा का माध्यम है। राज्य में १०+२+३ शिक्षा प्रणाली है, जिसके तहत माध्यमिक विद्यालय पूरा करने के बाद, छात्र आमतौर पर दो वर्ष के लिए एक इण्टर कॉलेज या उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद अथवा किसी केंद्रीय बोर्ड से संबद्ध उच्च माध्यमिक विद्यालयों में दाखिला लेते हैं, जहाँ छात्र कला, वाणिज्य या विज्ञान - इन तीन धाराओं में से एक का चयन करते हैं। इण्टर कॉलेज तक की शिक्षा पूरी करने पर, छात्र सामान्य या व्यावसायिक डिग्री कार्यक्रमों में नामांकन कर सकते हैं। दिल्ली पब्लिक स्कूल (नोएडा), ला मार्टिनियर गर्ल्स कॉलेज (लखनऊ), और स्टेप बाय स्टेप स्कूल (नोएडा) समेत उत्तर प्रदेश के कई विद्यालयों को देश के सर्वश्रेष्ठ विद्यालयों में स्थान दिया गया है।
उत्तर प्रदेश में ४५ से अधिक विश्वविद्यालय हैं, जिसमें ५ केन्द्रीय विश्वविद्यालय, २८ राज्य विश्वविद्यालय, ८ मानित विश्वविद्यालय, वाराणसी और कानपुर में २ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गोरखपुर और रायबरेली में २ अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ में १ भारतीय प्रबन्धन संस्थान, इलाहाबाद में १ राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद और लखनऊ में २ भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ में १ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय और इनके अतिरिक्त कई पॉलिटेक्निक, इंजीनियरिंग कॉलेज और औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान शामिल हैं। राज्य में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) वाराणसी, भारतीय प्रबंध संस्थान, लखनऊ, मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद, भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद, भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, विश्वविद्यालय इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर, किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, डॉ राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, लखनऊ और हरकोर्ट बटलर प्राविधिक विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों को अपने-अपने क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अनुसंधान के लिए विश्व भर में जाना जाता है। ऐसे संस्थानों की उपस्थिति राज्य के छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान की स्थापना भारतीय संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक स्वायत्त संगठन के रूप में की गई थी। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय केवल विकलांगों के लिए स्थापित विश्व भर में एकमात्र विश्वविद्यालय है। १८८९ में स्थापित भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान पशुचिकित्सा और संबद्ध विधाओं के क्षेत्र में एक उन्नत अनुसंधान सुविधा है। बड़ी संख्या में भारतीय विद्वानों ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षार्जन किया है। राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में जन्म लेने, काम करने या अध्ययन करने वाले उल्लेखनीय विद्वानों में हरिवंश राय बच्चन, मोतीलाल नेहरू, हरीश चंद्र और इंदिरा गांधी शामिल हैं।
अपनी समृद्ध और विविध स्थलाकृति, जीवंत संस्कृति, त्योहारों, स्मारकों एवं प्राचीन धार्मिक स्थलों व विहारों के कारण ७.१ करोड़ से अधिक घरेलू पर्यटकों के साथ उत्तर प्रदेश भारत के सभी राज्यों में घरेलू पर्यटकों के आगमन में प्रथम स्थान पर है। राज्य में तीन विश्व धरोहर स्थल भी हैं: ताजमहल, आगरा का किला और फतेहपुर सीकरी। उत्तर प्रदेश भारत में एक पसंदीदा पर्यटन स्थल है, मुख्यतः ताजमहल के कारण, जहाँ २०१८-१९ में लगभग ७९ लाख लोगों ने दौरा किया। यह पिछले वर्ष की तुलना में ६% अधिक था, जब यह संख्या ६४ लाख थी। स्मारक ने २०१८-१९ में टिकटों की बिक्री से लगभग ७८ करोड़ की कमाई की। पर्यटन उद्योग राज्य की अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख योगदानकर्ता है, जो प्रतिवर्ष २१.६०% की दर से बढ़ रहा है।
धार्मिक पर्यटन भी उत्तर प्रदेश पर्यटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि राज्य में कई हिन्दू मन्दिर हैं। हिन्दू धर्म के सात पवित्रतम नगरों (सप्त पुरियों) में से तीन (अयोध्या, मथुरा व वाराणसी) उत्तर प्रदेश में ही स्थित हैं। वाराणसी हिंदू और जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक प्रमुख धार्मिक केंद्र है। घरेलू पर्यटक यहाँ आमतौर पर धार्मिक उद्देश्यों के लिए आते हैं, जबकि विदेशी पर्यटक गंगा नदी के घाटों पर घूमने के लिए जाते हैं। वृंदावन को वैष्णव सम्प्रदाय का एक पवित्र स्थान माना जाता है। भगवान राम के जन्मस्थान के रूप में प्रसिद्ध अयोध्या महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है। गंगा नदी के तट पर राज्य भर में असंख्य धार्मिक स्थल व घाट हैं, जहाँ समय-समय पर मेलों का आयोजन होता रहता है। त्रिवेणी संगम पर लगने वाले माघ मेले में भाग लेने के लिए लाखों लोग इलाहाबाद में एकत्र होते हैं। यह उत्सव प्रत्येक १२वें वर्ष में बड़े पैमाने पर आयोजित किया जाता है, जब इसे कुम्भ मेला कहा जाता है, और तब १ करोड़ से अधिक हिन्दू तीर्थयात्री इसमें सम्मिलित होने इलाहाबाद आते हैं। गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर में मकर संक्रान्ति के समय एक माह तक चलने वाला खिचड़ी मेला लगता है। विन्ध्याचल एक अन्य हिंदू तीर्थ स्थल है जहाँ विंध्यवासिनी देवी का मन्दिर स्थित है।
उत्तर प्रदेश के बौद्ध आकर्षणों में कई स्तूप और मठ शामिल हैं। सारनाथ एक ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण नगर है, जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान-प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश दिया था और कुशीनगर वह स्थल है, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई थी; दोनों ही बौद्धों के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल हैं। इसके अतिरिक्त सारनाथ में स्थित अशोकस्तम्भ और अशोक का सिंहचतुर्मुख स्तम्भशीर्ष राष्ट्रीय महत्त्व की महत्वपूर्ण पुरातात्विक कलाकृतियाँ हैं। वाराणसी से ८० किमी की दूरी पर स्थित गाजीपुर ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल प्रेसीडेंसी के गवर्नर लॉर्ड कॉर्नवालिस के १८वीं शताब्दी के मकबरे के लिए जाना जाता है, जिसका रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है। राज्य में एक राष्ट्रीय उद्यान तथा २५ वन्यजीव अभयारण्य हैं। ओखला पक्षी अभयारण्य को ३०० से अधिक पक्षी प्रजातियों के लिए एक आश्रय स्थल के रूप में जाना जाता है, जिनमें से १६० पक्षी प्रजातियां प्रवासी हैं, जो तिब्बत, यूरोप व साइबेरिया से यात्रा करती हैं। एटा जिले में स्थित पटना पक्षी अभयारण्य भी एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण है।
उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक व निजी स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढाँचा विशाल है। यद्यपि पिछले समय में राज्य में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का एक विशाल नेटवर्क बनाया गया है, फिर भी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की माँग को पूरा करने के लिए उपलब्ध स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचा अपर्याप्त है। १९९८ से २०१२-१३ तक १५ वर्षों के अंतराल में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में २५ प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र, जो सरकार की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की अग्रिम पंक्ति हैं, में ८ प्रतिशत की कमी आई है। छोटे उप-केंद्र, सार्वजनिक संपर्क का पहला बिंदु, १९९० से २०१५ तक २५ वर्षों में २ प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़े हैं, जबकि इसी अवधि में जनसंख्या ५१ प्रतिशत से भी अधिक बढ़ी है। राज्य को स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की कमी, स्वास्थ्य देखभाल की बढ़ती लागत, निजी स्वास्थ्य देखभाल की बढ़ती संख्या और योजना की कमी जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। २०१७ तक उत्तर प्रदेश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सरकारी अस्पतालों की संख्या क्रमशः ४४४२ (३९१०४ बिस्तर) और १९३ (३७१५६ बिस्तर) है।
उत्तर प्रदेश में एक नवजात शिशु के पड़ोसी राज्य बिहार की तुलना में चार वर्ष कम, हरियाणा की तुलना में पांच वर्ष कम और हिमाचल प्रदेश की तुलना में ७ वर्ष कम तक जीवित रहने की अपेक्षा होती है। उत्तर प्रदेश ने लगभग सभी संचारी और गैर-संचारी रोगों से होने वाली मृत्युओं के सबसे बड़े हिस्से में योगदान दिया, जिसमें टाइफाइड से होने वाली सभी मृत्युओं का ४८ प्रतिशत (२०१४), कैंसर से होने वाली मृत्युओं में से १७ प्रतिशत, और तपेदिक से होने वाली मृत्युओं में १८ प्रतिशत (२०१५)शामिल है। उत्तर प्रदेश का मातृ मृत्यु अनुपात राष्ट्रीय औसत से अधिक है, प्रत्येक १,००,००0 जीवित जन्मों (20१७) के लिए २५८ मातृ मृत्यु दर, ६२ प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ न्यूनतम प्रसवपूर्व देखभाल तक पहुँचने में असमर्थ हैं। लगभग ४२ प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ (१5 लाख से अधिक) घर पर ही बच्चों को जन्म देती हैं। उत्तर प्रदेश में घर पर होने वाले लगभग दो-तिहाई (6१ प्रतिशत) प्रसव असुरक्षित हैं। राज्य में नवजात मृत्यु दर (एनएनएमआर) से लेकर पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए उच्चतम बाल मृत्यु दर संकेतक हैं; प्रति १,००0 जीवित बच्चों के जन्म पर ६४ बच्चों की मृत्यु पाँच वर्ष की आयु से पहले हो जाती है; ३५ बच्चे जन्म के पहले महीने के भीतर ही मर जाते हैं, जबकि ५० बच्चे जीवन का एक वर्ष भी पूरा नहीं कर पाते हैं। राज्य में ग्रामीण आबादी का एक तिहाई भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों के मानदण्डों के अनुसार प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है।
कला एवं संस्कृति
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। साहित्य और भारतीय रक्षा सेवायेँ, दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें उत्तर प्रदेश निवासी गर्व कर सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य राम चन्द्र शुक्ल, मुँशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पन्त, मैथिलीशरण गुप्त, सोहन लाल द्विवेदी, हरिवंशराय बच्चन, महादेवी वर्मा, राही मासूम रजा, अज्ञेय जैसे इतने महान कवि और लेखक हुए हैं उत्तर प्रदेश में कि पूरा पन्ना ही भर जाये।
उर्दू साहित्य में भी बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है उत्तर प्रदेश का। फिराक़, जोश मलीहाबादी, अकबर इलाहाबादी, नज़ीर, वसीम बरेलवी, चकबस्त जैसे अनगिनत शायर उत्तर प्रदेश ही नहीं वरन देश की शान रहे हैं। हिंदी साहित्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा है और लुगदी साहित्य भी यहाँ खूब पढ़ा जाता है।
संगीत शेख साहिल
संगीत उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह तीन प्रकार में बांटा जा सकता है
१- पारम्परिक संगीत एवं लोक संगीत : यह संगीत और गीत पारम्परिक मौकों शादी विवाह, होली, त्योहारों आदि समय पर गाया जाता है
२- शास्त्रीय संगीत : उत्तर प्रदेश में उत्कृष्ट गायन और वादन की परम्परा रही है।
३- हिन्दी फ़िल्मी संगीत एवं भोजपुरी पॉप संगीत : इस प्रकार का संगीत उत्तर प्रदेश में सबसे लोकप्रिय।
कथक उत्तर प्रदेश का एक परिष्कृत शास्त्रीय नृत्य है जो कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ किया जाता है। कथक
नाम 'कथा' शब्द से बना है, इस नृत्य में नर्तक किसी कहानी या संवाद को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत
करता है। कथक नृत्य का प्रारम्भ ६-७ वीं शताब्दी में उत्तर भारत में हुआ था। प्राचीन समय में यह एक
धार्मिक नृत्य हुआ करता था जिसमें नर्तक महाकाव्य गाते थे और अभिनय करते थे। १३ वी शताब्दी तक आते-आते कथक सौन्दर्यपरक हो गया तथा नृत्य में सूक्ष्म अभिनय एवं मुद्राओं पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। कथक में सूक्ष्म मुद्राओं के साथ ठुमरी गायन पर तबले और पखावज के साथ ताल मिलाते हुए नृत्य किया जाता है। कथक नृत्य के प्रमुख कलाकार पन्डित बिरजू महाराज हैं।
फरी नृत्य, जांघिया नृत्य, पंवरिया नृत्य, कहरवा, जोगिरा, निर्गुन, कजरी, सोहर, चइता गायन उत्तर प्रदेश की लोकसंस्कृतियाँ हैं। लोकरंग सांस्कृतिक समिति इन संस्कृतियों संवर्द्धन, संरक्षण के लिए कार्यरत है।
फिरोजाबाद की चूड़ियाँ, सहारनपुर का काष्ठ शिल्प, पिलखुवा की हैण्ड ब्लाक प्रिण्ट की चादरें, वाराणसी की साड़ियाँ तथा रेशम व ज़री का काम, लखनऊ का कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई का काम, रामपुर का पैचवर्क, मुरादाबाद के पीतल के बर्तन औरंगाबाद का टेराकोटा, मेरठ की कैंची आदि। जौनपुर की बेनी साव की इमरती और मूली। मथुरा का पेडा।
हिन्दी भाषा की जन्मस्थली
उत्तर प्रदेश भारत की राजकीय भाषा हिन्दी की जन्मस्थली है। शताब्दियों के दौरान हिन्दी के कई स्थानीय स्वरूप विकसित हुए हैं। साहित्यिक हिन्दी ने १९वीं शताब्दी तक खड़ी बोली का वर्तमान स्वरूप (हिन्दुस्तानी) धारण नहीं किया था। वाराणसी के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (१८५०-१८८५ ई.) उन अग्रणी लेखकों में से थे, जिन्होंने हिन्दी के इस स्वरूप का इस्तेमाल साहित्यिक माध्यम के तौर पर किया था।
उत्तर प्रदेश हिन्दुओं की प्राचीन सभ्यता का उदगम स्थल है। वैदिक साहित्य मन्त्र, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रौं, आदि महाकाव्य-वाल्मीकि रामायण, और महाभारत (जिसमें श्रीमद् भगवद्गीता शामिल है) अष्टादश पुराणों के उल्लेखनीय हिस्सों का मूल यहाँ के कई आश्रमों में जीवन्त है। बौद्ध-हिन्दू काल (लगभग ६०० ई. पू.-१२०० ई.) के ग्रन्थों व वास्तुशिल्प ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत में बड़ा योगदान दिया है। १९४७ के बाद से भारत सरकार का चिह्न मौर्य सम्राट अशोक के द्वारा बनवाए गए चार सिंह युक्त स्तम्भ (वाराणसी के निकट सारनाथ में स्थित) पर आधारित है। वास्तुशिल्प, चित्रकारी, संगीत, नृत्यकला और दो भाषाएँ (हिन्दी व उर्दू) मुग़ल काल के दौरान यहाँ पर फली-फूली। इस काल के चित्रों में सामान्यतः धार्मिक व ऐतिहासिक ग्रन्थों का चित्रण है। यद्यपि साहित्य व संगीत का उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में किया गया है और माना जाता है कि गुप्त काल (लगभग ३२०-५४०) में संगीत समृद्ध हुआ। संगीत परम्परा का अधिकांश हिस्सा इस काल के दौरान उत्तर प्रदेश में विकसित हुआ। तानसेन व बैजू बावरा जैसे संगीतज्ञ मुग़ल शहंशाह अकबर के दरबार में थे, जो राज्य व समूचे देश में आज भी विख्यात हैं। भारतीय संगीत के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध वाद्य सितार (वीणा परिवार का तंतु वाद्य) और तबले का विकास इसी काल के दौरान इस क्षेत्र में हुआ। १८वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश में वृन्दावन व मथुरा के मन्दिरों में भक्तिपूर्ण नृत्य के तौर पर विकसित शास्त्रीय नृत्य शैली कथक उत्तरी भारत की शास्त्रीय नृत्य शैलियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय गीत व नृत्य भी हैं। सबसे प्रसिद्ध लोकगीत मौसमों पर आधारित हैं।
उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ समय समय पर सभी धर्मों के त्योहार मनाये जाते हैं-
अयोध्या-रामनवमी मेला,राम विवाह,सावन झूला मेला, कार्तिक पूर्णिमा मेला
प्रयागराज में प्रत्येक बारहवें वर्ष में कुंभ मेला आयोजित किया जाता है।
इसके अतिरिक्त प्रयागराज में प्रत्येक ६ वर्ष बाद अर्द्ध कुंभ मेले का आयोजन भी किया जाता है।
प्रयागराज में ही प्रत्येक वर्ष जनवरी माह में माघ मेला भी आयोजित किया जाता है, जहां बडी संख्या में लोग संगम में नहाते हैं।
दीपावली पर चित्रकूट में दीपदान करने की विशेष मान्यता है। धनतेरस के दिन से शुरू होने वाले दीपमालिका मेले में शामिल होने के लिए देशभर से लाखों श्रद्धालु आते हैं और पवित्र मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाते हैं। चित्रकूट भारत के सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में से एक है। यह स्थान जितना शांत है उतना ही आकर्षक भी। प्रकृति और ईश्वर की अनुपम रचना के सुंदर और एक से बढ़कर एक दृश्य यहां देखने मिलते हैं।
अन्य मेलों में मथुरा, वृन्दावन में अनेक पर्वों के मेले और झूला मेले लगते हैं, जिनमें प्रभु की प्रतिमाओं को सोने एवं चाँदी के झूलों में रखकर झुलाया जाता है। ये झूला मेले लगभग एक पखवाडे तक चलते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा नदी में डुबकी लगाना पवित्र माना जाता है और इसके लिए गढ़मुक्तेश्वर, सोरों शूकरक्षेत्र का मार्गशीर्ष मेला, राजघाट, बिठूर, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी में बडी संख्या में लोग एकत्र होते हैं।
आगरा ज़िले के बटेश्वर कस्बे में पशुओं का प्रसिद्ध मेला लगता है।
बाराबंकी ज़िले का देवा मेला मुस्लिम संत वारिस अली शाह के कारण काफ़ी प्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त यहाँ हिन्दू तथा मुस्लिमों के सभी प्रमुख त्योहारों को पूरे राज्य में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
राष्ट्रीय रामायण मेला इलाहाबाद जिले में गंगा नदी के तट पर श्रृंगवेरपुर में कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी से पूर्णिमा तक हर वर्ष आयोजित किया जाता है। यह वही स्थान है जहाँ त्रेतायुग में निषाद राज ने प्रभु श्रीराम को वनवास जाते समय गंगा नदी पार कराई।
इन्हें भी देखें
उत्तर प्रदेश के लोकनृत्य
उत्तर प्रदेश का इतिहास
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश के लोकसभा सदस्य
उत्तर प्रदेश सरकार का आधिकारिक जालस्थल
उत्तर प्रदेश एक आईना (लाइव हिन्दुस्तान)
उत्तर प्रदेश के बारे में जानें
लोकरंग सांस्कृतिक समिति
उत्तर प्रदेश के प्राचीनतम नगर (गूगल पुस्तक ; डॉ अशोक कुमार सिंह)
भारत के राज्य |
केरल (मलयालम: , केरळम्) भारत का एक प्रान्त है। इसकी राजधानी तिरुवनन्तपुरम (त्रिवेन्द्रम) है। मलयालम (, मलयाळम्) यहां की मुख्य भाषा है। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के अलावा यहां ईसाई भी बड़ी संख्या में रहते हैं। भारत की दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर अरब सागर और सह्याद्रि पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य एक खूबसूरत भूभाग स्थित है, जिसे केरल के नाम से जाना जाता है। इस राज्य का क्षेत्रफल ३८८६३ वर्ग किलोमीटर है और यहाँ मलयालम भाषा बोली जाती है। अपनी संस्कृति और भाषा-वैशिष्ट्य के कारण पहचाने जाने वाले भारत के दक्षिण में स्थित चार राज्यों में केरल प्रमुख स्थान रखता है। इसके प्रमुख पड़ोसी राज्य तमिलनाडु और कर्नाटक हैं। पुदुच्चेरी (पांडिचेरि) राज्य का मय्यष़ि (माहि) नाम से जाता जाने वाला भूभाग भी केरल राज्य के अन्तर्गत स्थित है। अरब सागर में स्थित केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप का भी भाषा और संस्कृति की दृष्टि से केरल के साथ अटूट संबन्ध है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व केरल में राजाओं की रियासतें थीं। जुलाई १९४९ में तिरुवितांकूर और कोच्चिन रियासतों को जोड़कर 'तिरुकोच्चि' राज्य का गठन किया गया। उस समय मलाबार प्रदेश मद्रास राज्य (वर्तमान तमिलनाडु) का एक जिला मात्र था। नवंबर १९५६ में तिरुकोच्चि के साथ मलाबार को भी जोड़ा गया और इस तरह वर्तमान केरल की स्थापना हुई। इस प्रकार 'ऐक्य केरलम' के गठन के द्वारा इस भूभाग की जनता की दीर्घकालीन अभिलाषा पूर्ण हुई।
* केरल में शिशुओं की मृत्यु दर भारत के राज्यों में सबसे कम है और स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है (२०११ की जनगणना के आधार पर)।
* यह यूनिसेफ (यूनीसेफ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (वो) द्वारा मान्यता प्राप्त विश्व का प्रथम शिशु सौहार्द राज्य (बेबी फ्रेंडली स्टेट) है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार परशुराम ने अपना परशु समुद्र में फेंका जिसकी वजह से उस आकार की भूमि समुद्र से बाहर निकली और केरल अस्तित्व में आया। यहां १०वीं सदी ईसा पूर्व से मानव बसाव के प्रमाण मिले हैं।
केरल शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में एकमत नहीं है। कहा जाता है कि "चेर - स्थल", 'कीचड़' और "अलम-प्रदेश" शब्दों के योग से चेरलम बना था, जो बाद में केरल बन गया। केरल शब्द का एक और अर्थ है : - वह भूभाग जो समुद्र से निकला हो। समुद्र और पर्वत के संगम स्थान को भी केरल कहा जाता है। प्राचीन विदेशी यायावरों ने इस स्थल को 'मलबार' नाम से भी सम्बोधित किया है। काफी लबे अरसे तक यह भूभाग चेरा राजाओं के अधीन था एवं इस कारण भी चेरलम (चेरा का राज्य) और फिर केरलम नाम पड़ा होगा।
केरल की संस्कृति हज़ारों साल पुरानी है। इसके इतिहास का प्रथम काल १००० ईं. पूर्व से ३०० ईस्वी तक माना जाता है। अधिकतर महाप्रस्तर युगीन स्मारिकाएँ पहाड़ी क्षेत्रों से प्राप्त हुई। अतः यह सिद्ध होता है कि केरल में अतिप्राचीन काल से मानव का वास था। केरल में आवास केन्द्रों के विकास का दूसरा चरण संगमकाल माना जाता है। यही प्राचीन तमिल साहित्य के निर्माण का काल है। संगमकाल सन् ३०० ई. से ८०० ई तक रहा। प्राचीन केरल को इतिहासकार तमिल भूभाग का अंग समझते थे। सुविधा की दृष्टि से केरल के इतिहास को प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक कालीन - तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं।
विज्ञापनों में केरल को 'ईश्वर का अपना घर' (गोद'स आउन कंट्री) कहा जाता है, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जिन कारणों से केरल विश्व भर में पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बना है, वे हैं : समशीतोष्ण मौसम, समृद्ध वर्षा, सुंदर प्रकृति, जल की प्रचुरता, सघन वन, लम्बे समुद्र तट और चालीस से अधिक नदियाँ। भौगोलिक दृष्टि से केरल उत्तर अक्षांश ८ डिग्री १७' ३०" और १२ डिग्री ४७' ४०" के बीच तथा पूर्व देशांतर ७४ डिग्री ७' ४७" और ७७ डिग्री 3७' १२" के बीच स्थित है।
भौगोलिक प्रकृति के आधार पर केरल को अनेक क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। सर्वप्रचलित विभाज्य प्रदेश हैं, पर्वतीय क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, समुद्री क्षेत्र आदि। अधिक स्पष्टता की दृष्टि से इस प्रकार विभाजन किया गया है - पूर्वी मलनाड (ईस्टर्न हाईलैंड), अडिवारम (तराई - फूट हिल ज़ोन), ऊँचा पहाडी क्षेत्र (हिली उपलैंड), पालक्काड दर्रा, तृश्शूर-कांजगाड समतल, एरणाकुलम - तिरुवनन्तपुरम रोलिंग समतल और पश्चिमी तटीय समतल। यहाँ की भौगोलिक प्रकृति में पहाड़ और समतल दोनों का समावेश है।
केरल को जल समृद्ध बनाने वाली ४१ नदियाँ पश्चिमी दिशा में स्थित समुद्र अथवा झीलों में जा मिलती हैं। इनके अतिरिक्त पूर्वी दिशा की ओर बहने वाली तीन नदियाँ, अनेक झीलें और नहरें हैं।
भूमध्यरेखा से केवल ८ डिग्री की दूरी पर स्थित होने के कारण केरल में गर्म मौसम है। लेकिन वन एवं पेड़ पौधों एवं वर्षा की अधिकता के कारण मौसम समशीतोष्ण रहता है। यहाँ की धरती की उच्च-निम्न स्थिति भी जलवायु पर बड़ा प्रभाव डालती है। केरल की जलवायु की विशेषता है शीतल मन्द हवा और भारी वर्षा। प्रमुख वर्षाकाल इडवप्पाति अथवा पश्चिमी मानसून है। दूसरा वर्षाकाल तुलावर्षम अथवा उत्तरी-पश्चिमी मानसून है। प्रत्येक वर्ष करीब १२० से लेकर १४० दिन वर्षा होती है। औसत वार्षिक वर्षा ३०१७ मिली मीटर मानी जाती है। भारी वर्षा से बाढ़ें आती हैं और जन-धन की हानि भी होती है। दूसरी ओर ऐसी वर्षा के कारण केरल में पर्याप्त कृषि होती है। बिजली का मुख्य उत्पादन भी इस कारण से पनबिजली द्वारा होता है।
भारत के एक राज्य के रूप में केरल की आर्थिक व्यवस्था की अपनी विशेषताएँ हैं। मानव संसाधन विकास की आधारभूत सूचना के अनुसार केरल की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय है। मानव संसाधन विकास के बुनियादी तत्त्वों में उल्लेखनीय हैं - भारत के अन्य राज्यों की तुलना में आबादी की कम वृद्धि दर, राष्ट्रीय औसत सघनता से ऊँची दर, ऊँची आयु-दर, गंभीर स्वास्थ्य चेतना, कम शिशु मृत्यु दर, ऊँची साक्षरता, प्राथमिक शिक्षा की सार्वजनिकता, उच्च शिक्षा की सुविधा आदि आर्थिक प्रगति के अनुकूल हैं।
वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रभाव ने कृषि तथा अन्य परम्परागत क्षेत्रों को बहुत कम कर दिया है। स्वातंत्र्य पूर्व तिरुवितांकूर, कोच्चि, मलबार क्षेत्रों का विकास आधुनिक केरल की आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि है। भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशेषताएँ केरल की आर्थिक व्यवस्था को प्राकृतिक संपदा के वैविध्य के साथ श्रम संबन्धी वैविध्य भी प्रदान करती हैं। केरल में कृषि खाद्यान्न और निर्यात की जानेवाली फसलों के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। शासन व्यवस्था तथा व्यापार के कारण निर्यात की जानेवाली फसलों बढ़ोतरी हुई है। कयर (नारियल रेशा) उद्योग, लकडी उद्योग, खाद्य तेल उत्पादन आदि भी कृषि पर आधारित हैं
आधुनिक केरल की आर्थिक व्यवस्था में आप्रवासी केरलीयों का मुख्य योगदान है। केरल की आर्थिक व्यवस्था के सुदृढ आधार हैं - वाणिज्य बैंक, सहकारी बैंक, मुद्रा विनिमय व्यवस्था, यातायात का विकास, शिक्षा - स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में हुई प्रगति, शक्तिशाली श्रमिक आन्दोलन, सहकारी आन्दोलन आदि।
उत्सव और त्यौहार
केरलीय जीवन की छवि यहाँ मनाये जाने वाले उत्सवों में दिखाई देती है। केरल में अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो सामाजिक मेल-मिलाप और आदान-प्रदान की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। केरलीय कलाओं का विकास यहाँ मनाये जाने वाले उत्सवों पर आधारित है। इन उत्सवों में कई का संबन्ध देवालयों से है, अर्थात् ये धर्माश्रित हैं तो अन्य कई उत्सव धर्मनिरपेक्ष हैं। ओणम केरल का राज्योत्सव है। यहाँ मनाये जाने वाले प्रमुख हिन्दू त्योहार हैं - विषु, नवरात्रि, दीपावली, शिवरात्रि, तिरुवातिरा आदि। मुसलमान रमज़ान, बकरीद, मुहरम, मिलाद-ए-शरीफ आदि मनाते हैं तो ईसाई क्रिसमस, ईस्टर आदि। इसके अतिरिक्त हिन्दू, मुस्लिम और ईसाइयों के देवालयों में भी विभिन्न प्रकार के उत्सव भी मनाये जाते हैं।
कला व संस्कृति
केरल की कला-सांस्कृतिक परंपराएँ सदियों पुरानी हैं। केरल के सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कलारूपों में लोककलाओं, अनुष्ठान कलाओं और मंदिर कलाओं से लेकर आधुनिक कलारूपों तक की भूमिका उल्लेखनीय है। केरलीय कलाओं को सामान्यतः दो वर्गों में बाँट सकते हैं - एक दृश्य कला और दूसरी श्रव्य कला। दृश्य कला के अंतर्गत रंगकलाएँ, अनुष्ठान कलाएँ, चित्रकला और सिनेमा आते हैं।
केरल में क्रीड़ा संस्कार कई शताब्दियाँ पहले रूपायित हुआ था। केरल के क्रीडा जगत के क्षेत्र में लोक क्रीडाएँ, आयोधन कलाएँ, आधुनिक क्रीडाएँ सब एक साथ विद्यमान हैं। 'कळरिप्पयट्टु' केरल की प्रान्तीय आयुधन कला है। पहले केरलीय गाँवों में खेल-कूद को विशिष्ट महत्त्व दिया जाता था किन्तु आधुनिक जीवन शैली तथा आधुनिक खेलों के चलते लोक क्रीडाएँ लुप्तप्राय हो गई हैं। लेकिन आज भी देशी मनोरंजन नौका विहार को महत्त्व दिया जाता है।
फुटबॉल, वॉलीबॉल, एथलेटिक्स इत्यादि आधुनिक खेल कूदों में केरल की भारत पर प्रभुता है। भारत की सबसे बड़ी धावक पी.टी. उषा केरल की सुपुत्री है।
केरल प्रांत पर्यटकों में बेहद लोकप्रिय है, इसीलिए इसे 'गोद'स आउन कंट्री' अर्थात् 'ईश्वर का अपना घर' नाम से पुकारा जाता है। यहाँ अनेक प्रकार के दर्शनीय स्थल हैं, जिनमें प्रमुख हैं - पर्वतीय तराइयाँ, समुद्र तटीय क्षेत्र, अरण्य क्षेत्र, तीर्थाटन केन्द्र आदि। इन स्थानों पर देश-विदेश से असंख्य पर्यटक भ्रमणार्थ आते हैं। मून्नार, नेल्लियांपति, पोन्मुटि आदि पर्वतीय क्षेत्र, कोवलम, वर्कला, चेरायि आदि समुद्र तट, पेरियार, इरविकुळम आदि वन्य पशु केन्द्र, कोल्लम, अलप्पुष़ा, कोट्टयम, एरणाकुळम आदि झील प्रधान क्षेत्र (बऐकवाटर्स रेशन) आदि पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण केन्द्र हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति - आयुर्वेद का भी पर्यटन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। राज्य की आर्थिक व्यवस्था में भी पर्यटन ने निर्णयात्मक भूमिका निभाई है।
केरल की भाषा मलयालम है जो द्रविड़ परिवार की भाषाओं में एक है। मलयालम भाषा के उद्गम के बारे में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। एक मत यह है कि भौगोलिक कारणों से किसी आदि द्रविड़ भाषा से मलयालम एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हुई। इसके विपरीत दूसरा मत यह है कि मलयालम तमिल से व्युत्पन्न भाषा है। ये दोनों प्रबल मत हैं। सभी विद्वान यह मानते हैं कि भाषायी परिवर्तन की वजह से मलयालम उद्भूत हुई। तमिल, संस्कृत दोनों भाषाओं के साथ मलयालम का गहरा सम्बन्ध है। मलयालम का साहित्य मौखिक रूप में शताब्दियाँ पुराना है। परंतु साहित्यिक भाषा के रूप में उसका विकास १३ वीं शताब्दी से ही हुआ था। इस काल में लिखित 'रामचरितम्' को मलयालम का आदि काव्य माना जाता है।
देखें मुख्य लेख मलयालम साहित्य
मलयालम का साहित्य आठ शताब्दियों से अधिक पुराना है। किन्तु आज तक ऐसा कोई ग्रंथ प्राप्त नहीं हुआ है जो यहाँ के साहित्य की प्रारंभिक दशा पर प्रकाश डालता हो। अतः मलयालम साहित्यिक उद्गम से सम्बन्धित कोई स्पष्ट धारणा नहीं मिलती है। अनुमान है कि प्रारम्भिक काल में लोक साहित्य का प्रचलन रहा होगा। ऐसी कोई रचना उपलब्ध नहीं जिसकी रचना १००० वर्ष पहले की गई है। दसवीं सदी के उपरान्त लिखे गए अनेक ग्रंथों की प्रामाणिकता को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं। केरलीय साहित्य से सामान्यतः मलयालम साहित्य अर्थ लिया जाता है। लेकिन मलयालम साहित्यकारों का तमिल और संस्कृत भाषा विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। केरल के कुछ विद्वानों ने अंग्रेज़ी, कन्नड़, तुळु, कोंकणी, हिन्दी आदि भाषाओं में भी रचना लिखी हैं।
१९ वीं शताब्दी के अंतिम चरण तक मलयालम साहित्य का इतिहास प्रमुखतया कविता का इतिहास है। साहित्य की प्रारंभिक दशा का परिचय देने वाला काव्य ग्रंथ 'रामचरितम्' है जिसे १३ वीं शताब्दी में लिखा गया बताया जाता है। यद्यपि मलयालम के प्रारंभिक काव्य के रूप में 'रामचरितम्' को माना जाता है फिर भी केरल की साहित्यिक परंपरा उससे भी पुरानी मानी जा सकती है। प्राचीन काल में केरल को 'तमिऴकम्' का भाग ही समझा जाता था। दक्षिण भारत में सर्वप्रथम साहित्य का स्रोत भी तमिऴकम की भाषा प्रस्फुरित हुआ था। तमिल का आदिकालीन साहित्य 'संगम कृतियाँ' नाम से जाना जाता हैं। संगमकालीन महान रचनाओं का सम्बन्ध केरल के प्राचीन चेर-साम्राज्य से रहा है। 'पतिट्टिप्पत्तु' नामक संगमकालीन कृति में दस चेर राजाओं के प्रशस्तिगीत है। 'सिलप्पदिकारं' महाकाव्य के प्रणेता इलंगो अडिगल का जन्म चेर देश में हुआ था। इसके अतिरिक्त तीन खण्डों वाले इस महाकाव्य का एक खण्ड 'वंचिक्काण्डम' का प्रतिपाद्य विषय चेरनाड में घटित घटनाएँ हैं। संगमकालीन साहित्यिकों में अनेक केरलीय साहित्यकार हैं।
केरल के लोग
केरल के अधिकांश लोगों की मातृभाषा मलयालम है, जो द्रविड़ परिवार की प्रमुख भाषा है। यहाँ आर्य, अरबी, यहूदी तथा मिश्रित वंश के लोग भी रहते हैं। दूसरा प्रमुख वर्ग आदिवासियों का है। ये सभी वर्ग मिलकर आधुनिक केरलीय समाज का निर्माण करते हैं। एक राज्य के रूप में केरल की स्थापना १९६१ से ही हुई। किन्तु वर्तमान केरल के अन्तर्गत जितने प्रदेश हैं उन प्रदेशों की जनगणना १८८१ में ही तैयार हो पाई। प्रमाणों के आधार पर यह विश्वास किया जाता है कि १७ वीं सदी के प्रारंभ में केरल की जनसंख्या लगभग ३० लाख थी। १८५० में यह ४५ लाख हो गई। १८८१ से जनसंख्या लगातार बढ़ती रही। १९०१ में जनसंख्या ६४ लाख थी जो १९९१ में २९१ लाख हो गई। (६) २००१ की जनगणना के अनुसार केरल की जनसंख्या ३१८४१३७४ है।
केरल के प्रमुख धर्म हैं हिन्दू, ईसाई एवं इस्लाम धर्म। बौद्ध, जैन, पारसी, सिक्ख, बहाई धर्मावलम्बी लोग भी यहाँ रहते हैं। हिन्दू समाज विविध जातियों से बना है। ईस्वी सन् ८ वीं सदी से केरल में जाति-व्यवस्था प्रचलित हुई थी। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति तक विभिन्न श्रेणी के लोगों को जाति - व्यवस्था के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया। जाति व्यवस्था के कारण समाज में ऊँच - नीच की भावना तथा सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित हो गईं। १९ वीं शताब्दी के अंत में चलने वाले सामाजिक नवोत्थान अभियानों ने २० वीं शताब्दी में तथा तत्पश्चात् स्वतंत्रता संग्राम में जाति व्यवस्था को किसी सीमा तक तोड़ा। वर्तमान केरलीय समाज में यद्यपि ऊँच - नीच का भेदभावना नहीं है, लेकिन जाति - व्यवस्था मौजूद है।
विभिन्न धर्मावलम्बी लोगों के देवालयों तथा उनके धार्मिक आचार - अनुष्ठानों ने केरलीय संस्कृति को पुष्ट किया है। साहित्य और कला के विकास में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है। मन्दिरों से जुड़े उत्सवों ने केरलीय संस्कृति की शोभा बढ़ायी है।
केरल को भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला कहा जा सकता है। चुनाव के द्वारा कम्यूनिस्ट पार्टी का सत्ता में आना और विभिन्न पार्टियों के मोर्चों का गठन तथा उनका शासक बनना आदि अनेक राजनीतिक प्रयोग पहली बार केरल में हुए। देश में मशीनी मतपेटी का प्रथम प्रयोग भी केरल में हुआ। केरल में १४० विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र और २० लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र हैं। विधानसभा में एंग्लो-इंडियन समुदाय के एक प्रतिनिधि को नामित किया जाता है। केरल में अनेक राजनीतिक दल तथा उनके संपोषक संगठन भी हैं। यथा- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (सेक्युलर), मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस (एम), केरल कॉग्रेस (जे) आदि। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के श्रमिक, विद्यार्थी, महिला, युवा, कृषक और सेवा संगठन भी सक्रिय हैं। ट्रेड यूनियनों की संख्या आवश्यकता से अधिक बढ़ रही है। १९७३ में केरल की पंजीकृत ट्रेड यूनियनों की संख्या १६८० थी। यह १९९६ में १०३२६ हो गई। यहाँ सरकारी नौकरी में रत ३००० लोगों के लिए एक ट्रेड यूनियन बनाई गई है।
केरल राज्य के आविर्भाव के बाद राज्य में १३ बार चुनाव हुए। बीस मत्रिमंण्डल तथा १२ मुख्यमंत्री हुए हैं। ५ अप्रैल 19५7 को ई. एम. एस. नंपूतिरिप्पाड के नेतृत्व में प्रथम मंत्रिमण्डल सत्ता में आया। वर्तमान मुख्यमंत्री वी. एस. अच्युतानन्दन ने १८ मई २००६ को शासन संभाला।
वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र
केरल के पास विज्ञान और प्रौद्योगिकी की समृद्ध परंपरा है। गणित, ज्योतिषी, ज्योतिष, आयुर्वेद, वास्तुकला, धातु विज्ञान आदि क्षेत्रों में केरलीयों ने उल्लेखनीय योगदान किया है। आधुनिक भारत के वैज्ञानिक क्षेत्र में केरल की उपस्थिति उल्लेखनीय है। वैज्ञानिक तकनीकी क्षेत्रों में भी केरल बहुत आगे है। केरल के अनेक वैज्ञानिक विदेशों में कार्यरत हैं। पुराने काल में ज्योतिष, मंत्र-तंत्र आदि विज्ञान के रूप में विकसित हुए थे। मलयालम का वैज्ञानिक साहित्य भी अत्यंत समृद्ध है।
गणित एवं ज्योतिष
भारतीय परम्परा के अनुरूप केरल में भी गणित, ज्योतिषी और ज्योतिष का विकास परस्पर सम्बद्ध था। गणित के क्षेत्र में प्राचीन केरल का योगदान विश्व प्रसिद्ध है। समकालीन गणितज्ञों द्वारा प्रयुक्त 'केरल स्कूल ऑफ मैथमेटिक्स' शब्द इसका प्रमाण है। केरलीय गणित एवं ज्योतिषी का विकास आर्यभट की रचना 'आर्यभटीय' के आधार पर हुआ है और आर्यभट को कतिपय विद्वान केरलीय मानते हैं। केरलीय गणित एवं ज्योतिषी के विकास के परिणाम स्वरूप बनी प्रमुख पद्धतियाँ हैं ईस्वी सन् ७ वीं शती में हरिदत्त द्वारा आविष्कृत 'परहितम्' तथा ईस्वी सन् १५ वीं शती में वडश्शेरी परमेश्वरन द्वारा आविष्कृत 'दृगणितम्'।
प्राचीन केरलीय गणितज्ञों की सूची लम्बी है। उनमें से अनेक कृतियाँ ताड़पत्रों में आज भी उपलब्ध हैं। गणित के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम हैं - वररुचि प्रथम, वररुचि द्वितीय, हरिदत्तन, गोविन्दस्वामी, शंकरनारायणन, विद्यामाधवन, तलक्कुलम गोविन्द भट्टतिरि, संगम ग्राम माधवन, वडश्शेरी परमेश्वरन, नीलकंठ सोमयाजी, शंकर वारियर, ज्येष्ठ देवन, मात्तूर नंपूतिरिमार, महिषमंगलम शंकरन, तृक्कण्डियूर अच्युतप्पिषारडी, पुतुमना पोमातिरि (पुतुमना सोमयाजी), कोच्चु कृष्णनाशान, मेलपुत्तूर नारायण भट्टतिरि आदि। आधुनिक गणित का इतिहास यह मानता है कि कलन (कैल्क्युलस) का आविष्कारक आइज़ेक न्यूटन और लैबनीज़ न होकर केरल के गणित वैज्ञानिक हैं।
आयुर्वेद दो हज़ार वर्ष पुरानी भारतीय चिकित्सा-पद्धति है। इस पद्धति का विकास स्वास्थ्य, जीवन-शैली एवं चिकित्सा की दृष्टि से हुआ था। इसमें जीवन के समस्त अंगों का अध्ययन तथा परिशीलन निहित है। केरलीय आयुर्वेद परम्परा अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्ध है। यही कारण है कि विश्व भर में केरल अपनी आयुर्वेदिक चिकित्सा शैली के कारण प्रसिद्ध है। लेकिन आयुर्वेद मात्र रोग की चिकित्सा तक सीमित नहीं है यह एक विशिष्ट जीवन दर्शन को स्थापित करता है।
केरल की आयुर्वेद परंपरा अत्यंत प्राचीन है। यह आज भी विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। पर्यटन के क्षेत्र में भी आयुर्वेद पर आधारित पर्यटन (हेल्थ टूरिज्म) केरल की विशेषता है। 'पंचकर्म चिकित्सा' जो कि पुनर्यौवन चिकित्सा कहलाती है, इसकेलिए सैकड़ों विदेशी पर्यटक प्रतिवर्ष केरल आते हैं। केरलीय वैद्य परम्परा में परम्परागत आयुर्वेद विद्यालयों के स्तानकों से लेकर परिवारिक परम्परा वाले देशज वैद्य शामिल है। यहाँ एक ऐसा परिवारिक परम्परा वाला वैद्यपरिवार बड़ा प्रसिद्ध है जिसे अष्टवैद्य के नाम से पुकारा जाता है।
केरल की आयुर्वेद चिकित्सा परंपरा सदियों से चलती चली आ रही है। केरलीय आयुर्वेद का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ हैं वाग्भट का 'अष्टांगह्रदयम्' और 'अष्टांगसंग्रहम्'। केरलीय वैद्यों ने भी अनेक आयुर्वेद ग्रन्थ रचे हैं।
देखें - केरल आयुर्वेद
आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ नवीन वैज्ञानिक क्षेत्रों में भी केरलीयों ने विशेष योग्यता प्राप्त की। विज्ञान की विविध शाखाओं में केरल के अनेक प्रसिद्ध वैज्ञानिक हुए हैं। जैसे कि - के. आर. रामनाथन, सी. आर. पिषारडी, आर. एस. कृष्णन, जी. एन. रामचन्द्रन, गोपीनाथ कर्ता, यू. एस. नायर, के. आर. नायर, ई. सी. जी. सुदर्शन, एम. एम. मत्तायि, के. आई. वर्गीस, एम. एस. स्वामीनाथन, ताणु पद्मनाभन, पी. के. अय्यंगार, एम. जी. रामदास मेनन, के. के. नायर, एन. के. पणिक्कर, एन. बालकृष्णन नायर, के. के. नायर, के. जी. अडियोडी, जी. माधवन नायर आदि लब्ध प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की सूची बहुत लम्बी है।
आधुनिक विज्ञान के विकास में योग देने वाली संस्थाएँ हैं विश्वविद्यालय, वैज्ञानिक - प्रौद्योगिकी विद्यालय, वैज्ञानिक अनुसंधान प्रतिष्ठान आदि। 'केरल शास्त्र साहित्य परिषद' जैसी वैज्ञानिक संस्थाएँ भी जनता में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक बनी हैं।
केरल के जिले
केरल में १४ जिले हैं:
कोषि़क्कोड जिला (कालीकट)
पालक्काड जिला (पालघाट)
तिरुवनन्तपुरम जिला (त्रिवेन्द्रम)
इन्हें भी देखें
केरल के लोकसभा सदस्य
केरल की सांस्कृतिक विरासत (गूगल पुस्तक ; कालीकट विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग)
केरल पर्यटन - यहाँ केरल के बारे में बहुत सारी जानकारी हिन्दी में दी गयी है।
केरल में पर्यटन - जागरण |
गुजरात (गुजराती:)() पश्चिमी भारत में स्थित एक राज्य है। इसकी उत्तरी-पश्चिमी सीमा जो अन्तर्राष्ट्रीय सीमा भी है, पाकिस्तान से लगी है। राजस्थान और मध्य प्रदेश इसके क्रमशः उत्तर एवं उत्तर-पूर्व में स्थित राज्य हैं। महाराष्ट्र इसके दक्षिण में है। अरब सागर इसकी पश्चिमी-दक्षिणी सीमा बनाता है। इसकी दक्षिणी सीमा पर दादर एवं नगर-हवेली हैं। इस राज्य की राजधानी गांधीनगर है। गांधीनगर, राज्य के प्रमुख व्यवसायिक केन्द्र अहमदाबाद के समीप स्थित है। गुजरात का क्षेत्रफल १,९६,०२४ किलोमीटर है।
भूतकाल में इसे गुर्जरत्रा प्रदेश के नाम से जाना जाता था
गुजरात, भारत का एक राज्य है। कच्छ, सौराष्ट्र, काठियावाड, हालार, पांचाल, गोहिलवाड, झालावाड और गुजरात उसके प्रादेशिक सांस्कृतिक अंग हैं। इनकी लोक संस्कृति और साहित्य का अनुबन्ध राजस्थान, सिंध और पंजाब, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के साथ है। विशाल सागर तट वाले इस राज्य में इतिहास युग के आरम्भ होने से पूर्व ही अनेक विदेशी जातियाँ थल और समुद्र मार्ग से आकर स्थायी रूप से बसी हुई हैं। इसके उपरांत गुजरात में अट्ठाइस आदिवासी जातियां हैं। जन-समाज के ऐसे वैविध्य के कारण इस प्रदेश को भाँति-भाँति की लोक संस्कृतियों का लाभ मिला है।
गुजरात का इतिहास पाषाण युग के बस्तियों के साथ शुरू हुआ, इसके बाद चोलकोथिक और कांस्य युग के बस्तियों जैसे सिंधु घाटी सभ्यता। गुजरात का इतिहास ईसवी पूर्व लगभग २,००० वर्ष पुराना है। माना जाता है कि कृष्ण मथुरा छोड़कर सौराष्ट्र के पश्चिमी तट पर जा बसे, जो द्वारिका यानी प्रवेशद्वार कहलाया। बाद के वर्षो में मौर्य, गुप्त तथा अन्य अनेक राजवंशों ने इस प्रदेश पर राज किया। चालुक्य राजवंश का शासनकाल गुजरात में प्रगति और समृद्ध का युग था।
स्वतन्त्रता से पहले गुजरात का वर्तमान क्षेत्र मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त था- एक ब्रिटिश क्षेत्र और दूसरा देसी रियासतें। राज्यों के पुनर्गठन के कारण सौराष्ट्र के राज्यों और कच्छ के केन्द्र शासित प्रदेश के साथ पूर्व ब्रिटिश गुजरात को मिलाकर द्विभाषी बम्बई राज्य का गठन हुआ। १ मई १९६० को वर्तमान गुजरात राज्य अस्तित्व में आया। गुजरात भारत के पश्चिमी तट पर स्थित है। इसके पश्चिम में अरब सागर, उत्तर में पाकिस्तान तथा उत्तर-पूर्व में राजस्थान, दक्षिण-पूर्व में मध्यप्रदेश और दक्षिण में महाराष्ट्र है। राज्य का भौगोलिक क्षेत्रफल १,९६,०२४ वर्ग किमी है।
गुजरात के जिले
गुजरात कपास, तम्बाकू और मूँगफली का उत्पादन करने वाला देश का प्रमुख राज्य है तथा यह कपड़ा, तेल और साबुन जैसे महत्वपूर्ण उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराता है। यहाँ की अन्य महत्वपूर्ण नकदी फसलें हैं - इसबगोल, धान, गेहूँ और बाजरा। गुजरात के वनों में उपलबध वृक्षों की जातियाँ हैं-सागवान, खैर, हलदरियो, सादाद और बाँस।
राज्य में औद्योगिक ढाँचे में धीरे-धीरे विविधता आती जा रही है और यहाँ रसायन, पेट्रो-रसायन, उर्वरक, इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि उद्योगों का विकास हो रहा है। २००४ के अन्त में राज्य में पंजीकृत चालू फैक्टरियों की संख्या २१,५३६ (अस्थाई) थी जिनमें औसतन ९.२७ लाख दैनिक श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ था। मार्च, २००५ तक राज्य में २.९९ लाख लघु औद्योगिक इकाइयों का पंजीकरण हो चुका था। गुजरात औद्योगिक विकास निगम को ढाँचागत सुविधाओ के साथ औद्योगिक सम्पदाओं के विकास की भूमिका सौंपी गई है। दिसंबर, २००५ तक गुजरात औद्योगिक विकास निगम ने २३७ औद्योगिक सम्पदाएँ स्थापित की थी।
सिंचाई और बिजली
राज्य में भूतलीय जल तथा भूमिगत जल द्वारा कुल सिंचाई क्षमता ६४.४८ लाख हेक्टेयर आंकी गई है जिसमें सरदार सरोवर (नर्मदा) परियोजना की १७.९२ लाख हेक्टेयर क्षमता भी सम्मिलित है। राज्य में जून २००५ तक कुल सिंचाई क्षमता ४०.३४ लाख हेक्टेयर क्षमता भी सम्मिलित है। राज्य में जून २००७ तक कुल सिंचाई क्षमता ४२.२६ लाख हेक्टेयर तक पहुँच गई थी। जून २००७ तक अधिकतम उपयोग क्षमता ३७.३३ लाख हेक्टेयर आँकी गई।
२००५-०६ के अन्त में राज्य में सड़कों की कुल लम्बाई (गैर योजना, सामुदायिक, नगरीय और परियोजना सड़कों के अतिरिक्त) लगभग ७४,०३८ किलोमीटर थी।
राज्य के अहमदाबाद स्थित मुख्य हवाई अड्डे से मुम्बई, दिल्ली और अन्य नगरों के लिए दैनिक विमान सेवा उपलब्ध है। अहमदाबाद हवाई अड्डे को अब अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का दर्जा मिल गया हैं। अन्य हवाई अड्डे वड़ोदरा, भावनगर, भुज, सूरत, जामनगर, काण्डला, केशोद, पोरबन्दर और राजकोट में है।
गुजरात का सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशन वडोदरा जंक्शन है। यहाँ से हर रोज १५० से भी ज्यादा ट्रेन पसर होती है और भारत के लगभग हर एक कोने में जाने के लिए यहाँ से ट्रेन उपलब्ध होती है। वडोदरा के अलावा गुजरात के बड़े स्टेशनों में अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, भुज और भावनगर का समावेश होता है। गुजरात भारतीय रेल के पश्चिम रेलवे ज़ोन में पड़ता है।
गुजरात में कुल ४० बन्दरगाह हैं। काण्डला राज्य का प्रमुख बन्दरगाह है। वर्ष २००४-०५ के दौरान गुजरात के मंझोले और छोटे बन्दरगाहों से कुल ९७१.२८ लाख टन माल ढोया गया जबकि काण्डला बन्दरगाह से ४१५.५१ लाख टन माल ढोया गया।
भाद्रपद्र (अगस्त-सितंबर) मास के शुक्ल पक्ष में चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी के दिवस तरणेतर गांव में भगवान शिव की स्तुति में तरणेतर मेला लगता है। भगवान कृष्ण द्वारा रुक्मणी से विवाह के उपलक्ष्य में चैत्र (मार्च-अप्रैल) के शुक्ल पक्ष की नवमी को पोरबंदर के पास माधवपूर में माधावराय मेला लगता है। उत्तरी गुजरात के बनासकांठा जिले में हर वर्ष मां अंबा को समर्पित अंबा जी मेला आयेजित किया जाता हैं। राज्य का सबसे बड़ा वार्षिक मेला द्वारिका और डाकोर में भगवान कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी के अवसर पर बड़े हर्षोल्लास से आयोजित होता है। इसके अलावा गुजरात में मकर सक्रांति, नवरात्रि, डांगी दरबार, शामलाजी मेले तथा भावनाथ मेले का भी आयोजन किया जाता हैं।
राज्य में द्वारका, सोमनाथ, पालीताना, पावागढ़, अंबाजी भद्रेश्वर, शामलाजी,बगदाणा,वीरपुर,खेरालु (सूर्यमंदिर),मोढेरा (सूर्यमंदिर) तारंगा,निष्कलंक महादेव,राजपरा (भावनगर),बहुचराजी, और गिरनार जैसे धार्मिक स्थलों के अलावा महात्मा गांधी की जन्मभूमि पोरबंदर तथा पुरातत्व और वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय पाटन, सिद्धपुर, घुरनली, दभेई, बडनगर, मोधेरा, लोथल और अहमदाबाद जैसे स्थान भी हैं। अहमदपुर मांडवी, चारबाड़ उभारत और तीथल के सुंदर समुद्री तट, सतपुड़ा पर्वतीय स्थल, गिर वनों के शेरों का अभयारण्य और कच्छ में जंगली गधों का अभयारण्य भी पर्यटकों के आकर्षण का केद्र हैं। इसके अलावा गुजरात के स्थानीय व्यंजन के जायके भी गुजरात की खूबसूरती को और बढ़ाते है। गुजरात के पाटण में स्थित रानी की वाव यूनेस्को विश्व विरासत स्थल सूची में शामिल है।
राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल गुजरात के प्रशासन का प्रमुख होता है। मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडल राज्यपाल को उसके कामकाज में सहयोग और सलाह देता है। राज्य में एक निर्वाचित निकाय एकसदनात्मक विधानसभा है। उच्च न्यायालय राज्य की सर्वोपरि न्यायिक सत्ता है, जबकि नगर न्यायालय, ज़िला व सत्र न्यायाधीशों के न्यायालय और प्रत्येक ज़िले में दीवानी मामलों के न्यायाधीशों के न्यायालय हैं। राज्य को ३४ प्रशासनिक ज़िलों में बांटा गया है। अहमदाबाद, अमरेली, बनास कंठा, भरूच, भावनगर, डेंग, गाँधीनगर, खेड़ा, महेसाणा, पंचमहल, राजकोट, साबर कंठा, सूरत सुरेंद्रनगर, वडोदरा, महीसागर, वलसाड, नवसारी, नर्मदा, दोहद, आनंद, पाटन, जामनगर, पोरबंदर, जूनागढ़ और कच्छ, प्रत्येक ज़िले का राजस्व और सामान्य प्रशासन ज़िलाधीश की देखरेख में होता है, जो क़ानून और व्यवस्था भी बनाए रखता है। स्थानीय प्रशासन में आम लोगों को शामिल करने के लिए १९६३ में पंचायत द्वारा प्रशासन की शुरुआत की गई।
स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं में मलेरिया, तपेदिक, कुष्ठ और अन्य संक्रामक रोगों के उन्मूलन के साथ-साथ पेयजल की आपूर्ति में सुधार और खाद्य सामग्री में मिलावट को रोकने के कार्यक्रम शामिल हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, अस्पतालों और चिकित्सा महाविद्यालयों के विस्तार के लिए भी क़दम उठाए गए हैं।
बच्चों, महिलाओं और विकलांगों, वृद्ध, असहाय, परित्यक्त के साथ-साथ अपराधी भिखारी, अनाथ और जेल से छुटे लोगों की कल्याण आवश्यकताओं की देखरेख विभिन्न राजकीय संस्थाएं करती हैं। राज्य में तथाकथित पिछड़े वर्ग के लोगों की शिक्षा, आर्थिक विकास, स्वास्थ्य और आवास की देखरेख के लिए एक अलग विभाग है।
गुजराती जनसंख्या में विविध जातीय समूह का मोटे तौर पर इंडिक / भारतोद्भव (उत्तरी मूल) या द्रविड़ (दक्षिणी मूल) के रूप में वर्गीकरण किया जा सकता है। पहले वर्ग में नगर ब्राह्मण,राजपूत,दरबार,भरवाड़,आहिर,गढ़वी,रबारी, पाटीदारपटेल और कई जातियां (जबकि दक्षिणी मूल के लोगों में वाल्मीकि, कोली, डबला, नायकदा व मच्छि-खरवा जनजातिया हैं। शेष जनसंख्या में आदिवासी भील मिश्रित विशेषताएं दर्शाते हैं। अनुसूचित जनजाति और आदिवासी जनजाति के सदस्य प्रदेश की जनसंख्या का लगभग पाँचवां हिस्सा हैं। यहाँ डांग ज़िला पूर्णत: आदिवासी युक्त ज़िला है। अहमदाबाद ज़िले में अनुसूचित जनजाति का अनुपात सर्वाधिक है। गुजरात में जनसंख्या का मुख्य संकेंद्रण अहमदाबाद, खेड़ा, वडोदरा, सूरत और वल्सर के मैदानी क्षेत्र में देखा जा सकता है। यह क्षेत्र कृषि के दृष्टिकोण से उर्वर है और अत्यधिक औद्योगीकृत है। जनसंख्या का एक अन्य संकेंद्रण मंगरोल से महुवा तक और राजकोट एवं जामनगर के आसपास के हिस्सों सहित सौराष्ट्र के दक्षिणी तटीय क्षेत्रों में देखा जा सकता है। जनसंख्या का वितरण उत्तर (कच्छ) और पूर्वी पर्वतीय क्षेत्रों की ओर क्रमश कम होता जाता है। जनसंख्या का औसत घनत्व २५८ व्यक्ति प्रति वर्ग किमी (२००१) है और दशकीय वृद्धि दर २००१ में २२.४८ प्रतिशत पाई गई।
६०० या इससे ज़्यादा जनसंख्या वाले लगभग सभी गाँवों में सात से ग्यारह वर्ष के सभी बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशालाएँ खोली जा चुकी हैं। आदिवासी बच्चों को कला और शिल्प की शिक्षा देने के लिए विशेष विद्यालय चलाए जाते हैं। यहाँ अनेक माध्यमिक और उच्चतर विद्यालयों के साथ-साथ नौ विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा के लिए बड़ी संख्या में शिक्षण संस्थान हैं। अभियांत्रिकी महाविद्यालयों और तकनीकी विद्यालयों द्वारा तकनीकी शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है। शोध संस्थानों में अहमदाबाद में फ़िज़िकल रिसर्च लेबोरेटरी अहमदाबाद टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज़ रिसर्च एशोसिएशन, सेठ भोलाभाई जेसिंगभाई इंस्टिट्यूट ऑफ़ लर्निंग ऐंड रिसर्च, द इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, द नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन और द सरदार पटेल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इकोनॉमिक ऐंड सोशल रिसर्च, वडोदरा में ओरिएंटल इंस्टिट्यूट तथा भावनगर में सेंट्रल साल्ट ऐंड मॅरीन केमिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट एवम वङोदरा में देश की पहली रेलवे यूनिवर्सिटी शामिल हैं।
गुजराती और हिन्दी राज्य की अधिकृत भाषाएं हैं। दोनों में गुजराती का ज़्यादा व्यापक इस्तेमाल होता है, जो संस्कृत के अलावा प्राचीन भारतीय मूल भाषा प्राकृत और १० वीं शताब्दी के बीच उत्तरी और पश्चिमी भारत में बोली जाने वाली अपभ्रंश भाषा से व्युत्पन्न एक भारतीय-आर्य भाषा है। समुद्र मार्ग से गुजरात के विदेशों से संपर्क ने फ़ारसी, अरबी, तुर्की, पुर्तग़ाली और अंग्रेज़ी शब्दों से इसका परिचय करवाया। गुजराती में महात्मा गांधी की विलक्षण रचनाएं अपनी सादगी और ऊर्जस्विता के लिए प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं ने आधुनिक गुजराती गद्य पर ज़बरदस्त प्रभाव डाला है। गुजरात में राजभाषा गुजराती भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी का प्रचलन है। गुजराती भाषा नवीन भारतीयआर्य भाषाओं के दक्षिणपश्चिमी समूह से सम्बन्धित है। इतालवी विद्वान तेस्सितोरी ने प्राचीन गुजराती को प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी भी कहा, क्योंकि उनके काल में इस भाषा का उपयोग उस क्षेत्र में भी होता था, जिसे अब राजस्थान राज्य कहा जाता है।
गुजरात में अधिकांश जनसंख्या हिन्दू धर्म को मानती है, जबकि कुछ संख्या इस्लाम, जैन और पारसी धर्म मानने वालों की भी है।
गुजरात की अधिकांश लोक संस्कृति और लोकगीत हिन्दू धार्मिक साहित्य पुराण में वर्णित भगवान कृष्ण से जुड़ी किंवदंतियों से प्रतिबिंबित होती है। कृष्ण के सम्मान में किया जाने वाला रासनृत्य और रासलीला प्रसिद्ध लोकनृत्य "गरबा" के रूप में अब भी प्रचलित है। यह नृत्य देवी दुर्गा के नवरात्री पर्व में किया जाता है। एक लोक नाट्य भवई भी अभी अस्तित्व में है।
गुजरात में शैववाद के साथ-साथ वैष्णववाद भी लंबे समय से फलता-फूलता रहा है, जिनसे भक्ति मत का उद्भव हुआ। प्रमुख संतों, कवियों और संगीतज्ञों में १५वीं सदी में पदों के रचयिता नरसी मेहता, अपने महल को त्यागने वाली १६वीं सदी की राजपूत राजकुमारी व भजनों की रचनाकार मीराबाई, १८वीं सदी के कवि और लेखक प्रेमानंद और भक्ति मत को लोकप्रिय बनाने वाले गीतकार दयाराम शामिल हैं। भारत में अन्य जगहों की तुलना में अहिंसा और शाकाहार की विशिष्टता वाले जैन धर्म ने गुजरात में गहरी जड़े जमाई। ज़रथुस्त्र के अनुयायी पारसी १७वीं सदी के बाद किसी समय फ़ारस से भागकर सबसे पहले गुजरात के तट पर ही बसे थे।
इस समुदाय के अधिकांश लोग बाद में बंबई (वर्तमान मुंबई) चले गए। श्रीकृष्ण, दयानन्द सरस्वती, मोहनदास गांधी, सरदार पटेल तथा सुप्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी रणजी जैसे व्यक्तित्व ने प्रदेश के समाज को गौरवांवित किया। गुजरात की संस्कृति में मुख्यत: शीशे का काम तथा 'गरबा' एवं 'रास' नृत्य पूरे भारत में प्रसिद्ध है। प्रदेश का सर्वप्रमुख लोक नृत्य गरबा तथा डांडिया है। गरबा नृत्य में स्त्रियाँ सिर पर छिद्रयुक्त पात्र लेकर नृत्य करती हैं, जिस के भीतर दीप जलता है। डांडिया में अक्सर पुरुष भाग लेते हैं परंतु कभी-कभी स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर करते हैं। प्रदेश के रहन-सहन और पहनावे पर राजस्थान का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रदेश का भवई लोकनाट्य लोकप्रिय है। स्थापत्य शिल्प की दृष्टि से प्रदेश समृद्ध है। इस दृष्टि से रुद्र महालय, सिद्धपुर, मातृमूर्ति पावागढ़, शिल्पगौरव गलतेश्वर, द्वारिकानाथ का मंदिर, शत्रुंजय पालीताना के जैन मंदिर, सीदी सैयद मस्जिद की जालियाँ, पाटन की काष्ठकला इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। हिन्दी में जो स्थान सूरदास का है गुजराती में वही स्थान नरसी मेहता का है।
त्योहार और मेले
भारत के पश्चिमी भाग में बसा समृद्धशाली राज्य गुजरात अपने त्योहारों और सांस्कृतिक उत्सवों के लिये विश्व प्रसिद्ध है।भाद्रपद्र (अगस्त-सितंबर) मास के शुक्ल पक्ष में चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी के दिवस तरणेतर गांव में भगवान शिव की स्तुति में तरणेतर मेला लगता है।भगवान कृष्ण द्वारा रुक्मणी से विवाह के उपलक्ष्य में चैत्र (मार्च-अप्रैल) के शुक्ल पक्ष की नवमी को पोरबंदर के पास माधवपुर में माधवराय मेला लगता है।उत्तरी गुजरात के बांसकांठा ज़िले में हर वर्ष मां अंबा को समर्पित अंबा जी मेला आयोजित किया जाता हैं।राज्य का सबसे बड़ा वार्षिक मेला द्वारका और डाकोर में भगवान कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी के अवसर पर बड़े हर्षोल्लास से आयोजित होता है। इसके अतिरिक्त गुजरात में मकरसंक्राति,नवरात्री, डांगी दरबार, शामला जी मेले तथा भावनाथ मेले का भी आयोजन किया जाता हैं।
गुजरात की वास्तुकला शैली अपनी पूर्णता और अलंकारिकता के लिए विख्यात है, जो सोमनाथ, द्वारका, मोधेरा, थान, घुमली, गिरनार जैसे मंदिरों और स्मारकों में संरक्षित है। मुस्लिम शासन के दौरान एक अलग ही तरीक़े की भारतीय-इस्लामी शैली विकसित हुई। गुजरात अपनी कला व शिल्प की वस्तुओं के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें जामनगर की बांधनी (बंधाई और रंगाई की तकनीक), पाटन का उत्कृष्ट रेशमी वस्त्र पटोला, इदर के खिलौने, पालनपुर का इत्र कोनोदर का हस्तशिल्प का काम और अहमदाबाद व सूरत के लघु मंदिरों का काष्ठशिल्प तथा पौराणिक मूर्तियाँ शामिल हैं। राज्य के सर्वाधिक स्थायी और प्रभावशाली सांस्कृतिक संस्थानों में महाजन के रूप में प्रसिद्ध व्यापार और कला शिल्प संघ है। अक्सर जाति विशेष में अंतर्गठित और स्वायत्त इन संघों ने अतीत कई विवादों को सुलझाया है और लोकहित के माध्यम की भूमिका निभाते हुए कला व संस्कृति को प्रोत्साहन दिया है।
गुजरात राज्य में की जाने वाली वास्तु शिल्पीय नक़्क़ाशी कम से कम १५वीं शताब्दी से गुजरात भारत में लकड़ी की नक़्क़ाशी का मुख्य केंद्र रहा है। निर्माण सामग्री के रूप में जिस समय पत्थर का इस्तेमाल अधिक सुविधाजनक और विश्वसनीय था, इस समय भी गुजरात के लोगों ने मंदिरों के मंडप तथा आवासीय भवनों के अग्रभागों, द्वारों, स्तंभों, झरोखों, दीवारगीरों और जालीदार खिड़कियों के निर्माण में निर्माण में बेझिझक लकड़ी का प्रयोग जारी रखा। मुग़ल काल (१५5६-१७०७) के दौरान गुजरात की लकड़ी नक़्क़ाशी में देशी एवं मुग़ल शैलियों का सुंदर संयोजन दिखाई देता है। १६वीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं १७वीं सदी के जैन काष्ठ मंडपों पर जैन पौराणिक कथाएँ एवं समकालीन जीवन के दृश्य तथा काल्पनिक बेल-बूटे, पशु-पक्षी एवं ज्यामितीय आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं; आकृति मूर्तिकला अत्यंत जीवंत एवं लयात्मक है। लकड़ी पर गाढ़े लाल रौग़न का प्रयोग आम था। १९वीं सदी के कई भव्य काष्ठ पुरोभाग संरक्षित हैं, लेकिन उनका अलंकरण पहले की निर्मितियों जैसा ललित और गत्यात्मक नहीं है। गुजरात (/ ड्र्ट / गुजर्ट [उड़ () एट] (इस ध्वनि के बारे में सुनो) पश्चिमी भारत में एक राज्य है, इसका क्षेत्र १,६,०२४ किमी २ (७५,६85 वर्ग मील) है जिसमें १,६०० किलोमीटर (९ ९ ० ९ मील), जिनमें से अधिकांश काठियावाड़ प्रायद्वीप पर स्थित है, और ६० मिलियन से अधिक की आबादी है राज्य को राजस्थान से उत्तर की ओर, दक्षिण में महाराष्ट्र, पूर्व में मध्य प्रदेश, और अरब सागर और पश्चिम में सिंध के पाकिस्तानी प्रांत में सीमाएं हैं। इसकी राजधानी गांधीनगर है, जबकि इसका सबसे बड़ा नगर अहमदाबाद है। गुजरात भारत के गुजराती भाषण वाले लोगों का घर है।
राज्य में प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता की कुछ साइटें शामिल हैं, जैसे लोथल और ढोलवीरा लोथल को दुनिया के पहले बंदरगाहों में से एक माना जाता है। गुजरात के तटीय नगरो, मुख्यतः भरूच और खंभात, मोरिया और गुप्त साम्राज्यों में बंदरगाहों और व्यापार केंद्रों के रूप में कार्य करते थे, और पश्चिमी सतराप काल से शाही शक राजवंशों के उत्तराधिकार के दौरान।
गुजरात प्राचीन यूनानियों के लिए जाना जाता था, और यूरोपीय मध्य युग के अंत के माध्यम से सभ्यता के अन्य पश्चिमी केंद्रों में परिचित था। गुजरात के २,००० साल के समुद्री इतिहास का सबसे पुराना लिखित रिकार्ड एक ग्रीक किताब में प्रकाशित किया गया है जिसका नाम पेरिप्लस ऑफ द इरिथ्रेअन सी: ट्रैवल एंड ट्रेड इन हिंद ओन्सन ऑफ द मर्चेंट ऑफ द फर्स्ट सेंचुरी है।
प्राचीन लोथल की ढक्कन आज की तरह है
ढोलवीरा में प्राचीन जल भंडार गुजरात सिंधु घाटी सभ्यता के मुख्य केंद्रों में से एक था। इसमें सिंधु घाटी से प्राचीन महानगरीय नगरो जैसे लोथल, धौलावीरा और गोला धोरो शामिल हैं। लोथल प्राचीन नगर था जहां भारत का पहला बंदरगाह स्थापित किया गया था। प्राचीन नगर ढोलवीरा, सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित भारत की सबसे बड़ी और सबसे प्रमुख पुरातात्विक स्थलों में से एक है। सबसे हालिया खोज गोला धोरो थी। कुल मिलाकर, लगभग ५० सिंधु घाटी स्थितियों के खंडहर गुजरात में खोजे गये है।
गुजरात के प्राचीन इतिहास को इसके निवासियों की वाणिज्यिक गतिविधियों से समृद्ध किया गया था। १००० से ७५० ईसा पूर्व के समय के दौरान फारस की खाड़ी में मिस्र, बहरीन और सुमेर के साथ व्यापार और वाणिज्य संबंधों का स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण है। मौर्या राजवंश, पश्चिमी सतराप, सातवाहन राजवंश, गुप्त साम्राज्य, चालुक्य वंश, राष्ट्रकूट साम्राज्य, पाल साम्राज्य के साथ-साथ स्थानीय राजवंशों जैसे मैत्रकस और फिर हिंदू और बौद्ध राज्यों का उत्तराधिकार था।
गुजरात के शुरुआती इतिहास में चंद्रगुप्त मौर्य की शाही भव्यता को दर्शाया गया है, जिसने पहले के कई राज्यों पर विजय प्राप्त की जो अब गुजरात है। पुष्यगुप्त, एक वैश्य, को मौर्य शासन द्वारा सौराष्ट्र के राज्यपाल नियुक्त किया गया था। उन्होंने गिरिंगर (आधुनिक दिवस जूनागढ़) (३२२ ईसा पूर्व से २ ९ ४ ईसा पूर्व) पर शासन किया और सुदर्शन झील पर एक बांध बनाया। चंद्रगुप्त मौर्य के पोते सम्राट अशोक ने केवल जूनागढ़ में चट्टान पर अपने पदों के उत्कीर्णन का आदेश नहीं दिया, बल्कि राज्यपाल टुशेरफा को झील से नहरों में कटौती करने के लिए कहा, जहां पहले मौर्य राज्यपाल ने बांध बांध दिया था। मौर्य शक्ति की कमी और उज्जैन के सम्प्रति मौर्यों के प्रभाव में सौराष्ट्र आने के बीच, डेमेट्रीयूस के नेतृत्व में गुजरात में एक इंडो-ग्रीक आक्रमण हुआ। १ शताब्दी ईस्वी के पहले छमाही में, गुजरात गोंडफेयर के एक व्यापारी की कहानी है जो गुजरात में उत्तराधिकारी थॉमस के साथ उतरती है। शेर की हत्या कर रहे कप वाहक की घटना से संकेत हो सकता है कि बंदरगाह नगर का वर्णन गुजरात में है।
१ सदी ईस्वी की शुरुआत से लगभग ३०० वर्षों तक, गुजरात शासकों ने गुजरात के इतिहास में एक प्रमुख भूमिका निभाई। जूनागढ़ में मौसम से पीटा हुआ चट्टान शाकाहारी रूद्राद्रमैन ई (१00 एडी) की सैकड़ों सैक्रापों की एक झलक देता है जिन्हें पश्चिमी सतराप, या क्षत्रप कहा जाता है।
भील : भील भारत देश साथ साथ गुजरात की प्रमुख जनजातियों में से एक है। गुजरात के पूर्वा पट्टी के जिले में भील आदिवासी की संख्या अधिक मात्रा में है। गुजरात के बनासकांठा,साबरकांठा,अरवल्ली महिसागर,दाहोद,पंचमहाल,बड़ोदरा ग्रामीण,छोटाउदयपुर,नर्मदा,भरूच तापी,सूरत,नवसारी,डांग और वलसाड में भील की बस्ती है।
कोली : कोली और भील जनजाति इतिहास के कई युद्ध में एक साथ देखी ।
काठी दरबार : काठी दरबार गुजरात की प्रमुख जातियों में से एक है।
राजपूत :राजपूत जाति गुजरात में पाई जाने वाले जातियों में से एक है।
रबारी :रबारी समाज मूल मालधारी है ये भेस,बकरी, भेड़, उट, चराते है। रबारी समाज मूल राजस्थान है ।
इन्हें भी देखें
गुजरात के लोकसभा सदस्य
रन ऑफ कच्छ
गुजरात सरकार का जालस्थल (गुजराती)
गुजरात पर्यटन का आधिकारिक जालस्थल
गुजरात का नल सरोवर है प्रवासी पक्षियों का स्वर्ग
गुजरात के प्रमुख नगरो के व्यंजन
गुजरात का प्रसिद्ध व्यंजन खमन ढोकला कैसे बनता हैं।
भारत के राज्य |
गोवा या गोआ (कोंकणी: गोंय), क्षेत्रफल के अनुसार से भारत का सबसे छोटा और जनसंख्या के अनुसार चौथा सबसे छोटा राज्य है। पूरी दुनिया में गोवा अपने सुन्दर समुद्र के किनारों और प्रसिद्ध स्थापत्य के लिये जाना जाता है। गोवा पहले पुर्तगाल का एक उपनिवेश था। पुर्तगालियों ने गोवा पर लगभग ४५० सालों तक शासन किया और १९ दिसंबर १९61 में यह भारतीय प्रशासन को सौंपा गया।
नाम का उद्भव
महाभारत में गोवा का उल्लेख गोपराष्ट्र यानि गोपालकों के देश के रूप में मिलता है। दक्षिण कोंकण क्षेत्र का उल्लेख गोवाराष्ट्र के रूप में पाया जाता है। संस्कृत के कुछ अन्य पुराने स्त्रोतों में गोवा को गोपकपुरी और गोपकपट्टन कहा गया है जिनका उल्लेख अन्य ग्रंथों के अलावा हरिवंशम और स्कंद पुराण में मिलता है। गोवा को बाद में कहीं कहीं गोअंचल भी कहा गया है। अन्य नामों में गोवे, गोवापुरी, गोपकापाटन औरगोमंत प्रमुख हैं। टोलेमी ने गोवा का उल्लेख वर्ष २०० के आस-पास गोउबा के रूप में किया है। अरब के मध्युगीन यात्रियों ने इस क्षेत्र को चंद्रपुर और चंदौर के नाम से इंगित किया है जो मुख्य रूप से एक तटीय शहर था। जिस स्थान का नाम पुर्तगाल के यात्रियों ने गोवा रखा वह आज का छोटा सा समुद्र तटीय शहर गोअ-वेल्हा है। बाद में उस पूरे क्षेत्र को गोवा कहा जाने लगा जिस पर पुर्तगालियों ने कब्जा किया।
जनश्रुति के अनुसार गोवा जिसमें कोंकण क्षेत्र भी शामिल है (और जिसका विस्तार गुजरात से केरल तक बताया जाता है) की रचना भगवान परशुराम ने की थी। कहा जाता है कि परशुराम ने एक यज्ञ के दौरान अपने बाणो की वर्षा से समुद्र को कई स्थानों पर पीछे धकेल दिया था और लोगों का कहना है कि इसी वजह से आज भी गोवा में बहुत से स्थानों का नाम वाणावली, वाणस्थली इत्यादि हैं। उत्तरी गोवा में हरमल के पास आज भूरे रंग के एक पर्वत को परशुराम के यज्ञ करने का स्थान माना जाता है।
गोवा के लंबे इतिहास की शुरुआत् तीसरी सदी इसा पूर्व से शुरू होता है जब यहाँ मौर्य वंश के शासन की स्थापना हुई थी। बाद में पहली सदी के शुरुआत में इस पर कोल्हापुर के सातवाहन वंश के शासकों का अधिकार स्थापित हुआ और फिर बादामी के चालुक्य शासकों ने इस पर वर्ष ५८० से ७५० तक राज किया। इसके बाद के सालों में इस पर कई अलग अलग शासकों ने अधिकार किया। वर्ष १३१२ में गोवा पहली बार दिल्ली सल्तनत के अधीन हुआ लेकिन उन्हें विजयनगर के शासक हरिहर प्रथम द्वार वहाँ से खदेड़ दिया गया। अगले सौ सालों तक विजयनगर के शासकों ने यहाँ शासन किया और १४६९ में गुलबर्ग के बहामी सुल्तान द्वारा फिर से दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बनाया गया। बहामी शासकों के पतन के बाद बीजापुर के आदिल शाह का यहाँ कब्जा हुआ जिसने गोअ-वेल्हा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
१५१० में, पुर्तगालियों ने एक स्थानीय सहयोगी, तिमैया की मदद से सत्तारूढ़ बीजापुर सुल्तान यूसुफ आदिल शाह को पराजित किया। उन्होंने वेल्हा गोवा में एक स्थायी राज्य की स्थापना की। यह गोवा में पुर्तगाली शासन का प्रारंभ था जो अगली साढ़े चार सदियों तक चला।
१८४३ में पुर्तगाली राजधानी को वेल्हा गोवा से पंजिम ले गए। मध्य १८ वीं शताब्दी तक, पुर्तगाली गोवा का वर्तमान राज्य सीमा के अधिकांश भाग तक विस्तार किया गया था।
भारत ने १९४७ में अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त की, भारत ने अनुरोध किया कि भारतीय उपमहाद्वीप में पुर्तगाली प्रदेशों को भारत को सौंप दिया जाए।किंतु पुर्तगाल ने अपने भारतीय परिक्षेत्रों की संप्रभुता पर बातचीत करना अस्वीकार कर दिया। पर १९ दिसंबर १९61 को, भारतीय सेना ने गोवा, दमन, दीव के भारतीय संघ में विलय के लिए ऑपरेशन विजय के साथ सैन्य संचालन किया और इसके परिणामस्वरूप गोवा, दमन और दीवभारत का एक केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना। ३० मई १९87 में केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित किया गया था, और गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बनाया गया। जबकि दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश ही रहे।
गोवा का क्षेत्रफल ३७०२ वर्ग किलोमीटर है। गोवा का अक्षांश और देशान्तर क्रमश: १४५३'५४" और ७३४०'३३" ए है। गोवा का समुद्र तट १३२ किलोमीटर लम्बा है।
गोआ भारत का सबसे छोटा राज्य है।
गोवा का प्रमुख उद्योग पर्यटन है। पर्यटन के आलावा गोवा में लौह खनिज भी विपुल मात्रा में पाया जाता है जो जापान तथा चीन जैसे देशों में निर्यात होता है। गोवा मतस्य (मछली) उद्योग के लिए भी जाना जाता है लेकिन यहाँ की मछली निर्यात नहीं की जाती बल्कि स्थानीय बाजारों में बेची जाती है। यहाँ का काजू सउदी अरब, ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय राष्ट्रों को निर्यात होता है। पर्यटन के वज़ह से बाकी उद्योग जो पर्यटन पर निर्भर करते है वो भी यहाँ पर जोर शोर से चालू हैं। गोवा में अभी तक सिर्फ़ एक ही विमानपत्तन है और दूसरा अभी बनने वाला है।
लोग और संस्कृति
गोवा करीब करीब ४५० साल तक पुर्तगाली शासन के अधीन रहा, इस कारण यहाँ यूरोपीय संस्कृति का प्रभाव बहुत महसूस होता है। गोवा की लगभग ६०% जनसंख्या हिंदू और लगभग २८% जनसंख्या ईसाई है। गोवा की एक खास बात यह है कि, यहाँ के ईसाई समाज में भी हिंदुओं जैसी जाति व्यवस्था पाई जाती है।
गोवा के दक्षिण भाग में ईसाई समाज का ज्यादा प्रभाव है लेकिन वहाँ के वास्तुशास्त्र में हिंदू प्रभाव दिखाई देता है। सबसे प्राचीन मन्दिर गोवा में दिखाई देते है। उत्तर गोवा में ईसाइ कम संख्या में हैं इसलिए वहाँ पुर्तगाली वास्तुकला के नमूने ज्यादा दिखाई देते है।
संस्कृति की दृष्टि से गोवा की संस्कृति काफी प्राचीन है। १००० साल पहले कहा जाता है कि गोवा "कोंकण काशी" के नाम से जाना जाता था। हालाँकि पुर्तगाली लोगों ने यहाँ के संस्कृति का नामोनिशान मिटाने के लिए बहुत प्रयास किए लेकिन यहाँ की मूल संस्कृति इतनी शक्तिशाली थी की वह ऐसा नहीं कर पाए।
गोवा की भाषा कोंकणी और लिपि देवनागरी है। हिन्दी का भी अधिकाधिक उपयोग होता है।
हवाई: डैबोलिम विमानक्षेत्र यहाँ का घरेलू हवाई अड्डा है जो देश के सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा है। अभी हाल के वर्षों में गोवा के लिये पणजी हवाई अड्डे से अंतर्राष्ट्रीय उड़ाने भी शुरू हुई हैं।
सड़क: गोवा मुम्बई, बंगलोर से काफी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है, इन शह्रों से गोवा के लिये सीधी लक्जरी बसें चलती हैं। इसके अलावा अन्य नजदीक के शहर भी आप सड़क द्वारा यहाँ से जा सकते हैं।
रेल: जबसे यहाँ कोंकण रेलवे की शुरुआत हुई है गोवा भारत के पूर्वी तटीय शहरों से जुड़ गया है। कोंकण रेलवे अपनी गति और अच्छी सेवा के लिये पूरे भारत में मशहूर है। इसके अलावा गोवा आने के लिये देश के किसी भी बड़े स्टेशन से आप वास्को द गामा के लिये सीधी रेलगाड़ी पकड़ सकते हैं।
टैक्सी बिना मीटर और मीटर वाली टैक्सियाँ यहाँ पर्यटकों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने का सबसे लोकप्रिय साधन है। बिना मीटर वाली टैक्सियों में यात्री पहले से भाड़े के बारे में तय करते हैं।
बस गोवा में ज्यादातर बसे प्राईवेट चालकों द्वारा चलाई जाती हैं। आम तौर पर बसों में काफी भीड़ होती है। गोवा सरकार द्वारा यहाँ कदम्ब बस सर्विस चलाई जाती है जिनमें धीरे चलनेवाली बसों से लेकर द्रुत सेवा की लंबी दूरी की बसें शामिल होती हैं।
वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही प्रकृति गोवा को कुछ ऐसा ही अलग, लेकिन अदभुत स्वरूप प्रदान करती है। यह स्थान शांतिप्रिय पर्यटकों और प्रकृति प्रेमियों को बहुत भाता है। गोवा एक छोटा-सा राज्य है। यहां छोटे-बड़े लगभग ४० समुद्री तट है। इनमें से कुछ समुद्र तट अंर्तराष्ट्रीय स्तर के हैं। इसी कारण गोवा की विश्व पर्यटन मानचित्र के पटल पर अपनी एक अलग पहचान है।
गोवा में पर्यटकों की भीड़ सबसे अधिक गर्मियों के महीनें में होती है। जब यह भीड़ समाप्त हो जाती है तब यहां शुरू होता है ऐसे सैलानियों के आने का सिलसिला जो यहां मानसून का लुत्फ उठाना चाहते हैं।
गोवा के मनभावन बीच की लंबी कतार में पणजी से १६ किलोमीटर दूर कलंगुट बीच, उसके पास बागा बीच, पणजी बीच के निकट मीरामार बीच, जुआरी नदी के मुहाने पर दोनापाउला बीच स्थित है। वहीं इसकी दूसरी दिशा में कोलवा बीच ऐसे ही सागरतटों में से है जहां मानसून के वक्त पर्यटक जरूर आना चाहेंगे। यही नहीं, अगर मौसम साथ दे तो बागाटोर बीच, अंजुना बीच, सिंकेरियन बीच, पालोलेम बीच जैसे अन्य सुंदर सागर तट भी देखे जा सकते हैं। गोवा के पवित्र मंदिर जिनसे श्री कामाक्षी, सप्तकेटेश्वर, श्री शांतादुर्ग, महालसा नारायणी, परनेम का भगवती मंदिर और महालक्ष्मी आदि दर्शनीय है। गोवा में किराए पर बाइक.
पणजी गोवा की राजधानी है। यहां के आधुनिक बाजार भी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। मांडवी नदी के तट पर बसे इस शहर में शाम के समय सैलानी रिवर क्रूज का आनन्द लेने पहुंचते हैं। मांडवी पर तैरते क्रूज पर संगीत एवं नृत्य के कार्यक्रम में गोवा की संस्कृति की एक झलक देखने को मिलती है।
गोवा के जिले
गोवा में दो जिले हैं -
उत्तर गोवा जिला
दक्षिण गोवा जिला
गोवा में सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल है। यहाँ कई लोकप्रिय फुटबाल क्लब हैं। इसके अलावा गोवा के बहुत से खिलाड़ी हाकी में भी दिलचस्पी रखते हैं। गोवा में अनेक समुद्रतट हैं . उन्मे से कुछ हैं बागा समुद्रतट, कलांगुते समुद्रतट, कोला समुद्रतट, इतियादी।
गोवा का इतिहास
गोवा मुक्ति संग्राम
भारत में पर्यटन |
चण्डीगढ़, (पंजाबी: ), भारत का एक संघ राज्यक्षेत्र है, जो दो भारतीय राज्यों, पंजाब और हरियाणा की राजधानी भी है। इसके नाम का अर्थ है चण्डी का किला। यह हिन्दू देवी दुर्गा के एक रूप चण्डिका या चण्डी के एक मन्दिर के कारण पड़ा है। यह मन्दिर आज भी शहर से कुछ दूर हरियाणा के पंचकुला जिले में स्थित है। इसे सिटी ब्यूटीफुल भी कहा जाता है। चण्डीगढ़ राजधानी क्षेत्र में मोहाली, पंचकुला और ज़ीरकपुर आते हैं, जिनकी २००१ की जनगणना के अनुसार जनसंख्या ११६५१११ (१ करोड़ १६ लाख) है। भारत की लोकसभा में प्रतिनिधित्व हेतु चण्डीगढ़ के लिए एक सीट आवण्टित है। वर्तमान सत्रहवीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी की श्रीमती किरण खेर यहाँ से संसद सदस्य हैं। २०२० ईसवी से पूर्व चण्डीगढ में सेक्टर १३ नाम से कोइ सेक्टर नहीं था क्योंकि चण्डीगढ़ शहर के शिल्पकार ली कार्बूजियर इस अंक को अशुभ मानते थे। किन्तु फ़रवरी २०२० में संघ राज्यक्षेत्र प्रशासन द्वारा नगर के ८ क्षेत्रों को क्षेत्रक १३ अधिसूचित किया गया।
इस शहर का नामकरण दुर्गा के एक रूप चण्डिका के कारण हुआ है और चंडी का मंदिर आज भी इस शहर की धार्मिक पहचान है। इस शहर के निर्माण में तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू की भी निजी रुचि रही है, जिन्होंने नए राष्ट्र के आधुनिक प्रगतिशील दृष्टिकोण के रूप में चण्डीगढ़ को देखते हुए इसे राष्ट्र के भविष्य में विश्वास का प्रतीक बताया था। चण्डीगढ़ को तत्कालीन भारत राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद द्वारा १९५३ ई० में किया गया था।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शहरी योजनाबद्धता और वास्तु-स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध यह शहर आधुनिक भारत का प्रथम योजनाबद्ध शहर है। चण्डीगढ़ के मुख्य वास्तुकार फ्रांसीसी वास्तुकार ली कार्बूजियर हैं, लेकिन शहर में पियरे जिएन्नरेट, मैथ्यु नोविकी एवं अल्बर्ट मेयर के बहुत से अद्भुत वास्तु नमूने देखे जा सकते हैं। शहर का भारत के समृद्ध राज्यों और संघ शसित प्रदेशों की सूची में अग्रणी नाम आता है, जिसकी प्रति व्यक्ति आय ९९,२६२ रु (वर्तमान मूल्य अनुसार) एवं स्थिर मूल्य अनुसार ७०,३६१ (२००६-०७) रु है।
ब्रिटिश भारत के विभाजन उपरांत १९४७ में पंजाब राज्य को भारत और पाकिस्तान में दो भागों में बाँट दिया गया था। इसके साथ ही राज्य की पुरानी राजधानी लाहौर पाकिस्तान के भाग में चली गयी थी। अब भारतीय पंजाब को एक नई राजधानी की आवश्यकता पड़ी। पूर्व स्थित शहरों को राजधानी बदलने में आने वाली बहुत सी कठिनाईयों के फलस्वरूप एक नये योजनाबद्ध राजधानी शहर की स्थापना का निश्चय किया गया तथा १९५२ में इस शहर की नींव रखी गई।
उस समय में भारत में चल रही बहुत सी नवीन शहर योजनाओं में चंडीगढ़ को प्राथमिकता मिली जिसका मुख्य कारण एक तो नगर की स्थिति और दूसरा कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु तथा राज्यपाल सर सी पी एन ( चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह ) का निजी रुचि का होना था । राष्ट्र के आधुनिक प्रगतिशील दृष्टिकोण के रूप में चंडीगढ़ को देखते हुए उन्होंने शहर को अतीत की परंपराओं से उन्मुक्त, राष्ट्र के भविष्य में विश्वास का प्रतीक बताया। शहर के बहुत से खाके व इमारतों की वास्तु रचना फ्रांस में जन्में स्विस वास्तुकार व नगर-नियोजक ली कार्बुज़िए ने १९५० के दशक में की थी। कार्बुज़िए भी असल में शहर के द्वितीय वास्तुकार थे, जिसका मूल मास्टर प्लान अमरीकी वास्तुकार-नियोजक अल्बर्ट मेयर ने तब बनाया था, जब वे पोलैंड में जन्मे वास्तुकार मैथ्यु नोविकी के संग कार्यरत थे। १९५० में नोविकी की असामयिक मृत्यु के चलते कार्बूजियर को परियोजना में स्थान मिला था।
१ नवंबर, १९६६ को पंजाब के हिन्दी-भाषी पूर्वी भाग को काटकर हरियाणा राज्य का गठन किया गया, जबकि पंजाबी-भाषी पश्चिमी भाग को वर्तमान पंजाब ही रहने दिया था। चंडीगढ़ शहर दोनों के बीच सीमा पर स्थित था, जिसे दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी के रूप में घोषित किया गया और साथ ही संघ शासित क्षेत्र भी घोषित किया गया था। १९५२ से १९६६ तक ये शहर मात्र पंजाब की राजधानी रहा था। अगस्त १९८५ में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच हुए समझौते के अनुसार, चंडीगढ़ को १९८६ में पंजाब में स्थानांतरित होना तय हुआ था। इसके साथ ही हरियाणा के लिए एक नई राजधानी का सृजन भी होना था, किन्तु कुछ प्रशासनिक कारणों के चलते इस स्थानांतरण में विलंब हुआ। इस विलंब के मुख्य कारणों में दक्षिणी पंजाब के कुछ हिन्दी-भाषी गाँवों को हरियाणा और पश्चिम हरियाणा के पंजाबी-भाषी गाँवों को पंजाब को देने का विवाद था।
१५ जुलाई २००७ को चण्डीगढ़ प्रथम भारतीय गैर-धूम्रपान क्षेत्र घोषित हुआ। सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषेध है और चण्डीगढ़ प्रशासन के नियमों के तहत दण्डनीय अपराध है। इसका बाद २ अक्टूबर २००८ को राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी के जन्म-दिवस पर शहर में पॉलीथीन की थैलियों के प्रयोग पर पूर्ण निषेध लागू हो गया।
नए चण्डीगढ़, चण्डीगढ़, के आसपास मुल्लानपुर गरीब्दास के शहर के पास स्थित एक नए समाधान की पंजाब की पहली 'स्मार्ट शहर के रूप में" डिज़ाइन किया गया है।
पहला इको सिटी के पंजाब गमदा, ग्रेटर मोहाली क्षेत्र के स्थानीय योजना प्राधिकरण मुल्लानपुर पहली पारिस्थितिकी & स्मार्ट सिटी पंजाब के रूप में घोषित किया था। मुल्लानपुर नए चण्डीगढ़ का हिस्सा होगा। नए चण्डीगढ़ के ३२ गांवों से बना हो जाएगा। इस शहर का पहला चरण पहले से ही घोषित किया गया है और भूमि अधिग्रहण और प्लॉट आवण्टन की प्रक्रिया शुरू की गई है। यह कई पार्कों और पर्यटन स्थल की मेजबानी करेगा। शहर के मास्टर प्लान सिंगापुर स्थित कम्पनी द्वारा जुरोंग अन्तर्राष्ट्रीय तैयार है। यह शहर मुख्य रूप से आवासीय शहर उच्च रहने के साथ के रूप में होगा। यह शहर सूचना प्रौद्योगिकी और अस्पतालों की तरह नॉनपोलूटिंग उद्योगों की मेजबानी करेगा।
प्रमुख खिलाड़ी गमदा, जो पहले से ही भूमि अधिग्रहण और प्लॉट आवंटन की प्रक्रिया शुरू कर दी है, इसके अलावा कई निजी खिलाड़ी हैं।
डीएलएफ एक १,००० एकड़ बस्ती ऊपर सेट करने के लिए योजना बना रहा है। कम्पनी पहले चरण के लिए ४०० एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है; दूसरे चरण के लिए अधिग्रहण शीघ्र ही शुरू हो जाएगा। यूनिटेक समूह और अल्टस अन्तरिक्ष बिल्डर्स भी आवासीय टाउनशिप विकसित कर रहे हैं। अन्य डेवलपर्स रिलायंस अनिल धीरूभाई अम्बानी समूह (अदाग), अंसल और रहेजस शामिल हैं।
चण्डीगढ़ (स्थानीय उच्चारण: [ती] (यह ध्वनि सुनने के बाद में) एक शहर और एक संघ भारत के राज्यक्षेत्र कि हरियाणा और पंजाब के भारतीय राज्यों की राजधानी के रूप में कार्य करता है। एक केंद्र शासित प्रदेश, के रूप में शहर सीधे केन्द्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होता है और या तो राज्य का हिस्सा नहीं है।
चंडीगढ़ पंजाब उत्तर, पश्चिम और दक्षिण के लिए, और हरियाणा राज्य के पूर्व करने के लिए राज्य द्वारा बॉर्डरड है। चंडीगढ़ चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र या ग्रेटर चंडीगढ़, चंडीगढ़, और शहर के पंचकुला (हरियाणा) में भी शामिल है जो का एक हिस्सा और खरार, कुराली, मोहाली, (पंजाब) में ज़िरकपुर का शहर माना जाता है। यह शिमला के दक्षिण पश्चिम के अमृतसर और सिर्फ ११६ मी (७२ मील) दक्षिण-पूर्व स्थित २६० किमी (१६२ मील) उत्तर न्यू दिल्ली, २२९ मी (१४३ मील) है।
चंडीगढ़ आजादी के बाद भारत में प्रारंभिक नियोजित शहरों में से एक था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वास्तुकला और शहरी डिजाइन के लिए जाना जाता है। ले कॉर्बुशियर, जो बदल से पहले की योजना बनाई गई स्विस-फ़्रांसीसी आर्किटेक्ट पोलिश वास्तुकार मेसीज नोविकी और अमेरिकी नियोजक अल्बर्ट मेयर द्वारा द्वारा शहर का मास्टर प्लान तैयार किया गया था। अधिकांश सरकारी इमारतों और शहर में आवास चंडीगढ़ राजधानी परियोजना ले कॉर्बुशियर, जेन आकर्षित और मैक्सवेल तलना द्वारा नेतृत्व टीम द्वारा डिजाइन किए गए थे। २०१५ में बीबीसी द्वारा प्रकाशित लेख चंडीगढ़ वास्तुकला, सांस्कृतिक विकास और आधुनिकीकरण के मामले में दुनिया के आदर्श शहरों में से एक के रूप में नाम।
चंडीगढ़ के कैपिटल परिसर यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत सम्मेलन के ४० वें सत्र में विश्व विरासत के रूप में की घोषणा की जुलाई २०१६ में इस्तांबुल में आयोजित किया गया था। यूनेस्को शिलालेख "ले कॉर्बुशियर आधुनिक आंदोलन करने के लिए एक उत्कृष्ट योगदान के वास्तु काम" के तहत था। कैपिटल परिसर इमारतें स्मारकों खुले हाथ के साथ साथ, शहीद स्मारक, गुणोत्तर हिल और टॉवर की छाया पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय, पंजाब और हरियाणा सचिवालय और पंजाब और हरियाणा विधानसभा शामिल हैं।
शहर देश में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय में से एक है। शहर एक राष्ट्रीय सरकार अध्ययन पर आधारित सबसे साफ भारत में से एक होने की सूचना दी थी। संघ शासित क्षेत्र भी मानव विकास सूचकांक के अनुसार भारतीय राज्यों की राजधानियां की सूची प्रमुख हैं। २०१५, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स, द्वारा एक सर्वेक्षण में चंडीगढ़ खुशी सूचकांक पर भारत में सबसे खुशी का शहर के रूप में रैंक। [१५] [१६] मेट्रोपोलिटन चंडीगढ़-मोहाली-पंचकूला की सामूहिक रूप से २ लाख से अधिक की जनसंख् या के साथ मिलाकर एक त्रि-शहर, रूपों।
२.१ प्रारंभिक इतिहास
२.२ आधुनिक इतिहास
३ भूगोल और पारिस्थितिकीय
३.३ पारिस्थितिकी तंत्र
ब्याज के ७ स्थानों
७.१ सुखना झील
७.२ रॉक गार्डन
७.३ रोज गार्डन
७.४ तोता पक्षी अभयारण्य चंडीगढ़
७.५ अवकाश घाटी
७.६ अन्य स्थलों
चंडीगढ़ से ११ उल्लेखनीय लोग
१३ यह भी देखें
१६ आगे पठन
१७ बाह्य लिंक
व्युत्पत्ति [संपादित करें]
नाम चंडीगढ़ चण्डी और गढ़ का एक सूटकेस है। चण्डी हिंदू देवी चण्डी, योद्धा देवी पार्वती का अवतार और गढ़ का मतलब है घर के लिए संदर्भित करता है। [१८] नाम चंडी मंदिर, एक प्राचीन मंदिर हिंदू देवी चण्डी, पंचकुला जिले में शहर के पास करने के लिए समर्पित से ली गई है। [१९]
"सिटी सुंदर" के लोगो कि उत्तरी अमेरिकी शहरी १८९० और १९००स के दौरान योजना में एक लोकप्रिय दर्शन था शहर सुंदर आंदोलन से निकला है। वास्तुकार अल्बर्ट मेयर, चंडीगढ़, के प्रारंभिक योजनाकार शहर सुंदर अवधारणाओं की अमेरिकी अस्वीकृति का कहना था और घोषणा की "हम एक सुंदर शहर बनाने के लिए चाहते हैं" [२०] वाक्यांश पर आधिकारिक प्रकाशनों में एक लोगो के रूप में १९७० के दशक में इस्तेमाल किया गया था, और अब है कैसे शहर ही का वर्णन करता है। [२१] [२२]
इतिहास [संपादित करें]
प्रारंभिक इतिहास [संपादित करें]
शहर के एक पूर्व ऐतिहासिक अतीत है। झील की उपस्थिति के कारण, क्षेत्र जीवाश्म अवशेष निशान जलीय पौधों और पशुओं, और उभयचर जीवन, जो कि पर्यावरण द्वारा समर्थित थे की एक विशाल विविधता के साथ है। यह पंजाब क्षेत्र का एक हिस्सा था के रूप में, यह कई नदियाँ कहाँ शुरू हुआ प्राचीन और आदिम मनुष्य के बसने के पास था। तो, लगभग ८००० साल पहले, क्षेत्र भी एक घर हड़प्पावासियों के लिए किया जा करने के लिए जाना जाता था। [२३]
१९०९ में ब्रिटिश पंजाब प्रांत का एक नक्शा। विभाजन के दौरान भारत रेडक्लिफ रेखा पर, पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में लाहौर, पंजाब प्रांत की राजधानी गिर गया। आवश्यकता है तो, भारत में पूर्वी पंजाब के लिए एक नई राजधानी चंडीगढ़ के विकास के लिए नेतृत्व किया।
चंडीगढ़ ड्रीम सिटी के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू था। भारत विभाजन के बाद १९४७ में, पंजाब के पूर्व ब्रिटिश प्रांत (ज्यादातर सिखों के बीच) विभाजित था भारत में पूर्वी पंजाब और पाकिस्तान में (अधिकतर मुस्लिम) पश्चिम पंजाब। भारतीय पंजाब लाहौर, जो विभाजन के दौरान पाकिस्तान का हिस्सा बन गया की जगह एक नई राजधानी की आवश्यकता है।
भूगोल तथा जलवायु
चंडीगढ़ हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला की तराई में भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। शहर का क्षेत्रफ़ल लगभग ४४ वर्गमील (११४कि॰मी॰) है। इसकी सीमाएं पूर्व में हरियाणा, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण में पंजाब (भारत) से लगती हैं। शहर के सही सही भूगोलीय निर्देशांक हैं। यहाँ समुद्र-सतह से औसत ऊँचाई ३२१ मी.(१०५३ फीट) है।
शहर के समीपस्थ जिलों में हरियाणा के अंबाला और पंचकुला तथा पंजाब के मोहाली, पटियाला और रोपड़ जिले हैं। इसके उत्तरी भाग से हिमाचल प्रदेश की सीमाएं अधिक दूर नहीं हैं। शहर की जलवायु उप-उष्णकटिबन्धीय महाद्वीपीय मानसून प्रकार की है; जिसमें ऊष्म ग्रीष्म काल, कुछ शीतल शीतकाल, अविश्वसनीय वर्षा और तापमान में बड़े अंतर (-१ से. सेओ ४१.२ से.) का अनुमान रहता है। शीतकाल में दिसम्बर व जनवरी के माह में कभी-कभार कोहरा हो सकता है। औसत वार्षिक वर्षा १११०.७ मि.मी होती है। शहर को कई बार पश्चिम से लौटते मानसून की शीतकालीन वर्षा का अनुभव भी मिलता है।
वसंत: वसंत ऋतु (मध्य-फरवरी से मध्य मार्च और फिर मध्य सितंबर से मध्य अक्टूबर तक) में मौसम सुहावना रहता है। अधिकतम तापमान १६ सेंटीग्रेड से २५ सेंटीग्रेड और न्यूनतम तापमान ९ सेंटीग्रेड से १८ सेंटीग्रेड के बीच रहता है।
पतझड़: ऑटम में (मध्य मार्च-अप्रैल), तापमान अधिकतम ३६ सेंटीग्रेड तक पहुंच सकता है। इस समय न्यूनतम तापमान १६ से २७ तक रहता है। वैसे न्यूनतम अंकित तापमान १३से. है।
ग्रीष्म: ग्रीष्म-काल में (मध्य मई से मध्य जून) तापमान ४६.५ सेंटीग्रेड (कदाचित) तक जा सकता है। सामान्यतः तापमान ३५ सेंटीग्रेड से ४० सेंटीग्रेड के बीच रहता है।
वर्षा: मानसून के दौरान (मध्य जून से मध्य सितंबर), शहर को मध्यम से भारी वर्षा मिलती है, जो कभी कभार भारी से अत्यधिक भारी भी हो सकती है (प्रायः अगस्त या सितंबर)। सामान्यतः आर्द्र मानसून वायु दक्षिण-पश्चिम/ दक्षिण-पूर्व से बहती है। शहर को भारी वर्षा दक्षिण वायु से मिलती है, किन्तु मानसून की वर्षा उत्तर-पश्चिम उआ उत्तर-पूर्व दिशा से आती है। मानसून काल में चंडीगढ़ में हुई एकदिवसीय अधिकतम वर्षा १९५.५मि.मी अंकित है।
शीतकाल: यहाँ जाड़े (नवंबर से मध्य मार्च) अच्छे ठंडे होते हैं और ये कई बार बहुत ठंडे भी हो सकते हैं। शीतकालीन औसत तापमान (अधिकतम) ७ सेंटीग्रेड से १५ सेंटीग्रेड एवं (न्यून) -२ सेंटीग्रेड से ५ सेंटीग्रेड तक हो सकता है। इस समय वर्षाएं कम ही होती हैं, किन्तु २-३ दिवसीय वर्षा संभव है, जो ओले और आंधी के संग पश्चिम से आ सकती है।
पादप और जन्तु
अधिकांश चण्डीगढ़ बरगद और यूकेलिप्टस के बगीचों से भरा हुआ है। अशोक, कैसिया, शहतूत व अन्य वृक्ष भी यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं। शहर को घेरे हुए बड़ा वन्य-क्षेत्र है जिसमें अनेक जन्तु व पादप प्रजातियां फलती-फूलती हैं। हिरण, साम्भर, कुत्ता, तोते, कढ़फोड़वे एवं मोर संरक्षित वनों में निवास करते हैं। सुखना झील में बत्तखों और गीज़ प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करते हैं, जो जापान और साईबेरिया क्षेत्रों से उड़कर जाड़ों में यहाँ आते हैं व झील की शोभा बढ़ाते हैं। शहर में एक शुक अभयारण्य भी है, जिसमें पक्षियों कि अनेक प्रजातियां देखने को मिलती हैं।
चंडीगढ़ प्रशासन संविधान की धारा २३९ के तहत नियुक्त किये गए प्रशासक के अधीन कार्यरत है। शहर का प्रशासनिक नियंत्रण भारत सरकार के गृह मंत्रालय के पास है। वर्तमान में पंजाब के राज्यपाल ही चंडीगढ़ के प्रशासक होते हैं। प्रशासक का सलाहकार एक अखिल भारतीय सेवाओं से नियुक्त अति-वरिष्ठ अधिकारी होता है। ये अधिकारी प्रशासक के बाद सर्वे-सर्वा होता है। इस अधिकारी का स्तर भारतीय प्रशासनिक सेवा में ए.जी.एम.यू कैडर का होता है।
उपायुक्त: भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी जो चंडीगढ़ के सामान्य प्रशासन की देखरेख करता है।
वन उपसंरक्षक: भारतीय वन सेवा का अधिकारी, जो वन्य प्रबंधन, पर्यावरण, वन्य-जीवन एवं प्रदूषण नियंत्रण के लिए उत्तरदायी होता है।
वरिष्ठ अधीक्षक (पुलिस): भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी, जो शहर में विधि एवं न्याय व्यवस्था बनाये रखने एवं संबंधित विषयों के लिए उत्तरदायी होता है।
उपरोक्त तीन अधिकारी अखिल भारतीय सेवाओं के ए.जी.एम.यू, हरियाणा या पंजाब कैडर से होते हैं।
२००१ की भारत की जनगणना के अनुसार, चंडीगढ़ की कुल जनसंख्या ९,००,६३५ है, जिसके अनुसार ७९०० व्यक्ति प्रति वर्ग कि॰मी॰ का घनत्व होता है। इसमें पुरुषों का भाग कुल जनसंख्या का ५६% और स्त्रियों का ४४% है। शहर का लिंग अनुपात ७७७ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष हैं, जो देश में न्यूनतम है। औसत साक्षरता दर ८१.९% है, जो राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर ६४.८ से अधिक है। इसमें पुरुष दर ८६.१% एवं स्त्री साक्षरता दर ७६.५% है। यहाँ की १२% जनसंख्या छः वर्ष से नीचे की है। मुख्य धर्मों में हिन्दू (७८.६%), सिख (१६.१%), इस्लाम (३.९%) एवं ईसाई (०.८% हैं।
चंडीगढ़ में रहने वाले हरियाणा व पंजाब के प्रवासी लोग भी बड़े प्रतिशत में हैं, जो यहाँ की व्यावसायिक रिक्तियों को भरने हेतु व धनोपार्जन में लगे हैं। ये लोग शहर के विभिन्न सरकारी विभागों व निजी व्यवसायों में कार्यरत हैं।
हिन्दी एवं पंजाबी चंडीगढ़ की बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएं हैं, हालाँकि आजकल अंग्रेज़ी भी प्रचलित होती जा रही है। अधिकांश आबादी हिंदी (७३%) बोलती है जबकि पंजाबी २३% बोली जाती है। तमिल-भाषी लोग तीसरा सबसे बड़ा समूह बनाते हैं। शहर के लोगों का एक छोटा भाग उर्दु भी बोलता है।
चंडीगढ़ सॉफ्टवेयर निर्यात वृद्धि
उद्यमी विकास केंद्र (एडक) एक जगह है जो चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा राजीव गांधी चंडीगढ़ टेक्नोलॉजी पार्क (र्गत्प) में चंडीगढ़ से सॉफ्टवेयर निर्यात के निर्यात को बढ़ाने और युवा पेशेवरों को अपनी उद्यमशीलता स्थापित करने में सहायता करने के लिए प्रदान की गई है। शेल स्पेस या स्पेस एन प्ले फैसिलिटीज इन द स्टेट ऑफ़ द आर्ट एनवायरनमेंट फ्रेंडली और एक इंटेलिजेंट बिल्डिंग।
इस परियोजना की कल्पना आईटी सॉफ्टवेयर निर्यात कंपनियों के लिए एक पारगमन बिंदु के रूप में की गई है, जो पार्क में आने के लिए तैयार हैं, लेकिन अभी तक उनकी खुद की पूरी तरह से विकसित इमारत नहीं है, या उनके द्वारा निर्मित स्वीट प्लॉट का निर्माण अभी तक नहीं हुआ है। इसके पास आईटी विभाग के प्रशासनिक कार्यालय भी होंगे जो आसपास के क्षेत्रों में आईटी कंपनियों के लिए अधिक सुलभ और सुलभ होंगे।
यह परियोजना आंशिक रूप से निर्यात अवसंरचना और संबद्ध गतिविधियों (आसाइड) योजना के लिए राज्यों को सहायता के माध्यम से भारत सरकार द्वारा वित्त पोषित की जाएगी, जो निर्यात से संबंधित परियोजनाओं के लिए है।
एडक कला भवन का एक राज्य होगा जहां छोटे और मध्यम आकार की आईटी कंपनियां सॉफ्टवेयर विकास, आरएंडडी और अन्य उच्च मूल्य सेवाओं के लिए निर्मित स्थान पर कब्जा कर लेंगी, जो निर्यात उद्देश्यों के लिए होगा। यह केंद्र उन सभी युवा आईटी उद्यमियों के लिए ऊष्मायन सुविधाएं भी प्रदान करेगा, जिन्हें प्लग एन प्ले सुविधाएं दी जाएंगी। ईडीसी परियोजना, पीईसी, सेक्टर १२, चंडीगढ़ में स्थित एसपीआईसी इनक्यूबेशन सेंटर की तर्ज पर होगी जहां पहले से ही छोटी आईटी कंपनियां उपलब्ध कराई गई हैं।
सॉफ्टवेयर निर्यात के लिए एसटीपीआई द्वारा एक इंटरनेट बैंडविड्थ कनेक्टिविटी और पहले से ही एसपीआईसी केंद्र रु। में सॉफ्टवेयर निर्यात में योगदान दे रहा है। ५ करोड़ प्रति वर्ष। इस सेगमेंट में बहुत बड़ी संभावनाएं थीं और विकास में तेजी आ सकती है, बशर्ते इस केंद्र की स्थापना से ऐसी सुविधा का निर्माण हो, क्योंकि मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर था।
यह अनुमान लगाया जाता है कि एडक परियोजना एक बड़ा सॉफ्टवेयर निर्यात केंद्र बन जाएगा, इसके अलावा युवा उद्यमियों के लिए रेडीमेड स्थान प्रदान करने के अलावा जिनके पास उज्ज्वल विचार हैं, लेकिन बुनियादी ढाँचा बनाने के लिए पूंजी नहीं है। राजीव गांधी चंडीगढ़ प्रौद्योगिकी पार्क में ईडीसी की स्थापना के साथ, शहर को निर्यात के लिए बेहतर बुनियादी ढांचे के संचयी प्रभाव और रोजगार पर अर्थव्यवस्था में वृद्धि के निर्यात के प्रभाव और सभी समृद्धि पर लाभ होगा।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:
परियोजना निदेशक -सीएम- निदेशक आईटी
५ वीं मंजिल, अतिरिक्त डीलक्स बिल्डिंग,
तेल : +९१ १७२ २७४०६४१
फैक्स: +९१ १७२ २७४०००५
शहर से सॉफ्टवेयर और आईटी सेवाओं का निर्यात बढ़कर रु। राजीव गांधी चंडीगढ़ टेक्नोलॉजी पार्क (र्गत्प) के विकास के साथ अगले तीन वर्षों के भीतर १००० करोड़।
एक आधिकारिक प्रवक्ता ने आज यहां कहा, "चूंकि आरजीसीटीपी का विकास पूरी तरह से हो रहा है और आने वाले वर्षों में प्रशासन की सभी बड़ी पहलें हो रही हैं, इसलिए अकेले चंडीगढ़ से सॉफ्टवेयर निर्यात १००० करोड़ रुपये के पार पहुंचने की उम्मीद है।"
चंडीगढ़ की सॉफ्टवेयर कंपनियां इस वित्तीय वर्ष में तेजी से बढ़ेंगी
एक नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकॉम) ने अपने वार्षिक शिखर सम्मेलन में पूरे देश में सूचना और प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लिए अच्छी खबरें भेजीं। चंडीगढ़ में भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां वित्तीय वर्ष से मार्च २०१९ तक सॉफ्टवेयर सेवाओं के बढ़ते निर्यात का श्रेय ७-९ प्रतिशत की राजस्व वृद्धि देखेंगी। सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात में अधिक वृद्धि देखी जाएगी क्योंकि उद्योग देश के आईटी क्षेत्र के साथ-साथ अन्य उद्योगों की मांग में बढ़ रहा है जो इन्फो-टेक सेवाएं चाहते हैं।
जिसे घोंघा विकास वर्ष कहा जा रहा है, पिछले साल इस क्षेत्र की वास्तविकता थी। यह सर्वर रखरखाव से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मैनेजमेंट की विस्तृत अनुमानित पारी का परिणाम है।
चंडीगढ़ में, उद्योग में अपने नौसिखिए के कारण, सॉफ्टवेयर कंपनियों का विकास तेजी से देखा जाता है।
पिछले वर्ष के स्लग कार्यों के बाद, तेज को बहुत अधिक उत्साह की आवश्यकता है, यहां तक कि भविष्यवाणी भी। ऐसा इसलिए हो सकता है कि अर्थव्यवस्था के समग्र मंदी के कारण बाद के आधे हिस्से में आर्थिक नीतियों को श्रेय दिया जाता है, न कि कई ओलों को। फिर भी, ये नीतियां कई व्यवसायों के लिए एक सकारात्मक परिणाम दिखाना शुरू कर रही हैं जो आईटी सेवाओं की मांग कर रहे हैं। खैर, क्या यह हमारे लिए बहुत अच्छी खबर नहीं है? आप जानते हैं, सॉफ्टवेयर विकास भी २०१७ का सबसे पसंदीदा काम है और इस पर सबसे अधिक भुगतान किया जाता है। इसका मतलब है कि, अधिक व्यवसाय ऑनलाइन होंगे, और अधिक सॉफ्टवेयर कंपनियों को चंडीगढ़ में बुलाया जाएगा।
क्या आप जानना चाहते हैं कि चंडीगढ़ में सॉफ्टवेयर कंपनियां क्यों गुस्से में हैं? यहाँ क्यों है:
१. सॉफ्टवेयर विश्व खा रहा है- यह प्रसिद्ध मार्क एंथनी बोली जो आज के डिजिटल युग में सच है। अब-एक दिन, हर चीज के लिए एक आवेदन है - क्या यह एक सवारी बुक करना, नौकरी ढूंढना, शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के लिए आवेदन करना या अधिक है। यह वही है जो दुनिया को आज चाहिए, और ऐसी सॉफ्टवेयर कंपनियां हैं जो यह सब शानदार ढंग से पेश करती हैं। चंडीगढ़ में ही सॉफ्टवेयर कंपनियां उन सेवाओं के पैकेज में काम करती हैं, जो न केवल विकास तक सीमित हैं, बल्कि रखरखाव और वितरण तक जाती हैं। यह राष्ट्र का डिजिटलीकरण है कि आईटी क्षेत्र का शाब्दिक रूप से आनन्द हो रहा है।
२. तकनीकीता हर किसी के लिए चाय नहीं है- दुनिया तकनीकी नवाचारों पर आगे बढ़ रही है जो आगे आते रहते हैं। लेकिन, सभी के लिए इन नवाचारों को डिकोड करना और बहुस्तरीय उद्देश्यों के लिए इसका उपयोग करना संभव नहीं है। एक कुशल सॉफ्टवेयर डेवलपर तकनीकी प्रगति से लाभ की कुंजी है। इस क्षेत्र में एक पेशे के रूप में लोगों की दिलचस्पी बढ़ रही है। हालांकि सर्वश्रेष्ठ डिजाइनरों को ढूंढना सुनिश्चित करें जो आपके व्यवसाय के विचार को एक सफल उत्पाद में बदल सकते हैं।
३. इंटरनेट की तेजी- वायरलेस सेवाओं के साथ तेज़ और उच्च बैंडविड्थ नेटवर्क हमारे जीवन का एक बड़ा हिस्सा बन चुके हैं। बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में २४ बिलियन से अधिक आईटी डिवाइस लगाए जाएंगे और यही कारण है कि सॉफ्टवेयर कंपनियों की बढ़ती मांग के लिए पर्याप्त है। भारत, आईटी क्षेत्र में तेजी से विकास कर रहा देश, चंडीगढ़ में सॉफ्टवेयर कंपनियों की मांग की विस्फोटक वृद्धि का अनुभव करेगा।
४. जीत के लिए डेटा सेंटर- तेजी से उभरती टेक्नोलॉजी की दुनिया में, डेटा सेंटर डार्क हॉर्स हैं। वे डेटा एनालिटिक्स, डेटा इंजीनियरिंग और डेटा साइंस सहित एक प्रमुख विकास क्षेत्र हैं। क्यों? क्योंकि इंटरनेट या ऑफलाइन पर जो कुछ भी हो रहा है, वह डेटा है और हर कंपनी को शोधकर्ताओं, एनालिटिक्स, इंजीनियरों और वैज्ञानिकों की आवश्यकता होती है, जो दिन के समय टेराबाइट्स और पेटाबाइट्स के माध्यम से झारना कर सकते हैं। यह सब उपभोक्ता संबंधी सेवाओं और उत्पादों को बढ़ाने के लिए।
५. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भविष्य है- जहां आज डेटा सेंटर और वायरलेस नेटवर्क सत्तारूढ़ हैं, निकट भविष्य में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बैठेगा। यह पारंपरिक स्वचालन समाधानों के विपरीत काम करता है क्योंकि यह श्रम और पूंजी वृद्धि के साथ बुद्धिमान स्वचालन शक्ति प्रदान करता है।
चंडीगढ़ में सॉफ्टवेयर कंपनियां एक भेदी विकास देख रही हैं, जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए सूचना और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में योगदान देगा।
चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र से सॉफ्टवेयर निर्यात, जिसमें चंडीगढ़, पंचकूला और मोहाली शामिल हैं, ने पिछले वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले चालू वित्त वर्ष (२००८-०९) के पहले छह महीनों (अप्रैल-सितंबर) में मामूली वृद्धि दर्ज की है।
आंकड़ों के अनुसार, २००८-०९ के पहले छह महीनों में सॉफ्टवेयर निर्यात ३२२.३५ करोड़ रुपये था, जबकि एक साल पहले इसी अवधि में यह ३२१.४७ करोड़ रुपये था।
उद्यमियों का विचार है कि सटीक तस्वीर चालू वित्त वर्ष की चौथी तिमाही (जनवरी-मार्च) में उभरेगी और अमेरिका में मौजूदा आर्थिक संकट के कारण प्रभाव की किसी भी संभावना से इंकार करेगी।
यह ध्यान देने योग्य है कि सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इंडिया (एसटीपीआई), मोहाली, ने चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र से २००८-०९ में सॉफ्टवेयर और सेवाओं के निर्यात के कुल मूल्य में ३२ प्रतिशत की और वृद्धि का अनुमान लगाया है।
२००८-०९ में, संयुक्त सॉफ्टवेयर निर्यात को १,१00 करोड़ रुपये, एसटीपीआई इकाइयों से ९०० करोड़ रुपये और एसईजेड से २०० करोड़ रुपये का अनुमान लगाया गया है।
बिजनेस स्टैंडर्ड से बात करते हुए, एसटीपीआई मोहाली के संयुक्त निदेशक और केंद्र प्रमुख, अजय पी।
श्रीवास्तव ने कहा: फिलहाल, हम यह नहीं कह सकते हैं कि मौजूदा मंदी के कारण चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र से सॉफ्टवेयर निर्यात प्रभावित है। मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में सटीक तस्वीर स्पष्ट होगी क्योंकि अधिकांश कंपनियां उस अवधि में चालान कर रही हैं।
मोबेरा सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड के सह-संस्थापक पुनीत वात्सायन कहते हैं, "वर्तमान में चल रही मंदी ने हमारे व्यवसाय को प्रभावित नहीं किया है, लेकिन हम यह नहीं कह सकते हैं कि निकट भविष्य में क्या होगा।"
श्रीवास्तव के अनुसार, २००७-०८ में, क्षेत्र में सॉफ्टवेयर और सेवा उद्योग ने मजबूत वृद्धि देखी थी और २००६-०७ के दौरान ५६०.७६ करोड़ रुपये के मुकाबले कुल मूल्य ८२२.२७ रुपये तक पहुंच गया था। कीमती विदेशी मुद्रा अर्जित करने के अलावा, इस क्षेत्र के सॉफ्टवेयर उद्योग ने लगभग १०,००० पेशेवरों को प्रत्यक्ष रोजगार भी दिया है।
इसके अलावा, इस क्षेत्र ने कई नई स्टार्ट-अप कंपनियों को आकर्षित किया है और कई आईटी / आईटीईएस इकाइयों की संख्या २००२-०३ में १४५ से बढ़कर २००७-०८ में २५३ हो गई है। 20०८-०९ के अंत तक यह आंकड़ा ३०० के पार जाने की उम्मीद है।
एसटीपीआई का अनुमान है कि २००९-१० तक कुल निर्यात में १,५०० करोड़ रुपये का निर्यात करने वाली २५ नई इकाइयाँ बाजार में आएँगी।
श्रीवास्तव ने कहा कि इस क्षेत्र में विकास बड़े पैमाने पर छोटे और मध्यम उद्यमों (एसएमई) की वृद्धि से हुआ है।
इस वित्तीय वर्ष में एसटीपीआई, मोहाली के साथ पंजीकृत १३ नए लघु और मध्यम आईटी उद्यमों, वियना आईटी सॉल्यूशंस (पी) लिमिटेड, ऑप्टिमाइज़ेशन सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजीज, ओपीके ई सर्विसेज प्राइवेट। लिमिटेड, इंटेक्स इन्फोकॉम सॉल्यूशंस प्रा। लि।, स्टार्टअप फार्म (ई) प्रा। लिमिटेड, एगिलिस्ट कंसल्टिंग प्रा। लिमिटेड, नेटस्मार्टज़ इन्फोटेक प्रा। लिमिटेड आदि
स्तपी एक्सपोर्ट सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट्स को ३२% चंदनगढ़ क्षेत्र से प्राप्त करना है
अर्चित द्वारा पोस्ट | गुरुवार, ११ सितंबर, २००८ |
सॉफ्टवेयर स्वर्णलीन कौर
द फाइनेंशियल एक्सप्रेस
सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क्स ऑफ इंडिया (एसटीपीआई) ने वित्तीय वर्ष २००८-०९ के दौरान चंडीगढ़, मोहाली, पंचकुला और पड़ोसी क्षेत्रों से ३२% की दर से सॉफ्टवेयर और सेवाओं के निर्यात का अनुमान लगाया है।
मोहाली स्थित एसटीपीआई के अनुसार, इस क्षेत्र में इसकी इकाइयों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों में १,००० करोड़ रुपये का निर्यात होगा। पिछले वित्त वर्ष में एसटीपीआई इकाइयों का निर्यात ६८२.६७ करोड़ रुपये था, जबकि एसईजेड इकाइयों ने १39.६० करोड़ रुपये का निर्यात किया और कुल ८२२.२७ करोड़ रुपये का निर्यात किया।
एसईपीआई के संयुक्त निदेशक और केंद्र के प्रमुख, अजय पी श्रीवास्तव ने एफई से बात करते हुए कहा, इस क्षेत्र में विकास बड़े पैमाने पर छोटे और मध्यम उद्यमों (एसएमई) की वृद्धि से हुआ है। यह वित्तीय वर्ष, ओपीके ई सर्विसेज प्राइवेट सहित छह नए छोटे और मध्यम आईटी उद्यम। लिमिटेड, इंटक इन्फोकॉम प्रा। लि।, स्टार्टअप फार्म (ई) प्रा। लिमिटेड, एगिलिस्ट कंसल्टिंग प्रा। लिमिटेड, नेटस्मार्टज़ इन्फोटेक (आई) प्रा। लिमिटेड और आ बेनेफिट्स सर्विसेज बैंडवागन में शामिल हो गए हैं। एसएमई क्षेत्र ३२% की वृद्धि हासिल करने में एक बड़ी भूमिका निभाएगा।
२००७-०८ में, चंडीगढ़ की आईटी इकाइयों ने ३५,७९२.६८ लाख रुपये का निर्यात किया, आईटीईएस ने २१५६.२२ लाख रुपये का योगदान दिया, जबकि एसईजेड ने १३,९६०.०० लाख रुपये का निर्यात किया, जो कुल ५१,९०८.९ लाख रुपये तक पहुंच गया। पंजाब में स्थित आईटी इकाइयों ने ९564.१ लाख रुपये का योगदान दिया, जबकि आईटीईएस इकाइयों ने १९,4००.०२ लाख रुपये के निर्यात का रिकॉर्ड बनाया, जो कुल 28९64.१2 लाख रुपये है। हरियाणा में, पंचकुला में कुल निर्यात 8२२7 लाख रुपये दर्ज किया गया।
एसटीपीआई केंद्र सरकार के संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त समाज है और सॉफ्टवेयर निर्यात कंपनियों के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करता है। एसटीपीआई मोहाली के साथ २५० से अधिक इकाइयां पंजीकृत हैं, जिनमें से लगभग १३५ इकाइयां सक्रिय रूप से निर्यात में योगदान करती हैं। इसके अलावा, इस क्षेत्र में आईटी क्षेत्र में १०,००० पेशेवरों की जनशक्ति है।
पिछले ५१ वर्षों से एक प्रमुख आईटी गंतव्य शहर
चंडीगढ़, भारत के पहले प्रधान मंत्री के सपनों का शहर, श्री। जवाहर लाल नेहरू, प्रसिद्ध फ्रांसीसी वास्तुकार ले कोर्बुसियर द्वारा योजना बनाई गई थी। शिवालिकों की तलहटी में स्थित, यह शहर भारत में २० वीं शताब्दी में शहरी नियोजन और आधुनिक वास्तुकला में सर्वोत्तम प्रयोगों के लिए जाना जाता है। ०१.११.१९६६ को शहर का पुनर्गठन, इसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया और केंद्र सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में किया गया।
सॉफ्टवेयर उद्योग १९६० तक भारत में कुछ भी नहीं था। १९७२ में, सरकार। भारत ने एक सॉफ्टवेयर निर्यात योजना तैयार की। हम कह सकते हैं कि १९७२ भारत में सॉफ्टवेयर उद्योग के लिए एक स्थापना वर्ष था, और १९९१ के बाद इस उद्योग ने भारतीय अर्थव्यवस्था की बड़ी तस्वीर में प्रवेश किया। उद्योग ने वर्ष २००० के बाद मजबूत वृद्धि दर्ज की।
पिछले ५१ वर्षों में, चंडीगढ़ ने भौतिक बुनियादी ढाँचे और व्यावसायिक वातावरण के मामले में उत्कृष्ट प्रगति की है। एक उभरते हुए आर्थिक विकास केंद्र के रूप में, विशेष रूप से भारत के अन्य आईटी शहरों से आईटी हब के रूप में, चंडीगढ़ आईटीईएस कंपनियों के लिए एक पसंदीदा स्थान बन गया है। चंडीगढ़ बनाना, आईटी सक्षम सेवाओं के लिए एक प्रमुख केंद्र; एक पॉलिसी को सेक्टर और सिटी एडमिन उद्देश्यों की वृद्धि को सुविधाजनक बनाने और बढ़ाने के लिए बनाया गया है। सीआईआई द्वारा हाल ही के आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष २०१६ (वर्तमान मूल्य) में प्रति व्यक्ति आय २६८,६५६ रुपये थी, जो देश में सबसे अधिक है और बड़ा हिस्सा आईटी और उनकी सेवाओं के बुनियादी ढांचे से आता है। संचार नेटवर्क, तकनीकी संस्थानों और अन्य राज्यों के साथ कनेक्टिविटी के उत्कृष्ट आधार के साथ, भारत के दूसरे हिस्से की तुलना में शहर की तुलना शिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य, या जीवन प्रत्याशा से बेहतर है।
सूचना प्रौद्योगिकी विभाग चंडीगढ़ के मार्गदर्शन में चंडीगढ़ (स्पिक) में आईटी को बढ़ावा देने के लिए सोसाइटी की स्थापना की गई है। चंडीगढ़ प्रशासन चंडीगढ़ में आईटी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए प्रशासन की कई योजनाओं को क्रियान्वित कर रहा है। चंडीगढ़ देश के बढ़ते आईटी शहरों में से एक के रूप में उभर रहा है और कई म.न.क्स बैंगलोर से स्थानांतरित हो रहे हैं। सूचना के युग में नेतृत्व और उत्कृष्टता की स्थिति को पूरा करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने के लिए राज्य इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल को बढ़ावा देने के लिए ठोस प्रयास कर रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में, प्रशासन द्वारा योजनाबद्ध कुछ प्रमुख आईटी पहलों ने उत्कृष्ट परिणाम दिखाए हैं। चंडीगढ़ एक आधुनिक शहर है और दुनिया में शहर को शामिल करने के लिए, विश्व मानक परियोजनाओं की भविष्यवाणी करना महत्वपूर्ण है जो न केवल शहर की आर्थिक रूपरेखा को समृद्ध करते हैं, बल्कि अपने मानव संसाधनों के लिए कई रोजगार के अवसर भी प्रदान करते हैं। उत्तर भारत, एक पूरे के रूप में दक्षिणी राज्यों से पिछड़ गया था।
सिंधु उद्यमी, चंडीगढ़, पंचकुला और मोहाली क्षेत्र की उन्नति के लिए एक रोड मैप तैयार करते हैं। रोडमैप को ध्यान में रखते हुए, राजीव गांधी चंडीगढ़ टेक्नोलॉजी पार्क (र्गत्प) की एक दूरदर्शी परियोजना की परिकल्पना चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा की गई, जिसका उद्घाटन सितंबर २००५ में डॉ। मनमोहन सिंह, पूर्व पीएम इंडिया ने किया था।
यहां राजीव गांधी चंडीगढ़ प्रौद्योगिकी पार्क (आरजीसीटीपी) की स्थापना क्षेत्र के आर्थिक परिवर्तन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई है। इसने न केवल कई सूचना प्रौद्योगिकी / सूचना प्रौद्योगिकी सक्षम सेवाओं (आईटी / आईटीईएस) कंपनियों को आकर्षित किया है, बल्कि आस-पास के शहरों जैसे पंजाब में मोहाली और हरियाणा में पंचकुला में आईटी गतिविधियों का विस्तार करने में भी मदद की है।
इसने शहर के आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया है और अर्थव्यवस्था के विकास को सुविधाजनक बनाकर, विशेषकर सेवा क्षेत्र में। र्गत्प को इस उन्नत मानव पूंजी को अपने यहां रोजगार के अवसर प्रदान करके बनाए रखने की योजना बनाई गई है। यहां र्गत्प में, चंडीगढ़ प्रशासन और निजी क्षेत्र द्वारा १५०० करोड़ रुपये का निवेश किया गया है।
आरजीसीटीपी की स्थापना से, हम एक क्षेत्र से कुल निर्यात में जबरदस्त वृद्धि देख सकते हैं, जो २००५-०६ में ४१४.९७ करोड़ और २०१४-१६ में २८९०.७२ करोड़ थी, (डेटा स्रोत: सूचना प्रौद्योगिकी विभाग चंडीगढ़)। यूटी में तेजी से वृद्धि के कई कारण थे, जैसे कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) से व्यापार के लिए आसान औद्योगिक / आईटी आवास और जिसमें निवेश करने वाली कंपनियों को सिंगल विंडो क्लीयरेंस प्राप्त होगी और एसईजेड की नीति के अनुसार लाभ प्राप्त करने में सक्षम होंगे भारत सरकार।
भारतीय आईटी-बीपीएम उद्योग २०२५ तक $ ३५० बिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है (रिपोर्ट: नैसकॉम)। इस क्षेत्र की वृद्धि के लिए दितक योजनाबद्ध पहल और दृष्टि विश्वसनीय है। शहर इस क्षेत्र में विकास के लिए एक प्रमुख भूमिका निभा सकता है।युवा उद्यमी मोहाली के विकास की कहानी में नया अध्याय लिखते हैं
एसटीपीआई, मोहाली में अतिरिक्त निदेशक अजय प्रसाद श्रीवास्तव का कहना है कि स्टार्टअप शुरू करने के पीछे का विचार उन्हें अनुकूल उद्यमी पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करना है और साथ ही उन्हें अपने नवाचार और सॉफ्टवेयर उत्पाद विकास को बढ़ावा देने में मदद करना है।औद्योगिक क्षेत्र, मोहाली में एसटीपीआई भवन में अपने उद्यम शुरू करने वाले नवप्रवर्तक। (करुण शर्मा / एचटी)
चंडीगढ़ और इसकी परिधि आईटी / आईटीईएस सेवाओं के लिए गर्म गंतव्य के रूप में उभर रहे हैं। इन्फोसिस, आईबीएम दक्ष, विरसा और आउटरबे जैसे आईटी दिग्गजों ने यहां देश के सबसे महंगे आईटी पार्क राजीव गांधी टेक्नोलॉजी पार्क (आरजीसीटीपी), और विप्रो, टेक महिंद्रा, ई-एसईएस, भारती टेलिवर्क, पाटनी कंप्यूटर्स जैसे कई अन्य कार्यों का संचालन शुरू किया है। , आदि ने शहर के लिए अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाया है।
चंडीगढ़, मोहाली और पंचकुला तीन वर्षों में लगभग १,००० करोड़ रुपये के संयुक्त वार्षिक सॉफ्टवेयर निर्यात की उम्मीद कर रहे हैं। इसके अलावा, क्वार्क, डेल और आईडीएस इन्फोटेक मोहाली से चल रहे हैं।
चंडीगढ़ (मोहाली सहित) ने २७० करोड़ रुपये का आईटी निर्यात और पिछले वित्त वर्ष में ४१६ करोड़ रुपये का निर्यात कारोबार दर्ज किया।
प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा पिछले साल २४ सितंबर को (चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा २००१ में कल्पना की गई), उद्घाटन के पहले चरण में १२३ एकड़ क्षेत्र में पार्क का निर्माण शुरू हुआ।
इन्फोसिस टेक्नोलॉजीज लिमिटेड को मुख्य एंकर कंपनी के रूप में ३० एकड़ का आवंटन किया गया था और उसने ५२५,००० वर्ग फुट के अत्याधुनिक परिसर का निर्माण किया है। इसके अलावा, पहले चरण में डीएलएफ लिमिटेड द्वारा विकसित तैयार निर्मित स्थान १२.५ एकड़ में फैला है और इसमें 6५0,००० वर्ग फुट के छह ब्लॉक शामिल हैं। आईबीएम दक्ष, आउटर बे और नेट सॉल्यूशन कंपनियों में से हैं।
१ से २ एकड़ में निर्माण करने वाले 4२ से बिल्डरों को साइट के लिए अमड्यूस, क्म्ग इंफ़ोटेक, माइक्रोटेक, बेबो टेक्नोलॉजीस, सिनेप्स और एलकेमिस्ट को आवंटित किया गया है। इन्फोसिस, आईबीएम दक्ष, विरसा और आउटरबे ने पहले चरण में परिचालन शुरू कर दिया है। इसके अलावा, सॉफ्टवेयर कंपनियों को बढ़ावा देने के रूप में, केंद्र द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र के रूप में पार्क के पहले चरण को मंजूरी दी गई थी।
पार्क का दूसरा चरण २५० एकड़ में फैला है। इसमें से १२५ एकड़ आईटी / आईटीईएस कंपनियों के लिए और शेष क्षेत्र एक टेक्नोलॉजी हैबिटेट के लिए है, जो १२५ एकड़ में फैला है, जिसमें आवासीय फ्लैट, सर्विस अपार्टमेंट, सामुदायिक बुनियादी ढांचा, आदि शामिल हैं। दूसरे चरण में, विप्रो, एक लंगर कंपनी के रूप में। को ३० एकड़, भारती टेली-वेंचर्स को ५ एकड़, ई-सीस ६ एकड़ और टेक महिंद्रा को १० एकड़ आवंटित किया गया है।
आईटी विभाग पहले ही एसईजेड अनुमोदन के लिए अपेक्षित दस्तावेज प्रस्तुत कर चुका है और उम्मीद करता है कि इसे बहुत जल्द ही प्रदान किया जाएगा।
आईटी कंपनियों की अपार प्रतिक्रिया को देखते हुए, प्रशासन पार्क के तीसरे चरण के लिए भूमि का अधिग्रहण करने की प्रक्रिया में है, जो २५० एकड़ की अन्य भूमि में फैलेगी और उन्हें उम्मीद है कि अधिग्रहण की प्रक्रिया ७- के भीतर पूरी हो जाएगी। ८ महीने। इसके अलावा, कोई भी इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत हो सकता है कि यह आईटी कंपनियों के लिए अगले गंतव्य के रूप में उभर रहा है क्योंकि पटनी कंप्यूटर और कई अन्य लोगों ने भूमि के अधिग्रहण से पहले ही तीसरे चरण में जगह के लिए आवेदन किया है।
अब तक मोहाली का संबंध है, क्वार्क, डेल और आईडीएस इन्फोटेक पहले ही अपने ऑपरेशन शुरू कर चुके हैं।
आईटी / आईटीईएस क्षेत्र को और गति देने के उद्देश्य से, यूटी प्रशासन अब विभिन्न खिलाड़ियों के लिए सही कारोबारी माहौल प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, क्योंकि यह ई-क्रांति शिखर सम्मेलन २००६ की मेजबानी के लिए तैयार है। विशेष रूप से, ई-क्रांति २००५ के बाद, राजीव गांधी चंडीगढ़ टेक्नोलॉजी पार्क ने ४०० करोड़ रुपये के निवेश को आकर्षित किया है।
बिजनेस स्टैंडर्ड, भारत के सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क से बात करते हुए, अतिरिक्त निदेशक, संजय त्यागी ने कहा, हमने १९९८-९९ में निर्यात कारोबार के रूप में लगभग ७.७ करोड़ के साथ शुरुआत की थी, और २००५-०६ में ४१६ करोड़ रुपये को छूते हुए एक बड़ी वृद्धि हासिल की। एक निर्यात कारोबार के रूप में और आगे हम अगले तीन वर्षों में सॉफ्टवेयर निर्यात के रूप में १००० करोड़ रुपये को छूने के लिए आशान्वित हैं।
उन्होंने आगे कहा, "यह सम्मेलन क्षेत्र का निर्माण करने के लिए किया गया एक प्रयास है। यह शहर में दूसरा सम्मेलन होगा, जहां तीन राज्य सरकारें (पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़) एक साझा एजेंडा पर एक साथ खड़ी होंगी - व्यापार पारिस्थितिकी तंत्र में मूल्य पैदा करना आईटी-आईटीईएस / बीपीओ उद्योग और राष्ट्रीय ई-शासन पहल में साझा सेवाओं के महत्त्व के लिए। "
सम्मेलन का पहला दिन नास्स्कोम द्वारा आयोजित किया जाएगा और ध्यान उत्तरी राज्यों की क्षमता पर है, विशेष रूप से चंडीगढ़ कैपिटल रीजन (पंचकुला, बद्दी, मोहाली शामिल) में।
साझा सेवाओं पर दूसरे दिन के सत्र में परिसंपत्तियों के बंटवारे, सह-स्वामित्व बुनियादी ढांचे, सेवा मानकों को बनाए रखने और लागत-कुशलता से काम करना शामिल होगा।
नैसकॉम ने कहा कि १ अप्रैल से शुरू होने वाले वर्ष के लिए सॉफ्टवेयर निर्यात मौजूदा वित्तीय वर्ष की तुलना में धीमी गति से बढ़ सकता है क्योंकि मुद्रा की अस्थिरता और वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक दबाव है।
सॉफ्टवेयर लॉबी बॉडी ने मंगलवार को अनुमान लगाया कि २०१५-१६ के लिए सॉफ्टवेयर निर्यात १२-१४% के बीच बढ़कर ११०-1१२ बिलियन डॉलर हो जाएगा, जबकि चालू वित्त वर्ष के लिए १३-१५% की वृद्धि का अनुमान है। नैसकॉम के नवीनतम पूर्वानुमान के अनुसार, ३१ मार्च तक आईटी क्षेत्र के लिए कुल राजस्व १३% से $ १४6 बिलियन तक बढ़ने की उम्मीद है।
घरेलू मोर्चे पर, नैसकॉम ने अगले वित्त वर्ष में १५-१७% की वृद्धि को ५५-५७ बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान लगाया।
ई-कॉमर्स ग्रोथ के दम पर चालू वित्त वर्ष में भारतीय घरेलू बाजार १४% बढ़कर ४८ बिलियन डॉलर होने की उम्मीद है। ई-कॉमर्स, सरकार की पहल और उद्योगों द्वारा प्रौद्योगिकी अपनाने के कारण घरेलू विकास की उम्मीद है। नैसकॉम ने कहा कि 20१४-१५ में $ २६ बिलियन के सरकारी निवेश ने भी घरेलू राजस्व वृद्धि में मदद की।
लॉबी समूह २०२० तक अपने पूरे क्षेत्र में लगातार वृद्धि के बल पर अपने $ ३०० बिलियन भारतीय आईटी क्षेत्र के राजस्व लक्ष्य को पूरा करने के लिए आश्वस्त है।
जबकि मौजूदा विकास अनुमान मौजूदा मैक्रो ट्रेंड के पीछे हैं, हमारा मानना है कि उद्योग में लंबे समय तक १३-१५% वृद्धि बनाए रखने की क्षमता है। एंजल ब्रोकिंग प्राइवेट लिमिटेड के एक विश्लेषक सरबजीत कौर नंगरा ने कहा कि अब तक के प्रबंधन की टिप्पणी सकारात्मक रही है कि यह क्षेत्र वित्त वर्ष 20१५ के विकास के अनुमानों के अनुरूप वृद्धि को बढ़ा सकता है।
आईटी उद्योग भारत में सबसे बड़ा निजी क्षेत्र का नियोक्ता बना हुआ है, २०१४-१५ में २३०,००० कर्मचारियों को जोड़कर, उद्योग में नौकरियों की कुल संख्या को ३.५ मिलियन तक ले गया, जबकि सकल घरेलू उत्पाद का ९.५% हिस्सा है। आईटी उद्योग के पास कुल सेवाओं के निर्यात का सबसे बड़ा हिस्सा ३8% है।
२०१४-१५ में $ ५.३ बिलियन से अधिक में ३,१०० से अधिक प्रौद्योगिकी स्टार्ट-अप और उद्योग विलय और अधिग्रहण के साथ भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा स्टार्ट-अप हब भी है।
पूर्वानुमान की घोषणा करते हुए मुंबई में एक संवाददाता सम्मेलन के मौके पर, नासकॉम के अध्यक्ष आर। चंद्रशेखर ने कहा कि भारत अगले दो वर्षों में आसानी से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा स्टार्ट-अप हब बन सकता है, जो नए उद्यमों की तीव्र गति को देख रहा है। देश में।
अमेरिका में निर्यात, सबसे बड़ा बाजार, ऊपर-उद्योग औसत में वृद्धि हुई, एक आर्थिक पुनरुद्धार और उच्च प्रौद्योगिकी अपनाने के आधार पर। वित्त वर्ष की पहली छमाही के दौरान यूरोप से मांग मजबूत रही लेकिन मुद्रा की चाल और आर्थिक चुनौतियों के कारण दूसरी छमाही के दौरान नरम हो गई।
भारत की सॉफ्टवेयर सेवाओं का निर्यात पिछले कुछ वर्षों से बढ़ रहा है लेकिन देर से चिंता करने के कुछ कारण हैं।
भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर और सूचना प्रौद्योगिकी-सक्षम सेवाओं के निर्यात के साथ-साथ अमेरिकी डॉलर के संदर्भ में २०१५-१६ के दौरान व्यापार प्रक्रिया आउटसोर्सिंग कंपनियों में तेजी से वृद्धि हुई है।
वैश्विक निकाय और भारतीय आईटी कंपनियों की कमजोर कमाई के बीच उद्योग संगठन नैसकॉम ने पिछले महीने २०१६-१७ के लिए निर्यात आय के लिए अपने विकास के दृष्टिकोण को १०-१२% से ८-१०% तक घटा दिया।
इसके अलावा, भारतीय आईटी उद्योग अभी भी अमेरिका पर बहुत अधिक निर्भर करता है, जो कुछ विविधीकरण के बावजूद, सॉफ्टवेयर निर्यात के साथ-साथ स्थानीय कंपनियों के विदेशी सहयोगियों द्वारा सॉफ्टवेयर व्यवसाय के लिए सबसे बड़ा गंतव्य बना हुआ है।
यहां भारत की सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात पर त्वरित नज़र है और सबसे अधिक राजस्व के लिए कौन से सेगमेंट और देश हैं
१ - पीगॉन मीडिया प्राइवेट लिमिटेड - चंडीगढ़
एससीओ -८६६, एनएसी मणि माजरा, यू.टी. चंडीगढ़ १६०,१०१। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
पिएगोन मीडिया प्वट.लैड चंडीगढ़ स्थित इंटरनेट मार्केटिंग कंसल्टेंट कंपनी है। यह आज चंडीगढ़ में सबसे तेजी से विस्तार करने वाला पेशेवर विशेषज्ञ है। कंपनी की पेशकश ...
२ - चंडीगढ़ में एसी सेवा | मोहाली में एसी मरम्मत सेवा | तत्काल कॉल + ९१-76960२4044 - चंडीगढ़
चंदीगढ़, चंडीगढ़। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
चंडीगढ़ में एसी सेवा, चंडीगढ में एसी मरम्मत सेवा, मोहाली में एसी मरम्मत सेवा, अब जस एयर कंडीशनर विशेषज्ञ द्वारा एसी की मरम्मत करवाएं आप बहुत आसानी से संपर्क कर सकते हैं क्योंकि वह है ...
३ - ब्लैकबॉक्स जीपीएस टेक्नोलॉजीज प्रा। लिमिटेड - चंडीगढ़
एससीओ ९६-९७, सेक्टर ३४-ए, चंडीगढ़, भारत, सेक्टर ३४. चंडीगढ़। चंडीगढ़।
ब्लैकबॉक्स गप्स टेक्नोलॉजीस एकमात्र कंपनी है जिसे भारत सरकार द्वारा उनके गप्स / गप्र तकनीक के लिए पेटेंट प्रदान किया गया है। हमें जीपीएस ट्रैकिंग प्रदान करने में व्यापक अनुभव है।
एससीओ २१,१ वीं मंजिल, सेक्टर ३३, चंडीगढ़, १60020, सेक्टर ३३. चंडीगढ़। चंडीगढ़।
एक प्रा। लिमिटेड कंपनी १०-१५ दिनों में। यदि आप प्राइवेट लिमिटेड या ल्प के रूप में अपने व्यवसाय पंजीकरण के लिए एक नाम खोजते हैं तो क्लिकनफिले सबसे अच्छा समाधान के लिए खड़ा है।
५ - इंफ्रावेबसॉफ्ट टेक्नोलॉजीज - चंडीगढ़
च-१२७, इंडस्ट्रियल एरिया, फेज ८, स.आ.स नगर, मोहाली। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
इन्फ्रावेबसॉफ्ट टेक्नोलॉजीस एक ऐसी जगह है जहाँ आपको डिज़ाइनिंग, डेवलपमेंट, इंटरनेट मार्केटिंग, मोबाइल एप्लीकेशन, सर्वर इंप्लीमेंटेशन और माइग्रेशन और बहुत सारे ...
६ - यशिदा टेक्नोलॉजीज - चंडीगढ़
धारा-४०। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
एक पूर्ण सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी, जो वेबसाइट विकास और डिजाइनिंग और सॉफ्टवेयर विकास में विशेषज्ञता रखती है। हम एक पेशेवर वेब डिजाइनिंग कंपनी के नाम पर
७ - वेबिनलाइन - चंडीगढ़
एससीएफ ३८७, एमएम मनीमाजरा, चंडीगढ़ (यूटी)। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
हम विपणन दिमाग के एक समूह हैं जिन्होंने व्यवसायों और पेशेवरों को अपने स्वयं के ब्रांड की उपस्थिति को ऑनलाइन बढ़ाने और हर तरह से अपने व्यवसाय को बढ़ाने में मदद करने के लिए एक एजेंसी बनाने के बारे में सोचा।
८ - ड्रिश इंफोटेक लिमिटेड - चंडीगढ़
एससीओ १०४-१०६, सेक्टर ३४-ए, चंडीगढ़, चंडीगढ़। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
चंडीगढ़ में बेस्ट सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट कंपनी, ड्रिश इंफोटेक लिमिटेड दुनिया भर में उद्योग क्षेत्रों की एक विस्तृत शृंखला के लिए गुणवत्ता आईटी सेवाएं और समाधान प्रदान कर रहा है।
९ - ब्रिजिंग हेल्थकेयर टेक्नोलॉजीज - चंडीगढ़
एससीओ १६९-१७०, दूसरी मंजिल, सेक्टर ८-सी, चंडीगढ़। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
ब्रिजिंग हेल्थकेयर टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड एक अमेरिकन मल्टीनेशनल हेल्थकेयर टेक्नोलॉजी कंपनी है जिसका मुख्यालय ऑरेंज काउंटी, कैलिफ़ोर्निया में है, जो विकास, निर्माण, समर्थन करता है।
१० - उक्सोफटेक - चंडीगढ़
स.च.ओ ५२, बेसमेंट केबिन नंबर ८, सेक्टर ९ड, चंडीगढ़, 16000९, धनास। चंडीगढ़। चंडीगढ़।
उक्सॉफ़्टेक के पास वेब डिज़ाइन और वेब विकास परीक्षण जैसी सभी सेवाओं की विस्तृत शृंखला है। हम अनुभवी और वेब डिजाइन, कस्टम वेब विकास, अंड्रॉयड मोबाइल और एसईओ आदि में विशेषज्ञता प्राप्त कर रहे हैं ..
चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र (चंडीगढ़, पंचकूला, मोहाली शामिल है) से सॉफ्टवेयर निर्यात २०१०-११ में १५६५.३३ करोड़ रुपये पर पहुंच गया, जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना में लगभग ३१ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करता है। २००९-१० में क्षेत्र से कुल निर्यात ११96.५८ करोड़ रुपये था।
२०१०-११ में कुल निर्यात में से ८५२.३३ करोड़ रुपये का निर्यात इकाइयों द्वारा दर्ज किया गया था, जो सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क्स ऑफ इंडिया (एसटीपीआई) के साथ पंजीकृत हैं, जबकि एसईजेड में इकाइयों का आंकड़ा ७१३ करोड़ रुपये के रूप में दर्ज किया गया। इस साल, १० से अधिक नई सॉफ्टवेयर कंपनियों ने एसटीपीआई के साथ इस क्षेत्र से परिचालन शुरू किया।
इंफोसिस लिमिटेड, डेल इंटरनेशन सर्विसेज (पी) लिमिटेड, आईडीएस इन्फोटेक लिमिटेड, एनवीश सॉल्यूशंस (पी) लिमिटेड और एमर्सन डिजाइन इंजीनियरिंग सेंटर शीर्ष पांच कंपनियां हैं जिन्होंने निर्यात के मामले में अच्छा प्रदर्शन किया है।
इस क्षेत्र ने कई नए स्टार्टअप को आकर्षित किया है। इसके अलावा, आईटी / आईटीईएस इकाइयों की संख्या २००२-०३ में १४५ से बढ़कर २०१०-११ में २४२ हो गई। इसके अलावा, एसटीपीआई ने पहले कहा था कि इस क्षेत्र में विकास बड़े पैमाने पर छोटे और मध्यम उद्यमों के विकास से हुआ है।
इकाइयां एसटीपीआई के साथ पंजीकृत हैं और २०१०-११ में निर्यात के मामले में शीर्ष तीन पदों पर काबिज हैं: इंफोसिस टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (चंडीगढ़ से), डेल इंटरनेशनल सर्विसेज (आई) प्राइवेट लिमिटेड (पंजाब से) और आईडीएस इन्फोटेक लिमिटेड।
कुल मिलाकर, २००९-१० में, चंडीगढ़ क्षेत्र से सॉफ्टवेयर निर्यात ११९६.५८ करोड़ रुपये (एसईजेड से निर्यात सहित) के अनुरूप था। जबकि २००८-०९ में एसटीपीआई इकाइयों से सॉफ्टवेयर निर्यात ७३१.८५ करोड़ रुपये और एसईजेड से निर्यात ३१८.०८ करोड़ रुपये था।
साथ ही, इसके साथ पंजीकृत आईटी कंपनियों की सुविधा के लिए, एसटीपीआई मोहाली (पंजाब) में ४० करोड़ रुपये के निवेश के साथ एक नया कार्यालय स्थापित कर रहा है। १ लाख वर्ग फीट में फैले इस कार्यालय में प्रशासनिक कार्यालय के साथ-साथ डेटा और इन्क्यूबेशन के केंद्र होंगे। ६०,००० वर्ग फीट में फैली प्रस्तावित सुविधा के दो साल में पूरा होने की संभावना है।
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग का विकास!
सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) के दो मुख्य घटक सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर हैं। सॉफ्टवेयर इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में प्रमुख उद्योग के रूप में उभरा है। इस उद्योग ने १९७० के दशक में एक मामूली शुरुआत की और १९८० के दशक के मध्य तक, पूर्वानुमानकर्ताओं, विश्लेषकों और नीति नियोजकों ने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर अनुप्रयोग की क्षमता को समझना शुरू कर दिया।
इस उद्योग ने १९९० के दशक में एक बड़ी सफलता हासिल की और अब यह भारत के महत्वपूर्ण उद्योगों में से एक है। सॉफ्टवेयर उद्योग के तेजी से विकास का मुख्य कारण तकनीकी रूप से कुशल जनशक्ति का विशाल भंडार है जिसने भारत को सॉफ्टवेयर सुपर पावर में बदल दिया है।
१९९१ और १९९६ के बीच लगभग ५२ प्रतिशत की वार्षिक वार्षिक वृद्धि के साथ, भारतीय सॉफ्टवेयर क्षेत्र ने लगभग दुगुना तेजी से विस्तार किया है, जबकि दुनिया के प्रमुख अमेरिकी सॉफ्टवेयर उद्योग ने समान अवधि के दौरान, समान अवधि के दौरान किया है।
अब देश में ५०० से अधिक सॉफ्टवेयर फर्मों का एक महत्वपूर्ण द्रव्यमान है और इन कंपनियों के अलावा अतिरिक्त १,००० स्टार्ट-अप कंपनियां हैं। आज, भारत एक ऐसा देश है जो लागत-प्रभावशीलता, महान गुणवत्ता, उच्च विश्वसनीयता, शीघ्र वितरण और सबसे बढ़कर, सॉफ्टवेयर उद्योग में अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग करता है। वर्ष १995-९६ भारतीय कंप्यूटर उद्योग के लिए एक बूम वर्ष था और भारत का सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग वास्तव में उस वर्ष में विस्फोट हो गया।
वैश्विक बाजार में जारी प्रौद्योगिकी मंदी, मजबूत बुनियादी बातों और सॉफ्टवेयर और सेवा उद्योग के मूल मूल्य की स्थिति जैसी चुनौतियों के बावजूद देश में अन्य सभी क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन हुआ। २००२-०३ में इसका निर्यात २६.३ प्रतिशत बढ़ा, जो कि ४६,१०० करोड़ रुपये का राजस्व था।
भारतीय सॉफ्टवेयर और सेवा उद्योग दुनिया भर में बहुत कम क्षेत्रों में से एक है जिसने दोहरे अंक की वृद्धि देखी है (छवि २७.११)। इसने १९९७ में अपने कुल निर्यात का ४.९ प्रतिशत से बढ़कर २००२-०३ में २०.४ प्रतिशत हो गया। इससे चार मिलियन लोगों के लिए कुल रोजगार (समर्थन सेवाओं सहित) उत्पन्न होने की उम्मीद है, भारत के सकल घरेलू उत्पाद का ७ प्रतिशत और वर्ष २०08 में भारत के विदेशी मुद्रा प्रवाह का ३० प्रतिशत।
सॉफ्टवेयर भारत में निर्यात का एक प्रमुख आइटम बन गया है। वर्ष २००४-०५ में, भारत के सॉफ्टवेयर और सेवा निर्यात ने ३४.५ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की। २००४-०५ में कुल सॉफ्टवेयर और सेवाओं का राजस्व ३२ प्रतिशत बढ़कर $ २२ बिलियन और 20०५-०६ में २८.५ बिलियन डॉलर हो गया (देखें तालिका २७.२१)।
आईटी उद्योग की तालिका २७.२१प्रोग्रेस ($ अरब में आंकड़ा):
आईटी सॉफ्टवेयर और सेवा निर्यात
नैसकॉम के अनुसार, उद्योग को निकट भविष्य में ३० से ३२ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने की उम्मीद है। नैसकॉम के अनुसार, घरेलू बाजार में २४ प्रतिशत की वृद्धि हुई। नैस्कॉम द्वारा किए गए सर्वेक्षण के निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि भारत में आउटसोर्सिंग का कुल मूल्य (२००४- ०५ में $ १७.२ बिलियन) दुनिया भर के कुल के ४४ प्रतिशत के बराबर है।
यह मानने का अच्छा कारण है कि वर्तमान मजबूत गति इस उद्योग के विस्तार को आगे बढ़ाएगी। भारतीय कंपनियों ने अब तक केवल दो सबसे बड़े आईटी सेवा बाजारों पर ध्यान केंद्रित किया है, जैसे कि, यू.एस.ए और यू.के. देश जैसे कनाडा, जापान, जर्मनी और फ्रांस भारी विकास क्षमता का प्रतिनिधित्व करते हैं। नीदरलैंड, स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देशों में भी काफी संभावनाएं हैं। आईटी कंपनियां आक्रामक रूप से यूरोप, लैटिन अमेरिका और एशिया प्रशांत में अन्य बाजारों की खोज कर रही हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग का हार्डवेयर खंड उत्पादन, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के मामले में सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों में से एक है और यह नवाचार द्वारा विशेषता है। हाल के एक अध्ययन के अनुसार, २०१० तक, वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग $ १ ट्रिलियन का आंकड़ा पार कर जाएगा और भारतीय इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर उद्योग तब तक $ ७३ बिलियन से अधिक हो सकता है। घटक खंड में २०१० तक $ ११ बिलियन तक पहुंचने की क्षमता है। यह ५ मिलियन से अधिक व्यक्तियों को रोजगार के अवसर प्रदान करेगा।
१९९१ में उदारीकरण के बाद, भारत आईटी, दूरसंचार और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों की पहुंच के मामले में दुनिया के साथ तेजी से पकड़ बना रहा है। यह इन उत्पादों के लिए एक बड़ी मांग के साथ-साथ वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए आधार प्रदान कर सकता है।
"पर्सनल कंप्यूटर (पीसी), टीवी नहीं, २१ वीं सदी का प्रमुख सूचना उपकरण होगा," एक दशक पहले दुनिया की सबसे बड़ी चिप निर्माता कंपनी इंटेल के सह-संस्थापक एंडी ग्रोव ने कहा। वह २० वीं शताब्दी की बारी से पहले यू.एस. में सही साबित हुआ जब पहली बार पीसी ने टीवी को बाहर किया। ऐसा भारत में नहीं हुआ है, और हो सकता है कि एक और दशक तक न हो। समय बीतने के साथ टीवी की तुलना में पीसी भारत में अधिक लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। २०04 में निजी कंप्यूटरों (पीसी) की बिक्री में २०% की वृद्धि हुई
चंडीगढ़ समस्त उत्तर भारत में एक प्रमुख शिक्षा केंद्र के रूप में जाना जाता है। नज़दीकी राज्यों पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर व उत्तराखण्ड आदि से भारी संख्या में विद्यार्थी पढ़ने के लिए यहाँ आते हैं।
पंजाब इंजिनियरिंग कॉलेज
बस सेवाएँ (चण्डीगढ़ परिवहन उपक्रम)
चण्डीगढ़ दो बस अड्डे हैं: अन्तः राज्य बस अड्डा १७ (क्षेत्रक १७) एवं अन्तः राज्य बस अड्डा ४३ (क्षेत्रक ४३)।
नगर एवं आस पास के क्षेत्रों में परिवहन हेतु चण्डीगढ़ प्रशासन के अधीन चण्डीगढ़ परिवहन उपक्रम (सी०टी०यू०) की बसें हैं। फ़रवरी २०२० के अनुसार ७० मार्गों पर सी०टी०यू० बस सेवाएँ प्रदान करता है। नवम्बर २०२१ में प्रशासन द्वारा विद्युत-बसें शुरू की गई थीं जिनकी संख्या अब १०० से अधिक है। फ़रवरी २०२२ में सी०टी०यू० द्वारा चण्डीगढ़ विमानक्षेत्र हेतु शटल बस सेवाएँ प्रारम्भ की गई थीं।
१९५४ में चण्डीगढ़ जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड कग) बनाया गया था जिसका अब विद्युतीकरण हो चूका है। यह भारत के शीर्ष १०० रेलवे स्टेशनों में से एक है। यह शहर हरियाणा का महत्वपूर्ण शहर है जो अपने आसपास के बड़े शहर जैसे दिल्ली जयपुर शिमला अमृतसर आगरा अलवर रोहतक गुरुग्राम से जुड़ा हुआ है
१९७० के दशक में चण्डीगढ़ विमानक्षेत्र बनाया गया था। २०१४ में भारत शासन ने इसे एक अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र के रूप में स्वीकृति प्रदान की थी। ११ सितम्बर २०१५ को इस एअरपोर्ट का संचालन एक अंतर्राष्ट्रीय एअरपोर्ट के रूप में आरम्भ हुआ। इसका उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। विमानक्षेत्र ६ उड्डयन निगमों की सेवा से १७ घरेलु एवं २ अंतर्राष्ट्रीय गंतव्यों को जोड़ता है। विमानक्षेत्र का सैन्य उपयोग भी किया जाता है। विमानक्षेत्र को विमानक्षेत्र परिषद् अंतर्राष्ट्रीय द्वारा स्वच्छता पैमानों में एशिया-प्रशांत क्षेत्र का शीर्ष विमान क्षेत्र का ख़िताब पुरस्कृत किया गया है।
नागरिक एवं निजी यातायात
चण्डीगढ़ में प्रत्येक १ कि०मी० पर एक चक्रिल परिपथ (राउण्ड-अबाउट) है जहाँ से रिक्शा, ई-रिक्शा, ऑटो-रिक्शा एवं बसें सरलता से मिलती हैं।
कई निजी परिवहन कम्पनियों (ओला, ऊबर, इन-ड्राइवर, रैपिडो आदि) की सेवाएँ चण्डीगढ़ में उपलब्ध हैं।
पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ भारत के सबसे खूबसूरत और नियोजित शहरों में एक है। इस केन्द्र शासित प्रदेश को प्रसिद्ध फ़्रांसीसी वास्तुकार ली कोर्बूजियर ने अभिकल्पित किया था। इस शहर का नाम एक दूसरे के निकट स्थित चंडी मंदिर और गढ़ किले के कारण पड़ा जिसे चंडीगढ़ के नाम से जाना जाता है। शहर में बड़ी संख्या में पार्क हैं जिनमें लेसर वैली, राजेन्द्र पार्क, बॉटोनिकल गार्डन, स्मृति उपवन, तोपियारी उपवन, टेरस्ड गार्डन और शांति कुंज प्रमुख हैं। चंडीगढ़ में ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी, प्राचीन कला केन्द्र और कल्चरल कॉम्प्लेक्स को भी देखा जा सकता है।
यहाँ हरियाणा और पंजाब के अनेक प्रशासनिक भवन हैं। विधानसभा, उच्च न्यायालय और सचिवालय आदि इमारतें यहाँ देखी जा सकती हैं। यह कॉम्प्लेक्स समकालीन वास्तुशिल्प का एक बेहतरीन उदाहरण है। यहाँ का ओपन हैंड स्मारक कला का उत्तम नमूना है।
२१ जून २०१६ को द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का प्रमुख आयोजन करने के लिए इसी स्थान को चुना गया। यहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ३०,००० प्रतिभागियों के साथ योग किया।
कैपिटल कॉम्प्लेक्स को २०१६ में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया।
चंडीगढ़ आने वाले पर्यटक रॉक गार्डन आना नहीं भूलते। इस गार्डन का निर्माण नेकचंद ने किया था। इसे बनवाने में औद्योगिक और शहरी कचरे का इस्तेमाल किया गया है। पर्यटक यहाँ की मूर्तियों, मंदिरों, महलों आदि को देखकर अचरज में पड़ जातें हैं। हर साल इस गार्डन को देखने हजारों पर्यटक आते हैं। गार्डन में झरनों और जलकुंड के अलावा ओपन एयर थियेटर भी देखा जा सकता, जहाँ अनेक प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती हैं।
जाकिर हुसैन रोज़ गार्डन के नाम से विख्यात यह गार्डन एशिया का सबसे बड़ा रोज़ गार्डन है। यहाँ गुलाब की १६०० से भी अधिक किस्में देखी जा सकती हैं। गार्डन को बहुत खूबसूरती से डिजाइन किया गया है। अनेक प्रकार के रंगीन फव्वारे इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं। हर साल यहाँ गुलाब पर्व आयोजित होता है। इस मौके पर बड़ी संख्या में लोगों का यहाँ आना होता है।
यह मानव निर्मित झील ३ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। इसका निर्माण १९५८ में किया गया था। अनेक प्रवासी पक्षियों को यहाँ देखा जा सकता है। झील में बोटिंग का आनंद लेते समय दूर-दूर फैले पहाड़ियों के सुंदर नजारों के साथ-साथ सूर्यास्त के नजारे भी यहाँ से बड़े मनमोहक दिखाई देते हैं।
चंडीगढ़ में अनेक संग्रहालय हैं। यहाँ के सरकारी संग्रहालय और कला दीर्घा में गांधार शैली की अनेक मूर्तियों का संग्रह देखा जा सकता है। यह मूर्तियां बौद्ध काल से संबंधित हैं। संग्रहालय में अनेक लघु चित्रों और प्रागैतिहासिक कालीन जीवाश्म को भी रखा गया है। अन्तर्राष्ट्रीय डॉल्स म्युजियम में दुनिया भर की गुडियाओं और कठपुतियों को रखा गया है।
सुखना वन्यजीव अभयारण्य
लगभग २६०० हेक्टेयर में फैले इस अभयारण्य में बड़ी संख्या में वन्यजीव और वनस्पतियां पाई जाती हैं। मूलरूप से यहाँ पाए जाने वाले जानवरों में बंदर, खरगोश, गिलहरी, साही, सांभर, भेड़िए, जंगली शूकर, जंगली बिल्ली आदि शामिल हैं। इसके अलावा सरीसृपों की अनेक प्रजातियों भी यहाँ देखी जा सकती हैं। अभयारण्य में पक्षियों की विविध प्रजातियों को भी देखा जा सकता है।
संघ राज्यक्षेत्र प्रशासक
भारतीय संविधान के अनुच्छेद २३९ के अनुसार प्रत्येक संघ राज्यक्षेत्र का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। १९८४ से सामान्यतः राष्ट्रपति द्वारा पंजाब राज्यपाल को ही चण्डीगढ़ प्रशासक नियुक्त किया जाता रहा है। वर्तमान में चण्डीगढ़ के प्रशासक श्री बनवारीलाल पुरोहित हैं, जिन्हें राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द ने दिनांक अगस्त २७, २०२० ने संघ राज्यक्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया था।
संघ संसद में प्रतिनिधित्व
भारत की लोकसभा में चण्डीगढ़ के लिए एक स्थान आवंटित है। वर्तमान सत्रहवीं लोकसभा में यहाँ का प्रतिनिधित्व श्रीमती किरण खेर कर रही हैं जो कि भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध हैं। इससे पहले कांग्रेस के श्री पवन बंसल यहाँ से साँसद थे जो कि एक समय में भारत के रेल मंत्री भी बने।
राज्यसभा में चण्डीगढ़ संघ राज्यक्षेत्र को कोई स्थान आवण्टित नहीं है।
चण्डीगढ़ हेतु राज्यसभा में स्थान का उपबन्ध करने हेतु दिसम्बर ०३, २०२१ ई० को लोकसभा सांसद मनीश तिवारी द्वारा एक निजी सदस्य विधेयक पुरःस्थापित किया गया था। उक्त विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद ८० में संशोधन का प्रस्ताव करता है। चण्डीगढ़ नगर निगम सदन द्वारा इस विधेयक पर विचार किया गया था एवं वर्तमान में मामला संघ गृह मंत्रालय में विचाराधीन है।
भारतीय संविधान की प्रथम अनुसूची के अनुसार चण्डीगढ़ एक संघ राज्यक्षेत्र है किन्तु हरियाणा एवं पंजाब राज्य नगर पर अपना दावा करते हैं एवं नगर को उनको हस्तान्तरित करने की माँग करते हैं।
अप्रैल में चण्डीगढ़ के संघ राज्यक्षेत्रत्व की स्थिति पर चण्डीगढ़, हरियाणा एवं पंजाब आमने-सामने
१ अप्रैल २०२२ को पंजाब विधान सभा द्वारा एकमत से चण्डीगढ़ को पंजाब को हस्तान्तरित करने का संकल्प पारित किया था। भाजपा के विधायकों ने आम आदमी पार्टी के बहुमत वाले विधान सभा सदन की बैठक का बहिष्कार कर दिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं शिरोमणि अकाली दल ने प्रस्ताव का समर्थन किया था।
४ अप्रैल २०२२ को पंजाब विस के संकल्प के प्रतिकार में हरियाणा विधानसभा ने एक संकल्प पारित किया जिसमें चण्डीगढ़ पर पंजाब के दावे को नकारा गया था एवं सतलुज-यमुना लिंक नहर के निर्माण एवं पंजाब के हिन्दी-भाषी क्षेत्रों को हरियाणा को हस्तान्तरित करने की माँग की गई थी।
७ अप्रैल को चण्डीगढ़ नगर निगम सदन ने एकमत से महापौर श्रीमती सरबजीत कौर के नेतृत्व में चण्डीगढ़ को संघ राज्यक्षेत्र रखने के समर्थन में एक संकल्प पारित किया। संकल्प में सदन ने भारत शासन से हरियाणा एवं पंजाब राज्यों हेतु उनकी अलग राजधानियों की माँग की। महापौर ने कहा, "दोनों राज्यों ने चंडीगढ़ पर अपने-अपने दावे के साथ विशेष सत्र बुलाए हैं। हालांकि, चंडीगढ़ वासियों को नहीं सुना गया कि वे क्या चाहते हैं। हमने बैठक इसलिए बुलाई ताकि निर्वाचित प्रतिनिधियों को सुना जा सके।" बैठक का आम आदमी पार्टी, कांग्रेस एवं शिरोमणि अकाली दल ने बहिष्कार किया था।
नगर आयुक्त की अध्यक्षता में चण्डीगढ़ नगर निगम है।पदस्थ नगर आयुक्त श्रीमती आनन्दिता मित्रा हैं। नगर निगम की महापौर श्रीमती सरबजीत कौर हैं। श्री दलीप शर्मा वरिष्ठ उपमहापौर हैं एवं श्री अनूप गुप्ता उपमहपौर हैं।
नगर निगम सदन में ३५ वार्डों से प्रत्यक्षः निर्वाचित ३५ पार्षद एवं प्रशासक द्वारा ९ पार्षद नामनिर्दिष्ट किए जाते हैं। चण्डीगढ़ का लोक सभा सांसद भी निगम सदन का पदेन सदस्य होता है, जिसके पास मताधिकार भी होता है।
नगर निगम सदन में विभिन्न दलों की स्थिति
चंडीगढ़ एयरपोर्ट सिटी सेंटर से करीब ११ किलोमीटर की दूरी पर, दिल्ली मार्ग पर है। देश के प्रमुख शहरों से यहाँ के लिए नियमित उड़ानें हैं।
चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन सिटी सेंटर से करीब ८ किलोमीटर दूर स्थित है। यह रेलवे स्टेशन शहर को देश के अन्य हिस्सों से रेलमार्ग द्वारा जोड़ता है। दिल्ली से यहाँ के लिए प्रतिदिन ट्रेने हैं।
राष्ट्रीय राजमार्ग २१ और २२ चंडीगढ़ को देश के अन्य हिस्सों से सड़क मार्ग द्वारा जोड़ते हैं। दिल्ली, जयपुर, ग्वालियर, जम्मू, शिमला, कुल्लू, कसौली, मनाली, अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, हरिद्वार, देहरादून, हल्द्वानी आदि शहरों से यहाँ के लिए नियमित बस सेवाएं हैं।
खेलकूद के स्थान
चंडीगढ़ क्रिकेट स्टेडियम, (सेक्टर- १६)
चंडीगढ़ गोल्फ़ क्लब, सेक्टर ६
पंचकुला गोल्फ़ क्लब, सेक्टर ३
हाकी स्टेडियम, सेक्टर ४२
कैरम स्टेडियम, सेंट स्टीफेंस स्कूल, सेक्टर - ४६
रोलर स्केटिंग रिंक, सेक्टर १०
बैडमिंटन हाल, सेक्टर ७
स्विमिंग पूल सेक्टर २३
शूटिंग रेंज, पटियाली राव
अथलेटिक क्लब, सेक्टर ७
रोज गार्डन, सेक्टर १६
बोगनवेलिया गार्डन, सेक्टर ३
जापानी उद्यान, सेक्टर १६
टोपियरी गार्डन, सेक्टर ३५
फ्रैगरेंस गार्डन, सेक्टर ३६
लीजर वैली, सेक्टर १०
म्यूजिकल फाउंटेन पार्क, सेक्टर ३३
सुखना लेक उद्यान, सेक्टर ६
कैक्टस गार्डन पंचकुला
राक गार्डन चंडीगढ़, सेक्टर १
राजेन्द्र उद्यान, सेक्टर १
सिल्वी पार्क, फेज १० मोहाली
बोटैनिकल गार्डन, खुड्डा लाहोरा
चंडीगढ़ से प्रकाशित प्रमुख (दैनिक) समाचारपत्र
दैनिक ट्रिब्यून : द ट्रिब्यून का हिंदी संस्करण
द ट्रिब्यून-पंजाब के सबसे पुराने अखबारों में से एक।
द इंडियन एक्सप्रेस
द टाईम्स ऑफ इंडिया, द इकानामिक टाईम्स, द बिजनेस टाईम्स
देशसेवक सीपीआई से संबद्ध समाचारपत्र
जीव मिल्खा सिंह
कपिलदेव, भारतीय क्रिकेटर
मिल्खा सिंह, धावक
बलबीर सिंह, अंतर्राष्ट्रीय हाकी खिलाड़ी
जी एस सरकारिया, पंचकुला कैक्टस गार्डन के जन्मदाता
नेकचंद, राक गार्डन के निर्माता
युवराज सिंह, भारतीय क्रिकेटर
सबीर भाटिया, हॉटमेल के संस्थापक
चंडीगढ़ के बारे में अधिक जानकारी
चंडीगढ़ के बारे में
चण्डीगढ की शान सुखना झील (मुसाफिर हूँ यारों)
पंजाब के शहर
भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
हरियाणा के शहर
लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र
भारत में नियोजित नगर
चंडीगढ़ के ज़िले |
छत्तीसगढ़ भारत का एक राज्य है। इसका गठन १ नवम्बर २००० को हुआ था और यह भारत का २६वां राज्य है। पहले यह मध्य प्रदेश के अन्तर्गत था। डॉ॰ हीरालाल के मतानुसार छत्तीसगढ़ 'चेदीशगढ़' का अपभ्रंश हो सकता है। कहते हैं किसी समय इस क्षेत्र में ३६ गढ़ थे, इसीलिये इसका नाम छत्तीसगढ़ पड़ा। किंतु गढ़ों की संख्या में वृद्धि हो जाने पर भी नाम में कोई परिवर्तन नहीं हुआ,छत्तीसगढ़ भारत का ऐसा राज्य है जिसे 'महतारी'(मां) का दर्जा दिया गया है।भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो 'मगध' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया और दूसरा 'दक्षिण कौशल' जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "छत्तीसगढ़" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है। एक संसाधन संपन्न राज्य, यह देश के लिए बिजली और इस्पात का एक स्रोत है, जिसका उत्पादन कुल स्टील का १५% है।छत्तीसगढ़ भारत में सबसे तेजी से विकसित राज्यों में से एक है।
"छत्तीसगढ़" एक प्राचीन नाम नहीं है, इस नाम का प्रचलन १८ सदी के दौरान मराठा काल में शुरू हुआ। प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ "दक्षिण कोशल" के नाम से जाना जाता था।
सभी ऐतिहासिक शिलालेख, साहित्यिक और विदेशी यात्रियों के लेखों में, इस क्षेत्र को दक्षिण कोशल कहा गया है। आधिकारिक दस्तावेज में "छत्तीसगढ़" का प्रथम प्रयोग १७९५ में हुआ था।
छत्तीसगढ़ शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में कोई एक मत नहीं है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ आधिकारिक रूप से ३६ गढ़ो में बंटा था, यह गढ़ एक आधिकारिक इकाई थे, नकि किले या दुर्ग । इन्ही "३६ गढ़ो " के आधार पर छत्तीसगढ़ नाम कि व्युत्पत्ति हुई। (१ गढ़ = ७ बरहो = ८४ ग्राम)
छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कौशल का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था इसी का 'दक्षिण कोशल' वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी (जिसका नाम उस काल में 'चित्रोत्पला' था) का मत्स्य पुराण, महाभारत के भीष्म पर्व तथा ब्रह्म पुराण के भारतवर्ष वर्णन प्रकरण में उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट विवरण है। स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।
इतिहास में इसके प्राचीनतम उल्लेख सन ६३९ ई० में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्मवेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कौसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर (श्रीपुर) में ही था। इस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का शासन था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है। प्राचीन काल में दक्षिण-कौसल के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश में मौर्यों, सातवाहनों, वकाटकों, गुप्तों, राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय वंशों, सोमवंशियों, नल वंशियों, कलचुरियों का शासन था। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे: बस्तर के नल और नाग वंश, कांकेर के सोमवंशी और कवर्धा के फणि-नाग वंशी। बिलासपुर जिले के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल भी कहा जाता है। इस मंदिर में सन् १३४९ ई. का एक शिलालेख है जिसमें नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व १४ वीं सदी तक कायम रहा।
छत्तीसगढ़ के उत्तर में उत्तर प्रदेश और उत्तर-पश्चिम में मध्यप्रदेश का शहडोल संभाग, उत्तर-पूर्व में उड़ीसा और झारखंड, दक्षिण में तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और पश्चिम में महाराष्ट्र राज्य स्थित हैं। यह प्रदेश ऊँची नीची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ घने जंगलों वाला राज्य है। यहाँ साल, सागौन, साजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। यहाँ सबसे ज्यादा मिस्रित वन पाया जाता है। सागौन की कुछ उन्नत किस्म भी छत्तीसगढ़ के वनों में पायी जाती है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ एक विशाल और उपजाऊ मैदान का निर्माण करती हैं, जो लगभग ८० कि॰मी॰ चौड़ा और ३२२ कि॰मी॰ लम्बा है। समुद्र सतह से यह मैदान करीब ३०० मीटर ऊँचा है। इस मैदान के पश्चिम में महानदी तथा शिवनाथ का दोआब है। इस मैदानी क्षेत्र के भीतर हैं रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। मैदानी क्षेत्र के उत्तर में है मैकल पर्वत शृंखला। सरगुजा की उच्चतम भूमि ईशान कोण में है। पूर्व में उड़ीसा की छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ हैं और आग्नेय में सिहावा के पर्वत शृंग है। दक्षिण में बस्तर भी गिरि-मालाओं से भरा हुआ है। छत्तीसगढ़ के तीन प्राकृतिक खण्ड हैं : उत्तर में सतपुड़ा, मध्य में महानदी और उसकी सहायक नदियों का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण में बस्तर का पठार। राज्य की प्रमुख नदियाँ हैं - महानदी, शिवनाथ, खारुन,सोंढूर, अरपा, पैरी तथा इंद्रावती नदी।
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण
१.२ नवंबर १86१ को मध्य प्रांत का गठन हुआ. इसकी राजधानी नागपुर थी. मध्यप्रांत में छत्तीसगढ़ एक ज़िला था.
२.186२ में मध्य प्रांत में पांच संभाग बनाये गये जिसमें छत्तीसगढ़ एक स्वतंत्र संभाग बना, जिसका मुख्यालय रायपुर था, जिसके साथ ही छत्तीसगढ़ में ३ जिलों (रायपुर, बिलासपुर, संबलपुर) का निर्माण भी हुआ।
३.सन् १९०५ में जशपुर, सरगुजा, उदयपुर, चांगभखार एवं कोरिया रियासतों को छत्तीसगढ़ में मिलाया गया तथा संबलपुर को बंगाल प्रांत में मिलाया गया. इसी वर्ष छत्तीसगढ़ का प्रथम मानचित्र बनाया गया.
४.सन् १९१८ में पंडित सुंदरलाल शर्मा ने छत्तीसगढ़ राज्य का स्पष्ट रेखा चित्र अपनी पांडुलिपि में खींचा अतः इन्हें छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वप्नदृष्टा व संकल्पनाकार कहा जाता है.
५.सन् १९२४ में रायपुर जिला परिषद ने संकल्प पारित करके पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की मांग की.
६.सन् १९३९ में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में पंडित सुंदरलाल शर्मा ने पृथक छत्तीसगढ़ की मांग रखी.
७.सन् १९४६ में ठाकुर प्यारेलाल ने पृथक छत्तीसगढ़ मांग के लिए छत्तीसगढ़ शोषण विरोध मंच का गठन किया जो कि छत्तीसगढ़ निर्माण हेतु प्रथम संगठन था.
८.सन् १९४७ स्वतंत्रता प्राप्ति के समय छत्तीसगढ़ मध्यप्रांत और बरार का हिस्सा था.
९.सन् 1९53 में फजल अली की अध्यक्षता में भाषायी आधार पर राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष पृथक राज्य की मांग की गई.
१०.सन् १९५५ रायपुर के विधायक ठाकुर रामकृष्ण सिंह ने मध्य प्रांत के विधानसभा में पृथक छत्तीसगढ़ की मांग रखी जो की प्रथम विधायी प्रयास था.
११.सन् १९५६ में डा. खूबचंद बघेल की अध्यक्षता में छत्तीसगढ़ महासभा का गठन राजनांदगांव जिले में किया गया. इसके महासचिव दशरथ चौबे थे. इसी वर्ष मध्यप्रदेश के गठन के साथ छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश में शामिल किया गया.
१२.सन् १९६७ में डॉक्टर खूबचंद बघेल ने बैरिस्टर छेदीलाल की सहायता से राजनांदगांव में पृथक छत्तीसगढ़ हेतु छत्तीसगढ़ भातृत्व संघ का गठन किया जिसके उपाध्यक्ष व्दारिका प्रसाद तिवारी थे.
१३.सन् १९७६ में शंकर गुहा नियोगी ने पृथक छत्तीसगढ़ हेतु छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का गठन किया.
१४.सन् १९८३ में शंकर गुहा नियोगी के व्दारा छत्तीसगढ़ संग्राम मंच का गठन किया गया. पवन दीवान व्दारा पृथक छत्तीसगढ़ पार्टी का गठन किया गया.
१५.सन् १९९४ में तत्कालीन साजा विधायक रविंद्र चौबे ने मध्य प्रदेश विधानसभा में छत्तीसगढ़ निर्माण सम्बन्धी अशासकीय संकल्प प्रस्तुत किया गया जो सर्वसम्मति से पारित हुआ.
१६.१ मई १998 को मध्यप्रदेश विधान सभा में छत्तीसगढ़ निर्माण के लिए शासकीय संकल्प पारित किया गया.
१७.२५ जुलाई २००० को श्री लालकृष्ण आडवाणी व्दारा लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया. ३१ जुलाई २००० विधेयक लोकसभा में पारित किया गया. ३ अगस्त २००० राज्यसभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया और ९ अगस्त २००० को राज्यसभा में पारित किया गया. इसे २५ अगस्त २००० तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायण ने मध्य्रपदेश राज्य पुर्नगठन अधिनियम का अनुमोदित किया.
१८.१ नवंबर २००० भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३ के तहत छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना हुई. छत्तीसगढ़ देश का २६वां राज्य बना.
१९.छत्तीसगढ़ का निर्माण मध्यप्रदेश के तीन संभाग रायपुर, बिलासपुर एवं बस्तर के १६ जिलों, ९६ तहसीलों और १४६ विकासखंडों से किया गया. प्रदेश की राजधानी रायपुर को बनाया गया तथा बिलासपुर में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई.
२०.छत्तीसगढ़ में विधान सभा की प्रथम बैठक १४ दिसंबर २०00 से २० दिसंबर २०00 तक रायपुर में राजकुमार कॉलेज के जशपुर हाल में हुई.
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के समय यहाँ सिर्फ १६ जिले थे, पर २००७ में २ नए जिलो की घोषणा की गयी जो कि बस्तर संभाग का नारायणपुर व बीजापुर था। २0१२ में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह (भाजपा) ने ९ नये जिलों का निर्माण किया। १५ अगस्त २0१९ को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल (कांग्रेस) ने बिलासपुर जिले से काट कर १ नए जिले (गौरेला पेंड्रा मरवाही) के निर्माण की घोषणा की। वर्तमान में मुख्यमंत्री श्री बघेल द्वारा और नये ०४ जिले का घोषणा किया है इस तरह अब छत्तीसगढ़ में कुल 3२ जिले हो गए हैं।
कवर्धा जिला *कांकेर जिला (उत्तर बस्तर) कोरबा जिला कोरिया जिला जशपुर जिला जांजगीर-चाम्पा जिला दन्तेवाड़ा जिला (दक्षिण बस्तर) दुर्ग जिला धमतरी जिला बिलासपुर जिला बस्तर जिला महासमुन्द जिला राजनांदगांव जिला रायगढ जिला रायपुर जिला सरगुजा जिला नारायणपुर जिला बीजापुर बेमेतरा बालोद जिला बलौदा बाज़ार बलरामपुर गरियाबंद सूरजपुर कोंडागांव जिला मुंगेली जिला सुकमा जिला गौरेला-पेंड्रा-मारवाही जिला मनेंद्रगढ़ जिला सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिला मोहला-मानपुर जिला सक्ती जिला खैरागढ़ जिला
कला एवं संस्कृति
आदिवासी कला काफी पुरानी है। प्रदेश की आधिकारिक भाषा हिन्दी है और लगभग संपूर्ण जनसंख्या उसका प्रयोग करती है। प्रदेश की आदिवासी जनसंख्या हिन्दी की एक उपभाषा छत्तीसगढ़ी बोलती है।
छत्तीसगढ़ साहित्यिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में अति समृद्ध प्रदेश है। इस जनपद का लेखन हिन्दी साहित्य के सुनहरे पृष्ठों को पुरातन समय से सजाता-संवारता रहा है। छत्तीसगढ़ी और अवधी दोनों का जन्म अर्धमागधी के गर्भ से आज से लगभग १०८० वर्ष पूर्व नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था।"
भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रूप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे। इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गया, वह करीब एक हज़ार साल से हुआ है।
अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :
छत्तीसगढ़ी गाथा युग - सन् १००० से १५०० ई. तक
छत्तीसगढ़ी भक्ति युग - मध्य काल, सन् १५०० से १९०० ई. तक
छत्तीसगढ़ी आधुनिक युग - सन् १९०० से आज तक
यह विभाजन किसी प्रवृत्ति की सापेक्षिक अधिकता को देखकर किया गया है। एक और उल्लेखनीय बत यह है कि दूसरे आर्यभाषाओं के जैसे छत्तीसगढ़ी में भी मध्ययुग तक सिर्फ पद्यात्मक रचनाएँ हुई है।
लोकगीत और लोकनृत्य
छत्तीसगढ़ की संस्कृति में गीत एवं नृत्य का बहुत महत्त्व है। यहाँ के लोकगीतों में विविधता है। गीत आकार में अमूमन छोटे और गेय होते है एवं गीतों का प्राणतत्व है -- भाव प्रवणता। छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीतों में से कुछ हैं: भोजली, पंडवानी, जस गीत, भरथरी लोकगाथा, बाँस गीत, गऊरा गऊरी गीत, सुआ गीत, देवार गीत, करमा, ददरिया, डण्डा, फाग, चनौनी, राउत गीत और पंथी गीत। इनमें से सुआ, करमा, डण्डा व पंथी गीत नाच के साथ गाये जाते हैं।
छत्तीसगढ़ी बाल खेलों में अटकन-बटकन लोकप्रिय सामूहिक खेल है। इस खेल में बच्चे आंगन परछी में बैठकर, गोलाकार घेरा बनाते है। घेरा बनाने के बाद जमीन में हाथों के पंजे रख देते है। एक लड़का अगुवा के रूप में अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उन उल्टे पंजों पर बारी-बारी से छुआता है। गीत की अंतिम अंगुली जिसकी हथेली पर समाप्त होती है वह अपनी हथेली सीधी कर लेता है। इस क्रम में जब सबकी हथेली सीधे हो जाते है, तो अंतिम बच्चा गीत को आगे बढ़ाता है। इस गीत के बाद एक दूसरे के कान पकड़कर गीत गाते है।
१) अटकन-बटकन:- अटकन मटकन दही चटाका लौहा लाटा बन में कांटा चल चल बेटी गंगा जाबो गंगा ले गोदावरी पक्का पक्का बेल खाबो बेल के डारा टुट गे बिहाती डोकारी छूट गे।
२) काऊँ माऊँ मेकरा के झाला फुर्र....।
बालिकाओं द्वारा खेला जाने वाला फुगड़ी लोकप्रिय खेल है। चार, छः लड़कियां इकट्ठा होकर, ऊंखरु बैठकर बारी-बारी से लोच के साथ पैर को पंजों के द्वारा आगे-पीछे चलाती है। थककर या सांस भरने से जिस खिलाड़ी के पांव चलने रुक जाते हैं वह हट जाती है।
यह वृद्धि चातुर्थ और चालाकी का खेल है। यह छू छुओवल की भांति खेला जाता है। इसमें खिलाड़ी एड़ी मोड़कर बैठ जाते है और हथेली घुटनों पर रख लेते है। जो बच्चा हाथ रखने में पीछे होता है बीच में उठकर कहता है।
खुड़वा पाली दर पाली कबड्डी की भांति खेला जाने वाला खेल है। दल बनाने के इसके नियम कबड्डी से भिन्न है। दो खिलाड़ी अगुवा बन जाते है। शेष खिलाड़ी जोड़ी में गुप्त नाम धर कर अगुवा खिलाड़ियों के पास जाते है - चटक जा कहने पर वे अपना गुप्त नाम बताते है। नाम चयन के आधार पर दल बन जाता है। इसमें निर्णायक की भूमिका नहीं होती, सामूहिक निर्णय लिया जाता है।
डांडी पौहा गोल घेरे में खेला जाने वाला स्पर्द्धात्मक खेल है। गली में या मैदान में लकड़ी से गोल घेरा बना दिया जाता है। खिलाड़ी दल गोल घेरे के भीतर रहते है। एक खिलाड़ी गोले से बाहर रहता है। खिलाड़ियों के बीच लय बद्ध गीत होता है। गीत की समाप्ति पर बाहर की खिलाड़ी भीतर के खिलाड़ी किसी लकड़े के नाम लेकर पुकारता है। नाम बोलते ही शेष गोल घेरे से बाहर आ जाते है और संकेत के साथ बाहर और भीतर के खिलाड़ी एक दूसरे को अपनी ओर करने के लिए बल लगाते है, जो खींचने में सफल होता वह जीतता है। अंतिम क्रम तक यह स्पर्द्धा चलती है।
छत्तीसगढ़ मॆं कई जातियाँ और जनजातियाँ हैं, जिनमें से कुछ हैं गोंड, अमात, हल्बा, कंडरा, कंवर, ठाकुर, बैंगा, मुरिया, माडिया, उरॉव, कमार, भुंजिया, भारिया, सतनामी, और बियार।
खरसिया रॉक गार्डन
आरंग = मंदिर का शहर
महामाया मंदिर रतनपुर ( बिलासपुर )
खूंटाघाट बांध (बिलासपुर)
मरी माई मंदिर (भनवारटंक )
इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान
गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान
कानन पेंडारी जू बिलासपुर
सर्वमंगला मंदिर (कोरबा)
गिरौदपुरी (गिरोदपुरी) या गिरोधपुरी (गिरोधपुरी) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदा बाज़ार ज़िले में स्थित एक नगर है।जोकि अभी वर्तमान समय में रायपुर जिले में आती है। यही ही कुतुबमीनार से भी ऊंची किला है ।जिसे जैतस्तंभ कहा जाता है।जल विहार बुका - हसदेव नदी के चारो तरफ हरे भरे पहाड़ियों से घिरा जलमग्न सुंदर प्राकृतिक सौंदय से परिपूर्ण मिनीमाता बांगो बांध का भराओ वाला जगह है जो कोरबा जिला के मड़ई गांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां नाविक रहते है जो जल विहार कराते है।केंदई जल प्रपात - केंदई जलप्रपात कोरबा जिला मुख्यालय से ८५ किलोमीटर की दूरी पर अम्बिकापुर रोड पर स्थित है इस पर सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। जलप्रपात के नीचे जाने पर इंद्रधनुष की सुंदर चित्र बनती है जो मनमोहक है देखा जा सकता है। तथा चारो ओर हरे भरे पहाड़ियों से घिरा हुआ है।गोल्डन आइलैंड''' - गोल्डन आइलैंड केंदई ग्राम से सात किलोमीटर मीटर दक्षिण में है जहां तक सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। जो हसदेव नदी पर एक लैंड बना हुआ है जहां नाविक भी रहते है जो कभी भी जल विहार करा सकते है। जो बहुत ही आनंदमय जगह है। तथा पिकनिक स्पॉट भी है।
इन्हें भी देखें
छत्तीसगढ़ के लोकसभा सदस्य
छत्तीसगढ़ के उत्सव
छत्तीसगढ़ के आदिवासी देवी देवता
छत्तीसगढ़ का खाना
छत्तीसगढ़ के मेले
क. "मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।"
मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - ५०/२५)
ख. "चित्रोत्पला" चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।"
- महाभारत - भीष्मपर्व - ९/३४
ग. "चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।"
ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - १९/३१)
भारत के राज्य |
झारखण्ड भारत का एक राज्य है। राँची इसकी राजधानी है। झारखण्ड की सीमाएँ पूर्व में पश्चिम बंगाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश एवं छत्तीसगढ़, उत्तर में बिहार, और दक्षिण में ओड़िशा को छूती हैं। लगभग सम्पूर्ण प्रदेश छोटानागपुर के पठार पर अवस्थित है। सम्पूर्ण भारत में वनों के अनुपात में प्रदेश एक अग्रणी राज्य माना जाता है। बिहार के दक्षिणी भाग को विभाजित कर झारखण्ड प्रदेश का सृजन किया गया था। इस प्रदेश के अन्य बड़े शहरों में धनबाद, बोकारो एवं जमशेदपुर शामिल हैं।
विभिन्न इंडो-आर्यन भाषाओं में "झार" शब्द का अर्थ है 'जंगल' और "खण्ड" का अर्थ 'भूमि' है, इस प्रकार "झारखण्ड" का अर्थ वन भूमि है। "छोटानागपुर पठार" में बसा होने के कारण इसे "छोटानागपुर प्रदेश" भी बोलते हैं। झारखण्ड को "जंगलों का प्रदेश" भी कहा जाता है। मुग़ल काल में इस क्षेत्र को कुकरा नाम से जाना था। झारखण्ड के आदिवासियों के अनुसार, झारखण्ड दो शब्द "जाहेर" (सारना स्थल) और "खोण्ड" (वेदी) शब्दों से मिलकर बना है।
प्राचीन काल में, सुतिया नामक मुण्डा के शासनकाल में इसे "जाहेरखोण्ड" नाम से जाना जाता था। मध्यकाल में, इस क्षेत्र को झारखण्ड के नाम से जाना जाता था। भविष्य पुराण (१२०० स) के अनुसार, झारखण्ड सात पुण्ड्रा देश में से एक था। यह नाम पहली बार पूर्वी गंगवंश के नरसिंह देव द्वितीय के शासनकाल से ओडिशा क्षेत्र के केन्द्रपाड़ा में १३ वीं शताब्दी की ताम्बे की प्लेट पर पाया गया है। बैधनाथ धाम से पुरी तक की वन भूमि झारखण्ड के नाम से जानी जाती थी। अकबरनामा में, पूर्व में पंचेत से लेकर पश्चिम में रतनपुर तक, उत्तर में रोहतासगढ़ और दक्षिण में ओडिशा की सीमा को झारखण्ड के रूप में जाना जाता था।
झारखण्ड के हजारीबाग जिले में लगभग ५००० साल पुराना गुफा चित्र मिला है। इस राज्य में ईसा पूर्व १४०० काल के लोहे के औज़ार और मिट्टी के बर्तन के अवशेष मिले हैं। ३२५ ईसा पूर्व में भारत के उत्तरी इलाके बिहार से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। झारखण्ड में राज्य निर्माण की प्रक्रिया मुण्डा और भूमिज जनजातियों द्वारा शुरू किया गया था। छोटानागपुर में रिसा मुण्डा प्रथम मुण्डा जनजातीय नेता था, जिसने राज्य निर्माण की प्रक्रिया शुरू की। उसने सुतिया पाहन को मुण्डाओं का शासक चुना और सुतिया नागखण्ड नामक नये राज्य की स्थापना की। भूमिज जनजाति ने धालभूम, बड़ाभूम, पंचेत, सिंहभूम और मानभूम में भूमिज साम्राज्य की स्थापना की थी, जो झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कुछ हिस्सों तक फैली थी। भूमिजों ने ब्रिटिश शासन के आगमन तक शासन किया।
मुण्डा सम्राज्य के अंतिम शासक मदरा मुण्डा थे, जिन्होंने फणि मुकुट राय को गोद लिया था। फणि मुकुट राय ने छोटानागपुर में नागवंशी वंश की स्थापना की थी।
मध्यकाल में इस क्षेत्र में चेरो राजवंश और नागवंशी राजवंश राजाओं का शासन था। मुगल प्रभाव इस क्षेत्र में सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान पहुंचा जब १५७४ में राजा मानसिंह ने इस पर आक्रमण किया था। दुर्जन साल मध्य काल में छोटानागपुर महान नागवंशी राजा थे, उनके शासन काल में वे मुगल शासक जहांगीर के समकालीन के सेनापति ने इस क्षेत्र में आक्रमण किया था। राजा मेदिनी राय ने, १६५८ से १६७४ तक पलामू क्षेत्र पर शासन किया।
१७६५ के बाद यहां ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभाव पड़ा। ब्रिटिश कंपनी ने सर्वप्रथम धालभूम, बड़ाभूम, मानभूम और झाड़ग्राम के रियासतों पर आक्रमण कर झारखंड में प्रवेश किया। आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद छोटा नागपुर पठार के कई राज्य ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन हो गए। उनमें नागवंश रियासत, रामगढ़ रियासत, गागंपुर, खरसुआं, साराईकेला, जाशपुर, सरगुजा आदि शामिल थे। ब्रिटिश राज में स्थानीय नागरिकों पर काफी अत्याचार हुआ, साथ ही अन्य प्रदेशों से आने वाले प्रवासी का वर्चस्व था। इस कालखंड में इस प्रदेश में ब्रिटिशों के खिलाफ बहुत से विद्रोह हुए, इनमें से कुछ प्रमुख विद्रोह थे:-
१७६६१७८९: जगन्नाथ सिंह पातर और भूमिज सरदार-घटवाल-पाइक के नेतृत्व में भूमिजों का पहला चुआड़ विद्रोह; राजा जगन्नाथ धल का विद्रोह
१७६९: रघुनाथ महतो का विद्रोह
१७७०१७७१: चेरो बिद्रोह पलामू के जयनाथ सिंह के नेतृत्व में
१७७२१७८०: पहाड़िया विद्रोह
१७८०१७८५: तिलका मांझी के नेतृत्व में मांझी विद्रोह जिसमें भागलपुर में १७८५ में तिलका मांझी को फांसी दी गयी थी।
१७८९-१८३१: भूमिजों का विद्रोह
१७९३१७९६: मुंडा विद्रोह रामशाही के नेतृत्व में
१७९५१८२१: तमाड़ विद्रोह
१८००१८०२: मुंडा विद्रोह
१८१२: बख्तर साय और मुंडल सिंह के नेतृत्य में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बिरुद्ध बिद्रोह
१८३१३४: भूमिज विद्रोह बड़ाभूम के गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में
१८३१३२: कोल विद्रोह
१८३२३३: खेवर विद्रोह भागीरथ, दुबाई गोसाई, एवं पटेल सिंह के नेतृत्व में
१८५५: लार्ड कार्नवालिस के खिलाफ सांथालों का विद्रोह
१८५५१८६०: सिद्धू कान्हू के नेतृत्व में संथालों का विद्रोह
१८५७: नीलांबर-पीतांबर का पलामू में विद्रोह
१८५७: पाण्डे गणपत राय,
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, टिकैत उमराँव सिंह, शेख भिखारी एवं बुधु बीर का सिपाही विद्रोह के दौरान आंदोलन
१८७४: खेरवार आंदोलन भागीरथ मांझी के नेतृत्व में
१८८०: खड़िया विद्रोह तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में
१८९५१९००: बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह
इन सभी विद्रोहों के भारतीय ब्रिटिश सेना द्वारा फौजों की भारी तादाद से निष्फल कर दिया गया था। इसके बाद १९१४ में जातरा भगत के नेतृत्व में लगभग छब्बीस हजार आदिवासियों ने फिर से ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया था जिससे प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने आजादी के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया था।
झारखण्ड राज्य की मांग का इतिहास लगभग सौ साल से भी पुराना है जब १९३८ इसवी के आसपास जयपाल सिंह जो भारतीय हॉकी खिलाड़ी थे और जिन्होंने खेलों में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान का भी दायित्व निभाया था, ने पहली बार तत्कालीन बिहार के दक्षिणी जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य बनाने का विचार रखा था। लेकिन यह विचार २ अगस्त सन २000 में साकार हुआ जब संसद ने इस संबंध में एक बिल पारित किया। राज्य की गतिविधियाँ मुख्य रूप से राजधानी राँची और जमशेदपुर, धनबाद तथा बोकारो जैसे औद्योगिक केन्द्रों से सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। सन २000, १५ नवम्बर को झारखंड राज्य ने मूर्त रूप ग्रहण किया और भारत के २8 वें प्रांत के रूप में प्रतिस्थापित हुआ ।
भौगोलिक स्थिति एवं जलवायु
प्रदेश का ज्यादातर हिस्सा छोटानागपुर पठार का हिस्सा है, जो
कोयल, दामोदर, ब्रम्हाणी, खड़कई, एवं स्वर्णरेखा नदियों का उद्गम स्थल भी है, जिनके जलक्षेत्र ज्यादातर झारखण्ड में है। प्रदेश का बड़ा हिस्सा वन-क्षेत्र है, जहाँ हाथियों की बहुतायत है। उत्तर पूर्व झारखंड में संथाल परगना का कुछ हिस्सा गंगा के मैदान में स्थित है, साहिबगंज झारखंड का एकमात्र जिला है जहां गंगा बहती है।
मिट्टी के वर्गीकरण के अनुसार, प्रदेश की ज्यादातर भूमि चट्टानों एवं पत्थरों के अपरदन से बनी है। जिन्हें इस प्रकार उप-विभाजित किया जा सकता है:-
लाल मिट्टी, जो ज्यादातर दामोदर घाटी, एवं राजमहल क्षेत्रों में पायी जाती है।
माइका युक्त मिट्टी, जो कोडरमा, झुमरी तिलैया, बड़कागाँव, एवं मंदार पर्वत के आसपास के क्षेत्रों में पायी जाती है।
बलुई मिट्टी, ज्यादातर हजारीबाग एवं धनबाद क्षेत्रों की भूमि में पायी जाती है।
काली मिट्टी, राजमहल क्षेत्र में
लैटेराइट मिट्टी, जो राँची के पश्चिमी हिस्से, पलामू, संथाल परगना के कुछ क्षेत्र एवं पश्चिमी एवं पूर्वी सिंहभूम में पायी जाती है।
वानस्पतिकी एवं जैविकी
झारखण्ड वानस्पतिक एवं जैविक विविधताओं का भण्डार कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रदेश के अभयारण्य एवं वनस्पति उद्यान इसकी बानगी सही मायनों में पेश करते हैं। बेतला राष्ट्रीय अभयारण्य (पलामू), जो डाल्टेनगंज से २५ किमी की दूरी पर स्थित है, लगभग २५0 वर्ग किमी में फैला हुआ है। विविध वन्य जीव यथा बाघ, हाथी, भैंसे साम्भर, सैकड़ों तरह के जंगली सूअर एवं २० फुट लम्बा अजगर चित्तीदार हिरणों के झुण्ड, चीतल एवं अन्य स्तनधारी प्राणी इस पार्क की शोभा बढ़ाते हैं। इस पार्क को १९७४ में प्रोजेक्ट टाइगर के तहत सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था।
जनगणना २०११ के अनुसार झारखण्ड की आबादी लगभग ३.२९ करोड़ है। जो भारत की कुल जनसंख्या का २.7२% हैं। यहाँ का लिंगानुपात ९४७ स्त्री प्रति १००० पुरुष है। प्रतिवर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व लगभग ४१४ है।
झारखण्ड क्षेत्र विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों एवं धर्मों का संगम क्षेत्र कहा जा सकता है। आर्य, आस्ट्रो-एशियाई एवं द्रविड़ समूह की भाषायें यहां बोली जाती है। हिन्दी, सन्थाली, बंगाली, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुड़मालि यहाँ की प्रमुख भाषायें हैं। इसके अलावा यहां कुड़ुख , मुण्डारी, हो, भूमिज बोली जाती है। झारखण्ड में बसनेवाले स्थानीय आर्य भाषी लोगों को सादान कहा जाता है। झारखण्ड मॆं कई जातियां और जनजातियां हैं। यहाँ की आबादी में २६% अनुसूचित जनजाति, १२% अनुसूचित जाति शामिल हैं।
राज्य की बहुसंख्यक आबादी हिन्दू धर्म (लगभग ६७.८%) मानती है। दूसरे स्थान पर (१४.५%) इस्लाम धर्म है। राज्य की लगभग १२.८% आबादी सरना धर्म एवं ४.१% आबादी ईसाइयत को मानती है।
यहाँ की साक्षरता दर ६४.४%है। जिसमें से पुरुष साक्षरता दर ७६.८% तथा महिला साक्षरता दर ५५.४% है।
सरकार एवं राजनीति
झारखण्ड में राज्य स्तर पर सबसे बड़ा पदराज्यपाल का होता हैं, जो भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ मुख्यमन्त्री के हाथों में केन्द्रित होती है, जो अपनी सहायता के लिए एक मन्त्रिमण्डल का भी गठन करता है। राज्य का प्रशासनिक मुखिया राज्य का मुख्य सचिव होता है, जो प्रशासनिक सेवा द्वारा चुनकर आते हैं। न्यायिक व्यस्था का प्रमुख राँची स्थित उच्च न्यायलय के प्रमुख न्यायाधीश होता है।
प्रशासनिक जिला इकाइयाँ
झारखण्ड राज्य में चौबीस जिले हैं।
झारखण्ड के जिले:
१. राँची, २. लोहरदग्गा, ३. गुमला, ४. सिमडेगा, ५. पलामू, ६. लातेहार, ७. गढ़वा, ८. पश्चिमी सिंहभूम, ९. सराईकेला खरसाँवा, १0. पूर्वी सिंहभूम, ११. दुमका, १२. जामताड़ा, १३. साहेेबगंज, १४. पाकुड़, १५. गोड्डा, १६. हज़ारीबाग, १७. चतरा, १८. कोडरमा, १९. गिरीडीह, २0. धनबाद, २१. बोकारो, २२. देवघर, २३. खूँटी, २४. रामगढ़
झारखण्ड की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से खनिज, वन सम्पदा और पर्यटन से निर्देशित है। नीति आयोग के राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक आधार रेखा रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में ४६.१६ प्रतिशत लोग गरीब हैं। वर्ष २०१८-१९ में झारखण्ड का सकल राज्य घरेलू उत्पाद २०११-१२ की कीमतों पर २,२9,२74 लाख करोड़ रुपए था।
झारखण्ड में भारत के कुछ सर्वाधिक औद्योगिकृत स्थान यथा - जमशेदपुर, राँची, बोकारो एवं धनबाद इत्यादि स्थित हैं। झारखण्ड के उद्योगों में कुछ प्रमुख हैं :
भारत का पहला और विश्व का पाँचवां सबसे बड़ा इस्पात कारखाना टाटा स्टील जमशेदपुर में।
एक और बड़ा इस्पात कारखाना बोकारो स्टील प्लांट बोकारो में।
भारत का सबसे बड़ा आयुध कारखाना गोमिया में।
मीथेन गैस का पहला प्लांट।
कला और संस्कृति
झारखण्ड के कुछ प्रमुख त्योहार इस प्रकार हैं:-
सरहुल (बाः परब/बाहा परब/हादी परब/खाद्यी परब)
झारखण्ड के लोकनृत्य
झुमइर, डमकच, पाइका, छऊ, फिरकल, जदुर, नाचनी, नटुआ, अगनी, चौकारा, जामदा, घटवारी, मतहा, झूमर, आदि।
झारखण्ड में अनेक भाषाओं में चलचित्र बनते हैं। इनमें मुख्य रूप से नागपुरी सिनेमा का निर्माण है। इसके अलावा खोरठा भाषा एवं सन्थाली में भी फिल्में बनती हैं। झारखण्ड के सिनेमा को झॉलीवुड कहा जाता है।
झारखण्ड की शिक्षण संस्थाओं में कुछ अत्यन्त प्रमुख शिक्षा संस्थान शामिल हैं। जनजातिय प्रदेश होने के बावज़ूद यहां कई नामी सरकारी एवं निजी कॉलेज हैं जो कला, विज्ञान, अभियान्त्रिकी, मेडिसिन, कानून और मैनेजमेंट में उच्च स्तर की शिक्षा देने के लिये विख्यात हैं।
झारखण्ड की कुछ प्रमुख शिक्षा संस्थायें हैं :
डॉ ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी यूनिवर्सिटी, राँची
राँची विश्वविद्यालय राँची,
नीलाम्बर पीताम्बर विश्वविद्यालय
बिनोद बिहारी महतो कोयलांचल विश्वविद्यालय,धनबाद
सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग,
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय राँची,
बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान मेसरा राँची,
कोल्हान विश्वविद्यालय चाईबासा,
केन्द्रीय विश्वविद्यालय झारखण्ड
अन्य प्रमुख संस्थान
राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला जमशेदपुर, राष्ट्रीय खनन शोध संस्थान धनबाद, भारतीय लाह शोध संस्थान राँची, राष्ट्रीय मनोचिकत्सा संस्थान राँची, जेवियर प्रबन्धन संस्थान। एक्स एल आर आई जमशेदपुर
आईआईटी (आईएसएम) धनबाद, भारतीय खनि विद्यापीठ विश्वविद्यालय या इंडियन स्कूल ऑफ़ माइन्स भारत के खनन संबंधी शोध संस्थानों में सबसे प्रमुख है। यह संस्थान झारखंड राज्य के धनबाद नामक शहर में स्थित है। इसकी स्थापना १९२६ में लन्दन के रॉयल स्कूल ऑफ़ माईन्स के तर्ज पर की गई थी।
झारखण्ड की राजधानी राँची सम्पूर्ण देश से सड़क एवं रेल मार्ग द्वारा काफी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग २, २7, ३३ इस राज्य से होकर गुजरती है। इस प्रदेश का दूसरा प्रमुख शहर टाटानगर (जमशेदपुर) दिल्ली कोलकाता मुख्य रेलमार्ग पर बसा हुआ है जो राँची से 1२0 किलोमीटर दक्षिण में बसा है। राज्य का में एकमात्र अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा राँची का बिरसा मुण्डा अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है जो देश के प्रमुख शहरों; मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता और पटना से जुड़ा है। इण्डियन एयरलाइन्स और एयर सहारा की नियमित उड़ानें आपको इस शहर से हवाई-मार्ग द्वारा जोड़ती हैं। सबसे नजदीकी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा कोलकाता का नेताजी सुभाषचन्द्र बोस हवाई अड्डा है। हाल ही देवघर हवाई अड्डा बन कर तैयार हो गया है और यातायात की शुरुआत हो चुकी हैं।
संचार एवं समाचार माध्यम
राँची एक्सप्रेस एवं प्रभात खबर जैसे हिन्दी समाचारपत्र राज्य की राजधानी राँची से प्रकाशित होनेवाले प्रमुख समाचारपत्र हैं जो राज्य के सभी हिस्सों में उपलब्ध होते हैं। हिन्दी, बांग्ला एवं अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले देश के अन्य प्रमुख समाचारपत्र भी बड़े शहरों में आसानी से मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, दैनिक हिन्दुस्तान, खबर मन्त्र, आई नेक्स्ट, उदितवाणी, चमकता आईना, उत्कल मेल, स्कैनर इंडिया, इंडियन गार्ड तथा आवाज जैसे हिन्दी समाचारपत्र भी प्रदेश के बहुत से हिस्सों में काफी पढ़े जाते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया की बात करें तो झारखण्ड को केन्द्र बनाकर खबरों का प्रसारण ई टीवी बिहार-झारखण्ड, सहारा समय बिहार-झारखण्ड, जी बिहार झारखण्ड, साधना न्यूज, न्यूज ११ कशिश न्यूज आदि चैनल करते हैं। रांची में राष्ट्रीय समाचार चैनलों के ब्यूरो कार्यालय कार्यरत हैं।
जोहार दिसुम खबर झारखण्डी भाषाओं में प्रकाशित होने वाला पहला पाक्षिक अखबार है। इसमें झारखण्ड की १० आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं तथा हिन्दी सहित ११ भाषाओं में खबरें छपती हैं। जोहार सहिया राज्य का एकमात्र झारखण्डी मासिक पत्रिका है जो झारखण्ड की सबसे लोकप्रिय भाषा नागपुरी में प्रकाशित होती है। इसके अलावा झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा और गोतिया झारखण्ड की आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएं हैं।
राँची और जमशेदपुर में लगभग पांच रेडियो प्रसारण केन्द्र हैं और आकाशवाणी की पहुंच प्रदेश के हर हिस्से में है। दूरदर्शन का राष्ट्रीय प्रसारण भी प्रदेश के लगभग सभी हिस्सों में पहुँच रखता है। झारखण्ड के बड़े शहरों में लगभग हर टेलिविजन चैनल उपग्रह एवं केबल के माध्यम से सुलभता से उपलब्ध है।
लैंडलाइन टेलीफोन की उपलब्धता प्रदेश में भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल), टाटा टेलीसर्विसेज (टाटा इंडिकॉम) एवं रिलायंस इन्फोकॉम द्वारा हर हिस्से में की जाती है। मोबाइल सेवा प्रदाताओं में बीएसएनएल, एयरसेल, वोडाफ़ोन-आइडिया, रिलायंस, यूनिनॉर एवं एयरटेल प्रमुख हैं।
झारखण्ड के पर्यटन स्थल
देवघर वैधनाथ मन्दिर
बेतला राष्ट्रीय उद्यान,लातेहार
छिनमस्तिके मन्दिर, रजरप्पा
श्री बंशीधर स्वामी मन्दिर, गढ़वा
श्री माता चतुर्भुजी मन्दिर, गढ़वा
देउड़ी मन्दिर, तामाड़
जुबली पार्क, जमशेदपुर
पतरातू डैम, पतरातू
हजारीबाग राष्ट्रीय अभयारण्य
मैथन डेम, धनबाद
झारखण्ड के प्रसिद्ध व्यक्ति
जयपाल सिंह मुण्डा
फणि मुकुट राय
गंगा नारायण सिंह
पाण्डे गणपत राय
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव
टिकैत उमराँव सिंह
बिनोद बिहारी महतो
महेन्द्र सिंह धोनी
श्वेता बासु प्रसाद
जानुम सिंह सोय
झारखण्ड - विविध पक्षों पर विस्तृत जानकारी
झारखण्ड का इतिहास, संस्कृति, समाज, कला
झारखंड विषयक लेख (संवाद)
झारखंड ज्ञानकोश : हुलगुलानों की प्रतिध्वनियाँ; भाग-१ (गूगल पुस्तक)
झारखण्ड के जिले
जोहार दिसुम खबर (झारखण्ड की पन्द्रह भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्र)
अखड़ा (झारखण्डी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति)
भारत के राज्य |
पश्चिम बंगाल () भारत के पूर्वी भाग में स्थित एक राज्य है। इसके पड़ोस में नेपाल, सिक्किम, भूटान, असम, बांग्लादेश, ओडिशा, झारखण्ड और बिहार हैं। इसकी राजधानी कोलकाता है। इस राज्य में २३ जनपद है। यहाँ की मुख्य भाषा बांग्ला है।
बंगाल का इतिहास
बंगाल पर इस्लामी शासन १३वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ तथा १३वीं शताब्दी में मुग़ल शासन में व्यापार तथा उद्योग का एक समृद्ध केन्द्र में विकसित हुआ। १५वीं शताब्दी के अन्त तक यहाँ यूरोपीय व्यापारियों का आगमन हो चुका था तथा १८वीं शताब्दी के अन्त तक यह क्षेत्र ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नियन्त्रण में आ गया था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उद्गम यहीं से हुआ। १९४७ में भारत स्वतन्त्र हुआ और इसके साथ ही बंगाल, मुस्लिम प्रधान पूर्व बंगाल (जो बाद में बांग्लादेश बना) तथा हिन्दू प्रधान पश्चिम बंगाल (भारतीय बंगाल) में विभाजित हुआ।
यह राज्य भारत के पूर्वी भाग में ८८,८५३ वर्ग किमी के भूखण्ड पर फैला है। इसके उत्तर में सिक्किम, उत्तर-पूर्व में असम, पूर्व में बांग्लादेश, दक्षिण में बंगाल की खाड़ी तथा उड़ीसा तथा पश्चिम में बिहार तथा झारखण्ड है।
उत्तर में हिमालय पर्वत श्रेणी का पूर्वी हिस्सा से लेकर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी तक प्रदेश की भौगोलिक दशा में खासी विविधता नजर आती है। उत्तर में दार्जिलिंग के शिखर, हिमालय पर्वतश्रेणी के अंग हैं। इसमें संदक्फू चोटी आती है जो राज्य का सर्वोच्च शिखर है। दक्षिण की ओर आने पर, एक छोटे तराई के बाद मैदानी भाग आरम्भ होता है। यह मैदान दक्षिण में गंगा के डेल्टा के साथ खत्म होता है। यही मैदानी क्षेत्र, पूर्व में बांग्लादेश में भी काफी विस्तृत है। पश्चिम की ओर का भूखण्ड पठारी है।
गंगा की धारा मुख्य शाखा यहाँ कई भागों में बँट जाती है - एक शाखा बांग्लादेश में प्रवेश करती है जिसे पद्मा (पॉद्दा) नाम से जाना जाता है, दूसरी शाखाएँ पश्चिम बंगाल (भारतीय बंगाल) में दक्षिण की ओर भागीरथी तथा हुगली नामों के साथ बहती हैं। उपर्युक्त सभी शाखाएँ दक्षिण की ओर बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होती हैं। गंगा नदी का मुहाना (सुंदरवन) विश्व का सबसे बड़ा मुहाना (डेल्टा) है। उत्तरी पर्वतीय भाग में तीस्ता, महानंदा, तोरसा आदि नदियाँ बहती हैं। पश्चिमी पठारी भाग में दामोदर, अजय, कंग्साबाती आदि प्रमुख धाराएं हैं।
पश्चिम बंगाल (भारतीय बंगाल) का मौसम मुख्यतः उष्णकटिबन्धीय है।
पश्चिम बंगाल (भारतीय बंगाल) के जिलों की कुल संख्या २३ है। नीचे बायीं ओर दी गयी छवि के अनुसार जिलों के नाम सूचीबद्ध हैं।
उत्तर २४ परगना
दक्षिण २४ परगना
नृत्य, संगीत तथा चलचित्रों की यहाँ लम्बी तथा सुव्यवस्थित परम्परा रही है।दुर्गापूजा (बांग्ला: दुर्गापूजा) यहाँ अति उत्साह तथा व्यापक जन भागीदारी के साथ मनाई जाती है। क्रिकेट तथा फुटबॉल यहाँ के लोकप्रियतम खेलों में से हैं। सौरभ गांगुली जैसे खिलाड़ी तथा मोहन बगान एवं ईस्ट बंगाल जैसी टीम इसी प्रदेश से हैं। अगर आँकड़ों पर जाये तो नक्सलवाद जैसे शब्दों का जन्म यहीं हुआ, पर यहाँ के लोगों की शान्तिप्रियता ही वो चीज है जो सर्वत्र दर्शास्पद (देखने लायक) है। परस्पर बातचीत में तूइ(बांग्ला - ) (हिन्दी के तू के लगभग समकक्ष), तूमि (बांग्ला - ) (हिन्दी के तुम के लगभग समकक्ष), तथा आपनि (बांग्ला - ) (हिन्दी के आप के समकक्ष), का प्रयोग द्वितीय पुरूष की वरिष्ठता के आधार पर किया जाता है। शहरों में लोग प्रायः छोटे परिवारों में रहते हैं। यहाँ के लोग मछली-भात (बांग्ला - (माछ-भात)) बहुत पसन्द करते हैं। यह प्रदेश अपनी मिठाईयों के लिये काफी प्रसिद्ध है - रसगुल्ले का आविष्कार भी यहीं हुआ था।
बांग्ला भाषा में एक ही साहित्य आन्दोलन हुये हैं और वो हैं भूखी पीढ़ी आन्दोलन जिसने साठ के दशक में शक्ति चट्टोपाध्याय, मलय रायचौधुरी, देबी राय, सुबिमल बसाक, समीर रायचौधुरी प्रमुख कविगण बिहार के पटना शहर से शुरू किये थे इस आन्दोलन ने पूरे बंगाल में तहलका मचा दिया था; यहाँ तक की आन्दोलनकारियों के विरुद्ध मुकदमा भी दायर किया गया था। बाद में सब बाइज्जत बरी हो गये थे, परन्तु उन लोगों का ख्याति पूरे भारत में तथा अमेरिका और यूरोप में भी फैल गई थी ।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा सीटों की संख्या २९४ है। इस उतर- पश्चिम भारतीय राज्य (भारतीय बंगाल) में तृणमूल कांग्रेस सरकार है। पश्चिम बंगाल (भारतीय बंगाल) की मुख्य मन्त्री ममता बनर्जी हैं। इससे पहले पिछले ३५ सालों से (१९७७ से) यहाँ वाम मोर्चे की सरकार थी।
पश्चिम बंगाल कुल लोकसभा सीटें: ४२ (टीएमसी(ट्म्क)-२२, भाजपा (ब्जप)-१८,भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस(इनक)-२
मैजिस्ट्रेट भक्ति विनोद ठाकुर
भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज
एक भक्तिवेदांत स्वामी महाराज प्रभुपाद
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
जगदीश चन्द्र वसु (बोस)
बिधान चन्द्र राय
श्यामा प्रसाद मुखर्जी
शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
रवीन्द्र नाथ ठाकुर (टैगोर)
सत्येन्द्र नाथ बोस
राजा राममोहन राय
पश्चिम बंगाल (भारतीय बंगाल) सरकार
भारत के मानिचत्र में बंगाल का स्थान
बंगाल के जिला मानिचत्र
भारत के राज्य |
बिहार भारत के उत्तर-पूर्वी भाग के मध्य में स्थित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक राज्य है और इसकी राजधानी पटना है। यह जनसंख्या की दृष्टि से भारत का तीसरा सबसे बड़ा प्रदेश है जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से बारहवां है। १५ नवम्बर, सन् २००० ई॰ को बिहार के दक्षिणी हिस्से को अलग कर एक नया राज्य झारखण्ड बनाया गया। बिहार के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में झारखण्ड, पूर्व में पश्चिम बंगाल, और पश्चिम में उत्तर प्रदेश स्थित है। यह क्षेत्र गंगा नदी तथा उसकी सहायक नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है। गंगा इसमें पश्चिम से पूर्व की तरफ बहती है। बिहार भारत के सबसे महान् राज्यों मे से एक है।
बिहार की जनसंख्या का अधिकांश भाग ग्रामीण है और केवल ११.३ प्रतिशत लोग नगरों में रहते हैं। इसके अलावा बिहार के ५८% लोग २५ वर्ष से कम आयु के हैं।
प्राचीन काल में बिहार विशाल साम्राज्यों, शिक्षा केन्द्रों एवं संस्कृति का गढ़ था। बिहार नाम का प्रादुर्भाव बौद्ध सन्यासियों के ठहरने के स्थान विहार शब्द से हुआ। 'बिहार', 'विहार' का अपभ्रंश है।
१२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन १२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है।
वर्तमान बिहार विभिन्न ऐतिहासिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। बिहार के क्षेत्र जैसे-मगध, मिथिला और अंग- धार्मिक ग्रंथों और प्राचीन भारत के महाकाव्यों में वर्णित हैं।
सारण जिले में गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर चिरांद, नवपाषाण युग (लगभग ४५००-२३४५ ईसा पूर्व) और ताम्र युग ( २३४५-१७२६ ईसा पूर्व) से एक पुरातात्विक रिकॉर्ड है।
मिथिला को पहली बार इंडो-आर्यन लोगों ने विदेह साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रतिष्ठा प्राप्त की। देर वैदिक काल (सी। १६००-११०० ईसा पूर्व) के दौरान, विदेह् दक्षिण एशिया के प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों में से एक बन गया, कुरु और पंचाल् के साथ। विदेह साम्राज्य के राजा यहांजनक कहलाते थे। मिथिला के राजा सिरध्वज जनक की पुत्री एक थी सीता जिसका वाल्मीकि द्वारा लिखी जाने वाली हिंदू महाकाव्य, रामायण में भगवान राम की पत्नी के रूप में वर्णित है। बाद में विदेह राज्य के वाजिशि शहर में अपनी राजधानी था जो वज्जि समझौता में शामिल हो गया, मिथिला में भी है। वज्जि के पास एक रिपब्लिकन शासन था जहां राजा राजाओं की संख्या से चुने गए थे। जैन धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों में मिली जानकारी के आधार पर, वज्जि को ६ ठी शताब्दी ईसा पूर्व से गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया था, गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ५६३ ईसा पूर्व में, यह दुनिया का पहला गणतंत्र था। जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था।
आधुनिक-पश्चिमी पश्चिमी बिहार के क्षेत्र में मगध १००० वर्षों के लिए भारत में शक्ति, शिक्षा और संस्कृति का केंद्र बने। ऋग्वेदिक् काल मे यह बृहद्रथ वंश का शासन था।सन् ६८४ ईसा पूर्व में स्थापित हरयंक वंश, राजगृह (आधुनिक राजगीर) के शहर से मगध पर शासन किया। इस वंश के दो प्रसिद्ध राजा बिंबिसार और उनके बेटे अजातशत्रु थे, जिन्होंने अपने पिता को सिंहासन पर चढ़ने के लिए कैद कर दिया था। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र शहर की स्थापना की जो बाद में मगध की राजधानी बन गई। उन्होंने युद्ध की घोषणा की और बाजी को जीत लिया। हिरुआँ वंश के बाद शिशुनाग वंश का पीछा किया गया था। बाद में नंद वंश ने बंगाल से पंजाब तक फैले विशाल साम्राज्य पर शासन किया।
भारत की पहली साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य द्वारा नंद वंश को बदल दिया गया था। मौर्य साम्राज्य और बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में उभार रहा है जो अब आधुनिक बिहार को बना देता है। ३२५ ईसा पूर्व में मगध से उत्पन्न मौर्य साम्राज्य, चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया था, जो मगध में पैदा हुआ था। इसकी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में इसकी राजधानी थी। मौर्य सम्राट, अशोक, जो पाटलीपुत्र (पटना) में पैदा हुए थे, को दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ा शासक माना जाता है।
मौर्य साम्राज्य भारत की आजतक की सबसे बड़ी सम्राजय थी ये पश्चिम मे ईरान से लेकर पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य-एशिया से लेकर दक्षिण मे श्रीलंका तक पूरा भारतवर्ष मे फैला था। इस साम्राज्य के पहले राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ने कै ग्रीक् सतराप् को हराकर अफ़ग़ानिस्तां के हिस्से को जीता। इनकी सबसे बड़ी विजय ग्रीस से पश्चिम-एशिय थक के यूनानी राजा सेलेक्यूज़ निकेटर को हराकर पर्शिया का बड़ा हिस्सा जीत लिया था और संधि मे यूनानी राजकुमारी हेलेन से विवाह किये जो कि सेलेक्यूज़ निकटोर कि पुत्री थी और हमेसा के लिए यूनाननियो को भारत से बाहर रखा। इनके प्रधानमंत्री अर्चाय चाणक्य ने अर्थशास्त्र कि रचना कि जो इनके गुरु और मार्गदर्शक थे।
इनके पुत्र बिन्दुसार ने इस साम्राज्य को और दूर तक फैलाया व दक्षिण तक स्थापित किया।
सम्राट अशोक इस सम्राजय के सबसे बड़े राजा थे। इनका पूरा राज नाम देवानामप्रिय प्रियादर्शी एवं राजा महान सम्राट अशोक था। इन्होंने अपने उपदेश स्तंभ, पहाद्, शीलालेख पे लिखाया जो भारत इतिहास के लिया बहुत महत्वपूर्ण है। येे लेख् ब्राह्मी, ग्रीक, अरमिक् मे पूरे अपने सम्राज्य मे अंकित् किया। इनके मृत्यु के बाद मौर्य सम्राज्य को इनके पुुत्रौ ने दो हिस्से मे बाँट कर पूर्व और पश्चिम मौर्य राज्य कि तरह राज किया। इस साम्राज्य कि अंतिम शासक ब्रिहद्रत् को उनके ब्राह्मिन सेनापति पुष्यमित्र शूंग ने मारकर वे मगध पे अपना शासन स्थापित किया।
सन् २४० ए में मगध में उत्पन्न गुप्त साम्राज्य को विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, धर्म और भारतीय दर्शन में भारत का स्वर्णिम युग कहा गया। इस वंश के समुद्रगुप्त ने इस सम्राजय को पूरे दक्षिण एशिया मे स्थापित किया। इनके पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भारत के सारे विदेशी घुसपैट्या को हरा कर देश से बाहर किया इसीलिए इन्हे सकारी की उपाधि दी गई। इन्ही गुप्त राजाओं मे से प्रमुख स्कंदगुप्त ने भारत मे हूणों का आक्रमं रोका और उनेे भारत से बाहर भगाया और देश की बाहरी आक्रमण कारी से रक्षा की।
उस समय गुप्त साम्राज्य दुनिया कि सबसे बड़ी शक्तिशाली साम्राज्य था। इसका राज्य पश्चिम मे पर्शिया या बग़दाद से पूर्व मे बर्मा तक और उत्तर मे मध्य एशिया से लेकर दक्षिण मे कांचीपुरम तक फैला था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (पटना वर्तमान में) था। इस साम्राज्य का प्रभाव पूरी विश्व मे था रोम, ग्रीस, अरब से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक था।
मगध में बौद्ध धर्म मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण की वजह से गिरावट में पड़ गया, जिसके दौरान कई बिहार के नालंदा और विक्रमशिला के विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया गया। यह दावा किया गया कि १२ वीं शताब्दी के दौरान हजारों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई थी। डी.एन. झा सुझाव देते हैं, इसके बजाय, ये घटनाएं सर्वोच्चता के लिए लड़ाई में बौद्ध ब्राह्मण की झड़पों का परिणाम थीं। १५४० में, महान पस्तीस के मुखिया, सासाराम के शेर शाह सूरी, हुमायूं की मुगल सेना को हराकर मुगलों से उत्तरी भारत ले गए थे। शेर शाह ने अपनी राजधानी दिल्ली की घोषणा की और ११ वीं शताब्दी से लेकर २० वीं शताब्दी तक, मिथिला पर विभिन्न स्वदेशीय राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से पहला, जहां कर्नाट, अनवर राजवंश, रघुवंशी और अंततः राज दरभंगा के बाद। इस अवधि के दौरान मिथिला की राजधानी दरभंगा में स्थानांतरित की गई थी।
१८५७ के प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९०५ में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया। १९३६ में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार में चंपारण के विद्रोह को, अंग्रेजों के खिलाफ बग़ावत फैलाने में अग्रण्य घटनाओं में से एक गिना जाता है। स्वतंत्रता के बाद बिहार का एक और विभाजन हुआ और १५ नवंबर २००० में झारखंड राज्य को इससे अलग कर दिया गया। भारत छोड़ो आन्दोलन में भी बिहार की अहम भूमिका रही थी।यह भी देखें भारत छोड़ो आन्दोलन और बिहार
उत्तर भारत में २४२०'१०" ~ २७३१'१५" उत्तरी अक्षांश तथा ८३१९'५०" ~ ८८१७'४०" पूर्वी देशांतर के बीच बिहार एक हिंदी भाषी राज्य है। राज्य का कुल क्षेत्रफल ९४,१६३ वर्ग किलोमीटर है जिसमें ९२,२५७.५१ वर्ग किलोमीटर ग्रामीण क्षेत्र है। झारखंड के अलग हो जाने के बाद बिहार की भूमि मुख्यतः नदियों के मैदान एवं कृषियोग्य समतल भूभाग है। गंगा के पूर्वी मैदान में स्थित इस राज्य की औसत ऊँचाई १७३ फीट है। भौगोलिक तौर पर बिहार को तीन प्राकृतिक विभागो में बाँटा जाता है- उत्तर का पर्वतीय एवं तराई भाग, मध्य का विशाल मैदान तथा दक्षिण का पहाड़ी किनारा।
उत्तर का पर्वतीय प्रदेश सोमेश्वर श्रेणी का हिस्सा है। इस श्रेणी की औसत उचाई ४५५ मीटर है परन्तु इसका सर्वोच्च शिखर ८७४ मीटर उँचा है। सोमेश्वर श्रेणी के दक्षिण में तराई क्षेत्र है। यह दलदली क्षेत्र है जहाँ साल वॄक्ष के घने जंगल हैं। इन जंगलों में प्रदेश का इकलौता बाघ अभयारण्य वाल्मिकीनगर में स्थित है।
मध्यवर्ती विशाल मैदान बिहार के ९५% भाग को समेटे हुए हैं। भौगोलिक तौर पर इसे चार भागों में बाँटा जा सकता है:-
१- तराई क्षेत्र यह सोमेश्वर श्रेणी के तराई में लगभग १० किलोमीटर चौ़ड़ा कंकर-बालू का निक्षेप है। इसके दक्षिण में तराई उपक्षेत्र है जो प्रायः दलदली है।
२-भांगर क्षेत्र यह पुराना जलोढ़ क्षेत्र है। समान्यतः यह आस पास के क्षेत्रों से ७-८ मीटर ऊँचा रहता है।
३-खादर क्षेत्र इसका विस्तार गंडक से कोसी नदी के क्षेत्र तक सारे उत्तरी बिहार में है। प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ के कारण यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ है। परन्तु इसी बाढ़ के कारण यह क्षेत्र तबाही के कगार पर खड़ा है।
गंगा नदी राज्य के लगभग बीचों-बीच बहती है। उत्तरी बिहार बागमती, कोशी, बूढी गंडक, गंडक, घाघरा और उनकी सहायक नदियों का समतल मैदान है। सोन, पुनपुन, फल्गू तथा किऊल नदी बिहार में दक्षिण से गंगा में मिलनेवाली सहायक नदियाँ है। बिहार के दक्षिण भाग में छोटानागपुर का पठार, जिसका अधिकांश हिस्सा अब झारखंड है, तथा उत्तर में हिमालय पर्वत की नेपाल श्रेणी है। हिमालय से उतरने वाली कई नदियाँ तथा जलधाराएँ बिहार होकर प्रवाहित होती है और गंगा में विसर्जित होती हैं। वर्षा के दिनों में इन नदियों में बाढ़ की एक बड़ी समस्या है।
राज्य का औसत तापमान गृष्म ऋतु में ३५-४५ डिग्री सेल्सियस तथा जाड़े में ५-१५ डिग्री सेल्सियस रहता है। जाड़े का मौसम नवंबर से मध्य फरवरी तक रहता है। अप्रैल में गृष्म ऋतु का आरंभ होता है जो जुलाई के मध्य तक रहता है। जुलाई-अगस्त में वर्षा ऋतु का आगमन होता है जिसका अवसान अक्टूबर में होने के साथ ही ऋतु चक्र पूरा हो जाता है। औसतन १२०५ मिलीमीटर वर्षा का का वार्षिक वितरण लगभग ५२ दिनों तक रहता है जिसका अधिकांश भाग मानसून से होनेवाला वर्षण है।
उत्तर में भूमि प्रायः सर्वत्र उपजाऊ एवं कृषि योग्य है। धान, गेंहूँ, दलहन, मक्का, तिलहन, तम्बाकू,सब्जी तथा केला, आम और लीची जैसे कुछ फलों की खेती की जाती है। हाजीपुर का केला एवं मुजफ्फरपुर की लीची बहुत ही प्रसिद्ध है।
भाषा और संस्कृति
हिंदी बिहार की राजभाषा और मैथिली द्वितीय राजभाषा है।मैथिली भारतीय संविधान के अष्टम अनुसूची में सम्मिलित एकमात्र बिहारी भाषा है।भोजपुरी, मगही, अंगिका तथा बज्जिका बिहार में बोली जाने वाली अन्य प्रमुख भाषाओं और बोलियों में सम्मिलित हैं।प्रमुख पर्वों में छठ, होली, दीपावली, दशहरा, महाशिवरात्रि, नागपंचमी, श्री पंचमी, मुहर्रम, ईद,तथा क्रिसमस हैं। सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म स्थान होने के कारण पटना सिटी (पटना) में उनकी जयन्ती पर भी भारी श्रद्धार्पण देखने को मिलता है। बिहार ने हिंदी को सबसे पहले राज्य की अधिकारिक भाषा माना है।
बिहार अपने खानपान की विविधता के लिए प्रसिद्ध है। शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनो व्यंजन पसंद किये जाते हैं। मिठाईयों की विभिन्न किस्मों के अतिरिक्त अनरसा की गोली, खाजा, मोतीचूर लड्डू,गया की तिलकुट,थावे(गोपालगंज) के पेरुकिया ,रफीगंज का छेना, यहाँ की खास पसंद है। सत्तू, चूड़ा-दही और लिट्टी-चोखा जैसे स्थानीय व्यंजन तो यहाँ के लोगों की कमजोरी हैं। लहसुन की चटनी भी बहुत पसंद करते हैं। लालू प्रसाद के रेल मंत्री बनने के बाद तो लिट्टी-चोखा भारतीय रेल के महत्वपूर्ण स्टेशनों पर भी मिलने लगा है। सुबह के नास्ते में चूड़ा-दही या पूरी-जलेबी खूब खाये जाते हैं। चावल-दाल-सब्जी और रोटी बिहार का सामान्य भोजन है। बिहार की मालपुआ काफी स्वादिष्ट होता है। यह उत्तर भारत में बनाये जाने वाली डिश है। बिहार की बाकी व्यंजनों में दालपूरी, खाजा, मखाना खीर, पुरूकिया (गुजिया), ठेकुआ, भेलपुरी, खजुरी, बैगन का भरता आदि शामिल है।
भारत के अन्य कई जगहों की तरह क्रिकेट यहाँ भी सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसके अलावा फुटबॉल, हाकी, टेनिस, खो-खो और गोल्फ भी पसन्द किया जाता है। बिहार का अधिकांश हिस्सा ग्रामीण होने के कारण पारंपरिक भारतीय खेल कबड्डी हैं।
बिहार राज्य के प्रमुख् उद्योग
राज्य के मुख्य उद्योग हैं -
मुंगेर में सिगरेट कारखाना आई टी सी
मुंगेर में आई टी सी के अन्य उत्पाद अगरबत्ती, माचिस तथा चावल-आटा आदि का निर्माण
मुंगेर में बंदुक फैक्टरी
मुेंगेर के जमालपुर में रेल कारखाना
एशिया प्रसिद्ध रेल क्रेन कारखाना जमालपुर
भागलपुर में शिल्क उधाेग
मुजफ्फरपुर और मोकामा में 'भारत वैगन लिमिटेड' का रेलवे वैगन संयंत्र,
बरौनी में भारतीय तेल निगम का तेलशोधक कारख़ाना है।
बरौनी का एच.पी.सी.एल. और अमझोर का पाइराइट्स फॉस्फेट एंड कैमिकल्स लिमिटेड (पी.पी.सी.एल.) राज्य के उर्वरक संयंत्र हैं।
सीवान, भागलपुर, पंडौल, मोकामा और गया में पांच बड़ी सूत कताई मिलें हैं।
उत्तर व दक्षिण बिहार में १३ चीनी मिलें हैं, जो निजी क्षेत्र की हैं तथा १५ चीनी मिलें सार्वजनिक क्षेत्र की हैं जिनकी कुल पेराई क्षमता ४५,०० टी.
पश्चिमी चंपारण, मुजफ्फरपुर और बरौनी में चमड़ा प्रसंस्करण के उद्योग है।
कटिहार और समस्तीपुर में तीन बड़े पटसन के कारखाने हैं।
हाजीपुर में दवाएं बनाने का कारख़ाना ,औरंगाबाद और पटना में खाद्य प्रसंस्करण और वनस्पति बनाने के कारखाने हैं।
इसके अलावा बंजारी के कल्याणपुर सीमेंट लिमिटेड नामक सीमेंट कारखाने का बिहार के औद्योगिक नक्शे में महत्वपूर्ण स्थान है।
औरंगाबाद का नया श्री सीमेंट का कारखाना
रेल इंजन कारखाना, मधेपुरा
रेल इंजन कारखाना मढ़ौरा
मोकामा के दरियापुर मे बाटा नामक कम्पनी के जुते के कारखाने है ।
मधेपुरा की यह फैक्ट्री अपने आप में देश में सबसे आधुनिक है. फैक्ट्री के निर्माण में ऑल्स्टम कंपनी ने ७४ प्रतिशत राशि का निवेश किया है, वहीं भारतीय रेलवे की इस फैक्ट्री में २६ प्रतिशत हिस्सेदारी है. २६0 एकड़ में फैली हुई है यह फैक्ट्री ।
बिहार में कुल सिंचाई क्षमता २८.६३ लाख हेक्टेयर है। यह क्षमता बड़ी तथा मंझोली सिंचाई परियोजनाओं से जुटाई जाती है। यहाँ बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं का सृजन किया गया है और ४८.९७ लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल की सिंचाई प्रमुख सिंचाई योजनाओं के माध्यम से की जाती है। बिहार में शिचाई नलकूप, कुंआ,और मानसून पर निर्भर करता है
एक समय बिहार शिक्षा के सर्वप्रमुख केन्द्रों में गिना जाता था। नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा ओदंतपुरी विश्वविद्यालय प्राचीन बिहार के गौरवशाली अध्ययन केंद्र थे। १९१७ में खुलने वाला पटना विश्वविद्यालय काफी हदतक अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने में सफल रहा। किंतु स्वतंत्रता के पश्चात शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति तथा अकर्मण्यता करने से शिक्षा के स्तर में गिरावट आई। हाल के दिनों में उच्च शिक्षा की स्थिति सुधरने लगी है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की स्थिति भी अच्छी हो रही है। हाल में पटना में एक भारतीय प्राद्यौगिकी संस्थान और राष्ट्रीय प्राद्यौगिकी संस्थान तथा हाजीपुर में केंद्रीय प्लास्टिक इंजिनियरिंग रिसर्च इंस्टीच्युट तथा केंद्रीय औषधीय शिक्षा एवं शोध संस्थान खोला गया है, जो अच्छा संकेत है।
बिहार के सभी जिलों मे २०१९ में एक-एक सरकारी इंजिनियरिंग कॉलेज खोला गया है।
भारतीय सूचना प्रोद्योगिकी संस्थान, भागलपुर
महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, पूर्वी चम्पारण
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बोधगया
बिहार कृषि विशवविधालय सबौर, भागलपुर
पटना विश्वविद्यालय, पटना
पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
मगध विश्वविद्यालय, बोधगया
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर
तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा
जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय, छपरा
भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा
मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर
पूर्णिया विश्वविद्यालय, पूर्णिया
वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा
नालंदा मुक्त विश्वविद्यालय, पटना
मौलाना मजहरुल हक़ अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय, पटना
राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर
आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय, पटना
पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल, पटना
इंदिरागाँधी आयुर्विज्ञान संस्थान, पटना
नालन्दा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, पटना
बुद्धा दंत चिकित्सा संस्थान एवं अस्पताल, पटना
श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, मुजफ्फरपुर
राय बहादुर टुनकी साह होमियोपैथिक कॉलेज और अस्पताल, मुजफ्फरपुर
अनुग्रह नारायण मगध मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, गया
दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, लहेरियासराय
कटिहार मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, कटिहार
जवाहरलाल नेहरू मेडिकल काॅलेज और अस्पताल, भागलपुर
वर्धमान इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्स, पावापुरी, नालंदा
मधुबनी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, मधुबनी
नारायण मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल, रोहतास
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना
मुजफ्फरपुर प्रौद्योगिकी संस्थान
अन्य प्रमुख शैक्षणिक संस्थान
शेरिकलचर इंसटीचयूट भागलपुर
चाणक्य विधि विश्वविद्यालय, पटना
अनुग्रह नारायण सामाजिक परिवर्तन संस्थान, पटना
ललितनारायण मिश्रा सामाजिक परिवर्तन संस्थान, पटना
केंद्रीय प्लास्टिक इंजिनियरिंग रिसर्च इंस्टीच्युट (सिपेट), हाजीपुर
केंद्रीय औषधीय शिक्षा एवं शोध संस्थान (नाइपर), हाजीपुर
होटल प्रबंधन, खानपान एवं पोषाहार संस्थान, हाजीपुर
प्राकृत जैनशास्त्र एवं अहिंसा संस्थान, वैशाली
बिहार लोक सेवा आयोग
बिहार कर्मचारी चयन आयोग
बिहार पुलिस अधीनस्थ सेवा आयोग
बिहार राज्य भारतीय गणराज्य के संघीय ढाँचे में द्विसदनीय व्यवस्था के अन्तर्गत आता है। राज्य का संवैधानिक मुखिया राज्यपाल है लेकिन वास्तविक सत्ता मुख्यमंत्री और मंत्रीपरिषद के हाथ में होता है। विधानसभा में चुनकर आनेवाले विधायकों द्वारा मुख्यमंत्री का चुनाव पाँच वर्षों के लिए किया जाता है जबकि राज्यपाल की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। प्रत्यक्ष चुनाव में बहुमत प्राप्त करनेवाले राजनीतिक दल अथवा गठबंधन के आधार पर सरकार बनाए जाते हैं। उच्च सदन या विधान परिषद के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष ढंग से ६ वर्षों के लिए होता है।
प्रशासनिक सुविधा के लिए बिहार राज्य को ९ प्रमंडल तथा ३८ मंडल (जिला) में बाँटा गया है। जिलों को क्रमश: १०१ अनुमंडल, ५३४ प्रखंड (अंचल), ८,४७१ पंचायत, ४५,१०३ गाँव में बाँटा गया है। राज्य का मुख्य सचिव नौकरशाही का प्रमुख होता है जिसे श्रेणीक्रम में आयुक्त, जिलाधिकारी, अनुमंडलाधिकारी, प्रखंड विकास पदाधिकारी या अंचलाधिकारी तथा इनके साथ जुड़े अन्य अधिकारी एवं कर्मचारीगण रिपोर्ट करते हैं। पंचायत तथा गाँवों का कामकाज़ सीधेतौर पर चुनाव कराकर मुखिया, सरपंच तथा वार्ड सदस्यों के अधीन संचालित किया जाता है। नगरपालिका आम निर्वाचन २०१७ के बाद बिहार में नगर निगमों की संख्या 1९, नगर परिषदों की संख्या 4९ और नगर पंचायतों की संख्या ८0 है।इसके साथ ही बिहार की सरकार अपने नागरिको के लिए सभी सुविधा जनक कार्य भी करते है जैसे की हाल ही में उनके द्वारा ऑनलाइन पोर्तल र्टप्स जारी किया गया.
पटना, तिरहुत, सारण, दरभंगा, कोशी, पूर्णिया, भागलपुर, मुंगेर तथा मगध प्रमंडल के अन्तर्गत आनेवाले जिले इस प्रकार हैं:
अररिया अरवल औरंगाबाद कटिहार किशनगंज खगड़िया गया गोपालगंज छपरा जमुई जहानाबाद दरभंगा नवादा नालंदा पटना पश्चिम चंपारण पूर्णिया पूर्वी चंपारण बक्सर बाँका बेगूसराय भभुआ भोजपुर भागलपुर मधेपुरा मुंगेर मुजफ्फरपुर मधुबनी सासाराम लखीसराय वैशाली सहरसा समस्तीपुर सीतामढी सुपौल शिवहर शेखपुरा
बिहार के कटिहार जिले के अंतर्गत कुर्सेला प्रखंड के कटरिया गांव के न्ह-३१ से रास्ता त्रिमोहिनी संगम की ओर जाती है।प्रकृति की अनुपम दृश्य देखने को मिलता है।
यहाँ तीन नदियों का संगम है जिसमे प्रमुख रूप से गंगा और कोशी का मिलन है। गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में प्रवाहित होती है। कलबलिया नदी की एक छोटी धारा इस उत्तरवाहिनी गंगा तट से मिलकर संगम करती है। १२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन १२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
पटना एवं आसपासः
पटना राज्य की वर्तमान राजधानी तथा महान ऐतिहासिक स्थल है। अतीत में यह सत्ता, धर्म तथा ज्ञान का केंद्र रहा है। निम्न स्थल पटना के महत्वपूर्ण दार्शनिक स्थल हैं:
प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतें: कुम्रहार परिसर, अगमकुआँ, महेन्द्रूघाट, शेरशाह के द्वारा बनवाए गए किले का अवशेष
ब्रिटिश कालीन भवन: जालान म्यूजियम, गोलघर, पटना संग्रहालय, विधान सभा भवन, हाईकोर्ट भवन, सदाकत आश्रम
धार्मिक स्थल : महावीर मंदिर,बड़ी पटनदेवी,छोटी पटनदेवी,शीतला माता मंदिर,इस्कॉन मंदिर,हरमंदिर(पटना), महाबोधि मंदिर(गया),एनआईटी घाट,
माता सीता की जन्मस्थली(सीतामढ़ी), कवि विद्यापति सह उगना महादेव मंदिर(मधुबनी), दभारत स्थापत्यकला विष्णु मंदिर(सुपौल), सिहेश्वरनाथ मंदिर(मधेपुरा),काली मंदिर रामनगर महेश(कुमारखंड,मधेपुरा),सबसे ऊँची काली मंदिर(अररिया), नृसिंह अवतार स्थल(पूर्णियाँ), सूर्य मंदिर,नवलख्खा मंदिर,थावे(गोपालगंज)माँ दुर्गा माता मंदिर,नेचुआ जलालपुर रामबृक्ष धाम, दुर्गा मंदिर, अमनौर वैष्णो धाम ,आमी अम्बिका दुर्गा मंदिर,माँ दुर्गा की मंदिर छपरा, सीता जी का जन्म स्थान, पादरी की हवेली, शेरशाह की मस्जिद, बेगू ह्ज्जाम की मस्जिद, पत्थर की मस्जिद, जामा मस्जिद, फुलवारीशरीफ में बड़ी खानकाह, मनेरशरीफ - सूफी संत हज़रत याहया खाँ मनेरी की दरगाह, भारत की प्रथम महिला सूफी संत हजरत बीबी कमाल का कब्र (जहानाबाद) मितीलांचल
ज्ञान-विज्ञान के केंद्र: पटना तारामंडल, पटना विश्वविद्यालय, सच्चिदानंद सिन्हा लाइब्रेरी, संजय गाँधी जैविक उद्यान, श्रीकृष्ण सिन्हा विज्ञान केंद्र, खुदाबक़्श लाइब्रेरी एवं विज्ञान परिसर
सारण तथा आसपास
प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा से लगनेवाला सोनपुर मेला, सारण जिला का नवपाषाण कालीन चिरांद गाँव, कोनहारा घाट, नेपाली मंदिर, रामचौरा मंदिर, १५वीं सदी में बनी मस्जिद, दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल, महात्मा गाँधी सेतु, गुप्त एवं पालकालीन धरोहरों वाला चेचर गाँव
वैशाली तथा आसपासछठी सदी इसापूर्व में वज्जिसंघ द्वारा स्थापित विश्व का प्रथम गणराज्य के अवशेष, अशोक स्तंभ, बसोकुंड में भगवान महावीर की जन्म स्थली, अभिषेक पुष्करणी, विश्व शांतिस्तूप, राजा विशाल का गढ, चौमुखी महादेव मंदिर, भगवान महावीर के जन्मदिन पर वैशाख महीने में आयोजित होनेवाला वैशाली महोत्सव
राजगीर तथा आसपास राजगृह मगध साम्राज्य की पहली राजधानी तथा हिंदू, जैन एवं बौध धर्म का एक प्रमुख दार्शनिक स्थल है। भगवान बुद्ध तथा वर्धमान महावीर से जुडा कई स्थान अति पवित्र हैं। वेणुवन, सप्तपर्णी गुफा, गृद्धकूट पर्वत, जरासंध का अखाड़ा, गर्म पानी के कुंड, मख़दूम कुंड आदि राजगीर के महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं।
नालंदा तथा आसपासनालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष, पावापुरी में भगवान महावीर का परिनिर्वाण स्थल एवं जलमंदिर, बिहारशरीफ में मध्यकालीन किले का अवशेष एवं १४वीं सदी के सूफी संत की दरगाह (बड़ी दरगाह एवं छोटी दरगाह), नवादा के पास ककोलत जलप्रपात
गया एवं बोधगया हिंदू धर्म के अलावे बौद्ध धर्म मानने वालों का यह सबसे प्रमुख दार्शनिक स्थल है। पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ दुनिया भर से हिंदू आकर फल्गू नदी किनारे पितरों को तर्पण करते हैं। विष्णुपद मंदिर, बोधगया में भगवान बुद्ध से जुड़ा पीपल का वृक्ष तथा महाबोधि मंदिर के अलावे तिब्बती मंदिर, थाई मंदिर, जापानी मंदिर, बर्मा का मंदिर, बौधनी पहाड़ी { इमामगंज }
भागलपुर तथा आसपासप्राचीन शिक्षा स्थल के अलावे यह बिहार में तसर सिल्क उद्योग केंद्र है। पाल शासकों द्वारा बनवाये गये प्राचीन विश्व विख्यात विक्रमशिला विश्वविद्यालय का अवशेष, वैद्यनाथधाम मंदिर, सुलतानगंज, मुंगेर में बनवाया मीरकासिम का किला और मंदार पर्वत बौंसी बाँका एक प्रमुख धार्मिक स्थल जो तीन धर्मो का संगम स्थल है। विष्णुपुराण के अनुसार समुद्र मंथन यही संपन्न हुआ था और यही पर्वत जिसका प्राचीन नाम मंद्राचल पर्वत( मंदार वर्तमान में) जो मथनी के रूप में प्रयुक्त हुआ था।
चंपारण सम्राट अशोक द्वारा लौरिया में स्थापित स्तंभ, लौरिया का नंदन गढ़, नरकटियागंज का चानकीगढ़, वाल्मीकिनगर जंगल, बापू द्वारा स्थापित भीतीहरवा आश्रम, तारकेश्वर नाथ तिवारी का बनवाया रामगढ़वा हाई स्कूल, स्वतंत्रता आन्दोलन के समय महात्मा गाँधी एवं अन्य सेनानियों की कर्मभूमि तथा अरेराज में भगवान शिव का मन्दिर, केसरिया में दुनिया का सबसे बड़ा बुद्ध स्तूप जो पूर्वी चंपारण में एक आदर्श पर्यटन स्थल है | .
सीतामढी तथा आसपास पुनौरा में देवी सीता की जन्मस्थली, जानकी मंदिर एवं जानकी कुंड, हलेश्वर स्थान, पंथपाकड़, यहाँ से सटे नेपाल के जनकपुर जाकर भगवान राम का स्वयंवर स्थल भी देखा जा सकता है।
सासाराम अफगान शैली में बनाया गया अष्टकोणीय शेरशाह का मक़बरा वास्तुकला का अद्भुत नमूना है।
देव - देव सूर्य मंदिर
देव सूर्य मंदिर, देवार्क सूर्य मंदिर या केवल देवार्क के नाम से प्रसिद्ध, यह भारतीय राज्य बिहार के औरंगाबाद जिले में देव नामक स्थान पर स्थित एक हिंदू मंदिर है जो देवता सूर्य को समर्पित है। यह सूर्य मंदिर अन्य सूर्य मंदिरों की तरह पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है।
देवार्क मंदिर अपनी अनूठी शिल्पकला के लिए भी जाना जाता है। पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस मंदिर की नक्काशी उत्कृष्ट शिल्प कला का नमूना है। इतिहासकार इस मंदिर के निर्माण का काल छठी - आठवीं सदी के मध्य होने का अनुमान लगाते हैं जबकि अलग-अलग पौराणिक विवरणों पर आधारित मान्यताएँ और जनश्रुतियाँ इसे त्रेता युगीन अथवा द्वापर युग के मध्यकाल में निर्मित बताती हैं।
परंपरागत रूप से इसे हिंदू मिथकों में वर्णित, कृष्ण के पुत्र, साम्ब द्वारा निर्मित बारह सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है। इस मंदिर के साथ साम्ब की कथा के अतिरिक्त, यहां देव माता अदिति ने की थी पूजा मंदिर को लेकर एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कहते हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया। अतिरिक्त पुरुरवा ऐल, और शिवभक्त राक्षसद्वय माली-सुमाली की अलग-अलग कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं जो इसके निर्माण का अलग-अलग कारण और समय बताती हैं। एक अन्य विवरण के अनुसार देवार्क को तीन प्रमुख सूर्य मंदिरों में से एक माना जाता है, अन्य दो लोलार्क (वाराणसी) और कोणार्क हैं।
मंदिर में सामान्य रूप से वर्ष भर श्रद्धालु पूजा हेतु आते रहते हैं। हालाँकि, यहाँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में विशेष तौर पर मनाये जाने वाले छठ पर्व के अवसर पर भारी भीड़ उमड़ती है।
कोकिलचंद बाबा मंदिर, गंगरा
जमुई जिले में गंगरा एक गाँव है, जो बाबा कोकिलचंद के पैतृक निवास के लिए प्रसिद्ध है। कोकिलचंद बाबा मंदिर में चारों ओर से लोग पूजा करने आते हैं। यह ७०० साल पुराना माना जाता है। इस गाँव के कोई भी लोग शराब नहीं पीते है। यहाँ लगभग ७०० वर्षों से शराबबंदी हैं।
जीवन उन्नयन के लिऐ बाबा कोकिलचंद का त्रिसूत्रीय संदेश मूल मंत्र के समान है । ये त्रिसूत्र है -
१* शराब से दूर रहना
२*नारी का सम्मान करना
३* अन्न की रक्षा करना
जो आज भी प्रासंगिक है ।
बाबा कोकिलचंद धाम गंगरा सदियों से शराब मुक्त है ।
इन्हें भी देखें
बिहार का इतिहास
पटना के पर्यटन स्थल
बिहार सरकार का जालस्थल
बिहार में गीत-संगीत
बिहार के पर्यटन स्थल - भारत सरकार के आधिकारिक पोर्टल पर
बिहार में वैकेंसी की जानकारी
भारत के राज्य |
मध्य प्रदेश भारत का एक राज्य है, इसकी राजधानी भोपाल है। मध्य प्रदेश १ नवंबर, २००० तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस दिन मध्यप्रदेश राज्य से १6 जिले अलग कर छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना हुई थी। मध्य प्रदेश की सीमाऐं पाँच राज्यों की सीमाओं से मिलती है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात, तथा उत्तर-पश्चिम में राजस्थान है।
खनिज संसाधनों से समृद्ध, मध्य प्रदेश हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अपने क्षेत्र की ३०% से अधिक वन क्षेत्र के अधीन है। इसके पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि हुई है। राज्य ने वर्ष २०१०-११ के लिये राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार जीता था।
मध्यप्रदेश मुख्य रूप से अपने पर्यटन के लिए भी जाना जाता है। मांडू, धार, महेश्वर मंडलेश्वर, चोली, भीमबैठका, पचमढी, खजुराहो, साँची स्तूप, ग्वालियर का किला, और उज्जैन रीवा जल प्रपात मध्यप्रदेश के पर्यटन स्थल के प्रमुख उदाहरण हैं। उज्जैन जिले में प्रत्येक १२ वर्षों में कुंभ (सिंहस्थ) मेले का पुण्यपर्व विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है। शिवपुरी मध्य प्रदेश की पर्यटन नगरी है
मध्य प्रांत और बरार को छत्तीसगढ़ और मकराइ रियासतों के साथ मिलकर मध्य प्रदेश का गठन किया गया था। तब इसकी राजधानी नागपुर में थी। इसके बाद १ नवंबर १९५६ को मध्य भारत, विंध्य प्रदेश तथा भोपाल राज्यों को भी इसमें ही मिला दिया गया, जबकि दक्षिण के मराठी भाषी विदर्भ क्षेत्र को (राजधानी नागपुर समेत) बॉम्बे राज्य में स्थानांतरित कर दिया गया।पहले जबलपुर को राज्य की राजधानी के रूप में चिन्हित किया जा रहा था,परन्तु अंतिम क्षणों में इस निर्णय को पलटकर भोपाल को राज्य की नवीन राजधानी घोषित कर दिया गया। जो कि सीहोर जिले की एक तहसील हुआ करता था।१ नवंबर २००० को एक बार फिर मध्य प्रदेश का पुनर्गठन हुआ, और छ्त्तीसगढ़ मध्य प्रदेश से अलग होकर भारत का २६वां राज्य बन गया।
भारत की संस्कृति में मध्यप्रदेश जगमगाते दीपक के समान है, जिसकी रोशनी की सर्वथा अलग प्रभा और प्रभाव है। यह विभिन्न संस्कृतियों की अनेकता में एकता का जैसे आकर्षक गुलदस्ता है, मध्यप्रदेश, जिसे प्रकृति ने राष्ट्र की वेदी पर जैसे अपने हाथों से सजाकर रख दिया है, जिसका सतरंगी सौन्दर्य और मनमोहक सुगन्ध चारों ओर फैल रही है। यहाँ के जनपदों की आबोहवा में कला, साहित्य और संस्कृति की मधुमयी सुवास तैरती रहती है। यहाँ के लोक समूहों और जनजाति समूहों में प्रतिदिन नृत्य, संगीत, गीत की रसधारा सहज रूप से फूटती रहती है। यहाँ का हर दिन पर्व की तरह आता है और जीवन में आनन्द रस घोलकर स्मृति के रूप में चला जाता है। इस प्रदेश के तुंग-उतुंग शैल शिखर विन्ध्य-सतपुड़ा, मैकल-कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजते अनेक पौराणिक आख्यान और नर्मदा, सोन, सिन्ध, चम्बल, बेतवा, केन, धसान, तवा, ताप्ती, क्षिप्रा, काली सिंध आदि सर-सरिताओं के उद्गम और मिलन की मिथकथाओं से फूटती सहस्त्र धाराएँ यहाँ के जीवन को आप्लावित ही नहीं करतीं, बल्कि परितृप्त भी करती हैं।
मध्यप्रदेश में छह लोक संस्कृतियों का समावेशी संसार है। ये छह साँस्कृतिक क्षेत्र है-
प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र या भू-भाग का एक अलग जीवंत लोकजीवन, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, कला, बोली और परिवेश है। मध्यप्रदेश लोक-संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान श्री वसन्त निरगुणे लिखते हैं- "संस्कृति किसी एक अकेले का दाय नहीं होती, उसमें पूरे समूह का सक्रिय सामूहिक दायित्व होता है। सांस्कृतिक अंचल (या क्षेत्र) की इयत्त्ता इसी भाव भूमि पर खड़ी होती है। जीवन शैली, कला, साहित्य और वाचिक परम्परा मिलकर किसी अंचल की सांस्कृतिक पहचान बनाती है।"
मध्यप्रदेश की संस्कृति विविधवर्णी है। गुजरात, महाराष्ट्र अथवा उड़ीसा की तरह इस प्रदेश को किसी भाषाई संस्कृति में नहीं पहचाना जाता। मध्यप्रदेश विभिन्न लोक और जनजातीय संस्कृतियों का समागम है। यहाँ कोई एक लोक संस्कृति नहीं है। यहाँ एक तरफ़ पाँच लोक संस्कृतियों का समावेशी संसार है, तो दूसरी ओर अनेक जनजातियों की आदिम संस्कृति का विस्तृत फलक पसरा है।
निष्कर्षत: मध्यप्रदेश छह सांस्कृतिक क्षेत्र निमाड़, मालवा, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, महाकौशल और ग्वालियर हैं। धार-झाबुआ, मंडला-बालाघाट, छिन्दवाड़ा, होशंगाबाद्, खण्डवा-बुरहानपुर, बैतूल, रीवा-सीधी, शहडोल आदि जनजातीय क्षेत्रों में विभक्त है।
निमाड़ मध्यप्रदेश के पश्चिमी अंचल में स्थित है। अगर इसके भौगोलिक सीमाओं पर एक दृष्टि डालें तो यह पता चला है कि निमाड़ के एक ओर विन्ध्य की उतुंग शैल श्रृंखला और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं, जबकि मध्य में है नर्मदा की अजस्त्र जलधारा। पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था। बाद में इसे निमाड़ की संज्ञा दी गयी। फिर इसे पूर्वी और पश्चिमी निमाड़ के रूप में जाना जाने लगा।
मालवा महाकवि कालिदास की धरती है। यहाँ की धरती हरी-भरी, धन-धान्य से भरपूर रही है। यहाँ के लोगों ने कभी भी अकाल को नहीं देखा। विन्ध्याचल के पठार पर प्रसरित मालवा की भूमि सस्य, श्यामल, सुन्दर और उर्वर तो है ही, यहाँ की धरती पश्चिम भारत की सबसे अधिक स्वर्णमयी और गौरवमयी भूमि रही है।सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मालवा मे अपने आप को रोक रखा था लेकिन आज वह अपनी अलग पहचान के कारण अपनी भाषा लिफी मे चित्र हो मैथिली केर परिणाम स्वरूप रहा
एक प्रचलित अवधारणा के अनुसार "वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विंध्य प्लेटों की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चंबल और दक्षिण पूर्व में पन्ना, अजमगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्तर प्रदेश के पांच जिले- जालौन, झाँसी, ललितपुर,हमीरपुर और बाँदा तथा मध्यप्रेदश के पांच जिले- सागर, दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना के अलावा उत्तर-पश्चिम में चंबल नदी तक प्रसरित विस्तृत प्रदेश का नाम था।" कनिंघम ने "बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश (जो पश्चिम में बेतवा नदी से संलग्न है) पूर्व में चन्देरी, सागर के अशोक नगर जिलों सहित तुमैन का विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था", माना है।साथ ही विदिशा गुना अशोकनगर दमोह निवाड़ी रायसेन तथा जबलपुर कटनी जिले में बुंदेलखंड की संस्कृति भाषा की गहरी छाप देखने को मिलती है।
बघेलखण्ड की धरती का सम्बन्ध अति प्राचीन भारतीय संस्कृति से रहा है। यह भू-भाग रामायणकाल में कोसल प्रान्त के अन्तर्गत था। महाभारत के काल में विराटनगर बघेलखण्ड की भूमि पर था, जो आजकल सोहागपुर के नाम से जाना जाता है। भगवान राम की वनगमन यात्रा इसी क्षेत्र से हुई थी। यहाँ के लोगों में शिव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा विद्यमान है। यहाँ नाथपंथी योगियो का खासा प्रभाव है। कबीर पंथ का प्रभाव भी सर्वाधिक है। महात्मा कबीरदास के अनुयायी धर्मदास बाँदवगढ़ के निवासी थी।
जबलपुर संभाग का संपूर्ण हिस्सा महाकोशल कहलाता है। नर्मदा नदी किनारे बसा यह क्षेत्र सांस्कृतिक और प्राकृतिक समृद्धता में धनी है। यहां भेड़ाघाट जैसा विहंगम जल प्रपात है तो दूसरी ओर परमहंसी में ज्योतिष और द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती जी का आश्रम है ।
मध्यप्रदेश का चंबल क्षेत्र भारत का वह मध्य भाग है, जहाँ भारतीय इतिहास की अनेक महत्वपूर्ण गतिविधियां घटित हुई हैं। इस क्षेत्र का सांस्कृतिक-आर्थिक केंद्र ग्वालियर शहर है। सांस्कृतिक रूप से भी यहाँ अनेक संस्कृतियों का आवागमन और संगम हुआ है। राजनीतिक घटनाओं का भी यह क्षेत्र हर समय केन्द्र रहा है। स्वतंत्रता से पहले यहां सिंधिया राजपरिवार का शासन रहा था। १८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम झाँसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई ने इसी भूमि पर लड़ा था। सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र ग्वालियर अंचल संगीत, नृत्य, मूर्तिकला, चित्रकला अथवा लोकचित्र कला हो या फिर साहित्य, लोक साहित्य की कोई विधा हो, ग्वालियर अंचल में एक विशिष्ट संस्कृति के साथ नवजीवन पाती रही है। ग्वालियर क्षेत्र की यही सांस्कृतिक हलचल उसकी पहचान और प्रतिष्ठा बनाने में सक्षम रही है।
भारत में अवस्थिति
जैसा की नाम से ही प्रतीत होता हैं यह भारत के बीचो-बीच, अक्षांश २१६' उत्तरी अक्षांश से २६३०' उत्तरी अक्षांश देशांतर ७४९' पूर्वी देशांतर से ८२४८' पूर्वी देशांतर में स्थित हैं। राज्य, नर्मदा नदी के चारो और फैला हुआ है, जोकि विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमाला के बीच पूर्व से पश्चिम की और बहती हैं, जोकि उत्तर और दक्षिण भारत के बीच पारंपरिक सीमा का काम करती हैं। मध्य प्रदेश की उत्तर से दक्षिण की लम्बाई ६०५ किलोमीटर तथा पश्चिम से पूर्व लम्बाई ८७० किलोमीटर है. मानक रेखा सिंगरोली जिले से गुजरती है तथा पश्चिम से पूर्व मध्य प्रदेश में ३२ मिनट का समयांतराल है.
राज्य, दक्षिण में महाराष्ट्र से, पश्चिम में गुजरात से घिरा हुआ है, जबकि इसके उत्तर-पश्चिम में राजस्थान, पूर्वोत्तर पर उत्तर प्रदेश और पूर्व में छत्तीसगढ़ स्थित हैं।
मध्य प्रदेश में सबसे ऊँची चोटी, धूपगढ़(पंचमढ़ी) की है जिसकी ऊंचाई १,३५० मीटर (४,४29 फुट) हैं।
मध्य प्रदेश में उष्णकटिबंधीय जलवायु है। अधिकांश उत्तर भारत की तरह, यहाँ ग्रीष्म ऋतू (अप्रैल-जून), के बाद मानसून की वर्षा (जुलाई-सितंबर) और फिर अपेक्षाकृत शुष्क शरदऋतु आती है। यहाँ औसत वर्षा १३७१ मिमी (५४.० इंच) होती है। इसके दक्षिण-पूर्वी जिलों में भारी वर्षा होती है, कुछ स्थानों में तो २,१5० मिमी (८४.६ इंच) तक बारिश होती हैं, पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी जिलों में १,००० मिमी (३९.४ इंच) या कम बारिश होती हैं।
२०११ के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में दर्ज वनक्षेत्र ९४,६८९ वर्ग किमी(३६,५६० वर्ग मील) हैं जोकि राज्य के कुल क्षेत्र का ३०.७२% हैं, और भारत में स्थित कुल वनक्षेत्र का १२.३०% है। मध्य प्रदेश सरकार ने इन क्षेत्र को "आरक्षित वन" (६५.३%), "संरक्षित वन" (३2.८४%) और "उपलब्ध वन" (०.१८%) में वर्गीकृत किया गया है। वन राज्य के उत्तरी और पश्चिमी भागों में कम घना है, जहां राज्य के प्रमुख शहर हैं,
राज्य में पाये जाने वाले मिट्टी के प्रमुख प्रकार हैं:
काली मिट्टी, सबसे मुख्य रूप से मालवा क्षेत्र, महाकौशल में और दक्षिणी बुंदेलखंड में
लाल और पीली मिट्टी, बघेलखण्ड क्षेत्र में
जलोढ़ मिट्टी, उत्तरी मध्य प्रदेश में
लैटराइट मिट्टी, हाइलैंड क्षेत्रों में
मिश्रित मिट्टी, ग्वालियर और चंबल संभाग के कुछ हिस्सों में
वनस्पति और जीव
प्रदेश में सबसे अधिक वनक्षेत्र हैं, इसीलिए यहाँ बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय अभ्यारण्य, संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान, माधव राष्ट्रीय उद्यान, वन विहार राष्ट्रीय उद्यान, जीवाश्म राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान पेंच राष्ट्रीय उद्यान, डायनासोर राष्ट्रीय उद्यान,पालपुर कुनो राष्ट्रीय उद्यान सहित ११ राष्ट्रीय उद्यान एवं विश्व का प्रथम वाइट टाइगर सफारी और ज़ू मुकुंदपुर सतना में है तथा इसके अलावा यह कई प्राकृतिक संरक्षण उपस्थित हैं जिनमे अमरकंटक, बाग गुफाएं, बालाघाट, बोरी प्राकृतिक रिजर्व, केन घड़ियाल, घाटीगाँव , कुनो पालपुर, नरवर, चंबल, कुकड़ेश्वर, नरसिंहगढ़, नोरा देही, पचमढ़ी, पनपथा, शिकारगंज, पातालकोट और तामिया सम्मलित हैं सतपुड़ा रेंज में पचमढ़ी बायोस्फीयर रिजर्व, अमरकंटक बायोस्फियर रिजर्व और पन्ना राष्ट्रीय उद्यान भारत में उपस्थित १८ बायोस्फीयर में से तीन हैं। उदयगिरि गुफा भी मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में स्थित है|
कान्हा, बांधवगढ़, पेंच, पन्ना, और सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान बाघ परियोजना क्षेत्रों के रूप में काम करते हैं। राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य को, घड़ियाल और मगर, नदी डॉल्फिन, ऊदबिलाव और कई प्रकार के कछुओ केसंरक्षण के लिए जाना जाता है।
राज्य के जंगलों में सागौन और साल के पेड़ बहुतायत में पाये जाते हैं।
नर्मदा नदी मध्य प्रदेश की सबसे प्रमुख और लंबी (१३१२ कि.मी.) नदी हैं। यह दरार घाटी के माध्यम से पश्चिम की ओर बहती हैं, इसके उत्तरी किनारे में विंध्य के विशाल पर्वतमाला, जबकि दक्षिण में सतपुड़ा के पहाड़ों की रेंज हैंं। इसकी सहायक नदियों में बंजार, तवा, मचना, शक्कर, देनवा और सोनभद्र नदियां आदि शामिल हैंं। ताप्ती नदी भी नर्मदा के समानांतर, दरार घाटी के माध्यम से बहती हैं। नर्मदा-ताप्ती सिस्टम, राज्य की प्रमुख नदियों में से हैंं और मध्य प्रदेश की लगभग एक चौथाई भूमि क्षेत्र को जल प्रदान करती हैंं।
बाकी की नदियां चंबल, शिप्रा, कालीसिंध, पार्वती, कुनो, सिंध, बेतवा, धसान और केन, जोकि पुर्व की और बहती हैंं, यमुना नदी में जाके मिलती हैंं क्षिप्रा नदी जिसके किनारे प्राचीन शहर उज्जैन बसा हुआ हैंं हिंदू धर्म के सबसे पवित्र नदियों में से एक हैं। यहाँ हर १२ साल में सिंहस्थ कुंभ मेला आयोजित किया जाता हैं। इन नदियों द्वारा बहा के लाई गई भूमि कृषि समृद्ध होती हैंं। गंगा बेसिन के पूर्वी भाग में सोन, टोंस ,बीहर, सेलर नदी (मध्यप्रदेश का सबसे ऊंचा बहुटी जलप्रपात इसी नदी में बनता है) तथा रिहंद नदिया हैंं। सोन , जो अमरकंटक के पास मैकल पहाड़ो से निकलती हैं, दक्षिणी से गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी हैं जो कि हिमालय से ही नहीं निकलती हैं। सोन और उसकी सहायक नदियों, गंगा में मानसून का अथाह जल प्रवाहित करती हैंं।
छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद, महानदी बेसिन का बड़ा हिस्सा अब छत्तीसगढ़ में प्रवाहित होता हैं। वर्तमान में, अनूपपुर जिले में हसदेव के पास नदी का केवल १५४ क्म२ बेसिन क्षेत्र ही मध्य प्रदेश में बहता हैं। वैनगंगा, वर्धा, पेंच, कान्हां नदियां, गोदावरी नदी प्रणाली में विशाल मात्रा में पानी का निर्वहन करती हैंं। यहाँ कई महत्वपूर्ण राज्य के विकास में सिंचाई परियोजनाएं कार्यत हैंं, जिसमे गोदावरी नदी घाटी सिंचाई परियोजना भी शामिल हैं।
मध्यप्रदेश को निम्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में बांटा गया है:
कैमूर पठार और सतपुड़ा पहाड़ी
विंध्य पठार (पहाड़ी)
गिर्द (ग्वालियर) क्षेत्र
सतपुड़ा पठार (पहाड़ी)
मध्य प्रदेश राज्य में कुल ५५ जिले हैं।
वर्ष २०११ की जनगणना के अन्तिम आकडोँ के अनुसार मध्य प्रदेश की कुल जनसँख्या ७२,६२६,८०९ है जिसमे ३,७६,११,३70(५१.८%) पुरुष एँव ३,४९,८4,६४५(4८.२%) महिलाएँ है मध्यप्रदेश का लिगाँनुपात 9३0 है। मध्य प्रदेश की जनसंख्या, में कई समुदाय, जातीय समूह और जनजातिया आते हैं जिनमे यहाँ के मूल निवासी आदिवासि और हाल ही में अन्य राज्यों से आये प्रवासी भी शामिल है। राज्य की आबादी में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति एक बड़े हिस्से का गठन करते हैं। मध्यप्रदेश के आदिवासी समूहों में मुख्य रूप से गोंड, भील, बैगा, कोरकू, भड़िया (या भरिया), हल्बा, कौल, मरिया, मालतो और सहरिया आते हैं। धार, झाबुआ, मंडला और डिंडौरी जिलों में ५० प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी की है। खरगोन, छिंदवाड़ा, सिवनी, सीधी, सिंगरौली और शहडोल जिलों में ३0-५० प्रतिशत आबादी जनजातियों की है। २०११ की जनगणना के अनुसार, मध्य प्रदेश में आदिवासियों की जनसंख्या 15३16000 हैं, जोकि कुल जनसंख्या का २1.१०% हैं। यहाँ ४६ मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजाति हैं और उनमें से तीन को "विशेष आदिम जनजातीय समूहों" का दर्जा प्राप्त हैं।
विभिन्न भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक वातावरण और अन्य जटिलताओं के कारण मध्य प्रदेश के आदिवासी, बड़े पैमाने पर विकास की मुख्य धारा से कटा हुआ है। मध्य प्रदेश, मानव विकास सूचकांक के निम्न स्तर ०.३७५ (2०११) पर हैं, जोकि राष्ट्रीय औसत से बहुत नीचे है। इंडिया स्टेट हंगर इंडेक्स (2००8) के अनुसार, मध्य प्रदेश में कुपोषण की स्थिति, 'बेहद खतरनाक' हैं और इसका स्थान इथोपिया और चाड के बीच है। राज्य की कन्या भ्रूण हत्या की स्थिति में भी, भारत में सबसे खराब प्रदर्शन है। राज्य का प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीडीपी)(2०1०-११), देश के सबसे कम में चौथा स्थान पर है। प्रदेश, भारत के राज्य हंगर इंडेक्स पर भी सबसे कम रैंकिंग वाले राज्य में से है।
मध्य प्रदेश कुपोषण के मामले में सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में से एक है। हाल ही के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण २०१५-१६ के अनुसार, पन्ना जिले में ४३.१ प्रतिशत बच्चे कुपोषित, २४.७ प्रतिशत क्षीण और ४०.३ प्रतिशत कम वजन वाले बच्चों की श्रेणी में आते है। इसी तरह का मामला ग्रामीण छतरपुर में भी हैं जहां ४४.४ प्रतिशत बच्चे कुपोषित, १७.८ प्रतिशत क्षीण और ४१.२ प्रतिशत कम वजन के हैं।
२०११ की जनगणना के अनुसार, मध्य प्रदेश की साक्षरता दर ७०.६०% थी, जिसमे पुरुष साक्षरता ८०.५% और महिला साक्षरता ६०.०% थी। वर्ष 2०17 के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में ११४,४१८ प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय, ३,8५1 उच्च विद्यालय और ४,76५ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। राज्य में ४०० इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर कॉलेजों, 2५० प्रबंधन संस्थानों और १२ मेडिकल कॉलेज हैं।
राज्य में भारत के कई प्रमुख शैक्षिक और अनुसंधान संस्थान है जिनमे भारतीय प्रबंध संस्थान (झीम) इंदौर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान(ईत) इंदौर, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (आईम्स) भोपाल, भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (ईसर) भोपाल, भारतीय पर्यटन और यात्रा प्रबंधन संस्थान (ईतम) ग्वालियर, आईआईएफएम भोपाल, नेशनल लॉ इंस्टीट्यूट यूनिवर्सिटी भोपाल शामिल हैं राज्य में एक पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय (नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय, जबलपुर) भी हैं जिसके तीन संस्थान जबलपुर, महू और रीवा में है। प्रदेश की पहली निजी विश्वविद्यालय "जेपी अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गुना" एनएच ३ पर खूबसूरत कैंपस के साथ बना हुआ हैं। जोकि एनआईआरएफ (निर्फ) के शीर्ष १०० में ८६ वें स्थान पर है।
यहाँ ५०० डिग्री कॉलेज हैं, जोकि राज्य के ही विश्वविद्यालयों से सम्बंधित हैं। जिनमें निम्न शामिल है;
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय (जबलपुर)
मध्यप्रदेश पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय (भोपाल)
मध्यप्रदेश चिकित्सा विश्वविद्यालय (भोपाल)
मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय (भोपाल)
राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (भोपाल)
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय (रीवा)
बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय (भोपाल)
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (इंदौर)
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय (जबलपुर)
विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन)
जीवाजी विश्वविद्यालय (ग्वालियर)
सर डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय (सागर विश्वविद्यालय)
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय(अमरकंटक, अनूपपुर)
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (भोपाल)
वर्ष १९७० में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्री-मेडिकल टेस्ट बोर्ड के लिये व्यावसायिक परीक्षा मंडल गठन किया गया। कुछ वर्ष के बाद १९८१ में, प्री-इंजीनियरिंग बोर्ड का गठन किया गया था। फिर उसके बाद, वर्ष १९८२ में इन बोर्डों दोनों को समामेलित कर मध्य प्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल (म.प.प.ए.ब.) जिसे व्यापम के रूप में भी जाना जाता है का गठन किया गया।
राज्य की आधिकारिक भाषा हिंदी और सिंधी है। इसके अलावा कई इलाको में संस्कृत, उर्दू और मराठी भाषियों की अच्छी खासी आबादी हैं। क्योंकी ये क्षेत्र कभी मराठा राज्य के अन्तर्गत आते थे, बल्कि प्रदेश में महाराष्ट्र के बाहर मराठी लोगों की सबसे ज्यादा आबादी हैं। यहाँ कई क्षेत्रीय बोलिया भी बोली जाती हैं, जोकि कुछ लोगों के अनुसार हिन्दी ही से निकल कर बनी हुई हैं जबकि कुछ के अनुसार ये अलग या अन्य भाषा से संबंधित हैं। इन बोलियों के अलावा मालवा में मालवी, निमाड़ में निमाड़ी, बुंदेलखंड में बुंदेली, और बघेलखंड और दक्षिण पूर्व में बघेली (रीवा) बोली जाती हैं। इन में से हर एक बोली एक दूसरे से बहुत अलग है।
यहाँ की अन्य भाषाओं में तेलुगू, भिलोड़ी (भीली), गोंडी, कोरकू, कळतो (नहली), और निहाली (नाहली) आदि शामिल हैं, जोकि आदिवासी समूहों द्वारा बोली जाती हैं।
२०११ की जनगणना के अनुसार, प्रदेश में ९०.९% लोग हिंदू धर्म को मानते हैं, जबकि अन्य में मुस्लिम (६.६%), जैन(१%),ईसाई (०.३%), बौद्ध (०.३%), और सिख (०.२%) आदि आते है। प्रदेश के कई शहर अपनी धार्मिक आस्था के केंद्र के लिए जाने जाते रहे हैं। जिनमे से सबसे प्रमुख उज्जैन शहर हैं, जोकि भारत के सबसे प्राचीन शहरो में से एक हैं। यहाँ १२ ज्योतिर्लिंग में से एक महाकालेश्वर मंदिर दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। शहर में बहने वाली शिप्रा नदी के किनारे प्रसिध्द कुम्भ मेला लगता है। इसके अलावा नर्मदा नदी के तट पर बसा ओम्कारेश्वर भी १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मो के कई धार्मिक केंद्र प्रदेश में उपस्थित हैं। भोपाल का ताज-उल-मस्जिद भारत की सबसे विशाल मस्जिदों में एक है। बडवानी का बावनगजा,दमोह का कुण्डलपुर,दतिया का सोनागिरी,अशोकनगर का निसईजी मल्हारगढ़,बैतूल की मुक्तागिरी जैन धर्मालंबियोंं हेतु प्रसिद्ध है। विदिशा नगरी दशवें तीर्थेंकर भगवान शीतलनाथ की गर्भ जन्म व तप कल्याणक की भूमि है। बुंदेलखंड में दिगंबर जैन एवं मालवा में श्वेतांबर जैन बहूलता से पाये जाते हैं। बुंदेलखंड में दिगंबर जैन समुदाय का एक पंथ और स्थापित हुआ जो तारण पंथ कहलाता है। वही साँची में स्थित साँची का स्तूप, बौध्द के लिए केंद्र हैं। मैहर जो कि सतना जिले के अंतर्गत आता है माँ शारदा जो बुद्धि एवं विद्या की दायिनी है त्रिकूट पर्वत पर माँ का भव्य मंदिर है जो भारत के ५२ शक्तिपीठ में से एक है। दतिया में स्थित माँ पीतांबरा का मंदिर विश्व में अपनी अलग पहचान रखता है ऐसी मंदिर में माँ धूमावती की भी स्थापना है। होशंगावाद का सेठानी घाट, देवास जिले नेमावर में सिद्धनाथ महादेव, हरदा जिले के हंडिया में कुबेर के द्वारा पूजित रिद्धनाथ महादेव आदि नर्मदा के तट पर विशेष स्थान है इसके साथ ही माँ नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक बहुत ही प्रसिद्द स्थान है। रीवा जिले के देउर कोठार में लगभग २ हजार वर्ष पुराने बौद्ध स्तूप और लगभग ५ हजार वर्ष प्राचीन शैलचित्रों की श्रृंखला मौजूद है। यह वर्ष १९8२ में प्रकाश में आए थे। ये स्तूप सम्राट अशोक के शासनकाल में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के निर्मित हैं। देउर कोठार नामक स्थान, रीवा-इलाहाबाद मार्ग एचएन-२7 पर सोहागी पहाड़ से पहले कटरा कस्बे के समीप स्थित है। यहां मौर्य कालीन मिट्टी ईट के बने ३ बड़े स्तूप और लगभग 4६ पत्थरों के छोटे स्तूप बने है। अशोक युग के दौरान विंध्य क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ और भगवान बौद्ध के अवशेषों को वितरित कर स्तूपों का निर्माण किया गया। उर कोठार के बौद्ध स्तूपों का समूह सबसे बड़ा बौद्ध स्तूप समूह है जिसमें पहला बौद्ध स्तूप ईंटों द्वारा बनाया गया था। एक मौर्यकालीन स्तम्भ भी है जिसमें एक शिलालेख भी है जिसकी शुरुआत भगवतोष् से होती है। यहां पर खुदाई के दौरान मौर्य कालीन ब्राही लेख के अभिलेख, शिलापट्ट स्तंभ और पात्रखंड भी प्राप्त हुए हैं। वर्तमान समय में मध्यप्रदेश में शिवपुरी जिले की खनियाधाना तहसील के धपोरा गांव में काली माता मंदिर एवं राम जानकी मंदिर के पास कुछ धार्मिक साथ मिले हुए हैं
मध्य प्रदेश के ३ स्थलों को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है, जिनमे खजुराहो (१९८६), सांची बौद्ध स्मारक (१९८९), और भीमबेटका की रॉक शेल्टर (200३) शामिल हैं। हाल ही में ओरछा को यूनेस्को द्वारा उसकी अस्थायी सूची में सम्मलित किया गया है। अन्य वास्तुशिल्पीय दृष्टि से या प्राकृतिक स्थलों में अजयगढ़, अमरकंटक, असीरगढ़, बांधवगढ़, बावनगजा, भोपाल, विदिशा, चंदेरी, चित्रकूट, धार, ग्वालियर, इंदौर, जबलपुर, बुरहानपुर, महेश्वर, मंडलेश्वर, मांडू, ओंकारेश्वर, ओरछा, पचमढ़ी, शिवपुरी, सोनागिरि, मंडला और उज्जैन शामिल हैं।
मध्य प्रदेश में अपनी शास्त्रीय और लोक संगीत के लिए विख्यात है। विख्यात हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत घरानों में मध्य प्रदेश के मैहर घराने, ग्वालियर घराने और सेनिया घराने शामिल हैं। मध्यकालीन भारत के सबसे विख्यात दो गायक, तानसेन और बैजू बावरा, वर्तमान मध्य प्रदेश के ग्वालियर के पास पैदा हुए थे। प्रशिद्ध ध्रुपद कलाकार अमीनुद्दीन डागर (इंदौर), गुंदेचा ब्रदर्स (उज्जैन) और उदय भवालकर (उज्जैन) भी वर्तमान के मध्य प्रदेश में पैदा हुए थे। माँ विन्ध्यवासिनी मंदिर अति प्राचीन मंदिर है। यह अशोक नगर जिले से दक्षिण दिशा की ओर तुमैन (तुम्वन) मे स्थित हैं। यहाॅ खुदाई में प्राचीन मूर्तियाँ निकलती रहती है यह राजा मोरध्वज की नगरी के नाम से जानी जाती है यहाॅ कई प्राचीन दाश॔निक स्थलो में वलराम मंदिर,हजारमुखी महादेव मंदिर,ञिवेणी संगम,वोद्ध प्रतिमाएँ, लाखावंजारा वाखर गुफाएँ आदि कई स्थल है पार्श्व गायक किशोर कुमार (खंडवा) और लता मंगेशकर (इंदौर) का जन्मस्थान भी मध्य प्रदेश में स्थित हैं। स्थानीय लोक गायन की शैलियों में फाग, भर्तहरि, संजा गीत, भोपा, कालबेलिया, भट्ट/भांड/चरन, वसदेवा, विदेसिया, कलगी तुर्रा, निर्गुनिया, आल्हा, पंडवानी गायन और गरबा गरबि गोवालं शामिल हैं।
मध्य प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) वर्ष २०१४-१५ के लिए ८४.२७ बिलियन डॉलर था। प्रति व्यक्ति आय वर्ष २०१३-१४ में $८७१,४५ था, और देश के अंतिम से छठे स्थान पर हैं। १९९९ और २००८ के बीच राज्य की सालाना वृद्धि दर बहुत कम (३.५%) थी। इसके बाद राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में काफी सुधार हुआ है, और २०१०-११ और 20११-१२ के दौरान ८% एवं १२% क्रमशः बढ़ गया।
राज्य में कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था है। मध्य प्रदेश की प्रमुख फसलों में गेहूं, सोयाबीन, चना, गन्ना, चावल, मक्का, कपास, राइ, सरसों और अरहर शामिल हैं। प्रदेश में इंदौर, सोयबीन की मंडी के लिए और सीहोर गेहूं की मंडी के लिए देश भर का केंद्र हैं। लघु वनोपज (एमएफपी) जैसे की तेंदू, जिसके पत्ते का बीड़ी बनाने में इस्तेमाल किया जाता हैं, साल बीज, सागौन बीज, और लाख आदि भी राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए योगदान देते हैं।
मध्य प्रदेश में ५ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) है: जिनमे ३ आईटी/आईटीईएस (इंदौर, ग्वालियर), १ खनिज आधारित (जबलपुर) और १ कृषि आधारित (जबलपुर) शामिल हैं। अक्टूबर 20११ में, १4 सेज प्रस्तावित किया गए, जिनमे से १0 आईटी/ आईटीईएस आधारित थे। इंदौर, राज्य का प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र है। इसके राज्य के केंद्र में स्थित होने के कारण, यहाँ कई उपभोक्ता वस्तु कंपनियों ने अपनी विनिर्माण केंद्रों की स्थापना की है।.
राज्य में भारत का हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अन्य प्रमुख खनिज भंडार में कोयला, कालबेड मीथेन, मैंगनीज और डोलोमाइट शामिल हैं।
मध्य प्रदेश में ६ आयुध कारखाने, जिनमें से ४ जबलपुर (वाहन निर्माणी, ग्रे आयरन फाउंड्री, गन कैरिज फैक्टरी, आयुध निर्माणी खमरिया) में स्थित है, बाकि एक-एक कटनी और इटारसी में हैं। ये कारखाने आयुध कारखाना बोर्ड द्वारा चलाए जाते हैं जिनमे भारतीय सशस्त्र बलों के लिए उत्पादों का निर्माण किया जाता हैं।
मध्य प्रदेश, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, २००५ में उत्कृष्ट कार्य के लिए १०वे राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीत चुका हैं। राज्य में पर्यटन उद्योग भी जोर-शोर से बढ़ रहा है, वन्यजीव पर्यटन और कई संख्या में ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थानों की उपस्थिति इनका मुख्य कारण हैं। सांची और खजुराहो में विदेशी पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। प्रमुख शहरों के अलावा अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में भेड़ाघाट, भीमबेटका, भोजपुर, महेश्वर, मांडू, ओरछा, पचमढ़ी, कान्हा और उज्जैन शामिल हैं।
राज्य की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता १३८८० मेगावॉट (३१ मार्च २०१५) है। सभी राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा वार्षिक वृद्धि (४६.१८%) दर्ज की हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा भारत के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र योजना बनाई गई हैं। संयंत्र की बिजली उत्पादन की क्षमता ७५० मेगावाट होगी, तथा इसे लगाने हेतु ४,००० करोड़ रुपये की लागत आएगी। मध्य प्रदेश के रीवा जिले के गूढ तहसील में १,५९० हेक्टेयर के क्षेत्र में एक रीवा अल्ट्रा मेगा सौर पार्क प्रस्तावित है।
मध्य प्रदेश में बस और ट्रेन सेवाएं चारो तरफ फैली हुई हैं। प्रदेश की ९९,०४३ किमी लंबी सड़क नेटवर्क में २० राष्ट्रीय राजमार्ग भी शामिल है। प्रदेश में ४९४८ किलोमीटर लंबी रेल नेटवर्क का जाल फैला हुआ हैं, जबलपुर को भारतीय रेलवे के पश्चिम मध्य रेलवे का मुख्यालय बनाया गया है। मध्य रेलवे और पश्चिम रेलवे व दक्षिण पूर्व मध्य रेल्वे भी राज्य के कुछ हिस्सों को कवर करते हैं। पश्चिमी मध्य प्रदेश के अधिकांश क्षेत्र पश्चिम रेलवे के रतलाम रेल मंडल के अंर्तगत आते है, जिनमे इंदौर, उज्जैन, मंदसौर, खंडवा, नीमच, सीहोर और बैरागढ़ भोपाल आदि शहर शामिल हैं। राज्य में २० प्रमुख रेलवे जंक्शन है। प्रमुख अंतर-राज्यीय बस टर्मिनल भोपाल, इंदौर, ग्वालियर जबलपुर और रीवा में स्थित हैं। प्रतिदिन २०00 से भी अधिक बसों का संचालन इन पांच शहरो से होता हैं। शहर के अंदर की आवागमन हेतु, ज्यादातर बसों, निजी ऑटो रिक्शा और टैक्सियों का उपयोग होता है।
देश के बीचो-बीच होने के कारण राज्य के पास कोई समुद्र तट नहीं है। अधिकांश समुद्री व्यापार, पड़ोसी राज्यों में कांडला और जवाहरलाल नेहरू बंदरगाह (न्हावा शेवा) के माध्यम से होता है जोकि सड़क और रेल नेटवर्क के माध्यम से प्रदेश से अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं।
सरकार और राजनीति
मध्य प्रदेश में विधान सभा की २३० सीट है। राज्य से भारत की संसद को ४० सदस्य भेजे जाते है: जिनमे २९ लोकसभा (निचले सदन) और ११ राज्यसभा के लिए (उच्च सदन) के लिए चुने जाते हैं। राज्य के संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल होता हैं, जोकि भारत के राष्ट्रपति द्वारा केंद्र सरकार की अनुशंसा पर नियुक्त किया जाता है। राज्य का कार्यकारी प्रमुख मुख्यमंत्री होता हैं, जोकि विधानसभा के निर्वाचित सदस्यो में बहुमत के आधार पर चुना नेता होता हैं। वर्तमान में, राज्य के राज्यपाल मंगूभाई छगनभाई पटेल तथा मुख्यमंत्री, भारतीय जनता पार्टी के शिवराज सिंह चौहान है। राज्य की प्रमुख राजनीतिक दलों में भाजपा और कांग्रेस हैं। कई पड़ोसी राज्यों के विपरीत, यहाँ छोटे या क्षेत्रीय दलों को विधानसभा चुनावों में ज्यादा सफलता नहीं मिली है। दिसम्बर २०१८ में राज्य के चुनावों में कांग्रेस ने ११४ सीटों में जीत हासिल कर अन्य पार्टीयो की सहायता से १२१ सीटों का पूर्ण बहुमत साबित किया, बीजेपी १०९ सीटों पर जीत हासिल कर विपक्ष पर जा बैठी। २ सीटों के साथ बहुजन समाज पार्टी, राज्य में तीसरे स्थान पर हैं समाजवादी पार्टी ने १ सीट पर जीत हासिल की वही ४ सीटें निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीतीं।
वर्ष १९७६ में स्बियो विशेष जांच सेल अपराध जांच विभाग (सीआईडी) के अंतर्गत एक शाखा के रूप में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा राज्य अपराध अन्वेषण ब्यूरो गठित किया गया था। वर्ष १९८९ में इसका नाम बदल कर राज्य आर्थिक अपराध ब्यूरो रखा गया था, जो गृह विभाग के नियंत्रण में कार्य करता था किन्तु १९९० में राज्य आर्थिक अपराध ब्यूरो को सामान्य प्रशासन विभाग के अंतर्गत लाया गया। २२ जून २०१३ को राज्य आर्थिक अपराध ब्यूरो नाम बदल कर आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ रखा गया।
वर्ष २०१३ में राज्य सरकार ने मलखम्ब को राज्य के खेल के रूप में घोषित किया गया। क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल, बास्केटबॉल, वॉलीबॉल, साइकिल चलाना, तैराकी, बैडमिंटन और टेबल टेनिस राज्य में लोकप्रिय खेल हैं। खो-खो, गिल्ली-डंडा, सितोलिया(पिट्ठू), कंचे और लंगड़ी जैसे पारंपरिक खेल ग्रामीण क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय हैं। स्नूकर, जिसका आविष्कार ब्रिटिश सेना के अधिकारियों द्वारा जबलपुर में किया हुआ माना जाता है, कई अंग्रेजी बोलने वाले और राष्ट्रमंडल देशों में लोकप्रिय है।
क्रिकेट मध्य प्रदेश में सबसे लोकप्रिय खेल है। यहाँ राज्य में तीन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम नेहरू स्टेडियम (इंदौर), रूपसिंह स्टेडियम (ग्वालियर) और होल्कर क्रिकेट स्टेडियम (इंदौर) हैं। मध्य प्रदेश क्रिकेट टीम का रणजी ट्राफी में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन १९९८-९९ में किया गया था, जब चंद्रकांत पंडित के नेतृत्व वाली टीम उपविजेता के रूप में रही। इसके पूर्ववर्ती, इंदौर के होल्कर क्रिकेट टीम, रणजी ट्राफी में चार बार जीत हासिल कर चुकी हैं।
भोपाल का ऐशबाग स्टेडियम विश्व हॉकी सीरीज की टीम भोपाल बादशाह का घरेलू मैदान है। राज्य में एक फुटबॉल भी टीम है जोकि संतोष ट्राफी में भाग लेता रहता है।
इन्हें भी देखें
मध्य प्रदेश के लोकसभा सदस्य
मध्य प्रदेश का पर्यटन
मध्य प्रदेश के शहरों की सूची
मध्य प्रदेश के जिले
मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग
मध्यप्रदेश का इतिहास
भारत के राज्य |
राजस्थान भारत गणराज्य का क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़ा राज्य है।सर्वप्रथम १८०० ई मे जार्ज थामस ने इस प्रांत को राजपूताना नाम दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार जेम्स टाड ने "एनलस एंड एन्टीक्वीटीज आफ राजस्थान" में इस राज्य का नाम रायथान या राजस्थान रखा। इस राज्य की एक अंतरराष्ट्रीय सीमा पाकिस्तान के साथ १०७० क्म जिसे रेड क्लिफ रेखा के नाम से जानते है, तथा ४८५० क्म अंतर्राज्यीय सीमा जो देश के अन्य पाँच राज्यों से भी जुड़ा है।इसके दक्षिण-पश्चिम में गुजरात, दक्षिण-पूर्व में मध्यप्रदेश, उत्तर में पंजाब (भारत), उत्तर-पूर्व में उत्तरप्रदेश और हरियाणा है। राज्य का क्षेत्रफल ३,४२,2३9 वर्ग कि॰मी॰ (१३2१40 वर्ग मील) है। २०११ गणना के अनुसार राजस्थान की साक्षरता दर ६६.१
राज्य की राजधानी जयपुर हैं। भौगोलिक विशेषताओं में पश्चिम में थार मरुस्थल और घग्गर नदी का अंतिम छोर है। विश्व की पुरातन श्रेणियों में प्रमुख अरावली श्रेणी राजस्थान की एक मात्र पर्वत श्रेणी है, जो कि पर्यटन का केन्द्र है, माउंट आबू और विश्वविख्यात देलवाड़ा मंदिर सम्मिलित करती है। राजस्थान में तीन(रामगढ़ विषधारी के जुड़ने के बाद चार )बाघ अभयारण्य, मुकंदरा हिल्स<रेफ नामी="मुकंदरा हिल्स नेशनल पार्क"रणथम्भौर एवं सरिस्का हैं और भरतपुर के समीप केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान है, जो सुदूर साइबेरिया से आने वाले सारसों और बड़ी संख्या में स्थानीय प्रजाति के अनेकानेक पक्षियों के संरक्षित-आवास के रूप में विकसित किया गया है। राजस्थान का सबसे नया संभाग भरतपुर है।
राजस्थान का सबसे छोटा जिला क्षेत्रफल की दृष्टि से दुदू है, धौलपुर का क्षेत्रफल ३०३४ वर्ग किमी है ।और सबसे बड़ा जिला जैसलमेर हैं। जिसका क्षेत्रफल ३८४०१ वर्ग किमी. है ।भारत का सबसे गर्म स्थान फलोदी जोधपुर है । फलोदी में सौर ऊर्जा संयंत्र बहुत ज्यादा स्थापित हो रहे है । वर्तमान में राजस्थान में ५० जिले और १० संभाग बनाएं गए है ।
प्राचीन काल में राजस्थान
प्राचीन समय में राजस्थान में आदिवासी कबीलों का शासन था। २५०० ईसा पूर्व से पहले राजस्थान बसा हुआ था और उत्तरी राजस्थान में सिंधु घाटी सभ्यता की नींव रखी थी। भील और मीना जनजाति इस क्षेत्र में रहने के लिए सबसे पहले आए थे। संसार के प्राचीनतम साहित्य में अपना स्थान रखने वाले आर्यों के धर्मग्रंथ ऋग्वेद में मत्स्य जनपद का उल्लेख आया है, जो कि वर्तमान राजस्थान के स्थान पर अवस्थित था। महाभारत कथा में भी मत्स्य नरेश विराट का उल्लेख आता है, जहाँ पांडवों ने अज्ञातवास बिताया था। करीब १३ वी शताब्दी के पूर्व तक पूर्वी राजस्थान और हाड़ौती पर मीणा तथा दक्षिण राजस्थान पर भील राजाओं का शासन था उसके बाद मध्यकाल में राजपूत जाति के विभिन्न वंशों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना बनाया, तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश, क्षेत्र की प्रमुख बोली अथवा स्थान के अनुरूप कर दिया। ये राज्य थे- चित्तौडगढ, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, (जालोर) सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, करौली, झालावाड़ , मेरवाड़ा और टोंक(मुस्लिम पिण्डारी) राजा महाराणा प्रतापऔर महाराणा सांगा,महाराजा सूरजमल, महाराजा जवाहर सिंह, वीर तेजाजी अपनी असाधारण राज्यभक्ति और शौर्य के लिये जाने जाते है। पन्ना धाय जैसी बलिदानी माता, मीरां जैसी जोगिन यहां की एक बड़ी शान है।कर्मा बाई जैसी भक्तणी जिसने भगवान जगन नाथ जी को हाथों से खीचड़ा (खिचड़ी) खिलाया था। इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता रहा है। पर तथ्य यह है कि राजस्थान के अधिकांश तत्कालीन क्षेत्रों के नाम वहां बोली जाने वाली प्रमुखतम बोलियों पर ही रखे गए थे। उदाहरणार्थ ढ़ूंढ़ाडी-बोली के इलाकों को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। 'मेवाती' बोली वाले निकटवर्ती भू-भाग अलवर को 'मेवात', उदयपुर क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली 'मेवाड़ी' के कारण उदयपुर को मेवाड़, ब्रजभाषा-बाहुल्य क्षेत्र को 'ब्रज', 'मारवाड़ी' बोली के कारण बीकानेर-जोधपुर इलाके को 'मारवाड़' और 'वागडी' बोली पर ही डूंगरपुर-बांसवाडा आदि को 'वागड' कहा जाता रहा है। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को "छप्पन" नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को 'कोयल' तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पास वाले कुछ पठारी भाग को 'उपरमाल' की संज्ञा दी गई है। जरगा और रागा के पहाड़ी भाग हमेशा हरे भरे रहते हैं इसलिए इसे देशहरो कहते है।
राजस्थान का एकीकरण
राजस्थान भारत का एक महत्वपूर्ण प्रांत है। यह १५ मार्च १९४९ को भारत का एक ऐसा प्रांत बना, जिसमें तत्कालीन राजपूताना की ताकतवर रियासतें विलीन हुईं। राजस्थान के एकीकरण के समय राजस्थान में १९ रियासतें व तीन ठिकाने लावा नीमराणा व कुशलगढ़ थे इसमें से धौलपुर करौली यादव शासकों की व टोंक मुस्लिम रियासत थी। भरतपुर के जाट शासक ने भी अपनी रियासत के विलय राजस्थान में किया था। राजस्थान शब्द का अर्थ है: 'राजाओं का स्थान' राजाओं से रक्षित भूमि थी। इस कारण इसे राजस्थान कहा गया था। भारत के संवैधानिक-इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत को आजाद करने की घोषणा करने के बाद जब सत्ता-हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की, तभी लग गया था कि आजाद भारत का राजस्थान प्रांत बनना तत्कालीन हिस्से का भारत में विलय एक दूभर कार्य साबित हो सकता है। आजादी की घोषणा के साथ ही देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य में भी अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड़ सी मच गयी थी, उस समय वर्तमान राजस्थान की भौगालिक स्थिति के नज़रिए से देखें तो इस भूभाग में कुल बाईस देशी रियासतें थी। इनमें एक रियासत अजमेर-मेरवाडा प्रांत को छोड़ कर शेष देशी रियासतों पर देशी राजा महाराजाओं का ही राज था। अजमेर-मेरवाडा प्रांत पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा था; इस कारण यह तो सीधे ही स्वतंत्र भारत में आ जाती, मगर शेष इक्कीस रियासतों का विलय होना यानि एकीकरण कर 'राजस्थान' नामक प्रांत बनाया जाना था। सत्ता की होड़ के चलते यह बड़ा ही दूभर लग रहा था, क्योंकि इन देशी रियासतों के शासक अपनी रियासतों के स्वतंत्र भारत में विलय को दूसरी प्राथमिकता के रूप में देख रहे थे। उनकी मांग थी कि वे सालों से खुद अपने राज्यों का शासन चलाते आ रहे हैं, उन्हें इसका दीर्घकालीन अनुभव है, इस कारण उनकी रियासत को 'स्वतंत्र राज्य' का दर्जा दे दिया जाए। करीब एक दशक की ऊहापोह के बीच १८ मार्च १९48 को शुरू हुई राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया कुल सात चरणों में एक नवंबर १९56 को पूरी हुई। जिसमे राजस्थान में २६ जिले सम्मिलित थे इसमें भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासत और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी॰ पी॰ मेनन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान के वर्तमान स्वरुप का निर्माण हो सका। राजस्थान में कुल २१ राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरते हैं।
भूगोल एवं राजस्थान का क्लिक करने योग्य मानचित्र
राजस्थान की आकृति लगभग पतंगाकार है। राज्य २३ ३ से ३० १२ अक्षांश और ६९ ३० से ७८ १७ देशान्तर के बीच स्थित है। इसके उत्तर में पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा, दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात, पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं।
सिरोही से अलवर की ओर जाती हुई ४८० कि॰मी॰ लम्बी अरावली पर्वत शृंखला प्राकृतिक दृष्टि से राज्य को दो भागों में विभाजित करती है। राजस्थान का पूर्वी सम्भाग शुरू से ही उपजाऊ रहा है। इस भाग में वर्षा का औसत ५० से.मी. से ९० से.मी. तक है। राजस्थान के निर्माण के पश्चात् चम्बल और माही नदी पर बड़े-बड़े बांध और विद्युत गृह बने हैं, जिनसे राजस्थान को सिंचाई और बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हुई है। अन्य नदियों पर भी मध्यम श्रेणी के बांध बने हैं, जिनसे हजारों हैक्टर सिंचाई होती है। इस भाग में ताम्बा, जस्ता, अभ्रक, पन्ना, घीया पत्थर और अन्य खनिज पदार्थों के विशाल भण्डार पाये जाते हैं।
राज्य का पश्चिमी भाग देश के सबसे बड़े रेगिस्तान "थार" या 'थारपाकर' का भाग है। इस भाग में वर्षा का औसत १२ से.मी. से ३० से.मी. तक है। इस भाग में लूनी, बांड़ी आदि नदियां हैं, जो वर्षा के कुछ दिनों को छोड़कर प्राय: सूखी रहती हैं। देश की स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य गंगानहर द्वारा पंजाब की नदियों से पानी प्राप्त करता था। स्वतंत्रता के बाद राजस्थान इंडस बेसिन से रावी और व्यास नदियों से ५२.६ प्रतिशत पानी का भागीदार बन गया। उक्त नदियों का पानी राजस्थान में लाने के लिए सन् १९५८ में 'राजस्थान नहर' (अब इंदिरा गांधी नहर) की विशाल परियोजना शुरू की गई। जोधपुर, बीकानेर, चूरू एवं बाड़मेर जिलों के नगर और कई गांवों को नहर से विभिन्न लिफ्ट परियोजनाओं से पहुंचाये गये पीने का पानी उपलब्ध होगा। खारी नदी उदयपुर और अजमेर मेरवाङा की सीमा रेखा थी। पश्चिमी राजस्थान यानी मारवाड़ को मरूकान्इतर भी कहा जाता है। इस प्रकार राजस्थान के रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अन्तत: शस्य श्यामला भूमि में बदल जायेगा। सूरतगढ़ जैसे कई इलाको में यह नजारा देखा जा सकता है।
गंगा बेसिन की नदियों पर बनाई जाने वाली जल-विद्युत योजनाओं में भी राजस्थान भी भागीदार है। इसे इस समय भाखरा-नांगल और अन्य योजनाओं के कृषि एवं औद्योगिक विकास में भरपूर सहायता मिलती है। राजस्थान नहर परियोजना के अलावा इस भाग में जवाई नदी पर निर्मित एक बांध है, जिससे न केवल विस्तृत क्षेत्र में सिंचाई होती है, वरन् जोधपुर नगर को पेयजल भी प्राप्त होता है। यह सम्भाग अभी तक औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। पर उम्मीद है, इस क्षेत्र में ज्यो-ज्यों बिजली और पानी की सुविधाएं बढ़ती जायेंगी औद्योगिक विकास भी गति पकड़ लेगा। इस बाग में लिग्नाइट, फुलर्सअर्थ, टंगस्टन, बैण्टोनाइट, जिप्सम, संगमरमर आदि खनिज प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। बाड़मेर क्षेत्र में सिलिसियस अर्थ और कच्चा तेल के भंडार प्रचुर मात्रा में हैं। हाल ही की खुदाई से पता चला है कि इस क्षेत्र में उच्च किस्म की प्राकृतिक गैस भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अब वह दिन दूर नहीं, जबकि राजस्थान का यह भाग भी समृद्धिशाली बन जाएगा।
राज्य का क्षेत्रफल ३.४२ लाख वर्ग कि.मी है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का १०.४० प्रतिशत है। यह भारत का सबसे बड़ा राज्य है। वर्ष १९९६-९७ में राज्य में गांवों की संख्या ३७८८९ और नगरों तथा कस्बों की संख्या २२२ थी। राज्य में ३३ जिला परिषदें, २३५ पंचायत समितियां और ९१२५ ग्राम पंचायतें हैं। नगर निगम ४ और सभी श्रेणी की नगरपालिकाएं १८० हैं।
सन् १९९१ की जनगणना के अनुसार राज्य की जनसंख्या ४.३९ करोड़ थी। जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग कि॰मी॰ १२६ है। इसमें पुरुषों की संख्या २.३० करोड़ और महिलाओं की संख्या २.०९ करोड़ थी। राज्य में दशक वृद्धि दर २८.४४ प्रतिशत थी, जबकि भारत में यह औसत दर २३.५६ प्रतिशत थी। राज्य में साक्षरता ३८.८१ प्रतिशत थी। जबकि भारत की साक्षरता तो केवल २०.८ प्रतिशत थी जो देश के अन्य राज्यों में सबसे कम थी। राज्य में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति राज्य की कुल जनसंख्या का क्रमश: १७.२९ प्रतिशत और १२.४४ प्रतिशत है।
राजस्थान की जलवायु
राजस्थान की जलवायु शुष्क से उप-आर्द्र मानसूनी जलवायु है। अरावली के पश्चिम में न्यून वर्षा, उच्च दैनिक एवं वार्षिक तापान्तर, निम्न आर्द्रता तथा तीव्र हवाओं युक्त शुष्क जलवायु है। दूसरी ओर अरावली के पूर्व में अर्धशुष्क एवं उप-आर्द्र जलवायु है। अक्षांशीय स्थिति, समुद्र से दूरी, समुद्र तल से ऊंचाई, अरावली पर्वत श्रेणियों की स्थिति एवं दिशा, वनस्पति आवरण आदि सभी यहाँ की जलवायु को प्रभावित करते हैं।
राजस्थान के प्रथम व्यक्तित्व:-
राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री : हीरा लाल शास्त्री (३० मार्च १९४८ से ५ जनवरी 19५1 तक
राजस्थान के प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री : टीकाराम पालीवाल (३ मार्च १९५२ से ३1 अक्टूबर १९५२ तक) राजस्थान के चौथे मुख्यमंत्री
राजस्थान के प्रथम राज्यपाल : श्री गुरुमुख निहाल सिंह (१ नवंबर १956 से १6 अप्रैल १962 तक)
राजस्थान के प्रथम मुख्य न्यायाधीश : कमलकांत वर्मा
राजस्थान के प्रथम सबसे युवा सांसद: सचिन पायलट
राजस्थान के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष : नरोत्तम जोशी
राजस्थान के प्रथम पुलिस महानिरीक्षक (इग्प) : के. बनर्जी
राजस्थान के प्रथम पुलिस महानिदेशक (डप) : रघुनाथ सिंह
राजस्थान की प्रथम महिला मुख्यमंत्री : वसुन्धरा राजे (८ दिसम्बर २००३ से ११ दिसम्बर 200८ तक)
राजस्थान की प्रथम महिला राज्यपाल : प्रतिभा पाटिल (८ नवंबर २००४ से २१ जून २००७ तक)
राजस्थान की प्रथम महिला विधानसभा अध्यक्ष: सुमित्रा सिंह
राज ऋषि भर्तृहरि मत्स्य विश्वविद्यालय, अलवर
राजस्थान वि. वि जयपुर
राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय
जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
मोदी प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान संस्थान, लक्ष्मणगढ़,सीकर जिला (मानद विश्वविद्यालय)
वनस्थली विद्यापीठ (मानद विश्वविद्यालय),(निवाई) टोंक
राजस्थान विद्यापीठ (मानद विश्वविद्यालय), उदयपुर
बिड़ला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, पिलानी (मानद विश्वविद्यालय),
आई. आई. एस. विश्वविद्यालय (मानद विश्वविद्यालय)
एलएनएम सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (मानद विश्वविद्यालय)
मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (मानद विश्वविद्यालय) जयपुर
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर
राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, जोधपुर
राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर
राजस्थान आयुर्वेद विश्वविद्यालय
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय जयपुर
बीकानेर विश्वविद्यालय, बीकानेर
कोटा विश्वविद्यालय कोटा
वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय कोटा
महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय अजमेर
मौलाना अबुल कलाम आजाद विश्वविद्यालय जोधपुर
शेखावाटी विश्वविद्यालय सीकर
राजस्थान की महत्वपूर्ण कला-संस्कृति इकाइयां
मुख्य लेख : राजस्थान की महत्वपूर्ण कला-संस्कृति इकाइयां
आरटीडीसी - राजस्थान पर्यटन विकास निगम लिमिटेड राजस्थान की सभी पर्यटन सम्बंधित जानकारी एवं सेवा उपलब्धि कराती है | पूरे भारत वर्ष में सबसे ज्यादा पह्माणे में विदेशी पर्यटन सिर्फ राजस्थान आते है जो की भारत देश की संस्कृति, कला , वेश भूषा , आस्था का रूप है | राजस्थान पर्यटन विभाग राजस्थान के सभी प्रसिद्द राज महल, मंदिर, लोक कला, टाइगर रिसॉर्ट्स , होटल्स जैसी सभी सेवाएं पर्यटकों को उपलब्ध कराती है । चन्द्रशेखर के सुर्जनचरित्र से चौहान वंश के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्मगुप्त ने ध्यान गृह की रचना थी। अलउतबी के तारीखएयामिनी,मिनहाज उस सिराज के तबकात ए नासिरी मे यमन -राजपूत संघर्ष का वर्णन है।
राजस्थान के प्रसिद्ध स्थल
जयपुर इसके भव्य किलों, महलों और सुंदर झीलों के लिए प्रसिद्ध है, जो विश्वभर से पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
चन्द्रमहल (सिटी पैलेस) महाराजा जयसिंह (द्वितीय) द्वारा बनवाया गया था और मुगल और राजस्थानी स्थापत्य का एक संयोजन है।
महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने हवामहल १७९९ ई. में बनवाया जिसके वास्तुकार लालचन्द उस्ता थे।
आमेर दुर्ग में महलों, विशाल कक्षों, स्तंभदार दर्शक-दीर्घाओं, बगीचों और मंदिरों सहित कई भवन-समूह हैं।
आमेर महल मुगल और हिन्दू स्थापत्य शैलियों के मिश्रण का उत्कृष्ट उदाहरण है।
एल्बर्ट हॉल नामक म्यूजियम १८७६ में, प्रिंस ऑफ वेल्स के जयपुर आगमन पर सवाई रामसिंह द्वारा बनवाया गया था और १८८६ में जनता के लिए खोला गया।
गवर्नमेंट सेन्ट्रल म्यूजियम में हाथीदांत कृतियों, वस्त्रों, आभूषणों, नक्काशीदार काष्ठ कृतियों, लघुचित्रों, संगमरमर प्रतिमाओं, शस्त्रों और हथियारों का समृद्ध संग्रह है।
सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने अपनी सिसोदिया रानी के निवास के लिए 'सिसोदिया रानी का बाग' भी बनवाया।
जलमहल, शाही बत्तख-शिकार के लिए बनाया गया मानसागर झील के बीच स्थित एक महल है।
'कनक वृंदावन' अपने प्राचीन गोविन्देव विग्रह के लिए प्रसिद्ध जयपुर में एक लोकप्रिय मंदिर-समूह है।
जयपुर के बाजार जीवंत हैं और दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी है, जिसमें हथकरघा-उत्पाद, बहुमूल्य रत्नाभूषण, वस्त्र, मीनाकारी-सामान, राजस्थानी चित्र आदि शामिल हैं।
जयपुर संगमरमर की प्रतिमाओं, ब्लू पॉटरी और राजस्थानी जूतियों के लिए भी प्रसिद्ध है।
जयपुर के प्रमुख बाजार, जहां से आप कुछ उपयोगी सामान खरीद सकते हैं, जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ हैं।
राजस्थान राज्य परिवहन निगम (र्सर्टक) की उत्तर भारत के सभी प्रसुख गंतव्यों के लिए बस सेवाएं हैं।
जयपुर के निकट विराट नगर (पुराना नाम बैराठ) जहाँ पांडवों ने अज्ञातवास किया था, में पंचखंड पर्वत पर वज्रांग मंदिर नामक एक अनोखा देवालय है जहाँ हनुमान जी की बिना बन्दर की मुखाकृति और बिना पूंछ वाली मूर्ति स्थापित है जिसकी स्थापना अमर स्वतंत्रता सेनानी, यशस्वी लेखक महात्मा रामचन्द्र वीर ने की थी।
पन्ना मीणा की बावड़ी : सवाई जयसिंह के शासन काल में बनवाई गई प्रसिद्ध बावड़ी।
पूर्वी राजस्थान का द्वार भरतपुर, भारत के पर्यटन मानचित्र में अपना महत्त्व रखता है।
भारत के वर्तमान मानचित्र में एक प्रमुख पर्यटक गंतव्य, भरतपुर पांचवी सदी ईसा पूर्व से कई अवस्थाओं से गुजर चुका है।
१८ वीं सदी का घना पक्षी अभयारण्य , जो केवलादेव घना राष्ट्रीय उद्यान के रूप में भी जाना जाता है।
लोहागढ़ आयरन फोर्ट के रूप में भी जाना जाता है, लोहागढ़ भरतपुर के प्रमुख ऐतिहासिक आकर्षणों में से एक है। जिसको कोई नहीं जीत पाया
भरतपुर संग्रहालय राजस्थान के विगत शाही वैभव के साथ शौर्यपूर्ण अतीत के साक्षात्कार का एक प्रमुख स्रोत है।
एक सुंदर बगीचा, नेहरू पार्क, जो भरतपुर संग्रहालय के पास है।
डीग जलमहल एक आकर्षक राजमहल है, जो भरतपुर के जाट शासकों ने बनवाया था।
राठौड़ों के रूप में प्रसिद्ध एक वंश के प्रमुख, राव जोधा ने जिस जोधपुर की सन १४५९ में स्थापना की थी, राजस्थान के पश्चिमी भाग में केन्द्र में स्थित राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है और दर्शनीय महलों, दुर्गों औऱ मंदिरों के कारण एक लोकप्रिय पर्यटक गंतव्य है।
शहर की अर्थव्यस्था में हथकरघा, वस्त्र उद्योग और धातु आधारित उद्योगों का योगदान है।
मेहरानगढ़ दुर्ग, १२५ मीटर ऊंचा और ५ किमी के क्षेत्रफल में फैला हुआ, भारत के बड़े दुर्गों में से एक है जिसमें कई सुसज्जित महल जैसे मोती महल, फूल महल, शीश महल स्थित हैं। अन्दर संग्रहालय में भी लघुचित्रो, संगीत वाद्य यंत्रों, पोशाकों, शस्त्रागार आदि का एक समृद्ध संग्रह है।
जोधपुर रियासत, मारवाड़ क्षेत्र में १२५० से १९४९ तक चली रियासत थी। इसकी राजधानी वर्ष १९५० से जोधपुर नगर में रही।
सवाई माधोपुर शहर की स्थापना जयपुर के पूर्व महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम ने १७६५ ईस्वी में की थी और इन्हीं के नाम पर १५ मई, १९४९ ई. को सवाई माधोपुर जिला बनाया गया। मीणा बाहुल्य इस जिले का ऐतिहासिकता के तौर पर काफी महत्त्व है।
राजस्थान राज्य का प्रथम राष्ट्रीय उद्यान इसी जिले में स्थित है, जिसे रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। इस उद्यान के कारण सवाई माधोपुर को 'टाइगर सिटी' के नाम से भी राजस्थान में पहचान मिली हुई है।
सवाई माधोपुर जिले में चौहान वंश का ऐतिहासिक रणथंभोर दुर्ग विश्व धरोहर में शामिल है, अपनी प्राकृतिक बनावट व सुरक्षात्मक दृष्टि से अभेद्य यह दुर्ग विश्व में अनूठा है। इस दुर्ग का सबसे प्रसिद्ध शासक महाराजा हम्मीर देव चौहान राजस्थान के इतिहास में अपने हठ के कारण काफी प्रसिद्ध रहा है।
सवाईमाधोपुर रेलवे स्टेशन पर बाघों की चित्रकारी की विश्व में एक अलग पहचान है, इसलिए इसे वन्यजीव फ्रेंडली स्टेशन कहा जा सकता है।
चौथ माता का प्रसिद्ध मंदिर चौथ का बरवाड़ा में स्थित जिसे जयपुर नरेश भीम सिंह के काल में बनाया गया था।
मीन भगवान का मंदिर : चौथ का बरवाड़ा में मीणा समाज द्वारा सात करोड़ रुपए से निर्मित महा मंदिर।
यहाँ पर चौबीस बगड़ावत प्रसिद्ध है और और आगे चलकर इसी वंश में भगवान् देवनारायण ने जन्म लिया
१. इस शहर की स्थापना महाराजा बूंदा मीणा द्वारा की गई थी।
२. जैत सागर झील : बूंदी के शासक जैता मीणा द्वारा बनवाई गई थी।
बनवाई गई झील
३.विरात्रा माता मंदिर
सूती वस्त्र उद्योग
यह राजस्थान का सबसे प्राचीन एवं सुसंगठित उद्योग है। राजस्थान में सबसे पहले १८८९ में द कृष्णा मिल्स लिमिटेड की स्थापना देशभक्त सेठ दामोदर दास ने ब्यावर नगर में की थी। यह राजस्थान की पहली सूती वस्त्र मिल थी।
सार्वजनिक क्षेत्र में तीन मिल है-
महालक्ष्मी मिल्स लिमिटेड, ब्यावर अजमेर
एडवर्ड मिल्स लिमिटेड, ब्यावर अजमेर
विजय काटन मिल्स लिमिटेड, विजयनगर अजमेर
राजस्थान में सहकारी सूती मिल है -
गंगापुर - भीलवाड़ा में
गुलाबपुरा - भीलवाडा में
प्रमुख निजी सूती मिल
द कृष्णा मिल्स लिमिटेड, ब्यावर, अजमेर (राजस्थान की प्रथम सुती मिल, १८८९ में)
मेवाड़ टैक्सटाइल मिल्स लिमिटेड - भीलवाड़ा(१९३८)
महाराजा उम्मेद मिल्स लिमिटेड - पाली(१९४२)
राजस्थान स्पीनिंग एण्ड विविंग मिल्स लिमिटेड - भीलवाड़ा(१९६०)
राजस्थान में सर्वप्रथम चित्तौड़गढ़ ज़िले में भोपालसागर नगर में चीनी मिल द मेवाड़ सुगर मिल्स के नाम से सन् १९३२ में प्रारम्भ की गई। दूसरा कारखाना सन् १९३७ में श्रीगंगानगर में द श्रीगंगानगर सुगर मिल्स के नाम से स्थापित हुआ। इसमें मिल में शक्कर बनाने का कार्य १९४६ में प्रारम्भ हुआ। १९५६ में इस चीनी मिल को राज्य सरकार ने अधिगृहीत कर लिया तथा यह सार्वजनिक क्षेत्र में आ गई।
१९६५ में बूंदी ज़िले के केशोराय पाटन में चीनी मिल सहकारी क्षेत्र में स्थापित की गई। वर्तमान में बंद है
सन् १९७६ में उदयपुर में चीनी मिल निजी क्षेत्र में स्थापित की गई।
चुकन्दर से चीनी बनाने के लिए श्रीगंगानगर सुगर मिल्स लिमिटेड में एक योजना १९६८ में आरम्भ की गई थी।
द मेवाड़ शुगर मिल्स लिमिटेड - भोपाल सागर, चित्तौड़गढ़ निजी क्षेत्र में कार्यरत, राजस्थान की प्रथम चीनी मिल्स - १९३२
गंगानगर शुगर मिल्स लिमिटेड - कमिनपुरा, गंगानगर
केशवरायपाटन सहकारी शुगर मिल्स लिमिटेड - केशवरायपाटन, बूंदी(सहकारी क्षेत्र में)
सीमेन्ट उद्योग की दृष्टि से राजस्थान का पूरे भारत में प्रथम स्थान है। यहां पर सर्वप्रथम १९०४ में समुद्री सीपियों से सीमेन्ट बनाने का प्रयास किया गया था।
१९१५ ई. राजस्थान में लाखेरी, बूंदी में क्लिक निक्सन कम्पनी द्वारा सर्वप्रथम एक सीमेन्ट संयंत्र स्थापित किया गया। १९१७ में इस कारखाने में सीमेन्ट बनाने का कार्य प्रारम्भ किया गया।
राजस्थान में काँच प्राप्ति के मुख्य स्थल जयपुर, बीकानेर, बूंदी तथा धौलपुर ज़िले है जहां उपयुक्त रूप से काँच की प्राप्ति होती है। द हाई टेक्निकल प्रीसीजन ग्लास वर्क्स'' सार्वजनिक क्षेत्र में धौलपुर में राजस्थान सरकार का उपक्रम है जो श्रीगंगानगर सुगर मिल्स के अधीन है। काँच उद्योग के मामले में राजस्थान उत्तर प्रदेश के बाद दुसरे स्थान पर है।
संपूर्ण भारतवर्ष में ४२% ऊन राजस्थान से उत्पादित होती है। इस कारण राजस्थान भर में कई ऊन उद्योग की मिलें विद्यमान है जिसमें स्टेट वूलन मिल्स (बीकानेर ), जोधपुर ऊन फैक्ट्री, विदेशी आयात - निर्यात संस्था, कोटा इत्यादि है।
राजस्थान का भूगोल नामकरण : वाल्मीकि ने राजस्थान प्रदेश को मरुकान्तार कहा है।
राजपूताना शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग १८०० ई. में जॉर्ज थॉमस ने किया।
विलियम फ्रेंकलिन ने १८०५ में मिल्ट्री मेमोयर्स ऑफ मिस्टर जार्ज थॉमस नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें उसने कहा कि जार्ज थॉमस सम्भवतः पहला व्यक्ति था, जिसने राजपूताना शब्द का प्रयोग इस भू-भाग के लिए किया था।
कर्नल जेम्स टॉड ने इस प्रदेश का नाम रायथान रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को रायथान कहते थे। उन्होंने १८२९ ई. में लिखित अपनी प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तक 'अन्नल & एंटिक्टीज ऑफ राजस'थान' (और सेंट्रल एंड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इंडिया) में सर्वप्रथम इस भौगोलिक प्रदेश के लिए राजस्थान शब्द का प्रयोग किया।
३० मार्च,१९४९ से हर वर्ष ३० मार्च को राजस्थान दिवस मनाया जाता है। २६ जनवरी, १९५० को इस प्रदेश का नाम राजस्थान स्वीकृत किया गया।
यद्यपि राजस्थान के प्राचीन ग्रन्थों में राजस्थान शब्द का उल्लेख मिलता है। लेकिन वह शब्द क्षेत्र विशेष के रूप में प्रयुक्त न होकर रियासत या राज्य क्षेत्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जैसे :-
- राजस्थान शब्द का प्राचीनतम प्रयोग राजस्थानीयादित्य वि.सं. ६८२ में उत्कीर्ण बसंतगढ़ (सिरोही) के शिलालेख में मिलता है।
- मुहणोत नैणसी की ख्यात व वीरभान के राजरूपक में राजस्थान शब्द का प्रयोग हुआ। यह शब्द भौगोलिक प्रदेश राजस्थान के लिए प्रयुक्त हुआ नहीं लगता। अर्थात् राजस्थान शब्द के प्रयोग के रूप में कर्नल जेम्स टॉड को ही श्रेय दिया जाता है।स्थिति : उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित।
२३(डिग्री)३' उत्तरी अंक्षाश से ३0(डिग्री)१२' उत्तरी अंक्षाश एवं ६९(डिग्री)३0' पूर्वी देशान्तर से ७८(डिग्री)१७' पूर्वी देशान्तर के मध्य।
विस्तार - उ. से द. तक लम्बाई ८२६ कि.मी. तथा विस्तार उतर में कोणा गाँव (गंगानगर) से दक्षिण में बोरकुंड गाँव (बांवाङ़ा) तक है।
अक्षांश रेखाएँ- ग्लोब को १८० अक्षांशों में बांटा गया है। \(०^\सर्क\) से 9०(डिग्री)उत्तरी अक्षांश, उत्तरी गोलार्द्ध तथा \(०^\सर्क\) से 9०(डिग्री) दक्षिणी अक्षांश, दक्षिणी गोलार्द्ध कहलाते हैं। अक्षांश रेखायें ग्लोब पर खींची जाने वाली काल्पनिक रेखायें हैं। जो ग्लोब पर पश्चिम से पूर्व की ओर खींची जाती है, ये जलवायु, तापमान व स्थान (दूरी) का ज्ञान कराती है।
दो अक्षांश रेखाओं के बीच में १११ क्म. का अन्तर होता है।
देशान्तर रेखाएँ - वे काल्पनिक रेखाएँ जो ग्लोब पर उत्तर से दक्षिण की ओर खींची जाती है। ये ३६० होती हैं। ये समय का ज्ञान कराती है। अतः इन्हें सामयिक रेखाएँ
०(डिग्री) देशान्तर रेखा को ग्रीनविच मीन टाइम/ग्रीन विच मध्या।न रेखा कहते हैं। दो देशान्तर रेखाओं के बीच दूरी सभी जगह समान नहीं होती है, भूमध्य रेखा पर दो देशान्तर रेखाओं के बीच १११.३१ किमी. का अन्तर होता है।
१८०(डिग्री) देशान्तर रेखा को अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा कहते हैं जो बेरिंग सागर में से होकर जापान के पूर्व में से गुजरती हुई प्रशांत महासागर को काटती हुई दक्षिण की ओर जाती है।
भारत इंडियन स्टैंडर्ड टाइम (इस्ट) पूर्वी देशान्तर रेखा को मानता है। यह उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के पास नैनी से गुजरती है।
राजस्थान के देशान्तरीय विस्तार के कारण पूर्वी सीमा से पश्चिमी सीमा में समय का ३६ मिनिट (४(डिग्री) ९ देशान्तर = ३६ मिनिट) का अन्तर आता है अर्थात् धौलपुर में सूर्योदय के लगभग ३६ मिनिट बाद जैसलमेर में सूर्योदय होता है।
कर्क रेखा (२१ ३०' उत्तरी अक्षांश) राजस्थान के डूंगरपुर जिले के चिखली गांव के दक्षिण से तथा बाँसवाड़ा जिले के कुशलगढ़ तहसील लगभग मध्य में से गुजरती है।
कुशलगढ़ (बाँसवाड़ा) में २१ जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्बवत् पड़ती है।
गंगानगर में सूर्य की किरणें सर्वाधिक तिरछी व बाँसवाड़ा में सूर्य की किरणें सर्वाधिक सीधी''' पड़ती है।
राजस्थान में सूर्य की लम्बवत् किरणें केवल बाँसवाड़ा में पड़ती है।
राजस्थान के नए जिलों की सूची
अनूपगढ़, बालोतरा, ब्यावर, डीग, डीडवाना-कुचामन सिटी, दूदू, गंगापुर सिटी, जयपुर शहरी, जयपुर ग्रामीण, जोधपुर शहरी, जोधपुर ग्रामीण, केकड़ी, कोटपुतली- बहरोड़, खैरथल, नीमकाथाना, फलौदी, सलूम्बर, सांचौर, शाहपुरा (भीलवाड़ा)। बांसवाड़ा, पाली, सीकर नए संभाग बनाए गए हैं ।
दिशावार राजस्थान के जिले
उत्तरी राजस्थान के जिले - गंगानगर-हनुमानगढ-चुरू-बीकानेर-अनूपगढ़
दक्षिण राजस्थान के जिले - उदयपुर-डूंगरपुर-बांसवाड़ा-प्रतापगढ-राजसमंद-चितौड़गढ-भीलवाड़ा-सलूम्बर-शाहपुरा
पूर्वी राजस्थान के जिले - अजमेर- जयपुर उत्तर-जयपुर दक्षिण-दौसा-सीकर-झुंझुनू-अलवर-भरतपुर-धौलपुर-सवाईमाधोपुर-करौली-टोंक-केकडी-ब्यावर-गंगापुर-डीग-कोटपुतली_बहरोड़,खैरथल-भिवाडी,अलवर
पश्चिमी राजस्थान के जिले - जोधपुर-नागौर-पाली-जैसलमेर-बाड़मेर-जालोर-सिरोही
दक्षिण-पूर्व राजस्थान के जिले - कोटा-बूंदी-बारां-झालावाड़
इन्हें भी देखें
राजस्थान के शहर
राजस्थान के लोकसभा सदस्य
भारत के राज्य |
हिमाचल प्रदेश (अंग्रेज़ी: हिमाचल प्रदेश, उच्चारण ) उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित एक राज्य है। यह २१,६२९ मील (५६०१९ किमी) से अधिक क्षेत्र में फ़ैला हुआ है तथा उत्तर में जम्मू और कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेशों के पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में पंजाब (भारत), दक्षिण में हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में उत्तराखण्ड तथा पूर्व में तिब्बत से घिरा हुआ है। हिमाचल प्रदेश का शाब्दिक अर्थ "बर्फ़ीले पहाड़ों का प्रांत" है।
हिमाचल प्रदेश को "देव भूमि" भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में आर्यों का प्रभाव ऋग्वेद से भी पुराना है। आंग्ल-गोरखा युद्ध के बाद, यह ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के हाथ में आ गया। सन १८५७ तक यह महाराजा रणजीत सिंह के शासन के अधीन पंजाब राज्य (पंजाब हिल्स के सीबा राज्य को छोड़कर) का हिस्सा था।
सन १९५६ में इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया, लेकिन १९७१ में इसे, हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम-१९७१ के अन्तर्गत इसे २५ जनवरी १९७१ को भारत का अठारहवाँ राज्य बनाया गया।
हिमाचल प्रदेश प्रतिव्यक्ति आय के अनुसार भारत के राज्यों में पन्द्रहवें स्थान पर है। बारहमासी नदियों की बहुतायत के कारण, हिमाचल अन्य राज्यों को पनबिजली बेचता है जिनमे प्रमुख हैं दिल्ली, पंजाब (भारत) और राजस्थान। राज्य की अर्थव्यवस्था तीन प्रमुख कारकों पर निर्भर करती है जो हैं, पनबिजली, पर्यटन और कृषि।
हिंदु राज्य की जनसंख्या का ९५% हैं और प्रमुख समुदायों में राजपूत, ब्राह्मण, घिर्थ (चौधरी), गद्दी, कन्नेत, राठी और कोली शामिल हैं। ट्रान्सपरेन्सी इंटरनैशनल के २००५ के सर्वेक्षण के अनुसार, हिमाचल प्रदेश देश में केरल के बाद दूसरी सबसे कम भ्रष्ट राज्य है।
हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
शिमला हिल स्टेट्स की स्थापना
१९४५ ई. तक प्रदेश में प्रजा मंडलों का गठन हो चुका था। १९४६ ई. में सभी प्रजा मंडलों को एचएचएसआरसी में शामिल कर लिया तथा मुख्यालय मंडी में स्थापित किया गया। मंडी के स्वामी पूर्णानंद को अध्यक्ष, पदमदेव को सचिव तथा शिव नंद रमौल (सिरमौर) को संयुक्त सचिव नियुक्त किया। एचएचएसआरसी के नाहन में १९४६ ई. में चुनाव हुए, जिसमें यशवंत सिंह परमार को अध्यक्ष चुना गया। जनवरी, १९४७ ई. में राजा दुर्गा चंद (बघाट) की अध्यक्षता में शिमला हिल्स स्टेट्स यूनियन की स्थापना की गई। जनवरी, १९४८ ई. में इसका सम्मेलन सोलन में हुआ। हिमाचल प्रदेश के निर्माण की घोषणा इस सम्मेलन में की गई। दूसरी तरफ प्रजा मंडल के नेताओं का शिमला में सम्मेलन हुआ, जिसमें यशवंत सिंह परमार ने इस बात पर जोर दिया कि हिमाचल प्रदेश का निर्माण तभी संभव है, जब शक्ति प्रदेश की जनता तथा राज्य के हाथ सौंप दी जाए। शिवानंद रमौल की अध्यक्षता में हिमालयन प्लांट गर्वनमेंट की स्थापना की गई, जिसका मुख्यालय शिमला में था। दो मार्च, १९४८ ई. को शिमला हिल स्टेट के राजाओं का सम्मेलन दिल्ली में हुआ। राजाओं की अगवाई मंडी के राजा जोगेंद्र सेन कर रहे थे। इन राजाओं ने हिमाचल प्रदेश में शामिल होने के लिए ८ मार्च १९४८ को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। १५ अप्रैल १९४८ ई. को हिमाचल प्रदेश राज्य का निर्माण किया था। उस समय प्रदेश भर को चार जिलों में बांटा गया और पंजाब हिल स्टेट्स को पटियाला और पूर्व पंजाब राज्य का नाम दिया गया। १९४८ ई. में सोलन की नालागढ़ रियासत कों शामिल किया गया। अप्रैल १९४८ में इस क्षेत्र की २७,००० वर्ग कि॰मी॰ में फैली लगभग ३० रियासतों को मिलाकर इस राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया।
१९५० ई. में प्रदेश का पुनर्गठन
१९५० ई. में प्रदेश के पुनर्गठन के अंतर्गत प्रदेश की सीमाओं का पुनर्गठन किया गया। कोटखाई को उपतहसील का दर्जा देकर खनेटी, दरकोटी, कुमारसैन उपतहसील के कुछ क्षेत्र तथा बलसन के कुछ क्षेत्र तथा बलसन के कुछ क्षेत्र कोटखाई में शामिल किए गए। कोटगढ़ को कुमारसैन उपतहसील में मिला गया। उत्तर प्रदेश के दो गांव संसोग और भटाड़ जुब्बल तहसील में शामिल कर दिए गए। पंजाब के नालागढ़ से सात गांव लेकर सोलन तहसील में शामिल किए गए। इसके बदले में शिमला के नजदीक कुसुम्पटी, भराड़ी, संजौली, वाक्ना, भारी, काटो, रामपुर। इसके साथ ही पेप्सी (पंजाब) के छबरोट क्षेत्र कुसुम्पटी तहसील में शामिल कर दिया गया।
बिलासपुर जिला का विलय
बिलासपुर रियासत को १९४८ ई. में प्रदेश से अलग रखा गया था। उन दिनों इस क्षेत्र में भाखड़ा-बांध परियोजना का कार्य चलाने के कारण इसे प्रदेश में अलग रखा गया। एक जुलाई, १९५४ ई. को कहलूर रियासत को प्रदेश में शामिल करके इसे बिलासपुर का नाम दिया गया। उस समय बिलासपुर तथा घुमारवीं नामक दो तहसीलें बनाई गईं। यह प्रदेश का पांचवां जिला बना। १९५४ में जब ग श्रेणी की रियासत बिलासपुर को इसमें मिलाया गया, तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर २८,२४१ वर्ग कि.मी.हो गया।
किन्नौर जिला की स्थापना
एक मई, १९६० को छठे जिला के रूप में किन्नौर का निर्माण किया गया। इस जिला में महासू जिला की चीनी तहसील तथा रामपुर तहसील को १४ गांव शामिल गए गए। इसकी तीन तहसीलें कल्पा, निचार और पूह बनाई गईं।
पंजाब का पुनर्गठन
वर्ष १९६६ में पंजाब का पुनर्गठन किया गया तथा पंजाब व हरियाणा दो राज्य बना दिए गए। भाषा तथा तिहाड़ी क्षेत्र के पंजाब से लेकर हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिए गए। संजौली, भराड़ी, कुसुमपटी आदि क्षेत्र जो पहले पंजाब में थे तथा नालागढ़ आदि जो पंजाब में थे, उन्हें पुनः हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिया गया। सन १९६६ में इसमें पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों को मिलाकर इसका पुनर्गठन किया गया तो इसका क्षेत्रफल बढ़कर ५५,६७३ वर्ग कि॰मी॰ हो गया।
१९७२ ई. में पुनर्गठन
हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा २५ जनवरी १९७१ को मिला। १ नवम्बर १972 को कांगड़ा ज़िले के तीन ज़िले कांगड़ा, ऊना तथा हमीरपुर बनाए गए। महासू ज़िला के क्षेत्रों में से सोलन ज़िला बनाया गया।
हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्ता है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में १००० से २००० मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अरिकरी (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतदुई (सतलुज) पांचवी नदी (कालिंदी) जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है।
रावी नदीः रावी नदी का प्राचीन नाम इरावती और परोष्णी है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी भादल और तांतागिरि दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई ७२० किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई १५८ किलोमीटर है। सिकंदर महान के साथ आए यूनानी इतिहासकार ने इसे हाइड्रास्टर और रहोआदिस का नाम दिया था।
ब्यास नदीः ब्यास नदी का पुराना नाम अर्जिकिया या विपाशा था। यह कुल्लू में व्यास कुंड से निकलती है। व्यास कुंड पीर पंजाल पर्वत शृंखला में स्थित रोहतांग दर्रे में है। यह कुल्लू, मंडी, हमीरपुर और कांगड़ा में बहती है। कांगड़ा से मुरथल के पास पंजाब में चली जाती है। मनाली, कुल्लू, बजौरा, औट, पंडोह, मंडी, कांढापतन ( मिनी हरिद्धार ), सुजानपुर टीहरा, नादौन और देहरा गोपीपुर इसके प्रमुख तटीय स्थान हैं। इसकी कुल लंबाई ४६० कि॰मी॰ है। हिमाचल में इसकी लंबाई २६० कि॰मी॰ है। कुल्लू में पतलीकूहल, पार्वती, पिन, मलाणा-नाला, फोजल, सर्वरी और सैज इसकी सहायक नदियां हैं। कांगड़ा में सहायक नदियां बिनवा न्यूगल, गज और चक्की हैं। प्रदेश की जीवनदायिनी नदियों में से एक है।
चिनाव नदीः चिनाव नदी जम्मू-कश्मीर से होती हुई पंजाब राज्य में बहने वाली नदी है। पानी के घनत्व की दृष्टि से यह प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है। यह नदी समुद्र तल से लगभग ४९०० मीटर की ऊँचाई पर बारालाचा दर्रे (लाहौल स्पीति) के पास से निकलने वाली चन्द्रा और भागा नदियों के तांदी नामक स्थान पर मिलने से बनती है। इस नदी को वैदिक साहित्य में अश्विनी नाम से संबोधित किया गया है। ऊपरी हिमालय पर टांडी में चन्द्र और भागा नदियां मिलती हैं, जो चिनाव नदी कहलाती है। महाभारत काल में इस नदी का नाम चंद्रभागा भी प्रचलित हो गया था। ग्रीक लेखकों ने चिनाव नदी को अकेसिनीज लिखा है, जो अश्विनी का ही स्पष्ट रूपांतरण है। चंद्रभागा नदी मानसरोवर (तिब्ब्त) के निकट चंद्रभागा नामक पर्वत से निस्तृत होती है और सिंधु नदी में गिर जाती है। चिनाव नदी की ऊपरी धारा को चद्रभागा कहकर, पुःन शेष नदी का प्राचीन नाम अश्विनी कहा गया है। इस नदी को हिमाचल से अदभुत माना गया है। इस नदी का तटवर्ती प्रदेश पूर्व गुप्त काल में म्लेच्छों तथा यवन शव आदि द्वारा शासित था।
हिमाचल में तीन ऋतुएं होती हैं - ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु और वर्षा ऋतु। हिमाचल प्रदेश की समुद्रतल से ऊँचाई की विविधता के कारण जलवायु में भी भिन्नता है। कहीं सारा वर्ष बर्फ गिरती है, तो कहीं गर्मी होती हे। हिमाचल में गर्म पानी के चशमें भी हैं और हिमनद भी है। ऐसा समुद्रतल से ऊँचाई की भिन्नता की वजह से है।
कृषि हिमाचल प्रदेश का प्रमुख व्यवसाय है। यह राज्य की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह ६९ प्रतिशत कामकाजी आबादी को सीधा रोजगार मुहैया कराती है। कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र से होने वाली आय प्रदेश के कुल घरेलू उत्पाद का २२.१ प्रतिशत है। कुल भौगोलिक क्षेत्र ५५.६७३ लाख हेक्टेयर में से ९.7९ लाख हेक्टेयर भूमि के स्वामी ९.१४ लाख किसान हैं। मंझोले और छोटे किसानो के पास कुल भूमि का ८६.४ प्रतिशत भाग है। राज्य में कृषि भूमि केवल १0.४ प्रतिशत है। लगभग ८० प्रतिशत क्षेत्र वर्षा-सिंचित है और किसान बारिश पर निर्भर रहते हैं।
प्रकृति ने हिमाचल प्रदेश को व्यापक कृषि जलवायु परिस्थितियां प्रदान की हैं जिसकी वजह से किसानों को विविध फल उगाने में सहायता मिली है। बागवानी के अंतर्गत आने वाले प्रमुख फल हैं-सेब, नाशपाती, आडू, बेर, खूमानी, गुठली वाले फल, नींबू प्रजाति के फल, आम, लीची, अमरूद और झरबेरी आदि। १९५० में केवल ७९२ हेक्टेयर क्षेत्र बागवानी के अंतर्गत था, जो बढ़कर २.२3 लाख हेक्टेयर हो गया है। इसी तरह,१९५० में फल उत्पादन 1२00 मीट्रिक टन था, जो २007 में बढ़कर ६.९५ लाख टन हो गया है।
राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल ५५,६७३ वर्ग किलोमीटर है। वन रिकार्ड के अनुसार कुल वन क्षेत्र ३७,०३३ वर्ग किलोमीटर है। इसमें से १६,३७6 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ऐसा है जहां पहाड़ी चरागाह वाली वनस्पतियां नहीं उगाई जा सकतीं क्योंकि यह स्थायी रूप से बर्फ से ढका रहता है।
राज्य में ५ राष्ट्रीय पार्क और ३२ वन्यजीवन अभयारण्य हैं। वन्यजीवन अभयारण्य के अंतर्गत कुल क्षेत्र ५,५62 कि.मी., राष्ट्रीय पार्क के अंतर्गत १,४४० कि॰मी॰ है। इस तरह कुल संरक्षित क्षेत्र ७,००२ कि॰मी॰ है।
हिमाचल प्रदेश राज्य में यहां की सड़कें ही यहां की जीवन रेखा हैं और ये संचार के प्रमुख साधन हैं। इसके ५५,६७३ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से ३६,७०० किलोमीटर में बसाहट है, जिसमें से १६,८०७ गांव अनेक पर्वतीय श्रृखलाओं और घाटियों के ढलानों पर फैले हुए हैं। जब यह राज्य १९४८ में अस्तित्व में आया, तो यहां केवल २८८ कि॰मी॰ लंबी सड़कें थीं जो १५ अगस्त २००७ तक बढ़कर ३०,२६४ हो गई हैं।
सिंचाई और जलापूर्ति
साल २००७ तक हिमाचल प्रदेश में कुल बुवाई क्षेत्र ५.८३ लाख हेक्टेयर था। गांवों में पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध कराई गई और अब तक राज्य में १४,६११ हैंडपंप लगाए जा चुके हैं। हिमाचल प्रदेश में भूजल की उलब्धता ३६,61५.९२ हैक्टेयर मीटर (है।मी.) है।
पर्यटन उद्योग को हिमाचल प्रदेश में उच्च प्राथमिकता दी गई है और हिमाचल सरकार ने इसके विकास के लिए समुचित ढांचा विकसित किया है जिसमें जनोपयोगी सेवाएं, सड़कें, संचार तंत्र हवाई अड्डे यातायात सेवाएं, जलापूर्ति और जन स्वास्थ्य सेवाएं शामिल है। राज्य पर्यटन विकास निगम राज्य की आय में १० प्रतिशत का योगदान करता है। राज्य में तीर्थो और नृवैज्ञानिक महत्व के स्थलों का समृद्ध भंडार है। राज्य को व्यास, पाराशर, वसिष्ठ, मार्कण्डेय और लोमश आदि ऋषियों के निवास स्थल होने का गौरव प्राप्त है। गर्म पानी के स्रोत, ऐतिहासिक दुर्ग, प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलें, उन्मुक्त विचरते चरवाहे पर्यटकों के लिए असीम सुख और आनंद का स्रोत हैं।
चंबा घाटी (९१५ मीटर) की ऊँचाई पर रावी नदी के दाएं किनारे पर है। पुराने समय में राजशाही का राज्य होने के नाते यह लगभग एक शताब्दी पुराना राज्य है और ६वीं शताब्दी से इसका इतिहास मिलता है। यह अपनी भव्य वास्तुकला और अनेक रोमांचक यात्राओं के लिए एक आधार के तौर पर विख्यात है।
पश्चिमी हिमाचल प्रदेश में डलहौज़ी नामक यह पर्वतीय स्थान पुरानी दुनिया की चीजों से भरा पड़ा है और यहां राजशाही युग की भाव्यता बिखरी पड़ी है। यह लगभग १४ वर्ग किलो मीटर फैला है और यहां काठ लोग, पात्रे, तेहरा, बकरोटा और बलूम नामक ५ पहाडियां है। इसे १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश गवर्नर जनरल, लॉड डलहौज़ी के नाम पर बनाया गया था। इस कस्बे की ऊँचाई लगभग ५2५ मीटर से २३७८ मीटर तक है और इसके आस पास विविध प्रकार की वनस्पति-पाइन, देवदार, ओक और फूलों से भरे हुए रोडो डेंड्रॉन पाए जाते हैं डलहौज़ी में मनमोहक उप निवेश युगीन वास्तुकला है जिसमें कुछ सुंदर गिरजाघर शामिल है। यह मैदानों के मनोरम दृश्यों को प्रस्तुत करने के साथ एक लंबी रजत रेखा के समान दिखाई देने वाले रावी नदी के साथ एक अद्भुत दृश्य प्रदर्शित करता है जो घूम कर डलहौज़ी के नीचे जाती है। बर्फ से ढका हुआ धोलाधार पर्वत भी इस कस्बे से साफ दिखाई देता है।
धर्मशाला की ऊँचाई १,२५० मीटर (४,४00 फीट) और २,००० मीटर (६,४६0 फीट) के बीच है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां पाइन के ऊंचे पेड़, चाय के बागान और इमारती लकड़ी पैदा करने वाले बड़े वृक्ष ऊंचाई, शांति तथा पवित्रता के साथ यहां खड़े दिखाई देते हैं। वर्ष १9६0 से, जब से दलाई लामा ने अपना अस्थायी मुख्यालय यहां बनाया, धर्मशाला की अंतरराष्ट्रीय ख्याति भारत के छोटे ल्हासा के रूप में बढ़ गई है।
अनंत दूरी तक चलता आकाश, बर्फ से ढकी चोटियां, गहरी घाटियां और मीठे पानी के झरने, कुफरी में यह सब है। यह पर्वतीय स्थान शिमला के पास समुद्री तल से २५१० मीटर की ऊँचाई पर हिमाचल प्रदेश के दक्षिणी भाग में स्थित है। कुफरी में ठण्ड के मौसम में अनेक खेलों का आयोजन किया जाता है जैसे स्काइंग और टोबोगेनिंग के साथ चढ़ाडयों पर चढ़ना। ठण्ड के मौसम में हर वर्ष खेल कार्निवाल आयोजित किए जाते हैं और यह उन पर्यटकों के लिए एक बड़ा आकर्षण है जो केवल इन्हें देखने के लिए यहां आते हैं। यह स्थान ट्रेकिंग और पहाड़ी पर चढ़ने के लिए भी जाना जाता है जो रोमांचकारी खेल प्रेमियों का आदर्श स्थान है।
कुल्लू से उत्तर दिशा में केवल ४० किलो मीटर की दूरी पर लेह की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर घाटी के सिरे के पास मनाली स्थित है। लाहुल, स्पीति, बारा भंगल (कांगड़ा) और जनस्कर पर्वत शृंखला पर चढ़ाई करने वालों के लिए यह एक मनपसंद स्थान है। मंदिरों से अनोखी चीजों तक, यहां से मनोरम दृश्य और रोमांचकारी गतिविधियां मनाली को हर मौसम और सभी प्रकार के यात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं।
कुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्य दुनिया का अंत। कुल्लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्थानीय हस्तशिल्प कुल्लू की सबसे बड़ी विशेषता है।
हिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्म कालीन राजधानी शिमला राज्य का सबसे महत्वपूर्ण पर्यटन केन्द्र है। यहां का नाम देवी श्यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग ७२६७ फीट की ऊँचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है। यहां घाटी का सुंदर दृश्य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। शिमला एक पहाड़ी पर फैला हुआ है जो करीब १२ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके पड़ोस में घने जंगल और टेढ़े-मेढे़ रास्ते हैं, जहां पर हर मोड़ पर मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यह एक आधुनिक व्यावसायिक केंद्र भी है। शिमला विश्व का एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग भ्रमण के लिए आते हैं। बर्फ से ढकी हुई यहां की पहाडि़यों में बड़े सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं जो पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आकर्षित करते हैं। शिमला संग्रहालय हिमाचल प्रदेश की कला एवं संस्कृति का एक अनुपम नमूना है, जिसमें यहां की विभिन्न कलाकृतियां विशेषकर वास्तुकला, पहाड़ी कलम, सूक्ष्म कला, लकडि़यों पर की गई नक्काशियां, आभूषण एवं अन्य कृतियां संग्रहित हैं। शिमला में दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त कई अध्ययन केंद्र भी हैं, जिनमें लार्ड डफरिन द्वारा १८८४-८८ में निर्मित भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र बहुत ही प्रसिद्ध है। यहां कुछ ऐतिहासिक सरकारी भवन भी हैं, जैसे वार्नेस कोर्ट, गार्टन कैसल व वाइसरीगल लॉज ये भी बड़े ही दर्शनीय स्थल हैं। चैडविक झरना भी एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। इसके साथ ही ग्लेन नामक स्थल भी है। इसके समीप बहता हुआ झरना और सदाबहार जंगल बहुत ही आकर्षक हैं।
वर्ष १९७१ में हिमाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा मिलने के बाद यहां कांग्रेस और भाजपा की बारी-बारी से सरकारें बनती रही है।
हिमाचल प्रदेश विधान सभा शिमला में स्थित है। वर्तमान हिमाचल प्रदेश विधानसभा एकसदनीय है।
विधानसभा चुनाव २०१७
नवम्बर २०२२ में हिमाचल प्रदेश की हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए हुआ चुनाव था। कॉंग्रेस ने इस चुनाव में जीत हासिल की। ६८ सीटो में से ४० सीट जीत कर कॉंग्रेस ने सरकार बनाई।
भारत की २०११ जनगणना के अनुसार हिमाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या ६८,६४,६०२ है। इनमें पुरुषों की जनसंख्या ३४,८१,८७३ तथा महिलाओं की जनसंख्या ३३,८२,७२९ है। २०११ की जनगणना आंकड़ों के अनुसार हिमाचल प्रदेश का लिंग अनुपात ९७२/१००० और साक्षरता दर ८२.८% है।
राज्य की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी, काँगड़ी, पहाड़ी, पंजाबी और मंडियाली शामिल हैं। हिन्दू, बौद्ध और सिख यहाँ के प्रमुख धर्म हैं। पश्चिम में धर्मशाला, दलाई लामा की शरण स्थली है।
हिमाचल प्रदेश में चित्रकला का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। प्रदेश की चित्रकला का राष्ट्र के इतिहास में उल्लेखनीय योगदान है। यहां की चित्रकला की संपदा अज्ञात थी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिमाचल तथा पंजाब के अनेक स्थानों पर चित्रों के नमूनों की खोज की गई। मैटकाफ प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने कांगड़ा के पुरात्न महलों में चित्रों की खोज की गुलेर, सुजानपुर टीहरा तथा कांगड़ा ऐसे ही स्थान थे, जहां पर यह धरोहर छिपी हुई थी।
हिमाचल में अनेक प्रकार के खनिज होते है। इनमें चूने का पत्थर, डोलोमाइट युक्त चूने की पत्थर, चट्टानी नमक, सिलिका रेत और स्लेट होते है। यहां लौह अयस्क, तांबा, चांदी, शीशा, यूरेनियम और प्राकृतिक गैस भी पाई जाती है।
चट्टानी नमकः चट्टानी नमक में स्थानीय भाषा में लेखन कहा जाता है। यह भारत की एकमात्र चट्टानी नमक की खान है। मैगली में नमकीन पानी को सुखाकर नमक तैयार किया जाता है। चट्टानी नमक दवाइयां और पशु चारे के काम में प्रयुक्त होता है।
प्राकृतिक तेल गैसः प्राकृतिक तेल गैस स्वारघाट (बिलासपुर) चौमुख (सुंदरनगर), चमकोल (हमीरपुर) तथा दियोटसिद्ध (हमीरपुर) में पाई जाती है। प्राकृतिक तेल गैस ज्वालामुखी (कांगड़ा) और रामशहर (सोलन) में भी पाई जाती है।
स्लेट : प्रदेश में स्लेट की लगभग २२२ छोटी व बड़ी खाने हैं। खनियारा (धर्मशाला), मंडी, कांगड़ा और चंबा में अच्छी मात्रा में स्लेट प्राप्त होता है। मंडी में स्लेट से टाइलें बनाने का कारखाना है। स्लेट छत्त और फर्श बनाने में प्रयुक्त होता है। अच्छा स्लेट, भारी हिमपात से भी नहीं टूटता है।
सिलिका रेत : सिलिका रेत, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा, ऊना और मंडी की खड्डों व नालों में पाई जाती है। ऊना जिला के पलकवा, हरोली, बाथड़ी खड्डों में चमकदार पत्थर व रेत पाई जाती है। यह भवन निर्माण, पुल, बांध और सड़कें बनाने में प्रयुक्त होती है।
यूरेनियम : छिंजराढा, जरी (बंजार), ढेला, गढ़सा घाटी (कुल्लू) और हमीरपुर में यूरेनियम होने की संभावना का पता चला है। यह नाभिकीय ऊर्जा का स्रोत है।
प्रदेश के विकास में संचार माध्यम अहम भूमिका निभा रहे है। प्रदेश के दुर्गम इलाकों तक इन संचार माध्यमों का विस्तार हो चुका है। वर्तमान प्रदेश में रेडियो, टेलिविजन, दूरभाष, तार, फैक्स, डाक, ई-मेल, इंटरनेट आदि सुविधाएं उपलब्ध है। १९१४ में शिमला में देश का प्रथम स्वचालित दूरभाष केंद्र स्थापित किया गया था। पांच नवंबर, १९८३ को लाहुल-स्पीति के हिक्किम क्षेत्र में विश्व का सर्वाधिक ऊँचाई वाला डाकघर खोला गया था। शिमला में प्रदेश का प्रथम आकाशवाणी केंद्र खोला गया। हमीरपुर, धर्मशाला, कुल्लू, कसौली और किन्नौर में आकाशवाणी केंद, प्रसारण केंद्र स्थापित किए गए है। तरंग टावर मंडी जिला के जोगिंदर नगर तहसील में स्थापित किया गया था।
प्रदेश की बिजली परियोजनाएं
हिमाचल प्रदेश में कई प्रकार से विद्युत ऊर्जा प्राप्त होती है। यह नाभिकीय स्रोत, जल विद्युत, सौर ऊर्जा, कोयले और पेट्रोलियम पदार्थ आदि से प्राप्त होती है। हिमाचल प्रदेश में जल विद्युत उत्पादन की अधिक क्षमता है, क्योंकि प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां और अनेक सहायक नदियां हैं। नदियों पर बांध बनाकर जल विद्युत उत्पन्न की जाती है। प्रदेश में अनेक परियोजनाएं हैं, जिनमें से कुछ तो पूरी हो चुकी हैं और कुछ निर्माणाधीन हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।
पौंग बांध परियोजना- यह बांध कांगड़ा जिला में व्यास नदी पर देहरा से ३५ किलोमीटर दूर पौंग गांव की भूमि पर बना है, जो देश का सबसे ऊंचा राक-फिल डैम है। इसकी ऊँचाई 4३५ फुट है और इस पर १६० करोड़ रुपए व्यय हुए हैं। इसमें ५.६ मिलियन एकड़ फुट पानी जमा रखा जाता है, हालांकि इसमें कुल ६.६ एकड़ मिलियन फुट पानी जमा किया जा सकता है।
भाखड़ा बांध परियोजना-यह बांध सतलुज नदी पर जिला बिलासपुर के भाखड़ा गांव में बना है, जो सन् १९४८ में शुरू होकर सन् १९६३ में बनकर तैयार हुआ था। इसकी ऊँचाई २२६ मीटर है। यह एशिया का सबसे ऊंचा बांध है। इसमें दो विद्युत घर हैं, जिनमें १२०० मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है। इस बांध के कारण गोविंद सागर झील बनी है।
हिमाचल सरकार का आधिकारिक जालस्थल
२००१ की जनगणना में हिमाचल के आंकड़े
हिमाचल विकास रपट-भारतीय योजना आयोग
हिमाचल सरकार का पर्यटन जालस्थल
हिमाचल पर्यटन विकास निगम का जालस्थल
हिमाचल में पर्यटन के बारे में और जानकारी
हिमाचल के बारे में समाचार स्थल
हिमाचल के विविध पक्षों पर आधारित जालस्थल - देवभूमि हिमाचल
हिमाचल मित्र - हिमाचली समाज की रचनात्मक अभिव्यक्ति (हिन्दी वेब-पत्रिका)
हिमाचल पर आधारित एक चिट्ठा (ब्लाग)
हिमाचल प्रदेश के आर्टिकल्स
भारत के राज्य
पंजाबी-भाषी देश व क्षेत्र |
इंडिया टुडे एक भारतीय पत्रिका है। यह पत्रिका अंग्रेज़ी ओर हिंदी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती है।
इंडिया टुडे की स्थापना १९७५ में विद्या विलास पुरी (थॉम्पसन प्रेस के मालिक) द्वारा की गई थी, जिसमें उनकी बेटी मधु त्रेहन संपादक और उनके बेटे अरुण पुरी इसके प्रकाशक थे। . वर्तमान में, इंडिया टुडे हिंदी , तमिल , मलयालम और तेलुगु में भी प्रकाशित होता है। इंडिया टुडे न्यूज चैनल २२ मई २०१५ को लॉन्च किया गया था।
अक्टूबर २०१७ में, अरुण पुरी ने इंडिया टुडे ग्रुप का नियंत्रण अपनी बेटी, कली पुरी को सौंप दिया। |
शहर बड़ी और स्थायी मानव बस्ती होती है। शहर में आम तौर पर आवास, परिवहन, स्वच्छता, भूमि उपयोग और संचार के लिए निर्मित किया गया एक व्यापक सिस्टम होता हैं। ऐतिहासिक रूप से शहरवासियों का समग्र रूप से मानवता में छोटा सा अनुपात रहा है। लेकिन आज दो शताब्दियों से अभूतपूर्व और तेजी से शहरीकरण के कारण, कहा जाता है कि आज आधी आबादी शहरों में रह रही हैं। वर्तमान में शहर आमतौर पर बड़े महानगरीय क्षेत्र और शहरी क्षेत्र के केंद्र होते हैं। सबसे आबादी वाला उचित शहर शंघाई है।
एक शहर अन्य मानव बस्तियों से अपने अपेक्षाकृत बड़े आकार के कारण भिन्न होता है। शहर अकेले आकार से ही अलग नहीं है, बल्कि यह एक बड़े राजनीतिक संदर्भ में भूमिका निभाता है। शहर अपने आसपास के क्षेत्रों के लिए प्रशासनिक, वाणिज्यिक, धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में सेवा देता है। एक विशिष्ट शहर में पेशेवर प्रशासक, नियम-कायदे होते हैं और सरकार के कर्मचारियों को खिलाने के लिए कराधान भी। शहर शब्द फारसी से हिन्दी भाषा में आया है। पुराना संस्कृत शब्द नगर भी उपयोग किया जाता विशेषकर सरकारी कार्य में जैसे कि नगर निगम।
यह भी देखिए
भारत के शहर
देशीय उपविभागों के प्रकार |
लखनऊ भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर, राजधानी और दूसरा सबसे बड़ा शहरी समूह है।
यह प्रशासनिक मुख्यालय के रूप में भी कार्य करता है। २०११ की जनगणना के अनुसार २.८ मिलियन की आबादी के साथ, यह भारत का ग्यारहवां सबसे अधिक आबादी वाला शहर और बारहवां सबसे अधिक आबादी वाला शहरी समूह है।
यह हमेशा एक बहुसांस्कृतिक शहर रहा है जो उत्तर भारतीय सांस्कृतिक और कलात्मक केंद्र और १८वीं और १९वीं शताब्दी में नवाबों की सत्ता की सीट के रूप में विकसित हुआ।
लखनऊ शासन, प्रशासन, शिक्षा, वाणिज्य, एयरोस्पेस, वित्त, फार्मास्यूटिकल्स, प्रौद्योगिकी, डिजाइन, संस्कृति, पर्यटन, संगीत और कविता का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना हुआ है।
लखनऊ समुद्र तल से लगभग १२३ मीटर (४०४ फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। शहर का क्षेत्रफल ४०२ किमी.वर्ग था। (१५५ वर्ग मील) दिसंबर २०१९ तक, जब ८८ गांवों को नगरपालिका सीमा में जोड़ा गया और क्षेत्रफल बढ़कर ६३१ किमी.वर्ग हो गया। (२४४ वर्ग मील)।
लखनऊ, गोमती नदी के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित है, जो पूर्व में बाराबंकी, पश्चिम में उन्नाव, दक्षिण में रायबरेली और उत्तर में सीतापुर और हरदोई से घिरा है।
२००८ तक शहर में ११० वार्ड थे। रूपात्मक रूप से, तीन स्पष्ट सीमांकन मौजूद हैं: केंद्रीय व्यापार जिला, जो पूरी तरह से निर्मित क्षेत्र है, में हजरतगंज, अमीनाबाद और चौक शामिल हैं। एक मध्य क्षेत्र आंतरिक क्षेत्र को सीमेंट घरों से घिरा हुआ है जबकि बाहरी क्षेत्र में झुग्गियां हैं।
ऐतिहासिक रूप से, लखनऊ अवध क्षेत्र की राजधानी थी, जिस पर दिल्ली सल्तनत और बाद में मुगल साम्राज्य का नियंत्रण था। इसे अवध के नवाबों को हस्तांतरित कर दिया गया।
१८५६ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थानीय शासन को समाप्त कर दिया और शेष अवध के साथ-साथ शहर पर भी पूर्ण नियंत्रण कर लिया। १८५७ में इसने यह नियंत्रण ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दिया।
आजादी के बाद से, इसे भारत में १७वें और दुनिया में ७४वें सबसे तेजी से बढ़ते शहर के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
"लखनऊ" स्थानीय उच्चारण "लखनऊ" की अंग्रेजी वर्तनी है। एक किंवदंती के अनुसार, शहर का नाम हिंदू महाकाव्य रामायण के नायक लक्ष्मण के नाम पर रखा गया है। किंवदंती में कहा गया है कि लक्ष्मण के पास उस क्षेत्र में एक महल या संपत्ति थी, जिसे लक्ष्मणपुरी (संस्कृत: लक्ष्मणपुरी, शाब्दिक रूप से लक्ष्मण का शहर) कहा जाता था। ११वीं शताब्दी तक इस बस्ती को लखनपुर (या लछमनपुर) और बाद में लखनऊ के नाम से जाना जाने लगा।
इसी तरह के एक सिद्धांत में कहा गया है कि शहर को लक्ष्मण के बाद लक्ष्मणावती (संस्कृत: लक्ष्मणवती, सौभाग्यशाली) के नाम से जाना जाता था। नाम बदलकर लखनावती, फिर लखनौती और अंत में लखनऊ कर दिया गया। एक अन्य सिद्धांत में कहा गया है कि शहर का नाम धन की हिंदू देवी लक्ष्मी से जुड़ा है। समय के साथ, नाम बदलकर लक्ष्मनौति, लक्ष्मणौत, लक्ष्नौत, लक्ष्नौ और अंत में, लखनौ हो गया।
एक अन्य मत यह है कि लखनऊ का नाम लखना अहीर नामक एक बहुत प्रभावशाली वास्तुकार के नाम पर रखा गया था, जिसने किला लखना का निर्माण किया था।
लखनऊ शहर में लखनऊ जिले और लखनऊ मंडल के प्रशासनिक मुख्यालय भी स्थित हैं। लखनऊ शहर अपनी खास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसांस्कृतिक खूबी, दशहरी आम के बाग़ों तथा चिकन की कढ़ाई के काम के लिये जाना जाता है। २००६ मे इसकी जनसंख्या २,५४१,१०१ तथा साक्षरता दर ६८.६३% थी। भारत सरकार की २००१ की जनगणना, सामाजिक आर्थिक सूचकांक और बुनियादी सुविधा सूचकांक संबंधी आंकड़ों के अनुसार, लखनऊ जिला अल्पसंख्यकों की घनी आबादी वाला जिला है। कानपुर के बाद यह शहर उत्तर-प्रदेश का सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र है। शहर के बीच से गोमती नदी बहती है, जो लखनऊ की संस्कृति का हिस्सा है।
लखनऊ उस क्ष्रेत्र मे स्थित है जिसे ऐतिहासिक रूप से अवध क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। लखनऊ हमेशा से एक बहुसांस्कृतिक शहर रहा है। यहाँ के शिया नवाबों द्वारा शिष्टाचार, खूबसूरत उद्यानों, कविता, संगीत और बढ़िया व्यंजनों को हमेशा संरक्षण दिया गया। लखनऊ को "नवाबों के शहर" के रूप में भी जाना जाता है। इसे पूर्व की स्वर्ण नगर (गोल्डन सिटी) और शिराज-ए-हिंद के रूप में जाना जाता है। आज का लखनऊ एक जीवंत शहर है जिसमे एक आर्थिक विकास दिखता है और यह भारत के तेजी से बढ़ रहे गैर-महानगरों के शीर्ष पंद्रह में से एक है। यह हिंदी और उर्दू साहित्य के केंद्रों में से एक है। यहां अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यहां की हिन्दी में लखनवी अंदाज़ है, जो विश्वप्रसिद्ध है। इसके अलावा यहाँ उर्दू और अंग्रेज़ी भी बोली जाती हैं।
लखनऊ का इतिहास
लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। अत: इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया। यहां से अयोध्या भी मात्र ८० मील दूरी पर स्थित है। लखनऊ का नाम कैसे पड़ा इस पर मतभेद है। मुस्लिम इतिहासकारों के मतानुसार बिजनौर के शेख यहां आये और १५२६ ए डी मे बसे और रहने के लिए उस समय के वास्तुविद लखना पासी की देखरेख में एक किला बनवाया जो लखना किला के नाम से जाना गया।समय के साथ धीरे-धीरे लखना किला लखनऊ में परिवर्तित हो गया।प्राचीन हिन्दू साहित्य के अनुसार यहां भगवान राम के सौतेले भाई लक्ष्मण का जन्म हुआ था जो लाखनपुर से बदलते बदलते लखनऊ हो गया जो अधिक सत्य प्रतीत होता है क्यों कि आज तक किसी वास्तुविद के नाम पर किसी नगर का नाम नहीं रखा गया।
लखनऊ के वर्तमान स्वरूप की स्थापना नवाब आसफ़ुद्दौला ने १७७५ ई. में की थी। अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया। लेकिन बाद के नवाब विलासी और निकम्मे सिद्ध हुए। इन नवाबों के काहिल स्वभाव के परिणामस्वरूप आगे चलकर लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध का बिना युद्ध ही अधिग्रहण कर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। १८५० में अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली। लखनऊ के नवाबों का शासन इस प्रकार समाप्त हुआ।
सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन १९२० में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गयी। स्वतन्त्रता के बाद १२ जनवरी सन १९५० में इस क्षेत्र का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस तरह यह अपने पूर्व लघुनाम यूपी से जुड़ा रहा। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर-प्रदेश एवं भारत की प्रथम महिला मुख्यमन्त्री बनीं।
विशाल गांगेय मैदान के हृदय क्षेत्र में स्थित लखनऊ शहर बहुत से ग्रामीण कस्बों एवं गांवों से घिरा हुआ है, जैसे अमराइयों का शहर मलिहाबाद, ऐतिहासिक काकोरी, मोहनलालगंज, गोसांईगंज, चिन्हट और इटौंजा। इस शहर के पूर्वी ओर बाराबंकी जिला है, तो पश्चिमी ओर उन्नाव जिला एवं दक्षिणी ओर रायबरेली जिला है। इसके उत्तरी ओर सीतापुर एवं हरदोई जिले हैं। गोमती नदी, मुख्य भौगोलिक भाग, शहर के बीचों बीच से निकलती है और लखनऊ को ट्रांस-गोमती एवं सिस-गोमती क्षेत्रों में विभाजित करती है। लखनऊ शहर भूकम्प क्षेत्र तृतीय स्तर में आता है।
लखनऊ की अधिकांश जनसंख्या पूर्वार्ध उत्तर प्रदेश से है। फिर भी यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के अलावा बंगाली, दक्षिण भारतीय एवं आंग्ल-भारतीय लोग भी बसे हुए हैं। यहां की कुल जनसंख्या का ७७% हिन्दू एवं २०% मुस्लिम लोग हैं। शेष भाग में सिख, जैन, ईसाई एवं बौद्ध लोग हैं। लखनऊ भारत के सबसे साक्षर शहरों में से एक है। यहां की साक्षरता दर ८२.५% है, स्त्रियों की ७८% एवं पुरुषों की साक्षरता ८९% हैं।
लखनऊ में गर्म अर्ध-उष्णकटिबन्धीय जलवायु है। यहां ठंडे शुष्क शीतकाल दिसम्बर-फरवरी तक एवं शुष्क गर्म ग्रीष्मकाल अप्रैल-जून तक रहते हैं। मध्य जून से मध्य सितंबर तक वर्षा ऋतु रहती है, जिसमें औसत वर्षा १०१० मि.मी. (४० इंच) अधिकांशतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून हवाओं से होती है।
शीतकाल का अधिकतम तापमान २१से. एवं न्यूनतम तापमान ३-४से. रहता है। दिसम्बर के अंत से जनवरी अंत तक कोहरा भी रहता है। ग्रीष्म ऋतु गर्म रहती है, जिसमें तापमान ४०-४५से. तक जाता है और औसत उच्च तापमान ३०से. तक रहता है।
शहर और आस-पास
पुराने लखनऊ में चौक का बाजार प्रमुख है। यह चिकन के कारीगरों और बाजारों के लिए प्रसिद्ध है। यह इलाका अपने चिकन के दुकानों व मिठाइयों की दुकाने की वजह से मशहूर है। चौक में नक्खास बाजार भी है। यहां का अमीनाबाद दिल्ली के चाँदनी चौक की तरह का बाज़ार है जो शहर के बीच स्थित है। यहां थोक का सामान, महिलाओं का सजावटी सामान, वस्त्राभूषण आदि का बड़ा एवं पुराना बाज़ार है। दिल्ली के ही कनॉट प्लेस की भांति यहां का हृदय हज़रतगंज है। यहां खूब चहल-पहल रहती है। प्रदेश का विधान सभा भवन भी यहीं स्थित है। इसके अलावा हज़रतगंज में जी पी ओ, कैथेड्रल चर्च, चिड़ियाघर, उत्तर रेलवे का मंडलीय रेलवे कार्यालय (डीआरएम ऑफिस), लाल बाग, पोस्टमास्टर जनरल कार्यालय (पीएमजी), परिवर्तन चौक, बेगम हज़रत महल पार्क भी काफी प्रमुख़ स्थल हैं। इनके अलावा निशातगंज, डालीगंज, सदर बाजार, बंगला बाजार, नरही, केसरबाग भी यहां के बड़े बाजारों में आते हैं।
अमीनाबाद लखनऊ का एक ऐसा स्थान है जो पुस्तकों के लिए मशहूर है।
यहां के आवासीय इलाकों में सिस-गोमती क्षेत्र में राजाजीपुरम, कृष्णानगर, आलमबाग, दिलखुशा, आर.डी.एस.ओ.कालोनी, चारबाग, ऐशबाग, हुसैनगंज, लालबाग, राजेंद्रनगर, मालवीय नगर, सरोजिनीनगर, हैदरगंज, [[ठाकुरगंज एवं सआदतगंज आदि क्षेत्र हैं। ट्रांस-गोमती क्षेत्र में गोमतीनगर,इंदिरानगर, महानगर, अलीगंज, डालीगंज, नीलमत्था कैन्ट, विकासनगर, खुर्रमनगर, जानकीपुरम एवं साउथ-सिटी (रायबरेली रोड पर) आवासीय क्षेत्र हैं।
लखनऊ उत्तरी भारत का एक प्रमुख बाजार एवं वाणिज्यिक नगर ही नहीं, बल्कि उत्पाद एवं सेवाओं का उभरता हुआ केन्द्र भी बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी होने के कारण यहां सरकारी विभाग एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बहुत हैं। यहां के अधिकांश मध्यम-वर्गीय वेतनभोगी इन्हीं विभागों एवं उपक्रमों में नियुक्त हैं। सरकार की उदारीकरण नीति के चलते यहां व्यवसाय एवं नौकरियों तथा स्व-रोजगारियों के लिए बहुत से अवसर खुल गये हैं। इस कारण यहां नौकरी पेशे वालों की संख्या निरंतर बढ़ती रहती है। लखनऊ निकटवर्ती नोएडा एवं गुड़गांव के लिए सूचना प्रौद्योगिकी एवं बीपीओ कंपनियों के लिए श्रमशक्ति भी जुटाता है। यहां के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लोग बंगलुरु एवं हैदराबाद में भी बहुतायत में मिलते हैं।
शहर में भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (एसआईडीबीआई) तथा प्रादेशिक औद्योगिक एवं इन्वेस्टमेंट निगम, उत्तर प्रदेश (पिकप) के मुख्यालय भी स्थित हैं। उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम का क्षेत्रीय कार्यालय भी यहीं स्थित है। यहां अन्य व्यावसायिक विकास में उद्यत संस्थानों में कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) एवं एन्टरप्रेन्योर डवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (ईडीआईआई) हैं।
उत्पादन एवं संसाधन
लखनऊ में बड़ी उत्पादन इकाइयों में हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड, टाटा मोटर्स, एवरेडी इंडस्ट्रीज़, स्कूटर इंडिया लिमिटेड आते हैं। संसाधित उत्पाद इकाइयों में दुग्ध उत्पादन, इस्पात रोलिंग इकाइयाँ एवं एल पी जी भरण इकाइयाँ आती हैं।
शहर की लघु एवं मध्यम-उद्योग इकाइयाँ चिन्हट, ऐशबाग, तालकटोरा एवं अमौसी के औद्योगिक एन्क्लेवों में स्थित हैं। चिन्हट अपने टेराकोटा एवं पोर्सिलेन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है।
रियल एस्टेट अर्थव्यवस्था का एक सहसावृद्धि वाला क्षेत्र है। शहर में विभिन्न शॉपिंग मॉल्स, आवासीय परिसर एवं व्यावसायिक परिसर बढ़ते जा रहे हैं। पार्श्वनाथ, डीएलएफ़, ओमैक्स, सहारा, युनिटेक, अंसल एवं ए पी आई जैसे इस क्षेत्र के महाकाय निवेशक यहाँ उपस्थित हैं।
लखनऊ की प्रगति दिल्ली, मुंबई, सूरत एवं गाजियाबाद से कहीं कम नहीं है। यहां के उभरते क्षेत्रों में गोमती नगर, हज़रतगंज, एवं कपूरथला आदि प्रमुख हैं। यहां बड़े निजी अस्पतालों में से सहारा अस्पताल निर्माणाधीन है, जिसमें २५ तल हैं। इसके बाद मेट्रो, पार्श्वनाथ प्लानेट, ओमेक्स हाइट्स का नंबर आता है। शहर का संपत्ति विस्तार सूचकांक बहुत ऊंचा है। एक अनुमान के अनुसार शहर में २०१० तक २.५ बिलियन डालर की व्यवस्थित रियल एस्टेट होगी। ये उत्तर भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के बाद सबसे अधिक है।
परंपरानुसार लखनवी आम (खासकर दशहरी आम), खरबूजा एवं निकटवर्ती क्षेत्रों में उगाये जा रहे अनाज की मंडी रही है। यहां के मशहूर मलीहाबादी दशहरी आम को भौगोलिक संकेतक का विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त हो चुका है। मलीहाबादी आम को यह विशेष दर्जा भारत सरकार के भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्री कार्यालय, चेन्नई ने एक विशेष क़ानून के अंतर्गत्त दिया गया है। एक अलग स्वाद और सुगंध के कारण दशहरी आम की संसार भर में विशेष पहचान बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मलीहाबादी दशहरी आम लगभग ६,२५३ हैक्टेयर में उगाए जाते हैं और ९५,६५८.३९ टन उत्पादन होता है।
गन्ने के खेत एवं चीनी मिलें भी निकट ही स्थित हैं। इनके कारण मोहन मेकिन्स ब्रीवरी जैसे उद्योगकर्ता यहां अपनी मिलें लगाने के लिए आकर्षित हुए हैं। मोहन मेकिन्स की इकाई १८५५ में स्थापित हुई थी। यह एशिया की प्रथम व्यापारिक ब्रीवरी थी।
लखनऊ का चिकन का व्यापार भी बहुत प्रसिद्ध है। यह एक लघु-उद्योग है, जो यहां के चौक क्षेत्र के घर घर में फ़ैला हुआ है। चिकन एवं लखनवी ज़रदोज़ी, दोनों ही देश के लिए भरपूर विदेशी मुद्रा कमाते हैं। चिकन ने बॉलीवुड एवं विदेशों के फैशन डिज़ाइनरों को सदा ही आकर्षित किया है। लखनवी चिकन एक विशिष्ट ब्रांड के रूप में जाना जाये और उसे बनाने वाले कारीगरों का आर्थिक नुकसान न हो, इसलिए केंद्र सरकार के वस्त्र मंत्रालय की टेक्सटाइल कमेटी ने चिकन को भौगोलिक संकेतक के तहत रजिस्ट्रार ऑफ जियोग्राफिकल इंडिकेटर के यहां पंजीकृत करा लिया है। इस प्रकार अब विश्व में चिकन की नकल कर बेचना संभव नहीं हो सकेगा।
नवाबों के काल में पतंग-उद्योग भी अपने चरमोत्कर्ष पर था। यह आज भी अच्छा लघु-उद्योग है। लखनऊ तम्बाकू का औद्योगिक उत्पादनकर्ता रहा है। इनमें किमाम आदि प्रसिद्ध हैं। इनके अलावा इत्र, कलाकृतियां जैसे चिन्हट की टेराकोटा, मृत्तिकाकला, चाँदी के बर्तन एवं सजावटी सामान, सुवर्ण एवं रजत वर्क तथा हड्डी-पर नक्काशी करके बनी कलाकृतियों के लघु-उद्योग बहुत चल रहे हैं।
शहर में सार्वजनिक यातायात के उपलब्ध साधनों में सिटी बस सेवा, टैक्सी, साइकिल रिक्शा, ऑटोरिक्शा, टेम्पो एवं सीएनजी बसें हैं। सीएनजी को हाल ही में प्रदूषण पर नियंत्रण रखने हेतु आरंभ किया गया है। नगर बस सेवा को लखनऊ महानगर परिवहन सेवा संचालित करता है। यह उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक इकाई है।
शहर के हज़रतगंज चौराहे से चार राजमार्ग निकलते हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग २४ दिल्ली को, राष्ट्रीय राजमार्ग २५ झांसी और मध्य प्रदेश को, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ वाराणसी को एवं राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मोकामा, बिहार को। प्रमुख बस टर्मिनस में आलमबाग का डॉ॰भीमराव अम्बेडकर बस टर्मिनस आता है। इसके अलावा अन्य प्रमुख बस टर्मिनस केसरबाग, चारबाग आते थे, जिनमें से चारबाग का बस टर्मिनस, जो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने था, नगर बस डिपो बना कर स्थानांतरित कर दिया गया है। यह रेलवे स्टेशन के सामने की भीड़ एवं कंजेशन को नियंत्रित करने हेतु किया गया है।
लखनऊ में कई रेलवे स्टेशन हैं। शहर में मुख्य रेलवे स्टेशन चारबाग रेलवे स्टेशन है। इसकी शानदार महल रूपी इमारत १९२३ में बनी थी। मुख्य टर्मिनल उत्तर रेलवे का है (स्टेशन कोड: ल्को)। दूसरा टर्मिनल पूर्वोत्तर रेलवे (एनईआर) मंडल का है। (स्टेशन कोड: ल्जन)। लखनऊ एक प्रधान जंक्शन स्टेशन है, जो भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है। यहां और १३ रेलवे स्टेशन हैं:
अब मीटर गेज लाइन ऐशबाग से आरंभ होकर लखनऊ सिटी, डालीगंज एवं मोहीबुल्लापुर को जोड़ती हैं। मोहीबुल्लापुर के अलावा अन्य स्टेशन ब्रॉड गेज से भी जुड़े हैं। अन्य सभी स्टेशन शहर की सीमा के भीतर ही हैं, एवं एक दूसरे से सड़क मार्ग द्वारा भी जुड़े हैं। अन्य उपनगरीय स्टेशनों में निम्न स्टेशन हैं:
बख्शी का तालाब
मुख्य रेलवे स्टेशन पर वर्तमान में १५ प्लेटफ़ॉर्म हैं और इसके २००९ तक देश के व्यस्ततम स्टेशनों में से एक बनने की आशा है। इस स्टेशन के २००९ के अंत तक विश्वस्तरीय स्टेशन बनने की आशा है।
अमौसी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा शहर का मुख्य विमानक्षेत्र है और शहर से लगभग २० किलोमीटर दूरी पर स्थित है। लखनऊ वायु सेवा द्वारा नई दिल्ली, पटना, कोलकाता एवं मुंबई एवं भारत के कई मुख्य शहरों से जुड़ा हुआ है। यह ओमान एयर, कॉस्मो एयर, फ़्लाई दुबई, साउदी एयरलाइंस एवं इंडिगो एयर तथा अन्य कई अंतर्राष्ट्रीय वायु सेवाओं द्वारा अंतर्राष्ट्रीय गंतव्यों से जुड़ा हुआ है। इन गंतव्यों में लंदन, दुबई, जेद्दाह, मस्कट, शारजाह, सिंगापुर एवं हांगकांग आते हैं। हज मुबारक के समय यहां से हज-विशेष उड़ानें सीधे जेद्दाह के लिए चलती हैं।
लखनऊ के लिए उच्च क्षमता मास ट्रांज़िट प्रणाली यानि लखनऊ मेट्रो महानगर में यातयात का एक प्रमुख साधन है। इसके लिए दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन ने ही योजनाएं बनाई थी और यह काम श्रेई इंटरनेशनल को दिया था। मेट्रो रेल के संचालन को मूर्त रूप देने और उस पर आने वाले खर्च को पूरा करने की व्यवस्था के लिए राज्य सरकार ने कई अधीनस्थ विभागों के प्रमुख सचिवों और लखनऊ के मंडलायुक्तगणों की एक समिति बनाई
लखनऊ में मेट्रो रेल शुरु होने के बाद सड़कों पर यातायात काफी कम हो गया है! वर्तमान में लखनऊ एवं कानपुर में हर महीने लगभग १००० नए चौपहिया वाहनों का पंजीकरण कराया जाता रहा है। लखनऊ में सभी राष्ट्रीय राजमार्गों पर बाइपास बना दिए जाने के बावजूद सड़कों पर गाड़ियों का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। इस कारण से यहां मेट्रो का त्वरित निर्माण अत्यावश्यक हो गया था । लखनऊ शहर में आरंभ में चार गलियारे निश्चित किये गए हैं:
अमौसी से कुर्सी मार्ग,
बड़ा इमामबाड़ा से सुल्तानपुर मार्ग,
पीजीआई से राजाजीपुरम एवं
हज़रतगंज से फैज़ाबाद मार्ग
लखनऊ के अलावा कानपुर, मेरठ और गाजियाबाद शहरों में मेट्रो रेल चलाने की योजना है। इस परिवहन व्यवस्था की सफलता से प्रभावित होकर भारत के दूसरे राज्यों जैसे महाराष्ट्र, राजस्थान एवं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों, में भी इसे चलाने की योजनाएं बन रही हैं।
अनुसंधान एवं शिक्षा
लखनऊ में देश के कई उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान भी हैं। इनमें से कुछ हैं: किंग जार्ज मेडिकल कालेज और बीरबल साहनी अनुसंधान संस्थान। यहां भारत के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद की चार प्रमुख प्रयोगशालाएँ (केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान, औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान केन्द्र, राष्ट्रीय वनस्पति विज्ञान अनुसंधान संस्थान(एनबीआरआई) और केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान(सीमैप)) उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी हैं।
लखनऊ में छः विश्वविद्यालय हैं: लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालय(यूपीटीयू), राममनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय(लोहिया लॉ विवि), बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, एमिटी विश्वविद्यालय एवं इंटीग्रल विश्वविद्यालय। यहां कई उच्च चिकित्सा संस्थान भी हैं: संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान(एसजीपीजीआई), छत्रपति शाहूजी महाराज आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय (जिसे पहले किंग जॉर्ज मेडिकल कालिज कहते थे) के अलावा निर्माणाधीन सहारा अस्पताल, अपोलो अस्पताल, एराज़ लखनऊ मेडिकल कालिज भी हैं। प्रबंधन संस्थानों में भारतीय प्रबंधन संस्थान, लखनऊ (आईआईएम), इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़(ल.वि.वि) आते हैं। यहां भारत के प्रमुखतम निजी विश्वविद्यालयों में से एक, एमिटी विश्वविद्यालय का भी परिसर है।
इसके अलावा यहां बहुत से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के भी सरकारी एवं निजी विद्यालय हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं: सिटी मॉण्टेसरी स्कूल, ला मार्टिनियर महाविद्यालय, जयपुरिया स्कूल, कॉल्विन तालुकेदार्स कालेज, एम्मा थॉम्पसन स्कूल, सेंट फ्रांसिस स्कूल, महानगर बॉयज़ आदि।
लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है। लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही "पहले आप!" वाली शैली समायी हुई है। हालांकि स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप सुनायी देती है, किंतु फिर भी शहर की जनसंख्या का एक भाग इस तहजीब को संभाले हुए है। यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है। लखनवी पान यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना लखनऊ अधूरा लगता है।
भाषा एवं गद्य
लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किंतु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये- देहली और लखनऊ। जहां देहली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। जैसे नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि एवं मुस्लिम शायर हुए हैं, जैसे बृजनारायण चकबस्त, ख्वाजा हैदर अली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमिर मीनाई, मिर्ज़ा हादी रुसवा, नासिख, दयाशंकर कौल नसीम, मुसाहफ़ी, इनशा, सफ़ी लखनवी और मीर तकी "मीर" तो प्रसिद्ध ही हैं, जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है।
लखनऊ शिया संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है। मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर उर्दू शिया गद्य में मर्सिया शैली के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। मर्सिया इमाम हुसैन की कर्बला के युद्ध में शहादत का बयान करता है, जिसे मुहर्रमके अवसर पर गाया जाता है। काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था, उर्दू शायरी से खासे प्रभावित थे, एवं बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। कई निकटवर्ती कस्बों जैसे काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली एवं मलिहाबाद ने कई उर्दू शायरों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ हैं मोहसिन काकोरवी, मजाज़, खुमार बाराबंकवी एवं जोश मलिहाबादी। हाल ही में २००८ में १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १५०वीं वर्षगांठ पर इस विषय पर एक उपन्यास का विमोचन किया गया था। इस विषय पर प्रथम अंग्रेज़ी उपन्यास रीकैल्सिट्रेशन, एक लखनऊ के निवासी ने ही लिखा था।
लखनऊ जनपद के स्वतंत्रता संग्रामी
लखनऊ जनपद के काकोरी कांड के अभियुक्त प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद बिस्मिल, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने काकोरी में फांसी पर लटका दिया था बिस्मिल उपनाम से लिखते थे। लखनऊ जनपद के कुम्हरावां गांव में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को १३ स्वतंत्रता संग्रामी दिये जिन्होंने अलग अलग समय पर भारतीय जेलों में रहकर भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष को आगे बढाया इनके नाम इस प्रकार हैं
स्व० गुरू प्रसाद बाजपेयी वैद्य जी
स्व० राम सागर मिश्र ये प्रखर समाजवादी चिंतक थे जो उत्तर प्रदेश की विधान सभा के सदस्य रहे १९७६ के आपातकाल में बंदी अवस्था में ही इन्होंने अपना शरीर छोडा लखनऊ में इनके नाम पर रामसागर मिश्र नगर बनाया गया जिसका नाम आगे चलकर इन्दिरानगर कर दिया गया।
स्व० रामदेव आजाद
स्व० फूलकली स्व० सत्यशील मिश्र
स्व० जगदेव दीक्षित
स्व० श्याम सुन्दर दीक्षित मुन्ने
स्व० विश्वनाथ मिश्र डाक्टर साहब
स्व० पुत्तीलाल मिश्र
स्व० बद्री विशाल मिश्र
श्री राम कुमार बाजपेयी
श्री बचान शुक्ल जी
नृत्य एवं संगीत
प्रसिद्ध भारतीय नृत्य कथक ने अपना स्वरूप यहीं पाया था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के बहुत बड़े ज्ञाता एवं प्रेमी थे। लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, शंभु महाराज एवं बिरजू महाराज ने इस परंपरा को जीवित रखा है।
लखनऊ प्रसिद्ध गज़ल गायिका बेगम अख्तर का भी शहर रहा है। वे गज़ल गायिकी में अग्रणी थीं और इस शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया उनकी गायी बेहतरीन गज़लों में से एक है। लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय का नाम यहां के महान संगीतकार पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के नाम पर रखा हुआ है। यह संगीत का पवित्र मंदिर है। श्रीलंका, नेपाल आदि बहुत से एशियाई देशों एवं विश्व भर से साधक यहां नृत्य-संगीत की साधना करने आते हैं। लखनऊ ने कई विख्यात गायक दिये हैं, जिनमें से नौशाद अली, तलत महमूद, अनूप जलोटा और बाबा सेहगल कुछ हैं। संयोग से यह शहर ब्रिटिश पॉप गायक क्लिफ़ रिचर्ड का भी जन्म-स्थान है।
फिल्मों की प्रेरणा
लखनऊ हिन्दी चलचित्र उद्योग की आरंभ से ही प्रेरणा रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि लखनवी स्पर्श के बिना, बॉलीवुड कभी उस ऊंचाई पर नहीं आ पाता, जहां वह अब है। अवध से कई पटकथा लेखक एवं गीतकार हैं, जैसे मजरूह सुलतानपुरी, कैफ़े आज़मी, जावेद अख्तर, अली रज़ा, भगवती चरण वर्मा, डॉ॰कुमुद नागर, डॉ॰अचला नागर, वजाहत मिर्ज़ा (मदर इंडिया एवं गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी एवं के पी सक्सेना जिन्होंने भारतीय चलचित्र को प्रतिभा से धनी बनाया।
लखनऊ पर बहुत सी प्रसिद्ध फिल्में बनी हैं जैसे शशि कपूर की जुनून, मुज़फ्फर अली की उमराव जान एवं गमन, सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी और इस्माइल मर्चेंट की शेक्स्पियर वाला की भी आंशिक शूटिंग यहीं हुई थी।
बहू बेगम, मेहबूब की मेहंदी, मेरे हुजूर, चौदहवीं का चांद, पाकीज़ा, मैं मेरी पत्नी और वो, सहर, अनवर और बहुत सी हिन्दी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं, या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है। गदर फिल्म में भी पाकिस्तान के दृश्यों में लखनऊ की शूटिंग ही है। इसमें लाल पुल, लखनऊ एवं ला मार्टीनियर कालिज की शूटिंग हैं।
अवध क्षेत्र की अपनी एक अलग खास नवाबी खानपान शैली है। इसमें विभिन्न तरह की बिरयानियां, कबाब, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, ज़र्दा, रुमाली रोटी और वर्की परांठा और रोटियां आदि हैं, जिनमें काकोरी कबाब, गलावटी कबाब, पतीली कबाब, बोटी कबाब, घुटवां कबाब और शामी कबाब प्रमुख हैं। शहर में बहुत सी जगह ये व्यंजन मिलेंगे। ये सभी तरह के एवं सभी बजट के होंगे। जहां एक ओर १८०५ में स्थापित राम आसरे हलवाई की मक्खन मलाई एवं मलाई-गिलौरी प्रसिद्ध है, वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुण्डे के कबाब भी कम मशहूर नहीं हैं। इसके अलावा अन्य नवाबी पकवानो जैसे 'दमपुख़्त', लच्छेदार प्याज और हरी चटनी के साथ परोसे गय सीख-कबाब और रूमाली रोटी का भी जवाब नहीं है।
लखनऊ की चाट देश की बेहतरीन चाट में से एक है। और खाने के अंत में विश्व-प्रसिद्ध लखनऊ के पान जिनका कोई सानी नहीं है।
लखनऊ के अवधी व्यंजन जगप्रसिद्ध हैं। यहां के खानपान बहुत प्रकार की रोटियां भी होती हैं। ऐसी ही रोटियां यहां के एक पुराने बाज़ार में आज भी मिलती हैं, बल्कि ये बाजार रोटियों का बाजार ही है। अकबरी गेट से नक्खास चौकी के पीछे तक यह बाजार है, जहां फुटकर व सैकड़े के हिसाब से शीरमाल, नान, खमीरी रोटी, रूमाली रोटी, कुल्चा जैसी कई अन्य तरह की रोटियां मिल जाएंगी। पुराने लखनऊ के इस रोटी बाजार में विभिन्न प्रकार की रोटियों की लगभग १५ दुकानें हैं, जहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक गर्म रोटी खरीदी जा सकती है। कई पुराने नामी होटल भी इस गली के पास हैं, जहां अपनी मनपसंद रोटी के साथ मांसाहारी व्यंजन भी मिलते हैं। एक उक्ति के अनुसार लखनऊ के व्यंजन विशेषज्ञों ने ही परतदार पराठे की खोज की है, जिसको तंदूरी परांठा भी कहा जाता है। लखनऊवालों ने भी कुलचे में विशेष प्रयोग किये। कुलचा नाहरी के विशेषज्ञ कारीगर हाजी जुबैर अहमद के अनुसार कुलचा अवधी व्यंजनों में शामिल खास रोटी है, जिसका साथ नाहरी बिना अधूरा है। लखनऊ के गिलामी कुलचे यानी दो भाग वाले कुलचे उनके परदादा ने तैयार किये थे।।
चिकन की कढाई
चिकन, यहाँ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। यहां के बाज़ार चिकन कशीदाकारी के दुकानों से भरे हुए हैं। मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि ३६ प्रकार के चिकन की शैलियां होती हैं। इसके माहिर एवं प्रसिद्ध कारीगरों में उस्ताद फ़याज़ खां और हसन मिर्ज़ा साहिब थे।
लखनऊ इतिहास में भी पत्रकारिता का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले आरंभ किया गया समाचार पत्र नेशनल हेराल्ड लखनऊ से ही प्रकाशित होता था। इसके तत्कालीन संपादक मणिकोण्डा चलपति राउ थे।
शहर के प्रमुख अंग्रेज़ी समाचार-पत्रों में द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, द पाइनियर एवं इंडियन एक्स्प्रेस हैं। इनके अलावा भी बहुत से समाचार दैनिक अंग्रेज़ी, हिन्दी एवं उर्दू भाषाओं में शहर से प्रकाशित होते हैं। हिन्दी समाचार पत्रों में स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता एवं आई नेक्स्ट हैं। प्रमुख उर्दू समाचार दैनिकों में जायज़ा दैनिक, राष्ट्रीय सहारा, सहाफ़त, क़ौमी खबरें एवं आग हैं।
प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया एवं यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया के कार्यालय शहर में हैं, एवं देश के सभी प्रमुख समाचार-पत्रों के पत्रकार लखनऊ में उपस्थित रहते हैं।
ऑल इंडिया रेडियो के आरंभिक कुछ स्टेशनों में से लखनऊ केन्द्र एक है। यहां मीडियम वेव पर प्रसारण करते हैं। इसके अलावा यहां एफ एम प्रसारण भी २००० से आरंभ हुआ था। शहर में निम्न रेडियो स्टेशन चल रहे हैं:. -
९१.१ ;मेगा हर्ट्ज़ रेडियो सिटी
९३.५मेगा हर्ट्ज़ रेड एफ़.एम
९८.३मेगा हर्ट्ज़ रेडियो मिर्ची
१००.७मेगा हर्ट्ज़ एआईआर एफ़एम रेनबो
१०५.६मेगा हर्ट्ज़ ग्यानवाणी-एजुकेशनल
शहर में इंटरनेट के लिए ब्रॉडबैण्ड इंटरनेट कनेक्टिविटी एवं वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग सुविधा उपलब्ध हैं। प्रमुख सेवाकर्ता भारत संचार निगम लिमिटेड, भारती एयरटेल, रिलायंस कम्युनिकेशन्स, टाटा कम्युनिकेशन्स एवं एसटीपीआई का बृहत अवसंरचना ढांचा है। इनके द्वारा गृह प्रयोक्ताओं एवं निगमित प्रयोक्ताओं को अच्छी गति का ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन उपलब्ध होता है। शहर में ढेरों इंटरनेट कैफ़े भी उपलब्ध हैं।
शहर और आसपास कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें ऐतिहासिक स्थल, उद्यान, मनोरंजन स्थल एवं शॉपिंग मॉल आदि हैं। यहां कई इमामबाड़े हैं। इनमें बड़ा एवं छोटा प्रमुख है। प्रसिद्ध बड़े इमामबाड़े का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है। इस इमामबाड़े का निर्माण आसफउद्दौला ने १७८४ में अकाल राहत परियोजना के अन्तर्गत करवाया था। यह विशाल गुम्बदनुमा हॉल ५० मीटर लंबा और १५ मीटर ऊंचा है। यहां एक अनोखी भूल भुलैया है। इस इमामबाड़े में एक अस़फी मस्जिद भी है जहां गैर मुस्लिम लोगों के प्रवेश की अनुमति नहीं है। मस्जिद परिसर के आंगन में दो ऊंची मीनारें हैं। इसके अलावा छोटा इमामबाड़ा, जिसका असली नाम हुसैनाबाद इमामबाड़ा है मोहम्मद अली शाह की रचना है जिसका निर्माण १८३७ ई. में किया गया था। इसे छोटा इमामबाड़ा भी कहा जाता है।
सआदत अली का मकबरा बेगम हजरत महल पार्क के समीप है। इसके साथ ही खुर्शीद जैदी का मकबरा भी बना हुआ है। यह मकबरा अवध वास्तुकला का शानदार उदाहरण हैं। मकबरे की शानदार छत और गुम्बद इसकी खासियत हैं। ये दोनों मकबरे जुड़वां लगते हैं। बड़े इमामबाड़े के बाहर ही रूमी दरवाजा बना हुआ है। यहां की सड़क इसके बीच से निकलती है। इस द्वार का निर्माण भी अकाल राहत परियोजना के अन्तर्गत किया गया था। नवाब आसफउद्दौला ने यह दरवाजा १७८२ ई. में अकाल के दौरान बनवाया था ताकि लोगों को रोजगार मिल सके। जामी मस्जिद हुसैनाबाद इमामबाड़े के पश्चिम दिशा स्थित है। इस मस्जिद का निर्माण मोहम्मद शाह ने शुरू किया था लेकिन १८४० ई. में उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने इसे पूरा करवाया। मोती महल गोमती नदी की सीमा पर बनी तीन इमारतों में से प्रमुख है। इसे सआदत अली खां ने बनवाया था।
लखनऊ रेज़ीडेंसी के अवशेष ब्रिटिश शासन की स्पष्ट तस्वीर दिखाते हैं। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के समय यह रेजिडेन्सी ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेन्ट का भवन था। यह ऐतिहासिक इमारत हजरतगंज क्षेत्र में राज्यपाल निवास के निकट है। लखनऊ का घंटाघर भारत का सबसे ऊंचा घंटाघर है। हुसैनाबाद इमामबाड़े के घंटाघर के समीप १९वीं शताब्दी में बनी एक पिक्चर गैलरी है। यहां लखनऊ के लगभग सभी नवाबों की तस्वीरें देखी जा सकती हैं।
कुकरैल फारेस्ट एक पिकनिक स्थल है। यहां घड़ियालों और कछुओं का एक अभयारण्य है। यह लखनऊ के इंदिरा नगर के निकट, रिंग मार्ग पर स्थित है। बनारसी बाग वास्तव में एक चिड़ियाघर है, जिसका मूल नाम प्रिंस ऑफ वेल्स वन्य-प्राणी उद्यान है। स्थानीय लोग इस चिड़ियाघर को बनारसी बाग कहते हैं। यहां के हरे भरे वातावरण में जानवरों की कुछ प्रजातियों को छोटे पिंजरों में रखा गया है। यह देश के अच्छे वन्य प्राणी उद्यानों में से एक है। इस उद्यान में एक संग्रहालय भी है।
इनके अलावा रूमी दरवाजा, छतर मंजिल, हाथी पार्क, बुद्ध पार्क, नीबू पार्क मैरीन ड्राइव और इंदिरा गाँधी तारामंडल भी दर्शनीय हैं।
लखनऊ-हरदोइ राजमार्ग पर ही मलिहाबाद गांव है, जहां के दशहरी आम विश्व प्रसिद्ध हैं। लखनऊ का अमौसी हवाई अड्डा शहर से बीस किलोमीटर दूर अमौसी में स्थित है। शहर से ९० किलोमीटर की दूरी पर ही नैमिषारण्य तीर्थ है। इसका पुराणों में बहुत ऊंचा स्थान बताया गया है। यहीं पर ऋषि सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को पुराणों का आख्यान दिया था। लखनऊ के निकटवर्ती शहरों में कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, फैजाबाद, बाराबंकी, हरदोई हैं।
लखनऊ में वैसे तो सभी धर्मों के लोग सौहार्द एवं सद्भाव से रहते हैं, किंतु हिन्दुओं एवं मुस्लिमों का बाहुल्य है। यहां सभी धर्मों के अर्चनास्थल भी इस ही अनुपात में हैं। हिन्दुओं के प्रमुख मंदिरों में हनुमान सेतु मंदिर, मनकामेश्वर मंदिर, अलीगंज का हनुमान मंदिर, भूतनाथ मंदिर, इंदिरानगर, चंद्रिका देवी मंदिर, नैमिषारण्य तीर्थ और रामकृष्ण मठ, निरालानगर हैं। यहां कई बड़ी एवं पुरानी मस्जिदें भी हैं। इनमें लक्ष्मण टीला मस्जिद, इमामबाड़ा मस्जिद एवं ईदगाह प्रमुख हैं। प्रमुख गिरिजाघरों में कैथेड्रल चर्च, हज़रतगंज, इंदिरानगर (सी ब्लॉक) चर्च, सुभाष मार्ग पर सेंट पाउल्स चर्च एवं असेंबली ऑफ बिलीवर्स चर्च हैं। यहां हिन्दू त्यौहारों में होली, दीपावली, दुर्गा पूजा एवं दशहरा और ढेरों अन्य त्यौहार जहां हर्षोल्लास से मनाये जाते हैं, वहीं ईद और बारावफात तथा मुहर्रम के ताजिये भी फीके नहीं होते। साम्प्रदायिक सौहार्द यहां की विशेषता है। यहां दशहरे पर रावण के पुतले बनाने वाले अनेकों मुस्लिम एवं ताजिये बनाने वाले अनेकों हिन्दू कारीगर हैं।
लखनऊ का अमौसी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर, जयपुर, पुणे, भुवनेश्वर, गुवाहाटी और अहमदाबाद से प्रतिदिन सीधी फ्लाइट द्वारा जुड़ा हुआ है।
चारबाग रेलवे जंक्शन भारत के प्रमुख शहरों से अनेक रेलगाड़ियों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। दिल्ली से लखनऊ मेल और शताब्दी एक्सप्रेस, मुम्बई से पुष्पक एक्सप्रेस, कोलकाता से दून एक्स्प्रेस और हावड़ा एक्स्प्रेस ३०५० के माध्यम से लखनऊ पहुंचा जा सकता है। चारबाग स्टेशन के अलावा लखनऊ जिले में कई अन्य स्टेशन भी हैं:-
२ किलोमीटर दूर ऐशबाग रेलवे स्टेशन,
५ किलोमीटर पर लखनऊ सिटी रेलवे स्टेशन,
७ किलोमीटर पर आलमनगर रेलवे स्टेशन,
११ किलोमीटर पर बादशाहनगर रेलवे स्टेशन तथा
अमौसी रेलवे स्टेशन हैं।
इसके अतिरिक्त मल्हौर में १३ कि.मी, गोमती नगर में १५ कि.मी, काकोरी १५ कि.मी, मोहनलालगंज १९ कि.मी, हरौनी २५ कि.मी, मलिहाबाद २६ कि.मी, सफेदाबाद २६ कि.मी, निगोहाँ ३५ कि.मी, बाराबंकी जंक्शन ३५ कि.मी, अजगैन ४२ कि.मी, बछरावां ४८ कि.मी, संडीला ५३ कि.मी, उन्नाव जंक्शन ५९ कि.मी तथा बीघापुर ६४ कि.मी पर स्थित हैं। इस प्रकार रेल यातायात लखनऊ को अनेक छोटे छोटे गाँवों और कस्बों से जोड़ता है।
राष्ट्रीय राजमार्ग २४ से दिल्ली से सीधे लखनऊ पहुंचा जा सकता है। लखनऊ का राष्ट्रीय राजमार्ग २ दिल्ली को आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी और कानपुर के रास्ते कोलकाता से जोड़ता है। राष्ट्रीय राजमार्ग २५ झांसी को जोड़ता है। राष्ट्रीय राजमार्ग २८ मुजफ्फरपुर से, राष्ट्रीय राजमार्ग ५६ वाराणसी से जोड़ते हैं।
इन्हें भी देखें
लखनऊ का आधिकारिक जालस्थल (अँग्रेजी में)
लखनऊ का स्थानीय सर्च इंजन पूरी जानकारी लिए *सायबर जॉइंट लखनऊ विश्वविद्यालय अलयुम्नी
लखनऊ सिटी पोर्टल
उत्तर प्रदेश एवं लखनऊ पर सूचना *सहयोग गैर-लाभ संस्था, लखनऊ स्थित, मानवाधिकार एवं महिला उत्थान के किए कार्यरत
उत्तर प्रदेश के नगर
लखनऊ ज़िले के नगर |
प्रयागराज (प्रयाग्रज), जिसका भूतपूर्व नाम इलाहाबाद (इलाहाबाद) था, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रमुख नगर है। यह प्रयागराज ज़िले का मुख्यालय है और हिन्दूओं का एक मुख्य तीर्थस्थल है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित प्रयाग स्थल पवित्रतम नदी गंगा और यमुना के संगम पर स्थित है। यहीं सरस्वती नदी गुप्त रूप से संगम में मिलती है, अतः यह त्रिवेणी संगम कहलाता है, जहां प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ मेला लगता है। यहाँ हर छह वर्षों में अर्द्धकुम्भ और हर बारह वर्षों पर कुम्भ मेले का आयोजन होता है जिसमें विश्व के विभिन्न कोनों से करोड़ों श्रद्धालु पतितपावनी गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र त्रिवेणी संगम में आस्था की डुबकी लगाने आते हैं। अतः इस नगर को संगमनगरी, कुंभनगरी, तंबूनगरी आदि नामों से भी जाना जाता है। प्रयागराज के पास मुगल बादशाह अकबर ने एक किला बनवाया और बसाहट बसवाई जिसका नाम इलाहबाद रखा, बाद मे प्रयाग और इलाहबाद एक ही नाम से जाने लगे। अक्टूबर २०१८ में तत्कालीन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बदलकर प्रयागराज कर दिया। हिन्दू मान्यता अनुसार, यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। इसी प्रथम यज्ञ के 'प्र' और 'याग' अर्थात यज्ञ से मिलकर प्रयाग बना और उस स्थान का नाम प्रयाग पड़ा जहाँ भगवान श्री ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सबसे पहला यज्ञ सम्पन्न किया था। इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ वेणीमाधव रूप में विराजमान हैं। भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विद्यमान हैं जिन्हें 'द्वादश माधव' कहा जाता है। सबसे बड़े हिन्दू सम्मेलन महाकुंभ की चार स्थलियों में से एक है, शेष तीन हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक हैं।
प्रयागराज में कई महत्त्वपूर्ण राज्य सरकार के कार्यालय स्थित हैं, जैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय, प्रधान (एजी ऑफ़िस), उत्तर प्रदेश राज्य लोक सेवा आयोग (पी.एस.सी), राज्य पुलिस मुख्यालय, उत्तर मध्य रेलवे मुख्यालय, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का क्षेत्रीय कार्यालय एवं उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद कार्यालय। भारत सरकार द्वारा प्रयागराज को जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण योजना के लिये मिशन शहर के रूप में चुना गया है। जवाहरलाल शहरी नवीयन मिशन पर मिशन शहरों की सूची व ब्यौरे और यहां पर उपस्थित आनन्द भवन एक दर्शनीय स्थलों में से एक है।
शहर का प्राचीन नाम "प्रयाग" 'या "प्रयागराज" है। हिन्दू मान्यता है कि, सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद सबसे प्रथम यज्ञ यहां किया था। इसी प्रथम यज्ञ के 'प्र' और 'याग' अर्थात यज्ञ की सन्धि द्वारा प्रयाग नाम बना। ऋग्वेद और कुछ पुराणों में भी इस स्थान का उल्लेख 'प्रयाग' के रूप में किया गया है। हिन्दी भाषा में प्रयाग का शाब्दिक अर्थ "नदियों का संगम" भी है - यहीं पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम होता है। अक्सर "पांच प्रयागों का राजा" कहलाने के कारण इस नगर को प्रयागराज भी कहा जाता रहा है।
मुगल काल में, यह कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर जब १५७५ में इस क्षेत्र का दौरा कर रहे थे, तो इस स्थल की सामरिक स्थिति से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यहाँ एक किले का निर्माण करने का आदेश दे दिया, और १५८४ के बाद से इसका नाम बदलकर 'इलाहबास' या "ईश्वर का निवास" कर दिया, जो बाद में बदलकर "इलाहाबाद" हो गया। इस नाम के बारे में, हालांकि, कई अन्य विचार भी मौजूद हैं। आसपास के लोगों द्वारा इसे 'अलाहबास' कहने के कारण, कुछ लोगों ने इस विचार पर जोर दिया है कि इसका नाम आल्ह-खण्ड की कहानी के नायक आल्हा के नाम पर पड़ा था। १८०० के शुरुआती दिनों में ब्रिटिश कलाकार तथा लेखक जेम्स फोर्ब्स ने दावा किया था कि अक्षय वट के पेड़ को नष्ट करने में विफल रहने के बाद जहांगीर द्वारा इसका नाम बदलकर 'इलाहाबाद' या "भगवान का निवास" कर दिया गया था। हालाँकि, यह नाम उससे पहले का है, क्योंकि इलाहबास और इलाहाबाद - दोनों ही नामों का उल्लेख अकबर के शासनकाल से ही शहर में अंकित सिक्कों पर होता रहा है, जिनमें से बाद वाला नाम सम्राट की मृत्यु के बाद प्रमुख हो गया। यह भी माना जाता है कि इलाहाबाद नाम अल्लाह के नाम पर नहीं, बल्कि इल्हा (देवताओं) के नाम पर रखा गया है। शालिग्राम श्रीवास्तव ने प्रयाग प्रदीप में दावा किया कि नाम अकबर द्वारा जानबूझकर हिंदू ("इलाहा") और मुस्लिम ("अल्लाह") शब्दों के एकसमान होने के कारण दिया गया था।
१९४७ में भारत की स्वतन्त्रता के बाद कई बार उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकारों द्वारा इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने के प्रयास किए गए। १९९२ में इसका नाम बदलने की योजना तब विफल हो गयी, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद विध्वंस प्रकरण के बाद अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। २००१ में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह की सरकार के नेतृत्व में एक और बार नाम बदलने का प्रयास हुआ, जो अधूरा रह गया। २०१८ में नगर का नाम बदलने का प्रयास आखिरकार सफल हो गया, जब १६ अक्टूबर २०१८ योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार ने आधिकारिक तौर पर इसका नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया।
प्राचीन काल में शहर को "प्रयाग" (बहु-यज्ञ स्थल) के नाम से जाना जाता था। ऐसा इसलिये क्योंकि सृष्टि कार्य पूर्ण होने पर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ यहीं किया था, वह उसके बाद यहां अनगिनत यज्ञ हुए। भारतवासियों के लिये प्रयाग एवं वर्तमान कौशाम्बी जिले के कुछ भाग यहां के महत्वपूर्ण क्षेत्र रहे हैं। यह क्षेत्र पूर्व से मौर्य एवं गुप्त साम्राज्य के अंश एवं पश्चिम से कुशान साम्राज्य का अंश रहा है। बाद में ये कन्नौज साम्राज्य में आया। १५२६ में मुगल साम्राज्य के भारत पर पुनराक्रमण के बाद से प्रयागराज मुगलों के अधीन आया। अकबर ने यहां संगम के घाट पर एक वृहत दुर्ग निर्माण करवाया था। शहर में मराठों के आक्रमण भी होते रहे थे। इसके बाद अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। १७७५ में दुर्ग में थल-सेना के गैरीसन दुर्ग की स्थापना की थी। १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रयागराज भी सक्रिय रहा। १९०४ से १९४९ तक इलाहाबाद (प्रयागराज) संयुक्त प्रांतों (अब, उत्तर प्रदेश) की राजधानी था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन यहां दरभंगा किले के विशाल मैदान में १८८८ एवं पुनः १८९२ में हुआ था।
१९३१ में प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने ब्रिटिश पुलिस से घिर जाने पर स्वयं को गोली मार कर अपनी न पकड़े जाने की प्रतिज्ञा को सत्य किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में नेहरु परिवार के पारिवारिक आवास आनन्द भवन एवं स्वराज भवन यहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों के केन्द्र रहे थे। यहां से हजारों सत्याग्रहियों को जेल भेजा गया था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु प्रयागराज के ही निवासी थे।
स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका
भारत के स्वतत्रता आन्दोलन में भी प्रयागराज की एक अहम् भूमिका रही। राष्ट्रीय नवजागरण का उदय प्रयागराज की भूमि पर हुआ तो गाँधी युग में यह नगर प्रेरणा केन्द्र बना। 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के संगठन और उन्नयन में भी इस नगर का योगदान रहा है। सन १८५७ के विद्रोह का नेतृत्व यहाँ पर लियाक़त अली ख़ाँ ने किया था। कांग्रेस पार्टी के तीन अधिवेशन यहाँ पर १८८८, १८९२ और १९१० में क्रमशः जार्ज यूल, व्योमेश चन्द्र बनर्जी और सर विलियम बेडरबर्न की अध्यक्षता में हुए। महारानी विक्टोरिया का १ नवम्बर १8५8 का प्रसिद्ध घोषणा पत्र यहीं अवस्थित 'मिण्टो पार्क'[५] में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग द्वारा पढ़ा गया था। नेहरू परिवार का पैतृक आवास ' स्वराज भवन' और 'आनन्द भवन' यहीं पर है। नेहरू-गाँधी परिवार से जुडे़ होने के कारण प्रयागराज ने देश को प्रथम प्रधानमंत्री भी दिया। क्रांतिकारियों की शरणस्थली उदारवादी व समाजवादी नेताओं के साथ-साथ प्रयागराज क्रांतिकारियों की भी शरणस्थली रहा है। चंद्रशेखर आज़ाद ने यहीं पर अल्फ्रेड पार्क में २७ फ़रवरी १93१ को अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए ब्रिटिश पुलिस अध्यक्ष नॉट बाबर और पुलिस अधिकारी विशेश्वर सिंह को घायल कर कई पुलिसजनों को मार गिराया औरं अंततः ख़ुद को गोली मारकर आजीवन आज़ाद रहने की कसम पूरी की। १9१9 के रौलेट एक्ट को सरकार द्वारा वापस न लेने पर जून, १920 में प्रयागराज में एक सर्वदलीय सम्मेलन हुआ, जिसमें स्कूल, कॉलेजों और अदालतों के बहिष्कार के कार्यक्रम की घोषणा हुई, इस प्रकार प्रथम असहयोग आंदोलन और ख़िलाफ़त आंदोलन की नींव भी प्रयागराज में ही रखी गयी थी।
प्रयागराज की भौगोलिक स्थिति उत्तर प्रदेश के दक्षिणी भाग में ९८मीटर (३२२फ़ीट) पर गंगा और यमुना नदियों के संगम पर स्थित है। यह क्षेत्र प्राचीन वत्स देश कहलाता था। इसके दक्षिण-पूर्व में बुंदेलखंड क्षेत्र है, उत्तर एवं उत्तर-पूर्व में अवध क्षेत्र एवं इसके पश्चिम में निचला दोआब क्षेत्र। प्रयागराज भौगोलिक एवं संस्कृतिक दृष्टि, दोनों से ही महत्त्वपूर्ण रहा है। गंगा-जमुनी दोआब क्षेत्र के खास भाग में स्थित ये यमुना नदी का अंतिम पड़ाव है। दोनों नदियों के बीच की दोआब भूमि शेष दोआब क्षेत्र की भांति ही उपजाउ किंतु कम नमी वाली है, जो गेहूं की खेती के लिये उपयुक्त होती है। जिले के गैर-दोआबी क्षेत्र, जो दक्षिणी एवं पूर्वी ओर स्थित हैं, निकटवर्ती बुंदेलखंड एवं बघेलखंड के समान शुष्क एवं पथरीले हैं। भारत की नाभि जबलपुर से निकलने वाली भारतीय अक्षांश रेखा जबलपुर से उत्तर में प्रयागराज से निकलती है।
इलाहाबाद मंडल का पुनर्गठन
इलाहाबाद मंडल एवं जिले में वर्ष २००० में बड़े बदलाव हुए। इलाहाबाद मंडल के इटावा एवं फर्रुखाबाद जिले आगरा मंडल के अधीन कर दिये गए, जबकि कानपुर देहात को कानपुर जिले में से काटकर एक नया कानपुर मंडल सजित कर दिया गया। पश्चिमी इलाहाबाद के भागों को काटकर नया कौशांबी जिला बनाया गया। वर्तमान में इलाहाबाद मंडल के अंतर्गत प्रयाग-राज, कौशांबी, प्रतापगढ़ एवं फतेहपुर जिले आते हैं। नवंबर २०१८ में योगी आदित्यनाथ ने इलाहाबाद मंडल का नाम प्रयागराज मंडल करवा दिया।
२०११ की जनगणना के अनुसार प्रयागराज शहर की वर्तमान जनसंख्या १,३४२,२२९ है। ये भारत में जनसंख्या के अनुसार ३२वें स्थान पर आता है। प्रयागराज जिला 20१3 की जनगणना के अनुसार 60१0249 जो उत्तर प्रदेश का सबसे जनसँख्या वाला जिला हैं।
प्रयागराज का क्षेत्रफल लगभग है और ये [[समुद्र की सतह से ऊंचाई|सागर सतह से ऊंचाई पर स्थित है।
हिन्दी-भाषी प्रयागराज की बोली अवधी है, जिसे "इलाहाबादी बोली" भी कहते हैं। जिले के पूर्वी गैर-दोआबी क्षेत्र में प्रायः बघेली बोली का चलन है।
प्रयागराज में सभी प्रधान धर्म के लोग निवास करते हैं। यहां हिन्दू कुल जनसंख्या का ८५% और मुस्लिम ११% हैं। इनके अलावा सिख, ईसाई एवं बौद्ध लोगों की भी छोटी संख्या है।
प्रयागराज में तीन प्रमुख ऋतुएं आती हैं: ग्रीष्म ऋतु, शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु। ग्रीष्मकाल अप्रैल से जून तक चलता है, जिसमें अधिकतम तापमान ४०से. (१०४ फै.) से ४५से. (११३फै.) तक जाता है। मानसून काल आरंभिक जुलाई से सितंबर के अंत तक चलती है। इसके बाद शीतकाल दिसंबर से फरवरी तक रहता है। तापमान यदाकदा ही शून्य तक पहुंचता है। अधिकतम तापमान लगभग २२ से. (७२ फा.) एवं न्यूनतम तापमान १० से. (५० फा.) तक पहुंचता है। प्रयागराज में जनवरी माह में घना कोहरा रहता है, जिसके कारण यातायात एवं यात्राओं में अत्यधिक विलंब भी हो जाते हैं। किंतु यहां हिमपात कभी नहीं होता है।
न्यूनतम अंकित तापमान, -२ से. (२8.४ फै.) एवं अधिकतम ४5 से. (११८ फै.) ४8 से. तक पहुंचा है।
प्रयागराज नगर निगम, राज्य के प्राचीनतम नगर निगमों में से एक है। निगम १८६४ में अस्तित्त्व में आया था, जब तत्कालीन भारत सरकार द्वारा लखनऊ म्युनिसिपल अधिनियम पास किया गया था। नगर के म्युनिसिपल क्षेत्र को कुल ८० वार्डों में विभाजित किया गया है व प्रत्येक वार्ड से एक सदस्य (कार्पोरेटर) चुनकर नगर परिषद का गठन किया जाता है।. पहले ये कॉर्पोरेटर शहर के महापौर को चुनते थे, लेकिन बाद में इस व्यवस्था को बदल दिया गया। अब नगर निगम क्षेत्र की जनता पार्षद के साथ-साथ अपना महापौर भी चुनती हैं। राज्य सरकार द्वारा चुने गए मुख्य कार्यपालक को प्रयागराज का आयुक्त (कमिश्नर) नियुक्त किया जाता है।
प्रयागराज गंगा-यमुना नदियों के संगम पर स्थित है। ये एक भू-स्थित प्रायद्वीप रूप में देखा जा सकता है जिसे तीन ओर से नदियों ने घेर रखा है एवं मात्र एक ओर ही मुख्य भूमि से जुड़ा है। इस कारण ही शहर के भीतर व बाहर बढ़ते यातायात परिवहन हेतु अनेक सेतुओं द्वारा गंगा व यमुना नदियों के पार जाते हैं।
प्रयागराज का शहरी क्षेत्र तीन भागों एं वर्गीकृत किया जा सकता है: चौक, कटरा पुराना शहर जो शहर का आर्थिक केन्द्र रहा है। यह शहर का सबसे घना क्षेत्र है, जहां भीड़-भाड़ वाली सड़कें यातायात व बाजारों का कां देती हैं। नया शहर जो सिविल लाइंस क्षेत्र के निकट स्थित है; ब्रिटिश काल में स्थापित किया गया था। यह भली-भांति सुनियोजित क्षेत्र ग्रिड-आयरन रोड पैटर्न पर बना है, जिसमें अतिरिक्त कर्णरेखीय सड़कें इसे दक्ष बनाती हैं। यह अपेक्षाकृत कम घनत्व वाला क्षेत्र हैजिसके मार्गों पर वृक्षों की कतारें हैं। यहां प्रधान शैक्षिक संस्थान, उच्च न्यायालय, उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग कार्यालय, अन्य कार्यालय, उद्यान एवं छावनी क्षेत्र हैं। यहां आधुनिक शॉपिंग मॉल एवं मल्टीप्लेक्स बने हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-पीवीआर, बिग बाजार, कोलकाता मॉल, यूनिक बाजार ,जालौन,विशाल मेगामार्ट इत्यादि
अन्य पाँच माँल पर काम चल रहा हैं। बाहरी क्षेत्र में शहर से गुजरने वाले मुख्य राजमार्गों पर स्थापित सैटेलाइट टाउन हैं। इनमें गंगा-पार (ट्रांस-गैन्जेस) एवं यमुना पार (ट्रांस-यमुना) क्षेत्र आते हैं। विभिन्न रियल-एस्टेट बिल्डर प्रयागराज में निवेश कर रहे हैं, जिनमें ओमेक्स लि. प्रमुख हैं। नैनी सैटेलाइट टाउन में १५३५ एकड़ की हाई-टेक सिटी बन रही है।
प्रयागराज जिले में आठ तहसीले हैं, जो निम्नवत है।
शहरी क्षेत्र का सभी कार्य सदर द्वारा होता है।यह जिला कचहरी से जुड़ा हुआ है।
प्रयागराज से मिर्ज़ापुर मार्ग स्थित मेजारोड (लगभग दूरी ४०किलोमीटर) चौराहे से तथा मेजारोड रेलवे स्टेशन से १०किलोमीटर दक्षिण स्थित है। मेजा तहसील में तीन ब्लॉक क्रमश: मेजा,उरुवा और मांडा है। भारत के पूर्व-प्रधानमंत्री श्री विश्वप्रताप सिंह मांडा के राजा थे।
ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल
यहाँ कई क्रीड़ा परिसर हैं, जिनका उपयोग व्यावसायिक एवं अव्यवसायी खिलाड़ी करते रहे हैं। इनमें मदन मोहन मालवीय क्रिकेट स्टेडियम, मेयो हॉल स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स एवं बॉयज़ हाई स्कूल एवं कॉलिज जिम्नेज़ियम हैं। जॉर्जटाउन में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का तरणताल परिसर भी है। झलवा (प्रयागराज पश्चिम) में नेशनल स्पोर्ट्स एकैडमी है, जहां विश्व स्तर के जिमनास्ट अभ्यासरत रहते हैं। अकादमी को आगामी राष्ट्रमंडल खेलों के लिये भारतीय जिमनास्ट हेतु आधिकारिक ध्वजधारक चुना गया है।
मध्यकालीन इतिहासकार बदायूनी के अनुसार १५७५ में सम्राट अकबर ने प्रयाग की यात्रा की और एक शाही शहर इलाहाबाद की स्थापना की १५८३ में अकबर ने प्रयागराज में गंगा और यमुना के संगम पर प्रयागराज दुर्ग का निर्माण प्रारम्म करवाया। यह किला चार भागो में बनवाया गया। पहले हिस्से में १२ भवन एवं कुछ बगीचे बनवाये गयें। दूसरे हिस्से में बेगमोँ और शहजादियों के लिऐ महलो का निर्माण करवाया गया। तीसरा हिस्सा शाही परिवार के दूर के रिश्तेदारों और नैकरों के लिऐ बनवाया गया और चौथा हिस्सा सैनिको के लिये बनवाया गया। इस किले में ९३ महर, ३ झरोखा, २५ दरवाजें, २७७ इमारतें, १७६ कोठियाँ ७७ तहखानें व २० अस्तबल और ५ कुएं हैं।
यह किला झूसी में स्थित है।
स्वराज भवन प्रयागराज में स्थित एक ऐतिहासिक भवन एवं संग्रहालय है। इसका मूल नाम 'आनन्द भवन' था। इस ऐतिहासिक भवन का निर्माण मोतीलाल नेहरु ने
करवाया था। १९३० में उन्होंने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। इसके बाद यहां कांग्रेस कमेटी का मुख्यालय बनाया गया। भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गांधी का जन्म यहीं पर हुआ था। आज इसे संग्रहालय का रूप दे दिया गया है।
१८९९ में मोतीलाल नेहरु ने चर्च लेन नामक मोहल्ले में एक अव्यवस्थित इमारत खरीदी। जब इस बंगले में नेहरु परिवार रहने के लिये आया तब इसका नाम आनन्द भवन रखा गया। पुरानी इमारत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सौंप । १९३१ में पं मोतीलाल नेहरु के गुजरने के बाद उनके पुत्र जवाहर लाल नेहरु ने एक ट्रस्ट बना कर स्वाराज भवन भारतीय जनता के ज्ञान के विकास स्वास्थ्य एंव सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। इस इमारत के एक हिस्से में अस्पताल
जो की आज कमला नेहरु के नाम से जाना जाता हैं। और शेष अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के उपयोग के लिये था। १९४८ से १९७४ तक इस भवन का उपयोग
बच्चो की शैक्षणिक गतिविधियों विकाय के लिये किया जता रहा और इसमें एक बाल भवन कि स्थापना कि गयी। बाल भवन में शैक्षिक यथा संगीत विग्यान खेल आदि के विषय में
बच्चों को सिखाया जाता था। १९७४ में इंदिरा गाँधी ने जवाहर लाल मेमोरियल फण्ड बना कर यह इमारत २० वर्ष के लियें उसे पट्टे पर दे दिया और उस इमारत में बाल भवन चलता रहा। किन्तु अब बाल भवन को स्वराज भवन के ठीक बगल में स्थित एक अन्य मकान स्थापित कर दिया गया। और स्वराज भवन को एक संग्रहालय के रूप में विकसित कर दिया गया।
स्वराज भवन एक बड़ा भवन हैं। और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों का एक जीता जागता धरोहर हैं। यही वह स्थान हैं जहा पं जवाहरलाल नेहरु ने अपना बचपन
बिताया। यहीं से वो राजनिति कि प्रारम्भिक शिक्षा लेने के बाद में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में शामिल हुये। जवाहरलाल नेहरु ने १९१६ में अपने वैवाहिक जीवन का शुभ आरम्भ इसी भवन से किया। इसके अतिरिक्त यह राजनिति गतिविधियों का एक मंच भी रहा। १९१७ में उत्तर प्रदेश होम रुम लीन के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरु एवं महामंत्री जवाहरलाल नेहरु थे। १९ नवम्बर १९१९ को इंदिरा गाँधी का जन्म भी इसी भवन में हुआ। १९20 में आल इंडिया खिलाफत इसी भवन में बनायी गयी। भारत का संविधान लिखने के लिये चुनी गयी आल पार्टी का सम्मेलन भी इसी स्वराज भवन में हुआ था।
आनन्द भवन, प्रयागराज
मोतीलाल नेहरु ने इसकी नींव १९२६ रखी। वास्तुकला की दृष्टि से यह भवन अपने आप में अनोखा है। यह दो मंजिली इमारत है आनन्द भवन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की एक ऐतिहासिक यादगार हैं और ब्रिटिश शासन के विरोध में किये गये अनेक विरोधों, कांग्रेस के अधिवेशनों एवं राष्टीय नेताओं के अनेक सम्मेलनों से इसका सम्बन्ध रहा है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय प्रयागराज
यह मूल रूप से भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम १८६१ के सद्र दीवानी अदालत जगह से आगरा में १७ मार्च १८६६ को उत्तरी-पश्चिमी प्रांतों के लिए न्यायाधिकरण के उच्च न्यायालय के रूप में स्थापित किया गया था। सर वाल्टर मॉर्गन, बैरिस्टर पर कानून उत्तर - पश्चिमी प्रदेशों के उच्च न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
स्थान १८६९ में प्रयागराज में स्थानांतरित किया गया और नाम तदनुसार ११ से मार्च १९१९ महकमा के उच्च न्यायालय इलाहाबाद में बदल गया था। २ नवम्बर 19२5 को, अवध न्यायिक आयुक्त के न्यायालय लखनऊ में अवध चीफ कोर्ट ने अवध सिविल न्यायालय अधिनियम 19२5 की गवर्नर जनरल की मंजूरी के साथ संयुक्त प्रांत विधानमंडल द्वारा अधिनियमित द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
२५ फ़रवरी १९४८ को, उत्तर प्रदेश विधान सभा में राज्यपाल का अनुरोध गवर्नर जनरल के लिए विधानसभा के प्रभाव है कि उच्च न्यायालय इलाहाबाद में महकमा और अवध बुज्मुख्य न्यायालय के समामेलित हो अनुरोध सबमिट संकल्प पारित कर दिया। नतीजतन, अवध के मुख्य न्यायालय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के साथ समामेलित किया गया था। जब उत्तरांचल के राज्य उत्तर प्रदेश के बाहर २००० में बना था, इस उच्च न्यायालय उत्तरांचल में पड़ने वाले जिलों पर अधिकार क्षेत्र रह गए हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय लोहा मुंडी, आगरा, भारत के खान साहब निजामुद्दीन द्वारा बनाया गया था। उन्होंने यह भी उच्च न्यायालय के लिए पानी के फव्वारे का दान दिया। पातालपुरी मन्दिर किले के अन्दर यह मंदिर भूगर्भ में स्थित हैं। और अछयवट इस मन्दिर के अन्दर ही हैं। यह मंदिर अत्यन्त ही प्राचीन हैं। ऐसा विश्वास किया जाता हैं। कि भगवान राम ने इस मन्दिर कि यात्रा की थी।
अकबर की राजपूत पत्नी जोधाबाई का महल जो रानी महल के नाम से जाना जाता हैं। यह महल किले में स्थित हैं।
आल सेण्ट्स कैथैड्रिल
शहर के सिविल लाइन में स्थित यह चर्च पत्थर गिरजाघर के नाम से प्रसिद्द है। इस चर्च को देखने से प्रतित होता हैं। कि मानों हम किसी रोमन साम्राज्य का राजगृह देख रहे हैं। १८७९ में बन कर तैयार हुये इस चर्च का नक्शा सुप्रसिद्ध अंग्रेज वास्तुविद विलियन इमरसन ने बनवाया था। यह चर्च चौराहे के बीचो-बीच स्थित हैं।हम लोग यहाँ घूम भी सकते हैं
दर्शनीय धार्मिक स्थल
प्रयागराज गंगा यमुना और सरस्वती के संगम पर स्थित हैं। चूॅंकि यहाँ तीन नदियाँ आकर मिलती हैं। अत: इस स्थान को त्रिवेणी के नाम से भी संबोधित किया जाता हैं। संगम का दृश्य अत्यन्त मनोरम हैं। स्वेत गंगा और हरित यमुना अपने मिलने के स्थान पर स्पष्ट भेद बनाए रखती हैं अर्थात मात्र दृष्टिपात करने से ही यह बताया जा सकता हैं। कि यह गंगा नदी हैं और यह यमुना। हिमालय की गोद से निकल कर प्रयाग तक आते आते गंगा गुम्फिद नदी में बदल जाती हैं परन्तु यमुना के मिलने के उपरान्त इनमे पुन: अथाह जल हो जाता हैं।
संगम के निकट स्थित यह एक अद्भुत एवं अपने प्रकार का अनोखा मन्दिर हैं इस मन्दिर में हनुमान जी की लेटी हुई प्रतिमा हैं। और उनके दर्शनार्थ लोगों को सीढियों से उतर कर नीचे जाना पड़ता हैं। यह प्रतिमा अत्यन्त विशाल एवं भव्य हैं। ऐसा विश्वास किया जाता हैं कि अंग्रेजी शासन ने इस मंदिर को यहाँ से हटवाने के आदेश दिये किन्तु जैसे जैसे मूर्ति को हटाने के लिये खुदाई की जाने लगी वैसे वैसे मूर्ति बाहर आने के बजाय अन्दर धसती गयी। यही कारण हैं कि यह मंदिर गड्ढे में हैं।
शंकर विमान मण्डपम्
गंगा के तट पर स्थित यह एक आधुनिक मन्दिर हैं। यह मन्दिर चार मंजिलों का हैं। इस मन्दिर की कुल ऊँचाई लगभग ४० मीटर अर्थात १३० फुट हैं। इसकी प्रत्येक मंजिल पर अलग अलग देवताओं का वास स्थान हैं।
यह मन्दिर सिविल लाइन में स्थित हैं यह एक आधुनिक मन्दिर हैं। जो मुख्य रूप से हनुमान जी को समर्पित हैं।
किले के भीतर स्थित इस पवित्र कूप के विषय में विश्वास किया जाता हैं। कि यही अदृश्य सरस्वती नदी का स्रोत हैं।
गंगा पार स्थित झूँसी में समुद्र कूप स्थित है। यह कूप उल्टा किला के अन्दर स्थित है। यह बहुत ऊॅंचे टिले पर है। माना जाता है कि इस कूप में समुद्र का स्रोत है। इस कूप का पानी खारा हैं।
यमुना के तट पर स्थित इस मन्दिर का धार्मिक महत्व अत्यधिक हैं। इस मन्दिर से चबूतरे से यमुना का नजारा अत्यन्त ही मनोहर हैं। इस मन्दिर की विशेषता यहाँ प्रतिदिन लोने वाला श्रृंगार एवं भगवान शिव की दिव्य आरती हैं।
गंगा नदी के किनार स्थित शिवकुटी भगवान शिव को समर्पित है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के द्वारा संस्थापित कोटिश्वर मंदिर है।जब भगवान रावण को मारकर वनवास के उपरांत गुरुदेव भारद्वाज मुनि के आश्रम आए,उन्होंने कहा ब्रह्म हत्या हुई है।अतः उस दोष की निवृत्ति करोड़ शिवलिंग की स्थापना व पूजन करो।भगवान श्री राम ने कहा कि कलियुग में करोड़ शिवलिंग की पूजा सम्भव नही है।तब गुरुदेव ने दोनों हाथों में जितनी बालू आ जाए,उससे शिवलिंग का निर्माण करके पूजन करो।
भगवान ने वैसा ही किया।आज भी श्रावण मास में भक्तजन दूर दूर से आकर अपने पापों मो धोते है।
कहा जाता है कि प्रयाग में आकर इनका दर्शन अवश्य करना चाहिए।क्योंकि जन्म जन्मांतर के हत्या रूपी दोष को हटाने के लिए यही भगवान है।
शास्त्रों में बताया गया है कि आदि कोटिश्वर भगवान भी यहाँ संस्थापित थे।आजकल वह स्थान धर्म संघ संस्कृत विद्यालय कोटिश्वर धाम से जाना जाता है।ये अति प्राचीन भगवान यह संस्थापित है।
आदि गुरू शंकराचार्य भगवान भी यहाँ साधना किये है।
धर्म सम्राट स्वामी श्री करपात्री जी महाराज ,उनके कृपा पात्र यज्ञ सम्राट श्री प्रबल जी महाराज ने इस मंदिर व आश्रम का जीर्णोद्धार कराकर संस्कृत सेवा हेतु समाज को सौप दिया है।
ये कोटिश्वर धाम से जाना जाता है।लोग अपभ्रंश में कोटेश्वर महादेव भी बोलते है।
पर कोटि ईश्वर महादेव मंदिर ऐसा प्राचीन नाम है।
यहाँ सैकड़ो ब्रह्मचारी वेद वेदांग की शिक्षा ले रहे है।
गोशाला संचालित है।अन्नक्षेत्र की व्यवस्था है।आयुर्वेद पद्धति से चिकित्सा भी की जा रही है।
यहाँ प्रतिदिन यज्ञ भी होता है।
प्रवचन ,संत सम्मेलन भी होते रहते है।वर्तमान में कोटिश्वर धाम गोशाला के वर्तमान स्वामी श्री त्रयंबकेश्वर चैतन्य जी महाराज व परम् तपस्वी युवा संत डॉ गुण प्रकाश चैतन्य जी महाराज की कृपा से पुष्पित पल्लवित हो रहा है।
शिव कचहरी बडा ही परम् पवित्र स्थान है।
सीताराम धाम भी बहुत सुंदर स्थान है।
तथा नारायणी आश्रम अपने आप मे दिव्य झांकी लिए हुए सबके मन को आकृष्ट कर लेता है।
ये सभी स्थान गंगा तीर पर ही स्थापित है।
प्रयागराज में शिवकुटी अपने आप मे तीर्थ है।क्योंकि यहाँ का दर्शन किये बिना प्रयागराज का फल नही मिलता है।
भारद्वाज आश्रम, प्रयागराज
आनन्द भवन के सामने स्थित एक मन्दिर हैं। यही भगवान राम के वन गमन काल में महर्षि भारद्वाज का आश्रम हुआ करता था। यह आश्रम संत भारद्वाज से संबंधित है। और जब इसी संगम से आगे बडकर गंगा शिवजी की नगरी काशी में पहुँचती हैं तो यह जल से लबालब भरी रहती हैं। यमुना यमुनोत्री की निर्मल धारा लेकर मथुरा में कृष्ण की लीलाओं को रूप देकर और आगरे में ताजमहल को नहला कर प्रयाग में गंगा में विलिन हो जाती हैं। प्रत्येक वर्ष के जनवरी फरवरी में इसकी महत्ता कई गुना बड जाती हैं। इस मेले में करोड़ों लोग संगम के पावन जल में डुबकी लगा कर पुण्य के भागीदार बनते हैं। कल्पवासी संगम के तट पर टेन्ट के बने घरोँ में निवास करते हैं।
भारद्वाज आश्रम कर्नलगंज इलाके में स्थित है। यहाँ ऋषि भारद्वाज ने भार्द्वाजेश्वर महादेव का शिवलिंग स्थापित किया था और इसके अलावा यहाँ सैकड़ों मूर्तियांहैं उनमें से महत्वपूर्ण हैं: राम लक्ष्मण, महिषासुर मर्दिनी, सूर्य, शेषनाग, नर वराह। महर्षि भारद्वाज आयुर्वेद के पहले संरक्षक थे। भगवान राम ऋषि भारद्वाज के आश्रम में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आये थे। आश्रम कहाँ था यह अनुसंधान का एक मामला है, लेकिन वर्तमान में यह आनंद भवन के पास है। यहाँ भी भारद्वाज, याज्ञवल्क्य और अन्य संतों, देवी - देवताओं की प्रतिमा और शिव मंदिर है। भारद्वाज वाल्मीकि के एक शिष्य थे। यहाँ पहले एक विशाल मंदिर भी था और पहाड़ के ऊपर एक भरतकुंड था। नाग वासुकी मंदिर यह मंदिर संगम के उत्तर में गंगा तट पर दारागंज के उत्तरी कोने में स्थित है। यहाँ नाग राज, गणेश, पार्वती और भीष्म पितामाह की एक मूर्ति हैं। परिसर में एक शिव मंदिर है। नाग- पंचमी के दिन एक बड़ा मेला आयोजित किया जाता है। मनकामेश्वर मंदिर यह मिंटो पार्क के पास यमुना नदी के किनारे किले के पश्चिम में स्थित है। यहाँ एक काले पत्थर की शिवलिंग और गणेश और नंदी की प्रतिमाएं हैं। हनुमान की भव्य प्रतिमा और मंदिर के पास एक प्राचीन पीपल का पेड़ है। यह प्राचीन शिव मंदिर प्रयागराज के बर्रा तहसील से ४० किमी दक्षिण पश्चिम में स्थित है। शिवलिंग सुरम्य वातावरण के बीच एक ८० फुट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थापित है। कहा जाता है कि शिवलिंग ३.५ फुट भूमिगत है और यह भगवान राम द्वारा स्थापित किया गया था। यहाँ कई विशाल बरगद के पेड़ और मूर्तियाँ हैं
गोस्वामी तुलसीदास जी रामकथा का आरंभ त्रिवेणी संगम के समीप स्थित प्रयागराज में भरद्वाज मुनि के आश्रम पर परमविवेकी मुनि याज्ञवल्क्य के पावन संवाद से करते हैं ।यहाँ राम पद, माधव पद जलजाताका उल्लेख दो चौपाइयों में हुआ है, जो इस भाष्य से संबद्ध है
१-भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा।
तिन्हहि राम पद अति अनुराग।।१/४४/१
२-पूजहिं माधव पद जलजाता ।
परसि अखय बटु हरषहिं गाता।। १/४४/५
अर्थात् भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं,उनका श्रीराम जी के चरणों में अत्यंत प्रेम है ।
तीर्थराज प्रयाग में आने वाले श्री वेणीमाधवजी के चरण कमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं ।
अन्य दर्शनीय स्थल
आनंद भवन के बगल में स्थित जवाहर प्लेनेटेरियम में खगोलीय और वैज्ञानिक जानकारी हासिल करने के लिए जाया जा सकता है। और यह प्लेनेटेरियम ३ डी है।
कम्पनी बाग के अन्दर सन् १९३१ में प्रयागराज संग्रहालय का निर्माण करवाया गया था। इस सग्रहालय में भारत के प्राचीन इतिहास से सम्बन्धित अनेक वस्तुएँ रखीँ हुयीं हैं। इन वस्तुओँ में कौशाम्बी के अनेक अवशेष संग्रहीत है। कौशाम्बी में प्राप्त बुद्ध की मुर्तियाँ भी इसमें संरक्षित हैं। इस संग्रहालय में प्राचीन सिक्के का एक अनमोल खजाना हैं। पंचमार्क सिक्के ताबे के सिक्के कुषाणोँ तथा गुप्त शासकोँ द्रारा प्राप्त सिक्कोँ के अतिरिक्त यहाँ कुछ मुगलकालीन सिक्के भी हैं। यहाँ मुगलकाल अनेक पेंटिँग देखने को हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक रुसी चित्रकार द्रारा निर्मित अत्यन्त सुन्दर पेंटिँग भी रखी हुयी हैं। प्रयागराज से सम्बन्धित कुछ लेखकोँ यथा महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि के कुछ हस्तलिखित अभिलेख भी इस संग्रहालय में हैं। इस सबसे बडकर यहाँ पर महान स्वाधिनता संग्राम सेनानी चन्द्रशेखर आजाद की वह पिस्तौल भी रखी हैं। जिससे उन्होने अंग्रेज़ सिपाहियोँ का मुकाबला किया था।
कम्पनी बाग के अन्दर पब्लिक लाइब्रेरी स्थिय है। इसकी इमारत अंग्रजी शासन के समय की है। एवं बडी शानदार है। यह लाइब्रेरी उत्तर प्रदेश की सबसे बडी और सबसे प्राचीन लाइब्रेरी हैं। इसकी इमारत बडी शानदार हैं। प्रवेश द्रार के ठीक सामने के कोरीडोरा में बढे खम्भोँ पर बहुत ही सुन्दर रोमन नक्कासी हैं।
चौक घंटाघर उत्तर प्रदेश में स्थित एक घड़ी का टॉवर है। यह चौक भारत के सबसे पुराने बाजारों में से एक है और मुगलों की कलात्मक और संरचनात्मक कौशल का एक उदाहरण है। यह १९१३ में बनाया गया था और लखनऊ के घंटाघर बाद यह उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे पुराना घड़ी का टावर है। इसके खम्भोँ पर बहुत ही सुन्दर रोमन नक्कासी हैं।
अरैल यमुना के तट स्थित यह एक भव्य स्थल हैं। यह सबसे सुन्दर स्थान हैं। यहाँ पर कई एतिहासिक चीजे आपको देखने को मिलेगा। जैसे रामजन्मभूमि, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गौतम बुद्ध, बहुत सी मन्दिर हैं। यहाँ पर एक बहुत बड़ा गुम्बज (मिनार) देखने को मिलेगा।
१० किमी यमुना पार अरैल एक प्रमुख धार्मिक केन्द्र हैं। जिसका प्राचिन नाम अलकापुरी था।
देखने योग्य स्थल बहुत हैं। जैसे-
कोटिश्वर मंदिर भगवान श्री राम द्वारा संस्थापित
आदि कोटिश्वर मंदिर धाम गोशाला आदि शंकराचार्य भगवान द्वारा समर्चित
,धर्म संघ विद्यालय ,प्रबल जी महाराज शिवकुटी
नारायणी धाम शिवकुटी
आदि देखने योग्य स्थान है। यहाँ सड़क मार्ग या नाव द्वारा जाया जा सकता है।
प्रयागराज में पक्के घाट हैं। जो क्रमश: हैं।
यमुना के तट स्थित यह एक नवनिर्मित रमणीय स्थल हैं। तीन ओर से सीढियाँ यमुना के हरे जल तक उतर कर जाती हैं। और ऊपर एक पार्क हैं जो सदैव हरी घास से ढका रहता हैं। यहाँ पर बोँटिग करने की भी सुविधा हैं। यहाँ से नाव द्रारा संगम पहुचने का भी मार्ग हैं।
अरैल यमुना घाट
यह प्रयागराज का सबसे बड़ा घाट है और यह सबसे आधुनिक घाट हैं। यह एक भव्य स्थान हैं और टहलने का सबसे अच्छा स्थान हैं। यह एक दशर्नीय स्थल हैं। यहाँ पर बोँटिग करने की भी सुविधा हैं यहाँ पर स्नानार्थियों के लिये सिटिंग प्लाजा भी हैं।
बोट क्लब घाट
चंद्रशेखर आजाद घाट फाफामऊ
इनके अतिरिक्त सौ से अधिक कच्चे घाट हैं।
प्रयागराज कुंभ मेला
प्रयागराज में लगने वाला कुंभ मेला शहर के आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र है। अनगिनत श्रद्धालु इस मेले में आते हैं। यहाँ मेला एक वर्ष माघ मेला तीन वर्ष छः वर्ष अर्द्धकुम्भ और बारह वर्ष महाकुंभ लगता है। भारत में यह धार्मिक मेला चार जगहों पर लगता है। यह जगह नाशिक, प्रयाग, उज्जैन और हरिद्वार में हैं। प्रयागराज में लगने वाला कुंभ का मेला सबसे बड़ा धार्मिक मेला है। इस मेले में हर बार विशाल संख्या में भक्त आते हैं। यहाँ पर जनवरी फरवरी में विश्व का सबसे बड़ा शहर कहा जाता हैं। यहाँ कि जनसख्या करीब दस करोड में होती हैं।
इस मेले में आए लाखों श्रद्धालु संगम में स्नान करते हैं। अर्थात गंगा यमुना सरस्वती नदी हैं। यह माना जाता है कि इस पवित्र नदी में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति मिलती है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष आने वाले शिवरात्रि के त्योहार को भी यहां बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। हजारों की संख्या में आए तीर्थयात्री इस पर्व को भी पूरे उमंग और उत्साह के साथ मनाते हैं।
इस त्योहार में आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए राज्य सरकार कुछ विशेष प्रकार का प्रबंध करती है। यहां दर्शन करने आए तीर्थयात्रियों के रहने के लिए बहुत से होटल गेस्ट हाउस और धर्मशाला की सुविधा मुहैया कराई जाती है। यहां स्थित घाट बहुत ही साफ और सुंदर है। त्योहारों के समय यहां सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाते हैं।
कम्पनी बाग: अंग्रेजों द्वारा शहर के बीचोँ बीच बसाया गया यह एक अनोखा बाग हैं। शायद हा किसी शहर के बीचों बीच इतना बड़ा पार्क मिले। इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता हैं कि इस बाग के अन्दर एक स्टेडियम, एक म्यूजियम, एक पुस्तकालय, तीन नसरियाँ, एक विश्वविघालय और प्रयाग संगीत समिति भी स्थित हैं
विक्टोरिया मेमोरियल: कम्पनी बाग के बीचो बीच सफेद संगमरमर का बना एक स्मारक हैं। इस मेमोरियल के आस पास के नितान्त सुन्दर पार्क है जो सदैव हरी घास से ढका रहता है।
मिन्टो पार्क, इलाहाबाद: सफेद पत्थर के इस मैमोरियल पार्क में सरस्वती घाट के निकट सबसे ऊंचे शिखर पर चार सिंहों के निशान हैं।
नेहरु पार्क: यह एक आधुनिक पार्क हैं। यह पार्क मैक्फरसन झील के आस पास के स्थान का सौँदर्यीकरण करके बनाया गया हैं। यहाँ पर बोँटिक करने की सुविधा हैं।
भारद्वाज पार्क: यह पार्क भी एक भ्रमण करने योग्य स्थान हैं। इसे बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया हैं।
हाथी पार्क: चन्द्रशेखर पार्क के पास स्थित हैं। इसमे पत्थर का एक बड़ा हाथी बच्चोँ के मुख्य आकर्षण का केन्द्र हैं। यह स्थान बच्चोँ के घुमने के लिये हैं।
पीडी टण्डन पार्क: सिविल लाइंस इलाके में एक तिकोने आकार का पार्क। इसके एक कोने पर हनुमान मंदिर चौक है।
खुसरो बाग: प्रयागराज शहर के पश्चिम छोर प्रयागराज जंक्शन रेलवे स्टेशन के पास स्थित खुसरो बाग मुगलकालीन इतिहास की एक अमिट धरोहर हैं। यह १७ बीधे के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ हैं। यह चारोँ मोटे मोटे दिवारो से घीरा हैं। इसके चारोँ ओर एक एक दरवाजे हैं। जहागीर ने इसे अपना आरामगाह बनाया था। जहागीर के पुत्र खुसरो के नाम पर ही इसका नाम खुसरो बाग पडा। इस बाग में तीन मकबरे हैं। पहला मकबरा शहजादा खुसरो का हैं। इसका मकबरा खुसरो की राजपूत माक शाँह बेगम के लिये बनाया गया था। खुसरो बाग के अन्दर जाने का मुख्य द्रार अति विशाल हैं। इसमें अनेकोँ घोडोँ की नाली लागी हुयी हैं। ऐसी मान्यता हैं कि अपने मालिक की और अपने मालिक कि जान बचायी थी तभी से लोग बाग के अन्दर बने मकबरे में मन्नत मानते हैं। और कार्य के पूरा होने पर इसी दरवाजे में धोडे के नाल लगवा देते हैं। खुसरो बाग में अमरुद के कई बगीचे हैं। यहाँ के अमरुदोँ को विदेश में निर्यात किया जाता हैं। साथ ही वर्तमान में यहाँ पौधशाला हैं। जिससें हजारोँ पौधोँ की बिक्री की जाती हैं।
प्रयागराज प्राचीन काल से ही शैक्षणिक नगर के रूप में प्रसिद्ध है। प्रयागराज केवल गंगा और यमुना जैसी दो पवित्र नदियों का ही संगम नही, अपितु आध्यात्म के साथ शिक्षा का भी संगम है, जैहा भारत के सभी राज्यो से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जँहा से अनेकानेक विद्वान ने शिक्षा ग्रहण कर देश व समाज के अनेक भागो में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूर्व का आक्सफोर्ड ("आक्सफोर्ड ऑफ थे ईस्ट") भी कहा जाता है। प्रयागराज में कई विश्वविद्यालय, शिक्षा परिषद, इंजीनियरी महाविद्यालय, मेडिकल कालेज तथा मुक्त विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे है।
प्रयागराज में स्थापित विश्वविद्यालय के नाम निम्नलिखित हैं-
उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय
इलाहाबाद एग्रीकल्चर संस्थान (मानित विश्वविद्यालय)-(आई-दू)
नेहरू ग्राम भारती विश्वविद्यालय, जमुनीपुर कोटवा।
इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय, सिविल लाइंस, प्रयागराज
यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज
प्रयागराज में स्थापित इंजीनिरिंग कालेज के नाम निम्नलिखित है-
मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान प्रयागराज (म्न्नीत)
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फारमेशन टेक्नालाजी, इलाहाबाद (ईत-आ)
हरीशचंद्र अनुसंधान संस्थान (हरी)
बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी (बित-मेसरा)-(विस्तार पटल)
उपर्यक्त के अतिरिक्त अन्य इंजीनिरिंग कालेज
प्रयागराज में शीशा और तार कारखाने काफी हैं। यहां के मुख्य औद्योगिक क्षेत्र हैं नैनी और फूलपुर, जहां कई सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों की इकाइयां, कार्यालय और निर्माणियां स्थापित हैं। इनमें अरेवा टी एण्ड डी इण्डिया (बहुराष्ट्रीय अरेवा समूह का एक प्रभाग), भारत पंप्स एण्ड कंप्रेसर्स लि. यानी बीपीसीएल) जिसे जल्दी ही मिनिरत्न घोषित किया जाने वाला है, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज (आई.टी.आई), रिलायंस इंडस्ट्रीज़-इलाहाबाद निर्माण प्रखंड, हिन्दुस्तान केबल्स, त्रिवेणी स्ट्रक्चरल्स लि. (टी.एस.एल. भारत यंत्र निगम की एक गौण इकाई), शीशा कारखाना, इत्यादि। बैद्यनाथ की नैनी में एक निर्माणी स्थापित है, जिनमें कई कुटीर उद्योग जैसे रसायन, पॉलीयेस्टर, ऊनी वस्त्र, नल, पाईप्स, टॉर्च, कागज, घी, माचिस, साबुन, चीनी, साइकिल एवं पर्फ़्यूम आदि निर्माण होते हैं। इंडीयन फार्मर्स फर्टिलाइजर्स को-ऑपरेटिव इफको फूलपुर क्षेत्र में स्थापित है। यहाम इफको की दो इकाइयां हैं, जिनमें विश्व का सबसे बड़ा नैफ्था आधारित खाद निर्माण परिसर स्थापित है। प्रयागराज में पॉल्ट्री और कांच उद्योग भी बढ़ता हुआ है। राहत इंडस्ट्रीज़ का नूरानी तेल, काफी अच्छा और पुराना दर्दनिवारक तैल है, जिसकी निर्माणी नैनी में स्थापित है। तीन विद्युत परियोजनाएं मेजा, बारा और करछना तहसीलों में जेपी समूह एवं नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन द्वारा तैयार की जा रही हैं।
प्रयागराज का भारतीय जिम्नास्टिक्स में प्रमुख स्थान है। यहां की टीम सार्क और एशियाई देशों में अग्रणी रही है। झालवा में खेलगांव पब्लिक स्कूल जिम्नास्टिक्स का प्रशिक्षण उपलब्ध कराता है। यहां के जिम्नास्ट्स को ३३वें ट्यूलिट पीटर स्मारक कप-२००७, हंगरी में २ स्वर्ण पदक मिले हैं। हॉकी के प्रसिद्ध खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद का जन्म भी प्रयागराज में ही २९ अगस्त १९०६ को हुआ था। उन्होंने तीन लगातार ऑलंपिक खेलों में एम्स्टर्डैम (१९२८), लॉस एंजिलिस (१९३२) और बर्लिन (१९३६) में तीन स्वर्ण पदक प्राप्त किये थे। मोहम्मद कैफ, भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी यहीं के हैं। अभिन्न श्याम गुप्ता भी एक उभरते हुए बैडमिंटन खिलाड़ी हैं, जिन्होंने २००२ में राष्ट्रीय पदक प्राप्त किया था।
प्रयागराज में वायु सेवा का विकास प्रगतिशील हैं। अभी इलाहाबाद विमानक्षेत्र से दिल्ली, कोलकाता, जयपुर, अहमदाबाद, चेन्नई, बैंगलुरू, हैदराबाद के लिए सीधी या वाया उडानें हैं। अभी यहां का हवाई अड्डा एयरफोर्स स्टेशन बमरौली में ही है। उड़ान योजना के तहत लखनऊ और पटना भी इलाहाबाद से जुड़ गए हैं। जनवरी २०१९ में होने वाले कुम्भ से पहले एक नया टर्मिनल बनाने की सरकार की योजना है। निकटवर्ती बड़े विमानक्षेत्रों में वाराणसी विमानक्षेत्र ) एवं लखनऊ (अमौसी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र हैं।
प्रयागराज में जलमार्ग का विकास अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में हैं २२ अक्टूबर १९८६ ई, राष्ट्रिय जलमार्ग एक, जो कि इलाहाबाद से हल्दिया (पं बंगाल) १६२० क्म तक हैं।
प्रयागराज दिल्ली-कोलकाता मार्ग के बीच स्थित है। स्वर्ण चतुर्भुज के मार्गों में से एक, राष्ट्रीय राजमार्ग २ दिल्ली और कोलकाता के लिये उपयुक्त है।
राष्ट्रीय राजमार्ग ९६ राष्ट्रीय राजमार्ग २८ से फैजाबाद से जोड़ता है।
राष्ट्रीय राजमार्ग २४ब लखनऊ से जोडता हैं
राष्ट्रीय राजमार्ग ७६ झाँसी,बांदा, से जोडता हैं।
राष्ट्रीय राजमार्ग ७६ए यह मार्ग मिर्जापुर जिला से जोडता हैं।
राष्ट्रीय राजमार्ग २७ लंबा है और इसे मध्य प्रदेश में मंगवान में राष्ट्रीय राजमार्ग ७ से जोड़ता है।
विश्व बैंक द्वारा वित्त-पोषित ८४.७ कि॰मी॰ लंबा बायपास मार्ग प्रयागराज एक्सप्रेसवे हाइवे है।
इसके द्वारा न केवल राजमार्गों का यातायात ही सुलभ होगा, बल्कि शहर के हृदय से गुजरने वाला यातायात भी हल्का होगा। अन्य कई राज्य-राजमार्ग शहर को देश के अन्य भागों से जोड़ते हैं।
प्रयागराज से कुछ महत्वपूर्ण स्थलो की दूरी इस प्रकार हैं -
प्रयागराज में राज्य परिवन निगम के तीन डिपो (बस-अड्डे) हैं:
लीडर रोड (बस अड्डा): यहाँ से कानपुर, आगरा व दिल्ली हेतु बसे उपलब्ध हैं।
सिविल लाईन्स (बस अड्डा): यहाँ से लखनऊ फैजाबाद ,जौनपुर,गोरखपुर आदि के लिये बसे उपलब्ध हैं।
जीरो रोड (बस अड्डा): यहाँ से रीवा सतना खजुराहो आदि के लिये बसे उपलब्ध हैं।
और झूँसी डिपो, नैनी डिपो फाफामऊ डिपो बस स्टैंड सिविल लाइंस और जीरो रोड पर जो विभिन्न मार्गों पर बस-सेवा सुलभ कराते हैं। दोनों नदियों पर बड़ी संख्या में बने सेतु शहर को अपने उपनगरों जैसे नैनी, झूँसी फाफामऊ आदि से जोड़ते हैं। नया आठ-लेन नियंत्रित एक्स्प्रेसवे- गंगा एक्स्प्रेसवे इलाहाबाद से गुजरना प्रस्तावित है। इलाहाबाद जिले में एक नयी ८-लेन मुद्रिका मार्ग सड़क भी प्रतावित है। स्थानीय यातायात हेतु नगर बस सेवा, ऑटोरिक्शा, रिक्शा एवं टेम्पो उपलब्ध हैं। इनमें से सबसे सुविधाजनक साधन साइकिल रिक्शा है।
भारतीय रेल द्वारा जुड़ा हुआ, प्रयागराज जंक्शन उत्तर मध्य रेलवे का मुख्यालय है। ये अन्य प्रधान शहरों जैसे कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, इंदौर, लखनऊ, छपरा, पटना, भोपाल, ग्वालियर,जौनपुर, जबलपुर, बंगलुरु जयपुर एवं कानपुर से भली भांति जुड़ा हुआ है। कुछ अन्य शहरों जैसे बांदा,फतेहपुर आदि से जुड़ा हुआ है। शहर में ११ रेलवे-स्टेशन हैं:
प्रयागराज जंक्शन रेलवे स्टेशन
प्रयागराज रामबाग रेलवे स्टेशन
प्रयागराज संगम रेलवे स्टेशन
प्रयाग रेलवे स्टेशन
नैनी जंक्शन रेलवे स्टेशन
प्रयागराज छिवकी रेलवे स्टेशन
दारागंज रेलवे स्टेशन
सूबेदारगंज रेलवे स्टेशन
बमरौली रेलवे स्टेशन
फाफामऊ जंक्शन रेलवे स्टेशन
झूसी रेलवे स्टेशन
अटरामपुर रेलवे स्टेशन
लालगोपालगंज रेलवे स्टेशन
प्रयागराज के उल्लेखनीय व्यक्ति
भारत के १४ प्रधानमंत्रियों में से ७ का इलाहाबाद से घनिष्ट संबंध रहा है:
जवाहर लाल नेहरु,
गुलजारी लाल नंदा,
विश्वनाथ प्रताप सिंह एवं
यह या तो यहां जन्में हैं, या इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े हैं या इलाहाबाद निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए हैं।
इन्हें भी देखें
इलाहाबाद उच्च न्यायालय
प्रयागराज विकास प्राधिकरण
इलाहाबाद उच्च न्यायालय
इलाहाबाद शिक्षा बोर्ड
उत्तर प्रदेश के नगर
प्रयागराज ज़िले के नगर
हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
प्राचीन भारत के नगर |
आगरा भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के आगरा ज़िले में यमुना नदी के तट पर स्थित एक नगर है। यह राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के २०६ किलोमीटर (१२८ मील) दक्षिण में स्थित है। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार १५,८५,७०४ की जनसंख्या के साथ आगरा उत्तर प्रदेश का चौथा और भारत का २३वां सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर है।
दिल्ली सल्तनत के उदय से पहले आगरा का इतिहास स्पष्ट नहीं है। १७ वीं शताब्दी के एक वृत्तांत में सिकंदर लोदी (१४८८-१५१७) के समय से पहले आगरा को एक पुरानी बस्ती के रूप में बुलाया था, जो महमूद गजनवी द्वारा इसके विनाश के कारण महज एक गाँव था। ११ वीं सदी के फ़ारसी कवि मासूद सलमान ने आगरा के किले पर गजनवी के आक्रमण का उल्लेख किया है, जो तब राजा जयपाल के शासनाधीन था। जयपाल के आत्मसमर्पण के बावजूद, महमूद ने किले को लूट लिया था। १५०४ में सिकंदर लोदी ने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थानांतरित किया था। उनके काल में किले में कई महल, कुएँ और एक मस्जिद का निर्माण किया गया। १५२६ में पानीपत के प्रथम युद्ध में हार के बाद यह मुगल शासन के अंतर्गत आया। १५४० और १५५६ के बीच, शेरशाह सूरी ने इस क्षेत्र पर शासन किया। यह १५५६ से १६४८ तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रहा। आगरा पर बाद में मराठों का अधिपत्य रहा, जिनके बाद यह ब्रिटिश राज के अंतर्गत आ गया।
आगरा अपनी कई मुगलकालीन इमारतों के कारण एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, विशेषकर ताजमहल, आगरा किला और फतेहपुर सीकरी के लिये, जो सभी यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं। दिल्ली और जयपुर के साथ आगरा गोल्डन ट्राइंगल टूरिस्ट सर्किट में शामिल है; और लखनऊ और वाराणसी के साथ यह उत्तर प्रदेश राज्य के एक पर्यटक सर्किट, उत्तर प्रदेश हेरिटेज आर्क का हिस्सा है। सांस्कृतिक रूप से आगरा ब्रज क्षेत्र में स्थित है। आगरा २७.१८ उत्तर ७८.०२ पूर्व में यमुना नदी के तट पर स्थित है। समुद्र-तल से इसकी औसत ऊँचाई क़रीब १७१ मीटर (५६१ फ़ीट) है। यह यमुना एक्सप्रेसवे के माध्यम से दिल्ली से और आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे के माध्यम से लखनऊ से जुड़ा हुआ है।
मुगल काल से पूर्व
आगरा के दो इतिहास हैं: पहला यमुना नदी के बाएं तट पर पूर्वी दिशा की ओर स्थित कृष्ण और महाभारत की किंवदंतियों में वर्णित प्राचीन नगर का, जिसे सिकंदर लोदी द्वारा १५०४-१५०५ में पुनः स्थापित किया गया था; और दूसरा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित आधुनिक नगर का, जो १५५८ में अकबर द्वारा स्थापित किया गया था, और आज विश्व भर में ताज-नगरी के रूप में जाना जाता है। प्राचीन आगरा की नींव के कुछ निशानों को छोड़कर अब कुछ नहीं बचा है। यह भारत में हुए मुस्लिम आक्रमणों से पहले विभिन्न हिंदू राजवंशों के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण स्थान था, लेकिन इसका इतिहास अस्पष्ट है। १७ वीं शताब्दी के इतिहासकार अब्दुलल्लाह ने लिखा है कि सिकंदर लोदी के शासनकाल से पहले यह एक गांव था और यहाँ के पुराने किले का प्रयोग मथुरा के राजा द्वारा जेल के रूप में किया जाता था। नगर का विनाश १०१७ में महमूद गजनवी द्वारा किए गए विध्वंस के परिणामस्वरूप हुआ। मसूद साद सलमान ने दावा किया है कि वह वहीं था, जब महमूद ने आगरा पर आक्रमण किया; राजा जयपाल ने स्थिति की भयावहता को देखकर आत्मसमर्पण कर दिया था परन्तु फिर भी महमूद नगर को लूटने के लिए आगे बढ़ गया।
आगरा का ऐतिहासिक महत्त्व दिल्ली सल्तनत के अफगान शासक सुल्तान सिकंदर लोधी के शासनकाल (१४८९-१५१७) के समय शुरू हुआ। सिकंदर लोधी ने एक नवीन नगर की स्थापना के लिए एक आयोग नियुक्त किया, जिसने दिल्ली से इटावा तक यमुना के दोनों किनारों का निरीक्षण और सर्वेक्षण किया, और अंत में नगर की स्थापना के लिए यमुना के पूर्व दिशा की ओर एक स्थान चुना। १५०४-१५०५ में, सिकंदर लोदी ने आगरा का पुनर्निर्माण किया और इसे सल्तनत की राजधानी बना दिया। यमुना के बाएं किनारे पर स्थित आगरा लोधी शासनकाल में शाही अधिकारियों, व्यापारियों, विद्वानों, धर्मशास्त्रियों और कलाकारों की उपस्थिति के साथ एक बड़े एवं समृद्ध नगर के रूप में विकसित हुआ। यह भारत में इस्लामी शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक बन गया। सुल्तान ने नगर के उत्तर में सिकंदरा ग्राम की भी स्थापना की और वहां १४९५ में लाल बलुआ पत्थर की एक बारादरी बनाई, जिसे जहांगीर ने एक मकबरे में बदल दिया था, और अब अकबर की महारानी मरियम-उज़-ज़मानी के मकबरे के रूप में जाना जाता है।
१५१७ में सुल्तान की मृत्यु के बाद आगरा उसके पुत्र इब्राहिम लोदी (शासनकाल १५१७-२६) के पास चला गया, जिसने १५२६ में पानीपत के प्रथम युद्ध में मुगल सम्राट बाबर के हाथों अपनी मृत्यु तक आगरा से ही दिल्ली सल्तनत पर शासन किया।
आगरा का स्वर्ण युग मुगलों के साथ शुरू हुआ। १६५८ तक आगरा मुगल साम्राज्य की राजधानी होने के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे प्रमुख शहर था, जिसके बाद औरंगज़ेब ने राजधानी और पूरे दरबार को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया।
मुगल वंश के संस्थापक बाबर (शासनकाल १५२६-३०) ने १५२६ में पानीपत के प्रथम युद्ध में लोधी और ग्वालियर के तोमरों को हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया। पानीपत के युद्ध के तुरंत बाद आगरा के साथ बाबर का संबंध शुरू हुआ। उसने अपने बेटे हुमायूँ को आगे भेजा, जिसने निर्विरोध नगर पर अधिकार कर लिया। पानीपत में मारे गए ग्वालियर के राजा ने अपने परिवार और अपने कबीले के मुखियाओं को आगरा में छोड़ दिया था। हुमायूँ ने उनके साथ उदारता से व्यवहार किया और उन्हें लूट से बचाया, जिस कारण उन्होंने श्रद्धांजलि के रूप में मुगलों को बहुत सारे गहने और कीमती रत्न भेंट किए, जिनमें प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी था। बाबर ने यमुना नदी के तट पर भारत के पहले औपचारिक मुगल उद्यान, आराम बाग की स्थापना की। बाबर आगरा में अपनी राजधानी स्थापित करने के लिए दृढ़ था, लेकिन इस क्षेत्र की उजाड़ स्थिति से लगभग निराश था, जैसा कि उसके संस्मरण, बाबरनामा के इस उद्धरण से स्पष्ट है:
बाबर के नगर, उसके फलों और फूलों के बगीचों, महलों, स्नानागारों, तालाबों, कुओं और जलकुंडों के बहुत कम अवशेष बचे हैं। बाबर के चारबाग के अवशेष आज यमुना के पूर्व की ओर आराम बाग में देखे जा सकते हैं। बाबर के बाद उसका पुत्र हुमायूँ (शासनकाल १५३०-४० और १५५५-५६) आया, लेकिन ताजपोशी के ठीक नौ साल बाद १५३९ में शेर शाह सूरी ने उसे कन्नौज के युद्ध में पराजित कर दिया। सूरी एक अफगान रईस था, जो बाबर के शासनकाल में बिहार का राज्यपाल था। १५४० और १५५६ के बीच सूरी ने अल्पकालिक सूरी साम्राज्य की स्थापना की। हालाँकि, इस क्षेत्र को अंततः १५५६ में पानीपत के द्वितीय युद्ध में हुमायूँ के पुत्र अकबर द्वारा फिर से जीत लिया गया।
अकबर (शासनकाल १५५६-१६०५) और उसके बाद उनके पोते शाहजहाँ के शासन काल में आगरा विश्व इतिहास में अमर हो गया था। अकबर ने यमुना के दाहिने किनारे पर आगरा के आधुनिक शहर का निर्माण किया, जहां इसका अधिकांश हिस्सा अभी भी निहित है। उसने नगर को राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक महत्त्व के एक महान केंद्र के रूप में बदल दिया, और इसे अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों से जोड़ा। अकबर ने आगरा को शिक्षा, कला, वाणिज्य और धर्म का केंद्र बनाने के अलावा, आगरा के किले की विशाल प्राचीरों का भी निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त उसने आगरा से लगभग ३५ किमी दूर, फतेहपुर सीकरी में एक नई राजधानी भी बसाई, जिसे, हालाँकि, अंततः छोड़ दिया गया। अकबर की मृत्यु से पहले, आगरा पूर्वी विश्व के सबसे बड़े नगरों में से एक बन गया था, जिसके बाज़ारों में बड़ी मात्रा में व्यापार और वाणिज्य होता था। अकबर के जीवन काल में सितंबर १५८५ में आगरा का दौरा करने वाले अंग्रेज यात्री राल्फ फिच ने नगर के बारे में लिखा है:
फिच की इन धारणाओं की पुष्टि एक अन्य यूरोपीय यात्री विलियम फिंच ने की, जिसने आगरा के बारे में टिप्पणी की:
अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर के शासनकाल के दौरान भी आगरा विस्तृत होता और फलता-फूलता रहा, जैसा कि उसने अपनी आत्मकथा तुजक-ए-जहाँगीरी में लिखा है:
अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर (शासनकाल १६०५-२७) को वनस्पतियों और जीवों से प्यार था और उसने लाल किले के अंदर कई उद्यान बनाए। सिकंदरा में अकबर का मकबरा जहाँगीर के शासनकाल में बनकर तैयार हुआ था। आगरा के किले में जहाँगीरी महल और एतमादुद्दौला का मकबरा भी जहाँगीर के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। जहांगीर आगरा से अधिक लाहौर और कश्मीर से प्रेम करता था, लेकिन आगरा फिर भी उसके शासनकाल में साम्राज्य का सबसे प्रमुख नगर बना रहा। हालाँकि, वह शाहजहाँ (शासनकाल १६२८-५८) था, जिसकी निर्माण गतिविधि ने आगरा को उसकी महिमा के शिखर तक पहुँचाया। शाहजहाँ, जो वास्तुकला में गहरी रुचि के लिए जाना जाता है, ने आगरा को अपना सबसे बेशकीमती स्मारक, ताजमहल दिया। उसकी पत्नी मुमताज महल की प्रेमपूर्ण स्मृति में निर्मित यह मकबरा १६५३ में बनकर तैयार हुआ था। जामा मस्जिद और किले के अंदर दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, मोती मस्जिद समेत कई अन्य उल्लेखनीय इमारतें भी शाहजहां के आदेश पर ही योजनाबद्ध एवं निष्पादित की गई।
शाहजहाँ ने बाद में वर्ष १६४८ में राजधानी को शाहजहानाबाद (अब दिल्ली) में स्थानांतरित कर दिया, और उसके बाद उसके बेटे औरंगजेब (शासनकाल १६५८-१७०७) ने १६५८ में पूरे दरबार को दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया। इसके साथ ही आगरा का पतन तेजी से शुरू हुआ। फिर भी, आगरा का सांस्कृतिक और सामरिक महत्त्व अप्रभावित रहा और आधिकारिक पत्राचार में इसे साम्राज्य की दूसरी राजधानी के रूप में जाना जाता रहा।
मुगल साम्राज्य के पतन के उपरान्त कई क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ, और १८वीं शताब्दी के अंत तक आगरा का नियंत्रण जाटों, मराठों और ग्वालियर के शासकों के हाथों होता हुआ अंत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास चला गया। भरतपुर के जाटों ने मुगल दिल्ली के विरुद्ध कई युद्ध किए और १७वीं और १८वीं शताब्दी में आगरा सहित समीपवर्ती मुगल क्षेत्रों में कई अभियान चलाए। इसके बाद आगरा मराठों के भी अधीन रहा, हालाँकि द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की पराजय के पश्चात १८०३ की सुर्जी-अर्जुनगाँव की सन्धि के अंतर्गत सम्पूर्ण आगरा परिक्षेत्र पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अधिकार कर लिया। १८३४-१८३६ में आगरा एक गवर्नर द्वारा प्रशासित अल्पकालिक आगरा प्रेसीडेंसी की राजधानी बना। इसके बाद १८३६ से १८६८ तक यह एक लेफ्टिनेंट-गवर्नर द्वारा शासित उत्तर-पश्चिमी प्रान्त की भी राजधानी रहा। आगरा १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के केंद्रों में से एक था।
१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मेरठ में हुए विद्रोह की खबर १४ मई को आगरा पहुंची। ३० मई को ब्रिटिश सरकार द्वारा ४४वीं और ६७वीं नेटिव इन्फैंट्री की कुछ कंपनियों को राजकोष लाने के लिए मथुरा भेजा गया था, परन्तु उन्होंने विद्रोह कर दिया और राजकोष को दिल्ली में विद्रोहियों के पास ले गए। आगरा में भी विद्रोह के फैलने की आशंका के कारण आगरा छावनी में जितनी भी देशी पैदल सेना बटालियनें थी, सभी को ३१ मई को अंग्रेजों द्वारा निरस्त्र कर दिया गया। हालाँकि, जब ग्वालियर की टुकड़ी ने १५ जून को विद्रोह किया, तो अन्य सभी देशी इकाइयों ने भी इसका अनुसरण किया। २ जुलाई को विद्रोही सेना की नीमच और नसीराबाद टुकड़ियाँ फतेहपुर सीकरी पहुँची। विद्रोहियों के आगरा में आगे बढ़ने के डर से, ३ जुलाई को लगभग ६००० यूरोपीय और संबंधित लोग सुरक्षा के लिए आगरा किले में चले गए। ५ जुलाई को वहां तैनात ब्रिटिश सेना ने विद्रोहियों की एक निकट आ रही सेना पर हमला करने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें विद्रोहियों के हाथों पराजय प्राप्त हुई, और अंग्रेज वापस किले में लौट आए। लेफ्टिनेंट-गवर्नर, जे.आर. कॉल्विन, की वहीं मृत्यु हो गई, और बाद में उन्हें दीवान-ए-आम के सामने दफना दिया गया। हालाँकि, विद्रोही दिल्ली चले गए, क्योंकि वह विद्रोहियों के लिए एक अधिक महत्वपूर्ण जगह थी।
विद्रोह के कारण नगर में अव्यवस्था चरम पर थी, लेकिन फिर भी अंग्रेज ८ जुलाई तक आंशिक व्यवस्था बहाल करने में सफल रहे। दिल्ली सितंबर में अंग्रेजों के अधीन हो गई, जिसके बाद ब्रिगेडियर एडवर्ड ग्रेटेड के नेतृत्व में एक पैदल सेना ब्रिगेड विद्रोहियों के विरोध के बिना ११ अक्टूबर को आगरा पहुंची। उनके आगरा आने के कुछ ही समय बाद विद्रोहियों की एक और सेना ने अचानक ब्रिगेड पर हमला कर दिया, जिसमें विद्रोहियों की हार हुई। अंग्रेजों की इस छोटी सी जीत को आगरा की लड़ाई का नाम दिया गया। हालाँकि, दिल्ली, झांसी, मेरठ और अन्य प्रमुख विद्रोही शहरों और क्षेत्रों की तुलना में आगरा में विद्रोह अपेक्षाकृत मामूली था। इसके बाद ब्रिटिश शासन फिर से सुरक्षित हो गया, और ब्रिटिश राज ने १९४७ में भारत की स्वतंत्रता तक नगर पर शासन किया। उत्तर पश्चिमी प्रांत की राजधानी को १८६८ में आगरा से इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया। परिमाणस्वरूप, आगरा मात्र एक प्रांतीय शहर ही रह गया, और धीरे-धीरे इसकी समृद्धि में निरंतर गिरावट आने लगी:
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में आगरा की भूमिका को अच्छी तरह से प्रलेखित नहीं किया गया है। हालाँकि, १८५७ के विद्रोह और स्वतंत्रता के बीच के वर्षों में यह नगर हिंदी और उर्दू पत्रकारिता का एक प्रमुख केंद्र था। आगरा में स्थित पालीवाल पार्क (पहले हेविट पार्क) का नाम एसकेडी पालीवाल के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने नगर से हिंदी दैनिक सैनिक का प्रकाशन किया था।
स्वतंत्र भारत में
भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही आगरा उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहा है और धीरे-धीरे एक औद्योगिक नगरी के रूप में विकसित हुआ है, जिसने उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह नगर अब एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और दुनिया भर से पर्यटकों की मेजबानी करता है। ताजमहल और आगरा के किले को १९८३ में, और फतेहपुर सीकरी को १९८६ में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्राप्त हुआ। ताजमहल में साल भर बड़ी संख्या में पर्यटकों, छायाचित्रकारों, इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का आगमन लगा ही रहता है। ताजमहल भारत और उसकी मृदु शक्ति का प्रतीक बन गया है। स्वतंत्रता के बाद से अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट डेविड आइज़नहावर (१९५९), बिल क्लिंटन (२०००) और डॉनल्ड ट्रम्प (२०२०) जैसे विश्व नेताओं ने ताजमहल का दौरा किया है। यूनाइटेड किंगडम की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने १९६१ में अपनी भारत यात्रा पर ताजमहल का दौरा किया था। इनके अतिरिक्त रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (१९९९), चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ (२००६), इजरायल के प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू (२०१८) और कनाडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो (२०१८) ने भी ताजमहल का दौरा किया है।
आगरा अकबर द्वारा स्थापित (अब विलुप्त) दीन-ए-इलाही नामक धर्म का जन्मस्थान है। यह राधास्वामी पंथ की भी जन्मस्थली है, जिसके दुनिया भर में लगभग बीस करोड़ अनुयायी हैं। आगरा दिल्ली और जयपुर के साथ स्वर्ण त्रिभुज पर्यटन सर्किट में शामिल है, और उत्तर प्रदेश के लखनऊ और वाराणसी के साथ 'उत्तर प्रदेश हेरिटेज आर्क' नामक पर्यटक सर्किट का हिस्सा भी है।
भूगोल तथा जलवायु
आगरा उत्तर भारत के गांगेय मैदानों में यमुना नदी के तट पर बसा हुआ है। यह उत्तर प्रदेश राज्य के दक्षिण पश्चिमी हिस्से में राजस्थान एवं मध्य प्रदेश की अंतर्राज्यीय सीमा के निकट स्थित है। नगर यमुना नदी के दोनों ओर फैला हुआ है। समुद्र तल से आगरा की औसत ऊंचाई १६८ मीटर (५५१ फीट) है। आगरा के आसपास का पूरा क्षेत्र समतल मैदान है, हालाँकि दक्षिण-पश्चिम में कुछ पहाड़ियाँ भी हैं। फतेहपुर सीकरी के आस-पास और आगरा जिले की दक्षिण-पूर्वी सीमाओं पर स्थित बलुआ पत्थर की पहाड़ियाँ मध्य भारत की विंध्य पर्वतमाला की शाखाएँ हैं। आसपास के ग्रामीण इलाकों में रबी और खरीफ दोनों प्रकार की फसलों की खेती की जाती है। बाजरा, जौ, गेहूं और कपास उगाई जाने वाली फसलों में से मुख्य हैं।
आगरा सड़क मार्ग से दिल्ली के २३० किलोमीटर (१४० मील) दक्षिण-पूर्व में, लखनऊ के ३३५ किलोमीटर (२०८ मील) पश्चिम में, वाराणसी के ६०० किलोमीटर (३७० मील) उत्तर-पश्चिम में, जयपुर के २३८ किलोमीटर (१४८ मील) पूर्व में और ग्वालियर के १२० किलोमीटर (७५ मील) उत्तर में स्थित है। फतेहपुर सीकरी का परित्यक्त नगर आगरा के ४० किलोमीटर (२५ मील) किमी दक्षिण पश्चिम में स्थित है।
आगरा की जलवायु अर्द्ध शुष्क है जो आर्द्र अर्ध-कटिबन्धीय जलवायु पर सीमा बनाती है। शहर में हल्की सर्दियाँ, गर्म और शुष्क गर्मी और मानसून का मौसम होता है। हालांकि आगरा में पर्याप्त मानसून रहता है, परन्तु यह भारत के अन्य हिस्सों जितना भारी नहीं होता है। जून से सितंबर के दौरान औसत मॉनसून वर्षा ६२८.६ मिलीमीटर है। आगरा भारत के सबसे गर्म और सबसे ठंडे शहरों में से एक है। ग्रीष्मकाल में शहर के तापमान में अचानक वृद्धि देखी जाती है और कई बार बहुत उच्च स्तर की आर्द्रता के साथ पारा ४६ डिग्री सेल्सियस के निशान को भी पार कर जाता है। गर्मियों के दौरान, दिन का तापमान ४०-४५ डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है। रातें अपेक्षाकृत ठंडी होती यहीं और तब तापमान ३० डिग्री सेल्सियस तक कम हो जाता है। सर्दियाँ थोड़ी सर्द होती हैं लेकिन यह आगरा में घूमने के लिए सबसे अच्छा समय है। न्यूनतम तापमान कभी-कभी -२ या -२.५ डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है, लेकिन आमतौर पर ६ से ८ डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।
आगरा जिले का ७% से भी कम भाग वनाच्छादित है। आगरा नगर के समीप स्थित एकमात्र प्रमुख वन्यजीव अभयारण्य कीठम झील है, जिसे सूर सरोवर पक्षी अभयारण्य भी कहा जाता है। झील में प्रवासी और निवासी पक्षियों की लगभग दो दर्जन किस्में हैं। सूर सरोवर पक्षी अभयारण्य के भीतर आगरा भालू संरक्षण केन्द्र है, जो 'नाचने वाले' भालूओं के लिए बना भारत का पहला अभयारण्य है। वाइल्डलाइफ एसओएस, फ्री द बियर्स फंड और अन्य द्वारा संचालित इस संरक्षण केन्द्र में ६२० से अधिक ऐसे स्लोथ रीछों का पुनर्वास किया गया है, जिनका अवैध होने के बावजूद १९७२ से कलंदरों द्वारा 'नाचने वाले भालुओं' के रूप में शोषण किया जाता रहा था।
आगरा दिल्ली के बाद यमुना नदी के प्रदूषण में दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता है, जो कि दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। नदी में ९० नाले खुलते हैं। हालांकि नगर पालिका ने इनमें से ४० नालों को बंद करने का दावा किया है, लेकिन भैरों, मंटोला और बल्केश्वर जैसे बड़े नालों द्वारा नदी में बिना किसी जांच के बड़ी मात्रा में अनुपचारित अपशिष्ट जल का निर्वहन जारी है। एतमादुद्दौला और ताजमहल के बीच यमुना नदी का तल प्रदूषकों का डंपिंग ग्राउंड बन गया है, जहाँ पॉलिथीन, प्लास्टिक कचरा, जूता कारखानों से चमड़े की कटाई, निर्माण सामग्री, सभी को नदी में फेंक दिया जाता है। नदी के प्रदूषण ने ताजमहल के लिए भी कई समस्याएं पैदा की हैं जैसे 'कीड़े और उनके हरे कीचड़ के हमले', दुर्गंध, और ताजमहल की नींव का क्षरण। ताजमहल को वायु प्रदूषण और नदी में सीवेज के निर्वहन के कारण भी महत्वपूर्ण क्षति का सामना करना पड़ा है। दुनिया के आठवें सबसे प्रदूषित शहर में सफेद संगमरमर का ताजमहल गंदी हवा के कारण पीला और हरा हो रहा है, और अक्सर धूल और वाहनों से निकलने वाले धुएँ के कारण धुआँसे से ढका रहता है।
लगभग १६ करोड़ निवासियों के साथ, आगरा उत्तर प्रदेश का चौथा तथा भारत का २३वां सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर है। २०११ की भारतीय जनगणना के आंकड़ों के अनुसार आगरा नगर की जनसंख्या १५,८५,७०४ है, जबकि आगरा महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या १७,६०,२८५ है। नगर का लिंगानुपात ८७५ महिलाएं प्रति १००० पुरुष है; कुल जनसंख्या में से ८,४५,९०२ पुरुष और शेष ७,३९,८०२ महिलाएं हैं। नगर में साक्षर लोगों की संख्या १०,१४,८७२ है, और नगर की औसत साक्षरता दर ७३.११% है। ७७.८१% पुरुष और ६७.७४% महिलाऐं साक्षर हैं। नगर में ८७,१५१ झुग्गियाँ हैं जिनमें ५,३३,५५४ लोग निवास करते हैं, जो नगर की कुल जनसंख्या का लगभग ३३.६५% है।
हिंदू धर्म आगरा नगर में सर्वाधिक अनुयायियों द्वारा पालन किया जाने वाला धर्म है; जिसके अनुयायियों की संख्या नगर की कुल जनसंख्या का ८०.६८% है। १५.३७% अनुयायियों के साथ इस्लाम आगरा नगर में दूसरा सबसे अधिक पालन किया जाने वाला धर्म है। इसके बाद जैन धर्म, सिख धर्म, ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म हैं, जिनके अनुयायियों की संख्या क्रमशः १.०४%, ०.६२%, ०.४२% और ०.१९% है। लगभग १.६६% लोग 'कोई विशेष धर्म नहीं' मानते हैं।
नगर में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएँ हिन्दी तथा उर्दू हैं, जो कि उत्तर प्रदेश राज्य की आधिकारिक भाषाएँ भी हैं। शेष भारत की ही तरह यहाँ भी अंग्रेजी भाषा अच्छी तरह बोली-समझी जाती है। नगर क्षेत्र में मुख्यतः मानक हिन्दी का ही चलन है, हालाँकि आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रजभाषा बोलचाल की मुख्य बोली है। नगर में अन्य कम बोली जाने वाली भाषाओं में पंजाबी और बंगाली प्रमुख हैं, जो इन क्षेत्रों से आये अप्रवासी समुदायों द्वारा बोली जाती हैं।
आगरे का ताजमहल, शाहजहाँ की प्रिय बेगम मुमताज महल का मकबरा, विश्व की सबसे प्रसिद्ध इमारतों में से एक है। यह विश्व के नये ७ अजूबों में से एक है और आगरा की तीन विश्व सांस्कृतिक धरोहरों में से एक है। अन्य दो धरोहर आगरा किला और फतेहपुर सीकरी जय महाकल हैं।
१६५३ में इसका निर्माण पूरा हुआ था। यह मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में बनवाया था। पूरे श्वेत संगमरमर में तराशा हुआ, यह भारत की ही नहीं विश्व की भी अत्युत्तम कृति है। पूर्णतया सममितीय स्मारक के बनने में बाईस वर्ष लगे (१६३०-१६५२) व बीस हजार कारीगरों की अथक मेहनत भी। यह मुगल शैली के चार बाग के साथ स्थित है। फारसी वास्तुकार उस्ताद ईसा खां के दिशा निर्देश में इसे यमुना नदी के किनारे पर बनवाया गया। इसे मृगतृष्णा रूप में आगरा के किले से देखा जा सकता है, जहां से शाहजहाँ जीवन के अंतिम आठ वर्षों में, अपने पुत्र औरंगज़ेब द्वारा कैद किये जाने पर देखा करता था। यह सममिति का आदर्श नमूना है, जो कि कुछ दूरी से देखने पर हवा में तैरता हुआ प्रतीत होता है। इसके मुख्य द्वार पर कुरआन की आयतें खुदी हुई हैं। उसके ऊपर बाइस छोटे गुम्बद हैं, जो कि इसके निर्माण के वर्षों की संख्या बताते हैं। ताज को एक लालबलुआ पत्थर के चबूतरे पर बने श्वेत संगमर्मर के चबूतरे पर बनाया गया है। ताज की सर्वाधिक सुंदरता, इसके इमारत के बराबर ऊँचे महान गुम्बद में बसी है। यह ६० फीट व्यास का, ८० फीट ऊँचा है। इसके नीचे ही मुमताज की कब्र है। इसके बराबर ही में शाहजहाँ की भी कब्र है। अंदरूनी क्षेत्र में रत्नों व बहुमूल्य पत्थरों का कार्य है।
खुलने का समय : ६ प्रातः से ७:३० साँयः (शुक्रवार बन्द)
आगरा का किला
आगरा का एक अन्य विश्व धरोहर स्थल है आगरा का किला। यह आगरा का एक प्रधान निर्माण है, जो शहर के बीचों बीच है। इसे कभी कभार लाल किला भी कहा जाता है। यह अकबर द्वारा १५६५ में बनवाया गया था। बाद में शाहजहां द्वारा इस किले का पुनरोद्धार लाल बलुआ पत्थर से करवाया गया, व इसे किले से प्रासाद में बदला गया। यहां संगमरमर और पीट्रा ड्यूरा नक्काशी का क्महीन कार्य किया गया है। इस किले की मुख्य इमारतों में मोती मस्जिद, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, जहाँगीर महल, खास महल, शीश महल एवं मुसम्मन बुर्ज आते हैं।
मुगल सम्राट अकबर ने इसे १५६५ में बनवाया था, जिसमें उसके पौत्र शाहजहाँ के समय तक निर्माण कार्य बढ़ते रहे। इस किले के निषिद्ध क्षेत्रों में अंदरूनी छिपा हुआ स्वर्ग जैसा स्थान है। यह किला अर्ध-चंद्राकार है, जो पूर्व में कुछ चपटा है, पास की सीधी दीवार नदी की ओर वाली है। इसकी पूरी परिधि है २.४ किलो मीटर, जो दोहरे परकोटे वाली किलेनुमा चहारदीवारी से घिरी है। इस दीवार में छोटे अंतरालों पर बुर्जियां हैं, जिनपर रक्षा छतरियां बनीं हैं। इस दीवार की ओर एक ९ मीटर चौड़ी व १० मीटर गहरी खाई घेरे हुए है।
शिवाजी यहां १६६६ में पुरंदर संधि हेतु आये थे। उनकी याद में एक बड़ी मूर्ति यहां स्थापित है। यह किला मुगल स्थापत्य कला का एक जीवंत उदाहरण है। यहीं दिखता है, कैसे उत्तर भारतीय दुर्ग शैली दक्षिण से पृथक थी। दक्षिण भारत में अनेकों दुर्ग हैं, जिनमें से अधिकांश सागर तट पर हैं।
आगरा का किला देख
मुगल सम्राट अकबर ने फतेहपुर सीकरी बसाई, व अपनी राजधानी वहां स्थानांतरित की। यह आगरा से ३५ कि॰मी॰ दूर है। यहां अनेकों भव्य इमारतें बनवायीं। बाद में पानी की कमी के चलते, वापस आगरा लौटे। यहां भी बुलंद दरवाजा, एक विश्व धरोहर स्थल है।
बुलंद दरवाजा या 'उदात्त प्रवेश द्वार' मुगल सम्राट द्वारा बनाया गया था, बुलंद दरवाजा ५२ कदम से संपर्क किया है। बुलंद दरवाजा ५३.६३ मीटर ऊँचे और ३५ मीटर चौड़ा है। यह लाल और शौकीन बलुआ पत्थर से बना है, नक्काशी और काले और सफेद संगमरमर द्वारा सजाया। बुलंद दरवाजा के मध्य चेहरे पर एक शिलालेख अकबर धार्मिक समझ का दायरा दर्शाता है।
एतमादुद्दौला का मकबरा
सम्राज्ञी नूरजहां ने एतमादुद्दौला का मकबरा बनवाया था। यह उसके पिता घियास-उद-दीन बेग़, जो जहाँगीर के दरबार में मंत्री भी थे, की याद में बनवाया गया था। मुगल काल के अन्य मकबरों से अपेक्षाकृत छोटा होने से, इसे कई बार श्रंगारदान भी कहा जाता है। यहां के बाग, पीट्रा ड्यूरा पच्चीकारी, व कई घटक ताजमहल से मिलते हुए हैं।
जामा मस्जिद एक विशाल मस्जिद है, जो शाहजहाँ की पुत्री, शाहजा़दी जहाँआरा बेगम़ को समर्पित है। इसका निर्माण १६४८ में हुआ था और यह अपने मीनार रहित ढाँचे तथा विशेष प्रकार के गुम्बद के लिये जानी जाती है।
चीनी का रोजा
चीनी का रोजा शाहजहाँ के मंत्री, अल्लामा अफज़ल खान शकरउल्ला शिराज़, को समर्पित है और अपने पारसी शिल्पकारी वाले चमकीले नीले रंग के गुम्बद के लिये दर्शनीय है।
भारत का सबसे पुराना मुग़ल उद्यान, रामबाग, मुग़ल शासक बाबर ने सन् १५२८ में बनवाया था। यह उद्यान ताजम़हल से २.३४ किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में स्थित है।
स्वामीबाग समाधि हुजूर स्वामी महाराज (श्री शिव दयाल सिंह सेठ) का स्मारक/ समाधि है। यह नगर के बाहरी क्षेत्र में है, जिसे स्वामी बाग कहते हैं। वे राधास्वामी मत के संस्थापक थे। उनकी समाधि उनके अनुयाइयों के लिये पवित्र है। इसका निर्माण १९०८ में आरम्भ हुआ था और कहते हैं कि यह कभी समाप्त नहीं होगा। इसमें भी श्वेत संगमरमर का प्रयोग हुआ है। साथ ही नक्काशी व बेलबूटों के लिये रंगीन संगमरमर व कुछ अन्य रंगीन पत्थरों का प्रयोग किया गया है। यह नक्काशी व बेल बूटे एकदम जीवंत लगते हैं। यह भारत भर में कहीं नहीं दिखते हैं। पूर्ण होने पर इस समाधि पर एक नक्काशीकृत गुम्बद शिखर के साथ एक महाद्वार होगा। इसे कभी कभार दूसरा ताज भी कहा जाता है।
सिकंदरा (अकबर का मकबरा)
आगरा किला से मात्र १३ किलोमीटर की दूरी पर, सिकंदरा में महान मुगल सम्राट अकबर का मकबरा है। यह मकबरा उसके व्यक्तित्व की पूर्णता को दर्शाता है। सुंदर वृत्तखंड के आकार में, लाल बलुआ-पत्थर से निर्मित यह विशाल मकबरा हरे भरे उद्यान के बीच स्थित है। अकबर ने स्वयं ही अपने मकबरे की रूपरेखा तैयार करवाई थी और स्थान का चुनाव भी उसने स्वयं ही किया था। अपने जीवनकाल में ही अपने मकबरे का निर्माण करवाना एक तुर्की प्रथा थी, जिसका मुगल शासकों ने धर्म की तरह पालन किया। अकबर के पुत्र जहाँगीऱ ने इस मकबरे का निर्माण कार्य १६१३ में संपन्न कराया।
मरियम मकबरा, अकबर की राजपूत (आमेर के राजा भारमल की पुत्री हरखू बाई) बेग़म का मकबरा है, इस बेगम को अकबर ने मरियम मकानी अर्थात् संसार की माँ की उपाधि या उपनाम दिया था । यह मकबरा आगरा और सिकन्दरा के बीच में है।
मेहताब बाग, यमुना के ताजमहल से विपरीत दूसरे किनारे पर है।
पालीवाल पार्क (हीविट पार्क)
ताजमहल और अन्य ऐतिहासिक स्मारकों की उपस्थिति के कारण, आगरा में एक समृद्ध पर्यटन उद्योग है। इसके अतिरिक्त यहाँ पर्चिनकारी, संगमरमर की जड़ों और कालीन संबंधित उद्योग भी हैं।
आगरा वित्तीय पैठ सूचकांक, जो एटीएम और बैंक शाखाओं की उपस्थिति पर चीजों को मापता है, और खपत सूचकांक, जो क्षेत्र के नगरीकरण का संकेत देता है, दोनों में भारत में पांचवें स्थान पर है। भारत के शहर प्रतिस्पर्धात्मकता सूचकांक में, नगर २०१० में २६वें स्थान पर, २०११ में ३२वें स्थान पर, और २०१२ में ३७वें स्थान पर था।
आगरा की लगभग ४०% जनसंख्या काफी हद तक कृषि पर, चमड़े और जूते के व्यापार पर, और लोहे की ढलाई पर निर्भर करती है। वाराणसी के बाद २००७ में भारत में आगरा दूसरा सबसे अधिक स्वरोजगार वाला नगर था। राष्ट्रीय पतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के अनुसार नगर में १९९९-२००० में प्रत्येक १,००० नियोजित पुरुषों में से स्व-नियोजित पुरुषों की संख्या ४३१ थी, जो २००४०५ में बढ़कर ६०३ व्यक्ति प्रति १,००० तक हो गयी। आगरा की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का प्रमुख योगदान है। आईएचसीएल द्वारा निर्मित ताजव्यू होटल शहर में खुले पांच सितारा श्रेणी के होटलों में पहला था। एशिया का सबसे बड़ा स्पा काया कल्प - द रॉयल स्पा आगरा के मुगल होटल में है।
आगरा में कई उद्योग हैं। उत्तर प्रदेश की पहली प्लांट बायोटेक कंपनी हरिहर बायोटेक ताज के पास स्थित है। लगभग ७,००० लघु उद्योग इकाइयाँ हैं। आगरा शहर अपने चमड़े के सामानों के लिए भी जाना जाता है, सबसे पुराना और प्रसिद्ध चमड़ा फर्म ताज लेदर वर्ल्ड सदर बाजार में है। इसके अतिरिक्त यहाँ कालीन, हस्तशिल्प, जरी और जरदोजी (कढ़ाई का काम), संगमरमर और पत्थर की नक्काशी संबंधित उद्योग भी स्थित हैं। आगरा अपनी मिठाइयों (पेठा और गजक) और स्नैक्स (दालमोठ), कपड़ा निर्माताओं और निर्यातकों और ऑटोमोबाइल उद्योग के लिए जाना जाता है। मुगल सम्राट बाबर द्वारा नगर के कालीन उद्योग की नींव रखी गई थी और तब से यह कला फल-फूल रही है।
आगरा में सिटी सेंटर स्थान पर आभूषण और कपड़ों की दुकानें हैं। सिल्वर और गोल्ड ज्वैलरी हब चौबे जी का फाटक पर है। शाह मार्केट क्षेत्र एक इलेक्ट्रॉनिक्स बाजार है जबकि संजय प्लेस आगरा का व्यापारिक केंद्र है।
मुग़ल काल से ही आगरा इस्लाम की शिक्षा का एक केंद्र रहा है। ब्रिटिश शासन के समय अंग्रेज़ों ने यहाँ आगरा में पाश्चात्य शिक्षा को बढ़ावा दिया। वर्ष १८२३ में यहां भारत के प्राचीनतम महाविद्यालयों में प्रमुख आगरा कॉलेज आगरा की स्थापना हुई । अन्य प्रमुख महाविद्यालय हैं राजा बलबंत सिंह महाविद्यालय, जिसे क्षेत्रफल की दृष्टि से एशिया के सबसे बड़े महाविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है, सेंट जोन्स कॉलेज, बैकुंठी देवी कन्या महाविद्यालय, तथा बी डी जैन कन्या महाविद्यालय। यह सभी महाविद्यालय बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय ( पूर्व में आगरा विश्वविद्यालय)से सम्बद्ध हैं। आगरा स्थित एक अन्य प्रमुख विश्वविद्यालय है दयालबाग विश्व विद्यालय ।भारतीय लेखकों में प्रमुख बाबू गुलाबराय की जन्म और कर्म भूमि यही थी। वर्तमान में यहाँ माध्यमिक शिक्षा परिषद् (यू.पी. बोर्ड), इलाहाबाद; केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी.बी.एस.ई. बोर्ड), दिल्ली; और आई.सी.एस.ई. बोर्ड से सम्बद्ध हिन्दी व अंग्रेजी माध्यम के कई विद्यालय हैं:
आगरा पब्लिक स्कूल, विजय नगर कॉलोनी
एयर फ़ोर्स स्कूल
मुफ़ीद-ए-आम इण्टर कॉलेज, पण्डित मोती लाल नेहरू रोड
गायत्री पब्लिक स्कूल, वजीरपुरा सड़क
महावीर दिगम्बर जैन इण्टर कॉलेज, अहिंसा चौक, हरीपर्वत
चौधरी सीएम पब्लिक स्कूल,दौरेठा नं.२ शाहगंज आगरा
दिल्ली पब्लिक स्कूल, दयालबाग
राजकीय पॉलीटेक्निक मनकेड़ा, आगरा
सरस्वती शिशु मंदिर, उत्तर विजय नगर कॉलोनी
सेंट जोसेफ़ गर्ल्स इण्टर कॉलेज, पालीवाल पार्क गेट
अंकुर पब्लिक स्कूल, जीवनी मंडी, आगरा
सेंट पीटर्स कॉलेज, वजीरपुरा रोड
सेंट पॉल्स चर्च कॉलेज, सिविल लाइन्स
सेंट फ्राँसिस कान्वेंट स्कूल, वज़ीरपुरा सड़क
होली पब्लिक स्कूल, सिकन्दरा
सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज, विजय नगर
राजकीय इंटर कॉलेज, आगरा
भीम राव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, आगरा
आगरा जिले में प्रमुख रूप से हिंदी दैनिक जैसे कि अमर उजाला, दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान (समाचार पत्र), आज, दाता सन्देश, दीपशील भारत, दैनिक दृश्य भारती इत्यादि समाचार-पत्र प्रकाशित होते हैं।
आगरा शहर प्रमुख शहर दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, वाराणसी, मेरठ, हरिद्वार, देहरादून एवं जयपुर आदि शहरों से सीधे रेल एवम् सड़क मार्ग द्वारा चौबीसों घंटे जुड़ा हुआ है। दिल्ली-मुम्बई एवम् दिल्ली-चेन्नई के लिए मध्य-पश्चिम एवम् मध्य-दक्षिण रेलवे नेटवर्क है। दिल्ली से आगरा के लिये रा.राजमार्ग-२ है जिसकी दूरी २00 कि॰मी॰ है जो कि लगभग ४ घंटे में तय की जाती है।
आगरा में भारतीय रेलवे द्वारा संचालित ५ रेलवे स्टेशन हैं। ये सभी रेलवे के उत्तर-मध्य अंचल के आगरा मण्डल के अंतर्गत आते हैं। आगरा में उत्तर-दक्षिण दिशा में एक ब्रॉड गेज रेलवे लाइन है, जो पूर्व-पश्चिम दिशा की एक अन्य ब्रॉड गेज लाइन को काटती है। दोनों की क्रॉसिंग रुई की मंडी क्षेत्र के आसपास होती है, जहां पूर्व-पश्चिम लाइन उत्तर-दक्षिण लाइन के नीचे से गुजरती है। उत्तर-दक्षिण दिशा की लाइन उत्तर की ओर से दिल्ली से आती है, और आगरा छावनी रेलवे स्टेशन होते हुए दक्षिण में ग्वालियर की ओर निकल जाती है। इस लाइन पर राजा की मण्डी रेलवे स्टेशन से एक ब्रांच लाइन पूर्व की ओर निकलती है, जिस पर आगरा सिटी रेलवे स्टेशन स्थित है। पश्चिम दिशा से भरतपुर और बयाना से क्रमशः दो ब्रॉड गेज लाइनें आती हैं। ये दोनों लाइनें सिंगल लाइन हैं हालाँकि बाद वाली लाइन विद्युतीकृत है। ये दोनों लाइनें ईदगाह जंक्शन रेलवे स्टेशन से ठीक पहले मिल जाती हैं, और फिर आगरा फोर्ट के रास्ते टुंडला जंक्शन की ओर पूर्व दिशा में आगे बढ़ते हुए दिल्ली - हावड़ा मुख्य लाइन का हिस्सा बनती हैं।
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भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। शास्त्रीय संगीत को ही क्लासिकल म्यूजिक भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन सुर-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं। इसमें महत्व सुर का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र और उससे पहले सामवेद के गायन तक जाती है। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्य शास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत मुनि के नाटयशास्त्र के बाद मतंग मुनि की बृहद्देशी और शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।
संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था मगर मूल तत्व एक ही रहे। ११वीं और १२वीं शताब्दी में मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने उत्तर भारतीय संगीत की दिशा को नया आयाम दिया। राजदरबार संगीत के प्रमुख संरक्षक बने और जहां अनेक शासकों ने प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को प्रोत्साहन दिया वहीं अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन भी किए। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं जैसे खयाल, गज़ल आदि और भारतीय संगीत का कई नये वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।
भारतीय संगीत के आधुनिक मनीषी स्थापित कर चुके हैं कि वैदिक काल से आरम्भ हुई भारतीय वाद्यों की यात्रा क्रमश: एक के बाद दूसरी विशेषता से इन यंत्रों को सँवारती गयी। एक-तंत्री वीणा ही त्रितंत्री बनी और सारिका युक्त होकर मध्य-काल के पूर्व किन्नरी वीणा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मध्यकाल में यह यंत्र जंत्र कहलाने लगा जो बंगाल के कारीगरों द्वारा आज भी इस नाम से पुकारा जाता है। भारत में पहुँचे मुस्लिम संगीतकार तीन तार वाली वीणा को सह (तीन) + तार = सहतार या सितार कहने लगे। इसी प्रकार सप्त तंत्री अथवा चित्रा-वीणा, सरोद कहलाने लगी। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज्यादा महसूस किया गया। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के मुस्लिम प्रभाव से अछूता रहा।
बाद में सूफी आन्दोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नये वाद्य प्रचलन में आए पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। आम जनता में लोकप्रिय आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।
भारतीय वाद्य यंत्र
आमतौर पर हिन्दुस्तानी संगीत में इस्तेमाल किए गए उपकरणों में सितार, सरोद, सुरबहार, ईसराज, वीणा, तनपुरा, बन्सुरी, शहनाई, सारंगी, वायलिन, संतूर, पखवज और तबला शामिल हैं। आमतौर पर कर्नाटिक संगीत में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में वीना, वीनू, गोत्वादम, हार्मोनियम, मृदंगम, कंजिर, घमत, नादाश्वरम और वायलिन शामिल हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत पद्धतियां
भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख पद्धतियां हैं- हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत।
यह शास्त्रीय संगीत, उत्तर भारत में प्रचलित हुआ।
हिन्दुस्तानी संगीत के प्रमुख रागों की सूची
यह दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ। हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मन्दिरों में। इसी कारण दक्षिण भारतीय कृतियों में भक्ति रस अधिक मिलता है और हिन्दुस्तानी संगीत में शृंगार रस।
कर्नाटक संगीत के प्रमुख रागों की सूची
फ्र्कर्वनुतत्व। यटकार्क्स। टीसीटीटीआर टीसीटीटीसीटी टीसीटीटीसी यूफुफ क्स च ट टीडीटीडी
यूरोपीय शास्त्रीय संगीत
शास्त्रीय संगीत (मानोशी चैटर्जी)
हिन्दुस्तानी राग संगीत
पंचमकौंस - भारतीय शास्त्रीय संगीत को समर्पित स्विडी नागरिक
भारतीय शास्त्रीय संगीत
हिन्दी सम्पादनोत्सव के अंतर्गत बनाए गए लेख |
मोहनदास करमचन्द गांधी (जन्म: २ अक्टूबर १८६९ - निधन: ३० जनवरी १९४८) जिन्हें महात्मा गांधी के नाम से भी जाना जाता है, भारत एवं भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार करने के समर्थक अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत सहित पूरे विश्व में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें संसार में साधारण जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा 'महान आत्मा' एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले १९१५ में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था। एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने १९१५ मे महात्मा की उपाधि दी थी। तीसरा मत ये है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1२ अप्रैल १९१९ को अपने एक लेख मे उन्हें महात्मा कहकर सम्बोधित किया था। । उन्हें बापू (गुजराती भाषा में बापू अर्थात् पिता) के नाम से भी स्मरण किया जाता है। एक मत के अनुसार गांधीजी को बापू सम्बोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति उनके साबरमती आश्रम के शिष्य थे सुभाष चन्द्र बोस ने ६ जुलाई १९४४ को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष २ अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयन्ती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
सबसे पहले गान्धी जी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना आरम्भ किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, श्रमिकों और नगरीय श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में दरिद्रता से मुक्ति दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये लवण कर के विरोध में १९३० में नमक सत्याग्रह और इसके बाद १९४२ में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से विशेष विख्याति प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें कारागृह में भी रहना पड़ा। गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन बिताया और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे। १२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन १२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय नगर पोरबंदर नामक स्थान पर २ अक्टूबर सन् १८६९ को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है। नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। ३० जनवरी२००८ को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को मुंबई संग्रहालय में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश आगा खान जो पुणे में है, (जहाँ उन्होंने १९४२ से कैद करने के लिए किया गया था १९४४) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में लॉस एंजिल्स. रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे मन्दिरों . को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।
१२ फरवरी वर्ष १९४८ में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन १२ तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
गांधी के सिद्धान्त
लेखन कार्य एवं प्रकाशन
गाँधी जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की प्रवृत्ति गाँधीजी में आरम्भ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:
गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ। इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा
प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें
गाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), तथा गीता पदार्थ कोश सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे, परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते थे।
हिंद स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरम्भ के बारह अध्याय ११ दिसंबर १९०९ के अंक में और शेष १८ दिसंबर १९०९ के अंक में। पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी १९१० में हुआ था और भारत में बम्बई सरकार द्वारा २४ मार्च १९१० को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। इस पुस्तक के परिशिष्ट-१ में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन के लिए २० पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन के विस्तार की एक झलक भी मिलती है।
दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मूलतः गुजराती में 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' नाम से २६ नवंबर १९२३ को, जब वे यरवदा जेल में थे, लिखना शुरू किया। ५ फरवरी १९२४ को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम ३० अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में १३ अप्रैल १९२४ से २२ नवंबर 192५ तक 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड क्रमशः १९२४ और 192५ में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस० गणेशन मद्रास ने १९२८ में और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद ने 19५0 और १९६१ में प्रकाशित किया था।
सत्य के प्रयोग (आत्मकथा)
आत्मकथा के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' के अंकों में प्रकाशित हुए थे। २९ नवंबर १९२५ के अंक में 'प्रस्तावना' के प्रकाशन से उसका आरम्भ हुआ और ३ फरवरी 19२९ के अंक में 'पूर्णाहुति' शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी नवजीवन में उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता रहा। तदनुसार 'प्रस्तावना' का अनुवाद 'हिन्दी नवजीवन' के ३ दिसंबर १९२५ के अंक में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी अनुवाद में आत्मकथा का पहला खंड पुस्तक के रूप में पहली बार सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से सन् १९२८ में प्रकाशित हुआ था। गाँधी जी की रचनाओं के स्वत्वाधिकारी नवजीवन ट्रस्ट ने अपनी ओर से उसके हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन सन् १९५७ में किया था।
श्रीमद्भगवद्गीता से गाँधी जी का हार्दिक लगाव प्रायः आजीवन रहा। गीता पर उनका चिंतन-मनन तथा लेखन भी लंबे समय तक चलते रहा। सम्पूर्ण गीता का गुजराती अनुवाद, प्रस्तावना सहित, उन्होंने जून १९२९ में पूरा किया था और १२ मार्च १९३० को नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद से 'अनासक्ति योग' नाम से उसका पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ था। उसका हिंदी, बांग्ला एवं मराठी में अनुवाद भी तत्काल हो गया था। अंग्रेजी अनुवाद इसके बाद जनवरी १९३१ में संपन्न हुआ था तथा पहले यंग इंडिया के अंक में प्रकाशित हुआ था।
गीता के प्रत्येक श्लोक का अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य न होने से गाँधी जी ने गीता के प्रत्येक अध्याय के भावों को सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य रूप में लिखा। यरवदा सेंट्रल जेल में १९३० और १९३२ में प्रत्येक सप्ताह पत्र के रूप में ये भाव भी नारायणदास गांधी को भेजे जाते रहे ताकि उन्हें आश्रम की प्रार्थना सभाओं में पढ़े जायें। इन्हीं का प्रकाशन बाद में पुस्तक रूप में 'गीता-बोध' नाम से हुआ। इनके अतिरिक्त भी उन्होंने गीता पर प्रार्थना सभाओं में अनेक प्रवचन दिये थे। गीता से गाँधी जी का जुड़ाव इस कदर था कि अपने अत्यंत व्यस्त जीवन के बावजूद उन्होंने गीता के प्रत्येक पद का अक्षर क्रम से कोश तैयार किया जिसमें पद के अर्थ के साथ-साथ उनके प्रयोग-स्थल भी निर्दिष्ट थे। इन समस्त सामग्रियों का एकत्र प्रकाशन ही 'गीता माता' के नाम से हुआ है।
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
गाँधी जी के लिखित एवं वाचिक समग्र साहित्य के प्रकाशन हेतु भारत सरकार द्वारा एक ग्रंथमाला के प्रकाशन का निर्णय प्रकाशन जगत में निःसंदेह एक ऐतिहासिक कदम रहा है। इस ग्रंथमाला का उद्देश्य गाँधी जी ने दिन-प्रति-दिन और वर्ष-प्रति-वर्ष जो कुछ कहा और लिखा उस सबको एकत्र करना था।
इसी निर्णय के तहत अनेक अधीत विद्वानों के सहयोग से सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय का प्रकाशन हुआ। यह प्रकाशन तीन भाषाओं में हुआ। अंग्रेजी में पहली बार १०० खंडों में (थे कॉलक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी नाम से) तथा संशोधित रूप (पफ) में ९८ खंडों में इसका प्रकाशन हुआ है। हिन्दी में ९७ खंडों में तथा गुजराती में ७० खंडों में यह प्रकाशकीय महाकुंभ संपन्न हुआ है। सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय (हिन्दी) में दो अतिरिक्त वैशिष्ट्य भी सम्मिलित हैं। एक तो यह कि प्रत्येक खंड के अंत में अक्षरक्रम से शब्दानुक्रमणिका दी गयी है जिससे अध्ययन तथा विभिन्न कार्यवश पुनरावलोकन में अत्यंत सुविधा हो गयी है; तथा दूसरी यह कि प्रत्येक खंड के अंत में गाँधी जी का तारीखवार जीवन-वृत्तान्त दिया गया है, जिससे सरलतापूर्वक एक नज़र में गाँधीजी के जीवन की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं एवं बातों की संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध हो जाती है।
इनके अतिरिक्त गाँधी जी के समग्र साहित्य से चुनिंदा अंशों के संचयन तथा विभिन्न विषयों पर केन्द्रित छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का भी विभिन्न नामों से प्रकाशन होते रहा है। इनमें दो संचयन अति प्रसिद्ध तथा अत्युपयोगी रहे हैं और इन दोनों का प्रकाशन भी गाँधी जी के जीवन-काल में ही (अंग्रेजी में, १९४५ एवं १९४७ में) हो गया था:
महात्मा गांधी के विचार - सं०- आर० के० प्रभु एवं यू० आर० राव (नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली)
मेरे सपनों का भारत - सं०- आर० के० प्रभु (नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद)
गाँधी जी ने जॉन रस्किन की अन्टू दिस लास्ट (उन्टो तीस लास्ट) की गुजराती में व्याख्या भी की है। अन्तिम निबंध को उनका अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्यक्रम कहा जा सकता है उन्होंने शाकाहार, भोजन और स्वास्थ्य, धर्म, सामाजिक सुधार पर भी विस्तार से लिखा है।
सन् २००० में गाँधी जी के संपूर्ण कार्य (कमग) का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी जी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया.
गाँधी पर पुस्तकें
कई जीवनी लेखकों ने गाँधी के जीवन-वर्णन का कार्य किया है। उनमें से दो कार्य व्यापक एवं अपने आप में उदाहरण हैं:
इस दूसरे महाग्रंथ के अंतिम खण्ड (लास्ट फेस) का चार खण्डों में हिन्दी अनुवाद महात्मा गांधी : पूर्णाहुति नाम से प्रकाशित है।
कर्नल जी बी अमेरिकी सेना के सिंह ने कहा कि अपनी तथ्यात्मक शोध पुस्तक 'देवत्व के मुखौटे के पीछे गाँधी' (गाँधी: बिहाइंड द मास्क ऑफ़ डिविनिटी) के मूल भाषण और लेखन के लिए उन्होंने अपने २० वर्ष लगा दिए।
कथित समलैंगिक प्रेम संबंध
२०११ में प्रकाशित किताब ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया में पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता लेखक जोसेफ़ लेलीवेल्ड ने महात्मा गाँधी और उनके दक्षिण अफ़्रीका में रहे सहयोगी हर्मन केलेनबाख के रिश्तों को अनन्य प्रेम सम्बन्ध बताया है। पुस्तक के प्रकाशन के समय इस कारण से भारत में विवाद हो गया, और गाँधी के गृह राज्य गुजरात की विधान सभा ने एक संकल्प के माध्यम से इस पुस्तक की बिक्री प्र रोक लगा दी। लेलीवेल्ड के मुताबिक, उनकी पुस्तक के आधार पर गाँधी की समलैंगी या द्विलिंगी होने के लगाए जा रहे आंकलन गलत हैं। उन्होंने कहा, "यह किताब ये नहीं कहती कि गाँधी समलैंगिक या द्विलिंगी थे।यह [किताब] कहती है कि [गाँधी] ब्रह्मचारी थे, और कैलेनबाख से गहरे [दिल] से जुडे थे। और यह कोई नई जानकारी नहीं है।" (यथाशब्द)।
गांधी और कालेनबाख
महात्मा गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी मित्र हरमन कालेनबाख से संबंधित दस्तावेजों को १.२८ मिलियन डॉलर (करीब ६.८८ करोड़ रुपए) में खरीद कर भारत लाया गया है। 20१2 में नीलाम होने से पहले भारत सरकार ने इन्हें सोदबी नीलामी घर से गोपनीय करार में खरीदा था। कालेनबाख दक्षिण अफ्रीका में जिम्नास्ट, बॉडी बिल्डर और आर्किटेक्ट थे। उन्होंने एमके गांधी को कुछ ऐसे भी पत्र भेजे थे जिन्हें कुछ समीक्षक प्रेम पत्र कहते हैं। इन दोनों लोगों का रिश्ता काफी विवादित रहा था।
अनुयायियों और प्रभाव
महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के नेताओं में मार्टिन लूथर किंग और जेम्स लाव्सन गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे। विरोधी-रंगभेद कार्यकर्ता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, गाँधी जी से प्रेरित थे। और दुसरे लोग खान अब्दुल गफ्फेर खान,स्टीव बिको और औंग सू कई (आंग सन सू क्यी) हैं।
गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, रोमेन रोल्लांड पहला व्यक्ति था जिसने १९२४ में अपने किताब महात्मा गाँधी में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राज़ील की अराजकतावादी (अनार्चिस्ट) और नारीवादी मारिया लासर्दा दे मौरा ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.१९३१ में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टाइन, गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.लांजा देल वस्तो (लेंजा डेल वस्तों) महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन १९३६ में भारत आया; और बाद में गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और १९४८ में उसने कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क की स्थापना की। (गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)मदेलिने स्लेड (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।
इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे। २००७ में केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव (कैन् लिओंस इंटरनेशनल एडवर्टिजिंग फेस्टिवल), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया।
२ अक्टूबर गाँधी का जन्मदिन है इसलिए गाँधी जयंती के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय अवकाश होता है १५ जून २००७ को यह घोषणा की गई थी कि "संयुक्त राष्ट्र महासभा " एक प्रस्ताव की घोषणा की, कि २ अक्टूबर (२ अक्टोबर) को "अंतर्राष्ट्रीय अंहिसा दिवस" के रूप में मनाया जाएगा.
अक्सर पश्चिम में महात्मा शब्द का अर्थ ग़लत रूप में ले लिया जाता है उनके अनुसार यह संस्कृत से लिया गया है जिसमे महा का अर्थ महान और आत्म का अर्थ आत्मा होता है। ज्यादातर सूत्रों के अनुसार जैसे दत्ता और रोबिनसन के रबिन्द्रनाथ टगोर: संकलन में कहा गया है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सबसे पहले गाँधी को महात्मा का खिताब दिया था। अन्य सूत्रों के अनुसार नौतामलाल भगवानजी मेहता ने २१ जनवरी १९१५ में उन्हें यह खिताब दिया था। हालाँकि गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्हें कभी नहीं लगा कि वे इस सम्मान के योग्य हैं। मानपत्र के अनुसार, गाँधी को उनके न्याय और सत्य के सराहनीये बलिदान के लिए महात्मा नाम मिला है।
१९३० में टाइम पत्रिका ने महात्मा गाँधी को वर्ष का पुरूष का नाम दियाई १९९९ में गाँधी अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्हे सदी का पुरूष नाम दिया गया के मुकाबले द्वितीय स्थान जगह पर थे। टाइम पत्रिका ने दलाई लामा, लेच वालेसा, डॉ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, सेसर शावेज़, औंग सान सू कई, बेनिग्नो अकुइनो जूनियर, डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला को गाँधी के अहिंसा के आद्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में कहा गया. भारत सरकार प्रति वर्ष उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं और नागरिकों को महात्मा गाँधी शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत करती है। दक्षिण अफ्रीकी नेल्सन मंडेला, जो कि जातीय मतभेद और पार्थक्य के उन्मूलन में संघर्षरत रहे, इस पुरूस्कार को पाने वाले पहले गैर-भारतीय थे।
१९९६ में, भारत सरकार ने महात्मा गाँधी की श्रृंखला के नोटों के मुद्रण को १, ५, १०, २०, ५०, १००, ५०० और १००० के अंकन के रूप में आरम्भ किया। आज जितने भी नोट इस्तेमाल में हैं उनपर महात्मा गाँधी का चित्र है। १९६९ में यूनाइटेड किंगडम ने डाक टिकेट की एक श्रृंखला महात्मा गाँधी के शत्वर्शिक जयंती के उपलक्ष्य में जारी की।
यूनाइटेड किंगडम में ऐसे अनेक गाँधी जी की प्रतिमाएँ उन ख़ास स्थानों पर हैं जैसे लन्दन विश्वविद्यालय कालेज के पास ताविस्तोक चौक, लन्दन जहाँ पर उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की। यूनाइटेड किंगडम में जनवरी ३० को राष्ट्रीय गाँधी स्मृति दिवस मनाया जाता है।संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं।
गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है . दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था। गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है।"
बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। एक शहीद स्तम्भ अब उस जगह को चिन्हित करता हैं जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गयी थी।
प्रति वर्ष ३० जनवरी को, महात्मा गाँधी के पुण्यतिथि पर कई देशों के स्कूलों में अहिंसा और शान्ति का स्कूली दिन (देनिप मनाया जाता है जिसकी स्थापना १९६४ स्पेन में हुयी थी। वे देश जिनमें दक्षिणी गोलार्ध कैलेंडर इस्तेमाल किया जाता हैं, वहां ३० मार्च को इसे मनाया जाता है।
आदर्श और आलोचनाएँ
गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद (पेसिफिस्म) है, जो की राजनैतिक क्षेत्र से आलोचना का एक मूल आधार है।
विभाजन की संकल्पना
नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी। ६ अक्टूबर १९४६ में हरिजन में उन्होंने भारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा:
(पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नही हिचकूंगाइस्लाम मानव जाति के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए॰इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल जाए वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकडों में काट सकते हैं पर मुझे उस चीज़ के लिए राज़ी नहीं कर सकते जिसे मैं ग़लत समझता हूँ[...] हमें आस नही छोडनी चाहिए, इसके बावजूद कि ख्याली बाते हो रही हैं कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित कर लेना चाहिए॰
फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए कहते हैं- "हालाँकि गांधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी सरकार के नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के प्रश्न का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानों की संख्या ज्यादा है।".
भारत के विभाजन के विषय को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों तरफ़ से आलोचना के आयाम खोल दिए। मुहम्मद अली जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानियों ने गाँधी को मुस्लमान राजनैतिक हक़ को कम कर आंकने के लिए निंदा की। विनायक दामोदर सावरकार और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण के लिए स्वीकृति दे दी है (हालाँकि सार्वजानिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था कि विभाजन से पहले मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा). यह आज भी राजनैतिक रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी-अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने में इक्छुक नहीं थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगडिया भी गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते हैं, यह भी इंगित करते हैं कि उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।
गाँधी ने १९३० के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की थी। २६ अक्टूबर १९३८ को उन्होंने हरिजन में कहा था:
मुझे कई पत्र प्राप्त हुए जिनमे मुझसे पूछा गया कि मैं घोषित करुँ कि जर्मनी में यहूदियों के उत्पीडन और अरब-यहूदियों के बारे में क्या विचार रखता हूँ (पर्सल्यूशन ऑफ थे ज्यूस इन जर्मनी). ऐसा नही कि इस कठिन प्रश्न पर अपने विचार मैं बिना झिझक के दे पाउँगा. मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है। मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी रूप से परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं। इन मित्रों के द्वारा ही मुझे लंबे समय से हो रहे उत्पीडन के बारे में जानकारी मिली. वे ईसाई धर्म के अछूत रहे हैं पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से विवेकशून्य नही करती यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा आकर्षित नही करती. जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी वापसी में फिलिस्तीन को चाहने लगे हैं। क्यों नही वे, पृथ्वी के दुसरे लोगों से प्रेम करते हैं, उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ और जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन किया। फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह इनलैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का. यहूदियों को अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में हो रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता.
हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति
जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना के कारण भी थोड़ा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंह, सुखदेव, उदम सिंह, राजगुरु की फांसी के ख़िलाफ़ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी।
इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा,"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे की किस तरह अंग्रेजो से बिना हथियार लड़ा जा सकता है क्योंकि तब हथयार नही थे।..पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे हिंदू-मुसलमानों के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र हो जाना चाहिए."
उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का . १९३८ में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने १९३० में हुए जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन (पर्सल्यूशन ऑफ थे ज्यूस इन जर्मनी) को सत्याग्रह के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की
अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना जीविकोपार्जन वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूद कि कोई सभ्य जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में फ़ेंक देगा, मैं तडीपार और मतभेदीये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा . और इसके लिए मैं यहूदी भाइयों का इंतज़ार नाहे करूंगा कि वे आयें और मेरे वैधानिक प्रैत्रोध में मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आख़िर में सभी मेरा उदहारण मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे. यहाँ पर जो नुस्खा दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी. और अगर दिए गए पीडा को वे स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनन्द प्रदान करेगा और हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के रूप में निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब होगी. अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीड़ा सहने के लिए तयार हो, मेरी कल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनन्द के दिन में बदल जाएगा जैसा कि जिहोवा ने गढा.. एक अत्याचारी के हाथ में अपनी ज़ाति को देकर किया। इश्वर का भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते.
गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफ़ी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने "यहूदियों पर प्रश्न" लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जो यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय बताया, वह बिल्कुल नया नहीं है।...मेरा केवल यह निवेदन हैं कि अगर हृदय से हिंसा को त्याग दे तो निष्कर्षतः वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है। उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर "यहूदी मित्रो को जवाब" और "यहूदी और फिलिस्तीन" में दिया यह जाहिर करते हुए कि "मैंने हृदय से हिंसा के त्याग के लिए कहा जिससे निष्कर्षतः अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।
यहूदियों की आसन्न आहुति को लेकर गाँधी के बयान ने कई टीकाकारों की आलोचना को आकर्षित किया।<रेफ>डेविड लुईस स्केफर गाँधी ने क्या किया? .''२८ अप्रैल २००३ को राष्ट्रीय समीक्षा २१ मार्च २००६, रिचर्ड ग्रेनिएर द्वारा पुनः प्राप्त किया गया।"द गाँधी नोबडी नोस" .कमेंटरी पत्रिका (कमेंटरी मगजीन). मार्च १९८३ .२१ मार्च २००६ को पुनः समीक्षा किया गया</रेफ>मार्टिन बूबर (मार्टिन ब्यूबर), जो की स्वयं यहूदी राज्य के एक विरोधी हैं ने गाँधी को २४ फरवरी, १९३९ को एक तीक्ष्ण आलोचनात्मक पत्र लिखा. बूबर ने दृढ़ता के साथ कहा कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों के साथ जो व्यवहार किया गया वह नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए व्यवहार से भिन्न है, इसके अलावा जब भारतीय उत्पीडन के शिकार थे, गाँधी ने कुछ अवसरों पर बल के प्रयोग का समर्थन किया।
गाँधी ने १९३० में जर्मनी में यहूदियों (पर्सल्यूशन ऑफ थे ज्यूस इन जर्मनी) के उत्पीडन को सत्याग्रह के भीतर ही सन्दर्भित कहा। नवम्बर १९३८ में उपरावित यहूदियों के नाजी उत्पीडन के लिए उन्होंने अहिंसा के उपाय को सुझाया:
आभास होता है कि यहूदियों के जर्मन उत्पीडन का इतिहास में कोई सामानांतर नही. पुराने जमाने के तानाशाह कभी इतने पागल नही हुए जितना कि हिटलर हुआ और इसे वे धार्मिक उत्साह के साथ करते हैं कि वह एक ऐसे अनन्य धर्म और जंगी राष्ट्र को प्रस्तुत कर रहा है जिसके नाम पर कोई भी अमानवीयता मानवीयता का नियम बन जाती है जिसे अभी और भविष्य में पुरुस्कृत किया जायेगा. जाहिर सी बात है कि एक पागल परन्तु निडर युवा द्वारा किया गया अपराध सारी जाति पर अविश्वसनीय उग्रता के साथ पड़ेगा.यदि कभी कोई न्यायसंगत युद्ध मानवता के नाम पर, तो एक पुरी कॉम के प्रति जर्मनी के ढीठ उत्पीडन के खिलाफ युद्ध को पूर्ण रूप से उचित कहा जा सकता हैं। पर मैं किसी युद्ध में विश्वास नही रखता. इसे युद्ध के नफा-नुकसान के बारे में चर्चा मेरे अधिकार क्षेत्र में नही है। परन्तु जर्मनी द्वारा यहूदियों पर किए गए इस तरह के अपराध के खिलाफ युद्ध नही किया जा सकता तो जर्मनी के साथ गठबंधन भी नही किया जा सकता यह कैसे हो सकता हैं कि ऐसे देशों के बीच गठबंधन हो जिसमे से एक न्याय और प्रजातंत्र का दावा करता हैं और दूसरा जिसे दोनों का दुश्मन घोषित कर दिया गया है?"मोहनदास.के गाँधी २६ नवम्बर १९३८ में प्रकाशित हरिजन में युद्ध और हिंसा के प्रति एक अहिंसात्मक दृष्टिकोण.
दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख
गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरुआती लेख काफी विवादस्पद हैं ७ मार्च, १९०८ को, गाँधी ने इंडियन ओपिनियन में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन के बारे में लिखा "काफिर शासन में ही असभ्य हैं - कैदी के रूप में तो और भी. वे कष्टदायक, गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।" १९०३ में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी ने टिप्पणी की कि "मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए॰" दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध किया, जिनके बारे में वे वर्णन करते हैं कि " निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ हैं". यह ध्यान देने योग्य हैं कि गाँधी के समय में काफिर का वर्तमान में (आ डिएरेंट कोनोटेशन) इस्तेमाल हो रहे अर्थ से एक अलग अर्थ था (इट्स प्रिसेट-दए उसगे). गाँधी के इन कथनों ने उन्हें कुछ लोगों द्वारा नसलवादी होने के आरोप को लगाने का मौका दिया है।
इतिहास के दो प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद, जो दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर महारत रखते हैं, ने अपने मूलग्रन्थ द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३ - १९१४ में इस विवाद की जांच की है।(नई दिल्ली:मनोहर,२००५). अध्याय एक के केन्द्र में,"गाँधी, औपनिवेशिक स्थिति में जन्मे अफ्रीकी और भारतीय" जो कि "श्वेत आधिपत्य" में अफ्रीकी और भारतीय समुदायों के संबंधों पर है तथा उन नीतियों पर जिनकी वजह से विभाजन हुआ (और वे तर्क देते हैं कि इन समुदायों के बीच संघर्ष लाजिमी सा है) इस सम्बन्ध के बारे में वे कहते हैं, "युवा गाँधी १८९० में उन विभाजीय विचारों से प्रभावित थे जो कि उस समय प्रबल थीं।" साथ ही साथ वे यह भी कहते हैं, "गाँधी के जेल के अनुभव ने उन्हें उन लोगों कि स्थिति के प्रति अधीक संवेदनशील बना दिया था।..आगे गाँधी दृढ़ हो गए थे; वे अफ्रीकियों के प्रति अपने अभिव्यक्ति में पूर्वाग्रह को लेकर बहुत कम निर्णायक हो गए और वृहत स्तर पर समान कारणों के बिन्दुओं को देखने लगे थे। जोहान्सबर्ग जेल में उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में ढीठ अफ्रीकी कैदी थे न कि आम अफ्रीकी."
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला गाँधी के अनुयायी हैं, २००३ में गाँधी के आलोचकों द्वारा प्रतिमा के अनावरण को रोकने की कोशिश के बावजूद उन्होंने उसे जोहान्सबर्ग में अनावृत किया। भाना और वाहेद ने अनावरण के इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं पर द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १९१३-१९१४ में टिप्पणी किया है। अनुभाग " दक्षिण अफ्रीका के लिए गाँधी के विरासत" में वे लिखते हैं " गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के सक्रिय कार्यकर्ताओं के आने वाली पीढियों को श्वेत अधिपत्य को ख़त्म करने के लिये प्रेरित किया। यह विरासत उन्हें नेल्सन मंडेला से जोड़ती हैं।.माने यह कि जिस कम को गाँधी ने शुरू किया था उसे मंडेला ने खत्म किया।" वे जारी रखते हैं उन विवादों का हवाला देते हुए जो गाँधी कि प्रतिमा के अनावरण के दौरान उठे थे। गाँधी के प्रति इन दो दृष्टिकोणों के प्रतिक्रिया स्वरुप, भाना और वाहेद तर्क देते हैं : वे लोग को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के पश्चात अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए गाँधी को सही ठहराना चाहते हैं वे उनके बारे में कई तथ्यों को नजरंदाज करते हुए कारण में कुछ ज्यादा मदद नहीं करते; और जो उन्हें केवल एक नस्लवादी कहते हैं वे भी ग़लत बयानी के उतने ही दोषी हैं/विकृति के उतने ही दोषी हैं।"
गाँधी राज विरोधी (एंटी स्टेटिस्ट) उस रूप में थे जहाँ उनका दृष्टिकोण उस भारत का हैं जो कि किसी सरकार के अधीन न हो। उनका विचार था कि एक देश में सच्चे स्वशासन (सेल्फ रूल) का अर्थ है कि प्रत्यक व्यक्ति ख़ुद पर शासन करता हैं तथा कोई ऐसा राज्य नहीं जो लोगों पर कानून लागु कर सके। मूर्ति, श्रीनिवास .महात्मा गाँधी और लियो टालस्टाय के पत्र लांग बीच प्रकाशन : लांग बीच, १९८७, पीपी १८९. कुछ मौकों पर उन्होंने स्वयं को एक दार्शनिक अराजकतावादी कहा है (फिलोसोफिकल अनार्चिस्ट). उनके अर्थ में एक स्वतंत्र भारत का अस्तित्व उन हजारों छोटे छोटे आत्मनिर्भर समुदायों से है (संभवतः टालस्टोय का विचार) जो बिना दूसरो के अड़चन बने ख़ुद पर राज्य करते हैं। इसका यह मतलब नहीं था कि ब्रिटिशों द्वारा स्थापित प्रशाशनिक ढांचे को भारतीयों को स्थानांतरित कर देना जिसके लिए उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को इंगलिस्तान बनाना है. ब्रिटिश ढंग के संसदीय तंत्र पर कोई विश्वास न होने के कारण वे भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर प्रत्यक्ष लोकतंत्र (डाइरेक्ट डेमोक्रासी) प्रणाली को स्थापित करना चाहते थे।
गांधी जी की आलोचना
गांधी के सिद्धान्तों और करनी को लेकर प्रयः उनकी आलोचना भी की जाती है। उनकी आलोचना के मुख्य बिन्दु हैं-
जुलु विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देना
दोनो विश्वयुद्धों में अंग्रेजों का साथ देना,
खिलाफत आन्दोलन जैसे साम्प्रदायिक आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन बनाना,
अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्तिकारियों के हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करना,
गांधी-इरविन समझौता - जिससे भारतीय क्रन्तिकारी आन्दोलन को बहुत धक्का लगा,
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर सुभाष चन्द्र बोस के चुनाव पर नाखुश होना,
चौरीचौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन को सहसा रोक देना,
भारत की स्वतंत्रता के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना,
स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये देने की जिद पर अनशन करना,
भीमराव आम्बेडकर, महात्मा गांधी को जाति प्रथा का समर्थक समझते थे।
इन्हें भी देखें
महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन
महात्मा गांधी की हत्या
आगे के अध्ययन के लिए
भाना, सुरेन्द्र और गुलाम वाहेद.द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३-१९१४. नई दिल्ली: मनोहर, २००५
बोंदुरंत्त, जुआअन वी. हिंसा की जीत: गाँधीवादी दर्शन का संघर्ष. प्रिन्सटन यूपी, १९९८ आईएसबीऍन ०-६९१-०२२८१-क्स
चेर्नस, ईरा. अमरीकी अहिंसा: विचारों का इतिहास, सातवाँ अध्याय .आईएसबीऍन १-५७०७५-५४७-७
चड्ढा, योगेश .गाँधी: एक जीवन .आईएसबीऍन ०-४७१-३५०६२-१
डेलटन, डेनिस (ईडी) .महात्मा गाँधी: चुनिन्दा राजनैतिक लेख .इंडियानापोलिस/कैमब्रिज : हैकट प्रकशन कंपनी (हकेट पबलिशिंग कम्पनी), १९९६ आईएसबीऍन ०-८७२२०-३३०-१
गाँधी, महात्मा .महात्मा गाँधी के संचित लेख .नई दिल्ली: प्रकाशन विभाग, सुचना एवम प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, १९९४.
फिशर, लुईस .द एसेनसियल गांधी : उनके जीवन, कार्यों और विचारों का संग्रह . प्राचीन: न्यूयार्क, २००२. (पुनर्मुद्रित संस्करण), आईएसबीऍन १-४०००-३०५०-१
गाँधी, एम.के. गाँधी के पाठक: उनके जीवन और लेखन का एक स्रोत पुस्तक.होमर जैक (ईडी) ग्रोव प्रेस, न्यू योर्क, १९५६
गाँधी, राजमोहन .पटेल: एक जीवन .नवजीवन प्रकाशन घर, १९९० आईएसबीऍन ८१-७२२९-१३८-८
हंट, जेम्स डी. लन्दन में गाँधी . नई दिल्ली: प्रोमिला एवं कंपनी, प्रकाशक, १९७८
मान्न, बर्नहार्ड, महात्मा गाँधी और पाउलो फरेरी के शैक्षणिक अवधारणाएं. क्लौबें, बी, में .(ईडी) राजनैतिक समाजीकरण एव शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन बीडी. ८.हैम्बर्ग १९९६.आईएसबीऍन ३-९२६९५२-९७-०
रूहे, पीटर. गाँधी: एक छायाचित्र जीवनी .आईएसबीऍन ०-७१४८-९२७९-३
शार्प, जीन. गाँधी एक राजनैतिक नीतिज्ञ के रूप में, अपने मूल्यों और राजनैतिक निबंधो के साथ. बोस्टन: एक्सटेंडिंग होराइज़ोन पुस्तकें, १९७९.
सोफ्री, गियान्नी. गाँधी और भारत: केन्द्र में एक सदी (१९९५) आईएसबीएन १-९००६२४-१२-५
गौरडन, हैम.आध्यात्मिक साम्राज्यवाद से अस्वीकृति: गाँधी को बूबर के पत्रों की झलकी .''सार्वभौमिक अध्ययन की पत्रिका, २२ जून १९९९.
गाँधी, एम.के "दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह"
महात्मा गांधी विरासत पोर्टल
हिंदी के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी
गांधीजी और हिन्दी
भारत के अर्थशास्त्री
भारत के नेता
१८६९ में जन्मे लोग
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी
गुजरात के लोग
१९४८ में निधन
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
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इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान () या पाकिस्तान इस्लामी गणतंत्र या सिर्फ पाकिस्तान भारत के पश्चिम में स्थित एक इस्लामी गणराज्य है। २१ करोड़ की आबादी के साथ ये दुनिया का पाँचवी बड़ी आबादी वाला देश है। पाकिस्तान में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी है। यह ८,८1,९१३ वर्ग किलोमीटर (३,४०,५०९ वर्ग मील) क्षेत्र में फैला ३३ वाँ सबसे बड़ा देश है। यहाँ की प्रमुख भाषाएँ उर्दू, पंजाबी, सिंधी, बलूची और पश्तो हिंदी हैं। पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद और अन्य महत्वपूर्ण नगर कराची व लाहौर रावलपिंडी हैं। पाकिस्तान के चार सूबे हैं: पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा। कबाइली इलाके और इस्लामाबाद भी पाकिस्तान में शामिल हैं। इन के अलावा आजाद कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान भी पाकिस्तान द्वारा नियंत्रित हैं।
पाकिस्तान का अस्तित्व सन् १९४७ में भारत के विभाजन के फलस्वरूप आया था। सर्वप्रथम सन् १९३० में कवि (शायर) मुहम्मद इकबाल ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का जिक्र किया था। उन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान, पंजाब तथा अफगान (सूबा-ए-सरहद) को मिलाकर एक नया राष्ट्र बनाने की बात की थी। सन् १९३३ में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र चौधरी रहमत अली ने पंजाब, सिंध, कश्मीर तथा बलोचिस्तान के लोगों के लिए पाक्स्तान (जो बाद में पाकिस्तान बना) शब्द का सृजन किया। सन् १९४७ से १९७० तक पाकिस्तान दो भागों में बँटा रहा - पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। दिसंबर, सन् १९७१ में भारत के साथ हुई लड़ाई के फलस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना और पश्चिमी पाकिस्तान पाकिस्तान रह गया।
नाम का उदभव
पाकिस्तान शब्द का जन्म सन् १९३३ में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र चौधरी रहमत अली के द्वारा हुआ पाक्स्तान के रूप में हुआ था।
आज के पाकिस्तानी भूभाग का मानवीय इतिहास कम से कम ५००० वर्ष पुराना है, यद्यपि इतिहास पाकिस्तान शब्द का जन्म सन् १९३३ में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र चौधरी रहमत अली के द्वारा हुआ। आज का पाकिस्तानी भूभाग कई संस्कृतियों का गवाह रहा है।
ईसापूर्व ३३००-१८०० के बीच यहाँ सिंधु घाटी सभ्यता का विकास हुआ। यह विश्व की चार प्राचीन ताम्र-कांस्यकालीन सभ्यताओं में से एक थी। इसका क्षेत्र सिंधु नदी के किनारे अवस्थित था पर गुजरात (भारत) और राजस्थान में भी इस सभ्यता के अवशेष पाए गए हैं। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा इत्यादि स्थल पाकिस्तान में इस सभ्यता के प्रमुख अवशेष-स्थल हैं। इस सभ्यता के लोग कौन थे इसके बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ इसे आर्यों की पूर्ववर्ती शाखा कहते हैं तो कुछ इसे द्रविड़। कुछ इसे बलोची भी ठहराते हैं। इस मतभेद का एक कारण सिंधु-घाटी सभ्यता की लिपि का नहीं पढ़ा जाना भी है।
ऐसा माना जाता है कि १५०० ईसापूर्व के आसपास आर्यों का आगमन पाकिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों के मार्फत भारत में हुआ। आर्यों का निवास स्थान कैस्पियन सागर के पूर्वी तथा उत्तरी हिस्सों में माना जाता है जहाँ से वे इसी समय के करीब ईरान, यूरोप और भारत की ओर चले गए थे। सन् ५४३ ईसापूर्व में पाकिस्तान का अधिकांश इलाका ईरान (फारस) के हखामनी साम्राज्य के अधीन आ गया। लेकिन उस समय इस्लाम का उदय नहीं हुआ था; ईरान के लोग जरदोश्त के अनुयायी थे और देवताओं की पूजा करते थे। सन् ३३० ईसापूर्व में मकदूनिया (यूनान) के विजेता सिकंदर ने दारा तृतीय को तीन बार हराकर हखामनी वंश का अंत कर दिया। इसके कारण मिस्र से पाकिस्तान तक फैले हखामनी साम्राज्य का पतन हो गया और सिकंदर पंजाब तक आ गया। ग्रीक स्रोतों के मुताबिक उसने सिंधु नदी के तट पर भारतीय राजा पुरु (ग्रीक - पोरस) को हरा दिया। पर उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया और वह भारत में प्रवेश किये बिना वापस लौट गया। इसके बाद उत्तरी पाकिस्तान और अफगानिस्तान में यूनानी-बैक्ट्रियन सभ्यता का विकास हुआ। सिकंदर के साम्राज्य को उसके सेनापतियों ने आपस में बाँट लिया। सेल्युकस निकेटर सिकंदर के सबसे शक्तिशाली उत्तराधिकारियों में से एक था।
मौर्यों ने ३०० ईसापूर्व के आसपास पाकिस्तान को अपने साम्राज्य के अधीन कर लिया। इसके बाद पुनः यह ग्रीको-बैक्ट्रियन शासन में चला गया। इन शासकों में सबसे प्रमुख मिनांदर ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया। पार्थियनों के पतन के बाद यह फारसी प्रभाव से मुक्त हुआ। सिंध के राय राजवंश (सन् ४८९-६३२) ने इसपर शासन किया। इसके बाद यह उत्तर भारत के गुप्त और फारस के सासानी साम्राज्य के बीच बँटा रहा।
सन् ७१२ में फारस के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के राजा को हरा दिया। यह फारसी विजय न होकर इस्लाम की विजय थी। बिन कासिम एक अरब था और पूर्वी ईरान में अरबों की आबादी और नियंत्रण बढ़ता जा रहा था। हालाँकि इसी समय केंद्रीय ईरान में अरबों के प्रति घृणा और द्वेष बढ़ता जा रहा था पर इस क्षेत्र में अरबों की प्रभुसत्ता स्थापित हो गई थी। इसके बाद पाकिस्तान का क्षेत्र इस्लाम से प्रभावित होता चला गया। पाकिस्तानी सरकार के अनुसार इसी समय 'पाकिस्तान की नींव' डाली गई थी। इसके ११९२ में दिल्ली के सुल्तान पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद ही दिल्ली की सत्ता पर फारस से आए तुर्कों, अरबों और फारसियों का नियंत्रण हो गया। पाकिस्तान दिल्ली सल्तनत का अंग बन गया।
सोलहवीं सदी में मध्य-एशिया से भाग कर आए हुए बाबर ने दिल्ली की सत्ता पर अधिकार किया और पाकिस्तान मुगल साम्राज्य का अंग बन गया। मुगलों ने काबुल तक के क्षेत्र को अपने साम्राज्य में मिला लिया था। अठारहवीं सदी के अंत तक विदेशियों (खासकर अंग्रेजों) का प्रभुत्व भारतीय उपमहाद्वीप पर बढ़ता गया। सन् १८५७ के गदर के बाद संपूर्ण भारत अंग्रेजों के शासन में आ गया।
अंग्रेजों के शासन काल में, खासकर पंजाब में कई विरोध आंदोलन हुए। इस दौरान पंजाब और सिंध में अच्छी खासी हिंदू आबादी थी। पर जनतंत्र की मांग को लेकर और मुस्लिमों के अल्पमत में होने के कारण अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग होने लगी। पहले सन् १९३० में शायर मुहम्मद इकबाल ने भारत के उत्तर-पश्चिमी चार प्रांतों -सिंध, बलूचिस्तान, पंजाब तथा अफगान (सूबा-ए-सरहद)- को मिलाकर एक अलग राष्ट्र की मांग की थी। १९४७ अगस्त में भारत के विभाजन के फलस्वरूप पाकिस्तान का जन्म हुआ। उस समय पाकिस्तान में वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों सम्मिलित थे। सन् १९७१ में भारत के साथ हुए युद्ध में पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा (जिसे उस समय तक पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था) बांग्लादेश के रूप में स्वतंत्र हो गया।
पाकिस्तान का इस्लामीकरण
७११ ईस्वी में पाकिस्तान का पश्चिमी भाग हिंदू राजपूतों द्वारा शासित था। १०७६ इस्वी में गजनी ने राजा जयपाल शाही से इस क्षेत्र को जीत लिया। इसी समय बहुत सी हिंदू जातियाँ इस्लाम में जाने लगी। इनको अरबो द्वारा शेख का पद दिया गया।
हिंदुओं के धर्म परिवर्तन के कई कारण थे जिसमे इस्लाम के प्रति झुकाव और आर्थिक दबाव प्रमुख थे। मुस्लिम शासकों शासन में संरक्षण और सामाजिक गतिशीलाता के कारण यह परिवर्तन हो पाया। इसका अन्य कारण जिजिया कर जो धिम्मी (काफिर) लोगो पर लगाया जाता था से भी बचा जा सकता था।तत्कालीन कठोर जाति व्यवस्था के कारण दलित जातीय, ऊँची हिंदू जातियों द्वारा सामाजिक अत्याचार अपमान से परेशान होकर सूफीयों द्वारा मुस्लिम बन गई।
हिंदू जातियों का मुस्लिम परिवर्तन मुख्यत: १३ वी और १४ वी सदी में हुआ था। मुस्लिम आक्रांताओं की विजय का इसमे बहुत प्रभाव था।
उच्च हिंदू जातियाँ भी मुस्लिम धर्म में आर्थिक, राजनैतिक फायदे के कारण आ गई लेकिन फिर भी उनका सामाजिक ढाँचा पूर्ववत ही बना रहा। ये परिवर्तन सामूहिक हुए थे जिसके द्वारा सम्पूर्ण जाति को बचाये जाने की धारणा थी।
पाकिस्तान का क्षेत्रफल कोई ८,०३,९४० वर्ग किलोमीटर है जो ब्रिटेन और फ्रांस के सम्मिलित क्षेत्रफल के करीब आता है। क्षेत्रफल के हिसाब से यह विश्व में ३६ स्थान पर है। अरब सागर से लगी इसकी सामुद्रिक सीमा रेखा कोई १०४६ किलोमीटर लंबी है। इसकी जमीनी सीमारेखा कुल ६,७४४ किलोमीटर लंबी है - उत्तर-पश्चिम में २४३० कि.मी. अफगानिस्तान के साथ, दक्षिण पूर्व में ९०९ किमी ईरान के साथ, उत्तर-पूर्व में ५१२ कि.मी. चीन के साथ (गुलाम कश्मीर से लगी सीमा) तथा पूर्व में २९१२ कि.मी. भारत के साथ।
पाकिस्तान का उत्तरी इलाका पहाड़ी है। यहाँ हिमालय पर्वतों के कई उच्चतम शिखर पाए जाते हैं। इन्हीं के बीच से गुजरता सकरा रास्ता 'खैबर पास' के नाम से प्रसिद्ध है। भारत से उद्भवित होने वाली पाँच नदियाँ झेलम, चिनाब, रावी, सतलज ऑर बियास यहाँ से बहकर जब समतल भूमि को छूती हैं तो एक अत्यंत उपजाऊ जमीन बनाती है जिसे 'पंजाब' के नाम से जाना जाता है। दक्षिण की ओर इनके संगम से सिंधु नदी बनती है जिसकी घाटी और भी उपजाऊ है। दक्षिण में यह अरबी समुद्र से जाकर मिलती हैं।
दक्षिण में समुद्री घाटों (बीच, या दीघा) से लेकर उत्तर में हिमालय (काराकोरम) और हिंदुकुश की बर्फीली चोटियों तक पाकिस्तान में बहुत भौगोलिक विविधता है। पर औसतन रूप से यह क्षेत्र शुष्क है। औसतन १०० सेंटीमीटर सालाना वर्षा होती है। पाकिस्तान की ५ चोटियाँ ८००० मीटर से भी ज्यादा ऊँची हैं। उत्तरी क्षेत्रों में मौसमी विविधता अधिक है। वहाँ की गर्मियों में तापमान 4५ डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक चला जाता है जबकि सर्दियों में तापमान हिमांक तक पहुँच जाता है। दक्षिण में यह विविधता अपेक्षाकृत कम होती है।
सिंधु यहाँ की प्रमुख नदी है। इसके अलावा सिंधु की सहायक नदियाँ पंजाब के आसपास होकर बहती है जिसके कारण पंजाब में कृषियोग्य जलवायु होती है। सिंधु नदी के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम में बलोचिस्तान का इलाका मरुस्थल है। सिंध के पूर्वी भाग में थार मरुस्थल का विस्तृत भाग है पर सिंध में ही थारपारकार विश्व का एकमात्र उर्वर मरुस्थल है। देश की कुल २७% भूमि कृषियोग्य है।
पाकिस्तान एक विकासशील देश है। सन् २००७ तक पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था ७ प्रतिशत की वार्षिक दर से घट रही थी। यहाँ की मुद्रा पाकिस्तानी रुपया है, जो पैसे में बाँटा जा सकता है। एक अमरीकी डालर की कीमत लगभग १०४ पाकिस्तानी रुपये (सन् २००६) हैं। सन् २००५ तक पाकिस्तान पर २४० अरब अमेरिकी डॉलर का विदेशी कर्ज था जो अमेरिका द्वारा दिए गए ऋणमाफी और अन्य संस्थाओं द्वारा दिए गए वित्तीय मदद के कारण कम होता जा रहा है पर अब अमेरिका पाकिस्तान की कोई सहायता नहीं करेगा।
यहाँ की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान कम होता जा रहा है। आज कृषि सकल घरेलू उत्पाद का मात्र २ फीसदी हिस्सा है जबकि ३ फीसदी सेवा क्षेत्र से आता है। लेकिन राजनीतिक उथल-पुथल के कारण आज यह दिवालिया होने के कगार पर आ गया
पाकिस्तानी राजनैतिक दल
पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी - बेनजीर भुट्टो इसी पार्टी से थी। इस पार्टी की स्थापना इनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो ने की थी।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग
तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी- यह पार्टी मशहूर पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान द्वारा स्थपित की गई है।
मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (एम क्यू एम) इस पार्टी की स्थापना अलताफ हुसैन ने की थी।
अपने प्रथम चरण में यह पार्टी कराची तक सीमित थी। आज इस पार्टी के अंकुर देश के कोने कोने में दिखाई देते है, अब यह पार्टी एक शहर की नहीं देश के चारो प्रांत की है
(द्वारा एम क्यु एम प्रांतीय कमिटी पेशावर)
पाकिस्तान में चार प्रांत हैं:-
उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत (खैबर पख्तूनख्वा)
इस्लामाबाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र
पाकिस्तान शासित कश्मीर
क्षेत्र के आधार पर:
पाक सिंधिया आइसलैंड
अगस्त २०१७ के आँकड़ों के अनुसार पाकिस्तान की कुल जनसंख्या २०,७७,७४,5२० (लगभग २०.७ करोड़) पाकिस्तान का स्थान विश्व में छठा है, यानि इसकी जनसंख्या ब्राजील से कम और रूस से अधिक है। यहाँ की जनसंख्या वृद्धि दर अधिक होने के कारण भविष्य में इसके तेजी से बढ़ने की संभावना है। आम हितों की परिषद २५ अगस्त, २०१७ को अस्थाई परिणाम प्रस्तुत की गई। इन परिणामों के अनुसार, पाकिस्तान की कुल आबादी २०.७8 करोड़ थी, जो १९ वर्षों में 5७% वृद्धि का प्रतिनिधित्व करती है। पाकिस्तान की जनगणना के अस्थायी परिणामों में गिलगित-बल्तिस्तान और आजाद कश्मीर के आँकड़ों को शामिल नहीं किया गया है, जो कि अंतिम रिपोर्ट में शामिल होने की संभावना है जो २०18 में आ जाएगा। ट्रांसजेंडर आबादी पाकिस्तान में १०,४१८ है, जो ०.००5% है।
पाकिस्तान की शहरी जनसंख्या ७.५५८ करोड़ है, जो देश की जनसंख्या का लगभग ३६.४% है। महिला जनसंख्या कुल मुख्यालय का ४८.८% है।
प्रमुख जातियों का प्रतिशत है: -
पश्तून (पठान) (१५.४३%),
हाल में अफगानिस्तान में चल रहे युद्धों के कारण कई अफगान शरणार्थी भी इस देश में रहने लगे हैं। यहाँ का प्रमुख धर्म इस्लाम है और लगभग ९६ प्रतिशत लोग मुस्लिम हैं (७७ प्रतिशत सुन्नी और २० प्रतिशत शिया)। इसके अलावा १.८५ प्रतिशत हिंदू और १.६ प्रतिशत ईसाई यहाँ के प्रमुख अल्पसंख्यक हैं।
पाकिस्तान की संवैधानिक भाषा अंग्रेजी और राष्ट्रीय भाषा उर्दू है। पंजाबी यहाँ सबसे अधिक बोली जाने वाली स्थानीय भाषा है पर इसको कोई संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है।
भील - पाकिस्तान की प्रमुख जनजातियों में भील है ।
पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है, अतः यहाँ की संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव रहा है। नृत्य और संगीत पर इस्लाम की पाबंदी की वजह से सार्वजनिक जीवन में इनका प्रचलन उच्च वर्ग तथा निम्न तबके के बीच रह गया है। सूफी मजारों पर मेले और अन्य परंपराएँ सदियों से चली आ रही है।
। शायर इकबाल, फैज अहमद फैज, अहमद फराज के अलावे गालिब, मीर, दाग, जिगर इत्यादि उर्दू शायरों की गजले आज भी पसंद की जातीं हैं। गुलाम अली, मेहदी हसन, नुसरत फतह अली खान और उनके भतीजे राहत फतेह अली खान प्रमुख गायक हैं। इसके अलावे फारसी शायरी गाई जाती है - इकबाल, हाफिज, रूमी, निजामी गंजवी, अमीर खुसरो और सादी का कलाम कई जगह गाया और मदरसों में भी पढ़ाया जाता है।
उत्तर-पश्चिम के सूबा सरहद में ट्रकों पर की गई चित्रकारी प्रसिद्ध है।
पाकिस्तान ७ हिस्सों में बाँटा गया है :
हॉकी यहाँ का राष्ट्रीय खेल है। ट्वेन्टी-ट्वेन्टी विश्व कप २००९ में जीता था इसी कारण क्रिकेट की लोकप्रियता बहुत अधिक है। देश की क्रिकेट टीम ने एक बार विश्व कप (सन् १९९२ में) जीता है। पाकिस्तान में क्रिकेट बहोत लोकप्रिय खेल है।
एशिया के देश
१९४७ में स्थापित देश या क्षेत्र
दक्षिण एशिया के देश
हिंदुस्तानी-भाषी देश व क्षेत्र |
परवेज़ मुशर्रफ़ (उर्दू: ; जन्म अगस्त ११, १९४३) पाकिस्तान के राष्ट्रपति और सेना प्रमुख रह चुके हैं। इन्होंने साल १९९९ में नवाज़ शरीफ की लोकतान्त्रिक सरकार का तख्ता पलट कर पाकिस्तान की बागडोर संभाली और २० जून, २०01 से १८ अगस्त २०08 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे। ५ फरवरी २०23 को दुबई में निधन हो गया ।
मुशर्रफ़ का जन्म दिल्ली शहर में दरियागंज में हुआ था। भारत के विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में जाकर बसा।
पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष
अप्रैल से जून १९९९ तक भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध के दौरान मुशर्रफ़ ही पाकिस्तान के सेना-प्रमुख थे।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति
अक्टूबर १९९९ में नवाज़ शरीफ़ ने जब मुशर्रफ़ को उनके पद से हटाने की कोशिश की तो मुशर्रफ़ के प्रति वफ़ादार जनरलों ने शरीफ़ का ही तख्ता पलट करके सरकार पर कब्जा कर लिया। मई २००० में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि पाकिस्तान में चुनाव कराए जाएं। मुशर्रफ़ ने जून २००१ में तत्कालीन राष्ट्रपति रफीक़ तरार को हटा दिया व खुद राष्ट्रपति बन गए। अप्रैल २००२ में उन्होंने राष्ट्रपति बने रहने के लिए जनमत-संग्रह कराया जिसका अधिकतर राजनैतिक दलों ने बहिष्कार किया। अक्टूबर २००२ में पाकिस्तान में चुनाव हुए जिसमें मुशर्रफ़ का समर्थन करने वाली मुत्ताहिदा मजलिस-ए-अमाल पार्टी को बहुमत मिला। इनकी सहायता से मुशर्रफ़ ने पाकिस्तान के संविधान में कई परिवर्तन कराए जिनसे १९९९ के तख्ता-पलट और मुशर्रफ़ के अन्य कई आदेशों को वैधानिक सम्मति मिल गई। {{तथ्य}
मुशर्रफ़ के शासन के दौरान भारत पर उग्रवादी हमले बढ़े, लेकिन बाद में दोनों देशों के बीच शान्ति की बात-चीत भी आगे बढ़ी। २००५ में परेड पत्रिका ने मुशर्रफ़ को दुनिया के १० सबसे बुरे तानाशाहों की सूची में शामिल किया। २४ नवम्बर २००७ को उन्होने सेना प्रमुख का पद त्याग दिया तथा असैन्य राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।
पाकिस्तान के शासक के रूप में कार्यकाल के दौरान प्रमुख घटनाएं
अमेरिका पर आतंकवादी हमला (९/११)
११ सितम्बर २००१ के हमले के बाद जब संयुक्त राज्य अमरीका ने अफ़गानिस्तान और ईराक पर युद्ध शुरु किया तो मुशर्रफ़ ने अमेरिका का पूरा समर्थन किया।
नवाब बुग्ती हत्याकांड
नवाब अकबर खान बुगती पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के एक राष्ट्रवादी नेता थे जो बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलग एक देश बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। २००६ में बलूचिस्तान के कोहलू जिले में एक सैन्य कार्रवाई में अकबर बुगती और उनके कई सहयोगियों की हत्या कर दी गई थी। इस अभियान का आदेश जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने दिया था जो तब देश के सैन्य प्रमुख और राष्ट्रपति दोनों थे।
मुशर्रफ ने पाकिस्तान में २००७ में आपातकाल लागू कर दिया।
बेनजीर भुट्टो की हत्या
बेनजीर भुट्टो दिसम्बर २००७ में रावलपिंडी में एक चुनावी रैली के बाद एक आत्मघाती हमले में मारी गई। मुशर्रफ पर उन्हें जरूरी सुरक्षा मुहैया नहीं कराने के आरोप लगे।
लाल मस्जिद पर हमला
मुशर्रफ के आदेश पर २००७ में लाल मस्जिद पर सैन्य कार्रवाई की गई जिसमें लगभग ९० धार्मिक विद्यार्थियों की मृत्यु हो गई थी।
आगरा शिखर वार्ता
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ आगरा में पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मुलाकात की। इस मुलाकात का दोनों देशों के रिश्तों पर कोई खास असर नहीं पडा।
शीर्ष न्यायाधीश की बर्खास्तगी
९ मार्च २००७ को उन्होंने शीर्ष न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी को जबरन पदमुक्त कर दिया। उनके इस कदम के बाद समूचे पाकिस्तान में वकीलों ने मुशर्रफ के खिलाफ आंदोलन कर दिया।
शासन के अंत के बाद के प्रमुख घटनाक्रम
मुशर्रफ का शासन समाप्त होने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए देश छोड़ दिया। किंतु वापस आते ही उन पर कई मुकद्दमे चलाए गए और इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
मुकद्दमे तथा गिरफ्तारी
पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो तथा बलूचिस्तान के राष्ट्रवादी नेता अकबर खान बुगती की हत्या तथा लाल मस्जिद की करवाई के सिलसिले में उन्हें गिरफ्तार किया गया।
२००७ में आपातकाल के दौरान जजों को हिरासत में लिए जाने के मामले में भी केस चलाया गया।
२०१३ में नवाज शरीफ सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया। पाकिस्तान में इस आरोप के सही साबित होने पर मृत्युदंड तक का प्रावधान है।
पाकिस्तान के तानाशाह
पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष
दिल्ली के लोग
१९४३ में जन्मे लोग |
सार्क दक्षिण एशिया का एक क्षेत्रिय सहयोग संगठन जिसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव एवं अफगानिस्तान (अंतिम सदस्य २००८) शामिल हैं।
शार्क - एक समुद्री जीव। |
अटल बिहारी वाजपेयी (२५ दिसम्बर १९२४ १६ अगस्त २०१८) भारत के तीन बार के प्रधानमन्त्री थे। वे पहले १६ मई से १ जून १996 तक, तथा फिर १998 में और फिर१9 मार्च १999 से २२ मई २००४ तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। वे हिन्दी कवि, पत्रकार व एक प्रखर वक्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में एक थे, और १968 से १973 तक उसके अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य (पत्र) और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
वह चार दशकों से भारतीय संसद के सदस्य थे, लोकसभा, निचले सदन, दस बार, और दो बार राज्य सभा, ऊपरी सदन में चुने गए थे। उन्होंने लखनऊ के लिए संसद सदस्य के रूप में कार्य किया, २००९ तक उत्तर प्रदेश जब स्वास्थ्य सम्बन्धी चिन्ताओं के कारण सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्त हुए। अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारम्भ करने वाले वाजपेयी राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) सरकार के पहले प्रधानमन्त्री थे, जिन्होंने गैर काँग्रेसी प्रधानमन्त्री पद के ५ वर्ष बिना किसी समस्या के पूरे किए। आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेने के कारण इन्हे भीष्मपितामह भी कहा जाता है। उन्होंने २४ दलों के गठबन्धन से सरकार बनाई थी जिसमें ८१ मन्त्री थे।
२००५ से वे राजनीति से संन्यास ले चुके थे और नई दिल्ली में ६-ए कृष्णामेनन मार्ग स्थित सरकारी आवास में रहते थे । 1६ अगस्त २०१८ को लम्बी बीमारी के बाद अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में श्री वाजपेयी का निधन हो गया। वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे।
श्री वाजपेयी प्रधानमन्त्री पद पर पहुँचने वाले मध्यप्रदेश के प्रथम व्यक्ति थे।
उत्तर प्रदेश में आगरा जनपद के प्राचीन स्थान बटेश्वर के मूल निवासी पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी मध्य प्रदेश की ग्वालियर रियासत में अध्यापक थे। वहीं शिन्दे की छावनी में २५ दिसम्बर १९२४ को ब्रह्ममुहूर्त में उनकी सहधर्मिणी कृष्णा वाजपेयी से अटल जी का जन्म हुआ था। पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर में अध्यापन कार्य तो करते ही थे इसके अतिरिक्त वे हिन्दी व ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे। पुत्र में काव्य के गुण वंशानुगत परिपाटी से प्राप्त हुए। महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर कृति "विजय पताका" पढ़कर अटल जी के जीवन की दिशा ही बदल गयी। अटल जी की बी॰ए॰ की शिक्षा ग्वालियर के विक्टोरिया काॅलेज (वर्तमान में लक्ष्मीबाई कालेज) में हुई। छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे।
कानपुर के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एम॰ए॰ की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उसके बाद उन्होंने अपने पिताजी के साथ-साथ कानपुर में ही एल॰एल॰बी॰ की पढ़ाई भी प्रारम्भ की लेकिन उसे बीच में ही विराम देकर पूरी निष्ठा से संघ के कार्य में जुट गये। डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशन में राजनीति का पाठ तो पढ़ा ही, साथ-साथ पाञ्चजन्य, राष्ट्रधर्म, दैनिक स्वदेश और वीर अर्जुन जैसे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन का कार्य भी कुशलता पूर्वक करते रहे।
सर्वतोमुखी विकास के लिये किये गये योगदान तथा असाधारण कार्यों के लिये २०१५ में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
वह भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक थे और सन् १९६८ से १९७३ तक वह उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रह चुके थे। सन् १९५२ में उन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, परन्तु सफलता नहीं मिली। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सन् १९५७ में बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। सन् १९५७ से १९७७ तक जनता पार्टी की स्थापना तक वे बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। मोरारजी देसाई की सरकार में सन् १९७७ से १९७९ तक विदेश मन्त्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनायी।
१९८० में जनता पार्टी से असन्तुष्ट होकर इन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। ६ अप्रैल १९८० में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वाजपेयी को सौंपा गया। दो बार राज्यसभा के लिये भी निर्वाचित हुए। लोकतन्त्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् १९९६ में प्रधानमन्त्री के रूप में देश की बागडोर सम्भाली। १९ अप्रैल १९९८ को पुनः प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में १३ दलों की गठबन्धन सरकार ने पाँच वर्षों में देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए।
सन् २००४ में कार्यकाल पूरा होने से पहले भयंकर गर्मी में सम्पन्न कराये गये लोकसभा चुनावों में भा॰ज॰पा॰ के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (एन॰डी॰ए॰) ने वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और भारत उदय (अंग्रेजी में इण्डिया शाइनिंग) का नारा दिया। इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। ऐसी स्थिति में वामपन्थी दलों के समर्थन से काँग्रेस ने भारत की केन्द्रीय सरकार पर कायम होने में सफलता प्राप्त की और भा॰ज॰पा॰ विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। सम्प्रति वे राजनीति से संन्यास ले चुके थे और नई दिल्ली में ६-ए कृष्णामेनन मार्ग स्थित सरकारी आवास में रहते थे।
प्रधानमन्त्री के रूप में कार्यकाल
भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बनाना
अटल सरकार ने ११ और १३ मई १९९८ को पोखरण में पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट करके भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न देश घोषित कर दिया। इस कदम से उन्होंने भारत को निर्विवाद रूप से विश्व मानचित्र पर एक सुदृढ वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। यह सब इतनी गोपनीयता से किया गया कि अति विकसित जासूसी उपग्रहों व तकनीक से सम्पन्न पश्चिमी देशों को इसकी भनक तक नहीं लगी। यही नहीं इसके बाद पश्चिमी देशों द्वारा भारत पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए गए लेकिन वाजपेयी सरकार ने सबका दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए आर्थिक विकास की ऊँचाईयों को छुआ।
पाकिस्तान से सम्बन्धों में सुधार की पहल
१९ फरवरी १९99 को सदा-ए-सरहद नाम से दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू की गई। इस सेवा का उद्घाटन करते हुए प्रथम यात्री के रूप में वाजपेयी जी ने पाकिस्तान की यात्रा करके नवाज़ शरीफ से मुलाकात की और आपसी सम्बन्धों में एक नयी शुरुआत की।
कुछ ही समय पश्चात पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ की शह पर पाकिस्तानी सेना व उग्रवादियों ने कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ करके कई पहाड़ी चोटियों पर कब्जा कर लिया। अटल सरकार ने पाकिस्तान की सीमा का उल्लंघन न करने की अन्तरराष्ट्रीय सलाह का सम्मान करते हुए धैर्यपूर्वक किन्तु ठोस कार्यवाही करके भारतीय क्षेत्र को मुक्त कराया। इस युद्ध में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण भारतीय सेना को जान माल का बहुत नुकसान हुआ और पाकिस्तान के साथ शुरु किए गए सम्बन्ध सुधार एकबार पुनः शून्य हो गए।
स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना
भारत भर के चारों कोनों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना (अंग्रेजी में- गोल्डन क्वाड्रिलेट्रल प्रोजैक्ट या संक्षेप में जी॰क्यू॰ प्रोजैक्ट) की शुरुआत की गई। इसके अन्तर्गत दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई व मुम्बई को राजमार्गों से जोड़ा गया। ऐसा माना जाता है कि अटल जी के शासनकाल में भारत में जितनी सड़कों का निर्माण हुआ इतना केवल शेरशाह सूरी के समय में ही हुआ था।
वाजपेयी सरकार के अन्य प्रमुख कार्य
एक सौ वर्ष से भी ज्यादा पुराने कावेरी जल विवाद को सुलझाया।
संरचनात्मक ढाँचे के लिये कार्यदल, सॉफ्टवेयर विकास के लिये सूचना एवं प्रौद्योगिकी कार्यदल, विद्युतीकरण में गति लाने के लिये केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग आदि का गठन किया।
राष्ट्रीय राजमार्गों एवं हवाई अड्डों का विकास; नई टेलीकॉम नीति तथा कोकण रेलवे की शुरुआत करके बुनियादी संरचनात्मक ढाँचे को मजबूत करने वाले कदम उठाये।
राष्ट्रीय सुरक्षा समिति, आर्थिक सलाह समिति, व्यापार एवं उद्योग समिति भी गठित कीं।
आवश्यक उपभोक्ता सामग्रियों के मूल्योंं को नियन्त्रित करने के लिये मुख्यमन्त्रियों का सम्मेलन बुलाया।
उड़ीसा के सर्वाधिक निर्धन क्षेत्र के लिये सात सूत्रीय निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया।
आवास निर्माण को प्रोत्साहन देने के लिए अर्बन सीलिंग एक्ट समाप्त किया।
ग्रामीण रोजगार सृजन एवं विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों के लिये बीमा योजना शुरू की।
ये सारे तथ्य सरकारी विज्ञप्तियों के माध्यम से समय समय पर प्रकाशित होते रहे हैं।
वाजपेयी अपने पूरे जीवन अविवाहित रहे। उन्होंने लम्बे समय से दोस्त राजकुमारी कौल और बी॰एन॰ कौल की बेटी नमिता भट्टाचार्य को उन्होंने दत्तक पुत्री के रूप में स्वीकार किया। राजकुमारी कौल की मृत्यु वर्ष २०१४ में हो चुकी है। अटल जी के साथ नमिता और उनके पति रंजन भट्टाचार्य रहते थे।
वह हिन्दी में लिखते हुए एक प्रसिद्ध कवि थे। उनके प्रकाशित कार्यों में कैदी कविराई कुण्डलियां शामिल हैं, जो १९७५-७७ आपातकाल के दौरान कैद किए गए कविताओं का संग्रह था, और अमर आग है। अपनी कविता के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा, "मेरी कविता युद्ध की घोषणा है, हारने के लिए एक निर्वासन नहीं है। यह हारने वाले सैनिक की निराशा की ड्रमबीट नहीं है, लेकिन युद्ध योद्धा की जीत होगी। यह निराशा की इच्छा नहीं है लेकिन जीत का हलचल चिल्लाओ। "
कवि के रूप में
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी थे। मेरी इक्यावन कविताएँ अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें शृंगार रस के प्रेम प्रसून न चढ़ाकर "एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक" की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के कारीगरों के शोषण पर ही गया। वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता।
अटल जी ने किशोर वय में ही एक अद्भुत कविता लिखी थी - ''हिन्दू तन-मन हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय", जिससे यह पता चलता है कि बचपन से ही उनका रुझान देश हित की तरफ था।
राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता आद्योपान्त प्रकट होती ही रही है। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेक आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पायी। विख्यात गज़ल गायक जगजीत सिंह ने अटल जी की चुनिन्दा कविताओं को संगीतबद्ध करके एक एल्बम भी निकाला था।
अटल बिहारी वाजपेयी जी को २००९ में दिल का एक दौरा पड़ा था, जिसके बाद वह बोलने में असक्षम हो गए थे। उन्हें ११ जून २०१८ में किडनी में संक्रमण और कुछ अन्य स्वास्थ्य समस्याओं की वजह से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराया गया था, जहाँ १६ अगस्त २०१८ को शाम ०५:०५ बजे उनकी मृत्यु हो गयी। उनके निधन पर जारी एम्स के औपचारिक बयान में कहा गया:
"पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने १६ अगस्त २०१८ को शाम ०५:०५ बजे अन्तिम सांस ली। पिछले ३६ घण्टों में उनकी तबीयत काफी खराब हो गई थी। हमने पूरी कोशिश की पर आज उन्हें बचाया नहीं जा सका।"
उन्हें अगले दिन १७ अगस्त को हिन्दू संस्कृति पद्धति के अनुसार अन्तिम संस्कार किया गया । उनकी दत्तक पुत्री नमिता कौल भट्टाचार्या ने उन्हें मुखाग्नि दी। उनका समाधि स्थल राजघाट के पास शान्ति वन में बने स्मृति स्थल में बनाया गया है। उनकी अन्तिम यात्रा बहुत भव्य तरीके से निकाली गयी। जिसमें प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी समेत सैंकड़ों नेता गण पैदल चलते हुए गन्तव्य तक पहुंचे। वाजपेयी के निधन पर भारत भर में सात दिन के राजकीय शोक की घोषणा की गयी। अमेरिका, चीन, बांग्लादेश, ब्रिटेन, नेपाल और जापान समेत विश्व के कई राष्ट्रों द्वारा उनके निधन पर दुःख जताया गया।
अटल जी की अस्थियों को देश की सभी प्रमुख नदियों में विसर्जित किया गया।
अटल जी की प्रमुख रचनायें
उनकी कुछ प्रमुख प्रकाशित रचनाएँ इस प्रकार हैं :
रग-रग हिन्दू मेरा परिचय
मृत्यु या हत्या
अमर बलिदान (लोक सभा में अटल जी के वक्तव्यों का संग्रह)
कैदी कविराय की कुण्डलियाँ
संसद में तीन दशक
अमर आग है
कुछ लेख: कुछ भाषण
राजनीति की रपटीली राहें
बिन्दु बिन्दु विचार, इत्यादि।
मेरी इक्यावन कविताएँ
१९९२: पद्म विभूषण
१९९३: डी लिट (कानपुर विश्वविद्यालय)
१९९४: लोकमान्य तिलक पुरस्कार
१९९४: श्रेष्ठ सासंद पुरस्कार
१९९४: भारत रत्न पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त पुरस्कार
२०१५ : डी लिट (मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय) जिया लाल बैरवा (देवली)
२०१५ : 'फ्रेंड्स ऑफ बांग्लादेश लिबरेशन वार अवॉर्ड', (बांग्लादेश सरकार द्वारा प्रदत्त)
२०१५ : भारतरत्न से सम्मानित
जीवन के कुछ प्रमुख तथ्य
आजीवन अविवाहित रहे।
वे एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता (ओरेटर) एवं सिद्ध हिन्दी कवि भी रहे है।
परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की सम्भावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये।
सन् १९९८ में राजस्थान के पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया जिसे अमेरिका की सी०आई०ए० को भनक तक नहीं लगने दी।
अटल जी सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे हैं और जवाहरलाल नेहरू व इन्दिरा गाँधी के बाद सबसे लम्बे समय तक गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री भी। वह पहले प्रधानमन्त्री थे जिन्होंने गठबन्धन सरकार को न केवल स्थायित्व दिया अपितु सफलता पूर्वक संचालित भी किया।
अटल जी ही पहले विदेश मन्त्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था।
अटल जी की टिप्पणियाँ
चाहे प्रधान मन्त्री के पद पर रहे हों या नेता प्रतिपक्ष; बेशक देश की बात हो या क्रान्तिकारियों की, या फिर उनकी अपनी ही कविताओं की; नपी-तुली और विचारमग्न टिप्पणी करने में अटल जी कभी नहीं चूके। यहाँ पर उनकी कुछ टिप्पणियाँ दी जा रही हैं।
"भारत को लेकर मेरी एक दृष्टि है- ऐसा भारत जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो।"
"क्रान्तिकारियों के साथ हमने न्याय नहीं किया, देशवासी महान क्रान्तिकारियों को भूल रहे हैं, आजादी के बाद अहिंसा के अतिरेक के कारण यह सब हुआ।"
"मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय-संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है।"
इन्हें भी देखें
भारत के प्रधानमन्त्री
मेरी इक्यावन कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय
अटल बिहारी वाजपेयी : एक नया भारत बनाने का इरादा मन में है
भारत सरकार द्वारा अटल बिहारी वाजपेयी का जीवनचरित
भारत के प्रधानमन्त्रियो का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी में)
बीबीसी समाचार पर प्रोफाइल
अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कश्मीर
दुर्लभ १९९६ दूरदर्शन समाचार वीडियो - अटल बिहारी जी ने भारत के प्रधान मन्त्री की घोषणा की
अटलजी का जीवन परिचय (वेबदुनिया)
अटल बिहारी वाजपेयी - एक परिचय - बीबीसी हिन्दी
वाजपेयी का राजनीतिक सफ़र - बीबीसी हिन्दी
कविता कोश पर अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएँ
अटल बिहारी बाजपेयी, विलक्षण काव्य प्रतिभा
भाजपा के जालस्थल पर वाजपेयीजी के बारे में
भारत सरकार के जालस्थल पर वाजपेयीजी के बारे में
मेरी इक्यावन कविताएँ (अटल बिहारी बाजपेयी) सम्पादन: डॉ॰ चन्द्रिकाप्रसाद शर्मा १९९५ किताबघर २४, अंसारी रोड, दरियागंज,नई दिल्ली ११०००२ इसब्न ८१-७०१६-२५५-६
राजनीति के शिखर कवि अटलबिहारी बाजपेयी (डॉ॰ सुनील जोगी) २००० सत्साहित्य भण्डार, अशोक विहार (फेज-२), नई दिल्ली ११००५२
१९२४ में जन्मे लोग
२०१८ में निधन
भारत के प्रधानमंत्री
ग्वालियर के लोग
संघ परिवार के नेता
पद्म विभूषण धारक
अटल बिहारी वाजपेयी
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष
छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र |
क्रिकेट एक बल्ले और गेंद का दलीय खेल है जिसकी शुरुआत दक्षिणी इंग्लैंड में हुई थी।
इसका सबसे प्राचीन निश्चित संदर्भ १५९८ में मिलता है, अब यह १०० से अधिक देशों में खेला जाता है। क्रिकेट के कई प्रारूप हैं, इसका उच्चतम स्तर टेस्ट क्रिकेट है, जिसमें वर्तमान प्रमुख राष्ट्रीय टीमें भारत, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैण्ड, श्रीलंका, वेस्टइंडीज, न्यूजीलैण्ड, पाकिस्तान, ज़िम्बाब्वे , बांग्लादेश अफ़ग़ानिस्तान और आयरलैण्ड हैं। अप्रैल २०१८ में, आईसीसी ने घोषणा की कि वह १ जनवरी 20१9 से अपने सभी १20 सदस्यों को ट्वेन्टी-२० अंतरराष्ट्रीय की मान्यता प्रदान की है। क्रिकेट के बल्ले से गेंद को खेलता है। इसी बीच गेंदबाज की टीम के अन्य सदस्य मैदान में क्षेत्ररक्षक के रूप में अलग-अलग स्थितियों में खड़े रहते हैं, ये खिलाड़ी बल्लेबाज को दौड़ बनाने से रोकने के लिए गेंद को पकड़ने का प्रयास करते हैं और यदि सम्भव हो तो उसे आउट करने की कोशिश करते हैं। बल्लेबाज यदि आउट नहीं होता है तो वो विकेटों के बीच में भाग कर दूसरे बल्लेबाज ("गैर स्ट्राइकर") से अपनी स्थिति को बदल सकता है, जो पिच के दूसरी ओर खड़ा होता है। इस प्रकार एक बार स्थिति बदल लेने से एक रन बन जाता है। यदि बल्लेबाज गेंद को मैदान की सीमारेखा तक हिट कर देता है तो भी रन बन जाते हैं। स्कोर किए गए रनों की संख्या और आउट होने वाले खिलाड़ियों की संख्या मैच के परिणाम को निर्धारित करने वाले मुख्य कारक हैं।
यह कई बातों पर निर्भर करता है कि क्रिकेट के खेल को ख़त्म होने में कितना समय लगेगा। पेशेवर क्रिकेट में यह सीमा हर पक्ष के लिए २० ओवरों से लेकर ५ दिन खेलने तक की हो सकती है। खेल की अवधि के आधार पर विभिन्न क्रिकेट खेल के नियम हैं जो खेल में जीत, हार, अनिर्णीत (ड्रा), या बराबरी (टाई) का निर्धारण करते हैं।
क्रिकेट मुख्यतः एक बाहरी खेल है और कुछ मुकाबले कृत्रिम प्रकाश (फ्लड लाइट्स) में भी खेले जाते हैं। उदाहरण के लिए, गरमी के मौसम में इसे संयुक्त राजशाही (उक), ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका में खेला जाता है जबकि वेस्ट इंडीज, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में ज्यादातर मानसून के बाद सर्दियों में खेला जाता है।
मुख्य रूप से इसका प्रशासन दुबई में स्थित अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के द्वारा किया जाता है, जो इसके सदस्य राष्ट्रों के घरेलू नियंत्रित निकायों के माध्यम से विश्व भर में खेल का आयोजन करती है। आईसीसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले पुरूष और महिला क्रिकेट दोनों का नियंत्रण करती है। हालांकि पुरूष, महिला क्रिकेट नहीं खेल सकते हैं पर नियमों के अनुसार महिलाएं पुरुषों की टीम में खेल सकती हैं।
मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप, आस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड, दक्षिणी अफ्रीका और वेस्टइंडीज में क्रिकेट का पालन किया जाता है। नियम संहिता के रूप में होते हैं जो, क्रिकेट के कानून कहलाते हैं और इनका अनुरक्षण लंदन में स्थित मेरीलेबोन क्रिकेट क्लब (एम सी सी) के द्वारा किया जाता है। इसमें आई सी सी और अन्य घरेलू बोर्डों का परामर्श भी शामिल होता है।
क्रिकेट मुकाबला दो दलों (टीमों) या पक्षों के बीच खेला जाता है। हर टीम में ग्यारह खिलाड़ी होते हैं। इसका मैदान कई आकार और आकृतियों का हो सकता है। मैदान घास का होता है और इसे ग्राउंड्समैन के द्वारा तैयार किया जाता है, जिसके कार्य में उर्वरण, कटाई, रोलिंग और सतह को समतल करना शामिल होता है। मैदान का व्यास सामान्य होता है। मैदान की परिधि को सीमा कहा जाता है और इसे कभी कभी रंग दिया जाता है या कभी कभी एक रस्सी के द्वारा मैदान की बाहरी सीमा को चिह्नित किया जाता है। मैदान गोल, चौकोर या अंडाकार हो सकता है, क्रिकेट का सबसे प्रसिद्ध मैदान है ओवल।
प्रत्येक टीम का उद्देश्य होता है दूसरी टीम से अधिक रन बनाना और दूसरी टीम के सभी खिलाड़ियों को आउट करना। क्रिकेट में खेल को ज्यादा रन बना कर भी जीता जा सकता है, चाहे दूसरी टीम को पूरी तरह से आउट न किया गया हो। दूसरे रूप में खेल को जीतने के लिए अधिक रन बनाना और दूसरी टीम को आउट करना जरुरी होता है, अन्यथा मुकाबला बिना किसी नतीजे के समाप्त हो जाता है। खेल शुरू होने से पहले दोनों टीमों के कप्तान एक सिक्के को उछाल करके निर्धारित करते हैं कि कौन सी टीम पहले बल्लेबाजी या गेंदबाजी करेगी। टॉस जीतने वाला कप्तान पिच और मौसम की वर्तमान और प्रत्याशित स्थिति के अनुसार अपना फैसला लेता है।
नियम और गेमप्ले
मुख्य आकर्षण मैदान के विशेष रूप से तैयार किए गए क्षेत्र में होता है (आमतौर पर केन्द्र में) जो "पिच" कहलाता है। पिच के दोनों और विकेट लगाए जाते हैं। ये गेंदबाजी उर्फ क्षेत्ररक्षण पक्ष के लिए लक्ष्य होते हैं और बल्लेबाजी पक्ष के द्वारा इनका बचाव किया जाता है जो रन बनाने की कोशिश में होते हैं। मूलतः एक रन तब बनता है जब एक बल्लेबाज गेंद को अपने बल्ले से मारने के बाद पिच के बीच भागता है, हालाँकि नीचे बताये गए विवरण के अनुसार रन बनाने के कई और तरीके हैं। यदि बल्लेबाज और रन बनाने का प्रयास नहीं करता है तो गेंद "डेड" हो जाती है और गेंदबाज के पास वापिस गेंदबाजी के लिए आ जाती है। गेंदबाजी पक्ष विभिन्न तरीकों से बल्लेबाजों को आउट करने की कोशिश करता है जब तक बल्लेबाजी पक्ष "आल आउट" न हो जाए। इसके बाद गेंदबाजी वाला पक्ष बल्लेबाजी करता है और बल्लेबाजी वाला पक्ष गेंदबाजी के लिए "मैदान" में आ जाता है। पेशेवर मैचों में, खेल के दौरान मैदान पर १५ लोग होते हैं। इनमें से दो अंपायर होते हैं जो मैदान में होने वाली गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं। दो बल्लेबाज होते हैं, उनमें से एक स्ट्राइकर होता है जो गेंद का सामना करता है और और दूसरा नॉन स्ट्राइकर कहा जाता है। बल्लेबाजों की भूमिका रन बनने के साथ और ओवर पूरे होने के साथ बदलती रहती है। क्षेत्ररक्षण टीम के सभी ११ खिलाड़ी एक साथ मैदान पर होते हैं। उनमें से एक गेंदबाज होता है, दूसरा विकेटकीपर और अन्य नौ क्षेत्ररक्षक कहलाते हैं। विकेटकीपर (या कीपर) हमेशा एक विशेषज्ञ होता है लेकिन गेंदबाजी पिच विकेटों के बीच की लम्बाई होती है और चौड़ी होती है।
यह एक समतल सतह है, इस पर बहुत ही कम घास होती है जो खेल के साथ कम हो सकती है। पिच की "हालत" मैच और टीम की रणनीति पर प्रभाव डालती है, पिच की वर्तमान और प्रत्याशित स्थिति टीम की रणनीति को निर्धारित करती है।
प्रत्येक विकेट में तीन लकड़ी के स्टंप होते हैं जिन्हें एक सीधी रेखा में रखा जाता है इनके ऊपर दो लकड़ी के बेल्स ([रखे जाते हैं; बेल्स सहित विकेट की कुल ऊंचाई है और तीनों स्टाम्पों की कुल चौड़ाई है .
चार लाइनें, जिन्हें क्रीज के रूप में जाना जाता है, पिच पर विकेट के चारों और पेंट की जाती हैं, ये बल्लेबाज के "सुरक्षित क्षेत्र" और गेंदबाज की सीमा को निर्धारित करती हैं। ये "पोप्पिंग" (या बल्लेबाजी) क्रीज या बालिंग क्रीज या दो "रिटर्न" क्रीज कहलाती हैं।
स्टंप को गेंदबाजी क्रीज की लाइन में रखा जाता है और इन्हें एक दूसरे से थोड़ी दूरी पर रखा जाता है। बीच वाली स्टंप को बिल्कुल केन्द्र पर गेंदबाजी क्रीज की लम्बाई में रखा जाता है पोप्पिंग क्रीज की लम्बाई समान होती है, यह गेंदबाजी की क्रीज के समांतर होती है और विकेट के सामने होती है। रिटर्न क्रीज बाकी दोनों के लम्बवत होती है; ये दोनों पोप्पिंग क्रीज के अंत से जुड़ी होती हैं और इन्हें गेंदबाजी की क्रीज के अंत तक कम से कम इसकी लम्बाई में चित्रित किया जाता है।
गेंदबाजी करते समय गेंदबाज का पिछला पैर उसकी "डिलीवरी स्ट्राइड" में दो रिटर्न क्रीजों के बीच में होना चाहिए, जबकि उसका अगला पैर पोप्पिंग क्रीज के ऊपर या उसके पीछे पढ़ना चाहिए। अगर गेंदबाज इस नियम को तोड़ता है, तो अंपायर "नो बाल" घोषित कर देता है।
बल्लेबाज के लिए पोप्पिंग क्रीज का महत्त्व यह है कि यह उसके सुरक्षित क्षेत्र की सीमा को निर्धारित करता है जब वह "अपने इस क्षेत्र से बाहर" होता है तो उसका विकेट उखाड़ दिए जाने पर वह स्टंप या रन आउट हो सकता है (नीचे डिस्मिस्ल देखें)|
पिच की स्थिरता भिन्न हो सकती है जिसके कारण गेंदबाज को मिलने वाला उछाल, स्पिन और गति अलग अलग हो सकती है। सख्त पिच पर बल्लेबाजी करना आसान होता है, क्योंकि इस पर उछाल ऊँचा लेकिन समान होता है। सूखी पिच बल्लेबाजी के लिए खराब मानी जाती है क्यों की इस पर दरारें आ जाती हैं और जब ऐसा होता है तो स्पिनर एक अहम भूमिका अदा कर सकता है। नम पिच या घास से ढकी पिचें (जो "हरी" पिचें कहलाती हैं) अच्छे तेज गेंदबाज को अतिरिक्त उछाल देने में मदद करती है। इस तरह की पिच पूरे मेच के दौरान तेज गेंदबाज की मदद करती है लेकिन जैसे जैसे मेच आगे बढ़ता है ये बल्लेबाजी के लिए और भी बेहतर होती जाती है।
इस खेल का सार है कि एक गेंदबाज अपनी ओर की पिच से बल्लेबाज की तरफ़ गेंद डालता है जो दूसरे अंत पर बल्ला लेकर उसे "स्ट्राइक" करने के लिए तैयार रहता है।
बल्ला लकड़ी से बना होता है इसका आकर ब्लेड के जैसा होता है और शीर्ष पर बेलनाकार हेंडल होता है। हेंडल की चौडाई
ब्लेड की चौडाई से अधिक नहीं होनी चाहिए और बल्ले की कुल लम्बाई से अधिक नहीं होनी चाहिए
गेंद एक सख्त चमड़े का गोला होती है जिसकी परिधि गेंद की कठोरता जिसे से अधिक गति से फेंका जा सकता है, वो एक विचारणीय मुद्दा है और बल्लेबाज सुरक्षात्मक कपड़े पहनता है जिसमें शामिल है पेड (जो घुटनों और पाँव के आगे वाले भाग की रक्षा के लिए पहने जाते हैं), बल्लेबाजी के दस्ताने हाथों के लिए, हेलमेट सर के लिए और एक बॉक्स जो पतलून के अन्दर पहना जाता है और क्रोच क्षेत्र को सुरक्षित करता है। कुछ बल्लेबाज अपनी शर्ट और पतलून के अन्दर अतिरिक्त पेडिंग पहनते हैं जैसे थाई पेड, आर्म पेड, रिब संरक्षक और कंधे के पैड
अंपायर और स्कोरर
मैदान पर खेल को दो अंपायर नियंत्रित करते हैं, उनमें से एक विकेट के पीछे गेंदबाज की तरफ़ खड़ा रहता है और दूसरा "स्क्वेयर लेग" की स्थिति में जो स्ट्राइकिंग बल्लेबाज से कुछ गज पीछे होता है। जब गेंदबाज गेंद डालता है तो विकेट वाला अम्पायर गेंदबाज और नॉन स्ट्राइकर के बीच रहता है। यदि खेल की स्थिति पर कुछ संदेह होता है तो अम्पायर परामर्श करता है और यदि आवश्यक होता है तो वो खिलाड़ियों को फ़ील्ड से बहार ले जाकर मैच को स्थगित कर सकता है, जैसे बारिश होने पर या रोशनी कम होने पर|
मैदान से बहार और टी वी पर प्रसारित होने वाले मैचों में अक्सर एक तीसरा अंपायर होता है जो विडियो साक्ष्य की सहायता से विशेष स्थितियों में फ़ैसला ले सकता है। टेस्ट मैचों और दो आईसीसी के पूर्ण सदस्यों के बीच खेले जाने वाले सीमित ओवरों के अंतरराष्ट्रीय खेल में तीसरा अंपायर जरुरी होता है। इन मैचों में एक मैच रेफरी भी होता है जिसका काम है यह सुनिश्चित करना होता है कि खेल क्रिकेट के नियमों के तहत खेल की भावना से खेला जाये|
मैदान के बाहर दो अधिकारिक स्कोरर रनों और आउट होने वाले खिलाड़ियों का रिकॉर्ड रखते हैं, प्रत्येक अधिकारी एक टीम से होता है।
स्कोरर अंपायर के हाथ के संकेतों द्वारा निर्देशित होते हैं। उदाहरण के लिए, अंपायर एक तर्जनी अंगुली उठा कर बताता है कि बल्लेबाज आउट हो गया है; और यदि बल्लेबाज ने छ: रन बनाए हैं तो वो दोनों हाथों को ऊपर उठाता है।
स्कोरर क्रिकेट के नियमों के अनुसार सभी रनों, विकेटों और ओवरों का रिकॉर्ड रखते हैं। व्यवहार में, वे अतिरिक्त डेटा भी संचित करते हैं जैसे गेंदबाजी विश्लेषण और रन की दरें|
पारी (हमेशा बहुवचन रूप में प्रयुक्त होती है) बल्लेबाजी पक्ष के सामूहिक प्रदर्शन के लिए एक शब्द है। सिद्धांत के तौर में, बल्लेबाजी पक्ष के सभी ग्यारह सदस्य बारी बारी से बल्लेबाजी करते हैं, लेकिन कई कारणों से "पारी" इससे पहले भी ख़त्म हो सकती है (नीचे देखें)|
खेले जा रहे मैच के प्रकार के अनुसार हर टीम की एक या दो परियां होती हैं। "पारी" शब्द का उपयोग कभी कभी एक बल्लेबाज के व्यक्तिगत योगदान को बताने के लिए भी किया जाता है। ("जैसे उसने एक अच्छी पारी खेली","उसकी पारी से टीम ने मैच जीता" आदि)
गेंदबाज का मुख्य उद्देश्य क्षेत्ररक्षकों की सहायता से बल्लेबाज को आउट करना होता है। एक बल्लेबाज जब बर्खास्त कर दिया जाता है तब कहा जाता है कि वह "आउट" हो गया है अर्थात उसे मैदान छोड़ कर जाना होगा और उसकी टीम का अगला बल्लेबाज अब बल्लेबाजी करने आएगा| जब दस बल्लेबाज बर्खास्त (अर्थात आउट) हो जाते हैं तो पूरी टीम बर्खास्त हो जाती है और पारी समाप्त हो जाती है। अंतिम बल्लेबाज, जो आउट नहीं हुआ है, वह अब बल्लेबाजी नहीं कर सकता क्योंकि हमेशा दो बल्लेबाजों को एक साथ मैदान में रहना होता है। यह बल्लेबाज "नॉट आउट" कहलाता है।
यदि दस बल्लेबाजों के आउट होने से पहले ही एक पारी समाप्त हो जाए तो दो बल्लेबाज "नॉट आउट" कहलाते हैं। एक पारी तीन कारणों से जल्दी ख़त्म हो सकती है: यदि बल्लेबाजी पक्ष का कप्तान घोषित कर दे की परी समाप्त हो गई है (जो एक सामरिक निर्णय होता है), या बल्लेबाजी पक्ष ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो और खेल को जीत लिया हो, या खेल ख़राब मौसम या समय ख़त्म हो जाने के कारण समाप्त कर दिया जाये| सीमित ओवरों के क्रिकेट में, जब अंतिम ओवर किया जा रहा हो तब भी दो बल्लेबाज बचे हो सकते हैं।
ओवर या षटक ६ गेंदों का समुच्चय या समूह होता है। यह शब्द इस तरह से आया है क्योंकि अंपायर कहता है "ओवर" यानि पूरा। जब ६ गेंदें डाली जा चुकी होती हैं, तब दूसरा गेंदबाज दूसरे छोर पर आ जाता है और क्षेत्ररक्षक भी अपना स्थान बदल लेते हैं। एक गेंदबाज लगातार दो ओवर नहीं डाल सकता है, हालांकि एक गेंदबाज छोर को बिना बदले उसी छोर से कई ओवर डाल सकता है। बल्लेबाज साइड या छोर को बदल नहीं सकते हैं, इसलिए जो नॉन स्ट्राइकर था वह स्ट्राइकर बन जाता है और स्ट्राइकर अब नॉन स्ट्राइकर बन जाता है। अंपायर भी अपनी स्थिति को बदलते हैं ताकि जो अंपायर स्क्वेयर लेग की स्थिति में था वह विकेट के पीछे चला जाता है और इसका विपरीत भी होता है।
एक टीम में ११ खिलाड़ी होते हैं। प्राथमिक कुशलता के आधार पर एक खिलाड़ी को बल्लेबाज या गेंदबाज के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। एक अच्छी तरह से संतुलित टीम में आमतौर पर पाँच या छह विशेषज्ञ बल्लेबाज और चार या पाँच विशेषज्ञ गेंदबाज होते हैं।
टीम में हमेशा एक विशेषज्ञ विकेट रक्षक होता है क्योंकि यह क्षेत्ररक्षण स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। प्रत्येक टीम का नेतृत्व कप्तान करता है जो सामरिक निर्णय लेने के लिए जिम्मेदार होता है, जैसे बल्लेबाजी क्रम का निर्धारण करना, क्षेत्ररक्षकों के स्थान निर्धारित करना और गेंदबाजों की बारी तय करना।
एक खिलाड़ी जो बल्लेबाजी और गेंदबाजी दोनों का विशेषज्ञ होता है हरफनमौला कहलाता है। जो बल्लेबाज और विकेट कीपर दोनों का काम करता है वह "विकेट कीपर/बल्लेबाज" कहलाता है, कभी कभी उसे हरफनमौला भी कहा जाता है, वास्तव में हरफनमौला खिलाड़ी कम ही देखने को मिलते हैं क्योंकि अधिकांश खिलाड़ी बल्लेबाजी या गेंदबाजी में से किसी एक पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं।
क्षेत्ररक्षण के पक्ष के सभी ग्यारह खिलाड़ी मैदान में एक साथ रहते हैं। उनमें से एक विकेट कीपर उर्फ "कीपर" होता है जो स्ट्राइकर बल्लेबाज के द्वारा बचाए जाने वाले विकेट के पीछे खड़ा रहता है। विकेट कीपिंग सामान्यत: एक विशेषज्ञ ही कर सकता है, उसका मुख्य कम उन गेंदों को पकड़ना होता है जो बल्लेबाज हिट नहीं करता है। जिससे की बल्लेबाज बाई के रन ना ले सके। वह विशेष दस्ताने पहनता हैं, (क्षेत्र रक्षकों में केवल उसी को ऐसा करने की अनुमति होती है) साथ ही अपने नीचले टांगों को कवर करने के लिए पैड भी पहनता है। चूँकि वह सीधे स्ट्राइकर के पीछे खड़ा रहता है, अत: उसके पास इस बात की बहुत अधिक संभावना होती है कि वो बल्लेबाज के बल्ले के किनारे से छू कर निकलती हुई बॉल को कैच करके बल्लेबाज को आउट कर सके। केवल वही एक ऐसा खिलाड़ी है जो बल्लेबाज को स्टम्पड आउट कर सकता है।
वर्तमान गेंदबाज के अलावा शेष ९ क्षेत्र रक्षक कप्तान के द्वारा मैदान में चुने हुए स्थानों पर तैनात रहते हैं।
ये स्थान तय नहीं होते हैं लेकिन ये विशेष और कभी कभी अच्छे नामों से जाने जाते हैं जैसे "स्लिप", "थर्ड मेन", "सिली मिड ऑन" और "लाँग लेग"| हमेशा कुछ असुरक्षित क्षेत्र रहते हैं।
कप्तान क्षेत्ररक्षण पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य होता है क्योंकि वह सभी रणनीतियां निर्धारित करता है, जैसे किसे गेंदबाजी करनी चाहिए (और कैसे); और वह "क्षेत्र की सेटिंग" के लिए भी जिम्मेदार होता है।
क्रिकेट के सभी रूपों में, यदि एक मैच के दौरान एक क्षेत्ररक्षक घायल या बीमार हो जाता है तो उसके स्थान पर किसी और को प्रतिस्थापित किया जा सकता है। प्रतिस्थापित खिलाड़ी गेंदबाज़ी, कप्तानी या विकेट कीपिंग नहीं कर सकता है। यदि घायल खिलाड़ी ठीक होकर वापस मैदान में आ जाए तो अतिरिक्त खिलाड़ी को मैदान छोड़ना होता है।
गेंदबाज अक्सर दौड़ कर गेंद डालने के लिए आते हैं, हालाँकि कुछ गेंदबाज एक या दो कदम ही दौड़ कर आते हैं और गेंद डाल देते हैं। एक तेज गेंदबाज को संवेग की जरुरत होती है जिसके कारण वह तेजी से और दूरी से दौड़ कर आता है।
तेज गेंदबाज बहुत तेजी से गेंद को डाल सकता है और कभी कभी वह बल्लेबाज को आउट करने के लिए बहुत ही तेज गति की गेंद डालता है जिससे बल्लेबाज पर तीव्रता से प्रतिक्रिया करने का दबाव बन जाता है। अन्य तेज गेंदबाज गति के साथ साथ किस्मत पर भी भरोसा करते हैं। कई तेज गेंदबाज गेंद को इस तरह से डालते हैं कि वह हवा में "झूलती हुई" या "घूमती हुई" आती है, जिसे गेंद का स्विंग होना कहते हैं।
इस प्रकार की डिलीवरी बल्लेबाज को धोखा दे सकती है जिसके कारण उसके शॉट खेलने की टाइमिंग ग़लत हो जाती हैं, जिससे गेंद बल्ले के बाहरी किनारे को छूती हुई निकलती है और उसे विकेट कीपर या स्लिप क्षेत्र रक्षक के द्वारा केच किया जा सकता है।
गेंदबाजों में एक अन्य प्रकार है "स्पिनर" जो धीमी गति से स्पिन करती हुई गेंद डालता है और बल्लेबाज को धोखा देने की कोशिश करता है। एक स्पिनर अक्सर विकेट लेने के लिए गेंद को थोड़ा ऊपर से डालता है और बल्लेबाज को ग़लत शॉट खेलने के लिए उकसाता है। बल्लेबाज को इस तरह की गेंदों से बहुत अधिक सावधान रहना होता है क्योंकि यह गेंद अक्सर बहुत ऊँची और घूर्णन करती हुई आती है और वो उस तरह से व्यवाहर नहीं करती है जैसा कि बल्लेबाज ने सोचा होता है और वो आउट हो सकता है।
तेज़ गेंदबाज़ और स्पिनर के मध्य होते हैं "मध्यमगति के गेंदबाज़" जो अपनी सटीक गेंदबाजी से रनों की गति को कम करने पर भरोसा करते हैं और बल्लेबाजों का ध्यान भंग करते हैं।
सभी गेंदबाजों को उनकी गति और शैली के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है। ज्यादा क्रिकेट शब्दावली के अनुसार वर्गीकरण (क्लास्सिफिकेशन्स) बहुत भ्रमित कर सकते हैं। इस प्रकार से एक गेंदबाज को एल एफ में वर्गीकृत किया जा सकता है जिसका अर्थ है बाएं हाथ का तेज गेंदबाज या एल बी जी में वर्गीकृत किया जा सकता है जिसका अर्थ है दायें हाथ का स्पिन गेंदबाज जो "लेग ब्रेक" या "गूगली" डाल सकता है।
गेंदबाजी के दौरान कोहनी को किसी भी कोण पर रखा जा सकता है या मोड़ा जा सकता है लेकिन इस दौरान उसे सीधा नहीं किया जा सकता है। यदि कोहनी अवैध रूप से सीधी हो जाती है तो स्क्वेर लेग अम्पायर इसे नो बॉल (नो-बाल) घोषित कर सकता है। वर्तमान नियमों के अनुसार एक गेंदबाज अपनी भुजा को १५ डिग्री या उससे कम तक सीधा कर सकता है।
किसी भी एक समय पर, मैदान में दो बल्लेबाज होते हैं। एक स्ट्राइकर छोर पर रह कर विकेट की रक्षा करता है और संभव हो तो रन बनाता है। उसका साथी, जो नॉन स्ट्राइकर होता है वो उस छोर पर होता है जहाँ से गेंदबाजी की जाती है।
बल्लेबाज बल्लेबाजी क्रम (बटिंग ऑर्डर) में आते हैं, यह क्रम कप्तान के द्वारा निर्धारित किया जाता है, पहले दो बल्लेबाज "ओपनर" कहलाते हैं। उन्हें सामान्यत: सबसे खतरनाक गेंदबाजी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उस समय तेज गेंदबाज नई गेंद का उपयोग करते हैं। शीर्ष बल्लेबाजी के लिए आम तौर पर टीम में सबसे अधिक सक्षम बल्लेबाज को भेजा जाता है और गैर बल्लेबाजों को अंत में भेजा जाता है। पहले से निर्धारित किया गया बल्लेबाजी क्रम अनिवार्य नहीं है और जब भी एक विकेट गिर जाता है तो कोई भी खिलाड़ी जिसने बल्लेबाजी नहीं की है उसे भेजा जा सकता है।
अगर एक बल्लेबाज मैदान छोड़ के जाता है (आम तौर पर चोट के कारण) और वापस नहीं लौट पता है तो वह वास्तव में "नॉट आउट" होता है और उसका बहार जाना आउट नहीं माना जाता है, परन्तु उसे बर्खास्त कर दिया जाता है क्योंकि उसकी पारी समाप्त हो चुकी होती है। प्रतिस्थापित बल्लेबाज को अनुमति नहीं होती है। (कुछ जगहों को छोडकर, २०१९ से लागू)
एक कुशल बल्लेबाज सुरक्षात्मक और आक्रामक दोनों रूपों में कई प्रकार के "शॉट" या 'स्ट्रोक' लगा सकता है। मुख्य काम है गेंद को बल्ले की समतल सतह से हिट करना। यदि गेंद बल्ले के किनारे को छूती है तो यह "बाहरी किनारा" कहलाता है। बल्लेबाज हमेशा ही गेंद को जोर से हिट करने की कोशिश नहीं करता है, एक अच्छा खिलाड़ी एक हल्के चतुर स्ट्रोक से या केवल अपनी कलाई को हल्के से घुमा कर रन बना सकता है। लेकिन वह गेंद को क्षेत्ररक्षकों से दूर हिट करता है ताकि उसे रन बनाने का समय मिल सके।
क्रिकेट में कई प्रकार के शॉट खेले जाते हैं। बल्लेबाज के द्वारा लगाये गए स्ट्रोक को गेंद के स्विंग या उसकी दिशा के अनुसार कई नाम दिए जा सकते हैं जैसे "कट (कट) "ड्राइव","हुक" या "पुल".
ध्यान दें कि बल्लेबाज को हर शॉट को नहीं खेलना होता है, यदि उसे लगता है कि गेंद विकेट से नहीं टकराएगी तो वह गेंद को विकेट कीपर तक जाने के लिए "छोड़" सकता है। इसके साथ ही, वह जब अपने बल्ले से गेंद को हिट करता है तो उसे रन लेने का प्रयास नहीं करना होता है। वह जानबूझकर अपने पैर का प्रयोग करके गेंद को रोक सकता है और उसे अपनी टांग से दूर कर सकता है लेकिन यह एल बी डबल्यू नियम के अनुसार जोखिम भरा हो सकता है।
यदि एक घायल बल्लेबाज बल्लेबाजी करने के लिए फिट हो जाता है लेकिन भाग नहीं सकता हो तो अंपायर और क्षेत्ररक्षण टीम का कप्तान बल्लेबाजी पक्ष के एक अन्य सदस्य को दोड़ने (रुनएर) की अनुमति दे सकता है। यदि संभव हो तो, इस धावक को अपने साथ बल्ला रखना होता है। इस धावक का एक मात्र काम होता है घायल बल्लेबाज के स्थान पर दोड़ना. इस धावक को वो सभी उपकरण पहनने और उठाने होते हैं जो एक बल्लेबाज ने पहने हैं। दोनों बल्लेबाजों के लिए धावक रखना संभव है।
स्ट्राइकर बल्लेबाज की प्राथमिकता होती है गेंद को विकेट पर टकराने से रोकना. और दूसरी प्राथमिकता होती है बल्ले से गेंद को हिट कर के रन (रुन्स) बनाना ताकि इससे पहले कि क्षेत्ररक्षण पक्ष की ओर से गेंद वापस आए, उसे और उसके सहयोगी को रन बनाने का समय मिल जाए. एक रन रजिस्टर करने के लिए, दोनों धावकों को अपने बल्ले से या शरीर के किसी भाग से क्रीज के पीछे की भूमि को छुना होता है। (बल्लेबाज दोड़ते समय बल्ला लिए होते हैं) प्रत्येक रन स्कोर में जुड़ जाता है।
एक ही हिट पर एक से अधिक रन बनाये जा सकते हैं, एक हिट में एक से तीन रन आम हैं, मैदान का आकार इस प्रकार का होता है कि सामान्यत: चार या अधिक रन बनाना कठिन होता है। इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए, यदि गेंद मैदान की सीमा की भूमि को छूती है तो इसे चार रन गिना जाता है। और यदि गेंद सीमा को हवा में पार करके निकल जाती है तो इसे छ: रन गिना जाता है। यदि गेंद सीमा पार चली जाती है तो बल्लेबाज को भागने की जरुरत नहीं होती है।
पाँच रन बहुत ही असामान्य हैं और आमतौर पर यह क्षेत्र रक्षक के द्वारा वापस फेंकी गई गेंद, "ओवर थ्रो" पर निर्भर करता है। यदि स्ट्राइकर विषम संख्या में रन बनाता है तो बल्लेबाजों का स्थान आपस में बदल जाता है और नॉन स्ट्राइकर अब स्ट्राइकर बन जाता है। केवल स्ट्राइकर ही व्यक्तिगत रूप से रन बनता है लेकिन सभी रन टीम के कुल स्कोर में जोड़े जाते हैं।
रन लेने का फ़ैसला बल्लेबाज, जिसको गेंद की दिशा और गति का ज्ञान होता है, उसके द्वारा किया जाता है और इसको वह "हाँ", "ना" या "रुको" कहके बताता है।
रन लेने में बहुत जोखिम होता है क्योंकि यदि एक क्षेत्र रक्षक विकेट को गिरा देता है, जब नजदीकी बल्लेबाज अपनी क्रीज से बाहर होता है तो (यानि उसके शरीर का कोई भाग या बल्ला पोप्पिंग क्रीज के संपर्क में नहीं है) बल्लेबाज रन आउट (रून आउट) कहलाता है।
एक टीम के स्कोर को उसके द्वारा बनाये गए रनों की संख्या और आउट हुए बल्लेबाजो की संख्या से प्रदर्शित किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि पाँच बल्लेबाज आउट हो गए हैं और टीम ने २२४ रन बनाये हैं तो कहा जाता है कि उन्होंने ५ विकेट की हानि पर २२४ रन बनाये हैं (इसे साधारणत: २२४ पर ५ और २२४/५ के रूप में लिखा जाता है, ऑस्ट्रेलिया में, ५ पर २२४ और ५/२२४)।
क्षेत्ररक्षण पक्ष की और से की गई त्रुटियों के कारण बल्लेबाजी पक्ष को जो रन प्राप्त होते हैं वे अतिरिक्त (एक्स्ट्रा) कहलाते हैं। (ऑस्ट्रेलिया में "सनड्रिज" कहलाते हैं)। यह चार प्रकार से प्राप्त किये जा सकते हैं:
नो बॉल एक ऐसी अतिरिक्त बॉल होती है जो गेंदबाज के द्वारा किसी नियम का उल्लंघन करने पर दंड के रूप में डाली जाती है; (अ) अनुपयुक्त भुजा एक्शन के कारण; (ब) पोप्पिंग क्रिज पर ओवर स्टेप्पिंग के कारण; (स) यदि उसका पैर रिटर्न क्रिज के बाहर हो; इस के लिए गेंदबाज को फ़िर से गेंद डालनी होती है। वर्तमान नियमों के अनुसार खेल के ट्वेंटी २० (त्वेंटी२०) और ओ डी आई (ओड़ी) प्रारूपों में फ़िर से डाली गई गेंद फ्री हिट होती है, अर्थात इस गेंद पर बल्लेबाज रन आउट के अलावा किसी और प्रकार से आउट नहीं हो सकता है।
वाइड दंड के रूप में दी गई एक अतिरिक्त गेंद होती है जो तब दी जाती है जब गेंदबाज ऐसी गेंद डालता है जो बल्लेबाज की पहुँच से बाहर हो।
बाई बल्लेबाज को मिलने वाला अतिरिक्त रन है जब बल्लेबाज गेंद को मिस कर देता है और यह पीछे विकेट कीपर के पास से होकर निकल जाती है जिससे बल्लेबाज को परंपरागत तरीके से रन लेने का समय मिल जाता है (ध्यान दें कि एक अच्छे विकेट कीपर की निशानी है कि वह कम से कम बाईज दे।
लेग बाई अतिरिक्त दिया जाने वाला रन, जब गेंद बल्लेबाज के शरीर को हिट करती है लेकिन बल्ले को नहीं और यह क्षेत्ररक्षकों से दूर जाकर बल्लेबाज को परंपरागत तरीके से रन लेने का समय भी देती है।
जब कोई गेंदबाज एक वाइड या नो बॉल डालता है, तो उसकी टीम को दंड भुगतना पड़ता है क्योंकि उन्हें एक अतिरिक्त गेंद डालनी पड़ती है जिससे बल्लेबाजी पक्ष को अतिरिक्त रन बनने का मौका मिल जाता है। बल्लेबाज को भाग कर रन लेना ही होता है ताकि वह बाईज और लेग बाईज का दावा कर सके। (सिवाय इसके जब गेंद चार रन के लिए सीमा पार चली जाती है) लेकिन ये रन केवल टीम के कुल स्कोर में जुड़ते हैं, स्ट्राइकर के व्यक्तिगत स्कोर में नहीं।
एक बल्लेबाज दस तरीके से आउट हो सकता है और कुछ तरीके इतने असामान्य हैं कि खेल के पूरे इतिहास में इसके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं। आउट होने के सबसे सामान्य प्रकार हैं "बोल्ड", "केच", "एल बी डबल्यू", "रन आउट", "स्टंपड" और "हिट विकेट".असामान्य तरीके हैं "गेंद का दो बार हिट करना", "मैदान को बाधित करना", "गेंद को हेंडल करना" और "समय समाप्त".
इससे पहले कि अंपायर बल्लेबाज के आउट होने की घोषणा करें सामान्यत: क्षेत्ररक्षण पक्ष का कोई सदस्य (आमतौर पर गेंदबाज) "अपील" करता है। यह "हाउज़ देट?" बोल कर या चिल्ला कर किया जाता है। इसका मतलब है "हाउ इस देट?" यदि अंपायर अपील से सहमत हैं, तो वह तर्जनी अंगुली उठा कर कहता है "आउट!"अन्यथा वह सिर हिला कर कहता है "नॉट आउट".अपील उस समय तेज आवाज में की जाती है जब आउट होने की परिस्थिति स्पष्ट न हो। यह एल बी डबल्यू की स्थिति में हमेशा होता है और अक्सर रन आउट और स्टंप की स्थिति में होता है।
बोल्ड (बॉउलेड); यदि गेंदबाज गेंद से विकेट पर हिट करता है जिससे की कम से कम एक विकेट गिर जाए और बेल अपने स्थान से हट जाए (ध्यान दें की यदि गेंद विकेट पर लगती है पर बेल अपने स्थान से नहीं हटती है तो वो नॉट आउट होता है)
केच (काट);यदि बल्लेबाज ने बल्ले से या हाथ से गेंद को हिट किया और इसे क्षेत्र रक्षण टीम के किसी सदस्य ने केच कर लिया हो।
लेग बिफोर विकेट (लीग बेफोर विकेट)(एल बी डब्ल्यू); यह जटिल है लेकिन इसका मूल अर्थ यह होता है कि यदि गेंद ने पहले बल्लेबाज की टांग को न छुआ होता तो वो आउट हो जाता
रन आउट (रून आउट) क्षेत्ररक्षण पक्ष के एक सदस्य ने गेंद से विकेट को तोड़ दिया या गिरा दिया जब बल्लेबाज अपनी क्रीज़ पर नहीं था; यह सामान्यत: तब होता है जब बल्लेबाज रन लेने की कोशिश कर रहा होता है और सटीक थ्रो के द्वारा गेंद से विकेट तोड़ दिया जाता है।
स्टंपड (स्टम्पेड) यह उसी के समान है लेकिन इसमें विकेट को विकेट कीपर तोड़ता है जब बल्लेबाज गेंद को मिस कर के रन लेने के लिए अपनी क्रीज़ से बाहर चला जाता है; कीपर को गेंद को हाथ में लेकर विकेट को तोड़ना होता है। (यदि कीपर गेंद को विकेट पर फेंकता है तो यह रन आउट होता है)
हिट विकेट (हित विकेट); बल्लेबाज हिट विकेट से आउट हो जाता है जब बल्लेबाज गेंद को हिट करते समय या रन लेने की कोशिश करते समय अपने बल्ले, कपड़े, या किसी अन्य उपकरण से एक या दोनों बेलों को गिरा देता है।
दो बार गेंद को मारना (हित थे बाल ट्विस)यह बहुत ही असामान्य है और यह खेल के जोखिम को ध्यान में रखते हुए और क्षेत्ररक्षकों की सुरक्षा के लिए शुरू किया गया है। बल्लेबाज कानूनी रूप से एक बार गेंद को खेल लेने के बाद सिर्फ इसे विकेट पर टकराने से रोकने के लिए दुबारा हिट कर सकता है।
क्षेत्र बाधित (ऑबस्ट्रक्टेड थे फील्ड) ; एक और असामान्य बर्खास्तगी जिसमें एक बल्लेबाज जानबूझकर एक क्षेत्ररक्षक के रास्ते में आ जाए.
गेंद को पकड़ना (हैंडल्ड थे बाल); एक बल्लेबाज जानबूझकर अपने विकेट को सुरक्षित करने के लिए हाथ का प्रयोग नहीं कर सकता है। (ध्यान दें कि अक्सर गेंद बल्लेबाज के हाथ को छूती है लेकिन यदि यह जान बूझ कर नहीं किया गया है तो नॉट आउट होता है; हालाँकि वह इसे अपने हाथ में पकड़ सकता है)
टाइम आउट (टिमड आउट); यदि एक बल्लेबाज के आउट हो जाने के दो मिनट के अन्दर अगला बल्लेबाज मैदान पर न आए
अधिकांश मामलों में स्ट्राइकर ही आउट होता है। यदि गैर स्ट्राइकर आउट है तो वह रन आउट होता है, लेकिन वह मैदान को बाधित कर के, बॉल को पकड़ कर या समय समाप्त होने पर भी आउट हो सकता है।
एक बल्लेबाज बिना आउट हुए भी मैदान को छोड़ सकता है। अगर उसे चोट लग जाए या वह घायल हो जाए तो वह अस्थायी रूप से जा सकता है, उसे अगले बल्लेबाज के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। इसे रिटायर्ड हर्ट (रेतिर्ड हर्ट) या रिटायर्ड बीमार (रेतिर्ड इल)के रूप में दर्ज किया जाता है। रिटायर्ड बल्लेबाज नॉट आउट होता है और बाद में फ़िर से आ सकता है। एक अछूता बल्लेबाज, रिटायर हो सकता है उसे रिटायर आउट (रेतिर्ड आउट) कहा जाता है; जिसका श्रेय किसी भी खिलाड़ी को नहीं जाता है। बल्लेबाज नो बॉल पर बोल्ड, केच, लेग बिफोर विकेट , स्टंप्डया हिट विकेट आउट नहीं हो सकता है। वो वाइड बॉलपर बोल्ड, केच, लेग बिफोर विकेट , या बॉल को दो बार हिट करने पर आउट हो सकता है। इनमें से कुछ प्रकार के आउट गेंदबाज के द्वारा बिना गेंद डाले ही हो सकते हैं। नॉन-स्ट्राइकर बल्लेबाज भी रन आउट (रून आउट बाय थे बोलर) हो सकता है यदि वह गेंदबाज के द्वारा गेंद डालने से पहले क्रीज को छोड़ दे और एक बल्लेबाज क्षेत्ररक्षण बाधित करने पर या रिटायर आउट होने पर किसी भी समय आउट हो सकता है। समय समाप्त , बिना डिलीवरी के होने वाली बर्खास्तगी है। आउट होने के किसी भी तरीके में, केवल एक ही बल्लेबाज एक गेंद पर आउट हो सकता है।
एक पारी समाप्त होती है जब:
ग्यारह में से १० बल्लेबाज आउट हो जाते हैं; इस स्थिति में टीम "आल आउट" कहलाती है।
यदि टीम में केवल एक ही ऐसा बल्लेबाज बचा है जो बल्लेबाजी कर सकता है, बाकि बचे हुए एक या अधिक खिलाड़ी चोट, बीमारी या अनुपस्थिति के कारण उपलब्ध नहीं हैं तो भी टीम "ऑल आउट" कहलाती है।
बल्लेबाजी करने वाली टीम को अंत में उस स्कोर तक पहुंचना होता है जो मैच को जीतने के लिए जरुरी है।
ओवर की पूर्व निर्धारित संख्या में ही गेंदें डाली जाती हैं, (एक दिवसीय मैच में सामान्यत: ५० ओवर और ट्वेंटी २० में सामान्यत:२० ओवर)
एक कप्तान अपनी टीम की पारी को समाप्त घोषित (डिक्लार्) कर सकता है जब उसके कम से कम दो बल्लेबाज नॉट आउट हों, (यह एक दिवसीय के मैच में लागु नहीं होता है।)
दोनों टीमों के द्वारा बनाये गए रनों की संख्या का अन्तर है।) यदि बाद में खेलने वाली टीम जीतने के लिए पर्याप्त रन बना लेती है तो कहा जाता है कि वह न विकेटों से जीत गई। जहां न बचे हुए विकेटों की संख्या है। उदहारण के लिए यदि कोई टीम केवल ६ विकेट खो कर विरोधी टीम के स्कोर को पार कर लेती है तो कहा जाता है कि वह "चार विकेट से मैच जीत गई है"
दो पारी के मैच में एक टीम का पहली और दूसरी पारी का कुल स्कोर दुसरे पक्ष की पहली परी के कुल स्कोर से भी कम हो सकता है। तब कहा जाता है कि टीम एक पारी और न रनों से जीत गई है और उसे फ़िर से बल्लेबाजी करने की कोई जरुरत नहीं है: न दोनों टीमों कुल स्कोर के बीच का अंतर है।
यदि अंत में बल्लेबाजी करने वाली टीम ऑल आउट हो जाती है और दोनों साइडों ने समान रन बनाये हैं, तो मैच टाई (टी) हो जाता है; यह नतीजा काफी दुर्लभ होता है। खेल के परंपरागत स्वरूप में, किसी भी पक्ष के जीतने से पहले यदि समय ख़त्म हो जाता है तो खेल को ड्रा (ड्रा) घोषित कर दिया जाता है।
अगर मैच में हर पक्ष के लिए केवल एक पारी है तो हर पारी के लिए की अधिकतम गेंदों की संख्या अक्सर निश्चित कर दी जाती है। इस तरह के मैच "सीमित ओवरों के मैच" या "एक दिवसीय मैच" कहलाते हैं और विकेटों की संख्या को ध्यान में न रखते हुए अधिक रन बनाने वाली टीम जीत जाती है। जिससे ड्रा नहीं हो सकता है। यदि इस प्रकार का मैच अस्थायी रूप से ख़राब मौसम के कारण बाधित हो जाता है तो एक जटिल गणितीय सूत्र जो डकवर्थ -लुईस पद्धति कहलाती है उसके मध्यम से एक नया लक्ष्य स्कोर फ़िर से आकलित किया जाता है। एक दिवसीय मैच को भी "परिणाम रहित " घोषित किया जा सकता है यदि किसी एक टीम के द्वारा पूर्व निर्धारित ओवर डाले जा चुके हैं और किसी परिस्थिती जैसे गीले मौसम के कारण आगे खेल को नहीं खेला जा सकता है।
मैच के प्रारूप
व्यापक अर्थों में क्रिकेट एक बहु आयामी खेल है, इसे खेल के पैमानों के आधार पर मेजर क्रिकेट (मेजर क्रिकेट) और माइनर क्रिकेट में विभाजित किया जा सकता है। एक और अधिक उचित विभाजन, विशेष रूप से मेजर क्रिकेट के शब्दों में, मैचों के बीच किया जाता है, जिसमें कुल दो पारियां होती हैं, प्रत्येक टीम को एक पारी खेलनी होती है। इसे पूर्व में प्रथम श्रेणी क्रिकेट (फर्स्ट-क्लास क्रिकेट) के रूप में जाना जाता था, इसकी अवधि तीन से पाँच दिन होती है, (ऐसे मैचों के उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें समय की कोई सीमा नहीं रही है); बाद में इन्हें सीमित ओवरों के क्रिकेट (लिमिटेड ओवर्स क्रिकेट) के रूप में जाना जाने लगा क्योंकि प्रत्येक टीम प्रारूपिक रूप से सीमित ५० ओवर में गेंदें डालती है, इसकी पूर्व निर्धारित अवधि केवल १ दिन होती है। (एक मेच की अवधि को ख़राब मौसम जैसे किसी कारण से भी बढाया जा सकता है।)
आमतौर पर, दो पारी के मैच में प्रति दिन कम से कम ६ घंटे खेलने के समय (प्लेयिंग टाइम) के रूप में दिए जाते हैं। सीमित ओवरों के मैच अक्सर ६ घंटे या अधिक में समाप्त हो जाते हैं। पेय के लिए संक्षिप्त अनौपचारिक अन्तराल के आलावा आम तौर पर भोजन और चाय के लिए औपचारिक अंतराल होते हैं। पारियों के बीच एक छोटा अन्तराल भी होता है। ऐतिहासिक रूप से, क्रिकेट का एक रूप जो सिंगल विकेट (सिंगल विकेट) के नाम से जाना जाता था, बेहद सफल रहा था और १८ वीं और १९ वीं सदी में इन स्पर्धाओं में से अधिकांश को मुख्य क्रिकेट का दर्जा दिया गया था। इस रूप में, हालांकि प्रत्येक टीम में १ से ६ खिलाड़ी होते थे और एक समय में केवल एक बल्लेबाज होता था, उसे अपनी पारी की समाप्ति तक हर गेंद का सामना करना होता था। सीमित ओवरों के क्रिकेट की शुरुआत के बाद से सिंगल विकेट क्रिकेट को कभी कभी ही खेला गया है।
टेस्ट क्रिकेट (टेस्ट क्रिकेट) प्रथम श्रेणी क्रिकेट के सर्वोच्च मानक है। एक टेस्ट मैच उन देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली टीमों के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता है जो आईसीसी के पूर्ण सदस्य हैं।
जनवरी २००५ में दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड के बीच
हालांकि शब्द "टेस्ट मैच" का प्रयोग काफी समय तक नहीं किया गया, ऐसा माना जाता है कि १८७६-७७ में ऑस्ट्रेलियाई मौसम (१८७६-७७ ऑस्ट्रेलियन सीसों) में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच इसकी शुरुआत हुई। इसके बाद आठ अन्य राष्ट्रीय दलों ने टेस्ट दर्जा हासिल किया: दक्षिण अफ्रीका (१८८९), वेस्ट इंडीज (१९२८), न्यूजीलैंड (१९२९), भारत (१९३२), पाकिस्तान (पाकिस्तान)(१९५२), श्रीलंका (श्री लंका)(१९८२), जिम्बाब्वे (१९९२) और बंगलादेश (२०००)।
बाद में २००६ में जिम्बाब्वे को टेस्ट दर्जे से निलंबित कर दिया गया, क्योंकि यह दूसरी टीमों से स्पर्धा नहीं कर पा रही थी। और अभी तक यह निलंबित है।
वेल्श खिलाड़ी इंग्लैंड के लिए खेलने के लिए पात्र हैं, यह इंग्लैंड और वेल्स की टीम के बीच प्रभावी है। वेस्ट इंडीज टीम में कई राज्यों के खिलाड़ी हैं, कैरेबियन, विशेषकर बारबाडोस, गुयाना, जमैका, त्रिनिडाड और टोबैगोसे और लीवर्ड द्वीप और विंड वार्ड द्वीप से खिलाड़ी इसमें शामिल हैं।
दो टीमों के बीच आमतौर पर टेस्ट मैचों को मकान के एक समूह में खेला जाता है जिसे "श्रृंखला" कहा जाता है। मैच ५ दिनों तक चल सकते हैं, सामान्य रूप से एक श्रृंखला में ३ से ५ मैच हो सकते हैं। टेस्ट मैच जो दिए गए समय में ख़त्म नहीं होते हैं वह ड्रा हो जाते हैं।
१८८२ के बाद से इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच टेस्ट श्रृंखला एक ट्रॉफी के लिए खेली जाती है जिसे दी एशेस (थे एश) के नाम से जाना जाता है। कुछ अन्य श्रृंखलाओं में भी व्यक्तिगत ट्रॉफियां है: उदाहरण के लिए, विस्डेन ट्रॉफी (विस्डन ट्रॉफी) जिसके लिए इंग्लैंड और वेस्ट इंडीज के बीच स्पर्धा होती है; फ्रैंक वोरेल्ल ट्रॉफी (फ्रेंक वरेल ट्रॉफी) जिसके लिए ऑस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज के बीच स्पर्धा होती है।
एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय
सीमित ओवरों के क्रिकेट (लिमिटेड ओवर्स क्रिकेट) को कभी कभी एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि हर मैच के लिए एक दिन का समय ही निर्धारित किया जाता है।
व्यवहार में, कभी-कभी मैच दूसरे दिन भी जारी रहते हैं यदि वे ख़राब मौसम के कारण बाधित हो जायें या स्थगित कर दिए जायें। एक सीमित ओवरों के मैच का मुख्य उद्देश्य है परिणाम उत्पन्न करना और इसलिए एक परंपरागत ड्रा सम्भव नहीं होता है; लेकिन कई बार परिणाम घोषित नहीं हो पता जब स्कोर टाई हो जाए या ख़राब मौसम के कारण इसे बीच में ही रोकना पड़े। प्रत्येक टीम केवल एक ही पारी खेलती है और एक सीमित संख्या में ओवरों का सामना करती है। आमतौर पर, सीमा है ४० या ५० ओवर, ट्वेन्टी ट्वेन्टी क्रिकेट में प्रत्येक टीम को केवल २० ओवरों का सामना करना होता है। एक सीमित ओवरों अंतर्राष्ट्रीय (लिमिटेड ओवर्स इंटरनेशनल) के दौरान
मानक सीमित ओवरों के क्रिकेट की शुरुआत इंग्लैंड में १९६३ के मौसम में हुई, जब प्रथम श्रेणी के काउंटी क्लबों द्वारा एक नॉक आउट कप पर स्पर्धा हुई। १९६९ में एक राष्ट्रीय लीग प्रतियोगिता की स्थापना की गई थी। इसके पीछे अवधारणा थी कि अन्य मुख्य खेलाें में क्रिकेट को शामिल किया जाए और पहला सीमित ओवरों का अंतर्राष्ट्रीय मैच १९७१ में खेला गया। १९७५ में, प्रथम क्रिकेट वर्ल्ड कप इंग्लैंड में हुआ। सीमित ओवरों के क्रिकेट में कई बदलाव लाये गए जिसमें बहुल रंगों के किट का उपयोग और एक सफ़ेद गेंद से फ्लड लिट मैच शामिल हैं।
ट्वेंटी २० सीमित ओवर का नया रूप है जिसका उद्देश्य है कि मैच ३ घंटे में ख़त्म हो जाए, सामान्यत: इसे शाम के समय में खेला जाता है। मूल विचार, जब अवधारणा इंग्लैंड में २००३ में पेश की गई, यह था कि कर्मचारियों को शाम के समय में मनोरंजन उपलब्ध कराया जा सके। यह व्यावसायिक रूप से सफल हुआ और इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया है। पहली ट्वेंटी २० विश्व चैम्पियनशिप (त्वेंटी२० वर्ल्ड चैंपियनशिप) २०07 में आयोजित किया गई। अगली ट्वेंटी २० विश्व चैम्पियनशिप इंग्लैंड में २०09 में आयोजित की जायेगी
प्रथम श्रेणी क्रिकेट (फर्स्ट-क्लास क्रिकेट) में टेस्ट क्रिकेट शामिल है लेकिन इस शब्द का उपयोग सामान्यत: पूर्ण आइ सी सी सदस्यता वाले देशों में उच्चतम स्तर के घरेलु क्रिकेट के लिए किया जाता है। हालांकि इसके अपवाद हैं। प्रथम श्रेणी क्रिकेट १८ काउंटी क्लबों के द्वारा इंग्लैंड के बहुत से भाग में खेला जाता है जो काउंटी चैम्पियनशिप (काउंटी चैंपियनशिप) में हिस्सा लेते हैं। काउंटी चैंपियन (चैंपियन काउंटी) की अवधारणा १८ वीं शताब्दी के बाद से ही अस्तित्व में है, लेकिन सरकारी प्रतियोगिता १८90 तक स्थापित नहीं की गई थी।
यॉर्कशायर काउंटी क्रिकेट क्लब (यॉर्कशीरे काउंटी क्रिकेट क्लब) सबसे सफल क्लब रहा है जिसके पास ३० आधिकारिक शीर्षक हैं।
ऑस्ट्रेलिया ने अपनी राष्ट्रीय प्रथम श्रेणी चैम्पियनशिप की स्थापना १८९२-९३ में की जब शेफील्ड शील्ड (शेफ्फील्ड शील्ड) शुरू की गई थी। ऑस्ट्रेलिया में, प्रथम श्रेणी की टीमें विभिन्न राज्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं। न्यू साउथ वेल्स (नव साउथ वेल्स) ने २००८ तक ४५ के साथ सबसे ज्यादा खिताब जीते हैं।
राष्ट्रीय चैंपियनशिप ट्राफियां कई स्थानों पर स्थापित है रणजी ट्रॉफी (रंजी ट्रॉफी) (भारत), प्लुनकेट शील्ड (प्लंकेट शील्ड) (न्यूजीलैंड), क्युरी कप (करी कप) (दक्षिण अफ्रीका) और शैल शील्ड (शेल शील्ड) (वेस्ट इंडीज)। इनमें से कुछ प्रतियोगिताओं का अद्यतन किया गया है और हाल के वर्षों में नए नाम दिए गए हैं।
घरेलू सीमित ओवरों की प्रतियोगिताये इंग्लैंड के जिलेट कप (जिलेट कप) नोक आउट के साथ १९६३ में शुरू हुई। आमतौर पर देश नोक आउट और लीग दोनों प्रारूपों में मौसमी सीमित ओवरों की प्रतियोगिताओं को करते हैं। हाल के वर्षों में, राष्ट्रीय ट्वेंटी २० प्रतियोगिताये शुरू हुई हैं। ये सामान्यतया नोक आउट रूप में शुरू की गई हैं लेकिन कुछ मिनी लीग के रूप में भी हैं।
क्रिकेट के अन्य प्रकार
दुनिया भर में खेले जाने वाले इस खेल के असंख्य अनौपचारिक रूप हैं, जिसमें शामिल है इनडोर क्रिकेट, फ्रांसीसी क्रिकेट, बीच क्रिकेट, क्विक क्रिकेट और सभी प्रकार के कार्ड खेल और बोर्ड खेल जो क्रिकेट से प्रेरित हैं। इन रूपों में, अक्सर नियम बदल दिए जाते हैं ताकि सिमित स्रोतों में खेल को खेलने योग्य बनाया जा सके, या सहभागियों के लिए इसे अधिक मनोरंजक और आसन बनाया जा सके।
इंडोर क्रिकेट (इनदूर क्रिकेट) को एक जाल युक्त इनडोर क्षेत्र में खेला जाता है, यह बहुत औपचारिक है लेकिन अधिकांश आउटडोर रूप अनौपचारिक हैं
परिवार और किशोर उपनगरीय क्षेत्रों में बेक यार्ड क्रिकेट (बऐक्यार्ड क्रिकेट) खेलते हैं और भारत और पाकिस्तान में गलियों (लम्बी संकरी गलियों में खेला जाता है) में "गली क्रिकेट" या "टेप बॉल" खेला जाता है। इसमें ऐसे नियम होते हैं कि एक बाउंस में केच मान लिया जाता है ऐसे नियमों के कारण और स्थान की कमी के कारण बल्लेबाज को ध्यान से खेलना होता है। टेनिस की गेंद और और घर के बल्लों का उपयोग किया जाता है और कई प्रकार की चीजें विकेट के रूप में काम में ली जाती हैं, जाती हैं, उदाहरण के लिए, फ़्रेंच क्रिकेट (फ्रेंच क्रिकेट) में बैटर लेग, यह मूल रूप से फ्रांस में उत्पन्न नहीं हुआ और आम तौर पर छोटे बच्चों के द्वारा खेला जाता है। कभी कभी नियमों में सुधार किया जाता है: जैसे ऐसा स्वीकृत किया जा सकता है कि क्षेत्र रक्षक एक बाउंस के बाद एक हाथ से गेंद को केच कर सकते हैं। या यदि बहुत कम खिलाड़ी उपलब्ध हैं तो हर कोई क्षेत्र रक्षण कर सकता है और खिलाड़ी एक एक कर के बल्लेबाजी करते हैं।
क्विक क्रिकेट (क्विक क्रिकेट) में गेंदबाज बल्लेबाज के तैयार होने का इन्तजार नहीं करता है, यह अधिक थका देने वाला खेल बच्चों के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह अक्सर अंग्रेजी स्कूलों में पी ई पाठ के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस खेल की गति बढ़ाने के लिए इसमें एक और संशोधन किया गया है ये हैं "टिप और रन", टिप्टी रन "टिप्सी रन" या "टिप्पी- गो" नियम. इसमें जब गेंद बल्ले को छूती है तो बल्लेबाज को भागना ही होता है चाहे यह स्पर्श जान बूझ कर न किया गया हो या बहुत ही कम हो। यह नियम, तत्काल खेल में ही देखा जा सकता है, इसमें बल्लेबाज के द्वारा गेंद को रोकने के अधिकार को हटा कर इसकी गति को बढ़ने की कोशिश की गई है।
समोआ में क्रिकेट का एक रूप जो किलिक्ति (किलीकिती) कहलाता है, खेला जाता है इसमें हॉकी स्टिक (हॉकी स्टिक) के आकर के बल्ले का उपयोग किया जाता है। मूल अंग्रेज़ी क्रिकेट में १७६० में हॉकी स्टिक के आकर के बल्ले को आधुनिक सीधे बल्ले से प्रतिस्थापित कर दिया गया, जब गेंदबाजों ने इसे घुमाने के बजाय पिच करना शुरू कर दिया। एस्टोनिया में टीमें आइस क्रिकेट (आइस क्रिकेट) टूर्नामेंट के लिए सर्दियों में इकठ्ठी होती हैं। खेल में कठोर सर्दी में गर्मी वाले सभी नियमों का पालन करना होता है। अन्यथा सभी नियम छह-एक-पक्ष के सामान होते हैं।
पुराने समय में कभी कभी क्रिकेट को इन रूपों में वर्णित किया जाता था जैसे एक गेंद को टकराता हुआ एक क्लब, या प्राचीन क्लब-गेंद, स्टूल -गेंद, ट्रेप-गेंद, स्टब-गेंद. क्रिकेट को निश्चित रूप से १६ वीं शताब्दी में इंग्लैंड में ट्यूडर समय से प्रचलित माना जाता है, लेकिन यह शायद इससे पहले भी उत्पन्न हो चुका था। इसकी उत्पत्ति का सबसे सामान्य सिद्धांत यह है कि यह मध्यकालीन अवधि के दौरान कैंट और सुस्सेक्स के बीच में वील्ड में कृषि और धातु कार्यों में लगे हुए समुदायों के बच्चों के द्वारा शुरू किया गया था। खेल के लिखित साक्ष्य क्रेग के नाम से जाने जाते हैं, जो १३०१ में न्युन्देन केंट में एडवर्ड ई (एडवर्ड ई (लॉन्ग्शंक)) के बेटे प्रिंस एडवर्ड (प्रिंस एडवर्ड) के द्वारा खेला जाता था। इस पर सट्टा भी लगाया जाता था, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यह क्रिकेट का ही रूप था।
"क्रिकेट" शब्द के लिए शब्दों की संख्या सक्भव स्रोत मणि जाती है। इन थे अर्लीस्ट क्नाउन रेफ्रेंस तो थे स्पोर्ट इन १५९८, इट इस कैल्ड क्रेकेट. प्रबल मध्ययुगीन व्यापार कनेक्शन दक्षिण पूर्व इंग्लैंड और काउंटी ऑफ़ फ़्लैंडर्स (काउंटी ऑफ फ्लैंडर्स) के बीच मिलता है, जो बाद में डची ऑफ़ बरगंडी (दूचय ऑफ बुर्गुंडी) से सम्बंधित था, यह नाम संभवतया मध्यम डच (मिडिल डच) क्रिक (-ए) से व्युत्पन्न हुआ जिसका अर्थ है छड़ी; या पुराने अंग्रेजी (ओल्ड इंग्लिश) में क्रिस या क्रिसे जिसका अर्थ है बैसाखी. पुराने फ्रांसीसी (ओल्ड फ्रेंच) में शब्द क्रिकत का अर्थ प्रतीत होता है के प्रकार की छड़ी या क्लब.शमूएल जॉनसन (सैमुएल जॉनसन) के शब्दकोश में, उन्होंने क्रिकेट को "क्राइस," से व्युत्पन्न किया है जिसका अर्थ है, सक्सोन, एक छड़ी ". एक अन्य संभावित स्रोत है मध्यम डच शब्द क्रिक्स्टोएल जिसका अर्थ है एक लंबा नीचला स्टूल जिसका उपयोग चर्च (चर्च) में घुटने टेकने के लिए किया जाता है, जो प्राचीन क्रिकेट में कम में लिए जाने वाले लंबे विकेट (विकेट) के साथ दो स्टंप (स्टम्प) के सामान प्रतीत होता है।बॉन विश्वविद्यालय (बोन यूनिवर्सिटी) के यूरोपीय भाषा के एक विशेषज्ञ हेनर गिल्मेइस्टर के अनुसार, "क्रिकेट" हॉकी के लिए मध्यम डच वाक्यांश से व्युत्पन्न हुआ है, मेट दे (क्रिक केत) सेन (अर्थात लकड़ी के पिछले हिस्से के साथ)।
१५९८ में, १५५० के आसपास रॉयल ग्रामर स्कूल, गिल्डफोर्ड (रॉयल ग्रामर स्कूल, गिल्डफोर्ड) में लड़कों के द्वारा खेले जा रहे एक खेल क्रेकेट का एक अदालती मामला सामने आया। यह इस खेल का सबसे पुराना निश्चित उल्लेख है। ऐसा लगता है कि यह मूलतः एक बच्चों का खेल था लेकिन १६१० के आस पास के सन्दर्भ यह बताते हैं कि वयस्कों ने इसे खेलना शुरू कर दिया था और इसके ठीक बाद इंटर पेरिश गांव क्रिकेट (विलेज क्रिकेट) के सन्दर्भ मिले। १६२४ में, एक खिलाड़ी जेस्पर विनाल (जैस्पर विनल) की मृत्यु हो गई जब सुस्सेक्स में दो पेरिश टीमों के बीच एक मैच के दोरान उसके सर पर चोट लगी।
१७ वीं सदी के दौरान, अनेक संदर्भ इंग्लैंड के पूर्व दक्षिण में क्रिकेट के विकास का संकेत देते हैं। इस सदी के अंत तक, यह उच्च दांव के लिए खेली जाने वाली एक संगठित गतिविधि बन गया था और ऐसा माना जाता है कि १६६० में पुनर्संस्थापन (रेस्टॉर्न) के बाद पहले पेशेवर प्रकट हुए. १६९७ में ससेक्स में ऊँचे दांव पर यह खेल खेला गया जो एक "बड़ा क्रिकेट मैच" था जिसमें एक पक्ष में ११ खिलाड़ी थे, इसकी रिपोर्ट एक अखबार में छापी गई, इतने महत्वपूर्ण रूप में यह क्रिकेट का पहला ज्ञात सन्दर्भ है।
खेल ने १८ वीं शताब्दी में प्रमुख विकास किया और यह इंग्लैंड का राष्ट्रीय खेल बन गया। शर्त नें उस विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई साथ ही अमीर समर्थकों ने अपनी क्सी खिलाड़ियों की टीम तैयार की। लंदन में १७०७ में क्रिकेट बहुत प्रसिद्ध था और फिन्सबरी में आर्टिलरी ग्राउंड (आरतीरी ग्राउंड) के मैच में बहुत बड़ी भीड़ इकठ्ठी होती थी। खेल के सिंगल विकेट (सिंगल विकेट) रूप ने बहुत बड़ी संख्या में भरी भीड़ को आकर्षित किया। गेंदबाजी १७६० के आस पास शुरू हुई जब गेंदबाज ने गेंद को बल्लेबाज की ओर रोल या स्कीम करने के बजाय उसे पिच करना शुरू कर दिया। बाउंस होती हुई गेंद का सामना करने के लिए बल्ले के डिजाइन में क्रन्तिकारी परिवर्तन आया, पुराने हॉकी के आकार के बल्ले को आधुनिक सीधे बल्ले से प्रतिस्थापित करना अनिवार्य था। १७६० में हैम्ब्लडन कप (हैंबलेडन क्लब) की स्थापना की गई, अगले २० सालों तक जब तक एम सी सी (मैक) की स्थापना हुई और १७८७ में लॉर्ड्स के पुराने ग्राउंड (लॉर्ड'स ओल्ड ग्राउंड) की शुरुआत हुई, तब तक हैम्ब्लडन खेल का सबसे बड़ा क्लब था और इसका केन्द्र बिन्दु भी था। एमसीसी जल्दी ही खेल का प्रिमिअर क्लब बन गया और क्रिकेट के नियमों (लॉस ऑफ क्रिकेट) का संरक्षक बन गया। १८ वीं सदी के उत्तरार्द्ध भाग में नए नियम बनाये गए जिसमें तीन स्टम्प का विकेट और लेग बिफोर विकेट शामिल था।
१९ वीं सदी में अंडर आर्म गेंदबाजी (अंडरार्म बॉलिंग) पहले राउंड आर्म गेंदबाजी (राउंडरम) में बदल गई और फ़िर ओवर आर्म गेंदबाजी (ओवरार्म बॉलिंग) में बदल गई। दोनों विकास विवादास्पद थे। काउंटी स्तर पर खेल के संगठन से काउंटी क्लबों का निर्माण शुरू हुआ। इसकी शुरुआत १८३९ में ससेक्स सी सी सी (सुसेक्स क्क) से हुई, जिसने अंत में १८९० में आधिकारिक गठन काउंटी चैम्पियनशिप (काउंटी चैंपियनशिप) बनाया। इस बीच, ब्रिटिश साम्राज्य ने इस खेल के प्रसार में बहुत योगदान दिया। १९ वीं सदी के मध्य तक यह अच्छी तरह से भारत, उत्तरी अमेरिका, कैरिबियाई, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में स्थापित हो गया था। १८४४ में, पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका (यूनाइटेड स्टेट्स) और कनाडा (कनाडा) के बीच अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच हुआ। (हालांकि इनमें से किसी भी राष्ट्र को कभी भी टेस्ट खेलने वाले राष्ट्र के रूप में रेंक नहीं किया गया।)
१८५९ में, इंग्लैंड की टीम के खिलाड़ी पहली बार उत्तरी अमेरिका के विदेशी दौरे पर गए थे और १८६२ में, इंग्लिश टीम ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया का दौरा किया। १८७६-७७ में, एक इंग्लैंड की टीम ने पहली बार ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध मेलबोर्न क्रिकेट मैदान में टेस्ट मैच (टेस्ट माच) में भाग लिया।
डब्लू जी ग्रेस (व ग ग्रेस) ने १८६५ में अपना लंबा केरियर शुरू किया; अक्सर कहा जाता है कि उसके केरियर ने खेल में क्रन्तिकारी परिवर्तन किया।इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच प्रतिद्वंद्विता ने १८८२ में दी ऐशस (थे एश) को जन्म दिया। यह टेस्ट क्रिकेट की सबसे प्रसिद्ध प्रतियोगिता थी। टेस्ट क्रिकेट १८८८-८९ में विस्तृत हो गया जब दक्षिण अफ्रीका ने इंग्लैंड के विरुद्ध खेला प्रथम विश्व युद्धसे पहले के दो दशक "क्रिकेट के स्वर्ण युग" के नाम से जाने जाते हैं। यह उदासीन नाम युद्ध की हानि के परिणामस्वरूप सामूहिक अर्थ में उत्पन्न हुआ। लेकिन इस अवधि में महान खिलाड़ी हुए और यादगार मैच खेले गए। विशेष रूप से काउंटी में आयोजित प्रतियोगिता और टेस्ट स्तर का विकास हुआ।
युद्ध के दौरान के वर्षों में एक खिलाड़ी का बोलबाला रहा, डॉन ब्रेडमैन जो आंकडों के अनुसार अब तक के सबसे महानतम बल्लेबाज रहें हैं। इंग्लैंड की टीम ने १९३२-३३ में जो असफलता (बॉडिलाइन) झेली उसे दूर करने के लिए और कुशलता पाने के लिए उसने दृढ़ संकल्प कर लिया। २० वीं सदी के दौरान भी टेस्ट क्रिकेट का विस्तार हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वेस्ट इंडीज, भारत और न्यूजीलैंड इसमें शामिल हो गए। और युद्ध काल के बाद पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश भी इस श्रेणी में शामिल हो गए। हालांकि, दक्षिण अफ्रीका को १९७० से १९९२ तक सरकार की रंगभेद की नीति के कारण अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से प्रतिबंधित कर दिया गया थाक्रिकेट ने १९६३ में एक नए युग में प्रवेश किया जब इंग्लिश काउंटी ने सीमित ओवरों (लिमिटेड ओवर्स) की किस्म की शुरुआत की। चूँकि इसमें परिणाम निश्चित होता था, सीमित ओवरों के क्रिकेट आकर्षक था इससे मैचों की संख्या में वृद्धि हुई। पहला सीमित ओवरों का अंतर्राष्ट्रीय (लिमिटेड ओवर्स इंटरनेशनल) मैच १९७१ में खेला गया। नियंत्रक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने इसकी क्षमता को देखा और १९७५ में पहले सीमित ओवरों के क्रिकेट वर्ल्ड कप का मंचन किया। २१ वीं सदी में, सीमित ओवरों के एक नए रूप ट्वेंटी २० (त्वेंटी२०), ने तत्काल प्रभाव उत्पन्न किया।
महिलाओं का क्रिकेट पहली बार १७४५ में सरे में दर्ज किया गया था। २० वीं शताब्दी की शुरुआत में अंतर्राष्ट्रीय विकास शुरू हुआ और दिसंबर १९३४ में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच पहला टेस्ट मैच खेला गया। अगले वर्ष, न्यूजीलैंड की महिलाएं उनसे जुड़ गईं, और २०07 में नीदरलैंड महिलाएं दसवीं महिला टेस्ट राष्ट्र बन गईं जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका महिलाओं के खिलाफ अपनी शुरुआत की। १९५८ में, अंतर्राष्ट्रीय महिला क्रिकेट परिषद की स्थापना की गई (यह २०05 में आईसीसी के साथ विलय हो गई)। १९७३ में, इंग्लैंड में एक महिला विश्व कप आयोजित होने पर पहले क्रिकेट विश्व कप का कोई भी आयोजन हुआ। २०05 में, इंटरनेशनल विमेन क्रिकेट काउंसिल को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के साथ मिलाकर एक एकीकृत निकाय बनाने के लिए क्रिकेट का प्रबंधन और विकास करने में मदद मिली। आईसीसी महिला रैंकिंग १ अक्टूबर २०१5 को महिलाओं के क्रिकेट के सभी तीन प्रारूपों को कवर किया गया था। अक्टूबर २०१8 में सभी सदस्यों को टी २० अंतर्राष्ट्रीय दर्जा देने के आईसीसी के फैसले के बाद, महिलाओं की रैंकिंग को अलग-अलग ओडीआई (पूर्ण सदस्यों के लिए) और टी २० आई सूचियों में विभाजित किया गया था।
अंतर्राष्ट्रीय बहु-खेल आयोजनों में क्रिकेट
१९०० ग्रीष्मकालीन ओलंपिक के भाग के रूप में क्रिकेट खेला जाता था, जब इंग्लैंड और फ्रांस ने दो दिवसीय मैच जीता था। १९९८ में, राष्ट्रमंडल खेलों के भाग के रूप में क्रिकेट खेला जाता था, इस अवसर पर ५० ओवर प्रारूप में २०१० में राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले ट्वेंटी -२० क्रिकेट के बारे में कुछ बात थी, जो कि दिल्ली में हुई थी, लेकिन उस वक्त भारत में बोर्ड ऑफ कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) खेल के छोटे प्रारूप के पक्ष में नहीं थे, और यह शामिल नहीं था।
२०१० में गुआंगज़ौ, चीन और इंचियान, दक्षिण कोरिया में एशियाई खेलों में २०१० एशियाई खेलों में क्रिकेट खेला गया था। भारत ने दोनों बार छोड़ दिया। बाद में राष्ट्रमंडल खेलों और ओलंपिक खेलों के लिए और भी कॉल कराई गईं। राष्ट्रमंडल खेलों की महासंघ ने आईसीसी को २०१४ और २०१८ के राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने के लिए कहा, लेकिन आईसीसी ने निमंत्रण को ठुकरा दिया। २०१० में, अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने क्रिकेट को एक खेल के रूप में मान्यता दी जिसे ओलंपिक खेलों में शामिल करने के लिए आवेदन किया जा सकता था, लेकिन २०१३ में आईसीसी ने घोषणा की कि इस तरह के आवेदन करने के लिए इसका कोई इरादा नहीं है, मुख्य रूप से बीसीसीआई के विरोध के कारण। ईएसपीएनक्रिकइन्फो ने सुझाव दिया कि विपक्ष आय के संभावित नुकसान पर आधारित हो सकता है। अप्रैल २०१६ में, आईसीसी के मुख्य कार्यकारी डेविड रिचर्डसन ने कहा कि ट्वेंटी २० क्रिकेट में २०24 ग्रीष्मकालीन खेलों में शामिल होने का मौका हो सकता है, लेकिन आईसीसी के सदस्यता आधार द्वारा दिखाए गए सामूहिक समर्थन होना चाहिए, खासकर बीसीसीआई से, इसके लिए शामिल करने का एक मौका।
अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी), जिसका मुख्यालय दुबई में है, क्रिकेट की अंतर्राष्ट्रीय शासी निकाय है। इसे १९०९ में ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधियों के द्वारा इंपीरियल क्रिकेट कॉन्फ्रेंस के रूप में स्थापित किया गया था। १९६५ में इसे अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट सम्मेलन का नाम दिया गया १९८९ में इसे अपना वर्तमान नाम मिला।
अई सी सी के १०४ सदस्य हैं; १० पूरे सदस्य जो अधिकारिक टेस्ट मेच खेलते हैं, ३४ सहयोगी सदस्य हैं और ६० संबद्ध सदस्य हैं। आईसीसी क्रिकेट के प्रमुख अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खासकर क्रिकेट विश्व कप के संगठन और शासन के लिए उत्तरदायी है, यह सभी स्वीकृत टेस्ट मैचों, एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय और ट्वेंटी २० अंतरराष्ट्रीय के लिए अंपायर और रेफरियों की नियुक्ति करता है। प्रत्येक राष्ट्र का एक राष्ट्रीय क्रिकेट बोर्ड है जो देश में खेले जाने वाले क्रिकेट मैचों को नियंत्रित करता है। क्रिकेट बोर्ड राष्ट्रीय टीम का भी चयन करता है और राष्ट्रीय टीम के लिए घर में और बाहर दौरों का आयोजन करता है।
इन्हें भी देखें
२०१६ आईसीसी विश्व ट्वेन्टी २०
आईसीसी ट्वेंटी-२० विश्व कप क्वालीफायर
महिला ट्वेन्टी २० अंतरराष्ट्रीय
विज्डन क्रिकेटर्स अल्मनैक
अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी)
क्रिकेट के अधिकारिक नियम, मेरिलेबोन क्रिकेट क्लब (मेरीलबोन क्रिकेट क्लब) (एमसीसी) द्वारा प्रकाशित |
बांग्लादेश गणतन्त्र (; "गणप्रजातन्त्री बांग्लादेश") दक्षिण एशिया का एक राष्ट्र है। देश की उत्तर, पूर्व और पश्चिम सीमाएँ भारत और दक्षिणपूर्व सीमा म्यान्मार देशों से मिलतीं हैं; दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है। बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल एक बांग्लाभाषी अंचल, बंगाल हैं, जिसका ऐतिहासिक नाम बंग () या बांग्ला () है। इसकी सीमारेखा उस समय निर्धारित हुई जब १९४७ में भारत के विभाजन के समय इसे 'पूर्वी पाकिस्तान' के नाम से पाकिस्तान का पूर्वी भाग घोषित किया गया।
बांग्लादेश विश्व में आठवाँ सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जिसकी आबादी १६.४ करोड़ से अधिक है। भू-क्षेत्रफल के मामले में, बांग्लादेश ९२ वें स्थान पर है, जिसकी लम्बाई 1४8,४60 वर्ग किलोमीटर (५७,३२० वर्ग मील) है, जो इसे सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक बनाता है। बंगाली, बांग्लादेश की कुल आबादी का ९८% हिस्सा बनाते हैं, जो इसे दुनिया में सबसे अधिक सजातीय राज्यों में से एक बनाता है। बांग्लादेश की बड़ी मुस्लिम आबादी इसे तीसरा सबसे बड़ा मुस्लिम-बहुल देश बनाती है। बंग्लादेश के संविधान ने इस्लाम को राज्य पन्थ के रूप में स्थापित करते हुए बांग्लादेश को एक पन्थनिरपेक्ष राज्य घोषित करता है।
पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान के मध्य लगभग १६०० किलोमीटर (१००० मील) की भौगोलिक दूरी थी। पाकिस्तान के दोनों भागों की जनता का धर्म (इस्लाम) एक था, पर उनके बीच जाति और भाषागत काफ़ी दूरियाँ थीं। पश्चिम पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार के अन्याय के विरुद्ध १९७१ में भारत के सहयोग से एक रक्तरंजित युद्ध के बाद स्वाधीन राष्ट्र बांग्लादेश का उदभव हुआ। स्वाधीनता के बाद बांग्लादेश के कुछ प्रारंभिक वर्ष राजनैतिक अस्थिरता से परिपूर्ण थे, देश में १३ राष्ट्रशासक बदले गए और ४ सैन्य बगावतें हुई। विश्व के सबसे जनबहुल देशों में बांग्लादेश का स्थान आठवां है। किन्तु क्षेत्रफल की दृष्टि से बांग्लादेश विश्व में ९३वाँ है। फलस्वरूप बांग्लादेश विश्व की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक है। मुसलमान- सघन जनसंख्या वाले देशों में बांग्लादेश का स्थान ४था है, जबकि बांग्लादेश के मुसलमानों की संख्या भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों की संख्या से कम है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर स्थित यह देश, प्रतिवर्ष मौसमी उत्पात का शिकार होता है और चक्रवात भी बहुत सामान्य हैं। बांग्लादेश दक्षिण एशियाई आंचलिक सहयोग संस्था,सार्क(सार्क)और बिम्सटेक का प्रतिष्ठित सदस्य है। यह ओआइसी और डी-८ का भी सदस्य है। जय बांग्ला () बांग्लादेश का जातीय स्लोगाण है।
बांग्लादेश में सभ्यता का इतिहास काफी पुराना रहा है। आज के भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इस क्षेत्र में आधुनिक सभ्यता की शुरुआत ७०० इसवी ईसा पू. में आरम्भ हुआ माना जाता है। यहाँ की प्रारंभिक सभ्यता पर बौद्ध और हिन्दू धर्म का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। उत्तरी बांग्लादेश में स्थापत्य के ऐसे हजारों अवशेष अभी भी मौज़ूद हैं जिन्हें मंदिर या मठ कहा जा सकता है।
बंगाल का इस्लामीकरण मुगल साम्राज्य के व्यापारियों द्वारा १३ वीं शताब्दी में शुरु हुआ और १६ वीं शताब्दी तक बंगाल एशिया के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र के रूप में उभरा। युरोप के व्यापारियों का आगमन इस क्षेत्र में १५ वीं शताब्दी में हुआ और अंततः १६वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उनका प्रभाव बढ़ना शुरु हुआ। १८ वीं शताब्दी आते-आते इस क्षेत्र का नियंत्रण पूरी तरह उनके हाथों में आ गया जो धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल गया। जब स्वाधीनता आंदोलन के फलस्वरुप १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ तब राजनैतिक कारणों से भारत को हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में विभाजित करना पड़ा।
पाकिस्तान के गठन के समय पश्चिमी क्षेत्र में सिंधी, पठान, बलोच और मुजाहिरों की बड़ी संख्या थी, जिसे पश्चिम पाकिस्तान कहा जाता था, जबकि पूर्व हिस्से में बंगाली बोलने वालों का बहुमत था, जिसे पूर्व पाकिस्तान कहा जाता था। हालांकि पूरबी भाग में राजनैतिक चेतना की कभी कमी नहीं रही लेकिन पूर्वी हिस्सा देश की सत्ता में कभी भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं पा सका एवं हमेशा राजनीतिक रूप से उपेक्षित रहा। इससे पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में जबर्दस्त नाराजगी थी। और इसी नाराजगी के परिणाम स्वरुप उस समय पूर्व पाकिस्तान के नेता शेख मुजीब-उर-रहमान ने अवामी लीग का गठन किया और पाकिस्तान के अंदर ही और स्वायत्तता की मांग की। १९७० में हुए आम चुनाव में पूर्वी क्षेत्र में शेख की पार्टी ने जबर्दस्त विजय हासिल की। उनके दल ने संसद में बहुमत भी हासिल किया लेकिन बजाए उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के उन्हें जेल में डाल दिया गया। और यहीं से पाकिस्तान के विभाजन की नींव रखी गई।
१९७१ के समय पाकिस्तान में जनरल याह्या खान राष्ट्रपति थे और उन्होंने पूर्वी हिस्से में फैली नाराजगी को दूर करने के लिए जनरल टिक्का खान को जिम्मेदारी दी। लेकिन उनके द्वारा दबाव से मामले को हल करने के प्रयास किये गये जिससे स्थिति पूरी तरह बिगड़ गई। २५ मार्च १९७१ को पाकिस्तान के इस हिस्से में सेना एवं पुलिस की अगुआई में जबर्दस्त नरसंहार हुआ। इससे पाकिस्तानी सेना में काम कर रहे पूर्वी क्षेत्र के निवासियों में जबर्दस्त रोष हुआ और उन्होंने अलग मुक्ति वाहिनी बना ली। पाकिस्तानी फौज का निरपराध, हथियार विहीन लोगों पर अत्याचार जारी रहा। जिससे लोगों का पलायन आरंभ हो गया जिसके कारण भारत ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से लगातार अपील की कि पूर्वी पाकिस्तान की स्थिति सुधारी जाए, लेकिन किसी देश ने ध्यान नहीं दिया और जब वहां के विस्थापित लगातार भारत आते रहे तो अप्रैल १९७१ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी को समर्थन देकर, बांग्लादेश को आजादी मे सहायता करने का निर्णय लिया।
बांग्लादेश बनने से पूर्व
बांग्लादेश बनने से पहले पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना ने स्थानीय नेताओं और धार्मिक चरमपंथियों की मदद से मानवाधिकारों का हनन किया। २५ मार्च १९७१ को शुरू हुए ऑपरेशन सर्च लाइट से लेकर पूरे बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान पूर्वी पाकिस्तान में जमकर हिंसा हुई। बांग्लादेश सरकार के मुताबिक इस दौरान करीब ३० लाख लोग मारे गए। हालांकि, पाकिस्तान सरकार की ओर से गठित किए गए हमूदूर रहमान आयोग ने इस दौरान सिर्फ २६ हजार आम लोगों की मौत का नतीजा निकाला।
२६ मार्च को प्रत्येक वर्ष यह देश अपना स्वतन्त्रता दिवस मानता है। इस दिन यहाँ राष्ट्रीय अवकाश होता है। उल्लेखनीय है, कि २६ मार्च १९७१ में बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा की गई है और मुक्ति युद्ध शुरू कर दिया गया था। ईस्ट बंगाल के लोगों के सभी वर्गों के मुक्ति के लिए पाकिस्तानी सेना के शासकों के निरंतर उत्पीड़न से बचाने के बांग्लादेश युद्ध में भाग लिया। स्वतंत्रता नौ महीने मानव जीवन के मामले में पाकिस्तानी सेना और के बारे में ३ मिलियन की हानि के खिलाफ गृहयुद्ध के माध्यम से प्राप्त किया गया था। अंत में जीत १६ दिसम्बर को एक ही वर्ष में हासिल किया गया, जो विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस प्रकार सन् १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना।
बांग्लादेश की राजनीति में राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान होता है, जबकि प्रधानमंत्री देश का प्रशासनिक प्रमुख होता है। राष्ट्रपति को हर पाँच साल बाद चुना जाता है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, प्रधानमंत्री ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो उस समय संसद का सदस्य हो और राष्ट्रपति को विश्वास दिलाये कि उसे संसद में बहुमत का समर्थन हासिल है। प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों की कैबिनेट गठित करता है जिसके नियुक्ति की मंजूरी राष्ट्रपति देता है।
बांग्लादेश की संसद को जातीय संसद कहा जाता है जिसके ३०० सदस्य प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुनकर आते हैं और पाँच साल तक अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। देश की सबसे बड़ी वैधानिक संस्था बांग्लादेशी सर्वोच्च न्यायालय जिसके प्रधान न्यायाधीश और अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
बांग्लादेश को छः उपक्षेत्रों में बांटा गया है जिनका नाम उन राज्यों की राजधानियों के नाम पर रखा गया है।
बांग्लादेश का अधिकतर हिस्सा समुद्र की सतह से बहुत कम ऊँचाई पर स्थित है। ज्यादातर हिस्सा भारतीय उपमहाद्वीप में नदियों के मुहाने पर स्थित है जो सुंदरवन के नाम से जाना जाता है। ये मुहाने गंगा (स्थानीय नाम पद्मा नदी), ब्रम्हपुत्र, यमुना और मेघना नदियों के हैं जो बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में अवस्थित हैं जो ज्यादातर हिमालय से निकलती हैं। बांग्लादेश की मिट्टी बहुत ही उपजाऊ है लेकिन बाढ और अकाल दोनों से काफी प्रभावित होती रहती है। पहाड़ी क्षेत्र सिर्फ़ चिटागांग जिले में स्थित हैं जिसकी सबसे ऊँची चोटी केओक्रादांग १,२३० मीटर ऊँची है जो सिलहट मंडल के दक्षिण पूर्व में स्थित है।
बांग्ला देश की जलवायु उष्णकटिबंधीय जलवायु है, यहाँ अक्तूबर से मार्चतक जाड़े का मौसम होता है। मार्च से जून तक उमस भरी गर्मी होती है और मार्च से जून तक मानसून के मौसम की बारिश होती है। बांग्लादेश को प्राय: हर साल चक्र्वातीय तूफान का सामन करना पड़ता है। मिट्टी का अपरदन और वनों की अंधाधुंध कटाई यहाँ की कुछ बड़ी समस्याएँ हैं। ढाका यहाँ का सबसे बड़ा शहर है, अन्य बड़े शहरों में चिटगाँव, राजशाही और खुलना हैं। चिटगाँव के दक्षिण में स्थित काक्स बाजार विश्व के सबसे लंबे समुद्रतटों में से एक है।
२०११ की जनगणना के अनुसार बांग्लादेश की जनसंख्या १४२३.०० लाख है।
एक अनुमान के मुताबिक २००७ से २०१० के बीच बांग्लादेश की जनसंख्या १५०० से १७०० लाख के बीच होना चाहिए था, किन्तु अनुमान से कम है, लेकिन यह दुनिया का ८ वां सबसे अधिक आबादी वाला देश है। यद्यपि १९५१ में, इस देश की जनसंख्या ४४ लाख थी। यह दुनिया का सबसे घनी आबादी वाला देश है और बहुत छोटे देशों तथा शहर राज्यों शामिल कराते हुये जनसंख्या घनत्व के मामले में यह विश्व में ११ वें स्थान पर है।
बांग्लादेश ने २०१८ सरकारी नौकरियों से आरक्षण का प्रावधान खत्म किया।
बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बांग्लादेश
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर विश्व के एकमात्र व्यक्ति हैं, जिनकी रचना को एक से अधिक देशों क्रमशः भारत और बांग्लादेश में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है। उनकी कविता 'आमार सोनार बांग्ला' (हमारा सोने का बांग्ला) बांग्लादेश का राष्ट्रगान है।
बांग्लादेश में अपनी मूल भाषा के रूप में ९८% से अधिक बंगाली भाषा बोलते हैं, जो यहाँ की आधिकारिक भाषा है। अंग्रेजी का भी मध्य और उच्च वर्ग के बीच एक दूसरी भाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है और भी व्यापक रूप से उच्च शिक्षा और कानूनी प्रणाली में इसका इस्तेमाल होता है।
बांग्लादेश आब्जर्वर (प्रमुख दैनिक समाचार पत्र)
बांग्लापीडिया: क्षेत्रीय मानचित्र डाटा
एशिया के देश
दक्षिण एशिया के देश |
लाहौर ( / , ) पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी है एवं कराची के बाद पाकिस्तान में दूसरा सबसे बडा आबादी वाला शहर है। इसे पाकिस्तान का दिल नाम से भी संबोधित किया जाता है क्योंकि इस शहर का पाकिस्तानी इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में अत्यंत विशिष्ट योगदान रहा है। इसे अक्सर पाकिस्तान बागों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। लाहौर शहर रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित है।
लाहौर का ज्यादातर स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसका अधिकांश आज भी सुरक्षित है। आज भी बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की उपस्थिती एवं उसकी महत्ता का आभास करवाता है। महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय जनरल पोस्ट ऑफिस, इत्यादि मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिश्रित नमूना बनकर लाहौर में उपस्थित है एवं ये सभी महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल के रूप में लोकप्रिय हैं।
मुख्य तौर पर लाहौर में पंजाबी को मातृ भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है हलाकि उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा भी यहां प्रचलन में है एवं नौजवानों में लोकप्रिय है। लाहौर की पंजाबी शैली को लाहौरी पंजाबी के नाम से भी जाना जाता है जिसमे पंजाबी एवं उर्दू का सुंदर मिश्रण होता है। १९९८ की जनगणना के अनुसार शहर की जनगणना लगभग ७ लाख आंकी गयी थी जिसके जून २००६ में १० लाख होने की गणना गयी थी। इस अनुमान के अनुसार लाहौर् दक्षिण एशिया में पांचवी सबसे बडी जनसंख्या वाला एवं दुनिया में २३वीं सबसे बडी आबादी वाला शहर है।
ऐसा माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान राम के पुत्र भगवान लव ने की थी। आज भी कुछ ऐसे अंश मिलते हैं जिन से भगवान राम के दिनो की याद ताज़ा हो जाती हे इन अंश में लव का मंदिर भी है। लव का उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है।
पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा शहर लाहौर यहां की सांस्कृतिक राजधानी के रूप विख्यात है। यह शहर पिछली कई शताब्दियों से बुद्धिजीवियों और सांस्कृतिक गतिविधियों का गढ़ रहा है। रावी नदी के किनारे स्थित यह शहर पंजाब प्रांत की वाणिज्यिक गतिविविधों का केन्द्र है। पर्यटकों के देखने के लिए यहां लोकप्रिय और चर्चित पर्यटन स्थलों की भरमार है। लाहौर फोर्ट, बादशाही मस्जिद, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, शालीमार गार्डन, वजीर खान मस्जिद आदि चर्चित स्थल हैं।
ग़ैर मुस्लिमों के पवित्र स्थल
कन्हैयालाल लिखते हैं कि पुराने स्थापत्य और कला के मंदिर, हिंदूओं के प्रार्थना स्थल बहुत हैं जिन का उल्लेख नहीं हो सकता। छोटे छोटे शिवाले-ओ-ठाकुरद्वारे-ओ-देवी द्वारे अगणित हैं। इन में से-ओ-जदीद दोनों किस्म के हैं। मगर सखी अह्द में पुरानी इमारात के मंदिर भी अज सर-ए-नौ नबाए गए थे जिन की इमारात ताज़ा नज़र आती हैं। बाअज़ मंदिर जो उन से नामी गिरामी हैं और ख़ास-ओ-आम वहां जा कर पूजा करते हैं इस क़िस्म में लिखे जाते हैं। (१) मगर याद रहे कि ये कन्हैयालाल ने १882ई. में अपने पुस्तक तारीख़ लाहौर में लिखा था। और आज बहुत से स्थापत्य का विनाश हो चुका हैं।
शिवाला बावा ठाकुर गिर
शिवाला राजा दीनानाथ राजा कलानौर
शिवाला बख़्शी भगत राम
मकान धर्म साला बाबा ख़ुदा सिंह
ठाकुर द्वारा राजा तेजा सिंह
शिवाले गुलाब राए जमादार
वो मंदिर जिस में अब भी पूजा होती है
वाल्मीकि का मंदिर
सिखों के प्रार्थना स्थल
समाध महाराजा रणजीत सिंह
गुरुद्वारा डेरा साख़ब
गुरुद्वारा काना काछ
गुरुद्वारा शहीद गंज
जन्मस्थान गुरु राम दास
लाहौर के मंदिर
वाल्मीकि जी का मंदिर
कृष्ण जी मंदिर रवि रोड लाहौर
लाहोर के प्रख्यात स्थापत्य
वजीर खान मस्जिद
पुराने शहर की यह मस्जिद अपनी टाइल की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। बहुत बार इसे लाहौर के गाल के जासूस के नाम से भी संबोधित किया जाता है। यह मस्जिद १६३४-३५ ई. में मुगल सम्राट शाहजहां के काल में बननी शुरू हुई थी और इससे बनने में सात वर्ष का समय लगा था। मस्जिद को चिनिओट के शेख इलमुद्दीन अंसानी ने बनवाया था। बाद में उसे लाहौर का गवर्नर अर्थात वजीर बना दिया गया था। मस्जिद में फारसी भाषा में अनेक प्रकार के अभिलेख मुद्रित हैं।
१८७२ में स्थापित लाहौर का यह चिड़ियाघर विश्व के सबसे प्राचीन चिड़ियाघरों में एक है। इस चिड़ियाघर को विकसित करने का श्रेय श्री लाल महुन्द्रा राम को जाता है। इस चिड़ियाघर में १३६ प्रजातियों के १३८१ जीवों, ४९ सरीसृपों, ३३६ स्तनपायी ९९६ प्रकार की चिड़ियों को देखा जा सकता है। १८७२ से १९२३ तक यह चिड़ियाघर लाहौर नगर निगम के अधीन रहा था। चिड़ियाघर वनस्पति उद्यान में पेड़-पौधों की विविध किस्मों को भी देखा जा सकता है।
इस मस्जिद को १६७३ ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब ने बनवाया था। यह मस्जिद मुगल काल की सौंदर्य और भव्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। पाकिस्तान की इस दूसरी सबसे बड़ी मस्जिद में एक साथ ५५००० हजार लोग नमाज अदा कर सकते हैं। बादशाही मस्जिद का डिजाइन दिल्ली की जामा मस्जिद से काफी मिलता-जुलता है । मस्जिद लाहौर किले के नजदीक स्थित है। हाल में मस्जिद परिसर में एक छोटा संग्रहालय भी जोड़ा गया है।
किम्स गन या भंगियावाला तोप लाहौर संग्रहालय में रखी एक विशाल तोप है। यह गन १४ फीट या ४.३८ मीटर लंबी है। गन का औसत व्यास ९.५ इंच है। यह गन लाहौर में 17५7 ई. में शाहवाली खान के निर्देश पर शाह नजीर द्वारा लाई गई थी। यह ऐतिहासिक गन एशिया महाद्वीप की सबसे विशाल गनों में एक है। माना जाता है कि इस गन को तांबे और पीतल से बनाया गया है। १७६१ में पानीपत के युद्ध में अहमदशाह अब्दाली ने इस गन का इस्तेमाल किया था।
लाहौर के उत्तर-पश्चिम किनारे में स्थित यह किला यहां का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। किले के भीतर शीश महल, आलमगीर गेट, नौलखा पेवेलियन और मोती मस्जिद देखी जा सकती है। यह किला १४०० फीट लंबा और १११५ फीट चौड़ा है। यूनेस्को ने १९८१ में इसे विश्वदाय धरोहरों सूची में शामिल किया है। माना जाता है कि इस किले को १५६० ई. में अकबर ने बनवाया था। आलमगीर दरवाजे से किले में प्रवेश किया जाता है जिसे १६१८ में जहांगीर ने बनवाया था। दीवाने आम और दीवाने खास किले के मुख्य आकर्षण हैं।
यह म्युजियम १८९४ में स्थापित किया गया था। ओल्ड यूनिवर्सिटी हॉल के निकट स्थित इस म्युजियम को दक्षिण एशिया के सबसे विशाल म्युजियमों में एक माना जाता है। म्युजियम में मुगलों, सिक्खों और ब्रिटिश काल की अनेक बहुमूल्य और दुर्लभ कलाकृतियों को देखा जा सकता है। यहां वाद्ययंत्रों, प्राचीन आभूषणों, कपड़ों, मिट्टी के बर्तनों और हथियारों का विस्तृत संग्रह देखा जा सकता है। दौड़ते हुए बुद्ध की मूर्ति म्युजियम की एक अमूल्य एवं दुर्लभ निधि है।
इस गार्डन को मुगल सम्राट शाहजहां ने १६४१ ई. में बनवाया था। चारों ओर से ऊंची दीवारों से घिरा यह गार्डन अपने जटिल फ्रेमवर्क के लिए प्रसिद्ध है। १९८१ में यूनेस्को ने इसे लाहौर किले के साथ विश्वदाय धरोहरों में शामिल किया था। फराह बख्स, फैज बख्स और हयात बख्स नामक चबूतरे गार्डन की सुंदरता में वृद्धि करते हैं।
जहांगीर का मकबरा
शाहदरा नगर के निकट स्थित जहांगीर मकबरा मुगल सम्राट जहांगीर को समर्पित है। इसे जहांगीर की मृत्यु के १० साल बाद उनके पुत्र शाहजहां ने बनवाया था। एक बगीचे के अंदर स्थित मकबरे की मीनारें ३० मीटर ऊंची हैं। मकबरे के भीतरी हिस्से में भित्तिचित्रों की सुंदर सजावट है।
लाहौर के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में यह खूबसूरत बाग शामिल है। इसके पूर्व में लाहौर किला, उत्तर में रणजीत सिंह की समाधि, पश्चिम में बादशाही मस्जिद और दक्षिण में रोशनई दरवाजा स्थित है। इस बाग का निमार्ण १८१३ ई. में पंजाब के महान शासक महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था। इस बाग को कोहिनूर हीर को अफगान के शासक शाह शुजा से पुन: भारत लाए जाने के उपलक्ष्य में बनवाया गया था।
लाहौर का अल्लामा इकबाल अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र दिल्ली के इंदिरा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र से वायुमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। दिल्ली और लाहौर के बीच नियमित फ्लाइटें हैं।
दिल्ली और लाहौर के बीच चलने वाली बस के माध्यम से सड़क मार्ग द्वारा लाहौर पहुंचा जा सकता है।
लाहौर के मस़हूर खेलों मैं क्रिकेट, हाकी, और फ़ुटबाल स़ामिल हैं। लाहौर स्थित गद्दाफी स्टेडियम पाकिस्तान का एक प्रमुख क्रिकेट का मैदान है।
लाहौर के सात भगिनी शहर है:
बेलग्रेड, सर्बिया (२००७).
इस्तांबुल, तुर्की (१९७५).
सारिवोन, उत्तरी कोरिया (१९८८).
झि'आन, चीन (१९९२).
कोर्ट्रिज्क, बेल्जियम (१९९३).
फेज़, मोरोक्को (१९९४).
कोर्डोबा, स्पेन (१९९४).
समरकंद, उज़्बेकिस्तान (१९९५).
इस्फहान, ईरान (२००४).
मसहद, ईरान (२००६).
ग्लासगो, स्कॉटलैंड, यूनाइटेड किंगडम (२००६).
हाउनस्लो, इंग्लैंड, यूनाइटेड किंगडम.
शिकागो, इलीनॉइस, संयुक्त राज्य अमेरिका (२००७).
फ्रेस्नो, कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका.
इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय लाहौर
पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर
= साहित्य यहां बहुत जुल्म हुआ हिंदू सिख के ऊपर मुस्लिम बलात्कारियों द्वारा
लाहौर शहर की सरकार का जालस्थल (अंग्रेज़ी में)
पाकिस्तान की राजधानियां
लाहौर जिले के शहर
पाकिस्तान के महानगर
पाकिस्तान के शहर
रामायण में स्थान |
नेपाल (आधिकारिक रूप में, सङ्घीय लोकतान्त्रिक गणतन्त्र नेपाल ) एक बहुत खुबसुरत दक्षिण एशियाई स्थलरुद्ध राष्ट्र है। नेपाल के उत्तर मे चीन का स्वायत्तशासी प्रदेश तिब्बत है और दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल के ८१.३ प्रतिशत नागरिक हिन्दू धर्मावलम्बी हैं। नेपाल विश्व के प्रतिशत आधार पर सबसे बड़ा हिन्दू धर्मावलम्बी राष्ट्र है। नेपाल की राजभाषा नेपाली है और नेपाल के लोगों को भी नेपाली कहा जाता है।
एक छोटे से क्षेत्र के लिए नेपाल की भौगोलिक विविधता बहुत उल्लेखनीय है। यहाँ तराई के उष्ण फाँट से लेकर ठण्डे हिमालय की शृंखलाएँँ अवस्थित हैं। संसार का सबसे ऊँची १४ हिम शृंखलाओं में से आठ नेपाल में हैं जिसमें संसार का सर्वोच्च शिखर सागरमाथा एवरेस्ट (नेपाल और चीन की सीमा पर) भी एक है। नेपाल की राजधानी और सबसे बड़ा नगर काठमांडू है। काठमांडू उपत्यका के अन्दर ललीतपुर (पाटन), भक्तपुर, मध्यपुर और किर्तीपुर नाम के नगर भी हैं अन्य प्रमुख नगरों में पोखरा, विराटनगर, धरान, भरतपुर, वीरगंज, महेन्द्रनगर, बुटवल, हेटौडा, भैरहवा, जनकपुर, नेपालगंज, वीरेन्द्रनगर, महेन्द्रनगर आदि है।
वर्तमान नेपाली भूभाग अठारहवीं सदी में गोरखा के शाह वंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा संगठित नेपाल राज्य का एक अंश है। अंग्रेज़ों के साथ हुई सन्धियों में नेपाल को उस समय (१८१४ में) एक तिहाई नेपाली क्षेत्र ब्रिटिश इण्डिया को देने पड़े, जो आज भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल में विलय हो गये हैं। बींसवीं सदी में प्रारम्भ हुए जनतांत्रिक आन्दोलनों में कई बार विराम आया जब राजशाही ने जनता और उनके प्रतिनिधियों को अधिकाधिक अधिकार दिए। अन्ततः २००८ में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि माओवादी नेता प्रचण्ड के प्रधानमंत्री बनने से यह आन्दोलन समाप्त हुआ। लेकिन सेना अध्यक्ष के निष्कासन को लेकर राष्ट्रपति से हुए मतभेद और टीवी पर सेना में माओवादियों की नियुक्ति को लेकर वीडियो फ़ुटेज के प्रसारण के बाद सरकार से सहयोगी दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद प्रचण्ड को इस्तीफा देना पड़ा। गौरतलब है कि माओवादियों के सत्ता में आने से पहले सन् २००६ में राजा के अधिकारों को अत्यन्त सीमित कर दिया गया था।
नेपाल एशिया का हिस्सा है। दक्षिण एशिया में नेपाल की सेना पाँचवीं सबसे बड़ी सेना है और विशेषकर विश्व युद्धों के दौरान, अपने गोरखा इतिहास के लिए उल्लेखनीय रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र शान्ति अभियानों के लिए महत्वपूर्ण योगदानकर्ता रही है।
'नेपाल' शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों की विभिन्न धारणाएँ हैं। "नेपाल" शब्द की उत्त्पत्ति के बारे में ठोस प्रमाण कुछ नहीं है, लेकिन एक प्रसिद्ध विश्वास अनुसार यह शब्द 'ने' ऋषि तथा पाल (गुफा) मिलकर बना है। माना जाता है कि एक समय नेपाल की राजधानी काठमांडू 'ने' ऋषि का तपस्या स्थल था। 'ने' मुनि द्वारा पालित होने के कारण इस भूखण्ड का नाम नेपाल पड़ा, ऐसा कहा जाता है।
तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ 'मध्य' और 'पा' का अर्थ 'देश' होता है। तिब्बती लोग 'नेपाल' को 'नेपा' ही कहते हैं। 'नेपाल' और 'नेवार' शब्द की समानता के आधार पर डॉ॰ ग्रियर्सन और यंग ने एक ही मूल शब्द से दोनों की व्युत्पत्ति होने का अनुमान किया है। टर्नर ने नेपाल, नेवार, अथवा नेवार, नेपाल दोनों स्थिति को स्वीकार किया है। 'नेपाल' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। उस काल में बिहार में जो मागधी भाषा प्रचलित थी उसमें 'र' का उच्चारण नहीं होता था। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में 'राजा' के स्थान पर 'लाजा' शब्द व्यवहार हुआ है। अत: नेपार, नेबार, नेवार इस प्रकार विकास हुआ होगा।
हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग ९,००० वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमांडू उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारों से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में २,५०० वर्ष पूर्व आ चुके थे।
५,५00 ईसा पूर्व महाभारत काल मेंं जब कुन्ती पुत्र पाँचों पाण्डव स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पाण्डुपुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु विनती की। तभी भगवान शिवजी ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है। १,५00 ईसा पूर्व के आसपास हिन्द-आर्यन जातियों ने काठमांडू उपत्यका में प्रवेश किया। करीब १,००० ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्य संगठन बनें। नेपाल स्थित जनकपुर में भगवान श्रीरामपत्नी माता सिताजी का जन्म ७,५00 ईसा पुर्व हुआ।सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व ५63483) शाक्य वंश के राजकुमार थे, उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था, जिन्होंने अपना राज-पाट त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में कश्मीर , नेपाल , बंगाल और मालवा भी सम्मिलित थे । नेपाल अशोक के काल में मौर्य साम्राज्य में था । अतः इसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने ही विजित किया था क्योंकि बिन्दुसार ने किसी क्षेत्र को विजित किया हो इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । नेपाल पर गुप्तों का अधिकार चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में हुआ था । पूर्व में नेपाल भारत का हिस्सा था , रामायण काल के महाराज दशरथ के रानी कैकई कैकई राज्य के राजा की पुत्री थी । यह कैकई राज्य वर्तमान नेपाल का ही एक भू - भाग था । सीता की जन्म स्थली तथा राजा जनक का राज्य नेपाल में ही था । इसके प्रमाण आज भी नेपाल में है ।
गोपाल वंस नेपालमा सबसे पहले राज करने वाला शासक था । यिनके वादमेँ किरात शासकने राज किया। इस क्षेत्र में ५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर लिच्छवियों के राज्य की स्थापना हुई। ८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् ८79 से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना हुआ था, इसका आकलन कर पाना कठिन है। ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बौद्ध धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा।
१३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। २०० वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: १४82 में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर जिसके बीच मे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका।
१७६५ में, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे-छोटे बाइसे व चोबिसे राज्य के उपर चढ़ाई करते हुए एकीकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लड़ाइयों के पश्चात् उन्होंने ३ वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नही करना पड़ा। वास्तव में, उस समय इन्द्रजात्रा पर्व में कान्तिपुर की सभी जनता फ़सल के देवता भगवान इन्द्र की पूजा और महोत्सव (जात्रा) मना रहे थे, जब पृथ्वी नारायण शाह ने अपनी सेना लेकर धावा बोला और सिंहासन पर कब्जा कर लिया। इस घटना को आधुनिक नेपाल का जन्म भी कहते है।
तिब्बत से हिमाली (हिमालयी) मार्ग के नियन्त्रण के लिए हुआ विवाद और उसके पश्चात युद्ध में तिब्बत की सहायता के लिए चीन के आने के बाद नेपाल पीछे हट गया। नेपाल की सीमा के नज़दीक का छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने के कारण से शुरु हुआ विवाद ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ दुश्मनी का कारण बना। इसी वजह से १८१४१६ रक्तरंजित एंग्लो-नेपाल युद्ध हो गया, जिसमें नेपाल को अपनी दो तिहाई भूभाग से हाथ धोना पड़ा लेकिन अपनी सार्वभौमसत्ता और स्वतन्त्रता को कायम रखा। दक्षिण एशियाई मुल्कों में" यही एक खण्ड है जो कभी भी किसी बाहरी सामन्त (उपनिवेशों) के अधीन में नही आया। विलायत से लड़ने में पश्चिम में सतलुज से पुर्व में तीस्ता नदी तक फैला हुआ विशाल नेपाल सुगौली सन्धि के बाद पश्चिम में महाकाली और मेची नदियों के बीच सिमट गया लेकिन अपनी स्वाधीनता को बचाए रखने में नेपाल सफल रहा, बाद मे अंग्रेजो ने १८२२ में मेची नदी व राप्ती नदी के बीच की तराई का हिस्सा नेपाल को वापस किया उसी तरह १८६० में राणा प्रधानमन्त्री जंगबहादुर से ख़ुश होकर 'भारतीय सैनिक बिद्रोह को कूचलने मे नेपाली सेना का भरपूर सहयोग के बदले अंग्रेजो ने राप्तीनदी से महाकाली नदी के बीच का तराई का थोड़ा और हिस्सा नेपाल को लौटाया। लेकिन सुगौली सन्धी के बाद नेपाल ने जमीन का बहुत बडा हिस्सा गँवा दिया, यह क्षेत्र अभी उत्तराखण्ड राज्य और हिमाचल प्रदेश और पंजाब पहाड़ी राज्य में सम्मिलित है। पूर्व में दार्जिलिंग और उसके आसपास का नेपाली मूल के लोगों का भूमि (जो अब पश्चिम बंगाल मे है) भी ब्रिटिश इण्डिया के अधीन मे हो गया तथा नेपाल का सिक्किम पर प्रभाव और शक्ति भी नेपाल को त्यागने पड़े।
राज परिवार व भारदारो के बीच गुटबन्दी के कारण युद्ध के बाद स्थायित्व कायम हुआ। सन् १८४६ में शासन कर रही रानी का सेनानायक जंगबहादुर राणा को पदच्युत करने के षड्यन्त्र का खुलासा होने से कोतपर्व नाम का नरसंहार हुवा। हथियारधारी सेना व रानी के प्रति वफादार भाइ-भारदारो के बीच मारकाट चलने से देश के सयौं राजखलाक, भारदारलोग व दूसरे रजवाड़ों की हत्या हुई। जंगबहादुर की जीत के बाद राणा ख़ानदान उन्होंने सुरुकिया व राणा शासन लागु किया। राजा को नाममात्र में सीमित किया व प्रधानमन्त्री पद को शक्तिशाली वंशानुगत किया गया। राणाशासक पूर्णनिष्ठा के साथ ब्रिटिश के पक्ष में रहते थे व ब्रिटिश शासक को १८५७ की सेपोई रेबेल्योन (प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम), व बाद में दोनो विश्व युद्धसहयोग किया था। सन १९२३ में यूनाइटेड किंगडम व नेपाल बीच आधिकारिक रूप में मित्रता के समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें नेपाल की स्वतन्त्रता को यूनाइटेड किंगडम ने स्वीकार किया। दक्षिण एशियाई मुल्कों में पहला, नेपाली राजदूतावास ब्रिटेन की राजधानी लन्दन मे खुल गया।
१९४० दशक के उत्तरार्ध में लोकतन्त्र-समर्थित आन्दोलनों का उदय होने लगा व राजनैतिक पार्टियां राणा शासन के विरुद्ध हो गईं। उसी समय चीन ने १९५० में तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया जिसकी वजह से बढ़ती हुई सैनिक गतिविधियों को टालने के लिए भारत नेपाल की स्थायित्व पर चाख बनाने लगा। फलस्वरुप राजा त्रिभुवन को भारत ने समर्थन किया १९५१ में सत्ता लेने में सहयोग किया, नई सरकार का निर्माण हो गया, जिसमें ज्यादा आन्दोलनकारी नेपाली कांग्रेस पार्टी के लोगों की सहभागिता थी। राजा व सरकार के बीच वर्षों की शक्ति खींचातानी के पश्चात्, १९५९ में राजा महेन्द्र ने लोकतान्त्रिक अभ्यास अन्त किया व "निर्दलीय" पंचायत व्यवस्था लागू करके राज किया। सन् १९८९ के "जन आन्दोलन" ने राजतन्त्र को संवैधानिक सुधार करने व बहुदलीय संसद बनाने का वातावरण बन गया सन १९९० में कृष्णप्रसाद भट्टराई अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री बन गए, नये संविधान का निर्माण हुआ राजा बीरेन्द्र ने १९९० में नेपाल के इतिहास में दूसरा प्रजातन्त्रिक बहुदलीय संविधान जारी किया व अन्तरिम सरकार ने संसद के लिए प्रजातान्त्रिक चुनाव करवाए। नेपाली कांग्रेस ने राष्ट्र के दूसरे प्रजातन्त्रिक चुनाव में बहुमत प्राप्त किया व गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमन्त्री बने।
इक्कीसवीं सदी के आरम्भ से नेपाल में माओवादियों का आन्दोलन तेज होता गया। अन्त में सन् २००८ में राजा ज्ञानेन्द्र ने प्रजातान्त्रिक निर्वाचन करवाए जिसमें माओवादियों को बहुमत मिला और प्रचण्ड नेपाल के प्रधानमन्त्री बने और नेपाली कांग्रेस नेता रामबरन यादव ने राष्ट्रपति का कार्यभार संभाला।
मानचित्र पर नेपाल का आकार एक तिरछे सामानान्तर चतुर्भुज का है। नेपाल की कुल लम्बाई करीब ८०० किलोमीटर और चौड़ाई २०० किलोमीटर है। नेपाल का कुल क्षेत्रफल १,४७,5१6 वर्ग किलोमीटर है। नेपाल भौगोलिक रूप से तीन भागों में विभाजित है पर्वतीय क्षेत्र, शिवालिक क्षेत्र और तराई क्षेत्र। साथ में 'भित्री मधेस' कहलाने वाले उपत्यकाओं का एक समूह पहाड़ी क्षेत्र के महाभारत पर्वत शृंखला व चुरिया शृंखला के बीच स्थित है। यह क्षेत्र पहाड़ व तराई के बीच में स्थित है। हिमाली पहाड़ी व तराई क्षेत्र पूर्व-पश्चिम दिशा मे देशभर में फैले हुए है और यिनी क्षेत्र को नेपाल की प्रमुख नदियों ने जगह-जगह पर विभाजन किया है।
भारत के साथ जुड़ा हुआ तराई फांट भारतीय-गंगा के मैदान का उत्तरी भाग है। इस भाग की सिंचाई तथा भरण-पोषण मे तीन नदियों का मुख्य योगदान है: कोशी, गण्डकी (भारत मे गण्डक नदी) और कर्णाली नदी। इस भूभाग की जलवायु उष्ण और संतृप्त (आर्द्र) है।
पहाड़ी भूभाग मे १,००० लेकर ४,००० मीटर तक की ऊँचाई के पर्वत पड़ते हैं। इस क्षेत्र में महाभारत लेख व शिवालिक (चुरिया) नाम की दो मुख्य पर्वत शृंखलाएँ हैं। पहाड़ी क्षेत्र मे ही काठमाणृडू उपत्यका, पोखरा उपत्यका, सुर्खेत उपत्यका के साथ टार, बेसी, पाटन माडी कहे जाने वाले बहुत से उपत्यका पड़ते है। यह उपत्यका नेपाल की सबसे उर्वर भूमि है तथा काठमांडू उपत्यका नेपाल का सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र है। पहाड़ी क्षेत्र की उपत्यका को छोड़ कर २,५०० मीटर (८,२00 फुट) की ऊँचाई पर जनघनत्व बहुत कम है।
हिमाली क्षेत्र में संसार की सबसे ऊँची हिम शृंखलाएँ पड़ती हैं। इस क्षेत्र की उत्तर में चीन की सीमा के पास में संसार का सर्वोच्च शिखर, ऐवरेस्ट (सगरमाथा) ८,८4८ मीटर (२९,०३५ फुट) अवस्थित है। संसार की ८,००० मीटर से ऊँची १४ चोटियों में से ८ नेपाल की हिमालयी क्षेत्र में पड़ती हैं। संसार का तीसरा सर्वोच्च शिखर कंचनजंघा, भी इसी हिमालयी क्षेत्र मे पड़ता है।
नेपाल मे पाँच मौसमी क्षेत्र है जो ऊंचाई के साथ कुछ मात्रा में मेल खाते हैं। उष्णकटिबन्धीय तथा उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र १,२०० मीटर (३,९४०फ़ी) से नीचे, शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र १,२०० लेकर २,४०० मीटर (३,९००७,८७५फ़ी), ठण्डा क्षेत्र २,४०० से लेकर ३,६०० मीटर (७,८७५११,८००फ़ी), उप-आर्कटिक क्षेत्र ३,६०० से लेकर ४,४०० मीटर (११,८००१४,४००फ़ी), व आर्कटिक क्षेत्र ४,४०० मीटर (१४,४००फ़ीट) से ऊपर। नेपाल मे पाँच ऋतुएँ होती हैं: उष्म, मनसून, अटम, शिषिर व बसन्त। हिमालय मध्य एशिया से बहने वाली ठण्डी हवा को नेपाल के अन्दर जाने से रोकता है तथा मानसून की वायु का उत्तरी परिधि के रूप में पानी काम करताहै।
नेपाल व बांग्लादेश की सीमा नहीं जुड़ती है फिर भी ये दोनों राष्ट्र २१ किलोमीटर (१३ मील) की एक सँकरी चिकेन्स् नेक (मुर्गे की गर्दन) कहे जाने वाले क्षेत्र से अलग है। इस क्षेत्र को स्वतन्त्र-व्यापार क्षेत्र बनाने का प्रयास हो रहा है।
संसार का सर्वोच्च शिखर सगरमाथा (एवरेस्ट) नेपाल व तिब्बती सीमा पर अवस्थित है। इस हिमालकी नेपाल में पडने वाले दक्षिण-पूर्वी रिज (रिज) प्राविधिक रूपमे चढना सहज माना जाता है। जिसकी वजहसे प्रत्येक वर्ष इस स्थान मे बहुत पर्यटक जाते है। अन्य चढ़े जाने वाले हिमशिखर मे अन्नपूर्णा (१,२,३,४) अन्नपूर्णा श्रखला मे पड़ता है।
कृषि जनसंख्या के ७६% रोज़गार का स्रोत है और कुल ग्राह्यस्थ उत्पादन का ३९% योगदान करता है और सेवा क्षेत्र ३९% साथ में उद्योग २१% आय का स्रोत है। देश की उत्तरी दो-तिहाई भाग में पहाडी और हिमालयी भूभाग सडकें, पुल तथा अन्य संरचना निर्माण करने में कठिन और महंगा बनाता है। सन् २००३ तक पिच -सडकों की कुल लम्बाई ८,५०० किमी से कुछ ज़्यादा और दक्षिण में रेल्वे-लाइन की कुल लम्बाई ५९ किमी मात्र है। ४८ धावनमार्ग और उनमे से १७ पिचहोनेसे हवाईमार्गकी स्थिति बहुत अच्छी है। यहाँ ज़्यादा में प्रति १२ व्यक्तिके लिए १ टेलिफ़ोन सुविधा उपल्ब्ध है; तारजडित सेवा देशभर में है लेकिन शहरों और जिला मुख्यालयों में ज़्यादा केन्द्रित है; सेवामें जनताकी पहुँच बढने और सस्ता होते जानेसे मोबाइल (या तार-रहित) सेवाकी स्थिति देशभर बहुत अच्छा है। सन् २००५ मे १,७५,००० इन्टरनेट जडाने (कनेक्शन्स) थे, लेकिन "संकटकाल" लागू होनेकेपश्चात् कुछ समय सेवा अवरूद्ध होगयी था। कुछ अन्योल बाद नेपालकी दुसरी बृहत जनआन्दोलनने राजाकी निरंकुश अधिकार समाप्त करनेके पश्चात सभी इन्टरनेट सेवाए बिना रोकटोक सुचारू होगएहैं।
नेपालकी भूपरिवेष्ठित स्थिति, प्राविधिक कमज़ोरी और लम्बे द्वन्द ने अर्थतन्त्र को पूर्ण रूपमे विकासशील होने नहीं दिया है। नेपाल भारत, जापान, यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन, स्विट्ज़रलैंड और स्कैंडिनेवियन राष्ट्रों से वैदेशिक सहयोग पाता है। वित्तीय वर्ष २००५/०६में सरकार का बजट क़रीब १.१५३ अरब अमेरिकी डालर था, लेकिन कुल खर्च १.७८९ अरब हुआ था। १९९० दशक की बढती मुद्रा स्फीति दर घटकर २.९% पहुंची है। कुछ वर्षों से नेपाली मुद्रा रूपैयाँ को भारतीय रूपैया के साथ का सटहीदर १.६ मा स्थिर रखा गया है। १९९० दशकमे खुली बनायीगयी मुद्रा बिनिमय दर निर्धारण नीतिके कारण विदेशी मुद्रा की कालाबाजारी लगभग समाप्त हो चुकी है। एक दीर्घकालीन आर्थिक समझौते ने भारत के साथ अच्छे संबन्ध में मदद दी है।
जनता बीच का सम्पत्ति वितरण अन्य विकसित और विकासोन्मुख देशों के तुलना में ही है: ऊपरवाले १०% गृहस्थी के साथ कुल राष्ट्रिय सम्पत्ति का ३९.१% पर नियन्त्रण है और निम्नतम १०% के साथ केवल २.६%।
नेपाल की १ करोड़ जितने का कार्यबलमे दक्ष कामदारका कमी है। ८१% कार्यबलको कृषि, १६% सेवा और ३% उत्पादन/कला-आधारित उद्योग रोज़गार प्रदान करता है।
२० सितम्बर २०15 के अनुसार नेपाल को भारतीय राज्य प्रणाली की तरह ही सात राज्यों (प्रदेशों) में विभाजित किया गया है। नये संविधान के अनुसूची ४ के अनुसार मौजूदा जनपदों को एक साथ समूहों में गठित कर इन्हें परिभाषित किया गया है और दो ऐसे भी जनपद थे जिन्हें तोड़कर दो अलग-अलग राज्यों में गठित किया गया।
नेपालके संविधान, २०७२ की धारा २९५ (ख) के अनुसार प्रदेशों का नामाकरण सम्वन्धित प्रदेश के संसद (विधान सभा) में दो तिहाई बहुमत से होने का प्रावधान है।
समाज तथा संस्कृति
नेपाल की संस्कृति तिब्बत एवं भारत से मिलती-जुलती है। यहाँ की भेषभूषा, भाषा तथा पकवान इत्यादि एक जैसे ही हैं। नेपाल का सामान्य खाना चने की दाल, भात, तरकारी, अचार है। इस प्रकार का खाना सुबह एवं रात में दिन में दोनो जून खाया जाता है। खाने में चिवड़ा और चाय का भी चलन है। मांस-मछली तथा अण्डा भी खाया जाता है। हिमालयी भाग में गेहूँ, मकई, कोदो, आलू आदि का खाना और तराई में गेहूँ की रोटी का प्रचलन है। कोदो के मादक पदार्थ तोङबा, छ्याङ, रक्सी आदि का सेवन हिमालयी भाग में बहुत होता है। नेवार समुदाय अपने विशेष क़िस्म के नेवारी परिकारों का सेवन करते हैं।
नेपाली सामाजिक जीवन की मान्यता, विश्वास और संस्कृति हिन्दू भावना में आधारित है। धार्मिक सहिष्णुता और जातिगत सहिष्णुता का आपस का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध नेपाल की अपनी मौलिक संस्कृति है। यहाँ के पर्वों में वैष्णव, शैव, बौद्ध, शाक्त सब धर्मों का प्रभाव एक-दूसरे पर समान रूप से पड़ा है। किसी भी एक धार्मिक पर्व को धर्मावलम्बी विशेष का कह सकना और अलग कर पाना बहुत कठिन है। सभी धर्मावलम्बी आपस में मिलकर उल्लासमय वातावरण में सभी पर्वों में भाग लेते हैं। इसके शक्तिपीठों में चाण्डाल और भंगी, चमार, देवपाल और पुजारी के रूप में प्रसिद्ध शक्ति पीठ गुह्येश्वरी देवी, शोभा भागवती के चाण्डाल तथा भंगी, चमार पुजारियों को प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके बावजूद नेपाल में जातिगत भेदभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं और यह भेदभाव जन्मसंस्कार के आधार पर ही है। जातीय भेदभाव तथा छुवाछूत (कसूर र सजाय) ऐन, २०६८, राष्ट्रिय दलित आयोग ऐन, २०७४ व संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (अंडप) के प्रयासों से सुधार आ रहा है।
उपासना की पद्धति और उपासना के प्रतीकों में भी समन्वय स्थापित किया गया है। नेपाल में बौद्ध पन्थ ने भी मूर्तिपूजा और कर्मकांड अपनाया है। बौद्ध पशुपतिनाथ की पूजा आर्यावलोकितेश्वर के रूप में करते हैं और हिंदू मंजुश्री की पूजा सरस्वती के रूप में करते हैं। नेपाल की यह समन्वयात्मक संस्कृति लिच्छवि काल से अद्यावधि चली आ रही है।
नेपाल अनुग्रहपरायण देश है। वह किसी के मैत्रीपूर्ण अनुग्रह को कभी भूल नहीं सकता। नेपाल का पराक्रम विश्वविख्यात है। नेपाल की सांस्कृतिक परम्परा को कायम रखने के लिए वि॰सं॰ २०१७ साल में संयुक्त राज्य अमरीका के कांग्रेस के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधन करते हुए श्री ५ महेन्द्र ने स्पष्टरूप में कहा था कि 'सैनिक कार्यों में लगने वाले खर्च संसार की गरीबी हटाने में व्यय हों'।
नेपाल एक छोटा स्वतन्त्र राष्ट्र है, किन्तु जाति के आधार पर नेपाल राज्य की मित्र राष्ट्र भारत के समान विभिन्न जातियों के रहने का एक अजायबघर जैसा है। उत्तरी भाग की ओर भोटिया, तामां, लिम्बू, शेरपा, महाभारत शृंखला में मगर, किरात, नेवार, गुरुं, सुनुवार और भीतरी तराई क्षेत्र में घिमाल, थारू, मेचै, दनवार आदि जातियों की बहुलता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ठाकुर, खस, जैसी, क्षत्री जातियों तथा ब्राह्मणों की संख्या नेपाल में यत्र-तत्र काफी है। यहाँ पर प्रवासी भारतीयों की संख्या भी पर्याप्त है।
नेपाल मे आधुनिक शिक्षा की शुरूवात राणा प्रधानमन्त्री जंगबहादुर राणा की विदेश यात्रा के बाद सन् १८५४ में स्थापित दरबार हाईस्कूल (हाल रानीपोखरी किनारे अवस्थित भानु मा.बि.) से हुई थी, इससे पहले नेपाल मे कुछ धर्मशास्त्रीय दर्शन पर आधारित शिक्षा मात्र दी जाती थी। आधुनिक शिक्षा की शुरूवात १८५४ में होते हुए भी यह आम नेपाली जनता के लिए सर्वसुलभ नहीं था। लेकिन देशके विभिन्न भागों में कुछ विद्यालय दरबार हाईस्कूलकी शुरूवात के बाद खुलना शुरू हुए। लेकिन नेपाल में पहला उच्च शिक्षा केन्द्र काठमान्डू में राहहुवा त्रिचन्द्र कैम्पस है। राणा प्रधानमन्त्री चन्द्र सम्सेर ने अपने साथ राजा त्रिभुवन का नाम जोडके इस कैंपसका नाम रखाथा। इस कैंपसकी स्थापना बाद नेपालमे उच्च शिक्षा अर्जन बहुत सहज होनगया लेकिन सन १९५९ तक भी देश मे एकभी विश्वविद्यालय स्थापित नहीं हो सकाथा राजनितिक परिवर्तन के पश्चात् राणा शासन मुक्त देशने अन्ततः १९५९ मे त्रिभुवन विश्वविद्यालयकी स्थापना की। उसके बाद महेन्द्र संस्कृत के साथ अन्य विश्वविद्यालय खुलते गए। हाल ही में मात्र सरकार ने ४ थप विश्वविद्यालय भी स्थापित करने की घोषणा की है। नेपाल की शिक्षा का सबसे मुख्य योजनाकार शिक्षामन्त्रालय है उसके अलावा शिक्षा विभाग, पाँच क्षेत्रीय शिक्षा निदेशालय, पचहतर जिल्ला शिक्षा कार्यालय, परीक्षा नियन्त्रण कार्यालय सानोठिमी, उच्चमाध्यामिक शिक्षा परिषद्, पाठ्यक्रम विकास केन्द्र, विभिन्न विश्वविद्यालयों के परीक्षा नियन्त्रण कार्यालय नेपालकी शिक्षाका विकास विस्तार तथा नियन्त्रण के क्षेत्र में कार्यरत हैं।
नेपाल के विश्वविद्यालय
त्रिभुवन विश्वविद्यालय नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय ( पूर्व नाम महेन्द्र संस्कृत विश्वविद्यालय'' )
नेपाल कृषि तथा वन विश्वविद्यालय
नेपाल मे बहुत पहिले से आयुर्वेद (प्राकृतिक चिकित्सा) पद्धति उपयोग मे था। वैद्य और परंपरागत चिकित्सक गाँवघर और शहरो मे स्वास्थ्य सेवा पहुचाते थे। उनलोगो की औषधि के श्रोत नेपाल के हिमाल से तराइ तक मिलनेवाले जडीबुटी ही होते थे। आधुनिक चिकित्सा पद्धती की शुरूवात राणा प्रधानमन्त्री जंगवाहादुर राणा की बेलायत यात्रा के बाद दरवार के अन्दर शुरू हुवा लेकिन नेपाल में आधुनिक चिकित्सा संस्था के रूप में राणा प्रधानमन्त्री वीर सम्सेर के काल मे काठामाण्डौ में सन १८८९ मे स्थापित वीर अस्पताल ही है। तत्पश्चात चन्द्र समसेर के काल मे स्थापित त्रिचन्द्र सैनिक अस्पताल है। हाल में नेपाल के हस्पताल सामन्यतया आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा तथा आधुनिक चिकीत्सा करके सरकारी सेवा विद्यमान हे।
सेना तथा सुरक्षा अंग
नेपाल मे नेपाली सेना, नेपाली सैनिक विमान सेवा, नेपाल ससस्त्र प्रहरी बल, नेपाल प्रहरी, नेपाल ससस्त्र वनरक्षक तथा राष्ट्रीय अनुसन्धान विभाग नेपाल लगायत सस्सत्र, तथा गुप्तचर सुरक्षा निकाय रहेहै। दक्षिण एशिया में नेपाल की सेना पांचवीं सबसे बड़ी है और विशेषकर विश्व युद्धों के दौरान, अपने गोरखा इतिहास के लिए उल्लेखनीय रही है। गोरखा सेना को सबसे अधिक बार विक्टोरिया क्रॉस दिया गया है।
भारत के उत्तर में बसा नेपाल रंगों से भरपूर एक सुन्दर देश है। यहाँ वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना एक आम सैलानी को होती है। देवताओं का घर कहे जाने वाले नेपाल विविधाताओं से पूर्ण है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक ओर यहाँ बर्फ से ढकीं पहाड़ियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थस्थान है। रोमांचक खेलों के शौकीन यहाँ रिवर राफ्टिंग, रॉक क्लाइमिंग, जंगल सफ़ारी और स्कीइंग का भी मजा ले सकते हैं।
लुम्बिनी महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली है। यह उत्तर प्रदेश की उत्तरी सीमा के निकट वर्तमान नेपाल में स्थित है। यूनेस्को तथा विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद आदि) के अनुसार यह स्थान नेपाल के कपिलवस्तु में है जहाँ पर युनेस्को का आधिकारिक स्मारक लगायत सभी बुद्ध धर्म के सम्प्रयायौं ने अपने संस्कृति अनुसार के मन्दिर, गुम्बा, बिहार आदि निर्माण किया है। इस स्थान पर सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलापत्र अवस्थित है।
जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, जहाँ सीता माँ माता का जन्म हुवा था। ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे जो सीता माता जी के पिता थे। सीता माता का जन्म मिट्टी के घड़े से हुआ था। यह शहर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की ससुराल के रूप में विख्यात है।
मुक्तिनाथ वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मन्दिरों में से एक है। यह तीर्थस्थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। भारत में बिहार के वाल्मीकि नगर शहर से कुछ दूरी पर जाने पर गण्डक नदी से होते हुए जाने का मार्ग है। दरअसल एक पवित्र पत्थर होता है जिसको हिन्दू धर्म में पूजनीय माना जाता है। यह मुख्य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र' के नाम से जाना जाता हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहाँ लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफ़ी मुश्किल है। फिर भी हिन्दू धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में यहाँ तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्से को लाँघना होता है। यह हिन्दू धर्म के दूरस्थ तीर्थस्थानों में से एक है।
काठमाण्डु नगर से २९ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में छुट्टियाँ बिताने की खूबसूरत जगह ककनी स्थित है। यहाँ से हिमालय का ख़ूबसूरत नजारा देखते ही बनता है। ककनी से गणोश हिमल, गौरीशंकर ७१३४ मी॰, चौबा भामर ६१०९ मी॰, मनस्लु ८१६३ मी॰, हिमालचुली ७८९३ मी॰, अन्नपूर्णा ८०९१ मी॰ समेत अनेक पर्वत चोटियों को करीब से देखा जा सकता है।
समुद्र तल से ४३६० मी॰ की ऊँचाई पर स्थित गोसाई कुण्ड झील नेपाल के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। काठमांडु से १३२ किलोमीटर दूर धुंचे से गोसाई कुण्ड पहुँचना सबसे सही विकल्प है। उत्तर में पहाड़ और दक्षिण में विशाल झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। यहाँ और भी नौ प्रसिद्ध झीलें हैं। जैसे सरस्वती भरव, सौर्य और गणोश कुण्ड आदि।
यह प्राचीन नगर काठमाण्डु से ३० किलोमीटर पूर्व अर्निको राजमार्ग काठमाण्डु-कोदारी राजमार्ग के एक ओर बसा है। यहाँ से पूर्व में कयरेलुंग और पश्चिम में हिमालचुली शृंखलाओं के खूबसूरत दृश्यों का आनन्द उठाया जा सकता है।
भगवान पशुपतिनाथ का यह खूबसूरत मंदिर काठमाण्डु से करीब ५ किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है। बागमती नदी के किनारे इस मन्दिर के साथ और भी मन्दिर बने हुए हैं। विश्मवप्रसिद्ध महाकाव्य "महाभारत " जो महर्षि वेदव्यासद्वारा ५,५00 ईसा पुर्व भारतवर्ष मे हुआ। उसीमे कुन्तीपुत्र धर्मराज युधिष्टीर, अर्जुन, भिम, नकुल, सहदेव तथा द्रोपदी जब स्वर्गारोहण कर रहे थे तब वे जिस विशाल पर्वत शृंखला से गये उसे " महाभारत पर्वत शृंखला " तथा जहा पर कैलासनाथ आदियोगी महादेव जी ने ज्योतिर्लिंग के रुप मे प्रकट हुये वो स्थान " श्री पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग मन्दिर " के नाम से जाना जाता है। "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग देवस्थान" के बारे में माना जाता है कि यह नेपाल में हिन्दुओं का सबसे प्रमुख और पवित्र तीर्थस्थल है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर प्रतिवर्ष हजारों देशी-विदेशी श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचता है। गोल्फ़ कोर्स और हवाई अड्डे के पास बने इस मन्दिर को भगवान का निवास स्थान माना जाता है।
जनश्रुतिका अनुसार शिवका तीन अंग
पशुपति शिव (केदार )के शिर , उत्तराखण्डका केदारनाथ शिव (केदार)का शरीर ,डोटी बोगटानका बड्डीकेदार, शिव (केदार )का पाउ (खुट्टा)के रुपमे शिवका तीन अंग प्रसिद्द ज्योतिर्लिंग धार्मिक तीर्थ है । डोटीके केदार व कार्तिकेय (मोहन्याल)का इतिहास अयोध्याका राजवंश से जुड़ा है । उत्तराखण्ड के सनातनी देवता डोटी ,सुर्खेत ,काठमाडौं के देबिदेवाताका धार्मिक तीर्थ के लिए प्राचीन कालमे महाभारत पर्वत,चुरे पर्वत क्षेत्र से आवत जावत होता था । यिसी लिए यह क्षेत्र पवित्र धार्मिक इतिहास से सम्बन्धित है ।
रॉयल चितवन राष्ट्रीय उद्यान
रॉयल चितवन राष्ट्रीय उद्यान देश की प्राकृतिक संपदा का खजाना है। ९३२ वर्ग किलोमीटर में फैला यह उद्यान दक्षिण- मध्य नेपाल में स्थित है। १९७३ में इसे नेपाल के प्रथम राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा हासिल हुआ। इसकी अद्भुत पारिस्थितिकी को देखते हुए यूनेस्को ने १९८४ में इसे विश्व धरोहर का दर्जा दिया।
इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यह काठमाण्डु घाटी का सबसे पुराना विष्णु मन्दिर है। मूल रूप से इस मन्दिर का निर्माण चौथी शताब्दी के आस-पास हुआ था। वर्तमान पैगोडा शैली में बना यह मन्दिर १७०२ में पुन: बनाया गया जब आग के कारण यह नष्ट हो गया था। यह मंदिर घाटी के पूर्वी ओर पहाड़ की चोटी पर भक्तपुर से चार किलोमीटर उत्तर में खूबसूरत और शान्तिपूर्ण स्थान पर स्थित है। यह मन्दिर यूनेस्को विश्व धरोहर सूची का हिस्सा है। २०७२ वैशाख १२ का भूकम्प से इस मन्दिर की कुछ संरचना बिगड़ गयी है।
भक्तपुर दरबार स्क्वैयर
भक्तपुर के दरबार स्क्वैयर का निर्माण १६वीं और १७वीं शताब्दी में हुआ था। इसके अन्दर एक शाही महल दरबार और पारम्परिक नेवाड़, पैगोडा शैली में बने बहुत सारे मन्दिर हैं। स्वर्ण द्वार, जो दरबार स्क्वैयर का प्रवेश द्वार है, काफी आकर्षक है। इसे देखकर अन्दर की खूबसूरती का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह जगह भी युनेस्को की विश्व धरोहर का हिस्सा है।
यूनेस्को की आठ सांस्कृतिक विश्व धरोहरों में से एक काठमाण्डु दरबार प्राचीन मन्दिरों, महलों और गलियों का समूह है। यह राजधानी की सामाजिक, धार्मिक और शहरी जिन्दगी का मुख्य केन्द्र है।
खूबसूरती की मिसाल स्वर्ण द्वार नेपाल की शान है। बेशक़ीमती पत्थरों से सजे इस दरवाज़े का धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। शाही अन्दाज में बने इस द्वार के ऊपर देवी काली और गरुड़ की प्रतिमाएँ लगी हैं। यह माना जाता है कि स्वर्ण द्वार स्वर्ग की दो अप्सराएँ हैं। इसका वास्तुशिल्प और सुन्दरता पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है। तथा मनमोहक सुन्दर दृश्य पर्यटकों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण जगह है।
काठमाण्डु घाटी के मध्य में स्थित बोधनाथ स्तूप तिब्बती संस्कृति का केन्द्र है। १९५९ में चीन के हमले के बाद यहाँ बड़ी संख्या में तिब्बतियों ने शरण ली और यह स्थान तिब्बती बौद्धधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। बोधनाथ नेपाल का सबसे बड़ा स्तूप है। इसका निर्माण १४वीं शताब्दी के आस-पास हुआ था, जब मुग़लों ने आक्रमण किया।
सन्दर्भ - इस स्तूप को नेपाली में बौद्ध नाम से पुकारा जाता है। इसकी प्रारम्भिक ऐतिहासिक सामग्री इसकी ही नीचे दबा हुवा अनुमानित है। लिच्छवि राजाओं मानदेव द्वारा निर्मित और शिवदेव द्वारा विस्तारित माना जाता है। हालाँकि इसकी वर्तमान स्वरूप की निर्माण की तिथि भी अज्ञात ही है। इसकी गर्भ-बेदी की दीवार पर स्थापित छोटे-छोटे प्रस्तर मूर्तियाँ और ऊपर की छत्रावली संस्कृत बौद्ध-धर्म का प्रतीक माना जाता है। संस्कृत बौद्ध वाङ्मय का तिब्बती भा
ध्वज : नेपाल का ध्वज
चिह्न : नेपाल को निशान छाप
राष्ट्रीय पक्षी : डाँफे
राष्ट्रीय पशु : गाय
राष्ट्रिय गान : "सयौं थुँगा फूलका हामी..."
वाक्य : "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी "
पुष्प : लाली गुराँस
खेल : वलिबल
भाषा : नेपाली
पोशाक : दौरा सुरूवाल
रंग : सिम्रिक
इन्हें भी देखें
नेपाल का इतिहास
नेपाल की भाषाएँ
नेपाल का संविधान
नेपाल का भूगोल
नेपाल की अर्थव्यवस्था
नेपाल की संस्कृति
नेपाल- एक परिचय (बीबीसी)
आवरण कथा - धर्म, खेल, रोमांच सब कुछ (पाञ्चजन्य)
नेपाल का इतिहास (गूगल पुस्तक; लेखक- काशीप्रसाद श्रीवास्तव)
नेपाली विदेश मन्त्रालय
मोडल और इन्टरटेन्मेन्ट वेब साइट
ब्यापारिक वेब साइट
हिमाल खवर पत्रिका
नेपालन्युज् डट् कम्
बी.बी.सी. नेपाली सेवा
फ्रान्स नेपाल इन्फो
कृषण सेन अन्लाईन
एशिया के देश
दक्षिण एशिया के देश |
बेनज़ीर भुट्टो(उर्दू: ) (जन्म २१ जून १९५३, कराची - मृत्यु २७ दिसम्बर २००७, रावलपिंडी) पाकिस्तान की १२वीं (१९८८ में) व १६वीं (१९९३ में) प्रधानमंत्री थीं। रावलपिंडी में एक राजनैतिक रैली के बाद आत्मघाती बम और गोलीबारी से दोहरा अक्रमण कर, उनकी हत्या कर दी गई। पूरब की बेटी के नाम से जानी जाने वाली बेनज़ीर किसी भी मुसलिम देश की पहली महिला प्रधानमंत्री तथा दो बार चुनी जाने वाली पाकिस्तान की पहली प्रधानमंत्री थीं। वे पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की प्रतिनिधि तथा मुसलिम धर्म की शिया शाखा की अनुयायी थीं।
बेनज़ीर भुट्टो का जन्म पाकिस्तान के धनी ज़मींदार परिवार में हुआ।
वे पाकिस्तान के भूतपूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो, जो सिंध प्रांत के पाकिस्तानी थे तथा बेगम नुसरत भुट्टो, जो मूल रूप से ईरान और कुर्द देश से संबंधित पाकिस्तानी थीं, की पहली संतान थीं। उनके बाबा सर शाह नवाज़ भुट्टो अविभाजित भारत के सिंध प्रांत स्थित लरकाना ज़िले में भुट्टोकलाँ गाँव के निवासी थे। यह स्थान अब भारत के हरियाणा प्रांत में है। १८ दिसम्बर १९८७ में उनका विवाह आसिफ़ अली ज़रदारी के साथ हुआ। आसिफ़ अली ज़रदारी सिंध के एक प्रसिद्ध नवाब, शाह परिवार के बेटे और सफल व्यापारी थे। बेनज़ीर भुट्टो के तीन बच्चे हैं। पहला बेटा बिलावल और दो बेटियाँ बख़्तावर और और असीफ़ा।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा कराची के लेडी जेनिंग नर्सरी स्कूल तथा कॉन्वेंट जीजस एंड मेरी में हुई। १५ वर्ष की आयु में उन्होंने कराची ग्रामर स्कूल से 'ओ' लेवेल की परीक्षा उत्तीर्ण की।. सोलह साल की उम्र में वो अमरीका गईं, जहाँ १९६९ से १९७३ तक वे रैडक्लिफ़ कॉलेज में पढ़ाई की तथा उसके बाद हार्वर्ड विश्वविद्यालय से कला-स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में उन्होंने इंगलैंड के ऑक्सफॉर्ड विश्वविद्यालय से भी अंतर्राष्ट्रीय कानून, दर्शन और राजनीति विषय का अध्ययन किया।. ऑक्सफ़ोर्ड में अध्ययन के दौरान वे ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन की अध्यक्ष चुनी जाने वाली वे पहली एशियाई महिला थीं।
वापस स्वदेश की ओर
पढ़ाई पूरी करने के बाद वे १९७७ में पाकिस्तान वापस पहुँचीं, लेकिन घर वापस आने के कुछ ही दिनों के अंदर उनके पिता और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का तख़्तापलट हो गया। वे चुनाव जीत कर सत्ता में आए थे, लेकिन उनके विरोधियों का आरोप था कि चुनाव में धांधली हुई है। भुट्टो के चुनाव के विरोध में पाकिस्तान की सड़कों पर प्रदर्शन हुए। इसी बीच सेना प्रमुख जनरल ज़िया उल हक ने भुट्टो को बंदी बना लिया और शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। भुट्टो पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने सहयोगियों की हत्या करवाई है। ४ अप्रैल १९७९ में भुट्टो को फांसी दे दी गई। भुट्टो को फांसी देने के बाद सैनिक सरकार द्वारा बेनज़ीर को हिरासत में ले लिया गया। १९७७ से 198४ के बीच बेनज़ीर अनेक बार रिहा हुई और अनेक बार कैद हुईं। 198४ में तीन साल की क़ैद के बाद उन्हें पाकिस्तान से बाहर जाने की अनुमति दी गई। उस समय वे लंदन जाकर रहीं। इसी समय १९८५ में पेरिस में उनके भाई शाहनवाज़ भुट्टो की मौत संदिग्ध हालात में हो गई। अपने भाई की अंतिम क्रिया के लिए बेनज़ीर पाकिस्तान पहुँचीं, जहाँ सैनिक सरकार के विरोध में चल रहे प्रदर्शनों का नेतृत्त्व करने के आरोप में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। लेकिन जल्दी ही उन्हें रिहा करने के बाद वहाँ आम चुनाव की घोषणा कर दी गई।
१९८८ में बेनज़ीर भारी मतों से चुनाव जीत कर आईं और पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं। वे किसी इस्लामी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। दो साल बाद १९९० में उनकी सरकार को पाकिस्तान के राष्ट्रपति ग़ुलाम इशाक ख़ान ने बर्ख़ास्त कर दिया। १९९३ में फिर आम चुनाव हुए और वे फिर विजयी हुईं। उन्हें १९९६ में दोबारा भ्रष्टाचार के आरोप में बर्ख़ास्त किया गया। पहली बार प्रधानमंत्री निर्वाचित होने के समय बेनज़ीर लोकप्रियता के शिखर पर थीं। उनकी ख्याति विश्व स्तर पर सर्वप्रमुख महिला नेता की थी। लेकिन दूसरी बार सत्ता से बेदखल किए जाने तक उनकी छवि पूरी तरह बदल चुकी थी। पाकिस्तान का एक बड़ा तबका उन्हें भ्रष्टाचार और कुशासन के प्रतीक के रूप में देखने लगा। अनेक विश्लेषकों के अनुसार बेनज़ीर के पतन में उनके आसिफ़ ज़रदारी का हाथ रहा है, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सजा भी काटनी पड़ी थी। भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी ठहराए जाने के बाद बेनज़ीर ने १९९९ में पाकिस्तान छोड़ दिया और संयुक्त अरब इमारात के नगर दुबई में आकर रहने लगीं। उनकी अनुपस्थिति में पाकिस्तान की सैनिक सरकार ने उन पर लगे भ्रष्टाचार के विभिन्न आरोपों की जाँच की और उन्हें निर्दोष पाया गया। वे १८ अक्टूबर २००७ में पाकिस्तान लौटीं। उसी दिन एक रैली के दौरान कराची में उन पर दो आत्मघाती हमले हुए जिसमें करीब १४० लोग मारे गए, लेकिन बेनज़ीर बच गईं थी। इसके कुछ ही दिन बाद २७ दिसम्बर २००७ को एक चुनाव रैली के बाद उनकी हत्या कर दी गई। उनकी हत्या तब हुई, जब वे रैली खत्म होने के बाद बाहर जाते वक्त अपने कार की सनरूफ़ से बाहर देखते हुए समर्थकों को विदा दे रही थीं। उनकी मौत से पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।
बेनज़ीर की हत्या भी विवादित रही। सबसे पहले ये माना गया कि बम विस्फ़ोट के कारण उनकी हत्या हुई। बाद में पाकिस्तान सरकार का बयान आया कि बेनज़ीर की हत्या न तो किसी बंदूकधारी के द्वारा हुई और न ही विस्फोट की तीव्रता के कारण। बल्कि, पाकिस्तानी सरकारी बयानों के मुताबिक उनकी मृत्यु विस्फोट से बचने के लिए तेजी से सनरूफ़ (कार की खुल सकने वाली छत) से टकराने से हुई। इस बात पर उनकी पार्टी के समर्थकों के सरकारी बयान का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि बेनज़ीर की हत्या छर्रे लगने से हुई थी। टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा जारी एक वीडियो में दिखाया गया कि किसी व्यक्ति ने उनकी ज़ानिब (तरफ़), विस्फोट के पूर्व, चार गोलियां दागी थी। विरोध के बाद पाकिस्तान सरकार ने कहा कि सरकार उनकी लाश (जो उस समय तक दफ़ना दी गई थी) को पोस्टमॉर्टम के लिए फिर से बाहर निकालने के लिए तैयार है। लेकिन उनके पति आसिफ़ अली ज़रदारी ने सरकार से ऐसा न करने का आग्रह किया। इस हत्या की जिम्मेवारी अल क़ायदा के मुस्तफ़ा अबु अल याज़िद ने ली है। इसका कारण बेनज़ीर भुट्टो की पाकिस्तान में अमेरिकी समर्थक जैसी छवि तथा उनके एक भ्रष्ट नेता होने को माना जाता है जो एक तरह से परवेज़ मुशर्रफ़ की समर्थक समझी जाती थीं और लोग मानते थे कि चुनाव के बाद वो मुसर्रफ़ का समर्थन करेंगीं। इसके अलावा पाकिस्तानी पंजाब प्रान्त में इस सिन्धी मूल की नेता का समर्थन क्षेत्रवादी तौर पर बहुत कम था और उनके समर्थकों से उनके विरोधी ज्यादा थे।}}
उन्होंने अंग्रेज़ी में दो किताबें लिखी हैं-
फॉरेन पॉलिसी इन पर्सपेक्टिव
डॉटर ऑफ़ ईस्ट (पूरब की बेटी) जो उनकी आत्मकथा है
रावलपिंडी का लियाक़त बाग़, जहाँ बेनजीर भुट्टो की हत्या की गई वहाँ पर इसके पहले पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान की भी इसी तरह एक चुनावी रैली में हत्या कर दी गई थी। उसके बाद बेनजीर के पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी भी यहीं दी गई थी।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री
२००७ में निधन
१९५३ में जन्मे लोग
कराची के लोग
पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के राजनीतिज्ञ |
अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात दक्षिण एशिया में अवस्थित देश है, जो विश्व का एक भूूूू-आवेष्ठित देश है। अप्रैल २००७ में अफगानिस्तान सार्क का आठवाँ सदस्य बना। अफगानिस्तान के पूर्व में पाकिस्तान, उत्तर पूर्व में भारत तथा चीन, उत्तर में ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान तथा तुर्कमेनिस्तान तथा पश्चिम में ईरान है।
अफ़गानिस्तान रेशम मार्ग और मानव प्रवास का एक प्राचीन केन्द्र बिन्दु रहा है। पुरातत्वविदों को मध्य पाषाण काल के मानव बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। इस क्षेत्र में नगरीय सभ्यता की शुरुआत ३,००० से २,००० ई.पू. के रूप में मानी जा सकती है। यह क्षेत्र एक ऐसे भू-रणनीतिक स्थान पर अवस्थित है जो मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति से जोड़ता है। इस भूमि पर कुषाण, हफ्थलिट, समानी, गज़नवी, मुहम्मद गौरी, मुगल,अहमद शाह अब्दाली, दुर्रानी साम्राज्य, और अनेक दूसरे प्रमुख साम्राज्यों का उत्थान हुआ है। प्राचीन काल में फ़ारस तथा शक साम्राज्यों का अंग रहा अफ़्ग़ानिस्तान कई सम्राटों, आक्रमणकारियों तथा विजेताओं की कर्मभूमि रहा है। इनमें सिकन्दर, फारसी शासक दारा प्रथम, तुर्क,मुगल शासक बाबर, मुहम्मद गौरी, नादिर शाह, सिख साम्राज्य इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। ब्रिटिश सेनाओं ने भी कई बार अफ़गानिस्तान पर आक्रमण किया। वर्तमान में अमेरिका द्वारा तालिबान पर आक्रमण किये जाने के बाद नाटो(नाटो) की सेनाएँ वहाँ बनी हुई थीं जो सन २0२1 में वहां से निकाल दी गईं हैं।
अफ़गानिस्तान के प्रमुख नगर हैं- राजधानी काबुल, कन्धार (गन्धार प्रदेश) भारत के प्राचीन ग्रन्थ महाभारत में इसे राजा सकुनी का प्रदेश गन्धार प्रदेश कहा जाता था। यहाँ कई नस्ल के लोग रहते हैं जिनमें पश्तून (पठान या अफ़ग़ान) सबसे अधिक हैं। इसके अलावा उज्बेक, ताजिक, तुर्कमेन और हज़ारा शामिल हैं। यहाँ की मुख्य भाषा पश्तो है। फ़ारसी भाषा के अफ़गान रूप को दरी कहते हैं।
वर्तमान में अफगानिस्तान में तालिबान नामक संगठन का नियंत्रण है। अब वहाँ शरिया क़ानून लागू किया गया है
अफ़्ग़ानिस्तान का नाम अफगान और स्थान या (स्तान ) जिसका मतलब भूमि होता है से लकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है अफ़गानों की भूमि। स्थान या (स्तान) भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत का शब्द है- पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज़ाख़स्तान, हिन्दुस्तान इत्यादि जिसका अर्थ है भूमि या देश। अफ़्गान का अर्थ यहां के सबसे अधिक वसित नस्ल (पश्तून) को कहते हैं। अफ़्गान शब्द को संस्कृत अवगान से निकला हुआ माना जाता है। ध्यान रहे की "अफ़्ग़ान" शब्द में ग़ की ध्वनी है और "ग" की नहीं।
"स्टेन" का अर्थ है भूमि। अफगानिस्तान का अर्थ है अफगानों की भूमि। शब्द "स्टेन" का उपयोग कुर्दिस्तान और उज़बेकिस्तान के नामों में भी किया जाता है।
मानव बसाहट १०,००० साल से भी अधिक पुराना हो सकता है। ईसा के १८०० साल पहले आर्यों का आगमन इस क्षेत्र में हुआ। ईसा के ७०० साल पहले इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय काव्य ग्रंथ महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है। ईसापूर्व ५०० में फ़ारस के हखामनी शासकों ने इसको जीत लिया। सिकन्दर के फारस विजय अभियान के तहत अफ़गानिस्तान भी यूनानी साम्राज्य का अंग बन गया। इसके बाद यह शकों के शासन में आए। शक स्कीथियों के भारतीय अंग थे। ईसापूर्व २३० में मौर्य शासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान का संपूर्ण इलाका आ चुका था पर मौर्यों का शासन अधिक दिनों तक नहीं रहा। इसके बाद पार्थियन और फ़िर सासानी शासकों ने फ़ारस में केन्द्रित अपने साम्राज्यों का हिस्सा इसे बना लिया। सासनी वंश इस्लाम के आगमन से पूर्व का आखिरी ईरानी वंश था। अरबों ने ख़ुरासान पर सन् ७०७ में अधिकार कर लिया। सामानी वंश, जो फ़ारसी मूल के पर सुन्नी थे, ने ९८७ इस्वी में अपना शासन गजनवियों को खो दिया जिसके फलस्वरूप लगभग संपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान ग़ज़नवियों के हाथों आ गया। ग़ोर के शासकों ने गज़नी पर ११८३ में अधिकार कर लिया।
मध्यकाल में कई अफ़्गान शासकों ने दिल्ली की सत्ता पर अधिकार किया या करने का प्रयत्न किया जिनमें लोदी वंश का नाम प्रमुख है। अफगानिस्तान पर सिख साम्राज्य के प्रतापी राजा दिलीप सिंह का कई वर्षों तक अधिकार रहा ल अफगान से मिलकर बाबर, नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर आक्रमण किए अफ़ग़ानिस्तान के कुछ क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अंग थे।
उन्नीसवीं सदी में आंग्ल-अफ़ग़ान युद्धों के कारण अफ़ग़ानिस्तान का काफी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के अधीन हो गया जिसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में यूरोपीय प्रभाव बढ़ता गया। १९१९ में अफ़ग़ानिस्तान ने विदेशी ताकतों से एक बार फिर स्वतंत्रता पाई। आधुनिक काल में १९३३-१९७३ के बीच का काल अफ़ग़ानिस्तान का सबसे अधिक व्यवस्थित काल रहा जब ज़ाहिर शाह का शासन था। पर पहले उसके जीजा तथा बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्तापलट के कारण देश में फिर से अस्थिरता आ गई। सोवियत सेना ने कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के लिए देश में कदम रखा और मुजाहिदीन ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और बाद में अमेरिका तथा पाकिस्तान के सहयोग से सोवियतों को वापस जाना पड़ा। ११ सितम्बर २००१ के हमले में मुजाहिदीन का हाथ होने की खबर के बाद अमेरिका ने देश के अधिकांश हिस्से पर सत्तारुढ़ मुजाहिदीन (तालिबान), जिसको कभी अमेरिका ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने में हथियारों से सहयोग दिया था, के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
नाम की उत्पत्ति
अफगानिस्तान नाम अफ्गान समुदाय की जगह के रूप में प्रयुक्त किया गया है, यह नाम सबसे पहले १० वीं शताब्दी में हूदूद उल-आलम (विश्व की सीमाएं) नाम की भौगोलिक किताब में आया था इसके रचनाकार का नाम अज्ञात है' साल २००६ में पारित देश के संविधान में अफगानिस्तान के सभी नागरिकों को अफ्गान कहा गया है जो अफगानिस्तान के सभी नागरिक अफ्गान है'
वर्तमान में १५ अगस्त २०२१ को तालिबान ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया।
अमेरिका ने यह फैसला लिया था कि अफगानिस्तान से वह अपने सभी सैनिकों को अपने देश में लेकर आएगा।
जैसे ही अमेरिकी सेना अपने देश लौट गई, तब तालिबान ने बहुत तेजी से पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। लेकिन वहाँ के लोग उनके खिलाफ आंदोलन( कारवाही) कर रहे हैं जिनमे पंजशीर के जूनियर मसूद अहमद और अफगानिस्तान के पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह मुख्यत: है तालिबान ने क़ाबुल पर कब्ज़ा जमाया हुआ है और बंदूक की नोक पर एक आतंकी सरकार का गठन किया जिससे वहाँ के लोगो में दहशत का माहोल बना हुआ हैं खासकर महिलाओं में क्योंकि उन्होंने तालिबान का पूर्व शासन देखा है जिसमें महिलाओं का कोई सम्मान नहीं था। फिलहाल अफगानिस्तान के उज्ज्वल भविष्य पर दुःख और अशांति के बादल मंडरा रहे हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में कुल ३४ प्रशासनिक विभाग हैं। इनके नाम हैं -
अफ़ग़ानिस्तान चारों ओर से ज़मीन से घिरा हुआ है और इसकी सबसे बड़ी सीमा पूर्व की ओर पाकिस्तान से लगती है। इसे डूरण्ड रेखा भी कहते हैं। केन्द्रीय तथा उत्तरपूर्व की दिशा में पर्वतमालाएँ हैं जो उत्तरपूर्व में ताजिकिस्तान स्थित हिन्दूकुश पर्वतों का विस्तार हैं। अक्सर तापमान का दैनिक अन्तरण अधिक होता है। १९३४ में लीग आफ नेशन का सदस्य हुआ १९४५ में संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल हुआ
यह भी देखिए
अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध
अफ़्गानिस्तान के नगरो की सूची
ग़ की ध्वनी
अफ़्गानिस्तान कभी आर्याना था (वेद प्रताप वैदिक)
दक्षिण एशिया के देश |
ऑस्ट्रेलिया के पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी है जिन्हें व्यापक रूप से खेल के इतिहास में सबसे महान गेंदबाजों में से एक माना जाता है। १९९२ में शेन वॉर्न ने अपना पहला टेस्ट मैच खेला था और श्रीलंका के मुथैया मुरलीधरन के बाद वह दूसरे गेंदबाज बने थे जिन्होंने १००० अंतरराष्ट्रीय विकेट (टेस्ट और वनडे मैचों में) लिये। वॉर्न के ७०८ विकेट टेस्ट क्रिकेट में किसी भी गेंदबाज द्वारा लिये गए सर्वाधिक विकेट थे, जब तक कि मुरलीधरन ने इससे ज्यादा विकेट नहीं ले लिये थे। वॉर्न उपयोगी निचले क्रम के बल्लेबाज भी थे। वह एकमात्र खिलाड़ी है जिन्होंने ३०००+ टेस्ट रन बनाए लेकिन कभी शतक नहीं जड़ा। उनका करियर मैदान के बाहर विवादों से ग्रस्त रहा। इन में प्रतिबंधित पदार्थ के लिए सकारात्मक परीक्षण पाए जाने पर क्रिकेट से प्रतिबंध शामिल था। साथ ही सट्टेबाजों से पैसा स्वीकार करके खेल को बदनामी में लाने का आरोप और भी कई विवाद।
वह जनवरी २००७ में ऑस्ट्रेलिया की इंग्लैंड पर ५-० की द एशेज की जीत के अंत में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से सेवानिवृत्त हुए। उस समय ऑस्ट्रेलियाई टीम के अभिन्न अंग में से तीन अन्य खिलाड़ी भी रिटायर हुए- ग्लेन मैकग्रा, डेमियन मार्टिन और जस्टिन लैंगर। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से अपनी सेवानिवृत्ति के बाद वॉर्न ने हैम्पशायर काउंटी क्रिकेट क्लब के लिये प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला। 2००8 में आईपीएल की टीम राजस्थान रॉयल्स के कोच और कप्तान की भूमिका निभाई और टीम को जीत दिलाई। कुल मिलाकर उन्होंने १९९२ से २००७ तक 1४५ टेस्ट मैच खेलें थे जिसमें उन्होंने 2५.४१ की गेंदबाज़ी औसत से 7०8 विकेट लिये। १९९३ से 2००५ तक उन्होंने १९४ एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय में २९३ विकेट लिये। १९९९ क्रिकेट विश्व कप की विजेता टीम में उनका अहम योगदान था। 'शेन वॉर्न' का ५2 साल की उम्र में ४ मार्च 2०22 को निधन हुआ।
इन्हें भी देखें
ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिलाड़ी
ऑस्ट्रेलियाई वनडे क्रिकेट खिलाड़ी
२०२२ में निधन
ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट कप्तान
१९६९ में जन्मे लोग |
पंजाब (पंजाबी: ) उत्तर-पश्चिम भारत का एक राज्य है जो वृहद्तर पंजाब क्षेत्र का एक भाग है। इसका दूसरा भाग पाकिस्तान में है। पंजाब क्षेत्र के अन्य भाग (भारत के) हरियाणा और हिमाचल प्रदेश राज्यों में हैं। इसके पश्चिम में पाकिस्तानी पंजाब, उत्तर में जम्मू और कश्मीर, उत्तर-पूर्व में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में हरियाणा, दक्षिण-पूर्व में केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ और दक्षिण-पश्चिम में राजस्थान राज्य हैं। राज्य की कुल जनसंख्या २,७७,४३,३३६ है और कुल क्षेत्रफल ५०,36२ वर्ग किलोमीटर है। केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ पंजाब की राजधानी है पंजाब के प्रमुख नगरों में अमृतसर, लुधियाना, जालंधर, पटियाला और बठिंडा हैं।
१९४७ भारत का विभाजन के उपरान्त बर्तानवी भारत के पंजाब प्रान्त को भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन दिया गया था। फिर पाकिस्तान वाले भाग में बहाावलपुर राज्य जोड़़ा गया और भारतीय पंजाब में पेप्सू राज्यों को, जिससे एक भारतीय पंजाब विशाल क्षेत्र बना। १९६६ में भारतीय पंजाब का विभाजन फिर से हो गया और परिणाम के रूप में हरियाणा और विशाल हिमाचल प्रदेश जन्में और पंजाब का वर्तमान राज बना। यह भारत का अकेला प्रान्त है जहाँ सिख बहुमत में हैं।
युनानी लोग पंजाब के आस पास क्षेत्र को पैंटापोटाम्या नाम के साथ जानते थे जो कि पाँच इकट्ठा होते नदियोँ का अंदरूनी डेल्टा है। पारसियों के पवित्र ग्रंथ अवैस्टा में उत्तर पश्चिम भारत क्षेत्र को पुरातन हपता हेंदू व सप्त-सिंधु (सात नदियोँ की धरती) के साथ जोड़ा जाता है। पर पंजाब नामकरण अकबर के शासनकाल में हुआ और इसमें सतलुज से दक्षिण कोई भी भाग पंजाब में सम्मिलित नहीं था। बर्तानवी लोग इस को "हमारा प्रशिया" कह कर बुलाते थे। ऐतिहासिक रूप से पंजाब युनानियों, मध्य एशियाईओं, अफ़ग़ानियों और ईरानियों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का प्रवेश-द्वार रहा है।
कृषि पंजाब का सब से बड़ा उद्योग है। यहाँ के प्रमुख उद्योग हैं: वैज्ञानिक साज़ों सामान, कृषि, खेल और बिजली सम्बन्धित माल, सिलाई मशीनें, मशीन यंत्रों, स्टार्च, साइकिलों, खादों आदि का निर्माण, वित्तीय आजीविका, सैर-सपाटा और देवदार के तेल और खंड का उत्पादन। पंजाब में भारत में से सब से अधिक इस्पात के लुढ़का हुआ मीलों के उद्योग-स्थल हैं जो कि फ़तहगढ़ साहब की इस्पात नगरी मंडी गोबिन्दगढ़ में हैं। इस पवित्र धरती नै महाराजा रणजीत सिंह अकाली फूला सिंह और सरदार हरि सिंह नलवा जैसे योद्धाओं जन्म दिया और पंजाब के लोगों ने हिंदुस्तान को आजाद कराने के लिए ८०% जाने दी
'पंजाब' शब्द, फ़ारसी के शब्दों 'पंज' () पांच और 'आब' () पानी के मेल से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ 'पांच नदियों का क्षेत्र' है। यह फ़ारसी शब्द संस्कृत के 'पञ्चनाद' के आधार पर हुआ था जिसका अर्थ वही 'पांच नदियों का क्षेत्र' है। ये पांच नदियां हैं: सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब और झेलम। धार्मिक आधार पर सन् १९४७ में हुए भारत और पाकिस्तान के विभाजन के दौरान चिनाब और झेलम ये दो नदियां पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में चली गईं।
पंजाब १९०० में
पंजाब अखण्ड भारत का हिस्सा रहा है। यहां मौर्य, बैक्ट्रियन, यूनानी, शक, कुषाण, गुप्त जैसी अनेक शक्तियों का उत्थान और पतन हुआ। मध्यकाल में पंजाब मुसलमानों के अधीन रहा। सबसे पहले गज़नवी, ग़ोरी, गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुग़लक़, लोधी और मुगल वंशो का पंजाब पर अधिकार रहा। पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में पंजाब के इतिहास ने नया मोड़ लिया। गुरु नानक देव की शिक्षाओं से यहां भक्ति आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा। सिख पंथ ने एक धार्मिक और सामाजिक आंदोलन को जन्म दिया, जिसका मुख्य उद्देश्य धर्म और समाज में फैली कुरीतियों को दूर करना था। दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने सिखों को खालसा पंथ के रूप में संगठित किया तथा एकजुट किया। उन्होंने देशभक्ति, धर्मनिरपेक्षता और मानवीय मूल्यों पर आधारित पंजाबी राज की स्थापना की। एक फारसी लेख के शब्दों में महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब को सिख साम्राज्य में बदल दिया। किंतु उनके देहांत के बाद अंदरूनी साजिशों और अंग्रेजों की चालों के कारण पूरा साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। अंग्रेजों और सिखों के बीच दो निष्फल युद्धों के बाद १८४९ में पंजाब ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया।
स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी के आगमन से बहुत पहले ही पंजाब में ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष आरंभ हो चुका था। अंग्रेजों के खिलाफ यह संघर्ष सुधारवादी आंदोलनों के रूप में प्रकट हो रहा था। सबसे पहले आत्म अनुशासन और स्वशासन में विश्वास करने वाले नामधारी संप्रदाय ने संघर्ष का बिगुल बजाया। बाद में लाला लाजपतराय ने स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई। चाहे देश में हो या विदेश में, पंजाब स्वतंत्रता संग्राम में हर मोर्चे पर आगे रहा। देश की आज़ादी के बाद पंजाब को विभाजन की विभीषिका का सामना करना पड़ा जिसमें बड़े पैमाने पर रक्तपात तथा विस्थापन हुआ। विस्थापित लोगों के पुनर्वास के साथ-साथ राज्य को नए सिरे से संगठित करने की भी चुनौती थी।
पूर्वी पंजाब की आठ रियासतों को मिलाकर नए राज्य 'पेप्सू' तथा पूर्वी पंजाब राज्य सघ-पटियाला का निर्माण किया गया। पटियाला को इसकी राजधानी बनाया गया। सन १९५६ में पेप्सू को पंजाब में मिला दिया गया। बाद में पंजाबी सूबा आंदोलन के कारण १९६६ में पंजाब से कुछ हिस्से निकालकर हरियाणा बनाया गया।
पंजाब देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। इसके पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर में जम्मू और कश्मीर, उत्तर-पूर्व में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में हरियाणा तथा राजस्थान है।
सिख धर्म पंजाब का मुख्य धर्म है। राज्य के लगभग ६० प्रतिशत नागरिक सिख धर्म के अनुयायी हैं। पंजाब भारत के उन छ: राज्यों में से है जहां हिन्दुओं का बहुमत नहीं है। सिखों का प्रमुख धार्मिक स्थल, हरमन्दिर साहिब, पंजाब के अमृतसर नगर में है, जोकि सिक्खों का पवित्रतम नगर है। अमृतसर जैन धर्म के अनुयायियों के लिए भी विशेष महत्त्व रखता है।
१.४० अन्य भाषाएं
अंतरराष्ट्रीय सीमा के दोनों ओर के पंजाबों की भाषा पंजाबी है, परंतु लिपि भिन्न है। भारतीय पंजाब में जहां गुरुमुखी का प्रयोग होता है वहीं पाकिस्तानी पंजाब में शाहमुखी लिपि का प्रयोग होता है। भारतीय पंजाब की लगभग ९ % जनता हिन्दी बोलती है, विशेष तौर पर हरियाणा और राजस्थान से सटे इलाकों में। हिन्दी को लगभग पूरी जनसंख्या द्वारा समझा जाता है जबकि शहरों में रहने वाले लोक हिंदी और अन्य भाषाएं भी बोलते हैं।
पंजाब के दूसरे राज्यों से सठे इलाकों में पंजाबी से मिलती जुलती कुछ भाषाएं भी बोली जाती है, जैसे के पठानकोट में डोगरी और फाजिल्का में बागड़ी। कई लोक इनको पंजाबी की बोलियाँ मानते हैं, तो कई लोग इन्हे हिंदी की बोलियाँ और कई लोग इन्हे अपने आप में स्वतंत्र, अलग भाषाएंँ मानते है।
पंजाब राज्य २२ जिलों में बंटा हुआ है। ये जिले है:
२३वां जिला- मलेरकोटला है।
फतेहगढ़ साहिब जिला
शहीद भगतसिंहनगर जिला
तरन तारन साहिब जिला
साहिबजादा अजीत सिंह नगर
पंजाब का सन २००४ का अनुमानित कुल सकल घरेलू उत्पाद २७ अरब डॉलर है। यह एक विकसित राज्य है।
पंजाब एक कृषि प्रधान राज्य है। यहां गेंहू की सबसे अधिक बिजाई की जाती है। अन्य मुख्य फसलों में चावल, कपास, गन्ना, बाजरा, मक्का, चना और फल शामिल हैं। प्रमुख उद्योगों में कपड़ा और आटा शामिल है।
पंजाब पृथ्वी का सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र रहा है। यह गेहूं उत्पादन के लिए आदर्श क्षेत्र है। चावल, गन्ना, सब्जियों एंव फलों भी यहां अच्छा उत्पादन होता है। भारतीय पंजाब को भारत का "अन्न-भण्डार" कहा जाता है। यहां भारत के कुल गेहूं उत्पादन का ६०% और चावल का ४०% उत्पादन होता है। विश्व के परिदृश्य में इन फसलों का विश्व के कुल उत्पादन का १/३० वां अथवा ३% का योगदान करता है।
भारतीय पंजाब का आधारभूत ढांचा पूरे भारत में सर्वाधिक बेहतर में से है। यहां के निवासी औसत के आधार पर भारत के सर्वाधिक धनी लोग हैं।
भारत के राज्य
पंजाबी-भाषी देश व क्षेत्र |
जापान (जापानी भाषा में जापान को ऐसे "" लिखा जाता है जिसका उच्चारण 'निप्पोन या निहोन' होता है,परंतु औपचारिक रूप से जापानी में जापान को ऐसे "" लिखते हैं।
औपचारिक रूप: जापान राज्य) , एशिया महाद्वीप के पूर्व में स्थित एक द्वीप देश है। जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है। ये द्वीप एशिया के पूर्वी समुद्रतट, यानी उत्तर पश्चिम प्रशांत महासागर में स्थित हैं। यह पश्चिम में जापान सागर(सिया ऑफ जापान/ईस्ट सिया) से घिरा है, और उत्तर में ओखोटस्क सागर(सिया ऑफ ओकोटस्क) से लेकर दक्षिण में पूर्वी चीन सागर(ईस्ट चीना सिया) और ताइवान तक फैला हुआ है।
इसके निकटतम पड़ोसी चीन, कोरिया(उत्तर और दक्षिण कोरिया) तथा रूस हैं। जापान में वहाँ के मूल निवासियों की जनसंख्या ९८.५% है। बाकी ०.५% कोरियाई, ०.४ % चाइनीज़ तथा ०.६% अन्य लोग है। जापानी लोग अपने देश को 'निप्पोन या निहोन कहते हैं,
जिसका मतलब सूर्योदय है। रिंग ऑफ फायर का हिस्सा, जापान ६८५२ द्वीपों का एक द्वीपसमूह है, जो ३७७,९७५ वर्ग किलोमीटर (१४५,९३७ वर्ग मील)में फैला हुआ है ; जापान के पांच मुख्य द्वीप होक्काइडो, होंशू (जिसे जापान की मुख्य भूमि भी कहा जाता है) , शिकोकू, क्यूशू और ओकिनावा हैं। जापान की राजधानी टोक्यो है और उसके अन्य बड़े महानगर योकोहामा, ओसाका, नागोया, साप्पोरो, फुकुओका, कोबे और क्योटो (जापान की पूर्ववर्ती राजधानी) हैं।
जापान दुनिया का ग्यारहवां सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है, साथ ही सबसे घनी जनसंख्या वाले और शहरीकृत देशों में से भी एक है। देश का लगभग तीन-चौथाई भूभाग पहाड़ी है, जिस कारण इसकी १२५.३६ मिलियन की जनसंख्या संकीर्ण तटीय मैदानों पर केंद्रित है। जापान को ४७ प्रशासनिक प्रान्तों और आठ पारंपरिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है। ग्रेटर टोक्यो क्षेत्र ३७.४ मिलियन से अधिक निवासियों के साथ दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला महानगरीय क्षेत्र है।
जापान ऊपरी पुरापाषाण काल (३०,००० ब्क) से ही बसा हुआ है लेकिन जापान देश के बारे में पहला लिखित उल्लेख एक चीनी वृत्तांत (थे 'बुक ऑफ हाँ' यानी 'हान की किताब') में मिलता है जोकि द्वितीय शताब्दी में पूर्ण हुई थी। दूसरी और नौंवीं सदी के बीच कईं जापानी साम्राज्य एक सम्राट के अंदर एकीकृत हो गये जिन्होंने हेइआन-क्यो(आज के समय में जिसे 'क्योटो' कहा जाता है) को अपनी राजधानी घोषित कर दिया। बारहवीं सदी की शुरुआत में
जापानी में जापान का नाम कांजी और उच्चारण निप्पॉन या निहोन का उपयोग करके लिखा जाता है। ८ वीं शताब्दी की शुरुआत में इसे अपनाने से पहले, इस देश को चीन में वा () और जापान में यमातो के नाम से जाना जाता था। निप्पॉन, पात्रों का मूल चीन-जापानी पढ़ना, आधिकारिक उपयोगों के लिए अनुकूल है, जिसमें बैंक नोट और डाक टिकट शामिल हैं। निहोन आमतौर पर रोजमर्रा के भाषण में प्रयोग किया जाता है और ईदो अवधि के दौरान जापानी ध्वनिविज्ञान में बदलाव को दर्शाता है। अक्षरों का अर्थ है "सूर्य की उत्पत्ति"। यह लोकप्रिय पश्चिमी उपाधि "उगते सूरज की भूमि" (लैंड ऑफ थे राइसिंग सुन) का स्रोत है।
जापान नाम चीनी उच्चारण पर आधारित है और प्रारंभिक व्यापार के माध्यम से यूरोपीय भाषाओं में पेश किया गया था। १३ वीं शताब्दी में, मार्को पोलो ने के शुरुआती मंदारिन या वू चीनी उच्चारण को सिपंगु के रूप में दर्ज किया। जापान, जपांग या जपुन के लिए पुराना मलय नाम, दक्षिणी तटीय चीनी बोली से उधार लिया गया था और दक्षिणपूर्व एशिया में पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा सामना किया गया था, जो १६ वीं शताब्दी की शुरुआत में इस शब्द को यूरोप में लाए थे। अंग्रेजी में नाम का पहला संस्करण १५७७ में प्रकाशित एक पुस्तक में प्रकट होता है, जिसने १५६५ पुर्तगाली पत्र के अनुवाद में नाम को जियापान के रूप में लिखा था।
जापानी लोककथाओं के अनुसार विश्व के निर्माता ने सूर्य देव तथा चन्द्र देव को भी रचा। फिर उसका पोता क्यूशू द्वीप पर आया और बाद में उनकी संतान होंशू द्वीप पर फैल गए।
जापान का प्रथम लिखित साक्ष्य ५७ ईस्वी के एक चीनी लेख से मिलता है। इसमें एक ऐसे राजनीतिज्ञ के चीन दौरे का वर्णन है, जो पूर्व के किसी द्वीप से आया था। धीरे-धीरे दोनों देशों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक सम्बंध स्थापित हुए। उस समय जापानी एक बहुदैविक धर्म का पालन करते थे, जिसमें कई देवता हुआ करते थे। छठी शताब्दी में चीन से होकर बौद्ध धर्म जापान पहुंचा। इसके बाद पुराने धर्म को शिंतो की संज्ञा दी गई जिसका शाब्दिक अर्थ होता है - देवताओं का पंथ। बौद्ध धर्म ने पुरानी मान्यताओं को खत्म नहीं किया पर मुख्य धर्म बौद्ध ही बना रहा। चीन से बौद्ध धर्म का आगमन उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार लोग, लिखने की प्रणाली (लिपि) तथा मंदिरो का सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक कार्यों के लिए उपयोग।
शिंतो मान्यताओं के अनुसार जब कोई राजा मरता है तो उसके बाद का शासक अपना राजधानी पहले से किसी अलग स्थान पर बनाएगा। बौद्ध धर्म के आगमन के बाद इस मान्यता को त्याग दिया गया। ७१० ईस्वी में राजा ने नॉरा नामक एक शहर में अपनी स्थायी राजधानी बनाई। शताब्दी के अन्त तक इसे हाइरा नामक नगर में स्थानान्तरित कर दिया गया जिसे बाद में क्योटो का नाम दिया गया। सन् ९१० में जापानी शासक फूजीवारा ने अपने आप को जापान की राजनैतिक शक्ति से अलग कर लिया। इसके बाद तक जापान की सत्ता का प्रमुख राजनैतिक रूप से जापान से अलग रहा। यह अपने समकालीन भारतीय, यूरोपी तथा इस्लामी क्षेत्रों से पूरी तरह भिन्न था जहाँ सत्ता का प्रमुख ही शक्ति का प्रमुख भी होता था। इस वंश का शासन ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त तक रहा। कई लोगों की नजर में यह काल जापानी सभ्यता का स्वर्णकाल था। चीन से सम्पर्क क्षीण पड़ता गया और जापान ने अपनी खुद की पहचान बनाई। दसवी सदी में बौद्ध धर्म का मार्ग अपनाया। इसके बाद से जापान ने अपने आप को एक आर्थिक शक्ति के रूप में सुदृढ़ किया और अभी तकनीकी क्षेत्रों में उसका नाम अग्रणी राष्ट्रों में गिना जाता है।
जापान कई द्वीपों से बना देश है। जापान कोई ३९०० द्वीपों से मिलकर बना है। इनमें से केवल ३४० द्वीप १ वर्ग किलोमीटर से बड़े हैं। जापान को प्रायः चार बड़े द्वीपों का देश कहा जाता है। ये द्वीप हैं - होक्काइडो, होन्शू, शिकोकू तथा क्यूशू। होन्शू द्वीप जापान का सबसे बड़ा है। जापानी भूभाग का ७६.२ प्रतिशत भूभाग पहाड़ों से घिरा होने के कारण यहां कृषि योग्य भूमि मात्र १३.४ प्रतिशत है, ३.५ प्रतिशत क्षेत्र में पानी है और ४.६ प्रतिशत भूमि आवासीय उपयोग में है। जापान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। चारों ओर समुद्र से घिरा होने के बावजूद इसे अपनी जरुरत की २८ प्रतिशत मछलियां बाहर से मंगानी पड़ती है।
शासन तथा राजनीति , सरकार
यद्यपि ऐसा कहीं लिखा नहीं है पर जापान की राजनैतिक सत्ता का प्रमुख राजा होता है। उसकी शक्तियां सीमित हैं। जापान के संविधान के अनुसार "राजा देश तथा जनता की एकता का प्रतिनिधित्व करता है"। संविधान के अनुसार जापान की स्वायत्तता की बागडोर जापान की जनता के हाथों में है।
सैनिक रूप से जापान के सम्बन्ध अमेरिका से सामान्य है।
जापान का वर्तमान संविधान इसे दूसरे देशों पर सैनिक अभियान या चढ़ाई करने से मना करता है।
एक अनुमान के अनुसार जापान विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परन्तु जापान की अर्थव्यवस्था स्थिर नहीं है। यहां के लोगो की औसत वार्षिक आय लगभग ५०,०० अमेरिकी डॉलर है जो काफी अधिक है।
१८६८ से, मीजी काल आर्थिक विस्तार का शुभारंभ किया। मीजी शासकों ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की अवधारणा को गले लगा लिया और मुक्त उद्यम पूंजीवाद के ब्रिटिश और उत्तरी अमेरिका के रूपों को अपनाया। जापानी विदेश में और पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन गए थे जापान में पढ़ाने के काम पर रखा है। आज के उद्यमों के कई समय की स्थापना की थी। जापान एशिया में सबसे विकसित राष्ट्र के रूप में उभरा है।
१९८० के दशक, समग्र वास्तविक आर्थिक विकास के लिए १९६० से एक "जापानी" चमत्कार बुलाया गया है: १९६० के दशक में एक १०% औसत, १९७० के दशक में एक ५% औसत है और १९८० के दशक में एक ४% औसत। विकास जापानी क्या कॉल के दौरान १९९० के दशक में स्पष्ट रूप से धीमा दशक के बाद बड़े पैमाने पर जापानी परिसंपत्ति मूल्य बुलबुला और घरेलू करने के लिए शेयर और अचल संपत्ति बाजार से सट्टा ज्यादतियों मरोड़ इरादा नीतियों के प्रभाव की वजह से खोया। सरकार को आर्थिक छोटी सफलता के साथ मुलाकात की वृद्धि को पुनर्जीवित करने के प्रयासों थे और आगे २००० में वैश्विक मंदी से प्रभावित। अर्थव्यवस्था २००५ के बाद वसूली के मजबूत संकेत दिखाया. उस वर्ष के लिए जीडीपी विकास २.८% था।
२००९ के रूप में, जापान दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है पर संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद, अमेरिका के आसपास ५ नाममात्र का सकल घरेलू उत्पाद और तीसरे के संदर्भ में खरब डॉलर के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और शक्ति समता जापान के लोक ऋण की खरीद के १९२ प्रतिशत के मामले में चीन यह वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद, बैंकिंग, बीमा, रियल एस्टेट, खुदरा बिक्री, परिवहन, दूरसंचार और निर्माण की सभी प्रमुख उद्योगों जापान एक बड़े औद्योगिक क्षमता है और सबसे बड़ा की, प्रमुख और सबसे अधिक प्रौद्योगिकी मोटर वाहन, इलेक्ट्रानिक के उत्पादकों उन्नत करने के लिए घर है उपकरण, मशीन टूल्स, इस्पात और पोतों, रसायन, वस्त्र और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ सकल घरेलू उत्पाद के तीन तिमाहियों के लिए सेवा क्षेत्र खातो।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
जापान पिछले कुछ दशकों से विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी हो गया है। जापान के वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्रों, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, मशीनरी और जैव चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में से एक है। लगभग ७,००,००० शोधकर्ताओं शेयर एक अमेरिका में ९४ १३० अरब डॉलर का अनुसंधान एवं विकास बजट, विश्व में तीसरी सबसे बड़ी [.] जापान मौलिक वैज्ञानिक अनुसंधान में एक विश्व नेता हैं, होने भी भौतिकी में तेरह नोबेल पुरस्कार विजेताओं का उत्पादन किया, रसायन विज्ञान या चिकित्सा, ९५ तीन फील्ड्स पदक ९६ और एक गॉस पुरस्कार विजेता
जापान के अधिक प्रमुख तकनीकी योगदान के कुछ इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में, मशीनरी, भूकंप इंजीनियरिंग, औद्योगिक रोबोटिक्स, प्रकाशिकी, रसायन, अर्धचालक और धातुओं पाए जाते हैं। जापान रोबोटिक्स उत्पादन और उपयोग करते हैं, आधे से अधिक रखने (४,०२,२०० ७,४२,५०० के) दुनिया के औद्योगिक रोबोटों के विनिर्माण के लिए इस्तेमाल किया [९८] यह भी क़्रियो, असिमो और ऐबो का उत्पादन किया। दुनिया में ले जाता है। जापान दुनिया के मोटर वाहन का सबसे बड़ा उत्पादक है ९९] [और चार दुनिया की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पन्द्रह निर्माताओं के लिए घर और आज के रूप में सात दुनिया के बीस सबसे बड़ी अर्धचालक बिक्री नेताओं की
जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जाक्सा) जापान की अंतरिक्ष एजेंसी है जो अंतरिक्ष और ग्रह अनुसंधान, उड्डयन अनुसंधान आयोजित करता है और रॉकेट और उपग्रह विकसित करता है। यह अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भागीदार है और जापानी प्रयोग मॉड्यूल (किबो है) किया गया था २,००८ में अंतरिक्ष शटल विधानसभा उड़ानों के दौरान अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जोड़ा [१००.] यह वीनस जलवायु शुरू की परिक्रमा के रूप में अंतरिक्ष की खोज में की योजना बनाई है (ग्रह २०१० में सी), [१०१] [१०२ बुध मैग्नेटोस्फेरिक परिक्रमा विकासशील] २०१३ में शुरू किया जाना है, [१०३] [१०४] और २०३० से एक मूनबसे निर्माण
१४ सितंबर को, २००७, यह एक एच ईइया (मॉडल ह२आ२०२२) तनेगाशीमा/टनेगासीमा अंतरिक्ष केंद्र से वाहक रॉकेट को चंद्रमा की कक्षा एक्सप्लोरर "सेलिन" (सेलेनोलॉजिकल एण्ड इंजीनियरिंग एक्सप्लोरर) का शुभारंभ किया। सेलिन भी कागुया के रूप में जाना जाता है, प्राचीन लोककथा बांस कटर की कथा का चंद्र राजकुमारी। कागुया अपोलो कार्यक्रम के बाद से सबसे बड़ी जांच चंद्र मिशन है। अपने मिशन से चंद्रमा की उत्पत्ति और विकास पर डेटा इकट्ठा है। यह ४ अक्टूबर के बारे में १०० किमी (६२ मील) की ऊंचाई पर चंद्रमा की कक्षा में उड़ान] पर एक चंद्र कक्षा में प्रवेश किया।
कुछ लोग जापान की संस्कृति को चीन की संस्कृति का ही विस्तार समझते हैं। जापानी लोगो ने कई विधाओं में चीन की संस्कृति का अंधानुकरण किया है। बौद्ध धर्म यहां चीनी तथा कोरियाई भिक्षुओं के माध्यम से पहुंचा। जापान की संस्कृति की सबसे खास बात ये हैं कि यहां के लोग अपनी संस्कृति से बहुत लगाव रखते हैं। मार्च का महीना उत्सवों का महीना होता है। जापानी संगीत उदार है,
होने उपकरणों तराजू, पड़ोसी संस्कृतियों और शैलियों से उधार लिया। कोटो जैसे कई उपकरणों, नौवें और दसवें शताब्दियों में पेश किए गए। चौदहवें शताब्दी और लोकप्रिय लोक संगीत से नोह नाटक तारीखों के साथ भाषण, गिटार की तरह शामिसेन के साथ, सोलहवीं से [१४४] पश्चिमी शास्त्रीय संगीत, देर से उन्नीसवीं सदी में शुरू की। अब का एक अभिन्न अंग संस्कृति. युद्ध के बाद जापान भारी कर दिया गया है अमेरिकी और यूरोपीय आधुनिक संगीत, जो लोकप्रिय बैंड जम्मू, पॉप संगीत बुलाया के विकास के लिए नेतृत्व किया गया है द्वारा प्रभावित किया।
कराओके सबसे व्यापक रूप से सांस्कृतिक गतिविधि अभ्यास है। सांस्कृतिक मामलों एजेंसी द्वारा एक नवंबर १९९३ सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिक जापानी कराओके गाया था कि वर्ष की तुलना में परंपरागत सांस्कृतिक गतिविधियों में व्यवस्था या चाय समारोह के फूल के रूप में भाग लिया था।
जापानी साहित्य की जल्द से जल्द काम दो इतिहास की पुस्तकों में शामिल हैं और कोजीकी निहों शोकी और आठवीं शताब्दी कविता पुस्तक मन'एश, मान्योशू सभी चीनी अक्षरों में लिखा है। हीयान काल के शुरुआती दिनों में, के रूप में जाना प्रतिलेखन की व्यवस्था काना (हीरागाना और काताकाना) फोनोग्राम के रूप में बनाया गया था। बांस कटर की कथा पुराना जापानी कथा माना जाता है हीयान अदालत जीवन के एक खाते. है तकिया सेई शनागन द्वारा लिखित पुस्तक के द्वारा दिया है, जबकि लेडी मुरासाकी द्वारा गेंजी की कथा अक्सर दुनिया के पहले उपन्यास के रूप में वर्णित है।
ईदो अवधि के दौरान, साहित्य इतना च्नीन की है कि के रूप में सामुराई शिष्टजन का मैदान नहीं बन गया, साधारण लोग हैं। योमिहों, उदाहरण के लिए, लोकप्रिय बन गया है और पाठकों और ग्रन्थकारिता में इस गहरा बदलाव का पता चलता है [१४८] मीजी युग पारंपरिक साहित्यिक रूपों, जिसके दौरान जापानी साहित्य पश्चिमी प्रभाव एकीकृत की गिरावट देखी.. नत्सुमें स्सेकी और मोरी गई पहली "जापान के आधुनिक 'उपन्यासकार, रायनोसुके अकुतगावा, जून'इचिर तनिज़ाकी, यसुनारी कावाबाटा, युकिओ मिशिमा और, द्वारा और अधिक हाल ही में पीछा किया, हरूकी मुरकमी थे। जापान के दो नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक-यसुनारी कावाबाटा (१९६८) और केन्झाबुरो (१९९४) है।
साहित्य और धर्म
मान्योशू जापान का सबसे पुराना काव्य संकलन है। हाइकु जापान की प्रसिद्ध काव्य विधा रही है तथा मात्सुओ बाशो जापानी हाइकु कविता के प्रसिद्ध कवि हैं।
जापान की ९६ प्रतिशत जनता बौद्ध धर्म का अनुसरण करती है। चीन के बाद बौद्ध आबादी वाला जापान सबसे बड़ा देश है। शिंतो धर्म भी यहाँ काफी प्रसिद्ध है, इस धर्म के अधिकतर लोग बौद्ध धर्म का ही पालन करते है। ताओ धर्म, कन्फ्यूशीवाद और बौद्ध धर्म चीन से भी जापानी विश्वासों और सीमा शुल्क को प्रभावित किया है। जापान में धर्म प्रकृति में समधर्मी हो जाता है और प्रथाओं का एक माता पिता, परीक्षा से पहले प्रार्थना छात्रों मना बच्चों के रूप में ऐसी किस्म, में यह परिणाम, जोड़ों एक क्रिश्चियन चर्च पर एक शादी पकड़ होने के बौद्ध मंदिर में आयोजित किया। एक अल्पसंख्यक (२,५९५,३९७ या २.०४%) ईसाई धर्म को पेशे के अलावा है, क्योंकि १९ वीं सदी के मध्य, कई धार्मिक संप्रदायों (शींष्की) जापान में टेन्रिक्यो और आम (शिनरिक्यो या अलेफ) जैसे उभरा है।
लगभग ९९% जनता जापानी भाषा बोलती है।
लेखन प्रणाली कांजी (चीनी अक्षर) और काना के दो सेट के रूप में अच्छी तरह से लैटिन वर्णमाला और अरबी अंकों का उपयोग करता है। भाषाओं में भी जापान भाषा परिवार का हिस्सा है जो जापानी अंतर्गत आता है, ओकिनावा में बोली जाती हैं, लेकिन कुछ बच्चों को इन भाषाओं के लिए सीख लो. भाषा मरणासन्न केवल कुछ बुजुर्ग होकाईदो में शेष देशी वक्ताओं के साथ है। अधिकांश सार्वजनिक और निजी स्कूलों के छात्रों को दोनों जापानी और अंग्रेजी में पाठ्यक्रमों लेने के लिए आवश्यकता होती है।
अपनी जापान यात्रा के बाद निशिकांत ठाकुर लिखते हैं -
"आज जापान में हर व्यक्ति के पास रंगीन टेलीविजन है, करीब ८३ प्रतिशत लोगों के पास कार है, ८० प्रतिशत घरों में एयरकंडीशन लगे हैं, ७६ प्रतिशत लोगों के पास वीसीआर हैं, ९१ प्रतिशत घरों में माइक्रोवेव ओवन हैं और करीब २५ प्रतिशत लोगों के पास पर्सनल कम्प्यूटर हैं। यह है विकास और ऊंचे जीवन स्तर की एक झलक। आम जापानी स्वभाव से शर्मीला, विनम्र, ईमानदार, मेहनती और देशभक्त होता है। यही कारण है कि विकसित देशों की तुलना में जापान में अपराध दर कम है।"
जापान में दुनिया के सबसे ज्यादा बुजुर्ग लोग रहते हैं। जापान तकनीक क्षेत्र में बहुत आगे है
परंपरागत रूप से, सूमो जापान के राष्ट्रीय खेल माना जाता है ,और यह जापान में एक लोकप्रिय खेल है। जूडो,मार्शल आर्ट,कराटे और आधुनिक केंडो भी व्यापक रूप से प्रचलित है।
जापान में पेशेवर बेसबॉल लीग १९३६ में स्थापित किया गया था। आज बेसबॉल देश में सबसे लोकप्रिय खेल है।. एक थे सबसे प्रसिद्ध जापानी बेसबॉल खिलाड़ियों के इचिरो सुजुकी, जो १९९४ में जापान की सबसे मूल्यवान प्लेयर अवार्ड, १९९५ और १९९६ है, अब उत्तर अमेरिकी मेजर लीग बेसबॉल के सिएटल मरिनर्स के लिए खेलता है जीत रही है। उसके पहले, सदहारू ओह अच्छी तरह से किया गया था जापान के बाहर जाना जाता है, कर अधिक घर मारा अपने समकालीन, हांक हारून, संयुक्त राज्य अमेरिका में किया था की तुलना में अपने कैरियर के दौरान जापान में चलाता है।
१९९२ में जापान प्रोफेशनल फुटबॉल लीग की स्थापना, एसोसिएशन फुटबॉल (सॉकर) के बाद से भी एक विस्तृत निम्नलिखित प्राप्त किया है] जापान। १९८१ से इंटरकांटिनेंटल कप के एक स्थल २००४ से था और सह मेजबानी २००२ फीफा विश्व कप दक्षिण के साथ कोरिया. जापान एक सबसे सफल एशिया में फुटबॉल टीमों में से एक है, एशियाई कप जीतने तीन बार.
गोल्फ भी जापान, के रूप में लोकप्रिय है सुपर जी.टी. स्पोर्ट्स कार श्रृंखला और निप्पॉन फॉर्मूला फार्मूला रेसिंग के रूप में ऑटो रेसिंग के रूप हैं जुड़वा अँगूठी मोटेगी था होंडा द्वारा १९९७ में पूरा करने के लिए इंडिकार लाने के लिए दौड़ जापान.
जापान के टोक्यो में १९६४ में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक की मेजबानी की। जापान के शीतकालीन ओलंपिक की मेजबानी की है दो बार, नागानो में १९९८ में और १९७२ में साप्पोरो
विदेशी संबंधों और सैन्य
जापान के पास रखता आर्थिक और सैन्य संबंधों इसके प्रमुख सहयोगी अमेरिका के साथ, अमेरिका और जापान सुरक्षा अपनी विदेश नीति के आधार के रूप में सेवा के साथ गठबंधन १९५६ के बाद से संयुक्त राष्ट्र के एक सदस्य राज्य, जापान के रूप में सेवा की है एक गैर १९ साल की कुल के लिए स्थायी सुरक्षा परिषद के सदस्य, २००९ और २०१० के लिए सबसे हाल ही में. यह भी एक ग४ सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग देशों की
जी -८, अपेक, "आसियान प्लस तीन और पूर्व एशिया शिखर बैठक में एक भागीदार के एक सदस्य के रूप में, जापान सक्रिय रूप से अंतरराष्ट्रीय मामलों में भाग लेता है और दुनिया भर में अपने महत्वपूर्ण सहयोगी के साथ राजनयिक संबंधों को बढ़ाती है। जापान मार्च २००७ और भारत के साथ अक्टूबर 200८ में ऑस्ट्रेलिया के साथ एक सुरक्षा समझौतेयह भी दुनिया की सरकारी विकास सहायता का तीसरा सबसे बड़ा दाता है पर हस्ताक्षर किए। होने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका २००४ में ८,८6 अरब डॉलर का दान. जापान इराक युद्ध करने के लिए गैर लड़नेवाला सैनिक भेजे हैं, लेकिन बाद में इराक से अपनी सेना वापस ले लिया जापानी समुद्री सेल्फ डिफेंस फोर्स. रिमपैक समुद्री अभ्यास में एक नियमित रूप से भागीदार है।
जापान ने भी जापानी नागरिकों और अपने परमाणु हथियार और मिसाइल कार्यक्रम के अपने अपहरण पर एक उत्तरी कोरिया के साथ चल रहेविवाद के चेहरे (देखें भी छह पक्षीय वार्ता). कुरील द्वीप विवाद का एक परिणाम के रूप में, जापान तकनीकी रूप से अब भी रूस के साथ युद्ध में कोई मुद्दा सुलझाने संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे के बाद से कभी भी है।
जापान की सेना द्वारा प्रतिबंधित है अनुच्छेद ९ जापानी संविधान है, जो जापान के युद्ध की घोषणा करने के लिए या अंतर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान का एक साधन के रूप में सैन्य बल के प्रयोग का अधिकार त्याग की। जापान के सैन्य रक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित है और मुख्य रूप से जापान ग्राउंड सेल्फ डिफेंस फोर्स (जसफ) के होते हैं, जापान मेरीटाइम सेल्फ डिफेंस (जम्सफ) सेना और जापान एयर सेल्फ डिफेंस फोर्स (जसफ). सेना ने हाल ही में आपरेशन किया गया है शांति और जापानी सैनिकों की इराक में तैनाती में प्रयुक्त विश्व युद्ध के द्वितीय के बाद से पहली बार अपने सैन्य उपयोग के विदेशी चिह्नित
इन्हें भी देखें
जापान का इतिहास
जापान के क्षेत्र
जापान के प्रांत
एशिया के देश |
थाईलैण्ड जिसका प्राचीन भारतीय नाम श्यामदेश (या स्याम) है दक्षिण पूर्वी एशिया में एक देश है। इसकी पूर्वी सीमा पर लाओस और कम्बोडिया, दक्षिणी सीमा पर मलेशिया और पश्चिमी सीमा पर म्यानमार है। 'स्याम' ही ११ मई, १९४९ तक थाईलैण्ड का अधिकृत नाम था। थाई शब्द का अर्थ थाई भाषा में 'स्वतन्त्र' होता है। यह शब्द थाई नागरिकों के सन्दर्भ में भी इस्तेमाल किया जाता है। इस कारण कुछ लोग विशेष रूप से यहाँ बसने वाले चीनी लोग, थाईलैंड को आज भी स्याम नाम से पुकारना पसन्द करते हैं। थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक है।
हिंदू धर्म का थाईलैंड के राज परिवार पर सदियों से गहरा प्रभाव रहा है। माना यह जाता है कि थाईलैंड के राजा भगवान विष्णु के अवतार हैं। इसी भावना का सम्मान करते हुए थाईलैंड का राष्ट्रीय प्रतीक गरुड़ है।
थाईलैंड में राजा को राम कहा जाता है। राज परिवार अयोध्या नामक शहर में रहता है। ये स्थान बैंकॉक से कोई ५०-६० किलोमीटर दूर होगा। यहां पर बौद्ध मंदिरों की भी भरमार है जिनमें भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां स्थापित हैं। क्या ये कम हैरानी की बात है कि बौद्ध होने के बावजूद थाईलैंड के लोग अपने राजा को राम का वंशज होने के चलते विष्णु का अवतार मानते हैं। इसलिए थाईलैंड में एक तरह से राम राज्य है। वहां के राजा को भगवान राम का वंशज माना जाता है। थाईलैंड में ९४ प्रतिशत आबादी बौद्ध धर्मावलंबी है। फिर भी इधर का राष्ट्रीय चिन्ह गरुड़ है। हिंदू पौराणिक कथाओं में गरुड़ को विष्णु की सवारी माना गया है। गरुड़ के लिए कहा जाता है कि वह आधा पक्षी और आधा पुरुष है। उसका शरीर इंसान की तरह का है, पर चेहरा पक्षी से मिलता है। उसके पंख हैं।
अब प्रश्न उठता है कि जिस देश का सरकारी धर्म बौद्ध हो वहां पर हिंदू धर्म का प्रतीक क्यों है? इसका उत्तर ये है कि चूंकि थाईलैंड मूल रूप से हिंदू धर्म था, इसलिए उसे इस में कोई विरोधाभास नजर नहीं आता कि वहां पर हिंदू धर्म का प्रतीक राष्ट्रीय चिन्ह हो। एक सामान्य थाई गर्व से कहता है कि उसके पूर्वज हिंदू थे और उसके लिए हिंदू धर्म भी आदरणीय है। आपको थाईलैंड एक के बाद एक आश्चर्य देता है। वहां का राष्ट्रीय ग्रंथ रामायण है। वैसे थाईलैंड में थेरावाद बौद्ध के मानने वाले बहुमत में हैं, फिर भी वहां का राष्ट्रीय ग्रंथ रामायण है। जिसे थाई भाषा में राम-कियेन कहते हैं, जिसका अर्थ राम-कीर्ति होता है, जो वाल्मीकि रामायण पर आधारित है। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के सबसे बड़े और भव्य हॉल का नाम रामायण हॉल है। यहां पर राम कियेन पर आधारित नृत्य नाटक और कठपुतलियों का प्रदर्शन प्रतिदिन होता है। राम कियेन के मुख्य पात्रों में राम (राम), लक (लक्ष्मण), पाली (बाली), सुक्रीप (सुग्रीव), ओन्कोट (अंगद), खोम्पून ( जाम्बवन्त), बिपेक ( विभीषण), रावण, जटायु आदि हैं।
नवरात्र पर बैंकॉक के सिलोम रोड पर स्थित श्री नारायण मंदिर थाईलैंड के हिंदुओं का केंद्र बन जाता है। यहां के सभी हिंदू इधर कम से एक बार जरूर आते हैं, पूजा या फिर सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए। इस दौरान भजन, कीर्तन और अन्य धार्मिक अनुष्ठान जारी रहते हैं। दिन-रात प्रसाद और भोजन की व्यवस्था रहती है। इस दौरान दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जी की एक दिन सवारी भी मुख्य मार्गो से निकलती है। इसमें भगवान गणपति, कृष्ण, सुब्रमण्यम और दूसरे देवी-देवताओं की मूर्तियों को भी सजाकर किसी वाहन में रखा गया होता है। इस आयोजन में हजारों बौद्ध भी भाग लेते हैं। ये सवारी अपना तीन किलोमीटर का रास्ता सात घंटे में पूरा करती है। इसमें संगीत और नृत्य टोलियां भी रहती हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया के इस देश में हिंदू देवी-देवताओं और प्रतीकों को आप चप्पे-चप्पे पर देखते हैं। यूं थाईलैंड बौद्ध देश हैं। पर राम भी अराध्य हैं। राजधानी बैंकॉक से सटा है अयोध्या शहर। मान्यता है कि यही थी भगवान श्रीराम की राजधानी। थाईलैंड के बौद्ध मंदिरों में आपको ब्रह्मा,विष्णु और महेश की मूर्तियां और चित्र मिल जाएंगे। इन सभी देवी-देवताओं के अलग से मंदिर भी हैं। इनमें रोज बड़ी संख्या में हिंदू और बौद्ध पूजा अर्चना के लिए आते हैं। यानी थाईलैंड बौद्ध और हिंदू धर्म का सुंदर मिश्रण पेश करता है। कहीं कोई कटुता या वैमनस्थ का भाव नहीं है।
बैंकॉक स्थित शिव मंदिर, दुर्गा मंदिर विष्णु मंदिर वगैरह का निर्माण हिन्दुओं के साथ-साथ यहां के बौद्धों ने भी करवाया है। ये वास्तव में कमाल है। जहां तक हिंदू मंदिरों की बात है तो इन्हें यहां पर दशकों से बस गए भारत वंशियों ने बनवाया है। कुछ मंदिर निजी प्रयासों से भी बने हैं। थाईलैंड में तमिल और उत्तर भारत के भारतवंशी हैं। इसलिए मंदिर पर दक्षिण और उत्तर भारत के मंदिरों की तरह से बने हुए हैं। बैंकॉक के प्रमुख रथचेप्रयोंग चौराहे पर ब्रह्मा जी के मंदिर में लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां देखने लायक हैं। इनमें हिंदुओं साथ-साथ बौद्ध भी आ रहे हैं। कहीं कोई भेदभाव नहीं है। गौरतलब यह है कि कई बौद्ध मंदिरों में हिंदू देवी-देवताओं के चित्र और मूर्तियां हैं। ये सब देखकर लगता है कि हिंदू और बौद्ध सहअस्तित्व में विश्वास करते है। ये सहनशील है। पृथक धर्म होने पर भी एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव स्पष्ट है।
बौद्ध अनुयायी थाईलैंड लाखों की संख्या में पहुंचते हैं। थाईलैंड में प्रति वर्ष ८० लाख पर्यटक पहुंच रहे हैं। इनमें से अधिकतर भगवान बुद्ध से जुड़े मंदिरों के दर्शन करने के लिए वहां पर जाते हैं।
आज के थाई भू भाग में मानव पिछले कोई १०,००० वर्षों से रह रहें हैं। ख्मेर साम्राज्य के पतन के पहले यहाँ कई राज्य थे - ताई, मलय, ख्मेर इत्यादि। सन् १२३८ में सुखोठइ राज्य की स्थापना हुई जिसे पहला बौद्ध थाई (स्याम) राज्य माना जाता है। लगभग एक सदी बाद अयुध्या के राज्य ने सुखाठइ के ऊपर अपनी प्रभुता स्थापित कर ली। सन् १७६७ में अयुध्या के पतन (बर्मा द्वारा) के बाद थोम्बुरी राजधानी बनी। सन् १७८२ में बैंकॉक में चक्री राजवंश की स्थापना हुई जिसे आधुनिक थाईलैँड का आरंभ माना जाता है।
यूरोपीय शक्तियों के साथ हुई लड़ाई में स्याम को कुछ प्रदेश लौटाने पड़े जो आज बर्मा और मलेशिया के अंश हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में यह जापान का सहयोगी रहा और विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका का। १९९२ में हुई सत्ता पलट में थाईलैंड एक नया संवैधानिक राजतंत्र घोषित कर दिया गया।
धर्म और राजतंत्र थाई संस्कृति के दो स्तंभ हैं और यहां की दैनिक जिंदगी का हिस्सा भी। बौद्ध धर्म यहां का मुख्य धर्म है। इस्लाम धर्म एवं इसाई धर्म के अनुयायी भी थाईलैंड मे अच्छी खासी संख्या मे पाए जाते हैं। गेरुए वस्त्र पहने बौद्ध भिक्षु और सोने, संगमरमर व पत्थर से बने बुद्ध यहां आमतौर पर देखे जा सकते हैं। यहां मंदिर में जाने से पहले अपने कपड़ों का विशेष ध्यान रखें। इन जगहों पर छोटे कपड़े पहन कर आना मना है।
थाईलैंड का शास्त्रीय संगीत चीनी, जापानी, भारतीय और इंडोनेशिया के संगीत के बहुत समीप जान पड़ता है। यहां बहुत की नृत्य शैलियां हैं जो नाटक से जुड़ी हुई हैं। इनमें रामायण का महत्वपूर्ण स्थान है। इन कार्यक्रमों में भारी परिधानों और मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।
प्राचीन समय यह हिंदू सभ्यता से परिपूर्ण देश था। आज भी यहां हिंदू संस्कृति की झलक देखने को मिल ही जाती है। रामायण यहां बहुत लोकप्रिय है। कालांतर में भारतीय बौद्ध राजाओं ने यहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया और यह देश बौद्ध देश के रूप में प्रख्यात हुआ।
बैंकॉक थाइलैंड की राजधानी है। यहां ऐसी अनेक चीजें जो पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध हैं मरीन पार्क और सफारी। मरीन पार्क में प्रशिक्षित डॉल्फिन अपने करतब दिखाती हैं। यह कार्यक्रम बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी खूब लुभाता है। सफारी वर्ल्ड विश्व का सबसे बड़ा खुला चिड़ियाघर (प्राणीउद्यान) है। यहां एशिया और अफ्रीका के लगभग सभी वन्य जीवों को देखा जा सकता है। यहां की यात्रा थकावट भरी लेकिन रोमांचक होती है। रास्ते में खानपान का इंतजाम भी है।
बैंकॉक के बाद पट्टया थाइलैंड का सबसे प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां भी घूमने-फिरने लायक अनेक खूबसूरत जगह हैं। इसमें सबसे पहले नंबर आता है रिप्लेज बिलीव इट और नॉट संग्रहालय का। यहां का इन्फिनिटी मेज और ४ डी मोशन थिएटर की सैर बहुत ही रोमांचक है। यहां की भूतिया सुरंग लोगों को भूतों का अहसास कराती है फिर भी सैलानी बड़ी संख्या में यहां आते हैं।
यहां के कोरल आइलैंड पर पैरासेलिंग और वॉटर स्पोट्स का आनंद उठाया जा सकता है। यहां पर काँच के तले वाली नाव भी उपलब्ध होती हैं जिससे जलीय जीवों और कोरल को देखा जा सकता है। कोरल आइलैंड में एक रत्न दीर्घा भी है जहां बहुमूल्य से रत्नों के बार में जानकारी ली जा सकती है। लेकिन इस आइलैंड में आने से पहले यह जान लें कि यहां का एक ड्रेस कोड है जिसका पालन करना आवश्यक है।
कोई पर्यटक पट्टया आए और अलकाजर कैबरट न जाए ऐसा नहीं हो सकता। यहां पर नृत्य, संगीत व अन्य कार्यक्रमों का आनंद उठाया जा सकता है। यहां होने वाले कार्यक्रमों की खास बात यह है कि इसमें काम करने वाली खूबसूरत अभिनेत्रियां वास्तव में पुरुष होते हैं।
यह थाइलैंड का सबसे बड़ा, सबसे अधिक आबादी वाला द्वीप है। सबसे ज्यादा पर्यटक यहां आते हैं। रंगों से भरी इस जगह का विकास मुख्य रूप से पर्यटन की वजह से ही हुआ है। इस द्वीप में कुछ रोचक बाजार, मंदिर और चीनी-पुर्तगाली सभ्यता का अनोखा संगम देखा जा सकता है। यहाँ सब्से ज्यादा आबादि थाई और नेपाली की है।
अयूथया ऐतिहासिक उद्यान
नदी के साथ बसा अयूथया उद्यान यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची का हिस्सा है। यहां सभी ओर मंदिर बने हुए हैं। किसी समय यहां पर नगर बसा हुआ था। बहुत से अवशेष अभी भी यहां देखे जा सकते हैं, जैसे- वट फ्ररा सी सैनपुटे, वट मोगखों बोफिट, वट ना फ्रा मेरु, वट थम्मीकरट, वट रतबुरना और वट फ्रा महाथट। इन जगहों पर गाड़ी नहीं जा सकती इसलिए यहां पैदल की आएं।
बैंकॉक से करीब ७०० किलोमीटर दूर चियांग माई थाईलैंड का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। पुरानी दुनिया का अहसास कराते इस शहर में करीब ३०० से ज्यादा मंदिर हैं। यहां से आप पर्वतों को भी देख सकते हैं। यह शहर आधुनिक भी हैं जहां आपको पूरी दुनिया के रंग मिल जाएंगे। चियांग माई खानपान व खरीदारी के शौकीनों और आशियाने की तलाश कर रहे लोगों के लिए बिल्कुल सही जगह है। बहुत सारे मंदिरों के अलावा यहां पर आरामदायक उद्यान, रात को लगने वाले बाजार, खूबसूरत संग्रहालय भी हैं जहां पर आराम से समय गुजारा जा सकता है।
बैंकॉक के पश्चिम में स्थित नखोन पथोम को थाईलैंड का सबसे पुराना शहर माना जाता है। यहां के फ्रा पथोम चेडी को विश्व का सबसे ऊंचा बौद्ध स्मारक माना जाता है। तेरावड बौद्धों द्वारा ६ठीं शताब्दी में बनाया गया मूल स्मारक अब एक विशाल गुंबद के नीचे स्थित है।
बैंकॉक में खरीदारी के लिए कई जगहें हैं। इंद्रा मार्केट हाथ से बने सामान के लिए मशहूर है। एमबीके प्लाजा ब्रैंडिड सामान की खरीदारी के लिए उपयुक्त स्थान है। द सुप्रीम टोक्यो से कपड़ों और थाई नाइफ की खरीदारी की जा सकती है। इसके अलावा थाईलैंड से रेशम, कीमती रत्न और पेंटिंग्स भी खरीदी जा सकती हैं।
इन्हें भी देखें
थाईलैण्ड का इतिहास
थाईलैण्ड में बौद्ध धर्म
थाईलैंड की शाही सरकार
थाईलैंड पर्यटन प्राधिकरण
थाई नैशनल असेम्बली
थाईलैंड विदेश मंत्रालय
थाईलैंड इंटरनेट सूचना
थाईलैंड पर्यटन सूचना
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश
दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र |
बैंकाॅक दक्षिण पूर्वी एशियाई देश थाईलैंड की राजधानी है। बैंकॉक थाइलैंड की राजधानी है। यहां ऐसी अनेक चीजें जो पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध हैं मरीन पार्क और सफारी। मरीन पार्क में प्रशिक्षित डॉल्फिन्स अपने करतब दिखाती हैं। यह कार्यक्रम बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी खूब लुभाता है। सफारी वर्ल्ड विश्व का सबसे बड़ा खुला चिड़ियाघर है। यहां एशिया और अफ्रीका के लगभग सभी वन्य जीवों को देखा जा सकता है। यहां की यात्रा थकावट भरी लेकिन रोमांचक होती है। रास्ते में खानपान का इंतजाम भी है।
बैंकॉक का पूरा नाम पालि और संस्कृत भाषाओं से आता है। यह नाम ही औपचारिक रूप से प्रयोग किया जाता है। यह रूप में हिन्दी में सुनाया जा सकता है: क्रुंग देवमहानगर अमररत्नकोसिन्द्र महिन्द्रायुध्या महातिलकभव नवरत्नराजधानी पुरीरम्य उत्तमराजनिवेशन महास्थान अमरविमान अवतारस्थित्य शक्रदत्तिय विष्णुकर्मप्रसिद्धि ()।
बैंककमा धेरै भगिनी सहरहरू छन्। उनीहरु:
वॉशिंगटन, डी॰ सी॰, संयुक्त राज्य अमेरिका (१९६२)
बीजिंग, चीन (१९९३)
मास्को, रूस (१९९७)
मनीला, फ़िलीपीन्स (१९९७)
सेंट पीटर्सबर्ग, रूस (१९९७)
सियोल, दक्षिण कोरिया (२००६)
अंकारा, तुर्की (२००६)
हनोई, वियतनाम (२००६)
उलान बतोर, मंगोलिया (२००६)
ब्रिस्बेन, ऑस्ट्रेलिया (२००७)
मिलान, इटली (२००७)
लिवरपूल, यूनाइटेड किंगडम (२००७)
बुडापेस्ट, हंगरी (२००७)
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया (२००७)
पर्थ, ऑस्ट्रेलिया (२००७)
एशिया की राजधानियां
थाईलैण्ड में नगर
एशिया में राजधानियाँ |
हीरा एक पारदर्शी रत्न है। यह रासायनिक रूप से कार्बन का शुद्धतम रूप है। हीरा में प्रत्येक कार्बन परमाणु चार अन्य कार्बन परमाणुओं के साथ सह-संयोजी बन्ध द्वारा जुड़ा रहता है। कार्बन परमाणुओं के बाहरी कक्ष में उपस्थित सभी चारों इलेक्ट्रान सह-संयोजी बन्ध में भाग ले लेते हैं तथा एक भी इलेक्ट्रान संवतंत्र नहीं होता है। इसलिए हीरा ऊष्मा तथा विद्युत का कुचालन होता है। हीरा में सभी कार्बन परमाणु बहुत ही शक्तिशाली सह-संयोजी बन्ध द्वारा जुड़े होते हैं, इसलिए यह बहुत कठोर होता है। हीरा प्राक्रतिक पदार्थो में सबसे कठोर पदार्थ है इसकी कठोरता के कारण इसका प्रयोग कई उद्योगो तथा आभूषणों में किया जाता है। हीरे केवल सफ़ेद ही नहीं होते अशुद्धियों के कारण इसका शेड नीला, लाल, संतरा, पीला, हरा व काला होता है। हरा हीरा सबसे दुर्लभ है। हीरे को यदि ओवन में ७६३ डिग्री सेल्सियस पर गरम किया जाये, तो यह जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड बना लेता है तथा बिल्कूल ही राख नहीं बचती है। इससे यह प्रमाणित होता है कि हीरा कार्बन का शुद्ध रूप है। हीरा रासायनिक तौर पर बहुत निष्क्रिय होता है एव सभी घोलकों में अघुलनशील होता है। इसका आपेक्षिक घनत्व ३.५१ होता है। बहुत अधिक चमक होने के कारण हीरा को जवाहरात के रूप में उपयोग किया जाता है। हीरा उष्मीय किरणों के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होता है, इसलिए अतिशुद्ध थर्मामीटर बनाने में इसका उपयोग किया जाता है। काले हीरे का उपयोग काँच काटने, दूसरे हीरे के काटने, हीरे पर पालिश करने तथा चट्टानों में छेद करने के लिए किया जाता है।
दुनिया का सबसे बड़ा हीरा कलिनन हीरा (कुल्लीनान डायमंड) है जो ३१०६ कैरेट का है। इसका पता १९०५ में दक्षिण अफ्रीका में लगाया गया था। यह अभी ब्रिटेन राजघरानों के शाही संग्रह में शोभायमान है। अब तक ढूंढ़ा गया दुनिया का सबसे दूसरा बड़ा अपरिष्कृत हीरा १७५८ कैरेट का सेवेलो डायमंड (सेवेलो डायमंड) है, सेत्स्वाना भाषा में जिसका अर्थ 'दुर्लभ खोज' है।
हीरा खान से निकाला जाता है और बाद में पॉलिश कर के चमकाया जाता है। १८वीं शताब्दी में दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील में हीरों की खानों का पता चलने से पहले तक दुनिया भर में भारत की गोलकुंडा खान से निकले हीरों की धाक थी। लेकिन यहाँ से निकले अधिकांश भारतीय हीरे या तो लापता हैं या विदेशी संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इनमें से एक हीरा ब्रिटेन की महारानी के ताज में जड़ा कोहिनूर भी है। सबसे अधिक वजन वाला हीरा ग्रेट मुगल गोलकुंडा की खान से १६५० में जब निकला तो इसका वजन ७८७ कैरेट था। जो कोहिनूर से करीब छह गुना अधिक था आज यह हीरा आज कहाँ है किसी को पता नहीं। ऐसा ही एक बहुमूल्य हीरा अहमदाबाद डायमंड था जो बाबर ने १५२६ में पानीपत की लड़ाई के बाद ग्वालियर के राजा विक्रमजीत को हराकर हासिल किया था। इस दुर्लभ हीरे को आखिरी बार १९९० में लंदन के क्रिस्ले ऑक्सन हाउस की नीलामी में देखा गया था। द रिजेंट नामक १७०२ के आसपास गोलकुंडा की खान से निकला हीरा ४१० कैरेट था। जो बाद में नेपोलियन के पास पहुँचा। यह हीरा अब १४० कैरेट का हो चुका है और पेरिस के लेवोरे म्यूजियम में रखा गया है। इसी प्रकार ब्रोलिटी ऑफ इंडिया का। ९०.८ कैरेट के ब्रोलिटी जिसे कोहिनूर से भी पुराना बताया जाता है, १२वीं शताब्दी में फ्रांस की महारानी ने खरीदा। आज यह कहाँ है कोई नहीं जानता। एक और गुमनाम हीरा २०० कैरेट का ओरलोव था जिसे १८वीं शताब्दी में मैसूर के मंदिर की एक मूर्ति की आंख से फ्रांस के व्यापारी ने चुराया था।
कुछ गुमनाम भारतीय हीरे: ग्रेट मुगल (२८० कैरेट), ओरलोव (२०० कैरेट), द रिजेंट (१४० कैरेट), ब्रोलिटी ऑफ इंडिया (९०.८ कैरेट),
अहमदाबाद डायमंड (७८.८ कैरेट), द ब्लू होप (४५.५२ कैरेट), आगरा डायमंड (३२.२ कैरेट), द नेपाल (७८.४१)
हीरे का कारोबार करने वाली अंतरराष्ट्रीय कंपनी डी बियर्स की सहयोगी इकाई डायमंड ट्रेडिंग कंपनी (डीटीसी) के मुताबिक दुनिया के ९० फीसदी हीरों के तराशने का काम भारत में होता है, ऐसे में यहाँ हीरा उद्योग के फलने-फूलने की अपार संभावनाएँ मौजूद हैं।
तस्वीरों में: सबसे कीमती हीरे
विशेष: भारत के १० सबसे कीमती हीरे, जो हैं विदेशी तिजोरियों में कैद
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माइक्रोसॉफ़्ट - विश्व की एक जानी मानी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है जो मुख्यत: संगणक अभियान्त्रिकी के क्षेत्र में काम करती है। माइक्रोसॉफ़्ट विश्व की सबसे बड़ी सॉफ़्टवेयर कम्पनी है।माइक्रोसॉफ्ट एप्पल,एमेज़न, गूगल, और फेसबुक इंक. के साथ प्रौद्योगिकी के बिग फाइव में से एक माना जाता है । १०० से भी अधिक देशों में फैली इसकी शाखाओं में ७,००,०० से भी अधिक लोग काम करते हैं। इसका वार्षिक व्यापार लगभग २० खरब रूपयों (~ ४५ बिलियन डॉलर्स) का है। कम्पनी का मुख्यालय अमेरिका में रेडमण्ड, वॉशिंगटन में स्थित है। इसकी स्थापना बिल गेट्स ने ४ अप्रैल 19७५ को हुई थी। इसका मुख्य उत्पाद विण्डोज़ ऑपरेटिंग सिस्टम है। इसके अलावा माइक्रोसॉफ़्ट विभिन्न प्रकार के सॉफ़्टवेयर भी बनाती है। यह कम्प्यूटर सॉफ़्टवेयर, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स, व्यक्तिगत कम्प्यूटर और सम्बन्धित सेवाओं का विकास, निर्माण, लाइसेंस, समर्थन और बिक्री करती है। इसके सबसे प्रसिद्ध सॉफ़्टवेयर उत्पाद ऑपरेटिंग सिस्टम, माइक्रोसॉफ़्ट ऑफिस सूट और इण्टरनेट एक्सप्लोरर और एज वेब ब्राउज़र के माइक्रोसॉफ़्ट विण्डोज लाइन हैं। इसके प्रमुख हार्डवेयर उत्पाद ज़्बॉक्स वीडियो गेम कंसोल और टचस्क्रीन पर्सनल कम्प्यूटर के माइक्रोसॉफ्ट सरफेस लाइनअप हैं। २०16 में, यह राजस्व के हिसाब से विश्व की सबसे बड़ा सॉफ़्टवेयर निर्माता थी। (वर्तमान में अल्फाबेट / गूगल के पास अधिक राजस्व है)। [३] "माइक्रोसॉफ़्ट" शब्द "माइक्रो कम्प्यूटर" और "सॉफ़्टवेयर" का एक पोर्टमाण्टे है। [४] माइक्रोसॉफ्ट कुल राजस्व से सबसे बड़े संयुक्त राज्य निगमों की २०18 फॉर्च्यून ५०० रैंकिंग में ३0 वें स्थान पर है। [५]
माइक्रोसॉफ्ट की स्थापना बिल गेट्स और पॉल एलन द्वारा ४ अप्रैल, १९७५ को की गई थी, जिसने अल्टायर ८८०० के लिए बेसिक दुभाषियों को विकसित करने और बेचने के लिए। यह १९८० के दशक के मध्य तक म्स-डोस के साथ पर्सनल कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम के बाजार पर हावी हो गया, माइक्रोसॉफ्ट विंडोज के बाद । कंपनी के १९८६ के आरम्भिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) और उसके शेयर की कीमत में बाद में वृद्धि ने तीन अरबपति और माइक्रोसॉफ्ट के कर्मचारियों के बीच अनुमानित १२,००० करोड़पति पैदा किए। १९९० के दशक के बाद से, इसने ऑपरेटिंग सिस्टम के बाजार से तेजी से विविधता हासिल की है और कई कॉर्पोरेट अधिग्रहण किए हैं, उनका सबसे बड़ा दिसम्बर २०१६ में लिंक्डइन का अधिग्रहण $ २६.२ बिलियन में किया जा रहा है, [६] इसके बाद स्काइप टेक्नोलॉजीज का अधिग्रहण ८.५ बिलियन डॉलर में हो गया।[७]
२०१५ के रूप में, आईबीएम पीसी संगत ऑपरेटिंग सिस्टम बाजार और कार्यालय सॉफ्टवेयर सूट बाजार में माइक्रोसॉफ्ट बाजार में अग्रणी है, हालाँकि इसने एण्ड्रॉइड के समग्र ऑपरेटिंग सिस्टम बाजार का अधिकांश हिस्सा खो दिया है।[८] कम्पनी डेस्कटॉप, लैपटॉप, टैब, गैजेट्स और सर्वरों के लिए इण्टरनेट खोज (बिंग के साथ), डिजिटल सेवा बाजार (एमएसएन के माध्यम से), मिश्रित वास्तविकता (होलोलेंस), क्लाउड कम्प्यूटिंग सहित अन्य उपभोक्ता और उद्यम सॉफ्टवेयर की एक विस्तृत श्रंखला का उत्पादन करती है। (एज़्योर), और सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट (विजुअल स्टूडियो)।
२००० में स्टीव बाल्मर ने गेट्स को सीईओ के रूप में प्रतिस्थापित किया, और बाद में "उपकरणों और सेवाओं" की रणनीति की कल्पना की।[९] यह २००८ में माइक्रोसॉफ़्ट द्वारा खतरे में पड़ने वाले इंकॉर्फ़ के साथ सामने आया,[१०] जून २०१२ में पहली बार टैबलेट कम्प्यूटरों के माइक्रोसॉफ़्ट सर्फेस लाइन के लॉन्च के साथ पर्सनल कम्प्यूटर प्रोडक्शन मार्केट में प्रवेश किया, और बाद में नोकिया के उपकरणों के अधिग्रहण के माध्यम से माइक्रोसॉफ्ट मोबाइल का निर्माण किया। और सेवा प्रभाग। चूंकि २०१४ में सत्य नडेला ने सीईओ के रूप में पदभार सम्भाला था, कम्पनी ने हार्डवेयर पर वापस पैठ बना ली है और इसके बजाय क्लाउड कंप्यूटिंग पर ध्यान केन्द्रित किया है, एक कदम जिसने दिसम्बर १९९९ के बाद से कम्पनी के शेयरों को अपने उच्चतम मूल्य तक पहुँचने में सहायता की।[११] [१२]
२०१८ में, माइक्रोसॉफ़्ट ने एप्पल इंक को २०१० में आपोल द्वारा अलग किए जाने के बाद दुनिया की सबसे मूल्यवान सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कम्पनी के रूप में पीछे छोड़ दिया। [१३] अप्रैल २०१९ में, माइक्रोसॉफ्ट ट्रिलियन-डॉलर मार्केट कैप पर पहुंच गया, क्रमशः आपोल और आमाज़न के बाद $ १ ट्रिलियन से अधिक मूल्य वाली तीसरी अमेरिकी सार्वजनिक कम्पनी बन गई। [१4] माइक्रोसॉफ्ट दुनिया की सबसे मूल्यवान कम्पनी है। [१५] [परिपत्र संदर्भ]
१.१ १972-१985: माइक्रोसॉफ्ट की स्थापना
१.२ १985१994: विंडोज और कार्यालय
१.३ १9९५-२००७: वेब, विंडोज ९५, विंडोज एक्सपी, और एक्सबॉक्स में फ़ॉरेस्ट
१.४ 200७20११: माइक्रोसॉफ्ट अज़ूरे, विंडोज विस्टा, विंडोज ७ और माइक्रोसॉफ्ट स्टोर्स
१.५ 20११20१4: विंडोज ८ / ८.१, एक्सबॉक्स वन, आउटलुक डॉट कॉम और सरफेस डिवाइस
१.६ 20१4-वर्तमान: विंडोज १0, माइक्रोसॉफ्ट एज और होलोन्स
२ कॉर्पोरेट मामले
२.१ निदेशक मंडल
२.५ संयुक्त राज्य सरकार
३ कॉर्पोरेट पहचान
३.१ कॉर्पोरेट संस्कृति
३.४ फ्लैगशिप स्टोर
४ इसे भी देखें
६ बाहरी लिंक
१९७२-१९८५: माइक्रोसॉफ्ट की स्थापना
पॉल एलन और बिल गेट्स १९ अक्टूबर १९81 को कैमरे के लिए पोज़ देते हैं, जो आईबीएम के साथ एक पिवट कॉन्ट्रैक्ट साइन करने के बाद पीसी से घिरे होते हैं। [१६]: २२८
बचपन के दोस्त बिल गेट्स और पॉल एलन ने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में अपने साझा कौशल का उपयोग करते हुए एक व्यवसाय बनाने की मांग की। [१एटेस] १९७२ में उन्होंने अपनी पहली कंपनी की स्थापना की, जिसका नाम ट्राफ-ओ-डेटा था, जिसने ऑटोमोबाइल ट्रैफ़िक डेटा को ट्रैक और विश्लेषण करने के लिए एक अल्पविकसित कंप्यूटर बेचा। जबकि गेट्स ने हार्वर्ड में दाखिला लिया, एलन ने वाशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की, हालांकि बाद में वह हनीवेल में काम करने के लिए स्कूल से बाहर हो गए। [१]] लोकप्रिय इलेक्ट्रॉनिक्स के जनवरी १९७५ के अंक में माइक्रो इंस्ट्रूमेंटेशन एंड टेलीमेट्री सिस्टम्स (एमआईटीएस) अल्टेयर ८८०० माइक्रो कंप्यूटर, [१९] को दिखाया गया, जिसने एलन को यह सुझाव देने के लिए प्रेरित किया कि वे डिवाइस के लिए एक बेसिक दुभाषिया का कार्यक्रम कर सकते हैं। गेट्स के एक कॉल के बाद काम करने वाले दुभाषिया होने का दावा करते हुए, मिट्स ने एक प्रदर्शन का अनुरोध किया। चूँकि वे अभी तक एक नहीं हुए थे, एलेन ने अल्टायर के लिए एक सिम्युलेटर पर काम किया जबकि गेट्स ने दुभाषिया विकसित किया। हालांकि उन्होंने विकास किया
एक सिम्युलेटर पर दुभाषिया और वास्तविक उपकरण नहीं, यह त्रुटिपूर्ण रूप से काम करता है जब उन्होंने मार्च १९७५ में दुभाषियों को अल्बुकर्क, न्यू मैक्सिको में प्रदर्शन किया। मिट्स ने इसे वितरित करने पर सहमति व्यक्त की, इसे अल्टेयर बेसिक के रूप में विपणन किया। [१६]: १० ११२, ११२-११४ गेट्स और एलन ने आधिकारिक तौर पर ४ अप्रैल १ ९ १९७५५ को गेट्स के साथ सीईओ के रूप में माइक्रोसॉफ्ट की स्थापना की। [२०] "माइक्रो-सॉफ्ट" (माइक्रो कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर के लिए संक्षिप्त) का मूल नाम एलन द्वारा सुझाया गया था। [२१] [२२] अगस्त १९७७ में कंपनी ने जापान में अस्सी मैगज़ीन के साथ एक समझौता किया, जिसके परिणामस्वरूप पहला अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय, "अस्सी माइक्रोसॉफ्ट" था। जनवरी १९७९ में माइक्रोसॉफ्ट ने अपने मुख्यालय को बेलेव, वॉशिंगटन में स्थानांतरित कर दिया। [२०]
माइक्रोसॉफ्ट ने १९८० में यूनिक्स के अपने स्वयं के संस्करण के साथ ऑपरेटिंग सिस्टम (ओस) व्यवसाय में प्रवेश किया, जिसे ज़ेनिक्स कहा जाता है। [२४] हालांकि, यह एमएस-डॉस था जिसने कंपनी के प्रभुत्व को मजबूत किया। डिजिटल अनुसंधान के साथ वार्ता विफल होने के बाद, आईबीएम ने सीपीसी / एम ओएस का एक संस्करण प्रदान करने के लिए नवंबर १९८० में माइक्रोसॉफ्ट को एक अनुबंध प्रदान किया, जिसे आगामी आईबीएम पर्सनल कंप्यूटर (आईबीएम पीसी) में उपयोग करने के लिए निर्धारित किया गया था। [२५] इस सौदे के लिए, माइक्रोसॉफ्ट ने सिएटल कंप्यूटर उत्पादों से ८६-डॉस नामक एक सीपी / एम क्लोन खरीदा, जिसे उसने एमएस-डॉस के रूप में ब्रांड किया, हालांकि आईबीएम ने इसे आईबीएम पीसी डॉस के लिए रीब्रांड किया। अगस्त १९८१ में इब्म प्क की रिलीज़ के बाद, माइक्रोसॉफ्ट ने म्स-डोस के स्वामित्व को बनाए रखा। चूंकि आईबीएम ने आईबीएम पीसी बायोस को कॉपीराइट किया था, इसलिए आईबीएम पीसी कॉम्पिटिबल्स के रूप में चलाने के लिए गैर-आईबीएम हार्डवेयर के लिए अन्य कंपनियों को इसे रिवर्स करना पड़ता था, लेकिन ऑपरेटिंग सिस्टम पर ऐसा कोई प्रतिबंध लागू नहीं था। विभिन्न कारकों के कारण, जैसे कि म्स-डोस के लिए उपलब्ध सॉफ़्टवेयर चयन, माइक्रोसॉफ्ट अंततः अग्रणी पीसी ऑपरेटिंग सिस्टम विक्रेता बन गया। [२६] [२ सच]: २१० कंपनी १ ९ सच३ में माइक्रोसॉफ्ट माउस की रिलीज़ के साथ नए बाजारों में विस्तारित हुई। साथ ही साथ माइक्रोसॉफ्ट प्रेस नामक एक प्रकाशन प्रभाग के साथ। [१६]: २३२ पॉल एलन ने १९८३ में हॉजकिन की बीमारी के विकास के बाद माइक्रोसॉफ्ट से इस्तीफा दे दिया। [२ पबलिशिंग] एलन ने दावा किया, उनकी पुस्तक आइडिया मैन: ए मेमॉयर इन द को-फाउंडर ऑफ माइक्रोसॉफ्ट, कि गेट्स कंपनी में अपने हिस्से को पतला करना चाहते थे, जब उन्हें हॉजकिन की बीमारी का पता चला क्योंकि उन्हें नहीं लगता था कि वह काफी मेहनत कर रहे थे। [२९] ] एलन ने बाद में कम-तकनीकी क्षेत्रों, खेल टीमों, वाणिज्यिक अचल संपत्ति, तंत्रिका विज्ञान, निजी अंतरिक्ष यान और बहुत कुछ में निवेश किया।
१९८५-१९९४: विंडोज और ऑफिस
विंडोज १.० को 2० नवंबर १985 को माइक्रोसॉफ्ट विंडोज लाइन के पहले संस्करण के रूप में जारी किया गया था
अगस्त १९८५ में आईबीएम के साथ संयुक्त रूप से एक नया ऑपरेटिंग सिस्टम, ओस / २ विकसित करने के बावजूद, [३१] माइक्रोसॉफ्ट ने माइक्रोसॉफ्ट विंडोज, म्स-डोस के लिए २0 नवंबर को एक चित्रमय एक्सटेंशन जारी किया। [१६]: २4२२43, २46 माइक्रोसॉफ्ट २6 फरवरी, १९८६ को बेलेव्यू से रेडमंड, वाशिंगटन में अपना मुख्यालय स्थानांतरित कर दिया, और १३ मार्च को सार्वजनिक हो गया, [3२] जिसके परिणामस्वरूप स्टॉक में वृद्धि हुई और अनुमानित रूप से चार अरबपति और 1२,००० करोड़पति माइक्रोसॉफ्ट कर्मचारियों से बन गए। [३३] माइक्रोसॉफ्ट ने २ अप्रैल, १९८७ को मूल उपकरण निर्माताओं (ओईएम) के लिए ओस / २ का अपना संस्करण जारी किया। [१६] १९९० में, आईबीएम के साथ साझेदारी के कारण, संघीय व्यापार आयोग ने संभव मिलीभगत के लिए माइक्रोसॉफ्ट पर अपनी नज़र रखी, और अमेरिकी सरकार के साथ एक दशक से अधिक कानूनी संघर्ष की शुरुआत को चिह्नित किया। [३४] : २४३-२४४ इस बीच, कंपनी ३२-बिट ओएस, माइक्रोसॉफ्ट विंडोज एनटी पर काम कर रही थी, जो उनके ओएस / २ कोड की कॉपी पर आधारित था। यह २1 जुलाई, १९९३ को एक नए मॉड्यूलर कर्नेल और विन3२ एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफ़ेस (एपीआई) के साथ, १६-बिट (म्स-डोस- आधारित) विंडोज से पोर्टिंग को आसान बनाता है। एक बार जब माइक्रोसॉफ्ट ने इब्म के न्ट को सूचित कर दिया, तो ओस / २ की साझेदारी बिगड़ गई। [३५]
१९९० में, माइक्रोसॉफ्ट ने अपना ऑफिस सूट, माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस पेश किया। सुइट ने अलग-अलग उत्पादकता अनुप्रयोगों, जैसे कि माइक्रोसॉफ्ट वर्ड और माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल को बंडल किया। [१६]: २०२ मई २२ को, माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज ३.० को लॉन्च किया, जिसमें सुव्यवस्थित उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस ग्राफिक्स और इंटेल ३ प्रोसेसर६ प्रोसेसर के लिए संरक्षित मोड क्षमता में सुधार हुआ। [३६] कार्यालय और विंडोज दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावी हो गए। [३ ३८] [३ डोमिन]
२७ जुलाई, १९९४ को, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस, एंटीट्रस्ट डिवीजन ने एक प्रतिस्पर्धात्मक प्रभाव स्टेटमेंट दायर किया, जिसमें कहा गया था: "१९८८ में शुरुआत, और १५ जुलाई १९९४ तक जारी रहा, माइक्रोसॉफ्ट ने प्रति प्रोसेसर को निष्पादित करने के लिए कई ओईएम को प्रेरित किया" "लाइसेंस। प्रति प्रोसेसर लाइसेंस के तहत, एक माइक्रोसॉफ्ट प्रत्येक कंप्यूटर के लिए एक रॉयल्टी का भुगतान करता है, जिसमें यह एक विशेष माइक्रोप्रोसेसर होता है, चाहे वह कंप्यूटर को माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम या गैर-माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ बेचता हो। वास्तव में, रॉयल्टी भुगतान। माइक्रोसॉफ्ट के लिए जब किसी माइक्रोसॉफ्ट उत्पाद का उपयोग किसी प्रतिस्पर्धी पीसी ऑपरेटिंग सिस्टम के ओएम के उपयोग पर जुर्माना, या कर के रूप में नहीं किया जा रहा हो, १९८८ के बाद से, माइक्रोसॉफ्ट का प्रति प्रोसेसर लाइसेंस का उपयोग बढ़ गया है। "[३९]
१९९५-२००७: वेब, विंडोज ९५, विंडोज एक्सपी और एक्सबॉक्स में फ़ॉरे
१९९६ में, माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज सीई जारी किया, जो व्यक्तिगत डिजिटल सहायकों और अन्य छोटे कंप्यूटरों के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम का एक संस्करण था।
२६ मई, १९९५ को बिल गेट्स के आंतरिक "इंटरनेट टाइडल वेव मेमो" के बाद, माइक्रोसॉफ्ट ने अपने ओ को फिर से परिभाषित करना शुरू किया
कंप्यूटर नेटवर्किंग और वर्ल्ड वाइड वेब में अपनी उत्पाद लाइन का विस्तार और विस्तार करना। [४०] नेटस्केप जैसी नई कंपनियों के कुछ अपवादों के साथ, माइक्रोसॉफ्ट एकमात्र प्रमुख और स्थापित कंपनी थी जिसने शुरुआत से ही व्यावहारिक रूप से वर्ल्ड वाइड वेब का एक हिस्सा बनने के लिए पर्याप्त तेजी से काम किया। अन्य कंपनियों जैसे बोरलैंड, वर्डप्रफेक्ट, नोवेल, आईबीएम और लोटस, नई स्थिति के अनुकूल होने के लिए बहुत धीमी हैं, माइक्रोसॉफ्ट को एक बाजार का प्रभुत्व देगी। [४१] कंपनी ने २४ अगस्त, १९९५ को विंडोज ९५ जारी किया, जिसमें प्री-इप्टिव मल्टीटास्किंग, एक नई शुरुआत बटन के साथ पूरी तरह से नया यूजर इंटरफेस और ३२-बिट संगतता थी; न्ट के समान, इसने विन३२ अपी प्रदान किया। [४२] [४३]: २० विंडोज ९ ० ऑनलाइन सेवा एमएसएन के साथ बंडल आया, जो पहले इंटरनेट पर एक प्रतियोगी होने का इरादा था, [संदिग्ध - चर्चा] और (ओईएम के लिए) ) इंटरनेट एक्सप्लोरर, एक वेब ब्राउज़र। इंटरनेट एक्सप्लोरर को खुदरा विंडोज ९५ बक्से के साथ बंडल नहीं किया गया था, क्योंकि टीम वेब ब्राउज़र को समाप्त करने से पहले बक्से मुद्रित किए गए थे, और इसके बजाय विंडोज ९५ प्लस में शामिल किया गया था! पैक। [४४] १९९६ में नए बाजारों में पहुंची, माइक्रोसॉफ्ट और जनरल इलेक्ट्रिक की एनबीसी यूनिट ने एक नया २४/७ केबल न्यूज चैनल, एमएसएनबीसी बनाया। [४५] माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज़ स १.० बनाया, एक नया ओएस जिसे कम मेमोरी और अन्य बाधाओं वाले उपकरणों के लिए डिज़ाइन किया गया था, जैसे व्यक्तिगत डिजिटल सहायक। [४६] अक्टूबर १99७ में, न्याय विभाग ने संघीय जिला न्यायालय में एक प्रस्ताव दायर किया, जिसमें कहा गया कि माइक्रोसॉफ्ट ने १994 में हस्ताक्षरित एक समझौते का उल्लंघन किया और अदालत से विंडोज़ के साथ इंटरनेट एक्सप्लोरर के बंडल को रोकने के लिए कहा। [१6]: ३२33२४
माइक्रोसॉफ्ट ने २००१ में कंसोल की ज़्बॉक्स श्रृंखला में पहली किस्त जारी की। ज़्बॉक्स, अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में ग्राफिक रूप से शक्तिशाली है, जिसमें एक मानक पीसी का ७३३ मेगाहर्ट्ज इंटेल पेंटियम ई प्रोसेसर है।
१३ जनवरी २००० को बिल गेट्स ने १९८० से कंपनी के पुराने दोस्त और गेट्स कंपनी के सीईओ स्टीव बाल्मर को सीईओ पद सौंप दिया, जबकि उन्होंने खुद के लिए मुख्य सॉफ्टवेयर आर्किटेक्ट के रूप में एक नया स्थान बनाया। [१६]: १११, २२८ [२०] माइक्रोसॉफ्ट सहित विभिन्न कंपनियों ने अक्टूबर १ ९९९ में ट्रस्टेड कंप्यूटिंग प्लेटफार्म एलायंस का गठन किया (अन्य बातों के अलावा) हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर में परिवर्तन की पहचान के माध्यम से सुरक्षा बढ़ाते हैं और बौद्धिक संपदा की रक्षा करते हैं। आलोचकों ने गठबंधन को इस बात के रूप में बताया कि उपभोक्ता सॉफ्टवेयर का उपयोग कैसे करते हैं, और कंप्यूटर कैसे व्यवहार करते हैं, और डिजिटल अधिकार प्रबंधन के रूप में अंधाधुंध प्रतिबंधों को लागू करने का एक तरीका है: उदाहरण के लिए वह परिदृश्य जहां एक कंप्यूटर न केवल अपने मालिक के लिए सुरक्षित है, बल्कि सुरक्षित भी है। इसके मालिक के खिलाफ भी। [४]] [४]] ३ अप्रैल २००० को, संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम माइक्रोसॉफ्ट कॉर्प के मामले में एक निर्णय दिया गया था। [४ ९] कंपनी को "अपमानजनक एकाधिकार" कहना। [५०] बाद में माइक्रोसॉफ्ट ने २००४ में अमेरिकी न्याय विभाग के साथ समझौता किया। [३2] २५ अक्टूबर २००१ को, माइक्रोसॉफ्ट ने न्ट कोडबेस के तहत ओस की मुख्यधारा और न्ट लाइनों को एकजुट करते हुए विंडोज ज़्प जारी किया। [५१] कंपनी ने उस साल बाद में ज़्बॉक्स जारी किया, जिसमें सोनी और निन्टेंडो के प्रभुत्व वाले वीडियो गेम कंसोल बाज़ार में प्रवेश किया गया। [५२] मार्च २००४ में, यूरोपीय संघ ने कंपनी के खिलाफ विरोधात्मक कानूनी कार्रवाई की, जिसमें विंडोज़ ओएस के साथ इसके प्रभुत्व का दुरुपयोग किया गया, जिसके परिणामस्वरूप ४९७ मिलियन ($ 6१३ मिलियन) का निर्णय हुआ और माइक्रोसॉफ्ट को विंडोज मीडिया प्लेयर के साथ विंडोज एक्सपी के नए संस्करणों का उत्पादन करने की आवश्यकता हुई। : विंडोज एक्सपी होम एडिशन एन और विंडोज एक्सपी प्रोफेशनल एन। [५३] [५४] नवंबर २००५ में, कंपनी का दूसरा वीडियो गेम कंसोल, ज़्बॉक्स ३60, जारी किया गया था। दो संस्करण थे, $ २९९.९९ के लिए एक मूल संस्करण और $ ३९९.९९ के लिए एक डीलक्स संस्करण। [५५]
२००७२०११: माइक्रोसॉफ्ट अज़ूरे, विंडोज विस्टा, विंडोज ७ और माइक्रोसॉफ्ट स्टोर्स
२००८ में मिक्स इवेंट में सियो स्टीव बाल्मर। २००५ में अपनी प्रबंधन शैली के बारे में एक साक्षात्कार में, उन्होंने उल्लेख किया कि उनकी पहली प्राथमिकता उन लोगों को प्राप्त करना है जिन्हें वे क्रम में रखते हैं। बाल्मर ने उदाहरण के रूप में विंडोज के साथ मूल प्रयासों का हवाला देते हुए, यदि प्रारंभिक प्रयास विफल हो जाते हैं, तो भी नई तकनीकों को जारी रखने की आवश्यकता पर जोर दिया।
जनवरी २००७ में जारी, विंडोज, विस्टा के अगले संस्करण में, सुविधाओं, सुरक्षा और एक पुन: डिज़ाइन किए गए उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस पर ध्यान केंद्रित किया गया, जो एयरो को डूबा हुआ था। [५ईरो] [५]] माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस २००७, एक ही समय में जारी किया गया, जिसमें एक "रिबन" यूजर इंटरफेस था, जो अपने पूर्ववर्तियों से एक महत्वपूर्ण प्रस्थान था। २००७ में दोनों उत्पादों की अपेक्षाकृत मजबूत बिक्री ने रिकॉर्ड लाभ कमाने में मदद की। [५९] यूरोपीय संघ ने माइक्रोसॉफ्ट के २७ फरवरी, २००८ के फैसले के अनुपालन की कमी के लिए ८९९ मिलियन ($ १.४ बिलियन) का एक और जुर्माना लगाया, यह कहते हुए कि कंपनी ने अपने कार्यसमूह और बैकग्राउंड सर्वर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी के लिए प्रतिद्वंद्वियों से अनुचित मूल्य वसूला। माइक्रोसॉफ्ट ने कहा कि यह अनुपालन में था और "ये जुर्माना पिछले मुद्दों के बारे में है जिन्हें हल किया गया है"। [६०] सन और आईबीएम जैसी सर्वर कंपनियों के कदमों का अनुसरण करते हुए २००७ ने माइक्रोसॉफ्ट में एक मल्टी-कोर यूनिट का निर्माण भी देखा। [6१]
गेट्स २७ जून, २००८ को मुख्य सॉफ्टवेयर वास्तुकार के रूप में अपनी भूमिका से सेवानिवृत्त हुए, एक निर्णय जून २००६ में घोषित किया गया, जबकि अन्य पॉज़िटियो को बरकरार रखा गया।
धित न्स। [६२] [६३] विंडोज के लिए क्लाउड कंप्यूटिंग बाजार में कंपनी की एज़्योर सर्विसेज प्लेटफ़ॉर्म, २७ अक्टूबर २००८ को लॉन्च हुई। [६४] १२ फरवरी, २००९ को, माइक्रोसॉफ्ट ने माइक्रोसॉफ्ट-ब्रांडेड खुदरा स्टोरों की एक श्रृंखला खोलने के अपने इरादे की घोषणा की, और २२ अक्टूबर, २००९ को स्कॉटलैंड, एरिज़ोना में पहला खुदरा माइक्रोसॉफ्ट स्टोर खोला; उसी दिन विंडोज ७ आधिकारिक तौर पर जनता के लिए जारी किया गया था। विंडोज ७ का ध्यान विस्टा को आसानी से उपयोग करने की विशेषताओं और प्रदर्शन में वृद्धि के साथ परिष्कृत करने पर था, बजाय विंडोज के एक व्यापक कार्यकारी के। [६५] [६६] [६]]।
जैसा कि २००७ में स्मार्टफोन उद्योग में उछाल आया था, माइक्रोसॉफ्ट ने आधुनिक स्मार्टफोन ऑपरेटिंग सिस्टम प्रदान करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों आपोल और गूगल के साथ बनाए रखने के लिए संघर्ष किया था। परिणामस्वरूप, २०१० में माइक्रोसॉफ्ट ने अपने पुराने फ्लैगशिप मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम विंडोज मोबाइल को नया विंडोज फोन ओएस के साथ बदल दिया। माइक्रोसॉफ्ट ने सॉफ़्टवेयर उद्योग के लिए एक नई रणनीति लागू की जिसमें उन्हें स्मार्टफोन निर्माताओं, जैसे कि नोकिया के साथ और अधिक निकटता से काम करना था, और विंडोज फोन ओएस का उपयोग करके सभी स्मार्टफोन में एक सुसंगत उपयोगकर्ता अनुभव प्रदान करना था। इसने एक नई उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस डिज़ाइन भाषा का उपयोग किया, जिसका नाम "मेट्रो" था, जिसमें न्यूनतम आकार की अवधारणा का उपयोग करते हुए सरल आकृतियों, टाइपोग्राफी और आइकनोग्राफी को प्रमुखता से इस्तेमाल किया गया था। माइक्रोसॉफ्ट २३ मार्च २०११ को शुरू हुई ओपन नेटवर्किंग फाउंडेशन का एक संस्थापक सदस्य है। फेलो संस्थापक गूगल, एचपी, याहू, !, वेरिजॉन कम्युनिकेशंस, ड्यूश टेलीकॉम और १७ अन्य कंपनियां थीं। यह गैर-लाभकारी संगठन सॉफ्टवेयर-परिभाषित नेटवर्किंग नामक एक नई क्लाउड कंप्यूटिंग पहल के लिए सहायता प्रदान करने पर केंद्रित है। [६८] यह पहल दूरसंचार नेटवर्क, वायरलेस नेटवर्क, डेटा केंद्र और अन्य नेटवर्किंग क्षेत्रों में सरल सॉफ्टवेयर परिवर्तनों के माध्यम से नवाचार को गति देने के लिए है। [६ ९]
२०११२०१४: विंडोज ८ / ८.१, एक्सबॉक्स वन, आउटलुक डॉट कॉम और सरफेस डिवाइस
भूतल प्रो ३, माइक्रोसॉफ्ट द्वारा लैपलेट्स की सरफेस श्रृंखला का हिस्सा
विंडोज फोन के विमोचन के बाद, माइक्रोसॉफ्ट ने निगम के लोगो, उत्पादों, सेवाओं और वेबसाइटों के साथ-साथ मेट्रो डिजाइन भाषा के सिद्धांतों और अवधारणाओं को अपनाने के साथ २०११ और २०१२ के दौरान अपने उत्पाद रेंज का क्रमिक पुन: संचालन किया। [७०] जून २०११ में ताइपे में माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज ८, एक ऑपरेटिंग सिस्टम का अनावरण किया, जो पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट कंप्यूटर दोनों को बिजली देने के लिए बनाया गया था। [७१] एक डेवलपर पूर्वावलोकन १३ सितंबर को जारी किया गया था, जिसे बाद में २९ फरवरी, २०१२ को उपभोक्ता पूर्वावलोकन द्वारा बदल दिया गया और मई में जनता के लिए जारी किया गया। [७२] १८ जून को द सरफेस का अनावरण किया गया, जो कंपनी के इतिहास का पहला ऐसा कंप्यूटर बन गया, जिसमें उसका हार्डवेयर माइक्रोसॉफ्ट द्वारा बनाया गया था। [७३] ७४] २५ जून को, माइक्रोसॉफ्ट ने सोशल नेटवर्क यमर को खरीदने के लिए उस $ १.२ बिलियन का भुगतान किया। [७५] 3१ जुलाई को, उन्होंने ग्मेल से प्रतिस्पर्धा करने के लिए आउटलूक.कॉम वेबमेल सेवा शुरू की। [७६] ४ सितंबर २०१२ को, माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज सर्वर २०१२ जारी किया। [७७]
जुलाई २०१२ में, माइक्रोसॉफ्ट ने एमएसएनबीसी में अपनी ५०% हिस्सेदारी बेच दी, जिसे उसने १९९६ से एनबीसी के साथ एक संयुक्त उद्यम के रूप में चलाया था। [७८] १ अक्टूबर को, माइक्रोसॉफ्ट ने न्यूज ऑपरेशन, एक नए रूप वाले एमएसएन का हिस्सा लॉन्च करने की घोषणा की, जिसमें बाद में महीने में विंडोज ८ था। २६ अक्टूबर २०१२ को, माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज ८ और माइक्रोसॉफ्ट सरफेस लॉन्च किया। [७४] [८0] तीन दिन बाद, विंडोज फोन ८ लॉन्च किया गया। [८१] उत्पादों और सेवाओं की मांग में वृद्धि की संभावना का सामना करने के लिए, माइक्रोसॉफ्ट ने २०१२ में खुलने वाले "ईंटों-और-मोर्टार" माइक्रोसॉफ्ट स्टोरों की बढ़ती संख्या के पूरक के लिए अमेरिका भर में कई "हॉलिडे स्टोर" खोले। [८2] २९ मार्च 20१3 को, माइक्रोसॉफ्ट ने एक पेटेंट ट्रैकर लॉन्च किया। [८3]
अगस्त २०१२ में, न्यूयॉर्क सिटी पुलिस विभाग ने डोमेन अवेयरनेस सिस्टम के विकास के लिए माइक्रोसॉफ्ट के साथ एक साझेदारी की घोषणा की, जिसका उपयोग न्यूयॉर्क शहर में पुलिस निगरानी के लिए किया जाता है। [८४]
ज़्बॉक्स ओन कंसोल, २०१३ में रिलीज़ किया गया
किनेक्ट, माइक्रोसॉफ्ट द्वारा बनाया गया एक मोशन-सेंसिंग इनपुट डिवाइस है और वीडियो गेम कंट्रोलर के रूप में डिज़ाइन किया गया है, जिसे पहली बार नवंबर २०१० में पेश किया गया था, इसे २०१३ में ज़्बॉक्स ओन वीडियो गेम कंसोल के रिलीज़ के लिए अपग्रेड किया गया था। मई २०१३ में किनेक्ट की क्षमताओं का पता चला: एक अल्ट्रा-वाइड १०८०प कैमरा, अंधेरे में एक इन्फ्रारेड सेंसर, हाई-एंड प्रोसेसिंग पावर और नए सॉफ्टवेयर के कारण काम करना, बारीक मूवमेंट्स के बीच अंतर करने की क्षमता (जैसे अंगूठा मूवमेंट), और उनके चेहरे को देखकर उपयोगकर्ता की हृदय गति निर्धारित करना। [रेट५] माइक्रोसॉफ्ट ने २०११ में एक पेटेंट आवेदन दायर किया था जो बताता है कि निगम काइनेट कैमरा सिस्टम का उपयोग कर सकता है ताकि देखने के अनुभव को और अधिक इंटरैक्टिव बनाने के लिए एक योजना के हिस्से के रूप में टेलीविजन दर्शकों के व्यवहार की निगरानी कर सके। १९ जुलाई २०१३ को, चौथी तिमाही के बाद रिपोर्ट में निवेशकों के बीच विंडोज ८ और सर्फेस टैबलेट दोनों के खराब प्रदर्शन पर चिंता व्यक्त की गई थी, माइक्रोसॉफ्ट स्टॉक ने वर्ष २००० के बाद से अपनी सबसे बड़ी एक दिवसीय प्रतिशत बिक्री को बंद कर दिया। माइक्रोसॉफ्ट को ३२ बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। [८6]
जुलाई २०१३ में परिपक्व पीसी व्यवसाय के अनुरूप, माइक्रोसॉफ्ट ने घोषणा की
करेगा, अर्थात् ऑपरेटिंग सिस्टम, ऐप्स, क्लाउड और डिवाइसेस। पिछले सभी विभाजनों को बिना किसी कार्यबल में कटौती के नए प्रभागों में भंग कर दिया जाएगा। [बे बे] ३ सितंबर, 201३ को, माइक्रोसॉफ्ट ने एमी हुड को सीएफओ की भूमिका निभाने के बाद नोकिया की मोबाइल इकाई को $ ७ बिलियन [८८] में खरीदने पर सहमति व्यक्त की। [८९]
२०१४-वर्तमान: विंडोज १०, माइक्रोसॉफ्ट एज और होलोन्स
सत्य नडेला ने फरवरी २०१४ में स्टीव बाल्मर को माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ के रूप में कामयाबी दिलाई
४ फरवरी, २01४ को, स्टीव बाल्मर ने माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ के रूप में कदम रखा और सत्य नडेला द्वारा सफल रहे, जिन्होंने पहले माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड और एंटरप्राइज डिवीजन का नेतृत्व किया। [९०] उसी दिन, बिल गेट्स के स्थान पर जॉन डब्ल्यू। थॉम्पसन ने अध्यक्ष की भूमिका निभाई, जिन्होंने प्रौद्योगिकी सलाहकार के रूप में भाग लेना जारी रखा। [९१] थॉमसन माइक्रोसॉफ्ट के इतिहास में दूसरे अध्यक्ष बने। [९२] २५ अप्रैल, २01४ को, माइक्रोसॉफ्ट ने ७.२ बिलियन डॉलर में नोकिया डिवाइसेस एंड सर्विसेज का अधिग्रहण किया। [९३] इस नई सहायक कंपनी का नाम बदलकर माइक्रोसॉफ्ट मोबाइल ओय कर दिया गया। [9४] १५ सितंबर २01४ को, माइक्रोसॉफ्ट ने वीडियो गेम डेवलपमेंट कंपनी मोजंग का अधिग्रहण किया, जो कि मिनक्राफ्ट के लिए $ २.५ बिलियन के लिए जाना जाता है। ८ जून, २01७ को, माइक्रोसॉफ्ट ने $ १०० मिलियन के लिए एक इजरायली सुरक्षा फर्म हेक्सादीते का अधिग्रहण किया। [९६] [9७]
२१ जनवरी २०१५ को, माइक्रोसॉफ्ट ने अपने पहले इंटरएक्टिव व्हाइटबोर्ड, माइक्रोसॉफ्ट सरफेस हब की घोषणा की। [९८] २९ जुलाई २०१५ को, विंडोज १० को जारी किया गया, [९९] अपने सर्वर सिबलिंग के साथ, विंडोज सर्वर २०१६, सितंबर २०१६ में जारी किया गया। क१ २०१५ में, माइक्रोसॉफ्ट मोबाइल फोन का तीसरा सबसे बड़ा निर्माता था, जिसने ३३ मिलियन यूनिट (७.२%) बेची सब)। जबकि उनमें से एक बड़ा बहुमत (कम से कम ७५%) विंडोज फोन के किसी भी संस्करण को नहीं चलाता है - उन अन्य फोन को गार्टनर द्वारा स्मार्टफोन के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है - एक ही समय सीमा में ८ मिलियन विंडोज स्मार्टफोन (सभी स्मार्टफोन का २.५%) बनाया गया था सभी निर्माताओं द्वारा (लेकिन ज्यादातर माइक्रोसॉफ्ट द्वारा)। [१००] जनवरी २०१६ में अमेरिकी स्मार्टफोन बाजार में माइक्रोसॉफ्ट की हिस्सेदारी २.७% थी। [१०१] २०१५ की गर्मियों के दौरान कंपनी ने अपने मोबाइल-फोन व्यवसाय से संबंधित ७.६ बिलियन डॉलर खो दिए, जिससे ७,८00 कर्मचारियों को निकाल दिया गया। [१०२]
१ मार्च 20१6 को, माइक्रोसॉफ्ट ने अपने पीसी और ज़्बॉक्स डिवीजनों के विलय की घोषणा की, फिल स्पेंसर ने घोषणा की कि यूनिवर्सल विंडोज प्लेटफॉर्म (उप) ऐप्स भविष्य में माइक्रोसॉफ्ट के गेमिंग के लिए ध्यान केंद्रित करेंगे। [१03] २४ जनवरी, 20१7 को, माइक्रोसॉफ्ट ने लंदन में बेट 20१7 शिक्षा प्रौद्योगिकी सम्मेलन में शिक्षा के लिए इंट्यून का प्रदर्शन किया। [१04] शिक्षा के लिए इन्टून शिक्षा क्षेत्र के लिए एक नया क्लाउड-आधारित अनुप्रयोग और डिवाइस प्रबंधन सेवा है। [१०५] मई 20१6 में, कंपनी ने घोषणा की कि वह १,८५० कर्मचारियों की छंटनी कर रहा है, और $ ९५० मिलियन का एक हानि और पुनर्गठन शुल्क ले रहा है। [१02] जून 20१6 में, माइक्रोसॉफ्ट ने माइक्रोसॉफ्ट अज़ूरे इंफोरमेशन प्रोटेक्शन नामक एक परियोजना की घोषणा की। इसका उद्देश्य उद्यमों को अपने डेटा को सुरक्षित रखने में मदद करना है क्योंकि यह सर्वर और उपकरणों के बीच चलता है। [१०६] नवंबर 20१6 में, माइक्रोसॉफ्ट लिनक्स कनेक्ट के दौरान प्लेटिनम सदस्य के रूप में लिनक्स फाउंडेशन में शामिल हो गया; न्यूयॉर्क में डेवलपर घटना। [१० इन] प्रत्येक प्लेटिनम सदस्यता की लागत प्रति वर्ष ५००,००० अमेरिकी डॉलर है। [१08] कुछ विश्लेषकों ने इस अकल्पनीय को दस साल पहले माना था, हालांकि 200१ में तब के सीईओ स्टीव बाल्मर ने लिनक्स को "कैंसर" कहा था। माइक्रोसॉफ्ट ने "आने वाले हफ्तों में" शिक्षा के लिए इन्टून का पूर्वावलोकन शुरू करने की योजना बनाई है, जो कि स्प्रिंग 20१7 के लिए सामान्य उपलब्धता के साथ निर्धारित है, इसकी कीमत $ ३० प्रति डिवाइस या वॉल्यूम लाइसेंसिंग समझौतों के माध्यम से है। [११0]
नोकिया लूमिया १३२०, माइक्रोसॉफ्ट लूमिया ५३५ और नोकिया लूमिया ५३०, जो सभी अब बंद किए गए विंडोज फोन ऑपरेटिंग सिस्टम में से एक पर चलते हैं।
जनवरी २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने इंटेल के मेल्टडाउन सुरक्षा उल्लंघन से संबंधित सीपीयू समस्याओं के लिए विंडोज १० को पैच किया। पैच इंटेल के क्पू आर्किटेक्चर पर निर्भर माइक्रोसॉफ्ट अज़ूरे वर्चुअल मशीनों के साथ समस्याओं का कारण बना। १२ जनवरी को, माइक्रोसॉफ्ट ने मैकोस और लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए पावरशेल कोर ६.० जारी किया। [१११] फरवरी २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने अपने विंडोज फोन उपकरणों के लिए अधिसूचना समर्थन को मार दिया, जिसने बंद किए गए उपकरणों के लिए फर्मवेयर अपडेट को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया। [१११] मार्च २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज १० एस को एक अलग और अद्वितीय ऑपरेटिंग सिस्टम के बजाय विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए एक मोड में बदलने के लिए याद किया। मार्च में कंपनी ने दिशानिर्देश भी स्थापित किए जो ऑफिस 3६५ के उपयोगकर्ताओं को निजी दस्तावेजों में अपवित्रता का उपयोग करने से रोकते हैं। [१११] अप्रैल २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने कार्यक्रम की 2० वीं वर्षगांठ मनाने के लिए मिट लाइसेंस के तहत विंडोज फ़ाइल प्रबंधक के लिए स्रोत कोड जारी किया। अप्रैल में कंपनी ने आगे चलकर लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के अपने व्युत्पन्न के रूप में अज़ूरे क्षेत्र की घोषणा करके खुले स्रोत की पहल को अपनाने की इच्छा व्यक्त की। [१११] मई २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने अमेरिकी नागरिकों को ट्रैक करने वाले उत्पादों को विकसित करने के लिए १७ अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के साथ भागीदारी की। परियोजना को "एज़ुर सरकार" करार दिया गया है और इसमें संयुक्त उद्यम रक्षा अवसंरचना (जेईडीआई) निगरानी कार्यक्रम है। [१११] ४ जून, २०१८ को, माइक्रोसॉफ्ट ने आधिकारिक तौर पर $ ७.५ बिलियन के लिए गितुब के अधिग्रहण की घोषणा की, जो कि क्लो
इक्रोसॉफ्ट ने जनता के लिए सरफेस गो प्लेटफॉर्म का खुलासा किया। बाद में महीने में इसने माइक्रोसॉफ्ट टीम्स को ग्रिटिस में बदल दिया। [१११] अगस्त २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने माइक्रोसॉफ्ट एकाउन्टगार्ड और डेफेंडिंग डेमोक्रासी नामक दो प्रोजेक्ट जारी किए। इसने एआरएम वास्तुकला पर विंडोज १० के लिए स्नैपड्रैगन ८५० संगतता का भी अनावरण किया। [११४] [११५] [१११]
सितंबर २०१६ में माइक्रोसॉफ्ट होलोलेंस मिश्रित वास्तविकता हेडसेट का उपयोग कर अपोलो ११ अंतरिक्ष यात्री बज़ एल्ड्रिन
अगस्त २०१८ में, टोयोटा त्सुशो ने जल प्रबंधन से संबंधित इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आयोट) प्रौद्योगिकियों के लिए माइक्रोसॉफ्ट अज़ूरे एप्लिकेशन सूट का उपयोग करके मछली पालन उपकरण बनाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट के साथ साझेदारी शुरू की। किंडई विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा भाग में विकसित, पानी पंप तंत्र कृत्रिम बुद्धि का उपयोग करके एक कन्वेयर बेल्ट पर मछलियों की संख्या की गणना करते हैं, मछली की संख्या का विश्लेषण करते हैं, और मछली द्वारा प्रदान किए गए डेटा से पानी के प्रवाह की प्रभावशीलता को कम करते हैं। प्रक्रिया में उपयोग किए जाने वाले विशिष्ट कंप्यूटर प्रोग्राम अज़ूरे मशीन ल्र्निंग और अज़ूरे आयोट हब प्लेटफार्मों के अंतर्गत आते हैं। [११६] सितंबर २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने स्काइप क्लासिक को बंद कर दिया। [१११] १० अक्टूबर, २०१८ को, माइक्रोसॉफ्ट ६०,००० से अधिक पेटेंट रखने के बावजूद ओपन इन्वेंशन नेटवर्क समुदाय में शामिल हो गया। [११७] नवंबर २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन्य को १०0,००० "शत्रु से पहले पता लगाने, निर्णय लेने और संलग्न करने की क्षमता को बढ़ाकर" घातकता को बढ़ाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट होलोलेंस हेडसेट की आपूर्ति करने पर सहमति व्यक्त की। माइक्रोसॉफ्ट अज़ूरे के लिए कारक प्रमाणीकरण [११९] दिसंबर २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने माइक्रोसॉफ्ट सरफेस और हाइपर- व उत्पादों में उपयोग किए गए यूनिफाइड एक्स्टेंसिबल फ़र्मवेयर इंटरफ़ेस (उफी) कोर के एक ओपन सोर्स रिलीज़ प्रोजेक्ट म्यू की घोषणा की। परियोजना एक सेवा के रूप में फर्मवेयर के विचार को बढ़ावा देती है। [१२०] उसी महीने, माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज फॉर्म और विंडोज प्रेजेंटेशन फाउंडेशन (डब्ल्यूपीएफ) के ओपन सोर्स कार्यान्वयन की घोषणा की, जो कंपनी के आगे के आंदोलन के लिए विंडोज डेस्कटॉप एप्लिकेशन और सॉफ्टवेयर विकसित करने में उपयोग किए जाने वाले महत्वपूर्ण फ्रेमवर्क की पारदर्शी रिलीज की अनुमति देगा। दिसंबर में कंपनी ने अपने ब्राउज़र के लिए क्रोमियम बैकएंड के पक्ष में माइक्रोसॉफ्ट एज प्रोजेक्ट को बंद कर दिया। [११ ९]
२० फरवरी, २०19 माइक्रोसॉफ्ट कॉर्प ने कहा कि वह अपनी साइबर सुरक्षा सेवा की पेशकश करेगा जर्मनी, फ्रांस और स्पेन सहित यूरोप के १२ नए बाजारों में सुरक्षा घेरा बंद करने और ग्राहकों को हैकिंग से राजनीतिक स्थान में सुरक्षा प्रदान करने के लिए। फरवरी २०19 में, सैकड़ों माइक्रोसॉफ्ट कर्मचारियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका की सेना के लिए आभासी वास्तविकता हेडसेट विकसित करने के लिए ४८० मिलियन डॉलर के अनुबंध से कंपनी के युद्ध का विरोध किया। [१२2]
इसे भी देखें: माइक्रोसॉफ्ट की आलोचना; चीन में इंटरनेट सेंसरशिप; और गले लगाओ, विस्तार करो, और बुझाओ
कंपनी का संचालन निदेशक मंडल द्वारा किया जाता है, जो ज्यादातर कंपनी बाहरी लोगों से बना होता है, जैसा कि सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कंपनियों के लिए प्रथागत है। जनवरी २०१८ तक निदेशक मंडल के सदस्य बिल गेट्स, सत्या नडेला, रीड हॉफमैन, ह्यूग जॉनसन, टेरी लिस्ट-स्टोल, चार्ल्स नोस्की, हेल्मुट पैंके, सैंडी पीटरसन, पेनी प्रिट्जकर, चार्ल्स श्राफ, अर्ने सोरेनसन, जॉन डब्ल्यू स्टैंटनन हैं। , जॉन डब्ल्यू। थॉम्पसन और पद्मश्री योद्धा। [१२३] बोर्ड के सदस्य हर साल बहुमत के वोट सिस्टम का उपयोग करते हुए वार्षिक शेयरधारकों की बैठक में चुने जाते हैं। बोर्ड के भीतर पाँच समितियाँ हैं जो अधिक विशिष्ट मामलों की देखरेख करती हैं। इन समितियों में लेखा परीक्षा समिति शामिल है, जो लेखा परीक्षा और रिपोर्टिंग सहित कंपनी के साथ लेखांकन मुद्दों को संभालती है; मुआवजा समिति, जो कंपनी के सीईओ और अन्य कर्मचारियों के मुआवजे को मंजूरी देती है; वित्त समिति, जो विलय और अधिग्रहण के प्रस्ताव जैसे वित्तीय मामलों को संभालती है; शासन और नामांकन समिति, जो बोर्ड के नामांकन सहित विभिन्न कॉर्पोरेट मामलों को संभालती है; और एंटीट्रस्ट कम्प्लायंस कमेटी, जो कंपनी प्रथाओं को विरोधाभासी कानूनों का उल्लंघन करने से रोकने का प्रयास करती है। [१२४]
नस्दक का पांच साल का इतिहास ग्राफ: १७ जुलाई २०१३ को म्सफ्ट स्टॉक [१२५]
जब माइक्रोसॉफ्ट ने सार्वजनिक किया और १९८६ में अपनी आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (इपो) लॉन्च की, तो स्टॉक की शुरुआती कीमत $ २१ थी; कारोबारी दिन के बाद, मूल्य $ २७.७५ पर बंद हुआ। जुलाई २०१० तक, कंपनी के नौ स्टॉक विभाजन के साथ, किसी भी आईपीओ शेयरों को २८८ से गुणा किया जाएगा; अगर कोई आज आईपीओ खरीदता है, तो स्प्लिट्स और अन्य कारकों को देखते हुए, इसकी कीमत लगभग ९ सेंट होगी। [१६]: २३५-२३६ [१२६] [१२]] १ ९९९ में स्टॉक की कीमत लगभग $ ११ ९ ($ ६०.९ २,) पर पहुंच गई, जिसके लिए समायोजन किया गया। विभाजन)। [१२८] कंपनी ने १६ जनवरी, २००३ को लाभांश की पेशकश शुरू की, जिसके बाद वित्त वर्ष के लिए प्रति शेयर आठ सेंट शुरू हुआ और उसके बाद आने वाले वर्ष में प्रति शेयर सोलह सेंट का लाभांश था, जो २००५ में वार्षिक तिमाही से बढ़कर आठ सेंट प्रति शेयर था। तिमाही और वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही के लिए प्रति शेयर तीन डॉलर का एक विशेष भुगतान। [१२]] [१२ ९] हालांकि कंपनी ने बाद में लाभांश भुगतान में वृद्धि की थी, माइक्रोसॉफ्ट के स्टोक की कीमत
स्टैंडर्ड एंड पूअर्स एंड मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस, दोनों ने माइक्रोसॉफ्ट को एएए रेटिंग दी है, जिसकी संपत्ति असुरक्षित ऋण में केवल ८.५ बिलियन डॉलर की तुलना में ४१ बिलियन डॉलर थी। नतीजतन, फरवरी २०११ में माइक्रोसॉफ्ट ने सरकारी बॉन्ड की तुलना में अपेक्षाकृत कम उधार दरों के साथ २.२५ बिलियन डॉलर की राशि का कॉर्पोरेट बॉन्ड जारी किया। [११ फेब्रुवारी] २0 साल में पहली बार आपोल इंक ने क१ २०११ में माइक्रोसॉफ्ट को पीछे छोड़ दिया और पीसी की बिक्री में मंदी और माइक्रोसॉफ्ट के ऑनलाइन सर्विसेज डिवीजन (जिसमें इसका सर्च इंजन बिंग शामिल है) में भारी नुकसान जारी है। माइक्रोसॉफ्ट का मुनाफा ५.२ बिलियन डॉलर था, जबकि आपोल इनक. का मुनाफा क्रमशः $ १4.५ बिलियन और $ २4.७ बिलियन के राजस्व पर $ ६ बिलियन था। [८२] माइक्रोसॉफ्ट का ऑनलाइन सेवा प्रभाग २00६ से लगातार घाटे में चल रहा है और क१ २०११ में इसने ७२६ मिलियन डॉलर का नुकसान किया। यह वर्ष २0१0 के लिए $ २.५ बिलियन का नुकसान है। [१33]
२० जुलाई २०1२ को, माइक्रोसॉफ्ट ने तिमाही और वित्त वर्ष के लिए रिकॉर्ड राजस्व अर्जित करने के बावजूद अपना पहला त्रैमासिक घाटा पोस्ट किया, विज्ञापन कंपनी एवेन्यू से संबंधित एक रिटेन के कारण $ ४९२ मिलियन का शुद्ध घाटा हुआ, जिसे $ ६.२ बिलियन का अधिग्रहण किया गया था। २०07 में वापस। [१३४] जनवरी २०१४ तक, माइक्रोसॉफ्ट का बाजार पूंजीकरण $ ३१४ब था, [१३५] जो इसे बाजार पूंजीकरण द्वारा दुनिया की ८ वीं सबसे बड़ी कंपनी बना रहा था। [13६] १४ नवंबर, २०१४ को, माइक्रोसॉफ्ट ने एक्सॉनमोबिल को बाजार पूंजीकरण द्वारा दूसरी सबसे मूल्यवान कंपनी बनने के लिए पछाड़ दिया, केवल आपोल इनक. के पीछे। इसका कुल बाजार मूल्य $ ४१०ब से अधिक था - शेयर की कीमत $ ५०.०४ प्रति शेयर के साथ, २०00 की शुरुआत से उच्चतम। [१३७] २०15 में, रॉयटर्स ने बताया कि माइक्रोसॉफ्ट कॉर्प की विदेश में कमाई $ 7६.४ बिलियन थी जो आंतरिक राजस्व सेवा द्वारा अप्रभावित थे। अमेरिकी कानून के तहत, निगमों को विदेशी मुनाफे पर आयकर का भुगतान नहीं करना है, जब तक कि लाभ संयुक्त राज्य अमेरिका में नहीं लाया जाता है। [१३]]
सैन्य में। यूएस $ [१३ ९] शुद्ध आय
सैन्य में। यूएस $ [१३ ९] कुल संपत्ति
सैन्य में। यूएस $ [१३९] कर्मचारियों [१३९]
२००५ ३९.७८८ १२.२५४ ७०.८१५ ६१.०००
२००६ ४४.२८२ १२.५९९ ६९.५९७ ७१.०००
२००७ ५१.१२२ १४.०६५ ६३.१७१ ७९.०००
२००८ ६०.४२० १७.६८१ ७२.७९३ ९१.०००
२००९ ५८.४३७ १४.५६९ ७७.८८८ ९३.०००
२०१० ६२.४८४ १८.७६० ८६.११३ ८९.०००
२०११ ६९.९४३ २३.१५० १०८.७०४ ९०.०००
२०१२ ७३.७२३ १६.९७८ १२१.२७१ ९४.०००
२०१३ ७७.८४९ २१.८६३ १४२.४३१ ९९.०००
२०१४ ८६.८३३ २२.०७४ १७२.३८४ १२८.०००
२०१५ ९३.५८० १२.1९३ १७४.४७२ ११८.०००
२०१६ ९१.१५४ २०.५३९ १९३.४६८ ११४.०००
२०१७ ९६.५७१ २५.४८९ २५0.३१२ १२४.०००
२०१८ ११०.३६० १६.५७१ २५८.८४८ १३१.०००
२०१९ १२५.८४३ ३९.२४० २८६.५५६ १४४,१०६
नवंबर २०१८ में, कंपनी ने अमेरिकी सैनिकों के साथ अमेरिकी सैनिकों के हथियार प्रदर्शनों की सूची में संवर्धित वास्तविकता (एआर) हेडसेट प्रौद्योगिकी लाने के लिए $ ४८० मिलियन का सैन्य अनुबंध जीता। बोली प्रक्रिया का वर्णन करने वाले दस्तावेज के अनुसार, दो साल के अनुबंध के परिणामस्वरूप १००,००० से अधिक हेडसेट्स के फॉलो-ऑन ऑर्डर हो सकते हैं। संवर्धित वास्तविकता प्रौद्योगिकी के लिए अनुबंध की टैग लाइनों में से एक "पहली लड़ाई से पहले २५ रक्तहीन लड़ाई" को सक्षम करने की अपनी क्षमता प्रतीत होती है, यह सुझाव देते हुए कि वास्तविक मुकाबला प्रशिक्षण संवर्धित वास्तविकता हेडसेट क्षमताओं का एक अनिवार्य पहलू होने जा रहा है। [१४०]
२५ अक्टूबर, २०१२ को अकिहबारा, टोक्यो में विंडोज ८ लॉन्च इवेंट
२००४ में, माइक्रोसॉफ्ट ने अनुसंधान फर्मों को लिनक्स पर विंडोज सर्वर २००३ के स्वामित्व (त्को) की कुल लागत की तुलना में स्वतंत्र अध्ययन करने के लिए कमीशन किया; फर्मों ने निष्कर्ष निकाला कि कंपनियों ने लिनक्स की तुलना में विंडोज को प्रशासित करना आसान पाया, इस प्रकार विंडोज का उपयोग करने वाले लोग अपनी कंपनी (यानी निचला टीसीओ) के लिए कम लागत के परिणामस्वरूप तेजी से प्रशासित करेंगे। [१४१] इससे संबंधित अध्ययनों की एक लहर चली; यांकी ग्रुप के एक अध्ययन के निष्कर्ष में कहा गया है कि विंडोज सर्वर के एक संस्करण से दूसरे में अपग्रेड करने से विंडोज सर्वर से लिनक्स पर स्विच करने की लागत का एक हिस्सा खर्च होता है, हालांकि सर्वेक्षण में कंपनियों ने लिनक्स सर्वरों की बढ़ती सुरक्षा और विश्वसनीयता पर ध्यान दिया और माइक्रोसॉफ्ट के उपयोग में बंद होने के बारे में चिंता व्यक्त की। उत्पादों। [१४२] ओपन सोर्स डेवलपमेंट लैब्स द्वारा जारी एक अन्य अध्ययन में दावा किया गया कि माइक्रोसॉफ्ट अध्ययन "बस आउटडेटेड और वन साइडेड" थे और उनके सर्वेक्षण ने निष्कर्ष निकाला कि लिनक्स के त्को लिनक्स प्रशासकों के औसत और अन्य कारणों से अधिक सर्वर का प्रबंधन करने के कारण कम था। [ १४३]
"तथ्यों को प्राप्त करें" अभियान के भाग के रूप में, माइक्रोसॉफ्ट ने .नेट फ्रेमवर्क ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म पर प्रकाश डाला, जो उसने लंदन स्टॉक एक्सचेंज के लिए एक्सेंचर की साझेदारी में विकसित किया था, यह दावा करते हुए कि उसने "पांच निंस" विश्वसनीयता प्रदान की है। विस्तारित डाउनटाइम और अविश्वसनीयता से पीड़ित होने के बाद [१४४] [१४५] लंदन स्टॉक एक्सचेंज ने २०० ९ में घोषणा की कि वह अपने माइक्रोसॉफ्ट समाधान को छोड़ने और २०१० में एक लिनक्स-आधारित स्विच करने की योजना बना रहा है। [१४६] [१४]]
२०१२ में, माइक्रोसॉफ्ट ने मार्क पेन नामक एक राजनीतिक पोलस्टर को काम पर रखा, जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने राजनीतिक विरोधियों [१४८] को कार्यकारी उपाध्यक्ष, विज्ञापन और रणनीति के रूप में "बुलडोज़र के लिए प्रसिद्ध" कहा। पेन ने माइक्रोसॉफ्ट के प्रमुख प्रतियोगियों में से एक, गूगल को लक्षित करते हुए कई नकारात्मक विज्ञापन बनाए। विज्ञापन, "
ले, गूगल के सशुल्क विज्ञापनदाताओं के पक्ष में धांधली करने वाले खोज परिणामों के साथ" पेंच "कर रहा है, जो ग्मेल अपने उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता का उल्लंघन करता है, ताकि उनके ईमेल और खरीदारी के परिणामों से संबंधित विज्ञापन परिणाम प्राप्त हो सकें गूगल उत्पाद। टेच्क्रंच जैसे तकनीकी प्रकाशन विज्ञापन अभियान के अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, [१४९] जबकि गूगल कर्मचारियों ने इसे अपनाया है। [१५०]
जुलाई २०१४ में, माइक्रोसॉफ्ट ने १८,००० कर्मचारियों को बंद करने की योजना की घोषणा की। माइक्रोसॉफ्ट ने ५ जून २०१४ तक १२७,१०४ लोगों को रोजगार दिया, जिससे इसके कार्यबल में लगभग १४ प्रतिशत की कमी आई, क्योंकि यह अब तक का सबसे बड़ा माइक्रोसॉफ्ट था। इसमें १२,५00 पेशेवर और कारखाने के कर्मचारी शामिल थे। इससे पहले, माइक्रोसॉफ्ट ने २००८२०१७ के महान मंदी के अनुरूप २००९ में ५,८०० नौकरियों को समाप्त कर दिया था। [१५१] [१५२] सितंबर २०१४ में, माइक्रोसॉफ्ट ने सिएटल-रेडमंड क्षेत्र में ७४७ लोगों सहित २,१०० लोगों को रखा, जहां कंपनी का मुख्यालय है। पहले की घोषणा की गई छंटनी की दूसरी लहर के रूप में फायरिंग आई। इसने १८,००० अपेक्षित कटौती में से १५,००० को कुल संख्या में लाया। [१५3] अक्टूबर २०१४ में, माइक्रोसॉफ्ट ने बताया कि यह लगभग १८,००० कर्मचारियों को खत्म करने के साथ किया गया था, जो इसकी सबसे बड़ी छंटनी थी। [१५4] जुलाई २0१५ में, माइक्रोसॉफ्ट ने अगले कई महीनों में ७,८०० नौकरियों में कटौती की घोषणा की। [१५५] मई २0१6 में, माइक्रोसॉफ्ट ने (नोकिया) मोबाइल फोन डिवीजन में १,8५0 नौकरियों में कटौती की घोषणा की। नतीजतन, कंपनी लगभग $ 9५0 मिलियन के एक हानि और पुनर्गठन शुल्क को रिकॉर्ड करेगी, जिसमें से लगभग $ २00 मिलियन विच्छेद भुगतान से संबंधित होंगे। [१५6]
संयुक्त राज्य सरकार
माइक्रोसॉफ्ट फिक्स के सार्वजनिक रिलीज़ से पहले संयुक्त राज्य सरकार की खुफिया एजेंसियों को अपने सॉफ़्टवेयर में सूचना दी बग के बारे में जानकारी प्रदान करता है। माइक्रोसॉफ्ट के एक प्रवक्ता ने कहा है कि निगम कई कार्यक्रम चलाता है जो अमेरिकी सरकार के साथ ऐसी जानकारी साझा करने की सुविधा प्रदान करते हैं। [१५७] मई २०१३ में, प्रिज्म, नसा के विशाल इलेक्ट्रॉनिक निगरानी कार्यक्रम के बारे में मीडिया रिपोर्टों के बाद, कई प्रौद्योगिकी कंपनियों को प्रतिभागियों के रूप में पहचाना गया, जिसमें माइक्रोसॉफ्ट भी शामिल था। [१५८] उक्त कार्यक्रम के लीक के अनुसार, माइक्रोसॉफ्ट २००७ में प्रिज्म कार्यक्रम में शामिल हुआ। [१५९] हालाँकि, जून २०१३ में, माइक्रोसॉफ्ट के एक आधिकारिक बयान ने कार्यक्रम में उनकी भागीदारी से इनकार कर दिया:
"हम ग्राहक डेटा केवल तभी प्रदान करते हैं जब हम ऐसा करने के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी आदेश या उप-प्राप्त करते हैं, और स्वैच्छिक आधार पर कभी नहीं। इसके अलावा हम कभी भी केवल विशिष्ट खातों या पहचानकर्ताओं के बारे में आदेशों का पालन करते हैं। यदि सरकार के पास व्यापक स्वैच्छिक राष्ट्रीय है। ग्राहक डेटा इकट्ठा करने के लिए सुरक्षा कार्यक्रम, हम इसमें भाग नहीं लेते हैं। "[१६०]
२०१३ में पहले छह महीनों के दौरान, माइक्रोसॉफ्ट को १५,००० और १५,९९९ खातों के बीच प्रभावित होने वाले अनुरोध मिले थे। [१६१] दिसंबर २०१३ में, कंपनी ने इस तथ्य को और अधिक बल देने के लिए बयान दिया कि वे अपने ग्राहकों की गोपनीयता और डेटा सुरक्षा को बहुत गंभीरता से लेते हैं, यहां तक कि यह भी कहते हैं कि "सरकारी स्नूपिंग संभावित रूप से" उन्नत लगातार खतरा है, "परिष्कृत मैलवेयर और साइबर हमलों के साथ"। [१६२] वक्तव्य ने माइक्रोसॉफ्ट के एन्क्रिप्शन और पारदर्शिता प्रयासों को बढ़ाने के लिए तीन-भाग कार्यक्रम की शुरुआत को भी चिह्नित किया। १ जुलाई 20१4 को, इस कार्यक्रम के एक भाग के रूप में उन्होंने (बहुत से) माइक्रोसॉफ्ट ट्रांसपेरेंसी सेंटर खोले, जो "हमारे प्रमुख उत्पादों के लिए स्रोत कोड की समीक्षा करने की क्षमता के साथ भाग लेने वाली सरकारें प्रदान करता है, अपने सॉफ़्टवेयर अखंडता का आश्वासन देता है, और वहां पुष्टि करता है। कोई "बैक डोर" नहीं हैं। [१६३] माइक्रोसॉफ्ट ने यह भी तर्क दिया है कि उपभोक्ता डेटा की सुरक्षा के लिए संयुक्त राज्य कांग्रेस को मजबूत गोपनीयता नियम बनाने चाहिए। [१६४]
अप्रैल २०१६ में, कंपनी ने अमेरिकी सरकार पर मुकदमा दायर किया, यह तर्क देते हुए कि गोपनीयता आदेश कंपनी को ग्राहकों और कंपनी के अधिकारों के उल्लंघन में वारंट का खुलासा करने से रोक रहे थे। माइक्रोसॉफ्ट ने तर्क दिया कि माइक्रोसॉफ्ट द्वारा उपयोगकर्ताओं को यह सूचित करने से रोकना कि सरकार उनके ईमेल और अन्य दस्तावेजों का अनुरोध करने के लिए अनिश्चित काल के लिए असंवैधानिक थी, और चौथा संशोधन ने इसे बना दिया ताकि लोगों को या व्यवसायों को यह जानने का अधिकार था कि क्या सरकार खोजती है या जब्त करती है उनकी संपत्ति। २३ अक्टूबर, २०१७ को, माइक्रोसॉफ्ट ने कहा कि यह यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस (दोज) द्वारा एक नीति परिवर्तन के परिणामस्वरूप मुकदमा छोड़ देगा। दोज ने "इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को उनकी जानकारी तक पहुंचने वाली एजेंसियों के बारे में सचेत करने के लिए डेटा अनुरोध नियमों को बदल दिया था।"
डेवलपर्स के लिए तकनीकी संदर्भ और विभिन्न माइक्रोसॉफ्ट पत्रिकाओं जैसे माइक्रोसॉफ्ट सिस्टम्स जर्नल (म्स्ज) के लिए तकनीकी संदर्भ माइक्रोसॉफ्ट डेवलपर नेटवर्क (म्सन) के माध्यम से उपलब्ध हैं। म्सन भी कंपनियों और व्यक्तियों के लिए सदस्यता प्रदान करता है, और अधिक महंगी सदस्यता आमतौर पर माइक्रोसॉफ्ट सॉफ़्टवेयर के पूर्व-रिलीज़ बीटा संस्करणों तक पहुँच प्रदान करती है। [१६५] [१६६] अप्रैल २००४ में माइक्रोसॉफ्ट ने लॉन्च किया
उपयोगकर्ताओं के लिए एक सामुदायिक साइट, जिसका शीर्षक चैनल ९ है, जो विकि और इंटरनेट मंच प्रदान करता है। [१६]] ३ मार्च २००६ को लॉन्च की गई एक और सामुदायिक साइट, जो दैनिक वीडियोज़ और अन्य सेवाएं प्रदान करती है, ऑन१०.नेट। [१६८] नि: शुल्क तकनीकी सहायता पारंपरिक रूप से ऑनलाइन यूज़नेट न्यूज़ग्रुप्स के माध्यम से प्रदान की जाती है, और अतीत में कंपूवेर, माइक्रोसॉफ्ट कर्मचारियों द्वारा निगरानी की जाती है; किसी एकल उत्पाद के लिए कई समाचार समूह हो सकते हैं। माइक्रोसॉफ्ट सर्वाधिक मूल्यवान व्यावसायिक (मैप) स्थिति के लिए सहकर्मी या माइक्रोसॉफ्ट कर्मचारियों द्वारा मददगार लोगों का चुनाव किया जा सकता है, जो उन्हें पुरस्कार और अन्य लाभों के लिए विशेष सामाजिक स्थिति और संभावनाओं के एक प्रकार की ओर आकर्षित करता है। [१६ ९]
इसकी आंतरिक व्याख्या के लिए, अभिव्यक्ति "अपने कुत्ते के भोजन को खाने" का उपयोग माइक्रोसॉफ्ट के अंदर उत्पादों के पूर्व-रिलीज़ और बीटा संस्करणों का उपयोग करने की नीति का वर्णन करने के लिए किया जाता है, ताकि वे "वास्तविक दुनिया" स्थितियों में परीक्षण कर सकें। [१७०] यह आमतौर पर सिर्फ "कुत्ते के भोजन" के लिए छोटा किया जाता है और इसे संज्ञा, क्रिया और विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता है। शब्दजाल, फ्यिफ्व या फ्याँव ("भाड़ में जाओ तुम, मैं [पूरी तरह से] निहित हूं") का एक और प्रयोग, एक कर्मचारी द्वारा यह इंगित करने के लिए किया जाता है कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और वे जब चाहें काम से बच सकते हैं। [१७१] कंपनी को अपनी भर्ती प्रक्रिया के लिए भी जाना जाता है, अन्य संगठनों में नकल की और "माइक्रोसॉफ्ट साक्षात्कार" को डब किया, जो ऑफ-द-वॉल सवालों के लिए कुख्यात है जैसे "मैनहोल कवर राउंड क्यों?" [१७२]
माइक्रोसॉफ्ट ह-१ब वीजा पर टोपी का एक मुखर प्रतिद्वंद्वी है, जो अमेरिकी कंपनियों को कुछ विदेशी श्रमिकों को रोजगार देने की अनुमति देता है। बिल गेट्स का दावा है कि ह१ब वीज़ा पर कैप को कंपनी के लिए कर्मचारियों को नियुक्त करना मुश्किल हो जाता है, २००५ में "मुझे निश्चित रूप से ह१ब कैप से छुटकारा मिलेगा"। [१73] एच १ बी वीजा के आलोचकों का तर्क है कि सीमा को कम करने से एच १ बी श्रमिकों के कम वेतन पर काम करने के कारण अमेरिकी नागरिकों के लिए बेरोजगारी बढ़ जाएगी। [१74] ह्यूमन राइट्स कैम्पेन कॉर्पोरेट इक्वैलिटी इंडेक्स, एलजीबीटी कर्मचारियों के प्रति कंपनी की नीतियों को कितना प्रगतिशील बताता है, की एक रिपोर्ट ने २००२ से २००४ तक माइक्रोसॉफ्ट को ८७% और २००५ से 20१0 तक १00% रेटिंग दी, जब उन्होंने लिंग अभिव्यक्ति की अनुमति दी। [१75]
अगस्त २०१८ में, माइक्रोसॉफ्ट ने सभी कंपनियों के लिए एक नीति लागू की, जो प्रत्येक कर्मचारी को १२ सप्ताह का भुगतान माता-पिता की छुट्टी के लिए आवश्यक थी। यह २०१५ से पूर्व आवश्यकता पर विस्तार करता है और प्रत्येक वर्ष १५ दिनों के भुगतान की छुट्टी और बीमार अवकाश की आवश्यकता होती है। [१७६] २०१५ में, माइक्रोसॉफ्ट ने जन्म देने वाले माता-पिता के लिए अतिरिक्त ८ सप्ताह के साथ माता-पिता की छुट्टी के लिए १२ सप्ताह की छूट देने के लिए अपनी स्वयं की अभिभावकीय अवकाश नीति की स्थापना की। [१७७]
२०११ में, ग्रीनपीस ने अपने डेटा केंद्रों के लिए बिजली के स्रोतों पर क्लाउड कंप्यूटिंग में शीर्ष दस बड़े ब्रांडों की एक रिपोर्ट जारी की। उस समय, डेटा केंद्र सभी वैश्विक बिजली का २% तक उपभोग करते थे और इस राशि को बढ़ाने का अनुमान था। ग्रीनपीस के फिल रेडफोर्ड ने कहा, "हम चिंतित हैं कि बिजली के उपयोग में यह नया विस्फोट हमें आज उपलब्ध स्वच्छ ऊर्जा के बजाय पुराने, प्रदूषणकारी ऊर्जा स्रोतों में बंद कर सकता है," [१७८] और "अमेज़ॅन, माइक्रोसॉफ्ट और सूचना के अन्य नेताओं को बुलाया। -टेक्नॉलॉजी उद्योग को अपने क्लाउड-आधारित डेटा केंद्रों को बिजली देने के लिए स्वच्छ ऊर्जा को ग्रहण करना चाहिए। "[१७९] २013 में, माइक्रोसॉफ्ट ने अपने एक डेटा सेंटर को पावर देने के लिए एक टेक्सास विंड प्रोजेक्ट द्वारा उत्पादित बिजली खरीदने पर सहमति व्यक्त की। [१८०] ग्रीनपीस की गाइड टू ग्रीनर इलेक्ट्रॉनिक्स (१६ वें संस्करण) में माइक्रोसॉफ्ट को १७ वें स्थान पर रखा गया है, जो विषाक्त रसायनों, रीसाइक्लिंग और जलवायु परिवर्तन पर अपनी नीतियों के अनुसार १८ इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माताओं को रैंक करता है। [१८1] सभी उत्पादों में ब्रोमिनेटेड फ्लेम रिटार्डेंट (बीएफआर) और फोथलेट्स को चरणबद्ध करने के लिए माइक्रोसॉफ्ट की समयरेखा २01२ है लेकिन पीवीसी को चरणबद्ध करने के लिए इसकी प्रतिबद्धता स्पष्ट नहीं है। जनवरी २०११ तक, इसमें ऐसे उत्पाद नहीं हैं जो पीवीसी और बीएफआर से पूरी तरह मुक्त हैं। [१८२]
२००८ में माइक्रोसॉफ्ट के मुख्य यूएस कैंपस को लीडरशिप इन एनर्जी एंड एनवायर्नमेंटल डिज़ाइन (लीड़) प्रोग्राम से सिल्वर सर्टिफिकेशन मिला, और इसकी सिलिकॉन वैली कैंपस में इसकी बिल्डिंगों के ऊपर २,००० से अधिक सोलर पैनल लगे, जिससे कुल ऊर्जा का लगभग १५ प्रतिशत उत्पन्न हुआ। अप्रैल २005 में सुविधाओं के अनुसार। [१८३] माइक्रोसॉफ्ट पारगमन के वैकल्पिक रूपों का उपयोग करता है। इसने दुनिया के सबसे बड़े निजी बस सिस्टम में से एक, "कनेक्टर" को कंपनी के बाहर से लोगों को लाने के लिए बनाया; ऑन-कैंपस परिवहन के लिए, "शटल कनेक्ट" ईंधन बचाने के लिए हाइब्रिड कारों के एक बड़े बेड़े का उपयोग करता है। कंपनी साउंड ट्रांजिट और किंग काउंटी मेट्रो द्वारा प्रोत्साहन के रूप में प्रदान किए गए क्षेत्रीय सार्वजनिक परिवहन को भी सब्सिडी देती है। [१३३] [१इज्स३] हालांकि फरवरी २0१0 में, माइक्रोसॉफ्ट ने स्टेट रूट 5२0 के लिए अतिरिक्त सार्वजनिक परिवहन और उच्च-अधिभोग वाहन (होव) लेन को जोड़ने के खिलाफ एक कदम उठाया और इसका फ्लोटिंग ब्रिज रेडमंड को सिएटल से जोड़ता है; कंपनी निर्माण में और देरी नहीं करना चाहती थी। [१ तो५] २0११ में ग्रेट प्लेस टू वर्क इंस्टीट्यूट द्वारा विश्व के सर्वश्रेष्ठ बहुराष्ट्रीय कार्यस्थलों की सूची में माइक्रोसॉफ्ट को नंबर १ स्थान दिया गया था। [१८३]
माइक्रोसॉफ्ट रेडमंड परिसर का पश्चिम परिसर
कॉर्पोरेट मुख्यालय, जिसे अनौपचारिक रूप से माइक्रोसॉफ्ट रेडमो के रूप में जाना जाता है
टन में वन माइक्रोसॉफ्ट वे पर स्थित है। माइक्रोसॉफ्ट शुरू में २६ फरवरी, १९८६ को परिसर के मैदान में चला गया था। कंपनी १३ मार्च को सार्वजनिक हुई थी। मुख्यालय की स्थापना के बाद से कई विस्तार हुए हैं। यह अनुमानित रूप से ८ मिलियन फ्ट२ (७५०,००० म२) कार्यालय स्थान और ३०,०००-४०,००० कर्मचारियों से अधिक है। [1८7] अतिरिक्त कार्यालय बेलव्यू और इस्साक्वा, वाशिंगटन (दुनिया भर में ९०,००० कर्मचारी) में स्थित हैं। कंपनी अपने माउंटेन व्यू, कैलिफोर्निया, कैंपस को भव्य पैमाने पर अपग्रेड करने की योजना बना रही है। कंपनी ने 19८1 से इस परिसर पर कब्जा कर रखा है। २016 में, कंपनी ने 3२-एकड़ परिसर खरीदा, जिसमें २5% की मरम्मत और विस्तार करने की योजना थी। [1८८] माइक्रोसॉफ्ट शार्लोट, उत्तरी कैरोलिना में एक पूर्वी तट मुख्यालय का संचालन करता है। [१ हेडक्वार्टर्स ९]
माइक्रोसॉफ्ट के टोरंटो फ्लैगशिप स्टोर
२६ अक्टूबर २०१५ को, कंपनी ने न्यूयॉर्क शहर में फिफ्थ एवेन्यू पर अपना खुदरा स्थान खोला। स्थान में पांच मंजिला ग्लास स्टोरफ्रंट है और यह २२,२७० वर्ग फुट है। [१९०] कंपनी के अधिकारियों के अनुसार, माइक्रोसॉफ्ट २००९ से एक प्रमुख स्थान की तलाश में था। [१९१] कंपनी के खुदरा स्थान अपने उपभोक्ताओं के साथ संबंध बनाने में मदद करने के लिए एक बड़ी रणनीति का हिस्सा हैं। स्टोर की शुरुआत सरफेस बुक और सरफेस प्रो ४ के लॉन्च के साथ हुई। [१९२] १२ नवंबर, २०१५ को माइक्रोसॉफ्ट ने सिडनी के पिट स्ट्रीट मॉल में स्थित एक दूसरा प्रमुख स्टोर खोला। [१९३]
माइक्रोसॉफ्ट ने १९८७ में स्कॉट बेकर द्वारा डिजाइन किए गए तथाकथित "पीएसी-मैन लोगो" को अपनाया। बेकर ने कहा "हेल्वेटिका इटैलिक टाइपफेस में नया लोगो, ओ और एस के बीच एक स्लैश है जो" नरम "भाग पर जोर देता है।" नाम और संदेश गति और गति। "[१ ९ ४] डेव नॉरिस ने पुराने लोगो को बचाने के लिए एक आंतरिक मजाक अभियान चलाया, जो हरे रंग में था, सभी अपरकेस में, और एक काल्पनिक पत्र ओ को चित्रित किया, जिसमें ब्लिबेट का उपनाम दिया गया था, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया था। [१ ९ ५ ९] ] टैगलाइन के साथ माइक्रोसॉफ्ट का लोगो "आपकी क्षमता। हमारा जुनून।" - मुख्य कॉर्पोरेट नाम के नीचे - २००८ में उपयोग किए गए एक नारा माइक्रोसॉफ्ट पर आधारित है। २००२ में, कंपनी ने संयुक्त राज्य में लोगो का उपयोग करना शुरू कर दिया और आखिरकार नारा के साथ एक टेलीविजन अभियान शुरू किया, जो "आप कहाँ हैं" की पिछली टैगलाइन से बदल गया है आज जाना चाहते हैं? "[१ ९ ६] [१ ९ १९] [१ ९ थे] २०१० में निजी एमजीएक्स (माइक्रोसॉफ्ट ग्लोबल एक्सचेंज) सम्मेलन के दौरान, माइक्रोसॉफ्ट ने कंपनी की अगली टैगलाइन" बी वॉट्स नेक्स्ट "का अनावरण किया। [१ ९९] उन्होंने एक नारा भी दिया था / टैगलाइन "यह सब समझ में आता है।" [२००]
२३ अगस्त २०१२ को, माइक्रोसॉफ्ट ने बोस्टन में अपने २३ वें माइक्रोसॉफ्ट स्टोर के उद्घाटन पर एक नए कॉर्पोरेट लोगो का अनावरण किया, जो कंपनी की क्लासिक शैली से टाइल-केंद्रित आधुनिक इंटरफ़ेस पर ध्यान केंद्रित करने का संकेत देता है, जिसका उपयोग विंडोज पर करता है / उपयोग करेगा फ़ोन प्लेटफ़ॉर्म, ज़्बॉक्स ३६०, विंडोज ८ और आगामी कार्यालय सूट [२०१] नए लोगो में तत्कालीन वर्तमान विंडोज लोगो के रंगों के साथ चार वर्ग भी शामिल हैं जिनका उपयोग माइक्रोसॉफ्ट के चार प्रमुख उत्पादों: विंडोज (नीला), कार्यालय (लाल), ज़्बॉक्स (हरा) और बिंग (पीला) का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया गया है। [२०२] ] लोगो विंडोज़ ९५ के विज्ञापनों में से एक के उद्घाटन से मिलता जुलता है। [२०३] [२०४]
१९७५-१९८०: १९७५ में पहला माइक्रोसॉफ्ट लोगो
१९८०-१९८२: १९८० में दूसरा माइक्रोसॉफ्ट लोगो
१९८२-१९८७: १९८२ में तीसरा माइक्रोसॉफ्ट लोगो
१९८७२०१२: माइक्रोसॉफ्ट "पीएसी-मैन" लोगो, जिसे स्कॉट बेकर द्वारा डिज़ाइन किया गया था और १९८७ से २०१२ [१९६] [१९७] तक उपयोग किया गया था
२०१२-वर्तमान: पाँचवाँ माइक्रोसॉफ्ट लोगो, २३ अगस्त २०१२ को पेश किया गया [२०५]
कंपनी यूरोस्केट २०१५ में फिनलैंड की राष्ट्रीय बास्केटबॉल टीम की आधिकारिक जर्सी प्रायोजक थी। [२०६
उत्पाद और सेवाएँ
डॉस (डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम)
विंडोज १ (१.०१, १.०२, १.०३, १.०४)
विंडोज २ (२.०३, २.१०, २.११)
विंडोज ३ (३.०, ३.१, एन टी ३.१, ३.२, एन टी ३.५, एन टी ३.५१)
विंडोस ९५ (९५ प्लस, ९५ एस पी १, ९५ ओ एस आर १/२/२.१/२.५)
विंडोज एन टी ४.०
विंडोज एम् इ
विंडोज २००० (प्रोफेशनल, सर्वर, एडवांस सर्वर, डाटासेंटर सर्वर)
विंडोज एक्स पी (स्टार्टर, होम, प्रोफेशनल)
विंडोज सर्वर २००३ (स्टार्टर, वेब, इंटरप्राइस, डाटासेंटर)
विंडोस विस्ता (स्टार्टर, होम, बिजनस, इंटरप्राइस, अल्टीमेट)
विंडोज सर्वर २००८ (वेब, स्टैण्डर्ड, इंटरप्राइस, डाटासेंटर)
माइक्रोसॉफ्ट विजुअल स्टूडियो |
कोफ़ी अन्नान(जन्म: ८ अप्रैल १93८ - निधन: १८ अगस्त 20१८) मूलरूप से घाना के रहने वाले थे । वे विश्व के प्रमुख राजनेताओं में से एक थे । उन्होंने अफ्रीका के विभिन्न देशों में सीमाई विवादों को हल करने में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई । वे १९६२ से १९७४ तक और १९७४ से २००६ तक संयुक्त राष्ट्र में । वे १ जनवरी १997 से 3१ दिसम्बर २००६ तक दो कार्यकालों के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव रहे। उन्हें संयुक्त राष्ट्र के साथ 200१ में नोबेल शांति पुरस्कार से सह-पुरस्कृत किया गया। लंबी बीमारी के चलते अन्नान का १८ अगस्त 20१८ को निधन हो गया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
कोफ़ी अन्नान का जन्म ८ अप्रैल 193८ को गोल्ड कोस्ट (वर्तमान देश घाना) के कुमसी नामक शहर में हुआ। १९५४ से १९५७ तक कोफ़ी अन्नान ने मफिन्तिस्म स्कूल में शिक्षा ली। अन्नान १९५७ में फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन की दी छात्रावृत्ति पर अमेरिका गए। वहाँ 195८ से १९६१ तक उन्होंने मिनेसोटा राज्य के सन्त पौल शहर में मैकैलेस्टर कॉलेज में अर्थशास्त्र की पढ़ाई की और १९६१ में उन्हें स्नातक की डिग्री मिली। १९६१ में अन्नान ने "अंतरराष्ट्रीय संबंध" में जिनेवा के ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनैशनल स्टडीज़ से डी॰ई॰ए की डिग्री की। उन्होंने १९७१ से जून १९७२ में ऐल्फ़्रॅड स्लोअन फ़ॅलो के तौर पर एम॰आई॰टी से मैनेजमेंट में एम॰एस की डिग्री प्राप्त की। अन्नान अंग्रेजी, फ्रेंच, क्रू, अकान की अन्य बोलियों और अन्य अफ़्रीकी भाषाओं में धाराप्रवाह है।
१९६२ में कोफ़ी अन्नान ने संयुक्त राष्ट्र की संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए एक बजट अधिकारी के रूप में काम शुरू कर दिया। वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ १९६५ तक रहे। १९६५ से १९७२ तक उन्होंने इथियोपिया की राजधानी अद्दीस अबाबा में संयुक्त राष्ट्र की इकॉनोमिक कमिशन फ़ॉर ऐफ़्रिका के लिये काम किया। वो अगस्त १९७२ से मई १९७४ तक जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र के लिये प्रशासनिक प्रबंधन अधिकारी के तौर पर रहे। १९७३ की अरब-इज़राइली जंग के बाद मई १९७४ से नवंबर १९७४ तक वो मिस्र में शांति अभियान में संयुक्त राष्ट्र द्वारा कार्यरत असैनिक कर्मचारियों के मुख्य अधिकारी (चीफ़ पर्सौनेल ऑफ़िसर) के पद पर कार्यरत रहे। उसके बाद उन्होंने संयुक्त राष्ट्र छोड़ दिया और घाना लौट गए। १९७४ से १९७६ तक वह घाना में पर्यटन के निदेशक के रूप में रहे।
१९७६ में वे संयुक्त राष्ट्र में कार्य करने हेतु जिनेवा लौट गए। १९८० में वे संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायोग के उप-निदेशक नियुक्त हुए। १९८४ में वह संयुक्त राष्ट्र के बजट विभाग के अध्यक्ष के रूप में न्यू यॉर्क वापिस आए। १९८७ में उन्हें संयुक्त राष्ट्र के मानव संसाधन विभाग और १९९० में बजट एवं योजना विभाग का सहायक महासचिव नियुक्त किया गया। मार्च १९९२ से फ़रवरी १९९३ तक वे शांति अभियानों के सहायक महासचिव रहे। मार्च १९९३ में उन्हें संयुक्त राष्ट्र का अवर महासचिव नियुक्त किया गया और वे दिसम्बर १९९६ तक इस पद पर कार्यरत रहे।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव
अन्नान १ जनवरी १997 से 3१ दिसम्बर २००६ तक संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रहे। 200१ में उन्हें और संयुक्त राष्ट्र को नोबेल शांति पुरस्कार से सह-पुरस्कृत किया गया।
१३ दिसम्बर १९९६ में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अन्नान की सिफ़ारिश की ताकि वह पूर्व महासचिव डॉ॰ बोत्रुस बोत्रुस घली की जगह ले सकें। डॉ॰ घली के दूसरे कार्यकाल को अमेरिका के वीटो का सामना करना पड़ा था। चार दिन बाद महासभा के चुनाव से उन्होंने अपना पहला कार्यकाल १ जनवरी १997 से प्रारंभ किया।
उन्होंने १९९७ में संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न संगठनों में सामंजस्य बढ़ाने के लिये संयुक्त राष्ट्र विकास समूह की स्थापना की।
उनके कार्यकाल में सन् २००० में संयुक्त राष्ट्र ने सहस्राब्दी विकास लक्ष्य अपनाए, जिसके तहत २०१५ तक विश्व में गरीबी को आधा करने का संकल्प लिया गया।
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में प्रशासनिक एवं वित्तीय सुधार किये जिसमें सचिवालय का बड़ा प्रशासनिक पुनर्गठन भी शामिल था।
उनका विवाह तिती से हुआ था और उनकी बेटी आमा का जन्म नवंबर १९६९ में नाइजीरिया के लागोस शहर में हुआ। जुलाई १९७३ में उनके पुत्र कोजो का जन्म हुआ।
कोफ़ी अन्नान की जीवनी - संयुक्त राष्ट्र (अंग्रेज़ी में)
कोफ़ी अन्नान की जीवनी - नोबेल पुरस्कार की औपचारिक वेबसाइट (अंग्रेज़ी में)
घाना के लोग
संयुक्त राष्ट्र महासचिव
१९३८ में जन्मे लोग
नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
२०१८ में निधन |
संयुक्त राष्ट्र एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है, संक्षिप्त रूप से इसे कई समाचार पत्र संरा भी लिखते हैं। जिसके उद्देश्य में उल्लेख है कि यह अन्तर्राष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने के सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शान्ति के लिए कार्यरत है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर ५० देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य में फिर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, फ़्रांस, रूस और यूनाइटेड किंगडम) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत बहुत राष्ट्र थे।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में १९५ राष्ट्र हैं, विश्व के लगभग सारे अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त राष्ट्र शामिल हैं। इस संस्था की संरचना में महासभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद, सचिवालय, अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय और संयुक्त राष्ट्र न्यास परिषद सम्मिलित है।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद १९२९ में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था। राष्ट्र संघ बहुत हद तक प्रभावहीन था और संयुक्त राष्ट्र का उसकी जगह होने का यह बहुत बड़ा लाभ है कि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों की सेनाओं को शान्ति संभालने के लिए तैनात कर सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के बारे में विचार पहली बार द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उभरे थे। द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी होने वाले देशों ने मिलकर प्रयास किया कि वे इस संस्था की संरचना, सदस्यता आदि के बारे में कुछ निर्णय कर पायें।
२४ अप्रैल १९४५ को, द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद, अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुई और यहाँ सारे ४० उपस्थित देशों ने संयुक्त राष्ट्र संविधा पर हस्ताक्षर किया। पोलैण्ड इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं था, पर उसके हस्ताक्षर के लिए विशेष स्थान रखा गया था और बाद में पोलैण्ड ने भी हस्ताक्षर कर दिया। सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी देशों के हस्ताक्षर के बाद संयुक्त राष्ट्र अस्तित्व में आया।
२००६ तक संयुक्त राष्ट्र में १९२ सदस्य देश है। विश्व के लगभग सभी मान्यता प्राप्त देश सदस्य है। कुछ विषेश उपवाद तइवान (जिसका स्थान चीन को १९७१ में दे दिया गया था), वैटिकन, फ़िलिस्तीन (जिसको पर्यवेक्षक का स्थान प्राप्त है) , तथा और कुछ देश। सबसे नए सदस्य देश है दक्षिणी सूडान, जिसको ११ जुलाई, 20११ को सदस्य बनाया गया।
संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क नगर में पचासी लाख डॉलर में खरीदी गयी भूसंपत्ति पर स्थापित है। इस इमारत की स्थापना का प्रबन्ध एक अन्तरराष्ट्रीय शिल्पकारों के समूह द्वारा हुआ। इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएँ जिनेवा, कोपनहेगन आदि में भी है।
यह संस्थाएँ संयुक्त राष्ट्र से स्वतन्त्र तो नहीं हैं, परन्तु उनको बहुत हद तक स्वतन्त्रताएँ दी गयी हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने ६ भाषाओं को "राजभाषा" के तौर पर स्वीकृत किया है (अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ़्रांसीसी, रूसी और स्पेनी), परन्तु इन में से केवल दो भाषाओं को संचालन भाषा माना जाता है (अंग्रेजी और फ़्रांसीसी)।
स्थापना के समय, केवल चार राजभाषाएँ स्वीकृत की गई थी (चीनी, अंग्रेजी, फ़्रांसीसी, रूसी) और १९७३ में अरबी और स्पेनी को भी सम्मिलित किया गया। इन भाषाओं के बारे में विवाद उठता रहता है। कुछ लोगों का मानना है कि राजभाषाओं की संख्या ६ से घटा कर १ (अंग्रेजी) कर देनी चाहिए, परन्तु इसके विरोधी मानते है कि राजभाषाओं को बढ़ाना चाहिए। इन लोगों में से कई का मानना है कि हिन्दी को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाया जाना चाहिये।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अंग्रेजी के स्थान पर ब्रिटिश अंग्रेजी का प्रयोग करता है। १९७१ तक चीनी भाषा के परम्परागत अक्षर का प्रयोग चलता था क्योंकि तब तक संयुक्त राष्ट्र ताइवान के सरकार को चीन का अधिकारी सरकार माना जाता था। जब ताइवान की जगह आज के चीनी सरकार को स्वीकृत किया गया, संयुक्त राष्ट्र ने सरलीकृत अक्षर के प्रयोग का प्रारम्भ किया।
संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी
संयुक्त राष्ट्र में किसी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए कोई विशिष्ट मापदण्ड नहीं है। किसी भाषा को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने की प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र महासभा में साधारण बहुमत द्वारा एक संकल्प को स्वीकार करना और संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्यता के दो तिहाई बहुमत द्वारा उसे अन्तिम रूप से पारित करना होता है।
भारत बहुत लम्बे समय से यह प्रयास कर रहा है कि हिन्दी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया जाए। भारत का यह दावा इस आधार पर है कि हिन्दी, विश्व में बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और विश्व भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है। भारत का यह दावा आज इसलिए और अधिक मजबूत हो जाता है क्योंकि आज का भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने के साथ-साथ चुनिन्दा आर्थिक शक्तियों में भी शामिल हो चुका है।
२०१५ में भोपाल में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के एक सत्र का शीर्षक विदेशी नीतियों में हिन्दी पर समर्पित था, जिसमें हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में से एक के तौर पर पहचान दिलाने की सिफारिश की गई थी। हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के लिए फरवरी २००८ में मॉरिसस में भी विश्व हिन्दी सचिवालय खोला गया था।
संयुक्त राष्ट्र अपने कार्यक्रमों का संयुक्त राष्ट्र रेडियो वेबसाईट पर हिन्दी भाषा में भी प्रसारण करता है। कई अवसरों पर भारतीय नेताओं ने संरा में हिन्दी में वक्तव्य दिए हैं जिनमें १९७७ में अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दी में भाषण, सितम्बर २०१४ में ६९वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का वक्तव्य, सितम्बर २०१५ में संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन में उनका सम्बोधन, अक्तूबर, २०१५ में विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज द्वारा ७०वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधन और सितम्बर, २०१६ में ७१वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को विदेश मन्त्री द्वारा सम्बोधन शामिल है।
संयुक्त राष्ट्र के मुख्य उद्देश्य हैं: युद्ध रोकना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, अन्तरराष्ट्रीय कानूनी प्रक्रिया , सामाजिक और आर्थिक विकास उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों की मुक्ति हेतु इलाज, सदस्य राष्ट्र को अन्तरराष्ट्रीय चिन्ताएँ स्मरण कराना और अन्तरराष्ट्रीय मामलों को संभालने का मौका देना है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए १९४८ में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के जातिसंहार के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा था। ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकना अहम समझकर, १९४८ में सामान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत किया। यह अबन्धनकारी घोषणा पूरे विश्व के लिए एक समान दर्जा स्थापित करती है, जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ समर्थन करने का प्रयास करेगी।
१५ मार्च २००६ को, समान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की।
आज मानव अधिकारों के सम्बन्ध में सात संघ निकाय स्थापित है। यह सात निकाय हैं:
मानव अधिकार संसद
आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संसद
जातीय भेदबाव निष्कासन संसद
नारी विरुद्ध भेदभाव निष्कासन संसद
यातना विरुद्ध संसद
बच्चों के अधिकारों का संसद
प्रवासी कर्मचारी संसद
संयुक्त राष्ट्र महिला (यूएन वूमेन)
विश्व में महिलाओं के समानता के मुद्दे को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विश्व निकाय के भीतर एकल एजेंसी के रूप में संयुक्त राष्ट्र महिला के गठन को ४ जुलाई २०१० को स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। वास्तविक तौर पर १ जनवरी 20११ को इसकी स्थापना की गयी। इसका मुख्यालय अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बनाया गया है। यूएन वूमेन की वर्तमान प्रमुख चिली की पूर्व प्रधानमन्त्री सुश्री मिशेल बैशलैट हैं। संस्था का प्रमुख कार्य महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को दूर करने तथा उनके सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास करना होगा। उल्लेखनीय है कि १953 में ८वें संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भारत की विजयलक्ष्मी पण्डित को प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र के ४ संगठनों का विलय करके नई इकाई को संयुक्त राष्ट्र महिला नाम दिया गया है। ये संगठन निम्नवत हैं:
संयुक्त राष्ट्र महिला विकास कोष १९७६
महिला संवर्धन प्रभाग १९४६
लिंगाधारित मुद्दे पर विशेष सलाहकार कार्यालय १९९७
महिला संवर्धन हेतु संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय शोध और प्रशिक्षण संस्थान १९७६
संयुक्त राष्ट्र के शांन्तिरक्षक वहाँ भेजे जाते हैं जहाँ हिंसा कुछ देर पहले से बन्द है ताकि वह शान्ति संघ की शर्तों को लगू रखें और हिंसा को रोककर रखें। यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शान्तिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है। विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिनने हर शान्तिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल। संयुक्त राष्ट्र स्वतन्त्र सेना नहीं रखती है। शान्तिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है।
संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊँची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएँगे, पर शीत युद्ध (१९४५ - १९९१) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शान्तिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था।
संघ की स्वतन्त्र संस्थाएँ
संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने कई कार्यक्रमों और एजेंसियों के अलावा १४ स्वतन्त्र संस्थाओं से इसकी व्यवस्था गठित होती है। स्वतन्त्र संस्थाओं में विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व स्वास्थ्य संगठन शामिल हैं। इनका संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग समझौता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी कुछ प्रमुख संस्थाएँ और कार्यक्रम हैं। ये इस प्रकार हैं:
अन्तरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी विएना में स्थित यह एजेंसी परमाणु निगरानी का काम करती है।
अन्तरराष्ट्रीय अपराध आयोग हेग में स्थित यह आयोग पूर्व यूगोस्लाविया में युद्द अपराध के सदिंग्ध लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए बनाया गया है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) यह बच्चों के स्वास्थय, शिक्षा और सुरक्षा की देखरेख करता है।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) यह गरीबी कम करने, आधारभूत ढाँचे के विकास और प्रजातान्त्रिक प्रशासन को प्रोत्साहित करने का काम करता है।
संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन-यह संस्था व्यापार, निवेश और विकास के मुद्दों से सम्बन्धित उद्देश्य को लेकर चलती है।
संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ईकोसॉक)- यह संस्था सामान्य सभा को अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग एवं विकास कार्यक्रमों में सहायता एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय शान्ति को प्रभावी बनाने में प्रयासरत है।
संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और सांस्कृतिक परिषद पेरिस में स्थित इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा, विज्ञान संस्कृति और संचार के माध्यम से शान्ति और विकास का प्रसार करना है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) नैरोबी में स्थित इस संस्था का काम पर्यावरण की रक्षा को बढ़ावा देना है।
संयुक्त राष्ट्र राजदूत इसका काम शरणार्थियों के अधिकारों और उनके कल्याण की देखरेख करना है। यह जीनिवा में स्थित है।
विश्व खाद्य कार्यक्रम भूख के विरुद्द लड़ाई के लिए बनाई गई यह प्रमुख संस्था है। इसका मुख्यालय रोम में है।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संघ- अन्तरराष्ट्रीय आधारों पर मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम बनाता है।
संयुक्त राष्ट्र और भारत
भारत, संयुक्त राष्ट्र के उन प्रारम्भिक सदस्यों में शामिल था जिन्होंने ०१ जनवरी, १९४२ को वाशिंग्टन में संयुक्त राष्ट्र घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे तथा २५ अप्रैल से २६ जून, १९४५ तक सेन फ्रांसिस्को में ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय संगठन सम्मेलन में भी भाग लिया था। संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्य के रूप में भारत, संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धान्तों का पुरजोर समर्थन करता है और चार्टर के उद्देश्यों को लागू करने तथा संयुक्त राष्ट्र के विशिष्ट कार्यक्रमों और एजेंसियों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने के पश्चात भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अपनी सदस्यता को अन्तरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखने की एक महत्वपूर्ण गारण्टी के रूप में देखा। भारत, संयुक्त राष्ट्र के उपनिवेशवाद और रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष के अशान्त दौर में सबसे आगे रहा। भारत औपनिवेशिक देशों को स्वतन्त्रता दिये जाने के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र की ऐतिहासिक घोषणा १९६० का सह-प्रायोजक था जो उपनिवेशवाद के सभी रूपों और अभिव्यक्तियों को बिना शर्त समाप्त किए जाने की आवश्यकता की घोषणा करती है। भारत राजनीतिक स्वतन्त्रता समिति (२४ की समिति) का पहला अध्यक्ष भी निर्वाचित हुआ था जहाँ उपनिवेशवाद की समाप्ति के लिए उसके अनवरत प्रयास रिकार्ड पर हैं
भारत, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और नस्लीय भेदभाव के सर्वाधिक मुखर आलोचकों में से था। वस्तुतः भारत संयुक्त राष्ट्र (१९४६ में) में इस मुद्दे को उठाने वाला पहला देश था और रंगभेद के विरूद्ध आम सभा द्वारा स्थापित उप समिति के गठन में अग्रणी भूमिका निभाई थी।
गुट निरपेक्ष आंदोलन और समूह-७७ के संस्थापक सदस्य के रूप में संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था में भारत की हैसियत, विकासशील देशों के सरोकारों और आकांक्षाओं तथा अधिकाधिक न्यायसंगत अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना के अग्रणी समर्थक के रूप में मजबूत हुई।
भारत सभी प्रकार के आतंकवाद के प्रति 'पूर्ण असहिष्णुता' के दृष्टिकोण का समर्थन करता रहा है। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए एक व्यापक कानूनी रूपरेखा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत ने १९९६ में अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद के सम्बन्ध में व्यापक कन्वेंशन का मसौदा तैयार करने की पहल की थी और उसे शीघ्र अति शीघ्र पारित किए जाने के लिए कार्य कर रहा है।
भारत का संयुक्त राष्ट्र के शान्ति स्थापना अभियानों में भागीदारी का गौरवशाली इतिहास रहा है और यह १९५० के दशक से ही इन अभियानों में शामिल होता रहा है। अब तक भारत ४३ शान्ति स्थापना अभियानों में भागीदारी कर चुका है।
भारत, परमाणु हथियारों से संपन्न एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जो परमाणु हथियारों को प्रतिबन्धित करने और उन्हें समाप्त करने के लिए परमाणु अस्त्र कन्वेंशन की स्पष्ट रूप से माँग करता रहा है। भारत समयबद्ध, सार्वभौमिक, निष्पक्ष, चरणबद्ध और सत्यापन योग्य रूप में परमाणु हथियारों से मुक्त दुनिया का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है जैसा कि सन् १९९८ में आम सभा के निरस्त्रीकरण से सम्बन्धित विशेष अधिवेशन में पेश की गई राजीव गांधी कार्य योजना में प्रतिबिम्बित होता है।
आज भारत स्थायी और अस्थायी दोनों वर्गों में सुरक्षा परिषद के विस्तार के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र सुधारों के प्रयासों में सबसे आगे है ताकि वह समकालीन वास्तविकताओं को प्रदर्शित कर सके।
जून २०२० में भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना गया है। यह भारत का दो साल का कार्यकाल १ जनवरी 202१ से प्रारम्भ होगा। संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में भारत आठवीं बार प्रतिष्ठित सुरक्षा परिषद के लिए निर्वाचित हुआ है। इससे पूर्व १950-5१, १967-६८, १972-७३, १977-७८, १984-८५, १99१-९२ और 20११-१2 में भारत सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य रहा है।
भारत में संयुक्त राष्ट्र
भारत में संयुक्त राष्ट्र के २६ संगठन सेवाएँ दे रहे हैं। स्थानीय समन्वयक (रेज़िडेंट कॉर्डिनेटर), भारत सरकार के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव के मनोनीत प्रतिनिधि हैं।
संयुक्त राष्ट्र भारत को रणनीतिक सहायता देता है ताकि वह गरीबी और असमानता मिटाने की अपनी आकाँक्षाएँ पूरी कर सके तथा वैश्विक स्तर पर स्वीकृत सतत् विकास लक्ष्यों के अनुरूप सतत् विकास को बढ़ावा दे सके। संयुक्त राष्ट्र, विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को तेज़ी से बदलाव और विकास प्राथमिकताओं के प्रति महत्वाकाँक्षी संकल्पों को पूरा करने में भी समर्थन देता है।
भारत और सतत् विकास लक्ष्य
सतत् विकास लक्ष्य सहित २०३० के एजेंडा के प्रति भारत सरकार के दृढ़ संकल्प का प्रमाण राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय बैठकों में प्रधानमन्त्री और सरकार के वरिष्ठ मन्त्रियों के वक्तव्यों से मिलता है। भारत के राष्ट्रीय विकास लक्ष्य और समावेशी विकास के लिए सबका साथ सबका विकास नीतिगत पहल सतत् विकास लक्ष्यों के अनुरूप है और भारत दुनियाभर में सतत् विकास लक्ष्यों की सफलता निर्धारित करने में अग्रणी भूमिका निभाएगा। स्वयं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा है, इन लक्ष्यों से हमारे जीवन को निर्धारित करने वाले सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलुओं के बारे में हमारी विकसित होती समझ की झलक मिलती है।
सद्दाम हुसैन शासन के अन्तर्गत इराकी उकसावे के प्रति संयुक्त राष्ट्र की अनिश्चितता का जिक्र करते हुए फरवरी २००३ में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू. बुश ने कभी-कभी गलत उद्धृत बयान में कहा कि "स्वतन्त्र राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र को एक अप्रभावी, अप्रासंगिक बहस करने वाले समाज के रूप में इतिहास में मिटने नहीं देंगे।"
२०२० में, राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने संस्मरण ए प्रॉमिस्ड लैण्ड में उल्लेख किया, "शीत युद्ध के बीच में, किसी भी आम सहमति तक पहुँचने की संभावना कम थी, यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र बेकार खड़ा था क्योंकि सोवियत टैंक हंगरी या अमेरिकी विमानों वियतनामी ग्रामीण इलाकों में नैपलम गिरा रहे थे। शीत युद्ध के बाद भी, सुरक्षा परिषद के भीतर विभाजन ने संयुक्त राष्ट्र की समस्याओं से निपटने की क्षमता को बाधित करना जारी रखा। इसके सदस्य राज्यों के पास सोमालिया जैसे असफल राज्यों के पुनर्निर्माण के लिए या श्रीलंका जैसी जगहों पर जातीय वध को रोकने के लिए या तो साधन या सामूहिक इच्छाशक्ति की कमी थी।"
इसकी स्थापना के बाद से, संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिए कई आह्वान किए गए हैं लेकिन इसे कैसे किया जाए, इस पर बहुत कम सहमति है। कुछ चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र विश्व मामलों में अधिक या अधिक प्रभावी भूमिका निभाए, जबकि अन्य चाहते हैं कि इसकी भूमिका मानवीय कार्यों में कम हो।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद
भारत-संयुक्त राष्ट्र संघ सम्बन्ध
संयुक्त राष्ट्रसंघ (गूगल पुस्तक ; लेखक - राधेश्याम चौरसिया)
संयुक्त राष्ट्र संघ : सफलता के ६६ साल (दैनिक जागरण)
संयुक्त राष्ट्र के ६० साल: कुछ उपलब्धियाँ, कई विफलताएँ (बीबीसी पर)
संयुक्त राष्ट्र संघ की नाकामी पश्चिम सहारा तनाव बढ़ा देती है
नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन |
कोलकाता () भारत के पश्चिम बंगाल राज्य की राजधानी है और भारत के प्रमुख महानगरों में से एक है। प्रशासनिक रूप से यह कोलकाता ज़िले में स्थित है। कोलकाता हुगली नदी के पूर्वी किनारे पर बांग्लादेश की सीमा से ८० किमी दूर बसा हुआ है। यह बंगाल की खाड़ी के शीर्ष तट से 1८० किलोमीटर दूर स्थित है। कोलकाता भारत का दूसरा सबसे बड़ा महानगर तथा पाँचवा सबसे बड़ा बन्दरगाह है। इस शहर का इतिहास प्राचीन है। इसके आधुनिक स्वरूप का विकास अंग्रेजो एवं फ्रांस के उपनिवेशवाद के इतिहास से जुड़ा है। आज का कोलकाता आधुनिक भारत के इतिहास की कई गाथाएँ अपने आप में समेटे हुए है। यह नगर भारत के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों के प्रारम्भिक केन्द्र था। महलों के इस शहर को 'आनन्द का शहर' भी कहा जाता है।
मुग़ल शासन ने विद्रोह को आसानी से दबा दिया, किन्तु उपनिवेशियों का ईंट व मिट्टी से बना सुरक्षात्मक ढाँचा वैसा ही बना रहा और १७०० में यह फ़ोर्ट विलियम कहलाया। १६९८ में अंग्रेज़ों ने वे पत्र प्राप्त कर लिए, जिसने उन्हें तीन गाँवों के ज़मींदारी अधिकार कथा (राजस्व संग्रहण का अधिकार, वास्तविक स्वामित्व) ख़रीदने का विशेषाधिकार प्रदान कर दिया।
अपनी उत्तम अवस्थिति के कारण कोलकाता को 'पूर्वी भारत का प्रवेश द्वार' भी कहा जाता है। यह रेलमार्गों, वायुमार्गों तथा सड़क मार्गों द्वारा देश के विभिन्न भागों से जुड़ा हुआ है। यह प्रमुख यातायात का केन्द्र, विस्तृत बाजार वितरण केन्द्र, शिक्षा केन्द्र, औद्योगिक केन्द्र तथा व्यापार का केन्द्र है। अजायबघर, चिड़ियाखाना, बिरला तारमंडल, हावड़ा पुल, कालीघाट, फोर्ट विलियम, विक्टोरिया मेमोरियल, विज्ञान नगरी आदि मुख्य दर्शनीय स्थान हैं। कोलकाता के निकट हुगली नदी के दोनों किनारों पर भारतवर्ष के प्रायः अधिकांश जूट के कारखाने अवस्थित हैं। इसके अलावा मोटरगाड़ी तैयार करने का कारखाना, सूती-वस्त्र उद्योग, कागज-उद्योग, विभिन्न प्रकार के इंजीनियरिंग उद्योग, जूता तैयार करने का कारखाना, होजरी उद्योग एवं चाय विक्रय केन्द्र आदि अवस्थित हैं। पूर्वांचल एवं सम्पूर्ण भारतवर्ष का प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में कोलकाता का महत्त्व अधिक है।
विकास और नामकरण
आधिकारिक रूप से इस शहर का नाम कोलकाता १ जनवरी, २००१ को रखा गया। इसका पूर्व नाम अंग्रेजी में "कैलकटा' था लेकिन बांग्ला भाषी इसे सदा कोलकाता या कोलिकाता के नाम से ही जानते है एवं हिन्दी भाषी समुदाय में यह कलकत्ता के नाम से जाना जाता रहा है। सम्राट अकबर के चुंगी दस्तावेजों और पंद्रहवी सदी के विप्रदास की कविताओं में इस नाम का बार-बार उल्लेख मिलता है। इसके नाम की उत्पत्ति के बारे में कई तरह की कहानियाँ मशहूर हैं। सबसे लोकप्रिय कहानी के अनुसार हिंदुओं की देवी काली के नाम से इस शहर के नाम की उत्पत्ति हुई है। इस शहर के अस्तित्व का उल्लेख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में चीन के प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृत्तांत और फारसी व्यापारियों के दस्तावेजों में मिलता है। महाभारत में भी बंगाल के कुछ राजाओं का नाम है जो कौरव सेना की तरफ से युद्ध में शामिल हुए थे। नाम की कहानी और विवाद चाहे जो भी हों इतना तो तय है कि यह आधुनिक भारत के शहरों में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है। १६९० में इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी "जाब चारनाक" ने अपने कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी। १६९८ में इस्ट इंडिया कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार परिवार सावर्ण रायचौधुरी से तीन गाँव (सूतानुटि, कोलिकाता और गोबिंदपुर) के इजारा लिये। अगले साल कंपनी ने इन तीन गाँवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटी के रूप में करना शुरू किया। १७२७ में इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वतीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गई। कोलकाता नगर निगम की स्थापना की गई और पहले मेयर का चुनाव हुआ। १७५६ में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कोलिकाता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम "अलीनगर" रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इस पर पुन: अधिकार हो गया। १७७२ में वारेन हेस्टिंग्स ने इसे ब्रिटिश शासकों की भारतीय राजधानी बना दी। कुछ इतिहासकार इस शहर की एक बड़े शहर के रूप में स्थापना की शुरुआत १६९८ में फोर्ट विलियम की स्थापना से जोड़ कर देखते हैं। १९१२ तक कोलकाता भारत में अंग्रेजो की राजधानी बनी रही।
१७५७ के बाद से इस शहर पर पूरी तरह अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया और १८५० के बाद से इस शहर का तेजी से औद्योगिक विकास होना शुरु हुआ खासकर कपड़ों के उद्योग का विकास नाटकीय रूप से यहाँ बढा हलाकि इस विकास का असर शहर को छोड़कर आसपास के इलाकों में कहीं परिलक्षित नहीं हुआ। ५ अक्टूबर १८६५ को समुद्री तूफान (जिसमे साठ हजार से ज्यादा लोग मारे गये) की वजह से कोलकाता में बुरी तरह तबाही होने के बावजूद कोलकात अधिकांशत: अनियोजित रूप से अगले डेढ सौ सालों में बढता रहा और आज इसकी आबादी लगभग १ करोड़ ४० लाख है। कोलकाता १९८० से पहले भारत की सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर था, लेकिन इसके बाद मुंबई ने इसकी जगह ली। भारत की आज़ादी के समय १९४७ में और १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद "पूर्वी बंगाल" (अब बांग्लादेश) से यहाँ शरणार्थियों की बाढ आ गयी जिसने इस शहर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोरा।
स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीया राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर", "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, बिपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने श्री व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वकालत करने वाले पहले व्यक्ति श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी भी कोलकाता से ही थे। १९ वी सदी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के प्रारंभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों को बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम् आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रवींद्रनाथ टैगोर का जन गण मन आज भारत का राष्ट्र गान हैं। सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं।
बाबू संस्कृति और बंगाली पुनर्जागरण
ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकार्यता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया।
कोलकाता भारत की आजादी और उसके कुछ समय बाद तक एक समृद्ध शहर के रूप में स्थापित रहा लेकिन बाद के वर्षों में जनसँख्या के दवाब और मूलभूत सुविधाओं के आभाव में इस शहर की सेहत बिगड़ने लगी। १९६० और १९७० के दशकों में नक्सलवाद का एक सशक्त आंदोलन यहाँ उठ खड़ा हुआ जो बाद में देश के दूसरे क्षेत्रों में भी फैल गया। १९७७ के बाद से यह वामपंथी आंदोलन के गढ के रूप में स्थापित हुआ और तब से इस राज्य में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का बोलबाला है।
कोलकाता पूर्वी भारत एवं पूर्वोत्तर राज्यों का प्रधान व्यापारिक, वाणिज्यिक एवं वित्तीय केन्द्र है। यहां कोलकाता स्टॉक एक्स्चेंज भी है, जो भारत का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा स्टोक एक्स्चेंज है। यहां प्रमुख वाणिज्यिक एवं सैन्य बंदरगाह भी है। इनके साथ ही इस क्षेत्र का एकमात्र अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी यहीं है। कभी भारत का मुख्य शहर रहे कोलकाता ने स्वतंत्रता पश्चात कुछ आरंभिक वर्षों में अन्वरत आर्थिक पतन को देखा। इसका मुख्य कारण राजनैतिक अस्थिरता एवं व्यापारिक यूनियनों का बढ़ना था। १९६० के दशक से १९९० के मध्य दशक तक शहर की प्रगति गिरती ही गयी, जिसका कारण यहां बंद या यहां से स्थानांतरित होती फैक्ट्रियां और व्यापार थे। इस वजह से पूंजी निवेश एवं संसाधनों की कमी उत्पन्न हुई, जो कि यहां की गिरती आर्थिक स्थिति के भरपूर सहायक कारक सिद्ध हुए। भारतीय आर्थिक नीति के उदारीकरण की प्रक्रिया ने १९९० के दशक में शहर की भाग्यरेखा को नई दिशा दी। इसके बाद उत्पादन भी बढ़ा एवं बेकार श्रमिकों को भी काम मिला। उदाहरणार्थ, यहां के सड़कों पर फेरीवाले लगभग ८७२२ करोड़ रुपये (२००५ के आंकड़ों के अनुसार) का व्यापार कर रहे थे।
नगर की श्रमशक्ति में सरकारी एवं निजी कंपनियों के कर्मचारी एक बड़ा भाग बनाते हैं। यहां बड़ी संख्या में अकुशल एवं अर्ध-कुशल श्रमिक हैं, जिनके साथ अन्य कुशल कारीगर भी अच्छी संख्या में कार्यरत हैं। शहर की आर्थिक स्थिति के पुनरुत्थान में सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं का बड़ा हाथ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र यहां प्रतिवर्ष लगभग ७०% की उन्नति कर रहा है, जो राष्ट्रीय औसत का दोगुना है।
हाल के वर्षों में यहां गृह-निर्माण एवं रियल एस्टेट क्षेत्र में भी निवेशक उमड़े हैं। इसका कारण एवं परिणाम शहर में कई नई परियोजनाओं का आरंभ होना है। कोलकाता में कई बड़ी भारतीय निगमों की औद्योगिक इकाइयां स्थापित हैं, जिनके उत्पाद जूट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक सामान तक हैं। कुछ उल्लेखनीय कंपनियां जिनके यहां मुख्यालय हैं, आईटीसी लिमिटेड, बाटा शूज़, बिरला कॉर्पोरेशन, कोल इंडिया लिमिटेड, दामोदर वैली कॉर्पोरेशन, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, यूको बैंक और इलाहाबाद बैंक, आदि प्रमुख हैं। हाल ही में भारत सरकार की पूर्व-देखो (लुक ईस्ट) नीति, नाथू ला दर्रा के सिक्किम में खोले जाने एवं चीन तथा दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से व्यापारिक संबंध बढ़ाने की नीतियों के कारण यहां कई देशों ने भरतीय बाजार में पदार्पण किया है। इसके चलते कोलकाता में निवेश होने से यहां की अर्थ-व्यवस्था को अप-थर्स्ट मिला है।
कोलकाता में उष्णकटिबंधीय आर्द्र-शुष्क जलवायु रहती है। यह कोप्पेन जलवायु वर्गीकरण के अनुसार अव श्रेणी में आती है। वार्षिक औसत तापमान २६.८से. (८०फ़ै.); मासिक औसत तापमान १९से. से ३०से. (६७फ़ै. से ८६फ़ै.) रहता है। ग्रीष्म ऋतु गर्म एवं आर्द्र रहती है, जिसमें न्यूनतम तापमान ३० डिग्री के दशक में रहता है तथा शुष्क कालों में यह ४०से (१०४फ़ै) को भी पार कर जाता है। ऐसा मई और जून माह में होता है। शीत ऋतु ढाई माह तक ही रहती हैं; जिसमें कई बार न्यूनतम तापमान १२से१२से. (५४फ़ै.५७फ़ै.) तक जाता है। ऐसा दिसम्बर से फरवरी के बीच होता है। उच्चतम अंकित तापमान ४९से. से. (११३फ़ै.) एवं न्यूनतम ५से. (४१फ़ै.) किया गया है। प्रायः ग्रीष्मकाल के आरंभ में धूल भरी आंधियां आती हैं, जिनके पीछे तड़ित सहित तेज वर्षाएं शहर को भिगोती हैं, एवं शहर को भीषण गर्मी से राहत दिलाती हैं। ये वर्षाएं काल बैसाखी () कहलाती हैं।
दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी वाली शाखा द्वारा लाई गई वर्षाएं शहर को जून अंत से सितंबर के बीच यहां की अधिकतम वार्षिक वर्षा १५८२मि.मी. (६२.३ इंच) दिलाती हैं। मानसून काल में अधिकतम वर्षाएं अगस्त में होती हैं जो (३०६मि.मी.) तक जाती हैं। शहर में वार्षिक २,५२८ घंटे खुली धूप उपलब्ध रहती है, जिसमें अधिकतम दैनिक अंतराल मार्च के महीने में होता है। कोलकाता की प्रधान समस्या प्रदूषण की है। यहां का सस्पेन्डेड पर्टिकुलेट मैटर स्तर भारत के अन्य प्रधान शहरों की अपेक्षा बहुत है, जो गहरे स्मॉग और धुंध का कारण बनता है। शहर में भीषण प्रदूषण ने प्रदूषण-संबंधी श्वास रोगों जैसे फेफड़ों के कैंसर को बढावा दिया है।
कोलकाता नगर निगम (के.एम.सी) के अनुरक्षन में कोलकाता शहर का क्षेत्रफल है। हालांकि कोलकाता की शहरी बसावट काफ़ी बढ़ी है, जो २००६ में कोलकाता शहरी क्षेत्र में फैली है। इसमें १५७ पिन क्षेत्र है। यहां की शहरी बसावट के क्षेत्रों को औपचारिक रूप से ३८ स्थानीय नगर पालिकाओं के अधीन रखा गया है। इन क्षेत्रों में ७२ शहर, ५२७ कस्बे एवं ग्रामीण क्षेत्र हैं। कोलकाता महानगरीय जिले के उपनगरीय क्षेत्रों में उत्तर २४ परगना, दक्षिण २४ परगना, हावड़ा एवं नदिया आते हैं।
मुख्य शहर की पूर्व-पश्चिम चौड़ाई काफ़ी कम है, जो पश्चिम में हुगली नदी से पूर्वी मेट्रोपॉलिटन बायपास तक मात्र होती है। शहर के उत्तर-दक्षिणी विस्तार को मुख्यतः उत्तरी, मध्य एवं दक्षिणी भाग में बांटा जा सकता है। उत्तरी भाग सबसे पुराने भागों में से एक है, जिसमें १९वीं शताब्दी के स्थापत्य और संकरे गली कूचे दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता उपरांत अधिकतम दक्षिणी भाग ने प्रगति की है और यहां कई पॉश एवं समृद्ध क्षेत्र हैं जैसे बॉलीगंज, भोवानीपुर, अलीपुर, न्यू अलीपुर, जोधपुर पार्क, आदि। शहर के उत्तर-पूर्वी ओर सॉल्ट लेक सिटी (बिधाननगर) क्षेत्र यहां का व्यवस्थित क्षेत्र है। वहीं निकट ही राजारहाट भी व्यवस्थित एवं योजनाबद्ध क्षेत्र विकसित हो रहा है, जिसे न्यू टाउन भी कहते हैं।
मध्य कोलकाता में बी.बी.डीबाग के पास सेंट्रल बिज़नेस जिला है। यहां बंगाल सरकार सचिवालय, प्रधान डाकघर, उच्च न्यायालय, लाल बाज़ार पुलिस मुख्यालय आदि कई सरकारी इमारतें तथा निजि कार्यालय स्थापित हैं। मैदान कोलकाता के हृदय क्षेत्र में विस्तृत खुला मैदान है, जहां बहुत सी क्रीड़ा और विशाल जन-सम्मेलन आदि आयोजित हुआ करते हैं। बहुत सी कंपनियों ने अपने कार्यालय पार्क स्ट्रीट के दक्षिणी क्षेत्र में बनाये हैं, जिसके कारण यह भी द्वितीयक सेंट्रल बिज़नेस जिला बनता जा रहा है।
कोलकाता पूर्वी भारत में निर्देशांक पर गंगा डेल्टा क्षेत्र में से की ऊंचाई पर स्थित है। शहर हुगली नदी के किनारे उत्तर-दक्षिण रैखिक फैला हुआ है। शहर का बहुत सा भाग एक वृहत नम-भूमि क्षेत्र था, जिसे भराव कर शहर की बढ़ती आबादी को बसाया गया है। शेष बची नम-भूमि जिसे अब ईस्ट कैल्कटा वेटलैंड्स कहते हैं, को रामसर सम्मेलन के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की नम-भूमि घोषित किया गया है।
अन्य गांगेय क्षेत्रों की तरह यहां की मिट्टी भी उपजाऊ जलोढ़ (अल्यूवियल) ही है। मिट्टी की ऊपरी पर्त के नीचे चतुर्धात्विक अवसाद, मिट्टी, गाद, एवं रेत की विभिन्न श्रेणियां अतथा बजरी आदि है। ये कण मिट्टी की दो पर्तों के बीच बिछे हुए हैं। इनमें से निचली पर्त तथा और ऊपरी पर्त तथा की मोटाई की है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार, शहर भूकंप प्रभावी क्षेत्र श्रेणी-तृतीय में आता है। यह श्रेणियां १-४ के बीच बढ़ते क्रम में होती हैं। यूएनडीपी रिपोर्ट के अनुसार वायु और चक्रवात के लिए यह अत्योच्च क्षति जोखिम क्षेत्र में आता है।
सेवाएं एवं मीडिया
के एम सी शहर की जलापूर्ति हुगली नदी से प्राप्त जल से करता है। जल को उत्तर २४ परगना के निकट पाल्टा जल पंपिंग स्टेशन में शोधित किया जाता है। शहर का दैनिक अवशिष्ट लगभग २५००टन धापा के निकट शहर के पूर्वी क्षेत्र में डम्प किया जाता है। इस डंपिंग स्थल पर कृषि को बढ़ावा दिया जाता है, जिससे कि यह अवशिष्ट और शहर का मल (सीवर) प्राकृतिक तौर पर पुनर्चक्रित हो पाये। शहर के कुछ भागों में सीवर द्वारा मल निकास का अभाव होने से अस्वास्थवर्धक मल निकास को बढ़ावा मिलता है। शहर की विद्युत आपूर्ति कैल्कटा इलेक्ट्रिक सप्लाई कार्पोरेशन (सी.ई.एस.सी) द्वारा शहर क्षेत्र में, तथा पश्चिम बंगाल राज्य विद्युत बोर्ड द्वारा उपनगरीय क्षेत्रों में की जाती है। १९९० के दशक के मध्य तक विद्युत आपूर्ति में अत्यधिक व्यवधान एवं कटौती की समस्या थी; जो कि अब इसकी दशा में काफ़ी सुधार हुआ है, एवं अब कटौती बहुत ही कम की जाती है। शहर में २० अग्नि-शमन स्टेशन पश्चिम बंगाल अग्नि-शमन सेवा के अन्तर्गत वार्षिक औसत ७५०० अग्निकांडों को शमन करते हैं।
कोलकाता में सरकारी बी एस एन एल तथा निजी उपक्रम जैसे वोडाफ़ोन, एयरटेल, रिलायंस कम्युनिकेशंस, टाटा इंडिकॉम आदि दूरभाष एवं मोबाइल सेवाएं उपलब्ध कराते हैं। शहर में जी एस एम और सी डी एम ए, दोनों ही प्रकार की सेलुलर सेवाएं उपलब्ध हैं। यहां बी एस एन एल, टाटा कम्युनिकेशंस, एयरटेल तथा रिलायंस कम्युनिकेशंस द्वारा ब्रॉडबैंड सेवा भी उपलब्ध है। इनके अलावा सिफ़ी और एलायंस भी यह सेवा उपलब्ध कराते हैं।
बहुत से बांग्ला समाचार-पत्र यहां प्रकाशित होते हैं, जिनमें आनंद बाजार पत्रिका, आजकल, बर्तमान, संगबाद प्रतिदिन, गणशक्ति तथा दैनिक स्टेट्स्मैन प्रमुख हैं। अंग्रेज़ी समाचार पत्रों में द टेलीग्राफ, द स्टेट्स्मैन, एशियन एज, हिन्दुस्तान टाइम्स एवं टाइम्स ऑफ इंडिया प्रमुख हैं। कुछ मुख्य सामयिक पत्रिकाओं में से देश, सनंद, उनिश कुरी, किंड्ल, आनंदलोक तथा आनंद मेला प्रमुख हैं। पूर्वी भारत में सबसे बड़े व्यापारिक केन्द्र होने से कई वित्तीय दैनिक जैसे इकॉनोमिक टाइम्स, फाइनेंशियल एक्स्प्रेस तथा बिज़नेस स्टैन्डर्ड आदि के पर्याप्त पाठक हैं। यहां के अन्य भाषाओं के अल्पसंख्यकों के लिए हिन्दी, गुजराती, उड़िया, उर्दु, पंजाबी तथा चीनी पत्र भी प्रकाशित होते हैं।
यहां सरकारी रेडियो स्टेशन ऑल इंडिया रेडियो से कई ए एम रेडियो चैनल प्रसारित करता है। कोलकाता में ग्यारह एफ़ एम रेडियो स्टेशन प्रसारित होते हैं। इनमें से दो ऑल इंडिया रेडियो के हैं। सरकारी टीवी प्रसारणकर्ता दूरदर्शन से दो टेरेस्ट्रियल चैनल प्रसारित किये जाते हैं। चार बहु-प्रणाली ऑपरेटार (एम एस ओ) द्वारा बांग्ला, हिन्दी, अंग्रेज़ी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के चैनल केबल टीवी द्वारा दिखाए जाते हैं। बांग्ला उपग्रह चैनलों में एबीपी आनंद, २४ घंटा, कोलकाता टीवी, चैनल १० तथा तारा न्यूज़ प्रमुख हैं।
कोलकाता में जन यातायात कोलकाता उपनगरीय रेलवे, कोलकाता मेट्रो, ट्राम और बसों द्वारा उपलब्ध है। व्यापक उपनगरीय जाल सुदूर उपनगरीय क्षेत्रों तक फैला हुआ है। भारतीय रेल द्वारा संचालित कोलकाता मेट्रो भारत में सबसे पुरानी भूमिगत यातायात प्रणाली है। ये शहर में उत्तर से दक्षिण दिशा में हुगली नदी के समानांतर शहर की लंबाई को १६.४५कि.मी. में नापती है। यहां के अधिकांश लोगों द्वारा बसों को प्राथमिक तौर पर यातायात के लिए प्रयोग किया जाता है। यहां सरकारी एवं निजी ऑपरेटरों द्वारा बसें संचालित हैं। भारत में कोलकाता एकमात्र शहर है, जहाँ ट्राम सेवा उपलब्ध है। ट्राम सेवा कैल्कटा ट्रामवेज़ कंपनी द्वारा संचालित है। ट्राम मंद-गति चालित यातायात है, व शहर के कुछ ही क्षेत्रों में सीमित है। मानसून के समय भारी वर्षा के चलते कई बार लोक-यातायात में व्यवधान पड़ता है।
भाड़े पर उपलब्ध यांत्रिक यातायात में पीली मीटर-टैक्सी और ऑटो-रिक्शॉ हैं। कोलकाता में लगभग सभी पीली टैक्सियाँ एम्बेसैडर ही हैं। कोलकाता के अलावा अन्य शहरों में अधिकतर टाटा इंडिका या फिएट ही टैसी के रूप में चलती हैं। शहर के कुछ क्षेत्रों में साइकिल-रिक्शा और हाथ-चालित रिक्शा अभी भी स्थानीय छोटी दूरियों के लिए प्रचालन में हैं। अन्य शहरों की अपेक्षा यहां निजी वाहन काफ़ी कम हैं। ऐसा अनेक प्रकारों के लोक यातायात की अधिकता के कारण है। हालांकि शहर ने निजी वाहनों के पंजीकरण में अच्छी बड़ोत्तरी देखी है। वर्ष २००२ के आंकड़ों के अनुसार पिछले सात वर्षों में वाहनों की संख्या में ४४% की बढ़त दिखी है। शहर के जनसंख्या घनत्व की अपेक्षा सड़क भूमि मात्र ६% है, जहाँ दिल्ली में यह २३% और मुंबई में १७% है। यही यातायात जाम का मुख्य कारण है। इस दिशा में कोलकाता मेट्रो रेलवे तथा बहुत से नये फ्लाई-ओवरों तथा नयी सड़कों के निर्मान ने शहर को काफ़ी राहत दी है।
कोलकाता में दो मुख्य लंबी दूरियों की गाड़ियों वाले रेलवे स्टेशन हैं- हावड़ा जंक्शन और सियालदह जंक्शन। कोलकाता रेलवे स्टेशन नाम से एक नया स्टेशन २००६ में बनाया गया है। कोलकाता शहर भारतीय रेलवे के दो मंडलों का मुख्यालय है पूर्वी रेलवे और दक्षिण-पूर्व रेलवे।
शहर के विमान संपर्क हेतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दम दम में स्थित है। यह विमानक्षेत्र शहर के उत्तरी छोर पर है व यहां से दोनों, अन्तर्देशीय और अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें चलती हैं। यह नगर पूर्वी भारत का एक प्रधान बंदरगाह है। कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट ही कोलकाता पत्तन और हल्दिया पत्तन का प्रबंधन करता है। यहां से अंडमान निकोबार द्वीपसमूह में पोर्ट ब्लेयर के लिये यात्री जहाज और भारत के अन्य बंदरगाहों तथा विदेशों के लिए भारतीय शिपिंग निगम के माल-जहाज चलते हैं। यहीं से कोलकाता के द्वि-शहर हावड़ा के लिए फेरी-सेवा भी चलती है।
कोलकाता में दो बड़े रेलवे स्टेशन हैं जिनमे एक हावड़ा और दूसरा सियालदह में है, हावड़ा तुलनात्मक रूप से ज्यादा बड़ा स्टेशन है जबकि सियालदह से स्थानीय सेवाएँ ज्यादा हैं। शहर में उत्तर में दमदम में नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा जो शहर को देश विदेश से जोड़ता है। शहर से सीधे ढाका यांगून, बैंकाक लंदन पारो सहित मध्य पूर्व एशिया के कुछ शहर जुड़े हुये हैं। कोलकाता भारतीय उपमहाद्वीप का एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ ट्राम यातायात का प्रचलन है। इसके अलावा यहाँ कोलकाता मेट्रो की भूमिगत रेल सेवा भी उपलब्ध है। गंगा की शाखा हुगली में कहीं कहीं स्टीमर यातायात की सुविधा भी उपलब्ध है। सड़कों पर नीजी बसों के साथ साथ पश्चिम बंगाल यातायात परिवहन निगम की भी काफी बसें चलती हैं। शहर की सड़कों पे काली-पीली टैक्सियाँ चलती हैं। धुंएँ, धूल और प्रदूषण से राहत शहर के किसी किसी इलाके में ही मिलती है।
कोलकाता में कोलकाता विश्वविद्यालय समेत कई नामचीन शैक्षिक संस्थान एवं हमाविद्यालय हैं यहाँ चार मेडिकल कालेज भी हैं। अस्सी के दशकों के बाद कलकत्ता की शैक्षिक हैसियत में गिरावट हुई लेकिन कोलकाता अब भी शैक्षिक माहौल के लिये जाना जाता है। कोलकाता विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय न्यायिक विज्ञान विश्वविद्यालय, नेताजी सुभाष मुक्त विश्वविद्यालय, बंगाल अभियांत्रिकी एवं विज्ञान विश्वविद्यालय,पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल पशुपालन एवं मतस्य पालन विज्ञान विश्वविद्यालय,
पश्चिम बंगाल तकनीकी विश्वविद्यालय कोलकाता के विभिन्न भागों में स्थित हैं। इन विश्वविद्यालयों से सैकड़ो महाविद्यालय संबद्ध एवं अंगीभूत इकाई के रूप में काम करते हैं। एशियाटिक सोसायटी, भारतीय साँख्यिकी संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, मेघनाथ साहा आण्विक भौतिकी संस्थान, सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान राष्ट्रीय महत्व के संस्थान हैं। अन्य उल्लेखनीय संस्थानों मेंरामकृष्ण मिशन संस्कृति संस्थान, एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, बोस संस्थान, बोटैनिकल सर्वे ऑफ इंडिया, जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इनफार्मेशन टेक्नालजी, राष्ट्रीय होमियोपैथी संस्थान, श्रीरामपुर कालेज, प्रेसीडेंसी कालेज, स्काटिश चर्च कालेज प्रमुख हैं।
कोलकाता निवासियों को कलकतिया कहा जाता है। वर्ष २००१ की जनगणनानुसार कोलकाता शहर की कुल जनसंख्या ४,५८०,५४४ है, जबकि यहां के सभी शहरी क्षेत्रों को मिलाकर १३,२१६,५४६ है। २००९ वर्ष की परियोजनाओं के वर्तमान अनुमान के अनुसार शहर की जनसंख्या ५,०८०,५१९ है। यहां का लिंग अनुपात ९२८ स्त्रियां प्रति १०० पुरुष है। जो कि राष्ट्रीय औसत से कम है। इसका कारण ग्रामीण क्षेत्रों से काम के लिए आने वाले पुरुष हैं। शहर की साक्षरता दर ८१% है जो राष्ट्रीय औसत ८०% से अधिक है। कोलकाता नगर निगम के क्शेत्रों की पंजीकृत विकार दर ४.१% है, जो भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में न्यूनतम है।
बंगाली लोग ही कोलकाता की जनसंख्या का अधिकांश भाग बनाते हैं (५५%), जिनके अलावा मारवाड़ी और बिहारी लोग यहां अल्पसंख्यकों का बड़ा भाग (२०%) हैं। कोलकाता में अल्पसंख्यक समुदायों में चीनी, तमिल, नेपाली, तेलुगु, असमी, गुजराती, आंग्ल-भारतीय, उड़िया और भोजपुरी समुदाय आते हैं।
जनगणना के अनुसार कोलकाता की जनसंख्या का ८०% भाग हिन्दू हैं। शेष १८% मुस्लिम, १% ईसाई और १% जैन लोग हैं। अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में सिख, बौद्ध, यहूदी और पारसी समुदाय आते हैं। नगर की जनसंख्या का एक-तिहाई भाग यानि १५ लाख लोग २,०११ पंजीकृत क्षेत्रों और कालोनियों तथा ३,५०० अनाधिकृत क्षेत्रों और झुग्गियों में वास करते हैं।
सन २००४ में भारत के ३५ महानगरों और बड़े शहरों में हुए कुल विशिष्ट और स्थानीय विधि अपराधों का ६७.६% रिपोर्ट हुए थे। कोलकाता जिला पुलिस ने वर्ष २००४ में आई.पी.सी के अंतर्गत १०,५७५ मामले दर्ज किए थे, जो देश में दसवें स्थान पर सबसे अधिक थे। २००६ में शहर की अपराध दर ७१ प्रति १ लाख रही, जो राष्ट्रीय अपराध दर १६७.७ से बहुत कम है और सभी बड़े शहरों से न्यूनतम है। कोलकाता का सोनागाची क्षेत्र १०,००० वेश्याओं सहित, एशिया का सबसे बड़ा रेड-लाइट क्षेत्र है।
कोलकाता को लंबे समय से अपने साहित्यिक, क्रांतिकारी और कलात्मक धरोहरों के लिए जाना जाता है। भारत की पूर्व राजधानी रहने से यह स्थान आधुनिक भारत की साहित्यिक और कलात्मक सोच का जन्मस्थान बना। कोलकातावासियों के मानस पटल पर सदा से ही कला और साहित्य के लिए विशेष स्थान रहा है। यहां नई प्रतिभाको सदा प्रोत्साहन देने की क्षमता ने इस शहर को अत्यधिक सृजनात्मक ऊर्जा का शहर (सिटी ऑफ फ़्यूरियस क्रियेटिव एनर्जी) बना दिया है। इन कारणों से ही कोलकाता को कभी कभी भारत की सांस्कृतिक राजधानी भी कह दिया जाता है, जो अतिश्योक्ति न होगी।
कोलकाता का एक खास अंग है पारा, यानि पास-पड़ोस के क्षेत्र। इनमें समुदाय की सशाक्त भावना होती है। प्रत्येक पारा में एक सामुदायिक केन्द्र, क्रीड़ा स्थल आदि होते हैं। लोगों में यहां फुर्सत के समय अड्डा (यानि आराम से बातें करना) में बैठक करने, चर्चाएं आदि में सामयिक मुद्दों पर बात करने की आदत हैं। ये आदत एक मुक्त-शैली बुद्धिगत वार्तालाप को उत्साहित करती है।
कोलकाता में बहुत सी इमारतें गोथिक, बरोक, रोमन और इंडो-इस्लामिक स्थापत्य शैली की हैं। ब्रिटिश काल की कई इमारतें अच्छी तरह से संरक्षित हैं व अब धरोहर घोषित हैं, जबकि बहुत सी इमारतें ध्वंस के कगार पर भी हैं। १८१४ में बना भारतीय संग्रहालय एशिया का प्राचीनतम संग्रहालय है। यहां भारतीय इतिहास, प्राकृतिक इतिहास और भारतीय कला का विशाल और अद्भुत संग्रह है। विक्टोरिया मेमोरियल कोलकाता का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। यहां के संग्रहालय में शहर का इतिहास अभिलेखित है। यहां का भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय भारत का एक मुख्य और बड़ा पुस्तकालय है। फाइन आर्ट्स अकादमी और कई अन्य कला दीर्घाएं नियमित कला-प्रदर्शनियां आयोजित करती रहती हैं।
शहर में नाटकों आदि की परंपरा जात्रा, थियेटर और सामूहिक थियेटर के रूप में जीवित है। यहां हिन्दी चलचित्र भी उतना ही लोकप्रिय है, जितना कि [[बांग्ला चलचित्र, जिसे टॉलीवुड नाम दिया गया है। यहां का फिल्म उद्योग टॉलीगंज में स्थित है। यहां के लंबे फिल्म-निर्माण की देन है प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक जैसे सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा और ऋत्विक घटक। इनके समकालीन क्षेत्रीय निर्देशक हैं, अपर्णा सेन और रितुपर्णो घोष।
कोलकाता के खानपान के मुख्य घटक हैं चावल और माछेर झोल, और संग में रॉसोगुल्ला और मिष्टि दोइ डेज़र्ट के रूप में। बंगाली लोगों के प्रमुख मछली आधारित व्यंजनों में हिल्सा व्यंजन पसंदीदा हैं। अल्पाहार में बेगुनी (बैंगन भाजा), काठी रोल, फुचका और चाइना टाउन के चीनी व्यंजन शहर के पूर्वी भाग में अधिक लोकप्रिय हैं।
बंगाली महिलायें सामान्यतया साड़ी ही पहनती हैं। इनकी घरेलू तौर पर साड़ी पहनने की एक विशेष शैली होती है, जो खास बंगाली पहचान है। साड़ियों में यहां की बंगाली सूती और रेशमी विश्व-साड़ियां प्रसिद्ध हैं, जिन्हें तांत नाम दिया गया है। पुरुषों में प्रायः पश्चिमी पेन्ट-शर्ट ही चलते हैं, किंतु त्यौहारों, मेल-मिलाप आदि के अवसरों पर सूती और रेशमी तांत के कुर्ते धोती के साथ पहने जाते हैं। यहां पुरुषों में भी धोती का छोर हाथ में पकड़ कर चलने का चलन रहा है, जो एक खास बंगाली पहचान देता है। धोती अधिकांशातः श्वेत वर्ण की ही होती है।
दुर्गा पूजा कोलकाता का सबसे महत्त्वपूर्ण और चकाचौंध वाला उत्सव है। यह त्यौहार प्रायः अक्टूबर के माह में आता है, पर हर चौथे वर्ष सितंबर में भी आ सकता है। अन्य उल्लेखनीय त्यौहारों में जगद्धात्री पूजा, पोइला बैसाख, सरस्वती पूजा, रथ यात्रा, पौष पॉर्बो, दीवाली, होली, क्रिस्मस, ईद, आदि आते हैं। सांस्कृतिक उत्सवों में कोलकाता पुस्तक मेला, कोलकाता फिल्मोत्सव, डोवर लेन संगीत उत्सव और नेशनल थियेटर फेस्टिवल आते हैं।
नगर में भारतीय शास्त्रीय संगीत और बंगाली लोक संगीत को भी सराहा जाता रहा है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी से ही बंगाली साहित्य का आधुनिकिकरण हो चुका है। यह आधुनिक साहित्यकारों की रचनाओं में झलकता है, जैसे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माइकल मधुसूदन दत्त, रविंद्रनाथ ठाकुर, काजी नज़रुल इस्लाम और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, आदि। इन साहित्यकारों द्वारा तय की गयी उच्च श्रेणी की साहित्य परंपरा को जीबनानंद दास, बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय, ताराशंकर बंधोपाध्याय, माणिक बंदोपाध्याय, आशापूर्णा देवी, शिशिरेन्दु मुखोपाध्याय, बुद्धदेव गुहा, महाश्वेता देवी, समरेश मजूमदार, संजीव चट्टोपाध्याय और सुनील गंगोपाध्याय ने आगे बढ़ाया है।
साठ के दशक में भुखी पीढी (हंगरी जेनरेशन) नामके एक साहित्यिक अंदोलनकारीयों का आगमन हुया जिसके सदस्यों ने पुरे कोलकाता शहर को अपने करतुतों और लेखन के जरिये हिला दिया था। उसके चर्चे विदेशों तक जा पंहुचा था। उस अंदोलन के सदस्यों में प्रधान थे मलय रायचौधुरी, सुबिमल बसाक। देबी राय, समीर रायचौधुरी, फालगुनि राय, अनिल करनजय, बासुदेब दाशगुप्ता, त्रिदिब मित्रा, शक्ति चट्टोपध्याय प्रमुख हस्तियां।
१९९० के आरंभिक दशक से ही भारत में जैज़ और रॉक संगीत का उद्भव हुआ था। इस शाइली से जुड़े कई बांग्ला बैण्ड हैं, जिसे जीबोनमुखी गान कहा जाता है। इन बैंडों में चंद्रबिंदु, कैक्टस, इन्सोम्निया, फॉसिल्स और लक्खीचरा आदि कुछ हैं। इनसे जुड़े कलाकारों में कबीर सुमन, नचिकेता, अंजना दत्त, आदि हैं।
स्मारक एवं दर्शनीय स्थल
मैदान और फोर्ट विलियम, हुगली नदी के समीप भारत के सबसे बड़े पार्कों में से एक है। यह ३ वर्ग कि॰मी॰ के क्षेत्र में फैला है। मैदान के पश्चिम में फोर्ट विलियम है। चूंकि फोर्ट विलियम को अब भारतीय सेना के लिए उपयोग में लाया जाता है यहां प्रवेश करने के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ती है। ईडन गार्डन्स मेंएक छोटे से तालाब में बर्मा का पेगोडा स्थापित किया गया है, जो इस गार्डन का विशेष आकर्षण है। यह स्थान स्थानीय जनता में भी लोकप्रिय है। विक्टोरिया मेमोरियल, १९०६-२१ के बीच निर्मित यह स्मारक रानी विक्टोरिया को समर्पित है। इस स्मारक में शिल्पकला का सुंदर मिश्रण है। इसके मुगल शैली के गुंबदों में सारसेनिक और पुनर्जागरण काल की शैलियां दिखाई पड़ती हैं। मेमोरियल में एक शानदार संग्रहालय है, जहां रानी के पियानो और स्टडी-डेस्क सहित ३००० से अधिक वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं। यह रोजाना प्रात: १०.०० बजे से सायं ४.३० बजे तक खुलता है, सोमवार को यह बंद रहता है। सेंट पॉल कैथेड्रल चर्च शिल्पकला का अनूठा उदाहरण है, इसकी रंगीन कांच की खिड़कियां, भित्तिचित्र, ग्रांड-ऑल्टर, एक गॉथिक टावर दर्शनीय हैं। यह रोजाना प्रात: ९.०० बजे से दोपहर तक और सायं ३.०० बजे से ६.०० बजे तक खुलता है। नाखोदा मस्जिद लाल पत्थर से बनी इस विशाल मस्जिद का निर्माण १९२६ में हुआ था, यहां १०,००० लोग आ सकते हैं। मार्बल पैलेस, एम जी रोड पर स्थित आप इस पैलेस की समृद्धता देख सकते हैं। १८०० ई. में यह पैलेस एक अमीर बंगाली जमींदार का आवास था। यहां कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाएं और पेंटिंग हैं। सुंदर झूमर, यूरोपियन एंटीक, वेनेटियन ग्लास, पुराने पियानो और चीन के बने नीले गुलदान आपको उस समय के अमीरों की जीवनशैली की झलक देंगे। पारसनाथ जैन मंदिर, १८६७ में बना यह मंदिर वेनेटियन ग्लास मोजेक, पेरिस के झूमरों और ब्रूसेल्स, सोने का मुलम्मा चढ़ा गुंबद, रंगीन शीशों वाली खिड़कियां और दर्पण लगे खंबों से सजा है। यह रोजाना प्रात: ६.०० बजे से दोपहर तक और सायं ३.०० बजे से ७.०० बजे तक खुलता है। बेलूर मठ, बेलूर मठ रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय है, इसकी स्थापना १८९९ में स्वामी विवेकानंद ने की थी, जो रामकृष्ण के शिष्य थे। यहां १९३८ में बना मंदिर हिंदु, मुस्लिम और इसाईशैलियों का मिश्रण है। यह अक्टूबर से मार्च केदौरान प्रात: ६.३० बजे से ११.३० बजे तक और सायं ३.३० बजे से ६.०० बजे तक तथा अप्रैल से सितंबर तक प्रात: ६.३० बजे से ११.३० बजे तक और सायं ४.०० बजे से ७.०० बजे तक खुलता है। दक्षिणेश्वर काली मंदिर हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित यह मां काली का मंदिर है, जहां श्री रामकृष्ण परमहंस एक पुजारी थे और जहां उन्हें सभी धर्मों में एकता लाने की अनुभूति हुई। काली मंदिर सडर स्ट्रीट से ६ कि॰मी॰ दक्षिण में यह शानदार मंदिर कोलकाता की संरक्षक देवी काली को समर्पित है। काली का अर्थ है "काला"। काली की मूर्ति की जिह्वा खून से सनी है और यह नरमुंडों की माला पहने हुए है। काली, भगवान शिव की अर्धांगिनी, पार्वती का ही विनाशक रूप है। पुराने मंदिर के स्थान पर ही वर्तमान मंदिर १८०९ में बना था। यह प्रात: ३.०० बजे से रात्रि ८.०० बजे तक खुलता है। मदर टेरेसा होम्स इस स्थान की यात्रा आपकी कोलकाता यात्रा को एक नया आयाम देगी। काली मंदिर के निकट स्थित यह स्थान सैंकड़ों बेघरों और "गरीबों में से भी गरीब लोगों" का घर है - जो मदर टेरेसा को उद्धृत करता है। आप अपने अंशदान से जरुरतमंदों की मदद कर सकते हैं। बॉटनिकल गार्डन्स कई एकड़ में फैली हरियाली, पौधों की दुर्लभ प्रजातियां, सुंदर खिले फूल, शांत वातावरण...यहां प्रकृ ति के साथ शाम गुजारने का एक सही मौका है। नदी के पश्चिमी ओर स्थित इस गार्डन में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बरगद का पेड़ है, जो १०,००० वर्ग मीटर में फैला है, इसकी लगभग ४२० शाखाएं हैं।
भगिनी देश और उनका शहर
इन्हें भी देखें
कोलकाता की संस्कृति
कोलकाता के दर्शनीय स्थल
भारत की १० प्रसिद्ध स्ट्रीट मार्केट
पश्चिम बंगाल के शहर
कोलकाता ज़िले के नगर |
लीबिया (), आधिकारिक तौर पर 'महान समाजवादी जनवादी लिबियाई अरब जम्हूरिया' ( अल-जमरिय्याह अल-अरबिय्याह अल-ल्बिय्याह आ-अबिय्याह अल-इतिरकिय्याह अल-उम), उत्तरी अफ़्रीका में स्थित एक देश है। इसकी सीमाएं उत्तर में भूमध्य सागर, पूर्व में मिस्र, उत्तरपूर्व में सूडान, दक्षिण में चाड व नाइजर और पश्चिम में अल्जीरिया और ट्यूनीशिया से मिलती है।
करीबन १,८००,०० वर्ग किमी (६९४,९८४ वर्ग मील) क्षेत्रफल वाला यह देश, जिसका ९० प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल है, अफ़्रीका का चौथा और दुनिया का १७ वां बड़ा देश है। देश की ५७ लाख की आबादी में से १७ लाख राजधानी त्रिपोली में निवास करती है। सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से यह इक्वीटोरियल गिनी के बाद अफ्रीका का दूसरा समृद्ध देश है। इसके पीछे मुख्य कारण विपुल तेल भंडार और कम जनसंख्या है।
लीबिया १९५१ मे आजाद हुआ था एवं इस्क नाम 'युनाइटेड लीबियन किंगडम' () रखा गया। जिसका नाम १९६३ मे 'किंगडम ऑफ लीबिया' () हो गया। १९६९ के तख्ता-पलट के बाद इस देश का नाम 'लिबियन अरब रिपब्लिक' रखा गया। १९७७ में इसका नाम बदलकर 'महान समाजवादी जनवादी लिबियाई अरब जम्हूरिया' रख दिया गया।
लिबिया राज्य उत्तर में भूमध्य सागर से, दक्षिण में चैड प्रजातंत्र एवं नाइजर प्रजातंत्र से, पश्चिम में ट्युनिज़िया एवं अजलीरिया से तथा पूर्व में संयुक्त अरब गणराज्य एवं सूडान से घिरा हुआ है। इस संघ राज्य का संपूर्ण क्षेत्रफल १७,५९,५०० वर्ग किलोमीटर है।
भूमध्य सागर एवं रेगिस्तान के प्रभाव के कारण मौसमी परिवर्तन हुआ करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में ट्रिपोलिटैनिया के समुद्री किनारे का ताप ४१ डिग्री सें. से ४६ डिग्री सें. के मध्य रहता है। सुदूर दक्षिण में ताप्त अपेक्षाकृत ऊँचा रहता है। उत्तरी सिरेनेइका का ताप २७ डिग्री सें. से लेकर ३२ डिग्री सें. के मध्य रहता है। टोब्रुक (टोबरूक) का जनवरी का औसत ताप १३ डिग्री सें. तथा जुलाई और औसत ताप २६ डिग्री सें. रहता है। भिन्न भिन्न क्षेत्रों में वर्षा का औसत भिन्न भिन्न है। ट्रिपोलिटैनिया तथा सिरेनेइका के जाबाल क्षेत्र में वार्षिक वर्षा का औसत १५ से २० इंच तक है। अन्य क्षेत्रों में आठ इंच से कम वर्षा होती है। वर्षा प्राय: अल्पकालीन शीत ऋतु में होती है और इसके कारण बाढ़ आ जाती है।
यहाँ अनेक प्रकार के आवर्धित फल के पेड़, छुहारा, सदाबहार वृक्ष तथा मस्तगी (मस्टिक) के वृक्ष हैं। सुदूर उत्तर में बकरियाँ तथा मवेशी पाले जाते हैं। दक्षिण में भेड़ों और ऊटों की संख्या अधिक है। चमड़ा कमाने, जूते, साबुन, जैतून का तले निकालने तथा तेल के शोधन करने के कारखाने हैं। यहाँ सन् १९६३ में एक सीमेंट फैक्टरी की स्थापना की गई है। जौ और गेहूँ की खेती होती है।
यहाँ पेट्रोलियम के अतिरिक्त फ़ॉस्फ़ेट, मैंगनीज़, मैग्नीशियम तथा पोटैशियम मिलते हैं। खानेवाला समुद्री नमक यहाँ का प्रमुख खनिज है।
ट्रिपोली तथा बेंगाज़ि यहाँ की संयुक्त राजधानियाँ हैं। अप्रैल, १९६३ ई. में संविधान का संशोधन हुआ, जिसके अनुसार स्त्रियों को मताधिकार दिया गया और संघीय शासनव्यवस्था के स्थान पर केंद्रीय शासनव्यवस्था लागू की गई। इस नई व्यवस्था की दस इकाइयाँ हैं, जिनके प्रधान अधिकारी 'मुहाफिद' कहलाते हैं।
सेबहा से ट्रिपोली तक तट के साथ साथ तथा देश के भीतरी भाग में अच्छी सड़कें हैं। यहाँ पर्याप्त संख्या में हल्की रेल लाइनें हैं। ट्रिपोली, बेंगाज़ि तथा टाब्रुक बंदरगाह है। इद्रिस तथा बेनिना यहाँ के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं।
लीबिया १,७५ ९,५४० वर्ग किलोमीटर (67९,३६२ वर्ग मील) से अधिक है, जो इसे आकार में दुनिया का १6 वां सबसे बड़ा देश बनाता है। लीबिया भूमध्य सागर से उत्तर में है, पश्चिम में ट्यूनीशिया और अल्जीरिया, दक्षिणपश्चिम नाइजर, चाड द्वारा दक्षिण, सूडान द्वारा दक्षिणपूर्व और पूर्व में मिस्र द्वारा। लीबिया अक्षांश १९ डिग्री और ३४ डिग्री एन, और अक्षांश ९ डिग्री और २६ डिग्री ई के बीच है।
१,७७० किलोमीटर (१,१00 मील) पर, लीबिया की तटरेखा भूमध्यसागरीय सीमा के किसी भी अफ्रीकी देश का सबसे लंबा है।. लीबिया के उत्तर में भूमध्य सागर के हिस्से को अक्सर लीबिया सागर कहा जाता है। जलवायु प्रकृति में ज्यादातर शुष्क और रेगिस्तानी है। हालांकि, उत्तरी क्षेत्र हल्के भूमध्य जलवायु का आनंद लेते हैं।.
प्राकृतिक रूप गर्म, शुष्क, धूल से भरे सिरोको के रूप में आती हैं (लीबिया में गिब्ली के रूप में जाना जाता है)। यह वसंत और शरद ऋतु में एक से चार दिनों तक उड़ने वाली दक्षिणी हवा है। वहां धूल तूफान और मिट्टी के तूफ़ान भी हैं। ओसा भी पूरे लीबिया में बिखरे हुए पाए जा सकते हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण घाडम्स और कुफरा हैं। रेगिस्तान पर्यावरण की मौजूदा उपस्थिति के कारण लीबिया दुनिया के सबसे सुन्दर और सूखे देशों में से एक है।
लीबिया के पहले निवासी बर्बर जनजाति के थे। ७ वीं शताब्दी में ईसापूर्व में , फोएनशियनों ने लीबिया के पूर्वी हिस्से को उपनिवेशित किया, जिसे साइरेनाका कहा जाता है, और यूनानियों ने पश्चिमी भाग का उपनिवेश किया, जिसे त्रिपोलिटानिया कहा जाता है। त्रिपोलिटानिया कार्थगिनियन नियंत्रण हिस्सा था। यह ४६ ईस्वी से रोमन साम्राज्य का हिस्सा बन गया। पहली शताब्दी ईस्वी में साइरेनिका रोमन साम्राज्य से संबंधित था। जिसके बाद ६४२ ईस्वी में अरबो ने हमला किया था और विजयी प्राप्त की। १६ वीं शताब्दी में, त्रिपोलिटानिया और साइरेनाका दोनों नाममात्र रूप से तुर्क साम्राज्य का हिस्सा बन गए।
१ ९ ११ में इटली और तूर्की के बीच शत्रुता के फैलने के बाद, इतालवी सैनिकों ने त्रिपोली पर कब्जा कर लिया। लिबिया ने १९१4 ईस्वी तक इटाली से लड़ना जारी रखा, जिसके द्वारा इटली ने अधिकांश भूमि को नियंत्रित किया। इटली ने १९34 में लीबिया को उपनिवेश के रूप में औपचारिक रूप से एकजुट ट्रिपोलिटानिया और साइरेनाका को जोड़ा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लीबिया एक रेगिस्तानी लड़ाई का दृश्य था। २३ जनवरी, १९४३ को त्रिपोली के पतन के बाद, यह सहयोगी प्रशासन के अधीन आया। १९४९ में, संयुक्त राष्ट्र ने मतदान किया कि लीबिया स्वतंत्र होना चाहिए, और १९५१ में यह लीबिया यूनाइटेड किंगडम बन गया। १९५८ में गरीब देश में तेल की खोज हुई और अंततः इसकी अर्थव्यवस्था में बदलाव आया।
इस राष्ट्र में निम्न लिखित प्रान्त है-
अलजबल अलणख़ज़र प्रान्त
उल्लू अहात प्रान्त
वादी अलहयाऩ प्रान्त
तरह बिल्ल्स् प्रान्त
अलनक़ात अलख़मस प्रान्त
अलजबल अलगर बी प्रान्त
वादी अलिशा ती-ए- प्रान्त
लीबिया में लगभग ९७% आबादी मुसलमान हैं, जिनमें से अधिकतर सुन्नी शाखा से संबंधित हैं। इबादी मुसलमानों और अहमदीयो की छोटी संख्या देश में रहती है।. जिसके बाद ईसाई, बुद्ध, यहूदी धर्मो के अनुयायी एक अल्पशंकयक के रूप में निवास करते है।
इन्हें भी देखें
लीबिया गृहयुद्ध (२०१४-वर्तमान)
अफ़्रीका के देश
अरबी-भाषी देश व क्षेत्र |
मलेशिया दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित एक उष्णकटिबंधीय देश है। यह मलय सागर से दो भागों में विभाजित है। मलय सागरय प्रायद्वीप पर स्थित मुख्य भूमि के पश्चिम तट पर मलक्का जलडमरू और इसके पूर्व तट पर मलय सागर है। देश का दूसरा हिस्सा, जिसे कभी-कभी पूर्व मलेशिया के नाम से भी जाना जाता है, चीन से लगे उत्तरी मलय सागर में बोर्नियो द्वीप के उत्तरी भाग पर स्थित है। मलय प्रायद्वीप पर स्थित कुआलालंपुर देश की राजधानी है, लेकिन हाल ही में संघीय राजधानी को खासतौर से प्रशासन के लिए बनाए गए नए शहर पुत्रजया में स्थानांतरित कर दिया गया है। यह १३ राज्यों से बनाया गया एक एक संघीय राज्य है।
मलेशिया में चीनी, मलय और भारतीय जैसे विभिन्न जातीय समूह निवास करते हैं। यहाँ की आधिकारिक भाषा मलय है, लेकिन शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में ज्यादातर अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जाता है। मलेशिया में १३० से ज्यादा बोलियाँ बोली जाती हैं, इनमें से ९४ मलेशियाई बोर्नियो में और ४० प्रायद्वीप में बोली जाती हैं,युवा वर्ग मे अंग्रेजी भाषा अधिक लोकप्रिय है। यद्यपि देश सरकारी धर्म इस्लाम है, लेकिन नागरिकों को अन्य धर्मों को मानने की स्वतंत्रता है।
मलेशिया, चीन और भारत के बीच प्राचीन काल से व्यापारिक केंद्र था। जब यूरोपीय लोग इस क्षेत्र में आए तो उन्होंने मलक्का को महत्वपूर्ण व्यापार बंदरगाह बनाया। कालांतर में मलेशिया ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश बन गया। इसका प्रायद्वीपीय भाग ३१ अगस्त १९५७ को फेडरेशन मलाया के रूप में स्वतंत्र हुआ। १९६३ में मलाया, सिंगापुर और बोर्नियो हिस्से साथ मिलकर मलेशिया बन गए। १९६५ सिंगापुर अलग होकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की।
राजनीति और अर्थव्यवस्था की स्तिथि
मलेशिया १३ राज्य हैं और तीन संघीय प्रदेश है। मलेशिया का प्रमुख यांग डी-पेर्तुआन अगांग के रूप में जाना जाता है, जिसे सामान्यतः "मलेशिया का राजा" कहा जाता है। यह पदवी वर्तमान में सुल्तान मिज़ान जैनुल अबीदीन धारण किए हुए हैं। मलेशिया में शासन के प्रमुख प्रधानमंत्री हैं। मलेशिया आसियान का सदस्य है। इसकी अर्थव्यवस्था लगातार बढ़ रही है और यह दक्षिण पूर्व एशिया में एक अपेक्षाकृत समृद्ध देश है। देश के प्रमुख शहरों में कुआलालंपुर, जॉर्ज टाउन, ईपोह और जोहोर बाहरु हैं।
मलेशिया में मलय और सम्बन्धित जातियों का बाहुल्य है और सन् २०१२ में जनसंख्या में उनका हिस्सा ६७% मापा गया था। लेकिन साबाह में यह केवल २६% और सारावाक में केवल २१% था। क्षेत्रफल में मुख्यभूमि मलेशिया (जो पश्चिमी मलेशिया भी कहलाता है) देश के कुल क्षेत्रफल का केवल ४०% है, जबकि साबाह-सारावाक ६०% है, लेकिन मुख्यभूमि का जन-घनत्व साबाह-सारावाक से बहुत अधिक है। मलेशिया की सरकार पर आरोप है कि वह जातीयता बदलने के लिए मुख्यभूमि से साबाह व सारावाक में मलय लोग भेज रही है, जिस से अलगाववादी भावना भड़कती है। साबाह सारावाक केलुआर मलेशिया जैसे संगठन साबाह और सारावाक को मलेशिया से स्वतंत्र करवाने का प्रयास कर रहे हैं।
मलेशिया एक बहु धार्मिक समाज है और मलेशिया में प्रमुख धर्म इस्लाम है। २०१० में सरकार की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, यहां के प्रमुख धर्मावलंबियों में मुसलमान (६१.३%), बौद्ध (१९.८%), ईसाई (९.२%), हिंदू (६.३%) और कन्फ्यूशीवाद, ताओ धर्म और अन्य पारंपरिक चीनी धर्मों (१.३%), शामिल हैं।
मलेशिया एक बहु जातीय, बहु सांस्कृतिक और बहुभाषी समाज है, जहां मलय और अन्य देशी जनजाति ६५%, चीनी २५% और ७% भारतीय शामिल है। देश की बहुसंख्यक समुदाय के रूप में सभी मलय मुस्लिम हैं, क्योंकि मलेशियाई कानून के तहत मलय होने के लिए मुस्लिम होना जरूर है। मलय राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं और इनकी भूमिपुत्र के रूप में पहचान होती है। उनकी मूल भाषा मलय (बहसा मेलायू) है।
कुआलालम्पुर शहर में सड़कों का जाल बिछा हुआ है। सब कुछ इतना सुनियोजित है कि आगंतुक को कोई दिक्कत नहीं होती। शहर को जानने के लिए सबसे पहली जगह है इस्ताना निगारा। यह मलेशिया के राजा के रहने का स्थान है। इसके अलावा शहर की पहचान पेट्रोनस जुड़वा मीनार से भी है, जो कुआलालम्पुर शहर में कहीं से भी थोड़ी सी ऊँचाई से नजर आ जाते हैं। ४५१.९ मीटर ऊँचे इन टॉवर्स में ८६ मंजिलें हैं, परंतु पर्यटकों को ४१वीं मंजिल पर स्थित पुल तक जाने दिया जाता है। इसके लिए कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता और एक दिन में निश्चित संख्या में ही पर्यटक जा सकते हैं। पेट्रोनस टॉवर्स के पास ही कुआलालम्पुर सिटी सेन्टर पार्क बनाया गया है, जिसमें 1९00 से ज्यादा पॉम के पेड़ लगाए गए हैं। इसके अलावा केएल टॉवर, केएलसीसी एक्वेरियम देखने लायक हैं। पाँच हजार स्के.फुट में फैले इस एक्वेरियम में १५० तरह की मछलियाँ हैं। इसमें एक ९0 मीटर की टनल भी है, जिसमें ऐसा एहसास होता है कि आप समुद्र के भीतर से ही इन्हें देख रहे हैं। इसके अलावा नेशनल प्लेनेटोरियम, आर्किड पार्क, बटरफ्लाई पार्क आदि भी काफी खूबसूरत हैं।
कुआलालम्पुर में शॉपिंग करने के लिए काफी सारे मॉल्स हैं। ३४५०००० स्के. फुट में फैले बरजाया टाइम स्क्वेअर मॉल मलेशिया का सबसे बड़ा मॉल है। इसमें विश्व के सर्वश्रेष्ठ ब्रांड्स उपलब्ध हैं।
यहाँ के कुछ छोटे मॉल्स में मोल-भाव भी किया जा सकता है। सन वे सिटी होटल में स्थित वॉटर पार्क काफी बड़ा है। इसके पास ही लगा हुआ मॉल छः मंजिला है तथा इसमें आईस स्केटिंग करने की व्यवस्था भी है।
मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर है, परंतु बढ़ती जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कुआलालम्पुर से आधे घंटे की दूरी पर प्रशासनिक राजधानी पुत्रजया को बनाया गया है। यह इतनी भव्य है कि इसे देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि कोई भी सरकारी काम इतने कम समय में कैसे पूर्ण हो सकता है। यहाँ झील भी बनाई गई है और आधुनिक सुविधाओं से लैसे बहुत बड़े कन्वेशन सेंटर भी हैं।
सरकारी कर्मचारियों के रहने के लिए झील के किनारे मकान बनाए गए हैं तो प्रधानमंत्री कार्यालय भी काफी खूबसूरत है। धीरे-धीरे यहाँ विभिन्न देशों के दूतावास भी बनाए जा रहे हैं। सम्पूर्ण पुत्रजया घूमने के लिए क्रुज यात्रा काफी अच्छी सुविधाजनक है।
कैमरुन हाईलैंड्स से ५ घंटे का सफर तय कर कुवाला कैद्दाह पहुँचा जा सकता है। यहाँ से लंकावी आईलैंड लगभग डेढ़ घंटे की दूरी पर है। यह सफर फैरी से तय करना पड़ता है। फैरी सम्पूर्ण सुविधायुक्त होती है तथा इसमें बाकायदा फिल्म दिखाने की व्यवस्था होती है। लंकावी ड्यूटी फ्री आईलैंड है।
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश
दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र |
मई ग्रेगोरी कैलेंडर के वर्ष का पांचवां महीना है जिसमे ३१ दिन होते हैं।
१ मई - मई दिवस, मजदूर दिवस।
२२ मई - विश्व जैव विविधता दिवस |
पृथ्वी (प्रतीक: ) सौर मण्डल में सूर्य से तीसरा ग्रह है और एकमात्र खगोलीय वस्तु है जो जीवन को आश्रय देने के लिए जाना जाता है। इसकी सतह का ७१% भाग जल से तथा २९% भाग भूमि से ढका हुआ है। इसकी सतह विभिन्न प्लेटों से बनी हुए है। इस पर जल तीनो अवस्थाओं में पाया जाता है। इसके दोनों ध्रुवों पर बर्फ की एक मोटी परत है।
रेडियोमेट्रिक डेटिंग अनुमान और अन्य सबूतों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति ४.5४ अरब साल पहले हुई थी। पृथ्वी के इतिहास के पहले अरब वर्षों के भीतर जीवों का विकास महासागरों में हुआ और पृथ्वी के वायुमण्डल और सतह को प्रभावित करना शुरू कर दिया जिससे अवायुजीवी और बाद में, वायुजीवी जीवों का प्रसार हुआ। कुछ भूगर्भीय साक्ष्य इंगित करते हैं कि जीवन का आरम्भ ४.१ अरब वर्ष पहले हुआ होगा। पृथ्वी पर जीवन के विकास के दौरान जैवविविधता का अत्यन्त विकास हुआ। हजारों प्रजातियाँ लुप्त होती गयी और हजारों नई प्रजातियाँ उत्पन्न हुई। इसी क्रम में पृथ्वी पर रहने वाली ९९% से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हैं। सूर्य से उत्तम दूरी, जीवन के लिए उपयुक्त जलवायु और तापमान ने जीवों में विविधता को बढ़ाया।
पृथ्वी का वायुमण्डल कई परतों से बना हुआ है। नाइट्रोजन और ऑक्सीजन की मात्रा सबसे अधिक है। वायुमण्डल में ओज़ोन गैस की एक परत है जो सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों को रोकती है। वायुमण्डल के घने होने से इस सूर्य का प्रकाश कुछ मात्रा में प्रवर्तित हो जाता है जिससे इसका तापमान नियन्त्रित रहता है। अगर कोई उल्का पिण्ड पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश कर जाता है तो वायु के घर्षण के कारण या तो जल कर नष्ट हो जाता है या छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाता है।
पृथ्वी की ऊपरी सतह कठोर है। यह पत्थरों और मृदा से बनी है। पृथ्वी का भूपटल कई कठोर खण्डों या विवर्तनिक प्लेटों में विभाजित है जो भूगर्भिक इतिहास के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान को विस्थापित हुए हैं। इसकी सतह पर विशाल पर्वत, पठार, महाद्वीप, द्वीप, नदियाँ, समुद्र आदि प्राकृतिक सरंचनाएँ है। पृथ्वी की आन्तरिक रचना तीन प्रमुख परतों में हुई है भूपटल, भूप्रावार और क्रोड। इसमें से बाह्य क्रोड तरल अवस्था में है और एक ठोस लोहे और निकल के आतंरिक कोर के साथ क्रिया करके पृथ्वी मे चुम्बकत्व या चुम्बकीय क्षेत्र को पैदा करता है। पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र विभिन्न प्रकार के आवेशित कणों को प्रवेश से रोकता है।
पृथ्वी सूर्य से लगभग १५ करोड़ किलोमीटर दूर स्थित है। दूरी के आधार पर यह सूर्य से तीसरा ग्रह है। यह सौर मण्डल का सबसे बड़ा चट्टानी पिण्ड है। पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर ३६५ दिनों में पूरा करती है। यह अपने अक्ष पर लम्बवत २३.५ डिग्री झुकी हुई है। इसके कारण इस पर विभिन्न प्रकार के मौसम आते हैं। अपने अक्ष पर यह २४ घण्टे में एक चक्कर पूरा करती है जिससे इस पर दिन और रात होती है। चन्द्रमा के पृथ्वी के निकट होने के कारण यह पृथ्वी पर मौसम के लिए दायी है। इसके आकर्षण के कारण इस पर ज्वार-भाटे उत्पन्न होता है। चन्द्रमा पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह है।
नाम और व्युत्पत्ति
पृथ्वी अथवा पृथिवी एक संस्कृत शब्द हैं जिसका अर्थ " एक विशाल धरा" निकलता हैं। एक अलग पौराणिकता के अनुसार, महाराज पृथु के नाम पर इसका नाम पृथ्वी रखा गया। इसके अन्य नामो में- धरा, भूमि, धरित्री, रसा, रत्नगर्भा इत्यादि सम्मिलित हैं।
पृथ्वी का आकार गोल है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है। भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से ४३ किलोमीटर (२७ मील) ज्यादा बड़ा है। इस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र से सतह की सबसे लम्बी दूरी, इक्वाडोर के भूमध्यवर्ती चिम्बोराज़ो ज्वालामुखी का शिखर तक की है। इस प्रकार पृथ्वी का औसत व्यास १२,७४२ किलोमीटर (७, ९१८ मील) है। कई जगहों की स्थलाकृति इस आदर्श पैमाने से अलग नजर आती हैं हालाँकि वैश्विक पैमाने पर यह पृथ्वी के त्रिज्या की तुलना नजरअंदाज ही दिखाई देता है: सबसे अधिकतम विचलन ०.1७% का मारियाना गर्त (समुद्रीस्तर से 1०,९११ मीटर (३५,७9७ फुट) नीचे) में है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट (समुद्र स्तर से ८,८4८ मीटर (२९,०२९ फीट) ऊपर) ०.१४% का विचलन दर्शाता है। यदि पृथ्वी, एक बिलियर्ड गेंद के आकार में सिकुड़ जाये तो, पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों जैसे बड़े पर्वत शृंखलाएँ और महासागरीय खाईयाँ, छोटे खाइयों की तरह महसूस होंगे, जबकि ग्रह का अधिकतर भू-भाग, जैसे विशाल हरे मैदान और सूखे पठार आदि, चिकने महसूस होंगे.
पृथ्वी की रचना में निम्नलिखित तत्वों का योगदान है
धरती का घनत्व पूरे सौरमंडल मे सबसे ज्यादा है।
बाकी चट्टानी ग्रह की संरचना कुछ अंतरो के साथ पृथ्वी के जैसी ही है। चन्द्रमा का केन्द्रक छोटा है, बुध का केन्द्र उसके कुल आकार की तुलना मे विशाल है, मंगल और चंद्रमा का मैंटल कुछ मोटा है, चन्द्रमा और बुध मे रासायनिक रूप से भिन्न भूपटल नही है, सिर्फ पृथ्वी का अंत: और बाह्य मैंटल परत अलग है। ध्यान दे कि ग्रहो (पृथ्वी भी) की आंतरिक संरचना के बारे मे हमारा ज्ञान सैद्धांतिक ही है।
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना शल्कीय अर्थात परतों के रूप में है जैसे प्याज के छिलके परतों के रूप में होते हैं। इन परतों की मोटाई का सीमांकन रासायनिक विशेषताओं अथवा यान्त्रिक विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। यांत्रिक लक्षणों के आधार पर पृथ्वी, स्थलमण्डल, दुर्बलता मण्डल, मध्यवर्ती आवरण, बाह्य सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) से बना हुआ हैं। रासायनिक संरचना के आधार पर इसे भूपर्पटी, ऊपरी आवरण, निचला आवरण, बाहरी सत्व(कोर) और आन्तरिक सत्व(कोर) में बाँटा गया है।
पृथ्वी की ऊपरी परत भूपर्पटी एक ठोस परत है, मध्यवर्ती आवरण अत्यधिक गाढ़ी परत है और बाह्य सत्व(कोर) तरल तथा आन्तरिक सत्व(कोर) ठोस अवस्था में है। आन्तरिक सत्व(कोर) की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या की लगभग पाँचवाँ हिस्सा है।
पृथ्वी के अन्तरतम की यह परतदार संरचना भूकम्पीय तरंगों के संचलन और उनके परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन पर आधारित है जिनका अध्ययन भूकम्पलेखी के आँकड़ों से किया जाता है। भूकम्प द्वारा उत्पन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगें पृथ्वी के अन्दर स्नेल के नियम के अनुसार प्रत्यावर्तित होकर वक्राकार पथ पर चलती हैं। जब दो परतों के बीच घनत्व अथवा रासायनिक संरचना का अचानक परिवर्तन होता है तो तरंगों की कुछ ऊर्जा वहाँ से परावर्तित हो जाती है। परतों के बीच ऐसी जगहों को दरार कहते हैं।
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी का स्रोतों को दो हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। प्रत्यक्ष स्रोत, जैसे ज्वालामुखी से निकले पदार्थो का अध्ययन, वेधन से प्राप्त आँकड़े इत्यादि, कम गहराई तक ही जानकारी उपलब्ध करा पते हैं। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष स्रोत के रूप में भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन अधिक गहराई की विशेषताओं के बारे में जानकारी देता है।
पृथ्वी की आंतरिक गर्मी, अवशिष्ट गर्मी के संयोजन से आती है ग्रहों में अनुवृद्धि से (लगभग २०%) और रेडियोधर्मी क्षय के माध्यम से (८०%) ऊष्मा उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी के भीतर, प्रमुख ताप उत्पादक समस्थानिक (आइसोटोप) में पोटेशियम-४०, यूरेनियम-२३८ और थोरियम-२३२ सम्मलित है। पृथ्वी के केन्द्र का तापमान ६,००० डिग्री सेल्सियस (१०,८३० डिग्री फ़ारेनहाइट) तक हो सकता है, और दबाव 3६0 जीपीए तक पहुंच सकता है। क्योंकि सबसे अधिक गर्मी रेडियोधर्मी क्षय द्वारा उत्पन्न होती है, वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के इतिहास की शुरुआत में, कम या आधा-जीवन के समस्थानिक के समाप्त होने से पहले, पृथ्वी का ऊष्मा उत्पादन बहुत अधिक था। धरती से औसतन ऊष्मा का क्षय ८७ एमडब्ल्यू एम -२ है, वही वैश्विक ऊष्मा का क्षय ४.४२१०13 डब्ल्यू हैं। कोर की थर्मल ऊर्जा का एक हिस्सा मेंटल प्लम्स द्वारा पृष्ठभागो की ओर ले जाया जाता है, इन प्लम्स से प्रबल ऊर्जबिन्दु तथा असिताश्म बाढ़ का निर्माण होता है। ऊष्माक्षय का अंतिम प्रमुख माध्यम लिथोस्फियर से प्रवाहकत्त्व के माध्यम से होता है, जिसमे से अधिकांश महासागरों के नीचे होता है क्योंकि यहाँ भु-पपर्टी, महाद्वीपों की तुलना में बहुत पतली होती है।
पृथ्वी का कठोर भूपटल कुछ ठोस प्लेटो मे विभाजित है जो निचले द्रव मैंटल पर स्वतण्त्र रूप से बहते रहते है, जिन्हें विवर्तनिक प्लेटें कहते है। ये प्लेटें, एक कठोर खण्ड की तरह हैं जोकि परस्पर तीन प्रकार की सीमाओं से एक दूसरे की ओर बढ़ते हैं: अभिसरण सीमाएं, जिस पर दो प्लेटें एक साथ आती हैं, भिन्न सीमाएं , जिस पर दो प्लेटें अलग हो जाती हैं, और सीमाओं को बदलना, जिसमें दो प्लेटें एक दूसरे के ऊपर-नीचे स्लाइड करती हैं। इन प्लेट सीमाओं पर भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधि, पहाड़-निर्माण, और समुद्री खाई का निर्माण हो सकता है।
जैसे ही विवर्तनिक प्लेटों स्थानान्तरित होती हैं, अभिसरण सीमाओं पर महासागर की परत किनारों के नीचे घटती जाती है। उसी समय, भिन्न सीमाएं से ऊपर आने का प्रयास करती मेन्टल पदार्थ, मध्य-समुद्र में उभार बना देती है। इन प्रक्रियाओं के संयोजन से समुद्र की परत फिर से मेन्टल में पुनर्नवीनीकरण हो जाती हैं। इन्हीं पुनर्नवीनीकरण के कारण, अधिकांश समुद्र की परत की उम्र १०० मेगा-साल से भी कम हैं। सबसे पुराना समुद्री परत पश्चिमी प्रशान्त सागर में स्थित है जिसकी अनुमानित आयु २०० मेगा-साल है।
(वर्तमान में) आठ प्रमुख प्लेट:
उत्तर अमेरिकी प्लेट उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी उत्तर अटलाण्टिक और ग्रीनलैण्ड
दक्षिण अमेरिकी प्लेट दक्षिण अमेरिका और पश्चिमी दक्षिण अटलाण्टिक
अंटार्कटिक प्लेट अण्टार्कटिका और दक्षिणी महासागर
यूरेशियाई प्लेट पूर्वी उत्तर अटलाण्टिक, यूरोप और भारत के अलावा एशिया
अफ्रीकी प्लेट अफ्रीका, पूर्वी दक्षिण अटलांटिक और पश्चिमी हिन्द महासागर
भारतीय -आस्ट्रेलियाई प्लेट भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड और हिन्द महासागर के अधिकांश
नाज्का प्लेट पूर्वी प्रशान्त महासागर से सटे दक्षिण अमेरिका
प्रशान्त प्लेट प्रशान्त महासागर के सबसे अधिक (और कैलिफोर्निया के दक्षिणी तट)
५ करोड़ से ५.५ करोड़ वर्ष पहले ऑस्ट्रेलियाई प्लेट, भारतीय प्लेट के साथ जुड़ गई। सबसे तेजी से बढ़ते प्लेटें में महासागर की प्लेटें हैं, जिसमें कोकोस प्लेट 7५ मिमी/ वर्ष की दर से बढ़ रही है और वही प्रशान्त प्लेट ५2-६९ मिमी/वर्ष की दर से आगे बढ़ रही है। वही दूसरी ओर, सबसे धीमी गति से चलती प्लेट, यूरेशियन प्लेट है, जो २१ मिमी/वर्ष की एक विशिष्ट दर से बढ़ रही है।
पृथ्वी की कुल सतह क्षेत्र लगभग ५१ करोड़ किमी२ (१९.७ करोड़ वर्ग मील) है। जिसमे से ७0.८%, या ३६.११३ करोड़ किमी२ (१३.९४३ करोड़ वर्ग मील) क्षेत्र समुद्र तल से नीचे है और जल से भरा हुआ है। महासागर की सतह के नीचे महाद्वीपीय शेल्फ का अधिक हिस्सा है, महासागर की सतह, महाद्वीपीय शेल्फ, पर्वत, ज्वालामुखी, समुद्री खन्दक, समुद्री-तल दर्रे, महासागरीय पठार, अथाह मैदानी इलाके, और मध्य महासागर रिड्ज प्रणाली से बहरी पड़ी हैं। शेष २9.२% (१४.८94 करोड़ किमी२, या ५.७५१ करोड़ वर्ग मील) जोकि पानी से ढँका हुआ नहीं है, जगह-जगह पर बहुत भिन्न है और पहाड़ों, रेगिस्तान, मैदानी, पठारों और अन्य भू-प्राकृतिक रूप में बँटा हुआ हैं। भूगर्भीय समय पर धरती की सतह को लगातार नयी आकृति प्रदान करने वाली प्रक्रियाओं में विवर्तनिकी और क्षरण, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, अपक्षय, हिमाच्छेद, प्रवाल भित्तियों का विकास, और उल्कात्मक प्रभाव इत्यादि सम्मलित हैं।
महाद्वीपीय परत, कम घनत्व वाली सामग्री जैसे कि अग्निमय चट्टानों ग्रेनाइट और एंडसाइट के बने होते हैं। वही बेसाल्ट प्रायः काम पाए जाने वाला, एक सघन ज्वालामुखीय चट्टान हैं जोकि समुद्र के तल का मुख्य घटक है। अवसादी शैल, तलछट के संचय बनती है जोकि एक साथ दफन और समेकित हो जाती है।
महाद्वीपीय सतहों का लगभग ७५% भाग अवसादी शैल से ढका हुआ हैं, हालांकि यह सम्पूर्ण भू-पपटल का लगभग ५% हिस्सा ही हैं। पृथ्वी पर पाए जाने वाले चट्टानों का तीसरा रूप कायांतरित शैल है, जोकि पूर्व-मौजूदा शैल के उच्च दबावों, उच्च तापमान या दोनों के कारण से परिवर्तित होकर बनता है। पृथ्वी की सतह पर प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले सिलिकेट खनिजों में स्फटिक, स्फतीय (फेल्डस्पर्स), एम्फ़िबोले, अभ्रक, प्योरॉक्सिन और ओलिविइन शामिल हैं। आम कार्बोनेट खनिजों में कैल्साइट (चूना पत्थर में पाए जाने वाला) और डोलोमाइट शामिल हैं।
भूमि की सतह की ऊँचाई, मृत सागर में सबसे कम -४१८ मीटर, और माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर सबसे अधिक ८,८4८ मीटर है। समुद्र तल से भूमि की सतह की औसत ऊँचाई ८४० मीटर है। पेडोस्फीयर पृथ्वी की महाद्वीपीय सतह की सबसे बाहरी परत है और यह मिट्टी से बना हुआ है तथा मिट्टी के गठन की प्रक्रियाओं के अधीन है। कुल कृषि योग्य भूमि, भूमि की सतह का १०.९% हिस्सा है, जिसके १.३% हिस्से पर स्थाईरूप से फसलें ली जाती हैं। धरती की ४०% भूमि की सतह का उपयोग चारागाह और कृषि के लिए किया जाता है।
पृथ्वी की सतह पर पानी की बहुतायत एक अनोखी विशेषता है जो सौर मंडल के अन्य ग्रहों से इस "नीले ग्रह" को अलग करती है। पृथ्वी के जलमंडल में मुख्यतः महासागर हैं, लेकिन तकनीकी रूप से दुनिया में उपस्थित अन्य जल के स्रोत जैसे: अंतर्देशीय समुद्र, झीलों, नदियों और २,००० मीटर की गहराई तक भूमिगत जल सहित इसमें शामिल हैं। पानी के नीचे की सबसे गहरी जगह १०,९११.४ मीटर की गहराई के साथ, प्रशान्त महासागर में मारियाना ट्रेंच की चैलेंजर डीप है।
महासागरों का द्रव्यमान लगभग १.३५१0१८ मीट्रिक टन या पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का १/४४०० हिस्सा है। महासागर औसतन ३६८२ मीटर की गहराई के साथ, ३.6१८१0८ किमी२ का क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जिसकी अनुमानित मात्रा १.३३२ १09 किमी३ हो सकती है। यदि सभी पृथ्वी की उबड़-खाबड़ सतह यदि एक समान चिकने क्षेत्र में के रूप में हो तो, महासागर की गहराई २.७ से २.८ किमी होगी। लगभग 9७.५% पानी खारा है; शेष २.५% ताजा पानी है, अधिकतर ताजा पानी, लगभग 6८.७%, बर्फ के पहाड़ो और ग्लेशियरों के बर्फ के रूप में मौजूद है।
पृथ्वी के महासागरों की औसत लवणता लगभग ३५ ग्राम नमक प्रति किलोग्राम समुद्री जल (३.५% नमक) होती है। ये नमक अधिकांशत: ज्वालामुखीय गतिविधि से निकालकर या शांत अग्निमय चट्टानों से निकल कर सागर में मिलते हैं। महासागर विघटित वायुमण्डलीय गैसों के लिए एक भंडारण की तरह भी है, जो कई जलीय जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक हैं। समुद्रीजल विश्व के जलवायु के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, यह एक बड़े ऊष्मा संग्रह की तरह कार्य करता हैं। समुद्री तापमान वितरण में बदलाव, मौसम बदलाव में गड़बड़ी का कारण हो सकता हैं, जैसे; एल नीनो।
पृथ्वी के वातावरण मे ७७% नाइट्रोजन, २१% आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल बाष्प है। पृथ्वी पर निर्माण के समय कार्बन डाय आक्साईड की मात्रा ज्यादा रही होगी जो चटटानो मे कार्बोनेट के रूप मे जम गयी, कुछ मात्रा मे सागर द्वारा अवशोषित कर ली गयी, शेष कुछ मात्रा जीवित प्राणियो द्वारा प्रयोग मे आ गयी होगी। प्लेट टेक्टानिक और जैविक गतिविधी कार्बन डाय आक्साईड का थोड़ी मात्रा का उत्त्सर्जन और अवशोषण करते रहते है। कार्बनडाय आक्साईड पृथ्वी के सतह का तापमान का ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा नियंत्रण करती है। ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा पृथ्वी सतह का तापमान ३५ डिग्री सेल्सीयस होता है अन्यथा वह -२१ डिग्री सेल्सीयस से १४ डिग्री सेल्सीयस रहता; इसके ना रहने पर समुद्र जम जाते और जीवन असम्भव हो जाता। जल बाष्प भी एक आवश्यक ग्रीन हाउस गैस है।
रासायनिक दृष्टि से मुक्त आक्सीजन भी आवश्यक है। सामान्य परिस्थिती मे आक्सीजन विभिन्न तत्वो से क्रिया कर विभिन्न यौगिक बनाती है। पृथ्वी के वातावरण मे आक्सीजन का निर्माण और नियन्त्रण विभिन्न जैविक प्रक्रियाओ से होता है। जीवन के बिना मुक्त आक्सीजन सम्भव नही है।
मौसम और जलवायु
पृथ्वी के वायुमण्डल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अन्तरिक्ष में लुप्त हो जाता है। वायुमण्डल के द्रव्यमान का तीन-चौथाई हिस्सा, सतह से ११ किमी (६.८ मील) के भीतर ही निहित है। सबसे निचले परत को ट्रोफोस्फीयर कहा जाता है। सूर्य की ऊर्जा से यह परत ओर इसके नीचे तपती है, और जिसके कारण हवा का विस्तार होता हैं। फिर यह कम-घनत्व वाली वायु ऊपर की ओर जाती है और एक ठण्डे, उच्च घनत्व वायु में प्रतिस्थापित हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही वायुमण्डलीय परिसंचरण बनता है जो तापीय ऊर्जा के पुनर्वितरण के माध्यम से मौसम और जलवायु को चलाता है।
प्राथमिक वायुमण्डलीय परिसंचरण पट्टी, ३० अक्षांश से नीचे के भूमध्य रेखा क्षेत्र में और ३० और ६० के बीच मध्य अक्षांशों में पच्छमी हवा की व्यापारिक पवन से मिलकर बने होते हैं।
जलवायु के निर्धारण करने में महासागरीय धारायें भी एक महत्वपूर्ण कारक हैं, विशेष रूप से थर्मोहेलिन परिसंचरण, जो भूमध्यवर्ती महासागरों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक ऊष्मीय ऊर्जा वितरित करती है।
सतही वाष्पीकरण से उत्पन्न जल वाष्प परिसंचरण तरीको द्वारा वातावरण में पहुँचाया जाता है। जब वायुमंडलीय स्थितियों के कारण गर्म, आर्द्र हवा ऊपर की ओर जाती है, तो यह वाष्प सघन हो वर्षा के रूप में पुनः सतह पर आ जाती हैं। तब अधिकांश पानी, नदी प्रणालियों द्वारा नीचे की ओर ले जाया जाता है और आम तौर पर महासागरों या झीलों में जमा हो जाती है। यह जल चक्र भूमि पर जीवन हेतु एक महत्वपूर्ण तंत्र है, और कालांतर में सतही क्षरण का एक प्राथमिक कारक है। वर्षा का वितरण व्यापक रूप से भिन्न हैं, कही पर कई मीटर पानी प्रति वर्ष तो कही पर एक मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती हैं। वायुमण्डलीय परिसंचरण, स्थलाकृतिक विशेषताएँ और तापमान में अन्तर, प्रत्येक क्षेत्र में औसत वर्षा का निर्धारण करती है।
बढ़ते अक्षांश के साथ पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली सौर ऊर्जा की मात्रा कम होते जाती है। उच्च अक्षांशों पर, सूरज की रोशनी निम्न कोण से सतह तक पहुँचती है, और इसे वातावरण के मोटे कतार के माध्यम से गुजरना होता हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री स्तर पर औसत वार्षिक हवा का तापमान, भूमध्य रेखा की तुलना में अक्षांशो में लगभग ०.४ डिग्री सेल्सियस (०.७ डिग्री फारेनहाइट) प्रति डिग्री कम होता है। पृथ्वी की सतह को विशिष्ट अक्षांशु पट्टी में, लगभग समरूप जलवायु से विभाजित किया जा सकता है। भूमध्य रेखा से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक, ये उष्णकटिबंधीय (या भूमध्य रेखा), उपोष्णकटिबंधीय, शीतोष्ण और ध्रुवीय जलवायु में बँटा हुआ हैं।
इस अक्षांश के नियम में कई विसंगतियाँ हैं:
महासागरों की निकटता जलवायु को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए, स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप में उत्तरी कनाडा के समान उत्तरी अक्षांशों की तुलना में अधिक उदार जलवायु है।
पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र है जो कि बाह्य केन्द्रक के विद्युत प्रवाह से निर्मित होता है। सौर वायू, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और उपरी वातावरण मीलकर औरोरा बनाते है। इन सभी कारको मे आयी अनियमितताओ से पृथ्वी के चुंबकिय ध्रुव गतिमान रहते है, कभी कभी विपरित भी हो जाते है।
पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र और सौर वायू मीलकर वान एण्डरसन विकिरण पट्टा बनाते है, जो की प्लाज्मा से बनी हुयी डोनट आकार के छल्लो की जोड़ी है जो पृथ्वी के चारो की वलयाकार मे है। बाह्य पट्टा १९००० किमी से ४१००० किमी तक है जबकि अतः पट्टा १३००० किमी से ७६०० किमी तक है।
कक्षा एवं परिक्रमण
सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमण अवधि (सौर दिन) ८६,४०० सेकेंड (८६,४००.००२५ एसआई सेकंड) का होता है। अभी पृथ्वी में सौर दिन, १९वीं शताब्दी की अपेक्षा प्रत्येक दिन ० और २ एसआई एमएस अधिक लंबा होता हैं जिसका कारण ज्वारीय मंदी का होना माना जाता हैं।
स्थित सितारों के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमण अवधि, जिसे अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी परिक्रमण और संदर्भ सिस्टम सेवा (आईआईएस) द्वारा एक तारकीय दिन भी कहा जाता है, औसत सौर समय (यूटी१) ८६,१6४.098909१ सेकंड, या २३ घण्टे ५६ मिनट और ४.098909१9१9८६ सेकेंड का होता है। वातावरण और निचली कक्षाओं के उपग्रहों के भीतर उल्काओं के अलावा, पृथ्वी के आकाश में आकाशीय निकायों का मुख्य गति पश्चिम की ओर १5 डिग्री/ घंटे = १5 '/ मिनट की दर से होती है।
अक्षीय झुकाव और मौसम
आवास हेतु उपयुक्तता
प्राकृतिक संसाधन और भूमि उपयोग
धरती में ऐसे कई संसाधन हैं जिसका मनुष्यों द्वारा शोषण किया गया है अनवीकरणीय संसाधन जैसे कि जीवाश्म ईंधन, केवल भूवैज्ञानिक समय-कालों पर नवीनीकृत होते हैं। कोयला, पेट्रोलियम, और प्राकृतिक गैस आदि जीवाश्म ईंधन के बड़े भंडार पृथ्वी की सतह के अंदर से प्राप्त होते हैं। मनुष्यों द्वारा इन संशाधनो का उपयोग ऊर्जा उत्पादन तथा फीडस्टॉक के तौर पर रासायनिक उत्पादन के लिए किया जाता है। अयस्क उत्पत्ति की प्रक्रिया के माध्यम से खनिज अयस्क निकायों का भी निर्माण यही होता है,
धरती में मनुष्य के लिए कई उपयोगी कई जैविक उत्पादों जैसे भोजन, लकड़ी, औषधि, ऑक्सीजन और कई जैविक अपशिष्टों के पुनर्चक्रण सहित का उत्पादन होता है, भूमि आधारित पारिस्थितिकी तंत्र, ऊपरी मिट्टी और ताजे पानी पर निर्भर करता है, और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र जमीन से बाह कर आये पोषक तत्वों पर निर्भर करता है। १९८० में, पृथ्वी की जमीन की सतह के ५,0५3 मिलियन हैक्टेयर (५0.५3 मिलियन किमी२) क्षेत्र पर जंगल थे, ६,७८८ मिलियन हैक्टेयर (६7.८८ मिलियन किमी२) पर घास के मैदान और चरागाह थे, और १,५0१ मिलियन हैक्टेयर (१५.0१ मिलियन किमी२) क्षेत्र पर फसल उगाया जाता था। १993 में सिंचित भूमि की अनुमानित क्षेत्र २,48१,२५0 वर्ग किलोमीटर (9५8,0२0 वर्ग मील) था। भवन निर्माण करके मनुष्य भी भूमि पर ही रहते हैं।
प्राकृतिक और पर्यावरणीय खतरें
पृथ्वी की सतह का एक बड़ा क्षेत्र, चरम मौसम जैसे; उष्णकटिबंधीय चक्रवात, तूफ़ान, या आँधी के अधीन हैं जोकि उन क्षेत्रों में जीवन को प्रभावित करते है। १९८० से २००० के बीच, इन घटनाओं के कारण औसत प्रति वर्ष ११,८०० मानव मारे गए हैं। कई स्थान भूकंप, भूस्खलन, सूनामी, ज्वालामुखी विस्फोट, बवंडर, सिंकहोल, बर्फानी तूफ़ान, बाढ़, सूखा, जंगली आग, और अन्य आपदाओं के अधीन हैं।
कई स्थानीय क्षेत्रों में वायु एवं जल प्रदूषण, अम्ल वर्षा और जहरीले पदार्थ, फसल का नुकसान (अत्यधिक चराई, वनों की कटाई, मरुस्थलीकरण), वन्यजीवों की हानि, प्रजातियां विलुप्त होने, मिट्टी की क्षमता में गिरावट, मृदा अपरदन और क्षरण आदि मानव निर्मित हैं।
एक वैज्ञानिक सहमति है की भूमण्डलीय तापक्रम वृद्धि के लिए मानव गतिविधियाँ ही जिम्मेदार हैं, जैसे: औद्योगिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन। जिसके कारण ग्लेशियरों और बर्फ की चादरों के पिघलने जैसे परिवर्तनों की भविष्यवाणी की गई है, अधिक चरम तापमान पर पर्वतमाला के बर्फो का पिघलना, मौसम में महत्वपूर्ण बदलाव और औसत समुद्री स्तरों में वैश्विक वृद्धि आदि सम्मलित हैं।
चन्द्रमा पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह है। यह सौरमंडल का पाचवाँ सबसे विशाल प्राकृतिक उपग्रह है जिसका व्यास पृथ्वी का एक चौथाई तथा द्रव्यमान १/८१ है। बृहस्पति के उपग्रह लो के बाद चन्द्रमा दूसरा सबसे अधिक घनत्व वाला उपग्रह है। सूर्य के बाद आसमान में सबसे अधिक चमकदार निकाय चन्द्रमा है। समुद्री ज्वार और भाटा चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आते है। चन्द्रमा की तात्कालिक कक्षीय दूरी, पृथ्वी के व्यास का ३० गुना है इसीलिए आसमान में सूर्य और चन्द्रमा का आकार हमेशा सामान नजर आता है। पृथ्वी के मध्य से चन्द्रमा के मध्य तक कि दूरी ३८४,४०३ किलोमीटर है। यह दूरी पृथ्वी कि परिधि के ३० गुना है। चन्द्रमा पर गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से १/६ है। यह पृथ्वी की परिक्रमा २७.३ दिन मे पूरा करता है और अपने अक्ष के चारो ओर एक पूरा चक्कर भी २७.३ दिन में लगाता है। यही कारण है कि हम हमेशा चन्द्रमा का एक ही पहलू पृथ्वी से देखते हैं। यदि चन्द्रमा पर खड़े होकर पृथ्वी को देखे तो पृथ्वी साफ़-साफ़ अपने अक्ष पर घूर्णन करती हुई नजर आएगी लेकिन आसमान में उसकी स्थिति सदा स्थिर बनी रहेगी अर्थात पृथ्वी को कई वर्षो तक निहारते रहो वह अपनी जगह से टस से मस नहीं होगी। पृथ्वी- चन्द्रमा-सूर्य ज्यामिति के कारण "चन्द्र दशा" हर २९.५ दिनों में बदलती है।
क्षुद्रग्रह और कृत्रिम उपग्रह
३७५३ क्रुथने और २००२ एए२९ सहित धरती में कम से कम पांच सह-कक्षीय क्षुद्रग्रह हैं। एक ट्रोजन क्षुद्रग्रह २०१० टीके७, अग्रणी लैग्रेज त्रिकोणीय बिंदु एल४ के आसपास पृथ्वी की कक्षा में सूर्य के चारों ओर भ्रमण करता रहता है।
पृथ्वी के करीब एक छोटा क्षुद्रग्रह [[२००६ आरएच१२०]], हर बीस साल में पृथ्वी-चंद्रमा प्रणाली के लगभग करीब तक पहुच जाता है। इस दौरान, यह संक्षिप्त अवधि के लिए पृथ्वी की परिक्रमा करने लगता है।
जून २०१६ तक, १,4१9 मानव निर्मित उपग्रह पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। वर्तमान में कक्षा में सबसे पुराना और निष्क्रिय उपग्रह वैनगार्ड १, और १6,००० से अधिक अंतरिक्ष मलबे के टुकड़े भी घूम रहे हैं। पृथ्वी का सबसे बड़ा कृत्रिम उपग्रह, अन्तर्राष्ट्रीय अन्तरिक्ष स्टेशन है।
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
इन्हें भी देखे
पृथ्वी प्रणाली विज्ञान
उसग्स भू-चुम्बकीय कार्यक्रम
नासा पृथ्वी वेधशाला
नासा के सौर मण्डल अन्वेषण द्वारा पृथ्वी की रूपरेखा
जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी के आकार में परिवर्तन
पृथ्वी पर महान व्यक्तियों के विचार
पृथ्वी से जुड़े कुछ ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य जो आप को पता होना चहिये
सौर मंडल के ग्रह |
ग्रेगरी पंचांग (कलेंडर) के अनुसार ईसा की बीसवीं शताब्दी १ जनवरी १90१ से 3१ दिसम्बर २००० तक मानी जाती है। कुछ इतिहासवेत्ता १9१4 से १992 तक को संक्षिप्त बीसवीं शती का नाम भी देते हैं।
(उन्नीसवी शताब्दी - बीसवी शताब्दी - इक्कीसवी शताब्दी - और शताब्दियाँ)
दशक: १९०० का दशक १९१० का दशक १९२० का दशक १९३० का दशक १९४० का दशक १९५० का दशक १९६० का दशक १९७० का दशक १९८० का दशक १९९० का दशक
समय के गुज़रने को रेकोर्ड करने के हिसाब से देखा जाये तो बीसवी शताब्दी वह शताब्दी थी जो १९०१ - २००० तक चली थी।
मनुष्य जाति के जीवन का लगभग हर पहलू बीसवी शताब्दी में बदल गया।
मौत की औसत
शिशु मौत की औसत
फ़ैलने वाली बिमारियाँ
उम्र की अपेक्षा
प्रसुती दौरान माँ के मरने की औसत
विशेष उन्नतियाँ तथा घटनाएँ
विज्ञान और तकनीक
स्वचालित वाहन आम मुसाफ़री का ज़रिया बन गया।
उडने वाले यंत्र तथा जेट इंजन के आविष्कार ने दुनिया को "छोटा" बनाने की इजाजत दे दी। अंतरिक्ष उडान ने ब्रह्माण्ड की जानकारी बढा दी और उपग्रह द्वारा वैश्विक संवाद संभव हुआ।
युद्ध और राजनीती
बढते राष्ट्रवाद और बढती राष्ट्रीय जागरूकता पहले विश्व युद्ध के मुख्य कारण थे। इस सदी में दो विश्व युद्ध हुए जिनमे सभी विश्व शक्तियाँ शामिल हुई जिनमे शामिल है जर्मनी, फ़्रान्स, इटली, जापान, अमरीका तथा ब्रिटन। पहले विश्व युद्ध ने कई देशों को जन्म दिया खास कर के पूर्वी यूरोप में।
रूस में साम्यवाद बढा और रूसी क्रान्ति हुई। दूसरे विश्व युद्ध के बाद साम्यवाद वैश्विक राजनीति
में एक मुख्य शक्ति बन गयी जो पूरे विश्व में फ़ैली: पूर्वी युरोप, चीन, इन्डोचीन और क्यूबा। इससे पश्चिमी दुनिया जिसका नेतृत्व अमरीका ने किया उसके साथ ठंडा युद्ध हुआ।
१९८० के दशक के अंत तक साम्यवाद के गिर जाने से अमरीका विश्व की एक मात्र शक्ति रह गयी। इसकी वजह से सोवियत संघ और युगोस्लाविया अलग अलग राष्ट्रों में बिखर गये जिनमे कई में राष्ट्रवाद फ़ैला हुआ था।
साम्राज्यवाद के अंत से अफ़्रीका और एशिया के कई देश आज़ाद हो गये। ठंडे युद्ध के दौरान इनमे से कई अपनी रक्षा के लिये अमरीका के साथ जुडे तो कई सोवियत संघ के साथ तो कई चीन के साथ।
विश्व के एक अरबी भाग में एक ज्यू राष्ट्र इज़राइल के घटन ने इस क्षेत्र में एक संघर्ष शुरु कर दिया। अरबी देशों में मौजूद बड़े बडे तेल के कुओं ने भी अपना असर इस पर डाला।
बीसवी शताब्दी की पाँच सबसे बडी त्रासदियाँ
(मौत के आँकडों में गिनी गयी)
दूसरा विश्व युद्ध तथा अडोल्फ़ हिटलर का राज्य (१९३७-१९४५), ५ करोड से ज़्यादा मौत जिसमे होलोकोस्ट भी शामिल है जिसमे युरोप के ज्यू समुदाय के दो तिहाई लोगों को मार डाला गया (६० लाख)।
माओ ज़ेडोंग का राज्य और चीन में अकाल (१९४९-१९७६), लगभग ५ करोड मरें।
जोसेफ़ स्टेलिन का राज्य (१९२४-१९५३), २ करोड से ज़्यादा मौत।
पहला विश्व युद्ध (१९१४-१९१८), १.५ करोड से ज्यादा मौत।
रूसी सिविल युद्ध (१९१८-१९२१), ८५ लाख से ज़्यादा मौत
संस्कृति और मनोरंजन
चलचित्र, संगीत और मीडिया का फ़ैशन और आम जीवन के सभी पहलुओं पर छाप रहा। अमरीका में बनने वाले चलचित्र में सबसे ज़्यादा पैसा लगने की वजह से वहाँ पर बनने वाले चलचित्र काफ़ी लोकप्रिय हुए जिसकी वजह से अमरीकी संस्कृति दुनिया भर में तेज़ी से फ़ैली।
सदी के पहले भाग में अमरीका और युरोप में राजनैतिक अधिकार प्राप्त करने के पश्चात औरतें इस सदी के दौरान अधिक स्वतंत्र हुई।
आधुनिक कला ने नये प्रकार बनाये।
खेलकूद समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गये। खेलकूद को दूरदर्शन पर देखना भी काफ़ी लोकप्रिय हुआ।
बीसवी शताब्दी में सबसे ज़्यादा पैसा कमाने वाले चलचित्र
स्टार वॉर्ज़ (१९७७)
स्टार वॉर्ज़ एपिसोड १: द फ़ेन्टम मेनेस (१९९९)
ई.टी. द एक्स्ट्रा-टेर्रेस्ट्रियल (१९८२)
ज्यूरेसिक पार्क (१९९३)
सबसे ज़्यादा प्रशंसित चलचित्र
बेटलशिप पोटेमकिन (१९२५)
सिटिज़न केन (१९४१)
द विज़र्ड ओफ़ ओज़ (१९३९)
२००१: अ स्पेस ओडिसी (१९६८)
द गॉडफादर (१९७२)
इट्ज़ अ वन्डरफ़ुल लाइफ़ (१९४६)
बिमारी और दवा
आधुनिक दवा पहले से काफ़ी अच्छी होने के बावजूद, इन्फ़्लुएन्ज़ा ने १९१८-१९१९ में २.५ करोड को मार डाला (स्पेनिश फ़्लू) जबकि ऐड्स कई को मार चुका है खासकरके अविकसित देशों में और इस सदी के दौरान इस का कोई इलाज नहीं मिल पाया।
दवा में विकास जैसे कि एंटिबायोटिक की उप्लब्धता ने बिमारियों से मरने वालों की कम की। गर्भनिरोधक दवा तथा ऑर्गन ट्रान्स्प्लान्ट की शोध हुई। क्लोनिंग संभव हुआ।
नेल्सन मंडेला, दक्षिण अफ़्रीका
रोबर्ट मुगाबे, ज़िंबाबवे
फ़्रेंक्लिन देलानो रूज़वेल्ट, अमरीका
जोन एफ़. केनेडि, अमरीका
रिचर्ड निक्सन, अमरीका
रोनल्ड रीगन, अमरीका
बिल क्लिंटन, अमरीका
फ़िडेल कैस्ट्रो, क्यूबा
महात्मा गांधी, भारत
माओ ज़ेडोंग, चीन
{सुभाष चंद्र बोस भारत}
{शहीद चंद्रशेखर आजाद भारत}
{शहीद भगत सिंह भारत}
भीमराव अम्बेडकर, भारत
जवाहरलाल नेहरू, भारत
एडोल्फ़ हिटलर, जर्मनी
हेल्मुट कोल, जर्मनी
गेर्हार्ड श्र्योडर , जर्मनी
बेनिटो मुसोलिनि, इटली
रूस और सोवियत संघ
अर्थशास्त्र और धंदा
पोप जोन २३वे
पोप जोन पौल दूसरे
कलकत्ता की मदर टेरेसा
लेखक और कवि
सर डोनल्ड ब्रेडमेन
ओसामा बिन लादेन
दशक और साल |
भोपाल भारत देश में मध्य प्रदेश राज्य की राजधानी है और भोपाल जनपद का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। भोपाल को राजा भोज की नगरी तथा 'झीलों की नगरी' भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ कई छोटे-बड़े तालाब हैं। यह नगर अचानक चर्चा में तब आ गया। जब १९८४ में अमरीकी कम्पनी, यूनियन कार्बाइड से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव से लगभग २०,००० लोग मारे गये थे।
भोपाल की प्रसिद्धि
भोपाल में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) का एक कारखाना है। हाल ही में भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र ने अपना दूसरा 'मास्टर कण्ट्रोल फ़ैसिलटी' यहाँ स्थापित किया है। भोपाल में ही भारतीय वन प्रबंधन संस्थान भी है जो भारत में वन प्रबन्धन का एकमात्र संस्थान है। साथ ही भोपाल उन छह नगरों में से एक है जिनमे २००३ में भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान खोलने का निर्णय लिया गया था जोकि वर्ष २०१५ से कार्यशील है। इसके अतिरिक्त यहाँ अनेक विश्वविद्यालय हैं जैसे कि राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय आदि। इसके अतिरिक्त अनेक राष्ट्रीय संस्थान जैसे मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भोपाल, भारतीय वन प्रबंधन संस्थान, भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान इंजीनियरिंग महाविद्यालय, गाँधी चिकित्सा महाविद्यालय, नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी तथा अनेक शासकीय एवं पब्लिक स्कूल हैं। भोपाल में कोलार तथा केरवा नदियाँ हैं। बेतवा नदी का उद्गम स्थल कोलाश्र बाँध के पास झिरी में है। मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक विरासत के कई साक्ष्य मौजूद है
इतिहास के अनुसार भोपाल का प्राचीन नाम भूपाल था जिसे राजा भूपाल शाह ने बसाया था। अर्थात् भू = भूमि, पाल=रक्षक।
कुछ इतिहासकारों को भ्रम है की इस शहर को राज भोज ने बसाया था। जो की पूर्णतः गलत है। राजा भोज जिस जगह इलाज कराने आए थे। उस शहर का नाम भोजपुर है। जो की भोपाल से ५० किलो मीटर दूर है।
भोपाल की स्थापना गोंड राजवंश के राजा भूपाल शाह ने ६६९-६७९ ईस्वी में की थी। उनके राज्य की राजधानी भूपाल ही था, जो अब मध्य प्रदेश का एक ज़िला है। शहर का पूर्व नाम 'भूपाल' था जो भूपाल से बना था। गोंड राजाओं के अस्त के बाद यह शहर कई बार लूट का शिकार बना। गोंड राजवंश के बाद भोपाल शहर में अफ़ग़ान सिपाही दोस्त मोहम्मद ख़ान (१७०८-१७४०) का शासन रहा है। मुग़ल साम्राज्य के विघटन का फ़ायदा उठाते हुए खान ने बेरासिया तहसील हड़प ली। कुछ समय बाद गोण्ड महारानी कमलापति की मदद करने के लिए ख़ान को भोपाल गाँव भेंट किया गया। रानी की मौत के बाद खान ने छोटे से गोण्ड राज्य पर कब्जा जमा लिया।
महारानी कमलापति गोण्ड महाराजा निज़ाम शाह की पत्नी थीं। राजा निज़ाम शाह की मृत्यु हो जाने पर महारानी कमलापति ने राज्य की बागडोर संभाली। भोपाल शहर के अन्दर बड़े तालाब के पास इनकी स्मृति के रूप में कमला पार्क का निर्माण किया गया है।साथ ही रानी कमलापति रेल्वे स्टेशन का नामकरण किया गया है।
१७२०-१७२६ के दौरान दोस्त मोहम्मद ख़ान ने भोपाल गाँव की किलाबन्दी कर इसे एक शहर में तब्दील किया। साथ ही उन्होंने नवाब की पदवी अपना ली और इस तरह से भोपाल राज्य की स्थापना हुई। मुग़ल दरबार के सिद्दीक़ी बन्धुओं से दोस्ती के नाते खान ने हैदराबाद के निज़ाम मीर क़मर-उद-दीन (निज़ाम-उल-मुल्क) से दुश्मनी मोल ले ली। सिद्दीक़ी बन्धुओं से निपटने के बाद १७२३ में निज़ाम ने भोपाल पर हमला कर दिया और दोस्त मोहम्मद खान को निज़ाम का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा।
मराठाओं ने भी भोपाल राज्य से चौथ (कुल लगान का चौथा हिस्सा) वसूली की। १७३७ में मराठाओं ने मुग़लों को भोपाल की लड़ाई में मात दी। खान के उत्तराधिकारियों ने १८१८ में ब्रिटिश हुकूमत के साथ सन्धि कर ली और भोपाल राज्य ब्रिटिश राज की एक रियासत बन गया। १९४७ में जब भारत को स्वतन्त्रता मिली, तब भोपाल राज्य की वारिस आबिदा सुल्तान पाकिस्तान चली गईं। उनकी छोटी बहन बेग़म साजिदा सुल्तान को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। १ जून १949 के दिन भोपाल राज्य का भारत में विलय हो गया।
भोपाल मेट्रो, भोपाल की एक निर्माणाधीन यातायात प्रणाली है। वर्तमान समय में भोपाल मेट्रो में दो मार्गों पर काम हो रहा है
लाइन २: करोंद चौराहा - भोपाल टॉकीज - रेलवे स्टेशन - भारत टॉकीज - पुल बोगदा - सुभाष नगर अंडरपास - डीबी मॉल - बोर्ड ऑफिस चौराहा - हबीबगंज नाका - अलकापुरी बस स्टॉप - अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान
मार्ग की लम्बाई: १४.९९ किमी
लाइन ५: डिपो चौराहा - जवाहर चौक - रोशनपुरा चौराहा - मिण्टो हॉल - लिली टॉकीज़ - जिन्सी डिपो - बोगदा पुल - प्रभात चौराहा - अप्सरा टॉकीज - गोविन्दपुरा इण्डस्ट्रियल एरिया - जे के रोड - रत्नागिरी चौराहा
मार्ग की लम्बाई: १२.८८ किमी
भोपाल गैस त्रासदी
भोपाल गैस काण्ड विस्तार में देखें।
भोपाल भारत के मध्य भाग में स्थित है और इसके निर्देशांक २३.२७ उ. एवं ७७.४ पू. हैं। यह विन्ध्य पर्वत शृंखला के पूर्व में है। भोपाल एक पहाड़ी इलाक़े पर स्थित है किन्तु इसका तापमान अधिकतर गर्म रहता है। इसका भू-भाग ऊँचा-नीचा है एवं इसके दायरे में कई छोटे पहाड़ हैं। उदाहरण के लिए श्यामला हिल, ईदगाह हिल, अरेरा हिल, कटारा हिल इत्यादि। यहाँ गर्मियाँ गर्म और सर्दियाँ सामान्य ठण्डी रहती हैं। बारिश का मौसम जून से ले के सितम्बर-अक्टूबर तक रहता है और सामान्य वर्षा दर्ज की जाती है। २०१९ मानसून में भोपाल में ४0 वर्षों में सबसे अधिक वर्षा हुई है
नगर निगम की सीमा २८९ वर्ग कि॰ मी॰ है। शहरी सीमा के भीतर दो मानव निर्मित झीलें है जो संयुक्त रूप से भोज स्थल के नाम से जानी जाती हैं। बड़ी झील राजा भोज द्वारा निर्मित करवाई गई थी जिसका कुल जल ग्रहण क्षेत्र ३६१ वर्ग कि॰ मी॰ है। छोटी झील का निर्माण राजा भोज ने करवाया।
भोपाल का तालाब
भोपाल की पहचान भोपाल के बड़े तालाब से है। कहा जाता है- "तालों में ताल भोपाल ताल बाकी सब तलैया"। बड़े तालाब में स्थित बोट क्लब एक पर्यटन स्थल है जो बोटिंग के लिए सुन्दर स्थान है।
यहां का छोटा तालाब, बड़ा तालाब, भीम बैठका, अभयारण्य, शहीद भवन तथा भारत भवन देखने योग्य हैं। भोपाल के पास स्थित सांची का स्तूप भी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है, जोकि यूनेस्को द्वारा संरक्षित है। भोपाल से लगभग २८ किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर मन्दिर एक एतिहासिक दर्शनिय स्थल है। भेल स्थित श्रीराम मन्दिर, बरखेड़ा एक प्रसिद्ध आस्था का केन्द्र है।
लक्ष्मीनारायण मन्दिर, भोपाल
भोपाल के अरेरा पहाड़ी पर पाँच दशक पूर्व स्थापित बिड़ला मन्दिर वर्षों से धार्मिक आस्था का केन्द्र रहा है। मन्दिर में स्थापित भगवान श्रीहरि विष्णु एवं लक्ष्मीजी की मनोहारी प्रतिमाएँ बरबस ही श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकृष्ट कर रही हैं। करीब ७-८ एकड़ पहाड़ी क्षेत्र में फैले इस मन्दिर की ख्याति देश व प्रदेश के विभिन्न शहरों में फैली हुई है।
जानकारों के अनुसार इस मंदिर का शिलान्यास वर्ष १९६० में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ॰ कैलाशनाथ काटजू ने किया था और उद्घाटन वर्ष १९६४ में मुख्यमन्त्री द्वारका प्रसाद मिश्र के हाथों सम्पन्न हुआ। मन्दिर के अन्दर विभिन्न पौराणिक दृश्यों की संगमरमर पर की गई नक्काशी दर्शनीय तो है ही, उन पर गीता व रामायण के उपदेश भी अंकित हैं।
मन्दिर के अन्दर विष्णुजी व लक्ष्मीजी की प्रतिमाओं के अलावा एक ओर शिव तथा दूसरी ओर माँ जगदम्बा की प्रतिमा विराजमान हैं। मंदिर परिसर में हनुमानजी एवं शिवलिंग स्थापित हैं। वहीं मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने बना विशाल शंख भी दर्शनीय है। मन्दिर की स्थापना के समय पूर्व मुख्यमन्त्री कैलाश नाथ ने बिड़ला परिवार को शहर में उद्योग स्थापित करने के लिए जमीन देने के साथ ही यह शर्त भी रखी थी कि वह इस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में एक भव्य तथा विशाल मन्दिर का निर्माण करवाएँ। मन्दिर के उद्घाटन के समय यहाँ विशाल विष्णु महायज्ञ भी आयोजित किया गया था, जिसमें अनेक विद्वानों व धर्म शास्त्रियों ने भाग लिया था। आज भी यह मन्दिर जन आस्था का मुख्य केन्द्र बिन्दु है। जन्माष्टमी पर यहाँ श्रीकृष्ण जन्म का मुख्य आयोजन होता है, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होकर विष्णु की आराधना करते है।
श्रीराम मन्दिर, बरखेड़ा
इस मन्दिर में मुख्य मन्दिर में विराजे श्रीराम चतुष्ट्य की स्थापना ४ अप्रैल १९७१ को हुई थी। यहाँ की सभी मूर्तिया बहुत सुन्दर और अलौकिक है. इस मन्दिर का दिव्य वातावरण सबका मन मोह लेता है. करीब ३ एकड़ में फैले इस मन्दिर में मनोहारी उपवन है जिसमें अनेक प्रकार के फूल खिलते है। मन्दिर में श्रीराम के अलावा दुर्गा जी, योगेश्वर कृष्ण, रामभक्त हनुमान, शंकर जी, शिव जी व गुरुदेव दत्तात्रेय भी विराजे है. मंदिर परिसर में बच्चों के लिए अनेक झूले भी लगे है। घास के बड़े मैदानों में बच्चे किलकारी मारते खेला करते है। सुबह व् शाम सुन्दर कर्णप्रिय भजन भक्तों का मन मोह लेते है। मन्दिर में ऑनलाइन दर्शन की भी व्यवस्था है। श्रीराम नवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, हनुमान जयन्ती, शिवरात्रि, दत्तात्रेय जयन्ती समेत अनेक पर्व बड़े ही धूमधाम से मनाये जाते है। विशेष पर्वो पर भोपाल के सभी मन्दिरों की तुलना में सबसे ज्यादा श्रद्धालु इसी मन्दिर में एकत्र होते है। श्रीराम नवमी पर तो पूरे दिन मन्दिर में पैर रखने तक की जगह नहीं होती।
भोजेश्वर मन्दिर ,भोजपुर
यह प्राचीन शहर दक्षिण पूर्व भोपाल से २८ किमी की दूरी पर स्थित है। यह शहर भगवान शिव को समर्पित भोजेश्वर मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इस मन्दिर को पूर्व का सोमनाथ भी कहा जाता है। भोपाल से २८ किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर की स्थापना परमार वंश के राजा भोज ने की थी। इसीलिए यह स्थान भोजपुर के नाम से चर्चित है। यह स्थान भगवान शिव के भव्य मन्दिर और साईक्लोपियन बाँध के लिए जाना जाता है। यहाँ के भोजेश्वर मन्दिर की सुन्दर सजावट की गई है। मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर बना है जिसके गर्भगृह में लगभग साढ़े तीन मीटर लम्बा शिवलिंग स्थापित है। इसे भारत के सबसे विशाल शिवलिंगों में शुमार किया जाता है।
मोती मस्जिद, भोपाल
इस मस्जिद को क़ुदसिया बेग़म की बेटी सिकंदर जहां बेग़म ने १८६० ई॰ में बनवाया था।
यह मस्जिद भारत की सबसे विशाल मस्जिदों में एक है। इस मस्जिद का निर्माण कार्य भोपाल की आठवीं शासिका शाहजहां बे सिकंदर बेगम के शासन काल में प्रारम्भ हुआ था, लेकिन धन की कमी के कारण उनके जीवन्तपर्यंत यह बन न सकी।
शौकत महल, भोपाल और सदर मंजिल, भोपाल
शौकत महल, भोपाल शहर के बीचोंबीच चौक एरिया के प्रवेश द्वार पर स्थित है।
गोहर महल, भोपाल
झील के किनारे बना यह महल सदर मंज़िल के पीछे स्थित है।
पुरातात्विक संग्रहालय, भोपाल
बाणगंगा रोड पर स्थित इस संग्रहालय में मध्यप्रदेश के विभिन्न हिस्सों से एकत्रित की हुई मूर्तियों को रखा गया है।
यह भवन भारत के सबसे अनूठे राष्ट्रीय संस्थानों में एक है। १९८२ में स्थापित इस भवन में अनेक रचनात्मक कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय
यह अनोखा संग्रहालय श्यामला की पहाडियों पर २०० एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है।
भीमबेटका शैलाश्रय|भीमबेटका गुफाएँ
दक्षिण भोपाल से ४६ किलोमीटर दूर स्थित भीमबेटका की गुफाएं प्रागैतिहासिक काल की चित्रकारियों के लिए लोकप्रिय हैं। यह गुफाएँ चारों तरफ से विन्ध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुईं हैं, जिनका सम्बन्ध नवपाषाण काल से है। इन गुफाओं के अन्दर बने चित्र गुफाओं में रहने वाले प्रागैतिहासिक काल के जीवन का विवरण प्रस्तुत करते हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को १२ हजार वर्ष पूर्व की मानी जाती है।
शौर्य स्मारक शहर के अरेरा हिल्स इलाके में स्थित है। इसका उद्घाटन भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी के द्वारा १४ अगस्त २०१६ को किया गया। स्मारक १२ एकड़ में फैला हुआ है। इसे पार्क के रूप में विकसित किया गया है और पाकिस्तान व चीन से हुए युद्धों से सम्बन्धित प्रदर्शनियाँ भी है। बोट क्लब-
बोट क्लब श्यामला हिल्स में है जहाँ आप बोटिंग का आनन्द ले सकते हैं। बोट क्लब में शामिल हैं स्टीमर बोट और बहुत कुछ।
भोपाल की वनस्पतियाँ
भोपाल शहर वनस्पतियों की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध शहर है। यहाँ पर्याप्त हरियाली मौजूद है।
भोपाल का राजा भोज हवाई अड्डा शहर से १२ कि॰मी॰ की दूरी पर है। दिल्ली, मुंबई, इंदौर, अहमदाबाद, चेन्नई, चंडीगढ़, हैदराबाद, कोलकाता, रायपुर से यहां के लिए एयर इंडिया एवम अन्य निजी एयरलाइन्स कंपनियों की नियमित उडान सेवाएँ हैं।
भोपाल का रेलवे स्थानक देश के विविध रेलवे स्थानकों से जुडा हुआ है। यह रेलवे स्थानक भारतीय रेल के दिल्ली-चैन्नई मुख्य मार्ग पर पड़ता है। शताब्दी एक्सप्रेस भोपाल को दिल्ली से सीधा जोडती है। साथ ही यह शहर मुम्बई, आगरा, ग्वालियर, झांसी, उज्जैन, कोलकाता, चैन्नई, बंगलूरू, हैदराबाद आदि शहरों से अनेक रेलगाडियों के माध्यम से जुडा हुआ है।
सांची, इंदौर, उज्जैन, खजुराहो, पंचमढी, जबलपुर आदि शहरों से आसानी से सडक मार्ग से भोपाल पहुंचा जा सकता है। मध्यप्रदेश और पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों से भोपाल के लिए नियमित बसें चलती हैं।
भोपाल शहर की कुल जनसंख्या (२०११ की जनगणना के अनुसार) कुल ९५,६४,८१७ है। भोपाल जिले की कुल जनसंख्या २३,६८,१४५ है। जिसमे करीब ५६% हिन्दू, ४०% मुस्लिम हैं। पुरुषों की संख्या १२,३९,३७८ तथा महिलाओं की संख्या ११,२८,७६७ है। कुल साक्षरता ८२.२६% है (पुरुष: ८७.४४%, महिला: ७६.५७%)।
इन्हें भी देखें
भोपाल गैस कांड
भोपाल का इतिहास
भोपाल का पोर्टल
मध्य प्रदेश के शहर
भोपाल ज़िले के नगर |
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या राजग भारत में एक राजनीतिक गठबन्धन है।
इसका नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी करती है। इसके गठन के समय इसके १३ सदस्य थे।
शरद यादव को इसका संयोजक बनाया गया था, किन्तु उनकी दल ने गठबन्धन से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह हैं। इसके अलावा प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी लोकसभा में नेता हैं जबकि थावरचंद गहलोत राज्यसभा में नेता हैं। इसके नेता, नरेंद्र मोदी ने २६ मई २०१४ को भारत के प्रधानमन्त्री के रूप में शपथ ली। भारतीय आम चुनाव, २०१९ में, गठबन्धन ने आगे बढ़कर ४५.४३% के संयुक्त वोट शेयर के साथ अपनी ३५३ सीटों पर वृद्धि की।
मई १९९८ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की घोषणा हुई थी जो उस समय गैर काँग्रेसी सरकार के गठन के निर्माण में पहला कदम था लेकिन एक वर्ष के भीतर ही ढह गया क्योंकि आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इसे और विस्तृत करने के लिये कुछ नये दलों के साथ मिलकर १९९९ का लोकसभा चुनाव जीतने का नये सिरे से प्रयास किया गया। इसके परिणाम बेहतर निकले और राजग को पूरे पाँच साल के लिये प्रधानमन्त्री वाजपेयी के तहत सत्ता संचालित करने का अवसर मिला। वाजपेयी ने अपना कार्यकाल बेहतर ढँग से पूरा किया। २००४ के लोकसभा चुनाव जीतने की उम्मीद के साथ यह गठबन्धन पुन: मैदान में उतरा लेकिन कांग्रेस पार्टी नीत गठबन्धन को अन्य गुट निरपेक्ष पार्टियों से समर्थन मिलने से इसे विपक्ष में बैठना पडा। हालांकि कांग्रेस और राजग की प्रमुख पार्टी भाजपा को लोक सभा में मिली सीटों की संख्या में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं था लेकिन बहुमत का जुगाड़ करने में भाजपा असफल रही।
भारत में राजनीतिक दलों की मूल प्रवृत्ति गठबन्धन बनाने की कम और उसे तोड़ने की ज्यादा रही है। इस प्रवृत्ति को देखते हुए राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन एक कार्यकारी बोर्ड या पोलित ब्यूरो के रूप में एक औपचारिक संरचना नहीं है अपितु यह व्यक्तिगत रूप से कुछ दलों के नेताओं की महत्वाकाँक्षा को पूर्ण करने के लिये सीटों के उपचुनाव में साझा रणनीति बनाने के लिये एक समझौते जैसा लगता है। राष्ट्रहित के मुद्दों पर निर्णय लेने अथवा संसद में उन मुद्दों को उठाते समय दलों के बीच विभिन्न विचारधाराओं को देखते हुए कभी सहमति तो कभी असहमति जैसी कठिनाई आती है जिसके कारण सहयोगी दलों के बीच विभाजित मतदान के कई मामले भी देखने में आये हैं। इसके पहले संयोजक ज्योर्ज फ़र्नान्डिस के खराब स्वास्थ्य के कारण शरद यादव को इसका संयोजक नियुक्त किया गया था। परन्तु आगे चलकर वे भी इससे अलग हो गये।
अतीत और वर्तमान सदस्य
संसद में सीट
इन्हें भी देखें
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए)
भारत के राजनीतिक दलों की सूची। |
पुराण, हिन्दुओं के धर्म-सम्बन्धी आख्यान ग्रन्थ हैं, जिनमें संसार - ऋषियों - राजाओं के वृत्तान्त आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत समय बाद के ग्रन्थ हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण प्राचीन भक्ति-ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गयी हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण दिया गया है।
'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'। पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है, किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं। हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं।
पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएँ, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण हैं। जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताये जा सकते हैं।
कर्मकाण्ड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ।
छोटे और बड़े के भेद से अठारह पुराण बताये गये हैं।
१. ब्रह्मपुराण, २. पद्मपुराण, ३. विष्णुपुराण, ४. शिवपुराण, ५. भागवतपुराण, ६. भविष्यपुराण, ७. नारदपुराण, ८. मार्कण्डेयपुराण, ९. अग्निपुराण, १०. ब्रह्मवैवर्तपुराण, ११. लिंगपुराण, १२. वाराहपुराण, १३. स्कन्दपुराण, १४. वामनपुराण, १५. कृर्मपुराण, १६. मत्स्यपुराण, १७. गरुडपुराण और १८. ब्रह्माण्डपुराण
पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि सम्बन्धी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परम्परागत वृत्तान्तों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा साम्प्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं।
पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत-कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं-कहीं विरोध भी हैं, पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं।
पुराण के लक्षण
'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है - 'प्राचीन आख्यान' या 'पुरानी कथा'। पुरा शब्द का अर्थ है - अनागत एवं अतीत। अण शब्द का अर्थ होता है - कहना या बतलाना। रघुवंश में पुराण शब्द का अर्थ है "पुराण पत्रापग मागन्नतरम्" एवं वैदिक वाङ्मय में "प्राचीन: वृत्तान्त:" दिया गया है।
सांस्कृतिक अर्थ से हिन्दू संस्कृति के वे विशिष्ट धर्मग्रन्थ जिनमें सृष्टि से लेकर प्रलय तक का इतिहास-वर्णन शब्दों से किया गया हो, पुराण कहे जाते है। पुराण शब्द का उल्लेख वैदिक युग के वेद सहित आदितम साहित्य में भी पाया जाता है अत: ये सबसे पुरातन (पुराण) माने जा सकते हैं। अथर्ववेद के अनुसार "ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ११.७.२") अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था। शतपथ ब्राह्मण (१४.३.३.१३) में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (इतिहास पुराणं पंचम वेदानांवेदम् ७.१.२) ने भी पुराण को वेद कहा है। बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि "इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्" अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये। इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।
अमरकोष आदि प्राचीन कोशों में पुराण के पाँच लक्षण माने गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय, पुनर्जन्म), वंश (देवता व ऋषि सूचियां), मन्वन्तर (चौदह मनु के काल), और वंशानुचरित (सूर्य चन्द्रादि वंशीय चरित)।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
(१) सर्ग पंचमहाभूत, इन्द्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(२) प्रतिसर्ग ब्रह्मादिस्थावरान्त संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(३) वंश सूर्यचन्द्रादि वंशों का वर्णन,
(४) मन्वन्तर मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इन्द्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन,
(५) वंशानुचरित प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन।
माना जाता है कि सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रन्थ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है।
प्राचीनकाल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों - सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पुराण मनुष्य को धर्म एवं नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। पुराण मनुष्य के कर्मों का विश्लेषण कर उन्हें दुष्कर्म करने से रोकते हैं। पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार हैं। वेद बहुत ही जटिल तथा शुष्क भाषा-शैली में लिखे गए हैं। वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की। कहा जाता है, पूर्णात् पुराण जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण (जो वेदों की टीका हैं)। वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया हैं। पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना करना इन ग्रन्थों का विषय है। पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कहानियाँ हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। पुराणों में देवी-देवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है। पुराणों में सत्य की प्रतिष्ठा के अतिरिक्त दुष्कर्म का विस्तृत चित्रण भी पुराणकारों ने किया है। पुराणकारों ने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण दिया है लेकिन मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
केवल ६ पुराणों -- मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भविष्य एवं भागवत में ही राजाओं की वंशावली पायी जाती है।
पुराणों की संख्या प्राचीन काल से अठारह मानी गयी है। पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रायः प्रत्येक पुराण में अठारहों पुराणों के नाम और उनकी श्लोक-संख्या का उल्लेख है। देवीभागवत में नाम के आरंभिक अक्षर के निर्देशानुसार १८ पुराणों की गणना इस प्रकार की गयी हैं:
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक् ॥म-२, भ-२, ब्र-३, व-४। अ-१,ना-१, प-१, लिं-१, ग-१, कू-१, स्क-१ ॥
'विष्णुपुराण' के अनुसार अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैंब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड। क्रमपूर्वक नाम-गणना के उपरान्त श्रीविष्णुपुराण में इनके लिए स्पष्टतः 'महापुराण' शब्द का भी प्रयोग किया गया है। श्रीमद्भागवत, मार्कण्डेय एवं कूर्मपुराण में भी ये ही नाम एवं यही क्रम है। अन्य पुराणों में भी 'शैव' और 'वायु' का भेद छोड़कर नाम प्रायः सब जगह समान हैं, श्लोक-संख्या में कहीं-कहीं कुछ भिन्नता है। नारद पुराण, मत्स्य पुराण और देवीभागवत में 'शिव पुराण' के स्थान में 'वायुपुराण' का नाम है। भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैंएक 'श्रीमद्भागवत', दूसरा 'देवीभागवत'। इन दोनों में कौन वास्तव में महापुराण है, इसपर विवाद रहा है। नारद पुराण में सभी अठारह पुराणों के नाम निर्देश के अतिरिक्त उन सबकी विषय-सूची भी दी गयी है, जो पुराणों के स्वरूप-निर्देश की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुमत से अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं:
विष्णु पुराण -- (उत्तर भाग - विष्णुधर्मोत्तर)
वायु पुराण -- (भिन्न मत से - शिव पुराण)
भागवत पुराण -- (भिन्न मत से - देवीभागवत पुराण)
प्रतीकात्मक संख्या अठारह, व्यावहारिक संख्या इक्कीस
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पर्याप्त तर्कों के आधार पर सिद्ध किया है कि शिव पुराण वस्तुतः एक उपपुराण है और उसके स्थान पर वायु पुराण ही वस्तुतः महापुराण है। इसी प्रकार देवीभागवत भी एक उपपुराण है। परन्तु इन दोनों को उपपुराण के रूप में स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि स्वयं विभिन्न पुराणों में उपलब्ध अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय सूचियों में कहीं इन दोनों का नाम उपपुराण के रूप में नहीं आया है। दूसरी ओर रचना एवं प्रसिद्धि दोनों रूपों में ये दोनों महापुराणों में ही परिगणित रहे हैं। पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने बहुत पहले विस्तार से विचार करने के बावजूद कोई अन्य निश्चयात्मक समाधान न पाकर यह कहा था कि 'शिव पुराण' तथा 'वायु पुराण' एवं 'श्रीमद्भागवत' तथा 'देवीभागवत' महापुराण ही हैं और कल्प-भेद से अलग-अलग समय में इनका प्रचलन रहा है। इस बात को आधुनिक दृष्टि से इस प्रकार कहा जा सकता है कि भिन्न संप्रदाय वालों की मान्यता में इन दोनों कोटि में से एक न एक गायब रहता है। इसी कारण से महापुराणों की संख्या तो १८ ही रह जाती है, परन्तु संप्रदाय-भिन्नता को छोड़ देने पर संख्या में दो की वृद्धि हो जाती है। इसी प्रकार प्राचीन एवं रचनात्मक रूप से परिपुष्ट होने के बावजूद हरिवंश एवं विष्णुधर्मोत्तर का नाम भी 'बृहद्धर्म पुराण' की अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन सूची को छोड़कर पुराण या उपपुराण की किसी प्रामाणिक सूची में नहीं आता है। हालाँकि इन दोनों का कारण स्पष्ट ही है। 'हरिवंश' वस्तुतः स्पष्ट रूप से महाभारत का खिल (परिशिष्ट) भाग के रूप में रचित है और इसी प्रकार 'विष्णुधर्मोत्तर' भी विष्णु पुराण के उत्तर भाग के रूप में ही रचित एवं प्रसिद्ध है। नारद पुराण में बाकायदा विष्णु पुराण की विषय सूची देते हुए 'विष्णुधर्मोत्तर' को उसका उत्तर भाग बताकर एक साथ विषय सूची दी गयी हैसंक्षिप्त नारदपुराण, गीताप्रेस गोरखपुर, प्रथम संस्करण- संवत्-२०५७, पृष्ठ-५०५. तथा स्वयं 'विष्णुधर्मोत्तर' के अन्त की पुष्पिका में उसका उल्लेख 'श्रीविष्णुमहापुराण' के 'द्वितीय भाग' के रूप में किया गया है।संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास, त्रयोदश खण्ड (पुराण), संपादक- प्रो॰ गंगाधर पण्डा, उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण-२००६, पृष्ठ-६५४. अतः 'हरिवंश' तो महाभारत का अंग होने से स्वतः पुराणों की गणना से हट जाता है। 'विष्णुधर्मोत्तर' विष्णु पुराण का अंग-रूप होने के बावजूद नाम एवं रचना-शैली दोनों कारणों से एक स्वतंत्र पुराण के रूप में स्थापित हो चुका है। अतः प्रतीकात्मक रूप से महापुराणों की संख्या अठारह होने के बावजूद व्यावहारिक रूप में 'शिव पुराण', 'देवीभागवत' एवं 'विष्णुधर्मोत्तर' को मिलाकर महापुराणों की संख्या इक्कीस होती है।
उपपुराण आदि पुराण (सनत्कुमार द्वारा कथित)
नन्दिपुराण (कुमार द्वारा कथित)
आश्चर्य पुराण (दुर्वासा द्वारा कथित)
नारदीय पुराण (नारद द्वारा कथित)
उशना पुराण (उशनस्)
पाराशर पुराण (पराशरोक्त)
सुखसागर के अनुसारः
१८ पुराण के नाम और उनका महत्त्व
(१) ब्रह्मपुराण : इसे आदिपुराण भी कहा जाता है। प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है। इसमें श्लोकों की संख्या अलग- २ प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। १०,०००१२.००० और १३,७८७ ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल २४५ अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।
(२) पद्मपुराण : इसमें कुल ६४१ अध्याय और ४८,००० श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें ५५,००० और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें ५९,००० श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं(क) सृष्टिखण्ड : ५ पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड।
इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इसका विकास ५ वीं शताब्दी माना जाता है।
(३) विष्णुपुराण : पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं। इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, १२६ अध्याय, श्लोक २३,००० या २४,००० या ६,००० हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।
(४) वायुपुराण : इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे शिवपुराण भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें ११२ अध्याय, ११,००० श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग है : (क) प्रक्रियापाद (अध्याय१-६), (ख) उपोद्घात : (अध्याय-७ ६४ ), (ग) अनुषङ्गपादः(अध्याय६५९९), (घ) उपसंहारपादः(अध्याय१००-११२)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगो, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है। इसमें भी पुराण के पञ्चलक्षण मिलते हैं।
(५) भागवतपुराण : यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार निगमकल्पतरोर्गलितम् और विद्वानों का परीक्षास्थल विद्यावतां भागवते परीक्षा माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है।
इसमें कुल १२ स्कन्ध, ३३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। कुछ विद्वान् इसे देवीभागवतपुराण भी कहते हैं, क्योंकि इसमें देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं। इसका रचनाकाल ६ वी शताब्दी माना जाता है।
(६) नारद (बृहन्नारदीय) पुराण : इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें पुराण के ५ लक्षण घटित नहीं होते हैं। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें २ खण्ड है : (क) पूर्व खण्ड में १२५ अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में ८२ अध्याय हैं। इसमें १८,००० श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।
(७) मार्कण्डयपुराण : इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें १३८ अध्याय और ७,००० श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनुसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।
(८) अग्निपुराण : इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय ३८३ अध्याय, ११,५०० श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।
(९) भविष्यपुराण : इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः(क) पूर्वार्धः(अध्याय४१) तथा (ख) उत्तरार्धः(अध्याय़१७१) । इसमें कुल १५,००० श्लोक हैं । इसमें कुल ५ पर्व हैः(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है। इसका रचनाकाल ५०० ई. से १२०० ई. माना जाता है।
(१०) ब्रह्मवैवर्तपुराण : यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल १८,००० श्लोक है और चार खण्ड हैं : (क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।
(११) लिङ्गपुराण : इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के २८ अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें ११,००० श्लोक और १६३ अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है। इसका रचनाकाल आठवीं-नवीं शताब्दी माना जाता है। यह पुराण भी पुराण के लक्षणों पर खरा नहीं उतरता है।
(१२) वराहपुराण : इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें २४,००० श्लोक सम्प्रति केवल ११,००० और २१७ अध्याय हैं।
(१३) स्कन्दपुराण : यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल ८१,००० श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैंसनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने तात्पर्य-दीपिका नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं-ब्रह्मगीता (अध्याय१२) और सूतगीताः(अध्याय ८)।
इस पुराण में सात खण्ड हैं(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में गंगासहस्रनाम स्तोत्र भी है। इसका रचनाकाल ७ वीं शताब्दी है। इसमें भी पुराण के ५ लक्षण का निर्देश नहीं मिलता है।
(१४) वामनपुराण : इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें ९५ अध्याय और १०,००० श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी । इसका रचनाकाल ९ वीं से १० वीं शताब्दी माना जाता है।
(१५) कूर्मपुराण : इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें ६,००० श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें ५१ और ४४ अध्याय हैं। इसमें पुराण के पाँचों लक्षण मिलते हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है। इसका रचनाकाल छठी शताब्दी माना गया है।
(१६) मत्स्यपुराण : इसमें पुराण के पाँचों लक्षण घटित होते हैं। इसमें २९१ अध्याय और १४,००० श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में १९,००० श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है। इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है।
(१७) गरुडपुराण : यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में २२९ और उत्तरखण्ड में ३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।
(१८) ब्रह्माण्डपुराण : इसमें १०९ अध्याय तथा १२,००० श्लोक है। इसमें चार पाद हैं(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार । इसकी रचना ४०० ई.- ६०० ई. मानी जाती है।
प्रमुख पुराणों का परिचय
पुराणों में सबसे पुराना विष्णुपुराण ही प्रतीत होता है। उसमें सांप्रदायिक खींचतान और रागद्वेष नहीं है। पुराण के पाँचो लक्षण भी उसपर ठीक ठीक घटते हैं। उसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय, मन्वंतरों, भरतादि खंडों और सूर्यादि लोकों, वेदों की शाखाओं तथा वेदव्यास द्वारा उनके विभाग, सूर्य वंश, चंद्र वंश आदि का वर्णन है। कलि के राजाओं में मगध के मौर्य राजाओं तथा गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है। श्रीकृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन है पर बिलकुल उस रूप में नहीं जिस रूप में भागवत में है।
वायुपुराण के चार पाद है, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, कल्पों ओर मन्वन्तरों, वैदिक ऋषियों की गाथाओं, दक्ष प्रजापति की कन्याओं से भिन्न भिन्न जीवोत्पति, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की वंशावली तथा कलि के राजाओं का प्रायः विष्णुपुराण के अनुसार वर्णन है।मत्स्यपुराण में मन्वंतरों और राजवंशावलियों के अतिरिक्त वर्णश्रम धर्म का बडे़ विस्तार के साथ वर्णन है और मत्सायवतार की पूरी कथा है। इसमें मय आदि असुरों के संहार, मातृलोक, पितृलोक, मूर्ति और मंदिर बनाने की विधि का वर्णन विशेष ढंग का है।श्रीमदभागवत का प्रचार सबसे अधिक है क्योंकि उसमें भक्ति के माहात्म्य और श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन है। नौ स्कंधों के भीतर तो जीवब्रह्म की एकता, भक्ति का महत्व, सृष्टिलीला, कपिलदेव का जन्म और अपनी माता के प्रति वैष्णव भावानुसार सांख्यशास्त्र का उपदेश, मन्वंतर और ऋषिवंशावली, अवतार जिसमें ऋषभदेव का भी प्रसंग है, ध्रुव, वेणु, पृथु, प्रह्लाद इत्यादि की कथा, समुद्रमथन आदि अनेक विषय हैं। पर सबसे बड़ा दशम स्कंध है जिसमें कृष्ण की लीला का विस्तार से वर्णन है। इसी स्कंध के आधार पर शृंगार और भक्तिरस से पूर्ण कृष्णचरित् संबंधी संस्कृत और भाषा के अनेक ग्रंथ बने हैं। एकादश स्कंध में यादवों के नाश और बारहवें में कलियुग के राचाओं के राजत्व का वर्णन है। भागवत की लेखनशैली अन्य पुराणों से भिन्न है। इसकी भाषा पांडित्यपूर्ण और साहित्य संबंधी चमत्कारों से भरी हुई है, इससे इसकी रचना कुछ पीछे की मानी जाती है।अग्निपुराण एक विलक्षण पुराण है जिसमें राजवंशावलियों तथा संक्षिप्त कथाओं के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, राजनीति, राजधर्म, प्रजाधर्म, आयुर्वेद, व्याकरण, रस, अलंकार, शस्त्र-विद्या आदि अनेक विषय हैं। इसमें तंत्रदीक्षा का भी विस्तृत प्रकरण है। कलि के राजाओं की वंशावली विक्रम तक आई है, अवतार प्रसंग भी है। इसी प्रकार और पुराणों में भी कथाएँ हैं।
विष्णुपुराण के अतिरिक्त और पुराण जो आजकल मिलते हैं उनके विषय में संदेह होता है कि वे असल पुराणों के न मिलने पर पीछे से न बनाए गए हों। कई एक पुराण तो मत-मतांतरों और संप्रदायों के राग-द्वेष से भरे हैं। कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी की। ब्रह्मवैवर्त पुराण का जो परिचय मत्स्यपुराण में दिया गया है उसके अनुसार उसमें रथंतर कल्प और वराह अवतार की कथा होनी चाहिए पर जो ब्रह्मवैवर्त आजकल मिलता है उसमें यह कथा नहीं है। कृष्ण के वृंदावन के रास से जिन भक्तों की तृप्ति नहीं हुई थी उनके लिये गोलोक में सदा होनेवाले रास का उसमें वर्णन है। आजकल का यह ब्रह्मवैवर्त मुसलमानों के आने के कई सौ वर्ष पीछे का है क्योंकि इसमें 'जुलाहा' जाति की उत्पत्ति का भी उल्लेख है -- म्लेच्छात् कुविंदकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह (१०, १२१)। ब्रह्मपुराण में तीर्थों और उनके माहात्म्य का वर्णन बहुत अधिक हैं, अनन्त वासुदेव और पुरुषोत्तम (जगन्नाथ) माहात्म्य तथा और बहुत से ऐसे तीर्थों के माहात्म्य लिखे गए हैं जो प्राचीन नहीं कहे जा सकते। 'पुरुषोत्तमप्रासाद' से अवश्य जगन्नाथ जी के विशाल मंदिर की ओर ही इशारा है जिसे गांगेय वंश के राजा चोड़गंग (सन् १०७७ ई०) ने बनवाया था। मत्स्यपुराण में दिए हुए लक्षण आजकल के पद्मपुराण में भी पूरे नहीं मिलते हैं। वैष्णव सांप्रदायिकों के द्वेष की इसमें बहुत सी बातें हैं। जैसे, पाषडिलक्षण, मायावादनिंदा, तामसशास्त्र, पुराणवर्णनइत्यादि। वैशेषिक, न्याय, सांख्य और चार्वाक 'तामस शास्त्र' कहे गए हैं और यह भी बताया गया है। इसी प्रकार मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कंद और अग्नि तामस पुराण कहे गए हैं। सारंश यह कि अधिकांश पुराणों का वर्तमान रूप हजार वर्ष के भीतर का है। सबके सब पुराण सांप्रदायिक है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है। कई पुराण (जैसे, विष्णु) बहुत कुछ अपने प्राचीन रूप में मिलते हैं पर उनमें भी सांप्रदायिकों ने बहुत सी बातें बढ़ा दी हैं।
पुराणों का काल एवं रचयिता
यद्यपि आजकल जो पुराण मिलते हैं उनमें से अधिकतर पीछे से बने हुए या प्रक्षिप्त विषयों से भरे हुए हैं तथापि पुराण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित थे। बृहदारण्यक उपनिषद् और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि गीली लकड़ी से जैसे धुआँ अलग अलग निकलता है वैसे ही महान भूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वांगिरस, इतिहास, पुराणविद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान हुए। छान्दोग्य उपनिषद् में भी लिखा है कि इतिहास पुराण वेदों में पाँचवाँ वेद है। अत्यंत प्राचीन काल में वेदों के साथ पुराण भी प्रचलित थे जो यज्ञ आदि के अवसरों पर कहे जाते थे। कई बातें जो पुराण के लक्षणों में हैं, वेदों में भी हैं। जैसे, पहले असत् था और कुछ नहीं था यह सर्ग या सृष्टितत्व है; देवासुर संग्राम, उर्वशी पुरूरवा संवाद इतिहास है। महाभारत के आदि पर्व में (१.२३३) भी अनेक राजाओं के नाम और कुछ विषय गिनाकर कहा गया है कि इनके वृत्तांत विद्वान सत्कवियों द्वारा पुराण में कहे गए हैं। इससे कहा जा सकता है कि महाभारत के रचनाकाल में भी पुराण थे। मनुस्मृति में भी लिखा है कि पितृकार्यों में वेद, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण आदि सुनाने चाहिए।
अब प्रश्न यह होता है कि पुराण हैं किसके बनाए। शिवपुराण के अंतर्गत रेवा माहात्म्य में लिखा है कि अठारहों पुराणों के वक्ता सत्यवतीसुत व्यास हैं। यही बात जन साधारण में प्रचलित है। पर मत्स्यपुराण में स्पष्ट लिखा है कि पहले पुराण एक ही था, उसी से १८ पुराण हुए (५३.४)। ब्रह्मांड पुराण में लिखा है कि वेदव्यास ने एक पुराणसंहिता का संकलन किया था। इसके आगे की बात का पता विष्णु पुराण से लगता है। उसमें लिखा है कि व्यास का एक 'लोमहर्षण' नाम का शिष्य था जो सूति जाति का था। व्यास जी ने अपनी पुराण संहिता उसी के हाथ में दी। लोमहर्षण के छह शिष्य थे सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शांशपायन, अकृतव्रण और सावर्णी। इनमें से अकृतव्रण, सावर्णी और शांशपायन ने लोमहर्षण से पढ़ी हुई पुराणसंहिता के आधार पर और एक एक संहिता बनाई। वेदव्यास ने जिस प्रकार मंत्रों का संग्रहकर उन का संहिताओं में विभाग किया उसी प्रकार पुराण के नाम से चले आते हुए वृत्तों का संग्रह कर पुराणसंहिता का संकलन किया। उसी एक संहिता को लेकर सुत के चेलों के तीन और संहीताएँ बनाई। इन्हीं संहिताओं के आधार पर अठारह पुराण बने होंगे।
मत्स्य, विष्णु, ब्रह्मांड आदि सब पुराणों में ब्रह्मपुराण पहला कहा गया है, पर जो ब्रह्मपुराण आजकल प्रचलित है वह कैसा है यह पहले कहा जा चुका है। जो कुछ हो, यह तो ऊपर लिखे प्रमाण से सिद्ध है कि अठारह पुराण वेदव्यास के बनाए नहीं हैं। जो पुराण आजकल मिलते हैं उनमें विष्णुपुराण और ब्रह्मांडपुराण की रचना औरों से प्राचीन जान पड़ती है। विष्णुपुराण में 'भविष्य राजवंश' के अंतर्गत गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है इससे वह प्रकरण ईसा की छठी शताब्दी के पहले का नहीं हो सकता। जावा के आगे जो बाली द्वीप है वहाँ के हिंदुओं के पास ब्रह्माण्डपुराण मिला है। इन हिंदुओं के पूर्वज ईसा की पाँचवी शताब्दी में भारतवर्ष में पूर्व के द्वीपों में जाकर बसे थे। बालीवाले ब्रह्मा़डपुराण में 'भविष्य राजवंश प्रकरण' नहीं है, उसमें जनमेजय के प्रपौत्र अधिसीमकृष्ण तक का नाम पाया जाता है। यह बात ध्यान देने की है। इससे प्रकट होता है कि पुराणों में जो भविष्य राजवंश है वह पीछे से जोड़ा हुआ है। यहाँ पर ब्रह्मांडपुराण की जो प्राचीन प्रतियाँ मिलती हैं देखना चाहिए कि उनमें भूत और वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग कहाँ तक है। 'भविष्यराजवंश वर्णन' के पूर्व उनमें ये श्लोक मिलते हैं
तस्य पुत्रः शतानीको बलबान् सत्यविक्रमः।
ततः सुर्त शतानीकं विप्रास्तमभ्यषेचयन्।।
पुत्रोश्वमेधदत्तो/?/भूत् शतानीकस्य वीर्यवान्।
पुत्रो/?/श्वमेधदत्ताद्वै जातः परपुरजयः।।
अधिसीमकृष्णो धर्मात्मा साम्पतोयं महायशाः।
यस्मिन् प्रशासति महीं युष्माभिरिदमाहृतम्।।
दुरापं दीर्घसत्रं वै त्रीणि दर्षाणि पुष्करम्
वर्षद्वयं कुरुक्षेत्रे दृषद्वत्यां द्विजोत्तमाः।।
अर्थात् उनके पुत्र बलवान् और सत्यविक्रम शतानीक हुए। पीछे शतानीक के पुत्र को ब्राह्मणों ने अभिषिक्त किया। शतानीक के अश्वमेधदत्त नाम का एक वीर्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ। अश्वमेधदत्त के पुत्र परपुरंजय धर्मात्मा अधिसीमकृष्ण हैं। ये ही महाशय आजकल पृथ्वी का शासन करते हैं। इन्हीं के समय में आप लोगों ने पुष्कर में तीन वर्ष का और दृषद्वती के किनारे कुरुक्षेत्र में दो वर्ष तक का यज्ञ किया है।
उक्त अंश से प्रकट है कि आदि ब्रह्मांडपुराण अधिसीमकृष्ण के समय में बना। इसी प्रकार विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण आदि की परीक्षा करने से पता चलता है कि आदि विष्णुपुराण परीक्षित के समय में और आदि मत्स्यपुराण जनमेजय के प्रपौत्र अधिसीमकृष्ण के समय में संकलित हुआ।
पुराण संहिताओं से अठारह पुराण बहुत प्राचीन काल में ही बन गए थे, इसका पता लगता है। आपस्तंब धर्मसूत्र (२.२४.५) में भविष्यपुराण का प्रमाण इस प्रकार उदधृत है
आभूत संप्लवात्ते स्वर्गजितः।
''पुनः सर्गे बीजीर्था भवतीति भविष्यत्पुराणे।
यह अवश्य है कि आजकल पुराण अपने आदिम रूप में नहीं मिलते हैं। बहुत से पुराण तो असल पुराणों के न मिलने पर फिर से नए रचे गए हैं, कुछ में बहुत सी बातें जोड़ दी गई हैं।
प्रायः सब पुराण शैव, वैष्णव सम्प्रदाय और सौर संप्रदायों में से किसी न किसी के पोषक हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं। विष्णु, रुद्र, सूर्य आदि की उपासना वैदिक काल से ही चली आती थी, फिर धीरे धीरे कुछ लोग किसी एक देवता को प्रधानता देने लगे, कुछ लोग दूसरे को। इस प्रकार महाभारत के पीछे ही संप्रदायों का सूत्रपात हो चला। पुराणसंहिताएँ उसी समय में बनीं। फिर आगे चलकर आदिपुराण बने जिनका बहुत कुछ अंश आजकल पाए जानेवाले कुछ पुराणों के भीतर है। पुराणों का उद्देश्य पुराने वृत्तों का संग्रह करना, कुछ प्राचीन और कुछ कल्पित कथाओं द्वारा उपदेश देना, देवमहिमा तथा तीर्थमहिमा के वर्णन द्वारा जनसाधारण में धर्मबुद्धि स्थिर रखना था। इसी से व्यास ने सूत (भाट या कथक्केड़) जाति के एक पुरुष को अपनी संकलित आदिपुराणसंहिता प्रचार करने के लिये दी।
जैन परम्परा में ६३ शलाकापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएं तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
जैन धर्म में २४ पुराण तो तीर्थकरों के नाम पर हैं; और भी बहुत से हैं जिनमें तीर्थकरों के अलौकिक चरित्र, सब देवताओं से उनकी श्रेष्ठता, जैनधर्म संबंधी तत्वों का विस्तार से वर्णन, फलस्तुति, माहात्म्य आदि हैं। अलग पद्मपुराण और हरिवंश (अरिष्टनेमि पुराण) भी हैं।
मुख्य पुराण हैं:- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है
(४) द्रव्यानुयोग।अन्य ग्रन्थ'''
बौद्ध ग्रंथों में कहीं पुराणों का उल्लेख नहीं है पर तिब्बत और नेपाल के बौद्ध ९ पुराण मानते हैं जिन्हें वे नवधर्म कहते हैं
(१) प्रज्ञापारमिता (न्याय का ग्रंथ कहना चाहिए),
(४) लंकावतार (रावण का मलयागिरि पर जाना और शाक्यसिंह के उपदेश से बोधिज्ञान लाभ करना वर्णित है),
(७) ललितविस्तर (बुद्ध का चरित्र),
(८) सुवर्णप्रभा (लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी आदि की कथा और उनका शाक्यसिंह का पूजन)
पुराणों में वर्णित विविध विषय
पुराणों में आयुर्वेद
पुराणों के माध्यम से ही आयुर्वेद चिकित्सा के अध्ययन का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास किया गया। अनेक पुराणों में निःशुल्क चिकित्सालयों की स्थापना से होने वाले लाभों की प्रशंसा की गई है। इससे उस समय चिकित्सा देखभाल के महत्व और उनके प्रति उपलब्ध सुविधाओं का पता चलता है। हम यह जान सकते हैं कि उन दिनों रोगियों को दवा के साथ-साथ भोजन भी मुफ्त में दिया जाता था।
उन दिनों आयुर्वेद की प्रगति स्थिर थी। आयुर्वेद को वेदों और शास्त्रों के अध्ययन के साथ एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता था।
इन्हे भी देखें
महर्षि प्रबंधन विश्वविद्यालय - यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है।
ज्ञानामृतम् - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक जानकारी
वेद एवं वेदांग - आर्य समाज, जामनगर के जालघर पर सभी वेद एवं उनके भाष्य दिये हुए हैं।
पुराण गाथा - जिसका अर्थ है जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण। |
जवाहरलाल नेहरू (नवम्बर १४,१८८९ - मई २७, १९६४) भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री थे और स्वतन्त्रता के पूर्व और पश्चात् की भारतीय राजनीति में केन्द्रीय व्यक्तित्व थे। महात्मा गांधी के संरक्षण में, वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के सर्वोच्च नेता के रूप में उभरे और उन्होंने १९४७ में भारत के एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में स्थापना से लेकर १९६४ तक अपने निधन तक, भारत का शासन किया। वे आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य एक सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतान्त्रिक गणतन्त्र - के वास्तुकार माने जाते हैं। कश्मीरी पण्डित समुदाय के साथ उनके मूल की वजह से वे पण्डित नेहरू भी बुलाए जाते थे, जबकि भारतीय बच्चे उन्हें चाचा नेहरू के रूप में जानते हैं।
स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री का पद संभालने के लिए कांग्रेस द्वारा नेहरू निर्वाचित हुए, यद्यपि नेतृत्व का प्रश्न बहुत पहले १९४१ में ही सुलझ चुका था, जब गांधीजी ने नेहरू को उनके राजनीतिक वारिस और उत्तराधिकारी के रूप में अभिस्वीकार किया। प्रधानमन्त्री के रूप में, वे भारत के सपने को साकार करने के लिए चल पड़े। भारत का संविधान १९५० में अधिनियमित हुआ, जिसके बाद उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के एक महत्त्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की। मुख्यतः, एक बहुवचनी, बहु-दलीय लोकतन्त्र को पोषित करते हुए, उन्होंने भारत के एक उपनिवेश से गणराज्य में परिवर्तन होने का पर्यवेक्षण किया। विदेश नीति में, भारत को दक्षिण एशिया में एक क्षेत्रीय नायक के रूप में प्रदर्शित करनिरपेक्ष आन्दोलन में एक अग्रणी भूमिका निभाई।
नेहरू के नेतृत्व में, कांग्रेस राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय चुनावों में प्रभुत्व दिखाते हुए और १९५१, १९५७, और १९६२ के लगातार चुनाव जीतते हुए, एक सर्व-ग्रहण पार्टी के रूप में उभरी। उनके अन्तिम वर्षों में राजनीतिक संकटों और १९६२ के चीनी-भारत युद्ध के बाद भी , वे भारत में लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहे । भारत में, उनका जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
जवाहरलाल नेहरू का जन्म १४ नवम्बर १८८९ को ब्रिटिश भारत में इलाहाबाद में हुआ। उनके पिता, मोतीलाल नेहरू (१८६११९३१), एक धनी बैरिस्टर जो कश्मीरी पण्डित थे। मोती लाल नेहरू सारस्वत कौल ब्राह्मण समुदाय से थे, स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष चुने गए। उनकी माता स्वरूपरानी थुस्सू (१८६८१९३८), जो लाहौर में बसे एक सुपरिचित कश्मीरी ब्राह्मण परिवार से थी, मोतीलाल की दूसरी पत्नी थी व पहली पत्नी की प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई थी। जवाहरलाल तीन बच्चों में से सबसे बड़े थे, जिनमें बाकी दो लड़कियां थी। बड़ी बहन, विजया लक्ष्मी, बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनी। सबसे छोटी बहन, कृष्णा हठीसिंग, एक उल्लेखनीय लेखिका बनी और उन्होंने अपने परिवार-जनों से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं।
जवाहरलाल नेहरू ने दुनिया के कुछ बेहतरीन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा हैरो से और कॉलेज की शिक्षा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज (लंदन) से पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने अपनी लॉ की डिग्री कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पूरी की। इंग्लैंड में उन्होंने सात साल व्यतीत किए जिसमें वहां के फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित किया।
जवाहरलाल नेहरू १९१२ में भारत लौटे और वकालत शुरू की। १९१६ में उनकी शादी कमला नेहरू से हुई। १९१७ में जवाहर लाल नेहरू होम रुल लीग में शामिल हो गए। राजनीति में उनकी असली दीक्षा दो साल बाद १९१९ में हुई जब वे महात्मा गांधी के संपर्क में आए। उस समय महात्मा गांधी ने रॉलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय लेकिन शांतिपूर्ण, सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति खासे आकर्षित हुए।
नेहरू ने महात्मा गांधी के उपदेशों के अनुसार अपने परिवार को भी ढाल लिया। जवाहरलाल और मोतीलाल नेहरू ने पश्चिमी कपड़ों और महंगी संपत्ति का त्याग कर दिया। वे अब एक खादी कुर्ता और गांधी टोपी पहनने लगे। जवाहर लाल नेहरू ने १९२०-१९२२ में असहयोग आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लिया और इस दौरान पहली बार गिरफ्तार किए गए। कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
जवाहरलाल नेहरू १९२४ में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। १९२६ में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया।
१९२६ से १९२८ तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। १९२८-१९२९ में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
दिसम्बर १९२९ में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। २६ जनवरी १९३० को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी १९३० में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया।
जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम १९३५ प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। नेहरू चुनाव के बाहर रहे लेकिन ज़ोरों के साथ पार्टी के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया। कांग्रेस ने लगभग हर प्रांत में सरकारों का गठन किया और केन्द्रीय असेंबली में सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की।
नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए १९३६ और १९३७ में चुने गए थे। उन्हें १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और १९४५ में छोड़ दिया गया। १९४७ में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्त्वपूर्ण भागीदारी की।
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री
सन् १९४७ में भारत को आजादी मिलने पर जब भावी प्रधानमन्त्री के लिये कांग्रेस में मतदान हुआ तो सरदार पटेल को सर्वाधिक मत मिले। उसके बाद सर्वाधिक मत आचार्य कृपलानी को मिले थे। किन्तु गांधीजी के कहने पर सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया और जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमन्त्री बनाया गया।
१९४७ में वे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने। अंग्रेजों ने करीब ५०० देशी रजवाड़ों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस समय सबसे बडी चुनौती थी उन्हें एक झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभायी।
जवाहर लाल नेहरू ने जोसिप बरोज़ टिटो और अब्दुल गमाल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक गुट निरपेक्ष आंदोलन की रचना की। वह कोरियाई युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। पश्चिम बर्लिन, ऑस्ट्रिया और लाओस के जैसे कई अन्य विस्फोटक मुद्दों के समाधान में पर्दे के पीछे रह कर भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्हें वर्ष १९५५ में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
लेकिन नेहरू पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार नहीं कर पाए। पाकिस्तान के साथ एक समझौते तक पहुंचने में कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ मित्रता में सीमा विवाद रास्ते के पत्थर साबित हुए। नेहरू ने चीन की तरफ मित्रता का हाथ भी बढाया, लेकिन १९६२ में चीन ने धोखे से आक्रमण कर दिया। नेहरू के लिए यह एक बड़ा झटका था।
२७ मई १९६४ को जवाहरलाल नेहरू को दिल का दौरा पड़ा जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी।
लेखन-कार्य एवं प्रकाशन
समस्त राजनीतिक विवादों से दूर नेहरू जी निःसंदेह एक उत्तम लेखक थे। राजनीतिक क्षेत्र में लोकमान्य तिलक के बाद जम कर लिखने वाले नेताओं में वे अलग से पहचाने जाते हैं। दोनों के क्षेत्र अलग हैं, परंतु दोनों के लेखन में सुसंबद्धता पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है।
नेहरू जी स्वभाव से ही स्वाध्यायी थे। उन्होंने महान् ग्रंथों का अध्ययन किया था। सभी राजनैतिक उत्तेजनाओं के बावजूद वे स्वाध्याय के लिए रोज ही समय निकाल लिया करते थे। परिणामस्वरूप उनके द्वारा रचित पुस्तकें भी एक अध्ययन-पुष्ट व्यक्ति की रचना होने की सहज प्रतीति कराती हैं।
नेहरू जी ने व्यवस्थित रूप से अनेक पुस्तकों की रचना की है। राजनीतिक जीवन के व्यस्ततम संघर्षपूर्ण दिनों में लेखन हेतु समय के नितांत अभाव का हल उन्होंने यह निकाला कि जेल के लंबे नीरस दिनों को सर्जनात्मक बना लिया जाय। इसलिए उनकी अधिकांश पुस्तकें जेल में ही लिखी गयी हैं। उनके लेखन में एक साहित्यकार के भावप्रवण तथा एक इतिहासकार के खोजी हृदय का मिला-जुला रूप सामने आया है।
इंदिरा गांधी को काल्पनिक पत्र लिखने के बहाने उन्होंने विश्व इतिहास का अध्याय-दर-अध्याय लिख डाला। ये पत्र वास्तव में कभी भेजे नहीं गये, परंतु इससे विश्व इतिहास की झलक जैसा सहज संप्रेष्य तथा सुसंबद्ध ग्रंथ सहज ही तैयार हो गया। भारत की खोज (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) ने लोकप्रियता के अलग प्रतिमान रचे हैं, जिस पर आधारित भारत एक खोज नाम से एक उत्तम धारावाहिक का निर्माण भी हुआ है। उनकी आत्मकथा मेरी कहानी ( ऐन ऑटो बायोग्राफी) के बारे में सुप्रसिद्ध मनीषी सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना है कि उनकी आत्मकथा, जिसमें आत्मकरुणा या नैतिक श्रेष्ठता को जरा भी प्रमाणित करने की चेष्टा किए बिना उनके जीवन और संघर्ष की कहानी वर्णित की गयी है, जो हमारे युग की सबसे अधिक उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है।
इन पुस्तकों के अतिरिक्त नेहरू जी ने अगणित व्याख्यान दिये, लेख लिखे तथा पत्र लिखे। इनके प्रकाशन हेतु 'जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि' ने एक ग्रंथ-माला के प्रकाशन का निश्चय किया। इसमें सरकारी चिट्ठियों, विज्ञप्तियों आदि को छोड़कर स्थायी महत्त्व की सामग्रियों को चुनकर प्रकाशित किया गया। जवाहरलाल नेहरू वांग्मय नामक इस ग्रंथ माला का प्रकाशन अंग्रेजी में १५ खंडों में हुआ तथा हिंदी में सस्ता साहित्य मंडल ने इसे ११ खंडों में प्रकाशित किया है।
पिता के पत्र : पुत्री के नाम - १९२९
विश्व इतिहास की झलक (ग्लिंप्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री) - (दो खंडों में) १९३३
मेरी कहानी (ऐन ऑटो बायोग्राफी) - १९३६
भारत की खोज/हिन्दुस्तान की कहानी (दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया) - १९४५
राजनीति से दूर
इतिहास के महापुरुष
जवाहरलाल नेहरू वाङ्मय (११ खंडों में)
इन्हें भी देखें
भारत के प्रधानमन्त्री
वल्लभ भाई पटेल
सुभाष चन्द्र बोस
नेहरू परिवार (अंग्रेजी में)
पंडित जवाहरलाल नेहरु के अनमोल विचार
भारत की समस्याओं के लिए नेहरू कितने ज़िम्मेदार... (बीबीसी हिन्दी)
भारत के प्रधानमंत्रियो का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी मे)
१८८९ में जन्मे लोग
१९६४ में निधन
प्रथम लोक सभा सदस्य
द्वितीय लोक सभा के सदस्य
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
भारत के प्रधानमंत्री
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
ब्रिटिश भारत के क़ैदी और बंदी |
मनमोहन सिंह (; जन्म : २६ सितंबर १९३२) भारत गणराज्य के १३वें प्रधानमन्त्री थे। साथ ही साथ वे एक अर्थशास्त्री भी हैं। लोकसभा चुनाव २००९ में मिली जीत के बाद वे जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमन्त्री बने, जिनको पाँच वर्षों का कार्यकाल सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला था। इन्हें २१ जून १९९१ से १६ मई १९९६ तक पी वी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मन्त्री के रूप में किए गए आर्थिक सुधारों के लिए भी श्रेय दिया जाता है।
मनमोहन सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत के पंजाब में २६ सितम्बर,१९३२ को हुआ था। उनकी माता का नाम अमृत कौर और पिता का नाम गुरुमुख सिंह था। देश के विभाजन के बाद सिंह का परिवार भारत चला आया। यहाँ पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये। जहाँ से उन्होंने पीएच. डी. की। तत्पश्चात् उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी. फिल. भी किया। उनकी पुस्तक इंडियाज़ एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एंड प्रोस्पेक्ट्स फॉर सेल्फ सस्टेंड ग्रोथ भारत की अन्तर्मुखी व्यापार नीति की पहली और सटीक आलोचना मानी जाती है। डॉ॰ सिंह ने अर्थशास्त्र के अध्यापक के तौर पर काफी ख्याति अर्जित की। वे पंजाब विश्वविद्यालय और बाद में प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकनामिक्स में प्राध्यापक रहे। इसी बीच वे संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन सचिवालय में सलाहकार भी रहे और १९८७ तथा १९९० में जेनेवा में साउथ कमीशन में सचिव भी रहे। १९७१ में डॉ॰ सिंह भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मन्त्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किये गये। इसके तुरन्त बाद १९७२ में उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया। इसके बाद के वर्षों में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष भी रहे हैं। भारत के आर्थिक इतिहास में हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब डॉ॰ सिंह १९९१ से १९९६ तक भारत के वित्त मन्त्री रहे। उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का प्रणेता माना गया है। आम जनमानस में ये साल निश्चित रूप से डॉ॰ सिंह के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। डॉ॰ सिंह के परिवार में उनकी पत्नी श्रीमती गुरशरण कौर और तीन बेटियाँ हैं।
१९८५ में राजीव गांधी के शासन काल में मनमोहन सिंह को भारतीय योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस पद पर उन्होंने निरन्तर पाँच वर्षों तक कार्य किया, जबकि १९९० में यह प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बनाए गए। जब पी वी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने मनमोहन सिंह को १९९१ में अपने मंत्रिमंडल में सम्मिलित करते हुए वित्त मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंप दिया। इस समय डॉ॰ मनमोहन सिंह न तो लोकसभा और न ही राज्यसभा के सदस्य थे। लेकिन संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार सरकार के मंत्री को संसद का सदस्य होना आवश्यक होता है। इसलिए उन्हें १९९१ में असम से राज्यसभा के लिए चुना गया।
मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण को उपचार के रूप में प्रस्तुत किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाज़ार के साथ जोड़ दिया। डॉ॰ मनमोहन सिंह ने आयात और निर्यात को भी सरल बनाया। लाइसेंस एवं परमिट गुज़रे ज़माने की चीज़ हो गई। निजी पूंजी को उत्साहित करके रुग्ण एवं घाटे में चलने वाले सार्वजनिक उपक्रमों हेतु अलग से नीतियाँ विकसित कीं। नई अर्थव्यवस्था जब घुटनों पर चल रही थी, तब पी. वी. नरसिम्हा राव को कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा। विपक्ष उन्हें नए आर्थिक प्रयोग से सावधान कर रहा था। लेकिन श्री राव ने मनमोहन सिंह पर पूरा यक़ीन रखा। मात्र दो वर्ष बाद ही आलोचकों के मुँह बंद हो गए और उनकी आँखें फैल गईं। उदारीकरण के बेहतरीन परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था में नज़र आने लगे थे और इस प्रकार एक ग़ैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति जो अर्थशास्त्र का प्रोफ़ेसर था, का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ ताकि देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके।
सिंह पहले पंजाब यूनिवर्सिटी और बाद में दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में प्रोफेसर के पद पर थे। १९७१ में मनमोहन सिंह भारत सरकार की कॉमर्स मिनिस्ट्री में आर्थिक सलाहकार के तौर पर शामिल हुए थे। १९७२ में मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय में चीफ इकॉनॉमिक अडवाइज़र बन गए। अन्य जिन पदों पर वह रहे, वे हैं वित्त मंत्रालय में सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष। मनमोहन सिंह १९९१ से राज्यसभा के सदस्य हैं। १९९८ से २००४ में वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे। मनमोहन सिंह ने प्रथम बार ७२ वर्ष की उम्र में २२ मई २००४ से प्रधानमंत्री का कार्यकाल आरम्भ किया, जो अप्रैल २००९ में सफलता के साथ पूर्ण हुआ। इसके पश्चात् लोकसभा के चुनाव हुए और भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की अगुवाई वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पुन: विजयी हुआ और सिंह दोबारा प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दो बार बाईपास सर्जरी हुई है। दूसरी बार फ़रवरी २००९ में विशेषज्ञ शल्य चिकित्सकों की टीम ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इनकी शल्य-चिकित्सा की। प्रधानमंत्री सिंह ने वित्तमंत्री के रूप में पी. चिदम्बरम को अर्थव्यवस्था का दायित्व सौंपा था, जिसे उन्होंने कुशलता के साथ निभाया। लेकिन २००९ की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का प्रभाव भारत में भी देखने को मिला। परन्तु भारत की बैंकिंग व्यवस्था का आधार मज़बूत होने के कारण उसे उतना नुक़सान नहीं उठाना पड़ा, जितना अमेरिका और अन्य देशों को उठाना पड़ा है। २६ नवम्बर २००८ को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकियों ने हमला किया। दिल दहला देने वाले उस हमले ने देश को हिलाकर रख दिया था। तब सिंह ने शिवराज पाटिल को हटाकर पी. चिदम्बरम को गृह मंत्रालय की ज़िम्मेदारी सौंपी और प्रणव मुखर्जी को नया वित्त मंत्री बनाया।
जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव
१९५७ से १९६५ - चंडीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापक
१९६९-१९७१ - दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रोफ़ेसर
१९७६ - दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मानद प्रोफ़ेसर
१९८२ से १९८५ - भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर
१९८५ से १९८७ - योजना आयोग के उपाध्यक्ष
१९९० से १९९१ - भारतीय प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार
१९९१ - नरसिंहराव के नेतृत्व वाली काँग्रेस सरकार में वित्त मन्त्री
१९९१ - असम से राज्यसभा के सदस्य
१९९५ - दूसरी बार राज्यसभा सदस्य
१९९६ - दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफ़ेसर
१९९९ - दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन हार गये।
२००१ - तीसरी बार राज्य सभा सदस्य और सदन में विपक्ष के नेता
२००४ - भारत के प्रधानमन्त्री
इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक के लिये भी काफी महत्वपूर्ण काम किया है।
पुरस्कार एवं सम्मान
सन १९८७ में उपरोक्त पद्म विभूषण के अतिरिक्त भारत के सार्वजनिक जीवन में डॉ॰ सिंह को अनेकों पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं जिनमें प्रमुख हैं: -
२००२ - सर्वश्रेष्ठ सांसद
१९९५ में इण्डियन साइंस कांग्रेस का जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार,
१९९३ और १९९४ का एशिया मनी अवार्ड फॉर फाइनेन्स मिनिस्टर ऑफ द ईयर,
१९९४ का यूरो मनी अवार्ड फॉर द फाइनेन्स मिनिस्टर आफ़ द ईयर,
१९५६ में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का एडम स्मिथ पुरस्कार
डॉ॰ सिंह ने कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। अपने राजनैतिक जीवन में वे १९९१ से राज्य सभा के सांसद तो रहे ही, १९९८ तथा २००४ की संसद में विपक्ष के नेता भी रह चुके हैं।
विवाद और घोटाले
२-जी स्पेक्ट्रम घोटाला
टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला, जो स्वतन्त्र भारत का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला है उस घोटाले में भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपये का घपला हुआ है। इस घोटाले में विपक्ष के भारी दवाव के चलते मनमोहन सरकार में संचार मन्त्री ए० राजा को न केवल अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा, अपितु उन्हें जेल भी जाना पडा। केवल इतना ही नहीं, भारतीय उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में प्रधानमन्त्री सिंह की चुप्पी पर भी सवाल उठाया। इसके अतिरिक्त टूजी स्पेक्ट्रम आवण्टन को लेकर संचार मन्त्री ए० राजा की नियुक्ति के लिये हुई पैरवी के सम्बन्ध में नीरा राडिया, पत्रकारों, नेताओं और उद्योगपतियों से बातचीत के बाद डॉ॰ सिंह की सरकार भी कटघरे में आ गयी थी।
कोयला आबंटन घोटाला
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश में कोयला आवंटन के नाम पर करीब २६ लाख करोड़ रुपये की लूट हुई ल
इस महाघोटाले का राज है कोयले का कैप्टिव ब्लॉक, जिसमें निजी क्षेत्र को उनकी मर्जी के मुताबिक ब्लॉक आवंटित कर दिया गया। इस कैप्टिव ब्लॉक नीति का फायदा हिंडाल्को, जेपी पावर, जिंदल पावर, जीवीके पावर और एस्सार आदि जैसी कंपनियों ने जोरदार तरीके से उठाया। यह नीति खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दिमाग की उपज थी।
इन्हें भी देखें
भारत के प्रधानमंत्री
भारत के प्रधानमंत्रियों का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी में)
१९३२ में जन्मे लोग
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर
भारत के प्रधानमंत्री
भारतीय योजना आयोग के सदस्य
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ
पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के पूर्व छात्र-छात्राएँ
भारत के वित्त मंत्री |
पामुलापति वेंकट नरसिंह राव (जन्म- २८ जून १९२१, मृत्यु- २३ दिसम्बर २००४) भारत के ०९ वें प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाते हैं। 'लाइसेंस राज' की समाप्ति और भारतीय अर्थनीति में खुलेपन उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ही आरम्भ हुआ। ये आन्ध्रा प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे।
इनके प्रधानमंत्री बनने में भाग्य का बहुत बड़ा हाथ रहा है। २१ मई १९९१ को राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। ऐसे में सहानुभूति की लहर के कारण कांग्रेस को निश्चय ही लाभ प्राप्त हुआ। १९९१ के आम चुनाव दो चरणों में हुए थे। प्रथम चरण के चुनाव राजीव गांधी की हत्या से पूर्व हुए थे और द्वितीय चरण के चुनाव उनकी हत्या के बाद में। प्रथम चरण की तुलना में द्वितीय चरण के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा। इसका प्रमुख कारण राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर थी। इस चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ लेकिन वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस ने २३२ सीटों पर विजय प्राप्त की थी। फिर नरसिम्हा राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेतृत्व प्रदान किया गया। ऐसे में उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सरकार अल्पमत में थी, लेकिन कांग्रेस ने बहुमत साबित करने के लायक़ सांसद जुटा लिए और कांग्रेस सरकार ने पाँच वर्ष का अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूर्ण किया। पीवी नरसिंह राव ने देश की कमान काफी मुश्किल समय में संभाली थी। उस समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार चिंताजनक स्तर तक कम हो गया था और देश का सोना तक गिरवी रखना पड़ा था। उन्होंने रिजर्व बैंक के अनुभवी गवर्नर डॉ. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाकर देश को आर्थिक भंवर से बाहर निकाला।'''
इन्हें भी देखें
भारत के प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी
देश की आर्थिक आजादी के मसीहा थे नरसिंह राव
भारत के प्रधानमंत्रियो का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी मे)
१९२१ में जन्मे लोग
२००४ में निधन
भारत के प्रधानमंत्री
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष |
लालबहादुर शास्त्री (जन्म: २ अक्टूबर १९०४ मुगलसराय (वाराणसी) : मृत्यु: ११ जनवरी १९६६ ताशकन्द, सोवियत संघ रूस), भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री थे। वह ९ जून 1९64 से ११ जनवरी १९६६ को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा। शास्त्री जी ने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी। पुलिस मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1९51 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1९5२, 1९57 व 1९6२ के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया।
जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान २७ मई, १९६४ को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को १९६४ में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने ९ जून १९६४ को भारत के प्रधानमंत्री का पद भार ग्रहण किया। उनके शासनकाल में 1९65 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। ताशकंद में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री अयूब खान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद ११ जनवरी 1९66 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया लाल बहादुर शास्त्री एक महान व्यक्ति थे ||
शास्त्री जयन्ती व लाल बहादुर शास्त्री स्मृति दिवस
लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिवस पर २ अक्टूबर को शास्त्री जयन्ती व उनके देहावसान वाले दिन ११ जनवरी को लालबहादुर शास्त्री स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लालबहादुर शास्त्री का जन्म १९०४ में मुगलसराय (उत्तर प्रदेश) में एक कायस्थ परिवार में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के यहाँ हुआ था। उनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे अत: सब उन्हें मुंशीजी ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में लिपिक (क्लर्क) की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की माँ का नाम रामदुलारी था। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार में नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उनकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द 'श्रीवास्तव' हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे 'शास्त्री' लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया।
१९२८ में उनका विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता और शास्त्रीजी की छ: सन्तानें हुईं, दो पुत्रियाँ-कुसुम व सुमन और चार पुत्र - हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक। उनके चार पुत्रों में से दो-अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अभी भगवान की कृपा से जिंदा हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं। अनिल शास्त्री कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं जबकि सुनील शास्त्री भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं।
संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गान्धीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें १९२१ का असहयोग आंदोलन, १९३० का दांडी मार्च तथा १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।
दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए ८ अगस्त १९४२ की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। ९ अगस्त १९४२ के दिन शास्त्रीजी ने इलाहाबाद पहुँचकर इस आन्दोलन के गान्धीवादी नारे को चतुराई पूर्वक "मरो नहीं, मारो!" में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आन्दोलन चलाने के बाद 1९ अगस्त १९४२ को शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये।
शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले १९२९ में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरन्तर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढ़ते हुए वे नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में गृहमन्त्री के प्रमुख पद तक जा पहुँचे। और इतना ही नहीं, नेहरू के निधन के पश्चात भारतवर्ष के प्रधान मन्त्री भी बने।
उनकी साफ सुथरी छवि के कारण ही उन्हें १९६४ में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे। निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। १९६५ में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं ७.३० बजे हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्य शामिल थे। संयोग से प्रधानमन्त्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा: "सर! क्या हुक्म है?" शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया: "आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है?" शास्त्रीजी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान-जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी।
भारत पाक युद्ध के दौरान ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी भीषण हमला हुआ और उन्हें अपना वाहन छोड़ कर पीछे हटना पड़ा। भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की।
आखिरकार रूस और अमरिका की मिलीभगत से शास्त्रीजी पर जोर डाला गया। उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्रीजी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधान मन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद ११ जनवरी १९६६ की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं।
शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष १९६६ में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
पाकिस्तान के आक्रमण का सामना करते हुए भारतीय सेना ने लाहौर पर धाबा बोल दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण को देख अमेरिका ने लाहौर में रह रहे अमेरिकी नागरिकों को निकालने के लिए कुछ समय के लिए युद्धविराम की मांग की। रूस और अमेरिका के चहलकदमी के बाद भारत के प्रधानमंत्री को रूस के ताशकंद समझौता में बुलाया गया। शास्त्री जी ने ताशकंद समझौते की हर शर्तों को मंजूर कर लिया मगर पाकिस्तान जीते इलाकों को लौटाना हरगिज स्वीकार नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय दवाब में शास्त्री जी को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा पर लाल बहादुर शास्त्री ने खुद प्रधानमंत्री कार्यकाल में इस जमीन को वापस करने से इंकार कर दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब खान के साथ युद्ध विराम पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही भारत देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का संदिग्ध निधन हो गया। ११ जनवरी १९६६ की रात देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री की मृत्यु हो गई।
ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन (नेहरू जी की समाधि) के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री का विधिवत उत्तराधिकारी नहीं चुन लिया, गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे।
शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मानते है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। २००९ में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी।
शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। २००९ में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: सिया'स इये ऑन साउथ एशिया) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।"।
सबसे पहले सन् १९७८ में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं। यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई २०१२ में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी। मित्रोखोन आर्काइव नामक पुस्तक में भारत से संबन्धित अध्याय को पढ़ने पर ताशकंद समझौते के बारे में एवं उस समय की राजनीतिक गतिविधियों के बारे में विस्तरित जानकारी मिलती है।
भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध
लालबहादुर शास्त्री जीवन की एक झलक
संक्षेप में लालबहादुर शास्त्री के बारे में
लालबहादुर शास्त्री का वंश-वृक्ष
लालबहादुर शास्त्रीजी के चित्र
लाल बहादुर शास्त्रीजी के प्रेरक प्रसंग
लालबहादुर शास्त्रीजी के अनमोल विचार
ललिता के आँसू-हिन्दी विकीस्रोत पर
लाल बहादुर शास्त्री मर गए या मार दिए गये।
भारत के प्रधानमंत्री
१९०४ में जन्मे लोग
१९६६ में निधन
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
उत्तर प्रदेश के लोग |
मोरारजी देसाई (२९ फ़रवरी १८९६ १० अप्रैल १९९५) (गुजराती: ) भारत के स्वाधीनता सेनानी, राजनेता और देश के चौथे प्रधानमंत्री (सन् १९७७ से ७९) थे। वह प्रथम प्रधानमंत्री थे जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बजाय अन्य दल से थे। वही एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न एवं पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया गया था।
वह ८१ वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे। इसके पूर्व कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की परंतु असफल रहे। लेकिन ऐसा नहीं हैं कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के क़ाबिल नहीं थे। वस्तुत: वह दुर्भाग्यशाली रहे कि वरिष्ठतम नेता होने के बावज़ूद उन्हें पंडित नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। मोरारजी देसाई मार्च १९७७ में देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया। चौधरी चरण सिंह से मतभेदों के चलते उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा।
मोरारजी देसाई का जन्म २९ फ़रवरी १८९६ को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी।
मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ ४० शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था।
मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई १९१७ में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई १९१८ में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी ११ वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे।
मोरारजी देसाई ने १९३० में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। १९३१ में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। १९३२ में मोरारजी को २ वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी १९३७ तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने वाले एक ज़िद्दी व्यक्ति।
स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि १९५२ में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बनाया गया। इस समय तक गुजरात तथा महाराष्ट्र बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। १९६७ में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाज़ी मार ली। इंदिरा गाँधी ने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया।
पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय कांग्रेस में जो अनुशासन था, वह उनकी मृत्यु के बाद बिखरने लगा। कई सदस्य स्वयं को पार्टी से बड़ा समझते थे। मोरारजी देसाई भी उनमें से एक थे। श्री लालबहादुर शास्त्री ने कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार सिपाही की भाँति कार्य किया था। उन्होंने पार्टी से कभी भी किसी पद की मांग नहीं की थी। लेकिन इस मामले में मोरारजी देसाई अपवाद में रहे। कांग्रेस संगठन के साथ उनके मतभेद जगज़ाहिर थे और देश का प्रधानमंत्री बनना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल था। इंदिरा गांधी ने जब यह समझ लिया कि मोरारजी देसाई उनके लिए कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं तो उन्होंने मोरारजी के पर कतरना आरम्भ कर दिया। इस कारण उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। नवम्बर १९६९ में जब कांग्रेस का विभाजन कांग्रेस-आर और कांग्रेस-ओ के रूप में हुआ तो मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी की कांग्रेस-आई के बजाए सिंडीकेट के कांग्रेस-ओ में चले गए। फिर १९७५ में वह जनता पार्टी में शामिल हो गए। मार्च १९७७ में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। परन्तु यहाँ पर भी प्रधानमंत्री पद के दो अन्य दावेदार उपस्थित थे-चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। लेकिन जयप्रकाश नारायण जो स्वयं कभी कांग्रेसी हुआ करते थे, उन्होंने किंग मेकर की अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए मोरारजी देसाई का समर्थन किया।
इसके बाद २३ मार्च १९७७ को ८१ वर्ष की अवस्था में मोरारजी देसाई ने भारतीय प्रधानमंत्री का दायित्व ग्रहण किया। इनके प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में, देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन इस कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई।
इन्हें भी देखें
भारत के प्रधानमंत्रियो का आधिकारिक जालस्थल (अंग्रेजी मे)
भारत के चौथे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई (संकल्प टाइम्स)
भारत के प्रधानमंत्री
१८९६ में जन्मे लोग
१९९५ में निधन
भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री
भारत के उप प्रधानमंत्री |