Hindi
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Sanskrit
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प्रधान वैदिक छन्दों में इनकी गणना होती है - गायत्री, उष्णिक्‌, अनुष्टुप्‌, प्रकृति, बृहती, पङिक्त, त्रिष्टुप्‌, जगती, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, कृति, आकृति, विकृति संस्कृति, अभिकृति, और उत्कृति।
प्रधानेषु वैदिकेषु छन्दःसु इमानि गण्यन्ते - गायत्री, उष्णिक्‌, अनुष्टुप्‌, प्रकृतिः, बृहती, पङ्क्तिः, त्रिष्टुफ्‌, जगती, अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, कृतिः, आकृतिः, विकृतिः, संस्कृतिः, अभिकृतिः, उत्कृतिश्च ।
तीनों गुणों में सत्वगुण प्रकाशक होता है।
त्रिषु गुणेषु सत्त्वगुणः प्रकाशकः।
अथवा और भी, ते आपके, बाहुभ्याम्‌ - हाथों से नमस्कार स्तुति करता हूँ।
उत अपि च, ते तव, बाहुभ्याम्‌ - हस्ताभ्यं, नमः स्तुतिं करोमि।
जगत में कोई भी पदार्थ सम्पूर्ण रूप से जड़ नहीं हो सकता है, क्योंकि चेतन सत्ता सभी जगह व्याप्त है।
जगति कोऽपि पदार्थः सम्पूर्णतया जडो भवितुं नार्हति, यतो हि चैतन्यसत्ता सर्वत्र परिव्याप्ता।
जैसे-जैसे जल नीचे की और लौटे वैसे ही तुम नीचे की और उतरना।
यावद्‌ अध्वनः उदकं समवायात्‌ ( सम्‌ ) एकीभावाय अव अधः अयात्‌ गच्छेत्‌ अवतरेदित्यर्थः।
उसका उदर सोमरस से परिपूर्ण सरोवर के समान है।
तस्य उदरः सोमरसेन परिपूर्णः सरोवर इव।
इस प्रकार कपिल का सांख्य दर्शन वेदांत के अति समीप है।
एवञ्च कपिलस्य सांख्यदर्शनं वेदान्तस्य अति निकटम्‌।
“साम को जो जानता है वही वेद को जानता है” “वेदों में सामवेद हूँ' इति।
"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्‌" इति। "वेदानां सामवेदोऽस्मि" इति।
श्रवण को श्रुति कहते है।
श्रवणं श्रुतिः
एवं तत्पुरुष इस सूत्र से “शेषो बहुव्रीहिः'' इससे पहले सूत्रों से जो समास होता है वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।
एवं "तत्पुरुषः" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ "शेषो बहुव्रीहिः" इत्यतः प्राग्‌ सूत्रैः यः समासः विधीयते स तत्पुरुषसंज्ञको भवति।
तुम सूर्य की सभी किरणों को चमकीला बनाते हो।
युवां परिभ्रमतः सूर्यस्य सकलकिरणसमूहस्य वर्धनम्‌ अकुरुतम्‌।
वार्तिक व्याख्या-यह वार्तिक केवल समास विधायक है।
वार्तिकव्याख्या - इदं वार्तिकं केवलसमासविधायकम्‌।
सूत्रार्थ-पञ्चम्यनत सुबन्त को भय प्रकृति के द्वारा सुबन्त के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।
सूत्रार्थः - पञ्चम्यन्तं सुबन्तं भयप्रकृतिकेन सुबन्तेन सह विकल्पेन तत्पुरुषसमास संज्ञं भवति।
प्रतीयमान गिरिनदी समुद्रादि भी सभी जीवन्मुक्त के लिए मिथ्या होते हैं।
प्रतीयमानं गिरिनदीसमुद्रादिकं सर्वं मिथ्यावत्‌ प्रतिभाति।
संशायात्मिका अन्तः करणप्रवृत्ति क्या होती है?
संशयात्मिकान्तःकरणवृत्तिर्थवति किम्‌ ?
यह एक रूप के द्वारा व्यवस्थित नहीं होता है।
एकरूपेण न व्यवस्थित इति तात्पर्यम्‌।
इसी प्रकार “तत्त्वमसि” यहाँ पर तत्‌ तथा त्वम्‌ पदे के जो विरुद्धांश होते है।
एवमेव “तत्त्वमसि” इत्यत्र तत्त्वम्पदार्थयोः ये विरुद्धांशाः सन्ति ।
आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए यह ही एक प्रधान साधन होता है।
आत्मज्ञानप्राप्तये एतत्‌ एव प्रधानं साधनम्‌।
श्रौतसूत्र और स्मार्त्तसूत्र।
श्रौतसूत्राणि स्मार्त्तसूत्राणि च।
यद्वा नाभी के समीप से दशाङऱगुल दूर हृदय में संस्थित।
यद्वा--नाभेः सकाशाद्‌ दशाङ्गुलम्‌ अतिक्रम्य हृदि संस्थितः ।
परन्तु उन दोनों के समास के लिए कुछ राज के सम्बन्धीत पुरुष यह विशिष्ट अर्थ कहा जाता है।
परन्तु तयोः समासे कृते कश्चित्‌ राजसम्बन्धी पुरुषः इति विशिष्टः अर्थः अभिधीयते।
अत इन दोनों उदात्त अनुदात्त के स्थान में जो ईकार रूप एकादेश हुआ वह प्रकृत सूत्र से विकल्प से स्वरित होता है।
अतः अनयोः उदात्तानुदात्तयोः स्थाने यः ईकाररूपः एकादेशः जातः स प्रकृतसूत्रेण विकल्पेन स्वरितः भवति।
अर्थात्‌ सृष्टिकाल में एक पाद को रखा।
अर्थात्‌ सृष्टिकाले एकः पादप्रक्षेपः।
इसलिए सम्पूर्ण ऋग्वेद में चौसठ अध्याय हैं।
अतः सम्पूर्ण ऋग्वेदे चतुष्षष्टिः अध्यायाः सन्ति।
उसका कीर्ति यह भी अर्थ है।
तस्य कीर्तिः इत्यपि अर्थः अस्ति।
सूर्य मित्र, वरुण, द्यु, पूषा, सविता, आदित्य, अश्विनी कुमार, ऊषा, रात्रि इत्यादि देव द्युलोक के हैं।
सूर्यः मित्रः, वरुणः, द्युः, पूषा, सविता, आदित्यः, अश्विनीकुमारौ, उषा, रात्रिः इत्यादयः देवाः द्युलोकस्य च।
जघ्नुषः - हन्‌-धातु से क्वसु प्रत्यय करने पर जघन्वस्‌ यह हुआ उसके बाद षष्ठी एकवचन में जघ्नुष: रूप बना।
जघ्नुषः - हन्‌-धातोः क्वसुप्रत्यये जघन्वस्‌ इति जाते ततः षष्ठ्येकवचने जघ्नुषः इति रूपम्‌।
तप के द्वारा मल के क्षय होने पर योगी लोग अणिमादिकायसिद्धियों को तथा दूरश्रवणादि इन्द्रियसिद्धियों को प्राप्त कर लेते हैं।
तपसा मलक्षये सति योगिनः अणिमादिकायसिद्धिः दूरश्रवणाद्धिः इन्द्रियसिद्धयोऽपि भवन्ति।
सेवाभाव यहाँ पर सामान्य सेवाभाव नहीं होता है।
सेवाभावः इत्यत्र न सामान्यतया सेवाभावः।
वर्धयतम्‌ - वृध्‌-धातु से णिच लोट्‌-लकार मध्यमपुरुष द्विवचन में वर्धयतम्‌ रूप है।
वर्धयतम्‌- वृध्‌-धातोः णिचि लोट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने वर्धयतम्‌ इति रूपम्‌।
“गोरतद्धितलुकि" सूत्रार्थ-गो शब्द से तत्पुरुष से समासान्त टच्‌ प्रत्यय होता है।
गोरतद्धितलुकि सूत्रार्थः - गोशब्दान्तात्‌ तत्पुरुषात्‌ समासान्तः टच्प्रत्ययो भवति
कला रहित जीवन किनको अच्छा नहीं लगता?
कलारहितं जीवनं केभ्यः न रोचते।
2 गुरु किस कारण से विधिवत्‌ उपासना के लिए उपदेश देता है?
2. गुरुः केन कारणेन उपदिशति विधिवदुपसन्नाय।
जिस प्रकार से असम्प्रज्ञातसमाधि में चित्तवृत्तियों का तिरोभाव होता है , तथा संस्कार मात्र ही अवशिष्ट रहते है।
तथाहि असम्प्रज्ञातसमाधौ चित्तवृत्तयः तिरोभवन्ति, संस्कारमात्रम्‌ अवशिष्यते।
7 फल क्या है तथा वह कहाँ पर होता है?
7. फलम्‌ किम्‌। क्वान्तर्भवति।
वयसि यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।
वयसि इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।
सर्प आदि और दुष्ट मनुष्यों से सदैव रक्षा करना।
सर्पनाशराक्षसीक्षेपौ सदैव कुर्वित्यर्थः।
अपने उत्तर पत्र में प्रश्‍न पत्र की कुटसंख्या अवश्य लिखें।
स्वस्य उत्तरपत्रे प्रश्नपत्रस्य कुटसंख्या नूंन लेख्या।
अव्ययीभाव समास का “अव्ययीभावश्च इस सूत्र से अव्यय संज्ञा होती है।
अव्ययीभावसमासस्य "अव्ययीभावश्च" इत्यनेन सूत्रेण अव्ययसंज्ञा भवति।
लकड़ी और घी उसका भोजन है।
काष्ठं घृतं च तस्य भोज्यम्‌।
इसलिए दुरित के नाश के बाद यथाप्रविधिश्रुतवेदान्त का जो मनन किया जाता है उससे यह संशय दूर हो जाता है।
अतो दुरितनाशपुरःसरं यथाप्रविधि श्रुतस्य वेदान्तस्य मननं क्रियते चेदयं संशयो दूरीभवेत्‌।
24.5 ) सविकल्पक समाधि विकल्प भेद को कहते है।
२४.५) सविकल्पकः समाधिः विकल्पो नाम भेदः।
अचक्षु पर्याय से अक्ष्ण को समासान्त तद्धित संज्ञक अच्‌ प्रत्यय होता है।
अचक्षुः पर्यायाद्‌ अक्ष्णः समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अचप्रत्ययो भवति।
घट लाओ इत्यादि मे घटत्वगेहत्वादि की अभिमतान्वयबोध योग्यता के द्वारा वहाँ पर भी घटादि पदों के विशेष्यमात्रपरत्व मे लक्षणा ही होनी चाहिए।
घटम्‌ आनय इत्यादौ घटत्वगेहत्वादेः अभिमतान्वयबोधयोग्यतया तत्रापि घटादिपदानां विशेष्यमात्रपरत्वे लक्षणा एव स्यात्‌” इति।
कर्मफल शुभ होता है तो कर्ता सुख को प्राप्त करता है तथा कर्मफल अशुभ होता है तो कर्ता दुःख को प्राप्त करता है।
कर्मफलं शुभं भवति चेत्‌ कर्ता सुखं प्राप्नोति, कर्मफलं दुष्टं चेत्‌ कर्ता दुःखम्‌ अवाप्नोति।
जीरदानू इस शब्द का क्या अर्थ है?
जीरदानू इति शब्दस्य कः अर्थः।
उनमें सह अव्ययपद है।
तत्र सह इत्यव्ययपदम्‌।
स्तोक आदि शब्द से पूर्व सूत्र द्वारा उक्त (स्तोकान्तिक दूरार्थकृच्छ्राणां) स्तोक, अन्तिक, इरार्थ, कृच्छ आदि का ग्रहण किया गया है।
स्तोकादिशब्देन पूर्वसूत्रोक्तानां स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणां ग्रहणम्‌।
पञज्चकोश के विषय में तैत्तिरीय श्रुति में यह प्रमाण है तस्माद्वा एतत्स्मादन्नरसमयादन्योन्तर आत्मा प्राणमयः।
पञ्चकोशविषये तैत्तिरीयश्रुतिः प्रमाणमस्ति। तस्माद्वा एतत्स्मादन्नरसमयादन्योन्तर आत्मा प्राणमयः।
पहले देखी गई स्मृति ही प्रायः स्वप्न होते हैं।
पूर्वदृष्टस्य स्मृतिर्हि प्रायेण स्वप्नः।
इसलिए मैंने भी भाष्यकारों का अनुसरण किए बिना उत्कृष्ट रूप से उपनिषद्त्व तथा अन्य शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया, और अन्य शास्त्रों को समझने में समर्थ हुआ।
अस्माद्‌ एव लब्धशिक्षः अहम्‌ अन्ध इव भाष्यकाराणाम्‌ अनुसरणम्‌ अकृत्वा स्वतन्त्रतया उत्कृष्टरुपेण उपनिषत्तत्त्वम्‌, अन्यानि च शास्त्राणि बोद्धुं शक्तवान्‌।
ञित तद्धित पर होने पर अचों में आदि अच की “तद्धितेष्वचामादे:'' सूत्र से वृद्धि होती है।
ञिति तद्धिते परे सति अचाम्‌ आदेः अचः तद्धितेष्वचमादेः इति सूत्रेण वृद्धिः ।
इस सूत्र में विभाषा छन्दसि ये दो पद हैं।
अस्मिन्‌ सूत्रे विभाषा छन्दसि इति द्वे पदे स्तः।
उपनिषद्‌ इस शब्द का रहस्य यह अर्थ है।
उपनिषत्‌ इति शब्दस्य रहस्यमर्थः।
क्योंकि श्रुतियों में कहा है तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' (श्वे. उ. 3.क्र) इस प्रकार से उस विद्या के उसको जाने बिना और कोई मार्ग हैं को नहीं इस प्रकार से श्रुति ने कहा है।
“तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे. उ. ३.८) इति विद्याया अन्यः पन्थाः मोक्षाय न विद्यते इति श्रुतेः।
विवेकानन्द के मत में प्राणायाम की क्या प्रक्रिया होती है।
विवेकानन्दमते प्राणायामे कति प्रक्रियाः सन्ति?
समष्टिसूक्ष्मशरीराज्ञानोपहित चैतन्य हिरण्यगर्भ होता है।
समष्टिसूक्षशरीराज्ञानोपहितं चैतन्यं हिरण्यगर्भः।
वहाँ प्रारम्भ मन्त्र में कहा की जो दूरगामी और ज्योतियों में अद्वितीय मन वह शुभसङ्कल्प वाला हो।
तत्र आदिमे मन्त्रे उक्तं यत्‌ यत्‌ दूरगामि किञ्च ज्योतिषाम्‌ अद्वितीयं मनः तत्‌ शुभसङ्कल्पं भवतु।
माध्यान्दिन शाखा कहाँ प्राप्त होती है?
माध्यन्दिनशाखा कुत्र लभ्यते?
अब यह प्रश्‍न होता है कि किस प्रकार से स्वविरोधि अज्ञान का नाश होता है।
अधुना प्रश्नो भवति ज्ञानं कथं स्वविरोधिनः अज्ञानस्य नाशको भवति।
वह ही इस नामरूपात्मक जगत का आधार भूत होता है।
स एवास्य नामरूपात्मकस्य जगत आधारभूत आस्ते।
और अधिहरि इससे पर द्वितीयादिविभक्तियों का भी “अव्ययादाप्सुपः” इससे लोप होता है।
एवमेव अधिहरि इत्यस्मात्‌ परं द्वितीयादिविभक्तीनाम्‌ अपि "अव्ययादाप्सुपः" इत्यनेन लुक्‌ भवति।
` अथादिः प्राक्‌ शकटे: इस अधिकार सूत्र से आदिः इस पद का यहाँ अधिकार है।
'अथादिः प्राक्‌ शकटेः इति अधिकारसूत्रात्‌ आदिः इति पदम्‌ अत्र अधिकृतं वर्तते।
उससे सूत्र का अर्थ आता है अनुदात्त पद आदि के परे उदात्त के साथ एकादेश विकल्प से स्वरित होता है।
तेन सूत्रार्थः आयाति अनुदात्ते पदादौ परे उदात्तेन सह एकादेशः विकल्पेन स्वरितो भवति इति।
जीव तथा ब्रह्म में अभेदार्थ ही यहाँ पर महान्‌ अर्थ है।
जीव-ब्रह्मणोः अभेदार्थः एवात्र महदर्थः।
82. “नस्तद्धिते” इस सूत्र का क्या उदाहरण है?
८२. "नस्तद्धिते" इत्यस्य सूत्रस्य किम्‌ उदाहरणम्‌ ?
मन्त्रों के देव चैतन्य स्वरूप है।
मन्त्राणां देवः चैतन्यस्वरूपः।
सरलार्थ - मैं (वागाम्भृणी) रुद्रगण के साथ उनके समान होकर विचरण करती हूँ।
सरलार्थः- अहं (वागाम्भृणी) रुद्रगणैः सह रुद्रात्मिका भूत्वा विचरामि।
मरने के बाद कर्म के फलों की उत्पत्ति के लिए फिर जन्म आवश्यक होता है।
मरणोत्तरं कर्मणः फलोत्तपत्तये पुनः जन्म आवश्यकम्‌।
यही वैराग्य कहलाता है।
एतदेव वैराग्यम्‌।
निघण्टु में कितने अध्याय हैं?
निघण्टौ कति अध्यायाः।
लौकिक काव्यों में छन्द का और पादबद्धता का सम्बन्ध इस प्रकार है की पद्यों में ही छन्दों की योजना मानते हैं, तथा गद्य तो छन्दोहीन रचना रूप से स्वीकार होता है।
लौकिककाव्येषु छन्दसः पादबद्धतायाः च सम्बन्धः एतावान्‌ अस्ति यत्‌ पद्येषु एव छन्दसो योजना मन्यते, तथा गद्यन्तु छन्दोहीनरचनारूपेण स्वीकृतं भवति।
जीमूतगर्भ की दामिनि के समान उसका प्रकाश है।
जीमूतगर्भाया दामिन्या दीप्तिरिव तस्य दीप्तिः।
चादिगणः आकृतिगण है, अथवा नहीं ?
चादिगणः आकृतिगणः न वा ?
गर्जना करना।
शब्दायमानाः।
यह कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्‌ और संहितोपनिषद्‌ अध्याय के अगले भाग में है।
एषा कौषीतकिब्राह्मणोपनिषत्‌ तथा संहितोपनिषत्‌ च अध्यायस्य पुरोभागे वर्तेते।
युवा नरेन्द्रनाथ अज्ञेयवादसमाच्छन्नचित्त होते हुए उन्होंने बहुत आचार्यों से पूछा की क्या आप लोगों ने ईश्वर को देखा है।
युवको नरेन्द्रनाथः अज्ञेयवादसमाच्छन्नचित्तः बहुभ्यः आचार्येभ्यः ईश्वरं ते दृष्टवन्तः ।
और वह विग्रह लौकिक और अलौकिक दो प्रकार से विभक्त होता है।
स च विग्रहः लौकिकः अलौकिकश्चेति द्विधा विभक्तः।
इसी प्रकार प्रहृ॑तः यहाँ पर भी।
एवं प्रहृ॑तः इत्यत्रापि।
इस प्रकृत सूत्र के वैकल्पिक होने से ' यज्ञकर्मण्यजपन्यूङखसामसु' इस सूत्र से वहाँ निषेध जप, न्यूङख, और साम में प्रकृत सूत्र से विकल्प में एक श्रुति प्राप्त होती है।
प्रकृतसूत्रस्यास्य वैकल्पिकत्वात्‌ 'यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु' इति सूत्रेण तत्र निषिद्धेषु जपे, न्यूङ्गेषु सामसु च प्रकृतसूत्रेण विकल्पे ऐकश्रुत्यं प्राप्नोति|
इस प्रकार यहाँ यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है - प्रकार आदि शब्दों के दो बार होने पर वहाँ दूसरे प्रकार आदि में अन्त का अच्‌ उदात्त स्वर होता है।
एवञ्च अत्र सूत्रार्थो लभ्यते - प्रकारादिशब्दानां द्विरुक्तौ सत्यां तत्र द्वितीयस्य प्रकारादेः अन्तस्य अचः उदात्तस्वरः भवति इति।
उत्तर भारत में प्राप्त होती है।
उत्तरभारते प्राप्यते।
सुख तथा दुःखों का भोग भी करवाते है।
सुखदुःखभोगं च कारयति।
चौ इस सूत्र का एक उदाहरण लिखिए।
चौ इति सूत्रस्य उदाहरणम्‌ एकं लिखत।
सरलार्थ - उस मछली का वैसे ही पालन करके मनु उसको लेकर के समुद्र को गए।
सरलार्थः - तं मत्स्यं तथैव पालयित्वा मनुः तम्‌ आदाय समुद्रं जगाम।
पाप से आपन्न चित्त मलिन हो जाता है।
पापापन्नं चित्तं मलिनं भवति।
फिर इसी क्रम में उसके अन्दर विद्यमान विज्ञानमय कोश और फिर आनन्दमय कोश आत्मा होती है इस प्रकार से समझाया जाता है।
ततश्च क्रमेण तदन्तः तदन्तः विद्यमानः विज्ञानमयः आनन्दमयश्च आत्मा इति बोधयति।
शुभागमन वाला और सुलभ उपाय वाला सूपायनः कहलाता है।
शोभनम्‌ उपायनम्‌ अस्य असौ सूपायनः।
सदानन्द के द्वार अध्यारोपवाद पुरस्सर तत्वपदार्थौ का शोधन करके तत्त्वमसि इस वाक्य के द्वारा अखण्डार्थ में अवबोधित अधिकारि कौ मैं नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त सत्यं स्वभाव परमान्द अनन्त अद्वितीय ब्रह्म हूँ इस प्रकार सी चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है।
सदानन्देन अध्यारोपापवादपुरस्सरं तत्त्वंपदार्थौ शोधयित्वा तत्त्वमसीति वाक्येन अखण्डार्थ अवबोधिते अधिकारिणः अहं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-सत्य-स्वभाव-परमानन्दानन्ताद्वयं ब्रह्म अस्मीति अखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिः उदेति।
तैजस किसे कहते हैं?
तैजसः कः?
तब मिट्टी के पदार्थ आदि का भान होने पर भी मृत्‌ भान के समान ही द्वैतभान होने पर अद्वैतवस्तु भासित होती है।
तदुपादानभूताया मृत्तिकाया ज्ञानं भवति तथैव ज्ञातृ-ज्ञानादीनाम्‌ ब्रह्मविवर्तत्वात्‌ वाचारम्भणमात्रत्वात्‌ ज्ञातृज्ञानादिभाने सति अपि अद्वैतं ब्रह्मवस्तु एव भासते।
सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ प्र यह गतिसंज्ञक है।
सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र प्र इति गतिसंज्ञकः अस्ति।
योद्धा आत्म रक्षा के लिए उसका ही आह्वान करते हैं।
योद्धारः आत्मरक्षार्थं तम्‌ एव आह्वयन्ति।
“ नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌' इस सूत्र की व्याख्या कोजिए।
"नोदात्तस्वरितोदयमगार्ग्यकाश्यपगालवानाम्‌ 'इति सूत्रं व्याख्यात।
“अन्त्योऽवत्याः'' इस सूत्र से अन्तः इस पद की अनुवृति आती है।
"अन्त्योऽवत्याः" इति सूत्रात्‌ अन्तः इति पदम्‌ अनुवर्तते।
उभयादतः - उभयोः दन्ताः येषां ते(बहुव्रीहिसमासः) जज्ञिरे - जन्‌-धातु से लिट्‌ लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में यह रूप बनता है।
उभयादतः- उभयोः दन्ताः येषां ते(बहुव्रीहिसमासः) जज्ञिरे- जन्‌-धातोः लिटि प्रथमपुरुषबहुवचने।
उससे शुभस्पती इस पद को पाद का आदि ही होता है।
तेन शुभस्पती इति पदं पादादौ एव अस्ति।
सरलार्थ - मैं राष्ट्र की स्वामी हूँ, धन का संग्रह करने वाली हूँ, चेतन के समान, यज्ञ को चाहने वालो की मुख्या हूँ।
सरलार्थः- अहं राष्ट्री, धनस्य संग्राहिका, चैतन्यवती, यज्ञार्हगणेषु मुख्या।
काण्व शाखा कहाँ प्राप्त होती है?
काण्वशाखा कुत्र प्राप्यते?
8. जजान का लौकिक रूप क्या है?
8. जजान इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌।